YOG/DHYAN/SADHANA
Dharam Sadhana Ke Sutra 02
Second Discourse from the series of 10 discourses - Dharam Sadhana Ke Sutra by Osho. These discourses were given in BOMBAY during JUN 20 1965.
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नीत्शे ने कहा है: गॉड इज़ डेड, ईश्वर मर गया है। लेकिन जिसके लिए ईश्वर मर गया हो उसकी जिंदगी में पागलपन के सिवाय और कुछ भी बच नहीं सकता है। नीत्शे पागल होकर मरा। अब दूसरा डर है कि कहीं पूरी मनुष्यता पागल होकर न मरे! क्योंकि जो नीत्शे ने कहा था, वह करोड़ों लोगों ने स्वीकार कर लिया।
आज रूस के बीस करोड़ लोग समझते हैं--गॉड इज़ डेड, ईश्वर मर चुका है। चीन के अस्सी करोड़ लोग रोज इस बात को गहराई से बढ़ाए चले जा रहे हैं--गॉड इज़ डेड, ईश्वर मर गया है। यूरोप और अमरीका की नई पीढ़ियां, भारत के जवान भी, ईश्वर मर गया है, इस बात से राजी होते जा रहे हैं। और मैं यह कहना चाहता हूं कि नीत्शे पागल होकर मरा, कहीं ऐसा न हो कि पूरी मनुष्यता को भी पागल होकर मरना पड़े। क्योंकि ईश्वर के बिना न तो नीत्शे जिंदा रह सकता है स्वस्थ होकर और न कोई और जिंदा रह सकता है।
असल में ईश्वर के मरने का मतलब ही यह होता है कि हमारे भीतर जो भी श्रेष्ठ है, जो भी सुंदर है, जो भी शुभ है, जो भी सत्य है, उसकी खोज मर गई। ईश्वर के मरने का यही मतलब होता है कि जिंदगी में रोशनी और प्रकाश की खोज मर गई। ईश्वर के मरने का यही मतलब होता है कि हम अपने शरीर होने पर राजी हो गए हैं और हमने अपनी आत्मा की खोज बंद कर दी है। हम वस्त्रों पर राजी हो गए हैं और हमने प्राणों की खोज बंद कर दी है। मंदिर अब भी खड़े हैं और उन मंदिरों में अब भी घंटियां बज रही हैं। आज भी चर्च हैं और उन चर्चों में आज भी परमात्मा को पुकारा जा रहा है। लेकिन आदमी के प्राणों का मंदिर तो गिरा हुआ दिखाई पड़ता है और आदमी की आत्मा का चर्च अब कहीं दिखाई नहीं पड़ता। पत्थर की दीवारें रह गई हैं, और उनमें किराए के पुजारी परमात्मा का नाम भी ले रहे हैं। लेकिन आदमी के प्राणों की प्यास और आदमी के प्राणों का प्रेम परमात्मा की तरफ अर्पित होना बंद हो चुका है। और इस सत्य को अगर ठीक से न समझा जा सके, तो शायद फिर हम उस प्रेम को दुबारा जगा भी न सकेंगे। जो बीमार ऐसा समझ ले कि वह स्वस्थ है, वह फिर बीमारी का इलाज करवाने नहीं जाता है। और जो अंधा समझ ले कि उसके पास आंखें हैं, वह फिर आंखों की तलाश क्यों करेगा?
इसलिए जब मैं आपसे यह कहता हूं तो आपके मन को बहुत तकलीफ होगी--वह तकलीफ मैं देना चाहता हूं--कि आपके प्राणों का मंदिर गिर चुका है और मंदिर में अब सिर्फ किराए के पुजारियों की आवाज के अतिरिक्त और कोई आवाज नहीं है। लेकिन यह कहना इसीलिए चाहता हूं ताकि यह सत्य खयाल में आ जाए, तो शायद हम प्राणों के मंदिर को बनाने में लग जाएं। और वह जो परमात्मा छोड़ कर चला गया है हृदय को, उसे हम वापस खोजने निकल पड़ें।
लेकिन मंदिरों का पुजारी चाहेगा कि हृदय का परमात्मा न खोजा जाए। क्योंकि जब कोई हृदय के परमात्मा को खोज लेता है तो मंदिर के परमात्मा की फिक्र छोड़ देता है। निश्चित ही, धर्म के ठेकेदार चाहेंगे कि असली परमात्मा की प्रतिमा प्रकट न हो। क्योंकि अगर असली प्रतिमा प्रकट हो जाए तो बाजार में बिकने वाली प्रतिमाओं का क्या होगा? आदमी बहुत बेईमान है। और आदमी ने सबसे बड़ी बेईमानी अपने साथ की है। और वह बेईमानी यह है कि वह नकली परमात्मा से राजी होने को तैयार हो गया। और हम सही को खोजने नहीं जाते, जब तक नकली सब्स्टीट्यूट का काम करता हो। जब तक नकली से काम चल जाता हो, कौन असली को खोजने जाए?
फिर नकली धर्म बहुत सस्ता है। असली धर्म जिंदगी का दांव है। नकली ईश्वर के लिए हमें कुछ भी नहीं खोना पड़ता, असली ईश्वर के लिए हमें अपने को पूरा ही खो देना पड़ता है। नकली ईश्वर से हम खुद कुछ मांगने जाते हैं, असली ईश्वर को सिवाय अपने को देने के और कोई उपाय नहीं है। नकली ईश्वर आसान है, कम्फर्टेबल है, कन्वीनिएंट है, सुविधापूर्ण है। असली ईश्वर खतरनाक है, जिंदा आग है, उसमें जलना पड़ता है, मिटना पड़ता है, राख हो जाना पड़ता है। और केवल वे ही अपने हृदय के मंदिर में परमात्मा को बुला पाते हैं जो अपने को राख करने के लिए तैयार हैं। इस धर्म की आग का नाम ही प्रेम है। कोई उसे प्रार्थना कहे, कोई उसे साधना कहे, कोई उसे पूजा कहे, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। लेकिन प्राणों में जो प्रेम की आग जलाने को तैयार है, वह परमात्मा को पाने का हकदार हो जाता है। लेकिन हकदार वही होता है जो खुद को खोने को तैयार है। यह बड़ी उलटी शर्त है। शायद इसीलिए हमने परमात्मा को खोजना बंद कर दिया। और शायद इसीलिए नीत्शे जैसे व्यक्ति कह पाते हैं कि नहीं, कोई ईश्वर नहीं है।
कहीं यह अपने को बचाने की कोशिश, कहीं यह अपने को बचाने का तर्क, कहीं यह अपने को बचाने का आर्ग्युमेंट तो नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम अपने को बचाने के लिए ईश्वर की तरफ पीठ करके खड़े हो जाते हैं?
ऐसा ही है! क्योंकि ईश्वर की तरफ जो मुंह करेगा, वह रुक न सकेगा, उसे बढ़ना ही पड़ेगा, उसे पूरा ही समर्पित हो जाना पड़ेगा। जिसने ईश्वर की तरफ आंख की, फिर वह एक क्षण रुक नहीं सकता, वह यात्रा पर निकल पड़ा। फिर तो यात्रा उसे पुकार ही लेगी और खींच ही लेगी।
यह कशिश ठीक वैसी ही है, जैसे कोई छत से छलांग लगा जाए और फिर पूछे कि छत से छलांग लगाने के बाद जमीन पर पहुंचने के लिए मुझे क्या करना पड़ेगा? हम उससे कहेंगे, कुछ भी न करना पड़ेगा। तुम सिर्फ छलांग लगाओ, तुम सिर्फ एक कदम उठाओ, बाकी जमीन कर लेगी। जमीन का ग्रेविटेशन, जमीन की कशिश, जमीन का गुरुत्वाकर्षण तुम्हें खींच लेगा। सिर्फ एक कदम तुम उठाओ, बाकी जमीन कर लेती है। सिर्फ परमात्मा की तरफ आंख भर उठ जाए, बाकी काम परमात्मा कर लेता है।
लेकिन वह आंख का खतरा है, बड़ी डेंजरस बात है। इसलिए हम पीठ करके खड़े हो जाते हैं। इतना हमारा बस है। हम परमात्मा को पाने के लिए तो कुछ भी नहीं कर सकते, लेकिन खोने के लिए सब कुछ कर सकते हैं।
मुझसे लोग पूछते हैं, ईश्वर को खोजना है!
तो मैं उनसे पूछता हूं, उसे तुमने खोया कहां? क्योंकि जिसे खोया हो उसे खोजा जा सकता है। तुमने उसे खोया कैसे? क्योंकि खोने की कोई तरकीब हो, तो खोजने की तरकीब उससे उलटी ही होती है।
मैं उन्हें एक छोटी सी कहानी कहता हूं, वह मैं आपसे भी कहूं।
एक दिन बुद्ध सुबह-सुबह आए। जैसे आज आप यहां इकट्ठे हो गए हैं, उस गांव के लोग उन्हें सुनने को इकट्ठे हो गए। वे अपने हाथ में एक रेशमी रूमाल लेकर आए। वे बैठ गए और उन्होंने रेशमी रूमाल में गांठें बांधनी शुरू कर दीं। उन्होंने पांच गांठें बांध दीं। और फिर बैठे हुए लोगों से पूछा कि मैं इन गांठों को खोलना चाहता हूं, क्या करूं? और फिर रूमाल को जोर से खींचा। खींचने से तो गांठें और भी बंध गईं। किसी एक आदमी ने खड़े होकर कहा, कृपा करके खींचिए मत, अन्यथा गांठें और बंध जाएंगी। तो बुद्ध ने कहा, मैं खोलने के लिए क्या करूं? तो उस आदमी ने कहा कि पहले मुझे गांठों को देख लेने दें कि वे किस ढंग से बांधी गई हैं। क्योंकि जो उनके बांधने का ढंग होगा, उससे उलटा उनके खोलने का ढंग है। और जब तक यह पता न हो कि कैसे गांठ बांधी गई है, तब तक खोलने का काम खतरनाक है, उसमें और गांठ बंध सकती है, और उलझ सकती है। पहले गांठ को ठीक से समझ लेना जरूरी है कि वह कैसी बंधी है, तभी खोलने का काम शुरू करना उचित है।
तो मैं, जो लोग ईश्वर के बाबत पूछते हैं, उनसे कहता हूं: तुमने खोया कहां? तुमने खोया कैसे? गांठ बंधी कैसे?
पर उन्हें कोई भी पता नहीं है; क्योंकि शायद यह खोने की घटना न मालूम कितने जन्मों पहले घटी हो। उन्हें कोई याद नहीं है। उन्हें पता ही नहीं है कि उन्होंने कभी खोया। और ध्यान रहे, जिसे यह भी पता नहीं है कि मैंने परमात्मा को खोया, उसकी खोज कभी आथेंटिक, प्रामाणिक नहीं हो सकती। क्योंकि जिसे हमने खोया ही नहीं है, उसे हम खोजने क्यों निकलेंगे? इसलिए जितने लोग ईश्वर को खोजते दिखाई पड़ते हैं, वे सिर्फ दिखाई पड़ते हैं, खोजने कोई निकलता नहीं। हम खोज उसी को सकते हैं, जिसके खोने की पीड़ा गहन हो गई हो, जिसके अभाव का कांटा जोर से गड़ रहा हो, जिसका विरह अनुभव हो रहा हो। और मिलन का आनंद भी तो केवल उसी के साथ हो सकता है, जिसके विरह की पीड़ा हमने झेली है। हम ईश्वर के विरह में जरा भी पीड़ित नहीं हैं। कोई भी पीड़ित नहीं है।
हां, लोग पीड़ित हैं। लेकिन उनके पीड़ित होने के कारण बहुत दूसरे हैं। कोई धन के न होने से पीड़ित है, कोई यश के न होने से पीड़ित है, कोई पद के न होने से पीड़ित है, कोई ज्ञान के न होने से पीड़ित है; किसी के कोई और कारण होंगे--स्वास्थ्य नहीं होगा; किसी के कोई और कारण होंगे--बड़ा मकान नहीं होगा; लेकिन ऐसा आदमी खोजे से मुश्किल से कभी मिलता है जो परमात्मा के न होने से पीड़ित है। उस आदमी को मैं धार्मिक आदमी कहता हूं जो परमात्मा के न होने से पीड़ित है।
क्या हम परमात्मा के न होने से पीड़ित हैं?
कोई भी पीड़ा नहीं। परमात्मा के न होने से हमारा काम बराबर चल रहा है। हां, कभी-कभी किसी दुख में उसका स्मरण आता है। वह भी स्मरण उसका नहीं है, वह भी स्मरण दुख का है और इस आशा का है कि शायद उसके स्मरण से यह दुख दूर हो जाए। इसीलिए सुख में लोग परमात्मा को याद नहीं करते। लोग कहते हैं, दुख में परमात्मा की याद आती है। लेकिन जिस परमात्मा की याद दुख में आती है, वह याद झूठी है। क्योंकि वह दुख के कारण आती है, परमात्मा के कारण नहीं आती।
इसलिए धार्मिक आदमी मैं उसको कहता हूं जिसे सुख में परमात्मा की याद आती है। लेकिन सुख में तो सिर्फ उसे ही याद आ सकती है, जिसे उसका अभाव खटक रहा हो, जिसे उसका खोना खटक रहा हो। जिसके पास महल हो, धन हो, सब हो, और फिर भी कहीं कोई खाली जगह हो जो धन से भी न भरती हो, मित्रों से भी न भरती हो, पत्नी से भी न भरती हो, पति से भी न भरती हो। उस एंप्टीनेस में परमात्मा के बीज का पहला अंकुरण होता है--उस खाली जगह में। क्या वह खाली जगह आपके पास है? क्या आपके हृदय का कोई कोना है जो किसी भी चीज से भरता नहीं है, खाली ही रह जाता है? आप सब डाल देते हैं और खाली ही रह जाता है?
नसरुद्दीन के संबंध में मैंने एक कहानी सुनी है। इस फकीर के पास एक दिन एक आदमी आया और उस आदमी ने नसरुद्दीन को कहा, मैं परमात्मा को खोजना चाहता हूं, कोई रास्ता बताओ! लोगों ने कहा है कि तुम रास्ता बता सकते हो।
नसरुद्दीन ने कहा, अभी तो मैं कुएं पर पानी भरने जाता हूं, तुम मेरे साथ हो लो। हो सकता है कुएं पर पानी भरते में ही तुम्हें रास्ते का भी पता चल जाए। और अगर पता न चले तो तुम लौट कर मेरे साथ चले आना, मैं तुम्हें रास्ता बता दूंगा। लेकिन ध्यान रखना, लौट कर चले आना, इसके पहले ही चले मत जाना।
उस आदमी ने कहा, आप भी क्या बात करते हैं? मैं परमात्मा को खोजने निकला हूं!
वह नसरुद्दीन के साथ हो लिया। नसरुद्दीन ने दो बाल्टियां अपने हाथ में लीं, रस्सी उठाई और उस आदमी से कहा कि जब तक मैं पानी भर न लूं, तब तक सवाल बीच में मत उठाना। यह तुम्हारे संयम की परीक्षा होगी। फिर लौट कर तुम सवाल पूछ लेना।
उस आदमी ने कहा, मुझे क्या मतलब तुम्हारे पानी भरने से और सवाल उठाने से! मैंने सवाल उठा दिया है कि मैं ईश्वर को खोजना चाहता हूं, रास्ता क्या है?
नसरुद्दीन कुएं पर पहुंचा। उसने एक बर्तन तो कुएं के पाट पर रख दिया। उस आदमी के मन में खयाल तो उठा कि यह क्या कर रहा है? क्योंकि उस पाट में कोई तलहटी न थी, वह बॉटमलेस था, वह पोला था दोनों तरफ से! पर उसने सोचा कि मुझे मना किया है प्रश्न पूछने को। तो थोड़ी देर रुका। नसरुद्दीन ने बाल्टी पानी की भरी कुएं से और उस बर्तन में डाली जिसमें कुछ भी रुक नहीं सकता था, क्योंकि वह तो पोला था दोनों तरफ से, उसमें कोई पेंदी न थी। एक बाल्टी पानी नीचे बह गया। नसरुद्दीन ने दूसरी बाल्टी डाली, तब उस आदमी के बर्दाश्त के बाहर हो गया, वह भूल गया कि वचन दिया है कि मैं सवाल नहीं उठाऊंगा। उसने कहा, यह क्या पागलपन कर रहे हैं? इस बर्तन में कभी पानी भरेगा नहीं।
नसरुद्दीन ने कहा, शर्त टूट गई, अब तुम जा सकते हो। क्योंकि मैंने कहा था जब तक मैं पानी न भर लूं और लौट न आऊं, तब तक तुम सवाल न उठाना।
उसने कहा, तो वह तो शर्त टूटती ही, क्योंकि यह तो कभी भी, कितनी ही जिंदगी पानी भरते रहो, इस बर्तन में भरने वाला नहीं है। मैं तुम जैसा पागल नहीं हूं।
वह आदमी नसरुद्दीन को छोड़ कर चला गया। जाते वक्त नसरुद्दीन ने कहा कि जो अभी पागल भी नहीं है, वह परमात्मा की खोज पर कैसे निकलेगा?
वह आदमी लौट गया। लेकिन रात नसरुद्दीन का वह वचन कि ‘जो आदमी पागल नहीं है, वह परमात्मा की खोज पर कैसे निकलेगा?’ उसकी नींद पर डोलता रहा, उसके सपनों में घुस गया। उसकी बार-बार करवट बदली और वे शब्द उसे गूंजे और सुनाई पड़े। एक तो वह आदमी पागल था। लेकिन उसे यह लगा कि कितना भी पागल हो, क्या इतना पागल हो सकता है कि ऐसे बर्तन में पानी भरे जिसमें पानी टिकता ही न हो! फिर उसे खयाल आया कि उस आदमी ने घर से चलते वक्त यह भी कहा था कि अगर तुम मौन से मेरे साथ रहे, तो हो सकता है पानी भरने में ही तुम्हारे सवाल का जवाब भी मिल जाए। कहीं वह जवाब तो नहीं दे रहा था?
तो वह सुबह भोर होने के पहले ही नसरुद्दीन के पास वापस पहुंचा और उसने कहा, मुझे माफ करो, मुझे लगता है कि मुझसे भूल हो गई। मुझे सवाल नहीं उठाना था, मुझे चुपचाप देखना था। कहीं तुम मेरे लिए कोई शिक्षा तो नहीं दे रहे थे?
नसरुद्दीन ने कहा, इससे बड़ी और शिक्षा क्या हो सकती थी! मैं तुम से यही कह रहा था कि तुम मुझे पागल कह रहे हो, और अपनी तरफ नहीं देखते कि जिस मन में तुम भरते चले जा रहे हो, जिंदगियों से सब कुछ, वह अभी तक खाली का खाली है, उसमें कुछ भी नहीं भर पाया, वह बिना पेंदी का बर्तन है।
एबिस की भांति है हमारा मन, एक खड्ड की भांति, जिसमें नीचे कोई तलहटी नहीं है। बॉटमलेस एबिस, एक गहरी खाई, जिसमें कोई भी नीचे तलहटी नहीं है। जिसमें हम गिरे तो गिरते ही रहेंगे, कहीं पहुंच नहीं सकते, गिरते ही रहेंगे अनंत-अनंत तक, एड इनफिनिटम गिरते रहेंगे और कहीं पहुंचेंगे नहीं।
लेकिन इस मन में हमने बहुत सी चीजें भर दी हैं। अब तक कोई चीज भरी नहीं है। बूढ़े का मन भी उतना ही खाली होता है जितना बच्चे का। लेकिन हिसाब कौन लगाए? बल्कि कई बार तो बूढ़े का और भी ज्यादा खाली हो जाता है, क्योंकि जिंदगी भर का अनुभव और भी रिक्तता, और भी खालीपन से भर जाता है। लेकिन हम जोर से भरे चले जाते हैं। हमारा तर्क यह है कि अगर मन खाली है तो और जोर से भरो तो भर जाएगा।
लेकिन अब तक मन जरा भी नहीं भर सका, तो कितने ही जोर से भरने से भी भर नहीं सकेगा। अगर रत्ती भर भी भर गया हो, तो फिर पहाड़ भर भी भर सकता था। लेकिन रत्ती भर भी मन नहीं भरता। मन एक खालीपन है, मन एक एंप्टीनेस है, जिसमें कभी कुछ नहीं भरता।
सिकंदर के बाबत मैंने सुना है कि वह उदास हो गया, क्योंकि उसके एक मित्र ने एक फकीर की खबर उसको लाकर दी थी। उसके मित्र ने कहा था कि मैं एक फकीर के पास से गुजर रहा था, उसने एक खबर भेजी है सिकंदर तुम्हारे लिए। उसने यह कहा है कि मैंने सुना है, सिकंदर पूरी दुनिया जीतने निकला है! तो उस फकीर ने कहा, मेरी खबर सिकंदर से कह देना कि जब तुम पूरी दुनिया जीत लोगे तो फिर क्या करोगे? क्योंकि दूसरी और दुनिया नहीं है।
अभी सिकंदर ने दुनिया जीत नहीं ली थी, अभी सिर्फ जीतने निकला था। लेकिन वह उदास बैठ गया और उसने कहा कि अरे, यह तो मैंने सोचा ही नहीं! अगर मैं पूरी दुनिया जीत लूंगा तो फिर क्या करूंगा? दूसरी दुनिया तो नहीं है। वह उदास हो गया सिकंदर इस खयाल से भी कि दूसरी दुनिया नहीं है। तो क्या इतनी पूरी दुनिया भी सिकंदर के मन को न भर पाएगी कि दूसरी दुनिया की जरूरत फिर बाकी रह जाए? रह ही जाएगी।
मैंने सुना है, सिकंदर जब मरा तो उसने कहा था, मेरे दोनों हाथ अरथी के बाहर लटके रहने देना, ताकि लोग देख लें कि मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं, मेरे हाथ भी भरे हुए नहीं हैं।
सभी लोग खाली हाथ जाते हैं। लेकिन खाली हाथ जाते हैं, यह बड़ा सत्य नहीं है। खाली हाथ जाते इसलिए हैं कि जिंदगी भर खाली हाथ रहते हैं। अन्यथा जाएंगे कैसे खाली हाथ? खाली हाथ हम मरते हैं, क्योंकि जिंदगी भर हम खाली हाथ होते हैं। और खाली हाथ का हमें कोई भी पता नहीं। उस खाली जगह का कोई पता नहीं जो हमारे हृदय में है। उस खाली जगह का बोध आदमी में धर्म की जिज्ञासा पैदा करता है।
ईश्वर को खोजने मत निकलें, पहले अपने हृदय की खाली जगह को खोजें। इसके पहले कि मेहमान को निमंत्रण दें, घर में जगह है, उसे साफ-सुथरा कर लें और फिर...। उसे खोजने मत निकलें, वह शायद द्वार पर ही खड़ा है। आपकी खाली जगह साफ हो जाए, वह भीतर प्रवेश कर जाएगा। लेकिन हमारे हृदय में कोई खाली जगह है? अगर खोजेंगे तो बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे, विचार ही विचार भरे हुए मिलेंगे, वासनाएं ही वासनाएं भरी हुई मिलेंगी, इच्छाएं ही इच्छाएं भरी हुई मिलेंगी, कहीं कोई खाली जगह दिखाई नहीं पड़ेगी और फिर भी मन हमेशा खाली लगेगा। पूरे वक्त कुछ न कुछ भरा है, ऐसा प्रतीत होगा; और पूरे समय खाली हैं, कुछ भी हाथ में नहीं है, यह भी प्रतीत होगा। यही आदमी का पैराडॉक्स है, यही आदमी की उलझन है--खाली है बिलकुल, भरे होने का सिर्फ सपना है, सिर्फ खयाल है।
विचार, वासनाएं, इच्छाएं--इनसे कोई कभी भर नहीं सकता। लेकिन इनसे ही हम भरे हुए मालूम पड़ते हैं। और ये बिलकुल हवा में खींची गई लकीरें हैं या कहिए पानी पर खींची गई लकीरें हैं, खींच भी नहीं पाते और मिट जाती हैं। लेकिन हम इन्हीं में भरे हुए जी लेते हैं और एक दिन खाली हाथ विदा हो जाते हैं। न मालूम कितने जन्मों तक ऐसी कहानी चलती है। और फिर हम भूल ही जाते हैं इस बात को कि कुछ जो हो सकता था, वह होने से वंचित रह गया है। कुछ जो हमारे भीतर प्रकट हो सकता था, वह प्रकट नहीं हो पाया। कोई द्वार जो खुल सकता था, वह बंद रह गया। कोई बीज जो टूट सकता था, वह अनटूटा रह गया। कोई झरना जो खुल सकता था, वह नहीं खुल पाया। लेकिन लंबे समय और लंबी यात्रा में यह बात भूल जाती है। और हमारी यात्राएं एक दिन की यात्राएं नहीं हैं, हमारी यात्राएं लंबी यात्राएं हैं।
लेकिन एक जन्म में भी हम भूल जाते हैं। अगर आपसे मैं पूछूं कि पांच वर्ष की उम्र के पहले की कोई याददाश्त आपको है? तो शायद ही आपको कोई याददाश्त हो। आप थे तो जरूर, लेकिन पांच साल से पहले की कोई याददाश्त नहीं है। आप थे जरूर, अन्यथा आप आज नहीं हो सकते थे। लेकिन याददाश्त कोई भी नहीं है। लेकिन अगर आपको सम्मोहित किया जाए और गहरी तंद्रा में ले जाया जाए तो आपको पांच साल के पहले की याददाश्त आनी शुरू हो जाएगी। न केवल पांच साल के पहले की याददाश्त, बल्कि मां के पेट में जो आपके अनुभव हुए, वे भी याद आ जाते हैं। अगर मां गिर पड़ी हो और आप पेट में रहे हों, तो उसकी भी याददाश्त आपके पास छिपी पड़ी है। आप जब पहली दफे मां के गर्भ में प्रविष्ट हुए, उसकी याददाश्त भी आपके भीतर छिपी पड़ी है। और आप जब पिछले जन्म में मरे और खाट पर पड़े थे, उसकी याददाश्त भी आपके भीतर पड़ी है। वे सारी याददाश्तें भीतर संगृहीत हैं। और इन याददाश्तों का... एवरेस्ट की चोटी बहुत छोटी है और पैसिफिक महासागर बहुत गहरा नहीं है। एक-एक आदमी के भीतर याददाश्तों की जितनी परतें हैं, उनके मुकाबले एवरेस्ट की चोटी छोटी है और पैसिफिक महासागर की गहराई कम है।
इन सारी याददाश्तों में एक बात भूल गई है कि मैं अब भी खाली हूं। और यह याद न आ जाए, तो हमारे जीवन में परमात्मा की खोज शुरू नहीं हो सकती। परमात्मा की खोज, परमात्मा शब्द को सुनने से नहीं हो सकती। शब्द ‘परमात्मा’ परमात्मा नहीं है। परमात्मा की खोज किसी दूसरे आदमी को परमात्मा खोजते देख कर पैदा नहीं हो सकती। और अगर होगी तो उधार होगी, असली नहीं होगी। और कम से कम परमात्मा के दरवाजे पर नकली चीजें, उधार चीजें, बारोड चीजें नहीं चलती हैं, वहां कुछ अपना ही लेकर मौजूद होना पड़ता है। कुछ अपना! वहां वह ज्ञान काम नहीं पड़ेगा जो दूसरों से मिला, वहां वे शब्द काम नहीं पड़ेंगे जो दूसरों से सीखे गए, वहां वे सिद्धांत काम नहीं पड़ेंगे जो परंपराएं सिखा जाती हैं। वहां तो अपना ही कुछ निवेदन करना होगा।
लेकिन हमें तो परमात्मा भी एक नकल है, इमिटेशन है। पिता को देख कर बेटा परमात्मा को खोजने लगता है। पड़ोस को देख कर आदमी परमात्मा को खोजने लगता है। बड़ों को मंदिर में जाते देख कर छोटे बच्चे मंदिर में चले जाते हैं। और वे बड़े भी अपने बड़ों को देख कर मंदिर में चले गए हैं। और उनके बड़ों ने भी यही किया है। क्या हम परमात्मा को सिर्फ इमिटेशन बना सकते हैं? क्या हम किसी के पीछे चल कर कभी परमात्मा को पा सकते हैं?
असंभव है यह बात! क्योंकि जो अर्ज, जो प्राणों की प्यास अभी मेरी नहीं है...। और झूठी प्यास नहीं होती। और झूठी प्यास का आदमी सरोवर तक कभी नहीं पहुंच सकता। और अगर झूठी प्यास का आदमी सरोवर के पास भी पहुंच जाए तो पानी को पहचान नहीं पाता कि यह पानी है। क्योंकि पानी को पहचानने के लिए अपनी प्यास चाहिए। प्यास ही पानी की पहचान है! उसको पहचानेगा कौन?
परमात्मा तो चौबीस घड़ी चारों तरफ मौजूद है। लेकिन प्यास न होने से कोई उसे काशी खोजने जाएगा, कोई मक्का खोजने जाएगा, कोई जेरुसलम खोजने जाएगा, कोई कैलाश खोजने जाएगा। प्यास न होने से हमें कहीं और खोजने जाना पड़ता है। प्यास हो तो श्वास-श्वास में, हवा के कण-कण में, वृक्ष के पत्ते-पत्ते में वह मौजूद है। वही मौजूद है, और तो कोई भी नहीं है। उसके अतिरिक्त और किसी का कोई अस्तित्व नहीं है।
लेकिन उसका हमें कोई पता नहीं चलता। उसका हमें कोई पता नहीं चलेगा। नहीं चलेगा इसलिए कि जैसा यह बाहर चल रहा है, ऐसा ही उपद्रव हम सबके भीतर भी चल रहा है। विचारों का झंझावात है भीतर, वह चल रहा है जोर से। हम उसमें लगे हैं। खाली जगह का कोई पता नहीं चलता। खाली जगह का बोध ही नहीं होता, कहीं कोई पीड़ा नहीं पकड़ती।
वह पीड़ा पकड़ सकती है। अगर हम नानक को देखें, या कबीर को, या रैदास को, या फरीद को, या महावीर को, या बुद्ध को, या जीसस को, या मोहम्मद को, तो इनकी जिंदगी में हम दो मौके पाएंगे। लेकिन हम बड़े बेईमान हैं अपने साथ। और हम उनमें से एक मौके को देखना ही नहीं चाहते, सिर्फ दूसरे को देखते हैं। नानक की जिंदगी में दो मौके पाएंगे। एक वह वक्त है जब नानक रोते हुए हैं और एक वह वक्त है जब वे आनंद से भर गए हैं। एक वह वक्त है जो पीड़ा और विरह का है और एक वह वक्त है जो फुलफिलमेंट का है, जो पा लेने का है। लेकिन हम सिर्फ पा लेने के वक्त को देखते हैं और पीड़ा के वक्त की बात ही नहीं करते। एक समय है मीरा का जो रोने का है और एक समय है जो नाचने का है। हमने नाचने का तो याद रख लिया, रोने की बात ही हम भूल गए। बुद्ध की जिंदगी में एक वक्त है जब रोशनी आ गई, लेकिन एक वह वक्त भी है जब अमावस की काली रात है।
हम भी रोशनी चाहते हैं, लेकिन अमावस की काली रात कौन चाहेगा? हम भी मिलना चाहते हैं, लेकिन विरह कौन भोगेगा? हम भी परमात्मा के आनंद में डूबना चाहते हैं, लेकिन उसकी पीड़ा?
हमने किसी मां को बच्चा पैदा होते देख लिया है। और जब बच्चा पैदा होता है और मां की आंख पहली बार अपने बच्चे को देखती है, तो उसकी आंखों के आनंद का कोई पारावार नहीं है। लेकिन प्रसव की पीड़ा कौन भोगेगा? वह प्रसव की पीड़ा के बाद यह मुस्कान है।
तो हमने नानक की मुस्कुराती तस्वीर तो खयाल में रख ली और हम सोचते हैं कि कब वह मौका आए कि हम भी ऐसे ही आनंद से भर जाएं! लेकिन हम वह तस्वीर छोड़ दिए हैं खयाल जो रोती हुई है, जब प्राण आंसू-आंसू हो गए हैं, जब कि हृदय क्षार-क्षार है, जब कि सिवाय आंसुओं के और कुछ भी नहीं है, जब कि सिवाय पुकार के और कुछ भी नहीं है। वह हमारे खयाल में नहीं है।
परमात्मा को आधा नहीं चुना जा सकता, उसको पूरा ही चुनना पड़ेगा। उसका पहला हिस्सा पहले पूरा करना पड़ेगा, तब दूसरा हिस्सा पूरा होता है। फूल तो कोई भी पसंद कर लेता है, लेकिन बीज बोने की मेहनत भी है। और फूल तो कोई भी मुस्कुरा कर स्वागत कर लेता है, लेकिन वृक्षों को बड़ा करने का संकल्प भी है। धर्म के संबंध में एक बुनियादी भ्रांति है और वह यह है कि धर्म आनंद का द्वार खोल देता है। लेकिन आनंद का द्वार उसके लिए ही खुलेगा, जिसके लिए यह पूरा जगत पीड़ा और दुख बन जाए, उसके पहले वह आनंद का द्वार नहीं खुलेगा। जिसे अभी पीड़ा ही नहीं अनुभव हुई, उसे आनंद का कोई अनुभव नहीं हो सकता है। तब हम उधार हो जाते हैं।
नानक ने भी भजन गाए हैं, लेकिन वे आनंद में गाए गए भजन हैं। और हमने अभी पीड़ा भी पार नहीं की, तो हम उन भजनों को गाएंगे, वे उधार हो जाएंगे, उनका कोई अर्थ नहीं रह जाएगा।
मीरा भी नाची है। कोई नर्तकी मीरा से अच्छा नाच सकती है। लेकिन उस नाचने में मीरा का आनंद नहीं होगा। क्योंकि उस नाचने के पहले मीरा की पीड़ा, मीरा की आग, मीरा की लंबी दुखद यात्रा नहीं है।
परमात्मा के दो पहलू हैं। एक विरह का, पीड़ा का, दुख का; और फिर आनंद का द्वार है। यह जो विरह और पीड़ा और दुख और अंधकार का रास्ता है, इस पर हम कोई भी न चलना चाहेंगे। हम सब चाहेंगे आनंद मिल जाए; हम सब चाहेंगे परमात्मा मिल जाए। इसलिए हम इस आधे परमात्मा की खोज पर, एक झूठी आधी खोज पर जीवन गंवा दें, अनेक जीवन गंवा दें, हमारा मिलन नहीं हो सकता है। वह जो आधा हिस्सा है पहले, वह कैसे पैदा हो, वही मैं कह रहा हूं। वह तभी पैदा होगा जब हमें हमारी जिंदगी की फ्यूटिलिटी, जिंदगी की व्यर्थता, जिंदगी की मीनिंगलेसनेस, उसकी अर्थहीनता का बोध हो।
सुबह उठते हैं, सांझ फिर सो जाते हैं; जन्मते हैं, मर जाते हैं; कमाते हैं, गंवाते हैं; पूरी जिंदगी की यह सारी कथा बिना किसी बड़े अर्थ के, बिना किसी बड़े प्रयोजन के--जैसे कि कोई तिनका लहरों पर डोलता रहता हो इस किनारे से उस किनारे, इस किनारे से उस किनारे, उस किनारे से इस किनारे, और सोचता हो कि मैं यात्रा कर रहा हूं--हम भी ठीक ऐसे ही जीते हैं और सोचते हैं कि यात्रा कर रहे हैं। यात्रा सिर्फ धार्मिक आदमी के जीवन में होती है। बाकी लोगों के जीवन में इस किनारे से उस किनारे होना होता है। यात्रा सिर्फ उनकी जिंदगी में संभव है, जिनकी जिंदगी में वह डायमेंशन, वह द्वार, वह आयाम खुल जाता है, जिसका नाम धर्म है।
लेकिन धर्म के नाम पर तो हमने पागलखाने खड़े कर रखे हैं। धर्म के नाम पर तो हमने विक्षिप्तताएं, मैडनेसेस खड़ी कर रखी हैं।
आज सुबह मैं आया तो मुझे धर्म का नया रूप दिखाई पड़ा। मैं बहुत आनंदित हुआ, क्योंकि परमात्मा की लीला अपार है और उसकी लीला देखने जैसी है। सुबह जब मैं आया तो काली झंडियां लेकर स्टेशन पर बहुत लोग खड़े देखे, तो मैंने सोचा कि संन्यासियों का स्वागत काली झंडियों से करने का रिवाज शायद नया है। पर मुझे यह पक्का नहीं हुआ कि मेरे ही स्वागत के लिए खड़े हैं, क्योंकि मेरे स्वागत के लिए इतने लोग आएंगे, इसका मुझे भरोसा नहीं। क्योंकि धार्मिक आदमी के स्वागत के लिए इतने लोग कहां आते हैं! शायद सोचा कि कोई और आता होगा। लेकिन जब वे मित्र मेरे ही पास आकर नारे लगाने लगे, तब मुझे पता चला कि नहीं, वे मेरे लिए आए हैं। तब तो मुझे और हैरानी हुई कि वे स्वागत बड़े मजेदार शब्दों में कर रहे हैं! वे मुझे कह रहे हैं कि आप अधार्मिक आदमी हो, लौट जाओ!
एक बात तो मुझे पक्की हो गई कि कम से कम उन्हें इतना पक्का है कि वे धार्मिक आदमी हैं।
धार्मिक आदमी होना इतना आसान है? और धार्मिक आदमी स्टेशनों पर काली झंडियां लिए हुए खड़े मिलेंगे? धार्मिक होने का उनका पक्का खयाल ही उन्हें धार्मिक होने से रोक लेगा। और दूसरा अधार्मिक है, यह सिर्फ अधार्मिक आदमी ही सोच सकता है। अन्यथा दूसरे से कोई प्रयोजन नहीं है। धार्मिक आदमी का प्रयोजन इस बात से है कि मैं धार्मिक हूं या नहीं हूं? दूसरे से क्या प्रयोजन है?
मैंने सुना है एक फकीर के बाबत, हसन के बाबत, कि एक रात उसने परमात्मा से प्रार्थना की कि मेरे पड़ोस में एक आदमी रहता है। यह बहुत अधार्मिक है। तू इसे दुनिया से उठा ही ले। यह चोर भी है, बेईमान भी है, नास्तिक भी।
रात सपने में परमात्मा ने उससे कहा, हसन, तू मुझसे भी ज्यादा समझदार मालूम होता है! इस आदमी को मैं चालीस साल से श्वास दे रहा हूं, इस आदमी को चालीस साल से भोजन दे रहा हूं, इस आदमी से चालीस साल में मैंने कोई शिकायत नहीं की, तू मुझसे भी ज्यादा धार्मिक हो गया मालूम होता है! क्योंकि तुझे यह आदमी अधार्मिक मालूम होने लगा!
दूसरे को अधार्मिक देखने का खयाल ही, दूसरे की चिंता करने का खयाल ही अधर्म है। अपनी चिंता करने का खयाल ही धर्म है। लेकिन हम दूसरे की चिंता में इतने उलझे हैं कि सिर्फ एक आदमी के बाबत नहीं सोचेंगे, वह अपना होना, बाकी सबके बाबत सोच लेंगे।
कभी आपने खयाल शायद न किया हो, आप शायद अपने संबंध में सोचने से भर वंचित रह जाएंगे और सारी दुनिया के बाबत सोच लेंगे। सुबह से उठ कर सांझ तक दूसरे के संबंध में सोचेंगे, सिर्फ अपने संबंध में नहीं सोचेंगे। जिंदगी गुजर जाएगी। एक नहीं, बहुत जिंदगी गुजर सकती हैं। अपने संबंध में जो नहीं सोचेगा, वह अपने भीतर के खालीपन का अनुभव भी नहीं कर पाएगा। और जिसे भीतर का खालीपन पता नहीं चलेगा, उसकी जिंदगी में परमात्मा की खोज शुरू नहीं होगी। भीतर का खालीपन एक पहलू है, परमात्मा की खोज उसी सिक्के का दूसरा पहलू है।
क्या आपको लगता है कि भीतर कोई कमी है? लगता है भीतर कोई अभाव है? लगता है भीतर कुछ खाली-खाली है?
तो आपकी जिंदगी में परमात्मा की किरण उतर सकती है। लेकिन इस खालीपन को ठीक से समझें। और समझ कर इस खालीपन से भागने और बचने की कोशिश मत करें। क्योंकि बचने के बहुत उपाय हैं। एक आदमी अपने भीतर के खालीपन से बचने के लिए सिनेमा में जाकर बैठ सकता है, तीन घंटे भूल जाएगा। दूसरा आदमी संगीत सुन सकता है, और भीतर के खालीपन को भूल जाएगा। तीसरा आदमी ताश खेल सकता है। चौथा आदमी सिगरेट पी सकता है। पांचवां आदमी भजन-कीर्तन करके भी अपने भीतर के खालीपन को भूलने की कोशिश कर सकता है। यह असली भजन-कीर्तन नहीं है, यह सिर्फ भुलावा है, फार्गेटफुलनेस है। यह अपने को भुलाना है, अपने को जानना नहीं है।
अगर भीतर का खालीपन दिखाई पड़े तो उससे एस्केप न करें, भागें मत, उस खालीपन में खड़े हो जाएं, उस खालीपन में खड़े हो जाएं। उस खालीपन में खड़े होने से ही पीड़ा शुरू हो जाएगी। उस खालीपन में खड़े होते से ही नीचे की जमीन खिसक जाएगी, ऊपर का आकाश खो जाएगा। उस खालीपन में खड़े होते से ही एक आह उठेगी, जो परमात्मा की खोज बन जाती है।
लेकिन खालीपन में खड़े होने को कोई भी राजी नहीं है। और जो आदमी राजी हो जाता है, उसकी जिंदगी बदल जाती है। हम सब भागते हैं। जरा खालीपन लगा, अखबार उठा कर पढ़ने लगेंगे। जरा खालीपन लगा कि कहीं उलझने की कोशिश करेंगे--कहीं भी आक्युपाइड, कहीं भी लग जाएं, कहीं भी डूब जाएं--चाहे शराब हो, चाहे संगीत हो, कहीं भी अपने को भुलाने की कोशिश करेंगे।
जो आदमी अपने को भुलाने की कोशिश करेगा, वह आदमी परमात्मा की खोज पर नहीं जा सकता है। जो आदमी अपने को नहीं जानता है, इस अज्ञान में खड़ा हो जाएगा, जो आदमी भीतर कुछ भी नहीं है मेरे, शून्य है, इस शून्य में बैठ जाएगा, वह आदमी प्रभु के स्मरण को उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि इस खालीपन में इतनी पीड़ा है, इस खालीपन में इतना अथाह दुख है, इस खालीपन में इतना दंश है, इस खालीपन में इतनी आग है कि वह सारी आग आपके भीतर परमात्मा की पुकार बन जाती है। उसके बिना परमात्मा की पुकार नहीं बनती।
मुझे याद आता है, फरीद की जिंदगी में मैंने सुना है कि फरीद एक दिन सुबह स्नान करने जा रहा था और एक आदमी ने रास्ते में पूछा, मेरी परमात्मा की खोज कब शुरू होगी?
तो फरीद ने कहा, आओ मेरे साथ स्नान कर लो, खोज शुरू करवा दूं।
वह आदमी फरीद के साथ गया। फरीद और वह, दोनों आदमी स्नान करने उतरे। जब उस आदमी ने डुबकी लगाई, तो फरीद ने उसकी गर्दन पकड़ कर पानी में पकड़ लिया जोर से। फरीद उसे दबाए चला गया। वह आदमी तो बहुत हैरान हुआ! फकीरों से ऐसी आशा नहीं होती है। हालांकि फकीर कभी-कभी आपके हित में आपकी गर्दन पकड़ लेते हैं। लेकिन फकीरों से ऐसी आशा नहीं होती है। उस आदमी ने सोचा भी नहीं था कि यह आदमी मेरी जान ले लेगा। उसे क्या पता कि यह आदमी जान दे रहा है। लेकिन गर्दन दब रही है, वह आदमी पूरी ताकत लगाया। फरीद मजबूत आदमी है, छूटना आसान नहीं है। पूरी शक्ति लगा दी उस आदमी ने, पूरी शक्ति लगा कर फरीद के चंगुल से बाहर होकर खड़ा हो गया। आंखें लाल हो गईं। उसने कहा कि आप आदमी कैसे हैं? मैं तो सोचता था मैं एक ईश्वर को पा लिया आदमी के पास आया, तुम हत्यारे निकले! यह तुम क्या कर रहे थे? मुझे मार डालते!
फरीद ने कहा, ये बातें पीछे हो लेंगी। पहले जरूरी बात हो ले। मैं तुमसे यह पूछता हूं कि जब तुम पानी के नीचे डूबे थे, तो कितने खयाल तुम्हारे मन में थे?
उसने कहा, कितने खयाल? खयाल का सवाल ही न था! जिंदगी में पहली दफा खयाल न थे। सिर्फ एक खयाल था--एक श्वास कैसे मिल जाए? एक श्वास कैसे ले लूं? और यह भी थोड़ी देर तक खयाल रहा, फिर खयाल मिट गया, फिर तो मेरा रोआं-रोआं चिल्लाने लगा--श्वास! फिर विचार न रहा श्वास का, रोआं-रोआं कंपने लगा, कण-कण बोलने लगा, हृदय की धड़कन-धड़कन चिल्लाने लगी--एक श्वास! फिर यह विचार न रहा, मेरे प्राण चिल्लाने लगे--श्वास!
तो फरीद ने कहा कि परमात्मा भी उस दिन मिल जाएगा, जिस दिन पूरे प्राण चिल्लाएंगे--परमात्मा!
स्मरण का यही अर्थ है। स्मरण का अर्थ झांझ-मजीरे पीट कर राम-राम चिल्लाना नहीं है। क्योंकि जिस राम-राम को बहुत दफे चिल्लाना पड़े, तो क्या मतलब है? अगर प्राण एक बार भी चिल्ला दें तो बात पूरी हो जाती है। और निष्प्राण जिंदगी भर कोई चिल्लाता रहे तो कुछ पूरा नहीं होता, सिर्फ समय खराब होता है।
फरीद ने उस आदमी को कहा, जिस दिन तेरे श्वास और रोएं-रोएं में एक ही आवाज रह जाएगी, आवाज भी नहीं कहना चाहिए, एक ही पुकार, एक ही अभीप्सा, एक ही प्यास रह जाएगी--परमात्मा! तो उस दिन बात पूरी हो जाएगी।
लेकिन इसके लिए ठीक वैसे ही, जैसे फरीद ने उसे नदी में दबा दिया, प्रत्ये
क व्यक्ति को स्वयं की शून्यता में दबाना पड़ता है, स्वयं के अभाव में दबाना पड़ता है। वह जो स्वयं की फ्यूटिलिटी है, वह जो स्वयं की व्यर्थता है, वह जो स्वयं का खाली हिस्सा है भीतर, उसमें दबाना पड़ता है। उसमें दबते ही स्मरण है।
लेकिन स्मरण का मतलब नाम नहीं है। स्मरण का मतलब शब्द नहीं है। स्मरण का मतलब: पुकार! स्मरण का मतलब: प्यास! स्मरण का मतलब: प्राणों की अकुलाहट! विचार नहीं, शब्द नहीं। मन का काम नहीं है परमात्मा के द्वार पर, पूरे प्राणों का काम है। मन तो बड़ी छोटी चीज है, एक कोने में है। हमारा पूरा प्राण बहुत बड़ी चीज है। उस पूरे प्राण से जब पुकार उठती है तो घटना घट जाती है। लेकिन उस पूरे प्राण से पुकार उठाने के लिए, अपने खालीपन को खोज लेना जरूरी है।
कठिनाई नहीं होगी उस खालीपन को खोजने में, वह सबके भीतर मौजूद है। सिर्फ आंख उठाने की जरूरत है। कई बार ऐसा हो जाता है: जो बहुत निकट है वह इसीलिए दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि बहुत निकट है। हम भूल जाते हैं, उसका स्मरण ही भूल जाते हैं। दूर की चीजें दिखाई पड़ती रहती हैं, पास की चीज भूल जाते हैं। जिसकी छाती पर कोहिनूर पड़ा हो उसे नहीं दिखाई पड़ता, दूसरों को दिखाई पड़ता है। भीतर ही हमारे वह खालीपन है, वह जगह है, वह मंदिर है, वह गुरुद्वारा है, वह मस्जिद है, जहां से परमात्मा का उदय हो सकता है। लेकिन उसे हम देखने नहीं जाएंगे, उसे हम खोजने नहीं जाएंगे, क्योंकि बहुत निकट है। काशी बहुत दूर है, मक्का बहुत दूर है, कैलाश बहुत दूर है, वहां हम चले जाएंगे।
लेकिन एक बात ध्यान रहे, जो मैं यहां हूं, काशी भी पहुंच कर यही रहूंगा, मैं नहीं बदल जाऊंगा। जगह बदलने से आदमी नहीं बदलते। जगह बदलने से आदमी बदलते होते तो दुनिया कभी की धार्मिक हो गई होती। जगह बदलना बहुत आसान है। हां, आदमी बदलने से जगह जरूर बदल जाती है। लेकिन जगह बदलने से आदमी नहीं बदलते। स्वयं को बदलना पड़े।
आज एक ही सूत्र आपसे कहता हूं। क्योंकि वे मित्र बहुत थक जाएंगे और उनके गले भी दुख जाएंगे, उन पर भी दया करनी चाहिए। क्योंकि जब तक मैं बोलूंगा, वे चुप नहीं होंगे, तो पाप मेरे ऊपर ही लगेगा।
(इस पूरे प्रवचन के दौरान कुछ लोग प्रवचन-स्थल के बिलकुल पास में ही लाउडस्पीकर लगा कर जोर-जोर से कीर्तन करने के बहाने शोरगुल मचा कर ओशो के प्रवचन में बाधा डालने का प्रयास करते रहे।)
आज रूस के बीस करोड़ लोग समझते हैं--गॉड इज़ डेड, ईश्वर मर चुका है। चीन के अस्सी करोड़ लोग रोज इस बात को गहराई से बढ़ाए चले जा रहे हैं--गॉड इज़ डेड, ईश्वर मर गया है। यूरोप और अमरीका की नई पीढ़ियां, भारत के जवान भी, ईश्वर मर गया है, इस बात से राजी होते जा रहे हैं। और मैं यह कहना चाहता हूं कि नीत्शे पागल होकर मरा, कहीं ऐसा न हो कि पूरी मनुष्यता को भी पागल होकर मरना पड़े। क्योंकि ईश्वर के बिना न तो नीत्शे जिंदा रह सकता है स्वस्थ होकर और न कोई और जिंदा रह सकता है।
असल में ईश्वर के मरने का मतलब ही यह होता है कि हमारे भीतर जो भी श्रेष्ठ है, जो भी सुंदर है, जो भी शुभ है, जो भी सत्य है, उसकी खोज मर गई। ईश्वर के मरने का यही मतलब होता है कि जिंदगी में रोशनी और प्रकाश की खोज मर गई। ईश्वर के मरने का यही मतलब होता है कि हम अपने शरीर होने पर राजी हो गए हैं और हमने अपनी आत्मा की खोज बंद कर दी है। हम वस्त्रों पर राजी हो गए हैं और हमने प्राणों की खोज बंद कर दी है। मंदिर अब भी खड़े हैं और उन मंदिरों में अब भी घंटियां बज रही हैं। आज भी चर्च हैं और उन चर्चों में आज भी परमात्मा को पुकारा जा रहा है। लेकिन आदमी के प्राणों का मंदिर तो गिरा हुआ दिखाई पड़ता है और आदमी की आत्मा का चर्च अब कहीं दिखाई नहीं पड़ता। पत्थर की दीवारें रह गई हैं, और उनमें किराए के पुजारी परमात्मा का नाम भी ले रहे हैं। लेकिन आदमी के प्राणों की प्यास और आदमी के प्राणों का प्रेम परमात्मा की तरफ अर्पित होना बंद हो चुका है। और इस सत्य को अगर ठीक से न समझा जा सके, तो शायद फिर हम उस प्रेम को दुबारा जगा भी न सकेंगे। जो बीमार ऐसा समझ ले कि वह स्वस्थ है, वह फिर बीमारी का इलाज करवाने नहीं जाता है। और जो अंधा समझ ले कि उसके पास आंखें हैं, वह फिर आंखों की तलाश क्यों करेगा?
इसलिए जब मैं आपसे यह कहता हूं तो आपके मन को बहुत तकलीफ होगी--वह तकलीफ मैं देना चाहता हूं--कि आपके प्राणों का मंदिर गिर चुका है और मंदिर में अब सिर्फ किराए के पुजारियों की आवाज के अतिरिक्त और कोई आवाज नहीं है। लेकिन यह कहना इसीलिए चाहता हूं ताकि यह सत्य खयाल में आ जाए, तो शायद हम प्राणों के मंदिर को बनाने में लग जाएं। और वह जो परमात्मा छोड़ कर चला गया है हृदय को, उसे हम वापस खोजने निकल पड़ें।
लेकिन मंदिरों का पुजारी चाहेगा कि हृदय का परमात्मा न खोजा जाए। क्योंकि जब कोई हृदय के परमात्मा को खोज लेता है तो मंदिर के परमात्मा की फिक्र छोड़ देता है। निश्चित ही, धर्म के ठेकेदार चाहेंगे कि असली परमात्मा की प्रतिमा प्रकट न हो। क्योंकि अगर असली प्रतिमा प्रकट हो जाए तो बाजार में बिकने वाली प्रतिमाओं का क्या होगा? आदमी बहुत बेईमान है। और आदमी ने सबसे बड़ी बेईमानी अपने साथ की है। और वह बेईमानी यह है कि वह नकली परमात्मा से राजी होने को तैयार हो गया। और हम सही को खोजने नहीं जाते, जब तक नकली सब्स्टीट्यूट का काम करता हो। जब तक नकली से काम चल जाता हो, कौन असली को खोजने जाए?
फिर नकली धर्म बहुत सस्ता है। असली धर्म जिंदगी का दांव है। नकली ईश्वर के लिए हमें कुछ भी नहीं खोना पड़ता, असली ईश्वर के लिए हमें अपने को पूरा ही खो देना पड़ता है। नकली ईश्वर से हम खुद कुछ मांगने जाते हैं, असली ईश्वर को सिवाय अपने को देने के और कोई उपाय नहीं है। नकली ईश्वर आसान है, कम्फर्टेबल है, कन्वीनिएंट है, सुविधापूर्ण है। असली ईश्वर खतरनाक है, जिंदा आग है, उसमें जलना पड़ता है, मिटना पड़ता है, राख हो जाना पड़ता है। और केवल वे ही अपने हृदय के मंदिर में परमात्मा को बुला पाते हैं जो अपने को राख करने के लिए तैयार हैं। इस धर्म की आग का नाम ही प्रेम है। कोई उसे प्रार्थना कहे, कोई उसे साधना कहे, कोई उसे पूजा कहे, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। लेकिन प्राणों में जो प्रेम की आग जलाने को तैयार है, वह परमात्मा को पाने का हकदार हो जाता है। लेकिन हकदार वही होता है जो खुद को खोने को तैयार है। यह बड़ी उलटी शर्त है। शायद इसीलिए हमने परमात्मा को खोजना बंद कर दिया। और शायद इसीलिए नीत्शे जैसे व्यक्ति कह पाते हैं कि नहीं, कोई ईश्वर नहीं है।
कहीं यह अपने को बचाने की कोशिश, कहीं यह अपने को बचाने का तर्क, कहीं यह अपने को बचाने का आर्ग्युमेंट तो नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम अपने को बचाने के लिए ईश्वर की तरफ पीठ करके खड़े हो जाते हैं?
ऐसा ही है! क्योंकि ईश्वर की तरफ जो मुंह करेगा, वह रुक न सकेगा, उसे बढ़ना ही पड़ेगा, उसे पूरा ही समर्पित हो जाना पड़ेगा। जिसने ईश्वर की तरफ आंख की, फिर वह एक क्षण रुक नहीं सकता, वह यात्रा पर निकल पड़ा। फिर तो यात्रा उसे पुकार ही लेगी और खींच ही लेगी।
यह कशिश ठीक वैसी ही है, जैसे कोई छत से छलांग लगा जाए और फिर पूछे कि छत से छलांग लगाने के बाद जमीन पर पहुंचने के लिए मुझे क्या करना पड़ेगा? हम उससे कहेंगे, कुछ भी न करना पड़ेगा। तुम सिर्फ छलांग लगाओ, तुम सिर्फ एक कदम उठाओ, बाकी जमीन कर लेगी। जमीन का ग्रेविटेशन, जमीन की कशिश, जमीन का गुरुत्वाकर्षण तुम्हें खींच लेगा। सिर्फ एक कदम तुम उठाओ, बाकी जमीन कर लेती है। सिर्फ परमात्मा की तरफ आंख भर उठ जाए, बाकी काम परमात्मा कर लेता है।
लेकिन वह आंख का खतरा है, बड़ी डेंजरस बात है। इसलिए हम पीठ करके खड़े हो जाते हैं। इतना हमारा बस है। हम परमात्मा को पाने के लिए तो कुछ भी नहीं कर सकते, लेकिन खोने के लिए सब कुछ कर सकते हैं।
मुझसे लोग पूछते हैं, ईश्वर को खोजना है!
तो मैं उनसे पूछता हूं, उसे तुमने खोया कहां? क्योंकि जिसे खोया हो उसे खोजा जा सकता है। तुमने उसे खोया कैसे? क्योंकि खोने की कोई तरकीब हो, तो खोजने की तरकीब उससे उलटी ही होती है।
मैं उन्हें एक छोटी सी कहानी कहता हूं, वह मैं आपसे भी कहूं।
एक दिन बुद्ध सुबह-सुबह आए। जैसे आज आप यहां इकट्ठे हो गए हैं, उस गांव के लोग उन्हें सुनने को इकट्ठे हो गए। वे अपने हाथ में एक रेशमी रूमाल लेकर आए। वे बैठ गए और उन्होंने रेशमी रूमाल में गांठें बांधनी शुरू कर दीं। उन्होंने पांच गांठें बांध दीं। और फिर बैठे हुए लोगों से पूछा कि मैं इन गांठों को खोलना चाहता हूं, क्या करूं? और फिर रूमाल को जोर से खींचा। खींचने से तो गांठें और भी बंध गईं। किसी एक आदमी ने खड़े होकर कहा, कृपा करके खींचिए मत, अन्यथा गांठें और बंध जाएंगी। तो बुद्ध ने कहा, मैं खोलने के लिए क्या करूं? तो उस आदमी ने कहा कि पहले मुझे गांठों को देख लेने दें कि वे किस ढंग से बांधी गई हैं। क्योंकि जो उनके बांधने का ढंग होगा, उससे उलटा उनके खोलने का ढंग है। और जब तक यह पता न हो कि कैसे गांठ बांधी गई है, तब तक खोलने का काम खतरनाक है, उसमें और गांठ बंध सकती है, और उलझ सकती है। पहले गांठ को ठीक से समझ लेना जरूरी है कि वह कैसी बंधी है, तभी खोलने का काम शुरू करना उचित है।
तो मैं, जो लोग ईश्वर के बाबत पूछते हैं, उनसे कहता हूं: तुमने खोया कहां? तुमने खोया कैसे? गांठ बंधी कैसे?
पर उन्हें कोई भी पता नहीं है; क्योंकि शायद यह खोने की घटना न मालूम कितने जन्मों पहले घटी हो। उन्हें कोई याद नहीं है। उन्हें पता ही नहीं है कि उन्होंने कभी खोया। और ध्यान रहे, जिसे यह भी पता नहीं है कि मैंने परमात्मा को खोया, उसकी खोज कभी आथेंटिक, प्रामाणिक नहीं हो सकती। क्योंकि जिसे हमने खोया ही नहीं है, उसे हम खोजने क्यों निकलेंगे? इसलिए जितने लोग ईश्वर को खोजते दिखाई पड़ते हैं, वे सिर्फ दिखाई पड़ते हैं, खोजने कोई निकलता नहीं। हम खोज उसी को सकते हैं, जिसके खोने की पीड़ा गहन हो गई हो, जिसके अभाव का कांटा जोर से गड़ रहा हो, जिसका विरह अनुभव हो रहा हो। और मिलन का आनंद भी तो केवल उसी के साथ हो सकता है, जिसके विरह की पीड़ा हमने झेली है। हम ईश्वर के विरह में जरा भी पीड़ित नहीं हैं। कोई भी पीड़ित नहीं है।
हां, लोग पीड़ित हैं। लेकिन उनके पीड़ित होने के कारण बहुत दूसरे हैं। कोई धन के न होने से पीड़ित है, कोई यश के न होने से पीड़ित है, कोई पद के न होने से पीड़ित है, कोई ज्ञान के न होने से पीड़ित है; किसी के कोई और कारण होंगे--स्वास्थ्य नहीं होगा; किसी के कोई और कारण होंगे--बड़ा मकान नहीं होगा; लेकिन ऐसा आदमी खोजे से मुश्किल से कभी मिलता है जो परमात्मा के न होने से पीड़ित है। उस आदमी को मैं धार्मिक आदमी कहता हूं जो परमात्मा के न होने से पीड़ित है।
क्या हम परमात्मा के न होने से पीड़ित हैं?
कोई भी पीड़ा नहीं। परमात्मा के न होने से हमारा काम बराबर चल रहा है। हां, कभी-कभी किसी दुख में उसका स्मरण आता है। वह भी स्मरण उसका नहीं है, वह भी स्मरण दुख का है और इस आशा का है कि शायद उसके स्मरण से यह दुख दूर हो जाए। इसीलिए सुख में लोग परमात्मा को याद नहीं करते। लोग कहते हैं, दुख में परमात्मा की याद आती है। लेकिन जिस परमात्मा की याद दुख में आती है, वह याद झूठी है। क्योंकि वह दुख के कारण आती है, परमात्मा के कारण नहीं आती।
इसलिए धार्मिक आदमी मैं उसको कहता हूं जिसे सुख में परमात्मा की याद आती है। लेकिन सुख में तो सिर्फ उसे ही याद आ सकती है, जिसे उसका अभाव खटक रहा हो, जिसे उसका खोना खटक रहा हो। जिसके पास महल हो, धन हो, सब हो, और फिर भी कहीं कोई खाली जगह हो जो धन से भी न भरती हो, मित्रों से भी न भरती हो, पत्नी से भी न भरती हो, पति से भी न भरती हो। उस एंप्टीनेस में परमात्मा के बीज का पहला अंकुरण होता है--उस खाली जगह में। क्या वह खाली जगह आपके पास है? क्या आपके हृदय का कोई कोना है जो किसी भी चीज से भरता नहीं है, खाली ही रह जाता है? आप सब डाल देते हैं और खाली ही रह जाता है?
नसरुद्दीन के संबंध में मैंने एक कहानी सुनी है। इस फकीर के पास एक दिन एक आदमी आया और उस आदमी ने नसरुद्दीन को कहा, मैं परमात्मा को खोजना चाहता हूं, कोई रास्ता बताओ! लोगों ने कहा है कि तुम रास्ता बता सकते हो।
नसरुद्दीन ने कहा, अभी तो मैं कुएं पर पानी भरने जाता हूं, तुम मेरे साथ हो लो। हो सकता है कुएं पर पानी भरते में ही तुम्हें रास्ते का भी पता चल जाए। और अगर पता न चले तो तुम लौट कर मेरे साथ चले आना, मैं तुम्हें रास्ता बता दूंगा। लेकिन ध्यान रखना, लौट कर चले आना, इसके पहले ही चले मत जाना।
उस आदमी ने कहा, आप भी क्या बात करते हैं? मैं परमात्मा को खोजने निकला हूं!
वह नसरुद्दीन के साथ हो लिया। नसरुद्दीन ने दो बाल्टियां अपने हाथ में लीं, रस्सी उठाई और उस आदमी से कहा कि जब तक मैं पानी भर न लूं, तब तक सवाल बीच में मत उठाना। यह तुम्हारे संयम की परीक्षा होगी। फिर लौट कर तुम सवाल पूछ लेना।
उस आदमी ने कहा, मुझे क्या मतलब तुम्हारे पानी भरने से और सवाल उठाने से! मैंने सवाल उठा दिया है कि मैं ईश्वर को खोजना चाहता हूं, रास्ता क्या है?
नसरुद्दीन कुएं पर पहुंचा। उसने एक बर्तन तो कुएं के पाट पर रख दिया। उस आदमी के मन में खयाल तो उठा कि यह क्या कर रहा है? क्योंकि उस पाट में कोई तलहटी न थी, वह बॉटमलेस था, वह पोला था दोनों तरफ से! पर उसने सोचा कि मुझे मना किया है प्रश्न पूछने को। तो थोड़ी देर रुका। नसरुद्दीन ने बाल्टी पानी की भरी कुएं से और उस बर्तन में डाली जिसमें कुछ भी रुक नहीं सकता था, क्योंकि वह तो पोला था दोनों तरफ से, उसमें कोई पेंदी न थी। एक बाल्टी पानी नीचे बह गया। नसरुद्दीन ने दूसरी बाल्टी डाली, तब उस आदमी के बर्दाश्त के बाहर हो गया, वह भूल गया कि वचन दिया है कि मैं सवाल नहीं उठाऊंगा। उसने कहा, यह क्या पागलपन कर रहे हैं? इस बर्तन में कभी पानी भरेगा नहीं।
नसरुद्दीन ने कहा, शर्त टूट गई, अब तुम जा सकते हो। क्योंकि मैंने कहा था जब तक मैं पानी न भर लूं और लौट न आऊं, तब तक तुम सवाल न उठाना।
उसने कहा, तो वह तो शर्त टूटती ही, क्योंकि यह तो कभी भी, कितनी ही जिंदगी पानी भरते रहो, इस बर्तन में भरने वाला नहीं है। मैं तुम जैसा पागल नहीं हूं।
वह आदमी नसरुद्दीन को छोड़ कर चला गया। जाते वक्त नसरुद्दीन ने कहा कि जो अभी पागल भी नहीं है, वह परमात्मा की खोज पर कैसे निकलेगा?
वह आदमी लौट गया। लेकिन रात नसरुद्दीन का वह वचन कि ‘जो आदमी पागल नहीं है, वह परमात्मा की खोज पर कैसे निकलेगा?’ उसकी नींद पर डोलता रहा, उसके सपनों में घुस गया। उसकी बार-बार करवट बदली और वे शब्द उसे गूंजे और सुनाई पड़े। एक तो वह आदमी पागल था। लेकिन उसे यह लगा कि कितना भी पागल हो, क्या इतना पागल हो सकता है कि ऐसे बर्तन में पानी भरे जिसमें पानी टिकता ही न हो! फिर उसे खयाल आया कि उस आदमी ने घर से चलते वक्त यह भी कहा था कि अगर तुम मौन से मेरे साथ रहे, तो हो सकता है पानी भरने में ही तुम्हारे सवाल का जवाब भी मिल जाए। कहीं वह जवाब तो नहीं दे रहा था?
तो वह सुबह भोर होने के पहले ही नसरुद्दीन के पास वापस पहुंचा और उसने कहा, मुझे माफ करो, मुझे लगता है कि मुझसे भूल हो गई। मुझे सवाल नहीं उठाना था, मुझे चुपचाप देखना था। कहीं तुम मेरे लिए कोई शिक्षा तो नहीं दे रहे थे?
नसरुद्दीन ने कहा, इससे बड़ी और शिक्षा क्या हो सकती थी! मैं तुम से यही कह रहा था कि तुम मुझे पागल कह रहे हो, और अपनी तरफ नहीं देखते कि जिस मन में तुम भरते चले जा रहे हो, जिंदगियों से सब कुछ, वह अभी तक खाली का खाली है, उसमें कुछ भी नहीं भर पाया, वह बिना पेंदी का बर्तन है।
एबिस की भांति है हमारा मन, एक खड्ड की भांति, जिसमें नीचे कोई तलहटी नहीं है। बॉटमलेस एबिस, एक गहरी खाई, जिसमें कोई भी नीचे तलहटी नहीं है। जिसमें हम गिरे तो गिरते ही रहेंगे, कहीं पहुंच नहीं सकते, गिरते ही रहेंगे अनंत-अनंत तक, एड इनफिनिटम गिरते रहेंगे और कहीं पहुंचेंगे नहीं।
लेकिन इस मन में हमने बहुत सी चीजें भर दी हैं। अब तक कोई चीज भरी नहीं है। बूढ़े का मन भी उतना ही खाली होता है जितना बच्चे का। लेकिन हिसाब कौन लगाए? बल्कि कई बार तो बूढ़े का और भी ज्यादा खाली हो जाता है, क्योंकि जिंदगी भर का अनुभव और भी रिक्तता, और भी खालीपन से भर जाता है। लेकिन हम जोर से भरे चले जाते हैं। हमारा तर्क यह है कि अगर मन खाली है तो और जोर से भरो तो भर जाएगा।
लेकिन अब तक मन जरा भी नहीं भर सका, तो कितने ही जोर से भरने से भी भर नहीं सकेगा। अगर रत्ती भर भी भर गया हो, तो फिर पहाड़ भर भी भर सकता था। लेकिन रत्ती भर भी मन नहीं भरता। मन एक खालीपन है, मन एक एंप्टीनेस है, जिसमें कभी कुछ नहीं भरता।
सिकंदर के बाबत मैंने सुना है कि वह उदास हो गया, क्योंकि उसके एक मित्र ने एक फकीर की खबर उसको लाकर दी थी। उसके मित्र ने कहा था कि मैं एक फकीर के पास से गुजर रहा था, उसने एक खबर भेजी है सिकंदर तुम्हारे लिए। उसने यह कहा है कि मैंने सुना है, सिकंदर पूरी दुनिया जीतने निकला है! तो उस फकीर ने कहा, मेरी खबर सिकंदर से कह देना कि जब तुम पूरी दुनिया जीत लोगे तो फिर क्या करोगे? क्योंकि दूसरी और दुनिया नहीं है।
अभी सिकंदर ने दुनिया जीत नहीं ली थी, अभी सिर्फ जीतने निकला था। लेकिन वह उदास बैठ गया और उसने कहा कि अरे, यह तो मैंने सोचा ही नहीं! अगर मैं पूरी दुनिया जीत लूंगा तो फिर क्या करूंगा? दूसरी दुनिया तो नहीं है। वह उदास हो गया सिकंदर इस खयाल से भी कि दूसरी दुनिया नहीं है। तो क्या इतनी पूरी दुनिया भी सिकंदर के मन को न भर पाएगी कि दूसरी दुनिया की जरूरत फिर बाकी रह जाए? रह ही जाएगी।
मैंने सुना है, सिकंदर जब मरा तो उसने कहा था, मेरे दोनों हाथ अरथी के बाहर लटके रहने देना, ताकि लोग देख लें कि मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं, मेरे हाथ भी भरे हुए नहीं हैं।
सभी लोग खाली हाथ जाते हैं। लेकिन खाली हाथ जाते हैं, यह बड़ा सत्य नहीं है। खाली हाथ जाते इसलिए हैं कि जिंदगी भर खाली हाथ रहते हैं। अन्यथा जाएंगे कैसे खाली हाथ? खाली हाथ हम मरते हैं, क्योंकि जिंदगी भर हम खाली हाथ होते हैं। और खाली हाथ का हमें कोई भी पता नहीं। उस खाली जगह का कोई पता नहीं जो हमारे हृदय में है। उस खाली जगह का बोध आदमी में धर्म की जिज्ञासा पैदा करता है।
ईश्वर को खोजने मत निकलें, पहले अपने हृदय की खाली जगह को खोजें। इसके पहले कि मेहमान को निमंत्रण दें, घर में जगह है, उसे साफ-सुथरा कर लें और फिर...। उसे खोजने मत निकलें, वह शायद द्वार पर ही खड़ा है। आपकी खाली जगह साफ हो जाए, वह भीतर प्रवेश कर जाएगा। लेकिन हमारे हृदय में कोई खाली जगह है? अगर खोजेंगे तो बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे, विचार ही विचार भरे हुए मिलेंगे, वासनाएं ही वासनाएं भरी हुई मिलेंगी, इच्छाएं ही इच्छाएं भरी हुई मिलेंगी, कहीं कोई खाली जगह दिखाई नहीं पड़ेगी और फिर भी मन हमेशा खाली लगेगा। पूरे वक्त कुछ न कुछ भरा है, ऐसा प्रतीत होगा; और पूरे समय खाली हैं, कुछ भी हाथ में नहीं है, यह भी प्रतीत होगा। यही आदमी का पैराडॉक्स है, यही आदमी की उलझन है--खाली है बिलकुल, भरे होने का सिर्फ सपना है, सिर्फ खयाल है।
विचार, वासनाएं, इच्छाएं--इनसे कोई कभी भर नहीं सकता। लेकिन इनसे ही हम भरे हुए मालूम पड़ते हैं। और ये बिलकुल हवा में खींची गई लकीरें हैं या कहिए पानी पर खींची गई लकीरें हैं, खींच भी नहीं पाते और मिट जाती हैं। लेकिन हम इन्हीं में भरे हुए जी लेते हैं और एक दिन खाली हाथ विदा हो जाते हैं। न मालूम कितने जन्मों तक ऐसी कहानी चलती है। और फिर हम भूल ही जाते हैं इस बात को कि कुछ जो हो सकता था, वह होने से वंचित रह गया है। कुछ जो हमारे भीतर प्रकट हो सकता था, वह प्रकट नहीं हो पाया। कोई द्वार जो खुल सकता था, वह बंद रह गया। कोई बीज जो टूट सकता था, वह अनटूटा रह गया। कोई झरना जो खुल सकता था, वह नहीं खुल पाया। लेकिन लंबे समय और लंबी यात्रा में यह बात भूल जाती है। और हमारी यात्राएं एक दिन की यात्राएं नहीं हैं, हमारी यात्राएं लंबी यात्राएं हैं।
लेकिन एक जन्म में भी हम भूल जाते हैं। अगर आपसे मैं पूछूं कि पांच वर्ष की उम्र के पहले की कोई याददाश्त आपको है? तो शायद ही आपको कोई याददाश्त हो। आप थे तो जरूर, लेकिन पांच साल से पहले की कोई याददाश्त नहीं है। आप थे जरूर, अन्यथा आप आज नहीं हो सकते थे। लेकिन याददाश्त कोई भी नहीं है। लेकिन अगर आपको सम्मोहित किया जाए और गहरी तंद्रा में ले जाया जाए तो आपको पांच साल के पहले की याददाश्त आनी शुरू हो जाएगी। न केवल पांच साल के पहले की याददाश्त, बल्कि मां के पेट में जो आपके अनुभव हुए, वे भी याद आ जाते हैं। अगर मां गिर पड़ी हो और आप पेट में रहे हों, तो उसकी भी याददाश्त आपके पास छिपी पड़ी है। आप जब पहली दफे मां के गर्भ में प्रविष्ट हुए, उसकी याददाश्त भी आपके भीतर छिपी पड़ी है। और आप जब पिछले जन्म में मरे और खाट पर पड़े थे, उसकी याददाश्त भी आपके भीतर पड़ी है। वे सारी याददाश्तें भीतर संगृहीत हैं। और इन याददाश्तों का... एवरेस्ट की चोटी बहुत छोटी है और पैसिफिक महासागर बहुत गहरा नहीं है। एक-एक आदमी के भीतर याददाश्तों की जितनी परतें हैं, उनके मुकाबले एवरेस्ट की चोटी छोटी है और पैसिफिक महासागर की गहराई कम है।
इन सारी याददाश्तों में एक बात भूल गई है कि मैं अब भी खाली हूं। और यह याद न आ जाए, तो हमारे जीवन में परमात्मा की खोज शुरू नहीं हो सकती। परमात्मा की खोज, परमात्मा शब्द को सुनने से नहीं हो सकती। शब्द ‘परमात्मा’ परमात्मा नहीं है। परमात्मा की खोज किसी दूसरे आदमी को परमात्मा खोजते देख कर पैदा नहीं हो सकती। और अगर होगी तो उधार होगी, असली नहीं होगी। और कम से कम परमात्मा के दरवाजे पर नकली चीजें, उधार चीजें, बारोड चीजें नहीं चलती हैं, वहां कुछ अपना ही लेकर मौजूद होना पड़ता है। कुछ अपना! वहां वह ज्ञान काम नहीं पड़ेगा जो दूसरों से मिला, वहां वे शब्द काम नहीं पड़ेंगे जो दूसरों से सीखे गए, वहां वे सिद्धांत काम नहीं पड़ेंगे जो परंपराएं सिखा जाती हैं। वहां तो अपना ही कुछ निवेदन करना होगा।
लेकिन हमें तो परमात्मा भी एक नकल है, इमिटेशन है। पिता को देख कर बेटा परमात्मा को खोजने लगता है। पड़ोस को देख कर आदमी परमात्मा को खोजने लगता है। बड़ों को मंदिर में जाते देख कर छोटे बच्चे मंदिर में चले जाते हैं। और वे बड़े भी अपने बड़ों को देख कर मंदिर में चले गए हैं। और उनके बड़ों ने भी यही किया है। क्या हम परमात्मा को सिर्फ इमिटेशन बना सकते हैं? क्या हम किसी के पीछे चल कर कभी परमात्मा को पा सकते हैं?
असंभव है यह बात! क्योंकि जो अर्ज, जो प्राणों की प्यास अभी मेरी नहीं है...। और झूठी प्यास नहीं होती। और झूठी प्यास का आदमी सरोवर तक कभी नहीं पहुंच सकता। और अगर झूठी प्यास का आदमी सरोवर के पास भी पहुंच जाए तो पानी को पहचान नहीं पाता कि यह पानी है। क्योंकि पानी को पहचानने के लिए अपनी प्यास चाहिए। प्यास ही पानी की पहचान है! उसको पहचानेगा कौन?
परमात्मा तो चौबीस घड़ी चारों तरफ मौजूद है। लेकिन प्यास न होने से कोई उसे काशी खोजने जाएगा, कोई मक्का खोजने जाएगा, कोई जेरुसलम खोजने जाएगा, कोई कैलाश खोजने जाएगा। प्यास न होने से हमें कहीं और खोजने जाना पड़ता है। प्यास हो तो श्वास-श्वास में, हवा के कण-कण में, वृक्ष के पत्ते-पत्ते में वह मौजूद है। वही मौजूद है, और तो कोई भी नहीं है। उसके अतिरिक्त और किसी का कोई अस्तित्व नहीं है।
लेकिन उसका हमें कोई पता नहीं चलता। उसका हमें कोई पता नहीं चलेगा। नहीं चलेगा इसलिए कि जैसा यह बाहर चल रहा है, ऐसा ही उपद्रव हम सबके भीतर भी चल रहा है। विचारों का झंझावात है भीतर, वह चल रहा है जोर से। हम उसमें लगे हैं। खाली जगह का कोई पता नहीं चलता। खाली जगह का बोध ही नहीं होता, कहीं कोई पीड़ा नहीं पकड़ती।
वह पीड़ा पकड़ सकती है। अगर हम नानक को देखें, या कबीर को, या रैदास को, या फरीद को, या महावीर को, या बुद्ध को, या जीसस को, या मोहम्मद को, तो इनकी जिंदगी में हम दो मौके पाएंगे। लेकिन हम बड़े बेईमान हैं अपने साथ। और हम उनमें से एक मौके को देखना ही नहीं चाहते, सिर्फ दूसरे को देखते हैं। नानक की जिंदगी में दो मौके पाएंगे। एक वह वक्त है जब नानक रोते हुए हैं और एक वह वक्त है जब वे आनंद से भर गए हैं। एक वह वक्त है जो पीड़ा और विरह का है और एक वह वक्त है जो फुलफिलमेंट का है, जो पा लेने का है। लेकिन हम सिर्फ पा लेने के वक्त को देखते हैं और पीड़ा के वक्त की बात ही नहीं करते। एक समय है मीरा का जो रोने का है और एक समय है जो नाचने का है। हमने नाचने का तो याद रख लिया, रोने की बात ही हम भूल गए। बुद्ध की जिंदगी में एक वक्त है जब रोशनी आ गई, लेकिन एक वह वक्त भी है जब अमावस की काली रात है।
हम भी रोशनी चाहते हैं, लेकिन अमावस की काली रात कौन चाहेगा? हम भी मिलना चाहते हैं, लेकिन विरह कौन भोगेगा? हम भी परमात्मा के आनंद में डूबना चाहते हैं, लेकिन उसकी पीड़ा?
हमने किसी मां को बच्चा पैदा होते देख लिया है। और जब बच्चा पैदा होता है और मां की आंख पहली बार अपने बच्चे को देखती है, तो उसकी आंखों के आनंद का कोई पारावार नहीं है। लेकिन प्रसव की पीड़ा कौन भोगेगा? वह प्रसव की पीड़ा के बाद यह मुस्कान है।
तो हमने नानक की मुस्कुराती तस्वीर तो खयाल में रख ली और हम सोचते हैं कि कब वह मौका आए कि हम भी ऐसे ही आनंद से भर जाएं! लेकिन हम वह तस्वीर छोड़ दिए हैं खयाल जो रोती हुई है, जब प्राण आंसू-आंसू हो गए हैं, जब कि हृदय क्षार-क्षार है, जब कि सिवाय आंसुओं के और कुछ भी नहीं है, जब कि सिवाय पुकार के और कुछ भी नहीं है। वह हमारे खयाल में नहीं है।
परमात्मा को आधा नहीं चुना जा सकता, उसको पूरा ही चुनना पड़ेगा। उसका पहला हिस्सा पहले पूरा करना पड़ेगा, तब दूसरा हिस्सा पूरा होता है। फूल तो कोई भी पसंद कर लेता है, लेकिन बीज बोने की मेहनत भी है। और फूल तो कोई भी मुस्कुरा कर स्वागत कर लेता है, लेकिन वृक्षों को बड़ा करने का संकल्प भी है। धर्म के संबंध में एक बुनियादी भ्रांति है और वह यह है कि धर्म आनंद का द्वार खोल देता है। लेकिन आनंद का द्वार उसके लिए ही खुलेगा, जिसके लिए यह पूरा जगत पीड़ा और दुख बन जाए, उसके पहले वह आनंद का द्वार नहीं खुलेगा। जिसे अभी पीड़ा ही नहीं अनुभव हुई, उसे आनंद का कोई अनुभव नहीं हो सकता है। तब हम उधार हो जाते हैं।
नानक ने भी भजन गाए हैं, लेकिन वे आनंद में गाए गए भजन हैं। और हमने अभी पीड़ा भी पार नहीं की, तो हम उन भजनों को गाएंगे, वे उधार हो जाएंगे, उनका कोई अर्थ नहीं रह जाएगा।
मीरा भी नाची है। कोई नर्तकी मीरा से अच्छा नाच सकती है। लेकिन उस नाचने में मीरा का आनंद नहीं होगा। क्योंकि उस नाचने के पहले मीरा की पीड़ा, मीरा की आग, मीरा की लंबी दुखद यात्रा नहीं है।
परमात्मा के दो पहलू हैं। एक विरह का, पीड़ा का, दुख का; और फिर आनंद का द्वार है। यह जो विरह और पीड़ा और दुख और अंधकार का रास्ता है, इस पर हम कोई भी न चलना चाहेंगे। हम सब चाहेंगे आनंद मिल जाए; हम सब चाहेंगे परमात्मा मिल जाए। इसलिए हम इस आधे परमात्मा की खोज पर, एक झूठी आधी खोज पर जीवन गंवा दें, अनेक जीवन गंवा दें, हमारा मिलन नहीं हो सकता है। वह जो आधा हिस्सा है पहले, वह कैसे पैदा हो, वही मैं कह रहा हूं। वह तभी पैदा होगा जब हमें हमारी जिंदगी की फ्यूटिलिटी, जिंदगी की व्यर्थता, जिंदगी की मीनिंगलेसनेस, उसकी अर्थहीनता का बोध हो।
सुबह उठते हैं, सांझ फिर सो जाते हैं; जन्मते हैं, मर जाते हैं; कमाते हैं, गंवाते हैं; पूरी जिंदगी की यह सारी कथा बिना किसी बड़े अर्थ के, बिना किसी बड़े प्रयोजन के--जैसे कि कोई तिनका लहरों पर डोलता रहता हो इस किनारे से उस किनारे, इस किनारे से उस किनारे, उस किनारे से इस किनारे, और सोचता हो कि मैं यात्रा कर रहा हूं--हम भी ठीक ऐसे ही जीते हैं और सोचते हैं कि यात्रा कर रहे हैं। यात्रा सिर्फ धार्मिक आदमी के जीवन में होती है। बाकी लोगों के जीवन में इस किनारे से उस किनारे होना होता है। यात्रा सिर्फ उनकी जिंदगी में संभव है, जिनकी जिंदगी में वह डायमेंशन, वह द्वार, वह आयाम खुल जाता है, जिसका नाम धर्म है।
लेकिन धर्म के नाम पर तो हमने पागलखाने खड़े कर रखे हैं। धर्म के नाम पर तो हमने विक्षिप्तताएं, मैडनेसेस खड़ी कर रखी हैं।
आज सुबह मैं आया तो मुझे धर्म का नया रूप दिखाई पड़ा। मैं बहुत आनंदित हुआ, क्योंकि परमात्मा की लीला अपार है और उसकी लीला देखने जैसी है। सुबह जब मैं आया तो काली झंडियां लेकर स्टेशन पर बहुत लोग खड़े देखे, तो मैंने सोचा कि संन्यासियों का स्वागत काली झंडियों से करने का रिवाज शायद नया है। पर मुझे यह पक्का नहीं हुआ कि मेरे ही स्वागत के लिए खड़े हैं, क्योंकि मेरे स्वागत के लिए इतने लोग आएंगे, इसका मुझे भरोसा नहीं। क्योंकि धार्मिक आदमी के स्वागत के लिए इतने लोग कहां आते हैं! शायद सोचा कि कोई और आता होगा। लेकिन जब वे मित्र मेरे ही पास आकर नारे लगाने लगे, तब मुझे पता चला कि नहीं, वे मेरे लिए आए हैं। तब तो मुझे और हैरानी हुई कि वे स्वागत बड़े मजेदार शब्दों में कर रहे हैं! वे मुझे कह रहे हैं कि आप अधार्मिक आदमी हो, लौट जाओ!
एक बात तो मुझे पक्की हो गई कि कम से कम उन्हें इतना पक्का है कि वे धार्मिक आदमी हैं।
धार्मिक आदमी होना इतना आसान है? और धार्मिक आदमी स्टेशनों पर काली झंडियां लिए हुए खड़े मिलेंगे? धार्मिक होने का उनका पक्का खयाल ही उन्हें धार्मिक होने से रोक लेगा। और दूसरा अधार्मिक है, यह सिर्फ अधार्मिक आदमी ही सोच सकता है। अन्यथा दूसरे से कोई प्रयोजन नहीं है। धार्मिक आदमी का प्रयोजन इस बात से है कि मैं धार्मिक हूं या नहीं हूं? दूसरे से क्या प्रयोजन है?
मैंने सुना है एक फकीर के बाबत, हसन के बाबत, कि एक रात उसने परमात्मा से प्रार्थना की कि मेरे पड़ोस में एक आदमी रहता है। यह बहुत अधार्मिक है। तू इसे दुनिया से उठा ही ले। यह चोर भी है, बेईमान भी है, नास्तिक भी।
रात सपने में परमात्मा ने उससे कहा, हसन, तू मुझसे भी ज्यादा समझदार मालूम होता है! इस आदमी को मैं चालीस साल से श्वास दे रहा हूं, इस आदमी को चालीस साल से भोजन दे रहा हूं, इस आदमी से चालीस साल में मैंने कोई शिकायत नहीं की, तू मुझसे भी ज्यादा धार्मिक हो गया मालूम होता है! क्योंकि तुझे यह आदमी अधार्मिक मालूम होने लगा!
दूसरे को अधार्मिक देखने का खयाल ही, दूसरे की चिंता करने का खयाल ही अधर्म है। अपनी चिंता करने का खयाल ही धर्म है। लेकिन हम दूसरे की चिंता में इतने उलझे हैं कि सिर्फ एक आदमी के बाबत नहीं सोचेंगे, वह अपना होना, बाकी सबके बाबत सोच लेंगे।
कभी आपने खयाल शायद न किया हो, आप शायद अपने संबंध में सोचने से भर वंचित रह जाएंगे और सारी दुनिया के बाबत सोच लेंगे। सुबह से उठ कर सांझ तक दूसरे के संबंध में सोचेंगे, सिर्फ अपने संबंध में नहीं सोचेंगे। जिंदगी गुजर जाएगी। एक नहीं, बहुत जिंदगी गुजर सकती हैं। अपने संबंध में जो नहीं सोचेगा, वह अपने भीतर के खालीपन का अनुभव भी नहीं कर पाएगा। और जिसे भीतर का खालीपन पता नहीं चलेगा, उसकी जिंदगी में परमात्मा की खोज शुरू नहीं होगी। भीतर का खालीपन एक पहलू है, परमात्मा की खोज उसी सिक्के का दूसरा पहलू है।
क्या आपको लगता है कि भीतर कोई कमी है? लगता है भीतर कोई अभाव है? लगता है भीतर कुछ खाली-खाली है?
तो आपकी जिंदगी में परमात्मा की किरण उतर सकती है। लेकिन इस खालीपन को ठीक से समझें। और समझ कर इस खालीपन से भागने और बचने की कोशिश मत करें। क्योंकि बचने के बहुत उपाय हैं। एक आदमी अपने भीतर के खालीपन से बचने के लिए सिनेमा में जाकर बैठ सकता है, तीन घंटे भूल जाएगा। दूसरा आदमी संगीत सुन सकता है, और भीतर के खालीपन को भूल जाएगा। तीसरा आदमी ताश खेल सकता है। चौथा आदमी सिगरेट पी सकता है। पांचवां आदमी भजन-कीर्तन करके भी अपने भीतर के खालीपन को भूलने की कोशिश कर सकता है। यह असली भजन-कीर्तन नहीं है, यह सिर्फ भुलावा है, फार्गेटफुलनेस है। यह अपने को भुलाना है, अपने को जानना नहीं है।
अगर भीतर का खालीपन दिखाई पड़े तो उससे एस्केप न करें, भागें मत, उस खालीपन में खड़े हो जाएं, उस खालीपन में खड़े हो जाएं। उस खालीपन में खड़े होने से ही पीड़ा शुरू हो जाएगी। उस खालीपन में खड़े होते से ही नीचे की जमीन खिसक जाएगी, ऊपर का आकाश खो जाएगा। उस खालीपन में खड़े होते से ही एक आह उठेगी, जो परमात्मा की खोज बन जाती है।
लेकिन खालीपन में खड़े होने को कोई भी राजी नहीं है। और जो आदमी राजी हो जाता है, उसकी जिंदगी बदल जाती है। हम सब भागते हैं। जरा खालीपन लगा, अखबार उठा कर पढ़ने लगेंगे। जरा खालीपन लगा कि कहीं उलझने की कोशिश करेंगे--कहीं भी आक्युपाइड, कहीं भी लग जाएं, कहीं भी डूब जाएं--चाहे शराब हो, चाहे संगीत हो, कहीं भी अपने को भुलाने की कोशिश करेंगे।
जो आदमी अपने को भुलाने की कोशिश करेगा, वह आदमी परमात्मा की खोज पर नहीं जा सकता है। जो आदमी अपने को नहीं जानता है, इस अज्ञान में खड़ा हो जाएगा, जो आदमी भीतर कुछ भी नहीं है मेरे, शून्य है, इस शून्य में बैठ जाएगा, वह आदमी प्रभु के स्मरण को उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि इस खालीपन में इतनी पीड़ा है, इस खालीपन में इतना अथाह दुख है, इस खालीपन में इतना दंश है, इस खालीपन में इतनी आग है कि वह सारी आग आपके भीतर परमात्मा की पुकार बन जाती है। उसके बिना परमात्मा की पुकार नहीं बनती।
मुझे याद आता है, फरीद की जिंदगी में मैंने सुना है कि फरीद एक दिन सुबह स्नान करने जा रहा था और एक आदमी ने रास्ते में पूछा, मेरी परमात्मा की खोज कब शुरू होगी?
तो फरीद ने कहा, आओ मेरे साथ स्नान कर लो, खोज शुरू करवा दूं।
वह आदमी फरीद के साथ गया। फरीद और वह, दोनों आदमी स्नान करने उतरे। जब उस आदमी ने डुबकी लगाई, तो फरीद ने उसकी गर्दन पकड़ कर पानी में पकड़ लिया जोर से। फरीद उसे दबाए चला गया। वह आदमी तो बहुत हैरान हुआ! फकीरों से ऐसी आशा नहीं होती है। हालांकि फकीर कभी-कभी आपके हित में आपकी गर्दन पकड़ लेते हैं। लेकिन फकीरों से ऐसी आशा नहीं होती है। उस आदमी ने सोचा भी नहीं था कि यह आदमी मेरी जान ले लेगा। उसे क्या पता कि यह आदमी जान दे रहा है। लेकिन गर्दन दब रही है, वह आदमी पूरी ताकत लगाया। फरीद मजबूत आदमी है, छूटना आसान नहीं है। पूरी शक्ति लगा दी उस आदमी ने, पूरी शक्ति लगा कर फरीद के चंगुल से बाहर होकर खड़ा हो गया। आंखें लाल हो गईं। उसने कहा कि आप आदमी कैसे हैं? मैं तो सोचता था मैं एक ईश्वर को पा लिया आदमी के पास आया, तुम हत्यारे निकले! यह तुम क्या कर रहे थे? मुझे मार डालते!
फरीद ने कहा, ये बातें पीछे हो लेंगी। पहले जरूरी बात हो ले। मैं तुमसे यह पूछता हूं कि जब तुम पानी के नीचे डूबे थे, तो कितने खयाल तुम्हारे मन में थे?
उसने कहा, कितने खयाल? खयाल का सवाल ही न था! जिंदगी में पहली दफा खयाल न थे। सिर्फ एक खयाल था--एक श्वास कैसे मिल जाए? एक श्वास कैसे ले लूं? और यह भी थोड़ी देर तक खयाल रहा, फिर खयाल मिट गया, फिर तो मेरा रोआं-रोआं चिल्लाने लगा--श्वास! फिर विचार न रहा श्वास का, रोआं-रोआं कंपने लगा, कण-कण बोलने लगा, हृदय की धड़कन-धड़कन चिल्लाने लगी--एक श्वास! फिर यह विचार न रहा, मेरे प्राण चिल्लाने लगे--श्वास!
तो फरीद ने कहा कि परमात्मा भी उस दिन मिल जाएगा, जिस दिन पूरे प्राण चिल्लाएंगे--परमात्मा!
स्मरण का यही अर्थ है। स्मरण का अर्थ झांझ-मजीरे पीट कर राम-राम चिल्लाना नहीं है। क्योंकि जिस राम-राम को बहुत दफे चिल्लाना पड़े, तो क्या मतलब है? अगर प्राण एक बार भी चिल्ला दें तो बात पूरी हो जाती है। और निष्प्राण जिंदगी भर कोई चिल्लाता रहे तो कुछ पूरा नहीं होता, सिर्फ समय खराब होता है।
फरीद ने उस आदमी को कहा, जिस दिन तेरे श्वास और रोएं-रोएं में एक ही आवाज रह जाएगी, आवाज भी नहीं कहना चाहिए, एक ही पुकार, एक ही अभीप्सा, एक ही प्यास रह जाएगी--परमात्मा! तो उस दिन बात पूरी हो जाएगी।
लेकिन इसके लिए ठीक वैसे ही, जैसे फरीद ने उसे नदी में दबा दिया, प्रत्ये
क व्यक्ति को स्वयं की शून्यता में दबाना पड़ता है, स्वयं के अभाव में दबाना पड़ता है। वह जो स्वयं की फ्यूटिलिटी है, वह जो स्वयं की व्यर्थता है, वह जो स्वयं का खाली हिस्सा है भीतर, उसमें दबाना पड़ता है। उसमें दबते ही स्मरण है।
लेकिन स्मरण का मतलब नाम नहीं है। स्मरण का मतलब शब्द नहीं है। स्मरण का मतलब: पुकार! स्मरण का मतलब: प्यास! स्मरण का मतलब: प्राणों की अकुलाहट! विचार नहीं, शब्द नहीं। मन का काम नहीं है परमात्मा के द्वार पर, पूरे प्राणों का काम है। मन तो बड़ी छोटी चीज है, एक कोने में है। हमारा पूरा प्राण बहुत बड़ी चीज है। उस पूरे प्राण से जब पुकार उठती है तो घटना घट जाती है। लेकिन उस पूरे प्राण से पुकार उठाने के लिए, अपने खालीपन को खोज लेना जरूरी है।
कठिनाई नहीं होगी उस खालीपन को खोजने में, वह सबके भीतर मौजूद है। सिर्फ आंख उठाने की जरूरत है। कई बार ऐसा हो जाता है: जो बहुत निकट है वह इसीलिए दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि बहुत निकट है। हम भूल जाते हैं, उसका स्मरण ही भूल जाते हैं। दूर की चीजें दिखाई पड़ती रहती हैं, पास की चीज भूल जाते हैं। जिसकी छाती पर कोहिनूर पड़ा हो उसे नहीं दिखाई पड़ता, दूसरों को दिखाई पड़ता है। भीतर ही हमारे वह खालीपन है, वह जगह है, वह मंदिर है, वह गुरुद्वारा है, वह मस्जिद है, जहां से परमात्मा का उदय हो सकता है। लेकिन उसे हम देखने नहीं जाएंगे, उसे हम खोजने नहीं जाएंगे, क्योंकि बहुत निकट है। काशी बहुत दूर है, मक्का बहुत दूर है, कैलाश बहुत दूर है, वहां हम चले जाएंगे।
लेकिन एक बात ध्यान रहे, जो मैं यहां हूं, काशी भी पहुंच कर यही रहूंगा, मैं नहीं बदल जाऊंगा। जगह बदलने से आदमी नहीं बदलते। जगह बदलने से आदमी बदलते होते तो दुनिया कभी की धार्मिक हो गई होती। जगह बदलना बहुत आसान है। हां, आदमी बदलने से जगह जरूर बदल जाती है। लेकिन जगह बदलने से आदमी नहीं बदलते। स्वयं को बदलना पड़े।
आज एक ही सूत्र आपसे कहता हूं। क्योंकि वे मित्र बहुत थक जाएंगे और उनके गले भी दुख जाएंगे, उन पर भी दया करनी चाहिए। क्योंकि जब तक मैं बोलूंगा, वे चुप नहीं होंगे, तो पाप मेरे ऊपर ही लगेगा।
(इस पूरे प्रवचन के दौरान कुछ लोग प्रवचन-स्थल के बिलकुल पास में ही लाउडस्पीकर लगा कर जोर-जोर से कीर्तन करने के बहाने शोरगुल मचा कर ओशो के प्रवचन में बाधा डालने का प्रयास करते रहे।)