YOG/DHYAN/SADHANA

Dharam Sadhana Ke Sutra 10

Tenth Discourse from the series of 10 discourses - Dharam Sadhana Ke Sutra by Osho. These discourses were given in BOMBAY during JUN 20 1965.
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सागर के तट पर एक मेला भरा था। बड़े-बड़े विद्वान इकट्ठे थे उस सागर के किनारे। और स्वभावतः उनमें एक चर्चा चल पड़ी कि सागर की गहराई कितनी होगी? और जैसी कि मनुष्य की आदत है, वे सब सागर के किनारे बैठ कर विवाद करने लगे कि सागर की गहराई कितनी है? उन्होंने अपने शास्त्र खोल लिए। उन सबके शास्त्रों में गहराई की बहुत बातें थीं। कौन सही है, निर्णय करना बहुत मुश्किल हो गया। क्योंकि सागर की गहराई तो सिर्फ सागर में जाने से पता चल सकती है, शास्त्रों के विवाद में नहीं, शब्दों के जाल में नहीं। विवाद बढ़ता गया। और जितना विवाद बढ़ा, उतना निर्णय मुश्किल होता चला गया। असल में निर्णय लेना हो तो विवाद से बचना जरूरी है। निर्णय न लेना हो तो विवाद से ज्यादा सुगम और कोई रास्ता नहीं।
लेकिन भूल से उस मेले में दो नमक के पुतले भी पहुंच गए थे। उन्होंने उन विवाद करने वाले लोगों को कहा कि रुको, हम कूद कर पता लगा आते हैं कि सागर कितना गहरा है। लेकिन उन विवादियों ने कहा, सागर में जाने की जरूरत क्या है जब कि शास्त्र हमारे पास हैं और शास्त्रों में गहराई लिखी है! और हमारे शास्त्र में ईश्वर ने लिखी है। और सभी के शास्त्रों का खयाल था कि उनके शास्त्र ईश्वर ने लिखे हैं। लेकिन फिर भी एक नमक का पुतला कूद गया। तो वह सागर में गया--गहरे, और गहरे, और गहरे। लेकिन जितना गहरा गया, उतना एक नई मुश्किल शुरू हो गई। गहराई का तो पता चलने लगा, लेकिन पुतला मिटने लगा। नमक का पुतला था, पिघलने लगा। फिर गहराई में पहुंच भी गया, लेकिन तब लौटने का कोई उपाय न बचा। वह तो पिघल कर पानी हो चुका था। वह तो नमक का पुतला था, सागर में खो गया। सागर की गहराई जान ली, लेकिन बताए कैसे? सागर की गहराई ही नहीं जानी, सागर के साथ एक हो गया। और जब तक कोई एक न हो जाए, तब तक गहराई जान भी कैसे सकता है? लेकिन बताए कैसे?
सागर के तट के लोगों ने कहा, हमने पहले ही कहा था, शास्त्र में खोजना चाहिए। सागर में और भी कई लोग पहले कूद कर खो चुके हैं, गहराई की कोई खबर नहीं लाता। शास्त्र ही अच्छे हैं, कोई खोता तो नहीं। शास्त्र को पढ़ो, विवाद करो, निर्णय करें। पहले ही कहा था, वह नमक का पुतला पागल था।
वे फिर अपने विवाद में पड़ने लगे, तो उसके दूसरे मित्र ने, नमक के दूसरे पुतले ने कहा, थोड़ा रुको। मैं अपने मित्र को खोज लाऊं। तो दूसरा पुतला मित्र को खोजने गया। मित्र तो नहीं मिला, खुद ही खो गया। हालांकि खुद के खोते ही मित्र मिल गया। मित्र मिलता ही तब है जब कोई खुद को खोने की क्षमता जुटा लेता है। उसके पहले कोई मित्र मिलता नहीं। मित्रता का अर्थ ही खुद का खोना है। खो गया, मित्र भी मिल गया, सागर भी मिल गया, गहराई भी पता चल गई। और सुना है मैंने कि वे दोनों लहरों-लहरों में चिल्लाने लगे कि ऐसी है गहराई! ऐसी है गहराई!
लेकिन वे तट पर बैठे हुए लोग अपने शास्त्रों में फिर खो चुके थे। वे अपने शास्त्रों की फिर बात कर रहे थे। लहरों की कौन सुने! सागर की कौन सुने! बल्कि कई बार वे पंडित कहते थे, इन सागर की लहरों के शोरगुल के कारण हमारे विवाद में बड़ी बाधा पड़ती है। अच्छा हो कि हम सागर से जरा दूर चले चलें और वहां हम अपने शास्त्रों में विवाद करें। यहां सागर बड़ी बाधा डालता है। सागर, जो कि कह रहा था कि गहराई कितनी है! सागर, जो कि बुलाता था कि आओ और जान लो! उन पंडितों ने कहा, हटो इस सागर से, शोरगुल मचाता है, हमारे विवाद में बाधा पड़ती है। सागर की गहराई का पता लगाने के लिए वे बेचारे सागर के तट को छोड़ कर दूर चले गए। मैंने सुना है, अब भी वे अपने शास्त्रों को खोल कर विवाद कर रहे हैं। वे सदा करते रहेंगे।
पंडित सदा शास्त्र को खोल कर ही बैठे-बैठे समाप्त हो जाता है। उसे सत्य का कभी कोई पता नहीं लगता। पापी भी पहुंच जाते हैं सत्य तक, पंडित नहीं पहुंच पाते। क्योंकि पापी विनम्र तो होता है कम से कम। रो तो सकता है परमात्मा के सामने, डूब तो सकता है परमात्मा में। दीन तो होता है, असहाय तो होता है, गिड़गिड़ा तो सकता है, घुटने तो टेक सकता है। पंडित का अहंकार भारी है, पंडित का अहंकार चुनौती दे सकता है, विवाद कर सकता है, लड़ सकता है, लेकिन परमात्मा तक कभी भी नहीं पहुंच सकता। सुना नहीं ऐसा कि कोई पंडित कभी परमात्मा के पास पहुंच गया हो। और अगर कभी पहुंचा होगा तो जाकर उसने पहले तो परमात्मा को चुनौती दी होगी कि गलत हो तुम, हमारे शास्त्र में और ढंग से लिखा है।
मैं आपसे कहना चाहूंगा, परमात्मा को जानना हो तो पंडित से बचना। पंडित से बड़ा शत्रु नहीं है परमात्मा के रास्ते पर। वह पंडित किसका है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हिंदू का है, मुसलमान का है, सिक्ख का है, जैन का है, ईसाई का है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। पंडित पंडित है। सारे पंडित एक जैसे हैं। उनकी किताबें अलग होंगी, उनके शब्द अलग होंगे, उनके सिद्धांत अलग होंगे, लेकिन पंडित का मन, वह जो पंडित का माइंड है, वह सदा एक सा है। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। वह शब्दों पर जीता है, सिद्धांतों पर जीता है, सत्यों से दूर रहता है। क्यों? क्योंकि सत्य की पहली मांग यह है कि अपने को मिटाओ तो आओ। और पंडित अपने को मिटाने को कभी राजी नहीं। पंडित कहता है कि मेरे पास जो है वह है सत्य। और सत्य की मांग है कि मिटो तुम, आओ मेरे पास, तो ही सत्य को जान सकते हो। पंडित सत्य को अपने बगल में खड़ा करता है। जिसे सत्य को जानना हो, उसे खुद ही सत्य के बगल में जाकर खड़ा होना पड़ता है। सत्य को अपने बगल में खड़ा नहीं किया जा सकता। सत्य को मुट्ठी में नहीं बांधा जा सकता। सत्य का कोई दावा नहीं किया जा सकता। और न ही सत्य के लिए कोई विवाद संभव है, और न सत्य के लिए कोई शास्त्रार्थ संभव है। असल में सत्य के लिए तर्क की कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन पंडित तर्क का भरोसा रखता है। वह कहता है, तर्क करेंगे और सत्य को खोज लेंगे।
तो उसका भरोसा ऐसा ही है जैसा मैंने सुना है--एक बाउल फकीर हुआ है। एक छोटे से गांव में से गुजरता था अपना तंबूरा बजाता हुआ। लोगों से कहता था कि प्रेम ही परमात्मा है। लोगों से कहता था, परमात्मा तक जाना हो तो प्रेम में डूब जाओ।
एक वैष्णव पंडित उसके पास गया और उस वैष्णव पंडित ने कहा, प्रेम कितने प्रकार का होता है, पता है?
उस बाउल फकीर ने कहा कि सुनो, यह भी मजे की बात! प्रेम के भी कहीं कोई प्रकार होते हैं? या तो प्रेम होता है या नहीं होता। प्रेम के कोई प्रकार होते हैं?
लेकिन उस पंडित ने कहा, नासमझ, फिर तूने शास्त्र नहीं पढ़े। हमारे शास्त्र में पांच प्रकार लिखे हुए हैं। तो सुन, हम तुझे शास्त्र से सुनाते हैं। उसने शास्त्र से अपना पन्ना खोला, पढ़ कर सुनाया कि प्रेम के पांच प्रकार होते हैं। सारे तर्क और दलीलें दीं कि प्रेम इतने प्रकार का होता है, इतने प्रकार का होता है। जब सारी दलीलें समझा चुका तो बंद किया शास्त्र को और पूछा उस फकीर से, कैसा लगा?
तो वह फकीर फिर नाचने लगा अपने तंबूरे को बजा कर। उसने कहा, ऐसा लगा--उसने एक गीत गाया। वह गीत बहुत अदभुत था। उसने अपने गीत में कहा कि मुझे ऐसा लगा, जैसा एक बार एक माली को लगा था, जो अपने एक सुनार मित्र को फूलों को देखने बुला लाया था। एक माली के बगीचे में फूल आए थे गुलाब के, जुही के, चंपा के। मित्र था एक सुनार, कहा कि कभी आओ, फूल खिले हैं। मित्र ने कहा, आऊंगा। लेकिन साथ में सोने के कसने का पत्थर भी ले आया। वह फूलों को कस-कस कर देखने लगा। उसने एक-एक फूल कस कर फेंका। कहा, सब झूठा है, कोई सच्चा नहीं, कसौटी पर कोई उतरता नहीं। तो उस फकीर ने कहा कि जैसा उस दिन उस माली को लगा था--सोने के कसने के पत्थर पर फूल को कसते हो! ऐसा ही आज मुझे लगा--प्रेम को और तर्क के प्रकारों पर कसते हो! ऐसा ही लगा जैसा उस माली को लगा था।
परमात्मा से तर्क का कोई संबंध नहीं है। बुद्धि वहां नहीं जाती। वहां जाता है हृदय, वहां जाता है प्रेम। और प्रेम को कैसे विवाद से तय करें? प्रेम को कैसे निर्णय करें? प्रेम को तो जाना जा सकता है, प्रेम को जीया जा सकता है, प्रेम में डूबा जा सकता है। परमात्मा को पाया भी जा सकता है, लेकिन परमात्मा की दावेदारी नहीं की जा सकती। क्योंकि दावेदारी बुद्धि का काम है और पाना हृदय का काम है।
इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है। इस बात को बहुत ठीक से समझ लेना जरूरी है। आंख से हम देखते हैं, कान से नहीं देखते। और अगर कान को कभी तय करना पड़े कि प्रकाश है या नहीं, तो कान क्या करेगा? कान बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा। यही होगा कि वह कहेगा, नहीं, कोई प्रमाण नहीं है, कभी मैंने प्रकाश को बजते नहीं सुना। कान कहेगा, बजे तो मैं जानूं। क्योंकि कान सिर्फ ध्वनियों को जान सकता है।
आंख को अगर कभी ध्वनि को जानने के लिए मौका पड़ जाए और अगर कान कभी आंख से कहे कि ध्वनि सुनी है कभी? सुना है कभी सितार? आंख कहेगी, कैसी झूठी बात करते हो, मैंने कभी संगीत का दर्शन नहीं किया! और जब तक दर्शन न हो, तब तक मैं कैसे मान लूं? आंख इनकार कर देगी।
आंख की अपनी दुनिया है जानने की, कान की अपनी दुनिया है जानने की। ऐसे ही बुद्धि की अपनी दुनिया है जानने की, हृदय की अपनी दुनिया है जानने की। बुद्धि की दुनिया से हृदय की दुनिया का कोई भी संबंध नहीं।
लेकिन लोग परमात्मा को सिद्ध करने के लिए दलीलें देते हैं। इस दुनिया में दो तरह के नास्तिक हैं। एक वे जो कहते हैं, ईश्वर है, हम सिद्ध करके बता देंगे। जैसे कि उनके सिद्ध करने पर ईश्वर का होना निर्भर है। जैसे ये सिद्ध न करेंगे तो बेचारा ईश्वर नहीं हो जाएगा। अगर ये कहीं चूक गए, भूल-चूक हो गई, ईश्वर मरा। इनके तर्क पर निर्भर है उसका होना! एक वे हैं जो कहते हैं, हम सिद्ध कर देंगे कि ईश्वर है। इन्हीं के ही उत्तर में दूसरा नास्तिक पैदा हुआ है। वह कहता है, हम सिद्ध कर देंगे कि ईश्वर नहीं है। और असल में सिद्ध करने वाला ही ईश्वर को कभी नहीं पा सकता--चाहे वह पक्ष में सिद्ध करता हो, चाहे विपक्ष में सिद्ध करता हो। क्योंकि सिद्ध होता है बुद्धि से और अनुभव होता है हृदय से। हृदय से कुछ सिद्ध नहीं होता। हृदय से कुछ भी सिद्ध नहीं होता।
इसलिए जिन्होंने परमात्मा को जाना है, वे वे लोग नहीं हैं जो कहते हैं कि हम सिद्ध कर देते हैं। जिन्होंने परमात्मा को नहीं जाना, वे लोग हैं जो कह रहे हैं कि हम सिद्ध कर देंगे। और इन्हीं नासमझों ने, ईश्वर को सिद्ध करने वाले पंडितों ने, नास्तिक पैदा किए हैं। नहीं तो नास्तिक कभी पैदा नहीं होते। ध्यान रहे, जब कोई बहुत जोर से कहेगा, ईश्वर है और सिद्ध करेगा, तो सब तरह के तर्क खंडित किए जा सकते हैं। ऐसा कोई भी तर्क नहीं है जो खंडित न किया जा सके। तर्क दुधारी तलवार है, वह एक ही साथ दोनों तरफ काटती है। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, सिर्फ कुशल आदमी चाहिए, तर्क कुछ भी सिद्ध करता है। और तर्क जिसको सिद्ध करता है, उसको असिद्ध भी कर सकता है।
मैंने सुना है कि एक बहुत बड़ा तार्किक हुआ यूनान में। उसने एक स्कूल खोल रखा था। उस स्कूल में वह लोगों को तर्क करना सिखाता था--कैसे तर्क करें? वह इतना कुशल शिक्षक था कि वह अपने विद्यार्थियों से आधी फीस तो पहले दिन लेता था और आधी फीस, कहता था, जिस दिन तुम तर्क में किसी से विवाद जीत जाओ उस दिन दे देना। और भरोसा इतना पक्का था कि उसका विद्यार्थी सदा जीत जाता है। इसलिए आधी फीस वह बाद में ले लेता था।
एक युवक स्कूल में आया, उसने आधी फीस चुका दी और उसनेअपने गुरु से कहा कि ध्यान रखिए, आधी फीस मैं कभी नहीं चुकाऊंगा। उसके गुरु ने कहा, जब तुम तर्क कहीं भी जीतोगे तो आधी फीस तुम्हें चुकानी पड़ेगी। और बिना जीते तुम रह नहीं सकते, क्योंकि मैं तुम्हें ऐसी कला सिखा रहा हूं। उसने कहा, मैं कोई विवाद ही नहीं करूंगा। मगर आधी फीस नहीं चुकाऊंगा। लेकिन गुरु ने कहा, फिकर मत करो। जो तर्क का इतना बड़ा गुरु है, वह तुमसे फीस भी निकाल ही लेगा।
लेकिन वर्ष पर वर्ष बीतने लगे, वह आधी फीस नहीं आई। क्योंकि उस युवक ने कोई तर्क ही न किया। यहां तक कि कोई अगर दिन को भी कहता कि रात है, तो वह कहता, है। क्योंकि कौन झंझट करे? अगर कहे कि दिन है और तर्क हो जाए और जीत जाए तो गुरु की फीस चुकानी पड़े। गुरु भी परेशानी में पड़ गया, क्योंकि वह विवाद ही नहीं करता था। वह जो भी उससे जो कहता, वह कहता कि बिलकुल राजी हूं, यही है, इसमें इंच भर फर्क नहीं है। आखिर गुरु ने उस पर अदालत में एक मुकदमा चलाया। और मुकदमे में उसने यह कहा कि इस लड़के ने आधी फीस मेरी नहीं चुकाई है, यह आधी फीस मुझे वापस चाहिए। क्योंकि उसके गुरु ने कहा कि अगर अदालत कह देगी कि आधी फीस लेने के तुम हकदार नहीं, क्योंकि तुम्हारा विद्यार्थी अभी कोई तर्क नहीं जीता। तो मैं उससे वहीं फीस मांगूंगा कि पहला मुकदमा तू जीत गया मेरे खिलाफ, फीस वापस लौटा दे। अगर मैं हार गया तो भी वापस ले लूंगा फीस। और अगर मैं जीत गया तो अदालत से कहूंगा कि फीस दिलवा दे। और अगर हार गया तो विद्यार्थी से कहूंगा, तू जीत गया पहला मुकदमा, मुझे फीस दे दे।
लेकिन उसे पता नहीं कि विद्यार्थी भी उसी से सीखा था। उसने कहा, चलाओ मुकदमा। अगर मैं जीत जाऊंगा, तो मैं अदालत से कहूंगा कि अब मैं फीस नहीं दे सकता, आप मेरी रक्षा करें। और अगर मैं हार जाऊंगा, तो मैं कहूंगा, पहला ही मुकदमा हार गया, अब फीस कैसी? पहली ही लड़ाई हार गया!
तर्क दुधारी तलवार है, वह दोनों तरफ काम करता है। इसलिए तर्क से दुनिया में न कुछ सिद्ध होता है, न कुछ असिद्ध होता है। तर्क सिर्फ खिलवाड़ है, जिम्नेस्टिक है। जिन लोगों को कुछ काम नहीं है, बैठ कर बुद्धि से खेल करते रह सकते हैं। ताश के पत्तों का खेल है, बनाओ और मिटाओ। इसलिए दुनिया में आज तक कोई तर्क जीत नहीं पाया। न हिंदू का, न मुसलमान का, न ईसाई का, न जैन का, न बौद्ध का, किसी का तर्क जीत नहीं पाया। कोई तर्क नहीं जीत सकता, क्योंकि उससे उलटा तर्क दिया जा सकता है।
परमात्मा तर्क का खेल नहीं है। परमात्मा कुछ और दिशा है।
मुझसे लोग आकर कहते हैं--दो दिन से आया हूं--मुझसे लोग आकर कहते हैं कि आप दस्तखत करके दे दें कि ईश्वर है या नहीं, आप क्या मानते हैं?
मैंने उनसे कहा कि मैं ईश्वर का सर्टिफिकेट देने वाला कौन हूं? और मेरे हां कहने से वह हो जाएगा? और मेरे न कहने से नहीं हो जाएगा? तो बड़ा कमजोर है। जिसको मेरी गवाही की जरूरत पड़ती हो, ऐसे ईश्वर का कोई मतलब नहीं है। फिर मैं कौन हूं? मैं कौन हूं जो उसके लिए हां और न कहूं? और ईश्वर के लिए कभी भी, जो जानता है, वह हां नहीं कह सकेगा कि है। क्यों? क्योंकि जिसे भी हम कह सकते हैं है, उसी को कह सकते हैं जो नहीं है भी हो सकता हो। हम कह सकते हैं टेबल है, क्योंकि कल टेबल नहीं हो सकती है। हम कह सकते हैं आदमी है, क्योंकि कल आदमी नहीं था और कल फिर नहीं हो सकता है। जो भी है, उसके नहीं होने की संभावना है। इसलिए ईश्वर को है कभी भी नहीं कह सकते, क्योंकि उसके नहीं होने की कोई संभावना नहीं है। वह ‘नहीं’ कभी नहीं हो सकता, इसलिए है कहना बहुत खतरनाक है। है कहने में खतरा छिपा है। इसलिए जो भी जोर से कहेगा--है, वह नहीं है को निमंत्रण भिजवा रहा है। कोई न कोई कहेगा--नहीं है। अगर आस्तिक नासमझी छोड़ दे, तो नास्तिक की नासमझी आज छूट जाए।
लेकिन आस्तिक अपनी नासमझी दोहराए चले जाता है। वह कहता है, हम सिद्ध करेंगे। तो नास्तिक के मन में भी जोश पैदा करता है, वह कहता है, हम भी सिद्ध कर देंगे कि नहीं है। और एक नास्तिक को आस्तिक अभी तक सिद्ध नहीं करवा पाया कि है और न करवा पाएगा।
उसका कारण है। उसका कारण है कि है ईश्वर के संबंध में इररेलेवेंट है। ईश्वर के संबंध में है नहीं कहा जा सकता, असंगत है। क्यों? क्योंकि है ईश्वर का गुण नहीं है। है और ईश्वर का एक ही मतलब होता है, वे पर्यायवाची हैं। ऐसा कहना कि गॉड इज़, ईश्वर है, पुनरुक्ति है। क्योंकि जो है उसी का नाम ईश्वर है। ईश्वर है, इसमें दोनों एक ही बातें हैं। है का मतलब भी ईश्वर होता है और ईश्वर का मतलब भी है होता है। इसलिए ईश्वर है कभी भी नहीं कहा जा सकता। जो है वही ईश्वर है, तो ईश्वर है कभी भी नहीं कहा जा सकता। यह रिपीटीशन है, यह पुनरुक्ति है।
तो मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, आप लिख कर दे दें, ईश्वर है या नहीं? अगर वे ज्यादा जिद्द ही करें, तो है तो बिलकुल नहीं कहा जा सकता। लेकिन उनकी जिद्द तोड़ने को जरूर कहा जा सकता है कि नहीं है। उसके कारण हैं।
मैंने सुना है, एक दिन बुद्ध एक गांव में प्रविष्ट हुए। और गांव के द्वार पर ही एक आदमी ने पूछा, ईश्वर है? मैं आस्तिक हूं। आप क्या कहते हैं?
बुद्ध ने कहा, बिलकुल नहीं है। कौन ने कहा तुमसे? पागल हो गए हो? कैसा ईश्वर? देखा है कभी?
वह आदमी बहुत घबड़ा गया। बुद्ध आगे बढ़े। दोपहर को एक दूसरा आदमी आया मिलने और उसने कहा, मैं नास्तिक हूं और मैं मानता हूं ईश्वर नहीं है। आपका क्या खयाल है?
बुद्ध ने कहा, ईश्वर नहीं है? पागल हो गए हो? ईश्वर के सिवाय तो कुछ है ही नहीं, वही है। किसने तुमसे कहा ईश्वर नहीं है? उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। जो भी है, वही है।
लेकिन बुद्ध के साथ एक भिक्षु था, वह मुश्किल में पड़ गया, उसने दोनों उत्तर सुन लिए। उसने सुबह भी सुन लिया था कि नहीं है। दोपहर को सुना कि है। वह बहुत घबड़ाया। उसने कहा, यह तो मुसीबत हो गई। यह बुद्ध कैसा आदमी है! सांझ, उसने कहा, जब लोग छंट जाएंगे, तब पूछ लूंगा।
लेकिन सांझ तक मुश्किल कम न हुई, और बढ़ गई। सांझ को एक तीसरा आदमी आया और उसने कहा कि मुझे कुछ भी पता नहीं है कि ईश्वर है या नहीं। आपका क्या खयाल है?
बुद्ध चुप रह गए। उन्होंने कहा, मेरा कोई खयाल ही नहीं है।
रात जब सोने लगे तो उस भिक्षु ने कहा, सुनिए अभी सो मत जाइए। मैं सो न पाऊंगा रात भर। मुझे मुश्किल में डाल दिया। सुबह कहते हैं, नहीं है। दोपहर कहते हैं, है। सांझ कहते हैं, कुछ भी नहीं कहूंगा, चुप रह जाता हूं। आप मेरे प्राण लेना चाहते हैं? मैंने तीनों उत्तर सुन लिए, सही क्या है?
बुद्ध ने कहा, तुझे तो एक भी उत्तर न दिया गया था, तूने सुना क्यों? जिनको उत्तर दिए गए थे, उनके लिए थे। तू क्यों बीच में आया? तूने क्यों सुना?
उसने कहा, लेकिन मेरे पास कान हैं, मैं मौजूद था, मुझे सुनाई पड़ गया। अब मैं बहुत मुश्किल में पड़ गया हूं। सही क्या है?
बुद्ध ने कहा, सही सिर्फ एक बात है। सुबह जो आदमी आया था, वह आस्तिकता से भरा हुआ था। विश्वास से भरा हुआ था कि ईश्वर है। पता नहीं था उसे, अन्यथा मुझसे पूछता नहीं। पूछता सिर्फ वही है जिसको पता नहीं है।
मेरे पास जो आते हैं पूछने कि ईश्वर है या नहीं? उनको बेचारों को पता नहीं है। दूसरों से पूछते फिर रहे हैं। सर्टिफिकेट, गवाही लेते फिर रहे हैं। उनको खुद को कुछ पता नहीं है। पता होता तो मैं उनके पास पूछने जाता, वे मेरे पास क्यों पूछने आएं?
बुद्ध ने कहा, वह जो आदमी सुबह आया था, उसे पता बिलकुल नहीं है। वह सिर्फ मेरी गवाही मांग रहा था। उसका अंधा विश्वास है, उसका खयाल है, मान लिया है कि ईश्वर है। वह चाहता था बुद्ध भी कह दें कि है, तो उसकी हिम्मत और बढ़ जाए, उसका अंधापन और गहरा हो जाए। तो मैं उसका अंधापन गहरा नहीं कर सकता था। मैंने कहा, नहीं। क्योंकि मैं आदमी का अंधापन तोड़ना चाहता हूं। दोपहर जो आदमी आया था, उसने बिना जाने मान लिया था कि ईश्वर नहीं है। वह मेरी गवाही चाहता था कि बुद्ध भी कह दें नहीं है, तो पक्का हो जाए अपनी जड़ता में। मुझे उसकी भी जड़ता तोड़नी थी। तो मैंने कहा, है। सांझ जो आदमी आया था, अभी उसकी कोई भी जड़ता नहीं थी। उसे पता ही नहीं था कि है या नहीं। तो मैंने उससे कहा, मैं कुछ न कहूंगा, चुप रह जाऊंगा। और तुझसे भी कहता हूं, बिलकुल चुप रह जा, तो तू जान लेगा--है या नहीं।
मेरे साथ भी मित्रों को तकलीफ पड़ती है, वे मेरी बात नहीं समझ पाते। उनको कठिनाई जो हो जाती है वह यह कि वे गवाहियां ढूंढ रहे हैं अपने अंधे विश्वासों के लिए, अपनी अंधी धारणाओं के लिए गवाहियां ढूंढ रहे हैं। वे चाहते हैं मैं भी गवाही दे दूं उनकी, उनके अहंकार को मैं भी पुष्टि दे दूं। मैं कह दूं कि बिलकुल ठीक आप मानते हो।
मैं आखिरी आदमी हूं जमीन पर जो किसी से कहूंगा कि आप ठीक मानते हो। असल में मानना कभी ठीक होता ही नहीं। मानना ही गलत होता है। इसे समझ लें। ठीक मानना और गलत मानना, ऐसा नहीं होता। मानना ही गलत होता है। जानना ठीक होता है, मानना गलत होता है। मानने का मतलब ही है कि अंधे हैं हम, मान लिया है। आंख वाला सूरज को मानता नहीं, जानता है। अंधा आदमी मानता है कि होगा। अंधा आदमी जानता नहीं।
हम परमात्मा की तरफ अंधों की तरह व्यवहार कर रहे हैं, आंख वाले की तरह नहीं। माने हुए बैठे हैं कि है। कोई माने हुए बैठा है कि नहीं है। इन दोनों में फर्क नहीं है। इनके अंधेपन में फर्क है, इनके मानने में कोई फर्क नहीं है। आस्तिक भी अंधे हैं, नास्तिक भी अंधा है।
धार्मिक आदमी न आस्तिक होता, न नास्तिक होता। धार्मिक आदमी अंधा नहीं होता। धार्मिक आदमी आंख खोल कर देखता है। और जब देखता है तो वह जो पाता है, वह इतना विराट है कि न हां में समाता, न न में समाता। वह इतना विराट है कि न आस्तिक कह पाता, न नास्तिक निषेध कर पाता। वह इतना विराट है कि सारी दुनिया के धर्म चिल्लाते रहते हैं, लेकिन उसका छोर भी पता नहीं चल पाता। वह इतना विराट है कि आदमी सब तरफ से खोजता है, खोजते-खोजते खुद खो जाता है, उसको पूरा बांध नहीं पाता। जो जानता है इसलिए वह हां और न से चुप्पी साध जाएगा।
मुझसे कोई पूछता है, है या नहीं?
मुझसे मत पूछें। जीवन में आंख खोल कर देखें। होगा तो जरूर मिल जाएगा। नहीं होगा तो यह पता चल जाएगा कि नहीं है। लेकिन हम अजीब लोग हैं। हम छपे अक्षर के बड़े अंधे भक्त हैं। हम जिंदगी को न देखेंगे, हम किताब को देखेंगे और मान लेंगे।
रामकृष्ण कहते थे कि एक आदमी उनके पड़ोस में रहता था। उसके पड़ोस में किसी के मकान में आग लग गई। वह सुबह-सुबह रामकृष्ण से मिलने आया था, तो रामकृष्ण ने पूछा कि मैंने सुना है कि रात तुम्हारे पड़ोस में आग लग गई? उसने कहा, पता नहीं, मैंने सुबह अखबार में देखा, अखबार में तो कुछ खबर नहीं।
तो रामकृष्ण कहते थे, मजेदार आदमी है! पड़ोस में आग लगी, उसने सुबह अखबार में देखा कि लगी कि नहीं। पड़ोस में न देख सका जाकर आग, अखबार में देखा। उसने कहा, अखबार में खबर छपती तो पता चलता कि है या नहीं।
छपे अक्षर के लिए हम बिलकुल पागल हैं। परमात्मा चारों तरफ मौजूद है, लेकिन हमें छपे अक्षर में चाहिए किताब में कि है या नहीं। किसी की किताब में लिखा है, नहीं है; किसी की किताब में लिखा है, है। अब बड़ा मुश्किल है। किताबें आदमियों को लड़ा रही हैं। जड़ किताबें जिंदा आदमी को लड़ा रही हैं। मरीमराई किताबें जिंदा आदमी को कटवा रही हैं। जिनका कोई मूल्य नहीं है, चार आने में बाजार में बिकती हैं, उनके पीछे लाखों आदमी जिंदा मर जा सकते हैं। आश्चर्यजनक है यह!

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