YOG/DHYAN/SADHANA
Dhyan Darshan (ध्यान दर्शन) 04
Fourth Discourse from the series of 10 discourses - Dhyan Darshan (ध्यान दर्शन) by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
ध्यान के संबंध में थोड़े से सवाल हैं, उन्हें समझ लें, और फिर हम प्रयोग के लिए बैठेंगे।
एक मित्र ने पूछा है कि
रात्रि के ध्यान में चश्मे वाले क्या करें? स्पष्ट करें कि आपको देखना है या आपकी ओर देखना है?
दोनों ही काम करने हैं। क्योंकि बिना मेरी ओर देखे तो मुझे नहीं देख सकते। मेरी ओर तो देखना ही है। लेकिन सिर्फ ‘ओर’ ही नहीं देखना है। क्योंकि ‘ओर’ बहुत बड़ी बात है, उसमें और भी बहुत कुछ आता है। मेरी ओर देखना है, लेकिन मुझे ही देखना है। चश्मा लगाए ही रखें। रात के प्रयोग में आपको चश्मा निकालने की कोई जरूरत नहीं है। कम से कम जो बैठे हैं उन्हें तो बिलकुल जरूरत नहीं है। जो खड़े हैं वे चश्मा निकाल लेंगे। तो जिनको देखने की तकलीफ हो, दूर से न देख सकते हों, तो वे मेरे पास मंच के पास ही खड़े होंगे। बैठे हुए लोगों को चश्मा निकालने की कोई जरूरत नहीं है।
साथ में पूछा है कि
इस प्रयोग में जो आंखों पर चालीस मिनट तक स्ट्रेन पड़ता है, क्या वह विज्ञान-सम्मत है?
विज्ञान बहुत हैं। शायद भौतिक विज्ञान सहमति न भी दे। लेकिन आध्यात्मिक विज्ञान ने सदा से सहमति दी है। और आध्यात्मिक विज्ञान के संबंध में ही यहां मैं बात कर रहा हूं। भौतिक विज्ञान की सहमति का बड़ा मूल्य नहीं है, इसलिए कि उसे इन दो आंखों का ही पता है। इन दोनों आंखों के प्रयोग से, एक तीसरी आंख भी इन दोनों आंखों के बीच में है, जो सक्रिय हो सकती है, इसका भौतिक विज्ञान को कोई पता नहीं है।
इसलिए स्वभावतः अगर एक बाप जमीन खोद रहा हो, बीज बो रहा हो, उसका बेटा पूछ सकता है कि ये बीज जमीन में फेंक कर क्यों खराब कर रहे हैं? क्योंकि उसे कुछ पता नहीं है कि ये बीज अंकुरित हो सकते हैं। उसे यह भी पता नहीं है कि एक बीज टूटेगा तो हजार बीज पैदा हो जाएंगे। उसे कुछ भी पता नहीं है कि इस बीज को जमीन में गाड़ने से क्या होगा।
भौतिक विज्ञान बहुत अर्थों में बच्चा है। बहुत नया है। उसकी समझ उतनी गहरी नहीं है। विस्तीर्ण तो है उसकी समझ, एक्सटेंसिव तो है, इनटेंसिव नहीं है। तो भौतिक विज्ञान हमारी इन दो आंखों के संबंध में बहुत कुछ जानता है, जिसकी चिंता आध्यात्मिक विज्ञान नहीं करता। लेकिन आध्यात्मिक विज्ञान कुछ और भी जानता है जिसका भौतिक विज्ञान को कोई भी पता नहीं है। वह तीसरी आंख की बात है।
लेकिन अभी धीरे-धीरे भौतिक विज्ञान को भी उस तरफ झुकाव मिलने शुरू हो गए हैं। साधारणतः अगर आप बिना किसी आध्यात्मिक संकल्प के चालीस मिनट तक आंखों को एक सा खोल कर रखें तो आंखों को नुकसान पहुंचेगा। ध्यान रहे, मैं एक कंडीशन की बात कर रहा हूं। अगर आप बिना किसी आध्यात्मिक कारण के, बिना किसी आध्यात्मिक संकल्प के, चालीस मिनट तक आंखों को खुला रखें, तो आंखों को नुकसान पहुंचेगा। लेकिन यदि आप एक आध्यात्मिक संकल्प के साथ भीतर सोई हुई शक्ति को जगाने के लिए चालीस मिनट नहीं, चार घंटे भी आंखों को खुला रखें, तो नुकसान नहीं पहुंचेगा। क्योंकि वह जो संकल्प है भीतर, वह तीसरी आंख को खोलने का काम शुरू कर देता है। अगर वह संकल्प नहीं है तो तीसरी आंख के खुलने का काम शुरू नहीं होता। और वह तीसरी आंख खुलने लगे तो आपकी दोनों आंखों को लाभ ही होगा, नुकसान नहीं।
उन्होंने यह भी पूछा कि
क्या यह संभव है कि इस प्रयोग से कमजोर आंखों की शक्ति बढ़ जाए?
संभव ही नहीं है, सुनिश्चित है। लेकिन अगर कोई कमजोर आंखों की शक्ति ही बढ़ाने के लिए यह प्रयोग करता हो तो नुकसान पहुंचेगा, तो फायदा नहीं होगा। यह बिलकुल बाइ प्रोडक्ट होगी, इसको ध्यान में नहीं रखा जा सकता। आप तो ध्यान में भीतर के संकल्प को ही रखें। अगर वह संकल्प प्रगाढ़ है, तो अंधी आंख भी देख सकती है। अनेक बार देख पाई है। लंगड़े भी चल सके हैं। बहरे भी सुन सके हैं। लेकिन वह संकल्प भीतर बहुत प्रगाढ़ होना चाहिए।
हां, बहरा अगर सिर्फ सुनने के लिए ध्यान कर रहा हो तो नहीं सुन पाएगा। कितनी बड़ी आकांक्षा है भीतर, उस पर निर्भर करेगा। छोटी आकांक्षाओं के लिए ध्यान नहीं उपयोगी है। यद्यपि ध्यान से छोटी आकांक्षाएं पूरी हो जाती हैं। पर उनको बीच में मत लाएं। नुकसान कोई भी नहीं होगा, अगर संकल्प प्रगाढ़ है। और अगर संकल्प प्रगाढ़ नहीं है तो भी नुकसान नहीं होगा, क्योंकि संकल्प प्रगाढ़ नहीं है तो चालीस मिनट आपकी आंख खुली रहने वाली नहीं है। वह बंद हो जाएगी। वह संकल्प से ही खुली रह सकती है। चालीस मिनट तक आंख को खुला रखना प्रगाढ़ संकल्प से, विल फोर्स से ही हो सकता है। और उतनी जिसकी संकल्प की शक्ति है, उसकी आंख को कोई नुकसान पहुंचने वाला नहीं है। और अगर उतनी संकल्प शक्ति नहीं है, तो आंख पहले ही बंद हो जाएगी। आप उसकी चिंता छोड़ दें।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि
इस्लाम के साधक मक्का में हज के लिए जाते हैं, क्या वह भी ध्यान नहीं है?
वह भी ध्यान की एक प्रक्रिया है। लेकिन शायद ठीक नहीं होगा कहना कि है, कहना होगा ठीक कि थी, अब है नहीं। कभी थी। दुनिया में सारे धर्मों का जन्म, ध्यान की प्रक्रिया के बिना नहीं हुआ है। कोई धर्म दुनिया में जन्म नहीं ले सकता ध्यान की गहरी प्रक्रिया के बिना। लेकिन सब ध्यान की प्रक्रियाएं धीरे-धीरे रिचुअल हो जाती हैं, क्रियाकांड हो जाती हैं। लोग उनको औपचारिक ढंग से करने लगते हैं--फॉर्मल। अब चूंकि एक आदमी मुसलमान है, इसलिए हज कर आता है। किसी ध्यान के लिए नहीं, किसी परमात्मा के लिए नहीं। क्योंकि अगर ध्यान और परमात्मा का खयाल हो, तो मक्का तक जाने की जरूरत नहीं है, वह तो इसी जमीन के टुकड़े पर हो सकता है। मक्का तक जाने की जो जरूरत पैदा होती है, वह मुसलमान होने से पैदा होती है, वह ध्यान के लिए नहीं पैदा होती। काशी जाने की जरूरत हिंदू होने से पैदा होती है, ध्यान के लिए पैदा नहीं होती। गिरनार जाने की जरूरत जैन होने से पैदा होती है, ध्यान के लिए नहीं होती।
अब यह बड़े मजे की बात है कि जैन अगर मक्का में रह रहा होगा तो गिरनार आएगा। और मुसलमान अगर जूनागढ़ में रह रहा होगा तो मक्का में जाएगा। निपट पागलपन है। काशी का मुसलमान मक्का जाएगा, मक्का का हिंदू काशी आएगा। बिलकुल पागलपन है। अगर ध्यान का खयाल है तो यह कहीं भी हो सकता है। इस पृथ्वी का कोई भी कोना परमात्मा से वंचित नहीं है। मक्का में भी हो सकता है, मदीना में भी हो सकता है, बंबई में भी हो सकता है। और जिसे ध्यान की प्रक्रिया का कोई पता नहीं है उसे मक्का में भी नहीं होगा, काशी में भी नहीं होगा, कैलाश पर भी नहीं होगा।
इसलिए असली सवाल प्रक्रिया को समझने का है। हज की प्राथमिक प्रक्रिया ध्यान ही थी। समस्त तीर्थों का जन्म ध्यान के ही आधार पर हुआ था, समस्त धर्मों का भी। लेकिन फिर सब खो जाता है। और पीछे जो लोग जन्म से धार्मिक होते हैं, बाइ बर्थ, उनसे ज्यादा झूठे धार्मिक आदमी दुनिया में नहीं होते। लेकिन हम सभी लोग जन्म से धार्मिक होते हैं। और तो हमारा धार्मिक होने का कोई आधार ही नहीं होता।
जन्म से कोई धार्मिक हो सकता है? जन्म से किसी को शिक्षित बनाने लगें, उस दिन पता चलेगा आपको--शिक्षित बाप का बेटा शिक्षित हो जाए जन्म से और डाक्टर का बेटा डाक्टर हो जाए जन्म से--तब आपको पता चलेगा कि कितना खतरा दुनिया में हो जाएगा।
लेकिन मुसलमान, हिंदू, ईसाई, धार्मिक जन्म से हो रहे हैं। बाप भी जन्म से था, उनका बाप भी जन्म से था। अगर पिछला बाप भी डाक्टर रहा हो तो हो सकता है बाप के पास रहते-रहते थोड़ा आदमी सीख ले। लेकिन किसी का बाप चौदह सौ साल पहले मर चुका, किसी का पांच हजार साल पहले, किसी का दस हजार साल पहले। और जिसका बाप जितना पहले मर चुका, वह सोचता है, उसके पास उतना ही कीमती धर्म है। सारी धर्म की प्रक्रियाएं ध्यान से ही संबंधित हैं। लेकिन ध्यान को ही सीधे समझ लेना उचित है बजाय उन प्रक्रियाओं को समझने के।
एक मित्र ने पूछा है कि
हम कैसे पहचानें कि हमारे भीतर कुंडलिनी का जागरण हुआ है?
जब आपके सिर में दर्द होता है तो कैसे पहचानते हैं? जब आपके पेट में भूख लगती है तो कैसे पहचानते हैं? जब शरीर बीमार होता है तो कैसे पहचानते हैं और जब स्वस्थ होता है तो भीतर से कैसे पहचानते हैं?
ठीक ऐसे ही भीतर की कोई भी घटना अनजानी नहीं जा सकती। कुंडलिनी भी पहचान ली जाती है। जिन्होंने जानी, वे कुछ बातें कह गए हैं, वे सांकेतिक हो सकती हैं। लेकिन उनसे कुछ अर्थ नहीं होता। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर फर्क पड़ेगा। थोड़ा-थोड़ा फर्क पड़ेगा। लेकिन कुछ सूचक बातें समझी जा सकती हैं बाहर से। समझ में तो भीतर ही आएंगी जब घटना घटेगी।
जैसे कि हमने कभी आग देखी है, तो आग की लपट सदा ऊपर की तरफ जाती है। पानी सदा नीचे की तरफ जाता है। पानी को बेसहारा छोड़ दें तो गड्ढों में उतर जाएगा, आग को बेसहारा छोड़ दें तो आकाश में खो जाएगी। आग का ऊर्ध्वगमन, ऊपर की तरफ जाना स्वभाव है। पानी का अधोगमन, नीचे की तरफ जाना स्वभाव है।
कुंडलिनी आग की तरह है, ऊपर की तरफ जाना उसका स्वभाव है। आपके भीतर कोई शक्ति जब नीचे से ऊपर की तरफ जाने लगे...
सोई हुई है, और इसीलिए कुंडलिनी उसे नाम मिल गया, जैसे सांप कुंडल मार कर सोया हो, और फिर उठ आए तो कुंडल टूट जाए और फन ऊपर उठ जाए। जब सांप पूरी शक्ति से उठता है तो पूंछ के बल खड़ा हो जाता है। मिरेकल है! क्योंकि सांप के भीतर हड्डी नहीं होती। वह बिना हड्डी के है, बिना बैकबोन के है, उसके पास कोई रीढ़ नहीं होती। बिना रीढ़ के वह सीधा जमीन से पूंछ के बल भी खड़ा हो जाता है।
ठीक ऐसे ही, इसीलिए सर्प प्रतीक बन गया कुंडलिनी का। भीतर कोई शक्ति सोई हुई है नाभि के नीचे। वहां से जब जगती है तो ऐसी ही जगती है जैसे कि सर्राटे मार कर कोई सर्प उठ गया हो, और उसका फन सिर तक पहुंच जाता है। प्रतीक है, सर्प सिर्फ प्रतीक है, सिर्फ सिंबल है। ठीक ऐसी ही शक्ति भीतर से उठती जब मालूम पड़ेगी तो पूछना नहीं पड़ेगा, पहचान ही लेंगे। कभी कोई भूल-चूक नहीं हुई है।
उन्होंने एक बात और पूछी है कि
एकाग्रता का, तीव्र श्वास का प्रयोग हमने बहुत बार किया, लेकिन जैसा अनुभव आपकी उपस्थिति में हो रहा है, वैसा अनुभव कभी नहीं हुआ। तो क्या आपकी अनुपस्थिति में भी ऐसा अनुभव हो सकेगा?
बिलकुल हो सकेगा। एक बार अनुभव हो जाए तो उसे फिर आपसे छीना नहीं जा सकता। कहीं भी हो जाए, किसी भी स्थिति में हो जाए। एक बार भिखारी जान ले कि उसकी जेब में हीरा पड़ा है, एक क्षण को भी, तो भिखारी नहीं रह जाता है। और किसी स्थिति में जाना हो, फिर स्थिति खो जाए। यह भी हो सकता है कि भिखारी को एकदम से पता भी न चले कि खीसा कहां है जहां हीरा रखा है, लेकिन फिर भी भिखारी भिखारी नहीं है। अब वह रास्ते पर चल रहा है तो और ही आदमी है। और जिसने एक बार अपने हीरे को जान लिया, वह रास्ता खोज लेगा। फिर खोज लेगा। उसमें बहुत कठिनाई होने वाली नहीं है।
बड़ा सवाल पहले स्वाद का है। जिस चीज का हमें कोई स्वाद नहीं उसकी हम खोज ही नहीं करते। तो अगर स्वाद भी मिल जाए...और समूह में स्वाद मिलने में सरलता हो जाती है। मेरी ही मौजूदगी अकेली काफी नहीं है, यहां इतने लोगों का संकल्प भी आपके आस-पास मौजूद है। ये सारे लोग मिल कर, इनका सबका संकल्प मिल कर एक साइकिक एटमास्फियर, एक विशेष वातावरण निर्मित कर देता है। उस वातावरण में आप, जितने साधारणतः जिस ऊंचाई पर होते हैं, उससे ज्यादा ऊंचे उठ जाते हैं।
आपको पता नहीं है कि अगर पचास आदमी तेज चल रहे हों और आप उनके बीच में हों, तो आप इतने तेज चलने लगेंगे, जितना आप कभी नहीं चले थे। क्योंकि पचास आदमी चारों तरफ से एक रिदम पैदा करते हैं, और उनके साथ आप भी गति में आ जाते हैं। कमजोर से कमजोर आदमी पचास बहादुरों के बीच में बहादुर हो जाता है। उसे पता भी नहीं चलता कब हो गया। वह पचास लोगों का संकल्प और पचास लोगों की संकल्प की शक्ति, एक वातावरण निर्मित करती है, जिसमें आप बदल जाते हैं। बुरे आदमी के पास आप बुरे हो जाते हैं, अच्छे आदमी के पास अच्छे हो जाते हैं।
आदमी, जैसा भी आदमी है, आप जैसे हैं, तो आप कोई एक थिर चीज नहीं हैं, फिक्स्ड चीज नहीं हैं, थर्मामीटर की तरह हैं, पूरे वक्त नीचे-ऊपर होते रहते हैं। बाहर गर्मी बढ़ती है, तो आप ऊपर-नीचे हो जाते हैं; ठंड होती है, तो ऊपर-नीचे हो जाते हैं। कोई आदमी फिक्स्ड नहीं है। तो आदमी चारों तरफ की स्थिति से ऊंचा-नीचा होता रहता है। अगर बुरे आदमी चारों तरफ इकट्ठे हैं, तो आप तत्काल नीचे हो जाते हैं। अगर चारों तरफ भले लोग इकट्ठे हैं, तो आप ऊपर हो जाते हैं।
यह जो मैंने अभी हज की बात की, यह हज या तीर्थ अच्छे लोगों को इकट्ठा करने के प्रयोग थे कभी--कि सारे अच्छे लोग एक जगह इकट्ठे हो जाएं, तो जो वे अकेले नहीं कर पाते हैं, वह इकट्ठे में शायद हो जाए। शायद उन सबकी इकट्ठी संकल्प की शक्ति, उस हवा को, उस वातावरण को, उस मैग्नेटिज्म को पैदा कर दे कि जो उनसे अकेले नहीं हो पाया, वह सबके बीच हो जाए। और फिर एक बार हो जाए, तो पीछे बार-बार हो सकता है। एक बार मुझे पता चल जाए कि मैं छह फीट ऊंचा कूद सकता हूं, तो फिर मैं कभी अकेले में भी कूद सकता हूं।
इसलिए घबड़ाएं न। मेरी गैर-मौजूदगी में भी हो जाएगा।
लेकिन अभी मेरी गैर-मौजूदगी की फिक्र न करें, अभी तीन-चार दिन मौजूदगी की फिक्र करें। अभी इन तीन-चार दिन, जितना मौजूदगी से हो सकता है, उसकी पूरी फिक्र कर लें। फिर हो सकेगा।
एक बात और उन्होंने पूछी है कि
इससे मन पर कुछ बुरे परिणाम होने की संभावना तो नहीं है?
मन पर तो बहुत बुरा परिणाम होगा। मन की तो मौत ही हो सकती है। हां, आपको कोई बुरा परिणाम नहीं होगा। आप निश्चिंत रह सकते हैं। मन को तो मरना ही पड़ेगा। यह तो मन की मौत का प्रयोग ही है। और मन ही तो आपकी बीमारी है। आप तो ऐसा सवाल पूछ रहे हैं कि कोई टी.बी. का मरीज अस्पताल जाए और कहे कि कहीं मेरी टी.बी. पर कोई बुरा असर तो नहीं होगा आपकी दवाई का?
होगा ही! अगर टी.बी. को बुरा असर नहीं होगा, तो फिर अस्पताल जाने की जरूरत नहीं है। फिर टी.बी. को घर बचाना चाहिए। मन पर तो बुरा असर होगा, आप पर नहीं। मन आपकी बीमारी है, आप नहीं हैं। डिजीज है। वह तो मुक्त, उससे तो छुटकारा चाहिए ही, वह होगा ही।
और उन्होंने पूछा है,
मन पर अगर बुरा असर हुआ तो जिम्मेवार कौन होगा?
मैं जिम्मेवार होऊंगा! निश्चित ही मैं जिम्मेवार होऊंगा! मन को तो मार ही डालना है। मन से तो छुटकारा ही पाना है।
अब दो-तीन बातें ध्यान के संबंध में समझ लें, फिर हम बैठेंगे। कुछ और सवाल हैं, तो सुबह उनकी बात कर लेंगे।
कल प्रयोग आपने समझ लिया है। इसलिए कल आप माफ किए जा सकते थे, अगर आपने धीमे-धीमे किया हो। आज नहीं किए जा सकते हैं।
आज सुबह बहुत परिणाम आया। शक्ति पूरी मित्रों ने लगाई, तो परिणाम आना निश्चित था। आज रात उससे परिणाम कई गुना ज्यादा हो जाएगा। लेकिन शक्ति पूरी लगानी जरूरी है। एक तो जिन मित्रों को सुबह तीव्रता से नाचना-कूदना हुआ है, वे दोनों तरफ मेरे खड़े हो जाएंगे। पूरी बात समझ लें, फिर उठ आएंगे। खड़े होने से न डरें। जिनको तीव्रता में खड़ा होना सुविधाजनक मालूम पड़ा है, सुबह जिन्होंने खड़े होने का आनंद लिया है, वे खड़े होकर ही प्रयोग करेंगे। बैठे हुए लोग बीच में रह जाएंगे। आज तो प्रकाश जला रहेगा, इसलिए खड़े हुए लोग चारों तरफ फैल जाएंगे। सिर्फ पीछे की जगह छोड़ कर। पीछे की जगह हम देखने वालों के लिए छोड़ देंगे। कुछ मित्र आ जाते हैं देखने के लिए। तो उनके लिए पीछे की जगह है, वे पीछे जाकर खड़े हो जाएंगे या बैठ जाएंगे। बीच में कोई भी देखने वाला नहीं बैठेगा, इतनी कृपा करेंगे। अन्यथा हमें बीच में से उठाना पड़े, तो फिर कठिनाई होगी। आप खुद ही, देखना है तो पीछे बैठ जाएंगे। आस-पास भी देखने वाले खड़े नहीं होंगे। देखने वाले सभी पीछे चले जाएंगे, ताकि वे वहां से आराम से देख सकें। प्रकाश जला रहेगा, वे पूरी तरह से देख पाएंगे।
देखने वालों से दूसरा निवेदन है, और कहीं खड़े नहीं होंगे, पीछे खड़े होंगे। दूसरा, बात नहीं करेंगे। इतनी कृपा करेंगे कि देखते रहें चुपचाप, बात पीछे कर लें, चालीस मिनट के बाद। यहां दूसरों को बाधा न पहुंचाएं।
जो लोग खड़े हैं और जो लोग ध्यान में बीच में बैठे रहेंगे, उनको पूरे चालीस मिनट आंख खुली रखनी है और मुझे देखते रहना है। सारी शक्ति आंख ही बन जाए और आंख मुझे देखती रहे। चालीस मिनट तक आंख झपकानी ही नहीं है। आंसू बहने लगें, जलन पड़ने लगे, उसकी फिक्र छोड़ें। जब आंसू बहने लगें और जलन पड़ने लगे, तभी ठीक मौका है। तब आप जरा ही चूकते हैं तो आंख बंद हो जाएगी। तब पूरी ताकत लगा दें, आंख खुली रखें। उसी क्षण में आपकी तीसरी आंख की सक्रिय होने की संभावना है, वही मोमेंट है। जब आपकी ये आंख थकती हैं और आप नहीं मानते और देखे चले जाते हैं, तो तीसरी आंख सक्रिय होती है।
ध्यान रखें, जीवन की शक्तियों का एक नियम है। और वह नियम है कि हमारे पास जो भी रिजर्व फोर्सेज हैं, वे तभी काम में आती हैं जब हमारी सामान्य काम में आने वाली ताकत चुक जाए। उसके पहले काम में नहीं आती।
आपने कई बार खयाल किया होगा कि अगर आपको भूख लगी है ग्यारह बजे और आपने खाना नहीं खाया, तो साधारणतः बारह बजे भूख और बढ़ जानी चाहिए। लेकिन बारह बजे भूख कम हो जाएगी। एक बजे और कम हो जाएगी। बढ़ेगी नहीं। क्योंकि भूख के लिए जो सामान्य शक्ति काम करती थी, उसने काम करके देख लिया, वह काम नहीं हुआ। तो आपके पास जो रिजर्व फोर्सेज हैं भोजन के, वे छूट जाएंगे, वे पेट को भर देंगे।
अगर रात आपको बारह बजे नींद आ रही है, जम्हाई आ रही है, आप परेशान हो रहे हैं, और आप एक घंटे जग गए, नहीं सोए, तो आपकी नींद और बढ़ जानी चाहिए। नहीं लेकिन आप एक बजे पाएंगे कि नींद खो गई, आप सुबह की तरह ताजे हो गए हैं। क्यों? क्योंकि देख लिया, सामान्य ताकतें काम करके देख लीं, आप नहीं माने, तो शरीर के पास जगने की जो विशेष ताकत है वह उसने शरीर को दे दी।
हमारे शरीर के पास प्रत्येक शक्ति के रिजर्व फोर्सेज हैं, रिजर्वायर्स हैं। इसलिए एक आदमी नब्बे दिन तक बिना खाए जिंदा रह सकता है। तो शरीर की सारी सिस्टम बदल जाती है। सात दिन के बाद शरीर में भूख लगती ही नहीं फिर। क्योंकि शरीर छोड़ ही देता है सामान्य काम। उसके पास जो रिजर्व फोर्सेज हैं, उनको देना शुरू कर देता है।
आदमी कितना ही जाग सकता है, कितना ही भूखा रह सकता है। आदमी कितना ही दौड़ सकता है। लेकिन सब रिजर्व फोर्सेज तभी काम में आती हैं जब आपकी सामान्य, आर्डिनरी फोर्स बेकाम हो जाती है।
तो जब आपकी आंख थक जाए और झपकने लगे, तभी आप समझना कि ठीक मौका है। उस वक्त जरा ही आप चूकते हैं तो खराब हो जाता है। उस वक्त पूरी ताकत लगा दें। थोड़ी ही देर में आंख की जलन चली जाएगी, आंसू चले जाएंगे, आंख ताजी हो जाएगी और आप पाएंगे कि आपके भीतर से कोई और चीज भी देखना शुरू हो गई।
यह जो प्रयोग है, इसमें जिन मित्रों को सुबह के प्रयोग में श्वास से आनंद मालूम पड़ा हो और उनको रात में भी लगे कि श्वास लेनी है, वे श्वास ले सकते हैं। वे बाहर खड़े होकर या बैठ कर श्वास ले सकते हैं। जो लोग बैठे हैं, वे भी थोड़ी सी जगह बना कर बैठेंगे। क्योंकि शरीर घूम सकता है। और घूमे तो उसे घूमने देना है। ठीक सुबह के प्रयोग जैसा, शरीर में कुछ भी हो तो उसे होने देना है, जोर से। अगर चीखने का मन हो, तो जोर से चीख लेना है। कंपने का मन हो, तो जोर से कंप लेना है। जो भी हो--हंसना, रोना, चिल्लाना--कुछ भी हो, उसे पूरा कर लेना है। और पूरे समय ध्यान और आंख मेरी तरफ। शरीर कुछ भी करे तो उसे करने देना है, उसे रोकना नहीं है।
मैं चालीस मिनट चुप रहूंगा। इस चालीस मिनट में जब आप मेरी ही ओर देखते रहेंगे तो बहुत कुछ दिखाई पड़ सकता है, उससे भयभीत होने की जरूरत नहीं है। और साथ ही जो लोग इस चालीस मिनट में सच में ही देखते रहेंगे संकल्पपूर्वक, उनसे मेरे भीतरी संबंध स्थापित हो जाएंगे। उनसे मैं कुछ कहना भी चाहूंगा तो कह सकूंगा। वह भी उन तक ट्रांसफर हो जाएगा।
और भी एक बात एक मित्र ने पूछी है कि
आपकी गैर-मौजूदगी में हम कुछ करें और कुछ हो जाए, तो क्या?
तो आप अगर अभी मुझसे संबंध बना लेते हैं मौन का, तो फिर मेरी गैर-मौजूदगी में कहीं भी वह संबंध बनाया जा सकता है। लेकिन यहां बन जाए तो ही बनाया जा सकता है, अन्यथा बनाना मुश्किल है। और वह बन सकता है, उसमें जरा भी अड़चन नहीं है।
इन चालीस मिनट में मैं शब्द से नहीं बोलूंगा, लेकिन हृदय से बोलूंगा और वह आप तक पहुंचाने की कोशिश करूंगा। अगर आप राजी हुए तो वह आप तक पहुंच जाएगा, समझा जाएगा, पकड़ा जाएगा, सुना जाएगा, पहचाना जाएगा--शब्दों से भी ज्यादा गहरा, शब्दों से भी ज्यादा साफ।
हाथ से जरूर आपको इशारे करूंगा। वे इशारे, आपके भीतर जब मुझे लगेगा कि शक्ति जग रही है और मुझे लगेगा कि आप उसे रोक रहे हैं, तब मैं इशारा करूंगा कि आप उसे रोकें मत और उठने दें। जब मैं इशारा करूं तो मेरे इशारे को समझें और अपनी शक्ति को पूरी तरह उठने दें। उस वक्त रोना निकले, चिल्लाना निकले, कांपना निकले, नाचना निकले, उसे निकलने दें, पूरी ताकत लगा दें। ये चालीस मिनट आपकी जिंदगी के लिए अविस्मरणीय बन सकते हैं। जब आ ही गए हैं, तो खाली हाथ मत लौट जाएं।
जिन मित्रों को देखना हो, हालांकि वे नासमझ मित्र हैं जो देखने आ गए होंगे, लेकिन नासमझों के लिए भी जगह होनी चाहिए, वे वहां पीछे चले जाएं। जिन मित्रों को खड़े होकर करना है, वे दोनों तरफ आ जाएं, लेकिन दूर-दूर या चारों तरफ फैल जाएं। और बाकी कोई भी देखने वाला, स्पेक्टेटर यहां-वहां न खड़ा रहे, वह पीछे चला जाए। जो मित्र बैठे हैं उनमें एक भी व्यक्ति यहां ऐसा न बैठा रहे जो खाली बैठा है, वह हट जाए, उसको नुकसान हो सकते हैं।
एक-दो मिनट में आप जल्दी से अपनी जगह बना लें।
बातचीत जरा न करें। बातचीत की कोई भी जरूरत नहीं है। देखने वाले लोग पीछे चले जाएं। ध्यान करने वाला कोई भी व्यक्ति पीछे न जाए। देखने वाले लोग पीछे चले जाएं। ध्यान करने वाले लोग तीनों तरफ फैल जाएं--मेरे पास आ जाएं, दोनों तरफ लाइन में खड़े हो जाएं।
प्रश्न:
चश्मा उतारना पड़ेगा?
खड़े होकर करते हैं तो उतार लेंगे।
बात न करें, जल्दी से हट जाएं। और जो लोग बैठे हैं वे देख लें कि उनके आस-पास जगह है थोड़ी, क्योंकि आप हिलें-डुलें तो किसी को धक्का न लगे। और पीछे तो लगे भी तो उसकी फिक्र न करें, अपना हिलना-डुलना जारी रखें। जो मित्र देखने खड़े हैं वे बात नहीं करेंगे चालीस मिनट, इतना भी बड़ा संयम होगा, इससे भी उन्हें थोड़ा लाभ होगा। सिर्फ देखते रहें।
तो मैं मान लूं कि आपने जगह चुन ली। थोड़ा बाहर हट कर खड़े हों, वहां बैठने वालों को दिक्कत होगी। खड़े होने वाले थोड़े हट आएं। बैठने वाले थोड़े अलग हो जाएं, ताकि बीच में न पड़ें। क्योंकि खड़ा होने वाला कोई गिर जाए, कुछ हो, तो आपको तकलीफ होगी। थोड़ी सी जगह छोड़ दें। वे नाचेंगे, कूदेंगे, तो दिक्कत होगी। बैठने वाले और खड़े होने वालों में थोड़ा सा फासला छोड़ लें, ताकि कोई गिर न जाए। आज तो लाइट है, इसलिए दूर-दूर हो जाएं।
ठीक! दो मिनट के लिए आंख बंद कर लें, हाथ जोड़ कर संकल्प कर लें, फिर हम ध्यान में प्रविष्ट हों।
दोनों हाथ जोड़ लें। आंख बंद कर लें। परमात्मा को साक्षी रख कर संकल्प कर लें: मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। आप अपने संकल्प को भूल मत जाना, प्रभु आपके संकल्प को कभी नहीं भूलता है।
हाथ छोड़ दें, आंख खोल लें, मेरी ओर देखना शुरू करें--चालीस मिनट, संकल्पपूर्वक! बहुत कुछ होगा। जो भी हो, उसे होने देना है।
(इसके बाद चालीस मिनट तक ध्यान-प्रयोग चलता रहा। ओशो हाथ के इशारों से साधकों को अपनी पूरी शक्ति लगाने के लिए प्रोत्साहित करते रहे। चालीस मिनट के ध्यान-प्रयोग के बाद ओशो साधकों को सुझाव देना प्रारंभ करते हैं।)
दो-चार गहरी श्वास लेकर उठ आएं। आंख न खुलती हो तो दोनों हाथ आंख पर रख लें, दो-चार गहरी श्वास लें, फिर आंख खोलें।
दो-तीन बातें खयाल में ले लें। प्रयोग में आपने मेहनत की, लेकिन और भी की जा सकती है। कोई पचास प्रतिशत के करीब मित्र गहरे गए। लेकिन बाकी पचास प्रतिशत पीछे छूट जाएं, वह भी सुखद नहीं है। जिन्होंने आज मेहनत की है, वे कल और ज्यादा मेहनत करें। जिन्होंने नहीं की है, वे भी मेहनत करें।
बहुत दूर नहीं है मंदिर परमात्मा का। लेकिन एक कदम उठाने तक की कंजूसी हम से हो जाती है। और हम एक कदम चलें तो परमात्मा हजार कदम चलने को हमेशा तैयार है। लेकिन हम एक कदम ही नहीं चल पाते हैं। छोड़ें संकोच, छोड़ें भय। कोई क्या कहेगा, इसकी चिंता छोड़ें। जिसने यह चिंता की कि कोई क्या कहेगा, वह कभी भी सत्य की खोज पर नहीं निकल सकता है। जिसने यह चिंता की कि हंसी न आ जाए, रोना न आ जाए, नाचना न आ जाए--जो जरा भी पागल होने में डरा, वह परमात्मा की यात्रा पर नहीं निकल सकता है।
एक अर्थ में परमात्मा को केवल वे ही खोज पाते हैं जिनकी प्यास इतनी गहरी है कि उसके लिए पागल भी हो सकते हैं। जिनकी प्यास इतनी गहरी नहीं है कि उसके लिए पागल हो सकें, उन्हें उस यात्रा की तरफ आंखें ही नहीं उठानी चाहिए।
आशा रखता हूं, कल सुबह फिर हम और गहरा प्रयोग करें। इन पांच दिनों में चाहूंगा कोई भी खाली हाथ न जाए। वैसे आपने तय ही कर रखा हो किसी ने कि खाली हाथ ही जीना है, तब तो परमात्मा की सामर्थ्य के भी बाहर है कि आपके हाथ को भर दे। उनके ही हाथ भर सकते हैं जिन्होंने हाथ फैलाए हैं। लेकिन जो मुट्ठियां बांध कर खड़े रह गए हैं, उनके हाथ खाली ही रह जाते हैं।
कोई सवाल होंगे तो सुबह आपसे बात कर लूंगा।
हमारी रात की बैठक पूरी हुई।
ध्यान के संबंध में थोड़े से सवाल हैं, उन्हें समझ लें, और फिर हम प्रयोग के लिए बैठेंगे।
एक मित्र ने पूछा है कि
रात्रि के ध्यान में चश्मे वाले क्या करें? स्पष्ट करें कि आपको देखना है या आपकी ओर देखना है?
दोनों ही काम करने हैं। क्योंकि बिना मेरी ओर देखे तो मुझे नहीं देख सकते। मेरी ओर तो देखना ही है। लेकिन सिर्फ ‘ओर’ ही नहीं देखना है। क्योंकि ‘ओर’ बहुत बड़ी बात है, उसमें और भी बहुत कुछ आता है। मेरी ओर देखना है, लेकिन मुझे ही देखना है। चश्मा लगाए ही रखें। रात के प्रयोग में आपको चश्मा निकालने की कोई जरूरत नहीं है। कम से कम जो बैठे हैं उन्हें तो बिलकुल जरूरत नहीं है। जो खड़े हैं वे चश्मा निकाल लेंगे। तो जिनको देखने की तकलीफ हो, दूर से न देख सकते हों, तो वे मेरे पास मंच के पास ही खड़े होंगे। बैठे हुए लोगों को चश्मा निकालने की कोई जरूरत नहीं है।
साथ में पूछा है कि
इस प्रयोग में जो आंखों पर चालीस मिनट तक स्ट्रेन पड़ता है, क्या वह विज्ञान-सम्मत है?
विज्ञान बहुत हैं। शायद भौतिक विज्ञान सहमति न भी दे। लेकिन आध्यात्मिक विज्ञान ने सदा से सहमति दी है। और आध्यात्मिक विज्ञान के संबंध में ही यहां मैं बात कर रहा हूं। भौतिक विज्ञान की सहमति का बड़ा मूल्य नहीं है, इसलिए कि उसे इन दो आंखों का ही पता है। इन दोनों आंखों के प्रयोग से, एक तीसरी आंख भी इन दोनों आंखों के बीच में है, जो सक्रिय हो सकती है, इसका भौतिक विज्ञान को कोई पता नहीं है।
इसलिए स्वभावतः अगर एक बाप जमीन खोद रहा हो, बीज बो रहा हो, उसका बेटा पूछ सकता है कि ये बीज जमीन में फेंक कर क्यों खराब कर रहे हैं? क्योंकि उसे कुछ पता नहीं है कि ये बीज अंकुरित हो सकते हैं। उसे यह भी पता नहीं है कि एक बीज टूटेगा तो हजार बीज पैदा हो जाएंगे। उसे कुछ भी पता नहीं है कि इस बीज को जमीन में गाड़ने से क्या होगा।
भौतिक विज्ञान बहुत अर्थों में बच्चा है। बहुत नया है। उसकी समझ उतनी गहरी नहीं है। विस्तीर्ण तो है उसकी समझ, एक्सटेंसिव तो है, इनटेंसिव नहीं है। तो भौतिक विज्ञान हमारी इन दो आंखों के संबंध में बहुत कुछ जानता है, जिसकी चिंता आध्यात्मिक विज्ञान नहीं करता। लेकिन आध्यात्मिक विज्ञान कुछ और भी जानता है जिसका भौतिक विज्ञान को कोई भी पता नहीं है। वह तीसरी आंख की बात है।
लेकिन अभी धीरे-धीरे भौतिक विज्ञान को भी उस तरफ झुकाव मिलने शुरू हो गए हैं। साधारणतः अगर आप बिना किसी आध्यात्मिक संकल्प के चालीस मिनट तक आंखों को एक सा खोल कर रखें तो आंखों को नुकसान पहुंचेगा। ध्यान रहे, मैं एक कंडीशन की बात कर रहा हूं। अगर आप बिना किसी आध्यात्मिक कारण के, बिना किसी आध्यात्मिक संकल्प के, चालीस मिनट तक आंखों को खुला रखें, तो आंखों को नुकसान पहुंचेगा। लेकिन यदि आप एक आध्यात्मिक संकल्प के साथ भीतर सोई हुई शक्ति को जगाने के लिए चालीस मिनट नहीं, चार घंटे भी आंखों को खुला रखें, तो नुकसान नहीं पहुंचेगा। क्योंकि वह जो संकल्प है भीतर, वह तीसरी आंख को खोलने का काम शुरू कर देता है। अगर वह संकल्प नहीं है तो तीसरी आंख के खुलने का काम शुरू नहीं होता। और वह तीसरी आंख खुलने लगे तो आपकी दोनों आंखों को लाभ ही होगा, नुकसान नहीं।
उन्होंने यह भी पूछा कि
क्या यह संभव है कि इस प्रयोग से कमजोर आंखों की शक्ति बढ़ जाए?
संभव ही नहीं है, सुनिश्चित है। लेकिन अगर कोई कमजोर आंखों की शक्ति ही बढ़ाने के लिए यह प्रयोग करता हो तो नुकसान पहुंचेगा, तो फायदा नहीं होगा। यह बिलकुल बाइ प्रोडक्ट होगी, इसको ध्यान में नहीं रखा जा सकता। आप तो ध्यान में भीतर के संकल्प को ही रखें। अगर वह संकल्प प्रगाढ़ है, तो अंधी आंख भी देख सकती है। अनेक बार देख पाई है। लंगड़े भी चल सके हैं। बहरे भी सुन सके हैं। लेकिन वह संकल्प भीतर बहुत प्रगाढ़ होना चाहिए।
हां, बहरा अगर सिर्फ सुनने के लिए ध्यान कर रहा हो तो नहीं सुन पाएगा। कितनी बड़ी आकांक्षा है भीतर, उस पर निर्भर करेगा। छोटी आकांक्षाओं के लिए ध्यान नहीं उपयोगी है। यद्यपि ध्यान से छोटी आकांक्षाएं पूरी हो जाती हैं। पर उनको बीच में मत लाएं। नुकसान कोई भी नहीं होगा, अगर संकल्प प्रगाढ़ है। और अगर संकल्प प्रगाढ़ नहीं है तो भी नुकसान नहीं होगा, क्योंकि संकल्प प्रगाढ़ नहीं है तो चालीस मिनट आपकी आंख खुली रहने वाली नहीं है। वह बंद हो जाएगी। वह संकल्प से ही खुली रह सकती है। चालीस मिनट तक आंख को खुला रखना प्रगाढ़ संकल्प से, विल फोर्स से ही हो सकता है। और उतनी जिसकी संकल्प की शक्ति है, उसकी आंख को कोई नुकसान पहुंचने वाला नहीं है। और अगर उतनी संकल्प शक्ति नहीं है, तो आंख पहले ही बंद हो जाएगी। आप उसकी चिंता छोड़ दें।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि
इस्लाम के साधक मक्का में हज के लिए जाते हैं, क्या वह भी ध्यान नहीं है?
वह भी ध्यान की एक प्रक्रिया है। लेकिन शायद ठीक नहीं होगा कहना कि है, कहना होगा ठीक कि थी, अब है नहीं। कभी थी। दुनिया में सारे धर्मों का जन्म, ध्यान की प्रक्रिया के बिना नहीं हुआ है। कोई धर्म दुनिया में जन्म नहीं ले सकता ध्यान की गहरी प्रक्रिया के बिना। लेकिन सब ध्यान की प्रक्रियाएं धीरे-धीरे रिचुअल हो जाती हैं, क्रियाकांड हो जाती हैं। लोग उनको औपचारिक ढंग से करने लगते हैं--फॉर्मल। अब चूंकि एक आदमी मुसलमान है, इसलिए हज कर आता है। किसी ध्यान के लिए नहीं, किसी परमात्मा के लिए नहीं। क्योंकि अगर ध्यान और परमात्मा का खयाल हो, तो मक्का तक जाने की जरूरत नहीं है, वह तो इसी जमीन के टुकड़े पर हो सकता है। मक्का तक जाने की जो जरूरत पैदा होती है, वह मुसलमान होने से पैदा होती है, वह ध्यान के लिए नहीं पैदा होती। काशी जाने की जरूरत हिंदू होने से पैदा होती है, ध्यान के लिए पैदा नहीं होती। गिरनार जाने की जरूरत जैन होने से पैदा होती है, ध्यान के लिए नहीं होती।
अब यह बड़े मजे की बात है कि जैन अगर मक्का में रह रहा होगा तो गिरनार आएगा। और मुसलमान अगर जूनागढ़ में रह रहा होगा तो मक्का में जाएगा। निपट पागलपन है। काशी का मुसलमान मक्का जाएगा, मक्का का हिंदू काशी आएगा। बिलकुल पागलपन है। अगर ध्यान का खयाल है तो यह कहीं भी हो सकता है। इस पृथ्वी का कोई भी कोना परमात्मा से वंचित नहीं है। मक्का में भी हो सकता है, मदीना में भी हो सकता है, बंबई में भी हो सकता है। और जिसे ध्यान की प्रक्रिया का कोई पता नहीं है उसे मक्का में भी नहीं होगा, काशी में भी नहीं होगा, कैलाश पर भी नहीं होगा।
इसलिए असली सवाल प्रक्रिया को समझने का है। हज की प्राथमिक प्रक्रिया ध्यान ही थी। समस्त तीर्थों का जन्म ध्यान के ही आधार पर हुआ था, समस्त धर्मों का भी। लेकिन फिर सब खो जाता है। और पीछे जो लोग जन्म से धार्मिक होते हैं, बाइ बर्थ, उनसे ज्यादा झूठे धार्मिक आदमी दुनिया में नहीं होते। लेकिन हम सभी लोग जन्म से धार्मिक होते हैं। और तो हमारा धार्मिक होने का कोई आधार ही नहीं होता।
जन्म से कोई धार्मिक हो सकता है? जन्म से किसी को शिक्षित बनाने लगें, उस दिन पता चलेगा आपको--शिक्षित बाप का बेटा शिक्षित हो जाए जन्म से और डाक्टर का बेटा डाक्टर हो जाए जन्म से--तब आपको पता चलेगा कि कितना खतरा दुनिया में हो जाएगा।
लेकिन मुसलमान, हिंदू, ईसाई, धार्मिक जन्म से हो रहे हैं। बाप भी जन्म से था, उनका बाप भी जन्म से था। अगर पिछला बाप भी डाक्टर रहा हो तो हो सकता है बाप के पास रहते-रहते थोड़ा आदमी सीख ले। लेकिन किसी का बाप चौदह सौ साल पहले मर चुका, किसी का पांच हजार साल पहले, किसी का दस हजार साल पहले। और जिसका बाप जितना पहले मर चुका, वह सोचता है, उसके पास उतना ही कीमती धर्म है। सारी धर्म की प्रक्रियाएं ध्यान से ही संबंधित हैं। लेकिन ध्यान को ही सीधे समझ लेना उचित है बजाय उन प्रक्रियाओं को समझने के।
एक मित्र ने पूछा है कि
हम कैसे पहचानें कि हमारे भीतर कुंडलिनी का जागरण हुआ है?
जब आपके सिर में दर्द होता है तो कैसे पहचानते हैं? जब आपके पेट में भूख लगती है तो कैसे पहचानते हैं? जब शरीर बीमार होता है तो कैसे पहचानते हैं और जब स्वस्थ होता है तो भीतर से कैसे पहचानते हैं?
ठीक ऐसे ही भीतर की कोई भी घटना अनजानी नहीं जा सकती। कुंडलिनी भी पहचान ली जाती है। जिन्होंने जानी, वे कुछ बातें कह गए हैं, वे सांकेतिक हो सकती हैं। लेकिन उनसे कुछ अर्थ नहीं होता। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर फर्क पड़ेगा। थोड़ा-थोड़ा फर्क पड़ेगा। लेकिन कुछ सूचक बातें समझी जा सकती हैं बाहर से। समझ में तो भीतर ही आएंगी जब घटना घटेगी।
जैसे कि हमने कभी आग देखी है, तो आग की लपट सदा ऊपर की तरफ जाती है। पानी सदा नीचे की तरफ जाता है। पानी को बेसहारा छोड़ दें तो गड्ढों में उतर जाएगा, आग को बेसहारा छोड़ दें तो आकाश में खो जाएगी। आग का ऊर्ध्वगमन, ऊपर की तरफ जाना स्वभाव है। पानी का अधोगमन, नीचे की तरफ जाना स्वभाव है।
कुंडलिनी आग की तरह है, ऊपर की तरफ जाना उसका स्वभाव है। आपके भीतर कोई शक्ति जब नीचे से ऊपर की तरफ जाने लगे...
सोई हुई है, और इसीलिए कुंडलिनी उसे नाम मिल गया, जैसे सांप कुंडल मार कर सोया हो, और फिर उठ आए तो कुंडल टूट जाए और फन ऊपर उठ जाए। जब सांप पूरी शक्ति से उठता है तो पूंछ के बल खड़ा हो जाता है। मिरेकल है! क्योंकि सांप के भीतर हड्डी नहीं होती। वह बिना हड्डी के है, बिना बैकबोन के है, उसके पास कोई रीढ़ नहीं होती। बिना रीढ़ के वह सीधा जमीन से पूंछ के बल भी खड़ा हो जाता है।
ठीक ऐसे ही, इसीलिए सर्प प्रतीक बन गया कुंडलिनी का। भीतर कोई शक्ति सोई हुई है नाभि के नीचे। वहां से जब जगती है तो ऐसी ही जगती है जैसे कि सर्राटे मार कर कोई सर्प उठ गया हो, और उसका फन सिर तक पहुंच जाता है। प्रतीक है, सर्प सिर्फ प्रतीक है, सिर्फ सिंबल है। ठीक ऐसी ही शक्ति भीतर से उठती जब मालूम पड़ेगी तो पूछना नहीं पड़ेगा, पहचान ही लेंगे। कभी कोई भूल-चूक नहीं हुई है।
उन्होंने एक बात और पूछी है कि
एकाग्रता का, तीव्र श्वास का प्रयोग हमने बहुत बार किया, लेकिन जैसा अनुभव आपकी उपस्थिति में हो रहा है, वैसा अनुभव कभी नहीं हुआ। तो क्या आपकी अनुपस्थिति में भी ऐसा अनुभव हो सकेगा?
बिलकुल हो सकेगा। एक बार अनुभव हो जाए तो उसे फिर आपसे छीना नहीं जा सकता। कहीं भी हो जाए, किसी भी स्थिति में हो जाए। एक बार भिखारी जान ले कि उसकी जेब में हीरा पड़ा है, एक क्षण को भी, तो भिखारी नहीं रह जाता है। और किसी स्थिति में जाना हो, फिर स्थिति खो जाए। यह भी हो सकता है कि भिखारी को एकदम से पता भी न चले कि खीसा कहां है जहां हीरा रखा है, लेकिन फिर भी भिखारी भिखारी नहीं है। अब वह रास्ते पर चल रहा है तो और ही आदमी है। और जिसने एक बार अपने हीरे को जान लिया, वह रास्ता खोज लेगा। फिर खोज लेगा। उसमें बहुत कठिनाई होने वाली नहीं है।
बड़ा सवाल पहले स्वाद का है। जिस चीज का हमें कोई स्वाद नहीं उसकी हम खोज ही नहीं करते। तो अगर स्वाद भी मिल जाए...और समूह में स्वाद मिलने में सरलता हो जाती है। मेरी ही मौजूदगी अकेली काफी नहीं है, यहां इतने लोगों का संकल्प भी आपके आस-पास मौजूद है। ये सारे लोग मिल कर, इनका सबका संकल्प मिल कर एक साइकिक एटमास्फियर, एक विशेष वातावरण निर्मित कर देता है। उस वातावरण में आप, जितने साधारणतः जिस ऊंचाई पर होते हैं, उससे ज्यादा ऊंचे उठ जाते हैं।
आपको पता नहीं है कि अगर पचास आदमी तेज चल रहे हों और आप उनके बीच में हों, तो आप इतने तेज चलने लगेंगे, जितना आप कभी नहीं चले थे। क्योंकि पचास आदमी चारों तरफ से एक रिदम पैदा करते हैं, और उनके साथ आप भी गति में आ जाते हैं। कमजोर से कमजोर आदमी पचास बहादुरों के बीच में बहादुर हो जाता है। उसे पता भी नहीं चलता कब हो गया। वह पचास लोगों का संकल्प और पचास लोगों की संकल्प की शक्ति, एक वातावरण निर्मित करती है, जिसमें आप बदल जाते हैं। बुरे आदमी के पास आप बुरे हो जाते हैं, अच्छे आदमी के पास अच्छे हो जाते हैं।
आदमी, जैसा भी आदमी है, आप जैसे हैं, तो आप कोई एक थिर चीज नहीं हैं, फिक्स्ड चीज नहीं हैं, थर्मामीटर की तरह हैं, पूरे वक्त नीचे-ऊपर होते रहते हैं। बाहर गर्मी बढ़ती है, तो आप ऊपर-नीचे हो जाते हैं; ठंड होती है, तो ऊपर-नीचे हो जाते हैं। कोई आदमी फिक्स्ड नहीं है। तो आदमी चारों तरफ की स्थिति से ऊंचा-नीचा होता रहता है। अगर बुरे आदमी चारों तरफ इकट्ठे हैं, तो आप तत्काल नीचे हो जाते हैं। अगर चारों तरफ भले लोग इकट्ठे हैं, तो आप ऊपर हो जाते हैं।
यह जो मैंने अभी हज की बात की, यह हज या तीर्थ अच्छे लोगों को इकट्ठा करने के प्रयोग थे कभी--कि सारे अच्छे लोग एक जगह इकट्ठे हो जाएं, तो जो वे अकेले नहीं कर पाते हैं, वह इकट्ठे में शायद हो जाए। शायद उन सबकी इकट्ठी संकल्प की शक्ति, उस हवा को, उस वातावरण को, उस मैग्नेटिज्म को पैदा कर दे कि जो उनसे अकेले नहीं हो पाया, वह सबके बीच हो जाए। और फिर एक बार हो जाए, तो पीछे बार-बार हो सकता है। एक बार मुझे पता चल जाए कि मैं छह फीट ऊंचा कूद सकता हूं, तो फिर मैं कभी अकेले में भी कूद सकता हूं।
इसलिए घबड़ाएं न। मेरी गैर-मौजूदगी में भी हो जाएगा।
लेकिन अभी मेरी गैर-मौजूदगी की फिक्र न करें, अभी तीन-चार दिन मौजूदगी की फिक्र करें। अभी इन तीन-चार दिन, जितना मौजूदगी से हो सकता है, उसकी पूरी फिक्र कर लें। फिर हो सकेगा।
एक बात और उन्होंने पूछी है कि
इससे मन पर कुछ बुरे परिणाम होने की संभावना तो नहीं है?
मन पर तो बहुत बुरा परिणाम होगा। मन की तो मौत ही हो सकती है। हां, आपको कोई बुरा परिणाम नहीं होगा। आप निश्चिंत रह सकते हैं। मन को तो मरना ही पड़ेगा। यह तो मन की मौत का प्रयोग ही है। और मन ही तो आपकी बीमारी है। आप तो ऐसा सवाल पूछ रहे हैं कि कोई टी.बी. का मरीज अस्पताल जाए और कहे कि कहीं मेरी टी.बी. पर कोई बुरा असर तो नहीं होगा आपकी दवाई का?
होगा ही! अगर टी.बी. को बुरा असर नहीं होगा, तो फिर अस्पताल जाने की जरूरत नहीं है। फिर टी.बी. को घर बचाना चाहिए। मन पर तो बुरा असर होगा, आप पर नहीं। मन आपकी बीमारी है, आप नहीं हैं। डिजीज है। वह तो मुक्त, उससे तो छुटकारा चाहिए ही, वह होगा ही।
और उन्होंने पूछा है,
मन पर अगर बुरा असर हुआ तो जिम्मेवार कौन होगा?
मैं जिम्मेवार होऊंगा! निश्चित ही मैं जिम्मेवार होऊंगा! मन को तो मार ही डालना है। मन से तो छुटकारा ही पाना है।
अब दो-तीन बातें ध्यान के संबंध में समझ लें, फिर हम बैठेंगे। कुछ और सवाल हैं, तो सुबह उनकी बात कर लेंगे।
कल प्रयोग आपने समझ लिया है। इसलिए कल आप माफ किए जा सकते थे, अगर आपने धीमे-धीमे किया हो। आज नहीं किए जा सकते हैं।
आज सुबह बहुत परिणाम आया। शक्ति पूरी मित्रों ने लगाई, तो परिणाम आना निश्चित था। आज रात उससे परिणाम कई गुना ज्यादा हो जाएगा। लेकिन शक्ति पूरी लगानी जरूरी है। एक तो जिन मित्रों को सुबह तीव्रता से नाचना-कूदना हुआ है, वे दोनों तरफ मेरे खड़े हो जाएंगे। पूरी बात समझ लें, फिर उठ आएंगे। खड़े होने से न डरें। जिनको तीव्रता में खड़ा होना सुविधाजनक मालूम पड़ा है, सुबह जिन्होंने खड़े होने का आनंद लिया है, वे खड़े होकर ही प्रयोग करेंगे। बैठे हुए लोग बीच में रह जाएंगे। आज तो प्रकाश जला रहेगा, इसलिए खड़े हुए लोग चारों तरफ फैल जाएंगे। सिर्फ पीछे की जगह छोड़ कर। पीछे की जगह हम देखने वालों के लिए छोड़ देंगे। कुछ मित्र आ जाते हैं देखने के लिए। तो उनके लिए पीछे की जगह है, वे पीछे जाकर खड़े हो जाएंगे या बैठ जाएंगे। बीच में कोई भी देखने वाला नहीं बैठेगा, इतनी कृपा करेंगे। अन्यथा हमें बीच में से उठाना पड़े, तो फिर कठिनाई होगी। आप खुद ही, देखना है तो पीछे बैठ जाएंगे। आस-पास भी देखने वाले खड़े नहीं होंगे। देखने वाले सभी पीछे चले जाएंगे, ताकि वे वहां से आराम से देख सकें। प्रकाश जला रहेगा, वे पूरी तरह से देख पाएंगे।
देखने वालों से दूसरा निवेदन है, और कहीं खड़े नहीं होंगे, पीछे खड़े होंगे। दूसरा, बात नहीं करेंगे। इतनी कृपा करेंगे कि देखते रहें चुपचाप, बात पीछे कर लें, चालीस मिनट के बाद। यहां दूसरों को बाधा न पहुंचाएं।
जो लोग खड़े हैं और जो लोग ध्यान में बीच में बैठे रहेंगे, उनको पूरे चालीस मिनट आंख खुली रखनी है और मुझे देखते रहना है। सारी शक्ति आंख ही बन जाए और आंख मुझे देखती रहे। चालीस मिनट तक आंख झपकानी ही नहीं है। आंसू बहने लगें, जलन पड़ने लगे, उसकी फिक्र छोड़ें। जब आंसू बहने लगें और जलन पड़ने लगे, तभी ठीक मौका है। तब आप जरा ही चूकते हैं तो आंख बंद हो जाएगी। तब पूरी ताकत लगा दें, आंख खुली रखें। उसी क्षण में आपकी तीसरी आंख की सक्रिय होने की संभावना है, वही मोमेंट है। जब आपकी ये आंख थकती हैं और आप नहीं मानते और देखे चले जाते हैं, तो तीसरी आंख सक्रिय होती है।
ध्यान रखें, जीवन की शक्तियों का एक नियम है। और वह नियम है कि हमारे पास जो भी रिजर्व फोर्सेज हैं, वे तभी काम में आती हैं जब हमारी सामान्य काम में आने वाली ताकत चुक जाए। उसके पहले काम में नहीं आती।
आपने कई बार खयाल किया होगा कि अगर आपको भूख लगी है ग्यारह बजे और आपने खाना नहीं खाया, तो साधारणतः बारह बजे भूख और बढ़ जानी चाहिए। लेकिन बारह बजे भूख कम हो जाएगी। एक बजे और कम हो जाएगी। बढ़ेगी नहीं। क्योंकि भूख के लिए जो सामान्य शक्ति काम करती थी, उसने काम करके देख लिया, वह काम नहीं हुआ। तो आपके पास जो रिजर्व फोर्सेज हैं भोजन के, वे छूट जाएंगे, वे पेट को भर देंगे।
अगर रात आपको बारह बजे नींद आ रही है, जम्हाई आ रही है, आप परेशान हो रहे हैं, और आप एक घंटे जग गए, नहीं सोए, तो आपकी नींद और बढ़ जानी चाहिए। नहीं लेकिन आप एक बजे पाएंगे कि नींद खो गई, आप सुबह की तरह ताजे हो गए हैं। क्यों? क्योंकि देख लिया, सामान्य ताकतें काम करके देख लीं, आप नहीं माने, तो शरीर के पास जगने की जो विशेष ताकत है वह उसने शरीर को दे दी।
हमारे शरीर के पास प्रत्येक शक्ति के रिजर्व फोर्सेज हैं, रिजर्वायर्स हैं। इसलिए एक आदमी नब्बे दिन तक बिना खाए जिंदा रह सकता है। तो शरीर की सारी सिस्टम बदल जाती है। सात दिन के बाद शरीर में भूख लगती ही नहीं फिर। क्योंकि शरीर छोड़ ही देता है सामान्य काम। उसके पास जो रिजर्व फोर्सेज हैं, उनको देना शुरू कर देता है।
आदमी कितना ही जाग सकता है, कितना ही भूखा रह सकता है। आदमी कितना ही दौड़ सकता है। लेकिन सब रिजर्व फोर्सेज तभी काम में आती हैं जब आपकी सामान्य, आर्डिनरी फोर्स बेकाम हो जाती है।
तो जब आपकी आंख थक जाए और झपकने लगे, तभी आप समझना कि ठीक मौका है। उस वक्त जरा ही आप चूकते हैं तो खराब हो जाता है। उस वक्त पूरी ताकत लगा दें। थोड़ी ही देर में आंख की जलन चली जाएगी, आंसू चले जाएंगे, आंख ताजी हो जाएगी और आप पाएंगे कि आपके भीतर से कोई और चीज भी देखना शुरू हो गई।
यह जो प्रयोग है, इसमें जिन मित्रों को सुबह के प्रयोग में श्वास से आनंद मालूम पड़ा हो और उनको रात में भी लगे कि श्वास लेनी है, वे श्वास ले सकते हैं। वे बाहर खड़े होकर या बैठ कर श्वास ले सकते हैं। जो लोग बैठे हैं, वे भी थोड़ी सी जगह बना कर बैठेंगे। क्योंकि शरीर घूम सकता है। और घूमे तो उसे घूमने देना है। ठीक सुबह के प्रयोग जैसा, शरीर में कुछ भी हो तो उसे होने देना है, जोर से। अगर चीखने का मन हो, तो जोर से चीख लेना है। कंपने का मन हो, तो जोर से कंप लेना है। जो भी हो--हंसना, रोना, चिल्लाना--कुछ भी हो, उसे पूरा कर लेना है। और पूरे समय ध्यान और आंख मेरी तरफ। शरीर कुछ भी करे तो उसे करने देना है, उसे रोकना नहीं है।
मैं चालीस मिनट चुप रहूंगा। इस चालीस मिनट में जब आप मेरी ही ओर देखते रहेंगे तो बहुत कुछ दिखाई पड़ सकता है, उससे भयभीत होने की जरूरत नहीं है। और साथ ही जो लोग इस चालीस मिनट में सच में ही देखते रहेंगे संकल्पपूर्वक, उनसे मेरे भीतरी संबंध स्थापित हो जाएंगे। उनसे मैं कुछ कहना भी चाहूंगा तो कह सकूंगा। वह भी उन तक ट्रांसफर हो जाएगा।
और भी एक बात एक मित्र ने पूछी है कि
आपकी गैर-मौजूदगी में हम कुछ करें और कुछ हो जाए, तो क्या?
तो आप अगर अभी मुझसे संबंध बना लेते हैं मौन का, तो फिर मेरी गैर-मौजूदगी में कहीं भी वह संबंध बनाया जा सकता है। लेकिन यहां बन जाए तो ही बनाया जा सकता है, अन्यथा बनाना मुश्किल है। और वह बन सकता है, उसमें जरा भी अड़चन नहीं है।
इन चालीस मिनट में मैं शब्द से नहीं बोलूंगा, लेकिन हृदय से बोलूंगा और वह आप तक पहुंचाने की कोशिश करूंगा। अगर आप राजी हुए तो वह आप तक पहुंच जाएगा, समझा जाएगा, पकड़ा जाएगा, सुना जाएगा, पहचाना जाएगा--शब्दों से भी ज्यादा गहरा, शब्दों से भी ज्यादा साफ।
हाथ से जरूर आपको इशारे करूंगा। वे इशारे, आपके भीतर जब मुझे लगेगा कि शक्ति जग रही है और मुझे लगेगा कि आप उसे रोक रहे हैं, तब मैं इशारा करूंगा कि आप उसे रोकें मत और उठने दें। जब मैं इशारा करूं तो मेरे इशारे को समझें और अपनी शक्ति को पूरी तरह उठने दें। उस वक्त रोना निकले, चिल्लाना निकले, कांपना निकले, नाचना निकले, उसे निकलने दें, पूरी ताकत लगा दें। ये चालीस मिनट आपकी जिंदगी के लिए अविस्मरणीय बन सकते हैं। जब आ ही गए हैं, तो खाली हाथ मत लौट जाएं।
जिन मित्रों को देखना हो, हालांकि वे नासमझ मित्र हैं जो देखने आ गए होंगे, लेकिन नासमझों के लिए भी जगह होनी चाहिए, वे वहां पीछे चले जाएं। जिन मित्रों को खड़े होकर करना है, वे दोनों तरफ आ जाएं, लेकिन दूर-दूर या चारों तरफ फैल जाएं। और बाकी कोई भी देखने वाला, स्पेक्टेटर यहां-वहां न खड़ा रहे, वह पीछे चला जाए। जो मित्र बैठे हैं उनमें एक भी व्यक्ति यहां ऐसा न बैठा रहे जो खाली बैठा है, वह हट जाए, उसको नुकसान हो सकते हैं।
एक-दो मिनट में आप जल्दी से अपनी जगह बना लें।
बातचीत जरा न करें। बातचीत की कोई भी जरूरत नहीं है। देखने वाले लोग पीछे चले जाएं। ध्यान करने वाला कोई भी व्यक्ति पीछे न जाए। देखने वाले लोग पीछे चले जाएं। ध्यान करने वाले लोग तीनों तरफ फैल जाएं--मेरे पास आ जाएं, दोनों तरफ लाइन में खड़े हो जाएं।
प्रश्न:
चश्मा उतारना पड़ेगा?
खड़े होकर करते हैं तो उतार लेंगे।
बात न करें, जल्दी से हट जाएं। और जो लोग बैठे हैं वे देख लें कि उनके आस-पास जगह है थोड़ी, क्योंकि आप हिलें-डुलें तो किसी को धक्का न लगे। और पीछे तो लगे भी तो उसकी फिक्र न करें, अपना हिलना-डुलना जारी रखें। जो मित्र देखने खड़े हैं वे बात नहीं करेंगे चालीस मिनट, इतना भी बड़ा संयम होगा, इससे भी उन्हें थोड़ा लाभ होगा। सिर्फ देखते रहें।
तो मैं मान लूं कि आपने जगह चुन ली। थोड़ा बाहर हट कर खड़े हों, वहां बैठने वालों को दिक्कत होगी। खड़े होने वाले थोड़े हट आएं। बैठने वाले थोड़े अलग हो जाएं, ताकि बीच में न पड़ें। क्योंकि खड़ा होने वाला कोई गिर जाए, कुछ हो, तो आपको तकलीफ होगी। थोड़ी सी जगह छोड़ दें। वे नाचेंगे, कूदेंगे, तो दिक्कत होगी। बैठने वाले और खड़े होने वालों में थोड़ा सा फासला छोड़ लें, ताकि कोई गिर न जाए। आज तो लाइट है, इसलिए दूर-दूर हो जाएं।
ठीक! दो मिनट के लिए आंख बंद कर लें, हाथ जोड़ कर संकल्प कर लें, फिर हम ध्यान में प्रविष्ट हों।
दोनों हाथ जोड़ लें। आंख बंद कर लें। परमात्मा को साक्षी रख कर संकल्प कर लें: मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। आप अपने संकल्प को भूल मत जाना, प्रभु आपके संकल्प को कभी नहीं भूलता है।
हाथ छोड़ दें, आंख खोल लें, मेरी ओर देखना शुरू करें--चालीस मिनट, संकल्पपूर्वक! बहुत कुछ होगा। जो भी हो, उसे होने देना है।
(इसके बाद चालीस मिनट तक ध्यान-प्रयोग चलता रहा। ओशो हाथ के इशारों से साधकों को अपनी पूरी शक्ति लगाने के लिए प्रोत्साहित करते रहे। चालीस मिनट के ध्यान-प्रयोग के बाद ओशो साधकों को सुझाव देना प्रारंभ करते हैं।)
दो-चार गहरी श्वास लेकर उठ आएं। आंख न खुलती हो तो दोनों हाथ आंख पर रख लें, दो-चार गहरी श्वास लें, फिर आंख खोलें।
दो-तीन बातें खयाल में ले लें। प्रयोग में आपने मेहनत की, लेकिन और भी की जा सकती है। कोई पचास प्रतिशत के करीब मित्र गहरे गए। लेकिन बाकी पचास प्रतिशत पीछे छूट जाएं, वह भी सुखद नहीं है। जिन्होंने आज मेहनत की है, वे कल और ज्यादा मेहनत करें। जिन्होंने नहीं की है, वे भी मेहनत करें।
बहुत दूर नहीं है मंदिर परमात्मा का। लेकिन एक कदम उठाने तक की कंजूसी हम से हो जाती है। और हम एक कदम चलें तो परमात्मा हजार कदम चलने को हमेशा तैयार है। लेकिन हम एक कदम ही नहीं चल पाते हैं। छोड़ें संकोच, छोड़ें भय। कोई क्या कहेगा, इसकी चिंता छोड़ें। जिसने यह चिंता की कि कोई क्या कहेगा, वह कभी भी सत्य की खोज पर नहीं निकल सकता है। जिसने यह चिंता की कि हंसी न आ जाए, रोना न आ जाए, नाचना न आ जाए--जो जरा भी पागल होने में डरा, वह परमात्मा की यात्रा पर नहीं निकल सकता है।
एक अर्थ में परमात्मा को केवल वे ही खोज पाते हैं जिनकी प्यास इतनी गहरी है कि उसके लिए पागल भी हो सकते हैं। जिनकी प्यास इतनी गहरी नहीं है कि उसके लिए पागल हो सकें, उन्हें उस यात्रा की तरफ आंखें ही नहीं उठानी चाहिए।
आशा रखता हूं, कल सुबह फिर हम और गहरा प्रयोग करें। इन पांच दिनों में चाहूंगा कोई भी खाली हाथ न जाए। वैसे आपने तय ही कर रखा हो किसी ने कि खाली हाथ ही जीना है, तब तो परमात्मा की सामर्थ्य के भी बाहर है कि आपके हाथ को भर दे। उनके ही हाथ भर सकते हैं जिन्होंने हाथ फैलाए हैं। लेकिन जो मुट्ठियां बांध कर खड़े रह गए हैं, उनके हाथ खाली ही रह जाते हैं।
कोई सवाल होंगे तो सुबह आपसे बात कर लूंगा।
हमारी रात की बैठक पूरी हुई।