BUDDHA
Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) 38
ThirtyEighth Discourse from the series of 122 discourses - Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) by Osho. These discourses were given during NOV 21, 1975 to DEC 10, 1977.
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पहला प्रश्न:
भगवान, जब तक वासना है, कामना है, क्या तभी तक साधना है?
स्वभावतः रोग है तो औषधि है। स्वास्थ्य आया, औषधि व्यर्थ हुई। स्वास्थ्य में भी कोई औषधि लिए चला जाए तो घातक है। जो रोग को मिटाती है, वही रोग को फिर पैदा करेगी।
मार्ग की जरूरत है, मंजिल दूर है तब तक; मंजिल आ जाए फिर भी जो चलता चला जाए, तो जो चलना मंजिल के पास लाता था, वही फिर दूर ले जाएगा।
और प्रश्न महत्वपूर्ण है, क्योंकि अक्सर ऐसा ही होता है। बीमारी तो छूट जाती है, औषधि पकड़ जाती है। क्योंकि मन का तर्क कहता है, जिसने यहां तक पहुंचाया, उसे कैसे छोड़ दें? जो इतने दूर ले आया, उसे कैसे छोड़ दें? जिसके सहारे इतना कुछ पाया, कहीं उसके छोड़ने से वह खो न जाए।
तो अनेक यात्री मंजिल के पास पहुंचकर भी भटक जाते हैं। और बहुत सी नावें किनारे के पास आकर टकराती हैं और डूब जाती हैं। मझधार में बहुत कम लोग डूबते हैं, किनारे पर बहुत लोग डूबते हैं। यात्रा पूरी उतनी दुर्गम नहीं है, जितनी पहुंच जाने के बाद चलने की जो लंबी आदत है, उसको छोड़ना दुर्गम हो जाता है।
चित्त में अशांति है तो तुम ध्यान करते हो। धीरे-धीरे अशांति विदा होगी, शांति निर्मित हो जाएगी। फिर ध्यान को मत पकड़कर बैठ जाना; नहीं तो ध्यान ही अशांति पैदा करने का कारण बनेगा। फिर ध्यान भी जाना चाहिए।
अंधेरे में भटकते हो, किसी कल्याण मित्र का हाथ पकड़ा, फिर रोशनी आ जाए, सुबह हो जाए, तो अब हाथ को पकड़े ही मत रह जाना। हाथ का पकड़ना भी आना चाहिए, छोड़ना भी आना चाहिए।
साधन का उपयोग करना है, साधन की गुलामी नहीं अख्तियार कर लेनी है। राह पर चलना जरूर है, पर राह सिर्फ राह है, इसे जानते रहना है।
बहुत विधियां हैं; जो काम आ जाए, उसका उपयोग कर लो, लेकिन काम पूरा होते ही छोड़ देना। क्षणभर की देरी भी खतरनाक हो सकती है। क्योंकि जो खाली जगह छूट जाती है तुम्हारे भीतर, कहीं ऐसा न हो कि विधि, व्यवस्था, साधना उस खाली जगह में अड्डा जमा ले।
तो यह तो ऐसे हुआ कि तुम्हारे सिंहासन पर दुश्मन ने कब्जा किया था, तुमने मित्रों का साथ लिया, उन्होंने दुश्मन को तो हटा दिया, लेकिन खुद सिंहासन पर विराजमान हो गए। तुम जहां थे वहीं रहे; शायद पहले से भी बुरी हालत में हो गए। दुश्मन हो तो सिंहासन छीन लेना आसान भी, मित्रों से कैसे छीनोगे? अपने हैं, मित्र हैं, इनके द्वारा ही तो सिंहासन मिला है; इनसे कैसे छीनोगे?
इसलिए सदगुरु की परिभाषा समझो। सदगुरु की परिभाषा यह है कि जो एक क्षण भी जरूरत से ज्यादा तुम्हारे हाथ को न पकड़े रहे।
तुम तो पकड़ना चाहोगे। तुम तो बड़े उलझाव में हो। जब पकड़ने की जरूरत होती है, तब तुम पकड़ने से डरते हो। जब जरूरत है कि तुम हाथ पकड़ लो, तब तुम हजार उपाय करते हो न पकड़ने के। तुम्हारा अहंकार बाधा बनता है। तुम भागते हो, तुम बचते हो, तुम छिपाव करते हो। जब जरूरत थी पकड़ लेने की, झुक जाने की, समर्पित हो जाने की, तब तुम अकड़े खड़े रहते हो। बामुश्किल तुम झुकते हो। बड़ी कठिनाई से तुम हाथ पकड़ते हो। जब जरूरत थी, तब पकड़ने में तुम बाधा डालते हो। फिर जब घड़ी आएगी छोड़ने की, तब तुम छोड़ने में बाधा डालोगे। तब तुम छोड़ोगे नहीं, तब तुम जिद बांधकर बैठ जाओगे। तब तुम कहोगे, यह छोड़ने वाला हाथ नहीं, इसी ने पहुंचाया। ये चरण हम कभी न छोड़ेंगे।
सदगुरु वही है, जब तुम पकड़ना नहीं चाहते, पकड़ा दे; और जब तुम छोड़ना नहीं चाहते, तब छुड़ा दे।
साधना का कोई अर्थ नहीं है फिर। कांटे की तरह है साधना--एक कांटे को निकाल लिया, दूसरे को भी साथ ही फेंक दिया। तुम कोई सदा-सदा के लिए साधक मत बन जाना। मार्ग की बात है, उपाय है; साधन है, साध्य नहीं है। साध्य जैसे ही करीब आने लगे, वैसे ही साधन से अपने हाथ छुड़ाना शुरू कर देना। वाहन पर सवार होते हो, मंजिल करीब आ जाती है, उतर जाते हो।
प्रकृति का नियम यही है एक
कि अति का होगा ही विध्वंस
एक अति है वासना, कि खो गए, भटक गए--संसार में, व्यर्थ में, बाजार में। फिर एक दूसरी अति है कि बचाने में लग गए अपने को--संसार से, व्यर्थ से, बाजार से। ये दोनों अतियां हैं। इन दोनों में कहीं भी समत्व नहीं है।
जरूरी है साधना, क्योंकि एक अति पर चले गए तो दूसरी अति पर जाना जरूरी हो गया है। लेकिन जैसे ही एक अति कट जाए, दूसरी अति भी तत्क्षण छोड़ देना; अन्यथा घड़ी के पेंडुलम की तरह घूमते रहोगे; बाएं से दाएं, दाएं से बाएं जाते रहोगे। रुक जाना है कहीं बीच में।
देखा, जब घड़ी का पेंडुलम बीच में रुक जाता है, घड़ी रुक जाती है। घड़ी यानी समय। जहां तुम संतुलित हुए, अति गई, वहीं समय के बाहर हुए। जब तक तुम डोलते रहते हो एक कोने से दूसरे कोने, तब तक घड़ी की टिकटिक चलती रहती है; तब तक समय चलता रहता है; तब तक संसार चलता रहता है। तुम्हारा मन का पेंडुलम ही सारे संसार को चलाए जाता है।
तुमने कभी किसी नट को देखा रस्सी पर चलते? पूरे समय बाएं से दाएं, दाएं से बाएं होता रहता है। जब बाएं झुकता है तो एक घड़ी आ जाती है कि अगर और थोड़ा झुका तो गिरेगा; तत्क्षण दाएं झुक जाता है, ताकि बाएं की अति से जो भूल हुई जा रही थी, वह दाएं झुकने से पूरी हो जाए। लेकिन तब फिर दाएं में ऐसी घड़ी आ जाती है कि अब जरा और झुका कि गिरा; फिर तत्क्षण बाएं झुक जाता है, ताकि जो अति हो रही थी, उसका संतुलन हो जाए। ऐसे झुकता है दाएं से बाएं, बाएं से दाएं, और इसी भांति किसी तरह अपने को रस्सी पर बनाए रखता है।
लेकिन जब नीचे उतर आया, फिर थोड़े ही दाएं-बाएं झुकता रहेगा! फिर तो बैठ जाएगा; फिर तो झुकेगा ही क्यों? फिर तो खड़ा हो जाएगा, भूमि मिल गई। अब कोई रस्सी पर थोड़े ही चल रहा है।
संसार में चलना तनी हुई रस्सी पर चलने जैसा है। प्रतिक्षण तुम्हें झुकना ही पड़ेगा। अभी प्रेम, अभी घृणा; अभी सहानुभूति, अभी क्रोध; यह दाएं-बाएं है।
मेरे पास प्रेमी आते हैं; वे पूछते हैं कि कैसे यह घटना घटे कि हम जिससे प्रेम करते हैं, उस पर क्रोध न करें? मैं कहता हूं, यह न हो सकेगा। इसके लिए तो संसार की रस्सी से उतरना पड़ेगा। यह तो संसार की रस्सी पर तुम प्रेम करोगे तो क्रोध करना ही पड़ेगा। क्योंकि प्रेम में ज्यादा झुके, गिरने का डर हो जाता है; क्रोध की तरफ मुड़े, सम्हल गए। क्रोध में भी ज्यादा झुकोगे तो डर हो जाएगा, तो फिर पत्नी के लिए फूल खरीद लाए, आइसक्रीम ले आए। फिर थोड़ा प्रेम किया; फिर खतरा पैदा हो जाता है। तो जिससे तुम प्रेम करोगे, उससे ही घृणा भी करते रहोगे। और जिससे तुम्हारे मन का लगाव है, उससे ही तुम राग भी रखोगे, उससे ही दुश्मनी भी चलती रहेगी।
पश्चिम में एक बहुत अनूठी किताब कुछ वर्षों पहले प्रकाशित हुई, उस किताब का नाम है: दि इन्टीमेट एनीमी। वह पति-पत्नी के संबंधों के संबंध में किताब है: दि इन्टीमेट एनीमी।
लेकिन यह तो सूझ इसको अभी-अभी आई। उर्दू में शब्द है, हिंदी में भी उपयोग होता है: खसम। खसम का मतलब होता है, पति। और खसम का मतलब शत्रु भी होता है। मूल अरबी में तो शत्रु होता है। कैसे शत्रु से पति हो गया, बड़े आश्चर्य की बात है। कोई जोड़ नहीं दिखाई पड़ता। मूल शत्रु है, फिर पति कैसे हो गया? जरूर लोग पकड़ गए होंगे बात। सूत्र समझ में आ गया होगा, खयाल में आ गया होगा कि जिससे प्रेम है, उससे दुश्मनी भी है।
जहां प्रेम है, वहां घृणा है। जहां लगाव है, वहां विराग भी। जहां-जहां राग है, वहां-वहां वैराग्य आता ही रहेगा।
तुमने कभी खयाल किया, कितनी बार नहीं घर से भाग उठने का मन हो जाता है! छोड़ो पत्नी-बच्चे! मगर स्टेशन भी न पहुंच पाओगे कि लौट आओगे। इसको कोई स्थाई बात मत समझ लेना। यह कोई स्थाई भाव नहीं है, यह तो कई बार आता है। कितनी बार आदमी मरना नहीं चाहता!
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जिसने जिंदगी में कम से कम दस बार आत्मघात का विचार नहीं किया हो। यह जरूरी है। जिंदगी अति हो जाती है, मरने का भाव करके सम्हाल लेते हैं। जीवन बोझिल हो जाता है, भारी हो जाता है, मरने की कल्पना से ही राहत मिल जाती है। मरता कौन है! राहत मिल गई, फिर जिंदगी में लग जाते हैं। यह तो जिंदा रहने का ही ढंग है। तो कोई अगर मरने वगैरह की बातें करे तो बहुत चिंतित मत होना; कहना, ठीक है, मरो!
मैं एक घर में रहता था कुछ दिनों तक। नया-नया मेहमान था उस परिवार में, कुछ उस परिवार का रीति-रिवाज मुझे पता न था। एक दिन मैंने रात को कोई ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे पति-पत्नी में झगड़ा सुना। मैं चुप ही रहा, मेरे बोलने का कोई कारण नहीं बीच में। लेकिन बात यहां तक बढ़ गई कि पति ने कहा कि मैं अभी जाकर मर जाऊंगा। तो थोड़ा मैं चिंतित हुआ कि अब--मेहमान भी हूं तो भी क्या हुआ! फिर भी मैंने कहा कि अभी जाने दो, तब देखूंगा। वे गए भी; जब उनको मैंने घर के बाहर भी निकलते देख लिया तो मैं भागा। मैंने उनकी पत्नी से कहा, अब कुछ करना पड़ेगा। उसने कहा, फिकर मत करो; अभी पांच-सात मिनट में वापस आते हैं। वे पांच-सात मिनट में वापस भी आ गए।
सुबह मैंने उनसे पूछा कि कहां तक गए थे? उन्होंने कहा कि पता नहीं क्या मामला है, कई दफा ऐसा हो जाता है। गुस्से में चला जाता हूं, रेल की पटरी पास ही है, बस वहां तक पहुंचा कि सब ठीक हो जाता है; फिर वापस लौट आता हूं। जीने का हिस्सा है।
ऐसे हम अपने को धोखा दे लेते हैं कि चलो, मरे जाते हैं; अब तो बात खतम हुई। मरने के खयाल से ही जीवन का बोझ क्षणभर को नीचे उतर गया; फिर उठाकर रख लेंगे सिर पर। कहीं कोई इतने जल्दी मरा जाता है! तुमसे मैं कहता हूं, जो मर भी जाते हैं--कुछ लोग जल्दबाजी कर लेते हैं और मर जाते हैं--अगर वे तुम्हें मिल जाएं तो वे पछताते मिलेंगे। वे कहेंगे, जरा जल्दी कर दिए; क्षणभर और ठहर जाते। कुछ लोग तेजी में गुजर जाते हैं, जल्दी कर लेते हैं। क्षणभर में घट जाए तो घट जाए, जरा विलंब हो जाए तो तुम वापस लौट आओगे। यह मन का ढंग है।
कि जीवन आशा का उल्लास
कि जीवन आशा का उपहास
कि जीवन आशा में उदगार
कि जीवन आशाहीन पुकार
दिवा-निशि की सीमा पर बैठ
निकालूं भी तो क्या परिणाम
विहंसता आता है हर प्रात
बिलखती जाती है हर शाम
सुबह हंसती हुई मालूम होती है, सांझ रोती हुई मालूम होती है; द्वंद्व नहीं है लेकिन। सुबह हंसती हुई मालूम हुई, इसीलिए सांझ रोती हुई मालूम होती है। सुबह मुस्कुराती आती है, वही मुस्कुराहट सांझ आंसू बन जाती है। यह जीवन की सहज व्यवस्था है।
आशा-निराशा, उजाला-अंधेरा, मित्रता-शत्रुता--ऐसे हम नट की तरह रस्सी पर सधे रहते हैं। वासना-साधना; भोग-योग--ऐसे हम रस्सी पर सधे रहते हैं।
जानना तो तुम उस दिन भूमि मिली, जिस दिन न भोग रह जाए, न योग रह जाए; न वासना रह जाए, न साधना रह जाए; न प्रेम रह जाए, न घृणा रह जाए; न क्रोध रह जाए, न अक्रोध रह जाए; सारे द्वंद्व खो जाएं तो तुम उतर आए।
वही है मुक्ति की भूमि। वही है मुक्ति का आकाश।
अब तुम रस्सी पर नहीं हो। अब सम्हालने की कोई जरूरत ही नहीं है। अब गिरने का कोई खतरा ही नहीं है, सम्हालेगा कोई क्यों? सम्हालते तो हम तब हैं, जब गिरने का खतरा होता है। स्वर्ग और नर्क, जब तुम दोनों से नीचे उतर आए, तब है मोक्ष की भूमि। स्वर्ग और नर्क के बीच खिंची है रस्सी; उसी रस्सी पर चल रहा है संसार।
साधना निश्चित ही समाप्त हो जाती है वासना के साथ। साधना और वासना जुड़वां बहनें हैं। सुनकर तुम्हें हैरानी होगी। कोई साधु यह बात तुमसे न कहेगा। इसलिए साधु मुझसे नाराज हैं।
साधना, वासना जुड़वां बहनें हैं, उनकी शकलें बिलकुल एक जैसी हैं। वे साथ ही साथ पैदा हुई हैं और साथ ही साथ मर जाती हैं।
साधना की जरूरत को कोई बड़ा सौभाग्य मत समझ लेना। कोई दवाई की बोतल को सिर पर लेकर शोभायात्रा मत निकाल देना; वह केवल रोग की खबर है। तुम्हारे घर में चिकित्सक रोज-रोज आता है, इसे तुम ऐसा मत समझ लेना कि तुम बड़े महिमाशाली और सौभाग्यशाली हो।
एक अत्यंत हिंदू बुद्धि के व्यक्ति मुझे मिलने आए थे; कहने लगे, भारत भूमि बड़ी सौभाग्यशाली है। मैंने कहा, कारण? कहने लगे, देखो, हिंदुओं के चौबीस अवतार, जैनों के चौबीस तीर्थंकर, बुद्धों के चौबीस बुद्ध, सभी यहां हुए।
मैंने कहा, यह तो दुर्भाग्य मालूम होता है। इतने तीर्थंकर, इतने अवतार, इतने बुद्ध पैदा होते हैं, इतने चिकित्सक आते हैं; बीमार की हालत बड़ी बुरी है। साफ है कि बड़ा दुर्भाग्य होगा। इतने बार चिकित्सक आते हैं और चिकित्सकों की जरूरत बनी ही रहती है, इसे तुम सौभाग्य का मुकुट मत समझो।
वे थोड़े चौंके। उन्हें कभी इसका विचार भी न आया होगा। वे कहने लगे कि बात में तो थोड़ा अर्थ मालूम होता है। अगर देश सच में ही धार्मिक हो तो अवतारों की क्या जरूरत है? मैंने उनसे कहा, अपनी गीता ही उलटकर देखो; कृष्ण कहते हैं, जब अंधेरा होगा और धर्म भ्रष्ट हो जाएगा और साधु पीड़ित किए जाएंगे, तब मैं आऊंगा। साफ है कि कृष्ण वहीं आएंगे, जहां अधर्म होगा। और अगर यहां आए तो अधर्म होना चाहिए। इसको तुम धार्मिक देश मत कहना। और मुल्कों में नहीं आए, जरूर हमसे बेहतर हालत में होंगे।
चिकित्सक की जरूरत रोगी को है। अवतार की जरूरत अधार्मिक को है। दीए की जरूरत अंधेरे में है। सुबह होते ही हम दीया बुझा देते हैं। क्या जरूरत?
इसीलिए तो दीवाली हम अमावस की रात में मनाते हैं। जब गहन अंधकार होता है तो दीयों के अवतार पंक्तिबद्ध फैला देते हैं। सबसे अंधेरी रात वर्ष की जो है, उस वक्त हम सबसे ज्यादा दीए जलाते हैं। दिन में कोई दीवाली मनाएगा, उसे हम पागल कहेंगे।
अगर मैं ध्यान करूं तो मैं पागल हूं; अगर तुम ध्यान न करो तो पागल हो।
मुझसे लोग आ जाते हैं पूछने कि आप ध्यान कब करते हैं? मैंने कहा, मैं कोई पागल हूं? मेरा दिमाग खराब हुआ है? वे कहते हैं कि फिर हमें क्यों समझाते हैं? तो मैं समझाता हूं, क्योंकि अगर तुम न करोगे तो तुम पागल हो।
बात सीधी है। उलटी लगती है, जरा भी उलटी नहीं है। पहुंच गए, मंजिल समाप्त हुई; चलना क्या है? पा लिया, खोज बंद हुई; खोजना क्या है?
साधना का उपयोग करना, यही उस शब्द का मतलब है। साधना का अर्थ है: साधन; साध्य नहीं। जब तुम सिद्ध हो जाओगे, साध्य मिल जाएगा, साधना भी छूट जाएगी। इसे याद रखना, मोह मत बनाना साधना से।
रामकृष्ण ने बहुत दिनों तक भक्ति की साधना की। भक्ति की साधना तो की, लेकिन मन में कहीं एक पीड़ा खलती रही। और वह पीड़ा यह थी कि अभी अद्वैत का अनुभव नहीं हुआ। आंख बंद करते हैं, महिमामयी मां की मूर्ति खड़ी हो जाती है, लेकिन एकांत, परम एकांत--जिसको महावीर ने कैवल्य कहा--उसका कोई अनुभव नहीं हुआ; दूसरा तो मौजूद रहता ही है। परमात्मा सही, लेकिन दूसरा तो दूसरा ही है। और जहां तक दो हैं, वहां तक संसार है। जहां तक द्वंद्व है--मैं हूं, तू है--वहां तक संसार है।
रामकृष्ण बड़े पीड़ित थे। फिर उन्हें एक संन्यासी मिल गया अद्वैत का साधक, सिद्ध। तोतापुरी उस संन्यासी का नाम था। रामकृष्ण ने पूछा, मैं क्या करूं? अब कैसे मैं इस द्वंद्व के पार जाऊं? तोतापुरी ने कहा, बहुत कठिन नहीं है। एक तलवार उठाकर मां के दो टुकड़े कर दो।
रामकृष्ण तो कंप गए, रोने लगे--मां के और टुकड़े! और यह आदमी कैसी बात कर रहा है धार्मिक होकर!
परम धर्म इसी भाषा में बोलता है। परम धर्म तलवार की भाषा में बोलता है।
जीसस ने कहा है, मैं तलवार लाया हूं। मैं शांति लेकर नहीं आया हूं, तलवार लेकर आया हूं। तोड़ दूंगा सब। टूटने पर ही तो शांति होगी।
तोतापुरी ने कहा, इसमें अड़चन क्या है?
रामकृष्ण ने कहा, तलवार कहां से लाऊंगा वहां?
तोतापुरी हंसने लगा। उसने कहा, जब मां को ले आए--कहां से लाए? कल्पना का ही जाल है। बड़ी मधुर है कल्पना, बड़ी प्रीतिकर है, पर तुमने ही सोचा, माना, रिझाया, बुलाया, आह्वान किया, कल्पना को सजाया हजार-हजार रंगों में, वही कल्पना आज साकार हो गई है। तुमने ही उसमें प्राण डाले हैं। तुमने ही अपनी ज्योति उसमें डाली है। तुमने ही उसे ईंधन दिया, अब ऐसे ही एक तलवार भी बना लो और काट दो।
रामकृष्ण आंख बंद करते, कंप जाते। जैसे ही मां सामने खड़ी होती, हिम्मत ही न होती। तलवार--और मां! परमात्मा को कोई काटता है तलवार से? आंख खोल देते घबड़ाकर कि नहीं, यह न हो सकेगा।
तो तोतापुरी ने कहा, न हो सकेगा तो बात ही छोड़ दो फिर कैवल्य की। मैं चला! मेरे पास समय खराब करने को नहीं है। करना हो तो यह आखिरी मौका है। और यह बचकानी आदत छोड़ो। यह क्या मचा रखा है? रोना, आंसू बहाना! उठाकर एक तलवार हिम्मत से दो टुकड़े तो कर।
रामकृष्ण ने कहा, मेरी कुछ सहायता करो। लगती है बात तुम ठीक कह रहे हो; लेकिन बड़े भाव से सजाया, बड़े भाव से यह मंदिर बनाया है। जीवनभर इसी में गंवाया है, यह मुझसे होता नहीं।
तोतापुरी ने कहा, तो फिर मैं तेरी सहायता करूंगा। वह एक कांच का टुकड़ा उठा लाया और उसने कहा कि जब तेरे भीतर मां की प्रतिमा बनेगी तो मैं तेरे माथे पर कांच से काट दूंगा। जब मैं काटूं और तुझे पीड़ा हो और खून की धार बहने लगे, तब तू भी एक हिम्मत करके भीतर की मां को उठाकर तलवार काट देना। बस, फिर मैं न रुकूंगा। करना हो, कर ले।
अब यह जाने लगा तो बेचारे रामकृष्ण को करना पड़ा। इस आदमी ने उठाकर उनके माथे पर कांच के टुकड़े से लकीर काट दी, खून बहने लगा। जैसे ही उसने लकीर काटी, रामकृष्ण भी हिम्मत किए और तलवार उठाकर भीतर कल्पना को खंडित कर दिया। कल्पना के खंडित होते ही कैवल्य उपलब्ध हो गया। लेकिन बड़ी अड़चन हुई, बड़े दिन लगे।
साधन से भी आदमी की आसक्ति बन जाती है। तुम अगर प्रतिमा बना लेते हो मन में तो उसे छोड़ना मुश्किल हो जाएगा। तुमने अगर ध्यान किया, ध्यान छोड़ना मुश्किल हो जाएगा। प्रार्थना की, प्रार्थना छोड़नी मुश्किल हो जाएगी। और ध्यान रखना, छोड़ना तो पड़ेगा ही। क्योंकि ये उपचार थे, इन्हें किसी कारण से पकड़ा था। इनके पकड़ने की शर्त ही खो गई।
यह तो ऐसे ही है, जैसे कोई नया मकान बनाता है तो एक ढांचा खड़ा करता है, ढांचे के सहारे मकान बना लेता है। फिर मकान बन जाता है तो ढांचे को गिरा देता है। अब तुम्हारा कहीं ढांचे से मोह हो जाए और तुम ढांचे को न गिराओ तो तुम्हारा भवन रहने योग्य न हो पाएगा। ढांचा रहने न देगा। जब भवन बन गया तो ढांचा गिरा देना। जब सीढ़ी चढ़ गए तो सीढ़ी छोड़ देनी है।
इसलिए पहले से ही अगर ध्यान रहे इस बात का कि साधना का उपयोग तो कर लेना है, लेकिन साधना के हाथ में मालकियत नहीं दे देनी है, तो शुभ होता है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, संसार को, बाजार को छोड़कर अपने को पा लो, यह आपने कहा। कृपया बताएं कि प्रेम संसार के बाजार में है या अपने भीतर? और क्या प्रेम का क्षेत्र भीतर और बाहर दोनों तरफ नहीं है?
समझना पड़े।
काम तो बिलकुल बाहर है। कामना, बाहर की तरफ भागती हुई ऊर्जा का नाम है; जिसे भीतर की याद भी नहीं रही, जिसे याद भी नहीं रही कि भीतर जैसा भी कुछ है। कामना बाहर जाती हुई, बहिर्मुखी ऊर्जा है।
साधना, प्रार्थना, भक्ति--कोई नाम दो--भीतर जाती ऊर्जा है, जिसे याद भी न रहा कि बाहर है, जिसे खयाल भी न रहा कि बाहर जैसी भी कोई चीज है।
कामना बाहर, प्रार्थना भीतर; दोनों अतियां हैं। प्रेम दोनों के मध्य में है, दोनों के बीच में है। जैसे कोई अपनी देहली पर खड़ा हो--न बाहर जा रहा है, न भीतर जा रहा है, ठिठक गया हो; जैसे कोई दोनों तरफ देख रहा हो, बीच में खड़ा हो।
प्रेम मध्य बिंदु है प्रार्थना और कामना के बीच में।
काम हार गया है, प्रार्थना अभी पैदा नहीं हुई। कामना व्यर्थ दिखाई पड़ने लगी है, सार्थक का अभी उदय नहीं हुआ। यात्रा जैसे थम गई है। प्रेम एक ठिठकी अवस्था है। बाहर जाने जैसा नहीं लगता; हार गए वहां; राख ही राख पाई, मुंह का स्वाद सिर्फ बिगड़ा और कुछ भी न हुआ; और भीतर का अभी कुछ पता नहीं है। एक बात पक्की हो गई, बाहर व्यर्थ हो गया और भीतर के द्वार अभी खुले नहीं। बीच में ठिठककर खड़ी हो गई जो ऊर्जा है, वही प्रेम है।
अगर तुमने जल्दी न की प्रेम को प्रार्थना बनाने की तो फिर कामना बन जाएगा। प्रेम के क्षण जब भी आएं तो दो ही संभावनाएं हैं; ऊर्जा ज्यादा देर तक ठिठकी न रहेगी, क्योंकि ठिठका होना इस जगत की व्यवस्था नहीं है। कोई ऊर्जा ठहरी नहीं रह सकती; या तो जाएगी बाहर, या जाएगी भीतर--जाना पड़ेगा।
ऊर्जा यानी गति, गत्यात्मकता।
तो एक क्षण को ठहर सकती है। उस ठहरे क्षण का उपयोग कर लो तो प्रेम भक्ति बन जाता है, या प्रार्थना बन जाता है। अगर उपयोग न करो तो प्रेम फिर कामना बन जाता है, फिर वासना बन जाता है।
इसलिए प्रेमी की बड़ी पीड़ा है। और पीड़ा यही है कि बहुत बार ठिठक आ जाती है और फिर-फिर ऊर्जा बाहर चली जाती है। प्रेम के बहुमूल्य क्षण का उपयोग करना बहुत थोड़े लोग जानते हैं। जो प्रेम के बहुमूल्य क्षण का उपयोग कर लेते हैं, उनके भीतर प्रार्थना का उदय हो जाता है।
अब इसे खयाल में ले लेना: काम अर्थात बाहर; प्रार्थना अर्थात भीतर; प्रेम यानी दोनों के मध्य में। और चौथी अवस्था है, दोनों के पार। चौथी अवस्था यानी परमात्मा।
इसलिए जीसस ने कहा है कि प्रेम जैसा है परमात्मा। ऐसा नहीं कहा है कि ठीक प्रेम ही बस परमात्मा है--नहीं तो परमात्मा की तो बात भी उठाने की जरूरत न रहे--प्रेम जैसा है। एक स्वभाव, एक समानता प्रेम और परमात्मा में है। प्रेम दोनों के मध्य में है, परमात्मा दोनों के पार है। प्रेम बाहर और भीतर के बीच में है, परमात्मा बाहर और भीतर के ऊपर है।
इस जीवन के हमारे जितने अनुभव हैं, उनमें प्रेम सर्वाधिक सूचक है परमात्म दशा का। प्रेम ठिठकता है, परमात्मा ठहरा हुआ है। प्रेम क्षणभर को परमात्मा बनता है, परमात्मा सदा को प्रेम है। प्रेम दो छोरों के बीच में एक थोड़ा सा पड़ाव है, थोड़ी सी राहत, थोड़ा सा विश्राम, विराम-चिह्न। परमात्मा पूर्ण विराम है--दोनों के पार।
परमात्मा की अवस्था में न तो कुछ बाहर है फिर, न कुछ भीतर है। बाहर और भीतर दोनों परमात्मा में हैं। परमात्मा के बाहर कुछ भी नहीं है, इसीलिए परमात्मा के भीतर कुछ है, कहने का कोई अर्थ नहीं; परमात्मा ही है। बस, परमात्मा है; बाहर-भीतर का कोई अर्थ नहीं रह जाता। उसके बाहर कुछ नहीं है तो भीतर कैसे कुछ होगा? यह द्वंद्व गिर जाता है।
प्रेम में भी यह द्वंद्व क्षण भर को ठहरता है, इसलिए प्रेम में थोड़ी सी झलक परमात्मा की है। बस, इस जगत में परमात्मा की झलक देने वाली घड़ी प्रेम की घड़ी है।
इसलिए तुम चकित होओगे, अगर मैं यह कहूं कि प्रार्थना भी परमात्मा के उतने निकट नहीं है जितना प्रेम; क्योंकि प्रार्थना फिर एक अति हो गई। बाहर से छूटे तो भीतर को पकड़ लिया; बाहर से भागे तो भीतर को पकड़ लिया। जरूरी है, भीतर को पकड़ना पड़ेगा बाहर से भागने के लिए। एक अति से बचने के लिए दूसरी अति पकड़नी पड़ेगी। और अभी दोनों के बीच में तुम ठहर न सकोगे। दोनों के बीच में ठहरने का तो उपाय, दोनों के पार हो जाना है।
लेकिन जब तुम पार हो जाओगे, तब तुम पाओगे, अरे! प्रेम का जो क्षणभर के लिए विराम आया था, परमात्मा वैसा ही है--शाश्वत होकर, सनातन होकर। प्रेम में जिसकी बूंद मिली थी, परमात्मा उसी का सागर है।
वासना में भी तुम हो, प्रार्थना में भी तुम हो। वासना में दृष्टि बाहर की तरफ जा रही है, प्रार्थना में दृष्टि भीतर की तरफ जा रही है; प्रेम के क्षण में तुम नहीं होते। पर क्षण बड़ा छोटा है। शायद तुम पकड़ भी न पाओ इतना छोटा है; आणविक है, तुम्हारी पकड़ से भी चूक जा सकता है।
तो या तो तुम वासना को प्रेम कहते रहते हो, कामना को प्रेम कहते रहते हो--जो प्रेम नहीं है--या फिर अगर बदले तो प्रार्थना को, भक्ति को पे्रम कहने लगते हो। लेकिन प्रेम दोनों के बीच का बड़ा छोटा सा विराम है।
ऐसा ही समझो, एक श्वास भीतर जाती है, फिर श्वास बाहर आती है। तुमने खयाल किया, भीतर जाने और बाहर आने के बीच में क्षणभर को श्वास कहीं भी नहीं जाती। पर क्षण बड़ा छोटा है, खयाल करना उस पर। श्वास भीतर गई--छोटा सा विराम है; तब न तो भीतर जा रही है, न बाहर जा रही है--फिर बाहर गई, फिर छोटा सा विराम है, न तो अब बाहर जा रही है, न भीतर जा रही है।
इस छोटे से विराम को जिसने पकड़ लिया, वही प्रेम के विराम को भी पकड़ने में सफल हो पाएगा।
विज्ञान भैरव तंत्र में इस विधि को बड़ा मूल्य दिया गया है। जब श्वास न बाहर जाती है, न भीतर, जब सब ठहर गया होता है, उसमें ही डूब जाओ; वहीं से तुम द्वार पा लोगे परमात्मा का।
प्रेम भी ऐसी ही घड़ी है। कामना बाहर जाती है, प्रार्थना भीतर जाती है; प्रेम ऐसी घड़ी है, जब तुम न बाहर जाते, न भीतर जाते। और मजा यही है कि जब तुम न बाहर जाते और न भीतर जाते, तो तुम हो ही नहीं सकते। क्योंकि तुम केवल जाने में हो सकते हो, ठहरने में नहीं हो सकते। जब तुम्हारी श्वास ठहर जाती है, तब तुम नहीं होते; तुम मिट गए होते हो। अहंकार रह ही नहीं सकता वहां। अहंकार के लिए गति चाहिए। अहंकार के लिए सक्रियता चाहिए। अहंकार के लिए कर्म चाहिए। कुछ हो तो अहंकार बच सकता है; कुछ भी न हो रहा हो तो अहंकार कैसे बचेगा? अहंकार उपद्रव है। इसलिए अहंकारी शांत नहीं बैठ सकता।
मेरे पास अहंकारी आ जाते हैं; वे कहते हैं, ध्यान करना है, शांत बैठना है, लेकिन बैठ नहीं सकते शांत। अहंकारी शांत नहीं बैठ सकता, क्योंकि उसे लगता है कि यह तो समय व्यर्थ गया; इतनी देर में तो कुछ अहंकार की पूंजी कमा लेते, कोई पद पा लेते, कहीं आगे बढ़ जाते, किसी को धोखा दे लेते, कुछ कर लेते, कुछ होता, यह तो बेकार गया।
अहंकार के लिए ध्यान से ज्यादा व्यर्थ कोई चीज मालूम नहीं होती। कुछ व्यर्थ भी कर लेते तो भी कुछ किया तो! जुआ खेल लेते, ताश खेल लेते, किसी से बकवास कर आते, कुछ किया तो! थोड़ा साम्राज्य किसी तरह फैलाया तो! लेकिन ध्यान, कुछ भी न किया, खाली बैठ गए। अहंकार के लिए ध्यान एकदम व्यर्थ बात मालूम होती है, इससे ज्यादा व्यर्थ कोई बात नहीं।
पश्चिम में उन्होंने मजाक बना रखा है कि पूरब के लोग आंखें बंद करके अपनी नाभि को देखते रहते हैं। पता नहीं, पागल क्या कर रहे हैं! कुछ करो!
ध्यान है, होने की अवस्था; अहंकार है, करने की अवस्था।
दो श्वासों के बीच में जब कुछ भी नहीं होता, तब तुम भी नहीं होते। काम और भक्ति के बीच में जब विराम पड़ता है, तब भी तुम नहीं होते; यह काल संध्याकाल है।
रात जब तुम सोने जाते हो--जागरण जा चुका, नींद आई नहीं, क्षण भर को फिर विराम आता है, जब तुम न तो कह सकते हो जागे हो, न कह सकते हो सोए हो--आधे-आधे, मध्य में खड़े, देहरी पर खड़े। बाहर जाना बंद है, बाजार नहीं है; भीतर अभी गए नहीं; बीच में खड़े, फिर संध्याकाल आया, उसी संध्याकाल में अगर डूब जाओ तो जो पाने योग्य है, वह पा लिया जाता है। जो होने योग्य है, वह आदमी हो जाता है।
जीवन में इन संध्याकालों को ही वास्तविक द्वार कहा है। इसलिए हमने प्रार्थना को भी संध्या नाम दिया है। लोग कहते हैं, संध्या कर रहे हैं। संध्या करने का अर्थ भी नहीं समझते। संध्या करने का अर्थ है: किन्हीं दो अतियों के बीच में, मध्य को खोज रहे हैं। किन्हीं दो गतियों के बीच में विराम को खोज रहे हैं। सूरज ढल गया, रात नहीं हुई; प्रकाश जा चुका, अंधकार उतरने-उतरने को है--बस जरा सी देर है, क्षणभर में चूक जाओगे।
प्रेम का क्षण बहुत बारीक क्षण है। तुम श्वास से शुरू करो, अगर प्रेम को पकड़ना हो। श्वास का अभ्यास करो; जहां श्वास ठहर जाती है, वहीं अपनी आंखों को गड़ाओ। और तुम बहुत चकित होओगे, अगर तुम उस विराम को पकड़ने में सफल हो गए, श्वास ज्यादा देर तक ठहरी रहेगी। कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है, कई क्षण निकल जाएंगे, श्वास ठहरी रहेगी। कई मिनट निकल सकते हैं, कई घंटे भी निकल सकते हैं, और श्वास ठहरी रहे।
अगर तुम्हारा ठीक-ठीक हाथ पड़ जाए विराम पर, अगर तुम्हारा संयोग सध जाए विराम से, तो तुम एक ऐसे पारलौकिक दशा में लीन हो जाओगे कि खबर ही न रहेगी कि श्वास लेनी है; सब ठहर जाएगा। उस ठहरी दशा को ही हम समाधि, सतोरी का क्षण कहते हैं।
जब ऐसी दशा तुम्हें स्वाभाविक हो जाए कि जब तुम्हारी मर्जी हो, आंख बंद की और उतर गए, सीढ़ियां साफ हो जाएं, द्वार खुला रह जाए--तुम सिद्ध हो गए। फिर तुम बाहर जाओ तो भी तुम बाहर नहीं जा सकते, तुम भीतर जाओ तो भी भीतर नहीं जा सकते, क्योंकि तुम खो गए। तुम ही न बचे तो बाहर-भीतर भी गया। अब तो जो बचा, वही परमात्मा है।
कूचए-जानां की मिलती थी न राह
उस प्यारे का मार्ग न मिलता था।
कूचए-जानां की मिलती थी न राह
बंद की आंखें तो रस्ता खुल गया
आंख का बंद हो जाना--अर्थ क्या है? आंख तो तुम बहुत बार बंद करते हो, रास्ता कहां मिलता है? आंख तो तुम अभी बंद कर सकते हो, रास्ता कहां मिलता है? तो जरूर इस आंख से कुछ मतलब न होगा। आंख तभी बंद होती है तुम्हारी, जब कोई कामना नहीं रहती।
प्रार्थना भी एक तरह की कामना है, वहां भी मांग जारी है। परमात्मा के मंदिरों में बैठे लोगों के प्रार्थना के बाद फैले हुए हाथ भी वासना के ही हाथ हैं। परमात्मा के सामने झुके हुए सिर भी वासना के ही झुके हुए सिर हैं--कुछ मांग जारी है। अब बाहर का धन नहीं मांगते, भीतर का धन मांगते हैं--मांग जारी है।
जहां तक मांग जारी है, वहां तक आंख खुली है। जहां तक तुम कुछ सोच रहे हो, मिल जाए, वहां तक आंख खुली है। जहां तुमने सोचना छोड़ा कि कुछ मिलने को है, कुछ मिलने का सवाल न रहा; तुम हो गए; जैसे हो बस, उसमें डूब रहे--आंख बंद हो गई। फिर आंख खुली भी रहे तो कोई फर्क नहीं पड़ता। आंख बंद हो गई।
तुमने बुद्ध पुरुषों की मूर्तियां देखीं? आंख न तो खुली है और न बंद है, अधखुली है। अधखुली प्रतीकात्मक है; उसका अर्थ है: न बाहर, न भीतर; जरा सी खुली है, नीचे की सफेद पुतली दिखाई पड़ती है।
इसलिए योग में व्यवस्था है कि ध्यानी जब ध्यान करने बैठे तो इस तरह बैठे कि सिर्फ नाक का अग्रभाग दिखाई पड़ता रहे, बस! इसका मतलब हुआ, आंख बस आधी खुली हो, आधी बंद हो। प्रतीकात्मक है, प्रयोजन केवल इतना है कि न तुम भीतर जाओ, न तुम बाहर जाओ, बीच में संध्याकाल में ठहर जाओ।
प्रेम संध्याकाल है।
तुम कहते हो, तुमने प्रेम जाना। प्रेम बहुत कम लोग जान पाते हैं, क्योंकि जिन्होंने प्रेम को जान लिया, उन्हें फिर परमात्मा को जानने में बाधा क्या रही? जिन्होंने प्रेम को जान लिया, फिर कोई कारण समझ में नहीं आता कि वे परमात्मा को जानने से क्यों वंचित रह गए हैं? यह हो नहीं सकता। जिनके हाथ में कुछ हीरे आ गए, उनके हाथ में पूरी खदान ही आ गई। हीरे ही न आए होंगे, कंकड़-पत्थरों को समझ लिया होगा हीरे हैं, इसलिए खदान नहीं मिली है।
रामानुज के पास एक आदमी आया और उसने कहा कि मुझे परमात्मा से मिलना है। रामानुज ने उसे गौर से देखा और कहा कि तूने कभी किसी को प्रेम किया? उस आदमी ने कहा कि इन झंझटों में मैं कभी पड़ा ही नहीं। छोड़ें ये बातें। मुझे तो प्रेम से क्या लेना-देना? परमात्मा की खोज है।
लेकिन रामानुज ने कहा, तू थोड़ा सोच, कभी किसी से किया हो प्रेम? किसी से भी किया हो, कोई याददाश्त तुझे आती हो?
उसने कहा कि आप भी कहां की बात कर रहे हैं! मैं परमात्मा की बात करता हूं, आप दूसरा ही विषय छेड़ रहे हैं। मैं साधक पुरुष हूं, विरागी हूं, प्रेम वगैरह की झंझट में मैं कभी नहीं पड़ा।
मगर रामानुज भी अजीब; वे फिर पूछे कि फिर भी तू सोच, क्योंकि सारी बात इसी पर निर्भर है। अगर तूने प्रेम का क्षण जाना हो तो फिर परमात्मा की शाश्वतता को भी जान सकेगा। अगर प्रेम की बूंद ही नहीं चखी तूने तो सागर को तू कैसे चखेगा? सागर में तू कैसे उतरेगा? लहर को तो पहचान, फिर सागर को पहचान लेंगे।
उस आदमी की समझ में न आया। वह शायद नाराज ही होकर चला गया। जिनको तुम विरागी कहते हो, उनको समझ में कैसे आएगा? जिनको तुम महात्मा कहते हो, वे तो प्रेम के दुश्मन बनकर बैठे हैं। उनका परमात्मा प्रेम के विपरीत है।
मैं जिस परमात्मा की बात कर रहा हूं, प्रेम उसका द्वार है। तुम्हारे महात्मा जिस परमात्मा की बात कर रहे हैं, वह परमात्मा है ही नहीं, वह सिर्फ प्रेम की शत्रुता है; वह केवल संसार के विपरीत दूसरी अति है। मैं जिस परमात्मा की बात कर रहा हूं, वह अति नहीं है, वह बाहर और भीतर दोनों का अतिक्रमण है। वह परम संतुलन की अवस्था है, पूर्ण विराम है।
मेरे पास लोग आते हैं; वे कहते हैं कि आप भी परमात्मा की बात करते हैं, हमारे गुरु हैं, वे भी परमात्मा की बात करते हैं, सब एक ही है। मैं उनको कहता हूं, इतना आसान नहीं है; सब एक ही है, कहना इतना आसान नहीं है। थोड़ा गौर से समझने की कोशिश करना। शब्द तो वही है; मैं भी परमात्मा शब्द का उपयोग करता हूं, तुम्हारे गुरु भी करते होंगे, लेकिन तुम्हें देखकर मैं कह सकता हूं कि तुम्हारे गुरु का परमात्मा और ही होगा--प्रेम से भयभीत, प्रेम के विपरीत, प्रेम का दुश्मन।
तो तुम्हारे महात्माओं का परमात्मा उनकी ईजाद है, असली नहीं। असली परमात्मा तो प्रेम के खेल को खेले चला जाता है। असली परमात्मा तो प्रेम के नए-नए रूप रचे जाता है। असली परमात्मा तो कितने रंग लेता है, कितने रूप लेता है, कितने रंगों, कितने रूपों में प्रेम का रास रचता है।
संसार के विपरीत नहीं हो सकता परमात्मा। संसार के पार हो सकता है, विपरीत नहीं। जो विपरीत है, वह तो जब संसार खतम हो जाएगा, वह भी खतम हो जाएगा। जो पार है, वही अतियों के पार बचेगा।
परमात्मा साधना नहीं है, सिद्धावस्था है। परमात्मा कोई विधि नहीं है, जैसा कि पतंजलि ने माना है कि परमात्मा विधि है, कि उसके आलंबन को लेकर, उसके प्रति समर्पण करके आदमी परम अवस्था को पहुंच जाता है। पतंजलि का परमात्मा विधि है, साधना का हिस्सा है; उसका उपयोग केवल इतना है कि तुम उसके सहारे समर्पण कर दो। मगर ऐसा परमात्मा तो जब तुम सिद्ध हो जाओगे, छूट जाएगा। जब तुम सिद्ध अवस्था को उपलब्ध होओगे तो ऐसे परमात्मा की क्या जरूरत रह जाएगी? यह तो मार्ग का ही हिस्सा था, यह खो जाएगा।
परमात्मा मार्ग नहीं है, मंजिल है। परमात्मा दाएं-बाएं नहीं, परमात्मा की अगर थोड़ी-बहुत झलक तुम्हें मिल सकती है तो मार्ग के ठीक मध्य में मिल सकती है। इसलिए बुद्ध ने अपने मार्ग को मज्झिम निकाय कहा है: मध्य में, ठीक बीच में।
मगर बीच से भी सिर्फ झलक मिलती है। लेकिन बीच से अतिक्रमण जुड़ा है। उस बीच के बिंदु को तुम खोज लो तो पार जाने की सीढ़ी मिल सकती है।
ध्यान रखना, प्रेम से लोग इसलिए वंचित रह जाते हैं कि प्रेम की शर्त ही पूरी करनी कठिन पड़ती है। प्रेम की शर्त है: क्षणभर को मिटना; क्षणभर को ही सही, तिरोहित हो जाना।
बेदार राहे-इश्क किसी से न तय हुई
सहरा में कैस, कोह में फरयाद रह गया
कोई प्रेमी कभी प्रेम का मार्ग पूरा नहीं कर पाया। मजनू जंगल में खो गया, फरियाद पहाड़ों में।
प्रेमी कभी पहुंच नहीं पाता, खो जाता है। पहुंचने योग्य कोई बचता ही नहीं। प्रेमी मार्ग में ही गल जाता है और खो जाता है। लेकिन इसी खो जाने में पहुंचना है। जहां तुम खो जाते हो, वहीं परमात्मा हो जाता है। जहां तुम मिटते हो, वहीं वह घनीभूत होता है। तुम सिंहासन खाली करो तो ही इसकी संभावना है कि वह तुम्हारे सिंहासन पर विराज सके।
तुम अगर बैठे रहे सिंहासन पर--अवकाश कहां? स्थान कहां? परमात्मा को बुलाते हो, तैयारी कहां है तुम्हारी? कहां बिठाओगे? कहां उसे विराजमान करोगे? अहंकार तो रोएं-रोएं में भरा है। मैं का भाव तो श्वास-श्वास में समाया है। जगह कहां बची है तुम्हारे भीतर? जगह खाली करो।
प्रेम का अनुभव उन्हीं को हो पाता है, जो अपने को डुबाने, मिटाने को राजी हैं। जो डूबते हैं, यह नदी कुछ ऐसी है कि वे ही केवल पहुंचते हैं। जो डूबे, वे बचे। जो बचे, वे डूबे। अगर किनारे पर पहुंचना हो तो मझधार में डूब जाना ही उपाय है।
ठीक हैं ये पक्तियां--
बेदार राहे-इश्क किसी से न तय हुई
यह प्रेम का रास्ता कौन कब पूरा कर पाया? इसका यह कारण नहीं है कि रास्ता लंबा है, इसका यह कारण नहीं है कि रास्ता बहुत बड़ा है, इसलिए लोग पूरा नहीं कर पाए; इसका कारण कुल इतना ही है कि यह रास्ता ऐसा है कि इसे पूरा करने वाला बीच में खो ही जाए तो ही पूरा होता है। पूरा होने का एक ही अर्थ है कि बीच में ही खो जाए। अगर पहुंच जाए दूसरे किनारे तो रास्ता खो ही गया, पूरा हुआ ही नहीं। जो पूरा नहीं कर पाते, जो स्वयं इसको पूरा करने में पूरे हो जाते हैं, वे ही केवल पहुंचते हैं।
सहरा में कैस, कोह में फरयाद रह गया
सभी प्रेमी कहीं न कहीं खो गए--कोई रेगिस्तान में, कोई पहाड़ों में, कोई प्रार्थनाओं में, कोई साधनाओं में, कोई मंदिरों में, कोई मस्जिदों में। सभी प्रेमी कहीं न कहीं खो गए। जहां खोए, वहीं घड़ी है उस परम सौभाग्य की, परम आशीष की, परम प्रसाद की।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, एक उलझन है; यदि ठीक समझें तो उसे स्पष्ट करने की कृपा करें। भगवान बुद्ध और आप दोनों कहते हैं, ध्यान से उपलब्ध आनंद को बांटो, ध्यान को बांटो। और दूसरी ओर ध्यान के अर्जन को गुप्त रखने की, छिपाकर रखने की बात भी कही जाती है।
निश्चित ही दोनों बातें कही जाती हैं, क्योंकि दोनों बातें सही हैं। उनमें विरोध नहीं है; विरोध दिखता हो तो केवल आभास है।
ध्यान मिले तो बांटो, लेकिन ध्यान जब तक न मिला हो, तब तक सम्हालो और छिपाओ। होगा तब तो बांटोगे! जल्दी बांटने की मत करना।
अक्सर नहीं होता तो भी बांटने की आकांक्षा पैदा हो जाती है। उपदेश देने का बड़ा रस है। किसी को समझाने में ज्ञानी होने का मजा आ जाता है। किसी को बताने में--चाहे तुम्हें पता हो या न हो--थोड़े क्षण को आभास होता है कि तुम्हें पता है।
इसीलिए तो दुनिया में सलाह इतनी दी जाती है, लेता कोई नहीं। कितने उपदेश दिए जाते हैं, कौन लेता है? उपदेशक पीछे घूमते हैं तुम्हारे; पकड़-पकड़ कर समझाते हैं। उपदेशकों से बचकर निकलना मुश्किल है; उन्होंने सब राह, रास्ते रोक रखे हैं। जहां से जाओ, वहीं वे मौजूद हैं; मुक्तहस्त ज्ञान बांटते हैं, मुफ्त देने को तैयार हैं। मुफ्त ही देने को तैयार नहीं, साथ में कुछ प्रसाद भी देने को तैयार हैं--लो भर! फिर भी कोई लेने वाला दिखाई नहीं पड़ता।
ध्यान रखना, बांटना कहीं अहंकार से न निकलता हो; करुणा से निकले तब बात और। पर करुणा तो तब होगी, जब ध्यान सघनीभूत होगा, जब ध्यान एक मेघ बन जाएगा। बुद्ध ने इसलिए उसे मेघ-समाधि कहा है। जब एक घने मेघ की तरह, सघन मेघ की तरह वर्षा से भरे हुए तुम हो जाओगे--उसके पहले तो बूंद-बूंद मेघ इकट्ठी करता है। इकट्ठा हो जाए तो ही बरस सकता है।
मां गर्भवती हो, नौ महीने तक गर्भ को सम्हाले, तो ही जन्मदात्री हो सकती है। बिना गर्भवती हुए, बिना नौ महीने सम्हाले, बच्चों को जन्म देने की कल्पना करने में मत उलझ जाना। इससे धोखा पैदा होगा। इससे कोई और धोखे में न पड़ेगा, तुम्हीं धोखे में पड़ोगे। और खतरा है कि कहीं तुम दूसरों के जीवन को कोई नुकसान न पहुंचा दो। क्योंकि यह बड़ी बारीक, बड़ी नाजुक बात है। इसे तो जब तुम ठीक से जान ही लो, तभी किसी को जनाना। जब तुम्हारे पैर इस भूमि पर मजबूत जम जाएं, जब तुम्हारी जड़ें इस भूमि में पूरी फैल जाएं, तभी तुम किसी को समझाना।
तो बुद्ध ठीक कहते हैं, बांटो। पर हो, तब बांटोगे न!
सूफी फकीर भी ठीक कहते हैं कि सम्हालो। क्योंकि सम्हालोगे तभी तो होगा न!
सम्हालना पड़ेगा बहुत दिन, वर्ष-वर्ष, जन्म-जन्म; जब तुम्हारे भीतर घना हो जाएगा तो बरसेगा। जरूरत है पहले सम्हालने की; पहले तुम्हारे पास हो, तुम्हारा दीया जलता हो तो तुम किसी और का दीया जलाने जाना। अपना दीया जलता ही नहीं, वहां बाती बुझी पड़ी है और तुम दूसरों के दीए जलाने निकल पड़ते हो।
इस भ्रांति में मत पड़ना। बड़े छिपाकर रखना, जो भीतर आ रहा है। जिस दिन होगा, उस दिन तो खबर मिलनी शुरू हो जाएगी। जब फूल खिलता है तो हवाओं में गंध उठ जाती है। जब तुम्हारे पास होगा तो तुम छिपाकर भी छिपा न पाओगे। जिनको भी तलाश है, जिनको भी प्यास है, जिनको भी जुस्तजू है, खोज है, वे दूर से खिंचे चले आएंगे। पहाड़ और समुंदर भी उनके लिए बाधा न बनेंगे। जिन्हें प्यास नहीं है, जिन्हें खोज नहीं है, वे पास बैठे भी वंचित रह जाएंगे।
तुम चिंता मत करना। पहले तो तुम अपने को भर लो--ऐसा लबालब कि तुम्हारे ऊपर से बहने लगे--फिर जिनको प्यास है, वे खोजते चले आएंगे; वे सदा ही खोज रहे हैं। और तब तुम मुक्तहस्त बांटना। बांटोगे ही! बांटना ही पड़ेगा!
भुनती वसुधा तपते नभ
दुखिया है सारा अगजग
कंटक मिलते हैं प्रतिपग
जलती सिकता का यह मग
बह जा बन करुणा की तरंग
जलता है यह जीवन पतंग
बह जा बन करुणा की तरंग
बहना ही होगा। बहना हो ही जाता है। क्योंकि ध्यान का अनिवार्य परिणाम करुणा है। जैसे दीया जलता है तो रोशनी फैलती है, ऐसे ध्यान का अनिवार्य परिणाम करुणा है।
बुद्ध ने इसे प्रतीक माना है: प्रज्ञा और समाधि और करुणा। तीन की त्रिवेणी है, बुद्ध के सारे वचनों का सार। तीनों एक साथ घटती हैं। इधर समाधि, उधर भीतर ज्ञान का दीया जलता है, और बाहर करुणा की तरंगें फैलनी शुरू हो जाती हैं।
ये तीनों एक साथ घटती हैं। यह त्रिमूर्ति है। यह बुद्ध की ट्रिनिटी है। ये बुद्ध के ब्रह्मा-विष्णु-महेश हैं। यह बुद्ध का संगम है, तीर्थराज प्रयाग है। इसमें से दो दिखाई पड़ती हैं। एक दिखाई नहीं पड़ती। सरस्वती अदृश्य है, गंगा-यमुना दिखाई पड़ती हैं। प्रज्ञा और करुणा दिखाई पड़ेगी, समाधि दिखाई नहीं पड़ेगी, वह सरस्वती है।
तुम किसी की समाधि नहीं देख सकते। मैं सामने बैठा हूं, तुम कैसे मेरी समाधि देख सकते हो! समाधि अदृश्य है। करुणा दिखाई पड़ सकती है, क्योंकि करुणा तुम पर बरसती है, समाधि मेरे भीतर है। प्रज्ञा दिखाई पड़ सकती है, ज्ञान दिखाई पड़ सकता है, क्योंकि ज्ञान तुम पर बरसता है। प्रकाश दिखाई पड़ सकता है प्रज्ञा का, क्योंकि तुम्हारे अंधेरे में किरणें उतरेंगी, उन किरणों की पहचान से तुम समझोगे, कहीं सूरज ऊगा है।
करुणा दिखाई पड़ सकती है, क्योंकि हलके-हलके पदचाप भी नहीं पड़ेंगे और तुम्हारे भीतर कोई प्रेम का प्रवाह आने लगेगा। तुम्हारे भीतर कोई लोरी गाने लगेगा। तुम्हारे हृदय की बीन पर कोई अंगुलियां संगीत को छेड़ने लगेंगी। तुम्हारे दुख से भरे जीवन में सुख की कोई तरंग आने लगेगी।
वे तुम्हें दिखाई पड़ सकती हैं, क्योंकि ज्ञान हो या करुणा हो, दोनों तुमसे संबंधित होंगी; समाधि तुमसे बिलकुल असंबंधित है। पर समाधि के बिना ये दोनों नहीं घटती हैं। इसलिए बुद्ध ने कहा, जहां करुणा हो और जहां प्रज्ञा हो, जानना कि समाधि भी है। क्योंकि समाधि पहले हो, तब ये दोनों होती हैं।
ध्यान को सम्हालो पहले, ताकि किसी दिन करुणा में बांट सको। ध्यान को सम्हालो पहले, ताकि किसी दिन प्रज्ञा में उसकी ज्योति जले। निश्चित ही लोग बहुत पीड़ित हैं, चारों तरफ दुख है।
तो जब मैं कहता हूं कि ध्यान को सम्हालो, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम करुणा को खो दो; तुमसे यह कह रहा हूं कि अभी करुणा का मौका तो आने दो, मेघ तो बनो। वर्षा तो हो जाएगी। असली बात मेघ का बनना है। गर्भ तो हो, जन्म तो हो जाएगा।
भुनती वसुधा तपते नभ
दुखिया है सारा अगजग
कंटक मिलते हैं प्रतिपग
जलती सिकता का यह मग
बह जा बन करुणा की तरंग
चौथा प्रश्न:
भगवान, आप कहते हैं, जीवन में कुछ भी अकारण और व्यर्थ नहीं है, सब का उपयोग है। जीवन में कामना और भय का उपयोग दिखाई पड़ता है। क्या बताने की कृपा करेंगे कि वैसे ही ईर्ष्या, द्वेष और घृणा का क्या उपयोग है?
अनुपयोगी अस्तित्व में कुछ भी नहीं। तुम पहचान पाओ, न पहचान पाओ, यह बात दूसरी है। अनुपयोगी हो ही नहीं सकता, उपयोगी ही हो सकता है। सारा अस्तित्व जुड़ा है। हर चीज दूसरी चीज से उलझी है, बंधी है, अलग-अलग नहीं है। और दुर्घटना तो होती ही नहीं। जो भी होता है, उसकी कोई गहन संगति है।
इसलिए अगर तुम्हें कभी ऐसा लगता हो कि कोई बात ऐसी है जिसका कोई उपयोग नहीं दिखाई पड़ता, तो समझना कि तुम कहीं भूल पर हो। और थोड़ा गहरे खोजना।
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित विनीत सरल है
अगर क्रोध न हो, करुणा की सब शोभा ही नष्ट हो जाती है। अगर अंधेरी रात हो तो ही सुबह का आनंद है। जीवन में जो भी है, उसका विपरीत पृष्ठभूमि का काम करता है।
घृणा है, घृणा का क्या अर्थ होता है? शब्द की बहुत फिक्र मत करो, शब्दकोश से मुझे कुछ लेना-देना नहीं। घृणा का अर्थ क्या होता है? अस्तित्वगत भाषा में घृणा का क्या अर्थ होता है? इतना ही अथर्र् होता है कि तुम दूसरे से दूर जाना चाहते हो; और कुछ अर्थ नहीं होता। तुम दूसरे के पास नहीं जाना चाहते। विकर्षण! तुम दूसरे से हटना चाहते हो, दूर हटना चाहते हो--एक अर्थ।
अगर दूसरे से दूर हटने की यह संभावना न हो तो प्रेम की संभावना समाप्त हो जाएगी। जब तुम सारे संसार से दूर हटते हो, तब कहीं तुम एक व्यक्ति के पास पहुंच पाते हो। सोचो कि घृृणा समाप्त हो जाए, उसके साथ ही प्रेम भी समाप्त हो जाएगा। तो घृणा प्रेम के लिए सीढ़ी है।
हां, अगर तुम घृणा पर ही रुक गए तो चूक हो गई। वह तुम्हारी गलती है, उससे घृणा का कोई लेना-देना नहीं। घृणा कुल इतना ही कहती है कि किसी से दूर होने का मन होता है। प्रेम इतना ही कहता है, किसी के पास होने का मन होता है, किसी को पास लेने का मन होता है--इतने पास कि सब दूरी मिट जाए, कोई फासला न रह जाए, कोई चीज बाधा न बने, कोई अंतराल न रह जाए; ऐसी कामना प्रेम है।
और किसी से दूर होने का मन होता है, ऐसा होता है कि इतना फासला हो जाए कि कोई दूसरे चांद-तारों पर और मैं दूसरे चांद-तारों पर; फासला इतना हो जाए कि कभी दुबारा पास आने का मौका ही न आए, सारा अस्तित्व बीच में आ जाए--यह तो पास आने का ही हिस्सा हुआ।
हां, अगर तुम इसमें ही उलझ गए और पास आना भूल गए और घृणा को ही जीवन का सारा धंधा बना लिया; और इस कला में इतने पारंगत हो गए कि यह भूल ही गए कि यह सीढ़ी थी, यह बैठने का मकान नहीं था, इस पर बैठकर नहीं रह जाना था, तो खतरा हुआ। अगर तुम्हें याद रहा तो तुम पाओगे कि शत्रुता भी मित्रता के लिए अनिवार्य सीढ़ी है। और घृणा प्रेम की अनिवार्य पृष्ठभूमि है। और जिस दिन तुम प्रेम के सुगंध को, सुवास को उपलब्ध होओगे, उस दिन तुम ऐसा अनुभव न करोगे कि घृणा का कोई उपयोग न था; उस दिन तुम घृणा के प्रति भी अनुग्रह का भाव अनुभव करोगे।
उपयोग करना सीखो, जहर भी औषधि बन जाता है। और ऐसे तो औषधि भी जहर हो सकती है। निर्भर करता है, कैसे तुम उपयोग करते हो। कितनी तुम्हारी समझ है! कितनी पैनी दृष्टि से तुम जीवन को देखते हो!
तो घृणा का एक तो अर्थ है: दूर होने की आकांक्षा, किसी से दूर होने की आकांक्षा।
घृणा का दूसरा अर्थ है: किसी को नष्ट करने की आकांक्षा। जिससे तुम घृणा करते हो, उसका तुम विनाश करना चाहते हो। यह भी सृृजन का अनिवार्य हिस्सा है। क्योंकि जिससे तुम प्रेम करते हो, उसे तुम शाश्वतता देना चाहते हो, अमरत्व देना चाहते हो। जिसे तुम प्रेम करते हो, उसे तुम सब तरह से निर्माण देना चाहते हो; उसे तुम ऐसा बनाना चाहते हो, उस जैसा कोई दूसरा न हो।
प्रेम में तुम्हारी सृजनात्मकता जगती है और घृणा में तुम्हारा विध्वंस जगता है। दोनों जरूरी हैं, क्योंकि किसी भी महत्वपूर्ण निर्माण में, किसी भी बड़े सृजन में विध्वंस का उपयोग करना पड़ेगा। एक नया मकान बनाना हो, पुराना गिराना पड़ता है। नए के निर्माण के लिए पुराने का विध्वंस करना पड़ता है। अगर किसी को स्वास्थ्य देना हो तो बीमारी का विनाश करना पड़ता है।
अब सवाल यह है कि कैसा तुम उपयोग करोगे! तुम्हें अगर समझ हो तो तुम विध्वंस की धारणा का भी उपयोग निर्माण में कर सकते हो, सृजन में कर सकते हो। और अगर तुम पागल हो जाओ तो तुम निर्माण की क्षमता का उपयोग भी विध्वंस के लिए कर सकते हो--जैसा कि हो रहा है।
लोग एटम बम बनाते हैं, बड़ा महत्वपूर्ण सृजन है; लेकिन बनाते इसलिए हैं कि दुनिया को नष्ट कर दें। ऐसा लग रहा है कि लोगों ने सृजन की क्षमता को विनाश की तरफ सेवा में लगा दिया है। होना उलटा चाहिए कि तुम्हारी सारी विनाश की क्षमता सृजन की दिशा में लग जाए।
अस्तित्व में तो सभी सार्थक है। तुम्हारी समझ अगर अधूरी हो, अंधी हो, भूलचूक भरी हो, तो बड़ी चूक हो जाएंगी।
ऐसा ही ईर्ष्या और द्वेष के साथ है। ईर्ष्या का क्या अर्थ होता है? इसका अर्थ होता है कि किसी के पास है और मेरे पास नहीं।
एक बुद्ध तुम्हारी राह से गुजर जाता है, ईर्ष्या नहीं होती--होनी चाहिए; और तब ईर्ष्या शुभ हो जाएगी। प्राण ईर्ष्या से नहीं भर जाते--भरने चाहिए। कोई बुद्ध हो गया?
लोग आए भी, बैठे भी, उठ भी खड़े हुए, तुम जगह ही खोजते रहे? वसंत आया भी, गया भी, तुम सोचते ही रहे--कहां आशियां बने, कहां न बने? बुद्धों को देखकर ईर्ष्या पैदा नहीं होती? होनी चाहिए।
और तब ईर्ष्या भी शुभ हो गई, सार्थक हो गई। तब तुम्हारे जीवन में एक भभक आ जाएगी। तब तुम्हारा सारा जीवन एक नए ही आंदोलन से आपूरित हो जाएगा। तुम्हारी सारी उदासी टूट जाएगी, तुम्हारी सारी शिथिलता टूट जाएगी--कोई झकझोर गया। एक तूफान आया और गुजर गया। जो तुम हो सकते थे, कोई हो गया; तुम क्यों न हो पाए?
लेकिन तुम्हारी ईर्ष्या गलत रास्तों से चलती है। कोई कार में से गुजर गया और तुम्हें ईर्ष्या पकड़ गई कि ऐसी कार तुम्हारे पास भी होनी चाहिए। हो भी जाएगी तो बहुत कुछ न होगा।
ईर्ष्या ही करनी हो तो बुद्धों से करना।
किसी के वस्त्र देख लिए, ईर्ष्या हो गई। किसी का मकान देख लिया, ईर्ष्या हो गई। बना भी लोगे मकान तो कुछ न होगा। जिसका देखकर तुम्हें ईर्ष्या हुई है, जरा उसकी तरफ तो देखो, उसे क्या हो गया है? कुछ भी नहीं हुआ। हो सकता है, तुमसे भी ज्यादा दीन-हीन अवस्था हो।
ईर्ष्या ही करनी हो तो उससे करो, जिसकी सारी ईर्ष्याएं खो गयीं।
यह हो सकता है कि तुम जिसका मकान देखकर ईर्ष्या कर रहे हो, वह तुम्हारा स्वास्थ्य देखकर ईर्ष्या कर रहा हो। सम्राट भी ईर्ष्या से भर जाते हैं।
मैंने सुना है, एक सम्राट का हाथी निकलता था। और एक जवान आदमी ने--एक फकीर था और एक मजार पर लेटा रहता था--उसकी पूंछ पकड़ ली और हाथी को रोक लिया। सोचो उस गरीब सम्राट की हैसियत! उसके प्राण कंप गए, सारा साम्राज्य मिट्टी हो गया। अचानक उस फकीर ने सम्राट को नपुंसक कर दिया। बड़ा दुखी हुआ। घर तो लौट आया, लेकिन बड़ा उदास हुआ। एक नंगा फकीर!
उसने किसी बुजुर्ग को पूछा कि क्या करें? कुछ करना पड़ेगा। यह तो निकलना बंद हो जाएगा। मैं गांव में निकलूंगा तो शर्म मालूम पड़ेगी। मैं हाथी पर हूं भला, मगर इसका क्या मतलब रहा? कोई आदमी पूंछ पकड़ ले हाथी की, हाथी न सरक सके, हम ऊपर अटके रह गए; महावत था, कुछ न कर पाया। उस बुजुर्ग ने कहा, घबड़ाओ मत। तुम ऐसा करो, खबर भेजो उस फकीर को कि तुझे एक रुपया रोज मिलेगा, सिर्फ मजार पर रोज शाम को छह बजे दीया जला दिया कर।
फकीर ने सोचा, यह तो अच्छा ही है; अभी मांगकर खाना पड़ता था, यह झंझट ही मिटी मांगकर खाने की, एक रुपया मिल जाएगा।
उन दिनों एक रुपया बड़ी बात थी, जागीर थी। एक रुपया तो एक महीने के लिए काफी था। उसने कहा कि यह तो बड़ा सौभाग्य हो गया। और कुल काम इतना है कि छह बजे दीया जला देना है। उसी मजार पर तो पड़े ही रहते हैं, तो उसमें झंझट भी क्या? उठकर जला देंगे।
महीनेभर बाद, उस बुजुर्ग ने कहा, तुम फिर निकलना हाथी पर। महीनेभर मत निकलो। महीनेभर बाद निकला सम्राट। उस फकीर ने फिर पूंछ पकड़ी, लेकिन घिसट गया। सम्राट हैरान हुआ। उस बुजुर्ग से ईर्ष्या हुई उसे अब, कि यह आदमी बड़ा अदभुत जानकार है; न देखा इस आदमी को, न गया, बस बैठे-बैठे इतनी बात बता दी और कारगर हो गई! पूछा कि कैसे यह हुआ?
उसने कहा, सीधी सी बात है। बेफिक्री उसकी मस्ती है, उसकी ताकत है; जरा सी फिक्र पैदा कर दी, मारा गया। अब फिक्र लगी रहती है उसको, दिन में दो-चार दफे देख लेता है घड़ियाल की तरफ घंटाघर की--छह तो नहीं बज गए! क्योंकि चूक जाए, कहीं भूल जाए। कभी समय की फिक्र न की थी, बेसमय जीया था। तो जरा सी फिक्र डाल दी, चौबीस घंटे खटका बना रहता है। रात में सोता है तो भी खटका बना रहता है कि छह बजे जला देना है, एक रुपया मिलना है। और रुपए मिलने लगे तो गिनती करने लगा, जोड़ने लगा कि एक रुपए में तो महीने का काम हो जाएगा, बाकी तो उनतीस रुपए बच जाएंगे। साल में कितने होंगे, दस साल में कितने होंगे! महल बना लूंगा। पहले शांति से सोया रहता था, सपने भी न आते थे, अब बड़े सपने आने लगे। मार दिया जरा सी तरकीब से।
सम्राट भी ईर्ष्यालु हो जाता है। ईर्ष्या ही करनी हो तो उनकी करना, जिनकी सारी ईर्ष्या खो गई। मगर ईर्ष्या में कुछ बुरा नहीं है। गलत की ईर्ष्या मत करना, क्योंकि गलत की ईर्ष्या करोगे तो गलत ही हो जाओगे। शुभ की ईर्ष्या करना, मंगल की ईर्ष्या करना, तो जिसकी ईर्ष्या करोगे, उसी तरफ यात्रा शुरू हो जाती है। ईर्ष्या तो दिशासूचक है--कहां जाना चाहते हो, क्या होना चाहते हो!
ईर्ष्या में कुछ भी बुरा नहीं है। द्वेष में भी कुछ बुरा नहीं है। किसी चीज में कुछ बुरा नहीं है। बस, ठीक दिशा में सारी चीजों को संयोजित करने की बात है। कांटे भी फूल हो जाते हैं, बस जरा सी समझ चाहिए। फूल भी कांटे हो जाते हैं, बस जरा सी नासमझी काफी है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, आप विचार और विचारशक्ति में जैसा भेद करते हैं, क्या वैसा ही भेद इच्छा और इच्छाशक्ति में भी तो नहीं है?
निश्चित है। जब तक विचार हैं, तब तक तुम्हारे पास विचार की शक्ति नहीं। विचारों की भीड़ है, विचार की शक्ति नहीं। क्योंकि विचार की शक्ति तो तभी पैदा होती है, जब विचारों की भीड़ विदा हो जाती है। तब तुम्हारे भीतर शुद्ध ऊर्जा होती है विचार की। विचारों से ढंकी नहीं होती, उघड़ी होती है; जलती हुई आग होती है विचारशक्ति की; राख विचारों की ऊपर नहीं होती, अंगारा दमकता है।
ठीक वैसा ही इच्छाओं के और इच्छाशक्ति के संबंध में भी है। जितनी ज्यादा इच्छाएं, उतनी कम इच्छाशक्ति। जितनी कम इच्छाएं, उतनी ज्यादा इच्छाशक्ति। अगर तुमने सारी इच्छाएं छोड़ दीं तो तुम जो इच्छा करोगे, वह इच्छा करते ही पूरी हो जाएगी। इच्छाशक्ति इतनी बड़ी हो जाएगी। जब तुम इच्छा न करोगे, तब तुम्हारे पास इतनी विराट ऊर्जा होगी कि करते ही पूरी हो जाएगी।
अब यह जीवन का राज है: जो करना चाहते हैं इच्छा पूरी, उनके पास इच्छाशक्ति नहीं है, जो नहीं करना चाहते, उनके पास है।
मैंने सुना है, एक अमीर आदमी के पास एक गरीब आदमी मिलने गया। वह अमीर आदमी ने अपने पास एक सोने का पीकदान रखा हुआ था। लाखों रुपए का होगा; उस पर हीरे जड़े थे। और वह उसमें बार-बार पान की पीक थूक रहा था। वह गरीब को बड़ा दुख हुआ, उसे बड़ा क्रोध भी आया। जिंदगीभर परेशान हो गया वह लक्ष्मी की तलाश करते-करते। आखिर उससे न रहा गया, उसने एक लात मारी पीकदान में और कहा, ससुरी! यहां थुकवाने को बैठी है। हम जिंदगीभर पीछे पड़े रहे, प्रार्थना की, पूजा की, सपने में भी दर्शन न दिए।
वह अमीर आदमी हंसने लग गया। उसने कहा, ऐसी ही दशा पहले हमारी भी थी। जब तक हम भी पीछे लगे फिरे, कुछ भी हाथ न आया। जब से हम मुड़ गए और जब से हम पीछे फिरना छोड़ दिए, चीजें अपने आप चली आती हैं।
तुम्हारी सब इच्छाएं जब तुम छोड़ दोगे, अचानक तुम पाओगे, तुम्हारे पास विराट ऊर्जा है। तब तुम इच्छा न करना चाहोगे और इच्छाशक्ति होगी।
जब तुम विचार न करना चाहोगे, तब विचारशक्ति होगी।
जब तुम जीना न चाहोगे, तब तुम्हारे पास अमर जीवन होगा।
जब तुम मिटने को राजी होओगे, तुम्हें मिटाने वाली कोई शक्ति नहीं।
जब तुम सबसे पीछे खड़े हो जाओगे, तुम सबसे आगे हो जाओगे।
जीसस ने कहा है, जो यहां सबसे पीछे हैं, वे मेरे प्रभु के राज्य में प्रथम हो जाते हैं। और लाओत्सू ने कहा है, मुझे कोई हरा न सकेगा, क्योंकि मुझे जीत की कोई आकांक्षा नहीं है।
ऐसी विजय अंतिम हो जाती है, परम हो जाती है। जीवन का यह सूत्र बड़ा बहुमूल्य है। जिसने इसे जाना, उसने बहुत कुछ जाना। और जो इसे चूकता रहा, वह जीवन के आसपास चक्कर मारता रहेगा भिखमंगे की तरह, वह कभी इस महल में प्रवेश न पा सकेगा।
बालभर अवकाश होना चाहिए
कुछ खुला आकाश होना चाहिए
बीज की फिर शक्ति रुकती है कहां
भाव की अभिव्यक्ति रुकती है कहां
जरा सी जगह चाहिए तुम्हारे भीतर--अवकाश! फिर बीज तुम्हारे भीतर पड़ा है, टूटने लगता है; विराट उससे जन्मने लगता है। लेकिन तुम्हारे विचारों की पर्तें उस बीज को नहीं टूटने देतीं। तुम्हारी इच्छाओं की पर्तें उस बीज को नहीं टूटने देतीं। जगह ही नहीं है कि बीज अंकुरित हो सके। तुम इतने भरे हो!
बस, थोड़ा खाली करो अपने को। खाली करने की कला ध्यान है। विचार से, वासना से खाली करने की कला ध्यान है।
जैसे ही तुम खाली होते हो, तुम्हारा बीज टूटता है और तुम्हें भरने लगता है। तब भराव भीतर से आता है। तब भराव अपना होता है, आत्मा का होता है। उस भराव को फिर तुमसे कोई छीन न सकेगा; वह तुम्हारा है।
अभी जिससे तुमने भरा है, वह सब उधार है और पराया है।
बालभर अवकाश होना चाहिए
कुछ खुला आकाश होना चाहिए
बीज की फिर शक्ति रुकती है कहां
भाव की अभिव्यक्ति रुकती है कहां
आज इतना ही।
भगवान, जब तक वासना है, कामना है, क्या तभी तक साधना है?
स्वभावतः रोग है तो औषधि है। स्वास्थ्य आया, औषधि व्यर्थ हुई। स्वास्थ्य में भी कोई औषधि लिए चला जाए तो घातक है। जो रोग को मिटाती है, वही रोग को फिर पैदा करेगी।
मार्ग की जरूरत है, मंजिल दूर है तब तक; मंजिल आ जाए फिर भी जो चलता चला जाए, तो जो चलना मंजिल के पास लाता था, वही फिर दूर ले जाएगा।
और प्रश्न महत्वपूर्ण है, क्योंकि अक्सर ऐसा ही होता है। बीमारी तो छूट जाती है, औषधि पकड़ जाती है। क्योंकि मन का तर्क कहता है, जिसने यहां तक पहुंचाया, उसे कैसे छोड़ दें? जो इतने दूर ले आया, उसे कैसे छोड़ दें? जिसके सहारे इतना कुछ पाया, कहीं उसके छोड़ने से वह खो न जाए।
तो अनेक यात्री मंजिल के पास पहुंचकर भी भटक जाते हैं। और बहुत सी नावें किनारे के पास आकर टकराती हैं और डूब जाती हैं। मझधार में बहुत कम लोग डूबते हैं, किनारे पर बहुत लोग डूबते हैं। यात्रा पूरी उतनी दुर्गम नहीं है, जितनी पहुंच जाने के बाद चलने की जो लंबी आदत है, उसको छोड़ना दुर्गम हो जाता है।
चित्त में अशांति है तो तुम ध्यान करते हो। धीरे-धीरे अशांति विदा होगी, शांति निर्मित हो जाएगी। फिर ध्यान को मत पकड़कर बैठ जाना; नहीं तो ध्यान ही अशांति पैदा करने का कारण बनेगा। फिर ध्यान भी जाना चाहिए।
अंधेरे में भटकते हो, किसी कल्याण मित्र का हाथ पकड़ा, फिर रोशनी आ जाए, सुबह हो जाए, तो अब हाथ को पकड़े ही मत रह जाना। हाथ का पकड़ना भी आना चाहिए, छोड़ना भी आना चाहिए।
साधन का उपयोग करना है, साधन की गुलामी नहीं अख्तियार कर लेनी है। राह पर चलना जरूर है, पर राह सिर्फ राह है, इसे जानते रहना है।
बहुत विधियां हैं; जो काम आ जाए, उसका उपयोग कर लो, लेकिन काम पूरा होते ही छोड़ देना। क्षणभर की देरी भी खतरनाक हो सकती है। क्योंकि जो खाली जगह छूट जाती है तुम्हारे भीतर, कहीं ऐसा न हो कि विधि, व्यवस्था, साधना उस खाली जगह में अड्डा जमा ले।
तो यह तो ऐसे हुआ कि तुम्हारे सिंहासन पर दुश्मन ने कब्जा किया था, तुमने मित्रों का साथ लिया, उन्होंने दुश्मन को तो हटा दिया, लेकिन खुद सिंहासन पर विराजमान हो गए। तुम जहां थे वहीं रहे; शायद पहले से भी बुरी हालत में हो गए। दुश्मन हो तो सिंहासन छीन लेना आसान भी, मित्रों से कैसे छीनोगे? अपने हैं, मित्र हैं, इनके द्वारा ही तो सिंहासन मिला है; इनसे कैसे छीनोगे?
इसलिए सदगुरु की परिभाषा समझो। सदगुरु की परिभाषा यह है कि जो एक क्षण भी जरूरत से ज्यादा तुम्हारे हाथ को न पकड़े रहे।
तुम तो पकड़ना चाहोगे। तुम तो बड़े उलझाव में हो। जब पकड़ने की जरूरत होती है, तब तुम पकड़ने से डरते हो। जब जरूरत है कि तुम हाथ पकड़ लो, तब तुम हजार उपाय करते हो न पकड़ने के। तुम्हारा अहंकार बाधा बनता है। तुम भागते हो, तुम बचते हो, तुम छिपाव करते हो। जब जरूरत थी पकड़ लेने की, झुक जाने की, समर्पित हो जाने की, तब तुम अकड़े खड़े रहते हो। बामुश्किल तुम झुकते हो। बड़ी कठिनाई से तुम हाथ पकड़ते हो। जब जरूरत थी, तब पकड़ने में तुम बाधा डालते हो। फिर जब घड़ी आएगी छोड़ने की, तब तुम छोड़ने में बाधा डालोगे। तब तुम छोड़ोगे नहीं, तब तुम जिद बांधकर बैठ जाओगे। तब तुम कहोगे, यह छोड़ने वाला हाथ नहीं, इसी ने पहुंचाया। ये चरण हम कभी न छोड़ेंगे।
सदगुरु वही है, जब तुम पकड़ना नहीं चाहते, पकड़ा दे; और जब तुम छोड़ना नहीं चाहते, तब छुड़ा दे।
साधना का कोई अर्थ नहीं है फिर। कांटे की तरह है साधना--एक कांटे को निकाल लिया, दूसरे को भी साथ ही फेंक दिया। तुम कोई सदा-सदा के लिए साधक मत बन जाना। मार्ग की बात है, उपाय है; साधन है, साध्य नहीं है। साध्य जैसे ही करीब आने लगे, वैसे ही साधन से अपने हाथ छुड़ाना शुरू कर देना। वाहन पर सवार होते हो, मंजिल करीब आ जाती है, उतर जाते हो।
प्रकृति का नियम यही है एक
कि अति का होगा ही विध्वंस
एक अति है वासना, कि खो गए, भटक गए--संसार में, व्यर्थ में, बाजार में। फिर एक दूसरी अति है कि बचाने में लग गए अपने को--संसार से, व्यर्थ से, बाजार से। ये दोनों अतियां हैं। इन दोनों में कहीं भी समत्व नहीं है।
जरूरी है साधना, क्योंकि एक अति पर चले गए तो दूसरी अति पर जाना जरूरी हो गया है। लेकिन जैसे ही एक अति कट जाए, दूसरी अति भी तत्क्षण छोड़ देना; अन्यथा घड़ी के पेंडुलम की तरह घूमते रहोगे; बाएं से दाएं, दाएं से बाएं जाते रहोगे। रुक जाना है कहीं बीच में।
देखा, जब घड़ी का पेंडुलम बीच में रुक जाता है, घड़ी रुक जाती है। घड़ी यानी समय। जहां तुम संतुलित हुए, अति गई, वहीं समय के बाहर हुए। जब तक तुम डोलते रहते हो एक कोने से दूसरे कोने, तब तक घड़ी की टिकटिक चलती रहती है; तब तक समय चलता रहता है; तब तक संसार चलता रहता है। तुम्हारा मन का पेंडुलम ही सारे संसार को चलाए जाता है।
तुमने कभी किसी नट को देखा रस्सी पर चलते? पूरे समय बाएं से दाएं, दाएं से बाएं होता रहता है। जब बाएं झुकता है तो एक घड़ी आ जाती है कि अगर और थोड़ा झुका तो गिरेगा; तत्क्षण दाएं झुक जाता है, ताकि बाएं की अति से जो भूल हुई जा रही थी, वह दाएं झुकने से पूरी हो जाए। लेकिन तब फिर दाएं में ऐसी घड़ी आ जाती है कि अब जरा और झुका कि गिरा; फिर तत्क्षण बाएं झुक जाता है, ताकि जो अति हो रही थी, उसका संतुलन हो जाए। ऐसे झुकता है दाएं से बाएं, बाएं से दाएं, और इसी भांति किसी तरह अपने को रस्सी पर बनाए रखता है।
लेकिन जब नीचे उतर आया, फिर थोड़े ही दाएं-बाएं झुकता रहेगा! फिर तो बैठ जाएगा; फिर तो झुकेगा ही क्यों? फिर तो खड़ा हो जाएगा, भूमि मिल गई। अब कोई रस्सी पर थोड़े ही चल रहा है।
संसार में चलना तनी हुई रस्सी पर चलने जैसा है। प्रतिक्षण तुम्हें झुकना ही पड़ेगा। अभी प्रेम, अभी घृणा; अभी सहानुभूति, अभी क्रोध; यह दाएं-बाएं है।
मेरे पास प्रेमी आते हैं; वे पूछते हैं कि कैसे यह घटना घटे कि हम जिससे प्रेम करते हैं, उस पर क्रोध न करें? मैं कहता हूं, यह न हो सकेगा। इसके लिए तो संसार की रस्सी से उतरना पड़ेगा। यह तो संसार की रस्सी पर तुम प्रेम करोगे तो क्रोध करना ही पड़ेगा। क्योंकि प्रेम में ज्यादा झुके, गिरने का डर हो जाता है; क्रोध की तरफ मुड़े, सम्हल गए। क्रोध में भी ज्यादा झुकोगे तो डर हो जाएगा, तो फिर पत्नी के लिए फूल खरीद लाए, आइसक्रीम ले आए। फिर थोड़ा प्रेम किया; फिर खतरा पैदा हो जाता है। तो जिससे तुम प्रेम करोगे, उससे ही घृणा भी करते रहोगे। और जिससे तुम्हारे मन का लगाव है, उससे ही तुम राग भी रखोगे, उससे ही दुश्मनी भी चलती रहेगी।
पश्चिम में एक बहुत अनूठी किताब कुछ वर्षों पहले प्रकाशित हुई, उस किताब का नाम है: दि इन्टीमेट एनीमी। वह पति-पत्नी के संबंधों के संबंध में किताब है: दि इन्टीमेट एनीमी।
लेकिन यह तो सूझ इसको अभी-अभी आई। उर्दू में शब्द है, हिंदी में भी उपयोग होता है: खसम। खसम का मतलब होता है, पति। और खसम का मतलब शत्रु भी होता है। मूल अरबी में तो शत्रु होता है। कैसे शत्रु से पति हो गया, बड़े आश्चर्य की बात है। कोई जोड़ नहीं दिखाई पड़ता। मूल शत्रु है, फिर पति कैसे हो गया? जरूर लोग पकड़ गए होंगे बात। सूत्र समझ में आ गया होगा, खयाल में आ गया होगा कि जिससे प्रेम है, उससे दुश्मनी भी है।
जहां प्रेम है, वहां घृणा है। जहां लगाव है, वहां विराग भी। जहां-जहां राग है, वहां-वहां वैराग्य आता ही रहेगा।
तुमने कभी खयाल किया, कितनी बार नहीं घर से भाग उठने का मन हो जाता है! छोड़ो पत्नी-बच्चे! मगर स्टेशन भी न पहुंच पाओगे कि लौट आओगे। इसको कोई स्थाई बात मत समझ लेना। यह कोई स्थाई भाव नहीं है, यह तो कई बार आता है। कितनी बार आदमी मरना नहीं चाहता!
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जिसने जिंदगी में कम से कम दस बार आत्मघात का विचार नहीं किया हो। यह जरूरी है। जिंदगी अति हो जाती है, मरने का भाव करके सम्हाल लेते हैं। जीवन बोझिल हो जाता है, भारी हो जाता है, मरने की कल्पना से ही राहत मिल जाती है। मरता कौन है! राहत मिल गई, फिर जिंदगी में लग जाते हैं। यह तो जिंदा रहने का ही ढंग है। तो कोई अगर मरने वगैरह की बातें करे तो बहुत चिंतित मत होना; कहना, ठीक है, मरो!
मैं एक घर में रहता था कुछ दिनों तक। नया-नया मेहमान था उस परिवार में, कुछ उस परिवार का रीति-रिवाज मुझे पता न था। एक दिन मैंने रात को कोई ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे पति-पत्नी में झगड़ा सुना। मैं चुप ही रहा, मेरे बोलने का कोई कारण नहीं बीच में। लेकिन बात यहां तक बढ़ गई कि पति ने कहा कि मैं अभी जाकर मर जाऊंगा। तो थोड़ा मैं चिंतित हुआ कि अब--मेहमान भी हूं तो भी क्या हुआ! फिर भी मैंने कहा कि अभी जाने दो, तब देखूंगा। वे गए भी; जब उनको मैंने घर के बाहर भी निकलते देख लिया तो मैं भागा। मैंने उनकी पत्नी से कहा, अब कुछ करना पड़ेगा। उसने कहा, फिकर मत करो; अभी पांच-सात मिनट में वापस आते हैं। वे पांच-सात मिनट में वापस भी आ गए।
सुबह मैंने उनसे पूछा कि कहां तक गए थे? उन्होंने कहा कि पता नहीं क्या मामला है, कई दफा ऐसा हो जाता है। गुस्से में चला जाता हूं, रेल की पटरी पास ही है, बस वहां तक पहुंचा कि सब ठीक हो जाता है; फिर वापस लौट आता हूं। जीने का हिस्सा है।
ऐसे हम अपने को धोखा दे लेते हैं कि चलो, मरे जाते हैं; अब तो बात खतम हुई। मरने के खयाल से ही जीवन का बोझ क्षणभर को नीचे उतर गया; फिर उठाकर रख लेंगे सिर पर। कहीं कोई इतने जल्दी मरा जाता है! तुमसे मैं कहता हूं, जो मर भी जाते हैं--कुछ लोग जल्दबाजी कर लेते हैं और मर जाते हैं--अगर वे तुम्हें मिल जाएं तो वे पछताते मिलेंगे। वे कहेंगे, जरा जल्दी कर दिए; क्षणभर और ठहर जाते। कुछ लोग तेजी में गुजर जाते हैं, जल्दी कर लेते हैं। क्षणभर में घट जाए तो घट जाए, जरा विलंब हो जाए तो तुम वापस लौट आओगे। यह मन का ढंग है।
कि जीवन आशा का उल्लास
कि जीवन आशा का उपहास
कि जीवन आशा में उदगार
कि जीवन आशाहीन पुकार
दिवा-निशि की सीमा पर बैठ
निकालूं भी तो क्या परिणाम
विहंसता आता है हर प्रात
बिलखती जाती है हर शाम
सुबह हंसती हुई मालूम होती है, सांझ रोती हुई मालूम होती है; द्वंद्व नहीं है लेकिन। सुबह हंसती हुई मालूम हुई, इसीलिए सांझ रोती हुई मालूम होती है। सुबह मुस्कुराती आती है, वही मुस्कुराहट सांझ आंसू बन जाती है। यह जीवन की सहज व्यवस्था है।
आशा-निराशा, उजाला-अंधेरा, मित्रता-शत्रुता--ऐसे हम नट की तरह रस्सी पर सधे रहते हैं। वासना-साधना; भोग-योग--ऐसे हम रस्सी पर सधे रहते हैं।
जानना तो तुम उस दिन भूमि मिली, जिस दिन न भोग रह जाए, न योग रह जाए; न वासना रह जाए, न साधना रह जाए; न प्रेम रह जाए, न घृणा रह जाए; न क्रोध रह जाए, न अक्रोध रह जाए; सारे द्वंद्व खो जाएं तो तुम उतर आए।
वही है मुक्ति की भूमि। वही है मुक्ति का आकाश।
अब तुम रस्सी पर नहीं हो। अब सम्हालने की कोई जरूरत ही नहीं है। अब गिरने का कोई खतरा ही नहीं है, सम्हालेगा कोई क्यों? सम्हालते तो हम तब हैं, जब गिरने का खतरा होता है। स्वर्ग और नर्क, जब तुम दोनों से नीचे उतर आए, तब है मोक्ष की भूमि। स्वर्ग और नर्क के बीच खिंची है रस्सी; उसी रस्सी पर चल रहा है संसार।
साधना निश्चित ही समाप्त हो जाती है वासना के साथ। साधना और वासना जुड़वां बहनें हैं। सुनकर तुम्हें हैरानी होगी। कोई साधु यह बात तुमसे न कहेगा। इसलिए साधु मुझसे नाराज हैं।
साधना, वासना जुड़वां बहनें हैं, उनकी शकलें बिलकुल एक जैसी हैं। वे साथ ही साथ पैदा हुई हैं और साथ ही साथ मर जाती हैं।
साधना की जरूरत को कोई बड़ा सौभाग्य मत समझ लेना। कोई दवाई की बोतल को सिर पर लेकर शोभायात्रा मत निकाल देना; वह केवल रोग की खबर है। तुम्हारे घर में चिकित्सक रोज-रोज आता है, इसे तुम ऐसा मत समझ लेना कि तुम बड़े महिमाशाली और सौभाग्यशाली हो।
एक अत्यंत हिंदू बुद्धि के व्यक्ति मुझे मिलने आए थे; कहने लगे, भारत भूमि बड़ी सौभाग्यशाली है। मैंने कहा, कारण? कहने लगे, देखो, हिंदुओं के चौबीस अवतार, जैनों के चौबीस तीर्थंकर, बुद्धों के चौबीस बुद्ध, सभी यहां हुए।
मैंने कहा, यह तो दुर्भाग्य मालूम होता है। इतने तीर्थंकर, इतने अवतार, इतने बुद्ध पैदा होते हैं, इतने चिकित्सक आते हैं; बीमार की हालत बड़ी बुरी है। साफ है कि बड़ा दुर्भाग्य होगा। इतने बार चिकित्सक आते हैं और चिकित्सकों की जरूरत बनी ही रहती है, इसे तुम सौभाग्य का मुकुट मत समझो।
वे थोड़े चौंके। उन्हें कभी इसका विचार भी न आया होगा। वे कहने लगे कि बात में तो थोड़ा अर्थ मालूम होता है। अगर देश सच में ही धार्मिक हो तो अवतारों की क्या जरूरत है? मैंने उनसे कहा, अपनी गीता ही उलटकर देखो; कृष्ण कहते हैं, जब अंधेरा होगा और धर्म भ्रष्ट हो जाएगा और साधु पीड़ित किए जाएंगे, तब मैं आऊंगा। साफ है कि कृष्ण वहीं आएंगे, जहां अधर्म होगा। और अगर यहां आए तो अधर्म होना चाहिए। इसको तुम धार्मिक देश मत कहना। और मुल्कों में नहीं आए, जरूर हमसे बेहतर हालत में होंगे।
चिकित्सक की जरूरत रोगी को है। अवतार की जरूरत अधार्मिक को है। दीए की जरूरत अंधेरे में है। सुबह होते ही हम दीया बुझा देते हैं। क्या जरूरत?
इसीलिए तो दीवाली हम अमावस की रात में मनाते हैं। जब गहन अंधकार होता है तो दीयों के अवतार पंक्तिबद्ध फैला देते हैं। सबसे अंधेरी रात वर्ष की जो है, उस वक्त हम सबसे ज्यादा दीए जलाते हैं। दिन में कोई दीवाली मनाएगा, उसे हम पागल कहेंगे।
अगर मैं ध्यान करूं तो मैं पागल हूं; अगर तुम ध्यान न करो तो पागल हो।
मुझसे लोग आ जाते हैं पूछने कि आप ध्यान कब करते हैं? मैंने कहा, मैं कोई पागल हूं? मेरा दिमाग खराब हुआ है? वे कहते हैं कि फिर हमें क्यों समझाते हैं? तो मैं समझाता हूं, क्योंकि अगर तुम न करोगे तो तुम पागल हो।
बात सीधी है। उलटी लगती है, जरा भी उलटी नहीं है। पहुंच गए, मंजिल समाप्त हुई; चलना क्या है? पा लिया, खोज बंद हुई; खोजना क्या है?
साधना का उपयोग करना, यही उस शब्द का मतलब है। साधना का अर्थ है: साधन; साध्य नहीं। जब तुम सिद्ध हो जाओगे, साध्य मिल जाएगा, साधना भी छूट जाएगी। इसे याद रखना, मोह मत बनाना साधना से।
रामकृष्ण ने बहुत दिनों तक भक्ति की साधना की। भक्ति की साधना तो की, लेकिन मन में कहीं एक पीड़ा खलती रही। और वह पीड़ा यह थी कि अभी अद्वैत का अनुभव नहीं हुआ। आंख बंद करते हैं, महिमामयी मां की मूर्ति खड़ी हो जाती है, लेकिन एकांत, परम एकांत--जिसको महावीर ने कैवल्य कहा--उसका कोई अनुभव नहीं हुआ; दूसरा तो मौजूद रहता ही है। परमात्मा सही, लेकिन दूसरा तो दूसरा ही है। और जहां तक दो हैं, वहां तक संसार है। जहां तक द्वंद्व है--मैं हूं, तू है--वहां तक संसार है।
रामकृष्ण बड़े पीड़ित थे। फिर उन्हें एक संन्यासी मिल गया अद्वैत का साधक, सिद्ध। तोतापुरी उस संन्यासी का नाम था। रामकृष्ण ने पूछा, मैं क्या करूं? अब कैसे मैं इस द्वंद्व के पार जाऊं? तोतापुरी ने कहा, बहुत कठिन नहीं है। एक तलवार उठाकर मां के दो टुकड़े कर दो।
रामकृष्ण तो कंप गए, रोने लगे--मां के और टुकड़े! और यह आदमी कैसी बात कर रहा है धार्मिक होकर!
परम धर्म इसी भाषा में बोलता है। परम धर्म तलवार की भाषा में बोलता है।
जीसस ने कहा है, मैं तलवार लाया हूं। मैं शांति लेकर नहीं आया हूं, तलवार लेकर आया हूं। तोड़ दूंगा सब। टूटने पर ही तो शांति होगी।
तोतापुरी ने कहा, इसमें अड़चन क्या है?
रामकृष्ण ने कहा, तलवार कहां से लाऊंगा वहां?
तोतापुरी हंसने लगा। उसने कहा, जब मां को ले आए--कहां से लाए? कल्पना का ही जाल है। बड़ी मधुर है कल्पना, बड़ी प्रीतिकर है, पर तुमने ही सोचा, माना, रिझाया, बुलाया, आह्वान किया, कल्पना को सजाया हजार-हजार रंगों में, वही कल्पना आज साकार हो गई है। तुमने ही उसमें प्राण डाले हैं। तुमने ही अपनी ज्योति उसमें डाली है। तुमने ही उसे ईंधन दिया, अब ऐसे ही एक तलवार भी बना लो और काट दो।
रामकृष्ण आंख बंद करते, कंप जाते। जैसे ही मां सामने खड़ी होती, हिम्मत ही न होती। तलवार--और मां! परमात्मा को कोई काटता है तलवार से? आंख खोल देते घबड़ाकर कि नहीं, यह न हो सकेगा।
तो तोतापुरी ने कहा, न हो सकेगा तो बात ही छोड़ दो फिर कैवल्य की। मैं चला! मेरे पास समय खराब करने को नहीं है। करना हो तो यह आखिरी मौका है। और यह बचकानी आदत छोड़ो। यह क्या मचा रखा है? रोना, आंसू बहाना! उठाकर एक तलवार हिम्मत से दो टुकड़े तो कर।
रामकृष्ण ने कहा, मेरी कुछ सहायता करो। लगती है बात तुम ठीक कह रहे हो; लेकिन बड़े भाव से सजाया, बड़े भाव से यह मंदिर बनाया है। जीवनभर इसी में गंवाया है, यह मुझसे होता नहीं।
तोतापुरी ने कहा, तो फिर मैं तेरी सहायता करूंगा। वह एक कांच का टुकड़ा उठा लाया और उसने कहा कि जब तेरे भीतर मां की प्रतिमा बनेगी तो मैं तेरे माथे पर कांच से काट दूंगा। जब मैं काटूं और तुझे पीड़ा हो और खून की धार बहने लगे, तब तू भी एक हिम्मत करके भीतर की मां को उठाकर तलवार काट देना। बस, फिर मैं न रुकूंगा। करना हो, कर ले।
अब यह जाने लगा तो बेचारे रामकृष्ण को करना पड़ा। इस आदमी ने उठाकर उनके माथे पर कांच के टुकड़े से लकीर काट दी, खून बहने लगा। जैसे ही उसने लकीर काटी, रामकृष्ण भी हिम्मत किए और तलवार उठाकर भीतर कल्पना को खंडित कर दिया। कल्पना के खंडित होते ही कैवल्य उपलब्ध हो गया। लेकिन बड़ी अड़चन हुई, बड़े दिन लगे।
साधन से भी आदमी की आसक्ति बन जाती है। तुम अगर प्रतिमा बना लेते हो मन में तो उसे छोड़ना मुश्किल हो जाएगा। तुमने अगर ध्यान किया, ध्यान छोड़ना मुश्किल हो जाएगा। प्रार्थना की, प्रार्थना छोड़नी मुश्किल हो जाएगी। और ध्यान रखना, छोड़ना तो पड़ेगा ही। क्योंकि ये उपचार थे, इन्हें किसी कारण से पकड़ा था। इनके पकड़ने की शर्त ही खो गई।
यह तो ऐसे ही है, जैसे कोई नया मकान बनाता है तो एक ढांचा खड़ा करता है, ढांचे के सहारे मकान बना लेता है। फिर मकान बन जाता है तो ढांचे को गिरा देता है। अब तुम्हारा कहीं ढांचे से मोह हो जाए और तुम ढांचे को न गिराओ तो तुम्हारा भवन रहने योग्य न हो पाएगा। ढांचा रहने न देगा। जब भवन बन गया तो ढांचा गिरा देना। जब सीढ़ी चढ़ गए तो सीढ़ी छोड़ देनी है।
इसलिए पहले से ही अगर ध्यान रहे इस बात का कि साधना का उपयोग तो कर लेना है, लेकिन साधना के हाथ में मालकियत नहीं दे देनी है, तो शुभ होता है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, संसार को, बाजार को छोड़कर अपने को पा लो, यह आपने कहा। कृपया बताएं कि प्रेम संसार के बाजार में है या अपने भीतर? और क्या प्रेम का क्षेत्र भीतर और बाहर दोनों तरफ नहीं है?
समझना पड़े।
काम तो बिलकुल बाहर है। कामना, बाहर की तरफ भागती हुई ऊर्जा का नाम है; जिसे भीतर की याद भी नहीं रही, जिसे याद भी नहीं रही कि भीतर जैसा भी कुछ है। कामना बाहर जाती हुई, बहिर्मुखी ऊर्जा है।
साधना, प्रार्थना, भक्ति--कोई नाम दो--भीतर जाती ऊर्जा है, जिसे याद भी न रहा कि बाहर है, जिसे खयाल भी न रहा कि बाहर जैसी भी कोई चीज है।
कामना बाहर, प्रार्थना भीतर; दोनों अतियां हैं। प्रेम दोनों के मध्य में है, दोनों के बीच में है। जैसे कोई अपनी देहली पर खड़ा हो--न बाहर जा रहा है, न भीतर जा रहा है, ठिठक गया हो; जैसे कोई दोनों तरफ देख रहा हो, बीच में खड़ा हो।
प्रेम मध्य बिंदु है प्रार्थना और कामना के बीच में।
काम हार गया है, प्रार्थना अभी पैदा नहीं हुई। कामना व्यर्थ दिखाई पड़ने लगी है, सार्थक का अभी उदय नहीं हुआ। यात्रा जैसे थम गई है। प्रेम एक ठिठकी अवस्था है। बाहर जाने जैसा नहीं लगता; हार गए वहां; राख ही राख पाई, मुंह का स्वाद सिर्फ बिगड़ा और कुछ भी न हुआ; और भीतर का अभी कुछ पता नहीं है। एक बात पक्की हो गई, बाहर व्यर्थ हो गया और भीतर के द्वार अभी खुले नहीं। बीच में ठिठककर खड़ी हो गई जो ऊर्जा है, वही प्रेम है।
अगर तुमने जल्दी न की प्रेम को प्रार्थना बनाने की तो फिर कामना बन जाएगा। प्रेम के क्षण जब भी आएं तो दो ही संभावनाएं हैं; ऊर्जा ज्यादा देर तक ठिठकी न रहेगी, क्योंकि ठिठका होना इस जगत की व्यवस्था नहीं है। कोई ऊर्जा ठहरी नहीं रह सकती; या तो जाएगी बाहर, या जाएगी भीतर--जाना पड़ेगा।
ऊर्जा यानी गति, गत्यात्मकता।
तो एक क्षण को ठहर सकती है। उस ठहरे क्षण का उपयोग कर लो तो प्रेम भक्ति बन जाता है, या प्रार्थना बन जाता है। अगर उपयोग न करो तो प्रेम फिर कामना बन जाता है, फिर वासना बन जाता है।
इसलिए प्रेमी की बड़ी पीड़ा है। और पीड़ा यही है कि बहुत बार ठिठक आ जाती है और फिर-फिर ऊर्जा बाहर चली जाती है। प्रेम के बहुमूल्य क्षण का उपयोग करना बहुत थोड़े लोग जानते हैं। जो प्रेम के बहुमूल्य क्षण का उपयोग कर लेते हैं, उनके भीतर प्रार्थना का उदय हो जाता है।
अब इसे खयाल में ले लेना: काम अर्थात बाहर; प्रार्थना अर्थात भीतर; प्रेम यानी दोनों के मध्य में। और चौथी अवस्था है, दोनों के पार। चौथी अवस्था यानी परमात्मा।
इसलिए जीसस ने कहा है कि प्रेम जैसा है परमात्मा। ऐसा नहीं कहा है कि ठीक प्रेम ही बस परमात्मा है--नहीं तो परमात्मा की तो बात भी उठाने की जरूरत न रहे--प्रेम जैसा है। एक स्वभाव, एक समानता प्रेम और परमात्मा में है। प्रेम दोनों के मध्य में है, परमात्मा दोनों के पार है। प्रेम बाहर और भीतर के बीच में है, परमात्मा बाहर और भीतर के ऊपर है।
इस जीवन के हमारे जितने अनुभव हैं, उनमें प्रेम सर्वाधिक सूचक है परमात्म दशा का। प्रेम ठिठकता है, परमात्मा ठहरा हुआ है। प्रेम क्षणभर को परमात्मा बनता है, परमात्मा सदा को प्रेम है। प्रेम दो छोरों के बीच में एक थोड़ा सा पड़ाव है, थोड़ी सी राहत, थोड़ा सा विश्राम, विराम-चिह्न। परमात्मा पूर्ण विराम है--दोनों के पार।
परमात्मा की अवस्था में न तो कुछ बाहर है फिर, न कुछ भीतर है। बाहर और भीतर दोनों परमात्मा में हैं। परमात्मा के बाहर कुछ भी नहीं है, इसीलिए परमात्मा के भीतर कुछ है, कहने का कोई अर्थ नहीं; परमात्मा ही है। बस, परमात्मा है; बाहर-भीतर का कोई अर्थ नहीं रह जाता। उसके बाहर कुछ नहीं है तो भीतर कैसे कुछ होगा? यह द्वंद्व गिर जाता है।
प्रेम में भी यह द्वंद्व क्षण भर को ठहरता है, इसलिए प्रेम में थोड़ी सी झलक परमात्मा की है। बस, इस जगत में परमात्मा की झलक देने वाली घड़ी प्रेम की घड़ी है।
इसलिए तुम चकित होओगे, अगर मैं यह कहूं कि प्रार्थना भी परमात्मा के उतने निकट नहीं है जितना प्रेम; क्योंकि प्रार्थना फिर एक अति हो गई। बाहर से छूटे तो भीतर को पकड़ लिया; बाहर से भागे तो भीतर को पकड़ लिया। जरूरी है, भीतर को पकड़ना पड़ेगा बाहर से भागने के लिए। एक अति से बचने के लिए दूसरी अति पकड़नी पड़ेगी। और अभी दोनों के बीच में तुम ठहर न सकोगे। दोनों के बीच में ठहरने का तो उपाय, दोनों के पार हो जाना है।
लेकिन जब तुम पार हो जाओगे, तब तुम पाओगे, अरे! प्रेम का जो क्षणभर के लिए विराम आया था, परमात्मा वैसा ही है--शाश्वत होकर, सनातन होकर। प्रेम में जिसकी बूंद मिली थी, परमात्मा उसी का सागर है।
वासना में भी तुम हो, प्रार्थना में भी तुम हो। वासना में दृष्टि बाहर की तरफ जा रही है, प्रार्थना में दृष्टि भीतर की तरफ जा रही है; प्रेम के क्षण में तुम नहीं होते। पर क्षण बड़ा छोटा है। शायद तुम पकड़ भी न पाओ इतना छोटा है; आणविक है, तुम्हारी पकड़ से भी चूक जा सकता है।
तो या तो तुम वासना को प्रेम कहते रहते हो, कामना को प्रेम कहते रहते हो--जो प्रेम नहीं है--या फिर अगर बदले तो प्रार्थना को, भक्ति को पे्रम कहने लगते हो। लेकिन प्रेम दोनों के बीच का बड़ा छोटा सा विराम है।
ऐसा ही समझो, एक श्वास भीतर जाती है, फिर श्वास बाहर आती है। तुमने खयाल किया, भीतर जाने और बाहर आने के बीच में क्षणभर को श्वास कहीं भी नहीं जाती। पर क्षण बड़ा छोटा है, खयाल करना उस पर। श्वास भीतर गई--छोटा सा विराम है; तब न तो भीतर जा रही है, न बाहर जा रही है--फिर बाहर गई, फिर छोटा सा विराम है, न तो अब बाहर जा रही है, न भीतर जा रही है।
इस छोटे से विराम को जिसने पकड़ लिया, वही प्रेम के विराम को भी पकड़ने में सफल हो पाएगा।
विज्ञान भैरव तंत्र में इस विधि को बड़ा मूल्य दिया गया है। जब श्वास न बाहर जाती है, न भीतर, जब सब ठहर गया होता है, उसमें ही डूब जाओ; वहीं से तुम द्वार पा लोगे परमात्मा का।
प्रेम भी ऐसी ही घड़ी है। कामना बाहर जाती है, प्रार्थना भीतर जाती है; प्रेम ऐसी घड़ी है, जब तुम न बाहर जाते, न भीतर जाते। और मजा यही है कि जब तुम न बाहर जाते और न भीतर जाते, तो तुम हो ही नहीं सकते। क्योंकि तुम केवल जाने में हो सकते हो, ठहरने में नहीं हो सकते। जब तुम्हारी श्वास ठहर जाती है, तब तुम नहीं होते; तुम मिट गए होते हो। अहंकार रह ही नहीं सकता वहां। अहंकार के लिए गति चाहिए। अहंकार के लिए सक्रियता चाहिए। अहंकार के लिए कर्म चाहिए। कुछ हो तो अहंकार बच सकता है; कुछ भी न हो रहा हो तो अहंकार कैसे बचेगा? अहंकार उपद्रव है। इसलिए अहंकारी शांत नहीं बैठ सकता।
मेरे पास अहंकारी आ जाते हैं; वे कहते हैं, ध्यान करना है, शांत बैठना है, लेकिन बैठ नहीं सकते शांत। अहंकारी शांत नहीं बैठ सकता, क्योंकि उसे लगता है कि यह तो समय व्यर्थ गया; इतनी देर में तो कुछ अहंकार की पूंजी कमा लेते, कोई पद पा लेते, कहीं आगे बढ़ जाते, किसी को धोखा दे लेते, कुछ कर लेते, कुछ होता, यह तो बेकार गया।
अहंकार के लिए ध्यान से ज्यादा व्यर्थ कोई चीज मालूम नहीं होती। कुछ व्यर्थ भी कर लेते तो भी कुछ किया तो! जुआ खेल लेते, ताश खेल लेते, किसी से बकवास कर आते, कुछ किया तो! थोड़ा साम्राज्य किसी तरह फैलाया तो! लेकिन ध्यान, कुछ भी न किया, खाली बैठ गए। अहंकार के लिए ध्यान एकदम व्यर्थ बात मालूम होती है, इससे ज्यादा व्यर्थ कोई बात नहीं।
पश्चिम में उन्होंने मजाक बना रखा है कि पूरब के लोग आंखें बंद करके अपनी नाभि को देखते रहते हैं। पता नहीं, पागल क्या कर रहे हैं! कुछ करो!
ध्यान है, होने की अवस्था; अहंकार है, करने की अवस्था।
दो श्वासों के बीच में जब कुछ भी नहीं होता, तब तुम भी नहीं होते। काम और भक्ति के बीच में जब विराम पड़ता है, तब भी तुम नहीं होते; यह काल संध्याकाल है।
रात जब तुम सोने जाते हो--जागरण जा चुका, नींद आई नहीं, क्षण भर को फिर विराम आता है, जब तुम न तो कह सकते हो जागे हो, न कह सकते हो सोए हो--आधे-आधे, मध्य में खड़े, देहरी पर खड़े। बाहर जाना बंद है, बाजार नहीं है; भीतर अभी गए नहीं; बीच में खड़े, फिर संध्याकाल आया, उसी संध्याकाल में अगर डूब जाओ तो जो पाने योग्य है, वह पा लिया जाता है। जो होने योग्य है, वह आदमी हो जाता है।
जीवन में इन संध्याकालों को ही वास्तविक द्वार कहा है। इसलिए हमने प्रार्थना को भी संध्या नाम दिया है। लोग कहते हैं, संध्या कर रहे हैं। संध्या करने का अर्थ भी नहीं समझते। संध्या करने का अर्थ है: किन्हीं दो अतियों के बीच में, मध्य को खोज रहे हैं। किन्हीं दो गतियों के बीच में विराम को खोज रहे हैं। सूरज ढल गया, रात नहीं हुई; प्रकाश जा चुका, अंधकार उतरने-उतरने को है--बस जरा सी देर है, क्षणभर में चूक जाओगे।
प्रेम का क्षण बहुत बारीक क्षण है। तुम श्वास से शुरू करो, अगर प्रेम को पकड़ना हो। श्वास का अभ्यास करो; जहां श्वास ठहर जाती है, वहीं अपनी आंखों को गड़ाओ। और तुम बहुत चकित होओगे, अगर तुम उस विराम को पकड़ने में सफल हो गए, श्वास ज्यादा देर तक ठहरी रहेगी। कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है, कई क्षण निकल जाएंगे, श्वास ठहरी रहेगी। कई मिनट निकल सकते हैं, कई घंटे भी निकल सकते हैं, और श्वास ठहरी रहे।
अगर तुम्हारा ठीक-ठीक हाथ पड़ जाए विराम पर, अगर तुम्हारा संयोग सध जाए विराम से, तो तुम एक ऐसे पारलौकिक दशा में लीन हो जाओगे कि खबर ही न रहेगी कि श्वास लेनी है; सब ठहर जाएगा। उस ठहरी दशा को ही हम समाधि, सतोरी का क्षण कहते हैं।
जब ऐसी दशा तुम्हें स्वाभाविक हो जाए कि जब तुम्हारी मर्जी हो, आंख बंद की और उतर गए, सीढ़ियां साफ हो जाएं, द्वार खुला रह जाए--तुम सिद्ध हो गए। फिर तुम बाहर जाओ तो भी तुम बाहर नहीं जा सकते, तुम भीतर जाओ तो भी भीतर नहीं जा सकते, क्योंकि तुम खो गए। तुम ही न बचे तो बाहर-भीतर भी गया। अब तो जो बचा, वही परमात्मा है।
कूचए-जानां की मिलती थी न राह
उस प्यारे का मार्ग न मिलता था।
कूचए-जानां की मिलती थी न राह
बंद की आंखें तो रस्ता खुल गया
आंख का बंद हो जाना--अर्थ क्या है? आंख तो तुम बहुत बार बंद करते हो, रास्ता कहां मिलता है? आंख तो तुम अभी बंद कर सकते हो, रास्ता कहां मिलता है? तो जरूर इस आंख से कुछ मतलब न होगा। आंख तभी बंद होती है तुम्हारी, जब कोई कामना नहीं रहती।
प्रार्थना भी एक तरह की कामना है, वहां भी मांग जारी है। परमात्मा के मंदिरों में बैठे लोगों के प्रार्थना के बाद फैले हुए हाथ भी वासना के ही हाथ हैं। परमात्मा के सामने झुके हुए सिर भी वासना के ही झुके हुए सिर हैं--कुछ मांग जारी है। अब बाहर का धन नहीं मांगते, भीतर का धन मांगते हैं--मांग जारी है।
जहां तक मांग जारी है, वहां तक आंख खुली है। जहां तक तुम कुछ सोच रहे हो, मिल जाए, वहां तक आंख खुली है। जहां तुमने सोचना छोड़ा कि कुछ मिलने को है, कुछ मिलने का सवाल न रहा; तुम हो गए; जैसे हो बस, उसमें डूब रहे--आंख बंद हो गई। फिर आंख खुली भी रहे तो कोई फर्क नहीं पड़ता। आंख बंद हो गई।
तुमने बुद्ध पुरुषों की मूर्तियां देखीं? आंख न तो खुली है और न बंद है, अधखुली है। अधखुली प्रतीकात्मक है; उसका अर्थ है: न बाहर, न भीतर; जरा सी खुली है, नीचे की सफेद पुतली दिखाई पड़ती है।
इसलिए योग में व्यवस्था है कि ध्यानी जब ध्यान करने बैठे तो इस तरह बैठे कि सिर्फ नाक का अग्रभाग दिखाई पड़ता रहे, बस! इसका मतलब हुआ, आंख बस आधी खुली हो, आधी बंद हो। प्रतीकात्मक है, प्रयोजन केवल इतना है कि न तुम भीतर जाओ, न तुम बाहर जाओ, बीच में संध्याकाल में ठहर जाओ।
प्रेम संध्याकाल है।
तुम कहते हो, तुमने प्रेम जाना। प्रेम बहुत कम लोग जान पाते हैं, क्योंकि जिन्होंने प्रेम को जान लिया, उन्हें फिर परमात्मा को जानने में बाधा क्या रही? जिन्होंने प्रेम को जान लिया, फिर कोई कारण समझ में नहीं आता कि वे परमात्मा को जानने से क्यों वंचित रह गए हैं? यह हो नहीं सकता। जिनके हाथ में कुछ हीरे आ गए, उनके हाथ में पूरी खदान ही आ गई। हीरे ही न आए होंगे, कंकड़-पत्थरों को समझ लिया होगा हीरे हैं, इसलिए खदान नहीं मिली है।
रामानुज के पास एक आदमी आया और उसने कहा कि मुझे परमात्मा से मिलना है। रामानुज ने उसे गौर से देखा और कहा कि तूने कभी किसी को प्रेम किया? उस आदमी ने कहा कि इन झंझटों में मैं कभी पड़ा ही नहीं। छोड़ें ये बातें। मुझे तो प्रेम से क्या लेना-देना? परमात्मा की खोज है।
लेकिन रामानुज ने कहा, तू थोड़ा सोच, कभी किसी से किया हो प्रेम? किसी से भी किया हो, कोई याददाश्त तुझे आती हो?
उसने कहा कि आप भी कहां की बात कर रहे हैं! मैं परमात्मा की बात करता हूं, आप दूसरा ही विषय छेड़ रहे हैं। मैं साधक पुरुष हूं, विरागी हूं, प्रेम वगैरह की झंझट में मैं कभी नहीं पड़ा।
मगर रामानुज भी अजीब; वे फिर पूछे कि फिर भी तू सोच, क्योंकि सारी बात इसी पर निर्भर है। अगर तूने प्रेम का क्षण जाना हो तो फिर परमात्मा की शाश्वतता को भी जान सकेगा। अगर प्रेम की बूंद ही नहीं चखी तूने तो सागर को तू कैसे चखेगा? सागर में तू कैसे उतरेगा? लहर को तो पहचान, फिर सागर को पहचान लेंगे।
उस आदमी की समझ में न आया। वह शायद नाराज ही होकर चला गया। जिनको तुम विरागी कहते हो, उनको समझ में कैसे आएगा? जिनको तुम महात्मा कहते हो, वे तो प्रेम के दुश्मन बनकर बैठे हैं। उनका परमात्मा प्रेम के विपरीत है।
मैं जिस परमात्मा की बात कर रहा हूं, प्रेम उसका द्वार है। तुम्हारे महात्मा जिस परमात्मा की बात कर रहे हैं, वह परमात्मा है ही नहीं, वह सिर्फ प्रेम की शत्रुता है; वह केवल संसार के विपरीत दूसरी अति है। मैं जिस परमात्मा की बात कर रहा हूं, वह अति नहीं है, वह बाहर और भीतर दोनों का अतिक्रमण है। वह परम संतुलन की अवस्था है, पूर्ण विराम है।
मेरे पास लोग आते हैं; वे कहते हैं कि आप भी परमात्मा की बात करते हैं, हमारे गुरु हैं, वे भी परमात्मा की बात करते हैं, सब एक ही है। मैं उनको कहता हूं, इतना आसान नहीं है; सब एक ही है, कहना इतना आसान नहीं है। थोड़ा गौर से समझने की कोशिश करना। शब्द तो वही है; मैं भी परमात्मा शब्द का उपयोग करता हूं, तुम्हारे गुरु भी करते होंगे, लेकिन तुम्हें देखकर मैं कह सकता हूं कि तुम्हारे गुरु का परमात्मा और ही होगा--प्रेम से भयभीत, प्रेम के विपरीत, प्रेम का दुश्मन।
तो तुम्हारे महात्माओं का परमात्मा उनकी ईजाद है, असली नहीं। असली परमात्मा तो प्रेम के खेल को खेले चला जाता है। असली परमात्मा तो प्रेम के नए-नए रूप रचे जाता है। असली परमात्मा तो कितने रंग लेता है, कितने रूप लेता है, कितने रंगों, कितने रूपों में प्रेम का रास रचता है।
संसार के विपरीत नहीं हो सकता परमात्मा। संसार के पार हो सकता है, विपरीत नहीं। जो विपरीत है, वह तो जब संसार खतम हो जाएगा, वह भी खतम हो जाएगा। जो पार है, वही अतियों के पार बचेगा।
परमात्मा साधना नहीं है, सिद्धावस्था है। परमात्मा कोई विधि नहीं है, जैसा कि पतंजलि ने माना है कि परमात्मा विधि है, कि उसके आलंबन को लेकर, उसके प्रति समर्पण करके आदमी परम अवस्था को पहुंच जाता है। पतंजलि का परमात्मा विधि है, साधना का हिस्सा है; उसका उपयोग केवल इतना है कि तुम उसके सहारे समर्पण कर दो। मगर ऐसा परमात्मा तो जब तुम सिद्ध हो जाओगे, छूट जाएगा। जब तुम सिद्ध अवस्था को उपलब्ध होओगे तो ऐसे परमात्मा की क्या जरूरत रह जाएगी? यह तो मार्ग का ही हिस्सा था, यह खो जाएगा।
परमात्मा मार्ग नहीं है, मंजिल है। परमात्मा दाएं-बाएं नहीं, परमात्मा की अगर थोड़ी-बहुत झलक तुम्हें मिल सकती है तो मार्ग के ठीक मध्य में मिल सकती है। इसलिए बुद्ध ने अपने मार्ग को मज्झिम निकाय कहा है: मध्य में, ठीक बीच में।
मगर बीच से भी सिर्फ झलक मिलती है। लेकिन बीच से अतिक्रमण जुड़ा है। उस बीच के बिंदु को तुम खोज लो तो पार जाने की सीढ़ी मिल सकती है।
ध्यान रखना, प्रेम से लोग इसलिए वंचित रह जाते हैं कि प्रेम की शर्त ही पूरी करनी कठिन पड़ती है। प्रेम की शर्त है: क्षणभर को मिटना; क्षणभर को ही सही, तिरोहित हो जाना।
बेदार राहे-इश्क किसी से न तय हुई
सहरा में कैस, कोह में फरयाद रह गया
कोई प्रेमी कभी प्रेम का मार्ग पूरा नहीं कर पाया। मजनू जंगल में खो गया, फरियाद पहाड़ों में।
प्रेमी कभी पहुंच नहीं पाता, खो जाता है। पहुंचने योग्य कोई बचता ही नहीं। प्रेमी मार्ग में ही गल जाता है और खो जाता है। लेकिन इसी खो जाने में पहुंचना है। जहां तुम खो जाते हो, वहीं परमात्मा हो जाता है। जहां तुम मिटते हो, वहीं वह घनीभूत होता है। तुम सिंहासन खाली करो तो ही इसकी संभावना है कि वह तुम्हारे सिंहासन पर विराज सके।
तुम अगर बैठे रहे सिंहासन पर--अवकाश कहां? स्थान कहां? परमात्मा को बुलाते हो, तैयारी कहां है तुम्हारी? कहां बिठाओगे? कहां उसे विराजमान करोगे? अहंकार तो रोएं-रोएं में भरा है। मैं का भाव तो श्वास-श्वास में समाया है। जगह कहां बची है तुम्हारे भीतर? जगह खाली करो।
प्रेम का अनुभव उन्हीं को हो पाता है, जो अपने को डुबाने, मिटाने को राजी हैं। जो डूबते हैं, यह नदी कुछ ऐसी है कि वे ही केवल पहुंचते हैं। जो डूबे, वे बचे। जो बचे, वे डूबे। अगर किनारे पर पहुंचना हो तो मझधार में डूब जाना ही उपाय है।
ठीक हैं ये पक्तियां--
बेदार राहे-इश्क किसी से न तय हुई
यह प्रेम का रास्ता कौन कब पूरा कर पाया? इसका यह कारण नहीं है कि रास्ता लंबा है, इसका यह कारण नहीं है कि रास्ता बहुत बड़ा है, इसलिए लोग पूरा नहीं कर पाए; इसका कारण कुल इतना ही है कि यह रास्ता ऐसा है कि इसे पूरा करने वाला बीच में खो ही जाए तो ही पूरा होता है। पूरा होने का एक ही अर्थ है कि बीच में ही खो जाए। अगर पहुंच जाए दूसरे किनारे तो रास्ता खो ही गया, पूरा हुआ ही नहीं। जो पूरा नहीं कर पाते, जो स्वयं इसको पूरा करने में पूरे हो जाते हैं, वे ही केवल पहुंचते हैं।
सहरा में कैस, कोह में फरयाद रह गया
सभी प्रेमी कहीं न कहीं खो गए--कोई रेगिस्तान में, कोई पहाड़ों में, कोई प्रार्थनाओं में, कोई साधनाओं में, कोई मंदिरों में, कोई मस्जिदों में। सभी प्रेमी कहीं न कहीं खो गए। जहां खोए, वहीं घड़ी है उस परम सौभाग्य की, परम आशीष की, परम प्रसाद की।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, एक उलझन है; यदि ठीक समझें तो उसे स्पष्ट करने की कृपा करें। भगवान बुद्ध और आप दोनों कहते हैं, ध्यान से उपलब्ध आनंद को बांटो, ध्यान को बांटो। और दूसरी ओर ध्यान के अर्जन को गुप्त रखने की, छिपाकर रखने की बात भी कही जाती है।
निश्चित ही दोनों बातें कही जाती हैं, क्योंकि दोनों बातें सही हैं। उनमें विरोध नहीं है; विरोध दिखता हो तो केवल आभास है।
ध्यान मिले तो बांटो, लेकिन ध्यान जब तक न मिला हो, तब तक सम्हालो और छिपाओ। होगा तब तो बांटोगे! जल्दी बांटने की मत करना।
अक्सर नहीं होता तो भी बांटने की आकांक्षा पैदा हो जाती है। उपदेश देने का बड़ा रस है। किसी को समझाने में ज्ञानी होने का मजा आ जाता है। किसी को बताने में--चाहे तुम्हें पता हो या न हो--थोड़े क्षण को आभास होता है कि तुम्हें पता है।
इसीलिए तो दुनिया में सलाह इतनी दी जाती है, लेता कोई नहीं। कितने उपदेश दिए जाते हैं, कौन लेता है? उपदेशक पीछे घूमते हैं तुम्हारे; पकड़-पकड़ कर समझाते हैं। उपदेशकों से बचकर निकलना मुश्किल है; उन्होंने सब राह, रास्ते रोक रखे हैं। जहां से जाओ, वहीं वे मौजूद हैं; मुक्तहस्त ज्ञान बांटते हैं, मुफ्त देने को तैयार हैं। मुफ्त ही देने को तैयार नहीं, साथ में कुछ प्रसाद भी देने को तैयार हैं--लो भर! फिर भी कोई लेने वाला दिखाई नहीं पड़ता।
ध्यान रखना, बांटना कहीं अहंकार से न निकलता हो; करुणा से निकले तब बात और। पर करुणा तो तब होगी, जब ध्यान सघनीभूत होगा, जब ध्यान एक मेघ बन जाएगा। बुद्ध ने इसलिए उसे मेघ-समाधि कहा है। जब एक घने मेघ की तरह, सघन मेघ की तरह वर्षा से भरे हुए तुम हो जाओगे--उसके पहले तो बूंद-बूंद मेघ इकट्ठी करता है। इकट्ठा हो जाए तो ही बरस सकता है।
मां गर्भवती हो, नौ महीने तक गर्भ को सम्हाले, तो ही जन्मदात्री हो सकती है। बिना गर्भवती हुए, बिना नौ महीने सम्हाले, बच्चों को जन्म देने की कल्पना करने में मत उलझ जाना। इससे धोखा पैदा होगा। इससे कोई और धोखे में न पड़ेगा, तुम्हीं धोखे में पड़ोगे। और खतरा है कि कहीं तुम दूसरों के जीवन को कोई नुकसान न पहुंचा दो। क्योंकि यह बड़ी बारीक, बड़ी नाजुक बात है। इसे तो जब तुम ठीक से जान ही लो, तभी किसी को जनाना। जब तुम्हारे पैर इस भूमि पर मजबूत जम जाएं, जब तुम्हारी जड़ें इस भूमि में पूरी फैल जाएं, तभी तुम किसी को समझाना।
तो बुद्ध ठीक कहते हैं, बांटो। पर हो, तब बांटोगे न!
सूफी फकीर भी ठीक कहते हैं कि सम्हालो। क्योंकि सम्हालोगे तभी तो होगा न!
सम्हालना पड़ेगा बहुत दिन, वर्ष-वर्ष, जन्म-जन्म; जब तुम्हारे भीतर घना हो जाएगा तो बरसेगा। जरूरत है पहले सम्हालने की; पहले तुम्हारे पास हो, तुम्हारा दीया जलता हो तो तुम किसी और का दीया जलाने जाना। अपना दीया जलता ही नहीं, वहां बाती बुझी पड़ी है और तुम दूसरों के दीए जलाने निकल पड़ते हो।
इस भ्रांति में मत पड़ना। बड़े छिपाकर रखना, जो भीतर आ रहा है। जिस दिन होगा, उस दिन तो खबर मिलनी शुरू हो जाएगी। जब फूल खिलता है तो हवाओं में गंध उठ जाती है। जब तुम्हारे पास होगा तो तुम छिपाकर भी छिपा न पाओगे। जिनको भी तलाश है, जिनको भी प्यास है, जिनको भी जुस्तजू है, खोज है, वे दूर से खिंचे चले आएंगे। पहाड़ और समुंदर भी उनके लिए बाधा न बनेंगे। जिन्हें प्यास नहीं है, जिन्हें खोज नहीं है, वे पास बैठे भी वंचित रह जाएंगे।
तुम चिंता मत करना। पहले तो तुम अपने को भर लो--ऐसा लबालब कि तुम्हारे ऊपर से बहने लगे--फिर जिनको प्यास है, वे खोजते चले आएंगे; वे सदा ही खोज रहे हैं। और तब तुम मुक्तहस्त बांटना। बांटोगे ही! बांटना ही पड़ेगा!
भुनती वसुधा तपते नभ
दुखिया है सारा अगजग
कंटक मिलते हैं प्रतिपग
जलती सिकता का यह मग
बह जा बन करुणा की तरंग
जलता है यह जीवन पतंग
बह जा बन करुणा की तरंग
बहना ही होगा। बहना हो ही जाता है। क्योंकि ध्यान का अनिवार्य परिणाम करुणा है। जैसे दीया जलता है तो रोशनी फैलती है, ऐसे ध्यान का अनिवार्य परिणाम करुणा है।
बुद्ध ने इसे प्रतीक माना है: प्रज्ञा और समाधि और करुणा। तीन की त्रिवेणी है, बुद्ध के सारे वचनों का सार। तीनों एक साथ घटती हैं। इधर समाधि, उधर भीतर ज्ञान का दीया जलता है, और बाहर करुणा की तरंगें फैलनी शुरू हो जाती हैं।
ये तीनों एक साथ घटती हैं। यह त्रिमूर्ति है। यह बुद्ध की ट्रिनिटी है। ये बुद्ध के ब्रह्मा-विष्णु-महेश हैं। यह बुद्ध का संगम है, तीर्थराज प्रयाग है। इसमें से दो दिखाई पड़ती हैं। एक दिखाई नहीं पड़ती। सरस्वती अदृश्य है, गंगा-यमुना दिखाई पड़ती हैं। प्रज्ञा और करुणा दिखाई पड़ेगी, समाधि दिखाई नहीं पड़ेगी, वह सरस्वती है।
तुम किसी की समाधि नहीं देख सकते। मैं सामने बैठा हूं, तुम कैसे मेरी समाधि देख सकते हो! समाधि अदृश्य है। करुणा दिखाई पड़ सकती है, क्योंकि करुणा तुम पर बरसती है, समाधि मेरे भीतर है। प्रज्ञा दिखाई पड़ सकती है, ज्ञान दिखाई पड़ सकता है, क्योंकि ज्ञान तुम पर बरसता है। प्रकाश दिखाई पड़ सकता है प्रज्ञा का, क्योंकि तुम्हारे अंधेरे में किरणें उतरेंगी, उन किरणों की पहचान से तुम समझोगे, कहीं सूरज ऊगा है।
करुणा दिखाई पड़ सकती है, क्योंकि हलके-हलके पदचाप भी नहीं पड़ेंगे और तुम्हारे भीतर कोई प्रेम का प्रवाह आने लगेगा। तुम्हारे भीतर कोई लोरी गाने लगेगा। तुम्हारे हृदय की बीन पर कोई अंगुलियां संगीत को छेड़ने लगेंगी। तुम्हारे दुख से भरे जीवन में सुख की कोई तरंग आने लगेगी।
वे तुम्हें दिखाई पड़ सकती हैं, क्योंकि ज्ञान हो या करुणा हो, दोनों तुमसे संबंधित होंगी; समाधि तुमसे बिलकुल असंबंधित है। पर समाधि के बिना ये दोनों नहीं घटती हैं। इसलिए बुद्ध ने कहा, जहां करुणा हो और जहां प्रज्ञा हो, जानना कि समाधि भी है। क्योंकि समाधि पहले हो, तब ये दोनों होती हैं।
ध्यान को सम्हालो पहले, ताकि किसी दिन करुणा में बांट सको। ध्यान को सम्हालो पहले, ताकि किसी दिन प्रज्ञा में उसकी ज्योति जले। निश्चित ही लोग बहुत पीड़ित हैं, चारों तरफ दुख है।
तो जब मैं कहता हूं कि ध्यान को सम्हालो, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम करुणा को खो दो; तुमसे यह कह रहा हूं कि अभी करुणा का मौका तो आने दो, मेघ तो बनो। वर्षा तो हो जाएगी। असली बात मेघ का बनना है। गर्भ तो हो, जन्म तो हो जाएगा।
भुनती वसुधा तपते नभ
दुखिया है सारा अगजग
कंटक मिलते हैं प्रतिपग
जलती सिकता का यह मग
बह जा बन करुणा की तरंग
चौथा प्रश्न:
भगवान, आप कहते हैं, जीवन में कुछ भी अकारण और व्यर्थ नहीं है, सब का उपयोग है। जीवन में कामना और भय का उपयोग दिखाई पड़ता है। क्या बताने की कृपा करेंगे कि वैसे ही ईर्ष्या, द्वेष और घृणा का क्या उपयोग है?
अनुपयोगी अस्तित्व में कुछ भी नहीं। तुम पहचान पाओ, न पहचान पाओ, यह बात दूसरी है। अनुपयोगी हो ही नहीं सकता, उपयोगी ही हो सकता है। सारा अस्तित्व जुड़ा है। हर चीज दूसरी चीज से उलझी है, बंधी है, अलग-अलग नहीं है। और दुर्घटना तो होती ही नहीं। जो भी होता है, उसकी कोई गहन संगति है।
इसलिए अगर तुम्हें कभी ऐसा लगता हो कि कोई बात ऐसी है जिसका कोई उपयोग नहीं दिखाई पड़ता, तो समझना कि तुम कहीं भूल पर हो। और थोड़ा गहरे खोजना।
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित विनीत सरल है
अगर क्रोध न हो, करुणा की सब शोभा ही नष्ट हो जाती है। अगर अंधेरी रात हो तो ही सुबह का आनंद है। जीवन में जो भी है, उसका विपरीत पृष्ठभूमि का काम करता है।
घृणा है, घृणा का क्या अर्थ होता है? शब्द की बहुत फिक्र मत करो, शब्दकोश से मुझे कुछ लेना-देना नहीं। घृणा का अर्थ क्या होता है? अस्तित्वगत भाषा में घृणा का क्या अर्थ होता है? इतना ही अथर्र् होता है कि तुम दूसरे से दूर जाना चाहते हो; और कुछ अर्थ नहीं होता। तुम दूसरे के पास नहीं जाना चाहते। विकर्षण! तुम दूसरे से हटना चाहते हो, दूर हटना चाहते हो--एक अर्थ।
अगर दूसरे से दूर हटने की यह संभावना न हो तो प्रेम की संभावना समाप्त हो जाएगी। जब तुम सारे संसार से दूर हटते हो, तब कहीं तुम एक व्यक्ति के पास पहुंच पाते हो। सोचो कि घृृणा समाप्त हो जाए, उसके साथ ही प्रेम भी समाप्त हो जाएगा। तो घृणा प्रेम के लिए सीढ़ी है।
हां, अगर तुम घृणा पर ही रुक गए तो चूक हो गई। वह तुम्हारी गलती है, उससे घृणा का कोई लेना-देना नहीं। घृणा कुल इतना ही कहती है कि किसी से दूर होने का मन होता है। प्रेम इतना ही कहता है, किसी के पास होने का मन होता है, किसी को पास लेने का मन होता है--इतने पास कि सब दूरी मिट जाए, कोई फासला न रह जाए, कोई चीज बाधा न बने, कोई अंतराल न रह जाए; ऐसी कामना प्रेम है।
और किसी से दूर होने का मन होता है, ऐसा होता है कि इतना फासला हो जाए कि कोई दूसरे चांद-तारों पर और मैं दूसरे चांद-तारों पर; फासला इतना हो जाए कि कभी दुबारा पास आने का मौका ही न आए, सारा अस्तित्व बीच में आ जाए--यह तो पास आने का ही हिस्सा हुआ।
हां, अगर तुम इसमें ही उलझ गए और पास आना भूल गए और घृणा को ही जीवन का सारा धंधा बना लिया; और इस कला में इतने पारंगत हो गए कि यह भूल ही गए कि यह सीढ़ी थी, यह बैठने का मकान नहीं था, इस पर बैठकर नहीं रह जाना था, तो खतरा हुआ। अगर तुम्हें याद रहा तो तुम पाओगे कि शत्रुता भी मित्रता के लिए अनिवार्य सीढ़ी है। और घृणा प्रेम की अनिवार्य पृष्ठभूमि है। और जिस दिन तुम प्रेम के सुगंध को, सुवास को उपलब्ध होओगे, उस दिन तुम ऐसा अनुभव न करोगे कि घृणा का कोई उपयोग न था; उस दिन तुम घृणा के प्रति भी अनुग्रह का भाव अनुभव करोगे।
उपयोग करना सीखो, जहर भी औषधि बन जाता है। और ऐसे तो औषधि भी जहर हो सकती है। निर्भर करता है, कैसे तुम उपयोग करते हो। कितनी तुम्हारी समझ है! कितनी पैनी दृष्टि से तुम जीवन को देखते हो!
तो घृणा का एक तो अर्थ है: दूर होने की आकांक्षा, किसी से दूर होने की आकांक्षा।
घृणा का दूसरा अर्थ है: किसी को नष्ट करने की आकांक्षा। जिससे तुम घृणा करते हो, उसका तुम विनाश करना चाहते हो। यह भी सृृजन का अनिवार्य हिस्सा है। क्योंकि जिससे तुम प्रेम करते हो, उसे तुम शाश्वतता देना चाहते हो, अमरत्व देना चाहते हो। जिसे तुम प्रेम करते हो, उसे तुम सब तरह से निर्माण देना चाहते हो; उसे तुम ऐसा बनाना चाहते हो, उस जैसा कोई दूसरा न हो।
प्रेम में तुम्हारी सृजनात्मकता जगती है और घृणा में तुम्हारा विध्वंस जगता है। दोनों जरूरी हैं, क्योंकि किसी भी महत्वपूर्ण निर्माण में, किसी भी बड़े सृजन में विध्वंस का उपयोग करना पड़ेगा। एक नया मकान बनाना हो, पुराना गिराना पड़ता है। नए के निर्माण के लिए पुराने का विध्वंस करना पड़ता है। अगर किसी को स्वास्थ्य देना हो तो बीमारी का विनाश करना पड़ता है।
अब सवाल यह है कि कैसा तुम उपयोग करोगे! तुम्हें अगर समझ हो तो तुम विध्वंस की धारणा का भी उपयोग निर्माण में कर सकते हो, सृजन में कर सकते हो। और अगर तुम पागल हो जाओ तो तुम निर्माण की क्षमता का उपयोग भी विध्वंस के लिए कर सकते हो--जैसा कि हो रहा है।
लोग एटम बम बनाते हैं, बड़ा महत्वपूर्ण सृजन है; लेकिन बनाते इसलिए हैं कि दुनिया को नष्ट कर दें। ऐसा लग रहा है कि लोगों ने सृजन की क्षमता को विनाश की तरफ सेवा में लगा दिया है। होना उलटा चाहिए कि तुम्हारी सारी विनाश की क्षमता सृजन की दिशा में लग जाए।
अस्तित्व में तो सभी सार्थक है। तुम्हारी समझ अगर अधूरी हो, अंधी हो, भूलचूक भरी हो, तो बड़ी चूक हो जाएंगी।
ऐसा ही ईर्ष्या और द्वेष के साथ है। ईर्ष्या का क्या अर्थ होता है? इसका अर्थ होता है कि किसी के पास है और मेरे पास नहीं।
एक बुद्ध तुम्हारी राह से गुजर जाता है, ईर्ष्या नहीं होती--होनी चाहिए; और तब ईर्ष्या शुभ हो जाएगी। प्राण ईर्ष्या से नहीं भर जाते--भरने चाहिए। कोई बुद्ध हो गया?
लोग आए भी, बैठे भी, उठ भी खड़े हुए, तुम जगह ही खोजते रहे? वसंत आया भी, गया भी, तुम सोचते ही रहे--कहां आशियां बने, कहां न बने? बुद्धों को देखकर ईर्ष्या पैदा नहीं होती? होनी चाहिए।
और तब ईर्ष्या भी शुभ हो गई, सार्थक हो गई। तब तुम्हारे जीवन में एक भभक आ जाएगी। तब तुम्हारा सारा जीवन एक नए ही आंदोलन से आपूरित हो जाएगा। तुम्हारी सारी उदासी टूट जाएगी, तुम्हारी सारी शिथिलता टूट जाएगी--कोई झकझोर गया। एक तूफान आया और गुजर गया। जो तुम हो सकते थे, कोई हो गया; तुम क्यों न हो पाए?
लेकिन तुम्हारी ईर्ष्या गलत रास्तों से चलती है। कोई कार में से गुजर गया और तुम्हें ईर्ष्या पकड़ गई कि ऐसी कार तुम्हारे पास भी होनी चाहिए। हो भी जाएगी तो बहुत कुछ न होगा।
ईर्ष्या ही करनी हो तो बुद्धों से करना।
किसी के वस्त्र देख लिए, ईर्ष्या हो गई। किसी का मकान देख लिया, ईर्ष्या हो गई। बना भी लोगे मकान तो कुछ न होगा। जिसका देखकर तुम्हें ईर्ष्या हुई है, जरा उसकी तरफ तो देखो, उसे क्या हो गया है? कुछ भी नहीं हुआ। हो सकता है, तुमसे भी ज्यादा दीन-हीन अवस्था हो।
ईर्ष्या ही करनी हो तो उससे करो, जिसकी सारी ईर्ष्याएं खो गयीं।
यह हो सकता है कि तुम जिसका मकान देखकर ईर्ष्या कर रहे हो, वह तुम्हारा स्वास्थ्य देखकर ईर्ष्या कर रहा हो। सम्राट भी ईर्ष्या से भर जाते हैं।
मैंने सुना है, एक सम्राट का हाथी निकलता था। और एक जवान आदमी ने--एक फकीर था और एक मजार पर लेटा रहता था--उसकी पूंछ पकड़ ली और हाथी को रोक लिया। सोचो उस गरीब सम्राट की हैसियत! उसके प्राण कंप गए, सारा साम्राज्य मिट्टी हो गया। अचानक उस फकीर ने सम्राट को नपुंसक कर दिया। बड़ा दुखी हुआ। घर तो लौट आया, लेकिन बड़ा उदास हुआ। एक नंगा फकीर!
उसने किसी बुजुर्ग को पूछा कि क्या करें? कुछ करना पड़ेगा। यह तो निकलना बंद हो जाएगा। मैं गांव में निकलूंगा तो शर्म मालूम पड़ेगी। मैं हाथी पर हूं भला, मगर इसका क्या मतलब रहा? कोई आदमी पूंछ पकड़ ले हाथी की, हाथी न सरक सके, हम ऊपर अटके रह गए; महावत था, कुछ न कर पाया। उस बुजुर्ग ने कहा, घबड़ाओ मत। तुम ऐसा करो, खबर भेजो उस फकीर को कि तुझे एक रुपया रोज मिलेगा, सिर्फ मजार पर रोज शाम को छह बजे दीया जला दिया कर।
फकीर ने सोचा, यह तो अच्छा ही है; अभी मांगकर खाना पड़ता था, यह झंझट ही मिटी मांगकर खाने की, एक रुपया मिल जाएगा।
उन दिनों एक रुपया बड़ी बात थी, जागीर थी। एक रुपया तो एक महीने के लिए काफी था। उसने कहा कि यह तो बड़ा सौभाग्य हो गया। और कुल काम इतना है कि छह बजे दीया जला देना है। उसी मजार पर तो पड़े ही रहते हैं, तो उसमें झंझट भी क्या? उठकर जला देंगे।
महीनेभर बाद, उस बुजुर्ग ने कहा, तुम फिर निकलना हाथी पर। महीनेभर मत निकलो। महीनेभर बाद निकला सम्राट। उस फकीर ने फिर पूंछ पकड़ी, लेकिन घिसट गया। सम्राट हैरान हुआ। उस बुजुर्ग से ईर्ष्या हुई उसे अब, कि यह आदमी बड़ा अदभुत जानकार है; न देखा इस आदमी को, न गया, बस बैठे-बैठे इतनी बात बता दी और कारगर हो गई! पूछा कि कैसे यह हुआ?
उसने कहा, सीधी सी बात है। बेफिक्री उसकी मस्ती है, उसकी ताकत है; जरा सी फिक्र पैदा कर दी, मारा गया। अब फिक्र लगी रहती है उसको, दिन में दो-चार दफे देख लेता है घड़ियाल की तरफ घंटाघर की--छह तो नहीं बज गए! क्योंकि चूक जाए, कहीं भूल जाए। कभी समय की फिक्र न की थी, बेसमय जीया था। तो जरा सी फिक्र डाल दी, चौबीस घंटे खटका बना रहता है। रात में सोता है तो भी खटका बना रहता है कि छह बजे जला देना है, एक रुपया मिलना है। और रुपए मिलने लगे तो गिनती करने लगा, जोड़ने लगा कि एक रुपए में तो महीने का काम हो जाएगा, बाकी तो उनतीस रुपए बच जाएंगे। साल में कितने होंगे, दस साल में कितने होंगे! महल बना लूंगा। पहले शांति से सोया रहता था, सपने भी न आते थे, अब बड़े सपने आने लगे। मार दिया जरा सी तरकीब से।
सम्राट भी ईर्ष्यालु हो जाता है। ईर्ष्या ही करनी हो तो उनकी करना, जिनकी सारी ईर्ष्या खो गई। मगर ईर्ष्या में कुछ बुरा नहीं है। गलत की ईर्ष्या मत करना, क्योंकि गलत की ईर्ष्या करोगे तो गलत ही हो जाओगे। शुभ की ईर्ष्या करना, मंगल की ईर्ष्या करना, तो जिसकी ईर्ष्या करोगे, उसी तरफ यात्रा शुरू हो जाती है। ईर्ष्या तो दिशासूचक है--कहां जाना चाहते हो, क्या होना चाहते हो!
ईर्ष्या में कुछ भी बुरा नहीं है। द्वेष में भी कुछ बुरा नहीं है। किसी चीज में कुछ बुरा नहीं है। बस, ठीक दिशा में सारी चीजों को संयोजित करने की बात है। कांटे भी फूल हो जाते हैं, बस जरा सी समझ चाहिए। फूल भी कांटे हो जाते हैं, बस जरा सी नासमझी काफी है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, आप विचार और विचारशक्ति में जैसा भेद करते हैं, क्या वैसा ही भेद इच्छा और इच्छाशक्ति में भी तो नहीं है?
निश्चित है। जब तक विचार हैं, तब तक तुम्हारे पास विचार की शक्ति नहीं। विचारों की भीड़ है, विचार की शक्ति नहीं। क्योंकि विचार की शक्ति तो तभी पैदा होती है, जब विचारों की भीड़ विदा हो जाती है। तब तुम्हारे भीतर शुद्ध ऊर्जा होती है विचार की। विचारों से ढंकी नहीं होती, उघड़ी होती है; जलती हुई आग होती है विचारशक्ति की; राख विचारों की ऊपर नहीं होती, अंगारा दमकता है।
ठीक वैसा ही इच्छाओं के और इच्छाशक्ति के संबंध में भी है। जितनी ज्यादा इच्छाएं, उतनी कम इच्छाशक्ति। जितनी कम इच्छाएं, उतनी ज्यादा इच्छाशक्ति। अगर तुमने सारी इच्छाएं छोड़ दीं तो तुम जो इच्छा करोगे, वह इच्छा करते ही पूरी हो जाएगी। इच्छाशक्ति इतनी बड़ी हो जाएगी। जब तुम इच्छा न करोगे, तब तुम्हारे पास इतनी विराट ऊर्जा होगी कि करते ही पूरी हो जाएगी।
अब यह जीवन का राज है: जो करना चाहते हैं इच्छा पूरी, उनके पास इच्छाशक्ति नहीं है, जो नहीं करना चाहते, उनके पास है।
मैंने सुना है, एक अमीर आदमी के पास एक गरीब आदमी मिलने गया। वह अमीर आदमी ने अपने पास एक सोने का पीकदान रखा हुआ था। लाखों रुपए का होगा; उस पर हीरे जड़े थे। और वह उसमें बार-बार पान की पीक थूक रहा था। वह गरीब को बड़ा दुख हुआ, उसे बड़ा क्रोध भी आया। जिंदगीभर परेशान हो गया वह लक्ष्मी की तलाश करते-करते। आखिर उससे न रहा गया, उसने एक लात मारी पीकदान में और कहा, ससुरी! यहां थुकवाने को बैठी है। हम जिंदगीभर पीछे पड़े रहे, प्रार्थना की, पूजा की, सपने में भी दर्शन न दिए।
वह अमीर आदमी हंसने लग गया। उसने कहा, ऐसी ही दशा पहले हमारी भी थी। जब तक हम भी पीछे लगे फिरे, कुछ भी हाथ न आया। जब से हम मुड़ गए और जब से हम पीछे फिरना छोड़ दिए, चीजें अपने आप चली आती हैं।
तुम्हारी सब इच्छाएं जब तुम छोड़ दोगे, अचानक तुम पाओगे, तुम्हारे पास विराट ऊर्जा है। तब तुम इच्छा न करना चाहोगे और इच्छाशक्ति होगी।
जब तुम विचार न करना चाहोगे, तब विचारशक्ति होगी।
जब तुम जीना न चाहोगे, तब तुम्हारे पास अमर जीवन होगा।
जब तुम मिटने को राजी होओगे, तुम्हें मिटाने वाली कोई शक्ति नहीं।
जब तुम सबसे पीछे खड़े हो जाओगे, तुम सबसे आगे हो जाओगे।
जीसस ने कहा है, जो यहां सबसे पीछे हैं, वे मेरे प्रभु के राज्य में प्रथम हो जाते हैं। और लाओत्सू ने कहा है, मुझे कोई हरा न सकेगा, क्योंकि मुझे जीत की कोई आकांक्षा नहीं है।
ऐसी विजय अंतिम हो जाती है, परम हो जाती है। जीवन का यह सूत्र बड़ा बहुमूल्य है। जिसने इसे जाना, उसने बहुत कुछ जाना। और जो इसे चूकता रहा, वह जीवन के आसपास चक्कर मारता रहेगा भिखमंगे की तरह, वह कभी इस महल में प्रवेश न पा सकेगा।
बालभर अवकाश होना चाहिए
कुछ खुला आकाश होना चाहिए
बीज की फिर शक्ति रुकती है कहां
भाव की अभिव्यक्ति रुकती है कहां
जरा सी जगह चाहिए तुम्हारे भीतर--अवकाश! फिर बीज तुम्हारे भीतर पड़ा है, टूटने लगता है; विराट उससे जन्मने लगता है। लेकिन तुम्हारे विचारों की पर्तें उस बीज को नहीं टूटने देतीं। तुम्हारी इच्छाओं की पर्तें उस बीज को नहीं टूटने देतीं। जगह ही नहीं है कि बीज अंकुरित हो सके। तुम इतने भरे हो!
बस, थोड़ा खाली करो अपने को। खाली करने की कला ध्यान है। विचार से, वासना से खाली करने की कला ध्यान है।
जैसे ही तुम खाली होते हो, तुम्हारा बीज टूटता है और तुम्हें भरने लगता है। तब भराव भीतर से आता है। तब भराव अपना होता है, आत्मा का होता है। उस भराव को फिर तुमसे कोई छीन न सकेगा; वह तुम्हारा है।
अभी जिससे तुमने भरा है, वह सब उधार है और पराया है।
बालभर अवकाश होना चाहिए
कुछ खुला आकाश होना चाहिए
बीज की फिर शक्ति रुकती है कहां
भाव की अभिव्यक्ति रुकती है कहां
आज इतना ही।