BUDDHA

Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) 28

TwentyEighth Discourse from the series of 122 discourses - Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) by Osho. These discourses were given during NOV 21, 1975 to DEC 10, 1977.
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पहला प्रश्न:
भगवान, लोभ और लाभ का रास्ता ईर्ष्या और घृणा से, भय और दुश्चिंता से पटा पड़ा है; वह जीवन में जहर घोलकर रख देता है, ऐसा मेरे लंबे जीवन का अनुभव है। फिर भी क्या कारण है कि किसी न किसी रूप में लाभ की दृष्टि बनी ही रहती है?
लाभ से जीवन में दुख आया, लोभ से जीवन में जहर मिला, लोभ से जीवन में विपदाएं आयीं, कष्ट-चिंताएं आयीं, अगर ऐसा समझकर लोभ को छोड़ा तो लोभ को नहीं छोड़ा। क्योंकि यह समझ ही लोभ की है।
जहां अमृत की आकांक्षा की थी, वहां जहर पाया--हानि हुई, लाभ न हुआ। जहां सुख चाहा था, वहां दुख मिला--हानि हुई, लाभ न हुआ। सोचा था चैन और सुख और शांति का जीवन होगा, दुश्ंिचता से पट गया--हानि हुई, लाभ न हुआ।
लोभ में हानि पाई इसलिए लोभ से छूटने चले, यह तो फिर लोभ के हाथ में ही पड़ जाना हुआ। हानि दिखाई पड़ती है लोभ की दृष्टि को।
इसे समझने की कोशिश करना, बारीक है। कौन है जिसको दिखाई पड़ता है कि हानि हुई? कौन कहता है तुमसे कि हानि हुई? लोभ, लोभ की वृत्ति ही तुम्हें हानि दिखला रही है। अब अगर तुम बच रहे हो, बचना चाहते हो, तो तुम लोभ से नहीं बचना चाह रहे हो, लोभ की दृष्टि ने तुम्हें जो हानि दिखाई, तुम हानि से बचना चाहते हो।
अगर लोभ में हानि न होती तो? अगर लोभ से सुख-शांति मिली होती तो? अगर लोभ से चिंताएं न आतीं, चैन आता तो? तो तुम लोभ को छोड़ते?
तुम कहते, फिर क्या बात थी छोड़ने की? लोभ के कारण ही तुम लोभ को भी छोड़ने को उत्सुक हो जाते हो। तो ऊपर से लोभ छूटता दिखाई पड़ता है, भीतर से तुम्हें पकड़ लेता है; और भी सूक्ष्म हो जाता है।
अगर दृष्टि ठीक हो--ठीक दृष्टि का अर्थ है, लोभ के ढंग से जीवन को देखो ही मत--तब तुम्हें ऐसा न लगेगा कि लोभ के कारण जहर मिला। जिससे अमृत नहीं मिल सकता, उससे जहर भी कैसे मिलेगा? और जिससे लाभ नहीं हो सकता, उससे हानि कैसे होगी? अगर तुम लोभ को गौर से देखोगे तो तुम पाओगे, कुछ भी न मिला--हानि तक न मिली। हानि भी मिल जाती तो भी ठीक था; हाथ में कुछ तो होता। कहने को कुछ तो होता--मिला। जहर भी न मिला।
लोभ नपुंसक है; उससे जहर भी पैदा नहीं होता। तब तुम्हें लोभ में हानि नहीं, लोभ की व्यर्थता दिखाई पड़ेगी। और इन दोनों बातों में भेद है।
लोभ की व्यर्थता का अनुभव लोभ की मृत्यु हो जाती है। लोभ की असारता का अनुभव! हानि की मैं नहीं कह रहा हूं। क्योंकि हानि में तो फिर लोभ छिपकर बच जाता है। और यही चल रहा है। जिन्हें हम धार्मिक लोग कहते हैं, वे नए लोभ से पीड़ित हो गए लोग हैं; और कुछ भी नहीं। संसार को व्यर्थ पाया ऐसा नहीं, संसार को हानिपूर्ण पाया; तो लाभ के लिए स्वर्ग की तरफ देख रहे हैं। यहां हाथ खाली रह गए, स्वर्ग में भरने की चेष्टा कर रहे हैं। जिंदगी तो गंवाई ही गंवाई, परलोक को भी गंवाने के लिए अब तैयार हैं।
तुम परलोक में क्या पाना चाहते हो? थोड़ा सोचो; तुम वही पाना चाहते हो, जो तुम यहां नहीं पा सके हो। अगर तुम अपने परलोक की बात मुझसे कह दो, तो मैं ठीक से जान लूंगा कि इस संसार में तुम्हें क्या-क्या नहीं मिला; क्योंकि परलोक परिपूरक है। अगर तुमने यहां सुंदर स्त्री न पाई, जो कि पानी असंभव है; क्योंकि सौंदर्य का कोई वास्ता शरीर से नहीं। यहां अगर तुमने सुंदर पति न पाया, जो कि पाना असंभव है; क्योंकि सौंदर्य तो आत्मिक सुगंध है।
जिनके पास आत्मा ही नहीं है, वे सुंदर कैसे हो सकेंगे? दिख सकते हैं, हो नहीं सकते। तो दूर से दिखाई पड़ेंगे, जब पास आओगे, कांटे चुभेंगे। दूर से सौंदर्य जो दिखाई पड़ता था, पास आते ही कुरूपता हो जाता है। और जहां से सुगंध मालूम होती थी, वहां दुर्गंध के अनुभव होने लगते हैं। सुंदर लोगों से जरा दूर रहना--अगर उनको सुंदर ही देखते रहना हो। उनके पास आए तो जल्दी ही सौंदर्य समाप्त हो जाएगा।
तो फिर तुम अप्सराओं की कल्पना करोगे स्वर्ग में; देव पुरुषों की कल्पना करोगे--स्वर्ण की उनकी देह! यहां देह को बड़ा दीन और जर्जर पाया, हड्डी, मांस-मज्जा का पाया; तो तुम वहां स्वर्ण की देह की कल्पना कर रहे हो। यहां तुमने जो नहीं पाया, वही स्वर्ग में तुम वासना कर रहे हो। लोभ ने स्थान बदल लिया, दिशा बदल ली। लोभ गया नहीं।
एक जैन मुनि मुझे मिलने आए थे। तो मुझे उन्होंने कहा, इस संसार में सभी क्षणभंगुर है। पाना हो तो कुछ स्थाई संपदा पानी चाहिए। उनकी भाषा समझो; वह दुकानदार की भाषा है, साधु की नहीं। संसार में स्थाई संपत्ति की खोज की थी, वह नहीं मिली, क्षणभंगुर पाया; अब वे स्थाई संपत्ति की खोज कर रहे हैं। तुम उन्हें त्यागी कहते हो। संपत्ति की खोज जारी है।
इतना ही फर्क पड़ा है कि तुम जरा भोले-भाले हो, वे जरा चालाक हैं। तुम भोले-भाले हो, तुम ऐसी संपत्ति के पीछे दौड़ रहे हो, जो क्षणभंगुर है। वे जरा चालाक हैं, होशियार हैं। वे स्थाई संपत्ति के पीछे दौड़ रहे हैं। तुम मृग-मरीचिका के पीछे भटक रहे हो, वे असली संपत्ति के पीछे भटक रहे हैं; लेकिन संपत्ति की दौड़ जारी है।
मैं तुमसे कहता हूं, संपत्ति मात्र क्षणभंगुर है--स्वर्ग की हो, पृथ्वी की हो, कुछ भेद नहीं पड़ता। जो बाहर है, वह शाश्वत तुम्हारे साथ नहीं हो सकता। और भीतर जो है, वही तुम्हारे साथ शाश्वत है। लेकिन उसे संपत्ति की भाषा में बोलना भी ठीक नहीं; क्योंकि वह भाषा लोभ की है। तुम जब सारी संपत्ति की आकांक्षा छोड़ दोगे, संपत्ति मात्र की आकांक्षा छोड़ दोगे--पृथ्वी की और परलोक की सब; तब अचानक तुम पाओगे कि जिसे तुम खोजते थे, वह तुम्हारे भीतर मौजूद है।
मगर ध्यान रखना, तुम इसे पाने के लिए मत छोड़ना आकांक्षा; नहीं तो न पा सकोगे। क्योंकि फिर तो लोभ ने ही काम किया। फिर तो तुमने ऊपर-ऊपर छोड़ा, भीतर-भीतर नहीं छोड़ा।
मेरे पास लोग आते हैं। वे ध्यान करते हैं। उनको मैं कहता हूं कि देखो, ध्यान से कुछ आकांक्षा मत रखना--आनंद की, शांति की, अनुभव की, कोई आकांक्षा मत रखना; तुम सिर्फ ध्यान करना। परिणाम में बहुत कुछ घटता है, लेकिन तुम फलाकांक्षी मत होना। परिणाम में अपने से घटता है, तुम्हारी फलाकांक्षा की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारी फलाकांक्षा बाधा बन जाएगी। क्योंकि जो व्यक्ति शांति पाने के लिए ध्यान कर रहा है, वह ध्यान कर ही नहीं पाता। वह पूरे वक्त नजर लगाए हुए है कि शांति कब मिले...शांति कब मिले...। यही अशांति हो जाती है। छोड़ो फिक्र यह। तुम ध्यान करो, तुम फल पर नजर मत रखो। शांति आती है ध्यान के पीछे अपने आप। तुम्हें उसकी खबर रखने की जरूरत नहीं।
तो वे कहते हैं, अच्छी बात; तो अगर हम शांति की आकांक्षा छोड़कर ध्यान करें तो फिर शांति मिलेगी?
उनके खयाल में नहीं आ रहा है कि वे क्या कह रहे हैं। मन ने फिर धोखा दिया। अब मन कहता है, चलो यह शर्त भी पूरी कर देंगे, अगर शांति मिलती हो। तो शर्त पूरी कहां हुई?
कुछ दिन बाद वे फिर आ जाते हैं कि आपने कहा था, आकांक्षा भी छोड़ दी; मगर अभी तक शांति नहीं मिली। अगर आकांक्षा ही छोड़ दी तो अब यह कौन है जो कहता है कि शांति नहीं मिली? आकांक्षा भीतर बनी रही है; कोने में खड़ी देखती रही है कि मिलती है कि नहीं? देखो, यहां तक कर दिया कि आकांक्षा भी छोड़ दी।
मन के इस सूक्ष्म जाल को समझने की कोशिश करना; अन्यथा तुम नए-नए ढंग से संसार बनाते रहोगे। संसार वही है, रंग-रूप बदल जाते हैं। चांद-तारों पर बनाओ कि पृथ्वी पर बनाओ, क्या फर्क पड़ता है? यह भी चांद-तारा है।
मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं
तन की दौलत छांव है आता है धन जाता है धन
लेकिन दौलत की भाषा ही लोभ की भाषा है। इससे लोभी उत्सुक हो जाता है सुनकर--
मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं
तुम भी दौलत ऐसी ही चाहते हो, जो हाथ आए और फिर जाए न। कोई चुरा न सके, सरकार छीन न सके, दिवाला निकल न सके, बाजार के भाव-ताव गिरने से तुम्हारी संपदा के मूल्य में कोई फर्क न पड़ता हो। तुम भी संपदा तो ऐसी ही चाहते हो। और जब कोई तुम्हारे मन को उकसाता है और कहता है--
मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं
लोभ जगता है। तुम कहते हो, चलो, इसे भी खोज लें।
तन की दौलत छांव है आता है धन जाता है धन
यह तो तुम्हें भी पता है। यह तो तुम्हें भी मालूम है। यह तो तुम्हारी जिंदगी में भी अनुभव आया है।
तो लोभी परलोक का लोभ देखने लगता है, भीतर का लोभ देखने लगता है। लेकिन लोभी उसे पा ही नहीं सकता। जो भीतर की है, उससे लोभ का कोई संबंध नहीं जुड़ता। लोभ की दृष्टि ही बाहर जाती हुई दृष्टि है।
तो अगर तुमने देखा कि लोभ ने दुख दिया, पीड़ा दी, नर्क बनाया, इसलिए तुम भागने लगे लोभ से, तो तुम भागे नहीं, लोभ तो बच गया। तुम हानियों से भागे। तुम नुकसान से भागे।
करो क्या? गौर से देखो, फिर से देखो; जहर नहीं दे सकता लोभ। क्या लोभ जहर देगा? लोभ सिर्फ सपने दे सकता है। लोभ सिर्फ झूठ दे सकता है। जहर तो सच्चाई है, वह लोभ से नहीं मिलता। लोभ सिर्फ सपने बसा सकता है चारों तरफ। आंख जब खुलेगी तो तुम ऐसा न पाओगे कि हाथ में कूड़ा-करकट है, कूड़ा-करकट भी नहीं है। आंख जब खुलेगी तो तुम ऐसा न पाओगे कि हाथ में जहर है, सपनों ने जहर दे दिया। सपने क्या जहर देंगे? और सपने अगर जहर दे दें तो सपने नहीं, सच हो गए। और फिर तो भागने की जरूरत नहीं है। जहां से जहर निकल आया, वहां से अमृत भी निकलेगा।
तुमने समुद्र-मंथन की कथा पढ़ी है। मंथन हुआ तो जहां से जहर निकला वहीं से अमृत भी निकला। असल में जहां से जहर निकल आया, वहां से अमृत निकलने की सुविधा शुरू हो गई। इतना यथार्थ! जहां से मौत निकल सकती है, वहीं से जीवन भी निकल सकता है। जहां से कांटा निकल आया, अब फूल भी निकल सकता है। थोड़ा और खोजना होगा।
अगर तुमने देखा कि जहर निकला है लोभ से, तब तुम्हारी खोज बंद न होगी। तुम कहोगे, जब जहर तक निकल आया तो अमृत भी थोड़े दूर होगा; और थोड़े चले चलें, यह घूंट भी पी जाएं, थोड़े और बढ़ लें। जागोगे तो तुम उस दिन, जिस दिन तुम पाओगे कि लोभ नपुंसक है; इससे कुछ भी नहीं निकलता। यह खाली आपा-धापी है। यह व्यर्थ की दौड़-धूप है। यह नशे में चलते हुए आदमी के सपने हैं। जब जाग होती है तो कुछ भी हाथ में नहीं होता। तब लोभ टूटेगा।
‘माना कि लोभ और लाभ का रास्ता ईर्ष्या, घृणा और भय और दुश्चिंता से पटा है।’
यह लोभ ही बोल रहा है। यह लोभ ही डर रहा है। लोभ कुछ और चाहता था, वैसा न हुआ।
‘वह जीवन में जहर घोल देता है, ऐसा मेरे लंबे जीवन का अनुभव है।’
ऐसा लंबे लोभ का अनुभव है। यह लोभ की प्रतीति है। यह जागरण की प्रतीति नहीं है। और इसमें भटक जाना बहुत आसान है। अगर इस कारण तुमने लोभ की दुनिया छोड़ने की कोशिश की तो तुम लोभ को कहीं और आरोपित कर लोगे। तुम दान करोगे, लेकिन स्वर्ग में मांग करोगे। तुम बदला चाहोगे। तुम सेवा करोगे तो तुम प्रतीक्षा करोगे कि कब अमृत की वर्षा मेरे ऊपर हो। लोभ बड़ा कुशल है--बच गया; छिप गया भीतर।
और अब उसने जो छांव अपने लिए बनाई है, वह ज्यादा देर टिकेगी। अब तो तुम बहुत ही सजग होओगे तो ही समझ पाओगे। संसार में जो लोभ की यात्रा चलती है, वह तो मूढ़ भी समझ लेते हैं, बड़ी स्थूल है। लेकिन परलोक के नाम से जो लोभ की यात्रा चलती है, बड़ी सूक्ष्म है। तुम्हारे तथाकथित बुद्धिमान भी नहीं समझ पाते। कोई कभी हजारों में एक जाग पाता है और देख पाता है।
सौ बार तेरा दामन हाथों में आया
जब आंख खुली देखा अपना ही गिरेबां था
सपने में तुम कितने ही बार, क्या-क्या नहीं सोच लेते हो! अपने ही कपड़े को पकड़ लेते हो, सोचते हो, प्रेमी का दामन हाथ में आ गया, प्रेयसी का दामन हाथ में आ गया। आंख खुलती है, पाते हो, अपना ही कपड़ा है।
जिसको तुमने लोभ कहा है, वह तुम्हारी मूर्च्छा है। मूर्च्छा को तोड़ो। लोभ को छोड़ने की बात ही मत सोचना। क्योंकि तुम छोड़ोगे तभी, जब तुम्हें कुछ मिलने की आकांक्षा होगी। इसलिए छोड़ने की बात ही छोड़ दो। त्यागने की भाषा का उपयोग ही मत करना, क्योंकि वह भोगी की ही भाषा है। वह भोगी ही शीर्षासन कर रहा है अब। पहले पैर के बल खड़ा था, अब सिर के बल खड़ा हो गया--वह है भोगी ही। पहले गिनता था तिजोड़ी में कितने रुपए हैं, अब गिनती रखता है कि कितने त्यागे हैं। पहले गिनता था, अब भी गिनता है। गिनती में कोई फर्क नहीं पड़ा है। पहले सिक्के स्थूल थे, अब बड़े सूक्ष्म हो गए हैं।
तुम जाकर देखो तुम्हारे मंदिरों में बैठे हुए साधु-संन्यासियों को, हिसाब रखे बैठे हैं; डायरी भरते हैं, कितने उपवास किए; इस वर्ष कितने उपवास किए। सिक्के कमा रहे हैं, बैंक बैलेंस इकट्ठा कर रहे हैं। ये परमात्मा के सामने जाकर अपनी पूरी फेहरिश्त रख देंगे कि देखो, इतने उपवास किए, इतनी प्रार्थना की, इतने व्रत-नियम लिए। यह लोभ ही है--नए ढंग पर खड़ा हो गया।
मैं तुमसे कहता हूं, लोभ को छोड़ने की बात ही मत करना। क्योंकि छोड़ते तो तुम तभी हो कुछ, जब पाने के लिए पहले इंतजाम कर लो। तुम पूछोगे, छोड़ें किसलिए? चूंकि तुम पूछते हो, छोड़ें किसलिए, कुछ जालसाज तुम्हें बताने मिल जाते हैं कि इसलिए छोड़ो कि स्वर्ग मिलेगा; इसलिए छोड़ो कि पुण्य मिलेगा; इसलिए छोड़ो कि आनंद मिलेगा, ब्रह्म मिलेगा, मोक्ष मिलेगा। छोड़ने के लिए तुम पूछते हो, किसलिए छोड़ें? वे बताते हैं, इसलिए छोड़ो।
और जब तक इसलिए मन में है, तब तक लोभ है।
मूर्च्छा तोड़ो; लोभ को छोड़ो मत। लोभ को पड़ा रहने दो जहां है। तुम जागकर देखने की कोशिश करो। जैसे-जैसे तुम जागोगे, लोभ छोड़ना न पड़ेगा। लोभ ऐसे ही विदा हो जाता है, जैसे दीया जल जाए तो अंधेरा विदा हो जाता है।
कोई अंधेरे को छोड़ता है? दीया जलाकर फिर तुम क्या करते हो? अंधेरे को बाहर फेंकने जाते हो? दीया जलाकर फिर तुम क्या करते हो? अंधेरे का त्याग करते हो? दीया जल गया, बात पूरी हो गई; अंधेरा नहीं है। होश जग गया, बात पूरी हो गई; लोभ नहीं है।
लोभ को छोड़ना नहीं है, जागकर लोभ को देखना है। बस, उस दृष्टि में ही लोभ तिरोधान हो जाता है, तिरोहित हो जाता है। उस आंख को खोजो, जहां अंधकार दीए के सामने आ जाता है--उस आंख को खोजो।
अभी तुमने जो भी देखा है...कभी देखा कि लोभ में बड़ा रस है; कभी देखा, कुछ रस नहीं है, हानि ही हानि है। कभी देखा कि लोभ में बड़े फायदे हैं, फिर पाया कि बड़ी हानियां हैं। मगर लोभ में कुछ है। और जब तक लोभ में कुछ है, तुम उससे मुक्त न हो सकोगे।
जब तक तुम मानते हो, अंधेरे में कुछ है, तब तक तुम मुक्त न हो सकोगे। अंधेरे में कुछ भी नहीं है। अंधेरा बिलकुल खाली है। अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं है। अंधेरा है ही नहीं। अगर ठीक से समझना चाहो तो अंधेरा केवल प्रकाश का अभाव है। अंधेरा अपने में नहीं है, सिर्फ प्रकाश के न होने में है।
लोभ भी बोध का अभाव है। लोभ अपने में कुछ भी नहीं है। इधर बोध आया, उधर लोभ गया। अभी तुमने जो अनुभव लिया है लोभ का, वह लोभ का ही सार-निचोड़ है।
वह रोशनी क्या बनेगी रहमत जो धूप को साथ ला रही हो
वह साया क्या साथ देगा जिंदगी को जन्म लिया जिसने तीरगी में
अंधेरे में ही जिस छाया का जन्म हुआ हो, अंधेरे से ही जो छाया पैदा हुई हो, वह जिंदगी का साथ न दे पाएगी। और उस रोशनी से तुम्हारा मार्ग खुलेगा नहीं, आलोकित न होगा, जिसके साथ कड़ी धूप भी साथ आ रही है।
वह रोशनी क्या बनेगी रहमत
उससे तुम्हारे ऊपर करुणा की वर्षा न होगी!
जो धूप को साथ ला रही हो
तो तुम अपने अनुभवों को गौर से देखना। लोभ में पीड़ा हुई, लोभ में दुख पाया। दुख पाने के कारण तुम लोभ छोड़ना चाहते हो, लोभ को तुमने नहीं छोड़ा अभी; और न तुमने लोभ को जाना। लोभ की असफलता के कारण छोड़ना चाहते हो।
यह असफलता वैसी ही है, जैसे ईसप की कथा में लोमड़ी बहुत उछली-कूदी अंगूर पाने को, और न पा सकी। किसी को पता न चल जाए यह असफलता, उसने चारों तरफ देखा, एक खरगोश छिपा बैठा था झाड़ी में। उसने कहा, मौसी! क्या मामला है? सोचा था, अकेली है, झंझट नहीं है; किसी को पता भी न चलेगा। अब इसको पता चल गया। यह खरगोश अभी सारे जंगल में खबर कर देगा। उसने कहा, कुछ भी नहीं, अंगूर खट्टे हैं।
पहुंच पाई ही नहीं अंगूरों तक। लेकिन अहंकार यह भी मानने को तैयार नहीं होता कि हम असफल हुए। अहंकार कहता है, अंगूर खट्टे हैं। चाहते तो हमारे हाथ में थे, पर खट्टे थे इसलिए छोड़ दिए।
तुम जरा खयाल करना, अपनी विवशता को त्याग मत समझ लेना। अपनी बेबसी को धर्म मत बना लेना। अपनी कमजोरी को अच्छे-अच्छे शब्दों में मत ढांक लेना। लोभ को सीधे देखना; असफलताओं के माध्यम से मत देखना। असफलता के माध्यम से देखोगे तो तुमने लोभ देखा ही नहीं। तुमने अहंकार की पराजय देखी।
और जहां-जहां अहंकार की पराजय देखी, वहीं-वहीं अहंकार किसी और पर दायित्व को फेंक देना चाहता है। अब वह लोभ पर फेंक रहा है। वह कहता है, यह लोभ ही जहरीला है। इस लोभ के कारण ही हम जिंदगीभर चिंतित रहे थे। चिंतित तुम अपने कारण रहे। चिंतित होने के कारण तुमने लोभ किया।
अगर तुम मुझसे पूछो, लोभ के कारण तुम चिंतित नहीं हो; चिंतित होने के कारण तुम लोभी हो। लोभ ने तुम्हें नहीं हराया, तुम जीतना चाहते थे इसलिए हारे। जीत की चाह ने हराया। अहंकार की हार सुनिश्चित है, क्योंकि अहंकार एक झूठ है। झूठ जीतेगा कैसे? अहंकार के हाथ में अंगूर कभी लग ही नहीं सकते। हमेशा ही वह कहेगा, खट्टे हैं। इसलिए नहीं कि अंगूर खट्टे थे, इसलिए कि अहंकार एक झूठ है; वह असली अंगूरों तक पहुंच ही नहीं सकता। वह केवल झूठ में जी सकता है।
इसलिए अहंकार केवल आशा में जीता है; कल में जीता है, आज में नहीं। कल कुछ होगा, परसों कुछ होगा। कोई हर्जा नहीं है, आज नहीं हुआ, कल हो जाएगा। ऐसे कल पर टालते-टालते एक दिन ऐसी घड़ी आ जाती है कि कल भी नहीं बचता आगे। मौत बीच में खड़ी हो जाती है। अब क्या करे अहंकार? तब अहंकार कहता है, लोभ ने मारा। लोभ पाप का बाप बखाना--अहंकार कहता है।
एक साधु ने मुझे एक कहानी सुनाई। एक गरीब आदमी अपने खेत पर काम करके लौट रहा था; उसने झाड़ी में रुपयों की खनकार सुनी। उसने झांककर देखा, एक संन्यासी सिक्के गिन रहा है। वह सुनता रहा चुपचाप खड़ा। सौ सिक्के संन्यासी ने साफे में बांधे, साफा लगाया। वह गरीब आदमी उसके पास आया, उसके पैर छुए और कहा, महाराज! सौभाग्य से दर्शन हो गए। घर चलें, भोजन स्वीकार करें। संन्यासी ने कहा, बेटा! ऐसे तो हम घर-गृहस्थियों के घर भोजन स्वीकार करते नहीं, लेकिन जब तुमने इतने प्रेम से कहा है तो इनकार भी नहीं कर सकते; चलते हैं। उस गरीब आदमी ने कहा, आपकी बड़ी कृपा। भोजन भी दूंगा, एक नगद रुपया--गरीब आदमी हूं, ज्यादा तो मेरे पास नहीं--वह दक्षिणा भी दूंगा।
उसको घर ले आया, उसको भोजन करवाया। भोजन करवाकर उसने अपनी पत्नी को कहा कि वह रुपया, जो रखा है आले में, निकाल ला। वह वहां से चिल्लाने लगी कि रुपया कहां है? यहां तो कोई रुपया नहीं है। कोई चुरा ले गया। वह भी अंदर गया, बाहर भागकर आया और कहा कि रुपया कहां गया? महाराज बड़ी मुश्किल में पड़ गए। एक ही रुपया, गरीब आदमी!
मोहल्ले के लोग इकट्ठे हो गए। किसी ने कहा कि यहां कोई आया तो नहीं इस बीच में? उसने कहा, और तो कोई नहीं आया, बस महाराज जी...मगर उनका तो कोई सवाल ही नहीं है। शक की बात ही नहीं। पर लोगों ने कहा, अरे छोड़ो भी! आजकल साधु बड़े उचक्के, लफंगे सब तरह के हो गए हैं। खाना-तलाशी लेना पड़ेगी। तो उन्होंने खाना-तलाशी ली। सब देख डाला। साफा तो किसी को खयाल भी न आया।
तो उस गरीब आदमी ने कहा कि अब बस, बहुत हो गया; कोई साफा मत उतार लेना। तो एक आदमी ने झटककर साफा भी उतार लिया। वे सौ रुपए वहां से गिर पड़े। उस गरीब आदमी से पूछा कि कितने रुपए थे तुम्हारे पास, गिनती है कुछ? उसने कहा, पूरे सौ थे। गिने तो वे सौ ही निकले। अब तो कुछ कहने की बात ही न रही। महाराज को धक्के देकर बाहर निकाल दिया।
उन साधु ने मुझे कहानी कही और कहा कि लोभ पाप का बाप बखाना।
तो मैंने उनसे पूछा कि संन्यासी लोभी था, यह मेरी समझ में आ गया; लेकिन वह जो गरीब आदमी घर ले आया था, वह कौन था? इस कहानी से इतना ही सिद्ध होता है कि एक का लोभ हारा, लेकिन दूसरे का तो जीता। इससे लोभ हारा, यह सिद्ध नहीं होता। इससे यह भी सिद्ध नहीं होता कि लोभ बुरा है। इससे इतना ही सिद्ध होता है कि साधु का लोभ हारा, लेकिन उस गरीब आदमी का लोभ तो जीता। और हो सकता है, साधु ने एक-एक रुपया करके बामुश्किल इकट्ठा किया हो और इस गरीब आदमी ने तो बड़ी तरकीब से छीन लिया।
चलते वक्त उस गरीब आदमी ने कहा, महाराज! अब कब आएंगे? तो उसने कहा, अब जब सौ रुपए फिर हो जाएंगे!
मैंने उन साधु को पूछा कि आप यह कहानी कहकर क्या कहना चाहते थे? साधुओं की कहानी मैं अक्सर गौर से सुनता रहा हूं; क्योंकि उससे उनका मंतव्य जाहिर होता है और उनकी मूढ़ता भी जाहिर होती है। साधुओं की कही गई कहानियों में अक्सर ही मूढ़ता के दर्शन होते हैं। अब यह निपट मूढ़ता की बात हुई। एक का लोभ हारा, एक का जीत गया।
इसे तुम थोड़ा सोचो; अगर तुम्हारा लोभ हार गया हो, तो जरूर किसी का जीता होगा; नहीं तो हारेगा कैसे? अगर तुमने जीवनभर पाया कि तुम्हारा लोभ हार बन गया तो जरूर किन्हीं और के लोभ जीत बन गए होंगे। अगर तुम पराजित हुए हो तो कोई जीता होगा। अगर तुमने सिंहासन गंवाया है तो कोई बैठा होगा। तुम्हें अगर अंगूर हाथ न लगे तो किसी को लग गए होंगे।
यह पराजय लोभ की है या अहंकार की? यह विषाद लोभ का है या अहंकार का है?
सिकंदर का लोभ तो हारता हुआ मालूम नहीं होता, जीतता ही चला जाता है। राकफेलर या बिरला के लोभ तो हारते हुए मालूम नहीं पड़ते, जीतते ही चले जाते हैं। तुम्हारा हार गया होगा। इससे लोभ हार गया, यह सिद्ध नहीं होता। इससे केवल इतना ही सिद्ध होता है कि लोभ के जीतने के लिए जितनी जरूरत थी, वह तुम न जुटा पाए। और तुम भी यह भलीभांति जानते हो। लेकिन यह कहने में भी मन को पीड़ा होती है कि अंगूरों तक मैं न पहुंच पाया। तो तुम कहते हो, अंगूर खट्टे हैं, सारी जिंदगी खटास से भर गई। अंगूर चखे ही नहीं। लोभ जीता ही नहीं। जो अंगूर चखे ही नहीं, वे तुम्हारी जिंदगी को खटास से कैसे भर जाएंगे?
और ध्यान रखना, जो अंगूर खट्टे हों तो आज नहीं कल पक भी जाते हैं, मीठे हो जाते हैं। जहां खटास है, वहां मिठास पैदा हो सकती है। खटास, मिठास का पहला कदम है। खटास दुश्मन नहीं है मिठास की।
अगर तुम्हें स्वाद में थोड़ा रस है तो तुम समझोगे कि जिस मिठास में खटास नहीं है, या जिस खटास में मिठास नहीं है, उसमें कुछ अधूरापन है। जब कोई चीज खट्टी और मीठी दोनों साथ-साथ होती है, तब उसके रस की गहराई ही बहुत हो जाती है।
नहीं, लोभ का अनुभव नहीं है यह; हार का अनुभव है। और भीतर लोभ मौजूद बैठा है। और लोभ ही कह रहा है कि चलो, यहां हार गए, कहीं और जीतकर तंबू गाड़ दें। इस संसार में विजय-यात्रा न हो सकी, तो चलो परलोक की विजय-यात्रा कर लें। मगर ध्यान रखना, संसार में अगर हार गए तो निर्वाण में न जीत सकोगे। ये छोटे-छोटे क्षुद्र अंगूर भी तुम न पहुंच पाए, तो तुमने निर्वाण के अंगूर क्या इनसे कमजोर समझे हैं, इनसे नीचे समझे हैं? अगर यहां थोड़ा-मोड़ा इंतजाम करना था, वह भी न हो पाया, तो उस विराट आयोजन को तुम कर पाओगे?
ठीक से समझना; जो सिकंदर भी न हो पाया, वह बुद्ध न हो पाएगा। बुद्धत्व तो और भी ऊंचे आकाश के अंगूरों का तोड़ लेना है। वह तो आखिरी छलांग है।
इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि जिंदगी से हारे-थके हुए लोग धार्मिक बन जाते हैं। उनके कारण धर्म मुर्दा होता है। धर्म के कारण वे जीवित नहीं हो पाते, उनके कारण धर्म मुर्दा हो जाता है। उनकी हारी-थकी आत्माएं, उदास और विषाद से दबी आत्माएं, मंदिरों को भी उदास कर देती हैं, उत्सव खो जाते हैं। गौर से देखो, मंदिर, चर्च, गुरुद्वारे--वहां तुम हारे, पराजित लोगों को पाओगे।
वे ऐसे ही हैं, जैसे कि तुम कभी कबाड़खाने में गए, जहां टूटी-फूटी कारें, साइकिलें--अंबार लगे हैं। अस्पताल में जाकर देखा? किसी की टांग बंधी है, किसी का हाथ बंधा है, किसी के कान बंधे हैं, किसी की आंख बंधी है। लंगड़े-लूले, अंधे-काने सब इकट्ठे हैं।
इससे भी बुरी दुर्दशा तुम्हारे मंदिरों, मस्जिदों, गिरजों की है। वहां टूटे-फूटे आदमी--जैसे कबाड़खाने में कारें अटकी रहती हैं, पड़ी रहती हैं, कोई खरीददार भी नहीं--वहां टूटे-फूटे आदमी तुम पाओगे। वे आदमियों के कबाड़खाने हैं।
वहां जिंदगी नाचती हुई न मिलेगी। वहां तुम जिंदगी को गीत गाता हुआ न पाओगे। पराजय से कैसा गीत! अहंकार की उदासी से कैसा नाच! हां, तुम एक बात वहां जरूर पाओगे कि वे उन सब की निंदा करते हुए मिलेंगे, जो जीत रहे हैं। वे उन सब को गालियां देते मिलेंगे, जिनके हाथ में अंगूर पहुंच रहे हैं या पहुंचने के करीब हैं। उनको तुम निंदा करते हुए पाओगे। उनका कुल रस निंदा-रस है।
शास्त्रज्ञों ने नौ रस गिनाए हैं, निंदा को क्यों छोड़ दिया, पता नहीं! साधु- संन्यासियों का तो रस ही वही है--निंदा। सारा संसार गलत है, पापी है। सारा संसार नर्क की तरफ जा रहा है। यह वे बदला ले रहे हैं तुमसे। तुमने उन्हें हराया, तुमने उन्हें मिटाया, तुमने उनकी पहुंच को पहुंचने न दिया, तुमने उनके हाथ अंगूरों तक न पहुंचने दिए। अब उन्होंने अपने अहंकार के लिए नई सुरक्षा कर ली--अंगूर खट्टे हैं और तुम नासमझ हो, इसलिए अंगूरों के पीछे पड़े हो। हम इस क्षणभंगुर संपदा की खोज नहीं करते। हम शाश्वत की खोज कर रहे हैं। हम तो नित्य संपदा की खोज कर रहे हैं। हम कंकड़-पत्थरों की खोज नहीं करते।
मगर तुम कंकड़-पत्थर पाने में भी हार गए। जिन हीरे-जवाहरातों की तुम बातें कर रहे हो, वे कहीं मन का समझाना तो नहीं; सांत्वना तो नहीं? और दिखाई कहीं भी नहीं पड़ता कि तुम्हारे जीवन में कोई किरण उतर रही हो।
तो मैं तुमसे कहता हूं, लोभ की हार को तुम लोभ की समझ मत समझ लेना। लोभ की पराजय को तुम त्याग का आवरण मत दे देना। बहुत धोखा संभव है। और जितने सूक्ष्म जगत में प्रवेश करते हो, उतने ही धोखे बारीक होते चले जाते हैं। तुम्हारे भोग की पराजय कहीं त्याग का आवरण लेकर फिर न बच जाए। तुम भोग को ठीक से देख लेना; पराजय की फिक्र छोड़ो। मैं तुमसे कहता हूं, अगर तुम जीत भी जाते तो भी जीत कुछ न लाती।
तुम जीते हुए आदमियों से पूछो, बुद्ध-महावीर से पूछो। सब था उनके पास। लोभ उनका हारा हुआ न था--याद रखना--जीता हुआ था। साम्राज्य था, धन-दौलत थी, घर-द्वार था, सुंदर पत्नियां थीं, सुंदर बच्चे थे। सब कुछ था। भरा-पूरा था। हाथ में अंगूर थे और इन अंगूरों को छोड़कर वे चल पड़े। और अंगूर खट्टे थे, ऐसा भी नहीं, मीठे थे।
अब बुद्ध अगर खोजें भी तो यशोधरा से सुंदर पत्नी खोज पाएंगे? अंगूर मीठे थे, मैं कहता हूं। महावीर अगर खोजें भी तो और क्या सुंदर संसार बना सकेंगे, जो उन्हें बना-बनाया मिला था? अंगूर हाथ में थे और मीठे थे।
लोभ की पराजय के कारण वे छोड़कर नहीं गए थे, क्योंकि लोभ तो जीती हुई हालत में था। लोभ को देखकर गए थे। लोभ की जीत भी व्यर्थ है। लोभ की हार तो व्यर्थ होगी ही, लोभ की जीत भी व्यर्थ है। लोभ का जहर तो व्यर्थ होगा ही, लोभ का अमृत भी व्यर्थ है; क्योंकि दोनों ही सपने हैं। जागने पर पता चलता है, दोनों ही व्यर्थ हैं। असली बात जाग है, जागरण है।
हमने सिकंदरों को नहीं पूजा, क्योंकि वे एक कदम चूक गए। हमने बुद्धों को पूजा, क्योंकि उन्होंने सिकंदर के आगे का कदम उठा लिया। ध्यान रखना, कभी-कभी स्थितियां समान मालूम पड़ती हैं, इससे धोखे में मत पड़ जाना।
एक आदमी रास्ते पर भीख मांग रहा है, बुद्ध ने भी भीख मांगी। बुद्ध भी रास्ते पर भीख मांग रहे हैं। दोनों भिखारी हैं, लेकिन फर्क करोगे या नहीं? दोनों के हाथ में भिक्षापात्र है माना, लेकिन दोनों का अंतरबोध बड़ा भिन्न है। एक भिखारी है, सिर्फ भिखारी है। और एक ऐसा भिखारी है, जो सम्राट था। एक ऐसा भिखारी है, जिसने व्यर्थता जानी है सबकी। और एक ऐसा भिखारी है, जो अभी भी कौड़ी-कौड़ी इकट्ठा करके सम्राट होने की चेष्टा में लगा है। दोनों एक से मालूम पड़ते हैं।
यह हालत ऐसी ही है, जैसे कि तुम सीढ़ियों से जा रहे हो, बीस सीढ़ियां हैं, तुम दसवीं सीढ़ी पर पहुंच गए हो। और कोई सीढ़ियों से उतर रहा है, बीस सीढ़ियां हैं, और वह भी दसवीं सीढ़ी पर आ गया है। तुम दोनों एक ही सीढ़ी पर खड़े हो, लेकिन एक उतर रहा है, एक चढ़ रहा है। एक ही सीढ़ी पर खड़े होने से भ्रम में मत पड़ जाना कि तुम एक ही जगह हो। एक उतर रहा है, एक चढ़ रहा है।
बुद्ध उतर आए हैं सिंहासन से, भिखारी चढ़ने की कोशिश कर रहा है। जन्म-जन्म लगेंगे उसे, शायद कभी चढ़ पाए। दोनों भिक्षा के पात्र लिए खड़े हैं एक ही जगह। बड़ी भिन्न है उनकी दशा। बुद्ध जाग गए हैं, सिंहासन की व्यर्थता दिखाई पड़ गई है। यह भिखारी अभी सोया हुआ है। अभी यह सिंहासन बनाने के सपने देख रहा है।
हारकर मत भागना। क्योंकि हारकर अगर यह भिखारी बुद्ध के साथ हो ले, जिसकी बहुत संभावना है; क्योंकि इसको लगे कि क्या सार? जब बुद्ध सब कुछ छोड़कर आ गए तो क्या सार? तो मैं भी साथ हो लूं। यह भी साथ हो ले, मगर इसका साथ होना बहुत सार्थक न हो पाएगा। इसकी चित्त-दशा अलग है। यह जो कहेगा, अपने मन में यही कहेगा कि लोभ में चिंता है, लोभ में हानि है, लोभ में कोई सार नहीं है, लोभ में ऐसा है, लोभ में वैसा है। यह समझाएगा अपने को। यह रहेगा मूर्च्छित। लोभ इसे अभी भी सार्थक है। सार्थकता को दबाने के लिए कहेगा, लोभ जहरीला है, लोभ पाप है। अपने को घबड़ाने के लिए कहेगा कि अगर लोभ में पड़ा तो नर्क में जाना पड़ेगा। अगर लोभ से बचा तो मैं भी स्वर्ग जाऊंगा। यह नए लोभ बनाएगा, पुराने लोभों के प्रति भय खड़े करेगा।
लेकिन बुद्ध के भीतर की दशा और है। लोभ के प्रति कोई विरोध नहीं है अब। लोभ विरोध के योग्य भी नहीं है। इसीलिए तो मैं कहता हूं, संसार छोड़ने के योग्य भी नहीं है। इतना भी मूल्य मत दो। यह भी बड़ा मूल्य हो जाएगा कि छोड़ें; इस लायक भी नहीं है। कोरा सपना है। आंख खोलो, जाना कहीं भी नहीं है। अन्यथा एक के बाद एक नए उलझाव खड़े होते चले जाते हैं।
सारा जोर हमारा इस बात पर है कि जल्दी न करना त्याग की; त्याग को आने देना अपने से। जब अपने से आता है तो परम सुंदर है। जब तुम थोप लेते हो तो कुरूप हो जाता है। जब सहज-स्फूर्त होता है तो उसके लावण्य की बात ही नहीं। वह इस पृथ्वी का नहीं होता, किसी और ही लोक की किरण उतर आती है तुम्हारे अंधकार में। तुम आलोकित हो जाते हो। जब तुम छोड़ते हो तो तुम तुम ही हो, तुम्हारा छोड़ा हुआ बहुत दूर नहीं ले जाता।
पकने दो। जल्दी न करो। फल पककर अपने से गिर जाते हैं। स्वीकार करो, जहां हो, जैसे हो। लोभ है तो लोभ; भय है तो भय। स्वीकार करो। बस, इतना ही खयाल रखो कि धीरे-धीरे जागकर देखो। दौड़ते रहो लोभ की दुनिया में, मगर धीरे-धीरे जागकर दौड़ने लगो। एक दिन अचानक तुम पाओगे, ठिठककर खड़े हो गए हो। ऐसा नहीं कि तुम्हें अपने को रोकना पड़ा है; बल्कि ऐसा कि जैसे पेट्रोल ही चुक गया है, गाड़ी ठिठककर खड़ी हो गई है। ब्रेक नहीं लगाने पड़े। मूर्च्छा चुक गई, ईंधन चुक गया, अचानक तुम खड़े हो गए हो। उस खड़े होने के सौंदर्य को, उस खड़े होने की महिमा को ही त्याग कहा जा सकता है।
जहां तुमने ब्रेक लगाए, जबर्दस्ती की, किसी तरह खड़े हो गए और इंजिन भरभराता रहा और इंजिन जलता रहा और धुआं फेंकता रहा...। तुम्हारे त्यागी संन्यासी ऐसे ही खड़े हैं; जबर्दस्ती ब्रेक लगाए खड़े हैं। जीवन एक अड़चन बन जाता है--भोग का भी और त्याग का भी। जीवन चाहिए, सहज प्रवाह की भांति। अड़चन न हो।
न पकड़ो, न छोड़ो; जागो। देखो और समझो; और समझ पर भरोसा रखो। यह समझ की परिपक्वता अपने आप क्रांति ले आएगी। ले आती है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, क्या बात है कि कोई न कोई विश्वास पकड़ लेने से--चाहे वह आस्तिकता हो या नास्तिकता, मन बहुत आश्वस्त अनुभव करता है? दोनों को छोड़कर बीच में खड़ा होना उसके लिए असंभव जैसा क्यों है?
अस्तित्व में निर्धारणा के खड़े हो जाने से बड़ा कोई साहस नहीं है।
निर्धारणा का अर्थ होता है: कोई विश्वास नहीं, कोई अंधविश्वास नहीं। निर्धारणा का अर्थ होता है: अस्तित्व जैसा है, हम उसे वैसा ही देखेंगे। अपनी कोई धारणा बीच में न लाएंगे। न हम कहेंगे, ईश्वर है; न हम कहेंगे कि ईश्वर नहीं है। न हम कहेंगे कि आत्मा है, न हम कहेंगे कि आत्मा नहीं है। हम खोजेंगे।
पर खोज कठिन है। खोज का अर्थ है: मूल्य चुकाना पड़े। कौन इस झंझट में पड़े? तो हम उधार विश्वास ले लेते हैं। हम कहते हैं, महावीर ने जान लिया, बुद्ध ने जान लिया, कृष्ण ने जान लिया, अब हम क्यों पंचायत में पड़ें? हम इन्हीं को पकड़ लेंगे, इन्हीं के चरणों के सहारे निकल जाएंगे।
यह आस्था नहीं है, यह केवल कमजोरी है। और कमजोर की कोई गति नहीं है। यह भरोसा नहीं है कि हम बुद्ध के चरणों पर चलकर निकल जाएंगे। जिसका अपने पर ही भरोसा नहीं है, उसका बुद्ध पर कैसे भरोसा होगा? तुम्हारे आत्म-अविश्वास से किसी भी तरह की आस्था का जन्म नहीं हो सकता। जब तुम अपने पर ही अभी भरोसा नहीं ला पाए हो तो तुम अपने भरोसे पर कैसे भरोसा ला पाओगे?
थोड़ा सोचो तो! उलझन और बढ़ा रहे हो। तुम अगर डगमगाते हो तो तुम बुद्ध के पीछे भी डगमगाते ही चलोगे। क्योंकि डगमगाने का संबंध बुद्ध के पीछे चलने से नहीं है, डगमगाने का संबंध तुम्हारी भाव-दशा से है। तुम अगर संदेह से भरे हो तो तुम छिपा लो संदेह को भला, मिटा न पाओगे। तुम किसी तरह भुला लो भला, समाप्त न कर पाओगे। बुद्ध के पीछे भी चलते रहोगे और भीतर संदेह भी उमगता रहेगा। चलोगे भी और नहीं भी चलोगे।
और यह कोई चलना ऐसी बाहर की यात्रा होती तो बड़ा आसान था; यह बड़ी भीतर की यात्रा है। बुद्ध के पीछे चलने का अर्थ है: अपने भीतर जाना; और तो कोई अर्थ नहीं है। वहां तो तुम अकेले हो जाओगे। वहां तो बुद्ध भी साथ न होंगे। वहां तो जितने तुम बुद्ध के करीब आओगे, उतने बुद्ध से दूर हो जाओगे। जितने तुम बुद्ध को समझोगे, उतने अपने करीब आना शुरू हो जाएगा।
अंततः बुद्धों का उपयोग यही है कि वे तुम्हें तुम पर छोड़ दें--पूरा का पूरा। तुम्हें इस योग्य बना दें कि तुम्हें किसी भरोसे की, किसी श्रद्धा की, किसी आस्था की जरूरत न रहे।
आदमी जल्दी भरोसा कर लेना चाहता है। क्यों? क्योंकि खोज से बचना चाहता है। खोज कठिन मालूम पड़ती है। इसलिए हम कोई भी बात मान लेते हैं। किसी ने कह दिया, ईश्वर है, तो मान लिया। किसी ने कह दिया, नहीं है, तो वह भी मान लिया। इसलिए तो तुम्हारा मन एक विडंबना है।
तुमने अनेक लोगों की बातें मान ली हैं। वे सब विपरीत हैं, विरोधी हैं, विरोधाभासी हैं। उन सबमें भीतर कलह मची रहती है। तुम्हारे भीतर एक महाभारत चलता रहता है। एक स्वर कहता है, ईश्वर है; एक स्वर कहता है, नहीं है। एक स्वर कहता है, यह ठीक; एक स्वर कहता है, यह बिलकुल गलत; जरा भी ठीक नहीं। तुम ऐसे कुरुक्षेत्र में, ऐसे संघर्ष में कहां पहुंच पाओगे?
जो जानते हैं, उन्होंने कहा है, तुम इन सभी धारणाओं को छोड़ दो। तुम निर्धारणा हो जाओ। तुम शून्य भाव को उपलब्ध हो जाओ। सब हटा दो। यह सब कूड़ा-करकट है। जब तुम कोई भी धारणा न रखोगे अपने भीतर, तुम्हारी आंख निर्मल होगी। कोई विचार की तरंग न होगी आंख पर। जैसे झील शांत हो, एक भी तरंग न उठती हो, ऐसी तुम्हारी आंख होगी, जब कोई विचार, विश्वास तुम्हारे भीतर न होगा। उस निस्तरंग आंख में सत्य की झलक बनती है।
धारणा की कोई जरूरत ही नहीं है। जब सत्य सामने खड़ा हो, सीधे-सीधे देखने की जब सुविधा हो, आमना-सामना जब हो सकता हो, तो तुम धारणा के लिए क्यों परेशान हो? धारणाएं देखने नहीं देती हैं। दिखाने में सहायक तो कभी नहीं होती हैं, देखने नहीं देतीं।
जैसे ही तुमने धारणा बनाई कि तुमने एक पर्दा डाल दिया; फिर तुम वही देखोगे, जो तुम्हारी धारणा दिखला सकती है। तुम वह न देखोगे, जो है। तुम वही देखोगे, जो तुम्हारी धारणा में है। तुम अपनी धारणा को जगह-जगह देख लोगे और धारणा मजबूत करते जाओगे। और जो तुम्हारी धारणा के प्रतिकूल पड़ता है, वह तुम देखोगे ही नहीं; उसके प्रति तुम अंधे और बहरे हो जाओगे।
तब तुम अपने भीतर बंद हो गए। तुम एक कारागृह में घिर गए। इस कारागृह को तोड़ने की जरूरत है। माना कि इससे सांत्वना मिलती है। क्योंकि बिना कुछ किए, बिना खोजे, बिना खोज का श्रम उठाए, बिना कहीं गए, घर बैठे-बैठे तुम ज्ञानी हो जाते हो। काश, ज्ञान इतना मुफ्त होता! काश, ज्ञान इतना सस्ता होता!
ज्ञान आत्मक्रांति है। आग से गुजरना होता है, तभी सोना निखरता है; तभी तुम भी निखरोगे।
और बड़ी से बड़ी जो आग है, वह है: बिना धारणा के खड़ा हो जाना। क्योंकि तब यह सारा शून्य आकाश तुम्हें घेर लेता है। कहीं कोई सहारा नहीं बचता। कहीं पैर रखने को जमीन नहीं बचती।
कहां से आए हो, पता नहीं। कहां जा रहे हो, पता नहीं। कौन हो, पता नहीं। इतनी गहन असहाय अवस्था में--कुछ भी पता नहीं; क्यों हूं, किसलिए हूं, कौन हूं, कुछ भी पता नहीं--घबड़ाहट पैदा होती है, बेचैनी उठ आती है। रोआं-रोआं कंप जाता है।
और चारों तरफ फैला हुआ महाशून्य है--अंतहीन! इस शून्य में फिर हम बड़े छोटे मालूम पड़ते हैं, ना-कुछ मालूम पड़ते हैं--एक तिनका भी नहीं। और यह भयंकर आंधियां शून्य की! और यह भयंकर तूफान! और यह जीवन और मरण का इतना बड़ा विराट खेल! और हमें कुछ भी पता नहीं। और हम एक छोटे से तिनके हैं--तिनके भी नहीं।
बड़ी घबड़ाहट होती है। मन होता है, जल्दी कोई सहारा खोज लें। स्वीकार कर लें कि परमात्मा ने संसार बनाया--राहत आ जाती है। तो परमात्मा है! उसी ने हमें बनाया और उसने मनुष्य को अपनी ही प्रतिमा में बनाया--मजा आ गया! कि हम कोई छोटे-मोटे नहीं हैं। कोई तिनके नहीं हैं, परमात्मा ने बनाया है। परमात्मा की छाप हमारे ऊपर है। परमात्मा हमारा स्रष्टा है।
तो हमने परमात्मा को मानकर अपने पैर के नीचे जमीन खड़ी कर ली; अब कोई डर नहीं है। और उसने बनाया है तो वह फिक्र भी रखेगा। और उसने बनाया है तो मंजिल पर भी पहुंचाएगा। और उसने हमें बनाया है अपनी ही प्रतिमा में तो हम कोई साधारण छोटे-मोटे आदमी नहीं रह गए, परमात्मा की प्रतिमा हो गए। अहं ब्रह्मास्मि--मैं ब्रह्म हो गया।
अब बड़ा सुख मिला। अब कोई कठिनाई न रही। अब यह सब जो इतना विराट है, इसके प्रति एक पर्दा पड़ गया और आदमी ने अपने को एक शिखर पर बैठा लिया--धारणा के शिखर पर।
इसीलिए तो धारणा वाले लोग, विश्वास करने वाले लोग बड़े भयभीत रहते हैं। अगर उनकी धारणा जरा उनके पैर के नीचे से खींचो तो मरने-मारने को उतारू हो जाते हैं। क्योंकि तुम समझ ही नहीं रहे, तुम क्या कर रहे हो। तुम उनका पूरा घर गिराए दे रहे हो। ईश्वर-विश्वासी को कहो कि ईश्वर नहीं है, मरने-मारने को उतारू हो जाता है। इतनी क्या बुरी बात कह दी थी? ऐसी क्या अड़चन आ गई थी? तुम चकित भी होते हो कि क्यों इतना यह परेशान हो गया?
तुमने इसके पैर के नीचे की जमीन खींच ली। यह कोई धारणा ही न थी, इसका घर था। यह कोई धारणा ही न थी, यह इसका आशियां था। यह कोई धारणा ही न थी, यह इसका सहारा था। तुमने इसे फिर अंधेरे में डाल दिया। तुमने इसे फिर अराजकता में पहुंचा दिया। तुमने इसके संदेह फिर जगा दिए।
मैंने सुना है कि एक आदमी यात्रा कर रहा था। वह ट्रेन में प्रवेश किया--छोटा सा दुबला-पतला आदमी! डरा-डरा, सहमा-सहमा! उसने एक आदमी से, जो अखबार पढ़ रहा था, पूछा कि यह गाड़ी लंदन ही जा रही है? वह आदमी अपने अखबार में लीन था। उसने कहा कि हां, लंदन जा रही है। मगर उसने इस ढंग से कहा कि उस दुबले-पतले कमजोर से आदमी को, डरे से आदमी को भरोसा न आया। वह एक घड़ीभर तो बैठा रहा, फिर उसने कहा, भाई जान! सच में ही यह गाड़ी लंदन जा रही है?
वह अखबार पढ़ने वाला अपने अखबार में लगा है, उसे गुस्सा आया। उसने कहा, कह दिया एक बार कि लंदन जा रही है; देखते नहीं कि लिखा ही है? डब्बे पर लिखा है, डब्बे के भीतर लिखा है कि लंदन जा रही है। शांत होकर बैठ जाओ। पढ़े-लिखे नहीं हो?
तो वह बेचारा सिकुड़कर अपनी कुर्सी पर शांत होकर बैठ गया। दूसरे स्टेशन पर एक आदमी आया अंदर और उसने उस दुबले-पतले डरे-डरे आदमी से पूछा कि क्या यह गाड़ी लंदन जा रही है? उसने कहा, हे भगवान! फिर तुमने संदेह पैदा कर दिया। किसी तरह अपने को सम्हालकर बैठे थे कि लंदन ही जा रही है; अब यह फिर एक आदमी आ गया, जो पूछता है कि जा रही है लंदन? भीतर तो मन यही पूछ रहा था: जा भी रही? कहां जा रही?
थोड़ा सोचो, यह पूरी जिंदगी का कारवां कहां जा रहा है? ईश्वर को मान लिया तो कहीं जा रहा है। मोक्ष को मान लिया तो कहीं जा रहा है। अगर मोक्ष नहीं, ईश्वर नहीं, कोई भी धारणा न पकड़ी, कोई शास्त्र न पकड़ा, तो कहां जा रहा है?
तब तुम प्रतिपल जीते हो एक शून्य में। और शून्य में जीना बड़ा साहस है। उसी को मैं संन्यासी कहता हूं, जो शून्य में जीने का साहसी है।
दुस्साहस है, मगर उसी दुस्साहस से आत्मा पैदा होती है। उसी दुस्साहस से, उसी चुनौती से धीरे-धीरे तुम्हारे पैर जमते हैं। शून्य में जिस दिन तुम खड़े होने के आदी हो जाते हो, फिर कोई उसे खींच न सकेगा। परमात्मा को तो कोई भी खींच ले सकता है।
इसलिए बुद्ध ने परमात्मा की बात नहीं कही। क्या फायदा! शब्द ही रह जाते हैं। बुद्ध ने बात ही नहीं कही परमात्मा की। बुद्ध ने कहा: शून्य। कोई धारणा की जरूरत नहीं है। इस क्षण में जीयो; अगले क्षण की बात ही मत पूछो। पूछते ही क्यों हो? इसको ठीक से जी लो। इसी जीने से अगला क्षण निकलेगा। शांत होकर खड़े हो जाओ। इस शून्य में शून्य आंख से ही देखो।
शून्य आंख जब इस आकाश के शून्य से मिलती है तो दोनों के बीच सत्य का अनुभव उदय होता है।
तुम कोई विचार लेकर मत जाओ--नग्न! धारणा-शून्य! धारणा के वस्त्रों से मुक्त! कोई सिद्धांत लेकर मत जाओ, कोई शास्त्र लेकर मत जाओ, कोई मत-संप्रदाय लेकर मत जाओ; तुम सीधे निपट शून्य में खड़े हो जाओ--निर्बोध; कुछ पता नहीं। जब तक पता नहीं, मानें भी कैसे? जिसने माना, वह भटका।
मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि तुम उलटी मान्यताओं में पड़ जाओ। कुछ लोग कहते हैं, ईश्वर है; वे भी मानते हैं। कुछ लोग कहते हैं, ईश्वर नहीं है; वे भी मानते हैं। दोनों मान्यताएं हैं। दोनों कमजोर हैं। एक सहारा खोजता है ईश्वर के होने में; एक सहारा खोजता है ईश्वर के न होने में। ईश्वर का न होना भी बड़े सहारे का हो जाता है।
अब अगर तुम वेश्यागामी हो तो ईश्वर का न होना सहारा हो जाएगा। क्योंकि तब तुम मजे से वेश्या के घर जा सकते हो। कोई ईश्वर वगैरह नहीं है। तुम अगर चोर हो, बेईमान हो, ईश्वर का न होना बड़ा सहारा हो जाएगा। कोई ईश्वर नहीं है, कोई पाप-पुण्य नहीं है। मिट्टी-मिट्टी में मिल जाती है, सब खेल खत्म हो जाता है। साधु-असाधु सब कब्र में समान हो जाते हैं। कहीं कोई मूल्य नहीं है। कहीं कोई जीवन का अर्थ नहीं है।
सहारा मिल गया! अब तुम मजे से बेईमानी करो, चोरी करो, जेब काटो। जेब तुम निर्भय होकर काटो, कोई अंतरात्मा की आवाज न उठेगी कि मत काटो।
तो लोग नास्तिकता में भी सहारा खोज लेते हैं, आस्तिकता में भी सहारा खोज लेते हैं। और धार्मिक वही है, जो सहारे न खोजे, सत्य खोजे; जो सांत्वना न खोजे, कंसोलेशन न खोजे, सत्य खोजे; जो संतोष न खोजे, सत्य खोजे।
पर सत्य की खोज थोड़ी लंबी है। क्योंकि तुम्हें ही खोजना पड़ेगा। किसी और का खोजा हुआ काम न आएगा। फिर से अ, ब, स से शुरू करनापड़ता है। बुद्ध ने जो यात्रा की, वह तुम्हें भी करनी पड़ेगी। ऐसा नहीं कि वे कर चुके तो तुम उनका उधार नक्शा लेकर और यात्रा कर लोगे।
सत्य कुछ ऐसा है, इतना जीवंत है कि उसके कोई बंधे-बंधाए रास्ते नहीं हैं; इसलिए नक्शा बन नहीं सकता। सत्य इतना जीवंत है, इतना गत्यात्मक है कि उसका कोई पता-ठिकाना नहीं है।
बुद्ध को जहां मिला था, वहीं तुमको मिलेगा, जरूरी नहीं है। तुम्हें कहीं और मिलेगा। तुम अलग हो, तुम्हारे होने का ढंग अलग है। अलग ही जगह मिलेगा। जिस शकल और सूरत में बुद्ध ने जाना, तुम न जान पाओगे। तुम्हारा परमात्मा, तुम्हारा सत्य भिन्न होगा। तुम भिन्न हो और तुम्हारे आधार से तुम जो जानोगे, वह भी भिन्न हो जाएगा। सत्य एक ही है।
चांद निकलता है आकाश में--एक चांद है; नदी-नाले हजारों, तालाब-तलैया हजारों; सभी में प्रतिबिंब बनेगा; सभी जगह प्रतिबिंब अलग-अलग बनेगा। कोई नदी स्वच्छ होगी, कोई नदी मटमैली होगी। किसी नदी पर लहरें होंगी, कोई नदी शांत होगी। कोई झील चुपचाप सोई होगी, कोई झील तूफान-आंधियों में होगी। प्रतिबिंब सब जगह बनेंगे, चांद एक है। खबर एक चांद की होगी, लेकिन सभी जगह प्रतिबिंब अलग-अलग बनेंगे।
तुम्हारे भीतर भी परमात्मा ने झांका है, लेकिन तुम्हारी झील प्रतिबिंब बनाएगी। बुद्ध के भीतर भी उसी ने झांका, पर प्रतिबिंब और बना। दर्पण अलग है, प्रतिबिंब अलग हो जाएंगे। जिसका प्रतिबिंब बनता है, वह तो एक है।
और इसलिए तुम कभी किसी दूसरे की धारणाओं को उधार अपने ऊपर मत लाद लेना। क्योंकि उन धारणाओं को अगर तुमने पकड़ लिया तो तुम बड़ी मुश्किल में पड़ोगे। एक तो उन धारणाओं के कारण तुम यात्रा ही न करोगे। क्योंकि तुम्हें पता ही है पहले से, तो जाना कहां है? खोजना क्या है? तुम अपने घर ही बैठ रहोगे। और ध्यान रखना, सच तो यह है कि--
इस दुनिया में हरकत से ही बरकत है
जिसने कुछ ढूंढा होगा तो उसने कुछ पाया होगा
जिसने कुछ ढूंढा होगा तो उसने कुछ पाया होगा
तुम मुफ्त चाहते हो। जो बुद्ध को अनंत कठिनाइयों से मिलता है, जो जीसस को सूली पर मिलता है, उसे तुम मुफ्त चाहते हो। जो महावीर को बड़ी तपश्चर्या से मिलता है, तुम सिर्फ शास्त्र पढ़कर पा लेना चाहते हो।
क्या महावीर के समय शास्त्र न थे? महावीर भी शास्त्र ही पढ़कर पा लेते। क्या बुद्ध के समय शास्त्र न थे? बुद्ध भी शास्त्र ही पढ़कर पा लेते। अब यह जीसस पागल को क्या सूझी? सूली पर चढ़ने की क्या जरूरत थी? अपने घर के कोने में पूजा-पाठ करके ही पा लेते।
नहीं, लेकिन सत्य सस्ता नहीं है; उसका मूल्य चुकाना पड़ता है। और उसका मूल्य एक ही ढंग से चुकाया जा सकता है: वह स्वयं के संपूर्ण समर्पण से चुकाया जा सकता है।
धारणाएं तुम्हें अटका लेती हैं। विश्वास तुम्हें रोक लेते हैं। मगर उनमें सांत्वना है, सहारा है। उनमें शराब है। उनको पीकर तुम विस्मृत कर लेते हो। भय कम हो जाता है।
मैंने सुना है, एक सर्कस...यात्रा हो रही थी सर्कस की एक ट्रेन से, और एक डब्बा खुल गया और एक शेर भाग गया। गाड़ी कहीं खड़ी थी...रात जंगल; तो सर्कस के मैनेजर ने दस-पंद्रह अपने मजबूत आदमी बुलाए और उन सबको शराब पिलाई। जंगल में जाना है, अंधेरी रात है, और उस शेर को पकड़ना है। बिना शराब पीए जाना उचित भी नहीं है। बिना शराब पीए कोई जाएगा ही क्यों?
एक आदमी ने इनकार कर दिया पीने से। उसने कहा कि भई, जंगल है, रात है, अंधेरा है, पी लो। गर्मी रहेगी। उसने कहा कि ऐसे हमें पीने से कोई एतराज नहीं, मगर ऐसी घड़ी में हम कभी नहीं पीते। रात है, अंधेरी है, जंगल है, शेर है, और हम बेहोश! इसीलिए नहीं पीते हैं।
जिंदगी माना अंधेरी है, रात है, रास्तों का कुछ पता नहीं; और मौत जगह-जगह छिपी है--ऐसे में बेहोश होकर मत चलना। ऐसे में मन कहता है कि बेहोश हो लो, फिक्र नहीं फिर। वही तो खतरा है। बेहोशी में आदमी शेर से भी जूझ जाए। बेहोशी में आदमी मौत से भी जूझ जाए।
तो हजारों तरह की शराबें हैं, जो आदमी को पिलाई जाती हैं। ताकि वह इस जिंदगी में, जो सब जीवन के भय हैं--मौत है, खतरे हैं, शून्य है--इन खतरों की याद न रहे।
समझो कि तुम युद्ध पर जाते हो! तो फिर तुम्हें राष्ट्रीयता की शराब पिलानी पड़ेगी जाने के पहले--सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा।
यह क्या पागलपन है? पहले यह शराब पिलाओ, तब यह आदमी मरने-मारने को उतारू हो जाएगा। झंडा ऊंचा रहे हमारा--अब कुछ और पागलपन करने को नहीं बचा, झंडा ही ऊंचा कर रहे हो? और झंडा काहे के लिए ऊंचा रहे? और झंडे ऊंचे रख-रख कर कितने आदमी मार डाले।
अगर कोई मंगल ग्रह से आकर देखे तो हैरान होगा कि लोगों को हो क्या गया है? झंडा ऊंचा करते हो और काटते हो एक-दूसरे को! और एक-दूसरे का झंडा नीचा करने आते हैं। अगर इतनी ही झंझट है तो पहले ही नीचे कर लो। अगर इस पर इतना बड़ा अटकाव है तो कपड़ों के चीथड़े डंडों पर लगाकर इतना शोरगुल क्यों मचा रहे हो?
नहीं, लेकिन पहले वह जहर पिलाना जरूरी है। वह शराब पिलानी जरूरी है। तो राष्ट्रीयता की शराब पिलाई जाती है। फिर आदमियों को कटवाओ युद्धों में, वे चले जाते हैं बिलकुल मस्ती से। बैंड-बाजे की धुन पर जाते हैं। मरने जा रहे हैं। ऐसे जाते हैं जैसे उत्सव में जा रहे हैं।
अब अगर हिंदू-मुसलमान को लड़ाना है तो पहले शराब पिलाओ कि हिंदू धर्म ही सच्चा धर्म है। शराब पिलाओ कि इस्लाम ही सच्चा धर्म है। जब वे पीकर डूब जाएं, फिर लड़ा दो।
सारी जमीन करीब-करीब पागल है। धारणाओं की शराब है--कोई कम्युनिस्ट है, कोई फेसिस्ट है, कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है, कोई ईसाई है, कोई भारतीय है, कोई चीनी है। हजार-हजार तरह की शराबें पिलाई गई हैं।
रात अंधेरी है; भयानक शून्य है चारों तरफ। कुछ तुम्हें अपना पता नहीं है, कौन हो तुम! कुछ तुम्हें पता नहीं है, कहां जा रहे हो तुम! कुछ तुम्हें पता नहीं है कि सब तरफ मौत ने घेरा है।
मगर सांत्वना रहती है। शराब पी ली तो हिम्मत रहती है। हिम्मत खतरनाक है। वैसी हिम्मत उचित भी नहीं; क्योंकि वैसी हिम्मत तुम्हें मूढ़ बनाती है।
निर्धारणा से अगर तुम चलोगे तो सम्हलकर चलना पड़ेगा। एक-एक इंच खतरा है और एक-एक श्वास खतरा है। अगर तुम कोई धारणा नहीं रखते हो तो तुम्हें सम्हलकर चलना ही पड़ेगा। फिर तुम गैर सम्हलकर नहीं चल सकते हो।
और इसीलिए बुद्ध ने बड़ा जोर दिया है निर्धारणा पर। क्योंकि निर्धारणा तुम्हें सम्हलने की कला सिखाएगी। और तुम धीरे-धीरे उसी सम्हलने में सजग होते जाओगे, सावधान होओगे, सावचेती आएगी। और वही सूत्र है सत्य की तरफ जाने का। जितनी तुम्हारे भीतर सावधानी आ जाए, जितना भी तुम्हारे भीतर सजग भाव आ जाए, उतने ही तुम सत्य के करीब होने लगे।
सत्य को जानने का रास्ता धारणा नहीं है, सजगता है।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, आपके पास रहने का मौका मिला, यह मेरा बड़ा भाग्य; और मैं अनुगृहीत हूं। लेकिन आश्चर्य है कि सान्निध्य में रहकर कभी-कभी अनुभव होता है कि मैं आपसे दूर होता जा रहा हूं; ऐसा क्यों है?
मन के कुछ नियम हैं; मन के कुछ खेल हैं; उनमें एक नियम यह है कि जो चीज उपलब्ध हो जाए, मन उसे भूलने लगता है। जो मिल जाए, उसकी विस्मृति होने लगती है। जो पास हो, उसे भूल जाने की संभावना बढ़ने लगती है। मन उसकी तो याद करता है, जो दूर हो; मन उसके लिए तो रोता है, जो मिला न हो; जो मिल जाए, मन उसे धीरे-धीरे भूलने लगता है। मन की आदत भविष्य में होने की है, वर्तमान में होने की नहीं।
तो अगर तुम मेरे पास हो, हजार-हजार तमन्नाएं लेकर तुम मेरे पास आए हो, कितने-कितने सपने सजाकर, कितने भाव से! पर अगर तुम यहां रुक गए मेरे पास ज्यादा देर, तो धीरे-धीरे तुम मुझे भूलने लगोगे। तुम बड़े हैरान होओगे कि दूर थे, अपने घर थे, हजारों मील दूर थे, वहां तो इतनी याद आती थी, वहां इतने तड़फते थे, अब यहां पास हैं और एक दूरी हुई जाती है।
मन के इस नियम को समझना और तोड़ना जरूरी है। इसको तोड़ दो; वही ध्यान है। ध्यान का अर्थ है: जो है, उसके प्रति जागो; जो नहीं है, उसकी फिक्र छोड़ो। और मन का नियम यह है: जो है, उसके प्रति सोए रहो, जो नहीं है, उसके प्रति जागते रहो। मन का सारा खेल अभाव के साथ संबंध बनाने का है।
तुम्हारे पास अगर लाख रुपए हैं तो मन उनको नहीं देखता, जो दस लाख तुम्हारे पास नहीं हैं, उनका हिसाब लगाता रहता है कि कैसे मिलें? जब तुम्हारे पास लाख न थे, दस ही हजार थे, तब वह लाख की सोचता था। अब लाख हैं, वह दस लाख की सोचता है। जब तुम्हारे पास दस हजार थे, सोचा था, लाख होंगे तो बड़े आनंदित होंगे। अब तुम बिलकुल आनंदित नहीं हो। लाख तुम्हारे पास हैं, अब तुम कहते हो, दस लाख होंगे, तब आनंदित होंगे। दस लाख भी हो जाएं, तुम आनंदित होने वाले नहीं। क्योंकि तुम मन का सूत्र ही नहीं पकड़ पा रहे हो। वह कहेगा, दस करोड़ होने चाहिए। वह आगे ही बढ़ाता जाता है।
मन ऐसे है, जैसे जमीन को छूता हुआ क्षितिज। वह कहीं है नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ता है। तुम आगे बढ़े, वह भी आगे बढ़ गया।
तो जहां तुम पहुंच जाते हो, मन वहां से हट जाता है। मन आगे दौड़ने लगता है। कहीं और जाता है। मन सदा तुमसे आगे दौड़ता रहता है। तुम जहां हो, वहां कभी नहीं होता। तुम मंदिर में हो, वह दुकान में है। तुम दुकान में, वह मंदिर में। तुम बाजार में हो तो वह हिमालय की सोचता है। तुम हिमालय पहुंच जाओ, वह बाजार की सोचने लगता है।
मन के इस खेल को समझो। अगर न समझे, तो धीरे-धीरे तुम पाओगे, तुम मेरे पास रहकर बहुत दूर हो गए। इससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं है। इससे तुम्हारे मन की ही मूर्च्छा का संबंध है।
बहुत बार मैं लोगों को अपने से दूर भी भेज देता हूं। सिर्फ इसीलिए, जब मैं देखता हूं, अब उनका मन बहुत धूल जमा रहा है; अब वे सिर्फ लगते हैं कि मेरे पास हैं और पास नहीं, उनको मैं दूर भेज देता हूं। वे बड़े पीड़ित होते हैं। उनको लगता है, मैं उनको हटा रहा हूं, भगा रहा हूं, छोड़ रहा हूं।
नहीं, छोड़ नहीं रहा हूं, न हटा रहा हूं। उन्हें दूर भेजना जरूरी है, ताकि उन्हें फिर मेरी याद आए। और दूर जाकर उन्हें याद आनी शुरू हो जाती है।
अभी चार दिन पहले सैनफ्रांसिस्को के एक संन्यासी अमिताभ को बड़ी जाने की इच्छा थी। सालभर से आने की इच्छा थी। वहां सब अपना कारोबार समाप्त करके सदा के लिए यहां मेरे पास रहने को आ गए। दो-तीन महीने में ही धूल जम गई। अब दो-तीन महीने से वे निरंतर वहां जाने का सोच रहे हैं। डरे थे कि कहीं मैं मना न कर दूं। मुझसे पूछने आए। मैंने कहा, बिलकुल मजे से चले जाओ। मैं खुद ही सोच रहा था कि अब समय हो गया।
वे थोड़े चौंके। कहा, क्या कहते हैं आप?
खुद ही सोच रहा था कि अब भेजना है। अब तुम जाओ। और आने की जल्दी मत करना।
वे कहने लगे, आपको पता कैसे चला? क्योंकि यह मैं भी सोच रहा था कि अब थोड़ा लंबा वहां रहूंगा। लेकिन आप सब खराब किए दे रहे हैं। आपके मुंह से यह सुनते ही कि आने की जल्दी मत करना, मेरे भीतर अभी जल्दी हो गई। मैं तीन सप्ताह में वापस आ जाऊंगा।
मैंने कहा, इतनी जल्दी क्या है? और तुम्हें वहां सदा टिकना हो तो तुम वहां सदा टिक जाना।
मुझे डर है कि वह तीन सप्ताह भी टिके! जाते ही वहां सैनफ्रांसिस्को में पूना की याद आने लगेगी। पूना में है तो सैनफ्रांसिस्को की याद आती है।
मन की इस व्यवस्था को थोड़ा समझो और मन को यह खेल और मत खेलने दो। अन्यथा बहुत बार...सदा ही ऐसा हुआ है। बुद्ध के पास जो लोग थे, वंचित रह गए। और फिर अब हजारों साल से याद कर रहे हैं। अब रोते हैं। अब आंसू बहाते हैं, अब मंदिर बनाते हैं, पूजा करते हैं। और यह आदमी मौजूद था कभी, तब ऐसी भी घड़ियां आयीं कि बुद्ध किसी गांव से गुजरे हैं और तुम अपनी दुकान पर बैठे थे और काम बहुत था और तुम बुद्ध को देखने भी न गए।
ऐसा हुआ। बुद्ध जब मरने लगे तो एक आदमी भागा हुआ आया। उसने कहा कि तीस साल से मैं सोचता था, जाना है...जाना है...। आप मेरे गांव से कोई दस बार निकले, लेकिन कभी शादी थी घर में, कभी पत्नी बीमार थी, कभी दुकान पर ग्राहक थे, कभी मेहमान आ गए थे। मैंने सोचा, फिर कभी...फिर कभी...फिर कभी...। मगर अभी मुझे पता चला कि आप अब संसार ही छोड़ रहे हैं तो मैं भागा आ गया हूं। बुद्ध ने कहा, फिर भी तुमने जल्दी की है। कुछ हैं, जो मैं छोड़ ही चुकूंगा, तब आएंगे। फिर भी देर-अबेर, तुम आ गए--तीस साल बाद सही। मगर कुछ हैं, जब मैं जा चुका होऊंगा, तब आएंगे।
अब बुद्ध को हजारों साल तक लोग याद करेंगे। अब उस याद से कुछ भी बहुत होता नहीं।
मन की इस वृत्ति को त्यागो, छोड़ो। समझो और छोड़ो। वर्तमान में जीना सीखो। जहां हो, वहां होना सीखो। यह सवाल मेरा ही नहीं है, अगर वृक्ष के पास बैठे हो तो वृक्ष के पास ही रहो; फिर मत भागो दूर-दूर। संसार बड़ा है, विस्तार बड़ा है, मत भागो दूर-दूर। इस छोटे से पौधे के पास ही हो जाओे। थोड़ी देर इसके पास ही रहो। जब हो तो पास ही रहो। जो करो, उस कृत्य में पूरे मौजूद हो जाओ। भोजन करो तो भोजन ही करो और कुछ न करो। स्नान करो तो स्नान ही करो और कुछ न करो। और तुम अचानक चकित हो जाओगे, यह स्नान भी प्रार्थना बन गया। स्नान भी पूजा हो गई। भोजन भी भगवान को लगाया भोग हो गया।
कबीर ने कहा है, उठूं बैठूं सो परिक्रमा।
तो उठता-बैठता हूं, वह भी परिक्रमा हो गई परमात्मा की। यह है ही; क्योंकि कहीं भी उठो, कहीं भी बैठो, परिक्रमा तो उसी की है। और कोई है ही नहीं; तो परिक्रमा उसी की है। जहां बैठे हो, उसी का मंदिर है।
चीजें बड़ी सरल हो जाएं अगर हम वर्तमान में जीना सीख जाएं। मगर हम कठिन बना लेते हैं।
इश्क है सहल मगर हम हैं वो दुश्वार-पसंद
कारे-आसां को भी दुश्वार बना लेते हैं
जो बात बड़ी सरल है, उसको भी कठिन बना लेते हैं।
मेरे पास हो, अब मेरे पास होने से ज्यादा सरल और क्या हो सकता है? अब उसको भी कठिन बनाए दे रहे हो। दूर जाना हो, दूर चले जाओ; पर तब वहीं होना। तो वहीं ध्यान के फूल लग जाएंगे। यहां हो तो यहीं रहो; तो यहां ध्यान के फूल लग जाएंगे।
ध्यान के फूल वहीं लग जाते हैं, जहां तुम्हारा संबंध वर्तमान से जुड़ जाता है।
परमात्मा के होने का ढंग वर्तमान है; मन के होने का ढंग भविष्य है। इसलिए मन और परमात्मा का कभी मिलन नहीं हो पाता। वे समानांतर पटरियों की तरह हैं: साथ ही साथ दौड़ते रहते हैं, लेकिन मिलते कहीं भी नहीं। समानांतर रेखाएं हैं आत्मा की और मन की। आत्मा है वर्तमान में, मन है भविष्य में; दोनों साथ-साथ दौड़ते रहते हैं।
रेल की पटरी देखी? साथ ही साथ हजारों मील तक दौड़ती रहती है, लेकिन मिलना कहीं नहीं होता। अगर तुम अपने से मिलना चाहते हो तो मन की यह आदत जाने दो। अगर तुम मुझसे मिलना चाहते हो तो भी मन की यह आदत जाने दो। क्योंकि मुझसे मिलने का और कोई अर्थ नहीं है, वह तुमसे ही मिलने का एक नाम है।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, हमारे गांव में हम आपके जो संन्यासी हैं, वे एक साथ ध्यान में बैठते हैं। कभी-कभी ध्यान में ऐसा प्रतीत होता है कि आप वहां मौजूद हैं और हमें भीतर ही भीतर खींचे ले रहे हैं। और यह किसी एक मित्र का नहीं, प्रायः सभी का अनुभव है। यह क्या है? क्या आप वहां सचमुच आते हैं?
अभी जो प्रश्न हमने पूरा किया, उसका यह दूसरा पहलू है। तुम मेरे पास रहकर भी दूर हो सकते हो, अगर मन बीच में आ जाए। तुम दूर होकर भी पास हो सकते हो, अगर मन बीच से हट जाए। अगर तुमने सच में ही ध्यान किया, अगर तुम तल्लीन हुए तो समय और स्थान की दूरियां मिट जाती हैं। समय और स्थान की दूरी शरीर जानता है, मन जानता है; आत्मा नहीं जानती।
तुम्हारा शरीर वहां दूर होगा बलसार में--बलसार के मित्रों का प्रश्न है--लेकिन जैसे ही तुमने ध्यान किया, जैसे ही मन शांत हुआ, मन की तरंगें हटीं, तुम मुक्त हुए, बलसार से मुक्त हुए। अब तुम कहीं आबद्ध न रहे, बंधे न रहे। पक्षी आकाश में उड़ गया--उसी खुले आकाश में, जहां मैं हूं, तुम भी वहीं हो गए। जो मेरे लिए सहज अवस्था है चौबीस घंटे, उसे भी तुम कभी क्षणभर को साध ले सकते हो; तो तुम्हारी भी उसी अवस्था में छलांग लग जाएगी।
ध्यान का अर्थ क्या है? ध्यान का अर्थ है: क्षणभर के लिए समाधि में उतर जाना। समाधि का अर्थ क्या है? समाधि का अर्थ है: ध्यान का सतत हो जाना।
तो जो मेरी सदा की अवस्था है, चौबीस घंटे जहां मैं हूं, अगर तुम ध्यान में एक क्षण को भी हो गए तो मिलन हो गया। एक क्षण को तुम वहां न रहे, जहां हो; वहां हो गए, जहां मैं हूं।
और यह जो प्रश्न उठा है...यह प्रश्न उठता है, जब तुम वापस मन में लौट आते हो; तो मन प्रश्न उठाता है, यह कैसे हो सकता है? तुम तो बलसार में हो, तुम तो यहां आंख बंद किए थे। नहीं, यह ठीक नहीं हो सकता। कहीं कुछ भूल-चूक हो गई होगी। शायद मन ने कोई कल्पना कर ली होगी।
लेकिन ध्यान रखना, जब तक तुम कल्पना कर सकते हो, तब तक तो ध्यान होगा ही नहीं। और कल्पना करके तुम अगर मेरी कल्पना भी कर लोगे तो भी तुम उससे वैसा स्वाद न पाओगे। वह तुम्हारी ही कल्पना होगी। वह सिर्फ मन पर उठा हुआ एक चित्र होगा। उसका कोई मूल्य नहीं है।
लेकिन जब तुम शून्य हो जाओगे--एक क्षण को सही, पलभर को सही, दो विचारों के छोटे से अंतराल में भी--तब भेद होगा। तब तुम मुझे पाओगे, ऐसा नहीं कि जैसे तुमने कल्पना की है; बल्कि ऐसे, जैसे कि मैंने तुम्हें घेर लिया, सब तरफ से तुम्हें घेर लिया। जैसे तुम मुझमें समा गए और मैं तुममें समा गया। अब दोनों के भेद को अलग-अलग कैसे समझाया जाए? अनुभव का भेद है।
जैसे कि तुमने मिठाई खाई और तुमने बैठकर मिठाई खाने की कल्पना की; अब दोनों में क्या भेद है? तुम करके देखना; और तो कोई उपाय नहीं है बताने का। तुम दोनों काम करके देखना। बैठकर मिठाई की कल्पना करके खाना और फिर मिठाई खाना; फर्क तुम्हें पता चलेगा।
ऐसा ही प्रयोग तुम इसमें भी करना। ध्यान करने मत बैठना, बैठ जाना आंख बंद करके और मेरी याद करना और कल्पना करना। तब तुम्हारी ही कल्पना होगी। और फिर ध्यान करना; और ध्यान में जब तुम खो जाओगे और मेरी मौजूदगी अनुभव करोगे, तब तुम्हें पता चल जाएगा कि दोनों का स्वाद कितना अलग है। और उस स्वाद को समझाया नहीं जा सकता।
इतना निश्चित है कि जो भी कहीं भी तैयार हैं, उनके लिए मैं उपलब्ध हूं।
हर एक दर पर मुहब्बत की सदा देने का वक्त आया
अंधेरे में नई शमा जला देने का वक्त आया
अब जो भी दरवाजा खुला है, उस पर मैं दस्तक दूंगा। जो भी ध्यान में उतरेगा, उसे मैं उपलब्ध हो जाऊंगा।
इस अनुभव को तुम जितना गहरा लो, उतना अच्छा है। क्योंकि इस अनुभव से ही तुम्हारे भीतर वे द्वार खुलने शुरू होंगे, जो तुम्हारे ही अंतरात्मा के हैं, लेकिन जिनसे तुम अपरिचित हो। मैं तुम्हें वही देना चाहता हूं, जो तुम्हारे पास है, लेकिन तुम्हें स्मरण नहीं है। मैं तुम्हें वही जागरण देना चाहता हूं, जो दिया नहीं जा सकता, लेकिन तुम्हारे भीतर उकसाया जा सकता है।
जैसे कोई दीए की लौ, दीए की बाती को उकसा देता है, बाती जल जाती है। दीया बुझने-बुझने को हो जाता है, कोई दीए की बाती को उकसा देता है। कुछ किया नहीं जाता खास--लौ भी दीए के पास है, ज्योति भी दीए के पास है, तेल भी दीए के पास है, दीया भी दीए का है--हम जरा सा उकसा देते हैं। इससे ज्यादा मैं और कुछ कर नहीं सकता हूं कि तुम्हारे भीतर जब भी कोई दीए की लौ बुझने लगे तो मैं थोड़ा उकसा दूं। जल्दी ही तुम उकसाने की कला स्वयं सीख जाओगे। जल्दी ही तुम अपनी ज्योति को खुद ही उकसाने लगोगे।
इन क्षणों को मूल्य देना। इन क्षणों की महिमा से भरना। इन क्षणों पर संदेह मत करना। इन क्षणों पर जितनी ज्यादा गहनता से तुम प्रयोग कर सको और जितने इन में डूब सको, उतना ही तुम्हारा सौभाग्य है।

आज इतना ही।

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