BUDDHA
Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) 103
One Hundred And Third Discourse from the series of 122 discourses - Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) by Osho. These discourses were given during NOV 21, 1975 to DEC 10, 1977.
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तण्हावग्गो
मनुजस्स पमत्तचारिनो तण्हा बड्ढति मालुवा विय।
सो पलवती हुराहुरं फलमिच्छं’व वनस्मिं वानरो।।274।।
यं एसा सहती जम्मी तण्हा लोके विसत्तिका।
सोका तस्स पबड्ढन्ति अभिवट्ठं’व वीरणं।।275।।
यो चेतं सहती जम्मिं तण्हं लोके दुरच्चयं।
सोका तम्हा पपतन्ति उदविन्दू’व पोक्खरा।।276।।
तं वो वदामि भद्दं वो यावन्तेत्थ समागता।
तण्हाय मूलं खणथ उसीरत्थो’व वीरणं।
मा वो नलं व सोतो व मारो भञ्जि पुनप्पुनं।।277।।
यथापि मूले अनुपद्दवे दल्हे
छिन्नोपि रुक्खो पुनरेव रूहति।
एवम्पि तण्हानुसये अनूहते
निब्बत्तति दुक्खमिदं पुनप्पुनं।।278।।
यस्स छत्तिंसति सोता मनापस्सवना भुसा।
वाहा वहन्ति दुद्दिट्ठिं संकप्पा रागनिस्सिता।।279।।
सवन्ति सब्बधि सोता लता उब्भिज्ज तिट्ठति।
तञ्च दिस्वा लतं जातं मूलं पञ्ञाय छिन्दथ।।280।।
एक कली...
नन्हीं सी
कल ही तो मौसम
मनाया था नेह का
गंध भरी देह का
आज लाचार गयी छली
एक कली...
एक सुबह एक शाम
इतनी-सी जिंदगी
झरी पाखें सगी
आंखें उदास रूप-जली
एक कली...
धूल की अलगनी पर
टंगे सपने अभी
मटैले से सभी
बुझे-बुझे रंग उम्र ढली
एक कली...
ऐसा ही जीवन है; अभी है, अभी नहीं; क्षणभंगुर है। इस क्षणभंगुरता को जिसने समझा, वही धर्म में प्रवेश करता है। इस क्षणभंगुरता को जिसने न समझा, वह भटकता रहता। कोल्हू के बैल जैसा जुता गोल-गोल घूमता रहता। इसी को बुद्ध ने कहा है--एस धम्मो सनंतनो।
जीवन क्षण-क्षण परिवर्तनशील है, इसे देख लेना परम नियम है। ऐसा हमें दिखायी नहीं पड़ता। आंख पर कोई पर्दा है, जो देखने नहीं देता। रोज देखते हैं चारों तरफ मौत को घटते, फिर भी यह बात मन में बैठती नहीं कि मैं भी मरूंगा। रोज देखते हैं पीले पत्तों को गिरते, लेकिन मन यही कहे जाता है कि मैं सदा हरा रहूंगा। रोज देखते हैं जवानी को बुढ़ापे में बदलते, स्वास्थ्य को बीमारी में गिरते; रोज देखते हैं किसी को धूल में खो जाते, लेकिन मन यही आशा संजोए रहता है--यह औरों के साथ होता है, मेरे साथ न हुआ, न होगा। मैं अपवाद हूं।
जिसने समझा अपने को अपवाद, वह संसार से मुक्त न हो सकेगा। जिसने समझा कि नियम शाश्वत है, कोई भी अपवाद नहीं...।
जो हरा है, वह पीला होकर झरेगा। जो जन्मा है, वह मरेगा। जो अभी युवा है, कल थकेगा, बूढ़ा होगा। यहां हर चीज बनती और बिगड़ती है। सतत प्रवाह है। यहां कुछ भी थिर नहीं। एक क्षण भी थिर होने की आशा रखना महाभ्रांति है। और थिर होने की आकांक्षा से ही सारे दुखों का जन्म है।
जो नहीं होने वाला है, वह हो जाए, इसी आकांक्षा में तो दुख की उत्पत्ति है। क्योंकि वह नहीं होगा और तुम दुखी होओगे।
जवान हो, जवानी को थिर बना लेने की आकांक्षा है। सदा जवान रहूं! यह नहीं होगा; कभी नहीं हुआ; यह हो नहीं सकता। यह नियम के विपरीत है। तुम असंभव की कामना कर रहे हो। फिर कामना टूटेगी। पूरी तो हो नहीं सकती, टूटेगी ही; तब विषाद होगा, तब गहन अंधेरे में खो जाओगे। और तब ऐसा लगेगा कि पराजित हुए। पराजित सिर्फ कामना हुई, तुम नहीं। लेकिन कामना से समझा था एक अपने को, इसलिए लगता है पराजित हुआ। फिर भी सीखोगे नहीं! फिर-फिर क्षणभंगुर को पकड़ोगे।
पानी के बबूले को थिर बनाने की आकांक्षा है! जो फूल तुम्हारी बगिया में खिला--सदा खिला रहे; ऐसा ही खिला रहे; ऐसी ही सुगंध उठती रहे। झरेगा फूल कल सुबह। पखुड़ियां गिरेंगी धूल में, तब तुम रोओगे। तब आंसू सम्हाले न सम्हलेंगे। लेकिन तुम्हारे रोने का कारण तुम ही हो। तुमने गलत चाहा था; तुमने असंभव चाहा था; जो नहीं होता है, वैसा चाहा था। इसलिए विषाद है।
काश! तुम देख लो उसे जो होता है, और वही चाहो, जो होता है, तो चाह मर गयी। चाह का अर्थ ही है: जो होता है, उसके विपरीत चाहना। जैसा नहीं होता है, वैसा चाहना। जो होता है, उसकी स्वीकृति, उसके साथ समरस हो जाना--चाह मर गयी।
जवानी बूढ़ी हो जाती है, तुम भी स्वीकार कर लेते हो। जीवन मृत्यु में परिणत हो जाता है, तुम अंगीकार कर लेते हो। सुख दुखों में बदल जाते हैं; दिन रातों में ढल जाते हैं; तुम जरा भी ना-नुच नहीं करते। तुम कहते हो: जो होता है, होता है। जैसा होता है, वैसा ही होगा। तो कहां वासना है?
वासना सदा विपरीत की वासना है। इस विपरीत की आकांक्षा को बुद्ध ने कहा है--तन्हा, तृष्णा।
किसी से तुम्हारा प्रेम हुआ, अब तुम सोचते हो: यह प्रेम सदा रहे। यहां कुछ भी सदा नहीं रहता। अब तुम कहते हो: इस प्रेम को बांधकर रख लूं। द्वार-दरवाजे बंद कर दूं--कि यह प्रेम का झोंका कहीं बाहर न निकल जाए! हथकड़ियां डाल दूं; बेड़ियां पहना दूं--प्रेम को। तालों पर ताले जड़ दूं; कहीं यह प्रेम चला न जाए! बामुश्किल तो आया है। कितना पुकारा तब आया है!
याद रखना: न तुम्हारे पुकारने से आया है, न तुम्हारे रोकने से रुकेगा। आता है अपने से, जाता है अपने से।
तुम चेष्टा करके प्रेम कर सकोगे? तुम्हें कोई आज्ञा दे: करो इस व्यक्ति को प्रेम; तुम कर सकोगे? जब आता है, तब आता है। तुम अवश हो।
जिसके आने पर बस नहीं है, उसके जाने को कैसे रोकोगे? जो आते समय तुम्हारे हाथ से नहीं आया, वह जाते समय तुम्हारे हाथ से रुकेगा भी नहीं। हवा का झोंका है--आया और गया। इस सत्य को समझ लेना धर्म को समझ लेना है। क्योंकि इस सत्य की समझ में ही तृष्णा गिर जाती है, मांग मिट जाती है। जो होता है, उसे स्वीकार कर लेते हो। जो नहीं होता, वह नहीं होता। उसे भी स्वीकार कर लेते हो। फिर जैसा है, वैसे में ही तृप्ति है। इस तृप्ति में ही तृष्णा से मुक्ति है।
तृष्णा को ठीक से समझना जरूरी है, क्योंकि तृष्णा का ही सारा जाल है।
तुम बंधे संसार से नहीं, तुम बंधे तृष्णा से। संसार को गालियां मत दो। तृष्णा से बंधे हो तुम, तृष्णा को समझो। तृष्णा को भी गालियां मत दो। क्योंकि गालियां देने से कोई समझ पैदा नहीं होती; निंदा करने से कुछ बोध नहीं पैदा होता। उतरो! आंख खोलकर तृष्णा को देखो। कितनी बार हारे हो! सदा हारे हो! जीत कभी हुई नहीं। किसी की नहीं हुई। और जब तुम्हें लगती है, जीत हो रही है, तब भी ध्यान रखना: तुम्हारी नहीं हो रही है। इसलिए हार जब तुम्हारी होगी, तब भी तुम्हारी नहीं होगी।
यहां जीवन अपने नियम से चल रहा है। कभी-कभी संयोगवशात तुम नियम के साथ पड़ जाते हो। साथ पड़ जाते हो, अच्छा लगता है। जब-जब साथ छूट जाता है, तब-तब दुख और पीड़ा होती है; कांटा गड़ता है।
तुम सदा नियम के साथ हो सकते हो, फिर महासुख है; फिर आनंद है। सदा नियम के साथ होने का अर्थ है: जो होगा, उससे अन्यथा नहीं चाहूंगा। जैसा होगा, उससे रत्तीभर भी अन्यथा नहीं चाहूंगा। दुख होगा, तो दुख अंगीकार करूंगा। सुख होगा, तो सुख अंगीकार करूंगा। मैं अपने को बीच से हटा लूंगा। जो होगा, उसे होने दूंगा। मैं रिक्त हो जाऊंगा। अड़चन न डालूंगा। बाधा न डालूंगा। मांग खड़ी न करूंगा। अपेक्षाएं न रखूंगा। मैं दूर हट जाऊंगा, जैसे मैं रहा नहीं। आए हवा का झोंका--ठीक। न आए--ठीक। सूरज की किरण आए--ठीक। न आए--ठीक। उजाला आए, अंधेरा आए; सुख के दिन और दुर्दिन आएं; जो भी आता हो, आए, मैं तो हूं नहीं। ऐसी भावदशा में फिर कहां दुख? फिर कहां विषाद? इस भावदशा को बुद्ध ने निर्वाण कहा। तुम रिक्त हो जाओ, शून्य हो जाओ। तुम बीच में न आओ, तो निर्वाण है। निर्वाण महासुख है।
ये सारे सूत्र तृष्णा के ऊपर हैं। इसके पहले कि हम सूत्रों में उतरें, उन परिस्थितियों में चलें, जब ये सूत्र कहे गए।
पहला दृश्य:
भगवान गौतम बुद्ध श्रावस्ती के जेतवन में विहरते थे। श्रावस्ती के नगर-द्वार पर बसे हुए केवट्ट गांव के मल्लाहों ने अचिरवती नदी में जाल फेंककर एक स्वर्ण-वर्ण की अदभुत मछली को पकड़ा।
अदभुत थी मछली। स्वर्ण-वर्ण था उसका, जैसे सोने की बनी हो। उसके शरीर का रंग तो स्वर्ण जैसा था, किंतु उसके मुख से भयंकर दुर्गंध निकलती थी।
मल्लाहों ने इस चमत्कार को जाकर श्रावस्ती के महाराजा को दिखाया। ऐसी मछली कभी उन्होंने पकड़ी नहीं थी। ऐसी सुंदर काया कभी देखी नहीं थी किसी मछली की। जैसे स्वर्ग से उतरी हो। और साथ ही एक दुर्भाग्य भी जुड़ा था उस मछली के पीछे। उसके मुंह से ऐसी भयंकर दुर्गंध निकलती थी, वैसी दुर्गंध भी कभी नहीं देखी थी; जैसे भीतर नर्क भरा हो। बाहर स्वर्ण की देह थी और भीतर जैसे नर्क!
राजा भी चकित हुआ। न उसने सुना था कभी, न देखा था। ऐसी मछली पुराणों में भी नहीं लिखी थी।
बुद्ध गांव में ठहरे हैं। राजा उस मछली को एक द्रोणी में रखवाकर भगवान के पास ले गया। सोचा: चलें, उनसे पूछें। शायद कुछ राज मिले।
उस समय मछली ने मुख खोला, जिससे सारा जेतवन दुर्गंध से भर गया। जहां बुद्ध ठहरे थे--जिन वृक्षों की छाया में--वह सारा जेतवन दुर्गंध से भर गया! ऐसी भयंकर उसकी दुर्गंध थी।
राजा ने भगवान के चरणों में तीन बार प्रणाम कर पूछा: भंते! क्यों इसका शरीर स्वर्ण जैसा, किंतु मुख से दुर्गंध निकलती है? यह द्वंद्व कैसा? यह द्वैत कैसा? स्वर्ण की देह से तो सुगंध निकलनी थी! और अगर दुर्गंध ही निकलनी थी, तो देह स्वर्ण की नहीं होनी थी। यह कैसा अजूबा! आप कुछ कहें।
भगवान ने अत्यंत करुणा से उस मछली की ओर देखा और बड़ी देर चुप रहे। जैसे किसी और लोक में खो गए। और फिर बोले: महाराज! यह मछली कोई सामान्य मछली नहीं है। इसके पीछे छिपा एक लंबा इतिहास है। यह काश्यप बुद्ध के शासन में कपिल नामक एक महापंडित भिक्षु था। यह त्रिपिटकधर था; ज्ञानी था। बड़ा तर्कनिष्ठ, बड़ा तर्क कुशल; स्मृति इसकी बड़ी प्रगाढ़ थी। और उतना ही अभिमानी भी था। अहंकार भी बड़ा तीक्ष्ण था; तलवार की धार की तरह था। इसने अपने अभिमान में भगवान काश्यप को धोखा दिया; अपने गुरु को धोखा दिया। उन्हें छोड़ा ही नहीं, वरन उनके विरोध में भी संलग्न हो गया।
जो इसने बहुत दिनों तक एक बुद्धपुरुष का सत्संग किया था और उनके चरणों में बैठा था, और उनकी छाया में चला था, उसके फल से इसे स्वर्ण जैसा वर्ण मिला है। ऐसे देह तो इसकी स्वर्णमयी हो गयी, क्योंकि बाहर-बाहर से यह उनके साथ था, लेकिन आत्मा से चूक गया। बाहर तो सुंदर हो गया, लेकिन भीतर कुरूप रह गया। बाहर तो बुद्धपुरुष के साथ रहा, भीतर-भीतर विरोध को संजोता रहा। तो बाहर सुंदर हुआ, भीतर कुरूप रह गया। बाहर स्वर्ण हुआ, भीतर सिवाय दुर्गंध के और कुछ नहीं है। बाहर तो बुद्ध की छाया का परिणाम है; भीतर यह जैसा है, वैसा है। उस अंतर-कुरूपता के कारण ही इसके मुख से भयंकर दुर्गंध निकल रही है।
इसी मुख से इसने काश्यप भगवान का विरोध किया था। और भलीभांति जानते हुए कि यह गलत है, फिर भी विरोध किया था। यह दुर्गंध उस दगाबाजी और धूर्तता और अहंकार की ही गवाही दे रही है।
राजा को इस कथा पर भरोसा न हुआ। हो भी तो कैसे हो! यह कथा कल्पित सी मालूम पड़ती है। फिर प्रमाण क्या है? फिर गवाही कहां है? वह बोला: आप इस मछली से कहलवाएं, तो मानूं!
भगवान हंसे और अब करुणा से उन्होंने उस राजा की ओर देखा--वैसे ही, जैसे पहले मछली की ओर देखा था। और वे मछली से बोले: याद कर! भूले को याद कर! तू ही कपिल है? तू ही वह भिक्षु है, जो महाज्ञानी था? जो काश्यप बुद्ध के चरणों में बैठा? जो उनकी छाया में उठा?
मछली बोली: हां, भंते! मैं ही कपिल हूं। और उसकी आंखें आंसुओं से भर गयीं--गहन पश्चात्ताप और गहन विषाद से। और उस क्षण एक अपूर्व घटना घटी। आंसू भरी आंखों के साथ, बुद्ध के समक्ष, वह मछली तत्क्षण मर गयी। उसकी मृत्यु के क्षण में उसका मुंह खुला था, लेकिन दुर्गंध विलीन हो गयी थी।
जीते जी दुर्गंध आ रही थी, मरकर तो और भी आनी थी! मरकर तो उनमें भी दुर्गंध आने लगती है, जिनमें दुर्गंध नहीं होती। लेकिन यह अपूर्व हुआ। मछली मर गयी--मुंह खोले, आंख में आंसुओं से भरे! पश्चात्ताप...! लेकिन पश्चात्ताप ही उसे नहला गया, धो गया, पवित्र कर गया। उस पश्चात्ताप के क्षण में उसका अहंकार गल गया।
किसी और बुद्ध के समक्ष अहंकार लेकर खड़ी थी। आज किसी और बुद्ध के समझ क्षमा मांग ली। वे आंसू पुण्य बन गए। वह मछली मर गयी। इससे सुंदर क्षण मरने के लिए और मिल भी न सकता था!
एक सन्नाटा छा गया। सारे भिक्षु इकट्ठे हो गए थे मछली को देखने। फिर यह भयंकर दुर्गंध! जो दूर-दूर थे, जिन्हें पता भी नहीं था, वे भी भागे आए कि बात क्या है? इतनी भयंकर दुर्गंध कैसे उठी? फिर महाराजा को देखा। फिर बुद्ध के ये अदभुत वचन सुने। और फिर मछली को बोलते देखा! और यही नहीं, फिर मछली को मरते देखा और रूपांतरित होते देखा! मृत्यु जैसे समाधि बन गयी। और यह भी देखा चमत्कार कि जीते-जी दुर्गंध से भरी थी, मरते दुर्गंध विदा हो गयी! इतना ही नहीं; जैसे ही पुरानी दुर्गंध धीरे-धीरे हवा के झोंके ले गए, उस मरी हुई मछली से सुगंध आने लगी। जेतवन, जैसे पहले दुर्गंध से भर गया था, वैसे ही एक अपूर्व सुगंध से भर गया! वे भिक्षु पहचानते थे भलीभांति--वह सुगंध कैसी है। वह बुद्धत्व की सुगंध थी--जैसे बुद्ध से आती है।
मछली उपलब्ध होकर मरी। एक क्षण में क्रांति घटी। क्रांति जब घटती है, तो क्षण में घट जाती है। बोध की बात है।
सन्नाटा छा गया। बड़ी देर तक कोई कुछ नहीं बोला। लोग संविग्न हो गए। उन्हें रोमांच हो आया। तब भगवान ने उस समय उपस्थित लोगों की चित्त-दशा को देखकर यह गाथाएं कहीं।
इसके पहले कि हम गाथाओं में जाएं, इस कथा के एक-एक शब्द को हृदय में उतर जाने दो। समझो।
भगवान गौतम बुद्ध श्रावस्ती के जेतवन में विहरते थे।
गौतम उनका नाम था, उनके माता-पिता ने दिया था। बुद्धत्व उनकी उपलब्धि थी, क्योंकि वे निद्रा से जागे। अंधेरे से प्रकाश बने। मूर्च्छा गयी, होश आया। दीया जला भीतर का। सो बुद्ध उन्हें कहते हैं। और जो भी जाग गया, वह भगवान हो गया।
बुद्ध परंपरा में भगवान का वैसा अर्थ नहीं है, जैसा हिंदू या इस्लाम या ईसाई परंपरा में है। हिंदू, ईसाई, इस्लाम की परंपरा में भगवान का अर्थ होता है: जिसने सृष्टि को बनाया। बुद्ध परंपरा में भगवान का अर्थ होता है: जिसने स्वयं को जाना। क्योंकि बुद्ध परंपरा में इस संसार को बनाने वाला तो कोई है ही नहीं। यह संसार कभी बनाया नहीं गया। यह असृष्ट है। यह सदा से है। और यही बात ज्यादा संगत मालूम पड़ती है।
तुम देखते हो: संसार एक वर्तुल में घूम रहा है। बीज बोते हो, वृक्ष बन जाते हैं। वृक्षों में फिर बीज लग जाते हैं। फिर बीज बो दो, फिर वृक्ष बन जाते हैं। वृक्षों में फिर बीज लग जाते हैं। तुम ऐसी कोई घड़ी सोच नहीं सकते, जब यह वर्तुल न रहा हो। तुम ऐसा नहीं सोच सकते कि बीज हो जाएं। बिना वृक्षों के बीज न हो सकेंगे। और तुम ऐसा भी नहीं सोच सकते कि अचानक वृक्ष हो जाएं!
सृष्टि का तो अर्थ ही यही होगा कि भगवान ने या तो बीज बनाए या वृक्ष बनाए। कहीं से तो शुरू करना होगा! लेकिन वृक्ष बिना बीज के नहीं हो सकते। और बीज बिना वृक्ष के नहीं हो सकते। यह वर्तुल तोड़ा नहीं जा सकता!
बच्चे बिना मां-बाप के नहीं हो सकते। और जो मां-बाप हैं, वे भी किसी के बच्चे हैं। यह वर्तुल तोड़ा नहीं जा सकता। यह परंपरा शाश्वत है, सनातन है। इसको बुद्ध ने संतति कहा है। यह धारा सदा से है; इसको कभी किसी ने बनाया नहीं।
इसलिए स्रष्टा की धारणा बुद्ध के विचार में जरा भी नहीं है। आकाश में बैठे भगवान की धारणा बुद्ध की परंपरा में बड़ी बचकानी है। वह मनुष्य की कल्पना है। कोई आकाश में बैठा हुआ नहीं है। कोई न निर्माता है, न कोई नियंता है।
फिर कैसे यह विराट चल रहा है? प्रश्न उठता है, कैसे यह विराट चल रहा है? जब कोई सम्हालने वाला नहीं, कोई बनाने वाला नहीं, कोई नियंता नहीं! इतनी जटिल प्रक्रियाएं कैसी शांति से चल रही हैं! और कितनी नियमबद्ध!
इस नियमबद्धता को बुद्ध ने धर्म कहा है। इस नियमबद्धता को परम नियम कहा है--एस धम्मो सनंतनो। इसलिए बुद्ध की बात वैज्ञानिकों को रुचती है।
आज पश्चिम में बुद्ध का प्रभाव रोज-रोज बढ़ता जाता है। क्योंकि विज्ञान से बात तालमेल खाती है। विज्ञान भी कहता है: नियम हैं। बस, सब नियम से चल रहा है। जमीन में गुरुत्वाकर्षण है, इसलिए फल नीचे गिर जाते हैं। पानी का नियम है नीचे की तरफ बहना, इसलिए पहाड़ों से उतरकर नदियों में बहता और सागर में पहुंच जाता है। सारी चीजें नियम से चल रही हैं। नियम है, नियंता नहीं है।
नियम का अर्थ हुआ: परमात्मा व्यक्ति की तरह नहीं है, सिद्धांत की तरह है। और जो भी जाग जाता है, वह उस नियम के साथ एक हो जाता है। क्यों? क्योंकि वह उस नियम से विपरीत की आकांक्षा नहीं करता।
सोया हुआ आदमी नियम के विपरीत की आकांक्षा करता है। सोया हुआ आदमी ऐसा है, जैसे रेत से निचोड़े और सोचे कि तेल मिल जाए! जागा हुआ आदमी ऐसा है: तिल को निचोड़ता है, तो तेल पाता है। रेत को नहीं निचोड़ता। जानता है: रेत से तेल नहीं होता। और अगर रेत को निचोड़कर तेल न मिले, तो दुखी नहीं होता। क्योंकि जो नियम के विपरीत है, वह नहीं होगा। फिर लाख प्रार्थनाएं करो, पूजाएं करो, हवन और यज्ञ करो, जो नियम के विपरीत है, नहीं होगा।
बुद्ध-धर्म में चमत्कार के लिए कोई जगह नहीं है। चमत्कार होते ही नहीं। चमत्कार के नाम पर जो होता है सब धोखाधड़ी है। नियम के विपरीत कभी कोई बात नहीं होती। जो होता है, नियम के अनुसार होता है।
तो जो स्थान भगवान का है हिंदू, ईसाई, इस्लाम की परंपरा में, वही स्थान नियम का है--धम्म का, धर्म का--बुद्ध और जैन और लाओत्सू की परंपरा में। जिसको लाओत्सू ने ताओ कहा है, उसी को बुद्ध ने धर्म कहा है।
धर्म शब्द का अर्थ भी होता है, जिसने धारण किया है; जिस पर सब ठहरा है। लेकिन धर्म सिद्धांत, व्यक्ति नहीं। धर्म कोई आदमी की तरह सिंहासन पर नहीं बैठा है। धर्म विस्तीर्ण है प्रकृति के कण-कण में। धर्म छाया है सब जगह।
फिर भगवान का अर्थ अन्यथा हो गया। फिर भगवान का अर्थ बनाने वाला न रहा। बनाने वाला कोई है नहीं। बुद्ध को भगवान कहा है, क्योंकि उन्होंने जाना; जागे; नियम के अनुकूल हो गए।
नियम की प्रतिकूलता में दुख है; नियम की अनुकूलता में सुख है। यह बड़ी वैज्ञानिक बात है। तुम रास्ते पर सम्हलकर चलो, तो पृथ्वी तुम्हें गिराती नहीं और तुम्हारी टांग नहीं तोड़ देती और फ्रेक्चर नहीं हो जाता। तुम सम्हलकर न चलो, शराब पीकर चलो, लड़खड़ाते चलो, आंखें बंद करके चलो, तो गिरोगे। गिरोगे तो हड्डी टूटेगी। तब नाराज मत होना; गुरुत्वाकर्षण को गाली मत देना। गुरुत्वाकर्षण तुम्हारी टांग तोड़ने बैठा नहीं था। तुमने अपनी टांग अपनी ही भूल-चूक से तोड़ ली। तुमने अपनी टांग अपनी ही मूर्च्छा से तोड़ ली।
गुरुत्वाकर्षण तुम्हारा दुश्मन नहीं है। जमीन की कोई आकांक्षा नहीं कि तुम्हारी टांग तोड़े। तुम सम्हलकर चलते, तो जमीन तुम्हारी टांग न तोड़ती।
तुमने देखा: रस्सी पर चलता है नट। रस्सी पर चलता है, तो भी सम्हल लेता है, तो जमीन उसकी टांग नहीं तोड़ती। कई लोग जमीन पर चलते हैं और टांग टूट जाती है! होश से चलने की बात है।
बुद्ध ने कहा है: नियम न तो किसी के पक्ष में है, न किसी के विपक्ष में है। नियम निष्पक्ष है। अब तुम्हारे ऊपर निर्भर है। अगर विपरीत चले, तो कष्ट पाओगे। नियम के विपरीत चलोगे, तो नर्क निर्मित कर लोगे। नियम के अनुकूल चलोगे, तो स्वर्ग निर्मित हो जाएगा। और जिस दिन नियम और तुम्हारे बीच जरा भी फासला न रह जाएगा, तुम नियम के साथ एकरूप हो जाओगे, एकरस हो जाओगे, उस दिन तुम भगवत्ता को उपलब्ध हो गए। उस दिन तुम भगवान हो गए।
प्रत्येक व्यक्ति भगवान हो सकता है। यही बुद्ध-धर्म की गरिमा है कि प्रत्येक व्यक्ति को भगवान होने का अवसर है।
हिंदू-धर्म में राम भगवान हो सकते हैं; कृष्ण भगवान हो सकते हैं; परशुराम भगवान हो सकते हैं। दस अवतार चुक गए, फिर कोई उपाय नहीं। हिंदू-धर्म लोकतांत्रिक नहीं है।
इस्लाम में तो इतनी भी सुविधा नहीं। दस आदमी भी भगवान नहीं हो सकते। मोहम्मद भी भगवान नहीं हैं। मोहम्मद भी केवल संदेश-वाहक, पैगंबर! इस्लाम और भी कम लोकतांत्रिक है। भगवान एक तानाशाह है।
ईसाइयत थोड़ी गुंजाइश रखती है, मगर ज्यादा नहीं। जीसस भगवान हैं। लेकिन वे इकलौते बेटे हैं। दूसरा कोई बेटा भगवान का नहीं! फिर ये सब बेटे किसके हैं? फिर ये सब अनाथ हैं? फिर जीसस ही सनाथ हैं! और बाकी सब अनाथ हैं? यह बात भी बड़ी गैर-लोकतांत्रिक है।
बुद्ध की बात बड़ी लोकतांत्रिक है। बुद्ध कहते हैं: प्रत्येक भगवान हो सकता है। प्रत्येक के भीतर छिपा हुआ है भगवान का बीज। इसलिए भगवान एक है, ऐसा नहीं। जितनी आत्माएं हैं इस जगत में, उतने भगवान हो सकते हैं। भगवान होना तुम्हारा स्वरूपसिद्ध अधिकार है। ठीक-ठीक चलोगे, तो पहुंच जाओगे। ठीक-ठीक नहीं चलोगे, तो चूक जाओगे।
इसलिए गौतम बुद्ध को भगवान कहा है। वे नियम के साथ एकरूप हो गए। वे धर्म के साथ एकरूप हो गए। अब उनकी कोई आकांक्षा नहीं, कोई तृष्णा नहीं। अब वे नदी के साथ बहते हैं। तैरते भी नहीं। कहीं जाना नहीं है। जहां नदी ले जाए वहीं जा रहे हैं। कहीं न ले जाए तो भी ठीक। कहीं ले जाए तो भी ठीक। मझधार में डुबा दे, तो वहीं किनारा। ऐसी परम तथाता की जो अवस्था है, उसको भगवत्ता कहा है।
भगवान गौतम बुद्ध श्रावस्ती के जेतवन में विहरते थे। श्रावस्ती के नगर-द्वार पर बसे हुए केवट्ट गांव के मल्लाहों ने अचिरवती नदी में जाल फेंककर एक स्वर्ण-वर्ण की अदभुत मछली को पकड़ा।
इन सारी छोटी-छोटी कथानक की प्रक्रिया को समझना। इनमें छोटे-छोटे शब्दों का मूल्य है।
अचिरवती नदी में...। चिर नहीं है नदी; अचिर है, क्षणभंगुर है।
अचिरवती नदी में मल्लाहों ने जाल फेंका और एक सोने की मछली को पकड़ा।
ऐसे ही तो हम सब मल्लाह हैं और अचिरवती नदी में, संसार की क्षण-क्षण बदलती हुई धारा में जाल फेंके बैठे हैं, अपनी-अपनी बंसी लटकाए बैठे हैं। सब अपनी-अपनी मछली पकड़ने बैठे हैं! कोई पद की मछली, कोई धन की मछली, कोई प्रतिष्ठा की, कोई यश की, कोई प्रसिद्धि की--अलग-अलग मछलियों के नाम हों, मगर अचिरवती नदी के किनारे सभी मल्लाह हैं। सभी अपनी बंसी लटकाए, जाल फैलाए बैठे हैं! मछली फंसे!
अचिरवती नदी में मल्लाहों ने जाल फेंककर एक स्वर्ण-वर्ण की अदभुत मछली को पकड़ा।
और यहां कभी-कभी जाल में सोने की मछली फंसती भी है। लेकिन हर सोने की मछली के पीछे भयंकर दुर्गंध है। धन मिलता भी है। ऐसा नहीं कि नहीं मिलता। लेकिन धन के पीछे भयंकर दुर्गंध है।
नानक के जीवन में उल्लेख है। एक धनपति ने--दुनीचंद उसका नाम था--नानक को निमंत्रित किया भोजन के लिए। नानक समझाने की कोशिश किए, टालने की कोशिश किए, लेकिन दुनीचंद पीछे पड़ गया। माना नहीं। नगरसेठ था। प्रतिष्ठा का सवाल था। उसका निमंत्रण और कोई न माने!
अनेक लोग मौजूद थे। उनकी मौजूदगी में उसने चरण छूकर प्रार्थना की थी: कल मेरे घर भोजन करें। और नानक मना करें! दुनीचंद को तकलीफ होने लगी। उसने कहा: चलना ही होगा। उसने सारी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी अपनी। उसने कहा: जो भी दान करना है, करूंगा। नानक ने कहा कि दान का सवाल नहीं। तुम ले चलकर मुझे, दुखी होओगे। नहीं मानते, तो ठीक है, चलूंगा। वे गए।
जब दुनीचंद ने उन्हें भोजन परोसा, तो उन्होंने उसकी रोटियां हाथ में उठायीं और जोर से उन रोटियों को मुट्ठी में भींचा। तो खून की बूंद उन रोटियों से टपकी!
सैकड़ों लोग देखने इकट्ठे हो गए थे। एक तो नानक ने इतना इनकार किया। मानते नहीं थे। फिर गए हैं। और यह भी कहा है दुनीचंद को कि मुझे ले जाकर तू पछताएगा। मुझे न ले जा।
सैकड़ों लोगों ने यह देखा कि उन रोटियों से खून की बूंदें टपकीं! लोग पूछने लगे कि यह क्या है? यह कैसे हुआ? तो नानक ने कहा: इसलिए मैं आना नहीं चाहता था। दुनीचंद के धन के पीछे बड़ी दुर्गंध है। यह धन शोषण से मिला है। इसके रुपए-रुपए में आदमियों का खून है। इसलिए मैं आना नहीं चाहता था।
यहां कभी-कभी सोने की मछली फंस भी जाती है, तो तुम सदा पीछे पाओगे उपद्रव। यहां कभी-कभी पद मिल भी जाता है। एक तो जिंदगी गंवाता है आदमी! अचिरवती नदी के किनारे जाल फैलाए बैठे हैं! कभी-कभी फंस जाती है मछली। तब दूसरी बात पता चलती है कि मछली फंस जाती है; देखने में सोने की मालूम पड़ती है--और भीतर? भीतर सब दुर्गंध है और मल-मूत्र है।
बड़े से बड़े पद पर पहुंचकर लोगों को मिला क्या? बहुत से बहुत धन इकट्ठा करके लोगों को मिला क्या? पूछो सिकंदर से। पूछो बड़े धनपतियों से।
जितना धन बढ़ता जाता है, उतनी अपनी दरिद्रता का पता चलता है। और जितना पद पर बैठ जाते हैं, उतनी अपनी दीनता का पता चलता है। ऊपर-ऊपर स्वर्ण, भीतर-भीतर नर्क निर्मित हो जाता है।
अचिरवती नदी में मल्लाहों ने जाल फेंककर
स्वर्ण-वर्ण की अदभुत मछली को पकड़ा। उसके शरीर का रंग स्वर्ण जैसा और उसके मुख से भयंकर दुर्गंध निकलती थी!
शरीर तो स्वर्ण जैसा बहुत बार मिल जाता है। तुम भी जानते हो। तुम किसी सुंदर स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हो। शरीर स्वर्ण जैसा। लेकिन जैसे-जैसे स्त्री को जानना शुरू करते हो, वैसे-वैसे पता चलता है: मुंह से दुर्गंध निकलती है। तुम किसी सुंदर पुरुष के प्रेम में हो। दूर-दूर सब ठीक। दूर के ढोल सुहावने! जैसे-जैसे पास आते हो, वैसे-वैसे जीवन में झंझट बढ़नी शुरू होती है। जैसे-जैसे पास से जानते हो, वैसे-वैसे पता चलता है कि गुलाब तो दूर से दिखते थे, झाड़ी कांटों से भरी है।
यहां सुंदरतम देहें मिल जाती हैं, लेकिन सुंदर आत्माएं कहां? और जब तक सुंदर आत्मा न मिले, तब तक कहां तृप्ति? कैसी तृप्ति?
लेकिन दूसरों के लिए यह मत सोचने लगना कि दूसरों के पास स्वर्ण-देह है और सुंदर आत्मा नहीं। अपनी तरफ भी देखना। वही गति तुम्हारी है। ऊपर-ऊपर अच्छे लगते, ऊपर-ऊपर साज-श्रृंगार है, ऊपर-ऊपर शिष्टाचार है, लीपा-पोती है। भीतर? सब रोग खड़े हैं। ऊपर मुस्कुराहटें हैं, भीतर घाव है। ऊपर बड़े सज्जन मालूम पड़ते, भीतर जंगली जानवर छिपा है। मुख में राम, बगल में छुरी!
अपने ही जीवन-अनुभव से देखोगे तो पा लोगे--यह बात सच है। भीतर का भोलापन कहां मिलता? भीतर का स्वर्ण कहां मिलता? भीतर और बाहर एक हो--ऐसा आदमी कहां मिलता? भीतर और बाहर एक ही धुन बजती हो; भीतर और बाहर एक ही संगीत हो; भीतर और बाहर एक ही सुगंध हो--ऐसा आदमी कहां मिलता?
ऐसा आदमी मिल जाए, तो उसका संग-साथ मत छोड़ना। ऐसा आदमी पारस जैसा है। उसके साथ लोहा भी सोना हो सकता है। लेकिन उसके पास शरीर को ही मत रखना, नहीं तो ऊपर-ऊपर सोना हो जाओगे। उसके पास आत्मा को भी रखना। उसके चरणों में सिर ही मत झुकाना, आत्मा को भी झुका देना।
जब कभी कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए, जिसके बाहर-भीतर सब एक हो; जिसके बाहर-भीतर नाद बज रहा हो; जिसके बाहर-भीतर ओंकार की गूंज उठ रही हो; जिसके बाहर-भीतर आनंद ही आनंद हो, समाधि-समाधि के फूल खिल रहे हों, फिर वहां शरीर को ही मत झुकाना। शरीर से ही उसके पास मत जाना। फिर आत्मा से सत्संग करना। नहीं तो जो गति मछली की हुई, वही गति तुम्हारी हो जाएगी।
यही तो हो रहा है। सत्संगों में भी जाते हो तुम, ऐसा नहीं कि नहीं जाते। कभी-कभी मंदिर भी जाते हो, मस्जिद भी जाते हो, गुरुद्वारे भी जाते हो। कभी-कभी साधु-संग भी करते हो। मगर ऊपर-ऊपर से। भीतर-भीतर से अपने को बचाए रखते हो। पछताओगे कभी। बुरी तरह पछताओगे। क्योंकि सत्संग तो भीतर से होना चाहिए। देह पास हो या न हो, चलेगा। आत्मा पास होनी चाहिए। आत्मा से किसी के पास बैठ जाने का नाम ही शिष्यत्व है।
उस मछली का रंग तो स्वर्ण जैसा, किंतु उसके मुख से भयंकर दुर्गंध निकलती थी।
यह कहानी तुम्हारी है। यह कहानी सबकी है। इन कहानियों को कभी भूलकर ऐसा मत सोचना कि ठीक है, कथाएं हैं; पुराणों की हैं। ये कथाएं तुम्हारी हैं। ये मनोवैज्ञानिक हैं। ये मनुष्य के मन की कथाएं हैं।
मल्लाहों ने उसे राजा को दिखाया। राजा उसे एक द्रोणी में रखवाकर भगवान के पास ले गया। उस समय मछली ने मुख खोला।
अब तुम थोड़ा सोचना: मल्लाह नहीं समझे, समझ में आती है बात। मल्लाहों ने न कभी सोना देखा, कैसे समझें? लेकिन राजा तो सोने में जीता था। राजा को भी दिखायी न पड़ा यह कि यह उसकी ही कथा है! ऊपर-ऊपर सोना था राजा के भी, भीतर-भीतर उसके भी तो दुर्गंध थी! उसको भी चमत्कार मालूम हुआ।
मल्लाहों को क्षमा कर दो। क्षमा किए जा सकते हैं। कभी सोना देखा नहीं, सोने की मछली सपने में नहीं देखी। राजा तो सोने की ही दुनिया में रहता था। इसे तो अकल होती! मगर कौन अपने को देखता है? अपने पर आंख ही नहीं जाती। अपने को आदमी देखता ही नहीं।
चीन में एक पुराना रिवाज था कि जब किसी कैदी को फांसी देते, तो फांसी देने के पहले उसके हाथ में आईना देते कि वह अपनी शकल देख ले।
बड़ी अजीब परंपरा! काहे के लिए--कोई आदमी मर रहा है, उसे तुम दर्पण दे रहे हो! यह एक बहुत प्राचीन परंपरा का हिस्सा था। वह परंपरा यह कहती है कि इस आदमी ने जिंदगी भर तो अपना चेहरा नहीं देखा, अब मरने के वक्त तो देख ले।
कोई अपना चेहरा देखता ही नहीं। हम दूसरों में ही उलझे रहते हैं! दूसरों की निंदा में; दूसरों की आलोचना में। कौन गंदा, कौन बुरा, कौन पापी, कौन अनाचारी, इसी में बीत जाता है समय। फुरसत कहां कि अपना चेहरा आईने में देख लें!
यह राजा को भी समझ में न आया! यह बात इतनी सीधी-साफ थी; इसमें उलझन कहां है? इसमें रहस्य कहां है? राजा को तो समझ में आना चाहिए था कि बाहर मैं सोने का हूं, जैसे यह मछली सोने की है। और भीतर मेरे दुर्गंध है, जैसे इसके भीतर दुर्गंध है। बात उसे तो खुल जानी चाहिए थी! उसे भी न खुली!
इस दुनिया में लोग अंधे की तरह जी रहे हैं। अपना पता ही नहीं है। दूसरों के साथ उलझे-उलझे आंखें जड़ हो गयी हैं। दूसरों को देखने में ही समर्थ हो गयी हैं। भीतर मुड़ने की कला खो गयी है। लकवा लग गया है तुम्हारी आंखों को। बस, एक ही तरफ देख पाती हैं। अब उनमें गतिमयता नहीं है, लोच नहीं है--कि कभी-कभी मुड़कर अपनी तरफ भी देख लें।
राजा को भी समझ में न आया। तो बुद्ध के पास ले गया।
मल्लाह हों कि सम्राट, गरीब हों कि अमीर, हारे हुए लोग हों कि जीते हुए लोग, सभी को बुद्ध के पास जाना ही होगा; वहीं रहस्य के पर्दे उठ सकते हैं।
यहां गरीब भी सोए हैं, अमीर भी सोए हैं। प्रजा भी सोयी है, राजा भी सोए हैं। यहां सब अंधे और अंधे हैं। यहां अंधे अंधों का नेतृत्व कर रहे हैं!
कबीर ने कहा है: अंधा अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत। यहां अंधे नेता हैं, अंधे अनुयायी हैं। अंधे अंधों का मार्ग-दर्शन कर रहे हैं! फिर अगर सभी कुएं में गिर गए हैं, तो कुछ आश्चर्य नहीं है।
इस राजा को क्षमा नहीं किया जा सकता। लेकिन उसके बुद्ध के पास जाने में यह सूत्र है कि अंततः सभी को बुद्ध के पास जाना होगा, तो ही जीवन का राज खुलेगा। किसी बुद्धपुरुष के चरण गहने होंगे। किसी बुद्धपुरुष की छाया पकड़नी होगी। किसी बुद्धपुरुष के हाथ पकड़कर चलोगे, तो ही जीवन के उलझाव सुलझेंगे; समस्याएं समाधान में रूपांतरित होंगी। तो ही राह मिलेगी।
जैसे ही मछली को बुद्ध के सामने रखा गया, मछली ने मुख खोला।
क्यों मछली ने बुद्ध को देखकर मुख खोला? याद आ गयी होगी। अवाक हो गयी होगी। मुंह खुला रह गया होगा। अरे! फिर?
ऐसे ही एक बुद्धपुरुष को कभी उसने जाना था। जाना भी था और चूक भी गयी। जाना भी था और जान भी न पायी। वही दुख तो साल रहा है। बाहर सोने की हो गयी जिसकी कृपा से, उसकी कृपा से भीतर भी सोने की हो सकती थी।
पर लोग अक्सर पछताते हैं तब, जब पछताने में कुछ सार नहीं रह जाता। अब पछताए होत का, जब चिड़िया चुग गयी खेत।
रोती होगी, जार-जार रोती होगी। अचानक फिर देखकर...।
और ध्यान रखना: बुद्धपुरुषों के रूप कितने ही भिन्न हों, उनकी देहें कितनी ही भिन्न हों, उनके चेहरे कितने ही भिन्न हों--उनका भाव एक, उनके भीतर की ज्योति एक। दीए में भेद हो सकता है। मिट्टी के दीए कई तरह के बन सकते हैं। लेकिन दीए में जो ज्योति जलती है, उसका स्वाद एक, उसका गुण एक, उसका धर्म एक।
यह मछली कभी किसी एक बुद्ध के पास रही थी। अनंत बुद्ध हुए हैं। ध्यान रखना: गौतम बुद्ध ने बहुत बार अपने से पहले हुए बुद्धों की कथाएं कही हैं। अनंत बुद्ध हुए हैं। काश्यप बुद्ध हजारों साल पहले बुद्ध से हुए। उन्हीं काश्यप बुद्ध की याद आ गयी होगी--फिर दीए को जला देखकर। फिर वही सुगंध! फिर वही रूप! फिर वही सौंदर्य! फिर वही प्रसाद! फिर वही आनंद की वर्षा! मछली का मुख खुला रह गया होगा।
अवाक जब कोई हो जाता है, तो मुंह खुला रह जाता है। ठिठक गयी होगी मछली। सोचा नहीं था सपने में कि फिर ऐसे व्यक्ति के दर्शन होंगे।
एक बार बुद्धपुरुष खो जाए, तो जन्म-जन्म लग जाते हैं। क्योंकि बुद्धपुरुष विरले हैं। हों भी, तो भी तुम उसके पास पहुंच पाओ, इसकी बहुत कम संभावना है। क्योंकि तुम वहां जाते हो, जो तुम्हारी तलाश है।
तुम राजनेता के पास जाते हो, क्योंकि पद की तुम्हें तलाश है। राजनेता तुम्हारे गांव में आए, तो तुम सब इकट्ठे हो जाते हो। कभी स्वागत करने, कभी जूते फेंकने। मगर इकट्ठे हमेशा हो जाते हो। तुम से रुका नहीं जाता। वहां तुम्हारे प्राण अटके हैं!
बुद्धपुरुष गांव में आएं भी, तो भी तुम शायद ही जाओ, क्योंकि बुद्धों से तुम्हारा क्या लेना-देना! वह तुम्हारी आकांक्षा नहीं है। तुम वासना छोड़ना थोड़े ही चाहते हो; तुम वासना को पूरा करना चाहते हो। तुम बुद्धों से बचोगे। अगर बुद्ध रास्ते पर मिल जाएं, तो तुम बगल की गली से भाग खड़े होओगे। तुम बचोगे।
ऐसे लोग बचते हैं। बचने के लिए हजार बहाने खोजते हैं। तर्क-जाल बना लेते हैं। क्यों? क्योंकि उन्हें डर लगता है कि बुद्धपुरुष के पास गए और अगर कोई बात सुनायी पड़ गयी और कहीं समझ में आ गयी, तो अब तक जो-जो उन्होंने न्यस्त स्वार्थों का जाल फेंका है, अचिरवती नदी के किनारे जो वे मछली पकड़ने बैठे हैं, उसका क्या होगा! और वर्षों से मछली पकड़ने बैठे हैं। अभी तक पकड़ी है नहीं मछली। अब बुद्धपुरुषों के वचन सुन लें। ये कहते हैं: छोड़ो-छाड़ो जाल; यह नदी अचिर है। यह रहने वाली नहीं। इसमें पकड़ा तो भी न पकड़ने के बराबर है। ये सब पानी के बबूले हैं। यह सब माया है।
ऐसी बात अभी मत कहो। ऐसी बात कहो ही मत। ऐसी बात सुनो ही मत। अभी तो मछली तो पकड़ो पहले, फिर देखेंगे। मछली पकड़कर सुनना होगा, सुन लेंगे। लेकिन पहले मछली पकड़ में आ जाए!
तो एक तो बुद्धपुरुषों के पास कोई जाता नहीं। क्योंकि लोग वहीं जाते हैं, जहां उनकी आकांक्षाएं तृप्त होने की संभावनाएं हैं। बुद्धपुरुषों के पास आकांक्षाओं से मुक्त होना पड़ता है। और मजा और विरोधाभास कि जो आकांक्षाओं से मुक्त हो जाता है, वही तृप्त होता है। और जो आकांक्षाओं से भरा है, वह अतृप्ति और अतृप्ति में जलता है।
तुमने नर्क में लपटों में जलने की बात सुनी है, वह नर्क कहीं और नहीं है। वह तुम्हारी आकांक्षाओं का नर्क है, जिसमें तुम अभी जल रहे हो। इस भूल में मत पड़ना कि मरकर तुम नर्क में जाओगे। तुम नर्क में हो। नर्क में होने का अर्थ इतना ही होता है: तुम्हारा मन वासना की लपटों से भरा है।
न मालूम कितने जन्म बीत गए, न मालूम कितने चक्कर इस आत्मा ने खाए होंगे! न मालूम कितनी दुर्गतियां भोगी होंगी! न मालूम कितनी पीड़ाएं झेली होंगी! न मालूम कितने उपद्रवों के बाद यह इस अचिरवती नदी में सोने की मछली हुई है। इसने सोचा भी नहीं होगा। आदमी रहकर बुद्ध नहीं मिलते, तो मछली होकर बुद्ध कैसे मिल जाएंगे!
लेकिन वह जो एक बुद्ध के पास होना हुआ था, वह जो बुद्ध के पास सांस लेना हुआ था, वह जो महापुण्य हुआ था, उसके कारण फिर-फिर आकस्मिक रूप से भी बुद्ध का मिलना हो सकता है।
अब यह बिलकुल आकस्मिक है: मछुओं ने पकड़ा मछली को; ले गए राजा के पास। राजा को समझ में न आया; ले आए बुद्ध के पास।
अब मछली का और बुद्ध से मिलना करीब-करीब असंभव है। कैसे होगा? बुद्ध मछली नहीं पकड़ते। मछलियां बुद्ध नहीं खोजतीं। यह मिलना होता कहां? मगर यह मिलना हुआ है।
वह जो बीजारोपण हुआ था, अधूरा-अधूरा हुआ था यद्यपि, वह आज भी फल ला रहा है! किसी बुद्धपुरुष के पास बैठने से जो थोड़ी सी भी श्वास तुमने ली हैं उसकी हवा की, वह जन्मों-जन्मों तक तुम्हें साथ देंगी। अपूर्व, अनजाने, आकस्मिक रूप से साथ देंगी। तुम्हारे जाने-अनजाने साथ देंगी।
उस मछली ने बुद्ध को देखते
ही मुंह खोला, जिससे सारा जेतवन दुर्गंध से भर गया। राजा ने भगवान के चरणों में तीन बार प्रणाम कर पूछा: भंते, क्यों इसका शरीर स्वर्ण जैसा और मुख से दुर्गंध क्यों निकलती है?
बुद्ध के पास जाने और बुद्ध के पास कुछ पूछने की प्रक्रिया है। बुद्ध से तुम ज्ञानी की तरह कुछ नहीं पूछ सकते हो। ज्ञानी की तरह पूछा, तो बुद्ध उत्तर भी नहीं देंगे। बुद्ध से तो झुककर पूछो, तो ही उत्तर मिल सकता है। झोली फैलाओ, तो ही उत्तर मिल सकता है। इसलिए तीन बार प्रणाम करके, तीन बार झुककर। क्यों तीन बार? एक बार झुकने से न चलेगा?
तुम्हारा भरोसा नहीं। एक बार झुको--और बिलकुल न झुको; अकड़े ही खड़े रहो। शायद दूसरी बार थोड़े और। शायद तीसरी बार झुक पाओ। भूल-चूक न हो जाए, इसलिए तीन बार। क्योंकि तुम झुको, तो ही बुद्ध उत्तर देते हैं। तुम्हारा झुकना जब दिखायी पड़ जाए, प्रत्यक्ष हो जाए, तो ही उत्तर देते हैं। क्योंकि जो जानकार है, उसको बुद्ध उत्तर नहीं देते।
जानकार को क्या उत्तर देना? जो निर्दोष भाव से पूछता है, जो इस बात को स्वीकार करके पूछता है कि मैं अज्ञानी हूं, आप ज्ञान बरसाएं; मैं अंधेरे में हूं, आपकी रोशनी लाएं।...
लेकिन जो इस अकड़ से पूछता है कि रोशनी तो मेरे पास ही है। ठीक है, चलो, तुमसे भी मेल-ताल कर लें। देखें, तुम्हारे पास भी रोशनी है या नहीं? उत्तर तो मुझे मालूम ही है। तुमसे भी पूछे लेते हैं कि शायद मेल खा जाए, शायद तुम्हें भी ठीक उत्तर पता हो। अगर मुझ से मेल खा जाए, तो तुम्हारा उत्तर ठीक। अगर मेल न खाए, तो तुम्हारा उत्तर गलत। ऐसे लोगों को बुद्धपुरुष उत्तर नहीं देते। क्योंकि क्यों व्यर्थ बात करनी!
इस देश में यह बड़ी प्राचीन परंपरा है कि गुरु के पास कोई जाए, तो झुका हुआ, तो ही कुछ पाएगा। झुको। झुकोगे, तो भरे हुए लौटोगे। अकड़े रहोगे, खाली के खाली लौट आओगे।
पूछा: भंते! भगवान! क्यों इसका शरीर स्वर्ण जैसा, किंतु मुख से दुर्गंध निकलती है?
भंते भगवान का ही संक्षिप्त रूपांतरण है। अति प्रेम में भंते कहा जाता है। भगवान बड़ा शब्द है। जैसे आप अति प्रेम में तुम हो जाता है। और अति प्रेम में तू हो जाता है। ऐसे ही भगवान भंते हो जाता है।
अपूर्व प्रेम से भरकर उस राजा ने, अत्यंत विनय से भरकर, बुद्ध से प्रश्न पूछा।
भगवान ने अत्यंत करुणा से उस मछली की ओर देखा, और बड़ी देर तक देखते रहे। उतरने लगे उस मछली के अतीत में। पर्त-पर्त खोलने लगे होंगे उसकी अतीत स्मृतियों का जाल।
कुछ खोता नहीं; तुम अपने सारे अतीत को लिए बैठे हो। तुम्हें पता न हो, लेकिन जिसके हाथ में रोशनी है, वह तुम्हारे भीतर देख सकता है। तुम्हारी अचेतन पर्तों में जा सकता है। वह देख सकता है: पहले तुम कहां थे, क्या थे, कैसे थे? क्या किया, कैसे यहां आए? कौन तुम्हें यहां ले आया? कैसे बीज तुमने बोए थे? कैसे कर्म तुमने किए थे? क्या है तुम्हारी अतीत स्थिति? क्योंकि तुम तुम्हारा अतीत हो। तुम हो वही, जो तुमने किया, और जो तुम अतीत में रहे।
इसलिए बुद्ध बड़ी देर तक चुप और बड़ी करुणा से उस मछली को देखते रहे। करुणा से इसलिए कि काश्यप बुद्ध जैसे महापुरुष का साथ मिला और यह गरीब मछली, यह गरीब प्राण, यह गरीब आत्मा चूक गयी! ऐसा अपूर्व साथ कैसे चूक गया? तो महाकरुणा है उनके हृदय में।
बड़ी देर तक चुप रहने के बाद वे बोले: महाराज! यह मछली कोई सामान्य मछली नहीं; इसके पीछे छिपा लंबा इतिहास है।
हर एक के पीछे छिपा लंबा इतिहास है। कोई भी यहां नया नहीं है। तुम सब बड़े प्राचीन यात्री हो। इस रास्ते पर सदियों-सदियों चले हो। तुम कुछ नए आज चलने लगे हो संसार में, ऐसा नहीं है। अति पुरातन हो। उतने ही पुरातन हो, जितना पुरातन यह संसार है। तुम प्रथम से चल रहे हो। तुम इस संसार के साथ ही हो। अनेक-अनेक रूपों में, अनेक-अनेक ढंगों में; कभी वृक्ष, कभी पशु, कभी पक्षी, कभी मनुष्य। और घूमते रहे हो--मूर्च्छित। तुम्हें पक्का पता नहीं है। तुम्हें कुछ भी पता नहीं है कि तुम कहां से आए? कैसे आए? कौन हो? लेकिन बुद्धपुरुष की रोशनी में सारी पर्तें अपना राज खोल देती हैं।
बुद्ध का ध्यान तुम्हारे भीतर ऐसे जाता है, जैसे एक्स-रे की किरण जाए। जो नहीं दिखायी पड़ता, वह दिखायी पड़ जाए।
बुद्ध ने कहा: यह काश्यप बुद्ध के शासन में कपिल नामक एक महापंडित भिक्षु था।
शासन शब्द को भी समझ लेना। बौद्ध और जैन परंपरा में राजाओं के शासन को शासन नहीं कहा जाता। उनका भी कोई शासन है? टुटपुंजिए हैं तुम्हारे राजा, तुम्हारे महाराजा, तुम्हारे राष्ट्रपति, तुम्हारे प्रधानमंत्री। बुद्ध और जैन परंपरा में शासन कहा जाता है बुद्धों का। वे ही शास्ता हैं। क्योंकि उनसे ही शासन का जन्म होता है। और अपूर्व शासन का जन्म होता है। ऊपर से कोई थोपी नहीं जाती बात, लेकिन तुम्हारे भीतर से उपजती है। एक अनुशासन पैदा होता है, जो तुम्हारी अंतरात्मा से आता है। कोई तुम्हें जबर्दस्ती नहीं करता कि तुम ऐसे हो जाओ। कोई तुम्हें मारता-पीटता नहीं, न कोई दंड देता, न कोई पुरस्कार देता। न अदालतें हैं, न सिपाही हैं। बुद्धों का शासन तुम्हारे भीतर पैदा होता है।
बुद्धों के पास तुम बैठ भर जाओ कि धीरे-धीरे तुम उनके रंग में रंगने लगते। और धीरे-धीरे तुम पाते हो कि तुम्हारा आचरण बदला। और तुम्हारे बिना बदले बदला। चुपचाप बदला। जैसे सुबह हो जाती है, और पक्षी सोए थे, जाग जाते हैं। और वृक्ष जाग जाते हैं। ऐसे ही बुद्धों के पास बैठकर सोयी आत्माएं जागने लगती हैं। वही असली शासन है।
इसलिए बुद्धों का नाम है शास्ता; जिनके पास बैठकर शासन पैदा हो जाए। जो कहें भी न तुम से; इतना भी न कहें कि ऐसा करो, कि शराब छोड़ दो, कि जुआ मत खेलो। जिनके पास बैठकर जुआ छूट जाए, शराब छूट जाए। बैठकर ही छूटे, तो कुछ अर्थ की। कहने से छूटे, तो बात व्यर्थ हो गयी। बुद्ध शासन देते नहीं, उनके पास शासन का जन्म होता है। सहज स्फुरणा होती है।
तो बुद्ध ने कहा: यह काश्यप बुद्ध के शासन में कपिल नामक एक महापंडित भिक्षु था।
महापंडित था। भिक्षु था। संन्यास धारण किया था। यह त्रिपिटकधर था। यह शास्त्रों का परमज्ञाता था। इसे तीनों पिटक याद थे; ज्ञानी था।
जैसे हिंदुओं के चार वेद, ऐसे बौद्धों के तीन पिटक। ज्ञानी था; महाज्ञानी था। तर्कनिष्ठ था। बड़ा बुद्धिमान था। बड़ा बौद्धिक था। लेकिन उतना ही अभिमानी था।
अक्सर ऐसा हो जाता है: ज्ञान से अहंकार कटता नहीं, भर जाता है। ज्ञान से अहंकार और मजबूत होकर छाती पर बैठ जाता है। तो चूक हो गयी। दवा जहर हो गयी। औषधि शत्रु हो गयी। औषधि बीमारी बन गयी।
ज्ञान का तो अर्थ ही यही है कि काट दे अहंकार को। अगर ज्ञान से तुम्हारे भीतर मैं की अकड़ बढ़ने लगे और ऐसा लगने लगे: मैं जानता; कौन मेरे जैसा जानता? कौन है जो मेरे मुकाबले है? मैं अद्वितीय, मैं बेजोड़! ऐसे भाव उठने लगें ज्ञान से, तो समझना: चूक हो गयी। जल्दी सम्हल जाना। नहीं तो किसी दिन अचिरवती नदी में सोने की देह होगी और मल-मूत्र से भरी आत्मा होगी। बड़ी दुर्गंध उठेगी।
इसने अपने अभिमान में भगवान काश्यप के साथ धोखा किया।
अक्सर ऐसा हो जाता है। महावीर के साथ गोशालक ने धोखा किया। गोशालक महावीर का शिष्य था, लेकिन महापंडित, बड़ा ज्ञानी! स्वभावतः, धीरे-धीरे उसे ऐसा लगने लगा कि महावीर क्या जानते हैं! मैं भी जानता हूं सब। जो ये जानते हैं, वह मैं जानता हूं। तो फिर मुझ में कमी क्या है? फिर मैं तीर्थंकर क्यों नहीं? तो फिर मैं अपना अलग ही पंथ निर्मित करूंगा। उसने अपना अलग पंथ निर्मित किया। खुद तो भटका और अनेकों को भटकाया।
ऐसा बुद्ध का शिष्य था और उनका चचेरा भाई देवदत्त। राजघर से था। बुद्ध का चचेरा भाई था। उतने ही कुलीन घर से था। बचपन से दोनों साथ खेले थे। सुशिक्षित था, सुसंस्कृत था। आखिर यह अकड़ आनी शुरू हुई उसे कि फिर मैं बुद्ध क्यों न हो जाऊं? बुद्ध को छोड़कर अलग हो गया। बुद्ध को मार डालने की चेष्टाएं कीं--कि बुद्ध मिट जाएं तो मैं अकेला बुद्ध। फिर मेरी कोई भी प्रतिस्पर्धा न कर सकेगा।
ऐसा जीसस के साथ हुआ। जुदास जीसस का सबसे ज्ञानी शिष्य था, जिसने उनको तीस रुपए में बिकवाकर फांसी लगवा दी। वही एकमात्र सुशिक्षित था, बाकी सब अशिक्षित थे। कोई मछुआ था; कोई किसान था; कोई बागवान था; कोई लकड़हारा था। बाकी तो सब अशिक्षित थे। बारह शिष्यों में ग्यारह अशिक्षित, सामान्य, सीधे-सादे लोग थे। एक ही था पढ़ा-लिखा। एक ही था पंडित। वही धोखा दे गया!
पंडित सदा धोखा दे जाता है। क्योंकि पंडित को जल्दी ही, देर-अबेर यह अकड़ आनी शुरू होती है कि मैं भी तो जानता हूं। हालांकि पंडित जानता कुछ भी नहीं। उधार शब्द हैं उसके पास। अपना कोई अनुभव नहीं है। बुद्ध जो कहते हैं, पंडित भी वही कहेगा। दोनों एक ही शब्दों का उपयोग करते हैं। और यह भी हो सकता है कि पंडित बुद्ध से भी अच्छी तरह शब्द का उपयोग करे, और भी परिमार्जित शब्द का उपयोग करे, और भी तर्कनिष्ठ दर्शन का निर्माण करे।
लेकिन बुद्ध के पास अपना अनुभव है। वे जो कहते हैं, वह उनके अनुभव से उपजता है। और पंडित के पास अपना कोई अनुभव नहीं। शास्त्रों के अध्ययन, मनन से उपजता है। पंडित के पास जो है, उधार है। इस उधार से अकड़ पैदा होती है। जिसके भीतर अपना स्व-ज्ञान पैदा होता है, उसकी तो सब अकड़ खो जाती है। उस स्व-ज्ञान की अग्नि में सब अहंकार भस्मीभूत हो जाता है।
यह महापंडित था। बड़ा अभिमानी था। इसने अपने अभिमान में, ज्ञान की अकड़ में अपने गुरु काश्यप के साथ धोखा किया। उन्हें छोड़ा ही नहीं, वरन उनके विरोध में संलग्न हो गया। जो इसने बहुत दिनों तक एक बुद्धपुरुष का सत्संग किया और उनके चरणों में बैठा और उनकी छाया में चला, उसके फल से इसे स्वर्ण-वर्ण मिला है।
इसके अनजाने भी, इसके न चाहते हुए भी, कम से कम इसकी देह स्वर्ण की हो गयी। बुद्धों के पास कभी-कभी अनजाने भी...! तुम शायद इसलिए गए भी न थे। तुम किसी और कारण गए थे। लेकिन अगर पारस के पास संयोगवशात भी लोहा पहुंच जाए, तो सोना हो जाता है।
ऐसे इसकी देह तो स्वर्णमयी हो गयी। काश! इसके भीतर अहंकार न होता, तो इसकी आत्मा भी स्वर्णमयी हो गयी होती। अहंकार ने एक सख्त दीवाल खड़ी कर दी इसकी आत्मा के चारों तरफ। वह जो बुद्ध का प्रभाव था, काश्यप का जो प्रसाद था, वह भीतर तक प्रवेश न हो सका। अहंकार की दीवाल ने उसे बाहर-बाहर रखा। यह भीतर-भीतर अकड़ा रहा। यह भीतर-भीतर सोचता रहा: यह सब तो मैं भी जानता हूं। इसमें क्या नया है? यह सब तो मुझे पता है। इसमें कुछ ऐसी खास बात नहीं है। खैर, सुने लेता हूं। लेकिन इसमें मुझसे ज्यादा कुछ भी नहीं है। ऐसी अकड़--वंचित रह गया। ऐसी अकड़ में चूक गया।
तो बाहर तो सुंदर हो गया, भीतर कुरूप रह गया। उस अंतर-कुरूपता के कारण ही इसके मुख से दुर्गंध निकल रही है। और इसलिए भी कि इसी मुख से इसने उसे धोखा दिया, जिसने सिवाय अनुकंपा के, इस पर और कुछ भी न किया था। यही मुख काश्यप के विपरीत और विरोध में बोलता फिरा। यही मुख जो उनकी प्रशंसा के गीत गाता, उनकी निंदा के गीत गाया। इसलिए भी।
और यह जानता था कि जो मैं कह रहा हूं, जो मैं कर रहा हूं, वह गलत है। लेकिन अहंकार कहां सुनने देता अंतरात्मा की आवाज!
तुम भी बहुत बार जानते हो कि यह गलत है, फिर भी करते हो।
संत अगस्तीन का बड़ा प्रसिद्ध वचन है कि हे प्रभु! दुश्मनों से तो मैं निपट लूंगा; लेकिन तू ही बचाए, तो मैं अपने से बच सकता हूं। दुश्मनों से तो मैं बच लूंगा। लेकिन मुझे मुझ से कौन बचाएगा? तू बचा। यही मेरी प्रार्थना है। क्योंकि मैं वह करता हूं, जो नहीं करना चाहिए। और वह कभी नहीं करता, जो करना चाहिए। और सब मैं जानता हूं कि क्या गलत है और क्या ठीक है।
इसे पता था; स
ब जानते हुए, भलीभांति जानते हुए, इसने धूर्तता की, दगाबाजी की। अहंकार में चूक गया। करीब आते-आते दीए के और भटक गया अंधकार में। इसलिए भीतर से दुर्गंध उठती है।
राजा को इस कथा पर भरोसा न हुआ। तुमको भी नहीं होगा। अगर तुम मेरे पास आओ और मैं कहूं कि पिछले जन्म में तुम यह थे। मछली की तो छोड़ो, तुम्हारी कहूं, तो भी भरोसा नहीं होगा। मछली की कहूं, तब तो तुम मानोगे ही नहीं--कि यह भी...इसका क्या प्रमाण? समझना इस बात को।
बुद्ध कह रहे हैं, तो भी राजा को भरोसा नहीं। शायद तीन बार झुका, तब शायद थोड़ा झुकना आ गया होगा। बुद्ध ने इतने वचन कहे, इस बीच अकड़ फिर लौट आयी है। अहंकार फिर मजबूत हो गया। तीन बार झुककर भी फिर वापस आ गया!
अहंकार लौट-लौट आता है। तर्क लौट-लौट आता है। संदेह फिर-फिर पकड़ लेता है।
राजा को भरोसा न हुआ। वह बोला: आप इस मछली से कहलवाएं, तो मानूं।
अब तुम थोड़ा सोचना: बुद्ध के वचन पर भरोसा नहीं; मछली के वचन पर भरोसा आ जाएगा! आदमी की मूढ़ता ऐसी है। बुद्ध कहते हैं, इस पर भरोसा नहीं; मछली कह दे तो भरोसा आ जाए! हम क्षुद्र पर भरोसा करते हैं। हम व्यर्थ पर भरोसा करते हैं।
भगवान हंसे। हंसे इसलिए कि यह भी कैसी मूढ़ता। मैं कह रहा हूं, उस पर भरोसा नहीं। मछली कह देगी, उस पर भरोसा आ जाएगा!
हंसे और करुणा से उन्होंने इस राजा को देखा; वैसी ही करुणा से, जैसे पहले मछली को देखा था। क्यों? क्योंकि उनको लगा होगा: यह भी पास तो आकर बैठ गया, किसी दिन अचिरवती नदी में गिरेगा। सोने की देह होगी, मुंह से दुर्गंध निकलेगी। इसलिए करुणा से, दया से, गीली आंखों से इस राजा की तरफ देखा। इतनी बात सुनकर भी यह नहीं समझ पा रहा है! यह अभी भी उसी में उलझा है कि यह बात सच है कि झूठ है। इसका कोई मूल्य नहीं है। राज की बात साफ हो गयी कि बुद्धों के पास आओ, तो पूरे-पूरे आना, समग्र मन से आना। इतना ही राज है। यह भी समग्र मन से यहां नहीं है। यह कहता है: आपकी बात पर मुझे भरोसा नहीं आता। मछली से कहलवाएं, तो मान लूंगा!
बुद्ध को दया आ रही है कि यह भी मछली के रास्ते पर चला; यह भी गिरेगा। यह भी स्वर्ण की देह पा लेगा और दुर्गंध से भरी आत्मा होगी। फिर कहानी दोहरेगी।
ऐसा ही आदमी मूढ़ है। फिर-फिर वही दोहरता। फिर-फिर वही चूक। फिर-फिर उसी गड्ढे में हम गिर जाते हैं।
और फिर भगवान मछली से बोले: याद कर! भूले को याद कर! तू ही कपिल है? मछली बोली: हां भंते! मैं ही कपिल हूं।
अब तुम इस झंझट में मत पड़ना कि मछलियां कहीं बोलती हैं! अब तुम इस विचार में मत पड़ जाना कि यह बात कपोल-कल्पित है। अभी तक कहानी ठीक चल रही थी। मगर अब सब खराब हुआ। अब भरोसा नहीं आता।
ये कथाएं मनोवैज्ञानिक संकेत हैं। ये बोध-कथाएं हैं। ऐसा कभी हुआ, इस चिंता में पड़ने का कोई भी सार नहीं है। ये तो प्रतीक हैं। इनके पीछे सार है। उसे पकड़ लेना। जैसे छोटे बच्चों के लिए कहानियां कहनी होती हैं।
ईसप की कहानियां पढ़ीं तुमने? या पंचतंत्र की कहानियां पढ़ीं? जानवर बोलते हैं। खूब बोलते हैं। ईसप में जानवर बोलते हैं। पंचतंत्र में जानवर बोलते हैं। छोटे बच्चों की कहानियां हैं। छोटे बच्चों के लिए लिखी गयी हैं। लेकिन कहानी का मुद्दा कुछ और है। कहानी का मुद्दा नीचे जाकर प्रगट होता है। वह मुद्दा समझ में आ जाए, तो कहानी समझ में आ गयी।
तुम भी बुद्धों के लिए छोटे बच्चों से ज्यादा नहीं हो। ये सारी कथाएं तुम्हारे लिए गढ़ी गयी हैं, ताकि तुम समझ लो। ये कहने के ढंग हैं, ये किसी सत्य को प्रतिपादित करने के उपाय हैं। ये बोध-प्रसंग हैं। ये इतिहास नहीं हैं। ध्यान रखना। इनको इतिहास समझा, तो भूल हो जाएगी। तुम इनके मूल तत्व से वंचित रह जाओगे। ये संकेत हैं--कथा के रूप में, कहानी के रूप में, एक घटना के रूप में। बुद्ध ने जो कहना था, वह कह दिया। अगर बिना कथा के कहते, तो शायद तुम्हें समझ में भी न आता। इस तरह बात जल्दी से समझ में आ जाती है।
हां, भंते! मछली ने कहा, मैं ही कपिल हूं। और उसकी आंखें आंसुओं से भर गयीं। गहन पश्चात्ताप; आंसू टपके होंगे उसकी आंखों से। और उस अपूर्व क्षण में, इतना बोलकर, वह मर गयी।
उसका मुंह खुला था। लेकिन दुर्गंध नहीं उठ रही थी। और जैसे ही पुरानी दुर्गंध धीरे-धीरे हवा उड़ाकर ले गयी, एक अपूर्व सुगंध वहां छा गयी।
वह मछली बुद्ध के सामने पश्चात्ताप करके मरी। किसी और बुद्ध के साथ धोखा किया था। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। किसी और बुद्ध से क्षमा मांग ली। क्षमा का शब्द भी नहीं बोली, लेकिन भाव से मांग ली।
राजा चूक गया; मछली पा गयी। ऐसी उलटी दुनिया है! राजा अभी भी बैठा देख रहा है। राजा के संबंध में कथा कुछ नहीं कहती। शायद सोच में पड़ा हो कि यह मछली से कैसे कहलवाया? कोई धोखा-धड़ी तो नहीं है? कोई बुद्ध वेन्ट्रीलोकिस्ट तो नहीं हैं।
तुमने वेन्ट्रीलोकिस्ट देखे न? मेरे एक संन्यासी हैं--सर्वेश। वे मूर्ति को बुलवा दें। गुड्डे को बुलवा दें। बोलते खुद ही हैं। उनका ओंठ भी नहीं हिलता। ओंठ बंद, और गुड्डे को बुलवा दें।
सोचा होगा राजा ने: ये कोई वेन्ट्रीलोकिस्ट तो नहीं हैं यह गौतम बुद्ध? मछली को बुलवा दिया! कहीं धोखा-धड़ी तो नहीं है? कोई और जालसाजी तो नहीं है! कहीं कोई टेपरेकार्ड इत्यादि तो नहीं छिपा रखा है? कि कहीं कोई ग्रामोफोन तो नहीं लगा रखा है? कि ऐसा लगे कि मछली बोल रही है और मछली सिर्फ मुंह हिला रही हो!
राजा तो चूक ही गया; मछली नहीं चूकी। अहंकारी चूक जाते हैं। मछली ने काफी भोग लिया दुख। पहली दफा चूक गयी थी बुद्ध को, इस बार नहीं चूकेगी। और एक क्षण में क्रांति घट गयी। सुवास फैल गयी। जैसे फूल खिला हो, ऐसे उसकी आत्मा खिल गयी और उड़ गयी। छोड़ गयी देह को। पहुंच गयी परम में।
एक सन्नाटा छा गया। बड़ी देर तक कोई कुछ नहीं बोला। ऐसे क्षणों में कोई बोले, तो क्या बोले! ठगे रह गए लोग। अवाक रह गए। लोग संविग्न हो गए।
संविग्न महत्वपूर्ण शब्द है। संविग्न का अर्थ होता है, लोग भावाविभूत हो गए। लोगों को अपनी कथा दिखायी पड़ने लगी। जो समझदार थे, जो वहां भिक्षु सच में ही बोध रखते थे, वे संविग्न हो गए। उन्हें अपनी कथा दिखायी पड़ गयी। उन्हें अपने जीवन का धोखा, अपने जीवन की बेईमानी दिखायी पड़ गयी। उनमें बहुत होंगे, जिनमें पांडित्य की अकड़ थी। शायद उनकी पांडित्य की अकड़ गिर गयी।
उस क्षण अचिरवती नदी में गिरने से बहुत लोग बच गए होंगे। उस क्षण बाहर-बाहर सोना और भीतर-भीतर दुर्गंध हो जाने की दुर्घटना से बहुत लोग बच गए होंगे।
कुछ उसमें ऐसे भी होंगे, जिन्होंने कहा होगा कि नहीं, ये सब कहानियां हैं। मैं कोई अकड़ा हुआ अहंकारी नहीं हूं। मेरा ज्ञान सच्चा है। यह रहा होगा पंडित, यह कपिल चूका। लेकिन मेरा ज्ञान सच्चा है। मैंने कोई किताबों से नहीं लिया है। यह मेरा है। शायद ऐसे लोग चूक भी गए होंगे।
लेकिन सकते में तो सभी आ गए। संविग्न तो सभी हो गए। उन्हें रोमांच हो आया। लोगों के रोएं खड़े हो गए। ऐसी अपूर्व घटना घटी। तब भगवान ने उस समय उपस्थित लोगों की चित्त-दशा को देखकर ये गाथाएं कहीं:
मनुजस्स पमत्तचारिनो तण्हा बड्ढति मालुवा विय।
सो पलवती हुराहुरं फलमिच्छं’व वनस्मिं वानरो।।
‘प्रमत्त होकर--अहंकार में मूर्च्छित होकर--आचरण करने वाले मनुष्य की तृष्णा मालवा लता की भांति बढ़ती है।’
मालवा लता देखी! वह जो बिना जड़ के फैल जाती है वृक्षों पर; जिसकी जड़ नहीं होती। ऐसी तृष्णा है। इसकी कोई जड़ नहीं है, फिर भी फैलती चली जाती है। एक जीवन से दूसरे जीवन में; दूसरे से तीसरे जीवन में। एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर, दूसरे से तीसरे पर। वृक्षों का शोषण करती है और फैलती चली जाती है। अपनी कोई जड़ें नहीं होतीं।
ऐसे ही तृष्णा की लता है। तुम्हारा शोषण करती है। तुम अपशोषित होते हो। तुम्हारा एक जीवन चूस लेती है, फिर दूसरा जीवन चूसती है। ऐसे तुम्हारे अनंत जीवन चूसती है और फैलती चली जाती है। और इसकी कोई जड़ें नहीं हैं।
तृष्णा शोषक है। इसी ने तुम्हें दीन किया; इसी ने तुम्हें दरिद्र किया; इसी ने तुम्हें दुख से भरा; इसी ने तुम्हारे नर्क निर्मित किए।
‘प्रमत्त होकर--अहंकार में मूर्च्छित होकर--आचरण करने वाले मनुष्य की तृष्णा मालवा लता की भांति बढ़ती है। वह वन में फल की इच्छा से कूद-फांद करते बंदर की तरह जन्म-जन्मांतर में भटकता रहता है।’
और तुम्हारा भटकाव ऐसा है, जैसे बंदर कूदता है इस वृक्ष से उस वृक्ष पर; इस वृक्ष से उस पर उछल-कूद करता रहता है। ऐसे ही तुम एक योनि से दूसरी योनि में उछल-कूद कर रहे हो। तुम्हारे जीवन में कोई गंतव्य नहीं, कोई दिशा नहीं, कोई योजना नहीं, कोई अनुशासन नहीं। बंदर की भांति हो तुम।
वासना से भरा हुआ आदमी बंदर की भांति है। और तृष्णा मालवा लता है। सावधान होना इससे। तृष्णा की लता को उखाड़ फेंकना। और यह बंदरपन--एक इच्छा से दूसरी इच्छा--आज मकान बड़ा चाहिए, कल धन और चाहिए, परसों नयी पत्नी चाहिए, फिर यह चाहिए, फिर वह चाहिए। कूदते फिरते हो। सारा जीवन ऐसे ही व्यर्थ हो जाता है।
यं एसा सहती जम्मी तण्हा लोके विसत्तिका।
सोका तस्स पबड्ढन्ति अभिवट्ठं’व वीरणं।।
‘यह विषरूपी नीच तृष्णा जिसे अभिभूत कर लेती है, उसके शोक वर्षाकाल में वीरण--खस के तृण--की भांति वृद्धि को प्राप्त होते हैं।’
जैसे वर्षा में घास ऊग आता है, सब तरफ घास-पात फैल जाता है; ऐसे ही जिस व्यक्ति को यह तृष्णा पकड़ लेती है, जकड़ लेती है, उसके जीवन में घास-पात फैल जाता है। उसके जीवन में व्यर्थ का विस्तार हो जाता है। क्षुद्र ही क्षुद्र हो जाता है। उसके जीवन में गुलाब के फूल नहीं खिलते। बस, घास-पात होता है।
यो चेतं सहती जम्मिं तण्हं लोके दुरच्चयं।
सोका तम्हा पपतन्ति उदविन्दू’व पोक्खरा।।
‘जो संसार में इस दुस्त्याज्य नीच तृष्णा को जीत लेता है, उसके शोक उस तरह गिर जाते हैं, जैसे कमल के ऊपर से जल के बिंदु गिर जाते हैं।’
कुछ करना नहीं पड़ता। जो ठीक से देख लेता है तृष्णा को, इसके जाल को, इसकी मूर्च्छा को, इसके अहंकार को--जो जाग जाता है इसके प्रति--उसके जीवन से तृष्णा ऐसे ही विलीन हो जाती है, और ऐसे ही उसके जीवन से सारे शोक विलीन हो जाते हैं, जैसे कमल के ऊपर से जल के बिंदु अपने आप सरकते और गिर जाते हैं; बिना किसी प्रयास के गिर जाते हैं।
फर्क समझ लेना। लोग सोचते हैं: तृष्णा मिटाने को कुछ और करना पड़ेगा। कुछ और करोगे, तो नयी तृष्णा पैदा होगी। तृष्णा मिटाने को लोग कहते हैं: कुछ करना पड़ेगा, तब तृष्णा मिटेगी! तो फिर क्या करोगे?
पहले तो एक नयी तृष्णा बनानी पड़ेगी कि मोक्ष पाना है। मुक्ति पानी है। आवागमन से छुटकारा पाना है। यह नयी तृष्णा बनाओ कि मोक्ष पाना है। अब मोक्ष पाकर रहूंगा। और मोक्ष पाने में तृष्णा काटनी पड़ती है, इसलिए तृष्णा काटूंगा।
लेकिन तृष्णा तो कट जाए, यह नयी तृष्णा खड़ी हो गयी; इससे कुछ फर्क न पड़ा। फिर नया घास-पात ऊगेगा। पहले धन के नाम पर ऊगता था, अब धर्म के नाम पर ऊगेगा। पहले शरीर के नाम पर ऊगता था, अब आत्मा के नाम पर ऊगेगा। मगर ऊगेगा, फिर भी तुम घास-पात के ही रहोगे। तुम्हारे भीतर भूसा ही भरा रहेगा। तुम्हारे भीतर ज्योति प्रगट न होगी।
तो बुद्ध क्या कहते हैं? बुद्ध कहते हैं: मोक्ष की तृष्णा न करो; वह भी तृष्णा है। मुक्ति की आकांक्षा न करो, वह भी आकांक्षा है। फिर करो क्या? संसार की जो तृष्णा है, इसे समझो; जागो, होश से भरो। देखो, तृष्णा कैसे तुम्हें चलाती है! कैसा बंदर जैसा उछलवाती है! कैसा मूढ़ बनाती है! गौर से देखो। इसे देखो, इसको पहचानो। इसकी सारी प्रक्रिया को समझ लो। उस समझने में ही तृष्णा ऐसे विलीन होने लगती है, जैसे कमल के ऊपर से जल के बिंदु गिर जाते हैं।
सोका तम्हा पपतन्ति उदविन्दू’व पोक्खरा।।
तं वो वदामि भद्दं वो यावन्तेत्थ समागता।
तण्हाय मूलं खणथ उसीरत्थो’व वीरणं।
मा वो नलं व सोतो व मारो भञ्जि पुनप्पुनं।।
‘इसलिए मैं तुम्हें जितने तुम यहां आए हो, तुम्हारे कल्याण के लिए कहता हूं, जैसे खस के लिए लोग उषीर को खोदते हैं, वैसे ही तुम तृष्णा की जड़ खोदो।’
तृष्णा की जड़ है मूर्च्छा। तृष्णा की जड़ है बेहोशी, आंख बंद किए जीए जाना। तृष्णा की जड़ है, अचेतना। तुम इस जड़ को खोदो। अचेतना को मिटा दो। ध्यान में जगो। होश से उठो, होश से बैठो। होश से करो, जो भी करना है।
क्रोध आए, तो बुद्ध यह नहीं कहते कि क्रोध को दबाओ। बुद्ध कहते हैं: होश से क्रोध को करो। और तुम चकित हो जाओगे। होश से कभी कोई क्रोध कर पाया?
तुम जागकर क्रोध को करो। जब क्रोध पकड़े, तब झकझोरकर अपने को जगा लो। होशपूर्वक क्रोध को करो और तुम पाओगे: इधर होश उठा, उधर क्रोध गिरा। दोनों साथ नहीं होते। दोनों का कोई संग-साथ संभव नहीं है।
वासना उठे, कामवासना उठे, तो बुद्ध नहीं कहते कि दबाओ। कोई ज्ञानी नहीं कहता कि दबाओ। जो कहता है दबाओ, उसे कुछ भी पता नहीं है। वह महाअज्ञानी है। वह अंधा है और दूसरों को अंधा बनाएगा।
बुद्ध कहते हैं: जब कामवासना उठे, तब ध्यान करो। तब देखो: क्या उठ रहा है? क्यों उठ रहा है? पहले इससे क्या मिला? बहुत बार इसमें गिरे थे, क्या पाया? विश्लेषण करो। समझो। सिर्फ समझो। और जैसे-जैसे तुम्हारी समझ गहन होगी, वैसे-वैसे तुम पाओगे: वासना का धुआं गया।
‘तृष्णा की जड़ खोदो। तुम्हें जल-प्रवाह में उत्पन्न सरकंडे की भांति बार-बार मार न तोड़े।’
बुद्ध कहते हैं: यह तृष्णा का शैतान नहीं तो तुम्हें बार-बार तोड़ेगा। बार-बार गिराएगा। बार-बार सताएगा।
दूसरा दृश्य:
भगवान वेणुवन में विहार करते थे। एक दिन भिक्षाटन को जाते हुए राह में एक सुअरी को देखकर ठिठक गए और फिर कुछ सोचकर मुस्कुराए और आगे बढ़े।
एक सुअरी को देखकर...। आनंद स्थविर ने--जो उनके साथ सदा छाया की तरह लगा रहता था, उनका सेवक था--यह देखा कि बुद्ध ठिठके एक सुअरी को देखकर! कुछ सोचा। फिर मुस्कुराए और आगे बढ़े। आनंद अपनी जिज्ञासा को न रोक सका। और उसने भगवान से ठिठकने, फिर कुछ सोचने और फिर मुस्कुराने का कारण पूछा।
शास्ता ने कहा: आनंद! यह सुअरी ककुसंध बुद्ध के शासन में एक मुर्गी थी।
और प्राचीन बुद्ध ककुसंध, उनके शासन में एक मुर्गी थी। भगवान ककुसंध के वचनों को सुनकर और भगवान के विहार-स्थल के पास ही रहने के कारण उनके प्रति प्रीति को उत्पन्न हो गयी थी। जब वे बोलते, तो यह सदा पास आ जाती। समझ न भी सकती, तो भी सुनती। समझ कौन सकता है? तो भी सुनती। भावविभोर हो जाती, तन्मय हो जाती।
मुर्गी ही थी। कुछ ज्यादा सोच-विचार की संभावना भी न थी। आदमियों तक की नहीं है! लेकिन सरल थी, निर्दोष थी। उनकी सुवास इस अज्ञानी मुर्गी को भी छू गयी थी।
भगवान जब भी बोलते, यह आसपास ही बनी रहती। इसे सत्संग का चाव लग गया था।
ऐसा हो जाता है। महर्षि रमण के पास एक गाय बनी रहती थी। यह तो अभी की बात है। वे जब बोलते, तो गाय निश्चित आ जाती। खिड़की में से सिर अंदर कर लेती। सुनती रहती! जब तक वे बोलते, बराबर सुनती रहती। जैसे ही बोलना बंद करते--जाती। रोज आती। इतना नियमित भक्त कोई भी नहीं था, जितनी गाय थी! जब गाय मरी, तो रमण महर्षि ने उसे वैसे ही सम्मान से विदा दी, जैसे कोई मनुष्य को देता है। उसकी समाधि बनवायी।
ऐसी ही यह मुर्गी रही होगी। जब भगवान ध्यान करते, तो यह अत्यंत निकट आकर खड़ी रहती थी। कभी-कभी आंखें बंद कर लेती थी। ज्यादा तो नहीं समझ सकती थी, लेकिन जैसा भगवान शांत बैठे, ऐसे ही यह भी शांति खड़ी हो जाती। देखती: भगवान हिलते-डुलते नहीं; यह भी अडोल हो जाती। देखती: उन्होंने आंखें बंद कीं, तो यह भी आंखें बंद कर लेती। ऐसे धीरे-धीरे इसको रस लगा; रस पगी। धीरे-धीरे सुवास पकड़ी। सत्संग जमा।
ऐसे उसने बहुत पुण्य अर्जन किया था। और उस पुण्य के कारण दूसरे जन्म में उवरी नाम की राजकन्या होकर उत्पन्न हुई थी। उस दूसरे जन्म में एक पाखानाघर में कीड़ों को देखकर पुलवक संज्ञा की भावना कर प्रथम ध्यान को प्राप्त हुई।
मुर्गी थी। ककुसंध के सान्निध्य का परिणाम: राजकुमारी होकर पैदा हुई। जब राजकुमारी होकर पैदा हुई, तो एक दिन पाखाने में कीड़े दिखायी पड़े, उन कीड़ों को देखकर उसे अपूर्व बोध हुआ--कि ऐसी ही तो हमारी दशा है। जैसे कीड़े बिलबिला रहे हैं, ऐसे ही आदमी बिलबिला रहा है! और कीड़े भी सोचते पाखाने के कि बड़े मस्ती में हैं। संसार बसा रहे हैं। वे भी प्रेम में पड़ते। विवाह इत्यादि करते। बच्चे पैदा करते। सारा संसार जमाते। ऐसे ही तो हम भी हैं। हम में और इनमें भेद क्या है?
ऐसा उसे बोध हुआ। तो पहले ध्यान का फूल उसके जीवन में खिला था। उस पुण्य के कारण, उस ध्यान के कारण, उस ध्यान-धन के कारण, फिर ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुई। एक देवी की तरह उत्पन्न हुई। देवतालोक में उत्पन्न हुई। लेकिन देवलोक के सुख में मूर्च्छित हो गयी।
अक्सर ऐसा होता है: दुख जगा देता है, सुख सुला देता है। इसलिए सुख से सावधान रहना। दुख इतना बड़ा अभिशाप नहीं जितना सुख है। क्योंकि दुख में तो कोई सो नहीं सकता। दुख की पीड़ा जगाए रखती है। सुख में आदमी सो जाता है।
मुर्गी थी, तब ककुसंध बुद्ध का सत्संग करने का रस लिया। उसके परिणाम में राजकुमारी हुई। राजकुमारी थी, तो पाखाने में कीड़ों को देखकर इस बोध को उत्पन्न हो गयी कि सब असार है। और योनियों में भटकना बहुत हो चुका। कंप गयी होगी--कि कभी शायद मैं भी पाखाने का कीड़ा रही होऊं। या कभी हो जाऊं। उस अवस्था में मोह-तृष्णा क्षीण हो गयी, भवतृष्णा क्षीण हो गयी। जीवन को पकड़ने का जो भाव था, वह एकदम शिथिल हो गया। उस ध्यान के कारण देवलोक में उत्पन्न हुई।
लेकिन बुद्ध ने कहा, आनंद, समझना। देवलोक के सुख में मूर्च्छित हो गयी। और अब ध्यान-धन के चुक जाने के कारण इस पृथ्वी पर पुनः सुअर की बेटी होकर पैदा हुई है। आवागमन के इस चक्कर को देखकर मैं ठिठका, बुद्ध ने कहा। सोच में पड़ा। और फिर इसलिए मुस्कुराया कि कैसी मूढ़ता है! जागते-जागते फिर सो गए! उठते-उठते फिर गिर गए!
देवलोक से भी आदमी गिर जाता है, क्योंकि पुण्य एक दिन चुक जाते हैं। समाधि से नहीं कोई गिरता है; ध्यान से गिर जाता है। ध्यान और समाधि में यही फर्क है। ध्यान यात्रा है; तुम चाहो तो बीच से लौट सकते हो। समाधि मंजिल है; एक बार पहुंच गए, फिर लौटना नहीं है। क्योंकि समाधि में तुम खो जाओगे। बचता ही नहीं कोई लौटने वाला। जब तक निर्वाण न घट जाए, तब तक गिरने का डर है, संभावना है।
तो बुद्ध कहते हैं: मैं ठिठका। यह कैसा हुआ! मुर्गी थी, तब इतना पुण्य अर्जन किया और देवी होकर गिरी और सुअर की बेटी होकर पैदा हुई! तो चौंका; सोच-विचार में पड़ा। फिर हंसी भी आयी कि कैसा आदमी है! कैसी मूढ़ता है!
यह कथा सुनकर आनंद तथा अन्य भिक्षु जो बुद्ध के साथ भिक्षाटन को गए थे, महान संवेग को प्राप्त हुए। शास्ता ने उनमें पैदा हुए संवेग को देखकर नगर की वीथी में खड़े हुए ही इन गाथाओं को कहा।
बोलने के क्षण होते हैं, तभी कुछ बातें कही जाती हैं। जैसे लोहा गरम हो, तभी पीटा जाता है; तभी कुछ बन सकता है। तो सड़क पर खड़े हुए बुद्ध ने ये वचन कहे। क्योंकि लौटते-लौटते विहार तक संवेग खो जाए। आदमी का भरोसा क्या!
ये जो भिक्षु साथ गए थे, इस घटना के आघात में एकदम चौकन्ने हो गए थे; इस घटना के आघात में बड़े जागरूक हो गए थे। उस जागरूकता के क्षण को चूका नहीं जा सकता है। इसलिए बुद्ध ने बीच सड़क में खड़े होकर ये वचन कहे:
यथापि मूले अनुपद्दवे दल्हे छिन्नोपि रुक्खो पुनरेव रूहति।
एवम्पि तण्हानुसये अनूहते निब्बत्तति दुक्खमिदं पुनप्पुनं।।
‘जैसे दृढ़ मूल के बिलकुल नष्ट न हो जाने से कटा हुआ वृक्ष फिर भी वृद्धि को प्राप्त होता है, वैसे ही तृष्णा और अनुशय के समूल नष्ट न होने से यह दुख-चक्र बार-बार प्रवर्तित होता है।’
तो बुद्ध ने कहा कि भिक्षुओ, पत्ते और शाखाएं मत काटते रहना; जड़-मूल से तृष्णा को काटना है। अगर जड़ बच गयी--मूल जड़ बच गयी--तो तुम पूरे वृक्ष को भी काट दो, फिर नए अंकुर निकल आते हैं।
ऐसा ही इस बेचारी सुअरी को हुआ। मुर्गी थी। अनजाने कुछ शाखाएं गिर गयीं। फिर राजकुमारी थी, तो संवेग की एक दशा में, भाव के एक प्रवाह में ध्यान फला। लेकिन तृष्णा जड़-मूल से नहीं गयी, तो स्वर्ग तक पहुंचकर वापस लौट आयी। फिर अंकुर आ गए। फिर तृष्णा ने पकड़ लिया!
सात अनुशय कहे हैं बुद्ध ने: काम; भवराग...। भवराग का अर्थ होता है: मैं जीऊं; मैं सदा जीऊं; मैं बना रहूं, मैं कभी मिटूं नहीं। प्रतिहिंसा; मान; मिथ्यादृष्टि--जैसा है, उसको वैसा न देखना; जैसा है, उसको कुछ और करके, कुछ और बनाकर देखना; अपने मन के अनुकूल बनाकर देखना। संदेह और अविद्या--ये सात अनुशय हैं। ये सातों जड़ें हैं, जिन पर तृष्णा खड़ी है, जिन पर तृष्णा का वृक्ष बड़ा होता है। ये सातों अनुशय कट जाएं, तो तृष्णा कटती है! फिर उसमें कभी अंकुर नहीं आते।
यस्स छत्तिंसति सोता मनापस्सवना भुसा।
वाहा वहन्ति दुद्दिट्ठिं संकप्पा रागनिस्सिता।।
‘जिसके छत्तीसों स्रोत संसार में प्रिय पदार्थों की तरफ बने रहते हैं, उसके रागपूर्ण संकल्प उसे दुर्दृष्टि की ओर बहा ले जाते हैं।’
और तुम अनंत रूपों में संसार की वस्तुओं की तरफ बह रहे हो। तुम्हारे सब द्वार संसार की तरफ खुले हैं, जो तुम्हें दुर्दृष्टि में बहा ले जाते हैं।
इधर एक सुंदर स्त्री दिखायी पड़ गयी--और तुम बहे। यहां किसी की सुंदर कार दिखायी पड़ गयी--और तुम बहे। यहां किसी का बड़ा मकान दिखायी पड़ गया--और तुम बहे। यहां कोई सुंदर कपड़े पहनकर निकला है--और तुम बहे। जागकर चलना होगा।
इस तरह बुद्ध ने कहा: ये छत्तीस द्वार हैं, जो बहाते हैं। जो तुम्हें प्रतिपल पुकार रहे हैं: आ जाओ, बाहर आ जाओ। और यह जो लता है बिना जड़ की, यह बढ़ती चली जाती है, फैलती चली जाती है।
सवन्ति सब्बधि सोता लता उब्भिज्ज तिट्ठति।
तञ्च दिस्वा लतं जातं मूलं पञ्ञाय छिन्दथ।।
‘ये स्रोत सभी तरफ बहते हैं। लता फूटकर निकलती है। उसी फूटी हुई लता को देखकर उसके मूल को प्रज्ञा से काट डालो।’
तो बुद्ध कहते हैं: ये सात मूल, सात अनुशय हैं, इन्हें काटोगे कैसे? किस कुल्हाड़ी से काटोगे? प्रज्ञा की कुल्हाड़ी से।
प्रज्ञा का अर्थ होता है: जागरूकता, अवेयरनेस। प्रज्ञा का अर्थ होता है: प्रतिपल होशपूर्वक जीना; एक क्षण को भी बेहोशी में न करना कुछ। राह चलो, तो ऐसे चलना, जागे हुए। भोजन करो, तो जागे हुए। बोलो, तो जागे हुए। क्रोध, लोभ, मोह--कुछ भी आए, तुम जागे हुए रहना।
और एक अपूर्व घटना घट जाती है। जागरण के साथ ही जो तुम्हारे शत्रु हैं, तुम्हारे पास आने बंद हो जाते हैं। और जो तुम्हारे मित्र हैं, वही आते हैं। जागरण के साथ घृणा खो जाती है, प्रेम बचता है। मूर्च्छा में प्रेम खो जाता है, घृणा बचती है। जागरण में क्रोध खो जाता, करुणा बचती है। मूर्च्छा में करुणा खो जाती, क्रोध बचता है।
बुद्ध ने कहा है: जैसे किसी घर में दीया जला हो और घर का मालिक जगा हो, तो चोर उस घर की तरफ नहीं आते। पहरेदार सजग हों; घर में दीया जला हो; खिड़कियों से रोशनी बाहर आती हो और मालिक चलता-फिरता हो, तो चोर उस तरफ नहीं आते। दूर-दूर रहते हैं।
मालिक सोया हो; घर का दीया बुझा पड़ा हो; घर में गहन अंधकार हो; पहरेदार शराब पीकर पड़ा हो; फिर चोरों के लिए निमंत्रण है। तुमने खुद ही निमंत्रण भेज दिया! फिर चोर न आएं, तो क्या करें! चोरों को कसूर मत देना। चोरों को दोषी मत ठहराना। तुम ही दोषी हो।
ऐसी ही मन की दशा है। जब मन में होश का दीया जगा होता है, जब तुम्हारा ध्यान पहरे पर बैठा होता है, जब तुम्हारा मालिक शराब पीकर खोया नहीं रहता, मूर्च्छा में डूबा नहीं रहता...।
और शराबें बहुत तरह की हैं। अहंकार की शराब है; उसको पीकर कपिल नाम का भिक्षु महापंडित था, लेकिन गिरा--गर्त में गिरा। भयंकर दुर्गंध वाली मछली हुआ। सुख भी शराब है; उसको पीकर राजकुमारी, जो देवलोक पहुंच गयी थी, वहां से गिरी। और कैसी गिरी कि सुअर की बेटी हुई! किस बुरी तरह खोया!
मूर्च्छा गिराती है, क्योंकि मूर्च्छा शत्रुओं को निमंत्रण है। और होश पहुंचाता है, क्योंकि होश के साथ वही बचता है, जो शुभ है।
होश में जो हो, वही पुण्य; बेहोशी में जो हो, वही पाप। इसे तुम कसौटी मानना।
आज इतना ही।
मनुजस्स पमत्तचारिनो तण्हा बड्ढति मालुवा विय।
सो पलवती हुराहुरं फलमिच्छं’व वनस्मिं वानरो।।274।।
यं एसा सहती जम्मी तण्हा लोके विसत्तिका।
सोका तस्स पबड्ढन्ति अभिवट्ठं’व वीरणं।।275।।
यो चेतं सहती जम्मिं तण्हं लोके दुरच्चयं।
सोका तम्हा पपतन्ति उदविन्दू’व पोक्खरा।।276।।
तं वो वदामि भद्दं वो यावन्तेत्थ समागता।
तण्हाय मूलं खणथ उसीरत्थो’व वीरणं।
मा वो नलं व सोतो व मारो भञ्जि पुनप्पुनं।।277।।
यथापि मूले अनुपद्दवे दल्हे
छिन्नोपि रुक्खो पुनरेव रूहति।
एवम्पि तण्हानुसये अनूहते
निब्बत्तति दुक्खमिदं पुनप्पुनं।।278।।
यस्स छत्तिंसति सोता मनापस्सवना भुसा।
वाहा वहन्ति दुद्दिट्ठिं संकप्पा रागनिस्सिता।।279।।
सवन्ति सब्बधि सोता लता उब्भिज्ज तिट्ठति।
तञ्च दिस्वा लतं जातं मूलं पञ्ञाय छिन्दथ।।280।।
एक कली...
नन्हीं सी
कल ही तो मौसम
मनाया था नेह का
गंध भरी देह का
आज लाचार गयी छली
एक कली...
एक सुबह एक शाम
इतनी-सी जिंदगी
झरी पाखें सगी
आंखें उदास रूप-जली
एक कली...
धूल की अलगनी पर
टंगे सपने अभी
मटैले से सभी
बुझे-बुझे रंग उम्र ढली
एक कली...
ऐसा ही जीवन है; अभी है, अभी नहीं; क्षणभंगुर है। इस क्षणभंगुरता को जिसने समझा, वही धर्म में प्रवेश करता है। इस क्षणभंगुरता को जिसने न समझा, वह भटकता रहता। कोल्हू के बैल जैसा जुता गोल-गोल घूमता रहता। इसी को बुद्ध ने कहा है--एस धम्मो सनंतनो।
जीवन क्षण-क्षण परिवर्तनशील है, इसे देख लेना परम नियम है। ऐसा हमें दिखायी नहीं पड़ता। आंख पर कोई पर्दा है, जो देखने नहीं देता। रोज देखते हैं चारों तरफ मौत को घटते, फिर भी यह बात मन में बैठती नहीं कि मैं भी मरूंगा। रोज देखते हैं पीले पत्तों को गिरते, लेकिन मन यही कहे जाता है कि मैं सदा हरा रहूंगा। रोज देखते हैं जवानी को बुढ़ापे में बदलते, स्वास्थ्य को बीमारी में गिरते; रोज देखते हैं किसी को धूल में खो जाते, लेकिन मन यही आशा संजोए रहता है--यह औरों के साथ होता है, मेरे साथ न हुआ, न होगा। मैं अपवाद हूं।
जिसने समझा अपने को अपवाद, वह संसार से मुक्त न हो सकेगा। जिसने समझा कि नियम शाश्वत है, कोई भी अपवाद नहीं...।
जो हरा है, वह पीला होकर झरेगा। जो जन्मा है, वह मरेगा। जो अभी युवा है, कल थकेगा, बूढ़ा होगा। यहां हर चीज बनती और बिगड़ती है। सतत प्रवाह है। यहां कुछ भी थिर नहीं। एक क्षण भी थिर होने की आशा रखना महाभ्रांति है। और थिर होने की आकांक्षा से ही सारे दुखों का जन्म है।
जो नहीं होने वाला है, वह हो जाए, इसी आकांक्षा में तो दुख की उत्पत्ति है। क्योंकि वह नहीं होगा और तुम दुखी होओगे।
जवान हो, जवानी को थिर बना लेने की आकांक्षा है। सदा जवान रहूं! यह नहीं होगा; कभी नहीं हुआ; यह हो नहीं सकता। यह नियम के विपरीत है। तुम असंभव की कामना कर रहे हो। फिर कामना टूटेगी। पूरी तो हो नहीं सकती, टूटेगी ही; तब विषाद होगा, तब गहन अंधेरे में खो जाओगे। और तब ऐसा लगेगा कि पराजित हुए। पराजित सिर्फ कामना हुई, तुम नहीं। लेकिन कामना से समझा था एक अपने को, इसलिए लगता है पराजित हुआ। फिर भी सीखोगे नहीं! फिर-फिर क्षणभंगुर को पकड़ोगे।
पानी के बबूले को थिर बनाने की आकांक्षा है! जो फूल तुम्हारी बगिया में खिला--सदा खिला रहे; ऐसा ही खिला रहे; ऐसी ही सुगंध उठती रहे। झरेगा फूल कल सुबह। पखुड़ियां गिरेंगी धूल में, तब तुम रोओगे। तब आंसू सम्हाले न सम्हलेंगे। लेकिन तुम्हारे रोने का कारण तुम ही हो। तुमने गलत चाहा था; तुमने असंभव चाहा था; जो नहीं होता है, वैसा चाहा था। इसलिए विषाद है।
काश! तुम देख लो उसे जो होता है, और वही चाहो, जो होता है, तो चाह मर गयी। चाह का अर्थ ही है: जो होता है, उसके विपरीत चाहना। जैसा नहीं होता है, वैसा चाहना। जो होता है, उसकी स्वीकृति, उसके साथ समरस हो जाना--चाह मर गयी।
जवानी बूढ़ी हो जाती है, तुम भी स्वीकार कर लेते हो। जीवन मृत्यु में परिणत हो जाता है, तुम अंगीकार कर लेते हो। सुख दुखों में बदल जाते हैं; दिन रातों में ढल जाते हैं; तुम जरा भी ना-नुच नहीं करते। तुम कहते हो: जो होता है, होता है। जैसा होता है, वैसा ही होगा। तो कहां वासना है?
वासना सदा विपरीत की वासना है। इस विपरीत की आकांक्षा को बुद्ध ने कहा है--तन्हा, तृष्णा।
किसी से तुम्हारा प्रेम हुआ, अब तुम सोचते हो: यह प्रेम सदा रहे। यहां कुछ भी सदा नहीं रहता। अब तुम कहते हो: इस प्रेम को बांधकर रख लूं। द्वार-दरवाजे बंद कर दूं--कि यह प्रेम का झोंका कहीं बाहर न निकल जाए! हथकड़ियां डाल दूं; बेड़ियां पहना दूं--प्रेम को। तालों पर ताले जड़ दूं; कहीं यह प्रेम चला न जाए! बामुश्किल तो आया है। कितना पुकारा तब आया है!
याद रखना: न तुम्हारे पुकारने से आया है, न तुम्हारे रोकने से रुकेगा। आता है अपने से, जाता है अपने से।
तुम चेष्टा करके प्रेम कर सकोगे? तुम्हें कोई आज्ञा दे: करो इस व्यक्ति को प्रेम; तुम कर सकोगे? जब आता है, तब आता है। तुम अवश हो।
जिसके आने पर बस नहीं है, उसके जाने को कैसे रोकोगे? जो आते समय तुम्हारे हाथ से नहीं आया, वह जाते समय तुम्हारे हाथ से रुकेगा भी नहीं। हवा का झोंका है--आया और गया। इस सत्य को समझ लेना धर्म को समझ लेना है। क्योंकि इस सत्य की समझ में ही तृष्णा गिर जाती है, मांग मिट जाती है। जो होता है, उसे स्वीकार कर लेते हो। जो नहीं होता, वह नहीं होता। उसे भी स्वीकार कर लेते हो। फिर जैसा है, वैसे में ही तृप्ति है। इस तृप्ति में ही तृष्णा से मुक्ति है।
तृष्णा को ठीक से समझना जरूरी है, क्योंकि तृष्णा का ही सारा जाल है।
तुम बंधे संसार से नहीं, तुम बंधे तृष्णा से। संसार को गालियां मत दो। तृष्णा से बंधे हो तुम, तृष्णा को समझो। तृष्णा को भी गालियां मत दो। क्योंकि गालियां देने से कोई समझ पैदा नहीं होती; निंदा करने से कुछ बोध नहीं पैदा होता। उतरो! आंख खोलकर तृष्णा को देखो। कितनी बार हारे हो! सदा हारे हो! जीत कभी हुई नहीं। किसी की नहीं हुई। और जब तुम्हें लगती है, जीत हो रही है, तब भी ध्यान रखना: तुम्हारी नहीं हो रही है। इसलिए हार जब तुम्हारी होगी, तब भी तुम्हारी नहीं होगी।
यहां जीवन अपने नियम से चल रहा है। कभी-कभी संयोगवशात तुम नियम के साथ पड़ जाते हो। साथ पड़ जाते हो, अच्छा लगता है। जब-जब साथ छूट जाता है, तब-तब दुख और पीड़ा होती है; कांटा गड़ता है।
तुम सदा नियम के साथ हो सकते हो, फिर महासुख है; फिर आनंद है। सदा नियम के साथ होने का अर्थ है: जो होगा, उससे अन्यथा नहीं चाहूंगा। जैसा होगा, उससे रत्तीभर भी अन्यथा नहीं चाहूंगा। दुख होगा, तो दुख अंगीकार करूंगा। सुख होगा, तो सुख अंगीकार करूंगा। मैं अपने को बीच से हटा लूंगा। जो होगा, उसे होने दूंगा। मैं रिक्त हो जाऊंगा। अड़चन न डालूंगा। बाधा न डालूंगा। मांग खड़ी न करूंगा। अपेक्षाएं न रखूंगा। मैं दूर हट जाऊंगा, जैसे मैं रहा नहीं। आए हवा का झोंका--ठीक। न आए--ठीक। सूरज की किरण आए--ठीक। न आए--ठीक। उजाला आए, अंधेरा आए; सुख के दिन और दुर्दिन आएं; जो भी आता हो, आए, मैं तो हूं नहीं। ऐसी भावदशा में फिर कहां दुख? फिर कहां विषाद? इस भावदशा को बुद्ध ने निर्वाण कहा। तुम रिक्त हो जाओ, शून्य हो जाओ। तुम बीच में न आओ, तो निर्वाण है। निर्वाण महासुख है।
ये सारे सूत्र तृष्णा के ऊपर हैं। इसके पहले कि हम सूत्रों में उतरें, उन परिस्थितियों में चलें, जब ये सूत्र कहे गए।
पहला दृश्य:
भगवान गौतम बुद्ध श्रावस्ती के जेतवन में विहरते थे। श्रावस्ती के नगर-द्वार पर बसे हुए केवट्ट गांव के मल्लाहों ने अचिरवती नदी में जाल फेंककर एक स्वर्ण-वर्ण की अदभुत मछली को पकड़ा।
अदभुत थी मछली। स्वर्ण-वर्ण था उसका, जैसे सोने की बनी हो। उसके शरीर का रंग तो स्वर्ण जैसा था, किंतु उसके मुख से भयंकर दुर्गंध निकलती थी।
मल्लाहों ने इस चमत्कार को जाकर श्रावस्ती के महाराजा को दिखाया। ऐसी मछली कभी उन्होंने पकड़ी नहीं थी। ऐसी सुंदर काया कभी देखी नहीं थी किसी मछली की। जैसे स्वर्ग से उतरी हो। और साथ ही एक दुर्भाग्य भी जुड़ा था उस मछली के पीछे। उसके मुंह से ऐसी भयंकर दुर्गंध निकलती थी, वैसी दुर्गंध भी कभी नहीं देखी थी; जैसे भीतर नर्क भरा हो। बाहर स्वर्ण की देह थी और भीतर जैसे नर्क!
राजा भी चकित हुआ। न उसने सुना था कभी, न देखा था। ऐसी मछली पुराणों में भी नहीं लिखी थी।
बुद्ध गांव में ठहरे हैं। राजा उस मछली को एक द्रोणी में रखवाकर भगवान के पास ले गया। सोचा: चलें, उनसे पूछें। शायद कुछ राज मिले।
उस समय मछली ने मुख खोला, जिससे सारा जेतवन दुर्गंध से भर गया। जहां बुद्ध ठहरे थे--जिन वृक्षों की छाया में--वह सारा जेतवन दुर्गंध से भर गया! ऐसी भयंकर उसकी दुर्गंध थी।
राजा ने भगवान के चरणों में तीन बार प्रणाम कर पूछा: भंते! क्यों इसका शरीर स्वर्ण जैसा, किंतु मुख से दुर्गंध निकलती है? यह द्वंद्व कैसा? यह द्वैत कैसा? स्वर्ण की देह से तो सुगंध निकलनी थी! और अगर दुर्गंध ही निकलनी थी, तो देह स्वर्ण की नहीं होनी थी। यह कैसा अजूबा! आप कुछ कहें।
भगवान ने अत्यंत करुणा से उस मछली की ओर देखा और बड़ी देर चुप रहे। जैसे किसी और लोक में खो गए। और फिर बोले: महाराज! यह मछली कोई सामान्य मछली नहीं है। इसके पीछे छिपा एक लंबा इतिहास है। यह काश्यप बुद्ध के शासन में कपिल नामक एक महापंडित भिक्षु था। यह त्रिपिटकधर था; ज्ञानी था। बड़ा तर्कनिष्ठ, बड़ा तर्क कुशल; स्मृति इसकी बड़ी प्रगाढ़ थी। और उतना ही अभिमानी भी था। अहंकार भी बड़ा तीक्ष्ण था; तलवार की धार की तरह था। इसने अपने अभिमान में भगवान काश्यप को धोखा दिया; अपने गुरु को धोखा दिया। उन्हें छोड़ा ही नहीं, वरन उनके विरोध में भी संलग्न हो गया।
जो इसने बहुत दिनों तक एक बुद्धपुरुष का सत्संग किया था और उनके चरणों में बैठा था, और उनकी छाया में चला था, उसके फल से इसे स्वर्ण जैसा वर्ण मिला है। ऐसे देह तो इसकी स्वर्णमयी हो गयी, क्योंकि बाहर-बाहर से यह उनके साथ था, लेकिन आत्मा से चूक गया। बाहर तो सुंदर हो गया, लेकिन भीतर कुरूप रह गया। बाहर तो बुद्धपुरुष के साथ रहा, भीतर-भीतर विरोध को संजोता रहा। तो बाहर सुंदर हुआ, भीतर कुरूप रह गया। बाहर स्वर्ण हुआ, भीतर सिवाय दुर्गंध के और कुछ नहीं है। बाहर तो बुद्ध की छाया का परिणाम है; भीतर यह जैसा है, वैसा है। उस अंतर-कुरूपता के कारण ही इसके मुख से भयंकर दुर्गंध निकल रही है।
इसी मुख से इसने काश्यप भगवान का विरोध किया था। और भलीभांति जानते हुए कि यह गलत है, फिर भी विरोध किया था। यह दुर्गंध उस दगाबाजी और धूर्तता और अहंकार की ही गवाही दे रही है।
राजा को इस कथा पर भरोसा न हुआ। हो भी तो कैसे हो! यह कथा कल्पित सी मालूम पड़ती है। फिर प्रमाण क्या है? फिर गवाही कहां है? वह बोला: आप इस मछली से कहलवाएं, तो मानूं!
भगवान हंसे और अब करुणा से उन्होंने उस राजा की ओर देखा--वैसे ही, जैसे पहले मछली की ओर देखा था। और वे मछली से बोले: याद कर! भूले को याद कर! तू ही कपिल है? तू ही वह भिक्षु है, जो महाज्ञानी था? जो काश्यप बुद्ध के चरणों में बैठा? जो उनकी छाया में उठा?
मछली बोली: हां, भंते! मैं ही कपिल हूं। और उसकी आंखें आंसुओं से भर गयीं--गहन पश्चात्ताप और गहन विषाद से। और उस क्षण एक अपूर्व घटना घटी। आंसू भरी आंखों के साथ, बुद्ध के समक्ष, वह मछली तत्क्षण मर गयी। उसकी मृत्यु के क्षण में उसका मुंह खुला था, लेकिन दुर्गंध विलीन हो गयी थी।
जीते जी दुर्गंध आ रही थी, मरकर तो और भी आनी थी! मरकर तो उनमें भी दुर्गंध आने लगती है, जिनमें दुर्गंध नहीं होती। लेकिन यह अपूर्व हुआ। मछली मर गयी--मुंह खोले, आंख में आंसुओं से भरे! पश्चात्ताप...! लेकिन पश्चात्ताप ही उसे नहला गया, धो गया, पवित्र कर गया। उस पश्चात्ताप के क्षण में उसका अहंकार गल गया।
किसी और बुद्ध के समक्ष अहंकार लेकर खड़ी थी। आज किसी और बुद्ध के समझ क्षमा मांग ली। वे आंसू पुण्य बन गए। वह मछली मर गयी। इससे सुंदर क्षण मरने के लिए और मिल भी न सकता था!
एक सन्नाटा छा गया। सारे भिक्षु इकट्ठे हो गए थे मछली को देखने। फिर यह भयंकर दुर्गंध! जो दूर-दूर थे, जिन्हें पता भी नहीं था, वे भी भागे आए कि बात क्या है? इतनी भयंकर दुर्गंध कैसे उठी? फिर महाराजा को देखा। फिर बुद्ध के ये अदभुत वचन सुने। और फिर मछली को बोलते देखा! और यही नहीं, फिर मछली को मरते देखा और रूपांतरित होते देखा! मृत्यु जैसे समाधि बन गयी। और यह भी देखा चमत्कार कि जीते-जी दुर्गंध से भरी थी, मरते दुर्गंध विदा हो गयी! इतना ही नहीं; जैसे ही पुरानी दुर्गंध धीरे-धीरे हवा के झोंके ले गए, उस मरी हुई मछली से सुगंध आने लगी। जेतवन, जैसे पहले दुर्गंध से भर गया था, वैसे ही एक अपूर्व सुगंध से भर गया! वे भिक्षु पहचानते थे भलीभांति--वह सुगंध कैसी है। वह बुद्धत्व की सुगंध थी--जैसे बुद्ध से आती है।
मछली उपलब्ध होकर मरी। एक क्षण में क्रांति घटी। क्रांति जब घटती है, तो क्षण में घट जाती है। बोध की बात है।
सन्नाटा छा गया। बड़ी देर तक कोई कुछ नहीं बोला। लोग संविग्न हो गए। उन्हें रोमांच हो आया। तब भगवान ने उस समय उपस्थित लोगों की चित्त-दशा को देखकर यह गाथाएं कहीं।
इसके पहले कि हम गाथाओं में जाएं, इस कथा के एक-एक शब्द को हृदय में उतर जाने दो। समझो।
भगवान गौतम बुद्ध श्रावस्ती के जेतवन में विहरते थे।
गौतम उनका नाम था, उनके माता-पिता ने दिया था। बुद्धत्व उनकी उपलब्धि थी, क्योंकि वे निद्रा से जागे। अंधेरे से प्रकाश बने। मूर्च्छा गयी, होश आया। दीया जला भीतर का। सो बुद्ध उन्हें कहते हैं। और जो भी जाग गया, वह भगवान हो गया।
बुद्ध परंपरा में भगवान का वैसा अर्थ नहीं है, जैसा हिंदू या इस्लाम या ईसाई परंपरा में है। हिंदू, ईसाई, इस्लाम की परंपरा में भगवान का अर्थ होता है: जिसने सृष्टि को बनाया। बुद्ध परंपरा में भगवान का अर्थ होता है: जिसने स्वयं को जाना। क्योंकि बुद्ध परंपरा में इस संसार को बनाने वाला तो कोई है ही नहीं। यह संसार कभी बनाया नहीं गया। यह असृष्ट है। यह सदा से है। और यही बात ज्यादा संगत मालूम पड़ती है।
तुम देखते हो: संसार एक वर्तुल में घूम रहा है। बीज बोते हो, वृक्ष बन जाते हैं। वृक्षों में फिर बीज लग जाते हैं। फिर बीज बो दो, फिर वृक्ष बन जाते हैं। वृक्षों में फिर बीज लग जाते हैं। तुम ऐसी कोई घड़ी सोच नहीं सकते, जब यह वर्तुल न रहा हो। तुम ऐसा नहीं सोच सकते कि बीज हो जाएं। बिना वृक्षों के बीज न हो सकेंगे। और तुम ऐसा भी नहीं सोच सकते कि अचानक वृक्ष हो जाएं!
सृष्टि का तो अर्थ ही यही होगा कि भगवान ने या तो बीज बनाए या वृक्ष बनाए। कहीं से तो शुरू करना होगा! लेकिन वृक्ष बिना बीज के नहीं हो सकते। और बीज बिना वृक्ष के नहीं हो सकते। यह वर्तुल तोड़ा नहीं जा सकता!
बच्चे बिना मां-बाप के नहीं हो सकते। और जो मां-बाप हैं, वे भी किसी के बच्चे हैं। यह वर्तुल तोड़ा नहीं जा सकता। यह परंपरा शाश्वत है, सनातन है। इसको बुद्ध ने संतति कहा है। यह धारा सदा से है; इसको कभी किसी ने बनाया नहीं।
इसलिए स्रष्टा की धारणा बुद्ध के विचार में जरा भी नहीं है। आकाश में बैठे भगवान की धारणा बुद्ध की परंपरा में बड़ी बचकानी है। वह मनुष्य की कल्पना है। कोई आकाश में बैठा हुआ नहीं है। कोई न निर्माता है, न कोई नियंता है।
फिर कैसे यह विराट चल रहा है? प्रश्न उठता है, कैसे यह विराट चल रहा है? जब कोई सम्हालने वाला नहीं, कोई बनाने वाला नहीं, कोई नियंता नहीं! इतनी जटिल प्रक्रियाएं कैसी शांति से चल रही हैं! और कितनी नियमबद्ध!
इस नियमबद्धता को बुद्ध ने धर्म कहा है। इस नियमबद्धता को परम नियम कहा है--एस धम्मो सनंतनो। इसलिए बुद्ध की बात वैज्ञानिकों को रुचती है।
आज पश्चिम में बुद्ध का प्रभाव रोज-रोज बढ़ता जाता है। क्योंकि विज्ञान से बात तालमेल खाती है। विज्ञान भी कहता है: नियम हैं। बस, सब नियम से चल रहा है। जमीन में गुरुत्वाकर्षण है, इसलिए फल नीचे गिर जाते हैं। पानी का नियम है नीचे की तरफ बहना, इसलिए पहाड़ों से उतरकर नदियों में बहता और सागर में पहुंच जाता है। सारी चीजें नियम से चल रही हैं। नियम है, नियंता नहीं है।
नियम का अर्थ हुआ: परमात्मा व्यक्ति की तरह नहीं है, सिद्धांत की तरह है। और जो भी जाग जाता है, वह उस नियम के साथ एक हो जाता है। क्यों? क्योंकि वह उस नियम से विपरीत की आकांक्षा नहीं करता।
सोया हुआ आदमी नियम के विपरीत की आकांक्षा करता है। सोया हुआ आदमी ऐसा है, जैसे रेत से निचोड़े और सोचे कि तेल मिल जाए! जागा हुआ आदमी ऐसा है: तिल को निचोड़ता है, तो तेल पाता है। रेत को नहीं निचोड़ता। जानता है: रेत से तेल नहीं होता। और अगर रेत को निचोड़कर तेल न मिले, तो दुखी नहीं होता। क्योंकि जो नियम के विपरीत है, वह नहीं होगा। फिर लाख प्रार्थनाएं करो, पूजाएं करो, हवन और यज्ञ करो, जो नियम के विपरीत है, नहीं होगा।
बुद्ध-धर्म में चमत्कार के लिए कोई जगह नहीं है। चमत्कार होते ही नहीं। चमत्कार के नाम पर जो होता है सब धोखाधड़ी है। नियम के विपरीत कभी कोई बात नहीं होती। जो होता है, नियम के अनुसार होता है।
तो जो स्थान भगवान का है हिंदू, ईसाई, इस्लाम की परंपरा में, वही स्थान नियम का है--धम्म का, धर्म का--बुद्ध और जैन और लाओत्सू की परंपरा में। जिसको लाओत्सू ने ताओ कहा है, उसी को बुद्ध ने धर्म कहा है।
धर्म शब्द का अर्थ भी होता है, जिसने धारण किया है; जिस पर सब ठहरा है। लेकिन धर्म सिद्धांत, व्यक्ति नहीं। धर्म कोई आदमी की तरह सिंहासन पर नहीं बैठा है। धर्म विस्तीर्ण है प्रकृति के कण-कण में। धर्म छाया है सब जगह।
फिर भगवान का अर्थ अन्यथा हो गया। फिर भगवान का अर्थ बनाने वाला न रहा। बनाने वाला कोई है नहीं। बुद्ध को भगवान कहा है, क्योंकि उन्होंने जाना; जागे; नियम के अनुकूल हो गए।
नियम की प्रतिकूलता में दुख है; नियम की अनुकूलता में सुख है। यह बड़ी वैज्ञानिक बात है। तुम रास्ते पर सम्हलकर चलो, तो पृथ्वी तुम्हें गिराती नहीं और तुम्हारी टांग नहीं तोड़ देती और फ्रेक्चर नहीं हो जाता। तुम सम्हलकर न चलो, शराब पीकर चलो, लड़खड़ाते चलो, आंखें बंद करके चलो, तो गिरोगे। गिरोगे तो हड्डी टूटेगी। तब नाराज मत होना; गुरुत्वाकर्षण को गाली मत देना। गुरुत्वाकर्षण तुम्हारी टांग तोड़ने बैठा नहीं था। तुमने अपनी टांग अपनी ही भूल-चूक से तोड़ ली। तुमने अपनी टांग अपनी ही मूर्च्छा से तोड़ ली।
गुरुत्वाकर्षण तुम्हारा दुश्मन नहीं है। जमीन की कोई आकांक्षा नहीं कि तुम्हारी टांग तोड़े। तुम सम्हलकर चलते, तो जमीन तुम्हारी टांग न तोड़ती।
तुमने देखा: रस्सी पर चलता है नट। रस्सी पर चलता है, तो भी सम्हल लेता है, तो जमीन उसकी टांग नहीं तोड़ती। कई लोग जमीन पर चलते हैं और टांग टूट जाती है! होश से चलने की बात है।
बुद्ध ने कहा है: नियम न तो किसी के पक्ष में है, न किसी के विपक्ष में है। नियम निष्पक्ष है। अब तुम्हारे ऊपर निर्भर है। अगर विपरीत चले, तो कष्ट पाओगे। नियम के विपरीत चलोगे, तो नर्क निर्मित कर लोगे। नियम के अनुकूल चलोगे, तो स्वर्ग निर्मित हो जाएगा। और जिस दिन नियम और तुम्हारे बीच जरा भी फासला न रह जाएगा, तुम नियम के साथ एकरूप हो जाओगे, एकरस हो जाओगे, उस दिन तुम भगवत्ता को उपलब्ध हो गए। उस दिन तुम भगवान हो गए।
प्रत्येक व्यक्ति भगवान हो सकता है। यही बुद्ध-धर्म की गरिमा है कि प्रत्येक व्यक्ति को भगवान होने का अवसर है।
हिंदू-धर्म में राम भगवान हो सकते हैं; कृष्ण भगवान हो सकते हैं; परशुराम भगवान हो सकते हैं। दस अवतार चुक गए, फिर कोई उपाय नहीं। हिंदू-धर्म लोकतांत्रिक नहीं है।
इस्लाम में तो इतनी भी सुविधा नहीं। दस आदमी भी भगवान नहीं हो सकते। मोहम्मद भी भगवान नहीं हैं। मोहम्मद भी केवल संदेश-वाहक, पैगंबर! इस्लाम और भी कम लोकतांत्रिक है। भगवान एक तानाशाह है।
ईसाइयत थोड़ी गुंजाइश रखती है, मगर ज्यादा नहीं। जीसस भगवान हैं। लेकिन वे इकलौते बेटे हैं। दूसरा कोई बेटा भगवान का नहीं! फिर ये सब बेटे किसके हैं? फिर ये सब अनाथ हैं? फिर जीसस ही सनाथ हैं! और बाकी सब अनाथ हैं? यह बात भी बड़ी गैर-लोकतांत्रिक है।
बुद्ध की बात बड़ी लोकतांत्रिक है। बुद्ध कहते हैं: प्रत्येक भगवान हो सकता है। प्रत्येक के भीतर छिपा हुआ है भगवान का बीज। इसलिए भगवान एक है, ऐसा नहीं। जितनी आत्माएं हैं इस जगत में, उतने भगवान हो सकते हैं। भगवान होना तुम्हारा स्वरूपसिद्ध अधिकार है। ठीक-ठीक चलोगे, तो पहुंच जाओगे। ठीक-ठीक नहीं चलोगे, तो चूक जाओगे।
इसलिए गौतम बुद्ध को भगवान कहा है। वे नियम के साथ एकरूप हो गए। वे धर्म के साथ एकरूप हो गए। अब उनकी कोई आकांक्षा नहीं, कोई तृष्णा नहीं। अब वे नदी के साथ बहते हैं। तैरते भी नहीं। कहीं जाना नहीं है। जहां नदी ले जाए वहीं जा रहे हैं। कहीं न ले जाए तो भी ठीक। कहीं ले जाए तो भी ठीक। मझधार में डुबा दे, तो वहीं किनारा। ऐसी परम तथाता की जो अवस्था है, उसको भगवत्ता कहा है।
भगवान गौतम बुद्ध श्रावस्ती के जेतवन में विहरते थे। श्रावस्ती के नगर-द्वार पर बसे हुए केवट्ट गांव के मल्लाहों ने अचिरवती नदी में जाल फेंककर एक स्वर्ण-वर्ण की अदभुत मछली को पकड़ा।
इन सारी छोटी-छोटी कथानक की प्रक्रिया को समझना। इनमें छोटे-छोटे शब्दों का मूल्य है।
अचिरवती नदी में...। चिर नहीं है नदी; अचिर है, क्षणभंगुर है।
अचिरवती नदी में मल्लाहों ने जाल फेंका और एक सोने की मछली को पकड़ा।
ऐसे ही तो हम सब मल्लाह हैं और अचिरवती नदी में, संसार की क्षण-क्षण बदलती हुई धारा में जाल फेंके बैठे हैं, अपनी-अपनी बंसी लटकाए बैठे हैं। सब अपनी-अपनी मछली पकड़ने बैठे हैं! कोई पद की मछली, कोई धन की मछली, कोई प्रतिष्ठा की, कोई यश की, कोई प्रसिद्धि की--अलग-अलग मछलियों के नाम हों, मगर अचिरवती नदी के किनारे सभी मल्लाह हैं। सभी अपनी बंसी लटकाए, जाल फैलाए बैठे हैं! मछली फंसे!
अचिरवती नदी में मल्लाहों ने जाल फेंककर एक स्वर्ण-वर्ण की अदभुत मछली को पकड़ा।
और यहां कभी-कभी जाल में सोने की मछली फंसती भी है। लेकिन हर सोने की मछली के पीछे भयंकर दुर्गंध है। धन मिलता भी है। ऐसा नहीं कि नहीं मिलता। लेकिन धन के पीछे भयंकर दुर्गंध है।
नानक के जीवन में उल्लेख है। एक धनपति ने--दुनीचंद उसका नाम था--नानक को निमंत्रित किया भोजन के लिए। नानक समझाने की कोशिश किए, टालने की कोशिश किए, लेकिन दुनीचंद पीछे पड़ गया। माना नहीं। नगरसेठ था। प्रतिष्ठा का सवाल था। उसका निमंत्रण और कोई न माने!
अनेक लोग मौजूद थे। उनकी मौजूदगी में उसने चरण छूकर प्रार्थना की थी: कल मेरे घर भोजन करें। और नानक मना करें! दुनीचंद को तकलीफ होने लगी। उसने कहा: चलना ही होगा। उसने सारी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी अपनी। उसने कहा: जो भी दान करना है, करूंगा। नानक ने कहा कि दान का सवाल नहीं। तुम ले चलकर मुझे, दुखी होओगे। नहीं मानते, तो ठीक है, चलूंगा। वे गए।
जब दुनीचंद ने उन्हें भोजन परोसा, तो उन्होंने उसकी रोटियां हाथ में उठायीं और जोर से उन रोटियों को मुट्ठी में भींचा। तो खून की बूंद उन रोटियों से टपकी!
सैकड़ों लोग देखने इकट्ठे हो गए थे। एक तो नानक ने इतना इनकार किया। मानते नहीं थे। फिर गए हैं। और यह भी कहा है दुनीचंद को कि मुझे ले जाकर तू पछताएगा। मुझे न ले जा।
सैकड़ों लोगों ने यह देखा कि उन रोटियों से खून की बूंदें टपकीं! लोग पूछने लगे कि यह क्या है? यह कैसे हुआ? तो नानक ने कहा: इसलिए मैं आना नहीं चाहता था। दुनीचंद के धन के पीछे बड़ी दुर्गंध है। यह धन शोषण से मिला है। इसके रुपए-रुपए में आदमियों का खून है। इसलिए मैं आना नहीं चाहता था।
यहां कभी-कभी सोने की मछली फंस भी जाती है, तो तुम सदा पीछे पाओगे उपद्रव। यहां कभी-कभी पद मिल भी जाता है। एक तो जिंदगी गंवाता है आदमी! अचिरवती नदी के किनारे जाल फैलाए बैठे हैं! कभी-कभी फंस जाती है मछली। तब दूसरी बात पता चलती है कि मछली फंस जाती है; देखने में सोने की मालूम पड़ती है--और भीतर? भीतर सब दुर्गंध है और मल-मूत्र है।
बड़े से बड़े पद पर पहुंचकर लोगों को मिला क्या? बहुत से बहुत धन इकट्ठा करके लोगों को मिला क्या? पूछो सिकंदर से। पूछो बड़े धनपतियों से।
जितना धन बढ़ता जाता है, उतनी अपनी दरिद्रता का पता चलता है। और जितना पद पर बैठ जाते हैं, उतनी अपनी दीनता का पता चलता है। ऊपर-ऊपर स्वर्ण, भीतर-भीतर नर्क निर्मित हो जाता है।
अचिरवती नदी में मल्लाहों ने जाल फेंककर
स्वर्ण-वर्ण की अदभुत मछली को पकड़ा। उसके शरीर का रंग स्वर्ण जैसा और उसके मुख से भयंकर दुर्गंध निकलती थी!
शरीर तो स्वर्ण जैसा बहुत बार मिल जाता है। तुम भी जानते हो। तुम किसी सुंदर स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हो। शरीर स्वर्ण जैसा। लेकिन जैसे-जैसे स्त्री को जानना शुरू करते हो, वैसे-वैसे पता चलता है: मुंह से दुर्गंध निकलती है। तुम किसी सुंदर पुरुष के प्रेम में हो। दूर-दूर सब ठीक। दूर के ढोल सुहावने! जैसे-जैसे पास आते हो, वैसे-वैसे जीवन में झंझट बढ़नी शुरू होती है। जैसे-जैसे पास से जानते हो, वैसे-वैसे पता चलता है कि गुलाब तो दूर से दिखते थे, झाड़ी कांटों से भरी है।
यहां सुंदरतम देहें मिल जाती हैं, लेकिन सुंदर आत्माएं कहां? और जब तक सुंदर आत्मा न मिले, तब तक कहां तृप्ति? कैसी तृप्ति?
लेकिन दूसरों के लिए यह मत सोचने लगना कि दूसरों के पास स्वर्ण-देह है और सुंदर आत्मा नहीं। अपनी तरफ भी देखना। वही गति तुम्हारी है। ऊपर-ऊपर अच्छे लगते, ऊपर-ऊपर साज-श्रृंगार है, ऊपर-ऊपर शिष्टाचार है, लीपा-पोती है। भीतर? सब रोग खड़े हैं। ऊपर मुस्कुराहटें हैं, भीतर घाव है। ऊपर बड़े सज्जन मालूम पड़ते, भीतर जंगली जानवर छिपा है। मुख में राम, बगल में छुरी!
अपने ही जीवन-अनुभव से देखोगे तो पा लोगे--यह बात सच है। भीतर का भोलापन कहां मिलता? भीतर का स्वर्ण कहां मिलता? भीतर और बाहर एक हो--ऐसा आदमी कहां मिलता? भीतर और बाहर एक ही धुन बजती हो; भीतर और बाहर एक ही संगीत हो; भीतर और बाहर एक ही सुगंध हो--ऐसा आदमी कहां मिलता?
ऐसा आदमी मिल जाए, तो उसका संग-साथ मत छोड़ना। ऐसा आदमी पारस जैसा है। उसके साथ लोहा भी सोना हो सकता है। लेकिन उसके पास शरीर को ही मत रखना, नहीं तो ऊपर-ऊपर सोना हो जाओगे। उसके पास आत्मा को भी रखना। उसके चरणों में सिर ही मत झुकाना, आत्मा को भी झुका देना।
जब कभी कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए, जिसके बाहर-भीतर सब एक हो; जिसके बाहर-भीतर नाद बज रहा हो; जिसके बाहर-भीतर ओंकार की गूंज उठ रही हो; जिसके बाहर-भीतर आनंद ही आनंद हो, समाधि-समाधि के फूल खिल रहे हों, फिर वहां शरीर को ही मत झुकाना। शरीर से ही उसके पास मत जाना। फिर आत्मा से सत्संग करना। नहीं तो जो गति मछली की हुई, वही गति तुम्हारी हो जाएगी।
यही तो हो रहा है। सत्संगों में भी जाते हो तुम, ऐसा नहीं कि नहीं जाते। कभी-कभी मंदिर भी जाते हो, मस्जिद भी जाते हो, गुरुद्वारे भी जाते हो। कभी-कभी साधु-संग भी करते हो। मगर ऊपर-ऊपर से। भीतर-भीतर से अपने को बचाए रखते हो। पछताओगे कभी। बुरी तरह पछताओगे। क्योंकि सत्संग तो भीतर से होना चाहिए। देह पास हो या न हो, चलेगा। आत्मा पास होनी चाहिए। आत्मा से किसी के पास बैठ जाने का नाम ही शिष्यत्व है।
उस मछली का रंग तो स्वर्ण जैसा, किंतु उसके मुख से भयंकर दुर्गंध निकलती थी।
यह कहानी तुम्हारी है। यह कहानी सबकी है। इन कहानियों को कभी भूलकर ऐसा मत सोचना कि ठीक है, कथाएं हैं; पुराणों की हैं। ये कथाएं तुम्हारी हैं। ये मनोवैज्ञानिक हैं। ये मनुष्य के मन की कथाएं हैं।
मल्लाहों ने उसे राजा को दिखाया। राजा उसे एक द्रोणी में रखवाकर भगवान के पास ले गया। उस समय मछली ने मुख खोला।
अब तुम थोड़ा सोचना: मल्लाह नहीं समझे, समझ में आती है बात। मल्लाहों ने न कभी सोना देखा, कैसे समझें? लेकिन राजा तो सोने में जीता था। राजा को भी दिखायी न पड़ा यह कि यह उसकी ही कथा है! ऊपर-ऊपर सोना था राजा के भी, भीतर-भीतर उसके भी तो दुर्गंध थी! उसको भी चमत्कार मालूम हुआ।
मल्लाहों को क्षमा कर दो। क्षमा किए जा सकते हैं। कभी सोना देखा नहीं, सोने की मछली सपने में नहीं देखी। राजा तो सोने की ही दुनिया में रहता था। इसे तो अकल होती! मगर कौन अपने को देखता है? अपने पर आंख ही नहीं जाती। अपने को आदमी देखता ही नहीं।
चीन में एक पुराना रिवाज था कि जब किसी कैदी को फांसी देते, तो फांसी देने के पहले उसके हाथ में आईना देते कि वह अपनी शकल देख ले।
बड़ी अजीब परंपरा! काहे के लिए--कोई आदमी मर रहा है, उसे तुम दर्पण दे रहे हो! यह एक बहुत प्राचीन परंपरा का हिस्सा था। वह परंपरा यह कहती है कि इस आदमी ने जिंदगी भर तो अपना चेहरा नहीं देखा, अब मरने के वक्त तो देख ले।
कोई अपना चेहरा देखता ही नहीं। हम दूसरों में ही उलझे रहते हैं! दूसरों की निंदा में; दूसरों की आलोचना में। कौन गंदा, कौन बुरा, कौन पापी, कौन अनाचारी, इसी में बीत जाता है समय। फुरसत कहां कि अपना चेहरा आईने में देख लें!
यह राजा को भी समझ में न आया! यह बात इतनी सीधी-साफ थी; इसमें उलझन कहां है? इसमें रहस्य कहां है? राजा को तो समझ में आना चाहिए था कि बाहर मैं सोने का हूं, जैसे यह मछली सोने की है। और भीतर मेरे दुर्गंध है, जैसे इसके भीतर दुर्गंध है। बात उसे तो खुल जानी चाहिए थी! उसे भी न खुली!
इस दुनिया में लोग अंधे की तरह जी रहे हैं। अपना पता ही नहीं है। दूसरों के साथ उलझे-उलझे आंखें जड़ हो गयी हैं। दूसरों को देखने में ही समर्थ हो गयी हैं। भीतर मुड़ने की कला खो गयी है। लकवा लग गया है तुम्हारी आंखों को। बस, एक ही तरफ देख पाती हैं। अब उनमें गतिमयता नहीं है, लोच नहीं है--कि कभी-कभी मुड़कर अपनी तरफ भी देख लें।
राजा को भी समझ में न आया। तो बुद्ध के पास ले गया।
मल्लाह हों कि सम्राट, गरीब हों कि अमीर, हारे हुए लोग हों कि जीते हुए लोग, सभी को बुद्ध के पास जाना ही होगा; वहीं रहस्य के पर्दे उठ सकते हैं।
यहां गरीब भी सोए हैं, अमीर भी सोए हैं। प्रजा भी सोयी है, राजा भी सोए हैं। यहां सब अंधे और अंधे हैं। यहां अंधे अंधों का नेतृत्व कर रहे हैं!
कबीर ने कहा है: अंधा अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत। यहां अंधे नेता हैं, अंधे अनुयायी हैं। अंधे अंधों का मार्ग-दर्शन कर रहे हैं! फिर अगर सभी कुएं में गिर गए हैं, तो कुछ आश्चर्य नहीं है।
इस राजा को क्षमा नहीं किया जा सकता। लेकिन उसके बुद्ध के पास जाने में यह सूत्र है कि अंततः सभी को बुद्ध के पास जाना होगा, तो ही जीवन का राज खुलेगा। किसी बुद्धपुरुष के चरण गहने होंगे। किसी बुद्धपुरुष की छाया पकड़नी होगी। किसी बुद्धपुरुष के हाथ पकड़कर चलोगे, तो ही जीवन के उलझाव सुलझेंगे; समस्याएं समाधान में रूपांतरित होंगी। तो ही राह मिलेगी।
जैसे ही मछली को बुद्ध के सामने रखा गया, मछली ने मुख खोला।
क्यों मछली ने बुद्ध को देखकर मुख खोला? याद आ गयी होगी। अवाक हो गयी होगी। मुंह खुला रह गया होगा। अरे! फिर?
ऐसे ही एक बुद्धपुरुष को कभी उसने जाना था। जाना भी था और चूक भी गयी। जाना भी था और जान भी न पायी। वही दुख तो साल रहा है। बाहर सोने की हो गयी जिसकी कृपा से, उसकी कृपा से भीतर भी सोने की हो सकती थी।
पर लोग अक्सर पछताते हैं तब, जब पछताने में कुछ सार नहीं रह जाता। अब पछताए होत का, जब चिड़िया चुग गयी खेत।
रोती होगी, जार-जार रोती होगी। अचानक फिर देखकर...।
और ध्यान रखना: बुद्धपुरुषों के रूप कितने ही भिन्न हों, उनकी देहें कितनी ही भिन्न हों, उनके चेहरे कितने ही भिन्न हों--उनका भाव एक, उनके भीतर की ज्योति एक। दीए में भेद हो सकता है। मिट्टी के दीए कई तरह के बन सकते हैं। लेकिन दीए में जो ज्योति जलती है, उसका स्वाद एक, उसका गुण एक, उसका धर्म एक।
यह मछली कभी किसी एक बुद्ध के पास रही थी। अनंत बुद्ध हुए हैं। ध्यान रखना: गौतम बुद्ध ने बहुत बार अपने से पहले हुए बुद्धों की कथाएं कही हैं। अनंत बुद्ध हुए हैं। काश्यप बुद्ध हजारों साल पहले बुद्ध से हुए। उन्हीं काश्यप बुद्ध की याद आ गयी होगी--फिर दीए को जला देखकर। फिर वही सुगंध! फिर वही रूप! फिर वही सौंदर्य! फिर वही प्रसाद! फिर वही आनंद की वर्षा! मछली का मुख खुला रह गया होगा।
अवाक जब कोई हो जाता है, तो मुंह खुला रह जाता है। ठिठक गयी होगी मछली। सोचा नहीं था सपने में कि फिर ऐसे व्यक्ति के दर्शन होंगे।
एक बार बुद्धपुरुष खो जाए, तो जन्म-जन्म लग जाते हैं। क्योंकि बुद्धपुरुष विरले हैं। हों भी, तो भी तुम उसके पास पहुंच पाओ, इसकी बहुत कम संभावना है। क्योंकि तुम वहां जाते हो, जो तुम्हारी तलाश है।
तुम राजनेता के पास जाते हो, क्योंकि पद की तुम्हें तलाश है। राजनेता तुम्हारे गांव में आए, तो तुम सब इकट्ठे हो जाते हो। कभी स्वागत करने, कभी जूते फेंकने। मगर इकट्ठे हमेशा हो जाते हो। तुम से रुका नहीं जाता। वहां तुम्हारे प्राण अटके हैं!
बुद्धपुरुष गांव में आएं भी, तो भी तुम शायद ही जाओ, क्योंकि बुद्धों से तुम्हारा क्या लेना-देना! वह तुम्हारी आकांक्षा नहीं है। तुम वासना छोड़ना थोड़े ही चाहते हो; तुम वासना को पूरा करना चाहते हो। तुम बुद्धों से बचोगे। अगर बुद्ध रास्ते पर मिल जाएं, तो तुम बगल की गली से भाग खड़े होओगे। तुम बचोगे।
ऐसे लोग बचते हैं। बचने के लिए हजार बहाने खोजते हैं। तर्क-जाल बना लेते हैं। क्यों? क्योंकि उन्हें डर लगता है कि बुद्धपुरुष के पास गए और अगर कोई बात सुनायी पड़ गयी और कहीं समझ में आ गयी, तो अब तक जो-जो उन्होंने न्यस्त स्वार्थों का जाल फेंका है, अचिरवती नदी के किनारे जो वे मछली पकड़ने बैठे हैं, उसका क्या होगा! और वर्षों से मछली पकड़ने बैठे हैं। अभी तक पकड़ी है नहीं मछली। अब बुद्धपुरुषों के वचन सुन लें। ये कहते हैं: छोड़ो-छाड़ो जाल; यह नदी अचिर है। यह रहने वाली नहीं। इसमें पकड़ा तो भी न पकड़ने के बराबर है। ये सब पानी के बबूले हैं। यह सब माया है।
ऐसी बात अभी मत कहो। ऐसी बात कहो ही मत। ऐसी बात सुनो ही मत। अभी तो मछली तो पकड़ो पहले, फिर देखेंगे। मछली पकड़कर सुनना होगा, सुन लेंगे। लेकिन पहले मछली पकड़ में आ जाए!
तो एक तो बुद्धपुरुषों के पास कोई जाता नहीं। क्योंकि लोग वहीं जाते हैं, जहां उनकी आकांक्षाएं तृप्त होने की संभावनाएं हैं। बुद्धपुरुषों के पास आकांक्षाओं से मुक्त होना पड़ता है। और मजा और विरोधाभास कि जो आकांक्षाओं से मुक्त हो जाता है, वही तृप्त होता है। और जो आकांक्षाओं से भरा है, वह अतृप्ति और अतृप्ति में जलता है।
तुमने नर्क में लपटों में जलने की बात सुनी है, वह नर्क कहीं और नहीं है। वह तुम्हारी आकांक्षाओं का नर्क है, जिसमें तुम अभी जल रहे हो। इस भूल में मत पड़ना कि मरकर तुम नर्क में जाओगे। तुम नर्क में हो। नर्क में होने का अर्थ इतना ही होता है: तुम्हारा मन वासना की लपटों से भरा है।
न मालूम कितने जन्म बीत गए, न मालूम कितने चक्कर इस आत्मा ने खाए होंगे! न मालूम कितनी दुर्गतियां भोगी होंगी! न मालूम कितनी पीड़ाएं झेली होंगी! न मालूम कितने उपद्रवों के बाद यह इस अचिरवती नदी में सोने की मछली हुई है। इसने सोचा भी नहीं होगा। आदमी रहकर बुद्ध नहीं मिलते, तो मछली होकर बुद्ध कैसे मिल जाएंगे!
लेकिन वह जो एक बुद्ध के पास होना हुआ था, वह जो बुद्ध के पास सांस लेना हुआ था, वह जो महापुण्य हुआ था, उसके कारण फिर-फिर आकस्मिक रूप से भी बुद्ध का मिलना हो सकता है।
अब यह बिलकुल आकस्मिक है: मछुओं ने पकड़ा मछली को; ले गए राजा के पास। राजा को समझ में न आया; ले आए बुद्ध के पास।
अब मछली का और बुद्ध से मिलना करीब-करीब असंभव है। कैसे होगा? बुद्ध मछली नहीं पकड़ते। मछलियां बुद्ध नहीं खोजतीं। यह मिलना होता कहां? मगर यह मिलना हुआ है।
वह जो बीजारोपण हुआ था, अधूरा-अधूरा हुआ था यद्यपि, वह आज भी फल ला रहा है! किसी बुद्धपुरुष के पास बैठने से जो थोड़ी सी भी श्वास तुमने ली हैं उसकी हवा की, वह जन्मों-जन्मों तक तुम्हें साथ देंगी। अपूर्व, अनजाने, आकस्मिक रूप से साथ देंगी। तुम्हारे जाने-अनजाने साथ देंगी।
उस मछली ने बुद्ध को देखते
ही मुंह खोला, जिससे सारा जेतवन दुर्गंध से भर गया। राजा ने भगवान के चरणों में तीन बार प्रणाम कर पूछा: भंते, क्यों इसका शरीर स्वर्ण जैसा और मुख से दुर्गंध क्यों निकलती है?
बुद्ध के पास जाने और बुद्ध के पास कुछ पूछने की प्रक्रिया है। बुद्ध से तुम ज्ञानी की तरह कुछ नहीं पूछ सकते हो। ज्ञानी की तरह पूछा, तो बुद्ध उत्तर भी नहीं देंगे। बुद्ध से तो झुककर पूछो, तो ही उत्तर मिल सकता है। झोली फैलाओ, तो ही उत्तर मिल सकता है। इसलिए तीन बार प्रणाम करके, तीन बार झुककर। क्यों तीन बार? एक बार झुकने से न चलेगा?
तुम्हारा भरोसा नहीं। एक बार झुको--और बिलकुल न झुको; अकड़े ही खड़े रहो। शायद दूसरी बार थोड़े और। शायद तीसरी बार झुक पाओ। भूल-चूक न हो जाए, इसलिए तीन बार। क्योंकि तुम झुको, तो ही बुद्ध उत्तर देते हैं। तुम्हारा झुकना जब दिखायी पड़ जाए, प्रत्यक्ष हो जाए, तो ही उत्तर देते हैं। क्योंकि जो जानकार है, उसको बुद्ध उत्तर नहीं देते।
जानकार को क्या उत्तर देना? जो निर्दोष भाव से पूछता है, जो इस बात को स्वीकार करके पूछता है कि मैं अज्ञानी हूं, आप ज्ञान बरसाएं; मैं अंधेरे में हूं, आपकी रोशनी लाएं।...
लेकिन जो इस अकड़ से पूछता है कि रोशनी तो मेरे पास ही है। ठीक है, चलो, तुमसे भी मेल-ताल कर लें। देखें, तुम्हारे पास भी रोशनी है या नहीं? उत्तर तो मुझे मालूम ही है। तुमसे भी पूछे लेते हैं कि शायद मेल खा जाए, शायद तुम्हें भी ठीक उत्तर पता हो। अगर मुझ से मेल खा जाए, तो तुम्हारा उत्तर ठीक। अगर मेल न खाए, तो तुम्हारा उत्तर गलत। ऐसे लोगों को बुद्धपुरुष उत्तर नहीं देते। क्योंकि क्यों व्यर्थ बात करनी!
इस देश में यह बड़ी प्राचीन परंपरा है कि गुरु के पास कोई जाए, तो झुका हुआ, तो ही कुछ पाएगा। झुको। झुकोगे, तो भरे हुए लौटोगे। अकड़े रहोगे, खाली के खाली लौट आओगे।
पूछा: भंते! भगवान! क्यों इसका शरीर स्वर्ण जैसा, किंतु मुख से दुर्गंध निकलती है?
भंते भगवान का ही संक्षिप्त रूपांतरण है। अति प्रेम में भंते कहा जाता है। भगवान बड़ा शब्द है। जैसे आप अति प्रेम में तुम हो जाता है। और अति प्रेम में तू हो जाता है। ऐसे ही भगवान भंते हो जाता है।
अपूर्व प्रेम से भरकर उस राजा ने, अत्यंत विनय से भरकर, बुद्ध से प्रश्न पूछा।
भगवान ने अत्यंत करुणा से उस मछली की ओर देखा, और बड़ी देर तक देखते रहे। उतरने लगे उस मछली के अतीत में। पर्त-पर्त खोलने लगे होंगे उसकी अतीत स्मृतियों का जाल।
कुछ खोता नहीं; तुम अपने सारे अतीत को लिए बैठे हो। तुम्हें पता न हो, लेकिन जिसके हाथ में रोशनी है, वह तुम्हारे भीतर देख सकता है। तुम्हारी अचेतन पर्तों में जा सकता है। वह देख सकता है: पहले तुम कहां थे, क्या थे, कैसे थे? क्या किया, कैसे यहां आए? कौन तुम्हें यहां ले आया? कैसे बीज तुमने बोए थे? कैसे कर्म तुमने किए थे? क्या है तुम्हारी अतीत स्थिति? क्योंकि तुम तुम्हारा अतीत हो। तुम हो वही, जो तुमने किया, और जो तुम अतीत में रहे।
इसलिए बुद्ध बड़ी देर तक चुप और बड़ी करुणा से उस मछली को देखते रहे। करुणा से इसलिए कि काश्यप बुद्ध जैसे महापुरुष का साथ मिला और यह गरीब मछली, यह गरीब प्राण, यह गरीब आत्मा चूक गयी! ऐसा अपूर्व साथ कैसे चूक गया? तो महाकरुणा है उनके हृदय में।
बड़ी देर तक चुप रहने के बाद वे बोले: महाराज! यह मछली कोई सामान्य मछली नहीं; इसके पीछे छिपा लंबा इतिहास है।
हर एक के पीछे छिपा लंबा इतिहास है। कोई भी यहां नया नहीं है। तुम सब बड़े प्राचीन यात्री हो। इस रास्ते पर सदियों-सदियों चले हो। तुम कुछ नए आज चलने लगे हो संसार में, ऐसा नहीं है। अति पुरातन हो। उतने ही पुरातन हो, जितना पुरातन यह संसार है। तुम प्रथम से चल रहे हो। तुम इस संसार के साथ ही हो। अनेक-अनेक रूपों में, अनेक-अनेक ढंगों में; कभी वृक्ष, कभी पशु, कभी पक्षी, कभी मनुष्य। और घूमते रहे हो--मूर्च्छित। तुम्हें पक्का पता नहीं है। तुम्हें कुछ भी पता नहीं है कि तुम कहां से आए? कैसे आए? कौन हो? लेकिन बुद्धपुरुष की रोशनी में सारी पर्तें अपना राज खोल देती हैं।
बुद्ध का ध्यान तुम्हारे भीतर ऐसे जाता है, जैसे एक्स-रे की किरण जाए। जो नहीं दिखायी पड़ता, वह दिखायी पड़ जाए।
बुद्ध ने कहा: यह काश्यप बुद्ध के शासन में कपिल नामक एक महापंडित भिक्षु था।
शासन शब्द को भी समझ लेना। बौद्ध और जैन परंपरा में राजाओं के शासन को शासन नहीं कहा जाता। उनका भी कोई शासन है? टुटपुंजिए हैं तुम्हारे राजा, तुम्हारे महाराजा, तुम्हारे राष्ट्रपति, तुम्हारे प्रधानमंत्री। बुद्ध और जैन परंपरा में शासन कहा जाता है बुद्धों का। वे ही शास्ता हैं। क्योंकि उनसे ही शासन का जन्म होता है। और अपूर्व शासन का जन्म होता है। ऊपर से कोई थोपी नहीं जाती बात, लेकिन तुम्हारे भीतर से उपजती है। एक अनुशासन पैदा होता है, जो तुम्हारी अंतरात्मा से आता है। कोई तुम्हें जबर्दस्ती नहीं करता कि तुम ऐसे हो जाओ। कोई तुम्हें मारता-पीटता नहीं, न कोई दंड देता, न कोई पुरस्कार देता। न अदालतें हैं, न सिपाही हैं। बुद्धों का शासन तुम्हारे भीतर पैदा होता है।
बुद्धों के पास तुम बैठ भर जाओ कि धीरे-धीरे तुम उनके रंग में रंगने लगते। और धीरे-धीरे तुम पाते हो कि तुम्हारा आचरण बदला। और तुम्हारे बिना बदले बदला। चुपचाप बदला। जैसे सुबह हो जाती है, और पक्षी सोए थे, जाग जाते हैं। और वृक्ष जाग जाते हैं। ऐसे ही बुद्धों के पास बैठकर सोयी आत्माएं जागने लगती हैं। वही असली शासन है।
इसलिए बुद्धों का नाम है शास्ता; जिनके पास बैठकर शासन पैदा हो जाए। जो कहें भी न तुम से; इतना भी न कहें कि ऐसा करो, कि शराब छोड़ दो, कि जुआ मत खेलो। जिनके पास बैठकर जुआ छूट जाए, शराब छूट जाए। बैठकर ही छूटे, तो कुछ अर्थ की। कहने से छूटे, तो बात व्यर्थ हो गयी। बुद्ध शासन देते नहीं, उनके पास शासन का जन्म होता है। सहज स्फुरणा होती है।
तो बुद्ध ने कहा: यह काश्यप बुद्ध के शासन में कपिल नामक एक महापंडित भिक्षु था।
महापंडित था। भिक्षु था। संन्यास धारण किया था। यह त्रिपिटकधर था। यह शास्त्रों का परमज्ञाता था। इसे तीनों पिटक याद थे; ज्ञानी था।
जैसे हिंदुओं के चार वेद, ऐसे बौद्धों के तीन पिटक। ज्ञानी था; महाज्ञानी था। तर्कनिष्ठ था। बड़ा बुद्धिमान था। बड़ा बौद्धिक था। लेकिन उतना ही अभिमानी था।
अक्सर ऐसा हो जाता है: ज्ञान से अहंकार कटता नहीं, भर जाता है। ज्ञान से अहंकार और मजबूत होकर छाती पर बैठ जाता है। तो चूक हो गयी। दवा जहर हो गयी। औषधि शत्रु हो गयी। औषधि बीमारी बन गयी।
ज्ञान का तो अर्थ ही यही है कि काट दे अहंकार को। अगर ज्ञान से तुम्हारे भीतर मैं की अकड़ बढ़ने लगे और ऐसा लगने लगे: मैं जानता; कौन मेरे जैसा जानता? कौन है जो मेरे मुकाबले है? मैं अद्वितीय, मैं बेजोड़! ऐसे भाव उठने लगें ज्ञान से, तो समझना: चूक हो गयी। जल्दी सम्हल जाना। नहीं तो किसी दिन अचिरवती नदी में सोने की देह होगी और मल-मूत्र से भरी आत्मा होगी। बड़ी दुर्गंध उठेगी।
इसने अपने अभिमान में भगवान काश्यप के साथ धोखा किया।
अक्सर ऐसा हो जाता है। महावीर के साथ गोशालक ने धोखा किया। गोशालक महावीर का शिष्य था, लेकिन महापंडित, बड़ा ज्ञानी! स्वभावतः, धीरे-धीरे उसे ऐसा लगने लगा कि महावीर क्या जानते हैं! मैं भी जानता हूं सब। जो ये जानते हैं, वह मैं जानता हूं। तो फिर मुझ में कमी क्या है? फिर मैं तीर्थंकर क्यों नहीं? तो फिर मैं अपना अलग ही पंथ निर्मित करूंगा। उसने अपना अलग पंथ निर्मित किया। खुद तो भटका और अनेकों को भटकाया।
ऐसा बुद्ध का शिष्य था और उनका चचेरा भाई देवदत्त। राजघर से था। बुद्ध का चचेरा भाई था। उतने ही कुलीन घर से था। बचपन से दोनों साथ खेले थे। सुशिक्षित था, सुसंस्कृत था। आखिर यह अकड़ आनी शुरू हुई उसे कि फिर मैं बुद्ध क्यों न हो जाऊं? बुद्ध को छोड़कर अलग हो गया। बुद्ध को मार डालने की चेष्टाएं कीं--कि बुद्ध मिट जाएं तो मैं अकेला बुद्ध। फिर मेरी कोई भी प्रतिस्पर्धा न कर सकेगा।
ऐसा जीसस के साथ हुआ। जुदास जीसस का सबसे ज्ञानी शिष्य था, जिसने उनको तीस रुपए में बिकवाकर फांसी लगवा दी। वही एकमात्र सुशिक्षित था, बाकी सब अशिक्षित थे। कोई मछुआ था; कोई किसान था; कोई बागवान था; कोई लकड़हारा था। बाकी तो सब अशिक्षित थे। बारह शिष्यों में ग्यारह अशिक्षित, सामान्य, सीधे-सादे लोग थे। एक ही था पढ़ा-लिखा। एक ही था पंडित। वही धोखा दे गया!
पंडित सदा धोखा दे जाता है। क्योंकि पंडित को जल्दी ही, देर-अबेर यह अकड़ आनी शुरू होती है कि मैं भी तो जानता हूं। हालांकि पंडित जानता कुछ भी नहीं। उधार शब्द हैं उसके पास। अपना कोई अनुभव नहीं है। बुद्ध जो कहते हैं, पंडित भी वही कहेगा। दोनों एक ही शब्दों का उपयोग करते हैं। और यह भी हो सकता है कि पंडित बुद्ध से भी अच्छी तरह शब्द का उपयोग करे, और भी परिमार्जित शब्द का उपयोग करे, और भी तर्कनिष्ठ दर्शन का निर्माण करे।
लेकिन बुद्ध के पास अपना अनुभव है। वे जो कहते हैं, वह उनके अनुभव से उपजता है। और पंडित के पास अपना कोई अनुभव नहीं। शास्त्रों के अध्ययन, मनन से उपजता है। पंडित के पास जो है, उधार है। इस उधार से अकड़ पैदा होती है। जिसके भीतर अपना स्व-ज्ञान पैदा होता है, उसकी तो सब अकड़ खो जाती है। उस स्व-ज्ञान की अग्नि में सब अहंकार भस्मीभूत हो जाता है।
यह महापंडित था। बड़ा अभिमानी था। इसने अपने अभिमान में, ज्ञान की अकड़ में अपने गुरु काश्यप के साथ धोखा किया। उन्हें छोड़ा ही नहीं, वरन उनके विरोध में संलग्न हो गया। जो इसने बहुत दिनों तक एक बुद्धपुरुष का सत्संग किया और उनके चरणों में बैठा और उनकी छाया में चला, उसके फल से इसे स्वर्ण-वर्ण मिला है।
इसके अनजाने भी, इसके न चाहते हुए भी, कम से कम इसकी देह स्वर्ण की हो गयी। बुद्धों के पास कभी-कभी अनजाने भी...! तुम शायद इसलिए गए भी न थे। तुम किसी और कारण गए थे। लेकिन अगर पारस के पास संयोगवशात भी लोहा पहुंच जाए, तो सोना हो जाता है।
ऐसे इसकी देह तो स्वर्णमयी हो गयी। काश! इसके भीतर अहंकार न होता, तो इसकी आत्मा भी स्वर्णमयी हो गयी होती। अहंकार ने एक सख्त दीवाल खड़ी कर दी इसकी आत्मा के चारों तरफ। वह जो बुद्ध का प्रभाव था, काश्यप का जो प्रसाद था, वह भीतर तक प्रवेश न हो सका। अहंकार की दीवाल ने उसे बाहर-बाहर रखा। यह भीतर-भीतर अकड़ा रहा। यह भीतर-भीतर सोचता रहा: यह सब तो मैं भी जानता हूं। इसमें क्या नया है? यह सब तो मुझे पता है। इसमें कुछ ऐसी खास बात नहीं है। खैर, सुने लेता हूं। लेकिन इसमें मुझसे ज्यादा कुछ भी नहीं है। ऐसी अकड़--वंचित रह गया। ऐसी अकड़ में चूक गया।
तो बाहर तो सुंदर हो गया, भीतर कुरूप रह गया। उस अंतर-कुरूपता के कारण ही इसके मुख से दुर्गंध निकल रही है। और इसलिए भी कि इसी मुख से इसने उसे धोखा दिया, जिसने सिवाय अनुकंपा के, इस पर और कुछ भी न किया था। यही मुख काश्यप के विपरीत और विरोध में बोलता फिरा। यही मुख जो उनकी प्रशंसा के गीत गाता, उनकी निंदा के गीत गाया। इसलिए भी।
और यह जानता था कि जो मैं कह रहा हूं, जो मैं कर रहा हूं, वह गलत है। लेकिन अहंकार कहां सुनने देता अंतरात्मा की आवाज!
तुम भी बहुत बार जानते हो कि यह गलत है, फिर भी करते हो।
संत अगस्तीन का बड़ा प्रसिद्ध वचन है कि हे प्रभु! दुश्मनों से तो मैं निपट लूंगा; लेकिन तू ही बचाए, तो मैं अपने से बच सकता हूं। दुश्मनों से तो मैं बच लूंगा। लेकिन मुझे मुझ से कौन बचाएगा? तू बचा। यही मेरी प्रार्थना है। क्योंकि मैं वह करता हूं, जो नहीं करना चाहिए। और वह कभी नहीं करता, जो करना चाहिए। और सब मैं जानता हूं कि क्या गलत है और क्या ठीक है।
इसे पता था; स
ब जानते हुए, भलीभांति जानते हुए, इसने धूर्तता की, दगाबाजी की। अहंकार में चूक गया। करीब आते-आते दीए के और भटक गया अंधकार में। इसलिए भीतर से दुर्गंध उठती है।
राजा को इस कथा पर भरोसा न हुआ। तुमको भी नहीं होगा। अगर तुम मेरे पास आओ और मैं कहूं कि पिछले जन्म में तुम यह थे। मछली की तो छोड़ो, तुम्हारी कहूं, तो भी भरोसा नहीं होगा। मछली की कहूं, तब तो तुम मानोगे ही नहीं--कि यह भी...इसका क्या प्रमाण? समझना इस बात को।
बुद्ध कह रहे हैं, तो भी राजा को भरोसा नहीं। शायद तीन बार झुका, तब शायद थोड़ा झुकना आ गया होगा। बुद्ध ने इतने वचन कहे, इस बीच अकड़ फिर लौट आयी है। अहंकार फिर मजबूत हो गया। तीन बार झुककर भी फिर वापस आ गया!
अहंकार लौट-लौट आता है। तर्क लौट-लौट आता है। संदेह फिर-फिर पकड़ लेता है।
राजा को भरोसा न हुआ। वह बोला: आप इस मछली से कहलवाएं, तो मानूं।
अब तुम थोड़ा सोचना: बुद्ध के वचन पर भरोसा नहीं; मछली के वचन पर भरोसा आ जाएगा! आदमी की मूढ़ता ऐसी है। बुद्ध कहते हैं, इस पर भरोसा नहीं; मछली कह दे तो भरोसा आ जाए! हम क्षुद्र पर भरोसा करते हैं। हम व्यर्थ पर भरोसा करते हैं।
भगवान हंसे। हंसे इसलिए कि यह भी कैसी मूढ़ता। मैं कह रहा हूं, उस पर भरोसा नहीं। मछली कह देगी, उस पर भरोसा आ जाएगा!
हंसे और करुणा से उन्होंने इस राजा को देखा; वैसी ही करुणा से, जैसे पहले मछली को देखा था। क्यों? क्योंकि उनको लगा होगा: यह भी पास तो आकर बैठ गया, किसी दिन अचिरवती नदी में गिरेगा। सोने की देह होगी, मुंह से दुर्गंध निकलेगी। इसलिए करुणा से, दया से, गीली आंखों से इस राजा की तरफ देखा। इतनी बात सुनकर भी यह नहीं समझ पा रहा है! यह अभी भी उसी में उलझा है कि यह बात सच है कि झूठ है। इसका कोई मूल्य नहीं है। राज की बात साफ हो गयी कि बुद्धों के पास आओ, तो पूरे-पूरे आना, समग्र मन से आना। इतना ही राज है। यह भी समग्र मन से यहां नहीं है। यह कहता है: आपकी बात पर मुझे भरोसा नहीं आता। मछली से कहलवाएं, तो मान लूंगा!
बुद्ध को दया आ रही है कि यह भी मछली के रास्ते पर चला; यह भी गिरेगा। यह भी स्वर्ण की देह पा लेगा और दुर्गंध से भरी आत्मा होगी। फिर कहानी दोहरेगी।
ऐसा ही आदमी मूढ़ है। फिर-फिर वही दोहरता। फिर-फिर वही चूक। फिर-फिर उसी गड्ढे में हम गिर जाते हैं।
और फिर भगवान मछली से बोले: याद कर! भूले को याद कर! तू ही कपिल है? मछली बोली: हां भंते! मैं ही कपिल हूं।
अब तुम इस झंझट में मत पड़ना कि मछलियां कहीं बोलती हैं! अब तुम इस विचार में मत पड़ जाना कि यह बात कपोल-कल्पित है। अभी तक कहानी ठीक चल रही थी। मगर अब सब खराब हुआ। अब भरोसा नहीं आता।
ये कथाएं मनोवैज्ञानिक संकेत हैं। ये बोध-कथाएं हैं। ऐसा कभी हुआ, इस चिंता में पड़ने का कोई भी सार नहीं है। ये तो प्रतीक हैं। इनके पीछे सार है। उसे पकड़ लेना। जैसे छोटे बच्चों के लिए कहानियां कहनी होती हैं।
ईसप की कहानियां पढ़ीं तुमने? या पंचतंत्र की कहानियां पढ़ीं? जानवर बोलते हैं। खूब बोलते हैं। ईसप में जानवर बोलते हैं। पंचतंत्र में जानवर बोलते हैं। छोटे बच्चों की कहानियां हैं। छोटे बच्चों के लिए लिखी गयी हैं। लेकिन कहानी का मुद्दा कुछ और है। कहानी का मुद्दा नीचे जाकर प्रगट होता है। वह मुद्दा समझ में आ जाए, तो कहानी समझ में आ गयी।
तुम भी बुद्धों के लिए छोटे बच्चों से ज्यादा नहीं हो। ये सारी कथाएं तुम्हारे लिए गढ़ी गयी हैं, ताकि तुम समझ लो। ये कहने के ढंग हैं, ये किसी सत्य को प्रतिपादित करने के उपाय हैं। ये बोध-प्रसंग हैं। ये इतिहास नहीं हैं। ध्यान रखना। इनको इतिहास समझा, तो भूल हो जाएगी। तुम इनके मूल तत्व से वंचित रह जाओगे। ये संकेत हैं--कथा के रूप में, कहानी के रूप में, एक घटना के रूप में। बुद्ध ने जो कहना था, वह कह दिया। अगर बिना कथा के कहते, तो शायद तुम्हें समझ में भी न आता। इस तरह बात जल्दी से समझ में आ जाती है।
हां, भंते! मछली ने कहा, मैं ही कपिल हूं। और उसकी आंखें आंसुओं से भर गयीं। गहन पश्चात्ताप; आंसू टपके होंगे उसकी आंखों से। और उस अपूर्व क्षण में, इतना बोलकर, वह मर गयी।
उसका मुंह खुला था। लेकिन दुर्गंध नहीं उठ रही थी। और जैसे ही पुरानी दुर्गंध धीरे-धीरे हवा उड़ाकर ले गयी, एक अपूर्व सुगंध वहां छा गयी।
वह मछली बुद्ध के सामने पश्चात्ताप करके मरी। किसी और बुद्ध के साथ धोखा किया था। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। किसी और बुद्ध से क्षमा मांग ली। क्षमा का शब्द भी नहीं बोली, लेकिन भाव से मांग ली।
राजा चूक गया; मछली पा गयी। ऐसी उलटी दुनिया है! राजा अभी भी बैठा देख रहा है। राजा के संबंध में कथा कुछ नहीं कहती। शायद सोच में पड़ा हो कि यह मछली से कैसे कहलवाया? कोई धोखा-धड़ी तो नहीं है? कोई बुद्ध वेन्ट्रीलोकिस्ट तो नहीं हैं।
तुमने वेन्ट्रीलोकिस्ट देखे न? मेरे एक संन्यासी हैं--सर्वेश। वे मूर्ति को बुलवा दें। गुड्डे को बुलवा दें। बोलते खुद ही हैं। उनका ओंठ भी नहीं हिलता। ओंठ बंद, और गुड्डे को बुलवा दें।
सोचा होगा राजा ने: ये कोई वेन्ट्रीलोकिस्ट तो नहीं हैं यह गौतम बुद्ध? मछली को बुलवा दिया! कहीं धोखा-धड़ी तो नहीं है? कोई और जालसाजी तो नहीं है! कहीं कोई टेपरेकार्ड इत्यादि तो नहीं छिपा रखा है? कि कहीं कोई ग्रामोफोन तो नहीं लगा रखा है? कि ऐसा लगे कि मछली बोल रही है और मछली सिर्फ मुंह हिला रही हो!
राजा तो चूक ही गया; मछली नहीं चूकी। अहंकारी चूक जाते हैं। मछली ने काफी भोग लिया दुख। पहली दफा चूक गयी थी बुद्ध को, इस बार नहीं चूकेगी। और एक क्षण में क्रांति घट गयी। सुवास फैल गयी। जैसे फूल खिला हो, ऐसे उसकी आत्मा खिल गयी और उड़ गयी। छोड़ गयी देह को। पहुंच गयी परम में।
एक सन्नाटा छा गया। बड़ी देर तक कोई कुछ नहीं बोला। ऐसे क्षणों में कोई बोले, तो क्या बोले! ठगे रह गए लोग। अवाक रह गए। लोग संविग्न हो गए।
संविग्न महत्वपूर्ण शब्द है। संविग्न का अर्थ होता है, लोग भावाविभूत हो गए। लोगों को अपनी कथा दिखायी पड़ने लगी। जो समझदार थे, जो वहां भिक्षु सच में ही बोध रखते थे, वे संविग्न हो गए। उन्हें अपनी कथा दिखायी पड़ गयी। उन्हें अपने जीवन का धोखा, अपने जीवन की बेईमानी दिखायी पड़ गयी। उनमें बहुत होंगे, जिनमें पांडित्य की अकड़ थी। शायद उनकी पांडित्य की अकड़ गिर गयी।
उस क्षण अचिरवती नदी में गिरने से बहुत लोग बच गए होंगे। उस क्षण बाहर-बाहर सोना और भीतर-भीतर दुर्गंध हो जाने की दुर्घटना से बहुत लोग बच गए होंगे।
कुछ उसमें ऐसे भी होंगे, जिन्होंने कहा होगा कि नहीं, ये सब कहानियां हैं। मैं कोई अकड़ा हुआ अहंकारी नहीं हूं। मेरा ज्ञान सच्चा है। यह रहा होगा पंडित, यह कपिल चूका। लेकिन मेरा ज्ञान सच्चा है। मैंने कोई किताबों से नहीं लिया है। यह मेरा है। शायद ऐसे लोग चूक भी गए होंगे।
लेकिन सकते में तो सभी आ गए। संविग्न तो सभी हो गए। उन्हें रोमांच हो आया। लोगों के रोएं खड़े हो गए। ऐसी अपूर्व घटना घटी। तब भगवान ने उस समय उपस्थित लोगों की चित्त-दशा को देखकर ये गाथाएं कहीं:
मनुजस्स पमत्तचारिनो तण्हा बड्ढति मालुवा विय।
सो पलवती हुराहुरं फलमिच्छं’व वनस्मिं वानरो।।
‘प्रमत्त होकर--अहंकार में मूर्च्छित होकर--आचरण करने वाले मनुष्य की तृष्णा मालवा लता की भांति बढ़ती है।’
मालवा लता देखी! वह जो बिना जड़ के फैल जाती है वृक्षों पर; जिसकी जड़ नहीं होती। ऐसी तृष्णा है। इसकी कोई जड़ नहीं है, फिर भी फैलती चली जाती है। एक जीवन से दूसरे जीवन में; दूसरे से तीसरे जीवन में। एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर, दूसरे से तीसरे पर। वृक्षों का शोषण करती है और फैलती चली जाती है। अपनी कोई जड़ें नहीं होतीं।
ऐसे ही तृष्णा की लता है। तुम्हारा शोषण करती है। तुम अपशोषित होते हो। तुम्हारा एक जीवन चूस लेती है, फिर दूसरा जीवन चूसती है। ऐसे तुम्हारे अनंत जीवन चूसती है और फैलती चली जाती है। और इसकी कोई जड़ें नहीं हैं।
तृष्णा शोषक है। इसी ने तुम्हें दीन किया; इसी ने तुम्हें दरिद्र किया; इसी ने तुम्हें दुख से भरा; इसी ने तुम्हारे नर्क निर्मित किए।
‘प्रमत्त होकर--अहंकार में मूर्च्छित होकर--आचरण करने वाले मनुष्य की तृष्णा मालवा लता की भांति बढ़ती है। वह वन में फल की इच्छा से कूद-फांद करते बंदर की तरह जन्म-जन्मांतर में भटकता रहता है।’
और तुम्हारा भटकाव ऐसा है, जैसे बंदर कूदता है इस वृक्ष से उस वृक्ष पर; इस वृक्ष से उस पर उछल-कूद करता रहता है। ऐसे ही तुम एक योनि से दूसरी योनि में उछल-कूद कर रहे हो। तुम्हारे जीवन में कोई गंतव्य नहीं, कोई दिशा नहीं, कोई योजना नहीं, कोई अनुशासन नहीं। बंदर की भांति हो तुम।
वासना से भरा हुआ आदमी बंदर की भांति है। और तृष्णा मालवा लता है। सावधान होना इससे। तृष्णा की लता को उखाड़ फेंकना। और यह बंदरपन--एक इच्छा से दूसरी इच्छा--आज मकान बड़ा चाहिए, कल धन और चाहिए, परसों नयी पत्नी चाहिए, फिर यह चाहिए, फिर वह चाहिए। कूदते फिरते हो। सारा जीवन ऐसे ही व्यर्थ हो जाता है।
यं एसा सहती जम्मी तण्हा लोके विसत्तिका।
सोका तस्स पबड्ढन्ति अभिवट्ठं’व वीरणं।।
‘यह विषरूपी नीच तृष्णा जिसे अभिभूत कर लेती है, उसके शोक वर्षाकाल में वीरण--खस के तृण--की भांति वृद्धि को प्राप्त होते हैं।’
जैसे वर्षा में घास ऊग आता है, सब तरफ घास-पात फैल जाता है; ऐसे ही जिस व्यक्ति को यह तृष्णा पकड़ लेती है, जकड़ लेती है, उसके जीवन में घास-पात फैल जाता है। उसके जीवन में व्यर्थ का विस्तार हो जाता है। क्षुद्र ही क्षुद्र हो जाता है। उसके जीवन में गुलाब के फूल नहीं खिलते। बस, घास-पात होता है।
यो चेतं सहती जम्मिं तण्हं लोके दुरच्चयं।
सोका तम्हा पपतन्ति उदविन्दू’व पोक्खरा।।
‘जो संसार में इस दुस्त्याज्य नीच तृष्णा को जीत लेता है, उसके शोक उस तरह गिर जाते हैं, जैसे कमल के ऊपर से जल के बिंदु गिर जाते हैं।’
कुछ करना नहीं पड़ता। जो ठीक से देख लेता है तृष्णा को, इसके जाल को, इसकी मूर्च्छा को, इसके अहंकार को--जो जाग जाता है इसके प्रति--उसके जीवन से तृष्णा ऐसे ही विलीन हो जाती है, और ऐसे ही उसके जीवन से सारे शोक विलीन हो जाते हैं, जैसे कमल के ऊपर से जल के बिंदु अपने आप सरकते और गिर जाते हैं; बिना किसी प्रयास के गिर जाते हैं।
फर्क समझ लेना। लोग सोचते हैं: तृष्णा मिटाने को कुछ और करना पड़ेगा। कुछ और करोगे, तो नयी तृष्णा पैदा होगी। तृष्णा मिटाने को लोग कहते हैं: कुछ करना पड़ेगा, तब तृष्णा मिटेगी! तो फिर क्या करोगे?
पहले तो एक नयी तृष्णा बनानी पड़ेगी कि मोक्ष पाना है। मुक्ति पानी है। आवागमन से छुटकारा पाना है। यह नयी तृष्णा बनाओ कि मोक्ष पाना है। अब मोक्ष पाकर रहूंगा। और मोक्ष पाने में तृष्णा काटनी पड़ती है, इसलिए तृष्णा काटूंगा।
लेकिन तृष्णा तो कट जाए, यह नयी तृष्णा खड़ी हो गयी; इससे कुछ फर्क न पड़ा। फिर नया घास-पात ऊगेगा। पहले धन के नाम पर ऊगता था, अब धर्म के नाम पर ऊगेगा। पहले शरीर के नाम पर ऊगता था, अब आत्मा के नाम पर ऊगेगा। मगर ऊगेगा, फिर भी तुम घास-पात के ही रहोगे। तुम्हारे भीतर भूसा ही भरा रहेगा। तुम्हारे भीतर ज्योति प्रगट न होगी।
तो बुद्ध क्या कहते हैं? बुद्ध कहते हैं: मोक्ष की तृष्णा न करो; वह भी तृष्णा है। मुक्ति की आकांक्षा न करो, वह भी आकांक्षा है। फिर करो क्या? संसार की जो तृष्णा है, इसे समझो; जागो, होश से भरो। देखो, तृष्णा कैसे तुम्हें चलाती है! कैसा बंदर जैसा उछलवाती है! कैसा मूढ़ बनाती है! गौर से देखो। इसे देखो, इसको पहचानो। इसकी सारी प्रक्रिया को समझ लो। उस समझने में ही तृष्णा ऐसे विलीन होने लगती है, जैसे कमल के ऊपर से जल के बिंदु गिर जाते हैं।
सोका तम्हा पपतन्ति उदविन्दू’व पोक्खरा।।
तं वो वदामि भद्दं वो यावन्तेत्थ समागता।
तण्हाय मूलं खणथ उसीरत्थो’व वीरणं।
मा वो नलं व सोतो व मारो भञ्जि पुनप्पुनं।।
‘इसलिए मैं तुम्हें जितने तुम यहां आए हो, तुम्हारे कल्याण के लिए कहता हूं, जैसे खस के लिए लोग उषीर को खोदते हैं, वैसे ही तुम तृष्णा की जड़ खोदो।’
तृष्णा की जड़ है मूर्च्छा। तृष्णा की जड़ है बेहोशी, आंख बंद किए जीए जाना। तृष्णा की जड़ है, अचेतना। तुम इस जड़ को खोदो। अचेतना को मिटा दो। ध्यान में जगो। होश से उठो, होश से बैठो। होश से करो, जो भी करना है।
क्रोध आए, तो बुद्ध यह नहीं कहते कि क्रोध को दबाओ। बुद्ध कहते हैं: होश से क्रोध को करो। और तुम चकित हो जाओगे। होश से कभी कोई क्रोध कर पाया?
तुम जागकर क्रोध को करो। जब क्रोध पकड़े, तब झकझोरकर अपने को जगा लो। होशपूर्वक क्रोध को करो और तुम पाओगे: इधर होश उठा, उधर क्रोध गिरा। दोनों साथ नहीं होते। दोनों का कोई संग-साथ संभव नहीं है।
वासना उठे, कामवासना उठे, तो बुद्ध नहीं कहते कि दबाओ। कोई ज्ञानी नहीं कहता कि दबाओ। जो कहता है दबाओ, उसे कुछ भी पता नहीं है। वह महाअज्ञानी है। वह अंधा है और दूसरों को अंधा बनाएगा।
बुद्ध कहते हैं: जब कामवासना उठे, तब ध्यान करो। तब देखो: क्या उठ रहा है? क्यों उठ रहा है? पहले इससे क्या मिला? बहुत बार इसमें गिरे थे, क्या पाया? विश्लेषण करो। समझो। सिर्फ समझो। और जैसे-जैसे तुम्हारी समझ गहन होगी, वैसे-वैसे तुम पाओगे: वासना का धुआं गया।
‘तृष्णा की जड़ खोदो। तुम्हें जल-प्रवाह में उत्पन्न सरकंडे की भांति बार-बार मार न तोड़े।’
बुद्ध कहते हैं: यह तृष्णा का शैतान नहीं तो तुम्हें बार-बार तोड़ेगा। बार-बार गिराएगा। बार-बार सताएगा।
दूसरा दृश्य:
भगवान वेणुवन में विहार करते थे। एक दिन भिक्षाटन को जाते हुए राह में एक सुअरी को देखकर ठिठक गए और फिर कुछ सोचकर मुस्कुराए और आगे बढ़े।
एक सुअरी को देखकर...। आनंद स्थविर ने--जो उनके साथ सदा छाया की तरह लगा रहता था, उनका सेवक था--यह देखा कि बुद्ध ठिठके एक सुअरी को देखकर! कुछ सोचा। फिर मुस्कुराए और आगे बढ़े। आनंद अपनी जिज्ञासा को न रोक सका। और उसने भगवान से ठिठकने, फिर कुछ सोचने और फिर मुस्कुराने का कारण पूछा।
शास्ता ने कहा: आनंद! यह सुअरी ककुसंध बुद्ध के शासन में एक मुर्गी थी।
और प्राचीन बुद्ध ककुसंध, उनके शासन में एक मुर्गी थी। भगवान ककुसंध के वचनों को सुनकर और भगवान के विहार-स्थल के पास ही रहने के कारण उनके प्रति प्रीति को उत्पन्न हो गयी थी। जब वे बोलते, तो यह सदा पास आ जाती। समझ न भी सकती, तो भी सुनती। समझ कौन सकता है? तो भी सुनती। भावविभोर हो जाती, तन्मय हो जाती।
मुर्गी ही थी। कुछ ज्यादा सोच-विचार की संभावना भी न थी। आदमियों तक की नहीं है! लेकिन सरल थी, निर्दोष थी। उनकी सुवास इस अज्ञानी मुर्गी को भी छू गयी थी।
भगवान जब भी बोलते, यह आसपास ही बनी रहती। इसे सत्संग का चाव लग गया था।
ऐसा हो जाता है। महर्षि रमण के पास एक गाय बनी रहती थी। यह तो अभी की बात है। वे जब बोलते, तो गाय निश्चित आ जाती। खिड़की में से सिर अंदर कर लेती। सुनती रहती! जब तक वे बोलते, बराबर सुनती रहती। जैसे ही बोलना बंद करते--जाती। रोज आती। इतना नियमित भक्त कोई भी नहीं था, जितनी गाय थी! जब गाय मरी, तो रमण महर्षि ने उसे वैसे ही सम्मान से विदा दी, जैसे कोई मनुष्य को देता है। उसकी समाधि बनवायी।
ऐसी ही यह मुर्गी रही होगी। जब भगवान ध्यान करते, तो यह अत्यंत निकट आकर खड़ी रहती थी। कभी-कभी आंखें बंद कर लेती थी। ज्यादा तो नहीं समझ सकती थी, लेकिन जैसा भगवान शांत बैठे, ऐसे ही यह भी शांति खड़ी हो जाती। देखती: भगवान हिलते-डुलते नहीं; यह भी अडोल हो जाती। देखती: उन्होंने आंखें बंद कीं, तो यह भी आंखें बंद कर लेती। ऐसे धीरे-धीरे इसको रस लगा; रस पगी। धीरे-धीरे सुवास पकड़ी। सत्संग जमा।
ऐसे उसने बहुत पुण्य अर्जन किया था। और उस पुण्य के कारण दूसरे जन्म में उवरी नाम की राजकन्या होकर उत्पन्न हुई थी। उस दूसरे जन्म में एक पाखानाघर में कीड़ों को देखकर पुलवक संज्ञा की भावना कर प्रथम ध्यान को प्राप्त हुई।
मुर्गी थी। ककुसंध के सान्निध्य का परिणाम: राजकुमारी होकर पैदा हुई। जब राजकुमारी होकर पैदा हुई, तो एक दिन पाखाने में कीड़े दिखायी पड़े, उन कीड़ों को देखकर उसे अपूर्व बोध हुआ--कि ऐसी ही तो हमारी दशा है। जैसे कीड़े बिलबिला रहे हैं, ऐसे ही आदमी बिलबिला रहा है! और कीड़े भी सोचते पाखाने के कि बड़े मस्ती में हैं। संसार बसा रहे हैं। वे भी प्रेम में पड़ते। विवाह इत्यादि करते। बच्चे पैदा करते। सारा संसार जमाते। ऐसे ही तो हम भी हैं। हम में और इनमें भेद क्या है?
ऐसा उसे बोध हुआ। तो पहले ध्यान का फूल उसके जीवन में खिला था। उस पुण्य के कारण, उस ध्यान के कारण, उस ध्यान-धन के कारण, फिर ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुई। एक देवी की तरह उत्पन्न हुई। देवतालोक में उत्पन्न हुई। लेकिन देवलोक के सुख में मूर्च्छित हो गयी।
अक्सर ऐसा होता है: दुख जगा देता है, सुख सुला देता है। इसलिए सुख से सावधान रहना। दुख इतना बड़ा अभिशाप नहीं जितना सुख है। क्योंकि दुख में तो कोई सो नहीं सकता। दुख की पीड़ा जगाए रखती है। सुख में आदमी सो जाता है।
मुर्गी थी, तब ककुसंध बुद्ध का सत्संग करने का रस लिया। उसके परिणाम में राजकुमारी हुई। राजकुमारी थी, तो पाखाने में कीड़ों को देखकर इस बोध को उत्पन्न हो गयी कि सब असार है। और योनियों में भटकना बहुत हो चुका। कंप गयी होगी--कि कभी शायद मैं भी पाखाने का कीड़ा रही होऊं। या कभी हो जाऊं। उस अवस्था में मोह-तृष्णा क्षीण हो गयी, भवतृष्णा क्षीण हो गयी। जीवन को पकड़ने का जो भाव था, वह एकदम शिथिल हो गया। उस ध्यान के कारण देवलोक में उत्पन्न हुई।
लेकिन बुद्ध ने कहा, आनंद, समझना। देवलोक के सुख में मूर्च्छित हो गयी। और अब ध्यान-धन के चुक जाने के कारण इस पृथ्वी पर पुनः सुअर की बेटी होकर पैदा हुई है। आवागमन के इस चक्कर को देखकर मैं ठिठका, बुद्ध ने कहा। सोच में पड़ा। और फिर इसलिए मुस्कुराया कि कैसी मूढ़ता है! जागते-जागते फिर सो गए! उठते-उठते फिर गिर गए!
देवलोक से भी आदमी गिर जाता है, क्योंकि पुण्य एक दिन चुक जाते हैं। समाधि से नहीं कोई गिरता है; ध्यान से गिर जाता है। ध्यान और समाधि में यही फर्क है। ध्यान यात्रा है; तुम चाहो तो बीच से लौट सकते हो। समाधि मंजिल है; एक बार पहुंच गए, फिर लौटना नहीं है। क्योंकि समाधि में तुम खो जाओगे। बचता ही नहीं कोई लौटने वाला। जब तक निर्वाण न घट जाए, तब तक गिरने का डर है, संभावना है।
तो बुद्ध कहते हैं: मैं ठिठका। यह कैसा हुआ! मुर्गी थी, तब इतना पुण्य अर्जन किया और देवी होकर गिरी और सुअर की बेटी होकर पैदा हुई! तो चौंका; सोच-विचार में पड़ा। फिर हंसी भी आयी कि कैसा आदमी है! कैसी मूढ़ता है!
यह कथा सुनकर आनंद तथा अन्य भिक्षु जो बुद्ध के साथ भिक्षाटन को गए थे, महान संवेग को प्राप्त हुए। शास्ता ने उनमें पैदा हुए संवेग को देखकर नगर की वीथी में खड़े हुए ही इन गाथाओं को कहा।
बोलने के क्षण होते हैं, तभी कुछ बातें कही जाती हैं। जैसे लोहा गरम हो, तभी पीटा जाता है; तभी कुछ बन सकता है। तो सड़क पर खड़े हुए बुद्ध ने ये वचन कहे। क्योंकि लौटते-लौटते विहार तक संवेग खो जाए। आदमी का भरोसा क्या!
ये जो भिक्षु साथ गए थे, इस घटना के आघात में एकदम चौकन्ने हो गए थे; इस घटना के आघात में बड़े जागरूक हो गए थे। उस जागरूकता के क्षण को चूका नहीं जा सकता है। इसलिए बुद्ध ने बीच सड़क में खड़े होकर ये वचन कहे:
यथापि मूले अनुपद्दवे दल्हे छिन्नोपि रुक्खो पुनरेव रूहति।
एवम्पि तण्हानुसये अनूहते निब्बत्तति दुक्खमिदं पुनप्पुनं।।
‘जैसे दृढ़ मूल के बिलकुल नष्ट न हो जाने से कटा हुआ वृक्ष फिर भी वृद्धि को प्राप्त होता है, वैसे ही तृष्णा और अनुशय के समूल नष्ट न होने से यह दुख-चक्र बार-बार प्रवर्तित होता है।’
तो बुद्ध ने कहा कि भिक्षुओ, पत्ते और शाखाएं मत काटते रहना; जड़-मूल से तृष्णा को काटना है। अगर जड़ बच गयी--मूल जड़ बच गयी--तो तुम पूरे वृक्ष को भी काट दो, फिर नए अंकुर निकल आते हैं।
ऐसा ही इस बेचारी सुअरी को हुआ। मुर्गी थी। अनजाने कुछ शाखाएं गिर गयीं। फिर राजकुमारी थी, तो संवेग की एक दशा में, भाव के एक प्रवाह में ध्यान फला। लेकिन तृष्णा जड़-मूल से नहीं गयी, तो स्वर्ग तक पहुंचकर वापस लौट आयी। फिर अंकुर आ गए। फिर तृष्णा ने पकड़ लिया!
सात अनुशय कहे हैं बुद्ध ने: काम; भवराग...। भवराग का अर्थ होता है: मैं जीऊं; मैं सदा जीऊं; मैं बना रहूं, मैं कभी मिटूं नहीं। प्रतिहिंसा; मान; मिथ्यादृष्टि--जैसा है, उसको वैसा न देखना; जैसा है, उसको कुछ और करके, कुछ और बनाकर देखना; अपने मन के अनुकूल बनाकर देखना। संदेह और अविद्या--ये सात अनुशय हैं। ये सातों जड़ें हैं, जिन पर तृष्णा खड़ी है, जिन पर तृष्णा का वृक्ष बड़ा होता है। ये सातों अनुशय कट जाएं, तो तृष्णा कटती है! फिर उसमें कभी अंकुर नहीं आते।
यस्स छत्तिंसति सोता मनापस्सवना भुसा।
वाहा वहन्ति दुद्दिट्ठिं संकप्पा रागनिस्सिता।।
‘जिसके छत्तीसों स्रोत संसार में प्रिय पदार्थों की तरफ बने रहते हैं, उसके रागपूर्ण संकल्प उसे दुर्दृष्टि की ओर बहा ले जाते हैं।’
और तुम अनंत रूपों में संसार की वस्तुओं की तरफ बह रहे हो। तुम्हारे सब द्वार संसार की तरफ खुले हैं, जो तुम्हें दुर्दृष्टि में बहा ले जाते हैं।
इधर एक सुंदर स्त्री दिखायी पड़ गयी--और तुम बहे। यहां किसी की सुंदर कार दिखायी पड़ गयी--और तुम बहे। यहां किसी का बड़ा मकान दिखायी पड़ गया--और तुम बहे। यहां कोई सुंदर कपड़े पहनकर निकला है--और तुम बहे। जागकर चलना होगा।
इस तरह बुद्ध ने कहा: ये छत्तीस द्वार हैं, जो बहाते हैं। जो तुम्हें प्रतिपल पुकार रहे हैं: आ जाओ, बाहर आ जाओ। और यह जो लता है बिना जड़ की, यह बढ़ती चली जाती है, फैलती चली जाती है।
सवन्ति सब्बधि सोता लता उब्भिज्ज तिट्ठति।
तञ्च दिस्वा लतं जातं मूलं पञ्ञाय छिन्दथ।।
‘ये स्रोत सभी तरफ बहते हैं। लता फूटकर निकलती है। उसी फूटी हुई लता को देखकर उसके मूल को प्रज्ञा से काट डालो।’
तो बुद्ध कहते हैं: ये सात मूल, सात अनुशय हैं, इन्हें काटोगे कैसे? किस कुल्हाड़ी से काटोगे? प्रज्ञा की कुल्हाड़ी से।
प्रज्ञा का अर्थ होता है: जागरूकता, अवेयरनेस। प्रज्ञा का अर्थ होता है: प्रतिपल होशपूर्वक जीना; एक क्षण को भी बेहोशी में न करना कुछ। राह चलो, तो ऐसे चलना, जागे हुए। भोजन करो, तो जागे हुए। बोलो, तो जागे हुए। क्रोध, लोभ, मोह--कुछ भी आए, तुम जागे हुए रहना।
और एक अपूर्व घटना घट जाती है। जागरण के साथ ही जो तुम्हारे शत्रु हैं, तुम्हारे पास आने बंद हो जाते हैं। और जो तुम्हारे मित्र हैं, वही आते हैं। जागरण के साथ घृणा खो जाती है, प्रेम बचता है। मूर्च्छा में प्रेम खो जाता है, घृणा बचती है। जागरण में क्रोध खो जाता, करुणा बचती है। मूर्च्छा में करुणा खो जाती, क्रोध बचता है।
बुद्ध ने कहा है: जैसे किसी घर में दीया जला हो और घर का मालिक जगा हो, तो चोर उस घर की तरफ नहीं आते। पहरेदार सजग हों; घर में दीया जला हो; खिड़कियों से रोशनी बाहर आती हो और मालिक चलता-फिरता हो, तो चोर उस तरफ नहीं आते। दूर-दूर रहते हैं।
मालिक सोया हो; घर का दीया बुझा पड़ा हो; घर में गहन अंधकार हो; पहरेदार शराब पीकर पड़ा हो; फिर चोरों के लिए निमंत्रण है। तुमने खुद ही निमंत्रण भेज दिया! फिर चोर न आएं, तो क्या करें! चोरों को कसूर मत देना। चोरों को दोषी मत ठहराना। तुम ही दोषी हो।
ऐसी ही मन की दशा है। जब मन में होश का दीया जगा होता है, जब तुम्हारा ध्यान पहरे पर बैठा होता है, जब तुम्हारा मालिक शराब पीकर खोया नहीं रहता, मूर्च्छा में डूबा नहीं रहता...।
और शराबें बहुत तरह की हैं। अहंकार की शराब है; उसको पीकर कपिल नाम का भिक्षु महापंडित था, लेकिन गिरा--गर्त में गिरा। भयंकर दुर्गंध वाली मछली हुआ। सुख भी शराब है; उसको पीकर राजकुमारी, जो देवलोक पहुंच गयी थी, वहां से गिरी। और कैसी गिरी कि सुअर की बेटी हुई! किस बुरी तरह खोया!
मूर्च्छा गिराती है, क्योंकि मूर्च्छा शत्रुओं को निमंत्रण है। और होश पहुंचाता है, क्योंकि होश के साथ वही बचता है, जो शुभ है।
होश में जो हो, वही पुण्य; बेहोशी में जो हो, वही पाप। इसे तुम कसौटी मानना।
आज इतना ही।