YOG/DHYAN/SADHANA
Ek Ek Kadam (एक एक कदम) 01
First Discourse from the series of 7 discourses - Ek Ek Kadam (एक एक कदम) by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
भारत के संबंध में कुछ भी सोचना निश्चित ही चिंता से भरता है। भारत के संबंध में सोचता हूं, तो एक कड़ी मेरे मन में इस तरह घूमने लगती है जैसे कोई कागज की नाव पानी की भंवर में फंस जाए और चक्कर खाने लगे। वह कड़ी न मालूम किसकी है। उस कड़ी के आगे और क्या कड़ियां होंगी, वह भी मुझे पता नहीं। लेकिन जैसे ही भारत का खयाल आता है वह कड़ी मेरे मन में चक्कर काटती है, वह मेरे जहन में घूमने लगती है। और वह कड़ी यह है:
‘हर शाख पे उल्लू बैठे हैं, अंजामे-गुलिस्तां क्या होगा?’
अगर किसी फुलवारी में हर पौधे की शाखाओं पर उल्लू बैठे हों, तो उस फुलवारी का क्या होगा? उन उल्लुओं की तरफ देखो, तो फुलवारी का क्या होगा?...चिंता पैदा होती है।
भारत में कुछ ऐसा ही हुआ है। बुद्धिहीनता के हाथ में भारत की पतवार है। जड़ता के हाथ में भारत का भाग्य है। नासमझियों का लंबा इतिहास है, अंधविश्वासों की बहुत पुरानी परंपरा है, अंधेपन की सनातन आदत है और उस सबके हाथ में भारत का भाग्य है।
लेकिन यह खयाल उठता है, यह सवाल भी कि आखिर भारत का यह भाग्य अंधेपन के हाथ में क्यों चला गया है? भारत का यह सारा भाग्य अंधकार के हाथों में क्यों है? सौभाग्य क्यों नहीं है भारत के जीवन में, दुर्भाग्य ही क्यों है?
हजार साल तक दास रहे कोई देश, हजारों साल तक गरीब, दीन-हीन रहे कोई देश, हजारों वर्ष के विचार के बाद भी किसी देश का अपना विज्ञान पैदा न हो सके, अपनी क्षमता पैदा न हो सके; नये-नये देशों के सामने प्राचीनतम देश को हाथ फैला कर भीख मांगनी पड़े!
अमरीका की कुल उम्र तीन सौ वर्ष है। तीन सौ वर्ष जिनकी संस्कृति की उम्र है, उनके सामने जिनकी संस्कृति की उम्रों को सनातन कहा जा सके; कोई दस हजार वर्ष पुरानी; उनको भीख मांगनी पड़े, तो दस हजार वर्ष से हम क्या कर रहे थे? दस हजार वर्षों में हमने पृथ्वी पर क्या किया है? हमारे नाम पर क्या है? हम दस हजार वर्ष चुपचाप बैठे रहे हैं...या हमने आंख बंद करके दस हजार वर्ष गंवा दिए हैं? और आगे स्थिति और विकृत होती चली जाती है।
एक अमरीकी विचारक ने अभी एक किताब लिखी है: उन्नीस सौ पचहत्तर। उस किताब की सारी दुनिया में चर्चा है, सिर्फ हिंदुस्तान को छोड़ कर। ‘उन्नीस सौ पचहत्तर’ में उसने हिंदुस्तान के बाबत बातें की हैं और हिंदुस्तान में उसकी कोई चर्चा नहीं है। ‘उन्नीस सौ पचहत्तर’ में उसने लिखा है कि उन्नीस सौ पचहत्तर और अठहत्तर के बीच हिंदुस्तान में इतना बड़ा अकाल पड़ेगा, जितना बड़ा अकाल मनुष्य के इतिहास में किसी देश में कभी भी नहीं पड़ा। उस अकाल में उसके हिसाब से अंदाजन दस करोड़ से लेकर बीस करोड़ तक लोगों के मरने की संभावना सिर्फ भारत में पैदा हो जाएगी। उसके आंकड़े दुरुस्त हैं, भूल हो सकती है थोड़ी-बहुत, लेकिन वह भूल इसमें नहीं होगी कि कम लोग मरेंगे, वह भूल इसमें होगी कि ज्यादा लोग मर सकते हैं।
दिल्ली में एक बड़े नेता से मैंने उस किताब की बात कही। उनसे मैंने कहा: आपने उन्नीस सौ पचहत्तर पढ़ी है? उसमें भारत में दस वर्षों के भीतर दस करोड़ से लेकर बीस करोड़ लोगों तक के मरने की अकाल की संभावना की बात की गई है।
वह नेता कहने लगे: उन्नीस सौ पचहत्तर! उन्नीस सौ पचहत्तर अभी बहुत दूर है।
जिनको उन्नीस सौ पचहत्तर दूर दिखता हो, उनके पास देखने वाली आंखें हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। देश की जिंदगी में वर्ष ऐसे बीत जाते हैं जैसे आदमी की जिंदगी में क्षण बीतते हैं। देश की जिंदगी में सदियां ऐसे बीतती हैं जैसे एक आदमी की पूरी जिंदगी बीत जाती है। पता भी नहीं चलता देश की उम्र में सदियों का। लेकिन आंखें हों तो आगे दिखाई पड़ सकता है, आंखें न हों तो आगे दिखाई नहीं पड़ सकता है।
उन्नीस सौ पचहत्तर निकट आता चला जाएगा, हम बच्चे पैदा करते चले जाएंगे। और कुछ हम पैदा नहीं करते हैं सिवाय बच्चों के। असल में हमने भौतिक चीजें पैदा न करने का तय कर रखा है। हम कोई भौतिकवादी लोग तो हैं नहीं, मैटीरियलिस्ट तो हैं नहीं कि हम भौतिक चीजें पैदा करें। हम तो सिर्फ आदमी पैदा करते हैं। आध्यात्मिक चीज पैदा करते हैं। और उसको हम पैदा करते चले जा रहे हैं। संख्या आसमान को छूने लगी...और हमारी कोई पैदावार नहीं है दूसरी। और हम सब हाथ पसार कर भीख मांग कर काम चला रहे हैं। लेकिन उस गड्ढे की तरफ भी हम नहीं देखेंगे जिसकी तरफ हम सरके जा रहे हैं।
नेता कहते हैं, वह बहुत दूर है। साधु-संन्यासी कहते हैं, बच्चे भगवान पैदा करता है, इसमें आदमी का क्या हाथ है! और जब भगवान पैदा करता है, वह फिकर भी करेगा। उसने हमेशा फिकर की है, वह आगे भी फिकर करेगा। साधु-संन्यासी यह समझाते हैं। नेता कहते हैं, कोई मुसीबत...नेताओं को सिवाय चुनाव के दूसरी कोई मुसीबत दिखाई नहीं पड़ती। उनकी आंखों में सिर्फ चुनाव दिखाई पड़ता है और कुछ उनको दिखाई नहीं पड़ता। और उनको चुनाव इसलिए दिखाई पड़ता है कि उनको सिर्फ कुर्सियां दिखाई पड़ती हैं और कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
यह सारी की सारी दशा जरूर किसी बुनियादी भूल के कारण पैदा हो गई है। और वह बुनियादी भूल यह है कि हजारों साल से भारत को विचार नहीं करना है, ऐसी शिक्षा दी जा रही है। वह हमारे दुर्भाग्य का मूल-सूत्र है।
भारत में विश्वास करना है, विचार नहीं करना है; श्रद्धा करनी है, विवेक नहीं करना है; मान लेना है, सोचना नहीं है, यह सिखाया जा रहा है। गुरुओं की लंबी परंपरा एक ही काम कर रही है कि हर आदमी से विचार के बीजों को उखाड़ कर फेंक दो और विश्वास के कचरे की जड़ें जमा दो। हमें यही समझाया जाता रहा है कि विश्वास करना परम धर्म है। और मैं आपसे कहना चाहता हूं कि जो आदमी विश्वास करता है, वह आदमी धार्मिक तो कभी नहीं हो पाता। आदमी भी नहीं हो पाता है, धार्मिक होना तो बहुत दूर है।
विचार की शक्ति ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है। जागा हुआ विवेक ही मनुष्य की आत्मा है।
भारत की आत्मा खोती चली गई है। क्योंकि विवेक और विचार के हम दुश्मन हैं। हम कहते हैं, बस मान लेना चाहिए। गीता को इसलिए मान लेना चाहिए कि वह कृष्ण कहते हैं; और गांधीवाद को इसलिए मान लेना चाहिए, क्योंकि गांधी जी कहते हैं; बुद्ध के वचन इसलिए मान लेने चाहिए कि बुद्ध भगवान हैं; और महावीर के वचन इसलिए मान लेना चाहिए कि वे तीर्थंकर हैं। लेकिन कौन तय करता है कि कौन तीर्थंकर है, कौन महात्मा है, कौन भगवान है? यह भी मान लेना चाहिए, क्योंकि यह किताबों में लिखा हुआ है। और फिर जो भी कहा जाए--और चाहे वह बुद्धिपूर्ण हो, अबुद्धिपूर्ण हो; योग्य हो, अयोग्य हो; हितकर हो, अहितकर हो, उसको मान लिया जाना चाहिए। मान लिया जाना ही एक योग्यता है हमारी। जो नहीं मानता, वह नास्तिक है, वह भटका हुआ है।
मैं आपसे कहता हूं: मानने वाले लोग स्वयं तो अंधे हो ही जाते हैं, क्योंकि मानने वाले को आंख खोलने की जरूरत नहीं रहती, मानने वाले के लिए आंख खोलने की क्या जरूरत है? आंख खोलने की जरूरत तो उसके लिए है जो देखना चाहता है खुद, सोचना चाहता है, चलना चाहता है, समझना चाहता है, उसे आंख खोलने की जरूरत है।
लेकिन आंख खोलना इस देश में पाप है। यहां आंख बंद कर लेना पुण्यात्मा का लक्षण है। जिंदगी से आंख बंद कर लो। दुनिया कुछ भी सोच-समझ रही हो, तुम आंख मत खोलना। तो देश फिर अभाग्य में, दुर्भाग्य में, दुर्घटना में, अंधेरे में नहीं गिरेगा तो और क्या होगा? और जब इतना अंधापन हो, इतना अंधेरा हो, तो स्वभावतः, स्वभावतः इतने अंधकार में, इतने अंधेपन में अंधेरे के रहने वाले जीव-जंतु अगर नेतृत्व करने लगें, तो कोई आश्चर्य तो नहीं है।
मैंने सुना है, बंगाल के एक गांव में एक दिन सुबह-सुबह एक घटना हो गई थी। एक छोटा सा तेली है, उसकी तेल की दुकान है, वह अपनी तेल की दुकान पर तेल बेच रहा है। गांव में एक विचारक रहता था, वह तेल खरीदने आया है। वह अपना बर्तन सामने रख कर तेल तुलवा रहा है, तभी उसने देखा कि तेली के पीछे बैल चल रहा है, कोल्हू चला रहा है। लेकिन बैल को कोई हांकने वाला नहीं है, बैल अपने आप ही चल रहा है। तो उस विचारक को बड़ी हैरानी हुई! उसने उस तेली को पूछा कि तुम्हारा बैल बड़ा धार्मिक मालूम पड़ता है, कोई चला ही नहीं रहा और यह चल रहा है? और भारत में ऐसा तो होता ही नहीं, चपरासी से लेकर राष्ट्रपति तक जब तक पीछे कोई हांकने वाला न हो, कोई चलता ही नहीं। यह बैल कैसा गड़बड़ है, यह भारतीय नहीं मालूम होता, नस्ल कहां की है? यह अपने आप क्यों चल रहा है?
उस तेली ने कहा: बैल शुद्ध भारतीय है, इसीलिए चल रहा है। दूसरी जाति का बैल होता, तो खड़े होकर पता भी लगाता कि कोई पीछे है कि नहीं? लेकिन शायद आप देख नहीं रहे हैं महाशय, उस तेली ने कहा कि मैंने उसकी आंख पर पट्टियां बांध दी हैं, उसे दिखाई भी नहीं पड़ता कि कोई पीछे है या नहीं। उस तेली ने कहा: जिसका भी शोषण करना हो उसकी आंख पर पट्टी बांध देना बहुत जरूरी होता है--चाहे बैल हो और चाहे आदमी हो। आंख पर पट्टी न हो तो आदमी का शोषण किया जाना बहुत मुश्किल है। शोषण चाहे राजनैतिक हो, चाहे धार्मिक, शोषण के लिए शोषित की आंख पर पट्टी होनी बहुत जरूरी है। अंधा ही अपना खून चुसवा सकता है। आंख वाला कैसे चुसवा सकता है?
उस विचारक ने कहा: यह तो ठीक है कि आंख पर पट्टी बांध दी, लेकिन बैल कभी रुक कर यह पता तो चला सकता है कि पीछे कोई हांकने वाला है या नहीं? रुक कर तो पता चल जाएगा, जब नहीं हांका जाएगा तो वह समझ सकता है कोई पीछे नहीं है।
उस तेली ने कहा: महाशय, आप बैल को ज्यादा बुद्धिमान समझते हैं या मुझको? अगर ऐसा होता, बैल ज्यादा बुद्धिमान होता, तो वह तेल बेचता और मैं कोल्हू चलाता। मैंने उसके गले में घंटी बांध रखी है। घंटी बजती रहती है बैल चलता रहता है, घंटी बजती रहती है मैं समझता हूं बैल चल रहा है। जैसे ही घंटी रुकी कि मैं कूदा और मैंने बैल को हंाका। मेरी पीठ है बैल की तरफ, लेकिन कान मेरे वहां लगे हैं। घंटी बजती रहती है मैं जानता हूं बैल चल रहा है।
वह विचारक भी जिद्दी रहा होगा। विचारक जिद्दी होते ही हैं। उसने कहा कि यह मैं समझ गया, ठीक है, घंटी मुझे सुनाई पड़ रही है, लेकिन बैल खड़े होकर गर्दन भी तो हिला कर घंटी बजा सकता है?
उस तेली ने कहा: महाराज! जोर से मत बोलिए। बैल अगर सुन लेगा तो मैं बहुत मुसीबत में पड़ जाऊंगा। और आप आगे से किसी और दुकान से तेल खरीद लेना। ऐसे आदमियों का साथ ठीक नहीं होता, सोहबत का असर पड़ जाता है।
भारतीय चित्त के साथ भी बैल जैसा व्यवहार किया गया है। आंख पर पट्टियां हैं, गले में घंटियां हैं और भारत को जोता गया है। फायदा हुआ है कुछ लोगों को, फायदा नहीं होता तो यह कभी चलता नहीं। फायदा बहुत हुआ है सत्ताधिकारियों को। चाहे वे सत्ताधिकारी किसी भी तरह के हों--चाहे राजनैतिक सत्ता हो उनके हाथ में, चाहे धार्मिक सत्ता हो, चाहे आर्थिक सत्ता हो। सत्ताधिकारी के लिए यह हितकर है, यह मंगलदायी है कि लोग न सोचें, न विचारें, क्योंकि सोच-विचार से आंख खुल जाती है।
आंख पर पट्टी बांधने की तरकीब है: श्रद्धा करो, विश्वास करो, अनुगमन करो, पीछे चलो, अपनी बुद्धि पर कभी जोर मत देना। कृष्ण को मानो, राम को मानो, गांधी को मानो, अपने को कभी मत मानना। बस एक चीज से बचना, खुद को मानने से। और सबको मानना, कोई हर्जा नहीं है। क्योंकि जो आदमी दूसरों को मानता रहता है उसकी खुद की जानने और सोचने की क्षमता धीरे-धीरे क्षीण हो जाती है। आखिर जरूरत नहीं रहती उसकी, जब दूसरों ने सब कह दिया है सत्य तो मुझे और खोजने की क्या जरूरत? अगर एक आदमी तीन साल तक आंख बंद करके बैठ जाए, तो आंखें भी रोशनी खो देंगी।
भारत ने बुद्धि का उपयोग हजारों साल से नहीं किया है, और अगर भारत ने बुद्धि खो दी हो, तो कोई आकस्मिक घटना नहीं घट गई है। हजारों साल तक पंगु पड़ी है बुद्धि, कोई उपयोग नहीं कर रहा है। बाप बेटे से कह रहा है कि मानो जो हम कहते हैं, क्योंकि मैं बाप हूं। अरे, बाप होने से क्या सही हो जाता है आदमी? बाप होना क्या कोई किसी चीज के सही होने का सबूत है? शिक्षक विद्यार्थियों से कह रहा है कि हम जो कहते हैं मानो। क्योंकि आप तीस साल पहले पैदा हो गए इसलिए, कोई बहुत ऊंचा काम किया है आपने कि आप जो कहते हैं वह सही हो जाएगा?
सही होने की कसौटी उम्र नहीं होती। न बाप होना होता है, न शिक्षक होना होता है। सही होने की कसौटी के कुछ और अर्थ होते हैं। तर्क होता है, विचार होता है। कारण होते हैं किसी चीज के सही और गलत होने के। यह कारण नहीं होते कि मैं कौन हूं इसलिए सही मानो। लेकिन यही हमारा सूत्र है अब तक। इस सूत्र के कारण...भारत में बच्चे पैदा होते हैं, लेकिन उनकी प्रतिभा कुंठित हो जाती है, वह प्रतिभा विकसित नहीं होती। भारत का जीनियस, मेधा विकसित नहीं होती।
सोच-विचार की हवा ही नहीं है। और जिंदगी से लड़ना है तो सोचना पड़ेगा। हारना है तो मत सोचिए। अगर जिंदगी को जीतना है तो विचार के अतिरिक्त कोई सूत्र, कोई शक्ति आदमी के हाथ में नहीं है। अगर जिंदगी के राज जानना है, अगर पदार्थ में छिपी हुई शक्तियों के मालिक बनना है, अगर प्रकृति में छिपा हुआ रहस्य खोजना है, अगर आकाश और चांद-तारों पर ताकत लानी है, तो विचार, विचार, विचार...उसके अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। नहीं तो, नहीं तो दीन-हीन हो जाएंगे, दरिद्र हो जाएंगे, गुलाम हो जाएंगे। जब हो जाएंगे, तो फिर, फिर एक ही रास्ता रहेगा, भाग्य को...कि भाग्य में ही यह था और कुछ नहीं।
विश्वास करने वाले लोगों के हाथ में भाग्य के अतिरिक्त अपील के लिए कोई अदालत नहीं रह जाती। बस भाग्य! जो भी कौम विश्वास करती है वह भाग्यवादी हो जाती है। उसको ऐसा लगने लगता है, जो हो रहा है, होगा। आदमी बचपन में मर जाए तो उसका भाग्य; अस्सी साल जी कर मर जाए तो भाग्य; बीमार रहे तो भाग्य, स्वस्थ रहे तो भाग्य; गरीबी हो तो भाग्य, अमीरी हो तो भाग्य; देश गुलाम हो जाए तो भाग्य, और अंग्रेजों का दिमाग फिर जाए और देश को आजाद कर दें तो भाग्य, हमारा इसमें क्या कसूर है? हमारा कोई कसूर नहीं है आजादी के लेने में, अंग्रेजों की गलती है। हम तो हजारों साल तक गुलाम रहने को भी राजी थे। अंग्रेजों के दिमाग फिर गए, न मालूम कैसी गड़बड़ हो गई? वे चले गए। हम तो भाग्य पर बैठे रहते। हम कभी कुछ न करते।
विश्वास की छाया है भाग्य। और जिस समाज और जिस देश के दिमाग में भाग्य बैठ गया, उसका पुरुषार्थ मर जाता है। सुसाइड हो जाती है, आत्महत्या हो जाती है। फिर करने का कोई सवाल नहीं रह जाता है।
करते तो वे हैं जो मानते हैं कि हमारे करने से कुछ होगा। जो मानते हैं हमारे करने से कुछ भी नहीं होगा; करने वाला कोई और है; हम तो गुड्डियां हैं, जिनके धागे भगवान के हाथ में हैं, वह नचा रहा है। भई, भगवान भी खूब मदारी है, काहे के लिए नचा रहा है इन गुड्डियों को? और अब तक थक भी नहीं गया और नचाए चला जा रहा है? हम थक गए, गुड्डियां थक गईं, गुड्डियां कहती हैं: आवागमन से छुटकारा चाहिए, मोक्ष चाहिए, लेकिन वह मदारी नहीं थकता, वह नचाए चला जा रहा है।
हम सिर्फ उसके हाथ के खिलौने हैं? अगर हम किसी के हाथ के खिलौने हैं, तो जिंदगी एक व्यंग्य हो गई, मजाक हो गई। और व्यंग्य भी बहुत खतरनाक हो गया। लेकिन यही हमारी दृष्टि है। विश्वास करने वाले लोग भाग्यवादी हो जाएंगे। और भाग्यवादी लोग पुरुषार्थ खो देंगे, श्रम खो देंगे, संकल्प खो देंगे, जिंदगी से लड़ने की क्षमता और साहस खो देंगे। रोना उनके हाथ में रह जाएगा। बैठ कर रोएंगे कतार बांध कर और इस रोने को धर्म कहेंगे कि हम धार्मिक कार्य कर रहे हैं।
मंदिरों में कर क्या रहे हैं हम? कोई प्रार्थना कर रहा है मंदिरों में? मंदिरों में सिवाय रोने के और कोई काम नहीं किया जा रहा है। कोई अपनी बीमारी के लिए हाथ जोड़ कर रो रहा है, कोई लड़के की नौकरी के लिए रो रहा है, कोई किसी और बात के लिए रो रहा है। मंदिरों में लोग रो रहे हैं। हमारी प्रार्थना रोने के सिवाय और कुछ भी नहीं है। और चौबीस घंटे ही हम रो रहे हैं। क्योंकि हम तो कुछ कर नहीं सकते, कुछ हो रहा है। हम चिल्ला सकते हैं। अगर पानी नहीं गिरता है देश में, तो हम यज्ञ कर सकते हैं; यज्ञ रोना है। यज्ञ से पानी गिरने का तीन काल में भी कोई संबंध नहीं है। तुम कितनी आग जलाते हो, कितना गेहूं जलाते हो, कितना घी जलाते हो, बादलों को जरा भी मतलब नहीं है कि तुम क्या पागलपन कर रहे हो? बादलों को पता भी नहीं होगा कि आपके ब्रह्मचारी और आपके संन्यासी आग में घी डलवा रहे हैं। और पागलों की तरह चक्कर काट रहे हैं उसका और मंत्र बोल रहे हैं। यह बादलों को पता भी नहीं है। और अगर पता होगा तो बहुत हंसते होंगे मन में कि कैसे नासमझ लोग हैं, ये क्या कर रहे हैं? इससे पानी गिरने का क्या संबंध है?
लेकिन भाग्यवादी लोग, विश्वासी लोग क्या कर सकते हैं? किताब में लिखा है कि ऐसा करने से पानी गिरेगा तो वे चक्कर लगाते करते रहते हैं। नहीं पानी गिरता तो विश्वासी मानते हैं कि हमारे करने में कोई गलती रह गई होगी, नहीं तो पानी तो जरूर गिरता। कलयुग आ गया है इसलिए गड़बड़ हो रही है, नहीं तो पानी तो गिरता। पहले तो ॠषि-मुनि गिरा लेते थे।
वहां रूस में वे बादलों को खींच कर ले आएंगे अपनी जमीन पर। बादल लाए जा सकते हैं, जहां भी चाहा जाए वहां लाए जा सकते हैं। बादलों को आदमी अपनी मर्जी से खींच कर कहीं भी ला सकता है। बादलों को मजबूर किया जा सकता है कि पानी गिराओ। लेकिन मंत्र से और यज्ञ से यह नहीं होता है। यज्ञ और मंत्र हमारी नपुंसकता के प्रतीक हैं, हमारी सामर्थ्य के नहीं, इंपोटेंस के, जो कुछ भी नहीं कर सकते, वे यज्ञ वगैरह करते हैं। यह आखिरी उपाय है दीन-हीनों का। सिर पटकते हैं, व्यर्थ ही समय खराब कर रहे हैं। लेकिन नहीं, वह जो हमें सिखाया गया है हजारों साल तक। हम शक भी नहीं करेंगे, संदेह भी नहीं करेंगे। संदेह पैदा हो तो विचार पैदा होगा, विचार पैदा हो तो पुरुषार्थ पैदा होता है।
संदेह पहला सूत्र है। संदेह पैदा हो, डाउट पैदा हो, तो विचार पैदा होता है।
क्योंकि संदेह कहता है, सोचो, क्या है ठीक? अगर यह ठीक नहीं है, तो ठीक क्या है? अगर यही ठीक है, तो सोचने की कोई जरूरत नहीं है, बात खत्म हो गई। ठीक, हमारे पुरखे हमेशा के लिए तय कर गए हैं। हमारे हाथ में अब कोई काम नहीं है। सोचने का क्या सवाल है?
संदेह पैदा होता है, तो विचार पैदा होता है। और जब विचार पैदा होता है, तो पुरुषार्थ पैदा होता है, कुछ करने का सवाल उठता है। जब विचार लेता है आदमी, तो करके देखता है कि हो सकता है या नहीं हो सकता है।
अभी कुछ वर्षों पहले एक पाश्चात्य डॉक्टर डेनिश हिंदुस्तान आया। उसने स्वामी शिवानंद की एक किताब पढ़ी, आपमें से कई लोगों ने पढ़ी होगी। क्योंकि फिजूल किताबें पढ़ने के सिवाय हम कोई काम ही नहीं करते हैं। स्वामी शिवानंद की एक किताब उसने पढ़ी, उस किताब में लिखा हुआ है कि ओम का पाठ करने से हर तरह की बीमारी तत्काल दूर हो जाती है। और यह भी लिखा है कि ओम का पाठ करने से बीमारी तो क्या, अगर कोई आदमी पूरे श्रद्धा, विश्वास से ओम का पाठ करे, तो मृत्यु को भी जीत लेता है। कई किताबों में लिखा है। स्वामी शिवानंद का कोई कसूर नहीं है। उन्होंने कॉपी किया होगा कहीं से। यहां हिंदुस्तान में कोई अपनी तरफ से तो कुछ लिखता ही नहीं, सिवाय कार्बनकॉपी के। इसलिए कसूर उनका कोई भी नहीं है। उनकी कोई गलती नहीं है। वह तो कई किताबों में लिखा हुआ है। उन्होंने उतार दिया होगा। हिंदुस्तान में किताब लिखने का ढंग यह है कि दस किताब पढ़ो और एक किताब लिखो। फौरन किताब पैदा हो जाती है। इसलिए उनकी कोई गलती नहीं है। उन्होंने तो पुरखों ने जो पहले भी कहा है, उसको ही दोहरा दिया है।
वह डेनिश डॉक्टर...और उसने जब यह सुना कि स्वामी शिवानंद भी पहले डॉक्टर थे, संन्यासी होने के पहले, लेकिन उसको पता नहीं कि हिंदुस्तान का कोई डॉक्टर विश्वास योग्य नहीं है। डॉक्टर ऊपर से रहता है, भीतर वही हिंदुस्तानी पागल दिमाग बैठा हुआ है। कब गेरुआ वस्त्र पहन लेगा, कुछ पता नहीं। और कब राम-राम जपने लगेगा, कुछ पता नहीं। और अभी भी दवाई, इंजेक्शन लगाते वक्त भीतर-भीतर जप रहा हो, तो कोई ठिकाना नहीं। उसने सोचा कि डॉक्टर, यह शिवानंद तो डॉक्टर था, तो यह तो जब लिख रहा है तो कुछ सोच कर लिख रहा होगा कि ओम के पाठ से बीमारियां दूर हो जाती हैं। जब डॉक्टर है तो कुछ सोच कर लिख रहा होगा। और जब यह कहता है कि मृत्यु तक जीती जा सकती है, तो कोई प्रयोग करके लिख रहा होगा। क्योंकि पश्चिम में कोई कुछ भी नहीं लिख देता है। लेकिन उन्हें पता नहीं हमारी आदतों का, कि हमें इसकी फिकर ही नहीं कि हम क्या लिखते हैं, क्या कहते हैं। हम कुछ भी कह सकते हैं। हम कुछ भी लिख सकते हैं।
वह आदमी भागा हुआ हिंदुस्तान आया। हम कहेंगे, नासमझ था। आणंद में कितने ही लोगों ने ऐसी किताबें पढ़ी होंगी, कभी कोई भाग कर कहीं जाता है। पढ़ लेते हैं, अपने घर बैठे रहते हैं। लेकिन उसको यह बेचैनी हो गई कि एक डॉक्टर ऐसा लिखता है, तो जरूर इसमें कोई मतलब होना चाहिए। वह बेचारा ॠषिकेश पहुंचा। वह बड़े भाव से भरा हुआ...उसने अपनी डायरी में लिखा है कि मैं इतना पागल हो गया कि अगर ऐसा कोई सूत्र मिल गया है कि जिसके पाठ से सारी बीमारियां दूर हो जाती हैं, तब तो दुनिया धन्य हो जाएगी। तब तो अस्पतालों की, मेडिकल कॉलेजज़ की, इतनी दवा-दारू, इतना सब दंद-फंद, सब बंद कर देंगे। एक छोटी सी तरकीब मिल गई है, सीके्रट मिल गया है। यह तो बड़ा राज है। यह इस आदमी को तो नोबल प्राइज मिलनी चाहिए अभी इसी वक्त! कहां छोटी-मोटी दवाइयां खोजने वालों को...लुई पास्चर को, फलां-ढिकां को तुम जाकर और नोबल प्राइज दे देते हो। जिस आदमी ने इतनी बड़ी बात निकाल ली है, इसको तो नोबल प्राइज अभी मिलनी चाहिए! वह भागा हुआ ॠषिकेश पहुंचा। उसने जाकर स्वामी शिवानंद के सेक्रेटरी को कहा कि मैं इसी वक्त मिलना चाहता हूं स्वामी जी से!
सेक्रेटरी ने कहा: अभी नहीं मिल सकते! अभी स्वामी जी बीमार हैं और डॉक्टर उन्हें इंजेक्शन लगा रहा है!
वह आदमी तो भौचक्का खड़ा रह गया। स्वामी जी! उसने कहा: बीमार हैं? यह कभी नहीं हो सकता। यह कैसे हो सकता है? स्वामी जी कभी बीमार नहीं हो सकते। मैंने तो उनकी किताब पढ़ी है, जिसमें लिखा है कि ओम का पाठ करने से आदमी बीमारियों को जीत लेता है।
उस सेक्रेटरी ने कहा: पढ़ी होगी किताब, लेकिन स्वामी जी बीमार हैं। अभी डॉक्टर देख रहा है, अभी आप नहीं मिल सकते!
हम कहेंगे, अगर हम होते वहां, तो हम कहते, अरे पागल, तू समझता नहीं है, स्वामी जी लीला कर रहे हैं। यह तो लीला है, स्वामी जी थोड़े ही बीमार पड़े हैं, यह तो लीला दिखला रहे हैं। भक्तों की जांच कर रहे हैं, कौन श्रद्धा रखता है, कौन अश्रद्धा रखता है। भक्तों की जांच कर रहे हैं स्वामी जी इस वक्त । बीमार नहीं हैं, लीला कर रहे हैं। और जांच कर रहे हैं कि कौन है सच्चा श्रद्धालु, जो अभी भी माने कि स्वामी जी स्वस्थ हैं, जो नहीं माने वह नास्तिक है।
लेकिन वह डेनिश तो जैसे पहाड़ से गिर पड़ा। उसने अपनी किताब में लिखा है कि मैं तो दंग रह गया कि लोग कैसे हैं? किस मुद्दे पर लिखा है इस आदमी ने यह? लेकिन हम कोई भी नहीं कहेंगे, हमें कहेंगे, कहां, इसमें क्या मुद्दे की बात है?
हमें खयाल भी नहीं आएगा, क्योंकि विचार तो हमने बंद ही कर दिया है। यह सब खयाल दूसरों को आते हैं। जो विचार कर रहे हैं वे पूछना चाहते हैं, संदेह करना चाहते हैं, प्रयोग करना चाहते हैं, परीक्षण करना चाहते हैं, नतीजे निकालना चाहते हैं। हम सिर्फ घोषणाएं करते हैं।
यह स्थिति देश में विचार को पैदा नहीं होने देती है। और विचार पैदा नहीं होगा, तो भारत का कोई भी भविष्य नहीं है।
हम बहुत पिछड़ गए हैं, हम और पिछड़ते चले जाएंगे। हर दिशा में पिछड़ गए हैं। और पिछड़ने का एक ही कारण है कि हम कुछ पकड़े बैठे हैं हजारों साल से, कभी संदेह ही नहीं करते कि हम जो पकड़े बैठे हैं वह क्या है? आंख तो खोलो, देखो तो कि वह क्या है जिसे तुम पकड़े बैठे हो? लेकिन हमें डर लगता है कि अगर हमने सोच-विचार किया, तो कहीं ऐसा न हो कि हमारे पुरखे, हमारे ॠषि-मुनि गलत सिद्ध हो जाएं। तो चाहे हमारी जिंदगी नष्ट हो जाए, हमने एक कसम खा ली है कि अपने पुरखों को कभी गलत सिद्ध न होने देंगे। लेकिन पुरखों ने क्या कोई ठेका ले लिया है कि वह हमेशा के लिए सही हों? वह हमको हमेशा के लिए गलत कर गए हों और खुद हमेशा के लिए सही हो गए हैं। और मुर्दा, मर गए लोग अगर जिंदा लोगों को इस तरह फंसा दें, बहुत मुसीबत हो जाती है। जीना हमें है और वे जो कह गए हैं मानना उसे है। जिंदा हमें रहना है, जिंदगी से लड़ना हमें है, लेकिन उसूल उनके हैं; इस तरह नहीं चल सकता है आगे।
इसलिए पहली बात, भारत के दुर्भाग्य का बुनियाद है: विश्वास, बिलीफ, अंधविश्वास। आंख बंद करके माने चले जाना--सब दिशाओं में! वे दिशाएं कोई भी हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। इस दुर्भाग्य को तोड़ने का सूत्र है: विश्वास नहीं; विचार, संदेह, सोचना। हमारी हालत भेड़-बकरियों जैसी हो गई है।
मैंने सुना है, एक स्कूल में एक शिक्षक बच्चों को पढ़ा रहा था। और वह उनसे कुछ सवाल पूछ रहा था गणित के। फिर उसने एक सवाल दिया बच्चों को कि एक छोटी सी बगिया में चार दीवारी के भीतर बीस भेड़ें बंद हैं। उसमें से एक भेड़ छलांग लगा कर बाहर निकल गई, तो भीतर कितनी भेड़ें बचीं?
एक बच्चा एकदम हाथ हिलाने लगा, यह बच्चा कभी हाथ नहीं हिलाता था।
शिक्षक ने पूछा: आज तुझे क्या हो गया है?
उसने कहा कि मेरे घर में भेड़ें हैं, इसलिए मैं जवाब दे सकता हूं, एक भी नहीं बचेगी, सब निकल जाएंगी, पीछे एक भी नहीं बचेगी। आप कहते हैं न एक निकल गई। पीछे एक भी नहीं बचेगी।
शिक्षक ने पूछा: मतलब क्या? पागल! बीस भेड़ें थीं, एक निकली है।
उसने कहा: एक निकली होगी गणित में, भेड़ें सब निकल गईं, पीछे एक नहीं बच सकती, क्योंकि भेड़ें पीछे चलती हैं।
यही गणित भारत पर लागू होता है। इधर एक निकल जाए, फिर सारा मुल्क उसके पीछे चला जाए। जय-जयकार करता हुआ, जय महात्मा, जय महात्मा, झंडे हिलाता हुआ पीछे चला जाएगा। कोई नहीं पूछेगा कि ये भेड़ के पीछे क्यों चले जा रहे हो? अपने बल पर खड़े होना एक-एक आदमी को चाहिए। किसी के पीछे क्यों चले जा रहे हो? लेकिन हमें यह खयाल ही नहीं आता। हमारे पास भी भीतर कोई बुद्धि भगवान ने दी है। हम पर भी सोचने की चुनौती है, हमें भी सोचना है। क्यों पीछे चलें किसी के? लेकिन पीछे चलने में बड़ी सुविधा है। सोचने में श्रम करना पड़ता है, पीछे चलने में कुछ भी नहीं करना पड़ता। सोचने में इनकनवीनियंस है, सोचने में थोड़ी तकलीफ होती है, सिर पर जोर डालना पड़ता है। पीछे चलने में मजे से चले जा रहे हैं। किसी की पूंछ पकड़े हुए हैं और आगे चले जा रहे हैं। और वह जो आगे है उसका भी हमें पता नहीं कि वह भी किसी की पूंछ पकड़े है, क्योंकि ऐसा हो ही नहीं सकता वह न पकड़े हो। क्योंकि उसके आगे अगर पूंछ खो जाए तो वह भी घबड़ा जाएगा कि अब मुझे सोचना पड़ेगा। हो सकता है जिंदों की पकड़े हो, मुर्दों की पकड़े हो, किसी न किसी की पकड़े होगा। एक कतार लगी है हजारों साल से।
बुद्ध ने कहा है कि एक दफा एक पहाड़ की तराई में मैं ध्यान करता था। दोपहर का वक्त था, एकदम मैंने देखा कि जंगल में बहुत हड़बड़ी मच गई है, सारे जानवर भागे जा रहे हैं, सारे भागे जा रहे हैं! थोड़ी देर तक तो वे आंख बंद किए ध्यान लगाने की कोशिश करते रहे, लेकिन फिर उन्हें हैरानी हुई कि ऐसा तो कभी भी नहीं हुआ था। पक्षी आकाश में उड़ रहे हैं, कतारबद्ध भाग रहे हैं; खरगोश, हिरण, शेर, हाथी, सब भागे जा रहे हैं! आखिर उन्होंने आंख खोली, एक शेर को रोका, लेकिन शेर भी रुकता नहीं है, कंप रहा है एकदम! पूछा: भई, बात क्या है? सारी जंगल की पूरी किंग्डम, यह पूरा का पूरा जंगल का साम्राज्य कहां भागा जा रहा है?
उस शेर ने कहा: मुझे मत रोकिए, प्रलय आने वाली है, हम बचने की कोशिश कर रहे हैं। तो बुद्ध ने कहा: कहा किसने कि प्रलय आने वाली है? उस शेर ने कहा: आगे वाले लोगों ने कहा है। बुद्ध भागे आगे पहुंचे, दूसरे जानवरों से पूछा कि दोस्तो, कहां भागे जा रहे हो? उन्होंने कहा: महाप्रलय आ रही है, आपको पता नहीं? भागिए, बातचीत का वक्त नहीं है यह! पर बुद्ध ने कहा: कहा किसने है? उन्होंने कहा: आगे वालों ने कहा है, कहेगा कौन? जो आगे जा रहा है उन्होंने कहा।
बुद्ध भागते-भागते परेशान हो गए। हाथियों से पूछा, हिरणों से पूछा, लेकिन जिसने कहा, उसने कहा, आगे वाले ने कहा है। आखिर में सांझ होते-होते आगे जाकर खरगोशों की एक कतार मिली, जो सबसे आगे भागे जा रहे थे। पूछा कि दोस्तो, कहां भागे जा रहे हो?
उन्होंने कहा: महाप्रलय आ रही है, रोकिए मत! कहा किसने है? उन्होंने कहा: जो खरगोश हमारे आगे है। आगे एक खरगोश भागा जा रहा था, छोटा सा खरगोश, उसे रोका, वह रुकता नहीं है, सब तरफ से भागने की कोशिश करता है, वह चिल्लाता है कि मुझे रोकिए मत।
बुद्ध ने कहा: दोस्त, यह तो बता दे किसने तुझे कहा है?
उसने कहा: किसी ने नहीं कहा, मैं एक झाड़ के नीचे आंख बंद करके सोया हुआ दोपहर का सपना देख रहा था, जोर का धड़ाका हुआ, और मेरी मां ने बचपन में मुझे कहा था कि जब ऐसा धड़ाका होता है तो महाप्रलय आ जाती है। मैं भागा, मैं भागा तो बाकी खरगोश भागे, बाकी खरगोश भागे तो सारा जंगल भागने लगा।
बुद्ध ने कहा: तू किस झाड़ के नीचे सोता था, आम का झाड़ तो नहीं था?
उसने कहा: आम का ही झाड़ था।
बुद्ध ने कहा: पागल, कोई आम तो नहीं गिरा था?
उसने कहा: यह भी हो सकता है।
चल मेरे साथ। उस खरगोश को लेकर झाड़ के पास गए वह जहां खरगोश बैठा था। उसका चिह्न बना था धूल में। पास एक बड़ा आम पड़ा था। जितना बड़ा खरगोश था उतना बड़ा आम। यही आम तो नहीं गिरा?
उस खरगोश ने कहा: यही हो सकता है। लेकिन मेरी मां ने मुझसे बचपन में कहा था कि जब ऐसा धड़ाका होता है तो महाप्रलय आती है। इसलिए मैं भाग गया।
बुद्ध अपने भिक्षुओं से बाद में कहते थे कि जंगल के जानवर भागते थे, यह तो हंसने जैसी बात नहीं, लेकिन मेरे पूरे मुल्क के लोग इसी तरह भाग रहे हैं। किसी से भी पूछोगे किसने, वह कहेगा, आगे वाले ने। वह फलां महात्मा ने कहा है, फलां साधु ने कहा है, फलां उसने कहा है। पकड़ो उस साधु को, हमेशा वह आगे इशारा करेगा। और वहां तो बुद्ध ने खरगोश पकड़ ही लिया, यहां आगे किसी को भी पकड़ना मुश्किल है। क्योंकि आगे वाले लोग मर चुके हैं, कब्रों में कहां खोदिएगा? उनका कोई पता लगाना मुश्किल है, राख हो गए हैं वे। इसलिए आगे जाने का कोई उपाय नहीं कि पहला आदमी मिल जाए। और सब चीजों में यह श्रृंखला है। यह श्रृंखला तोड़ देनी चाहिए। जितनी जल्दी हम तोड़ दें।
हम जो भी करते हैं उसका उत्तर हमारे विवेक के पास होना चाहिए, किसी दूसरे के विवेक के पास नहीं। मैं जो कर रहा हूं, जो कह रहा हूं, मेरे पास उत्तर होना चाहिए कि मैं क्यों कह रहा हूं? क्यों कर रहा हूं? अगर मैं यह कहता हूं कि दूसरे ने कहा है, तो मैंने मनुष्य होने की योग्यता खो दी। मैं डिसक्वालिफाइड हो गया उसी वक्त। उसी वक्त मेरे आदमी होने की बात खत्म हो गई। मैं आदमी नहीं हूं अब, अब मैंने आदमी के तल से अपने को नीचे गिरा लिया। जैसे ही आप कहते हैं कि फलां आदमी ने कहा है इसलिए, फिरगलत बात हो गई। आपकी बुद्धि कहती है, आपका विवेक कहता है--गलत हो, कोई फिकर नहीं, अपने विवेक से गलती करना भी शुभ है और दूसरे के विवेक से गलती से बच जाना भी अशुभ है। क्योंकि अपने विवेक से गलती करने वाला आज नहीं कल देख लेगा कि गलती है--अपना विवेक है उसके पास--और गलती के पार हो जाएगा। लेकिन जो दूसरे के विवेक से चलता है वह कभी भी, कभी भी पार नहीं हो सकता। उसके पास जांच, कसौटी कुछ भी नहीं है, उसके पास कोई मापदंड नहीं है।
भारत के पास व्यक्तित्व पैदा नहीं हो पाया--विश्वास के कारण। इसलिए मैं कहता हूं: विचार की फिकर करना, सोचना, किसी मुद्दे को बिना सोचे मत मान लेना। बड़ी तकलीफ होगी, बड़ा श्रम पड़ेगा, लेकिन श्रम से बचने के डर भी क्या हैं। और ध्यान रहे, विचार की दुनिया में जितना श्रम किया जाता है उतनी ही आत्मा आनंद को उपलब्ध होती है। विचार की दुनिया में जितना श्रम किया जाता है उतना मनुष्य परमात्मा के निकट पहुंचता है। शरीर की दुनिया में जितना श्रम किया जाए उतनी संपत्ति पैदा होती है और विचार की दुनिया में जितना श्रम किया जाए उतना सत्य पैदा होता है। बाहर की दुनिया में जितना श्रम पैदा किया जाए उतनी समृद्धि पैदा होती है और भीतर की दुनिया में जितना श्रम किया जाए उतना सत्य पैदा होता है।
सत्य एकमात्र शक्ति है।
और जो विश्वास करते हैं उनके पास कोई शक्ति नहीं रह जाती, क्योंकि उनके पास सत्य ही नहीं है। उनके पास उधार बातें, शब्द हैं, बारोड। बासे शब्दों से भरी हुई है हमारी खोपड़ी, इसलिए हम भटकते हैं, भरमते हैं, लेकिन कहीं पहुंचते नहीं। देश की पूरी नैया ऐसे ही चक्कर काटती रहती है कोल्हू के बैल की तरह। कोई किनारा नहीं मिलता हम कहां जाएं? यह स्थिति तोड़नी जरूरी है।
और जैसे ही यह देश विचार करना शुरू करेगा, वैसे ही इस देश के भीतर पुरुषार्थ के अंकुर पैदा हो जाएंगे। जैसे ही विचार आएगा, पुरुषार्थ की किरणें छा जाएंगी। जैसे ही विचार आएगा, एक-एक आदमी को लगेगा कि बहुत कुछ करना जरूरी है। क्योंकि ‘विचार’ करने की प्रेरणा बनता है। वह कहता है कि यह करो; यह हो सकता है। वह कहता है, यह करके देखो।
हिंदुस्तान में विज्ञान पैदा नहीं हुआ, क्योंकि विचार पैदा नहीं हुआ। विचार पैदा नहीं हुआ, विज्ञान कैसे पैदा होता? पश्चिम के मुल्कों में विज्ञान पैदा हुआ। वह भी हमेशा से नहीं था, अभी तीन सौ वर्षों में पैदा हुआ। जब से आदमी ने वहां विचार करना शुरू किया, विज्ञान की धारा खुल गई। विज्ञान की धारा खुली, पुरुषार्थ के प्राण खुल गए। आज उनका जवान, उनका आदमी चांद-तारों पर पैर रखने की योजना बना रहा है। और हम? हम इस जमीन से भी हट जाने की योजना बना रहे हैं। एक पैर हमारा कब्र में है, एक पैर जमीन पर है, कब कोई धक्का दे देगा, हम जल्दी से कब्र में समा जाएंगे। हम कब्र में तैयारी कर रहे हैं प्रवेश की। वे चांद-तारों पर, वे आकाश के दूर यात्री बनने जा रहे हैं। जो किसी मनुष्य ने कभी नहीं जाना, वे जानेंगे। जो इतिहास में जहां किन्हीं मनुष्यों के चरण नहीं पड़े, वहां उनके चरण पड़ेंगे। हमारे बेटे, हमारे बच्चे तरसेंगे बैठ कर, जमीन पर रहने का हक भी खो देंगे। लेकिन हम चुपचाप देख रहे हैं। हम कहते हैं, अरे, क्या करोगे चांद-तारों पर जाकर? क्या रखा है वहां? अपने गांव के हनुमान जी के मंदिर में बैठ कर भजन-कीर्तन करो। इससे बहुत फायदा होता है। इससे बड़ी आत्मिक शांति मिलती है। हम कहेंगे, क्या कर रहे हो तुम, किस दौड़-धूप में लगे हो?
लेकिन परमात्मा उनके साथ है जो बाहर और भीतर श्रम में लगे हैं। परमात्मा उनके साथ है जो जीवन की चेतना को, भविष्य-चेतना को विकास देने में लगे हैं। परमात्मा उनके साथ है जो एवोल्यूशन को, जो विकास को नये सोपानों पर पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। परमात्मा उनके साथ है जो भविष्य को जीतने की तैयारी में हैं। परमात्मा मरते हुओं के साथ कभी भी नहीं है।
हम राह की धूल बन कर खो जाएंगे। हम अभी भी राह के किनारे खड़े हो गए हैं, इसका ध्यान रहे! जो जीवन की धारा चल रही है भारत उसमें राह के किनारे खड़ा हो गया है। जीवन की धारा का मुख्य अंग नहीं है अब। लेकिन हम किनारे पर खड़े होकर चिल्ला रहे हैं कि हम जगतगुरु हैं। दुनिया को हम शिक्षा देंगे, दुनिया हमारी तरफ देख रही है मार्ग-दर्शन के लिए। कौन देख रहा है तुम्हारी तरफ? राह के किनारे खड़े लोगों की तरफ कोई कभी देखता है? लेकिन तुम्हें लगता है, क्योंकि राह पर से लोग निकलते हैं तो उनकी नजर पड़ जाती है तुम्हारे ऊपर खड़े हुए, तुम समझते हो सारे लोग हमारी तरफ नजर लगाए हुए हैं। वे आगे चले जा रहे हैं, कोई तुम्हारी तरफ नजर नहीं लगाए हुए है। हां, कोई-कोई झक्की उनमें पैदा हो जाते हैं और वे इधर आ जाते हैं--कोई बीटल आ जाएगा, कोई कोई आ जाएगा, हम कहेंगे, धन्यभाग! देखो, भारत जगतगुरु है! दो-चार-दस पगलों को लाने से कोई भारत जगतगुरु हो जाएगा? यहां से कोई आदमी चला जाता है पश्चिम में, कोई महर्षि, कोई कोई और वहां दस-पच्चीस लोग उसके आस-पास चक्कर काटने लगते हैं, तो हम समझते हैं कि कोई भारत जगतगुरु हो गया।
यह सवाल नहीं है। ऐसे कोई जगतगुरु नहीं होता। हम जगत की धारा से ही विच्छिन्न हो गए हैं। लेकिन अक्सर ऐसा होता है, जिनके हाथ से सब खो जाता है, वह मन ही मन में बड़ी-बड़ी कल्पनाएं करके संतोष खोजने की कोशिश करते हैं। भिखारी रास्तों के किनारे बैठ कर सोचते हैं कि हमारे बापदादे सम्राट थे। जरूर सोचते हैं, भिखारियों के पास जाइए बराबर सोचते मिलेंगे। भिखारी और कुछ नहीं सोचते, अपने पीछे का हिसाब लगाते हैं कि मैं यह था, और सपने में सभी भिखारी सम्राट हो जाते हैं। सपने में कोई भिखारी कभी भी भिखारी होने का सपना नहीं देखता, यह आपको पता है?
मैंने सुना है, एक झाड़ के नीचे बैठ कर एक बिल्ली सपना देख रही थी। एक कुत्ता वहां से निकलता था, उसने उसे जगाया और कहा कि क्या देख रही है? बड़ी रस ले रही थी। तेरे ओंठों से लार टपक रही थी। और तेरी मूछें तू साफ कर रही थी। मामला क्या था? क्या देख रही थी?
उस बिल्ली ने कहा: नाहक मेरा सपना तोड़ दिया। मैं देख रही थी कि वर्षा हो रही है और चूहे टपक रहे हैं, एकदम चूहे ही चूहे! पानी नहीं है, चूहों की वर्षा हो रही है! सब गड़बड़ कर दिया।
उस कुत्ते ने कहा: नादान बिल्ली, सपना भी देखा तो गलत देखा, मैं पुरखों से सुनता आया हूं कि कभी-कभी ऐसी वर्षा होती है, लेकिन चूहे नहीं बरसते, हड्डियां बरसती हैं, चूहे तो कहीं लिखा ही नहीं हैं। किसी शास्त्र में, किसी पुराण में नहीं लिखा है कि चूहे बरसते हैं, हड्डियां बरसती हैं। हम भी कभी-कभी सपने देखते हैं, हड्डियां गिरती हैं, चूहे नहीं गिरते। सपना भी देखा तो गलत सपना देखा।
लेकिन बिल्ली चूहे ही गिरने के सपने देख सकती है। कुत्ते हड्डी ही गिरने के सपने देख सकते हैं। यह भारत जगतगुरु होने के सपने देखता रहता है। जो हमारे पास नहीं है उसी के सपने देखे जाते हैं। जो होता है उसके कोई सपने नहीं देखता। जो आज हैं गुरु की हैसियत में वे कहते नहीं फिरते। और जो हम आज दीन-हीन हो गए हैं तो हम कहते फिरते हैं, चिल्लाते फिरते हैं। यह सब चिल्लाना हमारी कमजोरी, यह सब चिल्लाना हमारे हारे हुए होने का सबूत है।
लेकिन कब बदलेगा यह भाग्य? कैसे बदलेगा यह भाग्य?
यह थोड़ी सी बात मैंने कही। विचार की क्रांति चाहिए इस देश के प्राणों को झकझोर देने के लिए। सब विश्वास उखाड़ कर फेंक देने जैसे हैं। जीवन के प्रत्येक पहलू पर संदेह का द्वार खोला जाना चाहिए। जिंदगी के हर मसले को फिर से रिकंसीडर, फिर से पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
जिंदगी की कोई चीज चुपचाप मान लेने योग्य नहीं है। हजारों-हजार साल में जो कहा हो उसको फिर उठा कर पूछना पड़ेगा। फिर प्रश्न, फिर इंक्वायरी, फिर क्वेश्चनिंग, और हथौड़े की चोट पर हैमरिंग करनी पड़ेगी एक-एक चीज को, जो टिक जाएगी कसौटी पर उसको मान लेंगे, जो नहीं टिकेगी उसको फेंक देंगे, चाहे वह किन्हीं महात्माओं ने कही हो, किन्हीं ॠषियों ने कही हो, किन्हीं मुनियों ने कही हो।
नहीं, वह विचार की और तर्क की कसौटी पर कसी जानी चाहिए। और अगर मुल्क यह हिम्मत कर लेता है, तो आगे दुर्भाग्य का कोई कारण नहीं है। आज तक हम अभागे थे, आगे भाग्य आ सकता है। मैं आशा से भरा हूं। यह हो सकता है। और यह भी हो सकता है कि आज तक हमने विचार नहीं किया, यह वरदान नहीं था, अभिशाप था। यह अभिशाप भी भविष्य में वरदान बन सकता है। जैसे किसी खेत को बहुत दिन तक खेती-बाड़ी न की गई हो और वर्षों के बाद फिर कोई बीज उसमें डाल दे, तो फिर ऐसी फसल आए जैसी कि किसी खेत में नहीं आती। क्योंकि हजारों साल उस खेत में बहुत ऊर्जा इकट्ठी हो गई है, जो बीज को पकड़ ले तो फूल जाए।
हिंदुस्तान का मस्तिष्क, हिंदुस्तान की प्रतिभा हजारों साल से बंजर पड़ी है, उस पर खेती नहीं की गई है। कौन जाने, अगर आने वाले भविष्य में, आने वाले बच्चों ने हिम्मत की और उन्होंने विचार के बीज बोए, तो यह भी हो सकता है कि पृथ्वी पर कोई देश इस देश की प्रतिभा का मुकाबला न कर सके। क्योंकि हजारों साल की ऊर्जा निष्प्राण पड़ी है। वह अगर एकदम से फूट जाए, तो इस खेत में जितने फूल आएंगे उतने शायद जमीन के किसी देश में नहीं आ सकते हैं। लेकिन हम करेंगे तो ही हो सकता है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
भारत के संबंध में कुछ भी सोचना निश्चित ही चिंता से भरता है। भारत के संबंध में सोचता हूं, तो एक कड़ी मेरे मन में इस तरह घूमने लगती है जैसे कोई कागज की नाव पानी की भंवर में फंस जाए और चक्कर खाने लगे। वह कड़ी न मालूम किसकी है। उस कड़ी के आगे और क्या कड़ियां होंगी, वह भी मुझे पता नहीं। लेकिन जैसे ही भारत का खयाल आता है वह कड़ी मेरे मन में चक्कर काटती है, वह मेरे जहन में घूमने लगती है। और वह कड़ी यह है:
‘हर शाख पे उल्लू बैठे हैं, अंजामे-गुलिस्तां क्या होगा?’
अगर किसी फुलवारी में हर पौधे की शाखाओं पर उल्लू बैठे हों, तो उस फुलवारी का क्या होगा? उन उल्लुओं की तरफ देखो, तो फुलवारी का क्या होगा?...चिंता पैदा होती है।
भारत में कुछ ऐसा ही हुआ है। बुद्धिहीनता के हाथ में भारत की पतवार है। जड़ता के हाथ में भारत का भाग्य है। नासमझियों का लंबा इतिहास है, अंधविश्वासों की बहुत पुरानी परंपरा है, अंधेपन की सनातन आदत है और उस सबके हाथ में भारत का भाग्य है।
लेकिन यह खयाल उठता है, यह सवाल भी कि आखिर भारत का यह भाग्य अंधेपन के हाथ में क्यों चला गया है? भारत का यह सारा भाग्य अंधकार के हाथों में क्यों है? सौभाग्य क्यों नहीं है भारत के जीवन में, दुर्भाग्य ही क्यों है?
हजार साल तक दास रहे कोई देश, हजारों साल तक गरीब, दीन-हीन रहे कोई देश, हजारों वर्ष के विचार के बाद भी किसी देश का अपना विज्ञान पैदा न हो सके, अपनी क्षमता पैदा न हो सके; नये-नये देशों के सामने प्राचीनतम देश को हाथ फैला कर भीख मांगनी पड़े!
अमरीका की कुल उम्र तीन सौ वर्ष है। तीन सौ वर्ष जिनकी संस्कृति की उम्र है, उनके सामने जिनकी संस्कृति की उम्रों को सनातन कहा जा सके; कोई दस हजार वर्ष पुरानी; उनको भीख मांगनी पड़े, तो दस हजार वर्ष से हम क्या कर रहे थे? दस हजार वर्षों में हमने पृथ्वी पर क्या किया है? हमारे नाम पर क्या है? हम दस हजार वर्ष चुपचाप बैठे रहे हैं...या हमने आंख बंद करके दस हजार वर्ष गंवा दिए हैं? और आगे स्थिति और विकृत होती चली जाती है।
एक अमरीकी विचारक ने अभी एक किताब लिखी है: उन्नीस सौ पचहत्तर। उस किताब की सारी दुनिया में चर्चा है, सिर्फ हिंदुस्तान को छोड़ कर। ‘उन्नीस सौ पचहत्तर’ में उसने हिंदुस्तान के बाबत बातें की हैं और हिंदुस्तान में उसकी कोई चर्चा नहीं है। ‘उन्नीस सौ पचहत्तर’ में उसने लिखा है कि उन्नीस सौ पचहत्तर और अठहत्तर के बीच हिंदुस्तान में इतना बड़ा अकाल पड़ेगा, जितना बड़ा अकाल मनुष्य के इतिहास में किसी देश में कभी भी नहीं पड़ा। उस अकाल में उसके हिसाब से अंदाजन दस करोड़ से लेकर बीस करोड़ तक लोगों के मरने की संभावना सिर्फ भारत में पैदा हो जाएगी। उसके आंकड़े दुरुस्त हैं, भूल हो सकती है थोड़ी-बहुत, लेकिन वह भूल इसमें नहीं होगी कि कम लोग मरेंगे, वह भूल इसमें होगी कि ज्यादा लोग मर सकते हैं।
दिल्ली में एक बड़े नेता से मैंने उस किताब की बात कही। उनसे मैंने कहा: आपने उन्नीस सौ पचहत्तर पढ़ी है? उसमें भारत में दस वर्षों के भीतर दस करोड़ से लेकर बीस करोड़ लोगों तक के मरने की अकाल की संभावना की बात की गई है।
वह नेता कहने लगे: उन्नीस सौ पचहत्तर! उन्नीस सौ पचहत्तर अभी बहुत दूर है।
जिनको उन्नीस सौ पचहत्तर दूर दिखता हो, उनके पास देखने वाली आंखें हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। देश की जिंदगी में वर्ष ऐसे बीत जाते हैं जैसे आदमी की जिंदगी में क्षण बीतते हैं। देश की जिंदगी में सदियां ऐसे बीतती हैं जैसे एक आदमी की पूरी जिंदगी बीत जाती है। पता भी नहीं चलता देश की उम्र में सदियों का। लेकिन आंखें हों तो आगे दिखाई पड़ सकता है, आंखें न हों तो आगे दिखाई नहीं पड़ सकता है।
उन्नीस सौ पचहत्तर निकट आता चला जाएगा, हम बच्चे पैदा करते चले जाएंगे। और कुछ हम पैदा नहीं करते हैं सिवाय बच्चों के। असल में हमने भौतिक चीजें पैदा न करने का तय कर रखा है। हम कोई भौतिकवादी लोग तो हैं नहीं, मैटीरियलिस्ट तो हैं नहीं कि हम भौतिक चीजें पैदा करें। हम तो सिर्फ आदमी पैदा करते हैं। आध्यात्मिक चीज पैदा करते हैं। और उसको हम पैदा करते चले जा रहे हैं। संख्या आसमान को छूने लगी...और हमारी कोई पैदावार नहीं है दूसरी। और हम सब हाथ पसार कर भीख मांग कर काम चला रहे हैं। लेकिन उस गड्ढे की तरफ भी हम नहीं देखेंगे जिसकी तरफ हम सरके जा रहे हैं।
नेता कहते हैं, वह बहुत दूर है। साधु-संन्यासी कहते हैं, बच्चे भगवान पैदा करता है, इसमें आदमी का क्या हाथ है! और जब भगवान पैदा करता है, वह फिकर भी करेगा। उसने हमेशा फिकर की है, वह आगे भी फिकर करेगा। साधु-संन्यासी यह समझाते हैं। नेता कहते हैं, कोई मुसीबत...नेताओं को सिवाय चुनाव के दूसरी कोई मुसीबत दिखाई नहीं पड़ती। उनकी आंखों में सिर्फ चुनाव दिखाई पड़ता है और कुछ उनको दिखाई नहीं पड़ता। और उनको चुनाव इसलिए दिखाई पड़ता है कि उनको सिर्फ कुर्सियां दिखाई पड़ती हैं और कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
यह सारी की सारी दशा जरूर किसी बुनियादी भूल के कारण पैदा हो गई है। और वह बुनियादी भूल यह है कि हजारों साल से भारत को विचार नहीं करना है, ऐसी शिक्षा दी जा रही है। वह हमारे दुर्भाग्य का मूल-सूत्र है।
भारत में विश्वास करना है, विचार नहीं करना है; श्रद्धा करनी है, विवेक नहीं करना है; मान लेना है, सोचना नहीं है, यह सिखाया जा रहा है। गुरुओं की लंबी परंपरा एक ही काम कर रही है कि हर आदमी से विचार के बीजों को उखाड़ कर फेंक दो और विश्वास के कचरे की जड़ें जमा दो। हमें यही समझाया जाता रहा है कि विश्वास करना परम धर्म है। और मैं आपसे कहना चाहता हूं कि जो आदमी विश्वास करता है, वह आदमी धार्मिक तो कभी नहीं हो पाता। आदमी भी नहीं हो पाता है, धार्मिक होना तो बहुत दूर है।
विचार की शक्ति ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है। जागा हुआ विवेक ही मनुष्य की आत्मा है।
भारत की आत्मा खोती चली गई है। क्योंकि विवेक और विचार के हम दुश्मन हैं। हम कहते हैं, बस मान लेना चाहिए। गीता को इसलिए मान लेना चाहिए कि वह कृष्ण कहते हैं; और गांधीवाद को इसलिए मान लेना चाहिए, क्योंकि गांधी जी कहते हैं; बुद्ध के वचन इसलिए मान लेने चाहिए कि बुद्ध भगवान हैं; और महावीर के वचन इसलिए मान लेना चाहिए कि वे तीर्थंकर हैं। लेकिन कौन तय करता है कि कौन तीर्थंकर है, कौन महात्मा है, कौन भगवान है? यह भी मान लेना चाहिए, क्योंकि यह किताबों में लिखा हुआ है। और फिर जो भी कहा जाए--और चाहे वह बुद्धिपूर्ण हो, अबुद्धिपूर्ण हो; योग्य हो, अयोग्य हो; हितकर हो, अहितकर हो, उसको मान लिया जाना चाहिए। मान लिया जाना ही एक योग्यता है हमारी। जो नहीं मानता, वह नास्तिक है, वह भटका हुआ है।
मैं आपसे कहता हूं: मानने वाले लोग स्वयं तो अंधे हो ही जाते हैं, क्योंकि मानने वाले को आंख खोलने की जरूरत नहीं रहती, मानने वाले के लिए आंख खोलने की क्या जरूरत है? आंख खोलने की जरूरत तो उसके लिए है जो देखना चाहता है खुद, सोचना चाहता है, चलना चाहता है, समझना चाहता है, उसे आंख खोलने की जरूरत है।
लेकिन आंख खोलना इस देश में पाप है। यहां आंख बंद कर लेना पुण्यात्मा का लक्षण है। जिंदगी से आंख बंद कर लो। दुनिया कुछ भी सोच-समझ रही हो, तुम आंख मत खोलना। तो देश फिर अभाग्य में, दुर्भाग्य में, दुर्घटना में, अंधेरे में नहीं गिरेगा तो और क्या होगा? और जब इतना अंधापन हो, इतना अंधेरा हो, तो स्वभावतः, स्वभावतः इतने अंधकार में, इतने अंधेपन में अंधेरे के रहने वाले जीव-जंतु अगर नेतृत्व करने लगें, तो कोई आश्चर्य तो नहीं है।
मैंने सुना है, बंगाल के एक गांव में एक दिन सुबह-सुबह एक घटना हो गई थी। एक छोटा सा तेली है, उसकी तेल की दुकान है, वह अपनी तेल की दुकान पर तेल बेच रहा है। गांव में एक विचारक रहता था, वह तेल खरीदने आया है। वह अपना बर्तन सामने रख कर तेल तुलवा रहा है, तभी उसने देखा कि तेली के पीछे बैल चल रहा है, कोल्हू चला रहा है। लेकिन बैल को कोई हांकने वाला नहीं है, बैल अपने आप ही चल रहा है। तो उस विचारक को बड़ी हैरानी हुई! उसने उस तेली को पूछा कि तुम्हारा बैल बड़ा धार्मिक मालूम पड़ता है, कोई चला ही नहीं रहा और यह चल रहा है? और भारत में ऐसा तो होता ही नहीं, चपरासी से लेकर राष्ट्रपति तक जब तक पीछे कोई हांकने वाला न हो, कोई चलता ही नहीं। यह बैल कैसा गड़बड़ है, यह भारतीय नहीं मालूम होता, नस्ल कहां की है? यह अपने आप क्यों चल रहा है?
उस तेली ने कहा: बैल शुद्ध भारतीय है, इसीलिए चल रहा है। दूसरी जाति का बैल होता, तो खड़े होकर पता भी लगाता कि कोई पीछे है कि नहीं? लेकिन शायद आप देख नहीं रहे हैं महाशय, उस तेली ने कहा कि मैंने उसकी आंख पर पट्टियां बांध दी हैं, उसे दिखाई भी नहीं पड़ता कि कोई पीछे है या नहीं। उस तेली ने कहा: जिसका भी शोषण करना हो उसकी आंख पर पट्टी बांध देना बहुत जरूरी होता है--चाहे बैल हो और चाहे आदमी हो। आंख पर पट्टी न हो तो आदमी का शोषण किया जाना बहुत मुश्किल है। शोषण चाहे राजनैतिक हो, चाहे धार्मिक, शोषण के लिए शोषित की आंख पर पट्टी होनी बहुत जरूरी है। अंधा ही अपना खून चुसवा सकता है। आंख वाला कैसे चुसवा सकता है?
उस विचारक ने कहा: यह तो ठीक है कि आंख पर पट्टी बांध दी, लेकिन बैल कभी रुक कर यह पता तो चला सकता है कि पीछे कोई हांकने वाला है या नहीं? रुक कर तो पता चल जाएगा, जब नहीं हांका जाएगा तो वह समझ सकता है कोई पीछे नहीं है।
उस तेली ने कहा: महाशय, आप बैल को ज्यादा बुद्धिमान समझते हैं या मुझको? अगर ऐसा होता, बैल ज्यादा बुद्धिमान होता, तो वह तेल बेचता और मैं कोल्हू चलाता। मैंने उसके गले में घंटी बांध रखी है। घंटी बजती रहती है बैल चलता रहता है, घंटी बजती रहती है मैं समझता हूं बैल चल रहा है। जैसे ही घंटी रुकी कि मैं कूदा और मैंने बैल को हंाका। मेरी पीठ है बैल की तरफ, लेकिन कान मेरे वहां लगे हैं। घंटी बजती रहती है मैं जानता हूं बैल चल रहा है।
वह विचारक भी जिद्दी रहा होगा। विचारक जिद्दी होते ही हैं। उसने कहा कि यह मैं समझ गया, ठीक है, घंटी मुझे सुनाई पड़ रही है, लेकिन बैल खड़े होकर गर्दन भी तो हिला कर घंटी बजा सकता है?
उस तेली ने कहा: महाराज! जोर से मत बोलिए। बैल अगर सुन लेगा तो मैं बहुत मुसीबत में पड़ जाऊंगा। और आप आगे से किसी और दुकान से तेल खरीद लेना। ऐसे आदमियों का साथ ठीक नहीं होता, सोहबत का असर पड़ जाता है।
भारतीय चित्त के साथ भी बैल जैसा व्यवहार किया गया है। आंख पर पट्टियां हैं, गले में घंटियां हैं और भारत को जोता गया है। फायदा हुआ है कुछ लोगों को, फायदा नहीं होता तो यह कभी चलता नहीं। फायदा बहुत हुआ है सत्ताधिकारियों को। चाहे वे सत्ताधिकारी किसी भी तरह के हों--चाहे राजनैतिक सत्ता हो उनके हाथ में, चाहे धार्मिक सत्ता हो, चाहे आर्थिक सत्ता हो। सत्ताधिकारी के लिए यह हितकर है, यह मंगलदायी है कि लोग न सोचें, न विचारें, क्योंकि सोच-विचार से आंख खुल जाती है।
आंख पर पट्टी बांधने की तरकीब है: श्रद्धा करो, विश्वास करो, अनुगमन करो, पीछे चलो, अपनी बुद्धि पर कभी जोर मत देना। कृष्ण को मानो, राम को मानो, गांधी को मानो, अपने को कभी मत मानना। बस एक चीज से बचना, खुद को मानने से। और सबको मानना, कोई हर्जा नहीं है। क्योंकि जो आदमी दूसरों को मानता रहता है उसकी खुद की जानने और सोचने की क्षमता धीरे-धीरे क्षीण हो जाती है। आखिर जरूरत नहीं रहती उसकी, जब दूसरों ने सब कह दिया है सत्य तो मुझे और खोजने की क्या जरूरत? अगर एक आदमी तीन साल तक आंख बंद करके बैठ जाए, तो आंखें भी रोशनी खो देंगी।
भारत ने बुद्धि का उपयोग हजारों साल से नहीं किया है, और अगर भारत ने बुद्धि खो दी हो, तो कोई आकस्मिक घटना नहीं घट गई है। हजारों साल तक पंगु पड़ी है बुद्धि, कोई उपयोग नहीं कर रहा है। बाप बेटे से कह रहा है कि मानो जो हम कहते हैं, क्योंकि मैं बाप हूं। अरे, बाप होने से क्या सही हो जाता है आदमी? बाप होना क्या कोई किसी चीज के सही होने का सबूत है? शिक्षक विद्यार्थियों से कह रहा है कि हम जो कहते हैं मानो। क्योंकि आप तीस साल पहले पैदा हो गए इसलिए, कोई बहुत ऊंचा काम किया है आपने कि आप जो कहते हैं वह सही हो जाएगा?
सही होने की कसौटी उम्र नहीं होती। न बाप होना होता है, न शिक्षक होना होता है। सही होने की कसौटी के कुछ और अर्थ होते हैं। तर्क होता है, विचार होता है। कारण होते हैं किसी चीज के सही और गलत होने के। यह कारण नहीं होते कि मैं कौन हूं इसलिए सही मानो। लेकिन यही हमारा सूत्र है अब तक। इस सूत्र के कारण...भारत में बच्चे पैदा होते हैं, लेकिन उनकी प्रतिभा कुंठित हो जाती है, वह प्रतिभा विकसित नहीं होती। भारत का जीनियस, मेधा विकसित नहीं होती।
सोच-विचार की हवा ही नहीं है। और जिंदगी से लड़ना है तो सोचना पड़ेगा। हारना है तो मत सोचिए। अगर जिंदगी को जीतना है तो विचार के अतिरिक्त कोई सूत्र, कोई शक्ति आदमी के हाथ में नहीं है। अगर जिंदगी के राज जानना है, अगर पदार्थ में छिपी हुई शक्तियों के मालिक बनना है, अगर प्रकृति में छिपा हुआ रहस्य खोजना है, अगर आकाश और चांद-तारों पर ताकत लानी है, तो विचार, विचार, विचार...उसके अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। नहीं तो, नहीं तो दीन-हीन हो जाएंगे, दरिद्र हो जाएंगे, गुलाम हो जाएंगे। जब हो जाएंगे, तो फिर, फिर एक ही रास्ता रहेगा, भाग्य को...कि भाग्य में ही यह था और कुछ नहीं।
विश्वास करने वाले लोगों के हाथ में भाग्य के अतिरिक्त अपील के लिए कोई अदालत नहीं रह जाती। बस भाग्य! जो भी कौम विश्वास करती है वह भाग्यवादी हो जाती है। उसको ऐसा लगने लगता है, जो हो रहा है, होगा। आदमी बचपन में मर जाए तो उसका भाग्य; अस्सी साल जी कर मर जाए तो भाग्य; बीमार रहे तो भाग्य, स्वस्थ रहे तो भाग्य; गरीबी हो तो भाग्य, अमीरी हो तो भाग्य; देश गुलाम हो जाए तो भाग्य, और अंग्रेजों का दिमाग फिर जाए और देश को आजाद कर दें तो भाग्य, हमारा इसमें क्या कसूर है? हमारा कोई कसूर नहीं है आजादी के लेने में, अंग्रेजों की गलती है। हम तो हजारों साल तक गुलाम रहने को भी राजी थे। अंग्रेजों के दिमाग फिर गए, न मालूम कैसी गड़बड़ हो गई? वे चले गए। हम तो भाग्य पर बैठे रहते। हम कभी कुछ न करते।
विश्वास की छाया है भाग्य। और जिस समाज और जिस देश के दिमाग में भाग्य बैठ गया, उसका पुरुषार्थ मर जाता है। सुसाइड हो जाती है, आत्महत्या हो जाती है। फिर करने का कोई सवाल नहीं रह जाता है।
करते तो वे हैं जो मानते हैं कि हमारे करने से कुछ होगा। जो मानते हैं हमारे करने से कुछ भी नहीं होगा; करने वाला कोई और है; हम तो गुड्डियां हैं, जिनके धागे भगवान के हाथ में हैं, वह नचा रहा है। भई, भगवान भी खूब मदारी है, काहे के लिए नचा रहा है इन गुड्डियों को? और अब तक थक भी नहीं गया और नचाए चला जा रहा है? हम थक गए, गुड्डियां थक गईं, गुड्डियां कहती हैं: आवागमन से छुटकारा चाहिए, मोक्ष चाहिए, लेकिन वह मदारी नहीं थकता, वह नचाए चला जा रहा है।
हम सिर्फ उसके हाथ के खिलौने हैं? अगर हम किसी के हाथ के खिलौने हैं, तो जिंदगी एक व्यंग्य हो गई, मजाक हो गई। और व्यंग्य भी बहुत खतरनाक हो गया। लेकिन यही हमारी दृष्टि है। विश्वास करने वाले लोग भाग्यवादी हो जाएंगे। और भाग्यवादी लोग पुरुषार्थ खो देंगे, श्रम खो देंगे, संकल्प खो देंगे, जिंदगी से लड़ने की क्षमता और साहस खो देंगे। रोना उनके हाथ में रह जाएगा। बैठ कर रोएंगे कतार बांध कर और इस रोने को धर्म कहेंगे कि हम धार्मिक कार्य कर रहे हैं।
मंदिरों में कर क्या रहे हैं हम? कोई प्रार्थना कर रहा है मंदिरों में? मंदिरों में सिवाय रोने के और कोई काम नहीं किया जा रहा है। कोई अपनी बीमारी के लिए हाथ जोड़ कर रो रहा है, कोई लड़के की नौकरी के लिए रो रहा है, कोई किसी और बात के लिए रो रहा है। मंदिरों में लोग रो रहे हैं। हमारी प्रार्थना रोने के सिवाय और कुछ भी नहीं है। और चौबीस घंटे ही हम रो रहे हैं। क्योंकि हम तो कुछ कर नहीं सकते, कुछ हो रहा है। हम चिल्ला सकते हैं। अगर पानी नहीं गिरता है देश में, तो हम यज्ञ कर सकते हैं; यज्ञ रोना है। यज्ञ से पानी गिरने का तीन काल में भी कोई संबंध नहीं है। तुम कितनी आग जलाते हो, कितना गेहूं जलाते हो, कितना घी जलाते हो, बादलों को जरा भी मतलब नहीं है कि तुम क्या पागलपन कर रहे हो? बादलों को पता भी नहीं होगा कि आपके ब्रह्मचारी और आपके संन्यासी आग में घी डलवा रहे हैं। और पागलों की तरह चक्कर काट रहे हैं उसका और मंत्र बोल रहे हैं। यह बादलों को पता भी नहीं है। और अगर पता होगा तो बहुत हंसते होंगे मन में कि कैसे नासमझ लोग हैं, ये क्या कर रहे हैं? इससे पानी गिरने का क्या संबंध है?
लेकिन भाग्यवादी लोग, विश्वासी लोग क्या कर सकते हैं? किताब में लिखा है कि ऐसा करने से पानी गिरेगा तो वे चक्कर लगाते करते रहते हैं। नहीं पानी गिरता तो विश्वासी मानते हैं कि हमारे करने में कोई गलती रह गई होगी, नहीं तो पानी तो जरूर गिरता। कलयुग आ गया है इसलिए गड़बड़ हो रही है, नहीं तो पानी तो गिरता। पहले तो ॠषि-मुनि गिरा लेते थे।
वहां रूस में वे बादलों को खींच कर ले आएंगे अपनी जमीन पर। बादल लाए जा सकते हैं, जहां भी चाहा जाए वहां लाए जा सकते हैं। बादलों को आदमी अपनी मर्जी से खींच कर कहीं भी ला सकता है। बादलों को मजबूर किया जा सकता है कि पानी गिराओ। लेकिन मंत्र से और यज्ञ से यह नहीं होता है। यज्ञ और मंत्र हमारी नपुंसकता के प्रतीक हैं, हमारी सामर्थ्य के नहीं, इंपोटेंस के, जो कुछ भी नहीं कर सकते, वे यज्ञ वगैरह करते हैं। यह आखिरी उपाय है दीन-हीनों का। सिर पटकते हैं, व्यर्थ ही समय खराब कर रहे हैं। लेकिन नहीं, वह जो हमें सिखाया गया है हजारों साल तक। हम शक भी नहीं करेंगे, संदेह भी नहीं करेंगे। संदेह पैदा हो तो विचार पैदा होगा, विचार पैदा हो तो पुरुषार्थ पैदा होता है।
संदेह पहला सूत्र है। संदेह पैदा हो, डाउट पैदा हो, तो विचार पैदा होता है।
क्योंकि संदेह कहता है, सोचो, क्या है ठीक? अगर यह ठीक नहीं है, तो ठीक क्या है? अगर यही ठीक है, तो सोचने की कोई जरूरत नहीं है, बात खत्म हो गई। ठीक, हमारे पुरखे हमेशा के लिए तय कर गए हैं। हमारे हाथ में अब कोई काम नहीं है। सोचने का क्या सवाल है?
संदेह पैदा होता है, तो विचार पैदा होता है। और जब विचार पैदा होता है, तो पुरुषार्थ पैदा होता है, कुछ करने का सवाल उठता है। जब विचार लेता है आदमी, तो करके देखता है कि हो सकता है या नहीं हो सकता है।
अभी कुछ वर्षों पहले एक पाश्चात्य डॉक्टर डेनिश हिंदुस्तान आया। उसने स्वामी शिवानंद की एक किताब पढ़ी, आपमें से कई लोगों ने पढ़ी होगी। क्योंकि फिजूल किताबें पढ़ने के सिवाय हम कोई काम ही नहीं करते हैं। स्वामी शिवानंद की एक किताब उसने पढ़ी, उस किताब में लिखा हुआ है कि ओम का पाठ करने से हर तरह की बीमारी तत्काल दूर हो जाती है। और यह भी लिखा है कि ओम का पाठ करने से बीमारी तो क्या, अगर कोई आदमी पूरे श्रद्धा, विश्वास से ओम का पाठ करे, तो मृत्यु को भी जीत लेता है। कई किताबों में लिखा है। स्वामी शिवानंद का कोई कसूर नहीं है। उन्होंने कॉपी किया होगा कहीं से। यहां हिंदुस्तान में कोई अपनी तरफ से तो कुछ लिखता ही नहीं, सिवाय कार्बनकॉपी के। इसलिए कसूर उनका कोई भी नहीं है। उनकी कोई गलती नहीं है। वह तो कई किताबों में लिखा हुआ है। उन्होंने उतार दिया होगा। हिंदुस्तान में किताब लिखने का ढंग यह है कि दस किताब पढ़ो और एक किताब लिखो। फौरन किताब पैदा हो जाती है। इसलिए उनकी कोई गलती नहीं है। उन्होंने तो पुरखों ने जो पहले भी कहा है, उसको ही दोहरा दिया है।
वह डेनिश डॉक्टर...और उसने जब यह सुना कि स्वामी शिवानंद भी पहले डॉक्टर थे, संन्यासी होने के पहले, लेकिन उसको पता नहीं कि हिंदुस्तान का कोई डॉक्टर विश्वास योग्य नहीं है। डॉक्टर ऊपर से रहता है, भीतर वही हिंदुस्तानी पागल दिमाग बैठा हुआ है। कब गेरुआ वस्त्र पहन लेगा, कुछ पता नहीं। और कब राम-राम जपने लगेगा, कुछ पता नहीं। और अभी भी दवाई, इंजेक्शन लगाते वक्त भीतर-भीतर जप रहा हो, तो कोई ठिकाना नहीं। उसने सोचा कि डॉक्टर, यह शिवानंद तो डॉक्टर था, तो यह तो जब लिख रहा है तो कुछ सोच कर लिख रहा होगा कि ओम के पाठ से बीमारियां दूर हो जाती हैं। जब डॉक्टर है तो कुछ सोच कर लिख रहा होगा। और जब यह कहता है कि मृत्यु तक जीती जा सकती है, तो कोई प्रयोग करके लिख रहा होगा। क्योंकि पश्चिम में कोई कुछ भी नहीं लिख देता है। लेकिन उन्हें पता नहीं हमारी आदतों का, कि हमें इसकी फिकर ही नहीं कि हम क्या लिखते हैं, क्या कहते हैं। हम कुछ भी कह सकते हैं। हम कुछ भी लिख सकते हैं।
वह आदमी भागा हुआ हिंदुस्तान आया। हम कहेंगे, नासमझ था। आणंद में कितने ही लोगों ने ऐसी किताबें पढ़ी होंगी, कभी कोई भाग कर कहीं जाता है। पढ़ लेते हैं, अपने घर बैठे रहते हैं। लेकिन उसको यह बेचैनी हो गई कि एक डॉक्टर ऐसा लिखता है, तो जरूर इसमें कोई मतलब होना चाहिए। वह बेचारा ॠषिकेश पहुंचा। वह बड़े भाव से भरा हुआ...उसने अपनी डायरी में लिखा है कि मैं इतना पागल हो गया कि अगर ऐसा कोई सूत्र मिल गया है कि जिसके पाठ से सारी बीमारियां दूर हो जाती हैं, तब तो दुनिया धन्य हो जाएगी। तब तो अस्पतालों की, मेडिकल कॉलेजज़ की, इतनी दवा-दारू, इतना सब दंद-फंद, सब बंद कर देंगे। एक छोटी सी तरकीब मिल गई है, सीके्रट मिल गया है। यह तो बड़ा राज है। यह इस आदमी को तो नोबल प्राइज मिलनी चाहिए अभी इसी वक्त! कहां छोटी-मोटी दवाइयां खोजने वालों को...लुई पास्चर को, फलां-ढिकां को तुम जाकर और नोबल प्राइज दे देते हो। जिस आदमी ने इतनी बड़ी बात निकाल ली है, इसको तो नोबल प्राइज अभी मिलनी चाहिए! वह भागा हुआ ॠषिकेश पहुंचा। उसने जाकर स्वामी शिवानंद के सेक्रेटरी को कहा कि मैं इसी वक्त मिलना चाहता हूं स्वामी जी से!
सेक्रेटरी ने कहा: अभी नहीं मिल सकते! अभी स्वामी जी बीमार हैं और डॉक्टर उन्हें इंजेक्शन लगा रहा है!
वह आदमी तो भौचक्का खड़ा रह गया। स्वामी जी! उसने कहा: बीमार हैं? यह कभी नहीं हो सकता। यह कैसे हो सकता है? स्वामी जी कभी बीमार नहीं हो सकते। मैंने तो उनकी किताब पढ़ी है, जिसमें लिखा है कि ओम का पाठ करने से आदमी बीमारियों को जीत लेता है।
उस सेक्रेटरी ने कहा: पढ़ी होगी किताब, लेकिन स्वामी जी बीमार हैं। अभी डॉक्टर देख रहा है, अभी आप नहीं मिल सकते!
हम कहेंगे, अगर हम होते वहां, तो हम कहते, अरे पागल, तू समझता नहीं है, स्वामी जी लीला कर रहे हैं। यह तो लीला है, स्वामी जी थोड़े ही बीमार पड़े हैं, यह तो लीला दिखला रहे हैं। भक्तों की जांच कर रहे हैं, कौन श्रद्धा रखता है, कौन अश्रद्धा रखता है। भक्तों की जांच कर रहे हैं स्वामी जी इस वक्त । बीमार नहीं हैं, लीला कर रहे हैं। और जांच कर रहे हैं कि कौन है सच्चा श्रद्धालु, जो अभी भी माने कि स्वामी जी स्वस्थ हैं, जो नहीं माने वह नास्तिक है।
लेकिन वह डेनिश तो जैसे पहाड़ से गिर पड़ा। उसने अपनी किताब में लिखा है कि मैं तो दंग रह गया कि लोग कैसे हैं? किस मुद्दे पर लिखा है इस आदमी ने यह? लेकिन हम कोई भी नहीं कहेंगे, हमें कहेंगे, कहां, इसमें क्या मुद्दे की बात है?
हमें खयाल भी नहीं आएगा, क्योंकि विचार तो हमने बंद ही कर दिया है। यह सब खयाल दूसरों को आते हैं। जो विचार कर रहे हैं वे पूछना चाहते हैं, संदेह करना चाहते हैं, प्रयोग करना चाहते हैं, परीक्षण करना चाहते हैं, नतीजे निकालना चाहते हैं। हम सिर्फ घोषणाएं करते हैं।
यह स्थिति देश में विचार को पैदा नहीं होने देती है। और विचार पैदा नहीं होगा, तो भारत का कोई भी भविष्य नहीं है।
हम बहुत पिछड़ गए हैं, हम और पिछड़ते चले जाएंगे। हर दिशा में पिछड़ गए हैं। और पिछड़ने का एक ही कारण है कि हम कुछ पकड़े बैठे हैं हजारों साल से, कभी संदेह ही नहीं करते कि हम जो पकड़े बैठे हैं वह क्या है? आंख तो खोलो, देखो तो कि वह क्या है जिसे तुम पकड़े बैठे हो? लेकिन हमें डर लगता है कि अगर हमने सोच-विचार किया, तो कहीं ऐसा न हो कि हमारे पुरखे, हमारे ॠषि-मुनि गलत सिद्ध हो जाएं। तो चाहे हमारी जिंदगी नष्ट हो जाए, हमने एक कसम खा ली है कि अपने पुरखों को कभी गलत सिद्ध न होने देंगे। लेकिन पुरखों ने क्या कोई ठेका ले लिया है कि वह हमेशा के लिए सही हों? वह हमको हमेशा के लिए गलत कर गए हों और खुद हमेशा के लिए सही हो गए हैं। और मुर्दा, मर गए लोग अगर जिंदा लोगों को इस तरह फंसा दें, बहुत मुसीबत हो जाती है। जीना हमें है और वे जो कह गए हैं मानना उसे है। जिंदा हमें रहना है, जिंदगी से लड़ना हमें है, लेकिन उसूल उनके हैं; इस तरह नहीं चल सकता है आगे।
इसलिए पहली बात, भारत के दुर्भाग्य का बुनियाद है: विश्वास, बिलीफ, अंधविश्वास। आंख बंद करके माने चले जाना--सब दिशाओं में! वे दिशाएं कोई भी हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। इस दुर्भाग्य को तोड़ने का सूत्र है: विश्वास नहीं; विचार, संदेह, सोचना। हमारी हालत भेड़-बकरियों जैसी हो गई है।
मैंने सुना है, एक स्कूल में एक शिक्षक बच्चों को पढ़ा रहा था। और वह उनसे कुछ सवाल पूछ रहा था गणित के। फिर उसने एक सवाल दिया बच्चों को कि एक छोटी सी बगिया में चार दीवारी के भीतर बीस भेड़ें बंद हैं। उसमें से एक भेड़ छलांग लगा कर बाहर निकल गई, तो भीतर कितनी भेड़ें बचीं?
एक बच्चा एकदम हाथ हिलाने लगा, यह बच्चा कभी हाथ नहीं हिलाता था।
शिक्षक ने पूछा: आज तुझे क्या हो गया है?
उसने कहा कि मेरे घर में भेड़ें हैं, इसलिए मैं जवाब दे सकता हूं, एक भी नहीं बचेगी, सब निकल जाएंगी, पीछे एक भी नहीं बचेगी। आप कहते हैं न एक निकल गई। पीछे एक भी नहीं बचेगी।
शिक्षक ने पूछा: मतलब क्या? पागल! बीस भेड़ें थीं, एक निकली है।
उसने कहा: एक निकली होगी गणित में, भेड़ें सब निकल गईं, पीछे एक नहीं बच सकती, क्योंकि भेड़ें पीछे चलती हैं।
यही गणित भारत पर लागू होता है। इधर एक निकल जाए, फिर सारा मुल्क उसके पीछे चला जाए। जय-जयकार करता हुआ, जय महात्मा, जय महात्मा, झंडे हिलाता हुआ पीछे चला जाएगा। कोई नहीं पूछेगा कि ये भेड़ के पीछे क्यों चले जा रहे हो? अपने बल पर खड़े होना एक-एक आदमी को चाहिए। किसी के पीछे क्यों चले जा रहे हो? लेकिन हमें यह खयाल ही नहीं आता। हमारे पास भी भीतर कोई बुद्धि भगवान ने दी है। हम पर भी सोचने की चुनौती है, हमें भी सोचना है। क्यों पीछे चलें किसी के? लेकिन पीछे चलने में बड़ी सुविधा है। सोचने में श्रम करना पड़ता है, पीछे चलने में कुछ भी नहीं करना पड़ता। सोचने में इनकनवीनियंस है, सोचने में थोड़ी तकलीफ होती है, सिर पर जोर डालना पड़ता है। पीछे चलने में मजे से चले जा रहे हैं। किसी की पूंछ पकड़े हुए हैं और आगे चले जा रहे हैं। और वह जो आगे है उसका भी हमें पता नहीं कि वह भी किसी की पूंछ पकड़े है, क्योंकि ऐसा हो ही नहीं सकता वह न पकड़े हो। क्योंकि उसके आगे अगर पूंछ खो जाए तो वह भी घबड़ा जाएगा कि अब मुझे सोचना पड़ेगा। हो सकता है जिंदों की पकड़े हो, मुर्दों की पकड़े हो, किसी न किसी की पकड़े होगा। एक कतार लगी है हजारों साल से।
बुद्ध ने कहा है कि एक दफा एक पहाड़ की तराई में मैं ध्यान करता था। दोपहर का वक्त था, एकदम मैंने देखा कि जंगल में बहुत हड़बड़ी मच गई है, सारे जानवर भागे जा रहे हैं, सारे भागे जा रहे हैं! थोड़ी देर तक तो वे आंख बंद किए ध्यान लगाने की कोशिश करते रहे, लेकिन फिर उन्हें हैरानी हुई कि ऐसा तो कभी भी नहीं हुआ था। पक्षी आकाश में उड़ रहे हैं, कतारबद्ध भाग रहे हैं; खरगोश, हिरण, शेर, हाथी, सब भागे जा रहे हैं! आखिर उन्होंने आंख खोली, एक शेर को रोका, लेकिन शेर भी रुकता नहीं है, कंप रहा है एकदम! पूछा: भई, बात क्या है? सारी जंगल की पूरी किंग्डम, यह पूरा का पूरा जंगल का साम्राज्य कहां भागा जा रहा है?
उस शेर ने कहा: मुझे मत रोकिए, प्रलय आने वाली है, हम बचने की कोशिश कर रहे हैं। तो बुद्ध ने कहा: कहा किसने कि प्रलय आने वाली है? उस शेर ने कहा: आगे वाले लोगों ने कहा है। बुद्ध भागे आगे पहुंचे, दूसरे जानवरों से पूछा कि दोस्तो, कहां भागे जा रहे हो? उन्होंने कहा: महाप्रलय आ रही है, आपको पता नहीं? भागिए, बातचीत का वक्त नहीं है यह! पर बुद्ध ने कहा: कहा किसने है? उन्होंने कहा: आगे वालों ने कहा है, कहेगा कौन? जो आगे जा रहा है उन्होंने कहा।
बुद्ध भागते-भागते परेशान हो गए। हाथियों से पूछा, हिरणों से पूछा, लेकिन जिसने कहा, उसने कहा, आगे वाले ने कहा है। आखिर में सांझ होते-होते आगे जाकर खरगोशों की एक कतार मिली, जो सबसे आगे भागे जा रहे थे। पूछा कि दोस्तो, कहां भागे जा रहे हो?
उन्होंने कहा: महाप्रलय आ रही है, रोकिए मत! कहा किसने है? उन्होंने कहा: जो खरगोश हमारे आगे है। आगे एक खरगोश भागा जा रहा था, छोटा सा खरगोश, उसे रोका, वह रुकता नहीं है, सब तरफ से भागने की कोशिश करता है, वह चिल्लाता है कि मुझे रोकिए मत।
बुद्ध ने कहा: दोस्त, यह तो बता दे किसने तुझे कहा है?
उसने कहा: किसी ने नहीं कहा, मैं एक झाड़ के नीचे आंख बंद करके सोया हुआ दोपहर का सपना देख रहा था, जोर का धड़ाका हुआ, और मेरी मां ने बचपन में मुझे कहा था कि जब ऐसा धड़ाका होता है तो महाप्रलय आ जाती है। मैं भागा, मैं भागा तो बाकी खरगोश भागे, बाकी खरगोश भागे तो सारा जंगल भागने लगा।
बुद्ध ने कहा: तू किस झाड़ के नीचे सोता था, आम का झाड़ तो नहीं था?
उसने कहा: आम का ही झाड़ था।
बुद्ध ने कहा: पागल, कोई आम तो नहीं गिरा था?
उसने कहा: यह भी हो सकता है।
चल मेरे साथ। उस खरगोश को लेकर झाड़ के पास गए वह जहां खरगोश बैठा था। उसका चिह्न बना था धूल में। पास एक बड़ा आम पड़ा था। जितना बड़ा खरगोश था उतना बड़ा आम। यही आम तो नहीं गिरा?
उस खरगोश ने कहा: यही हो सकता है। लेकिन मेरी मां ने मुझसे बचपन में कहा था कि जब ऐसा धड़ाका होता है तो महाप्रलय आती है। इसलिए मैं भाग गया।
बुद्ध अपने भिक्षुओं से बाद में कहते थे कि जंगल के जानवर भागते थे, यह तो हंसने जैसी बात नहीं, लेकिन मेरे पूरे मुल्क के लोग इसी तरह भाग रहे हैं। किसी से भी पूछोगे किसने, वह कहेगा, आगे वाले ने। वह फलां महात्मा ने कहा है, फलां साधु ने कहा है, फलां उसने कहा है। पकड़ो उस साधु को, हमेशा वह आगे इशारा करेगा। और वहां तो बुद्ध ने खरगोश पकड़ ही लिया, यहां आगे किसी को भी पकड़ना मुश्किल है। क्योंकि आगे वाले लोग मर चुके हैं, कब्रों में कहां खोदिएगा? उनका कोई पता लगाना मुश्किल है, राख हो गए हैं वे। इसलिए आगे जाने का कोई उपाय नहीं कि पहला आदमी मिल जाए। और सब चीजों में यह श्रृंखला है। यह श्रृंखला तोड़ देनी चाहिए। जितनी जल्दी हम तोड़ दें।
हम जो भी करते हैं उसका उत्तर हमारे विवेक के पास होना चाहिए, किसी दूसरे के विवेक के पास नहीं। मैं जो कर रहा हूं, जो कह रहा हूं, मेरे पास उत्तर होना चाहिए कि मैं क्यों कह रहा हूं? क्यों कर रहा हूं? अगर मैं यह कहता हूं कि दूसरे ने कहा है, तो मैंने मनुष्य होने की योग्यता खो दी। मैं डिसक्वालिफाइड हो गया उसी वक्त। उसी वक्त मेरे आदमी होने की बात खत्म हो गई। मैं आदमी नहीं हूं अब, अब मैंने आदमी के तल से अपने को नीचे गिरा लिया। जैसे ही आप कहते हैं कि फलां आदमी ने कहा है इसलिए, फिरगलत बात हो गई। आपकी बुद्धि कहती है, आपका विवेक कहता है--गलत हो, कोई फिकर नहीं, अपने विवेक से गलती करना भी शुभ है और दूसरे के विवेक से गलती से बच जाना भी अशुभ है। क्योंकि अपने विवेक से गलती करने वाला आज नहीं कल देख लेगा कि गलती है--अपना विवेक है उसके पास--और गलती के पार हो जाएगा। लेकिन जो दूसरे के विवेक से चलता है वह कभी भी, कभी भी पार नहीं हो सकता। उसके पास जांच, कसौटी कुछ भी नहीं है, उसके पास कोई मापदंड नहीं है।
भारत के पास व्यक्तित्व पैदा नहीं हो पाया--विश्वास के कारण। इसलिए मैं कहता हूं: विचार की फिकर करना, सोचना, किसी मुद्दे को बिना सोचे मत मान लेना। बड़ी तकलीफ होगी, बड़ा श्रम पड़ेगा, लेकिन श्रम से बचने के डर भी क्या हैं। और ध्यान रहे, विचार की दुनिया में जितना श्रम किया जाता है उतनी ही आत्मा आनंद को उपलब्ध होती है। विचार की दुनिया में जितना श्रम किया जाता है उतना मनुष्य परमात्मा के निकट पहुंचता है। शरीर की दुनिया में जितना श्रम किया जाए उतनी संपत्ति पैदा होती है और विचार की दुनिया में जितना श्रम किया जाए उतना सत्य पैदा होता है। बाहर की दुनिया में जितना श्रम पैदा किया जाए उतनी समृद्धि पैदा होती है और भीतर की दुनिया में जितना श्रम किया जाए उतना सत्य पैदा होता है।
सत्य एकमात्र शक्ति है।
और जो विश्वास करते हैं उनके पास कोई शक्ति नहीं रह जाती, क्योंकि उनके पास सत्य ही नहीं है। उनके पास उधार बातें, शब्द हैं, बारोड। बासे शब्दों से भरी हुई है हमारी खोपड़ी, इसलिए हम भटकते हैं, भरमते हैं, लेकिन कहीं पहुंचते नहीं। देश की पूरी नैया ऐसे ही चक्कर काटती रहती है कोल्हू के बैल की तरह। कोई किनारा नहीं मिलता हम कहां जाएं? यह स्थिति तोड़नी जरूरी है।
और जैसे ही यह देश विचार करना शुरू करेगा, वैसे ही इस देश के भीतर पुरुषार्थ के अंकुर पैदा हो जाएंगे। जैसे ही विचार आएगा, पुरुषार्थ की किरणें छा जाएंगी। जैसे ही विचार आएगा, एक-एक आदमी को लगेगा कि बहुत कुछ करना जरूरी है। क्योंकि ‘विचार’ करने की प्रेरणा बनता है। वह कहता है कि यह करो; यह हो सकता है। वह कहता है, यह करके देखो।
हिंदुस्तान में विज्ञान पैदा नहीं हुआ, क्योंकि विचार पैदा नहीं हुआ। विचार पैदा नहीं हुआ, विज्ञान कैसे पैदा होता? पश्चिम के मुल्कों में विज्ञान पैदा हुआ। वह भी हमेशा से नहीं था, अभी तीन सौ वर्षों में पैदा हुआ। जब से आदमी ने वहां विचार करना शुरू किया, विज्ञान की धारा खुल गई। विज्ञान की धारा खुली, पुरुषार्थ के प्राण खुल गए। आज उनका जवान, उनका आदमी चांद-तारों पर पैर रखने की योजना बना रहा है। और हम? हम इस जमीन से भी हट जाने की योजना बना रहे हैं। एक पैर हमारा कब्र में है, एक पैर जमीन पर है, कब कोई धक्का दे देगा, हम जल्दी से कब्र में समा जाएंगे। हम कब्र में तैयारी कर रहे हैं प्रवेश की। वे चांद-तारों पर, वे आकाश के दूर यात्री बनने जा रहे हैं। जो किसी मनुष्य ने कभी नहीं जाना, वे जानेंगे। जो इतिहास में जहां किन्हीं मनुष्यों के चरण नहीं पड़े, वहां उनके चरण पड़ेंगे। हमारे बेटे, हमारे बच्चे तरसेंगे बैठ कर, जमीन पर रहने का हक भी खो देंगे। लेकिन हम चुपचाप देख रहे हैं। हम कहते हैं, अरे, क्या करोगे चांद-तारों पर जाकर? क्या रखा है वहां? अपने गांव के हनुमान जी के मंदिर में बैठ कर भजन-कीर्तन करो। इससे बहुत फायदा होता है। इससे बड़ी आत्मिक शांति मिलती है। हम कहेंगे, क्या कर रहे हो तुम, किस दौड़-धूप में लगे हो?
लेकिन परमात्मा उनके साथ है जो बाहर और भीतर श्रम में लगे हैं। परमात्मा उनके साथ है जो जीवन की चेतना को, भविष्य-चेतना को विकास देने में लगे हैं। परमात्मा उनके साथ है जो एवोल्यूशन को, जो विकास को नये सोपानों पर पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। परमात्मा उनके साथ है जो भविष्य को जीतने की तैयारी में हैं। परमात्मा मरते हुओं के साथ कभी भी नहीं है।
हम राह की धूल बन कर खो जाएंगे। हम अभी भी राह के किनारे खड़े हो गए हैं, इसका ध्यान रहे! जो जीवन की धारा चल रही है भारत उसमें राह के किनारे खड़ा हो गया है। जीवन की धारा का मुख्य अंग नहीं है अब। लेकिन हम किनारे पर खड़े होकर चिल्ला रहे हैं कि हम जगतगुरु हैं। दुनिया को हम शिक्षा देंगे, दुनिया हमारी तरफ देख रही है मार्ग-दर्शन के लिए। कौन देख रहा है तुम्हारी तरफ? राह के किनारे खड़े लोगों की तरफ कोई कभी देखता है? लेकिन तुम्हें लगता है, क्योंकि राह पर से लोग निकलते हैं तो उनकी नजर पड़ जाती है तुम्हारे ऊपर खड़े हुए, तुम समझते हो सारे लोग हमारी तरफ नजर लगाए हुए हैं। वे आगे चले जा रहे हैं, कोई तुम्हारी तरफ नजर नहीं लगाए हुए है। हां, कोई-कोई झक्की उनमें पैदा हो जाते हैं और वे इधर आ जाते हैं--कोई बीटल आ जाएगा, कोई कोई आ जाएगा, हम कहेंगे, धन्यभाग! देखो, भारत जगतगुरु है! दो-चार-दस पगलों को लाने से कोई भारत जगतगुरु हो जाएगा? यहां से कोई आदमी चला जाता है पश्चिम में, कोई महर्षि, कोई कोई और वहां दस-पच्चीस लोग उसके आस-पास चक्कर काटने लगते हैं, तो हम समझते हैं कि कोई भारत जगतगुरु हो गया।
यह सवाल नहीं है। ऐसे कोई जगतगुरु नहीं होता। हम जगत की धारा से ही विच्छिन्न हो गए हैं। लेकिन अक्सर ऐसा होता है, जिनके हाथ से सब खो जाता है, वह मन ही मन में बड़ी-बड़ी कल्पनाएं करके संतोष खोजने की कोशिश करते हैं। भिखारी रास्तों के किनारे बैठ कर सोचते हैं कि हमारे बापदादे सम्राट थे। जरूर सोचते हैं, भिखारियों के पास जाइए बराबर सोचते मिलेंगे। भिखारी और कुछ नहीं सोचते, अपने पीछे का हिसाब लगाते हैं कि मैं यह था, और सपने में सभी भिखारी सम्राट हो जाते हैं। सपने में कोई भिखारी कभी भी भिखारी होने का सपना नहीं देखता, यह आपको पता है?
मैंने सुना है, एक झाड़ के नीचे बैठ कर एक बिल्ली सपना देख रही थी। एक कुत्ता वहां से निकलता था, उसने उसे जगाया और कहा कि क्या देख रही है? बड़ी रस ले रही थी। तेरे ओंठों से लार टपक रही थी। और तेरी मूछें तू साफ कर रही थी। मामला क्या था? क्या देख रही थी?
उस बिल्ली ने कहा: नाहक मेरा सपना तोड़ दिया। मैं देख रही थी कि वर्षा हो रही है और चूहे टपक रहे हैं, एकदम चूहे ही चूहे! पानी नहीं है, चूहों की वर्षा हो रही है! सब गड़बड़ कर दिया।
उस कुत्ते ने कहा: नादान बिल्ली, सपना भी देखा तो गलत देखा, मैं पुरखों से सुनता आया हूं कि कभी-कभी ऐसी वर्षा होती है, लेकिन चूहे नहीं बरसते, हड्डियां बरसती हैं, चूहे तो कहीं लिखा ही नहीं हैं। किसी शास्त्र में, किसी पुराण में नहीं लिखा है कि चूहे बरसते हैं, हड्डियां बरसती हैं। हम भी कभी-कभी सपने देखते हैं, हड्डियां गिरती हैं, चूहे नहीं गिरते। सपना भी देखा तो गलत सपना देखा।
लेकिन बिल्ली चूहे ही गिरने के सपने देख सकती है। कुत्ते हड्डी ही गिरने के सपने देख सकते हैं। यह भारत जगतगुरु होने के सपने देखता रहता है। जो हमारे पास नहीं है उसी के सपने देखे जाते हैं। जो होता है उसके कोई सपने नहीं देखता। जो आज हैं गुरु की हैसियत में वे कहते नहीं फिरते। और जो हम आज दीन-हीन हो गए हैं तो हम कहते फिरते हैं, चिल्लाते फिरते हैं। यह सब चिल्लाना हमारी कमजोरी, यह सब चिल्लाना हमारे हारे हुए होने का सबूत है।
लेकिन कब बदलेगा यह भाग्य? कैसे बदलेगा यह भाग्य?
यह थोड़ी सी बात मैंने कही। विचार की क्रांति चाहिए इस देश के प्राणों को झकझोर देने के लिए। सब विश्वास उखाड़ कर फेंक देने जैसे हैं। जीवन के प्रत्येक पहलू पर संदेह का द्वार खोला जाना चाहिए। जिंदगी के हर मसले को फिर से रिकंसीडर, फिर से पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
जिंदगी की कोई चीज चुपचाप मान लेने योग्य नहीं है। हजारों-हजार साल में जो कहा हो उसको फिर उठा कर पूछना पड़ेगा। फिर प्रश्न, फिर इंक्वायरी, फिर क्वेश्चनिंग, और हथौड़े की चोट पर हैमरिंग करनी पड़ेगी एक-एक चीज को, जो टिक जाएगी कसौटी पर उसको मान लेंगे, जो नहीं टिकेगी उसको फेंक देंगे, चाहे वह किन्हीं महात्माओं ने कही हो, किन्हीं ॠषियों ने कही हो, किन्हीं मुनियों ने कही हो।
नहीं, वह विचार की और तर्क की कसौटी पर कसी जानी चाहिए। और अगर मुल्क यह हिम्मत कर लेता है, तो आगे दुर्भाग्य का कोई कारण नहीं है। आज तक हम अभागे थे, आगे भाग्य आ सकता है। मैं आशा से भरा हूं। यह हो सकता है। और यह भी हो सकता है कि आज तक हमने विचार नहीं किया, यह वरदान नहीं था, अभिशाप था। यह अभिशाप भी भविष्य में वरदान बन सकता है। जैसे किसी खेत को बहुत दिन तक खेती-बाड़ी न की गई हो और वर्षों के बाद फिर कोई बीज उसमें डाल दे, तो फिर ऐसी फसल आए जैसी कि किसी खेत में नहीं आती। क्योंकि हजारों साल उस खेत में बहुत ऊर्जा इकट्ठी हो गई है, जो बीज को पकड़ ले तो फूल जाए।
हिंदुस्तान का मस्तिष्क, हिंदुस्तान की प्रतिभा हजारों साल से बंजर पड़ी है, उस पर खेती नहीं की गई है। कौन जाने, अगर आने वाले भविष्य में, आने वाले बच्चों ने हिम्मत की और उन्होंने विचार के बीज बोए, तो यह भी हो सकता है कि पृथ्वी पर कोई देश इस देश की प्रतिभा का मुकाबला न कर सके। क्योंकि हजारों साल की ऊर्जा निष्प्राण पड़ी है। वह अगर एकदम से फूट जाए, तो इस खेत में जितने फूल आएंगे उतने शायद जमीन के किसी देश में नहीं आ सकते हैं। लेकिन हम करेंगे तो ही हो सकता है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।