YOG/DHYAN/SADHANA

Ek Ek Kadam (एक एक कदम) 05

Fifth Discourse from the series of 7 discourses - Ek Ek Kadam (एक एक कदम) by Osho.
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प्रश्न:
बात तो ऐसी है कि मैं कोई इंटरव्यू लेने के लिए नहीं आया हूं, मगर मैं कुछ समझने के लिए आया हूं। शायद आपके पीछे मैं जो कुछ लिखने की सोच रहा हूं, उसमें कोई गलती न हो जाए। तो मैं पहला यह आपको पूछना मांगता हूं कि सत्य क्या चीज है?
सत्य कोई चीज नहीं है, सत्य है अनुभूति। और अनुभूति भी किसी चीज की नहीं, स्वयं की। स्वयं से हम अपरिचित हैं, इसे मैं कहता हूं असत्य। और स्वयं को हम जान लें, तो उसे मैं कहूंगा सत्य। और स्वयं के अतिरिक्त मेरे लिए कुछ भी सत्य कैसे हो सकता है? यद्यपि जिस दिन कोई व्यक्ति स्वयं को उसकी परिपूर्णता में जान लेता है, उस दिन उसे स्वयं में और शेष में कोई अंतर भी नहीं रह जाता।
तो असत्य कहता हूं मैं स्वयं को न जानने की अवस्था को, और सत्य कहता हूं स्वयं को जान लेने की अवस्था को।
लेकिन आमतौर से ऐसा समझा जाता है कि सत्य कोई चीज है, जिसे मैं जान लूंगा, सत्य कोई ऑब्जेक्ट है। सत्य कोई चीज नहीं है, कोई ऑब्जेक्ट नहीं है। सत्य कहीं है नहीं कि मैं जाऊंगा और उसे पा लूंगा। मैं ही हूं सत्य। लेकिन यह जो ‘मैं हूं’ यह मुझे अज्ञात है, यह असत्य की स्थिति है।

प्रश्न:
एक छुरी है, एक चाकू है, लड़के खेलते हैं, हम उसको कहते हैं कि भई लग जाएगा, मगर उसको जो लगता है वह उनसे तो हम भी समझ लेते हैं कि छुरी और चाकू के साथ लड़ने से लगता है, तो वह तो सत्य हो सका न? उनके अनुभव के बाद मैंने यह सीख लिया कि छुरी के साथ खेलने से यह लगता है।
यह सत्य नहीं हुआ, यह सिर्फ तथ्य हुआ। यह फैक्ट हुआ, ट्रूथ नहीं। यह सिर्फ तथ्य हुआ कि छुरी के लगने से चोट आ जाती है। यह एक तथ्य हुआ। छुरी और हाथ के टकराने से दर्द शुरू होता है। यह एक तथ्य हुआ। किसी हालत में छुरी और हाथ के टकराने से दर्द मिट भी सकता है। एक फोड़ा है, और छुरी लगाने से दर्द मिट भी सकता है। वह एक दूसरा तथ्य हुआ।
सत्य का अर्थ...एक मैं घटना कहूं उससे खयाल में आएगा।
पिछले महायुद्ध में फ्रांस में एक कैदी को पैर में चोट लगी। इतना दर्द था कि उसको बेहोश करके रखा। और रात पैर का ऑपरेशन करके पूरा पैर अलग कर दिया। सुबह जब उसकी आंख खुली, होश आया, तो वह फिर कहने लगा कि मेरे अंगूठे में बहुत दर्द हो रहा है। अंगूठा था ही नहीं। डॉक्टर बहुत परेशान हो गए। जो अंगूठा नहीं है, उसमें दर्द कैसे हो सकता है? यह तो असंभव है। अंगूठा तो होना चाहिए दर्द के लिए। बहुत जांच-पड़ताल की, तो पता चला कि वह जो नस अगूंठे में दर्द होते वक्त फड़कती थी और उसके मस्तिष्क में दर्द मालूम पड़ता था, वह अब भी फड़क रही है। अंगूठा तो नहीं है, लेकिन नस फड़क रही है और दर्द जारी है। अब यह दर्द सत्य नहीं है, सिर्फ तथ्य है।
तथ्य का मतलब यह है कि जो बदल सकता है, जो अन्यथा हो सकता है, जिससे विपरीत भी हो सकता है, वह कामचलाऊ दुनिया में सत्य कहा जाता है। लेकिन सत्य का...जिस सत्य के लिए मैं बात कर रहा हूं, या जिस सत्य के लिए बुद्ध बात करते हैं, या शंकर बात करते हैं, वह सत्य। यह सत्य नहीं है। वे उस सत्य की बात करते हैं कि जो अंततः मैं हूं। जो कभी नहीं बदल सकता। जो सदा वही रहेगा जो था, जो सदा वही है जो है, जो कभी भी नहीं बदलता है। बदलना जिसका असंभव है, वह सत्य है। और जो बदलता रहता है...जैसे मैं कल बच्चा था, वह एक तथ्य था; आज जवान हो गया हूं, वह तथ्य बदल गया। आज जवान हूं, यह तथ्य है; कल बूढ़ा हो जाऊंगा, यह भी बदल गया। जो बदल जाता है, वह तथ्य है। जब तक नहीं बदलता, वह भी सत्य जैसा भ्रम देता है।
इसलिए कुछ लोग तथ्य को ही सत्य मान लेते हैं। लेकिन तथ्य की दुनिया सत्य नहीं है। तथ्य की दुनिया तो परिवर्तन प्रवाह है।
सत्य की दुनिया है वह जहां कोई परिवर्तन नहीं है। इसलिए उसको मैं सत्य कह रहा हूं।

प्रश्न:
स्त्रियों के बारे में आपका यह खयाल है कि न कोई पत्नी है, न कोई बहिन है, सबके साथ मैत्री का संबंध रखने का और मैत्री के रूप में एक साथ रहने का आपकी बात है। मेरे खयाल से ऐसा करने से यह समाज की जो शुद्धता है वह खंडित हो जाएगी और जो अनाचार है उससे बढ़ जाएगा, क्योंकि हरेक मित्र मित्र से तो बदला जाता है, आज यह उनका मैं मित्र हूं, कल वह नहीं होगा।
यह जो आप कहते हैं, इसमें दो-तीन बातें समझ लेने की हैं।
पहली तो बात यह, मैंने यह नहीं कहा है कि न कोई पत्नी है, न कोई मां है, न कोई बहिन है। मैंने यह नहीं कहा है। मैंने इतना ही कहा है कि स्त्री की हैसियत अभी स्वयं में कुछ भी नहीं है। वह या तो पत्नी होकर होती है, या मां होकर होती है, या बहिन होकर होती है। इसके अतिरिक्त उसका कोई अपना होना नहीं है। वह संबंधित हो तो ही वह कुछ होती है।
दूसरी बात मैंने यह कही है, वह यह है कि स्त्री और पुरुष के बीच हमारे सब संबंध सेक्सुअल हैं। अगर किसी स्त्री को मैं अपनी मां कहता हूं, तो उसका मतलब कुल इतना है कि मेरे पिता और उसके बीच सेक्स का संबंध है। किसी स्त्री को मैं अपनी बहिन कहता हूं, तो उसका मतलब यह है कि दो व्यक्तियों के सेक्स के संबंध से हम दोनों पैदा हुए हैं। किसी को मैं अपनी बेटी कहता हूं, तो उससे मेरा मतलब है कि किसी स्त्री से मेरा सेक्स का संबंध है, जिससे यह पैदा हुई है।
अभी हमारी जो स्त्री और पुरुष के बीच के संबंध की धारणा है वह टोटली सेक्सुअल है। वह एकदम कामुक है। जो मैं कह रहा हूं कि स्त्री और पुरुष के बीच ऐसी दुनिया भी विकसित होनी चाहिए जहां स्त्री और पुरुष के बीच बिना सेक्स के भी संबंध हो सके। उसको मैं मैत्री कह रहा हूं।
तो मैं दुनिया को सेक्सुअल बनाने में, भ्रष्टाचार में ले जाने के लिए नहीं कह रहा हूं। भ्रष्टाचार में दुनिया है। और जिसको आप कहते हैं कि यह मेरी मां है और बड़ा आदर बताते हैं। वह आदर-वादर नहीं है, सेक्सुअल संबंध है।

प्रश्न:
ठीक कहा। मेरे लिए तो मेरी मां ही है।
नहीं, आपके लिए आपकी मां सिर्फ इसलिए है कि आपके बाप से उसका सेक्सुअल संबंध है। नहीं तो मां नहीं है आपके लिए। अगर कल पता चल जाए कि दूसरे आदमी से इसका संबंध है, तो मामला गड़बड़ हो जाएगा।
यह जो मैं आपसे कह रहा हूं कि हमारी जो अब तक स्त्री-पुरुष की संबंध की धारणा, वह संबंध की धारणा बेसिकली सेक्स पर खड़ी हुई है। और मेरी मान्यता है कि यह अच्छी संस्कृति का लक्षण नहीं है जहां कि स्त्री-पुरुष के बीच सारे संबंध सेक्सुअल हों। कोई तो संबंध ऐसा भी होना चाहिए जो सेक्सुअल नहीं है। उस संबंध को मैं फ्रेंडशिप कह रहा हूं। जो आप कह रहे हैं, वह मैंने कभी नहीं कहा है।
मेरा कहने का जो मतलब है वह यह है कि एक अच्छी दुनिया होगी, तो उसमें स्त्री-पुरुष मित्र भी हो सकते हैं। जरूरी नहीं है कि वे सेक्स से ही संबंधित हों तभी संबंधित हों। यह जरूरत अनैतिक समाज की जरूरत है। यह जरूरत बहुत ही सेक्सुअली परवर्टेड समाज की जरूरत है, एक बात।
दूसरी बात, जो आप कहते हैं कि स्त्री-पुरुष के बीच मैत्री होगी तो बड़ा भ्रष्टाचार बढ़ जाएगा। तो आप यह भूल जाते हैं कि भ्रष्टाचार कितना है? और जिस समाज को आपने आज तक पैदा किया है, आपकी नीति और नियम के अनुसार, उस समाज में कितना भ्रष्टाचार है? और मेरी मान्यता है कि वह भ्रष्टाचार कम हो जाएगा, अगर स्त्री-पुरुष के बीच मैत्री और निकटता के संबंध बढ़ जाएं।
अभी क्या हालत है, अभी हालत यह है कि आप स्त्री और पुरुष से जब भी संबंधित हों, तब सिवाय सेक्स के कुछ और सूझता ही नहीं। क्योंकि वही एक संबंध रहा है आज तक। दूसरी बात यह है कि आप...एक आदमी है, वह अपनी पत्नी को जानता है, अपनी मां को जानता है, अपनी बहिन को जानता है, इसके बाहर स्त्रियों की उसकी कोई जानकारी नहीं है। इसलिए वह स्त्रियों के प्रति बहुत आकर्षित होता है। जिनको जानता है उनके प्रति कभी आकर्षित नहीं होता। पति पत्नी के प्रति सबसे कम आकर्षित रह जाता है। पड़ोस की पत्नी के प्रति बहुत आकर्षित मालूम होता है। क्योंकि उसको नहीं जानता है। न जानने में आकर्षण और रस है, जानने में सब आकर्षण खत्म हो जाता है।
मेरा मानना है कि अभी जो आपका समाज है उसमें स्त्री और पुरुष के बीच जितना रस मालूम होता है, यह रस बीच में दीवाल की वजह से पैदा होता है। अगर दुनिया में स्त्री और पुरुष इतने परिचित हों बचपन से--साथ खेलें हों, साथ कूदे हों, साथ नहाए हों, साथ तैरे हों, साथ बड़े हुए हों, तो एक-दूसरे को इतना जान लेंगे कि यह जो गर्हित रस पैदा होता है यह कभी पैदा नहीं होगा। और गर्हित रस ही भ्रष्टाचार का कारण है। और आपका समाज पूरा भ्रष्टाचारी समाज है। और इस समाज को बदलना है तो इसके पूरे के पूरे नैतिक नियम एकदम रूपांतरित किए जाने जरूरी हैं। उसमें पहला नैतिक नियम जो रूपांतरित होना चाहिए वह यह कि स्त्री और पुरुष के बीच जितना सामीप्य हो सके, जितनी मैत्री हो सके, जितनी कम दीवालें हो सकें , वे जितने एक-दूसरे से परिचित हो सकें, उतना स्वस्थ और नैतिक समाज पैदा करने में सहयोगी होगा। मेरा मानना है कि जो मैं कह रहा हूं उससे ही भ्रष्टाचार खत्म होगा। और आप जो मानते हैं उससे भ्रष्टाचार है।
और तीसरी बात, यह जो, यह जो सवाल आपने उठाया है, तीसरी बात यह कि स्त्री-पुरुष के बीच जब तक प्रेम है, तब तक संबंध तो नीतिपूर्ण है, और जिस दिन प्रेम नहीं है, उस दिन संबंध बिलकुल अनीतिपूर्ण है। लेकिन आपकी जो व्यवस्था है विवाह की, वह उस अनीतिपूर्ण संबंध को जारी रखवाती है। वह जारी रखवाती है। और उस अनीतिपूर्ण संबंध के कारण उन दोनों का मन एक-दूसरे के पास भी नहीं है, लेकिन अब वे बंधे हैं कानूनन। और दोनों के मन भाग रहे हैं। पूरा समाज कानूनन बंधा है और सबके मन इधर-उधर भाग रहे हैं। इससे पूरा का पूरा परिवेश भ्रष्टाचार का परिवेश निर्मित होता है।
मेरी अपनी समझ यह है कि प्रेम के अतिरिक्त स्त्री और पुरुष के बीच साथ रहने का कोई अर्थ नहीं है। यानी कोई लीगल अर्थ नहीं होता। और एक ऐसी दुनिया बनानी चाहिए जिसमें प्रेम के विकास की संभावना हो। और जो लोग प्रेम करते हैं, वे ही साथ रहने को तैयार हों। और जब तक प्रेम करते हैं। उसके एक क्षण बाद साथ रहने की जरूरत नहीं है। क्योंकि वह पापपूर्ण है उसके बाद साथ रहना। लेकिन हमको घबड़ाहट लगेगी...कि आप कहते हैं कि हमारा सारा समाज टूट जाएगा। मैं कहता हूं, आप...।

प्रश्न:
समाज तो टूटता ही है।
हां। यानी समाज की व्यवस्था और सारी, वह सारी टूट जाएगी। मैं कहता हूं, वह टूट जानी चाहिए। क्योंकि वह टूटने योग्य है। वह बचाने योग्य नहीं है। और इतने दिन हमने बचाई है सिर्फ इसी भय से बचाई है कि कहीं टूट न जाए। लेकिन उन्हें यह खयाल ही नहीं है कि उसको बचा कर उन्हें क्या मिल गया है? न तो जीवन सुखी है, न परिवार सुखी है, न मां-बाप सुखी हैं, न बेटे-बच्चे सुखी हैं, कोई सुखी नहीं है, निपट कलह और दुख और तकलीफ। और इस दुख और तकलीफ का धार्मिक लोग बड़ा फायदा उठा रहे हैं। और धार्मिक लोग चाहते हैं कि दुख-तकलीफ जारी रहे। क्योंकि अगर दुनिया सुखी होगी तो धर्म खत्म हो जाएगा।
दुखी आदमी धर्म की तलाश करते हैं। जितना समाज में दुख होता है, उतना वे चरण छूते हैं किसी स्वामी का, संन्यासी का कि कोई मार्ग बताइए शांति का, मोक्ष जाने का कोई रास्ता बताइए। क्योंकि जीवन तो नरक है।
दुनिया में धार्मिक षडयंत्र यह नहीं चाहता कि आदमी सुखी हो जाए।
बर्ट्रेंड रसल ने एक बहुत अजीब बात कही है, उसने कहा है कि दुनिया में जब तक दुख है, तभी तक धर्म रह सकता है। जिस दिन समाज की व्यवस्था अत्यंत सुखपूर्ण होगी, उस दिन यह धर्म नहीं रह सकता। कोई दूसरा धर्म हो सकता है।
बर्ट्रेंड रसल से मैं सहमत नहीं हूं। यहीं तक सहमत हूं। पर मेरा कहना है, बिलकुल और तरह का धर्म होगा। वह दुखी आदमी का धर्म नहीं होगा, वह सुखी आदमी का धर्म होगा। वह और तरह का धर्म होगा।
यह समाज तो टूटना ही चाहिए, यह सड़ा-गला समाज जाना ही चाहिए। इसको भेदने में जितना उपाय किया जा सके वह मेरी तरफ से मैं करता हूं--और करना चाहिए। तो वह तो सवाल नहीं है कि यह समाज टूट जाए। वह टूट जाना चाहिए।

प्रश्न:
आपने जो प्रेम के बारे में जो बंबई में ऐसा कहा था कि सब प्रेम का संबंध ही काम के साथ संबंधित है।
हां-हां, बिलकुल ही कहा।

प्रश्न:
तो फिर काम और प्रेम एक ही है।
नहीं, यह मैंने नहीं कहा। यही तो जल्दी कर लेते हैं न! अगर मैं कहूं कि बीज के साथ वृक्ष संबंधित है, तो आप यह मतलब नहीं लेते की बीज ही वृक्ष है। और आप बीज के नीचे बैठ कर छाया नहीं लेने लगते हैं। और न बीज से लकड़ियां काट कर घर ले आते हैं। और, और न...बीज का आप क्या करते हैं? जब मैं कहता हूं, बीज से वृक्ष है, तो मेरा मतलब यह है कि बीज पहली संभावना है जहां से वृक्ष विकसित हो सकता है। हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है। अगर बीज को तिजोरी में रख दें, तो नहीं भी होगा, बीज बीज ही रह जाएगा। हां, जमीन में बोओ, पानी डालो, बागुड़ लगाओ, तो वृक्ष हो जाएगा। और जिस दिन वृक्ष होगा उस दिन हमारी कल्पना में भी नहीं आएगा कि यही वृक्ष बीज था। और उसको अगर कोई कहेगा कि यह जो बीज दिखाई पड़ रहा है यही वटवृक्ष है, तो हम कहेंगे, तुम पागल है, यह बीज कैसे हो सकता है?
मनुष्य के भीतर जो काम की वृत्ति है, वह प्रेम का बीजांकुर है--वही बीज है। लेकिन काम प्रेम है, यह मैं नहीं कह रहा। यही तो इतनी जल्दी हो जाती है। मैं यह कह रहा हूं कि काम की जो स्फुरणा है, सेक्स की जो स्फुरणा है वह प्रेम का बीज है। लेकिन वह सेक्स भी रह सकता है, प्रेम कभी न बने, यह भी हो सकता है। अगर उसको ठीक भूमि न मिली, तो वह सेक्स ही रह जाएगा। और अगर ठीक भूमि मिली, तो वह प्रेम में रूपांतरित हो सकता है, परिवर्तित हो सकता है।
वह जो आप कहते हैं, जो हम कहते हैं...हमसारा प्रेम खोज कर देखें: मां अपने बेटे को प्रेम करती है किस वजह से? समझती है कि बड़ा पवित्र प्रेम है। सारा का सारा सेक्सुअल मामला है। मां अपने बेटे को प्रेम करती है किस वजह से? दूसरे के बेटे को क्यों नहीं करती? मेरी बात आप समझ रहे हैं न? यह बेटा इससे ही आता है। यह इसकी ही सेक्स की प्रॉडक्ट है। यह इसकी ही कामवासना का विकास है। यह इसकी कामवासना से ही आया है, तो प्रेम पैदा हो रहा है। नहीं तो यह भी प्रेम नहीं होगा।
आप चिल्लाते फिरते हैं न कि मां का प्रेम बड़ा पवित्र है। एकदम सेक्सुअल है। और मां के प्रेम से ज्यादा सेक्सुअल कोई प्रेम नहीं है। मगर हमारी तकलीफ यह है कि हम वह पूरी बात को तो समझना ही नहीं चाहते। कि आखिर इस मां की कामवासना से जो पैदा हुआ है इसलिए इसे रस है, क्योंकि वह इसकी कामवासना से आया है। बाप को अपने बेटे में रस है, क्योंकि इसकी कामवासना से आया है। बाप को अगर पता चल जाए कि यह किसी दूसरे पुरुष से पैदा हुआ है--और उसका ही बेटा रहा हो सच में--तो दुश्मनी खड़ी हो जाएगी, प्रेम-वे्रम सब विलीन हो जाएगा एकदम। वह चित्त की कामुकता का ही विस्तार है...वह उसका ही विस्तार है।
एक चिड़िया है, वह अपने छोटे से बच्चे को दाना खिला रही है, हम कहते हैं, कितना बड़ा प्रेम जाहिर हो रहा है। वह चिड़िया उस बच्चे को इसलिए खाना खिला रही है कि वह उसकी सेक्स डिजायर का ही रूपांतरण है। वह उसकी ही डिजायर का हिस्सा है। वह उसके ही शरीर का पार्ट है। वह उसके ही जिन सेक्स अंगों से वह बनी है उसी सेक्स अंगों से वह बना है, इसलिए आपस में वह कशिश है। सारा प्रेम, चाहे मां का...आप हैरान होंगे, अगर मां की सारी सेक्स ग्रंथियां निकाल ली जाएं, पुरुष की सारी सेक्स ग्रंथियां निकाल ली जाएं, एक बच्चा पैदा हो और उसकी सारी सेक्स ग्रंथियां निकाल ली जाएं, उस बच्चे में प्रेम कभी पैदा नहीं होगा। उसमें प्रेम पैदा ही नहीं होगा। यह आपको पता नहीं है कि हम क्रोध भी करते हैं तो उसकी भी ग्रंथियां हैं।
पावलफ ने प्रयोग किए। एक कुत्ते की, जो कि बहुत तेज कुत्ता था, उसकी ग्रंथियां निकाल लीं क्रोध की। फिर उसको आप कितना ही परेशान करो, वह सब-कुछ करेगा, क्रोध भर नहीं कर सकता। वह हाथ-पैर हिलाएगा, इधर-उधर जाएगा, घूमेगा, लेकिन भौंक नहीं सकता, क्रोध में नहीं आ सकता। क्योंकि वह जो क्रोध में रहने की सिस्टम थी, उसकी जो ग्रंथि थी, वह खत्म हो गई है, वह टूट गई है।
सेक्स की जो ग्रंथि है, वह ग्रंथि काम कर रही है आपके प्रेम की ऊर्जा में। लेकिन मैं यह नहीं कहता कि सेक्स ही प्रेम है। मैं यह कहता हूं, सेक्स प्रथम किरण है। अगर यह विकसित हो जाए पूरी, पूरी फ्लॉवरिंग हो जाए इसकी, तो प्रेम पूर्ण रूप से उपलब्ध होता है। और जब प्रेम उपलब्ध होता है, तो पता भी नहीं चलता कि यह कभी सेक्स था। जैसे कि वृक्ष को देख कर कभी पता नहीं चलता कि इतना सा बीज था। जब प्रेम पूरा खिलता है, तो पता ही नहीं चलता कि इसका सेक्स से कोई संबंध है। मां को कभी पता चलता है कि बेटे से मेरा सेक्स का कोई संबंध है?
जब एक पुरुष किसी स्त्री को पूरी तरह प्रेम करता है, तो उसे खयाल में भी नहीं आता कि इससे मेरा जो संबंध है वह सेक्सुअल है। जब पूरे प्रेम में होता है तो पता भी नहीं चलता। और यहां तक संभावना है, यहां तक संभावना है कि अगर प्रेम पूरा विकसित हो जाए, तो बिलकुल ही अ-सेक्सुअल हो जाता है, यानी वह सेक्स-वेक्स रह नहीं जाता बिलकुल। लेकिन उसकी पहली यात्रा सेक्स से शुरू होती है।
और वही मैंने कहा है कि काम ही अंततः विकसित होकर प्रेम बनता है। इसलिए जो काम से लड़ते हैं उनकी जिंदगी में प्रेम कभी पैदा नहीं होता।
इसलिए मेरा मानना है जिनको आप ब्रह्मचारी-व्रह्मचारी कहते हैं, उनके जीवन में कभी प्रेम पैदा नहीं होता: अगर ये काम से लड़ते हैं तो। और अगर काम को रूपांतरित करते हैं, तो उनकी जिंदगी में इतना प्रेम पैदा होता है, जितना गृहस्थ के जीवन में कभी नहीं दिखाई पड़ेगा। क्यों? क्योंकि गृहस्थ की सेक्स-ऊर्जा खत्म हो जाती है। जितनी बचती है उतना ही प्रेम प्रकट हो सकता है। और जिस आदमी की सेक्स-ऊर्जा खत्म नहीं होती, रूपांतरित होती है, उसमें इतना प्रेम प्रकट होता है, वह हमारी कल्पना के बाहर है।
मगर मेरा मतलब यह है कि वह भी सेक्स-ऊर्जा का ही विस्तार है। इसलिए कृष्ण जैसे लोग या बुद्ध जैसे लोग ये इतने प्रेम से भरे हुए हैं। यह कुछ भी नहीं है, यह वही ऊर्जा बिना खर्च हुए पूरी की पूरी प्रेम बन गई है। तो इसलिए बुद्ध के पास जितना बड़ा वृक्ष है प्रेम का, हमारे पास नहीं है। एक बाप का वृक्ष इतना बड़ा होता है कि उसके बेटे उसके नीचे मुश्किल से खड़े हो पाएं। और वह भी कभी-कभी इतना छोटा होता है--कि पांच बेटे हैं, तो एक ही खड़ा हो पाता है, चार वृक्ष के बाहर पड़ जाते हैं। जितनी ऊर्जा है, उतना रूपांतरण है। लेकिन बुद्ध जैसे व्यक्ति के नीचे लाखों लोग खड़े हो जाते हैं, वह वृक्ष फैलता ही जाता है अंतहीन, क्योंकि वह खर्च ही नहीं हुई है ऊर्जा, वह सारी की सारी ऊर्जा उठ कर वृक्ष बन गई है।
तो मेरा जो कहना है वह यह है कि सेक्स को समझिए, और सेक्स को रूपांतरण करने की प्रक्रिया समझिए। सेक्स से घबड़ाइए मत, डरिए भी मत, भागिए भी मत। क्योंकि वही जीवन का स्रोत है। और उस जीवन के स्रोत को बदलना है।

प्रश्न:
सेक्स से भागता तो कोई है नहीं, क्योंकि जो लोग संसार में रहते हैं, उसका यह धर्म है कि संसार को चलाए।
यह किसने बता दिया?

प्रश्न:
शादी के बाद संसार में तुम रहते तो सब लोग जो...।
धर्म-वर्म नहीं है। धर्म-वर्म नहीं है, न फर्ज है। आप बच नहीं सकते बिना बच्चे पैदा करने से। धर्म-वर्म नहीं है। फर्ज भी नहीं है। ये सब धोखे के शब्द हैं।

प्रश्न:
बच्चे से बच सकते नहीं?
जरा भी नहीं बच सकते।

प्रश्न:
...जो ब्रह्मचारी है वह बच्चे पैदा नहीं कर सकता।
मैं आपको, मैं आपको बताऊं, न तो धर्म है और न फर्ज है आपका, आपकी मजबूरी है। और मजबूरी को अच्छे-अच्छे शब्द पहनाते हैं आप। और यह भी मत सोचना कि आप संसार चलाने के लिए बच्चे पैदा करते हैं, बच्चे पैदा होते हैं बाइ-प्रॉडक्ट, आप कुछ और ही करने को गए थे, बच्चे-वच्चे पैदा करने आप नहीं गए थे।

प्रश्न:
पर स्वामी जी, बाइ-प्रॉडक्ट तो किसी को...।
मेरा मतलब यह है, मेरा मतलब यह है कि दुनिया में सौ आदमी बच्चे पैदा करते हैं, शायद एक आदमी कांशसली बच्चे के लिए संभोग करता हो। निन्यानबे आदमी संभोग करते हैं और बच्चे पैदा हो जाते हैं।

प्रश्न:
हां, वह बराबर है।
आपका...धर्म-वर्म नहीं है वह आपका। ये सब तरकीबें जो शास्त्र उपयोग करते हैं। बड़ी बेईमानी की हैं। और आदमी को ऐसी बातें सिखाती हैं जो कि सच्ची नहीं हैं। अगर आपका बेटा भी आकर कहे, तो आपको गुस्सा आएगा इस बात से, अगर बेटे से आप कहेंगे कि मैंने तुझे पैदा किया। और सच्ची बात यह है कि आपने कभी सोचा ही नहीं था इसको पैदा करने का। वह बिलकुल ही हैपनिंग है। आप अपने सेक्स का सुख ले रहे थे, वह बेचारा बीच में आ गया है। और आपको पता ही नहीं कि उसके आने में कितने बेटे और खो गए। एक आदमी एक जिंदगी में कम से कम चार हजार बार संभोग कर सकता है। और एक संभोग में जितने वीर्य-अणु जाते हैं, एक संभोग में कम से कम एक करोड़ बच्चे पैदा हो सकते हैं, एक संभोग में जितने वीर्य-अणु होते हैं। और चार हजार बार आदमी संभोग कर सकता है, एक साधारण आदमी। चार हजार करोड़ बच्चे आप पैदा कर सकते थे। और जो पैदा हो गए हैं वे ही नहीं थे और भी बहुत संभावना थी पैदा होने की, जो खो गई है, और उनका आपको कोई पता नहीं है। यह भी खो जाता तो आपको कोई पता नहीं था। न आपने कभी चाहा था, न कभी आपने सोचा था, यह आप कुछ और कर रहे थे, यह बच्चा उसमें आ गया है। आ जाने के बाद धर्म बतला रहे हैं और कर्तव्य बतला रहे हैं और सब झूठी बकवास जारी कर रहे हैं। लेकिन यही सब बकवास बच्चों को अब समझ में आनी शुरू हो जाएगी, बहुत ज्यादा दिन चलने वाली नहीं है।
मेरा कहना कुल इतना है कि चीजों के सत्य को समझना चाहिए। सत्य यह है कि आदमी में कामवासना की वृत्ति है। सत्य यह है कि स्त्री-पुरुष मिलना चाहते हैं। इस मिलने को निंदित करना है, पाप बताना है, घृणापूर्वक नीचा दिखाना है, वह अब तक हुआ है। या इसको ऊंचा उठाना है, पवित्र बनाना है, स्प्रिचुएलाइज करना है, श्रेष्ठ करना है, वह अब तक नहीं हुआ है। वह होना चाहिए, जो मेरा कुल कहना है।

प्रश्न:
अब तक जो चला है तो वह ऐसा चला है कि मैं मेरी पत्नी के सिवाय और किसी स्त्री के साथ जो संभोग करता हूं तो यह अनिष्ट माना जाता है।
यह अनिष्ट माना जाता है--यह क्यों माना जाता है अनिष्ट? इस पर कभी आपने सोचा?

प्रश्न:
यह अधिकार नहीं है।
न, न, न। यह तो हमारी मान्यता की बात हुई न। यह आप खयाल करेंगे कि यह सेक्सुअल माइंड की वजह से अनिष्ट हो गया। यह कोई बहुत पवित्र बात नहीं है। आप किसी दूसरे की पत्नी से संभोग नहीं करने का जो नियम बनाया है, वह इसीलिए कि आपकी पत्नी से कोई दूसरा संभोग न कर ले। सारा नियम इसलिए है कि वह जो पत्नी से बच्चा पैदा हो वह मेरे सेक्स का ऑथेंटिक होना चाहिए, कहीं गड़बड़ न हो जाए, किसी और के सेक्स से न आ जाए वह। आदमी अपनी कामवासना का बहुत निर्णायक रूप से यह विश्वास चाहता है प्रामाणिक कि वह मेरा ही है। और उस प्रामाणिक चाहने के दो कारण हैं। और दोनों कारण बिलकुल ही पाशविक हैं। कोई बड़े ऊंचे कारण नहीं हैं।
पहला कारण तो यह है कि वह जो बच्चा उससे नहीं आया है, वह उसको कभी भी प्रेम नहीं कर पाएगा। उसे पक्का भरोसा होना चाहिए तभी उसकी प्रेम की ऊर्जा खिलेगी। नहीं तो वह खिल नहीं सकती है। संबंध बनाया तो मुश्किल हो जाएगा, प्रेम नहीं खिल पाएगा उसके प्रति, एक। एक तो यह कारण। और दूसरा कारण यह कि उसकी जो संपत्ति है, वह उसकी ही पैदाइश को मिलनी चाहिए, वह कहीं किसी और को न मिल जाए। तो प्राइवेट प्रॉपर्टी और सेक्सुअलिटी, ये दो कारण हैं कुल जमा। जिसकी वजह से यह नियम बनाया है कि अपनी ही पत्नी से संभोग करना; किसी और से बड़ा पाप है और बड़े नरक का द्वार है।
मैं नहीं कहता कि दूसरे से करना, मैं यह कह नहीं रहा, मैं तो यह कह रहा हूं कि जिससे आपका प्रेम नहीं है उससे संभोग करना पाप है; चाहे वह आपकी ही पत्नी क्यों न हो। मैं तो आपसे ऊंची बात कह रहा हूं, मैं तो यह कह रहा हूं कि जिससे प्रेम नहीं है उससे संभोग करना पाप है; चाहे वह आपकी ही पत्नी क्यों न हो। और जिससे प्रेम है, जिससे आपका प्रेम है, उससे संभोग करना पुण्य है। लेकिन, संभोग करने का मतलब यह हुआ कि आप उसके ऊपर सारी जिम्मेवारी लेने को आप राजी हैं। वह आपकी पत्नी बन जाती है। पत्नी बनने का मतलब क्या है?--कि आप सारी जिम्मेवारी लेने को राजी हैं।

प्रश्न:
वह जो दूसरे किसी से शादी करके बैठी है और उसके घर में बैठी है, उसके साथ मेरा प्रेम हो जाए, तो मैं उसके साथ कैसे कर सकता हूं?
यह घर गलत है। यह गलत घर है। जिसमें एक औरत किसी के घर में बैठी है और आपका प्रेम हो जाए, इसका मतलब यह हुआ कि जिस घर में बैठी है वहां प्रेम नहीं है, पहली बात। आपसे प्रेम होता है, दूसरी बात।
समाज ऐसा होना चाहिए कि यह घर बदल जाए। यह पत्नी आपको मिल जाए। ये दोनों पाप हो रहे हैं। आपका प्रेम भी पाप हो रहा है और वह जिसके साथ रह रही है वहां भी पाप हो रहा है। यह डबल पाप चलाने की कोई जरूरत नहीं है। समाज इतना लिक्विड होना चाहिए कि यह बदलाहट हो जाए। आप पति-पत्नी बदल जाएं। और सरलता से बदल जाएं। इसमें इतना दंगा-फसाद करने की जरूरत नहीं है कि अदालत में मुकदमा चलाओ, तीन साल का सर्टिफिकेट लो, फिर उसको गालियां दो कि यह व्यभिचारिणी है, तब बदलो। ये सब बिलकुल नाजायज बातें हैं। यह इतना सरल होना चाहिए कि दो आदमी अलग होना चाहते हैं। एक आदमी भी जाकर...।
रूस में उन्होंने कर लिया है। यह बड़े मजे की बात की है। और बड़ी हिम्मत की बात की है। अब रूस में तलाक देने में दोनों पार्टी के मौजूद होने की भी जरूरत नहीं है। दो में से एक व्यक्ति भी मजिस्ट्रेट को जाकर लिख कर दे दे कि हम इसको समाप्त करना चाहते हैं। बात समाप्त हो गई। इसमें कोई झगड़ा-फसाद का सवाल नहीं है।
तो जो आपका परिवार है वह जड़ नहीं होना चाहिए। मेरे हिसाब में लिक्विड होना चाहिए। वह रूपांतरित होने की क्षमता होनी चाहिए। जरूरी नहीं कि रूपांतरित हो। और तभी पता चलेगा आपको कि कितने परिवार सच्चे हैं, जब आपका लिक्विड परिवार होगा। अभी तो सब झूठ चल रहा है पूरा का पूरा।
अगर आपसे मैं पूछूं कि ये जो सौ परिवार हैं और अगर इन्हें परिपूर्ण स्वतंत्रता मिले और कोई निंदा न मिले एक-दूसरे को बदलने में, तो इनमें से कितने अपने हैं जो रहने को राजी होंगे? तब पता चलेगा कि नैतिकता कितनी है। अभी चूंकि बदल नहीं सकते इसलिए नहीं बदलते हैं और नैतिकता की खोल ओढ़े खड़े हैं।
यह कोई नैतिकता नहीं है। और चित्त तो बदलता ही रहेगा। आप कानून से शरीर को रोक सकते हैं, आप पर कानून लगा दिया है कि यह जो पत्नी है जिसको आपसे बांध दिया गया है, इसके अतिरिक्त आपका किसी स्त्री से कोई संबंध नहीं। लेकिन मन संबंध बनाता रहेगा। वह खिड़की में से झांकता रहेगा। वह दूसरे के मकानों में देखता रहेगा। वह संबंध बनाता रहेगा। और वह जो मन संबंध बनाएगा, तो दुख का कारण होगा, वह पीड़ा का कारण होगा।
मेरा कुल कहना इतना है कि मनुष्य के जीवन की सारी की सारी व्यवस्था पुनर्विचारणीय हो गई है। परिवार भी पुनर्विचारणीय है। सेक्स-रिलेशनशिप भी पुनर्विचारणीय है। मां-बेटे और बाप-बेटे का संबंध भी पुनर्विचारणीय है। ये सब संबंध सड़ गए हैं। अभी तक यह खयाल था...।
इजरायल में उन्होंने किबुत्ज पर प्रयोग किया, तो बड़े अदभुत परिणाम आए। अब तक यह खयाल था कि अगर बच्चों को मां-बाप के पास नहीं पाला गया, तो फिर बच्चों में और मां-बाप में प्रेम नहीं हो सकेगा। क्योंकि प्रयोग भी नहीं किया गया था। लेकिन किबुत्ज में जो प्रयोग किया इजरायल में, उससे दंग रह गए वे। कि जो बच्चे किबुत्ज में पाले गए उनके और उनके मां-बाप के बीच जितना प्रेम है उतना जो बच्चे मां-बाप के पास रहे हैं उनके बीच कभी नहीं हो सकता। उसका कारण है। क्योंकि चौबीस घंटे मां के पास बच्चा रहता है, तो मां मारती भी है, डांटती भी है, झगड़ती भी है, तो बच्चे में डबल प्रवृत्तियां एक साथ पैदा होती हैं, जो सबसे बड़ी खतरनाक बात है। वह मां को कभी घृणा भी करता है और सोचता है कि मार क्यों न डालूं, भाग क्यों न जाऊं इससे, यह दुश्मन है मेरी। कभी मां को प्रेम भी करता है, कि वह पवित्र मालूम पड़ती है, इससे बड़ा कोई भी नहीं; उसके चरणों में, उसकी गोदी में सिर रख कर लेट जाता है, वह हाथ भी फेरती है।
एक ही ऑब्जेक्ट के प्रति दोहरी प्रवृत्तियां पैदा होती हैं: उसमें घृणा की भी और प्रेम की भी। और यह इतनी खतरनाक बात है कि एक ही व्यक्ति के प्रति दो तरह की--घृणा और प्रेम की प्रवृत्तियां पैदा हो जाएं, तो उसका माइंड हमेशा के लिए कांफ्लिक्ट में हो गया। और अब जिंदगी में वह जिसको भी प्रेम करेगा, उसके साथ भी घृणा की प्रवृत्ति साथ जुड़ी रहेगी, क्योंकि घृणा और प्रेम एसोसिएट हो गए। तो वह जिस स्त्री को प्रेम करेगा, उसको घृणा भी करेगा। और वक्त-बेवक्त उसकी गर्दन काट देने की भी सोचेगा, उसको बर्बाद, मार डालने का भी सोचेगा। और वह जो स्त्री आई है वह भी उसकी डबल प्रवृत्तियां लेकर आई है।
तो किबुत्ज में जो प्रयोग हुआ, उन्होंने यह किया कि बच्चे को जैसे ही होश सम्हलना शुरू होता है...वह तो कम्युनिटी हॉल में उसको पालते हैं--मां आती है दूध पिलाने, तीन बार, चार बार, जितनी बार जरूरत होती है। कम्युनिटी हॉल उन्होंने बनाया हुआ है--चारों तरफ खेत हैं, उसके बीच में हॉल है। खेत में महिलाएं काम कर रही हैं...सब बच्चों के झंडे हैं, जिस बच्चे को रोना आता है उसका झंडा हॉल पर ऊंचा कर दिया जाता है, उसकी मां अपना झंडा देख कर आकर बच्चे को दूध पिला जाती है। बच्चा सिर्फ मां के सुखद रूप को ही जानता है--वह उसे दूध पिलाने आती है, प्रेम करने आती है। बच्चा मां के दुखद रूप को कभी नहीं जान पाता। बच्चा बड़ा होता चला जाता है। दूसरा मजा यह कि बच्चा बच्चों में पलता है।
बच्चों के बूढ़ों के साथ पलने से इतना अनाचार हो रहा है जिसका कोई हिसाब नहीं। क्योंकि उनके बीच कभी भी कोई समानता नहीं है। बूढ़े घर के मालिक हैं और बच्चों को उनके नीचे पलना पड़ता है। बूढ़े उस समाज से पैदा हुए हैं जो कभी का मर चुका है और बच्चों को उस समाज में रहना पड़ेगा जो अभी पैदा नहीं हुआ है। और यह इतना टेंशन पैदा कर देता है उस बच्चे के मांइड में। माइंड उसका ऐसा होता है जो समाज मर चुका उसका और जीएगा उस समाज में जो अभी पैदा नहीं हुआ। उसका मन हमेशा तकलीफ में रहने वाला है।
तो वह बच्चों के साथ पलते हैं बच्चे। और जो नर्सेज उनको सम्हालती हैं, उन नर्सेज को भी--तीन महीने से ज्यादा कोई बच्चे को नहीं सम्हालती है, तीन महीने में नर्स बदल जाती है। तो उनका कहना है कि किसी एक व्यक्ति पर प्रेम की धारणा फिक्स्ड नहीं होनी चाहिए। एक व्यक्ति पर फिक्स्ड होने से फिर उसको दूसरे व्यक्ति पर ले जाने में बहुत कठिनाई होती है। और यही कठिनाई है। बच्चा, बेटा मां के पास पलता है, वह मां को प्रेम करना सीखता है। फिर बीस साल के बाद एक दूसरी औरत को प्रेम करना पड़ता है, जो बड़ी कठिनाई का मामला है। वह औरत अगर ठीक उसकी मां जैसी मिल गई, तब तो ठीक। और कहां मिलेगी उसकी मां जैसी औरत? और तब संघर्ष शुरू हुआ। उसे एक औरत के प्रति उसका प्रेम फिक्स्ड हो गया।
तो वह किबुत्ज में यह करते हैं कि तीन महीने में वह औरतें बदलते रहते हैं। वह नर्स बदल जाएगी तीन महीने में, ताकि उसका किसी औरत पर फिक्स्ड माइंड न रह जाए। और उनका कहना है कि पति-पत्नी के झगड़े का कुल कारण इतना है कि पहले बच्चों के माइंड फिक्स्ड हो जाते हैं। और मां को तो पत्नी बनाया नहीं जा सकता। और मां को ही पत्नी की तरह चाहेगा उसका मन हमेशा। क्योंकि जिसको उसने प्रेम किया था, उसकी वह नीड बन गई उसके भीतर--मां कैसे उसको सुलाती थी, मां कैसे उसको खिलाती थी, मां कैसे उससे बोलती थी। और मां के साथ एक मजा था कि मां प्रेम देती थी, मांगती कभी नहीं थी। मां क्या प्रेम मांग सकती है छोटे से बच्चे से? वह अपनी पत्नी से भी प्रेम मांगता है, देने की फिकर नहीं है उसको। क्योंकि उसका तो फिक्स्ड माइंड हो गया।
तो वे तीन महीने में बदल देते हैं नर्स को। और पिछली दस, पच्चीस, चालीस, सौ, दो सौ औरतें उसके करीब से गुजरती हैं, उसके पास फिक्स्ड औरत नहीं होती दिमाग में। वह किसी भी औरत पर सुविधा से--लिक्विड माइंड है उसका--वह फिक्स्ड हो जाता है। और दूसरा मजा यह है कि बीस साल, पंद्रह-बीस साल, जब तक वह युनिवर्सिटी से आएगा, तो वह छुट्टियों में आएगा, दिन, दो दिन से ज्यादा नहीं रहेगा मां-बाप के पास। दिन, दो दिन लड़का जब घर आता है, तो न तो झगड़ा होता, न कलह होती, न उपद्रव होता, वह सिर्फ सुखद रूप देखता है मां-बाप का।
तो मजा यह हुआ कि किबुत्ज में पले हुए बच्चे अपने मां-बाप को जितना आदर और जितना प्रेम देते हैं, उतना किन्हीं बच्चों ने कभी नहीं दिया। मगर अब तक हमारा खयाल यह था कि वह ऐसा उलटा होता है।
तो यह मेरा कहना है, उदाहरण के लिए मैंने कहा, मेरा कहना यह है कि जिंदगी के सब पहलू सड़ गए हैं, सड़े हुए हैं, और एक-एक पहलू को फिर से विचार करके, हिम्मत करके प्रयोग करने की जरूरत है। इसलिए चोट करता हूं किसी भी पहलू पर। वह कौन सा पहलू है इससे मुझे कोई मतलब नहीं है। चोट से तकलीफ तो होती है। क्योंकि वह बंधा हुआ मामला है। अगर मैं यह कहूंगा कि मां के पास बच्चे को पालना खतरनाक है, तो मां नाराज होगी, बच्चे भी नाराज होंगे, बाप भी नाराज होगा। लेकिन खतरनाक है। बिलकुल खतरनाक है। और अभी जो मैं इतनी देर बात कर रहा था पहले, अगर बच्चे को मां-बाप से अलग पाला जा सके, तो समाज कभी भी स्टैटिक नहीं हो पाएगा, समाज हमेशा डाइनैमिक रहेगा। क्योंकि मां-बाप का जो ओल्ड माइंड है वह बच्चों को जकड़ नहीं पाएगा। उतने जोर से नहीं जकड़ पाएगा। और जिंदगी ज्यादा खुशी की होगी।
एक मेरे मित्र गए इजरायल। तो उनको मैंने कहा कि तुम किबुत्ज में जरूर जाकर देख कर आना, मुझे सब कहना। तो वे किबुत्ज के...सांझ को पहुंचे एक कम्युनिटी हॉल में, तो वे दंग रह गए! उन्होंने कहा: मैंने कभी जिंदगी में नहीं देखा था कि यह भी हो सकता है! बच्चे खाना खा रहे थे कम्युनिटी हॉल में--कोई चालीस-पचास बच्चे होंगे--बच्चे ही परोस रहे थे, बच्चे ही खा रहे थे। रंग-बिरंगे शानदार उन्होंने कपड़े पहने हुए थे। टेबल पर बच्चे नाच रहे थे, वहीं खाना चल रहा है टेबल पर, और कुछ बच्चे वहां टि्‌वस्ट डांस कर रहे हैं टेबल पर--छोटे बच्चे। चारों तरफ बच्चे खेल-कूद भी कर रहे हैं, खा भी रहे हैं, खेल भी रहे हैं, नाच भी रहे हैं।
उन्होंने कहा कि मैंने पहली दफा जिंदगी में देखा कि ऐसे भी खाना खाया जा सकता है। लेकिन वहां कोई बड़ा था ही नहीं, जो उनको रोक दे। उनको जो करना है, वे कर रहे हैं। अच्छा, बच्चे ही उनको सम्हाल रहे हैं, जो थोड़े से बड़े हैं उनसे। ज्यादा बड़े नहीं है, इसलिए अथॉरिटी पैदा कभी नहीं हो पाती। क्योंकि थोड़े से बड़े बच्चे को थोड़ा तो आदर देता है वह, लेकिन कुछ ऐसा नहीं है कि तुम ही सब जानते हो...वह छोटा भी...वह तुम भी अगर थोड़ा सा जानते हो...तो अथॉरिटेटिव कि हम जानते हैं, वह कभी अथॉरिटी उसके दिमाग में नहीं आती।
वह उन्होंने देखा कि घंटों भर, घंटों भर वे लोग खाना खा रहे थे। उनके शिक्षक भी आस-पास से देखते, लेकिन वे अंदर नहीं जा रहे थे। उन्होंने पूछा जाकर, तो उन्होंने कहा कि नहीं, खाना खाते वक्त हम इनको रोकते नहीं। उनको मौज से, जैसे उन्हें खाना है। हम बूढ़े हैं, हम इतनी मौज से नहीं खा सकते। और हम उनकी मौज में बाधा डालेंगे वहां जाकर कि बंद करो यह शोरगुल, यह क्या कर रहे हो, इतना खाना खराब चला जाएगा। लेकिन खाना खराब जाना उतना बुरा नहीं है जितना उदास बैठ कर खाना खाना। अभी वे बच्चे हैं, अभी उनको खेलने-कूदने दो, गाने दो, खाने दो।
अब ये बच्चे जब खाने की मेज पर कभी भी जाएंगे बीस साल बाद, तो इनकी खाने की मेज वैसी उदास नहीं होगी जैसी हमारी है। बीससाल की इतनी उम्र भी नहीं है। यह मौज उनके साथ चली जाएगी जिंदगी की।
तो जिंदगी का पूरा का पूरा सड़ा-गला हमने जो ढांचा दिया है, वह गलत है एक ढंग से। उसको, उसको उखाड़ कर फेंक देना है। और एक-एक जड़ उसकी तोड़ देनी है।

प्रश्न:
तो वह आप कैसे समाज की रचना का खयाल करते हैं?
अभी तो रचना का खयाल नहीं करता, अभी तो विध्वंस का खयाल करता हूं।

प्र्रश्न:
लेकिन विध्वंस के बाद तो रचना होनी चाहिए?
वह तो जैसा मैंने कहा, उदाहरण के लिए मैंने कहा न, उदाहरण के लिए मैंने कहा कि मां-बाप और बच्चों का संबंध तोड़ कर ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जहां मां-बाप से बच्चों का कम से कम...। सिर्फ सुखद संपर्क हो। वह पाजिटिव हो गया उसका हिस्सा। ऐसा एक-एक चीज पर...।

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