QUESTION & ANSWER

Ek Naya Dwar (एक नया द्वार) 01

First Discourse from the series of 5 discourses - Ek Naya Dwar (एक नया द्वार) by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
एक छोटी सी घटना से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा।
एक अंधेरी रात में जब कि गांव के सारे लोग सोए थे, अचानक एक झोपड़े से जोर से आवाज उठने लगी: मेरे घर में आग लगी है, मैं आग में जल रही हूं। कोई स्त्री जोर से रो रही और चिल्ला रही थी। सोया हुआ गांव जाग गया, सोए हुए लोग उठे और उस झोपड़े की तरफ भागे। करीब-करीब सारा गांव उठ गया और झोपड़े के पास इकट्ठा हो गया। लेकिन आग तो दूर उस झोपड़े में एक दीये की रोशनी भी नहीं थी। घना अंधकार था। लेकिन भीतर से कोई रोए और चिल्लाए जा रहा था: मेरे घर में आग लगी है, मैं जल रही हूं।
लोगों ने द्वार खटखटाए, लोग द्वार खोल कर भीतर गए। कोई पास से लालटेन ढूंढ लाया, कोई बाल्टियों में पानी लेकर आ गए। भीतर पाया उस बूढ़ी औरत को जो चिल्लाती थी। उससे पूछा: कहां आग लगी है? हम बुझा दें! आग तो कहीं दिखाई नहीं पड़ती है?
वह बूढ़ी औरत हंसने लगी और उसने कहा: आग मेरे बाहर होती, तो तुम बुझा भी सकते थे; आग मेरे भीतर लगी है।
समझा होगा उस गांव के लोगों ने वह बूढ़ी औरत पागल है। वे हंसते हुए वापस लौट गए। नींद खराब किए जाने के लिए गालियां देते हुए वापस लौट गए। जाकर सो गए।
उस बूढ़ी औरत ने कहा: आग मेरे भीतर लगी है। बाहर की बाल्टियों और पानी से मेरी आग न बुझ सकेगी। लेकिन उन लोगों ने समझा कि बूढ़ी औरत पागल है।
इस घटना से इसलिए शुरू करना चाहता हूं कि करीब-करीब सभी मनुष्यों के जीवन में एक भीतरी आग है जो पीड़ा देती है, दुख देती है। और करीब-करीब सभी मनुष्य उस आग को बुझाने की कोशिश करते हैं। लेकिन वह कोशिश व्यर्थ हो जाती है। क्योंकि जिस पानी से वे बुझाना चाहते हैं वह पानी बाहर होता है। पानी बाहर है, आग भीतर। पानी इकट्ठा होता जाता है, आग बुझती नहीं। और आखिर में सारा जीवन जल कर राख हो जाता है। हमारे प्रयत्न व्यर्थ हो जाते हैं, हमारी दौड़ व्यर्थ हो जाती है, हमारा श्रम निरर्थक हो जाता है। और अंततः हम अपने को वहां पहुंचा हुआ पाते हैं जहां हममें से कोई भी जाने को राजी नहीं है।
जीवन भर की दौड़ का परिणाम मौत के अतिरिक्त और क्या होता है? जीवन भर चलने के बाद मौत के सिवाय हम और कहां पहुंचते हैं? और अगर मौत ही मंजिल है, और अगर मौत ही पहुंचना है, तो जीवन का क्या अर्थ है फिर? जीवन का क्या अभिप्राय है? दुख से बचना चाहते हैं, पीड़ा से बचना चाहते हैं, अशांति से बचना चाहते हैं, लेकिन पहुंच कहां पाते हैं।--आनंद में पहुंचते हैं? अमृत में पहुंचते हैं?
नहीं; पहुंचते हैं मृत्यु में, पहुंचते हैं अंधकार में, पहुंचते हैं विनाश में। और अगर जीवन का अंतिम फल मृत्यु होती हो, तो क्या यह पूरा जीवन ही मृत्यु के अंधकार में घिरा हुआ प्रतीत नहीं होगा? और जिससे हम बचना चाहते हैं अगर वही अंत में जीवन में उपलब्ध होता हो, तो क्या ऐसे जीवन को हम सफल जीवन कहेंगे? लेकिन हम सारे लोग वहीं पहुंचते हैं। और हम जितना बचना चाहते हैं उतना ही वहीं पहुंचते हैं। जिससे हम बचना चाहते हैं वहीं पहुंच जाते हैं।
शायद उस बूढ़ी औरत को जो दिखाई पड़ा वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए यह दुर्घटना, इसलिए यह दुर्भाग्य घटित होता है। भीतर हमारे आग होती है, बुझाने की कोशिश हम बाहर करते हैं। आग नहीं बुझेगी। आग का बुझना असंभव है। भीतर ही अगर पानी भी खोजा जा सके, तो शायद आग बुझ सकती है।
सिकंदर मरा, जिस दिन मरा उस दिन जिस गांव में जिस राजधानी पर उसकी अरथी निकली, लाखों लोग देखने वाले इकट्ठे थे। एक अजीब बात सारे लोगों ने देखी, जो कभी नहीं देखी गई थी: सिकंदर के दोनों हाथ अरथी के बाहर लटके हुए थे। हाथ तो अरथी के भीतर होते हैं। क्या कोई भूल हो गई थी? सिकंदर के साथ भूल नहीं हो सकती थी। हजारों लोग अरथी को लेकर बाहर आए थे, किसी को तो दिखाई पड़ ही जाता, अंधे नहीं थे लोग। रास्ते पर गांव में भीड़ विचार में पड़ गई, सिकंदर के हाथ अरथी के बाहर क्यों हैं? एक ही प्रश्र्न उस दिन उस राजधानी में गूंजने लगा: सिकंदर के हाथ अरथी के बाहर क्यों हैं?
सांझ होते-होते पता चला, सिकंदर ने मरते वक्त कहा था: मेरे हाथ अरथी के बाहर रखना। लोगों ने पूछा: क्यों? तो उसने कहा: ताकि लोग देख सकें कि सिकंदर के हाथ भी मरते वक्त खाली हैं। उसने कहा: ताकि लोग देख सकें कि मरते वक्त सिकंदर के हाथ भी खाली हैं!
सभी के हाथ खाली होते हैं--लेकिन सभी के हाथ अरथियों के बाहर नहीं होते; हम उन्हें अरथियों में छिपा देते हैं भलीभांति, ताकि लोग न देख सकें कि हाथ खाली हैं। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हाथ अरथी में छिपे हों कि बाहर निकले हों, हाथ खाली ही होते हैं।
क्यों ये हाथ खाली जाते हैं जीवन भर की दौड़ के बाद? जीवन भर का श्रम व्यर्थ क्यों हो जाता है?
शायद कोई भूल है। शायद कोई बुनियादी भूल है। शायद हम वहां खोजते हैं संपदा को जहां संपदा नहीं है। शायद हम खोजते हैं वहां जीवन को जहां जीवन नहीं है। शायद हम खोजते हैं शांति को वहां जहां शांति नहीं है। और तब हाथ खाली न होंगे तो क्या होगा? और इसीलिए जिस अंधकार से और पीड़ा से बचने को हम भागते हैं, अंत में हम पाते हैं कि वहीं पहुंच गए।
एक और छोटी कहानी, ताकि मेरी बात समझ में आ सके, फिर मुझे जो आज की संध्या कहना है वह मैं आपसे कहूं।
दमिश्क में एक बादशाह हुआ। एक रात उसने स्वप्न देखा कि कोई अंधेरी छाया पीछे खड़ी है उसके कंधे पर हाथ रखे। उसने पूछा: तुम कौन हो? उस छाया ने कहा: मैं हूं तुम्हारी मौत, और आज सांझ सूरज ढलने के पहले ठीक जगह पर पहुंच जाना और ठीक जगह पर मिल जाना। देखो, कहीं ऐसा न हो कि भूल जाओ। कहीं ऐसा न हो कि ठीक जगह पर न पहुंच पाओ। ठीक जगह पर मिल जाना, इसी बात की चेतावनी देने मैं सपने में आई हूं।
उस राजा की नींद खुल गई। मौत के भय से किसकी नींद न खुल जाएगी? लेकिन हममें से बहुत ऐसे हैं जो मौत सामने खड़ी हो तो भी सोए रह सकते हैं। ऐसे तो मौत सामने खड़ी है और हम सोए हैं। लेकिन उस राजा की नींद खुल गई, वह सपना टूट गया।
आधी रात थी, उसने अपने राजधानी के विचारशील वृद्ध लोगों को उसी वक्त बुला भेजा--ज्योतिषियों को, दार्शनिकों को बुला भेजा और उनसे पूछा कि इस स्वप्न का क्या अर्थ है? देखा है मैंने स्वप्न: अंधेरी कोई छाया मेरे पीछे कंधे पर हाथ रखे खड़ी है। और मैंने पूछा: कौन हो? तो उसने कहा: मृत्यु हूं तुम्हारी, और आज सांझ सूरज ढलने के पहले ठीक जगह पर मिल जाना। देखो, कहीं भूल-चूक न हो जाए, इसीलिए चेतावनी देने आई हूं।
वे गांव के पंडित और विचारशील लोग अपनी पोथियों को खोल कर विचार करने में लग गए--स्वप्न का क्या अर्थ हो सकता है? उनकी पोथियां बहुत बड़ी थीं। जैसे कि पोथियां हमेशा बड़ी होती हैं। वे ग्रंथ उनके बहुत बड़े थे। और उन ग्रंथों की भाषा बहुत उलझी हुई थी। और उन ग्रंथों में से अर्थ निकालना बहुत दुरूह था। और अर्थ भी निकल आए, तो उन सब वृद्धजनों का सहमत हो जाना और भी कठिन था। और सांझ बहुत करीब थी। और सूरज बहुत जल्दी ढल जाएगा और विराम नहीं लेगा और विश्राम नहीं करेगा और जल्दी ही सांझ आ जाएगी। और किताबों में खोजने वाले वे विचारशील लोग शायद ही किसी नतीजे पर पहुंच पाएं।
उस राजा के वृद्ध वजीर ने कहा: इन्हें खोजने दो और सोचने दो। सांझ बहुत जल्दी आ जाएगी, और इनसे कोई समाधान मिलना कठिन है। क्योंकि पांच हजार साल हो गए, पंडित सोच रहे हैं और आज तक किसी समाधान पर नहीं पहुंचे। और हजारों ग्रंथ लिखे गए हैं और हजारों दर्शन, हजारों फिलसफा पेश किए गए हैं, लेकिन कोई सहमति नहीं हो सकी! पंडित आपस में सहमत नहीं हैं, इसलिए इनके चक्कर में मत पड़ो।
उस राजा ने पूछा: फिर मैं क्या करूं?
उसके वजीर ने कहा: अच्छा यही होगा कि तेज से तेज घोड़ा लेकर तुम इस महल से जितने दूर निकल सको निकल जाओ। सांझ करीब है और सूरज जल्दी ढल जाएगा। और मौत, मौत निश्र्चित वक्त पर आ सकती है। तो तुम निकल जाओ दूर, जितने दूर जा सको इस महल से।
ठीक थी यह बात। विचारकों पर निर्भर होना खतरनाक था। विचारक कभी किसी निष्कर्ष पर न पहुंचे हैं और न पहुंचेंगे।
राजा ने, सुबह होती थी, अभी अंधेरा था, तेज से तेज घोड़ा बुलवाया, उस घोड़े पर बैठा और उसने भागना शुरू किया। उसने अनेक बार अपनी पत्नी से कहा था: तेरे बिना एक क्षण भी जी नहीं सकता हूं; लेकिन उस सुबह पत्नी की याद उसे भूल गई। मौत के क्षण में किसे किसकी याद रह जाती है? उसने अपने मित्रों से कहा था: तुम्हारे बिना जीवन व्यर्थ है; लेकिन उन मित्रों से विदा लेना उस दिन वह भूल गया। मौत के वक्त कौन किससे विदा लेता है? उसने अपने तेज घोड़े को भगाना शुरू किया। उसके पास जमीन का तेज से तेज घोड़ा था। उस दिन न तो उसे तपती हुई दोपहरी पता चली, सूरज आकाश में जलता था, उसे खयाल भी न आया। पसीना धारों से बहता था, उसे पता भी न चला। मौत सामने खड़ी हो तो क्या पता चलता है? उस दिन वह न तो रुका छाया में विश्राम करने, न उसे प्यास लगी, न उसे भूख लगी। एक क्षण को भी रुकना खतरनाक था। एक क्षण भी खोना खतरनाक था। जितने दूर बन सके निकल जाना जरूरी था। वह भागता रहा, भागता रहा, भागता रहा। और सूरज ढलने के पहले सैकड़ों मील दूर निकल गया। वह खुश था। जैसे-जैसे सूरज ढलने लगा, वह प्रसन्न था, काफी दूर निकल आया था।
और सूरज जब ढलता था, तो उसने एक गांव के बाहर एक बगीचे में अपने घोड़े को बांधा, रात विश्राम की तैयारी की। वह काफी दूर निकल आया था। और अब कोई भी भय न था। सूरज की आखिरी किरणें डूबने लगीं। वह घोड़ा बांध ही रहा था कि उसे लगा कोई कंधे पर हाथ रखे हुए खड़ा है। उसने पीछे लौट कर देखा, वही अंधेरी छाया खड़ी थी। उसने पूछा: तुम कौन हो? उसने कहा: तुम पहचाने नहीं? रात सपने में भी मैं आई थी, मैं मौत हूं। और मैं तुम्हारे घोड़े को धन्यवाद देती हूं। मैं बहुत चिंतित थी, इसी जगह पर पहुंच कर तुम्हें मरना था। और मैं चिंतित थी कि तुम पहुंच सकोगे या नहीं पहुंच सकोगे। घोड़ा बहुत तेज है तुम्हारा, बहुत लाजवाब है! सूरज ढलने के पहले उसने तुम्हें ठीक जगह पहुंचा दिया। मैं तुम्हारे घोड़े को धन्यवाद देती हूं।
यह आदमी दिन भर भागा मौत से और सांझ मौत के मुंह में पहुंच गया।
क्या आप किसी ऐसे आदमी को जानते हैं जो जिंदगी भर भागा हो और मौत के मुंह में न पहुंचा हो? शायद ही ऐसे किसी आदमी को आप जानते हों। क्योंकि बड़े मजे और रहस्य की बात यह है कि जो दौड़ता है, वह मौत के मुंह में पहुंच ही जाता है। जो ठहरता है, वह मौत से बच भी सकता है। मैं फिर से यह दोहराऊं, क्योंकि यह बात तीन दिनों में आपसे मुझे कहनी है: जो दौड़ता है, वह मौत के मुंह में पहुंच ही जाता है; लेकिन जो ठहर जाता है, वह मौत से मुक्त हो जाता है, वह मौत से बच जाता है।
यह बड़ी उलटी बात है। क्योंकि हम तो यही जानते हैं, जो दौड़ता है वह निकल जाता है। हम तो यही जानते हैं, जो दौड़ेगा वही बचेगा। लेकिन आज तक किसी दौड़ते आदमी को बचते हुए देखा है? आज तक किसी दौड़ते आदमी को मौत से बचते देखा है? नहीं, आज तक कोई दौड़ता आदमी मौत से नहीं बचा। क्योंकि दौड़ने वाला चित्त इतनी उलझन में होता है कि वह उसे जान ही नहीं पाता जो जीवन है। दौड़ने वाला चित्त इतना अशांत होता है कि वह झांक ही नहीं पाता स्वयं के भीतर, जहां कि वह है--जो कि अमृत है। दौड़ने वाला दौड़ता है, दौड़ता है--और जितना दौड़ता है, उतना मौत के निकट पहुंच जाता है। घोड़ा, जिनके पास तेज है, मौत एक दिन धन्यवाद देगी उनके घोड़े को; कहेगी कि तुम्हारा तेज था घोड़ा और ठीक वक्त पर ले आया।
लेकिन जिंदगी में तो ऐसा मालूम पड़ता है कि जिनके पास जितना तेज घोड़ा है वे उतने ही आगे हैं; जिंदगी में तो ऐसा मालूम पड़ता है कि जो जितनी तेजी से दौड़ सकता है वह शायद उतना ही जीवन को पा लेगा। लेकिन नहीं, जीवन के रास्ते बहुत अनूठे हैं, बहुत रहस्यपूर्ण हैं।
लाओत्सु हुआ चीन में कोई ढाई हजार वर्ष पहले। उसने कहा: अगर पाना है, तो ठहर जाओ; अगर खोना है, तो दौड़ो। बड़ी अजीब बात कही। उसने कहा: अगर पाना है तो ठहर जाओ और अगर खोना है तो दौड़ो।
लेकिन हम सारे लोग तो दौड़ के अतिरिक्त और कुछ जानते नहीं हैं। धन के लिए दौड़ते हैं, यश के लिए दौड़ते हैं, पद के लिए दौड़ते हैं, प्रतिष्ठा के लिए दौड़ते हैं। और जब इन सबसे ऊब जाते हैं और इन सबमें कोई रस नहीं पाते, तो फिर धर्म के लिए दौड़ते हैं, आत्मा के लिए दौड़ते हैं, परमात्मा के लिए दौड़ते हैं, मोक्ष के लिए दौड़ते हैं। लेकिन दौड़ना जारी रखते हैं। और स्मरण रहे, कि चाहे कोई धन के लिए दौड़े और चाहे धर्म के लिए, दौड़ दोनों हालतों में खतरनाक है। क्योंकि जो दौड़ता है, वह कभी भी पाता नहीं। धन के लिए दौड़ने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता और धर्म के लिए दौड़ने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। जो चित्त दौड़ता है, वह अशांत है।
लेकिन हम दो ही तरह के लोगों को जानते हैं: संसार की दौड़ है और परमात्मा की दौड़ है।
लेकिन मैं आपसे कहना चाहूंगा: परमात्मा को दौड़ कर कोई कभी नहीं पा सका है। परमात्मा को तो वे लोग पाने में समर्थ होते हैं जो दौड़ छोड़ देते हैं। इसलिए परमात्मा को पाने की कोई दौड़ नहीं हो सकती। धन की दौड़ हो सकती है, धर्म की कोई दौड़ नहीं हो सकती। धर्म तो ठहर जाना है, दौड़ का उससे क्या संबंध?
लेकिन जो लोग संसार में दौड़ने के आदी हैं, जब वे संसार से ऊब जाते हैं और पाते हैं कि कुछ भी नहीं मिलता, तब भी वे दौड़ से नहीं ऊबते हैं--संसार से ऊबते हैं--दौड़ जारी रहती है। फिर वे मोक्ष के लिए दौड़ने लगते हैं। वे यहां भवन बना रहे थे, फिर वे स्वर्ग में भवन बनाने लगते हैं। वे यहां धन इकट्ठा कर रहे थे, फिर वे पुण्य इकट्ठा करने लगते हैं, जो कि स्वर्ग के लिए धन है। वे यहां बड़े होना चाहते थे संग्रह और परिग्रह में, फिर वे त्याग में बड़े होना चाहते हैं और संन्यास में। लेकिन बड़े होने का खयाल नहीं छूटता। वे यहां पाना चाहते थे, फिर वे और आगे परलोक में पाना चाहते हैं। लेकिन पाने की दौड़ समाप्त नहीं होती।
धार्मिक आदमी का दौड़ से क्या संबंध? कोई भी संबंध नहीं है। लेकिन हम तो संन्यासी को भी दौड़ते देखते हैं। हम तो उसे भी देखते हैं कि वह कुछ पाने के लिए भाग रहा है, भाग रहा है। हम तो उसे भी देखते हैं कि वह छोड़ रहा है, तो इसीलिए छोड़ रहा है ताकि कुछ पा सके। उसका छोड़ना भी इनवेस्टमेंट है, उसका त्याग भी किसी चीज को पाने के लिए उपाय है। उसका त्याग भी एक साधन है, जिससे वह आगे कुछ पा लेना चाहता है। वह अगर धन छोड़ रहा है, तो इसलिए ताकि धर्म पा सके। लेकिन पाने की दौड़ कायम है।
यह जो हमारा पाने के लिए दौड़ने वाला चित्त है, यह कभी भीतर नहीं जा सकता।
इस बात को थोड़ा समझ लेना बहुत उपयोगी है।
जब तक मैं कुछ पाना चाहता हूं, तब तक मेरी दृष्टि बाहर रहेगी। जब तक मैं कुछ पाना चाहता हूं, तब तक मेरी आंखें बाहर खोजेंगी। क्योंकि भीतर, भीतर तो जो कुछ भी है, वह मिला हुआ है, वहां पाने का सवाल कहां है? आत्मा मिली हुई है, परमात्मा मिला हुआ है। उसे पाने का कोई सवाल नहीं है। मछलियां जैसे सागर में खोजें पानी को, और दौड़ें और दौड़ें और पूछें कि सागर कहां है? और पूछें कि पानी कहां है? वैसे ही वे लोग हैं जो पूछते हों--परमात्मा कहां है? आत्मा कहां है? मोक्ष कहां है? हम जहां जी रहे हैं, वहीं परमात्मा है; क्योंकि जीवन ही परमात्मा है। जहां से हमारी श्वासें उठती हैं और जहां हमारे प्राण स्पंदित हो रहे हैं, वही परमात्मा है; उसके अतिरिक्त और परमात्मा कहां है? लेकिन उसे पाया कैसे जा सकता है, वह तो मिला हुआ है! परमात्मा को पाने में एक ही कठिनाई है कि वह मिला ही हुआ है। इसलिए जो भी उसे खोजने निकल जाता है, वह खो देता है। और, जो सारी खोज छोड़ कर ठहर जाता है, वह उसे पा लेता है।
एक बार ऐसा हुआ, एक राजा का पुराना वजीर मर गया। बड़ा राज्य था। और हमेशा उस राज्य में वजीर बड़ी खोज-बीन के बाद रखा जाता था। जो देश का सबसे बड़ा विचारशील और चिंतक व्यक्ति होता, जो सबसे बड़ा ज्ञानी होता उसी को वजीर बनाते थे। वजीर मर गया, तो नये वजीर की खोज शुरू हुई। सारे देश में बुद्धिमान आदमी खोजे गए। सारे देश में परीक्षाएं हुईं। और अंततः तीन व्यक्ति लाए गए राजधानी में जो कि उस देश में सबसे ज्यादा बुद्धिमान, सबसे ज्यादा समझदार लोग थे।
फिर अंतिम परीक्षा का निर्णय का दिन आ गया। जब कि उन तीन में परीक्षा होगी और अंतिम व्यक्ति चुन लिया जाएगा। बड़ा भारी पद था। आज घोषणा कर दी गई कि कल सुबह परीक्षा होगी। और वे तीनों आदमी महल के एक भवन में ठहरा दिए गए।
बड़ा आश्र्चर्य तो यह हुआ कि सांझ होते-होते सारे गांव में यह खबर फैल गई कि परीक्षा क्या होनी है। जैसे कि आजकल फैल जाती है। तब भी फैल गई। सांझ होते-होते पता चल गया कि परीक्षा क्या होनी है। सारे गांव में चर्चा शुरू हो गई। एक अजीब परीक्षा राजा लेना चाहता था। उन तीनों व्यक्तियों को कल सुबह भवन के एक बड़े कक्ष में बंद कर दिया जाएगा और भवन के द्वार पर एक ताला लगा दिया जाएगा। वह ताला उस देश के यांत्रिकों, इंजीनियरों ने और गणितज्ञों ने निर्मित किया था। उस ताले में कोई चाबी नहीं लगती थी। उस ताले पर कुछ अंक लिखे हुए थे गणित के और उन अंकों में एक पहेली थी। जो उस अंकों की पहेली को हल कर सकता था, वही ताले को खोल सकता था। बस वह अंकों की पहेली हल करके ठीक बैठ जाती, ताला खुल जाता। वह गणित और--यांत्रिक इंजिनियरों ने उस ताले को निर्मित किया था।
सारे गांव में खबर फैल गई कि कल उन तीनों को बंद कर दिया जाएगा और सामने ताला लगा दिया जाएगा जिसकी कोई चाबी नहीं है। तो जो गणित की पहेली को हल कर सकेगा--जो उस ताले पर खुदी हुई है--वह ताले को खोलने में समर्थ हो जाएगा। और जो सबसे पहले द्वार को खोल कर बाहर आ जाएगा, वही वजीर बन जाएगा।
सांझ ही यह पता चल गया। उन तीनों लोगों को भी पता चल गया। उनमें से दो भागे हुए बाजार गए और गणित पर तालों के संबंध में जो भी किताबें मिल सकती थीं वे ले आए। उन्होंने रात भर अध्ययन किया। रात भर का मौका था, रात भर की बात थी, फिर जीवन भर के लिए एक बड़ी भारी विजय मिलने को थी। लेकिन उन तीन में से एक बहुत अजीब था, वह न तो कहीं गया, न वह कोई किताब लाया, बल्कि वह सांझ से ही ओढ़ कर सो गया। उन दो ने समझा कि मालूम होता है उसने भय के कारण परीक्षा में न बैठने का निर्णय कर लिया है! या हो सकता है उसे विश्र्वास न आता हो कि जो खबर उड़ी है वह सच है! लेकिन फिर भी कोई भी मौका खोना ठीक न था। वे दोनों रात भर अध्ययन करते रहे। उन्होंने गणित और तालों के संबंध में जो भी साहित्य था सारा देख डाला।
सुबह होते-होते वे उस जगह पहुंच गए जहां अक्सर परीक्षार्थी पहुंच जाते हैं। उनसे अगर आप पूछते कि दो और दो कितने होते हैं, तो वे घबड़ा कर खड़े रह जाते, उन्हें बताना कठिन हो जाता। रात भर जागे थे और किताबें उनके मन में भर गईं, अब छोटे-छोटे उत्तर देना भी मुश्किल थे। लेकिन एक आदमी रात भर सोया रहा, सुबह उठा।
और वे तीनों राजमहल पहुंचे। बात सच थी, अफवाह ठीक थी। उन्हें एक कक्ष में बंद कर दिया गया और एक बड़ा ताला उस पर लगा दिया गया। और राजा ने उनसे कहा कि गणित की एक पहेली है, इसे जो हल कर सकेगा वह दरवाजा खोल कर बाहर आ जाएगा। और जो बाहर निकल आएगा--मैं बाहर प्रतीक्षा करता हूं--वही वजीर बन जाएगा जो पहले बाहर आएगा। दरवाजा बंद करके राजा बाहर चला गया।
वे दोनों व्यक्ति जो रात भर पढ़ते रहे थे, अपने वस्त्रों में थोड़ी सी किताबें छिपा कर ले आए थे। आजकल के ही विद्यार्थी लाते हों ऐसा नहीं है--यह तो कोई दो हजार वर्ष पुरानी बात है--आदमी हमेशा एक जैसा रहा है, कोई बहुत फर्क नहीं है। तो कोई यह न समझे कि हम बहुत समझदार हो गए हैं और परीक्षाओं में किताबें ले जाते हैं। पहले भी लोग ले जाते रहे हैं। वे ले गए। उन्होंने जैसे ही दरवाजा बंद हुआ अपनी किताबें बाहर निकाल लीं और वह ताले पर लिखे अंकों को कागजों पर लिख कर हल करने में लग गए।
लेकिन वह एक आदमी बहुत अजीब था, वह आंख बंद करके एक कोने में बैठ गया। वे दोनों उस पर हंसे कि मालूम होता है यह पागल है! कुछ करो तभी तो कुछ हो सकेगा! मालूम होता था कि वह घबड़ा गया है और इसलिए अब वह कुछ करने को राजी नहीं है! मालूम होता था उसने तैरना छोड़ दिया, मालूम होता था वह प्रतिस्पर्धा के बाहर हो गया है! लेकिन उसकी आंखें बड़ी शांत थीं, उसका चेहरा बड़ा शांत था। वह उद्विग्न नहीं मालूम पड़ता था। वह शांत बैठा रहा, बैठा रहा... अचानक, अचानक उठ कर खड़ा हुआ, उसे कोई बात दिखाई पड़ी। वह उठा और उसने जाकर दरवाजे को धीरे से धक्का दिया, दरवाजा खुल गया! दरवाजे में ताला लगाया नहीं गया था! वह बाहर निकल गया।
वे जो किताबों में खोज रहे थे खोजते रहे, उन्हें यह भी पता नहीं चला कि एक तीसरा आदमी बाहर हो गया है। जो लोग किताबों में डूबे रहते हैं, वे जिंदगी को देखने से वंचित रह जाते हैं। उन्हें तो तभी पता चला जब राजा उस आदमी को लेकर भीतर आया। और उसने कहा कि बंद करो अपनी किताबें। क्योंकि जिस आदमी को बाहर होना था, वह बाहर हो गया।
वे तो चौंक कर रह गए! उन्होंने पूछा कि तुम कैसे बाहर हुए? राजा ने कहा: ताला लगाया नहीं गया था। क्योंकि वही ताला खोलने में बहुत कठिन होता है जो लगाया गया न हो। जो लगा हो वह खोला जा सकता है। लेकिन जो न लगा हो, उसे खोलना बहुत कठिन हो जाता है। क्योंकि यह खयाल ही पैदा नहीं होता कि हो सकता है ताला न लगा हो? और यह आदमी सबसे ज्यादा समझदार है। इसने समझदारी का पहला सबूत दिया। इसने ताले पर लिखे अंकों को हल करने की बजाय सबसे पहले यह देखना चाहा कि ताला लगा भी है या नहीं? वही आदमी सबसे ज्यादा समझदार है जो किसी समस्या को हल करने के पहले यह तो देख ले कि समस्या है भी या नहीं? तो यह आदमी देश का सबसे समझदार आदमी है, हम इसे वजीर बना देते हैं।
यह कहानी बड़ी अजीब है। और यह कहानी बड़ी सच है। और यह कहानी एक आदमी के साथ नहीं, परमात्मा ने करीब-करीब हर आदमी के साथ खेली हुई है।
परमात्मा को खोजने में जो लग जाता है, वह खो देता है। क्योंकि पहली और खूबी की बात तो यह है कि परमात्मा खोया हुआ नहीं है। तो जो उसे खोजने निकल जाता है, वह भटक जाता है। पहले तो यह देखना जरूरी है कि ताला लगा भी है या नहीं? लेकिन हम बहुत समझदार हैं। हम या तो धन खोजते हैं, पद और प्रतिष्ठा खोजते हैं, और या फिर ऊब कर परेशानी में, बुढ़ापे में, थकी हालत में, निराशा में, असफलता में, विफलता में फिर परमात्मा को खोजने लगते हैं।
परमात्मा को कभी नहीं खोजा जा सकता; क्योंकि खोजने वाला आदमी बहुत छोटा है और जिसे खोजना है वह विराट है। छोटा सा आदमी विराट को कैसे खोज सकेगा? तो फिर आदम
ी जब नहीं खोज पाता है परमात्मा को, तो झूठे परमात्मा खुद ही गढ़ लेता है, खुद ही बना लेता है, अपने हाथ से खड़े कर लेता है। जब आदमी असफल हो जाता है और नहीं खोज पाता है, तो खुद खड़े कर लेता है।
हमने बहुत से भगवान बना लिए हैं। इसीलिए तो हिंदुओं के भगवान अलग हैं, और मुसलमानों के अलग, और ईसाइयों के अलग, और जैनों के अलग। भगवान भी बहुत प्रकार के हो सकते हैं? परमात्मा भी बहुत प्रकार का हो सकता है? सत्य भी बहुत प्रकार का हो सकता है? लेकिन नहीं, चूंकि आदमी बहुत प्रकार के हैं, इसलिए सत्य को भी उन्होंने बहुत प्रकारों में गढ़ लिया है। और ये गढ़े हुए सत्य, ये होममेड, घर में बनाए गए सत्य झगड़ों का केंद्र हो गए हैं।
इतने धर्म हो सकते हैं? इतने मंदिर और मस्जिद हो सकते हैं? नहीं हो सकते। लेकिन, आदमी ने उनको गढ़ लिया है, इसलिए वे हैं। और आदमी जो भी बना लेगा, और आदमी जो भी निर्मित कर लेगा, और आदमी जिस चीज की भी सृष्टि करेगा, वह सृष्टि आदमी से बड़ी नहीं हो सकती है। हम जो भी बनाएंगे, वह हमसे बड़ा नहीं हो सकता है।
इसलिए हमारे मंदिर हमसे छोटे हैं और हमारे गढ़े हुए भगवान भी हमसे छोटे पड़ जाते हैं। इसलिए भगवान के नाम पर हम लड़ तो सकते हैं, लेकिन प्रेम नहीं कर सकते। क्योंकि हमारे गढ़े हुए भगवान... जब हम ही प्रेम करने में असमर्थ हैं, तो हमारे गढ़े हुए भगवान भी आधार नहीं बन सकते हैं प्रेम के। इसलिए हम अपने भगवानों को लेकर युद्ध कर सकते हैं, हिंसा कर सकते हैं, मार सकते हैं और मर सकते हैं, लेकिन जी नहीं सकते। हमारा सब गढ़ा हुआ हमसे छोटा सिद्ध होता है।
एक चर्च में एक रात एक आदमी ने द्वार खटखटाया। दरवाजे खुले। उस पादरी ने दरवाजे खोल कर देखा कि कोई काली चमड़ी का आदमी खड़ा हुआ है। वह चर्च सफेद चमड़ी के लोगों का चर्च था। वहां काली चमड़ी के लोगों के लिए कोई इजाजत न थी। अब तक ऐसा मंदिर नहीं बन पाया है जो सबके लिए हो। उस पादरी ने कहा: लौट जाओ वापस। क्या करने के लिए इतनी रात में यहां आए हो?
उस आदमी ने कहा: हो सकता है, मैंने सोचा, रात में तुम मुझे न पहचान पाओ और मुझे भीतर चले जाने दो। दिन में तो मेरा घुसना मुश्किल था। मेरी चमड़ी घोषणा करती है कि मैं काला हूं। लेकिन मेरे मन में भी भगवान के लिए प्रार्थना उठती है, और मेरे मन में भी खोज पैदा होती है, और मैं भी प्यासा हूं और पानी की खोज में निकला हूं। क्या मुझे भीतर न आने दोगे?
उस पादरी ने कहा कि जाओ पहले अपने मन को शांत करो, पहले अपने मन को शांति से भरो, प्रेम से भरो और आना, पीछे आना। जब तुम्हारा मन स्वच्छ और निर्मल हो जाए तो फिर मैं तुम्हें परमात्मा तक जाने दूंगा। अभी क्या करोगे? बिना मन के निर्दोष हुए कौन परमात्मा तक जा सकता है? इसलिए वापस लौट जाओ।
वह आदमी वापस लौट गया। दो-तीन महीने बीत गए, वह दुबारा नहीं आया। उस पादरी ने सोचा कि वह आएगा भी नहीं। उसने शर्त ऐसी लगा दी थी कि अब आने की कोई गुंजाइश न थी। न होगा मन निर्दोष और न वह आएगा। लेकिन एक दिन रास्ते पर वह आदमी मिल गया, वह नीग्रो मिल गया। उसे देख कर वह पादरी हैरान हुआ। उसकी चाल बदल गई थी, उसकी आंखें बदल गई थीं, उसका चेहरा बदल गया था। उसका सब-कुछ बदला हुआ मालूम पड़ता था। वह कोई और आदमी हो गया था। उसके चारों तरफ एक रोशनी और शांति मालूम पड़ती थी। उसके चारों तरफ एक प्रेम झरता हुआ दिखता था। उस पादरी ने उसे रोका और पूछा कि तुम दुबारा नहीं आए?
उस आदमी ने कहा: मैं तो आता था, लेकिन परमात्मा ने आने से रोक दिया।
उस पादरी ने कहा: क्या मतलब?
वह नीग्रो बोला: जब मैंने अपने मन को निर्दोष करने के प्रयास किए, और जब मैं शांत हो गया, और जब मेरा हृदय प्रेम से भर गया, तो एक रात सपने में मुझे भगवान दिखाई पड़े। और उन्होंने मुझसे पूछा कि क्यों तू प्रार्थनाएं कर रहा है? और क्यों मन को शांत और निर्दोष कर रहा है? क्या चाहता है? तो मैंने उनसे कहा: हमारे गांव में जो चर्च है, मैं उसमें प्रवेश चाहता हूं। तो भगवान हंसने लगे और उन्होंने कहा कि तू बिलकुल पागल है। दस साल से मैं भी कोशिश कर रहा हूं उस मंदिर में घुसने की, वह पादरी मुझे ही नहीं घुसने देता, तुझे कैसे घुसने देगा! तू बिलकुल नासमझ है। यह खयाल छोड़ दे। तू और कोई वरदान मांग, तो मैं पूरा कर दूं, लेकिन यह वरदान मैं भी नहीं दे सकता हूं। जब मैं ही नहीं घुस पाता! तुझे उस मंदिर में प्रवेश दिलवाने में मैं असमर्थ हूं।
और मैं आपसे कहता हूं: भगवान ने डर कर दस साल कहा होगा, सच्चाई तो यह है कि दस हजार साल से भगवान कोशिश कर रहा है कि किसी मंदिर में घुस जाए। लेकिन किसी मंदिर के पादरी और पुरोहित उसे नहीं घुसने देते।
असल में, आज तक भगवान किसी मंदिर में प्रवेश नहीं पा सका है और न आगे पा सकेगा। क्योंकि भगवान है विराट और अनंत। और आदमी के बनाए गए मंदिर बहुत छोटे हैं। और भगवान है असीम। और आदमी जो भी बनाएगा, उसकी सीमा होगी। आदमी जो भी बनाएगा वह आदमी से बड़ा नहीं हो सकता। आदमी की लिखी गई किताबें भी आदमी से बड़ी नहीं होती हैं। आदमी के बनाए गए दर्शनशास्त्र भी आदमी से बड़े नहीं होते हैं। आदमी की फिलॉसफी भी आदमी से छोटी होती है। आदमी के मंदिर, आदमी की पूजा, आदमी की प्रार्थना, आदमी जो कुछ भी करेगा वह आदमी से बड़ा कैसे हो सकता है? इसलिए आदमी कुछ भी करे, उससे भगवान का कोई संबंध नहीं है। फिर क्या है? आदमी दौड़े, तो भगवान तक नहीं पहुंच सकता। आदमी कुछ बनाए, तो भगवान तक नहीं पहुंच सकता। आदमी कुछ करे, तो भगवान तक नहीं पहुंच सकता, सत्य तक नहीं पहुंच सकता।
हमारी प्रार्थनाएं हमें कहीं न ले जाएंगी, और हमारी पूजाएं भी नहीं, और हमारे शास्त्र भी नहीं, और हमारे धर्म भी नहीं, क्योंकि हम उनको बनाने वाले हैं। फिर क्या? फिर क्या है रास्ता आदमी को कि वह सत्य को जाने? स्वयं को जाने? शांति को जाने? संगीत को जाने?--क्या है रास्ता?
रास्ता कोई और है। उस रास्ते की तीन दिनों में आपसे मैं बात करूंगा।
प्रार्थना रास्ता नहीं है, पूजा रास्ता नहीं है, मंदिर मार्ग नहीं है, शास्त्र द्वार नहीं है, फिर क्या है रास्ता? क्या है द्वार?
तीन छोटे-छोटे सूत्रों पर, जो मुझे दिखाई पड़ते हैं कि मार्ग बन सकते हैं, उन पर मैं चर्चा करूंगा।
पहले सूत्र पर अभी थोड़ी सी बात करूंगा, दूसरे सूत्र पर कल, तीसरे सूत्र पर परसों।
पहला सूत्र: मनुष्य को परमात्मा तक जाने के लिए पहली और सबसे अनिवार्य जो बात जानने की है वह यह कि वह जो भी कर सकता है, जो भी बना सकता है, जो भी निर्मित कर सकता है, उससे नहीं, बल्कि जिस भांति भी वह खुद को छोड़ सकता है, खुद को मिटा सकता है, खुद को खो सकता है। क्योंकि मैं जो भी बनाऊंगा, वह मेरे ‘मैं’ को और मजबूत कर देगा। और मैं जो भी करूंगा, उससे मेरा अहंकार और पुष्ट हो जाएगा। और मैं जो भी बनाऊंगा--उसका बनाने वाला, मैं उससे बड़ा हो जाऊंगा। और अहंकार के अतिरिक्त कौन सी दीवाल है जो तोड़े है मनुष्य को? और कोई दीवाल नहीं है। किसी भांति मेरा ‘मैं’ विलीन हो जाए और खो जाए। किसी भांति मैं कुछ न करूं, कुछ न सोचूं, कहीं न दौडूं। सब भांति मेरा चित्त ठहर जाए। न करने में चल रहा हो, न सोचने में, न प्रार्थना में। सब भांति मेरा चित्त ठहर गया हो, रुक गया हो, स्तब्ध हो गया हो। जैसे कोई झील ठहर गई हो, उसमें कोई लहरें न उठ रही हों। ऐसा अगर मेरा चित्त हो जाए, तो उस शांत, उस स्पंदनहीन, उस मौन, उस साइलेंस में जाना जा सकता है वह जो मेरा स्वरूप है और सबका स्वरूप है।
लेकिन मेरे करने से नहीं, मेरे कुछ बनने से नहीं, बल्कि मेरे मिटने से। धर्म बनने का रास्ता नहीं, मिटने का रास्ता है। और बड़े आश्र्चर्य की बात यह है कि संसार जो कि बनने का रास्ता है, आखिर में मौत में ले जाता है, जहां सब मिट जाता है। और धर्म जो कि मिटने का रास्ता है, आखिर में वहां ले जाता है जिसके मिटने की कोई संभावना नहीं है। जो मिटते हैं, वे उसे पा लेते हैं जो अमिट है। बूंद अपने को सागर में खो देती है, तो सागर हो जाती है; और आदमी अपने को खो देता है, तो परमात्मा हो जाता है।
इसलिए आदमी का किया हुआ कुछ भी ले जाने में समर्थ नहीं है। आदमी अपने को अनकिया कर दे, अनडन कर दे, तो पहुंच जाएगा। पहुंच जाएगा कहना गलत है, क्योंकि वहां वह है, वह पाएगा कि वहां तो मैं हूं।
तो आदमी कैसे अपने को अनडन कर दे, कैसे अपने को मिटा दे, न कर दे, शून्य कर दे? कैसे मनुष्य अपने को शून्य कर ले?
उसकी पहली सीढ़ी है, मनुष्य को शून्यता की तरफ ले जाने वाली पहली सीढ़ी है: अज्ञान।
आपने सुना होगा: कि सत्य को पाना है, तो बहुत ज्ञान अर्जित करना होगा। मैं आपसे कहूंगा: अगर सत्य को पाना हो, तो ज्ञान को विसर्जित कर देना होगा, अर्जित करना नहीं होगा। ज्ञान को जो जितना संगृहीत कर लेता है उसका अहंकार उतना ही प्रबल हो जाता है। उसे लगने लगता है मैं जानता हूं। उसे लगने लगता है मैं जानता हूं! उसे अहसास होने लगता है मैं जानने वाला हूं।
साक्रेटीज जब मरने के करीब था, तो उसके एक मित्र ने जाकर उससे कहा कि मैंने सुना है, एथेंस के लोग कहते हैं कि तुम सबसे बड़े ज्ञानी हो। साक्रेटीज ने कहा कि जाओ और उनसे कह दो कि वे बड़ी भूल में हैं। जब मैं छोटा सा बच्चा था, अगर तब उन्होंने यह कहा होता कि साक्रेटीज तुम बड़े ज्ञानी हो, तो मैं खुश हो गया होता; क्योंकि जब मैं छोटा बच्चा था तो मैं समझता था कि मैं जानता हूं। जब मैं जवान हुआ, तो मेरी जानने की दीवालों के कई हिस्से गिर चुके थे। और जब मैं बूढ़ा हुआ, तो मैंने पाया कि वह भवन गिर गया जिसको मैं ज्ञान कहता था। आज तो मैं परम अज्ञानी हो गया हूं। जाओ और उनसे कह दो, साक्रेटीज कुछ भी नहीं जानता है।
वे लोग गए और उन्होंने एथेंस के वृद्धों को कहा कि साक्रेटीज से हमने पूछा। एथेंस के लोग कहते हैं कि साक्रेटीज महाज्ञानी है और वह तो कहता है कि जब मैं बच्चा था तब मुझे यह भ्रम था कि मैं जानता हूं, अब जब कि मैं बूढ़ा हो गया हूं, मेरा यह भ्रम टूट गया है। अब तो मैं स्पष्ट कहता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता।
तो उन वृद्धों ने कहा: इसीलिए हम उसे महाज्ञानी कहते हैं। क्योंकि जो यह जान लेता है कि मैं कुछ भी नहीं जानता, उसके जानने के द्वार खुल जाते हैं।
लेकिन हम सबको लगता है कि हम जानते हैं। और हम जानते क्या हैं? हम शब्दों के सिवाय और क्या जानते हैं? लेकिन शब्दों की संपदा को इकट्ठा करके ऐसा लगने लगता है कि मैं जानता हूं। एक आदमी गीता को याद कर लेता है, एक आदमी कुरान को, एक आदमी बाइबिल को, कोई कुछ और, कोई महावीर की वाणी को, कोई बुद्ध की वाणी को, उसे याद कर लेता है, उन शब्दों को इकट्ठा कर लेता है और उन शब्दों को बार-बार दोहराने से और बार-बार उन शब्दों के साथ जीने से उसको यह भ्रम पैदा होता है कि मैं जानता हूं। शास्त्र यह भ्रम पैदा कर देते हैं कि मैं जानता हूं। शिक्षा यह भ्रम पैदा कर देती है कि मैं जानता हूं। चारों तरफ से जो हम सीख लेते हैं उससे यह भ्रम पैदा हो जाता है कि हम जानते हैं।
इस भ्रम को तोड़े बिना कोई सत्य के रास्ते पर आगे नहीं जा सकता। क्योंकि जिसे यह खयाल है कि मैं जानता हूं, उसने आगे जानने के द्वार बंद कर लिए। क्योंकि जिसे यह खयाल है कि मैं जानता हूं, उसकी यात्रा बंद हो गई। वह ठहर गया। उसकी खोज टूट गई। उसकी जिज्ञासा समाप्त हो गई। लेकिन जो यह जानता है कि मैं नहीं जानता हूं, उसके सारे प्राण खोजेंगे, खोजेंगे...।
लेकिन हमें यह खया
ल कैसे पैदा हो जाता है कि हम जानते हैं?
उधार विचारों के कारण, वह जो बॉरोड नॉलेज है। चारों तरफ से हमको उधार विचार मिल रहे हैं। और उन उधार विचारों के कारण ज्ञानी बन जाना बिलकुल आसान है। लेकिन क्या कभी आपने यह सोचा कि जो विचार मेरा नहीं है वह मेरा ज्ञान कैसे बन सकता है? क्या कभी आपने अपने विचारों की छानबीन की, परख की, और कभी यह खोजा कि ये विचार किसके हैं? होंगे कृष्ण के, होंगे राम के, होंगे बुद्ध के, महावीर के, लेकिन क्या आपके हैं? और होंगे सत्य, लेकिन जिसने उन्हें जाना होगा उसके लिए होंगे सत्य। आपके लिए कैसे सत्य हो सकते हैं?
जो सत्य स्वयं जाना जाता है उसके अतिरिक्त और कोई सत्य नहीं होता है। उधार ज्ञान असत्य से भी खतरनाक है। उधार ज्ञान अज्ञान से भी बड़ा शत्रु है। क्योंकि अज्ञान में तो यह पीड़ा होती है कि मैं जानूं, उधार ज्ञान में यह पीड़ा भी समाप्त हो जाती है। उधार ज्ञान में आदमी निश्ंिचत हो जाता है, सैटिसफाइड हो जाता है, लगता है मैं जानता हूं। इसीलिए पंडित कभी सत्य को उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। पंडित कभी सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकते हैं। पांडित्य की दीवाल इतनी बड़ी है कि सत्य उसको पार नहीं कर पाता।
लेकिन हम सब उधार ज्ञान को इकट्ठा करते हैं। और उस ज्ञान के इकट्ठा करने को हम समझते हैं कि धार्मिक कुछ हम कर रहे हैं। हम क्या करते हैं? गीता या कुरान या बाइबिल के साथ हम क्या करते हैं? पढ़ते हैं, शब्दों को स्मरण कर लेते हैं। वे शब्द हमारी स्मृति में जाकर, मेमोरी में जाकर इकट्ठे हो जाते हैं। और जब हमें जरूरत पड़ती है, जब जीवन में प्रश्र्न खड़े होते हैं, तो स्मृति से उत्तर आ जाता है। वह उत्तर बिलकुल झूठा है।
मैं अभी एक अनाथालय में गया। वहां के संयोजकों ने मुझसे कहा कि हम यहां धर्म की शिक्षा देते हैं। मैंने कहा कि मैं बड़ा हैरान हूं, मैंने आज तक सुना ही नहीं कि धर्म की शिक्षा भी हो सकती है! धर्म की साधना तो हो सकती है, धर्म की शिक्षा कभी न हुई है न हो सकेगी। अगर धर्म की शिक्षा हो सकती होती, तो हम दुनिया को कभी का धार्मिक बना लेते। कौन सी कठिनाई थी? विज्ञान की शिक्षा हो सकती है, दुनिया वैज्ञानिक हुई जा रही है; लेकिन धर्म की कोई शिक्षा नहीं हो सकती।
क्या आप सोचते हैं प्रेम की कोई शिक्षा हो सकती है? क्या हम कोई विद्यालय खोल सकते हैं जहां हम प्रेम करना सिखा दें? और अगर दुर्भाग्य से ऐसा हुआ, और ऐसा कभी होगा, क्योंकि आदमी इतना नासमझ है कि वह जो बेवकूफियां न करे थोड़ा है। वह कभी न कभी प्रेम के विद्यालय बनाएगा।
मैं तो सुनता हूं कि अमरीका में उन्होंने कोई इंस्टिट्यूट डाली है, जहां वे सिखाते हैं कि प्रेम कैसे करें। हजारों किताबें लिखी जाती हैं: हाउ टु लव, कैसे प्रेम करो। अगर किसी दिन आदमी ने ऐसे विद्यालय खोल लिए जहां सिखाया कि प्रेम कैसे करें, तो एक बात तय है कि उन विद्यालयों से निकले हुए विद्यार्थी कभी प्रेम न कर सकेंगे। उनका सारा प्रेम अभिनय होगा, एक्ंिटग होगा। सीखा हुआ प्रेम अभिनय हो ही जाएगा।
इसलिए अभिनेता जो कि चौबीस घंटे प्रेम का धंधा करते हैं, कभी प्रेम करने में समर्थ नहीं हो पाते। कोई अभिनेता कभी प्रेम नहीं कर पाता। अभिनय इतना गहरा हो जाता है कि उसके जीवन से हार्दिक विलीन हो जाता है। जितनी एक्टिंग ज्यादा होगी, उतना हार्दिक विलीन हो जाएगा।
तो मैंने उनसे कहा: प्रेम की भी शिक्षा नहीं हो सकती, तो परमात्मा की शिक्षा तो और भी असंभव है। हां, यह हो सकता है, हिंदू की शिक्षा हो सकती है, मुसलमान की शिक्षा हो सकती है, जैन की शिक्षा हो सकती है; लेकिन धर्म की शिक्षा नहीं हो सकती। असंभव है धर्म की शिक्षा। तो मैंने उनसे कहा:...
(इसी बीच एक आदमी का जोर-जोर से बोलना... ओशो बोलना जारी रखते हैं...)

वह मालूम होता है कोई धार्मिक आदमी आ गया।

...मैंने उन अनाथालय के संयोजकों को कहा कि धर्म की तो कोई शिक्षा नहीं हो सकती है। फिर भी आप क्या शिक्षा देते हैं मैं सुनूं।
तो वे मुझे ले गए। उनके पास कोई सौ बच्चे थे। छोटे-छोटे बच्चे। वैसे ही बच्चे कमजोर होते हैं। फिर अनाथ बच्चे और भी कमजोर। उनको जो भी सिखाओ, उनको सीखना पड़ेगा।
तो उन्होंने उन बच्चों से पूछा: ईश्र्वर है?
उन सारे बच्चों ने हाथ उठाए कि हां, है। जो बात उन्हें सिखाई गई थी, उन्होंने हाथ उठा दिए।
उन्होंने पूछा: ईश्र्वर कहां है?
तो उन सब बच्चों ने अपने हृदय पर हाथ रखे और कहा: यहां।
मैंने एक छोटे से बच्चे को पूछा: हृदय कहां है?
उसने कहा: यह तो हमें बताया नहीं गया। यह तो हमारी किताब में भी नहीं लिखा हुआ है।
जो उसे बताया गया था, उसने बता दिया, ईश्र्वर है। कहां है? उसने बता दिया--यहां है। लेकिन हृदय कहां है, उसे बताया नहीं गया था। वह बताता भी तो कैसे बताता?
मैंने उनके अध्यापकों को कहा कि आप बड़े दुश्मन हैं इनके। ये बच्चे सीख कर तैयार हो जाएंगे। जिंदगी में जब भी इनके सामने प्रश्र्न उठेगा--ईश्र्वर है? तो वह सीखा हुआ उत्तर भीतर से कहेगा--हां, ईश्र्वर है, इनके हाथ हिल जाएंगे और ये तृप्त हो जाएंगे, बात समाप्त हो जाएगी। और जब भीतर प्रश्र्न उठेगा--ईश्र्वर कहां है? तो इनका सीखा हुआ मन कहेगा--यहां। और यह हाथ बिलकुल झूठा होगा, क्योंकि यह सीखा हुआ हाथ है, इस हाथ का कोई मूल्य नहीं है।
जरूर यहां ईश्र्वर है, लेकिन उसे सीखा नहीं जा सकता, ऐसा हाथ उठा कर कवायत नहीं की जा सकती। उसे जाना जा सकता है। सत्य को जाना जा सकता है, सीखा नहीं जा सकता। परमात्मा को जाना जा सकता है, अध्ययन नहीं किया जा सकता।
और हम सारे लोग भी इसी तरह सीखे हुए हैं। नहीं तो जो बच्चा हिंदू घर में पैदा हुआ वह हिंदू कैसे हो गया? और जो बच्चा मुसलमान घर में पैदा हुआ वह मुसलमान कैसे हो गया? यह सब सिखावन है। यह सब प्रोपेगेंडा है।
रूस में, क्योंकि वहां हुकूमत उनकी है जो ईश्र्वर को नहीं मानते, उन्होंने अपने बच्चों को सिखा दिया--ईश्र्वर नहीं है, और बच्चे यही कहने लगे।
मेरे एक मित्र रूस गए थे, उन्होंने एक छोटे से बच्चे से एक परिवार में पूछा: ईश्र्वर है? तो वह हंसने लगा। उसने कहा: था। है मत कहिए। गॉड वा़ॅज। अब नहीं है। था, हमारे पुरखे सोचते थे कि था। गया, अब नहीं है। दुनिया में इतना विज्ञान का प्रकाश आ गया कि अब उसको खड़े होने की कोई जगह नहीं है। है नहीं। छोटे बच्चे ने उनसे कहा।
सारे रूस में उन्होंने सिखा दिया कि ईश्र्वर नहीं है, आत्मा नहीं है। बच्चे यही सीख गए। और बच्चे दोहराने लगे। वे जवान हो गए और बुढ़े होने आ गए, वे कहते हैं, ईश्र्वर नहीं है। क्या उनको पता है कि ईश्र्वर नहीं है? क्या आपको पता है कि ईश्र्वर है?
नहीं, आप भी सीखी हुई बातें कह रहे हैं और वे भी सीखी हुई बातें कह रहे हैं। दोनों सीखी हुई बातों का कोई मूल्य नहीं है।
जो भी हम सीख लेते हैं सत्य के संबंध में, उसका कोई मूल्य नहीं है। इसलिए मूल्य नहीं है कि सत्य तो हमारे भीतर है, उसे सीखा नहीं जा सकता, लेकिन जाना जा सकता है। अगर हम भीतर उतर सकें, तो वह जान लिया जाएगा।
इसलिए पहली जो बात है, वह है ज्ञान से मुक्त हो जाने की। अज्ञान से मुक्त होने के पहले ज्ञान से मुक्त होना पड़ता है। हमारा सब ज्ञान थोथा, झूठा, सिखाया हुआ है।
यही तो कारण है कि दुनिया में ज्ञान बहुत है, लेकिन धर्म बिलकुल भी नहीं है। हम सब तो जानते हैं ईश्र्वर को, आत्मा को, परमात्मा को, पुनर्जन्म को। हम सब जानते हैं। लेकिन धर्म कहां है? अगर यह जानना सच होता, तो क्या यह हो सकता था कि हमारा जीवन इसके विपरीत होता? जब ज्ञान सच होता है, तो जीवन अनिवार्य रूप से ज्ञान के पीछे चलता है। और जब ज्ञान झूठा होता है, उधार, बासा होता है, दूसरों का होता है, तब जीवन एक तरफ चलता है, ज्ञान दूसरी तरफ चलता है। जीवन बासे ज्ञान के पीछे चलने को राजी नहीं होता। और यह बिलकुल ठीक भी है। जिंदगी बड़ी चीज है बासे ज्ञान से। इसलिए जिंदगी कभी बासे ज्ञान के पीछे नहीं जाती। चाहे कितना ही समझाओ लोगों को कि हम जो कहें उसके अनुसार आचरण करना। चाहे कितना ही उनसे कहो कि यह धर्म है, तुम इसके अनुसार अपने जीवन को बनाना। लोग कभी अपने जीवन को उसके अनुसार नहीं बनाएंगे।
इसलिए बनाना असंभव है... जो ज्ञान मेरा नहीं है, वह मेरा जीवन भी नहीं बन सकता। और अगर मैं बनाने की कोशिश करूंगा, तो मेरे जीवन में पाखंड के सिवाय और कुछ भी नहीं होगा। मैं उसे ऊपर से थोप लूंगा जबरदस्ती। मेरे प्राण कुछ कहेंगे, मेरी बुद्धि कुछ कहेगी। मेरे भीतर द्वैत, द्वंद्व और कांफ्लिक्ट खड़ी हो जाएगी और कुछ भी न होगा। मैं एक अभिनेता हो जाऊंगा। जैसे कोई राम का पाठ करता है रामलीला में, वैसा राम बन जाऊंगा। भीतर कुछ और--बाहर से राम। भीतर कुछ और बाहर से कुछ और। हम सारे लोग बाहर से कुछ और हैं भीतर से कुछ और। क्यों? यह उधार ज्ञान के कारण है।
लेकिन उधार ज्ञान छोड़ने की बड़ी हिम्मत चाहिए। क्योंकि जो हमने सीख लिया है, जो हमने विचार इकट्ठे कर लिए हैं, उनसे हमारे अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है, हमें लगता है कि मैं जानता हूं। कितनी अजीब बात है! आप ईश्र्वर को जानते हैं? और अगर ईश्र्वर को जान लेते तो आप क्या हो जाते! यही बने रहते जो हैं? तो फिर इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार करना उचित है कि मैं नहीं जानता हूं ईश्र्वर को--यह सत्य का पहला चरण होगा। अगर यही असत्य है, तो बाकी तो सब फिर असत्य हो जाएगा। आप जानते हैं, मैं जानता हूं, अपने से एकांत में यह पूछना जरूरी है कि मैं जानता हूं ईश्र्वर को? मैं सत्य को जानता हूं? मैं जानता हूं आत्मा को? हां, मैंने किताबों में पढ़ा है, लेकिन वह कोई जानना नहीं है। अगर आप खोजेंगे तो आपको पता चलेगा, ज्ञान की दीवाल गिर जाएगी, आप पाएंगे, आप तो कुछ भी नहीं जानते।
और मैं आपसे कहता हूं कि यह पहली शर्त है कि अगर आप स्पष्ट रूप से यह जान लें कि मैं नहीं जानता हूं, तो आप ज्ञान से मुक्त हो जाएंगे, झूठे ज्ञान से मुक्त हो जाएंगे। उसका भार निकल जाएगा। वह नोइंग एटिट्यूड, वह अहंकार, वह दंभ, वह जानने वाला दंभ हवा हो जाएगा।
न जानना एक बड़ी विनम्रता है। स्टेट ऑफ नॉट नोइंग, ऐसा अनुभव करना कि मैं नहीं जानता हूं, बड़ी ह्युमिलिटी है, बड़ा विनम्र कर जाती है, बड़ा सरल कर जाती है। ‘जो नहीं जानता’--इसको समझ लेता है, वह एकदम सरल हो जाता है। उसका चित्त दूसरों के दिए हुए ज्ञान से मुक्त हो जाता है। और दूसरों का ज्ञान हमें पकड़े हुए है, उससे छूटे बिना कोई यात्रा नहीं हो सकती है।
एक संन्यासियों के आश्रम में एक नया युवक आया। वह आया था सत्य की खोज में। जैसे कि सत्य कहीं और जगह मिलता हो! ऐसे लोग सत्य की खोज में जाते हैं। वह भी निकला था। वह एक आश्रम में आकर रुका। लेकिन दो-चार दिन में ऊब गया। आश्रम का जो गुरु था बहुत वृद्ध था। और उसकी बातें थोड़ी सी थीं, वे दो-चार दिन में चुक गईं, समाप्त हो गईं। उस युवक को लगा कि बस, इतना ही ज्ञान है, तो फिर यहां रुक कर क्या करूंगा? लेकिन जिस दिन वह छोड़ने को था, उसी दिन एक मेहमान संन्यासी और आश्रम में आया। वह संन्यासी बहुत, बहुत ज्ञाता मालूम होता था। वह हर बात की बड़ी सूक्ष्म व्याख्या करता था। वह हर बात के समर्थन में वेदों से लेकर सारे उपनिषद और गीता खड़ी कर देता था। उद्धरण ही उद्धरण और शास्त्र ही शास्त्र। उसकी बात बड़ी वजनी और ताकतवर थी।
रात बैठक हुई उस आश्रम के अंतःवासियों की। उस नये संयासी ने दो घंटे तक ज्ञान की बातें कहीं। वह युवक जो छोड़ने वाला था, वह भी सुन रहा था। उसके मन में हुआ, ऐसा गुरु हो तो कुछ सीख सकते हैं। एक हमारा गुरु है, वह तो कुछ जानता नहीं, दो-चार छोटी-मोटी बातें जानता है, उन्हीं को बार-बार दोहरा देता है। वह वृद्ध गुरु भी बैठ कर सुन रहा था। उस युवक ने सोचा, आज इसको पता चल रहा होगा कि ज्ञान किसे कहते हैं। और आज मन में हो रहा होगा पश्र्चात्ताप, और आज मन में ईर्ष्या जल रही होगी, और आज मन में दुख हो रहा होगा। नये आए संन्यासी ने दो घंटे तक बातें कीं, फिर गौरव से सबकी तरफ देखा। उस वृद्ध गुरु से पूछा कि मेरी बातें आपको कैसी लगीं?
वह वृद्ध हंसने लगा और बोला: मैं दो घंटे तक बहुत कोशिश किया तुम्हें सुनने की, समझने की, लेकिन तुम तो कुछ बोलते ही नहीं!
वह आदमी बोला: आप पागल हैं क्या! दो घंटे मैं नहीं तो और कौन बोलता था?
उस वृद्ध ने कहा: शास्त्र बोलते थे, तुम नहीं। वेद बोलते थे, तुम नहीं। उपनिषद बोलते थे, तुम नहीं। मैं तो बहुत कोशिश किया कि तुम भी बोलो, लेकिन तुम तो कुछ बोलते ही नहीं हो।
स्मृति जब तक बोलती है, तब तक आप नहीं बोल रहे हैं। सीखा हुआ जब तक बोलता है, तब तक आप नहीं बोल रहे हैं। सीखा हुआ जब तक ज्ञान है, तब तक ज्ञान नहीं है। इससे छूटे बिना कोई आगे नहीं जा सकता। शास्त्रों से छूटे बिना कोई सत्य तक नहीं जा सकता।
हम सबके मन में बहुत-बहुत ज्ञान है, वही रुकावट है। लेकिन हम उसको बढ़ाए चले जाते हैं। यहां भी आप इसी खयाल में से कोई मित्र आया हो सकता है कि कुछ ज्ञान बढ़ जाएगा। मैं तीन दिन पूरी कोशिश करूंगा कि आपका ज्ञान छूट जाए। मैं यह पाप करने वालों में से नहीं हूं जो आपके ज्ञान को बढ़ा दूं। आपके पास काफी ज्ञान है, वही खतरा है। आप बहुत जानती हुई हालत में हैं, वही खतरा है। आप उस हालत में आ जाएं जहां अनुभव कर सकें कि नहीं हम जानते हैं, अहसास कर सकें कि नहीं हमें पता है। खयाल हमें हो सके अपने अज्ञान का, खयाल हमें हो सके अपनी असमर्थता का, तो शायद उस अज्ञान के बोध से एक नई यात्रा का अंकुर जन्मे। लेकिन जो लोग भी सीखे हुए ज्ञान के तट से बंध जाते हैं, वे फिर सत्य के सागर में यात्रा नहीं कर पाते।
एक रात ऐसा हुआ। एक गांव में कुछ मित्रों ने जाकर मधुशाला में जाकर शराब पी ली। जब वे शराब के नशे से भर गए और बाहर निकले, तो उन्होंने देखा, पूर्णिमा की रात है, आकाश चांदनी से भरा है, चांद ऊपर खड़ा है। वे गीत गाते हुए नदी की तरफ गए। और जब वे नदी पर पहुंचे तो उन्होंने देखा एक नाव बंधी है। उनमें से किसी ने कहा कि चलो हम नाव पर बैठें और नौका-विहार करें। वे नशे में थे, मस्ती में थे। और चांद था और चांदनी थी। वे नाव में बैठ गए, उन्होंने पतवारें उठाईं और नाव चलाई। पूरी रात वे नाव खेते रहे। नशे में जो थे!...वे नाव की जंजीर खोलना भूल गए, जो कि किनारे से बंधी थी। उनकी यात्रा व्यर्थ हो गई।
इसके पहले कि कोई यात्रा पर निकले सत्य की, सागर की, परमात्मा की, नाव की जंजीर खोल लेनी जरूरी है। और अगर नाव की जंजीर किनारे से बंधी है, तो फिर कितनी ही मेहनत हम करें, पतवार चलाएं, कितना ही हम समय, शक्ति खो दें, यात्रा नहीं होगी, हम वहीं पाएंगे जहां हम थे।
जिस ज्ञान को हमने दूसरों से सीख लिया है--चाहे शास्त्रों से, चाहे गुरुओं से, चाहे किसी और से--वह ज्ञान परमात्मा तक नहीं ले जा सकेगा। क्यों? परमात्मा अज्ञात है, अननोन है और जो हम जानते हैं, वह ज्ञात है, वह है नोन। जो हमें ज्ञात है, उससे हम उसे नहीं जान सकते जो अज्ञात है। नोन से अननोन नहीं जाना जा सकता। जो हम जानते हैं, उससे हम उसे नहीं जान सकते जिसे हम नहीं जानते हैं। अगर उसे जानना हो जो अज्ञात है, तो जो ज्ञात है उसे छोड़ देना होगा। ज्ञात के तट को जब कोई छोड़ देता है, तो अज्ञात सागर की यात्रा होती है। ज्ञान के तट को जब कोई छोड़ देता है, सीखे हुए, उधार, बासे, तभी वह सचमुच ज्ञान की दुनिया में प्रवेश करता है।
शास्त्रों को जो पकड़ कर बैठ जाते हैं, वे कभी सत्य तक नहीं पहुंच पाते। शास्त्र को, शब्द को, सिद्धांत को पकड़ कर जो बैठ जाते हैं, उनकी तो यात्रा बंद हो जाती है।
तो पहली जो प्रार्थना मैं आपसे करूं वह यह, उस ज्ञान से मुक्त होना आवश्यक है जो अपना न हो। इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि वह ज्ञान असत्य है। नहीं। जिसने उसे जाना है, उसके लिए सत्य है। लेकिन जिसने उसे पकड़ा है, उसके लिए बिलकुल व्यर्थ है। ज्ञान हस्तांतरणीय नहीं है, ट्रांसफरेबल नहीं है। मैं जान लूं, कुछ आपको दे दूं, ऐसा नहीं है। जैसे मैं आपके लिए मर नहीं सकता, आपको ही मरना पड़ेगा। कोई किसी के लिए मर नहीं सकता। कोई किसी की जगह मर नहीं सकता। और मैं मर जाऊं, तो आपको मृत्यु का कोई अनुभव नहीं होगा। आप मरेंगे, अपनी जगह आप ही मर सकते हैं, और आप ही मर कर मृत्यु को जान सकते हैं।
परमात्मा तो मृत्यु से भी ज्यादा गहरा है। कोई दूसरा आपके लिए नहीं जान सकता। आप ही जान सकते हैं। आपके अतिरिक्त कोई और नहीं जान सकता आपके लिए। मृत्यु को भी आप ही जान सकते हैं, प्रेम को भी आप ही, परमात्मा को भी आप ही। लेकिन हम दूसरों से जो सीख लेते हैं और उस सीखे हुए को अगर हम ज्ञान समझ लेते हैं, तो बाधा हो जाती है, रुकावट हो जाती है, ठहराव हो जाता है, हम अटक जाते हैं।
सत्य की तरफ यात्रा में पहली सीढ़ी: उस ज्ञान से मुक्त हो जाना है जो उधार है, जो किसी और का है। और स्पष्ट रूप से इस बात को जानना जरूरी है कि मैं नहीं जानता हूं। यह बड़ी स्वतंत्रता है इस बात को जान लेने की कि मैं नहीं जानता हूं। मन अदभुत स्वतंत्रता को अनुभव करता है। और न केवल स्वतंत्रता को, बल्कि साथ ही उस पीड़ा को भी अनुभव करता है जो न जानने से पैदा होती है।
अगर एक आदमी बीमार है, उसे पता चल जाए कि वह बीमार है, तो वह बीमारी को दूर करने में लग जाता है। और एक आदमी बीमार है और उसे पता हो कि वह स्वस्थ है, तो फिर बीमारी को वह कैसे दूर करेगा? और एक आदमी को पता हो जाए कि उसके घर में आग लगी है, तो वह उस घर के बाहर निकल जाता है। और एक आदमी को पता हो कि उसके घर में आग नहीं लगी है, तो वह निश्ंिचतता से सोया रहता है।
यदि मुझे यह दिखाई पड़ जाए कि मैं नहीं जानता हूं, तो न जानने की पीड़ा इतनी बड़ी है कि किसी आग की पीड़ा नहीं हो सकती। अगर मुझे यह खयाल में आ जाए कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं... क्या हम जानते हैं? परमात्मा को जानते हैं, आत्मा को, सत्य को, जीवन को? कुछ भी नहीं जानते। अगर यह अहसास हो जाए, अगर यह बोध तीव्रता से स्पष्ट हो जाए कि मैं नहीं जानता हूं, तो फिर कोई यहीं रुक नहीं सकता, फिर एक यात्रा शुरू हो जाएगी। जो वहीं समाप्त हो सकती है जहां ज्ञान के सूर्य का दर्शन हो जाए, जहां आंखें खुल जाएं और जहां प्रकाश प्रकट हो जाए। लेकिन जो लोग दूसरों की आंखों पर विश्र्वास कर लेते हैं और दूसरों के प्रकाश को प्रकाश मान लेते हैं, दूसरों के दिए गए शब्दों को सत्य, उनके जीवन की यह पीड़ा नष्ट हो जाती है। उनके जीवन में यह बोध अज्ञान का विलीन हो जाता है, दब जाता है।
सारे जगत में परमात्मा तक पहुंचने के लिए ज्ञान ने बाधाएं दे दी हैं--हिंदुओं के ज्ञान ने, मुसलमानों के, ईसाइयों के, जैनों के। हजार तरह के ज्ञान और हजार तरह की शिक्षाएं, और उनको पकड़ने वाले लोग रुक गए हैं और ठहर गए हैं।
पहला सूत्र है: दूसरों के विचार और ज्ञान से मुक्त हो जाना।
दूसरे दो सूत्रों की बात मैं आगे आपसे करूंगा।
लेकिन इसलिए यह सारी बात नहीं है कि मैं जो कह रहा हूं उसे आप पकड़ लें। उसे पकड़ लें, तो वही बात हो गई जो आप कुछ और पकड़े हों। कोई भी चीज पकड़ नहीं लेनी है। और कोई भी चीज मन में बिठा नहीं लेनी है। और किसी भी चीज के साथ जड़ता का और अंधेपन का कोई संबंध नहीं बना लेना है। आंख चाहिए मुक्त, देखने वाली, खोजने वाली, जिज्ञासा से भरी। और अपनी आंख चाहिए।
और सबके पास आंख है। सबके पास आंख है! लेकिन जो लोग उसका उपयोग ही नहीं करते हैं और दूसरों की आंखों से ही काम चला लेते हैं, उनकी वह आंख धीरे-धीरे धूमिल होती चली जाती है और बंद हो जाती है। अगर मैं अपने पैरों से काम न लूं कुछ दिन, तो पैर बंद हो जाएंगे। और अगर मैं अपने हाथों को बंद करके रख दूं, तो हाथ भी थोड़े दिन में व्यर्थ हो जाएंगे।
हमने अपने ज्ञान पर खड़े होने का कोई प्रयास जीवन में नहीं किया। सदा दूसरे का ज्ञान पकड़ लेते हैं। फिर चाहे वह गीता से आता हो, चाहे कुरान से, चाहे कहीं और से आता हो, उसे पकड़ लेते हैं। और जब हम सब इस तरह से ज्ञान पकड़ने में लगे होते हैं, तब एक बात घट जाती है: अपने ज्ञान के पैदा होने की सारी संभावनाएं बंद हो जाती हैं।
केवल वही व्यक्ति अपने ज्ञान को जगाने में समर्थ होता है, जो दूसरों के ज्ञान से अपने को मुक्त कर लेता है। ज्ञान से मुक्त हो जाइए, अगर सच में ज्ञान की तरफ जाना है। और सिद्धांतों से मुक्त हो जाइए, अगर सत्य की यात्रा करनी है। और आदमी के बनाए हुए भगवानों से मुक्त हो जाइए, अगर उस भगवान को पाना है जिसे कोई नहीं बनाता, बल्कि जो ही सबको बनाता है।
एक छोटी सी कहानी और अपनी चर्चा की आज मैं पूर्ति करूंगा।
एक फकीर एक रात सोया और उसने सपना देखा कि वह किसी नई दुनिया में आ गया है। न तो ऐसे लोग उसने देखे थे, न ऐसे दरख्त, न ऐसे चांद, न ऐसे तारे, ऐसी बात ही नहीं देखी थी! यह क्या है? वह कहां आ गया है? उसने पूछा कि मैं कहां हूं? तो किसी ने कहा कि यह स्वर्ग है, यह भगवान के रहने की जगह है।
वह बहुत खुश हुआ। जीवन भर से उसी की प्रार्थना करता था, उसी की तलाश में था। उसने पूछा कि इतना बड़ा जुलूस, इतने लोग ये कहां जा रहे हैं? यह जलसा क्या है? तो किसी ने बताया, आज भगवान का जन्म-दिन है। उसका समारोह स्वर्ग में मनाया जा रहा है। वह और भी खुश हुआ कि मैं अच्छे दिन आया हूं, भगवान को भी देख लूंगा, जलसे को भी देख लूंगा।
और फिर बड़ी भीड़ आई और रथ पर सवार कोई बहुत अलौकिक, बहुत प्रतिभावान व्यक्ति आया। उसने पूछा: क्या ये ही भगवान हैं? किसी राहगीर ने कहा: नहीं, ये भगवान नहीं, ये तो राम हैं; और इनके पीछे राम को पूजने और प्रेम करने वाले लोग हैं करोड़ों-करोड़ों। और वह हिस्सा निकल गया। और फिर और भीड़ आई, और घोड़े पर सवार कोई वैसा ही महिमाशाली व्यक्ति। पूछा: ये कौन हैं? तो कहा: मोहम्मद हैं। फिर और कोई भीड़ निकली, उनके मानने वाले, उनको पूजा करने वाले। और फिर क्राइस्ट हैं, और बुद्ध हैं, और महावीर हैं, और कतार लगी... और उनके लाखों-करोड़ों मानने वाले लोग उनके पीछे हैं।
और वह थक गया, और थक गया और पूछता रहा: भगवान कहां हैं? भगवान कहां हैं? लेकिन कोई भगवान का तो कोई जुलूस निकलता नहीं मालूम हुआ।
जुलूस खत्म हो गया, लोग छंट गए, रास्ते धीरे-धीरे उजड़ गए। वह फकीर खड़ा रहा। और आखिर में उसने देखा, एक पुराने से घोड़े पर एक बूढ़ा सा आदमी है, उसके पीछे कोई भी नहीं। तो उसे बहुत हंसी आई देख कर कि यह कौन पागल है जो अकेला ही बैठा हुआ घोड़े पर चला जा रहा है, जिसके साथ भी कोई नहीं है? उसने किसी राहगीर, अंतिम जाते राहगीर से पूछा कि ये कौन हैं? तो उसने कहा: हो न हो ये भगवान होने चाहिए, क्योंकि उनसे ज्यादा अकेला दुनिया में और कौन है। उसने और किसी से पूछा, तो पता चला कि निश्र्चित ही ये भगवान हैं। उसने पूछा: इनके साथ कोई भी नहीं है?
तो भगवान जो उस घोड़े पर सवार थे उन्होंने कहा: कुछ लोग राम के साथ हो गए हैं, कुछ लोग कृष्ण के, कुछ क्राइस्ट के, कुछ मोहम्मद के, कुछ बुद्ध के, कुछ महावीर के, अब कोई बचा ही नहीं जो मेरे साथ हो सके?
वह फकीर घबड़ा गया और उसकी नींद टूट गई और वह रोने लगा और उसने कहा: जो मैंने सपने में देखा
है, काश, वह झूठा होता और सपना होता! लेकिन जमीन पर भी तो मैं यही देख रहा हूं। भगवान के साथ कोई भी नहीं है, धर्म के साथ कोई भी नहीं है। धर्मों के साथ लोग हैं, धर्म के साथ कोई भी नहीं है। भगवानों के साथ लोग हैं, भगवान के साथ कोई भी नहीं है।
इसी कहानी पर आज की चर्चा को मैं छोड़ देता हूं। भगवान के साथ कैसे हो सकते हैं उसकी दो दिनों मैं आपसे बात करूंगा।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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