YOG/DHYAN/SADHANA

Ek Ek Kadam (एक एक कदम) 02

Second Discourse from the series of 7 discourses - Ek Ek Kadam (एक एक कदम) by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
एक गांव में बहुत पुराना चर्च था। उस चर्च की दीवालें गिरने के करीब आ गईं थीं। उस चर्च के भीतर प्रवेश करने में भी मन को भय मालूम पड़ता था। वह चर्च कभी भी गिर सकता था, वह चर्च गिरने को ही था। आकाश में बादल गरजते थे, तो गांव के लोग समझते थे कि आज चर्च बचेगा नहीं। रात में बिजली चमकती थी, तो लोग घरों के बाहर आकर देखते थे कि शायद चर्च गिर गया हो।
ऐसे पुराने चर्च में कौन प्रार्थना करता, कौन आराधना करता? आखिर चर्च की कमेटी और पादरी लोगों से प्रार्थना कर-कर के थक गए, लेकिन लोगों ने चर्च में आना शुरू नहीं किया।
फिर चर्च की कमेटी की बैठक हुई, वह बैठक भी चर्च के बाहर हुई, चर्च के भीतर नहीं। क्योंकि चर्च का पुरोहित और चर्च की कमेटी के लोग भी भीतर जाने की हिम्मत नहीं कर सकते थे। उन्होंने बाहर बैठ कर चार प्रस्ताव स्वीकार किए।
उन्होंने पहला प्रस्ताव स्वीकार किया कि हम बहुत दुख से स्वीकार करते हैं कि पुराने चर्च को गिराना आवश्यक हो गया है। दुख से! क्योंकि पुराने को गिराने में बड़ी तकलीफ होती है। दूसरा प्रस्ताव उन्होंने स्वीकार किया: लेकिन हम शीघ्र ही एक नया चर्च बनाएंगे; लेकिन नया चर्च हम ठीक वैसा ही बनाएंगे जैसा पुराना है। हम पुराने चर्च की नींव को नहीं बदलेंगे। उसकी बुनियाद पर ही नया चर्च उठाया जाएगा। अब पुराने की नींव पर दुनिया में कभी भी नया निर्मित नहीं होता है। लेकिन उस चर्च की कमेटी ने तय किया कि हम पुराने की नींव पर ही नई दीवालें उठाएंगे। और उन्होंने यह भी तय किया कि पुराने चर्च की ईंटों का ही नये चर्च में उपयोग किया जाएगा--पुराने दरवाजे ही उपयोग किए जाएंगे, पुरानी खिड़कियां ही लगाएंगे, पुराने खपड़ों का ही हम इस्तेमाल करेंगे। पुराने चर्च की एक भी चीज नहीं खोएंगे, उसे नये में लगाएंगे। और पुरानी जगह पर, पुरानी नींव पर ही नया चर्च बनाना है। वह नाम को ही नया होगा, क्योंकि सब पुराना ही उसमें लगाना था। और चौथा प्रस्ताव भी उन्होंने पास किया कि जब तक नया न बन जाए, तब तक पुराने को गिराएंगे नहीं!
वह चर्च अब भी खड़ा है। वह चर्च कभी नहीं गिरेगा और नया कभी बनेगा नहीं।
जैसी इस चर्च की कहानी है वैसी इस पूरे देश की कहानी है। यह पूरा देश इतना पुराना पड़ चुका है कि अब इस देश का मरना ही आसान है, जीना बहुत कठिन है। यह इतना सड़ चुका है, यह इतना गल चुका है, यह इतना सड़ और गल चुका है कि इसका मरना भी मुश्किल हो गया है। आपको पता है, मरने के लिए भी थोड़ी जिंदगी चाहिए होती है! मरे हुए आदमी नहीं मरते हैं, यह तो पता ही होगा? मरने के लिए भी जिंदगी चाहिए। ऐसा लगता है कि हम इतने मर चुके हैं कि अब हमने मरने की भी क्षमता खो दी। हमारा अस्तित्व एक प्रेत अस्तित्व है। और यह हजारों साल से ऐसा है। यह कोई आज ऐसा नहीं हो गया है। असल में हजारों साल हो गए तब से ही हम भूल गए हैं कि नये को कैसे निर्मित किया जाता है? हजारों साल हो गए तब से ही हम पुराने को छाती से लगाए बैठे हैं। हजारों साल हो गए तब से ही हमने पुराने को इतना आदर, इतना प्रेम, इतनी श्रद्धा दी है कि नये का जन्म न मालूम कब से बंद हो चुका है! यह देश बहुत न मालूम कब बूढ़ा हो चुका, कब मर चुका!
और अब जब समाज में क्रांति की कोई भी बात उठती है तो सबसे बड़ी जो बाधा पड़ती है वह इस बात से पड़ती है कि हम इतने पुराने हैं, हम इतने जरा-जीर्ण हैं, हम इतने सड़ चुके हैं कि क्रांति भी करनी हो तो कहां से करनी है? किस चीज को बदलें? सभी कुछ बदलने जैसा हो गया हो, कहां से हो शुरुआत? कैसे हो शुरुआत? इसलिए हजारों साल से इस देश में क्रांति नहीं होती, ज्यादा से ज्यादा सुधार होते हैं। कभी इस दीवाल को लीप-पोत कर ठीक कर लेते हैं, कभी उस दरवाजे पर रंग-रोगन कर देते हैं, कभी प्लस्तर गिर जाता है उसको ठीक कर देते हैं, कोई दीवाल गिरने लगती है तो आड़ लगा देते हैं। पुराने मंदिर को, पुराने चर्च को ही किसी तरह सम्हाल कर हम जी रहे हैं।
इस देश की जिंदगी में अगर क्रांति लानी हो, तो पहला सूत्र आपसे कहना चाहता हूं और वह यह: नये को जन्म देने का पहला सूत्र: पुराने को छोड़ने की हिम्मत जुटाना है। और जो समाज पुराने को छोड़ने का साहस खो देता है, वह नये को जन्म देने की पात्रता भी खो देता है।
नये को जन्म देने की क्षमता उनमें होती है जो पुराने को नष्ट करने की क्षमता भी रखते हैं। निर्माण की कला केवल उन्हें ही आती है जो विध्वंस की कला भी जानते हैं। हम विध्वंस की कला ही भूल गए हैं। हम मिटाना जानते ही नहीं हैं। और ध्यान रहे कि जैसे ही हम मिटाना भूल जाते हैं, हम बनाना भी भूल जाते हैं। क्योंकि बनाने का पहला कदम सदा ही मिटाना है। पुराने को मिटाए बिना नये समाज का जन्म नहीं हो सकता।
इसलिए पहली बात कहना चाहता हूं: पुराने का सम्मान कम करो, पुराने का आदर कम करो, पुराने का स्वागत कम करो। नये के स्वागत को बढ़ाओ, नये को सम्मान दो, नये को हाथ फैलाओ, नये का आलिंगन करो।
लेकिन हम तो नये से भयभीत लोग हैं। नये से हम बहुत डरते हैं, क्योंकि नया होता है अपरिचित। अपरिचित का भरोसा नहीं होता, पुराना होता है परिचित। परिचित का भरोसा होता है। यहां तक हमारी हालतें हो गई हैं कि पुरानी बीमारी तक को छोड़ने में हमें कठिनाई होती है, क्योंकि वह परिचित मालूम होती है। पुरानी जंजीरें भी छोड़ने में कष्ट मालूम होता है, क्योंकि इतने दिन से हम उन्हें पहने हुए हैं कि वे जंजीरे हैं यह हम भूल गए हैं, हम इन्हें अलंकार, आभूषण समझ रहे हैं। और जब कोई समाज जंजीरों को आभूषण समझने लगे, और बीमारियों को संगी-साथी मान ले, तो फिर उसके भाग्य का कोई भी ठिकाना बताना मुश्किल है।
बैस्तिले का एक किला है फ्रांस में। फ्रांस में क्रांति हुई, तो क्रांतिकारियों ने जैसे ही फ्रांस की सत्ता पर कब्जा कर लिया, उन्हें खयाल आया बैस्तिले के किले का। बैस्तिले के किले में फ्रांस के जघन्य अपराधियों को बंद किया जाता था। उन अपराधियों को जिनको आजीवन कैद की सजा मिलती। उस किले में ऐसे कैदी थे, जो तीस साल से बंद थे, चालीस साल से बंद थे। कुछ कैदी पचास साल से बंद थे। सत्तर और अस्सी साल उनकी उम्र हो गई थी। वे अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे। उस कारागृह में जो बंद होता था, वह कभी छूटता नहीं था मरने के पहले; मरने पर ही छूटता था। उस कारागृह में जो जंजीरें डाली जाती थीं, उनको खोलने की कोई चाबी नहीं होती थी, वे तो मरने पर हाथ काट कर ही निकाली जाती थीं। क्रंातिकारियों ने उस किले को तोड़ दिया। और उन्होंने सोचा कि कैदी कितने खुश न हो जाएंगे, जब हम उन्हें मुक्त करेंगे! और उन्होंने जाकर कैदियों को जबर्दस्ती उनकी अंधेरी कोठरियों से बाहर निकाला।
अब जो कैदी पचास साल अंधेरी कोठरी में रहा हो--आपको पता है, वह प्रकाश से भयभीत होने लगता है। वह अंधकार का आदी हो जाता है। उसकी आंखें प्रकाश को देखने की क्षमता खो देती हैं। जो कैदी पचास वर्ष से अकेले में बंद रहा हो, दूसरे आदमी की मौजूदगी उसे घबड़ाहट देने लगती है। जो आदमी पचास साल से बंद रहा हो: वक्त पर खाना मिल जाता हो, वक्त पर सो जाता हो, उसे जिंदगी एक झंझट मालूम होने लगती है। जीने का उपक्रम भी उसे कठिन मालूम होने लगता है।
क्रांतिकारी जबर्दस्ती कैदियों को बाहर निकालने लगे, कई कैदियों ने कहा कि हम बाहर जाने को राजी नहीं हैं, हम मजे में हैं। हम यह बात ही भूल गए हैं कि हम कैदी हैं। हमें यह सवाल ही समाप्त हो गया है कि हम कारागृह में बंद हैं। यह तो हमें अपना घर मालूम होने लगा है।
पचास साल तक कारागृह में कोई बंद हो तो कारागृह भी घर मालूम होने लगता है। अगर मालूम न हो तो जीना बहुत कठिन हो जाता है। मालूम करना पड़ता है। कारागृह को ही घर समझने की आदत डालनी पड़ती है। नहीं तो जीना बहुत मुश्किल है। लेकिन क्रांतिकारी क्रांतिकारी, उन्होंने जिद से जबर्दस्ती लोगों को बाहर कर दिया।
अब दुनिया में कहीं जबर्दस्ती क्रांति होती है कि जबर्दस्ती किसी आदमी को स्वतंत्र किया जा सकता है? किसी आदमी को न तो जबर्दस्ती परतंत्र किया जा सकता है, जब तक कि उसकी आत्मा परतंत्र होने के लिए भीतर से राजी न हो। और न ही किसी आदमी को जबर्दस्ती स्वतंत्र किया जा सकता है, जब तक कि वह स्वतंत्र होने के लिए आतुर न हो। और जो स्वतंत्र होने के लिए आतुर है, उसके शरीर को भला कोई परतंत्र बना ले, उसकी आत्मा को कोई कभी परतंत्र नहीं बना सकता है। और जो परतंत्र होने के लिए उत्सुक है, उसके शरीर को भला हम स्वतंत्र कर दें, उसकी आत्मा कभी स्वतंत्र नहीं हो सकती है।
जबर्दस्ती खींच कर निकाल दिया कैदियों को। उनकी जंजीरें तोड़ दीं। लेकिन एक अदभुत घटना घटी इतिहास की, ऐसी शायद कभी घटना नहीं घटी थी। सांझ होते-होते आधे कैदी वापस लौट कर अपनी कोठरियों में बैठ गए। और उन कैदियों ने कहा: हम बाहर जाने से इनकार करते हैं, हम मर जाएंगे, लेकिन हम अपना कारागृह नहीं छोड़ सकते। दिन में हमें इतना बुरा लगा, जिसका कोई हिसाब नहीं। लोगों को देख कर डर लगता है, सूरज की रोशनी में आंख नहीं खुलती, और हाथ की जंजीरें तुमने छीन ली हैं तो ऐसा लगता है जैसे हम नंगे-नंगे हैं, कोई चीज शरीर से कम हो गई है। हम रात को सोएंगे कैसे? हम बिना हाथ के उस भारी वजन के सो नहीं सकते। उस वजन के आधार पर ही हम सोते हैं, हम उसके आदी हो गए हैं, हमारी जंजीरें हमें वापस चाहिए।
बैस्तिले के किले पर जो हुआ था, अगर हिंदुस्तान के आदमी की तरफ हम देंखे तो हमें लगेगा कि वह ठीक ही हुआ था, हिंदुस्तान के आदमी के साथ रोज वही हो रहा है। हम पुराने के इतने आदी हो गए हैं कि हमें खयाल ही भूल गया है कि नया भी हो सकता है।
कितनी है गरीबी हमारी पुरानी, कुछ पता है? हम जब से हैं, तब से ही गरीब हैं। ये झूठी बातों में मत पड़ना कि दुनिया की कहानियों में लिखा हुआ है कि हिंदुस्तान सोने की चि़िडया है। ये कहानियां सरासर झूठी हैं। हिंदुस्तान सोने की चिड़िया है, लेकिन कुछ थोड़े से लोगों के लिए, सारे लोगों के लिए नहीं।
कुछ थोड़े से लोग सोने की चिड़िया पर बहुत दिन से सवार हैं। लेकिन हिंदुस्तान, असली हिंदुस्तान हमेशा से भूखा, दरिद्र और दीन है। असली हिंदुस्तान कभी समृद्ध नहीं रहा। हजारों साल की गरीबी से धीरे-धीरे हम गरीबी के लिए राजी हो गए हैं। हमने यह खयाल ही छोड़ दिया है कि हम भी समृद्ध हो सकते हैं। न केवल हमने यह खयाल छोड़ दिया है, बल्कि हमने एक फिलॉसफी, एक तत्वदर्शन विकसित कर लिया है कि गरीबी बड़ी ऊंची चीज है; समृद्धि लात मारने योग्य है। यह हद, यह हद चालाकी की बात है। यह गरीब आदमी की आखिरी सांत्वना, आखिरी कंसोलेशन है कि वह अमीरी को पाने योग्य ही न माने। वह कहे कि समृद्धि में क्या रखा है, सोना मिट्टी है! मिट्टी मिलती नहीं है देश को और सोना मिट्टी है! भूखे हम मरते हैं, भूखे हम मर रहे हैं हजारों वर्ष से, लेकिन हम यह खयाल ही भूल गए हैं कि हम भरे पेट भी हो सकते हैं। इतने लंबे दिनों की गरीबी गरीबी की आदत बना देती है। न केवल आदत बना देती है, बल्कि गरीबी में भी एक तरह का सम्मान लेने की दृष्टि भी पैदा कर देती है।
हिंदुस्तान गरीब रहते-रहते गरीबी को सम्मान देने के दर्शन को भी विकसित कर लिया है। यह सबसे खतरनाक बात है, जो हिंदुस्तान की जिंदगी को नहीं बदलने देती है। जब तक तुम गरीबी को सम्मान दोगे, तुम्हारा गरीबी से ही भाग्य बंधा रहेगा। गरीबी से तुम कभी मुक्त नहीं हो सकते हो। जिसको हम सम्मान देते हैं, वही हम हो जाते हैं।
हिंदुस्तान हजारों साल से गरीबी को ही सम्मान दे रहा है। समृद्धि को गालियां दे रहा है। और इस गाली के देने के पीछे एक बड़ा सहारा भी हिंदुस्तान को मिल गया, और वह सहारा क्या था? वह सहारा यह था कि हिंदुस्तान के तीन-चार हजार वर्षों के इतिहास में कुछ अमीरों के बेटों ने गरीबी को वरण किया। उनके गरीबी के वरण-कर्म ने हिंदुस्तान की गरीबी पर सील-मोहर लगा दी।
महावीर राजा के लड़के हैं, बुद्ध राजा के लड़के हैं, जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के लड़के हैं, राम राजा के लड़के हैं, कृष्ण राजा के लड़के हैं। हिंदुस्तान के सब तीर्थंकर, हिंदुस्तान के सब अवतार, हिंदुस्तान के सब बुद्धपुरुष राजपुत्र हैं। हिंदुस्तान में एक भी गरीब आदमी तीर्थंकर और अवतार आज तक नहीं हो सका, इसको खयाल में रखना, इसको कभी भूल मत जाना।
हिंदुस्तान के सारे भगवान राजाओं के लड़के हैं। और इसकी वजह से बड़ा उपद्रव हो गया। राजाओं के लड़के धन से ऊब जाते हैं, राजाओं के लड़के महलों से ऊब जाते हैं, राजाओं के लड़के जिंदगी के ऐश, विलास से ऊब जाते हैं।
मनुष्य के मन का एक नियम है: गरीब आदमी गरीबी से ऊब जाता है और अमीर आदमी अमीरी से ऊब जाता है। जो भी मिलता है आदमी उसी से ऊब जाता है। जो भी मिल जाए उसी से ऊब जाता है। जो लोग पैदल चलते हैं, वे कार में बैठे हुए लोगों को देख कर तरसते हैं। कार में बैठे हुए लोग पैदल चलने का मजा भी लेने की कोशिश करते हैं।
अमीरों के लड़के अमीरी से ऊब गए। उन्होंने अमीरी को लात मार दी और भिखमंगे हो गए। उनके भिखमंगे होने से भारत की गरीबी पर सील-मोहर लग गई। भारत के गरीबों ने समझा कि जब अमीर तक लात मार कर गरीब हो जाते हैं, तो हम पर तो भगवान की बड़ी कृपा है कि हम पहले से ही गरीब हैं। हम किन्हीं पिछले जन्मों के पुण्य का फल भोग रहे हैं शायद कि हमको भगवान ने पहले से ही गरीब बनाया, धन्यवाद है भगवान का। क्योंकि जब गरीब होना ही पड़ता है, तो फिर गरीब पहले से ही होना बहुत अच्छा है। लेकिन पता नहीं है हमको कि अमीर आदमी जब गरीब होता है तो गरीबी में भी एक मजा आता है, अमीर आदमी के लिए गरीबी एक बदलाहट है, अमीर आदमी के लिए गरीबी भी एक मजा है।
मैं अभी बनारस में था। दो अमीर लड़के अमरीका से हिप्पी वहां आए हुए थे। वे मुझसे मिलने आए। वे करोड़पतियों के लड़के हैं। वे बनारस में नंगे पैर घूम रहे हैं और लोगों से दस-दस पैसे की भीख मांग कर अपना खर्च चला लेते हैं। मैंने उनसे पूछा: पागलो, तुम्हें क्या हो गया है? तुम दस-दस पैसे की भीख मांग रहे हो, गरीब मुल्क में खड़े होकर? तुम अमीरों के लड़के हो! उन हिप्पियों ने मुझसे क्या कहा? आपको क्या पता कि गरीब होकर कितनी स्वतंत्रता मालूम होती है? जहां तबीयत होती है वहां सो जाते हैं। न कोई फिकर है, न कोई डर है। भिक्षा मांग लेते हैं, न कोई संपत्ति को रखने का सवाल है, न हिफाजत का सवाल है। हम गरीब होकर पहली बार स्वतंत्रता अनुभव कर रहे हैं।
अब गरीब आदमी की समझ के बाहर हो जाएगा कि गरीब होकर कैसी स्वतंत्रता अनुभव की जाती है। जाकर अकालग्रस्त लोगों से पूछो कि अमीर लोग उपवास करके भी बड़ा आत्मिक आनंद अनुभव करते हैं। तुम भूखे मरते लोग...तुम्हें भी भूखे मरने में आनंद आता है कि नहीं? तो वे अकालग्रस्त लोग कहेंगे: हमारी समझ के बाहर है कि भूख में कैसे आनंद आ सकता है? लेकिन जिनके पेट बहुत भरे हों उन्हें कभी-कभी भूखे रहने में भी आनंद आता है। यह झूठ नहीं है। अमीर आदमी को, खाए-पीए आदमी को भूखे रहने में सुख मिलता है।
लेकिन गरीब आदमी इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। अमीर आदमी को गरीब होने में भी मजा आ सकता है, वह अमीर आदमी की आखिरी लग़्जरी है, वह आखिरी विलास है। जब सब उसने पा लिया और कुछ पाने को नहीं बचता, तब वह कहता है, अब हम गरीबी को भी पाकर रहेंगे। अब वह गरीब होने का भी मजा लेना चाहता है। गरीब होने का मजा सिर्फ अमीर ले सकते हैं।
मैं आपसे यह कहना चाहता हूं: सिर्फ अमीर गरीब होने का मजा ले सकते हैं। जिन्हें ज्यादा खाने को मिलता है, जो ओवरफेड हैं, वे उपवास और अनशन का मजा भी ले सकते हैं। जिनके पास बहुत वस्त्र हैं, वे नंगे खड़े होने का मजा भी ले सकते हैं। लेकिन जिनके पास कुछ नहीं है, उनकी कल्पना के बाहर है, सपने के बाहर है यह सब।
लेकिन भारत के कुछ अमीर बेटों ने अमीरी को लात मार कर भारत के गरीबों को बड़ा सुख दिया। उनके मन को यह लगा कि बड़े अच्छे हैं हम, बड़ा भाग्य है हमारा। और भारत में गरीबी सम्मानित हो गई।
भारत में गरीबी को जिस दिन से सम्मान मिलना शुरू हुआ, उसी दिन से हमने समृद्ध होने की चेष्टा छोड़ दी है। हमारी आत्मा की वह ऊर्जा जो संपत्ति को पैदा करती है, सिकुड़ गई। हमारी आत्मा की वह ऊर्जा जो फैलाव को, विस्तार को आनंद अनुभव करती उसने संकोच कर लिया। हम मान कर राजी हो गए कि जैसे हम हैं वह ठीक है। और हमने संतोष का एक दर्शन विकसित कर लिया।
हिंदुस्तान जब तक संतोष के दर्शन को पकड़े बैठा है तब तक हिंदुस्तान के दुर्भाग्य में बदलाहट नहीं हो सकती है। संतोषी लोग क्रांति करते हैं? संतोष कैसे क्रांति कर सकता है? संतोष से ज्यादा क्रांति-विरोधी और कोई विचार नहीं है। जब हम संतुष्ट हो जाते हैं, तो क्रंाति का क्या सवाल है? परिवर्तन का क्या सवाल है? और हिंदुस्तान के सारे साधु-संत, हिंदुस्तान के सारे महात्मा सारे मुल्क को यह समझाते फिरते हैं कि संतुष्ट रहो, जैसे हो उसमें संतुष्ट रहो, और भगवान को धन्यवाद दो। तो हिंदुस्तान धीरे-धीरे संतुष्ट हो गया है--गरीबी में, गुलामी में, दीनता में, सड़ेपन में, अग्लीनेस में, कुरूपता में--हम सबमें संतुष्ट हो गए हैं। हम संतुष्ट हो गए हैं और मर गए हैं। मरना हो तो संतोष से अच्छी कोई दवा नहीं है। मरने का रामबाण उपाय है संतोष।
और यह संतोष क्यों हमें सिखाया गया है? क्योंकि गरीबी इतनी बड़ी थी, इस गरीबी के साथ जिंदा रहने की एक ही तरकीब थी कि हम संतुष्ट हो जाएं। या एक दूसरी तरकीब थी कि गरीबी को हम मिटा दें और धन को पैदा कर लें। धन आसमान से नहीं बरसता है, धन पैदा करना पड़ता है। धन मनुष्य की ईजाद है, यह खयाल रहे। धन प्रकृति में नहीं मिलता, प्रकृति में केवल धन को पैदा करने के अवसर होते हैं। धन आदमी पैदा करता है। धन ह्यूमन इनवेंशन है। धन जो है वह मनुष्य का आविष्कार है। धन कहीं पड़ा हुआ नहीं है, धन हमें निर्मित करना होता है।
अमरीका को तीन सौ वर्ष हुए। तीन सौ वर्ष पहले भी अमरीका में लोग रहते थे। इसी अमरीका में, इसी भूमि में, लेकिन वे हमेशा गरीब रहे। उनके जीवन की फिलॉसफी अमीर होने की नहीं थी। तीन सौ वर्षों से जो लोग अमरीका में हैं, उन्होंने धन के अंबार लगा दिए। पृथ्वी पर इतना धन कभी किसी एक देश में पैदा नहीं हुआ था। यह धन कहां से आ गया? अगर हिंदुस्तान के आदमियों को अमरीका में बसा दो, अमरीका भी गरीब होगा। वह कसूर, वह कसूर अमरीका के आदमी का है कि उसने धन पैदा कर लिया। हम कभी धन पैदा नहीं करेंगे।
एक जर्मन यात्री भारत से वापस लौटा, उसका नाम है, काउंट कैसरलिंग। उसने अपनी डायरी में एक शब्द लिखा, मैं पढ़ता था तो मैं बहुत हैरान हो गया। मेरी समझ के बाहर हो गया कि क्या लिखा है उसने? मैंने सोचा कि शायद छापेखाने की कोई भूल हो गई। लेकिन फिर मुझे खयाल आया कि किताब जर्मनी में छपी है, वहां छापेखाने की भूल नहीं होती। वह तो छापेखाने की भूल हमारे ही मुल्क में होती है। और हमारे मुल्क में किताब छपती है तो किताब के पहले पांच-सात पन्ने लिखे रहते हैं--भूल सुधार। और अगर उन पांच-सात पन्नों को भी गौर से देखो तो उनमें भी भूलें मिल जाएंगी। लेकिन यह किताब तो जर्मनी में छपी है, इसमें भूल नहीं हो सकती।
कोई कौम बर्दाश्त नहीं कर सकती कि किताबों में भूल हो। जब चित्त में भूलें होती हैं तो किताबों में भूलें आती हैं। किताबें तो हमारे चित्त का लक्षण हैं। सारी जिंदगी हमारे चित्त का लक्षण है। जो कौम कोशिश करती है कि सब ठीक हो, व्यवस्थित हो, उसकी किताब में भूल कैसे होगी? फिर इस किताब में गड़बड़ दिखाई पड़ती है? फिर मैंने बार-बार उसके वाक्य को पढ़ा, फिर मुझे उसकी मजाक समझ में आई कि वह मजाक कर रहा है, भूल नहीं हुई है। उसने एक वाक्य लिखा है कि मैं हिंदुस्तान से लौटा हूं, और हिंदुस्तान के बाबत एक बात मेरे मन में रोज-रोज गूंजती रही है और वह यह कि इंडिया इ़ज ए रिच कंट्री, व्हेअर पुअर पीपल लिव! हिंदुस्तान एक अमीर देश है, जहां गरीब आदमी रहते हैं!
तो मैंने कहा, यह कैसे हो सकता है! अगर देश अमीर है तो गरीब आदमी कैसे रह सकते हैं? और अगर गरीब आदमी रहते हैं तो देश अमीर कैसे हो सकता है? ये दोनों बातें उलटी हैं।
लेकिन फिर उसका मजाक खयाल में आया कि वह हम पर मजाक कर रहा है। वह यह कह रहा है कि लोग अगर बुद्धिमान होते और अमीर होना चाहते, तो देश तो अमीर था और लोग अमीर हो सकते थे, लेकिन लोग बुद्धिहीन हैं और गरीब रहना चाहते हैं। इसलिए देश तो अमीर है...लेकिन देश क्या कर सकता है? जबर्दस्ती अमीर तो नहीं बना सकता है हमें।
पांच हजार वर्षों में हमने कौन सी टेक्नालॉजी विकसित की? कौन सा तकनीक विकसित किया जिससे धन पैदा हो? हमने कौन सी मशीनें ईजाद कीं जिनसे धन पैदा हो? हमने मनुष्य के समाज को कौन सी ऐसी गठन और रचना दी जिससे धन पैदा हो? हमने धन पैदा करने का कोई उपाय नहीं किया। हमने निर्धनता को स्वीकार कर लिया। हमने मान लिया जैसा था; उसको मान लिया कि यही अंत है, यही सब-कुछ है।
हम विकास करने वाली कौम नहीं हैं। हम जड़ कौम हैं। जो मिल जाता है उसी को मान कर राजी हो जाते हैं कि ठीक है। पानी बरस जाता है तो भगवान को धन्यवाद दे देते हैं, नहीं बरस जाता तो थोड़े नाराज हो जाते हैं और बात खत्म हो जाती है। लेकिन हम भी पानी बरसा सकते हैं, यह हमारे खयाल के बाहर है। हम भी कुछ कर सकते हैं, यह तो तभी सवाल उठेगा जब हम कुछ करना चाहते हों, लेकिन संतोष हमें कुछ करने ही नहीं देता।
गरीबी स्वीकृत है संतोष की छाया में। तो कैसे होगी क्रांति? कैसे होगा रूपांतरण? कैसे होगा नये का जन्म? पुराने को छाती से लगा कर हम संतोष कर रहे हैं। क्या आपको पता है, पुराना वृक्ष मर जाता है नये बीजों को जन्म देकर? पुराना आदमी विदा हो जाता है नये बच्चों को जन्म देकर। पुराने पत्ते गिर जाते हैं, ताकि नये पत्ते पैदा हो सकें। लेकिन हमारी समाज की धारणाएं, पुरानी धारणाएं न मरती हैं, न हटती हैं, न विदा होती हैं। नये के लिए अवकाश नहीं, स्पेस नहीं; नये का अंकुर जहां से फूट सके उसकी कोई गुंजाइश नहीं, उसके लिए कोई मौका नहीं, कोई अवसर नहीं।
नहीं, पुराने से असंतुष्ट होना पड़ेगा, जो है उससे असंतुष्ट होना पड़ेगा, तब हम उसे पैदा कर पाएंगे जो होना चाहिए। जो है उससे असंतुष्ट होना जरूरी है, ताकि वह पैदा किया जा सके जो होना चाहिए। लेकिन कोई सिखाता है हमें कि हम असंतुष्ट हो जाएं...छोटे से बच्चों तक को हम कहते हैं कि संतुष्ट रहो, संतोष में बड़ा सुख है।
संतोष में सुख नहीं है, सुखी आदमी में संतोष होता है। यह फिर से मैं दोहराऊं: हमें समझाया जाता है, संतोष में सुख है, यह गलत है, यह बिलकुल झूठ है। संतोष में कोई सुख नहीं है, लेकिन सुख में जरूर बहुत संतोष है। सुख हो तो एक संतोष की छाया जीवन में छा जाती है। लेकिन सुख न हो, जीवन में दुख हो, तो आदमी संतोष करके किसी तरह अपने को समझा कर दुख को छिपा लेता है, सुखी नहीं हो जाता।
मैं एक संन्यासी के पास गया। कोई दस-पचास लोग वहां इकट्ठे थे। संन्यासी ने मुझसे कुछ बातें कीं और फिर कहा कि मैंने एक गीत आज बनाया है, वह आपको सुनाता हूं, शायद आपको पसंद आ जाए। उन्होंने वह गीत गाया। उस गीत का मतलब...उस गीत को सुन कर वहां बैठे हुए पचास सिर एकदम खुशी से हिलने लगे और वाह-वाह करने लगे! मैं तो बहुत हैरान हुआ। उस गीत का मतलब क्या था? उस गीत का मतलब था कि संन्यासी एक सम्राट को उस गीत में कह रहे हैं कि तुम रहो अपने स्वर्ण के सिंहासनों पर, हम लात मारते हैं तुम्हारे स्वर्ण-सिंहासन पर। हमें कोई मतलब नहीं तुमसे, तुम्हारे स्वर्ण-सिंहासनों से। हम तो अपनी धूल में संतुष्ट हैं, हम तो अपनी धूल में मग्न हैं।
मैंने उनसे कहा कि आपने कभी सुना किसी सम्राट ने यह गीत लिखा हो कि मग्न रहो तुम अपनी धूल में, लात मारते हैं तुम्हारी धूल पर हम, हम अपने स्वर्ण-सिंहासन पर बड़े आनंद में हैं? हम फिकर नहीं करते तुम्हारी धूल की? कभी किसी सम्राट ने यह नहीं लिखा। लेकिन संन्यासी बार-बार यह क्यों लिखते हैं?
यह कहीं मन को समझाने की तरकीबें तो नहीं हैं? स्वर्ण-सिंहासन पूरी तरह दिखाई पड़ रहा है, अपने मन को समझाने के लिए गालियां दे रहे हैं आप कि लात मारते हैं तुम्हारे स्वर्ण-सिंहासन पर। अगर स्वर्ण-सिंहासन बेकार है तो लात मारने का कष्ट किसलिए कर रहे हैं? और अगर अपनी धूल में मजे में हैं, तो स्वर्ण-सिंहासन पर बैठे हुए लोगों को ईर्ष्या करने दो, अपने मुंह से क्यों अपनी धूल की प्रशंसा कर रहे हो? लेकिन धूल में पड़े हुए लोग संतोष खोजते हैं कि हम अपनी धूल में मजे में हैं।
यह संतोष दुख को छिपाने का उपाय है, यह दुख को मिटाने की तरकीब नहीं है। और दुख मिटाना है, छिपाना नहीं है।
संतोष दुख को छिपाता है, मिटाता नहीं। और जो समाज संतोष के माध्यम से दुख को छिपाता जाता है, धीरे-धीरे सैकड़ों वर्षों में इतने दुख इकट्ठे हो जाते हैं कि सारी आत्मा दुख से और घाव से भर जाती है। जैसा कि इस देश के साथ हुआ है। हम हमेशा दुख को छिपाते हैं, हम दुख को मिटाते नहीं। दुख को छिपाना है तो संतोष की चादर ओढ़ लेते हैं और संतुष्ट हो जाते हैं। अगर आदमी पच्चीस साल में मर जाता है तो संतुष्ट हो जाते हैं कि इतनी ही उम्र रही होगी, भाग्य में लिखी। अगर आदमी अंधा पैदा होता है तो संतुष्ट हो जाते हैं कि पिछले जन्म में कोई दुष्कर्म किए होंगे, इसलिए बेचारा अंधा हो गया। अगर गरीबी बढ़ती है, तो हम मानते हैं कि पिछले जन्म में जिन्होंने पाप किए हैं वे लोग बेचारे गरीबी का दुख उठा रहे हैं। लेकिन किसी भी तरकीब से हम संतुष्ट हो जाते हैं और राजी हो जाते हैं।
बगावत नहीं है, विद्रोह नहीं है, बदलाहट की आकांक्षा नहीं है। और वह नहीं है, इसलिए कि असंतोष नहीं है।
संतुष्ट समाज क्रांतिकारी समाज नहीं होता है। जीवन में जलती हुई असंतोष की आग चाहिए। असंतोष की आग जीवित होने का लक्षण है। वह जो फायर, वह जो आग है असंतोष की, वह जिंदा आदमी का सबूत है। मरा हुआ आदमी संतुष्ट होता है। जिंदा आदमी रोज नये से नये शिखर को छूने को आतुर होता है। रोज नये मार्गों पर चलने को, रोज नये विस्तार को, रोज नये अभियान को; जिंदगी के आखिरी क्षण तक भी वह नये को पाने की चेष्टा में रत होता है।
असंतोष, डिस्कंटेंट दिव्य लक्षण है, डिवाइन है।
मैं तो कहता ही हूं कि डिवाइन डिस्कंटेंट, दिव्य असंतोष मनुष्य को परमात्मा की सबसे बड़ी देन है--कि मनुष्य को वह पीड़ित रखता है कि बढ़ो, और बढ़ो, और आगे, और आगे, जिंदगी कहीं खत्म नहीं होती, जिंदगी और-और आगे बढ़ती चली जाती है। लेकिन हम? हमने जिंदगी का साथ बहुत दिन पहले छोड़ दिया। हम रास्ते के किनारे बैठ गए हैं। जिंदगी का कारवां बढ़ा जाता है, हम रास्ते के किनारे बैठे हैं। जिंदगी की उड़ती धूल भी हमारे सिर पर पड़ती है, उसी को आंख बंद करके झेलते रहते हैं और कहते हैं, संतुष्ट रहना चाहिए, संतोष में बड़ा सुख है।
संतोष दुख को छिपाने की तरकीब है, संतोष एस्केपिज्म है, संतोष पलायनवाद है। जिनको जिंदगी से भागना है, उनके लिए ठीक है कि आंख बंद कर लें और संतुष्ट हो जाएं। लेकिन जिन्हें जिंदगी जीनी है, उनके लिए संतुष्ट हो जाना ठीक नहीं है। और अगर पूरा समाज ही संतुष्ट हो जाए, तब तो आत्मघात हो गया, सुसाइड हो गया।
पूरा समाज संतुष्ट हो गया है। कोई चीज हमें पीड़ित नहीं करती। एक आदमी सड़क पर भीख मांगता है और हमारे प्राणों में कोई चोट नहीं पड़ती! क्या हमारे भीतर आदमी बिलकुल मर गया है? सड़क पर एक आदमी गंदे कपड़े पहने हुए बैठा है और भीख मांग रहा है, हम उसके सामने से निकल जाते हैं, कहीं भी कोई चोट नहीं पड़ती इस आदमी की! हमारे प्राणों पर कहीं कोई चोट नहीं पड़ती! हमने स्वीकार कर लिया है कि यह सब है। जिंदगी में यह सब होता है। यहां फूल भी हैं और कांटे भी हैं। यहां दुख भी है और सुख भी है। यहां अमीर लोग भी हैं और भिखमंगे भी। हमने सब स्वीकार कर लिया है। जिंदगी कितनी ही कुरूप हो, जिंदगी कितनी ही बेहूदी हो, जिंदगी कितनी ही असंगत हो, जिंदगी कितनी ही अस्वीकार के योग्य हो, हम चुपचाप उसको देखते हुए निकल जाते हैं। क्या हमारे भीतर चोट खाने की क्षमता ही खो गई है? खो गई है।
संतुष्ट आदमी में सब क्षमता खो जाती है। और फिर संतोष सिखाता है कि कभी अपनी चादर से आगे पैर मत फैलाना। संतोष कहता है, अपनी चादर के भीतर रहना। अगर चादर छोटी पड़ जाए, तो पैर सिकोड़ लेना भीतर, लेकिन चादर बड़ी करने की कोशिश मत करना। पैर बाहर मत फैलाना। चादर के भीतर रहना समझदार आदमी का लक्षण है।
अब मैं आपसे कह देना चाहता हूं कि चादर अपने आप नहीं बढ़ती और आप अपने आप बढ़ते चले जाते हो; तो चादर रोज छोटी पड़ती चली जाती है और आप बड़े होते चले जाते हो। अब सुकड़-सुकड़ कर जान निकली जाती है: कभी हाथ उघड़ जाता है, कभी पैर उघड़ जाता है, कभी पीठ उघड़ जाती है, कभी सिर उघड़ जाता है। चादर बिलकुल छोटी हो गई है। जैसे किसी छोटे बच्चे को पाजामा पहना दिया हो। अब वह बच्चा तो जवान हो गया और पाजामा वही पहने हुए है। अब उसकी हालत आप समझते हो, उससे तो बेहतर है कि वह नंगा खड़ा हो जाए, तो भी थोड़ी स्वतंत्रता मालूम पड़ेगी। लेकिन यह पाजामा बचपन का जान ले रहा है। और वह पाजामे को छोड़ता भी नहीं, क्योंकि बापदादाओं का पहनाया हुआ पाजामा है, छोड़ा कैसे जा सकता है? पुरखे पहना गए हैं। अब अगर वे ही वापस लौट कर उतारें, तो उतार भी सकते हैं, हम कैसे उतार सकते हैं? वे लौटने वाले नहीं हैं, क्योंकि वे लौटने के बाहर जा चुके हैं। अब वहां से लौटना नहीं होता। पाजामा वे पहना गए हैं। और आदमी बड़ा होता जा रहा है और छोटा पाजामा है। और हमको सिखाया यह गया है कि चादर के बाहर पैर मत पसारना। और आदमी बड़ा होता चला जाता है।
बुद्ध के जमाने में हिंदुस्तान की आबादी थी दो करोड़। तब उन्हें सिखाई गई थी यह बात कि चादर जितनी हो उतने ही पैर सिकोड़ना। बुद्ध को भी पता नहीं होगा कि चादर के भीतर का आदमी बहुत खतरनाक है, यह बहुत बड़ा हो जाएगा। अब इतना विस्तार हो गया है उस आदमी का कि उस चादर का पता ही नहीं चलता कि वह कहां है जिसके नीचे हम हैं।
पाकिस्तान बंटा, तो ऐसा लगता था कि जिन्ना ने हमसे बड़े आदमी छीन लिए। अब जिन्ना की आत्मा समझती होगी कि हमसे आदमी छीनना बहुत मुश्किल है। बीस साल में हमने पाकिस्तान से दुगुने आदमी फिर पैदा कर लिए। हम एक ही उत्पादन का काम करते हैं। हम चीजें पैदा नहीं करते। हम कोई मैटीरियलिस्ट हैं? हम कोई भौतिकवादी हैं जो चीजें पैदा करें? हम अध्यात्मवादी समाज हैं, हम सिर्फ आदमी पैदा करते हैं। आध्यात्मिक समाज नई-नई आत्माओं को पैदा करता है। वह सब भौतिकवादी लोग नई-नई चीजें पैदा करते हैं। चीजों से क्या फायदा है, आदमी पैदा करने चाहिए, आदमी असली चीज है। हम असली चीज पैदा करते हैं। और दूसरे मुल्कों में लोग फिजूल की चीजें पैदा करते हैं, जिनसे कोई फायदा नहीं है।
लेकिन वह आदमी बड़ा होता चला जाता है और चादर छोटी होती चली जाती है। और फिलॉसफी यह है कि चादर बड़ी मत करना। और फिलॉसफी यह है कि चादर के बाहर पैर ही मत निकालना। अब बड़ी जान निकली जाती है।
मैं आपसे कहता हूं कि जो लोग चादर के बाहर पैर निकालते हैं, उन लोगों को चादर बड़ी करने के उपाय भी करने पड़ते हैं। क्योंकि पैर बहुत दिन बाहर नहीं रखे जा सकते, चादर बड़ी करनी ही पड़ेगी। इसलिए अगर चादर बड़ी करनी हो, तो पैर हमेशा बाहर निकालना, ताकि चादर को बड़ा करने का खयाल पैदा हो। और अगर पैर भीतर ही रखे, तो चादर को बड़ा करने का खयाल पैदा नहीं होगा।
और ध्यान रहे, चादर बड़ी की जा सकती है; चादर कितनी ही बड़ी की जा सकती है। जमीन के पास इतनी संपत्ति है कि अभी दुनिया में तीन, साढ़े तीन अरब आदमी हैं, अगर दुनिया में तीस अरब आदमी भी हों, तो जमीन पर किसी आदमी के भूखे मरने का कोई कारण नहीं है। जमीन पर इतनी संपदा है और जमीन पर इतनी संपदा के अछूते, कुंआरे स्रोत हैं अभी--अभी समुद्र पड़ा है, जिससे इतना भोजन पैदा किया जा सकता है कि करोड़ों-अरबों लोग भोजन करें और कोई अंतर न पड़े। अभी पूरी हवाएं पड़ी हैं, हवाओं से इतना भोजन खींचा जा सकता है कि अरबों लोग जीएं और कोई तकलीफ न हो। अभी सिर्फ जमीन जोती गई है, न तो अभी समुद्र जोता गया है, न हवाएं जोती गई हैं, अभी बहुत अनजोते खेत पड़े हुए हैं। लेकिन कौन जोतेगा उनको? वे जो कहते हैं कि चादर के बाहर पैर मत निकालना? चादर के बाहर पैर निकालने चाहिए, ताकि जिंदगी को विस्तार मिलने की दिशा में गति आ सके, ताकि जिंदगी में क्रांति और रूपांतरण हो सके।
तो आज तो एक ही सूत्र पर मैं जोर देना चाहता हूं: संतोष आत्मघाति है। संतोष दरिद्रता में जीना सिखाता है। संतोष गुलामी में जीना सिखाता है।
एक हजार साल तक हम गुलाम रहे, यह बड़ा चमत्कार है इतिहास का! दुनिया में कोई कौम एक हजार साल तक गुलाम नहीं रही है और न रह सकती है। एक हजार साल तक गुलाम रहने का मतलब आप समझते हैं क्या होता है? एक हजार साल तक गुलाम रहने का मतलब यह होता है कि हमारे भीतर स्वतंत्र होने की कोई कामना ही नहीं है। एक हजार साल तक गुलाम हमें रखा जा सकता है, इसका मतलब यह है कि हम स्वतंत्र होना ही नहीं चाहते हैं।
और हम क्यों स्वतंत्र होना चाहें? हमारे शास्त्रों में लिखा है। कोई हो राजा, हमें क्या मतलब है? कोई हो नृप, हमें क्या हानि? कोई हो राजा, हमें क्या मतलब है? हम अपना राम-भजन करते रहेंगे, अपनी-अपनी मढ़ियाओं में बैठ कर कीर्तन करते रहेंगे। राजा से हमें क्या लेना-देना है? कोई भी हो!
जब ऐसी बातें सिखाई जाती हैं समाज को, तो समाज किसी भी स्थिति में रहने को राजी हो सकता है। एक हजार साल तक हम गुलाम रहने को राजी हो गए। और यह मत सोचना कि अभी आप और हम अपनी ताकत से आजाद हो गए हैं, अगर हम पर ही छोड़ दिया जाता आजाद होना, तो हम कभी इस झंझट में न पड़ते आजादी के, हम गुलाम ही रहे आते। वह तो अंग्रेज बड़े अजीब लोग थे, और न माने और हमको आजाद कर ही गए। अन्यथा हमारी कोई तैयारी न थी। हमने क्रांति की थी उन्नीस सौ बयालीस में और आजादी मिली उन्नीस सौ सैंतालीस में। ऐसा कहीं सुना है कि क्रांति हो पांच साल पहले, आजादी मिले पांच साल बाद? गोली मारी जाए अभी और लगे पांच साल बाद, ऐसा कभी सुना है? और वह गोली भी बड़ी पोच थी, उसमें भी कोई आवाज नहीं हुई थी, कुछ भी नहीं हुआ था।
हिंदुस्तान के एक नेता को भी पता नहीं था कि हम आजाद होने वाले हैं। आजादी बिलकुल आकस्मिक घटना की तरह हमारी छाती पर सवार हो गई। हम चौंक गए, हम इतने गुलामी से न चौंके थे जितने हम आजादी से चौंके। और हम गुलामी से इतनी परेशानी में न पड़े थे, जितने बीस साल से हम आजादी में पड़े हैं। यह तो आप देख ही रहे हैं। यह आजादी बड़ी अजनबी है हमारे मन को। यह हमारे मन की मांग नहीं, यह हमारे चित्त की आकांक्षा नहीं। आजाद होने के लिए भी बड़े असंतोष लोग चाहिए।
दूसरे महायुद्ध में, मैंने सुना है, जर्मनी ने तय किया था हालैंड पर हमला करने के लिए। हालैंड गरीब देश है। हमारे जैसा गरीब नहीं। गरीबी से यह मतलब नहीं होता जैसे कि हम गरीब हैं। पश्चिम में गरीबी का भी वही मतलब होता है जो हमारे यहां साधारणतः अच्छे खाते-पीते लोगों का होता है। हालैंड अमीर देश नहीं है बहुत। उसकी तकलीफ यह है कि उसके समुद्र का पानी ऊंचा है जमीन से। और चारों तरफ मुल्क में दीवालें उठा कर समुद्र के पानी को रोकना पड़ता है कि जमीन डूब न जाए। तो आधी ताकत देश की इसी में लग जाती है। और जब जर्मनी ने तय किया कि हालैंड पर हमला करेगा, तो हालैंड मुसीबत में पड़ गया। हालैंड को सोचना पड़ा। उसके पास फौजें नहीं हैं जर्मनी से लड़ने के लायक। हम क्या करेंगे? क्या हम गुलाम हो जाएं?
अगर हम होते, तो हम कहते, यह तो बहुत ही सुअवसर है, इसको क्यों चूकते हो? अपनी झंझट छोड़ो, कोई दूसरा रिस्पांसिबिलिटी लेता हो। गुलामी में एक फायदा है, अपनी कोई झंझट नहीं रहती; दूसरे लोग झंझट करते हैं, वे फिकर करते हैं। हमारी झंझट नहीं रहती। हमको चिंता भी नहीं करनी पड़ती। गुलामी के बड़े मजे हैं। गुलामी ऐसी बेमजा नहीं है। नहीं तो दुनिया में कोई आदमी इतनी देर तक गुलाम रहने को राजी न हो अगर गुलामी में कोई मजा न हो। गुलामी के भी बड़े मजे हैं। स्वतंत्र होने में जिम्मेवारी बढ़ती है, दायित्व बढ़ता है। स्वतंत्र होने में खतरे बढ़ते हैं। स्वतंत्र होने में खुद से ही भूलें हो जाती हैं। गुलाम होने में न हमसे भूलें होती हैं, न खतरे होते हैं।
मगर वह हालैंड के लोग बड़े गड़बड़ रहे होंगे, उन्होंने कहा कि हमें गुलाम नहीं होना है। फिर क्या कर सकते हो? गुलाम तो होना पड़ेगा। क्योंकि ताकत दुश्मन के पास है, तुम्हारे पास ताकत नहीं है। हालैंड के लोगों ने क्या निर्णय लिया, पता है आपको? हालैंड के लोगों ने निर्णय लिया कि जिस गांव पर जर्मनी का कब्जा हो जाए, उस गांव के लोग गांव की दीवाल तोड़ दें, समुद्र को आ जाने दें, डूब जाएं और खत्म हो जाएं। हालैंड पूरा डूब जाएगा, लेकिन गुलाम नहीं होगा। हालैंड मर जाएगा, लेकिन गुलाम नहीं होगा। और इतिहास में कहने को एक बात तो रह जाएगी कि एक कौम मर गई, लेकिन गुलाम होने को राजी नहीं हुई।
जो गुलाम नहीं होना चाहता, मैं आपसे कहता हूं, दुनिया में उसे कोई गुलाम नहीं कर सकता। मार सकता है, हत्या कर सकता है, गुलाम नहीं कर सकता। लेकिन हम गुलाम होने के लिए भीतर से तैयार हैं। अब भी तैयार हैं। अभी भी हम नये-नये ढंग से गुलामी खोज सकते हैं।
अगर चीन हम पर हमला करे तो हमारे मुल्क में लाखों लोग तैयार हो जाएंगे कि आ जाओ, स्वागत के लिए हम तैयार हैं। वह कम्युनिज्म के नाम से कहेंगे, दूसरे नाम से कहेंगे। भीतर गुलाम भारतीय बैठा हुआ है, जो किसी की भी गुलामी स्वीकार कर सकता है। वह जो भीतर हमारे गुलाम होने की वृत्ति है, वह किसी की भी गुलामी में बड़ी राहत अनुभव करेगी, वह कहेगी: चलो, झंझट छूटी, अपनी मुसीबत मिटी, अब तुम सम्हालो।
नहीं, यह इतने दिन गुलाम रहना हमारे सोचने के गलत ढंग का परिणाम था। इसमें न मुसलमानों का कसूर है, न इसमें तुर्कों का कसूर है, न हूणों का, न अंग्रेजों का। इसमें अगर कोई भी कसूरवार है, तो हमारे सिवाय और कोई कसूरवार नहीं है।
लेकिन हमारे नेता कहते हैं कि हमारा कोई कसूर नहीं है। उन्होंने हमला कर दिया, हम क्या करें? बड़े मजे की बातें करते हैं! किसी ने हमला कर दिया फिर कुछ करने को नहीं बचता? हमारे नेता कहेंगे: हमारी समाज तो बड़ी बहादुर है। बड़े शेर हैं। अभी देखा आपने, चीन का हमला हुआ था, हिंदुस्तान भर में शेर पैदा हो गए, कविता करने लगे। पूरा मुल्क एकदम कविता करने लगा कि हमको मत छेड़ो, हम सोए हुए शेर हैं। लेकिन कभी आपने सुना है कि सोए शेरों ने यह कहा हो कि हमको मत छेड़ो, या कि सोए शेरों ने कविताएं की हों, यह कभी सुना है? और फिर वे सोए शेर कहां गए और उनकी कविताएं कहां गईं, कुछ पता नहीं। वह चीन लाखों मील जमीन पर कब्जा किए बैठा है। वे सब शेर खो गए, वे सब कवि खो गए। उनमें से कई पद्मश्री हो गए, न मालूम क्या-क्या हो गए। वह सब खत्म हो गया। वह पता ही नहीं चला कि वे गए कहां सब शेर? उतने शेर हमारे पास होते तो फिर क्या कहना था। लेकिन कविता करने वाले शेर हमारे पास बहुत हैं, कविता करने वाले मतलब कागज के शेर! वह चीन ने जमीन दबा ली।
दिल्ली में मैं एक बड़े नेता से बात कर रहा था, मैंने कहा: उस जमीन का क्या हुआ? वे बड़े नेता बोले कि आप भी उसकी बात करते हैं, वह जमीन बिलकुल बेकार है, वह किसी काम की ही नहीं है; उसमें न कुछ पैदा होता है, न कुछ होता, वह बेकार जमीन है, उसके लिए क्या लड़ना-झगड़ना?
ये हमारे नेता हैं! ये हमारे अगुआ हैं! लेकिन इनका कोई कसूर नहीं है। हमारा पूरा मानस चीजों को स्वीकार करने वाला है; अस्वीकार करने वाला नहीं है। रिबेलियस माइंड नहीं है मुल्क के पास। मुल्क के पास विद्रोही चित्त नहीं है। संतोषी चित्त है।
संतोषी चित्त नहीं चाहिए। विद्रोही चित्त चाहिए। असंतुष्ट चित्त चाहिए। एक असंतोष की जलती हुई आग चाहिए जिस आग में मुल्क का सब पुराना जल जाए। सब पुराने मोह गिर जाएं, सब पुराने चिथड़े जल जाएं, सब पुरानी बकवास जल जाए। और चित्त नया हो सके, देश नया हो सके और नये के स्वागत को तैयार हो सके।
यह हो सकता है। इसके ही सूत्रों पर तीन दिन मुझे आपसे बात करनी है।
आज पहला सूत्र: डिस्कंटेंट, असंतोष।
प्रत्येक चीज से असंतोष। जैसी वह है वैसी नहीं चाहिए; उसमें बहुत कुछ फर्क किया जा सकता है, उसे नया किया जा सकता है। लेकिन हम कहेंगे, हम कहेंगे, चरखा चलाओ, तकली कातो। तो फिर हो गई मुल्क में क्रांति! बैलगाड़ी में यात्रा करो, या और भी जो सज्जन हैं वे कहते हैं, पैदल ही यात्रा करो--पदयात्रा।
बैलगाड़ी पर रुके हैं हम! और सारी दुनिया कहां से कहां पहुंच गई! वे जेट प्लेनों पर पहुंच गए, वे अंतरिक्ष यानों पर पहुंच गए। और हम बैलगाड़ी पर रुके हैं। रोने की तबीयत होती है, जो भी आदमी थोड़ा सोचता होगा, रोने की तबीयत होती है। रास्ते से बैलगाड़ी निकलती है और छाती पीट लेने का मन होता है कि हम कहां हैं? हम कहां खड़े रहेंगे? बैलगाड़ियों को लेकर क्या होगा यह? कैसे हम जीतेंगे इस जगत में? कैसे हम खड़े होंगे?
नहीं, लेकिन हमें कोई असंतोष नहीं है, हम बैलगाड़ी से ही संतुष्ट हैं। हम भागने के आदी हैं, हम एस्केपिस्ट हैं।
कनफ्यूशियस ने एक घटना लिखी है। लिखा है कि एक बार मैं पहाड़ पर गया, वहां मैंने एक औरत को एक कब्र के ऊपर रोते हुए देखा। मैंने उस औरत से पूछा कि तू क्यों रोती है? क्या हो गया? उसने कब्र बताई, उसने कहा: यह कब्र मेरा पति--मेरे पति को शेर खा गया है, उसके लिए रोती हूं। तो कनफ्यूशियस ने उस औरत से पूछा: रहती कहां है? पहाड़ पर, उस स्त्री ने कहा, मैं पहाड़ पर ही रहती हूं। पहले शेर मेरे बेटे को खा गया था--वह पीछे कब्र बनी है। उसके पहले मेरे बाप को खा गया था--वह और पीछे कब्र बनी है। अब मेरे पति को खा गया। अब मैं अकेली बची हूं। लेकिन कनफ्यूशियस ने कहा: पागल, तू नीचे जाकर बस्ती में क्यों नहीं रहती, यहां पहाड़ पर क्यों रहती है? उस स्त्री ने कहा: बस्ती में? बस्ती में रहना ठीक नहीं, वहां राजा बहुत बुरा है, उस राजा से बचने के लिए हम यहां संतोष से पहाड़ पर ही रहते हैं। कनफ्यूशियस ने कहा कि राजा बुरा है, तो राजा को बदलना चाहिए या कि गांव छोड़ कर, भाग कर पहाड़ पर रहना चाहिए? लेकिन उस औरत ने कहा कि हम यहीं संतुष्ट हैं, वहां राजा बहुत बुरा है।
मैं कनफ्यूशियस की यह घटना पढ़ता था, मैं यह सोचता था, कनफ्यूशियस कहीं मिल जाए, मिलना बहुत मुश्किल है, ढाई हजार साल पहले हो चुका। लेकिन जिंदगी अनूठी है, मिल भी सकता है। कहीं मिल जाए, तो उससे मैं कहूं कि वह औरत जो चीन में रहने लगी थी, वहां जाकर पहाड़ पर खोज-बीन करो, कहीं भारत की रहने वाली तो नहीं थी? क्योंकि मुझे शक होता है वह औरत भारतीय होनी चाहिए!
यह भारतीय मानस है! यह कहता है कि जहां तकलीफ हो वहां से भाग जाओ, कहीं छिप जाओ। अगर घर-गृहस्थी में दुख मालूम होता है, तो घर-गृहस्थी को बदलो मत, संन्यासी हो जाओ। अगर औरत के साथ तकलीफ मालूम होती है, तो औरत और आदमी की बीच की व्यवस्था को मत बदलो, औरत को छोड़ कर भाग जाओ। अगर बच्चे परेशान करते हैं, तो बच्चों को छोड़ दो, लेकिन बच्चों की जिंदगी को नया करने का, जहां से परेशानी होती है, उसको बदलने के लिए कुछ मत करो।
इसका मतलब क्या होता है? इसका मतलब होता है पलायनवादी रुख। भाग जाओ, जिंदगी का सामना मत करो। जिंदगी का सामना करना हो, तो असंतुष्ट होने की क्षमता, पात्रता और साहस चाहिए। और मरना हो, तो ठीक है, संतोष बिलकुल ठीक है। लेकिन संतोष ही रखना है, तो फिर श्वास भी नहीं लेना चाहिए, क्योंकि श्वास भी असंतुष्ट आदमी लेता है। अगर आदमी बिलकुल संतुष्ट हो जाए, तो श्वास भी क्यों लेगा? क्या जरूरत श्वास लेने की? पानी पीने की क्या जरूरत? भोजन करने की क्या जरूरत? कुछ भी जरूरत नहीं है फिर। या तो इतने संतुष्ट हो जाओ...भारत से कहने का मन होता है कि बिलकुल मर जाओ, और या फिर छोड़ो इस संतोष को और जिंदगी की राह पकड़ो और जिंदगी को बदलने की हिम्मत जुटाओ।
यह हिम्मत जुटाई जा सकती है। नये बेटों से, नये बच्चों से आशा बांधी जा सकती है। उनकी आंखों में हिम्मत की झलक मालूम पड़ती है।
लेकिन पुराने लोग उन्हें बिगाड़ने की इतनी कोशिश में लगे हैं कि बहुत डर है कि कहीं वे बिगाड़ न दें। हिंदुस्तान में जवान आदमी पैदा ही नहीं हो पाता, उसके पहले बूढ़े मिल कर उसे बूढ़ा बना देते हैं।
इन आने वाले तीन दिनों में यह मुल्क कैसे जवान हो सके, यह मुल्क कैसे विद्रोह सीख सके, यह मुल्क कैसे क्रांति से गुजर सके, उसके कुछ सूत्रों पर हम बात करेंगे।
आज तो पहले सूत्र पर मैंने बात की है: संतोष को छोड़ दो; असंतोष को स्वीकार करो। असंतोष मार्ग है परिवर्तन का, असंतोष मार्ग है क्रांति का, असंतोष मार्ग है नये जीवन की उपलब्धि का।
मेरी बातों को इतनी प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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