BUDDHA

Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) 104

One Hundred And Fourth Discourse from the series of 122 discourses - Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) by Osho. These discourses were given during NOV 21, 1975 to DEC 10, 1977.
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पहला प्रश्न:
भगवान, भगवान बुद्ध बार-बार कहते हैं कि यही बुद्धों का शासन है। आप भी प्रायः इसी भाषा में बोलते हैं। तो क्या एक बुद्ध सभी बुद्धों की ओर से बोल सकता है? यदि हां, तो अतीत में हुए बुद्धों में मतभेद क्यों रहा?
बुद्धत्तव का स्वाद एक है; मतभेद दिखता हो, तो तुम्हारे कारण दिखता होगा। तुम्हारी व्याख्या के कारण मतभेद निर्मित होता होगा। तुम्हारी समझ विकृति लाती होगी। अन्यथा बुद्धों ने सदा एक ही बात कही है।
भाषाएं अलग हैं; क्योंकि युग अलग होते हैं, तो भाषा बदल जाती है। शब्द भिन्न हैं, लेकिन भाव भिन्न नहीं हैं। भाव भिन्न हो ही नहीं सकता। इस मनोदशा से खोजने जाओगे, तो अभेद पाओगे।
लेकिन लोगों को सिखाया गया है कि भेद है। भेद ही नहीं, विपरीतता है। जैन घर में पैदा हुए, तो महावीर और बुद्ध में भेद है। महावीर ठीक, बुद्ध गलत। बौद्ध घर में पैदा हुए, तो बुद्ध ठीक; महावीर गलत, कृष्ण गलत। हिंदू घर में पैदा हुए, तो मोहम्मद गलत, क्राइस्ट गलत।
ठीक बताने के पहले गलत पकड़ा दिया जाता है। ठीक को समझाने के लिए गलत का उपयोग किया जाता है। और एक को जब तुमने जोर से पकड़ लिया, और सबके विपरीत है, ऐसी धारणा बना ली, तो फिर यह धारणा तुम्हारे जीवनभर तुम्हारी आंखों को धोखा देती रहेगी।
इन धारणाओं के कारण भेद दिखायी पड़ता है, अन्यथा जरा भी भेद नहीं है। भेद हो ही नहीं सकता। भेद का उपाय नहीं है। जहां सारे अंतर के कलुष गिर गए, जहां सारे विचार शांत हो गए, जहां व्यक्ति मन से मुक्त हो गया--वहां कैसा भेद!
यह हो सकता है कि महावीर ने किसी एक बात पर जोर दिया; बुद्ध ने किसी दूसरी बात पर जोर दिया। यह भी इसलिए हुआ कि जो सुनने वाले थे, उनकी क्षमता, उनकी पात्रता, उनकी संभावना, इस सब को देखकर बात कही गयी है। लेकिन सत्य के संबंध में रत्तीभर भी भेद नहीं हो सकता।
फिर सत्य के संबंध में सारे बुद्ध मौन हैं; भेद होगा भी कैसे? प्रक्रियाओं में भेद हो सकता है। कोई कहता है: बैलगाड़ी से जाओ। कोई कहता है: रेलगाड़ी से जाओ। कोई कहता है: हवाई जहाज से चले जाओ। यह प्रक्रियाओं में भेद हो सकता है। लेकिन जहां पहुंचना है, जो मंजिल है, वहां तो बैलगाड़ी भी छूट जाएगी; हवाई जहाज भी छूट जाएगा; रेलगाड़ी भी छूट जाएगी।
मंजिल पर पहुंचकर तो वाहन छूट जाएंगे। मन ही छूट जाएगा। सब दर्शन छूट जाएंगे। सब दृष्टियां छूट जाएंगी। वहां तो तुम भी न बचोगे। भेद करने वाला भी न बचेगा। वहां अभेद होगा। वहां समरसता होगी।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं: बुद्धों में कभी कोई मतभेद नहीं है। लेकिन तुम्हें मतभेद दिखता है, यह सच है। जो तुम्हें दिखता है, वह होना ही चाहिए, इस भ्रांति में मत पड़ना। तुम्हें तो कभी-कभी तुमने ही सुबह जो लंगोट टांग दिया था रस्सी पर सूखने को, वही रात भूत दिखायी पड़ने लगता है! तुम्हें तो कभी-कभी रास्ते में पड़ी रस्सी सांप दिखायी पड़ने लगती है!
तुम्हारे देखने की क्षमता शुद्ध नहीं है। तुम्हें तो कुछ का कुछ दिखायी पड़ता है। तुम्हें तो वही दिखायी पड़ता है, जो तुम मान लेते हो। तुम्हारी धारणा तुम्हारी दृष्टि पर पर्दा डाल देती है। तुम्हें तो क्षुद्र बातों में भूल हो जाती है, तो इन विराट, इन असीम सत्यों के संबंध में अगर तुमसे भूल हो जाए तो कुछ आश्चर्यजनक नहीं है।
मैं यह भी नहीं कह रहा कि तुम मान लो कि भेद नहीं है। तुमने यह मान लिया, तो फिर तुमसे दूसरी भूलें होनी शुरू हो जाएंगी। तब तुम अभेद को देखने की कोशिश करने लगोगे। और कहीं भेद भी होगा--प्रक्रियाओं में भेद होगा, विधियों में भेद होगा--तो तुम वहां भी अभेद देखने की कोशिश करने लगोगे। वचनों में भेद होगा; शब्दों में भेद होगा; कहने की अभिव्यक्तियां भिन्न होंगी। कोई बुद्ध गाकर कहता, कोई बुद्ध बिना गाए कहता; कोई बुद्ध चुप रहकर कहता, कोई बोलकर कहता। अगर तुमने अभेद देखने की चेष्टा शुरू कर दी, तो भी गलती हो जाएगी। तुम तो जो करोगे, गलत होगा। तुम मिटो, तब जो होता है, वही सही है। तुम जाओ, विदा हो जाओ। तुम बीच में न आओ, तब जो होता है, वही सही है।
तो तुमसे मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सैद्धांतिक रूप से तुम मान लो कि कोई भेद नहीं है। तो कुरान में भी वही लिखा है, जो वेद में है। और धम्मपद में भी वही लिखा है, जो बाइबिल में है। ऐसा नहीं कह रहा हूं तुमसे। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि तुम्हारा मन जब तक है, तब तक तुम भेद देखो तो गलती है, अभेद देखो तो गलती है। मन से सत्य को जानने का कोई द्वार ही नहीं है। मन के पार उठो। सोचने के पार चलो। विचार से मुक्त हो जाओ। निर्विचार में तुम्हें दिखायी पड़ेगा अभेद।
लेकिन खयाल रखना: अभेद का मतलब यह नहीं है कि एक-एक शब्द बुद्ध ने वही कहा है, जो महावीर ने कहा है। सार तत्व एक है।
बुद्ध के उदाहरण अलग। होंगे ही। जीसस के उदाहरण अलग। होंगे ही। जीसस एक अलग परंपरा से आए हैं। अलग कहानियां सुनी हैं बचपन में उन्होंने। अलग भाषा सीखी है। अलग भाषा का ढंग सीखा है। जब वे बोलेंगे, तो उसमें पुरानी बाइबिल का प्रभाव होगा।
बुद्ध में वह प्रभाव कहीं भी न मिलेगा। बुद्ध ने कुछ और सीखा है। किसी और परंपरा में जन्मे हैं। किसी और भाषा-स्रोत से आए हैं। उनके वचनों में उपनिषद की भनक होगी। उनके वचनों में उपनिषद की भाषा होगी।
तो ये भेद होंगे, लेकिन ये भेद ऊपरी हैं। जैसे-जैसे तुम पर्तें उघाड़ोगे और भीतर जाओगे, वैसे-वैसे अभेद होने लगेगा। जिस क्षण तुम बुद्ध के हृदय को समझ लोगे, उस दिन तुमने महावीर को समझा, कृष्ण को समझा, मोहम्मद को, जरथुस्त्र को, सब को समझा। जिन्होंने जाना है, उन सब को समझा।
लेकिन बुद्ध के हृदय में उतरने के लिए, पहले तुम्हें अपने हृदय में उतरना होगा। जितने गहरे तुम अपने भीतर जाओगे, उतने ही बुद्ध के भीतर जा सकते हो। उससे ज्यादा नहीं।
खयाल रखना: तुम अपने से ज्यादा कुछ भी नहीं जान सकते हो। तुम अपने से ऊपर नहीं देख सकते हो। इसलिए अगर अपने से ऊपर देखना हो, तो अपने से ऊपर उठना पड़े। और अपने से ज्यादा जानना हो, तो अपने से ज्यादा होना पड़े। क्योंकि तुम्हारा होना ही तो तुम्हारा जानना बनता है।
ऐसा समझो कि एक अंधा आदमी रोशनी को जानना चाहता है, पर आंख उसके पास नहीं है। कैसे जाने? अंधा रोशनी नहीं जान सकता। पहले आंख चाहिए।
पश्चिम के एक बुद्धपुरुष प्लोटिनस ने कहा है: तुम वही देख सकते हो, जो तुम्हारे भीतर मौजूद हो, उससे अन्यथा नहीं। सूरज मौजूद है आंख में तुम्हारी, इसलिए तुम सूरज को देख सकते हो। आंख सूरज का हिस्सा है, रोशनी से बनी है, इसलिए रोशनी को देख सकते हो। और कान ध्वनि से निर्मित है, इसलिए ध्वनि को सुन सकते हो।
कान नहीं हैं जिसके पास, जो बहरा है, फिर तुम कितने ही बड़े कलाविद लाओ, बड़े-बड़े संगीतज्ञ लाओ, कुछ भी न होगा। बहरे को कुछ सुनायी न पड़ेगा। और हो सकता है, बहरा मानता हो कि जब मुझे नहीं सुनायी पड़ता, तो ध्वनि हो ही नहीं सकती! और अंधा मानता हो कि जब मुझे नहीं दिखायी पड़ता, तो रोशनी हो कैसे सकती है! सूरज नहीं, चांद नहीं, तारे नहीं। तुम जानते हो कि हैं। लेकिन तुम्हारे पास आंख है। तुम्हारे पास भी आंख न होती, तो तुम भी न जानते।
ऐसे ही बुद्धत्व को देखने की भी आंख होती है। उसी आंख को तो तीसरा-नेत्र कहा है। जब तुम्हारे पास वह तीसरा-नेत्र होगा, तब तुम बुद्ध को पहचानोगे। बुद्ध को पहचाना, तो समस्त बुद्धों को पहचाना। एक सदगुरु को जान लिया, एक सदगुरु का स्वाद ले लिया तो समस्त गुरुओं का स्वाद आ गया।
बुद्ध ने कहा है: सागर को कहीं से भी चखो--खारा; ऐसे ही बुद्धपुरुष हैं; कहीं से भी चखो, एक ही स्वाद है उनका। इस घाट, उस घाट; इस किनारे, उस किनारे; कहां से तुम सागर को चखते हो; कुछ भेद नहीं पड़ता।
लेकिन आंख वालों के पीछे अंधों की जमातें हैं। आंख वाले कुछ कहते हैं, अंधे कुछ समझते हैं। आंख वाले कुछ कहते हैं, अंधे कुछ पकड़ते हैं! सुंदर परमात्मा के गीत गाने वालों के पीछे बहरों की जमातें हैं। हिंदू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं--ये अंधे और बहरों की जमातें हैं। ये कुछ का कुछ पकड़ते हैं। ये कुछ का कुछ समझते हैं। और इनकी भीड़ है। यही प्रतिपादक हैं। यही हकदार हो जाते हैं। इनकी ही व्याख्या स्वीकृत होने लगती है!
बुद्ध तो बुद्धुओं के हाथ में पड़ जाते हैं। फिर जो अर्थ होता है, वह अनर्थ है--अर्थ नहीं है। फिर भेद हो जाते हैं। फिर बड़े भेद मालूम पड़ते हैं। जहां जरा भी भेद नहीं, वहां इतनी दीवालें खड़ी हो जाती हैं!
ये भेद सांप्रदायिक हैं। धर्म में कोई भेद नहीं है। धर्म एक है, संप्रदाय अनेक हैं। और जिसको धर्म दिख जाएगा, वह संप्रदाय से मुक्त हो जाता है। लेकिन कैसे तुम्हें दिखे?
मैं तुमसे सोच-विचार को नहीं कह रहा हूं कि तुम खूब सोचो-विचारो, सिर पटको। इससे कुछ भी न होगा। तुम सिर से मुक्त होओ। ध्यान में उतरो।
बुद्ध कैसे बुद्ध बने? ध्यान से बुद्ध बने। महावीर कैसे जिन बने? ध्यान से जिन बने। तुम भी ध्यान में उतरो।
जिन सीढ़ियों से उतरकर बुद्धपुरुष जागे हैं, उन्हीं सीढ़ियों से तुम भी उतरो। जैसे-जैसे अपने भीतर गहराई बढ़ेगी, शांति बढ़ेगी, शून्य बढ़ेगा, वैसे-वैसे तुम पाओगे: बुद्ध के वचनों के नए अर्थ प्रगट होने लगे। जिस दिन बुद्ध के वचनों के पूरे अर्थ तुम्हारे सामने प्रगट हो जाएंगे, उस दिन सब बुद्धों का सार समझ में आ गया। तब तुम भी कह सकोगे: यही बुद्धों का शासन है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, आपने कल स्वर्ण मछली की जो कथा कही, वह शास्त्रों में बहुत भिन्न प्रकार की दी हुई है।
मैं चश्मदीद गवाह हूं। तुम शास्त्र में बदल लो। मेरी अर्ज है--शास्त्र में सुधार कर लो। मुझे पता है: शास्त्र में भिन्न रूप से दी गयी है बात। क्योंकि जिन्होंने शास्त्र संगृहीत किए हैं, वे ढाई हजार साल पहले हुए। उस समय जो उन्हें उचित लगा, उन्होंने इकट्ठा किया। ढाई हजार साल में मनुष्य ने बड़ी यात्रा कर ली है। गंगा का बहुत पानी बह गया है। ढाई हजार साल में मनुष्य की भाषा परिष्कृत हुई है; विचार परिष्कृत हुए हैं; चेतना नए-नए ढंगों में विकसित हुई है।
आज कथा को वैसे ही कह देना, जैसी ढाई हजार साल पहले कही गयी थी, गलत होगा; बुद्ध के साथ अन्याय होगा। ढाई हजार साल में जैसे आदमी बदला है, ऐसे ही कथा को भी बदलना चाहिए। तो ही आज के आदमी को पकड़ में आएगी। ढाई हजार साल पहले जो कथा लिखी गयी थी, वह तो ऐसा है, जैसे खदान से निकाला गया अनगढ़ हीरा। कोई जौहरी होगा, तो पहचान लेगा। लेकिन साधारण आदमी अनगढ़ हीरे को न पहचान पाएगा। पहले तो उस हीरे को निखारना होगा, साफ करना होगा, तराशना होगा। उस हीरे पर चमक लानी होगी। उस हीरे से धूल, असार झाड़ना होगा, तब साधारण आदमी पहचान पाएगा।
सारी कथाएं, शास्त्रों में जो दी गयी हैं, अनगढ़ हीरे हैं। जब मैं उन्हें कहता हूं, तो मैं तराशकर कहता हूं।
जिस आदमी ने कोहिनूर खोजा था, तब वह अनगढ़ हीरा था। उसे पता भी नहीं था कि यह कोहिनूर है। बहुत दिन तक तो उसके बच्चे उससे खेलते रहे। मिल गया था पड़ा हुआ नदी के किनारे। उसका खेत था नदी के किनारे। नदी उसके खेत से होकर बहती थी। रेत में पड़ा मिल गया था यह। चमकदार पत्थर लगा; सुंदर रंगीन पत्थर लगा; वह उठा लाया था बच्चों के खेलने के लिए।
शायद तुमने कहानी न सुनी हो। कहानी बड़ी अदभुत है। कैसे गोलकुंडा खोजा गया? यह पहला हीरा था, जो गोलकुंडा में मिला।
एक रात एक संन्यासी इस आदमी के घर में मेहमान हुआ, और उस संन्यासी ने कहा कि तू कब तक इस ऊबड़-खाबड़ जमीन में, कम उपजाऊ जमीन में मेहनत करता रहेगा? मैं ऐसी जमीनें जानता हूं, जो सोना उगलती हैं। मैं ऐसी जमीनें जानता हूं, जो हीरे उगलती हैं।
वह तो प्रतीक की भाषा बोल रहा था। वह तो यह कह रहा था कि बड़ी उपजाऊ जमीन मैं जानता हूं। लेकिन उस रात किसान सो न सका। सपने आने लगे उसे कि फिर मैं भी इस जमीन को बेच-बाचकर ऐसी जमीन खोजूं, जो हीरा उगलती है, सोना उगलती है।
तो उस जमीन को उसने बेच दिया, और गया खोज में ऐसी जमीन की, जहां हीरे उगले जाते हैं। वह हीरों की खोज में भटकता रहा, भटकता रहा। उसके सब पैसे खतम हो गए। कहीं ऐसी कोई जमीन न मिली, जो हीरे उगलती हो। हीरे की पहचान ही नहीं थी...।
मीरा ने कहा न: जौहरी होना चाहिए। जौहरी की गति जौहरी जाने, घायल की गति घायल जाने।
जिस खेत को छोड़ आया है, उसमें हीरा मिला था। वह उसके बच्चे खेलते थे। और संसार का सब से बड़ा हीरा साबित हुआ। और वह तलाश में घूम रहा था ऐसी जमीन की, जहां हीरे उगले जाते हों! सब पैसे खतम हो गए। जो जमीन बेच दी थी, वह सब फिजूल चली गयी।
थका-हारा, बरबाद होकर घर वापस लौटा। लेकिन इन हीरों की तलाश में कई जौहरियों से मिलना हो गया था रास्ते में, मार्ग में। हीरे खोजता फिरता था, तो जौहरियों से भी बात करनी पड़ी।
जब तुम परमात्मा को खोजने निकलोगे, तो सदगुरु भी मिल ही जाएंगे, साधु-संग भी होगा। क्योंकि परमात्मा को खोजोगे कहां!
जब आदमी हीरा खोजता है, तो जौहरियों से पूछेगा। तो धीरे-धीरे थोड़ी हीरे की परख भी आ गयी। घर लौटकर आया, बच्चे हीरे से खेल रहे थे। वह तो नाचने लगा। वह तो पागल हो गया। उसने कहा: हद्द हो गयी! यह पत्थर तो मैं ही लाया था वर्षों पहले! वह पत्थर बिका। आज वही दुनिया का सब से बड़ा हीरा है।
फिर उसने लाख कोशिश की कि उसका खेत उसे वापस मिल जाए। फिर उसे वापस नहीं मिल सका। क्योंकि खबर उड़ गयी कि वहां हीरे हैं। वहीं गोलकुंडा की पहली खदान बनी, जहां से संसार के श्रेष्ठतम हीरे निकले। वह एक किसान ने बेच दी थी--हीरों की तलाश में। अंधा आदमी और क्या करे!
मगर उस एक हीरे से ही इतना मिल गया कि जन्मों-जन्मों तक नहीं चुका होगा। कई पीढ़ियां प्रसन्नता से जी ली होंगी। उस हीरे का जितना वजन था, आज जो कोहिनूर हीरा है, उसका वजन सिर्फ एक तिहाई बचा है। लेकिन कीमत करोड़ों गुना ज्यादा हो गयी है। बात क्या हुई? उसको बार-बार निखारा गया है, बार-बार तराशा गया है। तराशते-तराशते उसका वजन तो कम हो गया, लेकिन उसका सौंदर्य बहुत बढ़ गया है।
ऐसे ही शास्त्र हैं, उन्हें बार-बार तराशना होता है। उनमें कचरा-कूड़ा इकट्ठा हो जाता है, उसे अलग कर देना होता है। समय धूल जमा जाता है; धूल झाड़नी होती है। फिर ढाई हजार साल में मनुष्य ने जो परिष्कार किया है, वह परिष्कार शास्त्रों में भी होना चाहिए। नहीं तो शास्त्र पीछे पड़ जाते हैं।
यही तो कारण है, लोगों की शास्त्रों में श्रद्धा उठ गयी। क्योंकि कोई इतनी हिम्मत नहीं करता कि शास्त्रों को तराशे। शास्त्र सब बचकाने मालूम पड़ने लगे हैं। शास्त्र सब थोथी कहानियां मालूम होने लगे हैं। कारण? कारण इतना ही है कि ढाई हजार साल या पांच हजार साल पहले जो किताब लिखी गयी थी, वह आज के आदमी से बहुत दूर पड़ गयी है; उससे कोई संबंध नहीं रहा। उसमें और आदमी के बीच कोई सेतु नहीं रहा।
अब दो ही उपाय हैं: या तो आदमी को पांच हजार साल पीछे ले चलो, तब वह उस शास्त्र को समझे। या शास्त्र को पांच हजार साल आगे लाओ, तो आदमी शास्त्र को समझे। आदमी को तो पीछे ले जाया नहीं जा सकता। ले जाने की जरूरत भी नहीं है। ले जाना हितकर भी नहीं होगा।
पहले तो जा ही नहीं सकता कोई पीछे। अब जो बच्चा जवान हो गया, उसको बच्चा कैसे बनाओगे? और जब तक वह बच्चा न हो जाए वापस, तब तक खिलौनों से खेलेगा नहीं। वे जो खिलौने बड़े सार्थक थे, वे बचपन में सार्थक थे; अब व्यर्थ हो गए। अगर उन खिलौनों में प्राण डाले जा सकें, अगर उन खिलौनों को फिर सार्थक अर्थ दिया जा सके कि जवान व्यक्ति को भी उनमें अर्थ दिखायी पड़ने लगे, तो फिर मूल्यवान हो जाएंगे।
तो या तो जवान को बच्चा बनाओ, और या फिर बच्चे के खिलौनों को तराशो; नयी जिंदगी दो; नया अर्थ दो; नयी कलमें लगाओ; नए फूल खिलने दो।
आदमी को तो पीछे ले जाया नहीं जा सकता। वही तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरु कर रहे हैं। वे चाहते हैं: तुम पीछे चलो। इसलिए धर्म को मानने वाले अक्सर बुद्धिहीन लोग मिलेंगे, जिनके पास बुद्धि ढाई हजार साल पुरानी है। आज की दुनिया में वे बुद्धिहीन हैं। धर्म को मानने वाला थोड़ा मूढ़ मालूम पड़ता है, उसका कारण है। क्योंकि वह जो ढाई हजार साल पुराना शास्त्र है, मूढ़ को ही समझ में आ सकता है; समझदार को समझ में नहीं आ सकता। बुद्धिहीनता अनिवार्य है, तो ही तुम रामायण और गीता और वेद को पकड़कर बैठ सकते हो। नहीं तो नहीं बैठ सकते।
विचारशील आदमी हमेशा धर्म विरोधी हो जाता है, नास्तिक हो जाता है! क्या कारण होगा? यह तो बात उलटी हो गयी। विचारशील आदमी को आस्तिक होना चाहिए; विचारहीन को नास्तिक होना चाहिए। मगर होता उलटा है। विचारशील आदमी नास्तिक हो जाता है; और विचारहीन, जड़-बुद्धि, मंद-बुद्धि आस्तिक हो जाता है।
इन मंदबुद्धियों के कारण आस्तिकता डूबी जा रही है। इन मंदबुद्धियों के कारण कोई विचारशील आदमी आस्तिक होने में संकोच करता है, डरता है। मंदिर जाने में दस बार सोचता है कि जाना, कि नहीं जाना! क्योंकि वहां जो जमात है, उस जमात के साथ बैठना भी अपमानजनक मालूम पड़ता है।
दुनिया बढ़ती जाती है, शास्त्र तो मुर्दा होते हैं, बढ़ नहीं सकते हैं। बार-बार चाहिए कोई, जो शास्त्रों को फिर पुनरुज्जीवित करे। फिर खींचकर समसामयिक बना दे। जब शास्त्र समसामयिक हो जाता है, तो विचारशील आदमी को समझ में आता है। वही मैं कर रहा हूं।
कहानी से मुझे लेना-देना नहीं है। उसमें से कुछ छूट जाए, मुझे फिकर नहीं है। उसमें कुछ नया जोड़ना पड़े, फिकर नहीं है। उसकी आत्मा फिर से प्रज्वलित हो जाए, फिर रोशन हो जाए।
और मैं तुम से कह दूं कि मैं चश्मदीद गवाह हूं। इसलिए अगर शास्त्र में और मुझ में तुम्हें कभी भी ऐसा लगे कि कुछ भेद है, तो शास्त्र में तत्काल सुधार कर लेना। उसका मतलब शास्त्र पीछे पड़ गया।
जिस ढंग से मैंने कहानी कही, बुद्ध अगर पैदा हों आज, तो इसी ढंग से कहेंगे। हां, बुद्ध-पंडित नहीं कह सकता इस ढंग से। बुद्ध-पंडित तो उसी ढंग से कहेगा, जैसा बुद्ध ने ढाई हजार साल पहले कही थी। वह लकीर का फकीर है। मैं कोई लकीर का फकीर नहीं हूं। मैं फकीर हूं, लकीरों को अपने पीछे चलाता हूं। लकीरों को आगे नहीं चलने देता। मैं उनके पीछे नहीं चलता। लकीरें मेरी मालिक नहीं हैं। मैं उनका मालिक हूं।
मैं जो कहता हूं, उसका मालिक हूं। मैं कहता ही तब हूं, जब मुझे दिखायी पड़ता है कि ऐसा है। अन्यथा नहीं कहता।
कहानी में मैंने बहुत बदलाहट की है, बहुत परिष्कार किया है। खूब निखारा है। तराशा है। उसको मनोवैज्ञानिक अर्थ दिया है--ऐतिहासिक की जगह।
इतिहास में क्या रखा है? जो कुछ है, मन की ही पर्तों में छिपा है। ऐतिहासिक अर्थ देने का मतलब होता है कि सिर्फ बुद्धिहीनों को समझ में आएगा। सिर्फ बुद्धू राजी होंगे। तो धर्म का पतन होता है इस तरह।
ध्यान रखना: श्रद्धा का अर्थ तर्क का अभाव नहीं होता। श्रद्धा का अर्थ होता है, तर्कातीत दशा; तर्क के पार निकल गयी दशा। श्रद्धा तर्क से नीची नहीं है। श्रद्धा तर्क से ऊपर है। मगर तर्क जो नहीं कर सकता, वह भी श्रद्धा करता है। और तर्क जिसने खूब किया है, और कर-करके पाया है कि तर्क से कुछ सार नहीं मिलता, उसके जीवन में भी श्रद्धा का जन्म होता है। यही फर्क खयाल में ले लेना।
तुम्हें और मंदिर-मस्जिदों में जो लोग मिलेंगे, वे तर्क से नीचे वाली श्रद्धा से भरे हैं। वे कहते हैं: तर्क करो ही मत। तर्क से वे घबड़ाते हैं। तर्क उनकी श्रद्धा को नष्ट कर देगा।
जो श्रद्धा तर्क से नष्ट हो जाती हो, दो कौड़ी की है। जो आस्तिकता नास्तिकता से डरती हो, भयभीत हो, उसका क्या मूल्य है? कोई मूल्य नहीं।
मैं तुम्हें एक ऐसी आस्तिकता दे रहा हूं, जो नास्तिकता से होकर गुजरती है; जो नास्तिकता के पार है; जो ईश्वर को मान नहीं लेती किसी भय के कारण। इसलिए नहीं मान लेती कि और लोग मानते हैं। मैं तुम्हें ऐसी आस्तिकता दे रहा हूं, जो नहीं कहने की क्षमता रखती है। और नहीं कह-कहकर ही हां तक पहुंचती है।
जो हां नहीं कह-कहकर पैदा होती है, उसमें प्राण होते हैं, बल होता है। जो नहीं कहना जानता ही नहीं, जिसे नहीं कहने का साहस नहीं, वह भी हां कहता है। उसकी हां नपुंसक होती है।
मैं इन धम्मपद के वचनों को तराश रहा हूं। तुम्हारे योग्य बना रहा हूं। ढाई हजार साल का खयाल तो करो। ढाई हजार साल में बहुत कुछ बदला है। जब बुद्ध बोले थे, तब फ्रायड नहीं हुआ था; मार्क्स नहीं हुआ था; आइंस्टीन नहीं हुआ था। अब फ्रायड हो चुका है, मार्क्स हो चुका है, आइंस्टीन हो चुका है। इनको कहीं इंतजाम देना पड़ेगा; इनको जगह देनी पड़ेगी; नहीं तो तुम बचकाने मालूम पड़ोगे।
अगर तुम्हारी कहानी वैसी की वैसी रहे, जैसी फ्रायड के पहले थी, तो फिर फ्रायड का क्या करोगे? फ्रायड ने जो अंतर्दृष्टि दी, उसे समाविष्ट कहां करोगे? और अगर समाविष्ट नहीं की तो तुम्हारी कहानी गलत हो जाएगी। क्योंकि फ्रायड ने जो अंतर्दृष्टि दी है, उसे समाविष्ट करना ही होगा। और मार्क्स ने जो भाव दिया है, उसे समाविष्ट करना ही होगा। आइंस्टीन ने जो नए द्वार खोले हैं, वे तुम्हारी कहानियों में भी खुलने चाहिए, नहीं तो तुम्हारी कहानियां पिछड़ जाएंगी।
मैं ढाई हजार साल में जो हुआ है, उसे आंख से ओझल नहीं होने देता। मुझे बुद्ध की कहानी से अपूर्व प्रेम है। इसीलिए जो ढाई हजार साल में हुआ है, उसे मैं समाविष्ट करता हूं। जिस ढंग से मैं कह रहा हूं, उसमें मार्क्स भी भूल नहीं निकाल सकेगा; और फ्रायड भी नहीं निकाल सकेगा; और आइंस्टीन भी नहीं निकाल सकेगा। तो कहानी समसामयिक हो गयी। उसकी भाव-भंगिमा बदल गयी, उसका रूप बदल गया। उसने नयी देह ले ली। उसका पुनर्जन्म हुआ।
यह धम्मपद का पुनर्जन्म है। यह धम्मपद को नयी भाषा, नया अर्थ, नयी भंगिमा, नयी देह, नए प्राण देने का प्रयास है। और जब फिर से जन्म हो जाए धम्मपद का, जैसे बुद्ध आज बोल रहे हों, तभी तुम्हारी आत्मा में संवेग होगा; तभी तुम्हारी आत्मा में रोमांच होगा। तभी तुम आंदोलित होओगे। तभी तुम कंपोगे, डोलोगे।
इसलिए जब भी तुम्हें भेद दिखायी पड़े, तब शास्त्र में जल्दी से जाकर संशोधन कर लेना। उतना जोड़ देना या उतना घटा देना। और तुम कभी हानि में न रहोगे।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, बुद्ध के पास पश्चात्ताप के तीव्र क्षणों में स्वर्ण मछली को अपने पूर्व-जन्मों का स्मरण हुआ। क्या बुद्ध के पास प्रसाद के क्षणों में भी पूर्व-जन्मों का स्मरण होता है--कृपा कर कहिए।
नहीं--प्रसाद के क्षणों में तो समय मिट जाता है। आनंद के क्षणों में तो समय तिरोहित हो जाता है, समय बचता ही नहीं। कैसा अतीत? कैसा भविष्य? वर्तमान भी नहीं बचता आनंद के क्षणों में। आनंद के क्षण में समय होता ही नहीं; शाश्वतता होती है। इसको खयाल में लो।
दुख के क्षण में समय होता है। जितना दुख होता है, उतना ज्यादा समय होता है। तुमने कभी अवलोकन किया: तुम बैठे हो किसी प्रियजन की खाट के पास और प्रियजन मर रहा है, तो रात बड़ी लंबी हो जाती है--बड़ी लंबी हो जाती है! समय खूब बड़ा हो जाता है। काटे नहीं कटती रात! बार-बार घड़ी देखते हो। सोचते हो: घड़ी बंद तो नहीं हो गयी! कांटा आज धीमे-धीमे क्यों घूम रहा है? दुख जितना सघन है, उतना ही सघन समय हो जाता है। रात लंबाने लगती है। सुबह आती नहीं मालूम होती है।
और तुम्हारा प्रियजन मिलने आया है; तुम्हारी प्रेयसी तुम्हें मिल गयी, और तुम आनंद-उल्लास से भरे हो। समय सिकुड़कर छोटा हो जाता है। रात ऐसे बीत जाती है--अभी आयी, अभी गयी! पल में बीत गयी! घड़ी--ऐसा लगता है--भाग रही है आज। समय इतनी तेजी से जाता है कि पता नहीं चलता, कब चला गया। ऐसा तुमने निरीक्षण किया होगा।
जब तुम सुख में होते हो, तो समय तेजी से भागता लगता है। और जब तुम दुख में होते हो, तब समय की चाल धीमी हो जाती है; मंथर हो जाती है गति।
इस मनोवैज्ञानिक सत्य को खूब स्मरण रखो। यह तो साधारण सुख-दुख की बात है। जिसको जन्मों-जन्मों के दुख की पीड़ा का खयाल हो जाए, उसकी समय की अवधारणा बड़ी प्रगट हो जाती है, बड़ी प्रगाढ़ हो जाती है। और जिसे अंतरतम के शाश्वत आनंद का बोध हो जाए, उसका समय विलीन हो जाता है, बिलकुल शून्य हो जाता है।
ऐसा समझो: दुख में समय लंबा मालूम होता है। महादुख में बहुत लंबा हो जाता है, अंतहीन हो जाता है, अनंत हो जाता है। सुख में छोटा हो जाता है। महासुख में बहुत अल्प हो जाता है। आनंद में बिलकुल शून्य हो जाता है।
जीसस का एक वचन है। इस सदी के बड़े विचारक बटर्‌रेंड रसल ने उसकी बड़ी निंदा की है। और कोई भी ऊपर से देखेगा, तो निंदा करेगा। जीसस ने कहा है: जो पाप करेंगे, वे नर्क में अनंत काल तक सड़ेंगे। अनंत काल तक! यह बात जरा तर्कनिष्ठ नहीं मालूम होती। पाप कितना किया है, उस हिसाब से सड़ना चाहिए। नर्क में सड़ाओ--चलो, ठीक। मगर कुछ हिसाब तो हो!
एक आदमी ने किसी की हत्या की; वह भी नर्क में सड़ेगा अनंतकाल तक। और एक आदमी ने दो पैसे चुराए, वह भी नर्क में सड़ेगा अनंतकाल तक। तो यह तो अन्याय हो गया। यह तो बड़ी अंधेर-नगरी हो गयी। टका सेर भाजी, टका सेर खाजा हो गया। कुछ हिसाब तो हो!
रसल ने खुद कहा है कि मैंने अपनी जिंदगी में जितने पाप किए, नहीं किए नहीं कहता; जितने पाप किए, कठोर से कठोर न्यायाधीश भी मुझे चार साल से ज्यादा की सजा नहीं दे सकता। और अगर वे पाप भी जोड़ लिए जाएं, जो मैंने किए नहीं, सिर्फ सोचे--करना चाहता था, मगर किए नहीं--तो आठ साल की सजा हो सकती है। कठोर से कठोर व्यक्ति! लेकिन अनंतकाल तक नर्क में सड़ना होगा? आगों में जलाया जाऊंगा; भूखा रखा जाऊंगा; प्यासा रखा जाऊंगा, अनंत काल तक? तो यह तो मेरे पापों से भी बड़ा पाप हो गया परमात्मा के नाम पर!
तब तो इसका मतलब यह हुआ कि परमात्मा सड़ाने में रस ले रहा है! किसी तरह का दूसरों को दुख देने में मजा लेने वाला है; शैतान है। जरा सा बहाना मिला कि अनंतकाल तक सड़ा दोगे! और मजा यह है कि तुम्हीं ने वासनाएं दीं, तुम्हीं ने यह प्रकृति पैदा की, जो मुझे पाप में ले गयी, और तुम्हीं फिर सजा देने आ गए! और सजा भी बेबूझ।
बटर्‌रेंड रसल ने एक किताब लिखी है: व्हाय आई एम नाट ए क्रिश्चियन--मैं ईसाई क्यों नहीं हूं?--उसमें सारे तर्क दिए हैं कि इन-इन कारणों से मैं ईसाई नहीं हूं। उसमें एक तर्क यह भी है कि ईसाइयत अन्यायपूर्ण है।
लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि जीसस के वचन का अर्थ मनोवैज्ञानिक है। रसल चूक गए; अर्थ को समझे नहीं। तर्क को पकड़ लिया, लेकिन अर्थ से चूक गए। जीसस के वचन का यह अर्थ है कि नर्क का दुख इतना सघन है कि एक क्षण भी अनंत मालूम होगा। एक क्षण के लिए भी नर्क में फेंके गए, तो ऐसा लगेगा कि सदा के लिए। यह दुख इतना सघन है कि इस दुख की सघनता के कारण समय अनंत मालूम होगा।
दूसरी तरफ से समझो। तुमने सदा तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासियों को कहते सुना है, सुख क्षणभंगुर है। इसका मतलब यह नहीं कि सुख क्षणभर ही रुकता है। गलत बात है। सुख कभी-कभी काफी देर रुकता है। लेकिन सुख सदा क्षणभंगुर मालूम होता है, यह बात सच है। क्योंकि सुख के समय में समय छोटा हो जाता है। मेरी बात समझे!
यह हो सकता है कि सुख काफी देर रुके; क्षणभंगुर होना जरूरी नहीं है। तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़े, वर्षों तक यह प्रेम चल सकता है और वर्षों तक तुम सुख इससे पा सकते हो। लेकिन फिर भी जो वचन है, वह सही है कि सुख क्षणभंगुर है। उसका मतलब इतना ही है कि ये वर्ष तुम्हें ऐसे लगेंगे, जैसे क्षण जैसे बीत गए।
तुमने हिंदी फिल्मों में देखा होगा: कैलेंडर में से तारीखें एकदम उड़ती जाती हैं! एकदम हवा तारीखों को उड़ाए जाती है। ऐसा ही सुख में तारीखें उड़ जाती हैं। सुख हिंदी फिल्मों जैसा है। दिन गुजरते हैं; महीने गुजरते हैं; वर्ष गुजरते हैं; मगर इतनी तेजी से गुजरते हैं!
सुख अपने स्वभाव के कारण समय को छोटा कर देता है। फिर आनंद की तो बात ही अलग। आनंद का तो अर्थ है: परम सुख।
सुख का अर्थ है: दुख गया, मगर राह देख रहा है किनारे पर खड़ा, कि कब सुख से आपका छुटकारा हो, तो मैं फिर आऊं। कभी ज्यादा दूर नहीं जाता। सुख में दुख ज्यादा दूर नहीं जाता। ऐसे दरवाजे के पास खड़ा हो जाता है निकलकर, कि ठीक है; आप थोड़ी देर सुख भोगो। फिर मैं आ जाऊं। सुख और दुख साथ-साथ हैं। आनंद का अर्थ है: दुख सदा को गया। और जब दुख ही चला गया सदा को, तो सुख भी चला गया सदा को। सुख दुख का जोड़ा है। वे साथ-साथ हैं। आनंद तो एक परम शांति की दशा है--जहां न दुख सताता, न सुख सताता। जहां कोई सताता ही नहीं। जहां कोई उत्तेजना नहीं होती। सुख की भी उत्तेजना है।
तुमने देखा: कभी-कभी तो सुख की उत्तेजना दुख से ज्यादा हो जाती है। अब एकदम तुमको लाटरी मिल जाए, तो हार्टफेल हो जाए। सुख में कभी-कभी लोग मर जाते हैं, हृदय का दौरा पड़ जाता है। सम्हाल ही नहीं पाते, इतनी उत्तेजना हो जाती है। हृदय इतने जोर से धड़कता है कि कुछ धड़कन बीच में खो जाती है, कि ठप्प हो जाती है।
मैंने सुना है: एक आदमी हर महीने एक रुपए की टिकट लाटरी की खरीद लेता था। कभी उसको मिली नहीं थी। किसको मिलती है! मगर इस आशा में खरीद रहा था बीस साल से। और अगर तुम किसी चीज के पीछे चलते ही रहो, चलते ही रहो, तो सावधान रहना--कभी मिल सकती है।
वासना करने का सब से बड़ा खतरा यह है कि कभी पूरी हो सकती है; तब असली अड़चन आती है। जब तक पूरी नहीं होती है, ठीक है। एक रुपया ही जाता था। कोई बड़ा भारी दुख नहीं हो जाता था। एक रुपए के जाने में कोई मरता, कि कोई जीता! एक रुपया गया, कोई हर्जा नहीं था। आदी हो गया था। हर महीने एक रुपए की खरीद लेता था। बात खतम हो गयी।
एक आदत थी, एक शगल बन गयी थी, एक व्यसन। ठीक था। मगर एक दिन खबर आ गयी; आदमी आया खबर लेकर लाटरी के दफ्तर से। पतिदेव तो गए थे आफिस; पत्नी थी। पत्नी बहुत घबड़ा गयी, क्योंकि एक लाख रुपया इकट्ठा! कभी सौ रुपए भी इकट्ठे हाथ नहीं पड़ते थे। तनख्वाह इसके पहले कि मिले, कि उधारी हो जाती थी। एक लाख रुपया! पत्नी ने सोचा कि मुश्किल हो जाएगी। पति सम्हाल न सकेगा इतना सुख। वह घबड़ायी। ईसाई थी। पास ही पादरी रहता था। पादरी के पास गयी कि आप कुछ करो। यह लाख रुपया मिला है। मेरे पति को कुछ हो न जाए। वैसे ही उनका दिल कमजोर है।
पादरी ने कहा: तुम घबड़ाओ मत; मैं आता हूं। पादरी आया। बैठ गया। जब पतिदेव वापस लौटे, तो पादरी ने कहा: सुनो, तुम्हें लाटरी मिली है, दस हजार रुपए मिले हैं। धीरे-धीरे...सोचा कि धीरे-धीरे मात्रा में देना है। लाख कहूं इकट्ठा, दिक्कत होगी। दस हजार...फिर दस हजार...ऐसे धीरे-धीरे कहूंगा। कहा: दस हजार रुपए तुम्हें लाटरी में मिले हैं।
पति ने कहा: सच में! अगर सच में मिले हैं, तो पांच हजार तुम्हें दिए। यह सुनते ही पादरी तो गिरा। उसका हार्टफेल हो गया। उसने यह नहीं सोचा था कि मुझ को भी इसमें मिलने वाले हैं।
सुख गहरी उत्तेजना पैदा कर सकता है। सुख भी एक तरह की तकलीफ है, एक तरह का ज्वर है। दुख तो है ही ज्वर; सुख भी ज्वर है। सुख भी थकाता है--यह तुमने देखा! सुख को भी तुम ज्यादा देर बर्दाश्त नहीं कर सकते। थकाने लगता है; उबाने लगता है।
कितनी देर सुख को बर्दाश्त कर सकते हो? इसीलिए दुख बाहर खड़ा रहता है। वह कहता है, जब तुम सुख से थक जाओ, मैं हाजिर हूं सेवा के लिए।
जब तुम दुख से थक जाते हो, तब तुम फिर सुख की खोज करने लगते हो। सुख से थक गए, फिर दुख की खोज करने लगते हो। तुमने देखा: सुख में भी तुम्हारा मन दुख की खोज करने लगता है। दुख के नए जाल बुनने लगता है।
आनंद वैसी दशा का नाम है, जहां न तो सुख रहा, न दुख रहा। परम शांति हो गयी, परम विश्राम की घड़ी आ गयी। उस परम विश्राम में कहां समय!
तुम पूछे हो: ‘बुद्ध के पास पश्चात्ताप के तीव्र क्षणों में स्वर्ण मछली को अपने पूर्व-जन्मों का स्मरण हुआ। क्या बुद्ध के पास प्रसाद के क्षणों में भी पूर्व-जन्मों का स्मरण होता है?’
प्रसाद के क्षणों में कौन फिकर करता है पूर्व-जन्मों की! इस जन्म की भी कौन फिकर करता है! आने वाले जन्मों की भी कौन फिकर करता है! चिंताएं विलुप्त हो जाती हैं। जहां चिंताएं नहीं हैं, वहां कोई अतीत नहीं, कोई भविष्य नहीं है। जहां मन ही नहीं है, वहां कैसा समय? इसलिए नहीं। पश्चात्ताप में, दुख में ही पुराने की याद आती है।
तुमने देखा: बूढ़े आदमी लौट-लौट कर पीछे देखते रहते हैं। आगे तो कुछ देखने को बचता भी नहीं। मौत खड़ी है। वह मौत की दीवाल! और रोज पास सरके जा रहे हैं। क्यू छोटा होता जा रहा है। आगे जो लोग खड़े थे, वे गुजरने लगे, जाने लगे। मौत उन्हें ले जाने लगी। अब अपना भी नंबर आता होगा। अब ज्यादा देर नहीं है। आगे तो कुछ देखने को है नहीं। आगे देखने में डर लगता है। पीछे देखने लगते हैं। बूढ़ा आदमी सदा अतीत की खोजता है; अतीत की सोचता है। इसलिए बूढ़े आदमी कहते हैं: अरे! वे दिन सुख के, स्वर्ण दिन, सतयुग, रामराज्य! ये सब बूढ़े आदमियों की बातें हैं। उसका सारा स्वर्ण-युग पीछे है। वह कहता है, अच्छे दिन गए। अब वे दिन कहां, जब घी इस भाव बिकता था! अब वे दिन कहां?
और तुम यह मत सोचना कि इसमें कुछ सचाई है। घी जरूर इसी भाव बिकता था, यह भी सच है। मगर उस वक्त भी जो बूढ़े थे, वे भी पीछे देख रहे थे। वे अपने समय की सोच रहे थे--जब घी इस भाव बिकता था!
तुम ऐसा कोई समय नहीं खोज सकते, जब बूढ़ों ने अपने पीछे का न सोचा हो, और कहा न हो कि पहले दिन अच्छे थे। अब कहां वे बातें रहीं! अब तो सब बिगड़ गया। अब न वे लोग रहे, न वे सुख के दिन रहे।
बूढ़ा पीछे-पीछे लौटकर देखता है। बूढ़ा पीछे से बंधा होता है, अतीत से बंधा होता है। पश्चात्ताप में होता है। जो नहीं कर पाया वह और कर लेता! दिन निकल गए स्वर्ण जैसे! दुख पकड़ता है। पीड़ा पकड़ती है। रोता है।
छोटे बच्चे भविष्य की सोचते हैं। उनका स्वर्णयुग आगे होता है। और यही बात जातियों के संबंध में सच है, राष्ट्रों के संबंध में सच है। जवान वर्तमान की सोचते हैं; बच्चे भविष्य की; बूढ़े अतीत की। जो समाज बूढ़ा हो जाता है, वह भी अतीत की सोचता है।
जैसे यह भारत। यह बूढ़ा समाज है। इस जमीन पर सबसे बूढ़ी जाति है। यह सदा पीछे की सोचती है--वेद, रामराज्य, सतयुग--सदा पीछे की सोचती है। इसको आगे कुछ दिखता नहीं।
अमेरिका बच्चों जैसा राष्ट्र है; कोई तीन सौ साल की उसकी उम्र है। वह हमेशा भविष्य की सोचता है--आगे। पीछे तो कुछ है भी नहीं सोचने को। बहुत से बहुत जाओ तो वाशिंगटन, लिंकन। और कहां जाओगे? तो पीछे ज्यादा जाने को जगह भी नहीं है। थोड़े बहुत दौड़े--और खतम; इतिहास खतम हो जाता है।
भारतीय मन को पीछे जाने की खूब सुविधा है। कितने ही पीछे जाओ, कभी कुछ खतम नहीं होता। और चले जाओ, और चले जाओ, चलते ही चले जाओ। अनंत पड़ा है अतीत।
रूस जवान है; वर्तमान की सोचता है। न अतीत की, न भविष्य की। अभी जो है, जो यह क्षण हाथ में है, इसको भोग लो। आगे का क्या पक्का! पीछे तो जो था, गया।
जातियां, व्यक्ति, समाज, राष्ट्र--सबकी सोचने की श्रृंखला, तर्क-सरणी एक जैसी होती है।
और जो व्यक्ति जानता है कि न तो मैं जवान हूं, न बूढ़ा हूं, न बच्चा हूं--वह कहां की सोचे! जो जानता है कि बचपन भी शरीर का, जवानी भी शरीर की, बुढ़ापा भी शरीर का; जो जानता है, चैतन्य न तो बच्चा होता, न जवान होता, न बूढ़ा होगा; वह कहां की सोचे? उसके पास सोचने को कुछ नहीं बचता। उसका सोचना खो जाता है। उसका समय विलीन हो जाता है। इसी क्षण में प्रसाद होता है।
जब तुम जानते हो: तुम आत्मा हो, कालातीत; जब तुम जानते हो: समय के पार तुम्हारा अस्तित्व है, यह समय की धारा के पार तुम्हारा होना है; जिस दिन तुम ऐसा जानते हो--उस दिन प्रसाद; उस दिन आनंद; उस दिन समाधि; उस दिन निर्वाण। उस समाधि की दशा में कोई स्मरण नहीं होता: न अतीत का, न भविष्य का, न वर्तमान का।
दुख गया--समय घटा। सुख गया--समय मिटा।
इसी को खोजो। इसी परम दशा को खोजो, जहां समय मिट जाए। समय ही जंजाल है; समय ही संसार है।
और मिट जाता है समय। जब तुम ध्यान में बिलकुल शांत हो जाते हो, समय मिट जाता है। इसलिए ध्यान के बाद जब तुम वापस आओगे, और कोई तुमसे पूछे कि कितनी देर ध्यान में रहे, तो तुम उत्तर न दे पाओगे। कोई ध्यानी कभी नहीं दे पाया। हां, घड़ी देखकर तुम बता सकते हो कि जब ध्यान में गया था, तब नौ बजे थे। अब साढ़े नौ बजे हैं। तो घड़ी में आधा घंटा हुआ।
लेकिन कोई तुमसे पूछे: घड़ी की छोड़ो, क्योंकि वहां तो भीतर घड़ी नहीं थी। यह तो तुम लौटकर बता रहे हो। जब गए, तब की बताते हो। जब आए, तब की बताते हो। यह आधा घंटे में भीतर कितना समय बीता? तो ध्यानी नहीं कह सकता कि कितना समय बीता। वह कहेगा: कोई उपाय नहीं कहने का। वहां समय होता ही नहीं।
जीसस से उनके एक शिष्य ने पूछा है, कि तुम्हारे प्रभु के राज्य में सब से खास बात क्या होगी? तो जीसस ने कहा: देअर शैल बी टाइम नो लांगर--वहां समय नहीं होगा। यह खास बात कही जीसस ने। बड़ी अजीब सी बात कही। शायद पूछने वाले ने सोचा भी नहीं होगा सपने में कि जीसस से यह उत्तर मिलेगा--कि वहां समय नहीं होगा।
मगर इस उत्तर में सब आ गया। जहां समय नहीं, वहां मन नहीं। जहां मन नहीं, वहां वासना नहीं, तृष्णा नहीं। जहां वासना नहीं, तृष्णा नहीं, वहां संसार नहीं। समय मिटा, तो सब मिट गया। समय हमारा सपना है।
दुनिया में दो तरह के ढंग हैं होने के। एक तो समय में होना; वह संसार। और एक समय के बाहर-बाहर होना; वही संन्यास।
ऐसे जीयो समय में कि समय की जलधार तुम्हें छू न पाए। ऐसे चलो समय में कि समय तुम पर रेखाएं न खींच पाए।
यही कबीर ने कहा है: ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया। समय कोई रेखा न खींच पाया। समय की धूल न जमी। दर्पण, जैसा था स्वच्छ, वैसा का वैसा रख दिया।
ध्यान उसी महत्वपूर्ण कला का नाम है। समय में जी भी लेता है आदमी और समय छूता भी नहीं। वहीं आनंद है, वहीं मुक्ति है।

चौथा प्रश्न:
भगवान, धर्म यदि शुद्ध नियम है, महानियम है, तो तृष्णा भी नियमानुकूल है; वह मनुष्य की कृति नहीं है। और नियमानुकूल होकर तृष्णा का भी उपयोग होना चाहिए। फिर उसे दुख ही दुख क्यों कहा जाता है?
क्योंकि वह दुख है। दुख भी नियमानुकूल है। और दुख का उपयोग है। और दुख का उपयोग करना है।
बुद्ध ने चार आर्य सत्य कहे हैं। पहला आर्य सत्य: दुख है। दूसरा आर्य सत्य: दुख का कारण है। तीसरा आर्य सत्य: दुख-मुक्ति संभव है। चौथा आर्य सत्य: दुख-मुक्ति के उपाय हैं।
दुख का उपयोग है। दुख के बिना, दुख को जाने बिना, दुख से गुजरे बिना कोई निखरता नहीं। दुख निखारता है, मांजता है। दुख ऐसे है, जैसे सोने को अग्नि में डालो; ऐसा आदमी दुख में पड़कर शुद्ध होता है। लेकिन सोने को अग्नि में डालो, इसका यह अर्थ नहीं कि फिर सोना अग्नि में ही रहे। शुद्ध हो गया, फिर निकालो।
दुख में जाने का उपयोग है; दुख के बाहर आने का उपयोग है। दुख व्यर्थ नहीं है, यह बात तो सच है। दुख व्यर्थ होता, तो संसार की कोई जरूरत न थी। दुख व्यर्थ होता, तो दुख की भी कोई जरूरत न थी। दुख का सृजनात्मक उपयोग है।
क्या दुख का उपयोग है? दुख तुम्हें जगाता है। कल की कहानी तुमने समझी!
बुद्ध ठिठककर खड़े हो गए हैं एक सुअरी को देखकर। कुछ सोचे। फिर हंसे। आनंद ने पूछा: क्या हुआ! क्यों ठिठके सुअरी को देखकर? क्यों सोचे? क्या सोचे? फिर हंसे क्यों?
तो बुद्ध ने कहा: यह सुअरी, अतीत में ककुसंध नाम के बुद्ध हुए, उस समय मुर्गी थी। उनके आसपास घूमती थी। वे बोलते, तो यह सुनने जाती थी। वे ध्यान को बैठते, तो यह भी पास ध्यान लगाकर बैठ जाती थी। इसका ककुसंध से प्रेम हो गया था, लगाव हो गया था। जानती ज्यादा नहीं थी। मुर्गी कितना जाने! लेकिन बुद्ध की हवा एक चुंबक की तरह इसे खींचती रही, खींचती रही। ऐसे अनजाने इसने ध्यान का धन कमाया। ऐसे अनजाने, आकस्मिक रूप से इसने पुण्य अर्जन किया। उस पुण्य अर्जन के कारण यह राजकुमारी होकर पैदा हुई। फिर जब राजकुमारी थी, तो पाखाने में एक दिन इसने कीड़ों को सरकते देखा। उनको, कीड़ों को देखकर इसे स्मरण आया--एक गहन स्मरण आया--कि यही तो हमारी भी दशा है। जैसे कीड़े सरक रहे हैं मल-मूत्र में, ऐसे ही तो हम संसार में सरक रहे हैं।
इस संसार में सरकना मल-मूत्र में सरकने जैसा ही है। नौ महीने बच्चा मां के पेट में रहता; मल-मूत्र का ही कीड़ा होता है। मल-मूत्र में ही सरकता है। फिर पैदा हो जाने के बाद भी चाहे तुम मल-मूत्र में मत सरको, लेकिन मल-मूत्र तुम में सरकता है। और तुम करते ही क्या हो? एक तरफ से डाला, दूसरी तरफ से निकाला! और तुम्हारी वासनाएं क्या हैं, आकांक्षाएं क्या हैं? मल-मूत्र में सरकने की ही हैं। तुम्हारी कामवासना का आकर्षण क्या है? मल-मूत्र का ही आकर्षण है।
यह सब उसे दिखायी पड़ गया। एक क्षण में जैसे किसी ने छाती में भाला भोंक दिया। उन कीड़ों को सरकते देखकर वह ध्यान को उपलब्ध हुई। मरी तो स्वर्ग में देवी की तरह पैदा हुई। खूब संचित हो गया पुण्य। स्वर्ग तक उड़ी पुण्य के पंखों पर।
और बुद्ध ने कहा: इसलिए मैं हंसा कि फिर जब स्वर्ग से पुण्य समाप्त हो गए, तो अब यह सुअर की बच्ची होकर पैदा हुई; सुअरी होकर पैदा हुई। इसलिए मैं हंसा कि कैसा जाल है! मुर्गी थी; वहां से स्वर्ग तक उठ गयी। फिर स्वर्ग से गिरकर सुअरी हो गयी। क्यों? क्योंकि स्वर्ग में इतना सुख था कि ध्यान इत्यादि भूल गयी। स्वर्ग में इतना सुख था, कौन फिकर करता है ध्यान की, धर्म की?
इसलिए तुम्हारे देवता सब से ज्यादा भ्रष्ट होते हैं। तुम्हारी कथाएं हैं शास्त्रों में; तुम देवताओं से ज्यादा भ्रष्ट लोग न पाओगे! देवता का मतलब है: जो सुख ही सुख में जीता है; जहां दुख है ही नहीं। दुख न होने से दंश नहीं है। दंश न होने से निखार नहीं होता। निखार नहीं होने से देवता करें क्या? एक-दूसरे की स्त्रियों को भगाएं! और करें क्या? आखिर कोई काम भी चाहिए न! स्वर्ग में करोगे क्या? बैठे-ठाले क्या करोगे? उर्वशियों को नचाओ; बैंड-बाजे बजाओ; या कोई ऋषि-मुनि अगर देवता बनने की स्थिति में आ रहा है, तो उनको डिगाओ! करोगे क्या?
तो बड़ी राजनीति है स्वर्ग में। कोई बेचारा गरीब ऋषि किसी जंगल में बैठकर उपवास करके ध्यान कर रहा है; उधर इंद्र का आसन डोलने लगता है कि यह आदमी ज्यादा अगर उपवास कर ले, और ज्यादा व्रत-नियम कर ले, और ज्यादा पुण्य अर्जन कर ले, और ज्यादा ध्यान कर ले, तो कहीं ऐसा न हो कि मेरी गद्दी पर कब्जा जमाने का हकदार हो जाए! कहीं इतना पुण्य अर्जन न कर ले कि इंद्र हो जाए! तो मुझे हटना पड़े। तो बड़ी राजनीति है।
तुम दिल्ली का ही विस्तार पाओगे स्वर्ग में, जरा बड़े पैमाने पर। कुछ भेद नहीं है। वही जालसाजियां, वही कूटनीति, वही एक-दूसरे की टांग पकड़कर खींचना। वही दल-बदल भी पाओगे। और बाकी समय काम क्या है? शराब ढालो और अप्सराओं को नचाओ! और करोगे क्या?
तो स्वर्ग में तो भूल गयी सब ध्यान, भूल गयी अंतर्यात्रा। तो जो पुण्य का अर्जन था, वह चुक गया। सभी कमायी गयी चीजें एक दिन चुक जाती हैं। तो अब गिरी है सुअरी होकर। इसलिए हंसा।
तो खयाल रखना: सारे भारतीय धर्मों ने एक बात कही है, जो बड़ी महत्वपूर्ण है। इस पर सब राजी हैं--जैन, हिंदू, बौद्ध। और वह यह बात है कि स्वर्ग से सीधे कोई मोक्ष नहीं जाता। स्वर्ग से मोक्ष का रास्ता ही नहीं है। अगर मोक्ष जाना हो, तो पहले संसार में आना पड़ता है। मोक्ष जाने का रास्ता संसार से है। इसलिए मनुष्य योनि में आना ही पड़ेगा--देवता को भी।
क्यों स्वर्ग से मोक्ष का रास्ता नहीं है? होना तो यह चाहिए, गणित तो यह कहेगा कि वहां से तो बिलकुल करीब ही होना चाहिए; कि जरा आगे बढ़े कि मोक्ष में पहुंच गए! स्वर्ग से जरा आगे बढ़े तो मोक्ष में पहुंच गए!
नहीं; लेकिन ऐसा नहीं है, क्योंकि स्वर्ग में इतना सुख है कि मोक्ष की याद ही भूल जाती है। सुख शराब जैसा है; सुला देता है। दुख जगाता है। दुख में आदमी सो नहीं पाता। और जागरण से कोई मोक्ष जाता है--निद्रा, तंद्रा से नहीं।
तो तुम्हारे देवता तो सोए-सोए से हैं। होंगे ही। इसलिए जब बुद्ध को परम ज्ञान उत्पन्न हुआ, तो कथाएं कहती हैं कि देवता उनके चरणों में आए; स्वयं ब्रह्मा आया उनके चरणों में फूल चढ़ाने। क्यों? क्योंकि बुद्धत्व देवत्व से बड़ा है।
बुद्धत्व का अर्थ है: व्यक्ति सुख-दुख से मुक्त हो गया। देवत्व का अर्थ है: व्यक्ति दुख से मुक्त होकर सुख में चला गया। एक बंधन हटा, दूसरा बंधन आया। लोहे के बंधन हटे, सोने के बंधन आ गए। जंजीरें पहले लोहे की थीं; अब सोने की हैं, हीरे जड़ी हैं।
मगर खयाल रखना: हीरे जड़ी जंजीरें ज्यादा खतरनाक हैं लोहे की जंजीरों से। क्योंकि लोहे की जंजीरों को तो तोड़ने का मन भी होता है। हीरे की जंजीरों को कौन तोड़ता है? लोग उनको आभूषण मानते हैं, उनको बचाते हैं। तुम्हें अगर हीरे की जंजीरें पहना दी जाएं, तो तुम कभी न तोड़ोगे। और कोई तुम्हें मुक्त करने आएगा, तो तुम उसको दुश्मन समझोगे--कि मेरे आभूषणों से मुक्त कर रहे हो!
स्वर्ग से कोई मोक्ष नहीं चाहता। मोक्ष चाहने का कोई कारण नहीं मालूम होता। लौटना पड़ता है मनुष्य योनि में। मनुष्य योनि चौराहा है। वहां से नीचे भी जा सकते हैं, ऊपर भी जा सकते हैं। और वहां से अतिक्रमण भी संभव है। मनुष्य योनि से नीचे जा सकते हैं; नर्क में जा सकते हैं; दुख में, और महादुख में। या सुख में, स्वर्ग में। और तीसरी दशा है--द्वंद्वातीत; दोनों से मुक्त हो जा सकते हैं। वही मोक्ष है।
तुमने पूछा: ‘तृष्णा को दुख ही दुख क्यों कहा जाता है?’
क्योंकि तृष्णा दुख ही दुख है। तृष्णा तुम्हें भिखारी बनाती है। जितनी तृष्णा, उतना भिखमंगापन।
तुम परीशान न हो, बाबे-करम वा न करो
और कुछ देर पुकारूंगा, चला जाऊंगा।
एक तो इतनी हंसीं दूसरे ये आराइश
जो नजर पड़ती है, चेहरे पे ठहर जाती है
मुस्कुरा देती हो मुंह फेर के जब महफिल में
एक धनक टूटकर सीनों में बिखर जाती है।
गर्म बोसों से तराशा हुआ नाजुक पैकर
जिसकी इक आंच से हर रूह पिघल जाती है
मैंने सोचा है, तो सब सोचते होंगे शायद
प्यास इस तरह भी क्या सांचे में ढल जाती है।
क्या कमी है जो करोगी मेरा नजराना कबूल
चाहने वाले बहुत, चाह के अफसाने बहुत
एक ही रात सही गर्मी-ए-हंगामा-ए-इश्क
एक ही रात में जल मरते हैं परवाने बहुत।
फिर भी इक रात में सौ तरह के मोड़ आते हैं
काश तुमको कभी तनहाई का अहसास न हो
ठीक समझी हो, गया भी तो कहां जाऊंगा
याद कर लेना मुझे कोई भी जब पास न हो।
आज की रात बहुत गर्म, बहुत गर्म सही
रात अकेले ही गुजारूंगा चला जाऊंगा।
तुम परीशान न हो, बाबे-करम वा न करो
और कुछ देर पुकारूंगा, चला जाऊंगा।
वासना के द्वार पर लोग खड़े भीख ही मांगते रहते हैं:
और कुछ देर पुकारूंगा, चला जाऊंगा।
वे दरवाजे न कभी खुले हैं, न खुलते हैं। तुम्हारे कहने की भी कोई जरूरत नहीं।
तुम परीशान न हो, बाबे-करम वा न करो
यह प्रेमी कह रहा है प्रेयसी से कि तुम परेशान मत होओ। दरवाजा खोलो भी मत। यह मन को समझाना भर है। दरवाजा खुलता कब है? दरवाजा किसके लिए खुला? वासना के द्वार से कौन तृप्त हुआ है?
दरवाजा बंद है। सदा से बंद है। सदा बंद ही रहेगा। दरवाजा खुलना जानता ही नहीं। लेकिन आदमी अपने को समझा लेता है। आदमी कहता है: कोई बात नहीं। तुम परेशान मत होओ।
तुम परीशान न हो, बाबे-करम वा न करो
और तुम्हारा कृपा रूपी दरवाजा मत खोलो। मत परेशान होओ।
और कुछ देर पुकारूंगा, चला जाऊंगा।
यह सांत्वना है, यह अपने को समझा लेना है कि मैं अपने से जा रहा हूं; तुम्हें कष्ट नहीं देना चाहता।
एक तो इतनी हंसीं दूसरे ये आराइश
एक तो तुम इतनी सुंदर, और फिर ऐसा श्रृंगार!
जो नजर पड़ती है, चेहरे पे ठहर जाती है
मुस्कुरा देती हो मुंह फेर के जब महफिल में
एक धनक टूटकर सीनों में बिखर जाती है
एक इंद्रधनुष जैसे टूटकर बिखर जाता है सीनों में--तुम्हारी मुस्कुराहट से।
गर्म बोसों से तराशा हुआ नाजुक पैकर
जैसे तुम्हारे शरीर को चुंबनों में ही ढाला गया हो और चुंबनों में ही बनाया गया हो!
गर्म बोसों से तराशा हुआ नाजुक पैकर
जिसकी इक आंच से हर रूह पिघल जाती है
मैंने सोचा है, तो सब सोचते होंगे शायद
प्यास इस तरह भी क्या सांचे में ढल जाती है।
क्या कमी है जो करोगी मेरा नजराना कबूल
चाहने वाले बहुत, चाह के अफसाने बहुत
एक ही रात सही गर्मी-ए-हंगामा-ए-इश्क
एक ही रात में जल मरते हैं परवाने बहुत।
प्रेमी सोचता है, एक भी रात संग-साथ हो जाए!
एक ही रात सही गर्मी-ए-हंगामा-ए-इश्क
प्रेम के हंगामे की गर्मी अगर एक रात के लिए भी मिल जाए, तो भी बहुत।
एक ही रात में जल मरते हैं परवाने बहुत
फिर भी एक रात में सौ तरह के मोड़ आते हैं
काश तुमको कभी तनहाई का अहसास न हो
ठीक समझी हो, गया भी तो कहां जाऊंगा
याद कर लेना मुझे, कोई भी जब पास न हो।
आज की रात बहुत गर्म, बहुत गर्म सही
रात अकेले ही गुजारूंगा चला जाऊंगा।
वासना से भरा हुआ आदमी सदा तो अकेला है। कब साथ होता है यहां? कब किसका साथ होता है? साथ होकर भी कहां साथ होता है? हाथ हाथ में भी होकर कहां हाथ में होता है? यहां कौन किसके साथ है? यहां कोई किसी के साथ हो भी नहीं सकता। उपाय नहीं है। यहां सब अकेले हैं। वासना केवल भ्रम पैदा करती है, सपने पैदा करती है।
तुम परीशान न हो, बाबे-करम वा न करो
और कुछ देर पुकारूंगा, चला जाऊंगा।
वासना सभी को भिखमंगा बना देती है। न कभी द्वार खुलते, न कभी भिक्षापात्र भरता। वासना सभी की आंखों को आंसुओं से भर देती है। वासना सभी के हृदय में कांटे बो देती है। वासना महादुख है।
मगर इसका यह अर्थ नहीं कि वासना का कोई उपयोग नहीं है। यही उपयोग है कि वासना तुम्हें जगाए, झंझोड़े; दुख, पीड़ा, अंधड़ उठें; और तुम चौकन्ने हो जाओ; तुम सावधान हो जाओ। वासना को देख-देख कर एक बात अगर तुम समझ लो, तो दुख का सारा सार निचोड़ लिया--कि मांगना व्यर्थ है। मांगे कुछ भी नहीं मिलता। दौड़ व्यर्थ है, दौड़कर कोई कहीं नहीं पहुंचता।
इतनी समझ आ जाए दुख में कि दौड़कर कोई कहीं नहीं पहुंचता और तुम रुक जाओ; इतनी समझ आ जाए कि मांगकर कुछ भी नहीं मिलता और तुम्हारी सब मांगें चली जाएं, तुम्हारी सब प्रार्थनाएं चली जाएं, तुम भिक्षापात्र तोड़ दो--उसी क्षण संन्यास का फूल खिल जाता है।
संन्यास का अर्थ क्या होता है? इतना ही अर्थ होता है: इस संसार में न कुछ मिलता है, न मिल सकता है। दौड़ है, आपाधापी है, खूब संघर्ष है, लेकिन संतुष्टि नहीं। जिसने यह देख लिया, जिसके भरम टूटे, जिसके सपन टूटे, जिसके ये सारे भीतर चलते हुए झूठे खयाल दुख से टकरा-टकरा कर खंडित हो गए, बिखर गए, उसको बड़ा लाभ होता है। लाभ होता है कि वह अपने में थिर हो जाता है।
वासना तुम्हें अपने से बाहर ले जाती है। वासना सदा बहिर्यात्रा है। और जब वासना व्यर्थ है--ऐसा दिखायी पड़ जाता है, दुख ही दुख है...।
इसलिए बुद्ध कहते हैं कि दुख ही दुख है। इसलिए नहीं कि बुद्ध को कोई वासना की निंदा करनी है। बुद्ध क्यों निंदा करेंगे! बुद्ध निंदा करना जानते ही नहीं। बुद्ध केवल तथ्य की घोषणा करते हैं।
आए न पिया
बैरागिन जगी रही रात,
जलाए दीया।
बौराई पीड़ा ने कर दिए,
नीलाम
सपने खुले बाजार।
दूर के ऊंचे पहाड़ों में,
खुलते रहे
गुमनाम दिशा-द्वार।
संन्यासी तन ने चुपचाप,
सब झेल लिया।
आए न पिया।
झीलों का दर्पण गहरा गया।
खड़ा-खड़ा
ऊंघता रहा गगन
माटी से फूल के दुलार को,
लुटा-लुटा
देखता रहा चमन।
बनजारे मन ने दुख भी जिया,
सुख भी जिया।
आए न पिया।
जिसकी तलाश है, वह मिलता नहीं। दुख मिल जाता है, सुख मिल जाता है; जिसकी तलाश है, वह मिलता नहीं।
बनजारे मन ने दुख भी जिया,
सुख भी जिया।
आए न पिया।
अकेलापन भरता नहीं, मिटता नहीं।
दुख तुम्हें बार-बार चोट करके जगने की सूचना देता है। दुख जैसे अलार्म है कि उठो, बहुत सो लिए। जगो, बहुत सो लिए। जगो, बहुत स्वप्न देख लिए। सुबह हो गयी। दुख जगाता है। और अगर तुम दुख से जाग जाओ, तो दुख के प्रति तुम्हारे मन में अनुग्रह का भाव होगा। और उन सब के प्रति भी, जिन्होंने तुम्हें दुख दिया।
इसलिए शत्रुता मिट जाती है जागे हुए पुरुष की। किससे शत्रुता? सब ने साथ दिया। अपनों ने साथ दिया सो दिया ही, परायों ने भी साथ दिया। परायों ने दुख दिए सो दिए ही दिए, अपनों ने भी दुख दिए। सब ने साथ दिया; सब ने जगाया; सब ने झंझोड़ा। किसी ने सोने न दिया।
जिस दिन तुम जागोगे, उस दिन धन्यवाद का भाव होगा--उन सबके प्रति, उन सब स्थितियों के प्रति--जिन में कभी तुम बड़े बेचैन हुए थे, बड़े तिलमिलाए थे। उनके प्रति भी तुम कहोगे कि धन्यभागी हूं। क्योंकि वह न होता, तो यह जागरण भी न होता।
मेरे हरदम साथ रहो तुम,
कितना अच्छा लगता है!
धुला-धुला-सा हो जाता मन
फगुनाहट से भर जाता तन
चौगुन चाव भरे बतियाते
लगते हैं आपस में आंगन।
तुलसी के चौरे पर दीप
जलाना अच्छा लगता है
हरदम मेरे साथ रहो तुम!
हर मौसम रंगों से भरता
हर दर्पण का रूप निखरता
छलक-छलक पड़ता खालीपन
कोना-कोना धूप संवरता
हर अंदाज सही हो जाता
जीवन सच्चा लगता है
हरदम मेरे साथ रहो तुम!
मगर हरदम कौन किसके साथ रह सकता है? और जीवन सच्चा लगता है!
सच्चा लगना एक बात; सच्चा हो जाना बिलकुल दूसरी बात। लगने में धोखा है। कितना तो तुमने धोखा खाया! कितनी बार तो धोखा खाया! कितनी बार तो तुमने कहा कि बस, अब आ गए। अब मिल गया मन का मीत! अब मिल गया, जिसे चाहा था। फिर चूके। फिर दो दिन बाद पता चला कि नहीं, यह भी पड़ाव है, मंजिल नहीं। बढ़ना होगा। आगे जाना होगा। धर्मशाला थी, सराय थी। रुक लिए रात; सुबह फिर बनजारा हो जाना है। सुबह फिर यात्रा पर निकल जाना है।
ऐसे जन्मों-जन्मों में कितने पड़ाव संसार में डाले; मंजिल कहां है?
बुद्ध का यह कहना कि जीवन दुख ही दुख है, तुम्हें जगाने को है। और ऐसा मत समझना कि दुख का उपयोग नहीं है। यही उपयोग है। दुख से ही पार होकर निर्वाण है।

पांचवां प्रश्न:
भगवान, दिल को तुम से प्यार क्यूं
यह न बता सकूंगा तुम को नजर में रख लिया दिल जिगर में रख लिया खुद मैं हुआ शिकार क्यूं यह न बता सकूंगा आपके घाट तक आ चुका हूं, क्या आपकी ओर से संन्यास रूपी नौका का सहारा पा सकूंगा?
पूछा है मनहर ने। जब पूछा था, तब तक वे संन्यासी नहीं थे। अब संन्यासी हैं; नाव में सवार हो गए हैं। लेकिन बात ठीक कही है।
शिष्य और गुरु के बीच जो संबंध है, उसे समझाने का, कहने का कोई उपाय नहीं! इस जगत की सब से ज्यादा उलझी पहेलियों में एक है। क्यों?
इस जगत में जितने और संबंध हैं--मां का, पिता का, भाई का, बहन का, पति-पत्नी का, मित्र का--वे सारे संबंध सांसारिक हैं। वे सारे संबंध पौदगलिक हैं। वे सारे संबंध माया के हैं, सपने के हैं, निद्रा के हैं।
इस जगत में एक ही किरण है, जो इस जगत की नहीं है, वह है: गुरु-शिष्य का संबंध। इस जगत में होकर भी--घटता तो यहीं है, इसी पृथ्वी पर, इन्हीं वृक्षों के तले, इन्हीं चांद-तारों के नीचे--इस पृथ्वी पर होकर भी इस पृथ्वी का नहीं है। कुछ पार का है। जैसे अंधेरे घर में एक किरण उतर आयी हो छप्पर के छेद से। अंधेरे में है, लेकिन किरण अंधेरे की नहीं है। कहीं पार से आती है, कहीं दूर से आती है।
अगर तुम किरण का सहारा पकड़कर चल पड़ो, अगर किरण को तुम अपना यात्रा-पथ बना लो, जल्दी ही अंधेरे के बाहर हो जाओगे। जल्दी ही खोज लोगे चांद को, जहां से किरण आती है। प्रकाश के स्रोत तक पहुंच जाओगे किरण को पकड़कर।
गुरु-शिष्य का संबंध सब से अपूर्व है, विस्मयकारी है; कुछ ऐसा है, जैसा हो नहीं सकता, फिर भी होता है! कुछ ऐसा है, जैसा होना नहीं चाहिए जीवन के हिसाब में, हिसाब के कुछ बाहर है।
मगर इससे तुम यह मत समझ लेना कि सभी शिष्यों के जीवन में ऐसा घट जाता है। शिष्य औपचारिक भी हो सकता है, तब कुछ भी नहीं घटता। शिष्य किसी गहरी वासना के कारण भी शिष्य हो सकता है, तब नहीं घटता। फिर वासना चाहे सांसारिक हो चाहे आध्यात्मिक--कुछ भेद नहीं पड़ता।
मेरे पास लोग आ जाते हैं। एक व्यक्ति ने संन्यास लिया। मैंने उनसे पूछा: किसलिए संन्यास लेते हो? उन्होंने कहा: नौकरी खोज रहा हूं बहुत दिन से, मिलती नहीं। सोचा, संन्यासी होने के बाद आपकी कृपा हो जाएगी, तो नौकरी मिल जाएगी।
अब इस संन्यास में क्या संबंध बनेगा? कैसे बनेगा? यह तो संबंध टूट गया! बनने की बात कहां है? यह तो बनने के पहले टूट गया! यह तो बात ही गलत हो गयी।
कोई अपने बच्चों को ले आते हैं। किसी बच्चे का विकास नहीं हुआ ठीक से, रिटार्टेड है। हो तो गया पंद्रह साल का, लेकिन मानसिक-उम्र तीन-चार साल से ज्यादा नहीं है। कहते हैं: संन्यास दे दीजिए इसको! क्यों? कि शायद आपके आशीर्वाद से ठीक हो जाए!
जो सज्जन अपने बेटे को संन्यास दिलाने आए थे, मैंने कहा: आपका क्या इरादा है? उन्होंने अभी संन्यास लिया नहीं! बोले कि मैं सोचूंगा। अभी और बहुत झंझटें हैं।
बच्चे को संन्यास दिलाने लाए हैं; खुद संन्यास लेने की हिम्मत नहीं है! संन्यास से कुछ प्रयोजन भी नहीं है। संन्यास की समझ भी नहीं है। संन्यास को कोई औषधि समझ रहे हैं, कोई चिकित्सा समझ रहे हैं--कि यह बच्चा ठीक हो जाएगा। तब तो संबंध बनेगा ही नहीं।
लेकिन ये तो संसारिक बातें हुईं। अगर आध्यात्मिक आकांक्षा से भी संन्यास लेते हो, तो भी बात नहीं बनती। जैसे कोई कहता है: मानसिक शांति चाहिए! जब कोई कहता है कि नौकरी चाहिए, तब तो किसी को भी समझ में आ जाएगा--बात गलत है। लेकिन जब कोई कहता है: मानसिक शांति चाहिए, तो तुम न कहोगे कि बात गलत है। मैं तुमसे कहना चाहता हूं, तब भी बात गलत है।
संन्यास से कुछ भी चाहिए, तो बात गलत है। जहां चाह है, वहां संसार है, संन्यास कहां! संन्यास तो अकारण होना चाहिए, अहेतुक होना चाहिए। आनंद से फलित होना चाहिए। मौज से निकलना चाहिए। अपना लक्ष्य अपने में होना चाहिए। कुछ भी चाहते हो, तो अड़चन होगी।
मानसिक शांति चाहिए! मानसिक अशांति क्यों है? क्योंकि बहुत चाहें हैं जिंदगी में; उन चाहों ने मन को उद्वेलित कर दिया है। उन चाहों के कारण तनाव है। तनाव के कारण अशांति है। अब यह एक और नयी चाह बढ़ा रहे हो! और अशांत हो जाओगे। अब मानसिक शांति चाहिए!
और ध्यान रखना: धन मिलना आसान है; मानसिक शांति मिलनी इतनी आसान नहीं। क्योंकि धन तो बड़ी क्षुद्र बात है। खोजते रहो, मिल ही जाएगा। कानूनी ढंग से न मिले, तो गैर-कानूनी ढंग से खोज लेना; मिल जाएगा। कोई उपाय कर लेना; चुनाव लड़ लेना। जो पास में हो, वह लगा देना; फिर कई गुना मिल जाएगा। धन तो पाया जा सकता है; लेकिन मानसिक शांति? मानसिक शांति कोई वस्तु तो नहीं कि तुम मुट्ठी बांध लोगे उस पर! मानसिक शांति कोई ऐसी चीज तो नहीं कि कहीं बिकती है; खरीद लोगे। मानसिक शांति कोई ऐसी चीज तो नहीं कि अभ्यास करने से मिल जाएगी। मानसिक शांति तो मिलती है समझ से।
इसलिए बुद्ध ने कहा: प्रज्ञा से...। जब तुम समझोगे कि अशांति के कारण क्या हैं, उसी समझ में अशांति के कारण समाप्त हो जाएंगे। जो शेष रह जाएगा, वह मानसिक शांति है। इसलिए मानसिक शांति कोई चाह ही नहीं सकता। चाह ही तो अशांति का कारण है। चाहा--कि चूके; और अड़चन बढ़ जाएगी। ऐसे ही अड़चन काफी है!
तो ऐसे लोगों को मैं कहता हूं: वैसे ही अशांति काफी है; अब और अशांति क्यों लेनी? इतना ही काफी है। इससे मन नहीं भर रहा है! अब मानसिक शांति की भी चाह है! इस झंझट में न पड़ो। ज्यादा अच्छा यही हो: क्यों मन अशांत है, इसको समझो; इसके भीतर प्रवेश करो। और तुम पाओगे: अशांति इसीलिए है कि बहुत सी वासनाएं हैं, और कोई वासना कभी पूरी नहीं होती। नहीं पूरी होती, तो अशांति--अशांति--अशांति।
इस समझ का परिणाम यह होता है कि वासनाएं छूट जाती हैं। और जहां वासना नहीं है, वहां जो है, वही मानसिक शांति है। उस मानसिक शांति में निर्वाण का फूल लगता है। लेकिन तुम्हारे कुछ कोशिश करने से नहीं लगता है। तुम्हारी चेष्टा से नहीं लगता। तुम्हारी चेष्टा से तो वही पैदा होगा, जो तुमसे पैदा हो सकता है।
निर्वाण का फूल तो परमात्मा से आता है, वह तो प्रसाद है। वह तो अनंत से आता है। तुम सिर्फ झेलने वाले होते हो। तुम पैदा करने वाले नहीं होते। तुम सिर्फ स्वीकार करने वाले होते हो; अंगीकार करने वाले होते हो। वह तो उतरता है। उसका अवतरण होता है। वह मौजूद ही है। सिर्फ जिस दिन तुम्हारी हृदय की भूमिका तैयार हो जाएगी, अचानक तुम पाओगे: वह फूल उतर आया। तैर गया तुम पर। भर गया तुम्हें।
वासना थी, तो खाली-खाली रहे। वासना से खाली हुए, तो परमात्मा से भरे। फिर उसे कुछ भी नाम दो: निर्वाण कहो, मोक्ष कहो, सत्य कहो, सच्चिदानंद कहो। फिर नामों का भेद है।
तुमने पूछा है: ‘दिल को है तुमसे प्यार क्यों, यह न बता सकूंगा!’
बताया भी नहीं जा सकता। इसलिए नहीं कि भाषा में कहना कठिन है, बल्कि इसलिए कि तुम्हें भी पता नहीं है। शिष्यत्व ऐसी अपूर्व घटना है कि शिष्य को भी पता नहीं होता: क्यों घट रही है? कैसे घट गयी?
‘दिल को है तुमसे प्यार क्यूं
यह न बता सकूंगा
तुम को नजर में रख लिया
दिल जिगर में रख लिया
खुद मैं हुआ शिकार क्यूं
यह न बता सकूंगा’
ठीक है बात। कोई उपाय बताने का नहीं। कोई कभी नहीं बता पाया। यह बात बताने की है भी नहीं। यह बात तो चुप-चुप भीतर सम्हालने की है।
बतियाओ मत
मौसम चुप रहने का
ठंडी हवाओं से कह दो
रुक जाएं
अंधियारी छाहों से कह दो
झुक आएं
मजबूर समां है
चुप-चुप सब सहने का
मौसम चुप रहने का
बतियाओ मत।
दर-दर चहकती खामोशियां
रोको तो
गुमराह निगाहों को भी कुछ
टोको तो
अब समय नहीं है
लहरों में बहने का
मौसम चुप रहने का
बतियाओ मत।
सपने पंसारी की
दुकान बन बैठे
याद की मदारिन ने
भोले दिल ऐंठे
लाचार जुबां है
दर्द न कुछ कहने का
मौसम चुप रहने का
बतियाओ मत।
अब तुम्हारे जीवन में चुप रहने की घड़ी आयी। अब कुछ तुम्हारे जीवन में हुआ, जिसे कहा नहीं जा सकता; कभी नहीं कहा जा सकता। यह शुभ घड़ी है। यह एक नया सूत्रपात है। यह परमात्मा की तुम्हारे जीवन में पहली झलक है, पहली कौंध, पहली बिजली!
बतियाओ मत
मौसम चुप रहने का
अब चुप-चुप इसे साधो। अब चुप-चुप इसे भीतर बांधो। अब चुप-चुप इसमें रमो।
और नाव पर तो तुम मेरी सवार हुए। अब पुराने किनारे से सब मन के नाते टूट जाने दो। अब पुराने किनारे से सब धागे हटा लो। अब कोई रस्सी बंधी न रहे, नहीं तो कई बार ऐसा होता है, नाव में भी सवार हो जाते और कहीं नहीं पहुंचते।
तुमने कहानी सुनी है न!
एक रात कुछ लोगों ने शराब पी ली। पूर्णिमा की चांदनी रात थी। शराब की मस्ती, गीत गाते नदी तट पर पहुंच गए। नाव मछुए बांधकर चले गए थे किनारे से। नाव में चढ़ गए। पतवारें उठा लीं। खूब खेया। नशे में थे। खेते ही रहे।
सुबह जब भोर होने लगी और ठंडी हवाएं आने लगीं; थोड़ा नशा उखड़ा, थोड़ा नशा कम हुआ, तो एक शराबी ने कहा: कोई भाई जरा किनारे उतरकर देख ले कि हम कितनी दूर निकल आए और किस दिशा में निकल आए! रातभर खेते रहे, न मालूम कहां आ गए हों?
एक उतरा और किनारे पर पेट पकड़कर खूब हंसने लगा। पूछने लगे दूसरे कि बात क्या है! उसने कहा कि बात बड़े मजे की है। हम कहीं गए नहीं। क्योंकि हम नाव को किनारे से छोड़ना तो भूल ही गए। वह तो किनारे जंजीर से बंधी है। पतवार तो हमने बहुत चलायी--सच--मगर हम जहां थे, वहीं हैं!
नाव में बैठकर भी जरूरी नहीं कि यात्रा हो जाए। किनारे से जंजीरें खोलनी पड़ेंगी। और ध्यान रखना: एकाध जंजीर नहीं है, बहुत जंजीरें किनारों से बंधी हैं। इधर धन की जंजीर है। इधर पद की जंजीर है। इधर मोह की जंजीर है। इधर प्रतिष्ठा की जंजीर है। न मालूम कितनी जंजीरें किनारों से बंधी हैं! उन सबको काटना पड़ेगा।
मैं तुम्हारे हाथ में पतवार दे सकता हूं। मैं तुम्हें कह सकता हूं कि ये जंजीरें खोलो। लेकिन यह करना तुम्हें पड़ेगा।
तुम्हारी जंजीरें मैं नहीं खोल सकता। क्योंकि जो जंजीरें दूसरा खोल दे, उससे असली स्वतंत्रता घटित नहीं होती।
मेरे खोलने से क्या होगा! अगर जंजीरों से तुम्हारा मोह है, तो मैं मुंह भी न मोड़ पाऊंगा कि तुम फिर जंजीरें बांध लोगे। अगर जंजीरों से तुम्हारा लगाव है, तो वे फिर बंध जाएंगी।
तुम्हीं जागो और जंजीरें खोलो। बुद्ध ने कहा है: बुद्धपुरुष तो केवल इशारा करते हैं; चलना तो तुम्हें ही पड़ता है।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, आप कहते हैं कि सुख की खोज में से ही दुख मिलता है। फिर क्यों सारा अस्तित्व सुख की खोज में व्यस्त मालूम होता है?
सुख पाना है--यह सच है। लेकिन सुख पाने से नहीं पाया जा सकता। सुख परोक्ष आता है, प्रत्यक्ष नहीं। यह सुख की कीमिया ठीक से समझ लो।
सुख पाना है--यह स्वाभाविक है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति सुख पाने में लगा है। लेकिन शायद ही कभी कोई इस बात को समझ पाता है कि मैं दुखी क्यों हूं! सुख तो पाने के लिए दौड़ता है, लेकिन दुखी क्यों हूं? और जब तक मैं दुखी होने के कारणों को नहीं बदलता, तब तक मैं कितना ही दौडूं, मैं सुख न पा सकूंगा।
मैंने सुना है: एक कौवा एक दिन उड़ा जा रहा था। और एक कोयल ने पूछा कि चाचा! कहां जा रहे हो बड़ी तेजी में! उसने कहा: मैं पूरब जा रहा हूं, क्योंकि पश्चिम में लोग मेरे गीतों को पसंद नहीं करते।
उस कोयल ने कहा: चाचा! मगर गीत यही गाए पूरब में, तो वहां भी कोई पसंद न करेगा। ये गीत ही आपके ऐसे गजब के हैं! बजाय पूरब जाने के, आप अपने गीत के ढंग बदलो।
लोग सुख खोज रहे हैं और लोग दुख पैदा कर रहे हैं! सारी ऊर्जा दुख पैदा करने में लगी है और मन का एक छोटा सा हिस्सा सुख खोजने में लगा है! यह नहीं हो सकता है। यह कैसे होगा?
तुम्हारा पूरा जीवन दुख निर्मित करने में लगा है। समझो। ज्यादा उचित यही होगा कि तुम दुख क्यों पैदा हो रहा है, इसकी खोज में लगो। इसकी खोज ही तुम्हें उस जगह ले आएगी, जहां सुख फलता है। दुख न हो, तो सुख हो जाता है।
और अभी तुम अगर कभी थोड़ा-बहुत सुख पा भी लिए; ज्यादा देर टिकेगा नहीं। दुख के सागर में सुख बूंदों जैसा होगा, बबूलों जैसा होगा--अभी हुआ, अभी मिटा। और तुम्हें और भी दुखी कर जाएगा।
यह तुमने खयाल किया कि सुख के बाद दुख और भी सघन हो जाता है। जैसे रास्ते पर अंधेरे में जा रहे हैं, कुछ-कुछ दिखायी पड़ रहा है। अमावस सही, लेकिन कुछ-कुछ दिखायी पड़ रहा है। किसी तरह चले जा रहे हो। फिर एक तेज-तर्रार कार गुजर जाती है पास से। उसके तेज प्रकाश में तुम्हारी आंखें चौंधिया जाती हैं। कार चली गयी, फिर तुम्हें कुछ नहीं दिखायी पड़ता। जो पहले दिखायी पड़ता था, वह भी नहीं दिखायी पड़ता। घड़ीभर को तो तुम एकदम अंधे हो जाते हो।
ऐसा ही होता है। जीवन में दुख है, सुख कभी-कभी कौंध जाता है। उसके बाद और दुखी हो जाते हो।
तुमने फर्क देखा! एक भिखारी सड़क पर बैठा। यह भिखारी ही है। यह सदा से भिखारी है। तुम्हें लगता है, बहुत दुखी है। तुम गलती में हो। तुम्हें जो लगता है, यह बहुत दुखी है, वह इसीलिए लगता है कि तुम सोचते हो: अगर मुझे भीख मांगनी पड़े, मुझे भिखमंगा होना पड़े, तो कितना दुख न होगा! इतना दुख इसे नहीं हो रहा है। हां, तुम्हें होगा।
तुम्हारे पास मकान था, पत्नी थी, कार थी, दुकान थी--सब था। फिर खो गया। दिवाला निकल गया। दीवाली निकलते-निकलते दिवाला निकल गया। अब तुम भी भिखमंगे के पास बैठ गए। तुम यह मत सोचना कि तुम्हें जो दुख हो रहा है, वह भिखमंगे को भी हो रहा है। भिखमंगा हो सकता है मस्त भी हो। भिखमंगा तुमसे कहे भी कि अरे यार, क्यों इतने परेशान हो रहे हो! सब चलता है। सब मजे से चल रहा है। काहे इतने उदास! थोड़े दिन में रच-पच जाओगे। मैं सिखा दूंगा सब धंधा। इसकी भी कला है। तुम मुझसे सीख लो।
मगर तुम्हारा मन नहीं लगता, क्योंकि तुमने थोड़ा सा सुख देखा है। उस सुख की तुलना में यह महादुख मालूम पड़ता है।
एक यहूदी कथा है: एक गरीब यहूदी अपने रबी के पास गया। रबी से उसने कहा कि गुरुदेव! कुछ रास्ता बताओ। मैं मरा जा रहा हूं। एक ही कमरा है हमारे पास। उसमें मैं रहता, मेरी पत्नी रहती, मेरे बारह बच्चे रहते। मेरे पिता, मेरी मां, मेरी पत्नी की मां, मेरी पत्नी के पिता, मेरी एक विधवा बहन, उसके दो बच्चे! और अभी-अभी घर में मेहमान आ गए हैं! पागल हुए जा रहे हैं हम। इसके पहले कि कुछ हो जाए--या तो मैं किसी को मार डालूं या मैं मर जाऊं--ऐसी हालत हो रही है। एक ही कमरा, उसी में खाना बनाते, उसी में बच्चे पैदा होते, उसी में मेहमान भी रहते हैं। कुछ रास्ता बताओ।
यहूदी धर्मगुरु बड़े अनुभवी लोग होते हैं। उसने कहा: तुम एक काम करो। तेरे पास गाय-भैंस इत्यादि हैं? उसने कहा, हैं। तीन भैंसें हैं, दो गाएं हैं, दस बकरियां हैं, भेड़ें भी हैं, कुत्ता भी है, घोड़ा भी है। उसने कहा: तू उन सब को भी अंदर ले आ। उसने कहा: आप होश में हैं? मैं क्या कह रहा हूं--कि मैं मरा जा रहा हूं। आप कह रहे हैं, इनको भी अंदर ले आ! उसने कहा: तू मेरी बात मान और सात दिन बाद आकर मुझे बताना।
जब गुरु ने कहा है, तो कुछ राज होगा। हिम्मत तो नहीं होती यह करने की उसकी। घर जाता है, बड़ा सोचता है। पत्नी से कहता है कि हद्द हो गयी! मैं मुसीबत लेकर गया था। महा मुसीबत का रास्ता बता दिया।
पत्नी कहती है: लेकिन जब गुरु ने कहा...। जैसे कि पत्नियां अक्सर गुरुओं को मानने वाली होती हैं, उसने कहा: जब गुरु ने कहा, तो मानना ही पड़ेगा। अब जो भी हो। सात दिन झेल लेंगे। मगर जब कहा है, तो कुछ राज होगा!
तो लाना पड़ा। अब सब भैंसें और गाएं और घोड़े और कुत्ते और...! वहां तो जगह बैठने की भी न रही। खड़े-खड़े मुश्किल से गुजारा हो। सात दिन तो बिलकुल पगला गए सब। सात दिन पूरे हुए, तो भागा एकदम। गुरु के चरण पकड़ लिए और कहा कि बचाओ गुरुदेव!
उसने कहा कि अब तुम एक काम करो, वह सब जानवरों को बाहर निकाल दो। आनंद से नाच उठा कि धन्य है! ऐसा सुख मुझे कभी नहीं हुआ था। यह बात ही इतना सुख दे रही है!
जाकर सब निकाल दिया। पांच-सात दिन बाद धर्मगुरु आया। उसने कहा: कहो! उसने कहा: बड़ा आनंद है गुरुदेव! ऐसी सुख की राहत की सांस कभी जिंदगी में न ली थी। और कमरा इतना बड़ा मालूम पड़ता है! और काफी जगह है। दो-चार मेहमान आ जाएं, तो कोई अड़चन नहीं है। आपने भी आंखें खोल दीं!
अक्सर ऐसा हो जाता है: बड़े दुख के बाद छोटा सा सुख बड़ा मालूम होता है। और बड़े सुख के बाद छोटा सा दुख बड़ा मालूम होता है।
‘आप कहते हैं, सुख की खोज में से ही दुख निकलता है।’
हां, सुख की खोज में से दुख निकलता है। क्योंकि तुम दुख को नहीं खोजते; तुम दुख को नहीं खोदते। तुम दुख को नहीं निरीक्षण करते। और दौड़े चले जाते हो। सुख की चीख-पुकार मचाए रखते हो और दुख तुम पैदा करते चले जाते हो।
ज्ञानी वह है, जो सुख की तो फिकर नहीं करता है, जो दुख का निरीक्षण करता है, जो दुख के राज खोजता है--कि क्यों दुख है? किस कारण दुख है? क्या आधार है दुख का? और जैसे-जैसे दुख की समझ बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे आधार गिरते जाते हैं। क्योंकि तुम्हीं तो पैदा कर रहे हो उन्हें।
तुम्हीं अपना दुख पैदा कर रहे हो। तुम अपने हाथ हटाते जाते हो। जहां-जहां समझ आ गयी, वहां-वहां हाथ हट जाता है। और जहां दुख नहीं पैदा होता, वहीं सुख पैदा होता है। सुख अलग से खोजने की जरूरत नहीं है। उसी खोज में अड़चन है।
दुख का यही तो उपयोग है कि अगर तुम उसे समझ लो, तो सुख हो जाए। अगर पूरा समझ लो, तो आनंद हो जाए।
दर्द भी जरूरी है।
माटी की भूख जगी
माटी की ही प्यास
जीते रहे प्राणों को
अनछुए अहसास
आंगन की गंधों में
सिमट आयी दूरी है।
दर्द भी जरूरी है।
खामोशियां भरती रहीं
छंदों में रंग
दर्पण ने कर डाले
सब सपने बदरंग
बिना जिए, बिना मरे
जिंदगी अधूरी है।
दर्द भी जरूरी है।
कभी बढ़े कभी घटे
अनबुझे फासले
बदनामी ढोते रहे
मंजिल के काफिले
अनदेखे सपनों की
छाया सिंदूरी है।
दर्द भी जरूरी है।
दर्द का भी बड़ा उपयोग है। और वह उपयोग है कि तुम उसे देखो, पहचानो, विश्लेषण करो, खोदो, समझो। उसी समझ से तुम्हारे भीतर सुख का अवतरण होता है। सुख को खोजने मत जाओ, दुख में उतरो। और जब मैं कह रहा हूं कि दुख में उतरो, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम अपने लिए दुख पैदा करो। दुख वैसे ही काफी है। कुछ और पैदा करने की जरूरत नहीं है।
कुछ मूढ़ ऐसे हैं कि वे समझ गए कि दुख में उतरने का मतलब है कि और दुख पैदा करो। भोजन भी है, तो उपवास करो। इसकी कोई जरूरत नहीं है। दुख वैसे ही काफी हैं।
तपश्चर्या का यही अर्थ है कि जब दुख हो, तो उसमें जागो। लेकिन लोग मूढ़ हैं। उन्होंने उलटा अर्थ ले लिया। उन्होंने अर्थ ले लिया कि अपने लिए दुख पैदा करो। पहले सुख पैदा करने की कोशिश करते थे, अब वे दुख पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। पहले सोचते थे कि किसी तरह कमरे में एअर कंडीशनर लग जाए। अब? अब उन्होंने धूनी रमा ली। अब वे आग जलाकर उसके पास बैठे मर रहे हैं! मगर मूढ़ता पुरानी की पुरानी है।
पहले सोचते थे, सुंदर वस्त्र; अब नंग-धड़ंग बैठे हैं! पहले सोचते थे कि अच्छा बिस्तर, अच्छा सोने का स्थान; अब इतने से काम नहीं चल रहा कि वे साधारण बिस्तर पर सो जाएं। जो है उस पर सो जाएं। अब उन्होंने कांटों को बिस्तर बना लिया है! अब खीले लगाकर उन्होंने अपनी विशेष शय्या बना ली है! यह मूढ़ता है! यह एक अति से दूसरी अति पर जाना है।
और ध्यान रखना: भोगी की मूढ़ताएं हैं, योगी की मूढ़ताएं हैं। और दोनों से जो जागता है, वही ज्ञानी है।
नहीं तो योगी की मूढ़ता पकड़ लेती है! भोगी की मूढ़ता से छूटे किसी तरह, तो योगी की मूढ़ता पकड़ लेती है! इधर भोगी है कि एक-एक बात सुख ही सुख मिले, इसी कोशिश में करता है। और उधर योगी है कि हर चीज से दुख मिले, इसकी कोशिश में रहता है। अगर रास्ता साफ-सुथरा है, उस पर वह न चलेगा। जहां कांटे पड़े हैं, वहां चलेगा। क्योंकि दुख! तपस्वी है! तपश्चर्या करनी है! अगर वृक्ष में छाया है, तो वहां न बैठेगा। धूप में खड़ा रहेगा। पास कंबल है, ओढ़कर सो जाता। तो नदी में खड़ा है! ठंड सह रहा है! यह मूढ़ता ने ढंग बदल लिया, लेकिन मूढ़ता नहीं गयी।
न तो दुख पैदा करने की जरूरत है, न सुख खोजने की जरूरत है। दुख इतना काफी है। परमात्मा ने जितना जरूरी है, उतना तुम्हें दिया है; उसका उपयोग कर लो। उसको समझ लो। उसी समझ में से तुम्हें सूत्र मिल जाएंगे। उन्हीं सूत्रों से मुक्ति है।

आज इतना ही।

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