QUESTION & ANSWER
Chit Chakmak Lage Nahin (चित चकमक लागै नहीं) 05
Fifth Discourse from the series of 6 discourses - Chit Chakmak Lage Nahin (चित चकमक लागै नहीं) by Osho.
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सबसे पहले विचार के संबंध में सुबह मैंने बोला है।
पूछा है:
भगवान, विचार किसी भी व्यक्ति या शास्त्र का हो, जब वह आत्मसात हो जाता है, तो वह निजी का बन जाता है।
यह बात बहुत बार कही जाती है कि जब कोई विचार आत्मसात हो जाए, तो वह निजी का बन जाता है। लेकिन विचार के आत्मसात होने का क्या अर्थ है? और क्या कोई विचार आत्मसात हो सकता है?
मेरे देखे कोई विचार आत्मसात नहीं हो सकता है। हां, यह भ्रम हो सकता है कि विचार आत्मसात हुआ। यदि किसी विचार पर निरंतर आग्रहपूर्वक श्रद्धा की जाए, किसी विचार को निरंतर स्मरण किया जाए, किसी विचार को निरंतर दोहराया जाए, तो हम एक तरह का आत्मभ्रम पैदा कर सकते हैं कि वह विचार हमारे भीतर प्रविष्ट हो गया।
जैसे उदाहरण को, एक फकीर कुछ दिन पहले मुझसे मिलने आए। उन्होंने मुझसे कहा: मुझे सब जगह परमात्मा के दर्शन होते हैं--वृक्ष में, पशु में, पक्षी में, जहां भी देखता हूं वहां मुझे परमात्मा ही दिखाई पड़ता है। उनके साथ उनके भक्त भी आए थे। उन्होंने भी मुझसे यही प्रशंसा कर रखी थी कि जिनको वे मुझसे मिलाने ला रहे हैं, उन्हें सब जगह परमात्मा का दर्शन होता है। पत्ते-पत्ते में उन्हें उसी की नजर दिखाई पड़ती है, वही दिखाई पड़ता है, उसी की सूरत दिखाई पड़ती है।
फिर वे मुझसे मिलने आए। तो मैंने उनसे पूछा कि यह जो परमात्मा का आपको दर्शन हो रहा है, यह आपने विचार को बार-बार अनुभव करके उपलब्ध किया है या कि निर्विचार होकर उपलब्ध किया है? आपने ऐसा बार-बार सोचा है क्या कि सब तरफ परमात्मा है? क्या निरंतर सतत इस बात की स्मृति रखी है कि फूल में, पत्ते में, पौधे में सब जगह परमात्मा है?
उन्होंने कहा: मुझे बीस वर्षों तक इसी की साधना करनी पड़ी है। इसी विचार को, इसी पवित्र विचार को मैं चौबीस घंटे स्मरण करता रहा हूं। अब तो मुझे सब तरफ परमात्मा दिखाई पड़ने लगा है।
मैंने उनसे कहा: कृपा करें, एक सप्ताह के लिए यह विचार करना छोड़ दें। और एक सप्ताह बाद मुझे कहें कि क्या हुआ।
उन्होंने कहा: तब तो बहुत मुश्किल होगा। अगर मैं विचार करना छोड़ दूंगा, तो फिर परमात्मा दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा।
तो बीस वर्ष तक विचार किया कि सब जगह परमात्मा है, तो मन में एक भ्रम पैदा हो गया कि सब जगह परमात्मा है। सात दिन के लिए छोड़ देंगे, तो परमात्मा फिर विलीन हो जाएगा। तो यह तो मन की कल्पित स्थिति हुई, यह तो प्रोजेक्शन हुआ। यह तो मन के ही किसी विचार को निरंतर खयाल करने से दिखाई पड़ने का भ्रम हुआ। यह तो सपना हुआ। और विचार इसी भांति आत्मसात होता है। यह कोई विचार का भीतर जीवन में अनुभव होना नहीं है, बल्कि मनुष्य के भीतर वह जो भी कल्पना करे, उसे देखने की क्षमता है। एक आदमी निरंतर विचार करता रहे।...
आज ही एक मित्र ने मुझसे आकर कहा कि हम निरंतर यही विचार करते हैं--मैं शरीर नहीं हूं, मैं मन नहीं हूं, मैं तो आत्मा हूं। तो मैं इस विचार को करूं या न करूं? मैंने उनसे कहा: इसे भूल कर भी मत करना। क्योंकि बार-बार इस विचार को करने से ऐसा लगने लगेगा कि न मैं शरीर हूं, न मैं मन हूं, मैं तो आत्मा हूं। लेकिन यह लगना झूठा होगा। यह केवल निरंतर विचार के दोहराने से पैदा हुआ भ्रम है। यह कोई अनुभूति नहीं है। यह आत्म-सम्मोहन है, यह ऑटो-हिप्नोसिस है। किसी भी विचार को बार-बार दोहराएंगे वैसा लगने में कोई कठिनाई नहीं है। यह आत्म-सम्मोहन इतने दूर तक जा सकता है जिसका कोई हिसाब नहीं। कोई भी बात को पुनरुक्त करें।
मेरे एक शिक्षक थे, जब मैं पढ़ता था, उनसे मैंने यह कहा। वे निरंतर...कृष्ण के भक्त थे और निरंतर यही खयाल करते थे कि सब जगह कृष्ण दिखाई पड़ें। मैंने उनसे कहा कि जब तक नहीं दिखाई पड़ते तब तक सौभाग्य है; जिस दिन सब तरफ दिखाई पड़ने लगेगा उस दिन आप करीब-करीब पागल की स्थिति में होंगे। क्योंकि वह विचार का प्रक्षेपण होगा, वह कोई अनुभव नहीं होगा। उन्होंने कहा: यह हो ही कैसे सकता है? केवल कल्पना करने से थोड़े ही कुछ दिखाई पड़ सकता है, जब तक कि वह हो ही न। केवल कल्पना करने से कैसे सबमें भगवान या कृष्ण के दर्शन होंगे? कृष्ण होंगे तो ही तो दर्शन होंगे।
मैंने बात सुन ली और उस दिन उनसे कुछ भी नहीं कहा। जिस विश्वविद्यालय में वे पढ़ाने आते थे, उससे और उनके मकान का फासला कोई एक मील का था। दूसरे दिन मैं गया। उनके पड़ोस में जो व्यक्ति रहते थे उनकी पत्नी को मैं कह आया कि कल सुबह उठ कर ही, मेरे जो अध्यापक थे उनका नाम उनको बता आया, उठ कर ही जैसे ही उनके तुम्हें दर्शन हों, जैसे वे दिखाई पड़ें उनसे कहना कि आज आप बहुत बीमार मालूम पड़ते हैं, क्या तबीयत खराब है? और वे क्या कहते हैं, ठीक उनके शब्द लिख रखना, एक भी शब्द में फर्क मत करना। और थोड़े आगे एक चपरासी रहता था, उसको भी मैं कह आया कि जब वे यहां से निकलें, तो तुम कहना कि आज आप बहुत पीले-पीले मालूम पड़ते हैं, क्या बात है? और वे जो कहें, तुम लिख कर रख लेना, उसमें जरा भी फर्क मत करना। जो वे कहें, वही लिख लेना। और ऐसा मैं दस-पंद्रह लोगों को उनके पूरे रास्ते पर समझा आया। उन सबने कहा: मामला क्या है? मैंने कहा: मैं कुछ प्रयोग कर रहा हूं, आप कृपा करके सहायता कर दें।
दूसरे दिन वे सुबह उठे और उनकी पड़ोसन ने उनसे कहा कि क्या बात है, आज तो आप बहुत बीमार से मालूम पड़ते हैं? उन्होंने कहा: बीमार? मैं तो बिलकुल स्वस्थ हूं। कैसी बीमारी! मैं तो बिलकुल बीमार नहीं हूं। मैं तो बिलकुल ठीक हूं। जब वहां से निकले और उनके चपरासी ने उनसे पूछा कि आज तो आप बहुत बीमार से मालूम पड़ते हैं। उन्होंने कहा: कुछ ऐसा लगता है, रात से कुछ तबीयत ढीली है।
वे और आगे आए। उन्हें दो-चार विद्यार्थी मिले। उन्होंने भी कहा कि आज हम पीछे से देखते हैं, आपके पैर कुछ कंपते से मालूम पड़ते हैं, कुछ तबीयत खराब है? उन्होंने कहा: हां, रात से ही कुछ मेरी तबीयत खराब है। मन तो मेरा नहीं था कि आज विश्वविद्यालय आऊं, लेकिन सोचा कि...। वे और आगे आए। और विश्वविद्यालय का पुस्तकालय था, और वहां उन्हें दो-चार लड़कियां मिलीं और उन्होंने पूछा कि आज आप बहुत बीमार मालूम पड़ते हैं, बुखार में हैं? उन्होंने कहा कि आज दो-तीन दिन से तबीयत ढीली थी, रात से तो बुखार चढ़ा हुआ है।
वे जब कक्षा के बाहर आए, तो मैं वहां खड़ा था, मैंने उनसे कहा कि आप तो आज बहुत अस्वस्थ मालूम पड़ते हैं। वे बोले: मैं सिर्फ, आज पढ़ाऊंगा नहीं, सिर्फ विभाग के अध्यक्ष को कहने आया हूं कि तबीयत मेरी खराब है। मैं वापस जा रहा हूं। फिर वे वापस पैदल नहीं गए, फिर वे वापस तांगा बुला कर गए।
सांझ को हम सब उनके पास पहुंचे। वे तो बिस्तर में पड़े थे और गहरे बुखार में थे। मैंने उनकी पत्नी को कहा कि इनका बुखार तो नापो। उन्हें एक सौ दो बुखार था। मैंने उनसे कहा: आप उठ आइए, यह बुखार झूठा है।
वे बोले: मतलब?
मैंने कहा: ये सारे लोग खड़े हैं जिन्होंने आपसे सुबह निवेदन किया था कि क्या आपकी तबीयत खराब है। उन सबको मैं ले गया था। वे देख कर चौंक गए और बैठ गए। बोले: मतलब क्या है? मैं कुछ समझा नहीं।
मैंने कहा: यह मैं कृष्ण का दर्शन करा रहा हूं आपको। यह बुखार झूठा है, यह जो आप पर आया हुआ है। आप उठ आइए, आपकी तबीयत खराब नहीं है। यह आपकी पहली चिट्ठी है, जो आपने सुबह उठ कर कहा था कि मैं बिलकुल ठीक हूं। यह आपकी दूसरी चिट्ठी है, जो आपने कहा कि हां, रात से कुछ तबीयत ढीली है। यह आपकी तीसरी चिट्ठी है, आपने कहा, हां, दो-तीन दिन से कुछ तबीयत ढीली थी, रात बुखार हो गया। ये आपके सब उत्तर हैं जो आपने सुबह डेढ़ घंटे, दो घंटे के भीतर दिए हैं। और यह आप लेटे हैं। और यह थर्मामीटर है। और यह एक सौ दो डिग्री बुखार है। और यह बिलकुल झूठा है। यह केवल मानसिक कल्पना है और प्रक्षेप है।
बुखार भी पैदा हो सकता है, आदमी मर भी सकता है। और आदमी जो देखना चाहे वह देख भी सकता है।
यह किसी विचार का आत्मसात होना नहीं है। यह किसी विचार का मन के ऊपर घने अंधकार की भांति छा जाना है। इससे जो प्रतीतियां होंगी, वे असत्य होंगी।
विचार को आत्मसात नहीं करना है, बल्कि सब विचारों को विदा दे देनी है, ताकि आपके भीतर अपने विचार का आविर्भाव हो सके। आत्मसात नहीं, आविर्भाव।
किसी दूसरे के विचार को या किसी धारणा को, या किसी कल्पना को, या किसी विचार को आग्रहपूर्वक अपने ऊपर ओढ़ लेना, इससे बड़ा धोखा, इससे बड़ी गलती, इससे बड़ी भूल और दूसरी नहीं है।
भगवान के दर्शन हो सकते हैं। बड़े आसानी से मुरली मनोहर दिखाई पड़ सकते हैं, या सूली पर लटके हुए क्राइस्ट दिखाई पड़ सकते हैं, या धनुर्धारी राम दिखाई पड़ सकते हैं, या जो आपके मन में आए, या जो आपकी कल्पना आपको सुझाए, वैसे भगवान के दर्शन हो सकते हैं। लेकिन ये दर्शन सत्य के दर्शन नहीं हैं। यह मनुष्य की अपनी ही कल्पना का विस्तार है। और मनुष्य के मन की बड़ी शक्ति है।
मनुष्य के मन की बड़ी शक्ति है, वह कल्पित से कल्पित चीज को भी प्रत्यक्ष कर सकता है। स्त्रियों में पुरुषों से यह शक्ति ज्यादा है। इसलिए स्त्रियों को और जल्दी भगवान के दर्शन हो सकते हैं। साधारण मनुष्यों से कवियों में यह शक्ति थोड़ी ज्यादा है। इसलिए कवियों को और जल्दी भगवान के दर्शन हो सकते हैं। भगवान के भक्तों ने जो गीत गाए हैं और जो कविता की है, वह आकस्मिक नहीं है। वे भटके हुए कवि हैं, जो भक्त हो गए हैं। वे कवि हैं मूलतः। कल्पना उनकी प्रखर और तीव्र है, भटक गए हैं। भगवान की तरफ कविता लग गई है। कल्पना भगवान की तरफ लग गई है, तो वे भगवान के दर्शन कर लेते हैं। भगवान से बातें कर सकते हैं। भगवान का हाथ पकड़ कर चल सकते हैं। इसमें कोई कठिनाइयां नहीं हैं। लेकिन यह सब रुग्ण मन की स्थिति है, यह कोई स्वस्थ मन की स्थिति नहीं है।
और इस रुग्ण मन की स्थिति को लाने के बहुत उपाय हैं। और अगर इस रुग्ण मन की स्थिति को लाना हो, तो कुछ सहयोगी, सहयोगी मार्ग हैं। हजारों साधु और संन्यासी गांजा और अफीम पीते रहे हैं, ताकि यह रुग्ण-चित्त की स्थिति पैदा हो जाए, भगवान के दर्शन हो जाएं। सारी दुनिया में अनेक-अनेक प्रकार के नशे संन्यासियों ने किए हैं, भक्तों ने किए हैं। इस इरादे में कि उस चित्त की धूमिल और नशे की स्थिति में साक्षात जल्दी हो जाता है। लेकिन इससे आप चौंकना मत। अगर लंबा उपवास किया जाए, तो भी मन शिथिल और रुग्ण हो जाता है। और लंबे उपवास का भी वही रासायनिक परिवर्तन होता है चित्त पर शिथिलता का और कमजोरी का कि उस क्षण कल्पना प्रखर हो जाती है और आसान हो जाती है।
अगर कभी गहरे बुखार में आप पड़े हों और कुछ दिन भोजन न किया हो, तो आपको पता होगा मन कैसी-कैसी कल्पनाएं करने लगता है। आकाश में उड़ने लगता है मय पलंग के, मय खाट के आकाश छूने लगता है। न मालूम क्या-क्या दिखाई पड़ने लगता है। न मालूम कौन-कौन से भूत-प्रेत आस-पास खड़े हो जाते हैं।
रुग्ण-चित्त, अस्वस्थ, कमजोर चित्त कल्पना करने में तीव्र और प्रखर हो जाता है। पैथालॉजिकल माइंड, जितना ज्यादा बीमार चित्त हो। तो चित्त को बीमार करने के बहुत उपाय हैं। उसमें एक उपाय यह है कि बहुत लंबे उपवास किए जाएं, तो चित्त की क्षमता क्षीण होती है, शरीर की क्षमता क्षीण होती है। और भोजन न मिलने से शरीर के कुछ तत्व समाप्त हो जाते हैं, जिनकी बहुत जरूरत है। और शरीर में एक केमिकल चेंज, एक रासायनिक परिवर्तन होता है।
वह परिवर्तन वैसा ही है जैसा शराब पीने से भी रासायनिक परिवर्तन होता है, ड्रग लेने से भी, मैस्कलीन, एल एस डी लेने से भी जो रासायनिक परिवर्तन होता है। आज नहीं कल, जिस दिन हम मनुष्य की आर्गनिक केमिस्ट्री मेंउसके शरीर के पूरे रसायन को समझने में समर्थ हो जाएंगे, तो यह कोई आश्चर्य की बात न होगी कि यह सिद्ध हो जाए कि उपवास से और नशे से शरीर में बुनियादी रूप से एक से रासायनिक परिवर्तन हो जाते हैं। और उन रासायनिक परिवर्तनों की स्थिति में मनुष्य की कल्पना प्रखर हो जाती है, तीव्र हो जाती है। उस प्रखर और तीव्र कल्पना में कुछ भी आत्मसात हो जाता है, कुछ भी दर्शन हो जाते हैं।
यह आपको शायद ज्ञात न हो, दुनिया के जितने बड़े कवि, बड़े उपन्यासकार, बड़े नाटककार बड़े कल्पना-प्रवण लोग हैं। इन सबको भी अपने पात्रों के दर्शन होते रहते हैं।
लियो टाल्सटाय एक लाइब्रेरी से गिर पड़ा था चढ़ते वक्त। टाल्सटाय के नाम से हम सब परिचित होंगे। लाइब्रेरी पर चढ़ रहा था सीढ़ियों पर। संकरा रास्ता था। रिसरेक्शन नाम के उपन्यास को लिखता था उन दिनों। उसमें एक स्त्री पात्र उसके साथ चल रही थी। वह कहीं थी नहीं स्त्री। वह जो उपन्यास लिख रहा था, उसकी एक पात्र उसके साथ चल रही थी। उससे बातें करता हुआ सीढ़ियां चढ़ रहा था। संकरा था रास्ता। ऊपर से एक आदमी उतर रहा था। स्त्री को धक्का न लग जाए। दो के लायक रास्ता काफी था, लेकिन तीन के लायक नहीं था। और तीन आदमी होते तो भी निकल जाते। दो आदमी, एक औरत जरा मुश्किल थी। और भी, रास्ता छोटा था, अब एक औरत को धक्का न लग जाए दोनों तरफ से, तो टाल्सटाय बचा, सीढ़ियों से नीचे गिरा, पैर टूट गया।
दूसरा आदमी हैरान हुआ! उसने कहा: आप बचे क्यों? हम दो के लिए काफी रास्ता था।
उसने कहा: दो कहां, वहां तीन थे। मेरी एक पात्र भी मेरे साथ थी। उसको बचाने के लिए गिर पड़ा।
और यह कोई एकांगी घटना नहीं है। दुनिया के सभी कवियों, सभी उपन्यास लेखकों, सभी कल्पनाशील लोगों के साथ यह हुआ है। होता रहा है।
अलेक्जेंडर ड्यूमा, कई बार लोग हैरान हो गए उसके घर में। एक बार उसने पेरिस में अपना मोहल्ला बदला। पुराने मोहल्ले के लोग तो परिचित हो गए थे, नये मोहल्ले के लोग परिचित न थे। वह अपने कमरे के भीतर पहली ही रात किसी से तलवार लेकर इस भांति लड़ने लगा कि आस-पास के लोग परेशान हुए। कमरे में दो तरह की आवाजें भी आ रही थीं। दो आदमियों के होने का शक था। तलवारें खटाखट टकरा रही थीं। मोहल्ले के लोगों ने पुलिस को खबर कर दी कि कुछ गड़बड़ है भीतर। अंधेरी रात में दरवाजे सब बंद हैं और यह नया आदमी आया है, भीतर तलवार चल रही है और जोर की आवाजें आ रही हैं। दो तरह की आवाजें हैं। बड़ी क्रोध की आवाजें हैं।
पुलिस आ गई, दरवाजा तोड़ कर खोला गया। अलेक्जेंडर ड्यूमा अकेली तलवार लिए हुए कमरे के भीतर खड़े थे। लोग हैरान हुए। कहा कि दूसरा आदमी कहां गया? ड्यूमा थोड़े नशे से नीचे उतरे। पूछा: कौन सा दूसरा आदमी? अरे, माफ करिए! वह तो मेरा एक पात्र है, जो मैं नाटक लिख रहा हूं, उससे द्वंद्व-युद्ध, ड्यूअल हो रहा है। तो आवाजें दो तरह की आती थीं? तो बोले: एक दफा मैं उसकी तरफ से बोलता था, एक दफा अपनी तरफ से बोलता था।
ड्यूमा के लिए बहुत वास्तविक था वह दूसरा व्यक्ति। अगर ये ड्यूमा कहीं भूले-भटके भक्त हो जाते, भक्ति के मार्ग पर चले जाते, इनको भगवान का दर्शन बहुत सरल था। अगर ये टाल्सटाय कहीं भक्त हो जाते, तो जैसे इनके बगल में पात्र चल रहा था वैसे ही श्रीकृष्ण भगवान या रामचंद्र जी भी, या कोई और, वे भी चल सकते थे। उसमें कोई कठिनाई नहीं। उसमें कोई भेद भी नहीं है।
मनुष्य का मन है कल्पनाशील। कोई भी विचार, कोई भी धारणा को निरंतर दोहराने से आत्म-सम्मोहन पैदा होता है और वह कल्पना प्रत्यक्ष की जा सकती है। लेकिन यह कोई सत्य का अनुभव नहीं है।
सत्य का आविर्भाव होता है, आत्मसात नहीं।
मैं यह कल निवेदन करूंगा कि चित्त कैसे समस्त विचारों से शून्य हो जाए, निर्विचार हो जाए। वही है ध्यान। वही है समाधि। उस समाधि में जो अनुभव होता है, वह सत्य है।
कोई विचार तब तक आपका नहीं है जब तक आपने आत्मसात किया हो। विचार तभी आपका है जब उसका आविर्भाव हो, वह आपके भीतर जन्मे। और वह तभी होगा जब आप सब विचारों को, सब धारणाओं को विदा दे दें। निष्धारण, निर्विचार, सब धारणाओं से शांत और शून्य जो हो जाता है, वही खुद के विचार को, खुद की अनुभूति को, खुद के सत्य को उपलब्ध होता है।
आत्मसात नहीं करना है, आविर्भाव करना है। आत्मसात करने की प्रक्रियाओं ने ही मनुष्य के जीवन से परमात्मा को दूर किया है और मनुष्य के जीवन से धर्म को नष्ट किया है। धर्म तब सत्य की खोज न रह कर केवल कल्पना का खेल रह गया।
आज ही कोई मेरे पास आए थे और वे पूछते थे कि
भगवान, भक्तों को भगवान के दर्शन हुए हैं। और अगर हम उनका नाम न लेंगे, तो फिर हमको दर्शन कैसे होगा? उनकी मूर्ति की कल्पना न करेंगे, तो फिर दर्शन कैसे होगा?
नहीं दर्शन होगा यह शुभ है। क्योंकि किसी भ्रम में और किसी कल्पना में पड़ जाने से कोई हित नहीं है। हां, यह हो सकता है कि सपना बहुत मधुर हो और बहुत अच्छा लगे। लेकिन फिर भी सपना सपना है। कल्पना कल्पना है, चाहे कितना ही सुख देती मालूम पड़े। और ऐसी कल्पना जो सुख देती हो उस कल्पना से खतरनाक है जो दुख देती हो। क्यों? क्योंकि दुख देने वाली कल्पना से जागना आसान होता है और सुख देनी वाली कल्पना में तो और सोने का मन होता है, जागने की इच्छा नहीं होती है।
धन्य हैं वे लोग जो दुखद सपने देखते हैं, क्योंकि उनको सपने तोड़ने की इच्छा पैदा होगी। और अभागे हैं वे लोग, जो ऐसे सपने देखते हैं जो बहुत सुखद हैं, क्योंकि फिर उन सपनों से जागने की इच्छा नहीं होती है। वह बहुत घातक, बहुत विषाक्त, बहुत नशीली स्थिति हो जाती है।
मैं कोई आत्मसात करने को नहीं कह रहा हूं--किसी भी विचार, किसी भी धारणा, किसी भी कल्पना को; वरन यह कह रहा हूं कि सब धारणाएं, सब विचार, सब कल्पनाएं जब आपसे विदा हो जाती हैं, तब शेष रह जाती है आपकी चेतना। उस शेष चेतना में प्रश्न उठते हों, उस शेष चेतना में समस्या मात्र खड़ी रह जाए--नग्न समस्या, नग्न प्रश्न--तो उस प्रश्न की पीड़ा में जब कोई कल्पना, कोई स्मृति उत्तर देने को न होगी, तो आपके प्राणों से ही उत्तर, आपके प्राणों से ही समाधान आएगा। वह समाधान आपका निजी अनुभव है, निजी विचार है। कोई आत्मसात करने से विचार आपका नहीं होता है, न हो सकता है, न होने का कोई उपाय है।
दूसरा प्रश्न भी कुछ पहले से ही संबंधित है।
पूछा है:
पूछा है कि भगवान, आप कहते हैं विचार करने को, लेकिन अकेले विचार करने से क्या होगा? मैं तो विचार करते-करते विचारों में ही डूब जाता हूं और आचरण तो बदल नहीं पाता। आचरण वही का वही रह जाता है। तो यह बताइए आचरण कैसे बदले?
सामान्यतः यह कहा जाता है कि विचार का क्या मूल्य है, मूल्य तो है आचरण का। यह बात एकदम ही झूठी और व्यर्थ है। यह इसलिए झूठी और व्यर्थ है कि आचरण तो बहुत गहरे में विचार की ही अभिव्यक्ति है। जहां विचार का बीज नहीं है, वहां आचरण का पौधा भी नहीं हो सकता है। हां, यह हो सकता है कि झूठा आचरण ऊपर से ओढ़ लिया जाए। लेकिन झूठे आचरण का कोई भी मूल्य नहीं है सिवाय इसके कि उससे दूसरों को धोखा दिया जाता है और खुद का जीवन नष्ट होता है।
यह जो पूछा है कि ‘अकेले विचार से क्या होगा?’
यह इसलिए पूछा है और इसलिए प्रश्न उठता है--अगर मैं आपसे प्रार्थना करूं, तो मैं यह कहूंगा: अभी आपके भीतर विचार का जन्म ही नहीं हुआ। आप दूसरों के विचारों को अपना विचार समझ रहे हैं। इसलिए विचार और आचरण में मेल बिठाने की समस्या खड़ी हो गई है। अगर आपका ही विचार होगा, तो यह असंभव है कि उसके विपरीत आचरण हो जाए। अगर आपका ही विचार होगा, तो आचरण तो विचार की छाया की भांति पीछे चलता है। जैसे बैलगाड़ी निकलती है, तो पीछे गाड़ी के चाक के निशान बन जाते हैं, वैसे ही जहां भी विचार का आविर्भाव होता है वहीं पीछे आचरण की लीक और निशान बन जाते हैं। आचरण लाना नहीं पड़ता है, आचरण अपने आप आता है।
विचार है केंद्र, विचार है प्राण और विचार है आत्मा। लेकिन चूंकि हमारे पास अपने कोई विचार ही नहीं हैं, हमने सब विचार उधार सीखे हुए हैं। दूसरों के बासे और जूठे विचार हम इकट्ठे किए हैं। और उसको अपनी संपत्ति समझे हुए हैं। उन जूठे और बासे विचारों में से आचरण नहीं निकलता, इसलिए मुश्किल होती है। इसलिए सवाल यह उठता है कि विचार और आचरण में मेल कैसे हो? यह निपट मूर्खतापूर्ण बात है।
जहां विचार और आचरण में मेल बिठालने का खयाल आ जाए, वहां समझ लेना कि विचार बासा है, पुराना है, जूठा है, दूसरे का है, मेरा नहीं है। सत्य बोलना चाहिए, और प्रेम करना चाहिए, और पड़ोसी को वैसा ही प्रेम करना चाहिए जैसा अपने को, और किसी से धोखा नहीं, और किसी से झूठ नहीं, और चित्त में कोई व्यभिचार नहीं, कोई वासना नही, कोई कामना नहीं, ये सारे के सारे विचार दूसरों से लिए हुए हैं। इन सबके विपरीत आचरण है, तो बड़ी बेचैनी और तकलीफ होती है कि कैसे विचार और आचरण में मेल बैठे? नहीं बैठ सकता। नहीं बैठ सकता, कोई रास्ता बैठने का नहीं है।
यह बात बहुत मौलिक रूप से जाननी जरूरी है कि आचरण आपका है और विचार दूसरे के हैं। अगर आप चोर हैं, वह चोर होने का आचरण ही आपका है। और यह खयाल कि अचोरी धर्म है, चोरी न करना बड़ा पुण्य है, बड़ी ऊंची बात है, यह दूसरे का है। आचरण आपका है, विचार दूसरे का है, मेल कैसे होगा? विचार महावीर का होगा, बुद्ध का होगा, कृष्ण का, क्राइस्ट का होगा, आचरण आपका है। महावीर का जो विचार था महावीर का आचरण उसके अनुकूल था, उसके पीछे था, उसकी छाया थी। आप विचार तो उधार ले लिए, लेकिन आचरण कहां से उधार लाएंगे? आचरण तो नहीं ला सकते हैं महावीर का, बुद्ध का, क्राइस्ट का। विचार ला सकते हैं। विचार मुफ्त मिल जाता है, आचरण तो नहीं मिलता।
सो विचार तो है बड़े-बड़ों का, आचरण है अपना। इन दोनों में बड़ा फासला हो जाता है, बड़ा द्वंद्व हो जाता है, बड़ी पीड़ा, बड़ा दुख हो जाता है। और भीतर एक कांफ्लिक्ट हो जाती है सतत, चौबीस घंटे, जिसमें व्यर्थ ही नरक में सड़ना हो जाता है। आचरण वही का वही रहता है। रोज कसमें लें, रोज व्रत लें, रोज मंदिर में जाकर प्रण करें, कुछ फर्क न पड़ेगा। विचार दूसरे के हैं। फिर कैसे फर्क पड़ेगा?
जब ऐसा द्वंद्व दिखाई पड़े, तो जो विवेकशील है, वह पहला निर्णय तो यह लेगा कि मैं, जो मेरा आचरण है, उसे ही अपना वास्तविक होना फिलहाल समझूं, वही मैं हूं। और फिर मैं क्यों स्वीकार करूं किसी के विचार को? क्यों न मैं खोजूं? क्यों न मैं खुद विचारूं? क्यों न मैं जीवन के अनुभव से निकालूं? क्यों न मैं शांत होकर खुद अपने प्राणों में खोदूं और पाऊं कि क्या है? कभी आपने खुद खोदा है अपने भीतर इस बात को? कभी आपने अपने भीतर इस बात की तलाश की है क्या कि क्रोध आनंद नहीं ला सकता? कभी इस बात को अपने जीवन की पर्त-पर्त में आपने अनुसंधान किया है?
नहीं; आप कहेंगे कि क्रोध तो बहुत बुरी चीज है। यह किसी और की बात आप दोहरा रहे हैं। या आपके प्राण जिस दिन स्वयं अनुभव करते हैं कि क्रोध विष है, क्रोध दुख है, पीड़ा है। जिस दिन आपके प्राण इस संताप से भर जाते हैं क्रोध के दुख और विषाक्त होने से, उस दिन क्या संभव है कि फिर आप क्रोध कर सकें? कभी जब आप क्रोध में रहे हैं, तो क्या आपने शांत बैठ कर एक कोने में सब द्वार बंद करके खोज की है कि क्रोध में मेरा क्या हो रहा है? क्या आपने उस वक्त क्रोध की जलती हुई आग में अपने प्राणों को झुलसते हुए देखा है और दर्शन किया है? जब क्रोध जल रहा हो, तब आप कभी मौन बैठ कर देखे हैं आंख डाल कर भीतर कि क्या हो रहा है? अगर एक बार भी यह देखा होता, और अगर एक बार भी क्रोध की पूरी जलन और झुलस और क्रोध की पूरी पीड़ा और नरक आपके सामने स्पष्ट हो गया होता--फिर कौन था जो आपको क्रोध में जाने के लिए दुबारा राजी कर सकता?
लेकिन नहीं, यह कभी नहीं देखा है। हां, जब क्रोध चला जाता है और क्रोध का धुआं उड़ जाता है, तब हम गीता लेकर बैठ जाते हैं, महावीर-वाणी लेकर बैठ जाते हैं, बुद्ध के वचन, और सोचते हैं कि क्रोध तो बड़ी बुरी बात है। यह मैं कैसा बुरा काम कर रहा हूं। यह तो नहीं करना चाहिए। ऐसी दोहरी मुश्किल हो जाती है--क्रोध अलग, क्रोध का पश्चात्ताप अलग।
क्रोध अलग कष्ट देता है, क्रोध का पश्चात्ताप अलग कष्ट देता है। और यह पश्चात्ताप कोई अर्थ नहीं रखता। क्रोध तो अब चला गया, अब क्रोध को देखने का कोई उपाय न रहा। जब क्रोध था, तब यह पूरे विवेक और विचार को लेकर अगर क्रोध का दर्शन किया होता, तो वह दर्शन आपके जीवन में उस अनुभूति का जन्म देता जहां आप जानते कि क्रोध क्या है। और वह जानना, वह ज्ञान आपके आचरण को बदल देता।
मैं नहीं कहता कि क्रोध के लिए पश्चात्ताप करें, मैं कहता हूं, क्रोध का दर्शन करें। मूढ़ हैं जो पश्चात्ताप करते हैं। जीवन भर पश्चात्ताप करेंगे, कहीं पहुंच नहीं सकते। और पश्चात्ताप क्यों करते हैं आप, पता है? इसलिए नहीं कि क्रोध बुरा है। पश्चात्ताप इसलिए करते हैं कि क्रोध के कारण जो आपको खुद पीछे से छाया मिलती है कि मैं कैसा दीन-हीन हो गया। क्रोध के पीछे, क्रोध के उतार पर जब आपको पता लगता है कि मैं कैसा दुष्ट सिद्ध हुआ क्रोध में, कैसी मैंने गालियां बकीं, कैसे मैंने अपशब्द कहे, तब आपके अहंकार को चोट लगती है। क्योंकि आप तो समझते हैं मैं बहुत भला आदमी हूं जो बुरी बातें कह नहीं सकता। अहंकार को लगती है चोट, तो फिर अहंकार को फिर से फुसलाने के लिए, फिर से सजाने के लिए पश्चात्ताप करते हैं। मंदिर में कसम खाते हैं, फिर निर्णय करते हैं कि अब कभी क्रोध नहीं करूंगा। और ऐसा निर्णय करके फिर सज्जन बन जाते हैं, फिर अक्रोधी बन जाते हैं, फिर भले आदमी बन जाते हैं। फिर क्रोध करते हैं, फिर पश्चात्ताप करते हैं।
पश्चात्ताप क्रोध के लिए नहीं है। खुद की आंखों में खुद की मूर्ति जो नीचे उतर आई थी, फिर उसको वापस उठाने के लिए। वह अहंकार की पूर्ति है। वह सप्लीमेंट्री है अहंकार के लिए। वह उसका हिस्सा पूरा कर देता है। अहंकार खंडित हो जाता है, फिर उसका हिस्सा पूरा कर देता है।
ये सब ब्रह्मचर्य की कसमें, ये सब कसमें: यह व्रत कि क्रोध नहीं करूंगा, ब्रह्मचर्य से रहूंगा, फलां-ढिकां--ये सब अहंकार के पूरक हैं। इनसे कुछ होता नहीं। ये सब एकदम झूठे और मिथ्या हैं।
हो सकता है कुछ--पश्चात्ताप से नहीं, बोध से। जब जो स्थिति चित्त को पकड़ती हो, तब उसके प्रति सजग हों, जागें, उस स्थिति को खोजें कि क्या हो रहा है? उस स्थिति को पहचानें कि क्या हो रहा है? और अगर आपको दिखाई पड़ जाएगा उसका दुख और पीड़ा, तो कौन पागल है जो फिर उस दुख और पीड़ा में उतरना चाहेगा? लेकिन हमने कभी देखा नहीं।
मैं आपसे निश्चित रूप से कहता हूं: आपने बहुत बार क्रोध किया होगा, मैं फिर आपसे कहता हूं: आपने अभी क्रोध देखा नहीं। आप कहेंगे: इतनी बार क्रोध किया, देखेंगे कैसे नहीं? अगर आप देखने में समर्थ होते, तो क्रोध में असमर्थ हो जाते। सच तो यह है कि जब आप क्रोध में होते हैं तब आपके भीतर देखने की क्षमता एकदम क्षीण हो जाती है। आप नशे में होते हैं, मूर्च्छा में होते हैं, बेहोश होते हैं। इसलिए हर आदमी क्रोध में वैसे काम कर सकता है, जो जब वह होश में हो, शांत हो, तो कल्पना भी नहीं कर सकता कि मैं कर सकता हूं।
ढेर हत्यारों ने अदालतों के सामने यह कहा है कि हमने हत्या नहीं की। पहले तो अदालतें समझती थीं कि यह झूठ है। अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह सच है। उन्होंने इतने क्रोध के आवेश में हत्या की कि उस आवेश में उनके भीतर कोई कांशसनेस, कोई होश नहीं था। वे करीब-करीब बेहोश थे। इसलिए हत्या के बाद उनको याद नहीं आता कि मैंने हत्या की।
अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि वे झूठ ही नहीं बोल रहे हैं। अनेक हत्यारे याद नहीं कर सके बाद में कि उन्होंने हत्या की है। उनकी फांसी हो गई, उनको आजन्म कैद हो गई, वे जीवन भर सड़ते रहे, लेकिन वे यह स्मरण नहीं कर सके कि उन्होंने हत्या की है। वह यही कहते रहे कि मुझे याद ही नहीं पड़ता कि मैंने कभी किया। क्योंकि जिस चित्त की दशा में उन्होंने यह किया, उस चित्त की दशा में होश नाममात्र को भी नहीं था। तो फिर किसको स्मरण रहेगा? किसको याद रहेगा?
जीवन में जो भी पाप है, वह सब बेहोशी में किया जाता है। और पश्चात्ताप हम कब करते हैं? जब बेहोशी चली जाती है। इन दोनों में कोई संबंध ही नहीं हो पाता। बेहोशी में पाप करते हैं, होश में पुण्य की कसमें खाते हैं। इसका कोई संबंध ही नहीं है। इससे कोई वास्ता ही नहीं होता। इसलिए रोज उसी गड्ढे में गिरते हैं जिसमें कल तय किया था कि अब कभी न गिरेंगे। रोज वही गड्ढा फिर सामने खड़ा है। दिन में दस बार खड़ा है। और तब हम रोते हैं, पछताते हैं और सोचते हैं: ये महावीर और बुद्ध, ये कृष्ण और क्राइस्ट बड़े भगवान रहे होंगे, तभी तो क्रोध के ऊपर उठ सके। हम कैसे ऊपर उठें? हम तो रोज निर्णय करते हैं, रोज गिर जाते हैं।
नहीं, आप ही जैसे लोग थे। कोई इनमें भगवान नहीं है, कोई तीर्थंकर नहीं, कोई ईश्वर का पुत्र नहीं। आप ही जैसी हड्डियां, आप ही जैसा मांस, आप ही जैसा सब-कुछ है। आप ही जैसे जन्मते हैं, आप ही जैसे मरते हैं। कुछ विशिष्टता नहीं है। इस दुनिया में कोई मनुष्य विशिष्ट नहीं है। सभी एक जैसे मनुष्य हैं। और तब और भी आश्चर्यजनक मालूम पड़ता है कि एक आदमी कैसे ऐसा हो जाता है कि उसमें क्रोध विलीन हो गया? उसके भीतर कोई वासना की आग नहीं जलती? उसके भीतर कोई घृणा और ईर्ष्या पैदा नहीं होती?
मैं आपसे कहता हूं: हरेक के जीवन में यह हो सकता है। लेकिन हम करने के उपाय और विज्ञान से अपरिचित हैं। उपाय और विज्ञान यह है कि अपने आचरण की निंदा दूसरे के विचार के आधार पर मत करिए, बल्कि अपने आचरण का अनुसंधान करिए। अपने आचरण का दर्शन करिए। अपने आचरण के प्रति बोध से सजग हो जाइए। बुरा मत कहिए उसे। क्योंकि जो बुरा कहेगा, फिर देखने में असमर्थ हो जाता है। जिस आदमी को हम बुरा कहते हैं, फिर हम नहीं चाहते कि वह हमारे घर आए।उसकी शक्ल भी हम देखना नहीं चाहते हैं।
तो जिस कृत्य को आप बुरा कह देते हैं, बुरा कहने की वजह से आपके चित्त में और उस कृत्य में दीवाल खड़ी हो जाती है। बुरा मत कहिए क्रोध को। कोई हक नहीं है आपको बुरा कहने का। कोई हक नहीं है चोरी को बुरा कहने का। लेकिन जानिए कि यह चोरी क्या है जो मेरे भीतर है? पहचानिए बहुत शांति से, बहुत सहजता से। खोजिए कि क्या है यह क्रोध? क्या है यह काम? क्यों है? क्या है? बहुत शांति से, बहुत तटस्थता से, बिना किसी कंडेमनेशन के उसको देखिए, दर्शन करिए। यह दर्शन जिस दिन आपका सहज पूरा हो जाएगा उस दिन आपके जीवन में क्रांति खड़ी हो जाएगी। उस दिन आपके अपने विचार का जन्म होगा। और उस विचार के विपरीत आचरण न कभी हुआ है और न हो सकता है।
इसलिए मैं नहीं कहता कि आप अपने विचार और आचरण में मेल बिठाइए। कृपा करके कभी मेल मत बिठालना। आचरण सच है आपका। जैसा भी है, आचरण का दर्शन करिए। उस दर्शन से सत्य विचार का जन्म होता है। और वह सत्य विचार आपके आचरण में क्रांति बन जाता है। तब फिर बिना किसी आरोपण के, बिना किसी जबरदस्ती, बिना किसी सप्रेशन, बिना किसी दमन के आप एक नये मनुष्य को अपने भीतर जागते हुए अनुभव करते हैं। वह निज के अनुभव से उठे विचार का प्रतिफलन है।
और कुछ थोड़े से प्रश्न हैं, वे मैं कल लूंगा।
अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे। तो थोड़ी सी बातें ध्यान के संबंध में आपसे कह दूं, फिर हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
कल मैंने ध्यान के संबंध में थोड़ी सी आपसे बात कही है। मेरी दृष्टि में ध्यान कोई काम, कोई प्रयत्न, कोई एफर्ट नहीं है। और इसलिए अगर आप कोई एफर्ट करेंगे, बहुत कोई चेष्टा करेंगे, तो आप ध्यान में नहीं जा सकेंगे। ध्यान तो एक विश्राम है। इसलिए कोई बहुत चेष्टा, कोई बहुत प्रयत्न, कोई बहुत प्रयास, कोई भीतर लड़ाई नहीं करनी है।
जैसे नदी में कोई तैरता है, तो एक आदमी नदी में तैर रहा हो, तो उसे हाथ फेंकने पड़ते हैं, धार काटनी पड़ती है, श्रम करना पड़ता है। ध्यान तैरने की तरह नहीं है। फिर ध्यान कैसा है?
ध्यान है बहने की तरह। एक आदमी नदी में पड़ा हो और बहा जा रहा हो। न वह हाथ फेंकता है, न वह धार काटता है। वह चुपचाप पड़ा है और धार उसे लिए जा रही है। वह कोई प्रयास नहीं करता, वह सिर्फ बहता है। ध्यान तैरने की तरह नहीं है, ध्यान बहने की तरह है।
तैरिए मत, बहिए। एक पंद्रह मिनट के लिए सब प्रयास छोड़ दीजिए और कोई चेष्टा मत करिए। कोई उपाय नहीं करिए, कोई कोशिश मत करिए कि ऐसा बैठूं, ऐसा करूं, ऐसा सोचूं, ऐसा मन को लगाऊं। यह सब मत करिए। क्योंकि ये जो आप करेंगे, तो आप ध्यान में कभी भी नहीं जा सकते हैं। क्योंकि आपके प्रयास से जो भी पैदा होगा वह आपकी बुद्धि से बड़ा नहीं हो सकता। आपके प्रयास से जो निकलेगा वह आपकी बुद्धि का ही हिस्सा होगा।
ध्यान आपकी बुद्धि का हिस्सा नहीं है। इसलिए कृपा करके आप कोई बहुत चेष्टा मत करिए। न तो कोई जबरदस्ती श्वास लीजिए, न श्वास रोकिए, न कोई बहुत एफर्ट, कोई प्रयास मत करिए। फिर करिए क्या?
इतनी ही कृपा करिए कि बहुत रिलैक्स, बहुत आराम से बैठ जाइए। बैठना भी जरूरी नहीं है। जब आप कहीं प्रयोग करते हों, लेट भी सकते हैं, खड़े भी हो सकते हैं। जैसा आपकी मौज में हो। कोई खास किसी आसन में कोई मूर्ति बन कर आपको बैठना नहीं है। आप कैसे भी हो सकते हैं। सवाल चित्त के भीतर की स्थिति का है। आपके आसन-वासन का नहीं है। इन बचकानी बातों में कभी भूल कर मत पड़िएगा कि आप ऐसे बैठेंगे तो भगवान हो जाएंगे, सिद्ध हो जाएंगे। और इस तरह की नाक पकड़ेंगे या उलटे खड़े होंगे तो यह हो जाएगा, वह हो जाएगा। इन सारी बच्चों जैसी बातों में भूल कर मत पड़ना।
शरीर से कोई बहुत गहरा संबंध नहीं है ध्यान का। ध्यान का संबंध भीतर चित्त की दशा से है। इसलिए शरीर को ऐसा छोड़ दीजिए जो आपके लिए सबसे आरामपूर्ण स्थिति है उसमें, ताकि शरीर कोई बाधा न दे। बस इतना ही शरीर के साथ करना काफी है। और फिर भीतर क्या करिए?
न तो कोई नाम-स्मरण करना है, न कोई मंत्र-जाप करना है, न किसी बिंदु पर ध्यान करना है, न कोई ज्योति सोचनी है कि दीया जल रहा है, न कोई फूल खिल रहा है हृदय में, ये सब कल्पनाओं में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। न कोई अच्छे-अच्छे दृश्य देखने हैं, न कोई स्वर्ग, पाताल, नरक, ये सब देखने हैं। ये सब नहीं देखने हैं। न कोई भगवान को देखना है।
परिपूर्ण शांत बैठ कर चारों तरफ जो भी हो रहा है उसके प्रति सिर्फ अवेयरनेस, होश, जागे हुए रहना है, बोध रखना है। यह सब हो रहा है--ट्रेन जा रही है, ऊपर से हवाई जहाज निकल सकता है, कोई पक्षी फड़फड़ाएगा पत्तों में और आवाज करेगा, कोई खांसेगा, कोई बच्चा रोएगा, कोई चलेगा, कोई फिरेगा। चारों तरफ घटनाएं घट रही हैं। इन सारी घटनाओं के प्रति होश से, शांति से कि कोई भी घटना जो मेरे चारों तरफ घट रही है, कोई ध्वनि छोटी से छोटी मेरे बोध के बाहर न घटे। मेरा बोध सजग रहे। मैं पूरी तरह होश में रहूं। जो भी हो रहा है वह मुझे अनुभव हो, उसकी संवेदना मुझे हो, उसको मैं जानूं, उसको मैं पहचानूं कि वह हुआ। लेकिन उसके बाबत सोच-विचार में नहीं लग जाना है।
एक कुत्ता भौंके तो आपको यह नहीं सोचना है कि यह किसका कुत्ता भौंक रहा है। यह काला है कि सफेद है कि लाल है, यह सब नहीं सोचना है। भौंक रहा है कुत्ता, उसकी आवाज आपके भीतर आएगी, गूंजेगी, वह आपके होश में गूंजे और जाए। जैसी आए आने दें, जाए जाने दें। जो भी भीतर आए आने दें, जाने दें। भीतर विचार चल सकते हैं। एकदम से आज ही शांत हो जाएंगे, आवश्यक नहीं है। हजारों-हजारों साल से मनुष्य-जाति विचारों को पाल रही है, पोस रही है। बहुत पुराने मेहमान हैं, बहुत दिन से घर में रह रहे हैं। और हम भी अपने पूरे जीवन से उनको पाल रहे हैं, पोस रहे हैं। तो इस भ्रम में कोई न रहे कि आज बैठें और वे विदा ले लें। वे आ सकते हैं। वे आएंगे। उनको क्या पता कि आपने तय किया है कि अब उनको नहीं बुलाना है। उनको रोज बुलाते रहे हैं तो वे आ जाते हैं उसी खयाल में, उसी भ्रम में, पुराने प्रेम में वे चले आते हैं।
तो उससे कोई बहुत घबड़ाहट की बात नहीं है। आने दें। उनको भी शांति से देखते रहें। जैसे वे आएंगे, तो चले जाएंगे। कौन विचार कितनी देर रुकता है। आएगा और जाएगा। आप तो सिर्फ साक्षी बने बैठे रहें। आया और गया। न आपको रोकना है, न हटाना है कि अरे हटो, यह कहां से विचार आया और ध्यान सब गड़बड़ हो गया।
ध्यान गड़बड़ होने वाली चीज नहीं है। जब होता है ध्यान, गड़बड़ करने की इस जगत में कोई सामर्थ्य नहीं है। और जब नहीं होता, तब आप गड़बड़ में ही हैं। गड़बड़ में ही हैं। कोई ध्यान गड़बड़ नहीं हो रहा है। जब ध्यान होता है, तो गड़बड़ हो ही नहीं सकता। और जब नहीं होता, तब आप गड़बड़ में हैं। ध्यान का कोई सवाल नहीं है।
इसलिए कोई इसकी चिंता न करें कि यह डिस्टर्बेंस हो गया, यह विचार आ गया। नहीं, यह विचार आया, चला जाएगा। आपका क्या लेता-देता है। आप शांत, मौन देखते रहें। श्वास चलेगी, अनुभव होगी, देखते रहें। एक कीड़ा काटेगा और हाथ से आपको उसे हटाना पड़ेगा, हाथ को हटाने दें और देखते रहें शांत। कोई आपको जबरदस्ती नहीं करनी है। एक ही ध्यान रहे कि जो भी हो रहा है--हाथ से कीड़ा हटाया, या पैर की करवट बदली, या बीच में आंख खोली, या कोई विचार चला, या कोई कुत्ता भौंका, या कोई पक्षी बोला; एक ही बात ध्यान में रहे कि सबको मैं सुन रहा हूं, सबको मैं बोधपूर्वक जागा हुआ देख रहा हूं। जैसे एक दीया हम जला दें, तो दीया चारों तरफ जो भी है उस पर प्रकाश फेंकने लगता है। ऐसे ही भीतर बोध का दीया जला रहे और चारों तरफ जो भी हो रहा है सब प्रकाशित हो, सब पर वह प्रकाश पड़ता रहे।
धीरे-धीरे, अभी ये पांच-सात मिनट में ही, अगर इतना भी भीतर हम बोध सम्हाल पाएं, तो बोध के सम्हालते ही शांति आनी शुरू हो जाती है। अपूर्व शांति आनी शुरू हो जाती है।
एक मित्र ने आज ही मुझे आकर कहा कि
भगवान, बहुत वर्षों के बाद निरंतर उपाय किए हैं, कुछ नहीं हुआ। यह किया है, वह किया है, कुछ नहीं हुआ। लेकिन कल जब मैं सिर्फ बोध को साध कर बैठा, तो हैरान हो गया कि यह क्या हुआ? यह मेरी कल्पना के बाहर था जो हुआ।
होगा, वह कल्पना के बाहर होने वाला है। आपको पता भी नहीं, बिलकुल अज्ञात और अननोन है जो होगा। उसकी कोई अपेक्षा आप नहीं कर सकते। उसका आपको कोई पता ही नहीं कि क्या होगा। ध्यान में क्या होगा, इसका कुछ नहीं कह सकते आप। न कोई कल्पना कर सकते हैं। जो होगा वह अपूर्व है। वह कभी न जाना हुआ है। वह बिलकुल अननोन है, वह बिलकुल अज्ञात है। वह होगा तभी जब आपका यह सारा ज्ञात मन एकदम शांत हो जाए। और यह शांत हो जाएगा।
बोध से मन शांत होता है। शांत होने से ध्यान का अवतरण होता है। ध्यान कोई आप नहीं करते, ध्यान उतरता है। ध्यान आपको घेर लेता है। ध्यान आपके चित्त के बाहर की स्थिति है। ध्यान आत्मा का स्वभाव है। जैसे ही चित्त शांत होता है ध्यान फैलने लगता है।
तो बहुत शांति से, बहुत एफर्टलेसली, बिना किसी तनाव के, मौन; थोड़े-थोड़े फासले पर सबको बैठ जाना है, बहुत आसानी से। आज तो यह प्रकाश हम यहां से बुझा देंगे, ताकि आप बिलकुल अंधकार में अकेले हो जाएं। थोड़े-थोड़े फासले से बैठ जाएं। दूसरा छूता है तो आप भीड़ में बैठे रहते हैं, जरा मुश्किल हो जाता है। और वह मित्रों को थोड़ा सा छोड़ दें। कोई फिकर नहीं, अगर घास में बैठ जाएं तो कोई हर्जा न समझें।
तो अभी जरा रुक जाएं, लाइट बुझाने दें। सब लोग बैठ जाएं फिर इसे बुझा दें।
बस इतना खयाल रखें कि आपको आस-पास कोई छू तो नहीं रहा। क्योंकि व्यर्थ कोई छूता रहे तो आपको उसी का ध्यान बना रहेगा।
मैं मान लूं कि आप सब ऐसे बैठे हैं कि एक-दूसरे को नहीं छू रहे।
जगह भी कम है।
जगह हमेशा ज्यादा है, फैलने की हिम्मत चाहिए।
ठीक है। मेरी बात आपने समझ ली है। आंख बंद कर लेना है और बिलकुल आसानी से बैठ जाना है। अंधकार रहेगा, इसलिए आसान होने में कठिनाई नहीं पड़ेगी। कोई दूसरा आपको देख नहीं रहा है। नहीं तो वही भय बना रहता है कि कोई देख न रहा हो। अजीब-अजीब तरह के भय हैं दुनिया में। और सबसे बड़ा भय यह है कि दूसरा कहीं देख न रहा हो, वह न मालूम क्या सोचे।
तो अंधेरा कर देते हैं। कोई आपको नहीं देख रहा है। आप बिलकुल अकेले हैं। आप अपने को देखिए। फिकर छोड़ दीजिए बाकी लोगों की।
आंख बंद कर लेनी है। क्योंकि न कोई दूसरा आपको देख रहा है, न आप कृपा करके किसी दूसरे को देखने का उपाय करें। आंख आहिस्ता से बंद करनी है। जोर से भींचिए नहीं। नहीं तो वही टेंस हो जाता है। आंखों की पलकें तनावग्रस्त हो जाती हैं। छोड़ देनी हैं धीरे से जैसे आंख पर नींद आ गई और आंख बंद हो गई। धीरे से पलक छोड़ देनी है। और वैसे ही हलके-फुलके फूल की तरह शांत होकर बैठ जाएं।
रात अदभुत है। रात का सन्नाटा आपके भीतर उतर जाए, तो अभी कुछ आपके भीतर फूल की तरह खिलेगा, दीये की तरह खिलेगा। कुछ भीतर अनुभव हो सकता है। मौके को न छोड़ें। एकदम शांत, शरीर को शिथिल, सब भांति तनाव-शून्य करके बैठ जाएं।
आंख बंद कर लें। आंख हलके से बंद कर लें। सिर का सब तनाव छोड़ दें। सबसे ज्यादा भार सिर पर होता है। माथे पर खिंचाव को छोड़ दें। सिर के ऊपर सारा भार छोड़ दें, जैसे सब बोझ उतार कर नीचे रख दिया। चेहरे पर बिलकुल तनाव छोड़ दें। जैसे छोटे-छोटे बच्चों का चेहरा होता है तनाव-शून्य, वैसा ही तनाव-शून्य चेहरा कर लें। स्मरण करें, जब आप छोटे से बच्चे थे, वैसा ही चेहरा, वैसा ही सब हलका और ढीला छोड़ दें।
अब भीतर जाग जाएं। जैसे भीतर बिलकुल जागे हुए हैं, होश से भरे हुए हैं। कोई धीमी सी आवाज, कोई धीमी सी ध्वनि भी, कोई भी आवाज, कोई भी ध्वनि सुनाई पड़ सके, इतने संवेदनशील, सजग होकर बैठ जाएं। भीतर जैसे एक दीया जल गया है और भीतर हम बिलकुल होश में जागे हुए हैं। अब सुनें। सब भांति होश से भरे हुए सुनें। दस मिनट के लिए शांतिमय हो जाएं।
बिलकुल अकेले बैठे हैं, जैसे घने जंगल में बिलकुल अकेले बैठे हैं। रात्रि बिलकुल शांत और सन्नाटे से भरी है। बहुत सजग बैठे हैं, थोड़ी सी ध्वनि भी, थोड़ी सी आवाज भी सुनाई पड़ रही है। एकदम जागे हुए हैं। धीरे-धीरे सन्नाटा उतरने लगेगा। धीरे-धीरे मन शांत होता जाएगा। श्वास का कंपन तक अनुभव होने लगेगा। श्वास का कंपन तक अनुभव होने लगेगा। देखें और मात्र देखते रहें। सुनें और मात्र सुनते रहें। मन शांत हो रहा है।
देखें, भीतर देखें, सब शांत होता जा रहा है। बाहर भी सन्नाटा है, भीतर भी सन्नाटा प्रविष्ट हो रहा है। भीतर पर्त-पर्त शांत होती जा रही है। देखें, भीतर जाग कर देखें, धीरे-धीरे मन शांत होता जा रहा है। एक अपूर्व शांति उतर आती है।
मन शांत होता जा रहा है...मन धीरे-धीरे बिलकुल शांत हो जाएगा। बस जागे हुए हैं और सब शांत होता जा रहा है। मन धीरे-धीरे शांत होता जा रहा है...एक अपूर्व शांति उतरने लगेगी, उतर रही है...शांति उतर रही है...मन की पर्त-पर्त शांत हो जाएगी, जैसे शांति की वर्षा हो और सारा मन धुल जाए।
मन शांत हो रहा है...देखें, मन कैसा शांत होता जा रहा है...मन के इस शांत होने को समझें। यही सूत्र है। देखें, मन कैसा शांत होता जा रहा है...मन के शांत होने को समझें। यही सूत्र है। मन शांत हो रहा है...मन धीरे-धीरे एकदम शांत हो जाएगा। आप बिलकुल मिट जाएंगे और सिर्फ शांति रह जाएगी। आप मिट जाएंगे सिर्फ शांति रह जाएगी।
पूछा है:
भगवान, विचार किसी भी व्यक्ति या शास्त्र का हो, जब वह आत्मसात हो जाता है, तो वह निजी का बन जाता है।
यह बात बहुत बार कही जाती है कि जब कोई विचार आत्मसात हो जाए, तो वह निजी का बन जाता है। लेकिन विचार के आत्मसात होने का क्या अर्थ है? और क्या कोई विचार आत्मसात हो सकता है?
मेरे देखे कोई विचार आत्मसात नहीं हो सकता है। हां, यह भ्रम हो सकता है कि विचार आत्मसात हुआ। यदि किसी विचार पर निरंतर आग्रहपूर्वक श्रद्धा की जाए, किसी विचार को निरंतर स्मरण किया जाए, किसी विचार को निरंतर दोहराया जाए, तो हम एक तरह का आत्मभ्रम पैदा कर सकते हैं कि वह विचार हमारे भीतर प्रविष्ट हो गया।
जैसे उदाहरण को, एक फकीर कुछ दिन पहले मुझसे मिलने आए। उन्होंने मुझसे कहा: मुझे सब जगह परमात्मा के दर्शन होते हैं--वृक्ष में, पशु में, पक्षी में, जहां भी देखता हूं वहां मुझे परमात्मा ही दिखाई पड़ता है। उनके साथ उनके भक्त भी आए थे। उन्होंने भी मुझसे यही प्रशंसा कर रखी थी कि जिनको वे मुझसे मिलाने ला रहे हैं, उन्हें सब जगह परमात्मा का दर्शन होता है। पत्ते-पत्ते में उन्हें उसी की नजर दिखाई पड़ती है, वही दिखाई पड़ता है, उसी की सूरत दिखाई पड़ती है।
फिर वे मुझसे मिलने आए। तो मैंने उनसे पूछा कि यह जो परमात्मा का आपको दर्शन हो रहा है, यह आपने विचार को बार-बार अनुभव करके उपलब्ध किया है या कि निर्विचार होकर उपलब्ध किया है? आपने ऐसा बार-बार सोचा है क्या कि सब तरफ परमात्मा है? क्या निरंतर सतत इस बात की स्मृति रखी है कि फूल में, पत्ते में, पौधे में सब जगह परमात्मा है?
उन्होंने कहा: मुझे बीस वर्षों तक इसी की साधना करनी पड़ी है। इसी विचार को, इसी पवित्र विचार को मैं चौबीस घंटे स्मरण करता रहा हूं। अब तो मुझे सब तरफ परमात्मा दिखाई पड़ने लगा है।
मैंने उनसे कहा: कृपा करें, एक सप्ताह के लिए यह विचार करना छोड़ दें। और एक सप्ताह बाद मुझे कहें कि क्या हुआ।
उन्होंने कहा: तब तो बहुत मुश्किल होगा। अगर मैं विचार करना छोड़ दूंगा, तो फिर परमात्मा दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा।
तो बीस वर्ष तक विचार किया कि सब जगह परमात्मा है, तो मन में एक भ्रम पैदा हो गया कि सब जगह परमात्मा है। सात दिन के लिए छोड़ देंगे, तो परमात्मा फिर विलीन हो जाएगा। तो यह तो मन की कल्पित स्थिति हुई, यह तो प्रोजेक्शन हुआ। यह तो मन के ही किसी विचार को निरंतर खयाल करने से दिखाई पड़ने का भ्रम हुआ। यह तो सपना हुआ। और विचार इसी भांति आत्मसात होता है। यह कोई विचार का भीतर जीवन में अनुभव होना नहीं है, बल्कि मनुष्य के भीतर वह जो भी कल्पना करे, उसे देखने की क्षमता है। एक आदमी निरंतर विचार करता रहे।...
आज ही एक मित्र ने मुझसे आकर कहा कि हम निरंतर यही विचार करते हैं--मैं शरीर नहीं हूं, मैं मन नहीं हूं, मैं तो आत्मा हूं। तो मैं इस विचार को करूं या न करूं? मैंने उनसे कहा: इसे भूल कर भी मत करना। क्योंकि बार-बार इस विचार को करने से ऐसा लगने लगेगा कि न मैं शरीर हूं, न मैं मन हूं, मैं तो आत्मा हूं। लेकिन यह लगना झूठा होगा। यह केवल निरंतर विचार के दोहराने से पैदा हुआ भ्रम है। यह कोई अनुभूति नहीं है। यह आत्म-सम्मोहन है, यह ऑटो-हिप्नोसिस है। किसी भी विचार को बार-बार दोहराएंगे वैसा लगने में कोई कठिनाई नहीं है। यह आत्म-सम्मोहन इतने दूर तक जा सकता है जिसका कोई हिसाब नहीं। कोई भी बात को पुनरुक्त करें।
मेरे एक शिक्षक थे, जब मैं पढ़ता था, उनसे मैंने यह कहा। वे निरंतर...कृष्ण के भक्त थे और निरंतर यही खयाल करते थे कि सब जगह कृष्ण दिखाई पड़ें। मैंने उनसे कहा कि जब तक नहीं दिखाई पड़ते तब तक सौभाग्य है; जिस दिन सब तरफ दिखाई पड़ने लगेगा उस दिन आप करीब-करीब पागल की स्थिति में होंगे। क्योंकि वह विचार का प्रक्षेपण होगा, वह कोई अनुभव नहीं होगा। उन्होंने कहा: यह हो ही कैसे सकता है? केवल कल्पना करने से थोड़े ही कुछ दिखाई पड़ सकता है, जब तक कि वह हो ही न। केवल कल्पना करने से कैसे सबमें भगवान या कृष्ण के दर्शन होंगे? कृष्ण होंगे तो ही तो दर्शन होंगे।
मैंने बात सुन ली और उस दिन उनसे कुछ भी नहीं कहा। जिस विश्वविद्यालय में वे पढ़ाने आते थे, उससे और उनके मकान का फासला कोई एक मील का था। दूसरे दिन मैं गया। उनके पड़ोस में जो व्यक्ति रहते थे उनकी पत्नी को मैं कह आया कि कल सुबह उठ कर ही, मेरे जो अध्यापक थे उनका नाम उनको बता आया, उठ कर ही जैसे ही उनके तुम्हें दर्शन हों, जैसे वे दिखाई पड़ें उनसे कहना कि आज आप बहुत बीमार मालूम पड़ते हैं, क्या तबीयत खराब है? और वे क्या कहते हैं, ठीक उनके शब्द लिख रखना, एक भी शब्द में फर्क मत करना। और थोड़े आगे एक चपरासी रहता था, उसको भी मैं कह आया कि जब वे यहां से निकलें, तो तुम कहना कि आज आप बहुत पीले-पीले मालूम पड़ते हैं, क्या बात है? और वे जो कहें, तुम लिख कर रख लेना, उसमें जरा भी फर्क मत करना। जो वे कहें, वही लिख लेना। और ऐसा मैं दस-पंद्रह लोगों को उनके पूरे रास्ते पर समझा आया। उन सबने कहा: मामला क्या है? मैंने कहा: मैं कुछ प्रयोग कर रहा हूं, आप कृपा करके सहायता कर दें।
दूसरे दिन वे सुबह उठे और उनकी पड़ोसन ने उनसे कहा कि क्या बात है, आज तो आप बहुत बीमार से मालूम पड़ते हैं? उन्होंने कहा: बीमार? मैं तो बिलकुल स्वस्थ हूं। कैसी बीमारी! मैं तो बिलकुल बीमार नहीं हूं। मैं तो बिलकुल ठीक हूं। जब वहां से निकले और उनके चपरासी ने उनसे पूछा कि आज तो आप बहुत बीमार से मालूम पड़ते हैं। उन्होंने कहा: कुछ ऐसा लगता है, रात से कुछ तबीयत ढीली है।
वे और आगे आए। उन्हें दो-चार विद्यार्थी मिले। उन्होंने भी कहा कि आज हम पीछे से देखते हैं, आपके पैर कुछ कंपते से मालूम पड़ते हैं, कुछ तबीयत खराब है? उन्होंने कहा: हां, रात से ही कुछ मेरी तबीयत खराब है। मन तो मेरा नहीं था कि आज विश्वविद्यालय आऊं, लेकिन सोचा कि...। वे और आगे आए। और विश्वविद्यालय का पुस्तकालय था, और वहां उन्हें दो-चार लड़कियां मिलीं और उन्होंने पूछा कि आज आप बहुत बीमार मालूम पड़ते हैं, बुखार में हैं? उन्होंने कहा कि आज दो-तीन दिन से तबीयत ढीली थी, रात से तो बुखार चढ़ा हुआ है।
वे जब कक्षा के बाहर आए, तो मैं वहां खड़ा था, मैंने उनसे कहा कि आप तो आज बहुत अस्वस्थ मालूम पड़ते हैं। वे बोले: मैं सिर्फ, आज पढ़ाऊंगा नहीं, सिर्फ विभाग के अध्यक्ष को कहने आया हूं कि तबीयत मेरी खराब है। मैं वापस जा रहा हूं। फिर वे वापस पैदल नहीं गए, फिर वे वापस तांगा बुला कर गए।
सांझ को हम सब उनके पास पहुंचे। वे तो बिस्तर में पड़े थे और गहरे बुखार में थे। मैंने उनकी पत्नी को कहा कि इनका बुखार तो नापो। उन्हें एक सौ दो बुखार था। मैंने उनसे कहा: आप उठ आइए, यह बुखार झूठा है।
वे बोले: मतलब?
मैंने कहा: ये सारे लोग खड़े हैं जिन्होंने आपसे सुबह निवेदन किया था कि क्या आपकी तबीयत खराब है। उन सबको मैं ले गया था। वे देख कर चौंक गए और बैठ गए। बोले: मतलब क्या है? मैं कुछ समझा नहीं।
मैंने कहा: यह मैं कृष्ण का दर्शन करा रहा हूं आपको। यह बुखार झूठा है, यह जो आप पर आया हुआ है। आप उठ आइए, आपकी तबीयत खराब नहीं है। यह आपकी पहली चिट्ठी है, जो आपने सुबह उठ कर कहा था कि मैं बिलकुल ठीक हूं। यह आपकी दूसरी चिट्ठी है, जो आपने कहा कि हां, रात से कुछ तबीयत ढीली है। यह आपकी तीसरी चिट्ठी है, आपने कहा, हां, दो-तीन दिन से कुछ तबीयत ढीली थी, रात बुखार हो गया। ये आपके सब उत्तर हैं जो आपने सुबह डेढ़ घंटे, दो घंटे के भीतर दिए हैं। और यह आप लेटे हैं। और यह थर्मामीटर है। और यह एक सौ दो डिग्री बुखार है। और यह बिलकुल झूठा है। यह केवल मानसिक कल्पना है और प्रक्षेप है।
बुखार भी पैदा हो सकता है, आदमी मर भी सकता है। और आदमी जो देखना चाहे वह देख भी सकता है।
यह किसी विचार का आत्मसात होना नहीं है। यह किसी विचार का मन के ऊपर घने अंधकार की भांति छा जाना है। इससे जो प्रतीतियां होंगी, वे असत्य होंगी।
विचार को आत्मसात नहीं करना है, बल्कि सब विचारों को विदा दे देनी है, ताकि आपके भीतर अपने विचार का आविर्भाव हो सके। आत्मसात नहीं, आविर्भाव।
किसी दूसरे के विचार को या किसी धारणा को, या किसी कल्पना को, या किसी विचार को आग्रहपूर्वक अपने ऊपर ओढ़ लेना, इससे बड़ा धोखा, इससे बड़ी गलती, इससे बड़ी भूल और दूसरी नहीं है।
भगवान के दर्शन हो सकते हैं। बड़े आसानी से मुरली मनोहर दिखाई पड़ सकते हैं, या सूली पर लटके हुए क्राइस्ट दिखाई पड़ सकते हैं, या धनुर्धारी राम दिखाई पड़ सकते हैं, या जो आपके मन में आए, या जो आपकी कल्पना आपको सुझाए, वैसे भगवान के दर्शन हो सकते हैं। लेकिन ये दर्शन सत्य के दर्शन नहीं हैं। यह मनुष्य की अपनी ही कल्पना का विस्तार है। और मनुष्य के मन की बड़ी शक्ति है।
मनुष्य के मन की बड़ी शक्ति है, वह कल्पित से कल्पित चीज को भी प्रत्यक्ष कर सकता है। स्त्रियों में पुरुषों से यह शक्ति ज्यादा है। इसलिए स्त्रियों को और जल्दी भगवान के दर्शन हो सकते हैं। साधारण मनुष्यों से कवियों में यह शक्ति थोड़ी ज्यादा है। इसलिए कवियों को और जल्दी भगवान के दर्शन हो सकते हैं। भगवान के भक्तों ने जो गीत गाए हैं और जो कविता की है, वह आकस्मिक नहीं है। वे भटके हुए कवि हैं, जो भक्त हो गए हैं। वे कवि हैं मूलतः। कल्पना उनकी प्रखर और तीव्र है, भटक गए हैं। भगवान की तरफ कविता लग गई है। कल्पना भगवान की तरफ लग गई है, तो वे भगवान के दर्शन कर लेते हैं। भगवान से बातें कर सकते हैं। भगवान का हाथ पकड़ कर चल सकते हैं। इसमें कोई कठिनाइयां नहीं हैं। लेकिन यह सब रुग्ण मन की स्थिति है, यह कोई स्वस्थ मन की स्थिति नहीं है।
और इस रुग्ण मन की स्थिति को लाने के बहुत उपाय हैं। और अगर इस रुग्ण मन की स्थिति को लाना हो, तो कुछ सहयोगी, सहयोगी मार्ग हैं। हजारों साधु और संन्यासी गांजा और अफीम पीते रहे हैं, ताकि यह रुग्ण-चित्त की स्थिति पैदा हो जाए, भगवान के दर्शन हो जाएं। सारी दुनिया में अनेक-अनेक प्रकार के नशे संन्यासियों ने किए हैं, भक्तों ने किए हैं। इस इरादे में कि उस चित्त की धूमिल और नशे की स्थिति में साक्षात जल्दी हो जाता है। लेकिन इससे आप चौंकना मत। अगर लंबा उपवास किया जाए, तो भी मन शिथिल और रुग्ण हो जाता है। और लंबे उपवास का भी वही रासायनिक परिवर्तन होता है चित्त पर शिथिलता का और कमजोरी का कि उस क्षण कल्पना प्रखर हो जाती है और आसान हो जाती है।
अगर कभी गहरे बुखार में आप पड़े हों और कुछ दिन भोजन न किया हो, तो आपको पता होगा मन कैसी-कैसी कल्पनाएं करने लगता है। आकाश में उड़ने लगता है मय पलंग के, मय खाट के आकाश छूने लगता है। न मालूम क्या-क्या दिखाई पड़ने लगता है। न मालूम कौन-कौन से भूत-प्रेत आस-पास खड़े हो जाते हैं।
रुग्ण-चित्त, अस्वस्थ, कमजोर चित्त कल्पना करने में तीव्र और प्रखर हो जाता है। पैथालॉजिकल माइंड, जितना ज्यादा बीमार चित्त हो। तो चित्त को बीमार करने के बहुत उपाय हैं। उसमें एक उपाय यह है कि बहुत लंबे उपवास किए जाएं, तो चित्त की क्षमता क्षीण होती है, शरीर की क्षमता क्षीण होती है। और भोजन न मिलने से शरीर के कुछ तत्व समाप्त हो जाते हैं, जिनकी बहुत जरूरत है। और शरीर में एक केमिकल चेंज, एक रासायनिक परिवर्तन होता है।
वह परिवर्तन वैसा ही है जैसा शराब पीने से भी रासायनिक परिवर्तन होता है, ड्रग लेने से भी, मैस्कलीन, एल एस डी लेने से भी जो रासायनिक परिवर्तन होता है। आज नहीं कल, जिस दिन हम मनुष्य की आर्गनिक केमिस्ट्री मेंउसके शरीर के पूरे रसायन को समझने में समर्थ हो जाएंगे, तो यह कोई आश्चर्य की बात न होगी कि यह सिद्ध हो जाए कि उपवास से और नशे से शरीर में बुनियादी रूप से एक से रासायनिक परिवर्तन हो जाते हैं। और उन रासायनिक परिवर्तनों की स्थिति में मनुष्य की कल्पना प्रखर हो जाती है, तीव्र हो जाती है। उस प्रखर और तीव्र कल्पना में कुछ भी आत्मसात हो जाता है, कुछ भी दर्शन हो जाते हैं।
यह आपको शायद ज्ञात न हो, दुनिया के जितने बड़े कवि, बड़े उपन्यासकार, बड़े नाटककार बड़े कल्पना-प्रवण लोग हैं। इन सबको भी अपने पात्रों के दर्शन होते रहते हैं।
लियो टाल्सटाय एक लाइब्रेरी से गिर पड़ा था चढ़ते वक्त। टाल्सटाय के नाम से हम सब परिचित होंगे। लाइब्रेरी पर चढ़ रहा था सीढ़ियों पर। संकरा रास्ता था। रिसरेक्शन नाम के उपन्यास को लिखता था उन दिनों। उसमें एक स्त्री पात्र उसके साथ चल रही थी। वह कहीं थी नहीं स्त्री। वह जो उपन्यास लिख रहा था, उसकी एक पात्र उसके साथ चल रही थी। उससे बातें करता हुआ सीढ़ियां चढ़ रहा था। संकरा था रास्ता। ऊपर से एक आदमी उतर रहा था। स्त्री को धक्का न लग जाए। दो के लायक रास्ता काफी था, लेकिन तीन के लायक नहीं था। और तीन आदमी होते तो भी निकल जाते। दो आदमी, एक औरत जरा मुश्किल थी। और भी, रास्ता छोटा था, अब एक औरत को धक्का न लग जाए दोनों तरफ से, तो टाल्सटाय बचा, सीढ़ियों से नीचे गिरा, पैर टूट गया।
दूसरा आदमी हैरान हुआ! उसने कहा: आप बचे क्यों? हम दो के लिए काफी रास्ता था।
उसने कहा: दो कहां, वहां तीन थे। मेरी एक पात्र भी मेरे साथ थी। उसको बचाने के लिए गिर पड़ा।
और यह कोई एकांगी घटना नहीं है। दुनिया के सभी कवियों, सभी उपन्यास लेखकों, सभी कल्पनाशील लोगों के साथ यह हुआ है। होता रहा है।
अलेक्जेंडर ड्यूमा, कई बार लोग हैरान हो गए उसके घर में। एक बार उसने पेरिस में अपना मोहल्ला बदला। पुराने मोहल्ले के लोग तो परिचित हो गए थे, नये मोहल्ले के लोग परिचित न थे। वह अपने कमरे के भीतर पहली ही रात किसी से तलवार लेकर इस भांति लड़ने लगा कि आस-पास के लोग परेशान हुए। कमरे में दो तरह की आवाजें भी आ रही थीं। दो आदमियों के होने का शक था। तलवारें खटाखट टकरा रही थीं। मोहल्ले के लोगों ने पुलिस को खबर कर दी कि कुछ गड़बड़ है भीतर। अंधेरी रात में दरवाजे सब बंद हैं और यह नया आदमी आया है, भीतर तलवार चल रही है और जोर की आवाजें आ रही हैं। दो तरह की आवाजें हैं। बड़ी क्रोध की आवाजें हैं।
पुलिस आ गई, दरवाजा तोड़ कर खोला गया। अलेक्जेंडर ड्यूमा अकेली तलवार लिए हुए कमरे के भीतर खड़े थे। लोग हैरान हुए। कहा कि दूसरा आदमी कहां गया? ड्यूमा थोड़े नशे से नीचे उतरे। पूछा: कौन सा दूसरा आदमी? अरे, माफ करिए! वह तो मेरा एक पात्र है, जो मैं नाटक लिख रहा हूं, उससे द्वंद्व-युद्ध, ड्यूअल हो रहा है। तो आवाजें दो तरह की आती थीं? तो बोले: एक दफा मैं उसकी तरफ से बोलता था, एक दफा अपनी तरफ से बोलता था।
ड्यूमा के लिए बहुत वास्तविक था वह दूसरा व्यक्ति। अगर ये ड्यूमा कहीं भूले-भटके भक्त हो जाते, भक्ति के मार्ग पर चले जाते, इनको भगवान का दर्शन बहुत सरल था। अगर ये टाल्सटाय कहीं भक्त हो जाते, तो जैसे इनके बगल में पात्र चल रहा था वैसे ही श्रीकृष्ण भगवान या रामचंद्र जी भी, या कोई और, वे भी चल सकते थे। उसमें कोई कठिनाई नहीं। उसमें कोई भेद भी नहीं है।
मनुष्य का मन है कल्पनाशील। कोई भी विचार, कोई भी धारणा को निरंतर दोहराने से आत्म-सम्मोहन पैदा होता है और वह कल्पना प्रत्यक्ष की जा सकती है। लेकिन यह कोई सत्य का अनुभव नहीं है।
सत्य का आविर्भाव होता है, आत्मसात नहीं।
मैं यह कल निवेदन करूंगा कि चित्त कैसे समस्त विचारों से शून्य हो जाए, निर्विचार हो जाए। वही है ध्यान। वही है समाधि। उस समाधि में जो अनुभव होता है, वह सत्य है।
कोई विचार तब तक आपका नहीं है जब तक आपने आत्मसात किया हो। विचार तभी आपका है जब उसका आविर्भाव हो, वह आपके भीतर जन्मे। और वह तभी होगा जब आप सब विचारों को, सब धारणाओं को विदा दे दें। निष्धारण, निर्विचार, सब धारणाओं से शांत और शून्य जो हो जाता है, वही खुद के विचार को, खुद की अनुभूति को, खुद के सत्य को उपलब्ध होता है।
आत्मसात नहीं करना है, आविर्भाव करना है। आत्मसात करने की प्रक्रियाओं ने ही मनुष्य के जीवन से परमात्मा को दूर किया है और मनुष्य के जीवन से धर्म को नष्ट किया है। धर्म तब सत्य की खोज न रह कर केवल कल्पना का खेल रह गया।
आज ही कोई मेरे पास आए थे और वे पूछते थे कि
भगवान, भक्तों को भगवान के दर्शन हुए हैं। और अगर हम उनका नाम न लेंगे, तो फिर हमको दर्शन कैसे होगा? उनकी मूर्ति की कल्पना न करेंगे, तो फिर दर्शन कैसे होगा?
नहीं दर्शन होगा यह शुभ है। क्योंकि किसी भ्रम में और किसी कल्पना में पड़ जाने से कोई हित नहीं है। हां, यह हो सकता है कि सपना बहुत मधुर हो और बहुत अच्छा लगे। लेकिन फिर भी सपना सपना है। कल्पना कल्पना है, चाहे कितना ही सुख देती मालूम पड़े। और ऐसी कल्पना जो सुख देती हो उस कल्पना से खतरनाक है जो दुख देती हो। क्यों? क्योंकि दुख देने वाली कल्पना से जागना आसान होता है और सुख देनी वाली कल्पना में तो और सोने का मन होता है, जागने की इच्छा नहीं होती है।
धन्य हैं वे लोग जो दुखद सपने देखते हैं, क्योंकि उनको सपने तोड़ने की इच्छा पैदा होगी। और अभागे हैं वे लोग, जो ऐसे सपने देखते हैं जो बहुत सुखद हैं, क्योंकि फिर उन सपनों से जागने की इच्छा नहीं होती है। वह बहुत घातक, बहुत विषाक्त, बहुत नशीली स्थिति हो जाती है।
मैं कोई आत्मसात करने को नहीं कह रहा हूं--किसी भी विचार, किसी भी धारणा, किसी भी कल्पना को; वरन यह कह रहा हूं कि सब धारणाएं, सब विचार, सब कल्पनाएं जब आपसे विदा हो जाती हैं, तब शेष रह जाती है आपकी चेतना। उस शेष चेतना में प्रश्न उठते हों, उस शेष चेतना में समस्या मात्र खड़ी रह जाए--नग्न समस्या, नग्न प्रश्न--तो उस प्रश्न की पीड़ा में जब कोई कल्पना, कोई स्मृति उत्तर देने को न होगी, तो आपके प्राणों से ही उत्तर, आपके प्राणों से ही समाधान आएगा। वह समाधान आपका निजी अनुभव है, निजी विचार है। कोई आत्मसात करने से विचार आपका नहीं होता है, न हो सकता है, न होने का कोई उपाय है।
दूसरा प्रश्न भी कुछ पहले से ही संबंधित है।
पूछा है:
पूछा है कि भगवान, आप कहते हैं विचार करने को, लेकिन अकेले विचार करने से क्या होगा? मैं तो विचार करते-करते विचारों में ही डूब जाता हूं और आचरण तो बदल नहीं पाता। आचरण वही का वही रह जाता है। तो यह बताइए आचरण कैसे बदले?
सामान्यतः यह कहा जाता है कि विचार का क्या मूल्य है, मूल्य तो है आचरण का। यह बात एकदम ही झूठी और व्यर्थ है। यह इसलिए झूठी और व्यर्थ है कि आचरण तो बहुत गहरे में विचार की ही अभिव्यक्ति है। जहां विचार का बीज नहीं है, वहां आचरण का पौधा भी नहीं हो सकता है। हां, यह हो सकता है कि झूठा आचरण ऊपर से ओढ़ लिया जाए। लेकिन झूठे आचरण का कोई भी मूल्य नहीं है सिवाय इसके कि उससे दूसरों को धोखा दिया जाता है और खुद का जीवन नष्ट होता है।
यह जो पूछा है कि ‘अकेले विचार से क्या होगा?’
यह इसलिए पूछा है और इसलिए प्रश्न उठता है--अगर मैं आपसे प्रार्थना करूं, तो मैं यह कहूंगा: अभी आपके भीतर विचार का जन्म ही नहीं हुआ। आप दूसरों के विचारों को अपना विचार समझ रहे हैं। इसलिए विचार और आचरण में मेल बिठाने की समस्या खड़ी हो गई है। अगर आपका ही विचार होगा, तो यह असंभव है कि उसके विपरीत आचरण हो जाए। अगर आपका ही विचार होगा, तो आचरण तो विचार की छाया की भांति पीछे चलता है। जैसे बैलगाड़ी निकलती है, तो पीछे गाड़ी के चाक के निशान बन जाते हैं, वैसे ही जहां भी विचार का आविर्भाव होता है वहीं पीछे आचरण की लीक और निशान बन जाते हैं। आचरण लाना नहीं पड़ता है, आचरण अपने आप आता है।
विचार है केंद्र, विचार है प्राण और विचार है आत्मा। लेकिन चूंकि हमारे पास अपने कोई विचार ही नहीं हैं, हमने सब विचार उधार सीखे हुए हैं। दूसरों के बासे और जूठे विचार हम इकट्ठे किए हैं। और उसको अपनी संपत्ति समझे हुए हैं। उन जूठे और बासे विचारों में से आचरण नहीं निकलता, इसलिए मुश्किल होती है। इसलिए सवाल यह उठता है कि विचार और आचरण में मेल कैसे हो? यह निपट मूर्खतापूर्ण बात है।
जहां विचार और आचरण में मेल बिठालने का खयाल आ जाए, वहां समझ लेना कि विचार बासा है, पुराना है, जूठा है, दूसरे का है, मेरा नहीं है। सत्य बोलना चाहिए, और प्रेम करना चाहिए, और पड़ोसी को वैसा ही प्रेम करना चाहिए जैसा अपने को, और किसी से धोखा नहीं, और किसी से झूठ नहीं, और चित्त में कोई व्यभिचार नहीं, कोई वासना नही, कोई कामना नहीं, ये सारे के सारे विचार दूसरों से लिए हुए हैं। इन सबके विपरीत आचरण है, तो बड़ी बेचैनी और तकलीफ होती है कि कैसे विचार और आचरण में मेल बैठे? नहीं बैठ सकता। नहीं बैठ सकता, कोई रास्ता बैठने का नहीं है।
यह बात बहुत मौलिक रूप से जाननी जरूरी है कि आचरण आपका है और विचार दूसरे के हैं। अगर आप चोर हैं, वह चोर होने का आचरण ही आपका है। और यह खयाल कि अचोरी धर्म है, चोरी न करना बड़ा पुण्य है, बड़ी ऊंची बात है, यह दूसरे का है। आचरण आपका है, विचार दूसरे का है, मेल कैसे होगा? विचार महावीर का होगा, बुद्ध का होगा, कृष्ण का, क्राइस्ट का होगा, आचरण आपका है। महावीर का जो विचार था महावीर का आचरण उसके अनुकूल था, उसके पीछे था, उसकी छाया थी। आप विचार तो उधार ले लिए, लेकिन आचरण कहां से उधार लाएंगे? आचरण तो नहीं ला सकते हैं महावीर का, बुद्ध का, क्राइस्ट का। विचार ला सकते हैं। विचार मुफ्त मिल जाता है, आचरण तो नहीं मिलता।
सो विचार तो है बड़े-बड़ों का, आचरण है अपना। इन दोनों में बड़ा फासला हो जाता है, बड़ा द्वंद्व हो जाता है, बड़ी पीड़ा, बड़ा दुख हो जाता है। और भीतर एक कांफ्लिक्ट हो जाती है सतत, चौबीस घंटे, जिसमें व्यर्थ ही नरक में सड़ना हो जाता है। आचरण वही का वही रहता है। रोज कसमें लें, रोज व्रत लें, रोज मंदिर में जाकर प्रण करें, कुछ फर्क न पड़ेगा। विचार दूसरे के हैं। फिर कैसे फर्क पड़ेगा?
जब ऐसा द्वंद्व दिखाई पड़े, तो जो विवेकशील है, वह पहला निर्णय तो यह लेगा कि मैं, जो मेरा आचरण है, उसे ही अपना वास्तविक होना फिलहाल समझूं, वही मैं हूं। और फिर मैं क्यों स्वीकार करूं किसी के विचार को? क्यों न मैं खोजूं? क्यों न मैं खुद विचारूं? क्यों न मैं जीवन के अनुभव से निकालूं? क्यों न मैं शांत होकर खुद अपने प्राणों में खोदूं और पाऊं कि क्या है? कभी आपने खुद खोदा है अपने भीतर इस बात को? कभी आपने अपने भीतर इस बात की तलाश की है क्या कि क्रोध आनंद नहीं ला सकता? कभी इस बात को अपने जीवन की पर्त-पर्त में आपने अनुसंधान किया है?
नहीं; आप कहेंगे कि क्रोध तो बहुत बुरी चीज है। यह किसी और की बात आप दोहरा रहे हैं। या आपके प्राण जिस दिन स्वयं अनुभव करते हैं कि क्रोध विष है, क्रोध दुख है, पीड़ा है। जिस दिन आपके प्राण इस संताप से भर जाते हैं क्रोध के दुख और विषाक्त होने से, उस दिन क्या संभव है कि फिर आप क्रोध कर सकें? कभी जब आप क्रोध में रहे हैं, तो क्या आपने शांत बैठ कर एक कोने में सब द्वार बंद करके खोज की है कि क्रोध में मेरा क्या हो रहा है? क्या आपने उस वक्त क्रोध की जलती हुई आग में अपने प्राणों को झुलसते हुए देखा है और दर्शन किया है? जब क्रोध जल रहा हो, तब आप कभी मौन बैठ कर देखे हैं आंख डाल कर भीतर कि क्या हो रहा है? अगर एक बार भी यह देखा होता, और अगर एक बार भी क्रोध की पूरी जलन और झुलस और क्रोध की पूरी पीड़ा और नरक आपके सामने स्पष्ट हो गया होता--फिर कौन था जो आपको क्रोध में जाने के लिए दुबारा राजी कर सकता?
लेकिन नहीं, यह कभी नहीं देखा है। हां, जब क्रोध चला जाता है और क्रोध का धुआं उड़ जाता है, तब हम गीता लेकर बैठ जाते हैं, महावीर-वाणी लेकर बैठ जाते हैं, बुद्ध के वचन, और सोचते हैं कि क्रोध तो बड़ी बुरी बात है। यह मैं कैसा बुरा काम कर रहा हूं। यह तो नहीं करना चाहिए। ऐसी दोहरी मुश्किल हो जाती है--क्रोध अलग, क्रोध का पश्चात्ताप अलग।
क्रोध अलग कष्ट देता है, क्रोध का पश्चात्ताप अलग कष्ट देता है। और यह पश्चात्ताप कोई अर्थ नहीं रखता। क्रोध तो अब चला गया, अब क्रोध को देखने का कोई उपाय न रहा। जब क्रोध था, तब यह पूरे विवेक और विचार को लेकर अगर क्रोध का दर्शन किया होता, तो वह दर्शन आपके जीवन में उस अनुभूति का जन्म देता जहां आप जानते कि क्रोध क्या है। और वह जानना, वह ज्ञान आपके आचरण को बदल देता।
मैं नहीं कहता कि क्रोध के लिए पश्चात्ताप करें, मैं कहता हूं, क्रोध का दर्शन करें। मूढ़ हैं जो पश्चात्ताप करते हैं। जीवन भर पश्चात्ताप करेंगे, कहीं पहुंच नहीं सकते। और पश्चात्ताप क्यों करते हैं आप, पता है? इसलिए नहीं कि क्रोध बुरा है। पश्चात्ताप इसलिए करते हैं कि क्रोध के कारण जो आपको खुद पीछे से छाया मिलती है कि मैं कैसा दीन-हीन हो गया। क्रोध के पीछे, क्रोध के उतार पर जब आपको पता लगता है कि मैं कैसा दुष्ट सिद्ध हुआ क्रोध में, कैसी मैंने गालियां बकीं, कैसे मैंने अपशब्द कहे, तब आपके अहंकार को चोट लगती है। क्योंकि आप तो समझते हैं मैं बहुत भला आदमी हूं जो बुरी बातें कह नहीं सकता। अहंकार को लगती है चोट, तो फिर अहंकार को फिर से फुसलाने के लिए, फिर से सजाने के लिए पश्चात्ताप करते हैं। मंदिर में कसम खाते हैं, फिर निर्णय करते हैं कि अब कभी क्रोध नहीं करूंगा। और ऐसा निर्णय करके फिर सज्जन बन जाते हैं, फिर अक्रोधी बन जाते हैं, फिर भले आदमी बन जाते हैं। फिर क्रोध करते हैं, फिर पश्चात्ताप करते हैं।
पश्चात्ताप क्रोध के लिए नहीं है। खुद की आंखों में खुद की मूर्ति जो नीचे उतर आई थी, फिर उसको वापस उठाने के लिए। वह अहंकार की पूर्ति है। वह सप्लीमेंट्री है अहंकार के लिए। वह उसका हिस्सा पूरा कर देता है। अहंकार खंडित हो जाता है, फिर उसका हिस्सा पूरा कर देता है।
ये सब ब्रह्मचर्य की कसमें, ये सब कसमें: यह व्रत कि क्रोध नहीं करूंगा, ब्रह्मचर्य से रहूंगा, फलां-ढिकां--ये सब अहंकार के पूरक हैं। इनसे कुछ होता नहीं। ये सब एकदम झूठे और मिथ्या हैं।
हो सकता है कुछ--पश्चात्ताप से नहीं, बोध से। जब जो स्थिति चित्त को पकड़ती हो, तब उसके प्रति सजग हों, जागें, उस स्थिति को खोजें कि क्या हो रहा है? उस स्थिति को पहचानें कि क्या हो रहा है? और अगर आपको दिखाई पड़ जाएगा उसका दुख और पीड़ा, तो कौन पागल है जो फिर उस दुख और पीड़ा में उतरना चाहेगा? लेकिन हमने कभी देखा नहीं।
मैं आपसे निश्चित रूप से कहता हूं: आपने बहुत बार क्रोध किया होगा, मैं फिर आपसे कहता हूं: आपने अभी क्रोध देखा नहीं। आप कहेंगे: इतनी बार क्रोध किया, देखेंगे कैसे नहीं? अगर आप देखने में समर्थ होते, तो क्रोध में असमर्थ हो जाते। सच तो यह है कि जब आप क्रोध में होते हैं तब आपके भीतर देखने की क्षमता एकदम क्षीण हो जाती है। आप नशे में होते हैं, मूर्च्छा में होते हैं, बेहोश होते हैं। इसलिए हर आदमी क्रोध में वैसे काम कर सकता है, जो जब वह होश में हो, शांत हो, तो कल्पना भी नहीं कर सकता कि मैं कर सकता हूं।
ढेर हत्यारों ने अदालतों के सामने यह कहा है कि हमने हत्या नहीं की। पहले तो अदालतें समझती थीं कि यह झूठ है। अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह सच है। उन्होंने इतने क्रोध के आवेश में हत्या की कि उस आवेश में उनके भीतर कोई कांशसनेस, कोई होश नहीं था। वे करीब-करीब बेहोश थे। इसलिए हत्या के बाद उनको याद नहीं आता कि मैंने हत्या की।
अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि वे झूठ ही नहीं बोल रहे हैं। अनेक हत्यारे याद नहीं कर सके बाद में कि उन्होंने हत्या की है। उनकी फांसी हो गई, उनको आजन्म कैद हो गई, वे जीवन भर सड़ते रहे, लेकिन वे यह स्मरण नहीं कर सके कि उन्होंने हत्या की है। वह यही कहते रहे कि मुझे याद ही नहीं पड़ता कि मैंने कभी किया। क्योंकि जिस चित्त की दशा में उन्होंने यह किया, उस चित्त की दशा में होश नाममात्र को भी नहीं था। तो फिर किसको स्मरण रहेगा? किसको याद रहेगा?
जीवन में जो भी पाप है, वह सब बेहोशी में किया जाता है। और पश्चात्ताप हम कब करते हैं? जब बेहोशी चली जाती है। इन दोनों में कोई संबंध ही नहीं हो पाता। बेहोशी में पाप करते हैं, होश में पुण्य की कसमें खाते हैं। इसका कोई संबंध ही नहीं है। इससे कोई वास्ता ही नहीं होता। इसलिए रोज उसी गड्ढे में गिरते हैं जिसमें कल तय किया था कि अब कभी न गिरेंगे। रोज वही गड्ढा फिर सामने खड़ा है। दिन में दस बार खड़ा है। और तब हम रोते हैं, पछताते हैं और सोचते हैं: ये महावीर और बुद्ध, ये कृष्ण और क्राइस्ट बड़े भगवान रहे होंगे, तभी तो क्रोध के ऊपर उठ सके। हम कैसे ऊपर उठें? हम तो रोज निर्णय करते हैं, रोज गिर जाते हैं।
नहीं, आप ही जैसे लोग थे। कोई इनमें भगवान नहीं है, कोई तीर्थंकर नहीं, कोई ईश्वर का पुत्र नहीं। आप ही जैसी हड्डियां, आप ही जैसा मांस, आप ही जैसा सब-कुछ है। आप ही जैसे जन्मते हैं, आप ही जैसे मरते हैं। कुछ विशिष्टता नहीं है। इस दुनिया में कोई मनुष्य विशिष्ट नहीं है। सभी एक जैसे मनुष्य हैं। और तब और भी आश्चर्यजनक मालूम पड़ता है कि एक आदमी कैसे ऐसा हो जाता है कि उसमें क्रोध विलीन हो गया? उसके भीतर कोई वासना की आग नहीं जलती? उसके भीतर कोई घृणा और ईर्ष्या पैदा नहीं होती?
मैं आपसे कहता हूं: हरेक के जीवन में यह हो सकता है। लेकिन हम करने के उपाय और विज्ञान से अपरिचित हैं। उपाय और विज्ञान यह है कि अपने आचरण की निंदा दूसरे के विचार के आधार पर मत करिए, बल्कि अपने आचरण का अनुसंधान करिए। अपने आचरण का दर्शन करिए। अपने आचरण के प्रति बोध से सजग हो जाइए। बुरा मत कहिए उसे। क्योंकि जो बुरा कहेगा, फिर देखने में असमर्थ हो जाता है। जिस आदमी को हम बुरा कहते हैं, फिर हम नहीं चाहते कि वह हमारे घर आए।उसकी शक्ल भी हम देखना नहीं चाहते हैं।
तो जिस कृत्य को आप बुरा कह देते हैं, बुरा कहने की वजह से आपके चित्त में और उस कृत्य में दीवाल खड़ी हो जाती है। बुरा मत कहिए क्रोध को। कोई हक नहीं है आपको बुरा कहने का। कोई हक नहीं है चोरी को बुरा कहने का। लेकिन जानिए कि यह चोरी क्या है जो मेरे भीतर है? पहचानिए बहुत शांति से, बहुत सहजता से। खोजिए कि क्या है यह क्रोध? क्या है यह काम? क्यों है? क्या है? बहुत शांति से, बहुत तटस्थता से, बिना किसी कंडेमनेशन के उसको देखिए, दर्शन करिए। यह दर्शन जिस दिन आपका सहज पूरा हो जाएगा उस दिन आपके जीवन में क्रांति खड़ी हो जाएगी। उस दिन आपके अपने विचार का जन्म होगा। और उस विचार के विपरीत आचरण न कभी हुआ है और न हो सकता है।
इसलिए मैं नहीं कहता कि आप अपने विचार और आचरण में मेल बिठाइए। कृपा करके कभी मेल मत बिठालना। आचरण सच है आपका। जैसा भी है, आचरण का दर्शन करिए। उस दर्शन से सत्य विचार का जन्म होता है। और वह सत्य विचार आपके आचरण में क्रांति बन जाता है। तब फिर बिना किसी आरोपण के, बिना किसी जबरदस्ती, बिना किसी सप्रेशन, बिना किसी दमन के आप एक नये मनुष्य को अपने भीतर जागते हुए अनुभव करते हैं। वह निज के अनुभव से उठे विचार का प्रतिफलन है।
और कुछ थोड़े से प्रश्न हैं, वे मैं कल लूंगा।
अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे। तो थोड़ी सी बातें ध्यान के संबंध में आपसे कह दूं, फिर हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
कल मैंने ध्यान के संबंध में थोड़ी सी आपसे बात कही है। मेरी दृष्टि में ध्यान कोई काम, कोई प्रयत्न, कोई एफर्ट नहीं है। और इसलिए अगर आप कोई एफर्ट करेंगे, बहुत कोई चेष्टा करेंगे, तो आप ध्यान में नहीं जा सकेंगे। ध्यान तो एक विश्राम है। इसलिए कोई बहुत चेष्टा, कोई बहुत प्रयत्न, कोई बहुत प्रयास, कोई भीतर लड़ाई नहीं करनी है।
जैसे नदी में कोई तैरता है, तो एक आदमी नदी में तैर रहा हो, तो उसे हाथ फेंकने पड़ते हैं, धार काटनी पड़ती है, श्रम करना पड़ता है। ध्यान तैरने की तरह नहीं है। फिर ध्यान कैसा है?
ध्यान है बहने की तरह। एक आदमी नदी में पड़ा हो और बहा जा रहा हो। न वह हाथ फेंकता है, न वह धार काटता है। वह चुपचाप पड़ा है और धार उसे लिए जा रही है। वह कोई प्रयास नहीं करता, वह सिर्फ बहता है। ध्यान तैरने की तरह नहीं है, ध्यान बहने की तरह है।
तैरिए मत, बहिए। एक पंद्रह मिनट के लिए सब प्रयास छोड़ दीजिए और कोई चेष्टा मत करिए। कोई उपाय नहीं करिए, कोई कोशिश मत करिए कि ऐसा बैठूं, ऐसा करूं, ऐसा सोचूं, ऐसा मन को लगाऊं। यह सब मत करिए। क्योंकि ये जो आप करेंगे, तो आप ध्यान में कभी भी नहीं जा सकते हैं। क्योंकि आपके प्रयास से जो भी पैदा होगा वह आपकी बुद्धि से बड़ा नहीं हो सकता। आपके प्रयास से जो निकलेगा वह आपकी बुद्धि का ही हिस्सा होगा।
ध्यान आपकी बुद्धि का हिस्सा नहीं है। इसलिए कृपा करके आप कोई बहुत चेष्टा मत करिए। न तो कोई जबरदस्ती श्वास लीजिए, न श्वास रोकिए, न कोई बहुत एफर्ट, कोई प्रयास मत करिए। फिर करिए क्या?
इतनी ही कृपा करिए कि बहुत रिलैक्स, बहुत आराम से बैठ जाइए। बैठना भी जरूरी नहीं है। जब आप कहीं प्रयोग करते हों, लेट भी सकते हैं, खड़े भी हो सकते हैं। जैसा आपकी मौज में हो। कोई खास किसी आसन में कोई मूर्ति बन कर आपको बैठना नहीं है। आप कैसे भी हो सकते हैं। सवाल चित्त के भीतर की स्थिति का है। आपके आसन-वासन का नहीं है। इन बचकानी बातों में कभी भूल कर मत पड़िएगा कि आप ऐसे बैठेंगे तो भगवान हो जाएंगे, सिद्ध हो जाएंगे। और इस तरह की नाक पकड़ेंगे या उलटे खड़े होंगे तो यह हो जाएगा, वह हो जाएगा। इन सारी बच्चों जैसी बातों में भूल कर मत पड़ना।
शरीर से कोई बहुत गहरा संबंध नहीं है ध्यान का। ध्यान का संबंध भीतर चित्त की दशा से है। इसलिए शरीर को ऐसा छोड़ दीजिए जो आपके लिए सबसे आरामपूर्ण स्थिति है उसमें, ताकि शरीर कोई बाधा न दे। बस इतना ही शरीर के साथ करना काफी है। और फिर भीतर क्या करिए?
न तो कोई नाम-स्मरण करना है, न कोई मंत्र-जाप करना है, न किसी बिंदु पर ध्यान करना है, न कोई ज्योति सोचनी है कि दीया जल रहा है, न कोई फूल खिल रहा है हृदय में, ये सब कल्पनाओं में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। न कोई अच्छे-अच्छे दृश्य देखने हैं, न कोई स्वर्ग, पाताल, नरक, ये सब देखने हैं। ये सब नहीं देखने हैं। न कोई भगवान को देखना है।
परिपूर्ण शांत बैठ कर चारों तरफ जो भी हो रहा है उसके प्रति सिर्फ अवेयरनेस, होश, जागे हुए रहना है, बोध रखना है। यह सब हो रहा है--ट्रेन जा रही है, ऊपर से हवाई जहाज निकल सकता है, कोई पक्षी फड़फड़ाएगा पत्तों में और आवाज करेगा, कोई खांसेगा, कोई बच्चा रोएगा, कोई चलेगा, कोई फिरेगा। चारों तरफ घटनाएं घट रही हैं। इन सारी घटनाओं के प्रति होश से, शांति से कि कोई भी घटना जो मेरे चारों तरफ घट रही है, कोई ध्वनि छोटी से छोटी मेरे बोध के बाहर न घटे। मेरा बोध सजग रहे। मैं पूरी तरह होश में रहूं। जो भी हो रहा है वह मुझे अनुभव हो, उसकी संवेदना मुझे हो, उसको मैं जानूं, उसको मैं पहचानूं कि वह हुआ। लेकिन उसके बाबत सोच-विचार में नहीं लग जाना है।
एक कुत्ता भौंके तो आपको यह नहीं सोचना है कि यह किसका कुत्ता भौंक रहा है। यह काला है कि सफेद है कि लाल है, यह सब नहीं सोचना है। भौंक रहा है कुत्ता, उसकी आवाज आपके भीतर आएगी, गूंजेगी, वह आपके होश में गूंजे और जाए। जैसी आए आने दें, जाए जाने दें। जो भी भीतर आए आने दें, जाने दें। भीतर विचार चल सकते हैं। एकदम से आज ही शांत हो जाएंगे, आवश्यक नहीं है। हजारों-हजारों साल से मनुष्य-जाति विचारों को पाल रही है, पोस रही है। बहुत पुराने मेहमान हैं, बहुत दिन से घर में रह रहे हैं। और हम भी अपने पूरे जीवन से उनको पाल रहे हैं, पोस रहे हैं। तो इस भ्रम में कोई न रहे कि आज बैठें और वे विदा ले लें। वे आ सकते हैं। वे आएंगे। उनको क्या पता कि आपने तय किया है कि अब उनको नहीं बुलाना है। उनको रोज बुलाते रहे हैं तो वे आ जाते हैं उसी खयाल में, उसी भ्रम में, पुराने प्रेम में वे चले आते हैं।
तो उससे कोई बहुत घबड़ाहट की बात नहीं है। आने दें। उनको भी शांति से देखते रहें। जैसे वे आएंगे, तो चले जाएंगे। कौन विचार कितनी देर रुकता है। आएगा और जाएगा। आप तो सिर्फ साक्षी बने बैठे रहें। आया और गया। न आपको रोकना है, न हटाना है कि अरे हटो, यह कहां से विचार आया और ध्यान सब गड़बड़ हो गया।
ध्यान गड़बड़ होने वाली चीज नहीं है। जब होता है ध्यान, गड़बड़ करने की इस जगत में कोई सामर्थ्य नहीं है। और जब नहीं होता, तब आप गड़बड़ में ही हैं। गड़बड़ में ही हैं। कोई ध्यान गड़बड़ नहीं हो रहा है। जब ध्यान होता है, तो गड़बड़ हो ही नहीं सकता। और जब नहीं होता, तब आप गड़बड़ में हैं। ध्यान का कोई सवाल नहीं है।
इसलिए कोई इसकी चिंता न करें कि यह डिस्टर्बेंस हो गया, यह विचार आ गया। नहीं, यह विचार आया, चला जाएगा। आपका क्या लेता-देता है। आप शांत, मौन देखते रहें। श्वास चलेगी, अनुभव होगी, देखते रहें। एक कीड़ा काटेगा और हाथ से आपको उसे हटाना पड़ेगा, हाथ को हटाने दें और देखते रहें शांत। कोई आपको जबरदस्ती नहीं करनी है। एक ही ध्यान रहे कि जो भी हो रहा है--हाथ से कीड़ा हटाया, या पैर की करवट बदली, या बीच में आंख खोली, या कोई विचार चला, या कोई कुत्ता भौंका, या कोई पक्षी बोला; एक ही बात ध्यान में रहे कि सबको मैं सुन रहा हूं, सबको मैं बोधपूर्वक जागा हुआ देख रहा हूं। जैसे एक दीया हम जला दें, तो दीया चारों तरफ जो भी है उस पर प्रकाश फेंकने लगता है। ऐसे ही भीतर बोध का दीया जला रहे और चारों तरफ जो भी हो रहा है सब प्रकाशित हो, सब पर वह प्रकाश पड़ता रहे।
धीरे-धीरे, अभी ये पांच-सात मिनट में ही, अगर इतना भी भीतर हम बोध सम्हाल पाएं, तो बोध के सम्हालते ही शांति आनी शुरू हो जाती है। अपूर्व शांति आनी शुरू हो जाती है।
एक मित्र ने आज ही मुझे आकर कहा कि
भगवान, बहुत वर्षों के बाद निरंतर उपाय किए हैं, कुछ नहीं हुआ। यह किया है, वह किया है, कुछ नहीं हुआ। लेकिन कल जब मैं सिर्फ बोध को साध कर बैठा, तो हैरान हो गया कि यह क्या हुआ? यह मेरी कल्पना के बाहर था जो हुआ।
होगा, वह कल्पना के बाहर होने वाला है। आपको पता भी नहीं, बिलकुल अज्ञात और अननोन है जो होगा। उसकी कोई अपेक्षा आप नहीं कर सकते। उसका आपको कोई पता ही नहीं कि क्या होगा। ध्यान में क्या होगा, इसका कुछ नहीं कह सकते आप। न कोई कल्पना कर सकते हैं। जो होगा वह अपूर्व है। वह कभी न जाना हुआ है। वह बिलकुल अननोन है, वह बिलकुल अज्ञात है। वह होगा तभी जब आपका यह सारा ज्ञात मन एकदम शांत हो जाए। और यह शांत हो जाएगा।
बोध से मन शांत होता है। शांत होने से ध्यान का अवतरण होता है। ध्यान कोई आप नहीं करते, ध्यान उतरता है। ध्यान आपको घेर लेता है। ध्यान आपके चित्त के बाहर की स्थिति है। ध्यान आत्मा का स्वभाव है। जैसे ही चित्त शांत होता है ध्यान फैलने लगता है।
तो बहुत शांति से, बहुत एफर्टलेसली, बिना किसी तनाव के, मौन; थोड़े-थोड़े फासले पर सबको बैठ जाना है, बहुत आसानी से। आज तो यह प्रकाश हम यहां से बुझा देंगे, ताकि आप बिलकुल अंधकार में अकेले हो जाएं। थोड़े-थोड़े फासले से बैठ जाएं। दूसरा छूता है तो आप भीड़ में बैठे रहते हैं, जरा मुश्किल हो जाता है। और वह मित्रों को थोड़ा सा छोड़ दें। कोई फिकर नहीं, अगर घास में बैठ जाएं तो कोई हर्जा न समझें।
तो अभी जरा रुक जाएं, लाइट बुझाने दें। सब लोग बैठ जाएं फिर इसे बुझा दें।
बस इतना खयाल रखें कि आपको आस-पास कोई छू तो नहीं रहा। क्योंकि व्यर्थ कोई छूता रहे तो आपको उसी का ध्यान बना रहेगा।
मैं मान लूं कि आप सब ऐसे बैठे हैं कि एक-दूसरे को नहीं छू रहे।
जगह भी कम है।
जगह हमेशा ज्यादा है, फैलने की हिम्मत चाहिए।
ठीक है। मेरी बात आपने समझ ली है। आंख बंद कर लेना है और बिलकुल आसानी से बैठ जाना है। अंधकार रहेगा, इसलिए आसान होने में कठिनाई नहीं पड़ेगी। कोई दूसरा आपको देख नहीं रहा है। नहीं तो वही भय बना रहता है कि कोई देख न रहा हो। अजीब-अजीब तरह के भय हैं दुनिया में। और सबसे बड़ा भय यह है कि दूसरा कहीं देख न रहा हो, वह न मालूम क्या सोचे।
तो अंधेरा कर देते हैं। कोई आपको नहीं देख रहा है। आप बिलकुल अकेले हैं। आप अपने को देखिए। फिकर छोड़ दीजिए बाकी लोगों की।
आंख बंद कर लेनी है। क्योंकि न कोई दूसरा आपको देख रहा है, न आप कृपा करके किसी दूसरे को देखने का उपाय करें। आंख आहिस्ता से बंद करनी है। जोर से भींचिए नहीं। नहीं तो वही टेंस हो जाता है। आंखों की पलकें तनावग्रस्त हो जाती हैं। छोड़ देनी हैं धीरे से जैसे आंख पर नींद आ गई और आंख बंद हो गई। धीरे से पलक छोड़ देनी है। और वैसे ही हलके-फुलके फूल की तरह शांत होकर बैठ जाएं।
रात अदभुत है। रात का सन्नाटा आपके भीतर उतर जाए, तो अभी कुछ आपके भीतर फूल की तरह खिलेगा, दीये की तरह खिलेगा। कुछ भीतर अनुभव हो सकता है। मौके को न छोड़ें। एकदम शांत, शरीर को शिथिल, सब भांति तनाव-शून्य करके बैठ जाएं।
आंख बंद कर लें। आंख हलके से बंद कर लें। सिर का सब तनाव छोड़ दें। सबसे ज्यादा भार सिर पर होता है। माथे पर खिंचाव को छोड़ दें। सिर के ऊपर सारा भार छोड़ दें, जैसे सब बोझ उतार कर नीचे रख दिया। चेहरे पर बिलकुल तनाव छोड़ दें। जैसे छोटे-छोटे बच्चों का चेहरा होता है तनाव-शून्य, वैसा ही तनाव-शून्य चेहरा कर लें। स्मरण करें, जब आप छोटे से बच्चे थे, वैसा ही चेहरा, वैसा ही सब हलका और ढीला छोड़ दें।
अब भीतर जाग जाएं। जैसे भीतर बिलकुल जागे हुए हैं, होश से भरे हुए हैं। कोई धीमी सी आवाज, कोई धीमी सी ध्वनि भी, कोई भी आवाज, कोई भी ध्वनि सुनाई पड़ सके, इतने संवेदनशील, सजग होकर बैठ जाएं। भीतर जैसे एक दीया जल गया है और भीतर हम बिलकुल होश में जागे हुए हैं। अब सुनें। सब भांति होश से भरे हुए सुनें। दस मिनट के लिए शांतिमय हो जाएं।
बिलकुल अकेले बैठे हैं, जैसे घने जंगल में बिलकुल अकेले बैठे हैं। रात्रि बिलकुल शांत और सन्नाटे से भरी है। बहुत सजग बैठे हैं, थोड़ी सी ध्वनि भी, थोड़ी सी आवाज भी सुनाई पड़ रही है। एकदम जागे हुए हैं। धीरे-धीरे सन्नाटा उतरने लगेगा। धीरे-धीरे मन शांत होता जाएगा। श्वास का कंपन तक अनुभव होने लगेगा। श्वास का कंपन तक अनुभव होने लगेगा। देखें और मात्र देखते रहें। सुनें और मात्र सुनते रहें। मन शांत हो रहा है।
देखें, भीतर देखें, सब शांत होता जा रहा है। बाहर भी सन्नाटा है, भीतर भी सन्नाटा प्रविष्ट हो रहा है। भीतर पर्त-पर्त शांत होती जा रही है। देखें, भीतर जाग कर देखें, धीरे-धीरे मन शांत होता जा रहा है। एक अपूर्व शांति उतर आती है।
मन शांत होता जा रहा है...मन धीरे-धीरे बिलकुल शांत हो जाएगा। बस जागे हुए हैं और सब शांत होता जा रहा है। मन धीरे-धीरे शांत होता जा रहा है...एक अपूर्व शांति उतरने लगेगी, उतर रही है...शांति उतर रही है...मन की पर्त-पर्त शांत हो जाएगी, जैसे शांति की वर्षा हो और सारा मन धुल जाए।
मन शांत हो रहा है...देखें, मन कैसा शांत होता जा रहा है...मन के इस शांत होने को समझें। यही सूत्र है। देखें, मन कैसा शांत होता जा रहा है...मन के शांत होने को समझें। यही सूत्र है। मन शांत हो रहा है...मन धीरे-धीरे एकदम शांत हो जाएगा। आप बिलकुल मिट जाएंगे और सिर्फ शांति रह जाएगी। आप मिट जाएंगे सिर्फ शांति रह जाएगी।