BUDDHA
Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) 31
ThirtyFirst Discourse from the series of 122 discourses - Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) by Osho. These discourses were given during NOV 21, 1975 to DEC 10, 1977.
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सब्बत्थ वे सप्पुरिसा चजन्ति न कामकामा लपयन्ति संतो।
सुखेन फुट्ठा अथवा दुखेन न उच्चावचं पंडिता दस्सयन्ति।।74।।
न अत्तहेतु न परस्स हेतु
न पुत्तमिच्छे न धनं न रट्ठं।
न इच्छेय्य अधम्मेन समिद्धिमत्तनो
स सीलवा पन्जवा धम्मिको सिया।।75।।
अप्पका ते मनुस्सेसु ये जना पारगामिनो।
अथायं इतरा पजा तीरमेवानुधावति।।76।।
एक प्राचीन कथा है: जंगल की राह से एक जौहरी गुजरता था। देखा उसने राह में, एक कुम्हार अपने गधे के गले में एक बड़ा हीरा बांधकर चल रहा है। चकित हुआ! पूछा कुम्हार से, कितने पैसे लेगा इस पत्थर के? कुम्हार ने कहा, आठ आने मिल जाएं तो बहुत। लेकिन जौहरी को लोभ पकड़ा। उसने कहा, चार आने में दे दे, पत्थर है, करेगा भी क्या?
पर कुम्हार भी जिद बांधकर बैठ गया, छह आने से कम न हुआ तो जौहरी ने सोचा कि ठीक है, थोड़ी देर में अपने आप आकर बेच जाएगा। वह थोड़ा आगे बढ़ गया। लेकिन कुम्हार वापस न लौटा तो जौहरी लौटकर आया; लेकिन तब तक बाजी चूक गई थी, किसी और ने खरीद लिया था। तो पूछा उसने कि कितने में बेचा? उस कुम्हार ने कहा कि हुजूर, एक रुपया मिला पूरा। आठ आने में बेच देता, छह आने में बेच देता, बड़ा नुकसान हो जाता।
उस जौहरी की छाती पर कैसा सदमा लगा होगा! उसने कहा, मूर्ख! तू बिलकुल गधा है। लाखों का हीरा एक रुपए में बेच दिया?
उस कुम्हार ने कहा, हुजूर मैं अगर गधा न होता तो लाखों के हीरे को गधे के गले में ही क्यों बांधता? लेकिन आपके लिए क्या कहें? आपको पता था कि लाखों का हीरा है और पत्थर की कीमत में भी लेने को राजी न हुए!
धर्म का जिसे पता है, उसका जीवन अगर रूपांतरित न हो तो उस जौहरी की भांति गधा है। जिन्हें पता नहीं है, वे क्षमा के योग्य हैं; लेकिन जिन्हें पता है, उनको क्या कहें?
दो ही संभावनाएं हैं: या तो उन्हें पता ही नहीं है; सोचते हैं, पता है। और यही संभावना ज्यादा सत्यतर मालूम होती है। या दूसरी संभावना है कि उन्हें पता है और फिर भी गलत चले जाते हैं।
वह दूसरी संभावना संभव नहीं मालूम होती। जौहरी ने तो शायद चार आने में खरीद लेने की कोशिश की हो लाखों के हीरे को, लेकिन धर्म के जगत में यह असंभव है कि तुम्हें पता हो और तुम उससे विपरीत चले जाओ।
सुकरात का बड़ा बहुमूल्य वचन है: ज्ञान ही चरित्र है। जिसने जान लिया, वह बदल गया। और अगर जानकर भी न बदले हो, तो समझना कि जानने में कहीं खोट है।
अक्सर मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, जानते तो हम हैं, लेकिन जीवन बदलता नहीं। यह तो उन्होंने मान ही लिया है कि जानते हैं; अब जीवन बदलने की राह देख रहे हैं।
मैं उनसे कहता हूं, पहली बात ही बेबुनियाद है, दूसरे की प्रतीक्षा ही न करो। तुमने अभी बुनियाद ही नहीं रखी और भवन उठाने की कोशिश में लग गए हो। पहले फिर से सोचो, तुम जानते हो? क्योंकि ऐसा कभी होता नहीं कि जो जानता हो और बदल न जाए। बदलाहट जानने के पीछे अपने आप चली आती है। वह सहज परिणाम है, उसके लिए कुछ करना भी नहीं पड़ता।
अगर बदलने के लिए जानने के अतिरिक्त भी कुछ करना पड़े तो समझना कि जानने में कोई कमी रह गई थी। जितनी कमी हो, उतना ही करना पड़ता है। वह जो कमी है, उसकी पूर्ति ही कृत्य से करनी पड़ती है। बोध की कमी कृत्य से पूरी करनी पड़ती है; अन्यथा बोध पर्याप्त है।
बुद्ध का सारा संदेश यही है कि बोध पर्याप्त है। ठीक से देख लेना--जिसको बुद्ध सम्यक दृष्टि कहते हैं, जिसको महावीर ने सम्यक दर्शन कहा है--ठीक से देख लेना काफी है, काफी से ज्यादा है। ठीक से देख लेना इतनी बड़ी आग है कि तुम उस में ऐसे जल जाओगे, जैसे छोटा तिनका जल जाए। राख भी न बचेगी।
तुम बचते चले जाते हो, क्योंकि आग असली नहीं है। आग-आग चिल्लाते जरूर हो, लगी कहीं नहीं है। आग शब्द ही है तुम्हारे लिए, शास्त्र ही है तुम्हारे लिए, सत्य नहीं।
धर्म तुम्हारे लिए शास्त्र-ज्ञान है। जीवन की किताब से तुमने वे सूत्र नहीं सीखे हैं। और जो भी शास्त्र में भटका, वह भटका। पाप भी इतना नहीं भटकाता, जितना शास्त्र भटका देते हैं। क्योंकि पाप में हाथ तो जलता है कम से कम। पाप में चोट तो लगती है, घाव तो बनते हैं। शास्त्र तो बड़ा सुरक्षित है; न हाथ जलते हैं, न चोट लगती है, उलटे अहंकार को बड़े आभूषण मिल जाते हैं। बिना जाने जानने का मजा आ जाता है। सिर पर मुकुट बंध जाते हैं।
बुद्ध ने कहा है, जो जान ले स्वयं से, वही ज्ञानी है; वही ब्राह्मण है। जो शास्त्र से जाने, वह ब्राह्मण-आभास; उससे बचना। और स्वयं कभी अपने जीवन में ऐसे उपद्रव मत करना कि जीवन को सीधे न जानकर शास्त्रों में खोजने निकल जाओ। जीवन में तो कोई डुबकी लगाता रहे तो आज नहीं कल किनारा पा जाएगा। शास्त्रों में जिन ने डुबकियां लगायीं, उनके सपनों का कोई भी अंत नहीं है।
पृथ्वी पर इतने लोग धार्मिक दिखाई देते हैं, इतने लोग जानते हुए मालूम पड़ते हैं। क्या कमी है जानने की? अंबार लगे हैं। लोगों ने ढेर लगा लिए हैं जानने के। और उनकी तरफ नजर करो तो उनका जानना उनके ही काम न आया। जो जानना अपने आप काम न आ जाए, उसे जानना ही न जानना।
अब हम इन सूत्रों में उतरने की कोशिश करें। बुद्ध ने इन्हें जीवन से सीखा था। शास्त्र से सीखना होता तो राजमहल में शास्त्र स्वयं आ जाते। पंडितों से सीखना होता, पंडित तो हाथ जोड़े, कतार बांधे सदा ही खड़े थे।
बुद्ध जीवन में उतरे; महल की सीढ़ियों से नीचे आए। वहां गए, जहां कच्चा जीवन है। वहां गए, जहां जीवन असुरक्षित है। जहां जीवन अपनी पूरी आग में तपता है। जीवन से सीधा संपर्क साधा, तब उन्होंने कुछ जाना। वह जानना बुद्धि का न रहा फिर। वह जानना उनकी समग्रता का हो गया।
और जब तुम्हारे रोम-रोम से जानना निकलता है, तुम्हारी श्वास-श्वास में गंध आ जाती है जानने की, जब तुम्हें चेष्टा भी नहीं करनी पड़ती कि तुम जो जानते हो उसे याद रखो; जब वह तुम्हारा होना ही हो जाता है, जिसे भूलने का ही उपाय न होगा, जिसे तुम कहीं भूलकर रख आ न सकोगे, जो तुम्हारे भीतर की अंतर-ध्वनि हो जाती है, जो तुम्हारी आवाज हो जाती है, तभी--तब इन सूत्रों का अर्थ बिलकुल और होता है। अगर इन्हें तुमने शास्त्र की दृष्टि से देखा तो इनके अर्थ बदल जाते हैं। समझने की कोशिश करो। पहला सूत्र है:
‘सत्पुरुष सभी त्याग देते हैं। वे कामभोगों के लिए बात नहीं चलाते। सुख मिले या दुख, पंडित विकार प्रदर्शित नहीं करते।’
इसे तुम बुद्धि से पढ़ सकते हो--जैसा कि पढ़ा गया है सदियों से--और तब भयंकर हानि हो गई है। क्योंकि बुद्धि से तुम पढ़ोगे तो यह समझ में आएगा: सत्पुरुष सभी त्याग देते हैं। तो जोर लगता है त्याग पर। साफ है, वक्तव्य में कहीं कोई भूल-चूक नहीं है, सीधा है।
‘सत्पुरुष सभी त्याग देते हैं।’
तुम जब इसे सुनोगे, तुम जब इसे गुनोगे--जीवन से नहीं, शास्त्र से; जब शब्द ही तुम्हारे भीतर एक तरंग बनकर विचार का जन्म देगा तो तुम्हें भी समझ में आएगा--सब छोड़ना होगा, तब तुम सत्पुरुष हो सकोगे। बस, भूल हो गई।
बुद्ध कह रहे हैं, सत्पुरुष सब छोड़ देते हैं। बुद्ध यह नहीं कह रहे हैं कि जो सब छोड़ देते हैं, वे सत्पुरुष हो जाते हैं। बुद्ध यह कह रहे हैं, सत्पुरुष हो जाओ, सब छूट जाता है। छूटना, छाया की तरह परिणाम है। छूटना, छोड़ना नहीं है।
फिर से दोहराऊं, ‘सत्पुरुष सभी त्याग देते हैं।’
अब सोचने का यह है कि त्यागने के कारण सत्पुरुष होते हैं, या सत्पुरुष होने के कारण त्याग देते हैं?
अगर बुद्ध को यही कहना था कि सब छोड़ने वाले सत्पुरुष हो जाते हैं, तो ऐसा ही कहा होता कि जो सब छोड़ देते हैं, वे सत्पुरुष हैं। लेकिन बुद्ध कहते हैं, सत्पुरुष सब छोड़ देते हैं। सत्पुरुष होना, छोड़ने से कोई अलग बात है। छोड़ना पीछे-पीछे आता है, जैसे गाड़ी चलती है तो चाक के निशान बन जाते हैं।
तुम चलते हो, तुम्हारी छाया तुम्हारे पीछे चली आती है। उसको लाना थोड़े ही पड़ता है। तुम लौट-लौटकर देखते थोड़े ही हो कि छाया कहीं छूट तो नहीं गई; आती है कि नहीं आती? तुम छोड़ना भी चाहो तो भी छोड़ न सकोगे। छाया आती ही है। छाया तुम्हारी है, जाएगी कहां?
त्याग ज्ञान के पीछे ऐसे ही आता है, जैसे तुम्हारे पीछे छाया आती है--परिणाम है। और जिन्होंने शास्त्र से पढ़ा, उन्होंने समझा, कारण है। कारण नहीं है त्याग। त्याग कर-कर के तुम बिलकुल सूख जाओ, हड्डियां हो जाओ, सत्पुरुष न होओगे। भोजन का अभाव तुम्हें पीला कर जाए, लेकिन सत-बोध से उठी हुई स्वर्णिम आभा उससे प्रगट न होगी।
जो-जो पीला है, सभी सोना नहीं है। रोग से भी आदमी पीला पड़ जाता है; उसे पीतल समझना। बोध से भी आदमी के जीवन में स्वर्ण आभा प्रगट होती है, पर वह बात और। उसके सामने सूरज लजाते हैं, शर्माते हैं।
तो ध्यान रखना, त्याग पर जोर बुद्ध पुरुषों का बिलकुल नहीं है; और उनकी हर वाणी में त्याग का उल्लेख है। और जिन्होंने भी पंडितों की तरह शास्त्रों में खोजा है, वे एक अरण्य में खो गए। कितना सुगम है अरण्य में खो जाना!
‘सत्पुरुष सभी कुछ त्याग देते हैं।’
कितनी जल्दी मन में खयाल उठता है, सूत्र मिल गया। सभी कुछ त्याग दो, सत्पुरुष हो जाओगे। काश, इतनी आसान बात होती! तब तो जो भिखारी हैं, जिनके पास कुछ भी नहीं है, वे सत्पुरुष हो गए होते। जिनके पास कुछ भी नहीं है, वे सत्पुरुष हो गए होते। तुम भी छोड़ दोगे तो तुम्हारे पास भी कुछ नहीं होगा, लेकिन इससे तुम सत्पुरुष न हो जाओगे।
मैंने सुना है, एक भिखारी एक संदूक वाले की दुकान में चला गया। रंग-बिरंगे संदूक देखकर उसे बड़ा रस आया। वह घूम-घूमकर संदूक देखने लगा। दुकानदार भी दिखाने लगा। कोई और ग्राहक थे भी नहीं। ऐसे तो संदेह लगा कि यह क्या संदूक खरीदेगा! क्योंकि संदूक में रखने के लिए कुछ चाहिए भी। लेकिन कोई ग्राहक था भी नहीं, तो दुकानदार ने उसमें रस लिया, उसे घुमाया, दिखाया। सब देखकर जब वह चलने लगा तो उसने कहा, खरीदेंगे नहीं? उसने कहा, ये किस काम में आते हैं? वह तो रंग, आकृतियां देखकर अंदर चला आया था। उसने पूछा, ये किस काम में आते हैं? उस दुकानदार ने कहा, हद हो गई। कपड़े-लत्ते रखने के काम आते हैं, खरीद लो, कपड़े-लत्ते रखना। तो उसने कहा, कपड़े-लत्ते इसमें रख लेंगे तो पहनेंगे क्या, तेरी ऐसी-तैसी? और तो कुछ है ही नहीं। यही कपड़े-लत्ते हैं, जो पहने हुए हैं।
लेकिन ऐसी अवस्था में भी तो तुम कहीं पहुंच नहीं जाते। नग्न होकर भी तो तुम कहीं नहीं पहुंच जाते। तुम्हारे होने में, तुम्हारे पास क्या है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम दीन हो तो दीन हो, तुम धनी हो तो दीन रहते हो। तुम्हारे पास चीजें हों तो तुम वही हो, चीजें हट जाएं तो तुम वही हो। तुम्हारा होना चीजों पर निर्भर नहीं है।
और तुम्हारे तथाकथित त्यागी भी यही समझाते हैं और तथाकथित भोगी भी यही समझाते हैं। दोनों का भरोसा चीजों में है। भोगी कहते हैं, चीजों को बढ़ाओ तो तुम्हारी आत्मा बढ़ जाएगी, तुम्हारा सुख बढ़ेगा, आनंद बढ़ेगा। त्यागियों की भाषा भी यही है। वे कहते हैं, चीजों को घटाओ तो तुम्हारी आत्मा बढ़ेगी।
अगर दोनों में ही चुनना हो तो भोगी थोड़ा गणित-पूर्ण मालूम होता है। वह कहता है, चीजों को बढ़ाओ तो तुम्हारी आत्मा बढ़ेगी। त्यागी कहता है, चीजों को घटाओ तो तुम्हारी आत्मा बढ़ेगी। अगर तर्क से ही चलना हो तो भोगी ही ठीक कहता होगा। लेकिन भोगी का तर्क तुम्हें ठीक नहीं लगता, क्योंकि तुमने चीजें बढ़ाकर देख लीं और आत्मा नहीं बढ़ी। और त्यागी का तर्क ठीक लग जाता है--अपरिचित है। तुम सोचते हो, बढ़ाकर देख लिया, आत्मा नहीं बढ़ी, अब घटाकर देख लें। तो लोग त्याग में लग जाते हैं।
न तो चीजों के बढ़ने से बढ़ती है आत्मा, न चीजों के घटने से बढ़ती है आत्मा; आत्मा का चीजों से कुछ संबंध नहीं है। तुम्हारी छाया के बढ़ने से तुम बड़े होते हो? या कि तुम्हारी छाया के छोटे होने से तुम छोटे होते हो?
मैंने सुना है, एक दिन सुबह एक लोमड़ी अपनी मांद के बाहर निकली। सुबह का उगता सूरज था, बड़ी लंबी छाया बनी लोमड़ी की, दूर तक जाती थी। उसने सोचा, आज तो बड़ी मुश्किल हुई। नाश्ते के लिए कम से कम एक ऊंट की जरूरत पड़ेगी। इतनी बड़ी छाया! इतनी बड़ी मैं हूं। ऊंट से कम में काम न चलेगा।
वह ऊंट की तलाश में लग गई। दिन भर खोजती रही, भर दोपहरी में जब सूरज सिर पर आ गया, अभी भी भूखी थी। ऊंट तो मिला न था, मिल भी जाता तो भी करती क्या? उसने लौटकर फिर छाया देखी, छाया सिकुड़कर बिलकुल पैरों के पास आ गई थी। उसने कहा, अब तो चींटी भी मिल जाए तो भी चल जाएगा।
छाया से तुम चलोगे तो यही गति होगी। न तो छाया के बड़े होने से तुम बड़े होते, न छाया के छोटे होने से तुम छोटे होते। परिग्रह यानी छाया। वस्तुएं यानी छाया। तुम्हारा मकान, तुम्हारी धन-दौलत, यानी छाया।
मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि भोगी का तर्क तो गलत है ही, त्यागी का तर्क भी गलत है। बुद्ध पुरुषों ने यह तर्क नहीं दिया। बुद्ध पुरुष ऐसे तर्क देकर बुद्धू बनेंगे क्या? यह तो बात ही बुनियादी रूप से गलत है। यह तो आत्मा को वस्तुओं से गौण कर देना हुआ। अगर वस्तुओं के घटने-बढ़ने से आत्मा बढ़ती-छोटी होती हो तो आत्मा गौण हो गई, वस्तुएं प्रमुख हो गयीं।
न, बुद्ध पुरुषों ने कुछ और ही बात कही है। चूक हो गई है सुनने में, शास्त्र पढ़ने में।
‘सत्पुरुष सभी त्याग देते हैं।’
इसलिए नहीं कि त्याग सत्पुरुष होने का मार्ग है, बल्कि जब तुम देखना शुरू करते हो, जब तुम्हारे भीतर सदबुद्धि का जन्म होता है, जब तुम ध्यान की अवस्था को उपलब्ध होते हो, जब तुम्हारे भीतर तरंगें विचारों की थोड़ी शांत होती हैं, आंखों की धूल थोड़ी झड़ती है, चेतना के बादल थोड़े हटते हैं, तुम्हारे भीतर थोड़ी जगह होती है जहां जागरण हो सके, भीतर का दीया थोड़ा जलता है, अंधेरा थोड़ा कटता है, वहां तुम अचानक देखते हो कि तुम जिन चीजों को मूल्य दे रहे थे, उनमें कोई भी मूल्य नहीं। जिन चीजों को तुमने अपना सारा जीवन समर्पित किया था, उन चीजों में कोई भी मूल्य नहीं। तुम छाया के लिए आत्मा गंवा रहे थे। मरते दम तक लोग गंवाए चले जाते हैं छाया के लिए आत्मा। मरते दम तक आदमी भिखारी बना रहता है। वस्तुओं की मांग जारी रहती है।
मुझे पीने दे पीने दे कि तेरे जामे-लाली में
अभी कुछ और है कुछ और है कुछ और है साकी
आदमी गिड़गिड़ाए ही चला जाता है कि अभी तेरे शराब के प्याले में थोड़ी और बाकी है, थोड़ी और बाकी है।
मुझे पीने दे पीने दे कि तेरे जामे-लाली में
अभी कुछ और है कुछ और है कुछ और है साकी
जिंदगी खोती चली जाती है, मौत की मूर्च्छा आने लगी, मौत की नींद घेरने लगी। और आदमी चिल्लाए चला जाता है, मुझे पीने दे, मुझे पीने दे।
मरते हुए आदमी को देखो। अभी भी जार-जार आंसू रो रहा है--उस जिंदगी के लिए, जिसमें कुछ भी न पाया; उस भाग-दौड़ के लिए, जो कहीं न पहुंचाई। और दौड़ना चाहता है। अगर कहीं कोई परमात्मा हो तो और मांग लेना चाहता है--चार दिन और मिल जाएं। जो मिले थे दिन, वे ऐसे ही गंवाए। और भी मिल जाएंगे तो ऐसे ही गंवाएगा। जिंदगी को हम छाया के मंदिरों में समर्पित किए हैं।
बहे जाते हो रवानी के साथ
उलटे पतवार घुमाओ तो जानें
संभलकर कदम रखने वाले बहुत हैं
पाने को सब कुछ गंवाओ तो जानें
लेकिन सब कुछ गंवाने के लिए वही राजी होता है, जिसे सब कुछ में कुछ भी नहीं है, यह दिखाई पड़ता है। हीरा उसी दिन तुम्हारे हाथ से छूटकर गिर जाता है, जिस दिन कंकड़ दिखाई पड़ता है। कंकड़ उसी क्षण उठकर आत्मा में विराजमान हो जाता है, जिस क्षण हीरा मालूम पड़ता है। अंततः तुम्हारा बोध निर्णायक है। तुम मूल्य देते हो, उठा लेते हो। तुम मूल्य नहीं देते, गिर जाता है। सारी बात तुम्हारे बोध की है, तुम्हारी दृष्टि की है, तुम्हारी प्रतीति की है।
चारों तरफ करोड़ों लोगों की भीड़ है, वह छाया के सहारे चल रही है। उसी में तुम पैदा होते हो। बचपन से तुम भी उसी की भाषा सीखने लगते हो। फिर इस भीड़ में एक छोटा सा तबका है त्यागियों का भी; वह भी इसी भीड़ में है। भला भीड़ पैर के बल चलती हो, वे सिर के बल शीर्षासन करते खड़े हैं, लेकिन भीड़ में हैं। भला भीड़ पूरब को जाती हो, वे पश्चिम को जाते हैं, लेकिन भीड़ में हैं। कुछ भेद नहीं है उनमें। भाषा उनकी भी वही है।
जिंदगी आधी से ज्यादा गुजर जाती है, जब तुम्हें थोड़ा सा समझ में आना शुरू होता है कि यह तो कुछ सार न हुआ। कमाया, वह कुछ गंवाया जैसा लगता है। जो पाया, वह सिर्फ मुंह में एक कडुवा स्वाद छोड़ गया है। कोई प्रतीति नहीं होती उपलब्धि की। ऐसा नहीं लगता कि जीवन की नियति पूरी हुई। ऐसा नहीं लगता कि हम कहीं पहुंचे, कोई मंजिल करीब आई। कोई बीज टूटा, वृक्ष बना, ऐसा मालूम नहीं होता। कोई दीया जला, रोशन हुआ, ऐसा मालूम नहीं होता। हाथ खाली के खाली लगते हैं।
तो स्वभावतः उस क्षण तुम्हें विपरीत तर्क पकड़ में आना शुरू होता है कि भोगकर देख लिया, गलत था यह, संसारी गलत थे, अब त्यागियों की सुनना शुरू करते हो। आधी जिंदगी लोग संसार में गंवा देते हैं, कभी अगर होश भी आया तो आधी फिर संन्यास में गंवा देते हैं। तर्क वही है। पहले वस्तुएं इकट्ठी करते थे, अब वस्तुएं छोड़ते हैं; लेकिन नजर वस्तुओं पर लगी होती है।
नजर का भीतर जाना जरूरी है।
बहे जाते हो रवानी के साथ
उलटे पतवार घुमाओ तो जानें
और जब नजर भीतर की तरफ चलती है तो उलटे पतवार घूमते हैं। जब तक नजर बाहर की तरफ जाती है, तब तक तुम भीड़ के साथ चल रहे हो। तब तक तुम हो ही नहीं, भीड़ है। तुम नहीं हो, भीड़ है अंधों की, भीड़ है बहरों की, भीड़ है मुर्दों की; तुम नहीं हो। तब तक तुम धक्के-मुक्के में चलते चले जाते हो।
तुमने कभी मेलों में देखा कि अगर भीड़ की रवानी में पड़ जाओ तो तुम न भी जाना चाहो तो भी चलना पड़ता है, नहीं तो कुचल दिए जाओगे। सारी भीड़ जा रही है, भागी जा रही है, तुम्हें भी भागना पड़ता है। अगर खड़े होओगे तो गिरोगे। उलटे जाना मुश्किल है, खड़े होना मुश्किल है, चलना ही एकमात्र सहारा मालूम पड़ता है। इसलिए नहीं कि तुम चलना चाहते हो।
हजारों लोगों के भीतर झांककर मैंने पाया कि वे चलना नहीं चाहते, थक गए हैं। लेकिन चारों तरफ से भीड़ है--पत्नी है, बच्चे हैं, पति है, मां है, बाप है, मित्र है, परिवार है, दुकान है, बाजार है--सारी भीड़ भागी जा रही है। सारा संसार भागा जा रहा है। उस भागने के साथ न भागो तो कुचल दिए जाओगे।
बहे जाते हो रवानी के साथ
उलटे पतवार घुमाओ तो जानें
जिंदगी में जो पहली महत्वपूर्ण घटना घटती है किसी व्यक्ति के, वह है कि आंख बंद हो और भीतर की तरफ पतवार घूमने लगे। चेतना की नाव भीतर की तरफ बहने लगे। संसारी भी भागा जा रहा है बाहर की तरफ--पूरब; तुम्हारा त्यागी भी भागा जा रहा है बाहर की तरफ--पश्चिम; धार्मिक व्यक्ति न तो पूरब जाता है, न पश्चिम; धार्मिक व्यक्ति भीतर की तरफ जाता है।
उलटे पतवार घुमाओ तो जानें
आंख बंद करता है, ताकि वस्तुओं का संसार खो जाए। और उसको जानने में लग जाता है, उसकी खोज में लग जाता है, जो मैं हूं। और वहां ऐसे हीरे हैं, वहां ऐसे मोती हैं, वहां ऐसे स्वर्ण की वर्षा है, कि अगर बाहर के स्वर्ण व्यर्थ हो जाएं, आश्चर्य नहीं।
आश्चर्य तो तभी होगा कि जिसने भीतर झांका हो और उसे बाहर के मूल्य अभी भी मूल्य बने रहें। यह असंभव है। जिसने एक बार भीतर झांका, जिसने बड़ी संपदा में अनुभूति पा ली, बाहर की संपदाएं अपने आप थोथी और व्यर्थ हो जाती हैं। तुलना पहली दफा पैदा होती है। पहली बार रोशनी मिलती है तो तुम जान पाते हो कि बाहर अंधेरा है। इसके पहले छोड़ने की बात ही गलत है।
भीतर रोशन हो जाने का नाम सत्पुरुष हो जाना है।
‘सत्पुरुष सभी छंद-राग आदि त्याग देते हैं।’
जब भीतर का छंद बजने लगे तो कौन बाहर के छंदों का उपद्रव लेता है? जब भीतर की वीणा बजने लगे तो बाहर के सब स्वर शोरगुल हो जाते हैं।
श्री अरविंद ने कहा है कि जिसे पहले मैंने प्रकाश जाना था, भीतर के प्रकाश को जानकर पाया कि वह तो अंधेरा था। और जिसे मैंने पहले जीवन जाना था, भीतर के जीवन को जानकर पाया कि वह तो मृत्यु का ही बसेरा था। जिसे मैंने पहले अमृत जाना था, भीतर झांककर पाया कि वह तो जहर था। मैं किसके धोखे में पड़ा था?
पहली बार जीवन में क्रांति का सूत्रपात होता है, जब तुम भीतर की तरफ झांकते हो।
उलटे पतवार घुमाओ तो जानें
चेतना की सहज धारा बाहर की तरफ है, क्योंकि तुम उनके बीच पैदा होते हो, जो सब बाहर की तरफ बहे जा रहे हैं। बच्चा तो अनुकरण करता है।
और इसलिए जीवन में बड़ी से बड़ी बात बुद्ध ने कही है, कल्याण मित्र खोज लेना है। कल्याण मित्र का अर्थ है: ऐसे लोग, जो भीतर की तरफ बहे जा रहे हैं, जिन्होंने उलटी पतवार चलानी शुरू की। उनके पास बैैठकर शांति में, मौन में, उनके चप्पुओं की भीतर जाती आवाज को सुनकर तुम्हारे भीतर भी भीतर जाने का भाव उदित होगा। तुम्हारे भीतर भी कोई सोई आकांक्षा जगेगी।
जैसे किसी पिंजड़े में बंद पक्षी को, आकाश में उड़ते पक्षी को देखकर उड़ने की आकांक्षा का जन्म होता है। पंख फड़फड़ाता है। याद आती है, मैं भी उड़ सकता था। यह आकाश की नीलिमा मेरी भी हो सकती थी। यह ओर-छोर हीन विस्तार मेरा ही था। पहली दफा कटघरा दिखाई पड़ता है। पहली बार चारों तरफ के सींखचे दिखाई पड़ते हैं। कल तक तो वह इसे घर ही समझा था, इसी में उछल-कूद लेता था। इसे ही जीवन समझा था, इसी में थोड़ी चहलकदमी कर लेता था, शोरगुल कर लेता था। समझा था, यही सब है।
कल्याण मित्रों के पास...बुद्ध ने भिक्षुओं का संघ बनाया, सिर्फ इसीलिए; कोई संगठन के लिए नहीं। संगठन से धर्म का क्या लेना-देना! संगठन तो धर्म का विरोधी है। बुद्ध ने भिक्षुओं का संघ बनाया--एक परिवार, जिसमें कारागृह में बंद व्यक्तियों को कारागृह के बाहर के पक्षियों का थोड़ा साथ मिल जाए। इसको हमने सत्संग कहा है। ताकि किसी और को देखकर तुम्हें भी अपने घर की याद आ जाए।
तुमने कभी खयाल किया! अगर तुम परदेश में हो, वर्षों से परदेश में हो, अपनी भाषा भी नहीं बोल सकते, भूल ही गए हो, और अचानक किसी दिन तुम्हें अपने देश का कोई वासी मिल जाए, कैसे गले मिलकर तुम मिलते हो! कोई परिचय भी नहीं है इससे। इसे तुमने कभी देखा भी न था पहले। अपने देश में भी तुमने इसे कभी न जाना था। लेकिन वही रूप-रंग, वही आंख, वही ढंग--तत्क्षण तुम्हारी भाषा लौट आती है। तुम कैसे घुल-मिलकर इससे बात करते हो, जैसे जन्मों-जन्मों का बिछुड़ा कोई प्यारा मिल गया हो। अपरिचित आदमी है, लेकिन तुम्हारे देश का है, तुम्हारी भाषा बोलता है।
ठीक ऐसी ही घटना घटती है, जब तुम किसी सत्संग की धारा में पड़ जाते हो। तुम्हें अपने देश के लोग मिल गए। तुम्हें घर की तरफ लौटते लोग मिल गए। इनकी मौजूदगी तुम्हारे भीतर सोई हुई यादों को जगा देगी। तुम्हारे पंख फड़फड़ाने लगेंगे। तुम्हारे जीवन में तुलना पैदा होगी। और तुम अब तक जिसे जीवन कहते थे, वह व्यर्थ दिखाई पड़ने लगेगा। लेकिन थोड़ा स्वाद चाहिए। भीतर का स्वाद मिल जाए, बाहर व्यर्थ हो जाता है।
निश्चित ही सत्पुरुष सभी छंद-राग छोड़ देते हैं। भीतर का छंद मिल गया, छंदों का छंद मिल गया।
जिंदगी रक्स में है दोश पे मैखाना लिए
तिश्नगी खुद है छलकता हुआ पैमाना लिए
और जब जिंदगी खुद नाच रही हो भीतर!
जिंदगी रक्स में है दोश पे मैखाना लिए
और अपने कंधे पर ही मयखाना लिए जिंदगी खुद भीतर नाचती हो!
तिश्नगी खुद है...
और प्यास खुद हाथों में छलकता पैमाना लिए खड़ी हो, फिर बाहर की मधुशालाएं, फिर बाहर के नृत्य धीरे-धीरे दूर होते जाते हैं, दूर की आवाज होते जाते हैं। धीरे-धीरे, जैसे तारों जितना फासला तुम्हारे और उनके बीच हो जाता है। वह आवाज फिर तुम तक नहीं पहुंचती।
पहुंचती है अभी, क्योंकि तुम्हारा रस है वहां। जहां तुम्हारा रस है, वही तुम्हें सुनाई पड़ जाता है। जब रस भीतर बहने लगता है, बाहर के छंद खो जाते हैं, बाहर का राग-रंग खो जाता है। लेकिन ध्यान रखना, यह परिणाम है।
सत्पुरुषत्व को पाना कारण है, त्याग परिणाम है।
स्वयं को पाना कारण है, संन्यास परिणाम है।
संन्यास से किसी ने कभी स्वयं को नहीं पाया। स्वयं को पाने की यात्रा शुरू होती है तो संन्यास घटने लगता है।
‘वे कामभोगों के लिए बात नहीं चलाते।’
जो आत्मभोग में लगा हो, वह क्यों कामभोग की बात चलाए? जिसका अपने से मिलन हो रहा हो, जो उस परम आनंद में डूब रहा हो, जिसके कूल-किनारे खोते जा रहे हों, जिसकी सरिता सागर में गिर रही हो, अब वह क्या बातें करे किनारों की? अब बूंद क्यों चिंतित हो अपनी सीमाओं के लिए? लेकिन सम्हलकर चलना; कामभोग छोड़ने से कोई आत्मभोग को उपलब्ध नहीं होता। आत्मभोग को उपलब्ध होने से कामभोग छूट जाते हैं।
इसे सदा याद रखना; क्योंकि दूसरा तर्क बड़ा सुविधापूर्ण है। और तुम्हें लगता है, अभी कर सकते हो। कामभोग छोड़ना है? छोड़ सकते हो। पकड़ा तुमने है, छोड़ भी सकते हो। पकड़ने से कुछ नहीं पाया, छोड़ने से भी कुछ न पाओगे। पकड़ने से दुख पाया, छोड़ने से भी दुख पाओगे। क्योंकि दुख तो उस बाहर जाती दृष्टि में ही समाया हुआ है।
तो मैं यहां भोगियों को दुखी देखता हूं और त्यागी होने के लिए आतुर देखता हूं। त्यागियों को दुखी देखता हूं और भोगी होने के लिए आतुर देखता हूं। जो स्थिति तुम्हारी है, वहीं दुख मालूम होता है।
इसे तुम ऐसा समझो तो आसान होगा। तुम अकेले थे, तब भी तुम दुखी थे। तब तुम किसी का साथ खोजते थे, विवाह कर लें, कोई संगी-साथी मिल जाए। फिर विवाह कर लिया, अब तुम विवाहित होकर दुखी हो। अब तुम सोचते हो, इससे तो अकेले ही होना अच्छा था। पता ही न था कि कितना सुख था अकेले होने में। मगर तुम यह मत सोचना कि संयोग से पत्नी मर जाए तो तुम बड़े सुखी हो जाओगे। पत्नी के मरते ही तुम अचानक दूसरी पत्नी की तलाश करने लगोगे। दो-चार दिन शायद तुम राहत ले लो, विश्राम कर लो, थक गए होओ ज्यादा, लेकिन जल्दी ही तुम पाओगे कि अकेले होने में बड़ी पीड़ा है। फिर तुम दो होना चाहते हो।
तुम्हारे भीतर भी त्याग और भोग का खेल चलता रहता है। अलग-अलग व्यक्ति ही त्याग और भोग का खेल करते हैं, ऐसा नहीं। तुम्हारे भीतर, प्रत्येक के भीतर त्याग और भोग का खेल साथ-साथ चलता रहता है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
आत्म-जागरण न तो त्याग है, न भोग है; क्योंकि आत्म-जागरण बाहर से मुक्त होने की कला है। आत्म-जागरण स्व में ठहरने की, स्वस्थ होने की कला है। सत्पुरुष, बुद्ध उसी को कहते हैं, जिसने अपने होने में थिरता पा ली, जिसकी लौ अकंप जलने लगी।
‘सुख मिले या दुख, पंडित विकार नहीं प्रदर्शित करते।’
अभी तो दुख मिलेगा तो तुम कैसे प्रगट करने से बचोगे अपनी प्रतिक्रिया? दुख मिलेगा, तुम दुखी हो जाओगे; चाहे तुम छिपाने की कोशिश भी करो। यह भी हो सकता है कि दूसरे को तुम पता भी न चलने दो, पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; तुम दुखी हो जाओगे। सुख मिलेगा, तुम सुखी हो जाओगे।
अभी ऐसा होता है, जो भी घटना घटती है, उसके साथ तुम्हारा तादात्म्य हो जाता है। तुम दूर नहीं रह पाते। दुख आता है तो तुम दुख के साथ एक हो जाते हो। तुम कहने लगते हो, मैं दुखी। कहो न कहो, भीतर तुम जानने लगते हो, मैं दुखी। सुख आता है, तुम सुख के साथ एक हो जाते हो। तुम कहने लगते हो, मैं सुखी। सुख आता है, तुम्हारी चाल बदल जाती है। दुख आता है, तुम्हारी चाल बदल जाती है। दुख आता है, तुम ऐसे चलने लगते हो, जैसे मुर्दा। सुख आता है, तुम ऐसे नाचने लगते हो, जैसे जीवंत। अभी सुख और दुख तुम्हें पूरा का पूरा घेर लेते हैं। अभी तुम्हारा होना सुख-दुख के पार नहीं है, सुख-दुख के भीतर है।
सत्पुरुष वही है, जिसके पास अपना होना है, प्रामाणिक होना है। सुख होता है तो वह जानता है कि सुख आया, लेकिन मैं सुख नहीं हूं। दुख आता है तो वह जानता है, दुख आया, लेकिन मैं दुख नहीं हूं। उसकी चाल में कोई भी फर्क नहीं पड़ता। उसके भीतर के छंद वैसे ही बने रहते हैं। उसके भीतर कुछ भी भेद नहीं पड़ता। वह दर्पण की भांति होता है। दर्पण के सामने कोई न रहे तो दर्पण खाली होने में भी प्रसन्न है। दर्पण के सामने कोई सुंदर छबि आ जाए तो भी ठीक, कोई कुरूप व्यक्ति आ जाए तो भी ठीक। दर्पण इससे कुछ विचलित नहीं होता। दर्पण अपने होने में थिर होता है।
सुबह होती है, शाम होती है। ऐसे ही दुख आते हैं, सुख आते हैं, चले जाते हैं। तुम्हारे पास से गुजरते हैं, रास्ते पर चलने वाले राहगीर हैं, तुम नहीं हो। जिसे जैसे ही इस बात का स्मरण आना शुरू हुआ कि मैं पृथक हूं सारे अनुभवों से, अनुभव मात्र मुझसे अलग हैं, मैं साक्षी हूं, उसके जीवन में सत्पुरुष की सीढ़ी लगी।
‘सुख मिले या दुख, पंडित विकार नहीं प्रदर्शित करते।’
यह पंडित की परिभाषा हुई, कि बाहर कुछ भी घट जाए, उनके भीतर आकाश वैसा का वैसा निराकार बना रहता है; कोई भेद नहीं आता। बादल आ जाएं आकाश में तो आकाश निर्विकार रहता है। बादल चले जाएं तो निर्विकार रहता है। आकाश को कुछ छूता ही नहीं--अस्पर्शित!
इसलिए ठीक सत्पुरुष संसार से भयभीत नहीं होगा। संसार उसे कलुषित नहीं कर सकता। वह जंगल में जाकर छिप न जाना चाहेगा। अगर जंगल में पहले छिप भी गया होगा तो वापस लौट आएगा। क्या फर्क पड़ता है अब? जंगल हो कि बस्ती हो, मरघट हो कि बाजार हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। जिस दिन तुम ऐसे हो जाते हो कि बाहर के द्वंद्व तुम्हें भीतर खंडित नहीं करते...।
तुमने कभी खयाल किया? पानी पर लकीर खींचो, खिंचती है, लेकिन खिंचते ही मिट जाती है। रेत पर लकीर खींचो, खिंचती है, थोड़ी देर टिकती है; जब हवाएं आएंगी, कोई मिटाएगा, तब मिटेंगी। पत्थर पर लकीर खींचो, टिक जाती है; सदियों तक टिकी रहती है। आकाश में लकीर खींचो, खिंचती ही नहीं; मिटने का सवाल ही नहीं है।
इसी तरह के चार तरह के लोग होते हैं। पत्थर की तरह लोग, जिन पर कुछ खिंच जाता है तो मिटता ही नहीं, मिटाए नहीं मिटता। क्रोधित हो गए तो जिंदगी भर क्रोध को खींचते रहते हैं। किसी से दुश्मनी बन गई तो बन गई। अपने बच्चों को भी दे जाएंगे दुश्मनी वसीयत में, कि हम नहीं निपटा पाए, तुम निपटा लेना। हम नहीं मार पाए दुश्मन को, तुम मार डालना।
एक आदमी मर रहा था तो उसने अपने बेटों को अपने पास बुलाया और कहा कि मरते आदमी की इच्छा पूरी करो। तुम्हारा बाप--मैं मर रहा हूं। छोटी सी इच्छा है, वचन दे दो। बड़े बेटे तो जानते थे कि यह आदमी खतरनाक है। बाप हो तो क्या? यह जरूर कोई उपद्रव करवा जाएगा। और मरते को वचन दे दिया, पीछे पूरा न किया, वह भी ठीक न रहेगा। तो वे तो चुप रहे सिर झुकाए। छोटे बेटे को कुछ ज्यादा अंदाज न था बाप का; दूर पढ़ता था विश्वविद्यालय में। वह पास आ गया। उसने कहा कि आप जो कहें। बाप ने उसके कान में कहा कि बस, एक इच्छा रह गई है, कि जब मैं मर जाऊं तो मेरी लाश के टुकड़े करके पड़ोसियों के घर में डाल देना और पुलिस में रिपोर्ट कर देना कि जिंदा-जिंदा तो इन लोगों ने हमारे बाप को सताया ही, मरकर भी उसकी लाश के टुकड़े कर दिए। उसने अपने बेटे से कहा कि मेरी आत्मा स्वर्ग की तरफ जाती हुई बड़ी प्रसन्न होगी यह देखकर कि पड़ोसी थाने की तरफ बंधे चले जा रहे हैं।
लोग अपनी दुश्मनियां, अपनी घृणाएं, अपने क्रोध वसीयत में दे जाते हैं। खुद तो जीवनभर जलते ही हैं, पीढ़ी दर पीढ़ी दुश्मनियां चलती हैं, शत्रुता चलती है। पारिवारिक, पुश्तैनी दुश्मनियां चलती हैं। लकीर जैसे पत्थर पर खिंच जाती है। यह अधिकतम जड़ स्थिति है चैतन्य की। जैसे तुम बिलकुल ही सोए हुए हो, तुम्हें होश ही नहीं है।
फिर कुछ लोग हैं, जो रेत की तरह हैं--खिंचती है; आज खिंचती है, कल मिट जाती है। कुछ देर चलती है, घंटे-घड़ी, फिर शांत हो जाते हैं, ठीक हो जाता है।
फिर कुछ लोग हैं, छोटे बच्चों की तरह, खींची भी नहीं--खिंचती है--इधर तुमने खींची भी नहीं, मिट जाती है। बच्चा क्रोधित होता है, उछल-कूद लिया, शोरगुल मचा लिया, भूल गया। अभी घड़ी भर पहले दूसरे बच्चे से कह रहा था, जिंदगी भर तुम्हारा मुंह न देखूंगा; और फिर पांच मिनट बाद दोनों साथ हाथ में हाथ डाले बैठे गपशप कर रहे हैं। बात आई-गई हो गई--पानी की तरह।
फिर सत्पुरुष हैं, जिनको हम संत कहें--आकाश की तरह। कुछ खिंचता नहीं; मिटने का सवाल ही नहीं है। संतत्व बच्चों से भी ज्यादा निर्दोष है।
जीसस से कोई ने पूछा, कौन तुम्हारे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश के अधिकारी होंगे? उन्होंने चारों तरफ नजर डाली उस भीड़ में और एक छोटे बच्चे को उठाकर कंधे पर रख लिया और कहा, जो इस बच्चे की भांति होंगे।
लेकिन बच्चे से भी आगे की बात है। बच्चे की भांति तो होना ही पड़ेगा, लेकिन बच्चे से भी ज्यादा निर्दोष होना पड़ेगा--आकाश की भांति।
‘सुख मिले या दुख, पंडित विकार प्रदर्शित नहीं करते।’
साधारण आदमी तो ऐसे जीता है, जैसे कभी कोई छिछला झरना देखा तुमने? कितना शोरगुल! गहराई कुछ भी नहीं, शोरगुल बहुत। कभी तुमने यह खयाल किया कि जितनी गहराई बढ़ जाती है, उतना ही शोरगुल कम हो जाता है। अगर नदी बहुत गहरी हो तो शोरगुल होता ही नहीं। अगर नदी बहुत-बहुत गहरी हो तो पता ही नहीं चलता कि चलती भी है! चाल भी इतनी धीमी और शांत हो जाती है।
कह रहा है शोरे-दरिया से समंदर का सुकूत
जिसका जितना जर्फ है उतना ही वो खामोश है
जितनी जिसकी गहराई है, उतना ही वह खामोश है।
तुम जब अपने भीतर जाओगे, तब तुम्हारी गहराई बढ़ेगी। तुम बाहर रहोगे तो तुम छिछले रह जाओगे, उथले रह जाओगे। बाहर रहने का अर्थ ही है कि तुम गहराई को छू ही न पाओगे। तुम छोटे-मोटे छिछले झरने रह जाओगे, तुम कभी सागर न हो पाओगे। और तुम्हारी संभावना थी प्रशांत महासागर हो जाने की; कि तुम एक ऐसी गहराई पा लो जो असीम है; जो शुरू तो होती है और अंत नहीं होती।
कह रहा है शोरे-दरिया से समंदर का सुकूत
जिसका जितना जर्फ है उतना ही वो खामोश है
अपने को थोड़ा देखो; तुम्हारी जिंदगी कैसी ऊपर-ऊपर, सतह-सतह पर है! जरा-जरा सी बातें कितना दुख दे जाती हैं! जरा-जरा सी बातें तुम्हें कैसा मस्त कर जाती हैं!
तुमने इंसान की फितरत पे कभी गौर किया
मये-सरजोश अभी, दुर्दे-तहे-जाम अभी
अभी तो लगता है कि उफनता तूफान है मस्ती का; जैसे शराब की प्याली ऊपर से बही जा रही हो। और क्षणभर बाद खाली प्याली, जिसमें सिर्फ तलहट बची है।
तुमने इंसान की फितरत पे कभी गौर किया
मये-सरजोश अभी, दुर्दे-तहे-जाम अभी
क्षण में ऐसा होता रहता है, जैसे हवा में डोलता एक पत्ता हो। तुम्हारा कोई व्यक्तित्व नहीं। तुम्हारी कोई आत्मा नहीं। तुम हो ही नहीं अभी। अभी तुम हवाओं के थपेड़े हो। अभी नदी की लहरें तुम्हें जहां ले जाती हैं, तुम चले जाते हो; बहते हुए सूखे पत्ते हो। अभी अस्तित्व में तुम्हारी कोई जड़ें नहीं। अन्यथा जिंदगी तुम्हें इतनी आसानी से न हिला पाएगी।
और जड़ें जिसे खोजनी हों, उसे भीतर जाना पड़ेगा। क्योंकि तुम भीतर से ही जुड़े हो परमात्मा से, सत्य से, अस्तित्व से। वृृक्षों के तो पैर जमीन में गड़े हैं, तुम्हारे प्राण परमात्मा में गड़े हैं। अपने भीतर तुम जितने गहरे जाओगे, उतना ही तुम पाओगे कि बाहर की बातें अब कम, और कम, और कम प्रभावित करती हैं।
एक घड़ी ऐसी आती है कि तुम पर ही घटना घटती है और तुम ऐसे खड़े देखते रहते हो, जैसे किसी और पर घट रही है--बस, सत्पुरुष का जन्म हुआ। तुम्हारे ही घर में आग लगी है और तुम खड़े देख रहे हो, जैसे किसी और के घर में आग लगी है। तुम्हारी ही पत्नी चल बसी है और तुम खड़े ऐसे हो, जैसे किसी और की पत्नी चल बसी। सब तुम्हारा लुट गया और तुम खड़े ऐसे हो, जैसे किसी और का लुट गया।
आल्डुअस हक्सले अमरीका का बड़ा विचारशील व्यक्ति था। कैलीफोर्निया में उसने अपने सारे जीवन एक बड़ा संग्रहालय बनाया था। दूर-दूर से बड़ी कीमती पुस्तकें लाया, सुंदर मूर्तियां, प्राचीन पुरातत्व की चीजें, शिलालेख; अपने सारे जीवन की संपत्ति उसने उसी में लगाई थी। चालीस साल की मेहनत थी उस आदमी की। और कहते हैं, एक अनूठा संग्रह था उसके पास। और अचानक एक दिन उसमें आग लग गई। पर इसी पुरातत्व की खोज में लगा-लगा, धीरे-धीरे इन्हीं सत्यों की खोज में लगा हुआ, उसके जीवन में एक क्रांति भी घट गई थी। उसे हम आधुनिक जगत का एक ऋषि कह सकते हैं। उस दिन उसने प्रमाण दिया। उसकी पत्नी ने समझा कि वह पागल हो जाएगा, क्योंकि सारा जीवन मिट्टी में गया। आग इतनी भयंकर थी कि कोई उपाय न रहा बचाने का कुछ भी। खुद की लिखीं किताबें, खुद की हस्तलिखित पांडुलिपियां, वे भी सब जल गयीं।
वह अपना खड़ा है, मकान को जलते देख रहा है। पत्नी घबड़ाई; क्योंकि न तो वह कुछ बोल रहा है, न परेशान दिख रहा है। सोचा कि क्या पागल हो गया? रो ले, चिल्ला ले, चीख ले, तो हल्का हो जाए। और आल्डुअस हक्सले ने कहा कि मुझे सिर्फ ऐसा लगा कि एक बोझ हल्का हुआ। और जल जाने के बाद जब मैंने दूसरे दिन अपने मकान को देखा, तो मुझे ऐसा लगा, जैसे एक सफाई हो गई; स्नान कर लिया हो।
जैसे ही तुम भीतर जाओगे, वैसे ही बाहर की घटनाएं कम से कम मूल्य की रह जाएंगी। धीरे-धीरे उनमें कोई मूल्य नहीं रह जाता। जैसे सांप अपनी केंचुल को छोड़कर सरक जाता है, ऐसे ही तुम अपने बाहर को छोड़कर भीतर सरक जाते हो। बाहर केंचुली ही पड़ी रह जाती है; उसका कोई भी मूल्य नहीं है।
‘जो अपने लिए या दूसरों के लिए पुत्र, धन या राज्य नहीं चाहता और न अधर्म से अपनी उन्नति चाहता है, वही शीलवान, प्रज्ञावान और धार्मिक है।’
‘जो अपने लिए या दूसरों के लिए...।’
क्योंकि हम बड़े धोखेबाज हैं। हम कहते हैं, अपने लिए तो हमें कुछ भी नहीं चाहिए, बच्चों के लिए कर रहे हैं। हम कहते हैं, अपने लिए तो क्या करना है? अपने लिए तो हम संन्यासी ही हैं, लेकिन अब पत्नी है, बच्चे हैं, घर-द्वार है। हमारी बेईमानी का अंत नहीं है। हम बड़ी तरकीबें निकालते हैं। हम दूसरों के कंधों पर रखकर बंदूकें चलाते हैं।
तो बुद्ध कह रहे हैं, ‘जो अपने लिए या दूसरों के लिए पुत्र, धन या राज्य नहीं चाहता...।’
जो महत्वाकांक्षी नहीं है। जिसके मन में प्रतिस्पर्धा की दौड़ नहीं है।
ध्यान रखना, जब भी तुम कुछ चाहते हो बाहर के संसार में तो तुम्हें आत्मा से मूल्य चुकाना पड़ता है। कौड़ी-कौड़ी भी तुम बाहर से लाते हो तो कुछ गंवाकर लाते हो। ऐसे मुफ्त कुछ भी नहीं मिलता। और बड़ा महंगा सौदा है।
पांच रुपए कमा लेते हो जरा सा झूठ बोलकर, तुम सोचते हो, इतने से झूठ में क्या बिगड़ेगा? लेकिन उतने झूठ में तुमने आत्मा का एक कोना गंवा दिया। तुमने भीतर की एक स्वच्छता गंवा दी। तुमने भीतर की एक शांति गंवा दी। क्योंकि एक झूठ हजार झूठ लाएगा; फिर कोई अंत नहीं है। हजार झूठ, करोड़ झूठ लाएंगे। एक छोटा सा झूठ बोलकर देखो कि झूठ में कैसी संतानें पैदा होती हैं। झूठ की बड़ी श्रृंखला पैदा होती है, बच्चे पर बच्चे पैदा होते चले जाते हैं। झूठ संतति-निग्रह को मानता ही नहीं। वह पैदा ही किए चला जाता है।
सत्य बिलकुल बांझ है। खयाल करो, जब भी तुम एक सत्य बोलते हो, बात खतम हो गई; पूर्णविराम आ गया। झूठ का सिलसिला अंत होता ही नहीं। सच बोलते हो, याद भी नहीं रखना पड़ता। झूठ के लिए बड़ी याददाश्त चाहिए। सच के लिए याददाश्त की भी जरूरत नहीं; उतना बोझ भी जरूरी नहीं। झूठ के लिए तो याददाश्त चाहिए ही। किसी से कुछ बोला, किसी से कुछ बोला। इस आदमी से झूठ बोल दिया आज, अब यह कल फिर पूछे तो कल का झूठ भी याद रखना चाहिए। और झूठ खिसकता है, क्योंकि झूठ की कोई जगह नहीं होती है ठहरने की। झूठ सरकता है। अगर तुम याद न रखो, बार-बार लौट-लौट कर याद न करो, तो तुम खुद ही भूल जाओगे। तुम खुद ही झंझट में पड़ जाओगे।
सत्य को याद रखने की भी जरूरत नहीं। जो है, उसे याद रखने की क्या जरूरत? वर्षों बाद भी याद आ जाएगा। जब जरूरत होगी याद आ जाएगा। उससे अन्यथा याद आने का कोई कारण नहीं। सत्य बोलने वाले आदमी का मन निर्भार होता है। जो निर्भार होता है, वह आकाश में उड़ सकता है।
झूठ बोलने वाला आदमी अपने गले में पत्थर लटकाए चला जाता है। फिर आकाश में उड़ना चाहता है तो कैसे उड़े? ये पत्थर जान ले लेते हैं।
एक झूठ बोले, तुमने आत्मा का एक कोना खराब कर दिया। मंदिर में तुम गंदगी ले आए। फूल को तुमने पत्थर से ढांक दिया। सड़ेगा यह फूल अब; इसके जीवन में अब तुमने अवरोध खड़ा कर दिया। तुमने झरने की सहज धारा को खंडित कर दिया। तुमने एक चट्टान अड़ा दी।
जरा सी चोरी कर लो--और ध्यान रखना, चोरी जरा सी और बड़ी नहीं होती। जरा सी, बड़ी ही है। सभी चोर यही सोचकर चोरी करते हैं कि इतनी सी से क्या बनता-बिगड़ता है? तुमने कभी खयाल किया, चोरी का, झूठ का गणित क्या है? झूठ सदा यही कहता है, इतना सा है, क्या बनता-बिगड़ता है? और आज बोल लिए, कोई सदा थोड़े ही बोलना है! एक दफा सम्हल गई बात, सम्हल गई। चोरी भी यही कहती है, इतनी सी है!
दो पैसे की चोरी और दो करोड़ रुपए की चोरी में कोई फर्क नहीं है। चोरी चोरी है; छोटी-बड़ी नहीं होती। छोटा-बड़ा झूठ भी नहीं होता। झूठ सिर्फ झूठ है; छोटा-बड़ा कैसे होगा? सत्य सत्य है, न छोटा होता है, न बड़ा होता है। न झूठ छोटा होता है, न बड़ा होता है। न चोरी बड़ी होती है, न छोटी होती है।
मगर मन समझाए चला जाता है कि इतना सा झूठ है, क्या बनता-बिगड़ता है? इतनी सी चोरी है, कर लो, कल दान कर देंगे। और ध्यान रखना, फिर तुम कितना ही भला करो, बुरे को अनकिया करने का उपाय नहीं है। भले से अच्छा नहीं होगा वह।
यह तो ऐसे ही हुआ, मैंने सुना है, इंग्लैंड का सम्राट अपने एक वजीर को राजदूत बनाकर फ्रांस भेजना चाहता था। वजीर का नाम मूर था। लेकिन वह डरा हुआ था, क्योंकि वह फ्रांस का सम्राट जो था, थोड़ा झक्की किस्म का था। और तनाव की अवस्था थी इंग्लैंड और फ्रांस में। तो मूर ने कहा कि आप मुझे भेज तो रहे हैं, लेकिन वह आदमी ऐसा पगला है कि किसी भी दिन भरे दरबार में गर्दन उतार ले सकता है मेरी।
तो इंग्लैंड के सम्राट ने कहा, तू बिलकुल फिक्र मत कर। अगर तेरी गर्दन काटी गई तो जितने फ्रांसवासी इंग्लैंड में हैं, सबकी गर्दन उसी दिन काट डाली जाएगी। तू बिलकुल फिक्र मत कर।
उसने कहा, वह मैं समझा कि आप यह करोगे। आप उससे कुछ पीछे नहीं हो, लेकिन उनमें से कोई भी गर्दन मेरे सिर पर बैठेगी न। मैं तो गया! तुम मेरी एक गर्दन के लिए हजार फ्रांसीसियों की गर्दन काट दोगे माना, लेकिन उनमें से कोई भी मुझे जिंदा न कर पाएगी। इससे क्या फर्क पड़ता है फिर कि मेरे मरने के बाद तुमने काटे या न काटे? मैं गया!
तुमने एक झूठ बोला, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कितने सच बोलोगे इसके बाद। तुमने एक आदमी को छुरी मार दी, इससे क्या फर्क पड़ता है कि फिर तुमने फूलमाला पहना दी! तुमने किसी को गाली दे दी, इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम गए और स्तुति कर आए!
लेकिन जीवन में निरंतर तुम्हारा मन तुम्हें ये बातें समझाए जाता है कि कोई हर्जा नहीं, चोरी कर ली, फिर पुण्य कर देंगे। पाप कर लिया, फिर तीर्थयात्रा कर आएंगे, हज हो आएंगे, हाजी हो जाएंगे। ये सब तरकीबें हैं मन की। इनसे सजग रहना।
जो किया, वह किया; उसे अनकिया करने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि अतीत में वापस जाने का कोई उपाय नहीं है। जो हो गया, हो गया।
हां, उससे पार होने का उपाय है; उसको अनकिया करने का उपाय नहीं है। तुमने अगर एक आदमी की गर्दन काट दी, अब तुम क्या करोगे? तुम लाख मंदिर बनवाओ, तुम लाख पूजा चढ़वाओ, तुम हजारों ब्राह्मणों को भोजन करवाओ, इससे क्या होगा? जो हो गया, हो गया। हां, यह हो सकता है कि तुम बोधपूर्ण हो जाओ, जाग जाओ, तो पार हो जाओगे, अतिक्रमण हो जाएगा। लेकिन जो किया जा चुका, उसको अनकिया नहीं किया जा सकता।
इसलिए जब झूठ और बेईमानी तुम्हारे मन को पकड़े और तुम्हें दलीलें दे कि यह तो छोटी सी बात है, कर लो; तब थोड़े सावधान रहना। कोई बात छोटी नहीं। क्योंकि हर घड़ी तुम्हारी आत्मा दांव पर है। और यहां मुफ्त कुछ भी नहीं है, हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। और मजा तो यह है कि कीमत बहुत चुकानी पड़ती है, मिलता कुछ भी नहीं। पूरी जिंदगी के बाद हाथ तो खाली होते हैं, आत्मा भी खो गई होती है।
‘जो अपने लिए या दूसरों के लिए पुत्र, धन या राज्य नहीं चाहता, वही सत्पुरुष है।’
अचाह सत्पुरुष की सुगंध है। अचाह! क्योंकि जैसे ही तुमने कुछ चाहा, वैसे ही तुम किसी से छीनने को तत्पर हो जाओगे। अगर बहुत धन चाहिए तो छीनना पड़ेगा। अगर बहुत प्रतिष्ठा चाहिए तो छीननी पड़ेगी। अगर बड़े पद चाहिए तो किन्हीं को हटाना पड़ेगा, कोई वहां मौजूद है। सब में हिंसा होगी।
जो बिना छीने मिल जाए, उसे ही संपदा मानना। जो बिना मांगे मिल जाए, उसे ही वरदान मानना। और तुम्हारे मिलने से किसी का कम न हो, उसे ही धर्म मानना।
तो कुछ ऐसी संपदाएं हैं, जो तुम्हें मिल जाती हैं और किसी की छिनतीं नहीं। समझो; तुम्हारे जीवन में प्रेम बढ़ जाए तो इसका यह अर्थ नहीं है कि इस जमीन पर कुछ लोगों का प्रेम छिन जाएगा क्योंकि तुम्हारे पास ज्यादा प्रेम की संपदा आ गई; कि कुछ लोगों के प्रेम के सिक्के छिन जाएंगे। नहीं, उलटी हालत है; तुम्हारे पास अगर प्रेम बढ़ जाए तो दूसरों के पास भी प्रेम के बढ़ने की संभावना बढ़ जाएगी। क्योंकि तुम इस जगत के एक अनिवार्य हिस्से हो। तुम्हारा दीया अगर भीतर का जलने लगे तो बहुतों को दीया जलाने की आकांक्षा जग जाएगी, भरोसा आ जाएगा। तुम्हारा अगर ध्यान बढ़ जाए तो ऐसा थोड़े ही है कि किसी की अशांति बढ़ेगी तुम्हारे ध्यान के बढ़ने से! तुम्हारे ध्यान के बढ़ने से किसी का कुछ छिनता नहीं। और अगर कोई समझदार हो तो तुम से बहुत कुछ पा सकता है। अन्यथा--
कली कोई जहां पर खिल रही है
वहीं एक फूल मुरझा रहा है
अगर तुमने इस संसार की संपदा में बहुत रस लिया, तो तुम कहीं एक कली खिला लोगे तो तुम पाओगे कि कोई फूल कहीं दूसरी जगह मुर्झा गया। तुम तिजोड़ी भर लोगे तो तुम पाओगे, किन्हीं की तिजोड़ियां खाली हो गयीं। तुम पदों पर पहुंच जाओगे तो तुम पाओगे कि कोई पराजित कर दिए गए, कोई पदों से नीचे गिर गए। तुम्हारे सुख में न मालूम कितने लोगों का दुख छिपा होगा।
ऐसा सुख दो कौड़ी का है, जिसमें दूसरे का दुख छिपा हो। ऐसा सुख व्यर्थ है, जिसमें दूसरे के खून के दाग हों।
और मजा यह है कि ना-कुछ के लिए! मिलता कुछ भी नहीं है। पद पर बैठ जाओ तो भी तुम तुम ही हो। कितने ही ऊंचे पद पर बैठ जाओ, तुम तुम ही हो। चांद-तारों पर बैठ जाओ, तो भी तुम बदल न जाओगे।
तुम बदलो तो तुम जहां बैठे हो, वहीं सिंहासन हो जाते हैं। और वे सिंहासन किसी से छीनने नहीं पड़ते। तुम बदलो तो तुम जहां चलते हो, वहीं तीर्थ बन जाते हैं। तुम बदलो तो तुम्हारे चारों तरफ का माहौल भी तुम अपने साथ बदल लेते हो। तुम एक नई दुनिया का सूत्रपात हो जाते हो।
हां, खाइयो मत फरेबे-हस्ती
हरचंद कहें कि है, नहीं है
इस जिंदगी के धोखे में मत आना। कितना ही यह जिंदगी कहे कि मैं हूं, नहीं है। मौत इस सब को छीन लेती है। एक सपना है खुली आंख देखा गया।
तुमसे पहले बहुत लोगों ने यह सपना देखा है। कहां हैं वे सारे लोग? मिट्टी में खो गए। तुम भी उन्हीं जैसे सपने देख रहे हो, उन्हीं जैसे मिट्टी में खो जाओगे। समय रहते कुछ कर लो। कुछ ऐसे सूत्र को पा लो, जो खोता नहीं, जो शाश्वत है--एस धम्मो सनंतनो। कुछ ऐसी बात पा लो, जो सनातन है, जिसे मृत्यु मिटा नहीं पाती।
‘और न अधर्म से अपनी उन्नति चाहता है, वही शीलवान, प्रज्ञावान और धार्मिक है।’
जब-जब इसे सोचा है दिल थाम लिया मैंने
इंसान के हाथों से इंसान पे क्या गुजरी
आदमी ने आदमी के साथ क्या नहीं किया? और तुम थोड़ा सोचो, किसलिए? पाया क्या? हिटलर ने कितने लोग मारे! चंगेज खां ने कितने लोग समाप्त किए! हम भी सब छोटे-मोटे पैमाने पर वही करते हैं; पाते क्या हैं?
पाते कुछ भी नहीं। बच्चों के खेल हैं जैसे! बड़े महल बनाते हैं सपनों के, एक दिन सब पड़ा रह जाता है।
मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि तुम बिना समझे इस सब से भाग खड़े होना। भागने की बात नहीं है, तुम इसे समझना। जब तुम एक कदम उठाओ प्रतिस्पर्धा का तो सोचना, क्या होगा? जब तुम्हारे मन में आकांक्षा पकड़े बहुत धन इकट्ठा कर लेने की तो सोचना, इससे क्या होगा? इस पर मनन करना, चिंतन करना, ध्यान करना। जब कोई तुम्हें गाली दे और अपमानित हो उठो और हत्या तुम्हारे मन को पकड़ने लगे, हिंसा के बादल तुम्हें घेर लें तो सोचना, इससे क्या होगा? इससे क्या सार है? जब तुम व्यर्थ की चीजों को इकट्ठा करने में विक्षिप्त होने लगो तो सोचना--
इससे क्या फायदा रंगीन लबादों के तले
रूह जलती रहे, घुलती रहे, पजमुर्दा रहे
इससे क्या फायदा? कितने ही रंगीन लबादे हों और भीतर आत्मा सड़ती रहे--किसको धोखा दे रहे हो? इस धोखे का सार क्या है? और किसी भी घड़ी श्वास बंद हो सकती है। यह जो एक महान अवसर मिला था, जिसमें कि तुम जाग सकते थे, उसको व्यर्थ के खिलौने इकट्ठे करने में गंवाओगे?
रेत की सी दीवार है दुनिया
ओछे का सा प्यार है दुनिया
रेत की सी दीवार है दुनिया
बनाओ, बहुत बनाओ, बड़ा श्रम उठाओ, खून-पसीना करो, सब गंवाओ बनाने में और फिसल-फिसल जाती है। छोटे बच्चे ही जाकर रेत में घर नहीं बनाते, तुम भी वही कर रहे हो। समय की रेत पर बनाए सभी घर गिर जाने वाले हैं। समय की रेत पर बनाया गया कुछ भी ठहरेगा नहीं।
जैन शास्त्रों में एक कथा है। एक चक्रवर्ती हुआ; तो जैन शास्त्र कहते हैं कि जब कोई चक्रवर्ती हो जाता है--चक्रवर्ती यानी सारे जगत का सम्राट हो जाता है, सभी का अकेला मालिक हो जाता है, वही सभी होना चाहते हैं, जिसका चक्र सारे जगत में घूमने लगता है--तो उसके लिए एक विशेष सुविधा मिलती है। स्वर्ग में कैलाश पर्वत है, वहां चक्रवर्ती को अधिकार है दस्तखत करने का उस पर्वत पर। उस पर्वत पर जो भी दस्तखत किया जाता है, वह अरबों-खरबों वर्षों तक टिकता है। वह कोई ऐसा पर्वत नहीं है कि यहां जैसा पर्वत हो, दस्तखत किया और कुछ सैकड़ों वर्षों में खो जाएगा; टिकता है अरबों-खरबों वर्षों तक।
तो एक व्यक्ति चक्रवर्ती सम्राट हो गया, वह बड़ा प्रसन्न था; आकांक्षा पूरी हुई और उस पर्वत पर दस्तखत करने जा रहा है। तो उसने सोचा था कि बड़े-बड़े अक्षर में दस्तखत कर आऊंगा। लेकिन जब वह पर्वत के पास पहुंचा तो उसकी आंख आंसुओं से भर गई। पर्वत पर जगह ही न थी, इतने लोग पहले दस्तखत कर चुके थे। बड़े की तो बात और, एक कोना खाली न था, इतने चक्रवर्ती हो चुके थे समय की अनंत धारा में। कोई हिसाब है! सोचा था, उस विराट पर्वत पर बड़े-बड़े अक्षर में दस्तखत कर आएंगे।
फिर मजबूरी में कोई जगह न पाकर पुराने दस्तखतों को मिटाकर अपने दस्तखत किए। लेकिन तब उसका मन दीन-जीर्ण हो गया कि अगर यह हालत है, तो कोई हमारा भी मिटाकर दस्तखत कर जाएगा। यह कितनी देर टिका!
जब वह भीतर जा रहा था तो वह अपनी पत्नी को भी साथ ले जाना चाहता था। लेकिन द्वारपाल ने कहा, भलेमानस! इसकी आज्ञा नहीं है; अकेले ही भीतर जाना पड़ता है। पर मजा ही क्या अगर पत्नी न देख पाए पति का गौरव कि वह दस्तखत कर रहा है!
उसने बड़ी जिद की थी, लेकिन द्वारपाल ने कहा था, मान तू! लौटकर तू प्रसन्न होगा कि पत्नी को नहीं ले गया तो अच्छा हुआ। और ऐसा कुछ तेरे साथ ही हुआ है, ऐसा नहीं है; मेरे पिता भी यही काम करते थे द्वारपाल का। वह भी कहते थे, जब भी कोई आता है, वह पत्नी को साथ ले जाना चाहता है। उनके पिता ने भी उनसे यही कहा था। यह सदा से होता रहा है। और यह भी मुझे पता है कि लौटकर तू धन्यवाद देगा--ऐसा सदा से होता रहा है--कि अच्छा हुआ, पत्नी को साथ न ले गया। मिट्टी पलीत हो जाती है।
लौटकर उसने धन्यवाद दिया कि बड़ी कृपा है कि यहां पहरा बिठाया है। अब लौटकर अपनी शान तो कह सकूंगा। अगर पत्नी भी देख लेती कि यहां तो कोई जगह ही खाली नहीं है, यह कोई बड़ा गौरव नहीं है।
चक्रवर्ती भी हो जाओ, क्या मिलने वाला है? कितने लोग हो चुके हैं! और स्वर्ग के पर्वतों पर भी दस्तखत करने का मौका मिल जाए, वे भी रेत पर ही किए गए दस्तखत हैं। सब हस्ताक्षर रेत पर हैं।
सिर्फ एक तुम हो, जो समय के पार हो। सिर्फ एक तुम्हारा होना है, जो समय की धार में नहीं है। अगर उसे पा लिया तो कुछ पाया; अगर उसे गंवाया तो सब गंवाया।
‘पार जाने वाले मनुष्य, मनुष्यों में थोड़े ही हैं। ये इतर लोग तो किनारे-किनारे ही दौड़ने वाले हैं।’
पार जाने वाले मनुष्य, संसार से पार जाने वाले मनुष्य, समय से पार जाने वाले मनुष्य थोड़े ही हैं। इतर लोग तो किनारे-किनारे ही दौड़ते रहते हैं।
किनारे तुम कितने ही दौड़ो, कुछ न पाओगे। पार जाना होगा, अतिक्रमण करना होगा। उस अतिक्रमण की कीमिया का नाम ही धर्म है। उस अतिक्रमण के लिए जो नौका बनाई जाती है, उसी का नाम ध्यान है। पार जाने के लिए जो सीढ़ी लगाई जाती है, उसी का नाम निर्विचार है।
कैसे यह निर्विचार की सीढ़ी लगे? कैसे यह नौका बने ध्यान की? कि तुम पार जा सको, समय के पार! इसे थोड़ा समझ लें; यह बहुत बहुमूल्य सूत्र है।
वासना सदा कहती है--कल। तृष्णा सदा कहती है--कल। चाह सदा कहती है--कल। ध्यान कहता है--आज, अभी, यहीं। ध्यान के लिए वर्तमान के अतिरिक्त कोई क्षण नहीं है। चाह के लिए वर्तमान को छोड़कर सब है--भविष्य है, अतीत है। ध्यान के लिए न अतीत है, न भविष्य है, बस यही क्षण है। और इसी क्षण में से समय के पार जाने का द्वार है।
वर्तमान के क्षण में वह सुविधा है कि अगर तुम ठहर जाओ, तुम सरक जाते हो समय के पार। मगर वहीं मन ठहरने नहीं देता। मन कहता है, कल मकान बनाना है, परसों धन कमाना, फिर यह करना, फिर वह करना। मन योजनाएं बनाता है। उन्हीं योजनाओं के कारण वह जो संकरा सा द्वार है, अति संकरा...।
जीसस ने कहा है, द्वार बहुत संकरा है, लेकिन बिलकुल सीधा है। सरल है, सुगम है; लेकिन बहुत संकरा है। इतना संकरा है कि अगर तुम बहुत बारीकी से न देखो तो तुम चूकते ही चले जाओगे।
वर्तमान का क्षण कितना छोटा है, कभी तुमने सोचा? न के बराबर है। तुम जब सोचते हो वर्तमान का क्षण, तभी वह अतीत हो जाता है, इतना छोटा है। इधर तुमने कहा वर्तमान, इधर वह वर्तमान न रहा--गया! जानते ही अतीत हो जाता है। तो या तो भविष्य होता है या अतीत होता है। जब तक नहीं जानते, तब तक भविष्य; जैसे ही जाना, अतीत। जब तक आशा करते हो, आ रहा है...आ रहा है...तब तक आया नहीं; जैसे ही जाना, आ गया--जा चुका!
वर्तमान के क्षण को विचार कभी पकड़ ही नहीं पाता।
इसे थोड़ा समझना। विचार की पकड़ बड़ी बोथली है, वर्तमान का क्षण बड़ा सूक्ष्म है। या तो विचार भविष्य को पकड़ता है, जो अभी आया नहीं, या अतीत को पकड़ता है, जो जा चुका--दोनों व्यर्थ हैं।
सत्य का तो अर्थ है: वही, जो है; जो न कभी आता, जो न कभी जाता। एस धम्मो सनंतनो--जो धर्म सदा है, अभी है; कल भी था, कल भी होगा। इसलिए कल की बात ही उठानी व्यर्थ है। वह सदा ही आज है।
बीज का अंतिम चरण प्रिय
बीज ही है, फल नहीं है
डाल कोंपल फूल किसलय
एक केवल आवरण हैं
भूलता इसमें कभी क्या
बीज निज को एक क्षण है?
आज का अंतिम चरण तो
आज ही है, कल नहीं है
दिवस रजनी मास वत्सर
ताप हिम मधुमास पतझर
लय कभी इनमें हुआ क्या
आज के अस्तित्व का स्वर?
पंथ की अंतिम शरण तो
पंथ ही है, मंजिल नहीं है
बीज का अंतिम चरण प्रिय
बीज ही है, फल नहीं है
बीज फिर बीज हो जाता है सारी यात्रा के बाद। अंकुरण होता, वृक्ष बनता, फूल लगते, फल लगते, बीज फिर आ जाता है। पहले भी बीज, अंत में भी बीज।
तो बीच में सब खेल है। तो बीच में जितने रूप लिए, वे सब आवरण हैं। तो बीच में जो बहुरंग लिए, जो बहुरुपिया बना बीज--कभी फूल, कभी पत्ती, कभी वृक्ष--वह वास्तविक नहीं है। वह जो प्रथम है और फिर अंत में हो जाता है, वही वास्तविक है।
वर्तमान ही केवल वास्तविक है। वही सदा-सदा लौट आता है। कल फिर आज आ जाएगा। जब कल आएगा तो कल न होगा; कल जब आएगा, फिर आज हो जाएगा। परसों जब आएगा तब आज हो जाएगा। जिसे तुम बीता कल कह रहे हो, वह भी आज ही था; और किसी समयातीत लोक में आज भी आज ही है।
हमारे देखने की सीमा है। हम अखंड विस्तार को नहीं देख पाते; खंड कर-कर के देखते हैं।
जैसे तुम एक रास्ते पर खड़े हो। एक आदमी गुजरा, तुम्हारे सामने आया तो दिखाई पड़ा; फिर आगे के मोड़ पर मुड़ गया तो दिखाई नहीं पड़ता। पीछे के मोड़ पर जब तक नहीं मुड़ा था, दिखाई नहीं पड़ता था। जब तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता था, तब भी वह था। अब जब तुम्हें नहीं दिखाई पड़ता, आगे के मोड़ पर मुड़ गया, तब भी है। तुम्हारे देखने की सीमा है, उसके होने की सीमा नहीं है। तुम्हारे देखने की सीमा ही उसके होने की सीमा नहीं है।
फिर एक आदमी झाड़ पर चढ़ा बैठा है, उसको वह दूर तक दिखाई पड़ता है। नीचे खड़े आदमी को जब दिखाई पड़ना बंद हो जाता है, तब भी उसे दिखाई पड़ता है। फिर कोई आदमी हवाई जहाज पर सवार है, तो उसे और भी दूर तक दिखाई पड़ता है। जितनी तुम्हारी चैतन्य की ऊंचाई बढ़ती जाती है, उतना ही तुम पाते हो, तुम्हारी दृष्टि बड़ी होती जाती है।
तो जिसे तुम अतीत कहते हो, वह भी ज्ञानी को वर्तमान ही दिखाई पड़ता है। जिसे तुम भविष्य कहते हो, वह भी ज्ञानी को वर्तमान ही दिखाई पड़ता है।
ज्ञानी के लिए बीज ही सत्य है। क्योंकि वही-वही लौट आता है। वर्तमान ही सत्य है, क्योंकि वही-वही पुनरुक्त होता है। अतीत और भविष्य हमारी सीमाओं के द्योतक हैं।
समय अविभाज्य है। न तो कुछ अतीत है, न तो कुछ भविष्य। जो है, वह सदा है। ध्यान से जिन्होंने देखा है, उन्होंने कहा है, जो सदा है, वही है। जो है, वह सदा है।
बीज का अंतिम चरण प्रिय
बीज ही है, फल नहीं है
डाल कोंपल फूल किसलय
एक केवल आवरण हैं
भूलता इसमें कभी क्या
बीज निज को एक क्षण है?
आज का अंतिम चरण तो
आज ही है, कल नहीं है
दिवस रजनी मास वत्सर
ताप हिम मधुमास पतझर
लय कभी इनमें हुआ क्या
आज के अस्तित्व का स्वर?
पंथ की अंतिम शरण तो
पंथ ही है, मंजिल नहीं है
बीज का अंतिम चरण प्रिय
बीज ही है, फल नहीं है
वासना, फल की आकांक्षा है। ध्यान, फलाकांक्षा से मुक्ति है।
इसलिए कृष्ण की पूरी गीता एक शब्द पर टिकी है: फलाकांक्षा का त्याग। वासना कहती है, कल क्या होगा, उसको सोचती है। उसी सोचने में आज को गंवा देती है। ध्यान आज जीता है; कल को सोचता नहीं। उसी जीने से कल उमगता है, निकलता है।
कल एक महिला ने रात मुझे पूछा, सच में ध्यान से शांति मिलेगी? अगर मिलने की पक्की गारंटी हो तो वह ध्यान करने का सोचती है। गारंटी कौन देगा? और मजा तो यह है कि ध्यान का अर्थ ही है कि क्या मिलेगा उसको छोड़ देना। ध्यान में भी अगर फलाकांक्षा है कि क्या शांति मिलेगी? तो फिर ध्यान भी ध्यान न रहा, वासना हो गया।
ध्यान से शांति मिलती है--मिलेगी, ऐसा नहीं--मिलती है; वह उसका परिणाम है। लेकिन ध्यान करने वाले को इतनी वासना भी रखनी खतरनाक है कि शांति मिलनी चाहिए; तब फिर वह ध्यान नहीं कर रहा है, विचार ही कर रहा है। ध्यान में इतना लोभ भी बाधक है। ध्यान भी हो जाए, इतना लोभ भी बाधक है। इसलिए इतने लोग ध्यान करते हैं और चूकते चले जाते हैं, क्योंकि बुनियादी कुंजी ही चूक जाते हैं।
इस क्षण में परिपूर्ण होना है। इस क्षण से बाहर नहीं जाना है। इस क्षण को पूरा अस्तित्व जानना है। इस क्षण के बाद कुछ भी नहीं है--न पीछे कुछ, न आगे कुछ; यही क्षण है। इसी क्षण में हम पूरे के पूरे थिर हो जाएं, ध्यान हो गया। बड़ी शांति मिलती है। ध्यान रखना, मिलेगी, ऐसा नहीं कह रहा हूं; मिलती है। लेकिन उन्हीं को मिलती है, जो मांगते नहीं। जिन्होंने मांगी, वे कुंजी चूक गए। मांगी तो वासना हो गई, मांगी तो कल आ गया, मांगी तो फल आ गया।
बीज का अंतिम चरण प्रिय
बीज ही है, फल नहीं है
जैसे तुम्हें एक बार इसकी झलक मिल जाएगी, फिर कठिनाई न रह जाएगी। पहली झलक अत्यंत कठिन है, क्योंकि पहली झलक करीब-करीब असंभव मालूम होती है। तुम पूछोगे, जब आकांक्षा ही नहीं करनी तो हम ध्यान करें ही क्यों? करेंगे ही कैसे? करेंगे तो आकांक्षा के साथ करेंगे।
तुम्हारी अड़चन मैं समझता हूं। तुमने अब तक जो भी किया, आकांक्षा के साथ किया। लेकिन तुम अभी तक यह न देख पाए कि आकांक्षा तो बहुत की, पाया क्या? आकांक्षा से अभी भी तुम थके नहीं? आकांक्षा से अब तक तुम्हारे मुंह में कडुवापन नहीं आया? आकांक्षा से तुम अभी तक ऊबे नहीं? आकांक्षा ने दिया क्या? देने के भरोसे बहुत दिए, कोई भरोसा पूरा नहीं हुआ। आकांक्षा ने भ्रम के सिवा और क्या दिया? चलाए चली, पहुंचाया तो कहीं नहीं।
आकांक्षा को जब तुम गौर से देखोगे तो तुम पाओगे, आकांक्षा से कुछ भी नहीं मिला। आकांक्षा गिर जाएगी उस बोध के क्षण में। और उसी बोध के क्षण में ध्यान उपलब्ध होता है। आकांक्षा का अभाव ध्यान है।
पहले ऐसे कभी-कभी घटेगा, फिर-फिर तुम भटक जाओगे। फिर धीरे-धीरे ज्यादा-ज्यादा घटेगा, कम-कम भटकोगे। फिर एक दिन ऐसा आएगा कि तुम बिलकुल थिर हो जाओगे। हवाओं के झोंके आएंगे, गुजर जाएंगे, तुम्हारी लौ न कंपेगी। दुख आएंगे, सुख आएंगे, तुम निष्कंप चलते रहोगे। सब छूट जाएगा, क्योंकि तुमने अपने को पा लिया होगा।
वस्तुतः जिसने स्वयं को पा लिया, सब पा लिया। छूटता है, क्योंकि जिसने सब पा लिया, अब वह व्यर्थ को पाने के लिए नहीं दौड़ता।
सत्पुरुष ऐसी संपदा का धनी हो जाता है, जो शाश्वत है। ऐसे पद पर विराजमान हो जाता है, जिसके पार कोई पद नहीं।
निश्चित ही, सब छंद-राग छूट जाते हैं, क्योंकि महाछंद बज उठता है। छंदों का छंद भीतर अहर्निश बजने लगता है। सब गीत-गान बंद हो जाते हैं, क्योंकि गायत्री मुखरित हो उठती है।
आज इतना ही।
सुखेन फुट्ठा अथवा दुखेन न उच्चावचं पंडिता दस्सयन्ति।।74।।
न अत्तहेतु न परस्स हेतु
न पुत्तमिच्छे न धनं न रट्ठं।
न इच्छेय्य अधम्मेन समिद्धिमत्तनो
स सीलवा पन्जवा धम्मिको सिया।।75।।
अप्पका ते मनुस्सेसु ये जना पारगामिनो।
अथायं इतरा पजा तीरमेवानुधावति।।76।।
एक प्राचीन कथा है: जंगल की राह से एक जौहरी गुजरता था। देखा उसने राह में, एक कुम्हार अपने गधे के गले में एक बड़ा हीरा बांधकर चल रहा है। चकित हुआ! पूछा कुम्हार से, कितने पैसे लेगा इस पत्थर के? कुम्हार ने कहा, आठ आने मिल जाएं तो बहुत। लेकिन जौहरी को लोभ पकड़ा। उसने कहा, चार आने में दे दे, पत्थर है, करेगा भी क्या?
पर कुम्हार भी जिद बांधकर बैठ गया, छह आने से कम न हुआ तो जौहरी ने सोचा कि ठीक है, थोड़ी देर में अपने आप आकर बेच जाएगा। वह थोड़ा आगे बढ़ गया। लेकिन कुम्हार वापस न लौटा तो जौहरी लौटकर आया; लेकिन तब तक बाजी चूक गई थी, किसी और ने खरीद लिया था। तो पूछा उसने कि कितने में बेचा? उस कुम्हार ने कहा कि हुजूर, एक रुपया मिला पूरा। आठ आने में बेच देता, छह आने में बेच देता, बड़ा नुकसान हो जाता।
उस जौहरी की छाती पर कैसा सदमा लगा होगा! उसने कहा, मूर्ख! तू बिलकुल गधा है। लाखों का हीरा एक रुपए में बेच दिया?
उस कुम्हार ने कहा, हुजूर मैं अगर गधा न होता तो लाखों के हीरे को गधे के गले में ही क्यों बांधता? लेकिन आपके लिए क्या कहें? आपको पता था कि लाखों का हीरा है और पत्थर की कीमत में भी लेने को राजी न हुए!
धर्म का जिसे पता है, उसका जीवन अगर रूपांतरित न हो तो उस जौहरी की भांति गधा है। जिन्हें पता नहीं है, वे क्षमा के योग्य हैं; लेकिन जिन्हें पता है, उनको क्या कहें?
दो ही संभावनाएं हैं: या तो उन्हें पता ही नहीं है; सोचते हैं, पता है। और यही संभावना ज्यादा सत्यतर मालूम होती है। या दूसरी संभावना है कि उन्हें पता है और फिर भी गलत चले जाते हैं।
वह दूसरी संभावना संभव नहीं मालूम होती। जौहरी ने तो शायद चार आने में खरीद लेने की कोशिश की हो लाखों के हीरे को, लेकिन धर्म के जगत में यह असंभव है कि तुम्हें पता हो और तुम उससे विपरीत चले जाओ।
सुकरात का बड़ा बहुमूल्य वचन है: ज्ञान ही चरित्र है। जिसने जान लिया, वह बदल गया। और अगर जानकर भी न बदले हो, तो समझना कि जानने में कहीं खोट है।
अक्सर मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, जानते तो हम हैं, लेकिन जीवन बदलता नहीं। यह तो उन्होंने मान ही लिया है कि जानते हैं; अब जीवन बदलने की राह देख रहे हैं।
मैं उनसे कहता हूं, पहली बात ही बेबुनियाद है, दूसरे की प्रतीक्षा ही न करो। तुमने अभी बुनियाद ही नहीं रखी और भवन उठाने की कोशिश में लग गए हो। पहले फिर से सोचो, तुम जानते हो? क्योंकि ऐसा कभी होता नहीं कि जो जानता हो और बदल न जाए। बदलाहट जानने के पीछे अपने आप चली आती है। वह सहज परिणाम है, उसके लिए कुछ करना भी नहीं पड़ता।
अगर बदलने के लिए जानने के अतिरिक्त भी कुछ करना पड़े तो समझना कि जानने में कोई कमी रह गई थी। जितनी कमी हो, उतना ही करना पड़ता है। वह जो कमी है, उसकी पूर्ति ही कृत्य से करनी पड़ती है। बोध की कमी कृत्य से पूरी करनी पड़ती है; अन्यथा बोध पर्याप्त है।
बुद्ध का सारा संदेश यही है कि बोध पर्याप्त है। ठीक से देख लेना--जिसको बुद्ध सम्यक दृष्टि कहते हैं, जिसको महावीर ने सम्यक दर्शन कहा है--ठीक से देख लेना काफी है, काफी से ज्यादा है। ठीक से देख लेना इतनी बड़ी आग है कि तुम उस में ऐसे जल जाओगे, जैसे छोटा तिनका जल जाए। राख भी न बचेगी।
तुम बचते चले जाते हो, क्योंकि आग असली नहीं है। आग-आग चिल्लाते जरूर हो, लगी कहीं नहीं है। आग शब्द ही है तुम्हारे लिए, शास्त्र ही है तुम्हारे लिए, सत्य नहीं।
धर्म तुम्हारे लिए शास्त्र-ज्ञान है। जीवन की किताब से तुमने वे सूत्र नहीं सीखे हैं। और जो भी शास्त्र में भटका, वह भटका। पाप भी इतना नहीं भटकाता, जितना शास्त्र भटका देते हैं। क्योंकि पाप में हाथ तो जलता है कम से कम। पाप में चोट तो लगती है, घाव तो बनते हैं। शास्त्र तो बड़ा सुरक्षित है; न हाथ जलते हैं, न चोट लगती है, उलटे अहंकार को बड़े आभूषण मिल जाते हैं। बिना जाने जानने का मजा आ जाता है। सिर पर मुकुट बंध जाते हैं।
बुद्ध ने कहा है, जो जान ले स्वयं से, वही ज्ञानी है; वही ब्राह्मण है। जो शास्त्र से जाने, वह ब्राह्मण-आभास; उससे बचना। और स्वयं कभी अपने जीवन में ऐसे उपद्रव मत करना कि जीवन को सीधे न जानकर शास्त्रों में खोजने निकल जाओ। जीवन में तो कोई डुबकी लगाता रहे तो आज नहीं कल किनारा पा जाएगा। शास्त्रों में जिन ने डुबकियां लगायीं, उनके सपनों का कोई भी अंत नहीं है।
पृथ्वी पर इतने लोग धार्मिक दिखाई देते हैं, इतने लोग जानते हुए मालूम पड़ते हैं। क्या कमी है जानने की? अंबार लगे हैं। लोगों ने ढेर लगा लिए हैं जानने के। और उनकी तरफ नजर करो तो उनका जानना उनके ही काम न आया। जो जानना अपने आप काम न आ जाए, उसे जानना ही न जानना।
अब हम इन सूत्रों में उतरने की कोशिश करें। बुद्ध ने इन्हें जीवन से सीखा था। शास्त्र से सीखना होता तो राजमहल में शास्त्र स्वयं आ जाते। पंडितों से सीखना होता, पंडित तो हाथ जोड़े, कतार बांधे सदा ही खड़े थे।
बुद्ध जीवन में उतरे; महल की सीढ़ियों से नीचे आए। वहां गए, जहां कच्चा जीवन है। वहां गए, जहां जीवन असुरक्षित है। जहां जीवन अपनी पूरी आग में तपता है। जीवन से सीधा संपर्क साधा, तब उन्होंने कुछ जाना। वह जानना बुद्धि का न रहा फिर। वह जानना उनकी समग्रता का हो गया।
और जब तुम्हारे रोम-रोम से जानना निकलता है, तुम्हारी श्वास-श्वास में गंध आ जाती है जानने की, जब तुम्हें चेष्टा भी नहीं करनी पड़ती कि तुम जो जानते हो उसे याद रखो; जब वह तुम्हारा होना ही हो जाता है, जिसे भूलने का ही उपाय न होगा, जिसे तुम कहीं भूलकर रख आ न सकोगे, जो तुम्हारे भीतर की अंतर-ध्वनि हो जाती है, जो तुम्हारी आवाज हो जाती है, तभी--तब इन सूत्रों का अर्थ बिलकुल और होता है। अगर इन्हें तुमने शास्त्र की दृष्टि से देखा तो इनके अर्थ बदल जाते हैं। समझने की कोशिश करो। पहला सूत्र है:
‘सत्पुरुष सभी त्याग देते हैं। वे कामभोगों के लिए बात नहीं चलाते। सुख मिले या दुख, पंडित विकार प्रदर्शित नहीं करते।’
इसे तुम बुद्धि से पढ़ सकते हो--जैसा कि पढ़ा गया है सदियों से--और तब भयंकर हानि हो गई है। क्योंकि बुद्धि से तुम पढ़ोगे तो यह समझ में आएगा: सत्पुरुष सभी त्याग देते हैं। तो जोर लगता है त्याग पर। साफ है, वक्तव्य में कहीं कोई भूल-चूक नहीं है, सीधा है।
‘सत्पुरुष सभी त्याग देते हैं।’
तुम जब इसे सुनोगे, तुम जब इसे गुनोगे--जीवन से नहीं, शास्त्र से; जब शब्द ही तुम्हारे भीतर एक तरंग बनकर विचार का जन्म देगा तो तुम्हें भी समझ में आएगा--सब छोड़ना होगा, तब तुम सत्पुरुष हो सकोगे। बस, भूल हो गई।
बुद्ध कह रहे हैं, सत्पुरुष सब छोड़ देते हैं। बुद्ध यह नहीं कह रहे हैं कि जो सब छोड़ देते हैं, वे सत्पुरुष हो जाते हैं। बुद्ध यह कह रहे हैं, सत्पुरुष हो जाओ, सब छूट जाता है। छूटना, छाया की तरह परिणाम है। छूटना, छोड़ना नहीं है।
फिर से दोहराऊं, ‘सत्पुरुष सभी त्याग देते हैं।’
अब सोचने का यह है कि त्यागने के कारण सत्पुरुष होते हैं, या सत्पुरुष होने के कारण त्याग देते हैं?
अगर बुद्ध को यही कहना था कि सब छोड़ने वाले सत्पुरुष हो जाते हैं, तो ऐसा ही कहा होता कि जो सब छोड़ देते हैं, वे सत्पुरुष हैं। लेकिन बुद्ध कहते हैं, सत्पुरुष सब छोड़ देते हैं। सत्पुरुष होना, छोड़ने से कोई अलग बात है। छोड़ना पीछे-पीछे आता है, जैसे गाड़ी चलती है तो चाक के निशान बन जाते हैं।
तुम चलते हो, तुम्हारी छाया तुम्हारे पीछे चली आती है। उसको लाना थोड़े ही पड़ता है। तुम लौट-लौटकर देखते थोड़े ही हो कि छाया कहीं छूट तो नहीं गई; आती है कि नहीं आती? तुम छोड़ना भी चाहो तो भी छोड़ न सकोगे। छाया आती ही है। छाया तुम्हारी है, जाएगी कहां?
त्याग ज्ञान के पीछे ऐसे ही आता है, जैसे तुम्हारे पीछे छाया आती है--परिणाम है। और जिन्होंने शास्त्र से पढ़ा, उन्होंने समझा, कारण है। कारण नहीं है त्याग। त्याग कर-कर के तुम बिलकुल सूख जाओ, हड्डियां हो जाओ, सत्पुरुष न होओगे। भोजन का अभाव तुम्हें पीला कर जाए, लेकिन सत-बोध से उठी हुई स्वर्णिम आभा उससे प्रगट न होगी।
जो-जो पीला है, सभी सोना नहीं है। रोग से भी आदमी पीला पड़ जाता है; उसे पीतल समझना। बोध से भी आदमी के जीवन में स्वर्ण आभा प्रगट होती है, पर वह बात और। उसके सामने सूरज लजाते हैं, शर्माते हैं।
तो ध्यान रखना, त्याग पर जोर बुद्ध पुरुषों का बिलकुल नहीं है; और उनकी हर वाणी में त्याग का उल्लेख है। और जिन्होंने भी पंडितों की तरह शास्त्रों में खोजा है, वे एक अरण्य में खो गए। कितना सुगम है अरण्य में खो जाना!
‘सत्पुरुष सभी कुछ त्याग देते हैं।’
कितनी जल्दी मन में खयाल उठता है, सूत्र मिल गया। सभी कुछ त्याग दो, सत्पुरुष हो जाओगे। काश, इतनी आसान बात होती! तब तो जो भिखारी हैं, जिनके पास कुछ भी नहीं है, वे सत्पुरुष हो गए होते। जिनके पास कुछ भी नहीं है, वे सत्पुरुष हो गए होते। तुम भी छोड़ दोगे तो तुम्हारे पास भी कुछ नहीं होगा, लेकिन इससे तुम सत्पुरुष न हो जाओगे।
मैंने सुना है, एक भिखारी एक संदूक वाले की दुकान में चला गया। रंग-बिरंगे संदूक देखकर उसे बड़ा रस आया। वह घूम-घूमकर संदूक देखने लगा। दुकानदार भी दिखाने लगा। कोई और ग्राहक थे भी नहीं। ऐसे तो संदेह लगा कि यह क्या संदूक खरीदेगा! क्योंकि संदूक में रखने के लिए कुछ चाहिए भी। लेकिन कोई ग्राहक था भी नहीं, तो दुकानदार ने उसमें रस लिया, उसे घुमाया, दिखाया। सब देखकर जब वह चलने लगा तो उसने कहा, खरीदेंगे नहीं? उसने कहा, ये किस काम में आते हैं? वह तो रंग, आकृतियां देखकर अंदर चला आया था। उसने पूछा, ये किस काम में आते हैं? उस दुकानदार ने कहा, हद हो गई। कपड़े-लत्ते रखने के काम आते हैं, खरीद लो, कपड़े-लत्ते रखना। तो उसने कहा, कपड़े-लत्ते इसमें रख लेंगे तो पहनेंगे क्या, तेरी ऐसी-तैसी? और तो कुछ है ही नहीं। यही कपड़े-लत्ते हैं, जो पहने हुए हैं।
लेकिन ऐसी अवस्था में भी तो तुम कहीं पहुंच नहीं जाते। नग्न होकर भी तो तुम कहीं नहीं पहुंच जाते। तुम्हारे होने में, तुम्हारे पास क्या है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम दीन हो तो दीन हो, तुम धनी हो तो दीन रहते हो। तुम्हारे पास चीजें हों तो तुम वही हो, चीजें हट जाएं तो तुम वही हो। तुम्हारा होना चीजों पर निर्भर नहीं है।
और तुम्हारे तथाकथित त्यागी भी यही समझाते हैं और तथाकथित भोगी भी यही समझाते हैं। दोनों का भरोसा चीजों में है। भोगी कहते हैं, चीजों को बढ़ाओ तो तुम्हारी आत्मा बढ़ जाएगी, तुम्हारा सुख बढ़ेगा, आनंद बढ़ेगा। त्यागियों की भाषा भी यही है। वे कहते हैं, चीजों को घटाओ तो तुम्हारी आत्मा बढ़ेगी।
अगर दोनों में ही चुनना हो तो भोगी थोड़ा गणित-पूर्ण मालूम होता है। वह कहता है, चीजों को बढ़ाओ तो तुम्हारी आत्मा बढ़ेगी। त्यागी कहता है, चीजों को घटाओ तो तुम्हारी आत्मा बढ़ेगी। अगर तर्क से ही चलना हो तो भोगी ही ठीक कहता होगा। लेकिन भोगी का तर्क तुम्हें ठीक नहीं लगता, क्योंकि तुमने चीजें बढ़ाकर देख लीं और आत्मा नहीं बढ़ी। और त्यागी का तर्क ठीक लग जाता है--अपरिचित है। तुम सोचते हो, बढ़ाकर देख लिया, आत्मा नहीं बढ़ी, अब घटाकर देख लें। तो लोग त्याग में लग जाते हैं।
न तो चीजों के बढ़ने से बढ़ती है आत्मा, न चीजों के घटने से बढ़ती है आत्मा; आत्मा का चीजों से कुछ संबंध नहीं है। तुम्हारी छाया के बढ़ने से तुम बड़े होते हो? या कि तुम्हारी छाया के छोटे होने से तुम छोटे होते हो?
मैंने सुना है, एक दिन सुबह एक लोमड़ी अपनी मांद के बाहर निकली। सुबह का उगता सूरज था, बड़ी लंबी छाया बनी लोमड़ी की, दूर तक जाती थी। उसने सोचा, आज तो बड़ी मुश्किल हुई। नाश्ते के लिए कम से कम एक ऊंट की जरूरत पड़ेगी। इतनी बड़ी छाया! इतनी बड़ी मैं हूं। ऊंट से कम में काम न चलेगा।
वह ऊंट की तलाश में लग गई। दिन भर खोजती रही, भर दोपहरी में जब सूरज सिर पर आ गया, अभी भी भूखी थी। ऊंट तो मिला न था, मिल भी जाता तो भी करती क्या? उसने लौटकर फिर छाया देखी, छाया सिकुड़कर बिलकुल पैरों के पास आ गई थी। उसने कहा, अब तो चींटी भी मिल जाए तो भी चल जाएगा।
छाया से तुम चलोगे तो यही गति होगी। न तो छाया के बड़े होने से तुम बड़े होते, न छाया के छोटे होने से तुम छोटे होते। परिग्रह यानी छाया। वस्तुएं यानी छाया। तुम्हारा मकान, तुम्हारी धन-दौलत, यानी छाया।
मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि भोगी का तर्क तो गलत है ही, त्यागी का तर्क भी गलत है। बुद्ध पुरुषों ने यह तर्क नहीं दिया। बुद्ध पुरुष ऐसे तर्क देकर बुद्धू बनेंगे क्या? यह तो बात ही बुनियादी रूप से गलत है। यह तो आत्मा को वस्तुओं से गौण कर देना हुआ। अगर वस्तुओं के घटने-बढ़ने से आत्मा बढ़ती-छोटी होती हो तो आत्मा गौण हो गई, वस्तुएं प्रमुख हो गयीं।
न, बुद्ध पुरुषों ने कुछ और ही बात कही है। चूक हो गई है सुनने में, शास्त्र पढ़ने में।
‘सत्पुरुष सभी त्याग देते हैं।’
इसलिए नहीं कि त्याग सत्पुरुष होने का मार्ग है, बल्कि जब तुम देखना शुरू करते हो, जब तुम्हारे भीतर सदबुद्धि का जन्म होता है, जब तुम ध्यान की अवस्था को उपलब्ध होते हो, जब तुम्हारे भीतर तरंगें विचारों की थोड़ी शांत होती हैं, आंखों की धूल थोड़ी झड़ती है, चेतना के बादल थोड़े हटते हैं, तुम्हारे भीतर थोड़ी जगह होती है जहां जागरण हो सके, भीतर का दीया थोड़ा जलता है, अंधेरा थोड़ा कटता है, वहां तुम अचानक देखते हो कि तुम जिन चीजों को मूल्य दे रहे थे, उनमें कोई भी मूल्य नहीं। जिन चीजों को तुमने अपना सारा जीवन समर्पित किया था, उन चीजों में कोई भी मूल्य नहीं। तुम छाया के लिए आत्मा गंवा रहे थे। मरते दम तक लोग गंवाए चले जाते हैं छाया के लिए आत्मा। मरते दम तक आदमी भिखारी बना रहता है। वस्तुओं की मांग जारी रहती है।
मुझे पीने दे पीने दे कि तेरे जामे-लाली में
अभी कुछ और है कुछ और है कुछ और है साकी
आदमी गिड़गिड़ाए ही चला जाता है कि अभी तेरे शराब के प्याले में थोड़ी और बाकी है, थोड़ी और बाकी है।
मुझे पीने दे पीने दे कि तेरे जामे-लाली में
अभी कुछ और है कुछ और है कुछ और है साकी
जिंदगी खोती चली जाती है, मौत की मूर्च्छा आने लगी, मौत की नींद घेरने लगी। और आदमी चिल्लाए चला जाता है, मुझे पीने दे, मुझे पीने दे।
मरते हुए आदमी को देखो। अभी भी जार-जार आंसू रो रहा है--उस जिंदगी के लिए, जिसमें कुछ भी न पाया; उस भाग-दौड़ के लिए, जो कहीं न पहुंचाई। और दौड़ना चाहता है। अगर कहीं कोई परमात्मा हो तो और मांग लेना चाहता है--चार दिन और मिल जाएं। जो मिले थे दिन, वे ऐसे ही गंवाए। और भी मिल जाएंगे तो ऐसे ही गंवाएगा। जिंदगी को हम छाया के मंदिरों में समर्पित किए हैं।
बहे जाते हो रवानी के साथ
उलटे पतवार घुमाओ तो जानें
संभलकर कदम रखने वाले बहुत हैं
पाने को सब कुछ गंवाओ तो जानें
लेकिन सब कुछ गंवाने के लिए वही राजी होता है, जिसे सब कुछ में कुछ भी नहीं है, यह दिखाई पड़ता है। हीरा उसी दिन तुम्हारे हाथ से छूटकर गिर जाता है, जिस दिन कंकड़ दिखाई पड़ता है। कंकड़ उसी क्षण उठकर आत्मा में विराजमान हो जाता है, जिस क्षण हीरा मालूम पड़ता है। अंततः तुम्हारा बोध निर्णायक है। तुम मूल्य देते हो, उठा लेते हो। तुम मूल्य नहीं देते, गिर जाता है। सारी बात तुम्हारे बोध की है, तुम्हारी दृष्टि की है, तुम्हारी प्रतीति की है।
चारों तरफ करोड़ों लोगों की भीड़ है, वह छाया के सहारे चल रही है। उसी में तुम पैदा होते हो। बचपन से तुम भी उसी की भाषा सीखने लगते हो। फिर इस भीड़ में एक छोटा सा तबका है त्यागियों का भी; वह भी इसी भीड़ में है। भला भीड़ पैर के बल चलती हो, वे सिर के बल शीर्षासन करते खड़े हैं, लेकिन भीड़ में हैं। भला भीड़ पूरब को जाती हो, वे पश्चिम को जाते हैं, लेकिन भीड़ में हैं। कुछ भेद नहीं है उनमें। भाषा उनकी भी वही है।
जिंदगी आधी से ज्यादा गुजर जाती है, जब तुम्हें थोड़ा सा समझ में आना शुरू होता है कि यह तो कुछ सार न हुआ। कमाया, वह कुछ गंवाया जैसा लगता है। जो पाया, वह सिर्फ मुंह में एक कडुवा स्वाद छोड़ गया है। कोई प्रतीति नहीं होती उपलब्धि की। ऐसा नहीं लगता कि जीवन की नियति पूरी हुई। ऐसा नहीं लगता कि हम कहीं पहुंचे, कोई मंजिल करीब आई। कोई बीज टूटा, वृक्ष बना, ऐसा मालूम नहीं होता। कोई दीया जला, रोशन हुआ, ऐसा मालूम नहीं होता। हाथ खाली के खाली लगते हैं।
तो स्वभावतः उस क्षण तुम्हें विपरीत तर्क पकड़ में आना शुरू होता है कि भोगकर देख लिया, गलत था यह, संसारी गलत थे, अब त्यागियों की सुनना शुरू करते हो। आधी जिंदगी लोग संसार में गंवा देते हैं, कभी अगर होश भी आया तो आधी फिर संन्यास में गंवा देते हैं। तर्क वही है। पहले वस्तुएं इकट्ठी करते थे, अब वस्तुएं छोड़ते हैं; लेकिन नजर वस्तुओं पर लगी होती है।
नजर का भीतर जाना जरूरी है।
बहे जाते हो रवानी के साथ
उलटे पतवार घुमाओ तो जानें
और जब नजर भीतर की तरफ चलती है तो उलटे पतवार घूमते हैं। जब तक नजर बाहर की तरफ जाती है, तब तक तुम भीड़ के साथ चल रहे हो। तब तक तुम हो ही नहीं, भीड़ है। तुम नहीं हो, भीड़ है अंधों की, भीड़ है बहरों की, भीड़ है मुर्दों की; तुम नहीं हो। तब तक तुम धक्के-मुक्के में चलते चले जाते हो।
तुमने कभी मेलों में देखा कि अगर भीड़ की रवानी में पड़ जाओ तो तुम न भी जाना चाहो तो भी चलना पड़ता है, नहीं तो कुचल दिए जाओगे। सारी भीड़ जा रही है, भागी जा रही है, तुम्हें भी भागना पड़ता है। अगर खड़े होओगे तो गिरोगे। उलटे जाना मुश्किल है, खड़े होना मुश्किल है, चलना ही एकमात्र सहारा मालूम पड़ता है। इसलिए नहीं कि तुम चलना चाहते हो।
हजारों लोगों के भीतर झांककर मैंने पाया कि वे चलना नहीं चाहते, थक गए हैं। लेकिन चारों तरफ से भीड़ है--पत्नी है, बच्चे हैं, पति है, मां है, बाप है, मित्र है, परिवार है, दुकान है, बाजार है--सारी भीड़ भागी जा रही है। सारा संसार भागा जा रहा है। उस भागने के साथ न भागो तो कुचल दिए जाओगे।
बहे जाते हो रवानी के साथ
उलटे पतवार घुमाओ तो जानें
जिंदगी में जो पहली महत्वपूर्ण घटना घटती है किसी व्यक्ति के, वह है कि आंख बंद हो और भीतर की तरफ पतवार घूमने लगे। चेतना की नाव भीतर की तरफ बहने लगे। संसारी भी भागा जा रहा है बाहर की तरफ--पूरब; तुम्हारा त्यागी भी भागा जा रहा है बाहर की तरफ--पश्चिम; धार्मिक व्यक्ति न तो पूरब जाता है, न पश्चिम; धार्मिक व्यक्ति भीतर की तरफ जाता है।
उलटे पतवार घुमाओ तो जानें
आंख बंद करता है, ताकि वस्तुओं का संसार खो जाए। और उसको जानने में लग जाता है, उसकी खोज में लग जाता है, जो मैं हूं। और वहां ऐसे हीरे हैं, वहां ऐसे मोती हैं, वहां ऐसे स्वर्ण की वर्षा है, कि अगर बाहर के स्वर्ण व्यर्थ हो जाएं, आश्चर्य नहीं।
आश्चर्य तो तभी होगा कि जिसने भीतर झांका हो और उसे बाहर के मूल्य अभी भी मूल्य बने रहें। यह असंभव है। जिसने एक बार भीतर झांका, जिसने बड़ी संपदा में अनुभूति पा ली, बाहर की संपदाएं अपने आप थोथी और व्यर्थ हो जाती हैं। तुलना पहली दफा पैदा होती है। पहली बार रोशनी मिलती है तो तुम जान पाते हो कि बाहर अंधेरा है। इसके पहले छोड़ने की बात ही गलत है।
भीतर रोशन हो जाने का नाम सत्पुरुष हो जाना है।
‘सत्पुरुष सभी छंद-राग आदि त्याग देते हैं।’
जब भीतर का छंद बजने लगे तो कौन बाहर के छंदों का उपद्रव लेता है? जब भीतर की वीणा बजने लगे तो बाहर के सब स्वर शोरगुल हो जाते हैं।
श्री अरविंद ने कहा है कि जिसे पहले मैंने प्रकाश जाना था, भीतर के प्रकाश को जानकर पाया कि वह तो अंधेरा था। और जिसे मैंने पहले जीवन जाना था, भीतर के जीवन को जानकर पाया कि वह तो मृत्यु का ही बसेरा था। जिसे मैंने पहले अमृत जाना था, भीतर झांककर पाया कि वह तो जहर था। मैं किसके धोखे में पड़ा था?
पहली बार जीवन में क्रांति का सूत्रपात होता है, जब तुम भीतर की तरफ झांकते हो।
उलटे पतवार घुमाओ तो जानें
चेतना की सहज धारा बाहर की तरफ है, क्योंकि तुम उनके बीच पैदा होते हो, जो सब बाहर की तरफ बहे जा रहे हैं। बच्चा तो अनुकरण करता है।
और इसलिए जीवन में बड़ी से बड़ी बात बुद्ध ने कही है, कल्याण मित्र खोज लेना है। कल्याण मित्र का अर्थ है: ऐसे लोग, जो भीतर की तरफ बहे जा रहे हैं, जिन्होंने उलटी पतवार चलानी शुरू की। उनके पास बैैठकर शांति में, मौन में, उनके चप्पुओं की भीतर जाती आवाज को सुनकर तुम्हारे भीतर भी भीतर जाने का भाव उदित होगा। तुम्हारे भीतर भी कोई सोई आकांक्षा जगेगी।
जैसे किसी पिंजड़े में बंद पक्षी को, आकाश में उड़ते पक्षी को देखकर उड़ने की आकांक्षा का जन्म होता है। पंख फड़फड़ाता है। याद आती है, मैं भी उड़ सकता था। यह आकाश की नीलिमा मेरी भी हो सकती थी। यह ओर-छोर हीन विस्तार मेरा ही था। पहली दफा कटघरा दिखाई पड़ता है। पहली बार चारों तरफ के सींखचे दिखाई पड़ते हैं। कल तक तो वह इसे घर ही समझा था, इसी में उछल-कूद लेता था। इसे ही जीवन समझा था, इसी में थोड़ी चहलकदमी कर लेता था, शोरगुल कर लेता था। समझा था, यही सब है।
कल्याण मित्रों के पास...बुद्ध ने भिक्षुओं का संघ बनाया, सिर्फ इसीलिए; कोई संगठन के लिए नहीं। संगठन से धर्म का क्या लेना-देना! संगठन तो धर्म का विरोधी है। बुद्ध ने भिक्षुओं का संघ बनाया--एक परिवार, जिसमें कारागृह में बंद व्यक्तियों को कारागृह के बाहर के पक्षियों का थोड़ा साथ मिल जाए। इसको हमने सत्संग कहा है। ताकि किसी और को देखकर तुम्हें भी अपने घर की याद आ जाए।
तुमने कभी खयाल किया! अगर तुम परदेश में हो, वर्षों से परदेश में हो, अपनी भाषा भी नहीं बोल सकते, भूल ही गए हो, और अचानक किसी दिन तुम्हें अपने देश का कोई वासी मिल जाए, कैसे गले मिलकर तुम मिलते हो! कोई परिचय भी नहीं है इससे। इसे तुमने कभी देखा भी न था पहले। अपने देश में भी तुमने इसे कभी न जाना था। लेकिन वही रूप-रंग, वही आंख, वही ढंग--तत्क्षण तुम्हारी भाषा लौट आती है। तुम कैसे घुल-मिलकर इससे बात करते हो, जैसे जन्मों-जन्मों का बिछुड़ा कोई प्यारा मिल गया हो। अपरिचित आदमी है, लेकिन तुम्हारे देश का है, तुम्हारी भाषा बोलता है।
ठीक ऐसी ही घटना घटती है, जब तुम किसी सत्संग की धारा में पड़ जाते हो। तुम्हें अपने देश के लोग मिल गए। तुम्हें घर की तरफ लौटते लोग मिल गए। इनकी मौजूदगी तुम्हारे भीतर सोई हुई यादों को जगा देगी। तुम्हारे पंख फड़फड़ाने लगेंगे। तुम्हारे जीवन में तुलना पैदा होगी। और तुम अब तक जिसे जीवन कहते थे, वह व्यर्थ दिखाई पड़ने लगेगा। लेकिन थोड़ा स्वाद चाहिए। भीतर का स्वाद मिल जाए, बाहर व्यर्थ हो जाता है।
निश्चित ही सत्पुरुष सभी छंद-राग छोड़ देते हैं। भीतर का छंद मिल गया, छंदों का छंद मिल गया।
जिंदगी रक्स में है दोश पे मैखाना लिए
तिश्नगी खुद है छलकता हुआ पैमाना लिए
और जब जिंदगी खुद नाच रही हो भीतर!
जिंदगी रक्स में है दोश पे मैखाना लिए
और अपने कंधे पर ही मयखाना लिए जिंदगी खुद भीतर नाचती हो!
तिश्नगी खुद है...
और प्यास खुद हाथों में छलकता पैमाना लिए खड़ी हो, फिर बाहर की मधुशालाएं, फिर बाहर के नृत्य धीरे-धीरे दूर होते जाते हैं, दूर की आवाज होते जाते हैं। धीरे-धीरे, जैसे तारों जितना फासला तुम्हारे और उनके बीच हो जाता है। वह आवाज फिर तुम तक नहीं पहुंचती।
पहुंचती है अभी, क्योंकि तुम्हारा रस है वहां। जहां तुम्हारा रस है, वही तुम्हें सुनाई पड़ जाता है। जब रस भीतर बहने लगता है, बाहर के छंद खो जाते हैं, बाहर का राग-रंग खो जाता है। लेकिन ध्यान रखना, यह परिणाम है।
सत्पुरुषत्व को पाना कारण है, त्याग परिणाम है।
स्वयं को पाना कारण है, संन्यास परिणाम है।
संन्यास से किसी ने कभी स्वयं को नहीं पाया। स्वयं को पाने की यात्रा शुरू होती है तो संन्यास घटने लगता है।
‘वे कामभोगों के लिए बात नहीं चलाते।’
जो आत्मभोग में लगा हो, वह क्यों कामभोग की बात चलाए? जिसका अपने से मिलन हो रहा हो, जो उस परम आनंद में डूब रहा हो, जिसके कूल-किनारे खोते जा रहे हों, जिसकी सरिता सागर में गिर रही हो, अब वह क्या बातें करे किनारों की? अब बूंद क्यों चिंतित हो अपनी सीमाओं के लिए? लेकिन सम्हलकर चलना; कामभोग छोड़ने से कोई आत्मभोग को उपलब्ध नहीं होता। आत्मभोग को उपलब्ध होने से कामभोग छूट जाते हैं।
इसे सदा याद रखना; क्योंकि दूसरा तर्क बड़ा सुविधापूर्ण है। और तुम्हें लगता है, अभी कर सकते हो। कामभोग छोड़ना है? छोड़ सकते हो। पकड़ा तुमने है, छोड़ भी सकते हो। पकड़ने से कुछ नहीं पाया, छोड़ने से भी कुछ न पाओगे। पकड़ने से दुख पाया, छोड़ने से भी दुख पाओगे। क्योंकि दुख तो उस बाहर जाती दृष्टि में ही समाया हुआ है।
तो मैं यहां भोगियों को दुखी देखता हूं और त्यागी होने के लिए आतुर देखता हूं। त्यागियों को दुखी देखता हूं और भोगी होने के लिए आतुर देखता हूं। जो स्थिति तुम्हारी है, वहीं दुख मालूम होता है।
इसे तुम ऐसा समझो तो आसान होगा। तुम अकेले थे, तब भी तुम दुखी थे। तब तुम किसी का साथ खोजते थे, विवाह कर लें, कोई संगी-साथी मिल जाए। फिर विवाह कर लिया, अब तुम विवाहित होकर दुखी हो। अब तुम सोचते हो, इससे तो अकेले ही होना अच्छा था। पता ही न था कि कितना सुख था अकेले होने में। मगर तुम यह मत सोचना कि संयोग से पत्नी मर जाए तो तुम बड़े सुखी हो जाओगे। पत्नी के मरते ही तुम अचानक दूसरी पत्नी की तलाश करने लगोगे। दो-चार दिन शायद तुम राहत ले लो, विश्राम कर लो, थक गए होओ ज्यादा, लेकिन जल्दी ही तुम पाओगे कि अकेले होने में बड़ी पीड़ा है। फिर तुम दो होना चाहते हो।
तुम्हारे भीतर भी त्याग और भोग का खेल चलता रहता है। अलग-अलग व्यक्ति ही त्याग और भोग का खेल करते हैं, ऐसा नहीं। तुम्हारे भीतर, प्रत्येक के भीतर त्याग और भोग का खेल साथ-साथ चलता रहता है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
आत्म-जागरण न तो त्याग है, न भोग है; क्योंकि आत्म-जागरण बाहर से मुक्त होने की कला है। आत्म-जागरण स्व में ठहरने की, स्वस्थ होने की कला है। सत्पुरुष, बुद्ध उसी को कहते हैं, जिसने अपने होने में थिरता पा ली, जिसकी लौ अकंप जलने लगी।
‘सुख मिले या दुख, पंडित विकार नहीं प्रदर्शित करते।’
अभी तो दुख मिलेगा तो तुम कैसे प्रगट करने से बचोगे अपनी प्रतिक्रिया? दुख मिलेगा, तुम दुखी हो जाओगे; चाहे तुम छिपाने की कोशिश भी करो। यह भी हो सकता है कि दूसरे को तुम पता भी न चलने दो, पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; तुम दुखी हो जाओगे। सुख मिलेगा, तुम सुखी हो जाओगे।
अभी ऐसा होता है, जो भी घटना घटती है, उसके साथ तुम्हारा तादात्म्य हो जाता है। तुम दूर नहीं रह पाते। दुख आता है तो तुम दुख के साथ एक हो जाते हो। तुम कहने लगते हो, मैं दुखी। कहो न कहो, भीतर तुम जानने लगते हो, मैं दुखी। सुख आता है, तुम सुख के साथ एक हो जाते हो। तुम कहने लगते हो, मैं सुखी। सुख आता है, तुम्हारी चाल बदल जाती है। दुख आता है, तुम्हारी चाल बदल जाती है। दुख आता है, तुम ऐसे चलने लगते हो, जैसे मुर्दा। सुख आता है, तुम ऐसे नाचने लगते हो, जैसे जीवंत। अभी सुख और दुख तुम्हें पूरा का पूरा घेर लेते हैं। अभी तुम्हारा होना सुख-दुख के पार नहीं है, सुख-दुख के भीतर है।
सत्पुरुष वही है, जिसके पास अपना होना है, प्रामाणिक होना है। सुख होता है तो वह जानता है कि सुख आया, लेकिन मैं सुख नहीं हूं। दुख आता है तो वह जानता है, दुख आया, लेकिन मैं दुख नहीं हूं। उसकी चाल में कोई भी फर्क नहीं पड़ता। उसके भीतर के छंद वैसे ही बने रहते हैं। उसके भीतर कुछ भी भेद नहीं पड़ता। वह दर्पण की भांति होता है। दर्पण के सामने कोई न रहे तो दर्पण खाली होने में भी प्रसन्न है। दर्पण के सामने कोई सुंदर छबि आ जाए तो भी ठीक, कोई कुरूप व्यक्ति आ जाए तो भी ठीक। दर्पण इससे कुछ विचलित नहीं होता। दर्पण अपने होने में थिर होता है।
सुबह होती है, शाम होती है। ऐसे ही दुख आते हैं, सुख आते हैं, चले जाते हैं। तुम्हारे पास से गुजरते हैं, रास्ते पर चलने वाले राहगीर हैं, तुम नहीं हो। जिसे जैसे ही इस बात का स्मरण आना शुरू हुआ कि मैं पृथक हूं सारे अनुभवों से, अनुभव मात्र मुझसे अलग हैं, मैं साक्षी हूं, उसके जीवन में सत्पुरुष की सीढ़ी लगी।
‘सुख मिले या दुख, पंडित विकार नहीं प्रदर्शित करते।’
यह पंडित की परिभाषा हुई, कि बाहर कुछ भी घट जाए, उनके भीतर आकाश वैसा का वैसा निराकार बना रहता है; कोई भेद नहीं आता। बादल आ जाएं आकाश में तो आकाश निर्विकार रहता है। बादल चले जाएं तो निर्विकार रहता है। आकाश को कुछ छूता ही नहीं--अस्पर्शित!
इसलिए ठीक सत्पुरुष संसार से भयभीत नहीं होगा। संसार उसे कलुषित नहीं कर सकता। वह जंगल में जाकर छिप न जाना चाहेगा। अगर जंगल में पहले छिप भी गया होगा तो वापस लौट आएगा। क्या फर्क पड़ता है अब? जंगल हो कि बस्ती हो, मरघट हो कि बाजार हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। जिस दिन तुम ऐसे हो जाते हो कि बाहर के द्वंद्व तुम्हें भीतर खंडित नहीं करते...।
तुमने कभी खयाल किया? पानी पर लकीर खींचो, खिंचती है, लेकिन खिंचते ही मिट जाती है। रेत पर लकीर खींचो, खिंचती है, थोड़ी देर टिकती है; जब हवाएं आएंगी, कोई मिटाएगा, तब मिटेंगी। पत्थर पर लकीर खींचो, टिक जाती है; सदियों तक टिकी रहती है। आकाश में लकीर खींचो, खिंचती ही नहीं; मिटने का सवाल ही नहीं है।
इसी तरह के चार तरह के लोग होते हैं। पत्थर की तरह लोग, जिन पर कुछ खिंच जाता है तो मिटता ही नहीं, मिटाए नहीं मिटता। क्रोधित हो गए तो जिंदगी भर क्रोध को खींचते रहते हैं। किसी से दुश्मनी बन गई तो बन गई। अपने बच्चों को भी दे जाएंगे दुश्मनी वसीयत में, कि हम नहीं निपटा पाए, तुम निपटा लेना। हम नहीं मार पाए दुश्मन को, तुम मार डालना।
एक आदमी मर रहा था तो उसने अपने बेटों को अपने पास बुलाया और कहा कि मरते आदमी की इच्छा पूरी करो। तुम्हारा बाप--मैं मर रहा हूं। छोटी सी इच्छा है, वचन दे दो। बड़े बेटे तो जानते थे कि यह आदमी खतरनाक है। बाप हो तो क्या? यह जरूर कोई उपद्रव करवा जाएगा। और मरते को वचन दे दिया, पीछे पूरा न किया, वह भी ठीक न रहेगा। तो वे तो चुप रहे सिर झुकाए। छोटे बेटे को कुछ ज्यादा अंदाज न था बाप का; दूर पढ़ता था विश्वविद्यालय में। वह पास आ गया। उसने कहा कि आप जो कहें। बाप ने उसके कान में कहा कि बस, एक इच्छा रह गई है, कि जब मैं मर जाऊं तो मेरी लाश के टुकड़े करके पड़ोसियों के घर में डाल देना और पुलिस में रिपोर्ट कर देना कि जिंदा-जिंदा तो इन लोगों ने हमारे बाप को सताया ही, मरकर भी उसकी लाश के टुकड़े कर दिए। उसने अपने बेटे से कहा कि मेरी आत्मा स्वर्ग की तरफ जाती हुई बड़ी प्रसन्न होगी यह देखकर कि पड़ोसी थाने की तरफ बंधे चले जा रहे हैं।
लोग अपनी दुश्मनियां, अपनी घृणाएं, अपने क्रोध वसीयत में दे जाते हैं। खुद तो जीवनभर जलते ही हैं, पीढ़ी दर पीढ़ी दुश्मनियां चलती हैं, शत्रुता चलती है। पारिवारिक, पुश्तैनी दुश्मनियां चलती हैं। लकीर जैसे पत्थर पर खिंच जाती है। यह अधिकतम जड़ स्थिति है चैतन्य की। जैसे तुम बिलकुल ही सोए हुए हो, तुम्हें होश ही नहीं है।
फिर कुछ लोग हैं, जो रेत की तरह हैं--खिंचती है; आज खिंचती है, कल मिट जाती है। कुछ देर चलती है, घंटे-घड़ी, फिर शांत हो जाते हैं, ठीक हो जाता है।
फिर कुछ लोग हैं, छोटे बच्चों की तरह, खींची भी नहीं--खिंचती है--इधर तुमने खींची भी नहीं, मिट जाती है। बच्चा क्रोधित होता है, उछल-कूद लिया, शोरगुल मचा लिया, भूल गया। अभी घड़ी भर पहले दूसरे बच्चे से कह रहा था, जिंदगी भर तुम्हारा मुंह न देखूंगा; और फिर पांच मिनट बाद दोनों साथ हाथ में हाथ डाले बैठे गपशप कर रहे हैं। बात आई-गई हो गई--पानी की तरह।
फिर सत्पुरुष हैं, जिनको हम संत कहें--आकाश की तरह। कुछ खिंचता नहीं; मिटने का सवाल ही नहीं है। संतत्व बच्चों से भी ज्यादा निर्दोष है।
जीसस से कोई ने पूछा, कौन तुम्हारे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश के अधिकारी होंगे? उन्होंने चारों तरफ नजर डाली उस भीड़ में और एक छोटे बच्चे को उठाकर कंधे पर रख लिया और कहा, जो इस बच्चे की भांति होंगे।
लेकिन बच्चे से भी आगे की बात है। बच्चे की भांति तो होना ही पड़ेगा, लेकिन बच्चे से भी ज्यादा निर्दोष होना पड़ेगा--आकाश की भांति।
‘सुख मिले या दुख, पंडित विकार प्रदर्शित नहीं करते।’
साधारण आदमी तो ऐसे जीता है, जैसे कभी कोई छिछला झरना देखा तुमने? कितना शोरगुल! गहराई कुछ भी नहीं, शोरगुल बहुत। कभी तुमने यह खयाल किया कि जितनी गहराई बढ़ जाती है, उतना ही शोरगुल कम हो जाता है। अगर नदी बहुत गहरी हो तो शोरगुल होता ही नहीं। अगर नदी बहुत-बहुत गहरी हो तो पता ही नहीं चलता कि चलती भी है! चाल भी इतनी धीमी और शांत हो जाती है।
कह रहा है शोरे-दरिया से समंदर का सुकूत
जिसका जितना जर्फ है उतना ही वो खामोश है
जितनी जिसकी गहराई है, उतना ही वह खामोश है।
तुम जब अपने भीतर जाओगे, तब तुम्हारी गहराई बढ़ेगी। तुम बाहर रहोगे तो तुम छिछले रह जाओगे, उथले रह जाओगे। बाहर रहने का अर्थ ही है कि तुम गहराई को छू ही न पाओगे। तुम छोटे-मोटे छिछले झरने रह जाओगे, तुम कभी सागर न हो पाओगे। और तुम्हारी संभावना थी प्रशांत महासागर हो जाने की; कि तुम एक ऐसी गहराई पा लो जो असीम है; जो शुरू तो होती है और अंत नहीं होती।
कह रहा है शोरे-दरिया से समंदर का सुकूत
जिसका जितना जर्फ है उतना ही वो खामोश है
अपने को थोड़ा देखो; तुम्हारी जिंदगी कैसी ऊपर-ऊपर, सतह-सतह पर है! जरा-जरा सी बातें कितना दुख दे जाती हैं! जरा-जरा सी बातें तुम्हें कैसा मस्त कर जाती हैं!
तुमने इंसान की फितरत पे कभी गौर किया
मये-सरजोश अभी, दुर्दे-तहे-जाम अभी
अभी तो लगता है कि उफनता तूफान है मस्ती का; जैसे शराब की प्याली ऊपर से बही जा रही हो। और क्षणभर बाद खाली प्याली, जिसमें सिर्फ तलहट बची है।
तुमने इंसान की फितरत पे कभी गौर किया
मये-सरजोश अभी, दुर्दे-तहे-जाम अभी
क्षण में ऐसा होता रहता है, जैसे हवा में डोलता एक पत्ता हो। तुम्हारा कोई व्यक्तित्व नहीं। तुम्हारी कोई आत्मा नहीं। तुम हो ही नहीं अभी। अभी तुम हवाओं के थपेड़े हो। अभी नदी की लहरें तुम्हें जहां ले जाती हैं, तुम चले जाते हो; बहते हुए सूखे पत्ते हो। अभी अस्तित्व में तुम्हारी कोई जड़ें नहीं। अन्यथा जिंदगी तुम्हें इतनी आसानी से न हिला पाएगी।
और जड़ें जिसे खोजनी हों, उसे भीतर जाना पड़ेगा। क्योंकि तुम भीतर से ही जुड़े हो परमात्मा से, सत्य से, अस्तित्व से। वृृक्षों के तो पैर जमीन में गड़े हैं, तुम्हारे प्राण परमात्मा में गड़े हैं। अपने भीतर तुम जितने गहरे जाओगे, उतना ही तुम पाओगे कि बाहर की बातें अब कम, और कम, और कम प्रभावित करती हैं।
एक घड़ी ऐसी आती है कि तुम पर ही घटना घटती है और तुम ऐसे खड़े देखते रहते हो, जैसे किसी और पर घट रही है--बस, सत्पुरुष का जन्म हुआ। तुम्हारे ही घर में आग लगी है और तुम खड़े देख रहे हो, जैसे किसी और के घर में आग लगी है। तुम्हारी ही पत्नी चल बसी है और तुम खड़े ऐसे हो, जैसे किसी और की पत्नी चल बसी। सब तुम्हारा लुट गया और तुम खड़े ऐसे हो, जैसे किसी और का लुट गया।
आल्डुअस हक्सले अमरीका का बड़ा विचारशील व्यक्ति था। कैलीफोर्निया में उसने अपने सारे जीवन एक बड़ा संग्रहालय बनाया था। दूर-दूर से बड़ी कीमती पुस्तकें लाया, सुंदर मूर्तियां, प्राचीन पुरातत्व की चीजें, शिलालेख; अपने सारे जीवन की संपत्ति उसने उसी में लगाई थी। चालीस साल की मेहनत थी उस आदमी की। और कहते हैं, एक अनूठा संग्रह था उसके पास। और अचानक एक दिन उसमें आग लग गई। पर इसी पुरातत्व की खोज में लगा-लगा, धीरे-धीरे इन्हीं सत्यों की खोज में लगा हुआ, उसके जीवन में एक क्रांति भी घट गई थी। उसे हम आधुनिक जगत का एक ऋषि कह सकते हैं। उस दिन उसने प्रमाण दिया। उसकी पत्नी ने समझा कि वह पागल हो जाएगा, क्योंकि सारा जीवन मिट्टी में गया। आग इतनी भयंकर थी कि कोई उपाय न रहा बचाने का कुछ भी। खुद की लिखीं किताबें, खुद की हस्तलिखित पांडुलिपियां, वे भी सब जल गयीं।
वह अपना खड़ा है, मकान को जलते देख रहा है। पत्नी घबड़ाई; क्योंकि न तो वह कुछ बोल रहा है, न परेशान दिख रहा है। सोचा कि क्या पागल हो गया? रो ले, चिल्ला ले, चीख ले, तो हल्का हो जाए। और आल्डुअस हक्सले ने कहा कि मुझे सिर्फ ऐसा लगा कि एक बोझ हल्का हुआ। और जल जाने के बाद जब मैंने दूसरे दिन अपने मकान को देखा, तो मुझे ऐसा लगा, जैसे एक सफाई हो गई; स्नान कर लिया हो।
जैसे ही तुम भीतर जाओगे, वैसे ही बाहर की घटनाएं कम से कम मूल्य की रह जाएंगी। धीरे-धीरे उनमें कोई मूल्य नहीं रह जाता। जैसे सांप अपनी केंचुल को छोड़कर सरक जाता है, ऐसे ही तुम अपने बाहर को छोड़कर भीतर सरक जाते हो। बाहर केंचुली ही पड़ी रह जाती है; उसका कोई भी मूल्य नहीं है।
‘जो अपने लिए या दूसरों के लिए पुत्र, धन या राज्य नहीं चाहता और न अधर्म से अपनी उन्नति चाहता है, वही शीलवान, प्रज्ञावान और धार्मिक है।’
‘जो अपने लिए या दूसरों के लिए...।’
क्योंकि हम बड़े धोखेबाज हैं। हम कहते हैं, अपने लिए तो हमें कुछ भी नहीं चाहिए, बच्चों के लिए कर रहे हैं। हम कहते हैं, अपने लिए तो क्या करना है? अपने लिए तो हम संन्यासी ही हैं, लेकिन अब पत्नी है, बच्चे हैं, घर-द्वार है। हमारी बेईमानी का अंत नहीं है। हम बड़ी तरकीबें निकालते हैं। हम दूसरों के कंधों पर रखकर बंदूकें चलाते हैं।
तो बुद्ध कह रहे हैं, ‘जो अपने लिए या दूसरों के लिए पुत्र, धन या राज्य नहीं चाहता...।’
जो महत्वाकांक्षी नहीं है। जिसके मन में प्रतिस्पर्धा की दौड़ नहीं है।
ध्यान रखना, जब भी तुम कुछ चाहते हो बाहर के संसार में तो तुम्हें आत्मा से मूल्य चुकाना पड़ता है। कौड़ी-कौड़ी भी तुम बाहर से लाते हो तो कुछ गंवाकर लाते हो। ऐसे मुफ्त कुछ भी नहीं मिलता। और बड़ा महंगा सौदा है।
पांच रुपए कमा लेते हो जरा सा झूठ बोलकर, तुम सोचते हो, इतने से झूठ में क्या बिगड़ेगा? लेकिन उतने झूठ में तुमने आत्मा का एक कोना गंवा दिया। तुमने भीतर की एक स्वच्छता गंवा दी। तुमने भीतर की एक शांति गंवा दी। क्योंकि एक झूठ हजार झूठ लाएगा; फिर कोई अंत नहीं है। हजार झूठ, करोड़ झूठ लाएंगे। एक छोटा सा झूठ बोलकर देखो कि झूठ में कैसी संतानें पैदा होती हैं। झूठ की बड़ी श्रृंखला पैदा होती है, बच्चे पर बच्चे पैदा होते चले जाते हैं। झूठ संतति-निग्रह को मानता ही नहीं। वह पैदा ही किए चला जाता है।
सत्य बिलकुल बांझ है। खयाल करो, जब भी तुम एक सत्य बोलते हो, बात खतम हो गई; पूर्णविराम आ गया। झूठ का सिलसिला अंत होता ही नहीं। सच बोलते हो, याद भी नहीं रखना पड़ता। झूठ के लिए बड़ी याददाश्त चाहिए। सच के लिए याददाश्त की भी जरूरत नहीं; उतना बोझ भी जरूरी नहीं। झूठ के लिए तो याददाश्त चाहिए ही। किसी से कुछ बोला, किसी से कुछ बोला। इस आदमी से झूठ बोल दिया आज, अब यह कल फिर पूछे तो कल का झूठ भी याद रखना चाहिए। और झूठ खिसकता है, क्योंकि झूठ की कोई जगह नहीं होती है ठहरने की। झूठ सरकता है। अगर तुम याद न रखो, बार-बार लौट-लौट कर याद न करो, तो तुम खुद ही भूल जाओगे। तुम खुद ही झंझट में पड़ जाओगे।
सत्य को याद रखने की भी जरूरत नहीं। जो है, उसे याद रखने की क्या जरूरत? वर्षों बाद भी याद आ जाएगा। जब जरूरत होगी याद आ जाएगा। उससे अन्यथा याद आने का कोई कारण नहीं। सत्य बोलने वाले आदमी का मन निर्भार होता है। जो निर्भार होता है, वह आकाश में उड़ सकता है।
झूठ बोलने वाला आदमी अपने गले में पत्थर लटकाए चला जाता है। फिर आकाश में उड़ना चाहता है तो कैसे उड़े? ये पत्थर जान ले लेते हैं।
एक झूठ बोले, तुमने आत्मा का एक कोना खराब कर दिया। मंदिर में तुम गंदगी ले आए। फूल को तुमने पत्थर से ढांक दिया। सड़ेगा यह फूल अब; इसके जीवन में अब तुमने अवरोध खड़ा कर दिया। तुमने झरने की सहज धारा को खंडित कर दिया। तुमने एक चट्टान अड़ा दी।
जरा सी चोरी कर लो--और ध्यान रखना, चोरी जरा सी और बड़ी नहीं होती। जरा सी, बड़ी ही है। सभी चोर यही सोचकर चोरी करते हैं कि इतनी सी से क्या बनता-बिगड़ता है? तुमने कभी खयाल किया, चोरी का, झूठ का गणित क्या है? झूठ सदा यही कहता है, इतना सा है, क्या बनता-बिगड़ता है? और आज बोल लिए, कोई सदा थोड़े ही बोलना है! एक दफा सम्हल गई बात, सम्हल गई। चोरी भी यही कहती है, इतनी सी है!
दो पैसे की चोरी और दो करोड़ रुपए की चोरी में कोई फर्क नहीं है। चोरी चोरी है; छोटी-बड़ी नहीं होती। छोटा-बड़ा झूठ भी नहीं होता। झूठ सिर्फ झूठ है; छोटा-बड़ा कैसे होगा? सत्य सत्य है, न छोटा होता है, न बड़ा होता है। न झूठ छोटा होता है, न बड़ा होता है। न चोरी बड़ी होती है, न छोटी होती है।
मगर मन समझाए चला जाता है कि इतना सा झूठ है, क्या बनता-बिगड़ता है? इतनी सी चोरी है, कर लो, कल दान कर देंगे। और ध्यान रखना, फिर तुम कितना ही भला करो, बुरे को अनकिया करने का उपाय नहीं है। भले से अच्छा नहीं होगा वह।
यह तो ऐसे ही हुआ, मैंने सुना है, इंग्लैंड का सम्राट अपने एक वजीर को राजदूत बनाकर फ्रांस भेजना चाहता था। वजीर का नाम मूर था। लेकिन वह डरा हुआ था, क्योंकि वह फ्रांस का सम्राट जो था, थोड़ा झक्की किस्म का था। और तनाव की अवस्था थी इंग्लैंड और फ्रांस में। तो मूर ने कहा कि आप मुझे भेज तो रहे हैं, लेकिन वह आदमी ऐसा पगला है कि किसी भी दिन भरे दरबार में गर्दन उतार ले सकता है मेरी।
तो इंग्लैंड के सम्राट ने कहा, तू बिलकुल फिक्र मत कर। अगर तेरी गर्दन काटी गई तो जितने फ्रांसवासी इंग्लैंड में हैं, सबकी गर्दन उसी दिन काट डाली जाएगी। तू बिलकुल फिक्र मत कर।
उसने कहा, वह मैं समझा कि आप यह करोगे। आप उससे कुछ पीछे नहीं हो, लेकिन उनमें से कोई भी गर्दन मेरे सिर पर बैठेगी न। मैं तो गया! तुम मेरी एक गर्दन के लिए हजार फ्रांसीसियों की गर्दन काट दोगे माना, लेकिन उनमें से कोई भी मुझे जिंदा न कर पाएगी। इससे क्या फर्क पड़ता है फिर कि मेरे मरने के बाद तुमने काटे या न काटे? मैं गया!
तुमने एक झूठ बोला, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कितने सच बोलोगे इसके बाद। तुमने एक आदमी को छुरी मार दी, इससे क्या फर्क पड़ता है कि फिर तुमने फूलमाला पहना दी! तुमने किसी को गाली दे दी, इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम गए और स्तुति कर आए!
लेकिन जीवन में निरंतर तुम्हारा मन तुम्हें ये बातें समझाए जाता है कि कोई हर्जा नहीं, चोरी कर ली, फिर पुण्य कर देंगे। पाप कर लिया, फिर तीर्थयात्रा कर आएंगे, हज हो आएंगे, हाजी हो जाएंगे। ये सब तरकीबें हैं मन की। इनसे सजग रहना।
जो किया, वह किया; उसे अनकिया करने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि अतीत में वापस जाने का कोई उपाय नहीं है। जो हो गया, हो गया।
हां, उससे पार होने का उपाय है; उसको अनकिया करने का उपाय नहीं है। तुमने अगर एक आदमी की गर्दन काट दी, अब तुम क्या करोगे? तुम लाख मंदिर बनवाओ, तुम लाख पूजा चढ़वाओ, तुम हजारों ब्राह्मणों को भोजन करवाओ, इससे क्या होगा? जो हो गया, हो गया। हां, यह हो सकता है कि तुम बोधपूर्ण हो जाओ, जाग जाओ, तो पार हो जाओगे, अतिक्रमण हो जाएगा। लेकिन जो किया जा चुका, उसको अनकिया नहीं किया जा सकता।
इसलिए जब झूठ और बेईमानी तुम्हारे मन को पकड़े और तुम्हें दलीलें दे कि यह तो छोटी सी बात है, कर लो; तब थोड़े सावधान रहना। कोई बात छोटी नहीं। क्योंकि हर घड़ी तुम्हारी आत्मा दांव पर है। और यहां मुफ्त कुछ भी नहीं है, हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। और मजा तो यह है कि कीमत बहुत चुकानी पड़ती है, मिलता कुछ भी नहीं। पूरी जिंदगी के बाद हाथ तो खाली होते हैं, आत्मा भी खो गई होती है।
‘जो अपने लिए या दूसरों के लिए पुत्र, धन या राज्य नहीं चाहता, वही सत्पुरुष है।’
अचाह सत्पुरुष की सुगंध है। अचाह! क्योंकि जैसे ही तुमने कुछ चाहा, वैसे ही तुम किसी से छीनने को तत्पर हो जाओगे। अगर बहुत धन चाहिए तो छीनना पड़ेगा। अगर बहुत प्रतिष्ठा चाहिए तो छीननी पड़ेगी। अगर बड़े पद चाहिए तो किन्हीं को हटाना पड़ेगा, कोई वहां मौजूद है। सब में हिंसा होगी।
जो बिना छीने मिल जाए, उसे ही संपदा मानना। जो बिना मांगे मिल जाए, उसे ही वरदान मानना। और तुम्हारे मिलने से किसी का कम न हो, उसे ही धर्म मानना।
तो कुछ ऐसी संपदाएं हैं, जो तुम्हें मिल जाती हैं और किसी की छिनतीं नहीं। समझो; तुम्हारे जीवन में प्रेम बढ़ जाए तो इसका यह अर्थ नहीं है कि इस जमीन पर कुछ लोगों का प्रेम छिन जाएगा क्योंकि तुम्हारे पास ज्यादा प्रेम की संपदा आ गई; कि कुछ लोगों के प्रेम के सिक्के छिन जाएंगे। नहीं, उलटी हालत है; तुम्हारे पास अगर प्रेम बढ़ जाए तो दूसरों के पास भी प्रेम के बढ़ने की संभावना बढ़ जाएगी। क्योंकि तुम इस जगत के एक अनिवार्य हिस्से हो। तुम्हारा दीया अगर भीतर का जलने लगे तो बहुतों को दीया जलाने की आकांक्षा जग जाएगी, भरोसा आ जाएगा। तुम्हारा अगर ध्यान बढ़ जाए तो ऐसा थोड़े ही है कि किसी की अशांति बढ़ेगी तुम्हारे ध्यान के बढ़ने से! तुम्हारे ध्यान के बढ़ने से किसी का कुछ छिनता नहीं। और अगर कोई समझदार हो तो तुम से बहुत कुछ पा सकता है। अन्यथा--
कली कोई जहां पर खिल रही है
वहीं एक फूल मुरझा रहा है
अगर तुमने इस संसार की संपदा में बहुत रस लिया, तो तुम कहीं एक कली खिला लोगे तो तुम पाओगे कि कोई फूल कहीं दूसरी जगह मुर्झा गया। तुम तिजोड़ी भर लोगे तो तुम पाओगे, किन्हीं की तिजोड़ियां खाली हो गयीं। तुम पदों पर पहुंच जाओगे तो तुम पाओगे कि कोई पराजित कर दिए गए, कोई पदों से नीचे गिर गए। तुम्हारे सुख में न मालूम कितने लोगों का दुख छिपा होगा।
ऐसा सुख दो कौड़ी का है, जिसमें दूसरे का दुख छिपा हो। ऐसा सुख व्यर्थ है, जिसमें दूसरे के खून के दाग हों।
और मजा यह है कि ना-कुछ के लिए! मिलता कुछ भी नहीं है। पद पर बैठ जाओ तो भी तुम तुम ही हो। कितने ही ऊंचे पद पर बैठ जाओ, तुम तुम ही हो। चांद-तारों पर बैठ जाओ, तो भी तुम बदल न जाओगे।
तुम बदलो तो तुम जहां बैठे हो, वहीं सिंहासन हो जाते हैं। और वे सिंहासन किसी से छीनने नहीं पड़ते। तुम बदलो तो तुम जहां चलते हो, वहीं तीर्थ बन जाते हैं। तुम बदलो तो तुम्हारे चारों तरफ का माहौल भी तुम अपने साथ बदल लेते हो। तुम एक नई दुनिया का सूत्रपात हो जाते हो।
हां, खाइयो मत फरेबे-हस्ती
हरचंद कहें कि है, नहीं है
इस जिंदगी के धोखे में मत आना। कितना ही यह जिंदगी कहे कि मैं हूं, नहीं है। मौत इस सब को छीन लेती है। एक सपना है खुली आंख देखा गया।
तुमसे पहले बहुत लोगों ने यह सपना देखा है। कहां हैं वे सारे लोग? मिट्टी में खो गए। तुम भी उन्हीं जैसे सपने देख रहे हो, उन्हीं जैसे मिट्टी में खो जाओगे। समय रहते कुछ कर लो। कुछ ऐसे सूत्र को पा लो, जो खोता नहीं, जो शाश्वत है--एस धम्मो सनंतनो। कुछ ऐसी बात पा लो, जो सनातन है, जिसे मृत्यु मिटा नहीं पाती।
‘और न अधर्म से अपनी उन्नति चाहता है, वही शीलवान, प्रज्ञावान और धार्मिक है।’
जब-जब इसे सोचा है दिल थाम लिया मैंने
इंसान के हाथों से इंसान पे क्या गुजरी
आदमी ने आदमी के साथ क्या नहीं किया? और तुम थोड़ा सोचो, किसलिए? पाया क्या? हिटलर ने कितने लोग मारे! चंगेज खां ने कितने लोग समाप्त किए! हम भी सब छोटे-मोटे पैमाने पर वही करते हैं; पाते क्या हैं?
पाते कुछ भी नहीं। बच्चों के खेल हैं जैसे! बड़े महल बनाते हैं सपनों के, एक दिन सब पड़ा रह जाता है।
मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि तुम बिना समझे इस सब से भाग खड़े होना। भागने की बात नहीं है, तुम इसे समझना। जब तुम एक कदम उठाओ प्रतिस्पर्धा का तो सोचना, क्या होगा? जब तुम्हारे मन में आकांक्षा पकड़े बहुत धन इकट्ठा कर लेने की तो सोचना, इससे क्या होगा? इस पर मनन करना, चिंतन करना, ध्यान करना। जब कोई तुम्हें गाली दे और अपमानित हो उठो और हत्या तुम्हारे मन को पकड़ने लगे, हिंसा के बादल तुम्हें घेर लें तो सोचना, इससे क्या होगा? इससे क्या सार है? जब तुम व्यर्थ की चीजों को इकट्ठा करने में विक्षिप्त होने लगो तो सोचना--
इससे क्या फायदा रंगीन लबादों के तले
रूह जलती रहे, घुलती रहे, पजमुर्दा रहे
इससे क्या फायदा? कितने ही रंगीन लबादे हों और भीतर आत्मा सड़ती रहे--किसको धोखा दे रहे हो? इस धोखे का सार क्या है? और किसी भी घड़ी श्वास बंद हो सकती है। यह जो एक महान अवसर मिला था, जिसमें कि तुम जाग सकते थे, उसको व्यर्थ के खिलौने इकट्ठे करने में गंवाओगे?
रेत की सी दीवार है दुनिया
ओछे का सा प्यार है दुनिया
रेत की सी दीवार है दुनिया
बनाओ, बहुत बनाओ, बड़ा श्रम उठाओ, खून-पसीना करो, सब गंवाओ बनाने में और फिसल-फिसल जाती है। छोटे बच्चे ही जाकर रेत में घर नहीं बनाते, तुम भी वही कर रहे हो। समय की रेत पर बनाए सभी घर गिर जाने वाले हैं। समय की रेत पर बनाया गया कुछ भी ठहरेगा नहीं।
जैन शास्त्रों में एक कथा है। एक चक्रवर्ती हुआ; तो जैन शास्त्र कहते हैं कि जब कोई चक्रवर्ती हो जाता है--चक्रवर्ती यानी सारे जगत का सम्राट हो जाता है, सभी का अकेला मालिक हो जाता है, वही सभी होना चाहते हैं, जिसका चक्र सारे जगत में घूमने लगता है--तो उसके लिए एक विशेष सुविधा मिलती है। स्वर्ग में कैलाश पर्वत है, वहां चक्रवर्ती को अधिकार है दस्तखत करने का उस पर्वत पर। उस पर्वत पर जो भी दस्तखत किया जाता है, वह अरबों-खरबों वर्षों तक टिकता है। वह कोई ऐसा पर्वत नहीं है कि यहां जैसा पर्वत हो, दस्तखत किया और कुछ सैकड़ों वर्षों में खो जाएगा; टिकता है अरबों-खरबों वर्षों तक।
तो एक व्यक्ति चक्रवर्ती सम्राट हो गया, वह बड़ा प्रसन्न था; आकांक्षा पूरी हुई और उस पर्वत पर दस्तखत करने जा रहा है। तो उसने सोचा था कि बड़े-बड़े अक्षर में दस्तखत कर आऊंगा। लेकिन जब वह पर्वत के पास पहुंचा तो उसकी आंख आंसुओं से भर गई। पर्वत पर जगह ही न थी, इतने लोग पहले दस्तखत कर चुके थे। बड़े की तो बात और, एक कोना खाली न था, इतने चक्रवर्ती हो चुके थे समय की अनंत धारा में। कोई हिसाब है! सोचा था, उस विराट पर्वत पर बड़े-बड़े अक्षर में दस्तखत कर आएंगे।
फिर मजबूरी में कोई जगह न पाकर पुराने दस्तखतों को मिटाकर अपने दस्तखत किए। लेकिन तब उसका मन दीन-जीर्ण हो गया कि अगर यह हालत है, तो कोई हमारा भी मिटाकर दस्तखत कर जाएगा। यह कितनी देर टिका!
जब वह भीतर जा रहा था तो वह अपनी पत्नी को भी साथ ले जाना चाहता था। लेकिन द्वारपाल ने कहा, भलेमानस! इसकी आज्ञा नहीं है; अकेले ही भीतर जाना पड़ता है। पर मजा ही क्या अगर पत्नी न देख पाए पति का गौरव कि वह दस्तखत कर रहा है!
उसने बड़ी जिद की थी, लेकिन द्वारपाल ने कहा था, मान तू! लौटकर तू प्रसन्न होगा कि पत्नी को नहीं ले गया तो अच्छा हुआ। और ऐसा कुछ तेरे साथ ही हुआ है, ऐसा नहीं है; मेरे पिता भी यही काम करते थे द्वारपाल का। वह भी कहते थे, जब भी कोई आता है, वह पत्नी को साथ ले जाना चाहता है। उनके पिता ने भी उनसे यही कहा था। यह सदा से होता रहा है। और यह भी मुझे पता है कि लौटकर तू धन्यवाद देगा--ऐसा सदा से होता रहा है--कि अच्छा हुआ, पत्नी को साथ न ले गया। मिट्टी पलीत हो जाती है।
लौटकर उसने धन्यवाद दिया कि बड़ी कृपा है कि यहां पहरा बिठाया है। अब लौटकर अपनी शान तो कह सकूंगा। अगर पत्नी भी देख लेती कि यहां तो कोई जगह ही खाली नहीं है, यह कोई बड़ा गौरव नहीं है।
चक्रवर्ती भी हो जाओ, क्या मिलने वाला है? कितने लोग हो चुके हैं! और स्वर्ग के पर्वतों पर भी दस्तखत करने का मौका मिल जाए, वे भी रेत पर ही किए गए दस्तखत हैं। सब हस्ताक्षर रेत पर हैं।
सिर्फ एक तुम हो, जो समय के पार हो। सिर्फ एक तुम्हारा होना है, जो समय की धार में नहीं है। अगर उसे पा लिया तो कुछ पाया; अगर उसे गंवाया तो सब गंवाया।
‘पार जाने वाले मनुष्य, मनुष्यों में थोड़े ही हैं। ये इतर लोग तो किनारे-किनारे ही दौड़ने वाले हैं।’
पार जाने वाले मनुष्य, संसार से पार जाने वाले मनुष्य, समय से पार जाने वाले मनुष्य थोड़े ही हैं। इतर लोग तो किनारे-किनारे ही दौड़ते रहते हैं।
किनारे तुम कितने ही दौड़ो, कुछ न पाओगे। पार जाना होगा, अतिक्रमण करना होगा। उस अतिक्रमण की कीमिया का नाम ही धर्म है। उस अतिक्रमण के लिए जो नौका बनाई जाती है, उसी का नाम ध्यान है। पार जाने के लिए जो सीढ़ी लगाई जाती है, उसी का नाम निर्विचार है।
कैसे यह निर्विचार की सीढ़ी लगे? कैसे यह नौका बने ध्यान की? कि तुम पार जा सको, समय के पार! इसे थोड़ा समझ लें; यह बहुत बहुमूल्य सूत्र है।
वासना सदा कहती है--कल। तृष्णा सदा कहती है--कल। चाह सदा कहती है--कल। ध्यान कहता है--आज, अभी, यहीं। ध्यान के लिए वर्तमान के अतिरिक्त कोई क्षण नहीं है। चाह के लिए वर्तमान को छोड़कर सब है--भविष्य है, अतीत है। ध्यान के लिए न अतीत है, न भविष्य है, बस यही क्षण है। और इसी क्षण में से समय के पार जाने का द्वार है।
वर्तमान के क्षण में वह सुविधा है कि अगर तुम ठहर जाओ, तुम सरक जाते हो समय के पार। मगर वहीं मन ठहरने नहीं देता। मन कहता है, कल मकान बनाना है, परसों धन कमाना, फिर यह करना, फिर वह करना। मन योजनाएं बनाता है। उन्हीं योजनाओं के कारण वह जो संकरा सा द्वार है, अति संकरा...।
जीसस ने कहा है, द्वार बहुत संकरा है, लेकिन बिलकुल सीधा है। सरल है, सुगम है; लेकिन बहुत संकरा है। इतना संकरा है कि अगर तुम बहुत बारीकी से न देखो तो तुम चूकते ही चले जाओगे।
वर्तमान का क्षण कितना छोटा है, कभी तुमने सोचा? न के बराबर है। तुम जब सोचते हो वर्तमान का क्षण, तभी वह अतीत हो जाता है, इतना छोटा है। इधर तुमने कहा वर्तमान, इधर वह वर्तमान न रहा--गया! जानते ही अतीत हो जाता है। तो या तो भविष्य होता है या अतीत होता है। जब तक नहीं जानते, तब तक भविष्य; जैसे ही जाना, अतीत। जब तक आशा करते हो, आ रहा है...आ रहा है...तब तक आया नहीं; जैसे ही जाना, आ गया--जा चुका!
वर्तमान के क्षण को विचार कभी पकड़ ही नहीं पाता।
इसे थोड़ा समझना। विचार की पकड़ बड़ी बोथली है, वर्तमान का क्षण बड़ा सूक्ष्म है। या तो विचार भविष्य को पकड़ता है, जो अभी आया नहीं, या अतीत को पकड़ता है, जो जा चुका--दोनों व्यर्थ हैं।
सत्य का तो अर्थ है: वही, जो है; जो न कभी आता, जो न कभी जाता। एस धम्मो सनंतनो--जो धर्म सदा है, अभी है; कल भी था, कल भी होगा। इसलिए कल की बात ही उठानी व्यर्थ है। वह सदा ही आज है।
बीज का अंतिम चरण प्रिय
बीज ही है, फल नहीं है
डाल कोंपल फूल किसलय
एक केवल आवरण हैं
भूलता इसमें कभी क्या
बीज निज को एक क्षण है?
आज का अंतिम चरण तो
आज ही है, कल नहीं है
दिवस रजनी मास वत्सर
ताप हिम मधुमास पतझर
लय कभी इनमें हुआ क्या
आज के अस्तित्व का स्वर?
पंथ की अंतिम शरण तो
पंथ ही है, मंजिल नहीं है
बीज का अंतिम चरण प्रिय
बीज ही है, फल नहीं है
बीज फिर बीज हो जाता है सारी यात्रा के बाद। अंकुरण होता, वृक्ष बनता, फूल लगते, फल लगते, बीज फिर आ जाता है। पहले भी बीज, अंत में भी बीज।
तो बीच में सब खेल है। तो बीच में जितने रूप लिए, वे सब आवरण हैं। तो बीच में जो बहुरंग लिए, जो बहुरुपिया बना बीज--कभी फूल, कभी पत्ती, कभी वृक्ष--वह वास्तविक नहीं है। वह जो प्रथम है और फिर अंत में हो जाता है, वही वास्तविक है।
वर्तमान ही केवल वास्तविक है। वही सदा-सदा लौट आता है। कल फिर आज आ जाएगा। जब कल आएगा तो कल न होगा; कल जब आएगा, फिर आज हो जाएगा। परसों जब आएगा तब आज हो जाएगा। जिसे तुम बीता कल कह रहे हो, वह भी आज ही था; और किसी समयातीत लोक में आज भी आज ही है।
हमारे देखने की सीमा है। हम अखंड विस्तार को नहीं देख पाते; खंड कर-कर के देखते हैं।
जैसे तुम एक रास्ते पर खड़े हो। एक आदमी गुजरा, तुम्हारे सामने आया तो दिखाई पड़ा; फिर आगे के मोड़ पर मुड़ गया तो दिखाई नहीं पड़ता। पीछे के मोड़ पर जब तक नहीं मुड़ा था, दिखाई नहीं पड़ता था। जब तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता था, तब भी वह था। अब जब तुम्हें नहीं दिखाई पड़ता, आगे के मोड़ पर मुड़ गया, तब भी है। तुम्हारे देखने की सीमा है, उसके होने की सीमा नहीं है। तुम्हारे देखने की सीमा ही उसके होने की सीमा नहीं है।
फिर एक आदमी झाड़ पर चढ़ा बैठा है, उसको वह दूर तक दिखाई पड़ता है। नीचे खड़े आदमी को जब दिखाई पड़ना बंद हो जाता है, तब भी उसे दिखाई पड़ता है। फिर कोई आदमी हवाई जहाज पर सवार है, तो उसे और भी दूर तक दिखाई पड़ता है। जितनी तुम्हारी चैतन्य की ऊंचाई बढ़ती जाती है, उतना ही तुम पाते हो, तुम्हारी दृष्टि बड़ी होती जाती है।
तो जिसे तुम अतीत कहते हो, वह भी ज्ञानी को वर्तमान ही दिखाई पड़ता है। जिसे तुम भविष्य कहते हो, वह भी ज्ञानी को वर्तमान ही दिखाई पड़ता है।
ज्ञानी के लिए बीज ही सत्य है। क्योंकि वही-वही लौट आता है। वर्तमान ही सत्य है, क्योंकि वही-वही पुनरुक्त होता है। अतीत और भविष्य हमारी सीमाओं के द्योतक हैं।
समय अविभाज्य है। न तो कुछ अतीत है, न तो कुछ भविष्य। जो है, वह सदा है। ध्यान से जिन्होंने देखा है, उन्होंने कहा है, जो सदा है, वही है। जो है, वह सदा है।
बीज का अंतिम चरण प्रिय
बीज ही है, फल नहीं है
डाल कोंपल फूल किसलय
एक केवल आवरण हैं
भूलता इसमें कभी क्या
बीज निज को एक क्षण है?
आज का अंतिम चरण तो
आज ही है, कल नहीं है
दिवस रजनी मास वत्सर
ताप हिम मधुमास पतझर
लय कभी इनमें हुआ क्या
आज के अस्तित्व का स्वर?
पंथ की अंतिम शरण तो
पंथ ही है, मंजिल नहीं है
बीज का अंतिम चरण प्रिय
बीज ही है, फल नहीं है
वासना, फल की आकांक्षा है। ध्यान, फलाकांक्षा से मुक्ति है।
इसलिए कृष्ण की पूरी गीता एक शब्द पर टिकी है: फलाकांक्षा का त्याग। वासना कहती है, कल क्या होगा, उसको सोचती है। उसी सोचने में आज को गंवा देती है। ध्यान आज जीता है; कल को सोचता नहीं। उसी जीने से कल उमगता है, निकलता है।
कल एक महिला ने रात मुझे पूछा, सच में ध्यान से शांति मिलेगी? अगर मिलने की पक्की गारंटी हो तो वह ध्यान करने का सोचती है। गारंटी कौन देगा? और मजा तो यह है कि ध्यान का अर्थ ही है कि क्या मिलेगा उसको छोड़ देना। ध्यान में भी अगर फलाकांक्षा है कि क्या शांति मिलेगी? तो फिर ध्यान भी ध्यान न रहा, वासना हो गया।
ध्यान से शांति मिलती है--मिलेगी, ऐसा नहीं--मिलती है; वह उसका परिणाम है। लेकिन ध्यान करने वाले को इतनी वासना भी रखनी खतरनाक है कि शांति मिलनी चाहिए; तब फिर वह ध्यान नहीं कर रहा है, विचार ही कर रहा है। ध्यान में इतना लोभ भी बाधक है। ध्यान भी हो जाए, इतना लोभ भी बाधक है। इसलिए इतने लोग ध्यान करते हैं और चूकते चले जाते हैं, क्योंकि बुनियादी कुंजी ही चूक जाते हैं।
इस क्षण में परिपूर्ण होना है। इस क्षण से बाहर नहीं जाना है। इस क्षण को पूरा अस्तित्व जानना है। इस क्षण के बाद कुछ भी नहीं है--न पीछे कुछ, न आगे कुछ; यही क्षण है। इसी क्षण में हम पूरे के पूरे थिर हो जाएं, ध्यान हो गया। बड़ी शांति मिलती है। ध्यान रखना, मिलेगी, ऐसा नहीं कह रहा हूं; मिलती है। लेकिन उन्हीं को मिलती है, जो मांगते नहीं। जिन्होंने मांगी, वे कुंजी चूक गए। मांगी तो वासना हो गई, मांगी तो कल आ गया, मांगी तो फल आ गया।
बीज का अंतिम चरण प्रिय
बीज ही है, फल नहीं है
जैसे तुम्हें एक बार इसकी झलक मिल जाएगी, फिर कठिनाई न रह जाएगी। पहली झलक अत्यंत कठिन है, क्योंकि पहली झलक करीब-करीब असंभव मालूम होती है। तुम पूछोगे, जब आकांक्षा ही नहीं करनी तो हम ध्यान करें ही क्यों? करेंगे ही कैसे? करेंगे तो आकांक्षा के साथ करेंगे।
तुम्हारी अड़चन मैं समझता हूं। तुमने अब तक जो भी किया, आकांक्षा के साथ किया। लेकिन तुम अभी तक यह न देख पाए कि आकांक्षा तो बहुत की, पाया क्या? आकांक्षा से अभी भी तुम थके नहीं? आकांक्षा से अब तक तुम्हारे मुंह में कडुवापन नहीं आया? आकांक्षा से तुम अभी तक ऊबे नहीं? आकांक्षा ने दिया क्या? देने के भरोसे बहुत दिए, कोई भरोसा पूरा नहीं हुआ। आकांक्षा ने भ्रम के सिवा और क्या दिया? चलाए चली, पहुंचाया तो कहीं नहीं।
आकांक्षा को जब तुम गौर से देखोगे तो तुम पाओगे, आकांक्षा से कुछ भी नहीं मिला। आकांक्षा गिर जाएगी उस बोध के क्षण में। और उसी बोध के क्षण में ध्यान उपलब्ध होता है। आकांक्षा का अभाव ध्यान है।
पहले ऐसे कभी-कभी घटेगा, फिर-फिर तुम भटक जाओगे। फिर धीरे-धीरे ज्यादा-ज्यादा घटेगा, कम-कम भटकोगे। फिर एक दिन ऐसा आएगा कि तुम बिलकुल थिर हो जाओगे। हवाओं के झोंके आएंगे, गुजर जाएंगे, तुम्हारी लौ न कंपेगी। दुख आएंगे, सुख आएंगे, तुम निष्कंप चलते रहोगे। सब छूट जाएगा, क्योंकि तुमने अपने को पा लिया होगा।
वस्तुतः जिसने स्वयं को पा लिया, सब पा लिया। छूटता है, क्योंकि जिसने सब पा लिया, अब वह व्यर्थ को पाने के लिए नहीं दौड़ता।
सत्पुरुष ऐसी संपदा का धनी हो जाता है, जो शाश्वत है। ऐसे पद पर विराजमान हो जाता है, जिसके पार कोई पद नहीं।
निश्चित ही, सब छंद-राग छूट जाते हैं, क्योंकि महाछंद बज उठता है। छंदों का छंद भीतर अहर्निश बजने लगता है। सब गीत-गान बंद हो जाते हैं, क्योंकि गायत्री मुखरित हो उठती है।
आज इतना ही।