DARIYADAS

Dariya Kahe Sabad Nirvana 08

Eighth Discourse from the series of 9 discourses - Dariya Kahe Sabad Nirvana by Osho. These discourses were given during JAN 21-30 1979.
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पहला प्रश्न:
भगवान, कवि और ऋषि में क्या भेद है?
कवि है बीज; भूमि के अंधेरे गर्भ में राह खोजता, टटोलता, गिरता-उठता। पहुंचेगा, नहीं पहुंचेगा, अभी सब संदिग्ध है। उठ सकेगा अंधेरे के पार, होगा मिलन सूरज से, अभी सब सपना है। पहुंचना हो भी सकता है। अभीप्सा है, गहन प्यास है। चूकना भी हो सकता है; क्योंकि सभी बीज वृक्ष नहीं बनते। और जो बीज वृक्ष बन जाते हैं, वे भी सभी फलों और फूलों को उपलब्ध नहीं होते। न मालूम कितनी कठिनाइयों को पार कर के कोई बीज फूल बन पाता है, कोई संभावना वास्तविक हो पाती है।
कवि को प्रकाश की प्यास तो है। और शायद सपनों के किन्हीं तलों पर प्रकाश की थोड़ी छाया भी पड़ती है। पर अभी प्रकाश का कोई अनुभव नहीं है। आंख अभी खुली नहीं। अधजागा-अधजागा है। जैसे भोर हो गई, पक्षी गीत गाने लगे, सूरज ऊग आया, और तुमने और एक करवट ले ली, कंबल को खींच कर और सो रहे, ऐसे कुछ-कुछ सुबह की भनक भी पड़ने लगी कान में--राह चलने लगी, दूध वाले ने द्वार पर दस्तक दी, बच्चे स्कूल जाने की तैयारी करने लगे, तुम्हारी पत्नी ने चाय बनाने का उपक्रम शुरू कर दिया, चाय की गंध भी नासापुटों में आने लगी, यह सब होने लगा मगर अभी तुम जागे नहीं हो। तुम सोए भी नहीं हो, तुम जागे भी नहीं हो, तुम किसी मध्य की अवस्था में हो। वही मध्य की अवस्था कवि की अवस्था है, इसलिए कवि सोए हुए लोगों और जागे हुए लोगों के बीच अक्सर सेतु बन जाता है।
कवि जीता है पृथ्वी पर, ऋषि उड़ता है आकाश में। हां, कभी-कभी कवि भी आकाश की तरफ आंखें उठा कर देखता है और यह भी सही है कि कभी-कभी ऋषि भी आंखें झुका कर पृथ्वी की ओर देखता है, लेकिन उनके परिप्रेक्ष्य भिन्न हैं, उनके दर्शन के बिंदुकोण भिन्न हैं। कवि पृथ्वी का पुत्र है, मिट्टी का पुतला है। कवि जब आंखें उठाता है और तारों भरे आकाश को देखता है, तो क्षण भर को भूल जाता है अपने मर्त्यभाव को, मृत्यु को, देह को। ऋषि अमृत का पुत्र है। उसने जान लिया कि जीवन शाश्वत है। और जब वह पृथ्वी पर भी देखता है तो भी क्षण भर को यह बात भूलती नहीं। पृथ्वी पर भटकते, राह खोजते लोगों पर उसके हृदय में महाकरुणा उत्पन्न होती है, वह बरस पड़ना चाहता है, वह लोगों के मार्ग पर दीये बन जाना चाहता है, उनके हाथों में मशाल बन जाना चाहता है!
कवि भी गाता है, ऋषि भी गाता है। मगर गान-गान में बहुत भेद है। कवि का गीत सांत्वना से ज्यादा नहीं। मधुर है, मीठा है, सुस्वादु है, क्षण भर को जीवन की चिंताओं से मुक्त करने में सहयोगी है, मादक है, शामक है। पर ऋषि का गीत कुछ और। ऋषि जगाता है, झकझोरता है। ऋषि का वक्तव्य क्रांति का वक्तव्य है। ऋषि का वक्तव्य आग्नेय है, तीर की तरह चुभता है। सांत्वना नहीं है ऋषि के वचनों में, सत्य की अग्नि है। कवि के वचन मूर्च्छा लाने में सहयोगी हो सकते हैं, ऋषि के वचन, जागरण, ध्यान, उस परम अनुभूति की तरफ ले चलते हैं, जहां प्रभु से साक्षात होता है। ऋषि द्रष्टा है, कवि केवल स्वप्न भोगी।
पर कभी-कभी कवि के स्वप्नों में ऋषि के दर्शन की छाया पड़ती है। और कभी-कभी कवि जाने-अनजाने ऋषि की अमृत बूंदों को भी अपने शब्दों में बांध पाता है।
कवि के लिए कभी-कभी झरोखा खुलता है, ऋषि की वही सम्यक दशा हो गई है। कवि में द्वंद्व है सदा, एक संघर्ष है। कवि अपने से लड़ रहा है। कवि बंटा है। बाहर कुछ, भीतर कुछ। तो ऐसा भी हो सकता है कि कवि की सुंदर गीतमालाओं को पढ़ कर, सुन कर, गुनगुना कर तुम कवि को देखने की आकांक्षा से भर सकते हो। मगर भूल कर भी ऐसी भूल न करना। क्योंकि कवि को तुम अतिसाधारण पाओगे। वे जो असाधारण वक्तव्य थे उसके, उनमें जो तुम्हें गरिमा अनुभव हुई थी, कवि को देख कर वह भी खो जाएगी। कवि को तुम अति साधारण पाओगे; तुम जैसा ही; शायद तुम से भी ज्यादा साधारण। क्योंकि कवि को कभी-कभी छलांग लगती है, किन्हीं अनजाने क्षणों में अनायास वह देख लेता है बहुत दूर के दृश्य, पर वे खो जाते हैं; बांध भी लेता है उनको शब्दों में, लेकिन वे खो जाते हैं।
कूलरिज से किसी ने पूछा कि आपकी एक कविता मैं पढ़ता हूं, प्रीतिकर है, पर अर्थ पकड़ में नहीं आता। आपकी कविता को पढ़ाने वाले बड़े-बड़े विद्वज्जनों से भी मैंने अर्थ पूछा है, वे भी अर्थ साफ नहीं कर पाए। तो मैं आपसे ही पूछने आया हूं। कूलरिज ने कहा: जरा देर हो गई। जब मैंने लिखी थी, तो दो व्यक्तियों को इस कविता का अर्थ मालूम था, अब केवल एक को ही मालूम है। उस व्यक्ति ने कहा: तो निश्चित ही वह एक व्यक्ति तो आप ही होंगे न! समझा दें मुझे। कूलरिज ने कहा: तुम भूल करते हो। जब मैंने यह कविता लिखी, तो मैं भी अर्थ जानता था और परमात्मा भी अर्थ जानता था। अब केवल परमात्मा ही अर्थ जानता है। मुझे कुछ अर्थ का पता नहीं है। एक क्षण को जैसे झरोखा खुल गया था, एक हवा का झोंका आ गया था, धूल उड़ गई थी, आंखें ताजी हो गई थीं, कुछ दिखा था; फिर वापस गिर गए अपने अंधकार में, फिर सरकने लगे उन्हीं अंधेरे गृहों में, आकाश छूट गया, आकाश के तारे छूट गए, फिर अर्थ कहां?
कवि से उसकी कविता का अर्थ मत पूछना। हां, उसे कभी मालूम होता है जब कविता का जन्म होता है--बस उसी प्रसव के क्षण में--फिर चूक जाता है।
कवि एक द्वंद्व है। इसीलिए दुनिया में अधिकतर कवि विक्षिप्त मालूम होते हैं। अधिकतर कवि विक्षिप्त हो जाते हैं। अधिकतर कवि आत्मघात कर लेते हैं। अधिकतर कवि शराब और ऐसे मादक द्रव्यों में डूब जाते हैं। अधिक कवियों का जीवन शुभ जीवन नहीं होता। ऐसा क्यों है? उनके गीत तो बड़े प्यारे होते हैं, उनके गीतों में तो बड़े पंख होते हैं--कि सवार हो जाओ तो दूर तक की यात्रा पर ले जाएं--मगर कवि स्वयं क्यों उन पंखों पर सवार नहीं हो पाता? उसके भीतर एक द्वंद्व है। निन्यानबे प्रतिशत तो वह मिट्टी है, एक प्रतिशत स्वर्ग की किरण है। वह एक प्रतिशत किरण निन्यानबे प्रतिशत मिट्टी को लेकर उड़ नहीं सकती। उसके भीतर सतत संघर्ष है। वह दो जीवन जीता है।
एक जो उसके गीतों का जीवन है। वहां वह ठीक ऋषियों जैसा मालूम होता है। और एक, जो उसका सामान्य जीवन है। वहां वह सामान्य व्यक्ति से भी गया-बीता मालूम होता है। कवि एक दुविधा है, एक द्वैत है, एक दुई है, खंड-खंड है। ऋषि अखंड है, निर्द्वंद्व है, अद्वैत है। जो बोलता है, वही जीता है। जो जीता है, वही बोलता है। उसके बोलने में और उसके जीने में एक तारतम्य है, एक लयबद्धता है। उसके भीतर दो स्वर नहीं हैं। उसके भीतर इकतारा बज रहा है। हो सकता है, कवि गीत तो प्रेम के गाता हो और प्रेम का उसने कभी अनुभव न किया हो।
अक्सर यही होता है।
अक्सर प्रेम के गीत वे ही लोग गाते हैं, जो प्रेम से वंचित रह गए हैं। मन को समझाते हैं ऐसे। उनके प्रेम के गीत उनके प्रेम के अनुभव की कमी को पूरा करने के उपाय हैं, परिपूरक हैं। नहीं जो अनुभव हुआ है, गीत गा-गाकर अपने को भुलाते हैं।
ऋषि जब प्रेम के गीत गाता है, तो वह उसकी आत्मा से बहती हुई सरिता है। वह उसका अनुभव है। कवि भी परमात्मा की बात करते हैं, लेकिन वह परमात्मा ऐसा ही है जैसे कभी तुम्हारा दांत टूट गया हो एक और जीभ बार-बार उसी जगह जाती है जहां दांत टूट गया है। जब तक दांत था, कभी जीभ वहां न जाती थी। अब दांत नहीं है, खाली जगह है, खाली जगह अखरती है, जीभ वहीं-वहीं बार-बार जाती है। ऐसे ही कवि का ईश्वर है। टूटा हुआ दांत है, खाली जगह है, जीभ बार-बार वहां जाती है। एक रिक्त स्थान है, जो मांग करता है कि मुझे भरो। एक गड्ढा है, जो भर जाना चाहता है। मगर कवि के पास कोई उपाय उसे भरने का नहीं है। हां, ईश्वर के गीत लिख सकता है, प्यारे गीत लिख सकता है, मगर वे प्यारे गीत बस शब्दों में ही प्यारे होंगे, उनमें अर्थ नहीं होगा, आत्मा नहीं होगी। देह तो होगी, सुंदर देह होगी, बड़े प्रीतिकर आभूषणों में लदा हुआ रूप होगा, मगर जैसे ही घूंघट उठाओगे, भीतर कुछ भी न पाओगे।
अक्सर कविताओं के भीतर कोई आत्मा नहीं होती। कविताएं, अक्सर ऐसी होती हैं जैसे खेत में तुम झूठे आदमी को खड़ा कर देते हो न! पशु-पक्षियों को डराने के काम आ जाता है। लेकिन खेत का झूठा आदमी! हंडी भी रख दो डंडे पर--सिर जैसी मालूम पड़ती है--गांधी टोपी भी लगा दो--तो अंधेरे में भी डरवाए--चूड़ीदार पाजामा पहना दो, अचकन पहना दो--तो ऐसा लगे कि नेता जी हैं--मगर बस पशु-पक्षियों को डरा लें तो बहुत।
कवियों की कविताएं अक्सर खेत के झूठे आदमी हैं। आदमियों जैसे मालूम होते हैं, लेकिन भीतर कोई आत्मा नहीं, कोई हृदय धड़कता नहीं, श्वास चलती नहीं। ऋषि आत्मवान है। उसके शब्द चाहे बहुत सुघड़ न हों, उसके शब्द शायद बहुत भाषा, व्याकरण और छंद में, मात्राओं में आबद्ध न हों, लेकिन उसके शब्दों में जीवन है--और वही तो असली छंद है। उसके शब्दों में उसके अपने अनुभव की छाप है। वही तो अर्थपूर्ण है, वही तो आत्मा है। शब्द कितने ही सुंदर हों--लाश को तुम कितना ही सुंदर सजा दो, हीरे-जवाहरात के आभूषण पहना दो, चेहरे को पाउडर और रंग से रंग डालो, लेकिन लाश, लाश है। और कितने ही बहुमूल्य हीरे-जवाहरातों से लदी लाश हो, एक जिंदा आदमी के सामने--जिसके चाहे शरीर पर चीथड़े भी न हों--दो कौड़ी की है।
दुनिया की किसी भाषा में ऋषि और कवि के बीच ऐसा भेद नहीं किया गया है। सिर्फ हमारे पास दो शब्द हैं। और कारण हैं हमारे पास दो शब्द होने के। हमने ऋषि की ऊंचाइयां जानी हैं। उपनिषद के कवियों को कवि नहीं कहा जा सकता। कालिदास कवि हैं, भवभूति कवि हैं, शेक्सपियर कवि हैं, मिल्टन कवि हैं, लेकिन उपनिषद के कवियों को कवि नहीं कहां जा सकता--कहना उचित न होगा--वे द्रष्टा हैं, वे ऋषि हैं। उन्होंने देखा है, उन्होंने जीआ है; उन्होंने जाना है, सिर्फ गाया नहीं। गाना गौण है, जानना प्रमुख है। जानने की छाया की तरह गीत भी आए हैं, छंद भी आए हैं।
वे ख्वाब जिनको तराशा था मेरी आंखों ने
तसव्वुरात के नूर आफरी धुंदलकों में
सुलगते, कांपते खामोश आंसुओं की तरह
झलक रहे हैं मेरी जिंदगी की पलकों में

इन आंसुओं को भी देकर जीया-ओ ताबानी
तुम्हारी रूह की मेहराब में जलाता हूं
मैं जख्म-जख्म हूं बेशक, मगर तुम्हारे लिए
लहकते-झूलते फूलों के गीत लाता हूं

तुम्हारी खुश्क निगाहों के आबगीनों में
निचोड़ता हूं मैं कौसे-कजा के रंगों को
पिला के अपने दरख्शंदा वलावलों का लहू
निखारता हूं तुम्हारी हसीं उमंगों को

मैं अपने साज के नग्मों की नर्म लहरों में
तुम्हारे चेहरे की अफसुर्दगी डुबोता हूं
मगर खुद अपनी जवानी की आर्जूओं पर
तुम्हारे बाद अकेला ही छुप के रोता हूं

यह मेरा फन जो तुम्हारे दिलों का गाजा है
मेरे शबाब के जज्बात का जनाजा है
कवि तो हंसता है, ऊपर-ऊपर, भीतर रोता है।
वे ख्वाब जिनको तराशा था मेरी आंखों ने
तसव्वुरात के नूर आफरी धुंदलकों में
उसके स्वप्न अंधेरे में पैदा होते हैं। वह अपने सपने अंधेरे में ही तराशता है। रोशनी तो उसके पास नहीं।
वे ख्वाब जिनको तराशा था मेरी आंखों ने
तसव्वुरात के नूर आफरी धुंदलकों में
सुलगते, कांपते खामोश आंसुओं की तरह
झलक रहे हैं मेरी जिंदगी की पलकों में
अगर तुम कवि की आंखों में गौर से देखो तो गीत कम, आंसू ज्यादा दिखाई पड़ेंगे। आनंद कम, विषाद ज्यादा दिखाई पड़ेगा। संतोष जरा भी नहीं, संताप सागर की तरह उत्तुंग लहरें लेता हुआ दिखाई पड़ेगा।
सुलगते, कांपते, खामोश आंसुओं की तरह
झलक रहे हैं मेरी जिंदगी की पलकों में

इन आंसुओं को भी देकर जीया-ओ-ताबानी
कवि आंसुओं को भी रोशनी देता है, चमक देता है, निखार देता है। आंसुओं को भी मोती की तरह पेश करता है।
इन आंसुओं को भी देकर जीया-ओ-ताबानी
तुम्हारी रूह की मेहराब में जलाता हूं
और तुम्हारी आत्माओं के आलों में, अंधेरों में तराशे गए इन सपनों को, आंसुओं में डाली गई झूठी इन चमकों को दीयों की तरह तुम्हारी आत्माओं के आलों में जलाता हूं।
इन आंसुओं को भी देकर जीया-ओ-ताबानी
तुम्हारी रूह की मेहराब में जलाता हूं
मैं जख्म-जख्म हूं बेशक, मगर तुम्हारे लिए
लहकते-झूलते फूलों के गीत लाता हूं
कवि तो जख्मों से भरा है। लेकिन तुम्हारे लिए गीत लाता है। गीत बेचता है। कवि गीतफरोश है। गीत बेचना उसका धंधा है। आंसू तो कौन लेगा?--आंसू तो लोगों के पास वैसे ही बहुत हैं--आंसू तो कौन चाहेगा? लोग मोतियों की मांग कर रहे हैं। तो वह आंसुओं को मोतियों की तरह बेचता है। जख्मों की तो किसको जरूरत है? जख्म तो सभी के पास जरूरत से ज्यादा हैं। जख्म ही जख्म तो हैं। आत्मा जख्मों का एक सिलसिला हो गई है। तो वह अपने जख्मों को फूल बना कर बेचता है; फूलमालाएं बना कर बेचता है।
मैं जख्म-जख्म हूं बेशक, मगर तुम्हारे लिए
लहकते-झूलते फूलों के गीत लाता हूं
तुम कवियों के गीतों से धोखे में मत पड़ जाना। गीत उनका व्यवसाय है। ऋषि का गीत व्यवसाय नहीं है; उसका अहोभाव है। मीरा नाची, नर्तकी नहीं है, उसका नृत्य अहोभाव है। किसी के लिए नहीं नाची, नाचने से न रुक सकी, इसलिए नाची। कवि किसी के लिए गाता है। ऋषि गाता है--कोई सुन ले तो ठीक, कोई न सुने तो ठीक। ऋषि के गीत ऐसे हैं जैसे पक्षियों की सुबह-सुबह होती ये पुकारें। ये किसी के लिए निवेदित नहीं हैं। यह ऊग आया सूरज, यह हो गई सुबह, यह छा गई मस्ती प्राणों में, यह मस्ती बहने लगी अपने आप। ऋषि के गीत वृक्षों में लगे फूलों की तरह हैं। कोई तोड़े ठीक, फूलमालाएं बनें तो ठीक, कोई पास से गुजरे तो ठीक, कोई गंध का आस्वाद ले तो ठीक, कोई न निकले तो ठीक। गंध लुटती रहेगी। शून्य आकाश में बिखरती रहेगी। हवाओं के पंखों पर चढ़ कर दूर की यात्राओं पर जाती रहेगी। कोई नासापुट कभी उसे पहचानेंगे, परिचित होंगे या नहीं, यह निष्प्रयोजन है। हों तो ठीक, न हों तो ठीक।
ऋषि स्वांतः सुखाय गाता है। दूसरा निष्प्रयोजन है। दूसरा है या नहीं, यह बात गौण है। ऋषि अपनी मस्ती में गाता है। लेकिन कवि तो गीतफरोश है, गीत बेचता है। जैसे माली फूल बेचता है।
तुम्हारी खुश्क निगाहों के आबगीनों में
तुम्हारी आंखें तो सूखी हैं, मरुस्थल जैसी हैं, तुम भी चाहते हो कि इनमें थोड़ी आर्द्रता आए, तुम भी चाहते हो थोड़ा स्नेह तुम्हारी आंखों में भी झलके।
तुम्हारी खुश्क निगाहों के आबगीनों में
तुम्हारी सूखी आंखों के पात्रों में
निचोड़ता हूं मैं कौसे-कजा के रंगों को
तो कवि कहता है कि मैं इंद्रधनुषों के रंगों को निचोड़ता हूं तुम्हारी सूखी आंखों में कि तुम भी थोड़ा इंद्रधनुषों से परिचित हो लो, कि तुम्हारे भीतर भी थोड़े इंद्रधनुष ऊगें, कि मैं लाता हूं तितलियों के पंखों के रंग--कि तुम बड़े बेरंग हो--कि मैं लाता हूं मधुमास की थोड़ी खबर--कि तुम्हारी जिंदगी पतझड़ों का एक सिलसिला है।
तुम्हारी खुश्क निगाहों के आबगीनों में
निचोड़ता हूं मैं कौसे-कजा के रंगों को
पिला के अपने दरख्शंदा वलावलों का लहू
निखारता हूं तुम्हारी हसीं उमंगों को
और मुस्कुराता हूं कि तुम्हारे भीतर भी मुस्कुराहट की प्रतिध्वनि पैदा हो जाए।
मैं अपने साज के नग्मों की नर्म लहरों में
तुम्हारे चेहरे की अफसुर्दगी डुबोता हूं
तुम्हारा मुर्झाया चेहरा मैं अपने गीतों में, अपने नग्मों में डुबोता हूं कि थोड़ी कोमलता तुम्हारे जीवन को भी उपलब्ध हो; तुम भी जान पाओ थोड़ा सा रस।
मैं अपने साज के नग्मों की नर्म लहरों में
तुम्हारे चेहरे की अफसुर्दगी डुबोता हूं
मगर खुद अपनी जवानी की आर्जूओं पर
तुम्हारे बाद अकेला ही छुप के रोता हूं
लेकिन मेरी बातों का भरोसा मत कर लेना। वे सिर्फ दिखावे हैं। अकेले में, एकांत में मैं ऐसा ही रोता हूं जैसे तुम रोते हो। मेरी आंखें भी मोतियों से नहीं, आंसुओं से भरी हैं। और मेरे प्राणों में भी अंधकार है और दीये नहीं हैं। और मुझे भी कोई पहचान नहीं है इंद्रधनुषों की। और मैंने भी तितलियों के रंग नहीं देखे हैं। और मेरे हृदय में भी अभी आकाश से संबंध नहीं जुड़ा है। मैं वहीं घसिट रहा हूं जहां तुम घसिट रहे हो।
लेकिन जैसे अंधेरी रात में, किसी अंधेरी गली में गुजरते वक्त तुम जोर-जोर से गीत गाने लगते हो, अपने ही गीत की आवाज सुन कर हिम्मत आ जाती है कि अकेले नहीं हैं, अपने ही गीत की आवाज सुन कर भय मिट जाता है, एकांत मिट जाता है, ऐसे ही तुम्हारे कवियों के गीत हैं--तुम्हारे अकेलेपन को भर देते हैं।
मगर खुद अपनी जवानी की आर्जूओं पर
तुम्हारे बाद अकेला ही छुप के रोता हूं
यह मेरा फन जो तुम्हारे दिलों का गाजा है
मेरे शबाब के जज्बात का जनाजा है
यह मेरा होना, यह मेरी कला, यह मेरा फन, जो तुम्हारे दिलों का गाजा है, जो तुम्हारे दिलों को रंगता है रंगों में, सुंदर करता है, जो तुम्हारे दिलों को खूबसूरती देता है, हसीन बनाता है...
यह मेरा फन जो तुम्हारे दिलों का गाजा है
मेरे शबाब के जज्बात का जनाजा है
लेकिन अगर तुम मुझसे पूछो तो यह मेरी जवानी की अरथी है; यह मेरे प्राणों की अरथी है।
कवि का जीवन द्वंद्वग्रस्त है। बाहर कुछ, भीतर कुछ। उसकी मुस्कुराहटों में खोदोगे तो आंसू पाओगे। और उसके गीतों में जरा गहरे उतरोगे, थोड़ी सीढ़ियां पार करोगे तो बड़े अंधेरे पाओगे। ऋषि का जीवन एक लयबद्ध होता है। तुम जितना खोदोगे, उतना वही-वही है, और-और। ऋषि का जीवन बाहर और भीतर तालबद्ध होता है, ऋषि का स्वाद एक है, कहीं से चखो। ऋषि के हर शब्द का संदेश एक है, पुकार एक है, आह्वान एक है।
कवि और ऋषि में बड़ा भेद है। यद्यपि ध्यान रखना, कभी-कभी कवि ऋषियों की झलक ले आते हैं। अंधे को अंधेरे में बड़ी दूर की सूझी। कभी-कभी सूझ हो जाती है। मगर ऋषि उस शाश्वत प्रकाश के लोक में जीते हैं।
तीन चीजों का खयाल करो। एक तो है विज्ञान, जो पदार्थ पर सीमित है। एक है धर्म जो पदार्थ के अतीत है, परमात्मा जिसकी तलाश है। और दोनों के बीच में हैं, कला, काव्य। एक पैर कला का पृथ्वी पर है और एक पैर परमात्मा में है। इसलिए कलाकार बहुत दुविधाग्रस्त होता है। न तो वैज्ञानिक इतनी दुविधा से भरा होता है--होने का कोई कारण नहीं। उसने मान ही लिया कि ईश्वर नहीं है। दूसरा है ही नहीं, बस पदार्थ है। इसलिए वैज्ञानिक में तुम एक तरह की सुसंगति पाओगे, तर्कबद्धता पाओगे। और संत में भी एक सुसंगति, एक तर्कबद्धता: क्योंकि ईश्वर ही है, शेष कुछ भी नहीं।
वैज्ञानिक कहता है: ईश्वर झूठ, संसार सच--जगत सत्य, ब्रह्म मिथ्या--और संत कहता है: ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या। दोनों ने एक के साथ अपनी भांवर डाल ली है। दोनों के बीच में त्रिशंकु की भांति है कलाकार की स्थिति। चित्रकार, मूर्तिकार, संगीतज्ञ, कवि। वे सभी कविता के रूप हैं। कोई ध्वनि से कविता पैदा करता है, तो उसको हम संगीतज्ञ कहते हैं। कोई मुद्राओं से कविता पैदा करता है, तो उसको हम नर्तक कहते हैं। कोई रंगों से कविता पैदा करता है, तो उसे हम चित्रकार कहते हैं। कोई पत्थरों में कविता खोदता है, तो उसे हम मूर्तिकार कहते हैं। वे सब काव्य के ही रूप हैं। माध्यम अलग होंगे। कवि इन दोनों के बीच में है। कवि कहता है: जगत भी सत्य, ब्रह्म भी सत्य। इसलिए कवि बड़े तनाव में जीता है। कभी इधर, कभी उधर। कभी निम्नतम पर उतर आता है, कभी श्रेष्ठतम पर उड़ानें लेने लगता है।
काव्य का थोड़ा रुझान हो, तो खयाल रखना, उस रुझान को शुद्ध करना है। सीढ़ी दर सीढ़ी, सोपान पर सोपान चढ़ने हैं। कवि को ऋषि तक पहुंचाना है। और जब तुम्हारे भीतर का कवि ऋषि तक पहुंच जाता है तो जीवन की परम संपदा उपलब्ध होती है। फिर तुम्हारे भीतर से कुरान उठती है, उपनिषद पैदा होते हैं, गीता का जन्म होता है। ये कविताएं नहीं हैं। ये ऋषियों के वक्तव्य हैं। यही तो इनकी महिमा है। कोई लाख कितना ही गाए, कुरान का सौंदर्य नहीं आता सो नहीं आता। कोई लाख सुंदर-सुंदर शब्दों को जमाए, लेकिन उपनिषदों के वक्तव्यों की ऊंचाई नहीं आती सो नहीं आती। गीत रचो कितने ही, मगर भगवद्गीता के चरणों तक भी पहुंचना नहीं हो पाता। सबके भीतर तीनों संभावनाएं हैं। क्योंकि तुम तीन के जोड़ हो। तुम्हारी देह तो बनी है मिट्टी से, पदार्थ से। अगर तुम देह पर ही अटके रहे तो विज्ञान में भटके रहोगे। तुम्हारा मन है दोनों के बीच। अगर तुम मन में ही उलझे रहे तो तुम कवि ही रह जाओगे। दुविधाग्रस्त, द्वंद्वग्रस्त, खंड-खंड, दो नावों पर सवार। तुम्हारे भीतर आत्मा का भी वास है। काश, तुम आत्मा में डुबकी ले लो, तो ऋषि का तुम्हारे भीतर भी जन्म हो। ऋषि से कम होने पर राजी नहीं होना है। प्रत्येक व्यक्ति का यह स्वरूपसिद्ध अधिकार है कि उसके भीतर से भगवद्गीता पैदा होनी ही चाहिए।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, कैसी यह प्यास है! सब तरफ से तृप्त होने पर भी ऐसा लगा रहता है कि कुछ कमी है। इस संसार की कोई चीज ऐसी नहीं, जो मैंने नहीं पाई। पर भगवान, इस मानस-प्यास का क्या करूं? भगवान, इस स्थिति को स्पष्ट करने की अनुकंपा करें, यही प्रार्थना!
ठाकुर राणा! इस संसार में प्यास पैदा हो सकती है, बुझ नहीं सकती। इस संसार में प्यास को बुझाने वाले जलस्रोत नहीं। इस संसार का प्रयोजन प्यास को जन्माना है, प्यास को बुझाना नहीं। प्यास तो बुझती है जब परमात्मा को पीओगे तब। संसार का प्रयोजन है कि प्यास को ऐसा जगाए, ऐसा जगाए कि तुम्हें परमात्मा खोजना ही पड़े, कि तुम विवश हो जाओ खोजने को, कि तुम सब छोड़-छाड़ कर परमात्मा की खोज में लग जाओ।
संसार तो उत्तप्त मरुस्थल है। इस मरुस्थल में प्यास का जग आना बिलकुल आवश्यक है, स्वाभाविक है, होना ही चाहिए। आश्चर्य तो तब होता है जब इस संसार में कुछ लोग दिखाई पड़ते हैं जिनकी कोई प्यास नहीं, जिन्हें परमात्मा की प्यास का खयाल ही नहीं आया है। चमत्कार हैं वे लोग। मरुस्थल में हैं, उत्तप्त आग बरस रही है, मगर न मालूम कैसे अपनी प्यास को छिपाए बैठे हैं? उनकी हालत वैसी है--मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन हज की यात्रा को गया था, मरुस्थल में भटक गया। थका-मांदा दो-चार दिन बाद जब बस्ती में वापस आया, तो लोगों ने पूछा कि जिंदा आ गए, भगवान का शुक्र करो! कैसे कटे दिन? इतनी भयंकर आग बरस रही है, मरुस्थल में छाया का कोई स्थान भी नहीं है, तुम जल-भुन नहीं गए? नसरुद्दीन ने कहा: क्या तुमने मुझे इतना मूढ़ समझ रखा है? मैं अपनी ही छाया में बैठ जाता था।
अपनी ही छाया में! अपनी ही छाया में कोई बैठ सकता है? मगर नसरुद्दीन की यह कहानी बड़ी सार्थक है। इस दुनिया में जितने लोग तुम्हें तृप्त दिखाई पड़ रहे हैं, अपनी ही छाया में बैठे हुए हैं। खूब धोखा खा रहे हैं। यहां का धन धन नहीं, यहां का पद पद नहीं, यहां की ख्याति ख्याति नहीं--अपनी ही छाया में बैठे हो।
अच्छा हुआ, ठाकुर राणा! कि तुम कहते हो: कैसी यह प्यास? सब तरफ से तृप्त होने पर भी ऐसा लगा रहता है कि कुछ कमी है। धन्यभागी हो! यह कमी लगनी ही चाहिए! जिनको नहीं लगती, वे अभागे हैं। परमात्मा ने जैसे उनकी तरफ पीठ कर ली है। जैसे उनकी किस्मत में फूलों का खिलना बदा ही नहीं। जैसे वे भाग्य से ही जलस्रोतों से वंचित हैं। प्यास है तो सरोवर की खोज शुरू होती है। प्यास है तो प्रार्थना। प्रार्थना है तो परमात्मा। प्यास बड़ा सौभाग्य है। यद्यपि जब पहली दफा लगती है तो पीड़ा मालूम पड़ती है। मगर पीड़ाओं में छिपे हुए बड़े आशीष होते हैं। और सभी अभिशाप अभिशाप नहीं होते, खोजोगे तो उनमें वरदान पा लोगे। कांटों में भी फूल छिपे होते हैं। और यह ऐसी ही प्यास है। यह प्यास लगती ही तब है जब तुम्हारे पास संसार का सब-कुछ होता है।
इसलिए तुम ठीक कहते हो कि संसार की कोई चीज ऐसी नहीं जो मैंने न पाई हो, फिर भी यह प्यास क्यों है? यह प्यास होती ही तभी है। जिन्हें अभी संसार की चीजें नहीं मिलीं, वे तो सोचते हैं कि संसार की चीजें मिल जाएंगी तो प्यास तृप्त हो जाएगी। एक थोड़ा अच्छा मकान बन जाएगा, थोड़ा धन और बैंक में जमा हो जाएगा, अगले चुनाव में जीत जाएंगे, कुछ हो जाएगा। तो अभी उनकी प्यास तो संसार में ही टटोल रही है।
और यह भी स्वाभाविक है। जिसने अभी संसार का ही कुछ नहीं जाना उसकी प्यास परमात्मा को छूने की तरफ उठे कैसे? अभी तो ऐसा ही लगता है कि थोड़ा धन हो, पद हो, प्रतिष्ठा हो, तो सब ठीक हो जाए। जब ये सब चीजें पूरी हो जाती हैं, तब भ्रांति टूटती है। तब पता चलता है, धन भी है, पद भी है, प्रतिष्ठा भी है, मगर प्यास तो वहीं की वहीं, वहीं की वहीं ही नहीं और भी गहन हो गई है, और भी सघन हो गई है। जब चारों तरफ धन के ढेर लग जाते हैं, तो भीतर निर्धनता का बहुत प्रगाढ़ता से पता चलता है। निर्धनता को देखने के लिए धन के ढेर जरूरी हैं। गरीब आदमी को गरीबी का पता नहीं चल सकता है। कैसे चले? पता तो हमेशा विपरीत से चलता है। इसीलिए तो हम सफेद खड़िया से लिखते हैं काले ब्लैक-बोर्ड पर। सफेद बोर्ड पर क्यों नहीं लिखते, सफेद बोर्ड पर लिखेंगे तो लिखा तो जाएगा, मगर दिखाई नहीं पड़ेगा। काला होना चाहिए बोर्ड। तो फिर सफेद खड़िया से लिख सकते हो। और अगर सफेद बोर्ड हो, तो फिर काली खड़िया से लिखना होगा, फिर कोयले से लिखना होगा। विपरीत ही दिखाई पड़ता है।
गरीब आदमी को तो पता ही नहीं चलता कि मैं गरीब हूं। अमीर को ही पता चलता है। स्वस्थ आदमी को तो पता ही नहीं चलता कि मैं स्वस्थ हूं। बीमारी चाहिए तो पता चलता है। विपरीत जब घटता है तो बोध होता है।
ठाकुर राणा, तुम कहते: ‘संसार की ऐसी कोई चीज नहीं जो मैंने नहीं पाई, फिर यह प्यास क्यों है?’
इसीलिए यह प्यास है। अब परमात्मा को पाना होगा। अब संसार में तुम्हें अर्थ नहीं रहा। जानने योग्य जान लिया, देखने योग्य देख लिया। अब आंखें बंद करके भीतर देखने की घड़ी आ गई। अब जमीन से सिर आकाश की तरफ उठाने का क्षण आ गया। बहुत कंकड़-पत्थर बीन लिए, अब हीरे-जवाहरातों से झोली भरो।
निश्वासों का नीड़, निशा का
बन जाता जब शयनागार,
लुट जाते अभिराम छिन्न
मुक्तावलियों के बंदनवार,
तब बुझते तारों के नीरव नयनों का यह हाहाकार,
आंसू से लिख-लिख जाता है कितना अस्थिर है संसार।

हंस देता जब प्रातः, सुनहरे
अंचल में बिखरा रोली,
लहरों की बिछलन पर जब
मचली पड़तीं किरणें भोली,
तब कलियां चुपचाप उठाकर पल्लव के घूंघट सुकुमार,
छलकी पलकों से कहती हैं, कितना मादक है संसार।

देकर सौरभ-दान पवन से
कहते जब मुरझाए फूल
जिसके पथ में बिछे वही
क्यों भरता इन आंखों में धूल?
अब इन में क्या सार? मधुर जब गाती भौंरों की गुंजार,
मर्मर का रोदन कहता है, कितना निष्ठुर है संसार!

स्वर्ण-वर्ण से दिन लिख जाता
जब अपने जीवन की हार,
गोधूलि नभ के आंगन में
देती अगणित दीपक वार,
हंस कर तब उस पार तिमिर का कहता बढ़-बढ़ पारावार,
बीते युग, पर बना हुआ है अब तक मतवाला संसार।

स्वप्नलोक के फूलों से कर
अपने जीवन का निर्माण,
अमर हमारा राज्य सोचते
हैं जब मेरे पागल प्राण,
आ कर तब अज्ञात देश से जाने किस की मृदु झंकार,
गा जाती है करुण स्वरों में, कितना पागल है संसार!
जरा आंख खोल कर देखो। जिसे तुम तलाशते थे, उसे यहां पाया ही नहीं जाता। जो तुम्हें तृप्त करेगा, जिससे तुम्हारी क्षुधा मिटेगी, प्यास मिटेगी, जिससे प्राणों का यह सतत चल रहा हाहाकार समाप्त होगा, जिससे ये भीतर के आंसू थमेंगे, जिससे आत्मा की रिक्तता भरेगी, तुम भरपूर हो उठोगे--वह यहां है ही नहीं। ऐसा नहीं है कि कहीं भी नहीं है। किसी और आयाम में उसे खोजना पड़ता है।
एक दौड़ है बाहर की तरफ; वहां सब मिलेगा, तृप्ति नहीं मिलेगी। एक दौड़ है भीतर की तरफ, वहां कुछ और न मिलेगा, मगर तृप्ति मिलेगी। एक दौड़ है पर की तरफ; वहां संबंध मिलेंगे, नाते-रिश्ते मिलेंगे; भाई बंधु, पति-पत्नी, बेटे-बेटियां, सब-कुछ मिलेगा, मगर तुम नहीं मिलोगे। एक यात्रा है स्व की तरफ; वहां न पिता हैं, न मां हैं, न भाई, न बहिन, न पत्नी, न पति, वहां तुम हो। और जिसने स्वयं को जाना, वही तृप्त हुआ। क्योंकि जिसने स्वयं को पाया, उसने सब पा लिया। तुम्हारे भीतर अनंत संपदा है। मगर तुम भिखारी बने बाहर खोज रहे हो!
निश्वासों का नीड़, निशा का
बन जाता जब शयनागार,
लुट जाते अभिराम छिन्न
मुक्तावलियों के बंदनवार,
तब बुझते तारों के नीरव नयनों का यह हाहाकार,
आंसू से लिख-लिख जाता है, कितना अस्थिर है संसार!
आ गई घड़ी, ठाकुर राणा! सुनो चारों तरफ से उठती गूंज!
तब बुझते तारों के नीरव नयनों का यह हाहाकार,
आंसू से लिख-लिख जाता है, कितना अस्थिर है संसार!
यहां सब क्षणभंगुर है। पानी के बबूले हैं। रेत पर घर न बनाओ। कागज की नावें न तैराओ।
स्वप्नलोक के फूलों से कर
अपने जीवन का निर्माण,
अमर हमारा राज्य सोचते
हैं जब मेरे पागल प्राण,
आ कर तब अज्ञात देश से जाने किस की मृदु झंकार,
गा जाती है करुण स्वरों में, कितना पागल है संसार!
अब देखो, चारों ओर देखो, पागलों की भीड़ है। जो भी अपने को छोड़ कर कुछ और खोज रहा है, वह पागल है। जो भी भीतर न जाकर और दौड़ा जा रहा है, दौड़ा जा रहा है बाहर की तरफ, वह पागल है; वह मृग-मरीचिकाओं में जी रहा है; वह भ्रांतियों में जी रहा है; वह विक्षिप्त है; वह गिरेगा, टूटेगा, बहुत पछताएगा। और समय बीत जाए तो फिर पछताने से भी कुछ नहीं होता। अब पछताए होत का, जब चिड़िया चुग गई खेत। अक्सर ऐसा होता कि जब मौत द्वार पर दस्तक देती है तब होश आता है--कि चूक गए! कि अवसर मिला था लेकिन उपयोग न कर पाए! उससे पहले जो जाग जाए, वही बुद्धिमान है।
ठाकुर राणा, वह घड़ी आ गई! इस प्यास को सौभाग्य समझो! परमात्मा की देन समझो, प्रसाद समझो!
कैसी यह प्यास है? यह प्यास प्रार्थना की शुरुआत है। यह प्यास प्रार्थना का पहला आघात है। इसी प्यास को सघन करने से प्रार्थना बनेगी। इसी प्यास को निखारो, धार धरो, प्रार्थना बनेगी। कैसी है यह प्यास? और तुम इसे प्रार्थना बना लो तो परमात्मा बहुत दूर नहीं। प्यास और परमात्मा के बीच प्रार्थना का सेतु बन जाए, फिर जरा भी दूरी नहीं।
पूछते हो: ‘इस मानस-प्यास का क्या करूं?’
भड़काओ! बढ़ाओ! जगाओ! प्रज्वलित करो! मैं यहां बुझाने को नहीं हूं तुम्हारी प्यास, जलाने को हूं। और भी ईंधन डालूंगा--वही रोज करता हूं, सुबह-सांझ। तुम्हारी प्यास में ईंधन डालना है। कहीं बुझ न जाए। बुझाने के बहुत आयोजन चल रहे हैं। संसार में जगह-जगह तुम्हारी प्यास को बुझाने वाले लोग बैठे हैं। और तुम भी तत्पर होते हो कि कोई प्यास बुझा दे, क्योंकि प्यास पीड़ा देती है; प्यास परेशान करती, बेचैनी लाती। तुम भी चाहते हो कोई सांत्वना के दो शब्द कह दे, मलहम-पट्टी कर दे, घाव को भर दे। नहीं, अगर तुम ऐसा कुछ चाहते हो तो तुम गलत आदमी के पास आ गए। मैं तुम्हारे घाव को और उघाडूंगा, और कुरेदूंगा। मैं तुम्हारी पीड़ा को और भी गहन करूंगा। मैं तुम्हारी प्यास को जलती हुई लपट बना दूंगा। ऐसी लपट कि तुम उसमें राख ही हो जाओ। तुम्हारी प्यास शमा बन जाए और तुम परवाने बन जाओ, तो प्रार्थना पूरी हो जाती है और उसी घड़ी, उस अपूर्व घड़ी में परमात्मा से मिलन है।
मत पूछो मुझसे कि इस स्थिति को स्पष्ट करने की अनुकंपा करें। इस स्थिति को स्पष्ट नहीं करना है। स्पष्ट करने की आकांक्षा में, व्याख्या में, समझने की कोशिश में हमारा गहरा प्रयोजन एक ही होता है कि किसी तरह समझ में आ जाए तो झंझट मिटे। हम समझना ही उन चीजों को चाहते हैं जिनसे हम झंझट मिटा लेना चाहते हैं। समझना झंझट मिटाने का एक उपाय है। यह प्यास अव्याख्य है, अनिर्वचनीय है। इसे समझना नहीं है, इसमें डुबकी मारनी है। यह रहस्य है। इस प्यास को प्रश्न न बनाओ, इस प्यास को रहस्य समझो। इसके घूंघट उठाओ, उतरो इसके अज्ञात लोक में; जलो, तड़पो, पुकारो, रोओ; यह प्यास आंसू बने, उत्तर नहीं, प्रश्न नहीं, व्याख्या नहीं, विवेचन नहीं। मैं तुम्हें प्यास समझा नहीं सकता हूं।
प्यास कहीं समझने की बात होती है? अब जैसे किसी आदमी को प्यास लगी है, क्या समझाओगे? इतना ही कह सकते हो कि प्यास भाई प्यास है। अगर प्यास के लिए कुछ करना हो तो यह रही जलधार, झुको, भरो अंजुलि, पीओ! लेकिन वह आदमी कहे कि प्यास समझाइए! फिर जल समझाइए कि जल क्या है? जल को क्या समझाओगे? क्या एच. टू. ओ. कह देने से काम हल हो जाएगा? कि पानी उदजन और ऑक्सीजन से मिल कर बनता है। कि दो हिस्से उद्जन के और एक हिस्सा ऑक्सीजन का, इन तीन से मिल कर पानी बन जाता है। या कि उस आदमी को कहोगे कि एक किताब ले लो और उस पर लिखते रहो एच. टू. ओ., एच. टू. ओ., एच. टू. ओ., जैसे कुछ लोग लिखते हैं: राम-राम, राम-राम; ऐसे तुम एच. टू. ओ., एच. टू. ओ. लिखते रहो किताब पर--माला ले लो हाथ में और हर मनके साथ कहो: एच. टू. ओ.। इससे क्या प्यास बुझेगी, कि प्यास समझ में आएगी?
न तो राम-राम जपने से प्यास बुझती, न एच. टू. ओ. जपने से प्यास बुझेगी। न राम-राम लिखने से किताब में तुम कहीं पहुंचोगे, न एच. टू. ओ. लिखने से तुम कहीं पहुंचोगे। किताब जरूर खराब हो जाएगी। पीना पड़ेगा, परमात्मा को पीना पड़ेगा। पीओगे, तो जानोगे। ये बातें स्वाद की हैं, अनुभव की हैं।
मगर इतना मैं तुमसे कहूं: अच्छा हो रहा है! मंदिर के द्वार पर आ रहे हो! मंदिर पास है! जल्दी से प्यास को समझा-बुझाकर भाग मत खड़े होना। ऐसा ही प्यासा व्यक्ति संन्यास के अनिर्वचनीय लोक में प्रवेश करता है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, हमें धर्म-ध्यान का कुछ पता नहीं है। हमको तो हो गया है तुझसे प्यार! इसलिए हम संन्यासी भी हैं और अब तेरे चरणों में बैठ कर तुझे सुन-सुन कर आनंदित हैं, अनुगृहीत हैं। हम खुश हैं, भगवान!
अगेह! धर्म का किसको कब पता चला? ध्यान को कब कौन समझा? बेबूझ बातें हैं, अनबूझ बातें हैं। अनुभव होता है, समझ नहीं आती। समझ तो छोटी चीजों की आती है, समझ तो बाजारू होती है। जितना गहन होगा तत्व, उतना ही समझ से दूर होता है। समझ तो खोपड़ी में घटती है। प्रेम-प्रार्थना, ध्यान-धर्म, सब हृदय में घटते हैं। सिर हृदय को समझने में असमर्थ है। इसलिए सिर तो हृदय को पागल मानता है, प्रेमी को पागल मानता है, भक्त को पागल मानता है। हृदय की बात मस्तिष्क को समझ में नहीं आती। उनके गणित अलग हैं। हृदय की दुनिया में कोई और ही गणित लागू है--कोई महागणित। मस्तिष्क में एक और एक मिलकर दो होते हैं, हृदय में एक और एक मिल कर एक ही होता है। वहां कुछ मामला ही और है! मस्तिष्क के जगत में, मस्तिष्क के अर्थशास्त्र में चीजें बचाओ तो बचती हैं, लुटाओ तो समाप्त हो जाती हैं। हृदय के अर्थ शास्त्र में बचाओ तो समाप्त हो जाती हैं, लुटाओ तो बचती हैं। मस्तिष्क कंजूस है, कृपण है। हृदय लुटाता है: दोई हाथ उलीचिए, यही संतन को काम। और मजा ऐसा है कि मस्तिष्क बचा-बचा कर भी कुछ बचा नहीं पाता। कूड़ा-करकट हाथ रह जाता है। और हृदय लुटा-लुटाकर भी सब बचा लेता है। इन दोनों की दुनियाएं अलग हैं, आयाम अलग हैं।
तुम पूछते हो: ‘हमें धर्म-ध्यान का कुछ पता नहीं।’
किसको पता है? धर्मशास्त्रों में तुम सोचते हो धर्म लिखा है? अगर धर्म लिखा हुआ होता तो बात बड़ी आसान हो जाती। फिर तो जैसे गणित हम पढ़ाते हैं स्कूल में, और भूगोल पढ़ाते हैं, और इतिहास पढ़ाते हैं, वैसे ही धर्म भी पढ़ा देते। लेकिन धर्म पढ़ाया ही नहीं जा सकता। धर्म सिखाया ही नहीं जा सकता। और चूंकि हम सिखाने के झूठे आयोजन करते हैं, हम लोगों को झूठे धार्मिक बना देते हैं--कोई हिंदू, कोई ईसाई, कोई मुसलमान, कोई जैन, कोई बौद्ध। सच्चा धार्मिक आदमी कैसे हिंदू हो सकता है, कैसे ईसाई हो सकता है, कैसे मुसलमान हो सकता है? एक ही परमात्मा है, तो एक ही प्रार्थना है। और एक ही सत्य है, तो अनेक संप्रदाय कैसे हो सकते हैं? साधारण जीवन के सत्य भी अलग-अलग नहीं होते। हिंदुस्तान में पानी गर्म करो तो भी सौ डिग्री पर भाप बनता है, और तिब्बत में करो तो भी सौ डिग्री पर भाप बनता है। तिब्बत का पानी यह नहीं कह सकता कि यह बौद्ध मुल्क है, यहां हिंदू देश की बातें न चलेंगी। पानी को तो कहीं भी गर्म करो, सौ डिग्री पर भाप बनता है। प्रकृति के नियम तक शाश्वत हैं, तो परमात्मा के नियम शाश्वत न होंगे! वे भी शाश्वत हैं। मगर हम लोगों पर धर्म थोप देते हैं। हम धर्म के नाम पर धर्म के सिद्धांत थोप देते हैं। और उन्हीं थोपे हुए सिद्धांतों को ढोते हुए लोग जिंदगी भर जीते हैं। उनका ईश्वर से कभी कोई संबंध न होगा, न हो सकता है। पहले तो छोड़नी पड़ती है यह सारी की सारी सिखावन, खाली और कोरा करना पड़ता है हृदय, तब कोई जान पाता है। तुम कहते हो: हमें धर्म-ध्यान का कुछ पता नहीं। अच्छा है! पता होता तो मेरे पास आ भी नहीं सकते थे। पता होता तो पंडित हो गए होते। पता होता तो तोतों की तरह दोहराते। मेरे पास नहीं आ सकते थे। जिनको पता है, वे तो यहां आते ही नहीं।
कल एक किताब मेरे हाथ लगी है, दिल्ली में किसी ने छापी है, किसी आर्यसमाजी ने छापी है। आर्यसमाजी ही इस तरह की मूढ़ता की किताबें छाप सकते हैं। उस किताब में लिखा है कि मेरी बातों को सुनना महापाप, मेरी किताबों को पढ़ना महापाप, मेरे सन्निधि में आना महापाप। तब मैं जरा हैरान हुआ कि इस आदमी ने मेरी किताबें भी पढ़ी होंगी। इस बेचारे ने कितना महापाप किया! यह महानरक में पड़ेगा! उस आदमी पर मुझे बड़ी दया आने लगी। पाप पर पाप कर गुजरा। लोगों ने धर्म के नाम पर तुम्हें बोध नहीं दिया, न साहस दिया। तुम्हें कमजोरी दी और नपुंसकता दी।
अब ये नपुंसकता की बातें हैं कि मेरी बात सुनना महापाप। यह घबड़ाहट है। इसमें डर है कि अगर मेरी बात सुनी गई, तो सत्य को तुम कितनी देर तक इनकार करोगे? अगर सुना, तो आज नहीं कल मस्तिष्क चाहे इनकार करे, हृदय स्वीकार कर लेगा। फिर क्या होगा? इसलिए सुनो ही मत। इसलिए कानों में घंटे बांध लो और बजाते रहो, ताकि कोई आवाज तुम्हें सुनाई न पड़ जाए। इसलिए तुम्हारे तथाकथित धार्मिक सब अपने कानों में घंटा बांधे हैं--सब घंटाकर्ण हैं। जोर से बजाते रहते हैं कि कोई नाम सुनाई न पड़ जाए, कोई बात सुनाई न पड़ जाए। सबने आंखें बंद कर ली हैं। कोल्हू के बैल हो गए हैं कि आंख खोली तो कहीं सत्य दिखाई न पड़ जाए। यह धार्मिक होने के लक्षण हुए? धार्मिक आदमी तो खुली आंख वाला होगा, पक्षपातरहित होगा, पहले से ही कोई पूर्वाग्रह निश्चित नहीं करेगा, आग्रही नहीं होगा, राजी होगा हर अनुभव में गुजरने को, प्रयोग करने को। निष्कर्ष लेकर पहले से ही जो चलेगा, वह धार्मिक नहीं है। और तुम सब निष्कर्ष लेकर चल रहे हो, यही अड़चन है। कोई पहले से ही हिंदू है, तो उसने तय कर रखा है कि ऐसा होना ही चाहिए। अब तुमने सत्य को प्रकट होने का मौका ही नहीं दिया।
अच्छा है, अगेह, कि तुम कहते हो: ‘धर्म-ध्यान का हमें कुछ पता नहीं।’
यही सौभाग्य तुम्हें मेरे पास ले आया। पता होता, तो तुम आ ही नहीं सकते--यहां आना महापाप होता। यहां आ सके हो खुले हृदय से, मुक्तभाव से, सुनने को आतुर, समझने को आतुर, अनुभव करने को आतुर, इसीलिए आ सके हो कि तुम्हें धर्म-ध्यान का कुछ पता नहीं है। जिन्हें पता है, वे तो अपेक्षाएं लेकर आते हैं। उनकी अपेक्षाओं से जरा भिन्न कुछ हो रहा हो कि बस गलत हो रहा है। उन्हें जैसे पता ही है कि ठीक क्या है। कुछ भी उन्हें पता नहीं है। क्योंकि यहां प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में धर्म का अनुभव अनूठा घटता है, अद्वितीय घटता है। उसके संबंध में कोई पूर्व धारणाएं काम नहीं आतीं।
समझो, जिसने महावीर को ध्यान करते देखा हो, नग्न, वृक्ष के नीचे पत्थर की मूर्ति की तरह खड़े हुए और उसने धारणा बना ली हो कि यही ध्यान है। फिर उसने मीरा को नाचते देखा हो, इकतारा लिए, पैरों में घूंघर बांधे, आंखों से आनंद के आंसुओं की धार, मस्त होकर, लोकलाज खोकर नाचती, वस्त्रों का पता नहीं कि साड़ी का पल्लू कब सरक कर नीचे गिर गया है--किसे होश? ऐसी मस्ती में छोटी बातों का किसको पता? अगर इस आदमी ने जिसने महावीर के ध्यान को ध्यान मानने की बात पक्की कर ली हो, मीरा को देखा होता तो वह कहता: यह कैसा ध्यान? यह तो अशोभन है। यह ध्यान नहीं है।
लेकिन महावीर को महावीर की तरह से घटा, मीरा को मीरा की तरह से घटा। मीरा का भी ध्यान है, महावीर का भी ध्यान है। ध्यान तो ऐसा है जैसे जल। जिस पात्र में रख दो, उसी पात्र का रूप ले लेता है। सुराही में रख दो, सुराही का रूप ले लेता है। थाली में रख दो, थाली का रूप ले लेता है। ध्यान तो तरल चैतन्य की अवस्था है। और चूंकि व्यक्ति भिन्न-भिन्न हैं, इसलिए ध्यान की अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न हैं। जिसने मीरा को देखा है और मान लिया कि यही ध्यान है, वह फिर बुद्ध को देखता अगर वृक्ष के नीचे बैठे, आंख बंद किए, पत्थर की मूर्ति बने, तो वह कहते: यह क्या कर रहे सज्जन? यह कोई ध्यान है! अरे, इकतारा कहां है? पैर में घूंघर बांधो, कृष्ण को पुकारो--पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे--तुम क्या कर रहे हो बैठे-बैठे यहां? क्यों समय खराब कर रहे हो? वह भी गलत होता। जब भी हम धारणा बनाते हैं, गलती हो जाती है, क्योंकि धारणा एक व्यक्ति पर निर्भर होती है और परमात्मा दो व्यक्ति एक जैसे बनाता ही नहीं। परमात्मा हर व्यक्ति अनूठा बनाता है, अद्वितीय बनाता है। इससे बड़ी अड़चनें पैदा होती हैं।
एक ईसाई मिशनरी ने आकर मुझे कहा कि आप बुद्ध और महावीर की इतनी चर्चा करते हैं, लेकिन उन्होंने किया क्या मनुष्य-जाति के लिए? जीसस ने तो अपने को सूली पर लटकवा दिया! अपने प्राण दे दिए! वे हैं मनुष्य के बचावनहार! महावीर ने क्या किया? कृष्ण ने क्या किया? बुद्ध ने क्या किया? कुर्बानी कहां है? एक धारणा बना ली, कि जब तक कोई सूली पर न लटके, तब तक वह ज्ञान को उपलब्ध नहीं। तब तक वह कैसा बुद्ध! सूली पर लटकना ही चाहिए।
मैंने उनसे कहा कि तुम्हें पता है जैन क्या कहते हैं? जैन मुझसे आकर कहते हैं कि आप महावीर के साथ जीसस का नाम न लिया करें। मिशनरी थोड़ा चौंका, उसने कहा: क्यों? तो मैंने कहा: वे यह कहते हैं कि प्रत्येक कृत्य की श्रृंखला होती है, कांटा भी अकारण नहीं लगता। जब पैर में कांटा लगता है तो उसका अर्थ है: पिछले जन्म में कोई पाप किया होगा। जीसस को सूली लगी--कांटा नहीं सूली--कोई महापाप किया होगा! कर्म का सिद्धांत साफ है। कोई बहुत बड़ा पाप किया होगा, इसलिए जीसस को सूली लगी। महावीर के पैर में तो कांटा भी नहीं चुभा। कहानी कहती है जैनियों की कि महावीर जब रास्ते पर चलते हैं--तो वे कोई जूते इत्यादि तो पहनते नहीं थे; और कांटा भी नहीं लगा जिंदगी भर--तो कहानी यह कहती है कि कांटा लग ही नहीं सकता था, क्योंकि उन्होंने कोई पापकर्म कभी किया नहीं था पिछले जन्म में। वे पिछले जन्म से बिलकुल शुद्ध होकर आए थे। तो रास्ते पर चलते वक्त अगर कभी कोई कांटा बीच में पड़ा होता, तो वह जल्दी से उलटा हो जाता था--कांटा--कि महावीर आ रहे हैं, कहीं लग न जाऊं!
अब जिनकी यह धारणा हो कि कांटे भी महावीर को देख कर जल्दी से उलटे हो जाते हैं कि कहीं चुभ न जाएं, वे जीसस की सूली को मूल्य दे सकते हैं? असंभव! बिलकुल असंभव।
धारणाओं में ग्रस्त व्यक्ति धार्मिक नहीं होता। धारणा-मुक्त व्यक्ति धार्मिक होता है। सिद्धांत-शून्य व्यक्ति धार्मिक होता है। निष्कर्षरहित चित्त से जो प्रवेश करता है, प्रयोग करता है, वही धार्मिक होता है।
अगेह! अच्छा है कि तुम्हें धर्म और ध्यान का कुछ पता नहीं। इसीलिए तो मेरे साथ प्रयोग करना आसान हुआ। मेरे साथ तो जुड़ ही वे सकते हैं, जिनमें इतना साहस है कि सारे पक्षपात तोड़ कर फेंक दें।
और फिर तुम कहते हो कि ‘हमें तो आपसे प्यार हो गया!’ यही प्यार ध्यान है। यही प्यार निखरेगा, निखरता जाएगा। इसी प्यार से धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर उस ज्योति का जन्म हो जाएगा। प्रेम से बड़ा और ध्यान क्या है? प्रीति से बड़ी और प्रार्थना क्या है?
जो होना था, हो रहा है।

जो तुम आ जाते एक बार!
कितनी करुणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग,
गाता प्राणों का तार-तार
अनुराग-भरा उन्माद-राग,
आंसू लेते वे पद पखार!
जो तुम आ जाते एक बार!

हंस उठते पल में आर्द्र नयन
धुल जाता ओंठों से विषाद,
छा जाता जीवन में वसंत
लुट जाता चिरसंचित विराग;
आंखें देतीं सर्वस्व वार!
जो तुम आ जाते एक बार!
प्रेम पुकार है परमात्मा के लिए। तुम मेरे प्रेम में हो, यह तो शुरुआत है। यह तो पहला कदम है। यही प्रेम धीरे-धीरे-धीरे गहरा होता जाएगा। मैं मिट जाऊंगा मैं तुम्हारी नजर से ओझल हो जाऊंगा और यह प्रेम गहन होते-होते परमात्मा का प्रेम बन जाएगा। यही सदगुरु का अर्थ है। जो प्रेम जगा दे, प्रेम के जगाने का निमित्त हो जाए, बहाना हो जाए, और जब प्रेम जग जाए तो चुपचाप तुम्हें पता भी न चले और तुम्हारे और तुम्हारे परमात्मा के बीच खड़ा न रह जाए। मिथ्या गुरु वह, जो तुम्हारे और तुम्हारे परमात्मा के बीच दीवाल बन जाए। सदगुरु वह, जो बहाना तो बने प्रेम के जगने का, लेकिन जैसे ही प्रेम जगे, चुपचाप हट जाए। तुम्हें पता भी न चलने दे कि कब हट गया। कब उसने तुम्हारा हाथ परमात्मा के हाथ में दे दिया।
और परमात्मा दूर नहीं है। सिर्फ जरा उसके हाथ में हाथ दिए जाने की बात है। जरा अदृश्य को पकड़ने की कला आने की बात है।
कुमुद-दल से वेदना के दाग को
पोंछतीं जब आंसुओं से रश्मियां,
चौंक उठतीं अनिल के निश्वास छू
तारिकाएं चकित सी अनजान सी,
तब बुला जाता मुझे उस पार जो
दूर के संगीत सा वह कौन है?

शून्य नभ पर उमड़ जब दुख भार सी
नैश तम में सघन छा जाती घटा,
बिखर जाती जुगनुओं की पांति भी
जब सुनहले आंसुओं के हार सी,
तब चमक जो लोचनों को मूंदता
तड़ित की मुस्कान में वह कौन है?

अवनि-अंबर की रुपहली सीप में
तरल मोती सा जलधि जब कांपता ,
तैरते घन मृदुल हिम के पुंज से
ज्योत्सना के रजत-पारावार में;
सुरभि बन जो थपकियां देता मुझे
नींद के उच्छवास सा, वह कौन है?

जब कपोल-गुलाब, पर शिशु प्रात के
सूखते नक्षत्र-जल के बिंदु से,
रश्मियों की कनक-धारा में नहा
मुकुल हंसते मोतियों का अर्घ्य दे,
स्वप्न-शाला में यवनिका डाल जो
तब दृगों को खोलता वह कौन है?

सब तरफ से उसने तुम्हें घेरा है।
तब बुला जाता मुझे उस पार जो
दूर के संगीत सा वह कौन है?

तब चमक जो लोचनों को मूंदता
तड़ित की मुस्कान में वह कौन है?

सुरभि बन जो थपकियां देता मुझे
नींद के उच्छवास सा, वह कौन है?

स्वप्न-शाला में यवनिका डाल जो
तब दृगों को खोलता वह कौन है?
परमात्मा दूर नहीं है, सिर्फ तुम्हें उसकी प्रत्यभिज्ञा नहीं, पहचान नहीं। हीरा सामने पड़ा है और तुम इधर-उधर देख रहे। सदगुरु का इतना ही तो कृत्य है कि तुम्हें हीरे को दिखा दे और फिर चुपचाप हट जाए। उसकी पगध्वनि भी सुनाई न पड़े, ऐसा चुपचाप हट जाए! कहीं ऐसा न हो कि तुम उसके मोह में पड़ जाओ। प्रीति तो ठीक है, मोह ठीक नहीं। प्रेम तो ठीक है, आसक्ति ठीक नहीं।
अगेह, प्रेम तो करो मुझसे, मोह मत करना। प्रीति तो जगाओ, मगर प्रीति को प्रार्थना के पथ पर लगाना है; उसे आसक्ति नहीं बनाना।
तुम कहते: ‘इसलिए हम संन्यासी भी हैं और अब तेरे चरणों में बैठ कर, तुझे सुन कर आनंदित हैं, अनुगृहीत हैं।’
संन्यास का लक्ष्य ही इतना है कि तुम आनंदित होओ, अनुगृहीत होओ। परमात्मा ने इतना दिया है और तुम धन्यवाद भी न दोगे! परमात्मा ने अपार दिया है और तुम आनंद के दो आंसू भी न बहाओगे! उसने सब दिया है--जो तुम सोच भी नहीं सकते थे, स्वप्न भी नहीं देख सकते थे, वह सब दिया है, और तुम उसके चरणों में सिर भी न झुकाओगे।
संन्यास का अर्थ इतना ही है: झुक जाना, समर्पित हो जाना।
चौथा प्रश्न:
भगवान, क्या पूछूं, यह समझ में नहीं आता है। फिर भी कोई उत्तर पाना चाहता हूं!
सत्य वीरेंद्र! प्रश्न सब व्यर्थ हैं। प्रश्न मात्र व्यर्थ है। क्योंकि प्रश्न उठता है संदेह से। प्रश्न उठता ही है भीतर के संशय से। प्रश्न मन की ही गुत्थियां हैं, उलझाव हैं, भटकाने के उपाय हैं। तुम ठीक कहते हो: क्या पूछूं, यह समझ में नहीं आता। यह अच्छा हुआ कि क्या पूछूं, यह समझ में नहीं आता है। यह समझ की पहली किरण आई।
पूछना छूट जाए, तो समझ दूर नहीं है। पूछने के ही कारण समझ नहीं खुल पा रही है। पूछने में ही उलझते चले जाते हो। और हर उत्तर जो दिया जाएगा, उसमें से भी दस नये प्रश्न खड़े हो जाएंगे। प्रश्न खड़े करने वाला मन जब तक भीतर मौजूद है, कोई उत्तर उत्तर नहीं हो सकता। जो भी उत्तर दिया जाएगा, उस पर प्रश्न खड़े हो जाएंगे। एक उत्तर दस प्रश्न बनाएगा। कोई पूछता है: संसार को किसने बनाया? तोतों जैसे पंडित भरे हैं सारे देश में, सारी दुनिया में, वे तत्क्षण कहेंगे: ईश्वर ने। तब प्रश्न उठता है, ईश्वर ने क्यों बनाया? हल क्या हुआ? बात जहां की तहां रही। अब तुम कुछ कारण बताओ कि ईश्वर ने क्यों बनाया? कारण बताने वाले नासमझ भी हैं। वे कहते हैं: इसलिए ताकि मनुष्य को मुक्त किया जा सके। प्रश्न उठता है कि जब मनुष्य था ही नहीं, तो पहले उसको बनाना, बंधन में डालना, फिर मुक्त करना--यह कौन सी बुद्धिमानी है?
या प्रश्न उठता है कि वह तो सर्वज्ञाता है, सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है, इतना मनुष्य को परेशान करने की क्या जरूरत? जैसा उसने शुरू में कहा था: हो जा प्रकाश! और हो गया प्रकाश। वैसा ही क्यों नहीं कह देता: हो जा मोक्ष! और हो गया मोक्ष। जब प्रकाश हो सकता है तो मोक्ष होने में क्या बाधा पड़ रही है? शक होता है कि तुम्हारा ईश्वर लोगों को सताने में कुछ मजा ले रहा है, कुछ रस ले रहा है। जैसे छोटे-छोटे बच्चे चींटों को सताते हैं, कि तितली के पंख तोड़ देते हैं, कि कुत्ते की पूंछ खींचते हैं!
एक छोटा बच्चा बिल्ली को परेशान कर रहा था। उसकी मां चिल्लाई कि तू उस बिल्ली की पूंछ क्यों खींच रहा है? उस बच्चे ने कहा कि मैं पूंछ नहीं खींच रहा मैं तो सिर्फ पूंछ पर खड़ा हुआ हूं। बिल्ली ही पूंछ खींच रही है! इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है।
मगर यह परमात्मा क्यों लोगों की पूंछों पर खड़ा हुआ है? मनुष्य को वासना से मुक्त करना है। लेकिन वासना दी क्यों? किसने मांगी थी? वासना तुमने दी, पाप मनुष्य भोगेगा? अगर दुनिया में कोई भी कसूरवार है तो परमात्मा के सिवाय और कोई कसूरवार नहीं हो सकता। अगर नरक किसी को मिलना चाहिए तो सिर्फ परमात्मा को मिलना चाहिए। एक-एक आदमी की वासना के कारण नरक मिले, इसकी बजाय मूल को ही नहीं पकड़ते? अनंत-अनंत लोगों के चित्त को वासनाग्रस्त किया, यह कोई शिष्टाचार है, यह कोई सभ्यता है?
प्रश्न एक, उत्तर दो कि हजार प्रश्न खड़े होते चले जाएंगे। और उनका कोई अंत नहीं हो सकता। प्रश्नों का अंत सिर्फ एक ढंग से होता है: प्रश्नों की व्यर्थता देखने से। जिस दिन सारे प्रश्नों की व्यर्थता दिखाई पड़ती है, उस क्षण एक अपूर्व शांति, एक अपूर्व सन्नाटा खिंच जाता है।
वीरेंद्र, ऐसे सन्नाटे को अनुभव करो। कहते हो: क्या पूछूं, यह समझ में नहीं आता है। अच्छा है! कुछ पूछो ही न! पूछने को क्या है? जीने को है। और मजा ऐसा है, जो पूछता है, उसे उत्तर नहीं मिलता, और जो सारे पूछने को छोड़ देता है, वह पाता है कि उत्तर सदा से भीतर मौजूद है। किसी प्रश्न का उत्तर नहीं है वह। जीवन स्वयं अपना उत्तर है। जीवन स्वयं अपनी समाधि है, अपना समाधान है।
तुम कहते हो: ‘फिर भी कोई उत्तर पाना चाहता हूं!’
यह बात सुंदर है। प्रश्न पूछने को नहीं है, यह बात सुंदर है, फिर भी उत्तर पाना चाहते हो, यह बात और भी सुंदर है। ठीक दिशा में चल पड़ी तुम्हारी यात्रा। प्रश्नों को जाने दो, उत्तर आएगा, अपने से आएगा, उत्तर तुम्हारे भीतर है, तुम उत्तर हो। प्रश्न गिर जाएं और उत्तर प्रकट हो जाए। प्रश्न ऐसे हैं जैसे अंगारे पर राख। राख झड़ जाए, अंगारा प्रकट हो जाए।
उत्तर बाहर से नहीं आते। प्रश्न सब बाहर से आते हैं। तुम्हारे पास ऐसा एक भी प्रश्न नहीं है जो तुम्हारा है। तुमने सीखे हैं। इसलिए मेरे पास जब अलग-अलग धर्मों के लोग आते हैं तो अलग-अलग प्रश्न पूछते हैं। एक से ही प्रश्न तो पूछ ही नहीं सकते। क्योंकि उनको देने वाले लोग अलग-अलग हैं। जैसे कोई ईसाई आता है तो वह पुनर्जन्म के संबंध में नहीं पूछता--कभी नहीं पूछता। उसको सिखाया ही नहीं गया कि पुनर्जन्म है, इसलिए प्रश्न क्यों उठे? मुसलमान आता है, वह नहीं पूछता कि मैं पिछले जन्म में कौन था? पिछला जन्म ही नहीं था, कौन का सवाल नहीं है। प्रश्न सिखाया नहीं गया है तो पूछता नहीं है। लेकिन जैन आता है तो वह कहता है: जाति-स्मरण कैसे हो? मुझे पिछले जन्मों का स्मरण करना है, वह कैसे हो? तुम सोचते हो यह इसका प्रश्न है? यह इसके पंडितों ने इसे सिखा दिया; कि अनंत-अनंत जन्म हो चुके हैं। चौरासी कोटि योनियों में भटक-भटक कर तू यहां तक आया है। जरा सोचो भी तो, चौरासी कोटि योनियों में भटकना! कैसी-कैसी योनियां! कभी बिच्छू, कभी सांप, कभी कुत्ता, कभी बिल्ली, कभी केंचुआ, कभी मछली, जरा सोचो भी तो पूरी चौरासी कोटि योनियां! ऐसी घबड़ाहट होगी कि हे भगवान, कभी मैं केंचुआ भी था! तुम्हें कुछ और न सूझा? बिच्छू भी, सांप भी! लेकिन सुना है बचपन से तो प्रश्न बन जाता है।
जो सुना है, वही तुम पूछने लगते हो। तुम्हारे प्रश्न सब उधार हैं। सब बाहर से आए हैं। और मजे की बात यह है कि उत्तर बाहर से आने वाला नहीं है! प्रश्न बाहर से आए हैं और जितने उत्तर बाहर से आएंगे, वे फिर नये प्रश्न बनेंगे और कुछ भी न होगा। उत्तर तुम्हारे भीतर है। उत्तर तुम हो। अहं ब्रह्मास्मि, वहां है उत्तर। अनलहक, वहां है उत्तर। तुम परमात्मा हो, वहां है उत्तर। उस अनुभव में उत्तर है। वही तुम मुझसे सुनना चाहते हो, मगर मैं कहूंगा तो बाहर की बात हो जाएगी।
मेरी सलाह मानो, मुझसे भी न पूछो। प्रश्नों को गिर जाने दो और सन्नाटे में भीतर बैठ कर भीतर ही पूछो कि मैं कौन हूं? बस एक ही उत्तर आना चाहिए। इसी एक बात को प्रगाढ़ करो, इसी अभीप्सा को प्रगाढ़ करो कि मैं कौन हूं, मैं कौन हूं? और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि शब्दों में दोहराओ कि मैं कौन हूं। शब्दों में दोहराने की जरूरत नहीं है। जैसे तुम्हें जब सिरदर्द होता है तो तुम थोड़े ही ऐसा कहते रहते हो: सिरदर्द, सिरदर्द, सिरदर्द; ऐसा कहोगे तो सिरदर्द ही भूल जाएगा। जब सिरदर्द होता है तो सिरदर्द कहना थोड़े ही होता है, अनुभव होता है सिरदर्द, शब्द नहीं बनाने पड़ते। ऐसे ही मैं कौन हूं--इसको प्रश्नों में मत दोहराना, यह सिरदर्द की भांति हो, यह एक पीड़ा हो, एक सघन पीड़ा हो: मैं कौन हूं--शब्दों में नहीं--एक तीर की तरह चुभता जाए: मैं कौन हूं? और तुम्हारे भीतर ही वह झरना फूटेगा कि उत्तर आएगा। वही उत्तर सार्थक है। कुछ हो रहा है, कुछ ठीक-ठीक दिशा में नजर पड़ने लगी, पैर सम्हलने लगे।
मेरे चिर-निद्रित सपने क्यों आज पड़े हैं जाग?
किसने फूंक दिए कानों में, भूले-बिसरे राग?
किसने आग लगा दी तन में,
राख सरीखे मेरे मन में,
ज्वाला सुलगा दी जीवन में,
विस्मृति में जो दबी हुई थी धधका दी फिर आग!
मेरे चिर-निद्रित सपने क्यों आज पड़े हैं जाग?

नभ के प्रांगण में उमड़ी वह, मस्त घटा घनघोर!
खग तज नीड़ हर्ष से पागल मत्त मचाएं शोर!
मन कहता सब बंधन तोड़ें,
मस्ती में बस्ती को छोड़ें,
नाता अलमस्ती से जोड़ें,
तोड़-फोड़ दें रीतें सारी, रस्मों को दें त्याग!
मेरे चिर-निद्रित सपने क्यों आज पड़े हैं जाग?

जी भर आज लुटा दें, इतने दिन का संचित प्यार!
अरमानों के विहग गा उठें, युग युग के उदगार!
शशि की सुंदर तरी सजा कर,
किरणों की पतवार बना कर,
अंबर के सागर में जाकर--
नये जगत की खोज करें हम, इस जड़ जग को त्याग!
मेरे चिर-निद्रित सपने क्यों आज पड़े हैं जाग?

वर्तमान के पट पर आंकें, भूला हुआ अतीत!
एक बार फिर गूंजे उर में, गत यौवन का गीत!
आंखों में छा जाय खुमारी,
दुनिया बदल जाए फिर सारी,
भूल जाएं हम दुनियादारी
नई आग हो, नव यौवन हो, नव मद, नव अनुराग!
मेरे चिर-निद्रित सपने क्यों आज पड़े हैं जाग?

जीर्ण-शीर्ण तन में यौवन की स्मृति का क्षणिक उभार,
जाने कैसे उठा रहा है पागलपन का ज्वार!
रस आया फिर हृदय विरस में,
कोयल कूक उठी मानस में,
आज रहे जी कैसे बस में?
शिथिल हुआ तन, बुझ न सकी है, पर अंतर की आग!
मेरे चिर-निद्रित सपने क्यों आज पड़े हैं जाग?
सदियों-सदियों, जन्मों-जन्मों सोई हुई कोई अभीप्सा अंकुरित हो रही है।
रस आया फिर हृदय विरस में,
कोयल कूक उठी मानस में,
आज रहे जी कैसे बस में?
शिथिल हुआ तन, बुझ न सकी है, पर अंतर की आग!
मेरे चिर-निद्रित सपने क्यों आज पड़े हैं जाग?
एक अपूर्व अभीप्सा का जन्म हो रहा है। वीरेंद्र, स्वागत करो उसका। बंदनवार सजाओ! दीपमालाएं जलाओ!
नभ के प्रांगण में उमड़ी वह, मस्त घटा घनघोर!
खग तज नीड़ हर्ष से पागल मत्त मचाएं शोर!
मन कहता सब बंधन तोड़ें,
मस्ती में बस्ती को छोड़ें,
नाता अलमस्ती से जोड़ें,
तोड़-फोड़ दें रीतें सारी, रस्मों को दें त्याग!
मेरे चिर-निद्रित सपने क्यों आज पड़े हैं जाग?
एक अलमस्त घटा ने तुम्हें पुकारा। एक आंधी आने के करीब है। एक अंधड़, जो तुम्हें स्वच्छ कर जाएगा। एक बाढ़ जो तुम्हें नहला जाएगी, धुला जाएगी। अब तुम प्रश्न पूछना ही मत। अब तो तुम अपने भीतर अभीप्सा जगाओ: मैं कौन हूं? और उत्तर आएगा। और उत्तर मैं नहीं दूंगा, उत्तर तुम्हारे भीतर ही आएगा, तुम्हारा ही होगा। और जब उत्तर अपना होता है तभी उत्तर होता है। ऐसे तो कोई भी कह दे, मैं कह दूं कि तुम आत्मा हो, इससे क्या होगा? कि मैं कह दूं कि तुम परमात्मा हो, इससे क्या होगा? सुन लोगे शब्द, कान में पड़ जाएगी ध्वनि, एक कान से पड़ेगी, दूसरे से निकल जाएगी। कहीं अटकेगी नहीं।
यह तो तुमने सुन ली हैं बातें बहुत। ब्रह्मज्ञान तो यहां गांव-गांव चल रहा है। हर चौपाल में ब्रह्मज्ञान की ही चर्चा हो रही है। हर बैठकखाने में ब्रह्मज्ञान का उदघोष हो रहा है। यह बकवास तो तुम बहुत सुन चुके हो। इससे कुछ हल नहीं है। हल तो अब एक ही बात से हो सकता है कि तुम्हारा द्वार खुले, कि तुम्हारे भीतर किरण फूटे, कि तुम्हारा सूरज ऊगे। बाहर तो ऊग चुके सूरज बहुत, डूब चुके सूरज बहुत, अब जरूरत है तुम्हारे अंतर-आकाश में सूरज के ऊगने की है। वह घट सकता है।
संन्यास की तुमने हिम्मत की है, मेरे पास उठने-बैठने का साहस किया है, मुझसे नाता जोड़ा है--तुमने अपनी तरफ से तैयारी दिखाई, तुमने अपनी झोली फैला दी--घबड़ाओ मत, फूलों से भर जाएगी! लेकिन जैसे प्रश्न छोड़ दिए, वैसे अब यह भी आकांक्षा छोड़ दो कि मैं तुम्हें उत्तर दूं। प्रश्न-उत्तर, दोनों जाने दो। निष्प्रश्न, निरुत्तर तुम हो जाओ, वही समाधि है।
बेजाने, न जाने किस द्वार से,
कौन से प्रकार से,
मेरे गृहकक्ष में,
--दुस्तर तिमिरदुर्ग दुर्गम विपक्ष में--
उज्ज्वल प्रभामयी
एकाएक कोमल किरण एक आ गई।

बीच से अंधेरे के हुए दो टूक;
विस्मय-विमुग्ध
मेरा मन
पा गया अनंत धन।
रश्मि वह सूक्ष्माकार
कज्जल के कूट में उसी प्रकार,
जौलों रही उज्ज्वल बनी रही;
ओंठों पर हास रहा हंसता हुआ वही।

किंतु उसी हास-सी,
वीचि के विलास सी,
विद्युत-प्रवाहमयी
जैसी वह आई बस वैसी ही चली गई।

एक ही निमेष में
मेरे मरुदेश में
आकर सुधा की धार अमृत पिला गई,
और फिर देखते ही देखते बिला गई।

कोई दिव्य देवी दया दीप लिए जाती थी
मार्ग में सुवर्ण-रश्मि-राशि बरसाती थी।
उस में से एक यह रश्मि आ पड़ी थी यहां,
किंतु वह रहती भला कहां--
मेरा घर सूना था,
अगम अरण्य का नमूना था।

रोकता उसे मैं यहां हाय! किस मुख से,
बांधता उसे मैं किस भांति भव-दुख से?
आई वह, है क्या यही बात कम;
एक ही निमेष वह मेरे एक जन्म-सम
मेरे मनोदोल पै अनंतकाल झूलेगा;
सुकृति समान वह मुझ को न भूलेगा।

बेजाने, न जाने किस द्वार से,
कौन से प्रकार से,
मेरे गृहकक्ष में,
--दुस्तर तिमिरदुर्ग दुर्गम विपक्ष में--
उज्जवल प्रभामयी
एकाएक कोमल किरण एक आ गई।
आ जाती है अगर तुम चुप होओ, किरण, कोमल किरण। चुप्पी का अर्थ है: न प्रश्न, न उत्तर। न पूछना है कुछ, न जानना है कुछ। बस बैठे हो। हो, मात्र हो। कोई तरंग नहीं चिंतन की, मनन की, विचार की। निस्तरंग हो। निर्बीज हो, निर्विकल्प हो। बस उसी घड़ी--
एकाएक कोमल किरण एक आ गई।
बीच से अंधेरे के हुए दो टूक;
विस्मयविमुग्ध
मेरा मन
पा गया अनंत-धन।
शुरू-शुरू में किरण आएगी और जाएगी। स्वाभाविक है। लेकिन धीरे-धीरे किरण तुम्हें राजी करेगी, निर्मल करेगी, पात्र बनाएगी, ज्यादा देर रुकेगी, और-और रुकेगी। धीरे-धीरे तुम और किरण दो न रह जाओगे, एक ही हो जाओगे। तुम और प्रकाश दो न रह जाओगे, एक ही हो जाओगे। वह एकता ही उत्तर है। प्रकाश से एक हो जाने में उत्तर है। परमात्मा से एक हो जाने में उत्तर है।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, नाचो, गीत गाओ, उत्सव मनाओ--क्या यही आपका भक्ति-सूत्र है? कृपा करके कहें।
भक्ति का अर्थ ही इतना है कि भगवान है! फिर बचता क्या? तप नहीं बचता, तपश्चर्या नहीं बचती! भगवान है! उत्सव ही बचता है--उपवास नहीं, उत्सव। तपश्चर्या करता है वह जो भगवान को खोज रहा है, जिसे भगवान का भरोसा नहीं, जिसमें श्रद्धा नहीं उमगी। वह व्रत करता, उपवास करता, जप-तप करता, यज्ञ-हवन करता, विधि-विधान करता। भक्त का अर्थ है: जिसे प्रतीति हो रही है कि परमात्मा है। यह सहज श्रद्धा ही भक्ति है। फिर भक्त को क्या बचता? भक्त क्या करे? धूनी रमाए? भक्त क्या करे? सिर के बल खड़ा हो जाए? भक्त क्या करे? शरीर को कोड़े लगाए? भक्त क्या करे? भगवान है! ऐसी प्रतीति के उतरते ही नृत्य अपने आप फलित होता है। भक्त को नाचना थोड़े ही पड़ता है। भक्त पाता है अपने को नाचता हुआ, गाता हुआ, उत्सव मनाता हुआ।
वसंत आ जाए तो क्या करें वृक्ष? न हो जाएं हरे तो क्या करें? न खिल जाएं फूल तो क्या करें? चांदी और सोना न बरसने लगे वृक्षों पर तो क्या करें? आ जाए वसंत तो क्या करोगे? भक्त ऐसा है जिसका वसंत आ गया।
भक्ति कोई साधना नहीं है। भक्ति आराधना है। भक्ति कोई पाने का प्रयास नहीं है, मिल गए प्रसाद के लिए धन्यवाद है। इसलिए तुमसे कहता हूं: नाचो, गाओ, उत्सव मनाओ--वसंत आ गया है। जिनका वसंत न आया हो, जिन्हें परमात्मा के होने की प्रतीति न हो, वे करें जप-तप, व्रत-नियम, जो उन्हें करना हो, करें। लेकिन जिन्हें यह सहज भाव-दशा बन रही है कि परमात्मा है--और बननी ही चाहिए! तुम देखते नहीं वृक्ष, वृक्ष हरा है, किरण, किरण ताजी है! आकाश में तारों का सौंदर्य नहीं देखते! यह जो अहर्निश अखंड महोत्सव चल रहा है विराट का, यह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता? यह जो रास रचा है, जरूर कहीं कोई कृष्ण की बांसुरी बज रही है! तुम्हें यह प्रतीति होने लगे, हल्की सी प्रतीति, जरा धीमी सी झलक आने लगे कि तुम्हारे पैरों में भी घुंघरू बांधने का क्षण आ जाएगा। आ गया वसंत!
धीरे-धीरे उतर क्षितिज से आ वसंत-रजनी!
तारकमय नव-वेणी-बंधन,
शीश-फूल कर शशि का नूतन,
रश्मि-वलय सित घन-अवगुंठन,
मुक्ताहल अभिराम बिछा दे चितवन से अपनी!
पुलकती आ वसंत-रजनी!

मर्मर की सुमधुर, नूपुर-ध्वनि,
अलि-गुंजित पद्मों की किंकिणि,
भर पद-गति में अलस-तरंगिणि,
तरल रजत की धार बहा दे, मृदुस्मित से सजनी!
विहंसती आ वसंत-रजनी!

पुलकित स्वप्नों की रोमावलि,
कर में हो स्मृतियों की अंजलि,
मलयानिल का चल-दुकूल अलि!
घिर छाया सी श्याम, विश्व को आ अभिसार बनी!
सकुचती आ वसंत-रजनी!

सिहर-सिहर उठता सरिता-उर,
खुल-खुल पड़ते सुमन सुधा-भर,
मचल-मचल आते पल फिर-फिर,
सुन प्रिय की पद-चाप हो गई पुलकित यह अवनी!
सिहरती आ वसंत-रजनी!
नरेंद्र, जब तुम्हें प्रभु के पदचाप सुनाई पड़ जाएं, तो करो क्या?
सुन प्रिय की पद-चाप हो गई पुलकित यह अवनी!
यह सारी पृथ्वी नाच उठेगी। यह नाच ही रही है। सिवाय तुम्हारे सब-कुछ नाच रहा है। सिवाय मस्तिष्कों में भरे हुए लोगों के अतिरिक्त सारा अस्तित्व नाच रहा है।
सुन प्रिय की पद-चाप हो गई पुलकित यह अवनी!
सिहरती आ वसंत-रजनी!
बुलाओ वसंत को, पुकारो वसंत को, पहचानो वसंत को! भक्ति आनंद-उत्सव है। उपलब्धि का समारोह है। भक्ति पाने की चेष्टा नहीं है। पा लिया है जिसे, उसके चरणों में अनुग्रह की गीतांजलि है!

आज इतना ही।

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