BUDDHA
Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) 101
One Hundred And First Discourse from the series of 122 discourses - Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) by Osho. These discourses were given during NOV 21, 1975 to DEC 10, 1977.
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पहला प्रश्न:
भगवान, मैं विगत दो-तीन वर्ष से संन्यास लेना चाहता हूं, अब तक नहीं ले पाया। अब जैसी आपकी आज्ञा।
आप तो ऐसे पूछ रहे हैं जैसे मेरी आज्ञा से रुके हों! और जब तीन-चार वर्ष तक झंझट टाल दी है, तो अब झंझट क्यों लेते हैं! जब इतने दिन निकल गए, लेना चाहा और नहीं लिया, थोड़े दिन और हैं, निकल जाएंगे! हिम्मत रखो! हारिए न हिम्मत बिसारिए न राम।
एक आदमी मुल्ला नसरुद्दीन के कंधे पर हाथ रखा और पूछा, अरे मुल्ला, आप तो गर्मियों में कश्मीर जाने वाले थे, नहीं गए? मुल्ला ने कहा कि कश्मीर! कश्मीर तो हम पिछले साल जाने वाले थे; और उसके भी पहले मनाली जाने वाले थे; इस साल तो हम नैनीताल नहीं गए।
घर बैठे-बैठे मजा लो, जाना-आना कहां है! तीन-चार साल से जा रहे हो, संन्यास ले रहे हो, अब आज ऐसी कौन सी अड़चन आ गयी कि लो ही। ऐसे ही मन को समझाए रखो, भुलाए रखो, इतनी बीती थोड़ी रही, वह भी बीत जाएगी।
फिर मुझ से आज्ञा मांगते हो! जैसे मैं संन्यास का विरोधी हूं। सुबह-शाम यही कहता हूं--संन्यास, संन्यास, संन्यास; तुम मुझे सुनते हो कि सोते हो?
मैंने सुना है, एक देश में संत-विरोधी हवा चल रही थी। हवा तो हवा है। कभी इंदिरा के पक्ष में चलती है, कभी जनता के पक्ष में चलती है। हवा का कोई भरोसा तो है नहीं। किसके पक्ष में चलने लगे, किसके विपक्ष में। उस देश में संतों के खिलाफ चल रही थी। एक पहुंचा हुआ सूफी फकीर पकड़ लिया गया। सरकार उसकी सब तरफ से जांच-पड़ताल कर रही थी। वह पहुंचा हुआ आदमी था, उसकी बातें भी सरकारी अफसरों की समझ में नहीं आती थीं। वैसे ही अफसरों के पास दिमाग ही अगर हो तो अफसर ही क्यों होते! लाख दुनिया में और काम थे, फाइलों से सिर मारते! उनकी कुछ समझ में नहीं आता था तो उन्होंने एक बड़े मनोवैज्ञानिक को बुलाया कि शायद यह समझ ले।
मनोवैज्ञानिक ने कुछ प्रश्न पूछे। पहला ही प्रश्न उसने पूछा कि महाशय, क्या आप अपनी नींद में बात करते हैं? उस फकीर ने कहा कि अपनी नींद में नहीं, दूसरों की नींद में जरूर।
आपके संबंध में ऐसा लगता है कि यही हालत मेरी है। तुम्हारी नींद में मैं बात करता हूं, ऐसा लगता है। तुम रोज सुनते हो; सुबह सुनते, सांझ सुनते, अहर्निश एक ही रटन है कि अब जागो, अब तुम पूछ रहे हो कि अब जैसी आपकी आज्ञा! यह तो ऐसे ही हुआ, पुरानी कहावत है कि रातभर राम की कथा सुनी और सुबह पूछा कि सीता राम की कौन थी? यहां तो सारा स्वाद ही संन्यास का है। ऐसे ही बहुत देर हो गयी, अब और देर न करो।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, संत सदा से परिग्रह के विरोध में रहे हैं। लेकिन परिग्रह के बिना तो चलता नहीं। फिर सत्य का खोजी कितना परिग्रह रखे?
संत परिग्रह के विरोध में रहे हैं, ऐसी बात सच नहीं है। परिग्रह भाव के विरोध में जरूर रहे हैं। कुछ न कुछ तो संत को भी रखना पड़ता है--भिक्षापात्र ही सही, लंगोटी ही सही।
कुछ न कुछ जीवन में जरूरी है। फिर कितना, यह बात महत्वपूर्ण नहीं है। क्योंकि आदमी का मन ऐसा है कि चाहे तो लंगोटी से इतना राग बना ले सकता है कि वही नर्क ले जाने के लिए पर्याप्त हो जाए। एक कौड़ी से भी तुम अपना राग ऐसा लगा सकते हो कि दूसरे को कोहिनूर से भी न हो। दूसरा आदमी कोहिनूर को ऐसे छोड़ दे जैसे मिट्टी था और तुम कौड़ी को ऐसे पकड़े रखो जैसे कि तुम्हारा प्राण था। इसलिए वस्तु का सवाल नहीं है, कितनी वस्तु का भी सवाल नहीं है, भाव का सवाल है।
किसी गुरु ने अपने एक युवा संन्यासी को जनक के पास भेजा था। बहुत वर्ष गुरु के पास रहा, कुछ सीखा नहीं। फिर गुरु ने कहा, अब ऐसा कर, तू जनक के पास जा, शायद वे तुझे कुछ सिखा सकें। तो वह बड़ी आशा से गया। वर्षों तक संन्यासियों के बीच रहा था, समझा भला न हो, लेकिन शब्द तो खूब सीख ही गया था। बुद्धि चाहे न जगी हो, स्मृति तो खूब भर ही गयी थी--पंडित हो गया था, प्रज्ञावान न हुआ हो।
जब पहुंचा जनक के दरबार में तो उसने देखा कि सांझ हो गयी है और जनक अपने दरबार में बैठा है, वेश्याएं नाच रही हैं अर्धनग्न, शराब के प्याले ढाले जा रहे हैं; सम्राट बीच में बैठा है, दरबारी आसपास बैठे हैं, बड़े गुलछर्रे चल रहे हैं। वह संन्यासी तो बड़ा हैरान हुआ। उससे तो रहा नहीं गया। उसने कहा, महाराज! हम तो ज्ञान की तलाश में आए थे, यहां तो अज्ञान का नंगा नृत्य हो रहा है। और आप मुझे क्या सिखाएंगे! हद्द हो गयी यह मेरे गुरु की! मालूम होता है मुझे कोई सजा दी। मुझे यहां किसलिए भेजा, यह किन कर्मों का फल कि आपके दर्शन करने भेज दिया? और गुरु के पास नहीं सीख सका, जो कि अपरिग्रही हैं, जिन्होंने सब छोड़ा, तो आप से क्या सीखूंगा, जो कि यहां महल में बैठे राग-रंग के बीच?
जनक ने कहा, महाराज, आ गए हैं तो रात तो आतिथ्य ग्रहण करें। सुबह बात होगी। सुबह जनक ने उठाया, पीछे ही बहती नदी में स्नान करने ले गया कि स्नान कर लें, पूजा कर लें, फिर बैठकर सत्संग होगा। फकीर तो भागा-भागा था, वह तो जल्दी जाना चाहता था। पर उसने कहा, अब सम्राट की बात इनकार भी नहीं की जा सकती--ज्ञानी भला न हो, अज्ञानी तो पक्का है; इनकार करो, कुछ ज्यादा गड़बड़ करो, नाराज हो जाएगा, गर्दन उतरवा दे, कुछ भी कर सकता है! सुन लो इसकी, एकाध दिन गुजार लो। दुष्ट-संग में पड़ गए हैं। ऐसा सोचता हुआ वह जनक के साथ नदी पर गया। दोनों ने वस्त्र किनारे रखे, जनक के वस्त्र बहुमूल्य थे, हीरे-जवाहरात जड़े थे, फकीर की तो एक लंगोटी थी, वह उसने किनारे रख दी, एक लंगोटी पहनकर पानी में उतरा।
जब दोनों स्नान कर रहे थे तब अचानक फकीर चिल्लाया कि अरे देखते हैं, आपके महल में आग लगी है! बड़ी लपटें उठीं, महल धू-धू कर जल रहा है। जनक ने देखा और उसने कहा, हां, लगी है। लेकिन हिला भी नहीं, चला भी नहीं, भागा भी नहीं। फकीर ने कहा, आप खड़े कैसे हैं? अरे दौड़ो, बचाओ! तो जनक ने कहा, महल है, मेरा क्या? जब आया था तो बिना महल के आया था, जब जाऊंगा तो बिना महल के जाऊंगा। और उस फकीर ने कहा, तुम तुम्हारी जानो, मेरी लंगोटी महल के पास ही रखी है, मैं तो चला। वह भागकर उसने कहा कि एक ही लंगोटी मेरे पास, वह कहीं खो न जाए। तब भागते हुए जब उसने लंगोटी उठायी, तब उसे याद पड़ी बात।
वस्तु के परिग्रह का सवाल नहीं है, भाव का सवाल है। मात्रा की मत पूछो, भाव की पूछो। समझ की पूछो।
जीसस के जीवन में उल्लेख है: और तब ईसा जेरोकम के पास आए। नगरसेठ जेरोकम ने मार्ग में अगणित स्वर्णमुद्राएं बिखराकर कहा--प्रभु, मेरी यह तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिए। ईसा ने उस धनराशि के बीच पड़े एक तांबे के सिक्के को उठाकर कहा--यह सबको तू ले जा, जितना मेरे सामर्थ्य में था मैंने ले लिया। इस तांबे के सिक्के का बोझ मुझे अधिक नहीं ढोना पड़ेगा। मैं इसे मल्लाह को दे दूंगा, वह मुझे नदी के पार उतार देगा।
उतना, मात्रा की बात पूछते हो तो उतना, जितने से नदी पार उतर जाओ। यह कहानी बड़ी मीठी है। जेरोकम ने स्वर्णमुद्राएं बिछा दीं रास्तों पर और ईसा से कहा कि आप स्वीकार करें। वह उस समय का बड़े से बड़ा धनी आदमी था जेरोकम। और ईसा ने यहां-वहां नजर डाली--भेंट लाया है तो एकदम इनकार भी न कर सके--एक तांबे का सिक्का उठा लिया और कहा, इतना मेरे लिए पर्याप्त है। सोचा होगा जेरोकम ने, एक तांबे के सिक्के से करोगे क्या? एक तांबे के सिक्के से होता क्या है? पूछा होगा, क्या करिएगा? तो जीसस ने कहा कि नदी पर मल्लाह मिलेगा, उसको मैं यह दे दूंगा, वह मुझे नदी के पार उतार देगा। नदी पार उतरने के लिए इतना काफी है। इसका ज्यादा देर तक बोझ मुझे ढोना न पड़ेगा, बस नदी तक। फिर मल्लाह को दे दूंगा, उस पार हो जाऊंगा।
यह बड़ी प्रतीकात्मक कहानी है। ऐसी घटी हो, न घटी हो, यह सवाल नहीं है। बस इतना ही परिग्रह जितने से इस जीवन की नदी को पार हो जाओ। मगर ध्यान रखना कि असली सवाल भाव का है। तांबे के एक सिक्के को भी तुम इतने जोर से पकड़ ले सकते हो कि वही तुम्हारी फांसी बन जाए। तुमने जितने जोर से पकड़ा, उसी में तुम्हारी फांसी है। ढीला पकड़ना। और जैसे ही छोड़ने का मौका आ जाए, एक क्षण भी झिझकना मत।
और यह भी तुमसे नहीं कह रहा हूं कि आज छोड़कर भाग जाओ। कहां भागकर जाओगे? कहीं तो छप्पर बनाओगे? तो तुम्हारा छप्पर कुछ बुरा नहीं है। किन्हीं के साथ तो रहोगे? तो तुम्हारे पत्नी-बच्चे बुरे नहीं हैं। कहां जाओगे भागकर! सब जगह संसार है। छोड़ने की दौड़ में मत पड़ना।
दो तरह की दौड़ें हैं दुनिया में और दो तरह के पागल हैं दुनिया में। एक, और ज्यादा हो जाए इसकी दौड़ में लगे हैं। और एक, और कम हो जाए इसकी दौड़ में लगे हैं। एक भोगी हैं--कितना बढ़ जाए। एक योगी हैं, त्यागी हैं--इतना और घट जाए! मगर दोनों अतृप्त हैं। जो है, उससे अतृप्त हैं। भोगी कहता है, और ज्यादा हो तो सुख मिलेगा। त्यागी कहता है, और कम हो तो सुख मिलेगा। लेकिन जो है उससे दोनों में से कोई भी सुखी नहीं है।
जिन्होंने पूछा है उनका नाम है--भोगीलाल भाई। तुम छोड़-छाड़ कर भग जाओ, तो मैं तुम्हें नाम दूंगा--योगीलाल भाई। और क्या करूंगा? मगर तुम तुम ही रहोगे। तुम्हारे भीतर की भाव की बात है।
तुम पकड़ते थे पहले, फिर तुम छोड़ने लगोगे; मगर तृप्त तुम तब भी न होओगे। संन्यस्त मैं उसे कहता हूं, जो है उसके साथ राजी है। जेहि विधि राखें राम, तेहि विधि रहिए। जो दे दिया है, जैसा है, राजी है। ले ले प्रभु, तो आज देने को राजी हैं। और दे दे, तो और भी लेने को राजी हैं, ना-नुच नहीं है। और बरसा दे छप्पर तोड़कर अशर्फियां, तो इनकार नहीं करेंगे, कि मैं भोगी नहीं हूं मैं त्यागी हूं, यह क्या कर रहे हैं! क्या अन्याय हो रहा है! या सब ले जाए घर से लूटकर आज--लुटेरा तो है ही भगवान, इसीलिए तो हम उसको हरि कहते हैं; हरि का मतलब होता है चोर, चुरा ले जो, हर ले जो--चोर तो है ही, इधर देता है, उधर छीन भी लेता है। आज दिया, कल ले लेगा। और बीच में तुम बड़ी झंझटों में पड़ जाओगे। मुफ्त झंझटों में पड़ जाओगे।
एक सूफी कहानी है। एक फकीर के दो बड़े प्यारे बेटे थे, जुड़वां बेटे थे। नगर की शान थे। सम्राट भी उन बेटों को देखकर ईर्ष्या से भर जाता था। सम्राट के बेटे भी वैसे सुंदर नहीं थे, वैसे प्रतिभाशाली नहीं थे। उस गांव में रोशनी थी उन दो बेटों की। उनका व्यवहार भी इतना ही शालीन था, भद्र था। वह सूफी फकीर उन्हें इतना प्रेम करता था, उनके बिना कभी भोजन नहीं करता था, उनके बिना कभी रात सोने नहीं जाता था।
एक दिन मस्जिद से लौटा प्रार्थना करके, घर आया, तो आते ही से पूछा, बेटे कहां हैं? रोज की उसकी आदत थी। उसकी पत्नी ने कहा, पहले भोजन कर लें, फिर बताऊं, थोड़ी लंबी कहानी है। पर उसने कहा, मेरे बेटे कहां हैं? उसने कहा कि आपसे एक बात कहूं? बीस साल पहले एक धनपति गांव का हीरे-जवाहरातों से भरी हुई एक थैली मेरे पास अमानत में रख गया था। आज वापस मांगने आया था। तो मैं उसे दे दूं कि न दूं? फकीर बोला, पागल, यह भी कोई पूछने की बात है? उसकी अमानत, उसने दी थी, बीस साल वह हमारे पास रही, इसका मतलब यह तो नहीं कि हम उसके मालिक हो गए। तूने दे क्यों नहीं दी? अब मेरे से पूछने के लिए रुकी है? यह भी कोई बात हुई! उसी वक्त दे देना था। झंझट टलती। तो उसने कहा, फिर आप आएं, फिर कोई अड़चन नहीं है।
वह बगल के कमरे में ले गयी, वे दोनों बेटे नदी में डूबकर मर गए थे। नदी में तैरने गए थे, डूब गए। उनकी लाशें पड़ी थीं, उसने चादर उढ़ा दी थी, फूल डाल दिए थे लाशों पर। उसने कहा, मैं इसीलिए चाहती थी कि आप पहले भोजन कर लें। बीस साल पहले जिस धनी ने ये हीरे-जवाहरात हमें दिए थे, आज वह वापस मांगने आया था और आप कहते हैं कि दे देना था, सो मैंने दे दिए।
यही भाव है। उसने दिया, उसने लिया। बीच में तुम मालिक मत बन जाना। मालकियत नहीं होनी चाहिए। मिल्कियत कितनी भी हो, मालकियत नहीं होनी चाहिए। बड़ा राज्य हो, मगर तुम उस राज्य में ऐसे ही जीना जैसे तुम्हारा कुछ भी नहीं है। तुम्हारा है भी नहीं कुछ। जिसका है उसका है। सबै भूमि गोपाल की। वह जाने। तुम्हें थोड़ी देर के लिए मुख्त्यार बना दिया, कि सम्हालो। तुमने थोड़ी देर मुख्त्यारी कर ली, मालिक मत बन जाओ। भूलो मत। जिसने दिया है, ले लेगा। जितनी देर दिया है, धन्यवाद! जब ले ले, तब भी धन्यवाद! जब दिया, तो इसका उपयोग कर लेना, जब ले ले, तो उस लेने की घड़ी का भी उपयोग कर लेना, यही संन्यासी की कला है, यही संन्यास की कला है।
न तो छोड़ना है संन्यास, न पकड़ना है संन्यास। न तो भोग, न त्याग। संन्यास दोनों से मुक्ति है। संन्यास सभी कुछ प्रभु पर समर्पित कर देने का नाम है। मेरा कुछ भी नहीं, तो मैं छोडूंगा भी क्या? तो जो है उसका उपयोग कर लेना। और उपयोग में यह एक ध्यान रहे कि जिससे तुम नदी पार हो सको।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आमतौर से आप भीड़ की आलोचना करते हैं। लेकिन भगवान बुद्ध के संघ के समर्थन में आपने गुरजिएफ का हवाला देकर समूह-शक्ति को बहुत महत्व दिया। कृपाकर संघ-शक्ति, समूह और भीड़ के भेद को समझाइए।
ऊपर से भेद दिखायी चाहे न पड़े, भीतर बड़ा भेद होता है।
संघ का अर्थ होता है--जिस भीड़ के बीच में एक जाग्रतपुरुष खड़ा हो केंद्र पर। बुद्ध के बिना संघ नहीं होता। संघ के कारण संघ नहीं होता, बुद्ध के कारण संघ होता है। तो संघ शब्द का अर्थ समझ लेना। बहुत से बुझे दीए रखे हैं और एक दीया बीच में केंद्र पर जल रहा है, तो संघ। ये बहुत से बुझे दीए सरक रहे हैं धीरे-धीरे जले दीए के पास। ये जले दीए के पास आए ही इसलिए हैं कि जल जाएं, यही अभीप्सा इन्हें पास ले आयी है। ये बुझे दीए एक-दूसरे से नहीं जुड़े हैं, इनका कोई संबंध अपने पड़ोसी बुझे दीए से नहीं है। इनकी सबकी नजरें उस जले दीए पर लगी हैं, इन सबका संबंध उस जले दीए से है।
मेरे पास इतने संन्यासी हैं। उनका कोई संबंध एक-दूसरे से नहीं है। अगर एक-दूसरे के पास हैं, तो सिर्फ इसी कारण कि दोनों मेरे पास हैं--और कोई कारण नहीं है। तुम यहां बैठे हो, कितने देशों के लोग यहां बैठे हैं। तुम्हारे पास बैठा है कोई इंग्लैंड से है, कोई ईरान से है, कोई अफ्रीका से है, कोई जापान से है, कोई अमरीका से है, कोई स्वीडन से है, कोई स्विट्जरलैंड से है, कोई फ्रांस से, कोई इटली से। तुम्हारा पड़ोस में बैठे आदमी से कोई भी संबंध नहीं है, न पास में बैठी स्त्री से कोई संबंध है। तुम्हारा संबंध मुझसे है, उसका भी संबंध मुझसे है। तुम दोनों की नजर मुझ पर लगी है। यद्यपि तुम सब साथ बैठे हो, लेकिन तुम्हारा संबंध सीधा नहीं है।
संघ का अर्थ होता है--जहां एक जला हुआ दीया है और सब बुझे दीयों की नजर जले दीए पर लगी है; उस केंद्र की तरफ वे सरक रहे हैं, आहिस्ता-आहिस्ता, लेकिन सुनिश्चित कदमों से। एक-एक इंच, लेकिन बढ़ रहे हैं। एक-एक बूंद, लेकिन जग रहे हैं। जिस क्षण बहुत करीब आ जाएंगी दोनों की बातियां, उस दिन छलांग होगी। जले हुए दीए से ज्योति बुझे दीए में उतर जाएगी। ज्योति से ज्योति जले। जले दीए की ज्योति जरा भी कम नहीं होगी, बुझे दीए की ज्योति जग जाएगी। बुझे को मिल जाएगी, जले की कम न होगी।
यही सत्संग है। जो देता है, उसका कम नहीं होता। और जिसे मिलता है, उसके मिलने का क्या कहना, कितना मिल जाता है!
उपनिषद कहते हैं, पूर्ण से पूर्ण निकाल लो तो भी पीछे पूर्ण शेष रह जाता है। सत्संग में यह रोज घटता है। ईशावास्य के इस अपूर्व वचन का निर्वचन रोज सत्संग में होता है। सत्संग का अर्थ होता है--कोई पूर्ण हो गया है, उससे तुम पूर्ण भी निकाल लो तो भी वह पूर्ण का पूर्ण ही रहता है। वहां कुछ कमी नहीं आती। तुम सूने थे, पूरे हो जाते हो; तुम खाली थे, भर जाते हो; तुम्हारा पात्र लबालब हो जाता है, छलकने लगता है। और ऐसी-वैसी छलकन नहीं, ऐसी छलकन कि अब तुमसे कोई पूरा ले ले, तो भी तुम खाली नहीं होते।
संघ का अर्थ होता है--केंद्र पर जाग्रतपुरुष हो, बुद्ध हो, जिन हो, कोई जिसने स्वयं को जीता और जो स्वयं में जागा, भगवत्ता हो केंद्र पर, तो उसके आसपास जो बुझे हुए लोग इकट्ठे हो जाते हैं, सोए-सोए लोग। माना कि सोए हैं, लेकिन उनके जीवन में भी जागने का कम से कम सपना तो पैदा हो गया। जागे नहीं हैं, सच, लेकिन जागने का सपना तो पैदा हो गया है, जागने की तरफ बढ़ने तो लगे हैं, टटोलने लगे हैं। अंधेरे में टटोल रहे हैं, अभी टटोलने में बहुत व्यवस्था भी नहीं हो सकती, लेकिन आभास मिलने लगे हैं।
कभी सुबह देखते हैं न, नींद टूटी नहीं है, जागे भी नहीं हैं, ऐसी दशा होती है कभी। हल्की-हल्की नींद भी है अभी और हल्की-हल्की जाग भी आ गयी--दूध वाला दूध दे रहा है द्वार पर खड़ा, यह सुनायी पड़ता सा मालूम भी पड़ता है, पत्नी चाय इत्यादि बनाने लगी है चौके में, आवाज बर्तनों की सुनायी भी पड़ती है; बच्चे स्कूल जाने की तैयारी करने लगे हैं, उनका लड़ाई-झगड़ा, उनका कोलाहल भी सुनायी पड़ता है; यह सब सुनायी पड़ता है, और तुम जागे भी नहीं हो, और तुम सोए भी नहीं हो। यह बीच की दशा है, जिसको योग में तंद्रा कहा है--जागरण और निद्रा के जो बीच में है दशा।
संघ का अर्थ होता है--बिलकुल सोए हुए आदमी जो गहरी अंधेरी रात में पड़े हैं, वे तो बुद्धों के पास आते नहीं; जो जाग गए हैं, उन्हें आने की जरूरत नहीं है...जो जाग ही गया, जो स्वयं ही बुद्ध हो गया, वह क्यों आए! किसलिए आए! कोई प्रयोजन नहीं। जो गहरा सोया है कि उसे होश ही नहीं है, वह कैसे आए! वह बुद्ध के पास से निकल जाता है और उसे रोमांच नहीं होता। वह बुद्ध की हवा से गुजर जाता है और उसे हवा का स्पर्श भी नहीं होता। वह गहरा सोया है। लेकिन इन दोनों के बीच की दशा वाले लोग भी हैं, जो जागे भी नहीं हैं कि बुद्ध हो गए हों और इतने सोए भी नहीं हैं कि बुद्ध होने की आकांक्षा न हो। उन तंद्रा से भरे लोगों, उन जलने की आकांक्षा से भरे बुझे दीयों से संघ बनता है।
लेकिन संघ का मौलिक आधार होता है, बुद्धपुरुष। केंद्र में बुद्ध हों, तो ही संघ बनता है।
दूसरा शब्द है, संगठन। जिस दिन बुद्ध विदा हो जाते हैं, जला दीया विलीन हो जाता है, निर्वाण को उपलब्ध हो जाता है, लेकिन उस जले दीए ने जो बातें कही थीं, जो व्यवस्था दी थी, जो अनुशासन दिया था; उस शास्ता ने जो कहा था, जो देशना दी थी, उसका शास्त्र रह जाता है; उस शास्त्र के आधार पर जो बनता है, वह संगठन। संघ की खूबी तो इसमें न रही। संघ के प्राण तो गए। संगठन मरा हुआ संघ है। कुछ-कुछ भनक रह गयी, कभी जाना था किसी जाग्रतपुरुष का सान्निध्य, कभी उसके पास उठे-बैठे थे, कभी उसकी सुगंध नासापुटों में भरी थी, कभी उसकी बांसुरी की मनमोहक तान हमारी तंद्रा में हमें सुनायी पड़ गयी थी, कभी किसी ने हमें प्रमाण दिया था अपने होने से कि ईश्वर है, कभी किसी की वाणी हमारे हृदय को गुदगुदा गयी थी, बंद कलियां खुली थीं; कभी कोई बरसा था सूरज की भांति हम पर और हम भी अंकुरित होने शुरू हुए थे, याद रह गयी, श्रुति रह गयी, स्मृति रह गयी, शास्त्र रह गया--शास्ता गया, शास्त्र रह गया। शास्ता और शास्त्र शब्द का संबंध समझ लेना, वही संबंध संघ और संगठन का है।
शास्ता जीवंत था। जो कहता था, वैसा था भी। फिर वाणी रह गयी, संग्रह रह गया, संहिता रह गयी। कहने वाला गया, अब तुम नए प्रश्न पूछोगे तो उत्तर न मिलेंगे; अब तो तुम पुराने प्रश्न, जिनके उत्तर दिए गए हैं, वे ही पूछो तो उत्तर मिल जाएंगे। अब नया संवेदन नहीं होता, अब नयी वाणी जाग्रत नहीं होती, अब नयी तरंग नहीं उठती, अब नयी बांसुरी नहीं बजती--रेकार्ड रह गया। शास्त्र यानी रेकार्ड। गायक तो जा चुका, रेकार्ड रह गया। ग्रामोफोन पर रखोगे, तो गायक जैसा ही लगता है--जैसा! लेकिन रेकार्ड रेकार्ड है। और अगर जीवित व्यक्ति तुम्हें न बदल सका तो रेकार्ड तुम्हें कैसे बदलेगा?
संघ जब मर जाता अर्थात जब शास्ता विदा हो जाता, तो संगठन पैदा होता है। शास्ता के वचन रह जाते हैं। जैसे सिक्खों के दस गुरु हुए। जब तक दस गुरु थे, तब तक सिक्ख-धर्म संघ था। जिस दिन अंतिम गुरु ने तय किया कि अब कोई गुरु नहीं होगा और गुरुग्रंथ ही गुरु होगा, उसी दिन से संगठन। जब तक बुद्ध थे, तब तक संघ। जब बुद्ध जा चुके, भिक्षु इकट्ठे हुए और उन्होंने अपनी-अपनी स्मृतियों को उंडेलकर रेकॉर्ड तैयार किया कि बुद्ध ने किससे कब क्या कहा था, किसने कब बुद्ध को क्या कहते सुना था, सब भिक्षुओं ने अपनी स्मृतियां टटोलीं और सारी स्मृतियों का संग्रह किया, तीन शास्त्र बने--त्रिपिटक। सारे भिक्षुओं ने अपनी स्मृति उंडेलकर, जो-जो बुद्ध ने कहा था, जिसने जैसा समझा था वैसा इकट्ठा कर दिया, तब संगठन बना। बुद्ध तो गए, याद रह गयी।
फिर एक घड़ी ऐसी आती है कि बीच में शास्ता तो होता ही नहीं, शास्त्र भी नहीं होता, तब उस स्थिति को हम कहते हैं--समूह। हम ही आपस में तय करते हैं कि हमारा अनुशासन क्या हो। हम कैसे उठें, कैसे बैठें, कैसे एक-दूसरे से संबंध बनाएं।
फर्क समझना।
जब बुद्ध जीवित थे, सबकी नजरें बुद्ध पर लगी थीं, सब बुद्ध से जुड़े थे, तार बुद्ध से जुड़े थे, आपस में अगर पास भी थे तो भी इससे कुछ लेना-देना न था, कोई संग न था। संग बुद्ध के साथ था। आपस में साथ थे, क्योंकि सब एक दिशा में जाते थे, इसलिए साथ हो लिए थे; और कोई साथ न था--संयोग था साथ।
बुद्ध गए, शास्त्र बचा, अब संबंध बुद्ध से तो नहीं रह जाएगा, बुद्ध के शब्द से रहेगा। स्वभावतः, बुद्ध के शब्द को जो लोग ठीक से समझा सकेंगे, बुद्ध के शब्द की जो ठीक से व्याख्या कर सकेंगे--पंडित और पुरोहित--महत्वपूर्ण हो जाएंगे। व्याख्याकार महत्वपूर्ण हो जाएंगे। और व्याख्याकार एक नहीं होंगे, अनेक होंगे।
बुद्ध के मरते ही बुद्ध का संघ अनेक शाखाओं में टूट गया। टूट ही जाएगा। क्योंकि किसी ने कुछ व्याख्या की, किसी ने कुछ व्याख्या की। अब तो व्याख्या करने वाले स्वतंत्र हो गए, अब बुद्ध तो मौजूद न थे कि कहते कि नहीं, ऐसा मैंने नहीं कहा, कि मेरे कहने का ऐसा अर्थ है। बुद्ध के मौजूद रहते ये व्याख्याकार सिर भी उठा नहीं सकते थे। क्योंकि जब बुद्ध ही मौजूद हैं तो कौन उनकी सुनेगा कि बुद्ध ने क्या कहा! बुद्ध के हटते ही बड़े दार्शनिक खड़े हो गए, पंडित खड़े हो गए, अलग-अलग व्याख्याएं, अलग-अलग संप्रदाय बन गए; बड़े भेद, बड़े विवाद। एक ही आदमी की वाणी के इतने भेद, इतने विवाद!
और निश्चित ही जिसको जिसकी बात ठीक लगी, वह उसके साथ हो लिया। अब बुद्ध से तो संबंध न रहा, बुद्ध के व्याख्याकारों से संबंध हो गया। बुद्ध तो जाग्रतपुरुष थे, इसलिए जाग्रत का और सोए का संबंध हो तो कुछ लाभ होता। अब ये जो व्याख्याकार हैं, ये इतने ही सोए हुए हैं जितने तुम सोए हुए हो, यह सोए से सोए का संबंध है, तो बनता है संगठन।
मगर फिर भी ये जो व्याख्या करते हैं, कम से कम बुद्ध के वचनों की करते हैं। दूर की ध्वनि सही, बहुत दूर की ध्वनि, बुद्ध को पुकारे समय हो गया, लेकिन शायद इन्होंने बुद्ध की बात सुनी थी, उसको विकृत भी कर लिया होगा, उसको काटा-छांटा भी होगा, तोड़ा-मरोड़ा भी होगा, फिर भी कुछ बुद्ध की बात तो उसमें शेष रह ही जाएगी, कुछ रंग तो रह ही जाएगा।
तुम इस बगीचे से गुजर जाओ, घर पहुंच जाओ, बगीचा दूर रह गया, वृक्ष दूर रह गए, फूल दूर रह गए, फिर भी तुम पाओगे, तुम्हारे वस्त्रों में थोड़ी सी गंध चली आयी। वस्त्र याद दिलाएंगे कि बगीचे से होकर गुजरे हो। थोड़े रंगे रह गए, तो संगठन।
जब यह रंग भी खो जाता है, जब व्याख्याकारों की भी व्याख्या होने लगती है, जब व्याख्याकार भी मौजूद नहीं रह जाते, जिन्होंने बुद्ध को देखा, सुना, समझा; अब इनको सुनने, समझने वाले व्याख्या करने लगते हैं--तो फिर बहुत दूरी हो गयी, तब स्थिति हो जाती है समूह की। अब तो सोए-सोए अंधे अंधों को मार्ग दिखाने लगते हैं।
समझो कि बुद्ध के पास आंख थी, बुद्ध के व्याख्याकारों के पास कम से कम चश्मा था, ये जो व्याख्याकारों के व्याख्याकार हैं, इनके पास चश्मा भी नहीं। ये ठीक तुम जैसे अंधे हैं। शायद तुमसे ज्यादा कुशल हैं बोलने में, शायद तुमसे ज्यादा कुशल हैं तर्क करने में, शायद तुमसे अच्छी इनकी स्मृति है, शायद तुमसे ज्यादा इन्होंने अध्ययन किया है, पर और कोई भेद नहीं है, चेतनागत कोई भेद नहीं है। इतना भी भेद नहीं है कि ये बुद्ध के सान्निध्य में रहे हों। इतना भी भेद नहीं है, तो समूह।
फिर एक ऐसा समय भी आता है, जब ये भी नहीं रह जाते, जब कोई व्यवस्था नहीं रह जाती, व्यवस्थामात्र जब शून्य हो जाती है और जब अंधे एक-दूसरे से टकराने लगते हैं, उसका नाम भीड़ है।
इन चार शब्दों का अलग-अलग अर्थ है। संघ, शास्ता जीवित है। संगठन, शास्ता की वाणी प्रभावी है। समूह, शास्ता की वाणी भी खो गयी लेकिन अभी कुछ व्यवस्था शेष है। भीड़, व्यवस्था भी गयी; अब सिर्फ अराजकता है।
मैं संघ के पक्ष में हूं। संगठन के पक्ष में नहीं। समूह के तो होऊंगा कैसे! भीड़ कीतो बात ही छोड़ो!!
जब तुम्हें कभी कोई जीवित जाग्रतपुरुष मिल जाए, तो डूब जाना उसके संघ में। ऐसे अवसर बहुत कम आते हैं पृथ्वी पर, कभी-कभी आते हैं, उसको चूकना मत। उसको चूके तो बहुत पछताना होता है। और फिर पछताने से भी कुछ होता नहीं। फिर पछताए होत का, जब चिड़िया चुग गयी खेत। फिर सदियों तक लोग रोते हैं।
कई दफे तुम्हारे मन में भी आता होगा--काश, हम भी बुद्ध के समय में होते! काश, हम भी महावीर के साथ चले होते उनके पदचिह्नों पर! काश, हमने भी जीसस को भर-आंख देखा होता! या काश, मोहम्मद के वचन सुने होते! कि कृष्ण के आसपास हम भी नाचे होते उस मधुर बांसुरी को सुनकर! यह पछतावा है।
तुम भी मौजूद थे, तुम जरूर मौजूद थे, क्योंकि तुम बड़े प्राचीन हो। तुम उतने ही प्राचीन हो जितना प्राचीन यह अस्तित्व है--तुम सदा से यहां रहे हो। तुमने न मालूम कितने बुद्धपुरुषों को अपने पास से गुजरते देखा होगा, लेकिन देख नहीं पाए। फिर पछताने से कुछ भी नहीं होता। जो गया, गया। जो बीता, सो बीता। अभी खोजो कि यह क्षण न बीत जाए। इस क्षण का उपयोग कर लो।
इसलिए बुद्ध बार-बार कहते हैं, एक पल भी सोए-सोए मत बिताओ। जागो, खोजो। अगर प्यास है, तो जल भी मिल ही जाएगा। अगर जिज्ञासा है, तो गुरु भी मिल ही जाएगा। अगर खोजा, तो खोज व्यर्थ नहीं जाती। परमात्मा की तरफ उठाया कोई भी कदम कभी व्यर्थ नहीं जाता है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, मेरे मन में कभी-कभी आपके प्रति बड़ा विद्रोह भड़कता है और मैं जहां-तहां आपकी छोटी-मोटी निंदा भी कर बैठती हूं। कहा गया है कि गुरु की निंदा करने वाले को कहीं ठौर नहीं। मैं क्या करूं?
पूछा है कृष्णप्रिया ने।
जहां तक कृष्णप्रिया को मैं समझता हूं, इसमें कुछ गलतियां हैं प्रश्न में, वह ठीक कर दूं।
कहा है, ‘मेरे मन में कभी-कभी आपके प्रति बड़ा विद्रोह उठता है।’
ऐसा मुझे नहीं लगता। मुझे तो लगता है, विद्रोह स्थायीभाव है। कभी-कभी शायद मेरे प्रति प्रेम उमड़ता हो। लेकिन कभी-कभी विद्रोह उमड़ता है, यह बात सच नहीं है। विद्रोह तुम्हारी स्थायी दशा है। और वह जो कभी-कभी प्रेम उमड़ता है, वह इतना न्यून है कि उसके होने न होने से कुछ बहुत फर्क पड़ता नहीं।
और कृष्णप्रिया की दशा कुत्ते की पूंछ जैसी है। रखो बारह साल पोंगरी में, जब पोंगरी निकालो, फिर तिरछी की तिरछी। कभी-कभी मुझे भी लगता है कि शायद कृष्णप्रिया के संबंध में मुझे भी निराश होना पड़ेगा--होऊंगा नहीं, वैसी मेरी आदत नहीं है--लेकिन कृष्णप्रिया के ढंग देखकर कभी-कभी मुझे भी लगने लगता है कि यह पूंछ सीधी होगी? यह भी मुझे खयाल आता है कि कृष्णप्रिया यह पूंछ तिरछी रहे, इसमें मजा भी ले रही है। इससे विशिष्ट हो जाती है। इससे लगता है--कुछ खास है, औरों जैसी नहीं है। खास होने के लिए कोई और अच्छा ढंग चुनो। यह भी कोई खास होने का ढंग है!
राबर्ट रिप्ले ने बहुत सी घटनाएं इकट्ठी की हैं सारी दुनिया से। उसकी बड़ी प्रसिद्ध किताबों की सीरीज है: बिलीव इट आर नाट, मानो या न मानो। उसने सब ऐसी बातें इकट्ठी की हैं जिनको कि तुम पहली दफा सुनकर कहोगे, मानने योग्य नहीं। मगर मानना पड़ेगी, क्योंकि वह तथ्य है। उसने एक आदमी का उल्लेख किया है जो सारे अमरीका में अपनी छाती के सामने एक आईना रखकर उलटा चला। कारण! बड़ी मेहनत का काम था उलटा चलना। पूरा अमरीका उलटा चला। कारण जब पूछा गया तो उसने कहा कि मैं प्रसिद्ध होना चाहता हूं। वह प्रसिद्ध हो भी गया।
एक आदमी प्रसिद्ध होना चाहता था, तो उसने अपने आधे बाल काट डाले, एक तरफ के बाल काट डाले, आधी खोपड़ी साफ कर ली और घूम गया न्यूयार्क में। तीन दिन घूमता रहा, अखबारों में खबरें छप गयीं, टेलीविजन पर आ गया, पत्रकार उसके पीछे आने लगे कि भई, यह बात क्या है? और वह चुप्पी रखता था। तीन दिन बाद वह बोला कि मुझे प्रसिद्ध होना था।
मगर ऐसे अगर प्रसिद्ध भी हो गए तो सार क्या? यह कोई बड़ी सृजनात्मक बात तो न हुई!
ऐसा लगता है कि कृष्णप्रिया सोचती है कि इस तरह की बातें करने से कुछ विशिष्ट हुई जा रही है। यहां विशिष्ट होने के हजार उपाय तुम्हें दे रहा हूं--ध्यान से विशिष्ट हो जाओ, प्रेम से विशिष्ट हो जाओ, प्रार्थना से विशिष्ट हो जाओ। कुछ सृजनात्मक करो, विशिष्टता ही का कोई मूल्य नहीं होता। नहीं तो मूढ़ता से भी आदमी विशिष्ट हो जाता है।
जाओ, रास्ते पर जाकर शीर्षासन लगाकर खड़े हो जाओ, विशिष्ट हो गए। पूना हेराल्ड का पत्रकार पहुंच जाएगा, फोटो ले लेगा। नंगे घूमने लगो, प्रसिद्ध हो जाओगे। मगर उससे तुम्हारी आत्मा को क्या लाभ होगा? कहां तुम्हारा विकास होगा? कई बार ऐसा हो जाता है कि हम गलत उपाय चुन लेते हैं विशिष्ट होने के, रुग्ण उपाय चुन लेते हैं। कृष्णप्रिया ने रुग्ण उपाय चुने हुए हैं।
वैसे मैं यह नहीं कहता कि अगर इसमें ही तुम्हें आनंद आ रहा हो तो बदलो। मैं किसी के आनंद में दखल देता ही नहीं। अगर इसमें ही आनंद आ रहा है, तुम्हारी मर्जी! मेरे आशीर्वाद। इसको ऐसा ही जारी रखो।
तुम कहती हो कि ‘मैं छोटी-मोटी निंदा आपकी कर बैठती हूं।’
फिर छोटी-मोटी क्या करनी! फिर ठीक से ही करो। जब मजा ही लेना हो, तो छोटा-मोटा क्या करना! जब चोरी ही करनी हो, तो फिर कौड़ियों की क्या करनी! फिर ठीक से निंदा करो। फिर दिल खोलकर निंदा करो और मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है, इसलिए चिंता की कोई जरूरत नहीं है।
‘और कहा गया है कि गुरु की निंदा करने वाले को कहीं ठौर नहीं।’
वह किसी डरे हुए गुरु ने कहा होगा, मैं नहीं कहता। मैं तो कहता हूं, फिक्र छोड़ो, ठौर मैं हूं तुम्हारी। तुम करो निंदा जितनी तुम्हें करनी हो, मैं तुम पर नाराज नहीं हूं, और कभी नाराज नहीं होऊंगा। अगर तुम्हें इसी में मजा आ रहा है, अगर यही तुम्हारा स्वभाव है, अगर यही तुम्हारी सहजता है कि इससे ही तुम्हें कुछ मिलता मालूम पड़ता है, तो मैं बाधा न बनूंगा; फिकर छोड़ो कि गुरु की निंदा करने वाले को कहीं ठौर नहीं। मैं तुमसे कहता हूं, मैं हूं ठौर तुम्हारा। तुम्हें जितनी निंदा करनी हो, करो। वह जिन्होंने कहा होगा, कमजोर गुरु रहे होंगे। निंदा से डरते रहे होंगे।
मेरी निंदा से मुझे कोई भय नहीं है। तुम्हारी निंदा से मेरा कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। और पराए तो मेरी निंदा करते ही हैं, अपने करेंगे तो कम से कम थोड़ी कुशलता से करेंगे--यह भी आशा रखी जा सकती है। करो!
मगर एक बात खयाल रखना, इससे तुम्हारा विकास नहीं होता है। इसलिए मुझे दया आती है। इससे तुम्हें कोई गति नहीं मिलती। मेरी निंदा करने से तुम्हें क्या लाभ होगा? इस पर ध्यान करो। थोड़े स्वार्थी बनो। थोड़ी अपनी तो सोचो कि मुझे क्या लाभ होगा? यह समय मेरा व्यर्थ जाएगा। अब कृष्णप्रिया यहां वर्षों से है, और मैं समझता हूं, वह यहां न होती तो कुछ हानि नहीं थी--कुछ लाभ उसे हुआ नहीं; व्यर्थ ही यहां है; यहां होने न होने से कुछ मतलब नहीं है।
कृष्णप्रिया का ही दूसरा प्रश्न है:
मैं कभी-कभी आश्रम से भागना चाहती हूं, लेकिन आपसे नहीं भागना चाहती। व्यवस्था जो अनुशासन हम पर लादती है, वह मुझे सहन नहीं होता। क्या यह आरोपित अनुशासन आत्मानुशासन के विकास में बाधा नहीं है?
‘मैं कभी-कभी आश्रम से भागना चाहती हूं, लेकिन आपसे नहीं भागना चाहती।’
मेरा कोई कसूर! मेरी कोई भूल-चूक! मेरा कोई कर्मों का लेना-देना है! और फिर अगर मुझसे नहीं भागना चाहती तो कोई अड़चन नहीं, मुझे अपने हृदय में रखो और कहीं भी रहो। यह आश्रम भी तुम भाग जाओगी तो इतना ही प्रसन्न होगा, जितनी तुम प्रसन्न होओगी। तुम्हारे होने से यहां कोई भी प्रसन्न नहीं है, यह खयाल में ले लो। तुम खुद ही प्रसन्न नहीं हो तो कोई और कैसे प्रसन्न होगा?
तुम यहां होकर अगर प्रसन्न हो, तो ही कोई दूसरा तुम्हारे होने से प्रसन्न हो सकता है। प्रसन्नता तुम्हारे भीतर से प्रगट होती है। तुम अगर आनंदित हो, तो ही इस आश्रम के वासी तुम्हारे होने से आनंदित होंगे। अगर तुम दुखी हो और परेशान हो और यहां तुम्हें भला नहीं लगता, तो तुम्हारे कारण यहां कोई प्रसन्न नहीं है। तुम्हारी बड़ी कृपा होगी तुम चली जाओ तो! कोई तुमसे कह भी नहीं सकता है कि तुम चली जाओ, कोई तुमसे कह भी नहीं रहा है। लेकिन अगर तुम्हारे मन में यह बार-बार बात उठती है, तो तुम कृपा करो! तुम कोई युगांडा की प्रेसीडेंट तो हो नहीं--इदी अमीन तो हो नहीं--कि पूरा इंग्लैंड कह रहा है, कृपा करके आप न आएं, मगर वह सज्जन हैं कि जा ही रहे हैं। इंग्लैंड ने उनको खबर भेजी है कि कामनवेल्थ की सभा में हम आपका स्वागत करने में असमर्थ हैं, मगर वह जा ही रहे हैं!
कोई तुमसे कहता नहीं कि तुम भाग जाओ, कोई तुम्हें रोक भी नहीं रहा है, खयाल रखना। कोई तुम्हारा हाथ पकड़कर रोक भी नहीं रहा है कि तुम यहां रहो। तुम्हारे जाने से हलकापन ही होगा। और तुम जो जगह भरे हो, वहां कोई दूसरा आदमी विकसित होने लगेगा। तुम तो विकसित होती मालूम नहीं होती, तुम्हारा होना न होना बराबर है। मैं नहीं कह रहा हूं कि चली जाओ, मैं इतना ही कह रहा हूं कि अगर तुम्हारे मन में यह भागने का भाव बार-बार उठता है, तो इस भाव को सुनो, इसका अनुकरण करो। यह तुम्हारे ही अंतरात्मा की आवाज है। कौन जाने यही अंतरात्मा की आवाज तुम्हें ठीक रास्ते पर ले जाए, तुम्हारा रास्ता कहीं और हो, तुम्हारा गुरु कहीं और हो!
रही मेरी बात, सो मुझे तुम अपने हृदय में रखना जहां भी रहो, और जहां भी रहो छोटी-मोटी या बड़ी, जैसी निंदा बने करते रहना। मुझे तुम माफ न कर सकोगी, यह मुझे मालूम है। इसलिए जहां रहो वहीं, जो काम यहां करती हो वहां करना। इसमें अड़चन क्या है? मेरे पास रहकर कर ही क्या रही हो यहां? छोटी-मोटी निंदा करती हो--कहती हो--मैं कहता हूं, बड़ी भी करो। पूना रहीं कि पटना, पटना में चलाना यही काम। तो मेरे से तो संग-साथ बना ही रहेगा, आश्रम तुमसे मुक्त हो जाएगा, तुम आश्रम से मुक्त हो जाओगी।
खयाल रखो, आश्रम में जो व्यवस्था है, वह मेरे निर्देश से है। जिनका मुझसे लगाव है, वे उस व्यवस्था को स्वीकार करेंगे। जो इस व्यवस्था को अस्वीकार करते हैं, उनका मुझसे लगाव नहीं है। क्योंकि वह व्यवस्था मेरी है। यहां किसी और की व्यवस्था नहीं है। यह कोई लोकतंत्र नहीं है यहां, यह तो बिलकुल तानाशाही है। यहां कोई लोग तय नहीं कर रहे हैं कि क्या हो, यहां जो मैं तय कर रहा हूं वही हो रहा है, वैसा ही हो रहा है, रत्ती-रत्ती वैसा हो रहा है।
इसलिए जिनका मुझसे लगाव है, वे बेईमानियां न करें। वे इस तरह की बेईमानी में न पड़ें कि आपसे तो हमारा लगाव है, आश्रम, आश्रम से हम परेशान हैं! तो तुम मुझसे ही परेशान हो। तो तुम्हारा मुझसे लगाव कोरा है, थोथा है, हवाई है, बातचीत का है, उसका कोई मूल्य नहीं है, उसमें कुछ यथार्थ नहीं है।
जिनका मुझसे लगाव है, वे आश्रम में लीन हो गए हैं। उनको यह अड़चन नहीं पैदा होती। इस तरह के प्रश्न वे लिख-लिखकर नहीं भेजते, न इस तरह की बातें करते हैं। वे परम आनंदित हैं। आश्रम की व्यवस्था में डूबकर उन्होंने मेरे तरफ समर्पण का रास्ता खोजा है। वह समर्पण का रास्ता है।
तो आश्रम की व्यवस्था अगर तुम्हें ठीक नहीं लगती, तो तुम ठीक से समझ लो कि मेरी व्यवस्था तुम्हें ठीक नहीं लगती। इससे मुझसे दूर ही रहना अच्छा है। जब ठीक लगने लगे, तब आ जाना। अगर मैं रहा, तो तुम्हारा स्वागत होगा। नहीं रहा, तो तुम्हारी तुम जानो!
‘और क्या यह आरोपित अनुशासन आत्मानुशासन के विकास में बाधा नहीं है?’
यह तुम निर्णय कर लो। जब भी हम किसी संघ में सम्मिलित होते हैं, तो हम इसीलिए सम्मिलित होते हैं कि अकेले-अकेले हमसे आत्म-विकास नहीं हो रहा है। कृष्णप्रिया, तुम्हारे पास आत्मा अभी है कहां! जिसका तुम अनुशासन कर लोगी। आत्मा के नाम से सिर्फ धोखा दोगी। तुम्हारे पास अभी विवेक कहां है? अभी तुम्हारा होश जागा कहां है? अनुशासन कौन देगा? तुम्हारी निद्रा में तुम जो भी अनुशासन दोगी, तुम्हें और गड्ढे में ले जाएगा। जिस दिन आत्मानुशासन जग जाएगा, उस दिन तो मैं भी तुमसे नहीं कहूंगा कि किसी और अनुशासन को मानो। यह और अनुशासन उसी अनुशासन को जगाने की दिशा में प्रयास है। मैं तुम्हें तभी तक अनुशासन दूंगा, जब तक मुझे लगता है, तुम्हारी आत्म-चेतना अभी जागी नहीं। जिस दिन देखूंगा, तुम्हारा दीया जल गया, उस दिन तुमको कहूंगा कि अब तुम मुक्त हो, अब तुम्हें जैसा लगे वैसा करो। क्योंकि तब तुम वही करोगी, जो ठीक है।
अभी तुम जो करोगी, वह गलत ही होने वाला है। अभी तुमसे ठीक हो सकता होता तो मेरे पास आने की जरूरत क्या थी? अभी तुम्हारा विवेक बुझा-बुझा है।
आत्मानुशासन का यही अर्थ हुआ--एक आंख वाले आदमी का अंधा आदमी हाथ पकड़ता है। फिर जब अंधा आदमी आंख वाले का हाथ पकड़ता है तो श्रद्धापूर्वक चलना होता है। अंधा बीच-बीच में कहने लगे कि मैं बाएं जाना चाहता हूं--मैं तो आत्मानुशासन में मानता हूं--और तुम मुझे दाएं खींच रहे हो! अब आंख वाला देखता है कि बाएं गड्ढा है, लेकिन अंधा कहता है कि तुम मुझे दाएं खींचोगे, मैं दाएं नहीं जाना चाहता। यह तो तुम ऊपर से मेरे ऊपर आरोपित कर रहे हो, तुम मेरी स्वतंत्रता छीन रहे हो, मुझे बाएं जाना है, मैं तो अपनी आत्मा की आवाज मानूंगा। मगर आंखें भी तो होनी चाहिए! तो जाओ बाएं! तो गिरो गड्ढे में! फिर मेरा कसूर मत मानना।
अब यह बड़ी मुश्किल की बात है। अगर गड्ढे में गिरोगी, तो मेरा कसूर, कि भगवान मौजूद थे, मैं उनके पास थी, उन्होंने क्यों ध्यान न दिया? अगर मैं ध्यान दूं, तो तुम्हारे आत्मानुशासन में बाधा पड़ती है।
तुम तय कर लो। अगर इस संघ के हिस्से होकर रहना है, तो यह आत्मानुशासन इत्यादि की बातें छोड़ दो। तुम अभी आत्मवान नहीं हो। इसलिए तुम कोई आत्मानुशासन देने में समर्थ नहीं हो। अभी तुम अपने सब इस अहंकार की घोषणा को बंद करो--यह सिर्फ अहंकार की घोषणा है, आत्मा की नहीं। आत्मा अभी है कहां? आत्मा जग जाए, इसलिए सारा अनुशासन दे रहा हूं। जिस दिन जग जाएगी, उस दिन मैं तुमसे खुद ही कहूंगा कि कृष्णप्रिया, अब तू जा, औरों को जगा! अभी यह नहीं कह सकता। अभी इसका कोई उपाय कहने का नहीं है।
सोच लो, एक दफा ठीक निर्णय कर लो, यहां रहना हो तो पूरे रहो, यहां से जाना हो तो पूरे भाव से चली जाओ। ऐसा बीच-बीच में त्रिशंकु होकर रहना ठीक नहीं है।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, पश्चात्ताप का आध्यात्मिक विकास में क्या मूल्य है?
पश्चात्ताप और पश्चात्ताप में फर्क है। एक तो पश्चात्ताप होता है जो व्यर्थ की चिंता है, तुम लौट-लौटकर पीछे देखते हो और सोचते हो--ऐसा न किया होता, वैसा किया होता; ऐसा हो जाता, ऐसा न होता; तो अच्छा होता। यह पश्चात्ताप जो है, यह व्यर्थ का रुदन है। जो दूध गिर गया और बिखर गया फर्श पर, अब उसको इकट्ठा नहीं किया जा सकता। और यह इकट्ठा भी कर लो, तो पीने के काम का नहीं है। जो गया, गया। उसी घाव को खुजलाते रहना बार-बार किसी मूल्य का नहीं है।
अगर तुम्हारा पश्चात्ताप से यही अर्थ हो कि पीछे लौट-लौटकर देखना और रोना और बिसूरना और कहना कि ऐसा न किया होता तो अच्छा था...मगर जो हो गया, हो गया, अब उसको नहीं करने का कोई भी उपाय नहीं है। अतीत में कोई बदलाहट नहीं की जा सकती, इसे स्मरण रखो। यह एक बुनियादी सिद्धांत है, अतीत में कोई बदलाहट नहीं की जा सकती। जैसा हो गया, अंतिम रूप से हो गया। अब इसमें न तो तुम एक लकीर जोड़ सकते, न एक लकीर घटा सकते। अब यह हमारे हाथ में नहीं रहा। यह बात हमारे हाथ से सरक गयी। यह तीर हमारे हाथ से निकल गया, इसे अब तरकस में वापस नहीं लौटाया जा सकता। इसलिए इसके लिए रोने से तो कोई सार नहीं है।
अगर तुम्हारा पश्चात्ताप का यही अर्थ हो--जो कि अक्सर होता है। लोग कहते हैं, पछता रहे हैं, खूब पछता रहे हैं; ऐसा नहीं करते, फलां को गाली दे दी, न देते; यह लाटरी की टिकट खरीदने का मन था और यही नंबर की टिकट मिल रही थी और न खरीदी, आज लखपति हो गए होते; कि इस घोड़े पर लगा दिया होता दांव; कि ऐसा कर लिया होता, कि वैसा कर लिया होता, कि इस बार जनता की टिकट पर खड़े ही हो गए होते। अतीत को तुम अगर बार-बार सोचते हो, इससे कुछ लाभ नहीं है, इसके कारण नुकसान है, क्योंकि इसके कारण तुम भविष्य को नहीं देख पाते और वर्तमान को नहीं देख पाते, तुम्हारी आंखें धुएं से भरी रहती हैं। अतीत को तो जाने दो। आंखें खुली रखो, साफ रखो, जो हो गया, हो गया; जो अभी नहीं हुआ, उसमें कुछ किया जा सकता है।
तो इस अर्थ में तो पश्चात्ताप कभी मत करना, अतीत का चिंतन मत करना।
लेकिन एक पश्चात्ताप का और भी अर्थ होता है कि अतीत से सीख ली, अतीत के अनुभव को निचोड़ा, अतीत से ज्ञान की थोड़ी किरण पायी; जो-जो अतीत में हुआ है, उसको ऐसे ही नहीं हो जाने दिया, जो भी हुआ, उससे कुछ पाठ लिए, उस पाठ के अनुसार आगे जीवन को गति दी, उस पाठ के अनुसार अगले कदम उठाए।
यह छोटी सी कहानी सुनो--
एक सूफी संत थे, बड़े ईश्वरभक्त। पांच दफे नमाज पढ़ने का उनका नियम था। एक रोज थके-मांदे थे, सो गए। जब नमाज का वक्त आ गया तो किसी ने आकर उन्हें जगाया, हिलाकर कहा, उठो-उठो, नमाज का वक्त हो गया है। वे तत्काल ही उठ बैठे और बड़े कृतज्ञ हुए, कहने लगे, भाई, तुमने मेरा बड़ा काम किया, मेरी इबादत रह जाती तो क्या होता! अच्छा अपना नाम तो बताओ। उस आदमी ने कहा, अब नाम रहने दो, उससे झंझट होगी। लेकिन संत ने कहा, कम से कम नाम तो जानूं, तुम्हें धन्यवाद तो दूं। तो उसने कहा, पूछते ही हो तो कह देता हूं, मेरा नाम इबलीस है।
इबलीस है शैतान का नाम। संत तो हैरान हुए, बोले, इबलीस? शैतान? अरे, तुम्हारा काम तो लोगों को इबादत से, धर्म से रोकना है, फिर तुम मुझे जगाने क्यों आए? यह बात तो बड़ी अटपटी है। सुनी नहीं, पढ़ी नहीं; न आंखों देखी, न कानों सुनी, शास्त्रों में कहीं उल्लेख नहीं कि इबलीस और किसी को जगाता हो कि उठो-उठो, नमाज का वक्त हो गया। तुम्हें हो क्या गया है? क्या तुम्हारा दिल बदल गया है?
शैतान ने कहा, नहीं भैया, इसमें मेरा ही फायदा है। एक बार पहले भी तुम ऐसे ही सो गए थे; नमाज का वक्त बीत गया तो मैं बहुत खुश हुआ था, लेकिन जब तुम जागे तो इतना रोए, इतने दुखी हुए, इतने हृदय से तुमने ईश्वर को पुकारा और इतनी तुमने कसमें खायीं कि अब कभी नहीं सोऊंगा, अब कभी भूल नहीं करूंगा, अब मुझे क्षमा कर दो। तब से वर्षों बीत गए हैं, तब से तुम सोए नहीं, तब से तुम नमाज ही नहीं चूके। अब मैंने देखा कि आज तुम फिर सो गए हो, अगर मैं तुम्हें न जगाऊं तो और कठिनाई होगी, तुम इससे भी कुछ पाठ लोगे। तो मैंने सोचा एक दफे नमाज पढ़ लो, वही ज्यादा ठीक है। उसमें मेरी कम हानि है। क्योंकि पिछली दफे तुम चूके, उससे तुम्हें जितना लाभ हुआ, उतना तुमने जितनी नमाजें जिंदगी भर की थीं उनसे भी न हुआ था।
इस फर्क को समझना।
तुम जिंदगीभर नमाज पढ़ते रहे, रोज सुबह-सांझ पांच बार, उससे तुम्हें इतना लाभ नहीं हुआ था, जितना पिछली बार सो गए थे और जब जागे थे तो जिस ढंग से तुम पछताए थे, जिस ढंग से तुम पीड़ित हुए थे, जैसे तुम रोए थे, जैसे तुम जार-जार होकर तड़फे थे, तुम फर्श पर घिसटे थे, तुमने सिर पटका था, तुमने प्रभु को ऐसा याद किया था, उस दिन तुम्हारी नमाज, उस दिन तुम्हारी प्रार्थना परमात्मा तक पहुंच गयी थी! और तब से वर्षों बीत गए, मैंने तुम्हें बहुत सुलाने की कोशिश की, सब किया, लेकिन तुम कभी नहीं सोए, तुम हर हालत में भी नमाज पढ़ते रहे। आज तुम सो गए थके-मांदे, मैं डरा कि कहीं आज फिर तुम सोए रहे, तब तो तुम पता नहीं कितना लाभ ले लोगे उस प्रायश्चित्त से, उस पश्चात्ताप से!
पश्चात्ताप पश्चात्ताप का फर्क है। सिर्फ रोने की ही बात नहीं है, सीखने की बात है। सीखो तो बड़ा लाभ है; जो भूलें तुमने की हैं, वे सभी भूलें काम की हो जाती हैं। सभी भूलें सोने की, अगर सीख लो। अगर न सीखो, तो तुमने जो ठीक भी किया वह भी मिट्टी हो जाता है।
इस गणित को खयाल में लेना। भूल भी सोना हो जाती है, अगर उससे सीख लो। और गैर-भूल भी मिट्टी हो जाती है, अगर कुछ न सीखो। अनुभव तो जिंदगी में सभी को होते हैं, थोड़े से लोग उनसे सीखते हैं। जो सीखते हैं, वे ज्ञानी हो जाते हैं। अधिक लोग उनसे सीखते नहीं। अनुभव तो सभी को बराबर होते हैं, अच्छे के, बुरे के, लेकिन कुछ लोग अनुभवों की राशि लगाकर बैठे रहते हैं, उसकी माला नहीं बनाते। थोड़े से लोग हैं जो अनुभव के फूलों को सीख के धागे से पिरोते हैं और माला बना लेते हैं। वे प्रभु के गले में हार बन जाते हैं।
पाठ खयाल में रखो--जो हुआ, हुआ। वह अन्यथा हो नहीं सकता। लेकिन उसके होने के कारण तुम अन्यथा हो सकते हो। खयाल लेना, गलत पश्चात्ताप उसे कहता हूं मैं जब तुम सोचते हो--जो मैंने किया वैसा न किया होता, अन्यथा हो जाता, कुछ तरकीब हो जाती, ऐसा हो जाता, वैसा हो जाता, क्यों मैंने ऐसा किया, किसी से पूछ लेता, जरा सी बात थी, क्यों चूक गया; इस तरह के पछतावे से कोई लाभ नहीं, क्योंकि तुम अतीत को बदलना चाह रहे हो, तो पश्चात्ताप व्यर्थ।
अगर अतीत में ऐसा हुआ, इससे तुम एक अनुभव लो कि मैं अपने को बदल लूं--तुम अपने को बदल सकते हो, तुम भविष्य हो, तुम अभी हुए नहीं, हो रहे हो, इस में बदलाहट हो सकती है--अगर तुम बदल जाओ तो पश्चात्ताप बड़ा बहुमूल्य है। नमाज से ज्यादा नमाज न हुई उसका पश्चात्ताप है।
छठवां प्रश्न:
भगवान, भगवान बुद्ध ने आनंद से कहा कि स्थान बदलने से समस्या हल होने वाली नहीं है। फिर आप क्यों बार-बार स्थान बदल रहे हैं?
पहली तो बात, भगवान बुद्ध एक स्थान पर दो-तीन सप्ताह से ज्यादा नहीं रहते थे। मैं एक-एक जगह चार-चार, पांच-पांच साल टिक जाता हूं, सो यह तुम दोष मुझ पर न लगा सकोगे कि मैं बार-बार स्थान क्यों बदल रहा हूं। भगवान बुद्ध तो जिंदगीभर बदलते रहे। लेकिन उन्होंने भी समस्या के कारण नहीं बदला और मैं भी समस्या के कारण नहीं बदल रहा हूं। जब आनंद ने कहा उनसे कि हम दूसरे गांव चले चलें, क्योंकि इस गांव के लोग गालियां देते हैं, तो उन्होंने नहीं बदला। इस कारण नहीं बदला। उन्होंने कहा, इस कारण बदलने से क्या सार! इसका मतलब यह मत समझना कि वह स्थान नहीं बदलते थे। स्थान तो बदलते ही थे, बहुत बदलते थे, लेकिन इस कारण उन्होंने कहा स्थान बदलना गलत है।
उस स्थान से भी बदला उन्होंने, आखिर गए उस जगह से, लेकिन तब तक न गए जब तक यह समस्या बहुत कांटे की तरह चुभ रही थी और भिक्षु बदलना चाहते थे--तब तक नहीं गए। जब भिक्षुओं ने उनकी बात सुन ली और समझ ली और भिक्षु राजी हो गए और धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने लगे, जब भिक्षुओं के मन में यह बात ही नहीं रही कि कहीं और चलें, तब चले गए। मगर वे समस्या के कारण नहीं गए।
मैं भी समस्या के कारण नहीं बदलता। समस्या तो सब जगह बराबर है। सच तो बात यह है कि जहां दो-चार-पांच साल रह जाओ, वहां समस्याएं कम हो जाती हैं। लोग राजी हो जाते हैं--क्या करोगे!
मैं वर्षों जबलपुर था, लोग धीरे-धीरे राजी हो गए थे, वे समझते थे कि होगा, दिमाग खराब होगा इनका। जिनको सुनना था, सुनते थे; जिनको नहीं सुनना था, नहीं सुनते थे; बात तय हो गयी थी कि ठीक है, अब क्या करोगे इस आदमी का! शोरगुल मचा लिया, अखबारों में खिलाफ लिख लिया, जुलूस निकाल लिए, क्या करोगे फिर, आखिर कब तक चलाते रहोगे! और भी काम हैं दुनिया में, धर्म कोई एक ही काम तो नहीं, फुर्सत किसको है! जिनको प्रार्थना करने की फुर्सत नहीं, उन्हें मेरा विरोध करने की फुर्सत भी कितनी देर तक रहेगी, यह तो सोचो! आखिर वे राजी हो गए कि ठीक है, अब छोड़ो, भूलो! जिस दिन वे राजी हो गए, उसी दिन मैंने जबलपुर छोड़ दिया। फिर कोई सार न रहा वहां रहने का।
फिर मैंने बंबई में अड्डा जमा लिया। फिर धीरे-धीरे बंबई के लोग भी राजी होने लगे कि ठीक है, तब मैं पूना आ गया। अब पूना के लोग भी राजी होने के करीब आ रहे हैं--अब मैं क्या करूं! जाने का वक्त करीब आ गया। अब पूना में कोई नाराज नहीं है। मुझे पत्र आते हैं मित्रों के, पूना के संन्यासियों के कि अब आप छोड़ते हैं, जब कि सब ठीक-ठाक हुआ जा रहा है! अब लोग नाराज भी नहीं हैं, उतना विरोध भी नहीं कर रहे हैं।
लोगों की सीमा है। अगर तुम धैर्य रखे रहो, तो वे हार जाते हैं, क्या करेंगे! कब तक सिर फोड़ेंगे! मगर जैसे ही यह बात हो जाती है, फिर बदलने का वक्त आ जाता है। अब कहीं और जाएंगे, कहीं और जहां लोग सिर फोड़ेंगे, वहां जाएंगे।
समस्या के कारण नहीं बदली जाती हैं जगहें। समस्याएं हल हो जाती हैं, तो फिर बदल लेते हैं--अब यहां करेंगे भी क्या, मरीज न रहे! जितने लोगों को लाभ हो सकता था, उन्होंने लाभ ले लिया; जो अभागे हैं, उनके लिए बैठे रहने से कुछ लाभ नहीं। अब कहीं और, किसी और कोने से! कहीं और भी लोग प्रतीक्षा करते हैं। यही उचित है।
काफी समय रह लिया यहां। जो ले सकते थे लाभ, उन्होंने ले लिया, उनके कंठ भर गए। जिनके लिए आया था, उनका काम पूरा हो गया। ऐसे तो बहुत भीड़ है पूना में, उससे मेरा कोई लेना-देना नहीं, उनके लिए मैं आया भी नहीं था; उनके लिए मैं आया भी नहीं, उनके लिए मैं यहां रहा भी नहीं। यहां दुनिया में कोने-कोने से लोग आ रहे हैं, लेकिन यहां पड़ोस में लोग हैं जो यहां नहीं आए।
जिनके लिए मैं आया था, उनका काम पूरा हुआ। अब कहीं और!
समस्या के कारण कोई बदलता नहीं--कोई बुद्ध नहीं बदलता समस्या के कारण।
सातवां प्रश्न:
भगवान, मैंने सुना है कि अपात्र व्यक्तियों को संन्यास की दीक्षा नहीं दी जाती है। ऐसा क्यों? क्या अपात्र सदगुरु की करुणा के हकदार नहीं हैं?
इस छोटी सी कहानी को समझो--
अंगार ने ऋषि की आहुतियों का घी पीया, और हव्य के रस चाटे। कुछ देर बाद वह ठंडा होकर राख हो गया और कूड़े की ढेरी पर फेंक दिया गया। ऋषि ने जब दूसरे दिन नए अंगार पर आहुति अर्पित की तो राख ने पुकारा, क्या आज मुझसे रुष्ट हो, महाराज! ऋषि की करुणा जाग उठी और उन्होंने पात्र को पोंछकर एक आहुति राख को भी अर्पित की। तीसरे दिन ऋषि जब नए अंगार पर आहुति देने लगे, तो राख ने गुर्राकर कहा, अरे, तू वहां क्या कर रहा है, अपनी आहुतियां यहां क्यों नहीं लाता? ऋषि ने शांत स्वर में उत्तर दिया, ठीक है राख, आज मैं तेरे अपमान का ही पात्र हूं, क्योंकि कल मैंने मूर्खतावश तुझ अपात्र में आहुति अर्पित करने का पाप किया था।
अपात्र को भी सदगुरु तो देने को तैयार होता है, लेकिन अपात्र लेने को तैयार नहीं। अपात्र का मतलब ही यह होता है कि जो लेने को तैयार नहीं। तो देने से ही थोड़े ही कुछ हल होता है। मैं देने को तैयार हूं, अगर तुम लेने को तैयार न हो, तो मेरे देने का क्या सार होगा? तुम जब तक तैयार नहीं हो, तुम्हें कुछ भी नहीं दिया जा सकता। स्थूल चीजें नहीं दी जा सकतीं, तो सूक्ष्म की तो बात ही छोड़ दो। मैं कोई स्थूल चीज तुम्हें भेंट दूं--फूलों का एक हार भेंट दूं--और तुम फेंक दो। स्थूल चीज भी नहीं दी जा सकती। तो सूक्ष्म--मैं तुम्हें संन्यास दूं, मैं तुम्हें ध्यान दूं, मैं तुम्हें प्रेम दूं--तुम उसे भी फेंक दोगे।
अपात्र का अर्थ खयाल रखना। अपात्र का अर्थ यह है, जो लेने को तैयार नहीं। जो पात्र नहीं है अभी। जो अभी पात्र बनने को राजी नहीं है। पात्र का अर्थ होता है, जो खाली है और भरने को तैयार है। अपात्र का अर्थ होता है जो बंद है और भरने से डरा है और खाली ही रहने की जिद्द किए है। फिर अगर अपात्र को दो तो वह फेंकेगा। और अपात्र को अगर दो तो वह दुर्व्यवहार करेगा--हीरों के साथ कंकड़-पत्थरों जैसा दुर्व्यवहार करेगा।
इसलिए तुम्हारे प्रश्न को समझने की कोशिश करो।
‘मैंने सुना है कि अपात्र व्यक्तियों को संन्यास की दीक्षा नहीं दी जाती।’
ऐसा नहीं कि सदगुरु नहीं देना चाहते, देना चाहते हैं, मगर अपात्र लेते नहीं। और कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि अपात्र ऊपर से कहता हो कि मैं लेना चाहता हूं। लेकिन सदगुरु तुम्हारे भीतर देखता है, तुम्हारे ऊपर की बात नहीं है। तुम्हारी वाणी की बात नहीं है, तुम्हारे प्राण की बात है। वह देखता है, तुम भीतर से तैयार हो कि ऊपर से? ऊपर से तुम किसी और कारण से लेने को राजी हो गए होओ।
यहां मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, संन्यास चाहिए। जब मैं उनसे जरा बात करता हूं कि किसलिए चाहिए? क्या बात है? क्या कारण है? तो कारण ऐसे मिलते हैं जिनका संन्यास से कोई भी संबंध नहीं हो सकता।
एक युवक संन्यास लेने आया। पूछा, कारण क्या है? वह कहता है, नौकरी नहीं लगती। अब नौकरी नहीं लगती तो उसने सोचा कि चलो, किसी आश्रम में ही रहेंगे। मगर यह संन्यास के लिए पर्याप्त कारण मानते हो इसे? नौकरी नहीं लगती। मैंने उससे कहा, और अगर नौकरी लग जाए? तो उसने कहा, अगर आप लगवा दें तो बड़ी कृपा! फिर मैंने कहा, फिर संन्यास का क्या करोगे? तो उन्होंने कहा, अगर नौकरी लगवा दें तो फिर संन्यास की कोई जरूरत ही नहीं है। मैं तो आया ही इसीलिए हूं कि अब कहीं लगती नहीं, ठोकरें खा-खा कर परेशान हो गया, रोजगार दफ्तरों के सामने खड़े-खड़े सुबह से सांझ हो जाती है, नौकरी लगती नहीं; लगवा दें आप, तो फिर क्या जरूरत संन्यास की!
अब बात सीधी-साफ है। कोई बीमार है, सोचता है शायद संन्यास...एक स्त्री अपने बेटे को लेकर आ गयी--वह बचपन से ही पागल है, मस्तिष्क उसका विकसित नहीं हुआ--इसको संन्यास दे दें। वह उसे घसीटती है, इसे संन्यास दे दें। मैं उसे पूछता हूं, इसको लेना है? वह कहती है, इसको तो कुछ होश ही नहीं, यह क्या लेगा-देगा! तो मैंने कहा, तू इसके क्यों पीछे पड़ी है?
तो वह कहती है, शायद संन्यास से इसकी बुद्धि ठीक हो जाए। शायद इसका मस्तिष्क खराब है--चिकित्सक तो हार गए, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कुछ हो नहीं सकता, इसमें बुद्धि के तंतु ही नहीं हैं--तो शायद...।
अब इस तरह संन्यास नहीं घटता। संन्यास इस जगत की सबसे अनूठी घटना है। संगीत सीख सकता है अपात्र, अगर थोड़ी मेहनत करे। कविता भी रच सकता है अपात्र, अगर थोड़ी भाषा मांजे, तुकबंदी साधे। नाच भी सीख सकता है--लंगड़ा भी नाच सीख सकता है--अगर थोड़ा अभ्यास करे। लेकिन संन्यास? संन्यास तो सर्वांग सौंदर्य है। संन्यास तो आखिरी बात है। संन्यास तो आखिरी समन्वय है। संन्यास तो समाधि है। इस पर तो जो सारे जीवन को निछावर कर दे--वे भी अगर पा लें तो धन्यभागी हैं!
तो तुम पूछते हो कि ‘सुना है मैंने अपात्र व्यक्तियों को संन्यास की दीक्षा नहीं दी जाती।’
दीक्षा देने में सदगुरु को कोई कंजूसी नहीं, कोई कृपणता नहीं है, लेकिन अपात्र लेने को राजी नहीं है। अपात्र लेता नहीं है।
पूछते हो, ‘ऐसा क्यों?’
यह बात सीधी-साफ है।
‘और क्या अपात्र सदगुरु की करुणा के हकदार नहीं हैं?’
हकदार शब्द ही गलत है। यह कोई अधिकार नहीं है जिसका तुम दावा करो। यह हकदार शब्द ही अपात्र के मन की दशा की सूचना दे रहा है। संन्यास का कोई हकदार नहीं होता। यह कोई कानूनी हक नहीं है कि इक्कीस साल के हो गए तो वोट देने का हक है। तुम जन्मों-जन्मों जी लिए हो, फिर भी हो सकता है संन्यास के हकदार न होओ। यह हक अर्जित करना पड़ता है। यह हक हक कम है और कर्तव्य ज्यादा है। यह तो तुम्हें धीरे-धीरे कमाना पड़ता है। यह कोई कानूनी नहीं है कि मैं चाहता हूं संन्यास लेना, तो मुझे संन्यास दिया जाए। यह तो प्रसाद-रूप मिलता है। तुम प्रार्थना कर सकते हो, हक का दावा नहीं। तुम प्रार्थना कर सकते हो, हाथ जोड़कर तुम चरणों में बैठ सकते हो कि मैं तैयार हूं, जब आपकी करुणा मुझ पर बरसे, या आप समझें कि मैं योग्य हूं, तो मुझे भूल मत जाना, मैं अपना पात्र लिए यहां बैठा हूं। तुम प्रार्थना कर सकते हो, हक की बातें नहीं कर सकते। हक की बात भी अपात्रता का हिस्सा है।
जीवन में जो महत्वपूर्ण है, सुंदर है, सत्य है, उस पर दावे नहीं होते। हम उसके लिए निमंत्रण दे सकते हैं, हम परमात्मा को कह सकते हैं, तुम आओ तो मेरे दरवाजे खुले रहेंगे। तुम पुकारोगे तो मुझे जागा हुआ पाओगे। मैंने घर-द्वार सजाया है, धूप-अगरबत्ती जलायी है, फूल रखे हैं, तुम्हारी सेज-शय्या तैयार की है, पलक-पांवड़े बिछाए मैं प्रतीक्षा करूंगा, तुम आओ तो मैं धन्यभागी; तुम न आओ, तो समझूंगा अभी मैं पात्र नहीं। यह पात्र का लक्षण है। तुम आओ, तो मैं धन्यभागी! तुम आओ, तो समझूंगा कि प्रसाद है। न आओ, तो समझूंगा अभी पात्र नहीं।
अपात्र की हालत उलटी है। तुम आओ, तो वह समझेगा आ गए, ठीक है! मेरा हक ही था, आना ही था, न आते तो मजा चखाता। आना ही पड़ता, यह मेरा हक है, यह मेरा अधिकार है। न आओ, तो वह नाराज होता है कि बड़ा अन्याय हो रहा है; संसार में अन्याय है, किसी को मिल रहा है, किसी को नहीं मिल रहा है; ज्यादती हो रही है, पक्षपात हो रहा है, भाई-भतीजावाद हो रहा है। अपात्र की भाषा होती है एक।
पात्र की भी एक भाषा होती है। परमात्मा आता है तो पात्र कहता है--प्रसाद। मेरी तो कोई योग्यता न थी, फिर तुम आए! यह पात्र की भाषा है, जरा समझना, बड़ी उलटी भाषा है। पात्र कहता है, मैं तो अपात्र था और तुम आए! मेरी तो कोई योग्यता न थी, मैं मांग सकूं ऐसा तो मेरा कोई आधार न था, सिर्फ तुम्हारी करुणा, तुम्हारा प्रेम, तुम्हारी दया; तुम रहीम हो, तुम रहमान हो, तुम महाकरुणावान हो, इसलिए आए। हक के कारण नहीं। मैं धन्यभागी हूं, अनुगृहीत हूं, यह ऋण चुकाया नहीं जा सकता, मुझ अपात्र पर कृपा की! मुझ अयोग्य की तरफ आंख उठायी! यह पात्र की भाषा है।
अपात्र कहता है, मैं पात्र, मुझसे ज्यादा पात्र और कौन है? और अभी तक नहीं आए? इतनी देर लगा रहे हो? अन्याय मालूम होता है। अपात्र अपनी योग्यता की घोषणा करता है--हक तो योग्यता की घोषणा है।
नहीं, संन्यास तो जीवन का परम फूल है, यह सहजता में खिलता है, यह प्रसादरूप खिलता है। तुम निमंत्रण भेजो और प्रतीक्षा करो। सदगुरु के पास जाओ, निमंत्रण दे दो, निवेदन कर दो, कि आप पुकारेंगे तो मैं तैयार हूं।
मेरे पास आते हैं इतने लोग, उसमें तीन तरह के लोग होते हैं। उसमें जो श्रेष्ठतम होता है, वह मुझसे आकर कहता है कि मैं तैयार हूं, अगर आप मुझे पात्र समझें तो संन्यास दे दें। अगर आप समझें! अगर आप समझें कि अभी मेरी तैयारी नहीं, तो मैं प्रतीक्षा करूंगा। आप पर छोड़ता हूं। जो श्रेष्ठतम है वह कहता है, आप पर छोड़ता हूं। जो उससे नंबर दो है, दोयम है, वह कहता है, मैंने तय कर लिया कि मुझे संन्यास लेना है, आप मुझे संन्यास दें। फिर एक नंबर तीन भी है, वह कहता है, आप संन्यास देना चाहते हैं? अगर आप दें तो मैं विचार करूं कि लूं या न लूं। इस पर मैं विचार करूंगा।
इसमें पहला तो बहुत करीब है भगवान के मंदिर के, द्वार पर खड़ा है। दूसरा ज्यादा दूर नहीं है। तीसरा बहुत दूर है। और चौथे भी लोग हैं, जो आते ही नहीं। उनको तो पता ही नहीं कि भगवान का कोई मंदिर भी होता है, कि संन्यास जैसी भी एक जीवन की दशा होती है; कि चैतन्य का एक नृत्य भी होता है, एक संगीत भी होता है, एक काव्य भी होता है।
आठवां प्रश्न:
भगवान, क्या बुद्ध के पूर्व भी और बुद्ध हुए हैं? और क्या बुद्ध के बाद भी और बुद्ध हुए हैं?
बुद्धत्व चेतना की परमदशा का नाम है। इसका व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। जैसे जिनत्व चेतना की अंतिम दशा का नाम है, इससे व्यक्ति का कोई संबंध नहीं है। जिन अवस्था है। वैसे ही बुद्ध अवस्था है।
गौतम बुद्ध हुए, कोई गौतम पर ही बुद्धत्व समाप्त नहीं हो गया। गौतम के पहले और बहुत बुद्ध हुए हैं। खुद गौतम बुद्ध ने उनका उल्लेख किया है। और गौतम बुद्ध के बाद बहुत बुद्ध हुए। स्वभावतः, गौतम बुद्ध उनका तो उल्लेख नहीं कर सकते। बुद्धत्व का अर्थ है--जाग्रत। होश को आ गया व्यक्ति। जिसने अपनी मंजिल पा ली। जिसको पाने को अब कुछ शेष न रहा। जिसका पूरा प्राण ज्योतिर्मय हो उठा। अब जो मृण्मय से छूट गया और चिन्मय के साथ एक हो गया।
इस छोटी सी झेन-कथा को समझो--
एक दिन सदगुरु पेन ची ने आश्रम में बुहारी दे रहे भिक्षु से पूछा, भिक्षु, क्या कर रहे हो? भिक्षु बोला, जमीन साफ कर रहा हूं, भंते। सदगुरु ने तब एक बहुत ही अदभुत बात पूछी--झेन फकीर इस तरह की बातें पूछते भी हैं, पूछा--यह बुहारी देना तुम बुद्ध के पूर्व कर रहे हो, या बुद्ध के पश्चात?
अब यह भी कोई बात है! बुद्ध को हुए हजारों साल हो गए, अब यह सदगुरु जो स्वयं बुद्धत्व को उपलब्ध है, यह बुहारी देते इस भिक्षु से पूछता है कि यह बुहारी देना तुम बुद्ध के पूर्व कर रहे हो, या बुद्ध के पश्चात? प्रश्न पागलपन का लगता है। मगर परमहंसों ने कई बार पागलपन की बातें पूछी हैं, उनमें बड़ा अर्थ है।
जीसस से किसी ने पूछा है कि आप अब्राहम के संबंध में क्या कहते हैं?
अब्राहम यहूदियों का परमपिता, वह पहला पैगंबर यहूदियों का। इस बात की बहुत संभावना है कि अब्राहम राम का ही दूसरा नाम है--अब राम का। अब सिर्फ आदर-सूचक है, जैसे हम श्रीराम कहते हैं, ऐसे अब राम; अब राम से अब्राहम बना, इस बात की बहुत संभावना है। लेकिन अब्राहम पहला प्रोफेट है, पहला पैगंबर, पहला तीर्थंकर है यहूदियों का, मुसलमानों का, ईसाइयों का। उससे तीनों धर्म पैदा हुए।
तो किसी ने जीसस से पूछा कि आप अब्राहम के संबंध में क्या कहते हैं? तो जीसस ने कहा, मैं अब्राहम के भी पहले हूं। हो गयी बात पागलपन की! जीसस कहां हजारों साल बाद हुए हैं, लेकिन कहते हैं, मैं अब्राहम के भी पहले हूं।
इस झेन सदगुरु पेन ची ने इस भिक्षु से पूछा, यह बुहारी देना तुम बुद्ध के पूर्व कर रहे हो या बुद्ध के पश्चात? पर भिक्षु ने जो उत्तर दिया, वह गुरु के प्रश्न से भी गजब का है! भिक्षु ने कहा, दोनों ही बातें हैं, बुद्ध के पूर्व भी और बुद्ध के पश्चात भी। बोथ, बिफोर एंड आफ्टर। गुरु हंसने लगा। उसने पीठ थपथपायी।
इसे हम समझें। बुद्ध को हुए हो गए हजारों वर्ष, वह गौतम सिद्धार्थ बुद्ध हुआ था, पर बुद्ध होना उस पर समाप्त नहीं हो गया है। आगे भी बुद्ध होना जारी रहेगा। इस बुहारी देने वाले भिक्षु को भी अभी बुद्ध होना है। इसलिए प्रत्येक घटना दोनों है--बुद्ध के पूर्व भी, बुद्ध के पश्चात भी। बुद्धत्व तो एक सतत धारा है। एस धम्मो सनंतनो। हम सदा बीच में हैं। हमसे पहले बुद्ध हुए हैं, हमसे बाद बुद्ध होंगे, हमको भी तो बुद्ध होना है। गौतम पर ही थोड़े बात चुक गयी।
लेकिन हमारी नजरें अक्सर सीमा पर रुक जाती हैं। हमने देखा गौतम बुद्ध हुआ, दीया जला, हम दीए को पकड़कर बैठ गए--ज्योति को देखो, ज्योति तो सदा से है। इस दीए में उतरी, और दीयों में उतरती रही है, और दीयों में उतरती रहेगी।
तो जीसस ठीक कहते हैं कि अब्राहम के पहले भी मैं हूं। यह मेरी जो ज्योति है, यह कोई ऐतिहासिक घटना नहीं है, यह तो शाश्वत है, यह सनातन है, अब्राहम बाद में हुआ, इस ज्योति के बाद हुआ, इस ज्योति के कारण ही हुआ, जिस ज्योति के कारण मैं हुआ हूं। यह परम ज्योति है। यह परम ज्योति शाश्वत है। न इसका कोई आदि है, न इसका कोई अंत है।
बुद्ध ने अपने पिछले जन्मों के बुद्धों का उल्लेख किया है--चौबीस बुद्धों का उल्लेख किया है। एक उल्लेख में कहा है कि उस समय के जो बुद्धपुरुष थे, उनके पास मैं गया। तब गौतम बुद्ध नहीं थे। झुककर बुद्धपुरुष के चरण छुए। उठकर खड़े हुए थे कि बहुत चौंके, क्योंकि बुद्ध ने झुककर उनके चरण छू लिए। तो वे बहुत घबड़ाए, उन्होंने कहा, मैं आपके चरण छुऊं, यह तो ठीक है; अंधा आंख वाले के सामने झुके, यह ठीक है; लेकिन आपने मेरे चरण छुए, यह कैसा पाप मुझे लगा दिया! अब मैं क्या करूं?
वे बुद्ध हंसने लगे। उन्होंने कहा, तुझे पता नहीं, देर-अबेर तू भी बुद्ध हो जाएगा। हम शाश्वत में रहते हैं, क्षणों की गिनती हम नहीं रखते; मैं आज हुआ बुद्ध, तू कल हो जाएगा, क्या फर्क है? आज और कल तो सपने में हैं। आज और कल के पार जो है--शाश्वत--मैं वहां से देख रहा हूं।
फिर तो जब बुद्ध को स्वयं बुद्धत्व प्राप्त हुआ--गौतम को बुद्धत्व प्राप्त हुआ--तो पता है उन्होंने क्या कहा? उन्होंने कहा कि जिस दिन मुझे बुद्धत्व प्राप्त हुआ, उस दिन मैंने आंख खोली और तब मैं समझा उस पुराने बुद्ध की बात, ठीक ही तो कहा था, जिस दिन मुझे बुद्धत्व उपलब्ध हुआ उस दिन मैंने देखा कि सबको बुद्धत्व की अवस्था ही है--उनको पता नहीं है लोगों को, लेकिन है तो अवस्था। अब मेरे पास अंधे लोग आते हैं, लेकिन मैं जानता हूं, आंखें बंद किए बैठे हैं। आंखें उनके पास हैं--उन्हें पता न हो, उन्होंने इतने दिन तक आंखें बंद रखी हैं कि भूल ही गए हों, कभी शायद खोलीं ही नहीं, शायद बचपन से ही बंद हैं, शायद जन्मों से बंद हैं।
बुद्ध कहते हैं, अब मेरे पास कोई आता है, तो वह सोचता है कि उसे कुछ पाना है; और मैं उसके भीतर देखता हूं कि ज्योति जली ही हुई है, जरा नजर भीतर ले जानी है। जरा अपने को ही तलाशना और अपने को ही खोजना और टटोलना है।
और आखिरी प्रश्न:
भगवान, सत्य की खोज का अंत कहां है?
सत्य का अर्थ ही होता है, अनंत। सत्य की खोज का कोई अंत नहीं होता। सत्य की खोज का प्रारंभ तो होता है, अंत नहीं होता है। यात्रा शुरू तो होती है, पूरी नहीं होती। पूरी हो नहीं सकती। क्योंकि पूरी अगर यात्रा हो जाए, तो उसका अर्थ होगा कि सत्य भी सीमित है। तुम आ गए आखिरी सीमा पर, फिर उसके पार क्या होगा?
नहीं, सत्य असीम है। यही तो हमने बार-बार अनेक-अनेक ढंगों से कहा है--परमात्मा अनंत है, असीम है, अपार है, उसका विस्तार है, विराट है। जैसे तुम सागर में उतर जाओ, तो सागर में उतर गए यह तो सच है, लेकिन पूरे सागर को थोड़े ही तुमने पा लिया, अभी सागर बहुत शेष है। तुम तैरते रहो, तैरते रहो, सागर शेष है, और शेष है--तुम जितना पार करते जाओ उतना पार करते जाओ, सागर शेष है।
फिर सागर तो शायद चुक भी जाए--हमारे सागर बहुत बड़े हैं, लेकिन बहुत बड़े तो नहीं, चुक ही जाएंगे; अगर कोई तैरता ही रहे, तैरता ही रहे, तो दूसरा किनारा भी आ जाएगा। परमात्मा का कोई दूसरा किनारा नहीं है। परमात्मा का कोई किनारा ही नहीं है। इसीलिए असीम कहते हैं।
सत्य असीम है, अनंत है। इसलिए सत्य की खोज का अंत! नहीं, कोई अंत नहीं होता।
इस छोटी सी घटना को समझो--
अमरीका का एक बहुत बड़ा मनीषी हुआ--जान डैबी। वह कहा करता था, जीवन जीवन में रुचि का नाम है। जिस दिन वह गयी कि जीवन भी चला गया। सत्य की खोज खोज में रुचि है। सत्य में उतना सवाल नहीं है, जितना खोज में है। मजा मंजिल का नहीं है, यात्रा का है। मजा मिलन का कम है, इंतजारी का है।
इस जान डैबी से उसकी नब्बेवीं वर्षगांठ पर बातचीत करते समय एक डाक्टर मित्र ने कहा, फिलासफी, दर्शन, दर्शन में रखा क्या है! बताइए, आप ही बताइए, दर्शन में रखा क्या है, उस डाक्टर ने पूछा! डैबी ने शांतिपूर्वक कहा, दर्शन का लाभ है, उसके अध्ययन के बाद पहाड़ों पर चढ़ाई संभव हो जाती है। डाक्टर ने समझा नहीं। फिर भी उसने कहा, अच्छा, मान लिया; मान लिया, सही कि दर्शन का यही लाभ है कि पहाड़ों पर चढ़ाई संभव हो जाती है। लेकिन पहाड़ों पर चढ़ने से कौन सा लाभ है? डैबी हंसा और बोला, लाभ यह है कि एक पहाड़ पर चढ़ने के बाद दूसरा ऐसा ही पहाड़ दिखायी पड़ना आरंभ हो जाता है कि जिस पर चढ़ना कठिन प्रतीत होता है। उसके पार होने पर तीसरा। उसके पार होने पर चौथा। और जब तक यह क्रम है और चुनौती है, तब तक जीवन है।
जिस दिन चढ़ने को कुछ शेष नहीं, आकर्षण, चुनौती नहीं, उसी दिन मृत्यु घट जाएगी। और मृत्यु नहीं है, जीवन ही है। एक पहाड़ तुम चढ़ते हो, शायद तुम इसी आशा में चढ़ते हो कि अब चढ़ गए, बस आखिरी आ गया, अब इसके पार कुछ नहीं है, अब तो आराम करेंगे, चादर ओढ़कर सो जाएंगे। पहाड़ पर चढ़ते हो, तब पाते हो कि दूसरा पहाड़ सामने प्रतीक्षा कर रहा है। इससे भी बड़ा, इससे भी विराट, इससे भी ज्यादा स्वर्णमयी! अब फिर तुम्हारे भीतर चुनौती उठी। अब फिर तुम चले। सोचोगे कि अब इस पर पड़ाव डाल देंगे। जिस दिन शिखर पर पहुंचोगे--शिखर पर पहुंचते ही आगे का दिखायी पड़ता है, उसके पहले दिखायी नहीं पड़ता--तब दिखायी पड़ता है और बड़ा पहाड़, मणि-कांचनों से चमकता, रुकना मुश्किल है! ऐसे पहाड़ के बाद पहाड़।
सत्य की खोज अनंत खोज है। यात्रा है और ऐसी यात्रा कि कभी समाप्त नहीं होती। समाप्त नहीं होती, यह शुभ भी है। समाप्त हो जाए तो जीवन समाप्त हो गया।
हम अनंत के यात्री हैं। एस धम्मो सनंतनो।
आज इतना ही।
भगवान, मैं विगत दो-तीन वर्ष से संन्यास लेना चाहता हूं, अब तक नहीं ले पाया। अब जैसी आपकी आज्ञा।
आप तो ऐसे पूछ रहे हैं जैसे मेरी आज्ञा से रुके हों! और जब तीन-चार वर्ष तक झंझट टाल दी है, तो अब झंझट क्यों लेते हैं! जब इतने दिन निकल गए, लेना चाहा और नहीं लिया, थोड़े दिन और हैं, निकल जाएंगे! हिम्मत रखो! हारिए न हिम्मत बिसारिए न राम।
एक आदमी मुल्ला नसरुद्दीन के कंधे पर हाथ रखा और पूछा, अरे मुल्ला, आप तो गर्मियों में कश्मीर जाने वाले थे, नहीं गए? मुल्ला ने कहा कि कश्मीर! कश्मीर तो हम पिछले साल जाने वाले थे; और उसके भी पहले मनाली जाने वाले थे; इस साल तो हम नैनीताल नहीं गए।
घर बैठे-बैठे मजा लो, जाना-आना कहां है! तीन-चार साल से जा रहे हो, संन्यास ले रहे हो, अब आज ऐसी कौन सी अड़चन आ गयी कि लो ही। ऐसे ही मन को समझाए रखो, भुलाए रखो, इतनी बीती थोड़ी रही, वह भी बीत जाएगी।
फिर मुझ से आज्ञा मांगते हो! जैसे मैं संन्यास का विरोधी हूं। सुबह-शाम यही कहता हूं--संन्यास, संन्यास, संन्यास; तुम मुझे सुनते हो कि सोते हो?
मैंने सुना है, एक देश में संत-विरोधी हवा चल रही थी। हवा तो हवा है। कभी इंदिरा के पक्ष में चलती है, कभी जनता के पक्ष में चलती है। हवा का कोई भरोसा तो है नहीं। किसके पक्ष में चलने लगे, किसके विपक्ष में। उस देश में संतों के खिलाफ चल रही थी। एक पहुंचा हुआ सूफी फकीर पकड़ लिया गया। सरकार उसकी सब तरफ से जांच-पड़ताल कर रही थी। वह पहुंचा हुआ आदमी था, उसकी बातें भी सरकारी अफसरों की समझ में नहीं आती थीं। वैसे ही अफसरों के पास दिमाग ही अगर हो तो अफसर ही क्यों होते! लाख दुनिया में और काम थे, फाइलों से सिर मारते! उनकी कुछ समझ में नहीं आता था तो उन्होंने एक बड़े मनोवैज्ञानिक को बुलाया कि शायद यह समझ ले।
मनोवैज्ञानिक ने कुछ प्रश्न पूछे। पहला ही प्रश्न उसने पूछा कि महाशय, क्या आप अपनी नींद में बात करते हैं? उस फकीर ने कहा कि अपनी नींद में नहीं, दूसरों की नींद में जरूर।
आपके संबंध में ऐसा लगता है कि यही हालत मेरी है। तुम्हारी नींद में मैं बात करता हूं, ऐसा लगता है। तुम रोज सुनते हो; सुबह सुनते, सांझ सुनते, अहर्निश एक ही रटन है कि अब जागो, अब तुम पूछ रहे हो कि अब जैसी आपकी आज्ञा! यह तो ऐसे ही हुआ, पुरानी कहावत है कि रातभर राम की कथा सुनी और सुबह पूछा कि सीता राम की कौन थी? यहां तो सारा स्वाद ही संन्यास का है। ऐसे ही बहुत देर हो गयी, अब और देर न करो।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, संत सदा से परिग्रह के विरोध में रहे हैं। लेकिन परिग्रह के बिना तो चलता नहीं। फिर सत्य का खोजी कितना परिग्रह रखे?
संत परिग्रह के विरोध में रहे हैं, ऐसी बात सच नहीं है। परिग्रह भाव के विरोध में जरूर रहे हैं। कुछ न कुछ तो संत को भी रखना पड़ता है--भिक्षापात्र ही सही, लंगोटी ही सही।
कुछ न कुछ जीवन में जरूरी है। फिर कितना, यह बात महत्वपूर्ण नहीं है। क्योंकि आदमी का मन ऐसा है कि चाहे तो लंगोटी से इतना राग बना ले सकता है कि वही नर्क ले जाने के लिए पर्याप्त हो जाए। एक कौड़ी से भी तुम अपना राग ऐसा लगा सकते हो कि दूसरे को कोहिनूर से भी न हो। दूसरा आदमी कोहिनूर को ऐसे छोड़ दे जैसे मिट्टी था और तुम कौड़ी को ऐसे पकड़े रखो जैसे कि तुम्हारा प्राण था। इसलिए वस्तु का सवाल नहीं है, कितनी वस्तु का भी सवाल नहीं है, भाव का सवाल है।
किसी गुरु ने अपने एक युवा संन्यासी को जनक के पास भेजा था। बहुत वर्ष गुरु के पास रहा, कुछ सीखा नहीं। फिर गुरु ने कहा, अब ऐसा कर, तू जनक के पास जा, शायद वे तुझे कुछ सिखा सकें। तो वह बड़ी आशा से गया। वर्षों तक संन्यासियों के बीच रहा था, समझा भला न हो, लेकिन शब्द तो खूब सीख ही गया था। बुद्धि चाहे न जगी हो, स्मृति तो खूब भर ही गयी थी--पंडित हो गया था, प्रज्ञावान न हुआ हो।
जब पहुंचा जनक के दरबार में तो उसने देखा कि सांझ हो गयी है और जनक अपने दरबार में बैठा है, वेश्याएं नाच रही हैं अर्धनग्न, शराब के प्याले ढाले जा रहे हैं; सम्राट बीच में बैठा है, दरबारी आसपास बैठे हैं, बड़े गुलछर्रे चल रहे हैं। वह संन्यासी तो बड़ा हैरान हुआ। उससे तो रहा नहीं गया। उसने कहा, महाराज! हम तो ज्ञान की तलाश में आए थे, यहां तो अज्ञान का नंगा नृत्य हो रहा है। और आप मुझे क्या सिखाएंगे! हद्द हो गयी यह मेरे गुरु की! मालूम होता है मुझे कोई सजा दी। मुझे यहां किसलिए भेजा, यह किन कर्मों का फल कि आपके दर्शन करने भेज दिया? और गुरु के पास नहीं सीख सका, जो कि अपरिग्रही हैं, जिन्होंने सब छोड़ा, तो आप से क्या सीखूंगा, जो कि यहां महल में बैठे राग-रंग के बीच?
जनक ने कहा, महाराज, आ गए हैं तो रात तो आतिथ्य ग्रहण करें। सुबह बात होगी। सुबह जनक ने उठाया, पीछे ही बहती नदी में स्नान करने ले गया कि स्नान कर लें, पूजा कर लें, फिर बैठकर सत्संग होगा। फकीर तो भागा-भागा था, वह तो जल्दी जाना चाहता था। पर उसने कहा, अब सम्राट की बात इनकार भी नहीं की जा सकती--ज्ञानी भला न हो, अज्ञानी तो पक्का है; इनकार करो, कुछ ज्यादा गड़बड़ करो, नाराज हो जाएगा, गर्दन उतरवा दे, कुछ भी कर सकता है! सुन लो इसकी, एकाध दिन गुजार लो। दुष्ट-संग में पड़ गए हैं। ऐसा सोचता हुआ वह जनक के साथ नदी पर गया। दोनों ने वस्त्र किनारे रखे, जनक के वस्त्र बहुमूल्य थे, हीरे-जवाहरात जड़े थे, फकीर की तो एक लंगोटी थी, वह उसने किनारे रख दी, एक लंगोटी पहनकर पानी में उतरा।
जब दोनों स्नान कर रहे थे तब अचानक फकीर चिल्लाया कि अरे देखते हैं, आपके महल में आग लगी है! बड़ी लपटें उठीं, महल धू-धू कर जल रहा है। जनक ने देखा और उसने कहा, हां, लगी है। लेकिन हिला भी नहीं, चला भी नहीं, भागा भी नहीं। फकीर ने कहा, आप खड़े कैसे हैं? अरे दौड़ो, बचाओ! तो जनक ने कहा, महल है, मेरा क्या? जब आया था तो बिना महल के आया था, जब जाऊंगा तो बिना महल के जाऊंगा। और उस फकीर ने कहा, तुम तुम्हारी जानो, मेरी लंगोटी महल के पास ही रखी है, मैं तो चला। वह भागकर उसने कहा कि एक ही लंगोटी मेरे पास, वह कहीं खो न जाए। तब भागते हुए जब उसने लंगोटी उठायी, तब उसे याद पड़ी बात।
वस्तु के परिग्रह का सवाल नहीं है, भाव का सवाल है। मात्रा की मत पूछो, भाव की पूछो। समझ की पूछो।
जीसस के जीवन में उल्लेख है: और तब ईसा जेरोकम के पास आए। नगरसेठ जेरोकम ने मार्ग में अगणित स्वर्णमुद्राएं बिखराकर कहा--प्रभु, मेरी यह तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिए। ईसा ने उस धनराशि के बीच पड़े एक तांबे के सिक्के को उठाकर कहा--यह सबको तू ले जा, जितना मेरे सामर्थ्य में था मैंने ले लिया। इस तांबे के सिक्के का बोझ मुझे अधिक नहीं ढोना पड़ेगा। मैं इसे मल्लाह को दे दूंगा, वह मुझे नदी के पार उतार देगा।
उतना, मात्रा की बात पूछते हो तो उतना, जितने से नदी पार उतर जाओ। यह कहानी बड़ी मीठी है। जेरोकम ने स्वर्णमुद्राएं बिछा दीं रास्तों पर और ईसा से कहा कि आप स्वीकार करें। वह उस समय का बड़े से बड़ा धनी आदमी था जेरोकम। और ईसा ने यहां-वहां नजर डाली--भेंट लाया है तो एकदम इनकार भी न कर सके--एक तांबे का सिक्का उठा लिया और कहा, इतना मेरे लिए पर्याप्त है। सोचा होगा जेरोकम ने, एक तांबे के सिक्के से करोगे क्या? एक तांबे के सिक्के से होता क्या है? पूछा होगा, क्या करिएगा? तो जीसस ने कहा कि नदी पर मल्लाह मिलेगा, उसको मैं यह दे दूंगा, वह मुझे नदी के पार उतार देगा। नदी पार उतरने के लिए इतना काफी है। इसका ज्यादा देर तक बोझ मुझे ढोना न पड़ेगा, बस नदी तक। फिर मल्लाह को दे दूंगा, उस पार हो जाऊंगा।
यह बड़ी प्रतीकात्मक कहानी है। ऐसी घटी हो, न घटी हो, यह सवाल नहीं है। बस इतना ही परिग्रह जितने से इस जीवन की नदी को पार हो जाओ। मगर ध्यान रखना कि असली सवाल भाव का है। तांबे के एक सिक्के को भी तुम इतने जोर से पकड़ ले सकते हो कि वही तुम्हारी फांसी बन जाए। तुमने जितने जोर से पकड़ा, उसी में तुम्हारी फांसी है। ढीला पकड़ना। और जैसे ही छोड़ने का मौका आ जाए, एक क्षण भी झिझकना मत।
और यह भी तुमसे नहीं कह रहा हूं कि आज छोड़कर भाग जाओ। कहां भागकर जाओगे? कहीं तो छप्पर बनाओगे? तो तुम्हारा छप्पर कुछ बुरा नहीं है। किन्हीं के साथ तो रहोगे? तो तुम्हारे पत्नी-बच्चे बुरे नहीं हैं। कहां जाओगे भागकर! सब जगह संसार है। छोड़ने की दौड़ में मत पड़ना।
दो तरह की दौड़ें हैं दुनिया में और दो तरह के पागल हैं दुनिया में। एक, और ज्यादा हो जाए इसकी दौड़ में लगे हैं। और एक, और कम हो जाए इसकी दौड़ में लगे हैं। एक भोगी हैं--कितना बढ़ जाए। एक योगी हैं, त्यागी हैं--इतना और घट जाए! मगर दोनों अतृप्त हैं। जो है, उससे अतृप्त हैं। भोगी कहता है, और ज्यादा हो तो सुख मिलेगा। त्यागी कहता है, और कम हो तो सुख मिलेगा। लेकिन जो है उससे दोनों में से कोई भी सुखी नहीं है।
जिन्होंने पूछा है उनका नाम है--भोगीलाल भाई। तुम छोड़-छाड़ कर भग जाओ, तो मैं तुम्हें नाम दूंगा--योगीलाल भाई। और क्या करूंगा? मगर तुम तुम ही रहोगे। तुम्हारे भीतर की भाव की बात है।
तुम पकड़ते थे पहले, फिर तुम छोड़ने लगोगे; मगर तृप्त तुम तब भी न होओगे। संन्यस्त मैं उसे कहता हूं, जो है उसके साथ राजी है। जेहि विधि राखें राम, तेहि विधि रहिए। जो दे दिया है, जैसा है, राजी है। ले ले प्रभु, तो आज देने को राजी हैं। और दे दे, तो और भी लेने को राजी हैं, ना-नुच नहीं है। और बरसा दे छप्पर तोड़कर अशर्फियां, तो इनकार नहीं करेंगे, कि मैं भोगी नहीं हूं मैं त्यागी हूं, यह क्या कर रहे हैं! क्या अन्याय हो रहा है! या सब ले जाए घर से लूटकर आज--लुटेरा तो है ही भगवान, इसीलिए तो हम उसको हरि कहते हैं; हरि का मतलब होता है चोर, चुरा ले जो, हर ले जो--चोर तो है ही, इधर देता है, उधर छीन भी लेता है। आज दिया, कल ले लेगा। और बीच में तुम बड़ी झंझटों में पड़ जाओगे। मुफ्त झंझटों में पड़ जाओगे।
एक सूफी कहानी है। एक फकीर के दो बड़े प्यारे बेटे थे, जुड़वां बेटे थे। नगर की शान थे। सम्राट भी उन बेटों को देखकर ईर्ष्या से भर जाता था। सम्राट के बेटे भी वैसे सुंदर नहीं थे, वैसे प्रतिभाशाली नहीं थे। उस गांव में रोशनी थी उन दो बेटों की। उनका व्यवहार भी इतना ही शालीन था, भद्र था। वह सूफी फकीर उन्हें इतना प्रेम करता था, उनके बिना कभी भोजन नहीं करता था, उनके बिना कभी रात सोने नहीं जाता था।
एक दिन मस्जिद से लौटा प्रार्थना करके, घर आया, तो आते ही से पूछा, बेटे कहां हैं? रोज की उसकी आदत थी। उसकी पत्नी ने कहा, पहले भोजन कर लें, फिर बताऊं, थोड़ी लंबी कहानी है। पर उसने कहा, मेरे बेटे कहां हैं? उसने कहा कि आपसे एक बात कहूं? बीस साल पहले एक धनपति गांव का हीरे-जवाहरातों से भरी हुई एक थैली मेरे पास अमानत में रख गया था। आज वापस मांगने आया था। तो मैं उसे दे दूं कि न दूं? फकीर बोला, पागल, यह भी कोई पूछने की बात है? उसकी अमानत, उसने दी थी, बीस साल वह हमारे पास रही, इसका मतलब यह तो नहीं कि हम उसके मालिक हो गए। तूने दे क्यों नहीं दी? अब मेरे से पूछने के लिए रुकी है? यह भी कोई बात हुई! उसी वक्त दे देना था। झंझट टलती। तो उसने कहा, फिर आप आएं, फिर कोई अड़चन नहीं है।
वह बगल के कमरे में ले गयी, वे दोनों बेटे नदी में डूबकर मर गए थे। नदी में तैरने गए थे, डूब गए। उनकी लाशें पड़ी थीं, उसने चादर उढ़ा दी थी, फूल डाल दिए थे लाशों पर। उसने कहा, मैं इसीलिए चाहती थी कि आप पहले भोजन कर लें। बीस साल पहले जिस धनी ने ये हीरे-जवाहरात हमें दिए थे, आज वह वापस मांगने आया था और आप कहते हैं कि दे देना था, सो मैंने दे दिए।
यही भाव है। उसने दिया, उसने लिया। बीच में तुम मालिक मत बन जाना। मालकियत नहीं होनी चाहिए। मिल्कियत कितनी भी हो, मालकियत नहीं होनी चाहिए। बड़ा राज्य हो, मगर तुम उस राज्य में ऐसे ही जीना जैसे तुम्हारा कुछ भी नहीं है। तुम्हारा है भी नहीं कुछ। जिसका है उसका है। सबै भूमि गोपाल की। वह जाने। तुम्हें थोड़ी देर के लिए मुख्त्यार बना दिया, कि सम्हालो। तुमने थोड़ी देर मुख्त्यारी कर ली, मालिक मत बन जाओ। भूलो मत। जिसने दिया है, ले लेगा। जितनी देर दिया है, धन्यवाद! जब ले ले, तब भी धन्यवाद! जब दिया, तो इसका उपयोग कर लेना, जब ले ले, तो उस लेने की घड़ी का भी उपयोग कर लेना, यही संन्यासी की कला है, यही संन्यास की कला है।
न तो छोड़ना है संन्यास, न पकड़ना है संन्यास। न तो भोग, न त्याग। संन्यास दोनों से मुक्ति है। संन्यास सभी कुछ प्रभु पर समर्पित कर देने का नाम है। मेरा कुछ भी नहीं, तो मैं छोडूंगा भी क्या? तो जो है उसका उपयोग कर लेना। और उपयोग में यह एक ध्यान रहे कि जिससे तुम नदी पार हो सको।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आमतौर से आप भीड़ की आलोचना करते हैं। लेकिन भगवान बुद्ध के संघ के समर्थन में आपने गुरजिएफ का हवाला देकर समूह-शक्ति को बहुत महत्व दिया। कृपाकर संघ-शक्ति, समूह और भीड़ के भेद को समझाइए।
ऊपर से भेद दिखायी चाहे न पड़े, भीतर बड़ा भेद होता है।
संघ का अर्थ होता है--जिस भीड़ के बीच में एक जाग्रतपुरुष खड़ा हो केंद्र पर। बुद्ध के बिना संघ नहीं होता। संघ के कारण संघ नहीं होता, बुद्ध के कारण संघ होता है। तो संघ शब्द का अर्थ समझ लेना। बहुत से बुझे दीए रखे हैं और एक दीया बीच में केंद्र पर जल रहा है, तो संघ। ये बहुत से बुझे दीए सरक रहे हैं धीरे-धीरे जले दीए के पास। ये जले दीए के पास आए ही इसलिए हैं कि जल जाएं, यही अभीप्सा इन्हें पास ले आयी है। ये बुझे दीए एक-दूसरे से नहीं जुड़े हैं, इनका कोई संबंध अपने पड़ोसी बुझे दीए से नहीं है। इनकी सबकी नजरें उस जले दीए पर लगी हैं, इन सबका संबंध उस जले दीए से है।
मेरे पास इतने संन्यासी हैं। उनका कोई संबंध एक-दूसरे से नहीं है। अगर एक-दूसरे के पास हैं, तो सिर्फ इसी कारण कि दोनों मेरे पास हैं--और कोई कारण नहीं है। तुम यहां बैठे हो, कितने देशों के लोग यहां बैठे हैं। तुम्हारे पास बैठा है कोई इंग्लैंड से है, कोई ईरान से है, कोई अफ्रीका से है, कोई जापान से है, कोई अमरीका से है, कोई स्वीडन से है, कोई स्विट्जरलैंड से है, कोई फ्रांस से, कोई इटली से। तुम्हारा पड़ोस में बैठे आदमी से कोई भी संबंध नहीं है, न पास में बैठी स्त्री से कोई संबंध है। तुम्हारा संबंध मुझसे है, उसका भी संबंध मुझसे है। तुम दोनों की नजर मुझ पर लगी है। यद्यपि तुम सब साथ बैठे हो, लेकिन तुम्हारा संबंध सीधा नहीं है।
संघ का अर्थ होता है--जहां एक जला हुआ दीया है और सब बुझे दीयों की नजर जले दीए पर लगी है; उस केंद्र की तरफ वे सरक रहे हैं, आहिस्ता-आहिस्ता, लेकिन सुनिश्चित कदमों से। एक-एक इंच, लेकिन बढ़ रहे हैं। एक-एक बूंद, लेकिन जग रहे हैं। जिस क्षण बहुत करीब आ जाएंगी दोनों की बातियां, उस दिन छलांग होगी। जले हुए दीए से ज्योति बुझे दीए में उतर जाएगी। ज्योति से ज्योति जले। जले दीए की ज्योति जरा भी कम नहीं होगी, बुझे दीए की ज्योति जग जाएगी। बुझे को मिल जाएगी, जले की कम न होगी।
यही सत्संग है। जो देता है, उसका कम नहीं होता। और जिसे मिलता है, उसके मिलने का क्या कहना, कितना मिल जाता है!
उपनिषद कहते हैं, पूर्ण से पूर्ण निकाल लो तो भी पीछे पूर्ण शेष रह जाता है। सत्संग में यह रोज घटता है। ईशावास्य के इस अपूर्व वचन का निर्वचन रोज सत्संग में होता है। सत्संग का अर्थ होता है--कोई पूर्ण हो गया है, उससे तुम पूर्ण भी निकाल लो तो भी वह पूर्ण का पूर्ण ही रहता है। वहां कुछ कमी नहीं आती। तुम सूने थे, पूरे हो जाते हो; तुम खाली थे, भर जाते हो; तुम्हारा पात्र लबालब हो जाता है, छलकने लगता है। और ऐसी-वैसी छलकन नहीं, ऐसी छलकन कि अब तुमसे कोई पूरा ले ले, तो भी तुम खाली नहीं होते।
संघ का अर्थ होता है--केंद्र पर जाग्रतपुरुष हो, बुद्ध हो, जिन हो, कोई जिसने स्वयं को जीता और जो स्वयं में जागा, भगवत्ता हो केंद्र पर, तो उसके आसपास जो बुझे हुए लोग इकट्ठे हो जाते हैं, सोए-सोए लोग। माना कि सोए हैं, लेकिन उनके जीवन में भी जागने का कम से कम सपना तो पैदा हो गया। जागे नहीं हैं, सच, लेकिन जागने का सपना तो पैदा हो गया है, जागने की तरफ बढ़ने तो लगे हैं, टटोलने लगे हैं। अंधेरे में टटोल रहे हैं, अभी टटोलने में बहुत व्यवस्था भी नहीं हो सकती, लेकिन आभास मिलने लगे हैं।
कभी सुबह देखते हैं न, नींद टूटी नहीं है, जागे भी नहीं हैं, ऐसी दशा होती है कभी। हल्की-हल्की नींद भी है अभी और हल्की-हल्की जाग भी आ गयी--दूध वाला दूध दे रहा है द्वार पर खड़ा, यह सुनायी पड़ता सा मालूम भी पड़ता है, पत्नी चाय इत्यादि बनाने लगी है चौके में, आवाज बर्तनों की सुनायी भी पड़ती है; बच्चे स्कूल जाने की तैयारी करने लगे हैं, उनका लड़ाई-झगड़ा, उनका कोलाहल भी सुनायी पड़ता है; यह सब सुनायी पड़ता है, और तुम जागे भी नहीं हो, और तुम सोए भी नहीं हो। यह बीच की दशा है, जिसको योग में तंद्रा कहा है--जागरण और निद्रा के जो बीच में है दशा।
संघ का अर्थ होता है--बिलकुल सोए हुए आदमी जो गहरी अंधेरी रात में पड़े हैं, वे तो बुद्धों के पास आते नहीं; जो जाग गए हैं, उन्हें आने की जरूरत नहीं है...जो जाग ही गया, जो स्वयं ही बुद्ध हो गया, वह क्यों आए! किसलिए आए! कोई प्रयोजन नहीं। जो गहरा सोया है कि उसे होश ही नहीं है, वह कैसे आए! वह बुद्ध के पास से निकल जाता है और उसे रोमांच नहीं होता। वह बुद्ध की हवा से गुजर जाता है और उसे हवा का स्पर्श भी नहीं होता। वह गहरा सोया है। लेकिन इन दोनों के बीच की दशा वाले लोग भी हैं, जो जागे भी नहीं हैं कि बुद्ध हो गए हों और इतने सोए भी नहीं हैं कि बुद्ध होने की आकांक्षा न हो। उन तंद्रा से भरे लोगों, उन जलने की आकांक्षा से भरे बुझे दीयों से संघ बनता है।
लेकिन संघ का मौलिक आधार होता है, बुद्धपुरुष। केंद्र में बुद्ध हों, तो ही संघ बनता है।
दूसरा शब्द है, संगठन। जिस दिन बुद्ध विदा हो जाते हैं, जला दीया विलीन हो जाता है, निर्वाण को उपलब्ध हो जाता है, लेकिन उस जले दीए ने जो बातें कही थीं, जो व्यवस्था दी थी, जो अनुशासन दिया था; उस शास्ता ने जो कहा था, जो देशना दी थी, उसका शास्त्र रह जाता है; उस शास्त्र के आधार पर जो बनता है, वह संगठन। संघ की खूबी तो इसमें न रही। संघ के प्राण तो गए। संगठन मरा हुआ संघ है। कुछ-कुछ भनक रह गयी, कभी जाना था किसी जाग्रतपुरुष का सान्निध्य, कभी उसके पास उठे-बैठे थे, कभी उसकी सुगंध नासापुटों में भरी थी, कभी उसकी बांसुरी की मनमोहक तान हमारी तंद्रा में हमें सुनायी पड़ गयी थी, कभी किसी ने हमें प्रमाण दिया था अपने होने से कि ईश्वर है, कभी किसी की वाणी हमारे हृदय को गुदगुदा गयी थी, बंद कलियां खुली थीं; कभी कोई बरसा था सूरज की भांति हम पर और हम भी अंकुरित होने शुरू हुए थे, याद रह गयी, श्रुति रह गयी, स्मृति रह गयी, शास्त्र रह गया--शास्ता गया, शास्त्र रह गया। शास्ता और शास्त्र शब्द का संबंध समझ लेना, वही संबंध संघ और संगठन का है।
शास्ता जीवंत था। जो कहता था, वैसा था भी। फिर वाणी रह गयी, संग्रह रह गया, संहिता रह गयी। कहने वाला गया, अब तुम नए प्रश्न पूछोगे तो उत्तर न मिलेंगे; अब तो तुम पुराने प्रश्न, जिनके उत्तर दिए गए हैं, वे ही पूछो तो उत्तर मिल जाएंगे। अब नया संवेदन नहीं होता, अब नयी वाणी जाग्रत नहीं होती, अब नयी तरंग नहीं उठती, अब नयी बांसुरी नहीं बजती--रेकार्ड रह गया। शास्त्र यानी रेकार्ड। गायक तो जा चुका, रेकार्ड रह गया। ग्रामोफोन पर रखोगे, तो गायक जैसा ही लगता है--जैसा! लेकिन रेकार्ड रेकार्ड है। और अगर जीवित व्यक्ति तुम्हें न बदल सका तो रेकार्ड तुम्हें कैसे बदलेगा?
संघ जब मर जाता अर्थात जब शास्ता विदा हो जाता, तो संगठन पैदा होता है। शास्ता के वचन रह जाते हैं। जैसे सिक्खों के दस गुरु हुए। जब तक दस गुरु थे, तब तक सिक्ख-धर्म संघ था। जिस दिन अंतिम गुरु ने तय किया कि अब कोई गुरु नहीं होगा और गुरुग्रंथ ही गुरु होगा, उसी दिन से संगठन। जब तक बुद्ध थे, तब तक संघ। जब बुद्ध जा चुके, भिक्षु इकट्ठे हुए और उन्होंने अपनी-अपनी स्मृतियों को उंडेलकर रेकॉर्ड तैयार किया कि बुद्ध ने किससे कब क्या कहा था, किसने कब बुद्ध को क्या कहते सुना था, सब भिक्षुओं ने अपनी स्मृतियां टटोलीं और सारी स्मृतियों का संग्रह किया, तीन शास्त्र बने--त्रिपिटक। सारे भिक्षुओं ने अपनी स्मृति उंडेलकर, जो-जो बुद्ध ने कहा था, जिसने जैसा समझा था वैसा इकट्ठा कर दिया, तब संगठन बना। बुद्ध तो गए, याद रह गयी।
फिर एक घड़ी ऐसी आती है कि बीच में शास्ता तो होता ही नहीं, शास्त्र भी नहीं होता, तब उस स्थिति को हम कहते हैं--समूह। हम ही आपस में तय करते हैं कि हमारा अनुशासन क्या हो। हम कैसे उठें, कैसे बैठें, कैसे एक-दूसरे से संबंध बनाएं।
फर्क समझना।
जब बुद्ध जीवित थे, सबकी नजरें बुद्ध पर लगी थीं, सब बुद्ध से जुड़े थे, तार बुद्ध से जुड़े थे, आपस में अगर पास भी थे तो भी इससे कुछ लेना-देना न था, कोई संग न था। संग बुद्ध के साथ था। आपस में साथ थे, क्योंकि सब एक दिशा में जाते थे, इसलिए साथ हो लिए थे; और कोई साथ न था--संयोग था साथ।
बुद्ध गए, शास्त्र बचा, अब संबंध बुद्ध से तो नहीं रह जाएगा, बुद्ध के शब्द से रहेगा। स्वभावतः, बुद्ध के शब्द को जो लोग ठीक से समझा सकेंगे, बुद्ध के शब्द की जो ठीक से व्याख्या कर सकेंगे--पंडित और पुरोहित--महत्वपूर्ण हो जाएंगे। व्याख्याकार महत्वपूर्ण हो जाएंगे। और व्याख्याकार एक नहीं होंगे, अनेक होंगे।
बुद्ध के मरते ही बुद्ध का संघ अनेक शाखाओं में टूट गया। टूट ही जाएगा। क्योंकि किसी ने कुछ व्याख्या की, किसी ने कुछ व्याख्या की। अब तो व्याख्या करने वाले स्वतंत्र हो गए, अब बुद्ध तो मौजूद न थे कि कहते कि नहीं, ऐसा मैंने नहीं कहा, कि मेरे कहने का ऐसा अर्थ है। बुद्ध के मौजूद रहते ये व्याख्याकार सिर भी उठा नहीं सकते थे। क्योंकि जब बुद्ध ही मौजूद हैं तो कौन उनकी सुनेगा कि बुद्ध ने क्या कहा! बुद्ध के हटते ही बड़े दार्शनिक खड़े हो गए, पंडित खड़े हो गए, अलग-अलग व्याख्याएं, अलग-अलग संप्रदाय बन गए; बड़े भेद, बड़े विवाद। एक ही आदमी की वाणी के इतने भेद, इतने विवाद!
और निश्चित ही जिसको जिसकी बात ठीक लगी, वह उसके साथ हो लिया। अब बुद्ध से तो संबंध न रहा, बुद्ध के व्याख्याकारों से संबंध हो गया। बुद्ध तो जाग्रतपुरुष थे, इसलिए जाग्रत का और सोए का संबंध हो तो कुछ लाभ होता। अब ये जो व्याख्याकार हैं, ये इतने ही सोए हुए हैं जितने तुम सोए हुए हो, यह सोए से सोए का संबंध है, तो बनता है संगठन।
मगर फिर भी ये जो व्याख्या करते हैं, कम से कम बुद्ध के वचनों की करते हैं। दूर की ध्वनि सही, बहुत दूर की ध्वनि, बुद्ध को पुकारे समय हो गया, लेकिन शायद इन्होंने बुद्ध की बात सुनी थी, उसको विकृत भी कर लिया होगा, उसको काटा-छांटा भी होगा, तोड़ा-मरोड़ा भी होगा, फिर भी कुछ बुद्ध की बात तो उसमें शेष रह ही जाएगी, कुछ रंग तो रह ही जाएगा।
तुम इस बगीचे से गुजर जाओ, घर पहुंच जाओ, बगीचा दूर रह गया, वृक्ष दूर रह गए, फूल दूर रह गए, फिर भी तुम पाओगे, तुम्हारे वस्त्रों में थोड़ी सी गंध चली आयी। वस्त्र याद दिलाएंगे कि बगीचे से होकर गुजरे हो। थोड़े रंगे रह गए, तो संगठन।
जब यह रंग भी खो जाता है, जब व्याख्याकारों की भी व्याख्या होने लगती है, जब व्याख्याकार भी मौजूद नहीं रह जाते, जिन्होंने बुद्ध को देखा, सुना, समझा; अब इनको सुनने, समझने वाले व्याख्या करने लगते हैं--तो फिर बहुत दूरी हो गयी, तब स्थिति हो जाती है समूह की। अब तो सोए-सोए अंधे अंधों को मार्ग दिखाने लगते हैं।
समझो कि बुद्ध के पास आंख थी, बुद्ध के व्याख्याकारों के पास कम से कम चश्मा था, ये जो व्याख्याकारों के व्याख्याकार हैं, इनके पास चश्मा भी नहीं। ये ठीक तुम जैसे अंधे हैं। शायद तुमसे ज्यादा कुशल हैं बोलने में, शायद तुमसे ज्यादा कुशल हैं तर्क करने में, शायद तुमसे अच्छी इनकी स्मृति है, शायद तुमसे ज्यादा इन्होंने अध्ययन किया है, पर और कोई भेद नहीं है, चेतनागत कोई भेद नहीं है। इतना भी भेद नहीं है कि ये बुद्ध के सान्निध्य में रहे हों। इतना भी भेद नहीं है, तो समूह।
फिर एक ऐसा समय भी आता है, जब ये भी नहीं रह जाते, जब कोई व्यवस्था नहीं रह जाती, व्यवस्थामात्र जब शून्य हो जाती है और जब अंधे एक-दूसरे से टकराने लगते हैं, उसका नाम भीड़ है।
इन चार शब्दों का अलग-अलग अर्थ है। संघ, शास्ता जीवित है। संगठन, शास्ता की वाणी प्रभावी है। समूह, शास्ता की वाणी भी खो गयी लेकिन अभी कुछ व्यवस्था शेष है। भीड़, व्यवस्था भी गयी; अब सिर्फ अराजकता है।
मैं संघ के पक्ष में हूं। संगठन के पक्ष में नहीं। समूह के तो होऊंगा कैसे! भीड़ कीतो बात ही छोड़ो!!
जब तुम्हें कभी कोई जीवित जाग्रतपुरुष मिल जाए, तो डूब जाना उसके संघ में। ऐसे अवसर बहुत कम आते हैं पृथ्वी पर, कभी-कभी आते हैं, उसको चूकना मत। उसको चूके तो बहुत पछताना होता है। और फिर पछताने से भी कुछ होता नहीं। फिर पछताए होत का, जब चिड़िया चुग गयी खेत। फिर सदियों तक लोग रोते हैं।
कई दफे तुम्हारे मन में भी आता होगा--काश, हम भी बुद्ध के समय में होते! काश, हम भी महावीर के साथ चले होते उनके पदचिह्नों पर! काश, हमने भी जीसस को भर-आंख देखा होता! या काश, मोहम्मद के वचन सुने होते! कि कृष्ण के आसपास हम भी नाचे होते उस मधुर बांसुरी को सुनकर! यह पछतावा है।
तुम भी मौजूद थे, तुम जरूर मौजूद थे, क्योंकि तुम बड़े प्राचीन हो। तुम उतने ही प्राचीन हो जितना प्राचीन यह अस्तित्व है--तुम सदा से यहां रहे हो। तुमने न मालूम कितने बुद्धपुरुषों को अपने पास से गुजरते देखा होगा, लेकिन देख नहीं पाए। फिर पछताने से कुछ भी नहीं होता। जो गया, गया। जो बीता, सो बीता। अभी खोजो कि यह क्षण न बीत जाए। इस क्षण का उपयोग कर लो।
इसलिए बुद्ध बार-बार कहते हैं, एक पल भी सोए-सोए मत बिताओ। जागो, खोजो। अगर प्यास है, तो जल भी मिल ही जाएगा। अगर जिज्ञासा है, तो गुरु भी मिल ही जाएगा। अगर खोजा, तो खोज व्यर्थ नहीं जाती। परमात्मा की तरफ उठाया कोई भी कदम कभी व्यर्थ नहीं जाता है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, मेरे मन में कभी-कभी आपके प्रति बड़ा विद्रोह भड़कता है और मैं जहां-तहां आपकी छोटी-मोटी निंदा भी कर बैठती हूं। कहा गया है कि गुरु की निंदा करने वाले को कहीं ठौर नहीं। मैं क्या करूं?
पूछा है कृष्णप्रिया ने।
जहां तक कृष्णप्रिया को मैं समझता हूं, इसमें कुछ गलतियां हैं प्रश्न में, वह ठीक कर दूं।
कहा है, ‘मेरे मन में कभी-कभी आपके प्रति बड़ा विद्रोह उठता है।’
ऐसा मुझे नहीं लगता। मुझे तो लगता है, विद्रोह स्थायीभाव है। कभी-कभी शायद मेरे प्रति प्रेम उमड़ता हो। लेकिन कभी-कभी विद्रोह उमड़ता है, यह बात सच नहीं है। विद्रोह तुम्हारी स्थायी दशा है। और वह जो कभी-कभी प्रेम उमड़ता है, वह इतना न्यून है कि उसके होने न होने से कुछ बहुत फर्क पड़ता नहीं।
और कृष्णप्रिया की दशा कुत्ते की पूंछ जैसी है। रखो बारह साल पोंगरी में, जब पोंगरी निकालो, फिर तिरछी की तिरछी। कभी-कभी मुझे भी लगता है कि शायद कृष्णप्रिया के संबंध में मुझे भी निराश होना पड़ेगा--होऊंगा नहीं, वैसी मेरी आदत नहीं है--लेकिन कृष्णप्रिया के ढंग देखकर कभी-कभी मुझे भी लगने लगता है कि यह पूंछ सीधी होगी? यह भी मुझे खयाल आता है कि कृष्णप्रिया यह पूंछ तिरछी रहे, इसमें मजा भी ले रही है। इससे विशिष्ट हो जाती है। इससे लगता है--कुछ खास है, औरों जैसी नहीं है। खास होने के लिए कोई और अच्छा ढंग चुनो। यह भी कोई खास होने का ढंग है!
राबर्ट रिप्ले ने बहुत सी घटनाएं इकट्ठी की हैं सारी दुनिया से। उसकी बड़ी प्रसिद्ध किताबों की सीरीज है: बिलीव इट आर नाट, मानो या न मानो। उसने सब ऐसी बातें इकट्ठी की हैं जिनको कि तुम पहली दफा सुनकर कहोगे, मानने योग्य नहीं। मगर मानना पड़ेगी, क्योंकि वह तथ्य है। उसने एक आदमी का उल्लेख किया है जो सारे अमरीका में अपनी छाती के सामने एक आईना रखकर उलटा चला। कारण! बड़ी मेहनत का काम था उलटा चलना। पूरा अमरीका उलटा चला। कारण जब पूछा गया तो उसने कहा कि मैं प्रसिद्ध होना चाहता हूं। वह प्रसिद्ध हो भी गया।
एक आदमी प्रसिद्ध होना चाहता था, तो उसने अपने आधे बाल काट डाले, एक तरफ के बाल काट डाले, आधी खोपड़ी साफ कर ली और घूम गया न्यूयार्क में। तीन दिन घूमता रहा, अखबारों में खबरें छप गयीं, टेलीविजन पर आ गया, पत्रकार उसके पीछे आने लगे कि भई, यह बात क्या है? और वह चुप्पी रखता था। तीन दिन बाद वह बोला कि मुझे प्रसिद्ध होना था।
मगर ऐसे अगर प्रसिद्ध भी हो गए तो सार क्या? यह कोई बड़ी सृजनात्मक बात तो न हुई!
ऐसा लगता है कि कृष्णप्रिया सोचती है कि इस तरह की बातें करने से कुछ विशिष्ट हुई जा रही है। यहां विशिष्ट होने के हजार उपाय तुम्हें दे रहा हूं--ध्यान से विशिष्ट हो जाओ, प्रेम से विशिष्ट हो जाओ, प्रार्थना से विशिष्ट हो जाओ। कुछ सृजनात्मक करो, विशिष्टता ही का कोई मूल्य नहीं होता। नहीं तो मूढ़ता से भी आदमी विशिष्ट हो जाता है।
जाओ, रास्ते पर जाकर शीर्षासन लगाकर खड़े हो जाओ, विशिष्ट हो गए। पूना हेराल्ड का पत्रकार पहुंच जाएगा, फोटो ले लेगा। नंगे घूमने लगो, प्रसिद्ध हो जाओगे। मगर उससे तुम्हारी आत्मा को क्या लाभ होगा? कहां तुम्हारा विकास होगा? कई बार ऐसा हो जाता है कि हम गलत उपाय चुन लेते हैं विशिष्ट होने के, रुग्ण उपाय चुन लेते हैं। कृष्णप्रिया ने रुग्ण उपाय चुने हुए हैं।
वैसे मैं यह नहीं कहता कि अगर इसमें ही तुम्हें आनंद आ रहा हो तो बदलो। मैं किसी के आनंद में दखल देता ही नहीं। अगर इसमें ही आनंद आ रहा है, तुम्हारी मर्जी! मेरे आशीर्वाद। इसको ऐसा ही जारी रखो।
तुम कहती हो कि ‘मैं छोटी-मोटी निंदा आपकी कर बैठती हूं।’
फिर छोटी-मोटी क्या करनी! फिर ठीक से ही करो। जब मजा ही लेना हो, तो छोटा-मोटा क्या करना! जब चोरी ही करनी हो, तो फिर कौड़ियों की क्या करनी! फिर ठीक से निंदा करो। फिर दिल खोलकर निंदा करो और मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है, इसलिए चिंता की कोई जरूरत नहीं है।
‘और कहा गया है कि गुरु की निंदा करने वाले को कहीं ठौर नहीं।’
वह किसी डरे हुए गुरु ने कहा होगा, मैं नहीं कहता। मैं तो कहता हूं, फिक्र छोड़ो, ठौर मैं हूं तुम्हारी। तुम करो निंदा जितनी तुम्हें करनी हो, मैं तुम पर नाराज नहीं हूं, और कभी नाराज नहीं होऊंगा। अगर तुम्हें इसी में मजा आ रहा है, अगर यही तुम्हारा स्वभाव है, अगर यही तुम्हारी सहजता है कि इससे ही तुम्हें कुछ मिलता मालूम पड़ता है, तो मैं बाधा न बनूंगा; फिकर छोड़ो कि गुरु की निंदा करने वाले को कहीं ठौर नहीं। मैं तुमसे कहता हूं, मैं हूं ठौर तुम्हारा। तुम्हें जितनी निंदा करनी हो, करो। वह जिन्होंने कहा होगा, कमजोर गुरु रहे होंगे। निंदा से डरते रहे होंगे।
मेरी निंदा से मुझे कोई भय नहीं है। तुम्हारी निंदा से मेरा कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। और पराए तो मेरी निंदा करते ही हैं, अपने करेंगे तो कम से कम थोड़ी कुशलता से करेंगे--यह भी आशा रखी जा सकती है। करो!
मगर एक बात खयाल रखना, इससे तुम्हारा विकास नहीं होता है। इसलिए मुझे दया आती है। इससे तुम्हें कोई गति नहीं मिलती। मेरी निंदा करने से तुम्हें क्या लाभ होगा? इस पर ध्यान करो। थोड़े स्वार्थी बनो। थोड़ी अपनी तो सोचो कि मुझे क्या लाभ होगा? यह समय मेरा व्यर्थ जाएगा। अब कृष्णप्रिया यहां वर्षों से है, और मैं समझता हूं, वह यहां न होती तो कुछ हानि नहीं थी--कुछ लाभ उसे हुआ नहीं; व्यर्थ ही यहां है; यहां होने न होने से कुछ मतलब नहीं है।
कृष्णप्रिया का ही दूसरा प्रश्न है:
मैं कभी-कभी आश्रम से भागना चाहती हूं, लेकिन आपसे नहीं भागना चाहती। व्यवस्था जो अनुशासन हम पर लादती है, वह मुझे सहन नहीं होता। क्या यह आरोपित अनुशासन आत्मानुशासन के विकास में बाधा नहीं है?
‘मैं कभी-कभी आश्रम से भागना चाहती हूं, लेकिन आपसे नहीं भागना चाहती।’
मेरा कोई कसूर! मेरी कोई भूल-चूक! मेरा कोई कर्मों का लेना-देना है! और फिर अगर मुझसे नहीं भागना चाहती तो कोई अड़चन नहीं, मुझे अपने हृदय में रखो और कहीं भी रहो। यह आश्रम भी तुम भाग जाओगी तो इतना ही प्रसन्न होगा, जितनी तुम प्रसन्न होओगी। तुम्हारे होने से यहां कोई भी प्रसन्न नहीं है, यह खयाल में ले लो। तुम खुद ही प्रसन्न नहीं हो तो कोई और कैसे प्रसन्न होगा?
तुम यहां होकर अगर प्रसन्न हो, तो ही कोई दूसरा तुम्हारे होने से प्रसन्न हो सकता है। प्रसन्नता तुम्हारे भीतर से प्रगट होती है। तुम अगर आनंदित हो, तो ही इस आश्रम के वासी तुम्हारे होने से आनंदित होंगे। अगर तुम दुखी हो और परेशान हो और यहां तुम्हें भला नहीं लगता, तो तुम्हारे कारण यहां कोई प्रसन्न नहीं है। तुम्हारी बड़ी कृपा होगी तुम चली जाओ तो! कोई तुमसे कह भी नहीं सकता है कि तुम चली जाओ, कोई तुमसे कह भी नहीं रहा है। लेकिन अगर तुम्हारे मन में यह बार-बार बात उठती है, तो तुम कृपा करो! तुम कोई युगांडा की प्रेसीडेंट तो हो नहीं--इदी अमीन तो हो नहीं--कि पूरा इंग्लैंड कह रहा है, कृपा करके आप न आएं, मगर वह सज्जन हैं कि जा ही रहे हैं। इंग्लैंड ने उनको खबर भेजी है कि कामनवेल्थ की सभा में हम आपका स्वागत करने में असमर्थ हैं, मगर वह जा ही रहे हैं!
कोई तुमसे कहता नहीं कि तुम भाग जाओ, कोई तुम्हें रोक भी नहीं रहा है, खयाल रखना। कोई तुम्हारा हाथ पकड़कर रोक भी नहीं रहा है कि तुम यहां रहो। तुम्हारे जाने से हलकापन ही होगा। और तुम जो जगह भरे हो, वहां कोई दूसरा आदमी विकसित होने लगेगा। तुम तो विकसित होती मालूम नहीं होती, तुम्हारा होना न होना बराबर है। मैं नहीं कह रहा हूं कि चली जाओ, मैं इतना ही कह रहा हूं कि अगर तुम्हारे मन में यह भागने का भाव बार-बार उठता है, तो इस भाव को सुनो, इसका अनुकरण करो। यह तुम्हारे ही अंतरात्मा की आवाज है। कौन जाने यही अंतरात्मा की आवाज तुम्हें ठीक रास्ते पर ले जाए, तुम्हारा रास्ता कहीं और हो, तुम्हारा गुरु कहीं और हो!
रही मेरी बात, सो मुझे तुम अपने हृदय में रखना जहां भी रहो, और जहां भी रहो छोटी-मोटी या बड़ी, जैसी निंदा बने करते रहना। मुझे तुम माफ न कर सकोगी, यह मुझे मालूम है। इसलिए जहां रहो वहीं, जो काम यहां करती हो वहां करना। इसमें अड़चन क्या है? मेरे पास रहकर कर ही क्या रही हो यहां? छोटी-मोटी निंदा करती हो--कहती हो--मैं कहता हूं, बड़ी भी करो। पूना रहीं कि पटना, पटना में चलाना यही काम। तो मेरे से तो संग-साथ बना ही रहेगा, आश्रम तुमसे मुक्त हो जाएगा, तुम आश्रम से मुक्त हो जाओगी।
खयाल रखो, आश्रम में जो व्यवस्था है, वह मेरे निर्देश से है। जिनका मुझसे लगाव है, वे उस व्यवस्था को स्वीकार करेंगे। जो इस व्यवस्था को अस्वीकार करते हैं, उनका मुझसे लगाव नहीं है। क्योंकि वह व्यवस्था मेरी है। यहां किसी और की व्यवस्था नहीं है। यह कोई लोकतंत्र नहीं है यहां, यह तो बिलकुल तानाशाही है। यहां कोई लोग तय नहीं कर रहे हैं कि क्या हो, यहां जो मैं तय कर रहा हूं वही हो रहा है, वैसा ही हो रहा है, रत्ती-रत्ती वैसा हो रहा है।
इसलिए जिनका मुझसे लगाव है, वे बेईमानियां न करें। वे इस तरह की बेईमानी में न पड़ें कि आपसे तो हमारा लगाव है, आश्रम, आश्रम से हम परेशान हैं! तो तुम मुझसे ही परेशान हो। तो तुम्हारा मुझसे लगाव कोरा है, थोथा है, हवाई है, बातचीत का है, उसका कोई मूल्य नहीं है, उसमें कुछ यथार्थ नहीं है।
जिनका मुझसे लगाव है, वे आश्रम में लीन हो गए हैं। उनको यह अड़चन नहीं पैदा होती। इस तरह के प्रश्न वे लिख-लिखकर नहीं भेजते, न इस तरह की बातें करते हैं। वे परम आनंदित हैं। आश्रम की व्यवस्था में डूबकर उन्होंने मेरे तरफ समर्पण का रास्ता खोजा है। वह समर्पण का रास्ता है।
तो आश्रम की व्यवस्था अगर तुम्हें ठीक नहीं लगती, तो तुम ठीक से समझ लो कि मेरी व्यवस्था तुम्हें ठीक नहीं लगती। इससे मुझसे दूर ही रहना अच्छा है। जब ठीक लगने लगे, तब आ जाना। अगर मैं रहा, तो तुम्हारा स्वागत होगा। नहीं रहा, तो तुम्हारी तुम जानो!
‘और क्या यह आरोपित अनुशासन आत्मानुशासन के विकास में बाधा नहीं है?’
यह तुम निर्णय कर लो। जब भी हम किसी संघ में सम्मिलित होते हैं, तो हम इसीलिए सम्मिलित होते हैं कि अकेले-अकेले हमसे आत्म-विकास नहीं हो रहा है। कृष्णप्रिया, तुम्हारे पास आत्मा अभी है कहां! जिसका तुम अनुशासन कर लोगी। आत्मा के नाम से सिर्फ धोखा दोगी। तुम्हारे पास अभी विवेक कहां है? अभी तुम्हारा होश जागा कहां है? अनुशासन कौन देगा? तुम्हारी निद्रा में तुम जो भी अनुशासन दोगी, तुम्हें और गड्ढे में ले जाएगा। जिस दिन आत्मानुशासन जग जाएगा, उस दिन तो मैं भी तुमसे नहीं कहूंगा कि किसी और अनुशासन को मानो। यह और अनुशासन उसी अनुशासन को जगाने की दिशा में प्रयास है। मैं तुम्हें तभी तक अनुशासन दूंगा, जब तक मुझे लगता है, तुम्हारी आत्म-चेतना अभी जागी नहीं। जिस दिन देखूंगा, तुम्हारा दीया जल गया, उस दिन तुमको कहूंगा कि अब तुम मुक्त हो, अब तुम्हें जैसा लगे वैसा करो। क्योंकि तब तुम वही करोगी, जो ठीक है।
अभी तुम जो करोगी, वह गलत ही होने वाला है। अभी तुमसे ठीक हो सकता होता तो मेरे पास आने की जरूरत क्या थी? अभी तुम्हारा विवेक बुझा-बुझा है।
आत्मानुशासन का यही अर्थ हुआ--एक आंख वाले आदमी का अंधा आदमी हाथ पकड़ता है। फिर जब अंधा आदमी आंख वाले का हाथ पकड़ता है तो श्रद्धापूर्वक चलना होता है। अंधा बीच-बीच में कहने लगे कि मैं बाएं जाना चाहता हूं--मैं तो आत्मानुशासन में मानता हूं--और तुम मुझे दाएं खींच रहे हो! अब आंख वाला देखता है कि बाएं गड्ढा है, लेकिन अंधा कहता है कि तुम मुझे दाएं खींचोगे, मैं दाएं नहीं जाना चाहता। यह तो तुम ऊपर से मेरे ऊपर आरोपित कर रहे हो, तुम मेरी स्वतंत्रता छीन रहे हो, मुझे बाएं जाना है, मैं तो अपनी आत्मा की आवाज मानूंगा। मगर आंखें भी तो होनी चाहिए! तो जाओ बाएं! तो गिरो गड्ढे में! फिर मेरा कसूर मत मानना।
अब यह बड़ी मुश्किल की बात है। अगर गड्ढे में गिरोगी, तो मेरा कसूर, कि भगवान मौजूद थे, मैं उनके पास थी, उन्होंने क्यों ध्यान न दिया? अगर मैं ध्यान दूं, तो तुम्हारे आत्मानुशासन में बाधा पड़ती है।
तुम तय कर लो। अगर इस संघ के हिस्से होकर रहना है, तो यह आत्मानुशासन इत्यादि की बातें छोड़ दो। तुम अभी आत्मवान नहीं हो। इसलिए तुम कोई आत्मानुशासन देने में समर्थ नहीं हो। अभी तुम अपने सब इस अहंकार की घोषणा को बंद करो--यह सिर्फ अहंकार की घोषणा है, आत्मा की नहीं। आत्मा अभी है कहां? आत्मा जग जाए, इसलिए सारा अनुशासन दे रहा हूं। जिस दिन जग जाएगी, उस दिन मैं तुमसे खुद ही कहूंगा कि कृष्णप्रिया, अब तू जा, औरों को जगा! अभी यह नहीं कह सकता। अभी इसका कोई उपाय कहने का नहीं है।
सोच लो, एक दफा ठीक निर्णय कर लो, यहां रहना हो तो पूरे रहो, यहां से जाना हो तो पूरे भाव से चली जाओ। ऐसा बीच-बीच में त्रिशंकु होकर रहना ठीक नहीं है।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, पश्चात्ताप का आध्यात्मिक विकास में क्या मूल्य है?
पश्चात्ताप और पश्चात्ताप में फर्क है। एक तो पश्चात्ताप होता है जो व्यर्थ की चिंता है, तुम लौट-लौटकर पीछे देखते हो और सोचते हो--ऐसा न किया होता, वैसा किया होता; ऐसा हो जाता, ऐसा न होता; तो अच्छा होता। यह पश्चात्ताप जो है, यह व्यर्थ का रुदन है। जो दूध गिर गया और बिखर गया फर्श पर, अब उसको इकट्ठा नहीं किया जा सकता। और यह इकट्ठा भी कर लो, तो पीने के काम का नहीं है। जो गया, गया। उसी घाव को खुजलाते रहना बार-बार किसी मूल्य का नहीं है।
अगर तुम्हारा पश्चात्ताप से यही अर्थ हो कि पीछे लौट-लौटकर देखना और रोना और बिसूरना और कहना कि ऐसा न किया होता तो अच्छा था...मगर जो हो गया, हो गया, अब उसको नहीं करने का कोई भी उपाय नहीं है। अतीत में कोई बदलाहट नहीं की जा सकती, इसे स्मरण रखो। यह एक बुनियादी सिद्धांत है, अतीत में कोई बदलाहट नहीं की जा सकती। जैसा हो गया, अंतिम रूप से हो गया। अब इसमें न तो तुम एक लकीर जोड़ सकते, न एक लकीर घटा सकते। अब यह हमारे हाथ में नहीं रहा। यह बात हमारे हाथ से सरक गयी। यह तीर हमारे हाथ से निकल गया, इसे अब तरकस में वापस नहीं लौटाया जा सकता। इसलिए इसके लिए रोने से तो कोई सार नहीं है।
अगर तुम्हारा पश्चात्ताप का यही अर्थ हो--जो कि अक्सर होता है। लोग कहते हैं, पछता रहे हैं, खूब पछता रहे हैं; ऐसा नहीं करते, फलां को गाली दे दी, न देते; यह लाटरी की टिकट खरीदने का मन था और यही नंबर की टिकट मिल रही थी और न खरीदी, आज लखपति हो गए होते; कि इस घोड़े पर लगा दिया होता दांव; कि ऐसा कर लिया होता, कि वैसा कर लिया होता, कि इस बार जनता की टिकट पर खड़े ही हो गए होते। अतीत को तुम अगर बार-बार सोचते हो, इससे कुछ लाभ नहीं है, इसके कारण नुकसान है, क्योंकि इसके कारण तुम भविष्य को नहीं देख पाते और वर्तमान को नहीं देख पाते, तुम्हारी आंखें धुएं से भरी रहती हैं। अतीत को तो जाने दो। आंखें खुली रखो, साफ रखो, जो हो गया, हो गया; जो अभी नहीं हुआ, उसमें कुछ किया जा सकता है।
तो इस अर्थ में तो पश्चात्ताप कभी मत करना, अतीत का चिंतन मत करना।
लेकिन एक पश्चात्ताप का और भी अर्थ होता है कि अतीत से सीख ली, अतीत के अनुभव को निचोड़ा, अतीत से ज्ञान की थोड़ी किरण पायी; जो-जो अतीत में हुआ है, उसको ऐसे ही नहीं हो जाने दिया, जो भी हुआ, उससे कुछ पाठ लिए, उस पाठ के अनुसार आगे जीवन को गति दी, उस पाठ के अनुसार अगले कदम उठाए।
यह छोटी सी कहानी सुनो--
एक सूफी संत थे, बड़े ईश्वरभक्त। पांच दफे नमाज पढ़ने का उनका नियम था। एक रोज थके-मांदे थे, सो गए। जब नमाज का वक्त आ गया तो किसी ने आकर उन्हें जगाया, हिलाकर कहा, उठो-उठो, नमाज का वक्त हो गया है। वे तत्काल ही उठ बैठे और बड़े कृतज्ञ हुए, कहने लगे, भाई, तुमने मेरा बड़ा काम किया, मेरी इबादत रह जाती तो क्या होता! अच्छा अपना नाम तो बताओ। उस आदमी ने कहा, अब नाम रहने दो, उससे झंझट होगी। लेकिन संत ने कहा, कम से कम नाम तो जानूं, तुम्हें धन्यवाद तो दूं। तो उसने कहा, पूछते ही हो तो कह देता हूं, मेरा नाम इबलीस है।
इबलीस है शैतान का नाम। संत तो हैरान हुए, बोले, इबलीस? शैतान? अरे, तुम्हारा काम तो लोगों को इबादत से, धर्म से रोकना है, फिर तुम मुझे जगाने क्यों आए? यह बात तो बड़ी अटपटी है। सुनी नहीं, पढ़ी नहीं; न आंखों देखी, न कानों सुनी, शास्त्रों में कहीं उल्लेख नहीं कि इबलीस और किसी को जगाता हो कि उठो-उठो, नमाज का वक्त हो गया। तुम्हें हो क्या गया है? क्या तुम्हारा दिल बदल गया है?
शैतान ने कहा, नहीं भैया, इसमें मेरा ही फायदा है। एक बार पहले भी तुम ऐसे ही सो गए थे; नमाज का वक्त बीत गया तो मैं बहुत खुश हुआ था, लेकिन जब तुम जागे तो इतना रोए, इतने दुखी हुए, इतने हृदय से तुमने ईश्वर को पुकारा और इतनी तुमने कसमें खायीं कि अब कभी नहीं सोऊंगा, अब कभी भूल नहीं करूंगा, अब मुझे क्षमा कर दो। तब से वर्षों बीत गए हैं, तब से तुम सोए नहीं, तब से तुम नमाज ही नहीं चूके। अब मैंने देखा कि आज तुम फिर सो गए हो, अगर मैं तुम्हें न जगाऊं तो और कठिनाई होगी, तुम इससे भी कुछ पाठ लोगे। तो मैंने सोचा एक दफे नमाज पढ़ लो, वही ज्यादा ठीक है। उसमें मेरी कम हानि है। क्योंकि पिछली दफे तुम चूके, उससे तुम्हें जितना लाभ हुआ, उतना तुमने जितनी नमाजें जिंदगी भर की थीं उनसे भी न हुआ था।
इस फर्क को समझना।
तुम जिंदगीभर नमाज पढ़ते रहे, रोज सुबह-सांझ पांच बार, उससे तुम्हें इतना लाभ नहीं हुआ था, जितना पिछली बार सो गए थे और जब जागे थे तो जिस ढंग से तुम पछताए थे, जिस ढंग से तुम पीड़ित हुए थे, जैसे तुम रोए थे, जैसे तुम जार-जार होकर तड़फे थे, तुम फर्श पर घिसटे थे, तुमने सिर पटका था, तुमने प्रभु को ऐसा याद किया था, उस दिन तुम्हारी नमाज, उस दिन तुम्हारी प्रार्थना परमात्मा तक पहुंच गयी थी! और तब से वर्षों बीत गए, मैंने तुम्हें बहुत सुलाने की कोशिश की, सब किया, लेकिन तुम कभी नहीं सोए, तुम हर हालत में भी नमाज पढ़ते रहे। आज तुम सो गए थके-मांदे, मैं डरा कि कहीं आज फिर तुम सोए रहे, तब तो तुम पता नहीं कितना लाभ ले लोगे उस प्रायश्चित्त से, उस पश्चात्ताप से!
पश्चात्ताप पश्चात्ताप का फर्क है। सिर्फ रोने की ही बात नहीं है, सीखने की बात है। सीखो तो बड़ा लाभ है; जो भूलें तुमने की हैं, वे सभी भूलें काम की हो जाती हैं। सभी भूलें सोने की, अगर सीख लो। अगर न सीखो, तो तुमने जो ठीक भी किया वह भी मिट्टी हो जाता है।
इस गणित को खयाल में लेना। भूल भी सोना हो जाती है, अगर उससे सीख लो। और गैर-भूल भी मिट्टी हो जाती है, अगर कुछ न सीखो। अनुभव तो जिंदगी में सभी को होते हैं, थोड़े से लोग उनसे सीखते हैं। जो सीखते हैं, वे ज्ञानी हो जाते हैं। अधिक लोग उनसे सीखते नहीं। अनुभव तो सभी को बराबर होते हैं, अच्छे के, बुरे के, लेकिन कुछ लोग अनुभवों की राशि लगाकर बैठे रहते हैं, उसकी माला नहीं बनाते। थोड़े से लोग हैं जो अनुभव के फूलों को सीख के धागे से पिरोते हैं और माला बना लेते हैं। वे प्रभु के गले में हार बन जाते हैं।
पाठ खयाल में रखो--जो हुआ, हुआ। वह अन्यथा हो नहीं सकता। लेकिन उसके होने के कारण तुम अन्यथा हो सकते हो। खयाल लेना, गलत पश्चात्ताप उसे कहता हूं मैं जब तुम सोचते हो--जो मैंने किया वैसा न किया होता, अन्यथा हो जाता, कुछ तरकीब हो जाती, ऐसा हो जाता, वैसा हो जाता, क्यों मैंने ऐसा किया, किसी से पूछ लेता, जरा सी बात थी, क्यों चूक गया; इस तरह के पछतावे से कोई लाभ नहीं, क्योंकि तुम अतीत को बदलना चाह रहे हो, तो पश्चात्ताप व्यर्थ।
अगर अतीत में ऐसा हुआ, इससे तुम एक अनुभव लो कि मैं अपने को बदल लूं--तुम अपने को बदल सकते हो, तुम भविष्य हो, तुम अभी हुए नहीं, हो रहे हो, इस में बदलाहट हो सकती है--अगर तुम बदल जाओ तो पश्चात्ताप बड़ा बहुमूल्य है। नमाज से ज्यादा नमाज न हुई उसका पश्चात्ताप है।
छठवां प्रश्न:
भगवान, भगवान बुद्ध ने आनंद से कहा कि स्थान बदलने से समस्या हल होने वाली नहीं है। फिर आप क्यों बार-बार स्थान बदल रहे हैं?
पहली तो बात, भगवान बुद्ध एक स्थान पर दो-तीन सप्ताह से ज्यादा नहीं रहते थे। मैं एक-एक जगह चार-चार, पांच-पांच साल टिक जाता हूं, सो यह तुम दोष मुझ पर न लगा सकोगे कि मैं बार-बार स्थान क्यों बदल रहा हूं। भगवान बुद्ध तो जिंदगीभर बदलते रहे। लेकिन उन्होंने भी समस्या के कारण नहीं बदला और मैं भी समस्या के कारण नहीं बदल रहा हूं। जब आनंद ने कहा उनसे कि हम दूसरे गांव चले चलें, क्योंकि इस गांव के लोग गालियां देते हैं, तो उन्होंने नहीं बदला। इस कारण नहीं बदला। उन्होंने कहा, इस कारण बदलने से क्या सार! इसका मतलब यह मत समझना कि वह स्थान नहीं बदलते थे। स्थान तो बदलते ही थे, बहुत बदलते थे, लेकिन इस कारण उन्होंने कहा स्थान बदलना गलत है।
उस स्थान से भी बदला उन्होंने, आखिर गए उस जगह से, लेकिन तब तक न गए जब तक यह समस्या बहुत कांटे की तरह चुभ रही थी और भिक्षु बदलना चाहते थे--तब तक नहीं गए। जब भिक्षुओं ने उनकी बात सुन ली और समझ ली और भिक्षु राजी हो गए और धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने लगे, जब भिक्षुओं के मन में यह बात ही नहीं रही कि कहीं और चलें, तब चले गए। मगर वे समस्या के कारण नहीं गए।
मैं भी समस्या के कारण नहीं बदलता। समस्या तो सब जगह बराबर है। सच तो बात यह है कि जहां दो-चार-पांच साल रह जाओ, वहां समस्याएं कम हो जाती हैं। लोग राजी हो जाते हैं--क्या करोगे!
मैं वर्षों जबलपुर था, लोग धीरे-धीरे राजी हो गए थे, वे समझते थे कि होगा, दिमाग खराब होगा इनका। जिनको सुनना था, सुनते थे; जिनको नहीं सुनना था, नहीं सुनते थे; बात तय हो गयी थी कि ठीक है, अब क्या करोगे इस आदमी का! शोरगुल मचा लिया, अखबारों में खिलाफ लिख लिया, जुलूस निकाल लिए, क्या करोगे फिर, आखिर कब तक चलाते रहोगे! और भी काम हैं दुनिया में, धर्म कोई एक ही काम तो नहीं, फुर्सत किसको है! जिनको प्रार्थना करने की फुर्सत नहीं, उन्हें मेरा विरोध करने की फुर्सत भी कितनी देर तक रहेगी, यह तो सोचो! आखिर वे राजी हो गए कि ठीक है, अब छोड़ो, भूलो! जिस दिन वे राजी हो गए, उसी दिन मैंने जबलपुर छोड़ दिया। फिर कोई सार न रहा वहां रहने का।
फिर मैंने बंबई में अड्डा जमा लिया। फिर धीरे-धीरे बंबई के लोग भी राजी होने लगे कि ठीक है, तब मैं पूना आ गया। अब पूना के लोग भी राजी होने के करीब आ रहे हैं--अब मैं क्या करूं! जाने का वक्त करीब आ गया। अब पूना में कोई नाराज नहीं है। मुझे पत्र आते हैं मित्रों के, पूना के संन्यासियों के कि अब आप छोड़ते हैं, जब कि सब ठीक-ठाक हुआ जा रहा है! अब लोग नाराज भी नहीं हैं, उतना विरोध भी नहीं कर रहे हैं।
लोगों की सीमा है। अगर तुम धैर्य रखे रहो, तो वे हार जाते हैं, क्या करेंगे! कब तक सिर फोड़ेंगे! मगर जैसे ही यह बात हो जाती है, फिर बदलने का वक्त आ जाता है। अब कहीं और जाएंगे, कहीं और जहां लोग सिर फोड़ेंगे, वहां जाएंगे।
समस्या के कारण नहीं बदली जाती हैं जगहें। समस्याएं हल हो जाती हैं, तो फिर बदल लेते हैं--अब यहां करेंगे भी क्या, मरीज न रहे! जितने लोगों को लाभ हो सकता था, उन्होंने लाभ ले लिया; जो अभागे हैं, उनके लिए बैठे रहने से कुछ लाभ नहीं। अब कहीं और, किसी और कोने से! कहीं और भी लोग प्रतीक्षा करते हैं। यही उचित है।
काफी समय रह लिया यहां। जो ले सकते थे लाभ, उन्होंने ले लिया, उनके कंठ भर गए। जिनके लिए आया था, उनका काम पूरा हो गया। ऐसे तो बहुत भीड़ है पूना में, उससे मेरा कोई लेना-देना नहीं, उनके लिए मैं आया भी नहीं था; उनके लिए मैं आया भी नहीं, उनके लिए मैं यहां रहा भी नहीं। यहां दुनिया में कोने-कोने से लोग आ रहे हैं, लेकिन यहां पड़ोस में लोग हैं जो यहां नहीं आए।
जिनके लिए मैं आया था, उनका काम पूरा हुआ। अब कहीं और!
समस्या के कारण कोई बदलता नहीं--कोई बुद्ध नहीं बदलता समस्या के कारण।
सातवां प्रश्न:
भगवान, मैंने सुना है कि अपात्र व्यक्तियों को संन्यास की दीक्षा नहीं दी जाती है। ऐसा क्यों? क्या अपात्र सदगुरु की करुणा के हकदार नहीं हैं?
इस छोटी सी कहानी को समझो--
अंगार ने ऋषि की आहुतियों का घी पीया, और हव्य के रस चाटे। कुछ देर बाद वह ठंडा होकर राख हो गया और कूड़े की ढेरी पर फेंक दिया गया। ऋषि ने जब दूसरे दिन नए अंगार पर आहुति अर्पित की तो राख ने पुकारा, क्या आज मुझसे रुष्ट हो, महाराज! ऋषि की करुणा जाग उठी और उन्होंने पात्र को पोंछकर एक आहुति राख को भी अर्पित की। तीसरे दिन ऋषि जब नए अंगार पर आहुति देने लगे, तो राख ने गुर्राकर कहा, अरे, तू वहां क्या कर रहा है, अपनी आहुतियां यहां क्यों नहीं लाता? ऋषि ने शांत स्वर में उत्तर दिया, ठीक है राख, आज मैं तेरे अपमान का ही पात्र हूं, क्योंकि कल मैंने मूर्खतावश तुझ अपात्र में आहुति अर्पित करने का पाप किया था।
अपात्र को भी सदगुरु तो देने को तैयार होता है, लेकिन अपात्र लेने को तैयार नहीं। अपात्र का मतलब ही यह होता है कि जो लेने को तैयार नहीं। तो देने से ही थोड़े ही कुछ हल होता है। मैं देने को तैयार हूं, अगर तुम लेने को तैयार न हो, तो मेरे देने का क्या सार होगा? तुम जब तक तैयार नहीं हो, तुम्हें कुछ भी नहीं दिया जा सकता। स्थूल चीजें नहीं दी जा सकतीं, तो सूक्ष्म की तो बात ही छोड़ दो। मैं कोई स्थूल चीज तुम्हें भेंट दूं--फूलों का एक हार भेंट दूं--और तुम फेंक दो। स्थूल चीज भी नहीं दी जा सकती। तो सूक्ष्म--मैं तुम्हें संन्यास दूं, मैं तुम्हें ध्यान दूं, मैं तुम्हें प्रेम दूं--तुम उसे भी फेंक दोगे।
अपात्र का अर्थ खयाल रखना। अपात्र का अर्थ यह है, जो लेने को तैयार नहीं। जो पात्र नहीं है अभी। जो अभी पात्र बनने को राजी नहीं है। पात्र का अर्थ होता है, जो खाली है और भरने को तैयार है। अपात्र का अर्थ होता है जो बंद है और भरने से डरा है और खाली ही रहने की जिद्द किए है। फिर अगर अपात्र को दो तो वह फेंकेगा। और अपात्र को अगर दो तो वह दुर्व्यवहार करेगा--हीरों के साथ कंकड़-पत्थरों जैसा दुर्व्यवहार करेगा।
इसलिए तुम्हारे प्रश्न को समझने की कोशिश करो।
‘मैंने सुना है कि अपात्र व्यक्तियों को संन्यास की दीक्षा नहीं दी जाती।’
ऐसा नहीं कि सदगुरु नहीं देना चाहते, देना चाहते हैं, मगर अपात्र लेते नहीं। और कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि अपात्र ऊपर से कहता हो कि मैं लेना चाहता हूं। लेकिन सदगुरु तुम्हारे भीतर देखता है, तुम्हारे ऊपर की बात नहीं है। तुम्हारी वाणी की बात नहीं है, तुम्हारे प्राण की बात है। वह देखता है, तुम भीतर से तैयार हो कि ऊपर से? ऊपर से तुम किसी और कारण से लेने को राजी हो गए होओ।
यहां मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, संन्यास चाहिए। जब मैं उनसे जरा बात करता हूं कि किसलिए चाहिए? क्या बात है? क्या कारण है? तो कारण ऐसे मिलते हैं जिनका संन्यास से कोई भी संबंध नहीं हो सकता।
एक युवक संन्यास लेने आया। पूछा, कारण क्या है? वह कहता है, नौकरी नहीं लगती। अब नौकरी नहीं लगती तो उसने सोचा कि चलो, किसी आश्रम में ही रहेंगे। मगर यह संन्यास के लिए पर्याप्त कारण मानते हो इसे? नौकरी नहीं लगती। मैंने उससे कहा, और अगर नौकरी लग जाए? तो उसने कहा, अगर आप लगवा दें तो बड़ी कृपा! फिर मैंने कहा, फिर संन्यास का क्या करोगे? तो उन्होंने कहा, अगर नौकरी लगवा दें तो फिर संन्यास की कोई जरूरत ही नहीं है। मैं तो आया ही इसीलिए हूं कि अब कहीं लगती नहीं, ठोकरें खा-खा कर परेशान हो गया, रोजगार दफ्तरों के सामने खड़े-खड़े सुबह से सांझ हो जाती है, नौकरी लगती नहीं; लगवा दें आप, तो फिर क्या जरूरत संन्यास की!
अब बात सीधी-साफ है। कोई बीमार है, सोचता है शायद संन्यास...एक स्त्री अपने बेटे को लेकर आ गयी--वह बचपन से ही पागल है, मस्तिष्क उसका विकसित नहीं हुआ--इसको संन्यास दे दें। वह उसे घसीटती है, इसे संन्यास दे दें। मैं उसे पूछता हूं, इसको लेना है? वह कहती है, इसको तो कुछ होश ही नहीं, यह क्या लेगा-देगा! तो मैंने कहा, तू इसके क्यों पीछे पड़ी है?
तो वह कहती है, शायद संन्यास से इसकी बुद्धि ठीक हो जाए। शायद इसका मस्तिष्क खराब है--चिकित्सक तो हार गए, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कुछ हो नहीं सकता, इसमें बुद्धि के तंतु ही नहीं हैं--तो शायद...।
अब इस तरह संन्यास नहीं घटता। संन्यास इस जगत की सबसे अनूठी घटना है। संगीत सीख सकता है अपात्र, अगर थोड़ी मेहनत करे। कविता भी रच सकता है अपात्र, अगर थोड़ी भाषा मांजे, तुकबंदी साधे। नाच भी सीख सकता है--लंगड़ा भी नाच सीख सकता है--अगर थोड़ा अभ्यास करे। लेकिन संन्यास? संन्यास तो सर्वांग सौंदर्य है। संन्यास तो आखिरी बात है। संन्यास तो आखिरी समन्वय है। संन्यास तो समाधि है। इस पर तो जो सारे जीवन को निछावर कर दे--वे भी अगर पा लें तो धन्यभागी हैं!
तो तुम पूछते हो कि ‘सुना है मैंने अपात्र व्यक्तियों को संन्यास की दीक्षा नहीं दी जाती।’
दीक्षा देने में सदगुरु को कोई कंजूसी नहीं, कोई कृपणता नहीं है, लेकिन अपात्र लेने को राजी नहीं है। अपात्र लेता नहीं है।
पूछते हो, ‘ऐसा क्यों?’
यह बात सीधी-साफ है।
‘और क्या अपात्र सदगुरु की करुणा के हकदार नहीं हैं?’
हकदार शब्द ही गलत है। यह कोई अधिकार नहीं है जिसका तुम दावा करो। यह हकदार शब्द ही अपात्र के मन की दशा की सूचना दे रहा है। संन्यास का कोई हकदार नहीं होता। यह कोई कानूनी हक नहीं है कि इक्कीस साल के हो गए तो वोट देने का हक है। तुम जन्मों-जन्मों जी लिए हो, फिर भी हो सकता है संन्यास के हकदार न होओ। यह हक अर्जित करना पड़ता है। यह हक हक कम है और कर्तव्य ज्यादा है। यह तो तुम्हें धीरे-धीरे कमाना पड़ता है। यह कोई कानूनी नहीं है कि मैं चाहता हूं संन्यास लेना, तो मुझे संन्यास दिया जाए। यह तो प्रसाद-रूप मिलता है। तुम प्रार्थना कर सकते हो, हक का दावा नहीं। तुम प्रार्थना कर सकते हो, हाथ जोड़कर तुम चरणों में बैठ सकते हो कि मैं तैयार हूं, जब आपकी करुणा मुझ पर बरसे, या आप समझें कि मैं योग्य हूं, तो मुझे भूल मत जाना, मैं अपना पात्र लिए यहां बैठा हूं। तुम प्रार्थना कर सकते हो, हक की बातें नहीं कर सकते। हक की बात भी अपात्रता का हिस्सा है।
जीवन में जो महत्वपूर्ण है, सुंदर है, सत्य है, उस पर दावे नहीं होते। हम उसके लिए निमंत्रण दे सकते हैं, हम परमात्मा को कह सकते हैं, तुम आओ तो मेरे दरवाजे खुले रहेंगे। तुम पुकारोगे तो मुझे जागा हुआ पाओगे। मैंने घर-द्वार सजाया है, धूप-अगरबत्ती जलायी है, फूल रखे हैं, तुम्हारी सेज-शय्या तैयार की है, पलक-पांवड़े बिछाए मैं प्रतीक्षा करूंगा, तुम आओ तो मैं धन्यभागी; तुम न आओ, तो समझूंगा अभी मैं पात्र नहीं। यह पात्र का लक्षण है। तुम आओ, तो मैं धन्यभागी! तुम आओ, तो समझूंगा कि प्रसाद है। न आओ, तो समझूंगा अभी पात्र नहीं।
अपात्र की हालत उलटी है। तुम आओ, तो वह समझेगा आ गए, ठीक है! मेरा हक ही था, आना ही था, न आते तो मजा चखाता। आना ही पड़ता, यह मेरा हक है, यह मेरा अधिकार है। न आओ, तो वह नाराज होता है कि बड़ा अन्याय हो रहा है; संसार में अन्याय है, किसी को मिल रहा है, किसी को नहीं मिल रहा है; ज्यादती हो रही है, पक्षपात हो रहा है, भाई-भतीजावाद हो रहा है। अपात्र की भाषा होती है एक।
पात्र की भी एक भाषा होती है। परमात्मा आता है तो पात्र कहता है--प्रसाद। मेरी तो कोई योग्यता न थी, फिर तुम आए! यह पात्र की भाषा है, जरा समझना, बड़ी उलटी भाषा है। पात्र कहता है, मैं तो अपात्र था और तुम आए! मेरी तो कोई योग्यता न थी, मैं मांग सकूं ऐसा तो मेरा कोई आधार न था, सिर्फ तुम्हारी करुणा, तुम्हारा प्रेम, तुम्हारी दया; तुम रहीम हो, तुम रहमान हो, तुम महाकरुणावान हो, इसलिए आए। हक के कारण नहीं। मैं धन्यभागी हूं, अनुगृहीत हूं, यह ऋण चुकाया नहीं जा सकता, मुझ अपात्र पर कृपा की! मुझ अयोग्य की तरफ आंख उठायी! यह पात्र की भाषा है।
अपात्र कहता है, मैं पात्र, मुझसे ज्यादा पात्र और कौन है? और अभी तक नहीं आए? इतनी देर लगा रहे हो? अन्याय मालूम होता है। अपात्र अपनी योग्यता की घोषणा करता है--हक तो योग्यता की घोषणा है।
नहीं, संन्यास तो जीवन का परम फूल है, यह सहजता में खिलता है, यह प्रसादरूप खिलता है। तुम निमंत्रण भेजो और प्रतीक्षा करो। सदगुरु के पास जाओ, निमंत्रण दे दो, निवेदन कर दो, कि आप पुकारेंगे तो मैं तैयार हूं।
मेरे पास आते हैं इतने लोग, उसमें तीन तरह के लोग होते हैं। उसमें जो श्रेष्ठतम होता है, वह मुझसे आकर कहता है कि मैं तैयार हूं, अगर आप मुझे पात्र समझें तो संन्यास दे दें। अगर आप समझें! अगर आप समझें कि अभी मेरी तैयारी नहीं, तो मैं प्रतीक्षा करूंगा। आप पर छोड़ता हूं। जो श्रेष्ठतम है वह कहता है, आप पर छोड़ता हूं। जो उससे नंबर दो है, दोयम है, वह कहता है, मैंने तय कर लिया कि मुझे संन्यास लेना है, आप मुझे संन्यास दें। फिर एक नंबर तीन भी है, वह कहता है, आप संन्यास देना चाहते हैं? अगर आप दें तो मैं विचार करूं कि लूं या न लूं। इस पर मैं विचार करूंगा।
इसमें पहला तो बहुत करीब है भगवान के मंदिर के, द्वार पर खड़ा है। दूसरा ज्यादा दूर नहीं है। तीसरा बहुत दूर है। और चौथे भी लोग हैं, जो आते ही नहीं। उनको तो पता ही नहीं कि भगवान का कोई मंदिर भी होता है, कि संन्यास जैसी भी एक जीवन की दशा होती है; कि चैतन्य का एक नृत्य भी होता है, एक संगीत भी होता है, एक काव्य भी होता है।
आठवां प्रश्न:
भगवान, क्या बुद्ध के पूर्व भी और बुद्ध हुए हैं? और क्या बुद्ध के बाद भी और बुद्ध हुए हैं?
बुद्धत्व चेतना की परमदशा का नाम है। इसका व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। जैसे जिनत्व चेतना की अंतिम दशा का नाम है, इससे व्यक्ति का कोई संबंध नहीं है। जिन अवस्था है। वैसे ही बुद्ध अवस्था है।
गौतम बुद्ध हुए, कोई गौतम पर ही बुद्धत्व समाप्त नहीं हो गया। गौतम के पहले और बहुत बुद्ध हुए हैं। खुद गौतम बुद्ध ने उनका उल्लेख किया है। और गौतम बुद्ध के बाद बहुत बुद्ध हुए। स्वभावतः, गौतम बुद्ध उनका तो उल्लेख नहीं कर सकते। बुद्धत्व का अर्थ है--जाग्रत। होश को आ गया व्यक्ति। जिसने अपनी मंजिल पा ली। जिसको पाने को अब कुछ शेष न रहा। जिसका पूरा प्राण ज्योतिर्मय हो उठा। अब जो मृण्मय से छूट गया और चिन्मय के साथ एक हो गया।
इस छोटी सी झेन-कथा को समझो--
एक दिन सदगुरु पेन ची ने आश्रम में बुहारी दे रहे भिक्षु से पूछा, भिक्षु, क्या कर रहे हो? भिक्षु बोला, जमीन साफ कर रहा हूं, भंते। सदगुरु ने तब एक बहुत ही अदभुत बात पूछी--झेन फकीर इस तरह की बातें पूछते भी हैं, पूछा--यह बुहारी देना तुम बुद्ध के पूर्व कर रहे हो, या बुद्ध के पश्चात?
अब यह भी कोई बात है! बुद्ध को हुए हजारों साल हो गए, अब यह सदगुरु जो स्वयं बुद्धत्व को उपलब्ध है, यह बुहारी देते इस भिक्षु से पूछता है कि यह बुहारी देना तुम बुद्ध के पूर्व कर रहे हो, या बुद्ध के पश्चात? प्रश्न पागलपन का लगता है। मगर परमहंसों ने कई बार पागलपन की बातें पूछी हैं, उनमें बड़ा अर्थ है।
जीसस से किसी ने पूछा है कि आप अब्राहम के संबंध में क्या कहते हैं?
अब्राहम यहूदियों का परमपिता, वह पहला पैगंबर यहूदियों का। इस बात की बहुत संभावना है कि अब्राहम राम का ही दूसरा नाम है--अब राम का। अब सिर्फ आदर-सूचक है, जैसे हम श्रीराम कहते हैं, ऐसे अब राम; अब राम से अब्राहम बना, इस बात की बहुत संभावना है। लेकिन अब्राहम पहला प्रोफेट है, पहला पैगंबर, पहला तीर्थंकर है यहूदियों का, मुसलमानों का, ईसाइयों का। उससे तीनों धर्म पैदा हुए।
तो किसी ने जीसस से पूछा कि आप अब्राहम के संबंध में क्या कहते हैं? तो जीसस ने कहा, मैं अब्राहम के भी पहले हूं। हो गयी बात पागलपन की! जीसस कहां हजारों साल बाद हुए हैं, लेकिन कहते हैं, मैं अब्राहम के भी पहले हूं।
इस झेन सदगुरु पेन ची ने इस भिक्षु से पूछा, यह बुहारी देना तुम बुद्ध के पूर्व कर रहे हो या बुद्ध के पश्चात? पर भिक्षु ने जो उत्तर दिया, वह गुरु के प्रश्न से भी गजब का है! भिक्षु ने कहा, दोनों ही बातें हैं, बुद्ध के पूर्व भी और बुद्ध के पश्चात भी। बोथ, बिफोर एंड आफ्टर। गुरु हंसने लगा। उसने पीठ थपथपायी।
इसे हम समझें। बुद्ध को हुए हो गए हजारों वर्ष, वह गौतम सिद्धार्थ बुद्ध हुआ था, पर बुद्ध होना उस पर समाप्त नहीं हो गया है। आगे भी बुद्ध होना जारी रहेगा। इस बुहारी देने वाले भिक्षु को भी अभी बुद्ध होना है। इसलिए प्रत्येक घटना दोनों है--बुद्ध के पूर्व भी, बुद्ध के पश्चात भी। बुद्धत्व तो एक सतत धारा है। एस धम्मो सनंतनो। हम सदा बीच में हैं। हमसे पहले बुद्ध हुए हैं, हमसे बाद बुद्ध होंगे, हमको भी तो बुद्ध होना है। गौतम पर ही थोड़े बात चुक गयी।
लेकिन हमारी नजरें अक्सर सीमा पर रुक जाती हैं। हमने देखा गौतम बुद्ध हुआ, दीया जला, हम दीए को पकड़कर बैठ गए--ज्योति को देखो, ज्योति तो सदा से है। इस दीए में उतरी, और दीयों में उतरती रही है, और दीयों में उतरती रहेगी।
तो जीसस ठीक कहते हैं कि अब्राहम के पहले भी मैं हूं। यह मेरी जो ज्योति है, यह कोई ऐतिहासिक घटना नहीं है, यह तो शाश्वत है, यह सनातन है, अब्राहम बाद में हुआ, इस ज्योति के बाद हुआ, इस ज्योति के कारण ही हुआ, जिस ज्योति के कारण मैं हुआ हूं। यह परम ज्योति है। यह परम ज्योति शाश्वत है। न इसका कोई आदि है, न इसका कोई अंत है।
बुद्ध ने अपने पिछले जन्मों के बुद्धों का उल्लेख किया है--चौबीस बुद्धों का उल्लेख किया है। एक उल्लेख में कहा है कि उस समय के जो बुद्धपुरुष थे, उनके पास मैं गया। तब गौतम बुद्ध नहीं थे। झुककर बुद्धपुरुष के चरण छुए। उठकर खड़े हुए थे कि बहुत चौंके, क्योंकि बुद्ध ने झुककर उनके चरण छू लिए। तो वे बहुत घबड़ाए, उन्होंने कहा, मैं आपके चरण छुऊं, यह तो ठीक है; अंधा आंख वाले के सामने झुके, यह ठीक है; लेकिन आपने मेरे चरण छुए, यह कैसा पाप मुझे लगा दिया! अब मैं क्या करूं?
वे बुद्ध हंसने लगे। उन्होंने कहा, तुझे पता नहीं, देर-अबेर तू भी बुद्ध हो जाएगा। हम शाश्वत में रहते हैं, क्षणों की गिनती हम नहीं रखते; मैं आज हुआ बुद्ध, तू कल हो जाएगा, क्या फर्क है? आज और कल तो सपने में हैं। आज और कल के पार जो है--शाश्वत--मैं वहां से देख रहा हूं।
फिर तो जब बुद्ध को स्वयं बुद्धत्व प्राप्त हुआ--गौतम को बुद्धत्व प्राप्त हुआ--तो पता है उन्होंने क्या कहा? उन्होंने कहा कि जिस दिन मुझे बुद्धत्व प्राप्त हुआ, उस दिन मैंने आंख खोली और तब मैं समझा उस पुराने बुद्ध की बात, ठीक ही तो कहा था, जिस दिन मुझे बुद्धत्व उपलब्ध हुआ उस दिन मैंने देखा कि सबको बुद्धत्व की अवस्था ही है--उनको पता नहीं है लोगों को, लेकिन है तो अवस्था। अब मेरे पास अंधे लोग आते हैं, लेकिन मैं जानता हूं, आंखें बंद किए बैठे हैं। आंखें उनके पास हैं--उन्हें पता न हो, उन्होंने इतने दिन तक आंखें बंद रखी हैं कि भूल ही गए हों, कभी शायद खोलीं ही नहीं, शायद बचपन से ही बंद हैं, शायद जन्मों से बंद हैं।
बुद्ध कहते हैं, अब मेरे पास कोई आता है, तो वह सोचता है कि उसे कुछ पाना है; और मैं उसके भीतर देखता हूं कि ज्योति जली ही हुई है, जरा नजर भीतर ले जानी है। जरा अपने को ही तलाशना और अपने को ही खोजना और टटोलना है।
और आखिरी प्रश्न:
भगवान, सत्य की खोज का अंत कहां है?
सत्य का अर्थ ही होता है, अनंत। सत्य की खोज का कोई अंत नहीं होता। सत्य की खोज का प्रारंभ तो होता है, अंत नहीं होता है। यात्रा शुरू तो होती है, पूरी नहीं होती। पूरी हो नहीं सकती। क्योंकि पूरी अगर यात्रा हो जाए, तो उसका अर्थ होगा कि सत्य भी सीमित है। तुम आ गए आखिरी सीमा पर, फिर उसके पार क्या होगा?
नहीं, सत्य असीम है। यही तो हमने बार-बार अनेक-अनेक ढंगों से कहा है--परमात्मा अनंत है, असीम है, अपार है, उसका विस्तार है, विराट है। जैसे तुम सागर में उतर जाओ, तो सागर में उतर गए यह तो सच है, लेकिन पूरे सागर को थोड़े ही तुमने पा लिया, अभी सागर बहुत शेष है। तुम तैरते रहो, तैरते रहो, सागर शेष है, और शेष है--तुम जितना पार करते जाओ उतना पार करते जाओ, सागर शेष है।
फिर सागर तो शायद चुक भी जाए--हमारे सागर बहुत बड़े हैं, लेकिन बहुत बड़े तो नहीं, चुक ही जाएंगे; अगर कोई तैरता ही रहे, तैरता ही रहे, तो दूसरा किनारा भी आ जाएगा। परमात्मा का कोई दूसरा किनारा नहीं है। परमात्मा का कोई किनारा ही नहीं है। इसीलिए असीम कहते हैं।
सत्य असीम है, अनंत है। इसलिए सत्य की खोज का अंत! नहीं, कोई अंत नहीं होता।
इस छोटी सी घटना को समझो--
अमरीका का एक बहुत बड़ा मनीषी हुआ--जान डैबी। वह कहा करता था, जीवन जीवन में रुचि का नाम है। जिस दिन वह गयी कि जीवन भी चला गया। सत्य की खोज खोज में रुचि है। सत्य में उतना सवाल नहीं है, जितना खोज में है। मजा मंजिल का नहीं है, यात्रा का है। मजा मिलन का कम है, इंतजारी का है।
इस जान डैबी से उसकी नब्बेवीं वर्षगांठ पर बातचीत करते समय एक डाक्टर मित्र ने कहा, फिलासफी, दर्शन, दर्शन में रखा क्या है! बताइए, आप ही बताइए, दर्शन में रखा क्या है, उस डाक्टर ने पूछा! डैबी ने शांतिपूर्वक कहा, दर्शन का लाभ है, उसके अध्ययन के बाद पहाड़ों पर चढ़ाई संभव हो जाती है। डाक्टर ने समझा नहीं। फिर भी उसने कहा, अच्छा, मान लिया; मान लिया, सही कि दर्शन का यही लाभ है कि पहाड़ों पर चढ़ाई संभव हो जाती है। लेकिन पहाड़ों पर चढ़ने से कौन सा लाभ है? डैबी हंसा और बोला, लाभ यह है कि एक पहाड़ पर चढ़ने के बाद दूसरा ऐसा ही पहाड़ दिखायी पड़ना आरंभ हो जाता है कि जिस पर चढ़ना कठिन प्रतीत होता है। उसके पार होने पर तीसरा। उसके पार होने पर चौथा। और जब तक यह क्रम है और चुनौती है, तब तक जीवन है।
जिस दिन चढ़ने को कुछ शेष नहीं, आकर्षण, चुनौती नहीं, उसी दिन मृत्यु घट जाएगी। और मृत्यु नहीं है, जीवन ही है। एक पहाड़ तुम चढ़ते हो, शायद तुम इसी आशा में चढ़ते हो कि अब चढ़ गए, बस आखिरी आ गया, अब इसके पार कुछ नहीं है, अब तो आराम करेंगे, चादर ओढ़कर सो जाएंगे। पहाड़ पर चढ़ते हो, तब पाते हो कि दूसरा पहाड़ सामने प्रतीक्षा कर रहा है। इससे भी बड़ा, इससे भी विराट, इससे भी ज्यादा स्वर्णमयी! अब फिर तुम्हारे भीतर चुनौती उठी। अब फिर तुम चले। सोचोगे कि अब इस पर पड़ाव डाल देंगे। जिस दिन शिखर पर पहुंचोगे--शिखर पर पहुंचते ही आगे का दिखायी पड़ता है, उसके पहले दिखायी नहीं पड़ता--तब दिखायी पड़ता है और बड़ा पहाड़, मणि-कांचनों से चमकता, रुकना मुश्किल है! ऐसे पहाड़ के बाद पहाड़।
सत्य की खोज अनंत खोज है। यात्रा है और ऐसी यात्रा कि कभी समाप्त नहीं होती। समाप्त नहीं होती, यह शुभ भी है। समाप्त हो जाए तो जीवन समाप्त हो गया।
हम अनंत के यात्री हैं। एस धम्मो सनंतनो।
आज इतना ही।