YOG/DHYAN/SADHANA

Ek Ek Kadam (एक एक कदम) 04

Fourth Discourse from the series of 7 discourses - Ek Ek Kadam (एक एक कदम) by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं।

एक मित्र ने पूछा है कि आप गांधी जी की अहिंसा में विश्वास नहीं करते हैं क्या? और यदि अहिंसा में विश्वास नहीं करते हैं गांधी की, तो क्या आपका विश्वास हिंसा में है?
पहली तो बात यह है कि मेरा विश्वास हिंसा में जरा भी नहीं है। और दूसरी बात यह है कि गांधी की अहिंसा में भी मैं विश्वास नहीं करता हूं; गांधी की अहिंसा मुझे बहुत अहिंसा नहीं मालूम होती है इसलिए। गांधी की अहिंसा बहुत लचर और बहुत कमजोर है। गांधी की अहिंसा बहुत अधकचरी है इसलिए। पूर्ण अहिंसा में मेरी आस्था है।
गांधी जी की अहिंसा को हम समझने चलें, तो बहुत हैरानी होती है। गांधी जी अफ्रीका में ‘बोर-युद्ध’ में वालंटियर की तरह सम्मिलित हुए। बोर अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। और गांधी जी, बोरों की आजादी की लड़ाई को दबाने के लिए जो साम्राज्यशाही प्रयास कर रही थी, उस साम्राज्यशाही की तरफ से वालंटियर की तरह भर्ती हुए थे। गांधी जी पहले महायुद्ध में अंग्रेजों के सारजेंट की तरह भारत में लोगों को मिलिटरी में भर्ती करवाने का काम करते रहे। यह बड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है कि पहले महायुद्ध में गांधी जी ने लोगों को मिलिटरी में भर्ती होने की प्रेरणा दी और युद्ध में जाने की प्रेरणा दी!
पंजाब के एक गांव में मुसलमानों ने बगावत कर दी थी। मुसलमानों को, उस गांव को दबाने के लिए अंग्रेजों ने गुरखों की पल्टन भेजी। अंग्रेजों का यह हिसाब था कि अगर हिंदू गांव बगावत करे तो मुसलमानों की सेना, टुकड़ी भेजो और अगर मुसलमानों का गांव बगावत करे तो हिंदुओं की टुकड़ी वहां भेजो। ताकि हिंदू हिंदू होने के कारण मुसलमानों को आग में भून सके।
गुरखों की टुकड़ी ने एक अदभुत ऐतिहासिक कार्य किया। गुरखों की टुकड़ी ने मुसलमान बस्ती पर, मुसलमान लोगों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। वे बंदूकें जमीन पर टेक कर खड़े हो गए और उन्होंने कहा: हम अपने भाइयों पर गोली नहीं चलाएंगे।
यह बड़ी अदभुत ऐतिहासिक और बड़ी अहिंसात्मक घटना थी। उन सैनिकों ने अपनी जान बाजी पर लगा कर गोली चलाने से इनकार किया। और न केवल गोली चलाने से इनकार किया, उन्होंने जाकर अपनी बंदूकें थाने में जमा करवा दीं और जाकर समर्पण कर दिया और कहा कि हम गोली चलाने से इनकार करते हैं, हमें चाहे जो भी सजा दी जाए, हम अपने भाइयों पर गोली नहीं चला सकते हैं।
हम सोच सकते थे कि गांधी जी इन सैनिकों की प्रशंसा करेंगे, लेकिन गांधी जी ने उन सैनिकों की निंदा की। और इंग्लैंड में गांधी जी से जब पूछा गया कि आश्चर्य की बात है कि आप अहिंसक होते हुए उन सैनिकों की निंदा किए जिन्होंने बंदूक चलाने से इनकार किया। तो गांधी जी ने क्या कहा आपको पता है? गांधी जी ने कहा कि मैं सैनिकों को आज्ञाहीनता नहीं सिखा सकता हूं। क्योंकि कल जब देश आजाद हो जाएगा और सत्ता हमारे हाथ में आएगी, तो इन्हीं सैनिकों के सहारे हमें शासन करना है।
यह किस प्रकार की अहिंसा है? यह थोड़ा विचारणीय है।
वे सैनिक भी दंग रह गए होंगे! अगर गांधी जी ने उन सैनिकों की प्रशंसा की होती, तो हिंदुस्तान भर का सैनिक यह हिम्मत जुटा सकता था कि हिंदुस्तान पर गोली चलाने से इनकार कर देता। लेकिन गांधी जी ने उन सैनिकों की निंदा की। आज्ञा, अनुशासन के आधार पर। और कहा कि यह अनुशासन को तोड़ना उचित नहीं है। सैनिक का कर्तव्य है कि वह आज्ञा माने। क्यों? क्योंकि कल जब गांधी जी के लोगों के हाथ में देश आ जाएगा, तो इन्हीं सैनिकों के सहारे हुकूमत करनी है।
और हम देख रहे हैं कि बाईस साल की आजादी के इतिहास में, गांधी जी के पीछे चलने वाले लोगों के हाथ में जब से सत्ता आई है, हिंदुस्तान में जितनी गोली चली है उतनी दुनिया के इतिहास के बीस सालों में कहीं भी नहीं चली होगी। ये वे ही सैनिक अब गोली चलाने के काम में लाए जा रहे हैं। अब सत्ता गांधीवादियों के हाथ में है। अंग्रेजों ने भी कभी हिंदुस्तान में इतनी गोली नहीं चलाई थी, जितनी जिसको हम अपनी हुकूमत कहते हैं, उसने गोली चलाई है, और जिस बेरहमी से गोली चलाई है और जितने लोगों की हत्या की है!
यह बहुत हैरानी की बात है। लेकिन यह भी साथ में समझ लेना जरूरी है कि गांधी जी अहिंसात्मक रूप से जो आंदोलन चलाते थे, वह आंदोलन भी दबाव, प्रेशर डालने के लिए है। और मेरी दृष्टि में जहां भी दबाव है, वहां हिंसा है। चाहे दबाव छुरी से डाला जाए और चाहे मैं आपके घर के सामने आकर अनशन करके बैठ जाऊं और कहूं कि मैं मर जाऊंगा अगर मेरी बात नहीं मानी। यह दबाव भी हिंसा है। दबाव मात्र हिंसा है।
दबाव डालने के ढंग अहिंसात्मक हो सकते हैं, लेकिन दबाव खुद हिंसा है। अगर मैं अपनी बात मनवाने के लिए अपनी जान दांव पर लगा दूं और कहूं कि मैं मर जाऊंगा, तो जिसको हम सत्याग्रह कहते हैं और अनशन कहते हैं, वह क्या है? वह आत्महत्या की धमकी है। और वह धमकी हिंसात्मक है। चाहे दूसरे को मारने की धमकी हो और चाहे अपने को मार डालने की धमकी हो, मार डालने की धमकी सदा हिंसात्मक है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह धमकी अपने लिए है कि दूसरे के लिए। और कई बार तो यह हो सकता है कि मैं आपको मारने की धमकी दूं तो आप मेरा मुकाबला कर सकते हैं, लेकिन जब मैं अपने को मारने की धमकी देता हूं तो आपको मैं बिलकुल निहत्था कर देता हूं, आप मुकाबला भी नहीं कर सकते हैं। यह हिंसा ज्यादा सूक्ष्म है, यह वायलेंस ज्यादा भीतरी है और बहुत छिपी हुई है, इसका पता चलाना बहुत मुश्किल है।
अगर अहिंसात्मक सत्याग्रह किसी को करना हो, तो न तो खबर करनी चाहिए, न जनता में पता चलना चाहिए, न जिस आदमी के हृदय परिवर्तन के लिए मैं कोशिश कर रहा हूं उसको खबर करनी चाहिए। मौन, एकांत में मैं अपने को शांत करूं, ध्यानस्थ हो जाऊं, समाधिस्थ हो जाऊं , अपने को पवित्र करूं और प्रार्थना करूं और हृदय से वे विचार भेजूं जो दूसरे व्यक्ति को परिवर्तित करते हों, तब तो यह अहिंसा हुई। और अगर अखबारों में प्रचार हो, भीड़-भाड़ को पता चल जाए, मेरी जान को बचाने वाले लोग उत्सुक हो जाएं और जिस आदमी को मैं बदलना चाहता हूं उसके दरवाजे पर बैठ जाऊं और कहूं कि मैं मर जाऊंगा। यह अहिंसा नहीं है। यह सब हिंसा है। यह हिंसा का ही रूपांतरण है। ये हिंसा के ही श्रेष्ठतम रूप हैं।
मैंने एक मजाक सुनी है। मैंने सुना है, एक युवक एक युवती को प्रेम करता था और प्रेम करने के पीछे दीवाना था, लेकिन इतना कमजोर था कि हिम्मत भी नहीं जुटा पाता था कि यह विवाह कैसे करे? और लड़की का बाप राजी नहीं था। फिर किन्हीं समझदार ज्ञानियों ने उसे सलाह दी कि तू अहिंसात्मक सत्याग्रह क्यों नहीं करता? कमजोर, कायर लड़का था, उसको यह बात जंच गई।
कायरों को अहिंसा की बात एकदम जंच जाती है। इसलिए नहीं कि अहिंसा ठीक है, बल्कि कायर इतने कमजोर होते हैं कि कुछ और नहीं कर सकते हैं। गांधी जी की अहिंसा का जो प्रभाव इस देश पर पड़ा वह इसलिए नहीं कि लोगों को अहिंसा ठीक मालूम पड़ेगी, लोग हजारों साल से कायर हैं। और कायरों को यह बात समझ में पड़ गई कि ठीक है, इसमें मरने-मारने का डर नहीं है। इसमें तुम आगे जा सकते हो।
तिलक प्रभावी नहीं हो सके, सुभाष प्रभावी नहीं हो सके। भगत सिंह सूली पर लटक गया और हिंदुस्तान में एक पत्थर नहीं फेंका गया उसके विरोध में! उसका कुल कारण यह था कि हिंदुस्तान जन्मजात कायरता में पोषित हुआ है। भगत सिंह को सूली लग रही थी, गांधी जी वायसराय से समझौता कर रहे थे...और समझौते में हिंदुस्तान के लोगों को आशा थी कि शायद भगत सिंह बचा लिया जाएगा। लेकिन गांधी जी ने एक शर्त रखी कि मेरे साथ जो समझौता हो रहा है, उस समझौते के आधार पर सारे कैदी छोड़ दिए जाएं, लेकिन सिर्फ वे ही कैदी जो अहिंसात्मक ढंग से कैदी हुए हैं। उसमें भगत सिंह नहीं बच सका। क्योंकि एक शर्त उसमें जुड़ी थी कि अहिंसात्मक कैदी ही सिर्फ छोड़े जाएं। भगत सिंह को सूली हो गई। जिस दिन हिंदुस्तान में भगत सिंह को सूली हुई, उसी दिन हिंदुस्तान की जवानी को भी सूली हो गई। उसी दिन हिंदुस्तान को इतना बड़ा धक्का लगा जिसका कोई हिसाब नहीं है। गांधी की जीत के साथ हिंदुस्तान में बुढ़ापा जीता, भगत सिंह की मौत के साथ हिंदुस्तान की जवानी मरी।
उस युवक को किन्हीं ने सलाह दी कि तू पागल है, तेरे से कुछ और नहीं बन सकेगा, तू तो अहिंसात्मक सत्याग्रह कर दे। वह जाकर उस लड़की के घर के सामने बिस्तर लगा कर बैठ गया और उसने कहा कि मैं भूखा मर जाऊंगा, आमरण अनशन करता हूं, मेरे साथ विवाह करो।
घर के लोग बहुत घबड़ाए। क्योंकि अगर वह और कोई धमकी देता, तो पुलिस को खबर करते, लेकिन उसने अहिंसात्मक आंदोलन चलाया था और गांव भर के लड़के मकान का चक्कर लगाने लगे कि अहिंसात्मक आंदोलन है, यह कोई साधारण आंदोलन नहीं है। और प्रेम के लिए अहिंसा का आंदोलन होना ही चाहिए।
घर के लोग बहुत घबड़ाए। फिर बाप को किसी ने सलाह दी कि तुम गांव में जाओ, किसी रचनात्मक, किसी सर्वोदयी, किसी समझदार से सलाह लो कि इसके उलटे में क्या किया जा सकता है? बाप गए, हर गांव में ऐसे लोग हैं जिनके पास और कोई काम नहीं है, वे रचनात्मक काम वगैरह करते हैं। बाप ने जाकर पूछा कि हम क्या करें, हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं? अगर वह छुरे की धमकी देता, तो हमारे पास इंतजाम था, हमारे पास बंदूक है। लेकिन वह मरने की धमकी देता है, अब हम क्या करें? उस आदमी ने कहा: घबड़ाओ मत, रात को मैं आऊंगा और वह भाग जाएगा। वह रात को एक बूढ़ी वेश्या को पकड़ लाया और उस वेश्या ने जाकर उस लड़के के सामने बिस्तर लगा दिया और कहा कि आमरण अनशन करती हूं, तुमसे विवाह करना चाहती हूं। वह रात बिस्तर-विस्तर लेकर लड़का भाग गया, फिर कभी उसका पता नहीं चला।
गांधी जी ने अहिंसात्मक आंदोलन के नाम पर, अनशन के नाम पर जो प्रक्रिया चलाई थी, हिंदुस्तान उस प्रक्रिया से बर्बाद हो रहा है। हर तरह की नासमझी उस आंदोलन के पीछे चल रही है। किसी को आंध्र अलग करना है, वे अनशन कर रहे हैं। कुछ भी करना हो, आप दबाव डाल सकते हैं भूखे मर कर, और हिंदुस्तान को टुकड़े-टुकड़े किया जा रहा है, हिंदुस्तान की हर चीज को नष्ट किया जा रहा है। वह एक दबाव मिल गया है आदमी को दबाने का कि हम मर जाएंगे, अनशन कर देंगे।
यह सिर्फ हिंसात्मक रुख है, यह अहिंसा नहीं है। जब तक मैं किसी आदमी को जोर-जबर्दस्ती से बदलना चाहता हूं, चाहे वह जोर-जबर्दस्ती किसी भी तरह की हो, उसका रूप कुछ भी हो, तब तक मैं हिंसात्मक हूं।
मैं गांधी जी की अहिंसा के पक्ष में नहीं हूं, इससे यह मतलब मत लेना कि मैं अहिंसा के पक्ष में नहीं हूं। अखबार यही छापते हैं कि मैं अहिंसा के पक्ष में नहीं हूं। मैं गांधी जी की अहिंसा के पक्ष में नहीं हूं, क्योंकि मैं अहिंसा के पक्ष में हूं। लेकिन उसको मैं अहिंसा नहीं मानता हूं, इसलिए पक्ष में नहीं हूं। गांधी जी की अहिंसा चाहे गांधी जी को पता हो या न हो, हिंसा का ही रूप है। हिंसा के रूप बड़े अदभुत हैं। हिंसा बड़ी सूक्ष्म है। एक आदमी को मार डालना भी हिंसा है और एक आदमी को अपनी इच्छा के अनुकूल ढालना भी हिंसा है। जब एक गुरु दस-पच्चीस शिष्यों की भीड़ इकट्ठी करके उनको ढालने की कोशिश करता है, अपने जैसा बनाने की, कि जैसे कपड़े मैं पहना हूं वैसे कपड़े तुम पहनो; जब मैं उठता हूं ब्रह्ममुहूर्त में तब तुम उठो; जो मैं करता हूं वही तुम करो, तो हमें पता नहीं है कि यह चित्त बहुत सूक्ष्म हिंसा के रास्ते खोज रहा है।
दूसरे आदमी को बदलने की चेष्टा में, दूसरे आदमी को अपने जैसा बनाने की चेष्टा में आदमी हिंसा करता है। जब एक बाप अपने बेटे को अपने जैसा बनाने की कोशिश करता है, तो आपको पता है, यह हिंसा है। जब एक बाप कहता है कि मेरे जैसे बनना, तो दो बातें काम कर रही हैं। एक तो बाप का अहंकार कि मैं श्रेष्ठ हूं ही और दूसरा कि तुम मेरे बेटे हो, मैं तुम्हें अपने जैसा बना कर छोडूंगा। यह प्रेम नहीं है। यह प्रेम नहीं है! सारे गुरु लोगों को अपने जैसा बनाने की जिस कोशिश में संलग्न होते हैं उस कोशिश में आदमी हिंसा करता है। जो आदमी अहिंसक है वह किसी आदमी को अपने जैसा नहीं बनाना चाहता है। जो आदमी अहिंसक है वह कहता है कि तुम अपने जैसे बन जाओ, बस यही काफी है। मेरे जैसे बनने की कोई जरूरत नहीं है।
कोई अहिंसात्मक आदमी किसी को अपना अनुयायी नहीं बना सकता है, क्योंकि अनुयायी बनाना सूक्ष्म हिंसा है। कोई अहिंसात्मक आदमी किसी को अपना शिष्य नहीं बना सकता है, क्योंकि गुरुबनने से बड़ी हिंसा दुनिया में खोजनी ब़हुत मुश्किल है। लेकिन ये सूक्ष्म हिंसाएं हैं जो दिखाई नहीं पड़ती हैं। और यह भी ध्यान रहे कि जब कोई आदमी दूसरों के साथ हिंसा करना बंद कर देता है, तो हिंसा की प्रवृत्ति नष्ट नहीं हो जाती, हिंसा की प्रवृत्ति स्वयं पर लौट आती है, वह अपने साथ हिंसा करना शुरू कर देता है। जिसको हम तपश्चर्या कहते हैं, तप कहते हैं, त्याग कहते हैं, सौ में निन्यानबे मौके पर अपने पर लौटी हुई हिंसा के दूसरे नाम हैं और कुछ भी नहीं।
एक आदमी दूसरे को सताना चाहता है। अंग्रेजी में एक शब्द है, सैडिस्ट, जो आदमी दूसरे को सताना चाहता है, उसको वे कहते हैं, सैडिस्ट। उसको वे कहते हैं, पर-पीड़नवादी। एक दूसरा शब्द है अंग्रेजी में, मैसोचिस्ट, जो आदमी अपने को ही सताने में मजा लेता है, उसको वे कहते हैं, मैसोचिस्ट, आत्म-पीड़नवादी। हम दूसरे को सताने वाले को तो हिंसक कहते हैं, लेकिन खुद को सताने वाले को हिंसक नहीं कहते हैं। वह भी हिंसा है। और मजा यह है कि दूसरे को सताने में तो दुनिया बाधा डाल सकती है, स्वयं को सताने में कोई भी बाधा नहीं डाल सकता है। स्वयं को सताने के लिए प्रत्येक आदमी मुक्त है। ये जो तपश्चर्या करने वाले लोग हैं, ये जो कांटों में खड़े लोग हैं, धूप में खड़े लोग हैं, महीनों का उपवास करने वाले लोग हैं, अगर इनकी पूरी कथा आप सुनें और समझें और इनकी, इनकी ईजादें आप पता लगाएं कि कैसे-कैसे अपने को सताने के उपाय निकालते हैं।
ऐसे फकीर हुए हैं दुनिया में, ऐसे साधु रहे हैं--कैसे उनको साधु कहें, यह बहुत मुश्किल है--जो अपनी जननेंद्रियां काट लेते रहे हैं। ऐसे साधु रहे हैं जिन्होंने अपनी आंखें फोड़ लीं और महात्मा हो गए हैं। और ऐसे साधु रहे हैं जो पैर में, जूतों में कीलें लगवाते रहे, ताकि पैर में घाव बनते रहें। कमर में पट्टे बांधते रहे और कीलें लगाते रहे, ताकि कमर में घाव बनते रहें। शरीर को सब तरह से कोड़े मारने वाले साधुओं की लंबी जमात हुई है। वे कोड़े मारने वाले साधु, जो सुबह से उठ कर कोड़े मारेंगे, और जो जितने ज्यादा कोड़े मारेगा उतना बड़ा साधु हो जाएगा। ये सारे के सारे लोग हिंसक लोग हैं। ये अहिंसक लोग नहीं हैं। सिर्फ फर्क इतना है कि इनकी हिंसा दूसरे पर न जाकर स्वयं पर लौट आई है। वह वापस लौटना शुरू हो गई है।
अहिंसा बहुत अदभुत बात है, लेकिन हिंसा से बचना बहुत मुश्किल है। हिंसा को बदल लेना बहुत आसान है, हिंसा नये रूपों में खड़ी हो जाती है। दूसरे को बदलने की चिंता, दूसरे को बदलने का दबाव, दूसरे को अपने जैसा बनाने की सारी कोशिश हिंसा है। और दुनिया के सारे गुरुओं को और दुनिया के उन सारे लोगों को जो अनुयायियों की भीड़ इकट्ठी करते हैं, संप्रदाय खड़े करते हैं, जमातें खड़ी करते हैं और अपनी शक्ल के आदमी पैदा करते हैं, उन सबको मैं एक कतार में हिंसक मानता हूं। अहिंसक व्यक्ति बहुत और दूसरी बात है।
अहिंसक का क्या मतलब है?
अहिंसक का मतलब है: जिसके चित्त में सताने की भावना विलीन हो गई--दूसरे को भी, स्वयं को भी।
अहिंसक का अर्थ है: जिसके चित्त से दबाव डालने की कामना विलीन हो गई--छुरे से भी, अनशन से भी।
अहिंसक का मतलब है: ऐसा व्यक्ति जो किसी को भी किसी तरह का दबाव डालने की कामना से मुक्त हो गया है। क्योंकि दबाव डाल कर हम दूसरे से श्रेष्ठ हो जाते हैं। और आपने कभी खयाल किया है, छुरा बता कर आप दूसरे से श्रेष्ठ नहीं होते, लेकिन अनशन करके आप दूसरे से श्रेष्ठ हो जाते हैं।
नीत्शे ने मजाक में एक बात कही है जीसस के खिलाफ। और कहा है कि जीसस ने कहा है कि कोई गाल पर तुम्हारे चांटा मारे, तो तुम दूसरा गाल कर देना। नीत्शे ने कहा कि इससे ज्यादा अपमान दूसरे आदमी का और क्या हो सकता है? तुमने उसे आदमी भी न माना, अपने बराबर भी न माना। किसी ने चांटा मारा तुम्हारे गाल पर, तुमने दूसरा गाल कर दिया। उस दूसरे आदमी से तुम एकदम देवता हो गए, वह आदमी जमीन का कीड़ा हो गया। नीत्शे ने मजाक में कहा है कि दूसरे आदमी का इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता है? और यह हो सकता है कि कोई आदमी प्रेम के कारण दूसरा गाल न करे, सिर्फ इसलिए गाल दूसरा कर दे कि देख लो, तुम क्या हो, जमीन के कीड़े हो और हम हैं फरिश्ते, हम हैं देवता।
दूसरे से ऊंचा होने की तरकीबें इतनी बारीक हैं कि एक आदमी दूसरे से ऊंचा हो सकता है सिंहासन पर बैठ कर और एक आदमी दूसरे से ऊंचा हो सकता है त्याग करके। लेकिन दूसरे से ऊंचा होने की कामना अगर भीतर शेष है, तो वह कामना हिंसा में ले जाती है, अहिंसा में नहीं। जब भी हम दूसरे पर दबाव डालते हैं तब हम दूसरे से ऊपर होने की चेष्टा में संलग्न हो जाते हैं, चाहे हमें ज्ञात हो और चाहे ज्ञात न हो; चाहे हमें कांशसली पता हो और चाहे अनकांशस माइंड काम कर रहा हो, चाहे अचेतन मन काम कर रहा हो, हमें पता न हो, लेकिन दूसरे को बदलने की कोशिश में स्वयं की श्रेष्ठता भीतर अनुभव होनी शुरू हो जाती है।
मैं इस सबके बुनियादी रूप से खिलाफ हूं। मैं मानता हूं कि व्यक्ति प्रार्थना कर सकता है, ध्यान कर सकता है, व्यक्ति अंतस को शुद्ध कर सकता है और उसके अंतस की शुद्धि के कारण उसके चारों तरफ की हवाओं में परिवर्तन शुरू हो जाएगा। लेकिन वह परिवर्तन उस व्यक्ति की चेष्टा चाही हुई चेष्टा नहीं है, उस व्यक्ति का प्रयास और प्रयत्न नहीं है। महावीर और बुद्ध भी अहिंसक हैं। गांधी की अहिंसा से मैं उनकी अहिंसा को श्रेष्ठतर और शुद्धतर मानता हूं। गांधी और महावीर, गांधी और बुद्ध के बीच हम तौल करें, तो कुछ बातें पता चलेंगी। महावीर और बुद्ध किसी को बदलने के लिए कोई अनशन, आंदोलन नहीं कर रहे हैं, लेकिन भीतर हृदय शुद्ध हुआ हो, भीतर कामना उदित हुई हो, तो उसकी किरणें आना चाहेंगी, बिना प्रयास के चारों तरफ बदलाहट लाना शुरू करती हैं।
अहिंसक आदमी ने दुनिया को पहले भी अपनी अहिंसा से किरणें दी हैं, लेकिन वे किरणें चाह कर नहीं दी गई हैं और चेष्टा करके नहीं दी गई हैं। वे किरणें उपलब्ध होती हैं। सूरज निकलता है और अंधेरा विलीन होने लगता है, सूरज कोई घोषणा नहीं करता कि अंधेरे को दूर करने के लिए मैं आ गया हूं, अंधेरा सावधान!
बल्कि मैंने तो एक कहानी सुनी है। मैंने सुना है कि एक बार अंधेरे ने भगवान से जाकर कहा कि तुम्हारा सूरज मेरे पीछे बहुत बुरी तरह पड़ा हुआ है। रोज सुबह मुझे खदेड़ना शुरू करता है। सांझ तक मैं थक जाता हूं भागते-भागते। कहां-कहां छिपूं, चांद-तारों पर, कहां जाऊं ? जहां जाता हूं वहीं तुम्हारा सूरज पहुंच जाता है। सांझ थका-मांदा सो भी नहीं पाता सुबह तक कि फिर तुम्हारा सूरज द्वार पर खड़ा हो जाता है। यह क्या पागलपन है? मैंने इसका क्या बिगाड़ा है?
भगवान ने कहा: यह तो बहुत ज्यादती हो रही है। तूने इतने दिन पहले आकर कहा क्यों नहीं? सूरज को बुलाया और कहा कि तू अंधेरे के पीछे क्यों पड़ा है? सूरज ने कहा: अंधेरा? मेरी अब तक उससे कोई मुलाकात ही नहीं हुई, मैं पीछे क्यों पडूं? मैं उसे पहचानता भी नहीं हूं। अंधेरा कहां है? मैंने आज तक उसे देखा नहीं है। मैं देखना चाहूंगा। सारे जगत में घूमती हैं मेरी किरणें लेकिन अंधेरा मुझे आज तक नहीं मिला। वह है कहां? आप उसे मेरे सामने बुला दें, तो मैं पहचान भी लूं कि अनजाने में कोई भूल फिर न हो, और क्षमा भी मांग लूं पीछे की गई भूलों के लिए।
कहते हैं कि वह मामला फाइल में ही पड़ा है भगवान की। अभी तक वह अंधेरे को सूरज के सामने नहीं ला पाए हैं और आगे भी ला पाएंगे इसकी उम्मीद नहीं है। अंधेरे को सूरज के सामने कैसे लाया जा सकता है? जहां सूरज है वहां अंधेरा नहीं है।
जब हृदय में अहिंसा का जन्म होता है, तो चारों तरफ उस अहिंसा के प्रकाश से हिंसा परिवर्तित होती है; परिवर्तित करनी नहीं पड़ती। इस फर्क को बहुत खयाल से ले लेना। अहिंसा परिवर्तन लाती है। अहिंसा परिवर्तन करती नहीं, अहिंसा से परिवर्तन आता है। अहिंसक परिवर्तन चाहता नहीं।
गांधी की अहिंसा में परिवर्तन की चाह बहुत ही स्पष्ट है, इसलिए उसे मैं अहिंसा नहीं मानता हूं। गांधी की अहिंसा में मेरी कोई श्रद्धा, कोई विश्वास नहीं है, क्योंकि वह अहिंसा ही मुझे दिखाई नहीं पड़ती। मैं कोई हिंसा का पक्षपाती नहीं हूं। मुझसे ज्यादा हिंसा का दुश्मन खोजना कठिन है। क्योंकि अहिंसा में भी मुझे जहां हिंसा दिखाई पड़ती हो उस अहिंसा से भी मैं राजी नहीं होता हूं।

एक दूसरे मित्र ने इसी संबंध में पूछा है कि आप कहते हैं कि क्रांति अहिंसक ही हो सकती है। लेकिन उन मित्र ने पूछा है कि क्रांति तो सदा हिंसक होती है, अहिंसक क्रांति तो कभी नहीं होती।
जिस क्रांति में हिंसा है उसे मैं क्रांति नहीं कहता। वह क्रांति नहीं है, सिर्फ उपद्रव है। उपद्रव और क्रांति में बहुत फर्क है। जिस क्रांति के साथ हिंसा जुड़ गई, वह क्रांति खत्म हो गई। हिंसा के कारण ही खत्म हो गई। क्योंकि क्रांति का अंतिम अर्थ क्या है? क्रांति का अंतिम अर्थ है: आत्मिक परिवर्तन, हार्दिक परिवर्तन; लोगों के चित्त का, लोगों की चेतना का बदल जाना। और जब हम लोगों की चेतना को नहीं...नहीं बदल पाते हैं, जब लोगों की चेतना नहीं बदलती है, तब हम हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। लेकिन जो आदमी हिंसा पर उतारू हो जाता है, वह लोगों की चेतना बदल सकेगा?
स्टैलिन ने एक करोड़ लोगों की कम से कम हत्या की अपने शासन में। एक करोड़ लोगों की हत्या करके भी क्या रूपांतरण हो गया? हिटलर ने भी करीब अस्सी लाख लोगों की हत्या की, लेकिन क्या रूपांतरण हो गया? क्या हो गया? कौन सी क्रांति हो गई? सामान बांट दिया गया, संपत्ति व्यक्तिगत न रही; यह एक करोड़ लोगों को बिना मारे भी हो सकता था। और एक करोड़ लोगों को मारने के कारण यह जो परिवर्तन हुआ, यह इतना तनावपूर्ण है कि जब तक हिंसा ऊपर छाती पर सवार रहे, तभी तक इसको कायम रखा जा सकता है। हिंसा शिथिल हुई कि नीचे का परिवर्तन विलीन होना शुरू हो जाएगा।
स्टैलिन के जाने के बाद रूस के कदम पूंजीवाद की तरफ निश्चित रूप से उठे हैं। स्टैलिन के हटते ही जैसे हिंसा कम हुई है, रूस के कदम पूंजीवाद की तरफ उठे हैं। रूस में व्यक्तिगत संपत्ति का पुनरागमन हुआ है। रूस में आज फिर कार व्यक्तिगत रूप से रखी जा सकती है, जिसकी वहां कल तक कोई कल्पना नहीं थी। मकान भी व्यक्तिगत हो सकता है। तनख्वाहों में भी फर्क पैदा हुआ है।
जैसे ही हिंसा हटेगी हिंसा से लाई हुई क्रांति विलीन हो जाएगी। हिंसा से लाई गई क्रांति जबर्दस्ती है। और जबर्दस्ती कहीं क्रांतियां लाई जा सकती हैं? जबर्दस्ती थोड़ी-बहुत देर किसी को रोका जा सकता है। और ध्यान रहे, जिस चीज को जबर्दस्ती से रोकना पड़ता है उसके खिलाफ लोगों के मन में विद्रोह शुरू हो जाता है। अच्छा काम भी अगर जबर्दस्ती करवाना पड़े...आप यहां बैठे हैं, आप अपनी मौज से यहां आए हैं, और अगर आपको अभी खबर की जाए कि अब दो घंटे तक आप बाहर नहीं निकल सकते हैं, बाहर पुलिस लगी है, बस यहां बैठना असंभव हो जाएगा, विद्रोह शुरू हो जाएगा।
आदमी के पास आत्मा है, आदमी की आत्मा दबाव को इनकार करती है। और करना चाहिए। चाहे वह दबाव अच्छे के लिए ही क्यों न डाला गया हो। दबाव दबाव है। आदमी के अच्छे के लिए भी दबाव डालने पर आदमी विद्रोह करता है।
आपको पता है, अच्छे मां-बाप अपने बेटों को बिगाड़ने का बुनियादी कारण बनते हैं। पता है आपको क्यों? अच्छे मां-बाप जबर्दस्ती बच्चों को अच्छा बनाने की कोशिश करते हैं। दुनिया में कभी किसी को जबर्दस्ती अच्छा नहीं बनाया जा सकता। और जो मां-बाप अपने बच्चों को जबर्दस्ती अच्छा बनाते हैं, वे मां-बाप अपने बच्चों के दुश्मन हैं और अपने बच्चों को बिगाड़ने का कारण बनते हैं; क्योंकि बच्चे विद्रोह करना शुरू करते हैं। बच्चों के पास भी अपनी आत्मा है, वे इनकार करना चाहते हैं जबर्दस्ती को। और अगर अच्छे के लिए जबर्दस्ती की गई, तो फिर अच्छे को भी इनकार करना चाहते हैं। क्योंकि जबर्दस्ती के इनकार में फिर अच्छे का इनकार भी शुरू हो जाता है।
दुनिया में कभी कोई अच्छी बात जबर्दस्ती से नहीं लाई जा सकती है। और जबर्दस्ती से लाने का मतलब यह है कि लाने वाले बहुत कमजोर हैं, लोगों को समझा नहीं पाते हैं, लोगों के हृदय को, मस्तिष्क को राजी नहीं कर पाते हैं। और अगर आप लोगों को राजी नहीं कर पाते हैं, उनके अच्छे के लिए ही, तो फिर आपकी वह अच्छाई बड़ी संदिग्ध है।
दुनिया में कोई क्रांति हिंसा से न हुई है, न हो सकती है। हां, क्रांति के नाम से हिंसा चलती रही है। लेकिन अब तक कौन सी क्रांति हो गई है दुनिया में? दुनिया क्रांति की प्रतीक्षा कर रही है: उस क्रांति की जो सहज आएगी--जो सुंदर होगी, सरल होगी, हृदय से होगी। उस क्रांति की प्रतीक्षा में: जिस क्रांति में दमन नहीं होगा, जिस क्रांति में छाती पर संगीन नहीं होगी; जो क्रांति भीतर से फूल की तरह खिलेगी और व्यक्तित्व को बदल देगी; मनुष्यता उस क्रांति की प्रतीक्षा कर रही है।
फ्रांस की क्रांति असफल हो गई, क्योंकि वह हिंसा पर खड़ी थी। रूस की क्रांति सफल नहीं हो सकी, क्योंकि वह हिंसा पर खड़ी थी। माओ जो क्रांति कर रहा है चीन में, वह सफल नहीं होगी, क्योंकि वह हिंसा पर खड़ी है। गांधी की क्रांति जो कि बहुत अर्थों में अहिंसात्मक दिखाई पड़ती थी, वह भी असफल हो गई, क्योंकि बुनियाद में उसके हिंसा थी।
हम देख रहे हैं अपने मुल्क में, गांधी की क्रांति, जो कि स्टैलिन से लाख दर्जे बेहतर क्रांति है, माओ से हजार गुनी बेहतर क्रांति है, जिसमें अहिंसा की तरफ एक रुख है, एक खयाल है, यद्यपि वह अहिंसात्मक नहीं है बुनियाद में, हिंदुस्तान में वह असफल हो गई। बाईस साल की आजादी की कथा बताती है कि गांधी की क्रांति असफल हो गई है।
गांधी तक की क्रांति असफल हो जाती है, क्योंकि मेरा मानना है कि उसमें भी दबाव और बदलने की तीव्र आकांक्षा है। तो फिर लेनिन और स्टैलिन और माओ इनकी क्रांतियां तो कैसे सफल हो सकती हैं?
दुनिया प्रतीक्षा कर रही है एक क्रांति की, जो क्रांति चेतना की और अहिंसा की क्रांति होगी। लेकिन उस क्रांति की तैयारी में सबसे बड़ी बाधा क्या है? सबसे बड़ी बाधा हिंसा में आस्था है। जिन लोगों की हिंसा में आस्था है वे लोग दुनिया के चित्त को बदलने के अहिंसात्मक दिशा में सोचते भी नहीं, विचार भी नहीं करते, चिंता भी नहीं करते, उस दिशा में कोई काम भी नहीं करते। हमें यह खयाल ही नहीं है कि अगर एक गांव में एक हजार लोग, पचास लाख के गांव में एक हजार लोग भी अगर अहिंसात्मक हों, तो पचास लाख लोगों के चित्त में बुनियादी रूपांतरण शुरू हो जाएगा। लेकिन हमें इसका कुछ पता नहीं है।
अभी रूस में फयादेव ने एक प्रयोग किया है। फयादेव एक रूसी वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक है। और चूंकि प्रयोग रूस में हुआ है इसलिए महत्वपूर्ण है। हिंदुस्तान का योगी तो बहुत दिन से यह कहता है, लेकिन कोई सुनता नहीं है। हिंदुस्तान का योगी यह कहता है कि विचार की इतनी बड़ी शक्ति है कि अगर कोई विचार किसी व्यक्ति के हृदय में पूर्ण संकल्प से स्थापित हो जाए, तो चारों तरफ उस विचार की तरंगें फैलनी शुरू हो जाती हैं और हजारों लोगों के हृदय को रूपांतरित कर देती हैं। एक बुद्ध का पैदा होना, एक महावीर का खड़ा होना इतनी बड़ी क्रांति है जिसका कोई हिसाब नहीं, जिसका हमें पता नहीं चलता। क्योंकि लाखों लोगों के प्राण-कमल उनकी किरणों से खिलने शुरू हो जाते हैं।
फयादेव ने एक प्रयोग किया रूस में, विचार-संक्रमण का, टेलीपैथी का, विचार को दूर भेजने का। उसने मास्को में बैठ कर तिफलिस के गांव में एक हजार मील दूर विचार का संक्रमण किया। मास्को में बैठा है फयादेव अपनी लेबोरेटरी में और एक हजार मील दूर तिफलिस के बगीचे में, पब्लिक पार्क में उसके आठ-दस मित्र एक झाड़ी के पीछे छिपे बैठे हैं। उन्होंने वहां से फोन किया कि दस नंबर की बैंच पर एक आदमी आकर बैठा है, आप अपने विचार से प्रभावित करके उसे सुला दें।
फयादेव एक हजार मील दूर बैठ कर कामना करता है मन में कि वह जो आदमी दस नंबर की बैंच पर हजार मील दूर बैठा है, वह सो जाए, सो जाए, सो जाए...। यहां वह पूर्ण संकल्प से, पूर्ण एकाग्र चित्त से यह कामना करता है, वह आदमी तीन मिनट के भीतर वहां बैंच पर आंख बंद करके सो जाता है।
लेकिन हो सकता है यह संयोग की बात हो, दोपहर का थका-मांदा आदमी, ऐसे ही सो गया हो। तो मित्र फोन करते हैं कि वह आदमी सो तो गया जरूर, तुमने कहा था तीन मिनट में सो जाएगा, तो तीन मिनट में सो गया है, लेकिन यह संयोग भी हो सकता है। आप उसे ठीक पांच मिनट के भीतर वापस उठा दें, तो हम समझेंगे।
फयादेव यहां से फिर सुझाव भेजता है कि उठो, उठो, जागो, जाग जाओ, ठीक पांच मिनट में जाग जाओ...। वह आदमी पांच मिनट में आंख खोल कर बैठ जाता है।
मित्र उसके पास जाकर पूछते हैं कि आपको कुछ...कुछ अजीब सा तो नहीं लगा? वह आदमी कहता है: अजीब सा निश्चित लगा। मैं जब आया, तो मुझे अचानक ऐसा लगा कि जैसे मेरे पूरे प्राण कह रहे हैं कि सो जाओ। मैं रात अच्छी तरह सोया हूं, थका-मांदा नहीं हूं, लेकिन पूरा व्यक्तित्व कहता है कि सो जाओ। फिर मैं सो गया। लेकिन अभी घड़ी भर, क्षण भर पहले एकदम से आवाज आनी शुरू हुई कि उठो, एकदम उठ जाओ, पांच मिनट के भीतर उठ जाओ। मैं बहुत हैरान हूं कि यह क्या हुआ?...एक हजार मील दूर विचार संक्रमित हो गया।
अभी अमरीका की एक प्रयोगशाला में एक और अदभुत प्रयोग हुआ, जो मैं आपसे कहना चाहूंगा। वह प्रयोग भी बहुत बहुमूल्य है आने वाले भविष्य में। अंतरिक्ष में जाने वाले प्रयोग भी उसके मुकाबले कम मूल्य के सिद्ध होंगे। एटम और हाइड्रोजन का प्रयोग भी कम मूल्य का सिद्ध होगा। वह प्रयोग बहुत अदभुत है।
एक प्रयोगशाला में उन्होंने विचार का चित्र पहली बार लिया है। विचार का चित्र--जो विचार आपके भीतर चलता है वह फोटोग्राफ; विचार का, आपका नहीं। एक आदमी को बहुत सेंसेटिव कैमरे के सामने बैठाया गया, बहुत ही संवेदनशील फिल्म लगाई गई है और उस आदमी से कहा गया है कि वह एक विचार पर सारे चित्त को एकाग्र करके सोचता रहे, बस एक ही चित्र पर विचार करे। और उस आदमी ने एक ही चित्र पर विचार किया। वह आदमी एक छुरे के चित्र पर अंदर विचार करता रहा, एक छुरे को देखता रहा और फोटो की फिल्म ने छुरे को पकड़ लिया। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि विचार में जो चित्र था भीतर, उसका संप्रेषण, उसकी किरणें, उसकी तरंगें बाहर फिंक रही हैं, जो कि फोटो की फिल्म पकड़ सकती है।
अहिंसात्मक क्रांति का क्या अर्थ है?
अहिंसात्मक क्रांति का अर्थ है: अहिंसात्मक लोग। थोड़े से लोग भी अहिंसात्मक हों, तो उनके व्यक्तित्व से जो अहिंसा की, जो प्रेम की, जो जीवन-परिवर्तन की किरणें पहुंचेंगी, वह लाखों लोगों के जीवन में क्रांति ले आएंगी। जिसका हमें पता भी नहीं हो सकता।
मेरी मान्यता है कि मनुष्य-जाति अहिंसात्मक क्रांति की प्रतीक्षा कर रही है और यह प्रतीक्षा जारी रहेगी जब तक कि अहिंसात्मक क्रांति नहीं हो जाती है।
हम कितनी ही हिंसात्मक क्रांतियां करें, उनसे कोई परिवर्तन नहीं होगा। परिवर्तन होगा, जैसे कोई आदमी मुर्दे को मरघट ले जाते हैं, मुर्दे को मरघट ले जाते वक्त अरथी को कंधे पर ढोते हैं, रास्ते में कंधा थक जाता है तो अरथी उठा कर दूसरे कंधे पर रख लेते हैं। बस इसी तरह का क्रांतियों से फर्क पड़ता है। एक कंधा दुखने लगा, दूसरे कंधे पर बोझ रख लिया। थोड़ी दूर तक राहत मिलती है, फिर बोझ शुरू हो जाता है; दूसरे कंधे पर बोझ शुरू हो जाता है।
अब तक जितनी क्रांतियां हुई हैं, उन्होंने सिर्फ बोझ बदला है, बोझ मिटाया नहीं; आदमी के समाज को रूपांतरित नहीं किया, आदमी के समाज को पुराने गठन में नया ढंग दे दिया है। फिर जिंदगी वही की वही हो गई। पुरानी बीमारियां फिर शुरू हो जाती हैं, नई शक्लें ले लेती हैं।
रूस में क्रांति हुई, शायद सबसे महत्वपूर्ण क्रांति दुनिया की वही है। रूस में क्रांति हुई, इसलिए कि वर्ग मिटा दिए जाएंगे, क्लासेस नहीं होंगी। वर्ग मिटा दिए गए पुराने, निश्िचत मिटा दिए गए। अमीर आज रूस में नहीं है, गरीब आज रूस में नहीं है, लेकिन नया वर्ग पैदा हो गया है--वह कॉमिसार, वह आफिसर, कम्युनिस्ट पार्टी का आदमी, और वह आदमी जो कम्युनिस्ट पार्टी का नहीं है सामान्य, साधारण। दो वर्ग फिर पैदा हो गए। अधिकारी, सत्ताधिकारी और सत्ता-शून्य। कल था धनिक और निर्धन, आज है सत्ताधिकारी और सत्ता-शून्य। उनके बीच फासला वही है। वर्ग फिर नये खड़े हो गए।
रूस में जो क्रांति हुई, उस क्रांति से वर्ग मिटे नहीं, सिर्फ वर्ग बदल गए। पूंजीपति की जगह मैनेजर आ गया है। वह क्रांति मैनेजेरियल है, व्यवस्थापकों की क्रांति है। व्यवस्थापक बदल गए। जहां मालिक था वहां मैनेजर बैठ गया है, सत्ताधिकारी बैठ गया है; धनी की जगह। और ध्यान रहे, धनी के पास इतनी ताकत कभी नहीं थी जितनी सत्ताधिकारी के पास है। धनी के हाथ में लोगों की गर्दन कभी इतनी नहीं थी जितनी आज कम्युनिस्ट पार्टी के पास रूस में है। जितनी स्टैलिन के पास ताकत है, उतनी बिड़ला के पास थोड़े ही है। नहीं हो सकती। सत्ता बदल गई, वर्ग बदल गए, नये वर्ग आ गए। क्रांति मर गई, क्रांति का कोई अर्थ न हुआ, सिर्फ कंधा बदल गया।
दुनिया में अब तक क्रांतियों के नाम से कंधे बदलते रहे हैं। क्या हम कंधे ही बदलते रहेंगे या सच में कोई क्रांति करेंगे? अगर क्रांति करनी है, तो हिंसा की आस्था छोड़ देनी पड़ेगी। हिंसा से सिर्फ कंधे बदलते हैं। क्योंकि जो आदमी हिंसा करता है वह आदमी जब मालिक हो जाता है तब वह फिर हिंसा जारी रखता है। और उसकी जो हिंसा जारी रहती है...और जिस आदमी ने हिंसा की है और जिसके हाथ में हिंसा की ताकत है, वह आदमी...उस आदमी के द्वारा हम कभी आशा नहीं कर सकते कि वह आदमी हिंसा को छोड़ देगा, हिंसा को बदल लेगा। वह आदमी वही रहेगा।
रूस में जिन लोगों के हाथ में ताकत आई, वे लोग अच्छे थे; क्रांति के पहले सभी लोग अच्छे होते हैं, क्रांति के बाद जब ताकत हाथ में आती है, तब पता चलता है कि कौन आदमी अच्छा है, कौन आदमी बुरा है? संभावना इस बात की है कि स्टैलिन ने ही लेनिन को जहर देकर मारा। और इस बात की संभावना है कि जितने लोग क्रांति के अग्रणी थे, धीरे-धीरे करके एक-एक मारे गए। मैक्सिको में जाकर ट्राटस्की की हत्या की गई। जिन लोगों ने क्रांति की थी, स्टैलिन ने चुन-चुन कर एक-एक को मारा। क्योंकि अब सत्ता का खिलवाड़ शुरू हो गया।
हिंदुस्तान में कितने अच्छे लोगों ने गांधी के साथ क्रांति की थी; कितने अच्छे और भोले लोग मालूम पड़ते थे, एकदम सफेद धुले हुए मालूम पड़ते थे। फिर जब सत्ता हाथ में आई, तो पता चला कि वे लोग बदल गए, वे दूसरे आदमी साबित हुए। वे कपड़े ही सफेद थे, वे आदमी भीतर सफेद नहीं थे।
क्या हो गया सत्ता के हाथ में आते ही?
सत्ता के हाथ में आते ही भीतर का असली आदमी प्रकट होता है। जब तक ताकत नहीं होती तब तक असली आदमी प्रकट नहीं होता। अगर आपके पास पैसे नहीं हैं, तो आप फिजूलखर्च हैं इसका कोई पता नहीं चलता; पैसे हों तो पता चलता है कि फिजूलखर्च हैं या नहीं। अगर आपके हाथ में छुरा हो, मारने की सुविधा हो, तब पता चलेगा कि आप हिंसक हैं या नहीं? जब आपके हाथ में ताकत नहीं है, तब तो सभी लोग अहिंसक होते हैं। अहिंसक का पता चलता है अवसर मिलने पर, हिंसा का अवसर मिलने पर। जिन लोगों के हाथ में इस मुल्क में ताकत गई, ताकत जाने के बाद पता चला कि उनकी असली तस्वीर क्या थी।
तो जिन लोगों के हाथ में ताकत जाएगी, अगर वे हिंसा के द्वारा ताकत में पहुंचे हैं, तब तो उनकी तस्वीर पहले से ही हिंसा की है, और बाद में उनकी क्या हालत होगी? अहिंसकों की हालत हिंसा की हो जाती है, तो हिंसकों की हालत क्या होगी?
नहीं, हिंसा से कोई क्रांति नहीं हो सकती। सिर्फ बोझ बदल जाते हैं, सिर्फ शक्ल बदल जाती है, नाम बदल जाते हैं, समाज पुराना का पुराना ही जारी रहता है।
पांच हजार वर्ष के लंबे प्रयोगों के बाद भी हमें दिखाई नहीं पड़ता कि हिंसा से कोई क्रांति नहीं हो सकी है। आगे भी नहीं हो सकेगी। और अगर आदमी हिंसा से जाग जाए, डिसइलूजनमेंट हो जाए कि हिंसा से कुछ भी नहीं हो सकता, दबाव से कुछ भी नहीं हो सकता, जबर्दस्ती कुछ भी नहीं हो सकता।
आदमी की आत्मा स्वतंत्रता चाहती है और आदमी की आत्मा प्रेम चाहती है और आदमी की आत्मा रूपांतरित होना चाहती है, लेकिन उन लोगों के द्वारा जो रूपांतरित करने के लिए उत्सुक, आतुर नहीं हैं, जिनका कोई आग्रह नहीं है; जो जीते हैं सत्य में, जो जीते हैं प्रेम में और उनके जीने के कारण जो किरणें फैलती हैं उनसे रूपांतरण होता है। ऐसे रूपांतरण की प्रतीक्षा है मनुष्यता को। ऐसी क्रांति अहिंसात्मक ही हो सकती है।
यह बहुत स्पष्ट रूप से मेरी बात समझ लेनी जरूरी है: मैं हिंसा के बिलकुल विरोध में हूं। हिंसा के कौन पक्ष में हो सकता है? कौन बुद्धिमान, कौन विचारशील व्यक्ति हिंसा के पक्ष में हो सकता है? हिंसा के पक्ष में होने का मतलब है आदमी के भीतर बुद्धि नहीं है। क्योंकि लाठी पर केवल वे ही उतरते हैं जिनके पास बुद्धि नहीं होती। जिनके पास बुद्धि होती है, उन्हें लाठी पर उतरने की जरूरत नहीं पड़ती। जो लोग भी हाथ की ताकत में और तलवार की ताकत में विश्वास करते हैं, वे मनुष्य से नीचे दर्जे के मनुष्य हैं। उनके भीतर पशु मौजूद है, वह पशु ही हिंसा में विश्वास करता है।
आदमी हिंसा में कैसे विश्वास कर सकता है? और पशुओं के हाथ में बहुत बार सत्ता दी गई है और आदमी ने हर बार दुख भोगा है। आगे भी पशुओं के हाथ में सत्ता नहीं जानी चाहिए। पाश्विक हाथों में, हिंसक हाथों में सत्ता नहीं जानी चाहिए। इसलिए आदमी जितना सजग हो, जितना अहिंसा के सार को समझे, जितना अहिंसा के रहस्य को समझे उतना अच्छा है।
अहिंसा का सार क्या है?
एक शब्द में अहिंसा का सार है--प्रेम।
‘अहिंसा’ शब्द बहुत गलत है; क्योंकि नकारात्मक है, उससे पता चलता है ‘हिंसा नहीं,’ वह शब्द अच्छा नहीं है। शब्द है वास्तविक--‘प्रेम।’ क्योंकि प्रेम पाजिटिव है, प्रेम विधायक है।
जब हम कहते हैं, अहिंसा, तो उससे मतलब होता है: हिंसा नहीं करनी है। लेकिन हिंसा नहीं करनी है, इससे यह सिद्ध नहीं होता कि प्रेम करना है।
हिंदुस्तान में जैनों की लंबी कतार है। वे सब अहिंसा को मानते हैं। उनकी अहिंसा का मतलब है: पानी छान कर पीना है। उनकी अहिंसा का मतलब है: रात खाना नहीं खाना है। उनकी अहिंसा का मतलब है: किसी को चोट नहीं पहुंचानी है। लेकिन ऐसी अहिंसा बड़ी नपुंसक है, जो सिर्फ दूसरे को दुख पहुंचाने से बचती है।
असली अहिंसा वह होगी जो दूसरे को सुख पहुंचाना चाहती है। दूसरे को दुख नहीं पहुंचाना है, यह काफी नहीं है; यह बहुत लचर, अधकचरी अहिंसा है। दूसरे को सुख पहुंचाना है। और क्यों पहुंचाना है दूसरे को सुख? इसलिए कि मोक्ष जाना है? इसलिए कि स्वर्ग पाना है? जो आदमी दूसरे को इसलिए दुख नहीं पहुंचाता कि उसे स्वर्ग जाना है, मोक्ष जाना है, वह आदमी हद दर्जे का बेईमान है, वह आदमी हद दर्जे का स्वार्थी है। उस आदमी को दूसरे से कोई मतलब नहीं है। वह दूसरे को और दूसरे की अहिंसा को सीढ़ी बना रहा है अपने स्वर्ग जाने की।
मैंने सुना है कि चीन के एक गांव में एक बड़ा मेला भरा हुआ था। एक कुआं था मेले के पास, जिस पर पाट नहीं थी और एक आदमी भूल से उस कुएं के भीतर गिर गया। वह आदमी बहुत चिल्लाने लगा। लेकिन मेले में बड़ी भीड़ थी, कौन उसकी सुनता। एक बौद्ध भिक्षु उस कुएं के पास पानी पीने को रुका। नीचे से आदमी चिल्लाया कि भिक्षु जी, मुझे बचाइए!
उस भिक्षु ने कहा: पागल, किस-किस को बचाया जा सकता है, पूरा संसार ही कुएं में पड़ा है। जीवन ही दुख है, भगवान ने कहा है। पढ़ा नहीं तूने कि जीवन दुख का मूल है? हम सभी दुख में पड़े हैं, कौन किसको बचा सकता है?
उस आदमी ने कहा कि ये ज्ञान की बातें पहले मुझे निकाल लो फिर करना, क्योंकि ज्ञान की बातें कुएं में गिरे आदमी को अच्छी नहीं मालूम पड़ती हैं। कृपा करो, पहले मुझे बाहर निकाल लो।
उस भिक्षु ने कहा: पागल, कौन किसको निकाल सकता है? अपना ही अपना सम्हाल ले आदमी तो काफी है। क्योंकि भगवान ने कहा है, कोई किसी का सहारा नहीं है। अपने सहारे बनो।
उसने कहा: वह मैं सब समझता हूं, लेकिन अभी मैं कैसे अपना सहारा बन सकता हूं? मैं डूब रहा हूं, तैरना नहीं जानता हूं, मुझे किसी तरह बाहर निकाल लो! फिर तुम्हारा शास्त्र भी सुनूंगा, तुम्हारा प्रवचन भी सुनूंगा।
उस भिक्षु ने कहा: लेकिन शायद तुझे पता नहीं है कि भगवान ने शास्त्र में यह भी कहा है कि अगर मैं तुझे बचा लूं और कल तू हत्या कर दे, चोरी कर ले, तो मैं भी तेरे कर्म का भागी हो जाऊंगा! न मैं तुझे बचाता...मैं अपने रास्ते पर, तू अपने रास्ते पर। भगवान तेरा भला करे!
वह भिक्षु चला गया। शास्त्रों को मानने वाले लोग इतने ही खतरनाक होते हैं। उनको शास्त्र ज्यादा महत्वपूर्ण है, मरता हुआ आदमी ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है।
उसके पीछे ही कनफ्यूशियस को मानने वाला एक दूसरा भिक्षु आकर रुका। उसने भी नीचे झांक कर देखा। उस आदमी ने चिल्लाया कि मुझे बचाओ! मैं मर रहा हूं, अब बस मेरी आखिरी स्थिति है। श्वासें टूटी जाती हैं, हिम्मत मेरी उखड़ी जाती है।
कनफ्यूशियस के शिष्य ने कहा कि देख, तेरे गिरने से साबित हो गया कि कनफ्यूशियस ने जो लिखा है वह सही है। कनफ्यूशियस ने लिखा है कि हर कुएं पर पाट होनी चाहिए। और जिस कुएं पर पाट नहीं होती और जिस राज्य में कुएं पर पाट नहीं होती, वह राजा ठीक नहीं है। तू घबड़ा मत। हम आंदोलन करेंगे और हर कुएं पर पाट बंधवा कर रहेंगे।
उस आदमी ने कहा: वह जब बंधेगी बंधेगी, लेकिन मैं तो गया!
आंदोलन करने वालों को आदमी से कोई मतलब नहीं है। उन्हें आंदोलन से मतलब है। वे आंदोलन करेंगे। और यह जो आदमी डूब रहा है, यह गया! उसने बहुत चिल्लाया, लेकिन उसने...कहां सुनने वाला था, आंदोलनकारी किसी की सुनते हैं। वह जाकर मंच पर खड़ा हो गया और मेले में लोगों को समझाने लगा कि देखो, कनफ्यूशियस ने जो लिखा है ठीक लिखा है। सबूत? वह कुआं सबूत है। हर कुएं पर पाट होनी चाहिए। जब तक कुएं पर पाट नहीं तब तक राज्य स्वराज्य नहीं है।
उसके पीछे ही एक ईसाई मिशनरी वहां आया। उसने भी झांक कर देखा। वह आदमी चिल्ला भी नहीं पाया था, उसने अपने झोले से रस्सी निकाली, रस्सी डाली, कूद कर नीचे गया, उस आदमी को निकाल कर बाहर लाया।
उस आदमी ने कहा कि आप ही एक भले आदमी मालूम पड़ते हैं, लेकिन आश्चर्य कि आप झोली में रस्सी पहले से ही रखे हुए थे?
उसने कहा: हम सब इंतजाम करके निकलते हैं। क्योंकि सेवा ही हमारा कार्य है। और हमें पहले से पता रहता है कि कोई न कोई तो कुएं में गिरेगा। और जीसस ने कहा है कि अगर मोक्ष जाना है, अगर ईश्वर का राज्य पाना है, तो लोगों की सेवा करो। सेवा के बिना कोई मोक्ष नहीं जा सकता। हम मोक्ष की खोज कर रहे हैं। तुमने बड़ी कृपा की जो तुम कुएं में गिरे। अपने बच्चों को भी समझा जाना कि वह सदा कुओं में गिरें, ताकि हमारे बच्चे उनको निकालते रहें।
ये जो, ये जो आदमी हैं, ये जो मोक्ष जाने के लिए लोगों का कुएं में गिरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, ये आदमी हद दर्जे के स्वार्थी हैं। इन्हें न कोढ़ियों से मतलब है, न बीमारों से, न गरीबों से; ये सबको सीढ़ियां बना कर अपना मोक्ष खोज रहे हैं। यह आज तक जो लोग अहिंसा की बात करते रहे हैं, उनके लिए अहिंसा भी एक सीढ़ी है।
नहीं, अहिंसा जो सीढ़ी बनती है वह अहिंसा नहीं है। अहिंसा शब्द ठीक नहीं है। शब्द तो ठीक है--प्रेम, ज्वलंत प्रेम। और प्रेम का मतलब है: दूसरे कोसुख देने की कामना। लेकिन क्यों? इसलिए नहीं कि मोक्ष जाना है, इसलिए भी नहीं कि पुण्य होगा, बल्कि सिर्फ इसलिए कि जो आदमी जितना दूसरे को सुख दे पाता है उतना ही तत्क्षण स्वयं सुखी हो जाता है--तत्क्षण, आगे-पीछे नहीं, कभी भविष्य में नहीं। जो आदमी जितना दूसरे को दुख देता है, तत्क्षण उतना ही दुखी हो जाता है। जीवन में हम जो दूसरों के लिए करते हैं, वही हम पर वापस लौट आता है। जिंदगी में एक बड़ी प्रतिध्वनि है, एक इको-पॉइंट है।
मैं एक पहाड़ पर गया था। कुछ मित्र मेरे साथ गए थे। एक मित्र साथ थे--उस पहाड़ पर एक इको-पॉइंट था, जहां आवाज की जाए तो सात बार आवाज वापस लौटती थी घाटियों से गूंज कर। तो साथ में जो मित्र थे, वे कुत्ते की आवाज करने लगे। सारे पहाड़ कुत्तों की आवाज से गूंज गए। मैंने उनसे कहा: रुको भी, अगर आवाज ही करनी है, तो कोयल की करो, या कोई गीत गाओ। पर कुत्ते की आवाज करने से क्या फायदा है? वे मित्र गीत गाने लगे प्रेम का। उन्होंने कोयल की आवाज की। वे पहाड़ियां कोयल की आवाज से गूंज उठीं। फिर जब हम लौटते थे, वे मित्र कुछ सोचने लगे, उदास हो गए और रास्ते में कहने लगे कि कहीं ऐसा तो नहीं कि आपने इशारा किया हो कि यह जो घाटी है, यह जो इको-पॉइंट है यह जिंदगी का, जिंदगी का ही एक रूप है।
जिंदगी में भी जो कुत्ते की आवाज करता है, चारों तरफ उसके कुत्ते भौंकने लगते हैं। जिंदगी में भी जो गीत गाता है, चारों तरफ गीत की शहनाइयां बजने लगती हैं। जिंदगी में भी हम जो फेंकते हैं जिंदगी की तरफ, वही हम पर वापस लौटना शुरू हो जाता है--हजार-हजार गुना होकर। हजार-हजार गुना होकर हम पर वापस लौटने लगता है।
प्रेम जो जितना बांटता है, उतना संगृहीत होकर उसके ऊपर बरसने लगता है।
एक छोटी सी कहानी और अपनी बात मैं पूरी कर दूंगा।
रवींद्रनाथ ने एक गीत लिखा है, और बहुत प्यारा गीत है। और उस गीत में लिखा है कि एक भिखमंगा सुबह ही सुबह उठा भीख मांगने के लिए। अपनी झोली निकाल कर कंधे पर डाली...आज त्यौहार का दिन है और बहुत भीख मिलने की आशा है। ऐसा मालूम होता है कि त्यौहारों की ईजाद भिखमंगों ने ही की होगी। उनकी खोज उन्हीं ने की होगी। अपने झोले को डाल कर...उसने अपनी पत्नी से कुछ अनाज, कुछ चावल के दाने भी अपने झोले में डाल लिए। जब भी कोई भिखमंगा अपने घर से निकलता है, होशियार भिखमंगा, क्योंकि भिखमंगों में भी नासमझ भिखमंगे होते हैं। समझदार भी होते हैं। सब तरह की दुकानों में समझदार, नासमझदार, सभी तरह के लोग होते हैं। भिखमंगी भी एक दुकान है। उसने कुछ दाने अपने घर से डाल लिए। समझदार भिखमंगे कुछ दाने डाल कर निकलते हैं, ताकि जिसके सामने झोली फैलाएं उसे दिखाई पड़े कि भीख पहले भी दी जा चुकी है। इनकार करने में जरा मुश्किल होती है अगर भीख पहले दी जा चुकी हो। क्योंकि अहंकार को चोट लगती है कि किसी दूसरे आदमी ने दान कर दिया है और अगर हम नहीं करते तो इस आदमी के सामने छोटे हो जाते हैं। इसलिए भिखमंगे पैसे हाथ में बजाते हुए निकलते हैं। वे घर से लेकर निकलते हैं। कोई देता-वेता नहीं है।
डाल कर भिखमंगा अपनी झोली में रास्ते पर आकर, राजपथ पर खड़ा ही हुआ था, सोचता था किस दिशा में जाऊं, कि दिखा कि सामने ही सूरज निकलता है और राजा का स्वर्ण-रथ आ रहा है। राजा अपने रथ पर सवार है। सूर्य की किरणों में उसका रथ चमक रहा है। भिखमंगे के तो भाग्य खुल गए। उसने कभी राजा से भीख नहीं मांगी थी। राजाओं से भीख मांगना मुश्किल है। क्योंकि द्वार पर पहरेदार होते हैं, वे कभी भीतर प्रवेश नहीं करने देते। आज तो राजा रास्ते पर मिल गया है, आज तो झोली फैला दूंगा उसके सामने, शायद जन्म-जन्म के लिए मिल जाए, सब-कुछ मिल जाए, फिर आगे भीख न मांगनी पड़े। इन्हीं कल्पनाओं में सपने बनाता हुआ...और भिखमंगों के पास सिवाय सपनों के और कुछ भी नहीं होता; सपनों में ही जीना पड़ता है। क्योंकि जिनके पास कुछ नहीं है, वे सपने में ही जीने का रास्ता खोज लेते हैं। उसने महल बना लिए सपनों में राजा की भिक्षा से, वह महलों में निवास करने लगा सपने में और तभी रथ आकर खड़ा हो गया। सारे सपने टूट गए। और हैरान हो गया भिखारी, राजा नीचे उतरा और राजा ने अपनी झोली भिखारी के सामने फैला दी!
भिखारी ने कहा: क्या करते हैं आप?
राजा ने कहा: क्षमा करना, अशोभन है, लेकिन ज्योतिषियों ने कहा है कि राज्य पर खतरा है दुश्मन का और कहा है कि अगर मैं आज त्यौहार के दिन भीख मांगूं, जो पहला आदमी मुझे मिल जाए, तो राज्य खतरे से बच सकता है। तुम्हीं पहले आदमी हो। दुखी हूं, क्योंकि तुम भिखारी हो, तुमने कभी भिक्षा दी न होगी, इसलिए बड़ी मुश्किल पड़ेगी देने में। लेकिन कुछ भी थोड़ा सा दे दो। इनकार मत कर देना! पूरे राज्य के भाग्य का सवाल है।
भिखमंगा किस मुसीबत में पड़ गया होगा? उसने हमेशा मांगा था, दिया कभी भी न था। देने की कोई आदत न थी। झोली में हाथ डालता है, खोल-खोल बाहर निकाल लेता है। इनकार भी कर नहीं सकता। सामने राजा खड़ा है। पूरे राज्य के संकट का सवाल है। और खुद पर भारी संकट है, राज्य से भी बड़ा संकट। हाथ भीतर डालता है, मुट्ठी बंधती नहीं।
राजा कहता है: इनकार मत कर देना, क्योंकि ज्योतिषियों ने कहा है कि अगर पहले आदमी ने इनकार कर दिया तो संकट निश्चित है। तू एक दाना ही दे दे, लेकिन कुछ भी दे दे! भिखारी ने बामुश्किल एक चावल का दाना निकाल कर राजा की झोली में डाल दिया। राजा अपने रथ पर बैठा चला गया। धूल उड़ती रह गई। भिखारी के सब सपने धूल हो गए। उलटा मिला तो कुछ भी नहीं, पास से कुछ चला गया। उसका दुख आप जानते हैं?
दिन भर भीख मांगी, बहुत मिला उस दिन। बहुत मिला, इतना कभी भी न मिला था। लेकिन मन प्रसन्न न हुआ। क्योंकि जो मिलता है उससे प्रसन्न नहीं होता मन, जो छूट जाता है उससे दुखी होता है। वह एक दाना खटकता रहा जो दिया था। सबके मन की यही हालत है; क्योंकि सब छोटे-मोटे भिखारी हैं। जो छूट जाता है वह खटकता रहता है, जो मिल जाता है उसका पता ही नहीं चलता। भिखारी के मन का लक्षण यह है। जो मिल जाए उसका पता न चले, जो न मिले, जो छूट जाए, उसकी पीड़ा कसकती रहे।
वह घर पहुंचा है उदास। झोला पटक दिया। पत्नी तो पागल हो गई। इतना कभी न मिला था! झोला खोलने लगी...लेकिन पति को उदास देख कर कहा: उदास हैं आप?
पति ने कहा: तुझे पता नहीं पागल, झोली में थोड़ा कम है। आज थोड़ा देना भी पड़ा है! ऐसा जिंदगी में कभी न किया था, आज वह करना पड़ा है।
पत्नी ने झोला खोला। दाने बिखर गए और पति छाती पीट कर रोने लगा। अब तक उदास था, अब छाती पीट कर रोने लगा, आंसुओं की धार बहने लगी।
पत्नी ने पूछा: क्या हुआ?
पति ने नीचे के दाने उठाए, एक दाना सोने का हो गया था। एक चावल का दाना सोने का हो गया था। चिल्लाने लगा कि भूल हो गई! अवसर निकल गया। मैंने अगर सारे दाने दे दिए होते तो सब सोने के हो जाते। लेकिन अब कहां खोजूं उस राजा को? कहां मिलेगा वह रथ? और कहां सम्राट को राजी कर पाऊंगा कि वह भिक्षा मांगे? अवसर चूक गया है।
मुझे पता नहीं यह कहानी कहां तक सच है। लेकिन यह मुझे पता है कि जिंदगी के अंत में आदमी ने जो दिया है वही सोने का होकर वापस लौट आता है। जो दिया है वही स्वर्ण का हो जाता है, जो रोक लिया है वही मिट्टी हो जाता है।
प्रेम का अर्थ है--दान। प्रेम का अर्थ है--बांटना।
जितना बंट जाता है व्यक्तित्व, आत्मा उतनी ही स्वर्ण की हो जाती है। जितनी रुकावट आ जाती है, उतनी ही मिट्टी हो जाती है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं।
मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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