BUDDHA
Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) 33
ThirtyThird Discourse from the series of 122 discourses - Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) by Osho. These discourses were given during NOV 21, 1975 to DEC 10, 1977.
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ये च खो सम्मदक्खाते धम्मे धम्मानुवत्तिनो।
ते जना पारमेस्सन्ति मच्चुधेय्यं सुदुत्तरं।।77।।
कण्हं धम्मं विप्पहाय सुक्कं भावेथ पंडितो।
ओका अनोकं आगम्म विवेके यत्थ दूरमं।।78।।
तत्राभिरतिमिच्छेय्य हित्वा कामे अकिंचनो।
परियोदपेय्य अत्तानं चित्तक्लेसेहि पंडितो।।79।।
येसं सम्बोधि-अङ्गे सु सम्मा चित्तं सुभावितं।
आदान-पटिनिस्सग्गे अनुपादाय ये रता।
रवीणासवा जुतीमंतो ते लोके परिनिब्बुता।।80।।
सम्राट बहादुरशाह जफर के शब्द हैं--सम्राट के हैं, इसलिए सोचने जैसे भी बहुत; ऐसे तो कभी ऐसी बातें भिखारी भी कह देते हैं, लेकिन संभावना है कि भिखारी के मन में अपने को सांत्वना देने की आकांक्षा हो। जब ऐसी बात कोई सम्राट कहता है तो सांत्वना का सवाल नहीं है, किसी सत्य का साक्षात हुआ हो तभी ऐसा वक्तव्य संभव है।
दो दिन की जिंदगी में न इतना मचल के चल
दुनिया है चलचलाव का रस्ता संभल के चल
जिनके पास है, उन्हें ही पता चलता है कि संपदा व्यर्थ है। जिनके पास शक्ति है, उन्हें पता चलता है कि शक्ति सार्थक नहीं। जिनके पास नहीं है, वे तो वासना के महल बनाते ही रहते हैं। जिनके पास नहीं है, वे तो कल्पना के जाल बुनते ही रहते हैं।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जिनके पास नहीं है, वे भी ऐसी बातें करने लगते हैं, जो ज्ञान की मालूम पड़ती हैं, लेकिन सौ में निन्यानबे मौकों पर वे बातें धोखे से भरी हैं। अपने को समझाने के लिए भिखमंगा भी महल की तरफ देखकर कह सकता है, कुछ सार नहीं वहां--समझाने को, कि अगर सार होता तो मैं महल को पा ही लेता न! सार नहीं है, इसलिए छोड़ा हुआ है।
जिसे हम पा नहीं पाते, उसे मत समझना कि हमने छोड़ा है। जिसे हम पाकर छोड़ते हैं, उसे ही समझना कि छोड़ा है!
जीवन में जीवन के जो परम गुह्य सत्य हैं, वे केवल उन्हें ही पता चलते हैं, जिन्होंने यह दौड़ पूरी कर ली; जो पके; जिन्होंने जिंदगी में जल्दबाजी न की, अधैर्य न बरता; जो समय के पहले भाग न खड़े हुए। पलायन से कोई कभी परमात्मा तक नहीं पहुंचा है। और न पराजय से कभी त्याग फलित हुआ है।
इसलिए उपनिषद कहते हैं: तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। जिन्होंने भोगा, उन्होंने ही त्याग किया है। जिसने भोगा ही नहीं, वह त्याग न कर सकेगा। उसके त्याग में भोग की वासना दबी ही रहेगी, छिपी ही रहेगी, बनी ही रहेगी। वह त्याग भी करेगा तो भोग के लिए ही करेगा; इसी आशा में करेगा कि किसी परलोक में भोग मिलने को है।
जिसका त्याग भोग से आया, उसके मन से परलोक की भाषा ही समाप्त हो जाती है। क्योंकि जहां वासना नहीं है, वहां परलोक कैसा? जहां वासना नहीं है, वहां स्वर्ग कैसा? जहां वासना नहीं है, वहां अप्सराएं कैसी? जहां वासना नहीं है, वहां कल्पवृक्ष नहीं लगते। कल्पवृक्ष वासनाओं का ही विस्तार है--और ध्यान रखना, पराजित वासनाओं का; हारे हुए मन का, थके हुए मन का। जो इस जिंदगी में जीत न पाया, वह परलोक की जिंदगी में जीतने के सपने देखता है।
कार्ल मार्क्स के वक्तव्य में सचाई है कि धर्म अफीम का नशा है। सौ में निन्यानबे प्रतिशत लोगों के संबंध में मार्क्स का वक्तव्य बिलकुल सही है; धर्म अफीम का नशा है। वक्तव्य गलत है, क्योंकि वह जो एक प्रतिशत बच रहा, उसके संबंध में वक्तव्य सही नहीं है। किसी बुद्ध के संबंध में, किसी महावीर के संबंध में, किसी कृष्ण के संबंध में वक्तव्य सही नहीं है; लेकिन निन्यानबे प्रतिशत लोगों के संबंध में सही है।
आदमी दुख में रहा है, इसलिए स्वर्ग की कल्पनाएं पैदा करता है। उन कल्पनाओं की अफीम घेर लेती है मन को। यहां के दुख सहने योग्य हो जाते हैं वहां के सुख की आशा में। आज की तकलीफ को आदमी झेल लेता है कल के भरोसे में। रात का अंधेरापन भी अंधेरा नहीं मालूम पड़ता, सुबह कल होगी। आदमी चाह के सहारे चलता जाता है।
ध्यान रखना, धर्म तुम्हारे लिए अफीम न बन जाए। धर्म अफीम बन सकता है; खतरा है। धर्म जागरण भी बन सकता है और गहन मूर्च्छा भी। सब कुछ तुम पर निर्भर है। होशियार, जहर को भी पीता है और औषधि हो जाती है। नासमझ, अमृत भी पीए तो भी मृत्यु घट सकती है। सारी बात तुम पर निर्भर है। अंततः तुम्हीं निर्णायक हो।
तो यह मत सोचना कि धर्म होने से ही धर्म तुम्हारे लिए मुक्ति का मार्ग हो जाएगा। तुम उससे बंधन भी ढाल सकते हो। तुम उससे जंजीरें भी बना सकते हो। वही बहुत लोगों ने बनाई हैं। तुम्हारा मंदिर तुम्हें परमात्मा तक पहुंचाने का द्वार भी बन सकता है--गुरुद्वारा भी हो सकता है; और यह भी हो सकता है कि वही दीवाल हो जाए; उसके कारण ही तुम परमात्मा तक न पहुंच पाओे।
इसलिए सारी बात तुम पर निर्भर है, तुम्हारे होश पर निर्भर है। धर्म न तो जहर है, न अमृत; धर्म तो एक तटस्थ सत्य है। तुम कैसा उसका उपयोग करोगे, तुम पर निर्भर है। तुम उसी रस्सी से कुएं से पानी खींच ले सकते हो। प्यास से मरते होओ तो कुएं का जल तुम्हें बचा ले सकता है। तुम उसी रस्सी से फांसी भी लगा सकते हो। रस्सी वही है, तुम भी वही हो, लेकिन तुम्हारे और रस्सी के बीच का संबंध वही नहीं है।
अधिक लोग धर्म के कारण कारागृहों में बंद हैं। अधिक लोग धर्म के कारण जीवन में गति ही नहीं कर पाते। उनका धर्म चट्टान की तरह उनकी छाती से अटका है। अधिक लोगों के लिए धर्म नाव नहीं बना, धर्म ने ही मझधार में डुबाया है, बुरी तरह डुबाया है।
बुद्ध का आज का जो पहला सूत्र है, वह समझ लेने जैसा है।
‘जो भली प्रकार उपदिष्ट धर्म में धर्मानुचरण करते हैं, वे ही दुस्तर मृत्यु के राज्य को पार करेंगे।’
‘भली प्रकार उपदिष्ट...।’
बहुत सी बातें समझने जैसी हैं। तुमने धर्म को शास्त्र से अगर पाया तो खतरा है; क्योंकि शास्त्र तो मुर्दा है। शास्त्र तो जीवंत नहीं है। शास्त्र तो पढ़कर तुम जो अर्थ करोगे, वे तुम्हारे होंगे, शास्त्र के नहीं होंगे।
माना, गीता तुम पढ़ोगे, लेकिन गीता वही नहीं होगी, जो कृष्ण ने अर्जुन को कही थी। वह भी नहीं होगी, जो अर्जुन ने कृष्ण से सुनी थी। जब तुम गीता पढ़ोगे तो तुम्हीं कृष्ण होओगे, और तुम्हीं अर्जुन होओगे। कृष्ण जो कहेंगे, उसका अर्थ भी तुम करोगे; अर्जुन जो सुनेगा, उसका अर्थ भी तुम करोगे। यह गीता तुम्हारी ही होगी।
मैंने सुना है, एक मुसलमान नवाब अपने राज्य की यात्रा पर गया हुआ था। एक गांव में उसने बड़ी भीड़ लगी देखी। पूछा, क्या हो रहा है? तो किसी ने कहा, यह रामायण से राजा राम की कथा पढ़ी जा रही है। तो उसने कहा, मेरे राज्य में और किसी राजा की कथा चले, यह बरदाश्त के बाहर है। कहो पंडित को, कथा मेरी कहे। राज्य मेरा है, किसी और राजा की कथा चल रही है!
पंडित बड़ा होशियार था, घाघ था, जैसे कि पंडित होते हैं। उसने कहा, हुजूर! कथा बड़ी है, लिखने में समय लगेगा। छह महीने में आपकी कथा लिखकर हाजिर कर दूंगा, फिर हम सुनाने लगेंगे। हमें क्या लेना-देना राजा राम से?
छह महीने बाद वह पंडित आया। उसने कहा, कथा तो लिख गई, एक अड़चन आ रही है; आपकी सीता को कौन ले भागा? आप उसका नाम बता दें तो मैं लिख दूं। क्योंकि बिना सीता के चोरी गए कथा बनती ही नहीं। आपकी सीता को कौन चुरा ले गया है? उस शैतान का नाम मुझे बता दें।
उस नवाब ने कहा, भई ठहरो; यह कहां की झंझट में उलझाते हो? ऐसी कथा से बाज आए। तुम अपनी पुरानी जो कथा कहते थे, वही कहो। तुम्हारी कथा के लिए मेरी सीता को चोरी करवाओगे? यह तो महंगा सौदा हो गया।
जब तुम रामायण पढ़ोगे तो तुम राम की कथा में अपने को आरोपित करोगे। राम की कथा तुम्हारा ही प्रक्षेपण हो जाएगी। राम की सीता थोड़े ही चोरी जाएगी, तुम्हारी ही सीता चोरी जाएगी।
जब तुम गीता पढ़ोगे तो कृष्ण जो कहेंगे, वह थोड़े ही तुम सुनोगे, तुम जो सुन सकते हो, वही सुनोगे। यह कुरुक्षेत्र का युद्ध थोड़े ही होगा, यह तो तुम्हारे भीतर का ही द्वंद्व होगा, जो कुरुक्षेत्र के युद्ध पर फैल जाएगा, विस्तीर्ण हो जाएगा।
शास्त्र से जिसने धर्म पाया, उसने बंधन पाए, अफीम पाई।
इसीलिए बुद्ध कहते हैं, ‘ठीक तरह से उपदिष्ट...।’
जीवंत गुरु से पाना, जहां अभी उपदेश बहता हो। जीवित गुरु से पाने की कोशिश करना। तो ही संभावना है कि तुम धर्म की अफीम न बनाओगे; अन्यथा बहुत डर है, तुम वैसे ही सोए हो...।
तुमने खयाल किया, रात तुम तय करके सोते हो, सुबह चार बजे उठना है। अलार्म भी भर देते हो। फिर नींद में तुम अलार्म भी सुनते हो तो अलार्म सुनाई नहीं पड़ता। तुम्हारा स्वप्न अलार्म की भी व्याख्या कर लेता है। तुम्हारा स्वप्न कहता है, अहा! मंदिर की घंटियां बज रही हैं। अलार्म को काट दिया तुमने। अलार्म बज ही नहीं रहा, उठने का कोई सवाल ही नहीं। मंदिर की घंटियों के कलरव नाद में तुम और गहरी नींद में करवट लेकर सो जाते हो। सुबह जागकर पता चलता है, अपने को धोखा दे लिया। अलार्म से भी बचा लिया अपने को। नींद बड़ी कुशल है।
मूर्च्छा बड़ी कुशल है। मूर्च्छा अपने को बचाने की कोशिश कर रही है--कहीं मिट न जाए। मूर्च्छा ऐसी व्याख्याएं करती है, जिससे नष्ट न हो जाए। मूर्च्छा ऐसी तरकीबें निकालती है कि तुम संदेह भी न कर पाओगे।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, ‘ठीक से उपदिष्ट।’
पहली बात: जीवंत गुरु से खोजना धर्म को; जहां उपदेश की सरिता अभी बहती हो। बासे शास्त्रों के पन्नों से मत खोजना। क्योंकि शास्त्र असहाय है। तुम कुछ अर्थ करोगे, गलत अर्थ करोगे, शास्त्र कुछ भी न कह सकेगा।
फर्क समझो; अलार्म की घड़ी बजती है तो तुम स्वप्न में व्याख्या कर लेते हो। लेकिन अगर तुमने किसी जीवित व्यक्ति को कह रखा है, अपनी पत्नी को कह रखा है कि उठा देना, तो तुम्हें व्याख्या न करने देगी। तो तुम्हें झकझोरेगी, जगाएगी; तुम लाख कोशिश करो कि अप्सरा दिखाई पड़ रही है और सुलाने की कोशिश कर रही है सपने में, लेकिन पत्नी इतनी आसानी से न मान जाएगी। तुम्हें खींचकर बाहर निकाल देगी।
जीवंत व्यक्ति ही तुम्हें खींचकर बाहर निकाल पाएगा। शास्त्र में खतरा है, सिद्धांत में खतरा है। खतरा उनमें है, ऐसा नहीं है, खतरा तुममें है। और चूंकि शास्त्र तो असहाय है। तुम जो व्याख्या करोगे गलत, तो शास्त्र यह न कह सकेगा, गलत है यह व्याख्या। यह मेरा मंतव्य नहीं। यह मैंने कहना नहीं चाहा है, यह तुमने ही अपना हिसाब लगा लिया है। शास्त्र कुछ भी न कह सकेगा। शास्त्र चुपचाप पड़ा रहेगा। शास्त्र के पास कोई आत्मा नहीं है। जहां से आत्मा खो गई हो, जहां अंगारा बुझ गया हो, उस राख से मत खोजना अपने धर्म को; अन्यथा तुम्हारी पूरी जिंदगी राख हो जाएगी। और अक्सर ऐसा होता है कि हम राख से ही धर्म को खोजते हैं।
जीवित व्यक्ति से तो हम बचते हैं। क्योंकि जीवित व्यक्ति के साथ खतरा है कि कहीं उठा ही न दे! मरे हुए को पूजते हैं। जीते को तो पहचानते भी नहीं। जब बुद्ध पृथ्वी पर चलते हैं तो कोई चिंता नहीं लेता। जब मर जाते हैं तो हजारों-हजारों साल तक पूजा चलती है। यह पूजा व्यर्थ है। जीवित बुद्ध के चरणों में झुकाया गया जरा सा सिर--क्रांति घटित हो जाती है। और यह हजारों साल की पूजा और ये पूजा के विधान और ये फूल और नैवेद्य, सब व्यर्थ चले जा रहे हैं। ये पत्थर की मूर्ति के चरणों पर गिर रहे हैं।
पत्थर की मूर्ति के सामने झुकना कितना आसान है! क्योंकि वहां कोई है ही नहीं, जिसके सामने तुम झुक रहे हो। तुम्हारी ही मूर्ति है, तुम्हीं झुकने वाले हो। जैसे कोई अपने ही दर्पण के सामने, अपनी ही तस्वीर के सामने झुकता हो--खेल है।
परिचय करना तो है बस मिट्टी का स्वभाव
चेतना रही है सदा अपरिचित ही बनकर
इसलिए हुआ है अक्सर ही ऐसा जग में
जब चला गया मेहमान गया पहचाना है
इसलिए हुआ है अक्सर ही ऐसा जग में
जब चला गया मेहमान गया पहचाना है
तुम इतनी देर लगा देते हो पहचानने में, परिचय ही नहीं बना पाते।
कारण है। क्योंकि पहली तो बात यह है कि जब कहीं किसी व्यक्तित्व में समाधि के फूल लगते हैं तो वे इतने अपरिचित लोक के फूल हैं कि तुम्हारे फूलों से उनका कोई संबंध नहीं जुड़ता। जब वैसी सुगंध उतरती है आकाश से तो तुम्हारी सुगंधों से कहीं मेल नहीं खाती। तुम्हारा जो भी जानना है, वह सब अस्तव्यस्त हो जाता है। तुम्हारे जानने के ढांचों में तुम बुद्धों को नहीं बिठा पाते।
ढांचे तोड़ने को तुम तैयार नहीं; तुम बुद्धों को न पहचानने को तैयार भला हो जाओ। तुम चाहते हो कि बुद्ध पुरुष तुम्हारे हिसाब से हों। तुम्हारे पास बंधी लकीरें हैं, व्याख्याएं हैं। और जब भी कोई बुद्ध पुरुष होता है तो अव्याख्य! बुद्ध पुरुष से ज्यादा अजनबी आदमी तुम कहीं खोज थोड़े ही पाओगे! तुम्हारी किसी भी लकीर में बंधता नहीं--बंध नहीं सकता। तुम्हारी लकीर में जो बंध जाए, वह बुद्ध नहीं। तुम्हारी लकीर में जो बंध जाए, वह तुम्हारा अनुयायी होगा, वह तुम्हारा सदगुरु न हो पाएगा। तुम उन्हीं की पूजा करते हो, जो तुम्हारे पीछे चलते हैं।
बड़ा खेल है। बड़ा आश्चर्यजनक खेल है। और कितना अंधापन है कि हम इसको देख भी नहीं पाते!
जब अलौकिक का अवतरण होगा, जब अनिर्वचनीय उतरेगा, तो तुम्हारे सब ढांचे, तुम्हारी सारी तर्क की कोटियां व्यर्थ हो जाएंगी। तुम अवाक हो जाओगे। तुम आश्चर्यचकित, किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाओगे। एक क्षण को तो तुम्हारा सारा व्यक्तित्व अस्तव्यस्त हो जाएगा, एक अराजकता पैदा हो जाएगी। बुद्ध पुरुषों के पास तुम्हारे जीवन की सारी व्यवस्था खंड-खंड हो जाएगी। तुम्हें फिर से अपने को निर्मित करना होगा। तुम्हारे कल तक बनाए गए भवन गिर जाएंगे। तुम्हारी कल तक चलाई गई नावें डूब जाएंगी।
बुद्ध कहते हैं, ‘जो भली प्रकार उपदिष्ट धर्म में धर्मानुचरण करते हैं...।’
तो पहली तो बात, उपदिष्ट हो धर्म; जीवंत उपदेश की धारा से पकड़ा गया हो। कोई जीवित व्यक्ति मौजूद हो, जो तुम्हें गलत अर्थ न करने दे। कोई मौजूद हो, जो तुम्हें तुम्हारे अर्थ न करने दे; जो तुम्हें सब तरफ से जगाता रहे। तुम हजार कोशिश करो, लेकिन जो सजगता से तुम्हें देखता रहे कि तुम कहीं अपनी मूर्च्छा को पोषित तो नहीं कर रहे हो!
पहली बात, उपदिष्ट हो धर्म; शास्ता से लिया जाए, शास्त्र से नहीं। शास्त्र तो शास्ताओं से बनते हैं। शास्त्रों का जन्म शास्ता में होता है। कोई, जिसने जान लिया सत्य को, उसके वक्तव्य, उसके वचन शास्त्र बनते हैं।
तो जब जीवंत घटना घट रही हो, गंगा जब उतरती हो हिमालय से, तभी तुम स्नान कर लेना। तुम करोगे स्नान, लेकिन तुम बड़ी बाद करते हो, काशी में जाकर पकड़ते हो। तब तक गंगा मुर्दा हो चुकी होती है। तब तक न मालूम कितने घाट उसे विकृत कर चुके होते हैं, न मालूम कितने मुर्दे उसमें बह चुके होते हैं, लाशें सड़ चुकी होती हैं। और न मालूम कितने गांवों की जिंदगी की गंदगी और गुबार उसमें इकट्ठा हो गया होता है।
जब हिमालय से उतरती हो, जब गंगोत्री में गंगा पैदा होती हो, जहां एक-एक बूंद स्वच्छ और सुंदर हो, जहां स्वर्ग से अभी-अभी आती हो ताजी, जहां आदमी की छाप न पड़ी हो, जहां आदमी के संसार की गंदगी ने उसे विकृत न किया हो, अव्यभिचारित, कुंआरी हो जहां, वहीं तुम पकड़ लेना।
तुम पकड़ोगे, तुम तीर्थ बनाओगे, लेकिन तुम्हारे तीर्थ बड़े बाद में बनते हैं।
इसलिए हुआ है अक्सर ही ऐसा जग में
जब चला गया मेहमान गया पहचाना है
तुम तभी पहचान लेना, जब मेहमान मौजूद हो। जाने के बाद पूजा से कुछ भी न होगा।
तो पहली बात, उपदिष्ट धर्म--शास्ता से लिया जाए।
बुद्ध के पास लोग आ जाते थे और वे वेदों की दुहाई देते थे कि वेद में ऐसा कहा है, आप ऐसा कहते हैं; उपनिषद में ऐसा कहा है, आप ऐसा कहते हैं।
आदमी बड़ा दयनीय है। जहां से उपनिषद पैदा होते हैं, वह आदमी मौजूद है। जहां से वेद जन्म लिए हैं, वह आदमी मौजूद है। तुम उसके सामने वेदों की दुहाई दे रहे हो! और तुम यह चेष्टा करते हो कि यह आदमी गलत है, क्योंकि वेद में कुछ और कहा है।
और वेद में जो कहा है, वह तुमने ही अर्थ किया है। वह वेद ने नहीं कहा है, तुमने कहा है। तुम वेद को गवाह बनाकर ला रहे हो। तुम अपने पीछे वेद को खड़ा कर रहे हो। तुम्हें अपने पर भरोसा नहीं है। तुम वेद की साक्षी ले रहे हो। और तुम किससे लड़ रहे हो?
तो बुद्ध कहते, तुम अपने वेद को बदल लो। तुम अपने उपनिषद में संशोधन कर लो। जरूर कहीं भूल हो गई होगी। लेकिन जब भी कोई तुमसे कहेगा, अपने उपनिषद में संशोधन कर लो, तुम दुश्मन हो जाओगे। तुम पीठ फेर लोगे। लगेगा, यह आदमी तो धर्म का दुश्मन है।
यह बड़ी चकित करने वाली बात है। जब भी कोई धर्म को इस पृथ्वी पर लाता है, तभी वह धर्म का दुश्मन मालूम होता है। जिन्हें तुम धर्म के मित्र समझते हो, वे तुम्हारे ही खरीदे हुए पंडित-पुजारी हैं।
फिर दूसरी बात बुद्ध कहते हैं, भली प्रकार उपदिष्ट।
सभी का यह सौभाग्य नहीं। सत्य को तो करोड़ों में कभी एक व्यक्ति उपलब्ध होता है। फिर जो व्यक्ति सत्य को उपलब्ध होते हैं, उनमें भी सभी का सौभाग्य नहीं कि वे ठीक से कह सकें, जो उन्होंने जाना है। वह फिर करोड़ों में कभी एक-आध को उपलब्ध होता है। करोड़ों में कभी कोई एक बुद्ध होता है, करोड़ों बुद्धों में कोई एक प्रगट होता है, शास्ता बनता है, सदगुरु होता है। क्योंकि जान लेना एक बात, कहना बड़ी और बात। जान लेना एक बात, जना देना बड़ी और बात। जानने से भी ज्यादा कठिन है जना देना।
तुम देखते हो, सुबह सूरज निकला, सौंदर्य का आविर्भाव हुआ, तुम उसमें ओतप्रोत हो गए, नहा गए, लेकिन कभी कोई कवि उसको गा पाएगा। तुम न कह सकोगे कि क्या हुआ। कोई कवि जब गाएगा, तब तुम भला पहचान लो कि ठीक-ठीक ऐसी ही मेरी भी अनुभूति हुई थी। ठीक मेरी ही बात, जो मैंने कहनी चाही थी, न कह पाया, तुमने कह दी।
कोई चित्रकार कभी उसको रंग दे पाएगा। किसी की तूलिका से वह उतरेगा। तुम उसे रंग न पाओगे। सूरज तो तुमने रोज उगते देखा है, किसी दिन बैठकर चित्र बनाने की कोशिश करना; तब प्रयास बचकाना मालूम होगा। तुम उसे किसी को बताना न चाहोगे।
पक्षियों का संगीत तो तुमने सुना है, रात तारों के संगीत में भी तुमने कभी अनुभूति के कंपन पाए हैं, लेकिन कभी कोई संगीतज्ञ उस धुन को उतार पाएगा उस तल तक, जहां अभिव्यक्ति हो पाती है।
तो पहले तो उपदिष्ट धर्म को खोजना; फिर वह भी ऐसे व्यक्ति से, जो ठीक से तुम्हें समझा पाए। क्योंकि ऐसे तो धर्म बड़ी बेबूझ बात है। और अगर समझाने वाला भी बहुत साफ-सुथरा न हो तो और उलझन हो जाती है। सुलझाने की बजाय लोग उलझा जाते हैं। इससे तो बेहतर था, तुम अपने अंधेरे में ही रहते। ये रोशनी की अटपटी बातें तुम्हें और अटपटा जाएंगी।
धर्म ही बेबूझ है, अतर्क्य है। अगर कोई बहुत ही कुशल चितेरा हो तो थोड़ा बहुत तुम्हारी आंखों के योग्य धर्म के चित्रण को बना पाएगा। बात शब्दों के बाहर है, अगर शब्दों का कोई धनी हो तो शायद शब्दों में थोड़ी सी धुन उतार लाएगा।
बात तो निःशब्द की है, मौन में ही जानी जाती है। शब्द के माध्यम में उतारना ऐसे ही है, जैसे कोई सुंदर फूल को पत्थर के माध्यम में बनाए। माध्यम ऐसा है कि फूल की कोमलता तो खो जाएगी। माध्यम ऐसा है कि फूल की कमनीयता तो खो जाएगी। माध्यम ऐसा है कि फूल की क्षणभंगुरता तो खो जाएगी। लेकिन कभी-कभी कोई कुशल कलाकार पत्थर में भी फूल को उतार लेता है। पत्थर के कठोर माध्यम में भी कमनीयता को डाल देता है, घोल देता है।
तो बुद्ध कहते हैं, पहले तो पकड़ना वहां से, जहां गंगा अभी पैदा होती हो। जब मेहमान मौजूद हो, पहचान लेना। और फिर ठीक से उपदिष्ट! नहीं तो तुम और उलझ जाओगे। धर्म अतर्क्य है; तर्क से उसका कोई संबंध नहीं है।
हम उलटी ही बातें कर रहे हैं। पहला तो हम यह करते हैं, हम उनसे धर्म समझते हैं, जिन्हें खुद ही पता नहीं। हम उन चिकित्सकों के पास जाकर इलाज खोजते हैं, जो खुद बीमार हैं।
मैंने सुना है, एक आदमी की आंखों में खराबी हो गई थी और उसे हर चीज दो दिखाई पड़ने लगी थी। वह गरीब आदमी था, किसान था गांव का; वह शहर आया और डाक्टर के पास गया। संयोग की बात! डाक्टर को भी वही बीमारी थी। और भी पुरानी थी। उन्हें एक-एक चीजें चार करके दिखाई पड़ती थीं। और जब उस गरीब आदमी ने डाक्टर को कहा कि मेरी यह तकलीफ है, इससे मुझे छुटकारा दिलाएं। मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। रास्ते पर चलना मुश्किल हो गया है। एक-एक चीज दो करके दिखाई देती है। उस डाक्टर ने कहा, घबड़ाओ मत। तुम चारों को दो करके दिखाई देती है? तुम चारों को ही यह बीमारी है? उस गरीब आदमी ने सिर ठोंक लिया। उसने कहा, धन्यभाग! पहले आप अपना इलाज करवाएं, फिर हमारी चिंता करें।
एक तो जिनसे तुम धर्म समझने जाते हो, कभी तुमने सोचा भी, उनके पास तुम्हें धर्म की कोई भी अनुभूति, कोई तरंग, कोई अंतर्दृष्टि, उनके सान्निध्य में धर्म की कोई वर्षा होते तुमने देखी है? उनके पास निकट बैठकर, तुमने कभी अपने को किसी और दूर के आकाश से भर जाते देखा है? उनकी मौजूदगी में तुमने अपने भीतर कोई रूपांतरण अनुभव किया है? उनके सत्संग में, जैसे स्नान हो गया हो भीतर का, ऐसी ताजगी, ऐसी फूलों की महक, ऐसी सुबह की खबर मिली है?
तुम फिक्र ही नहीं करते। तुम किसी से भी धर्म समझने पहुंच जाते हो। अक्सर तो तुम समझने भी नहीं जाते, तुम जिससे समझने जाते हो, उसे पैसे देकर घर ही बुला लेते हो।
मैं दिल्ली में मेहमान था। तो जुगल किशोर बिड़ला उन दिनों जिंदा थे; उन्होंने खबर भेजी कि आप मेरे घर आएं, मुझे आपसे कुछ समझना है। मैंने उनको कहा, अगर समझना हो तो आप जहां मैं हूं, वहां आएं। न समझना हो तो कोई हर्जा नहीं है, मैं भी वहां आ सकता हूं।
उन्हें बड़ी पीड़ा हुई। उन्होंने कहा, आपको पता होना चाहिए, खुद महात्मा गांधी भी मेरे यहां रुकते थे और आते थे। और अब तक मैंने ऐसा कोई संत पुरुष नहीं देखा, जिसको मैंने निमंत्रण दिया हो और न आया हो।
तो मैंने कहा, अब देख लो। नहीं तो एक अनुभव अधूरा रह जाएगा। मैं नहीं आऊंगा। अब तो औपचारिक रूप से भी नहीं आऊंगा। यह तो बात ही फिजूल हो गई। संत सदा के लिए बदनाम हो जाएंगे। अब तो आपको आना हो तो आ जाएं।
आदमी की भाषाएं होती हैं। जिसको उन्होंने भेजा था, उन्होंने कहा--वापस वह आदमी आया और उसने कहा--कि आप गलती कर रहे हैं; वे कुछ दान भी देना चाहते हैं। आपके काम में बड़ी सुविधा हो जाएगी, अगर उनका साथ मिल जाए।
मैंने कहा, वे मुझसे कुछ सीखना चाहते हैं, या मुझे कुछ सिखाना चाहते हैं? वे अपने जीवन में मुझसे कुछ सुविधा लेना चाहते हैं या मुझे कुछ सुविधा देना चाहते हैं? पहले उसको साफ कर लें।
बड़ी कठिनाई है। तुम जिनसे समझने जाते हो--समझने भी नहीं जाते, उनको बुला लेते हो, खरीद लेते हो।
संतत्व को खरीदने के कोई उपाय नहीं हैं। सत्य को खरीदने के कोई उपाय नहीं हैं। सत्य के हाथ तो खुद को बिकना होता है। सत्य के हाथ तो खुद को दांव पर लगाना होता है।
बुद्ध कहते हैं, पहले तो उपदिष्ट, जीवंत; और दूसरा ऐसे व्यक्ति को खोजना, जो तुम्हें और न उलझा जाए। कहीं खुद ही उलझा न हो। यह भी हो सकता है, उसे झलकें मिली हों; समाधि के स्वर उसके जीवन में गूंजे हों, यह भी हो सकता है; लेकिन तुम तक पहुंचा पाए, इसका खयाल रखना--पहुंचा पाएगा या नहीं?
बुद्ध से किसी ने पूछा कि आप चालीस वर्ष से लोगों को समझाते रहे हैं। आपके दस हजार भिक्षु हैं, इनमें से कितने लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हुए? क्योंकि आप जैसा तो कोई भी दिखाई नहीं पड़ता।
तो बुद्ध ने कहा, बहुत इनमें से मेरे जैसे हैं। बहुत इनमें मेरे जैसे हैं, अगर फर्क है तो सिर्फ इतना कि मैं कहने में कुशल हूं और वे कहने में कुशल नहीं हैं। जो मैंने जाना है, इनमें से भी बहुतों ने जान लिया है; जो भेद है अगर--वह कोई बहुत बड़ा भेद नहीं है बुद्धत्व के लिए, वह कुछ भेद ही नहीं है उस जगह--वह इतना ही है कि मैं कह सकता हूं, वह ये नहीं कह पाते।
कहने की अपनी कला है। अंधेरे में खड़े आदमी को प्रकाश के संबंध में समझाने की अपनी कला है। जिनके जीवन में सौंदर्य की कोई प्रतीति नहीं है, उनके जीवन में सौंदर्य के प्रत्यय को जन्माने की अपनी कला है। जिन्हें खुद की ही प्यास भूल गई है, जिन्हें प्यास भी भूल गई है, उन्हें तृप्ति का तो पता ही क्या हो! जिन्हें प्यास का भी स्मरण नहीं है, उन्हें तृप्ति की खबर देना बड़ी जटिल बात है।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, ‘जो भली प्रकार उपदिष्ट धर्म में धर्मानुचरण करते हैं, वे ही दुस्तर मृत्यु के राज्य को पार कर पाते हैं।’
शेष धर्म की बातें सुनते रहते हैं, पकड़ते रहते हैं, स्वप्न में ही सारा खेल चलता रहता है; जागते नहीं। मंदिरों में जाओ, मस्जिदों में देखो, गिरजाघरों में, तुम्हें करोड़ों लोग सोए मिलेंगे, जो वर्षों से सुन रहे हैं धर्म की बात। सुनते-सुनते बहरे हो गए हैं, जागे नहीं। सुनते-सुनते वस्तुतः सुनने की संवेदनशीलता भी खो दी है, बोथले हो गए हैं, ऊब गए हैं; लेकिन कहीं कोई जीवन में क्रांति दिखाई नहीं पड़ती।
इस भूल में तुम मत पड़ जाना। सदगुरु खोजना जरूरी है। धर्म को पाने का और कोई रास्ता नहीं। धर्म कभी ऐसे व्यक्ति से नहीं पाया जा सकता, जिसने स्वयं न पा लिया हो--पहली बात। और ऐसे व्यक्ति से भी पाना मुश्किल है, जिसने स्वयं पा लिया हो, लेकिन तुम्हारे तक कोई सेतु न बना सके।
इसलिए सिद्ध पुरुष तो बहुत होते हैं, सदगुरु बहुत कम। सभी सिद्ध पुरुष सदगुरु नहीं होते। सभी सदगुरु सिद्ध पुरुष जरूर होते हैं।
जैनों ने इसकी एक व्यवस्था की है। सदगुरु को वे कहते हैं, तीर्थंकर। केवल ज्ञान को तो बहुत लोग उपलब्ध होते हैं, सिद्धावस्था को बहुत लोग उपलब्ध होते हैं, लेकिन तीर्थंकर कभी-कभी कोई होता है। पूरे एक सृष्टि-समय में, सृष्टि से एक प्रलय तक केवल चौबीस होते हैं। चौबीस भी बहुत बड़ी संख्या मालूम पड़ती है।
हिंदुओं की व्याख्या में उसको अवतार कहा है। परमात्मा तक जाने वाले लोग तो बहुत होते हैं, परमात्मा को तुम तक ले आने वाले, अवतरण करा देने वाले लोग बहुत कम होते हैं। परमात्मा तक चले जाना तो कठिन है, अति कठिन नहीं; दुर्गम है, असंभव नहीं; बहुत लोग चले जाते हैं। लेकिन अवतार वही है, जो परमात्मा को तुम तक उतार लाए।
और जब तक परमात्मा को तुम तक न उतारा जाए, तुमको परमात्मा तक जाने का रास्ता नहीं मिल सकता। किसी न किसी रूप में सूरज की किरण तुम तक आ जाए, उस किरण के सहारे तुम सूरज तक पहुंच जाओगे। एक छोटा सा सहारा भी मिल जाए, सूत्र भी मिल जाए।
‘वे ही दुस्तर मृत्यु के राज्य को पार करेंगे।’
एक जीवंत सदगुरु क्या कहता है? क्या समझाता है?
समझाने से भी ज्यादा, कहने से भी ज्यादा, उसकी मौजूदगी कुछ उकसाती है। उसकी मौजूदगी केटेलिटिक है।
ढलते रवि ने लघु प्रदीप से
सुन, क्या सत्य कहा
उठ, कर शर-संधान
तिमिर का व्यूह भेद करना है
कैसा यहां विराम
शिखा को झंझा में पलना है
ढलते रवि ने लघु प्रदीप से
सुन, क्या सत्य कहा
जिसने पा लिया है, वह अब डूबने के करीब है। वह ढलता रवि है; उसकी सांझ आ गई। अब और जन्म नहीं होंगे। अब फिर सूर्र्योदय नहीं होगा। उसके विदा का क्षण आ गया, अलविदा की घड़ी आ गई। अब वह छोटे-छोटे दीयों से क्या कह रहा है? जिनके लिए बड़ी अंधेरी रात है और बड़ा संघर्ष है!
ढलते रवि ने लघु प्रदीप से
सुन, क्या सत्य कहा
उठ, कर शर-संधान
तिमिर का व्यूह भेद करना है
कैसा यहां विराम
शिखा को झंझा में पलना है
बुद्ध पुरुषों के पास तुम्हारे जीवन की खोज में एक त्वरा आ जाती है। तुम्हारे जीवन की खोज में एक गति आ जाती है। उनकी तरंग पर चढ़कर तुम्हारी नौका भी गतिमान हो जाती है। उनकी हवाओं को अपने पाल में भरकर तुम भी प्रखर गति से यात्रा में संलग्न हो जाते हो।
और एक बार तुम्हें अपने पैरों की गति का पता चल जाए तो बुद्ध पुरुषों का साथ छूट जाने से भी फिर भेद नहीं पड़ता। एक बार तुम्हें अपनी शक्ति का पता चल जाए, एक बार छोटा सा दीया भी जान ले कि रात कितनी ही अंधेरी हो, कितना ही प्रगाढ़ हो तम, मुझे बुझा न पाएगा। तम की कोई सामर्थ्य नहीं कि छोटी सी ज्योति को भी बुझा दे।
एक बार भरोसा आ जाए और एक बार छोटे से दीए की लौ को भी हवा के झकोरों में जीवन की पुलक मालूम होने लगे, झंझावातों में चुनौती अनुभव होने लगे, झंझावातों में अज्ञात का निमंत्रण मालूम होने लगे, तो छोटा दीया भी छोटा न रहा।
सदगुरु डूबता हुआ सूरज है। सांझ हो गई, रात के पहले कुछ बातें कह जाना चाहता है। तुम उसे सीधे-सीधे सुन लेना।
अब बहुत अजीब आदमी का मन है। एक डाक्टर हैं, इधर आते हैं; जब भी आते हैं, तब वे नोट बनाते रहते हैं। उनको मैंने कहा भी कि मैं बोल रहा हूं जीवित, तब तुम चूके जा रहे हो; तुम इन नोटों का क्या करोगे? वे कहते हैं कि बाद में घर जाकर शांति से पढ़ता हूं। तुम शास्त्र बना लेते हो, फिर उसे पढ़ते हो।
तुम ऐसे हो, हिमालय जाते हो तो कैमरा लिए रहते हो, हिमालय को नहीं देखते, कैमरे से फोटो उतारते रहते हो। घर में एल्बम में लगाकर शांति से बैठकर देखेंगे। तुम्हारे पागलपन की कोई सीमा है? सौभाग्य से हिमालय के पास पहुंच गए थे, भर लेते आंखें अपनी, भर लेते अपना हृदय, हिमालय की शीतलता और विशालता को जरा डूब जाने देते अपने में; तो वह काम तुमने कैमरे पर छोड़ दिया। अब कैमरा सिर्फ यंत्र है। कैमरा क्या भर पाएगा हिमालय को? कैमरा जो खबर लाएगा, वह खबर तो घर बैठे ही बाजार से चित्र खरीदकर हो सकती थी पूरी। असली मजा तो जीवंत हिमालय के साथ सत्संग का था।
जीवंत धारा को खोजना। जीवंत धारा के सहारे ही तुम मृत्यु के राज्य को पार कर पाओगे। क्यों? क्योंकि जिसने अमृत को जान लिया हो, वही तुम्हें अमृत की यात्रा पर ले जा सकेगा।
अन्यथा तुम लाख प्रार्थनाएं करो, तुम लाख चीखो-चिल्लाओ आकाश से: असतो मा सदगमय--सूना आकाश सुनता है, कोई प्रतिउत्तर नहीं है। बेचारा आकाश करेगा भी क्या? अमृत की तरफ ले चल मृत्यु से; अंधेरे से प्रकाश की तरफ ले चल; असत्य से सत्य की तरफ ले चल--तुम्हारी प्रार्थनाएं कौन है वहां सुनने को? जो गया हो सत्य तक, उसके पास इस प्यास से भरकर जाना, असतो मा सदगमय, मुझे ले चल। जो पहुंचा हो उस स्रोत तक, उसके साथ थोड़ा साथ कर लेना। इसके पहले कि मेहमान विदा हो, तुम पहचान लेना।
इसलिए हुआ है अक्सर ही ऐसा जग में
जब चला गया मेहमान गया पहचाना है
ऐसी भूल तुमसे न हो।
दूसरा सूत्र: ‘पंडित अशुभ को छोड़कर शुभ का ध्यान करे और बेघर होकर ऐसे एकांत स्थान में वास करे, जहां कि जी लगना कठिन होता है। पंडित भोगों को छोड़कर अकिंचन बनकर उस एकांत में लवलीन रहने की इच्छा करे और चित्त के मलों से अपने को परिशुद्ध करे।’
जिन्होंने बुद्धों की पुकार सुन ली, वे ही पंडित हैं। शास्त्र को जान लेने से कोई पंडित नहीं, परमात्मा की प्यास के जग जाने से कोई पंडित है।
पंडित का अर्थ है: अब तुम जहां सीमाओं में बंधे हो, वहीं बंधे रहने को राजी नहीं; खोज शुरू हो गई। माना कि अभी अंधेरी रात ने तुम्हें घेरा है, लेकिन सुबह की तलाश शुरू हो गई। रात की अंधेरी कोख में सुबह का सूरज पलने लगा। सुबह की यात्रा शुरू हो गई। माना कि तुम अंधेरे में जीते हो, अशुभ में जीते हो, संसार में जीते हो, सब माना। लेकिन अब तुम वहीं समाप्त नहीं हो; उससे पार होने की आकांक्षा ने घर बनाया तुम्हारे हृदय में; अभीप्सा जगी।
नसीम, जागो कमर को बांधो
उठाओ बिस्तर कि रात कम है
सफर है दुश्वार ख्वाब कब तक
बहुत बड़ी मंजिले-अदम है
उस दूसरे लोक तक जाने की यात्रा लंबी है। रात बहुत थोड़ी बची है।
किसी सदगुरु के सान्निध्य में जब तुम अपना बिस्तर बांधने लगते हो, पांडित्य का जन्म हुआ। पंडित से अर्थ बहुत जानने वाले का नहीं है, पंडित से अर्थ जानने के आकांक्षी का है। पंडित से अर्थ बहुत सूचनाओं के संग्रह का नहीं है, सत्य की अभीप्सा का है, जिज्ञासा का है।
‘पंडित अशुभ को छोड़कर शुभ का ध्यान करे।’
जब बुद्ध यह कहते हैं, अशुभ को छोड़कर शुभ का ध्यान करे, तो वे यह नहीं कह रहे हैं कि तुमसे अशुभ अभी इसी क्षण छूट जाएगा; लेकिन तुम उस पर ध्यान देना धीरे-धीरे क्षीण करो। जिस पर हम ध्यान देते हैं, उसी को हम से शक्ति मिलती है, ऊर्जा मिलती है।
समझो; अगर तुम्हें बहुत क्रोध आता है, तो अक्सर ऐसा हो जाता है कि तुम क्रोध पर बहुत ध्यान देने लगते हो--चाहे मुक्त होने के लिए ही सही; कि किसी तरह क्रोध से छुटकारा हो जाए--तो तुम अतिशय संवेदनशील हो जाते हो क्रोध के प्रति। तुम उसी-उसी का ध्यान रखते हो--कहीं फिर क्रोध न हो जाए, कहीं फिर क्रोध न हो जाए, कहीं फिर क्रोध न हो जाए। और यह जो बार-बार तुम क्रोध को देख रहे हो, तुम्हारी हर दृष्टि में क्रोध को ऊर्जा मिलती है। तुम जो क्रोध का बार-बार स्मरण कर रहे हो, इसमें क्रोध मजबूत होता है, सघनीभूत होता है। इसमें क्रोध की लकीर तुम्हारे ऊपर गहरी होने लगती है।
अगर क्रोध से मुक्त होना हो तो पहला सूत्र है: क्रोध पर ध्यान मत दो। है, मान लिया; जानो कि है; भुलाओ भी मत, दबाओ भी मत, विस्मृत भी मत करो, लेकिन ध्यान करुणा पर दो। अगर क्रोध तुम्हारा रोग है तो करुणा पर ध्यान दो। करुणा के संबंध में ज्यादा सोचो, गुनो, मनन करो, गुनगुनाओ। कहीं मौका मिल जाए तो करुणा करने से मत चुको।
हम अक्सर क्या करते हैं? क्रोधी आदमी कोशिश करता है कि क्रोध का अवसर मिले तो न करे क्रोध। न करने में भी हो जाएगा। न करने-करने में ही भीतर हो जाएगा; बाहर चाहे न भी प्रगट हो तो भी भीतर घना धुआं घेर लेगा, विषाद भर जाएगा, जहर फैल जाएगा।
नहीं, अगर क्रोध बीमारी है तो क्रोध की उपेक्षा करो। ध्यान देने योग्य भी नहीं है, चिंतनीय भी नहीं है। करुणा पर ध्यान दो। करुणा क्रोध के ठीक दूसरे छोर पर है; उस पर ध्यान दो, ऊर्जा वहां डालो। करुणा को सींचो। करुणा को प्रेम दो। और कहीं कोई अवसर मिल जाए, छोटे से छोटा अवसर भी मिल जाए तो चूको मत।
एक मक्खी भी तुम्हारे ऊपर बैठ गई है, उसे भी उड़ाना हो तो अत्यंत करुणापूर्वक उड़ाओ। उस अवसर को भी मत चूको, क्योंकि जितनी-जितनी ऊर्जा करुणा में परिणत हो जाए, उतनी-उतनी ऊर्जा क्रोध को मिलनी बंद हो जाएगी। ऊर्जा वही है; क्रोध को देते हो तो क्रोध पलता है, करुणा को देते हो तो करुणा पलती है।
बुद्ध के जीवन-सूत्रों में उपेक्षा बड़ी महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं, जिस चीज से मुक्त होना हो, उस तरफ पीठ कर लो। दबाने की जरूरत नहीं है, सिर्फ उपेक्षाभाव रखने की जरूरत है। अपने को वहां से शिथिल कर लो। है माना, लेकिन सारी ऊर्जा विपरीत छोर पर बहने लगे तो धीरे-धीरे तुम पाओगे, कि जो शक्ति क्रोध को मिलती थी, वह बची ही नहीं।
इसे तुम थोड़ा करके देखो। क्रोध से जूझो भी मत। अगर कामवासना से पीड़ित हो तो कामवासना से जूझो मत, अन्यथा वह बढ़ती चली जाती है। जितने तुम लड़ोगे, उतना ही तुम पाओगे, घाव गहरे होते चले जाते हैं। और बार-बार हारोगे तो धीरे-धीरे आत्मविश्वास भी खो जाएगा। और आत्मविश्वास खो जाए तो साधक बुरी तरह भटक जाता है। लड़ो भी मत।
‘पंडित अशुभ को छोड़कर शुभ का ध्यान करे और बेघर होकर ऐसे एकांत में वास करे जहां कि जी लगना कठिन होता है।’
साधारणतः हम भीड़ में जीते हैं। साधारणतः हम भीड़ में ही बड़े हुए। साधारणतः हम भीड़ का ही अंग हैं। साधारणतः भीड़ हमारे भीतर भरी है। भीड़ ने हमारे भीतर भी कब्जा कर लिया है। हमारे भीतर कोई एकांत स्थान नहीं बचा है। तुम कहते जरूर हो कि अपने घर में तो प्राइवेसी है, एकांत है; वहां भी नहीं है। रात के सपने तक में भीड़ तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ती। तुम्हारी दयनीय अवस्था सोचो तो! रात सोए हो, सपने में पड़े हो, तब भी लोग मौजूद हैं। अनचाहे मेहमान मौजूद हैं, न बुलाए मेहमान मौजूद हैं। और ध्यान रखना, उनका कोई कुसूर नहीं है, वे आए भी नहीं हैं।
इजिप्त में एक सम्राट हुआ, वह थोड़ा झक्की था। उसने राज्य में आज्ञा पिटवा दी कि अगर मेरे सपने में कोई आया तो मरवा डालूंगा।
अब बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। लोग डरने लगे। करोगे भी क्या? दूसरों का कोई मामला नहीं। कोई तुम्हारे सपने में थोड़े ही आता है। तुम ही बुलाते हो। तुम्हारी ही धारणा है। कहते हैं, उसने एक वजीर को सूली पर लटकवा दिया, क्योंकि रात सपने में आ गया, नींद खराब की।
ध्यान रखना, कोई तुम्हारे सपने में आ नहीं रहा है। तुम भीड़ हो; अभी तुम व्यक्ति नहीं। अभी तुम्हारे भीतर आत्मा पैदा नहीं हुई। अभी तो तुम जोड़-तोड़ हो। हजार तरह का कूड़ा-करकट तुम्हारे भीतर भरा है। अभी तो तुम एक तरह के कबाड़खाने हो। किसी की टांग, किसी का हाथ, किसी की नाक, किसी का कान, सब तुम्हारे भीतर इकट्ठे हैं। तुम तो एक ढेर हो। तुम्हारे भीतर अभी तुम नहीं हो और सब कुछ है। भीतर जाओगे तो सब मिलेगा--बाजार मिलेगा, दुकान मिलेगी, शास्त्र मिलेंगे, मंदिर-मस्जिद मिलेगी, तुम भर न मिलोगे। भीतर खोजोगे तो अपने भर को न पाओगे और सारा संसार पा लोगे। कैसा मजा है!
तो साधक को शुरुआत में अपने को भीड़ से बाहर करने की जरूरत है। और यह भीड़ से बाहर करना बाहर की ही बात नहीं है; तुम जंगल भी भाग सकते हो, इससे बहुत कुछ न होगा। जंगल में भी बैठ जाओगे तो सोचोगे तो बाजार की; थोड़ा ज्यादा ही सोचोगे।
अक्सर ऐसा होता है कि लोग जब ध्यान करने बैठते हैं, तब संसार की ज्यादा सोचते हैं। ऐसे भी नहीं सोचते साधारणतः उतना। मंदिर जाते हैं, तब दुकान का ज्यादा विचार करते हैं। फुरसत मिल जाती है। और कुछ काम भी नहीं रहता वहां।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि बड़ी आश्चर्य की बात है। इतने विचार तो हमें साधारणतः नहीं होते, लेकिन जब ध्यान करने बैठते हैं, तब बड़ा आक्रमण होता है। ध्यान विचार ही विचार से भर जाता है।
बाकी समय तुम उलझे रहते हो। विचार तो चलते रहते हैं, लेकिन देखने की भी फुरसत कहां? ध्यान के समय तुम खाली होकर बैठते हो, थोड़ी नजर मुक्त होती है, उलझाव नहीं होता। सारी दुनिया झपट पड़ती मालूम पड़ती है।
प्रश्न बाहर का नहीं है, लेकिन बाहर का एकांत भी सहयोगी हो सकता है। असली सवाल भीतर के एकांत का है।
‘ऐसे एकांत में वास करे कि जहां जी लगना कठिन होता है।’
तुम्हारा जी ही भीड़ में लगता है। खाली बैठे हो, अखबार पढ़ोगे। अखबार यानी भीड़ की खबरें। खाली बैठे हो, रेडियो खोल लोगे, टेलीविजन चला लोगे। खाली बैठे हो तो मित्र के घर पहुंच जाओगे, क्लब पहुंच जाओगे, पड़ोसी से ही बात करने लगोगे। खाली बैठे हो तो कुछ न कुछ करोगे। बिना दूसरे के तुम्हारा जी नहीं लगता। दूसरे पर इतने निर्भर हो? दूसरा तुम्हारा मालिक है? दूसरे के बिना घड़ीभर बिताना मुश्किल हो जाता है। तुम्हारी स्वतंत्रता कैसी है? यह तुम्हारा स्वामित्व कैसा है? तुम अपने भी नहीं हो।
वही व्यक्ति अपना स्वामित्व पाना शुरू करता है, जो एकांत और निज को जीने लगता है। जो अपने साथ होने में भी आनंद पाता है। दूसरे के साथ होना ही जिसका एकमात्र सुख नहीं है; जिसका अपने साथ होना परमसुख बन जाता है।
और बड़े मजे की, यद्यपि विरोधाभासी बात यह है कि जो व्यक्ति अपने साथ बहुत आनंद अनुभव करता है, दूसरे उसके साथ बड़ा आनंद पाएंगे। तुम तो अपने साथ ही परेशान हो, तुम दूसरों के साथ उनको भी परेशान ही करोगे। करोगे क्या? अपने को परेशान कर लेते हो तो दूसरों को भी परेशान करोगे। तुम उनको उबा रहे हो, वे तुमको उबा रहे हैं। वे तुम्हारी सुन रहे हैं, क्योंकि उनको अपनी कहनी है। तुम भी अपने एकांत से घबड़ाकर भाग आए हो, वे भी अपने एकांत से घबड़ाकर भाग आए हैं। दोनों विक्षिप्त हो।
दो आदमियों की बातें तो सुनो; गौर से सुनो, तुम हैरान होओगे। वे एक-दूसरे से बात कर ही नहीं रहे, अपनी-अपनी कहे चले जा रहे हैं। किसको फुरसत है किसी से बात करने की? अपना-अपना काफी भरा हुआ गुबार है।
तो पहली तो बात है कि एकांत में थोड़ा रस लेना शुरू करो। बुद्ध कहते हैं, पंडित वही है।
क्यों? क्योंकि समझदार वही है, जो अपने भीतर जीने की सुविधा बनाने लगे, अपने भीतर के आकाश में रमने लगे। क्योंकि वहीं तुम्हारे प्राणों का प्राण है, वहीं तुम्हारा जीवन-स्रोत है, वहीं तुम्हारा उदगम है, वहीं तुम्हारा अंत है, वहीं है मंदिर, वहीं है विराजमान प्रभु--अगर कहीं है, वहीं सब कुछ है। उसको जिसने गंवाया, सब गंवाया। उसे जिसने पाया, सब पाया।
‘और बेघर होकर...।’
जैसे भीड़ से हम बंधे हैं, भीड़ काम भी नहीं आती; सिर्फ भुलाने का बहाना है, एक नशा है। जिंदगी के असली क्षणों में तुम सदा अकेले रह जाते हो। जन्म जब हुआ, तुम अकेले। तुम्हारे भीतर तुम्हीं थे और कुछ नहीं। मरोगे, तब अकेले। तुम्हारे भीतर तुम्हीं रहोगे और कुछ नहीं। और कभी अगर तुम थोड़ी समझ का उपयोग करो तो जीवन में जब भी तुम्हें ऐसे कोई क्षण मिले--पुलक के, अहोभाव के, धन्यता के, तब भी तुम पाओगे, तुम अकेले।
सुबह उगते सूरज के साथ क्षणभर को राग बंध गया, सूरज के रंग फैल गए--तुम अचानक पाओगे, कोई भी न रहा वहां। भीतर का आकाश एकदम खाली हो गया। वहीं सौंदर्य का थोड़ा सा रस आएगा।
संगीत सुनते समय जब तुम्हारे भीतर कोई भी न रह जाएगा, विराट एकांत होगा, उसी क्षण संगीत तुम्हारी भीतर की वीणा को छू देगा; भीतर की वीणा पर टंकार पड़ जाएगी। तुम्हारी भीतर की वीणा जब तक न बजने लगे, कैसे तुम बाहर का संगीत समझोगे? और जब तक तुम्हें भीतर के सौंदर्य का बोध न हो, बाहर के सब सौंदर्य किसी काम के नहीं हैं।
तो जीवन में जब भी कुछ महत्वपूर्ण घटता है, तब तुम अचानक पाओगे, तुम अकेले हो गए। तुमसे एक कठिन बात कहना चाहूंगा; अगर तुम्हारे जीवन में कभी प्रेम घटा है तो तुम अचानक पाओगे कि तुम अकेले हो गए। हालांकि प्रेम में लोग सोचते हैं कि अब दो साथ हो गए, लेकिन यह बात सच नहीं है। प्रेम में दो एकांतों का मिलन होता है। दो व्यक्ति अकेले हो जाते हैं प्रेम में। दो व्यक्ति भीड़ से मुक्त हो जाते हैं। और प्रेमी जब दो होते हैं तो वहां कोई भीड़ नहीं होती; वहां दूसरा होता ही नहीं। वहां तुम अकेले होते हो, दूसरा भी अकेला होता है। वहां अकेलापन पूरा होता है। दो शून्य मिलकर एक ही शून्य बनता है, दो शून्य नहीं बनते। दो शून्यताएं मिलकर एक शून्यता बनती है, दो शून्यताएं नहीं बनतीं।
और अगर ऐसा न हुआ हो, कि प्रेम के क्षण में भी तुम तुम रहे, भीड़ से भरे रहे, तो समझना कि वह काम का क्षण है, प्रेम का क्षण नहीं है। यही काम और प्रेम का भेद है। काम में दूसरे की तलाश है, प्रेम में अपने होने का अनुभव है। दूसरा ज्यादा से ज्यादा दर्पण बन जाता है, जिसमें हम अपनी ही तस्वीर देख लेते हैं।
जब भी तुम अकेले होओ, उन क्षणों का उपयोग करो। उन एकांत के क्षणों को सौभाग्य मानो, उनका उपयोग करो, उनमें रमो। धीरे-धीरे रस आएगा, स्वाद जमेगा। शुरू-शुरू तो बड़ी बेचैनी होगी, जी घबड़ाएगा।
वही तो बुद्ध कहते हैं: ऐसा एकांत, जहां जी लगना कठिन हो जाता है।
तुम्हारा जी ही उधार है; वह भीड़ में ही लगता है। उसे दुर्गंध की आदत पड़ी है, सुगंध में तिलमिलाता है। एकांत की शांति खाती है, भीड़ का शोरगुल भाता है। थोड़ी आदत बदलेगी, समय लगेगा। लेकिन एक बार स्वाद लग जाए एकांत का तो तुम भीड़ में भी रहोगे और अकेले ही रहोगे। तुम बाजार में भी खड़े रहोगे लेकिन एकांत। तुम अपने भीतर के हिमालय को कभी खोओगे ही नहीं। तुम्हारा भीतर का हिमालय तुम्हारे साथ चलेगा।
बड़े शिखर हैं तुम्हारे भीतर, बड़ी ऊंचाइयां हैं और बड़ी गहराइयां हैं। लेकिन तुम भीतर के जगत से अपरिचित ही रहे चले जाते हो।
एक दिल का दर्द है कि रहा जिंदगी के साथ
एक दिल का चैन था कि सदा ढूंढते रहे
ऐसे ही चल रही है तुम्हारी जिंदगी। और चैन अभी मिल सकता है, क्योंकि जिसे तुम बाहर खोज रहे हो वह भीतर मौजूद है। और दुख अभी खो सकता है, क्योंकि बाहर की खोज के कारण पैदा हो रहा है।
फिर मुझे दोहराने दें--
एक दिल का दर्द है कि रहा जिंदगी के साथ
एक दिल का चैन था कि सदा ढूंढते रहे
यह तुम्हारी पूरी जिंदगी की कहानी है, जीवन-कथा है। जिंदगीभर खोज रहे हैं कि कहीं कोई चैन मिल जाए। और जिंदगीभर खोज रहे हैं कि किस तरह दुख से छुटकारा हो जाए, लेकिन यह हो नहीं पाता।
दिशा कुछ गलत है। रेत से जैसे कोई तेल को निचोड़ने की कोशिश कर रहा है। चैन है भीतर, उसे तुम बाहर खोज रहे हो। दुख है बाहर, चैन है भीतर। बाहर खोजते हो, दुख ही दुख पाओगे। भीतर खोजो, सुख का स्वर बजने लगता है।
और ध्यान रखना, अकेले आना है, अकेले जाना है; तो बीच के ये थोड़े दिन भीड़ से बहुत ज्यादा अपने को मत भरो। ये बीच भी अकेलेपन से भर जाए तो तुम्हें जीवन के सारे राज, सारी कुंजियां मिल जाएंगी।
और कब कौन साथ देता है? किस बात में कोई साथ देता है? सब साथ धोखा है।
सियहबख्ती में कब कोई किसी का साथ देता है
कि तारीकी में साया भी जुदा रहता है इन्सां से
कौन साथ देता है मुसीबत के क्षण में? यह सब सुख का राग-रंग है। सब साथी सुख के मालूम होते हैं। अंधेरा जब घेर लेता है, कौन किसका साथ देता है? मौत जब हाथ में आती है, तब कौन तुम्हारे हाथ में हाथ देता है?
कि तारीकी में साया भी जुदा रहता है इन्सां से
अंधेरे में तो अपनी छाया भी साथ छोड़ देती है, दूसरे का तो भरोसा क्या? इस सत्य को जो स्वीकार कर लेता है, समझ लेता है, वह अपने साथ हो लेता है। वह असली साथ खोज लेता है।
बेघर भी समझ लेने जैसा शब्द है। इसका मतलब यह नहीं है कि तुम घर छोड़कर भाग जाओ। इसका कुल मतलब इतना है कि तुम जहां भी रहो, घर न बनाओ। इसका यह मतलब भी नहीं है कि तुम छप्पर न डालो; इसका यह मतलब भी नहीं है कि तुम किसी छाया में न ठहरो; इसका कुल मतलब इतना है कि तुम कभी भी यह मत सोचना कि यह तुम्हारा घर है--सराय ही रहे। ज्यादा से ज्यादा रात का पड़ाव है, सुबह हुई, चल पड़ना है। ऐसा बेघरपन हो; इसका नाम ही संन्यास है।
एक शब्द है हमारे पास--गृहस्थ। गृहस्थ का अर्थ होता है, जिसने घर बनाया। घर में रहता है, ऐसा अर्थ मैं नहीं करता; ऐसा तुमने किया तो गलती हो जाती है। घर में तो सभी रहते हैं। घर नहीं बनाता, वह संन्यासी है। घर में तो रहेगा, लेकिन मानता नहीं कि कहीं कोई घर है। जैसे हमेशा सामान बंधा तैयार है, और जब क्षण आ जाए विदा होने को, तैयार है।
अमरीका का एक प्रेसीडेंट मरने के करीब था तो चिकित्सक ने ठीक समझा कि उसे कह देना जरूरी है। पास आकर कहा कि आप की मृत्यु की घड़ी है। सोचा था डरेगा, घबड़ाएगा; उसने जरा सी आंख खोली और कहा, रेडी! तैयार हूं। बस, इतनी ही बात कही।
गृहस्थ पकड़ने को तैयार है, संन्यस्त छोड़ने को तैयार है। यह तैयारी की बात है; जरूरी नहीं कि तुम छोड़ो। छोड़ने का भाव! छिन जाए तो तुम रोओगे नहीं, चीखोगे-तड़फोगे नहीं, तुम यह न कहोगे, घर मिट गया--तो तुम बेघर हो।
‘पंडित भोगों को छोड़कर अकिंचन बनकर एकांत में लवलीन रहने की इच्छा करे और चित्त के मलों से अपने को परिशुद्ध करे।’
एकांत में रहने की इच्छा, अभिलाषा पोसे; इस पौधे को सींचे।
‘अकिंचन बनकर...।’
क्योंकि अकेले तुम तभी हो सकते हो, जब तुम अकिंचन बनने को तैयार हो। इस सूत्र को खयाल में रखना। अगर तुम बड़े होना चाहते हो तो भीड़ की जरूरत पड़ेगी; अन्यथा कौन तुम्हें बड़ा कहेगा? अगर तुम्हें सम्राट होना है तो साम्राज्य चाहिए पड़ेगा। अगर तुम्हें नेता होना है तो अनुयायी चाहिए पड़ेंगे। अगर तुम्हें कुछ होना है तो भीड़ की जरूरत पड़ेगी। और जिसकी जरूरत पड़ती है, उस पर तुम निर्भर रहोगे; उसके तुम गुलाम रहोगे।
इसलिए जिनको तुम नेता कहते हो, वे अनुयायियों के गुलाम होते हैं। और जिनको तुम सम्राट कहते हो, उनसे बड़े गुलाम तुम कहीं न खोज पाओगे।
नादिरशाह हिंदुस्तान आया। उसने दिल्ली पर कब्जा कर लिया। उसने हाथी कभी देखा न था। पहली दफा देखा, बैठने की इच्छा हुई। तो उसे हाथी पर बिठाया गया। जब वह हाथी पर बैठा तो उसने आगे झांककर देखा, महावत अंकुश लिए बैठा है। तो उसने कहा, तू यहां क्या कर रहा है? तो उस महावत ने कहा, महानुभाव! यह हाथी है, इसको चलाने के लिए फीलवान की जरूरत होती है। उसने कहा, लगाम मुझे दे और तू नीचे उतर। वह तो घोड़े का आदी था, उसने कभी हाथी देखा नहीं था। कहा, तू नीचे उतर, लगाम मुझे दे। वह हंसने लगा महावत; उसने कहा, इसकी कोई लगाम नहीं होती और हम फीलवान ही इसे चला सकते हैं। तो कहते हैं, नादिरशाह छलांग लगाकर नीचे कूद गया। उसने कहा, जिसकी लगाम मेरे हाथ में न हो, उस पर बैठना खतरे से खाली नहीं। मैं ऐसी चीज का मालिक होना ही नहीं चाहता, जिसकी लगाम मेरे हाथ में न हो।
लेकिन जरा और गौर से देखना, लगाम भी होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। थोड़ा-बहुत नियंत्रण में आ जाती है बात, लेकिन लगाम होने से भी बहुत फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि जिसकी लगाम तुम्हारे हाथ में होती है, तुम्हारी लगाम भी उसके हाथ में होती है।
एक मुसलमान फकीर बायजीद एक रास्ते से गुजरता था अपने शिष्यों को लेकर और एक आदमी एक गाय को घसीटे लिए जा रहा था। गाय जाना नहीं चाहती थी और वह आदमी घसीट रहा था। बायजीद ने अपने शिष्यों को कहा, रुको! घेर लो इस आदमी को। एक पाठ सीखने जैसा है। और बायजीद ने अपने शिष्यों से पूछा, मुझे बताओ, यह आदमी गाय को बांधे हुए है कि गाय ने आदमी को बांधा है? उन शिष्यों ने कहा, साफ है कि आदमी गाय को बांधे हुए है। आदमी मालिक है, गाय गुलाम है।
तो बायजीद ने कहा, एक सवाल और। अगर हम यह लगाम बीच से काट दें तो गाय आदमी के पीछे जाएगी कि आदमी गाय के पीछे जाएगा? उन्होंने कहा, आदमी गाय के पीछे जाएगा। तो फिर मालिक कौन है?
तुम जिसके पीछे जाते हो, वही तुम्हारा मालिक है। जिसकी लगाम तुम्हारे हाथ में है, उसके हाथ में तुम्हारी भी लगाम हो गई। जब तुमने किसी चीज का परिग्रह किया, तुम उस चीज के गुलाम हो गए।
तो जब तुमने कहा, यह मेरा घर है, तुम इस घर के हो गए। और ध्यान रखना, जब घर छूटेगा तुमसे, घर न रोएगा तुम्हारे लिए, तुम रोओगे घर के लिए। और जब लगाम टूटेगी तो पता चलेगा, तुम गुलाम थे।
‘बेघर, एकांत और अकिंचन...।’
अकिंचन होने को जो राजी है। अकिंचन का अर्थ है: नो-बडी, ना-कुछ; जैसे मैं कुछ हूं ही नहीं, ऐसा होने को जो राजी है, वही केवल भीड़ से मुक्त हो सकता है।
लेकिन ये अनुभव हम सभी को होते हैं। ये अनुभव कुछ अनूठे नहीं, अनूठी तो बात यह है कि अनुभव होते हैं और फिर भी हम गैर-अनुभवी रह जाते हैं। कितनी बार तुम्हारा घर बना और उजड़ा नहीं! कितनी बार तुमने लगाम पकड़ी और नहीं पकड़े गए! कितनी बार तुमने मालिक बनना चाहा और तुम गुलाम बने! और कितनी बार भीड़ का संग-साथ खोजा और तुमने अपने को गंवाया! कितने अनुभव तुम्हें जीवन में होते हैं, लेकिन फिर भी आश्चर्य की बात तो यही है कि तुम कुछ सीखते नहीं।
मोती हो कि शीशा, जाम कि दुर
जो टूट गया सो टूट गया
कब अश्कों से जुड़ सकता है
जो टूट गया सो टूट गया
तुम नाहक टुकड़े चुन-चुन कर
दामन में छिपाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो
जीसस ने मुर्दे को जिला दिया, लेकिन जिन टूटे टुकड़ों को लेकर तुम बैठे हो, उनको वे जोड़ न सकेंगे।
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो
और तुम्हारे दामन में सिवाय टुकड़ों के कुछ भी नहीं है। सब शीशे टूटे हुए हैं। तुमने जीवन में सिवाय टुकड़ों के, व्यर्थ टुकड़ों के, कुछ इकट्ठा किया ही नहीं। लेकिन आशा लगाए बैठे हो कि शायद कोई जोड़ देगा। और रो रहे हो।
कब अश्कों से जुड़ सकता है
जो टूट गया सो टूट गया
जरा गौर से अपनी जिंदगी को एक बार फिर से देखो, एक पुनर्निरीक्षण--और तुम पाओगे, बुद्ध पुरुष जो कहते हैं, वह तुम अपने अनुभव से भी पाओगे कि ठीक है। इसलिए बुद्ध ने बार-बार कहा है कि जो मैं कहता हूं, मेरे कहने के कारण मत मान लेना, तुम्हारे अनुभव से तालमेल बैठे तो ही।
तालमेल बैठता ही है। सत्य है वही, जिसका तालमेल सभी के अनुभव से बैठेगा ही। हां, तुम बिठाओ ही न, आंख बंद किए बैठे रहो, बात और। आदमी बहलाए चला जाता है अपने को। सोचता है, अभी नहीं हुआ, कल हो जाएगा। इस बार चूक गए, अब न चूकेंगे। लेकिन यह निशाना कुछ ऐसा है कि कभी लगेगा ही नहीं। इसका स्वभाव लगना नहीं है। यह कुछ तुम्हारी तीरंदाजी पर निर्भर नहीं है। तुम कितने ही कुशल हो जाओ, यह निशाना चूकता ही रहेगा। क्योंकि वहां है ही नहीं कोई, निशाना जिस पर लग जाए। जितनी जल्दी तुम्हारे जीवन में इस विफलता का बोध हो जाए, उतनी ही जल्दी अंतर्यात्रा शुरू हो जाती है।
जिंदगी को माहो-अंजुम न उजाला देंगे
तुम न इन झूठे खिलौनों से बहलते रहना
चांद-तारों से रोशनी नहीं मिलती जिंदगी को। तुम इन झूठे खिलौनों से मत उलझते रहना। ये बाहर के खिलौने कोई रोशनी न दे सकेंगे। रोशनी भीतर से आती है। रोशनी तुम्हारे भीतर छुपी है, वहां जगाना है।
एकांत में उसे जगाओ, बेघर होकर उसे जगाओ, वस्तुओं की मालकियत, दौड़ छोड़कर उसे जगाओ, भीड़ से संग-साथ छोड़कर उसे जगाओ। कहीं ऐसा न हो कि जिंदगी बीत जाए और ज्योति सोई की सोई ही रह जाए।
‘जिनका चित्त संबोधि अंगों से अच्छी तरह अभ्यस्त हो गया है, जो अनासक्त हो परिग्रह के त्याग में सदा निरत हैं, जो क्षीणास्रव और द्युतिमान हैं, वे ही संसार में निर्वाण को पा चुके हैं।’
बड़ा अनूठा वचन है। अगर तुम जाग गए तो संसार में ही निर्वाण उपलब्ध हो जाता है। यह निर्वाण कोई परलोक नहीं है। निर्वाण कोई मंजिल नहीं है, जो कभी आगे मिलेगी। अगर तुम जाग गए तो अभी और यहीं है। यह मंजिल कुछ ऐसी है कि तुम्हारे कदमों में छुपी है। इसे उघाड़ना है, इसे खोजना नहीं है। कदम-कदम में तुम्हारे यह मंजिल छिपी है।
अपने कदम के साथ है मंजिल लगी हुई
मंजिल पे जो नहीं है वो हमारा कदम नहीं
वह तुम्हारा कदम ही नहीं है, जो मंजिल पर नहीं है। अगर तुम्हें मंजिल दूर भविष्य में दिखाई पड़ती हो तो तुम भूल में हो; मंजिल तुम्हारे पैरों के नीचे दबी है। अगर तुम कहीं और खजाना खोजते हो तो भूल में हो; खजाने पर तुम खड़े हो।
‘जिनका चित्त...।’
बुद्ध ने समाधि को पाने के वैसे ही अंग कहे हैं, जैसे पतंजलि ने: सम्यक दृष्टि, सम्यक आहार, सम्यक व्यायाम, सम्यक ध्यान, सम्यक समाधि इत्यादि आठ अंग। इन आठ अंगों को जो साधता है...।
दृष्टि की थिरता को जो साधता है तो सम्यक दृष्टि हो जाता है। देखने की कला को जो साधता है--बिना विचार के देखने की कला का नाम है, सम्यक दृष्टि। आंख विचारों से भरी हो तो विचार विकृत कर देते हैं, जो भी तुम देखते हो। आंख विचारों से न भरी हो तो तुम वही देखते हो, जो है। तब सत्य आविर्भूत होता है।
सम्यक दृष्टि से यात्रा शुरू होती है, सम्यक समाधि पर पूरी होती है।
सम्यक समाधि का अर्थ है: ऐसी अंतर-दशा, जहां सब समाधान हैं...सब समाधान हैं...सब समाधान हैं। कोई प्रश्न न बचा; ऐसी निष्प्रश्न दशा। उस घड़ी में सत्य अपने सभी घूंघट उठा देता है। उस घड़ी में जीवन तुम्हारे चारों तरफ नाच उठता है। उस घड़ी में जीवन की मधुशाला तुम पर सब तरफ से बरस जाती है।
‘जिनका चित्त संबोधि अंगों का अच्छी तरह अभ्यास कर रहा है।’
अभ्यास करना होगा। लंबा तमस है, लंबा आलस्य है, तोड़ना होगा, चोट करनी होगी। छेनी उठाकर श्रम की, ध्यान की, चारों तरफ जो पथरीलापन इकट्ठा हो गया है, उसे काटना होगा, ताकि भीतर का झरना फिर से बह सके।
‘जो अनासक्त हो परिग्रह के त्याग में सदा निरत है।’
जो सदा यह चेष्टा कर रहा है कि मेरे अतिरिक्त मेरा और कुछ भी नहीं। वही अनासक्त होने की चेष्टा में लगा है। मेरे अतिरिक्त मेरा और कुछ भी नहीं। मैं ही बस मेरा हूं। ऐसी भावदशा जिसकी थिर होती जा रही है।
‘जो क्षीणास्रव है।’
उसके कर्म क्षीण होने लगते हैं। वह कर्ता भी है तो अकर्ता होता है। वह चलता भी है तो चलता नहीं, क्योंकि चलाती तो चाह है।
मनुज चलता नहीं संसार में
चलाती चाह है
जिसकी चाह चली गई, वह चलता भी है और अचल होता है। वह भोजन भी करता है और उपवासा होता है। उठता है, बैठता है, सब करता है, लेकिन जैसे कुछ भी करता नहीं। भीतर अकर्ता की स्थिति, साक्षी की स्थिति बनी रहती है।
‘जो क्षीणास्रव है।’
उसके कर्म धीरे-धीरे क्षीण होने लगते हैं।
कृष्ण ने गीता में अर्जुन को यही कहा है कि तू इतना ही मान ले कि तू उपकरण मात्र है; तू ना-कुछ हो जा, अकिंचन हो जा। तू यह मत कह कि मैं कर रहा हूं, परमात्मा कर रहा है।
बुद्ध तो परमात्मा को भी बीच में नहीं लेते। वे कहते हैं, उससे भी कहीं अकड़ आ जाए; उससे भी कहीं अहंकार आ जाए। बुद्ध तो इतना ही कहते हैं, कोई नहीं कर रहा, हो रहा है।
थोड़ा समझना! बुद्ध कहते हैं, सब हो रहा है, कर कोई भी नहीं रहा है--न तू कर रहा है, न कोई और कर रहा है। चीजें हो रही हैं। नदियां सागर की तरफ बह रही हैं, सागर धूप के सहारे चढ़कर बादल बन रहा है, बादल हिमालय पर बरस रहे हैं, फिर नदी बन रही है--हो रहा है। कोई कुछ कर नहीं रहा है।
ऐसी अवस्था की प्रतीति होने लगे तो कर्म क्षीण हो जाते हैं। और एक द्युति का जन्म होता है, एक भीतर प्रभा का आविर्भाव होता है। ऐसे व्यक्ति के आसपास तुम एक आलोकमंडल देखोगे। ऐसे व्यक्ति के आसपास ऐसा घना प्रकाश होगा कि तुम चाहो तो छू सको।
‘वे ही संसार में निर्वाण को पा चुके हैं।’
कोई परलोक नहीं है। यही लोक, जब तुम बदल जाते हो, परलोक हो जाता है। आंख की बदलाहट!
काफिर की यह पहचान कि आफाक में गुम है
मोमिन की यह पहचान कि गुम इसमें है आफाक
अधर्मी की यह पहचान है कि वह संसार में खोया है। और धर्मी की यह पहचान है कि उसमें संसार खो गया।
काफिर की यह पहचान कि आफाक में गुम है
संसार में डूबा है, खोया है। संसार ही बचा है, खुद बचा ही नहीं है, इस तरह खो गया है।
मोमिन की यह पहचान कि गुम इसमें है आफाक
और धर्मी की यह पहचान है कि स्वयं ही बचा है और सब संसार खो गया है। स्वयं की विराटता में सब लीन हो गया है।
बुद्ध के इन वचनों को अपनी जिंदगी की कसौटी पर कसना। अपनी जिंदगी को बार-बार गौर से देखो, वहीं सब छिपा है। और वहीं कसौटी है कि बुद्ध के वचन सही हैं या नहीं। इन वचनों का कोई और तर्क नहीं है, तुम्हारे जीवन के ही संगति में इन वचनों का तर्क है। ये वचन अपने आप में कुछ प्रमाण नहीं हैं, प्रमाण तो तुम्हारे जीवन के अनुभव और इनके बीच में घटेगा। गौर से देखोगे तो तुम पाओगे--
जिंदगी और जिंदगी की यादगार
पर्दा और पर्दे में कुछ परछाइयां
तुम जिंदगी को एक स्वप्न से ज्यादा न पाओगे।
पर्दा और पर्दे में कुछ परछाइयां
इन परछाइयों में भरोसा करते रहो तो संसार है। इन परछाइयों को परछाइयों की तरह जान लो, निर्वाण घटित हो जाता है।
असत्य को असत्य की तरह जान लेना, असत्य से मुक्त हो जाना है।
सत्य तो तुम हो; बस, असत्य से मुक्त होना है।
निर्वाण तो तुम हो। निर्वाण तुम्हारा स्वभाव है। इस स्वभाव की पहचान, इस स्वभाव की प्रत्यभिज्ञा, इस स्वभाव से मुलाकात, इसको अपने आमने-सामने कर लेना है।
आज इतना ही।
ते जना पारमेस्सन्ति मच्चुधेय्यं सुदुत्तरं।।77।।
कण्हं धम्मं विप्पहाय सुक्कं भावेथ पंडितो।
ओका अनोकं आगम्म विवेके यत्थ दूरमं।।78।।
तत्राभिरतिमिच्छेय्य हित्वा कामे अकिंचनो।
परियोदपेय्य अत्तानं चित्तक्लेसेहि पंडितो।।79।।
येसं सम्बोधि-अङ्गे सु सम्मा चित्तं सुभावितं।
आदान-पटिनिस्सग्गे अनुपादाय ये रता।
रवीणासवा जुतीमंतो ते लोके परिनिब्बुता।।80।।
सम्राट बहादुरशाह जफर के शब्द हैं--सम्राट के हैं, इसलिए सोचने जैसे भी बहुत; ऐसे तो कभी ऐसी बातें भिखारी भी कह देते हैं, लेकिन संभावना है कि भिखारी के मन में अपने को सांत्वना देने की आकांक्षा हो। जब ऐसी बात कोई सम्राट कहता है तो सांत्वना का सवाल नहीं है, किसी सत्य का साक्षात हुआ हो तभी ऐसा वक्तव्य संभव है।
दो दिन की जिंदगी में न इतना मचल के चल
दुनिया है चलचलाव का रस्ता संभल के चल
जिनके पास है, उन्हें ही पता चलता है कि संपदा व्यर्थ है। जिनके पास शक्ति है, उन्हें पता चलता है कि शक्ति सार्थक नहीं। जिनके पास नहीं है, वे तो वासना के महल बनाते ही रहते हैं। जिनके पास नहीं है, वे तो कल्पना के जाल बुनते ही रहते हैं।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जिनके पास नहीं है, वे भी ऐसी बातें करने लगते हैं, जो ज्ञान की मालूम पड़ती हैं, लेकिन सौ में निन्यानबे मौकों पर वे बातें धोखे से भरी हैं। अपने को समझाने के लिए भिखमंगा भी महल की तरफ देखकर कह सकता है, कुछ सार नहीं वहां--समझाने को, कि अगर सार होता तो मैं महल को पा ही लेता न! सार नहीं है, इसलिए छोड़ा हुआ है।
जिसे हम पा नहीं पाते, उसे मत समझना कि हमने छोड़ा है। जिसे हम पाकर छोड़ते हैं, उसे ही समझना कि छोड़ा है!
जीवन में जीवन के जो परम गुह्य सत्य हैं, वे केवल उन्हें ही पता चलते हैं, जिन्होंने यह दौड़ पूरी कर ली; जो पके; जिन्होंने जिंदगी में जल्दबाजी न की, अधैर्य न बरता; जो समय के पहले भाग न खड़े हुए। पलायन से कोई कभी परमात्मा तक नहीं पहुंचा है। और न पराजय से कभी त्याग फलित हुआ है।
इसलिए उपनिषद कहते हैं: तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। जिन्होंने भोगा, उन्होंने ही त्याग किया है। जिसने भोगा ही नहीं, वह त्याग न कर सकेगा। उसके त्याग में भोग की वासना दबी ही रहेगी, छिपी ही रहेगी, बनी ही रहेगी। वह त्याग भी करेगा तो भोग के लिए ही करेगा; इसी आशा में करेगा कि किसी परलोक में भोग मिलने को है।
जिसका त्याग भोग से आया, उसके मन से परलोक की भाषा ही समाप्त हो जाती है। क्योंकि जहां वासना नहीं है, वहां परलोक कैसा? जहां वासना नहीं है, वहां स्वर्ग कैसा? जहां वासना नहीं है, वहां अप्सराएं कैसी? जहां वासना नहीं है, वहां कल्पवृक्ष नहीं लगते। कल्पवृक्ष वासनाओं का ही विस्तार है--और ध्यान रखना, पराजित वासनाओं का; हारे हुए मन का, थके हुए मन का। जो इस जिंदगी में जीत न पाया, वह परलोक की जिंदगी में जीतने के सपने देखता है।
कार्ल मार्क्स के वक्तव्य में सचाई है कि धर्म अफीम का नशा है। सौ में निन्यानबे प्रतिशत लोगों के संबंध में मार्क्स का वक्तव्य बिलकुल सही है; धर्म अफीम का नशा है। वक्तव्य गलत है, क्योंकि वह जो एक प्रतिशत बच रहा, उसके संबंध में वक्तव्य सही नहीं है। किसी बुद्ध के संबंध में, किसी महावीर के संबंध में, किसी कृष्ण के संबंध में वक्तव्य सही नहीं है; लेकिन निन्यानबे प्रतिशत लोगों के संबंध में सही है।
आदमी दुख में रहा है, इसलिए स्वर्ग की कल्पनाएं पैदा करता है। उन कल्पनाओं की अफीम घेर लेती है मन को। यहां के दुख सहने योग्य हो जाते हैं वहां के सुख की आशा में। आज की तकलीफ को आदमी झेल लेता है कल के भरोसे में। रात का अंधेरापन भी अंधेरा नहीं मालूम पड़ता, सुबह कल होगी। आदमी चाह के सहारे चलता जाता है।
ध्यान रखना, धर्म तुम्हारे लिए अफीम न बन जाए। धर्म अफीम बन सकता है; खतरा है। धर्म जागरण भी बन सकता है और गहन मूर्च्छा भी। सब कुछ तुम पर निर्भर है। होशियार, जहर को भी पीता है और औषधि हो जाती है। नासमझ, अमृत भी पीए तो भी मृत्यु घट सकती है। सारी बात तुम पर निर्भर है। अंततः तुम्हीं निर्णायक हो।
तो यह मत सोचना कि धर्म होने से ही धर्म तुम्हारे लिए मुक्ति का मार्ग हो जाएगा। तुम उससे बंधन भी ढाल सकते हो। तुम उससे जंजीरें भी बना सकते हो। वही बहुत लोगों ने बनाई हैं। तुम्हारा मंदिर तुम्हें परमात्मा तक पहुंचाने का द्वार भी बन सकता है--गुरुद्वारा भी हो सकता है; और यह भी हो सकता है कि वही दीवाल हो जाए; उसके कारण ही तुम परमात्मा तक न पहुंच पाओे।
इसलिए सारी बात तुम पर निर्भर है, तुम्हारे होश पर निर्भर है। धर्म न तो जहर है, न अमृत; धर्म तो एक तटस्थ सत्य है। तुम कैसा उसका उपयोग करोगे, तुम पर निर्भर है। तुम उसी रस्सी से कुएं से पानी खींच ले सकते हो। प्यास से मरते होओ तो कुएं का जल तुम्हें बचा ले सकता है। तुम उसी रस्सी से फांसी भी लगा सकते हो। रस्सी वही है, तुम भी वही हो, लेकिन तुम्हारे और रस्सी के बीच का संबंध वही नहीं है।
अधिक लोग धर्म के कारण कारागृहों में बंद हैं। अधिक लोग धर्म के कारण जीवन में गति ही नहीं कर पाते। उनका धर्म चट्टान की तरह उनकी छाती से अटका है। अधिक लोगों के लिए धर्म नाव नहीं बना, धर्म ने ही मझधार में डुबाया है, बुरी तरह डुबाया है।
बुद्ध का आज का जो पहला सूत्र है, वह समझ लेने जैसा है।
‘जो भली प्रकार उपदिष्ट धर्म में धर्मानुचरण करते हैं, वे ही दुस्तर मृत्यु के राज्य को पार करेंगे।’
‘भली प्रकार उपदिष्ट...।’
बहुत सी बातें समझने जैसी हैं। तुमने धर्म को शास्त्र से अगर पाया तो खतरा है; क्योंकि शास्त्र तो मुर्दा है। शास्त्र तो जीवंत नहीं है। शास्त्र तो पढ़कर तुम जो अर्थ करोगे, वे तुम्हारे होंगे, शास्त्र के नहीं होंगे।
माना, गीता तुम पढ़ोगे, लेकिन गीता वही नहीं होगी, जो कृष्ण ने अर्जुन को कही थी। वह भी नहीं होगी, जो अर्जुन ने कृष्ण से सुनी थी। जब तुम गीता पढ़ोगे तो तुम्हीं कृष्ण होओगे, और तुम्हीं अर्जुन होओगे। कृष्ण जो कहेंगे, उसका अर्थ भी तुम करोगे; अर्जुन जो सुनेगा, उसका अर्थ भी तुम करोगे। यह गीता तुम्हारी ही होगी।
मैंने सुना है, एक मुसलमान नवाब अपने राज्य की यात्रा पर गया हुआ था। एक गांव में उसने बड़ी भीड़ लगी देखी। पूछा, क्या हो रहा है? तो किसी ने कहा, यह रामायण से राजा राम की कथा पढ़ी जा रही है। तो उसने कहा, मेरे राज्य में और किसी राजा की कथा चले, यह बरदाश्त के बाहर है। कहो पंडित को, कथा मेरी कहे। राज्य मेरा है, किसी और राजा की कथा चल रही है!
पंडित बड़ा होशियार था, घाघ था, जैसे कि पंडित होते हैं। उसने कहा, हुजूर! कथा बड़ी है, लिखने में समय लगेगा। छह महीने में आपकी कथा लिखकर हाजिर कर दूंगा, फिर हम सुनाने लगेंगे। हमें क्या लेना-देना राजा राम से?
छह महीने बाद वह पंडित आया। उसने कहा, कथा तो लिख गई, एक अड़चन आ रही है; आपकी सीता को कौन ले भागा? आप उसका नाम बता दें तो मैं लिख दूं। क्योंकि बिना सीता के चोरी गए कथा बनती ही नहीं। आपकी सीता को कौन चुरा ले गया है? उस शैतान का नाम मुझे बता दें।
उस नवाब ने कहा, भई ठहरो; यह कहां की झंझट में उलझाते हो? ऐसी कथा से बाज आए। तुम अपनी पुरानी जो कथा कहते थे, वही कहो। तुम्हारी कथा के लिए मेरी सीता को चोरी करवाओगे? यह तो महंगा सौदा हो गया।
जब तुम रामायण पढ़ोगे तो तुम राम की कथा में अपने को आरोपित करोगे। राम की कथा तुम्हारा ही प्रक्षेपण हो जाएगी। राम की सीता थोड़े ही चोरी जाएगी, तुम्हारी ही सीता चोरी जाएगी।
जब तुम गीता पढ़ोगे तो कृष्ण जो कहेंगे, वह थोड़े ही तुम सुनोगे, तुम जो सुन सकते हो, वही सुनोगे। यह कुरुक्षेत्र का युद्ध थोड़े ही होगा, यह तो तुम्हारे भीतर का ही द्वंद्व होगा, जो कुरुक्षेत्र के युद्ध पर फैल जाएगा, विस्तीर्ण हो जाएगा।
शास्त्र से जिसने धर्म पाया, उसने बंधन पाए, अफीम पाई।
इसीलिए बुद्ध कहते हैं, ‘ठीक तरह से उपदिष्ट...।’
जीवंत गुरु से पाना, जहां अभी उपदेश बहता हो। जीवित गुरु से पाने की कोशिश करना। तो ही संभावना है कि तुम धर्म की अफीम न बनाओगे; अन्यथा बहुत डर है, तुम वैसे ही सोए हो...।
तुमने खयाल किया, रात तुम तय करके सोते हो, सुबह चार बजे उठना है। अलार्म भी भर देते हो। फिर नींद में तुम अलार्म भी सुनते हो तो अलार्म सुनाई नहीं पड़ता। तुम्हारा स्वप्न अलार्म की भी व्याख्या कर लेता है। तुम्हारा स्वप्न कहता है, अहा! मंदिर की घंटियां बज रही हैं। अलार्म को काट दिया तुमने। अलार्म बज ही नहीं रहा, उठने का कोई सवाल ही नहीं। मंदिर की घंटियों के कलरव नाद में तुम और गहरी नींद में करवट लेकर सो जाते हो। सुबह जागकर पता चलता है, अपने को धोखा दे लिया। अलार्म से भी बचा लिया अपने को। नींद बड़ी कुशल है।
मूर्च्छा बड़ी कुशल है। मूर्च्छा अपने को बचाने की कोशिश कर रही है--कहीं मिट न जाए। मूर्च्छा ऐसी व्याख्याएं करती है, जिससे नष्ट न हो जाए। मूर्च्छा ऐसी तरकीबें निकालती है कि तुम संदेह भी न कर पाओगे।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, ‘ठीक से उपदिष्ट।’
पहली बात: जीवंत गुरु से खोजना धर्म को; जहां उपदेश की सरिता अभी बहती हो। बासे शास्त्रों के पन्नों से मत खोजना। क्योंकि शास्त्र असहाय है। तुम कुछ अर्थ करोगे, गलत अर्थ करोगे, शास्त्र कुछ भी न कह सकेगा।
फर्क समझो; अलार्म की घड़ी बजती है तो तुम स्वप्न में व्याख्या कर लेते हो। लेकिन अगर तुमने किसी जीवित व्यक्ति को कह रखा है, अपनी पत्नी को कह रखा है कि उठा देना, तो तुम्हें व्याख्या न करने देगी। तो तुम्हें झकझोरेगी, जगाएगी; तुम लाख कोशिश करो कि अप्सरा दिखाई पड़ रही है और सुलाने की कोशिश कर रही है सपने में, लेकिन पत्नी इतनी आसानी से न मान जाएगी। तुम्हें खींचकर बाहर निकाल देगी।
जीवंत व्यक्ति ही तुम्हें खींचकर बाहर निकाल पाएगा। शास्त्र में खतरा है, सिद्धांत में खतरा है। खतरा उनमें है, ऐसा नहीं है, खतरा तुममें है। और चूंकि शास्त्र तो असहाय है। तुम जो व्याख्या करोगे गलत, तो शास्त्र यह न कह सकेगा, गलत है यह व्याख्या। यह मेरा मंतव्य नहीं। यह मैंने कहना नहीं चाहा है, यह तुमने ही अपना हिसाब लगा लिया है। शास्त्र कुछ भी न कह सकेगा। शास्त्र चुपचाप पड़ा रहेगा। शास्त्र के पास कोई आत्मा नहीं है। जहां से आत्मा खो गई हो, जहां अंगारा बुझ गया हो, उस राख से मत खोजना अपने धर्म को; अन्यथा तुम्हारी पूरी जिंदगी राख हो जाएगी। और अक्सर ऐसा होता है कि हम राख से ही धर्म को खोजते हैं।
जीवित व्यक्ति से तो हम बचते हैं। क्योंकि जीवित व्यक्ति के साथ खतरा है कि कहीं उठा ही न दे! मरे हुए को पूजते हैं। जीते को तो पहचानते भी नहीं। जब बुद्ध पृथ्वी पर चलते हैं तो कोई चिंता नहीं लेता। जब मर जाते हैं तो हजारों-हजारों साल तक पूजा चलती है। यह पूजा व्यर्थ है। जीवित बुद्ध के चरणों में झुकाया गया जरा सा सिर--क्रांति घटित हो जाती है। और यह हजारों साल की पूजा और ये पूजा के विधान और ये फूल और नैवेद्य, सब व्यर्थ चले जा रहे हैं। ये पत्थर की मूर्ति के चरणों पर गिर रहे हैं।
पत्थर की मूर्ति के सामने झुकना कितना आसान है! क्योंकि वहां कोई है ही नहीं, जिसके सामने तुम झुक रहे हो। तुम्हारी ही मूर्ति है, तुम्हीं झुकने वाले हो। जैसे कोई अपने ही दर्पण के सामने, अपनी ही तस्वीर के सामने झुकता हो--खेल है।
परिचय करना तो है बस मिट्टी का स्वभाव
चेतना रही है सदा अपरिचित ही बनकर
इसलिए हुआ है अक्सर ही ऐसा जग में
जब चला गया मेहमान गया पहचाना है
इसलिए हुआ है अक्सर ही ऐसा जग में
जब चला गया मेहमान गया पहचाना है
तुम इतनी देर लगा देते हो पहचानने में, परिचय ही नहीं बना पाते।
कारण है। क्योंकि पहली तो बात यह है कि जब कहीं किसी व्यक्तित्व में समाधि के फूल लगते हैं तो वे इतने अपरिचित लोक के फूल हैं कि तुम्हारे फूलों से उनका कोई संबंध नहीं जुड़ता। जब वैसी सुगंध उतरती है आकाश से तो तुम्हारी सुगंधों से कहीं मेल नहीं खाती। तुम्हारा जो भी जानना है, वह सब अस्तव्यस्त हो जाता है। तुम्हारे जानने के ढांचों में तुम बुद्धों को नहीं बिठा पाते।
ढांचे तोड़ने को तुम तैयार नहीं; तुम बुद्धों को न पहचानने को तैयार भला हो जाओ। तुम चाहते हो कि बुद्ध पुरुष तुम्हारे हिसाब से हों। तुम्हारे पास बंधी लकीरें हैं, व्याख्याएं हैं। और जब भी कोई बुद्ध पुरुष होता है तो अव्याख्य! बुद्ध पुरुष से ज्यादा अजनबी आदमी तुम कहीं खोज थोड़े ही पाओगे! तुम्हारी किसी भी लकीर में बंधता नहीं--बंध नहीं सकता। तुम्हारी लकीर में जो बंध जाए, वह बुद्ध नहीं। तुम्हारी लकीर में जो बंध जाए, वह तुम्हारा अनुयायी होगा, वह तुम्हारा सदगुरु न हो पाएगा। तुम उन्हीं की पूजा करते हो, जो तुम्हारे पीछे चलते हैं।
बड़ा खेल है। बड़ा आश्चर्यजनक खेल है। और कितना अंधापन है कि हम इसको देख भी नहीं पाते!
जब अलौकिक का अवतरण होगा, जब अनिर्वचनीय उतरेगा, तो तुम्हारे सब ढांचे, तुम्हारी सारी तर्क की कोटियां व्यर्थ हो जाएंगी। तुम अवाक हो जाओगे। तुम आश्चर्यचकित, किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाओगे। एक क्षण को तो तुम्हारा सारा व्यक्तित्व अस्तव्यस्त हो जाएगा, एक अराजकता पैदा हो जाएगी। बुद्ध पुरुषों के पास तुम्हारे जीवन की सारी व्यवस्था खंड-खंड हो जाएगी। तुम्हें फिर से अपने को निर्मित करना होगा। तुम्हारे कल तक बनाए गए भवन गिर जाएंगे। तुम्हारी कल तक चलाई गई नावें डूब जाएंगी।
बुद्ध कहते हैं, ‘जो भली प्रकार उपदिष्ट धर्म में धर्मानुचरण करते हैं...।’
तो पहली तो बात, उपदिष्ट हो धर्म; जीवंत उपदेश की धारा से पकड़ा गया हो। कोई जीवित व्यक्ति मौजूद हो, जो तुम्हें गलत अर्थ न करने दे। कोई मौजूद हो, जो तुम्हें तुम्हारे अर्थ न करने दे; जो तुम्हें सब तरफ से जगाता रहे। तुम हजार कोशिश करो, लेकिन जो सजगता से तुम्हें देखता रहे कि तुम कहीं अपनी मूर्च्छा को पोषित तो नहीं कर रहे हो!
पहली बात, उपदिष्ट हो धर्म; शास्ता से लिया जाए, शास्त्र से नहीं। शास्त्र तो शास्ताओं से बनते हैं। शास्त्रों का जन्म शास्ता में होता है। कोई, जिसने जान लिया सत्य को, उसके वक्तव्य, उसके वचन शास्त्र बनते हैं।
तो जब जीवंत घटना घट रही हो, गंगा जब उतरती हो हिमालय से, तभी तुम स्नान कर लेना। तुम करोगे स्नान, लेकिन तुम बड़ी बाद करते हो, काशी में जाकर पकड़ते हो। तब तक गंगा मुर्दा हो चुकी होती है। तब तक न मालूम कितने घाट उसे विकृत कर चुके होते हैं, न मालूम कितने मुर्दे उसमें बह चुके होते हैं, लाशें सड़ चुकी होती हैं। और न मालूम कितने गांवों की जिंदगी की गंदगी और गुबार उसमें इकट्ठा हो गया होता है।
जब हिमालय से उतरती हो, जब गंगोत्री में गंगा पैदा होती हो, जहां एक-एक बूंद स्वच्छ और सुंदर हो, जहां स्वर्ग से अभी-अभी आती हो ताजी, जहां आदमी की छाप न पड़ी हो, जहां आदमी के संसार की गंदगी ने उसे विकृत न किया हो, अव्यभिचारित, कुंआरी हो जहां, वहीं तुम पकड़ लेना।
तुम पकड़ोगे, तुम तीर्थ बनाओगे, लेकिन तुम्हारे तीर्थ बड़े बाद में बनते हैं।
इसलिए हुआ है अक्सर ही ऐसा जग में
जब चला गया मेहमान गया पहचाना है
तुम तभी पहचान लेना, जब मेहमान मौजूद हो। जाने के बाद पूजा से कुछ भी न होगा।
तो पहली बात, उपदिष्ट धर्म--शास्ता से लिया जाए।
बुद्ध के पास लोग आ जाते थे और वे वेदों की दुहाई देते थे कि वेद में ऐसा कहा है, आप ऐसा कहते हैं; उपनिषद में ऐसा कहा है, आप ऐसा कहते हैं।
आदमी बड़ा दयनीय है। जहां से उपनिषद पैदा होते हैं, वह आदमी मौजूद है। जहां से वेद जन्म लिए हैं, वह आदमी मौजूद है। तुम उसके सामने वेदों की दुहाई दे रहे हो! और तुम यह चेष्टा करते हो कि यह आदमी गलत है, क्योंकि वेद में कुछ और कहा है।
और वेद में जो कहा है, वह तुमने ही अर्थ किया है। वह वेद ने नहीं कहा है, तुमने कहा है। तुम वेद को गवाह बनाकर ला रहे हो। तुम अपने पीछे वेद को खड़ा कर रहे हो। तुम्हें अपने पर भरोसा नहीं है। तुम वेद की साक्षी ले रहे हो। और तुम किससे लड़ रहे हो?
तो बुद्ध कहते, तुम अपने वेद को बदल लो। तुम अपने उपनिषद में संशोधन कर लो। जरूर कहीं भूल हो गई होगी। लेकिन जब भी कोई तुमसे कहेगा, अपने उपनिषद में संशोधन कर लो, तुम दुश्मन हो जाओगे। तुम पीठ फेर लोगे। लगेगा, यह आदमी तो धर्म का दुश्मन है।
यह बड़ी चकित करने वाली बात है। जब भी कोई धर्म को इस पृथ्वी पर लाता है, तभी वह धर्म का दुश्मन मालूम होता है। जिन्हें तुम धर्म के मित्र समझते हो, वे तुम्हारे ही खरीदे हुए पंडित-पुजारी हैं।
फिर दूसरी बात बुद्ध कहते हैं, भली प्रकार उपदिष्ट।
सभी का यह सौभाग्य नहीं। सत्य को तो करोड़ों में कभी एक व्यक्ति उपलब्ध होता है। फिर जो व्यक्ति सत्य को उपलब्ध होते हैं, उनमें भी सभी का सौभाग्य नहीं कि वे ठीक से कह सकें, जो उन्होंने जाना है। वह फिर करोड़ों में कभी एक-आध को उपलब्ध होता है। करोड़ों में कभी कोई एक बुद्ध होता है, करोड़ों बुद्धों में कोई एक प्रगट होता है, शास्ता बनता है, सदगुरु होता है। क्योंकि जान लेना एक बात, कहना बड़ी और बात। जान लेना एक बात, जना देना बड़ी और बात। जानने से भी ज्यादा कठिन है जना देना।
तुम देखते हो, सुबह सूरज निकला, सौंदर्य का आविर्भाव हुआ, तुम उसमें ओतप्रोत हो गए, नहा गए, लेकिन कभी कोई कवि उसको गा पाएगा। तुम न कह सकोगे कि क्या हुआ। कोई कवि जब गाएगा, तब तुम भला पहचान लो कि ठीक-ठीक ऐसी ही मेरी भी अनुभूति हुई थी। ठीक मेरी ही बात, जो मैंने कहनी चाही थी, न कह पाया, तुमने कह दी।
कोई चित्रकार कभी उसको रंग दे पाएगा। किसी की तूलिका से वह उतरेगा। तुम उसे रंग न पाओगे। सूरज तो तुमने रोज उगते देखा है, किसी दिन बैठकर चित्र बनाने की कोशिश करना; तब प्रयास बचकाना मालूम होगा। तुम उसे किसी को बताना न चाहोगे।
पक्षियों का संगीत तो तुमने सुना है, रात तारों के संगीत में भी तुमने कभी अनुभूति के कंपन पाए हैं, लेकिन कभी कोई संगीतज्ञ उस धुन को उतार पाएगा उस तल तक, जहां अभिव्यक्ति हो पाती है।
तो पहले तो उपदिष्ट धर्म को खोजना; फिर वह भी ऐसे व्यक्ति से, जो ठीक से तुम्हें समझा पाए। क्योंकि ऐसे तो धर्म बड़ी बेबूझ बात है। और अगर समझाने वाला भी बहुत साफ-सुथरा न हो तो और उलझन हो जाती है। सुलझाने की बजाय लोग उलझा जाते हैं। इससे तो बेहतर था, तुम अपने अंधेरे में ही रहते। ये रोशनी की अटपटी बातें तुम्हें और अटपटा जाएंगी।
धर्म ही बेबूझ है, अतर्क्य है। अगर कोई बहुत ही कुशल चितेरा हो तो थोड़ा बहुत तुम्हारी आंखों के योग्य धर्म के चित्रण को बना पाएगा। बात शब्दों के बाहर है, अगर शब्दों का कोई धनी हो तो शायद शब्दों में थोड़ी सी धुन उतार लाएगा।
बात तो निःशब्द की है, मौन में ही जानी जाती है। शब्द के माध्यम में उतारना ऐसे ही है, जैसे कोई सुंदर फूल को पत्थर के माध्यम में बनाए। माध्यम ऐसा है कि फूल की कोमलता तो खो जाएगी। माध्यम ऐसा है कि फूल की कमनीयता तो खो जाएगी। माध्यम ऐसा है कि फूल की क्षणभंगुरता तो खो जाएगी। लेकिन कभी-कभी कोई कुशल कलाकार पत्थर में भी फूल को उतार लेता है। पत्थर के कठोर माध्यम में भी कमनीयता को डाल देता है, घोल देता है।
तो बुद्ध कहते हैं, पहले तो पकड़ना वहां से, जहां गंगा अभी पैदा होती हो। जब मेहमान मौजूद हो, पहचान लेना। और फिर ठीक से उपदिष्ट! नहीं तो तुम और उलझ जाओगे। धर्म अतर्क्य है; तर्क से उसका कोई संबंध नहीं है।
हम उलटी ही बातें कर रहे हैं। पहला तो हम यह करते हैं, हम उनसे धर्म समझते हैं, जिन्हें खुद ही पता नहीं। हम उन चिकित्सकों के पास जाकर इलाज खोजते हैं, जो खुद बीमार हैं।
मैंने सुना है, एक आदमी की आंखों में खराबी हो गई थी और उसे हर चीज दो दिखाई पड़ने लगी थी। वह गरीब आदमी था, किसान था गांव का; वह शहर आया और डाक्टर के पास गया। संयोग की बात! डाक्टर को भी वही बीमारी थी। और भी पुरानी थी। उन्हें एक-एक चीजें चार करके दिखाई पड़ती थीं। और जब उस गरीब आदमी ने डाक्टर को कहा कि मेरी यह तकलीफ है, इससे मुझे छुटकारा दिलाएं। मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। रास्ते पर चलना मुश्किल हो गया है। एक-एक चीज दो करके दिखाई देती है। उस डाक्टर ने कहा, घबड़ाओ मत। तुम चारों को दो करके दिखाई देती है? तुम चारों को ही यह बीमारी है? उस गरीब आदमी ने सिर ठोंक लिया। उसने कहा, धन्यभाग! पहले आप अपना इलाज करवाएं, फिर हमारी चिंता करें।
एक तो जिनसे तुम धर्म समझने जाते हो, कभी तुमने सोचा भी, उनके पास तुम्हें धर्म की कोई भी अनुभूति, कोई तरंग, कोई अंतर्दृष्टि, उनके सान्निध्य में धर्म की कोई वर्षा होते तुमने देखी है? उनके पास निकट बैठकर, तुमने कभी अपने को किसी और दूर के आकाश से भर जाते देखा है? उनकी मौजूदगी में तुमने अपने भीतर कोई रूपांतरण अनुभव किया है? उनके सत्संग में, जैसे स्नान हो गया हो भीतर का, ऐसी ताजगी, ऐसी फूलों की महक, ऐसी सुबह की खबर मिली है?
तुम फिक्र ही नहीं करते। तुम किसी से भी धर्म समझने पहुंच जाते हो। अक्सर तो तुम समझने भी नहीं जाते, तुम जिससे समझने जाते हो, उसे पैसे देकर घर ही बुला लेते हो।
मैं दिल्ली में मेहमान था। तो जुगल किशोर बिड़ला उन दिनों जिंदा थे; उन्होंने खबर भेजी कि आप मेरे घर आएं, मुझे आपसे कुछ समझना है। मैंने उनको कहा, अगर समझना हो तो आप जहां मैं हूं, वहां आएं। न समझना हो तो कोई हर्जा नहीं है, मैं भी वहां आ सकता हूं।
उन्हें बड़ी पीड़ा हुई। उन्होंने कहा, आपको पता होना चाहिए, खुद महात्मा गांधी भी मेरे यहां रुकते थे और आते थे। और अब तक मैंने ऐसा कोई संत पुरुष नहीं देखा, जिसको मैंने निमंत्रण दिया हो और न आया हो।
तो मैंने कहा, अब देख लो। नहीं तो एक अनुभव अधूरा रह जाएगा। मैं नहीं आऊंगा। अब तो औपचारिक रूप से भी नहीं आऊंगा। यह तो बात ही फिजूल हो गई। संत सदा के लिए बदनाम हो जाएंगे। अब तो आपको आना हो तो आ जाएं।
आदमी की भाषाएं होती हैं। जिसको उन्होंने भेजा था, उन्होंने कहा--वापस वह आदमी आया और उसने कहा--कि आप गलती कर रहे हैं; वे कुछ दान भी देना चाहते हैं। आपके काम में बड़ी सुविधा हो जाएगी, अगर उनका साथ मिल जाए।
मैंने कहा, वे मुझसे कुछ सीखना चाहते हैं, या मुझे कुछ सिखाना चाहते हैं? वे अपने जीवन में मुझसे कुछ सुविधा लेना चाहते हैं या मुझे कुछ सुविधा देना चाहते हैं? पहले उसको साफ कर लें।
बड़ी कठिनाई है। तुम जिनसे समझने जाते हो--समझने भी नहीं जाते, उनको बुला लेते हो, खरीद लेते हो।
संतत्व को खरीदने के कोई उपाय नहीं हैं। सत्य को खरीदने के कोई उपाय नहीं हैं। सत्य के हाथ तो खुद को बिकना होता है। सत्य के हाथ तो खुद को दांव पर लगाना होता है।
बुद्ध कहते हैं, पहले तो उपदिष्ट, जीवंत; और दूसरा ऐसे व्यक्ति को खोजना, जो तुम्हें और न उलझा जाए। कहीं खुद ही उलझा न हो। यह भी हो सकता है, उसे झलकें मिली हों; समाधि के स्वर उसके जीवन में गूंजे हों, यह भी हो सकता है; लेकिन तुम तक पहुंचा पाए, इसका खयाल रखना--पहुंचा पाएगा या नहीं?
बुद्ध से किसी ने पूछा कि आप चालीस वर्ष से लोगों को समझाते रहे हैं। आपके दस हजार भिक्षु हैं, इनमें से कितने लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हुए? क्योंकि आप जैसा तो कोई भी दिखाई नहीं पड़ता।
तो बुद्ध ने कहा, बहुत इनमें से मेरे जैसे हैं। बहुत इनमें मेरे जैसे हैं, अगर फर्क है तो सिर्फ इतना कि मैं कहने में कुशल हूं और वे कहने में कुशल नहीं हैं। जो मैंने जाना है, इनमें से भी बहुतों ने जान लिया है; जो भेद है अगर--वह कोई बहुत बड़ा भेद नहीं है बुद्धत्व के लिए, वह कुछ भेद ही नहीं है उस जगह--वह इतना ही है कि मैं कह सकता हूं, वह ये नहीं कह पाते।
कहने की अपनी कला है। अंधेरे में खड़े आदमी को प्रकाश के संबंध में समझाने की अपनी कला है। जिनके जीवन में सौंदर्य की कोई प्रतीति नहीं है, उनके जीवन में सौंदर्य के प्रत्यय को जन्माने की अपनी कला है। जिन्हें खुद की ही प्यास भूल गई है, जिन्हें प्यास भी भूल गई है, उन्हें तृप्ति का तो पता ही क्या हो! जिन्हें प्यास का भी स्मरण नहीं है, उन्हें तृप्ति की खबर देना बड़ी जटिल बात है।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, ‘जो भली प्रकार उपदिष्ट धर्म में धर्मानुचरण करते हैं, वे ही दुस्तर मृत्यु के राज्य को पार कर पाते हैं।’
शेष धर्म की बातें सुनते रहते हैं, पकड़ते रहते हैं, स्वप्न में ही सारा खेल चलता रहता है; जागते नहीं। मंदिरों में जाओ, मस्जिदों में देखो, गिरजाघरों में, तुम्हें करोड़ों लोग सोए मिलेंगे, जो वर्षों से सुन रहे हैं धर्म की बात। सुनते-सुनते बहरे हो गए हैं, जागे नहीं। सुनते-सुनते वस्तुतः सुनने की संवेदनशीलता भी खो दी है, बोथले हो गए हैं, ऊब गए हैं; लेकिन कहीं कोई जीवन में क्रांति दिखाई नहीं पड़ती।
इस भूल में तुम मत पड़ जाना। सदगुरु खोजना जरूरी है। धर्म को पाने का और कोई रास्ता नहीं। धर्म कभी ऐसे व्यक्ति से नहीं पाया जा सकता, जिसने स्वयं न पा लिया हो--पहली बात। और ऐसे व्यक्ति से भी पाना मुश्किल है, जिसने स्वयं पा लिया हो, लेकिन तुम्हारे तक कोई सेतु न बना सके।
इसलिए सिद्ध पुरुष तो बहुत होते हैं, सदगुरु बहुत कम। सभी सिद्ध पुरुष सदगुरु नहीं होते। सभी सदगुरु सिद्ध पुरुष जरूर होते हैं।
जैनों ने इसकी एक व्यवस्था की है। सदगुरु को वे कहते हैं, तीर्थंकर। केवल ज्ञान को तो बहुत लोग उपलब्ध होते हैं, सिद्धावस्था को बहुत लोग उपलब्ध होते हैं, लेकिन तीर्थंकर कभी-कभी कोई होता है। पूरे एक सृष्टि-समय में, सृष्टि से एक प्रलय तक केवल चौबीस होते हैं। चौबीस भी बहुत बड़ी संख्या मालूम पड़ती है।
हिंदुओं की व्याख्या में उसको अवतार कहा है। परमात्मा तक जाने वाले लोग तो बहुत होते हैं, परमात्मा को तुम तक ले आने वाले, अवतरण करा देने वाले लोग बहुत कम होते हैं। परमात्मा तक चले जाना तो कठिन है, अति कठिन नहीं; दुर्गम है, असंभव नहीं; बहुत लोग चले जाते हैं। लेकिन अवतार वही है, जो परमात्मा को तुम तक उतार लाए।
और जब तक परमात्मा को तुम तक न उतारा जाए, तुमको परमात्मा तक जाने का रास्ता नहीं मिल सकता। किसी न किसी रूप में सूरज की किरण तुम तक आ जाए, उस किरण के सहारे तुम सूरज तक पहुंच जाओगे। एक छोटा सा सहारा भी मिल जाए, सूत्र भी मिल जाए।
‘वे ही दुस्तर मृत्यु के राज्य को पार करेंगे।’
एक जीवंत सदगुरु क्या कहता है? क्या समझाता है?
समझाने से भी ज्यादा, कहने से भी ज्यादा, उसकी मौजूदगी कुछ उकसाती है। उसकी मौजूदगी केटेलिटिक है।
ढलते रवि ने लघु प्रदीप से
सुन, क्या सत्य कहा
उठ, कर शर-संधान
तिमिर का व्यूह भेद करना है
कैसा यहां विराम
शिखा को झंझा में पलना है
ढलते रवि ने लघु प्रदीप से
सुन, क्या सत्य कहा
जिसने पा लिया है, वह अब डूबने के करीब है। वह ढलता रवि है; उसकी सांझ आ गई। अब और जन्म नहीं होंगे। अब फिर सूर्र्योदय नहीं होगा। उसके विदा का क्षण आ गया, अलविदा की घड़ी आ गई। अब वह छोटे-छोटे दीयों से क्या कह रहा है? जिनके लिए बड़ी अंधेरी रात है और बड़ा संघर्ष है!
ढलते रवि ने लघु प्रदीप से
सुन, क्या सत्य कहा
उठ, कर शर-संधान
तिमिर का व्यूह भेद करना है
कैसा यहां विराम
शिखा को झंझा में पलना है
बुद्ध पुरुषों के पास तुम्हारे जीवन की खोज में एक त्वरा आ जाती है। तुम्हारे जीवन की खोज में एक गति आ जाती है। उनकी तरंग पर चढ़कर तुम्हारी नौका भी गतिमान हो जाती है। उनकी हवाओं को अपने पाल में भरकर तुम भी प्रखर गति से यात्रा में संलग्न हो जाते हो।
और एक बार तुम्हें अपने पैरों की गति का पता चल जाए तो बुद्ध पुरुषों का साथ छूट जाने से भी फिर भेद नहीं पड़ता। एक बार तुम्हें अपनी शक्ति का पता चल जाए, एक बार छोटा सा दीया भी जान ले कि रात कितनी ही अंधेरी हो, कितना ही प्रगाढ़ हो तम, मुझे बुझा न पाएगा। तम की कोई सामर्थ्य नहीं कि छोटी सी ज्योति को भी बुझा दे।
एक बार भरोसा आ जाए और एक बार छोटे से दीए की लौ को भी हवा के झकोरों में जीवन की पुलक मालूम होने लगे, झंझावातों में चुनौती अनुभव होने लगे, झंझावातों में अज्ञात का निमंत्रण मालूम होने लगे, तो छोटा दीया भी छोटा न रहा।
सदगुरु डूबता हुआ सूरज है। सांझ हो गई, रात के पहले कुछ बातें कह जाना चाहता है। तुम उसे सीधे-सीधे सुन लेना।
अब बहुत अजीब आदमी का मन है। एक डाक्टर हैं, इधर आते हैं; जब भी आते हैं, तब वे नोट बनाते रहते हैं। उनको मैंने कहा भी कि मैं बोल रहा हूं जीवित, तब तुम चूके जा रहे हो; तुम इन नोटों का क्या करोगे? वे कहते हैं कि बाद में घर जाकर शांति से पढ़ता हूं। तुम शास्त्र बना लेते हो, फिर उसे पढ़ते हो।
तुम ऐसे हो, हिमालय जाते हो तो कैमरा लिए रहते हो, हिमालय को नहीं देखते, कैमरे से फोटो उतारते रहते हो। घर में एल्बम में लगाकर शांति से बैठकर देखेंगे। तुम्हारे पागलपन की कोई सीमा है? सौभाग्य से हिमालय के पास पहुंच गए थे, भर लेते आंखें अपनी, भर लेते अपना हृदय, हिमालय की शीतलता और विशालता को जरा डूब जाने देते अपने में; तो वह काम तुमने कैमरे पर छोड़ दिया। अब कैमरा सिर्फ यंत्र है। कैमरा क्या भर पाएगा हिमालय को? कैमरा जो खबर लाएगा, वह खबर तो घर बैठे ही बाजार से चित्र खरीदकर हो सकती थी पूरी। असली मजा तो जीवंत हिमालय के साथ सत्संग का था।
जीवंत धारा को खोजना। जीवंत धारा के सहारे ही तुम मृत्यु के राज्य को पार कर पाओगे। क्यों? क्योंकि जिसने अमृत को जान लिया हो, वही तुम्हें अमृत की यात्रा पर ले जा सकेगा।
अन्यथा तुम लाख प्रार्थनाएं करो, तुम लाख चीखो-चिल्लाओ आकाश से: असतो मा सदगमय--सूना आकाश सुनता है, कोई प्रतिउत्तर नहीं है। बेचारा आकाश करेगा भी क्या? अमृत की तरफ ले चल मृत्यु से; अंधेरे से प्रकाश की तरफ ले चल; असत्य से सत्य की तरफ ले चल--तुम्हारी प्रार्थनाएं कौन है वहां सुनने को? जो गया हो सत्य तक, उसके पास इस प्यास से भरकर जाना, असतो मा सदगमय, मुझे ले चल। जो पहुंचा हो उस स्रोत तक, उसके साथ थोड़ा साथ कर लेना। इसके पहले कि मेहमान विदा हो, तुम पहचान लेना।
इसलिए हुआ है अक्सर ही ऐसा जग में
जब चला गया मेहमान गया पहचाना है
ऐसी भूल तुमसे न हो।
दूसरा सूत्र: ‘पंडित अशुभ को छोड़कर शुभ का ध्यान करे और बेघर होकर ऐसे एकांत स्थान में वास करे, जहां कि जी लगना कठिन होता है। पंडित भोगों को छोड़कर अकिंचन बनकर उस एकांत में लवलीन रहने की इच्छा करे और चित्त के मलों से अपने को परिशुद्ध करे।’
जिन्होंने बुद्धों की पुकार सुन ली, वे ही पंडित हैं। शास्त्र को जान लेने से कोई पंडित नहीं, परमात्मा की प्यास के जग जाने से कोई पंडित है।
पंडित का अर्थ है: अब तुम जहां सीमाओं में बंधे हो, वहीं बंधे रहने को राजी नहीं; खोज शुरू हो गई। माना कि अभी अंधेरी रात ने तुम्हें घेरा है, लेकिन सुबह की तलाश शुरू हो गई। रात की अंधेरी कोख में सुबह का सूरज पलने लगा। सुबह की यात्रा शुरू हो गई। माना कि तुम अंधेरे में जीते हो, अशुभ में जीते हो, संसार में जीते हो, सब माना। लेकिन अब तुम वहीं समाप्त नहीं हो; उससे पार होने की आकांक्षा ने घर बनाया तुम्हारे हृदय में; अभीप्सा जगी।
नसीम, जागो कमर को बांधो
उठाओ बिस्तर कि रात कम है
सफर है दुश्वार ख्वाब कब तक
बहुत बड़ी मंजिले-अदम है
उस दूसरे लोक तक जाने की यात्रा लंबी है। रात बहुत थोड़ी बची है।
किसी सदगुरु के सान्निध्य में जब तुम अपना बिस्तर बांधने लगते हो, पांडित्य का जन्म हुआ। पंडित से अर्थ बहुत जानने वाले का नहीं है, पंडित से अर्थ जानने के आकांक्षी का है। पंडित से अर्थ बहुत सूचनाओं के संग्रह का नहीं है, सत्य की अभीप्सा का है, जिज्ञासा का है।
‘पंडित अशुभ को छोड़कर शुभ का ध्यान करे।’
जब बुद्ध यह कहते हैं, अशुभ को छोड़कर शुभ का ध्यान करे, तो वे यह नहीं कह रहे हैं कि तुमसे अशुभ अभी इसी क्षण छूट जाएगा; लेकिन तुम उस पर ध्यान देना धीरे-धीरे क्षीण करो। जिस पर हम ध्यान देते हैं, उसी को हम से शक्ति मिलती है, ऊर्जा मिलती है।
समझो; अगर तुम्हें बहुत क्रोध आता है, तो अक्सर ऐसा हो जाता है कि तुम क्रोध पर बहुत ध्यान देने लगते हो--चाहे मुक्त होने के लिए ही सही; कि किसी तरह क्रोध से छुटकारा हो जाए--तो तुम अतिशय संवेदनशील हो जाते हो क्रोध के प्रति। तुम उसी-उसी का ध्यान रखते हो--कहीं फिर क्रोध न हो जाए, कहीं फिर क्रोध न हो जाए, कहीं फिर क्रोध न हो जाए। और यह जो बार-बार तुम क्रोध को देख रहे हो, तुम्हारी हर दृष्टि में क्रोध को ऊर्जा मिलती है। तुम जो क्रोध का बार-बार स्मरण कर रहे हो, इसमें क्रोध मजबूत होता है, सघनीभूत होता है। इसमें क्रोध की लकीर तुम्हारे ऊपर गहरी होने लगती है।
अगर क्रोध से मुक्त होना हो तो पहला सूत्र है: क्रोध पर ध्यान मत दो। है, मान लिया; जानो कि है; भुलाओ भी मत, दबाओ भी मत, विस्मृत भी मत करो, लेकिन ध्यान करुणा पर दो। अगर क्रोध तुम्हारा रोग है तो करुणा पर ध्यान दो। करुणा के संबंध में ज्यादा सोचो, गुनो, मनन करो, गुनगुनाओ। कहीं मौका मिल जाए तो करुणा करने से मत चुको।
हम अक्सर क्या करते हैं? क्रोधी आदमी कोशिश करता है कि क्रोध का अवसर मिले तो न करे क्रोध। न करने में भी हो जाएगा। न करने-करने में ही भीतर हो जाएगा; बाहर चाहे न भी प्रगट हो तो भी भीतर घना धुआं घेर लेगा, विषाद भर जाएगा, जहर फैल जाएगा।
नहीं, अगर क्रोध बीमारी है तो क्रोध की उपेक्षा करो। ध्यान देने योग्य भी नहीं है, चिंतनीय भी नहीं है। करुणा पर ध्यान दो। करुणा क्रोध के ठीक दूसरे छोर पर है; उस पर ध्यान दो, ऊर्जा वहां डालो। करुणा को सींचो। करुणा को प्रेम दो। और कहीं कोई अवसर मिल जाए, छोटे से छोटा अवसर भी मिल जाए तो चूको मत।
एक मक्खी भी तुम्हारे ऊपर बैठ गई है, उसे भी उड़ाना हो तो अत्यंत करुणापूर्वक उड़ाओ। उस अवसर को भी मत चूको, क्योंकि जितनी-जितनी ऊर्जा करुणा में परिणत हो जाए, उतनी-उतनी ऊर्जा क्रोध को मिलनी बंद हो जाएगी। ऊर्जा वही है; क्रोध को देते हो तो क्रोध पलता है, करुणा को देते हो तो करुणा पलती है।
बुद्ध के जीवन-सूत्रों में उपेक्षा बड़ी महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं, जिस चीज से मुक्त होना हो, उस तरफ पीठ कर लो। दबाने की जरूरत नहीं है, सिर्फ उपेक्षाभाव रखने की जरूरत है। अपने को वहां से शिथिल कर लो। है माना, लेकिन सारी ऊर्जा विपरीत छोर पर बहने लगे तो धीरे-धीरे तुम पाओगे, कि जो शक्ति क्रोध को मिलती थी, वह बची ही नहीं।
इसे तुम थोड़ा करके देखो। क्रोध से जूझो भी मत। अगर कामवासना से पीड़ित हो तो कामवासना से जूझो मत, अन्यथा वह बढ़ती चली जाती है। जितने तुम लड़ोगे, उतना ही तुम पाओगे, घाव गहरे होते चले जाते हैं। और बार-बार हारोगे तो धीरे-धीरे आत्मविश्वास भी खो जाएगा। और आत्मविश्वास खो जाए तो साधक बुरी तरह भटक जाता है। लड़ो भी मत।
‘पंडित अशुभ को छोड़कर शुभ का ध्यान करे और बेघर होकर ऐसे एकांत में वास करे जहां कि जी लगना कठिन होता है।’
साधारणतः हम भीड़ में जीते हैं। साधारणतः हम भीड़ में ही बड़े हुए। साधारणतः हम भीड़ का ही अंग हैं। साधारणतः भीड़ हमारे भीतर भरी है। भीड़ ने हमारे भीतर भी कब्जा कर लिया है। हमारे भीतर कोई एकांत स्थान नहीं बचा है। तुम कहते जरूर हो कि अपने घर में तो प्राइवेसी है, एकांत है; वहां भी नहीं है। रात के सपने तक में भीड़ तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ती। तुम्हारी दयनीय अवस्था सोचो तो! रात सोए हो, सपने में पड़े हो, तब भी लोग मौजूद हैं। अनचाहे मेहमान मौजूद हैं, न बुलाए मेहमान मौजूद हैं। और ध्यान रखना, उनका कोई कुसूर नहीं है, वे आए भी नहीं हैं।
इजिप्त में एक सम्राट हुआ, वह थोड़ा झक्की था। उसने राज्य में आज्ञा पिटवा दी कि अगर मेरे सपने में कोई आया तो मरवा डालूंगा।
अब बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। लोग डरने लगे। करोगे भी क्या? दूसरों का कोई मामला नहीं। कोई तुम्हारे सपने में थोड़े ही आता है। तुम ही बुलाते हो। तुम्हारी ही धारणा है। कहते हैं, उसने एक वजीर को सूली पर लटकवा दिया, क्योंकि रात सपने में आ गया, नींद खराब की।
ध्यान रखना, कोई तुम्हारे सपने में आ नहीं रहा है। तुम भीड़ हो; अभी तुम व्यक्ति नहीं। अभी तुम्हारे भीतर आत्मा पैदा नहीं हुई। अभी तो तुम जोड़-तोड़ हो। हजार तरह का कूड़ा-करकट तुम्हारे भीतर भरा है। अभी तो तुम एक तरह के कबाड़खाने हो। किसी की टांग, किसी का हाथ, किसी की नाक, किसी का कान, सब तुम्हारे भीतर इकट्ठे हैं। तुम तो एक ढेर हो। तुम्हारे भीतर अभी तुम नहीं हो और सब कुछ है। भीतर जाओगे तो सब मिलेगा--बाजार मिलेगा, दुकान मिलेगी, शास्त्र मिलेंगे, मंदिर-मस्जिद मिलेगी, तुम भर न मिलोगे। भीतर खोजोगे तो अपने भर को न पाओगे और सारा संसार पा लोगे। कैसा मजा है!
तो साधक को शुरुआत में अपने को भीड़ से बाहर करने की जरूरत है। और यह भीड़ से बाहर करना बाहर की ही बात नहीं है; तुम जंगल भी भाग सकते हो, इससे बहुत कुछ न होगा। जंगल में भी बैठ जाओगे तो सोचोगे तो बाजार की; थोड़ा ज्यादा ही सोचोगे।
अक्सर ऐसा होता है कि लोग जब ध्यान करने बैठते हैं, तब संसार की ज्यादा सोचते हैं। ऐसे भी नहीं सोचते साधारणतः उतना। मंदिर जाते हैं, तब दुकान का ज्यादा विचार करते हैं। फुरसत मिल जाती है। और कुछ काम भी नहीं रहता वहां।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि बड़ी आश्चर्य की बात है। इतने विचार तो हमें साधारणतः नहीं होते, लेकिन जब ध्यान करने बैठते हैं, तब बड़ा आक्रमण होता है। ध्यान विचार ही विचार से भर जाता है।
बाकी समय तुम उलझे रहते हो। विचार तो चलते रहते हैं, लेकिन देखने की भी फुरसत कहां? ध्यान के समय तुम खाली होकर बैठते हो, थोड़ी नजर मुक्त होती है, उलझाव नहीं होता। सारी दुनिया झपट पड़ती मालूम पड़ती है।
प्रश्न बाहर का नहीं है, लेकिन बाहर का एकांत भी सहयोगी हो सकता है। असली सवाल भीतर के एकांत का है।
‘ऐसे एकांत में वास करे कि जहां जी लगना कठिन होता है।’
तुम्हारा जी ही भीड़ में लगता है। खाली बैठे हो, अखबार पढ़ोगे। अखबार यानी भीड़ की खबरें। खाली बैठे हो, रेडियो खोल लोगे, टेलीविजन चला लोगे। खाली बैठे हो तो मित्र के घर पहुंच जाओगे, क्लब पहुंच जाओगे, पड़ोसी से ही बात करने लगोगे। खाली बैठे हो तो कुछ न कुछ करोगे। बिना दूसरे के तुम्हारा जी नहीं लगता। दूसरे पर इतने निर्भर हो? दूसरा तुम्हारा मालिक है? दूसरे के बिना घड़ीभर बिताना मुश्किल हो जाता है। तुम्हारी स्वतंत्रता कैसी है? यह तुम्हारा स्वामित्व कैसा है? तुम अपने भी नहीं हो।
वही व्यक्ति अपना स्वामित्व पाना शुरू करता है, जो एकांत और निज को जीने लगता है। जो अपने साथ होने में भी आनंद पाता है। दूसरे के साथ होना ही जिसका एकमात्र सुख नहीं है; जिसका अपने साथ होना परमसुख बन जाता है।
और बड़े मजे की, यद्यपि विरोधाभासी बात यह है कि जो व्यक्ति अपने साथ बहुत आनंद अनुभव करता है, दूसरे उसके साथ बड़ा आनंद पाएंगे। तुम तो अपने साथ ही परेशान हो, तुम दूसरों के साथ उनको भी परेशान ही करोगे। करोगे क्या? अपने को परेशान कर लेते हो तो दूसरों को भी परेशान करोगे। तुम उनको उबा रहे हो, वे तुमको उबा रहे हैं। वे तुम्हारी सुन रहे हैं, क्योंकि उनको अपनी कहनी है। तुम भी अपने एकांत से घबड़ाकर भाग आए हो, वे भी अपने एकांत से घबड़ाकर भाग आए हैं। दोनों विक्षिप्त हो।
दो आदमियों की बातें तो सुनो; गौर से सुनो, तुम हैरान होओगे। वे एक-दूसरे से बात कर ही नहीं रहे, अपनी-अपनी कहे चले जा रहे हैं। किसको फुरसत है किसी से बात करने की? अपना-अपना काफी भरा हुआ गुबार है।
तो पहली तो बात है कि एकांत में थोड़ा रस लेना शुरू करो। बुद्ध कहते हैं, पंडित वही है।
क्यों? क्योंकि समझदार वही है, जो अपने भीतर जीने की सुविधा बनाने लगे, अपने भीतर के आकाश में रमने लगे। क्योंकि वहीं तुम्हारे प्राणों का प्राण है, वहीं तुम्हारा जीवन-स्रोत है, वहीं तुम्हारा उदगम है, वहीं तुम्हारा अंत है, वहीं है मंदिर, वहीं है विराजमान प्रभु--अगर कहीं है, वहीं सब कुछ है। उसको जिसने गंवाया, सब गंवाया। उसे जिसने पाया, सब पाया।
‘और बेघर होकर...।’
जैसे भीड़ से हम बंधे हैं, भीड़ काम भी नहीं आती; सिर्फ भुलाने का बहाना है, एक नशा है। जिंदगी के असली क्षणों में तुम सदा अकेले रह जाते हो। जन्म जब हुआ, तुम अकेले। तुम्हारे भीतर तुम्हीं थे और कुछ नहीं। मरोगे, तब अकेले। तुम्हारे भीतर तुम्हीं रहोगे और कुछ नहीं। और कभी अगर तुम थोड़ी समझ का उपयोग करो तो जीवन में जब भी तुम्हें ऐसे कोई क्षण मिले--पुलक के, अहोभाव के, धन्यता के, तब भी तुम पाओगे, तुम अकेले।
सुबह उगते सूरज के साथ क्षणभर को राग बंध गया, सूरज के रंग फैल गए--तुम अचानक पाओगे, कोई भी न रहा वहां। भीतर का आकाश एकदम खाली हो गया। वहीं सौंदर्य का थोड़ा सा रस आएगा।
संगीत सुनते समय जब तुम्हारे भीतर कोई भी न रह जाएगा, विराट एकांत होगा, उसी क्षण संगीत तुम्हारी भीतर की वीणा को छू देगा; भीतर की वीणा पर टंकार पड़ जाएगी। तुम्हारी भीतर की वीणा जब तक न बजने लगे, कैसे तुम बाहर का संगीत समझोगे? और जब तक तुम्हें भीतर के सौंदर्य का बोध न हो, बाहर के सब सौंदर्य किसी काम के नहीं हैं।
तो जीवन में जब भी कुछ महत्वपूर्ण घटता है, तब तुम अचानक पाओगे, तुम अकेले हो गए। तुमसे एक कठिन बात कहना चाहूंगा; अगर तुम्हारे जीवन में कभी प्रेम घटा है तो तुम अचानक पाओगे कि तुम अकेले हो गए। हालांकि प्रेम में लोग सोचते हैं कि अब दो साथ हो गए, लेकिन यह बात सच नहीं है। प्रेम में दो एकांतों का मिलन होता है। दो व्यक्ति अकेले हो जाते हैं प्रेम में। दो व्यक्ति भीड़ से मुक्त हो जाते हैं। और प्रेमी जब दो होते हैं तो वहां कोई भीड़ नहीं होती; वहां दूसरा होता ही नहीं। वहां तुम अकेले होते हो, दूसरा भी अकेला होता है। वहां अकेलापन पूरा होता है। दो शून्य मिलकर एक ही शून्य बनता है, दो शून्य नहीं बनते। दो शून्यताएं मिलकर एक शून्यता बनती है, दो शून्यताएं नहीं बनतीं।
और अगर ऐसा न हुआ हो, कि प्रेम के क्षण में भी तुम तुम रहे, भीड़ से भरे रहे, तो समझना कि वह काम का क्षण है, प्रेम का क्षण नहीं है। यही काम और प्रेम का भेद है। काम में दूसरे की तलाश है, प्रेम में अपने होने का अनुभव है। दूसरा ज्यादा से ज्यादा दर्पण बन जाता है, जिसमें हम अपनी ही तस्वीर देख लेते हैं।
जब भी तुम अकेले होओ, उन क्षणों का उपयोग करो। उन एकांत के क्षणों को सौभाग्य मानो, उनका उपयोग करो, उनमें रमो। धीरे-धीरे रस आएगा, स्वाद जमेगा। शुरू-शुरू तो बड़ी बेचैनी होगी, जी घबड़ाएगा।
वही तो बुद्ध कहते हैं: ऐसा एकांत, जहां जी लगना कठिन हो जाता है।
तुम्हारा जी ही उधार है; वह भीड़ में ही लगता है। उसे दुर्गंध की आदत पड़ी है, सुगंध में तिलमिलाता है। एकांत की शांति खाती है, भीड़ का शोरगुल भाता है। थोड़ी आदत बदलेगी, समय लगेगा। लेकिन एक बार स्वाद लग जाए एकांत का तो तुम भीड़ में भी रहोगे और अकेले ही रहोगे। तुम बाजार में भी खड़े रहोगे लेकिन एकांत। तुम अपने भीतर के हिमालय को कभी खोओगे ही नहीं। तुम्हारा भीतर का हिमालय तुम्हारे साथ चलेगा।
बड़े शिखर हैं तुम्हारे भीतर, बड़ी ऊंचाइयां हैं और बड़ी गहराइयां हैं। लेकिन तुम भीतर के जगत से अपरिचित ही रहे चले जाते हो।
एक दिल का दर्द है कि रहा जिंदगी के साथ
एक दिल का चैन था कि सदा ढूंढते रहे
ऐसे ही चल रही है तुम्हारी जिंदगी। और चैन अभी मिल सकता है, क्योंकि जिसे तुम बाहर खोज रहे हो वह भीतर मौजूद है। और दुख अभी खो सकता है, क्योंकि बाहर की खोज के कारण पैदा हो रहा है।
फिर मुझे दोहराने दें--
एक दिल का दर्द है कि रहा जिंदगी के साथ
एक दिल का चैन था कि सदा ढूंढते रहे
यह तुम्हारी पूरी जिंदगी की कहानी है, जीवन-कथा है। जिंदगीभर खोज रहे हैं कि कहीं कोई चैन मिल जाए। और जिंदगीभर खोज रहे हैं कि किस तरह दुख से छुटकारा हो जाए, लेकिन यह हो नहीं पाता।
दिशा कुछ गलत है। रेत से जैसे कोई तेल को निचोड़ने की कोशिश कर रहा है। चैन है भीतर, उसे तुम बाहर खोज रहे हो। दुख है बाहर, चैन है भीतर। बाहर खोजते हो, दुख ही दुख पाओगे। भीतर खोजो, सुख का स्वर बजने लगता है।
और ध्यान रखना, अकेले आना है, अकेले जाना है; तो बीच के ये थोड़े दिन भीड़ से बहुत ज्यादा अपने को मत भरो। ये बीच भी अकेलेपन से भर जाए तो तुम्हें जीवन के सारे राज, सारी कुंजियां मिल जाएंगी।
और कब कौन साथ देता है? किस बात में कोई साथ देता है? सब साथ धोखा है।
सियहबख्ती में कब कोई किसी का साथ देता है
कि तारीकी में साया भी जुदा रहता है इन्सां से
कौन साथ देता है मुसीबत के क्षण में? यह सब सुख का राग-रंग है। सब साथी सुख के मालूम होते हैं। अंधेरा जब घेर लेता है, कौन किसका साथ देता है? मौत जब हाथ में आती है, तब कौन तुम्हारे हाथ में हाथ देता है?
कि तारीकी में साया भी जुदा रहता है इन्सां से
अंधेरे में तो अपनी छाया भी साथ छोड़ देती है, दूसरे का तो भरोसा क्या? इस सत्य को जो स्वीकार कर लेता है, समझ लेता है, वह अपने साथ हो लेता है। वह असली साथ खोज लेता है।
बेघर भी समझ लेने जैसा शब्द है। इसका मतलब यह नहीं है कि तुम घर छोड़कर भाग जाओ। इसका कुल मतलब इतना है कि तुम जहां भी रहो, घर न बनाओ। इसका यह मतलब भी नहीं है कि तुम छप्पर न डालो; इसका यह मतलब भी नहीं है कि तुम किसी छाया में न ठहरो; इसका कुल मतलब इतना है कि तुम कभी भी यह मत सोचना कि यह तुम्हारा घर है--सराय ही रहे। ज्यादा से ज्यादा रात का पड़ाव है, सुबह हुई, चल पड़ना है। ऐसा बेघरपन हो; इसका नाम ही संन्यास है।
एक शब्द है हमारे पास--गृहस्थ। गृहस्थ का अर्थ होता है, जिसने घर बनाया। घर में रहता है, ऐसा अर्थ मैं नहीं करता; ऐसा तुमने किया तो गलती हो जाती है। घर में तो सभी रहते हैं। घर नहीं बनाता, वह संन्यासी है। घर में तो रहेगा, लेकिन मानता नहीं कि कहीं कोई घर है। जैसे हमेशा सामान बंधा तैयार है, और जब क्षण आ जाए विदा होने को, तैयार है।
अमरीका का एक प्रेसीडेंट मरने के करीब था तो चिकित्सक ने ठीक समझा कि उसे कह देना जरूरी है। पास आकर कहा कि आप की मृत्यु की घड़ी है। सोचा था डरेगा, घबड़ाएगा; उसने जरा सी आंख खोली और कहा, रेडी! तैयार हूं। बस, इतनी ही बात कही।
गृहस्थ पकड़ने को तैयार है, संन्यस्त छोड़ने को तैयार है। यह तैयारी की बात है; जरूरी नहीं कि तुम छोड़ो। छोड़ने का भाव! छिन जाए तो तुम रोओगे नहीं, चीखोगे-तड़फोगे नहीं, तुम यह न कहोगे, घर मिट गया--तो तुम बेघर हो।
‘पंडित भोगों को छोड़कर अकिंचन बनकर एकांत में लवलीन रहने की इच्छा करे और चित्त के मलों से अपने को परिशुद्ध करे।’
एकांत में रहने की इच्छा, अभिलाषा पोसे; इस पौधे को सींचे।
‘अकिंचन बनकर...।’
क्योंकि अकेले तुम तभी हो सकते हो, जब तुम अकिंचन बनने को तैयार हो। इस सूत्र को खयाल में रखना। अगर तुम बड़े होना चाहते हो तो भीड़ की जरूरत पड़ेगी; अन्यथा कौन तुम्हें बड़ा कहेगा? अगर तुम्हें सम्राट होना है तो साम्राज्य चाहिए पड़ेगा। अगर तुम्हें नेता होना है तो अनुयायी चाहिए पड़ेंगे। अगर तुम्हें कुछ होना है तो भीड़ की जरूरत पड़ेगी। और जिसकी जरूरत पड़ती है, उस पर तुम निर्भर रहोगे; उसके तुम गुलाम रहोगे।
इसलिए जिनको तुम नेता कहते हो, वे अनुयायियों के गुलाम होते हैं। और जिनको तुम सम्राट कहते हो, उनसे बड़े गुलाम तुम कहीं न खोज पाओगे।
नादिरशाह हिंदुस्तान आया। उसने दिल्ली पर कब्जा कर लिया। उसने हाथी कभी देखा न था। पहली दफा देखा, बैठने की इच्छा हुई। तो उसे हाथी पर बिठाया गया। जब वह हाथी पर बैठा तो उसने आगे झांककर देखा, महावत अंकुश लिए बैठा है। तो उसने कहा, तू यहां क्या कर रहा है? तो उस महावत ने कहा, महानुभाव! यह हाथी है, इसको चलाने के लिए फीलवान की जरूरत होती है। उसने कहा, लगाम मुझे दे और तू नीचे उतर। वह तो घोड़े का आदी था, उसने कभी हाथी देखा नहीं था। कहा, तू नीचे उतर, लगाम मुझे दे। वह हंसने लगा महावत; उसने कहा, इसकी कोई लगाम नहीं होती और हम फीलवान ही इसे चला सकते हैं। तो कहते हैं, नादिरशाह छलांग लगाकर नीचे कूद गया। उसने कहा, जिसकी लगाम मेरे हाथ में न हो, उस पर बैठना खतरे से खाली नहीं। मैं ऐसी चीज का मालिक होना ही नहीं चाहता, जिसकी लगाम मेरे हाथ में न हो।
लेकिन जरा और गौर से देखना, लगाम भी होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। थोड़ा-बहुत नियंत्रण में आ जाती है बात, लेकिन लगाम होने से भी बहुत फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि जिसकी लगाम तुम्हारे हाथ में होती है, तुम्हारी लगाम भी उसके हाथ में होती है।
एक मुसलमान फकीर बायजीद एक रास्ते से गुजरता था अपने शिष्यों को लेकर और एक आदमी एक गाय को घसीटे लिए जा रहा था। गाय जाना नहीं चाहती थी और वह आदमी घसीट रहा था। बायजीद ने अपने शिष्यों को कहा, रुको! घेर लो इस आदमी को। एक पाठ सीखने जैसा है। और बायजीद ने अपने शिष्यों से पूछा, मुझे बताओ, यह आदमी गाय को बांधे हुए है कि गाय ने आदमी को बांधा है? उन शिष्यों ने कहा, साफ है कि आदमी गाय को बांधे हुए है। आदमी मालिक है, गाय गुलाम है।
तो बायजीद ने कहा, एक सवाल और। अगर हम यह लगाम बीच से काट दें तो गाय आदमी के पीछे जाएगी कि आदमी गाय के पीछे जाएगा? उन्होंने कहा, आदमी गाय के पीछे जाएगा। तो फिर मालिक कौन है?
तुम जिसके पीछे जाते हो, वही तुम्हारा मालिक है। जिसकी लगाम तुम्हारे हाथ में है, उसके हाथ में तुम्हारी भी लगाम हो गई। जब तुमने किसी चीज का परिग्रह किया, तुम उस चीज के गुलाम हो गए।
तो जब तुमने कहा, यह मेरा घर है, तुम इस घर के हो गए। और ध्यान रखना, जब घर छूटेगा तुमसे, घर न रोएगा तुम्हारे लिए, तुम रोओगे घर के लिए। और जब लगाम टूटेगी तो पता चलेगा, तुम गुलाम थे।
‘बेघर, एकांत और अकिंचन...।’
अकिंचन होने को जो राजी है। अकिंचन का अर्थ है: नो-बडी, ना-कुछ; जैसे मैं कुछ हूं ही नहीं, ऐसा होने को जो राजी है, वही केवल भीड़ से मुक्त हो सकता है।
लेकिन ये अनुभव हम सभी को होते हैं। ये अनुभव कुछ अनूठे नहीं, अनूठी तो बात यह है कि अनुभव होते हैं और फिर भी हम गैर-अनुभवी रह जाते हैं। कितनी बार तुम्हारा घर बना और उजड़ा नहीं! कितनी बार तुमने लगाम पकड़ी और नहीं पकड़े गए! कितनी बार तुमने मालिक बनना चाहा और तुम गुलाम बने! और कितनी बार भीड़ का संग-साथ खोजा और तुमने अपने को गंवाया! कितने अनुभव तुम्हें जीवन में होते हैं, लेकिन फिर भी आश्चर्य की बात तो यही है कि तुम कुछ सीखते नहीं।
मोती हो कि शीशा, जाम कि दुर
जो टूट गया सो टूट गया
कब अश्कों से जुड़ सकता है
जो टूट गया सो टूट गया
तुम नाहक टुकड़े चुन-चुन कर
दामन में छिपाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो
जीसस ने मुर्दे को जिला दिया, लेकिन जिन टूटे टुकड़ों को लेकर तुम बैठे हो, उनको वे जोड़ न सकेंगे।
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो
और तुम्हारे दामन में सिवाय टुकड़ों के कुछ भी नहीं है। सब शीशे टूटे हुए हैं। तुमने जीवन में सिवाय टुकड़ों के, व्यर्थ टुकड़ों के, कुछ इकट्ठा किया ही नहीं। लेकिन आशा लगाए बैठे हो कि शायद कोई जोड़ देगा। और रो रहे हो।
कब अश्कों से जुड़ सकता है
जो टूट गया सो टूट गया
जरा गौर से अपनी जिंदगी को एक बार फिर से देखो, एक पुनर्निरीक्षण--और तुम पाओगे, बुद्ध पुरुष जो कहते हैं, वह तुम अपने अनुभव से भी पाओगे कि ठीक है। इसलिए बुद्ध ने बार-बार कहा है कि जो मैं कहता हूं, मेरे कहने के कारण मत मान लेना, तुम्हारे अनुभव से तालमेल बैठे तो ही।
तालमेल बैठता ही है। सत्य है वही, जिसका तालमेल सभी के अनुभव से बैठेगा ही। हां, तुम बिठाओ ही न, आंख बंद किए बैठे रहो, बात और। आदमी बहलाए चला जाता है अपने को। सोचता है, अभी नहीं हुआ, कल हो जाएगा। इस बार चूक गए, अब न चूकेंगे। लेकिन यह निशाना कुछ ऐसा है कि कभी लगेगा ही नहीं। इसका स्वभाव लगना नहीं है। यह कुछ तुम्हारी तीरंदाजी पर निर्भर नहीं है। तुम कितने ही कुशल हो जाओ, यह निशाना चूकता ही रहेगा। क्योंकि वहां है ही नहीं कोई, निशाना जिस पर लग जाए। जितनी जल्दी तुम्हारे जीवन में इस विफलता का बोध हो जाए, उतनी ही जल्दी अंतर्यात्रा शुरू हो जाती है।
जिंदगी को माहो-अंजुम न उजाला देंगे
तुम न इन झूठे खिलौनों से बहलते रहना
चांद-तारों से रोशनी नहीं मिलती जिंदगी को। तुम इन झूठे खिलौनों से मत उलझते रहना। ये बाहर के खिलौने कोई रोशनी न दे सकेंगे। रोशनी भीतर से आती है। रोशनी तुम्हारे भीतर छुपी है, वहां जगाना है।
एकांत में उसे जगाओ, बेघर होकर उसे जगाओ, वस्तुओं की मालकियत, दौड़ छोड़कर उसे जगाओ, भीड़ से संग-साथ छोड़कर उसे जगाओ। कहीं ऐसा न हो कि जिंदगी बीत जाए और ज्योति सोई की सोई ही रह जाए।
‘जिनका चित्त संबोधि अंगों से अच्छी तरह अभ्यस्त हो गया है, जो अनासक्त हो परिग्रह के त्याग में सदा निरत हैं, जो क्षीणास्रव और द्युतिमान हैं, वे ही संसार में निर्वाण को पा चुके हैं।’
बड़ा अनूठा वचन है। अगर तुम जाग गए तो संसार में ही निर्वाण उपलब्ध हो जाता है। यह निर्वाण कोई परलोक नहीं है। निर्वाण कोई मंजिल नहीं है, जो कभी आगे मिलेगी। अगर तुम जाग गए तो अभी और यहीं है। यह मंजिल कुछ ऐसी है कि तुम्हारे कदमों में छुपी है। इसे उघाड़ना है, इसे खोजना नहीं है। कदम-कदम में तुम्हारे यह मंजिल छिपी है।
अपने कदम के साथ है मंजिल लगी हुई
मंजिल पे जो नहीं है वो हमारा कदम नहीं
वह तुम्हारा कदम ही नहीं है, जो मंजिल पर नहीं है। अगर तुम्हें मंजिल दूर भविष्य में दिखाई पड़ती हो तो तुम भूल में हो; मंजिल तुम्हारे पैरों के नीचे दबी है। अगर तुम कहीं और खजाना खोजते हो तो भूल में हो; खजाने पर तुम खड़े हो।
‘जिनका चित्त...।’
बुद्ध ने समाधि को पाने के वैसे ही अंग कहे हैं, जैसे पतंजलि ने: सम्यक दृष्टि, सम्यक आहार, सम्यक व्यायाम, सम्यक ध्यान, सम्यक समाधि इत्यादि आठ अंग। इन आठ अंगों को जो साधता है...।
दृष्टि की थिरता को जो साधता है तो सम्यक दृष्टि हो जाता है। देखने की कला को जो साधता है--बिना विचार के देखने की कला का नाम है, सम्यक दृष्टि। आंख विचारों से भरी हो तो विचार विकृत कर देते हैं, जो भी तुम देखते हो। आंख विचारों से न भरी हो तो तुम वही देखते हो, जो है। तब सत्य आविर्भूत होता है।
सम्यक दृष्टि से यात्रा शुरू होती है, सम्यक समाधि पर पूरी होती है।
सम्यक समाधि का अर्थ है: ऐसी अंतर-दशा, जहां सब समाधान हैं...सब समाधान हैं...सब समाधान हैं। कोई प्रश्न न बचा; ऐसी निष्प्रश्न दशा। उस घड़ी में सत्य अपने सभी घूंघट उठा देता है। उस घड़ी में जीवन तुम्हारे चारों तरफ नाच उठता है। उस घड़ी में जीवन की मधुशाला तुम पर सब तरफ से बरस जाती है।
‘जिनका चित्त संबोधि अंगों का अच्छी तरह अभ्यास कर रहा है।’
अभ्यास करना होगा। लंबा तमस है, लंबा आलस्य है, तोड़ना होगा, चोट करनी होगी। छेनी उठाकर श्रम की, ध्यान की, चारों तरफ जो पथरीलापन इकट्ठा हो गया है, उसे काटना होगा, ताकि भीतर का झरना फिर से बह सके।
‘जो अनासक्त हो परिग्रह के त्याग में सदा निरत है।’
जो सदा यह चेष्टा कर रहा है कि मेरे अतिरिक्त मेरा और कुछ भी नहीं। वही अनासक्त होने की चेष्टा में लगा है। मेरे अतिरिक्त मेरा और कुछ भी नहीं। मैं ही बस मेरा हूं। ऐसी भावदशा जिसकी थिर होती जा रही है।
‘जो क्षीणास्रव है।’
उसके कर्म क्षीण होने लगते हैं। वह कर्ता भी है तो अकर्ता होता है। वह चलता भी है तो चलता नहीं, क्योंकि चलाती तो चाह है।
मनुज चलता नहीं संसार में
चलाती चाह है
जिसकी चाह चली गई, वह चलता भी है और अचल होता है। वह भोजन भी करता है और उपवासा होता है। उठता है, बैठता है, सब करता है, लेकिन जैसे कुछ भी करता नहीं। भीतर अकर्ता की स्थिति, साक्षी की स्थिति बनी रहती है।
‘जो क्षीणास्रव है।’
उसके कर्म धीरे-धीरे क्षीण होने लगते हैं।
कृष्ण ने गीता में अर्जुन को यही कहा है कि तू इतना ही मान ले कि तू उपकरण मात्र है; तू ना-कुछ हो जा, अकिंचन हो जा। तू यह मत कह कि मैं कर रहा हूं, परमात्मा कर रहा है।
बुद्ध तो परमात्मा को भी बीच में नहीं लेते। वे कहते हैं, उससे भी कहीं अकड़ आ जाए; उससे भी कहीं अहंकार आ जाए। बुद्ध तो इतना ही कहते हैं, कोई नहीं कर रहा, हो रहा है।
थोड़ा समझना! बुद्ध कहते हैं, सब हो रहा है, कर कोई भी नहीं रहा है--न तू कर रहा है, न कोई और कर रहा है। चीजें हो रही हैं। नदियां सागर की तरफ बह रही हैं, सागर धूप के सहारे चढ़कर बादल बन रहा है, बादल हिमालय पर बरस रहे हैं, फिर नदी बन रही है--हो रहा है। कोई कुछ कर नहीं रहा है।
ऐसी अवस्था की प्रतीति होने लगे तो कर्म क्षीण हो जाते हैं। और एक द्युति का जन्म होता है, एक भीतर प्रभा का आविर्भाव होता है। ऐसे व्यक्ति के आसपास तुम एक आलोकमंडल देखोगे। ऐसे व्यक्ति के आसपास ऐसा घना प्रकाश होगा कि तुम चाहो तो छू सको।
‘वे ही संसार में निर्वाण को पा चुके हैं।’
कोई परलोक नहीं है। यही लोक, जब तुम बदल जाते हो, परलोक हो जाता है। आंख की बदलाहट!
काफिर की यह पहचान कि आफाक में गुम है
मोमिन की यह पहचान कि गुम इसमें है आफाक
अधर्मी की यह पहचान है कि वह संसार में खोया है। और धर्मी की यह पहचान है कि उसमें संसार खो गया।
काफिर की यह पहचान कि आफाक में गुम है
संसार में डूबा है, खोया है। संसार ही बचा है, खुद बचा ही नहीं है, इस तरह खो गया है।
मोमिन की यह पहचान कि गुम इसमें है आफाक
और धर्मी की यह पहचान है कि स्वयं ही बचा है और सब संसार खो गया है। स्वयं की विराटता में सब लीन हो गया है।
बुद्ध के इन वचनों को अपनी जिंदगी की कसौटी पर कसना। अपनी जिंदगी को बार-बार गौर से देखो, वहीं सब छिपा है। और वहीं कसौटी है कि बुद्ध के वचन सही हैं या नहीं। इन वचनों का कोई और तर्क नहीं है, तुम्हारे जीवन के ही संगति में इन वचनों का तर्क है। ये वचन अपने आप में कुछ प्रमाण नहीं हैं, प्रमाण तो तुम्हारे जीवन के अनुभव और इनके बीच में घटेगा। गौर से देखोगे तो तुम पाओगे--
जिंदगी और जिंदगी की यादगार
पर्दा और पर्दे में कुछ परछाइयां
तुम जिंदगी को एक स्वप्न से ज्यादा न पाओगे।
पर्दा और पर्दे में कुछ परछाइयां
इन परछाइयों में भरोसा करते रहो तो संसार है। इन परछाइयों को परछाइयों की तरह जान लो, निर्वाण घटित हो जाता है।
असत्य को असत्य की तरह जान लेना, असत्य से मुक्त हो जाना है।
सत्य तो तुम हो; बस, असत्य से मुक्त होना है।
निर्वाण तो तुम हो। निर्वाण तुम्हारा स्वभाव है। इस स्वभाव की पहचान, इस स्वभाव की प्रत्यभिज्ञा, इस स्वभाव से मुलाकात, इसको अपने आमने-सामने कर लेना है।
आज इतना ही।