BUDDHA

Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) 14

Fourteenth Discourse from the series of 122 discourses - Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) by Osho. These discourses were given during NOV 21, 1975 to DEC 10, 1977.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आप श्रद्धा, प्रेम, आनंद की चर्चा करते हैं, लेकिन आप शक्ति के बारे में क्यों नहीं समझाते? आजकल मुझमें असह्य शक्ति का आविर्भाव हो रहा है। यह क्या है और इस स्थिति में मुझे क्या रुख लेना चाहिए?
शक्ति की बात करनी जरूरी ही नहीं। जब शक्ति का आविर्भाव हो तो प्रेम में उसे बांटो, आनंद में उसे ढालो। उसे दोनों हाथ उलीचो।
शक्ति के आविर्भाव के बाद अगर उलीचा न, अगर बांटा न, अगर औरों को साझीदार न बनाया, अगर प्रेम के गीत न गाए, उत्सव पैदा न किया जीवन में, तो शक्ति बोझ बन जाएगी। तो शक्ति पत्थर की तरह छाती पर बैठ जाएगी। फिर शक्ति से समस्या उठेगी।
गरीबी की ही समस्याएं नहीं हैं संसार में, अमीरी की बड़ी समस्याएं हैं। लेकिन अमीर की सबसे बड़ी समस्या यह है कि जो धन उसे मिल गया, उसका क्या करे? पर यह भी कोई समस्या है? उसे बांटो, उसे लुटाओ। बहुत हैं जिनके पास नहीं है, उन्हें दो।
कठिनाई इसलिए खड़ी होती है कि हमने जीवन में केवल मांगने की कला सीखी है। और जब हम सम्राट बनते हैं, तो अड़चन आ जाती है। मांगने की कला का अभ्यास, फिर अचानक जब हम सम्राट बन जाते हैं परमात्मा के प्रसाद से, उतरती है अपरिसीम ऊर्जा, तब भी हम मांगना ही जानते हैं, देना नहीं जानते। हमारे जीने का सारा ढंग मांगना सिखाता है। फिर जब परमात्मा हम पर बरसता है तो बांटने की हमारे पास कोई कला नहीं होती, आदत नहीं होती, अभ्यास नहीं होता, इसलिए अड़चन आती है। यही तो कठिनाई है।
मेरे पास बहुत अमीर लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, बड़ी अड़चन है; धन तो है, क्या करें? अड़चन क्या है? अड़चन यही है कि आदत गरीबी की है, आदत भिखारी की है। अड़चन यही है। जिंदगीभर मांगा--कमाना सीखा। बांटना तो कभी सीखा नहीं! सीखते भी कैसे? था ही नहीं तो बांटते क्या? जो नहीं था उसको मांगा, इकट्ठा किया, जोड़ा, संजोया, सारा जीवन इकट्ठा करने की आदत बन गई। फिर मिला; अब देने को हाथ नहीं खुलते, बढ़ते नहीं, यही अड़चन है। यह अड़चन समझ ली तो हल हो गई। कुछ करना थोड़े ही है।
शक्ति मिल गई, आविर्भाव हुआ, यही तो सारे ध्यान की चेष्टा है।
और तुम पूछते हो कि ‘आप श्रद्धा, प्रेम, आनंद की बात करते हैं, शक्ति के बारे में क्यों नहीं समझाते?’
वही तो मैं शक्ति के बारे में समझा रहा हूं कि जब शक्ति उठे, तो आनंद बनाना। नहीं तो मुश्किल खड़ी होगी। जब शक्ति उठे तो नाचना। फिर साधारण चलने से काम न बनेगा, दौड़ना। फिर ऐसे ही उठना-बैठना काफी न होगा। अपूर्व नृत्य जब तक जीवन में न होगा तब तक बोझ मालूम होगा। जितनी बड़ी शक्ति, उतनी बड़ी जिम्मेवारी उतरती है। जितना ज्यादा तुम्हारे पास है, अगर तुम उसे फैला न सके तो बोझ हो जाएगा।
शक्ति की समस्या नहीं है, फैलाना सीखो। इसलिए तो प्रेम की बात करता हूं, शक्ति की बात नहीं करता। जिनके पास शक्ति नहीं है, उन्हें शक्ति के संबंध में क्या समझाना? जिनके पास है, उन्हें शक्ति के संबंध में क्या समझाना? जिनके पास नहीं है, उन्हें शक्ति कैसे पैदा की जाए--कैसे ध्यान, साधना, तपश्चर्या, अभ्यास, योग, तंत्र--कैसे शक्ति पैदा की जाए, यह समझाना जरूरी है। फिर जिनके पास शक्ति आ जाए, द्वार खुल जाए परमात्मा का और बरसने लगे उसकी ऊर्जा, उन्हें शक्ति के संबंध में क्या समझाना? जब शक्ति सामने ही खड़ी है तो अब उसके संबंध में क्या बात करनी? उन्हें समझाना है प्रेम, आनंद, उत्सव। इसलिए प्रत्येक ध्यान पर मेरा जोर रहा है कि तुम उसे उत्सव में पूरा करना। कहीं ऐसा न हो कि ध्यान करने का तो अभ्यास हो जाए, और बांटने का अभ्यास न हो।
बहुत लोग दीनता से मरे हैं, बहुत लोग साम्राज्य से मर गए हैं। बहुत से लोग इसलिए दुखी हैं कि उनके पास नहीं है, फिर बहुत से लोग इसलिए दुखी हो जाते हैं कि उनके पास है, अब क्या करें? और जीवन का जो रसाध्यक्ष है, वह देखता है कि तुमने अपनी ऊर्जा का क्या उपयोग किया? उसे संचित किए चले गए? कृपणता की? इकट्ठा किया? तो जिससे महाआनंद फलित हो सकता था उससे सिर्फ नर्क ही निर्मित होगा।
तुमने कभी खयाल किया, मीरा ने कुंडलिनी की बात नहीं की। बचेगी कहां कुंडलिनी? नाच में बह जाती है। योगी करते हैं बात, क्योंकि बांटना नहीं जानते। कुंडलिनी का अर्थ क्या है? ऊर्जा उठी और बह नहीं पा रही है। तो भीतर भरी मालूम पड़ती है। लेकिन मीरा में कहां बचेगी? भरने के पहले लुटाना आता है। आती भी नहीं कि बांट देती है। गीत बना लेती है, नाच ढाल लेती है। उत्सव में रूपांतरित हो जाती है। इसलिए मीरा ने कुंडलिनी की बात नहीं की। चैतन्य ने कुंडलिनी की बात नहीं की। तुम चकित होओगे, भक्तों ने बात ही नहीं की कुंडलिनी की।
क्या भक्तों को कभी कुंडलिनी का अनुभव नहीं हुआ है? एक महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या भक्तों ने कुंडलिनी को नहीं जाना? जाना, लेकिन इकट्ठा नहीं किया। इसलिए कभी समस्या न बनी। कृपण के लिए धन समस्या हो जाती है। दाता के लिए कोई समस्या है? दाता तो आनंदित होता है कि इतने दिन तक बांटने की इतनी आकांक्षा थी, अब पूरी हुई जाती है।
मोहतसिब तस्बीह के दानों पे ये गिनता रहा
रसाध्यक्ष, जीवन का जो उत्सव जांच रहा है, देख रहा है, वह माला के दानों पर गिनता रहा--
मोहतसिब तस्बीह के दानों पे ये गिनता रहा
किनने पी किनने न पी किन-किन के आगे जाम था
शक्ति का अर्थ है, तुम्हारे आगे जाम है, अब पी लो। मत पूछो कि जाम का क्या करें? सामने प्याली भरी है। पीयो और पिलाओ। उत्सव बनो।
यहूदियों की अदभुत किताब तालमुद कहती है, परमात्मा तुमसे यह न पूछेगा कि तुमने कौन-कौन सी भूलें कीं? परमात्मा तुमसे यही पूछेगा कि तुमने आनंद के कौन-कौन से अवसर गंवाए? तुमसे यह न पूछेगा, तुमने कौन-कौन से पाप किए?
यह बात मुझे बड़ी जंचती है। परमात्मा और पाप का हिसाब रखे, बात ही ठीक नहीं। परमात्मा और पापों का हिसाब रखे! परमात्मा न हुआ तुम्हारा प्राइवेट सेक्रेटरी हो गया। कोई पुलिस का इंस्पेक्टर हो गया। कोई अदालत का मजिस्ट्रेट हो गया। परमात्मा न हुआ कोई आलोचक हो गया, कोई निंदक हो गया। परमात्मा की इतनी बड़ी आंखों में तुम्हारे पाप दिखाई पड़ेंगे? तुम्हारी भूलें दिखाई पड़ेंगी?
नहीं, तालमुद ठीक कहता है, परमात्मा पूछेगा कि इतने सुख के अवसर दिए उनको गंवाया क्यों? इतने नाचने के मौके थे, तुम बैठे क्यों रहे? इतने कंजूस क्यों थे? इतने कृपण क्यों थे? मैंने तुम्हें इतना दिया था, तुमने उसे बांटा होता। तुमने उसे बहाया होता। तुम एक बंद सरोवर की तरह क्यों रहे? तुम बहती हुई सरिता क्यों न बने? तुम कृपण वृक्ष की तरह रहे कि जिसने फूलों को न खिलने दिया कि कहीं सुगंध बंट न जाए! तुम एक खदान की तरह रहे जो अपने हीरों को दबाए रही, कहीं सूरज की रोशनी न लग जाए!
परमात्मा ने तुम्हारे सामने जीवन की प्याली भरकर रख दी है। और एक बात समझ लेना कि तुम जितना इस प्याली पर दूसरों को निमंत्रित करोगे, उतनी यह प्याली भरती चली जाएगी। तुम इसे खाली ही न करोगे, तो यह बोझ भी हो जाएगी, और परमात्मा भरे कैसे इसे? और कैसे भरे? यह भरी हुई रखी है। तुम इसे उलीचो, खाली करो। तुम पर बोझ भी न होगी और परमात्मा को और भरने का मौका दो। जिसने एक आनंद की घड़ी का उपयोग कर लिया उसके जीवन में दस आनंद की घड़ियां उपलब्ध हो जाती हैं। जो एक बार नाचा, दस बार नाचने की क्षमता उसे उपलब्ध हो जाती है।
लेकिन यह बड़ी कठिन बात है। तुम कहते जरूर हो आनंद चाहते हैं, लेकिन तुम्हें आनंद के स्वभाव का कुछ पता नहीं। तुम्हें आनंद भी मिल जाए तो तुम उससे भी दुख पाओगे। तुम ऐसे अभ्यासी हो गए हो दुख के। दुख का स्वभाव है सिकुड़ना, आनंद का स्वभाव है फैलना। इसलिए जब कोई दुख में होता है तो एकांत चाहता है। बंद कमरा करके पड़ा रहता है अपने बिस्तर पर सिर को ढांककर। न किसी से मिलना चाहता है, न किसी से जुलना चाहता है। चाहता है मर ही जाऊं। कभी-कभी आत्महत्या भी कर लेता है कोई। सिर्फ इसीलिए कि अब क्या मिलने को रहा?
लेकिन जब तुम आनंदित होते हो, तब तुम मित्रों को बुलाना चाहते हो। मित्रों से मिलना चाहते हो। तुम चाहते हो किसी से बांटो, किसी को तुम्हारा गीत सुनाओ, कोई तुम्हारे फूल की गंध से आनंदित हो। तुम किसी को भोज पर आमंत्रित करते हो। तुम मेहमानों को बुला आते हो, आमंत्रण दे आते हो।
मेरे एक प्रोफेसर थे। उनका मुझसे बड़ा लगाव था। लेकिन वे मुझे घर बुलाने में डरते थे, क्योंकि शराब पीने की उन्हें आदत थी। और कहीं ऐसा न हो कि मुझे पता चल जाए। कहीं ऐसा न हो कि मेरे मन में उनकी जो प्रतिष्ठा है, वह गिर जाए। वे इससे बड़े भयभीत थे, बड़े डरे हुए थे। बहुत भले आदमी थे।
पर एक बार ऐसा हुआ कि मैं बीमार पड़ा और उन्हें मुझे हास्टल से घर ले जाना पड़ा। तो कोई दो महीने मैं उनके घर पर था। बड़ी मुश्किल हो गई। वे पीएं कैसे? पांच-दस दिन के बाद तो भारी होने लगा मामला। मैंने उनसे पूछा कि आप कुछ परेशान हैं, मुझे कह ही दें--अगर आप ज्यादा परेशान हैं, या कोई अड़चन है मेरे होने से यहां, तो मैं चला जाऊं वापस। उन्होंने कहा कि नहीं। पर मैं अपनी परेशानी कहे देता हूं कि मुझे पीने की आदत है। तो मैंने कहा, यह भी कोई बात हुई! आप पी लेते, लुक-छिपकर पी लेते, इतना बड़ा बंगला है। उन्होंने कहा, यही तो मुश्किल है, कि जब भी कोई पीता है--असली पीने वाला--अकेले में नहीं पी सकता। चार-दस मित्रों को न बुलाऊं तो पी नहीं सकता। अकेले में भी क्या पीना! उन्होंने कहा, पीना कोई दुख थोड़े ही है, पीना एक उत्सव है।
वह बात मुझे याद रह गई। जब जीवन की साधारण मदिरा को भी लोग बांटकर पीते हैं, तो जब तुम्हारी प्याली में परमात्मा भर जाए, और तुम न बांटो! जब शराबी भी इतना जानते हैं कि अकेले पीने में कोई मजा नहीं, जब तक चार संगी-साथी न हों तो पीना क्या! जब शराबी भी इतने होशपूर्ण हैं कि चार को बांटकर पीते हैं, तो होश वालों का क्या कहना!
बांटो। शक्ति का आविर्भाव हुआ है, लुटाओ। और यह भी मत पूछो किसको दे रहे हो, क्योंकि यह भी कंजूसों की भाषा है। पात्र की चिंता वही करता है जो कंजूस है। वह पूछता है, किसको देना? पात्र है कि नहीं? दो पैसा देता है, तो सोचता है कि यह आदमी दो पैसे का क्या करेगा? यह भी कोई देना हुआ, अगर हिसाब पहले रखा कि यह क्या करेगा? यह तो देना न हुआ, यह तो इंतजाम पहले ही न देने का कर लिया। यह तो तुमने इस आदमी को न दिया, सोच-विचारकर दिया।
मेरे एक मित्र थे, बड़े हिंदी के साहित्यकार थे। हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष थे। और भारतीय संसद के सबसे पुराने सदस्य थे--पचास साल तक वे एम.पी. रहे। उनका जुगलकिशोर बिड़ला से बहुत निकट संबंध था। मेरे काम में उन्हें रस था। वे कहने लगे कि मेरा संबंध है बिड़ला से, अगर वे उत्सुक हो जाएं आपके काम में तो बड़ी सहायता मिल सकती है। तो हम दोनों को मिलाया।
बिड़ला मुझसे बातचीत किए। उत्सुक हुए। कहने लगे, जितना आपको चाहिए मैं दूंगा। और जिस समय चाहिए, तब दूंगा। सिर्फ एक बात मुझे पक्की हो जानी चाहिए कि जो मैं दूंगा, उसका उपयोग क्या होगा? मैंने कहा, बात ही खतम करो। यह अपने से न बनेगा, यह सौदा नहीं हो सकता। अगर यही पूछना है कि आप जो देंगे उसका मैं क्या करूंगा, अपने पास रखो। यह कोई देना हुआ? अगर बेशर्त देते हो, कि मैं तुम्हारे सामने ही यहां सड़क पर लुटाकर चला जाऊं, तो तुम मुझसे पूछ न सकोगे कि यह क्या किया? क्योंकि देने के बाद अगर तुम पूछ सको, तो तुमने दिया ही नहीं। और देने के पहले ही अगर तुम पूछने का इंतजाम कर लो, और पहले ही शर्त बांध लो, तो तुम किसी और को देना। यह शर्तबंद बात मुझसे न बनेगी।
वह बात टूट गई। आगे चलने का कोई उपाय न रहा। लोग देते भी हैं--अब बिड़ला जैसा धनपति भी हो, वह भी देता है तो शर्त रखकर देता है कि क्या काम में आएगा? किस काम में लगाएंगे? तो वह मुझे नहीं देता, अपने ही काम को देता है। उलटे मुझे भी सेवा में संलग्न कर रहा है। यह देना न हुआ, मुझे मुफ्त में खरीद लेना हुआ।
मैंने कहा, मुझे देख लो, मुझे समझ लो, मुझे दो। फिर शेष मुझ पर छोड़ दो। फिर मैं जो करूंगा करूंगा। उसके संबंध में कोई बात फिर न उठेगी।
पात्र अपात्र की क्या चिंता करनी? फूल खिलता है तो इसकी थोड़े ही फिकर करता है कि कोई पास से आ रहा है वह सुगंध का ज्ञाता है, कि अमीर है या गरीब है, कि सौंदर्य का उपासक है या नहीं। फूल इसकी थोड़े ही फिकर करता है। फूल खिलता है तो सुगंध को लुटा देता है हवाओं में। राह से कोई न भी गुजरता हो, निर्जन हो राह, तो भी लुटा देता है। जब बादल भरते हैं तो इसकी थोड़े ही फिकर करते हैं, कहां बरस रहे हैं! भराव से बरसते हैं। इतना ज्यादा है कि बरसना ही पड़ेगा। तो पहाड़ पर भी बरस जाते हैं, जहां पानी की कोई जरूरत नहीं। झीलों पर भी बरसते हैं, जहां पानी भरा ही हुआ है। यह थोड़े ही सवाल है कि कहां बरसना? बरसना।
अगर तुम जीवन को देखोगे तो बेशर्त पाओगे। वहां उत्सव बेशर्त है। वहां नाच अहर्निश चल रहा है। किसी के लिए चल रहा है, ऐसा भी नहीं है। ज्यादा है। परमात्मा इतना अतिशय है, इतना अतिरेक से है कि क्या करे अगर न लुटे, न बरसे?
जब तुम्हारे जीवन में शक्ति का आविर्भाव मालूम हो, जब तुम्हें लगे कि बादल भर गया--मेघ भरपूर है, जब तुम्हें लगे कि शक्ति तुम्हारे भीतर उठी है, तो समस्या बनेगी। नाचना, गाना। पागल की तरह उत्सव मनाना। शक्ति विलीन हो जाएगी। और ऐसा नहीं है कि तुम पीछे शक्तिहीन हो जाओगे। शक्ति को बांटकर ही कोई वस्तुतः शक्तिशाली होता है। क्योंकि तब उसे पता चलता है, झरने अनंत हैं। जितना बांटो उतना बढ़ता जाता है।
मोहतसिब तस्बीह के दानों पे ये गिनता रहा
ध्यान रखना, रसाध्यक्ष बैठा है। माला फेर रहा है। वह माला के दानों पर गिन रहा है--
किनने पी किनने न पी किन-किन के आगे जाम था
और एक ही पाप है जीवन में, और वह पाप है बिना उत्सव के विदा हो जाना। बिना नाचे, बिना गीत गाए विदा हो जाना। तुम्हारा गीत अगर अनगाया रह गया, तुम्हारा बीज अगर अनफूटा रह गया, तुम जो लेकर आए थे वह गंध कभी दसों दिशाओं में न फैली, तो परमात्मा तुमसे जरूर पूछेगा।
इसलिए जब शक्ति उठती है, तो सवाल उठता है कि अब क्या करें? हिसाब मत लगाओ। बेहिसाब लुटाओ। सभी पात्र हैं, क्योंकि सभी पात्रों में वही छिपा है। हर आंख से वही देखेगा नाच, और हर कान से वही सुनेगा गीत। हर नासारंध्र से सुवास उसी को मिलेगी।
एक बौद्ध साध्वी थी। उसके पास सोने की छोटी सी बुद्ध की प्रतिमा थी। स्वर्ण की। वह इतना उसे प्रेम करती थी, और जैसे कि साधारणतः कृपण मन होता है कि वह अपनी धूप भी जलाती तो हवाओं में यहां-वहां न फैलने देती, उसे वापस धक्के दे-देकर अपने छोटे से बुद्ध को ही पहुंचा देती। फूल भी चढ़ाती तो भी डरी रहती कि गंध कहीं यहां-वहां न उड़ जाए।
फिर एक बड़ी मुसीबत हुई एक रात। वह एक मंदिर में ठहरी। चीन में एक बहुत प्राचीन मंदिर है, हजार बुद्धों का मंदिर है। वहां हजार बुद्ध की प्रतिमाएं हैं। वह डरी। और सभी प्रतिमाएं बुद्ध की हैं, तो भी डर! वह डरी, कि यहां अगर मैंने धूप जलाई, अगरबत्तियां जलायीं, फूल चढ़ाए, तो यह धुआं तो कोई मेरे बुद्ध पर नहीं रुका रहेगा। यहां-वहां जाएगा। दूसरे बुद्धों पर पहुंचेगा। बुद्ध भी दूसरे! जिनकी प्रतिमा वह रखे है उन्हीं की प्रतिमाएं वे भी हैं। तालाब हैं, सरोवर हैं, सागर हैं, लेकिन चांद का प्रतिबिंब अलग कितना ही हो, एक ही चांद का है। तो उसने एक बांस की पोंगरी बना ली, और धूप जलाई और बांस की पोंगरी में से धूप को अपने बुद्ध की नाक तक पहुंचाया। सोने की बुद्ध की प्रतिमा का मुंह काला हो गया।
वह बड़ी दुखी हुई। वह सुबह मंदिर के प्रधान भिक्षु के पास गई और उसने कहा कि बड़ी मुश्किल हो गई। इसे कैसे साफ करूं? वह प्रधान हंसने लगा। उसने कहा, पागल! तेरे सत्संग में तेरे बुद्ध का चेहरा तक काला हो गया।
गलत साथ करो, यह मुसीबत होती है। इतनी भी क्या कृपणता! ये सभी प्रतिमाएं उन्हीं की हैं। इतनी भी क्या कंजूसी! अगर थोड़ा धुआं दूसरों के पास भी पहुंच गया होता, तो कुछ हर्ज हुआ जाता था? लेकिन मेरे बुद्ध!
ये सभी प्रतिमाएं बुद्धों की ही हैं। हर आंख से वही झांका है। हर पत्थर में वही सोया है। तुम इसकी फिकर ही मत करो। तुम्हारे जीवन में आनंद भरे--प्रेम दो, गीत दो, संगीत दो, नाचो; बांटो। इसी की तो प्रतीक्षा रही है कि कब वह क्षण आएगा जब हम बांट सकेंगे। अब पात्र-अपात्र का भी भेद छोड़ो। वे सब नासमझी के भेद हैं।
इसलिए शक्ति के संबंध में कुछ बोलता नहीं हूं। क्योंकि जो मैं बोल रहा हूं अगर समझ में आया, तो शक्ति कभी समस्या न बनेगी। इसलिए भी शक्ति के संबंध में नहीं बोलता हूं, क्योंकि वह शब्द जरा खतरनाक है। शांति के संबंध में बोलता हूं, शक्ति के संबंध में नहीं बोलता। क्योंकि शक्ति अहंकार की आकांक्षा है। शक्ति शब्द सुनकर ही तुम्हारे भीतर अहंकार अंगड़ाई लेने लगता है। अहंकार कहता है, ठीक, शक्ति तो चाहिए। इसीलिए तो तुम धन मांगते हो, ताकि धन से शक्ति मिलेगी। पद मांगते हो, क्योंकि पद पर रहोगे तो शक्तिशाली रहोगे। यश मांगते हो, पुण्य मांगते हो, लेकिन सबके पीछे शक्ति मांगते हो। योग और तंत्र में भी खोजते हो, शक्ति ही खोजते हो।
शक्ति की पूजा तो संसार में चल ही रही है। इसलिए मैं शक्ति की बात नहीं करता, क्योंकि धर्म के नाम पर भी अगर तुम शक्ति की ही खोज करोगे, तो वह अहंकार की ही खोज रहेगी। और जब तक अहंकार है तब तक शक्ति उपलब्ध नहीं होती। ऐसा सनातन नियम है। एस धम्मो सनंतनो।
जब तुम शक्ति की चिंता ही छोड़ देते हो और शांति की तलाश करते हो, शांति की तलाश में अहंकार को विसर्जित करना होगा, क्योंकि वही तो अशांति का स्रोत है। और जब अहंकार विसर्जित हो जाता है, द्वार से पत्थर हट जाता है। शांति तो मिलती है। शांति तो मूलधन है और शक्ति तो ब्याज की तरह उपलब्ध हो जाती है। शांति को खोजो, शक्ति अपने से मिल जाती है। शक्ति को खोजो, शक्ति तो मिलेगी ही नहीं, शांति भी खो जाएगी।
इसलिए शक्ति का खोजी हमेशा अशांत होगा, परेशान होगा। वह अहंकार की ही दौड़ है। नाम बदल गए, वेश बदल गया, दौड़ वही है। कौन चाहता है शक्ति? वह अहंकार। चाहता है कोई चमत्कार मिल जाए, रिद्धि-सिद्धि, शक्ति मिल जाए, तो दुनिया को दिखा दूं कि मैं कौन हूं।
इसलिए जहां तुम शक्ति की खोज करते हो, जान लेना कि वह धर्म की दिशा नहीं है, अधर्म की दिशा है। तुम्हारे चमत्कारी, तुम्हारे रिद्धि-सिद्धि वाले लोग, सब तुम्हारे ही बाजार के हिस्से हैं। उनसे धर्म का कोई लेना-देना नहीं। वे तुम्हें प्रभावित करते हैं, क्योंकि जो तुम्हारी आकांक्षा है, लगता है उन्हें उपलब्ध हो गया। जो तुम चाहते थे कि हाथ से ताबीज निकल जाएं, घड़ियां निकल जाएं, उनके हाथ से निकल रही हैं। तुम चमत्कृत होते हो, कि धन्य है! उनके पीछे चल पड़ते हो कि जो इनको मिल गया है, किसी न किसी दिन इनकी कृपा से हमको भी मिल जाएगा।
लेकिन घड़ियां निकाल भी लोगे तो क्या निकाला? जहां परमात्मा निकल सकता था वहां स्विस घड़ियां निकाल रहे हो। जहां शाश्वत का आनंद निकल सकता था वहां राख निकाल रहे हो। चाहे विभूति कहो उसको, क्या फर्क पड़ता है। जहां परमात्मा की विभूति उपलब्ध हो सकती थी, वहां राख नाम की विभूति निकाल रहे हो। मदारीगिरी है। अहंकार की मदारीगिरी है। लेकिन अहंकार की वही आकांक्षा है।
शक्ति की मैं बात नहीं करता, क्योंकि तुम तत्क्षण उत्सुक हो जाओगे उसमें कि कैसे शक्ति मिले, बताएं। उसमें अहंकार तो मिटता नहीं, अहंकार और भरता हुआ मालूम पड़ता है। तो मैं तुम्हें मिटाता नहीं फिर, मैं तुम्हें सजाने लगता हूं।
यही तो अड़चन है मेरे साथ। मैं तुम्हें सजाने को उत्सुक नहीं हूं, तुम्हें मिटाने को उत्सुक हूं। क्योंकि तुम जब तक न मरो, तब तक परमात्मा तुममें आविर्भूत नहीं हो सकता। तुम जगह खाली करो। तुम सिंहासन पर बैठे हो। तुम जगह से हटो, सिंहासन रिक्त हो, तो ही उसका अवतरण हो सकता है। जैसे ही तुम शांत होओगे, अहंकार सिंहासन से उतरेगा, तुम पाओगे शक्ति उतरनी शुरू हो गई। और यह शक्ति बात ही और है, जो शांत चित्त में उतरती है! क्योंकि अब अहंकार रहा नहीं जो इसका दुरुपयोग कर लेगा। अब वहां कोई दुरुपयोग करने वाला न बचा।
इसलिए जानकर ही उन शब्दों का उपयोग नहीं करता हूं जिनसे तुम्हारे अहंकार को थोड़ी सी भी खुजलाहट हो सकती है। तुम तो तैयार ही बैठे हो खुजाने को। जरा सा इशारा मिल जाए कि तुम खुजा डालोगे। तुम तो खाज के पुराने शिकार हो। तुम्हें जरा से इशारे की जरूरत है कि तुम्हारी आकांक्षा के घोड़े दौड़ पड़ेंगे। तुम सब लगामें छोड़ दोगे।
नहीं, मैं शांति की बात करता हूं। मैं मृत्यु की बात करता हूं, निर्वाण की बात करता हूं, शून्य होने की बात करता हूं, क्योंकि मुझे पता है कि तुम जब शून्य होओगे तो पूर्ण तो अपने आप चला आता है। उसको चर्चा के बाहर छोड़ो। चर्चा से नहीं आता, शून्य होने से आता है।
शक्ति की बात ही मत करो। वह तो शांत होते मिल ही जाती है। वह तो शांत हुए आदमी का अधिकार है।
जब मिल जाए, तो तुम क्या करोगे! इसलिए मैं आनंद, उत्सव और प्रेम की बात करता हूं। तुम जैसे हो, अभी प्रेम कर ही नहीं सकते। अभी तो तुम्हारा प्रेम धोखा है। तुम जैसे हो, आनंदित हो ही नहीं सकते। अभी तो आनंद केवल मुंह पर पोता गया झूठा रंग-रोगन है। अभी तुम जैसे हो, हंस ही नहीं सकते। अभी तुम्हारी हंसी ऊपर से चिपकाई गई है, मुखौटा है।
किसी ने पूछा है--

दूसरा प्रश्न:
भगवान, कल आपने कहा कि दूसरा कभी किसी को खुश नहीं कर सकता है। मगर प्रेमी के साथ प्रेम में डूब जाने में जो सुख, आनंद और अहोभाव अनुभव होता है, वह क्या है?
हो नहीं सकता। जल्दी मत कर लेना निर्णय की। जरा बड़े-बूढ़ों से पूछना।
यह मुक्ति ने पूछा है। अभी प्रेम के मकान के बाहर ही चक्कर लगा रही है। जरा बड़े-बूढ़ों से पूछना, वे कहते हैं--
जब तक मिले न थे जुदाई का था मलाल
अब ये मलाल है कि तमन्ना निकल गई
जब तक मिले न थे, तब तक दूर होने की पीड़ा थी। अब जब मिल गए, तो पास होने की आकांक्षा भी निकल गई। अब यह दुख है कि अब कैसे हटें, कैसे भागें?
जल्दी मत करना। अभी जिसको तुम प्रेम, आनंद, अहोभाव कह रहे हो वह सब शब्द हैं सुने हुए। अभी प्रेम जाना कहां? क्योंकि तुम जैसे हो उसमें प्रेम फलित ही नहीं हो सकता। प्रेम कोई ऐसा थोड़े ही है कि तुम कैसे ही हो और फलित हो जाओ। प्रेम जन्म के साथ थोड़े ही मिलता है। अर्जन है। उपलब्धि है। साधना है। सिद्धि है।
यही तो परेशानी है। सारी दुनिया में हर आदमी यही सोच रहा है कि जन्म के साथ ही हम प्रेम करने की योग्यता लेकर आए हैं। धन कमाने की तुम थोड़ी बहुत कोशिश भी करते हो, लेकिन प्रेम कमाने की तो कोई भी कोशिश नहीं करता। क्योंकि हर एक माने बैठा है कि प्रेम तो है ही। बस प्रेमी मिल जाए, काम शुरू। जिसको तुम प्रेमी कहते हो, उसे भी प्रेम का कोई पता नहीं है। दूर की ध्वनि भी नहीं सुनी है। न तुम्हें पता है।
जिसको तुम प्रेम समझ रहे हो वह सिर्फ मन की वासना है। जिसको तुम प्रेम समझ रहे हो--दूसरे के साथ होने का आनंद--वह केवल अपने साथ तुम्हें कोई आनंद नहीं मिलता, अपने साथ तुम परेशान हो जाते हो, अपने साथ ऊब और बोरियत पैदा होती है, दूसरे के साथ थोड़ी देर को अपने को भूल जाते हो, उसी को तुम दूसरे के साथ मिला आनंद कह रहे हो। दूसरे के साथ तुम्हारा जो होना है, वह अपने साथ न होने का उपाय है। वह एक नशा है, इससे ज्यादा नहीं। उतनी देर को तुम अपने को भूल जाते हो, दूसरा भी अपने को भूल जाता है। यह आत्म-विस्मरण है, आनंद नहीं। मूर्च्छा है, अहोभाव इत्यादि कुछ भी नहीं है। मेरी बातें सुन-सुन कर तुम्हें अच्छे-अच्छे शब्द कंठस्थ हो जाएंगे। इनको तुम हर कहीं मत लगाने लगना।
‘कल आपने कहा कि कोई दूसरा कभी किसी को खुश नहीं कर सकता।’
निश्चित मैंने कहा है। और कोई कभी नहीं कर सका है। लेकिन किसी भी युवा को समझाना मुश्किल है। क्योंकि जो युवक समझता है, वह तो समय के पहले प्रौढ़ हो गया। कभी कोई शंकराचार्य, कभी कोई बुद्ध समय के पहले समझ पाते हैं। अधिक लोग तो समय भी बीत जाता है--जवानी भी बीत जाती है, बुढ़ापा भी बीतने लगता है, मौत द्वार पर आ जाती है--तब तक भी नहीं समझ पाते।
समझ का संबंध तुम्हारे जीवन की होश की तीव्रता से है। अभी जिसको तुम सोचते हो कि प्रेमी के साथ प्रेम में डूब जाने में--अभी तुम अपने में नहीं डूबे, दूसरे में कैसे डूबोगे! जो अपने में नहीं डूब सका, वह दूसरे में कैसे डूब सकेगा! अभी तुम अपने भीतर ही जाना नहीं जानते, दूसरे के भीतर क्या खाक जाओगे। बातचीत है। अच्छे-अच्छे शब्द हैं। सभी जवान अच्छे-अच्छे शब्दों में अपने को झुठलाते हैं, भुलाते हैं। जवानी में अगर किसी से कहो कि यह प्रेम वगैरह कुछ भी नहीं है, तो न तो यह सुनाई पड़ती है बात--सुनाई भी पड़ जाए तो समझ में नहीं आती--क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को एक भ्रांति है कि दूसरे को न हुआ होगा, लेकिन मुझे तो होगा, हो रहा है।
अभी यात्रा का पहला ही कदम है। जरा बात पूरी हो जाने दो। जरा ठहरो, जल्दी निर्णय मत करो। जिन्होंने जाना है जीवन का यह दौर, जो इससे गुजरे हैं, उनसे पूछो।
सुलगती आग दहकता खयाल तपता बदन
कहां पर छोड़ गया कारवां बहारों का
वह जिसको वसंत समझा था, बहार समझी थी, वह कहां छोड़ गई?
सुलगती आग दहकता खयाल तपता बदन
एक रुग्ण दशा। एक बुखार। सब धूल-धूल। सब इंद्रधनुष टूटे हुए। सब सपनों के भवन गिर गए। और एक सुलगती आग, कि जीवन हाथ से व्यर्थ ही गया। लेकिन जब तुम सपनों में खोए हो, तब बड़ा मुश्किल है यह बताना कि यह सपना है। उसके लिए जागना जरूरी है।
प्रेम अर्जित किया जाता है। और जिसने प्रार्थना नहीं की, वह कभी प्रेम नहीं कर पाया। इसलिए प्रार्थना को मैं प्रेम की पहली शर्त बनाता हूं। जिसने ध्यान नहीं किया, वह कभी प्रेम नहीं कर पाता। क्योंकि जो अपने में नहीं गया, वह दूसरे में तो जा ही नहीं सकता। और जो अपने में गया, वह दूसरे में पहुंच ही गया। क्योंकि अपने में जाकर पता चलता है, दूसरा है ही नहीं। दूसरे का खयाल ही अज्ञान का खयाल है।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन अपने एक मित्र के साथ बैठा था। और उसने अपने बेटे को कहा कि जा और तलघरे से शराब की बोतल ले आ। वह बेटा गया, वह वापस लौटकर आया। उस बेटे को थोड़ा कम दिखाई पड़ता है। और उसकी आंखों में एक तरह की बीमारी है कि एक चीज दो दिखाई पड़ती है। उसने लौटकर कहा कि दोनों बोतल ले आऊं या एक लाऊं?
नसरुद्दीन थोड़ा परेशान हुआ, क्योंकि बोतल तो एक ही है। अब अगर मेहमान के सामने कहे एक ही ले आओ, तो मेहमान कहेगा यह भी क्या कंजूसी! अगर कहे दो ही ले आओ, तो यह दो लाएगा कहां से? वहां एक ही है। और मेहमान के सामने अगर यह कहे कि इस बेटे को एक चीज दो दिखाई पड़ती है तो नाहक की बदनामी होगी। फिर इसकी शादी भी करनी है। तो उसने कहा, ऐसा कर, एक तू ले आ और एक को फोड़ आ--बाएं तरफ की फोड़ देना, दाएं तरफ की ले आना, क्योंकि बाएं तरफ की बेकार है। ऐसा उसने रास्ता निकाला।
बेटा गया। उसने बाएं तरफ की फोड़ दी, लेकिन दाएं तरफ कुछ था थोड़े ही! एक ही बोतल थी, वह फूट गई। बाएं तरफ और दाएं तरफ ऐसी कोई दो बोतलें थोड़े ही थीं। बोतल एक ही थी। दो दिखाई पड़ती थीं। वह बोतल फूट गई, शराब बह गई, वह बड़ा परेशान हुआ। उसने लौटकर कहा कि बड़ी भूल हो गई, वह बोतल एक ही थी, वह तो फूट गई।
मैं तुमसे कहता हूं, जहां तुम्हें दो दिखाई पड़ रहे हैं, वहां एक ही है। तुम्हें दो दिखाई पड़ रहे हैं, क्योंकि तुमने अभी एक को देखने की कला नहीं सीखी। प्रेम है एक को देखने की कला। लेकिन उस कला में उतरना हो तो पहले अपने ही भीतर की सीढ़ियों पर उतरना होगा। क्योंकि वही तुम्हारे निकट है।
भीतर जाओ, अपने को जानो। आत्मज्ञान से ही तुम्हें पता चलेगा मैं और तू झूठी बोतलें थे, जो दिखाई पड़ रहे थे। नजर साफ न थी, अंधेरा था, धुंधलका था, बीमारी थी--एक के दो दिखाई पड़ रहे थे। भ्रम था। भीतर उतरकर तुम पाओगे, जिसको तुमने अब तक दूसरा जाना था वह भी तुम्हीं हो। दूसरे को जब तुम छूते हो, तब तुम अपने ही कान को जरा हाथ घुमाकर छूते हो, बस। वह तुम्हीं हो। जरा चक्कर लगाकर छूते हो। जिस दिन यह दिखाई पड़ेगा, उस दिन प्रेम। उसके पहले जिसे तुम प्रेम कहते हो, कृपा करके उसे प्रेम मत कहो।
प्रेम शब्द बड़ा बहुमूल्य है। उसे खराब मत करो। प्रेम शब्द बड़ा पवित्र है। उसे अज्ञान का हिस्सा मत बनाओ। उसे अंधकार से मत भरो। प्रेम शब्द बड़ा रोशन है। वह अंधेरे में जलती एक शमा है। प्रेम शब्द एक मंदिर है। जब तक तुम्हें मंदिर में जाना न आ जाए तब तक हर किसी जगह को मंदिर मत कहना। क्योंकि अगर हर किसी जगह को मंदिर कहा, तो धीरे-धीरे मंदिर को तुम पहचानना ही भूल जाओगे। और तब मंदिर को भी तुम हर कोई जगह समझ लोगे।
जिसे तुम अभी प्रेम कहते वह केवल कामवासना है। उसमें तुम्हारा कुछ भी नहीं है। शरीर के हारमोन काम कर रहे हैं, तुम्हारा कुछ भी नहीं है। स्त्री के शरीर से कुछ हारमोन निकाल लो, पुरुष की इच्छा समाप्त हो जाती है। पुरुष के शरीर से कुछ हारमोन निकाल लो, स्त्री की आकांक्षा समाप्त हो जाती है। तुम्हारा इसमें क्या लेना-देना है? केमिस्ट्री है। थोड़ा रसायनशास्त्र है। अगर ज्यादा हारमोन डाल दिए जाएं पुरुष के शरीर में, तो वह दीवाना हो जाता है, पागल हो जाता है एकदम। मजनू के शरीर में थोड़े ज्यादा हारमोन रहे होंगे, और कुछ मामला नहीं है। जिसको तुम प्रेम की दीवानगी कहते हो, वह रसायनशास्त्र से ठीक की जा सकती है। और जिसको तुम प्रेम की सुस्ती कहते हो, वह इंजेक्शन से बढ़ाई जा सकती है और तुममें त्वरा आ सकती है और तुम पागल हो सकते हो।
इसे तुम प्रेम मत कहना, यह सिर्फ कामवासना है। और इसमें तुम जो प्रेम, और अहोभाव, और आनंद की बातें कर रहे हो, जरा होश से करना, नहीं तो इन्हीं बातों के कारण बहुत दुख पाओगे। क्योंकि जब कोई स्वर भीतर से आता न मालूम पड़ेगा अहोभाव का, तो फिर बड़ा फ्रस्ट्रेशन, बड़ा विषाद होता है। वह विषाद कामवासना के कारण नहीं होता, वह तुम्हारी जो अपेक्षा थी उसी के कारण होता है, कामवासना का क्या कसूर है? हाथ में एक पैसा लिए बैठे थे और रुपया समझा था, जब हाथ खोला, और मुट्ठी खोली तो पाया कि पैसा है। तो पैसा थोड़े ही तुम्हें कष्ट दे रहा है। पैसा तो तब भी पैसा था। पहले भी पैसा था, अब भी पैसा है, पैसा पैसा है। तुमने रुपया समझा था, तो तुम पीड़ित होते हो, तुम दुखी होते हो, तुम रोते-चिल्लाते हो कि यह धोखा हो गया।
तुमने जिसे प्रेम समझा है वह पैसा भी नहीं है, कंकड़-पत्थर है। जिस प्रेम की मैं बात कर रहा हूं वह किसी और ही दूसरे जगत का हीरा है। उसके लिए तुम्हें तैयार होना होगा। तुम जैसे हो वैसे ही वह नहीं घटेगा। तुम्हें अपने को बड़ा परिष्कार करना होगा। तुम्हें अपने को बड़ा साधना होगा। तब कहीं वह स्वर तुम्हारे भीतर पैदा हो सकता है।
लेकिन प्रत्येक व्यक्ति को जिंदगी में एक नशे का दौर होता है। कामवासना का दौर होता है। तब काम ही राम मालूम पड़ता है। जिस दिन यह बोध बदलता है और काम काम दिखाई पड़ता है, उसी दिन तुम्हारी जिंदगी में पहली दफे राम की खोज शुरू होती है।
तो धन्यभागी हैं वे, जिन्होंने जान लिया कि यह प्रेम व्यर्थ है। धन्यभागी हैं वे, जिन्होंने जान लिया कि यह अहोभाव केवल मन की आकांक्षा थी, कहीं है नहीं। कहीं बाहर नहीं था, सपना था देखा। जिनके सपने टूट गए, आशाएं टूट गयीं, धन्यभागी हैं वे। क्योंकि उनके जीवन में एक नई खोज शुरू होती है। उस खोज के मार्ग पर ही कभी तुम्हें प्रेम मिलेगा। प्रेम परमात्मा का ही दूसरा नाम है। इससे कम प्रेम की परिभाषा नहीं।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, क्या प्रयास व साधना विधि है और तथाता मंजिल है? या तथाता ही विधि और मंजिल दोनों है?
इतने हिसाब में क्यों पड़ते हो? यह हिसाब कहां ले जाएगा? हिसाब ही करते रहोगे या चलोगे भी? क्या मंजिल है, क्या मार्ग है, इसको सोचते ही रहोगे?
तो एक बात पक्की है, कितना ही सोचो, सोचने से कोई मार्ग तय नहीं होता, और न सोचने से कोई मंजिल करीब आती है। सोचने-विचारने वाला धीरे-धीरे चलने में असमर्थ ही हो जाता है। चलना तो चलने से आता है, होना होने से आता है।
नामों की चिंता में बहुत मत पड़ो। दोनों बातें कही जा सकती हैं। प्रेम ही मार्ग है, प्रेम ही मंजिल है। यह भी कहा जा सकता है कि प्रेम मार्ग है, परमात्मा मंजिल है। पर कोई फर्क नहीं है इन बातों में। जिस तरह से तुम्हारा मन चलने को राजी हो उसी तरह मान लो। क्योंकि मेरी फिकर इतनी है कि तुम चलो। तुम्हें अगर इसमें ही सकून मिलता है, शांति मिलती है कि प्रेम मार्ग, परमात्मा मंजिल है; योग मार्ग, मोक्ष मंजिल है; प्रयास, विधि मार्ग, तथाता मंजिल है; ऐसा समझ लो, कोई अड़चन नहीं है। मगर कृपा करके चलो।
जो तर्कनिष्ठ हैं, उन्हें यही मानना उचित होगा। क्योंकि तर्क कहता है, मंजिल और मार्ग अलग-अलग। जो तर्क की बहुत चिंता नहीं करते, और जो जीवन को बिना तर्क के देखने में समर्थ हैं--वैसी सामर्थ्य बहुत कम लोगों में होती है--लेकिन अगर हो तो उनको दिखाई पड़ेगा कि मार्ग और मंजिल एक ही हैं। क्योंकि मार्ग तभी पहुंचा सकता है मंजिल तक जब मंजिल से जुड़ा हो। नहीं तो पहुंचाएगा कैसे? अगर अलग-अलग हों तो पहुंचाएगा कैसे? तब तो दोनों के बीच फासला होगा। छलांग न लग सकेगी। दूरी होगी।
वही मार्ग पहुंचा सकता है जो मंजिल से जुड़ा हो। और अगर जुड़ा ही है तो फिर क्या फर्क करना। कहां तय करोगे कि कहां मार्ग समाप्त हुआ, कहां मंजिल शुरू हुई?
इसलिए महावीर का बड़ा अदभुत वचन है कि जो चल पड़ा वह पहुंच ही गया। जरूरी नहीं है। तुम जैसे चलने वाले हों तो बीच में ही बैठ जाएंगे कि लो, महावीर को गलत सिद्ध किए देते हैं। लेकिन महावीर के कहने में बड़ा सार है--जो चल पड़ा वह पहुंच ही गया। क्योंकि जब तुम चले, पहला कदम भी उठाया, तो पहला कदम भी तो मंजिल को ही छू रहा है। कितनी ही दूर हो, लेकिन एक कदम कम हो गई, पास आ गई।
लाओत्सू ने कहा है, एक-एक कदम चलकर हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। तो ऐसा थोड़े ही है कि यात्रा तभी पूरी होती है जब पूरी होती है। जब तुम चले तब भी पूरी होनी शुरू हो जाती है। इंच-इंच चलते हो, कदम-कदम चलते हो, बूंद-बूंद चलते हो। सागर चुक जाता है एक-एक बूंद से।
तुम्हारे ऊपर निर्भर है। अगर बहुत तर्कनिष्ठ मन है और तुम ऐसा मानना चाहो कि मार्ग अलग, मंजिल अलग, ऐसा मान लो। अगर दृष्टि और साफ-सुथरी है, तर्क के ऊपर देख सकते हो और विरोधाभास से कोई अड़चन नहीं आती, तो मार्ग ही मंजिल है, ऐसा मान लो। दोनों बातें सही हैं। क्योंकि दोनों बातें एक ही सत्य को देखने के दो ढंग हैं।
मार्ग अलग है मंजिल से, क्योंकि मार्ग पहुंचाएगा और मंजिल वह है जब तुम पहुंच गए। मार्ग वह है जब तुम चलोगे, मंजिल वह है जब तुम पहुंच गए और चलने की कोई जरूरत न रही--अलग-अलग हैं। दोनों एक भी हैं। क्योंकि पहला कदम पड़ा कि मंजिल पास आने लगी। मार्ग छुआ नहीं कि मंजिल भी छू ली--कितनी ही दूर सही! किरण को जब तुम छूते हो, सूरज को भी छू लिया, क्योंकि किरण सूरज का ही फैला हुआ हाथ है। तुमने मेरे हाथ को छुआ तो मुझे छुआ या नहीं? हाथ मेरा दो फीट लंबा है कि दो हजार फीट लंबा है, इससे क्या फर्क पड़ता है? कि दस करोड़ मील लंबा है, इससे क्या फर्क पड़ता है? किरण सूरज का हाथ है। किरण को छू लिया, सूरज को छू लिया। यात्रा शुरू हो गई।
एक बात पर ही मेरा जोर है कि तुम बैठे मत रहो। क्योंकि विचार करने की एक हानि है कि विचारक सिर पर हाथ लगाकर बैठ जाता है, सोचने लगता है। कुछ करो। करने से रास्ता तय होगा, चलने से।
कई बार मैं देखता हूं, बहुत लोगों को, वे विचार ही करते रहते हैं। समय खोता जाता है। कभी-कभी बूढ़े लोग मेरे पास आ जाते हैं, वे अभी भी विचार कर रहे हैं कि ईश्वर ने दुनिया बनाई या नहीं! तुम अब कब तक यह विचार करते रहोगे? बनाई हो तो, न बनाई हो तो। जीवन को जानने के लिए कुछ करो। ईश्वर हो तो, न हो तो। तुम होने के लिए--स्वयं होने के लिए--कुछ करो। ये सारी चिंताएं, ये सारी समस्याएं अर्थहीन हैं। कितनी ही सार्थक मालूम पड़ें, सार्थक नहीं हैं। और कितनी ही बुद्धिमानीपूर्ण मालूम पड़ें, बुद्धिमानीपूर्ण नहीं हैं।
बेखुदी में हम तो तेरा दर समझकर झुक गए
अब खुदा मालूम वह काबा था या बुतखाना था
वह मंदिर था या मस्जिद थी, यह परमात्मा पर ही छोड़ देते हैं। हम तो झुक गए।
बेखुदी में हम तो तेरा दर समझकर झुक गए
हमने तो अपनी विनम्रता में, अपने निरअहंकार में सिर झुका दिया।
अब खुदा मालूम वह काबा था या बुतखाना था
अब यह खुदा सोच ले कि मस्जिद थी, कि मंदिर था, कि काशी थी, कि काबा था। यह चिंता साधक की नहीं है, यह चिंता पंडित की है कि कहां झुके?
जरा फर्क समझना, बारीक है और नाजुक है। समझ में आ जाए तो बड़ा क्रांतिकारी है।
पंडित पूछता है, कहां झुके? साधक पूछता है, झुके? पंडित का जोर है, कहां? पंडित पूछता है, किस चीज के सामने झुके? काबा था कि काशी? कौन था जिसके सामने झुके? साधक पूछता है, झुके? साधक की चिंता यही है, झुकाव आया? नम्रता आई? झुकने की कला आई? इससे क्या फर्क पड़ता है कहां झुके! झुक गए। जो झुक गया उसने पा लिया। इससे कोई भी संबंध नहीं कि वह कहां झुका। मस्जिद में झुका तो पा लिया, मंदिर में झुका तो पा लिया। झुकने से पाया। मंदिर से नहीं पाया, मस्जिद से नहीं पाया। मंदिर-मस्जिदों से कहीं कोई पाता है! झुकने से पाता है।
और जो सोचकर झुका कि कहां झुक रहा हूं, वह झुका ही नहीं। कहीं कोई सोचकर झुका है! सोच-विचार करके तो कोई झुकता ही नहीं, झुकने से बचता है। अगर तुम बिलकुल निर्णय करके झुके कि हां, यह परमात्मा है, अब झुकना है--सब तरह से तय कर लिया कि यह परमात्मा है, फिर झुके--तो तुम झुके नहीं। क्योंकि तुम्हारा निर्णय और तुम्हारा झुकना। तुम अपने ही निर्णय के सामने झुके। तुम परमात्मा के सामने न झुके, तुम अपने निर्णय के सामने झुके।
साधक झुकता है। झुकने का अर्थ है, निर्णय छोड़ता है। साधक कहता है, मैं कौन हूं, मैं कैसे जान पाऊंगा, मेरी हैसियत क्या? मेरी सामर्थ्य क्या? साधक कहता है कि मैं कुछ हूं नहीं। इस न होने के बोध में से झुकने का फूल खिलता है। इस न होने में से समर्पण आता है। इस न होने में से झुकना आ जाता है। ऐसा कहना ठीक नहीं कि साधक झुकता है। ऐसा कहना ज्यादा ठीक है कि साधक पाता है कि झुकना हो रहा है। देखता है तो पाता है, अकड़ की कोई जगह तो नहीं, कोई सुविधा नहीं, अकड़ का कोई उपाय नहीं। अकड़ का उपाय नहीं पाता, इसलिए झुकना घटने लगता है। तुम अगर झुकते भी हो, तो तुम्हीं झुकते हो। तुम्हीं झुके तो क्या खाक झुके। अगर झुकने में भी तुम रहे, तो झुकना न हुआ।
बेखुदी में हम तो तेरा दर समझकर झुक गए
अब खुदा मालूम वह काबा था या बुतखाना था
मार्ग और मंजिल एक हैं कि अलग-अलग, खुदा मालूम। तुम चलो। और जिस बहाने से चल सको उसी बहाने को मान लो। सब बहाने बराबर हैं। इसीलिए तो मैं सभी धर्मों की चर्चा करता हूं। कोई धर्म किसी से कम-ज्यादा नहीं है। सब बहाने हैं। खूंटियां हैं मकान में, किसी पर भी टांग दो अपने कपड़े। कृपा करो, टांगो। खूंटियों का बहुत हिसाब मत रखो कि लाल पर टांगेंगे, कि हरी पर टांगेंगे। हरी होगी इस्लाम की खूंटी, लाल होगी हिंदुओं की खूंटी। तुम टांगो। क्योंकि धार्मिक को टांगने से मतलब है, खूंटियों से मतलब नहीं।
अब खुदा मालूम वो काबा था या बुतखाना था
ये तुम परमात्मा पर छोड़ दो। ये सब बड़े हिसाब उसी पर छोड़ दो। तुम तो एक छोटा सा काम कर लो, तुम चलो। लेकिन लोग बड़े हिसाब में लगे हैं, बड़ी चिंतना करते हैं, बड़ा विचार करते हैं। बड़ी होशियारी में लगे हैं, कि जब सब तय हो जाएगा बौद्धिक रूप से, और हम पूरी तरह से आश्वस्त हो जाएंगे, तब।
तो तुम कभी न चलोगे। तुम जिंदगीभर जिंदगी का सपना देखोगे। तुम जिंदगी भर जीने का विचार करोगे, जी न पाओगे। तैयारी करोगे, लेकिन कभी तुम जा न पाओगे यात्रा पर। बोरिया-बिस्तर बांधोगे, खोलोगे, बांधोगे, खोलोगे; रेल्वे स्टेशन पर जाकर ट्रेन कब, कहां जाती है उसका पता लगाओगे; टाइम-टेबल का अध्ययन करोगे--तुम्हारे वेद, तुम्हारे कुरान टाइम-टेबल हैं, ज्यादा कुछ भी नहीं--उनका बैठकर तुम अध्ययन करते रहो, टाइम-टेबल से कहीं कोई यात्रा हुई है! कुछ लोगों को मैं देखता था, जब मैं सफर में होता था, वे बैठे हैं अपने टाइम-टेबल का ही अध्ययन कर रहे हैं। वेदपाठी कहना चाहिए। ज्ञानी, पंडित टाइम-टेबल का अध्ययन कर रहे हैं। उसी को उलट रहे हैं।
नक्शों को रखे बैठे रहोगे। नक्शों से कभी किसी ने यात्रा की है? मैं तुमसे कहता हूं, अगर यात्रा पर न जाना हो तो नक्शे का अध्ययन करना बहुत जरूरी है। मैं तुमसे कहता हूं, अगर यात्रा से बचना हो तो नक्शों को पकड़ रखना बहुत जरूरी है। क्योंकि मन उलझा रहता है नक्शों में। और नक्शे बहुत प्रकार के हैं, नाना रंग-रूप के हैं।
बुद्ध ने क्या कहा है इसकी फिक्र मत करो। महावीर ने क्या कहा है इसकी चिंता मत करो। कृष्ण ने क्या कहा है इसका हिसाब मत रखो। बुद्ध क्या हैं, महावीर क्या हैं, कृष्ण क्या हैं--उनके होने पर थोड़ी नजर लाओ और तुम भी होने में लग जाओ। ये सब बाल की खाल हैं कि कौन सी विधि है और कौन सा पहुंचना; कौन सा मार्ग, कौन सी मंजिल। बाल की खाल मत निकालो। बहुत तर्कशास्त्री हैं। उनको तुम छोड़ दे सकते हो। और एक बात ध्यान रखना, अंत में तुम पाओगे कि जो चले वे पहुंच गए और जो सोचते रहे वे खो गए। साधक एक कदम की चिंता करता है। एक कदम चल लेता है फिर दूसरे की चिंता करता है।
चीन में कहानी है कि एक आदमी वर्षों तक सोचता था कि पास में एक पहाड़ पर तीर्थस्थान था वहां जाना है। लेकिन--कोई तीन-चार घंटे की यात्रा थी, दस-पंद्रह मील का फासला था--वर्षों तक सोचता रहा। पास ही था, नीचे घाटी में ही रहता था, हजारों यात्री वहां से गुजरते थे, लेकिन वह सोचता था पास ही तो हूं, कभी भी चला जाऊंगा।
बूढ़ा हो गया। तब एक दिन एक यात्री ने उससे पूछा कि भाई, तुम भी कभी गए हो? उसने कहा कि मैं सोचता ही रहा, सोचा इतना पास हूं, कभी भी चला जाऊंगा। लेकिन अब देर हो गई, अब मुझे जाना ही चाहिए। उठा, उसने दुकान बंद की। सांझ हो रही थी। पत्नी ने पूछा, कहां जाते हो? उसने कहा मैं, अब तो यह मरने का वक्त आ गया, और मैं यही सोचता रहा इतने पास है, कभी भी चला जाऊंगा, और मैं इन यात्रियों को ही जो तीर्थयात्रा पर जाते हैं सौदा-सामान बेचता रहा। जिंदगी मेरी यात्रियों के ही साथ बीती--आने-जाने वालों के साथ। वे खबरें लाते, मंदिर के शिखरों की चर्चा करते, शांति की चर्चा करते, पहाड़ के सौंदर्य की बात करते, और मैं सोचता कि कभी भी चला जाऊंगा, पास ही तो है। दूर-दूर के लोग यात्रा कर गए, मैं पास रहा रह गया। मैं जाता हूं।
कभी यात्रा पर गया न था। सिर्फ यात्रा की बातें सुनी थीं। सामान बांधा, तैयारी की रातभर--पता था कि तीन बजे रात निकल जाना चाहिए, ताकि सुबह-सुबह ठंडे-ठंडे पहुंच जाए। लालटेन जलाई। क्योंकि देखा था कि यात्री बोरिया-बिस्तर भी रखते हैं, लालटेन भी लेकर जाते हैं। लालटेन लेकर गांव के बाहर पहुंचा तब उसे एक बात खयाल आई कि लालटेन का प्रकाश तो चार कदम से ज्यादा पड़ता नहीं। पंद्रह मील का फासला है। चार कदम तक पड़ने वाली रोशनी साथ है। यह पंद्रह मील की यात्रा कैसे पूरी होगी? घबड़ाकर बैठ गया। हिसाब लगाया। दुकानदार था, हिसाब-किताब जानता था। चार कदम पड़ती है रोशनी, पंद्रह मील का फासला है। इतनी सी रोशनी से कहीं जाना हो सकता है? घबड़ा गया। हिसाब बहुतों को घबड़ा देता है।
अगर तुम परमात्मा का हिसाब लगाओगे, घबड़ा जाओगे। कितना फासला है! कहां तुम, कहां परमात्मा! कहां तुम, कहां मोक्ष! कहां तुम्हारा कारागृह और कहां मुक्ति का आकाश! बहुत दूर है। तुम घबड़ा जाओगे, पैर कंप जाएंगे। बैठ जाओगे, आश्वासन खो जाएगा, भरोसा टूट जाएगा। पहुंच सकते हो, यह बात ही मन में समाएगी न।
उसके पैर डगमगा गए। वह बैठ गया। कभी गया न था, कभी चला न था, यात्रा न की थी। सिर्फ लोगों को देखा था आते-जाते। उनकी नकल कर रहा था, तो लालटेन भी ले आया था, सामान भी ले आया था। कहते हैं, पास से फिर एक यात्री गुजरा और उसने पूछा कि तुम यहां क्या कर रहे हो? उस आदमी ने कहा, मैं बड़ी मुसीबत में हूं। इतनी सी रोशनी से इतने दूर का रास्ता! पंद्रह मील का अंधकार, चार कदम पड़ने वाली रोशनी! हिसाब तो करो! उस आदमी ने कहा, हिसाब-किताब की जरूरत नहीं। उठो और चलो। मैं कोई गणित नहीं जानता, लेकिन इस रास्ते पर बहुत बार आया-गया हूं। और तुम्हारी लालटेन तो मेरी लालटेन से बड़ी है। तुम मेरी लालटेन देखो--वह बहुत छोटी सी लालटेन लिए हुए था, जिससे एक कदम मुश्किल से रोशनी पड़ती थी--इससे भी यात्रा हो जाती है। क्योंकि जब तुम एक कदम चल लेते हो, तो आगे एक कदम फिर रोशन हो जाता है। फिर एक कदम चल लेते हो, फिर एक कदम रोशन हो जाता है।
जिनको चलना है, हिसाब उनके लिए नहीं है। जिनको नहीं चलना है, हिसाब उनकी तरकीब है। जिनको चलना है, वे चल पड़ते हैं। छोटी सी रोशनी पहुंंचा देती है। जिनको नहीं चलना है, वे बड़े अंधकार का हिसाब लगाते हैं। वह अंधकार घबड़ा देता है। पैर डगमगा जाते हैं।
साधक बनो, ज्ञानी नहीं। साधक बिना बने जो ज्ञान आ जाता है, वह कूड़ा-करकट है। साधक बनकर जो आता है, वह बात ही और है। महावीर ठीक कहते हैं, जो चल पड़ा वह पहुंच गया; वह ज्ञानी की बात है। उस ज्ञानी की जो चला है, पहुंचा है।
महावीर के पास उनका खुद का दामाद उनका शिष्य हो गया था। लेकिन उसे बड़ी अड़चन होती थी। भारत में तो दामाद का ससुर पैर छूता है। तो महावीर को पैर छूना चाहिए दामाद का। मगर जब उसने दीक्षा ले ली और उनका शिष्य हो गया, तो उसको पैर छूना पड़ता था। तो उसे बड़ी पीड़ा होती थी। बड़ा अहंकारी राजपूत था। और फिर महावीर की बातों में उसे कई ऐसी बातें दिखाई पड़ने लगीं जो असंगत हैं। यह बात उनमें एक बात थी। तो उसने एक विरोध का झंडा खड़ा कर दिया। उसने महावीर के पांच सौ शिष्यों को भड़का लिया। और उसने कहा, यह तो बकवास है यह कहना कि जो चलता है वह पहुंच गया। महावीर कहते थे, अगर तुमने दरी बिछाने के लिए खोली--खोलना शुरू की कि खुल गई। अब यह बात तो बड़ी गहरी थी। मगर बुद्धू बुद्धिमानों के हाथ में पड़ जाए तो बड़ा खतरा। उसने कहा, इसका तो मैं प्रमाण दे सकता हूं कि यह बात बिलकुल गलत है। वह एक दरी ले आया लपेटकर। उसने कहा कि यह लो, हम खोल दिए--जरा सी खोल दी और फिर रुक गया। और महावीर कहते हैं, खोली कि खुल गई। कहां खुली? उससे पांच सौ आदमियों को भड़का लिया, महावीर के शिष्यों को।
कभी-कभी पंडित भी ज्ञानियों के शिष्यों को भड़का लेते हैं, क्योंकि पंडित की बात ज्यादा तर्कपूर्ण होती है। वह ज्यादा बुद्धि को जंचती है। बात तो जंचेगी। यह क्या बात है? खोलने से कहीं खुलती है, बीच में भी रुक सकती है। चलने से कहीं कोई पहुंचता है, बीच में भी तो रुक सकता है।
महावीर करुणा के आंसू गिराए होंगे, लेकिन क्या कर सकते थे? सिद्ध तो वे भी नहीं कर सकते थे यह। करुणा के आंसू गिराए होंगे, क्योंकि उन्हें पता है कि जो एक कदम भी सत्य की तरफ चल पड़ा, वह कभी नहीं रुकता है--मगर अब इसको समझाएं कैसे--क्योंकि सत्य का आकर्षण ऐसा है। तुम जो नहीं चले हो उनको खींच रहा है। जो चल पड़ा वह फिर कभी नहीं रुकता है। नहीं जो चले हैं वे भी खिंचे जा रहे हैं, तो जो चल पड़ा है वह कहीं रुकने वाला है? जिसने जरा सा भी स्वाद ले लिया सत्य का फिर सब स्वाद व्यर्थ हो जाते हैं। जो सत्य की तरफ जरा सा झुक गया, सत्य की ऊर्जा, सत्य का आकर्षण चुंबक की तरह खींच लेता है। यह तो ऐसे ही है जैसे कि हमने छत से एक पत्थर छोड़ दिया जमीन की तरफ। महावीर यह कह रहे हैं कि पत्थर छोड़ दिया कि पहुंच गया।
अगर मैं होता तो महावीर के दामाद को ले गया होता छत पर। दरी न खुलवाई होती, क्योंकि दरी की बात मैं न करता--वह मैं भी समझता हूं कि वह झंझट हो जाएगी दरी में तो। एक पत्थर छोड़ देता और कहता, छूट गया--पहुंच गया। क्योंकि बीच में रुकेगा कैसे? गुरुत्वाकर्षण है। हां, जब तक छत पर ही रखा हुआ है तब तक गुरुत्वाकर्षण कुछ भी नहीं कर सकता। जरा डगा दो। इसलिए मैं कहता हूं, सत्य ऐसा है जैसे छत से कोई छलांग लगा ले। तुम एक कदम उठाओ, बाकी फिर अपने से हो जाएंगे। तुम्हें दूसरा कदम उठाना ही न पड़ेगा। क्योंकि जमीन का गुरुत्वाकर्षण कर लेगा शेष काम।
महावीर ठीक कहते थे। लेकिन महावीर कोई तार्किक नहीं हैं। महावीर हार गए, ऐसा लगता है। रोए होंगे करुणा से कि यह पागल खुद भी पागल है और यह पांच सौ और पागलों को अपने साथ लिए जा रहा है।
महावीर जानते हैं कि जो एक कदम चल गया वह मंजिल पर पहुंच गया। कृष्णमूर्ति ने पहली किताब लिखी है--द फॅर्स्ट एंड लास्ट फ्रीडम, उस किताब का नाम है, पहली और आखिरी मुक्ति। क्योंकि पहले कदम पर ही आखिरी घट जाती है। वही महावीर कह रहे थे कि एक कदम उठा लिया कि मंजिल आ गई। जिन्होंने भी पहला कदम उठा लिया उनकी मंजिल आ गई।
अब तुम पूछते हो कि मंजिल क्या और मार्ग क्या?
चाहो, दो कर लो; चाहो, एक कर लो; असलियत तो यही है कि मार्ग ही मंजिल है। क्योंकि एक कदम उठाते ही पहुंचना हो जाता है। तुम अगर नहीं पहुंचे, तो यह मत सोचना कि हमने कदम तो बहुत उठाए, चूंकि मंजिल दूर है इसलिए नहीं पहुंच पा रहे। तुमने पहला कदम ही नहीं उठाया। इसलिए अटके हो।
मगर अहंकार को बड़ी पीड़ा होती है यह मानने में कि मैंने पहला कदम नहीं उठाया? यह बात ही गलत लगती है। कदम तो हमने बहुत उठाए, मार्ग लंबा है, मंजिल दूर है, इसलिए नहीं पहुंच रहे हैं। अहंकार को उसमें सुविधा है कि मंजिल दूर है इसलिए नहीं पहुंच रहे हैं।
मैं तुमसे कहता हूं, तुमने पहला कदम ही नहीं उठाया। अन्यथा तुम्हें कोई रोक सकता है? जिसने उठाया पहला कदम, वह पहुंच गया। पहले कदम पर ही पहुंचना हो जाता है। तुम उठाओभर कदम और मंजिल आ जाती है। लेकिन बैठे-बैठे हिसाब मत करो। काफी हिसाब कर लिए हो।
तथाता मार्ग भी है, मंजिल भी। तथाता का अर्थ क्या होता है? तथाता का अर्थ है, सर्व स्वीकार का भाव। अहंकार संघर्ष है। अहंकार कहता है, ऐसा होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए। अहंकार कहता है, यह रहा ठीक, वह रहा गलत। अहंकार चुनाव करता है, भेद करता है, बांटता है, खंड-खंड करता है। तथाता का अर्थ है, सर्व स्वीकार, टोटल एक्सेप्टेन्स। जैसा है, जो है, राजी हैं। अहंकार है परिपूर्ण विरोध। तथाता है परिपूर्ण स्वीकार। अहंकार है प्रतिरोध, रेसिस्टेन्स। तथाता है राजी होना। अहंकार है नहीं, तथाता है हां। अस्तित्व जो कहे, हां।
तब तो पहले ही कदम पर मंजिल हो जाएगी। ऐसी घड़ी में तो क्रांति घट जाती है, रूपांतरण हो जाता है। फिर बचा क्या पाने को, जब तुमने सब स्वीकार कर लिया? लड़ाई कहां रही? फिर तुम तैरते नहीं, अस्तित्व की धारा तुम्हें ले चलती है सागर की तरफ।
रामकृष्ण ने कहा है, दो ढंग हैं यात्रा करने के। एक है पतवार लेकर नाव चलाना। वह अहंकार का ढंग है। बड़ा थकाता है, और ज्यादा दूर पहुंचाता भी नहीं। दूसरा रास्ता है पतवार छोड़ो, पाल खोलो, हवाएं ले जाएंगी। तुम हवाओं के सहारे चल पड़ो।
एहसान नाखुदा का उठाए मेरी बला
कश्ती खुदा पर छोड़ दूं लंगर को तोड़ दूं
कौन चिंता करे मांझी की?
एहसान नाखुदा का उठाए मेरी बला
अब ये मांझी का और कौन एहसान उठाए?
कश्ती खुदा पर छोड़ दूं लंगर को तोड़ दूं
लंगर भी तोड़ देता हूं, कश्ती भी उस पर छोड़ देता हूं। यह है तथाता। अब वह जहां ले जाए। अब अगर मझधार में डुबा दे तो वही किनारा है। अब डूबना भी उबरना है। स्वीकार में फासला कहां? अब न पहुंचना भी पहुंचना है। स्वीकार में फासला कहां? अब होना और न होना बराबर है। अब मंजिल और मार्ग एक है। अब बीज और वृक्ष एक है। अब सृष्टि और प्रलय एक है। क्योंकि वे सारे भेद बीच में अहंकार खड़ा होकर करता था। सारे भेद अहंकार के हैं। अभेद निरअहंकार का है।
एहसान नाखुदा का उठाए मेरी बला
कश्ती खुदा पर छोड़ दूं लंगर को तोड़ दूं
ऐसी मनोदशा परमावस्था है। और ऐसी परम अवस्था में साधन, साध्य का कोई भेद नहीं। सृष्टि, स्रष्टा का कोई भेद नहीं। जीवन, मृत्यु का कोई भेद नहीं। एक के ही अलग-अलग चेहरे हैं।
फिर तुम जहां हो वहीं मंजिल है। फिर कहीं और जाने को भी नहीं है। जाना भी अहंकार का ही खयाल है। पहुंचने की आकांक्षा भी अहंकार की ही दौड़ है। वह भी महत्वाकांक्षा ही है।

चौथा प्रश्न:
भगवान, क्या क्षणभंगुरता का बोध ही जीवन में क्षण-क्षण जीने की कला बन जाता है?
निश्चित ही! जैसे-जैसे ही तुम जागोगे और देखोगे कि एक क्षण के अतिरिक्त हाथ में कोई दूसरा क्षण नहीं है--दो क्षण किसी के पास एक साथ नहीं होते। एक क्षण आता है, जाता है, तब दूसरा आता है--एक ही क्षण हाथ में है।
सारे जीवन की कला यही है कि इस एक क्षण में कैसे जी लो। कैसे यह एक क्षण ही तुम्हारा पूरा जीवन हो जाए। कैसे इस एक क्षण की इतनी गहराई में उतर जाओ कि यह क्षण शाश्वत और सनातन मालूम हो। एक क्षण से दूसरे क्षण पर जाना साधारण जीवन का ढंग है। और एक क्षण की गहराई में उतर जाना असाधारण जीवन का ढंग है।
सांसारिक जीवन का अर्थ है, इस क्षण को अगले क्षण के लिए कुर्बान करो, फिर उसको और अगले के लिए कुर्बान करना। आज को कल के लिए निछावर करो, कल को फिर और परसों के लिए निछावर करना। सांसारिक जीवन एक सतत स्थगन, एक पोसपोनमेंट है। संन्यास का जीवन, इस क्षण को पूरा जी लो परम अनुग्रह के भाव से। परमात्मा ने यह क्षण दिया, इसे पूरा पी लो। इस क्षण की प्याली में से एक बूंद भी अनपीयी न छूट जाए, तुम इसे पूरा ही गटक जाओ, तो तुम तैयार हो रहे हो दूसरे क्षण को पीने के लिए। जितना तुम पीयोगे उतनी तैयारी हो जाएगी। यह प्यास कुछ ऐसी है कि पीने से बढ़ती है। यह रस कुछ ऐसा है कि जितना तुम इसमें डूबोगे उतनी ही डूबने की क्षमता आती जाएगी।
क्षणभंगुरता का बोध अगर तुम्हें आ जाए कि एक ही क्षण पास है, दूसरा कोई क्षण पास नहीं--हो सकता है यही क्षण आखिरी हो--तो फिर तुम कल पर न छोड़ सकोगे। तुम आज जीओगे, यहीं जीओगे। तुम यह न कहोगे कि कल पर छोड़ते हैं, कल जी लेंगे। कल कर लेंगे पे्रम, कल कर लेंगे उत्सव, कल कर लेंगे आनंद, तुममें फिर यह सुविधा न रहेगी। आज ही है उत्सव, आज ही है पूजा, आज ही है प्रेम। आज के पार कुछ भी नहीं है।
क्षणभंगुर का अगर इतना स्पष्ट बोध हो जाए कि जीवन क्षण-क्षण बीता जा रहा है, चूका जा रहा है, तो तुम क्षण की शाश्वतता में उतरने में समर्थ हो जाओगे। एक क्षण भी अपनी गहराई में सनातन है, शाश्वत है।
ऐसे समझो कि एक आदमी किसी झील में तैरता है--ऊपर-ऊपर, एक लहर से दूसरी लहर। और एक दूसरा है गोताखोर, जो झील में एक ही लहर में गोता मारता है और गहरे उतर जाता है। सांसारिक आदमी एक लहर से दूसरी लहर पर चलता रहता है। सतह पर ही तैरता है। सतह पर सतह ही हाथ लगती है। गहराई में जो जाता है उसे गहराई के खजाने हाथ लगते हैं। किसी ने कभी लहरों पर मोती पाए? मोती गहराई में हैं।
जीवन का असली अर्थ क्षण की गहराई में छिपा है। तो यह तो ठीक है कि जीवन को क्षणभंगुर मानो--है ही; मानने का सवाल नहीं है, जानो। यह भी ठीक है कि एक क्षण से ज्यादा तुम्हें कुछ मिला नहीं। लेकिन इससे उदास होकर मत बैठ जाना। यह तो कहा ही इसलिए था ताकि झूठी दौड़ बंद हो जाए। यह तो कहा ही इसलिए था ताकि गलत आयाम में तुम न चलो। यह तो तुम्हें पुकारने को कहा था कि गहराई में उतर आओ।
बुद्ध जब कहते हैं, जीवन क्षणभंगुर है, तो वे यह नहीं कह रहे हैं कि इसे छोड़कर तुम उदास होकर बैठ जाओ। वे यही कह रहे हैं कि तुम्हारे होने का जो ढंग है अब तक, वह गलत है। उसे छोड़ दो, मैं तुम्हें एक और नए होने का ढंग बताता हूं।
साधारण आदमी तो क्षणभंगुर जीवन की सतह पर जीता है। इसी क्षणभंगुर सतह पर वह अपने स्वर्ग और नर्कों की भी कामना करता है, अपने आने वाले भविष्य जन्मों की भी कल्पना करता है--यहीं, इसी आयाम में। वह कभी नीचे झांककर नहीं देखता कि सतह की गहराई में कितना अनंत छिपा है।
एक-एक क्षण में अनंत का वास है। और एक-एक कण में विराट है। लेकिन वह कण को कण की तरह देखता है, क्षण को क्षण की तरह देखता है। और क्षण की वजह से--इतना छोटा क्षण जी कैसे पाएंगे--वह आगे की योजनाएं बनाता है कि कल जीएंगे और यह भूल ही जाता है, कि कल भी क्षण ही हाथ में होगा। जब भी होगा क्षण ही हाथ में होगा। ज्यादा कभी हाथ में न होगा। जब यह जीवन चूक जाता है, तो अगले जीवन की कल्पना करता है कि फिर जन्म के बाद होगा जीवन। लेकिन तुम वही कल्पना करोगे, उसी की आकांक्षा करोगे जो तुमने जाना है।
गालिब की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं--
क्यों न फिरदौस को दोजख में मिला लें या रब
सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही
गालिब कह रहा है कि नर्क को ही जाना है हमने तो, स्वर्ग को तो जाना नहीं। और जिनको हमने जाना है, उन्होंने भी नर्क को ही जाना है।
क्यों न फिरदौस को दोजख में मिला लें या रब
तो हम स्वर्ग को भी नर्क में क्यों न मिला लें?
सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही
स्वर्ग होगा भी छोटा नर्क के मुकाबले, क्योंकि अधिक लोग नर्क में जी रहे हैं। स्वर्ग में तो कभी कोई जीता है। इस थोड़ी सी जगह को भी और अलग क्यों छोड़ रखा है।
क्यों न फिरदौस को दोजख में मिला लें या रब
सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही
इसको क्यों अलग छोड़ रखा है? ये पंक्तियां बड़ी महत्वपूर्ण हैं। ये साधारण आदमी के मन की खबर हैं।
तुम्हें अगर स्वर्ग भी मिले तो तुम उसे अपने नर्क में ही जोड़ लेना चाहोगे, और तुम करोगे भी क्या? मैंने देखा है, तुम्हें धन भी मिल जाए तो तुम उसे अपनी गरीबी में जोड़ लेते हो, और तुम करोगे भी क्या? तुम्हें आनंद का अवसर भी मिल जाए तो तुम उसे भी अपने दुख में जोड़ लेते हो, तुम और करोगे भी क्या? तुम्हें अगर चार दिन जिंदगी के और मिल जाएं तो तुम उन्हें इसी जिंदगी में जोड़ लोगे, और तुम करोगे भी क्या? आदमी सत्तर साल जीता है, सात सौ साल जीए तो तुम सोचते हो कोई क्रांति हो जाएगी! बस ऐसे ही जीएगा। और सुस्त होकर जीने लगेगा। ऐसे ही जीएगा। सत्तर साल में अभी नहीं जीता तो सात सौ साल में तो और भी स्थगित करने लगेगा कि जल्दी क्या है?
क्यों न फिरदौस को दोजख में मिला लें या रब
सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही
तुम जो हो उसी में तो जोड़ोगे भविष्य को भी। तुम स्वर्ग को भी अपने नर्क में ही जोड़ लोगे। तुम अपने अधर्म में ही धर्म को भी जोड़ लेते हो। तुम अपनी दुकान में ही मंदिर को भी जोड़ लेते हो। तुम अपनी बीमारी में अपने स्वास्थ्य को भी जोड़ लेते हो। तुम अपनी मूर्च्छा में अमूर्च्छा की बातों को भी जोड़ लेते हो। तुम अपनी अशांति में अपने ध्यान को भी जोड़ लेते हो। रूपांतरण नहीं हो पाता।
नर्क में स्वर्ग को नहीं जोड़ना है। नर्क को मिटाना है, ताकि स्वर्ग हो सके। नर्क को छोड़ना है, ताकि स्वर्ग हो सके।
क्षणभंगुर जीवन है, यह सत्य है। इसके तुम तीन अर्थ ले सकते हो। एक, क्षणभंगुर है, इसलिए जल्दी करो। भोगो, कहीं भोग छूट न जाए। सांसारिक आदमी वही कहता है--खाओ, पीओ, मौज करो, जिंदगी जा रही है। फिर धार्मिक आदमी है, वह कहता है--जिंदगी जा रही है, खाओ, पीओ, मौज करो, इसमें मत गंवाओ। कुछ कमाई कर लो, जो आगे काम आए स्वर्ग में, मोक्ष में। ये दोनों गलत हैं। फिर एक तीसरा आदमी है जिसको मैं जागा हुआ पुरुष कहता हूं, बुद्धपुरुष कहता हूं, वह कहता है--जीवन क्षणभंगुर है, इसलिए कल पर तो कुछ भी नहीं छोड़ा जा सकता। स्वर्ग और भविष्य की कल्पनाएं नासमझियां हैं। इसलिए बुद्ध ने स्वर्गों की बात नहीं की। फिर वह यह कहता है कि जीवन क्षणभंगुर है तो सतह पर ही खाने-पीने और मौज में भी उसे गंवाना व्यर्थ है। तो थोड़ा हम भीतर उतरें, क्षण को खोलें, कौन जाने क्षण केवल द्वार हो जिसके बाहर ही हम जीवन को गंवाए दे रहे हैं। क्षण को खोलना ही ध्यान है।
महावीर ने तो ध्यान को सामायिक कहा। क्योंकि सामायिक का अर्थ है, समय को खोल लेने की कला। क्षण में खोलकर उतर जाना। द्वार तो छोटा ही होता है, महल बहुत बड़ा है। तुम द्वार के कारण महल को छोटा मत समझ लेना। द्वार तो छोटा ही होता है। द्वार के बड़े होने की जरूरत नहीं। तुम निकल जाओ इतना काफी है।
इतना मैं तुमसे कहता हूं, क्षण का द्वार इतना बड़ा है कि तुम उससे मजे से निकल सकते हो। इससे ज्यादा की जरूरत भी नहीं। क्षण के पार शाश्वत तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। तुम एक द्वार से दूसरे द्वार पर भाग रहे हो। कुछ द्वार-द्वार भीख मांगते फिर रहे हैं, वे सांसारिक लोग। कुछ हैं जो उदास होकर बैठ गए हैं द्वार के बाहर, सिर लटका लिया है कि जीवन बेकार है। इन दो से बचना।
एक तीसरा आदमी भी है, जिसने क्षण की कुंजी खोज ली--वही अमूर्च्छा है, अप्रमाद है--और क्षण का द्वार खोल लिया। क्षण का द्वार खोलते ही शाश्वत का द्वार खुल जाता है। अनंत छिपा है क्षण में, विराट छिपा है कण में।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, आनंद की दशा में क्या बस फूल ही फूल हैं, कांटे क्या एक भी नहीं?
प्रश्न थोड़ा कठिन है। कठिन इसलिए है कि आनंद के मार्ग पर न तो फूल हैं और न कांटे। कांटे तुम्हारे देखने में होते हैं। फूल भी तुम्हारे देखने में होते हैं। कांटे और फूल बाहर नहीं हैं। कांटे और फूल तुम्हें मिलते नहीं हैं बाहर, तुम्हारे देखने से जन्मते हैं। गलत देखने से कांटे दिखाई पड़ते हैं। ठीक देखने से फूल दिखाई पड़ते हैं। तुम वही देख लेते हो जो तुम्हारी दृष्टि है। दृष्टि ही सृष्टि है, इसे स्मरण रखो।
बड़ी प्राचीन कथा है कि रामदास राम की कथा कह रहे हैं। कथा इतनी प्रीतिकर है, राम की कहानी इतनी प्रीतिकर है कि हनुमान भी सुनने आने लगे। हनुमान ने तो खुद ही आंखों से देखी थी सारी कहानी। लेकिन फिर भी कहते हैं, रामदास ने ऐसी कही कि हनुमान को भी आना पड़ा। खबर मिली तो वह सुनने आने लगे। बड़ी अदभुत थी। छिपे-छिपे भीड़ में बैठकर सुनते थे।
पर एक दिन खड़े हो गए, खयाल ही न रहा कि छिपकर सुनना है, छिपकर ही आना है। क्योंकि रामदास कुछ बात कहे जो हनुमान को जंची नहीं, गलत थी, क्योंकि हनुमान मौजूद थे। और यह आदमी तो हजारों साल बाद कह रहा है। तो उन्होंने कहा कि देखो, इसको सुधार कर लो।
रामदास ने कहा कि जब हनुमान लंका गए और अशोक वाटिका में गए, और उन्होंने सीता को वहां बंद देखा, तो वहां चारों तरफ सफेद फूल खिले थे। हनुमान ने कहा, यह बात गलत है, तुम इसमें सुधार कर लो। फूल लाल थे, सफेद नहीं थे। रामदास ने कहा, तुम बैठो, बीच में बोलने की जरूरत नहीं है। तुम हो कौन? फूल सफेद थे।
तब तो हनुमान को अपना रूप बताना पड़ा। हनुमान ही हैं! भूल ही गए सब शिष्टाचार। कहा कि मैं खुद हनुमान हूं। प्रगट हो गए। और कहा कि अब तो सुधार करोगे? तुम हजारों साल बाद कहानी कह रहे हो। तुम वहां थे नहीं मौजूद। मैं चश्मदीद गवाह हूं। मैं खुद हनुमान हूं, जिसकी तुम कहानी कह रहे हो। मैंने फूल लाल देखे थे, सुधार कर लो।
मगर रामदास जिद्दी। रामदास ने कहा, होओगे तुम हनुमान, मगर फूल सफेद थे। इसमें फर्क नहीं हो सकता। बात यहां तक बढ़ गई कि कहते हैं राम के दरबार में दोनों को ले जाया गया, कि अब राम ही निर्णय करें कि अब यह क्या मामला होगा, कैसे बात हल होगी! क्योंकि हनुमान खुद आंखों देखी बात कह रहे हैं कि फूल लाल थे। और रामदास फिर भी जिद किए जा रहे हैं कि फूल सफेद थे।
राम ने हनुमान से कहा कि तुम माफी मांग लो। रामदास ठीक ही कहते हैं। फूल सफेद थे। हनुमान तो हैरान हो गए। उन्होंने कहा, यह तो हद्द हो गई, यह तो कोई सीमा के बाहर बात हो गई। मैंने खुद देखे, तुम भी वहां नहीं थे। और न ये रामदास थे और न तुम थे। तुमसे निर्णय मांगा यही भूल हो गई। मैं अकेला वहां मौजूद था। सीता से पूछ लिया जाए, वे मौजूद थीं।
सीता को पूछा गया। सीता ने कहा, हनुमान, तुम क्षमा मांग लो, फूल सफेद थे। संत झूठ नहीं कह सकते। होना मौजूद न होना सवाल नहीं है। अब रामदास ने जो कह दिया वह ठीक ही है। फूल सफेद ही थे। मुझे दुख होता है कि तुम्हें गलत होना पड़ रहा है, तुम्हीं अकेले एकमात्र गवाह नहीं हो, मैं भी थी, फूल सफेद ही थे। शानदार!
उसने कहा, यह तो कोई षड्‌यंत्र मालूम होता है। कोई साजिश मालूम पड़ती है। मुझे भलीभांति याद है।
राम ने कहा, तुम ठीक कहते हो, तुम्हें फूल लाल दिखाई पड़े थे, क्योंकि तुम क्रोध से भरे थे। आंखों में खून था। जब आंखों में खून हो, क्रोध हो, तो सफेद फूल कैसे दिखाई पड़ सकते हैं?
जब मैंने इस कहानी को पढ़ा तो मेरा मन हुआ, इसमें थोड़ा और जोड़ दिया जाए। क्योंकि फूल वहां थे ही नहीं। अगर हनुमान की आंखों में खून था इसलिए लाल दिखाई पड़े, तो यह रामदास के मन में एक शुभ्रता है जिसकी वजह से सफेद दिखाई पड़ रहे हैं। फूल वहां थे नहीं। मैं तुमसे कहता हूं, राम भी गलत थे, सीता भी गलत हैं, रामदास भी गलत हैं। फूल बाहर नहीं हैं। तुम्हारी आंख में ही खिलते हैं। कांटे भी बाहर नहीं हैं। तुम्हारी आंख में ही बनते हैं, निर्मित होते हैं। तुम्हें वही दिखाई पड़ जाता है जो तुम देख सकते हो।
अब तुम पूछते हो, ‘आनंद की दशा में क्या बस फूल ही फूल हैं?’
न तुम्हें आनंद की दशा का पता है, न तुमने कभी फूल देखे।
‘कांटे क्या एक भी नहीं?’
अब तुम्हें पता ही नहीं तुम क्या पूछ रहे हो। जिसके भीतर आनंद का आविर्भाव हुआ है, उसके बाहर सिर्फ आनंद ही आनंद होता है, फूल ही फूल होते हैं। क्योंकि जो तुम्हारे भीतर है वही तुम्हारे बाहर छा जाता है। तुम्हारा भीतर ही फैलकर बाहर छा जाता है। तुम्हारा भीतर ही बाहर हो जाता है। तुम जैसे हो वैसा ही सारा अस्तित्व हो जाता है।
बुद्ध के साथ सारा अस्तित्व बुद्ध हो जाता है। मीरा के साथ सारा अस्तित्व मीरा हो जाता है। मीरा नाचती है तो सारा अस्तित्व नाचता है। बुद्ध चुप होते हैं तो सारा अस्तित्व चुप हो जाता है। तुम दुख से भरे हो, तो सारा अस्तित्व दुख से भरा है। तुमने कभी खयाल भी किया होगा, तुम परेशान हो, दुखी हो, चांद को देखते हो, उदास मालूम होता है। उसी रात तुम्हारे ही पड़ोस में कोई प्रसन्न है, आनंदित है, उसी चांद को देखता है और लगता है आनंद बरस रहा है।
तुम्हारी दृष्टि ही तुम्हारा संसार है। और मोक्ष का अर्थ है, सारी दृष्टि का खो जाना। न सफेद, न लाल। जब कोई भी दृष्टि नहीं रह जाती तुम्हारी, तब तुम्हें वह दिखाई पड़ता है, जो है। उसको परमात्मा कहो, निर्वाण कहो।
साधु को भी जो दिखाई पड़ता है, वह है नहीं। असाधु को भी जो दिखाई पड़ता है, वह है नहीं। शैतान को जो दिखाई पड़ता है, वह है नहीं। संत को जो दिखाई पड़ता है, वह है नहीं। जो है, वह तो तभी दिखाई पड़ता है जब तुम्हारी कोई भी दृष्टि नहीं होती। तब तुम कुछ भी नहीं जोड़ते।
इसलिए बुद्ध ने तो उस परमदशा में आनंद है, ऐसा भी नहीं कहा। क्योंकि वह भी दृष्टि है। फूल हैं, ऐसा भी नहीं कहा। कांटे हैं, ऐसा भी नहीं कहा। क्योंकि कांटे तुम्हारी दुख की दृष्टि से पैदा होते थे, आनंद तुम्हारे आनंद की दृष्टि से पैदा हो रहा है। कांटों में भी तुम थे, फूलों में भी तुम हो। एक ऐसी भी घड़ी है निर्वाण की जब तुम होते ही नहीं; तब एक परमशून्य है। इसलिए बुद्ध ने कहा, निर्वाण, परमशून्यता। जहां कुछ भी नहीं है। जहां वही दिखाई पड़ता है, जो है। अब उसे कहने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि उसे कांटा कहो तो गलत होगा, फूल कहो तो गलत होगा, दुख कहो तो गलत होगा।
तो तीन दशाएं हैं। एक दुख की दशा है। तब तुम्हें चारों तरफ कांटे दिखाई पड़ते हैं। फूल केवल तुम्हारे सपने में होते हैं। कांटा चुभता है वस्तुतः और फूल केवल आशा में होता है। यह एक दशा। फिर एक आनंद की दशा है, जब चारों तरफ फूल होते हैं। कांटे सब खो गए होते हैं, कहीं कोई कांटा नहीं दिखाई पड़ता। लेकिन कांटा संभावना में छिपा होता है। क्योंकि फूल अगर है, तो कांटा कहीं संभावना में छिपा होगा। फिर एक तीसरी परमदशा है। न कांटे हैं, न फूल हैं। उस परमदशा को ही आनंद कहो। वह सुख के पार, दुख के पार। कांटे के पार, फूल के पार।

आज इतना ही।

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