BUDDHA
Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) 115
One Hundred And Fifteenth Discourse from the series of 122 discourses - Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) by Osho. These discourses were given during NOV 21, 1975 to DEC 10, 1977.
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सुञ्ञागारं पविट्ठस्स संतचित्तस्स भिक्खुनो।
अमानुसी रती होति सम्माधम्मं विपस्सतो।।307।।
यतो यतो सम्मसति खन्धानं उदयब्बयं।
लभती पीतिपामोज्जं अमतं तं विजानतं।।308।।
पटिसन्थारवुत्तस्स आचारकुसलो सिया।
ततो पामोज्जबहुलो दुक्खस्सन्तं करिस्सति।।309।।
वस्सिका विय पुप्फानि मद्दवानि पमुञ्चति।
एवं रागञ्च दोसञ्च विप्पमुञ्चेथ भिक्खवो।।310।।
अत्तना चोदय’त्तानं पटिवासे अत्तमत्तना।
सो अत्तगुत्तो सतिमा सुखं भिक्खु विहाहिसि।।311।।
अत्ता हि अत्तनो नाथो अत्ता हि अत्तनो गति।
तस्मा सञ्ञमत्तानं अस्सं भद्रं’व वाणिजो।।312।।
प्रथम दृश्य:
भगवान जेतवन में विहरते थे। उस समय पांच सौ भिक्षुओं ने भगवान का आशीष ले ध्यान की गहराइयों में उतरने का संकल्प किया। समाधि से कम उनका लक्ष्य नहीं था। गंधकुटी के बाहर ही सुबह के उगते सूरज के साथ वे ध्यान करने बैठे। गंधकुटी के चारों ओर जुही के फूल खिले थे।
शास्ता ने उन भिक्षुओं को कहा: भिक्षुओ! जुही के खिले इन फूलों को देखते हो? सुबह खिले हैं और सांझ मुर्झा जाएंगे, ऐसा ही क्षणभंगुर जीवन है। अभी है, अभी नहीं है। इन फूलों को ध्यान में रखना भिक्षुओ! यह स्मृति ही क्षणभंगुर के पार ले जाने वाली नौका है।
भिक्षुओं ने फूलों को देखा और संकल्प किया: संध्या तुम्हारे कुम्हलाकर गिरने के पूर्व ही हम ध्यान को उपलब्ध होंगे, हम रागादि से मुक्त होंगे। फूलो! तुम हमारे साक्षी हो।
भगवान ने साधु! साधु! कहकर अपने आशीषों की वर्षा की।
और तभी उन्होंने ये गाथाएं कही थीं:
सुञ्ञागारं पविट्ठस्स संतचित्तस्स भिक्खुनो।
अमानुसी रती होति सम्माधम्मं विपस्सतो।।
‘शून्य गृह में प्रविष्ट शांत-चित्त भिक्षु को भली-भांति से धर्म की विपस्सना करते हुए अमानुषी रति प्राप्त होती है।’
यतो यतो सम्मसति खन्धानं उदयब्बयं।
लभती पीतिपामोज्जं अमतं तं विजानतं।।
‘जैसे-जैसे भिक्षु पांच स्कंधों--रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान--की उत्पत्ति और विनाश पर विचार करता है, वैसे-वैसे वह ज्ञानियों की प्रीति और प्रमोद रूपी अमृत को प्राप्त करता है।’
पटिसन्थारवुत्तस्स आचारकुसलो सिया।
ततो पामोज्जबहुलो दुक्खस्सन्तं करिस्सति।।
‘जो सेवा-सत्कार स्वभाव वाला है और आचार-कुशल है, वह आनंद से ओतप्रोत होकर दुख का अंत करेगा।’
वस्सिका विय पुप्फानि मद्दवानि पमुञ्चति।
एवं रागञ्च दोसञ्च विप्पमुञ्चेथ भिक्खवो।।
‘जैसे जुही अपने कुम्हलाए फूलों को छोड़ देती है, वैसे ही हे भिक्षुओ, तुम राग और द्वेष को छोड़ दो।’
इसके पहले कि हम सूत्रों पर विपस्सना करें, उन पर ध्यान करें, इस दृश्य को ठीक से मन में बैठ जाने दो।
भगवान जेतवन में विहरते थे।
जैनशास्त्र जब महावीर की बात करते हैं, तो वे कहते हैं: भगवान विराजते थे। बौद्धशास्त्र जब बुद्ध की बात करते हैं, तो वे कहते हैं: विहरते थे।
इन दो शब्दों में भेद है, तात्विक भेद है। विराजना थिरता का प्रतीक है, विहरना गति का।
जैन-दृष्टि में सत्य थिर है; ठहरा हुआ है; सदा एक-रस है। बौद्ध-विचार में सब गतिमान है, प्रवाहमान है; सब बहा जा रहा है। बौद्ध-विचार में ऐेसा कहना ही ठीक नहीं है कि कोई चीज है। हर चीज हो रही है।
जैसे हम कहें: वृक्ष है; तो बौद्ध-विचार में ठीक नहीं है ऐसा कहना। क्योंकि जब हम कह रहे हैं: वृक्ष है, तब भी वृक्ष बदल रहा है, हो रहा है। एक पुराना पत्ता टूटकर गिर गया होगा, जब तुमने कहा: वृक्ष है। एक कली खिलती होगी, फूल बनती होगी। एक नया अंकुर आता होगा। एक नयी जड़ निकलती होगी। वृक्ष थोड़ा बड़ा हो गया होगा; थोड़ा बूढ़ा हो गया होगा।
जितनी देर में तुमने कहा, वृक्ष है, उतनी देर में वृक्ष वही नहीं रहा; बदल गया; रूपांतरित हो गया। तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता रूपांतरण, क्योंकि रूपांतरण बड़ा धीमा-धीमा हो रहा है, आहिस्ता हो रहा है; शनैः-शनैः हो रहा है। मगर रूपांतरण तो हो ही रहा है।
इसलिए बुद्ध तो कहेंगे: ऐसा ही कहो कि वृक्ष हो रहा है। है जैसी कोई चीज जगत में नहीं है। सब चीजें हो रही हैं।
हम तो नदी तक को कहते हैं कि नदी है! बुद्ध कहते हैं: पहाड़ों को भी मत कहो कि पहाड़ हैं। क्योंकि पहाड़ भी बह रहे हैं। नदी तो बह ही रही है। वह तो हम देखते हैं कि नदी बह रही है, फिर भी कहते हैं, नदी है।
तो बुद्ध ने भाषा को भी नए रूप दिए। स्वाभाविक था। जब कोई दर्शन जन्म लेता है, तो उसके साथ ही सब नया हो जाता है; क्योंकि वह हर चीज पर अपने रंग को फेंकता है।
बुद्ध-भाषा में है का कोई मूल्य नहीं है; हो रहा है का मूल्य है।
जैन-भाषा में है का मूल्य है; क्योंकि हमें उसी को खोजना है, जो कभी नहीं बदलता। जो बदल रहा है, वह संसार।
वैसा ही हिंदू-विचार में भी, जो बदल रहा है, वह माया; और जो कभी नहीं बदलता, वही ब्रह्म। तो ब्रह्म को हम ऐसा नहीं कह सकते कि विहरता है। कहना होगा, विराजता है।
बुद्ध की सारी कथाएं, उनके संबंध में लिखे गए सारे वचन सदा शुरू होते हैं: भगवान जेतवन में या श्रावस्ती में या किसी और स्थान पर विहरते थे।
गत्यात्मकता पर बुद्ध का बड़ा जोर है। सब प्रवाहरूप है। और जिस दिन प्रवाह रुक जाएगा, उस दिन तुम्हारे हाथ में ऐसा नहीं है कि पूर्ण और शाश्वत पकड़ में आ जाएगा। जिस दिन प्रवाह रुक जाएगा, उस दिन तुम तिरोहित हो जाओगे।
महावीर के मोक्ष में आत्मा बचेगी और फिर सदा-सदा रहेगी। बुद्ध के निर्वाण में आत्मा ऐसे बुझ जाएगी, जैसे दीया बुझ जाता है। इसीलिए शब्द निर्वाण का उपयोग हुआ है। निर्वाण का अर्थ होता है: दीए का बुझ जाना।
एक दीया जल रहा है; तुमने फूंक मार दी और ज्योति बुझ गयी। अब कोई तुमसे पूछे कि ज्योति कहां गयी--तो क्या कहोगे! कोई तुमसे पूछे कि अब ज्योति कहां है--तो क्या कहोगे?
ऐसे ही, कहते हैं बुद्ध, जब वासना का तेल चुक जाता है और जीवन की ज्योति बुझ जाती है, तो तुम शून्य हो जाते हो। उस शून्य का नाम निर्वाण है। ऐसा नहीं है कि तुम्हारे हाथ में कोई थिर वस्तु पकड़ में आ जाती है। पकड़ने वाला भी खो जाता है। मुट्ठी ही खो जाती है, बांधोगे किस पर!
तो जगत है प्रवाह और निर्वाण है प्रवाह का शून्य हो जाना, प्रवाह से मुक्त हो जाना। लेकिन खयाल रखना, यह खयाल मत लेना मन में कि मुक्त होकर तुम बचोगे। प्रवाह में ही बचाव है। जब तक प्रवाह है, तभी तक तुम हो। प्रवाह ही तुम हो। जिस दिन प्रवाह गया, तुम भी गए।
दीए की ज्योति तुम सांझ को जलाते हो, और सुबह जब उठकर देखते हो, तो सोचते हो, वही ज्योति जल रही है; तो गलत सोचते हो। वह ज्योति तो लाखों बार बुझ चुकी रात में। प्रतिपल धुआं हो रही है। ज्योति धुआं होती जाती है। नयी ज्योति जन्मती जाती है; पुरानी हटती जाती है। जिसको तुमने सांझ जलाया था, सुबह तुम उसी को नहीं बुझा सकते। वह तो बची ही नहीं। फिर सुबह जिस ज्योति को तुम बुझाते हो, यह वही ज्योति नहीं है जिसको तुमने जलाया था; यह दूसरी ही ज्योति है। यद्यपि उसी ज्योति के प्रवाह में आयी है; संतति है, संतान है; वही नहीं है। जैसे बाप ने किसी के तुम्हें गाली दी थी, तुमने बेटे को मारा। ऐसी बात है।
सांझ जो जलायी थी ज्योति, वह तो कब की गयी। अब तुम उसके बेटे-बेटी को बुझा रहे हो; उसकी संतान को बुझा रहे हो। कई पीढ़ियां बीत गयीं रात में, लेकिन अगर तेल बचा रहे, तो ज्योति जलती चली जाएगी। और यह भी हो सकता है, इस दीए में बुझ जाए, और दूसरे दीए में छलांग लगा जाए जिसमें तेल भरा है, तो वहां जलने लगेगी; संतान वहां बहने लगेगी।
ऐसा ही व्यक्ति एक जन्म से दूसरे जन्म में छलांग लगाता है। वासना नहीं चुकती, तो ज्योति नयी वासना नए तेल को खोज लेती है, नए गर्भ को खोज लेती है। लेकिन जिस दिन वासना का तेल परिपूर्ण चुक गया, ज्योति जलकर भस्मीभूत हो जाती है; निर्वाण हो जाता है; तुम महाशून्य में लीन हो जाते हो।
प्रवाह संसार है; प्रवाह का शून्य हो जाना मोक्ष है।
भगवान जेतवन में विहरते थे। उस समय पांच सौ भिक्षुओं ने भगवान का आशीष ले ध्यान की गहराइयों में उतरने का संकल्प किया।
ध्यान के लिए संकल्प चाहिए। संकल्प का अर्थ होता है: सारी ऊर्जा को एक बिंदु पर संलग्न कर देना। संकल्प का अर्थ होता है: अपनी ऊर्जा को विभाजित न करना। क्योंकि अविभाज्य ऊर्जा हो, तो ही कहीं पहुंचना हो सकता है।
जैसे सूरज की किरणें हैं। अगर इनको तुम इकट्ठा कर लो, एक जगह कर लो, तो आग पैदा हो जाए। बिखरी रहें, तो आग पैदा नहीं होती। ऐसी ही मनुष्य की जीवन ऊर्जा है। एक जगह पड़े, एक बिंदु पर गिरने लगे, तो महाशक्ति प्रज्वलित होती है। पच्चीस धाराओं में बहती रहे, तो धीरे-धीरे खो जाती है। जैसे नदी रेगिस्तान में खो जाए। कहीं पहुंचती नहीं।
समझो, गंगा की कई धाराएं हो जाएं, तो सागर तक नहीं पहुंच सकेगी फिर। गंगा पहुंचती है सागर तक एक धारा के कारण। और जितनी धाराएं मार्ग में मिलती हैं, वे सब गंगा के साथ एक होती जाती हैं। जो नदी आयी--गिरी। यमुना आयी--गिरी। जो नदी-नाला आया--गिरा। वे सब गंगा के साथ एक होते चले जाते हैं।
गंगोत्री में तो गंगा बड़ी छोटी है। उतरते-उतरते पहाड़ों से, बड़ी होने लगती है। मैदान में विराट होने लगती है। सागर तक पहुंचते-पहुंचते खुद ही सागर जैसी हो जाती है। गंगोत्री से गंगासागर तक की यात्रा समझने जैसी है, क्योंकि वही मनुष्य की ऊर्जा की यात्रा भी है।
तुम दो तरह से जी सकते हो: संकल्पहीन या संकल्पवान। संकल्पहीन का अर्थ होता है: तुम्हारे जीवन में पच्चीस धाराएं हैं। धन भी कमा लूं; पद भी कमा लूं; प्रतिष्ठा भी बना लूं। साधु भी कहलाऊं; ध्यान भी कर लूं; मंदिर भी हो आऊं; दुकान भी चलती रहे। तुम्हारा जीवन पच्चीस धाराओं में विभाजित है। इसलिए कुछ भी पूरा नहीं हो पाता। न दुकान पूरी होती, न मंदिर पूरा होता। न धन मिलता, न ध्यान मिलता।
ऊर्जा संगृहीत होनी चाहिए, तो संकल्प का जन्म होता है। एक धारा में गिरे, अखंडित गिरे, तो कुछ भी असंभव नहीं है। जीवन में चीजें असंभव इसलिए मालूम हो रही हैं, क्योंकि तुम टूटे हो खंड-खंड, टुकड़े-टुकड़े में। तुम एक नहीं हो, इसलिए जीवन में बहुत सी चीजें असंभव हैं। तुम एक हो जाओ, तो कुछ भी असंभव नहीं है। संकल्प का यही अर्थ होता है।
पांच सौ भिक्षुओं ने भगवान का आशीष ले ध्यान की गहराइयों में उतरने का संकल्प किया।
फिर भी, संकल्प तो उन्होंने किया, भगवान के आशीष को भी आए। तुम्हारा संकल्प ऐसे तो काफी है, लेकिन अंततः तुम्हारा ही है। एक अज्ञानी के संकल्प का मूल्य कितना हो सकता है! बांध-बूंधकर, किसी तरह सम्हालकर करने की कोशिश करोगे; लेकिन भूल-चूक हो जाने की संभावना है। किसी ज्ञानी का आशीष भी हो, तो तुम्हारे संकल्प के बचे रहने की, तुम्हारे संकल्प के बने रहने की, तुम्हारे संकल्प के पूरे होने की ज्यादा गुंजाइश है। जीत सुनिश्चित हो जाएगी।
ज्ञानी का आशीष तुम्हारे खंडों को सीमेंट की तरह जोड़ देगा। कोई मेरे पीछे खड़ा है, जो जानता है--यह भरोसा भी तुम्हें दूर तक ले जाने वाला होगा। जैसे छोटे बच्चे को कोई डर नहीं लगता, उसकी मां पास हो, बस। फिर चाहे तुम उसे नर्क ले जाओ, कोई फिकर नहीं है। वह नर्क में भी खेलने लगेगा; उसकी मां पास है। और तुम उसे स्वर्ग ले जाओ, और उसकी मां पास न हो, तो वह स्वर्ग में भी विपन्न और दुखी होने लगेगा। उसकी मां पास नहीं है। रोने लगेगा; चीखने-पुकारने लगेगा।
वह जो मां की मौजूदगी है, वही गुरु की मौजूदगी है। गुरु मौजूद हो, तो यात्रा बड़ी सुगम हो जाती है। लेकिन गुरु की मौजूदगी का मतलब क्या होता है? गुरु की मौजूदगी का मतलब है कि तुमने किसी के चरणों में सिर झुकाया है, और किसी को गुरु स्वीकार किया है।
गुरु मौजूद भी हो, लेकिन तुम्हारे भीतर शिष्य-भाव मौजूद न हो, तो किसी अर्थ का नहीं है। फिर गुरु गुरु नहीं है। गुरु बनता है तुम्हारे शिष्य-भाव से।
इन पांच सौ भिक्षुओं ने भगवान के चरणों में आकर प्रार्थना की होगी कि हम ध्यान की गहराइयों में जाना चाहते हैं। जी लिए बहुत विचार में और कुछ भी नहीं पाया। सोच लिया खूब, कुछ भी नहीं मिला। कर लिया सब; दुख बना रहता है, मिटता नहीं। अब हम सब दांव पर लगा देना चाहते हैं। अब हम कुछ बचाना नहीं चाहते। अब हमें आशीष दो कि हम भटक न जाएं; कि हम बीच से लौट न आएं; कि हम डगमगा न जाएं; कि हम पथ-भ्रष्ट न हो जाएं; कि हम मार्गच्युत न हो जाएं; कि हम किसी और दिशा में न बह जाएं। आशीष दो कि आप हमारे साथ रहोगे। आशीष दो कि आपकी छत्र-छाया होगी। आशीष दो कि आपकी दृष्टि हमारा पीछा करेगी; कि आप हमारे भीतर मौजूद रहेंगे और देखते रहेंगे कि हम ठीक चल रहे न! हम चूक तो नहीं रहे। यह भरोसा हमें आ जाए कि आप खड़े हो हमारे साथ; हम अकेले नहीं हैं; तो हम दूर तक की यात्रा कर लेंगे।
यात्रा तो व्यक्ति को स्वयं ही करनी है। भरोसे की कमी है। गुरु की जरूरत है भरोसे के कारण। जिस दिन तुम्हारी यात्रा पूरी हो जाएगी, उस दिन तुम पाओगे: गुरु ने कुछ भी नहीं किया और बहुत कुछ भी किया।
कुछ भी नहीं किया इस अर्थों में कि जिस दिन तुम यात्रा पूरी कर लोगे, तुम पाओगे कि गुरु पास-पास तैरता रहा; तुम्हें भरोसा बना रहा कि अगर डूबूंगा, तो कोई बचा लेगा। लेकिन तैरते तुम रहे। तुम तैरकर पहुंचे अपने आप। शायद गुरु ने हाथ भी न लगाया हो; लेकिन पास-पास तैरता रहा।
तो एक अर्थ में तो कुछ भी नहीं किया; हाथ भी नहीं लगाया। हाथ लगाने की जरूरत ही नहीं है। तुम पहुंच सकते हो, इतनी शक्ति परमात्मा ने प्रत्येक को दी है कि वापस मूलस्रोत तक पहुंच जाए। इतना पाथेय सभी के भीतर रखा है। इतना कलेवा तुम लेकर ही पैदा हुए हो कि यात्रा पूरी हो जाए, और भोजन चुके नहीं।
लेकिन तुममें भरोसे की कमी है और वह भी स्वाभाविक है। कभी जिस मार्ग पर चले नहीं, उस मार्ग पर चलने में भरोसा हो कैसे! श्रद्धा का अभाव है। आत्मश्रद्धा नहीं है। तुम्हें डर है कि मुझसे न हो सकेगा। और तुम्हारे डर के कारण हैं, सुनिश्चित कारण हैं। छोटी-छोटी चीजें की हैं और नहीं हो सकीं। कभी सिगरेट पीते थे और छोड़ना चाही--नहीं छूटी। वर्षों मेहनत की और नहीं छूटी। कितनी ही बार तय किया और नहीं छूटी। और हर बार तय करके गिरे; और हर बार तय करके पछताए; और फिर पीया, और फिर भूल की; फिर अपराध हुआ। धीरे-धीरे ग्लानि बढ़ती गयी; आत्म-विश्वास खोता गया। एक बात साफ हो गयी कि तुम्हारे किए कुछ होने वाला नहीं है। क्षुद्र सी बात नहीं छूटती!
तो जिस आदमी को सिगरेट पीना न छूट सका हो अपने ही संकल्प से, वह ध्यान में जाए--कैसे भरोसा हो।
जो आदमी कई बार निर्णय किया कि सुबह पांच बजे उठ आऊंगा ब्रह्ममुहूर्त में, और कभी नहीं उठ सका। अलार्म भी भरा। पांच बजे अलार्म भी बजा, तो गाली देकर घड़ी को भी पटक दिया। करवट लेकर फिर सो रहा। सुबह पछताया। फिर रोया, चीखा। फिर कसम खायी कि अब कल कुछ भी हो जाए, उठूंगा। फिर कल यही हुआ। कितने दिन तक ऐसा करोगे? एक दिन तुम पाओगे: यह अपने से नहीं होना। छोड़ो। सोते तो रहते ही हो, अब यह झंझट भी क्यों लेनी! उठना तो होता नहीं; होगा भी नहीं। हार गए। हार गए, तो तुम्हारे भीतर से आत्म-श्रद्धा तिरोहित हो जाएगी।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं: क्षुद्र बातों में अपने जीवन-प्रयास को मत लगाना। क्योंकि क्षुद्र से अगर हार गए, तो विराट की दिशा में जाने में अड़चन आ जाएगी। इसलिए मैं नहीं कहता कि तुम लड़ो छोटी-छोटी बातों से। छोटी-छोटी बातों से लड़ने से सिर्फ हानि होती है, लाभ कुछ भी नहीं होता है।
मैं तो तुमसे कहता हूं: लड़ना ही हो, तो किसी बड़ी बात में ही जूझना। छोटी बात में जूझना ही मत। हारोगे, तो भी कम से कम इतना तो रहेगा खयाल कि बात इतनी बड़ी थी, इसलिए हारा। छोटी बात से लड़ोगे, हारोगे, तो बड़ी ग्लानि होगी कि बात इतनी छोटी थी, और नहीं जीता!
आचार्य तुलसी लोगों को अणुव्रत समझाते हैं। मैं महाव्रत समझाता हूं। अणुव्रत खतरनाक है। छोटा सा व्रत लेना ही मत। जीते, तो कुछ लाभ नहीं।
समझो कि सिगरेट पीते थे, और जीत गए। अब नहीं पी। तो क्या खास लाभ है? कुछ खास लाभ नहीं है। जीते, तो कोई आत्म-गरिमा पैदा नहीं होगी। अगर किसी से कहोगे कि मैंने सिगरेट पीना छोड़ दिया, तो वह कहेगा: इसमें क्या रखा है! हम पहले से नहीं पीते। इसमें कोई खास बात नहीं हो गयी। धुआं भीतर ले गए; धुआं बाहर लाए! अब नहीं ले जाते, इसमें कौन सा गुण-गौरव है? इसमें तुमने कौन सी कला सिद्ध कर ली?
जीते, तो कुछ लाभ नहीं। और अगर हारे...। और सौ में निन्यानबे मौके हैं हारने के, जीतने के नहीं। अगर हारे--जिसके निन्यानबे मौके हैं--तो बड़ी हानि है।
मैंने सुना है, ईसप की कहानी है: एक गधे ने एक सिंह को ललकारा कि आ, हो जाएं दो-दो हाथ! आज तय हो जाए कि कौन इस जंगल का राजा है। सिंह पूंछ दबाकर भाग गया! एक लोमड़ी देखती थी; वह बड़ी हैरान हुई। यह सिंह तो हाथियों की भी चुनौतियों को कभी डरा नहीं। यह गधे से पूंछ दबाकर भाग गया! मामला क्या है?
लोमड़ी ने पीछा किया। पूछा कि आप राजा हैं, सम्राट हैं, और एक गधे से...!
उसने कहा: गधे की वजह से ही भागा। अगर गधा हारा, तो हमारी जीत से कुछ लाभ नहीं। लोगे कहेंगे, क्या जीते! गधे से जीते! और बदनामी होगी। अगर गधा जीत गया भूल-चूक; गधा ही है, इसका क्या भरोसा! दुलत्ती मारे या कुछ हो जाए और कभी जीत जाए संयोग से, तो हम सदा के लिए मारे गए। हम नहीं मारे गए, हमारी संतति भी मारी गयी। फिर सदा के लिए सिंहों का सिर झुक जाएगा।
छोटे से नहीं लड़ना।
मैं भी तुमसे यही कहता हूं: छोटे से मत लड़ना। लड़ना हो, तो कोई बड़ा दुश्मन चुनना। जितना बड़ा दुश्मन चुनो, उतना लाभ है। लड़ना हो, तो धूम्रपान मत चुनना; ध्यान चुनना। लड़ो, तो सिंह से लड़ो। हारे, तो भी कहने को तो रहेगा कि सिंह से हारे। जीते, तब तो कहना ही क्या! दोनों हाथ लड्डू होंगे।
छोटे से मत लड़ना।
आचार्य तुलसी ने मुझे एक दफा निमंत्रित किया था उनके एक सम्मेलन में। मैंने उनसे कहा कि नहीं; अणुव्रत शब्द मुझे नहीं जमता। छोटी-छोटी बातों में मैं आदमी को नहीं उलझाना चाहता। छोटी-छोटी बातों में ही उलझकर आदमी मरा है। कुछ महाव्रत की बात हो।
और यह बड़े मजे की बात है कि छोटे से आदमी अक्सर हार जाता है, और बड़े से जीत जाता है। यह गणित बड़ा बेबूझ है। इसके पीछे बड़ा मनोविज्ञान है।
छोटे से आदमी क्यों हार जाता है? पहली तो बात यह कि जो छोटे से लड़ने चला है, उसने अपने को बहुत छोटा मान ही लिया। उसका भरोसा ही बहुत छोटे का हो गया। जो आदमी सिगरेट से लड़ने चला है, या पान से लड़ने चला है, या इसी तरह की छोटी-मोटी बातों से लड़ने चला है, उसने अपनी क्षुद्रता स्वीकार कर ली। इसी स्वीकार में हार है।
समझदार आदमी सिगरेट से लड़ता नहीं। अगर नहीं पीना है, तो सिर्फ छोड़ देता है; लड़ता नहीं। नहीं पीना है, तो नहीं पीता। कौन कहता है कि पीओ! सिर्फ छोड़ देता है, बिना लड़े। उसे बात दिख गयी, कि नहीं जंचती; कोई सार नहीं है। उस अंतर्दृष्टि में ही छूटना हो जाता है।
बिना लड़े हो जाए, तब तो ठीक। जो आदमी कहता है: लंगोटी बांधूंगा; और दंड-बैठक लगाऊंगा; इससे लडूंगा। वह पहले से ही हारने की बात पक्की हो गयी उसकी। वह पहले से ही डरा हुआ है। वह घबड़ा रहा है। उसकी घबड़ाहट उसे कंपा रही है। वह जानता है कि मैं जीतने वाला नहीं। वह जानता है कि घड़ीभर सिगरेट न पीऊंगा, तलब उठेगी; फिर क्या होगा!
ऐसा हुआ। पहला आदमी उत्तरी ध्रुव पर पहुंचा था। तो उसने जब लौटकर अपने संस्मरण लिखे, तो उसने संस्मरणों में लिखा कि हमें सबसे बड़ी कठिनाई तब आयी, जब सिगरेट चुक गयी। भोजन कम हो गया, तो लोग एक बार भोजन करने को राजी थे। मगर जब सिगरेट चुक गयी, तो बड़ी मुसीबत खड़ी हो गयी। लोग जहाज की रस्सियां काट-काटकर पीने लगे। रस्सियां! और जो उनका प्रमुख था, वह तो बहुत घबड़ाया। उसने कहा: ये रस्सियां तुम पी गए, तो यह जहाज चलेगा कैसे! वापस हम कैसे पहुंचेंगे?
रस्सियों को बचाना मुश्किल हो गया। क्योंकि अधिक तो धूम्रपान करने वाले लोग थे। वे रात में उठ आएं, चोरी से रस्सी काटकर पी जाएं! और कोई चीज पीने को थी भी नहीं जहाज पर; रस्सियां ही थीं, जिनमें से धुआं निकल सकता था। बामुश्किल वे लौट पाए, उन रस्सियों को किसी तरह बचा-बचाकर।
एक आदमी यह पढ़ रहा था अखबार में--हाथ में सिगरेट लिए--उसे खयाल आया कि अगर मैं भी उस यात्रा में होता...। और वह श्रृंखलाबद्ध धूम्रपान करने वाला था, चेन स्मोकर था। एक सिगरेट से दूसरी जलाए; दूसरी से तीसरी जलाए। सिगरेट हाथ से छूटे ही नहीं। अभी भी अखबार पढ़ रहा था...लेकिन उसे लगा कि अगर मैं उस यात्रा में होता, तो क्या मैंने भी जहाज की गंदी रस्सियां पी होतीं? मैंने भी? और उसने हाथ से सिगरेट छोड़ दी। और उसने कहा: अब मैं देखूंगा; जब इतनी तलब मुझमें उठे कि मैं जहाज की सड़ी-गली रस्सियों को धूम्रपान कर जाऊं, तभी सिगरेट हाथ में उठाऊंगा।
तीस साल बीत गए और उसने सिगरेट हाथ में नहीं उठायी। यह बिना लड़े छोड़ना है। यह सिर्फ एक बात दिखायी पड़ गयी--कि यह तो हद्द मूढ़ता की बात है। मगर यह क्या मेरी भी दशा यही होगी? ऐसा सोचते ही सिगरेट हाथ से छोड़ दी। छोड़ दी कहना, शायद ठीक नहीं; छूट गयी। लड़ा नहीं। सिगरेट और माचिस सदा टेबल पर रखी रही तीस साल तक, जब तक वह मरा नहीं। इस प्रतीक्षा में रहा कि उस दिन पीऊंगा, जिस दिन ऐसी दशा हो जाएगी कि अब कुछ भी पी सकता हूं। मगर वह दशा कभी न हुई। और वह बहुत हैरान हुआ: तलब उठी ही नहीं!
तुम तलब उठने के पहले ही माने हो कि उठेगी; उठने ही वाली है। बचना मुश्किल है। तुम्हारी मान्यता ही तुम्हें भरमा रही है।
छोटी-छोटी क्षुद्र बातों से मत लड़ना। और बड़ी तो एक ही बात है: लड़ना हो, तो परमात्मा के लिए लड़ना। लड़ना हो, तो ध्यान के लिए लड़ना। वहां पूरी ऊर्जा लेकर लड़ना। इस विराट की लड़ाई में तुम अकेले भी नहीं रहोगे। इस विराट की लड़ाई में, जो भी उसको उपलब्ध हो गए हैं, सबके आशीष तुम्हें उपलब्ध होंगे। आशीष लेकर लड़ना।
क्यों आशीष लेकर लड़ना? ताकि तुम्हारे साथ बुद्ध की ऊर्जा जुड़ जाए; किसी जिन की ऊर्जा जुड़ जाए; किसी संत की ऊर्जा जुड़ जाए। किसी संत का भाग्य अपने साथ जोड़ लेना--यह आशीष का अर्थ है। जब किसी संत का भाग्य अपने भाग्य से जोड़ा जा सकता हो, तो नासमझ है जो न जोड़े।
बुद्ध का आशीष लिया। चाहते थे, ध्यान की गहराइयों में उतरना है। समाधि से कम उनका लक्ष्य नहीं था।
इससे कम लक्ष्य रखना भी नहीं। छोटे-छोटे लक्ष्य रखना ही नहीं। दूर आकाश के तारे पर आंख होनी चाहिए। और अगर तुम्हें दो मील जाना हो, तो दस मील जाने का संकल्प होना चाहिए, तो दो मील पहुंचोगे। जितना तुम्हें पाना हो, उससे बड़ा संकल्प रखना।
अक्सर लोग उलटा कर लेते हैं। जाना तो चाहते हैं सूरज तक, संकल्प बड़ा छोटा सा होता है। दीए तक पहुंचने का भी नहीं होता। फिर सूरज तक कैसे पहुंचोगे?
संकल्प तो आत्यंतिक होना चाहिए। जिन लोगों ने धन को चुना है संकल्प की तरह, उन्होंने बड़े क्षुद्र को चुन लिया। जिन्होंने ध्यान को चुना है, उन्होंने ही ठीक चुना है। चुनौती बड़ी चाहिए, ताकि तुम्हारे भीतर सोयी हुई शक्तियां जाग जाएं। इसलिए क्षुद्र के साथ लड़ाई में हार हो जाती है, क्योंकि क्षुद्र की चुनौती में तुम्हारे भीतर सोयी हुई शक्तियां जागती ही नहीं। शक्तियां जागती तभी हैं, जब उनके सामने खतरा खड़ा हो जाए।
बड़ी चुनौती दो। जितनी बड़ी चुनौती होगी, उतना ही विराट तुम अपने भीतर जागता हुआ पाओगे। चुनौती का सामना करना है। चुनौती से जूझना है।
तुमने कभी खयाल किया: अगर किसी कठिनाई के समय में तुम जूझ पड़ते हो, तो तुम्हारे भीतर बड़ी ऊर्जा होती है, जैसी सामान्यतया नहीं होती।
जैसे समझो कि घर में आग लग गयी है। तुम थके-मांदे आए थे; कि सात दिन से यात्रा कर रहे थे और सारा शरीर टूट रहा था। और तुम बिलकुल थके-मांदे थे, और भूखे थे। और चाहते थे कि किसी तरह भोजन करके गिर पड़ो बिस्तर में, और खो जाओ दो दिन के लिए बिस्तर में। दो दिन उठना ही नहीं है।
घर आए। खाने की तो बात दूर, देखा कि घर में लपटें लगी हैं; आग जल रही है। सब भूल गए। सात दिन की थकान, शरीर का टूटा-फूटा होना, भूख, निद्रा--सब गयी! एक क्षण में कोई ज्योति तुम्हारे भीतर भभककर उठी। एक ऊर्जा उठी। तुम जूझ गए।
अब शायद तुम रातभर आग से लड़ते रहो और नींद नहीं आएगी। और पहले तुम सोच रहे थे कि घड़ीभर भी अगर मुझे जागना पड़ा, भोजन के तैयार होने के समय की प्रतीक्षा करनी पड़ी, तो मैं सो जाऊंगा; गिर जाऊंगा।
क्या हुआ? कहां से यह ऊर्जा आयी? एक बड़ी चुनौती सामने खड़ी हो गयी। उस बड़ी चुनौती के कारण यह ऊर्जा आयी।
चुनौतियां चुनना बड़ी कुशलता की बात है। और अगर चुनना ही हो, तो आत्यंतिक; कहो उसे समाधि, निर्वाण, मोक्ष, परमात्मा; जो नाम देना चाहो। मगर जो परमात्मा को पाने की प्रबल अभीप्सा से जग खड़ा होता है, उसके भीतर सोयी हुई अंतस्तल की सारी शक्तियां जग आती हैं। उसकी जड़ें तक कंप जाती हैं। उसके भीतर जो भी छिपा है, सब प्रगट हो जाता है। क्योंकि इस बड़ी चुनौती के सामने अब कुछ भी छिपाकर नहीं रखा जा सकता। अब तो सभी दांव पर लगाना होगा, तो ही यात्रा हो सकती है।
इसलिए कहता हूं कि छोटी-मोटी चीज से लड़ोगे, तो हारोगे। क्योंकि तुम्हारी सोयी हुई शक्तियों को चुनौती नहीं मिलती।
अब सिगरेट नहीं पीना है--यह बात ही सुनकर कोई तुम्हारी आत्मा जागने वाली है! आत्मा कहेगी कि पीओ न पीओ, ठीक है। क्या फर्क पड़ता है! कि नमक नहीं खाएंगे आज; कि आज भोजन में घी नहीं लेंगे। इन सब क्षुद्र बातों से कु
छ भी नहीं होता। कि पानी छानकर पीएंगे; कि रात पानी नहीं पीएंगे। इन सब क्षुद्र बातों से कुछ भी नहीं होता है।
ऐसी कोई चुनौती कि तीर की तरह छिद जाए, चुभ जाए, कि चली जाए भीतर तक, कि सारे सोए हुए अंतस्तल को कंपा दे; झंझावात की तरह आए, तूफान की तरह आए और तुम्हें उठा जाए। उसी उठने में पहुंचना है।
लेकिन फिर भी काश! आशीष भी मिल जाए उनका, जो पहुंच गए हैं; उनका, जिन्होंने पा लिया है; उनके हाथ का सहारा मिल जाए तो हार का कोई कारण नहीं है।
अक्सर तुम हारते हो, क्योंकि क्षुद्र से लड़ते हो; पहली बात। और कभी-कभी विराट की आकांक्षा से भी भरते हो, लेकिन तुम्हारे पास आशीष की संपदा नहीं होती। तुम अकेले पड़ जाते हो। दूर किनारा। विराट तो बहुत दूर है; पता नहीं कहां है किनारा! यह किनारा तो हमें पता है; दूसरा किनारा, वह दिखायी भी नहीं पड़ता; सागर का दूसरा किनारा; उसकी यात्रा पर चलते हो। घबड़ाहट होती है। यह किनारा छोड़ने में घबड़ाहट होती है।
इसीलिए तो जब तुम ध्यान करने बैठते हो, तो विचार का किनारा नहीं छूटता। मन पकड़-पकड़ लेता है। मन कहता है कि जो परिचित है, उसको मत छोड़ो। जिसमें परिचय है, उसमें सुरक्षा है। यह जाना-माना है; पहचाना है; अपना है; यहां रहे हैं जन्मों-जन्मों से। तुम कहां जाते हो! किस किनारे की तलाश करते हो? कहीं भटक न जाओ; कहीं सागर में डूब न जाओ! कहीं ऐसा न हो कि यह किनारा भी हाथ से जाए और दूसरा भी न मिले। दूसरा है, इसका पक्का क्या है? किसने तुमसे कहा कि दूसरा किनारा है? तुमने तो नहीं जाना। कहीं ऐसा न हो कि तुम किसी प्रवंचना में पड़ गए हो! कि किसी झूठे सपने ने तुम्हें पकड़ लिया है!
मन तुम्हारी सुरक्षा के लिए कहेगा: रुके रहो इसी किनारे पर। विचार के तट पर ही रुके रहो। विचार है यह किनारा; ध्यान है वह किनारा। विचार है संसार; ध्यान है परमात्मा।
तो तुमने देखा: तुम ध्यान करने बैठते हो, कितने विचार उठते हैं! ज्यादा उठते हैं। उससे ज्यादा उठते हैं, जितना कि जब तुम ध्यान करने नहीं बैठते। चौबीस घंटे हजार काम में लगे रहते हो, इतने विचार नहीं सताते। घंटेभर आंख बंद करके बैठ जाओ आसन लगाकर। तुम इतने हैरान हो जाते हो कि मामला क्या है! क्या विचार प्रतीक्षा ही करते थे कि करो, बच्चू ध्यान करो, फिर तुम्हें बताएंगे! सब तरफ से टूट पड़ते हैं! सब दिशाओं से हमला बोल देते हैं। जैसे प्रतीक्षा में ही थे कि करो ध्यान, तो मजा चखाएं।
आने लगते हैं सब तरह के विचार--धन के, वासना के, काम के, राजनीति के, यह-वह, कूड़ा-करकट--सब! अखबार उड़े आते हैं। सब! एक दिशा से नहीं, सब दिशाओं से हमला हो जाता है। एकदम घिर जाते हो दुश्मनों में। थोड़ी देर में थककर उठ आते हो। सोचते हो: इससे तो जब हम काम में लगे रहते हैं, तभी कम विचार होते हैं। यह तो चले थे निर्विचार होने, और विचार के झंझावात से घिर गए!
ऐसा क्यों होता है? इसलिए होता है कि मन तुम्हारी सुरक्षा कर रहा है। मन कह रहा है: कहां जाते हो! जिस लक्ष्य का कोई पता नहीं; जहां तुम कभी गए नहीं; जिसका कोई स्वाद नहीं; किस मृग-मरीचिका के पीछे जा रहे हो? व्यावहारिक बनो। जो जाना-माना है, परखा है, उसी को पकड़े रहो।
इसलिए आशीष की जरूरत है। आशीष का अर्थ है: हम तो इस किनारे हैं; उस किनारे से कोई पुकार दे दे। आशीष का अर्थ है: हम तो इस किनारे खड़े हैं, कोई उस किनारे से कह दे कि घबड़ाओ मत, मैं पहुंच गया हूं; आओ। और जैसे तुम डर रहे हो, मैं भी डरता था। डरो मत; पहुंचना होता है। देखो, मैं पहुंच गया हूं।
बुद्धों का सत्संग खोजने का और क्या अर्थ होता है! यही कि किसी ऐसे आदमी के पास होना, जो अनुभव से कह सके कि पहुंच गया हूं। शास्त्रों से नहीं, अनुभव से; जो गवाह हो, जो साक्षी हो। जो यह न कहे कि मैं परमात्मा को मानता हूं। जो कहे, मैं जानता हूं। जो इतना ही न कहे, जानता हूं; बल्कि कहे कि मैं हूं।
ये तीन अवस्थाएं हैं: मानना, जानना, होना।
मानना बहुत दूर है। वह इसी किनारे खड़ा आदमी है, जो मानता है। उसे पता नहीं है। अंधा आदमी जैसे रोशनी को मानता है कि होना चाहिए, होगी। इतने लोग कहते हैं, तो जरूर होगी। मगर संदेह तो उठते ही रहेंगे, क्योंकि उसने तो जाना नहीं; उसने तो देखा नहीं। पता नहीं, लोग झूठ ही बोलते हों! लोगों का क्या भरोसा? अपने अनुभव के बिना जानना कैसे हो? मानना भी कैसे हो? तो मानना भी थोथा होता है। सब मानना थोथा होता है। सब विश्वास अंधविश्वास होते हैं।
फिर एक आदमी है, जिसकी आंख खुली और जिसने देखा--और देखा कि हां, रोशनी है। वृक्षों पर नाचती हुई किरणें देखीं। आकाश में उगा सूरज देखा। रात में घिरा आकाश चांद-तारों से भरा देखा। देखे फूल। हजार-हजार रंग देखे। आकाश में खिले इंद्रधनुष देखे। देखा सब, और कहा कि नहीं; है। यह जानना हुआ।
इसके आगे एक और स्थिति है, जब आदमी जानता ही नहीं; आंख ही नहीं हो जाता; बल्कि रोशनी ही हो जाता है; जब स्वयं प्रकाशरूप हो जाता है।
इसलिए बुद्ध को हम भगवान कहते हैं, महावीर को भगवान कहते हैं। जाना ही नहीं--हो गए। जो जाना--वही हो गए।
जानने में थोड़ी दूरी होती है। मानने में तो बहुत दूरी होती है। जानने में थोड़ी दूरी होती है। देख रहे हैं, वह रहा प्रकाश; हम खड़े यहां! फिर धीरे-धीरे दूरी मिटती जाती है, मिटती जाती है। और जो जाना जा रहा है, और जो जानने वाला है--एक ही हो जाते हैं। ज्ञाता और ज्ञेय का भेद गिर जाता है। वहीं परम ज्ञान है।
ऐसे किसी व्यक्ति का आशीष मिल जाए, तो तुम्हारे भीतर उत्साह और उमंग भर जाती है। श्रद्धा का सूत्रपात होता है। संवेग पैदा होता है। कोई पहुंच गया है, तो हम भी पहुंच सकते हैं। कोई पहुंच गया है, तो दूसरा किनारा है।
इसलिए आशीष मांगने आए थे।
बुद्ध जिस कुटी में रहते थे, उसका नाम था गंधकुटी। बुद्ध की सुगंध के कारण। एक सुवास है आत्मा की। जैसे फूल जब खिलते हैं, तो एक सुवास होती है। कागज के फूलों में नहीं होती। कागज के फूल कभी खिलते ही नहीं। असली फूलों में होती है सुवास!
साधारण आदमी में सुवास नहीं होती। वह करीब-करीब कागज का फूल है। कागज का, क्योंकि उसने सब झूठ का जाल अपने चारों तरफ बना रखा है। उसने दूसरों को धोखा दिया है; अपने को भी धोखा दे लिया है। प्रवंचक है। मिथ्या है। झूठ ही झूठ की पर्तें हैं। सच उसमें खोजे से नहीं मिलता। कितना ही खोदो, एक झूठ के बाद दूसरा झूठ; दूसरे झूठ के बाद तीसरा झूठ। कितना ही खोदो--एक मुखौटा, दूसरा मुखौटा; मुखौटे पर मुखौटे! उसके असली चेहरे का पता नहीं चलता कि असली चेहरा क्या है! और ऐसा नहीं कि तुम्हें पता नहीं चलता; उसे खुद भी पता नहीं रहा है। उसे खुद भी अपने असली चेहरे का पता नहीं है।
बुद्ध की परंपरा में भिक्षुओं से निरंतर कहा गया है: अपने असली चेहरे की खोज करो। वह चेहरा जो जन्म के पहले तुम्हारा था और मृत्यु के बाद फिर तुम्हारा होगा। उस चेहरे की खोज करो। जो चेहरे जिंदगी ने तुम्हें दे दिए, इन चेहरों को उतारकर रखो। वे सब चेहरे झूठ हैं।
बच्चा पैदा हुआ, तब न तो हिंदू होता, न मुसलमान; न ईसाई, न जैन, न बौद्ध। यह असली बात है। फिर उसके ऊपर एक चेहरा हमने टांग दिया कि यह हिंदू, यह मुसलमान, यह ईसाई। फिर हिंदू में भी ब्राह्मण, कि शूद्र, कि क्षत्रिय, कि वैश्य! फिर ब्राह्मणों में भी कान्यकुब्ज ब्राह्मण, कि देशस्थ, कि कोकणस्थ। फिर रोग पर रोग हैं; बीमारियों पर बीमारियां हैं! खोजते चले जाओ, चेहरे पर चेहरे हैं। इसका असली चेहरा पता ही नहीं चलेगा।
जब यह पैदा हुआ था, तब इसे यह भी पता नहीं था कि मैं स्त्री हूं या पुरुष। तब यह बस था। तब इसे कुछ पता नहीं था। इसका देह-भाव नहीं था। सिर्फ आत्म-भाव था। मैं हूं--बस, इतना था। अब यह स्त्री है, पुरुष है। हिंदू है, मुसलमान है। गरीब है, अमीर है। ज्ञानी है, अज्ञानी है। साधु है, असाधु है। ये सब चेहरे! ये सब चेहरे इसने खरीदे बाजार से। स्कूलों में बिकते हैं, कालेजों में बिकते हैं, यूनिवर्सिटीज में बिकते हैं। सब तरफ चेहरे बिकते हैं। अब यह एम.ए. हो गया; अब यह पीएच.डी. हो गया; अब यह डी.लिट. हो गया!
यहां इस आश्रम में तुम्हें बहुत से पीएच.डी. बुहारी लगाते हुए मिल जाएंगे। उन्होंने चेहरा उतारकर रख दिया। तुम पहचान भी न सकोगे कि ये पीएच.डी. हैं। बुहारी लगाते हैं। उतारकर रख दिया चेहरा।
अभी एक युवती आयी। मेडीसिन में पीएच.डी. है। मैंने उससे कहा कि तेरा क्या इरादा है? उसने कहा कि बस, मुझे झाडू लगानी है। किसी को मैं बताना भी नहीं चाहती कि मैं पीएच.डी. हूं मेडीसिन में। मुझे डाक्टर नहीं बनना है। तो मैंने कहा कि हमें एक अस्पताल की तो जरूरत है ही; संन्यासी बीमार पड़ते हैं। तो उसने कहा: अस्पताल में बुहारी लगा दूंगी। मगर नहीं; यह चेहरा मैं नहीं चाहती। मैं इतनी दूर से सिर्फ यहां बुहारी लगाने आयी हूं।
चेहरे उतारने पड़ते हैं। उतारकर रख देने पड़ते हैं।
पश्चिम से युवक-युवतियां संन्यास लेते हैं आकर। वे कहते हैं: अजीब बात है! हिंदुस्तान में जो मिलता है, पहले यही पूछता है, डिग्री क्या! कहां तक पढ़े हो! ये बे-पढ़े-लिखों के सवाल हैं। पढ़ा-लिखा आदमी नहीं पूछता यह बात। पढ़ा-लिखा इसको क्या पूछेगा! ये बे-पढ़े-लिखों के सवाल हैं।
हिंदुस्तान तो बड़ा अजीब है। कहते हैं बड़ा आध्यात्मिक है, दिखता नहीं। लोग मिले नहीं...। ट्रेन में मिल जाएं, पूछते हैं: क्या काम करते हैं? क्या तनख्वाह? ऊपर से क्या मिलता है?
एक तो तनख्वाह पूछना ही अपमानजनक है। किसी आदमी की तनख्वाह नहीं पूछनी चाहिए। क्योंकि हो सकता है, बेचारे की छोटी तनख्वाह हो। और कहने में संकोच हो; और झूठ बोलना पड़े। उसकी नौकरी छोटी-मोटी हो। वह क्लर्क हो, कि किसी प्राइमरी स्कूल में मास्टर हो। अब तुम उसकी भद्द करवाने पर राजी हो।
या तो वह सच बोले, तो अपमानजनक मालूम पड़ता है। या झूठ बोले। तुम उसे झूठ बोलने की उत्तेजना दे रहे हो। फिर तनख्वाह क्या मिलती है! और इतने तक चैन नहीं है आध्यात्मिक लोगों को। आखिरी में पूछते हैं, ऊपर भी कुछ मिलता है कि नहीं? अगर ऊपर मिलता है, तो नौकरी अच्छी।
हद्द हो गयी! ऊपर मिलने का मतलब क्या होता है? चोरी, बेईमानी, रिश्वत।
ये सब थोथे चेहरे हैं। और इन थोथे चेहरों पर हमें बड़ा भरोसा है। इसलिए तुम्हारी जिंदगी में सुवास नहीं है। कागज के फूलों में गंध नहीं होती। तुम्हारा असली फूल तो मरा जा रहा है। तुम्हारा गुलाब का फूल तो सड़ा जा रहा है। कागज के फूलों ने चारों तरफ से उस पर घेरा डाल दिया है। उसको सांस लेने की सुविधा नहीं है। तुम्हारे गुलाब के फूल को अवसर नहीं है कि वह सांस ले ले; कि वह रोशनी में उठ जाए; कि पखुड़ियां खोल दे; जगह नहीं है; अवकाश नहीं है। सब स्थान कागज के फूलों ने भर दिया है।
बुद्ध में गंध होती है, क्योंकि बुद्ध के सब कागज के फूल गिरा दिए गए, जला दिए गए। बुद्ध का अर्थ होता है, जिसने अपने असली चेहरे को पा लिया। अब जो फिर वैसा हो गया, जैसा निर्दोष बच्चा होता है; पहले दिन का बच्चा होता है। सिर्फ है। न कोई परिभाषा, न कोई सीमा। असीम हो गया फिर। इस सरलता में सुगंध है, सुवास है। सरलता के अतिरिक्त और कहीं सुवास नहीं। इस सहजता में सुगंध है।
इसलिए बुद्ध की कुटी का नाम था गंधकुटी। वहां फूल खिला था--मनुष्यता का फूल। याद रखना: तुम भी फूल हो; चाहे अभी कली में दबे हो, या हो सकता है, अभी कली भी पैदा न हुई हो; अभी किसी वृक्ष की शाखा में दबे हो। या हो सकता है, अभी वृक्ष भी पैदा न हुआ हो और किसी बीज में पड़े हो। मगर तुम भी फूल हो। और अपनी सुगंध को खोजना है। और अपनी सुगंध को मुखर करना है; अपनी सुगंध को प्रगट करना है। अभिव्यंजना देनी है। जो गीत तुम्हारे भीतर पड़ा है, उसे गाया जाना है। और जो नाच तुम्हारे भीतर पड़ा है, उसे नाचा जाना है।
नाचोगे, गाओगे, खिलोगे तो ही परितृप्ति है। उस परितृप्ति में ही, उस संतोष में ही एक सुगंध है। जो इन नासापुटों से नहीं पहचानी जाती। उसे पहचानने के लिए भी और नासापुट चाहिए। जैसे भीतर की आंख होती है, ऐसे भीतर के नासापुट भी होते हैं।
जरूरी नहीं कि तुम बुद्ध के पास जाओ, तो तुम्हें सुगंध मिले। तुम अगर अपनी दुर्गंध से बहुत भरे हो, तो शायद तुम्हें बुद्ध की सुगंध का पता भी न चले। तुम अगर अपने शोरगुल से बहुत भरे हो, तो तुम्हें बुद्ध का शून्य, और संगीत उस शून्य का कैसे सुनायी पड़ेगा!
गंधकुटी के चारों ओर जुही के फूल खिले थे।
शास्ता ने उन भिक्षुओं को कहा: भिक्षुओ! जुही के खिले इन फूलों को देखते हो!...
एक फूल तो बुद्ध का खिला था। मगर शायद अभी ये भिक्षु उसे नहीं देख सकते, इसलिए मजबूरी है और बुद्ध को कहना पड़ा: भिक्षुओ! इन जुही के खिले फूलों को देखते हो? ये सुवासित फूल, इन पर ध्यान दो। इन फूलों में कई राज छिपे हैं। एक तो कि ऐसे ही फूल तुम हो सकते हो। ऐसी ही सुवास तुम्हारी हो सकती है।
दूसरा: ये फूल सुबह खिलते हैं, सांझ मुर्झा जाते हैं। ऐसा ही यह मनुष्य का जीवन है। इसमें मोह मत लगाना। यह आया है, यह जाएगा। इस पर मुट्ठी मत बांधना। इसके साथ कृपणता का संबंध मत जोड़ना। यह तो आया है और जाएगा। जन्म के साथ ही मृत्यु का आगमन हो गया है।
ये फूल अभी कितने खुश दिखायी पड़ते हैं। सांझ मुर्झा जाएंगे; गिर जाएंगे धूल में और खो जाएंगे। ऐसा ही जीवन है।
जो जीवन को पकड़ना चाहता है, वह सदा दुख में ही रह जाता है। जीवन को पकड़ो मत। यह पकड़ा जा नहीं सकता। बहता है, बहने दो। इसे समझो। यह ध्यान की आधारशिला है।
तुम्हारे जीवन का दुख क्या है? तुम्हारे जीवन का मौलिक दुख यही है कि जो रुकेगा नहीं, उसे तुम रोकना चाहते हो। तुम्हारे जीवन का मौलिक दुख यही है कि जो नहीं होगा, उसे तुम करना चाहते हो; जो हो ही नहीं सकता।
जैसे तुम जवान हो, तो तुम सदा जवान रहना चाहते हो। यह हो ही नहीं सकता, तो दुखी होने वाले हो। दुख कोई तुम्हें दे नहीं रहा है। तुम अपना दुख पैदा कर रहे हो। जवान को बूढ़ा होना ही पड़ेगा। इसमें कुछ बुराई भी नहीं है। प्रवाह है। जवानी का अपना सौंदर्य है; बुढ़ापे का अपना सौंदर्य है। और अगर बुढ़ापा तुम्हें कुरूप दिखायी पड़ता है, तो उसका एक ही कारण है कि यह ब़ूढा आदमी अभी भी जवानी को पकड़ने की कोशिश में होगा, जो इसके हाथ से छूट गयी है। इसलिए बुढ़ापे का निश्चिंत भोग नहीं कर पा रहा है।
नहीं तो बचपन का अपना सौंदर्य है; जवानी का अपना सौंदर्य है; बुढ़ापे का अपना सौंदर्य है। और ध्यान रखना: बुढ़ापे का सौंदर्य सबसे बड़ा सौंदर्य है, क्योंकि सबसे अंत में आता है। वह फूल आखिरी है।
इसलिए तो इस देश में हम बूढ़े को आदर देते हैं। सब बूढ़े आदर के योग्य होते नहीं, इसे जानकर भी देते हैं। मान्यता भीतर यह है कि अगर कोई आदमी बचपन में पूरी तरह बचपन जीया हो, और जब बचपन चला गया, तो पीछे लौटकर न देखा हो; दो आंसू न बहाए हों उसके लिए। जवानी में पूरी जवानी जीया हो। और जब जवानी चली गयी, तो लौटकर न देखा हो। वह आदमी पूरा बुढ़ापा जीएगा। उसके बुढ़ापे में प्रज्ञा होगी, बोध होगा, समझ होगी।
बच्चा तो कितना ही निर्दोष हो, फिर भी अबोध होता है। उसकी निर्दोषता में एक तरह का अज्ञान होता है। उसकी निर्दोषता अज्ञान की पर्यायवाची होती है। वह निर्दोष है, क्योंकि अभी उसने जाना नहीं है।
जवानी जिद्दी होती है। जवानी सपनों से भरे हुए समय का नाम है। जवानी हजार सपने देखती है और हजार तरह की विपदाओं में पड़ती है। जवानी में हजार तरह की मूढ़ताएं सुनिश्चित हैं। जवानी एक तरह की मूढ़ता है। एक तरह का नशा है जवानी। एक तरह की मदहोशी है। जवानी में बड़ी गति है, और बड़ी त्वरा है, और बड़ी ऊर्जा है, लेकिन बड़ी विक्षिप्तता भी है।
बुढ़ापे में जवानी की मूढ़ता गयी, विक्षिप्तता गयी, पागलपन गया। जवानी का जोश-खरोश गया। जवानी की उत्तेजना, ज्वर गया। बचपन का अज्ञान गया।
जीवन के सारे अनुभव बूढ़े को ताजा कर जाते, निखार जाते, शुद्ध कर जाते। अब न वासना के अंधड़ उठते, न बचपन का अज्ञान खिलौनों में उलझाता। न जवानी की विक्षिप्तता पद, धन, प्रतिष्ठा की दौड़ में महत्वाकांक्षा जगाती। एक शांति उतरनी शुरू हो जाती है।
बूढ़ा एक अपूर्व संतोष से भरने लगता है। सब, जो देखना था, देख लिया। सब, जो जानना था, जान लिया। अब घर लौटने लगता है।
लेकिन हमारी तकलीफ यह है कि हममें से बहुत कम लोग बूढ़े हो पाते हैं। बूढ़े हों कैसे? जो बूढ़े हैं, वे भी अभी जवानी का विचार करते रहते हैं; बचपन का विचार करते रहते हैं। कहते हैं: अरे! वे दिन गजब के थे!
जो आदमी यह कहे कि जो दिन बीत गए, वे गजब के थे, समझना: यह आदमी बढ़ नहीं पाया। यह प्रौढ़ नहीं हुआ। क्योंकि अगर वे दिन गजब के थे, तो ये दिन और गजब के होने चाहिए, क्योंकि उन्हीं गजब के दिनों के ऊपर खड़े हैं। और जब ये दिन गजब के नहीं हैं, तो वे दिन भी गजब के नहीं हो सकते। जब बुढ़ापे में सौंदर्य नहीं है, तो जवानी कैसे सुंदर रही होगी? अगर गंगा सागर में गिरने के करीब गंगा नहीं है, तो गंगोत्री में कैसे गंगा रही होगी?
बूढ़ा आदमी एक अभिनव सौंदर्य से भर जाता है। उसके सौंदर्य में एक शीतलता होती है; जवानी की गर्मी नहीं। और बूढ़ा आदमी फिर सरल हो जाता है। लेकिन उसकी सरलता में बुद्धिमत्ता होती है--बच्चे का अज्ञान नहीं। बुढ़ापा अदभुत है।
और जो आदमी ठीक से बूढ़ा हो गया--न पीछे लौटकर देखता जवानी को, न याद करता बचपन को--वह आदमी अब मृत्यु में भी उतने ही आनंद से प्रवेश कर सकेगा। क्योंकि बुढ़ापे का डर क्या है कि कहीं मैं बूढ़ा न हो जाऊं। वह डर यही है कि बुढ़ापे के बाद फिर आखिरी कदम मौत है।
तो जवान जवानी में ही रुक जाना चाहता है। सब तरह की चेष्टाएं करता है कि किसी तरह पैर जमाकर खड़ा हो जाऊं; यह जो नदी की धार सब बहाए ले जा रही है, यह मुझे अपवाद की तरह छोड़ दे। तो दुख ही दुख होगा।
सुख किसे होता है? सुख उसे होता है, जिसकी जीवन से कोई मांग नहीं। जीवन जो करता है, उसे स्वीकार करने का भाव है। तथाता में सुख है। जवानी, तो जवानी में; बुढ़ापा, तो बुढ़ापा। आज किसी का प्रेम मिला, तो प्रेम; और कल प्रेम खो गया, तो उतना ही शांत भाव। आज महल थे, तो ठीक; कल झोपड़े आ गए, तो ठीक।
लेकिन दुनिया में दो तरह के मूढ़ हैं। अगर झोपड़ा है, तो वे चाहते हैं, महल होना चाहिए। और अगर महल है, तो वे चाहते हैं, झोपड़ा होना चाहिए। बड़ी मुश्किल है! आदमी जहां है, वहां राजी नहीं है! अगर झोपड़ा है, तो वे कहते हैं: जब तक महल न मिल जाए, मैं सुखी नहीं हो सकता। और महल मिल जाए, तो आदमी सोचने लगता है: महलों में कहां सुख है? जब तक मैं भिखारी न हो जाऊं सड़क का, तब तक कहां सुख होने वाला है! गरीब अमीर होने की सोचता है; अमीर गरीब होने की सोचता है।
लेकिन तुम जो हो, जहां हो, उसको जीते नहीं। तुम जो हो, जिस क्षण में हो, जहां हो, जैसे हो, उस क्षण को पूरी समग्रता से जी लो। उससे अन्यथा की मांग न करो। जब वह क्षण चला जाएगा, कोई अड़चन न होगी। नया क्षण आएगा। नए क्षण के साथ नया जीवन आएगा।
तो फूलों में यह भी संदेश है। और फूलों में यह भी संदेश है कि यह जीवन सदा रहने को नहीं है। आज है, कल नहीं हो जाएगा। इसलिए यह यात्रा है, मंजिल नहीं है। यहां घर मत बना लेना।
सम्राट अकबर ने फतेहपुर सीकरी का नगर बसाया। बस तो कभी नहीं पाया। नगर बसते कहां! जब तक नगर बसा, तब तक अकबर के मरने के दिन करीब आ गए। फिर जा नहीं पाया। नगर सदा से बे-बसा रहा। लेकिन बनाया सुंदर नगर था। सुंदरतम नगरों में एक बनाया था। और एक-एक चीज बड़े खयाल से रखी थी। एक-एक चीज, एक-एक ईंट बड़े सोच-विचारकर रखी गयी थी।
जो पुल फतेहपुर सीकरी को जोड़ता है, उस पुल पर क्या वचन लिखे जाएं? तो अकबर ने सालों उस पर विचार किया था। नगरद्वार पर स्वागत के लिए क्या वचन लिखे जाएं? फिर जीसस का प्रसिद्ध वचन चुना था। वचन है कि यह संसार एक सेतु है; इससे गुजर जाना; इस पर घर मत बना लेना।
फूल में यह संदेश है: यहां सब बीत जाएगा। घर मत बना लेना। घर जो बना लेता है जीवन में, वही गृहस्थ है। और जो घर नहीं बनाता, वही संन्यस्त है।
संन्यास के लिए घर छोड़कर जाने की जरूरत नहीं है। संन्यास के लिए घर बनाने की आदत छोड़ने की जरूरत है। संन्यास के लिए यहां कोई घर घर नहीं है; सभी सराय हैं। जहां ठहरे, वहीं सराय है। इसका यह मतलब नहीं है कि सराय को गंदा करो। कि सराय है, अपने को क्या लेना-देना! इसका यह भी मतलब नहीं कि सराय कैसी भी हो, तो चलेगा। सराय को सुंदर करो। सुंदरता से रहो। लेकिन ध्यान रखो कि जो आज है, वह कल चला जाएगा। यह जीवन का स्वभाव है।
तो बुद्ध ने कहा: भिक्षुओ! जुही के इन खिले फूलों को देखते हो? ये सांझ मुर्झा जाएंगे। ऐसा ही क्षणभंगुर जीवन है। अभी है, अभी नहीं। इन फूलों को ध्यान में रखना भिक्षुओ! यह स्मृति ही क्षणभंगुर के पार ले जाने वाली नौका है।
क्यों? जो क्षणभंगुर को पकड़ना चाहता है, उसके भीतर विचारों का तूफान उठेगा। विचार हैं क्या? क्षणभंगुर को पकड़ने की चेष्टाएं। क्षणभंगुर को थिर करने की चेष्टाएं। विचार हैं क्या? घर बनाने की ईंटें। इसलिए जो क्षणभंगुर को पकड़ना नहीं चाहता, उसके भीतर विचार अपने आप क्षीण हो जाते हैं।
सार ही क्या है? जब सब चला जाना है, तो इतने सोच-विचार से क्या होगा? इतनी योजनाएं बनाने का क्या अर्थ है? अतीत चला गया; भविष्य भी आएगा और चला जाएगा; और वर्तमान बहा जा रहा है। जी लो--बजाय योजनाएं करने के।
जैसे-जैसे विचार कम होते हैं, वैसे-वैसे ध्यान प्रकट होता है। ध्यान है निर्विचार चित्त की दशा। वही नौका है। वही पार ले जाएगी।
विचारों ने बांध रखा है जंजीरों की तरह इस तट से। ध्यान ले जाएगा नौका की तरह उस तट पर।
भिक्षुओं ने फूलों को देखा और संकल्प किया: संध्या तुम्हारे कुम्हलाकर गिरने के पूर्व ही हम ध्यान को उपलब्ध होंगे, हम रागादि से मुक्त होंगे। फूलो! तुम हमारे साक्षी रहो।
भगवान ने कहा: साधु! साधु!
जब भी वे आशीष देते थे, तो यही उनका आशीष था: साधु! साधु! धन्य हो कि साधुता का जन्म हो रहा है। धन्य हो कि सरलता पैदा हो रही है। धन्य हो कि ध्यान की तरफ तुम्हारी दृष्टि जा रही है। धन्य हो कि साधना में रस उमग रहा है। साधु! साधु! ऐसा कहकर अपने आशीषों की वर्षा की। तब ये सूत्र उन्होंने कहे थे:
‘शून्य गृह में प्रविष्ट शांत-चित्त भिक्षु को भली-भांति से धर्म की विपस्सना करते हुए अमानुषी रति प्राप्त होती है।’
जो व्यक्ति शून्य गृह में ठहर जाए; जो अपने भीतर निर्विचार हो जाए; जिसके भीतर विचारों की तरंगें न उठती हों। शून्य यानी निर्विचार। जो व्यक्ति शून्य हो जाए, वही शांत-चित्त है।
जो लोग तुम्हें साधारणतः शांत-चित्त दिखायी पड़ते हैं, वह शांति सिर्फ ऊपर से साधी गयी है। क्योंकि भीतर तो विचारों का बवंडर चल रहा है। चुप होने से कोई शांत नहीं होता। न बोलने से कोई शांत नहीं होता; न सोचने से शांत होता है।
तुम ऊपर से बिलकुल पत्थर की मूर्ति बनकर बैठ सकते हो, और भीतर विचार चलते रहें, तो इस पत्थर की मूर्ति बनने से कुछ भी नहीं होगा।
एक युवक दीक्षा लेने एक सदगुरु के पास पहुंचा--एक बौद्ध भिक्षु के पास। बौद्ध भिक्षु एक बुद्ध-मंदिर में रहता था। जब वह युवक आया, तो उस गुरु ने पूछा कि पहले कहीं और कुछ स
ीखा है? उसने कहा: हां, पहले मैं एक योगी के पास सीखा हूं। क्या सीखे हो? उस युवक ने जल्दी से पालथी मार ली; पद्मासन में बैठ गया। आंखें बंद कर लीं। दो मिनट तक गुरु देखता रहा। उसने कहा कि अब आंखें खोलो और रास्ता पकड़ो।
युवक ने कहा: रास्ता पकड़ो! मैं आपके पास शिष्य होने आया हूं।
उस गुरु ने कहा: यहां पत्थर की मूर्तियां इस मंदिर में बहुत हैं। हमें और जरूरत नहीं है। इन्हीं को साफ-सम्हाल करते बहुत झंझट हो रही है। यह पद्मासन लगाकर तुम बैठ गए, लेकिन भीतर तुम्हारे मैं पूरा बाजार देख रहा हूं।
पद्मासन लगाने से क्या होगा! शीर्षासन लगाने से भी क्या होगा? भीतर से बाजार बंद होना चाहिए। वही एकमात्र वास्तविक आसन है। शरीर के आसनों में मत उलझ जाना। असली सवाल मन का है; वहां शून्यता होनी चाहिए, तो शांत-चित्त होता है कोई। और जो शांत-चित्त होता है, वही धर्म की विपस्सना कर पाता है।
विपस्सना का अर्थ होता है, लौटकर देखना। पतंजलि के शास्त्र में पतंजलि ने जिसे प्रत्याहार कहा है--पीछे लौटकर जाना; जिसको महावीर ने प्रतिक्रमण कहा है। आक्रमण यानी बाहर जाना, दूसरे पर हमला। प्रतिक्रमण यानी अपने पर आना। जिसको जीसस ने मेटानॉया कहा है--वापसी। उसी को बुद्ध विपस्सना कहते हैं।
विपस्सना का अर्थ होता है: लौटकर अपने स्रोत को देखना। जब विचारों का जाल हट जाता है और सामने सिर्फ शून्य रह जाता है, तभी तुम लौटकर पीछे देख सकते हो। नहीं तो विचार तुम्हें पकड़े रहते हैं, लौटने नहीं देते। विचारों के उलझाव के कारण तुम अपने मूलस्रोत को देखने से वंचित रह जाते हो।
जो उस मूलस्रोत को देख लेता है--यह बुद्ध का वचन बड़ा अदभुत है--वह अमानुषी रति को उपलब्ध हो जाता है। वह ऐसे संभोग को उपलब्ध हो जाता है, जो मनुष्यता के पार है।
जिसको मैंने संभोग से समाधि की ओर कहा है, उसको ही बुद्ध अमानुषी रति कहते हैं।
एक तो रति है मनुष्य की--स्त्री और पुरुष की। क्षणभर को सुख मिलता है। मिलता है, या आभास होता है कम से कम। फिर एक और रति है, जब तुम्हारी चेतना अपने ही मूलस्रोत में गिर जाती है; जब तुम अपने से मिलते हो। एक तो रति है दूसरे से मिलने की। और एक रति है अपने से मिलने की। जब तुम्हारा तुमसे ही मिलना होता है, उस क्षण जो महाआनंद होता है, वही समाधि है।
संभोग में समाधि की झलक है; समाधि में संभोग की पूर्णता है।
‘जैसे-जैसे भिक्षु पांच स्कंधों--रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान--की उत्पत्ति और विनाश पर विचार करता है, वैसे-वैसे वह ज्ञानियों की प्रीति और प्रमोदरूपी अमृत को प्राप्त करता है।’
एक तो अज्ञानी का प्रेम है; एक ज्ञानी का प्रेम है। धन्यभागी हैं वे, जो ज्ञानी की प्रेम-दशा को पा लें। अभागे हैं वे, जो अज्ञानी के प्रेम में ही पड़े रहें और भटक जाएं।
इनके भेद को खयाल में लेना।
अज्ञान से भरा हुआ प्रेम क्या है? अज्ञान से भरा हुआ प्रेम ऐसा है, जिसमें प्रेम का कोई कण भी नहीं है। कुछ और ही है; बात कुछ और ही है। तुम अकेले होने में ऊबते हो, इसलिए किसी को प्रेम करते हो। कि अकेले होने में मजा नहीं आता है, अकेले होने में ऊब आती है, उदासी आती है; अकेले होने में घबड़ाहट होती है--किसी का साथ चाहिए। किसी का साथ तुम्हारे लिए एक जरूरत है; यह अज्ञानी का प्रेम है।
ज्ञानी का प्रेम क्या है? ज्ञानी अकेले होने में परम आनंद से भरता है। अकेले होने में परेशान नहीं होता; अकेले होने में परम आनंद से भरता है। लेकिन इतने आनंद से भर जाता है कि अब उस आनंद को बांटना चाहता है; किसी को देना चाहता है।
अज्ञानी का प्रेम मांगता है; ज्ञानी का प्रेम देता है।
बुद्ध ने खूब दिया। समस्त सदगुरुओं ने दिया। मिलेगा, तो देना ही पड़ेगा। जब दीया जलेगा, तो रोशनी बिखरेगी। और जब फूल खिलेगा, तो सुगंध उड़ेगी हवाओं पर। इसे रोका नहीं जा सकता।
अज्ञानी का प्रेम कैसा है? अज्ञानी का प्रेम ऐसा है कि मिल जाए। भिखारी का प्रेम है। पति पत्नी से चाह रहा है कि कुछ दो। मैं अकेले में बड़ा उदास हो रहा हूं। मुझे कुछ रस दो। और पत्नी भी कह रही है कि मुझे कुछ रस दो। दोनों भिखारी एक-दूसरे से मांग रहे हैं; देने की तैयारी किसी की भी नहीं है। तो कलह तो होगी ही। इसलिए पति-पत्नी के बीच जो कलह है, वह शाश्वत है। उस कलह का मूल कारण पति और पत्नी की कोई खराबी नहीं है; अज्ञानी का प्रेम है। दोनों मांग रहे हैं!
दो भिखारी रास्ते पर खड़े हो गए। समझ लो कि दोनों अंधे भिखारी हैं। इसलिए देख भी नहीं पाते कि दूसरा भी भिखारी है। दोनों एक-दूसरे के सामने हाथ फैलाए खड़े हैं कि कुछ मिल जाए। दया करो।
वही दशा है पति-पत्नियों की। अंधे; देख भी नहीं सकते कि दूसरा बेचारा खुद ही भिखारी है; इससे क्या मांग रहे हैं! और दूसरा भी मांग रहा है कि कुछ मिल जाए। और दोनों ही दुखी होंगे, क्योंकि मिलना तो है नहीं। देने की तैयारी किसी की वहां है नहीं। देने को वहां कुछ है ही नहीं, तैयारी भी कैसे हो! सब खाली-खाली है; रिक्त है।
इसलिए इस जगत में सभी प्रेमी समझते हैं कि धोखा दिया गया; कि कहां से इस स्त्री की झंझट में पड़ गया! इतनी स्त्रियां थीं, जिनसे मिल सकता था।
किसी से नहीं मिलने वाला था। तुम उनके पतियों से तो पूछो जाकर कि उनको क्या मिला! वे सोचते हैं कि शायद तुम्हारी पत्नी मिल जाती, तो उन्हें कुछ मिल जाता!
मैंने सुना है: एक यहूदी पुरोहित को एक युवक ने आकर कहा कि मुझे क्षमा कर दें। मुझे बिलकुल क्षमा कर दें! मैं महापापी हूं। यहूदी पुरोहित ने कहा: लेकिन मुझे पता तो चले कि क्या पाप है। उस युवक ने कहा: मत पूछें। बस, मुझे क्षमा कर दें। यह पाप ऐसा है कि मैं कह न सकूंगा। लेकिन, पुरोहित ने कहा, तुम मुझसे कह सकते हो। और बिना जाने मैं क्षमा भी कैसे कर दूं!
तो मजबूरी में उस युवक ने कहा कि मामला यह है कि कई बार मेरे मन में आपकी पत्नी के प्रति वासना उठती है। मुझे क्षमा कर दें।
उस यहूदी पुरोहित ने उसके सिर पर हाथ रखा और कहा: बेटा, घबड़ा मत। मेरे मन में भी तेरी पत्नी के प्रति विचार उठते हैं। तू निश्चिंत रह। इसमें कुछ अपराध नहीं है, क्योंकि यह हालत मेरी भी है।
यही हालत है। जो तुम्हें नहीं मिला है, सोचते हो, शायद उससे मिल जाता।
इस जगत में भिखारी भिखारियों के सामने खड़े हैं। किसी सम्राट को खोजो। मगर सम्राट को खोजने का ढंग सम्राट होना है। इसलिए बड़ी मुसीबतें हैं। सम्राट के पास सम्राट होकर ही पहुंच सकते हो। भिखारी को राजमहल में प्रवेश भी नहीं मिलेगा।
सम्राट को खोजने का उपाय सम्राट होना है। अगर बुद्धों से सत्संग चाहते हो, तो ध्यानी बनो। धीरे-धीरे तुम्हारा सम्राट भी भीतर पैदा हो। फिर खूब प्रेम बरसता है। प्रेम ही प्रेम बहता है। प्रेम की रसधार बहती है।
वह जैसे-जैसे विपस्सना को उपलब्ध होता है, और जैसे-जैसे देखता है: संसार में सब क्षणभंगुर है; यहां कुछ ठहरने वाला नहीं है; वैसे-वैसे ज्ञानियों की प्रीति और प्रमोदरूपी अमृत को प्राप्त करता है।
और जब देने की कला आ जाती है, और देने की क्षमता आ जाती है, तो सुख है। सुख देने में है, लेने में नहीं।
तुमने भी कभी-कभी जीवन में निरीक्षण किया होगा इस बात का कि जब तुम देते हो, तब एक तरह का सुख मिलता है। कुछ भी, थोड़ा सा भी दे दो। और जब तुम लेते हो, तब पीछे थोड़ी सी ग्लानि होती है। लेने में तुम दीन हो जाते हो।
इसलिए एक बात जानना: अगर तुम किसी को कुछ दो, तो खयाल रखना, वह तुम्हें कभी क्षमा नहीं कर पाएगा। वह तुमसे बदला लेगा। इसलिए अक्सर होता है, लोग कहते हैं: हमने तो नेकी की; हमें बदले में बदी मिली! इसमें राज है। इसलिए ज्ञानियों ने कहा, नेकी कर और कुएं में डाल। फिर उसको बिलकुल भूल ही जा। उसकी याद ही मत दिलाना, नहीं तो जिस आदमी के साथ नेकी की है, वही तेरी गरदन काटेगा। क्योंकि उसको तूने दीन कर दिया।
एक आदमी आया। तुमने उसे सौ रुपए दे दिए। और तुम्हारे मन में बड़ा नेकी का भाव उठा कि देखो, कितना गजब का काम कर रहे हैं! इसको सौ रुपए दे रहे हैं! तुम तो गजब काम कर रहे हो, उस आदमी पर क्या गुजर रही है? वह यह देख रहा है कि अच्छा, कभी मौका मिला, तो देख लेंगे। तुम ऐसे अकड़े जा रहे! ऐसे फूले जा रहे हो! आज हम मुसीबत में हैं, ठीक है। हाथ फैलाने पड़े तुम्हारे सामने, ठीक है।
वह सदा प्रार्थना करेगा कि कभी ऐसा दिन आए कि तुम भी हमारे सामने हाथ फैलाओ। तभी वह तुम्हें क्षमा कर पाएगा। नहीं तो क्षमा नहीं कर पाएगा। वह तुम्हारा दुश्मन हो गया। तुमने एक दुश्मन बना लिया।
देना इस ढंग से कि लेने वाले को पीड़ा न हो। तो ही...। नहीं तो तुम क्षमा नहीं किए जा सकोगे। देना इस ढंग से कि लेने वाले को पता न चले। इसलिए गुप्त-दान की महिमा है। देना इस ढंग से कि लेने वाले को यह खयाल ही न हो कि देने वाला वहां अकड़कर खड़ा था और देने में मजा ले रहा था।
देना विनम्रता से। देना झुक कर। हाथ तुम्हारा नीचा हो, इस ढंग से देना। लेने वाले का हाथ ऊपर रहे, इस ढंग से देना। ताकि लेने वाले को ऐसा लगे कि लेकर उसने तुम पर कृपा की है, अनुग्रह किया है। फिर तुम्हारे लिए कभी नेकी के बदले में बदी नहीं मिलेगी।
जिसके भीतर देने की पात्रता आ जाती है, पात्र भर जाता है प्रेम से, उसी के भीतर प्रमोद होता है। प्रमोद है देने का आनंद। सबसे बड़ा आनंद है इस जगत में, देने का आनंद। और सबसे बड़ी देने की चीज है इस जगत में ध्यान। नंबर दो पर प्रेम। ये दो बड़ी से बड़ी संपदाएं हैं--ध्यान की और प्रेम की।
‘जो सेवा-सत्कार स्वभाव वाला है और आचार-कुशल है, वह आनंद से ओतप्रोत होकर दुख का अंत करेगा।’
‘जैसे जुही अपने कुम्हलाए फूलों को छोड़ देती है, वैसे ही हे भिक्षुओ! तुम राग और द्वेष को छोड़ दो।’
दूसरा दृश्य:
श्रावस्ती का एक निर्धन पुरुष हल चलाकर किसी भांति जीवन-यापन करता था। वह अत्यंत दुखी था, जैसे कि सभी प्राणी दुखी हैं।
फिर उस पर बुद्ध की ज्योति पड़ी। वह संन्यस्त हुआ। किंतु संन्यस्त होते समय उसने अपने हल-नंगल को विहार के पास ही एक वृक्ष पर टांग दिया। अतीत से संबंध तोड़ना आसान भी तो नहीं है, चाहे अतीत में कुछ हो या न हो। न हो तो छोड़ना शायद और भी कठिन होता है।
संन्यस्त हो कुछ दिन तो वह बड़ा प्रसन्न रहा और फिर उदास हो गया। मन का ऐसा ही स्वभाव है--द्वंद्व। एक अति से दूसरी अति। इस उदासी में वैराग्य से वैराग्य पैदा हुआ। वह सोचने लगा: इससे तो गृहस्थ ही बेहतर थे। यह कहां की झंझट मोल ले ली! यह संन्यस्त होने में क्या सार है?
इस विराग से वैराग्य की दशा में वह उस हल को लेकर पुनः गृहस्थ हो जाने के लिए वृक्ष के नीचे गया। किंतु वहां पहुंचते-पहुंचते ही उसे अपनी मूढ़ता दिखी। उसने खड़े होकर ध्यानपूर्वक अपनी स्थिति को निहारा--कि मैं यह क्या कर रहा हूं।
उसे अपनी भूल समझ आयी। पुनः विहार वापस लौट आया। फिर यह उसकी साधना ही हो गयी। जब-जब उसे उदासी उत्पन्न होती, वह वृक्ष के पास जाता; अपने हल को देखता और फिर वापस लौट आता।
भिक्षुओं ने उसे बार-बार अपने हल-नंगल को देखते और बार-बार नंगल के पास जाते देख उसका नाम ही नंगलकुल रख दिया!
लेकिन एक दिन वह हल के दर्शन करके लौटता था कि अर्हत्व को उपलब्ध हो गया। और फिर उसे किसी ने दुबारा हल-दर्शन को जाते नहीं देखा। भिक्षुओं को स्वभावतः जिज्ञासा जगी: इस नंगलकुल को क्या हो गया है! अब नहीं जाता है उस वृक्ष के पास! पहले तो बार-बार जाता था।
उन्होंने पूछा: आवुस नंगलकुल! अब तू उस वृक्ष के पास नहीं जाता, बात क्या है?
नंगलकुल हंसा और बोला: जब तक आसक्ति रही अतीत से, जाता था। जब तक संसर्ग रहा, तब तक गया। अब वह जंजीर टूट गयी है। मैं अब मुक्त हूं।
इसे सुन भिक्षुओं ने भगवान से कहा: भंते! यह नंगलकुल झूठ बोलता है। यह अर्हत्व प्राप्ति की घोषणा कर रहा है। यह कहता है, मैं मुक्त हूं!
भगवान ने करुणा से उन भिक्षुओं की ओर देखा और कहा: भिक्षुओ! मेरा पुत्र अपने आपको उपदेश दे प्रव्रजित होने के कृत्य को समाप्त कर लिया है। उसे जो पाना था, उसने पा लिया है और जो छोड़ना था, छोड़ दिया है। वह निश्चय ही मुक्त हो गया है।
तब उन्होंने ये दो सूत्र कहे:
अत्तना चोदय’त्तानं पटिवासे अत्तमत्तना।
सो अत्तगुत्तो सतिमा सुखं भिक्खु विहाहिसि।।
अत्ता हि अत्तनो नाथो अत्ता हि अत्तनो गति।
तस्मा सञ्ञमत्तानं अस्सं भद्रं’व वाणिजो।।
‘जो आप ही अपने को प्रेरित करेगा, जो आप ही अपने को संलग्न करेगा, वह आत्म-गुप्त--अपने द्वारा रक्षित--स्मृतिवान भिक्षु सुख से विहार करेगा। वह मुक्त हो जाता है।’
‘मनुष्य अपना स्वामी आप है; आप ही अपनी गति है। इसलिए अपने को संयमी बनावे, जैसे सुंदर घोड़े को बनिया संयत करता है।’
पहले दृश्य को समझ लें। प्यारा दृश्य है।
एक निर्धन आदमी बुद्ध के विहार के पास ही अपना हल चलाकर छोटी-मोटी खेती-बाड़ी करता था। निर्धन था बहुत। किसी भांति जीवन-यापन होता था। दो सूखी रोटी मिल जाती थी। फटे-पुराने वस्त्र; नंगा नहीं था। रूखी-सूखी रोटी; भूखा नहीं था। मगर जीवन में और कुछ भी न था। एक गहन बोझ की तरह जीवन को ढो रहा था।
वह अत्यंत दुखी था, जैसे कि सभी प्राणी दुखी हैं।
गरीब दुखी हैं, गरीबी के कारण नहीं। क्योंकि अमीर भी दुखी हैं! जो हार गए, वे दुखी हैं; हारने के कारण नहीं। क्योंकि जो जीत गए, वे भी दुखी हैं।
बुद्ध कहते हैं: यहां सभी दुखी हैं। मनुष्य होने में ही दुख समाया हुआ है।
इसलिए तुम झूठे कारणों पर मत अटक जाना। तुम यह मत कहना कि मैं गरीब हूं, इसलिए दुखी हूं। यही तो भ्रांति है। तो जो आदमी सोचता है: मैं गरीब हूं, इसलिए दुखी हूं, तो वह अमीर होने में लग जाता है। फिर अमीर होकर एक दिन पाता है कि जिंदगी अमीर होने में बीत गयी और दुखी मैं उतना का उतना हूं; शायद थोड़ा ज्यादा हो गया हूं। क्योंकि गरीब आदमी ज्यादा दुख भी नहीं खरीद सकता। गरीब की हैसियत कितनी! अमीर आदमी ज्यादा दुख खरीद सकता है। उसकी हैसियत ज्यादा है।
गरीब आदमी की...दुख में भी तो क्षमता होती है न! अब एक आदमी गरीब है, तो बैलगाड़ी में चलेगा। हवाई जहाज में उड़ने का दुख नहीं जान सकता। कैसे जानेगा? वह तो कोई हवाई जहाज में उड़े तब...!
बिड़ला परिवार की एक महिला को कोई मेरे पास लाया। उसकी कठिनाई क्या थी? उसकी कठिनाई थी: हवाई जहाज में उड़ने में उसे बड़ा भय लगता। और रेलगाड़ी में वह चल भी नहीं सकती। वह प्रतिष्ठा से नीचे है।
अब यह दुख कोई गरीब कैसे जानेगा! और हवाई जहाज में उड़ने में डर लगता है। पसीना-पसीना हो जाती है। हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। ब्लडप्रेशर बढ़ जाता है। और रेलगाड़ी में चले कैसे?
अब यह दुख कोई गरीब जान सकता है? यह बहुत मुश्किल है मामला। गरीब को यह दुख कहां! गरीब झोपड़े में रहने का दुख जान सकता है। महलों में रहने का दुख अमीर ही जान सकता है; गरीब नहीं जान सकता। गरीब रूखी-सूखी रोटी का दुख जानता है। अमीर सुस्वादु भोजनों का दुख जानता है।
यहां मेरे पास जितने अमीर आते हैं, उनके दुख अलग। जो गरीब आते हैं, उनके दुख अलग। गरीब के दुख भी बड़े दीन-हीन होते हैं। लड़के को नौकरी नहीं लग रही है! अमीर का दुख यह होता है कि लड़का शराब पी रहा है!
अब ये बड़े अलग दुख हैं। गरीब का लड़का शराब पीए तो पीए कहां से! नौकरी ही नहीं लगी है अभी; अब यह शराब तो बड़ी आगे की मंजिल है!
एक महारानी मुझसे मिलने आयीं कुछ दिन पहले। उनका लड़का दिनभर नशा किए पड़ा रहता है। और काम ही नहीं करता कुछ। उठ भी नहीं सकता बिस्तर से, इतना नशा किए रहता है।
महारानी का लड़का है! मैंने कहा: यह योग्य भी है। कोई गरीब का लड़का नहीं है। गरीब का लड़का होता, तो कुछ और तरह के दुख झेलता। अमीर का लड़का है, तो ये ही दुख झेलेगा।
अब धीरे-धीरे तो और तरह के ड्रग्स में पड़ गया है। शराब से अब काम नहीं चलता। शराब इतनी पी डाली है कि अब शराब से नशा नहीं होता। अब तो शराब ही बह रही है उसके खून में! अब तो मच्छड़ भी उनको काटते होंगे, तो नशा चढ़ता होगा! तो अब उसको और ड्रग्स चाहिए--एल.एस.डी.।
अब गरीब ने तो एल.एस.डी. का नाम भी नहीं सुना। मारिजुआना; अब गरीब ने तो यह नाम भी नहीं सुना। और अब मुंह से ही लेने से काम नहीं चलता। अब वह अपने को खुद ही इंजेक्शन मारता रहता है! और यह आखिरी दशा है। बस, उठकर सुबह से एक इंजेक्शन मार लिया; फिर पड़ गए। फिर जब होश आया, फिर एक इंजेक्शन मार लिया। अब उसकी हालत खराब होती जा रही है। रोज-रोज खराब होती जा रही है।
अब महारानी मुझसे कहती थी कि क्या करूं; इसको अमरीका ले जाऊं? मैंने कहा: अमरीका ले जाने से क्या होगा! अमरीका तो इसका यहीं आ ही गया! अमरीका में यही हो सकता था। यह तो इसने कर ही लिया। अब इसको वहां काहे के लिए ले जाना!
नहीं, उन्होंने कहा, चिकित्सा के लिए।
यह वहां जाकर और बिगड़ेगा। क्योंकि वहां और विकसित ड्रग उपलब्ध हो गए हैं। मैंने कहा: अमरीका ही ले जाओ, तो केलिफोर्निया ले जाना!
गरीब के दुख हैं छोटे-मोटे। अमीर के दुख हैं और बड़े, क्योंकि वह ज्यादा दुख खरीद सकता है। उसका फैलाव बड़ा है। वह दुखों में चुनाव भी कर सकता है। यह दुख लें कि वह दुख लें! कौन सा दुख खरीदें? भारतीय दुख खरीदें कि विदेशी दुख खरीदें? किस तरह का दुख खरीदें?
अब गरीब आदमी तो भारतीय दुख खरीद सकता है। अमीर आदमी विदेशी दुख खरीदेगा! गए पश्चिम और एक विदेशी स्त्री से विवाह कर लाए। यह विदेशी दुख है। यह बहुत कठिन दुख है।
मेरे एक मित्र हैं प्रोफेसर। एक अमरीकन युवती से विवाह करके आ गए। अब बड़े...सात साल साथ रहे। मेरे पड़ोस में ही रहते थे। जब मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक था, तब मेरे पास ही रहते थे। उनका दुख चौबीस घंटे वही। हर चीज में दुख! क्योंकि जब अमरीकन स्त्री से शादी की है, तो फिर अमरीकन लहजा चाहिए। अब अमरीकन स्त्री है, वह शराब भी पीएगी, सिगरेट भी पीएगी। अब यह इनको बहुत कठिन मालूम पड़े कि स्त्री और सिगरेट पीए! और इनके ही सामने फूंक रही है! और इनसे घर में काम भी करवाए। क्योंकि अमरीका में तो पचास-पचास प्रतिशत काम है।
ठीक भी है। जब अमरीकन स्त्री ली, तो अमरीकन दुख भी लेना पड़ेगा न! तो काम बांट दिया उसने। एक दिन मैं नाश्ता बनाऊंगी; एक दिन आप बनाएं। अब बना रहे हैं पकौड़े सुबह से! और आंखें उनकी धुआं खा रही हैं!
वे मुझसे पूछते, क्या करूं! मैंने कहा: इसमें कुछ करना नहीं है। तुम विदेशी दुख लिए हो; तुम्हें देशी दुख नहीं जंचा।
फिर वह शाम को खेलने भी जाएगी टेनिस! इनको वह चिंता लगे कि वह टेनिस खेलने गयी है! मैंने कहा: उसको खेलने दो। नहीं, खेलने की बात नहीं है, वे मुझसे कहें। वह वहां लोगों के गले में हाथ डालकर घूमती है!
विदेशी दुख तो विदेशी दुख है! कठिनाइयां हैं।
गरीब अपनी सीमा में जीता। किसी तरह अमीर हो जाता है, तब उसको पता चलता है कि यह तो मामला बिगड़ गया! यह कहां से कहां पहुंच गए!
यहां हमारे वैराग्य हैं; वे राधा के प्रेम में पड़ गए हैं। अब राधा है इटैलियन। इटैलियन मतलब: विदेशियों में भी विदेशी! अब उनको भारी कष्ट है। अब उनको चौबीस घंटे इसी की फिकर रहती है कि राधा कहां है! किससे बात कर रही है? किसके हाथ में हाथ डालकर घूमने चली गयी है?
मैंने उनसे कहा: वैराग्य! तुम गरीब घर के आदमी हो; तुम अपनी सीमा में रहो। तुम कोई भारतीय दुख खरीदो!
तो वह आदमी बड़ा दुखी था।
बुद्ध कहते हैं: दुखी होना ही आदमियत है। इसमें कारण मत खोजना कि यह कारण है, वह कारण है। आदमी जहां भी होगा, दुखी होगा। जब तक आदमी के पार न हो जाए, तब तक दुखी होगा। आदमियत कारण है। तो तुम दुख बदल ले सकते हो, मगर इससे कुछ फर्क न पड़ेगा।
उस पर बुद्ध की ज्योति पड़ी।
यह बुद्ध की ज्योति पड़ने का क्या मामला है?
अपने खेत में चलाता होगा हल-बक्खर। बुद्ध वहां से रोज निकलते होंगे। वह विहार के पास ही खेती-बाड़ी करता था। देखता होगा रोज बुद्ध को जाते। यह शांत प्रतिमा! यह प्रसादपूर्ण व्यक्तित्व! खड़ा हो जाता होगा कभी-कभी अपने हल को रोककर। दो क्षण आंख भरकर देख लेता होगा; फिर अपने हल में जुत जाता होगा। यह रोज होता रहा होगा।
जैसे रसरी आवत-जात है, सिल पर परत निशान। पत्थर पर भी निशान पड़ जाता है, रस्सा आता रहे, जाता रहे। करत-करत अभ्यास के जड़-मति होत सुजान।
रोज-रोज देखता होगा। फिर और ज्यादा-ज्यादा देखने लगा होगा। फिर बुद्ध जाते होंगे, तो पीछे दूर तक देखता रहता होगा, जब तक आंख से ओझल न हो जाएं। फिर धीरे-धीरे प्रतीक्षा करने लगा होगा कि आज अभी तक आए नहीं! कब आते होंगे! फिर किसी दिन न आते होंगे, तो तलब लगती होगी। लगता होगा कि आज आए नहीं! कभी ऐसा भी होता होगा कि बुद्ध होंगे बीमार; नहीं गए होंगे भिक्षा मांगने, तो शायद आश्रम पहुंच गया होगा! कि एक झलक वहां मिल जाए!
फिर बुद्ध को देखते-देखते बुद्ध के और भिक्षु भी दिखायी पड़ने शुरू हुए होंगे। ये बुद्ध अकेले नहीं हैं; हजारों इनके भिक्षु हैं। और सब प्रफुल्लित मालूम होते हैं! सब आनंदित मालूम होते हैं! मैं ही एक दुख में पड़ा! मैं कब तक इस हल-बक्खर में ही जुता रहूंगा?
ऐसे विचारों की तरंगें आने लगी होंगी। इन्हीं तरंगों में एक दिन बुद्ध की बंसी में फंस गया होगा।
फिर उस पर बुद्ध की ज्योति पड़ी।
एक दिन लगा होगा: मेरे पास है क्या! इस आदमी के पास सब था। राजमहल थे...। खोजबीन की होगी; पता लगाया होगा। यह आदमी कैसा! लगता इतना प्यारा और इतना सुंदर है, और है भिखारी! लगता है सम्राटों का सम्राट। चाल में इसकी सम्राट का भाव है। भाव-भंगिमा इसकी कुछ और है। यह होना चाहिए राजमहलों में; यह यहां क्या कर रहा है आदमी!
पता लगाया होगा। पता चला होगा: सब था इसके पास। सब छोड़ दिया। इसको विचार उठने लगे होंगे कि मेरे पास कुछ भी नहीं है। यह एक हल है; यह नंगल। बस यही मेरी संपत्ति है। और मेरे पास है क्या छोड़ने को! मैं भी क्यों न इस आदमी की छाया बन जाऊं? मैं भी क्यों न इसके पीछे चल पडूं? एकाध बूंद शायद मेरे हाथ भी लग जाए--जो इसका सागर है उसकी। और जब इतने लोग इसके पीछे चल रहे हैं और पा रहे हैं...। माना कि मैं अभागा हूं, लेकिन फिर भी शायद कुछ हाथ लग जाए।
धीरे-धीरे रस लगा होगा; राग लगा होगा।
धन्यभागी हैं वे, जिनका बुद्धों से राग लग जाए; जिनको बुद्धों से प्रेम हो जाए। क्योंकि उनके जीवन का द्वार खुलने के करीब है।
तो एक दिन संन्यस्त हो गया। किंतु संन्यस्त होते समय उसने अपने हल-नंगल को विहार के पास ही एक वृक्ष पर टांग दिया।
सोचा होगा कि क्या भरोसा; अनजान रास्ते पर जाता हूं--जंचे, न जंचे! आज उत्साह में, उमंग में हूं, कल पता चले कि सब फिजूल की बकवास है, तो अपना नंगल तो सम्हालकर रख दो। कभी जरूरत पड़ी, तो फिर लौट आएंगे। रास्ता कायम रखा लौटने का कि कभी अड़चन आ जाए, तो ऐसा नहीं कि सब खतम करके आ गए। फिर लौटना ही मुश्किल हो जाए।
तो विहार के पास ही एक झाड़ पर ऊपर सम्हालकर अपने नंगल को रख दिया।
यह प्रतीक है इस बात का: इसी तरह हम अपने अतीत को सम्हालकर रखे रहते हैं। संन्यस्त भी हो जाते हैं, तो अतीत को सम्हालकर रखते हैं कि लौटने के सब सेतु न टूट जाएं।
झेन फकीर रिंझाई अपने गुरु के पास गया, तो गुरु ने पूछा: सुन! तू संन्यस्त होना चाहता है; पहले तीन-चार सवालों के जवाब दे दे। कहां से आता है?
रिंझाई ने कहा: जहां से आता हूं, वहां से बिलकुल आ गया हूं। इसलिए उस संबंध में कोई जवाब नहीं दूंगा।
गुरु ने पूछा: छोड़। मुझे चावलों में बहुत रस है। वहां चावल के क्या दाम हैं, जहां से तू आता है?
रिंझाई ने कहा: सुनें! चावल के दाम जरूर वहां कुछ हैं; जरूर कुछ होंगे। लेकिन मैं वहां से आ गया हूं। और जहां से मैं आ गया हूं, वहां के चावलों के दाम मैं हिसाब में नहीं रखता; उसकी स्मृति नहीं रखता।
गुरु ने कहा: एक बात और। किस रास्ते से आया? कहां-कहां होकर आया?
रिंझाई ने कहा: आप फिजूल की बातें पूछ रहे हैं। और मैं जानता हूं कि आप क्यों पूछ रहे हैं। आप मुझे भड़काएं मत। आप मुझे उत्तेजित न करें। लेकिन यह मेरा नियम रहा है कि जिस पुल से गुजर गए, उसे तोड़ दिया। जिस सीढ़ी को पार कर गए, उसे गिरा दिया। क्योंकि लौटना कहां है? लौटना है ही नहीं। आगे जाना है।
तो गुरु ने उसे आशीर्वाद दिया और कहा कि तू ठीक-ठीक संन्यस्त होने के योग्य है।
मगर इतनी योग्यता तो कब होती है! बड़ी मुश्किल से होती है।
जो अतीत को तोड़ देता है, वही संन्यासी है। जो अतीत में अपना घर नहीं रखता, वही गृहस्थ नहीं है। जो कहता है: जो गया, गया। अब तो जो है, है। जो यहां है और अभी है।
तो यह कथा-प्रतीक प्यारा है। कि गरीब आदमी; और तो कुछ था नहीं उसके पास। कोई तिजोड़ी नहीं थी। कोई बैंक-बैलेंस नहीं था। कुछ भी नहीं था। एक नंगल था, एक हल था। उसको रख आया कि कभी जरूरत पड़े, तो एकदम असहाय न हो जाऊं।
अतीत से संबंध तोड़ना बड़ा कठिन है, चाहे अतीत में कुछ हो या न हो। न हो, तो छोड़ना और भी कठिन है। क्योंकि लगता है, गरीब आदमी हूं। यही तो एक संपदा है छोटी सी। यही चली गयी, तो फिर कुछ न बचेगा। अमीर तो शायद कुछ छोड़ भी दे, क्योंकि उसके पास और बहुत कुछ है। इतना छोड़ने से कुछ हर्जा नहीं है।
अमीर शायद धन भी छोड़ दे, क्योंकि वह जानता है: उसके परिवार के लोग भी धनी हैं। कल अगर लौटेगा, अपना धन नहीं होगा, तो भी अपने परिवार के लोगों का धन होगा। अमीर तो शायद सब छोड़ दे, क्योंकि उसकी प्रतिष्ठा भी है, क्रेडिट भी है। कल अगर लौटकर आएगा, तो प्रतिष्ठा से भी जी लेगा। उधार भी मिल जाएगा।
लेकिन गरीब आदमी! उसके पास तो हल है। दो पैसे कोई देगा नहीं उधार। प्रतिष्ठा तो कोई है नहीं। परिवार तो कुछ है नहीं। जिनको अपना कह सके, ऐसा तो कोई है नहीं। यह एक नंगल ही बस सब कुछ है। तो उसको रख दिया उसने। यही इसका परिवार है; यही इसका धन है; यही इसकी सारी की सारी आत्मा है। उसने उसे सम्हालकर रख दिया।
संन्यस्त हो कुछ दिन तक तो बड़ा प्रसन्न रहा। और फिर उदास हो गया।
यह रोज घटता है। यह यहां भी घटता है। जब कोई आदमी संन्यस्त होता है, तो बड़ी आशाओं, उमंगों, उत्साहों से भरा होता है। लेकिन तुम्हारी आशा के अनुकूल ही थोड़े ही संसार चलता है। और तुम्हारी अपेक्षाएं थोड़े ही जरूरी रूप से पूरी होती हैं। फिर तुम अपेक्षाएं भी बहुत कर लेते हो। तुम अपेक्षाएं जरूरत से ज्यादा कर लेते हो। उन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए जितना श्रम करना चाहिए, वह तो करते नहीं। अपेक्षाएं अटकी रह जाती हैं; पूरी नहीं होतीं। जितना संकल्प चाहिए, वह तो होता नहीं। फिर धीरे-धीरे उदासी पकड़ती है।
लोग सोचते हैं कि शायद संन्यस्त हो गए, तो सब हो गया। संन्यस्त होने से सिर्फ शुरुआत होती है यात्रा की। सब तो अभी होना है।
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, कि बस, संन्यास दे दीजिए। फिर दो-चार महीने बाद आते हैं कि अभी तक कुछ हुआ नहीं! जैसे कि संन्यास से कुछ होने वाला है।
संन्यास तो सिर्फ सूचना थी कि अब हम कुछ करेंगे। वह तो कुछ किया नहीं। वे सोचते हैं कि संन्यास ले लिया, सो सब हो गया। अब जैसे जिम्मेवारी मेरी है! अब वे मुझे अदालत में ले जाने की इच्छा रखते हैं कि अभी तक किया क्यों नहीं!
तो यह आदमी संन्यस्त हो गया था। सोचता होगा: बुद्ध के शिष्य हो गए; अब और क्या करना है? फिर उदासी आनी शुरू हुई होगी। क्योंकि बुद्ध कहते हैं: विपस्सना करो। बुद्ध कहते हैं: ध्यान करो। बुद्ध कहते हैं: संकल्प करो। बुद्ध कहते हैं: भीतर जाओ। यह जाता होगा भीतर; इसको नंगल दिखायी पड़ता होगा। झाड़ पर लटका नंगल! जाता होगा भीतर; वही विचार आते होंगे पीछे अतीत के। सोचता होगा: यह कहां की झंझट में मैं...! कहां भीतर जाना? कहां है भीतर? क्या है भीतर? अंधेरा-अंधेरा दिखता होगा। कि अच्छी झंझट में पड़े! अपना हल चलाते थे; अपनी दो रोटी कमा लेते थे। वह भी गयी और यह भीतर जाना!
यह तो सोचा ही नहीं था। बुद्ध को देखा था। बुद्ध की महिमा देखी थी। बुद्ध का गौरव देखा था। बुद्ध का प्रकाश देखा था। उसी लोभ में पड़कर संन्यस्त हो गया था। अब यह करना भी पड़ेगा कुछ! यह तो सोचता था: ऐसे ही मिल जाएगा। पीछे चलते-चलते मिल जाएगा।
तो कई दफे उदासी आ जाती है।
पहली दफा जब उदासी आयी, तो उसने सोचा: इसमें कोई सार नहीं। यह अपना काम नहीं है। गया। उचट गया वैराग्य से मन। पहुंचा अपने वृक्ष के पास। सोचा: हल को लेकर पुनः गृहस्थ हो जाऊं।
लेकिन मन ऐसा ही क्षणभंगुर है।
यहां रोज ऐसा होता है। कोई मुझसे पूछता है कि मन बहुत उदास है, मैं क्या करूं? मैं कहता हूं: तीन दिन बाद आओ। वह सोचता है: तीन दिन बाद मैं उपाय बताऊंगा। तीन दिन बाद वह आता है। वह कहता है: अब मन उदास नहीं है। मैंने कहा: वापस जाओ। इतना काफी है। इससे समझो कि ये सब क्षणिक भाव-भंगिमाएं हैं। इनमें इतने उलझो मत। आती हैं, जाती हैं। मौसम की तरह बदलती हैं।
सुबह सूरज; दुपहर बादल घिर गए! सांझ बूंदा-बांदी हो गयी।
अब हर चीज को समस्या मत बनाओ कि बूंदा-बांदी हो गयी; अब क्या करें? जैसे कि अब जिंदगीभर बूंदा-बांदी होती रहेगी! कल सुबह फिर सूरज निकलेगा। अब बादल घिर गए; अब क्या करें? मैं कहता हूं: तीन दिन बाद आओ। तीन दिन बाद बादल छंट जाते हैं।
इसीलिए लक्ष्मी को बिठा रखा है। वह रोकती है लोगों को। लोग कहते हैं, आज ही चाहिए। वह कहती है, कल, परसों। टालती है। वह उपाय है। जब तक तुम मेरे पास आओगे, समस्या गयी! तुम्हारी भी गयी; मेरी भी गयी!
धीरे-धीरे तुम्हें यह समझ में आ जाएगा कि अगर तुम थोड़ा धीरज रखो, तो समस्याएं चली जाती हैं--अपने से चली जाती हैं। इसलिए अंगे्रजी में बीमार के लिए शब्द है--पेशेंट। पेशेंट का मतलब होता है जो पेशेंस रखे। बीमारी चली जाती है। धैर्य रखे। शब्द प्यारा है। धीरज रहे, तो सब चला जाता है।
कहते हैं कि अगर सर्दी-जुकाम हो; दवा लो तो सात दिन में जाता है, और दवा न लो तो एक सप्ताह में! मगर जाता है। धीरज चाहिए।
यह गया होगा। जब तक वृक्ष के पास पहुंचा, तब तक बात बदल गयी। बादल घिरे थे; अब छंट गए। सूरज निकल आया। इसने सोचा: अरे! मैं--और यह क्या कर रहा हूं! जब हल-बक्खर जोतता था, तो कौन सा सुखी था? दुख के सिवा कुछ भी न था। अब न हल-बक्खर जोतने पड़ते; न मेहनत करनी पड़ती। भिक्षा मांग लाता हूं। पहले से अच्छी रोटी मिल रही है। अच्छी दाल, अच्छी सब्जी मिल रही है। और बुद्ध का सत्संग। पहले तड़फता था। कब निकलेंगे? एक क्षणभर को देख पाता था। अब चौबीस घंटे उनकी सन्निधि है। यह मैं क्या कर रहा हूं?
सोचा होगा कि इतनी बड़ी संपदा पाने चला हूं--बुद्धत्व; थोड़ा श्रम तो करना ही होगा। थोड़ा भीतर भी हल-बक्खर चलाना होगा।
बुद्ध कहते थे: मैं भी किसान हूं। मैं भीतर की खेती-बाड़ी करता हूं। भीतर बीज बोता हूं। भीतर की फसल काटता हूं।
ऐसे ही किसानों से बुद्ध ने कहा होगा यह, क्योंकि किसान किसान की भाषा समझे।
सोचकर कि यह तो मैं गलत कर रहा हूं, यह तो मैं व्यर्थ कर रहा हूं; यह तो मैं किस दुर्भाग्य में सोचा कि वापस लौट जाऊं! नहीं, नहीं। ऐसा सोचकर, विचारकर फिर दृढ़-निश्चय हो वापस लौट आया। उसे अपनी मूढ़ता दिखी और पुनः संन्यास की उमंग से भर गया।
फिर यह तो उसकी साधना ही हो गयी। क्योंकि कोई एक दिन आ गयी उदासी, चली गयी; ऐसा थोड़े ही है। बादल एक दिन घिरे और चले गए! बार-बार घिरे; बार-बार घिरे और बार-बार जाए। फिर तो उसे तरकीब हाथ लग गयी। फिर तो उसने सोचा: यह अदभुत तरकीब है। जब भी झंझट आती, चले गए। जाकर देखा अपने नंगल को।
उस नंगल को देखकर ही उसको अपने पुराने दिन सब साफ हो जाते, कि वहीं कौन सा सुख था। महानरक भोग रहे थे। उससे अब हालत बेहतर है। अब चीजें सुधर रही हैं और धीरे-धीरे शांति भी उतरती है। और कभी-कभी मन सन्नाटे से भी भर जाता है। और कभी-कभी बुद्ध जिस शून्य की बात करते हैं, उसकी थोड़ी सी झलक, हवा का एक झकोरा सा आता है। और बुद्ध जिस ध्यान की बात करते हैं, यद्यपि पूरा-पूरा नहीं सम्हलता, लेकिन कभी-कभी, कभी-कभी खिड़की खुलती है। क्षणभर को सही, मगर बड़े अमृत से भर जाती है। यह हो तो रहा है। अभी बूंद-बूंद हो रहा है, कल सागर-सागर भी होगा। बूंद-बूंद से ही तो सागर भर जाता है।
ऐसा बार-बार जाता और बार-बार वहां से और भी ज्यादा प्रफुल्लित और आनंदित होकर लौटने लगा। यह तो उसकी साधना हो गयी। जब-जब उदासी उत्पन्न होती, वृक्ष के पास जाता; हल को देखता, वापस लौट आता। ऐसा अनंत बार हुआ होगा!
भिक्षुओं ने उसे बार-बार जाते देखकर तो उसका नाम ही नंगलकुल रख दिया। वे कहने लगे: यही इसका परिवार है। क्योंकि आदमी अपने परिवार की तरफ जाता है। कोई अपनी पत्नी को छोड़ आया, तो सोचता है: वापस जाऊं। फिर अपनी पत्नी को लेकर गृहस्थ हो जाऊं। कोई अपने बेटे को छोड़ आया; सोचता है: जाऊं। अब बेटे को फिर स्वीकार कर लूं और गृहस्थ हो जाऊं।
इसका कोई और नहीं है। यह नंगलकुल है। इसका एक ही कुल है; एक ही परिवार है। वह है नंगल। उसमें कुछ है भी नहीं सार। उसको कोई चुरा भी नहीं ले जाता। झाड़ पर अटका है; कोई ले जाने वाला भी नहीं है गांव में। मगर यही उसकी कुल संपदा है। उसका नाम रख दिया--नंगलकुल।
वह न मालूम कितनी बार गया! न मालूम कितनी बार आया! लेकिन हर बार जब आया, तो बेहतर होकर आया। हर बार जब आया, तो निखरकर आया। हर बार जब आया, तो और ताजा होकर आया। यह तो घटना भीतर घट रही थी। बाहर तो किसी को पता नहीं चलता था कि भीतर क्या हो रहा है।
एक दिन हल के दर्शन करके लौटता था कि अर्हत्व को उपलब्ध हो गया।
पकती गयी बात। पकती गयी बात। पकती गयी बात। एक दिन फल टपक गया। एक दिन लौटता था नंगल को देखकर और बात स्पष्ट हो गयी। अतीत गया; वर्तमान का उदय हो गया।
अर्हत्व का अर्थ होता है: चेतना वर्तमान में आ गयी। अतीत का सब जाल छूट गया; सब झंझट छूट गयी। यही क्षण सब कुछ हो गया। इस क्षण में चेतना निर्विचार होकर प्रज्वलित होकर जल उठी।
और फिर उसे किसी ने दुबारा नंगल को देखने जाते नहीं देखा। स्वभावतः भिक्षुओं को जिज्ञासा उठी। पूछा: आवुस नंगलकुल! अब तू उस वृक्ष के पास नहीं जाता है?
नंगलकुल हंसा। हंसा अपनी मूढ़ता पर जो वह हजारों बार गया था। और उसने कहा: जब तक आसक्ति रही अतीत से, तब तक गया। जब तक संसर्ग रहा, तब तक गया। अब तो नाता टूट गया। अब न मैं नंगल का, न नंगल मेरा। अब तो मेरा कुछ भी नहीं। अब तो मेरे भीतर मैं भी नहीं। अब तो जंजीरें टूट गयीं। अब तो मैं मुक्त हूं।
लेकिन भिक्षुओं को यह बात सुनकर जंची नहीं। जंची इसलिए भी नहीं कि कोई पसंद नहीं करता यह कि हमसे पहले कोई दूसरा मुक्त हो जाए। हमसे पहले--और यह नंगलकुल हो गया?
यह तो गया-बीता था; आखिरी था। इसको तो लोग जानते थे कि है यह गांव का गरीब। यहीं खेती-बाड़ी करता रहा। फिर संन्यासी भी हो गया, तो कोई बड़ा संन्यासी भी...। वह नंगलकुल! बार-बार जाए दर्शन को। और किसी चीज के दर्शन न करे, नंगल के दर्शन करे! यह--और ज्ञान को उपलब्ध हो जाए? यह कभी नहीं हो सकता।
उन्होंने जाकर भगवान को कहा: भंते! यह नंगलकुल झूठ बोलता है। यह अर्हत्व-प्राप्ति की घोषणा करता है। कहता है, मैं मुक्त हो गया हूं।
लेकिन जो औरों को नहीं दिखायी पड़ता, वह सदगुरु को तो दिखायी पड़ेगा। तुम्हें दिखायी पड़ेगा, उसके पहले सदगुरु को दिखायी पड़ेगा।
बुद्ध ने करुणा से उन भिक्षुओं की ओर देखा।
करुणा से--क्योंकि वे ईर्ष्यावश ऐसा कह रहे हैं। करुणा से--क्योंकि राजनीति प्रवेश कर रही है उनके मन में। करुणा से--क्योंकि उनके अहंकार को चोट लग रही है। कोई वर्षों से संन्यासी था। कोई बड़ा पंडित था। कोई बड़ा ज्ञानी था। कोई बड़े कुल से था, राजपुत्र था। इनको नहीं मिला और नंगलकुल को मिल गया? वह तो अछूत था; आखिरी था।
बुद्ध ने कहा: भिक्षुओ! मेरा पुत्र अपने आपको उपदेश दे प्रव्रजित होने के कृत्य को पूर्ण कर लिया।
इसने यद्यपि किसी और से उपदेश ग्रहण नहीं किया, लेकिन अपने आपको रोज-रोज उपदेश देता रहा। जब-जब गया उस वृक्ष के पास, अपने को उपदेश दिया। ऐसे धार पड़ती रही, पड़ती रही। अपने को ही जगाया अपने हाथों से।
यह बड़ा अदभुत है नंगलकुल। इसकी महत्ता यही है कि इसने धीरे-धीरे करके अपने को स्वयं अपने हाथों से उठा लिया है। यह बड़ी कठिन बात है। लोग दूसरे के उठाए-उठाए भी नहीं उठते हैं!
उसे जो पाना था, उसने पा लिया। और जो छोड़ना था, वह छोड़ दिया। तब बुद्ध ने ये गाथाएं कहीं:
अत्तना चोदय’त्तानं पटिवासे अत्तमत्तना।
सो अत्तगुत्तो सतिमा सुखं भिक्खु विहाहिसि।।
‘जो आप ही अपने को प्रेरित करेगा, जो आप ही अपने को संलग्न करेगा, वह आत्म-गुप्त स्मृतिवान भिक्षु सुख से विहार करेगा।’
उसकी किसी को कानो-कान खबर नहीं होगी। उसके भीतर ही, आत्मगुप्त, चुपचाप फूल खिल जाएगा।
जो अपने आपको प्रेरित करता रहेगा, जो अपने आपको जगाने की चेष्टा करता रहेगा, वह जाग जाता है और किसी को कानो-कान खबर भी नहीं होती।
अत्ता हि अत्तनो नाथो अत्ता हि अत्तनो गति।
तस्मा सञ्ञमयत्तानं अस्सं भद्रं’व वाणिजो।।
‘मनुष्य अपना स्वामी आप है; आप ही अपनी गति है।’
यह बुद्ध का परम उपदेश है--
अत्ता हि अत्तनो नाथो अत्ता हि अत्तनो गति।
किसी दूसरे की कोई वस्तुतः जरूरत नहीं है। अगर तुम अपने को जगाने में लग जाओ, निश्चित ही जाग जाओगे।
अत्ता हि अत्तनो नाथो...।
मनुष्य अपना स्वामी आप।
अत्ता हि अत्तनो गति।
अपनी गति आप। आत्म-शरण बनो।
बुद्ध का जो अंतिम वचन था, मरने के पहले, वह भी यही था: अप्प दीपो भव--अपने दीए स्वयं बन जाओ।
आज इतना ही।
अमानुसी रती होति सम्माधम्मं विपस्सतो।।307।।
यतो यतो सम्मसति खन्धानं उदयब्बयं।
लभती पीतिपामोज्जं अमतं तं विजानतं।।308।।
पटिसन्थारवुत्तस्स आचारकुसलो सिया।
ततो पामोज्जबहुलो दुक्खस्सन्तं करिस्सति।।309।।
वस्सिका विय पुप्फानि मद्दवानि पमुञ्चति।
एवं रागञ्च दोसञ्च विप्पमुञ्चेथ भिक्खवो।।310।।
अत्तना चोदय’त्तानं पटिवासे अत्तमत्तना।
सो अत्तगुत्तो सतिमा सुखं भिक्खु विहाहिसि।।311।।
अत्ता हि अत्तनो नाथो अत्ता हि अत्तनो गति।
तस्मा सञ्ञमत्तानं अस्सं भद्रं’व वाणिजो।।312।।
प्रथम दृश्य:
भगवान जेतवन में विहरते थे। उस समय पांच सौ भिक्षुओं ने भगवान का आशीष ले ध्यान की गहराइयों में उतरने का संकल्प किया। समाधि से कम उनका लक्ष्य नहीं था। गंधकुटी के बाहर ही सुबह के उगते सूरज के साथ वे ध्यान करने बैठे। गंधकुटी के चारों ओर जुही के फूल खिले थे।
शास्ता ने उन भिक्षुओं को कहा: भिक्षुओ! जुही के खिले इन फूलों को देखते हो? सुबह खिले हैं और सांझ मुर्झा जाएंगे, ऐसा ही क्षणभंगुर जीवन है। अभी है, अभी नहीं है। इन फूलों को ध्यान में रखना भिक्षुओ! यह स्मृति ही क्षणभंगुर के पार ले जाने वाली नौका है।
भिक्षुओं ने फूलों को देखा और संकल्प किया: संध्या तुम्हारे कुम्हलाकर गिरने के पूर्व ही हम ध्यान को उपलब्ध होंगे, हम रागादि से मुक्त होंगे। फूलो! तुम हमारे साक्षी हो।
भगवान ने साधु! साधु! कहकर अपने आशीषों की वर्षा की।
और तभी उन्होंने ये गाथाएं कही थीं:
सुञ्ञागारं पविट्ठस्स संतचित्तस्स भिक्खुनो।
अमानुसी रती होति सम्माधम्मं विपस्सतो।।
‘शून्य गृह में प्रविष्ट शांत-चित्त भिक्षु को भली-भांति से धर्म की विपस्सना करते हुए अमानुषी रति प्राप्त होती है।’
यतो यतो सम्मसति खन्धानं उदयब्बयं।
लभती पीतिपामोज्जं अमतं तं विजानतं।।
‘जैसे-जैसे भिक्षु पांच स्कंधों--रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान--की उत्पत्ति और विनाश पर विचार करता है, वैसे-वैसे वह ज्ञानियों की प्रीति और प्रमोद रूपी अमृत को प्राप्त करता है।’
पटिसन्थारवुत्तस्स आचारकुसलो सिया।
ततो पामोज्जबहुलो दुक्खस्सन्तं करिस्सति।।
‘जो सेवा-सत्कार स्वभाव वाला है और आचार-कुशल है, वह आनंद से ओतप्रोत होकर दुख का अंत करेगा।’
वस्सिका विय पुप्फानि मद्दवानि पमुञ्चति।
एवं रागञ्च दोसञ्च विप्पमुञ्चेथ भिक्खवो।।
‘जैसे जुही अपने कुम्हलाए फूलों को छोड़ देती है, वैसे ही हे भिक्षुओ, तुम राग और द्वेष को छोड़ दो।’
इसके पहले कि हम सूत्रों पर विपस्सना करें, उन पर ध्यान करें, इस दृश्य को ठीक से मन में बैठ जाने दो।
भगवान जेतवन में विहरते थे।
जैनशास्त्र जब महावीर की बात करते हैं, तो वे कहते हैं: भगवान विराजते थे। बौद्धशास्त्र जब बुद्ध की बात करते हैं, तो वे कहते हैं: विहरते थे।
इन दो शब्दों में भेद है, तात्विक भेद है। विराजना थिरता का प्रतीक है, विहरना गति का।
जैन-दृष्टि में सत्य थिर है; ठहरा हुआ है; सदा एक-रस है। बौद्ध-विचार में सब गतिमान है, प्रवाहमान है; सब बहा जा रहा है। बौद्ध-विचार में ऐेसा कहना ही ठीक नहीं है कि कोई चीज है। हर चीज हो रही है।
जैसे हम कहें: वृक्ष है; तो बौद्ध-विचार में ठीक नहीं है ऐसा कहना। क्योंकि जब हम कह रहे हैं: वृक्ष है, तब भी वृक्ष बदल रहा है, हो रहा है। एक पुराना पत्ता टूटकर गिर गया होगा, जब तुमने कहा: वृक्ष है। एक कली खिलती होगी, फूल बनती होगी। एक नया अंकुर आता होगा। एक नयी जड़ निकलती होगी। वृक्ष थोड़ा बड़ा हो गया होगा; थोड़ा बूढ़ा हो गया होगा।
जितनी देर में तुमने कहा, वृक्ष है, उतनी देर में वृक्ष वही नहीं रहा; बदल गया; रूपांतरित हो गया। तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता रूपांतरण, क्योंकि रूपांतरण बड़ा धीमा-धीमा हो रहा है, आहिस्ता हो रहा है; शनैः-शनैः हो रहा है। मगर रूपांतरण तो हो ही रहा है।
इसलिए बुद्ध तो कहेंगे: ऐसा ही कहो कि वृक्ष हो रहा है। है जैसी कोई चीज जगत में नहीं है। सब चीजें हो रही हैं।
हम तो नदी तक को कहते हैं कि नदी है! बुद्ध कहते हैं: पहाड़ों को भी मत कहो कि पहाड़ हैं। क्योंकि पहाड़ भी बह रहे हैं। नदी तो बह ही रही है। वह तो हम देखते हैं कि नदी बह रही है, फिर भी कहते हैं, नदी है।
तो बुद्ध ने भाषा को भी नए रूप दिए। स्वाभाविक था। जब कोई दर्शन जन्म लेता है, तो उसके साथ ही सब नया हो जाता है; क्योंकि वह हर चीज पर अपने रंग को फेंकता है।
बुद्ध-भाषा में है का कोई मूल्य नहीं है; हो रहा है का मूल्य है।
जैन-भाषा में है का मूल्य है; क्योंकि हमें उसी को खोजना है, जो कभी नहीं बदलता। जो बदल रहा है, वह संसार।
वैसा ही हिंदू-विचार में भी, जो बदल रहा है, वह माया; और जो कभी नहीं बदलता, वही ब्रह्म। तो ब्रह्म को हम ऐसा नहीं कह सकते कि विहरता है। कहना होगा, विराजता है।
बुद्ध की सारी कथाएं, उनके संबंध में लिखे गए सारे वचन सदा शुरू होते हैं: भगवान जेतवन में या श्रावस्ती में या किसी और स्थान पर विहरते थे।
गत्यात्मकता पर बुद्ध का बड़ा जोर है। सब प्रवाहरूप है। और जिस दिन प्रवाह रुक जाएगा, उस दिन तुम्हारे हाथ में ऐसा नहीं है कि पूर्ण और शाश्वत पकड़ में आ जाएगा। जिस दिन प्रवाह रुक जाएगा, उस दिन तुम तिरोहित हो जाओगे।
महावीर के मोक्ष में आत्मा बचेगी और फिर सदा-सदा रहेगी। बुद्ध के निर्वाण में आत्मा ऐसे बुझ जाएगी, जैसे दीया बुझ जाता है। इसीलिए शब्द निर्वाण का उपयोग हुआ है। निर्वाण का अर्थ होता है: दीए का बुझ जाना।
एक दीया जल रहा है; तुमने फूंक मार दी और ज्योति बुझ गयी। अब कोई तुमसे पूछे कि ज्योति कहां गयी--तो क्या कहोगे! कोई तुमसे पूछे कि अब ज्योति कहां है--तो क्या कहोगे?
ऐसे ही, कहते हैं बुद्ध, जब वासना का तेल चुक जाता है और जीवन की ज्योति बुझ जाती है, तो तुम शून्य हो जाते हो। उस शून्य का नाम निर्वाण है। ऐसा नहीं है कि तुम्हारे हाथ में कोई थिर वस्तु पकड़ में आ जाती है। पकड़ने वाला भी खो जाता है। मुट्ठी ही खो जाती है, बांधोगे किस पर!
तो जगत है प्रवाह और निर्वाण है प्रवाह का शून्य हो जाना, प्रवाह से मुक्त हो जाना। लेकिन खयाल रखना, यह खयाल मत लेना मन में कि मुक्त होकर तुम बचोगे। प्रवाह में ही बचाव है। जब तक प्रवाह है, तभी तक तुम हो। प्रवाह ही तुम हो। जिस दिन प्रवाह गया, तुम भी गए।
दीए की ज्योति तुम सांझ को जलाते हो, और सुबह जब उठकर देखते हो, तो सोचते हो, वही ज्योति जल रही है; तो गलत सोचते हो। वह ज्योति तो लाखों बार बुझ चुकी रात में। प्रतिपल धुआं हो रही है। ज्योति धुआं होती जाती है। नयी ज्योति जन्मती जाती है; पुरानी हटती जाती है। जिसको तुमने सांझ जलाया था, सुबह तुम उसी को नहीं बुझा सकते। वह तो बची ही नहीं। फिर सुबह जिस ज्योति को तुम बुझाते हो, यह वही ज्योति नहीं है जिसको तुमने जलाया था; यह दूसरी ही ज्योति है। यद्यपि उसी ज्योति के प्रवाह में आयी है; संतति है, संतान है; वही नहीं है। जैसे बाप ने किसी के तुम्हें गाली दी थी, तुमने बेटे को मारा। ऐसी बात है।
सांझ जो जलायी थी ज्योति, वह तो कब की गयी। अब तुम उसके बेटे-बेटी को बुझा रहे हो; उसकी संतान को बुझा रहे हो। कई पीढ़ियां बीत गयीं रात में, लेकिन अगर तेल बचा रहे, तो ज्योति जलती चली जाएगी। और यह भी हो सकता है, इस दीए में बुझ जाए, और दूसरे दीए में छलांग लगा जाए जिसमें तेल भरा है, तो वहां जलने लगेगी; संतान वहां बहने लगेगी।
ऐसा ही व्यक्ति एक जन्म से दूसरे जन्म में छलांग लगाता है। वासना नहीं चुकती, तो ज्योति नयी वासना नए तेल को खोज लेती है, नए गर्भ को खोज लेती है। लेकिन जिस दिन वासना का तेल परिपूर्ण चुक गया, ज्योति जलकर भस्मीभूत हो जाती है; निर्वाण हो जाता है; तुम महाशून्य में लीन हो जाते हो।
प्रवाह संसार है; प्रवाह का शून्य हो जाना मोक्ष है।
भगवान जेतवन में विहरते थे। उस समय पांच सौ भिक्षुओं ने भगवान का आशीष ले ध्यान की गहराइयों में उतरने का संकल्प किया।
ध्यान के लिए संकल्प चाहिए। संकल्प का अर्थ होता है: सारी ऊर्जा को एक बिंदु पर संलग्न कर देना। संकल्प का अर्थ होता है: अपनी ऊर्जा को विभाजित न करना। क्योंकि अविभाज्य ऊर्जा हो, तो ही कहीं पहुंचना हो सकता है।
जैसे सूरज की किरणें हैं। अगर इनको तुम इकट्ठा कर लो, एक जगह कर लो, तो आग पैदा हो जाए। बिखरी रहें, तो आग पैदा नहीं होती। ऐसी ही मनुष्य की जीवन ऊर्जा है। एक जगह पड़े, एक बिंदु पर गिरने लगे, तो महाशक्ति प्रज्वलित होती है। पच्चीस धाराओं में बहती रहे, तो धीरे-धीरे खो जाती है। जैसे नदी रेगिस्तान में खो जाए। कहीं पहुंचती नहीं।
समझो, गंगा की कई धाराएं हो जाएं, तो सागर तक नहीं पहुंच सकेगी फिर। गंगा पहुंचती है सागर तक एक धारा के कारण। और जितनी धाराएं मार्ग में मिलती हैं, वे सब गंगा के साथ एक होती जाती हैं। जो नदी आयी--गिरी। यमुना आयी--गिरी। जो नदी-नाला आया--गिरा। वे सब गंगा के साथ एक होते चले जाते हैं।
गंगोत्री में तो गंगा बड़ी छोटी है। उतरते-उतरते पहाड़ों से, बड़ी होने लगती है। मैदान में विराट होने लगती है। सागर तक पहुंचते-पहुंचते खुद ही सागर जैसी हो जाती है। गंगोत्री से गंगासागर तक की यात्रा समझने जैसी है, क्योंकि वही मनुष्य की ऊर्जा की यात्रा भी है।
तुम दो तरह से जी सकते हो: संकल्पहीन या संकल्पवान। संकल्पहीन का अर्थ होता है: तुम्हारे जीवन में पच्चीस धाराएं हैं। धन भी कमा लूं; पद भी कमा लूं; प्रतिष्ठा भी बना लूं। साधु भी कहलाऊं; ध्यान भी कर लूं; मंदिर भी हो आऊं; दुकान भी चलती रहे। तुम्हारा जीवन पच्चीस धाराओं में विभाजित है। इसलिए कुछ भी पूरा नहीं हो पाता। न दुकान पूरी होती, न मंदिर पूरा होता। न धन मिलता, न ध्यान मिलता।
ऊर्जा संगृहीत होनी चाहिए, तो संकल्प का जन्म होता है। एक धारा में गिरे, अखंडित गिरे, तो कुछ भी असंभव नहीं है। जीवन में चीजें असंभव इसलिए मालूम हो रही हैं, क्योंकि तुम टूटे हो खंड-खंड, टुकड़े-टुकड़े में। तुम एक नहीं हो, इसलिए जीवन में बहुत सी चीजें असंभव हैं। तुम एक हो जाओ, तो कुछ भी असंभव नहीं है। संकल्प का यही अर्थ होता है।
पांच सौ भिक्षुओं ने भगवान का आशीष ले ध्यान की गहराइयों में उतरने का संकल्प किया।
फिर भी, संकल्प तो उन्होंने किया, भगवान के आशीष को भी आए। तुम्हारा संकल्प ऐसे तो काफी है, लेकिन अंततः तुम्हारा ही है। एक अज्ञानी के संकल्प का मूल्य कितना हो सकता है! बांध-बूंधकर, किसी तरह सम्हालकर करने की कोशिश करोगे; लेकिन भूल-चूक हो जाने की संभावना है। किसी ज्ञानी का आशीष भी हो, तो तुम्हारे संकल्प के बचे रहने की, तुम्हारे संकल्प के बने रहने की, तुम्हारे संकल्प के पूरे होने की ज्यादा गुंजाइश है। जीत सुनिश्चित हो जाएगी।
ज्ञानी का आशीष तुम्हारे खंडों को सीमेंट की तरह जोड़ देगा। कोई मेरे पीछे खड़ा है, जो जानता है--यह भरोसा भी तुम्हें दूर तक ले जाने वाला होगा। जैसे छोटे बच्चे को कोई डर नहीं लगता, उसकी मां पास हो, बस। फिर चाहे तुम उसे नर्क ले जाओ, कोई फिकर नहीं है। वह नर्क में भी खेलने लगेगा; उसकी मां पास है। और तुम उसे स्वर्ग ले जाओ, और उसकी मां पास न हो, तो वह स्वर्ग में भी विपन्न और दुखी होने लगेगा। उसकी मां पास नहीं है। रोने लगेगा; चीखने-पुकारने लगेगा।
वह जो मां की मौजूदगी है, वही गुरु की मौजूदगी है। गुरु मौजूद हो, तो यात्रा बड़ी सुगम हो जाती है। लेकिन गुरु की मौजूदगी का मतलब क्या होता है? गुरु की मौजूदगी का मतलब है कि तुमने किसी के चरणों में सिर झुकाया है, और किसी को गुरु स्वीकार किया है।
गुरु मौजूद भी हो, लेकिन तुम्हारे भीतर शिष्य-भाव मौजूद न हो, तो किसी अर्थ का नहीं है। फिर गुरु गुरु नहीं है। गुरु बनता है तुम्हारे शिष्य-भाव से।
इन पांच सौ भिक्षुओं ने भगवान के चरणों में आकर प्रार्थना की होगी कि हम ध्यान की गहराइयों में जाना चाहते हैं। जी लिए बहुत विचार में और कुछ भी नहीं पाया। सोच लिया खूब, कुछ भी नहीं मिला। कर लिया सब; दुख बना रहता है, मिटता नहीं। अब हम सब दांव पर लगा देना चाहते हैं। अब हम कुछ बचाना नहीं चाहते। अब हमें आशीष दो कि हम भटक न जाएं; कि हम बीच से लौट न आएं; कि हम डगमगा न जाएं; कि हम पथ-भ्रष्ट न हो जाएं; कि हम मार्गच्युत न हो जाएं; कि हम किसी और दिशा में न बह जाएं। आशीष दो कि आप हमारे साथ रहोगे। आशीष दो कि आपकी छत्र-छाया होगी। आशीष दो कि आपकी दृष्टि हमारा पीछा करेगी; कि आप हमारे भीतर मौजूद रहेंगे और देखते रहेंगे कि हम ठीक चल रहे न! हम चूक तो नहीं रहे। यह भरोसा हमें आ जाए कि आप खड़े हो हमारे साथ; हम अकेले नहीं हैं; तो हम दूर तक की यात्रा कर लेंगे।
यात्रा तो व्यक्ति को स्वयं ही करनी है। भरोसे की कमी है। गुरु की जरूरत है भरोसे के कारण। जिस दिन तुम्हारी यात्रा पूरी हो जाएगी, उस दिन तुम पाओगे: गुरु ने कुछ भी नहीं किया और बहुत कुछ भी किया।
कुछ भी नहीं किया इस अर्थों में कि जिस दिन तुम यात्रा पूरी कर लोगे, तुम पाओगे कि गुरु पास-पास तैरता रहा; तुम्हें भरोसा बना रहा कि अगर डूबूंगा, तो कोई बचा लेगा। लेकिन तैरते तुम रहे। तुम तैरकर पहुंचे अपने आप। शायद गुरु ने हाथ भी न लगाया हो; लेकिन पास-पास तैरता रहा।
तो एक अर्थ में तो कुछ भी नहीं किया; हाथ भी नहीं लगाया। हाथ लगाने की जरूरत ही नहीं है। तुम पहुंच सकते हो, इतनी शक्ति परमात्मा ने प्रत्येक को दी है कि वापस मूलस्रोत तक पहुंच जाए। इतना पाथेय सभी के भीतर रखा है। इतना कलेवा तुम लेकर ही पैदा हुए हो कि यात्रा पूरी हो जाए, और भोजन चुके नहीं।
लेकिन तुममें भरोसे की कमी है और वह भी स्वाभाविक है। कभी जिस मार्ग पर चले नहीं, उस मार्ग पर चलने में भरोसा हो कैसे! श्रद्धा का अभाव है। आत्मश्रद्धा नहीं है। तुम्हें डर है कि मुझसे न हो सकेगा। और तुम्हारे डर के कारण हैं, सुनिश्चित कारण हैं। छोटी-छोटी चीजें की हैं और नहीं हो सकीं। कभी सिगरेट पीते थे और छोड़ना चाही--नहीं छूटी। वर्षों मेहनत की और नहीं छूटी। कितनी ही बार तय किया और नहीं छूटी। और हर बार तय करके गिरे; और हर बार तय करके पछताए; और फिर पीया, और फिर भूल की; फिर अपराध हुआ। धीरे-धीरे ग्लानि बढ़ती गयी; आत्म-विश्वास खोता गया। एक बात साफ हो गयी कि तुम्हारे किए कुछ होने वाला नहीं है। क्षुद्र सी बात नहीं छूटती!
तो जिस आदमी को सिगरेट पीना न छूट सका हो अपने ही संकल्प से, वह ध्यान में जाए--कैसे भरोसा हो।
जो आदमी कई बार निर्णय किया कि सुबह पांच बजे उठ आऊंगा ब्रह्ममुहूर्त में, और कभी नहीं उठ सका। अलार्म भी भरा। पांच बजे अलार्म भी बजा, तो गाली देकर घड़ी को भी पटक दिया। करवट लेकर फिर सो रहा। सुबह पछताया। फिर रोया, चीखा। फिर कसम खायी कि अब कल कुछ भी हो जाए, उठूंगा। फिर कल यही हुआ। कितने दिन तक ऐसा करोगे? एक दिन तुम पाओगे: यह अपने से नहीं होना। छोड़ो। सोते तो रहते ही हो, अब यह झंझट भी क्यों लेनी! उठना तो होता नहीं; होगा भी नहीं। हार गए। हार गए, तो तुम्हारे भीतर से आत्म-श्रद्धा तिरोहित हो जाएगी।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं: क्षुद्र बातों में अपने जीवन-प्रयास को मत लगाना। क्योंकि क्षुद्र से अगर हार गए, तो विराट की दिशा में जाने में अड़चन आ जाएगी। इसलिए मैं नहीं कहता कि तुम लड़ो छोटी-छोटी बातों से। छोटी-छोटी बातों से लड़ने से सिर्फ हानि होती है, लाभ कुछ भी नहीं होता है।
मैं तो तुमसे कहता हूं: लड़ना ही हो, तो किसी बड़ी बात में ही जूझना। छोटी बात में जूझना ही मत। हारोगे, तो भी कम से कम इतना तो रहेगा खयाल कि बात इतनी बड़ी थी, इसलिए हारा। छोटी बात से लड़ोगे, हारोगे, तो बड़ी ग्लानि होगी कि बात इतनी छोटी थी, और नहीं जीता!
आचार्य तुलसी लोगों को अणुव्रत समझाते हैं। मैं महाव्रत समझाता हूं। अणुव्रत खतरनाक है। छोटा सा व्रत लेना ही मत। जीते, तो कुछ लाभ नहीं।
समझो कि सिगरेट पीते थे, और जीत गए। अब नहीं पी। तो क्या खास लाभ है? कुछ खास लाभ नहीं है। जीते, तो कोई आत्म-गरिमा पैदा नहीं होगी। अगर किसी से कहोगे कि मैंने सिगरेट पीना छोड़ दिया, तो वह कहेगा: इसमें क्या रखा है! हम पहले से नहीं पीते। इसमें कोई खास बात नहीं हो गयी। धुआं भीतर ले गए; धुआं बाहर लाए! अब नहीं ले जाते, इसमें कौन सा गुण-गौरव है? इसमें तुमने कौन सी कला सिद्ध कर ली?
जीते, तो कुछ लाभ नहीं। और अगर हारे...। और सौ में निन्यानबे मौके हैं हारने के, जीतने के नहीं। अगर हारे--जिसके निन्यानबे मौके हैं--तो बड़ी हानि है।
मैंने सुना है, ईसप की कहानी है: एक गधे ने एक सिंह को ललकारा कि आ, हो जाएं दो-दो हाथ! आज तय हो जाए कि कौन इस जंगल का राजा है। सिंह पूंछ दबाकर भाग गया! एक लोमड़ी देखती थी; वह बड़ी हैरान हुई। यह सिंह तो हाथियों की भी चुनौतियों को कभी डरा नहीं। यह गधे से पूंछ दबाकर भाग गया! मामला क्या है?
लोमड़ी ने पीछा किया। पूछा कि आप राजा हैं, सम्राट हैं, और एक गधे से...!
उसने कहा: गधे की वजह से ही भागा। अगर गधा हारा, तो हमारी जीत से कुछ लाभ नहीं। लोगे कहेंगे, क्या जीते! गधे से जीते! और बदनामी होगी। अगर गधा जीत गया भूल-चूक; गधा ही है, इसका क्या भरोसा! दुलत्ती मारे या कुछ हो जाए और कभी जीत जाए संयोग से, तो हम सदा के लिए मारे गए। हम नहीं मारे गए, हमारी संतति भी मारी गयी। फिर सदा के लिए सिंहों का सिर झुक जाएगा।
छोटे से नहीं लड़ना।
मैं भी तुमसे यही कहता हूं: छोटे से मत लड़ना। लड़ना हो, तो कोई बड़ा दुश्मन चुनना। जितना बड़ा दुश्मन चुनो, उतना लाभ है। लड़ना हो, तो धूम्रपान मत चुनना; ध्यान चुनना। लड़ो, तो सिंह से लड़ो। हारे, तो भी कहने को तो रहेगा कि सिंह से हारे। जीते, तब तो कहना ही क्या! दोनों हाथ लड्डू होंगे।
छोटे से मत लड़ना।
आचार्य तुलसी ने मुझे एक दफा निमंत्रित किया था उनके एक सम्मेलन में। मैंने उनसे कहा कि नहीं; अणुव्रत शब्द मुझे नहीं जमता। छोटी-छोटी बातों में मैं आदमी को नहीं उलझाना चाहता। छोटी-छोटी बातों में ही उलझकर आदमी मरा है। कुछ महाव्रत की बात हो।
और यह बड़े मजे की बात है कि छोटे से आदमी अक्सर हार जाता है, और बड़े से जीत जाता है। यह गणित बड़ा बेबूझ है। इसके पीछे बड़ा मनोविज्ञान है।
छोटे से आदमी क्यों हार जाता है? पहली तो बात यह कि जो छोटे से लड़ने चला है, उसने अपने को बहुत छोटा मान ही लिया। उसका भरोसा ही बहुत छोटे का हो गया। जो आदमी सिगरेट से लड़ने चला है, या पान से लड़ने चला है, या इसी तरह की छोटी-मोटी बातों से लड़ने चला है, उसने अपनी क्षुद्रता स्वीकार कर ली। इसी स्वीकार में हार है।
समझदार आदमी सिगरेट से लड़ता नहीं। अगर नहीं पीना है, तो सिर्फ छोड़ देता है; लड़ता नहीं। नहीं पीना है, तो नहीं पीता। कौन कहता है कि पीओ! सिर्फ छोड़ देता है, बिना लड़े। उसे बात दिख गयी, कि नहीं जंचती; कोई सार नहीं है। उस अंतर्दृष्टि में ही छूटना हो जाता है।
बिना लड़े हो जाए, तब तो ठीक। जो आदमी कहता है: लंगोटी बांधूंगा; और दंड-बैठक लगाऊंगा; इससे लडूंगा। वह पहले से ही हारने की बात पक्की हो गयी उसकी। वह पहले से ही डरा हुआ है। वह घबड़ा रहा है। उसकी घबड़ाहट उसे कंपा रही है। वह जानता है कि मैं जीतने वाला नहीं। वह जानता है कि घड़ीभर सिगरेट न पीऊंगा, तलब उठेगी; फिर क्या होगा!
ऐसा हुआ। पहला आदमी उत्तरी ध्रुव पर पहुंचा था। तो उसने जब लौटकर अपने संस्मरण लिखे, तो उसने संस्मरणों में लिखा कि हमें सबसे बड़ी कठिनाई तब आयी, जब सिगरेट चुक गयी। भोजन कम हो गया, तो लोग एक बार भोजन करने को राजी थे। मगर जब सिगरेट चुक गयी, तो बड़ी मुसीबत खड़ी हो गयी। लोग जहाज की रस्सियां काट-काटकर पीने लगे। रस्सियां! और जो उनका प्रमुख था, वह तो बहुत घबड़ाया। उसने कहा: ये रस्सियां तुम पी गए, तो यह जहाज चलेगा कैसे! वापस हम कैसे पहुंचेंगे?
रस्सियों को बचाना मुश्किल हो गया। क्योंकि अधिक तो धूम्रपान करने वाले लोग थे। वे रात में उठ आएं, चोरी से रस्सी काटकर पी जाएं! और कोई चीज पीने को थी भी नहीं जहाज पर; रस्सियां ही थीं, जिनमें से धुआं निकल सकता था। बामुश्किल वे लौट पाए, उन रस्सियों को किसी तरह बचा-बचाकर।
एक आदमी यह पढ़ रहा था अखबार में--हाथ में सिगरेट लिए--उसे खयाल आया कि अगर मैं भी उस यात्रा में होता...। और वह श्रृंखलाबद्ध धूम्रपान करने वाला था, चेन स्मोकर था। एक सिगरेट से दूसरी जलाए; दूसरी से तीसरी जलाए। सिगरेट हाथ से छूटे ही नहीं। अभी भी अखबार पढ़ रहा था...लेकिन उसे लगा कि अगर मैं उस यात्रा में होता, तो क्या मैंने भी जहाज की गंदी रस्सियां पी होतीं? मैंने भी? और उसने हाथ से सिगरेट छोड़ दी। और उसने कहा: अब मैं देखूंगा; जब इतनी तलब मुझमें उठे कि मैं जहाज की सड़ी-गली रस्सियों को धूम्रपान कर जाऊं, तभी सिगरेट हाथ में उठाऊंगा।
तीस साल बीत गए और उसने सिगरेट हाथ में नहीं उठायी। यह बिना लड़े छोड़ना है। यह सिर्फ एक बात दिखायी पड़ गयी--कि यह तो हद्द मूढ़ता की बात है। मगर यह क्या मेरी भी दशा यही होगी? ऐसा सोचते ही सिगरेट हाथ से छोड़ दी। छोड़ दी कहना, शायद ठीक नहीं; छूट गयी। लड़ा नहीं। सिगरेट और माचिस सदा टेबल पर रखी रही तीस साल तक, जब तक वह मरा नहीं। इस प्रतीक्षा में रहा कि उस दिन पीऊंगा, जिस दिन ऐसी दशा हो जाएगी कि अब कुछ भी पी सकता हूं। मगर वह दशा कभी न हुई। और वह बहुत हैरान हुआ: तलब उठी ही नहीं!
तुम तलब उठने के पहले ही माने हो कि उठेगी; उठने ही वाली है। बचना मुश्किल है। तुम्हारी मान्यता ही तुम्हें भरमा रही है।
छोटी-छोटी क्षुद्र बातों से मत लड़ना। और बड़ी तो एक ही बात है: लड़ना हो, तो परमात्मा के लिए लड़ना। लड़ना हो, तो ध्यान के लिए लड़ना। वहां पूरी ऊर्जा लेकर लड़ना। इस विराट की लड़ाई में तुम अकेले भी नहीं रहोगे। इस विराट की लड़ाई में, जो भी उसको उपलब्ध हो गए हैं, सबके आशीष तुम्हें उपलब्ध होंगे। आशीष लेकर लड़ना।
क्यों आशीष लेकर लड़ना? ताकि तुम्हारे साथ बुद्ध की ऊर्जा जुड़ जाए; किसी जिन की ऊर्जा जुड़ जाए; किसी संत की ऊर्जा जुड़ जाए। किसी संत का भाग्य अपने साथ जोड़ लेना--यह आशीष का अर्थ है। जब किसी संत का भाग्य अपने भाग्य से जोड़ा जा सकता हो, तो नासमझ है जो न जोड़े।
बुद्ध का आशीष लिया। चाहते थे, ध्यान की गहराइयों में उतरना है। समाधि से कम उनका लक्ष्य नहीं था।
इससे कम लक्ष्य रखना भी नहीं। छोटे-छोटे लक्ष्य रखना ही नहीं। दूर आकाश के तारे पर आंख होनी चाहिए। और अगर तुम्हें दो मील जाना हो, तो दस मील जाने का संकल्प होना चाहिए, तो दो मील पहुंचोगे। जितना तुम्हें पाना हो, उससे बड़ा संकल्प रखना।
अक्सर लोग उलटा कर लेते हैं। जाना तो चाहते हैं सूरज तक, संकल्प बड़ा छोटा सा होता है। दीए तक पहुंचने का भी नहीं होता। फिर सूरज तक कैसे पहुंचोगे?
संकल्प तो आत्यंतिक होना चाहिए। जिन लोगों ने धन को चुना है संकल्प की तरह, उन्होंने बड़े क्षुद्र को चुन लिया। जिन्होंने ध्यान को चुना है, उन्होंने ही ठीक चुना है। चुनौती बड़ी चाहिए, ताकि तुम्हारे भीतर सोयी हुई शक्तियां जाग जाएं। इसलिए क्षुद्र के साथ लड़ाई में हार हो जाती है, क्योंकि क्षुद्र की चुनौती में तुम्हारे भीतर सोयी हुई शक्तियां जागती ही नहीं। शक्तियां जागती तभी हैं, जब उनके सामने खतरा खड़ा हो जाए।
बड़ी चुनौती दो। जितनी बड़ी चुनौती होगी, उतना ही विराट तुम अपने भीतर जागता हुआ पाओगे। चुनौती का सामना करना है। चुनौती से जूझना है।
तुमने कभी खयाल किया: अगर किसी कठिनाई के समय में तुम जूझ पड़ते हो, तो तुम्हारे भीतर बड़ी ऊर्जा होती है, जैसी सामान्यतया नहीं होती।
जैसे समझो कि घर में आग लग गयी है। तुम थके-मांदे आए थे; कि सात दिन से यात्रा कर रहे थे और सारा शरीर टूट रहा था। और तुम बिलकुल थके-मांदे थे, और भूखे थे। और चाहते थे कि किसी तरह भोजन करके गिर पड़ो बिस्तर में, और खो जाओ दो दिन के लिए बिस्तर में। दो दिन उठना ही नहीं है।
घर आए। खाने की तो बात दूर, देखा कि घर में लपटें लगी हैं; आग जल रही है। सब भूल गए। सात दिन की थकान, शरीर का टूटा-फूटा होना, भूख, निद्रा--सब गयी! एक क्षण में कोई ज्योति तुम्हारे भीतर भभककर उठी। एक ऊर्जा उठी। तुम जूझ गए।
अब शायद तुम रातभर आग से लड़ते रहो और नींद नहीं आएगी। और पहले तुम सोच रहे थे कि घड़ीभर भी अगर मुझे जागना पड़ा, भोजन के तैयार होने के समय की प्रतीक्षा करनी पड़ी, तो मैं सो जाऊंगा; गिर जाऊंगा।
क्या हुआ? कहां से यह ऊर्जा आयी? एक बड़ी चुनौती सामने खड़ी हो गयी। उस बड़ी चुनौती के कारण यह ऊर्जा आयी।
चुनौतियां चुनना बड़ी कुशलता की बात है। और अगर चुनना ही हो, तो आत्यंतिक; कहो उसे समाधि, निर्वाण, मोक्ष, परमात्मा; जो नाम देना चाहो। मगर जो परमात्मा को पाने की प्रबल अभीप्सा से जग खड़ा होता है, उसके भीतर सोयी हुई अंतस्तल की सारी शक्तियां जग आती हैं। उसकी जड़ें तक कंप जाती हैं। उसके भीतर जो भी छिपा है, सब प्रगट हो जाता है। क्योंकि इस बड़ी चुनौती के सामने अब कुछ भी छिपाकर नहीं रखा जा सकता। अब तो सभी दांव पर लगाना होगा, तो ही यात्रा हो सकती है।
इसलिए कहता हूं कि छोटी-मोटी चीज से लड़ोगे, तो हारोगे। क्योंकि तुम्हारी सोयी हुई शक्तियों को चुनौती नहीं मिलती।
अब सिगरेट नहीं पीना है--यह बात ही सुनकर कोई तुम्हारी आत्मा जागने वाली है! आत्मा कहेगी कि पीओ न पीओ, ठीक है। क्या फर्क पड़ता है! कि नमक नहीं खाएंगे आज; कि आज भोजन में घी नहीं लेंगे। इन सब क्षुद्र बातों से कु
छ भी नहीं होता। कि पानी छानकर पीएंगे; कि रात पानी नहीं पीएंगे। इन सब क्षुद्र बातों से कुछ भी नहीं होता है।
ऐसी कोई चुनौती कि तीर की तरह छिद जाए, चुभ जाए, कि चली जाए भीतर तक, कि सारे सोए हुए अंतस्तल को कंपा दे; झंझावात की तरह आए, तूफान की तरह आए और तुम्हें उठा जाए। उसी उठने में पहुंचना है।
लेकिन फिर भी काश! आशीष भी मिल जाए उनका, जो पहुंच गए हैं; उनका, जिन्होंने पा लिया है; उनके हाथ का सहारा मिल जाए तो हार का कोई कारण नहीं है।
अक्सर तुम हारते हो, क्योंकि क्षुद्र से लड़ते हो; पहली बात। और कभी-कभी विराट की आकांक्षा से भी भरते हो, लेकिन तुम्हारे पास आशीष की संपदा नहीं होती। तुम अकेले पड़ जाते हो। दूर किनारा। विराट तो बहुत दूर है; पता नहीं कहां है किनारा! यह किनारा तो हमें पता है; दूसरा किनारा, वह दिखायी भी नहीं पड़ता; सागर का दूसरा किनारा; उसकी यात्रा पर चलते हो। घबड़ाहट होती है। यह किनारा छोड़ने में घबड़ाहट होती है।
इसीलिए तो जब तुम ध्यान करने बैठते हो, तो विचार का किनारा नहीं छूटता। मन पकड़-पकड़ लेता है। मन कहता है कि जो परिचित है, उसको मत छोड़ो। जिसमें परिचय है, उसमें सुरक्षा है। यह जाना-माना है; पहचाना है; अपना है; यहां रहे हैं जन्मों-जन्मों से। तुम कहां जाते हो! किस किनारे की तलाश करते हो? कहीं भटक न जाओ; कहीं सागर में डूब न जाओ! कहीं ऐसा न हो कि यह किनारा भी हाथ से जाए और दूसरा भी न मिले। दूसरा है, इसका पक्का क्या है? किसने तुमसे कहा कि दूसरा किनारा है? तुमने तो नहीं जाना। कहीं ऐसा न हो कि तुम किसी प्रवंचना में पड़ गए हो! कि किसी झूठे सपने ने तुम्हें पकड़ लिया है!
मन तुम्हारी सुरक्षा के लिए कहेगा: रुके रहो इसी किनारे पर। विचार के तट पर ही रुके रहो। विचार है यह किनारा; ध्यान है वह किनारा। विचार है संसार; ध्यान है परमात्मा।
तो तुमने देखा: तुम ध्यान करने बैठते हो, कितने विचार उठते हैं! ज्यादा उठते हैं। उससे ज्यादा उठते हैं, जितना कि जब तुम ध्यान करने नहीं बैठते। चौबीस घंटे हजार काम में लगे रहते हो, इतने विचार नहीं सताते। घंटेभर आंख बंद करके बैठ जाओ आसन लगाकर। तुम इतने हैरान हो जाते हो कि मामला क्या है! क्या विचार प्रतीक्षा ही करते थे कि करो, बच्चू ध्यान करो, फिर तुम्हें बताएंगे! सब तरफ से टूट पड़ते हैं! सब दिशाओं से हमला बोल देते हैं। जैसे प्रतीक्षा में ही थे कि करो ध्यान, तो मजा चखाएं।
आने लगते हैं सब तरह के विचार--धन के, वासना के, काम के, राजनीति के, यह-वह, कूड़ा-करकट--सब! अखबार उड़े आते हैं। सब! एक दिशा से नहीं, सब दिशाओं से हमला हो जाता है। एकदम घिर जाते हो दुश्मनों में। थोड़ी देर में थककर उठ आते हो। सोचते हो: इससे तो जब हम काम में लगे रहते हैं, तभी कम विचार होते हैं। यह तो चले थे निर्विचार होने, और विचार के झंझावात से घिर गए!
ऐसा क्यों होता है? इसलिए होता है कि मन तुम्हारी सुरक्षा कर रहा है। मन कह रहा है: कहां जाते हो! जिस लक्ष्य का कोई पता नहीं; जहां तुम कभी गए नहीं; जिसका कोई स्वाद नहीं; किस मृग-मरीचिका के पीछे जा रहे हो? व्यावहारिक बनो। जो जाना-माना है, परखा है, उसी को पकड़े रहो।
इसलिए आशीष की जरूरत है। आशीष का अर्थ है: हम तो इस किनारे हैं; उस किनारे से कोई पुकार दे दे। आशीष का अर्थ है: हम तो इस किनारे खड़े हैं, कोई उस किनारे से कह दे कि घबड़ाओ मत, मैं पहुंच गया हूं; आओ। और जैसे तुम डर रहे हो, मैं भी डरता था। डरो मत; पहुंचना होता है। देखो, मैं पहुंच गया हूं।
बुद्धों का सत्संग खोजने का और क्या अर्थ होता है! यही कि किसी ऐसे आदमी के पास होना, जो अनुभव से कह सके कि पहुंच गया हूं। शास्त्रों से नहीं, अनुभव से; जो गवाह हो, जो साक्षी हो। जो यह न कहे कि मैं परमात्मा को मानता हूं। जो कहे, मैं जानता हूं। जो इतना ही न कहे, जानता हूं; बल्कि कहे कि मैं हूं।
ये तीन अवस्थाएं हैं: मानना, जानना, होना।
मानना बहुत दूर है। वह इसी किनारे खड़ा आदमी है, जो मानता है। उसे पता नहीं है। अंधा आदमी जैसे रोशनी को मानता है कि होना चाहिए, होगी। इतने लोग कहते हैं, तो जरूर होगी। मगर संदेह तो उठते ही रहेंगे, क्योंकि उसने तो जाना नहीं; उसने तो देखा नहीं। पता नहीं, लोग झूठ ही बोलते हों! लोगों का क्या भरोसा? अपने अनुभव के बिना जानना कैसे हो? मानना भी कैसे हो? तो मानना भी थोथा होता है। सब मानना थोथा होता है। सब विश्वास अंधविश्वास होते हैं।
फिर एक आदमी है, जिसकी आंख खुली और जिसने देखा--और देखा कि हां, रोशनी है। वृक्षों पर नाचती हुई किरणें देखीं। आकाश में उगा सूरज देखा। रात में घिरा आकाश चांद-तारों से भरा देखा। देखे फूल। हजार-हजार रंग देखे। आकाश में खिले इंद्रधनुष देखे। देखा सब, और कहा कि नहीं; है। यह जानना हुआ।
इसके आगे एक और स्थिति है, जब आदमी जानता ही नहीं; आंख ही नहीं हो जाता; बल्कि रोशनी ही हो जाता है; जब स्वयं प्रकाशरूप हो जाता है।
इसलिए बुद्ध को हम भगवान कहते हैं, महावीर को भगवान कहते हैं। जाना ही नहीं--हो गए। जो जाना--वही हो गए।
जानने में थोड़ी दूरी होती है। मानने में तो बहुत दूरी होती है। जानने में थोड़ी दूरी होती है। देख रहे हैं, वह रहा प्रकाश; हम खड़े यहां! फिर धीरे-धीरे दूरी मिटती जाती है, मिटती जाती है। और जो जाना जा रहा है, और जो जानने वाला है--एक ही हो जाते हैं। ज्ञाता और ज्ञेय का भेद गिर जाता है। वहीं परम ज्ञान है।
ऐसे किसी व्यक्ति का आशीष मिल जाए, तो तुम्हारे भीतर उत्साह और उमंग भर जाती है। श्रद्धा का सूत्रपात होता है। संवेग पैदा होता है। कोई पहुंच गया है, तो हम भी पहुंच सकते हैं। कोई पहुंच गया है, तो दूसरा किनारा है।
इसलिए आशीष मांगने आए थे।
बुद्ध जिस कुटी में रहते थे, उसका नाम था गंधकुटी। बुद्ध की सुगंध के कारण। एक सुवास है आत्मा की। जैसे फूल जब खिलते हैं, तो एक सुवास होती है। कागज के फूलों में नहीं होती। कागज के फूल कभी खिलते ही नहीं। असली फूलों में होती है सुवास!
साधारण आदमी में सुवास नहीं होती। वह करीब-करीब कागज का फूल है। कागज का, क्योंकि उसने सब झूठ का जाल अपने चारों तरफ बना रखा है। उसने दूसरों को धोखा दिया है; अपने को भी धोखा दे लिया है। प्रवंचक है। मिथ्या है। झूठ ही झूठ की पर्तें हैं। सच उसमें खोजे से नहीं मिलता। कितना ही खोदो, एक झूठ के बाद दूसरा झूठ; दूसरे झूठ के बाद तीसरा झूठ। कितना ही खोदो--एक मुखौटा, दूसरा मुखौटा; मुखौटे पर मुखौटे! उसके असली चेहरे का पता नहीं चलता कि असली चेहरा क्या है! और ऐसा नहीं कि तुम्हें पता नहीं चलता; उसे खुद भी पता नहीं रहा है। उसे खुद भी अपने असली चेहरे का पता नहीं है।
बुद्ध की परंपरा में भिक्षुओं से निरंतर कहा गया है: अपने असली चेहरे की खोज करो। वह चेहरा जो जन्म के पहले तुम्हारा था और मृत्यु के बाद फिर तुम्हारा होगा। उस चेहरे की खोज करो। जो चेहरे जिंदगी ने तुम्हें दे दिए, इन चेहरों को उतारकर रखो। वे सब चेहरे झूठ हैं।
बच्चा पैदा हुआ, तब न तो हिंदू होता, न मुसलमान; न ईसाई, न जैन, न बौद्ध। यह असली बात है। फिर उसके ऊपर एक चेहरा हमने टांग दिया कि यह हिंदू, यह मुसलमान, यह ईसाई। फिर हिंदू में भी ब्राह्मण, कि शूद्र, कि क्षत्रिय, कि वैश्य! फिर ब्राह्मणों में भी कान्यकुब्ज ब्राह्मण, कि देशस्थ, कि कोकणस्थ। फिर रोग पर रोग हैं; बीमारियों पर बीमारियां हैं! खोजते चले जाओ, चेहरे पर चेहरे हैं। इसका असली चेहरा पता ही नहीं चलेगा।
जब यह पैदा हुआ था, तब इसे यह भी पता नहीं था कि मैं स्त्री हूं या पुरुष। तब यह बस था। तब इसे कुछ पता नहीं था। इसका देह-भाव नहीं था। सिर्फ आत्म-भाव था। मैं हूं--बस, इतना था। अब यह स्त्री है, पुरुष है। हिंदू है, मुसलमान है। गरीब है, अमीर है। ज्ञानी है, अज्ञानी है। साधु है, असाधु है। ये सब चेहरे! ये सब चेहरे इसने खरीदे बाजार से। स्कूलों में बिकते हैं, कालेजों में बिकते हैं, यूनिवर्सिटीज में बिकते हैं। सब तरफ चेहरे बिकते हैं। अब यह एम.ए. हो गया; अब यह पीएच.डी. हो गया; अब यह डी.लिट. हो गया!
यहां इस आश्रम में तुम्हें बहुत से पीएच.डी. बुहारी लगाते हुए मिल जाएंगे। उन्होंने चेहरा उतारकर रख दिया। तुम पहचान भी न सकोगे कि ये पीएच.डी. हैं। बुहारी लगाते हैं। उतारकर रख दिया चेहरा।
अभी एक युवती आयी। मेडीसिन में पीएच.डी. है। मैंने उससे कहा कि तेरा क्या इरादा है? उसने कहा कि बस, मुझे झाडू लगानी है। किसी को मैं बताना भी नहीं चाहती कि मैं पीएच.डी. हूं मेडीसिन में। मुझे डाक्टर नहीं बनना है। तो मैंने कहा कि हमें एक अस्पताल की तो जरूरत है ही; संन्यासी बीमार पड़ते हैं। तो उसने कहा: अस्पताल में बुहारी लगा दूंगी। मगर नहीं; यह चेहरा मैं नहीं चाहती। मैं इतनी दूर से सिर्फ यहां बुहारी लगाने आयी हूं।
चेहरे उतारने पड़ते हैं। उतारकर रख देने पड़ते हैं।
पश्चिम से युवक-युवतियां संन्यास लेते हैं आकर। वे कहते हैं: अजीब बात है! हिंदुस्तान में जो मिलता है, पहले यही पूछता है, डिग्री क्या! कहां तक पढ़े हो! ये बे-पढ़े-लिखों के सवाल हैं। पढ़ा-लिखा आदमी नहीं पूछता यह बात। पढ़ा-लिखा इसको क्या पूछेगा! ये बे-पढ़े-लिखों के सवाल हैं।
हिंदुस्तान तो बड़ा अजीब है। कहते हैं बड़ा आध्यात्मिक है, दिखता नहीं। लोग मिले नहीं...। ट्रेन में मिल जाएं, पूछते हैं: क्या काम करते हैं? क्या तनख्वाह? ऊपर से क्या मिलता है?
एक तो तनख्वाह पूछना ही अपमानजनक है। किसी आदमी की तनख्वाह नहीं पूछनी चाहिए। क्योंकि हो सकता है, बेचारे की छोटी तनख्वाह हो। और कहने में संकोच हो; और झूठ बोलना पड़े। उसकी नौकरी छोटी-मोटी हो। वह क्लर्क हो, कि किसी प्राइमरी स्कूल में मास्टर हो। अब तुम उसकी भद्द करवाने पर राजी हो।
या तो वह सच बोले, तो अपमानजनक मालूम पड़ता है। या झूठ बोले। तुम उसे झूठ बोलने की उत्तेजना दे रहे हो। फिर तनख्वाह क्या मिलती है! और इतने तक चैन नहीं है आध्यात्मिक लोगों को। आखिरी में पूछते हैं, ऊपर भी कुछ मिलता है कि नहीं? अगर ऊपर मिलता है, तो नौकरी अच्छी।
हद्द हो गयी! ऊपर मिलने का मतलब क्या होता है? चोरी, बेईमानी, रिश्वत।
ये सब थोथे चेहरे हैं। और इन थोथे चेहरों पर हमें बड़ा भरोसा है। इसलिए तुम्हारी जिंदगी में सुवास नहीं है। कागज के फूलों में गंध नहीं होती। तुम्हारा असली फूल तो मरा जा रहा है। तुम्हारा गुलाब का फूल तो सड़ा जा रहा है। कागज के फूलों ने चारों तरफ से उस पर घेरा डाल दिया है। उसको सांस लेने की सुविधा नहीं है। तुम्हारे गुलाब के फूल को अवसर नहीं है कि वह सांस ले ले; कि वह रोशनी में उठ जाए; कि पखुड़ियां खोल दे; जगह नहीं है; अवकाश नहीं है। सब स्थान कागज के फूलों ने भर दिया है।
बुद्ध में गंध होती है, क्योंकि बुद्ध के सब कागज के फूल गिरा दिए गए, जला दिए गए। बुद्ध का अर्थ होता है, जिसने अपने असली चेहरे को पा लिया। अब जो फिर वैसा हो गया, जैसा निर्दोष बच्चा होता है; पहले दिन का बच्चा होता है। सिर्फ है। न कोई परिभाषा, न कोई सीमा। असीम हो गया फिर। इस सरलता में सुगंध है, सुवास है। सरलता के अतिरिक्त और कहीं सुवास नहीं। इस सहजता में सुगंध है।
इसलिए बुद्ध की कुटी का नाम था गंधकुटी। वहां फूल खिला था--मनुष्यता का फूल। याद रखना: तुम भी फूल हो; चाहे अभी कली में दबे हो, या हो सकता है, अभी कली भी पैदा न हुई हो; अभी किसी वृक्ष की शाखा में दबे हो। या हो सकता है, अभी वृक्ष भी पैदा न हुआ हो और किसी बीज में पड़े हो। मगर तुम भी फूल हो। और अपनी सुगंध को खोजना है। और अपनी सुगंध को मुखर करना है; अपनी सुगंध को प्रगट करना है। अभिव्यंजना देनी है। जो गीत तुम्हारे भीतर पड़ा है, उसे गाया जाना है। और जो नाच तुम्हारे भीतर पड़ा है, उसे नाचा जाना है।
नाचोगे, गाओगे, खिलोगे तो ही परितृप्ति है। उस परितृप्ति में ही, उस संतोष में ही एक सुगंध है। जो इन नासापुटों से नहीं पहचानी जाती। उसे पहचानने के लिए भी और नासापुट चाहिए। जैसे भीतर की आंख होती है, ऐसे भीतर के नासापुट भी होते हैं।
जरूरी नहीं कि तुम बुद्ध के पास जाओ, तो तुम्हें सुगंध मिले। तुम अगर अपनी दुर्गंध से बहुत भरे हो, तो शायद तुम्हें बुद्ध की सुगंध का पता भी न चले। तुम अगर अपने शोरगुल से बहुत भरे हो, तो तुम्हें बुद्ध का शून्य, और संगीत उस शून्य का कैसे सुनायी पड़ेगा!
गंधकुटी के चारों ओर जुही के फूल खिले थे।
शास्ता ने उन भिक्षुओं को कहा: भिक्षुओ! जुही के खिले इन फूलों को देखते हो!...
एक फूल तो बुद्ध का खिला था। मगर शायद अभी ये भिक्षु उसे नहीं देख सकते, इसलिए मजबूरी है और बुद्ध को कहना पड़ा: भिक्षुओ! इन जुही के खिले फूलों को देखते हो? ये सुवासित फूल, इन पर ध्यान दो। इन फूलों में कई राज छिपे हैं। एक तो कि ऐसे ही फूल तुम हो सकते हो। ऐसी ही सुवास तुम्हारी हो सकती है।
दूसरा: ये फूल सुबह खिलते हैं, सांझ मुर्झा जाते हैं। ऐसा ही यह मनुष्य का जीवन है। इसमें मोह मत लगाना। यह आया है, यह जाएगा। इस पर मुट्ठी मत बांधना। इसके साथ कृपणता का संबंध मत जोड़ना। यह तो आया है और जाएगा। जन्म के साथ ही मृत्यु का आगमन हो गया है।
ये फूल अभी कितने खुश दिखायी पड़ते हैं। सांझ मुर्झा जाएंगे; गिर जाएंगे धूल में और खो जाएंगे। ऐसा ही जीवन है।
जो जीवन को पकड़ना चाहता है, वह सदा दुख में ही रह जाता है। जीवन को पकड़ो मत। यह पकड़ा जा नहीं सकता। बहता है, बहने दो। इसे समझो। यह ध्यान की आधारशिला है।
तुम्हारे जीवन का दुख क्या है? तुम्हारे जीवन का मौलिक दुख यही है कि जो रुकेगा नहीं, उसे तुम रोकना चाहते हो। तुम्हारे जीवन का मौलिक दुख यही है कि जो नहीं होगा, उसे तुम करना चाहते हो; जो हो ही नहीं सकता।
जैसे तुम जवान हो, तो तुम सदा जवान रहना चाहते हो। यह हो ही नहीं सकता, तो दुखी होने वाले हो। दुख कोई तुम्हें दे नहीं रहा है। तुम अपना दुख पैदा कर रहे हो। जवान को बूढ़ा होना ही पड़ेगा। इसमें कुछ बुराई भी नहीं है। प्रवाह है। जवानी का अपना सौंदर्य है; बुढ़ापे का अपना सौंदर्य है। और अगर बुढ़ापा तुम्हें कुरूप दिखायी पड़ता है, तो उसका एक ही कारण है कि यह ब़ूढा आदमी अभी भी जवानी को पकड़ने की कोशिश में होगा, जो इसके हाथ से छूट गयी है। इसलिए बुढ़ापे का निश्चिंत भोग नहीं कर पा रहा है।
नहीं तो बचपन का अपना सौंदर्य है; जवानी का अपना सौंदर्य है; बुढ़ापे का अपना सौंदर्य है। और ध्यान रखना: बुढ़ापे का सौंदर्य सबसे बड़ा सौंदर्य है, क्योंकि सबसे अंत में आता है। वह फूल आखिरी है।
इसलिए तो इस देश में हम बूढ़े को आदर देते हैं। सब बूढ़े आदर के योग्य होते नहीं, इसे जानकर भी देते हैं। मान्यता भीतर यह है कि अगर कोई आदमी बचपन में पूरी तरह बचपन जीया हो, और जब बचपन चला गया, तो पीछे लौटकर न देखा हो; दो आंसू न बहाए हों उसके लिए। जवानी में पूरी जवानी जीया हो। और जब जवानी चली गयी, तो लौटकर न देखा हो। वह आदमी पूरा बुढ़ापा जीएगा। उसके बुढ़ापे में प्रज्ञा होगी, बोध होगा, समझ होगी।
बच्चा तो कितना ही निर्दोष हो, फिर भी अबोध होता है। उसकी निर्दोषता में एक तरह का अज्ञान होता है। उसकी निर्दोषता अज्ञान की पर्यायवाची होती है। वह निर्दोष है, क्योंकि अभी उसने जाना नहीं है।
जवानी जिद्दी होती है। जवानी सपनों से भरे हुए समय का नाम है। जवानी हजार सपने देखती है और हजार तरह की विपदाओं में पड़ती है। जवानी में हजार तरह की मूढ़ताएं सुनिश्चित हैं। जवानी एक तरह की मूढ़ता है। एक तरह का नशा है जवानी। एक तरह की मदहोशी है। जवानी में बड़ी गति है, और बड़ी त्वरा है, और बड़ी ऊर्जा है, लेकिन बड़ी विक्षिप्तता भी है।
बुढ़ापे में जवानी की मूढ़ता गयी, विक्षिप्तता गयी, पागलपन गया। जवानी का जोश-खरोश गया। जवानी की उत्तेजना, ज्वर गया। बचपन का अज्ञान गया।
जीवन के सारे अनुभव बूढ़े को ताजा कर जाते, निखार जाते, शुद्ध कर जाते। अब न वासना के अंधड़ उठते, न बचपन का अज्ञान खिलौनों में उलझाता। न जवानी की विक्षिप्तता पद, धन, प्रतिष्ठा की दौड़ में महत्वाकांक्षा जगाती। एक शांति उतरनी शुरू हो जाती है।
बूढ़ा एक अपूर्व संतोष से भरने लगता है। सब, जो देखना था, देख लिया। सब, जो जानना था, जान लिया। अब घर लौटने लगता है।
लेकिन हमारी तकलीफ यह है कि हममें से बहुत कम लोग बूढ़े हो पाते हैं। बूढ़े हों कैसे? जो बूढ़े हैं, वे भी अभी जवानी का विचार करते रहते हैं; बचपन का विचार करते रहते हैं। कहते हैं: अरे! वे दिन गजब के थे!
जो आदमी यह कहे कि जो दिन बीत गए, वे गजब के थे, समझना: यह आदमी बढ़ नहीं पाया। यह प्रौढ़ नहीं हुआ। क्योंकि अगर वे दिन गजब के थे, तो ये दिन और गजब के होने चाहिए, क्योंकि उन्हीं गजब के दिनों के ऊपर खड़े हैं। और जब ये दिन गजब के नहीं हैं, तो वे दिन भी गजब के नहीं हो सकते। जब बुढ़ापे में सौंदर्य नहीं है, तो जवानी कैसे सुंदर रही होगी? अगर गंगा सागर में गिरने के करीब गंगा नहीं है, तो गंगोत्री में कैसे गंगा रही होगी?
बूढ़ा आदमी एक अभिनव सौंदर्य से भर जाता है। उसके सौंदर्य में एक शीतलता होती है; जवानी की गर्मी नहीं। और बूढ़ा आदमी फिर सरल हो जाता है। लेकिन उसकी सरलता में बुद्धिमत्ता होती है--बच्चे का अज्ञान नहीं। बुढ़ापा अदभुत है।
और जो आदमी ठीक से बूढ़ा हो गया--न पीछे लौटकर देखता जवानी को, न याद करता बचपन को--वह आदमी अब मृत्यु में भी उतने ही आनंद से प्रवेश कर सकेगा। क्योंकि बुढ़ापे का डर क्या है कि कहीं मैं बूढ़ा न हो जाऊं। वह डर यही है कि बुढ़ापे के बाद फिर आखिरी कदम मौत है।
तो जवान जवानी में ही रुक जाना चाहता है। सब तरह की चेष्टाएं करता है कि किसी तरह पैर जमाकर खड़ा हो जाऊं; यह जो नदी की धार सब बहाए ले जा रही है, यह मुझे अपवाद की तरह छोड़ दे। तो दुख ही दुख होगा।
सुख किसे होता है? सुख उसे होता है, जिसकी जीवन से कोई मांग नहीं। जीवन जो करता है, उसे स्वीकार करने का भाव है। तथाता में सुख है। जवानी, तो जवानी में; बुढ़ापा, तो बुढ़ापा। आज किसी का प्रेम मिला, तो प्रेम; और कल प्रेम खो गया, तो उतना ही शांत भाव। आज महल थे, तो ठीक; कल झोपड़े आ गए, तो ठीक।
लेकिन दुनिया में दो तरह के मूढ़ हैं। अगर झोपड़ा है, तो वे चाहते हैं, महल होना चाहिए। और अगर महल है, तो वे चाहते हैं, झोपड़ा होना चाहिए। बड़ी मुश्किल है! आदमी जहां है, वहां राजी नहीं है! अगर झोपड़ा है, तो वे कहते हैं: जब तक महल न मिल जाए, मैं सुखी नहीं हो सकता। और महल मिल जाए, तो आदमी सोचने लगता है: महलों में कहां सुख है? जब तक मैं भिखारी न हो जाऊं सड़क का, तब तक कहां सुख होने वाला है! गरीब अमीर होने की सोचता है; अमीर गरीब होने की सोचता है।
लेकिन तुम जो हो, जहां हो, उसको जीते नहीं। तुम जो हो, जिस क्षण में हो, जहां हो, जैसे हो, उस क्षण को पूरी समग्रता से जी लो। उससे अन्यथा की मांग न करो। जब वह क्षण चला जाएगा, कोई अड़चन न होगी। नया क्षण आएगा। नए क्षण के साथ नया जीवन आएगा।
तो फूलों में यह भी संदेश है। और फूलों में यह भी संदेश है कि यह जीवन सदा रहने को नहीं है। आज है, कल नहीं हो जाएगा। इसलिए यह यात्रा है, मंजिल नहीं है। यहां घर मत बना लेना।
सम्राट अकबर ने फतेहपुर सीकरी का नगर बसाया। बस तो कभी नहीं पाया। नगर बसते कहां! जब तक नगर बसा, तब तक अकबर के मरने के दिन करीब आ गए। फिर जा नहीं पाया। नगर सदा से बे-बसा रहा। लेकिन बनाया सुंदर नगर था। सुंदरतम नगरों में एक बनाया था। और एक-एक चीज बड़े खयाल से रखी थी। एक-एक चीज, एक-एक ईंट बड़े सोच-विचारकर रखी गयी थी।
जो पुल फतेहपुर सीकरी को जोड़ता है, उस पुल पर क्या वचन लिखे जाएं? तो अकबर ने सालों उस पर विचार किया था। नगरद्वार पर स्वागत के लिए क्या वचन लिखे जाएं? फिर जीसस का प्रसिद्ध वचन चुना था। वचन है कि यह संसार एक सेतु है; इससे गुजर जाना; इस पर घर मत बना लेना।
फूल में यह संदेश है: यहां सब बीत जाएगा। घर मत बना लेना। घर जो बना लेता है जीवन में, वही गृहस्थ है। और जो घर नहीं बनाता, वही संन्यस्त है।
संन्यास के लिए घर छोड़कर जाने की जरूरत नहीं है। संन्यास के लिए घर बनाने की आदत छोड़ने की जरूरत है। संन्यास के लिए यहां कोई घर घर नहीं है; सभी सराय हैं। जहां ठहरे, वहीं सराय है। इसका यह मतलब नहीं है कि सराय को गंदा करो। कि सराय है, अपने को क्या लेना-देना! इसका यह भी मतलब नहीं कि सराय कैसी भी हो, तो चलेगा। सराय को सुंदर करो। सुंदरता से रहो। लेकिन ध्यान रखो कि जो आज है, वह कल चला जाएगा। यह जीवन का स्वभाव है।
तो बुद्ध ने कहा: भिक्षुओ! जुही के इन खिले फूलों को देखते हो? ये सांझ मुर्झा जाएंगे। ऐसा ही क्षणभंगुर जीवन है। अभी है, अभी नहीं। इन फूलों को ध्यान में रखना भिक्षुओ! यह स्मृति ही क्षणभंगुर के पार ले जाने वाली नौका है।
क्यों? जो क्षणभंगुर को पकड़ना चाहता है, उसके भीतर विचारों का तूफान उठेगा। विचार हैं क्या? क्षणभंगुर को पकड़ने की चेष्टाएं। क्षणभंगुर को थिर करने की चेष्टाएं। विचार हैं क्या? घर बनाने की ईंटें। इसलिए जो क्षणभंगुर को पकड़ना नहीं चाहता, उसके भीतर विचार अपने आप क्षीण हो जाते हैं।
सार ही क्या है? जब सब चला जाना है, तो इतने सोच-विचार से क्या होगा? इतनी योजनाएं बनाने का क्या अर्थ है? अतीत चला गया; भविष्य भी आएगा और चला जाएगा; और वर्तमान बहा जा रहा है। जी लो--बजाय योजनाएं करने के।
जैसे-जैसे विचार कम होते हैं, वैसे-वैसे ध्यान प्रकट होता है। ध्यान है निर्विचार चित्त की दशा। वही नौका है। वही पार ले जाएगी।
विचारों ने बांध रखा है जंजीरों की तरह इस तट से। ध्यान ले जाएगा नौका की तरह उस तट पर।
भिक्षुओं ने फूलों को देखा और संकल्प किया: संध्या तुम्हारे कुम्हलाकर गिरने के पूर्व ही हम ध्यान को उपलब्ध होंगे, हम रागादि से मुक्त होंगे। फूलो! तुम हमारे साक्षी रहो।
भगवान ने कहा: साधु! साधु!
जब भी वे आशीष देते थे, तो यही उनका आशीष था: साधु! साधु! धन्य हो कि साधुता का जन्म हो रहा है। धन्य हो कि सरलता पैदा हो रही है। धन्य हो कि ध्यान की तरफ तुम्हारी दृष्टि जा रही है। धन्य हो कि साधना में रस उमग रहा है। साधु! साधु! ऐसा कहकर अपने आशीषों की वर्षा की। तब ये सूत्र उन्होंने कहे थे:
‘शून्य गृह में प्रविष्ट शांत-चित्त भिक्षु को भली-भांति से धर्म की विपस्सना करते हुए अमानुषी रति प्राप्त होती है।’
जो व्यक्ति शून्य गृह में ठहर जाए; जो अपने भीतर निर्विचार हो जाए; जिसके भीतर विचारों की तरंगें न उठती हों। शून्य यानी निर्विचार। जो व्यक्ति शून्य हो जाए, वही शांत-चित्त है।
जो लोग तुम्हें साधारणतः शांत-चित्त दिखायी पड़ते हैं, वह शांति सिर्फ ऊपर से साधी गयी है। क्योंकि भीतर तो विचारों का बवंडर चल रहा है। चुप होने से कोई शांत नहीं होता। न बोलने से कोई शांत नहीं होता; न सोचने से शांत होता है।
तुम ऊपर से बिलकुल पत्थर की मूर्ति बनकर बैठ सकते हो, और भीतर विचार चलते रहें, तो इस पत्थर की मूर्ति बनने से कुछ भी नहीं होगा।
एक युवक दीक्षा लेने एक सदगुरु के पास पहुंचा--एक बौद्ध भिक्षु के पास। बौद्ध भिक्षु एक बुद्ध-मंदिर में रहता था। जब वह युवक आया, तो उस गुरु ने पूछा कि पहले कहीं और कुछ स
ीखा है? उसने कहा: हां, पहले मैं एक योगी के पास सीखा हूं। क्या सीखे हो? उस युवक ने जल्दी से पालथी मार ली; पद्मासन में बैठ गया। आंखें बंद कर लीं। दो मिनट तक गुरु देखता रहा। उसने कहा कि अब आंखें खोलो और रास्ता पकड़ो।
युवक ने कहा: रास्ता पकड़ो! मैं आपके पास शिष्य होने आया हूं।
उस गुरु ने कहा: यहां पत्थर की मूर्तियां इस मंदिर में बहुत हैं। हमें और जरूरत नहीं है। इन्हीं को साफ-सम्हाल करते बहुत झंझट हो रही है। यह पद्मासन लगाकर तुम बैठ गए, लेकिन भीतर तुम्हारे मैं पूरा बाजार देख रहा हूं।
पद्मासन लगाने से क्या होगा! शीर्षासन लगाने से भी क्या होगा? भीतर से बाजार बंद होना चाहिए। वही एकमात्र वास्तविक आसन है। शरीर के आसनों में मत उलझ जाना। असली सवाल मन का है; वहां शून्यता होनी चाहिए, तो शांत-चित्त होता है कोई। और जो शांत-चित्त होता है, वही धर्म की विपस्सना कर पाता है।
विपस्सना का अर्थ होता है, लौटकर देखना। पतंजलि के शास्त्र में पतंजलि ने जिसे प्रत्याहार कहा है--पीछे लौटकर जाना; जिसको महावीर ने प्रतिक्रमण कहा है। आक्रमण यानी बाहर जाना, दूसरे पर हमला। प्रतिक्रमण यानी अपने पर आना। जिसको जीसस ने मेटानॉया कहा है--वापसी। उसी को बुद्ध विपस्सना कहते हैं।
विपस्सना का अर्थ होता है: लौटकर अपने स्रोत को देखना। जब विचारों का जाल हट जाता है और सामने सिर्फ शून्य रह जाता है, तभी तुम लौटकर पीछे देख सकते हो। नहीं तो विचार तुम्हें पकड़े रहते हैं, लौटने नहीं देते। विचारों के उलझाव के कारण तुम अपने मूलस्रोत को देखने से वंचित रह जाते हो।
जो उस मूलस्रोत को देख लेता है--यह बुद्ध का वचन बड़ा अदभुत है--वह अमानुषी रति को उपलब्ध हो जाता है। वह ऐसे संभोग को उपलब्ध हो जाता है, जो मनुष्यता के पार है।
जिसको मैंने संभोग से समाधि की ओर कहा है, उसको ही बुद्ध अमानुषी रति कहते हैं।
एक तो रति है मनुष्य की--स्त्री और पुरुष की। क्षणभर को सुख मिलता है। मिलता है, या आभास होता है कम से कम। फिर एक और रति है, जब तुम्हारी चेतना अपने ही मूलस्रोत में गिर जाती है; जब तुम अपने से मिलते हो। एक तो रति है दूसरे से मिलने की। और एक रति है अपने से मिलने की। जब तुम्हारा तुमसे ही मिलना होता है, उस क्षण जो महाआनंद होता है, वही समाधि है।
संभोग में समाधि की झलक है; समाधि में संभोग की पूर्णता है।
‘जैसे-जैसे भिक्षु पांच स्कंधों--रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान--की उत्पत्ति और विनाश पर विचार करता है, वैसे-वैसे वह ज्ञानियों की प्रीति और प्रमोदरूपी अमृत को प्राप्त करता है।’
एक तो अज्ञानी का प्रेम है; एक ज्ञानी का प्रेम है। धन्यभागी हैं वे, जो ज्ञानी की प्रेम-दशा को पा लें। अभागे हैं वे, जो अज्ञानी के प्रेम में ही पड़े रहें और भटक जाएं।
इनके भेद को खयाल में लेना।
अज्ञान से भरा हुआ प्रेम क्या है? अज्ञान से भरा हुआ प्रेम ऐसा है, जिसमें प्रेम का कोई कण भी नहीं है। कुछ और ही है; बात कुछ और ही है। तुम अकेले होने में ऊबते हो, इसलिए किसी को प्रेम करते हो। कि अकेले होने में मजा नहीं आता है, अकेले होने में ऊब आती है, उदासी आती है; अकेले होने में घबड़ाहट होती है--किसी का साथ चाहिए। किसी का साथ तुम्हारे लिए एक जरूरत है; यह अज्ञानी का प्रेम है।
ज्ञानी का प्रेम क्या है? ज्ञानी अकेले होने में परम आनंद से भरता है। अकेले होने में परेशान नहीं होता; अकेले होने में परम आनंद से भरता है। लेकिन इतने आनंद से भर जाता है कि अब उस आनंद को बांटना चाहता है; किसी को देना चाहता है।
अज्ञानी का प्रेम मांगता है; ज्ञानी का प्रेम देता है।
बुद्ध ने खूब दिया। समस्त सदगुरुओं ने दिया। मिलेगा, तो देना ही पड़ेगा। जब दीया जलेगा, तो रोशनी बिखरेगी। और जब फूल खिलेगा, तो सुगंध उड़ेगी हवाओं पर। इसे रोका नहीं जा सकता।
अज्ञानी का प्रेम कैसा है? अज्ञानी का प्रेम ऐसा है कि मिल जाए। भिखारी का प्रेम है। पति पत्नी से चाह रहा है कि कुछ दो। मैं अकेले में बड़ा उदास हो रहा हूं। मुझे कुछ रस दो। और पत्नी भी कह रही है कि मुझे कुछ रस दो। दोनों भिखारी एक-दूसरे से मांग रहे हैं; देने की तैयारी किसी की भी नहीं है। तो कलह तो होगी ही। इसलिए पति-पत्नी के बीच जो कलह है, वह शाश्वत है। उस कलह का मूल कारण पति और पत्नी की कोई खराबी नहीं है; अज्ञानी का प्रेम है। दोनों मांग रहे हैं!
दो भिखारी रास्ते पर खड़े हो गए। समझ लो कि दोनों अंधे भिखारी हैं। इसलिए देख भी नहीं पाते कि दूसरा भी भिखारी है। दोनों एक-दूसरे के सामने हाथ फैलाए खड़े हैं कि कुछ मिल जाए। दया करो।
वही दशा है पति-पत्नियों की। अंधे; देख भी नहीं सकते कि दूसरा बेचारा खुद ही भिखारी है; इससे क्या मांग रहे हैं! और दूसरा भी मांग रहा है कि कुछ मिल जाए। और दोनों ही दुखी होंगे, क्योंकि मिलना तो है नहीं। देने की तैयारी किसी की वहां है नहीं। देने को वहां कुछ है ही नहीं, तैयारी भी कैसे हो! सब खाली-खाली है; रिक्त है।
इसलिए इस जगत में सभी प्रेमी समझते हैं कि धोखा दिया गया; कि कहां से इस स्त्री की झंझट में पड़ गया! इतनी स्त्रियां थीं, जिनसे मिल सकता था।
किसी से नहीं मिलने वाला था। तुम उनके पतियों से तो पूछो जाकर कि उनको क्या मिला! वे सोचते हैं कि शायद तुम्हारी पत्नी मिल जाती, तो उन्हें कुछ मिल जाता!
मैंने सुना है: एक यहूदी पुरोहित को एक युवक ने आकर कहा कि मुझे क्षमा कर दें। मुझे बिलकुल क्षमा कर दें! मैं महापापी हूं। यहूदी पुरोहित ने कहा: लेकिन मुझे पता तो चले कि क्या पाप है। उस युवक ने कहा: मत पूछें। बस, मुझे क्षमा कर दें। यह पाप ऐसा है कि मैं कह न सकूंगा। लेकिन, पुरोहित ने कहा, तुम मुझसे कह सकते हो। और बिना जाने मैं क्षमा भी कैसे कर दूं!
तो मजबूरी में उस युवक ने कहा कि मामला यह है कि कई बार मेरे मन में आपकी पत्नी के प्रति वासना उठती है। मुझे क्षमा कर दें।
उस यहूदी पुरोहित ने उसके सिर पर हाथ रखा और कहा: बेटा, घबड़ा मत। मेरे मन में भी तेरी पत्नी के प्रति विचार उठते हैं। तू निश्चिंत रह। इसमें कुछ अपराध नहीं है, क्योंकि यह हालत मेरी भी है।
यही हालत है। जो तुम्हें नहीं मिला है, सोचते हो, शायद उससे मिल जाता।
इस जगत में भिखारी भिखारियों के सामने खड़े हैं। किसी सम्राट को खोजो। मगर सम्राट को खोजने का ढंग सम्राट होना है। इसलिए बड़ी मुसीबतें हैं। सम्राट के पास सम्राट होकर ही पहुंच सकते हो। भिखारी को राजमहल में प्रवेश भी नहीं मिलेगा।
सम्राट को खोजने का उपाय सम्राट होना है। अगर बुद्धों से सत्संग चाहते हो, तो ध्यानी बनो। धीरे-धीरे तुम्हारा सम्राट भी भीतर पैदा हो। फिर खूब प्रेम बरसता है। प्रेम ही प्रेम बहता है। प्रेम की रसधार बहती है।
वह जैसे-जैसे विपस्सना को उपलब्ध होता है, और जैसे-जैसे देखता है: संसार में सब क्षणभंगुर है; यहां कुछ ठहरने वाला नहीं है; वैसे-वैसे ज्ञानियों की प्रीति और प्रमोदरूपी अमृत को प्राप्त करता है।
और जब देने की कला आ जाती है, और देने की क्षमता आ जाती है, तो सुख है। सुख देने में है, लेने में नहीं।
तुमने भी कभी-कभी जीवन में निरीक्षण किया होगा इस बात का कि जब तुम देते हो, तब एक तरह का सुख मिलता है। कुछ भी, थोड़ा सा भी दे दो। और जब तुम लेते हो, तब पीछे थोड़ी सी ग्लानि होती है। लेने में तुम दीन हो जाते हो।
इसलिए एक बात जानना: अगर तुम किसी को कुछ दो, तो खयाल रखना, वह तुम्हें कभी क्षमा नहीं कर पाएगा। वह तुमसे बदला लेगा। इसलिए अक्सर होता है, लोग कहते हैं: हमने तो नेकी की; हमें बदले में बदी मिली! इसमें राज है। इसलिए ज्ञानियों ने कहा, नेकी कर और कुएं में डाल। फिर उसको बिलकुल भूल ही जा। उसकी याद ही मत दिलाना, नहीं तो जिस आदमी के साथ नेकी की है, वही तेरी गरदन काटेगा। क्योंकि उसको तूने दीन कर दिया।
एक आदमी आया। तुमने उसे सौ रुपए दे दिए। और तुम्हारे मन में बड़ा नेकी का भाव उठा कि देखो, कितना गजब का काम कर रहे हैं! इसको सौ रुपए दे रहे हैं! तुम तो गजब काम कर रहे हो, उस आदमी पर क्या गुजर रही है? वह यह देख रहा है कि अच्छा, कभी मौका मिला, तो देख लेंगे। तुम ऐसे अकड़े जा रहे! ऐसे फूले जा रहे हो! आज हम मुसीबत में हैं, ठीक है। हाथ फैलाने पड़े तुम्हारे सामने, ठीक है।
वह सदा प्रार्थना करेगा कि कभी ऐसा दिन आए कि तुम भी हमारे सामने हाथ फैलाओ। तभी वह तुम्हें क्षमा कर पाएगा। नहीं तो क्षमा नहीं कर पाएगा। वह तुम्हारा दुश्मन हो गया। तुमने एक दुश्मन बना लिया।
देना इस ढंग से कि लेने वाले को पीड़ा न हो। तो ही...। नहीं तो तुम क्षमा नहीं किए जा सकोगे। देना इस ढंग से कि लेने वाले को पता न चले। इसलिए गुप्त-दान की महिमा है। देना इस ढंग से कि लेने वाले को यह खयाल ही न हो कि देने वाला वहां अकड़कर खड़ा था और देने में मजा ले रहा था।
देना विनम्रता से। देना झुक कर। हाथ तुम्हारा नीचा हो, इस ढंग से देना। लेने वाले का हाथ ऊपर रहे, इस ढंग से देना। ताकि लेने वाले को ऐसा लगे कि लेकर उसने तुम पर कृपा की है, अनुग्रह किया है। फिर तुम्हारे लिए कभी नेकी के बदले में बदी नहीं मिलेगी।
जिसके भीतर देने की पात्रता आ जाती है, पात्र भर जाता है प्रेम से, उसी के भीतर प्रमोद होता है। प्रमोद है देने का आनंद। सबसे बड़ा आनंद है इस जगत में, देने का आनंद। और सबसे बड़ी देने की चीज है इस जगत में ध्यान। नंबर दो पर प्रेम। ये दो बड़ी से बड़ी संपदाएं हैं--ध्यान की और प्रेम की।
‘जो सेवा-सत्कार स्वभाव वाला है और आचार-कुशल है, वह आनंद से ओतप्रोत होकर दुख का अंत करेगा।’
‘जैसे जुही अपने कुम्हलाए फूलों को छोड़ देती है, वैसे ही हे भिक्षुओ! तुम राग और द्वेष को छोड़ दो।’
दूसरा दृश्य:
श्रावस्ती का एक निर्धन पुरुष हल चलाकर किसी भांति जीवन-यापन करता था। वह अत्यंत दुखी था, जैसे कि सभी प्राणी दुखी हैं।
फिर उस पर बुद्ध की ज्योति पड़ी। वह संन्यस्त हुआ। किंतु संन्यस्त होते समय उसने अपने हल-नंगल को विहार के पास ही एक वृक्ष पर टांग दिया। अतीत से संबंध तोड़ना आसान भी तो नहीं है, चाहे अतीत में कुछ हो या न हो। न हो तो छोड़ना शायद और भी कठिन होता है।
संन्यस्त हो कुछ दिन तो वह बड़ा प्रसन्न रहा और फिर उदास हो गया। मन का ऐसा ही स्वभाव है--द्वंद्व। एक अति से दूसरी अति। इस उदासी में वैराग्य से वैराग्य पैदा हुआ। वह सोचने लगा: इससे तो गृहस्थ ही बेहतर थे। यह कहां की झंझट मोल ले ली! यह संन्यस्त होने में क्या सार है?
इस विराग से वैराग्य की दशा में वह उस हल को लेकर पुनः गृहस्थ हो जाने के लिए वृक्ष के नीचे गया। किंतु वहां पहुंचते-पहुंचते ही उसे अपनी मूढ़ता दिखी। उसने खड़े होकर ध्यानपूर्वक अपनी स्थिति को निहारा--कि मैं यह क्या कर रहा हूं।
उसे अपनी भूल समझ आयी। पुनः विहार वापस लौट आया। फिर यह उसकी साधना ही हो गयी। जब-जब उसे उदासी उत्पन्न होती, वह वृक्ष के पास जाता; अपने हल को देखता और फिर वापस लौट आता।
भिक्षुओं ने उसे बार-बार अपने हल-नंगल को देखते और बार-बार नंगल के पास जाते देख उसका नाम ही नंगलकुल रख दिया!
लेकिन एक दिन वह हल के दर्शन करके लौटता था कि अर्हत्व को उपलब्ध हो गया। और फिर उसे किसी ने दुबारा हल-दर्शन को जाते नहीं देखा। भिक्षुओं को स्वभावतः जिज्ञासा जगी: इस नंगलकुल को क्या हो गया है! अब नहीं जाता है उस वृक्ष के पास! पहले तो बार-बार जाता था।
उन्होंने पूछा: आवुस नंगलकुल! अब तू उस वृक्ष के पास नहीं जाता, बात क्या है?
नंगलकुल हंसा और बोला: जब तक आसक्ति रही अतीत से, जाता था। जब तक संसर्ग रहा, तब तक गया। अब वह जंजीर टूट गयी है। मैं अब मुक्त हूं।
इसे सुन भिक्षुओं ने भगवान से कहा: भंते! यह नंगलकुल झूठ बोलता है। यह अर्हत्व प्राप्ति की घोषणा कर रहा है। यह कहता है, मैं मुक्त हूं!
भगवान ने करुणा से उन भिक्षुओं की ओर देखा और कहा: भिक्षुओ! मेरा पुत्र अपने आपको उपदेश दे प्रव्रजित होने के कृत्य को समाप्त कर लिया है। उसे जो पाना था, उसने पा लिया है और जो छोड़ना था, छोड़ दिया है। वह निश्चय ही मुक्त हो गया है।
तब उन्होंने ये दो सूत्र कहे:
अत्तना चोदय’त्तानं पटिवासे अत्तमत्तना।
सो अत्तगुत्तो सतिमा सुखं भिक्खु विहाहिसि।।
अत्ता हि अत्तनो नाथो अत्ता हि अत्तनो गति।
तस्मा सञ्ञमत्तानं अस्सं भद्रं’व वाणिजो।।
‘जो आप ही अपने को प्रेरित करेगा, जो आप ही अपने को संलग्न करेगा, वह आत्म-गुप्त--अपने द्वारा रक्षित--स्मृतिवान भिक्षु सुख से विहार करेगा। वह मुक्त हो जाता है।’
‘मनुष्य अपना स्वामी आप है; आप ही अपनी गति है। इसलिए अपने को संयमी बनावे, जैसे सुंदर घोड़े को बनिया संयत करता है।’
पहले दृश्य को समझ लें। प्यारा दृश्य है।
एक निर्धन आदमी बुद्ध के विहार के पास ही अपना हल चलाकर छोटी-मोटी खेती-बाड़ी करता था। निर्धन था बहुत। किसी भांति जीवन-यापन होता था। दो सूखी रोटी मिल जाती थी। फटे-पुराने वस्त्र; नंगा नहीं था। रूखी-सूखी रोटी; भूखा नहीं था। मगर जीवन में और कुछ भी न था। एक गहन बोझ की तरह जीवन को ढो रहा था।
वह अत्यंत दुखी था, जैसे कि सभी प्राणी दुखी हैं।
गरीब दुखी हैं, गरीबी के कारण नहीं। क्योंकि अमीर भी दुखी हैं! जो हार गए, वे दुखी हैं; हारने के कारण नहीं। क्योंकि जो जीत गए, वे भी दुखी हैं।
बुद्ध कहते हैं: यहां सभी दुखी हैं। मनुष्य होने में ही दुख समाया हुआ है।
इसलिए तुम झूठे कारणों पर मत अटक जाना। तुम यह मत कहना कि मैं गरीब हूं, इसलिए दुखी हूं। यही तो भ्रांति है। तो जो आदमी सोचता है: मैं गरीब हूं, इसलिए दुखी हूं, तो वह अमीर होने में लग जाता है। फिर अमीर होकर एक दिन पाता है कि जिंदगी अमीर होने में बीत गयी और दुखी मैं उतना का उतना हूं; शायद थोड़ा ज्यादा हो गया हूं। क्योंकि गरीब आदमी ज्यादा दुख भी नहीं खरीद सकता। गरीब की हैसियत कितनी! अमीर आदमी ज्यादा दुख खरीद सकता है। उसकी हैसियत ज्यादा है।
गरीब आदमी की...दुख में भी तो क्षमता होती है न! अब एक आदमी गरीब है, तो बैलगाड़ी में चलेगा। हवाई जहाज में उड़ने का दुख नहीं जान सकता। कैसे जानेगा? वह तो कोई हवाई जहाज में उड़े तब...!
बिड़ला परिवार की एक महिला को कोई मेरे पास लाया। उसकी कठिनाई क्या थी? उसकी कठिनाई थी: हवाई जहाज में उड़ने में उसे बड़ा भय लगता। और रेलगाड़ी में वह चल भी नहीं सकती। वह प्रतिष्ठा से नीचे है।
अब यह दुख कोई गरीब कैसे जानेगा! और हवाई जहाज में उड़ने में डर लगता है। पसीना-पसीना हो जाती है। हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। ब्लडप्रेशर बढ़ जाता है। और रेलगाड़ी में चले कैसे?
अब यह दुख कोई गरीब जान सकता है? यह बहुत मुश्किल है मामला। गरीब को यह दुख कहां! गरीब झोपड़े में रहने का दुख जान सकता है। महलों में रहने का दुख अमीर ही जान सकता है; गरीब नहीं जान सकता। गरीब रूखी-सूखी रोटी का दुख जानता है। अमीर सुस्वादु भोजनों का दुख जानता है।
यहां मेरे पास जितने अमीर आते हैं, उनके दुख अलग। जो गरीब आते हैं, उनके दुख अलग। गरीब के दुख भी बड़े दीन-हीन होते हैं। लड़के को नौकरी नहीं लग रही है! अमीर का दुख यह होता है कि लड़का शराब पी रहा है!
अब ये बड़े अलग दुख हैं। गरीब का लड़का शराब पीए तो पीए कहां से! नौकरी ही नहीं लगी है अभी; अब यह शराब तो बड़ी आगे की मंजिल है!
एक महारानी मुझसे मिलने आयीं कुछ दिन पहले। उनका लड़का दिनभर नशा किए पड़ा रहता है। और काम ही नहीं करता कुछ। उठ भी नहीं सकता बिस्तर से, इतना नशा किए रहता है।
महारानी का लड़का है! मैंने कहा: यह योग्य भी है। कोई गरीब का लड़का नहीं है। गरीब का लड़का होता, तो कुछ और तरह के दुख झेलता। अमीर का लड़का है, तो ये ही दुख झेलेगा।
अब धीरे-धीरे तो और तरह के ड्रग्स में पड़ गया है। शराब से अब काम नहीं चलता। शराब इतनी पी डाली है कि अब शराब से नशा नहीं होता। अब तो शराब ही बह रही है उसके खून में! अब तो मच्छड़ भी उनको काटते होंगे, तो नशा चढ़ता होगा! तो अब उसको और ड्रग्स चाहिए--एल.एस.डी.।
अब गरीब ने तो एल.एस.डी. का नाम भी नहीं सुना। मारिजुआना; अब गरीब ने तो यह नाम भी नहीं सुना। और अब मुंह से ही लेने से काम नहीं चलता। अब वह अपने को खुद ही इंजेक्शन मारता रहता है! और यह आखिरी दशा है। बस, उठकर सुबह से एक इंजेक्शन मार लिया; फिर पड़ गए। फिर जब होश आया, फिर एक इंजेक्शन मार लिया। अब उसकी हालत खराब होती जा रही है। रोज-रोज खराब होती जा रही है।
अब महारानी मुझसे कहती थी कि क्या करूं; इसको अमरीका ले जाऊं? मैंने कहा: अमरीका ले जाने से क्या होगा! अमरीका तो इसका यहीं आ ही गया! अमरीका में यही हो सकता था। यह तो इसने कर ही लिया। अब इसको वहां काहे के लिए ले जाना!
नहीं, उन्होंने कहा, चिकित्सा के लिए।
यह वहां जाकर और बिगड़ेगा। क्योंकि वहां और विकसित ड्रग उपलब्ध हो गए हैं। मैंने कहा: अमरीका ही ले जाओ, तो केलिफोर्निया ले जाना!
गरीब के दुख हैं छोटे-मोटे। अमीर के दुख हैं और बड़े, क्योंकि वह ज्यादा दुख खरीद सकता है। उसका फैलाव बड़ा है। वह दुखों में चुनाव भी कर सकता है। यह दुख लें कि वह दुख लें! कौन सा दुख खरीदें? भारतीय दुख खरीदें कि विदेशी दुख खरीदें? किस तरह का दुख खरीदें?
अब गरीब आदमी तो भारतीय दुख खरीद सकता है। अमीर आदमी विदेशी दुख खरीदेगा! गए पश्चिम और एक विदेशी स्त्री से विवाह कर लाए। यह विदेशी दुख है। यह बहुत कठिन दुख है।
मेरे एक मित्र हैं प्रोफेसर। एक अमरीकन युवती से विवाह करके आ गए। अब बड़े...सात साल साथ रहे। मेरे पड़ोस में ही रहते थे। जब मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक था, तब मेरे पास ही रहते थे। उनका दुख चौबीस घंटे वही। हर चीज में दुख! क्योंकि जब अमरीकन स्त्री से शादी की है, तो फिर अमरीकन लहजा चाहिए। अब अमरीकन स्त्री है, वह शराब भी पीएगी, सिगरेट भी पीएगी। अब यह इनको बहुत कठिन मालूम पड़े कि स्त्री और सिगरेट पीए! और इनके ही सामने फूंक रही है! और इनसे घर में काम भी करवाए। क्योंकि अमरीका में तो पचास-पचास प्रतिशत काम है।
ठीक भी है। जब अमरीकन स्त्री ली, तो अमरीकन दुख भी लेना पड़ेगा न! तो काम बांट दिया उसने। एक दिन मैं नाश्ता बनाऊंगी; एक दिन आप बनाएं। अब बना रहे हैं पकौड़े सुबह से! और आंखें उनकी धुआं खा रही हैं!
वे मुझसे पूछते, क्या करूं! मैंने कहा: इसमें कुछ करना नहीं है। तुम विदेशी दुख लिए हो; तुम्हें देशी दुख नहीं जंचा।
फिर वह शाम को खेलने भी जाएगी टेनिस! इनको वह चिंता लगे कि वह टेनिस खेलने गयी है! मैंने कहा: उसको खेलने दो। नहीं, खेलने की बात नहीं है, वे मुझसे कहें। वह वहां लोगों के गले में हाथ डालकर घूमती है!
विदेशी दुख तो विदेशी दुख है! कठिनाइयां हैं।
गरीब अपनी सीमा में जीता। किसी तरह अमीर हो जाता है, तब उसको पता चलता है कि यह तो मामला बिगड़ गया! यह कहां से कहां पहुंच गए!
यहां हमारे वैराग्य हैं; वे राधा के प्रेम में पड़ गए हैं। अब राधा है इटैलियन। इटैलियन मतलब: विदेशियों में भी विदेशी! अब उनको भारी कष्ट है। अब उनको चौबीस घंटे इसी की फिकर रहती है कि राधा कहां है! किससे बात कर रही है? किसके हाथ में हाथ डालकर घूमने चली गयी है?
मैंने उनसे कहा: वैराग्य! तुम गरीब घर के आदमी हो; तुम अपनी सीमा में रहो। तुम कोई भारतीय दुख खरीदो!
तो वह आदमी बड़ा दुखी था।
बुद्ध कहते हैं: दुखी होना ही आदमियत है। इसमें कारण मत खोजना कि यह कारण है, वह कारण है। आदमी जहां भी होगा, दुखी होगा। जब तक आदमी के पार न हो जाए, तब तक दुखी होगा। आदमियत कारण है। तो तुम दुख बदल ले सकते हो, मगर इससे कुछ फर्क न पड़ेगा।
उस पर बुद्ध की ज्योति पड़ी।
यह बुद्ध की ज्योति पड़ने का क्या मामला है?
अपने खेत में चलाता होगा हल-बक्खर। बुद्ध वहां से रोज निकलते होंगे। वह विहार के पास ही खेती-बाड़ी करता था। देखता होगा रोज बुद्ध को जाते। यह शांत प्रतिमा! यह प्रसादपूर्ण व्यक्तित्व! खड़ा हो जाता होगा कभी-कभी अपने हल को रोककर। दो क्षण आंख भरकर देख लेता होगा; फिर अपने हल में जुत जाता होगा। यह रोज होता रहा होगा।
जैसे रसरी आवत-जात है, सिल पर परत निशान। पत्थर पर भी निशान पड़ जाता है, रस्सा आता रहे, जाता रहे। करत-करत अभ्यास के जड़-मति होत सुजान।
रोज-रोज देखता होगा। फिर और ज्यादा-ज्यादा देखने लगा होगा। फिर बुद्ध जाते होंगे, तो पीछे दूर तक देखता रहता होगा, जब तक आंख से ओझल न हो जाएं। फिर धीरे-धीरे प्रतीक्षा करने लगा होगा कि आज अभी तक आए नहीं! कब आते होंगे! फिर किसी दिन न आते होंगे, तो तलब लगती होगी। लगता होगा कि आज आए नहीं! कभी ऐसा भी होता होगा कि बुद्ध होंगे बीमार; नहीं गए होंगे भिक्षा मांगने, तो शायद आश्रम पहुंच गया होगा! कि एक झलक वहां मिल जाए!
फिर बुद्ध को देखते-देखते बुद्ध के और भिक्षु भी दिखायी पड़ने शुरू हुए होंगे। ये बुद्ध अकेले नहीं हैं; हजारों इनके भिक्षु हैं। और सब प्रफुल्लित मालूम होते हैं! सब आनंदित मालूम होते हैं! मैं ही एक दुख में पड़ा! मैं कब तक इस हल-बक्खर में ही जुता रहूंगा?
ऐसे विचारों की तरंगें आने लगी होंगी। इन्हीं तरंगों में एक दिन बुद्ध की बंसी में फंस गया होगा।
फिर उस पर बुद्ध की ज्योति पड़ी।
एक दिन लगा होगा: मेरे पास है क्या! इस आदमी के पास सब था। राजमहल थे...। खोजबीन की होगी; पता लगाया होगा। यह आदमी कैसा! लगता इतना प्यारा और इतना सुंदर है, और है भिखारी! लगता है सम्राटों का सम्राट। चाल में इसकी सम्राट का भाव है। भाव-भंगिमा इसकी कुछ और है। यह होना चाहिए राजमहलों में; यह यहां क्या कर रहा है आदमी!
पता लगाया होगा। पता चला होगा: सब था इसके पास। सब छोड़ दिया। इसको विचार उठने लगे होंगे कि मेरे पास कुछ भी नहीं है। यह एक हल है; यह नंगल। बस यही मेरी संपत्ति है। और मेरे पास है क्या छोड़ने को! मैं भी क्यों न इस आदमी की छाया बन जाऊं? मैं भी क्यों न इसके पीछे चल पडूं? एकाध बूंद शायद मेरे हाथ भी लग जाए--जो इसका सागर है उसकी। और जब इतने लोग इसके पीछे चल रहे हैं और पा रहे हैं...। माना कि मैं अभागा हूं, लेकिन फिर भी शायद कुछ हाथ लग जाए।
धीरे-धीरे रस लगा होगा; राग लगा होगा।
धन्यभागी हैं वे, जिनका बुद्धों से राग लग जाए; जिनको बुद्धों से प्रेम हो जाए। क्योंकि उनके जीवन का द्वार खुलने के करीब है।
तो एक दिन संन्यस्त हो गया। किंतु संन्यस्त होते समय उसने अपने हल-नंगल को विहार के पास ही एक वृक्ष पर टांग दिया।
सोचा होगा कि क्या भरोसा; अनजान रास्ते पर जाता हूं--जंचे, न जंचे! आज उत्साह में, उमंग में हूं, कल पता चले कि सब फिजूल की बकवास है, तो अपना नंगल तो सम्हालकर रख दो। कभी जरूरत पड़ी, तो फिर लौट आएंगे। रास्ता कायम रखा लौटने का कि कभी अड़चन आ जाए, तो ऐसा नहीं कि सब खतम करके आ गए। फिर लौटना ही मुश्किल हो जाए।
तो विहार के पास ही एक झाड़ पर ऊपर सम्हालकर अपने नंगल को रख दिया।
यह प्रतीक है इस बात का: इसी तरह हम अपने अतीत को सम्हालकर रखे रहते हैं। संन्यस्त भी हो जाते हैं, तो अतीत को सम्हालकर रखते हैं कि लौटने के सब सेतु न टूट जाएं।
झेन फकीर रिंझाई अपने गुरु के पास गया, तो गुरु ने पूछा: सुन! तू संन्यस्त होना चाहता है; पहले तीन-चार सवालों के जवाब दे दे। कहां से आता है?
रिंझाई ने कहा: जहां से आता हूं, वहां से बिलकुल आ गया हूं। इसलिए उस संबंध में कोई जवाब नहीं दूंगा।
गुरु ने पूछा: छोड़। मुझे चावलों में बहुत रस है। वहां चावल के क्या दाम हैं, जहां से तू आता है?
रिंझाई ने कहा: सुनें! चावल के दाम जरूर वहां कुछ हैं; जरूर कुछ होंगे। लेकिन मैं वहां से आ गया हूं। और जहां से मैं आ गया हूं, वहां के चावलों के दाम मैं हिसाब में नहीं रखता; उसकी स्मृति नहीं रखता।
गुरु ने कहा: एक बात और। किस रास्ते से आया? कहां-कहां होकर आया?
रिंझाई ने कहा: आप फिजूल की बातें पूछ रहे हैं। और मैं जानता हूं कि आप क्यों पूछ रहे हैं। आप मुझे भड़काएं मत। आप मुझे उत्तेजित न करें। लेकिन यह मेरा नियम रहा है कि जिस पुल से गुजर गए, उसे तोड़ दिया। जिस सीढ़ी को पार कर गए, उसे गिरा दिया। क्योंकि लौटना कहां है? लौटना है ही नहीं। आगे जाना है।
तो गुरु ने उसे आशीर्वाद दिया और कहा कि तू ठीक-ठीक संन्यस्त होने के योग्य है।
मगर इतनी योग्यता तो कब होती है! बड़ी मुश्किल से होती है।
जो अतीत को तोड़ देता है, वही संन्यासी है। जो अतीत में अपना घर नहीं रखता, वही गृहस्थ नहीं है। जो कहता है: जो गया, गया। अब तो जो है, है। जो यहां है और अभी है।
तो यह कथा-प्रतीक प्यारा है। कि गरीब आदमी; और तो कुछ था नहीं उसके पास। कोई तिजोड़ी नहीं थी। कोई बैंक-बैलेंस नहीं था। कुछ भी नहीं था। एक नंगल था, एक हल था। उसको रख आया कि कभी जरूरत पड़े, तो एकदम असहाय न हो जाऊं।
अतीत से संबंध तोड़ना बड़ा कठिन है, चाहे अतीत में कुछ हो या न हो। न हो, तो छोड़ना और भी कठिन है। क्योंकि लगता है, गरीब आदमी हूं। यही तो एक संपदा है छोटी सी। यही चली गयी, तो फिर कुछ न बचेगा। अमीर तो शायद कुछ छोड़ भी दे, क्योंकि उसके पास और बहुत कुछ है। इतना छोड़ने से कुछ हर्जा नहीं है।
अमीर शायद धन भी छोड़ दे, क्योंकि वह जानता है: उसके परिवार के लोग भी धनी हैं। कल अगर लौटेगा, अपना धन नहीं होगा, तो भी अपने परिवार के लोगों का धन होगा। अमीर तो शायद सब छोड़ दे, क्योंकि उसकी प्रतिष्ठा भी है, क्रेडिट भी है। कल अगर लौटकर आएगा, तो प्रतिष्ठा से भी जी लेगा। उधार भी मिल जाएगा।
लेकिन गरीब आदमी! उसके पास तो हल है। दो पैसे कोई देगा नहीं उधार। प्रतिष्ठा तो कोई है नहीं। परिवार तो कुछ है नहीं। जिनको अपना कह सके, ऐसा तो कोई है नहीं। यह एक नंगल ही बस सब कुछ है। तो उसको रख दिया उसने। यही इसका परिवार है; यही इसका धन है; यही इसकी सारी की सारी आत्मा है। उसने उसे सम्हालकर रख दिया।
संन्यस्त हो कुछ दिन तक तो बड़ा प्रसन्न रहा। और फिर उदास हो गया।
यह रोज घटता है। यह यहां भी घटता है। जब कोई आदमी संन्यस्त होता है, तो बड़ी आशाओं, उमंगों, उत्साहों से भरा होता है। लेकिन तुम्हारी आशा के अनुकूल ही थोड़े ही संसार चलता है। और तुम्हारी अपेक्षाएं थोड़े ही जरूरी रूप से पूरी होती हैं। फिर तुम अपेक्षाएं भी बहुत कर लेते हो। तुम अपेक्षाएं जरूरत से ज्यादा कर लेते हो। उन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए जितना श्रम करना चाहिए, वह तो करते नहीं। अपेक्षाएं अटकी रह जाती हैं; पूरी नहीं होतीं। जितना संकल्प चाहिए, वह तो होता नहीं। फिर धीरे-धीरे उदासी पकड़ती है।
लोग सोचते हैं कि शायद संन्यस्त हो गए, तो सब हो गया। संन्यस्त होने से सिर्फ शुरुआत होती है यात्रा की। सब तो अभी होना है।
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, कि बस, संन्यास दे दीजिए। फिर दो-चार महीने बाद आते हैं कि अभी तक कुछ हुआ नहीं! जैसे कि संन्यास से कुछ होने वाला है।
संन्यास तो सिर्फ सूचना थी कि अब हम कुछ करेंगे। वह तो कुछ किया नहीं। वे सोचते हैं कि संन्यास ले लिया, सो सब हो गया। अब जैसे जिम्मेवारी मेरी है! अब वे मुझे अदालत में ले जाने की इच्छा रखते हैं कि अभी तक किया क्यों नहीं!
तो यह आदमी संन्यस्त हो गया था। सोचता होगा: बुद्ध के शिष्य हो गए; अब और क्या करना है? फिर उदासी आनी शुरू हुई होगी। क्योंकि बुद्ध कहते हैं: विपस्सना करो। बुद्ध कहते हैं: ध्यान करो। बुद्ध कहते हैं: संकल्प करो। बुद्ध कहते हैं: भीतर जाओ। यह जाता होगा भीतर; इसको नंगल दिखायी पड़ता होगा। झाड़ पर लटका नंगल! जाता होगा भीतर; वही विचार आते होंगे पीछे अतीत के। सोचता होगा: यह कहां की झंझट में मैं...! कहां भीतर जाना? कहां है भीतर? क्या है भीतर? अंधेरा-अंधेरा दिखता होगा। कि अच्छी झंझट में पड़े! अपना हल चलाते थे; अपनी दो रोटी कमा लेते थे। वह भी गयी और यह भीतर जाना!
यह तो सोचा ही नहीं था। बुद्ध को देखा था। बुद्ध की महिमा देखी थी। बुद्ध का गौरव देखा था। बुद्ध का प्रकाश देखा था। उसी लोभ में पड़कर संन्यस्त हो गया था। अब यह करना भी पड़ेगा कुछ! यह तो सोचता था: ऐसे ही मिल जाएगा। पीछे चलते-चलते मिल जाएगा।
तो कई दफे उदासी आ जाती है।
पहली दफा जब उदासी आयी, तो उसने सोचा: इसमें कोई सार नहीं। यह अपना काम नहीं है। गया। उचट गया वैराग्य से मन। पहुंचा अपने वृक्ष के पास। सोचा: हल को लेकर पुनः गृहस्थ हो जाऊं।
लेकिन मन ऐसा ही क्षणभंगुर है।
यहां रोज ऐसा होता है। कोई मुझसे पूछता है कि मन बहुत उदास है, मैं क्या करूं? मैं कहता हूं: तीन दिन बाद आओ। वह सोचता है: तीन दिन बाद मैं उपाय बताऊंगा। तीन दिन बाद वह आता है। वह कहता है: अब मन उदास नहीं है। मैंने कहा: वापस जाओ। इतना काफी है। इससे समझो कि ये सब क्षणिक भाव-भंगिमाएं हैं। इनमें इतने उलझो मत। आती हैं, जाती हैं। मौसम की तरह बदलती हैं।
सुबह सूरज; दुपहर बादल घिर गए! सांझ बूंदा-बांदी हो गयी।
अब हर चीज को समस्या मत बनाओ कि बूंदा-बांदी हो गयी; अब क्या करें? जैसे कि अब जिंदगीभर बूंदा-बांदी होती रहेगी! कल सुबह फिर सूरज निकलेगा। अब बादल घिर गए; अब क्या करें? मैं कहता हूं: तीन दिन बाद आओ। तीन दिन बाद बादल छंट जाते हैं।
इसीलिए लक्ष्मी को बिठा रखा है। वह रोकती है लोगों को। लोग कहते हैं, आज ही चाहिए। वह कहती है, कल, परसों। टालती है। वह उपाय है। जब तक तुम मेरे पास आओगे, समस्या गयी! तुम्हारी भी गयी; मेरी भी गयी!
धीरे-धीरे तुम्हें यह समझ में आ जाएगा कि अगर तुम थोड़ा धीरज रखो, तो समस्याएं चली जाती हैं--अपने से चली जाती हैं। इसलिए अंगे्रजी में बीमार के लिए शब्द है--पेशेंट। पेशेंट का मतलब होता है जो पेशेंस रखे। बीमारी चली जाती है। धैर्य रखे। शब्द प्यारा है। धीरज रहे, तो सब चला जाता है।
कहते हैं कि अगर सर्दी-जुकाम हो; दवा लो तो सात दिन में जाता है, और दवा न लो तो एक सप्ताह में! मगर जाता है। धीरज चाहिए।
यह गया होगा। जब तक वृक्ष के पास पहुंचा, तब तक बात बदल गयी। बादल घिरे थे; अब छंट गए। सूरज निकल आया। इसने सोचा: अरे! मैं--और यह क्या कर रहा हूं! जब हल-बक्खर जोतता था, तो कौन सा सुखी था? दुख के सिवा कुछ भी न था। अब न हल-बक्खर जोतने पड़ते; न मेहनत करनी पड़ती। भिक्षा मांग लाता हूं। पहले से अच्छी रोटी मिल रही है। अच्छी दाल, अच्छी सब्जी मिल रही है। और बुद्ध का सत्संग। पहले तड़फता था। कब निकलेंगे? एक क्षणभर को देख पाता था। अब चौबीस घंटे उनकी सन्निधि है। यह मैं क्या कर रहा हूं?
सोचा होगा कि इतनी बड़ी संपदा पाने चला हूं--बुद्धत्व; थोड़ा श्रम तो करना ही होगा। थोड़ा भीतर भी हल-बक्खर चलाना होगा।
बुद्ध कहते थे: मैं भी किसान हूं। मैं भीतर की खेती-बाड़ी करता हूं। भीतर बीज बोता हूं। भीतर की फसल काटता हूं।
ऐसे ही किसानों से बुद्ध ने कहा होगा यह, क्योंकि किसान किसान की भाषा समझे।
सोचकर कि यह तो मैं गलत कर रहा हूं, यह तो मैं व्यर्थ कर रहा हूं; यह तो मैं किस दुर्भाग्य में सोचा कि वापस लौट जाऊं! नहीं, नहीं। ऐसा सोचकर, विचारकर फिर दृढ़-निश्चय हो वापस लौट आया। उसे अपनी मूढ़ता दिखी और पुनः संन्यास की उमंग से भर गया।
फिर यह तो उसकी साधना ही हो गयी। क्योंकि कोई एक दिन आ गयी उदासी, चली गयी; ऐसा थोड़े ही है। बादल एक दिन घिरे और चले गए! बार-बार घिरे; बार-बार घिरे और बार-बार जाए। फिर तो उसे तरकीब हाथ लग गयी। फिर तो उसने सोचा: यह अदभुत तरकीब है। जब भी झंझट आती, चले गए। जाकर देखा अपने नंगल को।
उस नंगल को देखकर ही उसको अपने पुराने दिन सब साफ हो जाते, कि वहीं कौन सा सुख था। महानरक भोग रहे थे। उससे अब हालत बेहतर है। अब चीजें सुधर रही हैं और धीरे-धीरे शांति भी उतरती है। और कभी-कभी मन सन्नाटे से भी भर जाता है। और कभी-कभी बुद्ध जिस शून्य की बात करते हैं, उसकी थोड़ी सी झलक, हवा का एक झकोरा सा आता है। और बुद्ध जिस ध्यान की बात करते हैं, यद्यपि पूरा-पूरा नहीं सम्हलता, लेकिन कभी-कभी, कभी-कभी खिड़की खुलती है। क्षणभर को सही, मगर बड़े अमृत से भर जाती है। यह हो तो रहा है। अभी बूंद-बूंद हो रहा है, कल सागर-सागर भी होगा। बूंद-बूंद से ही तो सागर भर जाता है।
ऐसा बार-बार जाता और बार-बार वहां से और भी ज्यादा प्रफुल्लित और आनंदित होकर लौटने लगा। यह तो उसकी साधना हो गयी। जब-जब उदासी उत्पन्न होती, वृक्ष के पास जाता; हल को देखता, वापस लौट आता। ऐसा अनंत बार हुआ होगा!
भिक्षुओं ने उसे बार-बार जाते देखकर तो उसका नाम ही नंगलकुल रख दिया। वे कहने लगे: यही इसका परिवार है। क्योंकि आदमी अपने परिवार की तरफ जाता है। कोई अपनी पत्नी को छोड़ आया, तो सोचता है: वापस जाऊं। फिर अपनी पत्नी को लेकर गृहस्थ हो जाऊं। कोई अपने बेटे को छोड़ आया; सोचता है: जाऊं। अब बेटे को फिर स्वीकार कर लूं और गृहस्थ हो जाऊं।
इसका कोई और नहीं है। यह नंगलकुल है। इसका एक ही कुल है; एक ही परिवार है। वह है नंगल। उसमें कुछ है भी नहीं सार। उसको कोई चुरा भी नहीं ले जाता। झाड़ पर अटका है; कोई ले जाने वाला भी नहीं है गांव में। मगर यही उसकी कुल संपदा है। उसका नाम रख दिया--नंगलकुल।
वह न मालूम कितनी बार गया! न मालूम कितनी बार आया! लेकिन हर बार जब आया, तो बेहतर होकर आया। हर बार जब आया, तो निखरकर आया। हर बार जब आया, तो और ताजा होकर आया। यह तो घटना भीतर घट रही थी। बाहर तो किसी को पता नहीं चलता था कि भीतर क्या हो रहा है।
एक दिन हल के दर्शन करके लौटता था कि अर्हत्व को उपलब्ध हो गया।
पकती गयी बात। पकती गयी बात। पकती गयी बात। एक दिन फल टपक गया। एक दिन लौटता था नंगल को देखकर और बात स्पष्ट हो गयी। अतीत गया; वर्तमान का उदय हो गया।
अर्हत्व का अर्थ होता है: चेतना वर्तमान में आ गयी। अतीत का सब जाल छूट गया; सब झंझट छूट गयी। यही क्षण सब कुछ हो गया। इस क्षण में चेतना निर्विचार होकर प्रज्वलित होकर जल उठी।
और फिर उसे किसी ने दुबारा नंगल को देखने जाते नहीं देखा। स्वभावतः भिक्षुओं को जिज्ञासा उठी। पूछा: आवुस नंगलकुल! अब तू उस वृक्ष के पास नहीं जाता है?
नंगलकुल हंसा। हंसा अपनी मूढ़ता पर जो वह हजारों बार गया था। और उसने कहा: जब तक आसक्ति रही अतीत से, तब तक गया। जब तक संसर्ग रहा, तब तक गया। अब तो नाता टूट गया। अब न मैं नंगल का, न नंगल मेरा। अब तो मेरा कुछ भी नहीं। अब तो मेरे भीतर मैं भी नहीं। अब तो जंजीरें टूट गयीं। अब तो मैं मुक्त हूं।
लेकिन भिक्षुओं को यह बात सुनकर जंची नहीं। जंची इसलिए भी नहीं कि कोई पसंद नहीं करता यह कि हमसे पहले कोई दूसरा मुक्त हो जाए। हमसे पहले--और यह नंगलकुल हो गया?
यह तो गया-बीता था; आखिरी था। इसको तो लोग जानते थे कि है यह गांव का गरीब। यहीं खेती-बाड़ी करता रहा। फिर संन्यासी भी हो गया, तो कोई बड़ा संन्यासी भी...। वह नंगलकुल! बार-बार जाए दर्शन को। और किसी चीज के दर्शन न करे, नंगल के दर्शन करे! यह--और ज्ञान को उपलब्ध हो जाए? यह कभी नहीं हो सकता।
उन्होंने जाकर भगवान को कहा: भंते! यह नंगलकुल झूठ बोलता है। यह अर्हत्व-प्राप्ति की घोषणा करता है। कहता है, मैं मुक्त हो गया हूं।
लेकिन जो औरों को नहीं दिखायी पड़ता, वह सदगुरु को तो दिखायी पड़ेगा। तुम्हें दिखायी पड़ेगा, उसके पहले सदगुरु को दिखायी पड़ेगा।
बुद्ध ने करुणा से उन भिक्षुओं की ओर देखा।
करुणा से--क्योंकि वे ईर्ष्यावश ऐसा कह रहे हैं। करुणा से--क्योंकि राजनीति प्रवेश कर रही है उनके मन में। करुणा से--क्योंकि उनके अहंकार को चोट लग रही है। कोई वर्षों से संन्यासी था। कोई बड़ा पंडित था। कोई बड़ा ज्ञानी था। कोई बड़े कुल से था, राजपुत्र था। इनको नहीं मिला और नंगलकुल को मिल गया? वह तो अछूत था; आखिरी था।
बुद्ध ने कहा: भिक्षुओ! मेरा पुत्र अपने आपको उपदेश दे प्रव्रजित होने के कृत्य को पूर्ण कर लिया।
इसने यद्यपि किसी और से उपदेश ग्रहण नहीं किया, लेकिन अपने आपको रोज-रोज उपदेश देता रहा। जब-जब गया उस वृक्ष के पास, अपने को उपदेश दिया। ऐसे धार पड़ती रही, पड़ती रही। अपने को ही जगाया अपने हाथों से।
यह बड़ा अदभुत है नंगलकुल। इसकी महत्ता यही है कि इसने धीरे-धीरे करके अपने को स्वयं अपने हाथों से उठा लिया है। यह बड़ी कठिन बात है। लोग दूसरे के उठाए-उठाए भी नहीं उठते हैं!
उसे जो पाना था, उसने पा लिया। और जो छोड़ना था, वह छोड़ दिया। तब बुद्ध ने ये गाथाएं कहीं:
अत्तना चोदय’त्तानं पटिवासे अत्तमत्तना।
सो अत्तगुत्तो सतिमा सुखं भिक्खु विहाहिसि।।
‘जो आप ही अपने को प्रेरित करेगा, जो आप ही अपने को संलग्न करेगा, वह आत्म-गुप्त स्मृतिवान भिक्षु सुख से विहार करेगा।’
उसकी किसी को कानो-कान खबर नहीं होगी। उसके भीतर ही, आत्मगुप्त, चुपचाप फूल खिल जाएगा।
जो अपने आपको प्रेरित करता रहेगा, जो अपने आपको जगाने की चेष्टा करता रहेगा, वह जाग जाता है और किसी को कानो-कान खबर भी नहीं होती।
अत्ता हि अत्तनो नाथो अत्ता हि अत्तनो गति।
तस्मा सञ्ञमयत्तानं अस्सं भद्रं’व वाणिजो।।
‘मनुष्य अपना स्वामी आप है; आप ही अपनी गति है।’
यह बुद्ध का परम उपदेश है--
अत्ता हि अत्तनो नाथो अत्ता हि अत्तनो गति।
किसी दूसरे की कोई वस्तुतः जरूरत नहीं है। अगर तुम अपने को जगाने में लग जाओ, निश्चित ही जाग जाओगे।
अत्ता हि अत्तनो नाथो...।
मनुष्य अपना स्वामी आप।
अत्ता हि अत्तनो गति।
अपनी गति आप। आत्म-शरण बनो।
बुद्ध का जो अंतिम वचन था, मरने के पहले, वह भी यही था: अप्प दीपो भव--अपने दीए स्वयं बन जाओ।
आज इतना ही।