YOG/DHYAN/SADHANA

Dharam Sadhana Ke Sutra 09

Ninth Discourse from the series of 10 discourses - Dharam Sadhana Ke Sutra by Osho. These discourses were given in BOMBAY during JUN 20 1965.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
जैसे कोई बड़ा बगीचा हो, बहुत पौधे हों, लेकिन फूल एक भी न खिले, ऐसा ही मनुष्य का समाज हो गया है। मनुष्य बहुत हैं, लेकिन सौंदर्य के, सत्य के, प्रार्थना के कोई फूल नहीं खिलते। पृथ्वी आदमियों से भरती चली जाती है, लेकिन दुर्गंध से भी, सुगंध से नहीं। घृणा से, क्रोध से, हिंसा से, लेकिन प्रेम और प्रार्थना से नहीं। कोई तीन हजार वर्षों में आदमियों ने पंद्रह हजार युद्ध लड़े। ऐसा मालूम पड़ता है कि सिवाय युद्ध लड़ने के हमने और कोई काम नहीं किया। तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध बहुत होते हैं। प्रतिवर्ष पांच युद्धों की लड़ाई। और अगर किसी एक संबंध में विकास हुआ है, तो वह यही कि हमने आदमियों को मारने की कला में अंतिम स्थिति पा ली है।
आज जमीन पर कोई पचास हजार उदजन बम तैयार हैं। यह आश्चर्य की बात है कि पचास हजार उदजन बम जरूरत से बहुत ज्यादा हैं, सात गुने हैं। तीन अरब आदमी हैं, तीन अरब आदमियों को मारने के लिए सात गुनी तैयारी हमने कर रखी है। पच्चीस अरब आदमी हों तो इतने बम उनको भी मार सकेंगे सुविधा से। लेकिन एक-एक आदमी को हमने सात-सात बार मारने का इंतजाम किया है कि कोई भूल-चूक से बच न जाए। वैसे एक आदमी एक ही बार में मर जाता है, लेकिन शायद बच जाए तो दुबारा हम मार सकें। फिर भी बच जाए तो हमने सात बार मारने के इंतजाम कर रखे हैं। सरप्लस अरेंजमेंट है आदमी को मारने के लिए।
पचास हजार उदजन बम इतने बम हैं कि यह पृथ्वी बहुत छोटी है, इसे मिटाने के लिए वे बहुत ज्यादा हैं। हिरोशिमा और नागासाकी में जो एटम गिरा था, उस समय लोगों ने सोचा था--इससे खतरनाक और कोई ईजाद न हो सकेगी। लेकिन बीस ही साल में उदजन बम और सुपर बम्स ने एक अजीब हालत पैदा कर दी, और वह यह कि आज हिरोशिमा और नागासाकी में गिरा हुआ बम बच्चों का खिलौना हो गया, उसका कोई मूल्य ही नहीं रह गया। एक लाख आदमी एक बम ने मारे थे, वह अब बच्चों का खिलौना है। क्योंकि अब हमारे पास जो बम हैं, उनकी सीमा, उनकी शक्ति बहुत ज्यादा है। यह पूरे इतिहास में आदमी ने यही अर्जित किया है--विनाश और मृत्यु की इतनी तीव्र आकांक्षा ही अर्जित की है। तो शक होता है कि आदमी कहीं न कहीं बीमार है, अस्वस्थ है, रुग्ण है। स्वस्थ मनुष्य जीना चाहता है, अस्वस्थ मरना चाहता है।
और ध्यान रहे, जब मरने की आकांक्षा बहुत प्रबल हो या मारने की, तो उसका एक ही अर्थ होता है कि हमारा मन कहीं बीमार हो गया। कहीं कुछ साइकोपैथालाजिकल, कहीं कोई मनोरोग हमको पकड़े हुए है। जीने में आनंद कम हो गया है, मारने में, मिटाने में आनंद ज्यादा हो गया है। स्युसाइडल, आत्मघाती प्रवृत्ति मनुष्य की बढ़ती चली गई है। अब हम उस जगह हैं, जहां किसी भी दिन हम अपने को समाप्त कर ले सकते हैं।
आइंस्टीन से मरने के कुछ दिन पहले किसी ने पूछा था कि तीसरे महायुद्ध के संबंध में आपका क्या खयाल है? तो आइंस्टीन ने कहा था कि तीसरे के संबंध में मैं कुछ भी न कह सकूंगा, चौथे के संबंध में जरूर कुछ कह सकता हूं। उस आदमी ने पूछा, आप क्या बात कर रहे हैं? तीसरे के संबंध में नहीं कहेंगे तो चौथे के संबंध में कैसे कहेंगे? तो आइंस्टीन ने कहा, चौथे के संबंध में एक बात निश्चित कही जा सकती है कि चौथा महायुद्ध कभी नहीं होगा। क्योंकि तीसरे के बाद किसी आदमी के बचने की कोई उम्मीद नहीं है कि चौथा भी हो सके। लेकिन तीसरे के संबंध में कुछ भी कहना मुश्किल है।
यह जो हम मृत्यु के कगार पर आदमी को खींच कर ले गए हैं, इसके पीछे क्या कारण होगा?
सबसे पहली बात मुझे यह दिखाई पड़ती है कि आदमी के जीवन में आनंद, जिसको ब्लिस कहें, वैसे क्षण कम हो गए हैं। जीवन दुख की लंबी कहानी हो गया है। और अगर इतना दुख हो जीवन में तो एक अनिवार्य परिणाम पैदा होता है--दुखी आदमी दूसरे को भी दुख देने के लिए आतुर हो जाता है। और ठीक भी है, जो मेरे पास है वही मैं दूसरे को भी दे सकता हूं। यदि मैं दुखी हूं तो मैं दुख ही दे सकता हूं, और कोई उपाय भी नहीं है। और हम सब दुखी हैं। हमारे चेहरे पर दिखाई पड़ने वाली मुस्कुराहटें बहुत झूठी हैं। सच तो यह है कि हमने मुस्कुराहटों का आविष्कार भीतर के दुख को छिपाने के लिए ही किया हुआ है। हम ऊपर से हंसते रहते हैं, इससे यह भ्रम न पैदा हो जाए कि हम सुखी लोग हैं। सारी दुनिया में हंसी के कहकहे फूटते हैं।
एक बार ऐसा हुआ कि बुद्ध से एक सम्राट मिलने गया और उसने बुद्ध से पूछा, आप कभी हंसते भी हैं या नहीं?
तो बुद्ध ने कहा, अब भीतर दुख ही न रहा तो अब हंसी की भी कोई जरूरत न रही, क्योंकि हंसी दुख को छिपाने के लिए ही थी। हंसते थे ऊपर से ताकि भीतर का दुख भूल जाए।
नीत्शे से किसी ने पूछा था एक बार कि तुम बहुत हंसते हो, बहुत खुश मालूम होते हो।
नीत्शे ने कहा, यह बात ही मत छेड़ो। मैं इसलिए हंसता रहता हूं कि कहीं रोने न लगूं। फुर्सत नहीं रहनी चाहिए। अगर बाकी जगह मिल गई बीच में तो रोना आ सकता है। आंसू न आ जाएं, इसलिए हंसने में शक्ति और समय लगाता रहता हूं।
क्या आपको पता है कि जैसे-जैसे मनुष्य का दुख बढ़ा है, एक और अदभुत चीज बढ़ी है, वह है मनोरंजन के साधन। कभी आपने सोचा कि मनोरंजन के साधन दुखी आदमी ईजाद करता है। सुखी आदमी इतने सुख में होता है कि मनोरंजन के साधन की उसे जरूरत नहीं होती, वह सुखी होता है। साधन की जरूरत तब पड़ती है जब हम भीतर सुखी नहीं रह जाते। फिर शराब की जरूरत है, फिर सेक्स के नये-नये आविष्कार करने पड़ेंगे, फिर फिल्में खोजनी पड़ेंगी, फिर टी.वी. और रेडियो खोजना पड़ेगा, संगीत खोजना पड़ेगा। और ये भी धीरे-धीरे बासे हो जाएंगे, तो फिर मैस्कलीन है, मारिजुआना है, एल एस डी है, और कुछ खोजना पड़ेगा। लेकिन वे भी सब बासे हो जाते हैं, वे भी सब पुराने हो जाते हैं। आदमी का दुख इतना है कि वह सब तरह की हंसी की कोशिश के बाद भी उसे मिटा नहीं पाता, वह दुख अपनी जगह रह जाता है। और भीतर जब बहुत दुख घिर जाए, तो स्वभावतः हम दूसरों को दुख देने में रस लेने लगते हैं।
जब कोई आदमी आनंदित होता है, तो दूसरे को सुख देने में रस लेता है। असल में आनंदित आदमी की एक ही कसौटी है कि अगर आप दूसरे के सुख में सुखी हो सकें तो आप आनंदित आदमी हैं। और यदि आप दूसरे को सुखी करने में सुखी हो सकें, तो आप आनंदित आदमी हैं। और अगर आप दूसरे को दुख में देख कर रस पाते हों और दूसरे को सुख में देख कर दुख पाते हों, तो आप दुखी आदमी हैं।
बड़ी अदभुत है आदमी की मनोदशा! जब वह किसी को दूसरे को दुख में देखता है तो बहुत सहानुभूति प्रकट करता है, बहुत सिम्पैथेटिक मालूम होता है। और उससे ऐसा भ्रम पैदा होता है कि दूसरे के दुख में वह दुखी हो रहा है। लेकिन कभी आपने खयाल किया? जब कोई आदमी किसी के प्रति सहानुभूति प्रकट करता है तो उसकी आंखों में एक रस भी दिखाई पड़ता है कि वह बहुत आनंद भी ले रहा है। असल में दूसरे के प्रति सहानुभूति, सिम्पैथी दिखाने में भी एक बड़ा मजा है। क्योंकि जिसके प्रति हम सहानुभूति दिखाते हैं वह नीचा हो जाता है, हम ऊपर हो जाते हैं। लोग तलाश में रहते हैं कि कब आपको सहानुभूति दिखलाने का मौका मिले।
अगर आपके मकान में आग लग गई है तो लोग सहानुभूति दिखाने आएंगे। लेकिन ये वे ही लोग हैं कि अगर आपने बड़ा मकान बना लिया होता तो ईर्ष्या से भर गए होते। यह गणित बड़ा अजीब मालूम पड़ता है! जो लोग मकान के बड़े होने से ईर्ष्या से भरते थे, वे मकान के जल जाने से दुखी नहीं हो सकते। वे दुख दिखा रहे होंगे, दुख प्रकट कर रहे होंगे, लेकिन भीतर उनके दुख नहीं हो सकता। क्योंकि जब वे किसी के मकान को बड़ा होते देख कर खुश न हुए थे, तो छोटा होते देख कर दुखी कैसे हो सकते हैं?
मैं एक घर में ठहरता था। उन मित्र ने एक बहुत बड़ा मकान बनाया था। जब मैं उनके घर ठहरा था पहली बार, तो सुबह से सांझ तक वे घूम-फिर कर मकान को बीच में ले आते थे। कुछ भी बात होती, मकान बीच में आ जाता। कभी उनका स्विमिंग पूल बीच में आता, कभी उनके बाथरूम बीच में आते, कभी उनका बगीचा और लॉन बीच में आता। और तीन दिन वहां था, तो मुझे ऐसा लगा कि मुझे उन्होंने वहां अपने मकान के संबंध में बात करने के लिए बुलाया हुआ है। दुबारा भी ठहरा था एक बार, तब भी वही मकान की बातचीत चली थी। मुझे ऐसा लगा था कि शायद मकान ज्यादा महत्वपूर्ण है, मकान का मालिक बहुत कम महत्वपूर्ण है; क्योंकि अपने संबंध में उन्होंने कोई बात न की थी, मकान की ही बात की थी।
फिर तीसरी बार उनके घर मैं मेहमान हुआ, तो उन्होंने मकान की बात न उठाई। मैं तो पहले से ही डरा हुआ था कि अब मकान आया, अब मकान आया। लेकिन वह मकान नहीं आया, सांझ हो गई, रात होने लगी, तो मैंने उनसे पूछा कि मकान के संबंध में बात कब करिएगा?
तो उन्होंने कहा, छोड़िए, जाने दीजिए।
मैंने देखा नहीं था कि बात क्या है, पड़ोस में एक दुर्घटना हो गई थी, पड़ोस में एक और बड़ा मकान बन गया था। दूसरे दिन सुबह जब मैं उठा तब मुझे दिखाई पड़ा कि कारण क्या है। वे मेरे साथ बगिया में घूमते थे, मैंने कहा कि आप मकान की बिलकुल बात नहीं करते! वही मकान है, स्विमिंग पूल वही है, बगीचा और अच्छा हो गया है, फूल और ज्यादा खिल गए हैं।
उन्होंने कहा कि आप बात ही मत करिए मकान की। जब से यह पड़ोस में मकान बड़ा खड़ा हो गया है, मन बड़ा उदास हो गया है, बड़ा दुखी हो गया है। लेकिन कोई फिकर न करिए, वर्ष दो वर्ष में इससे भी बड़ा मकान खड़ा कर लेंगे। तब तक मकान की बात करनी ठीक नहीं।
मगर पड़ोस के मित्र मुझे बुला कर ले गए और उन्होंने मकान की बात की। मैंने कहा, कब तक जारी रखिएगा मकान की बात? पड़ोस में कोई बड़ा मकान बन जाए तो मुश्किल हो जाएगी।
हम दूसरे के सुख में जरा भी सुखी नहीं हो पाते हैं। इसलिए दूसरे के दुख में जब हम दुख दिखलाते हैं तो वह झूठा होता है, वह डिसेप्टिव होता है।
और हम हंसते चले जाते हैं। वे हंसियां हमने सब ऊपर से इकट्ठी कर ली हैं। हमने चेहरे बना लिए हैं। एक चेहरा हमारा असली है, जो हम भीतर दबाए रखते हैं। शायद जिसे हम भी न पहचानें, अगर मिल जाए। अगर वह आदमी, जो मैं असली में हूं, मिल जाए मुझे तो मैं भी न पहचानूं। क्योंकि इतने दिन से उससे मुलाकात नहीं हुई, कोई बात नहीं हुई। और एक चेहरा हमने बना रखा है।
मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि अगर एक कमरे में दो आदमी मिलते हों, तो दो आदमी नहीं मिलते, कम से कम छह आदमी मिलते हैं। अगर मैं आपसे किसी कमरे में मिल रहा हूं, तो एक तो मैं हूं जो मैं हूं, और एक वह रहेगा जो मैं आपको दिखला रहा हूं, और एक वह रहेगा जो आप मुझको समझ रहे हैं। और आप भी तीन, मैं भी तीन, छह आदमी की बातचीत चलेगी। और असली आदमी तो बहुत पीछे छूट जाएंगे, नकली आदमी आगे आकर बात करते रहेंगे।
न मालूम कितनी शक्लें हमने खड़ी कर रखी हैं जो झूठी हैं। लेकिन समाज रोज दुखी होता चला गया है।
असल में सुखी आदमी की एक ही शक्ल होती है, क्योंकि सुखी आदमी के पास छिपाने को कुछ भी नहीं होता। दुखी आदमी को बहुत शक्लें ईजाद करनी पड़ती हैं, क्योंकि अपना दुख छिपाना पड़ता है। उसे बताने का कोई अर्थ भी नहीं है। उसे किसी से कहने से कोई प्रयोजन भी नहीं होता।
एक यहूदी फकीर है लिएबमेन, उसने एक संस्मरण लिखा है। उसने लिखा है कि मैं सारे लोगों को देखता। रास्ते पर जो भी दिखाई पड़ता, हंसता हुआ दिखाई पड़ता। जो भी मिलता, मौज में िदखाई पड़ता। किसी से मैं पूछता कि कहिए, क्या हाल हैं? वह कहता कि सब ठीक है, बड़े आनंद हैं। और मैं भीतर देखता तो सिवाय दुख के कुछ भी न पाता। लोग, जिससे भी पूछो, तो वह कहता, बहुत मजे में हैं। एक अकेला मैं ही दुखी था, सारे लोग मजे में थे। तो मैंने एक दिन रात भगवान से प्रार्थना की कि मुझसे नाराजगी क्या है? सारे लोग खुश हैं। जिससे पूछो वही कहता है सब ठीक है। एक मैं ही गलत आदमी हूं, एक मैं ही परेशान हूं। तो मैं तुझसे ज्यादा नहीं मांगता, मैं तुझसे इतनी ही प्रार्थना करता हूं कि तू किसी भी अनजान आदमी का दुख मुझे दे दे और मेरा दुख उसे दे दे, मैं तैयार हूं। इस गांव में किसी भी आदमी का दुख लेने को मैं तैयार हूं। मेरा दुख बदल दे।
रात लिएबमेन ने एक सपना देखा। वह सपना बहुत अदभुत है। उसने सपना देखा कि रात जैसे उसकी प्रार्थना सुन ली गई है। और एक बहुत बड़ा भवन है और गांव भर में एक आवाज गूंजी है कि सब लोग अपनी-अपनी दुख की गठरियां बांध कर अपने-अपने कंधों पर लेकर उस भवन में पहुंच जाएं।
तो लिएबमेन तो सबसे पहले भागा। उसने सोचा कि शायद दूसरे तो पहुंचेंगे ही नहीं, क्योंकि उनके पास कोई दुख ही नहीं है, वे सब अच्छे हैं। लेकिन उसने देखा कि लोग उससे भी तेजी से भागे चले जा रहे हैं। जिनसे उसने सुबह पूछा था कि कहो, कैसे हो? और जिन्होंने कहा था कि अच्छे हैं। वे भी बड़े-बड़े गट्ठे लिए हुए भागे जा रहे हैं। उसे बड़ी हैरानी हुई! गांव में एक आदमी नहीं है, सारा गांव भागा है अपनी-अपनी गठरियां लेकर। उस भवन में सारे लोग पहुंच गए हैं। देख कर वह हैरान है। गांव का मेयर भी है, गांव का पुजारी भी है, गांव का संन्यासी, महात्मा भी है। सारे लोग हैं! सारे लोगों के पास दुख की गठरियां हैं! और बड़ी हैरानी यह कि जितनी बड़ी गठरी वह लिए हुए है, उससे छोटी गठरी किसी के पास दिखाई नहीं पड़ती!
फिर दूसरी आवाज हुई कि सारे लोग अपने-अपने दुख के गट्ठरों को खूंटियों पर टांग दें। सारे लोगों ने दौड़ कर अपनी-अपनी दुख की गठरियां खूंटियों पर टांग दीं। और फिर आवाज हुई कि अब जिसको जो गठरी चुननी हो वह अपनी चुन ले। लिएबमेन ने लिखा है कि मैं घबड़ा कर भागा--दूसरे की गठरी की तरफ नहीं, अपनी गठरी की तरफ--कि कोई और न उठा ले। क्योंकि कम से कम अपने दुख पहचाने हुए तो हैं। अनजान, अपरिचित लोगों के दुख, और गठरियां छोटी नहीं मालूम पड़तीं, बड़ी ही मालूम पड़ती हैं। उसने घबड़ाहट में दौड़ कर अपनी गठरी उठा ली कि कहीं कोई और न उठा ले। लेकिन वह और भी चकित हुआ, सबने अपनी-अपनी गठरियां उठा ली थीं! सभी ने दौड़ कर उठा ली थीं! क्योंकि सभी को यह डर लगा था कि कोई दूसरा न उठा ले। क्योंकि कल तक दूसरे की नकली शक्ल देखी थी। अपना दुख देखा था, दूसरे की हंसी देखी थी। आज वह सब झूठ हो गया था।
आदमी इतने दुख में है! और इसलिए हम एक-दूसरे को दुख देने के नये-नये रास्ते खोजते रहते हैं। रिलीजन के नाम पर खोज लेते हैं, धर्म के नाम पर खोज लेते हैं सताने के रास्ते, टार्चर करने के रास्ते। पॉलिटिक्स के नाम पर खोज लेते हैं, राजनीति के नाम पर खोज लेते हैं। हम कोई भी बहाने से किसी को सताने का रास्ता खोज लेते हैं। हमें आदमी को मारना है, तो आदमी को मारना बहुत मुश्किल पड़ेगा, हिंदू को मारना आसान है, मुसलमान को मारना आसान है। तो फिर हम हिंदू-मुसलमान होकर रास्ते खोज लेते हैं। हिंदू-मुसलमान न रह जाएं तो सिक्ख-हिंदू भी लड़ सकते हैं। सिक्ख-हिंदू न रह जाएं तो गुजराती-मराठी लड़ेगा। गुजराती-मराठी न रह जाएं तो उत्तर भारत और दक्षिण भारत के लोग लड़ेंगे। और कोई भी न रह जाए तो आप सोचते हैं शांति से आप घर में बैठ जाएंगे? पति-पत्नी लड़ेंगे। बाप-बेटे लड़ेंगे। गुरु-शिष्य लड़ेंगे।
लड़ाई चाहिए। दूसरे को दुख देने का उपाय चाहिए। दूसरे को सताने का, टार्चर करने की व्यवस्था चाहिए। और ऐसा नहीं है कि बुरे लोग ही सताते हैं दूसरों को। जिनको हम अच्छे लोग कहते हैं, वे भी अच्छे ढंग निकाल लेते हैं सताने के। अच्छे ढंग भी होते हैं।
अब एक महात्मा है, वह लोगों को समझा रहा है कि उपवास करो, क्योंकि भूखे मरे बिना परमात्मा न मिलेगा। अब वह लोगों को सताने के लिए अच्छा रास्ता खोज रहा है। बहुत रिलीजस टेक्नीक से वह लोगों को सताने जा रहा है। वह लोगों से कह रहा है: सिर के बल खड़े हो जाओ, क्योंकि पैर के बल खड़े होना ठीक नहीं है। सिर के बल खड़े होने से परमात्मा मिलता है।
अब परमात्मा ने यह गलती नहीं की, उसने आदमी को पैर के बल खड़ा किया। महात्मा समझा रहे हैं कि सिर के बल खड़े होने से मिलेगा। लेकिन जब सिर के बल कुछ नासमझ खड़े हो जाते हैं, तो महात्मा सुखी होना शुरू हो जाता है। उसने दूसरों को दुख देना शुरू कर दिया। उसने टार्चर करने के रास्ते खोज लिए। जिनको हम अच्छे लोग कहते हैं, वे भी सताते हैं। हां, उनका सताना थोड़ा खतरनाक होता है। क्योंकि वे अच्छे कारणों से सताते हैं। वे आपके हित में ही आपको सताते हैं। तब बड़ी मुश्किल हो जाती है।
हिटलर से बचना बहुत आसान है। गांधी से बचना बहुत मुश्किल है। क्योंकि हिटलर तो सीधा दुश्मन की तरह सताता है। गांधी तो आपके हित में सताते हैं। हिटलर आपकी छाती पर छुरा रख देता है। गांधी अपनी छाती पर छुरा रख लेते हैं। वे कहते हैं, मैं मर जाऊंगा अगर मेरी न मानी। इसको वे अहिंसा कहते हैं।
दूसरे को मारना हिंसा है, अपने को मारना अहिंसा कैसे हो जाएगा? अगर मैं आपकी छाती पर छुरा रख कर कहूं कि मेरी बात मान लें, तो यह हिंसा है और क्रिमिनल एक्ट है। और मैं अपनी छाती पर छुरा रख कर कहूं कि मैं मर जाऊंगा, आग लगा कर जल जाऊंगा, तो मैं महात्मा हो जाऊंगा। यह भी क्रिमिनल एक्ट है, यह भी हिंसा है। लेकिन यह अच्छे ढंग की हिंसा है, इसमें दूसरे आदमी को हम बड़ी तरकीब से सता रहे हैं। अगर मैं आपके दरवाजे पर बैठ जाऊं और कहूं कि भूखा मर जाऊंगा अगर मेरी बात न मानी, तो मेरी बात गलत हो तो भी मेरी यह जो अच्छे ढंग की हिंसा है यह आपको मजबूर कर देगी, आपको सता डालेगी।
बुरे आदमी सता रहे हैं, अच्छे आदमी सता रहे हैं। हम सब एक-दूसरे को सताने में लगे हुए हैं। और हमने ऐसी तरकीबें खोज रखी हैं कि पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि हम कैसे-कैसे सता रहे हैं। अगर आप किसी एक स्त्री को प्रेम करते हैं, तो आप बहुत जल्दी उसे सताना शुरू कर देते हैं। एक स्त्री अगर आपको प्रेम करती है, तो बहुत जल्दी, पता नहीं चलता, कब उसने आपको सताना शुरू कर दिया। हम एक-दूसरे की गर्दन को दबा लेते हैं। जिन्हें हम प्रेम करते हैं, उनकी गर्दन पर भी फांसी बन जाते हैं।
बेटों को बाप सता लेते हैं, जब वे छोटे होते हैं। बच्चे कमजोर होते हैं, बाप ताकतवर होते हैं। लेकिन बहुत जल्दी नाव उलट जाएगी, बच्चे ताकतवर हो जाएंगे, बाप बूढ़े हो जाएंगे। फिर बच्चे सताना शुरू कर देंगे। बुढ़ापे में बच्चे सता रहे हैं, क्योंकि अब वे ताकतवर हो गए हैं। बाप ने सता लिया है जवानी में। बच्चे कमजोर थे, सताना आसान था। जब जो सता सकता है, एक-दूसरे को सता रहा है। हम सब एक-दूसरे को परेशान कर रहे हैं। कुछ लोगों ने तो खोज की है कि सताने वाले नये-नये रास्ते खोजते रहते हैं।
औरंगजेब ने अपने बाप को बंद कर दिया था। और जब बाप को उसने लाल किले में बंद कर दिया तो दस-पांच दिन के बाद बाप ने उसे खबर भेजी कि यहां अकेले में मेरा मन नहीं लगता है, अगर तुम तीस लड़के मुझे दे दो तो मैं उन्हें पढ़ाने का काम करूं तो मेरा मन लग जाए।
औरंगजेब ने अपनी आत्मकथा में लिखवाया है कि मेरे बाप को दूसरों को सताने के बिना इतना बेमानी लगता था जीना कि उसने तीस लड़के मांग लिए, उनके बीच डंडा लेकर वह बादशाह बन कर बैठ गया और उनको सताना शुरू कर दिया, उनको शिक्षा देने लगा।
इस संबंध में बहुत खोज-बीन चलती है कि बहुत से लोग जो धंधा चुनते हैं, उस धंधे में भी उनकी वृत्ति काम करती है। वे सताने का धंधा चुन सकते हैं, सताने की व्यवस्था चुन सकते हैं।
यह जो आदमी है दुख से भरा हुआ, यह जो आदमी एक-दूसरे को सताए चला जा रहा है और जिसने इस सारी पृथ्वी को नरक बना दिया है...ऐसा कि मैंने सुना है कि एक आदमी मरा। उसकी पत्नी एक प्रेतात्मविद के पास गई, एक भूत-प्रेत बुलाने वाले के पास गई। और उसने कहा कि मैंने सुना है कि तुम प्रेतात्माओं से बात करवा देते हो। मैं जरा अपने पति के संबंध में खबर लेना चाहती हूं। तो उसने उसके पति की आत्मा को बुलाया। उसकी पत्नी ने पूछा कि आप मजे में तो हैं?
उसने कहा, मैं बहुत ही बहुत मजे में हूं, एकदम आनंद में हूं।
तो उसकी पत्नी ने कहा, और स्वर्ग के संबंध में और कुछ खबरें बताओ!
उसने कहा, स्वर्ग? तुम गलत समझीं, मैं नरक में आ गया हूं।
उसकी स्त्री ने कहा कि नरक में हो और मजे में हो?
तो उसने कहा, अब पृथ्वी से नरक बहुत सुंदर और स्वस्थ और शांत और आनंदपूर्ण है। अब पृथ्वी से नरक बहुत सुखद है। मैं तो तुलना में कह रहा हूं कि जहां से आया हूं मर कर वहां से नरक बहुत सुखद है। स्वर्ग का मुझे कोई पता नहीं। मैं नरक में आया हुआ हूं। लेकिन मैं तुझे खबर कर दूं कि नियम बदल गए हैं। पहले जो लोग पृथ्वी पर गुनाह करते थे वे नरक भेज दिए जाते थे, अब नरक में जो लोग गुनाह करते हैं वे पृथ्वी पर भेज दिए जाते हैं।
यह जो इतने दुख से भरा हुआ मनुष्य है, इसमें कैसे फूल खिलें? इसकी जिंदगी में आशीर्वाद कैसे प्रकटे? इसके जीवन में आनंद की झलक कैसे आए? किरण कैसे आए?
और अगर आनंद की झलक न आ पाए, तो आदमी जीया और न जीया बराबर हो गया। जीना और न जीना बराबर हो गया। और अगर आनंद की झलक न आ पाए तो जीवन से जो हमें मिल सकता था, वह हम ले ही न पाए। पौधा लगा जरूर, लेकिन फूल न खिले। दीया ले आए घर में जरूर, लेकिन कभी उसमें ज्योति न जली। एक वीणा खरीद ली और घर में टिका दी, लेकिन कभी उसके तारों पर हाथ न गए और कभी संगीत पैदा न हुआ।
बहुत लोग ऐसे ही हैं, जिन्होंने अपने घरों में वीणा को रख लिया है, लेकिन उससे कभी संगीत पैदा नहीं होता।
वीणा अकेली संगीत पैदा नहीं कर सकती है। और जन्म ले लेना काफी नहीं है, जन्म के बाद एक और जन्म भी चाहिए। जन्म के बाद एक और नया जन्म भी चाहिए। एक जन्म तो मिलता है मां-बाप से और एक जन्म स्वयं अपने को देना पड़ता है। जन्म के साथ जीवन नहीं मिलता, सिर्फ वीणा मिलती है, संगीत नहीं मिलता। संगीत तो सीखना पड़ता है।
लेकिन एक बहुत दुर्घटना की बात है कि आदमी और सब सीखता है, सिर्फ जीवन नहीं सीखता। गणित सीखेगा; गणित के बिना भी चल सकता है। भूगोल सीखेगा; भूगोल के बिना भी चल सकता है। केमिस्ट्री और फिजिक्स सीखेगा; उनके बिना भी चलता रहा है। सब सीख लेगा, जिंदगी में जो भी है, सब सीख लेगा, एक चीज भर छोड़ देगा--जिंदगी कैसे जी जाए? आर्ट ऑफ लिविंग, उतना भर छोड़ देगा। उसके लिए कोई स्कूल नहीं, कोई विद्यालय नहीं, कोई शिक्षक नहीं। उसमें कोई उत्सुक ही नहीं।
उसका कारण है कि हमने यह मान लिया है कि जीवन हमें मिल ही गया, अब और क्या करना है? वीणा घर ले आए, अब संगीत के लिए और क्या करना है? वीणा तो मिल गई, तो संगीत भी मिल गया।
वीणा में संगीत नहीं है। वीणा केवल अवसर बन सकती है संगीत के जन्म का। जन्म में जीवन नहीं है, जन्म केवल अवसर बन सकता है जीवन को खिलने का। जीवन के संगीत को तो सीखना पड़ेगा, अलग से ही सीखना पड़ेगा। वह कला अलग से ही हमें सीखनी पड़ेगी।
मेरी दृष्टि में, जिसे मैं धर्म कहता हूं, वह धर्म ज
ीवन की कला है, वह आर्ट ऑफ लिविंग है। लेकिन जिसे हम आज तक धर्म कहते हैं, वह तो जीवन की कला नहीं मालूम होता, बल्कि वह तो ऐसा मालूम पड़ता है कि जीवन से हारे हुए लोग, जीवन से चूक गए लोग, जीवन को खो चुके लोग, रुग्ण, बीमार, विक्षिप्त, ऐसे लोग जीवन की निंदा कर रहे हैं उस धर्म में। अब तक जिसे हमने धर्म कहा है, वह बहुत गहरे में जीवन की निंदा है, कंडेमनेशन है, जीवन का विरोध है। वह लाइफ निगेटिव है, लाइफ अफरमेटिव नहीं है। जिसे हम अब तक धर्म कहते रहे हैं, दस-पांच लोगों को छोड़ दें मनुष्य के इतिहास में--कोई एक कबीर, कोई एक नानक, कोई एक बुद्ध, कोई एक कृष्ण, कोई एक क्राइस्ट-- आदमी की अंगुलियों पर नाम गिन जाएं, उनको छोड़ दें। उनको छोड़ कर बाकी जो भी हमें धर्म दिखाई पड़ता है--मंदिर वाला, मस्जिद वाला, कुरान वाला, गीता वाला--वे सब के सब धर्म मनुष्य के जीवन की निंदा कर रहे हैं। और जब धर्म जीवन की निंदा करते हों, तो वे जीवन को जीने की कला क्यों सिखाएं? जब धर्म निंदा करते हों, तो वे जीवन से मुक्त होने की कला सिखाते हैं। वे कहते हैं कि मरो कैसे। वे कहते हैं कि असली चीज मरने के बाद है, मौत के बाद है।
अब तक के हमारे सारे धर्म, पृथ्वी को बदलने की, पृथ्वी को ट्रांसफार्म करने की फिकर में नहीं हैं। वे कहते हैं कि पृथ्वी तो बेकार है, असार है। जीवन, असली जीवन तो मरने के बाद है। किसी स्वर्ग में, किसी मोक्ष में, किसी बैकुंठ में, वहां असली जीवन है। यह जीवन तो एक सराय है, यह जीवन तो एक वेटिंग रूम है स्टेशन का, वहां हम थोड़ी देर बैठे हैं, हमारी ट्रेन आएगी और हम चले जाएंगे।
अब आप वेटिंग रूम में कभी ध्यान किए हैं? वेटिंग रूम को देख कर पता चलता है कि हर आदमी वहां बैठ कर उसे गंदा कर रहा है--छिलके फेंक रहा है, थूक रहा है, पान फेंक रहा है। और अगर उससे कहिए, तो वह कहेगा: यह वेटिंग रूम है, कोई हमारा घर है! दो मिनट यहां हैं और चले जाएंगे। उसके पीछे आने वाला भी यही करेगा; उससे आगे आने वाला भी यही करेगा। तो वेटिंग रूम अगर गंदगी बन जाए तो आश्चर्य तो नहीं है। और वेटिंग रूम में अगर दुर्गंध उठने लगे और वहां बैठना मुश्किल हो जाए तो आश्चर्य तो नहीं है।
पिछले पांच हजार वर्षों से निरंतर, जिसको हम धर्मगुरु कहते हैं, पुरोहित कहते हैं, पंडित कहते हैं, वह जीवन को कह रहा है: यह एक सराय है, यह एक वेटिंग रूम है। इसे छोड़ कर जाना है। इसे सुंदर बनाने की कोई जरूरत नहीं है। यह सुंदर बन भी नहीं सकता। वह यह भी कह रहा है कि यहां सुख संभव ही नहीं है, यहां दुख ही संभव है। यहां सुख मिल ही नहीं सकता।
और ध्यान रहे, अगर पांच हजार साल तक निरंतर इस बात का प्रचार किया जाए कि जीवन में सुख मिल ही नहीं सकता, तो सुख मिलना बंद हो जाएगा। इसलिए नहीं कि जीवन में सुख नहीं मिल सकता, बल्कि इसलिए कि पांच हजार वर्ष के प्रचार का परिणाम होता है।
मैंने सुना है कि एक अमेरिकी विश्वविद्यालय में एक मनोवैज्ञानिक एक छोटा सा प्रयोग कर रहा था। वह यह जानना चाहता था कि प्रचार का क्या परिणाम होता है? उसने गणित की एक कक्षा में, एम.ए. की मैथेमेटिक्स की एक क्लास को, जहां कोई पचास लड़के थे, दो हिस्सों में बांट दिया। पच्चीस लड़कों को एक कमरे में ले गया, पच्चीस को दूसरे में ले गया।
पहले नंबर के पच्चीस के समूह को, तख्ते पर उसने एक सवाल लिखा। सवाल लिखने के पहले उसने कहा कि सुन लो ठीक से, यह सवाल तुमसे हो नहीं सकेगा। जो लड़के आगे रीढ़ झुका कर बैठ कर देख रहे थे कि तख्ते पर क्या है, वे अपनी कुर्सियों से टिक गए। जब हल ही नहीं हो सकेगा तो बात खतम हो गई! और उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि जो हल न हो सकेगा तो दे किसलिए रहे हैं? तो उस प्रोफेसर ने कहा कि दे रहा हूं सिर्फ इसलिए कि मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या पचास में से तुममें से कोई एकाध युवक भी ठीक दिशा में भी शुरू कर सकता है? हल तो हो नहीं सकता, लेकिन राइट मेथड की शुरुआत भी अगर कोई कर दे तो वह भी चमत्कार है। क्योंकि बड़े-बड़े गणितज्ञ हार गए, यह सवाल हल होने वाला सवाल नहीं है। वह सवाल लिखता कम है, समझाता ज्यादा है कि यह हल होने वाला सवाल नहीं है। वह आधा सवाल लिखता है और फिर कहता है कि तुम ज्यादा परेशान मत होओ, यह हल होगा नहीं, यह हल हो सकता नहीं। यह सवाल बहुत ही कठिन है। शायद दुनिया में आइंस्टीन जैसे एकाध-दो लोग कोई इसे हल कर सकते। लेकिन अब आइंस्टीन भी मर गया है, अब कुछ आशा नहीं है। तुम कोशिश करो।
उन लड़कों ने कलमें उठाई हैं, लेकिन कलमों के साथ उनकी आत्मा नहीं रह गई है। हाथ हैं सिर्फ, आत्मा तो पीछे हट गई है। क्योंकि जो हल ही नहीं हो सकता हो तो चित्त ने साथ छोड़ दिया। वे सवाल हल कर रहे हैं, जानते हुए कि हल नहीं हो सकता।
वह उन्हें छोड़ कर दूसरे कमरे में गया है। वही सवाल उसने बोर्ड पर लिखा है। और उन लड़कों से उसने कहा है कि यह सवाल बहुत सरल है। मैं आशा नहीं करता कि तुममें एक भी विद्यार्थी होगा जो इसे हल न कर पाए, सभी हल कर लेंगे। जो कुर्सियों से टिक कर बैठे थे, वे भी आगे सरक आए। लेकिन एक युवक ने पूछा कि जब सभी हल कर लेंगे तो दे किसलिए रहे हैं? तो उसने कहा, हम सिर्फ यह जानना चाहते हैं कि क्या एकाध विद्यार्थी इस कक्षा तक भी ऐसा आ गया है जिससे यह सवाल हल न हो पाए? इससे नीचे की कक्षाओं में लड़कों ने यह सवाल हल कर लिया है। सिर्फ यह जानना चाहते हैं कि क्या कोई एकाध लड़का ऐसा भी आ गया है जिससे इतना सरल सवाल न बन सके?
वे भी सवाल हल करने में लग गए हैं। उनकी आत्माएं पूरी उनके साथ हैं।
और बड़ी अदभुत बात हुई: उस पहली कक्षा में पच्चीस में से केवल तीन विद्यार्थी कर पाए, बाईस विद्यार्थी नहीं कर पाए; और दूसरी कक्षा में से तेईस विद्यार्थी कर पाए, सिर्फ दो विद्यार्थी नहीं कर पाए। यह इतना बड़ा फर्क कैसे पैदा हुआ? ये एक ही कक्षा के विद्यार्थी हैं और एक सा सवाल है।
पांच हजार साल से निरंतर मनुष्य को समझाया जा रहा है: जीवन दुख है, जीवन असार है, जीवन पाप का फल है, जीवन से छूट जाना है, मुक्त हो जाना है, किसी भांति अब दुबारा जीवन में नहीं आना है।
रवींद्रनाथ मर रहे थे। तो एक मित्र ने जाकर रवींद्रनाथ से कहा कि अब छोड़ो ये कविताएं! वे मरते वक्त भी लिख रहे थे। कहा, छोड़ो ये कविताएं! क्यों अपना समय गवां रहे हो? अब तो भगवान से प्रार्थना करो कि दुबारा जन्म न मिले।
रवींद्रनाथ ने कहा कि ऐसी प्रार्थना मैं न कर सकूंगा। क्योंकि मैंने तो उसके जीवन में इतना आनंद जाना, इतना संगीत, इतना सौंदर्य कि मैं एक ही प्रार्थना करता रहूंगा मरते वक्त कि अगर मुझे अयोग्य न पाया हो, तो एक बार और जीवन में भेज देना। अगर अयोग्य ही पाया हो तब बात अलग है। तेरा जीवन बहुत अदभुत था। तो मरते क्षण में परमात्मा को धन्यवाद देता हुआ मरूंगा कि तूने मुझे एक मौका दिया! अपात्र को, जिसकी कोई हैसियत न थी कि क्यों जीवन में आए, उसे भी तूने जीवन दिया! और अगर तूने थोड़ा भी पाया हो कि मेरी योग्यता है कुछ, तो एक मौका और देना। यही प्रार्थना करते हुए मरूंगा।
निश्चित ही रवींद्रनाथ जीवन को और तरह से ले रहे हैं। लेकिन पांच हजार साल के इतिहास में धर्मगुरुओं ने जीवन को निंदा के स्वर में ही लिया है, उसका विरोध ही किया है, उसे किसी तरह नष्ट कर डालने की ही बात की है।
इसका परिणाम हुआ। आज जो मनुष्य इतना दुखी है, उसमें इन सबकी शिक्षाओं का हाथ है। इसके दो परिणाम हुए। एक तो यह हुआ कि हमने यह स्वीकार कर लिया कि जीवन दुख है। और जब हमने यह स्वीकार कर लिया कि जीवन दुख है, तो हमने सुख के द्वार खोलने की यात्रा बंद कर दी, हमने सुख की खोज बंद कर दी। ज्यादा से ज्यादा एक ही रास्ता रह गया: जीवन दुख है तो ज्यादा से ज्यादा दुख को भूलने का उपाय कर लो, इतना काफी है। शराब पी लो तो दुख भूल जाता है, मिटता नहीं। सिनेमा देख लो, एक नर्तकी का नृत्य देख लो, तो थोड़ी देर के लिए दुख भूल जाता है, मिटता नहीं। ये जरा बुरे ढंग के भुलावे हैं। अच्छे ढंग के भुलावे हैं: भजन-कीर्तन करो, झांझ-मजीरा पीटो, नाचो-चिल्लाओ। उसमें भी दुख भूल जाता है, मिटता नहीं है। तो आदमी ने अच्छे और बुरे ढंग के नशे खोजे हैं। क्योंकि हमें एक बात तो पक्की हो गई है कि जीवन में आनंद असंभव है, जीवन में आनंद हो ही नहीं सकता।
मैंने एक कहानी सुनी है, पता नहीं कहां तक सच है। मैंने सुना है, स्वर्ग के एक रेस्तरां में एक दिन तीन बड़े अजीब लोगों का मिलना हो गया। बुद्ध, कनफ्यूशियस और लाओत्से, वे तीनों एक दिन स्वर्ग के एक रेस्तरां में मिल गए। पता नहीं यह कहां तक सच है। पता नहीं किसी पुराण में अभी तक यह बात लिखी गई या नहीं लिखी गई। और जब वे तीनों एक टेबल के किनारे बैठ कर गपशप करने लगे, तो एक अप्सरा हाथ में जीवन-रस को भरे हुए एक कलश ले आई। और उसने बुद्ध के पास आकर कहा, जीवन-रस लाई हूं, चखेंगे?
बुद्ध ने फौरन आंख बंद कर ली। उन्होंने कहा, व्यर्थ है, असार है; कुछ अर्थ नहीं, कुछ सार नहीं। आंख ही बंद कर ली।
कनफ्यूशियस ने आधी आंख खुली रखी, आधी बंद रखी। क्योंकि वह गोल्डन मीन को मानता था, मध्य, कभी भी एक्सट्रीम पर नहीं जाना। न पूरी आंख खोलना और न पूरी बंद करना। उसने आधी आंख से धीरे से देखा और कहा कि चख कर देख लेता हूं, पीऊंगा नहीं। क्योंकि पीना एक अति हो जाएगी, नहीं चखूंगा तो भी एक अति हो जाएगी। चखे लेता हूं। उसने चखा और कहा, बेस्वाद है।
लाओत्से ने पूरी की पूरी सुराही हाथ में ले ली और पी गया। और जब वह पूरा पी गया तो नाचने लगा। उससे पूछा कि कैसा लगा जीवन? लाओत्से ने कहा, बिना पूरा पीए पता नहीं चल सकता। और बुद्ध से उसने कहा, तुमने आंख ही बंद कर ली, तो तुम्हारा निर्णय सही नहीं हो सकता। क्योंकि बिना जाने आंख बंद कर ली। कनफ्यूशियस से कहा, तुमने सिर्फ चखा। और जब तक जीवन नसों में न पहुंच जाए, खून न बन जाए और रग-रग, रेशे-रेशे में न दौड़ने लगे तब तक पता कैसे चलेगा? जीभ से चखने से कुछ पता चलने वाला है? जीभ तो द्वार है, तुमने द्वार से ही लौटा दिया। और लाओत्से नाच रहा है और वह यह कह रहा है कि पूरे जीवन को पी लो तो जीवन का आनंद उपलब्ध होता है।
लेकिन लाओत्से जैसी बात कहने वाले लोग पृथ्वी पर बहुत कम हुए हैं। पृथ्वी पर जिन लोगों ने शिक्षाएं दीं, वे वे लोग हैं जो जीवन के विरोध में खड़े हैं।
कुछ कारण है, उनके जीवन के विरोध में खड़े होने का भी कुछ कारण है। कारण यही है कि उन्होंने वीणा को संगीत समझ लिया। फिर वीणा से संगीत पैदा न हुआ। उन्होंने कहा, तोड़ दो, किसी मतलब की नहीं है।
लेकिन उन्हें यह खयाल ही नहीं है कि वीणा संगीत पैदा नहीं करती। वीणा सिर्फ संगीत को पैदा करने के लिए मौका बन सकती है। संगीत उतर सकता है। कुछ और भी करना पड़ेगा।
जीवन को अगर हमने मान लिया कि मिल गया जन्म के साथ, तो भूल हो गई। इस भूल को तोड़ देने की जरूरत है। और अगर यह भूल टूट जाए किसी के जीवन में, तो जीवन में इतना आनंद है कि जिसका हिसाब लगाना और जिसकी गणना करना और जिसे तौलना असंभव है। और जीवन के आनंद को जो अनुभव करता है, वही परमात्मा को भी अनुभव कर पाता है। क्योंकि परमात्मा यानि जीवन की गहराई। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है कि कहीं बैठा है और कभी आपको मिला जाएगा। जीवन की जितनी गहराई में हम उतर जाते हैं, उतना हम परमात्मा के निकट हो जाते हैं। जीवन से जितने दूर हम खड़े रह जाते हैं, उतने ही परमात्मा से दूर रह जाते हैं।
अब यह बड़ी उलटी बात है कि सारे धर्मों ने हमें जीवन से दूर रखा, परिणामतः हमें परमात्मा से भी दूर रखा है। यह बात उलटी मालूम पड़ सकती है कि हमारे सारे महात्मा किसी न किसी अर्थों में परमात्मा के दुश्मन सिद्ध हुए हैं। क्योंकि वे यह कहते हैं: जीवन को जीओ ही मत। जीवन को जीना भी गुनाह है। भागो, जीवन से बचो, एस्केप करो। इसलिए जहां-जहां जीवन हो, वहां-वहां से भाग जाओ। जहां-जहां जीवन में गहरे उतरने का द्वार दिखे, वहां-वहां से भागो, वहां रुकना मत। कहीं जीवन बुला न ले, कहीं जीवन आमंत्रण न दे दे। इसलिए जंगल में भगाया है धर्मों ने, मनुष्यों को मनुष्यों से तोड़ा है, पत्नियों को पतियों से तोड़ा है, बेटों को बाप से तोड़ा है, बाप को बेटों से तोड़ा है, धर्म ने जीवन से तोड़ने के सारे उपाय किए हैं आदमी को।
जब कि मेरी समझ में सच्चा धर्म जीवन से जोड़ेगा, तोड़ेगा नहीं। क्योंकि अगर कहीं कोई परमात्मा है, तो निश्चित ही वह मृत्यु की शक्ल में नहीं हो सकता, वह जीवन की शक्ल में ही हो सकता है। और कहीं अगर कोई परमात्मा है, तो हम उसे अपनी जीवन-धारा की गहराई में उतर कर ही पहचान सकते हैं, अपनी ही नसों में उसे बहता हुआ अनुभव कर सकते हैं, अपनी ही श्वासों में उसे डोलता हुआ अनुभव कर सकते हैं, अपनी ही आंखों से उसे देखता हुआ अनुभव कर सकते हैं और अपने ही हाथों से उसे प्रेम करता हुआ जान सकते हैं। अगर किसी दिन परमात्मा से कोई मिलना होगा, तो वह जीवन की विराट धारा की तरह होता है। वह कहीं बैठे हुए किसी सिंहासन पर...हमने राजाओं की शक्लों में परमात्मा को गढ़ लिया है, बिठा दिया है सिंहासनों पर और मुकुट बांध दिए हैं। कहीं ऐसा कोई परमात्मा नहीं है। ऐसा कहीं कोई परमात्मा नहीं है जो हमें मिल जाएगा और हाथ जोड़ कर हम उसके द्वार पर खड़े हो जाएंगे और वह हम पर कृपा कर देगा। परमात्मा हमारे भीतर चौबीस घंटे बह रहा है। हम परमात्मा की लहरें हैं।
लेकिन लहर अगर गहरे में चली जाए तो सागर हो जाती है, क्योंकि लहर के नीचे सागर मौजूद है। और लहर अगर बाहर ही देखती रहे तो लहर ही रह जाती है, फिर वह सागर नहीं हो पाती।
कभी सागर के किनारे जाकर देखें, तो लहरें दिखाई पड़ती हैं, सागर दिखाई नहीं पड़ता। आपने कभी सागर देखा? नहीं देखा। सागर तो दिखाई पड़ता ही नहीं, लहरें ही दिखाई पड़ती हैं। लहरें ही दिखाई पड़ती हैं, सागर तो दिखाई पड़ता नहीं; सागर तो गहरे में छिपा है, ऊपर तो लहरें हैं। और लहरें भी अगर देख सकती हों अपने बाहर, तो लहरें भी समझती होंगी--पड़ोस की लहर मुझसे अलग है। क्योंकि जब पड़ोस की लहर उठती है तब मैं गिर रही हूं और जब मैं उठती हूं तब पड़ोस की लहर गिर जाती है, तो हम दोनों एक नहीं हो सकते। पड़ोसी मर जाता है, मैं जिंदा हूं, तो हम दोनों एक कैसे हो सकते हैं? अभी पड़ोसी जवान है और मैं बूढ़ा हूं, तो हम दोनों एक कैसे हो सकते हैं? पड़ोसी स्वस्थ है, मैं बीमार हूं, तो हम दोनों एक कैसे हो सकते हैं? अगर एक लहर भी अपने चारों तरफ देखती होगी, तो कोई लहर गिरती है, कोई उठती है, तो कैसे मान सकती है कि ये सब लहरें एक हैं?
नहीं, लहर कभी नहीं मानेगी, लहर नहीं मान सकती कि हम एक हैं। लहर कहेगी, मैं अलग हूं। और लहर अगर सागर को खोजने निकल जाए तो मुश्किल में पड़ जाएगी। वह अगर पूछने लगे चांद-तारों से कि सागर कहां है? पूछने लगे किनारे पर खड़े हुए दरख्तों से, पूछने लगे लोगों से कि सागर कहां है? तो लहर मुश्किल में पड़ जाएगी। क्योंकि सागर लहर के भीतर है, सागर लहर के नीचे है।
बड़े मजे की बात है, सागर तो बिना लहर के हो सकता है, लहर बिना सागर के नहीं हो सकती। लहर सिर्फ एक हिस्सा है, सागर की छाती पर उठ गया हिस्सा है, और कुछ भी नहीं। अभी गिर जाएगा, सागर हो जाएगा।
हम सब भी लहरें हैं अस्तित्व के सागर में; परमात्मा के सागर में हम सब भी लहरें हैं। कहां खोज रहे हैं हम परमात्मा को? जिसे हम खोज रहे हैं वह हमारे भीतर हर घड़ी मौजूद है। लेकिन धर्मों ने एक झूठा परमात्मा खड़ा किया है, जिसे खोजना पड़ता है। वह हमारे भीतर नहीं, वह हम सबके साथ मौजूद नहीं, वह कहीं दूर है, उसके लिए यात्रा करनी पड़ती है।
निश्चित ही कुछ कारण है। अगर परमात्मा इतना निकट है जितना सागर और लहर, अगर परमात्मा इतना ही निकट है, तो फिर धर्मगुरु की बीच में कोई जरूरत न रह जाएगी। बीच के एजेंट और दलालों को विदा कर देना पड़ेगा। दलाल की जरूरत होती है जब दूर से संबंध बनाने पड़ते हैं। तब बीच में मीडियम की जरूरत पड़ती है। परमात्मा और आदमी के बीच में पुरोहित को खड़े होने की जगह नहीं है, इतनी भी जगह नहीं है। वह लहर और सागर के बीच में कहां पुरोहित को खड़ा करिएगा? वहां कहीं कोई जगह नहीं है। और अगर पुरोहित बीच में खड़ा हो गया, तो सागर और लहर को जोड़ेगा नहीं, तोड़ेगा। अगर बीच में, सागर और लहर के बीच में कोई पुरोहित खड़ा हो गया, तो सिर्फ लहर को सागर से तोड़ेगा, जोड़ेगा नहीं। क्योंकि बीच में कोई भी चीज तोड़ेगी, जोड़ेगी कैसे?
परमात्मा और आदमी के बीच पुरोहित ने तोड़ने वाले का काम किया है, जोड़ने वाले का काम नहीं किया। क्योंकि यहां इतनी ही निकटता है जितनी सागर और लहर की है। लेकिन हम उसे कहीं और खोज रहे हैं। दूर खड़ा किया है। क्योंकि अगर दूर न हो परमात्मा तो कौन पूछेगा मार्ग? अगर दूर न हो परमात्मा तो कौन पूछेगा विधि? कौन पूछेगा साधन? अगर दूर न हो परमात्मा तो गुरु कौन बनाएगा? अगर दूर न हो परमात्मा तो गाइड कौन खोजेगा? परमात्मा को दूर रखना एकदम जरूरी है, अन्यथा बीच से सारा व्यवसाय, सारा धंधा खो जाएगा। पुरोहित का ट्रेड सीक्रेट जो है, उसका जो राज है धंधे का, वह यही है कि परमात्मा को दूर रखो। और परमात्मा निकट है, इसलिए झूठा परमात्मा ही दूर हो सकता है, उसे खड़ा कर लिया गया है। फिर निश्चित ही हजार तरह के पुरोहित हैं, इसलिए हजार तरह के परमात्मा हैं। हिंदू का अपना परमात्मा है, मुसलमान का अपना है, ईसाई का अपना है।
अब परमात्मा भी इतने! इतने प्रकार के!
मैंने सुना है, एक फकीर हुआ, अबी यजीद। वह एक रात सोया। वह रात सोया तो उसने एक स्वप्न देखा। बहुत दिन से चाहा था कि कभी परमात्मा की नगरी में पहुंच जाए, तो वह पहुंच गया। वह परमात्मा की नगरी में पहुंच गया है। बड़े दीये जले हैं, बड़ी रोशनी है, बड़े फुलझड़ी और पटाखे फूट रहे हैं। उसने पूछा कि क्या है? तो किसी ने कहा, आज परमात्मा का जन्मदिन है। उसने कहा, बड़ा अच्छा हुआ। हजारों-लाखों लोग सड़क से निकल रहे हैं। उसने कहा कि परमात्मा की शोभा-यात्रा, प्रोसेशन निकलने वाला है। वह भी किनारे खड़ा हो गया है।
सबसे पहले एक बहुत बड़े रथ पर सवार एक बहुत महिमावान व्यक्ति दिखाई पड़ा। उसने पड़ोस में खड़े हुए लोगों से पूछा, क्या यही परमात्मा हैं? तो पड़ोस के लोगों ने कहा, नहीं, ये ईशु मसीह हैं। परमात्मा नहीं हैं ये, ये जीसस क्राइस्ट हैं। और लाखों-करोड़ों लोग जीसस के पीछे हैं और ‘जीसस जिंदाबाद!’ के नारे लगा रहे हैं। फिर वह जुलूस आगे बढ़ गया। पीछे एक और बड़े शानदार रथ पर सवार कोई है, बहुत महिमाशाली। पूछा उसने, ये परमात्मा हैं? तो किसी ने कहा कि नहीं, ये राम हैं। और पीछे हिंदू हैं, वे राम का जय-जयकार कर रहे हैं। और फिर ऐसा ही जुलूस बढ़ता गया, और रात गहरी होने लगी--और बुद्ध भी निकले और महावीर भी निकले और नानक भी निकले और सारे अदभुत लोग निकले और उनके पीछे उनके भक्तों की जमात भी निकली। और फिर रास्ते सुनसान हो गए और देखने वाले लोग चले गए।
उस फकीर ने कहा, लेकिन अभी तक परमात्मा तो निकला नहीं! और तब एक बहुत ही गरीब से घोड़े पर सवार एक बूढ़ा आदमी निकला। लेकिन अब पूछने को भी कोई न था, उसने उसी बूढ़े आदमी से पूछा कि क्या आप तो परमात्मा नहीं हो? उसने कहा, मैं ही हूं। उस फकीर ने कहा, आपके साथ कोई दिखाई नहीं पड़ रहा? तो उस परमात्मा ने कहा, लोग बंट गए हैं। कुछ राम के साथ हो गए हैं, कुछ कृष्ण के, कुछ क्राइस्ट के। मेरे साथ कोई भी नहीं है। मैं बिलकुल अकेला पड़ गया हूं। यह घोड़ा ही मेरे साथ है, यह भी कई बार कहता है कि जाने दो, किसी और की सवारी बन जाने दो। बस यह एक घोड़ा मेरे साथ है, यह भी बहुत बार कहने लगता है, जाने भी दो, कोई आगे-पीछे भी नहीं दिखाई नहीं पड़ता। दूसरे घोड़े बहुत मजा ले रहे हैं, कोई क्राइस्ट का घोड़ा है, कोई राम का घोड़ा है, कोई बुद्ध का घोड़ा है। मुझे जाने दो! यह घोड़ा ही एक है, और तो मेरे साथ कोई भी नहीं है। तुम यहां कैसे खड़े रह गए? बड़ी अनहोनी घटना! तुम यहां खड़े कैसे रह गए?
घबड़ाहट में उस फकीर की नींद खुल गई है और उसको पसीने की बूंदें आ गई हैं, उसकी छाती धड़क रही है। वह भागा हुआ पास-पड़ोस में गया। उसने कहा, मैंने एक बहुत बुरा सपना देखा! जिससे भी उसने कहा, उसी ने कहा कि बड़ा बुरा सपना है। फकीर होकर ऐसे सपने नहीं देखना चाहिए। ये भले आदमी के सपने नहीं हैं। यह क्यों तुमने सपना देखा? तुम तो कम से कम मोहम्मद के आदमी हो, मुसलमान हो, तुम्हें तो कम से कम मोहम्मद के जुलूस में शामिल हो जाना चाहिए था। यह सपना अच्छा नहीं है। तुम रुके ही क्यों परमात्मा के लिए? एक ही परमात्मा है, और उस एक ही परमात्मा का एक ही पैगंबर है--मोहम्मद। तुम उसके साथ क्यों न हो लिए? पता नहीं वह बूढ़ा धोखा तो नहीं दे गया, पता नहीं किस तरह का आदमी था! हमेशा आथेंटिक, बल्कि जिसको कहना चाहिए प्रॉपर चैनल, ठीक-ठीक प्रामाणिक रास्ते से जाना चाहिए था। मोहम्मद से पूछना चाहिए था। तुम सीधे क्यों पूछ लिए उस बूढ़े से? पता नहीं उस बूढ़े ने धोखा न दे दिया हो? पता नहीं वह बूढ़ा कौन था? कभी ऐसा मत जाना, सदा मोहम्मद से पूछ कर जाना। असली परमात्मा की खबर मोहम्मद को है।
वह फकीर बड़ी मुश्किल में पड़ गया। वह जिससे भी पूछा, उसी ने कहा कि तुमने बड़ा गलत सपना देखा।
अगर वह फकीर मुझे मिल जाता तो मैं उससे कहता, तुमने सपना देखा ही नहीं, तुमने सत्य ही देखा। यह सपना नहीं, यह सत्य है।
ऐसे ही आदमी बंट गए हैं और परमात्मा के साथ कोई भी नहीं है। और जिसे परमात्मा के साथ होना है, उसे सब तरह के बंटाव छोड़ देने पड़ेंगे। जिसे परमात्मा के साथ होना है, उसे बीच के पुरोहित को नमस्कार कर लेनी होगी कि आप जाएं। मेरे और उसके बीच कोई फासला नहीं है। और अगर मेरे और उसके बीच फासला है, तो दुनिया की कोई ताकत उस फासले को पूरा कर भी नहीं सकती है। या तो फासला नहीं है। और अगर फासला है तो पूरा होने का कोई उपाय नहीं है। कैसे पूरा करिएगा? अगर परमात्मा और मेरे बीच फासला है तो कैसे पूरा होगा? अगर मेरे और उसके बीच फासला है तो एक ही तरह से हो सकता है कि उसने ही चाहा हो। और अगर परमात्मा ने ही फासला चाहा है तो फासला मिटाना असंभव है। या तो फासला है तो मिटेगा नहीं। और नास्तिक ठीक कहते हैं कि बात छोड़ो परमात्मा की, कोई परमात्मा नहीं है। और या फिर फासला नहीं है, तो आस्तिक गलत कहते हैं कि बीच में पुरोहित को लेना पड़ेगा।
नहीं, फासला नहीं है। हम उसकी ही लहर हैं। असल में परमात्मा शब्द की बात ही बंद कर देनी चाहिए। उसकी बातचीत से ही फासला पैदा हो जाता है। ऐसा लगता है कि कोई दूर, कोई अलग। नहीं, जीवन की धारा का ही वह नाम है, जीवन ही! अच्छा हो कि हम परमात्मा का अब आगे आने वाली दुनिया में नाम लेना बंद कर दें और कहें जीवन। और कहें
कि पूरे जीवन को जी लेने की कला धर्म है। और पूरे जीवन को, टोटल, समग्र को जान लेना परमात्मा को जान लेना है।
निश्चित ही अगर ऐसा धर्म विकसित हो तो वह इस पृथ्वी का धर्म होगा। ऐसा धर्म विकसित हो तो वह जीवन की निंदा नहीं करेगा। क्योंकि जीवन को जानना हो तो निंदा नहीं की जा सकती है। और अगर ऐसा धर्म होगा जो जीवन की संगीत और जीवन की वीणा को बजाना चाहेगा, तो निश्चित ही वह जीवन की वीणा को छोड़ कर भाग जाने के लिए, एस्केपिज्म के लिए नहीं कहेगा। असल में अगर दुनिया धार्मिक हो, तो न वहां गृहस्थ होंगे, न वहां संन्यासी होंगे, वहां ऐसे गृहस्थ होंगे जो संन्यासी भी हैं। अगर दुनिया ठीक से धार्मिक हो, तो वहां संन्यासी और गृहस्थ जैसी दो चीजें न होंगी, वहां ऐसे गृहस्थ होंगे जो संन्यासी भी हैं। वहां जीवन ही संन्यास है। वहां जीवन के भीतर, जीवन के बीच और जीवन के पार होने की कला होगी।
लेकिन इस पुरानी दुनिया ने आदमी को दो हिस्सों में इस तरह तोड़ दिया कि जिसको परमात्मा को खोजना है वह जीवन को छोड़ कर जाए। और ध्यान रहे, जो जीवन को छोड़ कर जाएगा, वह परमात्मा को कभी नहीं खोज सकता। और उस पुराने धर्म ने यह भी कहा कि जिसको जीवन में रहना है, वह कभी परमात्मा को न खोज सकेगा। जो छोड़ कर गया, वह खोज न पाया। और जो जीवन को छोड़ कर नहीं गया, वह निराश है। वह कहता है कि जीवन में रहते हुए परमात्मा को कैसे खोज सकेंगे? दोनों स्थितियों में नुकसान हुआ है, दोनों स्थितियों में धर्म की हानि हुई है।
अगर हम जगत को धार्मिक देखना चाहते हों--और ध्यान रहे, अगर जगत धार्मिक न हो तो आदमी कभी आनंदित नहीं हो सकता, शांत नहीं हो सकता, संगीतपूर्ण नहीं हो सकता--अगर हम जगत को धार्मिक देखना चाहते हैं, तो हमें धर्म की पूरी परिभाषा बदलनी पड़ेगी। हमें धर्म का पूरा भवन बदलना पड़ेगा। हमें धर्म की बिलकुल ही एक नये आयाम में, एक नये डायमेंशन में यात्रा शुरू करनी पड़ेगी। ऐसा धर्म जो जीवन-विरोधी नहीं, जीवन को स्वीकार करता है, जीवन का प्रेमी है।
एक छोटी सी कहानी, और अपनी बात को मैं पूरा करूंगा।
मैंने सुना है, जापान में एक सम्राट था। वह रात अपने घोड़े पर सवार होकर गांव में घूमता रहता। सर्द रातें थीं, ठंड के दिन थे, और बहुत जोर से सर्दी पड़ती थी। घर के बाहर कोई रात में मिलता भी न था। लेकिन एक फकीर एक वृक्ष के नीचे ठिठुरता रहता। एक दिन, दो दिन, तीन दिन, सम्राट ने खबर लगाई कि यह आदमी कौन है? वजीर खबर लाए कि बहुत अदभुत आदमी है, साधारण आदमी नहीं है। तो सम्राट चौथे दिन उसके पास गया, घोड़े से उतरा और उस फकीर के पैर पड़े और कहा कि बड़ी कृपा होगी, यहां क्यों पड़े हैं? हम पर कृपा करें और महल में चले चलें!
कहा तो उसने यह जरूर, लेकिन अचेतन में, अनकांशस में अपने भीतर वह यही सोच रहा था कि संन्यासी जरूर इनकार कर देगा। क्योंकि संन्यासी की परिभाषा ही यही है कि जो इनकार कर दे। ऊपर से निमंत्रण दिया उसने, लेकिन बहुत गहरे में वह जानता था कि संन्यासी इनकार कर देगा। लेकिन उसे पता न था कि यह संन्यासी बहुत और तरह का संन्यासी है। सम्राट ने यह कहा, उस संन्यासी ने कहा, जैसी मर्जी। उठ कर वह घोड़े पर बैठ गया। अभी सम्राट नीचे ही था। सम्राट के मन में बड़ी शंका और संदेह उठ गया। सम्राट ने सोचा, यह कैसा संन्यासी हुआ! क्योंकि संन्यासी तो वह है जो जीवन को ठुकराए। मैंने कहा, महल में चले चलो। उसने एक बार भी न कहा कि मैं संन्यासी हूं, मैं महल में न जाऊंगा। वह तो बैठ ही गया है घोड़े पर।
मजबूरी थी, निमंत्रण दे दिया था, अब वापस लेना भी बहुत कठिन था। सम्राट को पैदल ही घोड़े की लगाम पकड़ कर महल तक लौटना पड़ा। संन्यासी शान से घोड़े पर बैठा रहा। घर पहुंच गया। सम्राट ने अच्छे से अच्छे भवन में उसे ठहराया, श्रेष्ठतम व्यवस्था की। उसने सब स्वीकार कर लिया। मखमल की गद्दियां थीं, वह विश्राम करने लगा। उस सम्राट ने कहा, कैसे गलत आदमी को मैं निमंत्रण दे आया! क्योंकि संन्यासी तो वह है जो जीवन को ठुकराए। असल में सम्राट इसीलिए तो संन्यासी के चरणों में सिर झुकाता है। क्योंकि सम्राट जिसे नहीं ठुकरा पाता है, उसे इसने ठुकरा दिया है। यह कैसा संन्यासी है?
लेकिन एकदम हिम्मत न पड़ी। छह महीने बीत गए। छह महीने के बाद एक दिन सुबह-सुबह संन्यासी बगीचे में घूमता था, उस सम्राट ने आकर कहा कि महाराज, एक सवाल पूछना है। मन में एक संदेह उठता है।
संन्यासी ने कहा, बड़ी देर लगाई पूछने में! संदेह तो उसी रात उठ गया था। छह महीने लग गए हिम्मत जुटाने में? बड़े कमजोर आदमी मालूम पड़ते हो। बोलो क्या संदेह है?
उस सम्राट ने कहा, नहीं, संदेह नहीं, ऐसा सवाल मन में बार-बार उठता है कि अब मुझ में और आप में फर्क क्या रह गया?
उस संन्यासी ने कहा, तो जवाब चाहिए? तो अच्छा हो कि जहां यह संदेह उठा था हम वहीं चलें।
सम्राट ने कहा, उससे क्या मतलब है?
उसने कहा कि नहीं, वहीं ठीक होगा।
वे चले, गांव के बाहर पहुंचे, वह वृक्ष भी आ गया। सम्राट ने कहा, अब बता दें।
उस संन्यासी ने कहा, थोड़ा और चलें। वैसे मैं बता ही रहा हूं।
सम्राट ने कहा, मैं कुछ समझ नहीं रहा। आप कुछ बोलते नहीं।
उसने कहा, मैं बता ही रहा हूं। उस दिन भी बिना बोले बता दिया था। संदेह मेरे बिना बोले ही उठ गया था। जवाब भी मिल सकता है। जरा नदी पार हो लें।
सम्राट नदी भी पार कर लिया, दुपहर होने लगी, संन्यासी से कहा कि अब बता दें।
उसने कहा, थोड़े और चले चलें।
उसने कहा, लेकिन अब जाना मुश्किल है, मेरे राज्य की सीमा आ गई।
उस संन्यासी ने कहा, लेकिन हमारी कोई सीमा नहीं है। थोड़ा और आगे चलें।
उस सम्राट ने कहा, अब मैं न जा सकूंगा, दुपहर घनी हो रही है, लोग मुझे खोजने लगेंगे।
उस संन्यासी ने कहा, मुझे खोजने वाला कोई भी नहीं है। उसने कहा, थोड़े और चलें।
सम्राट ने कहा, बस, जवाब देना हो तो दे दें।
उस संन्यासी ने कहा, यही है मेरा जवाब कि अब मैं आगे जाता हूं। मेरे साथ चलते हैं?
सम्राट ने कहा, मैं कैसे चल सकता हूं? मेरा महल, मेरी संपत्ति, मेरी सारी व्यवस्था। मैं कैसे चल सकता हूं?
तो उस संन्यासी ने कहा, फर्क समझ में आया? मैं जा रहा हूं।
उस सम्राट ने फिर पैर पकड़ लिए। उसने कहा, मेरा संदेह मिट गया। कैसे परम ज्ञानी को मैंने खो दिया! छह महीने आपका मैंने कोई सत्संग ही न किया! क्योंकि मैंने सोचा कि आप तो भोगी हैं। चलें वापस!
उस संन्यासी ने कहा, मैं फिर चल सकता हूं, घोड़े पर फिर बैठ सकता हूं, लेकिन संदेह फिर उठ जाएगा। अब तुम मुझे जाने दो। अब तुम मुझे जाने दो। मुझे कोई कठिनाई नहीं है लौटने में। क्योंकि नीम के वृक्ष के नीच जितना परमात्मा के मैं निकट था, तुम्हारे महल की गद्दियों पर जरा भी दूर न हुआ। और भीख मांग कर जब सुबह मैं भिक्षा-पात्र में भोजन लाता था, तब जितना प्रसन्न और आनंदित था, तुम्हारे घर बहुत सुस्वादु भोजन पाकर कुछ दुखी न हुआ। और परमात्मा यहां भी था, परमात्मा वहां भी था। अब तो मैं जहां भी जाऊं, वहीं वही है। और ध्यान रहे कि तुम्हारे महल को मैं इनकार भी कर सकता था, लेकिन परमात्मा के महल को कैसे इनकार करता? तुम समझे कि तुम्हारे महल में ले जा रहे हो। हम समझे कि उसका निमंत्रण आया तो जाना ही पड़ेगा। तुम्हारे घोड़े पर जो सवार हो गया था, तुम्हारे निमंत्रण की वजह से नहीं। तुमने ही कहा होता तो बात ही अलग थी। लेकिन वही कह रहा था, उसने ही बुलाया था, तो चले गए। अब आज वही कह रहा है कि अब जाओ, जवाब दो, दूर होकर बताओ कि फासला क्या है, तो अब हम जाते हैं।
एक ऐसा धर्म चाहिए जो जीवन के बीच संन्यास को संभव बना दे। यह हो सकता है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। मनुष्य के मन को नई दिशा देने की बात है। कहीं कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन हजारों साल की गलत शिक्षा तोड़नी जरूरी हो गई है। अतीत ने जो हमें सिखाया है उसे छोड़ना पड़े, ताकि भविष्य में जो हम सीख सकें उसका जन्म हो सके। अतीत की धूल से मुक्त हो जाना जरूरी है, ताकि भविष्य के नये सूरज हमें दिखाई पड़ने लगें।
आदमी को इतने दुख में डालने का कारण है, जीवन की वीणा से संगीत पैदा नहीं हो सका। जीवन की वीणा से बहुत संगीत पैदा हो सकता है, लेकिन जीवन को स्वीकार करना पड़े और जीवन को मानना पड़े कि बहुत आनंद छिपा है वहां। एक बार यह हमारे मन का भाव हो जाए कि जीवन में आनंद छिपा है, तो जीवन से आनंद का फूट पड़ना कठिन नहीं है। लेकिन अगर हमने मान ही रखा हो कि जीवन में आनंद के कोई झरने नहीं हैं, तो फिर जीवन के झरने सूख जाते हैं।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। हो सकता है कोई बात ठीक लग जाए। जरूरी नहीं है। हो सकता है कोई बात आपके मन के किसी कोने में छिपे किसी तार को छू ले। हो सकता है आप जीवन की कला को खोजने में लग जाएं। हो सकता है जीवन की वीणा को रखे न बैठे रहें। और किसी दिन उससे कोई संगीत पैदा हो सके। तो प्रभु के मंदिर में वही संगीत पहली प्रार्थना बनता है, जो हम अपनी जीवन की वीणा पर बजाते हैं। बाकी कोई संगीत उसकी प्रार्थना नहीं है। जीवन की वीणा पर जो संगीत हम पैदा कर देते हैं, वही प्रभु के मंदिर की प्रार्थना बनता है।
ये थोड़ी सी बातें इसी आशा में कहीं कि शायद, शायद कुछ पता नहीं, बीज पड़ जाता है भूमि में, वर्षों बीत जाते हैं, फिर कभी वर्षा आती है, बूंदें पड़ती हैं और बीज अंकुरित हो जाता है। कुछ बातें मैंने कहीं, हो सकता है कोई बीज कहीं पड़ जाए। किसी दिन प्रभु की वर्षा हो, कुछ अंकुरित हो जाए।

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