BUDDHA
Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) 34
ThirtyFourth Discourse from the series of 122 discourses - Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) by Osho. These discourses were given during NOV 21, 1975 to DEC 10, 1977.
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पहला प्रश्न:
क्या आपने धर्म को पूरी तरह पा लिया है? क्या आप एक सदगुरु हैं? क्या आप परमात्मा को मुझ तक लाने में समर्थ हैं?
दीवानों की बस्ती में कोई समझदार आ गया! समझदारी से उठाए गए प्रश्नों का कोई मूल्य नहीं। नीचे लिखा है, सत्य का एक जिज्ञासु। न तो जिज्ञासा है, न खोज है; मान्यताओं से भरा हुआ मन होगा।
जिज्ञासु को तो यह भी पता नहीं कि ईश्वर है। जिज्ञासु को तो यह भी पता नहीं कि धर्म है। जिज्ञासु को तो यह भी पता नहीं कि सदगुरु है। जिज्ञासु प्रश्न थोड़े ही पूछता है, जिज्ञासु अपनी प्यास जाहिर करता है।
प्रश्न दो ढंग से उठते हैं: एक तो प्यास की भांति; तब उनका गुणधर्म और। और एक जानकारी से, बुद्धि भरी है कूड़ा-करकट से, उसमें से प्रश्न उठ आते हैं।
पहला प्रश्न, ‘क्या आपने धर्म को पूरी तरह पा लिया है?’
धर्म का पता है, क्या है? पूरी तरह का अर्थ मालूम है, क्या होता है? धर्म की दुनिया में पा लेने वाला बचता है?
एक-एक शब्द को समझना जरूरी है। क्योंकि हो सकता है, कोने-कातर में तुम्हारे भी, इस तरह के विचार भरे पड़े हों, इस तरह की मान्यताएं भरी पड़ी हों। पहली तो बात--धर्म को कोई पाता नहीं, धर्म में स्वयं को खोता है। धर्म कोई संपदा नहीं है, जिसे तुम अपनी मुट्ठी में ले लो। धर्म तो मृत्यु है, जिसमें तुम समा जाते हो। तुम नहीं बचते तब धर्म बचता है। जब तक तुम हो, तब तक धर्म नहीं।
इसलिए जो दावा करे कि उसने धर्म को पा लिया है, उसने तो निश्चित ही न पाया होगा। दावेदारी का धर्म से कोई संबंध नहीं है। यह तो बात ही छोटी हो गई। जिसे तुम पा लो, वह धर्म ही बड़ा छोटा हो गया। जो तुम्हारी मुट्ठी में आ जाए, वह विराट न रहा। जिसे तुम्हारी बुद्धि समझ ले, वह समझने के योग्य ही न रहा। जिसे तुम्हारे तकर्र् की सरणी में जगह बन जाए, जो तुम्हारे कटघरों में समा जाए, वह धर्म का आकाश न रहा।
बुद्ध ने कहा है, जब तुम ऐसे मिट जाओ कि आत्मा भी न बचे, अनात्मा हो जाओ, अनात्मावत हो जाओ, अनत्ता हो जाओ, शून्य हो जाओ; तभी जिसका आविर्भाव होता है, वही धर्म है--एस धम्मो सनंतनो।
पंडित की मुट्ठी में धर्म होता है। ज्ञानी धर्म की मुट्ठी में होता है। पंडित धर्म को जानता है, ज्ञानी को धर्म जानता है। जिसने जाना, उसने यही जाना कि जानने वाला बचता कहां है! जिसने जाना, उसने यही जाना कि अपने कारण ही न जान पाते थे, हम ही बाधा थे; जब हम मिट गए, जब हम न रहे, तब अवतरण हुआ।
ऐसा नहीं है कि तुम्हारे भीतर कुछ बाधाएं हैं, जिनके कारण तुम धर्म को नहीं जान पा रहे हो--तुम बाधा हो। तुम्हारे कारण तुम धर्म को नहीं जान पा रहे हो। तुम्हें समझाया गया है, अज्ञान के कारण नहीं जान पा रहे हो; गलत है बात। तुम्हें समझाया गया है, पाप के कारण नहीं जान पा रहे हो; गलत है बात।
मैं तुमसे कहता हूं, तुम्हारे कारण नहीं जान पा रहे हो। अगर तुम रहे और पुण्य भी किया तो भी न जान पाओगे। अगर तुम रहे और अज्ञान की जगह ज्ञान भी पकड़ लिया तो भी न जान पाओगे। पाप तो रोकेगा ही, पुण्य भी रोकेगा। अज्ञान तो रोकेगा ही, ज्ञान भी रोकेगा।
और अक्सर ऐसा हुआ है कि कभी-कभी अज्ञान इतनी बुरी तरह नहीं रोकता, जितनी बुरी तरह ज्ञान रोक लेता है। अज्ञान तो असहाय है, ज्ञान बड़ा अहंकार से भरा हुआ है। कभी-कभी पाप भी इतनी बड़ी जंजीर नहीं बनता, जितनी बड़ी जंजीर पुण्य बन जाता है। पुण्य के अहंकार में तो हीरे-जवाहरात जड़ जाते हैं। पापी तो पछताता भी है, पुण्यात्मा तो सिर्फ अकड़ता ही चला जाता है।
भोग ने तुम्हें नहीं भटकाया है; इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, योग तुम्हें न पहुंचा पाएगा। जब तुम ही न बचोगे--न भोग करने वाला, न योग करने वाला; जब तुम्हारे भीतर कोई भी मौजूद न होगा, जब तुम सब भांति शून्यवत हो जाओगे, तब जो जाना जाता है, वही धर्म है।
धर्म का अर्थ होता है: स्वभाव। अहंकार के कारण स्वभाव पर बाधा पड़ जाती है।
तो पहली तो बात यह है कि धर्म को जिन्होंने जाना है, वे बचे नहीं। उपनिषद कहते हैं, जो कहे जान लिया, जान लेना कि नहीं जाना उसने। सुकरात ने कहा है, जब जाना तो यही जाना कि कुछ भी नहीं जानते हैं।
पूछा है, ‘क्या आपने धर्म को पूरी तरह पा लिया है?’
पूरी तरह का क्या अर्थ होता है? अगर धर्म पूरी तरह पाया जा सके तो सीमित हो जाएगा। जिसकी सीमा हो, वही पूरी तरह पाया जा सकता है। धर्म की कोई सीमा नहीं है। इसलिए तुम धर्म में डूब जाओगे। धर्म तुम्हें पूरी तरह पा लेगा, लेकिन तुम न पा सकोगे पूरी तरह।
एक बूंद जब सागर में गिरती है तो सागर बूंद को पूरी तरह पा लेता है। बूंद ने सागर को पूरी तरह पाया, यह कहने का क्या अर्थ है? बूंद बची ही नहीं; उसी पाने में खो गई; पाने की शर्त पूरी करने में ही खो गई।
यह पूरे की भाषा भी लोभ की भाषा है। थोड़ा-ज्यादा, पूरा-कम; मात्राएं-- आधा पाव, पाव भर, आधा सेर, सेर भर--ये मात्राएं भी गणित की मात्राएं हैं। सत्य को खंडित किया जा सकता है क्या कि तुम आधा पा लो? सत्य के टुकड़े बांटे जा सकते हैं क्या कि तुम थोड़ा अभी पा लो, थोड़ा कल पा लेंगे?
सत्य अखंड है, इसलिए खंड तो हो नहीं सकते। और सत्य असीम है, इसलिए तुम उसे पूरा कभी पा नहीं सकते।
बड़ी अड़चन मालूम पड़ेगी, क्योंकि मैं कह रहा हूं यह--एक विरोधाभासी वक्तव्य दे रहा हूं--कि सत्य अखंड है, उसके खंड, टुकड़े हो नहीं सकते। और सत्य असीम है, इसलिए पूरा तुम उसे पा नहीं सकते।
तब तो बड़ी मुश्किल हो गई। टुकड़े उसके हो नहीं सकते, नहीं तो थोड़ा-थोड़ा पा लेते, अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार पा लेते। तो वह अखंड है, इसलिए उसके टुकड़े हो नहीं सकते। और चूंकि वह असीम है, इसलिए पूरा तुम उसे पा नहीं सकते। अब करोगे क्या?
आदमी सत्य में विसर्जित होता है, खोता है। जैसे गंगा सागर में उतरकर खो जाती है, ऐसे आदमी परमात्मा में उतरकर खो जाता है।
तो मैं तुमसे यही कह सकता हूं कि परमात्मा ने मुझे पूरी तरह पा लिया है--पूरी तरह! रत्तीभर भी उसने मुझे अपने बाहर नहीं छोड़ा है। और तुम थोड़ी और उलझन में पड़ोगे। क्योंकि मैं तुमसे यह भी कहना चाहता हूं कि तुम्हें भी उसने पूरी तरह पाया हुआ है, सिर्फ तुम्हें याददाश्त नहीं है। तुम उसके बिना हो कैसे सकोगे? वही तुममें श्वास लेता है, इसलिए श्वास चलती है। वही तुममें धड़कता है, इसलिए दिल धड़कता है। वही तुममें जागता है, इसलिए तुममें होश है। वही तुम्हारा जन्म है, वही तुम्हारा जीवन है। उसने तुम्हें पूरी तरह पाया ही हुआ है।
जरा पीछे लौटकर तो देखो! जरा अपने को तो पहचानो! अपनी पहचान में ही तुम पाओगे, उसके साथ पहचान हो गई। अपने को खोजते-खोजते ही आदमी उसे खोज लेता है। इसलिए जो परमात्मा की खोज में सीधे जाते हैं, वे गलत जाते हैं। जो अपनी खोज में जाते हैं, वही ठीक जाते हैं।
जब भी मेरे पास कोई आता है, वह कहता है, परमात्मा को पाना है, तब मैं समझता हूं गलत आदमी आ गया। यह बात ही लोभ की है। यह बात ही मूढ़तापूर्ण है। यह बात ही अहंकार की है। इस आदमी के पास दिमाग बाजार का है।
जब मेरे पास कोई आता है और कहता है, मुझे स्वयं से थोड़ी अपनी पहचान बनानी है। जिसकी अपने से पहचान नहीं, परमात्मा से पहचान कैसे होगी? जिसकी अपने से पहचान है, उसे परमात्मा को जानने की जरूरत ही क्या रही? जिसने अपने को पहचान लिया, उसने उसके सूत्र को पकड़ लिया। वह तुम्हारे भीतर मौजूद है।
ऐसा कभी हुआ ही नहीं है कि वह मौजूद न रहा हो; इसलिए तो हम उसे शाश्वत कहते हैं। ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां वह मौजूद न हो; इसलिए तो हम उसे सर्वव्यापी कहते हैं। तुम इतने विशिष्ट नहीं हो सकते कि तुम्हें छोड़कर सब जगह मौजूद हो। तुम अपने को अपवाद मत मानो।
मैंने एक कहानी सुनी है। एक शेखचिल्ली को किसी ने कह दिया कि तेरी पत्नी विधवा हो गई। भरे बाजार में वह छाती पीटकर रोने लगा। भीड़ इकट्ठी हो गई, लोग हंसने लगे। किसी ने पूछा, मामला क्या है? उसने कहा, मेरी पत्नी विधवा हो गई। उन्होंने कहा, पागल! तू जिंदा बैठा है तो तेरी पत्नी विधवा हो कैसे सकती है? उसने कहा, इससे क्या होता है? मेरे जिंदा रहने से क्या होता है? मैं जिंदा बैठा था, मेरी मां तक विधवा हो गई थी। मैं जिंदा बैठा था, मेरी फूई विधवा हो गई। मैं जिंदा बैठा था, मेरी मामी विधवा हो गई। मुहल्ले में कितनी औरतें विधवा हो गयीं, पूरे गांव में कितनी औरतें विधवा हो गयीं, मैं जिंदा बैठा था। इससे क्या फर्क पड़ता है? वह फिर छाती पीटकर रोने लगा।
तुम परमात्मा को खोज रहे हो, वह खोज ऐसी ही है, जैसे कोई आदमी मान लेता हो कि उसकी पत्नी विधवा हो गई है और वह जिंदा बैठा है। परमात्मा को खोया कब है? तुम हो तो परमात्मा है ही। तुम्हारे होने में ही समाया। तुम्हारे रहते तुम्हारी पत्नी विधवा नहीं हो सकती। तुम्हारे रहते यह असंभव है कि परमात्मा न हो। तुम काफी प्रमाण हो। तुम उसकी मौजूदगी हो। तुम उसके हस्ताक्षर हो।
लेकिन असली सवाल है अपने को जानने का। असली सवाल परमात्मा को जानने का नहीं है। परमात्मा की बातचीत जैसे ही तुमने उठाई कि तुम शब्द-जाल, शास्त्र-जाल में पड़े। अपने को जानने चले तो साधना का जन्म होता है। परमात्मा को जानने चले तो व्यर्थ की माथापच्ची होती है। मेरा उसमें कोई रस नहीं है।
तुम परमात्मा को छोड़ो। तुम्हारे सिद्ध करने से वह सिद्ध न होगा; तुम्हारे असिद्ध करने से असिद्ध न होगा। वह है ही। तुम जानो न जानो, कोई फर्क नहीं पड़ता। उसका हाथ तुम्हारे भीतर पहुंचा ही हुआ है। वहीं तुम जरा टटोलो; वहीं तुम्हें उसका हाथ पकड़ में आ जाएगा।
और जो अपने निकटतम स्वयं के भीतर उसे न पकड़ पाए, वह उसे कहीं भी न पकड़ पाएगा। फिर तो सभी स्थान बड़ी दूरी पर हो जाते हैं। अपने हृदय की धड़कन में उसकी आवाज न सुनाई पड़ी तो तुम्हें फिर उसकी आवाज कहीं भी सुनाई न पड़ेगी।
‘क्या आपने धर्म को पूरी तरह पा लिया है?’
उसे कभी किसी ने खोया ही नहीं। जो खो जाए, वह भी धर्म हुआ? धर्म का अर्थ ही होता है, जो न खो सके; जो तुम्हारा चिरंतन स्वभाव है; जो तुम हो; जो तुम्हारा शुद्ध होना है। इसे कभी किसी ने खोया नहीं। तुम चाहकर भी इसे खोना चाहो तो न खो सकोगे। ज्यादा से ज्यादा तुम विस्मरण कर सकते हो। वह भी बड़ी चेष्टा से करना पड़ता है, वह भी बड़ी मुश्किल से करना पड़ता है। हजार उपाय, विधियां, व्यवस्थाएं जुटानी पड़ती हैं तब कहीं तुम उसे भूल पाते हो। हजार तरह की शराबें पीनी पड़ती हैं तब तुम उसे भूल पाते हो।
तो पहली तो बात यह खयाल में रखो कि धर्म वही है, जो है। है का नाम ही धर्म है। अस्तित्व के स्वभाव का नाम धर्म है।
जब मैं धर्म की बात कह रहा हूं तो हिंदू धर्म, मुसलमान धर्म, ईसाई धर्म, इन सब रोगों की बात नहीं कर रहा हूं। ये तो बीमारियां हैं, जिनसे आदमी को स्वस्थ होना है। मैं उस धर्म की बात कर रहा हूं, जिसको महावीर ने कहा है: बत्थु सहाओ धम्म; वस्तु का स्वभाव धर्म है।
आग जलाती है, यह आग का धर्म है।
पानी नीचे की तरफ बहता है, यह पानी का धर्म है।
हवा अदृृश्य है, यह हवा का धर्म है।
तुम चैतन्य हो, यह तुम्हारा धर्म है।
अपने धर्म को ठीक से पकड़ लो, वहीं से द्वार खुलेगा विराट का।
और ध्यान रखना, जो भी तुम जान लोगे, उससे धर्म चुक न जाएगा। जो भी तुम जान लोगे, उसे तुम ऐसा ही समझना, जैसे किसी ने खिड़की से आकाश की तरफ झांका हो। खिड़की का चौखटा आकाश का स्वभाव नहीं है। खिड़की की आकृति आकाश से बिलकुल असंबंधित है। आकाश से कुछ खिड़की का लेना-देना नहीं है। तुम्हारी खिड़की गोल हो, चौकोन हो, किसी रूप-रंग की हो, छोटी हो, बड़ी हो, सीखचों वाली हो, खुली हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आकाश का खिड़की से कोई भी संबंध नहीं है। लेकिन जो खिड़की के पीछे खड़े होकर देखेगा, उसे ऐसा ही लगेगा कि खिड़की का आकार आकाश का आकार है।
जो तुम जानते हो, उससे उस परम सत्य का कोई संबंध नहीं है। जो तुम जानते हो वह तो तुम्हारे मन की खिड़की है, तुम्हारा ढांचा है। सत्य तो सदा ही अज्ञेय है; अज्ञेयता उसका स्वभाव है। जान-जानकर तुम उसे चुकता न कर पाओगे। सब जानना, सब धारणाएं तुम्हारी खिड़कियां हैं।
कोई उसे कहता है, ईश्वर--यह उसकी खिड़की है। कोई उसे कहता है, मोक्ष--यह उसकी खिड़की है। कोई उसे कहता है निर्वाण--यह उसकी खिड़की है। कोई कुछ भी नहीं कहता, चुप रह जाता है--यह उसकी खिड़की है।
हम जो भी उसके संबंध में कह सकते हैं, वह उसके संबंध में नहीं होता, हमारे संबंध में होता है। उसके संबंध में आज तक जो भी कहा गया है, वह कहने वालों के संबंध में है; उनकी खिड़कियां, धारणाएं, मन के प्रत्यय, उनके संबंध में है।
सत्य तो सदा ही अपरिचित है और यही सत्य का सौंदर्य है। जिससे परिचय हो गया, वह तो मर ही गया। जिसे तुमने जान लिया, उसकी सीमा आ गई। जिसे तुमने पहचान लिया, उसका रहस्य समाप्त हुआ। जिसे तुमने समझा कि जान लिया, अब उसमें आश्चर्य कहां? अब वह तुम्हें अवाक न कर सकेगा। अब तुम उसके सामने खड़े होकर आश्चर्य से भरे हुए नाचोगे नहीं।
इसलिए जिन-जिन लोगों को जानने का भ्रम हो जाता है, उन-उन के जीवन से आश्चर्य विदा हो जाता है। और आश्चर्य परमात्मा के पास पहुंचने का सेतु है। जितना मनुष्य जाति को यह वहम सवार हो गया है कि हम जानते हैं--विज्ञान ने कुछ बातें जता दी हैं, शास्त्रों ने कुछ बातें बता दी हैं, हमने उन्हें कंठस्थ कर लिया है--उतना ही हमारे ऊपर धूल जम गई है और बचपन के जो आश्चर्यचकित होने की संभावना थी, वह क्षीण हो गई।
छोटे बच्चे को कभी देखा? रास्ते के किनारे पड़े कंकड़-पत्थर सूरज की रोशनी में चमकते कोहिनूर हो जाते हैं; उठा-उठा लेता है। तुम कहते हो, छोड़ो भी, फेंको भी, कहां कचरा उठा रहा है! तुम समझ ही नहीं पा रहे। वह रंगीन पत्थर सूरज की रोशनी में इतने महिमापूर्ण मालूम होते हैं बच्चे को।
यह पत्थर का सवाल नहीं है, बच्चे की अभी आश्चर्य की आंख बंद नहीं हुई। अभी उसके आश्चर्य के द्वार खुले हैं। अभी बच्चे का मन ज्ञान से बोझिल नहीं हुआ। अभी बच्चा निर्दोष है। अभी वह खाली आंखों से देख पाता है तो हर चीज सुंदर हो जाती है। तितलियों के पीछे दौड़ लेता है तो स्वर्गों का आनंद आ जाता है। फूल इकट्ठे कर लेता है तो जैसे मोक्ष मिल जाता है।
जीसस ने कहा है, जो छोटे बच्चों की भांति होंगे, वे ही मेरे परमात्मा के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे।
यही मैं तुमसे भी कहता हूं: ज्ञानी मत बनना। आश्चर्यचकित होने की क्षमता मत खो देना; वही सबसे बड़ी धरोहर है। जानकार होकर मत बैठ जाना कि मैं जानता हूं। पंडित के मन में धूल जम जाती है। उसे फिर कोई चीज आश्चर्यचकित नहीं करती। वह सभी चीज को जानता हुआ मालूम होता है।
अपने ज्ञान को थोड़ा हटाओ। यह विचारों की धूल जरा अलग करो। फिर थोड़े आश्चर्यचकित होकर देखो: एक-एक पत्ती में उसी की हरियाली है, एक-एक पक्षी के गीत में उसी के स्वर हैं।
मगर तुम्हारा जानना, तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारे प्राण लिए ले रहा है। कोयल गाती है, तुम कहते हो, कोयल गा रही है। मैं तुमसे कहता हूं, फिर से सुनो; कोयल के बहाने उसी ने गाया है। फूल खिलता है, तुम कहते हो, फूल खिल रहा है। मैं तुमसे कहता हूं, फिर से देखो; फूल के बहाने वही खिला है। ये सब बहाने हैं उसके। तुमने अगर समझा कि फूल खिल रहा है, चूक गए। तुमने अगर समझा कि कोयल गा रही है, चूक गए।
जरा आंख खाली करो, खिड़कियों के जरा बाहर आओ; हिंदू-मुसलमान होने को जरा पीछे छोड़ो; गीता-कुरान को जरा हटाओ; जरा खुली आंख से देखो--जैसे छोटे बच्चे ने पहली दफा देखा हो। फिर से तुम पहली दफा इस संसार को देखो, तुम उसे पाओगे; जगह-जगह से झांकता हुआ पाओगे।
परिधि दृष्टि का दोष
अहं का कुंठित दर्शन
परिचय भ्रम की देह
अपरिचय सहज चिरंतन
परिचय भ्रम की देह
जहां-जहां तुम सोचते हो, जान लिया, परिचय हो गया, वहीं भ्रम खड़ा हो गया।
जीवन की थोड़ी घटनाओं को समझो। तुम एक स्त्री को विवाह कर लाए थे तीस साल पहले, सात चक्कर लगाए थे, भांवर डाल ली थीं, बैंड-बाजे बजे थे, घोड़े पर सवार होकर घर आ गए थे; तब से तुमने इस स्त्री को फिर से गौर से देखा? तुमने मान लिया मेरी पत्नी है, बात समाप्त हो गई। फिर से गौर से देखने की जरूरत न रही। सात चक्कर लगा लिए थे, बैंड-बाजे बजा लिए थे, एक परिचय बना लिया। पुरोहितों ने मंत्रोच्चार कर दिए थे। अपरिचित एक स्त्री थी, तुम भी अपरिचित थे, दोनों के बीच इस क्रिया-कांड से परिचय का एक नाता बना लिया। क्या सच में ही तुम अपनी पत्नी से परिचित हुए हो?
बच्चा घर में पैदा होता है, नाम रख लेते हो, पंडित को बुलाकर कुंडली बनवा लेते हो; क्या सच में ही तुम अपने बच्चे को जानते हो--कौन है? कौन आया है? कौन अवतरित हुआ है? यह कौन फिर आया? किसने देह धरी? यह कौन इस बच्चे की निर्मल आंखों से झांका? किसने तुम्हें देखा? तुम कहते हो, हमारा बेटा है।
परिचय भ्रम की देह
अपरिचय सहज चिरंतन
जो जानते हैं, वे जानते हैं कि परिचय सब धोखा है। कौन किसको जानता है? जिन्हें तुम अपने कहते हो, उन्हें भी तुम कहां जानते हो? छोड़ो उनकी बात! तुम अपने को कहां जानते हो?
परिचय भ्रम की देह
अपरिचय सहज चिरंतन
सत्य की अगर सच में ही खोज करनी हो तो परिचय की जितनी सीमाएं हैं, तोड़ो; फिर-फिर झांककर देखो। परिचय को घना मत होने दो। परिचय को जड़ मत जमाने दो। परिचय की धूल को मत जमने दो। फिर-फिर स्नान कर लो, फिर-फिर अपरिचित हो जाओ; ताकि जीवन ताजा रहे, नया रहे सुबह की भांति; सुबह की ओस की भांति स्वच्छ रहे। और तब तुम सब जगह से पाओगे, वही झांक रहा है। तुम्हारी पत्नी से भी वही; तुम्हारे बेटे से भी वही। किसी दिन दर्पण के सामने खड़े होकर अचानक तुम पाओगे दर्पण में तुम्हारी छबि नहीं बन रही, उसी की बन रही है--तुमसे भी वही।
‘क्या आपने धर्म को पूरी तरह पा लिया है?’
अब तुम्हीं उत्तर खोज लेना।
‘क्या आप एक सदगुरु हैं?’
होश भी नहीं तुम्हें, क्या पूछ रहे हो! इतना ही पूछो, क्या तुम सदशिष्य हो? अगर हो तो मेरे उत्तर की जरूरत न रहेगी।
यह तो ऐसे है, जैसे अंधा आदमी पूछता हो, क्या सूरज निकला है? अगर सूरज कहे भी कि निकला हूं तो भी क्या फर्क पड़ेगा! अंधा आदमी पूछेगा, सच कह रहे हो? सूरज अगर कहे, सच भी कह रहा हूं; तो अंधा आदमी पूछेगा, कोई प्रमाण है? अंधे आदमी ने बुनियादी बात ही न पूछी। पूछना था कि मैं अंधा तो नहीं हूं! मुझे कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा।
प्रश्न को सदा अपनी तरफ मोड़ो, क्योंकि खोज अपनी करनी है। मेरे सदगुरु होने न होने से तुम्हें क्या लेना-देना है? इसे तुम अपनी चिंता क्यों बनाते हो? और अगर मुझसे ही पूछ रहे हो तो हल कैसे होगा? अगर मैं कह दूं हां, तो क्या फर्क पड़ेगा? तुम्हारे मन में दूसरा सवाल उठेगा कि मैंने जो कहा, वह ठीक है, सही है? संदेह तो अपनी जगह बना रहेगा। अगर मैं दो-चार गवाहियां भी जुटा दूं कि ये रहे लोग, जो कहते हैं; तो संदेह यह उठेगा, ये गवाह कहीं सिखाए-पढ़ाए तो नहीं!
असली बात देखने की कोशिश करो। तुम्हारे भीतर संदेह है, श्रद्धा नहीं है। और संदेह से न तो सदगुरु से संबंध हो सकता है, न सत्य से संबंध हो सकता है। मेरी तुम फिक्र छोड़ो। तुम अपनी ही फिक्र कर लो, काफी है।
इतना मैं तुमसे कहता हूं, अगर तुम्हारे पास सीखने की क्षमता हो, अगर तुम सीखने को तैयार हो--सीखने की तैयारी का अर्थ होता है कि अगर तुम झुकने को तैयार हो, अगर तुम यह मानने को तैयार हो कि मैं जानता नहीं, तो यह प्रश्न पूछने की जरूरत न रह जाएगी; तुम मेरे गवाह बन जाओगे। और जब तक तुम मेरे गवाह न बन जाओ, तब तक कोई गवाहियां काम आने की नहीं हैं।
खोल आंख जमीं देख फलक देख फजा देख
मशरिक से उभरते हुए सूरज को जरा देख
लेकिन देखने के पहले तुम्हारी आंख खुली होनी चाहिए।
आंख खोलकर मुझे देखो, वहां उत्तर है। तुम आंख बंद करके मुझे देखते रहो तो मैं कितने ही उत्तर दूं, तुम तक न पहुंचेंगे।
तुम अगर सीखने को तैयार हो, तुमने अगर अपना पात्र खाली किया है, तो मैं अपने को पूरा उंड़ेल देने को तैयार हूं।
लेकिन तुम्हारे पात्र में मैं देखता हूं, बूंदभर भी जगह नहीं है। तुम इतने भरे हो, जरा भी रिक्त स्थान नहीं, अवकाश नहीं। तुम्हारे भीतर आने की सुविधा कहां है? तुमने सब द्वार-दरवाजे बंद कर लिए हैं। तुमने तर्क की दीवालें बना ली हैं, शास्त्रों की दीवालें बना ली हैं। तुम उनकी ओट में छिपे बैठे हो। वहां से तुम पूछते हो, क्या आप एक सदगुरु हैं?
प्रश्न अंधेपन से आ रहा है; अन्यथा तुम्हें सभी सदगुरु मुझमें दिखाई पड़ सकते हैं; एक की तो बात ही छोड़ दो। तुम्हारे पास आंख हो तो सूरज उगा हुआ है।
खोल आंख जमीं देख फलक देख फजा देख
मशरिक से उभरते हुए सूरज को जरा देख
लेकिन तुम भूल ही गए हो आंख खोलना। लोगों ने ऐसा समझ रखा है, जैसे यह सत्य का जिम्मा है कि वह सिद्ध करे। क्या पड़ी है सत्य को? जैसे यह सूरज का जिम्मा है कि तुम्हारी आंख भी खोले! क्या पड़ी है सूरज को? सूरज तुम्हारे द्वार पर दस्तक न देगा; आएगा, द्वार पर रुका रहेगा, द्वार खुला होगा, भीतर आ जाएगा; द्वार बंद होगा, बाहर रह जाएगा। दस्तक न देगा; कहेगा न कि मैं आ गया हूं, द्वार खोलो। चुपचाप प्रतीक्षा करेगा।
और यही सुंदर है। क्योंकि सत्य भी अगर द्वार पर दस्तक दे तो हस्तक्षेप हुआ। सूरज अगर जबरदस्ती घर के भीतर प्रवेश करने की कोशिश करे तो अतिक्रमण हुआ। अगर परमात्मा तुम्हें जबरदस्ती जगाने की चेष्टा में रत हो जाए तो तुम्हारी स्वतंत्रता कहां रही? अगर सोने का हक न हो, अगर भटक जाने की सुविधा न हो तो मनुष्य की गरिमा खो जाती है।
मनुष्य का सारा सौभाग्य यही है कि चाहे तो नर्क में गिर सकता है, अंधेरे से अंधेरी पर्तों में उतर सकता है, और चाहे तो प्रकाश के अनंत जगत को प्राप्त कर सकता है। मनुष्य की महिमा यही है कि मनुष्य स्वतंत्र है। उसकी स्वतंत्रता अबाध है। मनुष्य स्वतंत्रता है, यही उसकी खूबी है, यही उसका गौरव है; यही उसकी अड़चन भी, कठिनाई भी। यही उसकी दुविधा भी है।
तुमने तो चाहा होता कि भटकने की सुविधा न होती और तुम रेल की पटरियों की भांति होते कि डिब्बे उन पर दौड़ते चले जाते, कहीं और जाने की जरूरत न होती। मगर तब सत्य अगर गुलामी हो, जबरदस्ती हो तो कुरूप हो गया। और सत्य और कुरूप हो जाए--सत्य ही न रहा। सत्य के सौंदर्य में यह समाविष्ट है कि वह स्वतंत्र होगा।
इसलिए तो परमात्मा प्रगट नहीं है। उसका प्रगट होना बड़ी परतंत्रता हो जाएगी। उसका अप्रगट होना स्वतंत्रता है।
तुम थोड़ा सोचो, परमात्मा जगह-जगह बीच में आकर खड़ा हो जाए--तुम सिगरेट पीने जा रहे थे, वे बीच में खड़े हो गए! तुम शराब ढालने ही के करीब थे कि वे सामने खड़े हो गए! तुम किसी की जेब काट ही रहे थे कि वे आ गए--जीना मुश्किल हो जाएगा, कठिन हो जाएगा।
नहीं, तुम्हें तुम पर ही छोड़ा हुआ है। तुम्हें अपनी ही भूलों से सीखना है। तुम्हें भटक-भटककर राह खोजनी है। और जो राह बिना भटके मिल जाए, बड़ी मूल्यवान नहीं। जो बहुत भटककर मिलती है, उसी में मूल्य है। जिसके लिए कीमत चुकानी पड़ती है, उसी में मूल्य है।
तो मैं तुमसे कहूंगा, खोजो मुझे; मैं यहां मौजूद हूं। तुम्हारे द्वार पर खड़ा हूं, लेकिन दस्तक न दूंगा; तुम्हें द्वार खोलने पड़ेंगे। मैं भीतर आने को राजी हूं, लेकिन बिना तुम्हारे निमंत्रण के न आऊंगा। जब तक न पाऊंगा कि तुम्हारा हृदय स्वागतम बन गया, तब तक भीतर आने का कोई कारण नहीं है।
यही पूछो कि क्या तुम सदशिष्य हो? यही पूछो कि क्या तुम्हारी आंख खुली है? क्या तुम सीखने को तैयार हो?
क्योंकि सदगुरु को पहचानना हो तो शिष्यत्व पाना होगा; और तो कोई उपाय नहीं। सरोवर की और क्या पहचान है?--कि तुम प्यासे होओ। तुम एक सरोवर के किनारे खड़े हो, प्यासे नहीं हो, और तुम उस पानी से पूछते हो, क्या तुझमें प्यास को बुझाने की क्षमता है? सरोवर क्या कहेगा? प्यास ही न हो तो सरोवर के पास क्या उपाय है सिद्ध करने का कि प्यास को बुझाने की क्षमता है।
प्यास होनी चाहिए। तो तुम पूछोगे थोड़े ही, प्यास ही तुम्हें सरोवर में ले जाएगी। तुम पूछोगे थोड़े ही, प्यासा थोड़े ही पूछता है कि पानी बुझाएगा प्यास को? प्यासा तड़फता है पानी के लिए। प्यासा बिना पूछे पी जाता है; पीकर जानता है कि प्यास बुझती है। और वहीं उसी अनुभव से समझ आती है। अनुभव के अतिरिक्त और कोई समझ नहीं है।
मैं सदगुरु हूं या नहीं, सरोवर हूं या नहीं--और कोई उपाय नहीं, प्यास को जगाकर आओ। प्यास लेकर आओ। पीकर देखो!
समझने की, सूत्र की बात इतनी ही है कि नजर अपनी तरफ, ध्यान अपनी तरफ। यह पर की तरफ नजर ही सांसारिक दृृष्टि है। अपनी तरफ नजर, तो तुम बहुत सीख सकोगे--मुझसे ही नहीं और बहुतों से भी सीख सकोगे। और अगर तुम शिष्य बनने को तैयार हुए तो यह सारा संसार तुम्हें सदगुरुओं से भरा हुआ दिखाई पड़ेगा। वृक्ष और चट्टानें और झरने सभी सदगुरु हो जाएंगे।
सूफी फकीर हुआ, हसन। जब वह मरने लगा, किसी ने उससे पूछा, तुम्हारा गुरु कौन था? उसने कहा, फेहरिस्त बड़ी लंबी है, सांसें बहुत कम बची हैं। अगर मैं अपने सारे गुरुओं की बात करूं तो मुझे उतनी ही बड़ी जिंदगी चाहिए पड़ेगी, जितनी बड़ी जिंदगी मैं जीया। क्योंकि क्षण-क्षण उनसे मुलाकात हुई, जगह-जगह वे मिले।
फिर भी उस आदमी ने जिद की कि तुम पहले सदगुरु का बता दो सिर्फ, जिससे तुम्हें पहली झलक मिली। उसने कहा, मैं एक गांव से गुजरता था। और तब मैं बड़ा अकड़ा हुआ था, क्योंकि मैंने फलसफा पढ़ा था, दर्शनशास्त्र पढ़ा था, शास्त्र कंठस्थ कर लिए थे, तर्क सीख लिए थे; बड़ी अकड़ थी। एक छोटे से बच्चे को मैंने मस्जिद की तरफ जाते देखा; एक हाथ में दीया लिए हुए था। मैंने उससे पूछा कि सुन, दीया तूने ही जलाया? उसने कहा, मैंने ही जलाया। तो मैंने उससे पूछा, तू मुझे यह बता--एक दार्शनिक प्रश्न पूछा--कि जब तूने ही दीया जलाया तो तुझे पता होगा कि ज्योति कहां से आई? कहीं से तो आई होगी। और जब तूने ही जलाया तो जरूर देखी होगी; ज्योति आई कहां से? उस बच्चे ने कहा, ठहरो। उसने एक फूंक मारकर दीया बुझा दिया और उसने कहा, ज्योति गई। तुम बता सकते हो, कहां गई? तुम्हारे सामने ही गई है।
हसन ने कहा, मेरी अकड़ टूट गई। झुककर मैंने उसके पैर छू लिए। एक छोटे बच्चे ने मेरा सारा दर्शनशास्त्र कूड़ा-करकट में डाल दिया; आंख खोल दी। एक छोटे बच्चे को भी मैं सिखाने की चेष्टा कर रहा था, कुछ जो मुझे ही पता नहीं था। मेरे गुरु होने की चेष्टा उसने तोड़ दी और गुरु हो गया।
और तुम पूछते हो बुद्धों के पास जाकर, महावीरों के पास जाकर, क्राइस्टों के पास जाकर--आप सदगुरु हैं?
तुम्हारे अंधेपन की कोई सीमा नहीं। जिनके पास आंख है, उन्हें छोटे बच्चों में भी सदगुरु मिल गए हैं। राह चलती घटनाएं शास्त्र हो गई हैं। दुर्घटनाओं से सूत्र मिल गए हैं मुक्ति के। भटकन का सार-निचोड़ मार्ग बन गया है। भूल-चूक से इत्र निचोड़ लिया है। भूल-चूक की ईंटों को रखकर भवन बना लिया है मुक्ति का। असली सवाल तुम्हारे सीखने का है।
अपने मन में डूबकर पा जा सुरागे-जिंदगी
तू अगर मेरा नहीं बनता न बन, अपना तो बन
लेकिन अगर तुम अपने बन जाओ तो मेरे बन ही गए। तुम अगर अपने बन गए तो परमात्मा के बन ही गए। तुम अपने ही नहीं हो, यही अड़चन है।
और तीसरी बात कि ‘क्या आप परमात्मा को मुझ तक लाने में समर्थ हैं?’
जैसे कोई यह मेरी परेशानी हो! जैसे कोई चुनौती दी जा रही है!
तुम अगर पात्र नहीं हो तो कोई भी समर्थ नहीं है; और तुम अगर पात्र हो तो किसी माध्यम की जरूरत नहीं है। तुम्हारी पात्रता ही परमात्मा को ले आती है। तुम जिस क्षण पात्र हो जाते हो, उसी क्षण वर्षा हो जाती है; क्षणभर की देरी नहीं है। कहावत है: देर है, अंधेर नहीं। मैं तुमसे कहता हूं, देर भी नहीं है। अंधेर तो है ही नहीं, देर भी नहीं है। कहावत कुछ गलत है। न देर है, न अंधेर है। जिस क्षण तुम तैयार हो, उसी क्षण मिल जाता है। और जब तक न मिले, इतना ही जानना कि तुम तैयार नहीं हो; शिकायत मत करना।
‘क्या आप परमात्मा को मुझ तक लाने में समर्थ हैं?’
मेरा लेना-देना क्या? तुम हो, तुम्हारा परमात्मा है, तुम्हारी खोज है। अगर मेरे कारण तुम्हें थोड़ा सहारा मिल जाए तो बस, काफी है। उसके लिए तुम्हें अनुगृहीत होना चाहिए। इधर तुम मुझे चुनौती दे रहे हो कि जैसे यह भी काम मेरा है। जैसे कि अगर परमात्मा तुम तक न आया तो कसूर मेरा होगा। जैसे पकड़ा मैं जाऊंगा कि तुम तक परमात्मा क्यों न आया?
तुमने गुलाम होने के कितने रास्ते खोजे हैं! तुम गुलामी छोड़ते ही नहीं। कभी धन की गुलामी, कभी पद की गुलामी, अगर वहां से तुम बचते हो तो गुरु की गुलामी। गुलामी का मतलब यह होता है, कोई और करे; तुम किसी और पर निर्भर हो। तुम भिखमंगे रहने की जिद क्यों किए बैठे हो? परमात्मा ने चाहा है कि तुम सम्राट होओ।
मैं तुम्हें कुछ इशारे दे सकता हूं, खोज तो तुम्हें ही करनी होगी।
इसका यह अर्थ नहीं कि मैं परमात्मा को तुम तक लाने में समर्थ नहीं हूं; अगर मैं अपने तक ले आया तो तुम तक लाने में क्या अड़चन है? कोई अड़चन नहीं है सिवाय तुम्हारे। मैं सदा ही तुम्हारे सामने परमात्मा की भेंट लिए खड़ा हूं। जरा द्वार-दरवाजे खोलो, जरा देखो तो सही क्या मैं तुम्हारे लिए ले आया हूं? मैं तुम्हारे सामने लिए खड़ा हूं और तुम पूछते हो कि क्या आप समर्थ हैं? बड़ी मजे की बात रही। तुम्हारे पास दृष्टि ही नहीं है; लोभ है, दृष्टि नहीं है। पाना चाहते हो, लेकिन पाना चाहने की कोई तैयारी नहीं है।
और परमात्मा को लाना थोड़े ही पड़ता है, आया ही हुआ है।
कब लूट-झपट से हस्ती की दुकानें खाली होती हैं
यहां पर्वत-पर्वत हीरे हैं यहां सागर-सागर मोती हैं
तुम कितना ही लूटो-झपटो, यहां कोई परमात्मा कम थोड़े ही पड़ जाता है!
यहां पर्वत-पर्वत हीरे हैं यहां सागर-सागर मोती हैं
यहां परमात्मा ने तुम्हें सब तरफ से घेरा ही हुआ है।
मैं तुम्हें वही दे रहा हूं, जिसे तुम पाए ही हुए हो। और मैं तुमसे वही छीन लेना चाहता हूं, जो तुम्हारे पास है ही नहीं। यह बेबूझ लगेगा, लेकिन कोई और उपाय नहीं है इसे कहने का।
फिर मैं दोहरा देता हूं: मैं तुमसे वही छीनना चाहता हूं, जो तुम्हारे पास नहीं है; और तुम्हें वही देना चाहता हूं, जो तुम्हारे पास सदा से है।
दूसरा प्रश्न:
भीतर कुछ स्थगित हो गया है और पूरे शरीर में पूरे समय नृत्य चलता है; कृपा करके कुछ कहें।
शुभ है, मंगल है।
ठहरना ही सब कुछ है। अवाक होकर भीतर कुछ रुक जाए, भीतर की गति बंद हो जाए, तो संसार की गति बंद हो जाती है। यहां भीतर कुछ रुका कि बाहर समय रुक जाता है। यहां भीतर कुछ रुका कि चांद-तारे रुक जाते हैं। यहां भीतर कुछ रुका कि सब रुक जाता है। क्षण शाश्वत हो जाता है।
और जहां विचार रुकते हैं, वहीं पहली दफा अर्थ का आविर्भाव होता है। जहां मन ठहरता है, रुकता है, न हो जाता है, वहीं पहली बार जीवन का सुराग मिलता है।
हकीकत में पूछो तो मुद्दआ वही था
जबां रुक गई थी जहां कहते-कहते
जो कहना चाहते हो, उसे तो कहते-कहते जबान रुक जाएगी। जो कहना चाहते हो, वह जबान न कह सकेगी। जो सोचना चाहते हो, वह सोचने में न आएगा; सोचना रुक जाएगा। और यह मंजिल कुछ ऐसी नहीं कि तुम चलोगे तो पहुंचोगे, यह मंजिल कुछ ऐसी है कि तुम रुकोगे तो पहुंच जाते हो।
संसार में दौड़ो। दौड़ना ही पड़ेगा, मंजिल बाहर है; मंजिल दूर है--कहीं वहां, जहां आकाश क्षितिज को छूता है, सदा वहां है। कितना ही दौड़ो, पहुंच नहीं पाते।
यह कभी तुमने समझने की कोशिश की कि संसार में दौड़ो कितना ही, पहुंचते नहीं। और परमात्मा को पाने के लिए दौड़ने की जरूरत ही नहीं है; क्योंकि वह ऐसा घर है, जो तुमने कभी छोड़ा नहीं। आंखें कितने ही दूर चली गई हों, चांद-तारों में चली गई हों, तुम बैठे उसी घर में रहे हो। सपने कितने ही दूर तुम्हें ले गए हों, पर यात्रा सपनों की है। जब जागोगे, अपने घर में अपने को पाओगे।
परमात्मा के लिए दौड़ना नहीं पड़ता, रुकना पड़ता है। परमात्मा को दौड़कर हम खो रहे हैं।
अब इसे ऐसा कहें: संसार को दौड़-दौड़कर भी पाना मुश्किल है। परमात्मा को पाने का एक ही उपाय है: रुक जाना। जो दौड़-दौड़कर भी नहीं मिलता, वही संसार है; जो बिना दौड़े मिल जाता है, वही परमात्मा है। नाम अलग-अलग होंगे।
गीता कहती है: स्थितप्रज्ञ; जहां प्रज्ञा ठहर जाती है, जहां चित्त डांवाडोल नहीं होता।
‘भीतर कुछ स्थगित हो गया है।’
हो जाने दो। सहारा दो। जल्दी में कहीं उसे बिगाड़ मत देना; कहीं हिलाने मत लग जाना। क्योंकि मन पुरानी आदतों से बड़ा परेशान और पीड़ित है। नए को मन पहचान ही नहीं पाता। और जब मन ठहरता है तो बड़ी घबड़ाहट होती है, जी बड़ा घबड़ाता है। क्योंकि बड़ी बेचैनी लगती है--यह क्या हो गया? सदा चलता हुआ राग, सदा चलते हुए विचार, सदा चलते हुए पहिए एकदम से रुक गए! और डर यह लगता है कि चल-चलकर न पहुंच पाए, अब तो रुके जा रहे हैं, तो कैसे पहुंचेंगे? तो बड़ी घबड़ाहट होती है।
तो कहीं ऐसा न हो कि उस घबड़ाहट में तुम जो मन रुक रहा था, उसे फिर चला दो। बहुत बार ऐसी भूल होती है। जब ध्यान सधने लगता है--उन लोगों का भी, जो ध्यान करने के लिए बड़े आतुर थे--तो घबड़ाहट पकड़ती है। मन को चलाने की इच्छा हो जाती है। कुछ भी चला दो!
क्योंकि जब ध्यान सधने लगता है और शून्यता उतरने लगती है तो ऐसा लगता है, मरे! अब मरे! मृत्यु हुई! क्योंकि तुमने मन के साथ अपने को एक जाना है। उसके पार तो तुम्हारा अपना कोई अनुभव नहीं। जब मन ठहरता है, लगता है, हम भी गए। यह तो महंगा पड़ गया। तुम तो सोचते थे, हम बचेंगे--सुंदर होकर, सत्यतर होकर, शुभ होकर। हम बचेंगे, शाश्वत होकर। यह तो उलटा हो गया। बीमारी को मिटाने गए थे, यह तो बीमार मिटने लगा। यह तो औषधि थोड़ा ज्यादा काम कर गई। घबड़ाहट पकड़ेगी।
उसी समय सदगुरु के साथ की जरूरत है। सदगुरु के साथ की जरूरत दो जगह बड़ी गहरी है: पहली, तुम्हें रास्ते पर चला दे; और दूसरी, जब मंजिल करीब आने लगे, तब तुम्हें भागने न दे। नहीं तो तुम पीछे लौट जाना चाहोगे। तुम कहोगे, छोड़ो! यह तो ज्यादा हो गया। मरने को हम न आए थे।
ध्यान मृत्यु है। विचार ठहरते हैं, मौत आती मालूम पड़ेगी। मौत को अंगीकार करना सीखना होगा। जिसने मौत को स्वीकार कर लिया, वह अमृत हो गया।
और इसलिए भीतर एक नृत्य की धुन बज रही है, भीतर कोई नाच चल रहा है। मन जब ठहरता है, तभी नाच जगता है। जब मन ठहरता है, तभी अपरिचित, अभिनव गीत पैदा होते हैं। जब मन ठहरता है तो झरोखे खुलते हैं, और नई हवाएं, ताजी हवाएं अस्तित्व की, प्राणों में लहरें लेने लगती हैं।
इधर तुम मरते नहीं कि उधर जीवन उतरने लगता है। तुम्हारी मृत्यु परम जीवन का प्रारंभ है। तुम्हारा सूली पर होना एक तरफ, और दूसरी तरफ तुम सिंहासन पर विराजमान हो जाते हो। सूली और सिंहासन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
हुए होश गुम तेरे आने से पहले
हमीं खो गए तुमको पाने से पहले
हुए होश गुम तेरे आने से पहले
हो ही जाएंगे। मन ही खो जाएगा, होश किसे रह जाएगा? मन ही टूट जाएगा, अहंकार कहां बचेगा? अहंकार तो मन का ही जोड़ है, मन का ही भ्रम है। यह खयाल कि मैं हूं, यह भी एक विचार है। जब सभी विचार ठहर जाएंगे, यह विचार भी ठहर जाएगा। मैं हूं, ऐसा भी पता न चलेगा।
हुए होश गुम तेरे आने से पहले
हमीं खो गए तुमको पाने से पहले
सदा ऐसा ही हुआ है। परमात्मा से मनुष्य का कभी मिलन नहीं होता। मनुष्य होता है, तब तक परमात्मा नहीं होता। परमात्मा होता है तो मनुष्य नहीं होता। मिलन कभी नहीं होता। परमात्मा से मिलना अपनी महामृत्यु से मिलना है। लेकिन महामृत्यु से ही मिलना महाजीवन का द्वार है।
कोई ऐसी भी है सूरत तेरे सदके साकी
रख लूं मैं दिल में उठाकर तेरे मैखाने को
कोई ऐसा भी ढंग है--साकी से पूछता है--कोई ऐसा भी ढंग है...
कोई ऐसी भी है सूरत तेरे सदके साकी
रख लूं मैं दिल में उठाकर तेरे मैखाने को
कि तेरी पूरी मधुशाला को उठाकर दिल में रख लूं? फिर पीना न पड़े।
हां, ऐसी भी सूरत है। उसी सूरत को सिखाने के लिए यह पाठशाला है। क्या चुल्लू-चुल्लू पीना! क्या कुल्हड़-कुल्हड़ पीना! पूरी मधुशाला को ही उठाने का रास्ता है कि हृदय में ही रख लो।
परमात्मा भीतर आ जाए तो जीवन का मधुमास आ जाता है; सारी मधुशाला भीतर आ जाती है। तब एक नाच का जन्म होता है--नाच, जिसमें गति नहीं; नाच, जहां सब ठहरा हुआ है और फिर भी नृृत्य चल रहा है। एक गीत, जहां ध्वनि नहीं है, परिपूर्ण शून्य मौन है, फिर भी स्वर बज रहा है। अनाहत नाद उसको ही कहा है। नाद-ब्रह्म उसको ही कहा है। ध्वनि खो जाती है, फिर भी नाद रह जाता है। बड़ा कठिन है कहना; समझना भी कठिन है; लेकिन होता है।
बुद्धि को समझना कितना ही कठिन हो, उससे इतना ही सिद्ध होता है कि बुद्धि की समझ बहुत दूर नहीं जाती। बुद्धि की कोटियों के बाहर पड़ता है, लेकिन होता है। जो सोचते बैठे रहेंगे कि ऐसा हो सकता है कि नहीं, वे बैठे ही रह जाएंगे।
हिम्मत जुटाओ; ऐसा होता है, मैं तुमसे कहता हूं। और तुम भी ज्यादा दूर नहीं हो उस घड़ी से; जरा हाथ बढ़ाने की बात है। तर्क कहीं तुम्हें पंगु न बना दे। कहीं तर्क तुम्हारा पक्षाघात, पैरालिसिस न हो जाए। कहीं ऐसा न हो कि तर्क ही तर्क में खो जाओ, नृत्य से वंचित रह जाओ।
देख चुके तर्क का तांडव बहुत; अब थोड़े अतर्क, श्रद्धा का, निर्विचार का नृत्य भी देखो। उसको देखते ही सब नाच फीके हो जाते हैं। और उसे देख लेने के बाद तुम्हें सब जगह उसका नृत्य दिखाई पड़ने लगता है।
हर दर्पण तेरा दर्पण है
हर चितवन तेरी चितवन है
मैं किसी नयन का नीर बनूं
तुझको ही अर्ध्य चढ़ाता हूं
हर क्रीड़ा तेरी क्रीड़ा है
हर पीड़ा तेरी पीड़ा है
मैं कोई खेलूं खेल
दांव तेरे ही साथ लगाता हूं
हर वाणी तेरी वाणी है
हर वीणा तेरी वीणा है
मैं कोई छेडूं तान
तुझे ही बस आवाज लगाता हूं
तीसरा प्रश्न:
पुराने शास्ता को हम परंपरा से जानते हैं, जो कि बहुत आसान है; जीवित शास्ता को पहचानने के लिए काफी विकसित प्रज्ञा चाहिए। जाने कैसे हम तो भटकते हुए आपके पास आ पहुंचे हैं। और पास रहकर भी आपको कहां जान पाते हैं?
पुराने शास्ता को भी तुम कहां जान पाते हो? जानते लगते हो, आभास होता है जानने का; जान कहां पाते हो? अगर जान लो तो पुराना तत्क्षण नया हो जाता है। पुराना फिर पुराना कहां रह जाता है?
अगर बुद्ध को तुम जान लो तो बुद्ध समसामयिक हो गए; पच्चीस सौ साल पहले हुए ऐसा नहीं, अभी हो गए, तुम्हारे साथ खड़े हो गए। अगर तुम जीसस को पहचान लो और जान लो तो समय का फासला मिट जाता है। कोई दूरी नहीं रह जाती, हमराही हो जाते हो।
पुराने को भी कहां पहचान पाते हो? अगर पुराने को ही पहचान लेते, अगर पुराने तक को पहचान लेते, तो नए को पहचानने में दिक्कत ही कहां होती? परंपरा से सिर्फ आभास पैदा होता है। जानते लगते हो माना, जानते नहीं।
जैन घर में पैदा हुए हो, महावीर को जानते लगते हो; बचपन से सुनी बातें, सुनी कथाएं। हिंदू घर में पैदा हुए, कृष्ण को जानते लगते हो। मुसलमान घर में पैदा हुए तो मोहम्मद को जानते लगते हो।
सुनते-सुनते, पुनरुक्ति से, बार-बार दोहराने से मन पर छाप पड़ जाती है। बार-बार दोहराने से ऐसा अहसास होने लगता है कि पहचान हो गई। पुनरुक्ति से कहीं सत्य का कोई संबंध है! यह तो प्रचार हुआ, प्रोपेगेंडा हुआ।
यह तो ऐसा ही हुआ जैसा कि बाजार में चल रहा है। अखबार खोलो: लक्स टायलेट साबुन। फिल्म देखने जाओ: लक्स टायलेट साबुन। रास्ते पर तख्ते लगे हैं जगह-जगह: लक्स टायलेट साबुन। पुनरुक्ति की जा रही है। अब तो बिजली के अक्षर बने हैं और वैज्ञानिकों ने व्यवस्था कर दी है कि वे झिलमिलाते रहें, बुझते-जलते रहें। क्योंकि अगर बिना बुझे हुए बिजली के अक्षर लगे रहें तो एक ही बार तुम पढ़ोगे; पुनरुक्ति बार-बार न होगी। निकले--अगर तुम्हें पांच मिनट लगे निकलने में और दस दफा अक्षर बुझे और जले तो तुम्हें दस दफा पढ़ना पड़ेगा--लक्स टायलेट साबुन, लक्स टायलेट साबुन...दस दफा दोहराना पड़ेगा। करोगे क्या? वह बिजली आगे जल रही है, बुझ रही है। वह पुनरुक्ति मन में लकीर खींच जाती है।
फिर तुम दुकान पर गए, दुकानदार पूछता है, कौन सा साबुन? तुम कहते हो, लक्स टायलेट साबुन। तुम सोचते हो, तुम कह रहे हो, तो गलती में हो। वे जो करोड़ों रुपए कंपनियां खर्च कर रही हैं विज्ञापन के ऊपर, पागल नहीं हैं। तुम नहीं कह रहे हो, कंपनियों के विज्ञापन तुमसे बोल रहे हैं--लक्स टायलेट साबुन! तुम यही सोचते हो कि तुमने चुना। तुम यही सोचते हो कि स्वतंत्र रूप से तुमने विचारा। तुम यही सोचते हो कि अनुभव से तुमने जाना कि लक्स टायलेट साबुन सबसे अच्छी साबुन है। तुमने कुछ नहीं जाना। तुम्हारे मन को भर दिया गया।
तुमसे जब कोई पूछता है, तुम हिंदू हो? तुम कहते हो, हां। यह हां भी तुमसे नहीं आ रही--लक्स टायलेट साबुन! तुमसे कोई पूछता है, ईश्वर को मानते हो? तुम कहते हो, हां; बड़ी अकड़ से कहते हो कि मैं आस्तिक हूं। यह आस्तिकता भी तुम्हारी नहीं--लक्स टायलेट साबुन! महावीर भगवान हैं? तुम कहते हो, निश्चित। यह निश्चित भी तुम्हारा नहीं--लक्स टायलेट साबुन!
पुनरुक्तियां हैं, जो बहुत बार दोहराई गई हैं। इतनी बार दोहराई गई हैं कि तुम भूल ही गए हो। लौटो वापस, गौर से देखो। यह सिर्फ संस्कार है। और इस संस्कार के कारण तुम पुराने को तो पहचान ही नहीं पाते, इस संस्कार के कारण तुम नए को भी नहीं पहचान पाते।
अब यह थोड़ा समझने जैसा है। यह पुराना तुम्हें पुराने को तो पहचानने नहीं देता, क्योंकि पहचानने की तो सुविधा तभी थी जब तुम्हारा मन संस्कार-मुक्त होकर खोज करता।
तुमने कभी खोज की कि महावीर भगवान थे या नहीं? तुमने कभी खोज की, बुद्ध शास्ता थे या नहीं? तुमने कभी निष्पक्ष भाव से, निर्धारणापूर्ण होकर, बिना कोई पहले से पक्षपात बनाए कोई अनुसंधान किया?
नहीं; पुराने को तो तुम पहचान ही न पाए। अब पुराने को भगवान मान लिया है तो नए को मानने में अड़चन होती है। क्योंकि पुरानी आस्था पीड़ित अनुभव करती है। ऐसा लगता है, जैसे किसी से धोखा किया। जैसे किसी से विवाह कर लिया और फिर किसी के प्रेम में पड़ गए तो भीतर ग्लानि होती है, पीड़ा होती है, दंश होता है कि यह क्या हुआ? विवाह तो महावीर से हुआ था, बुद्ध से हुआ था, सात फेरे तो उनके साथ लग गए थे, अब किसी और को भगवान मान लें? किसी और को गुरु मान लें? भीतर ग्लानि होती है, पीड़ा होती है, परेशानी होती है। अंतस-चेतना में दुख मालूम होता है। लगता है, धोखा कर रहे हैं, दगा कर रहे हैं।
इसी तरकीब से तुम पुराने से उलझे रहते हो, नए को खोजने से बच जाते हो। पुराने को खोज लो, हर्जा नहीं। क्योंकि पुराना भी इतना ही सत्यतर है, इतना ही पूर्णतर है, जितना नया।
सत्य के जगत में कुछ पुराना और नया थोड़े ही होता है! वहां कोई समय थोड़े ही है! वहां तो सब ताजा है, सदा ताजा है। वहां तो सभी सद्यस्नात, अभी-अभी नहाया हुआ है। वहां कभी धूल जमती ही नहीं।
लेकिन पुराने को तो पहचान नहीं पाते। पहचानने की सुविधा ही नहीं दी जाती। इसके पहले कि बच्चा सोचे-विचारे, हम उसके दिमाग में कूड़ा-करकट डाल देते हैं। हम अपनी धारणा उसके मन में भर देते हैं। कहीं ऐसा न हो कि वह सोच-विचार करे और हमारी धारणा को ठीक न पाए। मां-बाप बड़े डरे हुए हैं; उनको खुद ही शक है अपनी धारणा पर। बच्चे के मन में भर देते हैं, इसके पहले कि वह सोच सके, विचार सके। और यही वह अपने बच्चों के साथ करेगा। इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी प्रचार चलता है।
प्रचार धर्म नहीं है, धर्म तो क्रांति है। धर्म तो प्रत्येक व्यक्ति का अपनी स्वेच्छा से लिया गया निर्णय है। धर्म कोई दूसरे को दे नहीं सकता। धर्म लिया जा सकता है, दिया नहीं जा सकता।
मुझे फिर से दोहराने दें: धर्म लिया जा सकता है। तुम चाहो तो ले सकते हो, लेकिन कोई तुम्हें दे नहीं सकता।
लेकिन धर्म दिया जा रहा है। मां-बाप दे रहे हैं, स्कूल दे रहा है। सारी दुनिया में चिंता रहती है मां-बाप को कि बच्चों को धर्म की शिक्षा दी जाए। धर्म की शिक्षा का क्या मतलब होता है उनका? हिंदू को हिंदू बनाया जाए, मुसलमान को मुसलमान बनाया जाए, कहीं गड़बड़ न हो जाए।
और मैं जानता हूं कि अगर बच्चों को इक्कीस वर्ष तक हिंदू-मुसलमान न बनाया जाए, तो जिसको मां-बाप गड़बड़ कहते हैं, वह हो जाएगी। मैं उसे गड़बड़ नहीं कहता; वह बड़ी स्वतंत्रता होगी। बड़ी अदभुत दुनिया का जन्म हो जाएगा। क्योंकि मैं मानता हूं, धर्म एक ऐसी अंतर्निहित जरूरत है कि उन्हें खुद ही खोजना पड़ेगा--खोजना ही पड़ेगा। ये झूठे धर्म, जो सिखाने से पैदा हो जाते हैं, इनकी वजह से वे खुद खोज पर नहीं निकलते।
अगर प्रत्येक बच्चे को खुला छोड़ दिया जाए, कोई धर्म का शिक्षण न हो--धर्म का शिक्षण होना ही नहीं चाहिए--इक्कीस वर्ष की उम्र तक अगर धर्म की जबर्दस्ती न की जाए, तो इक्कीस वर्ष के बाद प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में खोज शुरू हो जाएगी; हो ही जाती है। धर्म वैसे ही पैदा होता है एक दिन, जैसे कामवासना पैदा होती है।
कामवासना चौदह साल की उम्र में पैदा होती है; ऐसे ही इक्कीस साल की उम्र में धर्म का आविर्भाव होता है। वह स्वाभाविक है। आज नहीं कल चेतना पूछेगी ही कि सत्य क्या है? आज नहीं कल आदमी जानना ही चाहेगा, मैं खड़ा कहां हूं? कहां से आया हूं? कौन हूं? आज नहीं कल आदमी पूछेगा ही कि मृत्यु के पार क्या है? कुछ बचता है या सब खो जाता है? सब मिट्टी हो जाता है?
और अगर मन मुक्त हो तो जीवित गुरु को पहचानने में कोई अड़चन न आएगी। खोजना ही पड़ेगा; खोज तुम्हें किसी न किसी गुरु के पास ले ही आएगी। अभी पुराने गुरु से अटके होने की वजह से नए के पास नहीं आ पाते।
अब तुमसे मैं बड़ी उलझन की बात कहता हूं: पुराने से अटके होने के कारण नए के पास नहीं आ पाते। पुराने को तो पहचान ही नहीं पाते, क्योंकि उस पहचान में भी स्वतंत्र खोज नहीं है, नए के पास भी नहीं आ पाते। अगर तुम नए के पास आ जाओ और स्वच्छ मन से, पक्षपात रहित होकर नए को पहचान लो, तो मैं तुमसे और एक बात कहता हूं कि उसी में तुम पुराने को भी पहचान लोगे। और यह पहचान बड़ी अनूठी होगी; यह संस्कार की नहीं होगी, यह अनुभव की होगी।
अगर तुमने मुझे चाहा है, अगर सच में तुम मेरे करीब आए हो, तो मेरे करीब आने में क्या तुम बुद्ध के करीब नहीं आ गए? अगर सच में तुमने मुझे चाहा है, तो तुम्हारी चाहत में क्या तुमने महावीर को नहीं चाह लिया? अगर सच में तुमने मेरा स्पर्श अनुभव किया है तो तुमने कृष्ण की बांसुरी सुन ली; तो तुमने मोहम्मद की पगध्वनि सुन ली। क्योंकि मैं वही बोल रहा हूं, जो उन्होंने बोला था। उनकी भाषा उनके युग की थी, मेरी भाषा मेरे युग की है। उनके ढंग उनके युग के थे, मेरा ढंग मेरे युग का है।
मैं तुम्हारे पास खड़ा होकर चिल्ला रहा हूं, अगर वह तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता, तो यह मानना असंभव है कि तुम्हें पच्चीस सौ साल पीछे की आवाज पहचान में आ जाएगी।
‘पुराने शास्ता को हम परंपरा से जानते हैं, जो कि बहुत आसान है...।’
जानना आसान नहीं है, मान लेना कि जानते हैं, आसान है।
‘...जीवित शास्ता को पहचानने के लिए काफी विकसित प्रज्ञा चाहिए।’
नहीं, जीवित शास्ता को पहचानने के लिए विकसित प्रज्ञा नहीं चाहिए। प्रज्ञा तो विकसित होगी पहचानने के बाद। अगर उसको पहले शर्त बना लोगे तब तो असंभव हो जाएगा।
फिर क्या चाहिए? साहस चाहिए, प्रज्ञा नहीं। हिम्मत चाहिए। अंधेरे में, अनजान में उतरने का साहस चाहिए, दुस्साहस चाहिए।
अगर तुम्हारे पास विकसित प्रज्ञा हो तब तुम शास्ता को पहचान पाओ, तो फिर शास्ता की जरूरत ही क्या रह जाएगी? तुम्हारी विकसित प्रज्ञा ही काफी है; वही तुम्हारी शास्ता हो जाएगी।
नहीं, विकसित प्रज्ञा तो होगी, जब तुम किसी सदगुरु को पहचान लोगे; जब तुम किसी को मौका दोगे और किसी के हाथों को अपने भीतर आने दोगे; और किसी को अवसर दोगे कि उसकी अंगुलियां तुम्हारी बीन को छेड़ दें; तब तुम्हारी प्रज्ञा की ज्योति जगेगी। जब तुम किसी को मौका दोगे कि तुम्हारी बुझती ज्योति को उकसा दे; जब तुम किसी पर इतना भरोसा करोगे कि कहोगे कि आ जाओ भीतर, मुझे भरोसा है।
श्रद्धा चाहिए, विकसित प्रज्ञा नहीं। और श्रद्धा से बड़ा कोई साहस नहीं है। श्रद्धा बड़ी अनूठी घटना है। श्रद्धा का अर्थ है: हमें पता नहीं है कहां यह आदमी ले जाएगा। पता नहीं मार्गदर्शक है कि लुटेरा है; पता नहीं स्वर्ग की राह पर चला है कि नर्क की राह पर चला है। हजार संदेह उठेंगे, हजार मन डांवाडोल होगा, विचार न मालूम कितनी बातें उठाएंगे।
श्रद्धा का अर्थ है: यह सब होता रहे, इस सब के बावजूद भी जाना है। किसी पुकार ने पकड़ लिया है, कोई चुनौैती आ गई है, जाना है। अगर भटकाएगा तो भटकेंगे। अगर अंधेरे में उतार देगा तो उतरेंगे। लेकिन इस आदमी ने तुम्हारे भीतर कुछ छू लिया है, इसके साथ जाना ही होगा। एक अनिर्वचनीय आकर्षण पैदा हुआ है। इस आदमी ने तुम्हारे भीतर के सोए तार छेड़ दिए हैं। अपनी होशियारी एक तरफ रख देना है श्रद्धा। अपनी समझदारी एक तरफ रख देना है श्रद्धा।
नाखुदा की रविशे-फिक्र ने मारा वरना
गर्क होता मैं जहां पर वहीं साहिल होता
मांझी की बहुत ज्यादा चिंता ने--कि ठीक-ठीक नाव चले, ठीक-ठीक पतवार चले, ठीक मौसम में चले, ठीक दिशा में चले, किनारे पर पहुंचकर ही रहे--मांझी की अतिशय चिंता ने डुबाया। मांझी यानी तुम्हारा मन; उसी के हाथ में तुमने पतवार दी हुई है, नाव दी हुई है।
नाखुदा की रविशे-फिक्र ने मारा वरना
गर्क होता मैं जहां पर वहीं साहिल होता
जो श्रद्धा में डूबने को तैयार हैं, जहां डूबते हैं, वहीं किनारा पा लेते हैं। संशय में चलने वाले किनारों पर पहुंचकर भी टकराते हैं और डूब जाते हैं। श्रद्धा में डूबने वाले, मझधार में भी डूबते हैं और किनारा पा जाते हैं। श्रद्धा की अल्केमी अलग, उसका शास्त्र अलग। साहस चाहिए।
जैसे तुम प्रेम में पड़ते हो, एक युवक एक युवती के प्रेम में पड़ जाता है, या एक युवती एक युवक के प्रेम में पड़ जाती है, क्या करते हो तुम प्रेम में? करते कुछ भी नहीं, कोई अनजाना धागा हाथ में आ जाता है। कोई अनजानी चुंबकीय शक्ति खींच लेती है। होश-हवास खो देते हो, सब समझदारी एक तरफ रख देते हो। सारी दुनिया समझाती है कि यह पागलपन है, यह क्या कर रहे हो? कुछ समझ में नहीं आता। एक धुन पकड़ लेती है, एक दीवानापन पकड़ लेता है।
श्रद्धा भी प्रेम जैसी है। प्रेम से दो शरीर बंधते हैं, श्रद्धा से दो आत्माएं बंधती हैं। वह श्रद्धा का पागलपन प्रेम के पागलपन से भी बड़ा है। क्योंकि प्रेम का पागलपन तो क्षणिक है; आज है, कल उतर जाए। यह बाढ़ कोई बड़ी स्थिर बाढ़ नहीं; हजार बार चढ़ती-उतरती है। लेकिन श्रद्धा का तो तूफान बड़ा शाश्वत है। एक दफा उठ आता है तो फिर उतरता नहीं; तुम्हें अपने साथ ही ले जाता है। साहस चाहिए।
और तुम कह रहे हो, ‘जाने कैसे हम तो भटकते हुए आपके पास आ पहुंचे हैं।’
नहीं, भटकते हुए नहीं। तुम्हें चाहे साफ न हो, तुम्हें चाहे स्पष्ट न हो, मुझे स्पष्ट है। अकारण तुम मेरे पास नहीं आ गए हो। अकारण तो कुछ भी नहीं होता। आ गए हो मेरे पास--किसी कारण से; कारण आज जाहिर न हो, कल हो जाएगा। तुम्हें जाहिर न हो, मुझे जाहिर है। यह खोज तुम्हारी चिरंतन से चल रही है। ऐसे ही भटकते हुए नहीं आ गए हो, खोजते हुए आए हो।
हां, खोज धुंधली-धुंधली है, साफ नहीं यह माना, लेकिन खोज चल रही है। गलत मार्गों पर भी जो खोजते हैं, वे भी खोजते हैं, टटोलते हैं। ऐसा आदमी ही खोजना कठिन है, जो खोज न रहा हो। वह भी क्या आदमी, जो खोज न रहा हो! तुम आदमी हो और खोजते हुए चले आए हो।
‘जाने कैसे भटकते हुए हम तो आपके पास आ पहुंचे हैं।’
लेकिन यह भाव शुभ है कि तुम्हें लगता है कि शायद भटकते हुए आ पहुंचे हैं। यह भाव शुभ है। नहीं तो अहंकार इसमें भी निर्मित हो सकता है कि हम बड़े खोजते हुए आ गए हैं। यह मैं कह रहा हूं, तुम मत मान लेना। यह मैं कहता हूं, तुम खोजते हुए आए हो। तुम तो यही जानना कि तुम भटकते हुए पहुंच गए हो। नहीं तो यह भी अहंकार मजबूत हो सकता है कि जन्मों-जन्मों के कर्मों का, शुभ कर्मों का फल है। ऐसा कुछ भी नहीं है। यह मेरा कहना है। माना, मुझे पता है कि कुछ शुभ किया होगा तो ही मेरे पास आए हो; लेकिन तुम इसको मत मान लेना। क्योंकि तुमने अगर माना तो किया शुभ भी अशुभ हो जाएगा।
‘और पास रहकर भी आपको कहां जान पाते हैं?’
खोज जारी रही तो जान लोगे। और अगर यह भाव मन में बना रहा कि कहां जान पाते हैं, तो जानने की तैयारी हो रही है। चूकेंगे तो वही, जो सोचते हैं कि जान लिया। चूकेंगे तो वही, जो मानते हैं कि जान लिया।
एक ऐसी यात्रा पर तुम्हें ले चल रहा हूं, जिसकी शुरुआत तो है, लेकिन जिसका कोई अंत नहीं। एक अंतहीन अनंत यात्रा है जीवन की; उस अनंत यात्रा का नाम ही परमात्मा है। उस अनंत यात्रा को खोज लेने की विधियां ही धर्म है।
एस धम्मो सनंतनो।
आज इतना ही।
क्या आपने धर्म को पूरी तरह पा लिया है? क्या आप एक सदगुरु हैं? क्या आप परमात्मा को मुझ तक लाने में समर्थ हैं?
दीवानों की बस्ती में कोई समझदार आ गया! समझदारी से उठाए गए प्रश्नों का कोई मूल्य नहीं। नीचे लिखा है, सत्य का एक जिज्ञासु। न तो जिज्ञासा है, न खोज है; मान्यताओं से भरा हुआ मन होगा।
जिज्ञासु को तो यह भी पता नहीं कि ईश्वर है। जिज्ञासु को तो यह भी पता नहीं कि धर्म है। जिज्ञासु को तो यह भी पता नहीं कि सदगुरु है। जिज्ञासु प्रश्न थोड़े ही पूछता है, जिज्ञासु अपनी प्यास जाहिर करता है।
प्रश्न दो ढंग से उठते हैं: एक तो प्यास की भांति; तब उनका गुणधर्म और। और एक जानकारी से, बुद्धि भरी है कूड़ा-करकट से, उसमें से प्रश्न उठ आते हैं।
पहला प्रश्न, ‘क्या आपने धर्म को पूरी तरह पा लिया है?’
धर्म का पता है, क्या है? पूरी तरह का अर्थ मालूम है, क्या होता है? धर्म की दुनिया में पा लेने वाला बचता है?
एक-एक शब्द को समझना जरूरी है। क्योंकि हो सकता है, कोने-कातर में तुम्हारे भी, इस तरह के विचार भरे पड़े हों, इस तरह की मान्यताएं भरी पड़ी हों। पहली तो बात--धर्म को कोई पाता नहीं, धर्म में स्वयं को खोता है। धर्म कोई संपदा नहीं है, जिसे तुम अपनी मुट्ठी में ले लो। धर्म तो मृत्यु है, जिसमें तुम समा जाते हो। तुम नहीं बचते तब धर्म बचता है। जब तक तुम हो, तब तक धर्म नहीं।
इसलिए जो दावा करे कि उसने धर्म को पा लिया है, उसने तो निश्चित ही न पाया होगा। दावेदारी का धर्म से कोई संबंध नहीं है। यह तो बात ही छोटी हो गई। जिसे तुम पा लो, वह धर्म ही बड़ा छोटा हो गया। जो तुम्हारी मुट्ठी में आ जाए, वह विराट न रहा। जिसे तुम्हारी बुद्धि समझ ले, वह समझने के योग्य ही न रहा। जिसे तुम्हारे तकर्र् की सरणी में जगह बन जाए, जो तुम्हारे कटघरों में समा जाए, वह धर्म का आकाश न रहा।
बुद्ध ने कहा है, जब तुम ऐसे मिट जाओ कि आत्मा भी न बचे, अनात्मा हो जाओ, अनात्मावत हो जाओ, अनत्ता हो जाओ, शून्य हो जाओ; तभी जिसका आविर्भाव होता है, वही धर्म है--एस धम्मो सनंतनो।
पंडित की मुट्ठी में धर्म होता है। ज्ञानी धर्म की मुट्ठी में होता है। पंडित धर्म को जानता है, ज्ञानी को धर्म जानता है। जिसने जाना, उसने यही जाना कि जानने वाला बचता कहां है! जिसने जाना, उसने यही जाना कि अपने कारण ही न जान पाते थे, हम ही बाधा थे; जब हम मिट गए, जब हम न रहे, तब अवतरण हुआ।
ऐसा नहीं है कि तुम्हारे भीतर कुछ बाधाएं हैं, जिनके कारण तुम धर्म को नहीं जान पा रहे हो--तुम बाधा हो। तुम्हारे कारण तुम धर्म को नहीं जान पा रहे हो। तुम्हें समझाया गया है, अज्ञान के कारण नहीं जान पा रहे हो; गलत है बात। तुम्हें समझाया गया है, पाप के कारण नहीं जान पा रहे हो; गलत है बात।
मैं तुमसे कहता हूं, तुम्हारे कारण नहीं जान पा रहे हो। अगर तुम रहे और पुण्य भी किया तो भी न जान पाओगे। अगर तुम रहे और अज्ञान की जगह ज्ञान भी पकड़ लिया तो भी न जान पाओगे। पाप तो रोकेगा ही, पुण्य भी रोकेगा। अज्ञान तो रोकेगा ही, ज्ञान भी रोकेगा।
और अक्सर ऐसा हुआ है कि कभी-कभी अज्ञान इतनी बुरी तरह नहीं रोकता, जितनी बुरी तरह ज्ञान रोक लेता है। अज्ञान तो असहाय है, ज्ञान बड़ा अहंकार से भरा हुआ है। कभी-कभी पाप भी इतनी बड़ी जंजीर नहीं बनता, जितनी बड़ी जंजीर पुण्य बन जाता है। पुण्य के अहंकार में तो हीरे-जवाहरात जड़ जाते हैं। पापी तो पछताता भी है, पुण्यात्मा तो सिर्फ अकड़ता ही चला जाता है।
भोग ने तुम्हें नहीं भटकाया है; इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, योग तुम्हें न पहुंचा पाएगा। जब तुम ही न बचोगे--न भोग करने वाला, न योग करने वाला; जब तुम्हारे भीतर कोई भी मौजूद न होगा, जब तुम सब भांति शून्यवत हो जाओगे, तब जो जाना जाता है, वही धर्म है।
धर्म का अर्थ होता है: स्वभाव। अहंकार के कारण स्वभाव पर बाधा पड़ जाती है।
तो पहली तो बात यह है कि धर्म को जिन्होंने जाना है, वे बचे नहीं। उपनिषद कहते हैं, जो कहे जान लिया, जान लेना कि नहीं जाना उसने। सुकरात ने कहा है, जब जाना तो यही जाना कि कुछ भी नहीं जानते हैं।
पूछा है, ‘क्या आपने धर्म को पूरी तरह पा लिया है?’
पूरी तरह का क्या अर्थ होता है? अगर धर्म पूरी तरह पाया जा सके तो सीमित हो जाएगा। जिसकी सीमा हो, वही पूरी तरह पाया जा सकता है। धर्म की कोई सीमा नहीं है। इसलिए तुम धर्म में डूब जाओगे। धर्म तुम्हें पूरी तरह पा लेगा, लेकिन तुम न पा सकोगे पूरी तरह।
एक बूंद जब सागर में गिरती है तो सागर बूंद को पूरी तरह पा लेता है। बूंद ने सागर को पूरी तरह पाया, यह कहने का क्या अर्थ है? बूंद बची ही नहीं; उसी पाने में खो गई; पाने की शर्त पूरी करने में ही खो गई।
यह पूरे की भाषा भी लोभ की भाषा है। थोड़ा-ज्यादा, पूरा-कम; मात्राएं-- आधा पाव, पाव भर, आधा सेर, सेर भर--ये मात्राएं भी गणित की मात्राएं हैं। सत्य को खंडित किया जा सकता है क्या कि तुम आधा पा लो? सत्य के टुकड़े बांटे जा सकते हैं क्या कि तुम थोड़ा अभी पा लो, थोड़ा कल पा लेंगे?
सत्य अखंड है, इसलिए खंड तो हो नहीं सकते। और सत्य असीम है, इसलिए तुम उसे पूरा कभी पा नहीं सकते।
बड़ी अड़चन मालूम पड़ेगी, क्योंकि मैं कह रहा हूं यह--एक विरोधाभासी वक्तव्य दे रहा हूं--कि सत्य अखंड है, उसके खंड, टुकड़े हो नहीं सकते। और सत्य असीम है, इसलिए पूरा तुम उसे पा नहीं सकते।
तब तो बड़ी मुश्किल हो गई। टुकड़े उसके हो नहीं सकते, नहीं तो थोड़ा-थोड़ा पा लेते, अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार पा लेते। तो वह अखंड है, इसलिए उसके टुकड़े हो नहीं सकते। और चूंकि वह असीम है, इसलिए पूरा तुम उसे पा नहीं सकते। अब करोगे क्या?
आदमी सत्य में विसर्जित होता है, खोता है। जैसे गंगा सागर में उतरकर खो जाती है, ऐसे आदमी परमात्मा में उतरकर खो जाता है।
तो मैं तुमसे यही कह सकता हूं कि परमात्मा ने मुझे पूरी तरह पा लिया है--पूरी तरह! रत्तीभर भी उसने मुझे अपने बाहर नहीं छोड़ा है। और तुम थोड़ी और उलझन में पड़ोगे। क्योंकि मैं तुमसे यह भी कहना चाहता हूं कि तुम्हें भी उसने पूरी तरह पाया हुआ है, सिर्फ तुम्हें याददाश्त नहीं है। तुम उसके बिना हो कैसे सकोगे? वही तुममें श्वास लेता है, इसलिए श्वास चलती है। वही तुममें धड़कता है, इसलिए दिल धड़कता है। वही तुममें जागता है, इसलिए तुममें होश है। वही तुम्हारा जन्म है, वही तुम्हारा जीवन है। उसने तुम्हें पूरी तरह पाया ही हुआ है।
जरा पीछे लौटकर तो देखो! जरा अपने को तो पहचानो! अपनी पहचान में ही तुम पाओगे, उसके साथ पहचान हो गई। अपने को खोजते-खोजते ही आदमी उसे खोज लेता है। इसलिए जो परमात्मा की खोज में सीधे जाते हैं, वे गलत जाते हैं। जो अपनी खोज में जाते हैं, वही ठीक जाते हैं।
जब भी मेरे पास कोई आता है, वह कहता है, परमात्मा को पाना है, तब मैं समझता हूं गलत आदमी आ गया। यह बात ही लोभ की है। यह बात ही मूढ़तापूर्ण है। यह बात ही अहंकार की है। इस आदमी के पास दिमाग बाजार का है।
जब मेरे पास कोई आता है और कहता है, मुझे स्वयं से थोड़ी अपनी पहचान बनानी है। जिसकी अपने से पहचान नहीं, परमात्मा से पहचान कैसे होगी? जिसकी अपने से पहचान है, उसे परमात्मा को जानने की जरूरत ही क्या रही? जिसने अपने को पहचान लिया, उसने उसके सूत्र को पकड़ लिया। वह तुम्हारे भीतर मौजूद है।
ऐसा कभी हुआ ही नहीं है कि वह मौजूद न रहा हो; इसलिए तो हम उसे शाश्वत कहते हैं। ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां वह मौजूद न हो; इसलिए तो हम उसे सर्वव्यापी कहते हैं। तुम इतने विशिष्ट नहीं हो सकते कि तुम्हें छोड़कर सब जगह मौजूद हो। तुम अपने को अपवाद मत मानो।
मैंने एक कहानी सुनी है। एक शेखचिल्ली को किसी ने कह दिया कि तेरी पत्नी विधवा हो गई। भरे बाजार में वह छाती पीटकर रोने लगा। भीड़ इकट्ठी हो गई, लोग हंसने लगे। किसी ने पूछा, मामला क्या है? उसने कहा, मेरी पत्नी विधवा हो गई। उन्होंने कहा, पागल! तू जिंदा बैठा है तो तेरी पत्नी विधवा हो कैसे सकती है? उसने कहा, इससे क्या होता है? मेरे जिंदा रहने से क्या होता है? मैं जिंदा बैठा था, मेरी मां तक विधवा हो गई थी। मैं जिंदा बैठा था, मेरी फूई विधवा हो गई। मैं जिंदा बैठा था, मेरी मामी विधवा हो गई। मुहल्ले में कितनी औरतें विधवा हो गयीं, पूरे गांव में कितनी औरतें विधवा हो गयीं, मैं जिंदा बैठा था। इससे क्या फर्क पड़ता है? वह फिर छाती पीटकर रोने लगा।
तुम परमात्मा को खोज रहे हो, वह खोज ऐसी ही है, जैसे कोई आदमी मान लेता हो कि उसकी पत्नी विधवा हो गई है और वह जिंदा बैठा है। परमात्मा को खोया कब है? तुम हो तो परमात्मा है ही। तुम्हारे होने में ही समाया। तुम्हारे रहते तुम्हारी पत्नी विधवा नहीं हो सकती। तुम्हारे रहते यह असंभव है कि परमात्मा न हो। तुम काफी प्रमाण हो। तुम उसकी मौजूदगी हो। तुम उसके हस्ताक्षर हो।
लेकिन असली सवाल है अपने को जानने का। असली सवाल परमात्मा को जानने का नहीं है। परमात्मा की बातचीत जैसे ही तुमने उठाई कि तुम शब्द-जाल, शास्त्र-जाल में पड़े। अपने को जानने चले तो साधना का जन्म होता है। परमात्मा को जानने चले तो व्यर्थ की माथापच्ची होती है। मेरा उसमें कोई रस नहीं है।
तुम परमात्मा को छोड़ो। तुम्हारे सिद्ध करने से वह सिद्ध न होगा; तुम्हारे असिद्ध करने से असिद्ध न होगा। वह है ही। तुम जानो न जानो, कोई फर्क नहीं पड़ता। उसका हाथ तुम्हारे भीतर पहुंचा ही हुआ है। वहीं तुम जरा टटोलो; वहीं तुम्हें उसका हाथ पकड़ में आ जाएगा।
और जो अपने निकटतम स्वयं के भीतर उसे न पकड़ पाए, वह उसे कहीं भी न पकड़ पाएगा। फिर तो सभी स्थान बड़ी दूरी पर हो जाते हैं। अपने हृदय की धड़कन में उसकी आवाज न सुनाई पड़ी तो तुम्हें फिर उसकी आवाज कहीं भी सुनाई न पड़ेगी।
‘क्या आपने धर्म को पूरी तरह पा लिया है?’
उसे कभी किसी ने खोया ही नहीं। जो खो जाए, वह भी धर्म हुआ? धर्म का अर्थ ही होता है, जो न खो सके; जो तुम्हारा चिरंतन स्वभाव है; जो तुम हो; जो तुम्हारा शुद्ध होना है। इसे कभी किसी ने खोया नहीं। तुम चाहकर भी इसे खोना चाहो तो न खो सकोगे। ज्यादा से ज्यादा तुम विस्मरण कर सकते हो। वह भी बड़ी चेष्टा से करना पड़ता है, वह भी बड़ी मुश्किल से करना पड़ता है। हजार उपाय, विधियां, व्यवस्थाएं जुटानी पड़ती हैं तब कहीं तुम उसे भूल पाते हो। हजार तरह की शराबें पीनी पड़ती हैं तब तुम उसे भूल पाते हो।
तो पहली तो बात यह खयाल में रखो कि धर्म वही है, जो है। है का नाम ही धर्म है। अस्तित्व के स्वभाव का नाम धर्म है।
जब मैं धर्म की बात कह रहा हूं तो हिंदू धर्म, मुसलमान धर्म, ईसाई धर्म, इन सब रोगों की बात नहीं कर रहा हूं। ये तो बीमारियां हैं, जिनसे आदमी को स्वस्थ होना है। मैं उस धर्म की बात कर रहा हूं, जिसको महावीर ने कहा है: बत्थु सहाओ धम्म; वस्तु का स्वभाव धर्म है।
आग जलाती है, यह आग का धर्म है।
पानी नीचे की तरफ बहता है, यह पानी का धर्म है।
हवा अदृृश्य है, यह हवा का धर्म है।
तुम चैतन्य हो, यह तुम्हारा धर्म है।
अपने धर्म को ठीक से पकड़ लो, वहीं से द्वार खुलेगा विराट का।
और ध्यान रखना, जो भी तुम जान लोगे, उससे धर्म चुक न जाएगा। जो भी तुम जान लोगे, उसे तुम ऐसा ही समझना, जैसे किसी ने खिड़की से आकाश की तरफ झांका हो। खिड़की का चौखटा आकाश का स्वभाव नहीं है। खिड़की की आकृति आकाश से बिलकुल असंबंधित है। आकाश से कुछ खिड़की का लेना-देना नहीं है। तुम्हारी खिड़की गोल हो, चौकोन हो, किसी रूप-रंग की हो, छोटी हो, बड़ी हो, सीखचों वाली हो, खुली हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आकाश का खिड़की से कोई भी संबंध नहीं है। लेकिन जो खिड़की के पीछे खड़े होकर देखेगा, उसे ऐसा ही लगेगा कि खिड़की का आकार आकाश का आकार है।
जो तुम जानते हो, उससे उस परम सत्य का कोई संबंध नहीं है। जो तुम जानते हो वह तो तुम्हारे मन की खिड़की है, तुम्हारा ढांचा है। सत्य तो सदा ही अज्ञेय है; अज्ञेयता उसका स्वभाव है। जान-जानकर तुम उसे चुकता न कर पाओगे। सब जानना, सब धारणाएं तुम्हारी खिड़कियां हैं।
कोई उसे कहता है, ईश्वर--यह उसकी खिड़की है। कोई उसे कहता है, मोक्ष--यह उसकी खिड़की है। कोई उसे कहता है निर्वाण--यह उसकी खिड़की है। कोई कुछ भी नहीं कहता, चुप रह जाता है--यह उसकी खिड़की है।
हम जो भी उसके संबंध में कह सकते हैं, वह उसके संबंध में नहीं होता, हमारे संबंध में होता है। उसके संबंध में आज तक जो भी कहा गया है, वह कहने वालों के संबंध में है; उनकी खिड़कियां, धारणाएं, मन के प्रत्यय, उनके संबंध में है।
सत्य तो सदा ही अपरिचित है और यही सत्य का सौंदर्य है। जिससे परिचय हो गया, वह तो मर ही गया। जिसे तुमने जान लिया, उसकी सीमा आ गई। जिसे तुमने पहचान लिया, उसका रहस्य समाप्त हुआ। जिसे तुमने समझा कि जान लिया, अब उसमें आश्चर्य कहां? अब वह तुम्हें अवाक न कर सकेगा। अब तुम उसके सामने खड़े होकर आश्चर्य से भरे हुए नाचोगे नहीं।
इसलिए जिन-जिन लोगों को जानने का भ्रम हो जाता है, उन-उन के जीवन से आश्चर्य विदा हो जाता है। और आश्चर्य परमात्मा के पास पहुंचने का सेतु है। जितना मनुष्य जाति को यह वहम सवार हो गया है कि हम जानते हैं--विज्ञान ने कुछ बातें जता दी हैं, शास्त्रों ने कुछ बातें बता दी हैं, हमने उन्हें कंठस्थ कर लिया है--उतना ही हमारे ऊपर धूल जम गई है और बचपन के जो आश्चर्यचकित होने की संभावना थी, वह क्षीण हो गई।
छोटे बच्चे को कभी देखा? रास्ते के किनारे पड़े कंकड़-पत्थर सूरज की रोशनी में चमकते कोहिनूर हो जाते हैं; उठा-उठा लेता है। तुम कहते हो, छोड़ो भी, फेंको भी, कहां कचरा उठा रहा है! तुम समझ ही नहीं पा रहे। वह रंगीन पत्थर सूरज की रोशनी में इतने महिमापूर्ण मालूम होते हैं बच्चे को।
यह पत्थर का सवाल नहीं है, बच्चे की अभी आश्चर्य की आंख बंद नहीं हुई। अभी उसके आश्चर्य के द्वार खुले हैं। अभी बच्चे का मन ज्ञान से बोझिल नहीं हुआ। अभी बच्चा निर्दोष है। अभी वह खाली आंखों से देख पाता है तो हर चीज सुंदर हो जाती है। तितलियों के पीछे दौड़ लेता है तो स्वर्गों का आनंद आ जाता है। फूल इकट्ठे कर लेता है तो जैसे मोक्ष मिल जाता है।
जीसस ने कहा है, जो छोटे बच्चों की भांति होंगे, वे ही मेरे परमात्मा के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे।
यही मैं तुमसे भी कहता हूं: ज्ञानी मत बनना। आश्चर्यचकित होने की क्षमता मत खो देना; वही सबसे बड़ी धरोहर है। जानकार होकर मत बैठ जाना कि मैं जानता हूं। पंडित के मन में धूल जम जाती है। उसे फिर कोई चीज आश्चर्यचकित नहीं करती। वह सभी चीज को जानता हुआ मालूम होता है।
अपने ज्ञान को थोड़ा हटाओ। यह विचारों की धूल जरा अलग करो। फिर थोड़े आश्चर्यचकित होकर देखो: एक-एक पत्ती में उसी की हरियाली है, एक-एक पक्षी के गीत में उसी के स्वर हैं।
मगर तुम्हारा जानना, तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारे प्राण लिए ले रहा है। कोयल गाती है, तुम कहते हो, कोयल गा रही है। मैं तुमसे कहता हूं, फिर से सुनो; कोयल के बहाने उसी ने गाया है। फूल खिलता है, तुम कहते हो, फूल खिल रहा है। मैं तुमसे कहता हूं, फिर से देखो; फूल के बहाने वही खिला है। ये सब बहाने हैं उसके। तुमने अगर समझा कि फूल खिल रहा है, चूक गए। तुमने अगर समझा कि कोयल गा रही है, चूक गए।
जरा आंख खाली करो, खिड़कियों के जरा बाहर आओ; हिंदू-मुसलमान होने को जरा पीछे छोड़ो; गीता-कुरान को जरा हटाओ; जरा खुली आंख से देखो--जैसे छोटे बच्चे ने पहली दफा देखा हो। फिर से तुम पहली दफा इस संसार को देखो, तुम उसे पाओगे; जगह-जगह से झांकता हुआ पाओगे।
परिधि दृष्टि का दोष
अहं का कुंठित दर्शन
परिचय भ्रम की देह
अपरिचय सहज चिरंतन
परिचय भ्रम की देह
जहां-जहां तुम सोचते हो, जान लिया, परिचय हो गया, वहीं भ्रम खड़ा हो गया।
जीवन की थोड़ी घटनाओं को समझो। तुम एक स्त्री को विवाह कर लाए थे तीस साल पहले, सात चक्कर लगाए थे, भांवर डाल ली थीं, बैंड-बाजे बजे थे, घोड़े पर सवार होकर घर आ गए थे; तब से तुमने इस स्त्री को फिर से गौर से देखा? तुमने मान लिया मेरी पत्नी है, बात समाप्त हो गई। फिर से गौर से देखने की जरूरत न रही। सात चक्कर लगा लिए थे, बैंड-बाजे बजा लिए थे, एक परिचय बना लिया। पुरोहितों ने मंत्रोच्चार कर दिए थे। अपरिचित एक स्त्री थी, तुम भी अपरिचित थे, दोनों के बीच इस क्रिया-कांड से परिचय का एक नाता बना लिया। क्या सच में ही तुम अपनी पत्नी से परिचित हुए हो?
बच्चा घर में पैदा होता है, नाम रख लेते हो, पंडित को बुलाकर कुंडली बनवा लेते हो; क्या सच में ही तुम अपने बच्चे को जानते हो--कौन है? कौन आया है? कौन अवतरित हुआ है? यह कौन फिर आया? किसने देह धरी? यह कौन इस बच्चे की निर्मल आंखों से झांका? किसने तुम्हें देखा? तुम कहते हो, हमारा बेटा है।
परिचय भ्रम की देह
अपरिचय सहज चिरंतन
जो जानते हैं, वे जानते हैं कि परिचय सब धोखा है। कौन किसको जानता है? जिन्हें तुम अपने कहते हो, उन्हें भी तुम कहां जानते हो? छोड़ो उनकी बात! तुम अपने को कहां जानते हो?
परिचय भ्रम की देह
अपरिचय सहज चिरंतन
सत्य की अगर सच में ही खोज करनी हो तो परिचय की जितनी सीमाएं हैं, तोड़ो; फिर-फिर झांककर देखो। परिचय को घना मत होने दो। परिचय को जड़ मत जमाने दो। परिचय की धूल को मत जमने दो। फिर-फिर स्नान कर लो, फिर-फिर अपरिचित हो जाओ; ताकि जीवन ताजा रहे, नया रहे सुबह की भांति; सुबह की ओस की भांति स्वच्छ रहे। और तब तुम सब जगह से पाओगे, वही झांक रहा है। तुम्हारी पत्नी से भी वही; तुम्हारे बेटे से भी वही। किसी दिन दर्पण के सामने खड़े होकर अचानक तुम पाओगे दर्पण में तुम्हारी छबि नहीं बन रही, उसी की बन रही है--तुमसे भी वही।
‘क्या आपने धर्म को पूरी तरह पा लिया है?’
अब तुम्हीं उत्तर खोज लेना।
‘क्या आप एक सदगुरु हैं?’
होश भी नहीं तुम्हें, क्या पूछ रहे हो! इतना ही पूछो, क्या तुम सदशिष्य हो? अगर हो तो मेरे उत्तर की जरूरत न रहेगी।
यह तो ऐसे है, जैसे अंधा आदमी पूछता हो, क्या सूरज निकला है? अगर सूरज कहे भी कि निकला हूं तो भी क्या फर्क पड़ेगा! अंधा आदमी पूछेगा, सच कह रहे हो? सूरज अगर कहे, सच भी कह रहा हूं; तो अंधा आदमी पूछेगा, कोई प्रमाण है? अंधे आदमी ने बुनियादी बात ही न पूछी। पूछना था कि मैं अंधा तो नहीं हूं! मुझे कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा।
प्रश्न को सदा अपनी तरफ मोड़ो, क्योंकि खोज अपनी करनी है। मेरे सदगुरु होने न होने से तुम्हें क्या लेना-देना है? इसे तुम अपनी चिंता क्यों बनाते हो? और अगर मुझसे ही पूछ रहे हो तो हल कैसे होगा? अगर मैं कह दूं हां, तो क्या फर्क पड़ेगा? तुम्हारे मन में दूसरा सवाल उठेगा कि मैंने जो कहा, वह ठीक है, सही है? संदेह तो अपनी जगह बना रहेगा। अगर मैं दो-चार गवाहियां भी जुटा दूं कि ये रहे लोग, जो कहते हैं; तो संदेह यह उठेगा, ये गवाह कहीं सिखाए-पढ़ाए तो नहीं!
असली बात देखने की कोशिश करो। तुम्हारे भीतर संदेह है, श्रद्धा नहीं है। और संदेह से न तो सदगुरु से संबंध हो सकता है, न सत्य से संबंध हो सकता है। मेरी तुम फिक्र छोड़ो। तुम अपनी ही फिक्र कर लो, काफी है।
इतना मैं तुमसे कहता हूं, अगर तुम्हारे पास सीखने की क्षमता हो, अगर तुम सीखने को तैयार हो--सीखने की तैयारी का अर्थ होता है कि अगर तुम झुकने को तैयार हो, अगर तुम यह मानने को तैयार हो कि मैं जानता नहीं, तो यह प्रश्न पूछने की जरूरत न रह जाएगी; तुम मेरे गवाह बन जाओगे। और जब तक तुम मेरे गवाह न बन जाओ, तब तक कोई गवाहियां काम आने की नहीं हैं।
खोल आंख जमीं देख फलक देख फजा देख
मशरिक से उभरते हुए सूरज को जरा देख
लेकिन देखने के पहले तुम्हारी आंख खुली होनी चाहिए।
आंख खोलकर मुझे देखो, वहां उत्तर है। तुम आंख बंद करके मुझे देखते रहो तो मैं कितने ही उत्तर दूं, तुम तक न पहुंचेंगे।
तुम अगर सीखने को तैयार हो, तुमने अगर अपना पात्र खाली किया है, तो मैं अपने को पूरा उंड़ेल देने को तैयार हूं।
लेकिन तुम्हारे पात्र में मैं देखता हूं, बूंदभर भी जगह नहीं है। तुम इतने भरे हो, जरा भी रिक्त स्थान नहीं, अवकाश नहीं। तुम्हारे भीतर आने की सुविधा कहां है? तुमने सब द्वार-दरवाजे बंद कर लिए हैं। तुमने तर्क की दीवालें बना ली हैं, शास्त्रों की दीवालें बना ली हैं। तुम उनकी ओट में छिपे बैठे हो। वहां से तुम पूछते हो, क्या आप एक सदगुरु हैं?
प्रश्न अंधेपन से आ रहा है; अन्यथा तुम्हें सभी सदगुरु मुझमें दिखाई पड़ सकते हैं; एक की तो बात ही छोड़ दो। तुम्हारे पास आंख हो तो सूरज उगा हुआ है।
खोल आंख जमीं देख फलक देख फजा देख
मशरिक से उभरते हुए सूरज को जरा देख
लेकिन तुम भूल ही गए हो आंख खोलना। लोगों ने ऐसा समझ रखा है, जैसे यह सत्य का जिम्मा है कि वह सिद्ध करे। क्या पड़ी है सत्य को? जैसे यह सूरज का जिम्मा है कि तुम्हारी आंख भी खोले! क्या पड़ी है सूरज को? सूरज तुम्हारे द्वार पर दस्तक न देगा; आएगा, द्वार पर रुका रहेगा, द्वार खुला होगा, भीतर आ जाएगा; द्वार बंद होगा, बाहर रह जाएगा। दस्तक न देगा; कहेगा न कि मैं आ गया हूं, द्वार खोलो। चुपचाप प्रतीक्षा करेगा।
और यही सुंदर है। क्योंकि सत्य भी अगर द्वार पर दस्तक दे तो हस्तक्षेप हुआ। सूरज अगर जबरदस्ती घर के भीतर प्रवेश करने की कोशिश करे तो अतिक्रमण हुआ। अगर परमात्मा तुम्हें जबरदस्ती जगाने की चेष्टा में रत हो जाए तो तुम्हारी स्वतंत्रता कहां रही? अगर सोने का हक न हो, अगर भटक जाने की सुविधा न हो तो मनुष्य की गरिमा खो जाती है।
मनुष्य का सारा सौभाग्य यही है कि चाहे तो नर्क में गिर सकता है, अंधेरे से अंधेरी पर्तों में उतर सकता है, और चाहे तो प्रकाश के अनंत जगत को प्राप्त कर सकता है। मनुष्य की महिमा यही है कि मनुष्य स्वतंत्र है। उसकी स्वतंत्रता अबाध है। मनुष्य स्वतंत्रता है, यही उसकी खूबी है, यही उसका गौरव है; यही उसकी अड़चन भी, कठिनाई भी। यही उसकी दुविधा भी है।
तुमने तो चाहा होता कि भटकने की सुविधा न होती और तुम रेल की पटरियों की भांति होते कि डिब्बे उन पर दौड़ते चले जाते, कहीं और जाने की जरूरत न होती। मगर तब सत्य अगर गुलामी हो, जबरदस्ती हो तो कुरूप हो गया। और सत्य और कुरूप हो जाए--सत्य ही न रहा। सत्य के सौंदर्य में यह समाविष्ट है कि वह स्वतंत्र होगा।
इसलिए तो परमात्मा प्रगट नहीं है। उसका प्रगट होना बड़ी परतंत्रता हो जाएगी। उसका अप्रगट होना स्वतंत्रता है।
तुम थोड़ा सोचो, परमात्मा जगह-जगह बीच में आकर खड़ा हो जाए--तुम सिगरेट पीने जा रहे थे, वे बीच में खड़े हो गए! तुम शराब ढालने ही के करीब थे कि वे सामने खड़े हो गए! तुम किसी की जेब काट ही रहे थे कि वे आ गए--जीना मुश्किल हो जाएगा, कठिन हो जाएगा।
नहीं, तुम्हें तुम पर ही छोड़ा हुआ है। तुम्हें अपनी ही भूलों से सीखना है। तुम्हें भटक-भटककर राह खोजनी है। और जो राह बिना भटके मिल जाए, बड़ी मूल्यवान नहीं। जो बहुत भटककर मिलती है, उसी में मूल्य है। जिसके लिए कीमत चुकानी पड़ती है, उसी में मूल्य है।
तो मैं तुमसे कहूंगा, खोजो मुझे; मैं यहां मौजूद हूं। तुम्हारे द्वार पर खड़ा हूं, लेकिन दस्तक न दूंगा; तुम्हें द्वार खोलने पड़ेंगे। मैं भीतर आने को राजी हूं, लेकिन बिना तुम्हारे निमंत्रण के न आऊंगा। जब तक न पाऊंगा कि तुम्हारा हृदय स्वागतम बन गया, तब तक भीतर आने का कोई कारण नहीं है।
यही पूछो कि क्या तुम सदशिष्य हो? यही पूछो कि क्या तुम्हारी आंख खुली है? क्या तुम सीखने को तैयार हो?
क्योंकि सदगुरु को पहचानना हो तो शिष्यत्व पाना होगा; और तो कोई उपाय नहीं। सरोवर की और क्या पहचान है?--कि तुम प्यासे होओ। तुम एक सरोवर के किनारे खड़े हो, प्यासे नहीं हो, और तुम उस पानी से पूछते हो, क्या तुझमें प्यास को बुझाने की क्षमता है? सरोवर क्या कहेगा? प्यास ही न हो तो सरोवर के पास क्या उपाय है सिद्ध करने का कि प्यास को बुझाने की क्षमता है।
प्यास होनी चाहिए। तो तुम पूछोगे थोड़े ही, प्यास ही तुम्हें सरोवर में ले जाएगी। तुम पूछोगे थोड़े ही, प्यासा थोड़े ही पूछता है कि पानी बुझाएगा प्यास को? प्यासा तड़फता है पानी के लिए। प्यासा बिना पूछे पी जाता है; पीकर जानता है कि प्यास बुझती है। और वहीं उसी अनुभव से समझ आती है। अनुभव के अतिरिक्त और कोई समझ नहीं है।
मैं सदगुरु हूं या नहीं, सरोवर हूं या नहीं--और कोई उपाय नहीं, प्यास को जगाकर आओ। प्यास लेकर आओ। पीकर देखो!
समझने की, सूत्र की बात इतनी ही है कि नजर अपनी तरफ, ध्यान अपनी तरफ। यह पर की तरफ नजर ही सांसारिक दृृष्टि है। अपनी तरफ नजर, तो तुम बहुत सीख सकोगे--मुझसे ही नहीं और बहुतों से भी सीख सकोगे। और अगर तुम शिष्य बनने को तैयार हुए तो यह सारा संसार तुम्हें सदगुरुओं से भरा हुआ दिखाई पड़ेगा। वृक्ष और चट्टानें और झरने सभी सदगुरु हो जाएंगे।
सूफी फकीर हुआ, हसन। जब वह मरने लगा, किसी ने उससे पूछा, तुम्हारा गुरु कौन था? उसने कहा, फेहरिस्त बड़ी लंबी है, सांसें बहुत कम बची हैं। अगर मैं अपने सारे गुरुओं की बात करूं तो मुझे उतनी ही बड़ी जिंदगी चाहिए पड़ेगी, जितनी बड़ी जिंदगी मैं जीया। क्योंकि क्षण-क्षण उनसे मुलाकात हुई, जगह-जगह वे मिले।
फिर भी उस आदमी ने जिद की कि तुम पहले सदगुरु का बता दो सिर्फ, जिससे तुम्हें पहली झलक मिली। उसने कहा, मैं एक गांव से गुजरता था। और तब मैं बड़ा अकड़ा हुआ था, क्योंकि मैंने फलसफा पढ़ा था, दर्शनशास्त्र पढ़ा था, शास्त्र कंठस्थ कर लिए थे, तर्क सीख लिए थे; बड़ी अकड़ थी। एक छोटे से बच्चे को मैंने मस्जिद की तरफ जाते देखा; एक हाथ में दीया लिए हुए था। मैंने उससे पूछा कि सुन, दीया तूने ही जलाया? उसने कहा, मैंने ही जलाया। तो मैंने उससे पूछा, तू मुझे यह बता--एक दार्शनिक प्रश्न पूछा--कि जब तूने ही दीया जलाया तो तुझे पता होगा कि ज्योति कहां से आई? कहीं से तो आई होगी। और जब तूने ही जलाया तो जरूर देखी होगी; ज्योति आई कहां से? उस बच्चे ने कहा, ठहरो। उसने एक फूंक मारकर दीया बुझा दिया और उसने कहा, ज्योति गई। तुम बता सकते हो, कहां गई? तुम्हारे सामने ही गई है।
हसन ने कहा, मेरी अकड़ टूट गई। झुककर मैंने उसके पैर छू लिए। एक छोटे बच्चे ने मेरा सारा दर्शनशास्त्र कूड़ा-करकट में डाल दिया; आंख खोल दी। एक छोटे बच्चे को भी मैं सिखाने की चेष्टा कर रहा था, कुछ जो मुझे ही पता नहीं था। मेरे गुरु होने की चेष्टा उसने तोड़ दी और गुरु हो गया।
और तुम पूछते हो बुद्धों के पास जाकर, महावीरों के पास जाकर, क्राइस्टों के पास जाकर--आप सदगुरु हैं?
तुम्हारे अंधेपन की कोई सीमा नहीं। जिनके पास आंख है, उन्हें छोटे बच्चों में भी सदगुरु मिल गए हैं। राह चलती घटनाएं शास्त्र हो गई हैं। दुर्घटनाओं से सूत्र मिल गए हैं मुक्ति के। भटकन का सार-निचोड़ मार्ग बन गया है। भूल-चूक से इत्र निचोड़ लिया है। भूल-चूक की ईंटों को रखकर भवन बना लिया है मुक्ति का। असली सवाल तुम्हारे सीखने का है।
अपने मन में डूबकर पा जा सुरागे-जिंदगी
तू अगर मेरा नहीं बनता न बन, अपना तो बन
लेकिन अगर तुम अपने बन जाओ तो मेरे बन ही गए। तुम अगर अपने बन गए तो परमात्मा के बन ही गए। तुम अपने ही नहीं हो, यही अड़चन है।
और तीसरी बात कि ‘क्या आप परमात्मा को मुझ तक लाने में समर्थ हैं?’
जैसे कोई यह मेरी परेशानी हो! जैसे कोई चुनौती दी जा रही है!
तुम अगर पात्र नहीं हो तो कोई भी समर्थ नहीं है; और तुम अगर पात्र हो तो किसी माध्यम की जरूरत नहीं है। तुम्हारी पात्रता ही परमात्मा को ले आती है। तुम जिस क्षण पात्र हो जाते हो, उसी क्षण वर्षा हो जाती है; क्षणभर की देरी नहीं है। कहावत है: देर है, अंधेर नहीं। मैं तुमसे कहता हूं, देर भी नहीं है। अंधेर तो है ही नहीं, देर भी नहीं है। कहावत कुछ गलत है। न देर है, न अंधेर है। जिस क्षण तुम तैयार हो, उसी क्षण मिल जाता है। और जब तक न मिले, इतना ही जानना कि तुम तैयार नहीं हो; शिकायत मत करना।
‘क्या आप परमात्मा को मुझ तक लाने में समर्थ हैं?’
मेरा लेना-देना क्या? तुम हो, तुम्हारा परमात्मा है, तुम्हारी खोज है। अगर मेरे कारण तुम्हें थोड़ा सहारा मिल जाए तो बस, काफी है। उसके लिए तुम्हें अनुगृहीत होना चाहिए। इधर तुम मुझे चुनौती दे रहे हो कि जैसे यह भी काम मेरा है। जैसे कि अगर परमात्मा तुम तक न आया तो कसूर मेरा होगा। जैसे पकड़ा मैं जाऊंगा कि तुम तक परमात्मा क्यों न आया?
तुमने गुलाम होने के कितने रास्ते खोजे हैं! तुम गुलामी छोड़ते ही नहीं। कभी धन की गुलामी, कभी पद की गुलामी, अगर वहां से तुम बचते हो तो गुरु की गुलामी। गुलामी का मतलब यह होता है, कोई और करे; तुम किसी और पर निर्भर हो। तुम भिखमंगे रहने की जिद क्यों किए बैठे हो? परमात्मा ने चाहा है कि तुम सम्राट होओ।
मैं तुम्हें कुछ इशारे दे सकता हूं, खोज तो तुम्हें ही करनी होगी।
इसका यह अर्थ नहीं कि मैं परमात्मा को तुम तक लाने में समर्थ नहीं हूं; अगर मैं अपने तक ले आया तो तुम तक लाने में क्या अड़चन है? कोई अड़चन नहीं है सिवाय तुम्हारे। मैं सदा ही तुम्हारे सामने परमात्मा की भेंट लिए खड़ा हूं। जरा द्वार-दरवाजे खोलो, जरा देखो तो सही क्या मैं तुम्हारे लिए ले आया हूं? मैं तुम्हारे सामने लिए खड़ा हूं और तुम पूछते हो कि क्या आप समर्थ हैं? बड़ी मजे की बात रही। तुम्हारे पास दृष्टि ही नहीं है; लोभ है, दृष्टि नहीं है। पाना चाहते हो, लेकिन पाना चाहने की कोई तैयारी नहीं है।
और परमात्मा को लाना थोड़े ही पड़ता है, आया ही हुआ है।
कब लूट-झपट से हस्ती की दुकानें खाली होती हैं
यहां पर्वत-पर्वत हीरे हैं यहां सागर-सागर मोती हैं
तुम कितना ही लूटो-झपटो, यहां कोई परमात्मा कम थोड़े ही पड़ जाता है!
यहां पर्वत-पर्वत हीरे हैं यहां सागर-सागर मोती हैं
यहां परमात्मा ने तुम्हें सब तरफ से घेरा ही हुआ है।
मैं तुम्हें वही दे रहा हूं, जिसे तुम पाए ही हुए हो। और मैं तुमसे वही छीन लेना चाहता हूं, जो तुम्हारे पास है ही नहीं। यह बेबूझ लगेगा, लेकिन कोई और उपाय नहीं है इसे कहने का।
फिर मैं दोहरा देता हूं: मैं तुमसे वही छीनना चाहता हूं, जो तुम्हारे पास नहीं है; और तुम्हें वही देना चाहता हूं, जो तुम्हारे पास सदा से है।
दूसरा प्रश्न:
भीतर कुछ स्थगित हो गया है और पूरे शरीर में पूरे समय नृत्य चलता है; कृपा करके कुछ कहें।
शुभ है, मंगल है।
ठहरना ही सब कुछ है। अवाक होकर भीतर कुछ रुक जाए, भीतर की गति बंद हो जाए, तो संसार की गति बंद हो जाती है। यहां भीतर कुछ रुका कि बाहर समय रुक जाता है। यहां भीतर कुछ रुका कि चांद-तारे रुक जाते हैं। यहां भीतर कुछ रुका कि सब रुक जाता है। क्षण शाश्वत हो जाता है।
और जहां विचार रुकते हैं, वहीं पहली दफा अर्थ का आविर्भाव होता है। जहां मन ठहरता है, रुकता है, न हो जाता है, वहीं पहली बार जीवन का सुराग मिलता है।
हकीकत में पूछो तो मुद्दआ वही था
जबां रुक गई थी जहां कहते-कहते
जो कहना चाहते हो, उसे तो कहते-कहते जबान रुक जाएगी। जो कहना चाहते हो, वह जबान न कह सकेगी। जो सोचना चाहते हो, वह सोचने में न आएगा; सोचना रुक जाएगा। और यह मंजिल कुछ ऐसी नहीं कि तुम चलोगे तो पहुंचोगे, यह मंजिल कुछ ऐसी है कि तुम रुकोगे तो पहुंच जाते हो।
संसार में दौड़ो। दौड़ना ही पड़ेगा, मंजिल बाहर है; मंजिल दूर है--कहीं वहां, जहां आकाश क्षितिज को छूता है, सदा वहां है। कितना ही दौड़ो, पहुंच नहीं पाते।
यह कभी तुमने समझने की कोशिश की कि संसार में दौड़ो कितना ही, पहुंचते नहीं। और परमात्मा को पाने के लिए दौड़ने की जरूरत ही नहीं है; क्योंकि वह ऐसा घर है, जो तुमने कभी छोड़ा नहीं। आंखें कितने ही दूर चली गई हों, चांद-तारों में चली गई हों, तुम बैठे उसी घर में रहे हो। सपने कितने ही दूर तुम्हें ले गए हों, पर यात्रा सपनों की है। जब जागोगे, अपने घर में अपने को पाओगे।
परमात्मा के लिए दौड़ना नहीं पड़ता, रुकना पड़ता है। परमात्मा को दौड़कर हम खो रहे हैं।
अब इसे ऐसा कहें: संसार को दौड़-दौड़कर भी पाना मुश्किल है। परमात्मा को पाने का एक ही उपाय है: रुक जाना। जो दौड़-दौड़कर भी नहीं मिलता, वही संसार है; जो बिना दौड़े मिल जाता है, वही परमात्मा है। नाम अलग-अलग होंगे।
गीता कहती है: स्थितप्रज्ञ; जहां प्रज्ञा ठहर जाती है, जहां चित्त डांवाडोल नहीं होता।
‘भीतर कुछ स्थगित हो गया है।’
हो जाने दो। सहारा दो। जल्दी में कहीं उसे बिगाड़ मत देना; कहीं हिलाने मत लग जाना। क्योंकि मन पुरानी आदतों से बड़ा परेशान और पीड़ित है। नए को मन पहचान ही नहीं पाता। और जब मन ठहरता है तो बड़ी घबड़ाहट होती है, जी बड़ा घबड़ाता है। क्योंकि बड़ी बेचैनी लगती है--यह क्या हो गया? सदा चलता हुआ राग, सदा चलते हुए विचार, सदा चलते हुए पहिए एकदम से रुक गए! और डर यह लगता है कि चल-चलकर न पहुंच पाए, अब तो रुके जा रहे हैं, तो कैसे पहुंचेंगे? तो बड़ी घबड़ाहट होती है।
तो कहीं ऐसा न हो कि उस घबड़ाहट में तुम जो मन रुक रहा था, उसे फिर चला दो। बहुत बार ऐसी भूल होती है। जब ध्यान सधने लगता है--उन लोगों का भी, जो ध्यान करने के लिए बड़े आतुर थे--तो घबड़ाहट पकड़ती है। मन को चलाने की इच्छा हो जाती है। कुछ भी चला दो!
क्योंकि जब ध्यान सधने लगता है और शून्यता उतरने लगती है तो ऐसा लगता है, मरे! अब मरे! मृत्यु हुई! क्योंकि तुमने मन के साथ अपने को एक जाना है। उसके पार तो तुम्हारा अपना कोई अनुभव नहीं। जब मन ठहरता है, लगता है, हम भी गए। यह तो महंगा पड़ गया। तुम तो सोचते थे, हम बचेंगे--सुंदर होकर, सत्यतर होकर, शुभ होकर। हम बचेंगे, शाश्वत होकर। यह तो उलटा हो गया। बीमारी को मिटाने गए थे, यह तो बीमार मिटने लगा। यह तो औषधि थोड़ा ज्यादा काम कर गई। घबड़ाहट पकड़ेगी।
उसी समय सदगुरु के साथ की जरूरत है। सदगुरु के साथ की जरूरत दो जगह बड़ी गहरी है: पहली, तुम्हें रास्ते पर चला दे; और दूसरी, जब मंजिल करीब आने लगे, तब तुम्हें भागने न दे। नहीं तो तुम पीछे लौट जाना चाहोगे। तुम कहोगे, छोड़ो! यह तो ज्यादा हो गया। मरने को हम न आए थे।
ध्यान मृत्यु है। विचार ठहरते हैं, मौत आती मालूम पड़ेगी। मौत को अंगीकार करना सीखना होगा। जिसने मौत को स्वीकार कर लिया, वह अमृत हो गया।
और इसलिए भीतर एक नृत्य की धुन बज रही है, भीतर कोई नाच चल रहा है। मन जब ठहरता है, तभी नाच जगता है। जब मन ठहरता है, तभी अपरिचित, अभिनव गीत पैदा होते हैं। जब मन ठहरता है तो झरोखे खुलते हैं, और नई हवाएं, ताजी हवाएं अस्तित्व की, प्राणों में लहरें लेने लगती हैं।
इधर तुम मरते नहीं कि उधर जीवन उतरने लगता है। तुम्हारी मृत्यु परम जीवन का प्रारंभ है। तुम्हारा सूली पर होना एक तरफ, और दूसरी तरफ तुम सिंहासन पर विराजमान हो जाते हो। सूली और सिंहासन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
हुए होश गुम तेरे आने से पहले
हमीं खो गए तुमको पाने से पहले
हुए होश गुम तेरे आने से पहले
हो ही जाएंगे। मन ही खो जाएगा, होश किसे रह जाएगा? मन ही टूट जाएगा, अहंकार कहां बचेगा? अहंकार तो मन का ही जोड़ है, मन का ही भ्रम है। यह खयाल कि मैं हूं, यह भी एक विचार है। जब सभी विचार ठहर जाएंगे, यह विचार भी ठहर जाएगा। मैं हूं, ऐसा भी पता न चलेगा।
हुए होश गुम तेरे आने से पहले
हमीं खो गए तुमको पाने से पहले
सदा ऐसा ही हुआ है। परमात्मा से मनुष्य का कभी मिलन नहीं होता। मनुष्य होता है, तब तक परमात्मा नहीं होता। परमात्मा होता है तो मनुष्य नहीं होता। मिलन कभी नहीं होता। परमात्मा से मिलना अपनी महामृत्यु से मिलना है। लेकिन महामृत्यु से ही मिलना महाजीवन का द्वार है।
कोई ऐसी भी है सूरत तेरे सदके साकी
रख लूं मैं दिल में उठाकर तेरे मैखाने को
कोई ऐसा भी ढंग है--साकी से पूछता है--कोई ऐसा भी ढंग है...
कोई ऐसी भी है सूरत तेरे सदके साकी
रख लूं मैं दिल में उठाकर तेरे मैखाने को
कि तेरी पूरी मधुशाला को उठाकर दिल में रख लूं? फिर पीना न पड़े।
हां, ऐसी भी सूरत है। उसी सूरत को सिखाने के लिए यह पाठशाला है। क्या चुल्लू-चुल्लू पीना! क्या कुल्हड़-कुल्हड़ पीना! पूरी मधुशाला को ही उठाने का रास्ता है कि हृदय में ही रख लो।
परमात्मा भीतर आ जाए तो जीवन का मधुमास आ जाता है; सारी मधुशाला भीतर आ जाती है। तब एक नाच का जन्म होता है--नाच, जिसमें गति नहीं; नाच, जहां सब ठहरा हुआ है और फिर भी नृृत्य चल रहा है। एक गीत, जहां ध्वनि नहीं है, परिपूर्ण शून्य मौन है, फिर भी स्वर बज रहा है। अनाहत नाद उसको ही कहा है। नाद-ब्रह्म उसको ही कहा है। ध्वनि खो जाती है, फिर भी नाद रह जाता है। बड़ा कठिन है कहना; समझना भी कठिन है; लेकिन होता है।
बुद्धि को समझना कितना ही कठिन हो, उससे इतना ही सिद्ध होता है कि बुद्धि की समझ बहुत दूर नहीं जाती। बुद्धि की कोटियों के बाहर पड़ता है, लेकिन होता है। जो सोचते बैठे रहेंगे कि ऐसा हो सकता है कि नहीं, वे बैठे ही रह जाएंगे।
हिम्मत जुटाओ; ऐसा होता है, मैं तुमसे कहता हूं। और तुम भी ज्यादा दूर नहीं हो उस घड़ी से; जरा हाथ बढ़ाने की बात है। तर्क कहीं तुम्हें पंगु न बना दे। कहीं तर्क तुम्हारा पक्षाघात, पैरालिसिस न हो जाए। कहीं ऐसा न हो कि तर्क ही तर्क में खो जाओ, नृत्य से वंचित रह जाओ।
देख चुके तर्क का तांडव बहुत; अब थोड़े अतर्क, श्रद्धा का, निर्विचार का नृत्य भी देखो। उसको देखते ही सब नाच फीके हो जाते हैं। और उसे देख लेने के बाद तुम्हें सब जगह उसका नृत्य दिखाई पड़ने लगता है।
हर दर्पण तेरा दर्पण है
हर चितवन तेरी चितवन है
मैं किसी नयन का नीर बनूं
तुझको ही अर्ध्य चढ़ाता हूं
हर क्रीड़ा तेरी क्रीड़ा है
हर पीड़ा तेरी पीड़ा है
मैं कोई खेलूं खेल
दांव तेरे ही साथ लगाता हूं
हर वाणी तेरी वाणी है
हर वीणा तेरी वीणा है
मैं कोई छेडूं तान
तुझे ही बस आवाज लगाता हूं
तीसरा प्रश्न:
पुराने शास्ता को हम परंपरा से जानते हैं, जो कि बहुत आसान है; जीवित शास्ता को पहचानने के लिए काफी विकसित प्रज्ञा चाहिए। जाने कैसे हम तो भटकते हुए आपके पास आ पहुंचे हैं। और पास रहकर भी आपको कहां जान पाते हैं?
पुराने शास्ता को भी तुम कहां जान पाते हो? जानते लगते हो, आभास होता है जानने का; जान कहां पाते हो? अगर जान लो तो पुराना तत्क्षण नया हो जाता है। पुराना फिर पुराना कहां रह जाता है?
अगर बुद्ध को तुम जान लो तो बुद्ध समसामयिक हो गए; पच्चीस सौ साल पहले हुए ऐसा नहीं, अभी हो गए, तुम्हारे साथ खड़े हो गए। अगर तुम जीसस को पहचान लो और जान लो तो समय का फासला मिट जाता है। कोई दूरी नहीं रह जाती, हमराही हो जाते हो।
पुराने को भी कहां पहचान पाते हो? अगर पुराने को ही पहचान लेते, अगर पुराने तक को पहचान लेते, तो नए को पहचानने में दिक्कत ही कहां होती? परंपरा से सिर्फ आभास पैदा होता है। जानते लगते हो माना, जानते नहीं।
जैन घर में पैदा हुए हो, महावीर को जानते लगते हो; बचपन से सुनी बातें, सुनी कथाएं। हिंदू घर में पैदा हुए, कृष्ण को जानते लगते हो। मुसलमान घर में पैदा हुए तो मोहम्मद को जानते लगते हो।
सुनते-सुनते, पुनरुक्ति से, बार-बार दोहराने से मन पर छाप पड़ जाती है। बार-बार दोहराने से ऐसा अहसास होने लगता है कि पहचान हो गई। पुनरुक्ति से कहीं सत्य का कोई संबंध है! यह तो प्रचार हुआ, प्रोपेगेंडा हुआ।
यह तो ऐसा ही हुआ जैसा कि बाजार में चल रहा है। अखबार खोलो: लक्स टायलेट साबुन। फिल्म देखने जाओ: लक्स टायलेट साबुन। रास्ते पर तख्ते लगे हैं जगह-जगह: लक्स टायलेट साबुन। पुनरुक्ति की जा रही है। अब तो बिजली के अक्षर बने हैं और वैज्ञानिकों ने व्यवस्था कर दी है कि वे झिलमिलाते रहें, बुझते-जलते रहें। क्योंकि अगर बिना बुझे हुए बिजली के अक्षर लगे रहें तो एक ही बार तुम पढ़ोगे; पुनरुक्ति बार-बार न होगी। निकले--अगर तुम्हें पांच मिनट लगे निकलने में और दस दफा अक्षर बुझे और जले तो तुम्हें दस दफा पढ़ना पड़ेगा--लक्स टायलेट साबुन, लक्स टायलेट साबुन...दस दफा दोहराना पड़ेगा। करोगे क्या? वह बिजली आगे जल रही है, बुझ रही है। वह पुनरुक्ति मन में लकीर खींच जाती है।
फिर तुम दुकान पर गए, दुकानदार पूछता है, कौन सा साबुन? तुम कहते हो, लक्स टायलेट साबुन। तुम सोचते हो, तुम कह रहे हो, तो गलती में हो। वे जो करोड़ों रुपए कंपनियां खर्च कर रही हैं विज्ञापन के ऊपर, पागल नहीं हैं। तुम नहीं कह रहे हो, कंपनियों के विज्ञापन तुमसे बोल रहे हैं--लक्स टायलेट साबुन! तुम यही सोचते हो कि तुमने चुना। तुम यही सोचते हो कि स्वतंत्र रूप से तुमने विचारा। तुम यही सोचते हो कि अनुभव से तुमने जाना कि लक्स टायलेट साबुन सबसे अच्छी साबुन है। तुमने कुछ नहीं जाना। तुम्हारे मन को भर दिया गया।
तुमसे जब कोई पूछता है, तुम हिंदू हो? तुम कहते हो, हां। यह हां भी तुमसे नहीं आ रही--लक्स टायलेट साबुन! तुमसे कोई पूछता है, ईश्वर को मानते हो? तुम कहते हो, हां; बड़ी अकड़ से कहते हो कि मैं आस्तिक हूं। यह आस्तिकता भी तुम्हारी नहीं--लक्स टायलेट साबुन! महावीर भगवान हैं? तुम कहते हो, निश्चित। यह निश्चित भी तुम्हारा नहीं--लक्स टायलेट साबुन!
पुनरुक्तियां हैं, जो बहुत बार दोहराई गई हैं। इतनी बार दोहराई गई हैं कि तुम भूल ही गए हो। लौटो वापस, गौर से देखो। यह सिर्फ संस्कार है। और इस संस्कार के कारण तुम पुराने को तो पहचान ही नहीं पाते, इस संस्कार के कारण तुम नए को भी नहीं पहचान पाते।
अब यह थोड़ा समझने जैसा है। यह पुराना तुम्हें पुराने को तो पहचानने नहीं देता, क्योंकि पहचानने की तो सुविधा तभी थी जब तुम्हारा मन संस्कार-मुक्त होकर खोज करता।
तुमने कभी खोज की कि महावीर भगवान थे या नहीं? तुमने कभी खोज की, बुद्ध शास्ता थे या नहीं? तुमने कभी निष्पक्ष भाव से, निर्धारणापूर्ण होकर, बिना कोई पहले से पक्षपात बनाए कोई अनुसंधान किया?
नहीं; पुराने को तो तुम पहचान ही न पाए। अब पुराने को भगवान मान लिया है तो नए को मानने में अड़चन होती है। क्योंकि पुरानी आस्था पीड़ित अनुभव करती है। ऐसा लगता है, जैसे किसी से धोखा किया। जैसे किसी से विवाह कर लिया और फिर किसी के प्रेम में पड़ गए तो भीतर ग्लानि होती है, पीड़ा होती है, दंश होता है कि यह क्या हुआ? विवाह तो महावीर से हुआ था, बुद्ध से हुआ था, सात फेरे तो उनके साथ लग गए थे, अब किसी और को भगवान मान लें? किसी और को गुरु मान लें? भीतर ग्लानि होती है, पीड़ा होती है, परेशानी होती है। अंतस-चेतना में दुख मालूम होता है। लगता है, धोखा कर रहे हैं, दगा कर रहे हैं।
इसी तरकीब से तुम पुराने से उलझे रहते हो, नए को खोजने से बच जाते हो। पुराने को खोज लो, हर्जा नहीं। क्योंकि पुराना भी इतना ही सत्यतर है, इतना ही पूर्णतर है, जितना नया।
सत्य के जगत में कुछ पुराना और नया थोड़े ही होता है! वहां कोई समय थोड़े ही है! वहां तो सब ताजा है, सदा ताजा है। वहां तो सभी सद्यस्नात, अभी-अभी नहाया हुआ है। वहां कभी धूल जमती ही नहीं।
लेकिन पुराने को तो पहचान नहीं पाते। पहचानने की सुविधा ही नहीं दी जाती। इसके पहले कि बच्चा सोचे-विचारे, हम उसके दिमाग में कूड़ा-करकट डाल देते हैं। हम अपनी धारणा उसके मन में भर देते हैं। कहीं ऐसा न हो कि वह सोच-विचार करे और हमारी धारणा को ठीक न पाए। मां-बाप बड़े डरे हुए हैं; उनको खुद ही शक है अपनी धारणा पर। बच्चे के मन में भर देते हैं, इसके पहले कि वह सोच सके, विचार सके। और यही वह अपने बच्चों के साथ करेगा। इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी प्रचार चलता है।
प्रचार धर्म नहीं है, धर्म तो क्रांति है। धर्म तो प्रत्येक व्यक्ति का अपनी स्वेच्छा से लिया गया निर्णय है। धर्म कोई दूसरे को दे नहीं सकता। धर्म लिया जा सकता है, दिया नहीं जा सकता।
मुझे फिर से दोहराने दें: धर्म लिया जा सकता है। तुम चाहो तो ले सकते हो, लेकिन कोई तुम्हें दे नहीं सकता।
लेकिन धर्म दिया जा रहा है। मां-बाप दे रहे हैं, स्कूल दे रहा है। सारी दुनिया में चिंता रहती है मां-बाप को कि बच्चों को धर्म की शिक्षा दी जाए। धर्म की शिक्षा का क्या मतलब होता है उनका? हिंदू को हिंदू बनाया जाए, मुसलमान को मुसलमान बनाया जाए, कहीं गड़बड़ न हो जाए।
और मैं जानता हूं कि अगर बच्चों को इक्कीस वर्ष तक हिंदू-मुसलमान न बनाया जाए, तो जिसको मां-बाप गड़बड़ कहते हैं, वह हो जाएगी। मैं उसे गड़बड़ नहीं कहता; वह बड़ी स्वतंत्रता होगी। बड़ी अदभुत दुनिया का जन्म हो जाएगा। क्योंकि मैं मानता हूं, धर्म एक ऐसी अंतर्निहित जरूरत है कि उन्हें खुद ही खोजना पड़ेगा--खोजना ही पड़ेगा। ये झूठे धर्म, जो सिखाने से पैदा हो जाते हैं, इनकी वजह से वे खुद खोज पर नहीं निकलते।
अगर प्रत्येक बच्चे को खुला छोड़ दिया जाए, कोई धर्म का शिक्षण न हो--धर्म का शिक्षण होना ही नहीं चाहिए--इक्कीस वर्ष की उम्र तक अगर धर्म की जबर्दस्ती न की जाए, तो इक्कीस वर्ष के बाद प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में खोज शुरू हो जाएगी; हो ही जाती है। धर्म वैसे ही पैदा होता है एक दिन, जैसे कामवासना पैदा होती है।
कामवासना चौदह साल की उम्र में पैदा होती है; ऐसे ही इक्कीस साल की उम्र में धर्म का आविर्भाव होता है। वह स्वाभाविक है। आज नहीं कल चेतना पूछेगी ही कि सत्य क्या है? आज नहीं कल आदमी जानना ही चाहेगा, मैं खड़ा कहां हूं? कहां से आया हूं? कौन हूं? आज नहीं कल आदमी पूछेगा ही कि मृत्यु के पार क्या है? कुछ बचता है या सब खो जाता है? सब मिट्टी हो जाता है?
और अगर मन मुक्त हो तो जीवित गुरु को पहचानने में कोई अड़चन न आएगी। खोजना ही पड़ेगा; खोज तुम्हें किसी न किसी गुरु के पास ले ही आएगी। अभी पुराने गुरु से अटके होने की वजह से नए के पास नहीं आ पाते।
अब तुमसे मैं बड़ी उलझन की बात कहता हूं: पुराने से अटके होने के कारण नए के पास नहीं आ पाते। पुराने को तो पहचान ही नहीं पाते, क्योंकि उस पहचान में भी स्वतंत्र खोज नहीं है, नए के पास भी नहीं आ पाते। अगर तुम नए के पास आ जाओ और स्वच्छ मन से, पक्षपात रहित होकर नए को पहचान लो, तो मैं तुमसे और एक बात कहता हूं कि उसी में तुम पुराने को भी पहचान लोगे। और यह पहचान बड़ी अनूठी होगी; यह संस्कार की नहीं होगी, यह अनुभव की होगी।
अगर तुमने मुझे चाहा है, अगर सच में तुम मेरे करीब आए हो, तो मेरे करीब आने में क्या तुम बुद्ध के करीब नहीं आ गए? अगर सच में तुमने मुझे चाहा है, तो तुम्हारी चाहत में क्या तुमने महावीर को नहीं चाह लिया? अगर सच में तुमने मेरा स्पर्श अनुभव किया है तो तुमने कृष्ण की बांसुरी सुन ली; तो तुमने मोहम्मद की पगध्वनि सुन ली। क्योंकि मैं वही बोल रहा हूं, जो उन्होंने बोला था। उनकी भाषा उनके युग की थी, मेरी भाषा मेरे युग की है। उनके ढंग उनके युग के थे, मेरा ढंग मेरे युग का है।
मैं तुम्हारे पास खड़ा होकर चिल्ला रहा हूं, अगर वह तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता, तो यह मानना असंभव है कि तुम्हें पच्चीस सौ साल पीछे की आवाज पहचान में आ जाएगी।
‘पुराने शास्ता को हम परंपरा से जानते हैं, जो कि बहुत आसान है...।’
जानना आसान नहीं है, मान लेना कि जानते हैं, आसान है।
‘...जीवित शास्ता को पहचानने के लिए काफी विकसित प्रज्ञा चाहिए।’
नहीं, जीवित शास्ता को पहचानने के लिए विकसित प्रज्ञा नहीं चाहिए। प्रज्ञा तो विकसित होगी पहचानने के बाद। अगर उसको पहले शर्त बना लोगे तब तो असंभव हो जाएगा।
फिर क्या चाहिए? साहस चाहिए, प्रज्ञा नहीं। हिम्मत चाहिए। अंधेरे में, अनजान में उतरने का साहस चाहिए, दुस्साहस चाहिए।
अगर तुम्हारे पास विकसित प्रज्ञा हो तब तुम शास्ता को पहचान पाओ, तो फिर शास्ता की जरूरत ही क्या रह जाएगी? तुम्हारी विकसित प्रज्ञा ही काफी है; वही तुम्हारी शास्ता हो जाएगी।
नहीं, विकसित प्रज्ञा तो होगी, जब तुम किसी सदगुरु को पहचान लोगे; जब तुम किसी को मौका दोगे और किसी के हाथों को अपने भीतर आने दोगे; और किसी को अवसर दोगे कि उसकी अंगुलियां तुम्हारी बीन को छेड़ दें; तब तुम्हारी प्रज्ञा की ज्योति जगेगी। जब तुम किसी को मौका दोगे कि तुम्हारी बुझती ज्योति को उकसा दे; जब तुम किसी पर इतना भरोसा करोगे कि कहोगे कि आ जाओ भीतर, मुझे भरोसा है।
श्रद्धा चाहिए, विकसित प्रज्ञा नहीं। और श्रद्धा से बड़ा कोई साहस नहीं है। श्रद्धा बड़ी अनूठी घटना है। श्रद्धा का अर्थ है: हमें पता नहीं है कहां यह आदमी ले जाएगा। पता नहीं मार्गदर्शक है कि लुटेरा है; पता नहीं स्वर्ग की राह पर चला है कि नर्क की राह पर चला है। हजार संदेह उठेंगे, हजार मन डांवाडोल होगा, विचार न मालूम कितनी बातें उठाएंगे।
श्रद्धा का अर्थ है: यह सब होता रहे, इस सब के बावजूद भी जाना है। किसी पुकार ने पकड़ लिया है, कोई चुनौैती आ गई है, जाना है। अगर भटकाएगा तो भटकेंगे। अगर अंधेरे में उतार देगा तो उतरेंगे। लेकिन इस आदमी ने तुम्हारे भीतर कुछ छू लिया है, इसके साथ जाना ही होगा। एक अनिर्वचनीय आकर्षण पैदा हुआ है। इस आदमी ने तुम्हारे भीतर के सोए तार छेड़ दिए हैं। अपनी होशियारी एक तरफ रख देना है श्रद्धा। अपनी समझदारी एक तरफ रख देना है श्रद्धा।
नाखुदा की रविशे-फिक्र ने मारा वरना
गर्क होता मैं जहां पर वहीं साहिल होता
मांझी की बहुत ज्यादा चिंता ने--कि ठीक-ठीक नाव चले, ठीक-ठीक पतवार चले, ठीक मौसम में चले, ठीक दिशा में चले, किनारे पर पहुंचकर ही रहे--मांझी की अतिशय चिंता ने डुबाया। मांझी यानी तुम्हारा मन; उसी के हाथ में तुमने पतवार दी हुई है, नाव दी हुई है।
नाखुदा की रविशे-फिक्र ने मारा वरना
गर्क होता मैं जहां पर वहीं साहिल होता
जो श्रद्धा में डूबने को तैयार हैं, जहां डूबते हैं, वहीं किनारा पा लेते हैं। संशय में चलने वाले किनारों पर पहुंचकर भी टकराते हैं और डूब जाते हैं। श्रद्धा में डूबने वाले, मझधार में भी डूबते हैं और किनारा पा जाते हैं। श्रद्धा की अल्केमी अलग, उसका शास्त्र अलग। साहस चाहिए।
जैसे तुम प्रेम में पड़ते हो, एक युवक एक युवती के प्रेम में पड़ जाता है, या एक युवती एक युवक के प्रेम में पड़ जाती है, क्या करते हो तुम प्रेम में? करते कुछ भी नहीं, कोई अनजाना धागा हाथ में आ जाता है। कोई अनजानी चुंबकीय शक्ति खींच लेती है। होश-हवास खो देते हो, सब समझदारी एक तरफ रख देते हो। सारी दुनिया समझाती है कि यह पागलपन है, यह क्या कर रहे हो? कुछ समझ में नहीं आता। एक धुन पकड़ लेती है, एक दीवानापन पकड़ लेता है।
श्रद्धा भी प्रेम जैसी है। प्रेम से दो शरीर बंधते हैं, श्रद्धा से दो आत्माएं बंधती हैं। वह श्रद्धा का पागलपन प्रेम के पागलपन से भी बड़ा है। क्योंकि प्रेम का पागलपन तो क्षणिक है; आज है, कल उतर जाए। यह बाढ़ कोई बड़ी स्थिर बाढ़ नहीं; हजार बार चढ़ती-उतरती है। लेकिन श्रद्धा का तो तूफान बड़ा शाश्वत है। एक दफा उठ आता है तो फिर उतरता नहीं; तुम्हें अपने साथ ही ले जाता है। साहस चाहिए।
और तुम कह रहे हो, ‘जाने कैसे हम तो भटकते हुए आपके पास आ पहुंचे हैं।’
नहीं, भटकते हुए नहीं। तुम्हें चाहे साफ न हो, तुम्हें चाहे स्पष्ट न हो, मुझे स्पष्ट है। अकारण तुम मेरे पास नहीं आ गए हो। अकारण तो कुछ भी नहीं होता। आ गए हो मेरे पास--किसी कारण से; कारण आज जाहिर न हो, कल हो जाएगा। तुम्हें जाहिर न हो, मुझे जाहिर है। यह खोज तुम्हारी चिरंतन से चल रही है। ऐसे ही भटकते हुए नहीं आ गए हो, खोजते हुए आए हो।
हां, खोज धुंधली-धुंधली है, साफ नहीं यह माना, लेकिन खोज चल रही है। गलत मार्गों पर भी जो खोजते हैं, वे भी खोजते हैं, टटोलते हैं। ऐसा आदमी ही खोजना कठिन है, जो खोज न रहा हो। वह भी क्या आदमी, जो खोज न रहा हो! तुम आदमी हो और खोजते हुए चले आए हो।
‘जाने कैसे भटकते हुए हम तो आपके पास आ पहुंचे हैं।’
लेकिन यह भाव शुभ है कि तुम्हें लगता है कि शायद भटकते हुए आ पहुंचे हैं। यह भाव शुभ है। नहीं तो अहंकार इसमें भी निर्मित हो सकता है कि हम बड़े खोजते हुए आ गए हैं। यह मैं कह रहा हूं, तुम मत मान लेना। यह मैं कहता हूं, तुम खोजते हुए आए हो। तुम तो यही जानना कि तुम भटकते हुए पहुंच गए हो। नहीं तो यह भी अहंकार मजबूत हो सकता है कि जन्मों-जन्मों के कर्मों का, शुभ कर्मों का फल है। ऐसा कुछ भी नहीं है। यह मेरा कहना है। माना, मुझे पता है कि कुछ शुभ किया होगा तो ही मेरे पास आए हो; लेकिन तुम इसको मत मान लेना। क्योंकि तुमने अगर माना तो किया शुभ भी अशुभ हो जाएगा।
‘और पास रहकर भी आपको कहां जान पाते हैं?’
खोज जारी रही तो जान लोगे। और अगर यह भाव मन में बना रहा कि कहां जान पाते हैं, तो जानने की तैयारी हो रही है। चूकेंगे तो वही, जो सोचते हैं कि जान लिया। चूकेंगे तो वही, जो मानते हैं कि जान लिया।
एक ऐसी यात्रा पर तुम्हें ले चल रहा हूं, जिसकी शुरुआत तो है, लेकिन जिसका कोई अंत नहीं। एक अंतहीन अनंत यात्रा है जीवन की; उस अनंत यात्रा का नाम ही परमात्मा है। उस अनंत यात्रा को खोज लेने की विधियां ही धर्म है।
एस धम्मो सनंतनो।
आज इतना ही।