YOG/DHYAN/SADHANA

Dhyan Ke Kamal (ध्यान के कमल) 06

Sixth Discourse from the series of 10 discourses - Dhyan Ke Kamal (ध्यान के कमल) by Osho.
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प्रभु के द्वार में प्रवेश इतना कठिन नहीं है, जितना मालूम पड़ता है। सभी चीजें कठिन मालूम पड़ती हैं, जो न की गई हों। अपरिचित, अनजान कठिन मालूम पड़ता है। जिससे हम अब तक कभी संबंधित नहीं हुए हैं, उससे कैसे संबंध बनेगा, यह कल्पना में भी नहीं आता।
जो तैरना नहीं जानता है, वह दूसरे को पानी में तैरता देख कर चकित होता है। सोचता है बहुत कठिन है बात। जीवन-मरण का सवाल मालूम पड़ता है।
लेकिन तैरने से सरल और क्या हो सकता है! वस्तुतः तैरना कोई कला नहीं, सिर्फ पानी में गिरने के साहस का फल है। तैरना कोई कला नहीं है। पहली बार आदमी गिरता है तो भी हाथ-पैर तड़फड़ाता है, थोड़े अव्यवस्थित होते हैं। दो-चार दिन के बाद थोड़ी व्यवस्था आ जाती है। उसी को हम तैरना कहने लगते हैं। और जब तैरना आपको आ जाता है, तब आप भलीभांति जानते हैं कि यह भी कोई सीखने जैसी बात थी!
इसीलिए तैरने को कोई कभी भूल नहीं सकता। जो भी चीज सीखी जाती है, वह भूली जा सकती है। लेकिन तैरने को कोई भूल नहीं सकता। असल में, उसे हम सीखते नहीं, जानते ही हैं। सिर्फ साहस हो तो उसका उदघाटन हो जाता है। जो भी चीज सीखी जाती है, दैट व्हिच इज़ लर्न्ड, कैन बी अनलर्न्ड। लेकिन तैरना एक ऐसी चीज है कि एक बार जान लेने के बाद आप पचास साल तक न तैरें और फिर आपको पानी में कोई फेंक दें, आप तैरने लगेंगे। उसे आप भूल नहीं सकते। उसे भूलने का कोई उपाय नहीं है।
लेकिन अगर सीखा होता तो भूला जा सकता था। सीखा ही नहीं है, हाथ-पैर तड़फड़ाना सभी को मालूम है। थोड़ी हिम्मत हो और पानी में कूद जाना हो जाए, तो हाथ-पैर तड़फड़ाना आ जाता है। फिर दो-चार दिन हिम्मत बढ़ती जाती है, मरने का डर कम होता जाता है, और आदमी व्यवस्थित हो जाता है।
ठीक ध्यान भी ऐसी ही चीज है। जब तक आपको पता नहीं, तब तक लगता है बड़ा कठिन है। सीखने का भी कुछ नहीं है, सिर्फ साहस की ही जरूरत है और कूद जाने की बात है। थोड़ा हाथ-पैर तड़फड़ाएंगे, दो-चार दिन में व्यवस्थित हो जाता है। और जब व्यवस्थित हो जाता है तो दुबारा आप भूल नहीं सकते। और एक बार आ जाए तो फिर हैरानी होती है कि इतनी सरल बात और इतने जन्मों तक क्यों न आ सकी?
लेकिन साहस की हममें है बड़ी कमी।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन पहली दफा तैरना सीखने गया था नदी के किनारे। दुर्भाग्य से पैर फिसल गया और वह पानी में गिर गया। इसके पहले कि उसका गुरु उसे सिखाना शुरू करता, वह दो-चार डुबकी खा गया। बाहर निकाला गया। उसने किनारे पर खड़े होकर कसम खाई कि अब जब तक तैरना न सीख लूं, पानी के पास कदम न रखूंगा।
फिर जन्मों-जन्मों तक तैरना नहीं हो सकता। क्योंकि तैरना भी सीखना हो तो पानी में कदम रखना जरूरी है। इसलिए कोई कहता हो कि पहले तैरना सीख लेंगे, फिर पानी में कदम रखेंगे। तर्कयुक्त मालूम पड़ती है बात कि जब तैरना नहीं आता तो पानी से बचना चाहिए। और पानी में कदम नहीं रखना भूल कर, जब तक तैरना न आ जाए। लेकिन तैरना सीखने के लिए भी पानी में ही उतरना पड़ता है। इसलिए ध्यान रखें, जिसे तैरना नहीं आता, उसे भी पानी में उतरना ही पड़ेगा, ताकि तैरना आ जाए। और अगर आपने नियम बना लिया कि पहले तैरना सीख लेंगे, फिर पानी में उतरेंगे, तो आप कभी न तैरना सीख पाएंगे और न कभी पानी में उतर पाएंगे।
एक मित्र कल आए थे, वे कहते थे कि पहले मैं संन्यास का अभ्यास करूंगा। फिर बाद में संन्यास ले लेंगे।
संन्यास का कैसे अभ्यास करिएगा बिना संन्यास लिए? नदी की रेत में तैरना सीखिएगा? अभ्यास के पहले भी छलांग लेनी पड़ती है, तो ही अभ्यास हो सकता है। और कहीं न कहीं तो छलांग लेनी ही पड़ती है। छलांग का अर्थ आपको कह दूं।
छलांग का अर्थ होता है कि आपके मन की जो कंटिन्युटी है, जो सातत्य है अब तक का, अगर उसमें ही जुड़ने वाली किसी कड़ी को आप बनाते हैं, तो वह छलांग नहीं है। दैट इज़ सिंपली ए कंटिन्युटी ऑफ दि ओल्ड। वह जो पुराना मन है, दस तक आ गया था, आप ग्यारहवां और जोड़ देते हैं कदम। वह उसी का सिलसिला है, उसमें छलांग नहीं है। लेकिन एक आदमी का जो मन है आज तक का, उस मन के जो तर्क हैं, उस मन की जो व्यवस्था है, उस सबको तोड़ कर आदमी एक ऐसा कदम उठाता है, जो उसका मन राजी भी नहीं होता था। जो उसका मन कहता था, बिलकुल गलत है! जो उसका मन कहता था, कैसे अंधेरे में कूद रहे हो, अनजान में कूद रहे हो, मेरी सुनो। जिस कदम के प्रति उसका मन सब तरह की बाधाएं डाल रहा था, उस कदम को उठा लेने का नाम छलांग है। छलांग का अर्थ है: डिसकंटिन्युअस, आपके पुराने मन से उसका कोई सातत्य, श्रृंखला नहीं है।
ध्यान एक छलांग है। आपका मन सब तरह की बाधाएं डालेगा, अपने पुराने अनुभव के आधार पर सब तरह की रुकावटें डालेगा। और उसकी रुकावटों की वजह से वह जो तर्क देगा, वे तर्क ऐसे होंगे कि--मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन सुबह से बैठा अपने बैठकखाने में, दोपहर होने के करीब आ गई, कोई मरीज न आया। कोई मिलने वाला न आया। एक-दो बार उसने अपने नौकर महमूद से कहा कि आज बात क्या है, क्या गांव में कोई मरीज न रहा? ऐसा तो कभी नहीं होता! आज किसी मिलने वाले का भी कोई पता नहीं, किसी ग्राहक का भी कोई पता नहीं। कोई सत्संग करने वाला भी नहीं आया।
सांझ होने लगी, फिर भी कोई नहीं आया। रात भी हो गई, फिर भी कोई नहीं आया। रात के बारह बज गए, तब मुल्ला ने अपने नौकर को कहा कि जा, बाहर का दरवाजा बंद कर आ। अब और प्रतीक्षा करनी व्यर्थ है, अब हम सोने चलें।
नौकर गया बाहर और क्षण भर में वापस लौट आया। नसरुद्दीन ने कहा, इतनी जल्दी तू दरवाजा बंद कर आया?
नौकर ने कहा, मालूम होता है सुबह हम दरवाजा खोलना ही भूल गए। दरवाजा बंद ही है।
लेकिन दिन भर यह खयाल न आया कि दरवाजा बंद भी हो सकता है। लोग नहीं आए, तो क्यों नहीं आए, यह वह विचार करता रहा नसरुद्दीन। आज कोई बीमार ही न पड़ा होगा, संयोग की बात है। वह सब सोचता रहा। लेकिन दरवाजा भी बंद हो सकता है।
हम जिस मन में बैठे हुए हैं, उसका दरवाजा बंद है परमात्मा की तरफ। हम सब तर्क लगाते हैं कि क्यों आज तक उसकी अनुभूति नहीं हुई? तो सोचते हैं: दुष्कर्म किए होंगे, पाप किए होंगे, अपने भाग्य में न होगा, उसकी कृपा न होगी। सब जमाने भर के तर्क आदमी बैठ कर सोचता रहता है, लेकिन वही, कभी उठ कर नहीं देखता कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि दरवाजा ही बंद हो जहां से वह आ सकता है!
हमने हजारों तर्क ईजाद किए हैं, इस बात को छिपाने के लिए कि दरवाजा बंद है। आपने कितने ही पाप किए हों, आप इतने पाप कभी नहीं कर सकते कि परमात्मा की कृपा से आप वंचित हो जाएं। आदमी की सामर्थ्य नहीं है इतने पाप करने की। परमात्मा की कृपा से वंचित होने योग्य पाप कोई आदमी कभी नहीं कर सकता। उसकी कृपा सदा ही आपके पाप की सामर्थ्य से ज्यादा है। तो इस भ्रम में आप मत रहना कि बहुत पापों के कारण उससे मिलन नहीं हो रहा है। इस भ्रम में भी मत रहना कि आपके भाग्य में ही नहीं है। क्योंकि अगर कोई चीज आपके भाग्य में निश्चित है, नियति है, डेस्टिनी है, तो वह परमात्मा से मिलन है। बाकी सब चीजें एक्सीडेंटल हैं।
एक मकान बनेगा कि नहीं बनेगा, धन मिलेगा कि नहीं मिलेगा, इज्जत पाएंगे कि नहीं पाएंगे, सब एक्सीडेंट से है। एक बात नियति है, जो कि होकर ही रहेगी, चाहे आप जन्म-जन्म टालते रहें, लेकिन होकर ही रहेगी, वह प्रभु से मिलन है।
तो आपके भाग्य में कोई बाधा नहीं है, सिर्फ एक ही कठिनाई है कि आप कभी उस दरवाजे की तरफ नहीं देखते जो बंद है।
उस बंद दरवाजे को खोलने के लिए ही ध्यान है। और वह दरवाजा इतने दिन से बंद है कि थोड़े धक्के मारने पड़ेंगे। जंग खा गया होगा, जन्मों-जन्मों से बंद है। शायद दरवाजा भी भूल गया होगा कि मैं खुल सकता हूं। और आप भी भूल गए होंगे कि यह दरवाजा है। क्योंकि जिसे कभी खुलते न देखा हो, उसमें और दीवाल में फर्क क्या मालूम पड़ता है! तो थोड़े धक्के मारने पड़ेंगे। थोड़ी चेष्टा करनी पड़ेगी। थोड़ा गहन, तीव्र प्रयास करना पड़ेगा। यही हम यहां इस छोटे से प्रयोग में कर रहे हैं। यह छोटा सा प्रयोग है, अगर आप न करें; यह महान प्रयोग हो जाएगा, अगर आप कर लें।
जो मित्र देखने आ गए हों, उनके लिए कुर्सियों पर स्वागत है। वहां कुर्सियां इसीलिए रखी हैं। जो देखने आ गए हों, वे कुर्सियों पर चले जाएं। ईमानदारी से चले जाएं।...

(इसके बाद एक घंटे तक ओशो के सुझावों के साथ ध्यान-प्रयोग चलता रहा।)

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