YOG/DHYAN/SADHANA

Ek Ek Kadam (एक एक कदम) 03

Third Discourse from the series of 7 discourses - Ek Ek Kadam (एक एक कदम) by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
एक आदमी परदेश गया था, एक ऐसे देश में जहां की वह भाषा नहीं समझता था और न उसकी भाषा ही दूसरे लोग समझते थे। उस देश की राजधानी में एक बहुत बड़े महल के सामने खड़े होकर उसने किसी से पूछा: यह भवन किसका है? उस आदमी ने कहा: कैवत्सन। उस आदमी का मतलब था: मैं आपकी भाषा नहीं समझा। लेकिन उस परदेशी ने समझा कि किसी कैवत्सन नाम के आदमी का यह मकान है। उसके मन में बड़ी ईर्ष्या पकड़ी उस आदमी के प्रति जिसका नाम कैवत्सन है। इतना बड़ा भवन था, इतना बहुमूल्य भवन था, हजारों नौकर-चाकर आते-जाते थे, सारे भवन पर संगमरमर था! उसके मन में बड़ी ईर्ष्या हुई कैवत्सन के प्रति। और कैवत्सन कोई था ही नहीं! उस आदमी ने सिर्फ इतना कहा था कि मैं समझा नहीं कि आप क्या पूछते हैं।
फिर वह आदमी घूमता हुआ बंदरगाह पर पहुंचा। एक बड़े जहाज से बहुमूल्य सामान उतारा जा रहा था, कारें उतारी जा रही थीं। उसने पूछा: यह सामान किसका उतर रहा है? एक आदमी ने कहा: कैवत्सन। उस आदमी ने कहा: मैं समझा नहीं कि आप क्या पूछते हैं?
उस परदेशी की ईर्ष्या और भी बढ़ गई। जिसका वह भवन था, उसी आदमी की ये बहुमूल्य कारें भी उतारी जा रही थीं! और वह आदमी था ही नहीं! उसका मन आग से जलने लगा। काश, वह भी इतना धनी होता! और जब वह रास्ते पर लौटता था--उदास, चिंतित, दुखी, ईर्ष्या से भरा हुआ--तो उसने देखा कि किसी की अरथी जा रही है और हजारों लोग उस अरथी के पीछे हैं। निश्चित ही, जो आदमी मर गया है वह बड़ा आदमी होगा! उसके मन में अचानक खयाल आया, कहीं कैवत्सन मर तो नहीं गया है! उसने राह चलते एक आदमी से पूछा कि कौन मर गया है? उस आदमी ने कहा: कैवत्सन। मैं समझा नहीं।
उस आदमी ने अपनी छाती पीट ली। निश्चित ईर्ष्या हुई थी उस आदमी से। लेकिन बेचारा मर गया! इतने बड़े महल! इतनी बढ़िया कारें! इतनी धन-दौलत! वह सब व्यर्थ पड़ी रह गई! वह आदमी मर गया जो आदमी था ही नहीं!
बहुत बार ऐसी ही हालत मुझे अपने संबंध में मालूम पड़ती है। ऐसा लगता है कि किसी परदेश में हूं। न आप मेरी भाषा समझते हैं, न मैं आपकी भाषा समझता हूं। जो कहता हूं, जब आपमें उसकी प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है तो बहुत हैरान हो जाता हूं, क्योंकि वह तो मैंने कभी कहा ही नहीं था! जब आप कुछ पूछते हैं तो जो मैं समझता हूं कि आपने पूछा है, जब मैं उत्तर देता हूं और आपकी आंखों में झांकता हूं तो पता चलता है, यह तो आपने पूछा ही नहीं था! एक अजनबी, एक आउटसाइडर, एक परदेशी की तरह मेरी हालत है।
लेकिन फिर भी कोशिश करता हूं समझाने की वह जो मुझे दिखाई पड़ता है। नहीं मेरी इच्छा है कि जो मुझे दिखाई पड़ता है उसे आप मान लें; क्योंकि जो आदमी भी किसी से कहता है कि मेरी बात मान लो, वह आदमी मनुष्य-जाति का दुश्मन है; क्योंकि जब भी मैं यह कहता हूं कि मेरी बात मान लो तब मैं यह कहता हूं, मुझे मान लो और अपने को छोड़ दो। और जो भी आदमी किसी से यह कहता है कि खुद को छोड़ दो और किसी दूसरे को मान लो, वह आदमी लोगों की आत्माओं की हत्या करता है। जितने लोग दूसरों को मनाने के लिए आतुर हैं वे सारे लोग मनुष्य-जाति के लिए खतरनाक सिद्ध होते हैं।
मैं नहीं कहता हूं कि मेरी बात मान लो; मानने का कोई सवाल नहीं है। मैं इतनी ही कोशिश करता हूं कि मेरी बात समझ लो। और समझने के लिए मानना जरूरी नहीं है। बल्कि जो लोग मान लेते हैं वे समझ नहीं पाते हैं। जो नहीं मानते हैं वे भी नहीं समझ पाते हैं। क्योंकि मानने और न मानने की जल्दी में समझने की फुर्सत नहीं मिलती है। जिस आदमी को समझना है उसे मानने और न मानने की आतुरता नहीं दिखानी चाहिए; उसे समझने की ही आतुरता दिखानी चाहिए।
मेरी बात को मानने से आपका कोई विकास नहीं होगा। किसी की बात मानने से किसी का कभी कोई विकास नहीं होता है; लेकिन किसी की भी बात समझने से जरूर विकास होता है। क्योंकि जितना आप समझने की कोशिश करते हैं उतनी आपकी समझ विकसित होती है। लेकिन हम सारे लोग उत्सुक होते हैं मानने या न मानने को। क्योंकि समझने में श्रम करना पड़ता है, मानने न मानने में श्रम की कोई भी जरूरत नहीं पड़ती।
और हम मानसिक रूप से इतने आलसी हो गए हैं कि हम मन से कोई भी श्रम नहीं करना चाहते हैं। इसीलिए दुनिया में इतने अनुयायी दिखाई पड़ते हैं; दुनिया में इतने वाद, इतने इज्म दिखाई पड़ते हैं। इसीलिए दुनिया में इतने गुरु दिखाई पड़ते हैं, इतने शिष्य दिखाई पड़ते हैं। जिस दिन मनुष्य मानसिक श्रम करने को राजी होगा, इस दुनिया में कोई अनुयायी नहीं होगा, कोई वाद नहीं होगा, कोई गुरु, कोई शिष्य नहीं होगा।
जब तक हम मानसिक रूप से श्रम करने को राजी नहीं हैं तब तक दुनिया में ये सब नासमझियां जारी रहेंगी। क्योंकि जो लोग भी श्रम नहीं करना चाहते वे किसी दूसरे के श्रम पर ही आधारित होना चाहते हैं। यह भी एक तरह का शोषण है। मैं सोचूं और आप मान लें, तो आपने मेरा शोषण किया। मैं सोचूं और आपको जबर्दस्ती मना दूं, तो मैं आपका शोषण कर रहा हूं। और दुनिया में आर्थिक शोषण इतना ज्यादा नहीं है जितना मानसिक और आध्यात्मिक शोषण है। पैसे का शोषण इतना बड़ा नहीं है, क्योंकि किसी का पैसा छीन लेने से आप उसका कुछ भी नहीं छीनते हैं, लेकिन जब किसी आदमी की आत्मा छिन जाती है तो उसका सब-कुछ छिन जाता है।
सारी दुनिया आध्यात्मिक रूप से एक गुलामी में है और उस गुलामी का कारण है एक मानसिक आलस्य, एक मेंटल लेथार्जी। भीतर हम कुछ भी नहीं करना चाहते हैं। इसलिए कोई भी जोर से कह दे कि मेरी बात मानो, मैं भगवान हूं; या चार नासमझों को इकट्ठा कर ले और बाजार में डुंडी पिटवा दे कि बहुत बड़े महात्मा गांव में आ रहे हैं, तो हम मानने को एकदम तैयार हो जाते हैं। हम मानने को तैयार ही बैठे हैं--कोई आ जाए और हमें कहे कि मैं ठीक हूं; जोर से कहना चाहिए; और वस्त्र उसके रंगे हुए होने चाहिए; और उसके आस-पास प्रचार की हवा होनी चाहिए; फिर हम मानने को तैयार हो जाते हैं।
क्या हम सोचने को कभी भी तैयार नहीं होंगे? मनुष्य-जाति का जन्म ही नहीं होगा अगर मनुष्य सोचने को तैयार नहीं होता है। लेकिन हम सोचने को बिलकुल तैयार नहीं हैं।
मेरा कोई भी आग्रह नहीं है कि मैं जो कहता हूं उसे मानें; और इसलिए न मानें इसका भी आग्रह नहीं है। आग्रह कुल इतना है कि जो मैं कहता हूं उसे सुनें, समझें। वही मुश्किल हो गया है, क्योंकि भाषा ही ऐसी मालूम पड़ती है। मैं कोई और भाषा बोलता हूं, आप कोई और भाषा समझते हैं।
एक गांव मैं गया हुआ था। एक मित्र आए और कहने लगे: लोकतंत्र के संबंध में आपका क्या खयाल है? डेमोक्रेसी के बाबत आप क्या सोचते हैं? मैंने कहा: जिसे तुम लोकतंत्र कहते हो अगर यही लोकतंत्र है, तो इससे तो बेहतर है कि मुल्क तानाशाही में चला जाए। उन्होंने जाकर गांव में खबर कर दी कि मैं तानाशाही को पसंद करता हूं।
यह ऐसे ही हुआ कि जैसे कोई बीमार आदमी मेरे पास आए खांसता-खंखारता और मुझसे पूछे कि मैं क्या करूं, तो उससे मैं कहूं: इस तरह बीमार जिंदा रहने की बजाय तो बेहतर है कि तुम मर जाओ और वह आदमी गांव में खबर कर दे कि मेरा मानना यह है कि सब लोगों को मर जाना चाहिए। लौट कर उस गांव में पता चला, तो पता चला कि मैं लोकतंत्र का दुश्मन हूं और तानाशाही के पक्ष में हूं। और यही नहीं, यह भी पता चला कि मैं खुद ही तानाशाह होना चाहता हूं। तब सिवाय इसके मानने के क्या रास्ता रहा कि भाषाएं शायद हम दो तरह की बोल रहे हैं!
मुझसे ज्यादा लोकतंत्र को प्रेम करने वाला आदमी खोजना थोड़ा मुश्किल है। मैं तो लोकतंत्र को इतना प्रेम करता हूं कि चाहता हूं कि दुनिया में कोई तंत्र ही न रह जाए; क्योंकि जब तक तंत्र है, तब तक लोकतंत्र नहीं हो सकता है। कोई भी तंत्र होगा ऊपर तो आदमी को गुलाम बनाएगा--कम या ज्यादा। लेकिन तंत्र होगा तो गुलाम बनाएगा। तंत्र होगा, शासन होगा, तो आदमी किसी न किसी तरह की गुलामी में रहेगा; कम और ज्यादा दूसरी बात है। जिस दिन तंत्र नहीं होगा उसी दिन जगत में ठीक लोकतंत्र होगा। जिस दिन शासन नहीं होगा उसी दिन दुनिया में ठीक शासन आया, ऐसा कहना चाहिए।
लेकिन मुझे उस गांव में जाकर पता चला कि मैं खुद ही तानाशाह होना चाहता हूं; मैं तानाशाही को पसंद करता हूं। न केवल अखबारों में यह खबर निकली है, एक सज्जन ने पूरी किताब ही लिख दी है इस बात के ऊपर कि मैं तानाशाह होना चाहता हूं। तब सिवाय इसके कि हम अलग-अलग भाषाएं बोल रहे हैं और क्या कहा जा सकता है!
मैं एक गांव में ठहरा हुआ था। जिस घर में रुका हुआ था उस गांव के कलेक्टर की पत्नी मुझसे मिलने आई। जब कॉलेज में पढ़ता था तो वह महिला मेरे साथ पढ़ती थी। सर्दी की रात थी, मैं कंबल अपने पैरों पर डाले हुए बिस्तर पर बैठा था। वह मिलने आई, वह मुझसे गले मिल गई। न मालूम बचपन की और कॉलेज के दिनों की बहुत सी स्मृतियां सुनाने लगी। बैठ गई पलंग पर। मैंने उससे कहा कि सर्दी है। कंबल उसने अपने पैरों पर डाल लिया। हम दोनों उस पलंग पर कंबल डाले बैठे रहे।
दूसरे दिन सभा में एक आदमी ने चिट्ठी लिख कर मुझे पूछा कि कल रात एकांत में एक स्त्री के साथ, एक ही बिस्तर पर, एक ही कंबल में आप थे या नहीं? हां या न में जवाब दीजिए! और हम गोल-मोल उत्तर पसंद नहीं करते हैं, या तो हां कहिए या न कहिए।
मैंने कहा: बिलकुल था; हां।
घर लौट कर आया, घर के लोग कहने लगे: आप बिलकुल पागल हैं। आपने हां कहा, लोग क्या समझे होंगे! मैंने कहा: बात सच्ची थी, हम एक बिस्तर पर थे, एक ही कंबल में थे, रात भी थी, वे तो ठीक ही कह रहे थे। उन्होंने कहा: यह सवाल नहीं है कि वे क्या...उनका मतलब आप नहीं समझे। उनका मतलब बिलकुल दूसरा था। सारे गांव में क्या अफवाह उड़ रही है आपको पता नहीं है कि आप एक स्त्री के साथ, एक ही बिस्तर पर, एक ही कंबल में थे।
मैंने कहा: सिवाय इसके कि हम भाषाएं अलग बोलते हैं और क्या समझा जा सकता है? क्या समझा जा सकता है? इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है। फिर मुझसे लोग पूछते हैं कि जवाब दीजिए और जवाब गोल-मोल नहीं होना चाहिए, सीधा-सीधा होना चाहिए, वे हां और न में जवाब चाहते हैं। और तब मैं बहुत चकित भी होता हूं, रोता भी हूं और हंसता भी हूं। कैसे लोगों के साथ...!
तब मुझे याद आती है एक फकीर की। एक फकीर था, बोधिधर्म। वह हिंदुस्तान से चीन गया। लेकिन चीन में नौ वर्षों तक वह आदमी दीवाल की तरफ मुंह किए बैठा रहा। अगर आप उससे मिलने जाते तो बहुत अशिष्ट मालूम पड़ता वह आदमी, क्योंकि वह आपकी तरफ मुंह नहीं करता था, वह दीवाल की तरफ मुंह रखता था; आपकी तरफ पीठ रखता था। वह जब भी बैठता, दीवाल की तरफ मुंह करके बैठता। चीन का सम्राट वू उससे मिलने आया। उसने कहा: यह क्या बदतमीजी है? मैं तुम्हारे पीछे खड़ा हूं, तुम दीवाल की तरफ मुंह किए हो!
उस बोधिधर्म ने कहा कि हजारों अनुभवों के बाद इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि दीवाल की तरफ मुंह करना ठीक होता है; क्योंकि आदमी भी मुझे दीवाल की तरह मालूम पड़ते हैं; कोई सुनता ही नहीं! तो तुम्हारी तरफ मुंह करूं उसमें मुझे ज्यादा बदतमीजी मालूम पड़ती है; क्योंकि तुम आदमी कम और दीवाल ज्यादा मालूम पड़ते हो। और हो सकता है कि मेरी आंखों में तुम्हें खयाल आ जाए कि यह आदमी मुझे दीवाल समझ रहा है। तो मैं दीवाल की तरफ मुंह रखता हूं, जब कोई आदमी आएगा तो मैं उसकी तरफ मुंह कर लूंगा; लेकिन तुम दीवाल हो।
सम्राट वू ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि पहली बार एक आदमी मुझे मिला जिससे कुछ बात सुनने योग्य थी; लेकिन शायद मैं सुनने योग्य पात्र नहीं था इसलिए उसने मेरी तरफ मुंह नहीं किया।
बोधिधर्म ने ठीक किया। कई बार मुझे भी लगता है कि अगर यही खींचतान भाषा की जारी रहती है तो बजाय आपकी तरफ मुंह करने के दीवाल की तरफ मुंह कर लेना उचित होगा। लेकिन अभी मैं हार नहीं गया हूं और निराश नहीं हो गया हूं। अभी कोशिश जारी रखूंगा। मानना नहीं चाहता हूं कि आप दीवाल हैं। मानने का यही मन होता है कि आप भी एक मनुष्य हैं और भीतर एक विचारशील आत्मा हैं। आपकी सारी कोशिश के बावजूद भी आशा को जगाए रखता हूं और यह कोशिश करता हूं कि शायद किसी दिन बात सुनाई पड़ जाए। लेकिन अभी तो उलटा ही मालूम पड़ता है।
अभी गुजरात लौटा तो बड़ी गर्मी है। गांव-गांव में गया तो लोगों ने कहा: आप गांधी के दुश्मन हैं। तब मुझे बड़ा आश्र्चर्य हुआ! अगर गांधी के कोई दुश्मन हैं इस मुल्क में, तो गोडसे से भी ज्यादा गांधीवादी गांधी के दुश्मन हैं। गोडसे ने गांधी के शरीर की हत्या की, गांधीवादी गांधी की आत्मा की हत्या करने पर पूरी तरह उतारू हैं। गोडसे की गोली के बाद भी गांधी बच गए हैं पूरी तरह। गांधी को वह गोली नहीं लगी, नहीं लग सकती है; लेकिन गांधीवादी जो गांधी की जय-जयकार करके जिस तरह की गोलियां मार रहे हैं, गांधी का नाम भी पुंछ जाएगा। लेकिन वे ही लोग खबर करते हैं कि मैं गांधी का दुश्मन हूं।
तब मैं हैरान होता हूं कि गांधी से मेरी दुश्मनी क्या हो सकती है? कौन गवाह बनेगा? सिवाय गांधी के कोई गवाह नहीं बन सकता था इस मामले में। लेकिन गवाह वे लोग हैं जो गांधी की सब भांति हत्या कर रहे हैं।
यह आपको खयाल नहीं होगा कि दुनिया में आज तक...जीसस की हत्या उन लोगों ने नहीं की जिन्होंने उसे सूली पर लटकाया था। जीसस की हत्या की ईसाइयों ने, जो उनके अनुयायी हैं। और सुकरात को उन्होंने नहीं मारा जिन लोगों ने सुकरात को जहर पिलाया था। सुकरात को वे लोग मार सकते हैं जो सुकरात के शिष्य होने के खयाल में पड़ जाएं।
सुकरात मरने के करीब था, तो उसके एक मित्र क्रेटो ने, उसके एक शिष्य ने पूछा कि आपको सांझ जहर दे दिया जाएगा; हम आपको दफनाएंगे कैसे, इस संबंध में कुछ बताइए। सुकरात ने कहा: देखो मजा, वे मेरे दुश्मन हैं जो मुझे मारने की कोशिश कर रहे हैं और ये मेरे मित्र हैं जो मुझे दफनाने की कोशिश कर रहे हैं! यह देखो मजा कि मेरे मित्र मुझसे पूछते हैं कि दफनाएंगे कैसे! मित्र सदा यही पूछते हैं कि मर तो आप जाओगे, हम दफनाएंगे कैसे।
वे गांधीवादी गांधी को दफनाने की कोशिश कर रहे हैं। वे मित्र हैं उनके! सुकरात ने बड़े मजे की बात कही थी क्रेटो को। शायद ही क्रेटो समझ पाया हो, क्योंकि भाषाओं के भेद सदा हैं। सुकरात ने कहा था: पागल क्रेटो, तुम दफनाने की कोशिश करना, लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: तुम सब दफन हो जाओगे फिर भी मैं रहूंगा। और अगर कोई तुम्हें कभी याद भी रखेगा तो सिर्फ इसलिए कि तुमने सुकरात से प्रश्र्न पूछा था कि हम कैसे दफनाएंगे। और आज क्रेटो के बाबत इतना ही पता है कि उसने सुकरात से पूछा था, और कुछ भी पता नहीं है।
शिष्य दफनाते हैं गुरुओं को; अनुयायी दफनाते हैं नेताओं को; पीछे चलने वाले दफनाते हैं आगे चलने वालों को। क्यों ऐसा हो जाता है लेकिन?
इसके होने के पीछे कुछ कारण है। यह शायद आपको पता न हो, यह शायद खयाल में भी न हो कि जो आदमी भी किसी का अनुयायी बनता है, वह आदमी पहली तो बात है खतरनाक है, डेंजरस है। क्योंकि कोई बुद्धिमान आदमी कभी किसी का अनुयायी नहीं बनता है; सिर्फ बुद्धिहीन लोग अनुयायी बनते हैं। अनुयायियों की जमात बुद्धिहीनों की जमात है, स्टुपिडिटी की जमात है; जहां सारे बुद्धिहीन इकट्ठे हो जाते हैं।
मैंने सुना है, एक बार एक आदमी को सत्य मिल गया। शैतान के शिष्य भागे हुए शैतान के पास गए और उन्होंने कहा: क्या सो रहे हो, एक आदमी को सत्य मिल गया है! सब मुश्किल पड़ जाएगी। शैतान ने कहा: घबड़ाओ मत, जाकर गांव में खबर कर दो कि एक आदमी को सत्य मिल गया है, किसी को अनुयायी बनना हो तो बन जाओ। शैतान के शिष्यों ने कहा: इससे क्या फायदा होगा; हम ही प्रचार करें?
शैतान ने कहा कि मेरे हजारों साल का अनुभव यह है कि अगर किसी आदमी को सत्य मिला हो और उस आदमी को और उसके सत्य को खत्म करना हो तो अनुयायियों की भीड़ इकट्ठी कर दो। तुम जाओ, गांव-गांव में डुंडी पीट दो कि किसी आदमी को अगर सत्य गुरु चाहिए हो तो सत्य गुरु पैदा हो गया है। तो जितने मूढ़ होंगे वे भाग कर उसके आस-पास इकट्ठे हो जाएंगे और एक बुद्धिमान आदमी हजार मूढ़ों के बीच में क्या कर सकता है!
और यही हुआ। शैतान के शिष्यों ने गांव-गांव में खबर कर दी। जितने बुद्धिहीन जन थे वे सब इकट्ठे हो गए। और वह आदमी भागने लगा कि मुझे बचाओ। लेकिन उसे कौन बचाता! शिष्यों ने उसे जोर से पकड़ लिया। दुश्मन से आप बच सकते हैं, शिष्यों से कैसे बच सकते हैं? इसलिए अगर कभी किसी को सत्य मिल जाए तो अनुयायियों से सावधान रहना, शिष्यों से बचना। वे हमेशा तैयार हैं, शैतान उनको सिखा कर भेजता है।
गांधी जिंदगी भर चिल्लाते रहे कि मेरा कोई वाद नहीं है और अब गांधीवादी उनके वाद को सुव्यवस्था देने की कोशिश में लगे हैं। वे रिसर्च कर रहे हैं, शोध-केंद्र बना रहे हैं, स्कॉलरशिप्स दे रहे हैं, और कह रहे हैं कि गांधी के वाद का रेखाबद्ध रूप तय करो। गांधी के वाद को खड़ा किया जा रहा है। गांधी जिंदगी भर कोशिश करते रहे कि मेरा कोई वाद नहीं है।
सच बात तो यह है कि किसी भी विवेकशील आदमी का कोई वाद नहीं होता। विवेकशील आदमी प्रतिपल अपने विवेक से जीता है, वाद के आधार पर नहीं। वाद के आधार पर वे जीते हैं जिनके पास विवेक नहीं होता है।
वाद का क्या मतलब होता है?
वाद का मतलब होता है, तैयार उत्तर। जिंदगी रोज बदल जाती है, जिंदगी रोज नये सवाल पूछती है और वादी के पास तैयार उत्तर होते हैं। वह अपनी किताब में से उत्तर लेकर आ जाता है कि यह उत्तर काम करना चाहिए। जिंदगी रोज बदल जाती है, वादी बदलता नहीं, वादी ठहर जाता है।
जो महावीर पर ठहर गए हैं वे ढाई हजार वर्ष पहले ठहर गए हैं। ढाई हजार वर्ष में जिंदगी कहां से कहां चली गई और वादी महावीर पर ठहरा है। वह कहता है: हम महावीर को मानते हैं। जो कृष्ण पर ठहरा है वह साढ़े तीन, चार हजार वर्ष पहले ठहरा है। जो क्राइस्ट पर ठहरा है वह दो हजार साल पहले ठहरा है। वे वहां ठहर गए हैं; जिंदगी वहां नहीं ठहरी है, जिंदगी आगे बढ़ती चली गई है।
जिंदगी प्रतिपल बदल जाती है। जिंदगी रोज नये सवाल लाती है और वादी के पास बंधे हुए रेडीमेड उत्तर हैं। रेडीमेड कपड़े हो सकते हैं, रेडीमेड उत्तर नहीं हो सकते। वह बंधे हुए उत्तर को लेकर नये सवालों के सामने खड़ा हो जाता है। वह कहता है कि हमारे उत्तर सही हैं। तब ये उत्तर हारते चले जाते हैं। इसलिए वादी व्यक्ति के पास निरंतर हार आती है, कभी जीत नहीं आती। वादी हमेशा हार जाते हैं।
मैंने सुना है, जापान में एक छोटा सा गांव था। उस गांव में दो मंदिर थे। एक मंदिर उत्तर का मंदिर था, एक दक्षिण का मंदिर था। उन दोनों मंदिरों में पुश्तैनी झगड़ा था, दुश्मनी थी।
मंदिरों में हमेशा झगड़ा होता है, यह तो आप जानते हैं। दो मंदिरों में दोस्ती नहीं सुनी होगी। मंदिरों में कभी दोस्ती नहीं होती। अभी वे अच्छे दिन नहीं आए दुनिया में जब मंदिरों में दोस्ती होगी। अभी मंदिरों में झगड़ा होता है। अभी मंदिर खतरनाक हैं। अभी मंदिर धार्मिक नहीं हैं। जब तक मंदिर झगड़ा करवाते हैं तब तक वे धार्मिक कैसे हो सकते हैं? अभी दुनिया में सभी मंदिर अधर्म के अड्डे हैं, क्योंकि उनसे झगड़े की शुरुआत होती है।
उस गांव के दोनों मंदिरों में भी झगड़ा था। झगड़ा इतना ज्यादा था कि पुजारी एक-दूसरे का चेहरा भी देखना पसंद नहीं करते थे। दोनों पुजारियों के पास दो छोटे बच्चे थे--काम के लिए, सब्जी लाने के लिए, ऊपर का काम, सेवा करने के लिए। पुजारियों ने उन बच्चों को समझा दिया था कि कभी भूल कर दूसरे मंदिर की तरफ मत जाना और यह भी समझा दिया था कि दूसरे मंदिर का वह जो लड़का है उससे कोई दोस्ती मत करना। हमारी दुश्मनी बहुत प्राचीन है और प्राचीन चीजें बड़ी पवित्र होती हैं। तो इस पवित्र दुश्मनी को बाधा मत देना; कभी मिलना-जुलना मत।
लेकिन बच्चे बच्चे हैं। बूढ़े बिगाड़ने की कोशिश भी करते हैं तो भी एकदम से बिगाड़ तो नहीं देते। बच्चों को भी बिगड़ने में वक्त लग जाता है। बूढ़े तो बिगाड़ने की कोशिश करते हैं कि जन्म से ही बिगाड़ दें, लेकिन बिगाड़ते-बिगाड़ते वक्त लग जाता है। बच्चे थोड़े दिन तक नहीं बिगड़ते हैं, इनकार करते हैं। जिनमें, जिन बच्चों में जितनी जान होती है वे अपने मां-बाप से उतना लड़ते हैं कि बिगाड़ नहीं सकोगे हमें। लेकिन अक्सर मां-बाप जीत जाते हैं और बच्चे हार जाते हैं। अब तक तो ऐसा ही हुआ है, बच्चे अब तक नहीं जीत सके। लेकिन आगे आशा बांधनी चाहिए कि वह वक्त आएगा कि मां-बाप हारेंगे और बच्चे जीतेंगे; क्योंकि जब तक बच्चे नहीं जीतते हैं मां-बाप से, तब तक दुनिया के पुराने रोग समाप्त नहीं हो सकते। वे जारी रहेंगे। क्योंकि मां-बाप उस जहर को बच्चों में डाल देते हैं।
वे बूढ़े पुजारी भी उन बच्चों को समझाते थे कि कभी भूल कर देखना भी मत! लेकिन बच्चे बच्चे हैं, कभी-कभी मौके-बेमौके चोरी से छिप कर वे आपस में मिल लेते थे। चोरी से मिलना पड़ता था। दुनिया इतनी बुरी है कि यहां अच्छे काम भी चोरी से करने पड़ते हैं; अभी अच्छे काम खुलेआम करने की नौबत नहीं आ पाई है। बच्चों को चोरी से मिलना पड़ता था। लेकिन एक दिन एक पुजारी ने देख लिया कि उसका बच्चा दूसरे बच्चे से रास्ते पर मिल रहा है। वह पुजारी को आग लग गई।
हिंदू बाप को आग लग जाती है, मुसलमान बेटे से उसका बेटा मिल रहा हो। और बेटे से बेटा मिल रहा हो तब तो आग कम लगती है, अगर बेटी से बेटा मिल रहा हो तब आग बहुत लग जाती है। क्योंकि दो बेटों का मिलना उतना खतरनाक नहीं है, लेकिन एक बेटे और बेटी का मिलना बहुत खतरनाक हो सकता है। वह खतरनाक इतना हो सकता है कि हिंदू और मुसलमान दोनों उस खतरे में बह जाएं। इसलिए बेटी और बेटे को मिलने के लिए बिलकुल ही रुकावट है।
पुजारी ने देखा, वह क्रोध से भर गया और उस लड़के को बुलाया और कहा: तू उससे क्या बात कर रहा था? मैंने कितनी बार कहा कि उससे बात नहीं करनी है!
उस लड़के ने कहा: आज तो मुझे भी लगा कि आप ठीक कहते हैं कि उससे बात नहीं करनी है, क्योंकि आज मैं पराजित होकर लौटा हूं। मैंने उस लड़के से पूछा कि कहां जा रहे हो? उस लड़के ने कहा: जहां हवाएं ले जाएं। और मैं एकदम हैरान रह गया। उसने ऐसी मैटाफिजिकल, इतनी दार्शनिक बात कह दी कि जहां हवाएं ले जाएं। फिर मुझे कुछ सूझा ही नहीं कि आगे मैं क्या कहूं।
उस पुजारी ने कहा: यह बहुत खतरनाक बात है! हम कभी उस मंदिर के किसी आदमी से नहीं हारे। यह हार पहली है, कल उस लड़के को हराना पड़ेगा। तू कल उससे जाकर पूछना फिर कि कहां जा रहे हो? और जब वह कहे जहां हवाएं ले जाएं, तो उससे कहना कि अगर हवाएं रुकी हों और न चल रही हों तो फिर कहीं जाओगे कि नहीं? फिर वह भी घबड़ा जाएगा।
वह लड़का उत्तर तैयार लेकर जाकर रास्ते पर खड़ा हो गया। उत्तर तैयार!
उत्तर तैयार बुद्धिहीनता का लक्षण है। जिस आदमी के पास भी उत्तर तैयार है उससे ज्यादा ईडियट, उससे ज्यादा जड़बुद्धि का आदमी खोजना मुश्किल है। उत्तर तैयार होना ही मीडियाकर माइंड का लक्षण है। बुद्धिमान आदमी
के पास उत्तर कभी तैयार नहीं होते। वह प्रश्र्नों का साक्षात करता है और उत्तर जन्मते हैं, उत्तर तैयार नहीं होते।
पर उस लड़के ने उत्तर तैयार कर लिया और वह जाकर रास्ते पर खड़ा हो गया। अब वह तैयार अपना उत्तर रखे है कि कब वह आए और मैं पूछूं।
पंडित इसी तरह के होते हैं। सब उत्तर तैयार हैं।
वह लड़का आया रास्ते पर। तैयार उत्तर वाले लड़के ने पूछा कि मित्र, कहां जा रहे हो?
पूछने में उसे उत्सुकता नहीं थी, उसे उत्सुकता थी अपना उत्तर देने में। बहुत कम लोग हैं जिनकी उत्सुकता पूछने में होती है, बहुत अधिक लोग ऐसे ही हैं जिनको अपने उत्तर में उत्सुकता होती है। और जिन लोगों को उत्तर में उत्सुकता होती है, उनका पूछना सदा झूठा होता है।
उस लड़के ने कहा: कहां जा रहा हूं? जहां पैर ले जाएं!
अब बड़ी मुश्किल हो गई, क्योंकि उत्तर तैयार था! अब क्या करें, क्या न करें! वही उत्तर देना व्यर्थ हो गया है। क्रोध आया बहुत, अपने पर नहीं, इस लड़के पर कि बेईमान है! अपनी बात बदलता है! कल कहता था कि हवा जहां ले जाए, आज कहता है कि पैर जहां ले जाएं। बेईमान!
लेकिन लौट कर अपने गुरु को कहा कि वह लड़का तो बहुत बेईमान निकला। उस गुरु ने कहा कि उस मंदिर के लोग सदा से बेईमान रहे हैं। नहीं तो झगड़ा हमारा क्या है! ‘क्या वह उत्तर बदल गया?’ कहा: वह तो बदल गया।
जो बुद्धिहीन हैं उन्हें कभी खयाल ही नहीं आता कि जिंदगी रोज बदल जाती है। जिंदगी बड़ी बेईमान है। सिर्फ मुर्दे नहीं बदलते हैं, जिंदगी बदल जाती है। फूल बदल जाते हैं, पत्थर उनके नीचे वैसे ही पड़े रहते हैं, वे बिलकुल नहीं बदलते। पत्थर मन में सोचते होंगे कि बड़े बेईमान हैं ये फूल! सुबह खिलते हैं, दोपहर गिरने लगते हैं। क्या बेईमानी है! क्या बदलाहट मचा रखी है! सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ हो जाते हैं! हम पत्थरों को देखो, जैसे सुबह थे वैसे अब हैं। वैदिक युग से लेकर अब तक हम पत्थर ही हैं। ये फूलों का कोई भरोसा नहीं। इन फूलों का दिखता है कोई ठिकाना नहीं। इन फूलों के पास कोई आत्मा नहीं है। बस, बदल जाते हैं!
उस बच्चे ने कहा कि वह तो बदल गया, अब मैं क्या करूं? उसके गुरु ने कहा कि तुम्हें उसे हराना जरूरी है, मैं फिर तुझे उत्तर बताता हूं। तू तैयार करके अगली बार फिर जाना।
लेकिन फिर खयाल न आया कि तैयार उत्तर हार गया था। गुरु को खयाल आया कि वह उत्तर हार गया है। हार गया था तैयार उत्तर, लेकिन गुरु ने समझा कि वह खास उत्तर हार गया है। नासमझ यही समझते रहते हैं कि वह खास उत्तर हार गया तो दूसरा उत्तर काम आ जाएगा, लेकिन उन्हें पता नहीं कि तैयार उत्तर हमेशा हार जाते हैं। तैयार उत्तर हारता है; कोई उत्तर नहीं हारता।
दूसरे दिन उसने कहा कि जब वह पूछे कि जहां पैर ले जाएं तो उससे कहना कि भगवान न करे कि पैर से लंगड़े हो जाओ! अगर लंगड़े हो गए तो कहीं जाओगे कि नहीं?
वह लड़का खुश, फिर जाकर उसी रास्ते पर खड़ा हो गया। देख रहा है, प्रतीक्षा कर रहा है। वह लड़का उस मंदिर से निकला। उसने फिर उससे पूछा कि मित्र, कहां जा रहे हो?
उस लड़के ने कहा: साग-सब्जी लेने बाजार जा रहा हूं।
यह हमारा देश तैयार उत्तरों से पीड़ित है। यहां सब उत्तर तैयार हैं और कोई आदमी जिंदगी के किसी सवाल को सीधा एनकाउंटर, सीधा साक्षात करने के लिए तैयार नहीं है। वे चाहे उत्तर बुद्ध ने तैयार किए हों, चाहे महावीर ने, चाहे कृष्ण ने, चाहे अभी गांधी ने, वे उत्तर सब हमारे पास तैयार हैं और उन उत्तरों को पकड़ कर हम बैठे हैं। इस देश की आत्मा इसीलिए अविकसित रह गई है। इस देश की आत्मा इसीलिए पत्थर हो गई है। उसने फूल होने का गुण खो दिया है। उसने परिवर्तन की क्षमता खो दी है। वह ठहर गई है, अटक गई है, स्टैटिक हो गई है। और अगर कोई कहे कि छोड़ दो तैयार उत्तरों को, तो हम कहेंगे: हमारे महात्माओं को छीनते हो? हमारे गुरुओं को छीनते हो? हमारे तीर्थंकरों को छीनते हो? बड़े दुश्मन हो हमारे!
कोई आपके तीर्थंकर नहीं छीन रहा है; कोई आपके महात्मा नहीं छीन रहा है; लेकिन आप इतने जोर से पकड़े हुए हो कि आपको लगता है कि कहीं छिन न जाए। पकड़ने की वजह से यह डर पैदा होता है कि कहीं छिन न जाए! पकड़ना छोड़ दो, कोई तीर्थंकर नहीं छिनेगा, कोई महात्मा नहीं छिनेगा। वे अपनी हैसियत से कुछ हैं, आपके पकड़ने की वजह से कुछ भी नहीं हैं। लेकिन हम जोर से पकड़े हुए हैं। हम उनको सहारा समझे हुए हैं।
गांधी ने कुछ उत्तर दिए थे और गांधी एक अदभुत आदमी थे। मैं मानता हूं कि गांधी ने हिम्मत की थी, उनके पास तैयार उत्तर नहीं थे। हिंदुस्तान में अगर पिछले दो हजार वर्षों में किसी आदमी ने हिंदुस्तान के जीवन को गति दी तो वह आदमी गांधी था। और गति देने का एकमात्र कारण था कि उस आदमी के पास तैयार उत्तर नहीं थे। हिंदुस्तान के दूसरे सारे नेताओं के पास तैयार उत्तर थे, गांधी के पास तैयार उत्तर नहीं था। इसलिए गांधी हिंदुस्तान की जिंदगी में बड़े बेमौजूं थे।
हिंदुस्तान के सभी नेता गांधी से परेशान रहे। हिंदुस्तान के बड़े नेताओं ने गांधी के प्रति पीछे छिप कर हंसी और मजाक भी की कि यह आदमी गड़बड़ है, क्योंकि यह आदमी कब क्या कहेगा, कब क्या करेगा, इसका कोई भरोसा नहीं। यह आदमी बदल जाता है। यह आदमी सुबह कुछ कहता है, सांझ कुछ कहता है। पिछले वर्ष कुछ कहा था, इस वर्ष कुछ कहने लगता है। यह आदमी भरोसे के योग्य नहीं है। लेकिन गांधी, अकेले आदमी ने इस मुल्क को इतनी गति दी जितनी इस मुल्क के हजारों-लाखों महात्मा मिल कर इसको नहीं दे सकते थे।
कैसे दी इस आदमी ने गति?
इस आदमी के गति देने का बुनियादी सूत्र यह था कि इस आदमी के पास तैयार उत्तर नहीं था। यह आदमी जिंदगी को जीने की कोशिश किया; जिंदगी को सामना करने की कोशिश की। जिंदगी से जूझ कर जो उत्तर आया वह इस आदमी ने दिया। लेकिन वह उत्तर भी इसने कभी नहीं माना कि यह अल्टीमेट है, चरम है। इतना ही कहा कि अभी यह सूझता है। कल दूसरा भी सूझ सकता है, परसों तीसरा भी सूझ सकता है।
हिंदुस्तान के किसी महात्मा ने कभी इस तरह की भाषा नहीं बोली थी, हिंदुस्तान के महात्मा हमेशा चरम भाषा बोलते हैं। वे कहते हैं कि यह आखिरी उत्तर है, यह सर्वज्ञ की वाणी है। बस इसके आगे अब कुछ भी नहीं है, यह अंतिम हो गया।
गांधी ने बड़ी हिम्मत की और कहा कि यह सर्वज्ञ की वाणी नहीं है, एक खोजी की वाणी है; एक खोजने वाले की। इसलिए अपनी किताब को नाम दिया: ‘सत्य के प्रयोग।’ सत्य की उपलब्धि नहीं, एक्सपेरिमेंट्‌स विद ट्रूथ। भूल-चूक की संभावना है प्रयोग में। भूल-चूक की संभावना को स्वीकार किया।
इस आदमी ने एक अदभुत काम किया। हम इस आदमी के पीछे फिर पड़ गए हैं कि इसने जो अदभुत काम किया था उसको खत्म कर दें, उसकी हत्या कर दें। हम कहते हैं: गांधी का वाद बनाएंगे, हम उत्तर तैयार रखेंगे। जो गांधी ने उत्तर दिया था वही उत्तर हम आगे भी देंगे। बस गांधी की हत्या शुरू हो गई। गांधी का वाद यानी गांधी की हत्या। जिस आदमी का वाद बनाओगे उसी की हत्या हो जाएगी।
और लोग मुझसे कहते हैं कि मैं गांधी का दुश्मन हूं! गांधी का दुश्मन कौन है? जितने लोग गांधी का लेबल लगा कर खड़े हुए हैं वे सब गांधी के दुश्मन हैं। गांधी के लेबल की बिलकुल जरूरत नहीं है, गांधी की जिंदगी को समझने की जरूरत है। और अगर समझेंगे तो पहला सूत्र, पहला सूत्र यह समझ में आएगा कि गांधी के पास तैयार उत्तर नहीं हैं और हमारे पास भी तैयार उत्तर नहीं होने चाहिए। हम भी इस जिंदगी को समझें, और देखें, और पहचानें।
हिंदुस्तान के सारे जगत में पिछड़ जाने के बुनियादी कारणों में से एक कारण यह है। दुनिया में किसी कौम ने अपने उत्तर तैयार नहीं रखे हैं। उन्होंने उत्तर छोड़ने शुरू कर दिए हैं, वे नये उत्तर की खोज में हैं। और हम? हमें जब भी जिंदगी में सवाल उठेगा, भागेंगे फौरन कृष्ण के पास, भागेंगे फौरन महावीर के पास कि क्या है उत्तर। हमारी अपनी कोई आत्मा नहीं है? हमारे पास अपना कोई विकासशील चित्त नहीं है? हमारे देश के पास अपनी कोई क्षमता नहीं है कि हम जिंदगी को समझें और जवाब दें?
नहीं, लेकिन इसमें डर रहता है, नये उत्तर में डर रहता है, भूल हो सकती है। पुराने उत्तर में कोई डर नहीं रहता, भूल नहीं होती।
लेकिन ध्यान रखें कि जो कौम भूल करने की क्षमता खो देती है वह कौम मर जाती है। भूल करने की क्षमता जीवन का लक्षण है। इसलिए मैं कहता हूं कि रोज भूल करना, भूल करने से मत डरना। हां, एक ही भूल दुबारा मत करना, क्योंकि बंधी हुई भूल भी बंधा हुआ उत्तर हो जाती है। जिंदगी तो एक एडवेंचर है, एक खोज है, एक साहस की खोज है, एक अभियान है, जहां बहुत भूलें होंगी। भूलों से हम सीखेंगे और आगे बढ़ेंगे। अगर हमने भूलें ही नहीं कीं तो फिर हम सीखेंगे नहीं और आगे नहीं बढ़ेंगे।
और इसलिए हम सुरक्षा चाहने वाले लोग किसी को पकड़ लेते हैं और कहते हैं: तुम्हारे उत्तर सदा के लिए हो गए, अब हम दुबारा नये उत्तर न खोजेंगे। नये उत्तरों में खतरा रहता है, असुरक्षा रहती है, भूल हो सकती है। महात्मा का दिया हुआ उत्तर है, इसको जोर से पकड़ लो। महात्माओं के दिए ताबीज हम पकड़ते थे, वह इतना खतरनाक नहीं था; क्योंकि महात्माओं के ताबीज बिलकुल बेकार हैं, उनसे कोई खतरा नहीं है। लेकिन महात्माओं के दिए उत्तर अगर मुल्क ने पकड़े, तो मुल्क का विकास अवरुद्ध हो जाएगा; मुल्क आगे नहीं जा सकता है।
मैं गांधी का दुश्मन नहीं हूं। गांधी से जैसा मेरा प्रेम है, बहुत कम लोगों का हो सकता है। लेकिन...लेकिन प्रेम को प्रकट करने का हम एक ही रास्ता जानते हैं कि किसी आदमी की पत्थर की मूर्ति बना कर उस पर फूल चढ़ाओ। प्रेम का हम एक ही रास्ता जानते हैं कि पूजा करो। प्रेम का हम एक ही रास्ता जानते हैं कि किसी आदमी को भगवान बना दो, बस प्रेम पूरा हो गया। और मैं आपसे कहता हूं कि यह प्रेम का रास्ता नहीं है, यह किसी आदमी से बचने की तरकीब है।
जिस आदमी से बचना हो उसको भगवान बना दो। भगवान होते ही हमारी झंझट के बाहर हो गया। हम आदमी रह गए, वह भगवान हो गया। हमारे उसके बीच फिर कोई कम्युनिकेशन, कोई संवाद का वाहन नहीं रहा, कोई बीच का माध्यम नहीं रहा। वह भगवान हो गया, बात खत्म हो गई। हमने पहले भी अच्छे आदमियों से इसी तरह छुटकारा पाया है। कृष्ण को भगवान बना दिया, मामला खत्म हो गया। महावीर को तीर्थंकर बना दिया, मामला खत्म हो गया। फिर महावीर जो करते हैं, हम कह सकते हैं कि वे तीर्थंकर हैं इसलिए करते हैं; हम साधारण आदमी हैं, हम क्या कर सकते हैं! हम सिर्फ पूजा कर सकते हैं।
कृष्ण? कृष्ण भगवान के अवतार हैं। राम भगवान के अवतार हैं। वे कुछ भी कर सकते हैं। लीला है उनकी, वे सब कर सकते हैं। हम? हम साधारण आदमी हैं, हम क्या कर सकते हैं! राम से बचने की तरकीब देखी आपने? कृष्ण से बचने की तरकीब देखी? बड़ा कनिंग, बड़ा चालाकी से भरा हुआ रास्ता खोजा हमने। और वह चालाकी यह है कि आदमी को भगवान बना दो, अपनी सीमा के बाहर खदेड़ दो। उस आदमी को हमने आदमियत के बाहर कर दिया। और आदमियत के जो बाहर हो गया, उससे फिर हमारा कोई लेन-देन नहीं रह जाता। सिर्फ एक लेन-देन रहता है कि पूजा कर लेते हैं, वर्ष में कभी एक दिन त्यौहार मना लेते हैं, शोरगुल मचा देते हैं, बात खत्म हो जाती है। उस आदमी से हमें कुछ प्रयोजन नहीं रहता।
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि गांधी को भगवान नहीं बनने देना है। बड़ी कोशिश करनी है कि गांधी भगवान न बन जाएं, ताकि गांधी इस देश के काम आ सकें। गांधी को आदमी ही रहने देना है। लेकिन गांधी के पीछे चलने वाले लोग बड़ी
कोशिश में लगे हैं उन्हें भगवान बनाने में। भगवान बनाने से हमारा उनसे छुटकारा हो जाएगा। पूजा करना किसी आदमी की, बस यह मान लेना है कि यह आदमी नहीं था और हम आदमी हैं। हम आदमी हैं और यह आदमी नहीं था, बस बात खत्म हो गई।
हिंदुस्तान ने अपने सब श्रेष्ठ पुरुषों को भगवान बना कर बिठाल दिया, इसलिए हिंदुस्तान का आदमी श्रेष्ठ नहीं हो सका। हिंदुस्तान के आदमी को देखते हैं? जहां इतने बड़े लोग हुए वहां का आदमी इतना छोटा और दीन-हीन क्यों है? कभी इस पर कोई विचार किया आपने? जहां महावीर होते हों, जहां बुद्ध चरण रखते हों, जहां गांधी जैसे अदभुत आदमी के फूल खिलते हों, जहां करोड़ों-अरबों अदभुत लोग पैदा हुए हों, वहां की मनुष्यता की क्या हालत है! वहां का मनुष्य कैसा दीन-हीन और जमीन पर रेंगता हुआ है!
हमको शर्म भी नहीं आती जब हम कहते हैं कि हम बुद्ध, महावीर और कृष्ण और राम के देश के लोग हैं! हमको शर्म भी नहीं आती। हमें देख कर शक होता है कि न कभी राम हुए होंगे, न कभी बुद्ध हुए होंगे, न कभी कृष्ण हुए होंगे। हमें देख कर सबूत नहीं मिलता उनके होने का। हमें देख कर ऐसा लगता है कि ये सब कहानियां हैं मनगढ़ंत। हमें देख कर क्या सबूत मिलता है? हमें देख कर सबूत मिलता है कि महावीर पैदा हुए होंगे हमारे बीच? नहीं साहब, महावीर की वजह से आप बड़े नहीं हो सकते, आपकी वजह से महावीर छोटे हो सकते हैं; क्योंकि आप बहुत हैं, महावीर बिलकुल एक हैं।
लेकिन यह दुर्भाग्य कैसे हुआ?
यह दुर्भाग्य ऐसे हुआ कि जिन लोगों के कारण यह मनुष्यता ऊपर उठ सकती थी उनको हमने मनुष्यता के बाहर कर दिया। और तब हम अपनी मनुष्यता के घेरे में छोटे रहने में सुखी हो गए, हम छोटे रहने में तृप्त हो गए, छोटा रहना हमारी नियति हो गई। कुछ लोगों का बड़ा होना नियति है, हमारा छोटा होना नियति है।
हिंदुस्तान को अपने सब भगवानों को नीचे उतार कर मनुष्य की भूमि पर खड़ा करना पड़ेगा। महावीर को उतार लाना पड़ेगा अपने बीच कि वे हमारी भीड़ में खड़े हो जाएं। इससे महावीर छोटे नहीं होंगे, इससे हमारे बड़े होने की संभावना बढ़ती है।
यह दुर्भाग्य, यह बहुत ही अभागी स्थिति है इस देश की कि जहां इतने अदभुत लोग हों वहां की आदमियत इतनी छोटी हो! क्या कारण है?
और कभी-कभी मैं सोचता हूं कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये इतने-इतने बड़े लोग इसीलिए इतने बड़े दिखाई पड़ते हैं कि हम बहुत छोटे हैं! जैसे स्कूल में काली तख्ती रहती है, ब्लैक-बोर्ड; सफेद खड़िया से शिक्षक उस पर लिखता है, सफेद दीवाल पर नहीं लिखता। सफेद दीवाल पर भी लिखेगा तो लिख तो जाएगा लेकिन दिखाई नहीं पड़ेगा। दिखाई पड़ेगा काले ब्लैक-बोर्ड पर सफेद खड़िया का लिखा हुआ। कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये महात्मा इतने बड़े महात्मा दिखाई पड़ते हैं हमारे ब्लैक-बोर्ड पर! यह दीन-हीन लोगों का जो इतना बड़ा समूह है इसमें एक आदमी बड़ा होकर दिखाई पड़ने लगता है, क्योंकि वह सफेद और हमारा ब्लैक-बोर्ड, उसमें वह बहुत बड़ा हो जाता है।
दुनिया में किसी देश में इतने महापुरुष पैदा नहीं होते जितने हमारे यहां पैदा होते हैं। इसमें कुछ शक की बात है। इसमें पहली शक की बात यह है कि हमारी मनुष्यता बहुत नीची है। इसलिए एक आदमी जरा ही ऊपर उठता है तो बहुत बड़ा दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। और हमारी मनुष्यता इतनी नीची है कि हम उस आदमी का खूब गुणगान करने लगते हैं। क्यों? क्योंकि उस गुणगान में भी हम अपने अहंकार को तृप्ति देने की कोशिश करते हैं।
गांधी जी गोलमेज कांफ्रेंस में इंग्लैंड गए थे। गांधी जी के एक सेक्रेटरी बर्नार्ड शॉ को मिलने गए। बर्नार्ड शॉ से उन्होंने पूछा...
शिष्य हमेशा ही ऐसा पूछते हैं। शिष्य हमेशा पूछते हैं कि हमारे महात्मा के बाबत क्या खयाल है? महात्मा की फिकर नहीं होती, फिकर इस बात की होती है कि अगर हमारा महात्मा बड़ा है तो हम बड़े महात्मा के बड़े शिष्य हैं! जो मजा...मजा बहुत दूसरा होता है।
सेक्रेटरी ने बर्नार्ड शॉ से पूछा कि महात्मा गांधी के बाबत आपका क्या खयाल है, आप उनको महात्मा मानते हैं? वह बर्नार्ड शॉ तो बहुत अदभुत आदमी था। उसने कहा: महात्मा? महात्मा मानता हूं, लेकिन नंबर दो; नंबर एक का तो मैं ही हूं।
सेक्रेटरी बहुत हैरान हुए होंगे, बहुत हैरान हो गए कि ऐसा आदमी, कैसा आदमी है यह! यह कहता है कि नंबर एक का मैं हूं और नंबर दो के गांधी हैं! और दो ही महात्मा हैं दुनिया में, ज्यादा भी नहीं हैं; लेकिन वे नंबर दो, नंबर एक मैं हूं।
बहुत दुखी लौटे और गांधी को आकर कहा कि बर्नार्ड शॉ तो बहुत अजीब सा आदमी मालूम पड़ता है, बहुत अहंकारी मालूम पड़ता है। मैंने पूछा तो उसने यह कहा कि मैं नंबर एक हूं, आप नंबर दो। गांधी ने कहा कि वह ठीक कहता है, वह सच्चा आदमी है, सबके मन में खयाल तो यही रहता है कि नंबर एक हम हैं। लेकिन कहने की हिम्मत लोग कम जुटा पाते हैं। उसने ठीक बात कह दी।
और इस आदमी को चोट क्यों लगी गांधी के नंबर दो होने से? चोट लगी इसलिए कि नंबर दो महात्मा के शिष्य हो गए। जब आदमी के पास कुछ नहीं रह जाता तो झूठे सब्स्टीट्यूट खोजता है ऊंचे होने के। हम चिल्लाते हैं कि हमारा महावीर, हमारा बुद्ध बहुत महान हैं। क्यों? क्योंकि हमारा है। और हमारा है तो हम भी उसके साथ महान होने का मजा ले लेते हैं। आदमी की तरकीबें अहंकार की बहुत अदभुत हैं।
एक आदमी पेरिस विश्र्वविद्यालय में फिलॉसफी का प्रोफेसर था। और उसकी बात मुझे इतनी प्रीतिकर लगती है। एक दिन सुबह ही आकर उसने अपनी क्लास के विद्यार्थियों को कहा कि तुम्हें कुछ खबर मिली, मुझसे बड़ा आदमी इस दुनिया में दूसरा नहीं है। विद्यार्थी समझे कि दिमाग खराब हो गया। एक तो फिलॉसफी की तरफ दिमाग खराब लोग ही उत्सुक होते हैं, और इनका डर रहता ही है कि कभी भी दिमाग खराब हो जाए। असल में जो दिमाग से काम करेगा उसी के तो खराब होने का डर रहता है। जो दिमाग से काम ही नहीं करेंगे उनका खराब कैसे होगा। लड़के समझे कि दिमाग गड़बड़ हो गया, बेचारा गरीब प्रोफेसर है, यह दुनिया का सबसे बड़ा आदमी कैसे हो गया।
राजनीतिज्ञ अगर दुनिया में कहते फिरते हैं कि हमसे बड़ा कोई भी नहीं है, तो कोई नहीं फिकर करता उनकी, क्योंकि उनका दिमाग खराब होता ही है। लेकिन दर्शन का प्रोफेसर कहने लगे! तो लड़कों ने पूछा कि आप कह रहे हैं यह! आप दुनिया के सबसे बड़े आदमी हैं?
उसने कहा: न मैं केवल कह रहा हूं, मैं सिद्ध कर सकता हूं। क्योंकि मैं बिना सिद्ध किए कोई बात कहता ही नहीं हूं।
उन्होंने कहा: तो आप कृपा करें और सिद्ध कर दें।
लड़कों को बहुत कठिनाई थी कि वह कैसे सिद्ध करेगा! लेकिन उन्हें पता नहीं, उस प्रोफेसर ने बड़ा व्यंग्य किया, बड़ा मजाक किया। दुनिया में कुछ अच्छे लोग बड़े व्यंग्य कर जाते हैं, लेकिन फिर भी हमें पता नहीं चलता।
उस आदमी ने, उस प्रोफेसर ने उठ कर बोर्ड पर गया जहां दुनिया का नक्शा लटका हुआ था। और विद्यार्थियों को कहा कि इस बड़ी दुनिया में सबसे श्रेष्ठ देश कौन सा है? सभी फ्रांस के रहने वाले थे, उन्होंने कहा: फ्रांस। स्वभावतः, फ्रांस में रहने वाला आदमी यही समझता है कि फ्रांस सबसे बड़ा देश है, क्योंकि फ्रांस में रहने वाला यह कैसे मान सकता है कि जहां वह रहता है वह देश बड़ा न हो! जहां वह रहता है वह देश तो बड़ा होना ही चाहिए। इतना बड़ा आदमी जहां रहता है! फ्रांस सबसे बड़ा देश है।
उस प्रोफेसर ने कहा: तो फिर बाकी दुनिया की बात खत्म हो गई। अब अगर मैं सिद्ध कर दूं कि फ्रांस में मैं सबसे बड़ा हूं तो मैं सिद्ध हो जाऊंगा कि दुनिया में सबसे बड़ा हूं।
तब भी विद्यार्थी नहीं समझ पाए कि वह कहां ले जा रहा है।
फिर उसने कहा कि फ्रांस में सबसे श्रेष्ठ नगर कौन सा है?
तब विद्यार्थियों को शक हुआ। वे सभी पेरिस के रहने वाले थे। उन्होंने कहा: पेरिस।
तब उन्हें थोड़ा शक हुआ कि मामला गड़बड़ हुआ जाता है।
उस प्रोफेसर ने कहा: और पेरिस में सबसे श्रेष्ठ स्थान कौन सा है?
निश्चित ही, विद्या का केंद्र, विश्र्वविद्यालय, युनिवर्सिटी।
तो उसने कहा: अब युनिवर्सिटी ही रह गई सिर्फ। और युनिवर्सिटी में सबसे श्रेष्ठ सब्जेक्ट, सबसे बड़ा विषय कौन सा है?
‘फिलॉसफी’, दर्शनशास्त्र।
और उसने कहा: मैं दर्शनशास्त्र का हेड ऑफ दि डिपार्टमेंट हूं। मैं दुनिया का सबसे बड़ा आदमी हूं!
आदमी का अहंकार कैसे-कैसे रास्ते खोजता है! जब आप कहते हैं: हिंदू धर्म सबसे बड़ा है तो भूल कर यह मत सोचना कि आपको हिंदू धर्म से कोई मतलब है, आपको मतलब खुद से है। आप हिंदू हैं और हिंदू धर्म को महान कह कर अपने को महान कहने की तरकीब खोज रहे हैं। और जब आप कहते हैं कि हमारा भगवान सबसे बड़ा और हमारा महात्मा सबसे बड़ा, तो आपको न भगवान से कोई मतलब है, न महात्मा से कोई मतलब है। आप कहते हैं कि मेरा महात्मा, मैं इतना बड़ा आदमी हूं कि मेरा महात्मा छोटा कैसे हो सकता है?
यह जो दुनिया में झगड़ा है हिंदू-मुसलमान का, ईसाई का, जैन का, बौद्ध का, सिक्ख का, यह झगड़ा महात्माओं का झगड़ा नहीं है, यह महात्माओं के आधार पर बड़े होने वाले लोगों के अहंकार का झगड़ा है।
इसलिए जब अगर मैं कहूं कि महात्मा गांधी को नीचे लाना है, नहीं ले जाना है स्वर्ग पर, वे पृथ्वी के बड़े काम के हैं; उनकी जड़ें पृथ्वी में ही रखना है, नहीं ले जाना है स्वर्ग में। जब मैं कहूं महावीर को पृथ्वी से जोड़ना है, तो हमें बड़ा कष्ट होता है। क्योंकि हम उनको आकाश में समझ कर अपने को भी आकाश में समझने का जो सपना देख रहे थे वह टूट जाता है।
नहीं, मैं गांधी का दुश्मन नहीं हूं। मैं चाहता हूं, गांधी इस पृथ्वी के नमक बनें। मैं चाहता हूं कि गांधी पर हम सोचें, मैं चाहता हूं गांधी से हम सीखें। गांधी को मानें नहीं, गांधी से सीखें। और गांधी से अगर कोई बड़ी से बड़ी बात सीखी जा सकती है तो वह यह कि जिंदगी रोज नये उत्तर मांगती है, जिंदगी रोज नई चेतना मांगती है, जिंदगी बंधी हुई धाराओं में नहीं रुकना चाहती है। और जो कौम रुक जाती है, वह जिंदगी से पिछड़ जाती है और मर जाती है।
भारत एक मरा हुआ देश है। हमारा जो अस्तित्व है वह पोस्थुमस है, मरने के बाद का है। हम हजारों साल से मुर्दे की तरह जी रहे हैं। हमने जिंदगी की धारा खो दी है। रूस के बच्चों से पूछो जाकर कि क्या कर रहे हो? तो बच्चे सोच रहे हैं कि चांद पर कैसे बस्ती बसाएं? अमरीका के बच्चों से पूछो, तो वे सोच रहे हैं कि अंतरिक्ष में कैसे उपनिवेश बसेंगे? और हमारे बच्चों से...हमारे बच्चे रामलीला देख रहे हैं। आंख पीछे की तरफ लगी है।
राम बहुत प्यारे हैं, लेकिन रामलीला देख कर जो कौम रुक जाती है, वह मर जाती है। अभी और रामलीलाएं होंगी। अभी भविष्य में और राम पैदा होंगे, पुराने रामों से बहुत नये। भगवान थक नहीं गया है। और भगवान और नये राम पैदा करेगा। और भगवान कभी भी पुरानी चीज को दोहराता नहीं, हमेशा श्रेष्ठतर को पैदा करता चला जाता है। अभी और रामलीलाएं होंगी अंतरिक्ष के न मालूम किन तारों पर, न मालूम किन ग्रहों पर! लेकिन वे रामलीलाएं अमरीका और रूस के बच्चे देखेंगे। हमारे बच्चों को वह सौभाग्य नहीं मिल सकता है। हमारे बच्चे तो तृप्त हैं, अतीत की रामलीला को देख कर ही शांत हो जाते हैं।
मैं चाहता हूं, यह अतीतोन्मुखी देश भविष्योन्मुखी हो जाए। मैं चाहता हूं, ये आंखें जो पीछे की तरफ जकड़ कर खड़ी रह गई हैं, ये आगे की तरफ देखने लगें।
भगवान ने बड़ी गलती की है कि हमारी आंखें आगे की तरफ लगाईं। अगर वह चेंथी पर पीछे लगा देता तो हम बड़े खुश होते, क्योंकि आगे
हमको देखना नहीं, हम तो पीछे की, रास्तों की उड़ती धूल को देखते हैं--उन रथों को जो निकल चुके, उन कथाओं को जो हो चुकीं। वह सब जो हो चुका वही हमारी आंखों में है, जो होने को है वह हमारी आंखों में नहीं है।
कब तक हम पीछे को पकड़ कर रुके रहेंगे? गांधी हो चुके, अब उनको पकड़ कर रुकने का मतलब फिर वही रामलीला पर रुक जाने का मतलब होगा।
नहीं, हम और गांधी पैदा करेंगे, हम और राम पैदा करेंगे, हम और महावीर पैदा करेंगे; हमारी आत्मा चुक नहीं गई है, हमारे पास अभी पैदा करने की क्षमता बहुत है। हम पीछे नहीं रुकेंगे, हम आगे की तरफ उन्मुख होंगे।
जब मैं यह कहता हूं तो लोग समझते हैं, शायद मैं जो पीछे हो चुके उनका दुश्मन हूं। मैं उनका दुश्मन नहीं हूं। आप हैं उनके दुश्मन जो उनको पकड़ लेते हैं; क्योंकि उनको पकड़ने की वजह से वे लोग और पैदा हो सकते थे, वे अब पैदा नहीं हो पाते। भविष्य की तरफ चाहिए दृष्टि।
इन आने वाले तीन दिनों में यह भविष्योन्मुख समाज कैसे निर्मित होगा, इस समाज के निर्माण के क्या सूत्र होंगे, इस समाज की क्रांति के क्या आधार होंगे, उस संबंध में मैं बातें करूंगा।
अभी तो मैंने प्राथमिक बात कही। और अगर प्राथमिक बात में ही गड़बड़ हो गई होगी समझने में, तो फिर बड़ी मुश्किल है। और कुछ बातें कहूंगा। इतनी ही प्रार्थना करूंगा कि समझने की सिर्फ कोशिश करें, मानने की कोई जरूरत नहीं है। न मैं कोई गुरु हूं, न मैं कोई नेता हूं, और न मुझे नेता होने का पागलपन है। मैं तो मानता ही यह हूं कि सिर्फ वे ही लोग नेता होना चाहते हैं जो किसी तरह की इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स, किसी तरह की हीनता की ग्रंथि से पीड़ित होते हैं। वे ही लोग सिर्फ नेता होना चाहते हैं। और नेता होना इस मुल्क में अब इतना सरल है कि कोई आदमी अब नेता नहीं होना चाहेगा।
एक छोटी सी कहानी और अपनी बात पूरी कर दूंगा।
मैंने सुना है, एक गधे ने अखबार पढ़ना सीख लिया। मुझे भी हैरानी हुई कि गधे ने अखबार पढ़ना कैसे सीख लिया! लेकिन फिर मुझे पता चला कि गधे और कुछ कर भी तो नहीं सकते हैं सिवाय अखबार पढ़ने के। गधा अखबार पढ़ने लगा तो गधा ज्ञानी हो गया। बहुत से गधे अखबार पढ़ कर ही ज्ञानी हो जाते हैं। जब वह अखबार पढ़ने लगा तो वह भाषण देना भी सीख गया। क्योंकि अखबार जो पढ़ लेता है वह भाषण भी दे सकता है। भाषण में और कुछ तो करना नहीं पड़ता, अखबार जो आपके दिमाग में डाल दें उसे मुंह से निकाल देना पड़ता है। और फिर गधे के पास तो बहुत सशक्त मुंह है, शास्त्रीय कला है। वह भाषण देने लगा। और जब वह भाषण देना सीख गया तो उसने सोचा कि अब छोटे-मोटे गांव में क्या रहना, दिल्ली की तरफ चलना चाहिए। क्योंकि गधों को जैसे ही बोलना आ जाए, अखबार पढ़ना आ जाए, वे एकदम दिल्ली की तरफ जाने शुरू हो जाते हैं। वह गधा एकदम दिल्ली पहुंचा। गधों को दिल्ली पहुंचने से रोकना भी बहुत मुश्किल है। क्योंकि उस गधे ने दस-पच्चीस और आस-पास के गधे इकट्ठे कर लिए थे। और जिसके पास भीड़ है वह नेता है। वह दिल्ली पहुंच गया।
यह जरा पुरानी बात है, पंडित नेहरू जिंदा थे। वह पंडित नेहरू के मकान पर सीधा पहुंच गया। संतरी खड़ा हुआ था द्वार पर, वह आदमियों को रोकने के लिए था, गधों को रोकने के लिए नहीं! उसने गधे की कोई फिकर न की। संतरी गधों की फिकर नहीं कर रहे हैं और गधे महलों में घुस जाते हैं। वह गधा अंदर घुस गया। पंडित नेहरू सुबह-सुबह ही अपनी बगिया में टहलते थे। उस गधे ने पीछे से जाकर कहा: पंडित जी!
पंडित जी बहुत घबड़ाए, क्योंकि न वे भूत-प्रेत में मानते थे, न भगवान में मानते थे। चारों तरफ चौंक कर उन्होंने देखा। उन्होंने कहा कि क्या मामला है? यह आवाज कहां से आती है? क्योंकि मैं भूत-प्रेत में मानता ही नहीं। कौन बोल रहा है?
वह गधा डर गया। उसने कहा कि मैं बहुत डर रहा हूं, शायद आप नाराज न हो जाएं। मैं एक बोलता हुआ गधा हूं। आप नाराज तो नहीं होंगे?
पंडित नेहरू ने कहा कि मैं रोज बोलते हुए गधों को इतना देखता हूं कि नाराज होने का कोई कारण नहीं है। किसलिए आए हो?
उस गधे ने कहा कि मैं बहुत डरता था कि आप मुझसे मिलेंगे या नहीं मिलेंगे! आपकी बड़ी कृपा, आप मुझे मिलने का वक्त दे सकते हैं? मैं एक गधा हूं, मिलने का वक्त मिल सकता है?
पंडित नेहरू ने कहा: यहां गधों के अतिरिक्त मिलने के लिए आता ही कौन है! अच्छे आए, क्या प्रयोजन है?
उस गधे ने कहा: मैं नेता बनना चाहता हूं।
पंडित नेहरू ने कहा कि बिलकुल ठीक है। गधे होने का यही लक्षण है कि आदमी नेता बनना चाहता है!
यह सारा का सारा देश नेता बनने की कोशिश में है। इस देश को नेताओं की जरूरत नहीं है। इस देश को अनुयायियों की, भीड़ की भी जरूरत नहीं है। इस देश को अब उन लोगों की जरूरत है जो विचार करते हैं। इस देश को अब उन लोगों की जरूरत है जो विचार के बीज फेंकते हैं। इस देश को उन लोगों की जरूरत है जो इस देश के सोए हुए विचार को जगाएं। इस देश को एक विचार की क्रांति की जरूरत है। इस मुल्क को राजनीति की नहीं, एक आत्मिक क्रांति की जरूरत है।
मेरी उत्सुकता राजनीति में नहीं है, न मेरी उत्सुकता नेताओं में है, मेरी उत्सुकता इस देश की सोई हुई आत्मा में है। और उस आत्मा को जितनी भी चोट मैं दे सकूं, मैं देना जारी रखूंगा। आप गाली दें, नाराज हों, वह सब मैं स्वीकार कर लूंगा। लेकिन मेरी कोशिश जारी रहेगी कि इस मुल्क की आत्मा को कहीं से चोट लगे, कहीं से जीवन विकसित हो, कहीं से यह देश सोचे और जगे और हम दुनिया की दौड़ में पिछड़ न जाएं। हम बहुत पिछड़ गए हैं।
इन तीन दिनों में जीवन और समाज की क्रांति के कुछ सूत्रों पर बात करनी है।
आपने आज मेरी प्राथमिक बात इतनी शांति और प्रेम से सुनी, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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