YOG/DHYAN/SADHANA
Dhyan Darshan (ध्यान दर्शन) 06
Sixth Discourse from the series of 10 discourses - Dhyan Darshan (ध्यान दर्शन) by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
थोड़े से सवाल हैं। उन सवालों को छोड़ दूंगा, जो मात्र सैद्धांतिक हैं, थ्योरेटिकल हैं। यह बैठक सुबह और सांझ की मात्र साधकों के लिए है, सिद्धांतवादियों के लिए नहीं। सिद्धांतवादियों के लिए उनतीस तारीख से जो बैठक होगी, उसमें उन्हें जो पूछना हो पूछें। यहां तो उनसे ही बात कर रहा हूं जो करना चाहते हैं। और अक्सर ऐसा होता है, जो सोचना चाहते हैं वे करने का निर्णय कभी भी नहीं ले पाते। वे सोचते ही सोचते समाप्त हो जाते हैं। बहुत बार, सौ में निन्यानबे मौके पर, सोचना सिर्फ करने से बचने की तरकीब होती है। क्योंकि सोचने में कल तक के लिए टाला जा सकता है। जब तक निर्णय न हो, जब तक सिद्ध न हो, जब तक सिद्धांत स्पष्ट न हो, तब तक हम कुछ करेंगे नहीं।
लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि न करना भी एक निर्णय है।
एक आदमी कहता है कि जब तक ध्यान मैं समझ न लूं, तब तक मैं करूंगा नहीं। लेकिन ध्यान नहीं करना है, यह समझ लिया है। ध्यान न करना भी एक डिसीजन है, एक निर्णय है। अगर ध्यान व्यर्थ है, ऐसा समझ लिया हो और फिर न कर रहे हों, तब तो ठीक है। लेकिन ध्यान न करने के लिए समझने की कोई जरूरत नहीं, सिर्फ ध्यान करने के लिए समझने की जरूरत आ पड़ती है। और जब तक समझ न लें तब तक करेंगे नहीं।
और मैं आपसे कहता हूं कि जीवन में कुछ है, जब तक करेंगे नहीं, तब तक समझेंगे नहीं। वैसे ही जैसे एक आदमी कहे कि मैं तैरना सीखना चाहता हूं, लेकिन जब तक सीख न लूं तब तक पानी में उतरूंगा नहीं। तो पहले मुझे तैरना सिखा दें, फिर मैं पानी में उतरूंगा। वह ठीक कहता है। जहां तक उसकी समझ है, बिलकुल ठीक कहता है। खतरनाक है पानी में उतरना, बिना तैरना सीखे।
लेकिन जो उसे सिखाने वाला है उसकी भी मजबूरी है। वह कहता है, जब तक पानी में न उतरोगे, तब तक मैं तुम्हें सिखाऊंगा कैसे? तैरना सीखना हो तो भी पानी में उतरना पड़ेगा। उसकी भी अपनी मजबूरी है। वह भी ठीक कह रहा है।
ध्यान में उतरे बिना ध्यान को समझ न सकेंगे। और ध्यान के संबंध में जो कुछ भी समझेंगे ध्यान में उतरे बिना, वह दो कौड़ी का है, उसका कोई भी मूल्य नहीं है। क्योंकि अगर समझने से ही ध्यान आ गया होता तो आ चुका होता, आपको यहां आने की कोई भी जरूरत न थी।
अब इसमें कुछ सिद्धांतवादी रोज प्रश्न लिख कर भेज देते हैं। अगर उन्हें आ ही गया है और उन्हें मालूम ही हो गया है, तो यहां वे परेशान न हों। यहां तो मैं उनके लिए मेहनत कर रहा हूं जिन्हें अभी नहीं आया है, जिन्हें अभी पता नहीं है। जिन्हें पता है वे प्रसन्न हों अपने ज्ञान में। लेकिन वे भी आते हैं, सो जाहिर है कि पता उन्हें भी नहीं है। लेकिन सिद्धांत पता हो गया है। और एकाध सिद्धांत पता हो गया हो, ऐसा भी नहीं है; बहुत सिद्धांत पता हो गए हैं। और उन सबके कनफ्यूजन में, उन सबकी उलझन में वे परेशान हैं। लेकिन उसके बाहर एक कदम उठाने का साहस नहीं जुटाते। उन्हीं सिद्धांतों में उलझते रहने की कोशिश करते हैं।
साधक की यात्रा बहुत अलग है। वह सिद्धांत की यात्रा नहीं है, वह ज्ञान की यात्रा है। ऐसा नहीं है कि साधक सिद्धांत पर नहीं पहुंचता, सच तो यह है कि साधक ही सिद्धांत पर पहुंचता है। यह शब्द कभी आपने सोचा, सिद्धांत का क्या मतलब होता है? यह अंग्रेजी के प्रिंसिपल से बहुत अलग शब्द है। और यह साधकों का खोजा हुआ शब्द है। इसका अर्थ है कि सिद्धि के अंत पर जो उपलब्ध होता है वह सिद्धांत है। साधना जब पूरी होती है तो सिद्धि बनती है और सिद्धि बनने पर जो उपलब्ध होता है वह सिद्धांत है। दि एंड ऑफ रियलाइजेशन, सिद्धांत का मतलब है।
तो अगर सिद्धांत ही पता है, तो व्यर्थ आप परेशान न हों। नहीं पता है, तो पहले सिद्धि को खोजें, फिर सिद्धांत उससे प्रकट होगा। उसके पहले उस संबंध में चर्चा करने का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए ये सैद्धांतिक बातें छोड़ देता हूं।
साधकों के दो-तीन-चार सवाल हैं। एक तो एक मित्र ने पूछा है कि
सुबह का ध्यान खड़े होकर करते हैं, रात्रि का ध्यान बैठ कर ज्यादा हमें सुविधापूर्ण मालूम होता है।
तो बराबर बैठ कर कर सकते हैं। आपकी सुविधा ही महत्वपूर्ण है। लेकिन सुविधापूर्ण का मतलब क्या है? कनवीनिएंट का मतलब क्या है?
अगर सुविधापूर्ण का मतलब यह हो कि चालीस मिनट आराम से बैठे रहते हैं खड़े होने की बजाय, तो सलाह नहीं दूंगा। सुविधापूर्ण का मतलब अगर यह हो कि खड़े होने की बजाय बैठने में आप ज्यादा गहरे ध्यान में जाते हैं, तो जरूर कहूंगा कि बैठ कर जाएं। सुविधा का क्या मतलब है? सुविधा का मतलब: अगर साधना में गहराई बढ़ती हो तो बैठें, लेटें। लेकिन सुविधा का मतलब अगर विश्राम करना हो, कि खड़े होने में तो थोड़ा श्रम हो जाता है, तो ऐसी सुविधा से कम से कम पांच दिन बचें। वैसी सुविधा चौबीस घंटे है। यहां से घर जाकर आराम से सो जाएं। यहां थोड़ा श्रम कर लें। लेकिन अगर ध्यान की गहराई बढ़ती हो बैठ कर, तो मजे से बैठें। क्योंकि असली सवाल बैठना और खड़ा होना नहीं है, असली सवाल ध्यान की गहराई बढ़नी है। किसी को बैठ कर बढ़ सकती है, तो बराबर बैठे।
लेकिन अपने साथ बेईमानी न करें। क्योंकि आदमी बड़ा बेईमान है। वह अपने को ही धोखा दे लेता है। दूसरों को देता है वहां तक भी ठीक है, वह अपने को भी दे लेता है। वह कहता है, बैठ कर ज्यादा आराम रहेगा। आराम रहेगा, ध्यान ज्यादा रहेगा कि नहीं? ध्यान ज्यादा रहे तो मैं राजी हूं। वह आप सोच लें। वह आपकी ही आंतरिक बात है।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि
रात्रि के प्रयोग में आपकी आंखों पर ध्यान रखें, तो आप यहां-वहां चेहरा करते हैं, अलग-अलग लोगों को देखते हैं, तो हमें बाधा पड़ती है।
मैंने आपसे कहा नहीं कि मेरी आंखों पर ध्यान रखें। मैंने कहा, मुझ पर ध्यान रखें। मेरी आंखों पर ध्यान नहीं रखना है, मुझ पर ध्यान रखना है। मेरी आंख की फिक्र छोड़ें। आपकी आंखों के फोकस में पूरा मैं रहना चाहिए। आंख की चिंता आप न करें।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि
जब रात्रि के ध्यान में हम बैठते हैं, तो सिर इतने जोर से घूमने लगता है कि आंख एकटक रखनी मुश्किल हो जाती है।
सिर को घूमने दें। आंख झपे न और जितने दूर तक बन सके मुझ पर रखें। लेकिन सिर को घूमने से मत रोकें। शरीर में जो भी क्रिया हो रही है उसे नहीं रोकना है, उसे होने देना है।
एक तीसरे मित्र ने पूछा है कि
आप कहते हैं, चालीस, पचास या सत्तर प्रतिशत लोग ध्यान में गए, तो क्या आप उन्हीं लोगों को कहते हैं जो...
(प्रवचन के शेष भाग का ध्वनि-मुद्रण उपलब्ध नहीं है।)
थोड़े से सवाल हैं। उन सवालों को छोड़ दूंगा, जो मात्र सैद्धांतिक हैं, थ्योरेटिकल हैं। यह बैठक सुबह और सांझ की मात्र साधकों के लिए है, सिद्धांतवादियों के लिए नहीं। सिद्धांतवादियों के लिए उनतीस तारीख से जो बैठक होगी, उसमें उन्हें जो पूछना हो पूछें। यहां तो उनसे ही बात कर रहा हूं जो करना चाहते हैं। और अक्सर ऐसा होता है, जो सोचना चाहते हैं वे करने का निर्णय कभी भी नहीं ले पाते। वे सोचते ही सोचते समाप्त हो जाते हैं। बहुत बार, सौ में निन्यानबे मौके पर, सोचना सिर्फ करने से बचने की तरकीब होती है। क्योंकि सोचने में कल तक के लिए टाला जा सकता है। जब तक निर्णय न हो, जब तक सिद्ध न हो, जब तक सिद्धांत स्पष्ट न हो, तब तक हम कुछ करेंगे नहीं।
लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि न करना भी एक निर्णय है।
एक आदमी कहता है कि जब तक ध्यान मैं समझ न लूं, तब तक मैं करूंगा नहीं। लेकिन ध्यान नहीं करना है, यह समझ लिया है। ध्यान न करना भी एक डिसीजन है, एक निर्णय है। अगर ध्यान व्यर्थ है, ऐसा समझ लिया हो और फिर न कर रहे हों, तब तो ठीक है। लेकिन ध्यान न करने के लिए समझने की कोई जरूरत नहीं, सिर्फ ध्यान करने के लिए समझने की जरूरत आ पड़ती है। और जब तक समझ न लें तब तक करेंगे नहीं।
और मैं आपसे कहता हूं कि जीवन में कुछ है, जब तक करेंगे नहीं, तब तक समझेंगे नहीं। वैसे ही जैसे एक आदमी कहे कि मैं तैरना सीखना चाहता हूं, लेकिन जब तक सीख न लूं तब तक पानी में उतरूंगा नहीं। तो पहले मुझे तैरना सिखा दें, फिर मैं पानी में उतरूंगा। वह ठीक कहता है। जहां तक उसकी समझ है, बिलकुल ठीक कहता है। खतरनाक है पानी में उतरना, बिना तैरना सीखे।
लेकिन जो उसे सिखाने वाला है उसकी भी मजबूरी है। वह कहता है, जब तक पानी में न उतरोगे, तब तक मैं तुम्हें सिखाऊंगा कैसे? तैरना सीखना हो तो भी पानी में उतरना पड़ेगा। उसकी भी अपनी मजबूरी है। वह भी ठीक कह रहा है।
ध्यान में उतरे बिना ध्यान को समझ न सकेंगे। और ध्यान के संबंध में जो कुछ भी समझेंगे ध्यान में उतरे बिना, वह दो कौड़ी का है, उसका कोई भी मूल्य नहीं है। क्योंकि अगर समझने से ही ध्यान आ गया होता तो आ चुका होता, आपको यहां आने की कोई भी जरूरत न थी।
अब इसमें कुछ सिद्धांतवादी रोज प्रश्न लिख कर भेज देते हैं। अगर उन्हें आ ही गया है और उन्हें मालूम ही हो गया है, तो यहां वे परेशान न हों। यहां तो मैं उनके लिए मेहनत कर रहा हूं जिन्हें अभी नहीं आया है, जिन्हें अभी पता नहीं है। जिन्हें पता है वे प्रसन्न हों अपने ज्ञान में। लेकिन वे भी आते हैं, सो जाहिर है कि पता उन्हें भी नहीं है। लेकिन सिद्धांत पता हो गया है। और एकाध सिद्धांत पता हो गया हो, ऐसा भी नहीं है; बहुत सिद्धांत पता हो गए हैं। और उन सबके कनफ्यूजन में, उन सबकी उलझन में वे परेशान हैं। लेकिन उसके बाहर एक कदम उठाने का साहस नहीं जुटाते। उन्हीं सिद्धांतों में उलझते रहने की कोशिश करते हैं।
साधक की यात्रा बहुत अलग है। वह सिद्धांत की यात्रा नहीं है, वह ज्ञान की यात्रा है। ऐसा नहीं है कि साधक सिद्धांत पर नहीं पहुंचता, सच तो यह है कि साधक ही सिद्धांत पर पहुंचता है। यह शब्द कभी आपने सोचा, सिद्धांत का क्या मतलब होता है? यह अंग्रेजी के प्रिंसिपल से बहुत अलग शब्द है। और यह साधकों का खोजा हुआ शब्द है। इसका अर्थ है कि सिद्धि के अंत पर जो उपलब्ध होता है वह सिद्धांत है। साधना जब पूरी होती है तो सिद्धि बनती है और सिद्धि बनने पर जो उपलब्ध होता है वह सिद्धांत है। दि एंड ऑफ रियलाइजेशन, सिद्धांत का मतलब है।
तो अगर सिद्धांत ही पता है, तो व्यर्थ आप परेशान न हों। नहीं पता है, तो पहले सिद्धि को खोजें, फिर सिद्धांत उससे प्रकट होगा। उसके पहले उस संबंध में चर्चा करने का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए ये सैद्धांतिक बातें छोड़ देता हूं।
साधकों के दो-तीन-चार सवाल हैं। एक तो एक मित्र ने पूछा है कि
सुबह का ध्यान खड़े होकर करते हैं, रात्रि का ध्यान बैठ कर ज्यादा हमें सुविधापूर्ण मालूम होता है।
तो बराबर बैठ कर कर सकते हैं। आपकी सुविधा ही महत्वपूर्ण है। लेकिन सुविधापूर्ण का मतलब क्या है? कनवीनिएंट का मतलब क्या है?
अगर सुविधापूर्ण का मतलब यह हो कि चालीस मिनट आराम से बैठे रहते हैं खड़े होने की बजाय, तो सलाह नहीं दूंगा। सुविधापूर्ण का मतलब अगर यह हो कि खड़े होने की बजाय बैठने में आप ज्यादा गहरे ध्यान में जाते हैं, तो जरूर कहूंगा कि बैठ कर जाएं। सुविधा का क्या मतलब है? सुविधा का मतलब: अगर साधना में गहराई बढ़ती हो तो बैठें, लेटें। लेकिन सुविधा का मतलब अगर विश्राम करना हो, कि खड़े होने में तो थोड़ा श्रम हो जाता है, तो ऐसी सुविधा से कम से कम पांच दिन बचें। वैसी सुविधा चौबीस घंटे है। यहां से घर जाकर आराम से सो जाएं। यहां थोड़ा श्रम कर लें। लेकिन अगर ध्यान की गहराई बढ़ती हो बैठ कर, तो मजे से बैठें। क्योंकि असली सवाल बैठना और खड़ा होना नहीं है, असली सवाल ध्यान की गहराई बढ़नी है। किसी को बैठ कर बढ़ सकती है, तो बराबर बैठे।
लेकिन अपने साथ बेईमानी न करें। क्योंकि आदमी बड़ा बेईमान है। वह अपने को ही धोखा दे लेता है। दूसरों को देता है वहां तक भी ठीक है, वह अपने को भी दे लेता है। वह कहता है, बैठ कर ज्यादा आराम रहेगा। आराम रहेगा, ध्यान ज्यादा रहेगा कि नहीं? ध्यान ज्यादा रहे तो मैं राजी हूं। वह आप सोच लें। वह आपकी ही आंतरिक बात है।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि
रात्रि के प्रयोग में आपकी आंखों पर ध्यान रखें, तो आप यहां-वहां चेहरा करते हैं, अलग-अलग लोगों को देखते हैं, तो हमें बाधा पड़ती है।
मैंने आपसे कहा नहीं कि मेरी आंखों पर ध्यान रखें। मैंने कहा, मुझ पर ध्यान रखें। मेरी आंखों पर ध्यान नहीं रखना है, मुझ पर ध्यान रखना है। मेरी आंख की फिक्र छोड़ें। आपकी आंखों के फोकस में पूरा मैं रहना चाहिए। आंख की चिंता आप न करें।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि
जब रात्रि के ध्यान में हम बैठते हैं, तो सिर इतने जोर से घूमने लगता है कि आंख एकटक रखनी मुश्किल हो जाती है।
सिर को घूमने दें। आंख झपे न और जितने दूर तक बन सके मुझ पर रखें। लेकिन सिर को घूमने से मत रोकें। शरीर में जो भी क्रिया हो रही है उसे नहीं रोकना है, उसे होने देना है।
एक तीसरे मित्र ने पूछा है कि
आप कहते हैं, चालीस, पचास या सत्तर प्रतिशत लोग ध्यान में गए, तो क्या आप उन्हीं लोगों को कहते हैं जो...
(प्रवचन के शेष भाग का ध्वनि-मुद्रण उपलब्ध नहीं है।)