DARIYADAS
Dariya Kahe Sabad Nirvana 09
Ninth Discourse from the series of 9 discourses - Dariya Kahe Sabad Nirvana by Osho. These discourses were given during JAN 21-30 1979.
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भूले संपति स्वारथ मूढ़ा। परे भवन में अगम अगूढ़ा।।
संत निकट फिनि जाहिं दुराई। विषय-बासरस फेरि लपटाई।।
अब का सोचसि मदहिं भुलाना। सेमर सेइ सुगा पछिताना।।
मरनकाल कोइ संगि न साथा। जब जम मस्तक दीन्हेउ हाथा।।
माता पिता घरनी घर ठाढ़ी। देखत प्रान लियो जम काढ़ी।।
धन सब गाढ़ गहिर जो गाड़े। छूटेउ माल जहांलगि भांड़े।।
भवन भया बन बाहर डेरा। रोवहिं सब मिलि आंगन घेरा।।
खाट उठाइ कांध धरि लीन्हा। बाहर जाइ अगिनि जो दीन्हा।।
जरि गइ खलरी भसम उड़ाना। सोचि चारि दिन कीन्हेउ ग्याना।।
फिरि धंधे लपटाना प्रानी। बिसरि गया ओइ नाम निसानी।।
खरचहु खाहु दया करु प्रानी। ऐसे ब़ुडे बहुत अभिमानी।।
सतगुरु सबद सांच एह मानी। कह दरिया करु भगति बखानी।।
भूलि भरम एह मूल गंवावै। ऐसन जनम कहां फिरि पावै।।
धन संपति हाथी अरु घोरा। मरन अंत संग जाहिं न तोरा।।
मातु पिता सुत बंधौ नारी। ई सब पांवर तोहि बिसारी।।
दरिया कहै सब्द निरबाना!
निर्वाण का अर्थ है: मृत्यु। महामृत्यु। ऐसी मृत्यु जिसके पार फिर लौटना न हो। साधारण मृत्यु तो बस देह की मृत्यु है। चित्त की यात्रा जारी रहेगी। जिस चित्त ने इस देह को पकड़ा है, वही चित्त नई देहें पकड़ लेगा। वासना जब तक है, आते ही रहना होगा नये-नये गर्भों में, नये-नये रूपों में। और यह यात्रा आने और जाने की बड़ी व्यर्थ यात्रा है। हाथ कुछ भी लगता नहीं, दौड़-धूप बहुत, आपाधापी बहुत। मंजिल कोई हाथ आती नहीं। निर्वाण का अर्थ है: मरने की ऐसी कला कि फिर जन्म न हो। और मरने की ऐसी कला उससे जोड़ देती है जो अमृत है।
‘निर्वाण’ शब्द अनूठा है। एक तरफ निर्वाण का अर्थ है: महामृत्यु और दूसरी तरफ निर्वाण का अर्थ है: महाजीवन, शाश्वत जीवन। साधारण मृत्यु से साधारण जन्म मिलता है, असाधारण मृत्यु से असाधारण जन्म मिलता है। साधारण मृत्यु से फिर किसी देह के गर्भ में प्रवेश है, असाधारण मृत्यु से परमात्मा के गर्भ में प्रवेश हो जाता है।
दरिया कहै सब्द निरबाना!
दरिया की पूरी शिक्षा--और एक दरिया की क्यों, उन सबकी, जिन्होंने जाना है; उन सब दरियाओं की, उन सब महासागरों की, जिन्होंने विराट को पहचाना है, एक ही देशना है कि ऐसे मरो कि फिर जन्म न हो, ऐसे मरो कि फिर महाजीवन हो, क्षणभंगुर के पीछे क्या दौड़ना, जब शाश्वत पाने का तुम्हारा अधिकार है! कंकड़-पत्थर क्या बीनना, जब सारे अस्तित्व की संपदा तुम्हारी है! छोटी सी देह में क्या सीमित होना, जब आकाश से भी तुम बड़े हो! जब ब्रह्म होने का उपाय हो, जब स्वयं भगवत्ता को पाने का उपाय हो, तब क्यों छोटे-छोटे खिलौनों में जीवन गंवाना! निर्वाण को जिसने समझा, उसने सब समझ लिया। निर्वाण सारे जीवन का सार-निचोड़ है। जैसे हजारों-हजारों फूलों से इत्र निचोड़ा जाता है, ऐसे हजारों-हजारों अनुभवियों ने अपनी समाधि का जो निचोड़ है उसे निर्वाण कहा है।
निर्वाण की यह आकांक्षा, यह अभीप्सा क्यों पैदा होती है? और तब तुम चकित होओगे यह बात जान कर कि मृत्यु के कारण ही निर्वाण की अभीप्सा पैदा होती है। यदि मृत्यु न होती, तो धर्म न होता। यदि मृत्यु न होती, तो तुम्हें परमात्मा की याद ही न आती। ये तो कांटे हैं जो तुम्हें फूलों की याद दिला देते हैं। यह तो मृत्यु है जो तुम्हें सोने नहीं देती और जगाती, और जगाती! फिर भी कितने कम लोग जाग पाते हैं! मृत्यु जैसे तीर के रहते हुए भी कितने हृदय बिंध पाते हैं? मृत्यु जैसी महादुर्घटना तुम्हें चारों तरफ से घेरे है, फिर भी तुम्हारी नींद नहीं टूटती। जरा सोचो, अगर मृत्यु होती ही न, तब तो शायद पृथ्वी पर धर्म की, भक्ति की, पूजा-प्रार्थना की, ध्यान की, योग की, परमात्मा की कोई बात ही न उठती! इतनी मृत्यु है, फिर भी कितने थोड़े से लोग उस परमरस को उपलब्ध होते हैं!
प्रत्येक को पता है कि मिट जाना है, लेकिन फिर भी बात कुछ बैठती नहीं! रोज तुम मौत को घटते देखते हो--आज कोई मरा, कल कोई मरा--रोज अरथी उठती है, रोज मरघट पर किसी की चिता जलती है, फिर भी तुम्हें यह बात याद नहीं आती कि मुझे भी मरना है; कि मेरी मौत भी करीब चली आ रही है; कि आज नहीं कल, कल नहीं परसों ऐसी ही अरथी पर मैं भी सवार हो जाऊंगा, ऐसी ही चिता मेरी जलेगी, ऐसे ही देह राख हो जाएगी, मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी। काश, तुम्हें यह याद आ जाए; काश, यह तीर तुम्हारे हृदय में प्रगाढ़ता से चुभ जाए; ऐसा चुभे कि इसकी चुभन चौबीस घंटे बनी रहे, तो ही तुम्हारे जीवन में वह महाक्रांति हो सकती है, जिसका नाम निर्वाण है। तो ही तुम्हारे जीवन में वह प्रभात हो सकता है जिसका नाम परमात्मा है। तो ही तुम्हारे जीवन में अंधेरी रात कटे, उजाला हो तो ही दीया जले। और तो ही तुम्हारे जीवन में आनंद की वर्षा हो; गीत जगें, उत्सव हो।
अभी भी तुम गाते हो, अभी भी तुम उत्सव मनाते हो, कभी दीवाली पर दीये जला लेते हो, मगर वे सब दीये बाहर। कभी होली पर रंग भी फेंक लेते हो, मगर भीतर बिलकुल बेरंग हो तुम। कभी शादी-विवाह में शहनाई भी बजती है, मगर बस बाहर-बाहर। भीतर का विवाह कब रचाओगे? भीतर की भांवर कब डालोगे? कि बजे शहनाई शाश्वत की, कि संगीत जन्मे सनातन का। कि ऐसे बांसुरी के स्वर पैदा हों, जो फिर मिटते नहीं।
अभी जीवन कहां?
जिसके लिए मैं गीत गाता हूं!
अभी ब्रज-बीथियां सूनी
अभी सूना पड़ा मधुबन,
अभी झुलसे लता तरुगण
अभी उजड़ा पड़ा उपवन,
अभी सावन कहां?
जिसके लिए बन मेघ छाता हूं!
कहां मधु से भरी प्याली
कहां उमड़ा हुआ यौवन,
कहां अरमान में आंधी
कहां तूफान में जीवन,
अभी मधुऋतु कहां?
दिन रात पतझर ही मनाता हूं!
न पत्थर में कहीं पारस
न कर्षण शक्ति चुंबक में,
कहां लौ में जलना बाकी
कहां है स्नेह दीपक में,
दीवाली भी कहां?
जिसके लिए तन-मन जलाता हूं!
कहां है क्षोभ झरनों में
कहां सागर में अकुलाहट,
कहां सरिता में विह्वलता
लिए अभिसार की आहट,
कहां संगम? अभी
अविराम प्यासा छटपटाता हूं!
कहां कलियों में है शोखी
कहां इस ज्ञान उपलों में,
कहां सौरभ है सांसों में
कहां मकरंद मुकुलों में,
कहां मधु? बन मधुप
जिसके लिए मैं गुनगुनाता हूं!
कहां झंकार वीणा में
गमक तबलों मृदंगों में,
अभी नवस्फूर्ति तांडव की
समा पाई न अंगों में,
अभी सम ताल-यति
गति हीन ताने ही सुनाता हूं!
अभी मांगा न तृष्णा ने
अगम मधुसिंधु का मंथन,
अभी विष तक पचाने का
उठा उर में न आंदोलन,
न जाने अग्नि
चुंबन से अभी क्यों जी चुराता हूं!
अभी केवल सुना है
कल्पतरु होता है नंदन में,
अभी लाया कहां हूं
कामधेनु जग के आंगन में,
अभी तो शून्य में
ही दूध की गंगा बहाता हूं!
अभी आकुल है काया कल्प
करने को मही सारी,
कहां जीवन? अभी तो
हो रही जीवन की तैयारी,
अभी जीवन कहां?
जिसके लिए मैं गीत गाता हूं!
जन्म तो हो गया तुम्हारा, मगर अभी जीवन कहां? जन्म जीवन नहीं है। और न मृत्यु जीवन का अंत है। जीवन जन्म और मृत्यु के बीच में आबद्ध नहीं है। जीवन जन्म के भी पहले है, मृत्यु के भी बाद है। जन्म और मृत्यु जीवन का प्रारंभ और अंत नहीं, जन्म और मृत्यु जीवन के मध्य में घटी छोटी-छोटी घटनाएं हैं। बहुत बार घट चुकी हैं। और अगर न जागे तो बहुत बार घटती रहेंगी। जागो! ‘दरिया कहै शब्द निरबाना।’ दरिया कह रहा है: मैं तुम्हें उस जीवन की झलक देना चाहता हूं जो मिल जाए तो फिर छूटता नहीं; मैं तुम्हें उन दीवालियों की तरफ ले चलना चाहता हूं जिनके दीये बुझना जानते नहीं। मैं तुम्हें ऐसी होली सिखाऊं कि भीतर रंग उड़े, कि भीतर गुलाल उड़े; कि मैं तुम्हें चांद-तारों का मालिक बना दूं; कि मैं तुम्हें अमृत का धनी बना दूं। अभी तो तुमने जिसे जीवन समझ लिया है, धोखा है, निपट धोखा है।
अभी जीवन कहां?
जिसके लिए मैं गीत गाता हूं!
अभी सावन कहां?
जिसके लिए बन मेघ छाता हूं!
अभी कुछ भी तो नहीं है। अभी तो बस तुम मान लेते हो। मानो भी न तो क्या करो? समझा लेते हो, सांत्वना कर लेते हो। जहां सावन का कोई दर्शन नहीं होता है, वहां भी आंख बंद कर के सावन के सपने संजो लेते हो। जहां फूल कहीं भी दिखाई नहीं पड़ते, वहां आकाश-कुसुम निर्मित कर लेते हो। अभी तो तुम रेत से तेल निचोड़ने की चेष्टा में संलग्न हो। सुन सको दरिया को तो वास्तविक जीवन की शुरुआत हो सकती है। और जब सुन लो, तो चुप मत बैठना। दरिया की बात तुम्हारी समझ में आ जाए, तो और भी बहुत हैं सोए हुए, उनको भी जगाना है।
न खामोश रहना मेरे हम सफीरो,
जब आवाज दूं तुम भी आवाज देना!
जैसे दरिया तुम्हें जगा रहा है। जब तुम्हारी आंख में किरण की थोड़ी झलक आ जाए, जब तुम्हारे प्राणों में थोड़ी अनुगूंज उठने लगे जागरण की, तो तुम भी आवाज देना। क्योंकि बहुत बार ऐसा होता है कि दूसरे को जगाने में तुम्हारा जागरण निखरता है, साफ होता है, उज्ज्वल होता है। दूसरे को पुकारने में तुम्हें भी होश आता है। दूसरे को समझाने में तुम्हें भी समझ आती है। दूसरे को बतलाने चलो तो तुम्हारी उलझनें भी सुलझ जातीं। दूसरे की समस्याओं को हल करो तो तुम्हें अपनी समस्याओं में अंतर्दृष्टि मिल जाती है। क्योंकि समस्याएं तो वही की वही हैं, तुम्हारी हों कि दूसरों की, समस्याओं में कुछ भेद नहीं है। प्रश्न तो वही हैं, संदेह वही हैं, जीवन के उपद्रव वही हैं; मात्राओं में भेद होगा, गुण में कोई भेद नहीं है। इसलिए अगर थोड़ी भी बात कभी किसी सदगुरु की कान में पड़ जाए, तो गुंजाना उसे। भीतर भी गुंजाना, बाहर भी गुंजाना।
न खामोश रहना मेरे हम सफीरो,
जब आवाज दूं तुम भी आवाज देना!
ये प्यारे शब्द हैं दरिया के। ऐसे तो सीधे-सादे हैं। समझाने जैसा कुछ भी नहीं, मगर समझने जैसा बहुत कुछ।
मरके टूटा है कहीं सिलसिलए-कैदे-हयात?
मगर इतना है कि जंजीर बदल जाती है।
मर-मर कर होता क्या है? सिलसिला तो टूटता नहीं। सिलसिला टूट जाए तो निर्वाण। फिर होता क्या है--इतनी बार हम मरते हैं--सिर्फ जंजीर बदल जाती है। एक कारागृह की कोठरी से दूसरे कारागृह की कोठरी में प्रवेश हो जाता है--इस आशा में कि अब स्वतंत्र हुए, अब आकाश हमारा है। जल्दी ही वह आशा भी टूट जाती है। हर बच्चा आशा लेकर पैदा होता है और हर बूढ़ा निराश मरता है। हर बच्चा उमंग से भरा आता है, उत्साह से भरा। इतना उत्साह, इतनी उमंग कि अब सब हो जाएगा। सब जो कभी नहीं हुआ है। बच्चे की आंखों में झांको, उसे लगता है: मिलेगी तृप्ति, मिलेगा आनंद, मिलेगी विजय। बूढ़े की आंखों में झांको, सब सपने खंडित हो गए हैं, सब भ्रम धूल-धूसरित हो गए हैं, आंखों में सिर्फ विषाद की धूल जमी रह गई है, अब कोई आशा नहीं है, कोई संभावना नहीं है। मगर यह बार-बार होता है। यह बूढ़ा मरेगा, फिर नया बच्चा होगा, फिर नई आशा उमगेगी। फिर बूढ़ा होगा, फिर आशा मरेगी।
मरके टूटा है कहीं सिलसिलए-कैदे-हयात?
मगर इतना है कि जंजीर बदल जाती है।
मगर कई बार ऐसा होता है कि जंजीर बदलने में भी बड़ी राहत मिलती है। तुमने अरथी ले जाते लोगों को देखा है मरघट? रास्ते में कंधा बदल लेते हैं। एक कंधे पर अरथी रखे-रखे थक गया कंधा, दूसरे कंधे पर रख लेते। वजन तो नहीं कम हो जाता, मगर थोड़ी देर को राहत मिल जाती है। एक धंधे से ऊब गए, दूसरा धंधा कर लेते हैं। एक धर्म से ऊब गए, दूसरे धर्म में सम्मिलित हो जाते हैं। एक पत्नी से ऊब गए, दूसरा विवाह कर लेते हैं। मगर यह सिर्फ जंजीरों का बदलना है। इससे कुछ सिलसिला न टूटेगा, इससे कुछ श्रृंखला न टूटेगी। श्रृंखला टूटने की तो एक ही कला है, उस कला का नाम निर्वाण है।
निर्वाण शब्द के दो अर्थ होते हैं। एक तो अर्थ होता है: दीये का बुझ जाना। इसलिए कहते हैं, दीये का निर्वाण। जब दीये को फूंक दिया और दीया बुझ गया। बुद्ध ने इस शब्द का बड़ी महिमा से प्रयोग किया। उन्होंने कहा: यह भी बड़ा बहुमूल्य है। ऐसे ही जिस दिन तुम अपने अहंकार के दीये को बुझा दोगे, उस दिन निर्वाण। इधर अहंकार का दीया बुझा कि वहां परमात्मा की ज्योति प्रकट हुई। तुम मिटो तो निर्वाण। तुम्हारी सारी आशाएं-आकांक्षाएं तुम्हें मिटने नहीं देतीं, कहती हैं: थोड़ी देर और रुको, कौन जाने कल सब ठीक हो जाए! आज तक तो नहीं हुआ, माना, मगर कल भी तो है। और कल नहीं है, कल कभी नहीं आता, न कभी आया है। मगर मन कहता है: कल भी तो है। थोड़ा और रुको, इतनी जल्दी क्या है? थोड़े और प्रयास कर लें, दो कदम और उठा लें। कौन जाने जो अब तक नहीं हुआ, कल हो ही जाए। कल भी यही होगा, परसों भी यही होगा, हर रोज मन आशा जगाए रखता है। मन तुम्हें आशा के धागों में बांधे रखता है। पतले धागे, कच्चे धागे। मगर इतने कमजोर हो तुम कि कच्चे धागे जंजीरें हो गए हैं। और इन्हीं धागों के सहारे अहंकार जीता है। अहंकार कहता है: यह करूंगा, वह करूंगा; इतना धन, इतना पद, इतनी प्रतिष्ठा। बुद्ध ने कहा: अहंकार का बुझ जाना, अहंकार को फूंक-फूंक कर बुझा देना, यह निर्वाण का एक अर्थ ।
निर्वाण का दूसरा अर्थ है: वासना मुक्त हो जाना। जहां वासनाएं शून्य हो जाएं, वहां निर्वाण। अगर अहंकार तुम्हारे झूठे जीवन के दीये की ज्योति है, तो वासना उस ज्योति को जलाए रखने वाला दीये में भरा हुआ तेल है। दोनों साथ-साथ हैं। वासना के बिना अहंकार नहीं हो सकता, अहंकार के बिना वासना नहीं हो सकती। न तो तेल के बिना बाती हो सकती है, न बाती के बिना तेल हो सकता। तेल और बाती दोनों हों तो दीया जले। इसलिए निर्वाण के दोनों अर्थ महत्वपूर्ण हैं, एक ही अर्थ के दो पहलू हैं। जिस दिन निर्वाण घटता है, वासना गिरी, तेल चुका, अहंकार का दीया बुझा, उस दिन फिर शाश्वत जीवन है। फिर तुम जीते हो ब्रह्म में, फिर है ब्रह्मचर्य, फिर है ब्रह्म जैसा आचरण, फिर है दैवी जीवन। उसी दैवी जीवन के स्मरण दिलाने के लिए ये सूत्र हैं।
भूले संपति स्वारथ मूढ़ा। परे भवन में अगम अगूढ़ा।।
‘भूले संपति स्वारथ मूढ़ा।’ हे मूढ़जनो, तुम किन बातों में अपने को भुलाए हुए हो? संपत्ति में? अंधे हो, इसलिए संपत्ति में संपत्ति दिखाई पड़ती है। मूढ़ हो, इसलिए संपत्ति में संपत्ति दिखाई पड़ती है। अन्यथा संपत्ति में विपत्ति दिखाई पड़ेगी। यहां कितनी ही संपत्ति इकट्ठी कर लो, उस संपत्ति से चिंताएं तो बढ़ती चली जाती हैं, संताप तो बढ़ता चला जाता है, चित्त की अशांति तो बढ़ती चली जाती है, मगर सुख की कोई झलक नहीं आती, वसंत नहीं आता, न आनंद के फूल खिलते, न भीतर कोई अनाहत का नाद गूंजता। यह कैसी संपदा?
‘सम’ शब्द को समझना। यह बहुमूल्य शब्द है। इसी से बना है: समाधि; इसी से बना है: सम्यकत्व; इसी से बना है: समता; इसी से बना है: संबोधि; इसी से बना है: संपदा, संपत्ति। समता जो लाए, समभाव जो लाए, भीतर से सारी चिंताओं और विचारों का जाल जो काट दे, उसे संपत्ति कहते, उसे ही संपदा कहते। समाधि के अतिरिक्त और कोई संपदा नहीं है। क्योंकि समाधि में समाधान है, सारी चिंताओं का निरसन है। सारे ऊहापोह का अंत है। सारा उपद्रव जो चित्त में चलता रहता है, उसका विसर्जन हो जाना है।
उसको ही संपदा कहना चाहिए जिससे भीतर ऐसी परम शून्य, शांत, मौन दशा की उपलब्धि हो कि जहां एक भी तरंग बेचैन करने को न उठे। झील बिलकुल निस्तरंग हो जाए। और अगर ऐसा न होता हो, तो तुमने जिसे संपत्ति समझा है, वह विपत्ति है। और तुमने जिसे संपदा समझा है, वह विपदा है।
भूले संपत्ति स्वारथ मूढ़ा।...
किस बात को संपत्ति समझ कर भटक गए हो, भूल गए हो? खाली हाथ आते हो, खाली हाथ जाते हो। मगर बीच में कितना शोरगुल मचा लेते हो! न कुछ लाते, न कुछ ले जा सकते, सब यहीं का यहीं पड़ा रह जाता है, मगर कितने झगड़े, कितने उपद्रव, कितनी आपाधापी, कितना वैमनस्य, कितनी घृणा--उसके लिए जो पड़ा रह जाएगा! लोग मरने को, मारने को उतारू हैं। और इसी संपत्ति--तथाकथित संपत्ति--को संगृहीत करने को तुमने अपना स्वार्थ बना लिया है। तुमने उसे अपने स्वयं का अर्थ बना लिया है।
‘स्वार्थ’ शब्द भी बड़ा प्यारा है, खराब हो गया--हमने अच्छे-अच्छे शब्द खराब कर दिए। सुंदर-सुंदर शब्द भी गलत लोगों के हाथ में पड़ कर दुर्गंधयुक्त हो जाते हैं। स्वार्थ शब्द भी बड़ा अर्थपूर्ण है। स्व+अर्थ: आत्म-अर्थ। जो मेरे निज का आंतरिक अर्थ है, अभिप्राय है; जो मेरे भीतर की महिमा और गरिमा है; जो मेरे अंतर-जगत की सुगंध है, वही स्वार्थ है। मगर वह भी खराब हो गया। किसी को स्वार्थी कहना गाली देने जैसा है। क्योंकि हमने स्वार्थ को ही व्यर्थ चीजों से जोड़ दिया। धन इकट्ठा करो तो स्वार्थ, पद की दौड़ में दौड़ो तो स्वार्थ। न तो धन में स्वार्थ है, न पद में स्वार्थ है; स्वार्थ तो ध्यान में है, भक्ति में है। स्वार्थ तो परमात्मा की तलाश में है।
इसलिए दरिया ठीक ही कहते हैं कि तुम मूढ़ हो; किस चीज को संपत्ति समझ ली? किस चीज को स्वार्थ समझ लिया।
...परे भवन में अगम अगूढ़ा।
और इस भ्रांति के कारण एक ऐसी अतल गहराई में गिरते जा रहे हो जिसका कोई अंत नहीं है; एक ऐसे स्वप्न-जाल में उलझ गए हो जिससे छुटकारा मुश्किल हो जाएगा। किसी भ्रांति में उतरना तो बहुत आसान है, लेकिन भ्रांति से बाहर आना बहुत कठिन होता है। क्यों? क्योंकि एक छोटी सी भूल से भ्रांति शुरू हो जाती है। तुम गणित का कोई सवाल कर रहे हो, जरा सी गलती हो गई, दो और दो चार की जगह दो और दो पांच जोड़ दिए--जरा सी गलती, कोई बहुत बड़ी गलती नहीं हो गई--लेकिन अब तुम जो भी इसके आगे करोगे, वह गलत होता जाएगा। यह एक छोटी सी गलती करोड़ों-करोड़ों गलतियों का आधार बन जाएगी। और वापस इस गलती को खोज लेना रोज-रोज मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि गणित फैलता जाता है, बड़ा होता जाता है। इस छोटी सी भूल को कहां खोज पाओगे? और जिंदगी में कोई बहुत बड़ी भूलें नहीं हो गई हैं, बस ऐसी छोटी-छोटी भूलें हैं: असली स्वार्थ को स्वार्थ नहीं समझा, नकली स्वार्थ को स्वार्थ समझ लिया; असली संपदा को संपदा नहीं जाना, नकली संपदा को संपदा समझ लिया; छोटी सी भूल है, लेकिन बस उस एक भूल पर फिर जन्मों-जन्मों की यात्रा शुरू हो गई। भ्रांतियां और भ्रांतियां। एक भ्रांति दूसरी भ्रांति में ले जाती है, दूसरी भ्रांति तीसरी भ्रांति में ले जाती है, और फिर मौलिक भूल तक लौटना मुश्किल होने लगता है। उस मौलिक भूल की याद दिला रहे हैं।
भूले संपत्ति स्वारथ मूढ़ा। परे भवन में अगम अगूढ़ा।।
संत निकट फिनि जाहिं दुराइ। विषय-बासरस फेरि लपटाई।।
कभी-कभी तुम्हारे जीवन में वैसी घड़ी भी आ जाती है कि जब किसी सदगुरु के पास पहुंच जाते... ‘संत निकट फिनि जाहिं दुराई’... लेकिन वहां टिकते नहीं। कोई अपनी भूल नहीं देखना चाहता।
इसे समझो।
इस दुनिया में कोई यह नहीं मानना चाहता कि मैं और भूल में। इससे अहंकार को चोट लगती है, घाव हो जाता है अहंकार में, मवाद बहने लगती है, दबे घाव उघड़ आते हैं, कोई नहीं जानना चाहता कि मुझसे भूल हुई है। और संतों के पास तो सिवाय इसके और कुछ भी नहीं कि वे तुम्हें कहें कि तुमसे भूल हुई है। और एक नहीं हजार भूलें तुम्हारी तुम्हें दिखाएं। सब तरफ से तुम्हारी भूलों का जाल तुम्हारे सामने प्रकट करें। तुम तो उन लोगों के साथ होना चाहते हो जो तुम्हारी खुशामद करें, जो तुम्हारी प्रशंसा करें।
संत तो तुम्हारी प्रशंसा नहीं कर सकते। प्रशंसा करने योग्य अभी कुछ है ही नहीं। अभी वसंत आया नहीं है, गीत किस वसंत के गाएं? अभी मेघ घिरे नहीं, गीत किस सावन के गाएं? अभी तुम कांटों ही कांटों से भरे हो। मगर तुम चाहते हो कि लोग कहें: अहा! कैसे फूल खिले हैं, कैसी सुगंध आ रही है! तुम अपने अहंकार के समर्थन में सब तरह के झूठ चाहते हो। इसीलिए तो दुनिया में खुशामद इतनी कारगर चीज है। और चमचे इतने सफल होते दिखाई पड़ते हैं। तुम चाहते हो कि कोई मक्खन मले तुम्हारे अहंकार पर। संतों के पास तो यह नहीं हो सकता। और जहां यह होता हो, जानना वहां संत नहीं है। तुमने दो पैसे दान दे दिए और संत ने तुम्हारी खूब पीठ ठोकी और कहा: घबड़ाओ मत, भगवान के नाम चिट्ठी लिखे देता हूं कि तुम्हारे लिए स्वर्ग में विशेष इंतजाम हो जाएगा; कि तुमने एक मंदिर बनवा दिया और संतों ने कहा: अहा! दान-दाता हो तुम, दानदाताओं में शिरोमणि हो तुम, महापुण्यकर्ता हो तुम। ये सब चमचे हैं। ये तुम्हारे अहंकार को परिपुष्ट कर रहे हैं। अगर कहीं कोई नरक है तो ये तुम्हें नरक में ढकेल रहे हैं। लेकिन यही तुम्हारे तथाकथित संत सदियों से करते रहे हैं--खुशामद, चापलूसी।
सच्चा सदगुरु तो तुम्हारे सपनों को तोड़ेगा, तुम्हें झकझोरेगा। सच्चा सदगुरु तो एक हथौड़े की तरह तुम्हारे सिर पर गिरेगा। तुम्हें तोड़ेगा। तुम्हारे सिर को तोड़ना है, तुम्हारे अहंकार को तोड़ना है, तुम्हारी भ्रांतियों का जाल काटना है। सच्चा संत तो एक शल्यक्रिया है। और इसलिए, अक्सर ऐसा हो जाता है... ‘संत निकट फिनि जाहिं दुराई’... कभी तुम भूल-चूक से किसी संत के पास पहुंच भी जाते हो तो भाग खड़े होते हो। और भागने में भी आदमी को कुछ तर्क तो खोजने ही पड़ते हैं। एकदम ऐसे ही भागोगे तो खुद की ही आंखों के सामने बड़ा अपमान हो जाएगा। तो आदमी तर्क खोज लेता है कि वहां कुछ था ही नहीं, कि वे बातें ठीक न थीं, कि शास्त्रों के अनुकूल न थीं। हजार तर्काभास आदमी पैदा कर लेता है! और सारे तर्काभासों का एक ही प्रयोजन है कि तुम्हें भागने में सहायता मिल जाए।
सदगुरु के पास, स्मरण रखना एक बात, चोट लगेगी। छाती में तीर चुभेगा। लहू भी बहेगा, घाव भी होंगे, गहन पीड़ा होगी। लेकिन उसी पीड़ा से पुनर्जन्म है। वह पीड़ा प्रसव की पीड़ा है, भागना मत। अगर कहीं कोई सौभाग्य से तुम्हारे सिर को मिटा देने वाला मिल जाए, तो सिर को रख देना उस चौखट पर। अगर कहीं कोई इतना करुणावान मिल जाए कि तुम्हें मिटा ही दे, तो फिर कायरता मत दिखाना, पलायन मत करना। फिर भगोड़े हो मत जाना; फिर तर्काभास खोज कर किसी तरह अपने को बचा मत लेना। यह बचाने की वृत्ति बिलकुल स्वाभाविक है। इसलिए दरिया स्मरण दिलाते हैं: ‘संत निकट फिनि जाहिं दुराई।’ लोग आ भी जाते हैं तो भाग जाते हैं, फिर-फिर भाग जाते हैं। बार-बार बंधन में गिर जाते हैं। बार-बार गलत को पकड़ लेते हैं। गलत परिचित है, जाना-माना है। गलत के साथ तुम बहुत कुशल हो गए हो। सही के साथ तो तुम्हें अ ब स से सीखना शुरू करना पड़ेगा। और सीखना कोई भी नहीं चाहता, क्योंकि सीखना कठिन मालूम होता है।
कोई भी व्यक्ति नये अध्याय शुरू नहीं करना चाहता जीवन में। और सदगुरु के पास तो जीवन पूरी की पूरी तरह नया अध्याय बनेगा। पुरानी किताब तो आग में फेंक दी जाएगी। फिर से लिखी जानी है कहानी और अ ब स से लिखी जानी है। इतनी जिनमें हिम्मत होती, इतना जिनमें साहस होता है, दुस्साहस, इतनी जोखम उठाने को जो तैयार हैं, वे ही केवल सदगुरुओं के पास आकर रुक पाते हैं। आते तो बहुत हैं, भाग जाते हैं। और फिर याद दिला दूं कि जो भागते हैं वे ऐसे ही नहीं भाग जाते, वे अपने को समझा लेते हैं हर तरह से कि क्यों भाग आए। जरूरी था भागना। जगह ही गलत थी। धर्म ही नहीं था यह। ऐसा समझा कर, ऐसा अपने को बुझा कर, अपने अहंकार को सुरक्षित रख लेते हैं।
तुम्हें धर्म का पता है--धर्म क्या है? तुम्हें पता है सत्य क्या है? तुम्हें पता है परमात्मा क्या है? तुम्हें कुछ भी तो पता नहीं। तुम निर्णय कैसे लेते हो! ईमानदार आदमी, सत्य का शोधक निर्णय नहीं लेगा। वह कहेगा: मैं प्रयोग करूंगा, अनुभव करूंगा, अनुभव ही निर्णायक होगा। अगर कहीं कोई व्यक्ति उसकी आंखों में चमक जाएगा, तो रुक जाएगा, जीवन को दांव पर लगाएगा। अगर होगी कोई सच्चाई तो अनुभव में आ जाएगी, हाथ लग जाएगी। अगर नहीं होगी कोई सच्चाई, तो भी लाभ होगा--इतना तो पता चल गया कि गलत क्या होता है! अब गलत से बचने की सुविधा हो जाएगी। सत्य के खोजी को गलत प्रयोग करने से भी हानि नहीं होती, लाभ ही होता है। क्योंकि यह पता चल जाए कि क्या गलत है, तो ठीक को समझने में आसानी हो जाती है।
और मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि जीवन के अंत में जब कोई लौट कर देखता है अपनी लंबी यात्रा पर, तो चकित होता है। जो ठीक थे, उन्होंने भी साथ दिया, जो ठीक नहीं थे, उन्होंने भी साथ दिया। जो सच्चे थे, उन्होंने भी पहुंचाया; जो झूठे थे, उन्होंने भी रास्ता दिया। झूठों ने झूठ को पहचानने की क्षमता दी, सच्चों ने सत्य को पहचानने की क्षमता दी। और दोनों क्षमताएं जरूरी हैं। तभी कोई पहुंच पाता है।
जीवन के अंत में कोई शिकायत नहीं रह जाती। अच्छों के प्रति धन्यवाद, बुरों के प्रति धन्यवाद। संतों के प्रति धन्यवाद, मिथ्या संतों के प्रति धन्यवाद। जीवन के अंत में सभी के प्रति धन्यवाद का भाव रह जाता है। कांटों ने भी सिखाया, फूलों ने भी सिखाया। अंधेरी रातों ने भी बहुत दिया, प्रकाशवान दिनों ने भी बहुत दिया। सबने दिया। सबसे मिल कर ही कोई व्यक्ति अंततः परम सत्य को उपलब्ध हो पाता है।
भटकना भी बुरा नहीं है, भटकना भी पहुंचने की राह पर अनिवार्य अंग है। इसलिए सत्य का खोजी भागता नहीं, भगोड़ा नहीं होता।
संत निकट फिनि जाहिं दुराई। विषय-बासरस फेरि लपटाई।।
संत के पास से तो आदमी जल्दी से भाग जाते हैं। और भाग कर फिर करेंगे क्या? क्योंकि संत से अगर दुर्घटना में भी मिलना हो जाए, अकस्मात भी मिलना हो जाए, अकारण भी मिलना हो जाए, तो भी उसकी छाया पीछा करने लगती है। उसकी आंखें तुम्हारी आंखों में समा जाती हैं। और उसकी आवाज कहीं तुम्हारे भीतर की आवाज का हिस्सा हो जाती है। वह तुम्हें पुकारने लगता है तुम्हारे ही भीतर से। ‘दरिया कहै सब्द निरबाना।’ बचा नहीं जा सकता। तो फिर एक ही उपाय है बचने का--जाकर वासनाओं में डूब जाओ। पी लो शराब; कि कामवासना, कि धन, मद, किसी भी अंधी वासना में दौड़ जाओ, डूब जाओ, ताकि संत की जो थोड़ी सी झलक तुम्हारे प्राणों में कहीं पड़ गई है, वह तुम्हें पकड़ न ले। संतों के पास से भाग कर लोग पुनः वासनाओं में और जोर से डूब जाते हैं। यही एक बचने का उपाय मालूम होता है।
अब का सोचसि मदहिं भुलाना। सेमर सेइ सुगा पछिताना।।
लेकिन ऐसे लोग बहुत पछताएंगे। और पछताएंगे तब जब कि हाथ से जीवन का अवसर निकल चुका होगा। जब कि समय उड़ चुका होगा।
अब का सोचसि मदहिं भुलाना।...
मरते वक्त लोग पछताते हैं। मगर तब तो बहुत देर हो गई, मृत्युशय्या पर पड़े-पड़े पछताते हैं। लेकिन अब क्या किया जा सकता है? इस तरह के पछताने वालों के लिए ही झूठे, थोथे पंडितों ने उपाय खोज रखे हैं। उन्होंने कहा है: मरते वक्त भी राम का नाम ले लेना, बस उतने से मुक्ति हो जाएगी। जिंदगी भर रावण की सेवा करना और मरते वक्त राम का नाम ले लेना। बेईमानी की भी कोई सीमा होती है! जिंदगी भर अंधेरे से आलिंगन करना और मरते वक्त सिर्फ ज्योति का नाम ले लेना--क्योंकि और तो क्या करोगे, पहचान तो अंधेरे से है, ज्योति का स्मरण तो कर ही नहीं सकते, सिर्फ नाम ले सकते हो। मरते वक्त प्रकाश-प्रकाश-प्रकाश, ऐसी बकवास करना और जिंदगी भर अंधेरे का अनुभव करना, फिर भी मुक्त हो जाओगे। ऐसे धोखेबाज लोग, ऐसे बेईमान लोग तुम्हारे गुरु बने बैठे हैं। और कारण तुम्हीं हो। क्योंकि यही तुम चाहते हो।
तुम चाहते हो, अंधेरे में जीने में भी कोई बाधा न पड़े और मरते वक्त ले लेंगे नाम! और अक्सर तो ऐसा होता है, मरते वक्त तुम भी न ले पाओगे--क्योंकि मरना कोई खबर देकर तो आता नहीं, कोई पहले से तो सम्मन आता नहीं कि कल मैं आता हूं; मौत तो आ जाती है, एकदम से, अचानक, एक क्षण का भी मौका नहीं देती कि बिस्तर इत्यादि बांध लो, तैयारी कर लो; फिर तुम खुद भी नाम ले पाओगे? नहीं, तुम खुद भी नहीं ले पाओगे। कोई दूसरा पंडित-पुजारी तुम्हारे मुंह में गंगाजल डालेगा--गंगाजल बोतलों में भरा हुआ रखा है जो। कोई पंडित-पुजारी मरते हुए आदमी के कान में गायत्री-मंत्र पढ़ेगा, नमोकार पढ़ेगा; बुद्धमं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि। खुद न कह सके अपने ओंठों से कभी, अब कोई दूसरे ओंठ तुम्हारे कान में कह रहे हैं--वह भी खुद के लिए नहीं कह रहे हैं, उनको भी बुद्ध की शरण जाना नहीं है, वे भी तुम्हें भेज रहे हैं। और तुम मृत्यु की शरण जा रहे हो; अब कहां बुद्ध की शरण? तुम्हें शायद सुनाई भी नहीं पड़ेगा। शायद तुम्हें यह दूर की आवाज... कि यह क्या बकवास हो रही है? यह कौन क्या कह रहा है? कोई शोरगुल हो रहा है! तुम तो डूब रहे हो, तुम तो मिट रहे हो, तुम तो बिखर रहे हो और कोई गायत्री-मंत्र पढ़ रहा है, कि नमोकार पढ़ रहा है, कि भक्ततांबर पढ़ रहा है। ऐसे कहीं जीवन में क्रांतियां होती हैं! कि तुम भूखे मर रहे हो और कोई तुम्हारे कान में पाकशास्त्र की किताब से अच्छे-अच्छे भोजनों के संबंध में विवेचन पढ़ रहा है। ऐसे जीवन में क्रांतियां नहीं होतीं। मगर हम बेईमान, हम धोखेबाज, हम प्रवंचक; तो हम अपनी प्रवंचना के अनुकूल आदमी खोज लेते हैं--जो हमें धोखा देने को तैयार होते हैं।
अब का सोचसि मदहिं भुलाना।...
जिंदगी भर तो न मालूम कितने-कितने मदों में भूले रहे--धन-मद, पद-मद और न मालूम कितने मद थे--कितने नशों में डूबे रहे, अब मरते वक्त सोच-विचार में पड़ रहे हो? अब बहुत देर हो गई। यह वैसी ही देर हो गई--‘सेमर सेइ सुगा पछिताना।’ सेमर का फूल होता है, देखने में ऐसा लगता है जैसे फल है और तोता फल समझ कर उसमें चोंच मार देता है। लेकिन चोंच मारते ही--सेमर में कुछ और तो नहीं है, रुई होती है--चोंच लगते ही रुई उड़ जाती है हवा में, बिखर जाती है हवा में, तोते के हाथ कुछ भी नहीं लगता। ऐसी ही तुम्हारी जिंदगी है।
...सेमर सेई सुगा पछिताना।
मारो चोंच इस जिंदगी में, रुई उड़ जाएगी, हाथ कुछ भी न लगेगा। फिर बैठे-बैठे पछताना! और फिर नई जिंदगी, और फिर वही की वही भूलें तुम दोहराओगे। क्योंकि हमारी स्मृति बड़ी कमजोर है।
अगर मैं तुमसे आज पूछूं कि आज इकतीस जनवरी है, एक साल पहले, पिछले वर्ष की इकतीस जनवरी को तुमने क्या किया था? क्या तुम याद करके बता सकोगे? कुछ याद न आएगा, कुछ भी याद न आएगा। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते, केवल एक साल बीता है। तुम यह भी नहीं कह सकते कि इकतीस जनवरी हुई ही नहीं पिछले वर्ष। इकतीस जनवरी भी हुई थी, तुम भी थे और कुछ न कुछ घटा भी होगा, सुबह से सांझ तक कुछ न कुछ हुआ भी होगा--किसी को गाली दी होगी, किसी से झगड़ा किया होगा, किसी से मित्रता बनाई होगी, कोई हार, कोई जीत, कुछ उपद्रव हुआ होगा--मगर आज कुछ भी याद नहीं आता। एकदम सब सपाट कोरा मालूम पड़ता है। लेकिन तुम चकित होओगे, अगर तुम्हें सम्मोहित करके बेहोश किया जाए और सम्मोहित अवस्था में तुमसे पूछा जाए कि कहो: इकतीस जनवरी को पिछले वर्ष क्या हुआ था? तो तुम ब्योरे से, सुबह उठने से लेकर सांझ सोने तक एक-एक बात विस्तार से कह सकोगे, बता सकोगे। छोटी-छोटी बातें कि उस दिन सुबह तुमने जो चाय पी थी, वह ठंडी थी; कि उस दिन सब्जी में नमक ज्यादा था; यहां तक कि उस रात तुमने जो सपने देखे थे, वे तुम्हें याद आ जाएंगे। साधारणतः तुम्हें कुछ याद नहीं है, लेकिन सम्मोहित अवस्था में तुम्हारे अचेतन से आवाजें आनी शुरू हो जाती हैं। अचेतन संगृहीत रखता है सब।
जब एक ही वर्ष पिछले की हालत ऐसी है, तो तुमसे कोई अगर पूछे कि पिछले जन्म में तुमने क्या किया था? तुम तो बिलकुल हाथ हिला कर रह जाओगे, तुम कहोगे: कैसा जन्म? मुझे कुछ याद ही नहीं है, था भी कि नहीं? लेकिन गहरी प्रक्रियाएं हैं सम्मोहन की, जिनके द्वारा तुम्हें याद दिलाई जा सकती है कि पिछले जन्म में तुमने क्या किया था? कि मरते वक्त तुमने क्या निर्णय लिए थे? कि मरणशय्या पर पड़े-पड़े तुम कितने पछताए थे, और तुमने तय किया था कि अब नहीं दौडूंगा धन के पीछे, कि अब नहीं दौडूंगा पद के पीछे, हो चुका बहुत, समझ लिया सब! मगर कब की भूल चुकीं वे बातें। बहुत देर हो गई। नौ महीने गर्भ में रहने में सब भूल-भाल गया। फिर दुनिया शुरू हो गई, फिर वही दुनिया शुरू हो गई।
यह तो दूर की बात है। बहुत पास के अनुभव से सोचो। तुम तय करते हो सांझ कि सुबह चार बजे उठना ही है, ब्रह्ममुहूर्त में उठ कर ध्यान करना है, कसम खा लेते हो कि आज कुछ भी हो जाए उठूंगा, यह मेरी जिंदगी और मौत का सवाल है; अलार्म भर देते हो। और सुबह चार बजे तुम्हीं अलार्म बंद कर देते हो, और करवट लेकर वापस सो जाते हो। और आठ बजे जब तुम उठोगे, तुम फिर पछताओगे और कहोगे: यह कैसे हुआ? किसने अलार्म बंद किया? और तुम्हें याद दिलाया जाए कि तुम्हारे अतिरिक्त कमरे में कोई भी नहीं, तुम्हीं ने बंद किया होगा, तो याद भी आ जाए तो तुम और भी चौंकोगे कि हैरानी की बात है, क्योंकि मैंने तो तय किया था कि उठूंगा, तो मैंने अलार्म बंद क्यों किया? और अब तुम पछता रहे हो। और फिर तुम कल तय करोगे और फिर यही होगा। जिंदगी भर यही होता है।
एक आदमी ने मुझसे कहा कि मैं तीस साल से सिगरेट छोड़ने का उपाय कर रहा हूं और छूटती नहीं, अब आप कोई रास्ता बताएं। मैंने कहा: सिगरेट पीने में जितना नुकसान हुआ, उससे ज्यादा नुकसान यह तीस साल उपाय करने में हुआ। पी रहे थे तो पीते रहते। कोई बहुत बड़ा काम भी नहीं कर रहे थे... धुंआ भीतर ले गए, बाहर लाए, भीतर ले गए, बाहर लाए... कोई ऐसा महान कार्य भी नहीं कर रहे थे कि जिसको छोड़ने में तीस साल मेहनत करनी पड़े; न पकड़ने योग्य कुछ था, न छोड़ने योग्य कुछ था, धुआं ले गए भीतर, धुआं लाए बाहर, इसमें कला क्या थी? इसमें तीस साल छोड़ने की चेष्टा क्यों की? वे तो बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा: मैं तो जिस भी साधु-संत के पास जाता हूं, वह कहता है, और जोर से कसम खाओ, संकल्प करो, भगवान के सामने संकल्प करो कि अब नहीं पीओगे।
मैंने उनसे कहा: मैं तुमसे सिर्फ एक संकल्प दिलवाना चाहता हूं कि तीस साल का अनुभव काफी है, अब और समय खराब न करो, अब यह बात ही जाने दो। अब पीना हो तो पीओ, न पीना हो तो मत पीओ, मगर यह छोड़ने का संकल्प छोड़ दो। और इतना तुमसे कह देता हूं कि सिगरेट पीने में कोई पाप नहीं है। न तो किसी की हत्या कर रहे हो, न किसी का खून पी रहे हो, न किसी की जेब काट रहे हो, अगर नुकसान भी कर रहे हो तो अपना कर रहे हो--अपना नुकसान करने का हक तो हर आदमी को है। और सत्तर साल न जीए, चलो दो-चार साल कम जीए, तो हर्जा भी क्या है? सत्तर साल जीकर भी क्या करते? ऐसे ही भीड़-भाड़ बहुत है। तो संसार का छुटकारा तुमसे चार साल पहले हो जाएगा, इसमें कुछ हर्जा नहीं है।
वे कहने लगे: आप क्या कहते हैं? इसमें पाप नहीं है?
मैंने कहा: पाप बिलकुल नहीं है, सिर्फ मूढ़ता है। धुआं भीतर ले जाना, धुआं बाहर लाना, यह प्राणायाम का एक उपाय समझो। शुद्ध हवा से नहीं करना चाहते, तुम्हारी मर्जी! नहीं तो शुद्ध हवा से कर सकते हो। मुफ्त मिलती है शुद्ध हवा। सुबह बैठ कर श्वास भीतर ले जाओ गहरी, श्वास बाहर लाओ गहरी। मगर तुम धुएं के साथ करना चाहते हो, तो धुएं के साथ करो, पाप कुछ भी नहीं हो रहा है, सिर्फ मूढ़ हो, बुद्धिहीन हो और कुछ भी नहीं।
तुम चकित होओगे यह जान कर, जिन्होंने उनसे कहा था, पापी हो, उनसे वे नाराज नहीं थे। मेरे यह कहने से कि तुम मूढ़ हो, वे मुझसे जो नाराज हुए तो फिर नहीं आए। लोगों से कहते हैं कि उन्होंने अच्छा व्यवहार नहीं किया मेरे साथ। अब तुम सोचो! पापी कहो, किसी को बुराई नहीं लगती। क्योंकि धार्मिक शब्दावली है: पाप, पुण्य। किसी को मूढ़ कहो, तो चोट लगती है अहंकार को। और सचाई यह है कि मूढ़ता के अतिरिक्त और कोई पाप नहीं है। और बुद्धिमत्ता के अतिरिक्त और कोई पुण्य नहीं है। जागरूकता पुण्य है, मूर्च्छा पाप है।
इस जीवन में ही तुम इतनी चेष्टाएं कर-कर के कुछ नहीं बदल पाते, तो पिछले जीवन में तुमने जो निर्णय लिए थे उनकी तो तुम्हें याद भी क्या होगी? मरते वक्त तुम जो पछता कर मरे थे, उसकी तो तुम्हें याद भी क्या होगी? और कोई एकाध बार ऐसा नहीं हुआ है, बहुत बार ऐसा हुआ है, अनंत बार ऐसा हुआ है। फिर वही भूल। एक वर्तुल है। एक चाक है जो घूमता चला जाता है।
अब का सोचसि मदहिं भुलाना। सेमर सेइ सुगा पछिताना।।
मरनकाल कोइ संगि न साथा। जब जम मस्तक दीन्हेउ हाथा।।
न तो कोई पंडित-पुजारी साथ देंगे, न कोई शास्त्र-सिद्धांत साथ देंगे, न कोई मंदिर-मस्जिद साथ देंगे, न प्रियजन-परिजन साथ देंगे।
मरनकाल कोइ संगि न साथा।...
जिंदगी की दूसरी करवट थी मौत।
जिंदगी करवट बदल कर रह गई।।
मौत तो जिंदगी की ही एक करवट है। इस तरफ मुंह किए थे, उस तरफ मुंह हो गया। इस देह में थे, उस देह में हो गए। और तुम ही कुछ कर सकते हो, कोई और दूसरा कुछ भी नहीं कर सकता। तुम्हारी करवट है। और तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारी करवट का कोई और मालिक नहीं है।
मरनकाल कोइ संगि न साथा।...
मृत्यु के क्षण में तुम बिलकुल अकेले हो। और वही तुम्हारी निजता है। जन्म के क्षण में भी तुम बिलकुल अकेले हो। उस अपने एकाकीपन को ठीक से समझ लो, क्योंकि वही तुम्हारा स्वभाव है। मित्र, प्रियजन, परिवार, भीड़-भाड़ सब उपाय हैं अपने को भुलाए रखने के, उलझाए रखने के; उपाय हैं अपने अकेलेपन को डुबाए रखने के। लेकिन तुम्हारा अकेलापन मिटाया नहीं जा सकता। तुम अकेले हो! और यहां जितने संबंध हैं, सब नदी-नाव-संयोग। सांयोगिक हैं।
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार,
पथ ही मुड़ गया था!
गति मिली, मैं चल पड़ा, पथ पर कहीं रुकना मना था,
राह अनदेखी, अजाना देश, संगी अनसुना था!
चांद-सूरज की तरह चलता, न जाना रात-दिन है,
किस तरह हम-तुम गए मिल, आज भी कहना कठिन है!
तन न आया मांगने अभिसार,
मन ही जुड़ गया था!
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार,
पथ ही मुड़ गया था!
देख मेरे पंख चल, गतिमय, लता भी लहलहाई,
पत्र-आंचल में छिपाए मुख कली भी मुस्कुराई,
एक क्षण को थम गए डैने समझ विश्राम का पल,
पर प्रबल संघर्ष बनकर, आ गई आंधी सदल बल!
डाल झूमी, पर न टूटी,
किंतु पंछी उड़ गया था!
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार,
पथ ही मुड़ गया था!
कैसे हम मिल गए हैं? कैसे यह मिलन हो गया है, कि कोई पति है, कोई पत्नी है, कोई पिता है, कोई मां है, कोई बेटा, कोई भाई, कोई बहिन, कोई मित्र, कोई शत्रु? सब सांयोगिक है। बिलकुल सांयोगिक है! यहां कौन अपना है, कौन पराया है? राह चलते राहगीर मिल गए हैं, साथ हो लिए हैं। वे भी अकेले हैं, तुम भी अकेले हो; न वे चाहते हैं कि अकेले हों, न तुम चाहते हो कि अकेले होओ; इसलिए संग-साथ जोड़ लिए हैं। किस-किस तरह के उपाय कर लिए हैं हमने, इस बात को भुलाने के लिए कि मैं अकेला हूं! और यह बात चाहे भुला दो, मिटाई नहीं जा सकती। मौत तो उघाड़ देगी। मौत तो यह सब प्रवंचनाएं तोड़ देगी।
मरनकाल कोइ संगि न साथा। जब जम मस्तक दीन्हेउ हाथा।।
और जब मृत्यु तुम्हारी गर्दन को दबाएगी, तब तुम्हें पता चलेगा--अरे, न कोई संगी है, न कोई साथी है। तब तुम्हें यह भी पता चलेगा--कभी भी न कोई संगी था, न कोई साथी था। अकेले ही थे, भ्रांति खा गए थे भीड़ की। काश, पहले ही समझ लेते कि अकेले हैं, तो संन्यास घट गया होता।
संन्यास का क्या अर्थ होता है?
संन्यास का अर्थ नहीं होता जंगल भाग जाना। संन्यास का अर्थ नहीं होता है घर द्वार छोड़ देना। संन्यास का अर्थ होता है: मेरा अकेलापन शाश्वत है--इसकी प्रतीति। इसकी अनुभूति कि मैं अकेला हूं, कि मेरे अकेले होने के अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं है, अकेलापन मेरा स्वभाव है, इसे झुठला सकता हूं, भुला सकता हूं, मिटा नहीं सकता। जिसने अपने अकेलेपन को परिपूर्णता से अंगीकार कर लिया, स्वीकार कर लिया, वह संन्यासी है।
और संन्यास जीवन में क्रांति है, संक्रांति है। संन्यास के साथ ही यात्रापथ मृत्यु की तरफ से मुड़ जाता है, अमृत की ओर उन्मुख हो जाता है। संसार से भागना नहीं पड़ता। लेकिन संसार से एक विमुखता हो जाती है और परमात्मा से सन्मुखता हो जाती है।
तुम जहां हो वहीं हो जाती है। भागते तो वे ही हैं जिनको यह खयाल है कि हम जुड़े हैं।
किसी ने मुझसे कहा कि मैं घर छोड़ कर आ गया, अब मैं न जाऊंगा। आप ही तो समझाते हैं कि न कोई पत्नी है, न कोई पति है, न कोई बेटा, न कोई मां--अब मुझे घर क्यों भेजते हैं? संन्यास ले लिया है उन्होंने। फिर मैंने उनसे कहा कि अब ठीक है, अब घर जाओ! उन्होंने कहा: आप और कहते हैं घर जाओ! न कोई माता, न कोई पिता, न कोई पत्नी, न कोई पति--फिर अब घर क्या जाना है? मैंने कहा: जब कोई है ही नहीं, तो जाने में डर भी क्या है? पत्नी है तुम्हारी या नहीं? वे थोड़े मुश्किल में पड़े। अगर कहें, है, तो मैं कहूंगा: जाओ। अगर कहें, नहीं है, तो मैं कहूंगा: डरते क्यों हो, जाओ। वे कहने लगे: आपने मुझे उलझन में डाला।
जाओ तो भी मान कर जाते हैं लोग कि पत्नी है, और भागते हैं तो भी मान कर भागते हैं कि पत्नी है। जानने वाला भागता ही नहीं! जानने वाला सिर्फ जाग जाता है। जहां है, जैसा है, वैसा ही--मगर उसकी दृष्टि बदल जाती है। उस दृष्टि के रूपांतरण का नाम संन्यास है।
और तुम्हें अगर अपने एकांत का स्मरण आ जाए, तो फिर पहाड़ पर क्या जाना एकांत के लिए! तुम जहां हो तुम्हारे भीतर ही वह अंतर-गुहा है, जहां बैठ जाओ तो एकांत है। और ऐसा एकांत जो कभी खंडित नहीं हुआ। ऐसा एकांत जो सदा से कुंआरा है, जिस पर कोई चरण-चिह्न नहीं पड़े हैं।
अब तो हिमालय पर भी कुंआरी बर्फ खोजनी मुश्किल है। आदमी के चरण-चिह्न पड़ गए। अब तो चांद पर भी एकांत खोजना कठिन है।
मैंने सुना है, जब पहली दफा अमरीकी अंतरिक्ष-यात्री चांद पर पहुंचे तो बड़े हैरान हुए। देखा कि भारतीयों की एक भीड़, बाजार भरा हुआ है... कुंभ मेला इत्यादि है, क्या मामला है? बहुत घबड़ा गए। कहा कि आप लोग आए कैसे यहां? उन्होंने कहा: हमें आने की क्या दिक्कत, एक-दूसरे के ऊपर खड़े होते गए। कोई अंतरिक्षयान की जरूरत ही नहीं है। हमारी भीड़ इतनी है। गोविंदा आला रे... एक के ऊपर एक खड़े होते चले गए। इस तरह चांद पर आ गए।
अब तो चांद पर भी कोई कुंआरी जमीन नहीं है। अब तो कहीं कुंआरे फूल खिलते हैं तो बस तुम्हारे अंतस्तल में। अब तो कहीं कोई एकांत खोज सकते हो तो बस वहीं। और उस एकांत का मजा यह है कि इंच भर भी यात्रा नहीं करनी पड़ती। आंख बंद की और पहुंच गए।
दिल के आईने में है तस्वीरे यार,
जब जरा गर्दन झुकाई देख ली।
और एक बार तुम्हें अपने एकांत का रस समझ में आने लगे, तो चारों तरफ उसकी झलक मिलने लगती है।
हर नग्मे ने उन्हीं की तलब का दिया पयाम।
हर साज ने उन्हीं की सुनाई सदा मुझे।।
एक बार तुम्हें भीतर का अंतःसंगीत सुनाई पड़ जाए, एकांत संगीत सुनाई पड़ जाए, तो पक्षियों की टीवी-टुटटुट, कि हवाओं का वृक्षों से गुजरना, कि झरनों का पहाड़ों से उतरना, कि बदलियों से छप्पर पर पानी की बूंदाबादी, और तुम चकित होओगे, पहले कभी समझ में नहीं आया कि यह उसी की आवाज, कि यह उसी के वेद का नाद, कि यह उसी के उपनिषद, कि यह उसी की कुरान!
हर नग्मे ने उन्हीं की तलब का दिया पयाम।
हर साज ने उन्हीं की सुनाई सदा मुझे।।
फिर तो याद सघन होने लगती है। यहां संबंध तुम्हारे झूठे हैं, यह खयाल में आ जाए तो उससे संबंध तुम्हारा सच है, यह इसी के साथ खयाल में आ जाता है।
क्यों न रहे गमे-निहानी तेरा।
दुनिया में बता कौन है सानी तेरा।।
कैसे तेरी याद मिटे? कैसे तेरा विरह मिटे?
क्यों न रहे गमे-निहानी तेरा।
दुनियां में बता कौन है सानी तेरा।।
जब यहां के सारे संबंध उथले-उथले, थोथे-थोथे, जाहिर हो जाते हैं, सांयोगिक हैं, ऐसा पता चल जाता है, तो फिर उससे संबंध स्मरण आता है जिससे संबंध शाश्वत है, जिसके हम अंग हैं, जिसमें हमारी जड़ें हैं, जो हमारे प्राणों का प्राण है, हमारी आत्मा की आत्मा है। फिर जिंदगी ही याद नहीं दिलाती उसकी, मौत भी उसी की याद दिलाती है। फिर खिला हुआ फूल ही उसकी याद नहीं लाता, सूखा गिरता हुआ पत्ता भी उसी की याद लाता है। क्योंकि वही खिलता है, वही मुर्झाता है। वसंत भी उसके हैं और पतझड़ भी उसके हैं। उपवन भी उसके हैं, मरुस्थल भी उसके हैं।
जिंदगी खुद क्या है फानी यह तो क्या कहिए मगर।
मौत कहते हैं जिसे वोह जिंदगी का होश है।
फिर जब होश आना शुरू होता है, तो जिंदगी की तो बात ही छोड़ दो, मौत भी, उसी में जागरण मालूम होता है। मौत भी मिटना नहीं मालूम पड़ता। शरीर जा रहा है, अहंकार जा रहा है, मन जा रहा है, मगर हम? हम तो और हुए जा रहे हैं। हम तो और बड़े हुए जा रहे हैं। हम तो फैलते ही चले जाते हैं। सीमाएं टूट रही हैं, मटकी फूट रही है, मगर मटकी में जो छिपा था वह पूरे विराट आकाश से मिल रहा है।
माता पिता घरनी घर ठाढ़ी। देखत प्रान लियो जम काढ़ी।।
सब खड़े रह जाएंगे--मां हो, पिता हो, पत्नी हो, पति हो, सब खड़े रह जाएंगे। मौत आएगी, पता भी न चलेगा, पगध्वनि भी न सुनाई पड़ेगी, कब खींच लेगी प्राण को।
जागो! मौत आए, उसके पहले जागो। उसके पहले इस सच्चाई को जितनी गहराई से उतर जाने दो हृदय में उतना अच्छा है।
किस जोम में है ऐ रहरवेगम! धोखे में न आना मंजिल के।
यह राह बहुत कुछ छानी है, इस राह में मंजिल कोई नहीं।।
यहां दौड़-दौड़ कर सभी कब्रों में गिर जाते हैं। यहां कब्र के अतिरिक्त और कहीं कोई पहुंचता नहीं है। गरीब भी वहीं पहुंचते हैं, अमीर भी वहीं पहुंचते हैं। पापी भी वहीं पहुंचते हैं, पुण्यात्मा भी वहीं पहुंचते हैं। अनाम हैं जो वे भी वहीं और बड़े ख्यातिनाम हैं जो वे भी वहीं। सब कब्र में गिर जाते हैं।
किस जोम में है ऐ रहरवेगम! धोखे में न आनामंजिल के।
ऐ यात्री! किस घमंड में भूला हुआ है? किसी मंजिल के धोखे में मत आना।
यह राह बहुत कुछ छानी है, इस राह में मंजिल कोई नहीं।
बस राह ही राह है। कोल्हू का बैल जैसे गोल-गोल घूमता रहता, घूमता रहता, घूमता रहता, पहुंचता कहीं भी नहीं। भ्रांति में मत रहो, यहां कोई मंजिल नहीं है। मंजिल तुम्हारे भीतर है, बाहर नहीं। मालिक तुम्हारे भीतर है, बाहर नहीं। और दौड़ते हो तुम बाहर! संपदा भीतर है, खोजते हो बाहर। समाधि भीतर है, झोलियां फैलाते हो बाहर।
किस जोम में है ऐ रहरवेगम! धोखे में न आना मंजिल के।
यह राह बहुत कुछ छानी है, इस राह में मंजिल कोई नहीं।।
धन सब गाढ़ गहिर जो गाड़े। छूटेउ माल जहांलगि भांड़े।।
कितना ही गहरा गड़ा दो धन, कितना गहरा गड़ा दो, ले जा न सकोगे। इन्हीं हंडियों में गड़ा हुआ, पड़ा हुआ रह जाएगा।
भवन भया बन बाहर डेरा।...
और इधर श्वास टूटी कि लोग उठा कर बाहर ले जाएंगे भवन के। ले चले वन की ओर।
भवन भया बन बाहर डेरा। रोवहिं सब मिलि आंगन घेरा।।
हां, थोड़ी देर रोएंगे लोग आंगन में घिर कर। लेकिन उस रोने से भी कुछ बहुत धोखे में मत आ जाना। तुम्हारे लिए नहीं रो रहे हैं, याद रखना, अपने लिए रो रहे हैं। पत्नी इसलिए नहीं रो रही है कि पति मर गया। पत्नी इसलिए रो रही है कि विधवा हो गई। पत्नी इसलिए रो रही है कि अब कौन रोटी-रोजी कमाएगा? पत्नी इसलिए रो रही है कि अब किस पर निर्भर रहूंगी? उसकी सुरक्षा टूट गई। पत्नी इसलिए रो रही है कि अब मेरा क्या भविष्य? तुम जब किसी की मृत्यु पर रोते हो तो जरा गौर करना, क्या तुम सच में उसकी मृत्यु पर रो रहे हो, या तुम्हारे भीतर उसने कोई जगह भर रखी थी, वह खाली हो गई, उस खाली जगह की पीड़ा के कारण रो रहे हो? और तुम सदा यही पाओगे: अपने लिए रोते हो तुम।
उपनिषद कहते हैं: न तो पति को कोई प्रेम करता, न पत्नी को कोई प्रेम करता। पत्नी अपने को प्रेम करती है, पति अपने को प्रेम करता है। यहां प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे का शोषण कर रहा है। हां, शोषण को हमने मीठे-मीठे नाम दिए हैं। शोषण के कांटों पर हमने खूब सुंदर-सुंदर रंग चढ़ाए हैं।
थोड़ी देर आंगन में लोग इकट्ठे होकर रो लेंगे।
खाट उठाइ कांध धरि लीन्हा।...
इधर लोग रोते रहेंगे और चले लोग उठा कर। जरा देर नहीं टिकने देते।
...बाहर जाइ अगिनि जो दीन्हा।
और ले जाकर गांव के बाहर आग को सौंप देंगे। वही देह जिसे तुमने खूब बचा-बचा कर रखा था, जरा कांटा चुभता था तो कितनी पीड़ा होती थी, और जरा आग के पास जाते थे तो कैसे झुलस जाते थे, जरा तेज धूप हो जाती थी तो कैसी बेचैनी हो जाती थी--वही देह, वही प्यारी देह!
बुद्ध के पास जब भी कोई भिक्षु दीक्षा लेता था तो वे कहते थे: पहले तीन महीने जाकर मरघट पर वास कर। क्यों? स्वभावतः कोई पूछता कि हम आपका सत्संग करने आए, मरघट पर वास करने नहीं। बुद्ध कहते: उसके बाद ही सत्संग होगा। पहले तीन महीने मरघट पर बैठा रह, देखता रह क्या होता है--साक्षीभाव से। बैठना पड़ता।
दिन में आते लोग, सुबह से सांझ, रात, मरघट पर आते ही रहते लोग, जलती ही रहतीं लाशें--व्यक्ति बैठा देखता रहता। तीन महीने, जरा तुम सोचो! रोज देखोगे, यह आदमी कल रास्ते पर चलता मिला था, आज मर गया! इस स्त्री ने कल ही तो मुझे भोजन दिया था, इसके घर भिक्षा मांगने गया था, यह मर गई! यह लोग मरते जा रहे रोज! और लोग लाते हैं, आग पर चढ़ा देते हैं, राख पड़ी रह जाती है। यही गति मेरी हो जाएगी, इस बात को तुम कितनी देर तक भुलाओगे? तीन महीने लंबा वक्त है। यह बात याद आने ही लगेगी, यह कांटा चुभने ही लगेगा, यह गहरा तीर जाने ही लगेगा, यह भाले की तरह छाती में घाव करने लगेगा कि यही गति मेरी हो जाने वाली है।
और जब तक किसी व्यक्ति को यह स्मरण नहीं आ जाता कि मृत्यु जीवन का अनिवार्य सुनिश्चित चरण है; मंजिल नहीं मिलती, केवल मृत्यु मिलती है, जब तक यह किसी को ठीक-ठीक स्मरण नहीं आ जाता, तब तक उसके जीवन में धर्म केवल औपचारिकता होती है। कभी करवा ली सत्यनारायण की कथा। चर्चा हो जाती है मोहल्ले में कि धार्मिक आदमी है। न तो सत्यनारायण की कथा में कोई सत्य है और न कोई नारायण हैं। न कोई सुनता है। न किसी को कोई प्रयोजन है। कि कभी करवा दिया हवन; कि कभी बहुत धन हाथ लग गया तो करवा दिया यज्ञ। ये सब औपचारिकताएं हैं। इनसे भी अहंकार में थोड़े आभूषण लग जाते हैं, थोड़ी फूलमालाएं गले में पड़ जाती हैं, मगर इनका धर्म से कोई संबंध नहीं है। धर्म का संबंध तो तभी शुरू होता है जब तुम्हें अपनी मौत की सुनिश्चितता ऐसी गहन होकर बैठ जाए छाती पर पत्थर की तरह कि हटाओ तो हटे न, भुलाओ तो भुला न सको; चौबीस घंटे जब मौत छाया की तरह तुम्हारा पीछा करे।
ओ प्रवासी मीत मेरे!
काश! तुम तक पहुंच पाते
आज बंदी गीत मेरे।
और--तुम यह देख पाते
नैन--जिनमें कैद हैं,
सपने मिलन के।
काश! कह पाती
मेरे दिल की सदा
यह प्रेम-पाती।
गर गवाही दे सकें तो--
पूछना इन परवतों से
आज नयन-कोर हैं
उनके भी गीले!
या पहुंच पाएं हवाएं
इन पहाड़ों की वहां तक।
कह सकें शायद वे--
अफसाना तड़फते हृदय का
जो तुम्हारा है...
तुम्हारा था।
आह! पर तुमसे जुदा
ज्यों तरु से छूटी लता!
मेघ-अंक लिपटी बिजुरिया
क्रूर अंधड़ ने बिछोड़ी।
डाल से कली ज्यों हो तोड़ी
या तड़फती मीन--
तपती रेत पर जैसे हो छोड़ी।
आएगी मृत्यु। आ ही रही है।
मेघ-अंक लिपटी बिजुरिया
क्रूर अंधड़ ने बिछोड़ी।
डाल से कली ज्यों हो तोड़ी
या तड़फती मीन--
तपती रेत पर जैसे हो छोड़ी।
जल्दी ही घड़ी आ जाएगी, जब रेत पर तड़फती हुई मीन की तरह हो जाओगे। कि डाल से टूटे गए फूल की तरह हो जाओगे। वह अंधड़ दूर नहीं, चला ही आ रहा है। हम रोज-रोज मौत के करीब पहुंचते जाते हैं। हमारा प्रतिपल मृत्यु को और-और सन्निकट लाता है। इसे स्मरण करो, इसे पुनः-पुनः स्मरण करो, क्योंकि यही स्मरण तुम्हारे जीवन में धर्म के द्वार पर दस्तक बनेगा।
जरि गइ खलरी भसम उड़ाना।...
ले जाएंगे लोग और चढ़ा देंगे अरथी पर। जल जाएगी यह खाल, हवा में धूल उड़ जाएगी।
...सोचि चारि दिन कीन्हेउ ग्याना।
और जो तुम्हें जला गए हैं, वे चार दिन जरा ज्ञान की बातें भी करेंगे।
अक्सर लोग करते हैं। मरघट पर जाओ, वहां तो लाश जल रही है और लोग जो आ गए हैं गांव के--जिन्हें आना पड़ा है--आना पड़ता है, नहीं तो उनके साथ कौन आएगा? सब लेन-देन है। तुम दूसरों को पहुंचा आते हो, दूसरे तुम्हें पहुंचा आएंगे, नहीं तो सड़ोगे, कुत्ते की मौत मरोगे, कोई पहुंचाने मरघट तक न आएगा। तो लोगों को आना पड़ता है, हजार काम छोड़-छाड़ कर आ गए हैं! वे बैठ कर ज्ञान चर्चा करते हैं, ब्रह्मचर्चा करते हैं।
मुझे बचपन से ही मरघट जाने का शौक रहा है। कोई भी मरे तो मैं हो लेता था पीछे। मगर मैं चकित यह बात देख कर होता था कि उधर तो जल रहा है आदमी और लोग पीठ किए गपशप कर रहे हैं। गपशप तरह-तरह की। कोई चर्चा कर रहा है फिल्म की जो गांव में लगी है। तुम कहोगे जरा अधार्मिक किस्म की गपशप है। और कोई दूसरा ब्रह्मचर्चा कर रहा है। कह रहा है: आत्मा अमर है, आत्मा की कोई मृत्यु नहीं होती। मगर मैं तुमसे कहता हूं: दोनों गपशप हैं। वह फिल्म वाला तो शायद थोड़ा कुछ सच भी कह रहा हो--उसने फिल्म देखी होगी--मगर वह सज्जन जो ब्रह्मचर्चा कर रहे हैं और आत्मा की अमरता की बात कर रहे हैं, बिलकुल झूठ बोल रहे हैं, उन्हें कुछ भी पता नहीं है। न आत्मा का पता है, न आत्मा की अमरता का पता है।
मगर मरघट पर बैठ कर लोग ये बातें क्यों करते हैं?
ये इसलिए करते हैं कि इनकी बातें करने में वह जो मौत घट गई है, उसको भुलाने का उपाय है। उसका दंश न चुभे। वह जो मर गया आदमी, मर जाने दो; उसकी याद बार-बार न दिलाओ! सामने लपटें उठ रही हैं, उसकी लपटों में कहीं खुद की लपटें न दिखाई पड़ने लगें! उसकी मौत में कहीं खुद की मौत याद न आए! अभी जिंदगी चलानी है, अभी दुकान करनी है, अभी बच्चा बड़ा हो रहा है, अभी स्कूल बच्चे को पढ़ने भेजना है। अभी-अभी तो शादी की है, अभी मृत्यु को हटाओ, अभी आंख बंद रखो। वह सारी चर्चा जो चलती है मरघट पर, वह मृत्यु से बचने का एक उपाय है। और फिर दो-चार दिन घर पर भी लोग चर्चा करेंगे; आएंगे, बैठेंगे--बड़ी ब्रह्मचर्चा होती है। किसी के घर में कोई मर जाए कि फिर देखो, लोग आते हैं कि आत्मा अमर है, और बड़ा पुण्यात्मा था, और स्वर्ग गया होगा... इससे सांत्वना खोजते हैं। मगर यह दो-चार दिन की बात है।
फिरि धंधे लपटाना प्रानी। बिसरि गया ओइ नाम निसानी।।
मगर यह दो-चार दिन की बात है, यह ज्ञान इत्यादि, फिर धंधा है। आखिर कब तक इसी में उलझे रहोगे? यह तत्वचर्चा दो-चार दिन ठीक है।
तुम क्या दिन भर पोथी-पत्रा पढ़ते हो,
कैसे शिल्पी हो, मूर्ति नहीं गढ़ते हो?
क्या कहते हो उपकरण नहीं मिलते हैं?
फूलों-पत्तों में जितने रंग खिलते हैं।
तिनकों-तिनकों में जो मोती ढलते हैं,
चंदा-ग्रह-तारे ज्योति-बीज बोते हैं।
ऊषा-संध्या जिनमें जगते सोते हैं,
जिसका चटकीलापन चपला में ढलता,
जिसका, मटमैलापन बहार में पलता,
जो सोनजुही में चुप-चुप फूल गया है,
जो चंपक अपनी गमक उंड़ेल गया है,
चांदी के झूले में जो झूल गया है।
जो थिरकन बन कर बिखर गया लहरों में,
जो कसकन बन सिसका सूने पहरों में।
जिसके गुलाब के गाल हुए शरमीले,
जिससे बेला की पलकों के दल गीले।
गेंदा के गुदगुद हाथ हो गए पीले,
रजनी के कस-मस कंचुक ढीले-ढीले
वह सब समेट लो, और अभी है बाकी,
बासी फूलों में भी सुगंध है साकी।
जो कुछ समेटते हो वह तो सपना है,
जो लुटा रहे हो वह केवल अपना है।
जब हाथ बिठा लोगे सौ-सौ सांचों में,
कंचन पिघलेगा जब सौ-सौ आंचों में।
तब एक रेख का कहीं भराव भरेगा,
तब एक रूप का आकर्षण निखरेगा।
भपके से केवल एक बूंद छनती है,
सारे जीवन में एक मूर्ति बनती है।
जो अंतर का सब मैल गला जाती है,
युग के अरूप का रूप ढला जाती है।
जिसमें सारी साधना समा जाती है।
जो युग-युग का इतिहास बना जाती है।
जिसमें स्वप्नों के रंग निखर जाते हैं, कवि की छाती के दाग उभर आते हैं।
कब तक किताबों में पड़े रहोगे?
तुम क्या दिन भर पोथी-पत्रा पढ़ते हो,
कैसे शिल्पी हो, मूर्ति नहीं गढ़ते हो?
गढ़ो परमात्मा को, अपने भीतर गढ़ो। शास्त्रों में पढ़ने से सत्य नहीं मिलेगा, अपने भीतर उघाड़ना होगा। शब्दों की चर्चा को बहुत मूल्य मत देना। ईश्वर के संबंध में कितना ही जान लो, इससे ईश्वर नहीं जाना जाता है। और प्रेम के संबंध में कितना ही पढ़ लो, इससे प्रेम का स्वाद नहीं मिलता है।
तुम क्या दिन भर पोथी-पत्रा पढ़ते हो,
कैसे शिल्पी हो, मूर्ति नहीं गढ़ते हो?
यह जीवन एक अवसर है कि मूर्ति गढ़ी जा सके। और इस जीवन की मूर्ति को गढ़ने की जो कला है, जो गणित है, उसे समझ लेना।
जो कुछ समेटते हो वह तो सपना है,
जो लुटा रहे हो वह केवल अपना है।
अगर जानना हो प्रेम क्या है, तो प्रेम लुटाओ, तुम प्रेम जान लोगे। और अगर जानना हो आनंद क्या है, तो आनंद लुटाओ और तुम आनंद जान लोगे। और अगर जानना हो परमात्मा क्या है, तो परमात्मा लुटाओ और तुम परमात्मा जान लोगे।
जो कुछ समेटते हो वह तो सपना है,
जो लुटा रहे हो वह केवल अपना है।
लेकिन लोग यहां समेटने में लगे हैं फिर मौत सब छीन लेगी। कुछ लुटाओ भी, कुछ बांटो भी। कोई गीत, कोई संगीत, कोई नृत्य--इस पृथ्वी को थोड़ा सुंदर करो। यह जीवन का जो अवसर मिला है, इससे कुछ सृजन करो।
मैं उसे ही सच्चा संन्यासी कहता हूं जो सृजनात्मक है। मैं तुम्हारे संन्यासियों को संन्यासी नहीं कहता, जो राख इत्यादि मल कर, धूनी रमा कर बैठ गए हैं। काहिल, अपाहिज, अपंग। उनसे एक गीत नहीं फूटा, एक कली फूल नहीं बनी। उनकी सारी तथाकथित साधना सिकुड़ने की है। जब कि वास्तविक साधना होती है फैलने की, विस्तीर्ण होने की। विस्तार पाओ। इस सारे आकाश को भर दो अपने आनंद से। गुनगुनाओ। यह सारा अस्तित्व तुम्हारी गुनगुनाहट की प्रतीक्षा कर रहा है।
और मरने के पहले यह करना। कहीं ऐसा न हो कि मौत आए और तुम अपना गीत गुनगुना ही न पाओ। मौत आ जाए, तुम अपनी मूर्ति गढ़ ही न पाओ। मौत आ जाए और तुम खाली के खाली। ऐसे दुर्दिन से बचना है।
फिरि धंधे लपटाना प्रानी। बिसरि गया ओइ नाम निसानी।।
सब भूल जाता है चार दिन के बाद; जो मर गया, मर गया। जिंदगी के हजार धंधे हैं, मरने वालों के लिए कौन बैठा है, कौन सोचता रहता है!
खरचहु खाहु दया करु प्रानी। ऐसे बुड़े बहुत अभिमानी।।
इसी तरह लोग डूबते रहे हैं। दूसरे की मौत से भी कुछ सीखते नहीं। वे अपनी पुरानी ही बातें दोहराए चले जाते हैं कि खाओ, पीओ, मौज करो! कि चार दिन की जिंदगी है, कर लो मौज! खा लो! पी लो! इस तरह के मूढ़तापूर्ण वक्तव्य न मालूम कितने लोगों को डुबा गए हैं। ऐसा न हो कि तुम्हें भी डुबा जाएं।
पवन बजाता रहा
बंसवट में बंसरी
गूंजती चली गई
मन में आसावरी
कुंठा का जल बंदी
अहम के सरोवर में
तट पर बैठा विवेक
लहर उठाता रहा
फेंक किरण-कंकरी
प्रज्ञा का राज तिलक
संयम के शकुनों में
ज्ञान कोष से कुबेर
स्वर्ण लुटाता रहा
भर-भर के अंजुरी
समय की चिकित्सा से
व्रण न कौन सा भरा
अंतर पर विस्मृति का
लेप लगाता रहा
वय का धन्वंतरी
समय तो सभी घावों को भर देता है।
समय की चिकित्सा से
व्रण न कौन सा भरा
अंतर पर विस्मृति का
लेप लगाता रहा
वय का धन्वंतरी
यह समय का चिकित्सक तो हर घाव को भर देता है। इसके पहले कि घाव भरे, घाव का उपयोग कर लेना। कोई मर जाए, प्रियजन, चूकना मत अवसर। उसकी मृत्यु को तुम सौभाग्य में परिणत कर ले सकते हो। अभिशाप वरदान हो सकता है, अगर जागो, और अपनी मौत की तुम्हें प्रतीति होने लगे।
सतगुरु सबद सांच एह मानी।...
और सदगुरुओं के वचनों में सत्य उन्हीं को दिखाई पड़ेगा, जिन्हें पहले मृत्यु में सत्य दिखाई पड़ गया है।
...कह दरिया करु भगति बखानी।
और वे ही भक्ति के शास्त्र को समझ सकेंगे। जिन्हें मौत दिखाई पड़ गई, उन्हें सदगुरु से पहचान कठिन नहीं होगी। और जिनकी सदगुरु से पहचान हो गई, उन्हें भक्ति का शास्त्र तत्क्षण समझ में आ जाएगा। क्योंकि इस जगत में प्रेम के अतिरिक्त और सब मरणधर्मा है। इस जगत में सिर्फ प्रेम अमृत है। जिन्हें मृत्यु के पार जाना है, प्रेम के सेतु से जाना होगा। प्रेम सीढ़ी है मृत्यु से अमृत में ले जाने वाली। मगर यह प्रेम की सीढ़ी कोई सदगुरु ही समझा सकता है। यह प्रेम की कुंजी कोई सदगुरु ही दे सकता है।
सतगुरु सबद सांच एह मानी। कह दरिया करु भगति बखानी।।
भूलि भरम एह मूल गंवावै। ऐसन जनम कहां फिरि पावै।।
मत चूको। भ्रांतियों में मत जीवन के मूल को गंवाओ। पत्ते-पत्तों में मत उलझे रहो, जड़ को पकड़ो। ऐसा जन्म फिर पता नहीं कब मिले? और जन्म भी मिले तो सदगुरु मिले या न मिले! सदगुरु भी मिल जाए, मौत की सघन प्रतीति हो न हो!
धन संपत्ति हाथी अरु घोरा।...
सब पड़े रह जाएंगे।
...मरन अंत संग जाहिं न तोरा।
कोई भी तुम्हारे साथ जाने वाला नहीं है।
मातु पिता सुत बंधौ नारी।...
सब संबंधी यहीं छूट जाएंगे।
...ई सब पांवर तोहि बिसारी।
ये सब तुम्हें भूल भी जाएंगे। ये याद भी न करेंगे। आखिर इन्हें और भी काम हैं! जिंदगी तुम्हारी याद में बैठ कर न गुजारते रहेंगे। इनकी आंखों से इन्हें कुछ और भी देखना है, सिर्फ आंसुओं से ही भरे नहीं बैठे रहेंगे। इन्हें अपनी जिंदगी जीनी है। इन्हें अपने भ्रम पालने हैं। इन्हें अपने सपने पूरे करने हैं।
दरिया के अंतिम सूत्रों से कुछ निष्कर्ष ले लो।
पहला, मृत्यु की प्रगाढ़ से प्रगाढ़ प्रतीति करो! दूसरा, मृत्यु की प्रगाढ़ प्रतीति हो, तो सदगुरु से मिलना कठिन नहीं। सदगुरु से मिलना हो जाए तो भागना मत। मन भगाएगा। मन समझाएगा कि चलो यहां से, यहां खतरा है। मन को अपनी मौत दिखाई पड़ने लगेगी। अहंकार हजार तर्क खोजेगा कि झुकना मत, किसी के सामने क्यों झुकना, किसी की शरण क्यों जाना? और सदगुरु से तो उसी का संबंध जुड़ता है, जो समर्पित हो। जो समर्पित नहीं हैं, सदगुरु से संबंध नहीं जुड़ता।
सदगुरु से संबंध जुड़ जाए, इतने भर पर रुक मत जाना। उसने जो कहा है, उसे गुनना, मनन करना, निदिध्यासन करना। उसने जो प्रेम के सूत्र दिए हैं, उन्हें अपने जीवन का काव्य बनने देना। तो क्रांति हो सकती है, महाक्रांति हो सकती है। तुम्हारे जीवन में भी निर्वाण का कमल खिल सकता है।
दरिया कहै सब्द निरबाना!
आज इतना ही।
संत निकट फिनि जाहिं दुराई। विषय-बासरस फेरि लपटाई।।
अब का सोचसि मदहिं भुलाना। सेमर सेइ सुगा पछिताना।।
मरनकाल कोइ संगि न साथा। जब जम मस्तक दीन्हेउ हाथा।।
माता पिता घरनी घर ठाढ़ी। देखत प्रान लियो जम काढ़ी।।
धन सब गाढ़ गहिर जो गाड़े। छूटेउ माल जहांलगि भांड़े।।
भवन भया बन बाहर डेरा। रोवहिं सब मिलि आंगन घेरा।।
खाट उठाइ कांध धरि लीन्हा। बाहर जाइ अगिनि जो दीन्हा।।
जरि गइ खलरी भसम उड़ाना। सोचि चारि दिन कीन्हेउ ग्याना।।
फिरि धंधे लपटाना प्रानी। बिसरि गया ओइ नाम निसानी।।
खरचहु खाहु दया करु प्रानी। ऐसे ब़ुडे बहुत अभिमानी।।
सतगुरु सबद सांच एह मानी। कह दरिया करु भगति बखानी।।
भूलि भरम एह मूल गंवावै। ऐसन जनम कहां फिरि पावै।।
धन संपति हाथी अरु घोरा। मरन अंत संग जाहिं न तोरा।।
मातु पिता सुत बंधौ नारी। ई सब पांवर तोहि बिसारी।।
दरिया कहै सब्द निरबाना!
निर्वाण का अर्थ है: मृत्यु। महामृत्यु। ऐसी मृत्यु जिसके पार फिर लौटना न हो। साधारण मृत्यु तो बस देह की मृत्यु है। चित्त की यात्रा जारी रहेगी। जिस चित्त ने इस देह को पकड़ा है, वही चित्त नई देहें पकड़ लेगा। वासना जब तक है, आते ही रहना होगा नये-नये गर्भों में, नये-नये रूपों में। और यह यात्रा आने और जाने की बड़ी व्यर्थ यात्रा है। हाथ कुछ भी लगता नहीं, दौड़-धूप बहुत, आपाधापी बहुत। मंजिल कोई हाथ आती नहीं। निर्वाण का अर्थ है: मरने की ऐसी कला कि फिर जन्म न हो। और मरने की ऐसी कला उससे जोड़ देती है जो अमृत है।
‘निर्वाण’ शब्द अनूठा है। एक तरफ निर्वाण का अर्थ है: महामृत्यु और दूसरी तरफ निर्वाण का अर्थ है: महाजीवन, शाश्वत जीवन। साधारण मृत्यु से साधारण जन्म मिलता है, असाधारण मृत्यु से असाधारण जन्म मिलता है। साधारण मृत्यु से फिर किसी देह के गर्भ में प्रवेश है, असाधारण मृत्यु से परमात्मा के गर्भ में प्रवेश हो जाता है।
दरिया कहै सब्द निरबाना!
दरिया की पूरी शिक्षा--और एक दरिया की क्यों, उन सबकी, जिन्होंने जाना है; उन सब दरियाओं की, उन सब महासागरों की, जिन्होंने विराट को पहचाना है, एक ही देशना है कि ऐसे मरो कि फिर जन्म न हो, ऐसे मरो कि फिर महाजीवन हो, क्षणभंगुर के पीछे क्या दौड़ना, जब शाश्वत पाने का तुम्हारा अधिकार है! कंकड़-पत्थर क्या बीनना, जब सारे अस्तित्व की संपदा तुम्हारी है! छोटी सी देह में क्या सीमित होना, जब आकाश से भी तुम बड़े हो! जब ब्रह्म होने का उपाय हो, जब स्वयं भगवत्ता को पाने का उपाय हो, तब क्यों छोटे-छोटे खिलौनों में जीवन गंवाना! निर्वाण को जिसने समझा, उसने सब समझ लिया। निर्वाण सारे जीवन का सार-निचोड़ है। जैसे हजारों-हजारों फूलों से इत्र निचोड़ा जाता है, ऐसे हजारों-हजारों अनुभवियों ने अपनी समाधि का जो निचोड़ है उसे निर्वाण कहा है।
निर्वाण की यह आकांक्षा, यह अभीप्सा क्यों पैदा होती है? और तब तुम चकित होओगे यह बात जान कर कि मृत्यु के कारण ही निर्वाण की अभीप्सा पैदा होती है। यदि मृत्यु न होती, तो धर्म न होता। यदि मृत्यु न होती, तो तुम्हें परमात्मा की याद ही न आती। ये तो कांटे हैं जो तुम्हें फूलों की याद दिला देते हैं। यह तो मृत्यु है जो तुम्हें सोने नहीं देती और जगाती, और जगाती! फिर भी कितने कम लोग जाग पाते हैं! मृत्यु जैसे तीर के रहते हुए भी कितने हृदय बिंध पाते हैं? मृत्यु जैसी महादुर्घटना तुम्हें चारों तरफ से घेरे है, फिर भी तुम्हारी नींद नहीं टूटती। जरा सोचो, अगर मृत्यु होती ही न, तब तो शायद पृथ्वी पर धर्म की, भक्ति की, पूजा-प्रार्थना की, ध्यान की, योग की, परमात्मा की कोई बात ही न उठती! इतनी मृत्यु है, फिर भी कितने थोड़े से लोग उस परमरस को उपलब्ध होते हैं!
प्रत्येक को पता है कि मिट जाना है, लेकिन फिर भी बात कुछ बैठती नहीं! रोज तुम मौत को घटते देखते हो--आज कोई मरा, कल कोई मरा--रोज अरथी उठती है, रोज मरघट पर किसी की चिता जलती है, फिर भी तुम्हें यह बात याद नहीं आती कि मुझे भी मरना है; कि मेरी मौत भी करीब चली आ रही है; कि आज नहीं कल, कल नहीं परसों ऐसी ही अरथी पर मैं भी सवार हो जाऊंगा, ऐसी ही चिता मेरी जलेगी, ऐसे ही देह राख हो जाएगी, मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी। काश, तुम्हें यह याद आ जाए; काश, यह तीर तुम्हारे हृदय में प्रगाढ़ता से चुभ जाए; ऐसा चुभे कि इसकी चुभन चौबीस घंटे बनी रहे, तो ही तुम्हारे जीवन में वह महाक्रांति हो सकती है, जिसका नाम निर्वाण है। तो ही तुम्हारे जीवन में वह प्रभात हो सकता है जिसका नाम परमात्मा है। तो ही तुम्हारे जीवन में अंधेरी रात कटे, उजाला हो तो ही दीया जले। और तो ही तुम्हारे जीवन में आनंद की वर्षा हो; गीत जगें, उत्सव हो।
अभी भी तुम गाते हो, अभी भी तुम उत्सव मनाते हो, कभी दीवाली पर दीये जला लेते हो, मगर वे सब दीये बाहर। कभी होली पर रंग भी फेंक लेते हो, मगर भीतर बिलकुल बेरंग हो तुम। कभी शादी-विवाह में शहनाई भी बजती है, मगर बस बाहर-बाहर। भीतर का विवाह कब रचाओगे? भीतर की भांवर कब डालोगे? कि बजे शहनाई शाश्वत की, कि संगीत जन्मे सनातन का। कि ऐसे बांसुरी के स्वर पैदा हों, जो फिर मिटते नहीं।
अभी जीवन कहां?
जिसके लिए मैं गीत गाता हूं!
अभी ब्रज-बीथियां सूनी
अभी सूना पड़ा मधुबन,
अभी झुलसे लता तरुगण
अभी उजड़ा पड़ा उपवन,
अभी सावन कहां?
जिसके लिए बन मेघ छाता हूं!
कहां मधु से भरी प्याली
कहां उमड़ा हुआ यौवन,
कहां अरमान में आंधी
कहां तूफान में जीवन,
अभी मधुऋतु कहां?
दिन रात पतझर ही मनाता हूं!
न पत्थर में कहीं पारस
न कर्षण शक्ति चुंबक में,
कहां लौ में जलना बाकी
कहां है स्नेह दीपक में,
दीवाली भी कहां?
जिसके लिए तन-मन जलाता हूं!
कहां है क्षोभ झरनों में
कहां सागर में अकुलाहट,
कहां सरिता में विह्वलता
लिए अभिसार की आहट,
कहां संगम? अभी
अविराम प्यासा छटपटाता हूं!
कहां कलियों में है शोखी
कहां इस ज्ञान उपलों में,
कहां सौरभ है सांसों में
कहां मकरंद मुकुलों में,
कहां मधु? बन मधुप
जिसके लिए मैं गुनगुनाता हूं!
कहां झंकार वीणा में
गमक तबलों मृदंगों में,
अभी नवस्फूर्ति तांडव की
समा पाई न अंगों में,
अभी सम ताल-यति
गति हीन ताने ही सुनाता हूं!
अभी मांगा न तृष्णा ने
अगम मधुसिंधु का मंथन,
अभी विष तक पचाने का
उठा उर में न आंदोलन,
न जाने अग्नि
चुंबन से अभी क्यों जी चुराता हूं!
अभी केवल सुना है
कल्पतरु होता है नंदन में,
अभी लाया कहां हूं
कामधेनु जग के आंगन में,
अभी तो शून्य में
ही दूध की गंगा बहाता हूं!
अभी आकुल है काया कल्प
करने को मही सारी,
कहां जीवन? अभी तो
हो रही जीवन की तैयारी,
अभी जीवन कहां?
जिसके लिए मैं गीत गाता हूं!
जन्म तो हो गया तुम्हारा, मगर अभी जीवन कहां? जन्म जीवन नहीं है। और न मृत्यु जीवन का अंत है। जीवन जन्म और मृत्यु के बीच में आबद्ध नहीं है। जीवन जन्म के भी पहले है, मृत्यु के भी बाद है। जन्म और मृत्यु जीवन का प्रारंभ और अंत नहीं, जन्म और मृत्यु जीवन के मध्य में घटी छोटी-छोटी घटनाएं हैं। बहुत बार घट चुकी हैं। और अगर न जागे तो बहुत बार घटती रहेंगी। जागो! ‘दरिया कहै शब्द निरबाना।’ दरिया कह रहा है: मैं तुम्हें उस जीवन की झलक देना चाहता हूं जो मिल जाए तो फिर छूटता नहीं; मैं तुम्हें उन दीवालियों की तरफ ले चलना चाहता हूं जिनके दीये बुझना जानते नहीं। मैं तुम्हें ऐसी होली सिखाऊं कि भीतर रंग उड़े, कि भीतर गुलाल उड़े; कि मैं तुम्हें चांद-तारों का मालिक बना दूं; कि मैं तुम्हें अमृत का धनी बना दूं। अभी तो तुमने जिसे जीवन समझ लिया है, धोखा है, निपट धोखा है।
अभी जीवन कहां?
जिसके लिए मैं गीत गाता हूं!
अभी सावन कहां?
जिसके लिए बन मेघ छाता हूं!
अभी कुछ भी तो नहीं है। अभी तो बस तुम मान लेते हो। मानो भी न तो क्या करो? समझा लेते हो, सांत्वना कर लेते हो। जहां सावन का कोई दर्शन नहीं होता है, वहां भी आंख बंद कर के सावन के सपने संजो लेते हो। जहां फूल कहीं भी दिखाई नहीं पड़ते, वहां आकाश-कुसुम निर्मित कर लेते हो। अभी तो तुम रेत से तेल निचोड़ने की चेष्टा में संलग्न हो। सुन सको दरिया को तो वास्तविक जीवन की शुरुआत हो सकती है। और जब सुन लो, तो चुप मत बैठना। दरिया की बात तुम्हारी समझ में आ जाए, तो और भी बहुत हैं सोए हुए, उनको भी जगाना है।
न खामोश रहना मेरे हम सफीरो,
जब आवाज दूं तुम भी आवाज देना!
जैसे दरिया तुम्हें जगा रहा है। जब तुम्हारी आंख में किरण की थोड़ी झलक आ जाए, जब तुम्हारे प्राणों में थोड़ी अनुगूंज उठने लगे जागरण की, तो तुम भी आवाज देना। क्योंकि बहुत बार ऐसा होता है कि दूसरे को जगाने में तुम्हारा जागरण निखरता है, साफ होता है, उज्ज्वल होता है। दूसरे को पुकारने में तुम्हें भी होश आता है। दूसरे को समझाने में तुम्हें भी समझ आती है। दूसरे को बतलाने चलो तो तुम्हारी उलझनें भी सुलझ जातीं। दूसरे की समस्याओं को हल करो तो तुम्हें अपनी समस्याओं में अंतर्दृष्टि मिल जाती है। क्योंकि समस्याएं तो वही की वही हैं, तुम्हारी हों कि दूसरों की, समस्याओं में कुछ भेद नहीं है। प्रश्न तो वही हैं, संदेह वही हैं, जीवन के उपद्रव वही हैं; मात्राओं में भेद होगा, गुण में कोई भेद नहीं है। इसलिए अगर थोड़ी भी बात कभी किसी सदगुरु की कान में पड़ जाए, तो गुंजाना उसे। भीतर भी गुंजाना, बाहर भी गुंजाना।
न खामोश रहना मेरे हम सफीरो,
जब आवाज दूं तुम भी आवाज देना!
ये प्यारे शब्द हैं दरिया के। ऐसे तो सीधे-सादे हैं। समझाने जैसा कुछ भी नहीं, मगर समझने जैसा बहुत कुछ।
मरके टूटा है कहीं सिलसिलए-कैदे-हयात?
मगर इतना है कि जंजीर बदल जाती है।
मर-मर कर होता क्या है? सिलसिला तो टूटता नहीं। सिलसिला टूट जाए तो निर्वाण। फिर होता क्या है--इतनी बार हम मरते हैं--सिर्फ जंजीर बदल जाती है। एक कारागृह की कोठरी से दूसरे कारागृह की कोठरी में प्रवेश हो जाता है--इस आशा में कि अब स्वतंत्र हुए, अब आकाश हमारा है। जल्दी ही वह आशा भी टूट जाती है। हर बच्चा आशा लेकर पैदा होता है और हर बूढ़ा निराश मरता है। हर बच्चा उमंग से भरा आता है, उत्साह से भरा। इतना उत्साह, इतनी उमंग कि अब सब हो जाएगा। सब जो कभी नहीं हुआ है। बच्चे की आंखों में झांको, उसे लगता है: मिलेगी तृप्ति, मिलेगा आनंद, मिलेगी विजय। बूढ़े की आंखों में झांको, सब सपने खंडित हो गए हैं, सब भ्रम धूल-धूसरित हो गए हैं, आंखों में सिर्फ विषाद की धूल जमी रह गई है, अब कोई आशा नहीं है, कोई संभावना नहीं है। मगर यह बार-बार होता है। यह बूढ़ा मरेगा, फिर नया बच्चा होगा, फिर नई आशा उमगेगी। फिर बूढ़ा होगा, फिर आशा मरेगी।
मरके टूटा है कहीं सिलसिलए-कैदे-हयात?
मगर इतना है कि जंजीर बदल जाती है।
मगर कई बार ऐसा होता है कि जंजीर बदलने में भी बड़ी राहत मिलती है। तुमने अरथी ले जाते लोगों को देखा है मरघट? रास्ते में कंधा बदल लेते हैं। एक कंधे पर अरथी रखे-रखे थक गया कंधा, दूसरे कंधे पर रख लेते। वजन तो नहीं कम हो जाता, मगर थोड़ी देर को राहत मिल जाती है। एक धंधे से ऊब गए, दूसरा धंधा कर लेते हैं। एक धर्म से ऊब गए, दूसरे धर्म में सम्मिलित हो जाते हैं। एक पत्नी से ऊब गए, दूसरा विवाह कर लेते हैं। मगर यह सिर्फ जंजीरों का बदलना है। इससे कुछ सिलसिला न टूटेगा, इससे कुछ श्रृंखला न टूटेगी। श्रृंखला टूटने की तो एक ही कला है, उस कला का नाम निर्वाण है।
निर्वाण शब्द के दो अर्थ होते हैं। एक तो अर्थ होता है: दीये का बुझ जाना। इसलिए कहते हैं, दीये का निर्वाण। जब दीये को फूंक दिया और दीया बुझ गया। बुद्ध ने इस शब्द का बड़ी महिमा से प्रयोग किया। उन्होंने कहा: यह भी बड़ा बहुमूल्य है। ऐसे ही जिस दिन तुम अपने अहंकार के दीये को बुझा दोगे, उस दिन निर्वाण। इधर अहंकार का दीया बुझा कि वहां परमात्मा की ज्योति प्रकट हुई। तुम मिटो तो निर्वाण। तुम्हारी सारी आशाएं-आकांक्षाएं तुम्हें मिटने नहीं देतीं, कहती हैं: थोड़ी देर और रुको, कौन जाने कल सब ठीक हो जाए! आज तक तो नहीं हुआ, माना, मगर कल भी तो है। और कल नहीं है, कल कभी नहीं आता, न कभी आया है। मगर मन कहता है: कल भी तो है। थोड़ा और रुको, इतनी जल्दी क्या है? थोड़े और प्रयास कर लें, दो कदम और उठा लें। कौन जाने जो अब तक नहीं हुआ, कल हो ही जाए। कल भी यही होगा, परसों भी यही होगा, हर रोज मन आशा जगाए रखता है। मन तुम्हें आशा के धागों में बांधे रखता है। पतले धागे, कच्चे धागे। मगर इतने कमजोर हो तुम कि कच्चे धागे जंजीरें हो गए हैं। और इन्हीं धागों के सहारे अहंकार जीता है। अहंकार कहता है: यह करूंगा, वह करूंगा; इतना धन, इतना पद, इतनी प्रतिष्ठा। बुद्ध ने कहा: अहंकार का बुझ जाना, अहंकार को फूंक-फूंक कर बुझा देना, यह निर्वाण का एक अर्थ ।
निर्वाण का दूसरा अर्थ है: वासना मुक्त हो जाना। जहां वासनाएं शून्य हो जाएं, वहां निर्वाण। अगर अहंकार तुम्हारे झूठे जीवन के दीये की ज्योति है, तो वासना उस ज्योति को जलाए रखने वाला दीये में भरा हुआ तेल है। दोनों साथ-साथ हैं। वासना के बिना अहंकार नहीं हो सकता, अहंकार के बिना वासना नहीं हो सकती। न तो तेल के बिना बाती हो सकती है, न बाती के बिना तेल हो सकता। तेल और बाती दोनों हों तो दीया जले। इसलिए निर्वाण के दोनों अर्थ महत्वपूर्ण हैं, एक ही अर्थ के दो पहलू हैं। जिस दिन निर्वाण घटता है, वासना गिरी, तेल चुका, अहंकार का दीया बुझा, उस दिन फिर शाश्वत जीवन है। फिर तुम जीते हो ब्रह्म में, फिर है ब्रह्मचर्य, फिर है ब्रह्म जैसा आचरण, फिर है दैवी जीवन। उसी दैवी जीवन के स्मरण दिलाने के लिए ये सूत्र हैं।
भूले संपति स्वारथ मूढ़ा। परे भवन में अगम अगूढ़ा।।
‘भूले संपति स्वारथ मूढ़ा।’ हे मूढ़जनो, तुम किन बातों में अपने को भुलाए हुए हो? संपत्ति में? अंधे हो, इसलिए संपत्ति में संपत्ति दिखाई पड़ती है। मूढ़ हो, इसलिए संपत्ति में संपत्ति दिखाई पड़ती है। अन्यथा संपत्ति में विपत्ति दिखाई पड़ेगी। यहां कितनी ही संपत्ति इकट्ठी कर लो, उस संपत्ति से चिंताएं तो बढ़ती चली जाती हैं, संताप तो बढ़ता चला जाता है, चित्त की अशांति तो बढ़ती चली जाती है, मगर सुख की कोई झलक नहीं आती, वसंत नहीं आता, न आनंद के फूल खिलते, न भीतर कोई अनाहत का नाद गूंजता। यह कैसी संपदा?
‘सम’ शब्द को समझना। यह बहुमूल्य शब्द है। इसी से बना है: समाधि; इसी से बना है: सम्यकत्व; इसी से बना है: समता; इसी से बना है: संबोधि; इसी से बना है: संपदा, संपत्ति। समता जो लाए, समभाव जो लाए, भीतर से सारी चिंताओं और विचारों का जाल जो काट दे, उसे संपत्ति कहते, उसे ही संपदा कहते। समाधि के अतिरिक्त और कोई संपदा नहीं है। क्योंकि समाधि में समाधान है, सारी चिंताओं का निरसन है। सारे ऊहापोह का अंत है। सारा उपद्रव जो चित्त में चलता रहता है, उसका विसर्जन हो जाना है।
उसको ही संपदा कहना चाहिए जिससे भीतर ऐसी परम शून्य, शांत, मौन दशा की उपलब्धि हो कि जहां एक भी तरंग बेचैन करने को न उठे। झील बिलकुल निस्तरंग हो जाए। और अगर ऐसा न होता हो, तो तुमने जिसे संपत्ति समझा है, वह विपत्ति है। और तुमने जिसे संपदा समझा है, वह विपदा है।
भूले संपत्ति स्वारथ मूढ़ा।...
किस बात को संपत्ति समझ कर भटक गए हो, भूल गए हो? खाली हाथ आते हो, खाली हाथ जाते हो। मगर बीच में कितना शोरगुल मचा लेते हो! न कुछ लाते, न कुछ ले जा सकते, सब यहीं का यहीं पड़ा रह जाता है, मगर कितने झगड़े, कितने उपद्रव, कितनी आपाधापी, कितना वैमनस्य, कितनी घृणा--उसके लिए जो पड़ा रह जाएगा! लोग मरने को, मारने को उतारू हैं। और इसी संपत्ति--तथाकथित संपत्ति--को संगृहीत करने को तुमने अपना स्वार्थ बना लिया है। तुमने उसे अपने स्वयं का अर्थ बना लिया है।
‘स्वार्थ’ शब्द भी बड़ा प्यारा है, खराब हो गया--हमने अच्छे-अच्छे शब्द खराब कर दिए। सुंदर-सुंदर शब्द भी गलत लोगों के हाथ में पड़ कर दुर्गंधयुक्त हो जाते हैं। स्वार्थ शब्द भी बड़ा अर्थपूर्ण है। स्व+अर्थ: आत्म-अर्थ। जो मेरे निज का आंतरिक अर्थ है, अभिप्राय है; जो मेरे भीतर की महिमा और गरिमा है; जो मेरे अंतर-जगत की सुगंध है, वही स्वार्थ है। मगर वह भी खराब हो गया। किसी को स्वार्थी कहना गाली देने जैसा है। क्योंकि हमने स्वार्थ को ही व्यर्थ चीजों से जोड़ दिया। धन इकट्ठा करो तो स्वार्थ, पद की दौड़ में दौड़ो तो स्वार्थ। न तो धन में स्वार्थ है, न पद में स्वार्थ है; स्वार्थ तो ध्यान में है, भक्ति में है। स्वार्थ तो परमात्मा की तलाश में है।
इसलिए दरिया ठीक ही कहते हैं कि तुम मूढ़ हो; किस चीज को संपत्ति समझ ली? किस चीज को स्वार्थ समझ लिया।
...परे भवन में अगम अगूढ़ा।
और इस भ्रांति के कारण एक ऐसी अतल गहराई में गिरते जा रहे हो जिसका कोई अंत नहीं है; एक ऐसे स्वप्न-जाल में उलझ गए हो जिससे छुटकारा मुश्किल हो जाएगा। किसी भ्रांति में उतरना तो बहुत आसान है, लेकिन भ्रांति से बाहर आना बहुत कठिन होता है। क्यों? क्योंकि एक छोटी सी भूल से भ्रांति शुरू हो जाती है। तुम गणित का कोई सवाल कर रहे हो, जरा सी गलती हो गई, दो और दो चार की जगह दो और दो पांच जोड़ दिए--जरा सी गलती, कोई बहुत बड़ी गलती नहीं हो गई--लेकिन अब तुम जो भी इसके आगे करोगे, वह गलत होता जाएगा। यह एक छोटी सी गलती करोड़ों-करोड़ों गलतियों का आधार बन जाएगी। और वापस इस गलती को खोज लेना रोज-रोज मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि गणित फैलता जाता है, बड़ा होता जाता है। इस छोटी सी भूल को कहां खोज पाओगे? और जिंदगी में कोई बहुत बड़ी भूलें नहीं हो गई हैं, बस ऐसी छोटी-छोटी भूलें हैं: असली स्वार्थ को स्वार्थ नहीं समझा, नकली स्वार्थ को स्वार्थ समझ लिया; असली संपदा को संपदा नहीं जाना, नकली संपदा को संपदा समझ लिया; छोटी सी भूल है, लेकिन बस उस एक भूल पर फिर जन्मों-जन्मों की यात्रा शुरू हो गई। भ्रांतियां और भ्रांतियां। एक भ्रांति दूसरी भ्रांति में ले जाती है, दूसरी भ्रांति तीसरी भ्रांति में ले जाती है, और फिर मौलिक भूल तक लौटना मुश्किल होने लगता है। उस मौलिक भूल की याद दिला रहे हैं।
भूले संपत्ति स्वारथ मूढ़ा। परे भवन में अगम अगूढ़ा।।
संत निकट फिनि जाहिं दुराइ। विषय-बासरस फेरि लपटाई।।
कभी-कभी तुम्हारे जीवन में वैसी घड़ी भी आ जाती है कि जब किसी सदगुरु के पास पहुंच जाते... ‘संत निकट फिनि जाहिं दुराई’... लेकिन वहां टिकते नहीं। कोई अपनी भूल नहीं देखना चाहता।
इसे समझो।
इस दुनिया में कोई यह नहीं मानना चाहता कि मैं और भूल में। इससे अहंकार को चोट लगती है, घाव हो जाता है अहंकार में, मवाद बहने लगती है, दबे घाव उघड़ आते हैं, कोई नहीं जानना चाहता कि मुझसे भूल हुई है। और संतों के पास तो सिवाय इसके और कुछ भी नहीं कि वे तुम्हें कहें कि तुमसे भूल हुई है। और एक नहीं हजार भूलें तुम्हारी तुम्हें दिखाएं। सब तरफ से तुम्हारी भूलों का जाल तुम्हारे सामने प्रकट करें। तुम तो उन लोगों के साथ होना चाहते हो जो तुम्हारी खुशामद करें, जो तुम्हारी प्रशंसा करें।
संत तो तुम्हारी प्रशंसा नहीं कर सकते। प्रशंसा करने योग्य अभी कुछ है ही नहीं। अभी वसंत आया नहीं है, गीत किस वसंत के गाएं? अभी मेघ घिरे नहीं, गीत किस सावन के गाएं? अभी तुम कांटों ही कांटों से भरे हो। मगर तुम चाहते हो कि लोग कहें: अहा! कैसे फूल खिले हैं, कैसी सुगंध आ रही है! तुम अपने अहंकार के समर्थन में सब तरह के झूठ चाहते हो। इसीलिए तो दुनिया में खुशामद इतनी कारगर चीज है। और चमचे इतने सफल होते दिखाई पड़ते हैं। तुम चाहते हो कि कोई मक्खन मले तुम्हारे अहंकार पर। संतों के पास तो यह नहीं हो सकता। और जहां यह होता हो, जानना वहां संत नहीं है। तुमने दो पैसे दान दे दिए और संत ने तुम्हारी खूब पीठ ठोकी और कहा: घबड़ाओ मत, भगवान के नाम चिट्ठी लिखे देता हूं कि तुम्हारे लिए स्वर्ग में विशेष इंतजाम हो जाएगा; कि तुमने एक मंदिर बनवा दिया और संतों ने कहा: अहा! दान-दाता हो तुम, दानदाताओं में शिरोमणि हो तुम, महापुण्यकर्ता हो तुम। ये सब चमचे हैं। ये तुम्हारे अहंकार को परिपुष्ट कर रहे हैं। अगर कहीं कोई नरक है तो ये तुम्हें नरक में ढकेल रहे हैं। लेकिन यही तुम्हारे तथाकथित संत सदियों से करते रहे हैं--खुशामद, चापलूसी।
सच्चा सदगुरु तो तुम्हारे सपनों को तोड़ेगा, तुम्हें झकझोरेगा। सच्चा सदगुरु तो एक हथौड़े की तरह तुम्हारे सिर पर गिरेगा। तुम्हें तोड़ेगा। तुम्हारे सिर को तोड़ना है, तुम्हारे अहंकार को तोड़ना है, तुम्हारी भ्रांतियों का जाल काटना है। सच्चा संत तो एक शल्यक्रिया है। और इसलिए, अक्सर ऐसा हो जाता है... ‘संत निकट फिनि जाहिं दुराई’... कभी तुम भूल-चूक से किसी संत के पास पहुंच भी जाते हो तो भाग खड़े होते हो। और भागने में भी आदमी को कुछ तर्क तो खोजने ही पड़ते हैं। एकदम ऐसे ही भागोगे तो खुद की ही आंखों के सामने बड़ा अपमान हो जाएगा। तो आदमी तर्क खोज लेता है कि वहां कुछ था ही नहीं, कि वे बातें ठीक न थीं, कि शास्त्रों के अनुकूल न थीं। हजार तर्काभास आदमी पैदा कर लेता है! और सारे तर्काभासों का एक ही प्रयोजन है कि तुम्हें भागने में सहायता मिल जाए।
सदगुरु के पास, स्मरण रखना एक बात, चोट लगेगी। छाती में तीर चुभेगा। लहू भी बहेगा, घाव भी होंगे, गहन पीड़ा होगी। लेकिन उसी पीड़ा से पुनर्जन्म है। वह पीड़ा प्रसव की पीड़ा है, भागना मत। अगर कहीं कोई सौभाग्य से तुम्हारे सिर को मिटा देने वाला मिल जाए, तो सिर को रख देना उस चौखट पर। अगर कहीं कोई इतना करुणावान मिल जाए कि तुम्हें मिटा ही दे, तो फिर कायरता मत दिखाना, पलायन मत करना। फिर भगोड़े हो मत जाना; फिर तर्काभास खोज कर किसी तरह अपने को बचा मत लेना। यह बचाने की वृत्ति बिलकुल स्वाभाविक है। इसलिए दरिया स्मरण दिलाते हैं: ‘संत निकट फिनि जाहिं दुराई।’ लोग आ भी जाते हैं तो भाग जाते हैं, फिर-फिर भाग जाते हैं। बार-बार बंधन में गिर जाते हैं। बार-बार गलत को पकड़ लेते हैं। गलत परिचित है, जाना-माना है। गलत के साथ तुम बहुत कुशल हो गए हो। सही के साथ तो तुम्हें अ ब स से सीखना शुरू करना पड़ेगा। और सीखना कोई भी नहीं चाहता, क्योंकि सीखना कठिन मालूम होता है।
कोई भी व्यक्ति नये अध्याय शुरू नहीं करना चाहता जीवन में। और सदगुरु के पास तो जीवन पूरी की पूरी तरह नया अध्याय बनेगा। पुरानी किताब तो आग में फेंक दी जाएगी। फिर से लिखी जानी है कहानी और अ ब स से लिखी जानी है। इतनी जिनमें हिम्मत होती, इतना जिनमें साहस होता है, दुस्साहस, इतनी जोखम उठाने को जो तैयार हैं, वे ही केवल सदगुरुओं के पास आकर रुक पाते हैं। आते तो बहुत हैं, भाग जाते हैं। और फिर याद दिला दूं कि जो भागते हैं वे ऐसे ही नहीं भाग जाते, वे अपने को समझा लेते हैं हर तरह से कि क्यों भाग आए। जरूरी था भागना। जगह ही गलत थी। धर्म ही नहीं था यह। ऐसा समझा कर, ऐसा अपने को बुझा कर, अपने अहंकार को सुरक्षित रख लेते हैं।
तुम्हें धर्म का पता है--धर्म क्या है? तुम्हें पता है सत्य क्या है? तुम्हें पता है परमात्मा क्या है? तुम्हें कुछ भी तो पता नहीं। तुम निर्णय कैसे लेते हो! ईमानदार आदमी, सत्य का शोधक निर्णय नहीं लेगा। वह कहेगा: मैं प्रयोग करूंगा, अनुभव करूंगा, अनुभव ही निर्णायक होगा। अगर कहीं कोई व्यक्ति उसकी आंखों में चमक जाएगा, तो रुक जाएगा, जीवन को दांव पर लगाएगा। अगर होगी कोई सच्चाई तो अनुभव में आ जाएगी, हाथ लग जाएगी। अगर नहीं होगी कोई सच्चाई, तो भी लाभ होगा--इतना तो पता चल गया कि गलत क्या होता है! अब गलत से बचने की सुविधा हो जाएगी। सत्य के खोजी को गलत प्रयोग करने से भी हानि नहीं होती, लाभ ही होता है। क्योंकि यह पता चल जाए कि क्या गलत है, तो ठीक को समझने में आसानी हो जाती है।
और मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि जीवन के अंत में जब कोई लौट कर देखता है अपनी लंबी यात्रा पर, तो चकित होता है। जो ठीक थे, उन्होंने भी साथ दिया, जो ठीक नहीं थे, उन्होंने भी साथ दिया। जो सच्चे थे, उन्होंने भी पहुंचाया; जो झूठे थे, उन्होंने भी रास्ता दिया। झूठों ने झूठ को पहचानने की क्षमता दी, सच्चों ने सत्य को पहचानने की क्षमता दी। और दोनों क्षमताएं जरूरी हैं। तभी कोई पहुंच पाता है।
जीवन के अंत में कोई शिकायत नहीं रह जाती। अच्छों के प्रति धन्यवाद, बुरों के प्रति धन्यवाद। संतों के प्रति धन्यवाद, मिथ्या संतों के प्रति धन्यवाद। जीवन के अंत में सभी के प्रति धन्यवाद का भाव रह जाता है। कांटों ने भी सिखाया, फूलों ने भी सिखाया। अंधेरी रातों ने भी बहुत दिया, प्रकाशवान दिनों ने भी बहुत दिया। सबने दिया। सबसे मिल कर ही कोई व्यक्ति अंततः परम सत्य को उपलब्ध हो पाता है।
भटकना भी बुरा नहीं है, भटकना भी पहुंचने की राह पर अनिवार्य अंग है। इसलिए सत्य का खोजी भागता नहीं, भगोड़ा नहीं होता।
संत निकट फिनि जाहिं दुराई। विषय-बासरस फेरि लपटाई।।
संत के पास से तो आदमी जल्दी से भाग जाते हैं। और भाग कर फिर करेंगे क्या? क्योंकि संत से अगर दुर्घटना में भी मिलना हो जाए, अकस्मात भी मिलना हो जाए, अकारण भी मिलना हो जाए, तो भी उसकी छाया पीछा करने लगती है। उसकी आंखें तुम्हारी आंखों में समा जाती हैं। और उसकी आवाज कहीं तुम्हारे भीतर की आवाज का हिस्सा हो जाती है। वह तुम्हें पुकारने लगता है तुम्हारे ही भीतर से। ‘दरिया कहै सब्द निरबाना।’ बचा नहीं जा सकता। तो फिर एक ही उपाय है बचने का--जाकर वासनाओं में डूब जाओ। पी लो शराब; कि कामवासना, कि धन, मद, किसी भी अंधी वासना में दौड़ जाओ, डूब जाओ, ताकि संत की जो थोड़ी सी झलक तुम्हारे प्राणों में कहीं पड़ गई है, वह तुम्हें पकड़ न ले। संतों के पास से भाग कर लोग पुनः वासनाओं में और जोर से डूब जाते हैं। यही एक बचने का उपाय मालूम होता है।
अब का सोचसि मदहिं भुलाना। सेमर सेइ सुगा पछिताना।।
लेकिन ऐसे लोग बहुत पछताएंगे। और पछताएंगे तब जब कि हाथ से जीवन का अवसर निकल चुका होगा। जब कि समय उड़ चुका होगा।
अब का सोचसि मदहिं भुलाना।...
मरते वक्त लोग पछताते हैं। मगर तब तो बहुत देर हो गई, मृत्युशय्या पर पड़े-पड़े पछताते हैं। लेकिन अब क्या किया जा सकता है? इस तरह के पछताने वालों के लिए ही झूठे, थोथे पंडितों ने उपाय खोज रखे हैं। उन्होंने कहा है: मरते वक्त भी राम का नाम ले लेना, बस उतने से मुक्ति हो जाएगी। जिंदगी भर रावण की सेवा करना और मरते वक्त राम का नाम ले लेना। बेईमानी की भी कोई सीमा होती है! जिंदगी भर अंधेरे से आलिंगन करना और मरते वक्त सिर्फ ज्योति का नाम ले लेना--क्योंकि और तो क्या करोगे, पहचान तो अंधेरे से है, ज्योति का स्मरण तो कर ही नहीं सकते, सिर्फ नाम ले सकते हो। मरते वक्त प्रकाश-प्रकाश-प्रकाश, ऐसी बकवास करना और जिंदगी भर अंधेरे का अनुभव करना, फिर भी मुक्त हो जाओगे। ऐसे धोखेबाज लोग, ऐसे बेईमान लोग तुम्हारे गुरु बने बैठे हैं। और कारण तुम्हीं हो। क्योंकि यही तुम चाहते हो।
तुम चाहते हो, अंधेरे में जीने में भी कोई बाधा न पड़े और मरते वक्त ले लेंगे नाम! और अक्सर तो ऐसा होता है, मरते वक्त तुम भी न ले पाओगे--क्योंकि मरना कोई खबर देकर तो आता नहीं, कोई पहले से तो सम्मन आता नहीं कि कल मैं आता हूं; मौत तो आ जाती है, एकदम से, अचानक, एक क्षण का भी मौका नहीं देती कि बिस्तर इत्यादि बांध लो, तैयारी कर लो; फिर तुम खुद भी नाम ले पाओगे? नहीं, तुम खुद भी नहीं ले पाओगे। कोई दूसरा पंडित-पुजारी तुम्हारे मुंह में गंगाजल डालेगा--गंगाजल बोतलों में भरा हुआ रखा है जो। कोई पंडित-पुजारी मरते हुए आदमी के कान में गायत्री-मंत्र पढ़ेगा, नमोकार पढ़ेगा; बुद्धमं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि। खुद न कह सके अपने ओंठों से कभी, अब कोई दूसरे ओंठ तुम्हारे कान में कह रहे हैं--वह भी खुद के लिए नहीं कह रहे हैं, उनको भी बुद्ध की शरण जाना नहीं है, वे भी तुम्हें भेज रहे हैं। और तुम मृत्यु की शरण जा रहे हो; अब कहां बुद्ध की शरण? तुम्हें शायद सुनाई भी नहीं पड़ेगा। शायद तुम्हें यह दूर की आवाज... कि यह क्या बकवास हो रही है? यह कौन क्या कह रहा है? कोई शोरगुल हो रहा है! तुम तो डूब रहे हो, तुम तो मिट रहे हो, तुम तो बिखर रहे हो और कोई गायत्री-मंत्र पढ़ रहा है, कि नमोकार पढ़ रहा है, कि भक्ततांबर पढ़ रहा है। ऐसे कहीं जीवन में क्रांतियां होती हैं! कि तुम भूखे मर रहे हो और कोई तुम्हारे कान में पाकशास्त्र की किताब से अच्छे-अच्छे भोजनों के संबंध में विवेचन पढ़ रहा है। ऐसे जीवन में क्रांतियां नहीं होतीं। मगर हम बेईमान, हम धोखेबाज, हम प्रवंचक; तो हम अपनी प्रवंचना के अनुकूल आदमी खोज लेते हैं--जो हमें धोखा देने को तैयार होते हैं।
अब का सोचसि मदहिं भुलाना।...
जिंदगी भर तो न मालूम कितने-कितने मदों में भूले रहे--धन-मद, पद-मद और न मालूम कितने मद थे--कितने नशों में डूबे रहे, अब मरते वक्त सोच-विचार में पड़ रहे हो? अब बहुत देर हो गई। यह वैसी ही देर हो गई--‘सेमर सेइ सुगा पछिताना।’ सेमर का फूल होता है, देखने में ऐसा लगता है जैसे फल है और तोता फल समझ कर उसमें चोंच मार देता है। लेकिन चोंच मारते ही--सेमर में कुछ और तो नहीं है, रुई होती है--चोंच लगते ही रुई उड़ जाती है हवा में, बिखर जाती है हवा में, तोते के हाथ कुछ भी नहीं लगता। ऐसी ही तुम्हारी जिंदगी है।
...सेमर सेई सुगा पछिताना।
मारो चोंच इस जिंदगी में, रुई उड़ जाएगी, हाथ कुछ भी न लगेगा। फिर बैठे-बैठे पछताना! और फिर नई जिंदगी, और फिर वही की वही भूलें तुम दोहराओगे। क्योंकि हमारी स्मृति बड़ी कमजोर है।
अगर मैं तुमसे आज पूछूं कि आज इकतीस जनवरी है, एक साल पहले, पिछले वर्ष की इकतीस जनवरी को तुमने क्या किया था? क्या तुम याद करके बता सकोगे? कुछ याद न आएगा, कुछ भी याद न आएगा। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते, केवल एक साल बीता है। तुम यह भी नहीं कह सकते कि इकतीस जनवरी हुई ही नहीं पिछले वर्ष। इकतीस जनवरी भी हुई थी, तुम भी थे और कुछ न कुछ घटा भी होगा, सुबह से सांझ तक कुछ न कुछ हुआ भी होगा--किसी को गाली दी होगी, किसी से झगड़ा किया होगा, किसी से मित्रता बनाई होगी, कोई हार, कोई जीत, कुछ उपद्रव हुआ होगा--मगर आज कुछ भी याद नहीं आता। एकदम सब सपाट कोरा मालूम पड़ता है। लेकिन तुम चकित होओगे, अगर तुम्हें सम्मोहित करके बेहोश किया जाए और सम्मोहित अवस्था में तुमसे पूछा जाए कि कहो: इकतीस जनवरी को पिछले वर्ष क्या हुआ था? तो तुम ब्योरे से, सुबह उठने से लेकर सांझ सोने तक एक-एक बात विस्तार से कह सकोगे, बता सकोगे। छोटी-छोटी बातें कि उस दिन सुबह तुमने जो चाय पी थी, वह ठंडी थी; कि उस दिन सब्जी में नमक ज्यादा था; यहां तक कि उस रात तुमने जो सपने देखे थे, वे तुम्हें याद आ जाएंगे। साधारणतः तुम्हें कुछ याद नहीं है, लेकिन सम्मोहित अवस्था में तुम्हारे अचेतन से आवाजें आनी शुरू हो जाती हैं। अचेतन संगृहीत रखता है सब।
जब एक ही वर्ष पिछले की हालत ऐसी है, तो तुमसे कोई अगर पूछे कि पिछले जन्म में तुमने क्या किया था? तुम तो बिलकुल हाथ हिला कर रह जाओगे, तुम कहोगे: कैसा जन्म? मुझे कुछ याद ही नहीं है, था भी कि नहीं? लेकिन गहरी प्रक्रियाएं हैं सम्मोहन की, जिनके द्वारा तुम्हें याद दिलाई जा सकती है कि पिछले जन्म में तुमने क्या किया था? कि मरते वक्त तुमने क्या निर्णय लिए थे? कि मरणशय्या पर पड़े-पड़े तुम कितने पछताए थे, और तुमने तय किया था कि अब नहीं दौडूंगा धन के पीछे, कि अब नहीं दौडूंगा पद के पीछे, हो चुका बहुत, समझ लिया सब! मगर कब की भूल चुकीं वे बातें। बहुत देर हो गई। नौ महीने गर्भ में रहने में सब भूल-भाल गया। फिर दुनिया शुरू हो गई, फिर वही दुनिया शुरू हो गई।
यह तो दूर की बात है। बहुत पास के अनुभव से सोचो। तुम तय करते हो सांझ कि सुबह चार बजे उठना ही है, ब्रह्ममुहूर्त में उठ कर ध्यान करना है, कसम खा लेते हो कि आज कुछ भी हो जाए उठूंगा, यह मेरी जिंदगी और मौत का सवाल है; अलार्म भर देते हो। और सुबह चार बजे तुम्हीं अलार्म बंद कर देते हो, और करवट लेकर वापस सो जाते हो। और आठ बजे जब तुम उठोगे, तुम फिर पछताओगे और कहोगे: यह कैसे हुआ? किसने अलार्म बंद किया? और तुम्हें याद दिलाया जाए कि तुम्हारे अतिरिक्त कमरे में कोई भी नहीं, तुम्हीं ने बंद किया होगा, तो याद भी आ जाए तो तुम और भी चौंकोगे कि हैरानी की बात है, क्योंकि मैंने तो तय किया था कि उठूंगा, तो मैंने अलार्म बंद क्यों किया? और अब तुम पछता रहे हो। और फिर तुम कल तय करोगे और फिर यही होगा। जिंदगी भर यही होता है।
एक आदमी ने मुझसे कहा कि मैं तीस साल से सिगरेट छोड़ने का उपाय कर रहा हूं और छूटती नहीं, अब आप कोई रास्ता बताएं। मैंने कहा: सिगरेट पीने में जितना नुकसान हुआ, उससे ज्यादा नुकसान यह तीस साल उपाय करने में हुआ। पी रहे थे तो पीते रहते। कोई बहुत बड़ा काम भी नहीं कर रहे थे... धुंआ भीतर ले गए, बाहर लाए, भीतर ले गए, बाहर लाए... कोई ऐसा महान कार्य भी नहीं कर रहे थे कि जिसको छोड़ने में तीस साल मेहनत करनी पड़े; न पकड़ने योग्य कुछ था, न छोड़ने योग्य कुछ था, धुआं ले गए भीतर, धुआं लाए बाहर, इसमें कला क्या थी? इसमें तीस साल छोड़ने की चेष्टा क्यों की? वे तो बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा: मैं तो जिस भी साधु-संत के पास जाता हूं, वह कहता है, और जोर से कसम खाओ, संकल्प करो, भगवान के सामने संकल्प करो कि अब नहीं पीओगे।
मैंने उनसे कहा: मैं तुमसे सिर्फ एक संकल्प दिलवाना चाहता हूं कि तीस साल का अनुभव काफी है, अब और समय खराब न करो, अब यह बात ही जाने दो। अब पीना हो तो पीओ, न पीना हो तो मत पीओ, मगर यह छोड़ने का संकल्प छोड़ दो। और इतना तुमसे कह देता हूं कि सिगरेट पीने में कोई पाप नहीं है। न तो किसी की हत्या कर रहे हो, न किसी का खून पी रहे हो, न किसी की जेब काट रहे हो, अगर नुकसान भी कर रहे हो तो अपना कर रहे हो--अपना नुकसान करने का हक तो हर आदमी को है। और सत्तर साल न जीए, चलो दो-चार साल कम जीए, तो हर्जा भी क्या है? सत्तर साल जीकर भी क्या करते? ऐसे ही भीड़-भाड़ बहुत है। तो संसार का छुटकारा तुमसे चार साल पहले हो जाएगा, इसमें कुछ हर्जा नहीं है।
वे कहने लगे: आप क्या कहते हैं? इसमें पाप नहीं है?
मैंने कहा: पाप बिलकुल नहीं है, सिर्फ मूढ़ता है। धुआं भीतर ले जाना, धुआं बाहर लाना, यह प्राणायाम का एक उपाय समझो। शुद्ध हवा से नहीं करना चाहते, तुम्हारी मर्जी! नहीं तो शुद्ध हवा से कर सकते हो। मुफ्त मिलती है शुद्ध हवा। सुबह बैठ कर श्वास भीतर ले जाओ गहरी, श्वास बाहर लाओ गहरी। मगर तुम धुएं के साथ करना चाहते हो, तो धुएं के साथ करो, पाप कुछ भी नहीं हो रहा है, सिर्फ मूढ़ हो, बुद्धिहीन हो और कुछ भी नहीं।
तुम चकित होओगे यह जान कर, जिन्होंने उनसे कहा था, पापी हो, उनसे वे नाराज नहीं थे। मेरे यह कहने से कि तुम मूढ़ हो, वे मुझसे जो नाराज हुए तो फिर नहीं आए। लोगों से कहते हैं कि उन्होंने अच्छा व्यवहार नहीं किया मेरे साथ। अब तुम सोचो! पापी कहो, किसी को बुराई नहीं लगती। क्योंकि धार्मिक शब्दावली है: पाप, पुण्य। किसी को मूढ़ कहो, तो चोट लगती है अहंकार को। और सचाई यह है कि मूढ़ता के अतिरिक्त और कोई पाप नहीं है। और बुद्धिमत्ता के अतिरिक्त और कोई पुण्य नहीं है। जागरूकता पुण्य है, मूर्च्छा पाप है।
इस जीवन में ही तुम इतनी चेष्टाएं कर-कर के कुछ नहीं बदल पाते, तो पिछले जीवन में तुमने जो निर्णय लिए थे उनकी तो तुम्हें याद भी क्या होगी? मरते वक्त तुम जो पछता कर मरे थे, उसकी तो तुम्हें याद भी क्या होगी? और कोई एकाध बार ऐसा नहीं हुआ है, बहुत बार ऐसा हुआ है, अनंत बार ऐसा हुआ है। फिर वही भूल। एक वर्तुल है। एक चाक है जो घूमता चला जाता है।
अब का सोचसि मदहिं भुलाना। सेमर सेइ सुगा पछिताना।।
मरनकाल कोइ संगि न साथा। जब जम मस्तक दीन्हेउ हाथा।।
न तो कोई पंडित-पुजारी साथ देंगे, न कोई शास्त्र-सिद्धांत साथ देंगे, न कोई मंदिर-मस्जिद साथ देंगे, न प्रियजन-परिजन साथ देंगे।
मरनकाल कोइ संगि न साथा।...
जिंदगी की दूसरी करवट थी मौत।
जिंदगी करवट बदल कर रह गई।।
मौत तो जिंदगी की ही एक करवट है। इस तरफ मुंह किए थे, उस तरफ मुंह हो गया। इस देह में थे, उस देह में हो गए। और तुम ही कुछ कर सकते हो, कोई और दूसरा कुछ भी नहीं कर सकता। तुम्हारी करवट है। और तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारी करवट का कोई और मालिक नहीं है।
मरनकाल कोइ संगि न साथा।...
मृत्यु के क्षण में तुम बिलकुल अकेले हो। और वही तुम्हारी निजता है। जन्म के क्षण में भी तुम बिलकुल अकेले हो। उस अपने एकाकीपन को ठीक से समझ लो, क्योंकि वही तुम्हारा स्वभाव है। मित्र, प्रियजन, परिवार, भीड़-भाड़ सब उपाय हैं अपने को भुलाए रखने के, उलझाए रखने के; उपाय हैं अपने अकेलेपन को डुबाए रखने के। लेकिन तुम्हारा अकेलापन मिटाया नहीं जा सकता। तुम अकेले हो! और यहां जितने संबंध हैं, सब नदी-नाव-संयोग। सांयोगिक हैं।
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार,
पथ ही मुड़ गया था!
गति मिली, मैं चल पड़ा, पथ पर कहीं रुकना मना था,
राह अनदेखी, अजाना देश, संगी अनसुना था!
चांद-सूरज की तरह चलता, न जाना रात-दिन है,
किस तरह हम-तुम गए मिल, आज भी कहना कठिन है!
तन न आया मांगने अभिसार,
मन ही जुड़ गया था!
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार,
पथ ही मुड़ गया था!
देख मेरे पंख चल, गतिमय, लता भी लहलहाई,
पत्र-आंचल में छिपाए मुख कली भी मुस्कुराई,
एक क्षण को थम गए डैने समझ विश्राम का पल,
पर प्रबल संघर्ष बनकर, आ गई आंधी सदल बल!
डाल झूमी, पर न टूटी,
किंतु पंछी उड़ गया था!
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार,
पथ ही मुड़ गया था!
कैसे हम मिल गए हैं? कैसे यह मिलन हो गया है, कि कोई पति है, कोई पत्नी है, कोई पिता है, कोई मां है, कोई बेटा, कोई भाई, कोई बहिन, कोई मित्र, कोई शत्रु? सब सांयोगिक है। बिलकुल सांयोगिक है! यहां कौन अपना है, कौन पराया है? राह चलते राहगीर मिल गए हैं, साथ हो लिए हैं। वे भी अकेले हैं, तुम भी अकेले हो; न वे चाहते हैं कि अकेले हों, न तुम चाहते हो कि अकेले होओ; इसलिए संग-साथ जोड़ लिए हैं। किस-किस तरह के उपाय कर लिए हैं हमने, इस बात को भुलाने के लिए कि मैं अकेला हूं! और यह बात चाहे भुला दो, मिटाई नहीं जा सकती। मौत तो उघाड़ देगी। मौत तो यह सब प्रवंचनाएं तोड़ देगी।
मरनकाल कोइ संगि न साथा। जब जम मस्तक दीन्हेउ हाथा।।
और जब मृत्यु तुम्हारी गर्दन को दबाएगी, तब तुम्हें पता चलेगा--अरे, न कोई संगी है, न कोई साथी है। तब तुम्हें यह भी पता चलेगा--कभी भी न कोई संगी था, न कोई साथी था। अकेले ही थे, भ्रांति खा गए थे भीड़ की। काश, पहले ही समझ लेते कि अकेले हैं, तो संन्यास घट गया होता।
संन्यास का क्या अर्थ होता है?
संन्यास का अर्थ नहीं होता जंगल भाग जाना। संन्यास का अर्थ नहीं होता है घर द्वार छोड़ देना। संन्यास का अर्थ होता है: मेरा अकेलापन शाश्वत है--इसकी प्रतीति। इसकी अनुभूति कि मैं अकेला हूं, कि मेरे अकेले होने के अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं है, अकेलापन मेरा स्वभाव है, इसे झुठला सकता हूं, भुला सकता हूं, मिटा नहीं सकता। जिसने अपने अकेलेपन को परिपूर्णता से अंगीकार कर लिया, स्वीकार कर लिया, वह संन्यासी है।
और संन्यास जीवन में क्रांति है, संक्रांति है। संन्यास के साथ ही यात्रापथ मृत्यु की तरफ से मुड़ जाता है, अमृत की ओर उन्मुख हो जाता है। संसार से भागना नहीं पड़ता। लेकिन संसार से एक विमुखता हो जाती है और परमात्मा से सन्मुखता हो जाती है।
तुम जहां हो वहीं हो जाती है। भागते तो वे ही हैं जिनको यह खयाल है कि हम जुड़े हैं।
किसी ने मुझसे कहा कि मैं घर छोड़ कर आ गया, अब मैं न जाऊंगा। आप ही तो समझाते हैं कि न कोई पत्नी है, न कोई पति है, न कोई बेटा, न कोई मां--अब मुझे घर क्यों भेजते हैं? संन्यास ले लिया है उन्होंने। फिर मैंने उनसे कहा कि अब ठीक है, अब घर जाओ! उन्होंने कहा: आप और कहते हैं घर जाओ! न कोई माता, न कोई पिता, न कोई पत्नी, न कोई पति--फिर अब घर क्या जाना है? मैंने कहा: जब कोई है ही नहीं, तो जाने में डर भी क्या है? पत्नी है तुम्हारी या नहीं? वे थोड़े मुश्किल में पड़े। अगर कहें, है, तो मैं कहूंगा: जाओ। अगर कहें, नहीं है, तो मैं कहूंगा: डरते क्यों हो, जाओ। वे कहने लगे: आपने मुझे उलझन में डाला।
जाओ तो भी मान कर जाते हैं लोग कि पत्नी है, और भागते हैं तो भी मान कर भागते हैं कि पत्नी है। जानने वाला भागता ही नहीं! जानने वाला सिर्फ जाग जाता है। जहां है, जैसा है, वैसा ही--मगर उसकी दृष्टि बदल जाती है। उस दृष्टि के रूपांतरण का नाम संन्यास है।
और तुम्हें अगर अपने एकांत का स्मरण आ जाए, तो फिर पहाड़ पर क्या जाना एकांत के लिए! तुम जहां हो तुम्हारे भीतर ही वह अंतर-गुहा है, जहां बैठ जाओ तो एकांत है। और ऐसा एकांत जो कभी खंडित नहीं हुआ। ऐसा एकांत जो सदा से कुंआरा है, जिस पर कोई चरण-चिह्न नहीं पड़े हैं।
अब तो हिमालय पर भी कुंआरी बर्फ खोजनी मुश्किल है। आदमी के चरण-चिह्न पड़ गए। अब तो चांद पर भी एकांत खोजना कठिन है।
मैंने सुना है, जब पहली दफा अमरीकी अंतरिक्ष-यात्री चांद पर पहुंचे तो बड़े हैरान हुए। देखा कि भारतीयों की एक भीड़, बाजार भरा हुआ है... कुंभ मेला इत्यादि है, क्या मामला है? बहुत घबड़ा गए। कहा कि आप लोग आए कैसे यहां? उन्होंने कहा: हमें आने की क्या दिक्कत, एक-दूसरे के ऊपर खड़े होते गए। कोई अंतरिक्षयान की जरूरत ही नहीं है। हमारी भीड़ इतनी है। गोविंदा आला रे... एक के ऊपर एक खड़े होते चले गए। इस तरह चांद पर आ गए।
अब तो चांद पर भी कोई कुंआरी जमीन नहीं है। अब तो कहीं कुंआरे फूल खिलते हैं तो बस तुम्हारे अंतस्तल में। अब तो कहीं कोई एकांत खोज सकते हो तो बस वहीं। और उस एकांत का मजा यह है कि इंच भर भी यात्रा नहीं करनी पड़ती। आंख बंद की और पहुंच गए।
दिल के आईने में है तस्वीरे यार,
जब जरा गर्दन झुकाई देख ली।
और एक बार तुम्हें अपने एकांत का रस समझ में आने लगे, तो चारों तरफ उसकी झलक मिलने लगती है।
हर नग्मे ने उन्हीं की तलब का दिया पयाम।
हर साज ने उन्हीं की सुनाई सदा मुझे।।
एक बार तुम्हें भीतर का अंतःसंगीत सुनाई पड़ जाए, एकांत संगीत सुनाई पड़ जाए, तो पक्षियों की टीवी-टुटटुट, कि हवाओं का वृक्षों से गुजरना, कि झरनों का पहाड़ों से उतरना, कि बदलियों से छप्पर पर पानी की बूंदाबादी, और तुम चकित होओगे, पहले कभी समझ में नहीं आया कि यह उसी की आवाज, कि यह उसी के वेद का नाद, कि यह उसी के उपनिषद, कि यह उसी की कुरान!
हर नग्मे ने उन्हीं की तलब का दिया पयाम।
हर साज ने उन्हीं की सुनाई सदा मुझे।।
फिर तो याद सघन होने लगती है। यहां संबंध तुम्हारे झूठे हैं, यह खयाल में आ जाए तो उससे संबंध तुम्हारा सच है, यह इसी के साथ खयाल में आ जाता है।
क्यों न रहे गमे-निहानी तेरा।
दुनिया में बता कौन है सानी तेरा।।
कैसे तेरी याद मिटे? कैसे तेरा विरह मिटे?
क्यों न रहे गमे-निहानी तेरा।
दुनियां में बता कौन है सानी तेरा।।
जब यहां के सारे संबंध उथले-उथले, थोथे-थोथे, जाहिर हो जाते हैं, सांयोगिक हैं, ऐसा पता चल जाता है, तो फिर उससे संबंध स्मरण आता है जिससे संबंध शाश्वत है, जिसके हम अंग हैं, जिसमें हमारी जड़ें हैं, जो हमारे प्राणों का प्राण है, हमारी आत्मा की आत्मा है। फिर जिंदगी ही याद नहीं दिलाती उसकी, मौत भी उसी की याद दिलाती है। फिर खिला हुआ फूल ही उसकी याद नहीं लाता, सूखा गिरता हुआ पत्ता भी उसी की याद लाता है। क्योंकि वही खिलता है, वही मुर्झाता है। वसंत भी उसके हैं और पतझड़ भी उसके हैं। उपवन भी उसके हैं, मरुस्थल भी उसके हैं।
जिंदगी खुद क्या है फानी यह तो क्या कहिए मगर।
मौत कहते हैं जिसे वोह जिंदगी का होश है।
फिर जब होश आना शुरू होता है, तो जिंदगी की तो बात ही छोड़ दो, मौत भी, उसी में जागरण मालूम होता है। मौत भी मिटना नहीं मालूम पड़ता। शरीर जा रहा है, अहंकार जा रहा है, मन जा रहा है, मगर हम? हम तो और हुए जा रहे हैं। हम तो और बड़े हुए जा रहे हैं। हम तो फैलते ही चले जाते हैं। सीमाएं टूट रही हैं, मटकी फूट रही है, मगर मटकी में जो छिपा था वह पूरे विराट आकाश से मिल रहा है।
माता पिता घरनी घर ठाढ़ी। देखत प्रान लियो जम काढ़ी।।
सब खड़े रह जाएंगे--मां हो, पिता हो, पत्नी हो, पति हो, सब खड़े रह जाएंगे। मौत आएगी, पता भी न चलेगा, पगध्वनि भी न सुनाई पड़ेगी, कब खींच लेगी प्राण को।
जागो! मौत आए, उसके पहले जागो। उसके पहले इस सच्चाई को जितनी गहराई से उतर जाने दो हृदय में उतना अच्छा है।
किस जोम में है ऐ रहरवेगम! धोखे में न आना मंजिल के।
यह राह बहुत कुछ छानी है, इस राह में मंजिल कोई नहीं।।
यहां दौड़-दौड़ कर सभी कब्रों में गिर जाते हैं। यहां कब्र के अतिरिक्त और कहीं कोई पहुंचता नहीं है। गरीब भी वहीं पहुंचते हैं, अमीर भी वहीं पहुंचते हैं। पापी भी वहीं पहुंचते हैं, पुण्यात्मा भी वहीं पहुंचते हैं। अनाम हैं जो वे भी वहीं और बड़े ख्यातिनाम हैं जो वे भी वहीं। सब कब्र में गिर जाते हैं।
किस जोम में है ऐ रहरवेगम! धोखे में न आनामंजिल के।
ऐ यात्री! किस घमंड में भूला हुआ है? किसी मंजिल के धोखे में मत आना।
यह राह बहुत कुछ छानी है, इस राह में मंजिल कोई नहीं।
बस राह ही राह है। कोल्हू का बैल जैसे गोल-गोल घूमता रहता, घूमता रहता, घूमता रहता, पहुंचता कहीं भी नहीं। भ्रांति में मत रहो, यहां कोई मंजिल नहीं है। मंजिल तुम्हारे भीतर है, बाहर नहीं। मालिक तुम्हारे भीतर है, बाहर नहीं। और दौड़ते हो तुम बाहर! संपदा भीतर है, खोजते हो बाहर। समाधि भीतर है, झोलियां फैलाते हो बाहर।
किस जोम में है ऐ रहरवेगम! धोखे में न आना मंजिल के।
यह राह बहुत कुछ छानी है, इस राह में मंजिल कोई नहीं।।
धन सब गाढ़ गहिर जो गाड़े। छूटेउ माल जहांलगि भांड़े।।
कितना ही गहरा गड़ा दो धन, कितना गहरा गड़ा दो, ले जा न सकोगे। इन्हीं हंडियों में गड़ा हुआ, पड़ा हुआ रह जाएगा।
भवन भया बन बाहर डेरा।...
और इधर श्वास टूटी कि लोग उठा कर बाहर ले जाएंगे भवन के। ले चले वन की ओर।
भवन भया बन बाहर डेरा। रोवहिं सब मिलि आंगन घेरा।।
हां, थोड़ी देर रोएंगे लोग आंगन में घिर कर। लेकिन उस रोने से भी कुछ बहुत धोखे में मत आ जाना। तुम्हारे लिए नहीं रो रहे हैं, याद रखना, अपने लिए रो रहे हैं। पत्नी इसलिए नहीं रो रही है कि पति मर गया। पत्नी इसलिए रो रही है कि विधवा हो गई। पत्नी इसलिए रो रही है कि अब कौन रोटी-रोजी कमाएगा? पत्नी इसलिए रो रही है कि अब किस पर निर्भर रहूंगी? उसकी सुरक्षा टूट गई। पत्नी इसलिए रो रही है कि अब मेरा क्या भविष्य? तुम जब किसी की मृत्यु पर रोते हो तो जरा गौर करना, क्या तुम सच में उसकी मृत्यु पर रो रहे हो, या तुम्हारे भीतर उसने कोई जगह भर रखी थी, वह खाली हो गई, उस खाली जगह की पीड़ा के कारण रो रहे हो? और तुम सदा यही पाओगे: अपने लिए रोते हो तुम।
उपनिषद कहते हैं: न तो पति को कोई प्रेम करता, न पत्नी को कोई प्रेम करता। पत्नी अपने को प्रेम करती है, पति अपने को प्रेम करता है। यहां प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे का शोषण कर रहा है। हां, शोषण को हमने मीठे-मीठे नाम दिए हैं। शोषण के कांटों पर हमने खूब सुंदर-सुंदर रंग चढ़ाए हैं।
थोड़ी देर आंगन में लोग इकट्ठे होकर रो लेंगे।
खाट उठाइ कांध धरि लीन्हा।...
इधर लोग रोते रहेंगे और चले लोग उठा कर। जरा देर नहीं टिकने देते।
...बाहर जाइ अगिनि जो दीन्हा।
और ले जाकर गांव के बाहर आग को सौंप देंगे। वही देह जिसे तुमने खूब बचा-बचा कर रखा था, जरा कांटा चुभता था तो कितनी पीड़ा होती थी, और जरा आग के पास जाते थे तो कैसे झुलस जाते थे, जरा तेज धूप हो जाती थी तो कैसी बेचैनी हो जाती थी--वही देह, वही प्यारी देह!
बुद्ध के पास जब भी कोई भिक्षु दीक्षा लेता था तो वे कहते थे: पहले तीन महीने जाकर मरघट पर वास कर। क्यों? स्वभावतः कोई पूछता कि हम आपका सत्संग करने आए, मरघट पर वास करने नहीं। बुद्ध कहते: उसके बाद ही सत्संग होगा। पहले तीन महीने मरघट पर बैठा रह, देखता रह क्या होता है--साक्षीभाव से। बैठना पड़ता।
दिन में आते लोग, सुबह से सांझ, रात, मरघट पर आते ही रहते लोग, जलती ही रहतीं लाशें--व्यक्ति बैठा देखता रहता। तीन महीने, जरा तुम सोचो! रोज देखोगे, यह आदमी कल रास्ते पर चलता मिला था, आज मर गया! इस स्त्री ने कल ही तो मुझे भोजन दिया था, इसके घर भिक्षा मांगने गया था, यह मर गई! यह लोग मरते जा रहे रोज! और लोग लाते हैं, आग पर चढ़ा देते हैं, राख पड़ी रह जाती है। यही गति मेरी हो जाएगी, इस बात को तुम कितनी देर तक भुलाओगे? तीन महीने लंबा वक्त है। यह बात याद आने ही लगेगी, यह कांटा चुभने ही लगेगा, यह गहरा तीर जाने ही लगेगा, यह भाले की तरह छाती में घाव करने लगेगा कि यही गति मेरी हो जाने वाली है।
और जब तक किसी व्यक्ति को यह स्मरण नहीं आ जाता कि मृत्यु जीवन का अनिवार्य सुनिश्चित चरण है; मंजिल नहीं मिलती, केवल मृत्यु मिलती है, जब तक यह किसी को ठीक-ठीक स्मरण नहीं आ जाता, तब तक उसके जीवन में धर्म केवल औपचारिकता होती है। कभी करवा ली सत्यनारायण की कथा। चर्चा हो जाती है मोहल्ले में कि धार्मिक आदमी है। न तो सत्यनारायण की कथा में कोई सत्य है और न कोई नारायण हैं। न कोई सुनता है। न किसी को कोई प्रयोजन है। कि कभी करवा दिया हवन; कि कभी बहुत धन हाथ लग गया तो करवा दिया यज्ञ। ये सब औपचारिकताएं हैं। इनसे भी अहंकार में थोड़े आभूषण लग जाते हैं, थोड़ी फूलमालाएं गले में पड़ जाती हैं, मगर इनका धर्म से कोई संबंध नहीं है। धर्म का संबंध तो तभी शुरू होता है जब तुम्हें अपनी मौत की सुनिश्चितता ऐसी गहन होकर बैठ जाए छाती पर पत्थर की तरह कि हटाओ तो हटे न, भुलाओ तो भुला न सको; चौबीस घंटे जब मौत छाया की तरह तुम्हारा पीछा करे।
ओ प्रवासी मीत मेरे!
काश! तुम तक पहुंच पाते
आज बंदी गीत मेरे।
और--तुम यह देख पाते
नैन--जिनमें कैद हैं,
सपने मिलन के।
काश! कह पाती
मेरे दिल की सदा
यह प्रेम-पाती।
गर गवाही दे सकें तो--
पूछना इन परवतों से
आज नयन-कोर हैं
उनके भी गीले!
या पहुंच पाएं हवाएं
इन पहाड़ों की वहां तक।
कह सकें शायद वे--
अफसाना तड़फते हृदय का
जो तुम्हारा है...
तुम्हारा था।
आह! पर तुमसे जुदा
ज्यों तरु से छूटी लता!
मेघ-अंक लिपटी बिजुरिया
क्रूर अंधड़ ने बिछोड़ी।
डाल से कली ज्यों हो तोड़ी
या तड़फती मीन--
तपती रेत पर जैसे हो छोड़ी।
आएगी मृत्यु। आ ही रही है।
मेघ-अंक लिपटी बिजुरिया
क्रूर अंधड़ ने बिछोड़ी।
डाल से कली ज्यों हो तोड़ी
या तड़फती मीन--
तपती रेत पर जैसे हो छोड़ी।
जल्दी ही घड़ी आ जाएगी, जब रेत पर तड़फती हुई मीन की तरह हो जाओगे। कि डाल से टूटे गए फूल की तरह हो जाओगे। वह अंधड़ दूर नहीं, चला ही आ रहा है। हम रोज-रोज मौत के करीब पहुंचते जाते हैं। हमारा प्रतिपल मृत्यु को और-और सन्निकट लाता है। इसे स्मरण करो, इसे पुनः-पुनः स्मरण करो, क्योंकि यही स्मरण तुम्हारे जीवन में धर्म के द्वार पर दस्तक बनेगा।
जरि गइ खलरी भसम उड़ाना।...
ले जाएंगे लोग और चढ़ा देंगे अरथी पर। जल जाएगी यह खाल, हवा में धूल उड़ जाएगी।
...सोचि चारि दिन कीन्हेउ ग्याना।
और जो तुम्हें जला गए हैं, वे चार दिन जरा ज्ञान की बातें भी करेंगे।
अक्सर लोग करते हैं। मरघट पर जाओ, वहां तो लाश जल रही है और लोग जो आ गए हैं गांव के--जिन्हें आना पड़ा है--आना पड़ता है, नहीं तो उनके साथ कौन आएगा? सब लेन-देन है। तुम दूसरों को पहुंचा आते हो, दूसरे तुम्हें पहुंचा आएंगे, नहीं तो सड़ोगे, कुत्ते की मौत मरोगे, कोई पहुंचाने मरघट तक न आएगा। तो लोगों को आना पड़ता है, हजार काम छोड़-छाड़ कर आ गए हैं! वे बैठ कर ज्ञान चर्चा करते हैं, ब्रह्मचर्चा करते हैं।
मुझे बचपन से ही मरघट जाने का शौक रहा है। कोई भी मरे तो मैं हो लेता था पीछे। मगर मैं चकित यह बात देख कर होता था कि उधर तो जल रहा है आदमी और लोग पीठ किए गपशप कर रहे हैं। गपशप तरह-तरह की। कोई चर्चा कर रहा है फिल्म की जो गांव में लगी है। तुम कहोगे जरा अधार्मिक किस्म की गपशप है। और कोई दूसरा ब्रह्मचर्चा कर रहा है। कह रहा है: आत्मा अमर है, आत्मा की कोई मृत्यु नहीं होती। मगर मैं तुमसे कहता हूं: दोनों गपशप हैं। वह फिल्म वाला तो शायद थोड़ा कुछ सच भी कह रहा हो--उसने फिल्म देखी होगी--मगर वह सज्जन जो ब्रह्मचर्चा कर रहे हैं और आत्मा की अमरता की बात कर रहे हैं, बिलकुल झूठ बोल रहे हैं, उन्हें कुछ भी पता नहीं है। न आत्मा का पता है, न आत्मा की अमरता का पता है।
मगर मरघट पर बैठ कर लोग ये बातें क्यों करते हैं?
ये इसलिए करते हैं कि इनकी बातें करने में वह जो मौत घट गई है, उसको भुलाने का उपाय है। उसका दंश न चुभे। वह जो मर गया आदमी, मर जाने दो; उसकी याद बार-बार न दिलाओ! सामने लपटें उठ रही हैं, उसकी लपटों में कहीं खुद की लपटें न दिखाई पड़ने लगें! उसकी मौत में कहीं खुद की मौत याद न आए! अभी जिंदगी चलानी है, अभी दुकान करनी है, अभी बच्चा बड़ा हो रहा है, अभी स्कूल बच्चे को पढ़ने भेजना है। अभी-अभी तो शादी की है, अभी मृत्यु को हटाओ, अभी आंख बंद रखो। वह सारी चर्चा जो चलती है मरघट पर, वह मृत्यु से बचने का एक उपाय है। और फिर दो-चार दिन घर पर भी लोग चर्चा करेंगे; आएंगे, बैठेंगे--बड़ी ब्रह्मचर्चा होती है। किसी के घर में कोई मर जाए कि फिर देखो, लोग आते हैं कि आत्मा अमर है, और बड़ा पुण्यात्मा था, और स्वर्ग गया होगा... इससे सांत्वना खोजते हैं। मगर यह दो-चार दिन की बात है।
फिरि धंधे लपटाना प्रानी। बिसरि गया ओइ नाम निसानी।।
मगर यह दो-चार दिन की बात है, यह ज्ञान इत्यादि, फिर धंधा है। आखिर कब तक इसी में उलझे रहोगे? यह तत्वचर्चा दो-चार दिन ठीक है।
तुम क्या दिन भर पोथी-पत्रा पढ़ते हो,
कैसे शिल्पी हो, मूर्ति नहीं गढ़ते हो?
क्या कहते हो उपकरण नहीं मिलते हैं?
फूलों-पत्तों में जितने रंग खिलते हैं।
तिनकों-तिनकों में जो मोती ढलते हैं,
चंदा-ग्रह-तारे ज्योति-बीज बोते हैं।
ऊषा-संध्या जिनमें जगते सोते हैं,
जिसका चटकीलापन चपला में ढलता,
जिसका, मटमैलापन बहार में पलता,
जो सोनजुही में चुप-चुप फूल गया है,
जो चंपक अपनी गमक उंड़ेल गया है,
चांदी के झूले में जो झूल गया है।
जो थिरकन बन कर बिखर गया लहरों में,
जो कसकन बन सिसका सूने पहरों में।
जिसके गुलाब के गाल हुए शरमीले,
जिससे बेला की पलकों के दल गीले।
गेंदा के गुदगुद हाथ हो गए पीले,
रजनी के कस-मस कंचुक ढीले-ढीले
वह सब समेट लो, और अभी है बाकी,
बासी फूलों में भी सुगंध है साकी।
जो कुछ समेटते हो वह तो सपना है,
जो लुटा रहे हो वह केवल अपना है।
जब हाथ बिठा लोगे सौ-सौ सांचों में,
कंचन पिघलेगा जब सौ-सौ आंचों में।
तब एक रेख का कहीं भराव भरेगा,
तब एक रूप का आकर्षण निखरेगा।
भपके से केवल एक बूंद छनती है,
सारे जीवन में एक मूर्ति बनती है।
जो अंतर का सब मैल गला जाती है,
युग के अरूप का रूप ढला जाती है।
जिसमें सारी साधना समा जाती है।
जो युग-युग का इतिहास बना जाती है।
जिसमें स्वप्नों के रंग निखर जाते हैं, कवि की छाती के दाग उभर आते हैं।
कब तक किताबों में पड़े रहोगे?
तुम क्या दिन भर पोथी-पत्रा पढ़ते हो,
कैसे शिल्पी हो, मूर्ति नहीं गढ़ते हो?
गढ़ो परमात्मा को, अपने भीतर गढ़ो। शास्त्रों में पढ़ने से सत्य नहीं मिलेगा, अपने भीतर उघाड़ना होगा। शब्दों की चर्चा को बहुत मूल्य मत देना। ईश्वर के संबंध में कितना ही जान लो, इससे ईश्वर नहीं जाना जाता है। और प्रेम के संबंध में कितना ही पढ़ लो, इससे प्रेम का स्वाद नहीं मिलता है।
तुम क्या दिन भर पोथी-पत्रा पढ़ते हो,
कैसे शिल्पी हो, मूर्ति नहीं गढ़ते हो?
यह जीवन एक अवसर है कि मूर्ति गढ़ी जा सके। और इस जीवन की मूर्ति को गढ़ने की जो कला है, जो गणित है, उसे समझ लेना।
जो कुछ समेटते हो वह तो सपना है,
जो लुटा रहे हो वह केवल अपना है।
अगर जानना हो प्रेम क्या है, तो प्रेम लुटाओ, तुम प्रेम जान लोगे। और अगर जानना हो आनंद क्या है, तो आनंद लुटाओ और तुम आनंद जान लोगे। और अगर जानना हो परमात्मा क्या है, तो परमात्मा लुटाओ और तुम परमात्मा जान लोगे।
जो कुछ समेटते हो वह तो सपना है,
जो लुटा रहे हो वह केवल अपना है।
लेकिन लोग यहां समेटने में लगे हैं फिर मौत सब छीन लेगी। कुछ लुटाओ भी, कुछ बांटो भी। कोई गीत, कोई संगीत, कोई नृत्य--इस पृथ्वी को थोड़ा सुंदर करो। यह जीवन का जो अवसर मिला है, इससे कुछ सृजन करो।
मैं उसे ही सच्चा संन्यासी कहता हूं जो सृजनात्मक है। मैं तुम्हारे संन्यासियों को संन्यासी नहीं कहता, जो राख इत्यादि मल कर, धूनी रमा कर बैठ गए हैं। काहिल, अपाहिज, अपंग। उनसे एक गीत नहीं फूटा, एक कली फूल नहीं बनी। उनकी सारी तथाकथित साधना सिकुड़ने की है। जब कि वास्तविक साधना होती है फैलने की, विस्तीर्ण होने की। विस्तार पाओ। इस सारे आकाश को भर दो अपने आनंद से। गुनगुनाओ। यह सारा अस्तित्व तुम्हारी गुनगुनाहट की प्रतीक्षा कर रहा है।
और मरने के पहले यह करना। कहीं ऐसा न हो कि मौत आए और तुम अपना गीत गुनगुना ही न पाओ। मौत आ जाए, तुम अपनी मूर्ति गढ़ ही न पाओ। मौत आ जाए और तुम खाली के खाली। ऐसे दुर्दिन से बचना है।
फिरि धंधे लपटाना प्रानी। बिसरि गया ओइ नाम निसानी।।
सब भूल जाता है चार दिन के बाद; जो मर गया, मर गया। जिंदगी के हजार धंधे हैं, मरने वालों के लिए कौन बैठा है, कौन सोचता रहता है!
खरचहु खाहु दया करु प्रानी। ऐसे बुड़े बहुत अभिमानी।।
इसी तरह लोग डूबते रहे हैं। दूसरे की मौत से भी कुछ सीखते नहीं। वे अपनी पुरानी ही बातें दोहराए चले जाते हैं कि खाओ, पीओ, मौज करो! कि चार दिन की जिंदगी है, कर लो मौज! खा लो! पी लो! इस तरह के मूढ़तापूर्ण वक्तव्य न मालूम कितने लोगों को डुबा गए हैं। ऐसा न हो कि तुम्हें भी डुबा जाएं।
पवन बजाता रहा
बंसवट में बंसरी
गूंजती चली गई
मन में आसावरी
कुंठा का जल बंदी
अहम के सरोवर में
तट पर बैठा विवेक
लहर उठाता रहा
फेंक किरण-कंकरी
प्रज्ञा का राज तिलक
संयम के शकुनों में
ज्ञान कोष से कुबेर
स्वर्ण लुटाता रहा
भर-भर के अंजुरी
समय की चिकित्सा से
व्रण न कौन सा भरा
अंतर पर विस्मृति का
लेप लगाता रहा
वय का धन्वंतरी
समय तो सभी घावों को भर देता है।
समय की चिकित्सा से
व्रण न कौन सा भरा
अंतर पर विस्मृति का
लेप लगाता रहा
वय का धन्वंतरी
यह समय का चिकित्सक तो हर घाव को भर देता है। इसके पहले कि घाव भरे, घाव का उपयोग कर लेना। कोई मर जाए, प्रियजन, चूकना मत अवसर। उसकी मृत्यु को तुम सौभाग्य में परिणत कर ले सकते हो। अभिशाप वरदान हो सकता है, अगर जागो, और अपनी मौत की तुम्हें प्रतीति होने लगे।
सतगुरु सबद सांच एह मानी।...
और सदगुरुओं के वचनों में सत्य उन्हीं को दिखाई पड़ेगा, जिन्हें पहले मृत्यु में सत्य दिखाई पड़ गया है।
...कह दरिया करु भगति बखानी।
और वे ही भक्ति के शास्त्र को समझ सकेंगे। जिन्हें मौत दिखाई पड़ गई, उन्हें सदगुरु से पहचान कठिन नहीं होगी। और जिनकी सदगुरु से पहचान हो गई, उन्हें भक्ति का शास्त्र तत्क्षण समझ में आ जाएगा। क्योंकि इस जगत में प्रेम के अतिरिक्त और सब मरणधर्मा है। इस जगत में सिर्फ प्रेम अमृत है। जिन्हें मृत्यु के पार जाना है, प्रेम के सेतु से जाना होगा। प्रेम सीढ़ी है मृत्यु से अमृत में ले जाने वाली। मगर यह प्रेम की सीढ़ी कोई सदगुरु ही समझा सकता है। यह प्रेम की कुंजी कोई सदगुरु ही दे सकता है।
सतगुरु सबद सांच एह मानी। कह दरिया करु भगति बखानी।।
भूलि भरम एह मूल गंवावै। ऐसन जनम कहां फिरि पावै।।
मत चूको। भ्रांतियों में मत जीवन के मूल को गंवाओ। पत्ते-पत्तों में मत उलझे रहो, जड़ को पकड़ो। ऐसा जन्म फिर पता नहीं कब मिले? और जन्म भी मिले तो सदगुरु मिले या न मिले! सदगुरु भी मिल जाए, मौत की सघन प्रतीति हो न हो!
धन संपत्ति हाथी अरु घोरा।...
सब पड़े रह जाएंगे।
...मरन अंत संग जाहिं न तोरा।
कोई भी तुम्हारे साथ जाने वाला नहीं है।
मातु पिता सुत बंधौ नारी।...
सब संबंधी यहीं छूट जाएंगे।
...ई सब पांवर तोहि बिसारी।
ये सब तुम्हें भूल भी जाएंगे। ये याद भी न करेंगे। आखिर इन्हें और भी काम हैं! जिंदगी तुम्हारी याद में बैठ कर न गुजारते रहेंगे। इनकी आंखों से इन्हें कुछ और भी देखना है, सिर्फ आंसुओं से ही भरे नहीं बैठे रहेंगे। इन्हें अपनी जिंदगी जीनी है। इन्हें अपने भ्रम पालने हैं। इन्हें अपने सपने पूरे करने हैं।
दरिया के अंतिम सूत्रों से कुछ निष्कर्ष ले लो।
पहला, मृत्यु की प्रगाढ़ से प्रगाढ़ प्रतीति करो! दूसरा, मृत्यु की प्रगाढ़ प्रतीति हो, तो सदगुरु से मिलना कठिन नहीं। सदगुरु से मिलना हो जाए तो भागना मत। मन भगाएगा। मन समझाएगा कि चलो यहां से, यहां खतरा है। मन को अपनी मौत दिखाई पड़ने लगेगी। अहंकार हजार तर्क खोजेगा कि झुकना मत, किसी के सामने क्यों झुकना, किसी की शरण क्यों जाना? और सदगुरु से तो उसी का संबंध जुड़ता है, जो समर्पित हो। जो समर्पित नहीं हैं, सदगुरु से संबंध नहीं जुड़ता।
सदगुरु से संबंध जुड़ जाए, इतने भर पर रुक मत जाना। उसने जो कहा है, उसे गुनना, मनन करना, निदिध्यासन करना। उसने जो प्रेम के सूत्र दिए हैं, उन्हें अपने जीवन का काव्य बनने देना। तो क्रांति हो सकती है, महाक्रांति हो सकती है। तुम्हारे जीवन में भी निर्वाण का कमल खिल सकता है।
दरिया कहै सब्द निरबाना!
आज इतना ही।