QUESTION & ANSWER
Chit Chakmak Lage Nahin (चित चकमक लागै नहीं) 06
Sixth Discourse from the series of 6 discourses - Chit Chakmak Lage Nahin (चित चकमक लागै नहीं) by Osho.
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बीते दो दिनों में मनुष्य के मन की दो स्थितियों पर विचार किया है। पहले दिन अविचार के संबंध में थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। अविचार विश्वास और श्रद्धा से जन्म पाता है और अविचार में जो अपने को बंद कर लेते हैं वे जीवन-सत्य को जानने से वंचित हो जाते हैं। कल विचार का जन्म कैसे हो, इस संबंध में हमने विचार किया।
केवल उनके ही चित्त विचार को आविर्भाव दे पाते हैं जो विश्वासों, श्रद्धाओं और मान्यताओं से मुक्त होते हैं। जो इतना साहस करते हैं कि परंपराओं और समाजों के द्वारा दी गई अंधी धारणाओं को तोड़ने में अपने को समर्थ बना लेते हैं। केवल उनके भीतर ही उस विचार का जन्म होता है जो स्वतंत्रता लाता है। और सत्य की दिशा में गति देता है।
आज हम निर्विचार के संबंध में थोड़ी सी चर्चा करेंगे।
निर्विचार से मेरा क्या प्रयोजन है उसको कहने के पहले हम कैसे विचारों के जाल में खड़े हैं, उस संबंध में दो बातें कर लेनी जरूरी हैं।
मनुष्य का मन चौबीस घंटे ही किसी न किसी भांति के विचारों के तंतुओं से घिरा रहता है। एक भीड़ भीतर चलती रहती है। कभी-कभी उसका हमें बोध भी होता है। अधिकांशतः बोध भी नहीं होता--जैसे भीतर एक काम जारी रहता है, भीतर एक दौड़ जारी रहती है। उस दौड़ के प्रति अगर हम पूरे जागें, तो शायद घबड़ा जाएं, शायद हमें ज्ञात हो कि कोई पागल मनुष्य हमारे भीतर बैठा हुआ है। यदि घंटे भर को भी हमारे मन के पूरे विचारों का ताना-बाना हमें स्मरण में आ जाए, तो जीवन में बहुत चिंता, जीवन में बहुत संताप का उदय हो। क्योंकि तब दिखाई पड़े कि यह हमारे भीतर क्या चल रहा है।
बहुत कम लोगों को खयाल है उनके भीतर क्या हो रहा है। विचारों की इतनी असंगत स्थिति है, स्व-विरोधी विचारों की इतनी भीड़ है, एक-दूसरे विचार से द्वंद्व करने वाले विचार भीतर इकट्ठे हैं, इतनी कांफ्लिक्ट है। इसी द्वंद्व में, इसी विचारों के अंतर-संघर्ष में मनुष्य के मन की सारी शक्ति क्षीण हो जाती है। और जिस मनुष्य के मन की शक्ति क्षीण हो जाती हो, वह भीतर इतना निर्बल हो जाता है कि सत्य की खोज में उसकी कोई गति संभव नहीं है।
इसके पूर्व कि कोई सत्य की खोज में अग्रसर हो, जीवन को अनुभव करने चले, उसे मन के तल पर यह जो शक्ति का निरंतर ह्रास हो रहा है, यह जो शक्ति निरंतर क्षीण हो रही है--इस ह्रास से छुटकारा, इस शक्ति का संचय--मन में द्वंद्व से मुक्ति आवश्यक है।
शायद आपको खयाल न आया हो, तो कभी एक घंटा एकांत में जो भी मन में चलता हो उसे बैठ कर लिखें--ईमानदारी से लिखें--जो भी और जैसा चलता हो। तो उस घंटे भर में आपको अंतर-दर्शन होगा इस बात का कि मेरा मन कैसे जाल में बुना हुआ है। उसमें ऐसी-ऐसी बातें होंगी जिसकी आपने कल्पना न की होगी और जो कभी आप अपेक्षा न करते होंगे कि मेरे भीतर हो सकती हैं। उसमें भजन भी होंगे, उसमें गालियां भी होंगी। उसमें अच्छे-अच्छे शब्द आत्मा-परमात्मा भी होंगे, उसमें अपशब्द भी होंगे। उसमें गर्हित से गर्हित और घृणित से घृणित भावनाएं भी होंगी और अत्यंत जघन्य अपराधों की आकांक्षाएं भी होंगी। और ऐसी इच्छाएं होंगी जिनको देख कर आप चौंक जाएंगे। और इन सबके बीच कोई संबंध भी नहीं होगा। ये सब असंबंधित एक-दूसरे से विरोधी होंगी। एक विचार से मन दूसरे विचार पर कूद जाएगा। एक इच्छा से दूसरी इच्छा पर कूद जाएगा।
इस घंटे भर में अगर बहुत स्पष्ट ईमानदारी से आपने वही लिखा है जो आपके मन में चल रहा है, तो आप बहुत चौंक जाएंगे। आपको शक होगा कि क्या मैं पागल तो नहीं हूं?
जहां तक मैं देख पाता हूं, पागल में और सामान्य मनुष्य में कोई बहुत बुनियादी भेद नहीं होता है। नहीं हो सकता है। पागल हमारे भीतर से ही पैदा होता है। वह हमारी ही ग्रोथ है, वह हमारा ही विकास है। हम जिस स्थिति में हैं, हममें से कोई भी किसी भी क्षण पागल हो सकता है। अंतर हममें और पागल में गुणात्मक नहीं है, केवल परिमाण का है, मात्रा का है, डिग्री का है। हमारे भीतर जो ताप और उत्तप्त और फीवरिस विचारों की दौड़ है अगर वह थोड़ी और उसकी डिग्रीज बढ़ जाएं, तो हमारे भीतर से कोई भी व्यक्ति पागल हो सकता है।
मनुष्य-समाज में बहुत कम लोग हैं जो स्वस्थ हैं। अधिक लोग कम या ज्यादा पागल की स्थिति में हैं। जितने पागलपन से सामान्यतया काम चल जाता है उतने पागलपन का हमें बोध नहीं होता, स्मरण नहीं होता। जो पागलपन हमें सामान्य जीवन से बिलकुल तोड़ देता है, तभी हमें उसका बोध होता है। ऐसी विक्षिप्त विचार की स्थिति में कैसे कोई जीवन-सत्य की तरफ गति हो सकती है? और यह मैं किसी और से नहीं कह रहा हूं, बिलकुल आपसे ही कह रहा हूं। और इस तथ्य को जान लेना अत्यंत आवश्यक है।
विचार की जो अतिशय दौड़ है, द्वंद्वात्मक, स्व-विरोधी, सेल्फ-कंट्राडिक्ट्री, भावनाओं की जो स्व-विरोधी स्थिति है वही मनुष्य को अति तनाव की स्थिति में विक्षिप्त कर देती है, पागल कर देती है। इसलिए आपको इस बात से बहुत आश्चर्य नहीं होगा कि दुनिया जिनको बहुत बड़े विचारक मानती है, उनमें से अधिक लोग पागल हो जाते हैं।
इसलिए जब कोई कहता है, महावीर बड़े विचारक थे या बुद्ध बड़े विचारक थे, तो मुझे हंसी आती है। ये कोई भी विचारक नहीं थे। ये निर्विचार को उपलब्ध व्यक्तित्व थे। ये पागल होने से बिलकुल दूसरे कोने पर खड़े लोग थे।
विक्षिप्तता एक एक्सट्रीम है, एक अति है चित्त की, और विमुक्त, विमुक्तता दूसरी स्थिति है। हम सारे लोग इन दो के बीच कहीं डोलते हैं। अगर विचारों का तनाव और विचारों का भार बढ़ता चला जाए, तो हम विक्षिप्त होने की तरफ बढ़ते चले जाते हैं। अगर विचारों का भार और तनाव क्षीण होता जाए और चित्त शांत और मौन होता जाए और एक ऐसी स्थिति में पहुंच जाएं, ऐसी निस्तरंग स्थिति में जहां कोई भी विचार का कंपन नहीं है, तो हम विमुक्त होने के करीब पहुंच जाते हैं।
दो बिंदु हैं मनुष्य के चित्त के--विमुक्ति और विक्षिप्तता। सामान्यतया हम जो भी जीवन में करते हैं उससे हम विक्षिप्त होने की तरफ बढ़ते चले जाते हैं। धर्म, साधना दूसरी दिशा में ले जाने का आग्रह करती है और आमंत्रण देती है।
पहली बात है इस तथ्य के प्रति जागना कि हम या तो पागल हैं या पागल होने के करीब हैं। इस तथ्य के प्रति नहीं जागेंगे तो इस तथ्य से छुटकारे की आकांक्षा भी भीतर पैदा नहीं हो सकती है।
सोते-जागते पागलपन सरक रहा है। कोई भी जोर का धक्का लग जाएगा और पागलपन बाहर प्रकट हो जाएगा। उसे हम भीतर छिपाए हुए चल रहे हैं। निकटतम मित्र भी नहीं जानता हमारे भीतर क्या चल रहा है। पत्नी नहीं जानती पति के भीतर क्या चल रहा है। पति नहीं जानता पत्नी के भीतर क्या चल रहा है। वह सब भीतर चल रहा है रोग की तरह। उसको हम दबाए हैं और छिपाए हैं। उसे हम प्रकट नहीं होने देते। लेकिन किसी बड़े धक्के में--कोई प्रियजन मर जाए, मकान में आग लग जाए, धन डूब जाए, प्रतिष्ठा मिट जाए--उस गहरे धक्के में वह जो भीतर छिपा है घाव की तरह, फूट पड़ता है और पागलपन बाहर प्रकट हो जाता है।
इस पागलपन के कारण न केवल व्यक्ति भीतर पीड़ित होता है, बल्कि पूरा समाज भी पीड़ित होता है। इस पागलपन के सामूहिक उभार भी आते हैं। इस पागलपन की सामूहिक अभिव्यक्तियां भी होती हैं। यह पागलपन कभी-कभी भीड़ को भी पकड़ लेता है--पूरे समाज को, पूरे देश को, पूरी मनुष्य-जाति को भी पकड़ लेता है। यह जो सारी दुनिया में कहीं हिंदू-मुस्लिम दंगे होते हों, या मराठी-गुजराती लड़ता हो, या कोई हिंदुस्तानी-पाकिस्तानी लड़ता हो, या कोई और मुल्क और कोई कौम लड़ती हो, ये सब सामूहिक पागलपन की ज्वर अभिव्यक्तियां हैं। वह जो भीतर व्यक्तियों के चलता रहता है, जब बहुत घनीभूत हो जाता है और उसके व्यक्तिगत उपाय नहीं रह जाते मिटने के, तो सामूहिक रूप से प्रकट हो जाता है।
इसलिए आपको यह मैं कहना चाहूंगा, और इस तथ्य पर शायद आपका कभी ध्यान न गया हो। जिन दिनों दुनिया में युद्ध चलता है, उन दिनों पागल होने की संख्या कम हो जाती है। पहले महायुद्ध में जब यह हुआ, तो सारी दुनिया के मनस-तत्ववेत्ता बहुत परेशान हुए कि यह क्यों हुआ? जितने दिनों तक पहला महायुद्ध चलता था, उन दिनों पागल होने की औसत संख्या कम हो गई, उन दिनों आत्महत्याओं की संख्या कम हो गई, उन दिनों हत्याओं की संख्या कम हो गई, उन दिनों अपराध कम हुए। फिर दूसरा महायुद्ध आया, तब तो और अजीब हो गया। बहुत बड़े जोर से एकदम से आत्महत्याएं, हत्याएं, पागलपन कम हो गए। तब बहुत चिंता हुई, बहुत विचार पैदा हुआ कि यह क्यों होता है?
युद्ध की स्थिति में सामूहिक रूप से पागलपन निकल जाता है, इसलिए व्यक्तिगत पागल होने की संख्या कम हो जाती है। आपको भी जो युद्ध में रस आता है उसका कोई और कारण नहीं है। जब भी दुनिया में कहीं युद्ध चलते हैं, लोग बड़े प्रफुल्लित हो जाते हैं, उनके चेहरों पर चमक आ जाती है, उनके जीवन में गति आ जाती है, त्वरा आ जाती है। वे प्रसन्न मालूम होते हैं। वे सुबह जल्दी उठते हैं, अखबार पढ़ते हैं, रेडियो से खबर सुनते हैं, दिन भर युद्ध की चर्चा करते हैं। जैसे एक बड़ा उत्साह जीवन में छा जाता है जब भी युद्ध होता है। क्यों? वह युद्ध हमारे व्यक्तिगत पागलपन का निकास बन जाता है। रास्ते पर दो लोग लड़ रहे हों, आप हजार काम छोड़ कर खड़े होकर देखने लगते हैं। क्यों? आपके भीतर जो पागलपन है उसको निकास का एक अवसर मिल जाता है। जहां भी हिंसा है, जहां भी घृणा है, जहां भी उपद्रव है, खून है, हत्या है, जासूसी कहानियां हैं, डिटेक्टिव फिल्में हैं, इन सबको देखने में रस क्या है? इनको देखने में रस है, भीतर जो आपके चलता है उसे बाहर देख कर थोड़ा सा रिलैक्सेशन, थोड़ा सा भीतर तनाव कम हो जाता है। और इसलिए हर दस-पांच वर्षों में एक बड़े युद्ध की जरूरत हो जाती है।
राजनीतिज्ञ लाख कोशिश करे, सिर पटके और मर जाए, दुनिया में शांति नहीं हो सकती, युद्ध से बचा नहीं जा सकता। जब तक कि व्यक्तिगत चित्त में पागलपन की स्थिति को कम न किया जाए, तब तक युद्ध होता ही रहेगा। बहाने बदल जाएंगे, कारण बदल जाएंगे। लोग धर्मों के नाम से लड़ते थे, लोग राष्ट्रों के नाम से लड़ेंगे, भाषाओं के नाम से लड़ेंगे, इज्म और आइडियालॉजी के नाम पर लड़ेंगे, कम्युनिज्म और डेमोक्रेसी के नाम पर लड़ेंगे। मुद्दे बदल जाएंगे, लड़ाई जारी रहेगी।
आज पांच हजार वर्ष की कथा यह कहती है कि लड़ाई बंद नहीं हो सकती। राजनीतिज्ञ कुछ भी कहे, शांति की कितनी ही गुहार मचाए, कितना ही चिल्लाए कि विश्व में शांति होनी है, विश्व में शांति नहीं हो सकती। नहीं होगी उस समय तक जब तक हम इस तथ्य को न समझेंगे कि युद्ध राजनीतिक बात नहीं है, बल्कि व्यक्तिगत पागलपन जब इतना घनीभूत हो जाता है, सारे समूहों के भीतर चित्त जब इतना रुग्ण हो जाता है, उसके निकास का कोई उपाय नहीं रह जाता और सामूहिक रूप से पागलपन प्रकट हो जाता है।
दूसरे महायुद्ध में पांच करोड़ लोगों की हत्या हुई है। उससे थोड़ी राहत मिली हमको। दस-पंद्रह वर्ष हम चुप बैठेंगे। लेकिन इस बीच फिर पागलपन इकट्ठा होगा। अब हम दस करोड़ या पंद्रह करोड़ से कम पर राजी नहीं हो सकते हत्या किए बिना। और यह गति अगर बढ़ी, तो इस सदी के पूरा होते-होते वह स्थिति हो सकती है कि हम शायद पूरी मनुष्य-जाति को समाप्त करें तो ही हमारे पागलपन को राहत मिल सकती है, नहीं तो कोई राहत नहीं मिल सकती।
यह जो व्यक्ति के चित्त में चलती हुई तनाव की, टेंशन की, फीविरस, बुखार जैसी स्थिति है, यह जीवन को सब भांति क्षीण करती है। जीवन को सब भांति नीचे गिराती है। फिर बहाने कुछ भी हो सकते हैं। बहानों से कोई संबंध नहीं है।
मनुष्य के भीतर इस चित्त की स्थिति को कैसे परिवर्तित किया जाए? कैसे व्यक्ति विचारों की अत्यधिक भीड़ से निर्विचार शांति की तरफ गतिवान हो? उस संबंध में आज सुबह दो-तीन बातें आपसे कहना चाहता हूं। लेकिन उसके पहले यह जरूरी था कि मैं आपसे यह कहूं कि यह स्थिति है।
और स्मरण रखें, यह मैं किसी और से नहीं कह रहा हूं। नहीं तो अक्सर यह होता है कि जब मैं कह रहा हूं तब आप सोचते होंगे कि बात तो बिलकुल ठीक है, लोगों के साथ ऐसा ही मामला है। अपने को छोड़ कर आप सोच लेंगे तो कोई हल नहीं होने वाला है। हम, हमारा गणित ऐसा है। आप जरूर चित्त में सोचते होंगे कि बिलकुल ठीक है। पड़ोसी जो आपके बैठे हैं इनके साथ सब ऐसी ही बात है। उससे कोई हल नहीं होगा। यह बात आपके साथ है, आपके पड़ोसी से इसका कोई संबंध नहीं है।
अपने पर ही आपको थोड़ा विवेकपूर्ण होकर विचार करना पड़ेगा कि क्या मैं भीतर पागल हूं? अगर पागल हूं, तो इस पागलपन को लेकर आप हिंदू हो जाएं तो कोई फर्क नहीं पड़ता, और गीता पढ़ें तो कोई फर्क नहीं पड़ता, और कुरान पढ़ें तो कोई फर्क नहीं पड़ता। पागल आदमी कुरान पढ़ेगा, दुनिया में खतरा आएगा। कुरान से खतरा आएगा। पागल आदमी गीता पढ़ेगा, गीता से खतरा आएगा। पागल आदमी मंदिर जाएगा, मंदिर उपद्रव का कारण बन जाएगा। पागल आदमी मस्जिद जाएगा, मस्जिद झगड़े पैदा करेगी। पागल आदमी जो भी करेगा उससे दुनिया में कोई शांति, कोई प्रेम का, कोई ज्ञान का, कोई सत्य का जन्म नहीं हो सकता। पागल जो भी करेगा वहीं उपद्रव शुरू हो जाएगा।
इसलिए पागल कुछ करे इसके पहले सबसे बेहतर और सबसे जरूरी और सबसे आवश्यक यह है कि वह उस पागलपन को समझे। और उस पागलपन से मुक्त होने का क्या कोई मार्ग हो सकता है? क्या कोई रास्ता हो सकता है? फिर ही उसका कोई भी काम सार्थक हो सकता है। नहीं तो उसके सब काम व्यर्थ होंगे। वह सेवा करने जाएगा और उपद्रव खड़ा करेगा। वह प्रेम की बातें करेगा और दूसरे की गर्दन में सिर्फ पंजे कस लेगा। बातें उसकी प्रेम की होंगी कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। प्रेम की बातें होंगी, थोड़ी देर में पाया जाएगा प्रेम नहीं है। उससे ज्यादा दुश्मन, उससे ज्यादा शत्रु कोई नहीं है। वह बातें कुछ भी करे उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह शांति की बातें करेगा, थोड़ी देर में तलवार निकाल लेगा और कहेगा, शांति की रक्षा के लिए अब बिलकुल बिना तलवार के कुछ हो ही नहीं सकता।
अभी इस मुल्क में हमने सुना न कि अब अहिंसा की रक्षा के लिए हिंसा की जरूरत आ गई थी। अगर आदमी पागल है तो वह अहिंसा की रक्षा के लिए भी तलवार निकाल लेगा और कहेगा अहिंसा की रक्षा के लिए अब हिंसा की जरूरत है। पागल आदमी जो भी करेगा वह और गहरे पागलपन में ले जाएगा।
इसलिए पहला तथ्य तो पागलपन के प्रति जागरूक होना है। और पागलपन मैं किस बात को कह रहा हूं? द्वंद्वग्रस्त चित्त, कांफ्लिक्ट में पड़ा हुआ मन, भीतर ऐसे बहुत से विचारों की भीड़ से घिरा हुआ मन, जिनमें उसे कुछ सूझता नहीं, जिनमें उसे कोई विकल्प दिखाई नहीं पड़ता, ऐसा मन पागल होने की तैयारी में है, या पागल है या पागल हो जाएगा।
विलियम जेम्स एक दफा पागलखाना देखने गया। पागलखाने में उसने कुछ पागल देखे। लौट कर आया, फिर रात भर सो नहीं सका। बार-बार उठ कर बैठने लगा। उसकी पत्नी ने पूछा कि क्या बात है? क्यों परेशान हैं? उसने कहा: मैं परेशान हूं। आज मैं पागलखाना गया था पागलों को देखने। वहां मुझे एक भय मेरे मन में समा गया कि जो इनके साथ हुआ है वह किसी भी क्षण मेरे साथ भी तो हो सकता है? मेरी नींद उड़ गई है। मैं बहुत डरा हुआ हूं। मेरे प्राण कंप रहे हैं।
उसकी पत्नी ने कहा: आप व्यर्थ, व्यर्थ की चिंता कर रहे हैं। कौन कहता है आप पागल हो सकते हैं?
विलियम जेम्स ने कहा: कोई और नहीं कहता, मैं खुद ही समझ रहा हूं। जो मैंने आज उनकी आंखों में देखा है, जो आज मैंने उनके कामों में देखा, जो उन पर वज्रपात हुआ है, वह किसी भी क्षण मुझ पर भी हो सकता है, क्योंकि मैं भी उन्हीं जैसा मनुष्य हूं! पागल होने के पहले वे जैसे मनुष्य थे वैसा ही मनुष्य मैं भी हूं! मुझमें उनमें कोई बुनियादी भेद नहीं है। तो जो उन पर घटा है, वह मुझ पर भी घट सकता है।
उसके बाद, विलियम जेम्स ने लिखा है कि तीस साल मेरे बड़ी बेचैनी के साल थे। तीस साल जिंदा रहा उसके बाद। उसने लिखा: मैं प्रतिक्षण घबड़ाया हुआ था कि वह पागलपन कभी भी मेरे ऊपर आ सकता है।
मैं भी आपसे कहूंगा: कभी पागलखाने में जाएं और थोड़ा गौर से देखें। आपको अपनी ही शक्ल वहां दिखाई पड़ेगी थोड़ी बढ़ी हुई मात्रा में। आप पाएंगे कि यह मैं ही हूं जो थोड़ा आगे बढ़ गया हूं।
हम सब, जब तक चित्त द्वंद्वग्रस्त है, जब तक चित्त भीतर विरोधों से भरा है, भीतर विरोधी विचारों के बीच डांवाडोल हो रहा है, तब तक हम सब उसी ट्रेंबलिंग में हैं, उसी कंपन में हैं, जो किसी भी क्षण विस्फोट को उपलब्ध हो सकती है। क्या रास्ता है? क्या करें? क्या हो कि चित्त द्वंद्व से और विचारों की भीड़ से मुक्त होता चला जाए?
तीन सूत्र आपके विचार के लिए कहना चाहता हूं।
पहली बात: हमारे मनों में खाली होने से बड़ा भय है, बड़ा फियर है। और हमें सिखाया गया है, खाली मत होना। क्योंकि खाली मन जो है वह शैतान का घर है। यह हमें बताया गया है। वह डेवल्स वर्कशॉप, तो खाली मन है वह तो शैतान का घर हो जाता है।
मैं आपसे कहता हूं: खाली मन ही परमात्मा का घर होता है। भरा हुआ मन ही शैतान का घर है। खाली होने से एक भय सिखाया गया है कि कभी मन को खाली मत करना। कभी खाली मत बैठना। एंप्टीनेस के प्रति, रिक्तता के प्रति एक भय व्याप्त है। और इसलिए हम कोई भी भीतर कभी खाली होने को तैयार नहीं हैं। आंतरिक रूप से हम अपने को भरे रखना चाहते हैं। किसी न किसी चीज से भरे रखना चाहते हैं। सुबह उठते से अखबार पढ़ने लगते हैं ताकि अपने को भर लें, खाली नहीं रहना चाहते। अगर अकेले बैठे हैं तो मित्रों से मिलने चले जाते हैं, क्लब चले जाते हैं, रेडियो खोल लेते हैं, टेलीविजन, या कुछ और, या गीता, या कुरान, या कुछ पढ़ते हैं। खाली कोई नहीं बैठा रहना चाहता, क्योंकि खाली होने से डर है एक भीतर। खालीपन का एक व्यर्थ डर और भय है। व्यर्थ तो नहीं है, शायद कुछ कारण है, उसकी मैं बात करूं।
खालीपन का एक भय है। और कोई भी खाली नहीं रहना चाहता। चौबीस घंटे अपने को भरे रखना चाहते हैं। जब बिलकुल खाली होते हैं, कोई रास्ता नहीं रह जाता, तो शराब पीते हैं, या रेडियो सुनते हैं, या सो जाते हैं, लेकिन खाली रहने को हम बिलकुल भी तैयार नहीं हैं।
क्यों? यह भय क्यों है? इस भय के पीछे कुछ बुनियादी कारण हैं।
पहला बुनियादी कारण तो यह है कि अगर हम खाली हो जाएं, खाली बैठे हों और भीतर मन धीरे-धीरे खाली रहने लगे, तो हमें डर होगा कि हम तो नो-बडी हो गए, ना-कुछ हो गए। हमारे पास तो कुछ भी नहीं है। ना-कुछ होने का भय है। कुछ होने की आकांक्षा है--मैं कुछ हो जाऊं।
मैं कुछ हो जाऊं इस आकांक्षा से हम धन इकट्ठा करते हैं। जितना ज्यादा धन होगा मेरे पास उतना मैं कुछ हो जाऊंगा, समबडी हो जाऊंगा। मैं फिर साधारणजन नहीं हूं, मैं फिर विशिष्टजन हूं। इसलिए हम धन इकट्ठा करते हैं, इसलिए हम यश इकट्ठा करते हैं, ताकि मैं कुछ हो जाऊं। इसलिए हम शक्ति इकट्ठी करते हैं, ताकि मैं कुछ हो जाऊं। और इसलिए हम विचार भी इकट्ठे करते हैं, ताकि मैं कुछ हो जाऊं। कहीं ऐसा न हो कि मैं ना-कुछ रह जाऊं। मुझे कुछ होना है।
यह कुछ होने की दौड़ सब भांति के संग्रह में ले जाती है। और सबसे सूक्ष्म संग्रह विचारों का संग्रह है। जिस आदमी के पास बहुत विचार होते हैं, जो बहुत विचारों से भरा होता है, उसको हम पंडित कहते हैं। उसको हम आदर देते हैं। जिसको उपनिषद पूरे कंठस्थ हों, गीता पूरी याद हो, हम कहते हैं, धन्य हैं ये। जिसे सारे शास्त्र याद हों, हम कहेंगे, पूजा के योग्य हैं ये। विचार के संग्रह को हम आदर देते हैं, विचार के संग्रह को हम ज्ञान समझते हैं। इसलिए हम भी विचार का संग्रह करने में जुट जाते हैं--कि जितना हमारे पास विचार का संग्रह होगा, उतना मैं ज्ञानी हूं, उतना मैं कुछ हूं।
यह जो कुछ होने की दौड़, एंबीशन और महत्वाकांक्षा है, यह हमें खाली नहीं रहने देती, यह हमें खाली नहीं होने देती। यह हमें डर पैदा करती है कि अगर मेरे पास कोई संग्रह न रहा, तब तो बड़ा मुश्किल हो जाएगा।
क्राइस्ट ने कहा है: धन्य हैं वे जो आत्मिक रूप से दरिद्र हैं। अदभुत बात कही है। पुअर इन स्प्रिट। धन्य हैं वे जो आत्मिक रूप से दरिद्र हैं। अजीब बात कही है। हम सब तो आत्मिक रूप से समृद्ध होना चाहते हैं। क्यों यह बात कही? क्यों यह खयाल उस आदमी को आया? आत्मिक रूप से दरिद्र होने का मतलब है: खाली आदमी; जिसके पास भीतर कुछ भी नहीं है--कोई विचार नहीं है, कोई ज्ञान नहीं है। लेकिन क्यों है वह धन्य? वह धन्य इसलिए है कि जैसे ही वह खाली होगा, जैसे ही भीतर वह ना-कुछ होने को राजी हो जाएगा, जैसे ही भीतर वह नथिंगनेस को, ना-कुछ होने को स्वीकार कर लेगा, जैसे ही वह जान लेगा कि सच ही मैं ना-कुछ तो हूं, तो कुछ होने की दौड़ में मैं क्यों पडूं? और क्या मैं कुछ होने की दौड़ से कुछ हो सकूंगा या कि कोई कभी कुछ हो सका है?
जिस दिन वह यह पूरी अनुभूति को उपलब्ध हो जाता है, इस समझ को, इस अंडरस्टैंडिंग को कि मैं ना-कुछ हूं और ना-कुछ होने को राजी हो जाता है, उसी दिन उस स्पेस में, उस खाली जगह में परमात्मा का, सत्य का, या जीवन का, या जो भी हम नाम दें, उसका अनुभव शुरू हो जाता है। उसी दिन वह दरिद्र होकर सही अर्थों में समृद्ध हो जाता है। उसी दिन वह खाली होता है, उसी दिन भर दिया जाता है।
वर्षा में पानी गिरता है, जो भरे हुए पहाड़ हैं बड़े-बड़े, वे उस पानी से वंचित रह जाते हैं, पानी गिरता है और बह जाता है। लेकिन जो गहरे खड्ढ हैं, खाइयां हैं, वे भर जाती हैं और झीलें हो जाती हैं। जो खाली हैं गड्ढे वे भर जाते हैं और जो भरे हुए टीले हैं वे खाली रह जाते हैं।
परमात्मा की भी वर्षा निरंतर और प्रतिक्षण हो रही है। जीवन भी प्रतिक्षण बरस रहा है। जो भीतर खाली हैं वे भर जाएंगे। जो भीतर भरे हुए हैं वे खाली रह जाएंगे।
लेकिन हम सब भरने की दौड़ में अपने को भरते चले जाते हैं--भीतर से भी, बाहर से भी। बाहर वस्त्र इकट्ठा करते हैं, धन इकट्ठा करते हैं, मकान इकट्ठा करते हैं। भीतर विचार इकट्ठे करते हैं, शास्त्र इकट्ठे करते हैं, शब्द इकट्ठे करते हैं। भीतर इनको इकट्ठा करते हैं, बाहर इनको इकट्ठा करते हैं।
जब किसी को इस पागलपन का बोध भी होता है कि मैं अपने को भर कर ही खाली रखता हूं, भरने की वजह से ही मैं उस चीज के भरने से वंचित रह जाऊंगा जो मुझे भरती, तो मेरे प्राण पुलकित होते और अमृत को उपलब्ध होते। जब उस किसी को यह खयाल होता है, तो वह घर छोड़ता है, मकान छोड़ता है, पत्नी-बच्चे छोड़ता है, लेकिन भीतर वे शब्द और शास्त्र जो भरे हैं, उनको फिर भी नहीं छोड़ता।
बाहर का मकान किसी को भरता नहीं है, बाहर के मित्र और प्रियजन और परिजन किसी को भरते नहीं हैं, लेकिन भीतर के आग्रह और भीतर के विचार भरते हैं। जो उनको छोड़ने को राजी हो जाता है, वही संन्यासी है। जो भीतर से सब शब्दों और विचारों को छोड़ कर खाली होने को तैयार हो जाता है, वही त्यागी है, वही अपरिग्रही है।
विचार का अपरिग्रह पहला सूत्र है। विचार के प्रति अपरिग्रह का भाव।
विचार को इकट्ठा नहीं करना है, छोड़ना है, जाने देना है, ताकि वही रह जाए मेरे भीतर, वही जो विचार नहीं है, बल्कि मेरी आत्मा है, मेरी सत्ता है, मेरा स्वत्व है, वही जो मेरा एक्झिस्टेंस है, मेरा ऑथेंटिक बीइंग है, वही रह जाए। और सारे विचार का ऊहापोह चला जाए। सारे विचार झड़ जाएं। अकेला वही रह जाए जो मेरा शुद्ध, मेरी शुद्ध सत्ता है। उस शुद्ध सत्ता के एकांत अनुभव में, उस शुद्ध सत्ता के खाली अनुभव में जो उपलब्ध होता है वही सत्य है, वही आत्मा है, वही परमात्मा है, या कोई और नाम।
विचार के प्रति अभी हमारा परिग्रह का भाव है, इकट्ठा करो। अभी मैं यहां आपसे बोल रहा हूं, आप मेरे विचारों को इकट्ठा करके ले जा सकते हैं। मेरे विचार आपके भीतर इकट्ठे होकर आपका नुकसान करेंगे। आपका कोई हित नहीं कर सकते। वह भीड़ और आपके भीतर बढ़ जाएगी। वहां और कुछ लोग विराजमान थे, मैं भी वहां बैठ जाऊंगा। वहां वैसे ही काफी लोग भरे हुए थे, कोई जगह न थी, और एक आदमी आपके भीतर चला गया, और कुछ विचारों ने जाकर--आपके भीतर उत्पात शुरू हो जाएगा।
विचार के प्रति परिग्रह का भाव न रखें। उसे इकट्ठा नहीं करना है। उसे इकट्ठा कर-कर के भीतर भीड़ नहीं इकट्ठी करनी है। उसे रटना नहीं है, उसे याद नहीं करना है, उससे स्मृति को नहीं भर लेना है। फिर क्या करना? उसके प्रति एक अपरिग्रह का भाव हो। अपरिग्रह के भाव का अर्थ है कि संग्रह मुझे नहीं करना है। समझ और बात है, संग्रह और बात है। मैं जो कह रहा हूं उसे समझना और बात है, उसे संग्रह कर लेना और बात है। महावीर ने, बुद्ध ने, कृष्ण ने जो कहा है उसे समझना और बात है, उसे संग्रह कर लेना और बात है। समझ संग्रह नहीं है। समझ संग्रह नहीं है, समझ में कोई संग्रह नहीं होता। और जहां संग्रह होता है वहां समझ नहीं होती। संग्रह वही करना चाहता है जो समझ नहीं पाता। जो समझ पाता है, संग्रह का कोई प्रश्न नहीं होता।
हम केवल उन्हीं बातों को याद रखना चाहते हैं जिन बातों को हम नहीं समझ पाते। जिन बातों को हम समझ पाते हैं उन्हें याद नहीं रखना होता। उन्हें याद रखने का कोई प्रश्न नहीं रह जाता। उनको मेमोरी में रखने का, स्मृति में रखने का कोई प्रश्न नहीं रह जाता।
संग्रह का भाव न हो, जीवन को समझने का भाव हो। समझने के भाव से ज्ञान उपलब्ध होता है, संग्रह की वृत्ति से पांडित्य उपलब्ध होता है। पांडित्य और ज्ञान बिलकुल शत्रु हैं। पंडित कभी ज्ञानी नहीं होता है और ज्ञानी के पंडित होने की कोई वजह नहीं है, कोई कारण नहीं है।
एक मौलिक रूप से यह ध्यान जीवन में रहे कि मैं विचारों को संग्रह करने के पीछे तो नहीं पड़ा हूं? क्या होगा, संग्रह से क्या होगा? सब संग्रह उधार होगा, दूसरों का होगा। समझ, समझ मेरी होगी, अपनी होगी। संग्रह हमेशा दूसरों से होगा। समझ मेरी होगी, संग्रह दूसरों से होगा। संग्रह बासा और उधार होगा। समझ ताजी और फ्रेश, जीवंत और युवा होगी। समझ मुक्त करती है, संग्रह बांधता है। समझ मुक्त करती है, समझ स्वतंत्र करती है। संग्रह बांधता है, जंजीरों की तरह जकड़ लेता है।
जो लोग शब्द और शास्त्र के संग्रह में पड़ जाते हैं, उन्हें समझना कठिन ही हो जाता है। वे कुछ भी नहीं समझते फिर। वे समझ ही नहीं सकते हैं। क्योंकि जहां समझ मुक्ति चाहती है, ताजगी चाहती है--बासापन नहीं, उधारपन नहीं--वहां संग्रह सब उधार कर देता है। वे जब जीवन को भी देखते हैं तो अपने शब्दों को बीच में लेकर देखते हैं। शब्द बीच में आ जाते हैं, जीवन उस तरफ खड़ा रह जाता है।
एक बार ऐसा हुआ, चीन में एक बहुत बड़ा बाजार भरा हुआ था, एक बड़ा मेला भरा हुआ था। एक कुआं था उस मेले के पास ही। बहुत भीड़-भाड़ थी और एक आदमी उस कुएं में गिर पड़ा। कुएं पर कोई पाट न था, कोई किनार न थी। कोई आदमी उसमें गिर पड़ा। वह जैसे ही गिरा था, वह नीचे से चिल्लाया कि मुझे बचाओ! इतना शोरगुल था वहां, कौन सुनता। लेकिन एक बौद्ध भिक्षु उस कुएं के पास से निकलता था, उसे आवाज सुनाई पड़ी। उसने कुएं में झांक कर देखा, वहां एक आदमी डूब रहा है। उस आदमी ने प्रार्थना की कि मुझे बचाओ!
लेकिन उस बौद्ध भिक्षु ने कहा: मित्र, अपने कर्मों का फल भोग रहे हो, भोगो। कर्म का फल तो भोगना ही पड़ता है। मेरे बचाने से क्या होगा, कोई किसी को बचा सकता है? शास्त्र में क्या लिखा है? कोई किसी को नहीं बचा सकता। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में परिणमन ही नहीं कर सकता। मैं क्या कर सकता हूं? और मैं अगर किसी तरह बचाने की भी कोशिश करूं, तो मैं और कर्मों का बंध करूंगा राह दखला कर कि मैंने तुमको बचाना चाहा। तो उचित है कभी कोई पाप किया होगा, उसका फल भोग रहे हो, उसको भोग लो, ताकि आगे के लिए निपटारा हो जाए।
ये शास्त्र बोल रहे थे। जीवन सामने खड़ा था, एक आदमी डूब रहा था, शास्त्र बीच में आ गया। वह भिक्षु चला गया उससे कह कर कि मन को शांत रखो। शांत रखने से सब होता है। और जो विपत्ति आई है वह तुम्हारे कर्मों का फल है, उसको भोग लो। भोगने से उसकी निर्जरा हो जाएगी। वह आदमी चिल्लाता रहा, भिक्षु आगे चला गया।
उसके पीछे से एक कनफ्यूशियस मांक आया। एक कनफ्यूशियस को मानने वाला भिक्षु आया। वह आदमी चिल्ला रहा था। उसने झांक कर देखा, उसने कहा कि हजार बार कहा है कनफ्यूशियस ने कि अगर राज्य ठीक न हो तो बड़े उपद्रव होते हैं। राज्य ठीक नहीं है इसलिए कुआं बिना पाट का है। मैं अभी जाता हूं और एक आंदोलन खड़ा करता हूं कि राज्य बदले, क्रांति हो। सब कुओं पर पाट होने चाहिए। नहीं तो लोग बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं। देखो, यह आदमी मर रहा है। वह आदमी मरता था, उसने चिल्ला कर लोगों को इकट्ठा किया कि मित्रो, आओ, यह देखो, राज्य की भूल। और जब राज्य भूल में होता है तो सब भूल हो जाती है। कनफ्यूशियस का ऐसा मानना है: राज्य ठीक हो तो सब ठीक हो जाए। वह भिक्षु गया, और भीड़ में, बाजार में चिल्लाने लगा कि देखो मित्रो, राज्य की गड़बड़ी। कुएं पर पाट नहीं है।
एक आदमी डूब रहा है, मर रहा है। लेकिन उसे निकालने का कोई सवाल ही नहीं उठा। उठने की कोई बात नहीं थी, क्योंकि कनफ्यूशियस के शास्त्र बीच में आ गए।
पीछे से एक ईसाई मिशनरी भी आया, उसने देखा कि वह आदमी डूब रहा है। उसने फौरन स्मरण किया कि क्राइस्ट ने कहा है कि मनुष्य की सेवा ही परमात्मा की सेवा है। वह जल्दी से कूदा और उस आदमी को निकाल कर बाहर लाया।
शायद आप सोचेंगे कि इस तीसरे आदमी ने बहुत बेहतर काम किया। नहीं, यह भी न करता। इसके बीच में भी शास्त्र हैं, इसने भी मनुष्य को नहीं बचाया। इसने भी नहीं बचाया। इसने भी, जीवन से इसका कोई संबंध नहीं है। इसने भी, शास्त्र में लिखा है कि मनुष्य की सेवा परमात्मा की सेवा है, इसलिए कूदा और बचा लाया। यहां भी शास्त्र ही बीच में खड़ा है, जीवन यहां भी नहीं है।
यह कहानी किसी ईसाई मिशनरी ने गढ़ी है। लेकिन उसे यह पता नहीं है कि इस तीसरे मामले में भी वही बात है जो दो मामलों में थी। उनके शास्त्रों में वह लिखा था उन्होंने वह किया, इसके शास्त्र में यह लिखा था इसने यह किया। लेकिन तीनों के बीच में शास्त्र हैं, जिंदगी नहीं है, जीवन नहीं है।
जीवन को देखना उसके बहुविध रूपों में और उसे समझना और उस जीवन की समझ से जो कृत्य निकले वह कृत्य मुक्तिदायी है। वह कृत्य, वह जो जीवन की समझ से आता है, वही कृत्य धर्म है। लेकिन शब्द और शास्त्र सब तरफ जीवन को, सब तरफ जीवन और हमारे बीच एक दीवाल खड़ी कर देते हैं। पंडित समझने में असमर्थ हो जाता है। यही तो वजह है कि दुनिया के सारे धर्मों के अलग-अलग पंडित लड़ते हैं। धर्म क्या बहुत हो सकते हैं? सत्य एक है तो धर्म भी एक ही है। पंडित बहुत प्रकार के हैं, शास्त्र बहुत प्रकार के हैं, संप्रदाय बहुत प्रकार के हैं। और पंडित लड़ता है, क्योंकि वह दूसरे को समझ ही नहीं सकता। उसके अपने शब्द बाधा दे देते हैं। उसके शब्द बीच में खड़े हो जाते हैं। दूसरे को समझना असंभव हो जाता है। और तब इस नासमझी से लड़ाइयां पैदा होती हैं, धार्मिक विरोध पैदा होता है, सारी दुनिया में धर्म लड़ते हैं। पंडित समझने में असमर्थ होता है, इसलिए कलह पैदा होती है।
जहां समझ है, वहां कोई कलह नहीं हो सकती। जहां अंडरस्टैंडिंग है, वहां कोई विरोध, वहां कोई कलह नहीं हो सकती। वहां तो होगा प्रेम। वहां घृणा नहीं हो सकती। वहां तो होगा प्रेम, जो दूसरे को समझ पाता है।
तो स्मरण रखें, आप कितने ही शब्दों और शास्त्रों को और विचारों को इकट्ठा कर लें, इससे आपकी कोई समझ नहीं बढ़ जाएगी। समझ संग्रह नहीं करती है। समझ देखती है परिपूर्णता में। समझ, अंडरस्टैंडिंग चीजों के प्रति जागती है उनकी परिपूर्णता में। उस जागरण में ही, उस बोध में ही भीतर ज्ञान का जन्म होता है। उस ज्ञान का कोई संग्रह नहीं होता, वह ज्ञान कहीं इकट्ठा नहीं होता। वह ज्ञान सारे प्राणों को परिवर्तित करता है, सारी आत्मा को पवित्र करता है, सारी आत्मा को नया करता है, नया जीवन देता है। इसलिए उसका कोई बोझ नहीं होता, इसलिए उसका कोई भार नहीं होता। इसलिए उसके कारण जीवन और हमारे बीच कोई दीवाल खड़ी नहीं होती है।
विचार के संग्रह की भूल को समझें। विचार के संग्रह की भूल को समझें और स्मरण रखें कि जितना भीतर विचार की भीड़ कम हो और ज्ञान का आविर्भाव हो, जितना भीतर विचार का संग्रह कम हो और ज्ञान की मुक्तिदायी हवाएं बहें, समझ पैदा हो, उतना ही आपके जीवन में निर्विचार होने की तरफ, समाधि की तरफ गति हो सकती है।
इसलिए मैंने कहा, पहला सूत्र है: विचार के प्रति अपरिग्रह।
विचार के प्रति अपरिग्रह होगा तो अनिवार्यतया दूसरा सूत्र फलित होगा--विचार के प्रति ममत्व त्याग होगा।
अभी तो हम कहते हैं, मेरा विचार! कौन सा विचार आपका है? लेकिन अगर थोड़ा विवाद हो जाए, तो आप कहते हैं: मेरा विचार! मेरा धर्म! मेरा शास्त्र! मेरे तीर्थंकर! मेरे भगवान! यह ‘मेरा’ कैसे प्रविष्ट हो रहा है आपके भीतर? विचार कौन सा आपका है? एक भी विचार है जो आपका है? थोड़ा खोदें, थोड़ा विश्लेषण करें, थोड़ा एनालाइज करें, थोड़ा एक-एक विचार को पकड़ें और पहचानें, यह मेरा है? पाएंगे, यह मेरा नहीं, आया है। यह कहीं से आया है। यह तैरता हुआ आया है हवाओं में और मेरे भीतर बैठ गया आकर। मेरा कहां है? कोई विचार आपका कहां है? आया होगा कहीं से, घूमा होगा कहीं से। आपके भीतर निवासी बन गया है।
सब विचार मेहमान हैं। कोई विचार आपका नहीं है। लेकिन जब हम कहते हैं, मेरा विचार! तो फिर विचार से एक पकड़ पैदा होती है, एक आइडेंटिटी, एक तादात्म्य पैदा होता है। फिर विचार की सुरक्षा पैदा होती है। फिर विचार को हम बचाना चाहते हैं, जाने नहीं देना चाहते। क्योंकि जो भी मेरा हो जाता है फिर मैं उसे बचाने लगता हूं। वह मेरी संपत्ति हो गई, वह मेरी संपदा हो गई। फिर वह मेरे प्राण का हिस्सा हो गया।
इस बात को भी समझना, जानना, इस तथ्य के प्रति भी जागना अत्यंत आवश्यक है कि मैं जानूं कि कोई विचार मेरा नहीं है। जैसे ही यह खयाल स्पष्ट होगा कि कोई विचार मेरा नहीं है, वैसे ही विचार के प्रति ममत्व छूट जाएगा, मेरे होने का भाव छूट जाएगा। और जिसके प्रति मेरे होने का भाव छूट जाता है, उसके और हमारे बीच का संबंध टूट जाता है।
वह ममत्व ही मेरे और उसके बीच जोड़ने वाली कड़ी है। ममत्व ही जोड़ने वाली कड़ी है। और कोई कड़ी नहीं है जो विचारों से हमारे मन को जोड़ती है और चिपकाती है। ममत्व कड़ी है। कहते हैं, मेरा विचार! अगर आप जैन हैं और कोई जैन धर्म को गाली दे दे, तो आपके प्राण कंपित हो जाते हैं--मेरा धर्म और उसने गाली दी! अगर आप
ईसाई हैं और कोई ईसाई धर्म को बुरा कह दे, तो आप लड़ने को खड़े हो जाते हैं--मेरा धर्म और उसने बुराई की और निंदा की! वह जो मेरा है, वह चोट खा जाता है फौरन और आपके अहंकार को सजग कर देता है। फिर आप विचार के लिए मरने तक को राजी हो जाते हैं। विचार के लिए कुर्बानी देने को राजी हो जाते हैं। विचार के लिए कितनी कुर्बानियां दी हैं लोगों ने। आइडियालॉजी के लिए कितने लोग मरे हैं। और उन मरने वालों को समझाने वाले लोग भी हैं, जो कहते हैं कि बेफिकर रहो, अगर इस्लाम के लिए मरते हो, तो जन्नत तुम्हारी है; अगर हिंदू धर्म के लिए मरते हो, तो स्वर्ग तुम्हारा है।
दुनिया में मनुष्य को मारने के लिए जितनी बेवकूफियां सिखाई गई हैं उतना उसे जीवित रहने के लिए नहीं सिखाई गई कोई बात। तुम शहीद हो गए, तो फिर तुम्हारी मजार पर मेले जुड़ेंगे। तो विचार के लिए मर जाओ--कम्युनिज्म के लिए मर जाओ कि डेमोक्रेसी के लिए मर जाओ।
और मरने को जब कोई राजी हो जाता है, तो सोचें कि उसका ममत्व कितना गहरा होगा। वह अपने प्राण खोने को राजी होता है विचार के लिए। और विचार है बिलकुल पराया। वह अपनी आत्मा को खोने को, अपने जीवन को खोने को राजी हो जाता है। और मूढ़ताएं गहरी हैं, इसलिए हम उसका आदर करते हैं कि बहुत बड़ा काम किया--इसलाम के लिए मरा, हिंदू धर्म के लिए मरा, जैन धर्म के लिए मरा। बहुत महान त्याग किया। लेकिन तथ्य क्या है? तथ्य यह है कि विचार के साथ उसका ममत्व इतना गहरा हुआ कि विचार खोने को राजी नहीं हुआ, प्राण खोने को राजी हो गया। प्राण अपने थे, विचार बिलकुल पराया था।
यह ममत्व इस दूर तक चला जाए तो फैनेटिसिज्म में पागलपन पैदा होता है। दुनिया में रिलीजस फैनेटिक्स ने सारी जमीन को इतनी हत्या और मूर्खता से भरा है जिसका कोई हिसाब नहीं। और उसके पीछे एक ही कड़ी है कि हम विचार के प्रति ममत्व को पैदा करते हैं--मेरा! मेरा हुआ कि फिर हम मरने को भी राजी हो जाते हैं, क्योंकि वह हमारे अहंकार का हिस्सा हो जाता है।
नहीं; विचार को अगर मुक्त होना है, तो उस कड़ी को तोड़ना पड़ेगा जो विचार को मेरा बनाती है। और तोड़ने के लिए कोई बहुत चेष्टा की जरूरत नहीं है, क्योंकि कड़ी बिलकुल झूठी है। कड़ी है ही नहीं। केवल खयाल है, केवल कल्पना है। कोई विचार आपका नहीं है। बताएं मुझे कोई विचार जो आपका हो? कौन सा विचार आपका है? गीता का होगा, कुरान का होगा, बाइबिल का होगा, कृष्ण का होगा, महावीर का होगा, किसी का होगा। आपका कौन सा विचार है? कोई विचार आपका नहीं है। सब विचार पराए और उधार हैं।
ये जो पराए और उधार विचार हैं, इनके साथ ममत्व बांध लेना, फिर चित्त में उपद्रव की बुनियाद रख दी गई है। इस सत्य को समझें कि कोई विचार मेरा नहीं है। इसलिए कोई विचार इस योग्य नहीं कि मैं उसे इतने अपने से जोडूं। जैसे-जैसे समझ गहरी होगी, ममत्व क्षीण होगा। जैसे-जैसे दिखाई पड़ेगा सब विचार पराए हैं, वैसे-वैसे विचार के लिए लड़ना, विचार के लिए संघर्ष करना हवा में छायाओं के लिए लड़ने जैसा है। वह लड़ाई करीब-करीब वैसी है, जैसी आपने एक कथा सुनी होगी।
एक गांव के दो पंडित नदी के किनारे खड़े थे। पांडित्य में ही जीवन गंवाया था। इसलिए न तो उनके पास कोई खेत था, न कोई गाय थी, न कोई भैंस थी। पर दोनों के मन में विचार था कि कोई खेत बने। तो दोनों विचार करते थे और उन दोनों ने सोचा कि हम नदी के पार कोई जमीन ले लें। एक ने कहा कि यह तो ठीक है कि नदी के पार हम जमीन ले लें, मैं भी जमीन लूं, तुम भी जमीन लो, लेकिन इस बात का ध्यान रखना कि तुम्हारे जानवर कभी मेरे खेत में न घुस जाएं। उसने कहा: भई, जानवरों का तो कोई पक्का विश्वास भी नहीं, घुस भी सकते हैं। अब जानवरों के पीछे हम कहां पड़े रहेंगे। उस दूसरे व्यक्ति ने कहा: यह नहीं हो सकता। उसमें तो मित्रता अपनी खंडित होगी। जानवर घुसें तो मैं बरदाश्त नहीं कर सकता। उसने कहा: तुम क्या करोगे आखिर? तो कहा: जानवरों की हत्या ही कर दूंगा वहीं। तो उसने कहा: यह रहा मेरा खेत और ये रहे मेरे जानवर। कहां है तुम्हारा खेत? उसने जमीन पर डंडे से एक लकीर खींची, कहा: यह रहा मेरा खेत। उस दूसरे आदमी ने भी बगल में गोल घेरा खींचा और कहा: यह रहा मेरा खेत। उसने अपनी भैंसें उसके खेत में घुसा दीं। उसने दो लकीरें खींच दीं, उसने कहा: ये मेरी भैंसें घुसीं, करो क्या करते हो! उस आदमी ने उसकी भैंसें काट दीं।
भैंसें तो जमीन पर रेखा, रेखामात्र थीं, लेकिन दोनों गुथ गए एक-दूसरे से। अदालत में मुकदमा गया। और उन्होंने अदालत में मुकदमा चलाया कि मेरे खेत में इसने भैंसें घुसाई हैं, उन भैंसों के पीछे झगड़ा हुआ, मार-पीट हो गई।
मजिस्ट्रेट ने पूछा: ये खेत कहां हैं? ये भैंसें कहां?
उन्होंने कहा: उनकी बात छोड़िए। वह अभी हम लेने वाले हैं खेत। तो भैंसें हम खरीदने वाले हैं।
यह करीब-करीब विचार का झगड़ा, उन खेतों का झगड़ा है जो कहीं भी नहीं हैं, उन भैंसों का झगड़ा है जो कहीं भी नहीं हैं। केवल छायाओं का झगड़ा है। लेकिन छायाएं इतनी महत्वपूर्ण हो जाती हैं कि हम उनके लिए प्राण दे सकते हैं।
जरूर मनुष्य के जीवन में बहुत गहरी मूढ़ता होगी, नहीं तो यह नहीं हो सकता था। वे सब शहीद जो विचारों और धर्मों के नाम पर हुए हैं, जरूर निपट अज्ञानी रहे होंगे, नहीं तो यह नहीं हो सकता था। विचार के लिए सारी लड़ाई मूर्खतापूर्ण है। और वह लड़ाई खड़ी होती है ममत्व के भाव से। और ममत्व के भाव से विचार हमसे चिपकते हैं और भीतर इकट्ठे होते चले जाते हैं। फिर छोड़ने में प्राण कंपते हैं। सब विचार दूसरे हमें सिखाते हैं, फिर हमारे छोड़ने में प्राण कंपते हैं।
बर्ट्रेंड रसल ने लिखा है कि मैं जब सोचता हूं और बहुत समझ के क्षणों में होता हूं, तो मुझे लगता है कि बुद्ध से महान व्यक्ति दुनिया में नहीं हुआ। लेकिन वैसे ही मेरे प्राण डरने लगते हैं और मेरे मन में आता है, क्राइस्ट से बड़ा? कभी ऐसा हो नहीं सकता कि बुद्ध क्राइस्ट से बड़े हों। लिखा है कि मैं बहुत जब समझ के क्षण में होता हूं तो मुझे लगता है कि बुद्ध बहुत अदभुत व्यक्ति हैं, इनसे बड़ा व्यक्ति नहीं हुआ। लेकिन तभी मेरे भीतर कोई बात घबड़ाहट पैदा करने लगती है। वह जो बचपन से सिखाया हुआ संस्कार है कि क्राइस्ट ईश्वर के पुत्र हैं, उनसे बड़ा कोई भी नहीं। तो वह कहने लगता है कि नहीं-नहीं, यह कैसे हो सकता है कि क्राइस्ट से बड़ा कोई हो। लिखा है कि बहुत सोचता हूं, सब समझता हूं, लेकिन इस बात से छुटकारा नहीं होता।
विचार ऐसा पकड़ लेते हैं भीतर कि समझ से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं। यह नहीं कह रहा हूं कि क्राइस्ट छोटे हैं या बुद्ध बड़े हैं। ये सब पागलपन की बातें हैं। कोई छोटा-बड़ा नहीं है। लेकिन विचार इतने गहरे पकड़ लेते हैं, ममत्व इतना गहरा हो जाता है कि समझ से बड़े हो जाते हैं। और हम समझ को खोने को राजी हो जाते हैं और विचार को खोने को राजी नहीं होते हैं। यह पागलपन का लक्षण है। समझ के लिए विचार खोने की हमेशा तैयारी होनी चाहिए और विचार के लिए समझ खोने की कभी तैयारी नहीं होनी चाहिए। लेकिन हम हमेशा क्षुद्रतम विचारों के लिए सारी समझ खो देते हैं।
हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ। जिन लोगों ने हिंदुओं की हत्या की या जिन लोगों ने मुसलमानों की हत्या की, वे कैसे लोग थे? हमीं जैसे लोग थे; हमीं थे। रोज मस्जिद जाने वाले लोग, रोज कुरान पढ़ने वाले लोग, गीता पढ़ने वाले लोग। लेकिन बस यह खयाल कि मैं हिंदू हूं और तुम मुसलमान हो। ये दो विचार, ये क्षुद्र से विचार, जिन्हें सिवाय सिखाने के इनका कोई मूल्य नहीं है कि बचपन से आपके दिमाग में प्रोपेगेंडा किया गया है कि आप हिंदू हो और एक के दिमाग में किया गया है कि तुम मुसलमान हो। और ये बेवकूफियां उन्होंने सीख लीं। और इनके लिए वे सब मस्जिद भूल गए, कुरान भूल गए, गीता भूल गए और छाती में छुरे भोंकने लग गए। हमीं जैसे लोग! हम कर सकते हैं अभी, यहीं कर सकते हैं। अभी जो आपके बगल में बैठा है, उसी को आप छुरा भोंक सकते हैं। आपकी सब समझ खो जाएगी। आपकी सब समझ खो जाएगी, एक विचार भर खयाल में आ जाए कि हिंदू धर्म खतरे में है, कि मुसलमान, इस्लाम खतरे में है, और फिर आपकी सब समझ खो जाएगी।
विचार समझ से महत्वपूर्ण हो गए हैं, क्योंकि बहुत ममत्व हमने उनको दिया है। इस ममत्व को एकदम तोड़ देना जरूरी है। और तोड़ना कठिन नहीं है, क्योंकि यह बिलकुल काल्पनिक है। यह जंजीर कहीं है नहीं, केवल कल्पना में है। विचार के प्रति ममत्व का त्याग जरूरी है।
पहली बात: विचार के प्रति अपरिग्रह का बोध।
दूसरी बात: विचार के प्रति ममत्व का त्याग।
और तीसरी बात: विचार के प्रति तटस्थ साक्षी की स्थिति।
सबसे महत्वपूर्ण सूत्र तीसरा ही है। दो उसकी भूमिकाएं हैं। दो उसकी प्राथमिक तैयारियां हैं। तीसरा सूत्र है: विचार के प्रति तटस्थ साक्षीभाव। जो व्यक्ति जितने दूर तक विचारों के प्रति तटस्थ साक्षी के भाव को उपलब्ध होता है, उतने ही दूर तक निर्विचार हो जाता है। अगर उसकी साक्षी होने की स्थिति पूर्ण हो जाए, तो विचार सब विदा हो जाएंगे, वह परिपूर्ण निर्विचार हो जाएगा, समाधि को उपलब्ध होगा।
तटस्थ साक्षी से क्या अर्थ?
नदी के किनारे कभी खड़े हुए हैं? कभी नदी के किनारे खड़े होकर देखा है? आप बैठे हैं या खड़े हैं और नदी बही जा रही है, आप सिर्फ देख रहे हैं। कभी नीचे बैठ कर आकाश में उड़ते हुए पक्षियों की कतार देखी है? आप बैठे हैं और पक्षियों की कतार उड़ी जा रही है, न उनमें कोई पक्षी आपका है, न आपका मित्र है, न कोई शत्रु है, न किसी को आप चाहते हैं, न किसी को नहीं चाहते हैं, मात्र देख रहे हैं। तटस्थ भाव से देख रहे हैं। पक्षी उड़े जाते हैं। इतनी ही तटस्थता से भीतर विचारों की जो पंक्तिबद्ध कतारें चल रही हैं, उनका दर्शन आवश्यक है। बैठ जाएं और मात्र देखें। और विचार चले जा रहे हैं। कोई विचार आपका नहीं, कोई मित्र नहीं, कोई शत्रु नहीं, कोई विचार अच्छा नहीं, कोई विचार बुरा नहीं। मात्र विचारों के पक्षी उड़े जा रहे हैं और आप दूर बैठे चुपचाप उनको देख रहे हैं। कोई संबंध नहीं उनसे। जैसे रास्ता चल रहा हो, लोग चले जा रहे हों, आप किनारे खड़े देख रहे हों। विचारों का तटस्थ दर्शन, एक साक्षी, एक विटनेस की भांति, दूर खड़े हुए मनुष्य की भांति। कोई लगाव नहीं, कोई अच्छा नहीं, कोई बुरा नहीं, कोई अपना नहीं, कोई पराया नहीं। इसका निरंतर उपयोग, निरंतर इस बात की धारणा, निरंतर इस तटस्थ होने की स्थिति में खड़े होना, क्रमशः विचारों को क्षीण करता जाता है।
जैसे-जैसे आप तटस्थ होंगे, जैसे-जैसे आप दूर खड़े रह जाएंगे और विचारों का प्रवाह घूमता रहेगा, वैसे-वैसे आप हैरान होंगे विचारों के बीच में गैप बढ़ जाएगा, वे कम आएंगे, उनकी भीड़ कम होने लगेगी। हमने उनको बुलाया था इसलिए वे आए थे। वे आकस्मिक नहीं थे, हमारे आमंत्रण पर थे। वे अतिथि थे, हमने उन्हें बुलाया था और ठहराया था और अपना माना था, इसलिए थे। जिस दिन हम अपना नहीं मानते, जिस दिन हम उनके प्रति उदासीन और उपेक्षा से भर गए, जिस दिन हम तटस्थ हो गए, उस दिन उनके रुके रहने का कोई भी कारण नहीं रह जाता है। वे क्रमशः क्षीण होते जाते हैं और विलीन होते जाते हैं।
अगर निरंतर जीवन में विचारों के प्रति तटस्थ दूर खड़े होने का भाव साधा जाए, एक दिन आकस्मिक रूप से पाया जाता है विचार नहीं हैं और आप अकेले रह गए हैं। उस क्षण सत्ता होती है, विचार का धुआं नहीं होता। सत्ता की ज्योति होती है, विचार का धुआं नहीं होता। उस दिन शुद्धत्तम सत्ता शेष रह जाती है, विचार का कोई बादल नहीं होता। उस निर्विचार दशा में जाना जाता है वह जो है। उस क्षण पहचाना जाता है वह जिसे परमात्मा कहें, सत्य कहें, जीवन का मूलस्रोत कहें, कुछ और कहें। उस क्षण ही पहचाना जाता है वह जो आपके प्राणों का प्राण है। उस क्षण ही जाना जाता है वह जिसकी कोई मृत्यु नहीं है, जो अमृत है। उसके पूर्व कुछ भी नहीं जाना जाता है।
निर्विचार द्वार है सत्य का। निर्विचार स्थिति द्वार है परमात्मा का। और निर्विचार होने के लिए सब भांति साक्षी हो जाना जरूरी है।
साक्षी होना कठिन है। हम तो बहुत शीघ्रता से तादात्म्य कर लेते हैं, साक्षी नहीं रह जाते हैं।
बंगाल में एक बहुत बड़े विद्वान और विचारक हुए हैं। नाम सुना होगा, विद्यासागर। एक नाटक को देखने गए थे। समझदार थे, बहुत विद्वान थे, बहुत किताबें लिखीं, बहुत भाष्य लिखे। और बंगाल में उन जैसा कोई विद्वान हुआ नहीं, पंडित हुआ नहीं। नाटक देखने गए थे। नाटक चलता था और एक खलनायक उस नाटक में एक स्त्री को बुरी तरह परेशान किए जा रहा था, उसका पीछा किए जा रहा था। विद्यासागर बड़े सज्जन व्यक्ति थे, उनके बरदाश्त के बाहर हो गया। एक घड़ी ऐसी आई कि उस पात्र ने उस स्त्री को आखिर पकड़ लिया। विद्यासागर उठे जूता निकाला और मार दिया। वह नाटक था, लेकिन वे भूल गए कि नाटक है। सामने ही बैठे थे, जूता निकाल कर मार दिया और कहा कि ठहर बदमाश! वह पात्र कहीं उनसे ज्यादा समझदार रहा होगा, उसने जूता उठा कर सिर से लगा लिया और उसने कहा: इससे बड़ा पुरस्कार मुझे कभी नहीं मिला। विद्यासागर जैसा आदमी भी नाटक को असली समझ ले, यह मेरे अभिनय की खूबी हो गई।
हम तो नाटक को भी भूल जाते हैं कि वह नाटक है। जब कि जानना जरूरी यह है कि जीवन नाटक है। और हम भूल जाते हैं कि नाटक नाटक है। नाटक जीवन मालूम होने लगता है। जब कि जरूरी यह है कि जीवन नाटक मालूम हो। तब तो तटस्थ हो सकते हैं, तब तो दूर हो सकते हैं। विचार पर्दों पर चलता हुआ नाटक रह जाए तो ही आप दूर हो सकते हैं। लेकिन अभी तो हमारी स्थिति यह है कि नाटक भी बहुत जल्दी जीवन का हिस्सा हो जाता है, उसको भी हम समझ लेते हैं। नाटक में भी रोते हैं और हंसते हैं, वहां भी आंसू पोंछते हैं। तो जब पर्दे पर चलती हुई तस्वीर हमारे प्राणों को ऐसा आच्छादित कर लेती हो, तो तटस्थ रहना बड़ा मुश्किल हो जाता है। लेकिन निरंतर-निरंतर बोध से, विवेक से, प्रज्ञापूर्वक स्मृति से, उस ध्यान से असंभव नहीं है।
तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे जीवन की छोटी-छोटी चीजों में तटस्थ होना सीखें। कभी एकाध घड़ी को रास्ते पर चलते हुए अचानक रुक जाएं और सिर्फ तटस्थ होकर देखने लगें, यह क्या हो रहा है? कभी अपने परिवार में ही एक क्षण को तटस्थ हो जाएं बोधपूर्वक और देखें कि सब नाटक हो रहा है। कभी भी, कहीं भी थोड़ी देर के लिए एकदम रुक जाएं और देखें कि सब नाटक हो रहा है। ऐसे धीरे-धीरे आपके भीतर साक्षी होने की क्षमता विकसित होगी और तब विचार के तल पर आप साक्षी हो सकेंगे। जिस दिन विचार के तल पर आप साक्षी हो जाएंगे, उसी दिन, उसी दिन एक अभिनव, एक अभिनव लोक, एक अभिनव द्वार आपके सामने खुल जाएगा। आप पहली दफा जीवन से परिचित होंगे। उसके पहले हम केवल मृत्यु से परिचित हैं।
मैंने पहले दिन मृत्यु के संबंध में आपसे कहा था कि हम करीब-करीब मुर्दा हैं, मरते जा रहे हैं, जीवन का हमें कोई पता नहीं है। जीवन हमारे भीतर बंद है, कैद है, द्वार पर ताला पड़ा है। उस ताले को तोड़े बिना भीतर जाना और जीवन को जानना मुश्किल है। वह ताला विचार का है। वह ताला विचार के साथ आइडेंटिटी, तादात्म्य का है। वह ताला विचार के साथ ममत्व का है। वह ताला विचार के साथ परिग्रह का है। अगर ये विचार सब भांति क्षीण हो जाएं, यह विचारों की दौड़ और ऊहापोह बंद हो जाए और चित्त शांत हो जाए, निस्तरंग, उस निस्तरंग चित्त में हम उस जीवन को जान सकते हैं।
प्रत्येक के भीतर अमृत बैठा है। और प्रत्येक के भीतर मूल जीवन, आदि जीवन की ऊर्जा छिपी है। लेकिन बहुत कम हैं जो उससे परिचित हो पाते हैं। लेकिन कोई भी, कोई भी प्रयास करे और आकांक्षा करे और श्रम करे और संकल्प करे तो परिचित हो सकता है।
इस संबंध में जो कुछ पूछने को हो, वह मैं संध्या आपसे बात करूंगा।
ये तीन--विचार, अविचार और निर्विचार के संबंध में जो मैंने कहा है, उसे समझने की कोशिश करेंगे, तो निश्चित ही कोई परिणाम हो सकता है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
केवल उनके ही चित्त विचार को आविर्भाव दे पाते हैं जो विश्वासों, श्रद्धाओं और मान्यताओं से मुक्त होते हैं। जो इतना साहस करते हैं कि परंपराओं और समाजों के द्वारा दी गई अंधी धारणाओं को तोड़ने में अपने को समर्थ बना लेते हैं। केवल उनके भीतर ही उस विचार का जन्म होता है जो स्वतंत्रता लाता है। और सत्य की दिशा में गति देता है।
आज हम निर्विचार के संबंध में थोड़ी सी चर्चा करेंगे।
निर्विचार से मेरा क्या प्रयोजन है उसको कहने के पहले हम कैसे विचारों के जाल में खड़े हैं, उस संबंध में दो बातें कर लेनी जरूरी हैं।
मनुष्य का मन चौबीस घंटे ही किसी न किसी भांति के विचारों के तंतुओं से घिरा रहता है। एक भीड़ भीतर चलती रहती है। कभी-कभी उसका हमें बोध भी होता है। अधिकांशतः बोध भी नहीं होता--जैसे भीतर एक काम जारी रहता है, भीतर एक दौड़ जारी रहती है। उस दौड़ के प्रति अगर हम पूरे जागें, तो शायद घबड़ा जाएं, शायद हमें ज्ञात हो कि कोई पागल मनुष्य हमारे भीतर बैठा हुआ है। यदि घंटे भर को भी हमारे मन के पूरे विचारों का ताना-बाना हमें स्मरण में आ जाए, तो जीवन में बहुत चिंता, जीवन में बहुत संताप का उदय हो। क्योंकि तब दिखाई पड़े कि यह हमारे भीतर क्या चल रहा है।
बहुत कम लोगों को खयाल है उनके भीतर क्या हो रहा है। विचारों की इतनी असंगत स्थिति है, स्व-विरोधी विचारों की इतनी भीड़ है, एक-दूसरे विचार से द्वंद्व करने वाले विचार भीतर इकट्ठे हैं, इतनी कांफ्लिक्ट है। इसी द्वंद्व में, इसी विचारों के अंतर-संघर्ष में मनुष्य के मन की सारी शक्ति क्षीण हो जाती है। और जिस मनुष्य के मन की शक्ति क्षीण हो जाती हो, वह भीतर इतना निर्बल हो जाता है कि सत्य की खोज में उसकी कोई गति संभव नहीं है।
इसके पूर्व कि कोई सत्य की खोज में अग्रसर हो, जीवन को अनुभव करने चले, उसे मन के तल पर यह जो शक्ति का निरंतर ह्रास हो रहा है, यह जो शक्ति निरंतर क्षीण हो रही है--इस ह्रास से छुटकारा, इस शक्ति का संचय--मन में द्वंद्व से मुक्ति आवश्यक है।
शायद आपको खयाल न आया हो, तो कभी एक घंटा एकांत में जो भी मन में चलता हो उसे बैठ कर लिखें--ईमानदारी से लिखें--जो भी और जैसा चलता हो। तो उस घंटे भर में आपको अंतर-दर्शन होगा इस बात का कि मेरा मन कैसे जाल में बुना हुआ है। उसमें ऐसी-ऐसी बातें होंगी जिसकी आपने कल्पना न की होगी और जो कभी आप अपेक्षा न करते होंगे कि मेरे भीतर हो सकती हैं। उसमें भजन भी होंगे, उसमें गालियां भी होंगी। उसमें अच्छे-अच्छे शब्द आत्मा-परमात्मा भी होंगे, उसमें अपशब्द भी होंगे। उसमें गर्हित से गर्हित और घृणित से घृणित भावनाएं भी होंगी और अत्यंत जघन्य अपराधों की आकांक्षाएं भी होंगी। और ऐसी इच्छाएं होंगी जिनको देख कर आप चौंक जाएंगे। और इन सबके बीच कोई संबंध भी नहीं होगा। ये सब असंबंधित एक-दूसरे से विरोधी होंगी। एक विचार से मन दूसरे विचार पर कूद जाएगा। एक इच्छा से दूसरी इच्छा पर कूद जाएगा।
इस घंटे भर में अगर बहुत स्पष्ट ईमानदारी से आपने वही लिखा है जो आपके मन में चल रहा है, तो आप बहुत चौंक जाएंगे। आपको शक होगा कि क्या मैं पागल तो नहीं हूं?
जहां तक मैं देख पाता हूं, पागल में और सामान्य मनुष्य में कोई बहुत बुनियादी भेद नहीं होता है। नहीं हो सकता है। पागल हमारे भीतर से ही पैदा होता है। वह हमारी ही ग्रोथ है, वह हमारा ही विकास है। हम जिस स्थिति में हैं, हममें से कोई भी किसी भी क्षण पागल हो सकता है। अंतर हममें और पागल में गुणात्मक नहीं है, केवल परिमाण का है, मात्रा का है, डिग्री का है। हमारे भीतर जो ताप और उत्तप्त और फीवरिस विचारों की दौड़ है अगर वह थोड़ी और उसकी डिग्रीज बढ़ जाएं, तो हमारे भीतर से कोई भी व्यक्ति पागल हो सकता है।
मनुष्य-समाज में बहुत कम लोग हैं जो स्वस्थ हैं। अधिक लोग कम या ज्यादा पागल की स्थिति में हैं। जितने पागलपन से सामान्यतया काम चल जाता है उतने पागलपन का हमें बोध नहीं होता, स्मरण नहीं होता। जो पागलपन हमें सामान्य जीवन से बिलकुल तोड़ देता है, तभी हमें उसका बोध होता है। ऐसी विक्षिप्त विचार की स्थिति में कैसे कोई जीवन-सत्य की तरफ गति हो सकती है? और यह मैं किसी और से नहीं कह रहा हूं, बिलकुल आपसे ही कह रहा हूं। और इस तथ्य को जान लेना अत्यंत आवश्यक है।
विचार की जो अतिशय दौड़ है, द्वंद्वात्मक, स्व-विरोधी, सेल्फ-कंट्राडिक्ट्री, भावनाओं की जो स्व-विरोधी स्थिति है वही मनुष्य को अति तनाव की स्थिति में विक्षिप्त कर देती है, पागल कर देती है। इसलिए आपको इस बात से बहुत आश्चर्य नहीं होगा कि दुनिया जिनको बहुत बड़े विचारक मानती है, उनमें से अधिक लोग पागल हो जाते हैं।
इसलिए जब कोई कहता है, महावीर बड़े विचारक थे या बुद्ध बड़े विचारक थे, तो मुझे हंसी आती है। ये कोई भी विचारक नहीं थे। ये निर्विचार को उपलब्ध व्यक्तित्व थे। ये पागल होने से बिलकुल दूसरे कोने पर खड़े लोग थे।
विक्षिप्तता एक एक्सट्रीम है, एक अति है चित्त की, और विमुक्त, विमुक्तता दूसरी स्थिति है। हम सारे लोग इन दो के बीच कहीं डोलते हैं। अगर विचारों का तनाव और विचारों का भार बढ़ता चला जाए, तो हम विक्षिप्त होने की तरफ बढ़ते चले जाते हैं। अगर विचारों का भार और तनाव क्षीण होता जाए और चित्त शांत और मौन होता जाए और एक ऐसी स्थिति में पहुंच जाएं, ऐसी निस्तरंग स्थिति में जहां कोई भी विचार का कंपन नहीं है, तो हम विमुक्त होने के करीब पहुंच जाते हैं।
दो बिंदु हैं मनुष्य के चित्त के--विमुक्ति और विक्षिप्तता। सामान्यतया हम जो भी जीवन में करते हैं उससे हम विक्षिप्त होने की तरफ बढ़ते चले जाते हैं। धर्म, साधना दूसरी दिशा में ले जाने का आग्रह करती है और आमंत्रण देती है।
पहली बात है इस तथ्य के प्रति जागना कि हम या तो पागल हैं या पागल होने के करीब हैं। इस तथ्य के प्रति नहीं जागेंगे तो इस तथ्य से छुटकारे की आकांक्षा भी भीतर पैदा नहीं हो सकती है।
सोते-जागते पागलपन सरक रहा है। कोई भी जोर का धक्का लग जाएगा और पागलपन बाहर प्रकट हो जाएगा। उसे हम भीतर छिपाए हुए चल रहे हैं। निकटतम मित्र भी नहीं जानता हमारे भीतर क्या चल रहा है। पत्नी नहीं जानती पति के भीतर क्या चल रहा है। पति नहीं जानता पत्नी के भीतर क्या चल रहा है। वह सब भीतर चल रहा है रोग की तरह। उसको हम दबाए हैं और छिपाए हैं। उसे हम प्रकट नहीं होने देते। लेकिन किसी बड़े धक्के में--कोई प्रियजन मर जाए, मकान में आग लग जाए, धन डूब जाए, प्रतिष्ठा मिट जाए--उस गहरे धक्के में वह जो भीतर छिपा है घाव की तरह, फूट पड़ता है और पागलपन बाहर प्रकट हो जाता है।
इस पागलपन के कारण न केवल व्यक्ति भीतर पीड़ित होता है, बल्कि पूरा समाज भी पीड़ित होता है। इस पागलपन के सामूहिक उभार भी आते हैं। इस पागलपन की सामूहिक अभिव्यक्तियां भी होती हैं। यह पागलपन कभी-कभी भीड़ को भी पकड़ लेता है--पूरे समाज को, पूरे देश को, पूरी मनुष्य-जाति को भी पकड़ लेता है। यह जो सारी दुनिया में कहीं हिंदू-मुस्लिम दंगे होते हों, या मराठी-गुजराती लड़ता हो, या कोई हिंदुस्तानी-पाकिस्तानी लड़ता हो, या कोई और मुल्क और कोई कौम लड़ती हो, ये सब सामूहिक पागलपन की ज्वर अभिव्यक्तियां हैं। वह जो भीतर व्यक्तियों के चलता रहता है, जब बहुत घनीभूत हो जाता है और उसके व्यक्तिगत उपाय नहीं रह जाते मिटने के, तो सामूहिक रूप से प्रकट हो जाता है।
इसलिए आपको यह मैं कहना चाहूंगा, और इस तथ्य पर शायद आपका कभी ध्यान न गया हो। जिन दिनों दुनिया में युद्ध चलता है, उन दिनों पागल होने की संख्या कम हो जाती है। पहले महायुद्ध में जब यह हुआ, तो सारी दुनिया के मनस-तत्ववेत्ता बहुत परेशान हुए कि यह क्यों हुआ? जितने दिनों तक पहला महायुद्ध चलता था, उन दिनों पागल होने की औसत संख्या कम हो गई, उन दिनों आत्महत्याओं की संख्या कम हो गई, उन दिनों हत्याओं की संख्या कम हो गई, उन दिनों अपराध कम हुए। फिर दूसरा महायुद्ध आया, तब तो और अजीब हो गया। बहुत बड़े जोर से एकदम से आत्महत्याएं, हत्याएं, पागलपन कम हो गए। तब बहुत चिंता हुई, बहुत विचार पैदा हुआ कि यह क्यों होता है?
युद्ध की स्थिति में सामूहिक रूप से पागलपन निकल जाता है, इसलिए व्यक्तिगत पागल होने की संख्या कम हो जाती है। आपको भी जो युद्ध में रस आता है उसका कोई और कारण नहीं है। जब भी दुनिया में कहीं युद्ध चलते हैं, लोग बड़े प्रफुल्लित हो जाते हैं, उनके चेहरों पर चमक आ जाती है, उनके जीवन में गति आ जाती है, त्वरा आ जाती है। वे प्रसन्न मालूम होते हैं। वे सुबह जल्दी उठते हैं, अखबार पढ़ते हैं, रेडियो से खबर सुनते हैं, दिन भर युद्ध की चर्चा करते हैं। जैसे एक बड़ा उत्साह जीवन में छा जाता है जब भी युद्ध होता है। क्यों? वह युद्ध हमारे व्यक्तिगत पागलपन का निकास बन जाता है। रास्ते पर दो लोग लड़ रहे हों, आप हजार काम छोड़ कर खड़े होकर देखने लगते हैं। क्यों? आपके भीतर जो पागलपन है उसको निकास का एक अवसर मिल जाता है। जहां भी हिंसा है, जहां भी घृणा है, जहां भी उपद्रव है, खून है, हत्या है, जासूसी कहानियां हैं, डिटेक्टिव फिल्में हैं, इन सबको देखने में रस क्या है? इनको देखने में रस है, भीतर जो आपके चलता है उसे बाहर देख कर थोड़ा सा रिलैक्सेशन, थोड़ा सा भीतर तनाव कम हो जाता है। और इसलिए हर दस-पांच वर्षों में एक बड़े युद्ध की जरूरत हो जाती है।
राजनीतिज्ञ लाख कोशिश करे, सिर पटके और मर जाए, दुनिया में शांति नहीं हो सकती, युद्ध से बचा नहीं जा सकता। जब तक कि व्यक्तिगत चित्त में पागलपन की स्थिति को कम न किया जाए, तब तक युद्ध होता ही रहेगा। बहाने बदल जाएंगे, कारण बदल जाएंगे। लोग धर्मों के नाम से लड़ते थे, लोग राष्ट्रों के नाम से लड़ेंगे, भाषाओं के नाम से लड़ेंगे, इज्म और आइडियालॉजी के नाम पर लड़ेंगे, कम्युनिज्म और डेमोक्रेसी के नाम पर लड़ेंगे। मुद्दे बदल जाएंगे, लड़ाई जारी रहेगी।
आज पांच हजार वर्ष की कथा यह कहती है कि लड़ाई बंद नहीं हो सकती। राजनीतिज्ञ कुछ भी कहे, शांति की कितनी ही गुहार मचाए, कितना ही चिल्लाए कि विश्व में शांति होनी है, विश्व में शांति नहीं हो सकती। नहीं होगी उस समय तक जब तक हम इस तथ्य को न समझेंगे कि युद्ध राजनीतिक बात नहीं है, बल्कि व्यक्तिगत पागलपन जब इतना घनीभूत हो जाता है, सारे समूहों के भीतर चित्त जब इतना रुग्ण हो जाता है, उसके निकास का कोई उपाय नहीं रह जाता और सामूहिक रूप से पागलपन प्रकट हो जाता है।
दूसरे महायुद्ध में पांच करोड़ लोगों की हत्या हुई है। उससे थोड़ी राहत मिली हमको। दस-पंद्रह वर्ष हम चुप बैठेंगे। लेकिन इस बीच फिर पागलपन इकट्ठा होगा। अब हम दस करोड़ या पंद्रह करोड़ से कम पर राजी नहीं हो सकते हत्या किए बिना। और यह गति अगर बढ़ी, तो इस सदी के पूरा होते-होते वह स्थिति हो सकती है कि हम शायद पूरी मनुष्य-जाति को समाप्त करें तो ही हमारे पागलपन को राहत मिल सकती है, नहीं तो कोई राहत नहीं मिल सकती।
यह जो व्यक्ति के चित्त में चलती हुई तनाव की, टेंशन की, फीविरस, बुखार जैसी स्थिति है, यह जीवन को सब भांति क्षीण करती है। जीवन को सब भांति नीचे गिराती है। फिर बहाने कुछ भी हो सकते हैं। बहानों से कोई संबंध नहीं है।
मनुष्य के भीतर इस चित्त की स्थिति को कैसे परिवर्तित किया जाए? कैसे व्यक्ति विचारों की अत्यधिक भीड़ से निर्विचार शांति की तरफ गतिवान हो? उस संबंध में आज सुबह दो-तीन बातें आपसे कहना चाहता हूं। लेकिन उसके पहले यह जरूरी था कि मैं आपसे यह कहूं कि यह स्थिति है।
और स्मरण रखें, यह मैं किसी और से नहीं कह रहा हूं। नहीं तो अक्सर यह होता है कि जब मैं कह रहा हूं तब आप सोचते होंगे कि बात तो बिलकुल ठीक है, लोगों के साथ ऐसा ही मामला है। अपने को छोड़ कर आप सोच लेंगे तो कोई हल नहीं होने वाला है। हम, हमारा गणित ऐसा है। आप जरूर चित्त में सोचते होंगे कि बिलकुल ठीक है। पड़ोसी जो आपके बैठे हैं इनके साथ सब ऐसी ही बात है। उससे कोई हल नहीं होगा। यह बात आपके साथ है, आपके पड़ोसी से इसका कोई संबंध नहीं है।
अपने पर ही आपको थोड़ा विवेकपूर्ण होकर विचार करना पड़ेगा कि क्या मैं भीतर पागल हूं? अगर पागल हूं, तो इस पागलपन को लेकर आप हिंदू हो जाएं तो कोई फर्क नहीं पड़ता, और गीता पढ़ें तो कोई फर्क नहीं पड़ता, और कुरान पढ़ें तो कोई फर्क नहीं पड़ता। पागल आदमी कुरान पढ़ेगा, दुनिया में खतरा आएगा। कुरान से खतरा आएगा। पागल आदमी गीता पढ़ेगा, गीता से खतरा आएगा। पागल आदमी मंदिर जाएगा, मंदिर उपद्रव का कारण बन जाएगा। पागल आदमी मस्जिद जाएगा, मस्जिद झगड़े पैदा करेगी। पागल आदमी जो भी करेगा उससे दुनिया में कोई शांति, कोई प्रेम का, कोई ज्ञान का, कोई सत्य का जन्म नहीं हो सकता। पागल जो भी करेगा वहीं उपद्रव शुरू हो जाएगा।
इसलिए पागल कुछ करे इसके पहले सबसे बेहतर और सबसे जरूरी और सबसे आवश्यक यह है कि वह उस पागलपन को समझे। और उस पागलपन से मुक्त होने का क्या कोई मार्ग हो सकता है? क्या कोई रास्ता हो सकता है? फिर ही उसका कोई भी काम सार्थक हो सकता है। नहीं तो उसके सब काम व्यर्थ होंगे। वह सेवा करने जाएगा और उपद्रव खड़ा करेगा। वह प्रेम की बातें करेगा और दूसरे की गर्दन में सिर्फ पंजे कस लेगा। बातें उसकी प्रेम की होंगी कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। प्रेम की बातें होंगी, थोड़ी देर में पाया जाएगा प्रेम नहीं है। उससे ज्यादा दुश्मन, उससे ज्यादा शत्रु कोई नहीं है। वह बातें कुछ भी करे उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह शांति की बातें करेगा, थोड़ी देर में तलवार निकाल लेगा और कहेगा, शांति की रक्षा के लिए अब बिलकुल बिना तलवार के कुछ हो ही नहीं सकता।
अभी इस मुल्क में हमने सुना न कि अब अहिंसा की रक्षा के लिए हिंसा की जरूरत आ गई थी। अगर आदमी पागल है तो वह अहिंसा की रक्षा के लिए भी तलवार निकाल लेगा और कहेगा अहिंसा की रक्षा के लिए अब हिंसा की जरूरत है। पागल आदमी जो भी करेगा वह और गहरे पागलपन में ले जाएगा।
इसलिए पहला तथ्य तो पागलपन के प्रति जागरूक होना है। और पागलपन मैं किस बात को कह रहा हूं? द्वंद्वग्रस्त चित्त, कांफ्लिक्ट में पड़ा हुआ मन, भीतर ऐसे बहुत से विचारों की भीड़ से घिरा हुआ मन, जिनमें उसे कुछ सूझता नहीं, जिनमें उसे कोई विकल्प दिखाई नहीं पड़ता, ऐसा मन पागल होने की तैयारी में है, या पागल है या पागल हो जाएगा।
विलियम जेम्स एक दफा पागलखाना देखने गया। पागलखाने में उसने कुछ पागल देखे। लौट कर आया, फिर रात भर सो नहीं सका। बार-बार उठ कर बैठने लगा। उसकी पत्नी ने पूछा कि क्या बात है? क्यों परेशान हैं? उसने कहा: मैं परेशान हूं। आज मैं पागलखाना गया था पागलों को देखने। वहां मुझे एक भय मेरे मन में समा गया कि जो इनके साथ हुआ है वह किसी भी क्षण मेरे साथ भी तो हो सकता है? मेरी नींद उड़ गई है। मैं बहुत डरा हुआ हूं। मेरे प्राण कंप रहे हैं।
उसकी पत्नी ने कहा: आप व्यर्थ, व्यर्थ की चिंता कर रहे हैं। कौन कहता है आप पागल हो सकते हैं?
विलियम जेम्स ने कहा: कोई और नहीं कहता, मैं खुद ही समझ रहा हूं। जो मैंने आज उनकी आंखों में देखा है, जो आज मैंने उनके कामों में देखा, जो उन पर वज्रपात हुआ है, वह किसी भी क्षण मुझ पर भी हो सकता है, क्योंकि मैं भी उन्हीं जैसा मनुष्य हूं! पागल होने के पहले वे जैसे मनुष्य थे वैसा ही मनुष्य मैं भी हूं! मुझमें उनमें कोई बुनियादी भेद नहीं है। तो जो उन पर घटा है, वह मुझ पर भी घट सकता है।
उसके बाद, विलियम जेम्स ने लिखा है कि तीस साल मेरे बड़ी बेचैनी के साल थे। तीस साल जिंदा रहा उसके बाद। उसने लिखा: मैं प्रतिक्षण घबड़ाया हुआ था कि वह पागलपन कभी भी मेरे ऊपर आ सकता है।
मैं भी आपसे कहूंगा: कभी पागलखाने में जाएं और थोड़ा गौर से देखें। आपको अपनी ही शक्ल वहां दिखाई पड़ेगी थोड़ी बढ़ी हुई मात्रा में। आप पाएंगे कि यह मैं ही हूं जो थोड़ा आगे बढ़ गया हूं।
हम सब, जब तक चित्त द्वंद्वग्रस्त है, जब तक चित्त भीतर विरोधों से भरा है, भीतर विरोधी विचारों के बीच डांवाडोल हो रहा है, तब तक हम सब उसी ट्रेंबलिंग में हैं, उसी कंपन में हैं, जो किसी भी क्षण विस्फोट को उपलब्ध हो सकती है। क्या रास्ता है? क्या करें? क्या हो कि चित्त द्वंद्व से और विचारों की भीड़ से मुक्त होता चला जाए?
तीन सूत्र आपके विचार के लिए कहना चाहता हूं।
पहली बात: हमारे मनों में खाली होने से बड़ा भय है, बड़ा फियर है। और हमें सिखाया गया है, खाली मत होना। क्योंकि खाली मन जो है वह शैतान का घर है। यह हमें बताया गया है। वह डेवल्स वर्कशॉप, तो खाली मन है वह तो शैतान का घर हो जाता है।
मैं आपसे कहता हूं: खाली मन ही परमात्मा का घर होता है। भरा हुआ मन ही शैतान का घर है। खाली होने से एक भय सिखाया गया है कि कभी मन को खाली मत करना। कभी खाली मत बैठना। एंप्टीनेस के प्रति, रिक्तता के प्रति एक भय व्याप्त है। और इसलिए हम कोई भी भीतर कभी खाली होने को तैयार नहीं हैं। आंतरिक रूप से हम अपने को भरे रखना चाहते हैं। किसी न किसी चीज से भरे रखना चाहते हैं। सुबह उठते से अखबार पढ़ने लगते हैं ताकि अपने को भर लें, खाली नहीं रहना चाहते। अगर अकेले बैठे हैं तो मित्रों से मिलने चले जाते हैं, क्लब चले जाते हैं, रेडियो खोल लेते हैं, टेलीविजन, या कुछ और, या गीता, या कुरान, या कुछ पढ़ते हैं। खाली कोई नहीं बैठा रहना चाहता, क्योंकि खाली होने से डर है एक भीतर। खालीपन का एक व्यर्थ डर और भय है। व्यर्थ तो नहीं है, शायद कुछ कारण है, उसकी मैं बात करूं।
खालीपन का एक भय है। और कोई भी खाली नहीं रहना चाहता। चौबीस घंटे अपने को भरे रखना चाहते हैं। जब बिलकुल खाली होते हैं, कोई रास्ता नहीं रह जाता, तो शराब पीते हैं, या रेडियो सुनते हैं, या सो जाते हैं, लेकिन खाली रहने को हम बिलकुल भी तैयार नहीं हैं।
क्यों? यह भय क्यों है? इस भय के पीछे कुछ बुनियादी कारण हैं।
पहला बुनियादी कारण तो यह है कि अगर हम खाली हो जाएं, खाली बैठे हों और भीतर मन धीरे-धीरे खाली रहने लगे, तो हमें डर होगा कि हम तो नो-बडी हो गए, ना-कुछ हो गए। हमारे पास तो कुछ भी नहीं है। ना-कुछ होने का भय है। कुछ होने की आकांक्षा है--मैं कुछ हो जाऊं।
मैं कुछ हो जाऊं इस आकांक्षा से हम धन इकट्ठा करते हैं। जितना ज्यादा धन होगा मेरे पास उतना मैं कुछ हो जाऊंगा, समबडी हो जाऊंगा। मैं फिर साधारणजन नहीं हूं, मैं फिर विशिष्टजन हूं। इसलिए हम धन इकट्ठा करते हैं, इसलिए हम यश इकट्ठा करते हैं, ताकि मैं कुछ हो जाऊं। इसलिए हम शक्ति इकट्ठी करते हैं, ताकि मैं कुछ हो जाऊं। और इसलिए हम विचार भी इकट्ठे करते हैं, ताकि मैं कुछ हो जाऊं। कहीं ऐसा न हो कि मैं ना-कुछ रह जाऊं। मुझे कुछ होना है।
यह कुछ होने की दौड़ सब भांति के संग्रह में ले जाती है। और सबसे सूक्ष्म संग्रह विचारों का संग्रह है। जिस आदमी के पास बहुत विचार होते हैं, जो बहुत विचारों से भरा होता है, उसको हम पंडित कहते हैं। उसको हम आदर देते हैं। जिसको उपनिषद पूरे कंठस्थ हों, गीता पूरी याद हो, हम कहते हैं, धन्य हैं ये। जिसे सारे शास्त्र याद हों, हम कहेंगे, पूजा के योग्य हैं ये। विचार के संग्रह को हम आदर देते हैं, विचार के संग्रह को हम ज्ञान समझते हैं। इसलिए हम भी विचार का संग्रह करने में जुट जाते हैं--कि जितना हमारे पास विचार का संग्रह होगा, उतना मैं ज्ञानी हूं, उतना मैं कुछ हूं।
यह जो कुछ होने की दौड़, एंबीशन और महत्वाकांक्षा है, यह हमें खाली नहीं रहने देती, यह हमें खाली नहीं होने देती। यह हमें डर पैदा करती है कि अगर मेरे पास कोई संग्रह न रहा, तब तो बड़ा मुश्किल हो जाएगा।
क्राइस्ट ने कहा है: धन्य हैं वे जो आत्मिक रूप से दरिद्र हैं। अदभुत बात कही है। पुअर इन स्प्रिट। धन्य हैं वे जो आत्मिक रूप से दरिद्र हैं। अजीब बात कही है। हम सब तो आत्मिक रूप से समृद्ध होना चाहते हैं। क्यों यह बात कही? क्यों यह खयाल उस आदमी को आया? आत्मिक रूप से दरिद्र होने का मतलब है: खाली आदमी; जिसके पास भीतर कुछ भी नहीं है--कोई विचार नहीं है, कोई ज्ञान नहीं है। लेकिन क्यों है वह धन्य? वह धन्य इसलिए है कि जैसे ही वह खाली होगा, जैसे ही भीतर वह ना-कुछ होने को राजी हो जाएगा, जैसे ही भीतर वह नथिंगनेस को, ना-कुछ होने को स्वीकार कर लेगा, जैसे ही वह जान लेगा कि सच ही मैं ना-कुछ तो हूं, तो कुछ होने की दौड़ में मैं क्यों पडूं? और क्या मैं कुछ होने की दौड़ से कुछ हो सकूंगा या कि कोई कभी कुछ हो सका है?
जिस दिन वह यह पूरी अनुभूति को उपलब्ध हो जाता है, इस समझ को, इस अंडरस्टैंडिंग को कि मैं ना-कुछ हूं और ना-कुछ होने को राजी हो जाता है, उसी दिन उस स्पेस में, उस खाली जगह में परमात्मा का, सत्य का, या जीवन का, या जो भी हम नाम दें, उसका अनुभव शुरू हो जाता है। उसी दिन वह दरिद्र होकर सही अर्थों में समृद्ध हो जाता है। उसी दिन वह खाली होता है, उसी दिन भर दिया जाता है।
वर्षा में पानी गिरता है, जो भरे हुए पहाड़ हैं बड़े-बड़े, वे उस पानी से वंचित रह जाते हैं, पानी गिरता है और बह जाता है। लेकिन जो गहरे खड्ढ हैं, खाइयां हैं, वे भर जाती हैं और झीलें हो जाती हैं। जो खाली हैं गड्ढे वे भर जाते हैं और जो भरे हुए टीले हैं वे खाली रह जाते हैं।
परमात्मा की भी वर्षा निरंतर और प्रतिक्षण हो रही है। जीवन भी प्रतिक्षण बरस रहा है। जो भीतर खाली हैं वे भर जाएंगे। जो भीतर भरे हुए हैं वे खाली रह जाएंगे।
लेकिन हम सब भरने की दौड़ में अपने को भरते चले जाते हैं--भीतर से भी, बाहर से भी। बाहर वस्त्र इकट्ठा करते हैं, धन इकट्ठा करते हैं, मकान इकट्ठा करते हैं। भीतर विचार इकट्ठे करते हैं, शास्त्र इकट्ठे करते हैं, शब्द इकट्ठे करते हैं। भीतर इनको इकट्ठा करते हैं, बाहर इनको इकट्ठा करते हैं।
जब किसी को इस पागलपन का बोध भी होता है कि मैं अपने को भर कर ही खाली रखता हूं, भरने की वजह से ही मैं उस चीज के भरने से वंचित रह जाऊंगा जो मुझे भरती, तो मेरे प्राण पुलकित होते और अमृत को उपलब्ध होते। जब उस किसी को यह खयाल होता है, तो वह घर छोड़ता है, मकान छोड़ता है, पत्नी-बच्चे छोड़ता है, लेकिन भीतर वे शब्द और शास्त्र जो भरे हैं, उनको फिर भी नहीं छोड़ता।
बाहर का मकान किसी को भरता नहीं है, बाहर के मित्र और प्रियजन और परिजन किसी को भरते नहीं हैं, लेकिन भीतर के आग्रह और भीतर के विचार भरते हैं। जो उनको छोड़ने को राजी हो जाता है, वही संन्यासी है। जो भीतर से सब शब्दों और विचारों को छोड़ कर खाली होने को तैयार हो जाता है, वही त्यागी है, वही अपरिग्रही है।
विचार का अपरिग्रह पहला सूत्र है। विचार के प्रति अपरिग्रह का भाव।
विचार को इकट्ठा नहीं करना है, छोड़ना है, जाने देना है, ताकि वही रह जाए मेरे भीतर, वही जो विचार नहीं है, बल्कि मेरी आत्मा है, मेरी सत्ता है, मेरा स्वत्व है, वही जो मेरा एक्झिस्टेंस है, मेरा ऑथेंटिक बीइंग है, वही रह जाए। और सारे विचार का ऊहापोह चला जाए। सारे विचार झड़ जाएं। अकेला वही रह जाए जो मेरा शुद्ध, मेरी शुद्ध सत्ता है। उस शुद्ध सत्ता के एकांत अनुभव में, उस शुद्ध सत्ता के खाली अनुभव में जो उपलब्ध होता है वही सत्य है, वही आत्मा है, वही परमात्मा है, या कोई और नाम।
विचार के प्रति अभी हमारा परिग्रह का भाव है, इकट्ठा करो। अभी मैं यहां आपसे बोल रहा हूं, आप मेरे विचारों को इकट्ठा करके ले जा सकते हैं। मेरे विचार आपके भीतर इकट्ठे होकर आपका नुकसान करेंगे। आपका कोई हित नहीं कर सकते। वह भीड़ और आपके भीतर बढ़ जाएगी। वहां और कुछ लोग विराजमान थे, मैं भी वहां बैठ जाऊंगा। वहां वैसे ही काफी लोग भरे हुए थे, कोई जगह न थी, और एक आदमी आपके भीतर चला गया, और कुछ विचारों ने जाकर--आपके भीतर उत्पात शुरू हो जाएगा।
विचार के प्रति परिग्रह का भाव न रखें। उसे इकट्ठा नहीं करना है। उसे इकट्ठा कर-कर के भीतर भीड़ नहीं इकट्ठी करनी है। उसे रटना नहीं है, उसे याद नहीं करना है, उससे स्मृति को नहीं भर लेना है। फिर क्या करना? उसके प्रति एक अपरिग्रह का भाव हो। अपरिग्रह के भाव का अर्थ है कि संग्रह मुझे नहीं करना है। समझ और बात है, संग्रह और बात है। मैं जो कह रहा हूं उसे समझना और बात है, उसे संग्रह कर लेना और बात है। महावीर ने, बुद्ध ने, कृष्ण ने जो कहा है उसे समझना और बात है, उसे संग्रह कर लेना और बात है। समझ संग्रह नहीं है। समझ संग्रह नहीं है, समझ में कोई संग्रह नहीं होता। और जहां संग्रह होता है वहां समझ नहीं होती। संग्रह वही करना चाहता है जो समझ नहीं पाता। जो समझ पाता है, संग्रह का कोई प्रश्न नहीं होता।
हम केवल उन्हीं बातों को याद रखना चाहते हैं जिन बातों को हम नहीं समझ पाते। जिन बातों को हम समझ पाते हैं उन्हें याद नहीं रखना होता। उन्हें याद रखने का कोई प्रश्न नहीं रह जाता। उनको मेमोरी में रखने का, स्मृति में रखने का कोई प्रश्न नहीं रह जाता।
संग्रह का भाव न हो, जीवन को समझने का भाव हो। समझने के भाव से ज्ञान उपलब्ध होता है, संग्रह की वृत्ति से पांडित्य उपलब्ध होता है। पांडित्य और ज्ञान बिलकुल शत्रु हैं। पंडित कभी ज्ञानी नहीं होता है और ज्ञानी के पंडित होने की कोई वजह नहीं है, कोई कारण नहीं है।
एक मौलिक रूप से यह ध्यान जीवन में रहे कि मैं विचारों को संग्रह करने के पीछे तो नहीं पड़ा हूं? क्या होगा, संग्रह से क्या होगा? सब संग्रह उधार होगा, दूसरों का होगा। समझ, समझ मेरी होगी, अपनी होगी। संग्रह हमेशा दूसरों से होगा। समझ मेरी होगी, संग्रह दूसरों से होगा। संग्रह बासा और उधार होगा। समझ ताजी और फ्रेश, जीवंत और युवा होगी। समझ मुक्त करती है, संग्रह बांधता है। समझ मुक्त करती है, समझ स्वतंत्र करती है। संग्रह बांधता है, जंजीरों की तरह जकड़ लेता है।
जो लोग शब्द और शास्त्र के संग्रह में पड़ जाते हैं, उन्हें समझना कठिन ही हो जाता है। वे कुछ भी नहीं समझते फिर। वे समझ ही नहीं सकते हैं। क्योंकि जहां समझ मुक्ति चाहती है, ताजगी चाहती है--बासापन नहीं, उधारपन नहीं--वहां संग्रह सब उधार कर देता है। वे जब जीवन को भी देखते हैं तो अपने शब्दों को बीच में लेकर देखते हैं। शब्द बीच में आ जाते हैं, जीवन उस तरफ खड़ा रह जाता है।
एक बार ऐसा हुआ, चीन में एक बहुत बड़ा बाजार भरा हुआ था, एक बड़ा मेला भरा हुआ था। एक कुआं था उस मेले के पास ही। बहुत भीड़-भाड़ थी और एक आदमी उस कुएं में गिर पड़ा। कुएं पर कोई पाट न था, कोई किनार न थी। कोई आदमी उसमें गिर पड़ा। वह जैसे ही गिरा था, वह नीचे से चिल्लाया कि मुझे बचाओ! इतना शोरगुल था वहां, कौन सुनता। लेकिन एक बौद्ध भिक्षु उस कुएं के पास से निकलता था, उसे आवाज सुनाई पड़ी। उसने कुएं में झांक कर देखा, वहां एक आदमी डूब रहा है। उस आदमी ने प्रार्थना की कि मुझे बचाओ!
लेकिन उस बौद्ध भिक्षु ने कहा: मित्र, अपने कर्मों का फल भोग रहे हो, भोगो। कर्म का फल तो भोगना ही पड़ता है। मेरे बचाने से क्या होगा, कोई किसी को बचा सकता है? शास्त्र में क्या लिखा है? कोई किसी को नहीं बचा सकता। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में परिणमन ही नहीं कर सकता। मैं क्या कर सकता हूं? और मैं अगर किसी तरह बचाने की भी कोशिश करूं, तो मैं और कर्मों का बंध करूंगा राह दखला कर कि मैंने तुमको बचाना चाहा। तो उचित है कभी कोई पाप किया होगा, उसका फल भोग रहे हो, उसको भोग लो, ताकि आगे के लिए निपटारा हो जाए।
ये शास्त्र बोल रहे थे। जीवन सामने खड़ा था, एक आदमी डूब रहा था, शास्त्र बीच में आ गया। वह भिक्षु चला गया उससे कह कर कि मन को शांत रखो। शांत रखने से सब होता है। और जो विपत्ति आई है वह तुम्हारे कर्मों का फल है, उसको भोग लो। भोगने से उसकी निर्जरा हो जाएगी। वह आदमी चिल्लाता रहा, भिक्षु आगे चला गया।
उसके पीछे से एक कनफ्यूशियस मांक आया। एक कनफ्यूशियस को मानने वाला भिक्षु आया। वह आदमी चिल्ला रहा था। उसने झांक कर देखा, उसने कहा कि हजार बार कहा है कनफ्यूशियस ने कि अगर राज्य ठीक न हो तो बड़े उपद्रव होते हैं। राज्य ठीक नहीं है इसलिए कुआं बिना पाट का है। मैं अभी जाता हूं और एक आंदोलन खड़ा करता हूं कि राज्य बदले, क्रांति हो। सब कुओं पर पाट होने चाहिए। नहीं तो लोग बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं। देखो, यह आदमी मर रहा है। वह आदमी मरता था, उसने चिल्ला कर लोगों को इकट्ठा किया कि मित्रो, आओ, यह देखो, राज्य की भूल। और जब राज्य भूल में होता है तो सब भूल हो जाती है। कनफ्यूशियस का ऐसा मानना है: राज्य ठीक हो तो सब ठीक हो जाए। वह भिक्षु गया, और भीड़ में, बाजार में चिल्लाने लगा कि देखो मित्रो, राज्य की गड़बड़ी। कुएं पर पाट नहीं है।
एक आदमी डूब रहा है, मर रहा है। लेकिन उसे निकालने का कोई सवाल ही नहीं उठा। उठने की कोई बात नहीं थी, क्योंकि कनफ्यूशियस के शास्त्र बीच में आ गए।
पीछे से एक ईसाई मिशनरी भी आया, उसने देखा कि वह आदमी डूब रहा है। उसने फौरन स्मरण किया कि क्राइस्ट ने कहा है कि मनुष्य की सेवा ही परमात्मा की सेवा है। वह जल्दी से कूदा और उस आदमी को निकाल कर बाहर लाया।
शायद आप सोचेंगे कि इस तीसरे आदमी ने बहुत बेहतर काम किया। नहीं, यह भी न करता। इसके बीच में भी शास्त्र हैं, इसने भी मनुष्य को नहीं बचाया। इसने भी नहीं बचाया। इसने भी, जीवन से इसका कोई संबंध नहीं है। इसने भी, शास्त्र में लिखा है कि मनुष्य की सेवा परमात्मा की सेवा है, इसलिए कूदा और बचा लाया। यहां भी शास्त्र ही बीच में खड़ा है, जीवन यहां भी नहीं है।
यह कहानी किसी ईसाई मिशनरी ने गढ़ी है। लेकिन उसे यह पता नहीं है कि इस तीसरे मामले में भी वही बात है जो दो मामलों में थी। उनके शास्त्रों में वह लिखा था उन्होंने वह किया, इसके शास्त्र में यह लिखा था इसने यह किया। लेकिन तीनों के बीच में शास्त्र हैं, जिंदगी नहीं है, जीवन नहीं है।
जीवन को देखना उसके बहुविध रूपों में और उसे समझना और उस जीवन की समझ से जो कृत्य निकले वह कृत्य मुक्तिदायी है। वह कृत्य, वह जो जीवन की समझ से आता है, वही कृत्य धर्म है। लेकिन शब्द और शास्त्र सब तरफ जीवन को, सब तरफ जीवन और हमारे बीच एक दीवाल खड़ी कर देते हैं। पंडित समझने में असमर्थ हो जाता है। यही तो वजह है कि दुनिया के सारे धर्मों के अलग-अलग पंडित लड़ते हैं। धर्म क्या बहुत हो सकते हैं? सत्य एक है तो धर्म भी एक ही है। पंडित बहुत प्रकार के हैं, शास्त्र बहुत प्रकार के हैं, संप्रदाय बहुत प्रकार के हैं। और पंडित लड़ता है, क्योंकि वह दूसरे को समझ ही नहीं सकता। उसके अपने शब्द बाधा दे देते हैं। उसके शब्द बीच में खड़े हो जाते हैं। दूसरे को समझना असंभव हो जाता है। और तब इस नासमझी से लड़ाइयां पैदा होती हैं, धार्मिक विरोध पैदा होता है, सारी दुनिया में धर्म लड़ते हैं। पंडित समझने में असमर्थ होता है, इसलिए कलह पैदा होती है।
जहां समझ है, वहां कोई कलह नहीं हो सकती। जहां अंडरस्टैंडिंग है, वहां कोई विरोध, वहां कोई कलह नहीं हो सकती। वहां तो होगा प्रेम। वहां घृणा नहीं हो सकती। वहां तो होगा प्रेम, जो दूसरे को समझ पाता है।
तो स्मरण रखें, आप कितने ही शब्दों और शास्त्रों को और विचारों को इकट्ठा कर लें, इससे आपकी कोई समझ नहीं बढ़ जाएगी। समझ संग्रह नहीं करती है। समझ देखती है परिपूर्णता में। समझ, अंडरस्टैंडिंग चीजों के प्रति जागती है उनकी परिपूर्णता में। उस जागरण में ही, उस बोध में ही भीतर ज्ञान का जन्म होता है। उस ज्ञान का कोई संग्रह नहीं होता, वह ज्ञान कहीं इकट्ठा नहीं होता। वह ज्ञान सारे प्राणों को परिवर्तित करता है, सारी आत्मा को पवित्र करता है, सारी आत्मा को नया करता है, नया जीवन देता है। इसलिए उसका कोई बोझ नहीं होता, इसलिए उसका कोई भार नहीं होता। इसलिए उसके कारण जीवन और हमारे बीच कोई दीवाल खड़ी नहीं होती है।
विचार के संग्रह की भूल को समझें। विचार के संग्रह की भूल को समझें और स्मरण रखें कि जितना भीतर विचार की भीड़ कम हो और ज्ञान का आविर्भाव हो, जितना भीतर विचार का संग्रह कम हो और ज्ञान की मुक्तिदायी हवाएं बहें, समझ पैदा हो, उतना ही आपके जीवन में निर्विचार होने की तरफ, समाधि की तरफ गति हो सकती है।
इसलिए मैंने कहा, पहला सूत्र है: विचार के प्रति अपरिग्रह।
विचार के प्रति अपरिग्रह होगा तो अनिवार्यतया दूसरा सूत्र फलित होगा--विचार के प्रति ममत्व त्याग होगा।
अभी तो हम कहते हैं, मेरा विचार! कौन सा विचार आपका है? लेकिन अगर थोड़ा विवाद हो जाए, तो आप कहते हैं: मेरा विचार! मेरा धर्म! मेरा शास्त्र! मेरे तीर्थंकर! मेरे भगवान! यह ‘मेरा’ कैसे प्रविष्ट हो रहा है आपके भीतर? विचार कौन सा आपका है? एक भी विचार है जो आपका है? थोड़ा खोदें, थोड़ा विश्लेषण करें, थोड़ा एनालाइज करें, थोड़ा एक-एक विचार को पकड़ें और पहचानें, यह मेरा है? पाएंगे, यह मेरा नहीं, आया है। यह कहीं से आया है। यह तैरता हुआ आया है हवाओं में और मेरे भीतर बैठ गया आकर। मेरा कहां है? कोई विचार आपका कहां है? आया होगा कहीं से, घूमा होगा कहीं से। आपके भीतर निवासी बन गया है।
सब विचार मेहमान हैं। कोई विचार आपका नहीं है। लेकिन जब हम कहते हैं, मेरा विचार! तो फिर विचार से एक पकड़ पैदा होती है, एक आइडेंटिटी, एक तादात्म्य पैदा होता है। फिर विचार की सुरक्षा पैदा होती है। फिर विचार को हम बचाना चाहते हैं, जाने नहीं देना चाहते। क्योंकि जो भी मेरा हो जाता है फिर मैं उसे बचाने लगता हूं। वह मेरी संपत्ति हो गई, वह मेरी संपदा हो गई। फिर वह मेरे प्राण का हिस्सा हो गया।
इस बात को भी समझना, जानना, इस तथ्य के प्रति भी जागना अत्यंत आवश्यक है कि मैं जानूं कि कोई विचार मेरा नहीं है। जैसे ही यह खयाल स्पष्ट होगा कि कोई विचार मेरा नहीं है, वैसे ही विचार के प्रति ममत्व छूट जाएगा, मेरे होने का भाव छूट जाएगा। और जिसके प्रति मेरे होने का भाव छूट जाता है, उसके और हमारे बीच का संबंध टूट जाता है।
वह ममत्व ही मेरे और उसके बीच जोड़ने वाली कड़ी है। ममत्व ही जोड़ने वाली कड़ी है। और कोई कड़ी नहीं है जो विचारों से हमारे मन को जोड़ती है और चिपकाती है। ममत्व कड़ी है। कहते हैं, मेरा विचार! अगर आप जैन हैं और कोई जैन धर्म को गाली दे दे, तो आपके प्राण कंपित हो जाते हैं--मेरा धर्म और उसने गाली दी! अगर आप
ईसाई हैं और कोई ईसाई धर्म को बुरा कह दे, तो आप लड़ने को खड़े हो जाते हैं--मेरा धर्म और उसने बुराई की और निंदा की! वह जो मेरा है, वह चोट खा जाता है फौरन और आपके अहंकार को सजग कर देता है। फिर आप विचार के लिए मरने तक को राजी हो जाते हैं। विचार के लिए कुर्बानी देने को राजी हो जाते हैं। विचार के लिए कितनी कुर्बानियां दी हैं लोगों ने। आइडियालॉजी के लिए कितने लोग मरे हैं। और उन मरने वालों को समझाने वाले लोग भी हैं, जो कहते हैं कि बेफिकर रहो, अगर इस्लाम के लिए मरते हो, तो जन्नत तुम्हारी है; अगर हिंदू धर्म के लिए मरते हो, तो स्वर्ग तुम्हारा है।
दुनिया में मनुष्य को मारने के लिए जितनी बेवकूफियां सिखाई गई हैं उतना उसे जीवित रहने के लिए नहीं सिखाई गई कोई बात। तुम शहीद हो गए, तो फिर तुम्हारी मजार पर मेले जुड़ेंगे। तो विचार के लिए मर जाओ--कम्युनिज्म के लिए मर जाओ कि डेमोक्रेसी के लिए मर जाओ।
और मरने को जब कोई राजी हो जाता है, तो सोचें कि उसका ममत्व कितना गहरा होगा। वह अपने प्राण खोने को राजी होता है विचार के लिए। और विचार है बिलकुल पराया। वह अपनी आत्मा को खोने को, अपने जीवन को खोने को राजी हो जाता है। और मूढ़ताएं गहरी हैं, इसलिए हम उसका आदर करते हैं कि बहुत बड़ा काम किया--इसलाम के लिए मरा, हिंदू धर्म के लिए मरा, जैन धर्म के लिए मरा। बहुत महान त्याग किया। लेकिन तथ्य क्या है? तथ्य यह है कि विचार के साथ उसका ममत्व इतना गहरा हुआ कि विचार खोने को राजी नहीं हुआ, प्राण खोने को राजी हो गया। प्राण अपने थे, विचार बिलकुल पराया था।
यह ममत्व इस दूर तक चला जाए तो फैनेटिसिज्म में पागलपन पैदा होता है। दुनिया में रिलीजस फैनेटिक्स ने सारी जमीन को इतनी हत्या और मूर्खता से भरा है जिसका कोई हिसाब नहीं। और उसके पीछे एक ही कड़ी है कि हम विचार के प्रति ममत्व को पैदा करते हैं--मेरा! मेरा हुआ कि फिर हम मरने को भी राजी हो जाते हैं, क्योंकि वह हमारे अहंकार का हिस्सा हो जाता है।
नहीं; विचार को अगर मुक्त होना है, तो उस कड़ी को तोड़ना पड़ेगा जो विचार को मेरा बनाती है। और तोड़ने के लिए कोई बहुत चेष्टा की जरूरत नहीं है, क्योंकि कड़ी बिलकुल झूठी है। कड़ी है ही नहीं। केवल खयाल है, केवल कल्पना है। कोई विचार आपका नहीं है। बताएं मुझे कोई विचार जो आपका हो? कौन सा विचार आपका है? गीता का होगा, कुरान का होगा, बाइबिल का होगा, कृष्ण का होगा, महावीर का होगा, किसी का होगा। आपका कौन सा विचार है? कोई विचार आपका नहीं है। सब विचार पराए और उधार हैं।
ये जो पराए और उधार विचार हैं, इनके साथ ममत्व बांध लेना, फिर चित्त में उपद्रव की बुनियाद रख दी गई है। इस सत्य को समझें कि कोई विचार मेरा नहीं है। इसलिए कोई विचार इस योग्य नहीं कि मैं उसे इतने अपने से जोडूं। जैसे-जैसे समझ गहरी होगी, ममत्व क्षीण होगा। जैसे-जैसे दिखाई पड़ेगा सब विचार पराए हैं, वैसे-वैसे विचार के लिए लड़ना, विचार के लिए संघर्ष करना हवा में छायाओं के लिए लड़ने जैसा है। वह लड़ाई करीब-करीब वैसी है, जैसी आपने एक कथा सुनी होगी।
एक गांव के दो पंडित नदी के किनारे खड़े थे। पांडित्य में ही जीवन गंवाया था। इसलिए न तो उनके पास कोई खेत था, न कोई गाय थी, न कोई भैंस थी। पर दोनों के मन में विचार था कि कोई खेत बने। तो दोनों विचार करते थे और उन दोनों ने सोचा कि हम नदी के पार कोई जमीन ले लें। एक ने कहा कि यह तो ठीक है कि नदी के पार हम जमीन ले लें, मैं भी जमीन लूं, तुम भी जमीन लो, लेकिन इस बात का ध्यान रखना कि तुम्हारे जानवर कभी मेरे खेत में न घुस जाएं। उसने कहा: भई, जानवरों का तो कोई पक्का विश्वास भी नहीं, घुस भी सकते हैं। अब जानवरों के पीछे हम कहां पड़े रहेंगे। उस दूसरे व्यक्ति ने कहा: यह नहीं हो सकता। उसमें तो मित्रता अपनी खंडित होगी। जानवर घुसें तो मैं बरदाश्त नहीं कर सकता। उसने कहा: तुम क्या करोगे आखिर? तो कहा: जानवरों की हत्या ही कर दूंगा वहीं। तो उसने कहा: यह रहा मेरा खेत और ये रहे मेरे जानवर। कहां है तुम्हारा खेत? उसने जमीन पर डंडे से एक लकीर खींची, कहा: यह रहा मेरा खेत। उस दूसरे आदमी ने भी बगल में गोल घेरा खींचा और कहा: यह रहा मेरा खेत। उसने अपनी भैंसें उसके खेत में घुसा दीं। उसने दो लकीरें खींच दीं, उसने कहा: ये मेरी भैंसें घुसीं, करो क्या करते हो! उस आदमी ने उसकी भैंसें काट दीं।
भैंसें तो जमीन पर रेखा, रेखामात्र थीं, लेकिन दोनों गुथ गए एक-दूसरे से। अदालत में मुकदमा गया। और उन्होंने अदालत में मुकदमा चलाया कि मेरे खेत में इसने भैंसें घुसाई हैं, उन भैंसों के पीछे झगड़ा हुआ, मार-पीट हो गई।
मजिस्ट्रेट ने पूछा: ये खेत कहां हैं? ये भैंसें कहां?
उन्होंने कहा: उनकी बात छोड़िए। वह अभी हम लेने वाले हैं खेत। तो भैंसें हम खरीदने वाले हैं।
यह करीब-करीब विचार का झगड़ा, उन खेतों का झगड़ा है जो कहीं भी नहीं हैं, उन भैंसों का झगड़ा है जो कहीं भी नहीं हैं। केवल छायाओं का झगड़ा है। लेकिन छायाएं इतनी महत्वपूर्ण हो जाती हैं कि हम उनके लिए प्राण दे सकते हैं।
जरूर मनुष्य के जीवन में बहुत गहरी मूढ़ता होगी, नहीं तो यह नहीं हो सकता था। वे सब शहीद जो विचारों और धर्मों के नाम पर हुए हैं, जरूर निपट अज्ञानी रहे होंगे, नहीं तो यह नहीं हो सकता था। विचार के लिए सारी लड़ाई मूर्खतापूर्ण है। और वह लड़ाई खड़ी होती है ममत्व के भाव से। और ममत्व के भाव से विचार हमसे चिपकते हैं और भीतर इकट्ठे होते चले जाते हैं। फिर छोड़ने में प्राण कंपते हैं। सब विचार दूसरे हमें सिखाते हैं, फिर हमारे छोड़ने में प्राण कंपते हैं।
बर्ट्रेंड रसल ने लिखा है कि मैं जब सोचता हूं और बहुत समझ के क्षणों में होता हूं, तो मुझे लगता है कि बुद्ध से महान व्यक्ति दुनिया में नहीं हुआ। लेकिन वैसे ही मेरे प्राण डरने लगते हैं और मेरे मन में आता है, क्राइस्ट से बड़ा? कभी ऐसा हो नहीं सकता कि बुद्ध क्राइस्ट से बड़े हों। लिखा है कि मैं बहुत जब समझ के क्षण में होता हूं तो मुझे लगता है कि बुद्ध बहुत अदभुत व्यक्ति हैं, इनसे बड़ा व्यक्ति नहीं हुआ। लेकिन तभी मेरे भीतर कोई बात घबड़ाहट पैदा करने लगती है। वह जो बचपन से सिखाया हुआ संस्कार है कि क्राइस्ट ईश्वर के पुत्र हैं, उनसे बड़ा कोई भी नहीं। तो वह कहने लगता है कि नहीं-नहीं, यह कैसे हो सकता है कि क्राइस्ट से बड़ा कोई हो। लिखा है कि बहुत सोचता हूं, सब समझता हूं, लेकिन इस बात से छुटकारा नहीं होता।
विचार ऐसा पकड़ लेते हैं भीतर कि समझ से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं। यह नहीं कह रहा हूं कि क्राइस्ट छोटे हैं या बुद्ध बड़े हैं। ये सब पागलपन की बातें हैं। कोई छोटा-बड़ा नहीं है। लेकिन विचार इतने गहरे पकड़ लेते हैं, ममत्व इतना गहरा हो जाता है कि समझ से बड़े हो जाते हैं। और हम समझ को खोने को राजी हो जाते हैं और विचार को खोने को राजी नहीं होते हैं। यह पागलपन का लक्षण है। समझ के लिए विचार खोने की हमेशा तैयारी होनी चाहिए और विचार के लिए समझ खोने की कभी तैयारी नहीं होनी चाहिए। लेकिन हम हमेशा क्षुद्रतम विचारों के लिए सारी समझ खो देते हैं।
हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ। जिन लोगों ने हिंदुओं की हत्या की या जिन लोगों ने मुसलमानों की हत्या की, वे कैसे लोग थे? हमीं जैसे लोग थे; हमीं थे। रोज मस्जिद जाने वाले लोग, रोज कुरान पढ़ने वाले लोग, गीता पढ़ने वाले लोग। लेकिन बस यह खयाल कि मैं हिंदू हूं और तुम मुसलमान हो। ये दो विचार, ये क्षुद्र से विचार, जिन्हें सिवाय सिखाने के इनका कोई मूल्य नहीं है कि बचपन से आपके दिमाग में प्रोपेगेंडा किया गया है कि आप हिंदू हो और एक के दिमाग में किया गया है कि तुम मुसलमान हो। और ये बेवकूफियां उन्होंने सीख लीं। और इनके लिए वे सब मस्जिद भूल गए, कुरान भूल गए, गीता भूल गए और छाती में छुरे भोंकने लग गए। हमीं जैसे लोग! हम कर सकते हैं अभी, यहीं कर सकते हैं। अभी जो आपके बगल में बैठा है, उसी को आप छुरा भोंक सकते हैं। आपकी सब समझ खो जाएगी। आपकी सब समझ खो जाएगी, एक विचार भर खयाल में आ जाए कि हिंदू धर्म खतरे में है, कि मुसलमान, इस्लाम खतरे में है, और फिर आपकी सब समझ खो जाएगी।
विचार समझ से महत्वपूर्ण हो गए हैं, क्योंकि बहुत ममत्व हमने उनको दिया है। इस ममत्व को एकदम तोड़ देना जरूरी है। और तोड़ना कठिन नहीं है, क्योंकि यह बिलकुल काल्पनिक है। यह जंजीर कहीं है नहीं, केवल कल्पना में है। विचार के प्रति ममत्व का त्याग जरूरी है।
पहली बात: विचार के प्रति अपरिग्रह का बोध।
दूसरी बात: विचार के प्रति ममत्व का त्याग।
और तीसरी बात: विचार के प्रति तटस्थ साक्षी की स्थिति।
सबसे महत्वपूर्ण सूत्र तीसरा ही है। दो उसकी भूमिकाएं हैं। दो उसकी प्राथमिक तैयारियां हैं। तीसरा सूत्र है: विचार के प्रति तटस्थ साक्षीभाव। जो व्यक्ति जितने दूर तक विचारों के प्रति तटस्थ साक्षी के भाव को उपलब्ध होता है, उतने ही दूर तक निर्विचार हो जाता है। अगर उसकी साक्षी होने की स्थिति पूर्ण हो जाए, तो विचार सब विदा हो जाएंगे, वह परिपूर्ण निर्विचार हो जाएगा, समाधि को उपलब्ध होगा।
तटस्थ साक्षी से क्या अर्थ?
नदी के किनारे कभी खड़े हुए हैं? कभी नदी के किनारे खड़े होकर देखा है? आप बैठे हैं या खड़े हैं और नदी बही जा रही है, आप सिर्फ देख रहे हैं। कभी नीचे बैठ कर आकाश में उड़ते हुए पक्षियों की कतार देखी है? आप बैठे हैं और पक्षियों की कतार उड़ी जा रही है, न उनमें कोई पक्षी आपका है, न आपका मित्र है, न कोई शत्रु है, न किसी को आप चाहते हैं, न किसी को नहीं चाहते हैं, मात्र देख रहे हैं। तटस्थ भाव से देख रहे हैं। पक्षी उड़े जाते हैं। इतनी ही तटस्थता से भीतर विचारों की जो पंक्तिबद्ध कतारें चल रही हैं, उनका दर्शन आवश्यक है। बैठ जाएं और मात्र देखें। और विचार चले जा रहे हैं। कोई विचार आपका नहीं, कोई मित्र नहीं, कोई शत्रु नहीं, कोई विचार अच्छा नहीं, कोई विचार बुरा नहीं। मात्र विचारों के पक्षी उड़े जा रहे हैं और आप दूर बैठे चुपचाप उनको देख रहे हैं। कोई संबंध नहीं उनसे। जैसे रास्ता चल रहा हो, लोग चले जा रहे हों, आप किनारे खड़े देख रहे हों। विचारों का तटस्थ दर्शन, एक साक्षी, एक विटनेस की भांति, दूर खड़े हुए मनुष्य की भांति। कोई लगाव नहीं, कोई अच्छा नहीं, कोई बुरा नहीं, कोई अपना नहीं, कोई पराया नहीं। इसका निरंतर उपयोग, निरंतर इस बात की धारणा, निरंतर इस तटस्थ होने की स्थिति में खड़े होना, क्रमशः विचारों को क्षीण करता जाता है।
जैसे-जैसे आप तटस्थ होंगे, जैसे-जैसे आप दूर खड़े रह जाएंगे और विचारों का प्रवाह घूमता रहेगा, वैसे-वैसे आप हैरान होंगे विचारों के बीच में गैप बढ़ जाएगा, वे कम आएंगे, उनकी भीड़ कम होने लगेगी। हमने उनको बुलाया था इसलिए वे आए थे। वे आकस्मिक नहीं थे, हमारे आमंत्रण पर थे। वे अतिथि थे, हमने उन्हें बुलाया था और ठहराया था और अपना माना था, इसलिए थे। जिस दिन हम अपना नहीं मानते, जिस दिन हम उनके प्रति उदासीन और उपेक्षा से भर गए, जिस दिन हम तटस्थ हो गए, उस दिन उनके रुके रहने का कोई भी कारण नहीं रह जाता है। वे क्रमशः क्षीण होते जाते हैं और विलीन होते जाते हैं।
अगर निरंतर जीवन में विचारों के प्रति तटस्थ दूर खड़े होने का भाव साधा जाए, एक दिन आकस्मिक रूप से पाया जाता है विचार नहीं हैं और आप अकेले रह गए हैं। उस क्षण सत्ता होती है, विचार का धुआं नहीं होता। सत्ता की ज्योति होती है, विचार का धुआं नहीं होता। उस दिन शुद्धत्तम सत्ता शेष रह जाती है, विचार का कोई बादल नहीं होता। उस निर्विचार दशा में जाना जाता है वह जो है। उस क्षण पहचाना जाता है वह जिसे परमात्मा कहें, सत्य कहें, जीवन का मूलस्रोत कहें, कुछ और कहें। उस क्षण ही पहचाना जाता है वह जो आपके प्राणों का प्राण है। उस क्षण ही जाना जाता है वह जिसकी कोई मृत्यु नहीं है, जो अमृत है। उसके पूर्व कुछ भी नहीं जाना जाता है।
निर्विचार द्वार है सत्य का। निर्विचार स्थिति द्वार है परमात्मा का। और निर्विचार होने के लिए सब भांति साक्षी हो जाना जरूरी है।
साक्षी होना कठिन है। हम तो बहुत शीघ्रता से तादात्म्य कर लेते हैं, साक्षी नहीं रह जाते हैं।
बंगाल में एक बहुत बड़े विद्वान और विचारक हुए हैं। नाम सुना होगा, विद्यासागर। एक नाटक को देखने गए थे। समझदार थे, बहुत विद्वान थे, बहुत किताबें लिखीं, बहुत भाष्य लिखे। और बंगाल में उन जैसा कोई विद्वान हुआ नहीं, पंडित हुआ नहीं। नाटक देखने गए थे। नाटक चलता था और एक खलनायक उस नाटक में एक स्त्री को बुरी तरह परेशान किए जा रहा था, उसका पीछा किए जा रहा था। विद्यासागर बड़े सज्जन व्यक्ति थे, उनके बरदाश्त के बाहर हो गया। एक घड़ी ऐसी आई कि उस पात्र ने उस स्त्री को आखिर पकड़ लिया। विद्यासागर उठे जूता निकाला और मार दिया। वह नाटक था, लेकिन वे भूल गए कि नाटक है। सामने ही बैठे थे, जूता निकाल कर मार दिया और कहा कि ठहर बदमाश! वह पात्र कहीं उनसे ज्यादा समझदार रहा होगा, उसने जूता उठा कर सिर से लगा लिया और उसने कहा: इससे बड़ा पुरस्कार मुझे कभी नहीं मिला। विद्यासागर जैसा आदमी भी नाटक को असली समझ ले, यह मेरे अभिनय की खूबी हो गई।
हम तो नाटक को भी भूल जाते हैं कि वह नाटक है। जब कि जानना जरूरी यह है कि जीवन नाटक है। और हम भूल जाते हैं कि नाटक नाटक है। नाटक जीवन मालूम होने लगता है। जब कि जरूरी यह है कि जीवन नाटक मालूम हो। तब तो तटस्थ हो सकते हैं, तब तो दूर हो सकते हैं। विचार पर्दों पर चलता हुआ नाटक रह जाए तो ही आप दूर हो सकते हैं। लेकिन अभी तो हमारी स्थिति यह है कि नाटक भी बहुत जल्दी जीवन का हिस्सा हो जाता है, उसको भी हम समझ लेते हैं। नाटक में भी रोते हैं और हंसते हैं, वहां भी आंसू पोंछते हैं। तो जब पर्दे पर चलती हुई तस्वीर हमारे प्राणों को ऐसा आच्छादित कर लेती हो, तो तटस्थ रहना बड़ा मुश्किल हो जाता है। लेकिन निरंतर-निरंतर बोध से, विवेक से, प्रज्ञापूर्वक स्मृति से, उस ध्यान से असंभव नहीं है।
तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे जीवन की छोटी-छोटी चीजों में तटस्थ होना सीखें। कभी एकाध घड़ी को रास्ते पर चलते हुए अचानक रुक जाएं और सिर्फ तटस्थ होकर देखने लगें, यह क्या हो रहा है? कभी अपने परिवार में ही एक क्षण को तटस्थ हो जाएं बोधपूर्वक और देखें कि सब नाटक हो रहा है। कभी भी, कहीं भी थोड़ी देर के लिए एकदम रुक जाएं और देखें कि सब नाटक हो रहा है। ऐसे धीरे-धीरे आपके भीतर साक्षी होने की क्षमता विकसित होगी और तब विचार के तल पर आप साक्षी हो सकेंगे। जिस दिन विचार के तल पर आप साक्षी हो जाएंगे, उसी दिन, उसी दिन एक अभिनव, एक अभिनव लोक, एक अभिनव द्वार आपके सामने खुल जाएगा। आप पहली दफा जीवन से परिचित होंगे। उसके पहले हम केवल मृत्यु से परिचित हैं।
मैंने पहले दिन मृत्यु के संबंध में आपसे कहा था कि हम करीब-करीब मुर्दा हैं, मरते जा रहे हैं, जीवन का हमें कोई पता नहीं है। जीवन हमारे भीतर बंद है, कैद है, द्वार पर ताला पड़ा है। उस ताले को तोड़े बिना भीतर जाना और जीवन को जानना मुश्किल है। वह ताला विचार का है। वह ताला विचार के साथ आइडेंटिटी, तादात्म्य का है। वह ताला विचार के साथ ममत्व का है। वह ताला विचार के साथ परिग्रह का है। अगर ये विचार सब भांति क्षीण हो जाएं, यह विचारों की दौड़ और ऊहापोह बंद हो जाए और चित्त शांत हो जाए, निस्तरंग, उस निस्तरंग चित्त में हम उस जीवन को जान सकते हैं।
प्रत्येक के भीतर अमृत बैठा है। और प्रत्येक के भीतर मूल जीवन, आदि जीवन की ऊर्जा छिपी है। लेकिन बहुत कम हैं जो उससे परिचित हो पाते हैं। लेकिन कोई भी, कोई भी प्रयास करे और आकांक्षा करे और श्रम करे और संकल्प करे तो परिचित हो सकता है।
इस संबंध में जो कुछ पूछने को हो, वह मैं संध्या आपसे बात करूंगा।
ये तीन--विचार, अविचार और निर्विचार के संबंध में जो मैंने कहा है, उसे समझने की कोशिश करेंगे, तो निश्चित ही कोई परिणाम हो सकता है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।