BUDDHA
Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) 107
One Hundred And Seventh Discourse from the series of 122 discourses - Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) by Osho. These discourses were given during NOV 21, 1975 to DEC 10, 1977.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
वितक्कूपमथितस्स जंतुनो तिब्बरागस्स सुभानुपस्सिनो।
भिय्यो तण्हा पबड्ढति एसो खो दल्हं करोति बंधनं।।287।।
वितक्कूपसमे च यो रतो असुभं भावयति सदा सतो।
एस खो व्यन्तिकाहिनी एसच्छेच्छति मारबंधनं।।288।।
निट्ठंगतो असंतासी वीततण्हो अनंगणो।
अच्छिन्दि भवसल्लानि अंतिमोयं समुस्सयो।।289।।
वीततण्हो अनादानो निरुत्तिपदकोविदो।
अक्खरानं सन्निपातं जञ्ञा पुब्बापरानि च।
स वे अंतिमसारीरो महापञ्ञो’ति वुच्चति।।290।।
सब्बाभिभू सब्बविदूहमस्मि
सब्बेसु धम्मेसु अनूपलित्तो।
सब्बञ्जहो तण्हक्खये विमुत्तो
सयं अभिञ्ञाय कमुद्दिसेय्यं।।291।।
सब्बदानं धम्मदानं जिनाति
सब्बं रसं धम्मरसो जिनाति।
सब्बं रति धम्मरती जिनाति
तण्हक्खयो सब्बदुक्खं जिनाति।।292।।
प्रथम दृश्य:
भगवान जेतवन में विहरते थे। एक तरुण भिक्षु पर एक स्त्री मोहित होकर उसे गृहस्थ बनाने के लिए नाना प्रकार के प्रलोभन दिए। वह भिक्षु अंततः उसकी बातों में आकर चीवर छोड़कर गृहस्थ हो जाने के लिए तैयार हो गया। भगवान यह सब चुपचाप देखते रहे थे। जब युवक गिरने को ही हो गया, तब उन्होंने उसे पास बुलाया और कहा: स्मृति को सम्हाल! होश को जगा! पागल, ऐसे ही तो पूर्व में भी तू गिरा है और बार-बार पछताया है। अब फिर वही! भूलों से कुछ सीख! स्मृति को सम्हाल! और तब उन्होंने ये दो गाथाएं कहीं:
वितक्कपमथितस्स जंतुनो तिब्बरागस्स सुभानुपस्सिनो।
भिय्यो तण्हा पबड्ढति एसो खो दल्हं करोति बंधनं।।
वितक्कूपसमे च यो रतो असुभं भावयति सदा सतो।
एस खो व्यन्तिकाहिनी एसच्छेच्छति मारबंधनं।।
‘जो मनुष्य संदेह से मथित है, और तीव्र राग से युक्त है, शुभ ही शुभ देखने वाला है, उसकी तृष्णा और भी बढ़ती है। और वह अपने लिए और भी दृढ़ बंधन बनाता है।’
‘जो मनुष्य संदेह के शांत हो जाने में रत है, सदा सचेत रहकर जो अशुभ की भावना करता है, वह मार के बंधन को छिन्न करेगा और तृष्णा का विनाश करेगा।’
इसके पहले कि हम गाथाओं में उतरें, इस परिस्थिति को ठीक से समझ लें। ये परिस्थितियां मनुष्य के मन की ही परिस्थितियां हैं। इन परिस्थितियों में मनुष्य के मन में उठने वाले संदेहों का ही विश्लेषण है।
एक तरुण भिक्षु पर एक स्त्री मोहित हो गयी।
ऐसा अक्सर हो जाता है। जितना दुर्लभ हो व्यक्ति, उतना ही आकर्षक हो जाता है। संन्यस्त व्यक्ति अक्सर आकर्षण का कारण बन जाता है। स्त्रियों के पीछे तुम भागो, तो वे तुमसे बचती हैं। तुम स्त्रियों से भागो, तो वे तुम्हारा पीछा करती हैं! यही बात पुरुष के संबंध में भी सच है। स्त्री अगर पुरुष से भागने लगे, तो पुरुष उसका पीछा करता है। स्त्री अगर पुरुष के पीछे चलने लगे, तो पुरुष उससे भागने लगता है।
मनुष्य का मन बड़े द्वंद्व से भरा है! एक हमेशा पीछा करेगा, और एक हमेशा भागता हुआ रहेगा। ऐसे आकर्षण कायम रहता है। प्रकृति की बड़ी गहन रचना है। जो मिल जाए, उसमें आकर्षण समाप्त हो जाता है। जो न मिले, तो आकर्षण बना रहता है।
स्त्रियों का आकर्षण उसी मात्रा में ज्यादा होगा, जिस मात्रा में उनका पाना कठिन हो। पुरुषों का आकर्षण भी उसी मात्रा में ज्यादा होगा, जिस मात्रा में उन तक पहुंचना करीब-करीब असंभव हो। असंभव से प्रेम कभी मरता नहीं। संभव से प्रेम मर जाता है। क्योंकि जो मिला, उसमें आकर्षण समाप्त हुआ। जो न मिले--न मिले--उसमें ही आकर्षण होता है।
संन्यस्त व्यक्ति अक्सर--सदियों से--स्त्रियों का आकर्षण हो गए हैं।
इस भिक्षु पर--युवा भिक्षु पर--एक स्त्री मोहित हो गयी।
और संन्यासी पर मोहित हो जाने का एक कारण अन्य भी है। संन्यास में एक तरह का सौंदर्य है, जो संसारी में नहीं हो सकता।
संसार को छोड़कर जो हटता है, उसके संसार को छोड़कर हटने में ही वह विशिष्ट हो गया, असाधारण हो गया। जो ध्यान में लगता है, उसके भीतर एक प्रसाद का जन्म होता है।
एक तो सौंदर्य देह का है। एक देह से पार सौंदर्य और भी है--आत्मा का सौंदर्य है। और जिसकी आत्मा का सौंदर्य थोड़ा सा भी खिलने लगे, उसकी देह कुरूप भी हो, तो भी कुरूप मालूम नहीं होगी। जैसे बुझा दीया हो, तो तुम्हें दीया दिखायी पड़ता है। फिर जल गया दीया, ज्योतिर्मय हो गया, तो ज्योति दिखायी पड़ने लगती है। फिर दीए को कौन देखता है! फिर दीया सुंदर है या नहीं, यह बात गौण हो जाती है। दीया सुंदर है या नहीं--तब तक बात बड़ी महत्वपूर्ण रहती है, जब तक दीया बुझा हो। क्योंकि दीया ही है, और तो कुछ है ही नहीं। जैसे ही दीया जला, ज्योति का अवतरण हुआ, अब कौन दीए की चिंता करता है?
ऐसी ही घटना संन्यासी को भी घटती है। संसारी के पास तो देह मात्र है; मिट्टी का दीया है; ज्योति अभी जगी नहीं। संन्यासी की ज्योति जगनी शुरू होती है। उस ज्योति के अवतरण पर दीया गौण हो जाता है। महत्वपूर्ण आ गया, तो स्वभावतः जो गैर-महत्वपूर्ण है, वह गौण हो गया। मालिक आ जाए, तो नौकर गौण हो जाता है। मालिक न हो, तो नौकर ही मालिक जैसा मालूम पड़ता है।
संन्यास में एक आकर्षण और भी है इसीलिए। भीतर का आकर्षण है। संन्यासी एक आंतरिक सौंदर्य से दीप्त हो जाता है, एक आभामंडल उसे घेर लेता है।
और ध्यान रहे, जैसा मैं निरंतर तुमसे कहा हूं: मनुष्य वस्तुतः शाश्वत की खोज में ही प्रेम में पड़ता है। तुम जब किसी स्त्री के प्रेम में पड़ते या किसी पुरुष के प्रेम में पड़ते, तो ऊपर से तो ऐसा ही दिखता है कि इस स्त्री के प्रेम में पड़ रहे, इस पुरुष के प्रेम में पड़ रहे; लेकिन अगर ठीक विश्लेषण करो अपनी मनोदशा का, तो तुम्हें इस स्त्री में कुछ शाश्वत की झलक मिली--इसलिए। इस पुरुष में तुम्हें सनातन का कोई स्वर सुनायी पड़ा--इसलिए। इस स्त्री की आंखों में तुम्हें कुछ बात दिखायी पड़ी, जो आंखों के पार की है। इसके सौंदर्य में भनक मिली तुम्हें परमात्मा की।
तो संसारी में तो बहुत धीमी ध्वनि होती है परमात्मा की; हजार पर्तों में दबी होती है। संन्यासी का अर्थ ही यही है कि जिसने पर्तें उघाड़नी शुरू कर दीं और जिसका संगीत धीरे-धीरे प्रगाढ़ होने लगा। उसके पास जाओगे, तो उसके अंतरतम के संगीत में मोहित हो ही जाओगे।
यह बिलकुल स्वाभाविक है। क्योंकि मनुष्य का प्रेम वस्तुतः परमात्मा के लिए है। जब तुम किसी के देह में भी उलझ जाते हो, तब भी तुम परमात्मा की ही खोज में उलझते हो। इसलिए हर बार देह में उलझकर पछताते हो। क्योंकि जो सोचा था, वह तो मिलता नहीं। और जो मिलता है, वह सोचा नहीं था। सोचा तो था कि विराट मिलेगा; कम से कम विराट का द्वार मिलेगा। लेकिन जो मिलता है, वह दीवार है। जो मिलता है, वह क्षणभंगुर है।
जब तुम फूल के सौंदर्य में अवाक खड़े रह जाते हो, तब यह क्षणभंगुर फूल के सौंदर्य में तुम अवाक नहीं हुए हो। इस क्षणभंगुर में कोई किरण दिखायी पड़ी है, जो क्षणभंगुर नहीं है। इस क्षणभंगुर पर कोई आभा उतरी है, जो अनंत है, शाश्वत है। यह क्षणभंगुर उस शाश्वत आभा से दीप्त हो उठा है, इसलिए क्षणभंगुर में भी आकर्षण है। आभा उड़ जाएगी। सांझ फूल गिर जाएगा झरकर धूल में। फिर तुम इसे प्रेम न करोगे।
जब युवा होते हैं लोग, तब परमात्मा की झलक बड़ी साफ होती है। फिर जैसे-जैसे वृद्ध होने लगते हैं, देह जड़ होने लगती है, देह मरने के करीब आने लगती है, वैसे-वैसे परमात्मा की झलक कम होने लगती है। इसलिए यौवन का आकर्षण है।
संन्यासी का आकर्षण और भी ज्यादा है। क्योंकि संन्यासी सदा युवा है। इसलिए तुमने देखा: हमने बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम की कोई वार्धक्य, वृद्धावस्था की मूर्तियां नहीं बनायीं। उनका कोई चित्र नहीं है हमारे पास।
बूढ़े तो वे जरूर हुए थे। नियम किसी की चिंता नहीं करता। राम भी बूढ़े हुए; कृष्ण भी बूढ़े हुए; बुद्ध और महावीर भी बूढ़े हुए; लेकिन हमने उनके ब़ुढापे के चित्र नहीं बनाए। क्योंकि हमने उनमें पाया कि क्षणभंगुर गौण था; शाश्वत प्रधान था। हमने उनमें एक ऐसा यौवन देखा, जो कभी कुम्हलाता नहीं। हमने उनकी देह की चिंता नहीं की, क्योंकि दीए की कौन फिक्र करता है जब रोशनी उतर आए! हमने उनकी भीतर की रोशनी की फिकर की।
साधारणजन के पास तो रोशनी नहीं है, दीया ही सब कुछ है। इसे तुम खयाल करना। इस तथ्य के तुम करीब कई बार आओगे।
संन्यासी में जो तुम्हें आकर्षण मालूम होता है, उसके प्रति झुक जाने का जो भाव होता है, उसके प्रेम में पग जाने की जो आकांक्षा होती है, वह इसीलिए है।
क्षुद्र कारण चाहे दिखायी पड़ते हों, लेकिन हर क्षुद्रता के भीतर विराट छिपा है। अगर कण-कण में परमात्मा है, तो क्षुद्रता में भी विराट है।
एक तरुण भिक्षु पर बुद्ध के, एक स्त्री मोहित होकर उसे गृहस्थ बनाने के नाना प्रकार के प्रलोभन दिए।
दूसरी मन की बात समझो: अब यह स्त्री प्रभावित हुई है वस्तुतः इसके संन्यास के सौंदर्य से। और बनाना चाहती है इसे गृहस्थ। जैसे ही यह गृहस्थ हो जाएगा, यह सौंदर्य खतम हो जाएगा।
इसलिए अक्सर हम अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मारते हैं। वह हमें दिखायी नहीं पड़ता। हम वही कर लेते हैं, जिससे हमारा बनाया हुआ मंदिर गिर जाएगा।
तुम्हें एक स्त्री में सौंदर्य दिखायी पड़ता है, क्योंकि वह अभी स्वतंत्र है। हवा की तरंग की तरह है, तुम्हारे बंधन में नहीं है। उसकी स्वतंत्रता में ही उसका अल्हड़पन है। फिर तुमने उसको बांधा विवाह में, कानून में; घर में लाकर बंद कर दिया। अब तुम्हारा उसमें रस कम होने लगे, तो आश्चर्य नहीं है। क्योंकि तुम्हारे रस का एक बुनियादी कारण था--उसका अल्हड़पन, उसकी मुक्ति, उसका सौंदर्य, उसकी स्वतंत्रता में था।
जैसे तुमने आकाश में उड़ते एक पक्षी को देखा और तुम आकर्षित हो गए। फिर तुम उस पक्षी को बांधे, पकड़े; चाहे सोने के पिंजड़े में लाकर रखो, लेकिन आकाश में उड़ता हुआ पक्षी बात ही और। सोने के पिंजड़े में बैठा पक्षी बात ही और। ये दो अलग पक्षी हो गए। ये एक ही पक्षी नहीं हैं। अब तुम्हें पिंजड़े में बंद इस पक्षी में वह रस नहीं मालूम होता, जो जब उसने पंख फैलाए थे सूरज की तरफ, तब मालूम हुआ था। तुमने अपने हाथ से हत्या कर दी।
एक गुलाब का फूल खिला। खूब सुंदर था। तुम जल्दी से तोड़ लिए। थोड़ी ही देर में तुम्हारे हाथ में कुम्हला जाएगा। थोड़ी ही देर में तुम रास्ते के किनारे फेंककर अपने मार्ग पर चले जाओगे। क्या हुआ! सुंदर था फूल, अपूर्व सुंदर था। लेकिन उसके सौंदर्य में जो जीवंतता थी, वह तुम्हारे तोड़ने में ही नष्ट हो गयी।
जो व्यक्ति फूलों को प्रेम करता है, तोड़ेगा नहीं। जो व्यक्ति किसी को प्रेम करता है--स्त्री हो या पुरुष--उस पर बंधन न डालेगा। जो किसी पक्षी को प्रेम करता है, वह पिंजड़ों में उसे बंद नहीं करेगा। लेकिन अक्सर हम यही करते हैं। आदमी ऐसा मूढ़ है, अपने आनंद को अपने ही हाथों नष्ट कर लेता है!
तुम देखना अपने जीवन में। तुम रोज-रोज इसके प्रमाण पाओगे। इसलिए मैं कहता हूं: ये छोटी-छोटी कहानियां बड़ी अर्थपूर्ण हैं। इनके भीतर मनुष्य का पूरा का पूरा मनोविज्ञान छिपा है।
यह स्त्री आकर्षित हो गयी है। दुनिया में इतने लोग हैं, एक संन्यासी पर आकर्षित होने की जरूरत क्या! कोई लोगों की कमी है? जो संसार छोड़कर चला गया है, उसे क्षमा करो; उसे जाने दो! जो अपने भीतर डूब रहा है, उसे मत खींचो बाहर।
लेकिन नहीं; जो अपने भीतर डूब रहा है, उसमें अपूर्व आकर्षण मालूम होता है। उसकी गहराई बढ़ जाती है। उसके व्यक्तित्व में एक गरिमा आ जाती है। उसमें कुछ जुड़ जाता है जो संसार से बाहर का है। उसमें पारलौकिक की थोड़ी सी छबि उतर आती है।
मगर तब यह स्त्री उसे प्रलोभन देने लगी--कि क्यों भटकते हो? क्यों भीख मांगते हो? मैं तो हूं! सब सुविधा है; सब संपन्नता है। महल है, धन है--सब तुम्हारा है। तुम द्वार-द्वार भीख मांगो, मुझे बड़ा कष्ट होता है। तुम आ जाओ मेरे पास। हम विवाहित होंगे। और जैसा कहानियों में होता है--विवाह हो गया, फिर सदा सुखी रहेंगे!
कहानियों में ही होता है ऐसा। या फिल्मों में होता है। फिल्म खतम हो जाती है अक्सर। शहनाई बज रही, बाजे बज रहे, विवाह हो रहा है, फिल्म खतम! क्योंकि उसके बाद फिर दोनों सुख से रहने लगे!
जिंदगी में हालत उलटी है। उसके बाद ही दुख शुरू होता है--शहनाई के बाद! पहले शहनाई बजती है, फिर दुख बजता है। विवाह के बाद जीवन में दुख की शुरुआत है। जब एक व्यक्ति सुखी नहीं हो सका अकेले में, तो दो दुखी मिलकर दुख को दुगुना करेंगे, बहुगुना करेंगे; कम नहीं कर सकते। दो बीमारियां जुड़ गयीं, दुगुनी हो गयीं--या अनंतगुनी हो जाएंगी। गुणनफल हो जाएगा। मगर कम नहीं हो सकतीं।
अकेला आदमी जरूर थोड़ा दुखी होता है, क्योंकि अकेला होता है। मगर विवाहित आदमी के दुख का उसको कुछ भी पता नहीं है। सभी विवाहित लोग पछताते हैं कि अकेले ही क्यों न रह गए! मगर अब बड़ी देर हो चुकी। अब अकेले होने का उपाय नहीं है।
सब अविवाहित चिंता करते हैं कि कब तक अविवाहित रहना है! कब तक अकेले रहना है?
यह दुनिया बड़ी अजीब है! यहां अविवाहित विवाह की सोचता है। यहां विवाहित अविवाह की सोचता है। यहां जो जहां है, वहीं नहीं रहना चाहता; कहीं और होना चाहता है। कोई कहीं सुखी नहीं है। कहीं और सुख होगा; कहीं और ही हो सकता है। यहां तो निश्चित ही नहीं है।
तुम जहां हो, वहां सुख नहीं है। और जो व्यक्ति सुख चाहता है, उसे वहीं सुखी होना पड़ता है जहां है। संन्यास की यही अर्थवत्ता है। संन्यास का अर्थ है: इस क्षण सुखी; जैसे हैं, उसमें सुखी। जहां हैं, वहां सुखी। अन्यथा की मांग का न होना ही तृष्णा का विसजनर् है।
इसलिए संन्यासी में एक अपूर्व शुद्धता झलकने लगती है। उसकी आंखों में एक शांति झलकने लगती है। उसके पास भी बैठोगे, तो उसकी शांति तुम्हें छुएगी। उसकी शांति तुम से दुलार करेगी। उसकी शांति तुम्हारे आसपास बहेगी।
यह स्त्री इस संन्यासी के मोह में पड़ गयी। उसे सब तरह के प्रलोभन देने लगी। धन था उसके पास; पद था उसके पास; महल था उसके पास। वह कहती होगी कि तुम्हें मैं इतना प्रेम करती; तुम्हारे पैर दबाऊंगी। तुम मेरे मालिक, तुम मेरे स्वामी। तुम क्यों भीख मांगो! क्यों नंगे पैर रास्तों पर भटको! यह महल तुम्हारा; यह सब तुम्हारा। तुम यहां आ जाओ।
जैसे कोई पक्षी को--खुले आकाश के पक्षी को--कहे कि इस पिंजड़े में सब सुविधा है। यहां कभी भूखे न मरोगे। रोज-रोज खोजने भोजन को जाना न पड़ेगा। और फिर देखते हो, सोने का पिंजड़ा है! फिर देखते हो, इस पर हीरे-जवाहरात जड़े हैं! ऐसा पिंजड़ा दुनिया में दूसरा नहीं। तुम आ जाओ भीतर। मुझे द्वार बंद कर देने दो। एक बार तुम इसमें आ गए, तुम सदा निश्चिंत रहोगे। सुरक्षित रहोगे। इस पिंजड़े का बीमा कराया हुआ है!
और शायद पक्षियों में भी आदमी जैसी बुद्धि होती, तो वे भी स्वीकार कर लेते। वे अपने से स्वीकार नहीं करते। जबर्दस्ती उन्हें पिंजड़े में बंद कर दो, एक बात।
लेकिन आदमी बुद्धिमान है! आदमी सोचता हजार बातें। इस युवक ने सोचा होगा: आज तो जवान हूं, तो भीख मांग लेता हूं। कल बूढ़ा हो जाऊंगा, फिर? खैर, बुद्ध बूढ़े हो गए हैं, इनको अभी भी भीख मिल जाती है। ये राजपुत्र हैं। मैं कोई राजपुत्र तो हूं नहीं। फिर बुद्ध महिमाशाली हैं; इनके वचनों में अमृत है। मैं तो साधारणजन हूं। फिर आज तो बुद्ध हैं, तो इनके पीछे छाया की तरह चलता हूं। सुख है, सुविधा है। सब ठीक हो जाता है। कल बुद्ध मर जाएंगे, फिर?
ऐसी हजार चिंताएं--जैसे तुम्हें पकड़ती हैं--उसे पकड़ी होंगी। हजार विचार उसे आए होंगे: कभी बीमार होऊंगा, कभी बूढ़ा होऊंगा, फिर कौन मेरी चिंता करेगा? फिर कौन मुझे भोजन देगा? कौन मेरे पैर दबाएगा? यह सुंदर प्यारी स्त्री सब समर्पित करने को राजी है। इसका समर्पण तो देखो! इसका त्याग तो देखो! इसका प्रेम तो देखो! ऐसे बहुत-बहुत प्रलोभन उसके मन में पड़े होंगे। और बहुत तरंगें उसके मन में उठी होंगी।
बुद्ध चुपचाप देखते रहे थे। सदगुरु तभी रोकता है, जब तुम अपने से न रुक पाओ। जब तक तुम अपने से रुक सकते हो, सदगुरु न रोकेगा। क्योंकि सदगुरु का आत्यंतिक अर्थ यही है कि तुम्हें जितनी स्वतंत्रता दी जा सके, दी जाए।
स्वतंत्रता में निश्चित ही गिरने की स्वतंत्रता भी सम्मिलित है। ऐसी तो कोई स्वतंत्रता हो ही नहीं सकती, जिसमें हम कहें कि ऊपर चढ़ो तो स्वतंत्र, गिरो तो स्वतंत्र नहीं! स्वतंत्रता तो दोनों की होती है--शुभ की, अशुभ की।
और बुद्ध ने परिपूर्ण स्वतंत्रता दी थी अपने भिक्षुओं को। वे अपूर्व सदगुरु थे।
वे देखते रहे। देखते रहे, कई कारणों से। एक तो हर छोटी-छोटी बात में बाधा देनी उचित नहीं है। और हर छोटी-छोटी बात में बाधा दी जाए, तो व्यक्ति का विकास रुकता है। उसे सोचने दो। उसे चिंतन करने दो। उसे गुजरने दो परेशानियों से; उसे चुनौतियों का सामना करने दो।
जैसे मां देखती रहती है अपने बच्चे को--कि वह चल रहा है; खड़ा हो रहा है। एक नजर से ध्यान रखती है। अपने काम में भी लगी रहती है। ऐसा भी ज्यादा ध्यान नहीं देती कि बच्चे को ऐसा लगे कि मां चौबीस घंटे उसके पीछे पड़ी है। पर देखती रहती है चुपचाप: कहीं गिर न जाए; कहीं आंगन से नीचे न उतर जाए; कहीं सड़क पर न चला जाए; कहीं आग के पास न पहुंच जाए; कुछ खतरा न हो जाए। और तब तक देखती रहती है, जब तक कि खतरा हो ही न जाए, होने के ही करीब न पहुंच जाए। अन्यथा चुपचाप रहती है, चलने-फिरने देती है। नहीं तो बच्चा चलेगा कैसे? खड़ा कैसे होगा? जीवन के योग्य कैसे बनेगा?
ऐसा ही सदगुरु है।
बुद्ध देखते रहे। सब पता है, क्या हो रहा है। इस युवक के मन में कैसी चिंताएं चल रही हैं; कैसे-कैसे प्रलोभन इसे पकड़ रहे हैं। यह पिंजड़े में जाने को किस तरह आतुर हुआ जा रहा है। लेकिन बुद्ध इस आशा में रुके हैं कि यह अपने से रुक जाए, तो महाशुभ है। क्योंकि जब तुम अपने से रुकते हो, तब तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित होती है। जब कोई तुम्हें रोक लेता है, तो क्रांति नहीं घटित होती।
जब तुम अपने से रुकते हो, तो तुम्हारा बोध बढ़ता है। जब तुम अपने से एक भूल से बचते हो, तो तुम्हारे जीवन में ऊंचाई आती है; तुम पहाड़ थोड़ा और ऊपर चढ़ गए। जब कोई दूसरा तुम्हारे हाथ को पकड़कर, सहारा देकर, ऊंचा चढ़ा देता है--ऊंचाई पर तो पहुंच जाते हो, लेकिन यह ऊंचाई उधार होती है। और सदगुरु नहीं चाहता कि शिष्यों की ऊंचाई उधार हो।
बुद्ध ने कहा है: बुद्धपुरुष तो केवल इशारा करते हैं, चलना तो तुम्हीं को पड़ता है। इसलिए जब मजबूरी हो जाती है, तभी, अत्यंत विवश अवस्था में सदगुरु टोकता है। फिर भी टोकना टोकने जैसा नहीं होता।
बुद्ध ने उससे यह नहीं कहा कि तू ऐसा मत कर। कोई आदेश नहीं दिया। आज्ञा नहीं दी कि पाप में पड़ेगा; नर्क जाएगा। ऐसा मत कर। उसे भयभीत भी नहीं किया। सिर्फ होश सम्हालने के लिए थोड़ी सी चेतावनी दी--कि थोड़ा जाग। फिर जागकर भी तुझे ऐसा ही लगे करना, तो जरूर कर। क्योंकि मैं कौन हूं तुझे रोकने वाला। तेरी जिंदगी तेरी है। तेरा भविष्य तेरा है। तेरी नियति तेरी है। लेकिन तुझे प्रेम करता हूं--इतनी चेतावनी मेरी तरफ से; इतनी सलाह मेरी तरफ से। ले तो ठीक, न ले तो मेरी मर्जी।
वह भिक्षु धीरे-धीरे अंततः उसकी बातों में आकर चीवर छोड़कर गृहस्थ हो जाने के लिए तैयार हो गया।
अंततः शब्द पर ध्यान देना। उसने बहुत देर तक लड़ाई की। बहुत अपने को रोकना चाहा। ऐसे जल्दी राजी नहीं हो गया। एकदम से राजी नहीं हो गया। स्त्री ने पुकारा, और चल नहीं पड़ा उसके पीछे। जद्दो-जहद की; सब तरह से अपने को सम्हालने की कोशिश की।
इसलिए बुद्ध और भी चुप रहे। देखते थे कि वह कोशिश में लगा है। अपने से सम्हालने की कोशिश में लगा है। बचने की चेष्टा जारी है। काश! अपने से बच जाए, तो वे कभी न बोले होते। अपने से रुक गया होता, तो बुद्ध ने ये वचन न कहे होते। ये गाथाएं पैदा न हुई होतीं।
अंततः नहीं रोक पाया। प्रलोभन और वासना प्रगाढ़ हो गयी। सुरक्षा, सुविधा ज्यादा बहुमूल्य मालूम होने लगे स्वतंत्रता की बजाय। स्वयं के भीतर जाने की बजाय बाहर की थोड़ी सी सुविधाएं ज्यादा मूल्यवान मालूम होने लगीं। जब बुद्ध ने देखा होगा कि अब तराजू का ढंग बदल रहा है; जो पलड़ा अब तक भारी था, कम भारी हुआ जाता है; जो अब तक कम भारी था, भारी हुआ जाता है; इसका चित्त डोल रहा है; इसका चित्त संसार की तरफ बहा जा रहा है...।
जब यह बात बिलकुल पक्की हो गयी होगी बुद्ध को कि अब अगर एक क्षण और देर की गयी, तो शायद फिर बहुत देर हो जाएगी। तब उन्होंने उस युवक को अपने पास बुलाया। उससे कहा: स्मृति को सम्हाल।
इन वचनों को खयाल में रखना। निंदा नहीं की। डांटा-डपटा नहीं। अपराधी नहीं ठहराया। तू पाप करने जा रहा है; महापाप करने जा रहा है; तुझे नर्क की अग्नि में जलाया जाएगा--इस तरह के भय नहीं दिए। दंड की घबड़ाहट पैदा नहीं की। कहा क्या? बड़े मीठे शब्द कहे: स्मृति को सम्हाल।
स्मृति बुद्ध का अपना विशिष्ट शब्द है। स्मृति का ठीक वही अर्थ होता है, जो मध्ययुग में संतों ने सुरति का किया। सुरति स्मृति का ही बिगड़ा हुआ रूप है। कबीर कहते हैं: सुरति। नानक कहते हैं: सुरति। सुरति को सम्हालो। क्या है सुरति? क्या है स्मृति?
तुम जो स्मृति का अर्थ समझते हो, वैसा मत समझ लेना। वह बुद्ध का अर्थ नहीं है। तुम्हारा तो अर्थ होता है स्मृति से--मेमोरी, याददाश्त, अतीत की याददाश्त। हम कहते हैं: फलां आदमी की स्मृति बड़ी अच्छी है, क्योंकि वह सैकड़ों लोगों के नाम याद रख लेता है। जो किताब एक दफा पढ़ता है, भूलता ही नहीं। जो फोन नंबर एक दफे याद कर लिया वह याद सदा के लिए हो गया। तीस-चालीस साल के बाद भी पूछोगे, तो वह फोन नंबर बता देगा। जिसकी याददाश्त अच्छी होती है, उसको हम कहते हैं--स्मृतिवान।
बुद्ध का वैसा अर्थ नहीं है। बुद्ध के स्मृति का अर्थ मेमोरी नहीं है, माइंडफुलनेस है। स्मृति का अर्थ है: जागा हुआ, स्मरण को उपलब्ध। अतीत की स्मृति नहीं, वर्तमान की स्मृति। अभी मैं क्या कर रहा हूं, अभी मुझ से क्या हो रहा है--यह होशपूर्वक करने का नाम स्मृति है बुद्ध के वचनों में।
जो मैं करने जा रहा हूं, वह करने योग्य है? करने योग्य नहीं है? पहले भी मैंने इस तरह के कृत्य किए हैं, उनका क्या परिणाम हुआ है? उनसे मैं कहां पहुंचा? क्या मैंने पाया? पहले भी मैंने ऐसे कृत्य किए और पछताया हूं। अब फिर वही कृत्य कर रहा हूं। फिर पछताऊंगा। पहले मैंने ऐसे कृत्य किए हैं और कसमें खायी हैं कि अब कभी न करूंगा, और फिर करने चला--इस सारी बोध-दशा का नाम स्मृति है। अपने को झंझोड़कर, जगाकर, तंद्रा से चौंकाकर स्थिति को पूरा का पूरा अवलोकन करना और फिर उस अवलोकन के ही आधार पर कृत्य में उतरना।
साधारणतः हम अवलोकन नहीं करते। हम तो उतर जाते हैं अंधे की तरह! हमें कोई भी फुसला लेता है! हमें कोई भी आकर्षित कर लेता है। हमारे भीतर कोई केंद्र ही नहीं है। हम बिलकुल ऐसे सूखे पत्ते हैं कि हवा जहां ले जाए, चले जाते हैं। या लकड़ी का एक टुकड़ा है, जो सागर में तैर रहा है: न कोई दिशा, न कोई गंतव्य! तरंगें जहां ले जाएं।
एक स्त्री मिल गयी रास्ते पर और उसने कहा: मैं तुम्हें प्रेम करती हूं। और तुम मंदिर जा रहे थे। और तुम भूल गए मंदिर! और यह अजनबी स्त्री, कभी पहले मिले भी न थे! न इसे जानते हो। और एक क्षण में लोभ पकड़ा, वासना पकड़ी। तुम एक अंधेरे में खो गए। तुम्हारी स्मृति धुंधली हो गयी।
बुद्ध ने कहा: स्मृति को सम्हाल! होश को जगा। पागल...।
पापी नहीं कहा बुद्ध ने, कहा: पागल। फर्क समझना। साधारणतः तुम्हारे धर्मगुरु कहेंगे: पापी। पापी में निंदा हो गयी, अपमान हो गया। निंदा और अपमान से कहीं कोई रूपांतरित होता है?
बुद्ध ने कहा: पागल। पागल सार्थक शब्द है। पागल का अर्थ है: यही तो तू पहले भी किया, बहुत बार किया। फिर करने लगा!
पापी का क्या अर्थ है? मूर्च्छित आदमी को क्या पापी कहना! बुद्ध गाली नहीं देते। बुद्ध चिकित्सक हैं। उपचार करते हैं। उपाय करते हैं।
अब बीमार आदमी को पापी कहने से क्या फायदा? बीमार आदमी को उसकी बीमारी के बाहर लाना है। उसको हाथ का सहारा चाहिए। शायद पापी कहने से तो तुम्हारे और उसके बीच दूरी बढ़ जाएगी। फिर तुम्हारा हाथ भी दूर हो जाएगा। और शायद पापी कहने से उसके अहंकार को तुम ऐसी चोट पहुंचा दोगे, कि वह उसका प्रतिकार लेने के लिए वही कर लेगा, जिसको तुम चाहते थे कि न करे।
सोच-समझकर एक-एक शब्द का उपयोग करना चाहिए।
बुद्ध तो एक-एक शब्द होशपूर्वक बोलते हैं। कहा: पागल! ऐसे ही तू पूर्व में भी गिरा है। यह कोई नयी तो बात नहीं। नयी होती, तो क्षम्य भी थी। तू पहले भी तो ऐसे गिरा है। और बार-बार पछताया है। अब फिर वही करेगा?
भूल भी करनी हो, तो कुछ नयी करनी चाहिए। तो कुछ लाभ होता है। उसी-उसी भूल को दोहराना, तो जड़ता है।
खयाल रखना: बुद्ध कभी नहीं कहते कि भूल मत करो। बुद्ध सदा कहते हैं कि भूल के बिना कोई सीखेगा कैसे! भूल तो होगी। लेकिन एक ही भूल को दुबारा मत करो। दुबारा की, तो फिर सीखने का उपाय न रहा। एक बार करो और सीख लो उससे, जो सीखना हो। निचोड़ ले लो। और उस निचोड़ के आधार पर जीवन को निर्मित करो। फिर दुबारा करने का तो मतलब है कि सिखावन नहीं ली।
और हम तो
एक-एक भूल हजारों बार करते हैं! तुमने क्रोध कल भी किया था, परसों भी किया था, उसके पहले भी किया था। जीवनभर से क्रोध कर रहे हो और हर बार क्रोध करके सोचा: अब नहीं करेंगे। बहुत हो गया। आखिर बहुत...। एक सीमा होती है हर बात की। अब पक्का निर्णय है, अब क्रोध नहीं करेंगे।
और फिर किसी ने धक्का दे दिया। फिर किसी ने घाव छू दिया। और फिर एक क्षण में तुम आग-बबूला हो गए। भूल गए सब पछतावे; भूल गए सब वचन जो तुमने अपने को दिए। भूल गए कसमें, जो तुमने ली थीं। एक क्षण में फिर आग भभकी। फिर वही हो गया।
ऐसे अगर तुम बार-बार वही-वही करते रहे, तो एक वर्तुल में घूमते रहोगे। तुम्हारा जीवन रूपांतरित कैसे होगा! क्रांति कैसे घटेगी?
तो बुद्ध ने कहा: पागल! ऐसे तो तू पूर्व में भी गिरा और बार-बार पछताया। फिर वही? अब फिर वही? भूलों से सीख। स्मृति को सम्हाल।
सुनते हो इन प्यारे वचनों को! इनमें कहीं निंदा नहीं है। इनमें सहारे के लिए बढ़ाया गया हाथ है। इसमें जागरण के लिए पुकार है। कहीं कोई अपमान नहीं है। कहीं कोई नर्क का भय नहीं है। और कहीं कोई स्वर्ग का प्रलोभन नहीं है।
मुसलमान फकीर स्त्री हुई राबिया। एक बार लोगों ने देखा कि वह रास्ते पर भागी जा रही है। एक हाथ में उसने मशाल ले रखी है जलती हुई, और दूसरे हाथ में एक पानी से भरा हुआ घड़ा ले रखा है।
लोग पूछने लगे: राबिया! क्या पागल हो गयी हो? बाजार में यह मशाल और पानी का भरा घड़ा लेकर कहां जा रही हो?
उसने कहा: मैं उस धर्म को आग लगाने जा रही हूं, जो स्वर्ग का आश्वासन देता है। मैं स्वर्ग को आग लगा देना चाहती हूं। और नर्क को पानी में डुबा देना चाहती हूं। क्योंकि धर्म लोभ दे स्वर्ग का और भय दे नर्क का, तो धर्म ही न रहा।
यह तो राजनीति हो गयी। यह तो बड़ी क्षुद्र राजनीति हो गयी। लेकिन यही तुम्हारे तथाकथित धर्म कर रहे हैं।
बुद्ध ने यह नहीं किया। बुद्ध ने सिर्फ इतना ही कहा: सम्हल जाओ। सम्हलने में सुख है--निश्चित। गिरने में दुख है--निश्चित। लेकिन परिणाम की तरह नहीं। सम्हलने में सुख है। सम्हलने का स्वभाव सुख है। और गिरने में दुख है। गिरने में चोट लगती है। गिरने का स्वभाव दुख है।
ऐसा नहीं कि गिरोगे, तो फिर कभी तुम्हें दुख मिलेगा भविष्य में, किसी जन्म में। और अभी होश सम्हालोगे, तो किसी भविष्य में स्वर्ग जाओगे। यह तो हद्द हो गयी पागलपन की। लेकिन इसी तरह की बातें कही गयी हैं।
अभी आग में हाथ डालोगे, अगले जन्म में जलोगे। यह क्या बात हुई? अभी हाथ डालोगे, इसी हाथ के डालने में जलना हो जाएगा। अभी फूल छुओगे, अभी हाथ में सुगंध आ जाएगी। ऐसा ही है जीवन।
जीवन नगद है, उधार नहीं। और सब तुम्हारे नर्क और स्वर्ग उधार हैं। कल्पित मालूम होते हैं। वास्तविक नहीं मालूम होते। वस्तुतः तो यही सत्य है। तुम जैसा करते हो अभी, तत्क्षण, उस करने में ही उसका फल छिपा है।
तुमने किसी की तरफ करुणा से देखा और सुख बरसा। और तुमने किसी की तरफ क्रोध से देखा और दुख बरसा। परिणाम की तरह नहीं; क्रोध में ही दुख छिपा है। और प्रेम में ही सुख छिपा है।
प्रेम और स्वर्ग एक ही बात के दो नाम हैं। क्रोध और नर्क एक ही बात के दो नाम हैं।
बुद्ध ने कहा: तू सम्हल। और ये गाथाएं कहीं--
‘जो मनुष्य संदेह से मथित है...।’
अब यह युवक बड़े संदेह में पड़ा था: ऐसा करूं, वैसा करूं? संन्यासी बना रहूं कि गृहस्थ हो जाऊं? क्या करूं? क्या न करूं? ऐसा डोल रहा था घड़ी के पेंडुलम की तरह! जो घड़ी के पेंडुलम की तरह डोलता रहेगा--यह करूं, वह करूं--जो ऐसा अनिश्चित-मना रहेगा, उसका जीवन कभी भी थिर न हो पाएगा। और थिरता में असली राज है।
कृष्ण ने कहा: स्थितप्रज्ञ--जिसकी भीतर की प्रज्ञा स्थिर हो गयी, वही महासुख को उपलब्ध होता है।
बुद्ध ने कहा: ‘जो मनुष्य संदेह से मथित है, तीव्र राग से युक्त है...।’
राग शब्द बड़ा प्यारा है। इसका अर्थ होता है, रंग। कहते हैं न, राग-रंग। राग का अर्थ होता है: रंग! जिसकी आंखों पर रंग चढ़ा है, वह जिंदगी को वैसा नहीं देख पाता, जैसी जिंदगी है।
जब तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हो, या किसी पुरुष के प्रेम में पड़ जाते हो, तो तुम वही नहीं देख पाते, जो असलियत है। तुम वह देखने लगते हो, जो तुम कल्पना करते हो कि होना चाहिए। रंग पड़ गया आंख पर। और जब रंग पड़ जाता है, तो कुछ का कुछ दिखायी पड़ता है। जहां सूखे वृक्ष हैं, वहां हरियाली दिखायी पड़ने लगती है। जहां हड्डी-मांस-मज्जा के सिवाय कुछ भी नहीं, वहां बड़े सौंदर्य के दर्शन होने लगते हैं! जहां सब तरह की गंदगी भरी है, वहां तुम कल्पित करने लगते हो: सुगंध। तथ्य दिखायी नहीं पड़ते फिर। फिर तुम्हारे सपने तथ्यों पर हावी हो जाते हैं।
तो बुद्ध ने कहा: ‘जो तीव्र राग से युक्त है, शुभ ही शुभ देखने वाला है...।’
और जब राग से भरे होते हो, तो सब ठीक ही ठीक दिखायी पड़ता है। गलत तो दिखायी ही नहीं पड़ता है। और इस संसार में गलत बहुत है। ठीक तो न के बराबर है, शायद है ही नहीं। गलत ही गलत है। लेकिन जब तुम राग से भरे होते हो, तो सब ठीक दिखायी पड़ता है। जिस चीज के राग से भर जाते हो, उसमें ही ठीक दिखायी पड़ने लगता है।
और ठीक यहां कुछ भी नहीं है। यहां ठीक हो कैसे सकता है? यहां मृत्यु प्रतिपल खड़ी है तुम्हें घेरे हुए, यहां ठीक कुछ हो कैसे सकता है? यहां सब क्षणभंगुर है। पानी के बबूले जैसा है। ठीक कुछ हो कैसे सकता है? यहां सब आया और गया; रुकता कुछ भी नहीं। यहां सुख संभव नहीं है; यहां दुख ही संभव है। ठीक यहां कुछ भी नहीं है।
यह वचन तुम्हें हैरानी से भरेगा। बुद्ध कहते हैं: ‘जो शुभ ही शुभ देखने वाला है, उसकी तृष्णा और बढ़ती है।’
इसलिए बुद्ध की परंपरा में संन्यासी के लिए अशुभ-भावना का निर्देश है। बुद्ध कहते हैं: पहले तो यह देखना कि अशुभ क्या है। क्या-क्या अशुभ है, इसको ठीक से देख लेना। बुद्ध अपने भिक्षुओं को भेजते थे मरघट--कि जाकर बैठ जाओ मरघट पर; जलती हुई लाशों को देखो; यही तुम हो।
बुद्ध को स्वयं भी जो संन्यास का भाव उठा था, वह अशुभ को देखकर उठा था। देखा था, रथ पर बैठे हुए--एक बीमार आदमी को खांसते-खखारते। रुग्ण देह। विचार उठा था: क्या यही दशा मेरी हो जाएगी? पूछा था अपने सारथी से: इस आदमी को क्या हो गया?
सारथी ने कहा: यह बीमार है। क्षय रोग से बीमार है। बुद्ध ने पूछा: क्या कभी मैं भी ऐसी दशा को पहुंच सकता हूं? सारथी ने कहा: सभी के लिए संभव है। क्योंकि शरीर रोगों का घर है।
फिर बुद्ध ने देखा एक बूढ़े को लकड़ी टेककर चलते हुए; कमर झुकी हुई। बुद्ध ने पूछा: और इसे क्या हो गया? और सारथी ने कहा: यह आदमी बूढ़ा हो गया। यह जवानी के बाद की दशा और मौत के पहले की दशा है। बुद्ध ने कहा: क्या मैं भी एक दिन ऐसा ही हो जाऊंगा? सारथी ने कहा: मैं कैसे कहूं! कहना नहीं चाहिए। लेकिन झूठ भी नहीं बोल सकता हूं। यह सभी का अंतिम जीवन का फल है। यह सभी को होता है। सभी बूढ़े होंगे।
और तब बुद्ध ने एक लाश देखी; एक आदमी की लाश देखी। लोग उसे मरघट ले जा रहे थे। कहते होंगे: राम-नाम सत्य है! और बुद्ध ने कहा: क्या कभी यह भी मेरे साथ होगा?
और तब बुद्ध ने एक संन्यासी को देखा और पूछा सारथी से: इस आदमी ने गैरिक वस्त्र क्यों पहन रखे हैं? इसे क्या हुआ है? तो सारथी ने कहा: जैसा आपने देखा बीमार को, बूढ़े को, मृत्यु को, ऐसे ही इसने भी देखा है, और यह जीवन की व्यर्थता से जाग गया। अब यह उसकी खोज कर रहा है, जो शाश्वत है।
उसी रात बुद्ध घर छोड़कर भाग गए थे!
तो अशुभ-भावना पर उनका बड़ा जोर है। वे कहते हैं: जहां-जहां अशुभ है, उसे गौर से देखना; भर-आंख देखना; खूब निरीक्षण करना। जीवन में इतना अशुभ है, इतने कांटे हैं, इतनी पीड़ाएं हैं, इतना दुख है--इस सब को जो ठीक से देख लेता है, उस देखने में ही मुक्ति है। फिर देखने के बाद लोगों को नहीं कहना पड़ता: राम-नाम सत्य है। फिर ऐसा व्यक्ति स्वयं ही जान लेता है कि राम सत्य है और यहां शेष सब माया है।
‘जो व्यक्ति शुभ ही शुभ देखता, तीव्र राग से भरा है, संदेह से मथित है, उसकी तृष्णा बढ़ती है और वह अपने लिए और भी दृढ़ बंधन बनाता है।’
‘जो मनुष्य संदेह के शांत हो जाने में रत है...।’
जो अपने भीतर यह पेंडुलम की तरह घूमते हुए मन को थिर करने में लगा है। संन्यास थिरता का नाम है। संन्यास का अर्थ है: शांत होना, बहुत तरह के द्वंद्वों में न होना। क्या करूं, क्या न करूं--इसकी बहुत चिंता में न होना। जो हूं, ठीक हूं। जैसा हूं, ठीक हूं। इसी क्षण सब तरह से संतुष्ट होना। फिर संदेह नहीं उठते। फिर आकांक्षाएं-वासनाएं नहीं डोलातीं, फिर अंधड़ नहीं उठते वासना के, और तुम्हारे भीतर कंपन नहीं होते। धीरे-धीरे तुम्हारी ज्योति थिर होकर जलने लगती है।
‘जो सदा सचेत रहकर अशुभ की भावना करता है, वह मार के बंधन को छिन्न करेगा और तृष्णा का विनाश करेगा।’
बुद्ध ने शैतान के लिए मार शब्द का उपयोग किया है। यह मार शब्द बड़ा प्यारा है। अगर इसको ठीक उलटा करो, तो राम बन जाता है।
राम को पाना है, सत्य को पाना है, और यह संसार मार है। यह राम से बिलकुल उलटा है। यह सत्य से बिलकुल उलटा है। इसमें जागना है।
इस संसार में जो जागता है, वह राम की तरफ सरकने लगता है। इस संसार में जो सोया-सोया चलता है, वह मार के पंजे में पड़ता जाता है; वह शैतान के हाथों में पड़ता जाता है।
दूसरा दृश्य:
भगवान जेतवन में विहरते थे। एक दिन बहुत से आगंतुक भिक्षु आए। इन अतिथियों को भगवान ने राहुल के निवास स्थान पर ठहराया।
रात्रि में राहुल सोने के लिए अन्य स्थान नहीं देखते हुए, भगवान के निवास स्थान--गंधकुटी--के बरामदे में जाकर सो रहा। उस समय राहुल यद्यपि श्रामणेर था, फिर भी अर्हतत्व के बहुत करीब पहुंच रहा था। मार ने उसे बरामदे में सोया हुआ देखकर हाथी का वेश धारण कर उसके पास आकर सूंड़ से उसके सिर को घेरकर क्रोंच शब्द किया।
शास्ता ने गंधकुटी के भीतर से ही मार को जान कहा: मार! तेरे जैसे लाखों भी मेरे पुत्र को भय नहीं उत्पन्न कर सकते हैं। मेरा पुत्र निर्भीक, तृष्णारहित, महाबलवान और महाबुद्धिमान है। यह कहकर इन गाथाओं को कहा; ये दो गाथाएं:
निट्ठंगतो असंतासी वीततण्हो अनंगणो।
अच्छिन्दि भवसल्लानि अंतिमोयं समुस्सयो।।
वीततण्हो अनादानो निरुत्तिपदकोविदो।
अक्खरानं सन्निपातं जञ्ञा पुब्बापरानि च।
स वे अंतिमसारीरो महापञ्ञो’ति वुच्चति।।
‘जिस मनुष्य ने अर्हतत्व पा लिया, जो भयरहित है, जो वीततृष्णा और निष्कलुष है, जिसने संसार के शल्यों को काट दिया है, यह उसकी अंतिम देह है।’
‘जो मनुष्य वीततृष्णा, परिग्रहरहित है, निरुक्त और पद का जानकार है, जो अक्षरों को पहले-पीछे रखना जानता है, वही अंतिम शरीर वाला और महाप्राज्ञ कहा जाता है।’
राहुल गौतम बुद्ध का बेटा था। राहुल के संबंध में थोड़ी बात समझ लें। फिर इस दृश्य को समझना आसान हो जाएगा।
जिस रात बुद्ध ने घर छोड़ा, महा अभिनिष्क्रमण किया, राहुल बहुत छोटा था। एक ही दिन का था। अभी-अभी पैदा हुआ था। बुद्ध घर छोड़ने के पहले गए थे यशोधरा के कमरे में इस नवजात बेटे को देखने। यशोधरा अपनी छाती से लगाए राहुल को, सो रही थी। चाहते थे, देख लें राहुल का मुंह, क्योंकि फिर मिले देखने, न मिले। लेकिन इस डर से कि अगर राहुल के और पास गए, उसका मुंह देखने की कोशिश की, कहीं यशोधरा जग न जाए! जग जाए, तो रोएगी, चीखेगी, चिल्लाएगी! जाने न देगी। इसलिए चुपचाप द्वार से ही लौट गए थे।
उस बेटे को राहुल का नाम भी बुद्ध ने इसीलिए दिया था--राहु-केतु के अर्थों में। इसलिए दिया था कि बुद्ध घर छोड़ने जा रहे थे, तब यह बेटा पैदा हुआ। सोचते थे कि कब छोड़ दूं, कब छोड़ दूं, तब यह बेटा पैदा हुआ। इस बेटे का प्रबल आकर्षण, और मन में हजार शंकाओं-कुशंकाओं का जमघट लग गया।
मेरे घर बेटा आया है और मैं छोड़कर भाग रहा हूं--यह उचित है छोड़कर भागना? जिम्मेदारी, उत्तरदायित्व...। इस बेटे के जन्म में मेरा उतना ही हाथ है, जितना यशोधरा का, और मैं छोड़कर भाग जा रहा हूं। इस असहाय स्त्री पर अकेला बोझ छोड़कर भागा जा रहा हूं! यह उचित है या नहीं?
ये सारी शंकाएं उठने लगी थीं, इसलिए उसको नाम राहुल दिया था कि मैं किसी तरह मुक्त होने के करीब था कि तू राहु की तरह मेरे गले को फांसने आ गया!
फिर बारह वर्षों बाद बुद्ध घर लौटे थे--बुद्धत्व को पाकर--तब राहुल बारह वर्ष का था। यशोधरा बहुत नाराज थी। स्वाभाविक। मानिनी स्त्री थी, इसलिए सीधे तो उसने कुछ भी न कहा। लेकिन तीखा व्यंग्य किया। परोक्ष व्यंग्य किया।
जब बुद्ध घर पहुंचे, तो उसने अपने बेटे राहुल को कहा कि बेटा, ये तुम्हारे पिता हैं! तू जब एक दिन का था, तब तुझे छोड़कर भाग गए थे। ये भगोड़े हैं। यही तेरे पिता हैं! तू बार-बार मुझसे पूछता था कि मेरे पिता कौन हैं? ये सज्जन, जो आकर खड़े हो गए हैं, यही तेरे पिता हैं। इनसे तू मांग ले अपनी वसीयत। ये तेरे पिता हैं। फिर पता नहीं मिलना हो, न मिलना हो। इनसे मांग ले हाथ फैलाकर--कि इस संसार में जीने के लिए मेरी कुछ वसीयत?
उसने तो व्यंग्य किया था। व्यंग्य महंगा पड़ गया।
बुद्ध ने आनंद से कहा: आनंद! मेरा भिक्षापात्र कहां है? क्योंकि मेरे पास और तो देने को कुछ भी नहीं है। एक भिक्षापात्र है, वह मैं अपने बेटे को दे देता हूं। लेकिन भिक्षापात्र तो भिक्षु को दिया जा सकता है!
भिक्षापात्र देकर बुद्ध ने कहा: बेटा, तू भिक्षु हो गया। तू संन्यस्त हो गया। मेरे पास संसार की कोई संपदा नहीं है, संन्यास की संपदा है, तू उसका मालिक हो गया।
महंगा पड़ गया व्यंग्य। राहुल भी बेटा तो बुद्ध का था; उसने ना-नुच भी न की। उसने चरण छुए और बुद्ध के पीछे हो लिया। यशोधरा तो बहुत घबड़ायी। पति तो गया ही गया, अब बेटा भी गया। तब कोई और उपाय न देख उसने बुद्ध से कहा: फिर मुझे भी भिक्षुणी बना लें। अब मैं किसके लिए रहूंगी? ऐसे राहुल के कारण यशोधरा भी भिक्षुणी बनी।
राहुल अदभुत बेटा था। बारह साल के बच्चे से यह आशा करनी! पर बुद्ध का बेटा था, तो अदभुत होना चाहिए। बारह साल के बेटे से यह अपेक्षा करनी! लेकिन वह भिक्षु की तरह रहा। चूंकि छोटा था, इसलिए भिक्षुओं का जो प्रथम द्वार है--श्रामणेर, उसकी ही दीक्षा उसे बुद्ध ने दी थी। लेकिन श्रामणेर रहते हुए भी वह छोटा सा बच्चा अर्हत की अवस्था के करीब आ गया था, बुद्ध होने के करीब आने लगा था।
मार का हमला तभी होता है, जब कोई बुद्ध होने के करीब आने लगता है। उसके पहले हमला नहीं होता। तुम्हारा अगर शैतान से मिलना नहीं हुआ है, तो उसका कारण यह नहीं है कि शैतान नहीं है। उसका केवल इतना ही कारण है कि तुम अभी इस योग्य नहीं कि शैतान तुम पर ध्यान दे। उसके लिए पात्रता चाहिए, योग्यता चाहिए।
तुम में शैतान को कुछ रस नहीं है। तुम गड्ढे में वैसे ही पड़े हो। शैतान तुम से जो करवाए, वह तुम अपने आप ही कर रहे हो। शैतान तुम्हें जहां ले जाए, तुम अपनी मर्जी से ही जा रहे हो। अब शैतान और क्या करे! तुम्हारे साथ कोई उपाय नहीं है।
शैतान तो तुम्हारे जीवन में तभी प्रगट होता है, जब तुम्हारे जीवन से बुराई गिरने के आखिरी स्थल पर आ जाती है।
शैतान कोई बाहर नहीं है; शैतान तुम्हारे मन की आखिरी चेष्टा है तुम्हें बंधन में रखने के लिए। शैतान का इतना ही अर्थ है कि तुम्हारा मन अपनी मालकियत तुम पर आसानी से नहीं छोड़ देगा।
लेकिन जब तक तुम खुद ही उसके गुलाम हो, तब तक मालकियत कायम करने की कोई जरूरत भी नहीं है। तुम गुलाम हो ही। जब तुम मालिक होने लगते हो, और मन को यह लगता है कि अब मैं गया; अब मेरी मालकियत गयी; अब यह आदमी होश सम्हालता जा रहा है; जल्दी ही मेरी हुकूमत समाप्त हो जाएगी; इसकी हुकूमत आने के करीब है; तब मन अपनी सारी ताकत को इकट्ठी करके...।
और बड़ी ताकत है मन की, क्योंकि जन्मों-जन्मों से मन मालिक रहा है। उसे तुम्हारी सारी कमजोरियां पता हैं। उसे तुम्हारे सारे भय पता हैं। उसे तुम्हारी सारी वासनाएं पता हैं। वह तुमसे भलीभांति परिचित है। वह जानता है, तुम कहां-कहां कमजोर हो। वह कमजोर स्थल पर उंगली रखकर दबाना जानता है। तुमसे उससे ज्यादा परिचित और कौन है! जन्मों-जन्मों में उसने तुम्हें जाना है।
शायद मार ने इसीलिए हमला किया। इस घटना में कुछ अतिथि आ गए हैं, उनको ठहराने की जगह चाहिए, तो राहुल का कमरा उनको दे दिया गया है। रात राहुल सोने के लिए जगह नहीं पाया। कोई और उपाय न देखकर, जहां बुद्ध ठहरे थे, उस गंधकुटी में...।
बुद्ध जहां ठहरते थे, उस कुटी का नाम गंधकुटी होता था। क्योंकि बुद्ध में एक गंध है परलोक की। जहां ठहरते थे, उसका नाम गंधकुटी रखा जाता था। वहां परमात्मा की सुगंध होती। वहां बिना किसी सुगंध के सुगंध होती। वहां बिना किसी वाद्य के संगीत बजता। वहां एक रोशनी होती अंधेरे में भी। वहां बुद्धत्व का वास था। वह जगह मंदिर थी।
कोई जगह न देखकर राहुल फिर बुद्ध की गंधकुटी के बाहर बरामदे में जाकर सो रहा।
एक तो राहुल धीरे-धीरे, यद्यपि ऊपर से श्रामणेर था, बच्चा था, लेकिन भीतर थिर होता जा रहा था। अंतिम घड़ी करीब आ रही थी। और शायद उस दिन अंतिम घड़ी बहुत करीब आ गयी, बुद्ध के सान्निध्य के कारण। पहली बार बुद्ध के बरामदे में सोया था राहुल। बुद्धत्व की मौजूदगी, उसके भीतर जो जागता हुआ बुद्धत्व है उसको बड़ा सहारा बन गयी होगी।
यही तो साधु-संग का रहस्य और राज है। अगर तुम किसी साधु के पास हो, तो तुम्हारे भीतर साधुता को छलांग लेने की सुविधा ज्यादा होगी। तुम अगर असाधु के पास हो, तो तुम्हारे भीतर जो शैतान है, उसका बस तुम पर ज्यादा होगा। क्योंकि आदमी अनुकरण से जीता है।
तुमने कभी खयाल किया, चार आदमी उदास बैठे हों और तुम भी उनके पास जाकर बैठ जाओ, तो तुम उदास हो जाते हो। चार आदमी हंसते हों; तुम उदास आए थे, चार आदमियों को हंसते देखकर तुम भी मुस्कुराने लगते हो, हंसने लगते हो। भूल ही जाते हो।
बुद्धत्व की सन्निधि उस रात; बुद्ध अपनी गंधकुटी में भीतर सोए हैं, और राहुल बाहर बरामदे में लेट रहा है। शैतान ने हमला किया; मार ने हमला किया।
मार जानता है: छोटा बच्चा है। अभी बारह-तेरह साल का है। कामवासना के द्वारा इस पर हमला नहीं किया जा सकता। कामवासना का हमला तो चौदह साल के बाद हो सकता है।
दो ही हमले संभव हैं। या तो काम या भय। छोटा बच्चा भय के द्वारा ही डांवाडोल किया जा सकता है। जवान आदमी शायद भय से डांवाडोल न हो, लेकिन कामवासना से डांवाडोल होता है।
यह छोटा बच्चा है। इसके पास नंगी अप्सराएं नचाने से कुछ भी न होगा। वह ऋषि-मुनियों के पास नचाना ठीक है। यह छोटा ही बच्चा है। यह इसको समझेगा ही नहीं। यह शायद बैठकर मजा लेने लगे। सोचे कि क्या हो रहा है! तमाशा हो रहा है! इस पर कुछ परिणाम न होगा नंगी अप्सराएं नचाने से। यह शायद मस्त होकर सो जाए कि ठीक है। नाचो, खूब नाचो, जितना नाचना हो। इसमें कोई परिणाम न हो! क्योंकि परिणाम तभी हो सकता है, जब वासना सजग हो गयी हो।
बूढ़े में हो सकता है। कभी-कभी तो जवान से भी ज्यादा होता है बूढ़े में। क्योंकि जवान में शक्ति भी होती है, वासना भी होती है। बूढ़े में वासना तो उतनी की उतनी होती है, शक्ति खो गयी होती है। तो जवान में शक्ति भी होती है, वासना भी होती है। चाहे तो अपनी शक्ति से वासना को दबाए रख सकता है। लेकिन बूढ़े के पास शक्ति भी नहीं बचती। वह अपनी वासना को दबा भी नहीं सकता। बूढ़ा बड़ा अवश हो जाता है। वासना उतनी की उतनी होती है। उतनी ही जवान, जितनी पहले थी। और जो ताकत थी जवानी की, वह खो जाती है।
एक दफा एक संन्यासी मुझे काशी में मिलने आए। उनकी कोई चालीस- बयालीस साल की उम्र थी। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं आपसे एक ही बात पूछने आया हूं, वासना का बड़ा मुझ पर हमला होता है! मैंने कहा, तुम घबड़ाओ मत। वासना और संन्यासियों का पुराना नाता-रिश्ता है! यह सदा से ही होता रहा है। तुमने ऋषि-मुनियों की कहानियां पढ़ीं? उन्होंने कहा, पढ़ता हूं। पढ़ता क्या हूं--अब देख ही रहा हूं अपने आप। ऐसा ही हो रहा है। मगर मैं अपने काबू से हटता नहीं। अपने नियंत्रण से हटता नहीं, चाहे कुछ भी हो जाए। मैं आपसे यही पूछने आया हूं कि यह कब तक होता रहेगा?
मैंने कहा, यह तो सदा होगा। पैंतालीस साल के बाद मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि फिर इतनी ताकत न होगी दबाने की। इसलिए दबाने पर अगर भरोसा किया, तो बुढ़ापे में मुश्किल में पड़ जाओगे। दबाने पर भरोसा मत करो। ताकत के दो उपयोग हो सकते हैं: या तो दबाओ, या ताकत को होश बनाओ, स्मृति बनाओ। या तो ताकत दमन बन जाए, या जागरण बन जाए। जागरण बने, तो ही ठीक है। दमन से कुछ भी न होगा।
उन्होंने कहा, आप भी क्या बात कर रहे हैं! मैं तो सदा यही सोचता रहा कि जवानी है और कितने दिन? और दो-चार-दस साल की बात है। पचास साल के बाद फिर क्या होना है? फिर तो बुढ़ापा आ जाएगा। आप क्या बात कर रहे हैं! मैं तो इसी आशा में जीता रहा हूं कि अभी जवानी है, इसलिए वासना जोर मारती है। एक दफा जवानी गयी, वासना का जोर चला जाएगा!
मैंने कहा कि पैंतालीस साल बाद मुझे मिलना।
वे ईमानदार आदमी हैं। वे पैंतालीस साल के बाद मुझे मिलने आए। कोई सैंतालीस साल की उनकी उम्र रही होगी। उन्होंने कहा, आप ठीक कहते थे। मैं मारा गया। मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। अब मुझे पता चल रहा है: मेरी लड़ने की ताकत कम होने लगी और वासना उतनी ही प्रबल है। दुश्मन उतना ही मजबूत है; मैं कमजोर होने लगा। आप ठीक कहते थे। मैं चूक गया। मैंने जितना संघर्ष किया वासना से, अगर उतनी शक्ति जागरण में लगायी होती, तो शायद पहुंचने की कोई संभावना थी। यह जीवन तो गया।
मैंने उनसे कहा, जीवन कभी भी गया नहीं है। सांझ को भी कोई लौटकर आ जाए घर, तो भूला हुआ नहीं है। अभी भी चेष्टा करो। अभी भी जो थोड़ी शक्ति बची है, उसे मत लड़ाओ वासना से। उसे ध्यान बनाओ।
लेकिन राहुल को वासना से नहीं डिगाया जा सकता। इसलिए यह कहानी अनूठी है। चूंकि बारह-तेरह साल के ऋषि-मुनि होते ही नहीं, इसलिए कहानी अनूठी है। तुमने जो कहानियां पढ़ी हैं ऋषि-मुनियों की, वे सब वृद्ध ऋषि-मुनियों की हैं। वहां उर्वशी आती और नाचती; और श्रृंगार करके आती। और सब उस तरह का काम होता है। यह राहुल छोटा सा बच्चा है।
मार ने क्या किया? यह अर्हत हुआ जा रहा है! वह एक बड़ा हाथी बनकर आया है। छोटा बच्चा है, उसके लिए बड़ा हाथी! इतना ही नहीं, सूंड़ में राहुल की गरदन फंसा ली, और भयंकर चीत्कार की।
कहानी को तथ्य मत समझ लेना। ऐसा भीतर हुआ होगा। हो सकता है, सपने में हुआ हो। एक दुखस्वप्न हुआ हो। यह मन ही है, जो यह रूप रखता है। लेकिन यह चीत्कार की आवाज, हो सकता है राहुल के मुंह से निकल गयी हो।
तुम्हारे कभी-कभी मुंह से निकल जाती है--दुखस्वप्न में। छाती पर कोई आकर राक्षस बैठ गया और चीत्कार निकल जाती है। या पहाड़ से गिरा दिए गए और चीत्कार निकल जाती है। या कोई तुम्हारी छाती में छुरा भोंक रहा है और चीत्कार निकल जाती है।
ऐसी चीत्कार छोटे से राहुल से निकल गयी होगी। बुद्ध ने गंधकुटी के भीतर से ही मार को जानकर ऐसे शब्द कहे--मार! तेरे जैसे लाखों भी मेरे पुत्र को भय नहीं उत्पन्न कर सकते।
यहां एक बात और खयाल रख लेना। बुद्ध राहुल को ही मेरा पुत्र कहते हैं, ऐसा नहीं। जितने भिक्षु हैं, सभी को मेरा पुत्र कहते हैं। राहुल तो पुत्र भी है। लेकिन भिक्षु सभी, बुद्ध के पुत्र हैं--बुद्ध संतति।
गुरु पिता है। एक बहुत नए अर्थों में पिता है। पिता से तो शरीर को जन्म मिलता है, गुरु से आत्मा को। पिता से तो जो शरीर मिला है, वह आज नहीं कल मौत ले जाएगी। गुरु से जो आत्मा मिलती है, उसे फिर कोई नहीं ले जा सकता। पिता से तो संसार मिलता है; गुरु से संन्यास। संसार क्षणभंगुर है, संन्यास शाश्वत है।
बुद्ध ने कहा: मार! मेरे बेटे को तेरे जैसे लाखों भी भय उत्पन्न नहीं कर सकते हैं। मेरा पुत्र निर्भीक, तृष्णारहित, महाबलवान और महाबुद्धिमान है। यह कहकर इन गाथाओं को कहा:
‘जिस मनुष्य ने अर्हत का पद पा लिया...।’
अर्हत का अर्थ होता है: जिसके शत्रु समाप्त हो गए--अरि-हत। अरि यानी शत्रु, हत यानी नष्ट हो गए।
जैनों में यही शब्द दूसरे रूप में है--अरिहंत--जिसने अपने शत्रुओं को मार डाला। दोनों में लेकिन थोड़ा सा फर्क है। अर्हत का अर्थ होता है, जिसके शत्रु मर गए। और अरिहंत का अर्थ होता है, जिसने अपने शत्रुओं को मार डाला। जैन परंपरा संकल्प की परंपरा है, संघर्ष की परंपरा है। इसलिए महावीर को महावीर कहा है। नाम उनका वर्धमान था। जैन परंपरा संघर्ष की परंपरा है, इसलिए उसका नाम जैन है। जैन का अर्थ होता है--जिन, जीता हुआ। जीत के लिए संघर्ष है।
बुद्ध की परंपरा में संघर्ष पर जोर नहीं है; तप पर जोर नहीं है; संकल्प पर जोर नहीं है। बुद्ध की साधना में बोध पर जोर है। और बोध जब जगता है, तो शत्रु अपने से हार जाते हैं, तुम्हें हराने नहीं पड़ते।
जैन परंपरा तपश्चर्या पर जोर रखती है, बुद्ध परंपरा स्मृति पर।
इसलिए एक अपूर्व बात घटी है। बौद्धों ने जितना ध्यान को विकसित किया दुनिया में, किसी ने भी नहीं किया। ध्यान बुद्ध का सार है।
अर्हत का अर्थ होता है: जिसके शत्रु गिर गए। बोध जगा और शत्रु गिर गए। जैसे दीया जला और अंधेरा चला गया। ऐसे अर्हत। अरिहंत का अर्थ होता है: शत्रुओं से लड़े; मारा; गिराया; जीता। महावीर का मार्ग संकल्प का; बुद्ध का मार्ग समर्पण का।
लेकिन समर्पण में भी भेद हैं। बुद्ध का मार्ग ऐसे समर्पण का नहीं, जैसे नारद का या मीरा का। उनके समर्पण का अर्थ है: ईश्वर के प्रति समर्पण। बुद्ध के समर्पण का अर्थ है: संघर्ष नहीं, शांत भाव। अपने भीतर ही विश्राम को उपलब्ध हो जाना। किसी के चरण नहीं गहने हैं। कोई परमात्मा नहीं है, जिसके चरणों में चले जाना है। अपने में ही डूब जाना है। लड़ना नहीं है, अपने बोध में समाहित हो जाना है।
‘जिसने अर्हत के पद को पा लिया, वह सदा भयरहित है,’ बुद्ध ने कहा, ‘जो वीततृष्णा और निष्कलुष है, जिसने संसार के शल्यों को काट दिया, यह उसकी अंतिम देह है।’
मार को उन्होंने कहा: सुन पागल! यह राहुल की अंतिम देह है। अब तू इसे डरा न सकेगा। यह तो आखिरी घड़ी आ गयी इसकी। इसके बाद इसकी दुबारा देह होने वाली नहीं है। यह फिर नहीं जन्मेगा। अब तू इसे मौत से न डरा सकेगा।
मौत कब तक डरा सकती है? मौत तभी तक डरा सकती है, जब तक जीवन का आकर्षण है। खयाल कर लेना। जब तक तुम चाहते हो: जीवन बना रहे, बना रहे, सदा बना रहे; जीवेषणा जब तक है, तब तक मौत डरा सकती है।
बुद्ध कहते हैं: इसकी तो जीवेषणा ही चली गयी; यह तो अब दुबारा पैदा होना ही नहीं चाहता; इसके भीतर चाह ही न बची अब बचने की; इसकी भवतृष्णा समाप्त हो गयी है। यह इसकी अंतिम देह है। इस बार इसकी देह गिरेगी, तो दुबारा यह किसी गर्भ में नहीं उतरेगा। यह महाशून्य में प्रवेश करने के लिए तैयार खड़ा है। इसको अब तू डरा न सकेगा। काम से तू डरा नहीं सकता; भय से भी तू डरा नहीं सकता। तेरी चेष्टा व्यर्थ है मार!
तृतीय दृश्य:
भगवान सर्वप्रथम ऋषिपत्तन मृगदाय में--जिसे अब सारनाथ कहते हैं-- पंचवर्गीय भिक्षुओं को उपदेश देने के लिए उरुवेला से काशी की ओर आ रहे थे। मार्ग में उन्हें एक आजीवक मिला। वह तथागत को देखकर बोला: आवुस! तेरी इंद्रियां परिशुद्ध और विमल हैं; तुम किसे उद्देश्य कर प्रव्रजित हुए हो? कौन तुम्हारे शास्ता, कौन तुम्हारे गुरु? या तुम किसके धर्म को मानते हो? ऐसा पूछा। तब शास्ता ने कहा: मेरे आचार्य या उपाध्याय नहीं हैं। मेरा कोई धर्म नहीं है। मेरे जीवन में कोई उद्देश्य नहीं है। तब उन्होंने यह गाथा कही:
सब्बाभिभू सब्बविदूहमस्मि सब्बेसु धम्मेसु अनूपलित्तो।
सब्बञ्जहो तण्हक्खये विमुत्तो सयं अभिञ्ञाय कमुद्दिसेय्यं।।
‘मैं सभी को परास्त करने वाला हूं। मैं सब जानता हूं। मैं सभी धर्मों--तृष्णा इत्यादि--से अलिप्त हूं। सर्वत्यागी हूं। तृष्णा के नाश से मुक्त हूं। स्वयं ही विमल ज्ञान को जानकर किसको गुरु कहूं, किसको शिष्य सिखाऊं!’
यह बड़ा अपूर्व वचन है। पहले तो दृश्य को ठीक से समझ लें।
बुद्ध ने परम ज्ञान के पहले छह वर्ष तक महा तपश्चर्या की। बहुत गुरुओं के पास गए। बहुत गुरुओं की सेवा में रहे। जो-जो कहा गया, वही किया। जिसने जो साधना बतायी, वही साधी। और हर साधना के बाद पाया: संसार समाप्त नहीं हुआ। हर साधना के बाद पाया कि मूल रोग मिटा नहीं; अहंकार शेष है।
हर गुरु से उन्होंने कहा: अहंकार मिटा नहीं। आपने जो कहा, सब मैंने किया! और उन्होंने किया इतनी निष्ठा से था कि कोई गुरु यह नहीं कह सका कि तुमने ठीक से नहीं किया, इसलिए अहंकार नहीं मिटा। उनकी निष्ठा अपूर्व थी। उन्होंने जो किया, समग्र भाव से किया। इसलिए कोई गुरु यह न कह सका।
नहीं तो गुरु को एक सुविधा रहती है: कि हम क्या करें! जो कहा, वह तुमने किया नहीं, इसलिए हुआ नहीं। बुद्ध से यह बात कही नहीं जा सकती थी। इसी बात के कारण दुनिया में झूठे गुरु भी चल जाते हैं। यह बात बड़ी तरकीब की है।
किसी ने तुमसे कहा कि देखो, ध्यान करो। लेकिन मंत्र पढ़ते वक्त बंदर का स्मरण मत करना। अब तुम बैठे ध्यान करने। बंदर का स्मरण आने वाला है। अब तुम लाख उपाय करो, जितने तुम उपाय करोगे, उतना ही बंदर का स्मरण आएगा। और तुम गुरु से जाकर कहोगे: क्या करूं, कुछ हो नहीं रहा है! वह कहेगा: मैं भी क्या करूं। शर्त पूरी नहीं कर रहे हो। वह बंदर का स्मरण नहीं आना चाहिए।
ऐसी अस्वाभाविक शर्तें बांध रखी हैं, जिनके कारण तुम कभी इस स्थिति में नहीं पहुंच सकते कि समझ लो कि जो मार्ग तुमने पकड़ा, वह ठीक है या गलत है! क्योंकि कभी तुम मार्ग को पूरा ही नहीं कर पाते, तो ठीक-गलत का निर्णय कैसे हो? इसलिए झूठे गुरु भी चल जाते हैं। मिथ्या गुरु भी चल जाते हैं। सदा उनके लिए एक सुविधा है, सुरक्षा है--कि मैंने जो कहा, वह तुमने किया नहीं। करने को वे इस तरह की बातें कहते हैं, जो कि अमानवीय हैं। जो कि शायद की नहीं जा सकतीं। या जिन्हें करने के लिए कोई महा संकल्पवान व्यक्ति चाहिए।
बुद्ध वैसे ही व्यक्ति थे। सब दांव पर लगाया था। ऐसे कुनकुने आदमी नहीं थे कि चलो, मिल जाए ईश्वर तो ठीक है! जीवन जाए, तो ठीक, मगर ईश्वर को मिलना! सत्य को मिलना! सब खो जाए, उसके लिए राजी थे। जुआरी थे। क्षत्रिय थे। दांव पर लगाना जानते थे। कोई दुकानदार नहीं थे। कुछ ऐसा थोड़ा-बहुत करने से, घंटी बजाने से, राम-राम जपने से मिल जाएगा--ऐसी उनको आस्था भी नहीं थी।
तो जिस गुरु ने जो कहा, बिलकुल मूढ़तापूर्ण बातें कहीं, वे भी उन्होंने कीं। किसी ने कहा कि रोज-रोज भोजन कम करते जाओ, रोज भोजन कम करते जाओ, जब एक चावल का दाना ही भोजन बचे, तब ज्ञान होगा। ऐसे वे कम करते गए। छह महीने में एक चावल का दाना ही भोजन बचा। ज्ञान तो नहीं हुआ, शरीर नष्ट हो गया!
निरंजना नदी को पार करते थे, पार न कर सके। छोटी सी नदी। कोई बड़ी नदी नहीं। थककर गिर गए। एक जड़ को पकड़कर रुके रहे। जड़ को भी पकड़ने की ताकत न थी! तब स्मरण आया कि यह मैं क्या कर रहा हूं! इस तरह शरीर को नष्ट करके, सिर्फ शक्ति खो गयी। नदी पार कर नहीं सकता, भवसागर पार करने का इरादा रख रहा हूं!
बुद्ध बहुत गुरुओं के पास गए, लेकिन जहां गए, जो कहा, वही किया। फिर भी कुछ सफल न हुआ। गुरुओं ने उनसे क्षमा मांग ली। उनकी इस घटना को पढ़कर मुझे हमेशा खलिल जिब्रान की एक कहानी याद आती है।
एक आदमी गांव-गांव घूमता था। वह कहता था: जिसको ईश्वर से मिलना हो, मेरे साथ आओ। मुझे पता है। मैं ईश्वर तक पहुंचा दूंगा। कहां पहाड़ों में रहता है, मुझे मालूम है।
मगर किसी को पहली तो बात ईश्वर से मिलना ही नहीं। लोग कहते कि जब मिलना होगा, जरूर आपके पास आएंगे। लोग उनको दान भी देते, उनकी पूजा भी करते, उनको भोजन भी करवाते। और कहते: महाराज! अब आप जाओ।
ईश्वर से किसको मिलना है? लोग कहते: अभी जिंदगी में और हजार काम हैं। आखिर में जब मिलने की इच्छा आएगी, जरूर आपके पास आएंगे।
ऐसे धंधा चलता था। न कोई मिलना चाहता था, न कोई मिलने की झंझट आती थी। मगर एक गांव में एक आदमी झंझटी मिल गया। उसने कहा: अच्छा गुरुदेव! हम चलते हैं; चलो!
गुरु ने सोचा कि कुछ भटकाएंगे जंगलों में। कुछ दिन में अपने आप थक जाएगा। मगर वह भी एक था। वह महागुरु था। वह थके ही नहीं! वह तो रोज सुबह उठकर कहे कि गुरुदेव! कितनी देर और लगेगी? अब कहां तक और चलना है? उसने गुरु को थका मारा।
छह साल पहाड़ों में घूमते रहे। गुरु को मार ही डाला उसने। गुरु को भी पता हो तो कहीं पहुंचा दे। पहुंचाए कहां? चक्कर काटते रहे पहाड़ों में कि भई, अब आता, अब आता!
एक दिन गुरु ने कहा, यह तो हद्द हो गयी! मेरी जिंदगी खराब कर देगा। अपनी तो कर ही रहा है, यह मेरी भी जिंदगी खराब कर देगा! उसने उसके हाथ जोड़े और कहा: महाराज! मुझे रास्ता पता था; मगर जब से तुम्हारा सत्संग हुआ, सब भूल गया। अब यह परमात्मा का मुझे भी मिलना नहीं हो रहा है। अब तुम मुझे बख्शो। मेरे सत्संग में तुम तो नहीं पहुंच सकते, तुम्हारे सत्संग में मैं भटक गया! अब आप क्षमा करो। अब आप किसी और गुरु का पीछा पकड़ो।
ऐसे ही बुद्ध थे। जिसने जो कहा, पूरा किया। हर गुरु ने कहा कि अब आप और कहीं जाएं किसी और को...। क्योंकि इनको देखकर दूसरे शिष्य भागने लगें न! कि भई, इतनी मेहनत करके जब इस आदमी को नहीं मिला, तो हम तो इतनी मेहनत कर भी नहीं सकते। हमको तो कैसे मिलने वाला है?
अंततः बुद्ध ने सारे गुरु छोड़ दिए। अंततः बुद्ध ने सारे पथ और सारे मार्ग छोड़ दिए। सारी विधियां छोड़ दीं। जब उन्होंने सब छोड़ दिया--तब मिला। अपूर्व घटना घटी।
एक रात उन्होंने निर्णय ही कर लिया कि अब मुझे खोजना ही नहीं है। खोज की वासना भी छोड़ दी। सत्य को पाने की वासना भी तो वासना ही है, वह भी छूट गयी। उस रात सो गए वृक्ष के तले। कोई चिंता नहीं। कहीं जाना नहीं। कुछ पाना नहीं--न धन, न ध्यान; न पद, न परमात्मा--कुछ पाना ही नहीं।
चित्त एकदम विलुप्त हो गया। क्योंकि चित्त जीता है पाने की आकांक्षा से। चित्त का प्राण ही पाने में है। कुछ पा लूं, कुछ मिल जाए। महत्वाकांक्षा चित्त की आत्मा है।
उस क्षण कोई महत्वाकांक्षा न थी। उस सुबह जब बुद्ध की आंखें खुलीं, आखिरी तारा डूबता था रात का, और उसके डूबते-डूबते ही उनका भीतर का तारा ऊग आया। हो गया। मगर यह स्वयं से हुआ।
ये जो पंचवर्गीय भिक्षु हैं, ये पांच भिक्षु बुद्ध के शिष्य थे। जब बुद्ध एक-एक चावल भोजन करते थे, तब ये पांच भिक्षु उनके शिष्य थे। वे बुद्ध को बड़ा गुरु मानते थे। क्योंकि इतना महातपस्वी! हड्डियां मात्र रह गयी थीं शरीर में। चमड़ी सूख गयी थी। सुंदर देह एकदम काली पड़ गयी थी। अस्थि-पंजर रह गए थे। तब वे पांच भिक्षु उनको गुरु मानते थे। हालांकि उनको कुछ मिला नहीं था, मगर उनका त्याग उनको प्रभावित करता था।
दुनिया में बड़े अजीब लोग हैं! उनको कौन सी चीज प्रभावित करती है, यह भी बड़ी सोचने जैसी बात है! यह आदमी मरा जा रहा है। यह आत्महत्या में संलग्न है। और वे प्रभावित हो रहे हैं! दुनिया में बड़े दुष्ट लोग हैं।
तुम खयाल रखना: जब तुम उपवास करो और कोई तुम्हारी आकर प्रशंसा करे, समझ लेना कि यह आदमी क्या चाहता है! यह तुम्हें भूखा मरवाना चाहता है। तुम सिर के बल खड़े हो जाओ, और यह आदमी कहे: वाह! आप बड़े महातपस्वी हैं। इससे सावधान रहना। यह तुम्हारी जिंदगी खराब कर देगा। यह चाहता है: तुम सिर के बल खड़े रहो!
दुनिया में लोग दूसरों को दुखी देख-देख कर मजा लेते हैं। इसलिए मुनियों, साधुओं और तपस्वियों के पास दुष्ट प्रकृति के लोग इकट्ठे हो जाते हैं। वे कहते हैं: महाराज! गजब कर रहे हैं! कांटों पर लेटे हैं! भीड़ लगा लेते हैं। धूप में खड़े हैं! भयंकर गर्मी पड़ रही है, और गुरुदेव! आप धूनी रमाए बैठे हैं! आग जलाकर ताप रहे हैं! गजब!
ये जो लोग हैं, इनके लिए मनोविज्ञान में एक खास शब्द है: मेसोचिस्ट। ये परदुखवादी हैं। यह दूसरा सता रहा है अपने को, इसमें इनको मजा आता है! ये वैसे ही लोग हैं, जैसे कोई आदमी अपने शरीर में घाव कर ले और छुरी से घाव को कुरेदता रहे, और ये कहें: वाह! आप बड़ी महासाधना कर रहे हैं! आपका जुलूस निकालेंगे, शोभा-यात्रा निकालेंगे।
पर्युषण में आपने दस दिन व्रत किए, उपवास किए, शोभा-यात्रा निकालेंगे। भूखे रहे आप महीने भर, बड़ा उपवास किया--आप महातपस्वी हैं!
तुम दुख दो अपने को, और दूसरे लोग तुम्हें आदर देते हैं। जरूर इसमें कुछ राज है। जब वे तुम्हें आदर देते हैं, तो तुम अपने को और दुख देने को राजी हो जाते हो, क्योंकि अहंकार की तृप्ति होती है। और उनकी भी जरूर कोई तृप्ति हो रही है।
लोग जासूसी किताबें पढ़ते हैं। क्यों? लोग जाकर हत्याओं की फिल्म देखते हैं; डकैतियों की फिल्म देखते हैं; क्यों? तुमने कभी पूछा?
रास्ते पर दो आदमी लड़ रहे हों, तत्काल भीड़ खड़ी हो जाती है। तुम, तुम्हारी मां बीमार है, दवा लेने जा रहे थे। साइकिल टिकाकर किनारे, तुम भी खड़े हो गए--कि अब मां समझे...। मां की दवा में क्या है! घंटे दो घंटे की देर भी हो गयी--चलेगा। मगर यह तमाशा छोड़ा नहीं जा सकता।
और दो आदमी बिलकुल लड़ने-मारने को तैयार हैं। तुम्हारी भी उत्सुकता बढ़ती जाती है कि अब कुछ होता ही है! अब कुछ होने ही वाला है! और अगर संयोग से कुछ न हो, तो तुम बड़े उदास लौटते हो।
तुमने खयाल किया? कुछ न हो। वे दोनों आदमी कहें: अच्छा भाई, क्या फायदा लड़ने-झगड़ने से! एकदम गांधीवादी हो जाएं। कहें कि चलो, महात्मा गांधी की जय! क्या फायदा! हम तुमको मारें, तुम हमको मारो! कोई सार नहीं। तो जितनी भीड़ खड़ी है, वह उदास लौटेगी--कि कुछ भी नहीं हुआ! घंटाभर खराब हुआ। गाली-गलौज काफी बकी गयी!
लोग दूसरे के दुख में एक तरह का रस लेते हैं। और दूसरे के सुख से पीड़ित होते हैं।
तुमने देखा: तुम बड़ा मकान बनाओ; पूरा गांव तुम्हारे खिलाफ हो जाता है। तुम सुखी दिखायी पड़ो; किसी को सुख नहीं होता। तुम स्वस्थ हो, किसी को अच्छा नहीं लगता। तुम खाते-पीते, मजे से जी रहे हो; तुम्हारे घर संगीत होता है, नाच होता है; सारा गांव तुम्हारा दुश्मन हो जाता है--कि अरे! भोगी है, भ्रष्ट है। नर्क जाएगा।
और तुम भूखे मरो, धूप में बैठ जाओ, घाव बना लो--सारे गांव की दया और सहानुभूति तुम्हारे लिए है! तुम्हारे घर में आग लग जाए, तो लोग सहानुभूति प्रगट करने आते हैं। वे कहते हैं: बड़ा बुरा हो गया! और तुम्हारा घर बड़ा हो जाए, और एक नयी मंजिल बन जाए; कोई नहीं आता कहने कि बड़ा अच्छा हो गया।
जरा सोचना। जब अच्छा होता है, तब कोई कहने नहीं आता कि अच्छा हो गया। और जब बुरा होता है, तब लोग कहने आते हैं कि भई बहुत बुरा हो गया। मगर जब वे कहते हैं कि बहुत बुरा हो गया, तब उनकी आंखों में झांकना। तुम पाओगे: वे रस ले रहे हैं। सहानुभूति में मजा आ रहा है। तुम आज नीची हालत में हो। आज तुम पर दया करने का मौका मिला। यह मौका कभी मिला नहीं था। तुम कभी बुरी हालत में थे ही नहीं। आज तुम चारों खाने चित्त पड़े हो! आज कोई भी दया कर सकता है। राह चलता राहगीर कह सकता है: भाई, बहुत बुरा हुआ! लेकिन उसके भीतर देखो: कुछ मजा ले रहा है।
मनुष्य का मन बड़ा जटिल है।
ये पांच भिक्षु बुद्ध की सेवा में रत रहे। लेकिन जब बुद्ध ने सब उपवास छोड़ िदया, तप छोड़ दिया, इन्होंने बुद्ध को छोड़ दिया। इन्होंने कहा: यह भ्रष्ट हो गया। गौतम भ्रष्ट हो गया! अब यह काम का नहीं रहा। यह पतित हो गया।
जब तक यह गौतम अपने को सता रहा था, महातपस्वी था। जिस दिन बुद्ध ने यह सब व्यर्थ मूढ़ता छोड़ दी, यह आत्महिंसा छोड़ दी, यह आत्मघात छोड़ दिया, उसी दिन पांचों भिक्षुओं ने उनको छोड़ दिया! उन्होंने कहा: अब हमारे काम के न रहे। अब हम कोई दूसरा गुरु खोजेंगे। वे उन्हें छोड़कर चले गए। उसी रात बुद्ध को ज्ञान हुआ। जिस सांझ को पांच भिक्षु छोड़कर चले गए, उस रात बुद्ध को ज्ञान हुआ।
दूसरे दिन सुबह बुद्ध को पहली याद यही आयी कि वे बेचारे पांच! इतने दिन मेरे साथ रहे, और आखिरी घड़ी छोड़कर चले गए। अब, जब कि मेरे पास देने को कुछ था, लेने वाले नहीं हैं। और जब मेरे पास देने को कुछ भी नहीं था, मैं खुद ही मूढ़ता और अंधकार से भरा था, तब वे मेरे पीछे लगे रहे! ऐसी उलटी दुनिया है।
इसलिए बुद्ध उनकी खोज करते हुए निकले कि वे जहां भी गए हों, जाकर पहला संदेश उनको दिया जाए। यद्यपि वे मुझे त्याग गए हैं। यद्यपि उन्होंने मान लिया कि मैं भ्रष्ट हो गया। लेकिन मेरे साथ बहुत दिन रहे। इतना कर्तव्य मेरा है कि पहला संदेश उन्हीं को दूं। इसलिए बुद्ध ने पहला प्रवचन उन्हीं पांच भिक्षुओं को दिया।
उनका पीछा करते बुद्ध सारनाथ तक आए। जहां-जहां पता चला कि वे दूसरे गांव चले गए, बुद्ध वहां गए। सारनाथ जाकर उन्होंने देखा एक वृक्ष के नीचे पांचों भिक्षुओं को बैठे हुए।
उन पांचों भिक्षुओं ने देखा बुद्ध को आते हुए। वे बोले कि यह भ्रष्ट गौतम आ रहा है! हम इसको नमस्कार न करें। यह नमस्कार के योग्य भी नहीं है। यह बिलकुल पतित हो गया है। तो वे पीठ करके बैठ गए।
बुद्ध जब उनके पास गए, जब पास जाकर खड़े हो गए, और बुद्ध ने कहा: एक बार मेरी तरफ तो देखो। जिसे तुम छोड़ आए थे, मैं वही नहीं हूं। आज जो आया है, कोई और है। एक बार मेरी तरफ देखो।
और उन्होंने पांचों ने आंख उठाकर बुद्ध की तरफ देखा। पहले एक उनके चरणों में गिरा; फिर दूसरा; फिर पांचों उनके चरणों में गिरे। क्षमा मांगने लगे कि हमें क्षमा कर दें। हमने तो सोचा कि भ्रष्ट गौतम आ रहा है। लेकिन हम देख सकते हैं कि सब रूपांतरित हो गया है। ज्योति का उदय हुआ है। तुम प्रकाशित हो गए। कैसे प्रकाशित हो गए? हमें राह बताओ।
बुद्ध ने कहा: इसीलिए आया हूं।
यह घटना सारनाथ जाते हुए रास्ते पर घटी।
भगवान सर्वप्रथम ऋषिपत्तन मृगदाय में पंचवर्गीय भिक्षुओं को उपदेश देने के लिए उरुवेला से काशी की ओर आ रहे थे। मार्ग में उन्हें एक उपक आजीवक मिला।
आजीवक एक संप्रदाय था उस समय का, जो अब विनष्ट हो गया है। बुद्ध और जैन दोनों संप्रदाय आजीवक संप्रदाय से बहुत मिलते-जुलते हैं। उसी की छायाएं हैं इन पर। उसी के प्रतिबिंब हैं। उसी की ध्वनियां हैं।
आजीवक संप्रदाय का एक भिक्षु मिला। उसने बुद्ध को देखा; वह चकित हो गया। ऐसा आदमी कभी नहीं देखा था। ऐसा ज्योतिर्मय, ऐसी शुद्ध इंद्रियां, ऐसी निर्मल आंखें, ऐसी निर्मल छाया, ऐसा चारों तरफ शांति का वातावरण!
उसने कहा: आवुस! तेरी इंद्रियां परिशुद्ध और बड़ी विमल हैं। तुम किस उद्देश्य से संन्यस्त हुए थे? अपना उद्देश्य मुझे भी बताओ। मैं भी खोज रहा हूं। कौन तुम्हारे गुरु? कौन तुम्हारे शास्ता? मैं भी खोज रहा हूं। मुझे अब तक ठीक गुरु नहीं मिला। ठीक मार्ग नहीं मिला। और तुम किसके धर्म को मानते हो? कौन से धर्म में तुम्हारी श्रद्धा है? किस शास्त्र पर तुम्हारा भरोसा है? तुम किन विधियों के अनुयायी हो?
तब शास्ता ने उससे कहा: मेरे आचार्य या उपाध्याय नहीं हैं। मैं किसी धर्म को नहीं मानता। मेरी किसी शास्त्र में श्रद्धा नहीं है। मैंने जो पाया है, अपने से पाया है।
यह बुद्ध का परम संदेश है। क्योंकि जो मिलना है, वह तुम्हारे भीतर पड़ा है। कोई दूसरा थोड़े ही देने वाला है। हस्तांतरण नहीं होता सत्य का। तुम्हारे भीतर पड़ा है। गुरु अगर कुछ करता है, तो इतना ही कि तुम्हारे भीतर जो पड़ा है, उसको ही पुकारता है। उसे तुम स्वयं भी पुकार सकते हो।
गुरु अनिवार्य नहीं है बुद्ध के मार्ग पर। तुम स्वयं न पुकार सको, तो उसकी जरूरत है। तुम स्वयं अपने को असमर्थ पाओ, तो उसकी जरूरत है। अन्यथा तुम स्वयं भी पुकार सकते हो। क्योंकि खदान तुम्हारे भीतर है। तुम स्वयं भी खोज सकते हो। गुरु तुम्हें धन देगा नहीं, सिर्फ इतना ही कह देगा कि इस तरह मैंने अपने भीतर खोदा, इसी तरह तुम भी अपने भीतर खोद लो।
मगर जो है, तुम्हारे भीतर है। जो है, तुम्हारे स्वभाव में छिपा है। जो है, उसे तुम लेकर ही आए हो, वह तुम्हारा जन्मसिद्ध, स्वभावसिद्ध अधिकार है।
इसलिए बुद्ध ने कहा कि मेरा कोई गुरु नहीं है। मैंने गुरुओं के द्वारा नहीं पाया। मेरा कोई आचार्य नहीं, मेरा कोई उपाध्याय नहीं। ऐसा नहीं कि मैं गुरुओं के पास नहीं रहा। रहा, लेकिन वहां मुझे कुछ मिला नहीं। और जब मिला, तब मैं किसी गुरु के पास नहीं था।
और जो मैंने पाया है, वह कुछ ऐसा है कि अब मैं तुमसे कह सकता हूं कि उसे किसी और के पास लेने जाने की जरूरत नहीं है। अपने भीतर ही चले जाओ, तो मिल जाए। शास्त्रों में नहीं है, स्वयं में है। शब्दों और सिद्धांतों में नहीं है, तुम्हारी चेतना में बसा है। तुम मंदिर हो, परमात्मा तुम्हारे भीतर बैठा है।
‘मैं सभी को परास्त करने वाला हूं।’
बुद्ध ने कहा, मेरे जितने शत्रु थे, वे सब गए।
‘मैं सब जानता हूं।’
जो जानने योग्य है, वह मुझे दिखायी पड़ गया है।
‘मैं सभी धर्मों--तृष्णा इत्यादि--से मुक्त हो गया हूं। अलिप्त हो गया हूं। सर्व त्यागी हूं।’
सर्वत्यागी का अर्थ होता है, मैंने त्याग को भी त्याग दिया है। मैं सब धर्मों से मुक्त हो गया हूं। मैंने जगत की तृष्णा तो छोड़ ही दी है; मोक्ष की तृष्णा भी छोड़ दी है। मेरा कोई उद्देश्य ही नहीं है। मैं अब बिलकुल निरुद्देश्य हूं, जैसे फूल खिलता है निरुद्देश्य। जैसे सुबह सूरज निकलता है निरुद्देश्य, ऐसा मैं निरुद्देश्य हूं। मेरा कोई लक्ष्य नहीं है। सब लक्ष्य गए। सब उद्देश्य गए। सब भविष्य गया। मेरी कोई वासना नहीं है--मोक्ष की भी नहीं है।
‘मैं तृष्णा के नाश से मुक्त हूं।’
यह बड़ा अजीब वचन है। बुद्ध यह नहीं कहते कि मैं तृष्णा से मुक्त हूं। बुद्ध कहते हैं, मैं तृष्णा से तो मुक्त हूं ही; मैं तृष्णा के नाश से भी मुक्त हूं। तृष्णा तो गयी ही, अतृष्णा भी गयी।
नहीं तो उलटा हो जाता है। संसार पकड़े थे पहले; फिर संसार तो छोड़ दिया, फिर संन्यास पकड़ लिया। मगर पकड़ कायम रही! धन पकड़े थे पहले। धन तो छोड़ दिया, अब निर्धनता पकड़ ली! मगर पकड़ जारी रही।
बुद्ध कहते हैं: परम त्याग तो तब है, जब त्याग भी छूट जाए। परम संन्यास तो तब है, जब संसार तो छूटे ही छूटे, संन्यास से भी मुक्ति हो जाए। नहीं तो वह भी पकड़ बन जाएगा। तो कुछ फायदा न हुआ। मुट्ठी पूरी खुल जानी चाहिए।
‘मैं तृष्णा से मुक्त, तृष्णा के नाश से मुक्त हूं। मैं स्वयं ही विमल ज्ञान को जानकर जागा। मैं किसको गुरु कहूं?’
और इतना ही नहीं वे कहते कि मैं किसको गुरु कहूं। वे कहते हैं, ‘मैं किसको शिष्य सिखाऊं?’
न मैंने किसी से पाया! मैंने अपने भीतर पाया। तो जो मेरे पास आएंगे, वे भी अपने भीतर ही पाएंगे। शिष्य कहने से क्या सार है!
इसलिए बुद्ध ने कहा: मैं मित्र हूं। न तो गुरु तुम्हारा; न तुम मेरे शिष्य। मैं मित्र हूं। और बुद्ध ने कहा कि मेरा जो भविष्य में पुनः आगमन होगा, मेरा नाम होगा--मैत्रेय। तब मैं परिपूर्ण मित्र रूप में प्रगट होऊंगा।
अंतिम दृश्य:
एक बार देवताओं में यह प्रश्न उठा कि दानों में कौन दान श्रेष्ठ है? रसों में कौन रस श्रेष्ठ है? रतियों में कौन रति श्रेष्ठ है? और तृष्णा-क्षय को क्यों सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है?
कोई भी इन प्रश्नों का उत्तर न दे सका। देवताओं ने सबसे पूछने के बाद इंद्र से पूछा। वह भी इसका उत्तर न दे सका। तब इंद्र सहित सभी देवताओं ने जेतवन में जाकर भगवान के पास आ इन प्रश्नों को पूछा।
भगवान ने कहा: धर्म के अनुभव में सब प्रश्नों के उत्तर हैं। फिर प्रश्न बहुत नहीं हैं, एक ही है। सोचने मात्र से समाधान नहीं होगा। जागो। जागने में समाधान है। धर्म के अनुभव में समाधान है। सब व्याधियों के लिए एक ही औषधि है--धर्म। तब उन्होंने यह सूत्र कहा।
सब्बदानं धम्मदानं जिनाति सब्बं रसं धम्मरसो जिनाति।
सब्बं रति धम्मरती जिनाति तण्हक्खयो सब्बदुक्खं जिनाति।।
‘धर्म का दान सब दानों में बढ़कर है। धर्म-रस सब रसों में प्रबल है। धर्म में रति सब रतियों में बढ़कर है। और तृष्णा का विनाश सारे दुखों को जीत लेता है और धर्म की उपलब्धि उससे होती है, इसलिए वह सर्वश्रेष्ठ है।’
पहले इस दृश्य को हृदयंगम कर लें।
एक बार देवताओं में प्रश्न उठा...। देवताओं के पास कुछ और काम है भी नहीं। व्यर्थ की बकवास! देवता करेंगे भी क्या? काम तो वहां कुछ बचता नहीं! काम तो समाप्त हो गया। कल्पवृक्षों के नीचे बैठकर सभी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं!
देवता सुख ही सुख में जीते हैं। जीवन का बाहर का व्यवसाय तो बंद हो जाता है। जब बाहर का व्यवसाय बंद हो जाता है, तो चित्त के सब व्यवसाय शुरू हो जाते हैं। तब बड़ा सोच-विचार उठता है। बड़े विवाद उठते हैं।
खयाल करना, दर्शनशास्त्र तभी पैदा होता है, जब पेट ठीक से भरा हो। भूखे भजन न होईं गोपाला। भूखे भजन हो भी नहीं सकता।
जीवन की सीढ़ियां हैं। शरीर की जरूरतें पूरी हो जाएं, तो मन की जरूरतें पैदा होती हैं। शरीर की जरूरतें अधूरी रहें, तो मन की जरूरतें कभी पैदा नहीं होतीं।
अब कोई भूखा मर रहा है, उसको तुम कहो कि यह बीथोवन का संगीत सुनो। वह तुम्हारा सिर फोड़ देगा। वह कहेगा: मैं भूखा मर रहा हूं। बीथोवन का संगीत! आप कह क्या रहे हैं? आप मेरा अपमान कर रहे हैं!
और भूखे पेट में बीथोवन का संगीत जाएगा कैसे! भूखा संगीत सुन कैसे सकता है?
कोई भूखा मर रहा है, और तुम कहते हो, पढ़ो कालिदास की कविताएं! इनसे बड़ा आनंद आएगा! वह कहता है: कुछ रोटी मिल जाए! कालिदास आप पढ़ो; रोटी मुझे दे दो!
एक सीढ़ी है। शरीर की जरूरत पूरी हो, तो मन की जरूरत। मन की जरूरत में काव्य है, संगीत है, कला है। फिर मन की जरूरतें पूरी हो जाएं, तो आत्मा की जरूरतें पैदा होती हैं।
जिसने अभी संगीत नहीं सुना, और जिसने काव्य का रसास्वादन नहीं किया, वह धर्म के जगत में प्रवेश न कर सकेगा। और जिसने अभी दर्शन-शास्त्र के ऊहापोह में उलझन नहीं ली, नहीं डोला, वह भी धर्म में प्रवेश नहीं कर सकेगा।
धर्म आखिरी जरूरत है। धर्म अंतिम है। वह आत्मा की जरूरत है। इसलिए जब कोई देश समृद्ध होता है, तो वह धार्मिक होता है। जब कोई देश गरीब हो जाता है, अधार्मिक हो जाता है।
इसलिए भारत जैसे देश की अभी धार्मिक होने की संभावना नहीं है। अभी भारत के कम्युनिस्ट होने की संभावना है, धार्मिक होने की संभावना नहीं है।
इसलिए लोग हैरान भी होते हैं। पश्चिम से लोग आ रहे हैं पूरब में, तलाश करते धर्म की। और पूरब के लोग हैरान होते हैं कि यह मामला क्या है! पूरब के लोग पश्चिम जा रहे हैं! कैसे अच्छी इंजीनियरिंगआ जाए; कैसे अच्छे डाक्टर हो जाएं। कैसे टेक्नोलाजी, कैसे विज्ञान, इसके लिए पश्चिम जा रहे हैं।
पूरब के सोच-विचारशील लोग पश्चिम की तरफ भाग रहे हैं कि एक डिग्री पश्चिम से और ले आएं। और पश्चिम से लोग डिग्रियां इत्यादि फेंककर, कूड़े-कर्कट में डालकर...।
यहां मेरे संन्यासियों में कम से कम बीस पीएच.डी. हैं! तुम एक को भी न पहचान पाओगे कि यह आदमी पीएच.डी. है। यहां कम से कम पचास एम.ए. हैं। तुम एक को भी न पहचान पाओगे। और ऐसा तो बहुत कम है कि ग्रेज्युएट कोई न हो। मगर तुम एक को न पहचान पाओगे। सब कचरे में डालकर चले आए हैं। दो कौड़ी की हो गयीं बातें।
यहां कोई पीएच.डी. हो जाता है, तो अखबारों में खबर छपती है। जुलूस निकाला जाता है! मैंने सुना है, इलाहाबाद में जब पहला आदमी मेट्रिक हुआ था, तो हाथी पर बैठकर जुलूस निकाला था!
यहां कोई आदमी पश्चिम पढ़ने जाता है, तो अखबारों में खबर निकलती है। जैसे कोई भारी घटना घट रही है कि वे पश्चिम पढ़ने जा रहे हैं! पश्चिम पूरब की तरफ आ रहा है, क्योंकि पश्चिम अब संपन्न है; उसने शरीर का सुख जाना। मन के सुख जाने। अब आत्मा की पीड़ा उठनी शुरू हुई है।
इस बात की बहुत संभावना है कि भविष्य में पश्चिम पूरब हो जाए और पूरब पश्चिम हो जाए। इस बात की बहुत संभावना है कि सूरज पश्चिम से उगे और पूरब में डूबे।
देवताओं के पास कुछ और तो काम नहीं, इसलिए अक्सर ऐसी बहुत कहानियां आती हैं बौद्ध शास्त्रों में, जैन शास्त्रों में, हिंदू शास्त्रों में, देवताओं में बड़ा विवाद उठता है छोटी-छोटी बात पर। हालांकि देवता उत्तर किसी बात का भी नहीं पा सकते। क्योंकि सब बुद्धि का खिलवाड़ है। आत्मिक अनुभव नहीं है। स्वर्ग में आत्मिक अनुभव नहीं घटता, नहीं घट सकता।
सुखी आदमी आत्मा का चिंतन शुरू करता है। मगर चिंतन में ही अटका रहता है। सुखी आदमी को चिंतन से आगे जाना पड़े--अनुभव में; साधना में।
एक बार देवताओं में प्रश्न उठा: दानों में कौन दान श्रेष्ठ? रसों में कौन रस श्रेष्ठ? रतियों में कौन रति श्रेष्ठ? और तृष्णाक्षय को क्यों सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है? कोई भी इन प्रश्नों का उत्तर न दे सका।
यह मत समझना कि उत्तर लोगों ने नहीं दिए। उत्तर तो दिए होंगे। हजार उत्तर दिए होंगे। लेकिन कोई भी उत्तर उत्तर नहीं था। तुम यह मत सोचना कि देवता बिलकुल बुद्धू हैं। क्योंकि तुम यह कहानी पढ़ोगे, तुमको लगेगा: अरे! हम ही उत्तर दे सकते हैं! इसमें देवता उत्तर नहीं दे सके! यह तो बात कुछ जंचती नहीं।
तुमसे कोई पूछे: दानों में कौन दान श्रेष्ठ? तुम भी कुछ उत्तर दोगे, सही-गलत की बात और।
उत्तर तो दिए गए होंगे। लेकिन कोई उत्तर समाधानकारक नहीं था। कोई उत्तर ऐसा नहीं था कि उसको सुनते ही चित्त शांत हो जाए; उसको सुनते ही सत्य का अनुभव हो जाए; उसको सुनते ही, श्रवण करते ही चित्त का विकल्प-जाल टूट जाए--और लगे कि हां, यही ठीक है।
कोई ऐसा सत्य नहीं खोजा जा सका, जो स्वयं-सिद्ध मालूम पड़ा हो। तब देवताओं ने इंद्र से पूछा। इंद्र है देवताओं का राजा। सोचा, शायद इंद्र को पता हो। वह भी इसका उत्तर न दे सका।
नहीं कि उसने उत्तर न दिए होंगे। जरूर उत्तर दिए होंगे। उत्तर तो कोई भी देता है। तुम गधे से गधे को पूछो; वह भी उत्तर देगा। तुम जरा किसी से भी पूछो, कोई भी बात पूछो। उसे पता हो कि न हो, मगर वह उत्तर देगा। उत्तर देने का मौका कोई नहीं चूकता। क्योंकि ज्ञानी बनने का मौका मुफ्त में कौन चूके! किसी से भी पूछो, जिन बातों का उन्हें कोई अनुभव नहीं है...।
ऐसा आदमी तुम्हें मुश्किल से मिलेगा, जो कहेगा: मुझे पता नहीं है। ऐसा आदमी मिले, उसके चरण पकड़ लेना। क्योंकि उस आदमी में कुछ सचाई है।
नहीं तो हरेक उत्तर दे रहा है। कुछ भी पूछे जाओ, उत्तर दे रहा है। कुछ पता नहीं, और उत्तर दे रहा है। जिन्होंने खुद कभी जिंदगी में कुछ नहीं किया, वे हरेक को सलाह दे रहे हैं! जो अपनी सलाहों पर कभी नहीं चले--मौका आ जाए, फिर भी नहीं चलेंगे--वे दूसरों को सलाह दे रहे हैं! दूसरों को मार्ग दिखा रहे हैं! यहां अंधे अंधों को मार्ग दिखा रहे हैं! और इसलिए सारे लोग गड्ढों में पड़े हैं--नेता भी और अनुयायी भी।
इंद्र ने भी उत्तर दिया होगा। राजा है देवताओं का। ऐसे स्वीकार तो नहीं कर लिया होगा--कि मुझे पता नहीं। पहले तो अकड़कर बैठा होगा सिंहासन पर। कहा होगा: अच्छा सुनो। सब समझाया होगा। मगर कोई तृप्त नहीं हुआ। मजबूरी में बुद्ध के पास आना पड़ा।
उत्तर तो बुद्धों के पास ही हैं। बुद्धत्व में ही उत्तर है। जागे हुए में ही उत्तर है। जो भीतर ज्योतिर्मय हुआ है, उसी के पास उत्तर है। भगवान ने क्या कहा?
भगवान ने कहा: धर्म के अनुभव में सब प्रश्नों के उत्तर हैं। तुम्हारे प्रश्न अलग-अलग नहीं हैं। तुम पूछते हो, दानों में कौन दान श्रेष्ठ? रसों में कौन रस श्रेष्ठ? रतियों में कौन रति श्रेष्ठ? और तृष्णा-क्षय को सर्वश्रेष्ठ क्यों कहा है? ये कोई अलग-अलग प्रश्न नहीं हैं। एक ही प्रश्न है। और एक ही इनका उत्तर है।
मगर सोचने मात्र से समाधान न कभी हुआ है, न होगा। जानने से समाधान होता है। दर्शन से समाधान होता है। अनुभव से समाधान होता है।
सब व्याधियों की एक ही औषधि है--बुद्ध ने कहा--जागो; मेरे जैसे हो जाओ। जैसे मैं जागा, ऐसे तुम जागो। जागते ही सारे प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा। और क्या उत्तर हैं इन प्रश्नों के?
तो बुद्ध ने कहा: ‘धर्म का दान सब दानों से बढ़कर है।’
धन देने से क्या होगा? धन से तुम्हें ही कुछ नहीं मिला, तो दूसरे को देने से क्या होगा? धन देने का मतलब ही यह है कि तुमने तो पाया कि कचरा है; अब तुम दूसरे पर टाल रहे हो!
धर्म के दान से। धर्म-दान क्या? पहले तो धर्म को पाओगे, तभी तो दान कर सकोगे न! जो तुम्हारे पास नहीं, उसका दान कैसे करोगे? धन हो, तो धन का दान कर सकते हो। धर्म हो, तो धर्म का दान कर सकते हो। धर्म भीतर का धन है। धर्म आत्म-धन है।
पहले धर्म को पा लो, फिर उसे बांटो। फिर जो भी धर्म के लिए प्यासा दिखे, उसमें उंडेल दो। तुम जागो और दूसरों को जगाओ।
‘धर्म का दान सब दानों में श्रेष्ठ। और धर्म-रस सब रसों में प्रबल है।’
संगीत में थोड़ा सा रस है। क्यों? क्योंकि संगीत में भी थोड़ी सी तन्मयता हो जाती है। संभोग में भी थोड़ा रस है, क्योंकि संभोग में भी क्षणभर को तन्मयता हो जाती है। मगर धर्म-रस में सदा को तन्मयता हो जाती है। गए सो गए, फिर कोई लौटता नहीं। डूबे सो डूबे। एकरस हो जाते हो परमात्मा में।
संभोग में, जिससे तुम्हारा प्रेम है, क्षणभर को एकरस होते हो। फिर अलग हो गए। और फिर अलग होने की पीड़ा और भयंकर हो जाती है। संगीत थोड़ी देर को कानों को मीठा लगता है। फिर संगीत चला गया। फिर शोरगुल है जगत का। शराब पी ली; थोड़ी देर को तन्मय हो गए। फिर नशा उखड़ेगा।
धर्म ऐसा नशा है, जो एक दफे हुआ, तो फिर उखड़ता नहीं। पीया सो पीया। और धर्म ऐसा नशा है कि बेहोशी भी लाता है और होश को नष्ट नहीं करता; होश को बढ़ाता है। धर्म अदभुत नशा है; होश और बेहोशी साथ-साथ पैदा होते हैं। एक तरफ मस्ती छा जाती है और एक तरफ परम होश भी होता है।
‘तो धर्म-रस सब रसों में बढ़कर, और धर्म में रति सब रतियों से बढ़कर है।’
प्रेमों में सबसे बड़ा प्रेम है, धर्म से प्रेम। रतियों में सबसे बड़ी रति है, धर्म-रति।
स्त्री के साथ थोड़ी देर खेलो, थोड़ा सुख है। पुरुष के साथ थोड़ी देर खेलो, थोड़ा सुख है--रति-क्रीड़ा। लेकिन परमात्मा के साथ खेल लो--सदा के लिए। धर्म-रति बुद्ध कह रहे हैं उसको। अस्तित्व के साथ संभोगरत हो जाओ; अस्तित्व के साथ एक हो जाओ। फिर कोई अलग न कर सकेगा। क्यों? क्योंकि अस्तित्व के साथ वस्तुतः हम एक ही हैं। हमने अलग मान लिया, वह हमारी भ्रांति है। उसी भ्रांति के कारण दुख है। भ्रांति गिर जाए, फिर सुख ही सुख है।
‘और तृष्णा का विनाश सर्वश्रेष्ठ कहा है, क्योंकि तृष्णा के विनाश से ही धर्म उपलब्ध होता है।’
इसलिए बुद्ध ने कहा: तुम्हारे प्रश्न अलग-अलग नहीं, एक ही प्रश्न है। और मेरा उत्तर भी एक है, एक शब्द में है--धर्म। एस धम्मो सनंतनो।
आज इतना ही।
भिय्यो तण्हा पबड्ढति एसो खो दल्हं करोति बंधनं।।287।।
वितक्कूपसमे च यो रतो असुभं भावयति सदा सतो।
एस खो व्यन्तिकाहिनी एसच्छेच्छति मारबंधनं।।288।।
निट्ठंगतो असंतासी वीततण्हो अनंगणो।
अच्छिन्दि भवसल्लानि अंतिमोयं समुस्सयो।।289।।
वीततण्हो अनादानो निरुत्तिपदकोविदो।
अक्खरानं सन्निपातं जञ्ञा पुब्बापरानि च।
स वे अंतिमसारीरो महापञ्ञो’ति वुच्चति।।290।।
सब्बाभिभू सब्बविदूहमस्मि
सब्बेसु धम्मेसु अनूपलित्तो।
सब्बञ्जहो तण्हक्खये विमुत्तो
सयं अभिञ्ञाय कमुद्दिसेय्यं।।291।।
सब्बदानं धम्मदानं जिनाति
सब्बं रसं धम्मरसो जिनाति।
सब्बं रति धम्मरती जिनाति
तण्हक्खयो सब्बदुक्खं जिनाति।।292।।
प्रथम दृश्य:
भगवान जेतवन में विहरते थे। एक तरुण भिक्षु पर एक स्त्री मोहित होकर उसे गृहस्थ बनाने के लिए नाना प्रकार के प्रलोभन दिए। वह भिक्षु अंततः उसकी बातों में आकर चीवर छोड़कर गृहस्थ हो जाने के लिए तैयार हो गया। भगवान यह सब चुपचाप देखते रहे थे। जब युवक गिरने को ही हो गया, तब उन्होंने उसे पास बुलाया और कहा: स्मृति को सम्हाल! होश को जगा! पागल, ऐसे ही तो पूर्व में भी तू गिरा है और बार-बार पछताया है। अब फिर वही! भूलों से कुछ सीख! स्मृति को सम्हाल! और तब उन्होंने ये दो गाथाएं कहीं:
वितक्कपमथितस्स जंतुनो तिब्बरागस्स सुभानुपस्सिनो।
भिय्यो तण्हा पबड्ढति एसो खो दल्हं करोति बंधनं।।
वितक्कूपसमे च यो रतो असुभं भावयति सदा सतो।
एस खो व्यन्तिकाहिनी एसच्छेच्छति मारबंधनं।।
‘जो मनुष्य संदेह से मथित है, और तीव्र राग से युक्त है, शुभ ही शुभ देखने वाला है, उसकी तृष्णा और भी बढ़ती है। और वह अपने लिए और भी दृढ़ बंधन बनाता है।’
‘जो मनुष्य संदेह के शांत हो जाने में रत है, सदा सचेत रहकर जो अशुभ की भावना करता है, वह मार के बंधन को छिन्न करेगा और तृष्णा का विनाश करेगा।’
इसके पहले कि हम गाथाओं में उतरें, इस परिस्थिति को ठीक से समझ लें। ये परिस्थितियां मनुष्य के मन की ही परिस्थितियां हैं। इन परिस्थितियों में मनुष्य के मन में उठने वाले संदेहों का ही विश्लेषण है।
एक तरुण भिक्षु पर एक स्त्री मोहित हो गयी।
ऐसा अक्सर हो जाता है। जितना दुर्लभ हो व्यक्ति, उतना ही आकर्षक हो जाता है। संन्यस्त व्यक्ति अक्सर आकर्षण का कारण बन जाता है। स्त्रियों के पीछे तुम भागो, तो वे तुमसे बचती हैं। तुम स्त्रियों से भागो, तो वे तुम्हारा पीछा करती हैं! यही बात पुरुष के संबंध में भी सच है। स्त्री अगर पुरुष से भागने लगे, तो पुरुष उसका पीछा करता है। स्त्री अगर पुरुष के पीछे चलने लगे, तो पुरुष उससे भागने लगता है।
मनुष्य का मन बड़े द्वंद्व से भरा है! एक हमेशा पीछा करेगा, और एक हमेशा भागता हुआ रहेगा। ऐसे आकर्षण कायम रहता है। प्रकृति की बड़ी गहन रचना है। जो मिल जाए, उसमें आकर्षण समाप्त हो जाता है। जो न मिले, तो आकर्षण बना रहता है।
स्त्रियों का आकर्षण उसी मात्रा में ज्यादा होगा, जिस मात्रा में उनका पाना कठिन हो। पुरुषों का आकर्षण भी उसी मात्रा में ज्यादा होगा, जिस मात्रा में उन तक पहुंचना करीब-करीब असंभव हो। असंभव से प्रेम कभी मरता नहीं। संभव से प्रेम मर जाता है। क्योंकि जो मिला, उसमें आकर्षण समाप्त हुआ। जो न मिले--न मिले--उसमें ही आकर्षण होता है।
संन्यस्त व्यक्ति अक्सर--सदियों से--स्त्रियों का आकर्षण हो गए हैं।
इस भिक्षु पर--युवा भिक्षु पर--एक स्त्री मोहित हो गयी।
और संन्यासी पर मोहित हो जाने का एक कारण अन्य भी है। संन्यास में एक तरह का सौंदर्य है, जो संसारी में नहीं हो सकता।
संसार को छोड़कर जो हटता है, उसके संसार को छोड़कर हटने में ही वह विशिष्ट हो गया, असाधारण हो गया। जो ध्यान में लगता है, उसके भीतर एक प्रसाद का जन्म होता है।
एक तो सौंदर्य देह का है। एक देह से पार सौंदर्य और भी है--आत्मा का सौंदर्य है। और जिसकी आत्मा का सौंदर्य थोड़ा सा भी खिलने लगे, उसकी देह कुरूप भी हो, तो भी कुरूप मालूम नहीं होगी। जैसे बुझा दीया हो, तो तुम्हें दीया दिखायी पड़ता है। फिर जल गया दीया, ज्योतिर्मय हो गया, तो ज्योति दिखायी पड़ने लगती है। फिर दीए को कौन देखता है! फिर दीया सुंदर है या नहीं, यह बात गौण हो जाती है। दीया सुंदर है या नहीं--तब तक बात बड़ी महत्वपूर्ण रहती है, जब तक दीया बुझा हो। क्योंकि दीया ही है, और तो कुछ है ही नहीं। जैसे ही दीया जला, ज्योति का अवतरण हुआ, अब कौन दीए की चिंता करता है?
ऐसी ही घटना संन्यासी को भी घटती है। संसारी के पास तो देह मात्र है; मिट्टी का दीया है; ज्योति अभी जगी नहीं। संन्यासी की ज्योति जगनी शुरू होती है। उस ज्योति के अवतरण पर दीया गौण हो जाता है। महत्वपूर्ण आ गया, तो स्वभावतः जो गैर-महत्वपूर्ण है, वह गौण हो गया। मालिक आ जाए, तो नौकर गौण हो जाता है। मालिक न हो, तो नौकर ही मालिक जैसा मालूम पड़ता है।
संन्यास में एक आकर्षण और भी है इसीलिए। भीतर का आकर्षण है। संन्यासी एक आंतरिक सौंदर्य से दीप्त हो जाता है, एक आभामंडल उसे घेर लेता है।
और ध्यान रहे, जैसा मैं निरंतर तुमसे कहा हूं: मनुष्य वस्तुतः शाश्वत की खोज में ही प्रेम में पड़ता है। तुम जब किसी स्त्री के प्रेम में पड़ते या किसी पुरुष के प्रेम में पड़ते, तो ऊपर से तो ऐसा ही दिखता है कि इस स्त्री के प्रेम में पड़ रहे, इस पुरुष के प्रेम में पड़ रहे; लेकिन अगर ठीक विश्लेषण करो अपनी मनोदशा का, तो तुम्हें इस स्त्री में कुछ शाश्वत की झलक मिली--इसलिए। इस पुरुष में तुम्हें सनातन का कोई स्वर सुनायी पड़ा--इसलिए। इस स्त्री की आंखों में तुम्हें कुछ बात दिखायी पड़ी, जो आंखों के पार की है। इसके सौंदर्य में भनक मिली तुम्हें परमात्मा की।
तो संसारी में तो बहुत धीमी ध्वनि होती है परमात्मा की; हजार पर्तों में दबी होती है। संन्यासी का अर्थ ही यही है कि जिसने पर्तें उघाड़नी शुरू कर दीं और जिसका संगीत धीरे-धीरे प्रगाढ़ होने लगा। उसके पास जाओगे, तो उसके अंतरतम के संगीत में मोहित हो ही जाओगे।
यह बिलकुल स्वाभाविक है। क्योंकि मनुष्य का प्रेम वस्तुतः परमात्मा के लिए है। जब तुम किसी के देह में भी उलझ जाते हो, तब भी तुम परमात्मा की ही खोज में उलझते हो। इसलिए हर बार देह में उलझकर पछताते हो। क्योंकि जो सोचा था, वह तो मिलता नहीं। और जो मिलता है, वह सोचा नहीं था। सोचा तो था कि विराट मिलेगा; कम से कम विराट का द्वार मिलेगा। लेकिन जो मिलता है, वह दीवार है। जो मिलता है, वह क्षणभंगुर है।
जब तुम फूल के सौंदर्य में अवाक खड़े रह जाते हो, तब यह क्षणभंगुर फूल के सौंदर्य में तुम अवाक नहीं हुए हो। इस क्षणभंगुर में कोई किरण दिखायी पड़ी है, जो क्षणभंगुर नहीं है। इस क्षणभंगुर पर कोई आभा उतरी है, जो अनंत है, शाश्वत है। यह क्षणभंगुर उस शाश्वत आभा से दीप्त हो उठा है, इसलिए क्षणभंगुर में भी आकर्षण है। आभा उड़ जाएगी। सांझ फूल गिर जाएगा झरकर धूल में। फिर तुम इसे प्रेम न करोगे।
जब युवा होते हैं लोग, तब परमात्मा की झलक बड़ी साफ होती है। फिर जैसे-जैसे वृद्ध होने लगते हैं, देह जड़ होने लगती है, देह मरने के करीब आने लगती है, वैसे-वैसे परमात्मा की झलक कम होने लगती है। इसलिए यौवन का आकर्षण है।
संन्यासी का आकर्षण और भी ज्यादा है। क्योंकि संन्यासी सदा युवा है। इसलिए तुमने देखा: हमने बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम की कोई वार्धक्य, वृद्धावस्था की मूर्तियां नहीं बनायीं। उनका कोई चित्र नहीं है हमारे पास।
बूढ़े तो वे जरूर हुए थे। नियम किसी की चिंता नहीं करता। राम भी बूढ़े हुए; कृष्ण भी बूढ़े हुए; बुद्ध और महावीर भी बूढ़े हुए; लेकिन हमने उनके ब़ुढापे के चित्र नहीं बनाए। क्योंकि हमने उनमें पाया कि क्षणभंगुर गौण था; शाश्वत प्रधान था। हमने उनमें एक ऐसा यौवन देखा, जो कभी कुम्हलाता नहीं। हमने उनकी देह की चिंता नहीं की, क्योंकि दीए की कौन फिक्र करता है जब रोशनी उतर आए! हमने उनकी भीतर की रोशनी की फिकर की।
साधारणजन के पास तो रोशनी नहीं है, दीया ही सब कुछ है। इसे तुम खयाल करना। इस तथ्य के तुम करीब कई बार आओगे।
संन्यासी में जो तुम्हें आकर्षण मालूम होता है, उसके प्रति झुक जाने का जो भाव होता है, उसके प्रेम में पग जाने की जो आकांक्षा होती है, वह इसीलिए है।
क्षुद्र कारण चाहे दिखायी पड़ते हों, लेकिन हर क्षुद्रता के भीतर विराट छिपा है। अगर कण-कण में परमात्मा है, तो क्षुद्रता में भी विराट है।
एक तरुण भिक्षु पर बुद्ध के, एक स्त्री मोहित होकर उसे गृहस्थ बनाने के नाना प्रकार के प्रलोभन दिए।
दूसरी मन की बात समझो: अब यह स्त्री प्रभावित हुई है वस्तुतः इसके संन्यास के सौंदर्य से। और बनाना चाहती है इसे गृहस्थ। जैसे ही यह गृहस्थ हो जाएगा, यह सौंदर्य खतम हो जाएगा।
इसलिए अक्सर हम अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मारते हैं। वह हमें दिखायी नहीं पड़ता। हम वही कर लेते हैं, जिससे हमारा बनाया हुआ मंदिर गिर जाएगा।
तुम्हें एक स्त्री में सौंदर्य दिखायी पड़ता है, क्योंकि वह अभी स्वतंत्र है। हवा की तरंग की तरह है, तुम्हारे बंधन में नहीं है। उसकी स्वतंत्रता में ही उसका अल्हड़पन है। फिर तुमने उसको बांधा विवाह में, कानून में; घर में लाकर बंद कर दिया। अब तुम्हारा उसमें रस कम होने लगे, तो आश्चर्य नहीं है। क्योंकि तुम्हारे रस का एक बुनियादी कारण था--उसका अल्हड़पन, उसकी मुक्ति, उसका सौंदर्य, उसकी स्वतंत्रता में था।
जैसे तुमने आकाश में उड़ते एक पक्षी को देखा और तुम आकर्षित हो गए। फिर तुम उस पक्षी को बांधे, पकड़े; चाहे सोने के पिंजड़े में लाकर रखो, लेकिन आकाश में उड़ता हुआ पक्षी बात ही और। सोने के पिंजड़े में बैठा पक्षी बात ही और। ये दो अलग पक्षी हो गए। ये एक ही पक्षी नहीं हैं। अब तुम्हें पिंजड़े में बंद इस पक्षी में वह रस नहीं मालूम होता, जो जब उसने पंख फैलाए थे सूरज की तरफ, तब मालूम हुआ था। तुमने अपने हाथ से हत्या कर दी।
एक गुलाब का फूल खिला। खूब सुंदर था। तुम जल्दी से तोड़ लिए। थोड़ी ही देर में तुम्हारे हाथ में कुम्हला जाएगा। थोड़ी ही देर में तुम रास्ते के किनारे फेंककर अपने मार्ग पर चले जाओगे। क्या हुआ! सुंदर था फूल, अपूर्व सुंदर था। लेकिन उसके सौंदर्य में जो जीवंतता थी, वह तुम्हारे तोड़ने में ही नष्ट हो गयी।
जो व्यक्ति फूलों को प्रेम करता है, तोड़ेगा नहीं। जो व्यक्ति किसी को प्रेम करता है--स्त्री हो या पुरुष--उस पर बंधन न डालेगा। जो किसी पक्षी को प्रेम करता है, वह पिंजड़ों में उसे बंद नहीं करेगा। लेकिन अक्सर हम यही करते हैं। आदमी ऐसा मूढ़ है, अपने आनंद को अपने ही हाथों नष्ट कर लेता है!
तुम देखना अपने जीवन में। तुम रोज-रोज इसके प्रमाण पाओगे। इसलिए मैं कहता हूं: ये छोटी-छोटी कहानियां बड़ी अर्थपूर्ण हैं। इनके भीतर मनुष्य का पूरा का पूरा मनोविज्ञान छिपा है।
यह स्त्री आकर्षित हो गयी है। दुनिया में इतने लोग हैं, एक संन्यासी पर आकर्षित होने की जरूरत क्या! कोई लोगों की कमी है? जो संसार छोड़कर चला गया है, उसे क्षमा करो; उसे जाने दो! जो अपने भीतर डूब रहा है, उसे मत खींचो बाहर।
लेकिन नहीं; जो अपने भीतर डूब रहा है, उसमें अपूर्व आकर्षण मालूम होता है। उसकी गहराई बढ़ जाती है। उसके व्यक्तित्व में एक गरिमा आ जाती है। उसमें कुछ जुड़ जाता है जो संसार से बाहर का है। उसमें पारलौकिक की थोड़ी सी छबि उतर आती है।
मगर तब यह स्त्री उसे प्रलोभन देने लगी--कि क्यों भटकते हो? क्यों भीख मांगते हो? मैं तो हूं! सब सुविधा है; सब संपन्नता है। महल है, धन है--सब तुम्हारा है। तुम द्वार-द्वार भीख मांगो, मुझे बड़ा कष्ट होता है। तुम आ जाओ मेरे पास। हम विवाहित होंगे। और जैसा कहानियों में होता है--विवाह हो गया, फिर सदा सुखी रहेंगे!
कहानियों में ही होता है ऐसा। या फिल्मों में होता है। फिल्म खतम हो जाती है अक्सर। शहनाई बज रही, बाजे बज रहे, विवाह हो रहा है, फिल्म खतम! क्योंकि उसके बाद फिर दोनों सुख से रहने लगे!
जिंदगी में हालत उलटी है। उसके बाद ही दुख शुरू होता है--शहनाई के बाद! पहले शहनाई बजती है, फिर दुख बजता है। विवाह के बाद जीवन में दुख की शुरुआत है। जब एक व्यक्ति सुखी नहीं हो सका अकेले में, तो दो दुखी मिलकर दुख को दुगुना करेंगे, बहुगुना करेंगे; कम नहीं कर सकते। दो बीमारियां जुड़ गयीं, दुगुनी हो गयीं--या अनंतगुनी हो जाएंगी। गुणनफल हो जाएगा। मगर कम नहीं हो सकतीं।
अकेला आदमी जरूर थोड़ा दुखी होता है, क्योंकि अकेला होता है। मगर विवाहित आदमी के दुख का उसको कुछ भी पता नहीं है। सभी विवाहित लोग पछताते हैं कि अकेले ही क्यों न रह गए! मगर अब बड़ी देर हो चुकी। अब अकेले होने का उपाय नहीं है।
सब अविवाहित चिंता करते हैं कि कब तक अविवाहित रहना है! कब तक अकेले रहना है?
यह दुनिया बड़ी अजीब है! यहां अविवाहित विवाह की सोचता है। यहां विवाहित अविवाह की सोचता है। यहां जो जहां है, वहीं नहीं रहना चाहता; कहीं और होना चाहता है। कोई कहीं सुखी नहीं है। कहीं और सुख होगा; कहीं और ही हो सकता है। यहां तो निश्चित ही नहीं है।
तुम जहां हो, वहां सुख नहीं है। और जो व्यक्ति सुख चाहता है, उसे वहीं सुखी होना पड़ता है जहां है। संन्यास की यही अर्थवत्ता है। संन्यास का अर्थ है: इस क्षण सुखी; जैसे हैं, उसमें सुखी। जहां हैं, वहां सुखी। अन्यथा की मांग का न होना ही तृष्णा का विसजनर् है।
इसलिए संन्यासी में एक अपूर्व शुद्धता झलकने लगती है। उसकी आंखों में एक शांति झलकने लगती है। उसके पास भी बैठोगे, तो उसकी शांति तुम्हें छुएगी। उसकी शांति तुम से दुलार करेगी। उसकी शांति तुम्हारे आसपास बहेगी।
यह स्त्री इस संन्यासी के मोह में पड़ गयी। उसे सब तरह के प्रलोभन देने लगी। धन था उसके पास; पद था उसके पास; महल था उसके पास। वह कहती होगी कि तुम्हें मैं इतना प्रेम करती; तुम्हारे पैर दबाऊंगी। तुम मेरे मालिक, तुम मेरे स्वामी। तुम क्यों भीख मांगो! क्यों नंगे पैर रास्तों पर भटको! यह महल तुम्हारा; यह सब तुम्हारा। तुम यहां आ जाओ।
जैसे कोई पक्षी को--खुले आकाश के पक्षी को--कहे कि इस पिंजड़े में सब सुविधा है। यहां कभी भूखे न मरोगे। रोज-रोज खोजने भोजन को जाना न पड़ेगा। और फिर देखते हो, सोने का पिंजड़ा है! फिर देखते हो, इस पर हीरे-जवाहरात जड़े हैं! ऐसा पिंजड़ा दुनिया में दूसरा नहीं। तुम आ जाओ भीतर। मुझे द्वार बंद कर देने दो। एक बार तुम इसमें आ गए, तुम सदा निश्चिंत रहोगे। सुरक्षित रहोगे। इस पिंजड़े का बीमा कराया हुआ है!
और शायद पक्षियों में भी आदमी जैसी बुद्धि होती, तो वे भी स्वीकार कर लेते। वे अपने से स्वीकार नहीं करते। जबर्दस्ती उन्हें पिंजड़े में बंद कर दो, एक बात।
लेकिन आदमी बुद्धिमान है! आदमी सोचता हजार बातें। इस युवक ने सोचा होगा: आज तो जवान हूं, तो भीख मांग लेता हूं। कल बूढ़ा हो जाऊंगा, फिर? खैर, बुद्ध बूढ़े हो गए हैं, इनको अभी भी भीख मिल जाती है। ये राजपुत्र हैं। मैं कोई राजपुत्र तो हूं नहीं। फिर बुद्ध महिमाशाली हैं; इनके वचनों में अमृत है। मैं तो साधारणजन हूं। फिर आज तो बुद्ध हैं, तो इनके पीछे छाया की तरह चलता हूं। सुख है, सुविधा है। सब ठीक हो जाता है। कल बुद्ध मर जाएंगे, फिर?
ऐसी हजार चिंताएं--जैसे तुम्हें पकड़ती हैं--उसे पकड़ी होंगी। हजार विचार उसे आए होंगे: कभी बीमार होऊंगा, कभी बूढ़ा होऊंगा, फिर कौन मेरी चिंता करेगा? फिर कौन मुझे भोजन देगा? कौन मेरे पैर दबाएगा? यह सुंदर प्यारी स्त्री सब समर्पित करने को राजी है। इसका समर्पण तो देखो! इसका त्याग तो देखो! इसका प्रेम तो देखो! ऐसे बहुत-बहुत प्रलोभन उसके मन में पड़े होंगे। और बहुत तरंगें उसके मन में उठी होंगी।
बुद्ध चुपचाप देखते रहे थे। सदगुरु तभी रोकता है, जब तुम अपने से न रुक पाओ। जब तक तुम अपने से रुक सकते हो, सदगुरु न रोकेगा। क्योंकि सदगुरु का आत्यंतिक अर्थ यही है कि तुम्हें जितनी स्वतंत्रता दी जा सके, दी जाए।
स्वतंत्रता में निश्चित ही गिरने की स्वतंत्रता भी सम्मिलित है। ऐसी तो कोई स्वतंत्रता हो ही नहीं सकती, जिसमें हम कहें कि ऊपर चढ़ो तो स्वतंत्र, गिरो तो स्वतंत्र नहीं! स्वतंत्रता तो दोनों की होती है--शुभ की, अशुभ की।
और बुद्ध ने परिपूर्ण स्वतंत्रता दी थी अपने भिक्षुओं को। वे अपूर्व सदगुरु थे।
वे देखते रहे। देखते रहे, कई कारणों से। एक तो हर छोटी-छोटी बात में बाधा देनी उचित नहीं है। और हर छोटी-छोटी बात में बाधा दी जाए, तो व्यक्ति का विकास रुकता है। उसे सोचने दो। उसे चिंतन करने दो। उसे गुजरने दो परेशानियों से; उसे चुनौतियों का सामना करने दो।
जैसे मां देखती रहती है अपने बच्चे को--कि वह चल रहा है; खड़ा हो रहा है। एक नजर से ध्यान रखती है। अपने काम में भी लगी रहती है। ऐसा भी ज्यादा ध्यान नहीं देती कि बच्चे को ऐसा लगे कि मां चौबीस घंटे उसके पीछे पड़ी है। पर देखती रहती है चुपचाप: कहीं गिर न जाए; कहीं आंगन से नीचे न उतर जाए; कहीं सड़क पर न चला जाए; कहीं आग के पास न पहुंच जाए; कुछ खतरा न हो जाए। और तब तक देखती रहती है, जब तक कि खतरा हो ही न जाए, होने के ही करीब न पहुंच जाए। अन्यथा चुपचाप रहती है, चलने-फिरने देती है। नहीं तो बच्चा चलेगा कैसे? खड़ा कैसे होगा? जीवन के योग्य कैसे बनेगा?
ऐसा ही सदगुरु है।
बुद्ध देखते रहे। सब पता है, क्या हो रहा है। इस युवक के मन में कैसी चिंताएं चल रही हैं; कैसे-कैसे प्रलोभन इसे पकड़ रहे हैं। यह पिंजड़े में जाने को किस तरह आतुर हुआ जा रहा है। लेकिन बुद्ध इस आशा में रुके हैं कि यह अपने से रुक जाए, तो महाशुभ है। क्योंकि जब तुम अपने से रुकते हो, तब तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित होती है। जब कोई तुम्हें रोक लेता है, तो क्रांति नहीं घटित होती।
जब तुम अपने से रुकते हो, तो तुम्हारा बोध बढ़ता है। जब तुम अपने से एक भूल से बचते हो, तो तुम्हारे जीवन में ऊंचाई आती है; तुम पहाड़ थोड़ा और ऊपर चढ़ गए। जब कोई दूसरा तुम्हारे हाथ को पकड़कर, सहारा देकर, ऊंचा चढ़ा देता है--ऊंचाई पर तो पहुंच जाते हो, लेकिन यह ऊंचाई उधार होती है। और सदगुरु नहीं चाहता कि शिष्यों की ऊंचाई उधार हो।
बुद्ध ने कहा है: बुद्धपुरुष तो केवल इशारा करते हैं, चलना तो तुम्हीं को पड़ता है। इसलिए जब मजबूरी हो जाती है, तभी, अत्यंत विवश अवस्था में सदगुरु टोकता है। फिर भी टोकना टोकने जैसा नहीं होता।
बुद्ध ने उससे यह नहीं कहा कि तू ऐसा मत कर। कोई आदेश नहीं दिया। आज्ञा नहीं दी कि पाप में पड़ेगा; नर्क जाएगा। ऐसा मत कर। उसे भयभीत भी नहीं किया। सिर्फ होश सम्हालने के लिए थोड़ी सी चेतावनी दी--कि थोड़ा जाग। फिर जागकर भी तुझे ऐसा ही लगे करना, तो जरूर कर। क्योंकि मैं कौन हूं तुझे रोकने वाला। तेरी जिंदगी तेरी है। तेरा भविष्य तेरा है। तेरी नियति तेरी है। लेकिन तुझे प्रेम करता हूं--इतनी चेतावनी मेरी तरफ से; इतनी सलाह मेरी तरफ से। ले तो ठीक, न ले तो मेरी मर्जी।
वह भिक्षु धीरे-धीरे अंततः उसकी बातों में आकर चीवर छोड़कर गृहस्थ हो जाने के लिए तैयार हो गया।
अंततः शब्द पर ध्यान देना। उसने बहुत देर तक लड़ाई की। बहुत अपने को रोकना चाहा। ऐसे जल्दी राजी नहीं हो गया। एकदम से राजी नहीं हो गया। स्त्री ने पुकारा, और चल नहीं पड़ा उसके पीछे। जद्दो-जहद की; सब तरह से अपने को सम्हालने की कोशिश की।
इसलिए बुद्ध और भी चुप रहे। देखते थे कि वह कोशिश में लगा है। अपने से सम्हालने की कोशिश में लगा है। बचने की चेष्टा जारी है। काश! अपने से बच जाए, तो वे कभी न बोले होते। अपने से रुक गया होता, तो बुद्ध ने ये वचन न कहे होते। ये गाथाएं पैदा न हुई होतीं।
अंततः नहीं रोक पाया। प्रलोभन और वासना प्रगाढ़ हो गयी। सुरक्षा, सुविधा ज्यादा बहुमूल्य मालूम होने लगे स्वतंत्रता की बजाय। स्वयं के भीतर जाने की बजाय बाहर की थोड़ी सी सुविधाएं ज्यादा मूल्यवान मालूम होने लगीं। जब बुद्ध ने देखा होगा कि अब तराजू का ढंग बदल रहा है; जो पलड़ा अब तक भारी था, कम भारी हुआ जाता है; जो अब तक कम भारी था, भारी हुआ जाता है; इसका चित्त डोल रहा है; इसका चित्त संसार की तरफ बहा जा रहा है...।
जब यह बात बिलकुल पक्की हो गयी होगी बुद्ध को कि अब अगर एक क्षण और देर की गयी, तो शायद फिर बहुत देर हो जाएगी। तब उन्होंने उस युवक को अपने पास बुलाया। उससे कहा: स्मृति को सम्हाल।
इन वचनों को खयाल में रखना। निंदा नहीं की। डांटा-डपटा नहीं। अपराधी नहीं ठहराया। तू पाप करने जा रहा है; महापाप करने जा रहा है; तुझे नर्क की अग्नि में जलाया जाएगा--इस तरह के भय नहीं दिए। दंड की घबड़ाहट पैदा नहीं की। कहा क्या? बड़े मीठे शब्द कहे: स्मृति को सम्हाल।
स्मृति बुद्ध का अपना विशिष्ट शब्द है। स्मृति का ठीक वही अर्थ होता है, जो मध्ययुग में संतों ने सुरति का किया। सुरति स्मृति का ही बिगड़ा हुआ रूप है। कबीर कहते हैं: सुरति। नानक कहते हैं: सुरति। सुरति को सम्हालो। क्या है सुरति? क्या है स्मृति?
तुम जो स्मृति का अर्थ समझते हो, वैसा मत समझ लेना। वह बुद्ध का अर्थ नहीं है। तुम्हारा तो अर्थ होता है स्मृति से--मेमोरी, याददाश्त, अतीत की याददाश्त। हम कहते हैं: फलां आदमी की स्मृति बड़ी अच्छी है, क्योंकि वह सैकड़ों लोगों के नाम याद रख लेता है। जो किताब एक दफा पढ़ता है, भूलता ही नहीं। जो फोन नंबर एक दफे याद कर लिया वह याद सदा के लिए हो गया। तीस-चालीस साल के बाद भी पूछोगे, तो वह फोन नंबर बता देगा। जिसकी याददाश्त अच्छी होती है, उसको हम कहते हैं--स्मृतिवान।
बुद्ध का वैसा अर्थ नहीं है। बुद्ध के स्मृति का अर्थ मेमोरी नहीं है, माइंडफुलनेस है। स्मृति का अर्थ है: जागा हुआ, स्मरण को उपलब्ध। अतीत की स्मृति नहीं, वर्तमान की स्मृति। अभी मैं क्या कर रहा हूं, अभी मुझ से क्या हो रहा है--यह होशपूर्वक करने का नाम स्मृति है बुद्ध के वचनों में।
जो मैं करने जा रहा हूं, वह करने योग्य है? करने योग्य नहीं है? पहले भी मैंने इस तरह के कृत्य किए हैं, उनका क्या परिणाम हुआ है? उनसे मैं कहां पहुंचा? क्या मैंने पाया? पहले भी मैंने ऐसे कृत्य किए और पछताया हूं। अब फिर वही कृत्य कर रहा हूं। फिर पछताऊंगा। पहले मैंने ऐसे कृत्य किए हैं और कसमें खायी हैं कि अब कभी न करूंगा, और फिर करने चला--इस सारी बोध-दशा का नाम स्मृति है। अपने को झंझोड़कर, जगाकर, तंद्रा से चौंकाकर स्थिति को पूरा का पूरा अवलोकन करना और फिर उस अवलोकन के ही आधार पर कृत्य में उतरना।
साधारणतः हम अवलोकन नहीं करते। हम तो उतर जाते हैं अंधे की तरह! हमें कोई भी फुसला लेता है! हमें कोई भी आकर्षित कर लेता है। हमारे भीतर कोई केंद्र ही नहीं है। हम बिलकुल ऐसे सूखे पत्ते हैं कि हवा जहां ले जाए, चले जाते हैं। या लकड़ी का एक टुकड़ा है, जो सागर में तैर रहा है: न कोई दिशा, न कोई गंतव्य! तरंगें जहां ले जाएं।
एक स्त्री मिल गयी रास्ते पर और उसने कहा: मैं तुम्हें प्रेम करती हूं। और तुम मंदिर जा रहे थे। और तुम भूल गए मंदिर! और यह अजनबी स्त्री, कभी पहले मिले भी न थे! न इसे जानते हो। और एक क्षण में लोभ पकड़ा, वासना पकड़ी। तुम एक अंधेरे में खो गए। तुम्हारी स्मृति धुंधली हो गयी।
बुद्ध ने कहा: स्मृति को सम्हाल! होश को जगा। पागल...।
पापी नहीं कहा बुद्ध ने, कहा: पागल। फर्क समझना। साधारणतः तुम्हारे धर्मगुरु कहेंगे: पापी। पापी में निंदा हो गयी, अपमान हो गया। निंदा और अपमान से कहीं कोई रूपांतरित होता है?
बुद्ध ने कहा: पागल। पागल सार्थक शब्द है। पागल का अर्थ है: यही तो तू पहले भी किया, बहुत बार किया। फिर करने लगा!
पापी का क्या अर्थ है? मूर्च्छित आदमी को क्या पापी कहना! बुद्ध गाली नहीं देते। बुद्ध चिकित्सक हैं। उपचार करते हैं। उपाय करते हैं।
अब बीमार आदमी को पापी कहने से क्या फायदा? बीमार आदमी को उसकी बीमारी के बाहर लाना है। उसको हाथ का सहारा चाहिए। शायद पापी कहने से तो तुम्हारे और उसके बीच दूरी बढ़ जाएगी। फिर तुम्हारा हाथ भी दूर हो जाएगा। और शायद पापी कहने से उसके अहंकार को तुम ऐसी चोट पहुंचा दोगे, कि वह उसका प्रतिकार लेने के लिए वही कर लेगा, जिसको तुम चाहते थे कि न करे।
सोच-समझकर एक-एक शब्द का उपयोग करना चाहिए।
बुद्ध तो एक-एक शब्द होशपूर्वक बोलते हैं। कहा: पागल! ऐसे ही तू पूर्व में भी गिरा है। यह कोई नयी तो बात नहीं। नयी होती, तो क्षम्य भी थी। तू पहले भी तो ऐसे गिरा है। और बार-बार पछताया है। अब फिर वही करेगा?
भूल भी करनी हो, तो कुछ नयी करनी चाहिए। तो कुछ लाभ होता है। उसी-उसी भूल को दोहराना, तो जड़ता है।
खयाल रखना: बुद्ध कभी नहीं कहते कि भूल मत करो। बुद्ध सदा कहते हैं कि भूल के बिना कोई सीखेगा कैसे! भूल तो होगी। लेकिन एक ही भूल को दुबारा मत करो। दुबारा की, तो फिर सीखने का उपाय न रहा। एक बार करो और सीख लो उससे, जो सीखना हो। निचोड़ ले लो। और उस निचोड़ के आधार पर जीवन को निर्मित करो। फिर दुबारा करने का तो मतलब है कि सिखावन नहीं ली।
और हम तो
एक-एक भूल हजारों बार करते हैं! तुमने क्रोध कल भी किया था, परसों भी किया था, उसके पहले भी किया था। जीवनभर से क्रोध कर रहे हो और हर बार क्रोध करके सोचा: अब नहीं करेंगे। बहुत हो गया। आखिर बहुत...। एक सीमा होती है हर बात की। अब पक्का निर्णय है, अब क्रोध नहीं करेंगे।
और फिर किसी ने धक्का दे दिया। फिर किसी ने घाव छू दिया। और फिर एक क्षण में तुम आग-बबूला हो गए। भूल गए सब पछतावे; भूल गए सब वचन जो तुमने अपने को दिए। भूल गए कसमें, जो तुमने ली थीं। एक क्षण में फिर आग भभकी। फिर वही हो गया।
ऐसे अगर तुम बार-बार वही-वही करते रहे, तो एक वर्तुल में घूमते रहोगे। तुम्हारा जीवन रूपांतरित कैसे होगा! क्रांति कैसे घटेगी?
तो बुद्ध ने कहा: पागल! ऐसे तो तू पूर्व में भी गिरा और बार-बार पछताया। फिर वही? अब फिर वही? भूलों से सीख। स्मृति को सम्हाल।
सुनते हो इन प्यारे वचनों को! इनमें कहीं निंदा नहीं है। इनमें सहारे के लिए बढ़ाया गया हाथ है। इसमें जागरण के लिए पुकार है। कहीं कोई अपमान नहीं है। कहीं कोई नर्क का भय नहीं है। और कहीं कोई स्वर्ग का प्रलोभन नहीं है।
मुसलमान फकीर स्त्री हुई राबिया। एक बार लोगों ने देखा कि वह रास्ते पर भागी जा रही है। एक हाथ में उसने मशाल ले रखी है जलती हुई, और दूसरे हाथ में एक पानी से भरा हुआ घड़ा ले रखा है।
लोग पूछने लगे: राबिया! क्या पागल हो गयी हो? बाजार में यह मशाल और पानी का भरा घड़ा लेकर कहां जा रही हो?
उसने कहा: मैं उस धर्म को आग लगाने जा रही हूं, जो स्वर्ग का आश्वासन देता है। मैं स्वर्ग को आग लगा देना चाहती हूं। और नर्क को पानी में डुबा देना चाहती हूं। क्योंकि धर्म लोभ दे स्वर्ग का और भय दे नर्क का, तो धर्म ही न रहा।
यह तो राजनीति हो गयी। यह तो बड़ी क्षुद्र राजनीति हो गयी। लेकिन यही तुम्हारे तथाकथित धर्म कर रहे हैं।
बुद्ध ने यह नहीं किया। बुद्ध ने सिर्फ इतना ही कहा: सम्हल जाओ। सम्हलने में सुख है--निश्चित। गिरने में दुख है--निश्चित। लेकिन परिणाम की तरह नहीं। सम्हलने में सुख है। सम्हलने का स्वभाव सुख है। और गिरने में दुख है। गिरने में चोट लगती है। गिरने का स्वभाव दुख है।
ऐसा नहीं कि गिरोगे, तो फिर कभी तुम्हें दुख मिलेगा भविष्य में, किसी जन्म में। और अभी होश सम्हालोगे, तो किसी भविष्य में स्वर्ग जाओगे। यह तो हद्द हो गयी पागलपन की। लेकिन इसी तरह की बातें कही गयी हैं।
अभी आग में हाथ डालोगे, अगले जन्म में जलोगे। यह क्या बात हुई? अभी हाथ डालोगे, इसी हाथ के डालने में जलना हो जाएगा। अभी फूल छुओगे, अभी हाथ में सुगंध आ जाएगी। ऐसा ही है जीवन।
जीवन नगद है, उधार नहीं। और सब तुम्हारे नर्क और स्वर्ग उधार हैं। कल्पित मालूम होते हैं। वास्तविक नहीं मालूम होते। वस्तुतः तो यही सत्य है। तुम जैसा करते हो अभी, तत्क्षण, उस करने में ही उसका फल छिपा है।
तुमने किसी की तरफ करुणा से देखा और सुख बरसा। और तुमने किसी की तरफ क्रोध से देखा और दुख बरसा। परिणाम की तरह नहीं; क्रोध में ही दुख छिपा है। और प्रेम में ही सुख छिपा है।
प्रेम और स्वर्ग एक ही बात के दो नाम हैं। क्रोध और नर्क एक ही बात के दो नाम हैं।
बुद्ध ने कहा: तू सम्हल। और ये गाथाएं कहीं--
‘जो मनुष्य संदेह से मथित है...।’
अब यह युवक बड़े संदेह में पड़ा था: ऐसा करूं, वैसा करूं? संन्यासी बना रहूं कि गृहस्थ हो जाऊं? क्या करूं? क्या न करूं? ऐसा डोल रहा था घड़ी के पेंडुलम की तरह! जो घड़ी के पेंडुलम की तरह डोलता रहेगा--यह करूं, वह करूं--जो ऐसा अनिश्चित-मना रहेगा, उसका जीवन कभी भी थिर न हो पाएगा। और थिरता में असली राज है।
कृष्ण ने कहा: स्थितप्रज्ञ--जिसकी भीतर की प्रज्ञा स्थिर हो गयी, वही महासुख को उपलब्ध होता है।
बुद्ध ने कहा: ‘जो मनुष्य संदेह से मथित है, तीव्र राग से युक्त है...।’
राग शब्द बड़ा प्यारा है। इसका अर्थ होता है, रंग। कहते हैं न, राग-रंग। राग का अर्थ होता है: रंग! जिसकी आंखों पर रंग चढ़ा है, वह जिंदगी को वैसा नहीं देख पाता, जैसी जिंदगी है।
जब तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हो, या किसी पुरुष के प्रेम में पड़ जाते हो, तो तुम वही नहीं देख पाते, जो असलियत है। तुम वह देखने लगते हो, जो तुम कल्पना करते हो कि होना चाहिए। रंग पड़ गया आंख पर। और जब रंग पड़ जाता है, तो कुछ का कुछ दिखायी पड़ता है। जहां सूखे वृक्ष हैं, वहां हरियाली दिखायी पड़ने लगती है। जहां हड्डी-मांस-मज्जा के सिवाय कुछ भी नहीं, वहां बड़े सौंदर्य के दर्शन होने लगते हैं! जहां सब तरह की गंदगी भरी है, वहां तुम कल्पित करने लगते हो: सुगंध। तथ्य दिखायी नहीं पड़ते फिर। फिर तुम्हारे सपने तथ्यों पर हावी हो जाते हैं।
तो बुद्ध ने कहा: ‘जो तीव्र राग से युक्त है, शुभ ही शुभ देखने वाला है...।’
और जब राग से भरे होते हो, तो सब ठीक ही ठीक दिखायी पड़ता है। गलत तो दिखायी ही नहीं पड़ता है। और इस संसार में गलत बहुत है। ठीक तो न के बराबर है, शायद है ही नहीं। गलत ही गलत है। लेकिन जब तुम राग से भरे होते हो, तो सब ठीक दिखायी पड़ता है। जिस चीज के राग से भर जाते हो, उसमें ही ठीक दिखायी पड़ने लगता है।
और ठीक यहां कुछ भी नहीं है। यहां ठीक हो कैसे सकता है? यहां मृत्यु प्रतिपल खड़ी है तुम्हें घेरे हुए, यहां ठीक कुछ हो कैसे सकता है? यहां सब क्षणभंगुर है। पानी के बबूले जैसा है। ठीक कुछ हो कैसे सकता है? यहां सब आया और गया; रुकता कुछ भी नहीं। यहां सुख संभव नहीं है; यहां दुख ही संभव है। ठीक यहां कुछ भी नहीं है।
यह वचन तुम्हें हैरानी से भरेगा। बुद्ध कहते हैं: ‘जो शुभ ही शुभ देखने वाला है, उसकी तृष्णा और बढ़ती है।’
इसलिए बुद्ध की परंपरा में संन्यासी के लिए अशुभ-भावना का निर्देश है। बुद्ध कहते हैं: पहले तो यह देखना कि अशुभ क्या है। क्या-क्या अशुभ है, इसको ठीक से देख लेना। बुद्ध अपने भिक्षुओं को भेजते थे मरघट--कि जाकर बैठ जाओ मरघट पर; जलती हुई लाशों को देखो; यही तुम हो।
बुद्ध को स्वयं भी जो संन्यास का भाव उठा था, वह अशुभ को देखकर उठा था। देखा था, रथ पर बैठे हुए--एक बीमार आदमी को खांसते-खखारते। रुग्ण देह। विचार उठा था: क्या यही दशा मेरी हो जाएगी? पूछा था अपने सारथी से: इस आदमी को क्या हो गया?
सारथी ने कहा: यह बीमार है। क्षय रोग से बीमार है। बुद्ध ने पूछा: क्या कभी मैं भी ऐसी दशा को पहुंच सकता हूं? सारथी ने कहा: सभी के लिए संभव है। क्योंकि शरीर रोगों का घर है।
फिर बुद्ध ने देखा एक बूढ़े को लकड़ी टेककर चलते हुए; कमर झुकी हुई। बुद्ध ने पूछा: और इसे क्या हो गया? और सारथी ने कहा: यह आदमी बूढ़ा हो गया। यह जवानी के बाद की दशा और मौत के पहले की दशा है। बुद्ध ने कहा: क्या मैं भी एक दिन ऐसा ही हो जाऊंगा? सारथी ने कहा: मैं कैसे कहूं! कहना नहीं चाहिए। लेकिन झूठ भी नहीं बोल सकता हूं। यह सभी का अंतिम जीवन का फल है। यह सभी को होता है। सभी बूढ़े होंगे।
और तब बुद्ध ने एक लाश देखी; एक आदमी की लाश देखी। लोग उसे मरघट ले जा रहे थे। कहते होंगे: राम-नाम सत्य है! और बुद्ध ने कहा: क्या कभी यह भी मेरे साथ होगा?
और तब बुद्ध ने एक संन्यासी को देखा और पूछा सारथी से: इस आदमी ने गैरिक वस्त्र क्यों पहन रखे हैं? इसे क्या हुआ है? तो सारथी ने कहा: जैसा आपने देखा बीमार को, बूढ़े को, मृत्यु को, ऐसे ही इसने भी देखा है, और यह जीवन की व्यर्थता से जाग गया। अब यह उसकी खोज कर रहा है, जो शाश्वत है।
उसी रात बुद्ध घर छोड़कर भाग गए थे!
तो अशुभ-भावना पर उनका बड़ा जोर है। वे कहते हैं: जहां-जहां अशुभ है, उसे गौर से देखना; भर-आंख देखना; खूब निरीक्षण करना। जीवन में इतना अशुभ है, इतने कांटे हैं, इतनी पीड़ाएं हैं, इतना दुख है--इस सब को जो ठीक से देख लेता है, उस देखने में ही मुक्ति है। फिर देखने के बाद लोगों को नहीं कहना पड़ता: राम-नाम सत्य है। फिर ऐसा व्यक्ति स्वयं ही जान लेता है कि राम सत्य है और यहां शेष सब माया है।
‘जो व्यक्ति शुभ ही शुभ देखता, तीव्र राग से भरा है, संदेह से मथित है, उसकी तृष्णा बढ़ती है और वह अपने लिए और भी दृढ़ बंधन बनाता है।’
‘जो मनुष्य संदेह के शांत हो जाने में रत है...।’
जो अपने भीतर यह पेंडुलम की तरह घूमते हुए मन को थिर करने में लगा है। संन्यास थिरता का नाम है। संन्यास का अर्थ है: शांत होना, बहुत तरह के द्वंद्वों में न होना। क्या करूं, क्या न करूं--इसकी बहुत चिंता में न होना। जो हूं, ठीक हूं। जैसा हूं, ठीक हूं। इसी क्षण सब तरह से संतुष्ट होना। फिर संदेह नहीं उठते। फिर आकांक्षाएं-वासनाएं नहीं डोलातीं, फिर अंधड़ नहीं उठते वासना के, और तुम्हारे भीतर कंपन नहीं होते। धीरे-धीरे तुम्हारी ज्योति थिर होकर जलने लगती है।
‘जो सदा सचेत रहकर अशुभ की भावना करता है, वह मार के बंधन को छिन्न करेगा और तृष्णा का विनाश करेगा।’
बुद्ध ने शैतान के लिए मार शब्द का उपयोग किया है। यह मार शब्द बड़ा प्यारा है। अगर इसको ठीक उलटा करो, तो राम बन जाता है।
राम को पाना है, सत्य को पाना है, और यह संसार मार है। यह राम से बिलकुल उलटा है। यह सत्य से बिलकुल उलटा है। इसमें जागना है।
इस संसार में जो जागता है, वह राम की तरफ सरकने लगता है। इस संसार में जो सोया-सोया चलता है, वह मार के पंजे में पड़ता जाता है; वह शैतान के हाथों में पड़ता जाता है।
दूसरा दृश्य:
भगवान जेतवन में विहरते थे। एक दिन बहुत से आगंतुक भिक्षु आए। इन अतिथियों को भगवान ने राहुल के निवास स्थान पर ठहराया।
रात्रि में राहुल सोने के लिए अन्य स्थान नहीं देखते हुए, भगवान के निवास स्थान--गंधकुटी--के बरामदे में जाकर सो रहा। उस समय राहुल यद्यपि श्रामणेर था, फिर भी अर्हतत्व के बहुत करीब पहुंच रहा था। मार ने उसे बरामदे में सोया हुआ देखकर हाथी का वेश धारण कर उसके पास आकर सूंड़ से उसके सिर को घेरकर क्रोंच शब्द किया।
शास्ता ने गंधकुटी के भीतर से ही मार को जान कहा: मार! तेरे जैसे लाखों भी मेरे पुत्र को भय नहीं उत्पन्न कर सकते हैं। मेरा पुत्र निर्भीक, तृष्णारहित, महाबलवान और महाबुद्धिमान है। यह कहकर इन गाथाओं को कहा; ये दो गाथाएं:
निट्ठंगतो असंतासी वीततण्हो अनंगणो।
अच्छिन्दि भवसल्लानि अंतिमोयं समुस्सयो।।
वीततण्हो अनादानो निरुत्तिपदकोविदो।
अक्खरानं सन्निपातं जञ्ञा पुब्बापरानि च।
स वे अंतिमसारीरो महापञ्ञो’ति वुच्चति।।
‘जिस मनुष्य ने अर्हतत्व पा लिया, जो भयरहित है, जो वीततृष्णा और निष्कलुष है, जिसने संसार के शल्यों को काट दिया है, यह उसकी अंतिम देह है।’
‘जो मनुष्य वीततृष्णा, परिग्रहरहित है, निरुक्त और पद का जानकार है, जो अक्षरों को पहले-पीछे रखना जानता है, वही अंतिम शरीर वाला और महाप्राज्ञ कहा जाता है।’
राहुल गौतम बुद्ध का बेटा था। राहुल के संबंध में थोड़ी बात समझ लें। फिर इस दृश्य को समझना आसान हो जाएगा।
जिस रात बुद्ध ने घर छोड़ा, महा अभिनिष्क्रमण किया, राहुल बहुत छोटा था। एक ही दिन का था। अभी-अभी पैदा हुआ था। बुद्ध घर छोड़ने के पहले गए थे यशोधरा के कमरे में इस नवजात बेटे को देखने। यशोधरा अपनी छाती से लगाए राहुल को, सो रही थी। चाहते थे, देख लें राहुल का मुंह, क्योंकि फिर मिले देखने, न मिले। लेकिन इस डर से कि अगर राहुल के और पास गए, उसका मुंह देखने की कोशिश की, कहीं यशोधरा जग न जाए! जग जाए, तो रोएगी, चीखेगी, चिल्लाएगी! जाने न देगी। इसलिए चुपचाप द्वार से ही लौट गए थे।
उस बेटे को राहुल का नाम भी बुद्ध ने इसीलिए दिया था--राहु-केतु के अर्थों में। इसलिए दिया था कि बुद्ध घर छोड़ने जा रहे थे, तब यह बेटा पैदा हुआ। सोचते थे कि कब छोड़ दूं, कब छोड़ दूं, तब यह बेटा पैदा हुआ। इस बेटे का प्रबल आकर्षण, और मन में हजार शंकाओं-कुशंकाओं का जमघट लग गया।
मेरे घर बेटा आया है और मैं छोड़कर भाग रहा हूं--यह उचित है छोड़कर भागना? जिम्मेदारी, उत्तरदायित्व...। इस बेटे के जन्म में मेरा उतना ही हाथ है, जितना यशोधरा का, और मैं छोड़कर भाग जा रहा हूं। इस असहाय स्त्री पर अकेला बोझ छोड़कर भागा जा रहा हूं! यह उचित है या नहीं?
ये सारी शंकाएं उठने लगी थीं, इसलिए उसको नाम राहुल दिया था कि मैं किसी तरह मुक्त होने के करीब था कि तू राहु की तरह मेरे गले को फांसने आ गया!
फिर बारह वर्षों बाद बुद्ध घर लौटे थे--बुद्धत्व को पाकर--तब राहुल बारह वर्ष का था। यशोधरा बहुत नाराज थी। स्वाभाविक। मानिनी स्त्री थी, इसलिए सीधे तो उसने कुछ भी न कहा। लेकिन तीखा व्यंग्य किया। परोक्ष व्यंग्य किया।
जब बुद्ध घर पहुंचे, तो उसने अपने बेटे राहुल को कहा कि बेटा, ये तुम्हारे पिता हैं! तू जब एक दिन का था, तब तुझे छोड़कर भाग गए थे। ये भगोड़े हैं। यही तेरे पिता हैं! तू बार-बार मुझसे पूछता था कि मेरे पिता कौन हैं? ये सज्जन, जो आकर खड़े हो गए हैं, यही तेरे पिता हैं। इनसे तू मांग ले अपनी वसीयत। ये तेरे पिता हैं। फिर पता नहीं मिलना हो, न मिलना हो। इनसे मांग ले हाथ फैलाकर--कि इस संसार में जीने के लिए मेरी कुछ वसीयत?
उसने तो व्यंग्य किया था। व्यंग्य महंगा पड़ गया।
बुद्ध ने आनंद से कहा: आनंद! मेरा भिक्षापात्र कहां है? क्योंकि मेरे पास और तो देने को कुछ भी नहीं है। एक भिक्षापात्र है, वह मैं अपने बेटे को दे देता हूं। लेकिन भिक्षापात्र तो भिक्षु को दिया जा सकता है!
भिक्षापात्र देकर बुद्ध ने कहा: बेटा, तू भिक्षु हो गया। तू संन्यस्त हो गया। मेरे पास संसार की कोई संपदा नहीं है, संन्यास की संपदा है, तू उसका मालिक हो गया।
महंगा पड़ गया व्यंग्य। राहुल भी बेटा तो बुद्ध का था; उसने ना-नुच भी न की। उसने चरण छुए और बुद्ध के पीछे हो लिया। यशोधरा तो बहुत घबड़ायी। पति तो गया ही गया, अब बेटा भी गया। तब कोई और उपाय न देख उसने बुद्ध से कहा: फिर मुझे भी भिक्षुणी बना लें। अब मैं किसके लिए रहूंगी? ऐसे राहुल के कारण यशोधरा भी भिक्षुणी बनी।
राहुल अदभुत बेटा था। बारह साल के बच्चे से यह आशा करनी! पर बुद्ध का बेटा था, तो अदभुत होना चाहिए। बारह साल के बेटे से यह अपेक्षा करनी! लेकिन वह भिक्षु की तरह रहा। चूंकि छोटा था, इसलिए भिक्षुओं का जो प्रथम द्वार है--श्रामणेर, उसकी ही दीक्षा उसे बुद्ध ने दी थी। लेकिन श्रामणेर रहते हुए भी वह छोटा सा बच्चा अर्हत की अवस्था के करीब आ गया था, बुद्ध होने के करीब आने लगा था।
मार का हमला तभी होता है, जब कोई बुद्ध होने के करीब आने लगता है। उसके पहले हमला नहीं होता। तुम्हारा अगर शैतान से मिलना नहीं हुआ है, तो उसका कारण यह नहीं है कि शैतान नहीं है। उसका केवल इतना ही कारण है कि तुम अभी इस योग्य नहीं कि शैतान तुम पर ध्यान दे। उसके लिए पात्रता चाहिए, योग्यता चाहिए।
तुम में शैतान को कुछ रस नहीं है। तुम गड्ढे में वैसे ही पड़े हो। शैतान तुम से जो करवाए, वह तुम अपने आप ही कर रहे हो। शैतान तुम्हें जहां ले जाए, तुम अपनी मर्जी से ही जा रहे हो। अब शैतान और क्या करे! तुम्हारे साथ कोई उपाय नहीं है।
शैतान तो तुम्हारे जीवन में तभी प्रगट होता है, जब तुम्हारे जीवन से बुराई गिरने के आखिरी स्थल पर आ जाती है।
शैतान कोई बाहर नहीं है; शैतान तुम्हारे मन की आखिरी चेष्टा है तुम्हें बंधन में रखने के लिए। शैतान का इतना ही अर्थ है कि तुम्हारा मन अपनी मालकियत तुम पर आसानी से नहीं छोड़ देगा।
लेकिन जब तक तुम खुद ही उसके गुलाम हो, तब तक मालकियत कायम करने की कोई जरूरत भी नहीं है। तुम गुलाम हो ही। जब तुम मालिक होने लगते हो, और मन को यह लगता है कि अब मैं गया; अब मेरी मालकियत गयी; अब यह आदमी होश सम्हालता जा रहा है; जल्दी ही मेरी हुकूमत समाप्त हो जाएगी; इसकी हुकूमत आने के करीब है; तब मन अपनी सारी ताकत को इकट्ठी करके...।
और बड़ी ताकत है मन की, क्योंकि जन्मों-जन्मों से मन मालिक रहा है। उसे तुम्हारी सारी कमजोरियां पता हैं। उसे तुम्हारे सारे भय पता हैं। उसे तुम्हारी सारी वासनाएं पता हैं। वह तुमसे भलीभांति परिचित है। वह जानता है, तुम कहां-कहां कमजोर हो। वह कमजोर स्थल पर उंगली रखकर दबाना जानता है। तुमसे उससे ज्यादा परिचित और कौन है! जन्मों-जन्मों में उसने तुम्हें जाना है।
शायद मार ने इसीलिए हमला किया। इस घटना में कुछ अतिथि आ गए हैं, उनको ठहराने की जगह चाहिए, तो राहुल का कमरा उनको दे दिया गया है। रात राहुल सोने के लिए जगह नहीं पाया। कोई और उपाय न देखकर, जहां बुद्ध ठहरे थे, उस गंधकुटी में...।
बुद्ध जहां ठहरते थे, उस कुटी का नाम गंधकुटी होता था। क्योंकि बुद्ध में एक गंध है परलोक की। जहां ठहरते थे, उसका नाम गंधकुटी रखा जाता था। वहां परमात्मा की सुगंध होती। वहां बिना किसी सुगंध के सुगंध होती। वहां बिना किसी वाद्य के संगीत बजता। वहां एक रोशनी होती अंधेरे में भी। वहां बुद्धत्व का वास था। वह जगह मंदिर थी।
कोई जगह न देखकर राहुल फिर बुद्ध की गंधकुटी के बाहर बरामदे में जाकर सो रहा।
एक तो राहुल धीरे-धीरे, यद्यपि ऊपर से श्रामणेर था, बच्चा था, लेकिन भीतर थिर होता जा रहा था। अंतिम घड़ी करीब आ रही थी। और शायद उस दिन अंतिम घड़ी बहुत करीब आ गयी, बुद्ध के सान्निध्य के कारण। पहली बार बुद्ध के बरामदे में सोया था राहुल। बुद्धत्व की मौजूदगी, उसके भीतर जो जागता हुआ बुद्धत्व है उसको बड़ा सहारा बन गयी होगी।
यही तो साधु-संग का रहस्य और राज है। अगर तुम किसी साधु के पास हो, तो तुम्हारे भीतर साधुता को छलांग लेने की सुविधा ज्यादा होगी। तुम अगर असाधु के पास हो, तो तुम्हारे भीतर जो शैतान है, उसका बस तुम पर ज्यादा होगा। क्योंकि आदमी अनुकरण से जीता है।
तुमने कभी खयाल किया, चार आदमी उदास बैठे हों और तुम भी उनके पास जाकर बैठ जाओ, तो तुम उदास हो जाते हो। चार आदमी हंसते हों; तुम उदास आए थे, चार आदमियों को हंसते देखकर तुम भी मुस्कुराने लगते हो, हंसने लगते हो। भूल ही जाते हो।
बुद्धत्व की सन्निधि उस रात; बुद्ध अपनी गंधकुटी में भीतर सोए हैं, और राहुल बाहर बरामदे में लेट रहा है। शैतान ने हमला किया; मार ने हमला किया।
मार जानता है: छोटा बच्चा है। अभी बारह-तेरह साल का है। कामवासना के द्वारा इस पर हमला नहीं किया जा सकता। कामवासना का हमला तो चौदह साल के बाद हो सकता है।
दो ही हमले संभव हैं। या तो काम या भय। छोटा बच्चा भय के द्वारा ही डांवाडोल किया जा सकता है। जवान आदमी शायद भय से डांवाडोल न हो, लेकिन कामवासना से डांवाडोल होता है।
यह छोटा बच्चा है। इसके पास नंगी अप्सराएं नचाने से कुछ भी न होगा। वह ऋषि-मुनियों के पास नचाना ठीक है। यह छोटा ही बच्चा है। यह इसको समझेगा ही नहीं। यह शायद बैठकर मजा लेने लगे। सोचे कि क्या हो रहा है! तमाशा हो रहा है! इस पर कुछ परिणाम न होगा नंगी अप्सराएं नचाने से। यह शायद मस्त होकर सो जाए कि ठीक है। नाचो, खूब नाचो, जितना नाचना हो। इसमें कोई परिणाम न हो! क्योंकि परिणाम तभी हो सकता है, जब वासना सजग हो गयी हो।
बूढ़े में हो सकता है। कभी-कभी तो जवान से भी ज्यादा होता है बूढ़े में। क्योंकि जवान में शक्ति भी होती है, वासना भी होती है। बूढ़े में वासना तो उतनी की उतनी होती है, शक्ति खो गयी होती है। तो जवान में शक्ति भी होती है, वासना भी होती है। चाहे तो अपनी शक्ति से वासना को दबाए रख सकता है। लेकिन बूढ़े के पास शक्ति भी नहीं बचती। वह अपनी वासना को दबा भी नहीं सकता। बूढ़ा बड़ा अवश हो जाता है। वासना उतनी की उतनी होती है। उतनी ही जवान, जितनी पहले थी। और जो ताकत थी जवानी की, वह खो जाती है।
एक दफा एक संन्यासी मुझे काशी में मिलने आए। उनकी कोई चालीस- बयालीस साल की उम्र थी। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं आपसे एक ही बात पूछने आया हूं, वासना का बड़ा मुझ पर हमला होता है! मैंने कहा, तुम घबड़ाओ मत। वासना और संन्यासियों का पुराना नाता-रिश्ता है! यह सदा से ही होता रहा है। तुमने ऋषि-मुनियों की कहानियां पढ़ीं? उन्होंने कहा, पढ़ता हूं। पढ़ता क्या हूं--अब देख ही रहा हूं अपने आप। ऐसा ही हो रहा है। मगर मैं अपने काबू से हटता नहीं। अपने नियंत्रण से हटता नहीं, चाहे कुछ भी हो जाए। मैं आपसे यही पूछने आया हूं कि यह कब तक होता रहेगा?
मैंने कहा, यह तो सदा होगा। पैंतालीस साल के बाद मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि फिर इतनी ताकत न होगी दबाने की। इसलिए दबाने पर अगर भरोसा किया, तो बुढ़ापे में मुश्किल में पड़ जाओगे। दबाने पर भरोसा मत करो। ताकत के दो उपयोग हो सकते हैं: या तो दबाओ, या ताकत को होश बनाओ, स्मृति बनाओ। या तो ताकत दमन बन जाए, या जागरण बन जाए। जागरण बने, तो ही ठीक है। दमन से कुछ भी न होगा।
उन्होंने कहा, आप भी क्या बात कर रहे हैं! मैं तो सदा यही सोचता रहा कि जवानी है और कितने दिन? और दो-चार-दस साल की बात है। पचास साल के बाद फिर क्या होना है? फिर तो बुढ़ापा आ जाएगा। आप क्या बात कर रहे हैं! मैं तो इसी आशा में जीता रहा हूं कि अभी जवानी है, इसलिए वासना जोर मारती है। एक दफा जवानी गयी, वासना का जोर चला जाएगा!
मैंने कहा कि पैंतालीस साल बाद मुझे मिलना।
वे ईमानदार आदमी हैं। वे पैंतालीस साल के बाद मुझे मिलने आए। कोई सैंतालीस साल की उनकी उम्र रही होगी। उन्होंने कहा, आप ठीक कहते थे। मैं मारा गया। मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। अब मुझे पता चल रहा है: मेरी लड़ने की ताकत कम होने लगी और वासना उतनी ही प्रबल है। दुश्मन उतना ही मजबूत है; मैं कमजोर होने लगा। आप ठीक कहते थे। मैं चूक गया। मैंने जितना संघर्ष किया वासना से, अगर उतनी शक्ति जागरण में लगायी होती, तो शायद पहुंचने की कोई संभावना थी। यह जीवन तो गया।
मैंने उनसे कहा, जीवन कभी भी गया नहीं है। सांझ को भी कोई लौटकर आ जाए घर, तो भूला हुआ नहीं है। अभी भी चेष्टा करो। अभी भी जो थोड़ी शक्ति बची है, उसे मत लड़ाओ वासना से। उसे ध्यान बनाओ।
लेकिन राहुल को वासना से नहीं डिगाया जा सकता। इसलिए यह कहानी अनूठी है। चूंकि बारह-तेरह साल के ऋषि-मुनि होते ही नहीं, इसलिए कहानी अनूठी है। तुमने जो कहानियां पढ़ी हैं ऋषि-मुनियों की, वे सब वृद्ध ऋषि-मुनियों की हैं। वहां उर्वशी आती और नाचती; और श्रृंगार करके आती। और सब उस तरह का काम होता है। यह राहुल छोटा सा बच्चा है।
मार ने क्या किया? यह अर्हत हुआ जा रहा है! वह एक बड़ा हाथी बनकर आया है। छोटा बच्चा है, उसके लिए बड़ा हाथी! इतना ही नहीं, सूंड़ में राहुल की गरदन फंसा ली, और भयंकर चीत्कार की।
कहानी को तथ्य मत समझ लेना। ऐसा भीतर हुआ होगा। हो सकता है, सपने में हुआ हो। एक दुखस्वप्न हुआ हो। यह मन ही है, जो यह रूप रखता है। लेकिन यह चीत्कार की आवाज, हो सकता है राहुल के मुंह से निकल गयी हो।
तुम्हारे कभी-कभी मुंह से निकल जाती है--दुखस्वप्न में। छाती पर कोई आकर राक्षस बैठ गया और चीत्कार निकल जाती है। या पहाड़ से गिरा दिए गए और चीत्कार निकल जाती है। या कोई तुम्हारी छाती में छुरा भोंक रहा है और चीत्कार निकल जाती है।
ऐसी चीत्कार छोटे से राहुल से निकल गयी होगी। बुद्ध ने गंधकुटी के भीतर से ही मार को जानकर ऐसे शब्द कहे--मार! तेरे जैसे लाखों भी मेरे पुत्र को भय नहीं उत्पन्न कर सकते।
यहां एक बात और खयाल रख लेना। बुद्ध राहुल को ही मेरा पुत्र कहते हैं, ऐसा नहीं। जितने भिक्षु हैं, सभी को मेरा पुत्र कहते हैं। राहुल तो पुत्र भी है। लेकिन भिक्षु सभी, बुद्ध के पुत्र हैं--बुद्ध संतति।
गुरु पिता है। एक बहुत नए अर्थों में पिता है। पिता से तो शरीर को जन्म मिलता है, गुरु से आत्मा को। पिता से तो जो शरीर मिला है, वह आज नहीं कल मौत ले जाएगी। गुरु से जो आत्मा मिलती है, उसे फिर कोई नहीं ले जा सकता। पिता से तो संसार मिलता है; गुरु से संन्यास। संसार क्षणभंगुर है, संन्यास शाश्वत है।
बुद्ध ने कहा: मार! मेरे बेटे को तेरे जैसे लाखों भी भय उत्पन्न नहीं कर सकते हैं। मेरा पुत्र निर्भीक, तृष्णारहित, महाबलवान और महाबुद्धिमान है। यह कहकर इन गाथाओं को कहा:
‘जिस मनुष्य ने अर्हत का पद पा लिया...।’
अर्हत का अर्थ होता है: जिसके शत्रु समाप्त हो गए--अरि-हत। अरि यानी शत्रु, हत यानी नष्ट हो गए।
जैनों में यही शब्द दूसरे रूप में है--अरिहंत--जिसने अपने शत्रुओं को मार डाला। दोनों में लेकिन थोड़ा सा फर्क है। अर्हत का अर्थ होता है, जिसके शत्रु मर गए। और अरिहंत का अर्थ होता है, जिसने अपने शत्रुओं को मार डाला। जैन परंपरा संकल्प की परंपरा है, संघर्ष की परंपरा है। इसलिए महावीर को महावीर कहा है। नाम उनका वर्धमान था। जैन परंपरा संघर्ष की परंपरा है, इसलिए उसका नाम जैन है। जैन का अर्थ होता है--जिन, जीता हुआ। जीत के लिए संघर्ष है।
बुद्ध की परंपरा में संघर्ष पर जोर नहीं है; तप पर जोर नहीं है; संकल्प पर जोर नहीं है। बुद्ध की साधना में बोध पर जोर है। और बोध जब जगता है, तो शत्रु अपने से हार जाते हैं, तुम्हें हराने नहीं पड़ते।
जैन परंपरा तपश्चर्या पर जोर रखती है, बुद्ध परंपरा स्मृति पर।
इसलिए एक अपूर्व बात घटी है। बौद्धों ने जितना ध्यान को विकसित किया दुनिया में, किसी ने भी नहीं किया। ध्यान बुद्ध का सार है।
अर्हत का अर्थ होता है: जिसके शत्रु गिर गए। बोध जगा और शत्रु गिर गए। जैसे दीया जला और अंधेरा चला गया। ऐसे अर्हत। अरिहंत का अर्थ होता है: शत्रुओं से लड़े; मारा; गिराया; जीता। महावीर का मार्ग संकल्प का; बुद्ध का मार्ग समर्पण का।
लेकिन समर्पण में भी भेद हैं। बुद्ध का मार्ग ऐसे समर्पण का नहीं, जैसे नारद का या मीरा का। उनके समर्पण का अर्थ है: ईश्वर के प्रति समर्पण। बुद्ध के समर्पण का अर्थ है: संघर्ष नहीं, शांत भाव। अपने भीतर ही विश्राम को उपलब्ध हो जाना। किसी के चरण नहीं गहने हैं। कोई परमात्मा नहीं है, जिसके चरणों में चले जाना है। अपने में ही डूब जाना है। लड़ना नहीं है, अपने बोध में समाहित हो जाना है।
‘जिसने अर्हत के पद को पा लिया, वह सदा भयरहित है,’ बुद्ध ने कहा, ‘जो वीततृष्णा और निष्कलुष है, जिसने संसार के शल्यों को काट दिया, यह उसकी अंतिम देह है।’
मार को उन्होंने कहा: सुन पागल! यह राहुल की अंतिम देह है। अब तू इसे डरा न सकेगा। यह तो आखिरी घड़ी आ गयी इसकी। इसके बाद इसकी दुबारा देह होने वाली नहीं है। यह फिर नहीं जन्मेगा। अब तू इसे मौत से न डरा सकेगा।
मौत कब तक डरा सकती है? मौत तभी तक डरा सकती है, जब तक जीवन का आकर्षण है। खयाल कर लेना। जब तक तुम चाहते हो: जीवन बना रहे, बना रहे, सदा बना रहे; जीवेषणा जब तक है, तब तक मौत डरा सकती है।
बुद्ध कहते हैं: इसकी तो जीवेषणा ही चली गयी; यह तो अब दुबारा पैदा होना ही नहीं चाहता; इसके भीतर चाह ही न बची अब बचने की; इसकी भवतृष्णा समाप्त हो गयी है। यह इसकी अंतिम देह है। इस बार इसकी देह गिरेगी, तो दुबारा यह किसी गर्भ में नहीं उतरेगा। यह महाशून्य में प्रवेश करने के लिए तैयार खड़ा है। इसको अब तू डरा न सकेगा। काम से तू डरा नहीं सकता; भय से भी तू डरा नहीं सकता। तेरी चेष्टा व्यर्थ है मार!
तृतीय दृश्य:
भगवान सर्वप्रथम ऋषिपत्तन मृगदाय में--जिसे अब सारनाथ कहते हैं-- पंचवर्गीय भिक्षुओं को उपदेश देने के लिए उरुवेला से काशी की ओर आ रहे थे। मार्ग में उन्हें एक आजीवक मिला। वह तथागत को देखकर बोला: आवुस! तेरी इंद्रियां परिशुद्ध और विमल हैं; तुम किसे उद्देश्य कर प्रव्रजित हुए हो? कौन तुम्हारे शास्ता, कौन तुम्हारे गुरु? या तुम किसके धर्म को मानते हो? ऐसा पूछा। तब शास्ता ने कहा: मेरे आचार्य या उपाध्याय नहीं हैं। मेरा कोई धर्म नहीं है। मेरे जीवन में कोई उद्देश्य नहीं है। तब उन्होंने यह गाथा कही:
सब्बाभिभू सब्बविदूहमस्मि सब्बेसु धम्मेसु अनूपलित्तो।
सब्बञ्जहो तण्हक्खये विमुत्तो सयं अभिञ्ञाय कमुद्दिसेय्यं।।
‘मैं सभी को परास्त करने वाला हूं। मैं सब जानता हूं। मैं सभी धर्मों--तृष्णा इत्यादि--से अलिप्त हूं। सर्वत्यागी हूं। तृष्णा के नाश से मुक्त हूं। स्वयं ही विमल ज्ञान को जानकर किसको गुरु कहूं, किसको शिष्य सिखाऊं!’
यह बड़ा अपूर्व वचन है। पहले तो दृश्य को ठीक से समझ लें।
बुद्ध ने परम ज्ञान के पहले छह वर्ष तक महा तपश्चर्या की। बहुत गुरुओं के पास गए। बहुत गुरुओं की सेवा में रहे। जो-जो कहा गया, वही किया। जिसने जो साधना बतायी, वही साधी। और हर साधना के बाद पाया: संसार समाप्त नहीं हुआ। हर साधना के बाद पाया कि मूल रोग मिटा नहीं; अहंकार शेष है।
हर गुरु से उन्होंने कहा: अहंकार मिटा नहीं। आपने जो कहा, सब मैंने किया! और उन्होंने किया इतनी निष्ठा से था कि कोई गुरु यह नहीं कह सका कि तुमने ठीक से नहीं किया, इसलिए अहंकार नहीं मिटा। उनकी निष्ठा अपूर्व थी। उन्होंने जो किया, समग्र भाव से किया। इसलिए कोई गुरु यह न कह सका।
नहीं तो गुरु को एक सुविधा रहती है: कि हम क्या करें! जो कहा, वह तुमने किया नहीं, इसलिए हुआ नहीं। बुद्ध से यह बात कही नहीं जा सकती थी। इसी बात के कारण दुनिया में झूठे गुरु भी चल जाते हैं। यह बात बड़ी तरकीब की है।
किसी ने तुमसे कहा कि देखो, ध्यान करो। लेकिन मंत्र पढ़ते वक्त बंदर का स्मरण मत करना। अब तुम बैठे ध्यान करने। बंदर का स्मरण आने वाला है। अब तुम लाख उपाय करो, जितने तुम उपाय करोगे, उतना ही बंदर का स्मरण आएगा। और तुम गुरु से जाकर कहोगे: क्या करूं, कुछ हो नहीं रहा है! वह कहेगा: मैं भी क्या करूं। शर्त पूरी नहीं कर रहे हो। वह बंदर का स्मरण नहीं आना चाहिए।
ऐसी अस्वाभाविक शर्तें बांध रखी हैं, जिनके कारण तुम कभी इस स्थिति में नहीं पहुंच सकते कि समझ लो कि जो मार्ग तुमने पकड़ा, वह ठीक है या गलत है! क्योंकि कभी तुम मार्ग को पूरा ही नहीं कर पाते, तो ठीक-गलत का निर्णय कैसे हो? इसलिए झूठे गुरु भी चल जाते हैं। मिथ्या गुरु भी चल जाते हैं। सदा उनके लिए एक सुविधा है, सुरक्षा है--कि मैंने जो कहा, वह तुमने किया नहीं। करने को वे इस तरह की बातें कहते हैं, जो कि अमानवीय हैं। जो कि शायद की नहीं जा सकतीं। या जिन्हें करने के लिए कोई महा संकल्पवान व्यक्ति चाहिए।
बुद्ध वैसे ही व्यक्ति थे। सब दांव पर लगाया था। ऐसे कुनकुने आदमी नहीं थे कि चलो, मिल जाए ईश्वर तो ठीक है! जीवन जाए, तो ठीक, मगर ईश्वर को मिलना! सत्य को मिलना! सब खो जाए, उसके लिए राजी थे। जुआरी थे। क्षत्रिय थे। दांव पर लगाना जानते थे। कोई दुकानदार नहीं थे। कुछ ऐसा थोड़ा-बहुत करने से, घंटी बजाने से, राम-राम जपने से मिल जाएगा--ऐसी उनको आस्था भी नहीं थी।
तो जिस गुरु ने जो कहा, बिलकुल मूढ़तापूर्ण बातें कहीं, वे भी उन्होंने कीं। किसी ने कहा कि रोज-रोज भोजन कम करते जाओ, रोज भोजन कम करते जाओ, जब एक चावल का दाना ही भोजन बचे, तब ज्ञान होगा। ऐसे वे कम करते गए। छह महीने में एक चावल का दाना ही भोजन बचा। ज्ञान तो नहीं हुआ, शरीर नष्ट हो गया!
निरंजना नदी को पार करते थे, पार न कर सके। छोटी सी नदी। कोई बड़ी नदी नहीं। थककर गिर गए। एक जड़ को पकड़कर रुके रहे। जड़ को भी पकड़ने की ताकत न थी! तब स्मरण आया कि यह मैं क्या कर रहा हूं! इस तरह शरीर को नष्ट करके, सिर्फ शक्ति खो गयी। नदी पार कर नहीं सकता, भवसागर पार करने का इरादा रख रहा हूं!
बुद्ध बहुत गुरुओं के पास गए, लेकिन जहां गए, जो कहा, वही किया। फिर भी कुछ सफल न हुआ। गुरुओं ने उनसे क्षमा मांग ली। उनकी इस घटना को पढ़कर मुझे हमेशा खलिल जिब्रान की एक कहानी याद आती है।
एक आदमी गांव-गांव घूमता था। वह कहता था: जिसको ईश्वर से मिलना हो, मेरे साथ आओ। मुझे पता है। मैं ईश्वर तक पहुंचा दूंगा। कहां पहाड़ों में रहता है, मुझे मालूम है।
मगर किसी को पहली तो बात ईश्वर से मिलना ही नहीं। लोग कहते कि जब मिलना होगा, जरूर आपके पास आएंगे। लोग उनको दान भी देते, उनकी पूजा भी करते, उनको भोजन भी करवाते। और कहते: महाराज! अब आप जाओ।
ईश्वर से किसको मिलना है? लोग कहते: अभी जिंदगी में और हजार काम हैं। आखिर में जब मिलने की इच्छा आएगी, जरूर आपके पास आएंगे।
ऐसे धंधा चलता था। न कोई मिलना चाहता था, न कोई मिलने की झंझट आती थी। मगर एक गांव में एक आदमी झंझटी मिल गया। उसने कहा: अच्छा गुरुदेव! हम चलते हैं; चलो!
गुरु ने सोचा कि कुछ भटकाएंगे जंगलों में। कुछ दिन में अपने आप थक जाएगा। मगर वह भी एक था। वह महागुरु था। वह थके ही नहीं! वह तो रोज सुबह उठकर कहे कि गुरुदेव! कितनी देर और लगेगी? अब कहां तक और चलना है? उसने गुरु को थका मारा।
छह साल पहाड़ों में घूमते रहे। गुरु को मार ही डाला उसने। गुरु को भी पता हो तो कहीं पहुंचा दे। पहुंचाए कहां? चक्कर काटते रहे पहाड़ों में कि भई, अब आता, अब आता!
एक दिन गुरु ने कहा, यह तो हद्द हो गयी! मेरी जिंदगी खराब कर देगा। अपनी तो कर ही रहा है, यह मेरी भी जिंदगी खराब कर देगा! उसने उसके हाथ जोड़े और कहा: महाराज! मुझे रास्ता पता था; मगर जब से तुम्हारा सत्संग हुआ, सब भूल गया। अब यह परमात्मा का मुझे भी मिलना नहीं हो रहा है। अब तुम मुझे बख्शो। मेरे सत्संग में तुम तो नहीं पहुंच सकते, तुम्हारे सत्संग में मैं भटक गया! अब आप क्षमा करो। अब आप किसी और गुरु का पीछा पकड़ो।
ऐसे ही बुद्ध थे। जिसने जो कहा, पूरा किया। हर गुरु ने कहा कि अब आप और कहीं जाएं किसी और को...। क्योंकि इनको देखकर दूसरे शिष्य भागने लगें न! कि भई, इतनी मेहनत करके जब इस आदमी को नहीं मिला, तो हम तो इतनी मेहनत कर भी नहीं सकते। हमको तो कैसे मिलने वाला है?
अंततः बुद्ध ने सारे गुरु छोड़ दिए। अंततः बुद्ध ने सारे पथ और सारे मार्ग छोड़ दिए। सारी विधियां छोड़ दीं। जब उन्होंने सब छोड़ दिया--तब मिला। अपूर्व घटना घटी।
एक रात उन्होंने निर्णय ही कर लिया कि अब मुझे खोजना ही नहीं है। खोज की वासना भी छोड़ दी। सत्य को पाने की वासना भी तो वासना ही है, वह भी छूट गयी। उस रात सो गए वृक्ष के तले। कोई चिंता नहीं। कहीं जाना नहीं। कुछ पाना नहीं--न धन, न ध्यान; न पद, न परमात्मा--कुछ पाना ही नहीं।
चित्त एकदम विलुप्त हो गया। क्योंकि चित्त जीता है पाने की आकांक्षा से। चित्त का प्राण ही पाने में है। कुछ पा लूं, कुछ मिल जाए। महत्वाकांक्षा चित्त की आत्मा है।
उस क्षण कोई महत्वाकांक्षा न थी। उस सुबह जब बुद्ध की आंखें खुलीं, आखिरी तारा डूबता था रात का, और उसके डूबते-डूबते ही उनका भीतर का तारा ऊग आया। हो गया। मगर यह स्वयं से हुआ।
ये जो पंचवर्गीय भिक्षु हैं, ये पांच भिक्षु बुद्ध के शिष्य थे। जब बुद्ध एक-एक चावल भोजन करते थे, तब ये पांच भिक्षु उनके शिष्य थे। वे बुद्ध को बड़ा गुरु मानते थे। क्योंकि इतना महातपस्वी! हड्डियां मात्र रह गयी थीं शरीर में। चमड़ी सूख गयी थी। सुंदर देह एकदम काली पड़ गयी थी। अस्थि-पंजर रह गए थे। तब वे पांच भिक्षु उनको गुरु मानते थे। हालांकि उनको कुछ मिला नहीं था, मगर उनका त्याग उनको प्रभावित करता था।
दुनिया में बड़े अजीब लोग हैं! उनको कौन सी चीज प्रभावित करती है, यह भी बड़ी सोचने जैसी बात है! यह आदमी मरा जा रहा है। यह आत्महत्या में संलग्न है। और वे प्रभावित हो रहे हैं! दुनिया में बड़े दुष्ट लोग हैं।
तुम खयाल रखना: जब तुम उपवास करो और कोई तुम्हारी आकर प्रशंसा करे, समझ लेना कि यह आदमी क्या चाहता है! यह तुम्हें भूखा मरवाना चाहता है। तुम सिर के बल खड़े हो जाओ, और यह आदमी कहे: वाह! आप बड़े महातपस्वी हैं। इससे सावधान रहना। यह तुम्हारी जिंदगी खराब कर देगा। यह चाहता है: तुम सिर के बल खड़े रहो!
दुनिया में लोग दूसरों को दुखी देख-देख कर मजा लेते हैं। इसलिए मुनियों, साधुओं और तपस्वियों के पास दुष्ट प्रकृति के लोग इकट्ठे हो जाते हैं। वे कहते हैं: महाराज! गजब कर रहे हैं! कांटों पर लेटे हैं! भीड़ लगा लेते हैं। धूप में खड़े हैं! भयंकर गर्मी पड़ रही है, और गुरुदेव! आप धूनी रमाए बैठे हैं! आग जलाकर ताप रहे हैं! गजब!
ये जो लोग हैं, इनके लिए मनोविज्ञान में एक खास शब्द है: मेसोचिस्ट। ये परदुखवादी हैं। यह दूसरा सता रहा है अपने को, इसमें इनको मजा आता है! ये वैसे ही लोग हैं, जैसे कोई आदमी अपने शरीर में घाव कर ले और छुरी से घाव को कुरेदता रहे, और ये कहें: वाह! आप बड़ी महासाधना कर रहे हैं! आपका जुलूस निकालेंगे, शोभा-यात्रा निकालेंगे।
पर्युषण में आपने दस दिन व्रत किए, उपवास किए, शोभा-यात्रा निकालेंगे। भूखे रहे आप महीने भर, बड़ा उपवास किया--आप महातपस्वी हैं!
तुम दुख दो अपने को, और दूसरे लोग तुम्हें आदर देते हैं। जरूर इसमें कुछ राज है। जब वे तुम्हें आदर देते हैं, तो तुम अपने को और दुख देने को राजी हो जाते हो, क्योंकि अहंकार की तृप्ति होती है। और उनकी भी जरूर कोई तृप्ति हो रही है।
लोग जासूसी किताबें पढ़ते हैं। क्यों? लोग जाकर हत्याओं की फिल्म देखते हैं; डकैतियों की फिल्म देखते हैं; क्यों? तुमने कभी पूछा?
रास्ते पर दो आदमी लड़ रहे हों, तत्काल भीड़ खड़ी हो जाती है। तुम, तुम्हारी मां बीमार है, दवा लेने जा रहे थे। साइकिल टिकाकर किनारे, तुम भी खड़े हो गए--कि अब मां समझे...। मां की दवा में क्या है! घंटे दो घंटे की देर भी हो गयी--चलेगा। मगर यह तमाशा छोड़ा नहीं जा सकता।
और दो आदमी बिलकुल लड़ने-मारने को तैयार हैं। तुम्हारी भी उत्सुकता बढ़ती जाती है कि अब कुछ होता ही है! अब कुछ होने ही वाला है! और अगर संयोग से कुछ न हो, तो तुम बड़े उदास लौटते हो।
तुमने खयाल किया? कुछ न हो। वे दोनों आदमी कहें: अच्छा भाई, क्या फायदा लड़ने-झगड़ने से! एकदम गांधीवादी हो जाएं। कहें कि चलो, महात्मा गांधी की जय! क्या फायदा! हम तुमको मारें, तुम हमको मारो! कोई सार नहीं। तो जितनी भीड़ खड़ी है, वह उदास लौटेगी--कि कुछ भी नहीं हुआ! घंटाभर खराब हुआ। गाली-गलौज काफी बकी गयी!
लोग दूसरे के दुख में एक तरह का रस लेते हैं। और दूसरे के सुख से पीड़ित होते हैं।
तुमने देखा: तुम बड़ा मकान बनाओ; पूरा गांव तुम्हारे खिलाफ हो जाता है। तुम सुखी दिखायी पड़ो; किसी को सुख नहीं होता। तुम स्वस्थ हो, किसी को अच्छा नहीं लगता। तुम खाते-पीते, मजे से जी रहे हो; तुम्हारे घर संगीत होता है, नाच होता है; सारा गांव तुम्हारा दुश्मन हो जाता है--कि अरे! भोगी है, भ्रष्ट है। नर्क जाएगा।
और तुम भूखे मरो, धूप में बैठ जाओ, घाव बना लो--सारे गांव की दया और सहानुभूति तुम्हारे लिए है! तुम्हारे घर में आग लग जाए, तो लोग सहानुभूति प्रगट करने आते हैं। वे कहते हैं: बड़ा बुरा हो गया! और तुम्हारा घर बड़ा हो जाए, और एक नयी मंजिल बन जाए; कोई नहीं आता कहने कि बड़ा अच्छा हो गया।
जरा सोचना। जब अच्छा होता है, तब कोई कहने नहीं आता कि अच्छा हो गया। और जब बुरा होता है, तब लोग कहने आते हैं कि भई बहुत बुरा हो गया। मगर जब वे कहते हैं कि बहुत बुरा हो गया, तब उनकी आंखों में झांकना। तुम पाओगे: वे रस ले रहे हैं। सहानुभूति में मजा आ रहा है। तुम आज नीची हालत में हो। आज तुम पर दया करने का मौका मिला। यह मौका कभी मिला नहीं था। तुम कभी बुरी हालत में थे ही नहीं। आज तुम चारों खाने चित्त पड़े हो! आज कोई भी दया कर सकता है। राह चलता राहगीर कह सकता है: भाई, बहुत बुरा हुआ! लेकिन उसके भीतर देखो: कुछ मजा ले रहा है।
मनुष्य का मन बड़ा जटिल है।
ये पांच भिक्षु बुद्ध की सेवा में रत रहे। लेकिन जब बुद्ध ने सब उपवास छोड़ िदया, तप छोड़ दिया, इन्होंने बुद्ध को छोड़ दिया। इन्होंने कहा: यह भ्रष्ट हो गया। गौतम भ्रष्ट हो गया! अब यह काम का नहीं रहा। यह पतित हो गया।
जब तक यह गौतम अपने को सता रहा था, महातपस्वी था। जिस दिन बुद्ध ने यह सब व्यर्थ मूढ़ता छोड़ दी, यह आत्महिंसा छोड़ दी, यह आत्मघात छोड़ दिया, उसी दिन पांचों भिक्षुओं ने उनको छोड़ दिया! उन्होंने कहा: अब हमारे काम के न रहे। अब हम कोई दूसरा गुरु खोजेंगे। वे उन्हें छोड़कर चले गए। उसी रात बुद्ध को ज्ञान हुआ। जिस सांझ को पांच भिक्षु छोड़कर चले गए, उस रात बुद्ध को ज्ञान हुआ।
दूसरे दिन सुबह बुद्ध को पहली याद यही आयी कि वे बेचारे पांच! इतने दिन मेरे साथ रहे, और आखिरी घड़ी छोड़कर चले गए। अब, जब कि मेरे पास देने को कुछ था, लेने वाले नहीं हैं। और जब मेरे पास देने को कुछ भी नहीं था, मैं खुद ही मूढ़ता और अंधकार से भरा था, तब वे मेरे पीछे लगे रहे! ऐसी उलटी दुनिया है।
इसलिए बुद्ध उनकी खोज करते हुए निकले कि वे जहां भी गए हों, जाकर पहला संदेश उनको दिया जाए। यद्यपि वे मुझे त्याग गए हैं। यद्यपि उन्होंने मान लिया कि मैं भ्रष्ट हो गया। लेकिन मेरे साथ बहुत दिन रहे। इतना कर्तव्य मेरा है कि पहला संदेश उन्हीं को दूं। इसलिए बुद्ध ने पहला प्रवचन उन्हीं पांच भिक्षुओं को दिया।
उनका पीछा करते बुद्ध सारनाथ तक आए। जहां-जहां पता चला कि वे दूसरे गांव चले गए, बुद्ध वहां गए। सारनाथ जाकर उन्होंने देखा एक वृक्ष के नीचे पांचों भिक्षुओं को बैठे हुए।
उन पांचों भिक्षुओं ने देखा बुद्ध को आते हुए। वे बोले कि यह भ्रष्ट गौतम आ रहा है! हम इसको नमस्कार न करें। यह नमस्कार के योग्य भी नहीं है। यह बिलकुल पतित हो गया है। तो वे पीठ करके बैठ गए।
बुद्ध जब उनके पास गए, जब पास जाकर खड़े हो गए, और बुद्ध ने कहा: एक बार मेरी तरफ तो देखो। जिसे तुम छोड़ आए थे, मैं वही नहीं हूं। आज जो आया है, कोई और है। एक बार मेरी तरफ देखो।
और उन्होंने पांचों ने आंख उठाकर बुद्ध की तरफ देखा। पहले एक उनके चरणों में गिरा; फिर दूसरा; फिर पांचों उनके चरणों में गिरे। क्षमा मांगने लगे कि हमें क्षमा कर दें। हमने तो सोचा कि भ्रष्ट गौतम आ रहा है। लेकिन हम देख सकते हैं कि सब रूपांतरित हो गया है। ज्योति का उदय हुआ है। तुम प्रकाशित हो गए। कैसे प्रकाशित हो गए? हमें राह बताओ।
बुद्ध ने कहा: इसीलिए आया हूं।
यह घटना सारनाथ जाते हुए रास्ते पर घटी।
भगवान सर्वप्रथम ऋषिपत्तन मृगदाय में पंचवर्गीय भिक्षुओं को उपदेश देने के लिए उरुवेला से काशी की ओर आ रहे थे। मार्ग में उन्हें एक उपक आजीवक मिला।
आजीवक एक संप्रदाय था उस समय का, जो अब विनष्ट हो गया है। बुद्ध और जैन दोनों संप्रदाय आजीवक संप्रदाय से बहुत मिलते-जुलते हैं। उसी की छायाएं हैं इन पर। उसी के प्रतिबिंब हैं। उसी की ध्वनियां हैं।
आजीवक संप्रदाय का एक भिक्षु मिला। उसने बुद्ध को देखा; वह चकित हो गया। ऐसा आदमी कभी नहीं देखा था। ऐसा ज्योतिर्मय, ऐसी शुद्ध इंद्रियां, ऐसी निर्मल आंखें, ऐसी निर्मल छाया, ऐसा चारों तरफ शांति का वातावरण!
उसने कहा: आवुस! तेरी इंद्रियां परिशुद्ध और बड़ी विमल हैं। तुम किस उद्देश्य से संन्यस्त हुए थे? अपना उद्देश्य मुझे भी बताओ। मैं भी खोज रहा हूं। कौन तुम्हारे गुरु? कौन तुम्हारे शास्ता? मैं भी खोज रहा हूं। मुझे अब तक ठीक गुरु नहीं मिला। ठीक मार्ग नहीं मिला। और तुम किसके धर्म को मानते हो? कौन से धर्म में तुम्हारी श्रद्धा है? किस शास्त्र पर तुम्हारा भरोसा है? तुम किन विधियों के अनुयायी हो?
तब शास्ता ने उससे कहा: मेरे आचार्य या उपाध्याय नहीं हैं। मैं किसी धर्म को नहीं मानता। मेरी किसी शास्त्र में श्रद्धा नहीं है। मैंने जो पाया है, अपने से पाया है।
यह बुद्ध का परम संदेश है। क्योंकि जो मिलना है, वह तुम्हारे भीतर पड़ा है। कोई दूसरा थोड़े ही देने वाला है। हस्तांतरण नहीं होता सत्य का। तुम्हारे भीतर पड़ा है। गुरु अगर कुछ करता है, तो इतना ही कि तुम्हारे भीतर जो पड़ा है, उसको ही पुकारता है। उसे तुम स्वयं भी पुकार सकते हो।
गुरु अनिवार्य नहीं है बुद्ध के मार्ग पर। तुम स्वयं न पुकार सको, तो उसकी जरूरत है। तुम स्वयं अपने को असमर्थ पाओ, तो उसकी जरूरत है। अन्यथा तुम स्वयं भी पुकार सकते हो। क्योंकि खदान तुम्हारे भीतर है। तुम स्वयं भी खोज सकते हो। गुरु तुम्हें धन देगा नहीं, सिर्फ इतना ही कह देगा कि इस तरह मैंने अपने भीतर खोदा, इसी तरह तुम भी अपने भीतर खोद लो।
मगर जो है, तुम्हारे भीतर है। जो है, तुम्हारे स्वभाव में छिपा है। जो है, उसे तुम लेकर ही आए हो, वह तुम्हारा जन्मसिद्ध, स्वभावसिद्ध अधिकार है।
इसलिए बुद्ध ने कहा कि मेरा कोई गुरु नहीं है। मैंने गुरुओं के द्वारा नहीं पाया। मेरा कोई आचार्य नहीं, मेरा कोई उपाध्याय नहीं। ऐसा नहीं कि मैं गुरुओं के पास नहीं रहा। रहा, लेकिन वहां मुझे कुछ मिला नहीं। और जब मिला, तब मैं किसी गुरु के पास नहीं था।
और जो मैंने पाया है, वह कुछ ऐसा है कि अब मैं तुमसे कह सकता हूं कि उसे किसी और के पास लेने जाने की जरूरत नहीं है। अपने भीतर ही चले जाओ, तो मिल जाए। शास्त्रों में नहीं है, स्वयं में है। शब्दों और सिद्धांतों में नहीं है, तुम्हारी चेतना में बसा है। तुम मंदिर हो, परमात्मा तुम्हारे भीतर बैठा है।
‘मैं सभी को परास्त करने वाला हूं।’
बुद्ध ने कहा, मेरे जितने शत्रु थे, वे सब गए।
‘मैं सब जानता हूं।’
जो जानने योग्य है, वह मुझे दिखायी पड़ गया है।
‘मैं सभी धर्मों--तृष्णा इत्यादि--से मुक्त हो गया हूं। अलिप्त हो गया हूं। सर्व त्यागी हूं।’
सर्वत्यागी का अर्थ होता है, मैंने त्याग को भी त्याग दिया है। मैं सब धर्मों से मुक्त हो गया हूं। मैंने जगत की तृष्णा तो छोड़ ही दी है; मोक्ष की तृष्णा भी छोड़ दी है। मेरा कोई उद्देश्य ही नहीं है। मैं अब बिलकुल निरुद्देश्य हूं, जैसे फूल खिलता है निरुद्देश्य। जैसे सुबह सूरज निकलता है निरुद्देश्य, ऐसा मैं निरुद्देश्य हूं। मेरा कोई लक्ष्य नहीं है। सब लक्ष्य गए। सब उद्देश्य गए। सब भविष्य गया। मेरी कोई वासना नहीं है--मोक्ष की भी नहीं है।
‘मैं तृष्णा के नाश से मुक्त हूं।’
यह बड़ा अजीब वचन है। बुद्ध यह नहीं कहते कि मैं तृष्णा से मुक्त हूं। बुद्ध कहते हैं, मैं तृष्णा से तो मुक्त हूं ही; मैं तृष्णा के नाश से भी मुक्त हूं। तृष्णा तो गयी ही, अतृष्णा भी गयी।
नहीं तो उलटा हो जाता है। संसार पकड़े थे पहले; फिर संसार तो छोड़ दिया, फिर संन्यास पकड़ लिया। मगर पकड़ कायम रही! धन पकड़े थे पहले। धन तो छोड़ दिया, अब निर्धनता पकड़ ली! मगर पकड़ जारी रही।
बुद्ध कहते हैं: परम त्याग तो तब है, जब त्याग भी छूट जाए। परम संन्यास तो तब है, जब संसार तो छूटे ही छूटे, संन्यास से भी मुक्ति हो जाए। नहीं तो वह भी पकड़ बन जाएगा। तो कुछ फायदा न हुआ। मुट्ठी पूरी खुल जानी चाहिए।
‘मैं तृष्णा से मुक्त, तृष्णा के नाश से मुक्त हूं। मैं स्वयं ही विमल ज्ञान को जानकर जागा। मैं किसको गुरु कहूं?’
और इतना ही नहीं वे कहते कि मैं किसको गुरु कहूं। वे कहते हैं, ‘मैं किसको शिष्य सिखाऊं?’
न मैंने किसी से पाया! मैंने अपने भीतर पाया। तो जो मेरे पास आएंगे, वे भी अपने भीतर ही पाएंगे। शिष्य कहने से क्या सार है!
इसलिए बुद्ध ने कहा: मैं मित्र हूं। न तो गुरु तुम्हारा; न तुम मेरे शिष्य। मैं मित्र हूं। और बुद्ध ने कहा कि मेरा जो भविष्य में पुनः आगमन होगा, मेरा नाम होगा--मैत्रेय। तब मैं परिपूर्ण मित्र रूप में प्रगट होऊंगा।
अंतिम दृश्य:
एक बार देवताओं में यह प्रश्न उठा कि दानों में कौन दान श्रेष्ठ है? रसों में कौन रस श्रेष्ठ है? रतियों में कौन रति श्रेष्ठ है? और तृष्णा-क्षय को क्यों सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है?
कोई भी इन प्रश्नों का उत्तर न दे सका। देवताओं ने सबसे पूछने के बाद इंद्र से पूछा। वह भी इसका उत्तर न दे सका। तब इंद्र सहित सभी देवताओं ने जेतवन में जाकर भगवान के पास आ इन प्रश्नों को पूछा।
भगवान ने कहा: धर्म के अनुभव में सब प्रश्नों के उत्तर हैं। फिर प्रश्न बहुत नहीं हैं, एक ही है। सोचने मात्र से समाधान नहीं होगा। जागो। जागने में समाधान है। धर्म के अनुभव में समाधान है। सब व्याधियों के लिए एक ही औषधि है--धर्म। तब उन्होंने यह सूत्र कहा।
सब्बदानं धम्मदानं जिनाति सब्बं रसं धम्मरसो जिनाति।
सब्बं रति धम्मरती जिनाति तण्हक्खयो सब्बदुक्खं जिनाति।।
‘धर्म का दान सब दानों में बढ़कर है। धर्म-रस सब रसों में प्रबल है। धर्म में रति सब रतियों में बढ़कर है। और तृष्णा का विनाश सारे दुखों को जीत लेता है और धर्म की उपलब्धि उससे होती है, इसलिए वह सर्वश्रेष्ठ है।’
पहले इस दृश्य को हृदयंगम कर लें।
एक बार देवताओं में प्रश्न उठा...। देवताओं के पास कुछ और काम है भी नहीं। व्यर्थ की बकवास! देवता करेंगे भी क्या? काम तो वहां कुछ बचता नहीं! काम तो समाप्त हो गया। कल्पवृक्षों के नीचे बैठकर सभी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं!
देवता सुख ही सुख में जीते हैं। जीवन का बाहर का व्यवसाय तो बंद हो जाता है। जब बाहर का व्यवसाय बंद हो जाता है, तो चित्त के सब व्यवसाय शुरू हो जाते हैं। तब बड़ा सोच-विचार उठता है। बड़े विवाद उठते हैं।
खयाल करना, दर्शनशास्त्र तभी पैदा होता है, जब पेट ठीक से भरा हो। भूखे भजन न होईं गोपाला। भूखे भजन हो भी नहीं सकता।
जीवन की सीढ़ियां हैं। शरीर की जरूरतें पूरी हो जाएं, तो मन की जरूरतें पैदा होती हैं। शरीर की जरूरतें अधूरी रहें, तो मन की जरूरतें कभी पैदा नहीं होतीं।
अब कोई भूखा मर रहा है, उसको तुम कहो कि यह बीथोवन का संगीत सुनो। वह तुम्हारा सिर फोड़ देगा। वह कहेगा: मैं भूखा मर रहा हूं। बीथोवन का संगीत! आप कह क्या रहे हैं? आप मेरा अपमान कर रहे हैं!
और भूखे पेट में बीथोवन का संगीत जाएगा कैसे! भूखा संगीत सुन कैसे सकता है?
कोई भूखा मर रहा है, और तुम कहते हो, पढ़ो कालिदास की कविताएं! इनसे बड़ा आनंद आएगा! वह कहता है: कुछ रोटी मिल जाए! कालिदास आप पढ़ो; रोटी मुझे दे दो!
एक सीढ़ी है। शरीर की जरूरत पूरी हो, तो मन की जरूरत। मन की जरूरत में काव्य है, संगीत है, कला है। फिर मन की जरूरतें पूरी हो जाएं, तो आत्मा की जरूरतें पैदा होती हैं।
जिसने अभी संगीत नहीं सुना, और जिसने काव्य का रसास्वादन नहीं किया, वह धर्म के जगत में प्रवेश न कर सकेगा। और जिसने अभी दर्शन-शास्त्र के ऊहापोह में उलझन नहीं ली, नहीं डोला, वह भी धर्म में प्रवेश नहीं कर सकेगा।
धर्म आखिरी जरूरत है। धर्म अंतिम है। वह आत्मा की जरूरत है। इसलिए जब कोई देश समृद्ध होता है, तो वह धार्मिक होता है। जब कोई देश गरीब हो जाता है, अधार्मिक हो जाता है।
इसलिए भारत जैसे देश की अभी धार्मिक होने की संभावना नहीं है। अभी भारत के कम्युनिस्ट होने की संभावना है, धार्मिक होने की संभावना नहीं है।
इसलिए लोग हैरान भी होते हैं। पश्चिम से लोग आ रहे हैं पूरब में, तलाश करते धर्म की। और पूरब के लोग हैरान होते हैं कि यह मामला क्या है! पूरब के लोग पश्चिम जा रहे हैं! कैसे अच्छी इंजीनियरिंगआ जाए; कैसे अच्छे डाक्टर हो जाएं। कैसे टेक्नोलाजी, कैसे विज्ञान, इसके लिए पश्चिम जा रहे हैं।
पूरब के सोच-विचारशील लोग पश्चिम की तरफ भाग रहे हैं कि एक डिग्री पश्चिम से और ले आएं। और पश्चिम से लोग डिग्रियां इत्यादि फेंककर, कूड़े-कर्कट में डालकर...।
यहां मेरे संन्यासियों में कम से कम बीस पीएच.डी. हैं! तुम एक को भी न पहचान पाओगे कि यह आदमी पीएच.डी. है। यहां कम से कम पचास एम.ए. हैं। तुम एक को भी न पहचान पाओगे। और ऐसा तो बहुत कम है कि ग्रेज्युएट कोई न हो। मगर तुम एक को न पहचान पाओगे। सब कचरे में डालकर चले आए हैं। दो कौड़ी की हो गयीं बातें।
यहां कोई पीएच.डी. हो जाता है, तो अखबारों में खबर छपती है। जुलूस निकाला जाता है! मैंने सुना है, इलाहाबाद में जब पहला आदमी मेट्रिक हुआ था, तो हाथी पर बैठकर जुलूस निकाला था!
यहां कोई आदमी पश्चिम पढ़ने जाता है, तो अखबारों में खबर निकलती है। जैसे कोई भारी घटना घट रही है कि वे पश्चिम पढ़ने जा रहे हैं! पश्चिम पूरब की तरफ आ रहा है, क्योंकि पश्चिम अब संपन्न है; उसने शरीर का सुख जाना। मन के सुख जाने। अब आत्मा की पीड़ा उठनी शुरू हुई है।
इस बात की बहुत संभावना है कि भविष्य में पश्चिम पूरब हो जाए और पूरब पश्चिम हो जाए। इस बात की बहुत संभावना है कि सूरज पश्चिम से उगे और पूरब में डूबे।
देवताओं के पास कुछ और तो काम नहीं, इसलिए अक्सर ऐसी बहुत कहानियां आती हैं बौद्ध शास्त्रों में, जैन शास्त्रों में, हिंदू शास्त्रों में, देवताओं में बड़ा विवाद उठता है छोटी-छोटी बात पर। हालांकि देवता उत्तर किसी बात का भी नहीं पा सकते। क्योंकि सब बुद्धि का खिलवाड़ है। आत्मिक अनुभव नहीं है। स्वर्ग में आत्मिक अनुभव नहीं घटता, नहीं घट सकता।
सुखी आदमी आत्मा का चिंतन शुरू करता है। मगर चिंतन में ही अटका रहता है। सुखी आदमी को चिंतन से आगे जाना पड़े--अनुभव में; साधना में।
एक बार देवताओं में प्रश्न उठा: दानों में कौन दान श्रेष्ठ? रसों में कौन रस श्रेष्ठ? रतियों में कौन रति श्रेष्ठ? और तृष्णाक्षय को क्यों सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है? कोई भी इन प्रश्नों का उत्तर न दे सका।
यह मत समझना कि उत्तर लोगों ने नहीं दिए। उत्तर तो दिए होंगे। हजार उत्तर दिए होंगे। लेकिन कोई भी उत्तर उत्तर नहीं था। तुम यह मत सोचना कि देवता बिलकुल बुद्धू हैं। क्योंकि तुम यह कहानी पढ़ोगे, तुमको लगेगा: अरे! हम ही उत्तर दे सकते हैं! इसमें देवता उत्तर नहीं दे सके! यह तो बात कुछ जंचती नहीं।
तुमसे कोई पूछे: दानों में कौन दान श्रेष्ठ? तुम भी कुछ उत्तर दोगे, सही-गलत की बात और।
उत्तर तो दिए गए होंगे। लेकिन कोई उत्तर समाधानकारक नहीं था। कोई उत्तर ऐसा नहीं था कि उसको सुनते ही चित्त शांत हो जाए; उसको सुनते ही सत्य का अनुभव हो जाए; उसको सुनते ही, श्रवण करते ही चित्त का विकल्प-जाल टूट जाए--और लगे कि हां, यही ठीक है।
कोई ऐसा सत्य नहीं खोजा जा सका, जो स्वयं-सिद्ध मालूम पड़ा हो। तब देवताओं ने इंद्र से पूछा। इंद्र है देवताओं का राजा। सोचा, शायद इंद्र को पता हो। वह भी इसका उत्तर न दे सका।
नहीं कि उसने उत्तर न दिए होंगे। जरूर उत्तर दिए होंगे। उत्तर तो कोई भी देता है। तुम गधे से गधे को पूछो; वह भी उत्तर देगा। तुम जरा किसी से भी पूछो, कोई भी बात पूछो। उसे पता हो कि न हो, मगर वह उत्तर देगा। उत्तर देने का मौका कोई नहीं चूकता। क्योंकि ज्ञानी बनने का मौका मुफ्त में कौन चूके! किसी से भी पूछो, जिन बातों का उन्हें कोई अनुभव नहीं है...।
ऐसा आदमी तुम्हें मुश्किल से मिलेगा, जो कहेगा: मुझे पता नहीं है। ऐसा आदमी मिले, उसके चरण पकड़ लेना। क्योंकि उस आदमी में कुछ सचाई है।
नहीं तो हरेक उत्तर दे रहा है। कुछ भी पूछे जाओ, उत्तर दे रहा है। कुछ पता नहीं, और उत्तर दे रहा है। जिन्होंने खुद कभी जिंदगी में कुछ नहीं किया, वे हरेक को सलाह दे रहे हैं! जो अपनी सलाहों पर कभी नहीं चले--मौका आ जाए, फिर भी नहीं चलेंगे--वे दूसरों को सलाह दे रहे हैं! दूसरों को मार्ग दिखा रहे हैं! यहां अंधे अंधों को मार्ग दिखा रहे हैं! और इसलिए सारे लोग गड्ढों में पड़े हैं--नेता भी और अनुयायी भी।
इंद्र ने भी उत्तर दिया होगा। राजा है देवताओं का। ऐसे स्वीकार तो नहीं कर लिया होगा--कि मुझे पता नहीं। पहले तो अकड़कर बैठा होगा सिंहासन पर। कहा होगा: अच्छा सुनो। सब समझाया होगा। मगर कोई तृप्त नहीं हुआ। मजबूरी में बुद्ध के पास आना पड़ा।
उत्तर तो बुद्धों के पास ही हैं। बुद्धत्व में ही उत्तर है। जागे हुए में ही उत्तर है। जो भीतर ज्योतिर्मय हुआ है, उसी के पास उत्तर है। भगवान ने क्या कहा?
भगवान ने कहा: धर्म के अनुभव में सब प्रश्नों के उत्तर हैं। तुम्हारे प्रश्न अलग-अलग नहीं हैं। तुम पूछते हो, दानों में कौन दान श्रेष्ठ? रसों में कौन रस श्रेष्ठ? रतियों में कौन रति श्रेष्ठ? और तृष्णा-क्षय को सर्वश्रेष्ठ क्यों कहा है? ये कोई अलग-अलग प्रश्न नहीं हैं। एक ही प्रश्न है। और एक ही इनका उत्तर है।
मगर सोचने मात्र से समाधान न कभी हुआ है, न होगा। जानने से समाधान होता है। दर्शन से समाधान होता है। अनुभव से समाधान होता है।
सब व्याधियों की एक ही औषधि है--बुद्ध ने कहा--जागो; मेरे जैसे हो जाओ। जैसे मैं जागा, ऐसे तुम जागो। जागते ही सारे प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा। और क्या उत्तर हैं इन प्रश्नों के?
तो बुद्ध ने कहा: ‘धर्म का दान सब दानों से बढ़कर है।’
धन देने से क्या होगा? धन से तुम्हें ही कुछ नहीं मिला, तो दूसरे को देने से क्या होगा? धन देने का मतलब ही यह है कि तुमने तो पाया कि कचरा है; अब तुम दूसरे पर टाल रहे हो!
धर्म के दान से। धर्म-दान क्या? पहले तो धर्म को पाओगे, तभी तो दान कर सकोगे न! जो तुम्हारे पास नहीं, उसका दान कैसे करोगे? धन हो, तो धन का दान कर सकते हो। धर्म हो, तो धर्म का दान कर सकते हो। धर्म भीतर का धन है। धर्म आत्म-धन है।
पहले धर्म को पा लो, फिर उसे बांटो। फिर जो भी धर्म के लिए प्यासा दिखे, उसमें उंडेल दो। तुम जागो और दूसरों को जगाओ।
‘धर्म का दान सब दानों में श्रेष्ठ। और धर्म-रस सब रसों में प्रबल है।’
संगीत में थोड़ा सा रस है। क्यों? क्योंकि संगीत में भी थोड़ी सी तन्मयता हो जाती है। संभोग में भी थोड़ा रस है, क्योंकि संभोग में भी क्षणभर को तन्मयता हो जाती है। मगर धर्म-रस में सदा को तन्मयता हो जाती है। गए सो गए, फिर कोई लौटता नहीं। डूबे सो डूबे। एकरस हो जाते हो परमात्मा में।
संभोग में, जिससे तुम्हारा प्रेम है, क्षणभर को एकरस होते हो। फिर अलग हो गए। और फिर अलग होने की पीड़ा और भयंकर हो जाती है। संगीत थोड़ी देर को कानों को मीठा लगता है। फिर संगीत चला गया। फिर शोरगुल है जगत का। शराब पी ली; थोड़ी देर को तन्मय हो गए। फिर नशा उखड़ेगा।
धर्म ऐसा नशा है, जो एक दफे हुआ, तो फिर उखड़ता नहीं। पीया सो पीया। और धर्म ऐसा नशा है कि बेहोशी भी लाता है और होश को नष्ट नहीं करता; होश को बढ़ाता है। धर्म अदभुत नशा है; होश और बेहोशी साथ-साथ पैदा होते हैं। एक तरफ मस्ती छा जाती है और एक तरफ परम होश भी होता है।
‘तो धर्म-रस सब रसों में बढ़कर, और धर्म में रति सब रतियों से बढ़कर है।’
प्रेमों में सबसे बड़ा प्रेम है, धर्म से प्रेम। रतियों में सबसे बड़ी रति है, धर्म-रति।
स्त्री के साथ थोड़ी देर खेलो, थोड़ा सुख है। पुरुष के साथ थोड़ी देर खेलो, थोड़ा सुख है--रति-क्रीड़ा। लेकिन परमात्मा के साथ खेल लो--सदा के लिए। धर्म-रति बुद्ध कह रहे हैं उसको। अस्तित्व के साथ संभोगरत हो जाओ; अस्तित्व के साथ एक हो जाओ। फिर कोई अलग न कर सकेगा। क्यों? क्योंकि अस्तित्व के साथ वस्तुतः हम एक ही हैं। हमने अलग मान लिया, वह हमारी भ्रांति है। उसी भ्रांति के कारण दुख है। भ्रांति गिर जाए, फिर सुख ही सुख है।
‘और तृष्णा का विनाश सर्वश्रेष्ठ कहा है, क्योंकि तृष्णा के विनाश से ही धर्म उपलब्ध होता है।’
इसलिए बुद्ध ने कहा: तुम्हारे प्रश्न अलग-अलग नहीं, एक ही प्रश्न है। और मेरा उत्तर भी एक है, एक शब्द में है--धर्म। एस धम्मो सनंतनो।
आज इतना ही।