QUESTION & ANSWER
Chit Chakmak Lage Nahin (चित चकमक लागै नहीं) 03
Third Discourse from the series of 6 discourses - Chit Chakmak Lage Nahin (चित चकमक लागै नहीं) by Osho.
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बहुत से प्रश्न, इधर बहुत से प्रश्न मेरे सामने आए हैं। सुबह की चर्चा में स्वतंत्र विचार के लिए जो मैंने निवेदन किया, अधिक प्रश्न उससे ही संबंधित हैं।
पूछा है कि
भगवान, यदि श्रद्धा न होगी तो सामान्यजन का क्या होगा?
सामान्यजन का बहुत विचार चलता है। सुबह भी मैं यहां से उठा और किसी ने मुझे कहा कि सामान्यजनों का क्या होगा? ये तो भटक जाएंगे। जैसे कि सामान्यजन अभी भटका हुआ नहीं है। जैसे कि सामान्यजन अभी जहां है बिलकुल ठीक है। यह बात स्वीकार ही कर ली है जैसे कि सामान्यजन बहुत ठीक स्थिति में है। और अगर श्रद्धा डिग गई, विश्वास हट गया तो भटक जाएगा।
मेरी दृष्टि में तो इससे ज्यादा भटकी हुई और कोई हालत नहीं हो सकती जिसमें हम हैं।
यह भी पूछा है कि
भगवान, अगर श्रद्धा और विश्वास उठ गया तब तो पतन और अनाचार फैल जाएगा?
जैसे अभी बहुत आचरण फैला हुआ है, आचार फैला हुआ है। जैसे हजारों साल से अनाचार नहीं है। अभी हम जिस स्थिति में हैं अगर वह अनाचार की नहीं है, तो और अनाचार की कौन सी स्थिति होगी? क्या है हमारे जीवन में जिससे हम कह सकें कि यह पतन नहीं है? लेकिन फिर भी चूंकि वह हजारों वर्ष से चलता है, इसलिए हम उसके आदी हो गए हैं। और उससे भी डिग जाएंगे तो बहुत घबड़ाहट मालूम होती है। जैसे कोई बीमार आदमी पूछे कि अगर मैं दवा ले लूंगा और बीमारी चली जाएगी तो फिर क्या होगा?
श्रद्धा और विश्वास का यह परिणाम हुआ है कि मनुष्य पतित है। क्योंकि पतन की पहली बुनियाद तो अंधेपन से शुरू हो जाती है। पतन का पहला आधार तो रख दिया अंधेपन ने। जिस व्यक्ति ने अपने सोच-विचार को उधार रख दिया, उसके जीवन में अब पतन नहीं होगा तो और क्या होगा? जिसने अपनी निज गरिमा को, स्वयं के सोचने की स्वतंत्रता को ही समाप्त कर लिया, अब उसकी स्थिति पशुओं से बहुत बेहतर नहीं हो सकती है। पशु और मनुष्य में यदि कोई भेद है, तो वह यही कि मनुष्य विचार करने में समर्थ है। और यदि हमने विचार करना बंद कर दिया और विश्वास कर लिया, तो हम अनिवार्यरूपेण पशु की स्थिति में नीचे गिर जाते हैं। जो विचार नहीं करता है उसके लिए पतन के अतिरिक्त और कोई मार्ग शेष नहीं रह जाता। यह श्रद्धा और यह विश्वास और यह सारा प्रोपेगेंडा जो हजारों साल से चला है, उसने हमें इस हालत में लाकर छोड़ा है।
यह पूछना कि सामान्यजन भटक जाएगा और भी एक अर्थ रखता है। जो भी यह पूछता है वह अपने को असामान्यजन मानता है। जो भी यह पूछता है वह दूसरों पर दया करके यह पूछता है। खुद तो उसे कोई भय नहीं है, वह तो बहुत विशिष्टजन है। बाकी सामान्यजन भटक जाएंगे।
और मुझे इधर लाखों लोगों से मिलने का रोज निरंतर मौका आ रहा है, अब तक मुझे एक भी जन ऐसा नहीं मिला जिसने यह कहा हो: मैं सामान्यजन हूं। प्रत्येक को यही भ्रम है कि बाकी सारे लोग सामान्य हैं और मैं विशिष्ट हूं। हरेक मुझसे यही पूछता है कि सामान्यजन का क्या होगा? अभी तक ऐसा एक भी आदमी मुझे पूछता नहीं आया कि मेरा क्या होगा?
ये सामान्यजन कहां हैं? मैं भी खोजता हूं, मुझे अभी तक मिला नहीं। आपको मिले तो मुझे बताएं। ये कौन हैं, ये सामान्यजन कौन हैं? ये कॉमन पीपल कौन? और ये चूजन फ्यू कौन हैं? ये चुने हुए थोड़े से लोग कौन हैं?
यह सिर्फ अहंकार है कि मैं अपने को विशिष्ट समझूं, शेष को सामान्य समझूं। और हरेक के मन में यह अहंकार होता है कि वह तो विशिष्ट है, शेष सब सामान्य हैं।
अरब में एक पुरानी कहावत है कि जब भी परमात्मा लोगों को बना कर दुनिया में भेजता है, तो हरेकके कान में एक बड़ी गड़बड़ बात कह देता है। जब वह बना कर भेजने लगता है तो उससे कह देता है कि तुझसे बेहतर आदमी मैंने कभी बनाया ही नहीं। और यह सभी से कह देता है। यह बात कुछ सच ही लगती है। ऐसा ही कुछ होता होगा। नहीं तो हरेक को यह भ्रम नहीं हो सकता।
गांधी जी गोलमेज कांफ्रेंस में भाग लेने लंदन, इंग्लैंड गए हुए थे। उनके सेक्रेटरी महादेव देसाई बर्नार्ड शॉ को मिलने गए। बर्नार्ड शॉ से महादेव ने कहा कि गांधी जी को आप भी तो महात्मा मानते होंगे? बर्नार्ड शॉ ने कहा: मानता हूं, लेकिन नंबर दो। नंबर एक तो मैं ही हूं!
महादेव को बड़ा धक्का लगा। ऐसा खयाल उन्हें नहीं था। भारत में ऐसा कोई भी नहीं कहेगा कि नंबर एक मैं हूं। भीतर-भीतर सोचेगा, बाहर से कोई नहीं कहेगा। पीठ पीछे कहेगा, सामने कोई नहीं कहेगा। तो यह कल्पना महादेव को नहीं हो सकती थी कि कोई आदमी इतना सीधा-सीधा कह देगा कि गांधी नंबर दो महात्मा हैं, नंबर एक तो मैं हूं। वह बहुत दुखी वापस लौटे और गांधी को उन्होंने कहा। गांधी ने कहा: बर्नार्ड शॉ बहुत सच्चे आदमी मालूम होते हैं। जो हर आदमी के मन में लगता है वही उन्होंने कहा है।
यह भ्रम सबके भीतर है कि मैं विशिष्ट हूं और दूसरे सब सामान्य हैं। इसलिए सब दूसरों की चिंता हरेक के मन में होती है कि इन सब सामान्यजनों का क्या होगा? इन बेचारों का क्या होगा?
तो मैं आपसे निवेदन करूं, यह अहंकार अतिसामान्य बात है। यह खयाल कि मैं विशिष्ट हूं, अतिसामान्य मनुष्य का लक्षण है। जो सच में विशिष्ट होते हैं, उन्हें यह खयाल मिट जाता है कि मैं विशिष्ट हूं। जो सच में विशिष्ट होते हैं, उन्हें यह खयाल मिट जाता है कि मैं विशिष्ट हूं। साथ ही उन्हें यह भी खयाल मिट जाता है कि कोई सामान्य है।
और अगर मुझसे पूछें कि सामान्य किसे कहें, तो उसी को मैं सामान्य कहता हूं जो स्वयं की बुद्धि पर और स्वयं के विचार पर विश्वास न करके दूसरे की बुद्धि और दूसरे के विचार पर विश्वास करता है। वही सामान्य है। और अगर उसे सामान्य के घेरे से हटना है, तो उसे पहली बात, यह जो श्रद्धा और विश्वास का अंधापन है, यह छोड़ देना होगा।
जब मैं यह कहता हूं कि श्रद्धा और विश्वास का अंधापन छोड़ देना होगा, तो उसका अर्थ है, अपने पर विश्वास। जो व्यक्ति दूसरों पर विश्वास करता है, अनिवार्यरूपेण स्वयं पर विश्वास नहीं करता। स्वयं पर जो अविश्वास है, वही दूसरों पर विश्वास बन जाता है। मैं यदि अपनी शक्तियों पर कोई विश्वास नहीं करता, तो मैं दूसरों पर विश्वास करूंगा। और यदि मुझे अपनी शक्तियों पर कोई भी विश्वास हो, तो मैं किसी दूसरे पर विश्वास नहीं करूंगा।
आत्मविश्वास तो सहयोगी है, लेकिन दूसरे पर विश्वास घातक है। और मैंने जो विचार के लिए कहा, वह इसी अर्थ में कहा है। जब मैं यह कह रहा हूं कि अपने पैर पर खड़े हो जाएं, खुद सोचें, खुद चिंतन करें, खुद अनुभव करें, तो मैं यह कह रहा हूं, स्वयं पर विश्वास करें। लेकिन ‘विश्वास’ शब्द का मैंने उपयोग नहीं किया जान कर। वह शब्द जहरीला हो गया है, विषाक्त हो गया है। उससे भ्रम होने का डर होता है। इसलिए मैंने कहा विचार करें। इसलिए मैंने कहा खुद का अनुसंधान करें। लेकिन प्रयोजन तो बहुत स्पष्ट है। प्रयोजन यह है कि मैं आपका जो विश्वास दूसरों पर है, उस सबको चाहता हूं हट जाए और स्वयं पर आ जाए।
आत्मविश्वास ही मार्ग बन सकता है आत्मा तक जाने का। और यह जो निरंतर मैं विरोध कर रहा हूं कि छोड़ दें औरों पर, वह इसीलिए ताकि स्वयं पर हो सके।
कोई सामान्य नहीं है। जो व्यक्ति भी अपने पर विश्वास नहीं करता, वही सामान्य है, वही रुग्ण है, वही बीमार है। और आप यदि मुझसे कहें कि सामान्यजन का क्या होगा अगर वह अपने पर विश्वास कर लेगा? क्या होगा, बहुत शुभ होगा। डर हमें क्यों हैं ये? डर के पीछे भी कारण हैं। डर के पीछे कारण ये हैं--भय है कि सामान्यजन स्वच्छंद हो जाएगा, अनैतिक हो जाएगा, अनाचारी हो जाएगा, नीति छोड़ देगा, धर्म छोड़ देगा। ये डर क्यों हैं? ये डर इसीलिए हैं कि मनुष्यों के ऊपर जो भी धर्म हमें आज दिखाई पड़ता है, वह जबरदस्ती थोपा हुआ है। और जो भी नीति दिखाई पड़ती है, वह जबरदस्ती उनके सिर पर बोझ की भांति रखी गई है। यदि उनको स्वतंत्र होने का मौका मिला, तो इस बोझ को वे सबसे पहले उतार देंगे। यह भय है।
अगर स्वतंत्रता हमारी नीति को और धर्म को छीन लेती हो, तो जानना चाहिए कि वह नीति और धर्म झूठे होंगे। जो धर्म और नीति स्वतंत्रता के आने पर छिन जाएं, वे निश्चित ही झूठे होंगे। जो धर्म और नीति स्वतंत्रता के आने पर और प्रगाढ़ और गहरे हो जाते हैं, वे ही केवल वास्तविक हैं। चूंकि धर्म झूठा है, चूंकि नीति और आचार हमारे मिथ्या हैं, इसलिए यह भय है।
मनुष्य के ऊपर सारा धर्म थोपा हुआ और झूठा है। उसकी सारी नीति असत्य है। उसका आचरण उसकी आत्मा से उठा हुआ नहीं, वरन किन्हीं भय और प्रलोभन के आधार पर जबरदस्ती पहना हुआ है। इसलिए डर है कि यदि मनुष्य का विचार स्वतंत्र हो, तो अनैतिक हो जाने का डर है। यह डर इस बात की सूचना है कि मनुष्य अभी भी अनैतिक होगा।
स्वतंत्रता तो परीक्षा है। चौराहे पर पुलिस का आदमी खड़ा है, इसलिए आप चोरी नहीं करते। और अदालत में मजिस्ट्रेट बैठा हुआ है, इसलिए आप चोरी नहीं करते। और वहां भगवान की अदालत भी बैठी हुई है, जो नरक भेजती है और स्वर्ग भेजती है, इसलिए आप चोरी नहीं करते। अगर ये सब अदालतें उठ जाएं और परमात्मा से लेकर पुलिसवाला तक विदा हो जाए, तो बहुत डर है कि हम सब चोरी करेंगे। तब क्या इनके डर से जो हम चोरी नहीं कर रहे हैं वह नैतिकता है? वह धर्म है? क्या इनकी मौजूदगी इस बात का सबूत नहीं है कि हम नैतिक नहीं हैं?
नरक है, स्वर्ग है, भय है, उस डर से आप चोरी नहीं कर रहे हैं, बेईमानी नहीं कर रहे हैं। क्या यह आपके नैतिक होने का प्रमाण है? नहीं, नैतिक होने का एक ही प्रमाण होता है कि जब कोई भी भय न हो तब भी आप नैतिक हों। जब कोई भी भय न हो तब भी आपके जीवन में शुभ का अवतरण हो। जब कोई भी प्रलोभन न हो तब भी आपके जीवन से सत्य और प्रेम बहे।
स्वतंत्रता ही एक मात्र कसौटी है कि मनुष्य नैतिक है या अनैतिक है। सब भांति स्वतंत्रता ही इस बात की सूचना देगी कि हम कहां हैं।
और मैं आपसे यह भी निवेदन करूं, यह जो सारा भय है सारे दुनिया के धार्मिक लोगों को कि जैसे-जैसे स्वतंत्रता आएगी वैसे-वैसे अनीति आएगी, यह एक तरह से ठीक है। क्योंकि उन्होंने हजारों वर्षों से झूठी नीति को मनुष्य के ऊपर थोपा है। मेरी दृष्टि में झूठी नीति की बजाय सच्ची अनीति शुभ होती है। मैं अपने को व्यर्थ ही सज्जन समझूं, इससे मेरा दुर्जन होना ही ठीक है। कम से कम वह सत्य के निकट तो होगा। वह मेरी समझ सत्य के करीब तो होगी कि मैं चोर हूं। और यदि मुझे यह स्पष्ट बोध हो जाए कि मैं चोर हूं, तो मेरी चोरी के परिवर्तन की संभावना पैदा होती है।
यदि स्पष्टतः यह बोध हो जाए कि मनुष्य अब भी अनैतिक है और नैतिक नहीं है, और सभ्यता झूठी है और संस्कृति सब बकवास है, अगर यह बहुत स्पष्ट हो जाए, तो हम मनुष्य के बाबत पुनर्विचार कर सकते हैं--स्वयं के बाबत, सबके बाबत। कोई नये मार्ग से जीवन को बदलने की दिशा खोजी जा सकती है। लेकिन जो लोग भ्रम में हों कि हम नैतिक हैं और आचारवान हैं, और भीतर अनीति हो और अनाचार हो, उनके तो परिवर्तन के द्वार ही बंद हो गए।
विचार जब स्वतंत्र होगा, तो पहली बात तो यह होगी कि हम अपने संबंध में जो तथ्य है, जो फैक्ट है, उसका दर्शन करने में समर्थ होंगे। हममें से बहुत कम लोगों को अपने तथ्य का दर्शन होता है। हम सब अपने को कुछ समझे रहते हैं, जो हम नहीं हैं। कोई आदमी खास ढंग के कपड़े पहन लेता है और सोचता है साधु है। कोई आदमी तिलक लगा लेता है, माला डाल लेता है, यज्ञोपवीत पहन लेता है और सोचता है धार्मिक है। कोई आदमी मंदिर हो आता है सुबह और सोचता है पुण्य कमा रहा है। यदि विचार स्वतंत्र होगा, तो हम इस बात को देखने में समर्थ होंगे कि इन सबमें क्या धार्मिकता है।
क्या किसी खास ढंग के वस्त्र पहन लेने से कोई साधु हो सकता है? या कि किसी खास ढंग के भोजन करने से कोई साधु हो सकता है? न तो खास ढंग के भोजन से कोई साधु होता है और न खास वस्त्रों के पहनने से। भोजन और वस्त्र अति क्षुद्र बातें हैं। साधुता बड़ी अदभुत और बड़ी कीमती बात है। इन क्षुद्र बातों से कोई साधु नहीं होता। हम अपने बाबत तथ्य भी नहीं जान पाते हैं, जो फैक्चुअलिटी है वह भी नहीं जान पाते हैं, क्योंकि विचार हमारा स्वतंत्र नहीं है।
और सारे लोग कहते हैं इस भांति के वस्त्र पहने हुए आदमी साधु हैं। हम भी कहते हैं। फिर एक दिन हम भी वैसे वस्त्र पहन लेते हैं और खुद को भी साधु समझते हैं। क्योंकि वैसे ही वस्त्रों में दूसरे लोगों को भी हमने साधु समझा था। और हमें इस बात का न स्मरण होता है, न इसकी पीड़ा होती है कि हम सोचें और विचार करें कि इसमें साधुता क्या होगी?
सच तो यह है कि जिसे वस्त्रों में साधुता दिखाई पड़ती हो, उस जैसा मूढ़ व्यक्ति खोजना कठिन है। और जिसे भोजन के परिवर्तन में साधुता दिखाई पड़ती हो, वह सिर्फ हंसने योग्य है और कुछ भी नहीं। मगर ये अत्यंत क्षुद्र बातें हमें दिखाई नहीं पड़तीं, क्योंकि दिखाई पड़ने के लिए स्वतंत्र विचार चाहिए। स्वतंत्र विचार हमें अपने तथ्यों को प्रकट कर देगा। अगर भीतर नरक है, तो नरक को खोल देगा। ऊपर से सुगंधित फूल लगा दिए हों, इससे फर्क नहीं पड़ता। अगर भीतर पशु है, तो वह पशु नग्न हो जाएगा, प्रकट हो जाएगा। और जीवन में कोई गति नहीं हो सकती उस समय तक जब तक हमारी तथ्य का, हमारी वास्तविकता का हमें ठीक-ठीक दर्शन न हो।
मैं कैसा हूं, यह जानना अत्यंत नग्न रूप में आवश्यक है। अत्यंत नग्न रूप में मुझे जानना आवश्यक है--मैं कैसा हूं? क्या हूं? तो ही कोई परिवर्तन संभव हो सकता है। और भी आश्चर्य की बात यह है कि जैसे ही आप अपनी नग्नता को पूरा जान लें, आप फिर बिना परिवर्तित हुए नहीं रुक सकते हैं। असंभव है यह कि आप फिर रुक जाएं। अगर आपको दिखाई पड़ जाए कि आप चोर हैं, लेकिन आपको दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि आप कुछ दान भी करते हैं और दानी हैं। चोरी दान में छिप जाती है। इसलिए सब चोर दान करते हैं। कोई चोर बिना दान किए नहीं बच सकता। क्योंकि दान में वह अपने चोर होने के तथ्य को छिपा लेगा, निश्चिंत हो जाएगा। उसे फिर अपनी नग्नता दिखाई नहीं पड़ेगी।
हम जहां-जहां गलत हैं, जो-जो हमारे भीतर व्यर्थ है, जो-जो हमारे भीतर अशुभ है, उसे छिपाने को हम बहुत उपाय कर लेते हैं। अधार्मिक आदमी जरूरी रूप से मंदिर चला जाता है। वैसे धर्म ओढ़ने की सुविधा हो जाती है। और खुद के लिए यह भ्रम पैदा करना आसान हो जाता है कि मैं अधार्मिक? कौन? मैं तो अधार्मिक नहीं। जो नहीं मंदिर जाते हैं, वे सब अधार्मिक हैं, मैं तो धार्मिक हूं। और इस भांति उसके भीतर जो अधर्म था, उसे छिपाने का उपाय हो गया।
यह जो हमारी सारी नीति है और हमारा सब आचार है, भीतर गहरी जो अनीति है उसको छिपाने से ज्यादा और कोई काम नहीं कर रहा है। इसीलिए तो इतने मंदिर हैं, इतने मंदिर जाने वाले हैं, लेकिन धर्म कहां है? इसलिए तो इतने धर्म हैं, इतने संन्यासी हैं। लाखों की तादाद में संन्यासी हैं सारी दुनिया में, लेकिन दुनिया कितने गहन अनाचार में खड़ी है। इतने दीये जल रहे हों सारी दुनिया में...अभी कल ही कोई मुझे बता रहा था कि सिर्फ कैथोलिक साधु दुनिया में बारह लाख हैं। थाईलैंड के बाबत, एक मित्र आए थे वे मुझसे कह रहे थे, थाईलैंड की आबादी तो है चार करोड़ और संन्यासी हैं बीस लाख। हिंदुस्तान में भी पचास लाख की संख्या है। जहां जिस दुनिया में इतने संन्यासी हों, जिस दुनिया में इतने सत्पुरुष हों, वहां तो प्रकाश ही प्रकाश फैल जाना चाहिए। जरूर ये दीये बुझे हुए होंगे। तो गिनती में तो काम आ जाते हैं, लेकिन प्रकाश इनसे कुछ भी निकलता नहीं है। शोरगुल मचाने में, उपद्रव करवाने में काम आ जाते हैं, लोगों को लड़ाने में काम आ जाते हैं। इनसे कोई प्रेम पैदा नहीं होता है। और यही थोथी नीति हमें पकड़े हुए है।
आपका चित्त सोचने में समर्थ होगा, तो आपको दिखाई पड़ेगा आप कहां हैं? हो सकता है वह, वह मूर्ति बहुत रुचिकर न हो जो आपको अपनी दिखाई पड़े। हो सकता है वह बहुत कष्टप्रद हो। हो सकता है इतने दिन का धोखा टूटे तो आप घबड़ा जाएं। लेकिन इस पीड़ा से गुजरना ही पड़ेगा।
जिसको स्वयं को नया जन्म देना हो, उसे प्रसव की पीड़ा झेलनी ही पड़ती है। पीड़ा से गुजरना ही होगा। अपने सारे वस्त्र उतार कर, अपनी सब थोथी नैतिकता उतार कर देखना ही होगा: मेरे भीतर क्या है और कौन है? वहां अगर पशु दिखाई पड़े, तो जल्दी से फिर से नीति के वस्त्र पहनने की जरूरत नहीं है। क्योंकि उन वस्त्रों के कारण ही वह पशु जिंदा है और बचा हुआ है। उन वस्त्रों को उतार ही दें। जैसे हैं वैसे अपने को जानने को राजी हो जाएं, तो शायद वह तथ्य ही आपको इतनी पीड़ा देगा कि उसे बदलने को आपको राजी हो ही जाना पड़ेगा। कोई और मार्ग नहीं रह जाएगा।
अगर एक चोर स्पष्ट रूप से इस बात को जान ले कि मैं चोर हूं, अगर एक हिंसक स्पष्ट रूप से इस बात को जान ले कि मैं हिंसक हूं, तो बहुत दिन तक उस हिंसा और चोरी के साथ रहना संभव नहीं है। जैसे कोई बीमारियों के साथ बहुत दिन नहीं रह सकता। स्मरण आ जाए कि मुझे बीमारी पकड़े है तो उपचार की चिंता शुरू हो जाती है।
ये तो बीमारियां और भी गहरी हैं, ये तो बीमारियां शरीर से कहीं बहुत गहरे मन को और प्राणों को भी स्पर्श करती हैं। अगर इनका बोध हो जाए। लेकिन मनुष्य को बोध नहीं हो पाता। नहीं हो पाता इसलिए कि उसने बहुत सी तकरीबें लगा रखी हैं, जिन तरकीबों में वह अपने मन को बहला लेता है और भुला लेता है और भीतर की बात भीतर पड़ी रह जाती है।
इसलिए जब भी यह सवाल उठता है कि हम इन सारी बातों को छोड़ कर सच जो है हमारे भीतर उसे देखने को राजी हों, तो घबड़ाहट होती है कि उससे तो अनीति फैल जाएगी, उससे तो सब अनाचार फैल जाएगा। अनाचार होगा तो ही तो फैलेगा। अनाचार होगा तो ही तो प्रकट होगा। नहीं होगा तो कैसे प्रकट होगा?
इसलिए स्वतंत्र होने के लिए केवल वही समर्थ हो सकता है जो अपने भीतर छिपा हुआ पशु है उसे देखने को राजी हो, छिपाने को नहीं। और जो इतना साहस करता है कि अपने भीतर के पशु को देखने के लिए तैयार हो जाता है, मैं मानता हूं कि उसने पहला कदम उठा लिया। उसने इतना साहस किया है कि अपने पशु को देखने की हिम्मत दिखलाई है। बहुत कठिन है कि वह दूसरा साहस भी न करे--कि इस पशु से मुक्त होने का उपाय भी करे।
पशु से तभी मुक्त हुआ जा सकता है--अनीति और अनाचार से--जब हम उसके प्रति सजग हो जाएं। जो उसके प्रति सोए हुए हैं वे उससे कैसे मुक्त हो सकेंगे?
अच्छा है कि दुनिया में सच्चे बेईमान हों बजाय झूठे ईमानदारों के। उस दुनिया में कुछ काम हो सकेगा। कोई परिवर्तन हो सकेगा। हम ऐसी दुनिया चाहते हैं जहां चोर हों तो वे साफ तो हों कि चोर हैं। वे कम से कम दान न करते हों, मंदिर न बनवाते हों। तो दुनिया में कुछ काम हो सकता है।
जो चक्कर है समाज के ऊपर वह यह है कि हमने कुछ झूठी तरकीबें निकाल ली हैं अपने को छिपाने की और उनको हम नीति कह रहे हैं, आचार कह रहे हैं। न तो वह नीति है और न वह आचार है।
एक आदमी रात को भोजन नहीं करता, सोचता है, अहिंसक हो गया। हद मूर्खता की बात है! अहिंसक होना इतनी सस्ती बात है कि आप रात भोजन न करें या कि पानी छान कर पी लें तो आप अहिंसक हो जाएंगे? अहिंसा तो इतनी बड़ी क्रांति है कि जब तक पूरी आत्मा जाग न जाए, तब तक नहीं संभव है। लेकिन आपने सस्ती तरकीबें निकाल लीं और मामला हल हो गया, आप अहिंसक हो गए। और जब इतना सस्ता अहिंसक होने की सुविधा हो तो फिर सच में अहिंसक होने को कौन तैयार होगा? कौन उस क्रांति से, पीड़ा से गुजरने को तैयार होगा? इसलिए घबड़ाहट होती है। अगर विचार स्वतंत्र हुआ तो कहीं रात में कोई खाना न खाने लगे, अनाचार फैल जाएगा। जैसे कि दुनिया में रात में कोई खाना न खाएगा तो अनाचार समाप्त हो जाएगा!
इतना सस्ता नहीं है, अनाचार बहुत गहरा है। आप कब खाते हैं और क्या खाते हैं इस पर बहुत निर्भर नहीं है। आपके प्राणों तक भिदा हुआ है। इसलिए घबड़ाहट होती है कि अगर हमने सब ऊपर से सब बातें छोड़ दीं और व्यक्ति स्वतंत्र हुआ, तो वह न मालूम क्या खाने लगेगा, न मालूम क्या पीने लगेगा, न मालूम कैसे कपड़े पहनने लगेगा, न मालूम सड़कों पर गीत गाने लगेगा, मंदिर नहीं जाएगा, भजन नहीं गाएगा। यह जो भय हमें व्याप्तता है यह इसलिए व्याप्तता है, यह इस बात की सूचना है कि हमने हजारों वर्ष में जो भी नीति खड़ी की है झूठी है और मिथ्या है।
जो नैतिक विचार मनुष्य को स्वतंत्रता देने के लिए राजी नहीं है, वह झूठा होगा। कसौटी स्वतंत्रता है--कि मनुष्य स्वतंत्र हो और नैतिक हो, तो ही नीति वास्तविक है। मैं समझता हूं कि जरूर यह होगा। यह होगा, अगर आप स्वतंत्र होंगे तो चीजें उभरेंगी और साफ होंगी। लेकिन यह हितकर है कि चीजें उभरें और साफ हों। आपके ठीक-ठीक निदान के लिए, ठीक-ठीक डाइग्नोसिस के लिए, आपके ठीक-ठीक उपचार के लिए बीमारी का साफ-साफ स्पष्ट हो जाना जरूरी है। आपके घाव और फोड़े दिखाई पड़ने चाहिए, छिपे हुए नहीं होने चाहिए, तो उनका उपचार हो सकता है। फिर बिना उपचार किए रहना कठिन है।
अब तक जिन मनुष्यों ने भी वास्तविक आचरण को पाया है, वे वे ही हैं जिन्होंने अपने वास्तविक अनाचरण को देखा है। जो लोग भी परमात्मा तक ऊपर उठ सके हैं, वे वे ही हैं जिन्होंने नीचे घुस कर अपने पशु को पहचाना है। जिसको आकाश छूना हो, उसे नरक तक अपनी जड़ों को खोज लेना जरूरी है। नहीं तो नहीं है। जिसे ऊपर उठना हो, उसे बहुत गहरे भीतर के सारे पशु को उघाड़ कर देख लेना आवश्यक है। इसके पहले कि आपको परमात्मा के दर्शन हों, आपको पशु का दर्शन करना ही होगा। वह आपका तथ्य है, वह आपके भीतर मौजूद है। उससे भाग कर कहीं जा नहीं सकते।
इसलिए घबड़ाइए मत। स्वतंत्रता से मत घबड़ाइए। घबड़ाइए असत्य से, घबड़ाइए धोखे से, घबड़ाइए प्रवंचना से, घबड़ाइए सेल्फ डिसेप्शन से। घबड़ाइए उस धोखे से जो हम अपने को दिए जा रहे हैं। घबड़ाइए उन वस्त्रों से जो हमने थोप रखे हैं अपने लिए और छिपा रखा है अपना चेहरा। राम का चेहरा लगाने से कुछ आप राम नहीं हो जाएंगे। भीतर जो है आप वही होंगे।
तो मैं मानता हूं कि पीड़ा उत्पन्न होगी, अगर आप स्वतंत्र होने का निर्णय करेंगे। लेकिन पीड़ा को उत्पन्न होने दें। अगर सच में ही आपको स्वयं को बदलने की कोई कल्पना, कोई अभीप्सा जगी है, तो देखें, जो भीतर है उसे स्पष्टतः देखें। अपनी सच्चाई से ठीक-ठीक परिचित हों। नहीं हो सकेंगे, जब तक कि परतंत्र होंगे विचार में, नहीं यह हो सकता है।
भारत से एक भिक्षु कोई चौदह सौ, पंद्रह सौ वर्ष पहले चीन गया। वहां एक राजा था, वू। उसने बहुत मंदिर बनवाए थे, बहुत मूर्तियां बनवाईं, बहुत ग्रंथ छपाए थे। उसने भी सुना कि भारत से कोई बहुत अदभुत भिक्षु आता है, तो उसका स्वागत करने के लिए राज्य की सीमा पर आया। वह बहुत प्रसन्न था। जो भी भिक्षु इसके पहले आया था उसने ही उससे कहा था कि तुम अत्यंत धार्मिक हो, तुम बहुत पुण्यशाली हो, स्वर्ग तुम्हारा है। क्योंकि उसने इतने मंदिर बनाए थे, इतनी मूर्तियां बनवाई थीं, इतने शास्त्र छपवाए थे, इतने भिक्षुओं को मुफ्त भोजन कराता था, तो वे ही भिक्षु जो मुफ्त भोजन करते थे उसकी प्रशंसा भी गाते थे। स्वाभाविक है। वे ही भिक्षु उसकी प्रशंसा भी गाते थे कि स्वर्ग बिलकुल तुम्हारा है, तुम सुनिश्चित रहो। तुमने इतना अदभुत दान किया, इतना धर्म किया, स्वर्ग तुम्हारा है।
जब इस नये भिक्षु के आने की खबर सारे चीन में फैली, तो वह गया, उसने उस भिक्षु का स्वागत किया। नाम था उसका, बोधिधर्म। स्वागत करके उसने तो जल्दी...उसे फिकर तो इसी बात की थी पूछने की कि मैंने इतने मंदिर बनाए, इतने करोड़ों रुपये खर्च किए, इसका फल क्या है? जैसे ही थोड़ा निश्चिंत हुआ, उसने एकांत में बोधिधर्म को पूछा: मैंने इतने मंदिर बनाए, इतना धर्म किया, मुझे इससे क्या मिलेगा?
बोधिधर्म ने कहा: कुछ भी नहीं। और चूंकि तुम्हें मिलने का खयाल पैदा हो रहा है और चूंकि तुम्हें यह अहंकार पैदा हो रहा है कि तुमने इतना किया, इससे कुछ नुकसान जरूर हो सकता है। मिलेगा तो कुछ भी नहीं।
वह तो बहुत घबड़ा गया। उसने कहा: तो ये सारे भिक्षु तो मुझसे कहते थे कि स्वर्ग तुम्हारा निश्चित है।
भिक्षु तुम्हारा खाते थे, इसलिए तुम्हारी प्रशंसा करते थे, बोधिधर्म ने कहा। मैं तुम्हें सत्य कहता हूं, तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा। क्योंकि धर्म का, तुमने क्या बनाया है इससे कोई संबंध नहीं। कितनी मूर्तियां बनाईं, इससे कोई संबंध नहीं। कितने मंदिर खड़े किए, इससे कोई संबंध नहीं। तुम्हारी आत्मा कितनी परिवर्तित हुई, इससे संबंध है। क्या मंदिर बनाने से तुम्हारी आत्मा परिवर्तित हो जाएगी? क्या मूर्तियां खड़ी करने से तुम्हारी आत्मा परिवर्तित हो जाएगी? इससे तो कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। तुम्हारी आत्मा वही की वही है। जो इस जगत में बड़ा राज्य चाहती थी, वही अब बुढ़ापे में स्वर्ग का राज्य भी जीतने की तैयारी कर रही है, इसलिए मंदिर बनाती है। इस जगत में राज्य चाहिए था तो सैनिक तुम पालते थे और उनको खिलाते थे मुफ्त; उस जगत में राज्य चाहिए तो भिक्षु पालते हो और उनको मुफ्त खिलाते हो। फर्क कहां है? इस जगत में राज्य चाहिए था तो सीमाएं बढ़ाते थे; उस जगत में स्वर्ग में राज्य चाहिए तो तुम दान करते हो, दया दिखलाते हो। लेकिन यह सब झूठा है। यह तुम्हारे प्राणों से निकल नहीं रहा। इसके पीछे भी वहां कुछ पाने की आकांक्षा वैसे ही काम कर रही है जैसे यहां कुछ पाने की आकांक्षा पैदा कर रही थी।
जिनका लोभ बहुत गहरा है वे पृथ्वी का ही राज्य पाकर तृप्त नहीं होते हैं, वे स्वर्ग में भी राज्य चाहते हैं। यह जो, यह जो तथाकथित धार्मिकता है प्रलोभन पर खड़ी हुई कि तुम्हें स्वर्ग में पुण्य मिलेगा और पाप करोगे, झूठ बोलोगे, बेईमानी करोगे तो नरक में दंड मिलेगा। यह जो दंड पर और प्रलोभन पर, यह जो फीयर पर, भय पर खड़ी हुई नैतिकता है, यह असत्य है। क्योंकि धर्म का पहला सूत्र अभय है, फीयरलेसनेस है। धर्म का पहला सूत्र भय, फीयर नहीं है। जहां भय है वहां धर्म नहीं हो सकता। जहां अभय है वहीं धर्म हो सकता है। और अभय कौन हो सकता है? जो स्वतंत्र हो। जहां फ्रीडम है, वहां फीयरलेसनेस हो सकती है। जहां स्वतंत्रता है, वहां अभय हो सकता है। और जहां स्वतंत्रता नहीं है, वहां अभय नहीं हो सकता, वहां तो भय होगा। भय के कारण ही तो हम परतंत्र हैं।
और यह जो प्रश्न आप पूछते हैं, यह भी भय से ही उत्पन्न हुआ है कि अनीति न हो जाए, अनाचार न हो जाए। यह भी भय से उत्पन्न हुआ है।
अनीति है, अनाचार है, होने की कोई संभावना अब नहीं है। अगर कहीं भी कोई नरक है, तो इस जमीन से बदतर नहीं हो सकता। और क्या इससे बदतर हो सकता है? चौबीस घंटे हम हिंसा में रत हैं। चौबीस घंटे हम बेईमानी में रत हैं। चौबीस घंटे हम धोखा दे रहे हैं अपने को और सबको। और जो बहुत समझदार हैं वे भगवान तक को धोखा दे रहे हैं। वे वहां प्रार्थना कर रहे हैं, स्तुति कर रहे हैं, भगवान तक को फुसला रहे हैं, खुशामद कर रहे हैं। वहां भी, वहां भी वे जाकर जो भी उनसे बन सकता है--जो इस दुनिया के रास्ते हैं, खुशामद के, वे भगवान के साथ स्तुति करके कर रहे हैं, प्रार्थना करके कर रहे हैं कि तुम बहुत महान हो, तुम पतित-पावन हो और हम तो पतित हैं। वे वहां खुशामद कर रहे हैं। वे वहां रिश्वत दे रहे हैं।
यहां दुनिया में सब तरफ धोखा है--मंदिर में धोखा है, धर्म में धोखा है; सब तरफ बेईमानी है। और इस बेईमानी और इस धोखे की दुनिया में हम यह विचार करते हैं कि और कहीं अनैतिकता न आ जाए! अनैतिकता और क्या आएगी? प्रेम बिलकुल भी मन में नहीं है। घृणा है, हिंसा है। इसलिए तो आए दिन युद्ध होता है। आए दिन कहीं न कहीं मनुष्य लड़ता है।
इधर मुझे किसी ने कहा कि तीन हजार साल मनुष्य के इतिहास में साढ़े चार हजार बार युद्ध हुए हैं। यह कैसी दुनिया है? यहां रोज युद्ध हो रहा है। जब युद्ध नहीं हो रहा तो युद्ध की तैयारी हो रही है। शांति का अब तक कोई वक्त मनुष्य के इतिहास में नहीं जाना गया है। दो तरह के वक्त हमने जाने हैं: युद्ध का वक्त और युद्ध की तैयारी का वक्त। शांति का अभी तक कोई वक्त किसी मनुष्य-समाज ने नहीं जाना है। या तो लड़ते हैं या लड़ने की तैयारी करते हैं। जब तक लड़ने की तैयारी करते हैं तब तक समझते हैं कोल्ड वॉर चल रहा है और जब लड़ने लगते हैं तो हॉट वॉर शुरू हो जाती है। लेकिन दोनों वक्त लड़ाई चल रही है। चौबीस घंटे लड़ाई चल रही है। हर आदमी एक दूसरे आदमी से लड़ रहा है।
जहां भी महत्वाकांक्षा है वहां चौबीस घंटे लड़ाई होगी। आप बैठे हैं यहां निश्चिंत लेकिन हर आदमी का हाथ दूसरे आदमी की जेब में है। आप बैठे हैं निश्चिंत लेकिन हर आदमी दूसरे की गर्दन दबाए हुए है। चौबीस घंटे यह चल रहा है। और इसको हम कहते हैं यह बड़ी नैतिक दुनिया है! यह नैतिक दुनिया है, इसमें कहीं अनाचार न आ जाए मनुष्य के स्वतंत्र होने से!
यह मनुष्य की परतंत्रता का फल है। और अगर इसे तोड़ना ही है, तो साहस करके मनुष्य को स्वतंत्र करने की कोई न कोई चिंता करनी आवश्यक हो गई है। मनुष्य स्वतंत्र हो, अभय हो, सच्चाइयों को जाने, पहचाने, तो जरूर ही जो अशुभ है उसके परिवर्तन की आकांक्षा पैदा होनी शुरू होती है। अशुभ का दर्शन अशुभ के परिवर्तन का कारण बन जाता है।
इसलिए मैं नहीं देखता कि स्वतंत्रता से कोई भी अशुभ फलित हो सकता है। बाकी सब बातें परतंत्रता को स्थापित रखने के कारण खोजती हैं। परतंत्रता बनी रहे इसलिए सामान्यजन की बातें की जाती हैं। इसलिए मनुष्य बिगड़ न जाए इसकी बातें की जाती हैं। कोई मालिक गुलामों को छोड़ने को कभी राजी नहीं होता। वह यही कहता है कि गुलाम छूट जाएंगे तो बड़ी मुसीबत में पड़ जाएंगे। ये तो हमारी वजह से मजे में हैं। अगर ये छूट गए तो दिक्कत और कठिनाई इन पर आएगी। सब मालिक यही कहते हैं। मालिक की यही भाषा है।
शोषक की यही भाषा है कि शोषित स्वतंत्र न हो जाए। सारी दुनिया के धर्म-पुरोहित, राजनेता इस बात में सहमत हैं कि मनुष्य को स्वतंत्रता की कोई आवश्यकता नहीं है। मनुष्य जितना परतंत्र हो उतना ही अच्छा होगा। अगर मनुष्य बिलकुल विचार बंद कर दे करना तो बहुत अच्छी बात है। इसके बाबत भी वह चिंतन करते हैं कि मनुष्य का सब विचार ही बंद हो जाए। तो माइंड-वॉश के लिए वे उपाय खोजते हैं कि कोई चिंतनशील आदमी हो तो उसके मन की सफाई करके कैसे उसके मन को कोरा कर दिया जाए। मैस्कलीन और एल एस डी जैसे ड्रग्स खोजते हैं कि आदमी इनको पीने लगे तो उसमें चिंतन समाप्त हो जाए।
सारी दुनिया में जो शोषक हैं--चाहे वह राज्य का अधिकारी हो, चाहे धर्म का, ये दो ही बड़े गहरे शोषक हैं। उन सबकी यह इच्छा है कि मनुष्य में स्वतंत्रता का कोई विचार पैदा न हो। क्योंकि स्वतंत्र और विचारपूर्ण मनुष्य सारी दुनिया में क्रांति का कारण हो जाएगा। यह सड़ी-गला समाज फिर नहीं चल सकती। यह सड़ी-गली दुनिया फिर नहीं बरदाश्त की जा सकती। इसमें बहुत क्रांति हो जाएगी, इसमें बहुत आग लग जाएगी, इसमें बहुत सी चीजें तोड़ देनी पड़ेंगी। तो बहुत भय मालूम होता है। इसलिए मनुष्य सोच न पाए।
इसलिए जो टोटेलिटेरियन मुल्क हैं, जहां कि तानाशाही है, वहां तो उन्होंने चिंतन को बंद ही कर दिया है। चिंतन, इसका मतलब मौत। सोचो कि गोली मारो। आज नहीं कल सारी दुनिया में वे इसी कोशिश में हैं कि सोचो मत। खाओ-पीओ, मकान में रहो, रेडियो सुनो, अखबार पढ़ो, लेकिन सोचो मत। क्योंकि सोचना बड़ी खतरनाक बात है। सोचना बड़ी विद्रोही बात है।
जहां चिंतन है, वहां विद्रोह है। और इसलिए वे पच्चीस उपाय खोजते हैं कि कभी सोचना मत। हम जो कहें उसे मान लो। राजनीतिज्ञ भी यही कहता है कि हम जो कहें उसे मान लो, धर्म-पुरोहित भी यही कहता है कि हम जो कहें उसे मान लो, सारी दुनिया में सभी सत्ताधिकारी यही कहते हैं कि हम जो कहें उसे मान लो। क्योंकि सोचने में खतरा है। खतरा आपको नहीं है, खतरा उनकी सत्ता को है, खतरा उनकी शोषण की दुकान को है। इसलिए वे इसकी सारी व्यवस्था करते हैं, हजार दलीलें खोजते हैं।
लेकिन स्मरण रखें, स्वतंत्रता से बड़ा कोई मूल्य नहीं है। और स्वतंत्रता के विरोध में जो भी कहा जाता हो, वह जरूर कुछ न कुछ खतरनाक है और मनुष्य के हित में नहीं हो सकता। स्वतंत्रता तो परमात्मा तक पहुंचने का द्वार है। और जीवन में जो भी सुंदर है और जो भी शुभ है, वह केवल स्वतंत्र चेतना ही पा सकती है। परतंत्र चेतना नहीं पा सकती है।
दूसरे प्रकार के प्रश्न भी कुछ इसी बात से संबंधित हैं।
पूछा है कि
भगवान, समाज में ही व्यक्ति का जन्म होता है, समाज ही उसे शिक्षा देता है, समाज ही उसे पालता और पोसता और बड़ा करता है, तो व्यक्ति समाज से स्वतंत्र कैसे हो सकता है?
ठीक लगती है यह बात। समाज में आपका जन्म होता है। लेकिन जो जन्मता है, वह समाज से नहीं आता। जो आपके भीतर है वह समाज से आया हुआ नहीं है। बुद्ध बारह वर्ष बाद जब अपने घर वापस अपने गांव में लौटे, तो सारा गांव उनके स्वागत को गया। उनके पिता भी गए। बारह वर्ष बाद उनका लड़का वापस लौटता था। सारा गांव तो उस लड़के का स्वागत करने गया था, पिता अपना क्रोध प्रकट करने गए थे। क्योंकि पिता को यह भ्रम था कि यह मेरा लड़का, मुझसे आया, मुझसे बिना पूछे भाग गया।
जाकर उन्होंने जो पहली बात बुद्ध को कही वह यही कि मेरे द्वार अब भी खुले हैं। अगर तू क्षमा मांगने को राजी हो और वापस लौट आए, तो मैं अभी क्षमा कर सकता हूं। और मेरे दिल में बहुत दुख होता है यह बात देख कर कि हमारे वंश में, हमारे कुल में कभी किसी ने भिक्षा नहीं मांगी। तेरे हाथ में भिक्षा का पात्र देख कर मेरे प्राण छटपटाते हैं। तू राजपुत्र है, तुझे भिक्षा मांगने की जरूरत नहीं। यह हमारे कुल में, हमारे वंश में कभी नहीं हुआ।
पता है बुद्ध ने क्या कहा? बुद्ध ने कहा: आप भूल करते हैं, मैं आपसे आया जरूर, लेकिन आपके कुल का नहीं हूं। आप एक चौरस्ते की भांति थे, जिस पर से मैं आया। लेकिन मेरी यात्रा अलग से चल रही है, बहुत पहले से। मैं आपसे पैदा हुआ, लेकिन आपका नहीं हूं। और आपके कुल में भिक्षा न मांगी गई होगी। जहां तक मुझे खयाल है, मेरे कुल में हमेशा भिक्षा ही मांगी गई है। जहां तक मुझे स्मरण है, मैंने हमेशा ही भिक्षा मांगी है। आपके कुल में न मांगी गई होगी। मैं आपसे पैदा हुआ, लेकिन आपका ही नहीं हूं।
समाज में आप पैदा हुए हैं, लेकिन जो आपके भीतर है वह समाज का नहीं है। समाज ने आपको शिक्षा दी है, समाज ने आपको भोजन दिया है, लेकिन आत्मा नहीं। और अगर इस भोजन और शिक्षा और वस्त्र को ही आप आत्मा समझ लेंगे, तो फिर डूब जाएंगे।
आत्मा इससे कुछ और भिन्न और पृथक है। उसकी खोज के लिए समाज की सारी जंजीरों से ऊपर उठ जाना जरूरी है।
इसका यह मतलब नहीं है कि मैं आपसे यह कहता हूं कि रास्ते पर लिखा है बाएं चलो, तो आप दाएं चलने लगें। यह मैं नहीं कह रहा हूं। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि आप रास्ते पर दाएं चलने लगें या बीच रास्ते पर चलने लगें। यह स्वतंत्रता नहीं है। यह तो मूर्खता होगी। इन नियमों को तोड़ने के लिए नहीं कह रहा हूं कि सारे लोग दो पैर से चलते हैं तो आप दोनों हाथ-पैर से चल कर स्वतंत्र हो जाएं। चारों हाथ-पैर से चलने लगें और स्वतंत्रता की घोषणा कर दें। यह मैं नहीं कह रहा हूं। इस तल पर नहीं कह रहा हूं। शरीर की और समाज की औपचारिकता के तल पर नहीं कह रहा हूं। कह रहा हूं उस तल पर, वह जो आपके भीतर बहुत गहरा तल है विचार का, वहां मुक्त हों। वहां देखना शुरू करें, वहां अंतर्दृष्टि को जगाएं, वहां सोचना शुरू करें। वहां चिंतन जन्मे, वहां होश आए कि मैं जो सोचता हूं, जो करता हूं, वह कहां तक उचित है? कहां तक ठीक है? वहां समाज आपको न पकड़ पाए।
कल अगर आप हिंदू हैं और कोई आकर आपसे कहे कि चलो मस्जिदों में आग लगाओ, क्योंकि यह धर्म का काम है। तो उस वक्त आप विचार करें कि क्या मस्जिदों को जलाना धर्म का काम हो सकता है? या कल कोई मुसलमान, आप मुसलमान हैं और आपसे आकर कहे कि चलो हिंदुओं के मंदिर की मूर्तियां तोड़ो, यह धर्म का काम है। उस वक्त आप सोचें। यह सड़क पर बाएं चलने की बात नहीं रही अब। उस वक्त आप सोचें कि क्या यह उचित है? क्या यह धर्म हो सकता है कि हम कोई मंदिर जलाएं और कोई मूर्ति तोड़ें?
जब कोई धर्म आपसे कहे कि लड़ो और दूसरे को दुश्मन मानो, तब सोचना जरूरी है कि क्या धर्म घृणा और हिंसा सिखा सकता है? तब विचार करना जरूरी है और समाज से मुक्त होना जरूरी है।
अगर दुनिया के युवक समाज से इन अर्थों में मुक्त हो सकें, तो दुनिया में न कोई युद्ध का कारण है, न कोई हिंसा का कारण है। न भारतीय को पाकिस्तानी से लड़ाया जा सकता है, न हिंदू को मुसलमान से लड़ाया जा सकता है। क्योंकि तब ये निपट गंवारियां, बेवकूफियां मालूम होंगी। और तब ज्ञात होगा कि हजारों वर्ष से आदमी ये क्या नासमझियां करता रहा है। इस तल पर स्वतंत्र होना जरूरी है।
जब कोई आपसे कहे कि यह किताब सत्य है, इसको मानो और पूजा। और इसके इधर-उधर जरा भी चिंतन मत करना। तब सोचना जरूरी है कि क्या कोई किताब किसी मनुष्य को सत्य दे सकती है? क्या किताब के पन्नों में और शब्दों में सत्य मिल सकता है? अगर मिल सकता होता तो दुनिया में कब का सत्य सबको मिल गया होता। कितनी किताबें हैं, कितने धर्मग्रंथ हैं। लेकिन जिन लोगों के सिर पर जितने धर्मग्रंथ हैं वे उतने ही जीवन में व्यर्थ मालूम पड़ते हैं।
तो चिंतन की जरूरत है कि क्या सत्य किताब से मिल सकता है या कि मुझे खुद खोजना होगा? अगर कोई आपसे किताब लाकर देकर कहे कि इस किताब को सम्हाल कर रखो, बस इस किताब में जो है उससे तुम्हें प्रेम मिल जाएगा, तो आपको शक होगा कि किताब से कैसे प्रेम मिल जाएगा? प्रेम तो जब हृदय में जागेगा तो मिलेगा। सत्य भी जब हृदय में जागेगा तो मिलेगा।
इन सारे तलों पर सोचने की जरूरत है। एक पत्थर की मूर्ति रख कर कोई कहता है कि ये भगवान हैं, इनकी पूजा करो, तो चिंतन उठना जरूरी है। कोई किसी झाड़ को पूज रहा है, कोई किसी मंदिर में मूर्ति को पूज रहा है, कोई किसी किताब को पूज रहा है। सोचना जरूरी है कि क्या ये भगवान हैं? और क्या यह पूजा केवल अज्ञान नहीं होगी? या कि मैं खोजूं और जानूं कि कहां है जीवन-स्रोत? कहां है इस सारे जगत का जीवन-स्रोत? कहां छिपा है? मैं उसे खोजूं या कि एक पत्थर को लेकर बैठ जाऊं? यहां चिंतन की, यहां विचार के मुक्त होने की जरूरत है।
तो आपसे यह नहीं कह रहा हूं कि आप खाने-पीने के मामले में, कि कपड़े पहनने के मामले में, कि सड़क पर चलने के मामले में कोई समाज से स्वतंत्र हो जाएं। यह तो सब सामाजिक घेरा है। यह कोई आत्मा का स्थान नहीं है। लेकिन चित्त के तल पर, विचार के तल पर आपकी दृष्टि सजग हो, सोचपूर्ण हो, विचार करती हो, खुद निर्णय लेती हो और जहां अंधी बात दिखाई पड़ती हो वहां ठहरना जानती हो, रुकना जानती हो, अस्वीकार करना जानती हो। जहां कोई सार्थक बात दिखाई पड़ती हो अर्थपूर्ण, जीवन को ऊंचा ले जाने वाली, वहां स्वीकार करना जानती हो। जहां कोई व्यर्थ घृणा में, हिंसा में, अज्ञान में, अंधेरे में ले जाने वाली कोई बात खड़ी हो, वहां अस्वीकार करना जानती हो। ऐसी स्वतंत्र विचार की बुद्धि के लिए आपसे निवेदन किया हूं।
तो यह कोई कपड़े छोड़ कर, खाना बदल कर, कोई रास्ते पर उलटा-सीधा चलने को नहीं कह रहा हूं आपसे। यह तो समाज का तल है। उस तल पर कोई सवाल नहीं है। उस पर कोई बंधन भी नहीं है। बल्कि आप बाएं चलते हैं इसी वजह से चल पाते हैं, अगर दाएं या बीच में चलेंगे तो चल भी नहीं पाएंगे। समाज के जो नियम हैं आम जिंदगी को चलाने के उनसे कुछ नहीं कह रहा हूं। लेकिन चिंतन के, सत्य की खोज के और जीवन की खोज के जहां सवाल हैं, जहां आत्मा तक पहुंचने का सवाल है वहां, वहां सोचना पड़ेगा, वहां विचार करना पड़ेगा, वहां स्वतंत्र होना पड़ेगा। और वहां स्वतंत्र होंगे तो ही उसको पा सकते हैं जो समाज से नहीं आता, समाज के बहुत पहले है, समाज के बहुत बाद है। जो मां-बाप से पैदा नहीं होता। इसलिए मां-बाप की दी गई कोई भी शिक्षा, समाज की दी गई कोई भी शिक्षा आत्मा का ज्ञान नहीं बन सकती। उस ज्ञान के लिए तो अत्यंत स्वतंत्र ऊर्जा की खोज और अनुसंधान आवश्यक है।
मैं समझता हूं मेरी बात आपको खयाल में आई होगी। और बहुत से प्रश्न हैं, कल और परसों उनके बाबत बात करूंगा।
अब हम ध्यान के लिए थोड़ी देर बैठेंगे।
थोड़ी सी बात समझ लें।
ध्यान भी चित्त की परिपूर्ण स्वतंत्रता में जाने का प्रयोग है। बाहर जो भी है उसमें हम इतने व्यस्त हैं, भीतर जो है उस पर न दृष्टि जाती है, न ध्यान जाता है। बाहर जो है उसमें ही हम व्यस्त नहीं हैं, बल्कि उसकी जो-जो प्रतिक्रियाएं हमारे मन में होती हैं उसमें भी हम बहुत आकुपाइड और घिरे हुए हैं। अगर अकेले भी कहीं बैठ जाएंगे तो भी वही सोचेंगे जो भीड़ ने आपको दिया है। मित्रों की सोचेंगे, शत्रुओं की सोचेंगे, धंधे की साचेंगे, कुछ और सोचेंगे। लेकिन सोच-विचार जारी रहेगा। और आप अकेले नहीं हो पाएंगे।
भीतर सारा सोच-विचार विलीन हो जाए। भीतर सारी चिंता शांत और शून्य हो जाए। भीतर कोई भी तरंग न उठती हो, ऐसा घनीभूत मौन हो जाए, ऐसी साइलेंस, ऐसी शांति वहां भीतर आ जाए कि वहां कोई लहर भी चित्त में न उठती हो, ऐसी स्थिति का नाम ध्यान है।
आप कहेंगे, यह तो बहुत मुश्किल है, यह तो बहुत कठिन है। क्योंकि चित्त तो एक क्षण को भी शांत नहीं होता, मौन नहीं होता। वहां तो कुछ न कुछ काम जारी है--कोई न कोई विचार, कोई न कोई बात, कोई न कोई स्मृति वहां काम कर रही है। भविष्य या अतीत कोई न कोई पकड़े हुए है। वहां तो चौबीस घंटे काम है। शरीर तो कभी विश्राम भी करता, वहां कोई विश्राम नहीं है। रात सोते हैं तो सपने चलते रहते हैं, दिन जागते हैं तो न मालूम कौन कौन सी चिंताएं और विचार चलते रहते हैं।
तो कैसे यह होगा? और कई आपमें से बैठे होंगे माला लेकर और यह नहीं हुआ होगा। और कई बैठे होंगे नाम-स्मरण किया होगा और नहीं हुआ होगा। और कई ने प्रार्थनाएं की होंगी और मंत्र पढ़े होंगे और यह नहीं हुआ होगा। तो और यह खयाल पैदा हो गया होगा कि यह तो बहुत कठिन बात है। यह बात कठिन नहीं है। आप जो करते हैं वह गलत है इसलिए नहीं हो पाता।
माला फेरते हैं, मन शांत नहीं होगा। क्योंकि माला फेरने से और शांति का कुछ भी संबंध नहीं है। और राम-राम जपेंगे तो मन शांत नहीं होगा, क्योंकि यह जपना भी एक अशांति है। यह खुद एक उपद्रव है। एक आदमी बैठा हुआ है राम-राम-राम कहता रहे, तो यह अशांत होने का लक्षण हुआ। आप अगर कुत्ता-कुत्ता-कुत्ता करते रहे या बिल्ली-बिल्ली, तो आपको लोग पागल कहेंगे, लेकिन राम-राम कहते रहें, तो लोग कहेंगे कि बड़ा धार्मिक है।
मामला बिलकुल एक ही जैसा है। कोई फर्क नहीं है। किसी एक शब्द को बार-बार दोहराना जड़ता का लक्ष्ण है। उससे भी मन शांत नहीं होगा। हां, हो सकता है बहुत अगर जिद्दी हों और लगे ही रहे, तो मन सो जाए। लेकिन सो जाने में और शांत होने में बहुत अंतर है।
छोटे बच्चे को सुलाना होता है, मां एक ही कड़ी गुनगुनाने लगती है--सो जा मुन्ना, सो जा मुन्ना, या कुछ बकवास करने लगती है। उसको शायद यह खयाल पैदा होता होगा कि बड़ा गीत मधुर है इसलिए बच्चा सो रहा। बच्चा ऊब जाता है, बोर हो जाता है। थोड़ी देर में एक ही कड़ी सुनते-सुनते सो जाता है। यह बोर्डम का फल है, यह कोई गीत का फल नहीं है। यह कोई आपके गीत के माधुर्य का परिणाम नहीं है। यह बच्चा ऊब गया आपकी बकवास से। एक ही शब्द लगाए हुए हैं, लगाए हुए, घबड़ा गया, सो गया। ऐसे ही राम-राम जपते रहें, तो चित्त घबड़ा जाए, ऊब जाए, तो सो जाएगा।
उस सोने को आप शांति मत मानना। वह तो अफीम से भी मिलती है, शराब से भी मिलती है। इन दोनों में फर्क नहीं है। अफीम से भी मिलती है, शराब से भी मिलती है, और कोई नये इंजेक्शन हैं उनसे भी मिलती है। हजार दवाइयां हैं सो जाने के लिए। उसी भ्रांति की ये बहुत पुरानी, बहुत प्रचलित दवाइयां हैं।
कोई भी एक शब्द को लेकर दोहराते जाएं, मन ऊब जाएगा, घबड़ा जाएगा। अगर उस ऊबने के पहले ही आप उठ जाएं तो बात अलग है। अगर लगे ही रहे, लगे ही रहे, तो सो जाएगा। सो जाने के बाद जब आप जागेंगे आपको लगेगा कि बड़ी शांति हुई। वह नींद थी, वह शांति नहीं थी। वह एक भ्रांति के शब्द को बार-बार दोहराने से पैदा हो जाती है। उसमें कोई बड़ी खूबी की बात नहीं है। इन सब बातों को मैं ध्यान नहीं कहता हूं। यह कोई भी ध्यान नहीं है।
फिर मैं किस बात को ध्यान कहता हूं? मैं कहता हूं परिपूर्ण जागृति को ध्यान; नींद को नहीं, सो जाने को नहीं।
अभी हम जो ध्यान करेंगे वह जागृति का एक प्रयोग है। चारों तरफ जो भी हो रहा है उसके प्रति पूरी तरह जाग कर बैठे रहना है। कोई पता हिलेगा, कोई पक्षी आवाज करेगा, कोई कुत्ता भौंकेगा, कोई बच्चा रोएगा, कोई खांसेगा, कोई कुछ होगा, चारों तरफ बहुत सी आवाजें होंगी। और जैसे जैसे आपका चित्त शांत होगा, धीमी-धीमी आवाजें भी सुनाई पड़नी शुरू जो जाएंगी। कोई छोटा-मोटा पक्षी जो पूर्णतया अभी आपको सुनाई नहीं पड़ रहा, वह भी सुनाई पड़ेगा।
चारों तरफ एक दुनिया है घटनाओं की, इन घटनाओं के प्रति पूरी तरह जाग कर बैठे रहना।
पूछा है कि
भगवान, यदि श्रद्धा न होगी तो सामान्यजन का क्या होगा?
सामान्यजन का बहुत विचार चलता है। सुबह भी मैं यहां से उठा और किसी ने मुझे कहा कि सामान्यजनों का क्या होगा? ये तो भटक जाएंगे। जैसे कि सामान्यजन अभी भटका हुआ नहीं है। जैसे कि सामान्यजन अभी जहां है बिलकुल ठीक है। यह बात स्वीकार ही कर ली है जैसे कि सामान्यजन बहुत ठीक स्थिति में है। और अगर श्रद्धा डिग गई, विश्वास हट गया तो भटक जाएगा।
मेरी दृष्टि में तो इससे ज्यादा भटकी हुई और कोई हालत नहीं हो सकती जिसमें हम हैं।
यह भी पूछा है कि
भगवान, अगर श्रद्धा और विश्वास उठ गया तब तो पतन और अनाचार फैल जाएगा?
जैसे अभी बहुत आचरण फैला हुआ है, आचार फैला हुआ है। जैसे हजारों साल से अनाचार नहीं है। अभी हम जिस स्थिति में हैं अगर वह अनाचार की नहीं है, तो और अनाचार की कौन सी स्थिति होगी? क्या है हमारे जीवन में जिससे हम कह सकें कि यह पतन नहीं है? लेकिन फिर भी चूंकि वह हजारों वर्ष से चलता है, इसलिए हम उसके आदी हो गए हैं। और उससे भी डिग जाएंगे तो बहुत घबड़ाहट मालूम होती है। जैसे कोई बीमार आदमी पूछे कि अगर मैं दवा ले लूंगा और बीमारी चली जाएगी तो फिर क्या होगा?
श्रद्धा और विश्वास का यह परिणाम हुआ है कि मनुष्य पतित है। क्योंकि पतन की पहली बुनियाद तो अंधेपन से शुरू हो जाती है। पतन का पहला आधार तो रख दिया अंधेपन ने। जिस व्यक्ति ने अपने सोच-विचार को उधार रख दिया, उसके जीवन में अब पतन नहीं होगा तो और क्या होगा? जिसने अपनी निज गरिमा को, स्वयं के सोचने की स्वतंत्रता को ही समाप्त कर लिया, अब उसकी स्थिति पशुओं से बहुत बेहतर नहीं हो सकती है। पशु और मनुष्य में यदि कोई भेद है, तो वह यही कि मनुष्य विचार करने में समर्थ है। और यदि हमने विचार करना बंद कर दिया और विश्वास कर लिया, तो हम अनिवार्यरूपेण पशु की स्थिति में नीचे गिर जाते हैं। जो विचार नहीं करता है उसके लिए पतन के अतिरिक्त और कोई मार्ग शेष नहीं रह जाता। यह श्रद्धा और यह विश्वास और यह सारा प्रोपेगेंडा जो हजारों साल से चला है, उसने हमें इस हालत में लाकर छोड़ा है।
यह पूछना कि सामान्यजन भटक जाएगा और भी एक अर्थ रखता है। जो भी यह पूछता है वह अपने को असामान्यजन मानता है। जो भी यह पूछता है वह दूसरों पर दया करके यह पूछता है। खुद तो उसे कोई भय नहीं है, वह तो बहुत विशिष्टजन है। बाकी सामान्यजन भटक जाएंगे।
और मुझे इधर लाखों लोगों से मिलने का रोज निरंतर मौका आ रहा है, अब तक मुझे एक भी जन ऐसा नहीं मिला जिसने यह कहा हो: मैं सामान्यजन हूं। प्रत्येक को यही भ्रम है कि बाकी सारे लोग सामान्य हैं और मैं विशिष्ट हूं। हरेक मुझसे यही पूछता है कि सामान्यजन का क्या होगा? अभी तक ऐसा एक भी आदमी मुझे पूछता नहीं आया कि मेरा क्या होगा?
ये सामान्यजन कहां हैं? मैं भी खोजता हूं, मुझे अभी तक मिला नहीं। आपको मिले तो मुझे बताएं। ये कौन हैं, ये सामान्यजन कौन हैं? ये कॉमन पीपल कौन? और ये चूजन फ्यू कौन हैं? ये चुने हुए थोड़े से लोग कौन हैं?
यह सिर्फ अहंकार है कि मैं अपने को विशिष्ट समझूं, शेष को सामान्य समझूं। और हरेक के मन में यह अहंकार होता है कि वह तो विशिष्ट है, शेष सब सामान्य हैं।
अरब में एक पुरानी कहावत है कि जब भी परमात्मा लोगों को बना कर दुनिया में भेजता है, तो हरेकके कान में एक बड़ी गड़बड़ बात कह देता है। जब वह बना कर भेजने लगता है तो उससे कह देता है कि तुझसे बेहतर आदमी मैंने कभी बनाया ही नहीं। और यह सभी से कह देता है। यह बात कुछ सच ही लगती है। ऐसा ही कुछ होता होगा। नहीं तो हरेक को यह भ्रम नहीं हो सकता।
गांधी जी गोलमेज कांफ्रेंस में भाग लेने लंदन, इंग्लैंड गए हुए थे। उनके सेक्रेटरी महादेव देसाई बर्नार्ड शॉ को मिलने गए। बर्नार्ड शॉ से महादेव ने कहा कि गांधी जी को आप भी तो महात्मा मानते होंगे? बर्नार्ड शॉ ने कहा: मानता हूं, लेकिन नंबर दो। नंबर एक तो मैं ही हूं!
महादेव को बड़ा धक्का लगा। ऐसा खयाल उन्हें नहीं था। भारत में ऐसा कोई भी नहीं कहेगा कि नंबर एक मैं हूं। भीतर-भीतर सोचेगा, बाहर से कोई नहीं कहेगा। पीठ पीछे कहेगा, सामने कोई नहीं कहेगा। तो यह कल्पना महादेव को नहीं हो सकती थी कि कोई आदमी इतना सीधा-सीधा कह देगा कि गांधी नंबर दो महात्मा हैं, नंबर एक तो मैं हूं। वह बहुत दुखी वापस लौटे और गांधी को उन्होंने कहा। गांधी ने कहा: बर्नार्ड शॉ बहुत सच्चे आदमी मालूम होते हैं। जो हर आदमी के मन में लगता है वही उन्होंने कहा है।
यह भ्रम सबके भीतर है कि मैं विशिष्ट हूं और दूसरे सब सामान्य हैं। इसलिए सब दूसरों की चिंता हरेक के मन में होती है कि इन सब सामान्यजनों का क्या होगा? इन बेचारों का क्या होगा?
तो मैं आपसे निवेदन करूं, यह अहंकार अतिसामान्य बात है। यह खयाल कि मैं विशिष्ट हूं, अतिसामान्य मनुष्य का लक्षण है। जो सच में विशिष्ट होते हैं, उन्हें यह खयाल मिट जाता है कि मैं विशिष्ट हूं। जो सच में विशिष्ट होते हैं, उन्हें यह खयाल मिट जाता है कि मैं विशिष्ट हूं। साथ ही उन्हें यह भी खयाल मिट जाता है कि कोई सामान्य है।
और अगर मुझसे पूछें कि सामान्य किसे कहें, तो उसी को मैं सामान्य कहता हूं जो स्वयं की बुद्धि पर और स्वयं के विचार पर विश्वास न करके दूसरे की बुद्धि और दूसरे के विचार पर विश्वास करता है। वही सामान्य है। और अगर उसे सामान्य के घेरे से हटना है, तो उसे पहली बात, यह जो श्रद्धा और विश्वास का अंधापन है, यह छोड़ देना होगा।
जब मैं यह कहता हूं कि श्रद्धा और विश्वास का अंधापन छोड़ देना होगा, तो उसका अर्थ है, अपने पर विश्वास। जो व्यक्ति दूसरों पर विश्वास करता है, अनिवार्यरूपेण स्वयं पर विश्वास नहीं करता। स्वयं पर जो अविश्वास है, वही दूसरों पर विश्वास बन जाता है। मैं यदि अपनी शक्तियों पर कोई विश्वास नहीं करता, तो मैं दूसरों पर विश्वास करूंगा। और यदि मुझे अपनी शक्तियों पर कोई भी विश्वास हो, तो मैं किसी दूसरे पर विश्वास नहीं करूंगा।
आत्मविश्वास तो सहयोगी है, लेकिन दूसरे पर विश्वास घातक है। और मैंने जो विचार के लिए कहा, वह इसी अर्थ में कहा है। जब मैं यह कह रहा हूं कि अपने पैर पर खड़े हो जाएं, खुद सोचें, खुद चिंतन करें, खुद अनुभव करें, तो मैं यह कह रहा हूं, स्वयं पर विश्वास करें। लेकिन ‘विश्वास’ शब्द का मैंने उपयोग नहीं किया जान कर। वह शब्द जहरीला हो गया है, विषाक्त हो गया है। उससे भ्रम होने का डर होता है। इसलिए मैंने कहा विचार करें। इसलिए मैंने कहा खुद का अनुसंधान करें। लेकिन प्रयोजन तो बहुत स्पष्ट है। प्रयोजन यह है कि मैं आपका जो विश्वास दूसरों पर है, उस सबको चाहता हूं हट जाए और स्वयं पर आ जाए।
आत्मविश्वास ही मार्ग बन सकता है आत्मा तक जाने का। और यह जो निरंतर मैं विरोध कर रहा हूं कि छोड़ दें औरों पर, वह इसीलिए ताकि स्वयं पर हो सके।
कोई सामान्य नहीं है। जो व्यक्ति भी अपने पर विश्वास नहीं करता, वही सामान्य है, वही रुग्ण है, वही बीमार है। और आप यदि मुझसे कहें कि सामान्यजन का क्या होगा अगर वह अपने पर विश्वास कर लेगा? क्या होगा, बहुत शुभ होगा। डर हमें क्यों हैं ये? डर के पीछे भी कारण हैं। डर के पीछे कारण ये हैं--भय है कि सामान्यजन स्वच्छंद हो जाएगा, अनैतिक हो जाएगा, अनाचारी हो जाएगा, नीति छोड़ देगा, धर्म छोड़ देगा। ये डर क्यों हैं? ये डर इसीलिए हैं कि मनुष्यों के ऊपर जो भी धर्म हमें आज दिखाई पड़ता है, वह जबरदस्ती थोपा हुआ है। और जो भी नीति दिखाई पड़ती है, वह जबरदस्ती उनके सिर पर बोझ की भांति रखी गई है। यदि उनको स्वतंत्र होने का मौका मिला, तो इस बोझ को वे सबसे पहले उतार देंगे। यह भय है।
अगर स्वतंत्रता हमारी नीति को और धर्म को छीन लेती हो, तो जानना चाहिए कि वह नीति और धर्म झूठे होंगे। जो धर्म और नीति स्वतंत्रता के आने पर छिन जाएं, वे निश्चित ही झूठे होंगे। जो धर्म और नीति स्वतंत्रता के आने पर और प्रगाढ़ और गहरे हो जाते हैं, वे ही केवल वास्तविक हैं। चूंकि धर्म झूठा है, चूंकि नीति और आचार हमारे मिथ्या हैं, इसलिए यह भय है।
मनुष्य के ऊपर सारा धर्म थोपा हुआ और झूठा है। उसकी सारी नीति असत्य है। उसका आचरण उसकी आत्मा से उठा हुआ नहीं, वरन किन्हीं भय और प्रलोभन के आधार पर जबरदस्ती पहना हुआ है। इसलिए डर है कि यदि मनुष्य का विचार स्वतंत्र हो, तो अनैतिक हो जाने का डर है। यह डर इस बात की सूचना है कि मनुष्य अभी भी अनैतिक होगा।
स्वतंत्रता तो परीक्षा है। चौराहे पर पुलिस का आदमी खड़ा है, इसलिए आप चोरी नहीं करते। और अदालत में मजिस्ट्रेट बैठा हुआ है, इसलिए आप चोरी नहीं करते। और वहां भगवान की अदालत भी बैठी हुई है, जो नरक भेजती है और स्वर्ग भेजती है, इसलिए आप चोरी नहीं करते। अगर ये सब अदालतें उठ जाएं और परमात्मा से लेकर पुलिसवाला तक विदा हो जाए, तो बहुत डर है कि हम सब चोरी करेंगे। तब क्या इनके डर से जो हम चोरी नहीं कर रहे हैं वह नैतिकता है? वह धर्म है? क्या इनकी मौजूदगी इस बात का सबूत नहीं है कि हम नैतिक नहीं हैं?
नरक है, स्वर्ग है, भय है, उस डर से आप चोरी नहीं कर रहे हैं, बेईमानी नहीं कर रहे हैं। क्या यह आपके नैतिक होने का प्रमाण है? नहीं, नैतिक होने का एक ही प्रमाण होता है कि जब कोई भी भय न हो तब भी आप नैतिक हों। जब कोई भी भय न हो तब भी आपके जीवन में शुभ का अवतरण हो। जब कोई भी प्रलोभन न हो तब भी आपके जीवन से सत्य और प्रेम बहे।
स्वतंत्रता ही एक मात्र कसौटी है कि मनुष्य नैतिक है या अनैतिक है। सब भांति स्वतंत्रता ही इस बात की सूचना देगी कि हम कहां हैं।
और मैं आपसे यह भी निवेदन करूं, यह जो सारा भय है सारे दुनिया के धार्मिक लोगों को कि जैसे-जैसे स्वतंत्रता आएगी वैसे-वैसे अनीति आएगी, यह एक तरह से ठीक है। क्योंकि उन्होंने हजारों वर्षों से झूठी नीति को मनुष्य के ऊपर थोपा है। मेरी दृष्टि में झूठी नीति की बजाय सच्ची अनीति शुभ होती है। मैं अपने को व्यर्थ ही सज्जन समझूं, इससे मेरा दुर्जन होना ही ठीक है। कम से कम वह सत्य के निकट तो होगा। वह मेरी समझ सत्य के करीब तो होगी कि मैं चोर हूं। और यदि मुझे यह स्पष्ट बोध हो जाए कि मैं चोर हूं, तो मेरी चोरी के परिवर्तन की संभावना पैदा होती है।
यदि स्पष्टतः यह बोध हो जाए कि मनुष्य अब भी अनैतिक है और नैतिक नहीं है, और सभ्यता झूठी है और संस्कृति सब बकवास है, अगर यह बहुत स्पष्ट हो जाए, तो हम मनुष्य के बाबत पुनर्विचार कर सकते हैं--स्वयं के बाबत, सबके बाबत। कोई नये मार्ग से जीवन को बदलने की दिशा खोजी जा सकती है। लेकिन जो लोग भ्रम में हों कि हम नैतिक हैं और आचारवान हैं, और भीतर अनीति हो और अनाचार हो, उनके तो परिवर्तन के द्वार ही बंद हो गए।
विचार जब स्वतंत्र होगा, तो पहली बात तो यह होगी कि हम अपने संबंध में जो तथ्य है, जो फैक्ट है, उसका दर्शन करने में समर्थ होंगे। हममें से बहुत कम लोगों को अपने तथ्य का दर्शन होता है। हम सब अपने को कुछ समझे रहते हैं, जो हम नहीं हैं। कोई आदमी खास ढंग के कपड़े पहन लेता है और सोचता है साधु है। कोई आदमी तिलक लगा लेता है, माला डाल लेता है, यज्ञोपवीत पहन लेता है और सोचता है धार्मिक है। कोई आदमी मंदिर हो आता है सुबह और सोचता है पुण्य कमा रहा है। यदि विचार स्वतंत्र होगा, तो हम इस बात को देखने में समर्थ होंगे कि इन सबमें क्या धार्मिकता है।
क्या किसी खास ढंग के वस्त्र पहन लेने से कोई साधु हो सकता है? या कि किसी खास ढंग के भोजन करने से कोई साधु हो सकता है? न तो खास ढंग के भोजन से कोई साधु होता है और न खास वस्त्रों के पहनने से। भोजन और वस्त्र अति क्षुद्र बातें हैं। साधुता बड़ी अदभुत और बड़ी कीमती बात है। इन क्षुद्र बातों से कोई साधु नहीं होता। हम अपने बाबत तथ्य भी नहीं जान पाते हैं, जो फैक्चुअलिटी है वह भी नहीं जान पाते हैं, क्योंकि विचार हमारा स्वतंत्र नहीं है।
और सारे लोग कहते हैं इस भांति के वस्त्र पहने हुए आदमी साधु हैं। हम भी कहते हैं। फिर एक दिन हम भी वैसे वस्त्र पहन लेते हैं और खुद को भी साधु समझते हैं। क्योंकि वैसे ही वस्त्रों में दूसरे लोगों को भी हमने साधु समझा था। और हमें इस बात का न स्मरण होता है, न इसकी पीड़ा होती है कि हम सोचें और विचार करें कि इसमें साधुता क्या होगी?
सच तो यह है कि जिसे वस्त्रों में साधुता दिखाई पड़ती हो, उस जैसा मूढ़ व्यक्ति खोजना कठिन है। और जिसे भोजन के परिवर्तन में साधुता दिखाई पड़ती हो, वह सिर्फ हंसने योग्य है और कुछ भी नहीं। मगर ये अत्यंत क्षुद्र बातें हमें दिखाई नहीं पड़तीं, क्योंकि दिखाई पड़ने के लिए स्वतंत्र विचार चाहिए। स्वतंत्र विचार हमें अपने तथ्यों को प्रकट कर देगा। अगर भीतर नरक है, तो नरक को खोल देगा। ऊपर से सुगंधित फूल लगा दिए हों, इससे फर्क नहीं पड़ता। अगर भीतर पशु है, तो वह पशु नग्न हो जाएगा, प्रकट हो जाएगा। और जीवन में कोई गति नहीं हो सकती उस समय तक जब तक हमारी तथ्य का, हमारी वास्तविकता का हमें ठीक-ठीक दर्शन न हो।
मैं कैसा हूं, यह जानना अत्यंत नग्न रूप में आवश्यक है। अत्यंत नग्न रूप में मुझे जानना आवश्यक है--मैं कैसा हूं? क्या हूं? तो ही कोई परिवर्तन संभव हो सकता है। और भी आश्चर्य की बात यह है कि जैसे ही आप अपनी नग्नता को पूरा जान लें, आप फिर बिना परिवर्तित हुए नहीं रुक सकते हैं। असंभव है यह कि आप फिर रुक जाएं। अगर आपको दिखाई पड़ जाए कि आप चोर हैं, लेकिन आपको दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि आप कुछ दान भी करते हैं और दानी हैं। चोरी दान में छिप जाती है। इसलिए सब चोर दान करते हैं। कोई चोर बिना दान किए नहीं बच सकता। क्योंकि दान में वह अपने चोर होने के तथ्य को छिपा लेगा, निश्चिंत हो जाएगा। उसे फिर अपनी नग्नता दिखाई नहीं पड़ेगी।
हम जहां-जहां गलत हैं, जो-जो हमारे भीतर व्यर्थ है, जो-जो हमारे भीतर अशुभ है, उसे छिपाने को हम बहुत उपाय कर लेते हैं। अधार्मिक आदमी जरूरी रूप से मंदिर चला जाता है। वैसे धर्म ओढ़ने की सुविधा हो जाती है। और खुद के लिए यह भ्रम पैदा करना आसान हो जाता है कि मैं अधार्मिक? कौन? मैं तो अधार्मिक नहीं। जो नहीं मंदिर जाते हैं, वे सब अधार्मिक हैं, मैं तो धार्मिक हूं। और इस भांति उसके भीतर जो अधर्म था, उसे छिपाने का उपाय हो गया।
यह जो हमारी सारी नीति है और हमारा सब आचार है, भीतर गहरी जो अनीति है उसको छिपाने से ज्यादा और कोई काम नहीं कर रहा है। इसीलिए तो इतने मंदिर हैं, इतने मंदिर जाने वाले हैं, लेकिन धर्म कहां है? इसलिए तो इतने धर्म हैं, इतने संन्यासी हैं। लाखों की तादाद में संन्यासी हैं सारी दुनिया में, लेकिन दुनिया कितने गहन अनाचार में खड़ी है। इतने दीये जल रहे हों सारी दुनिया में...अभी कल ही कोई मुझे बता रहा था कि सिर्फ कैथोलिक साधु दुनिया में बारह लाख हैं। थाईलैंड के बाबत, एक मित्र आए थे वे मुझसे कह रहे थे, थाईलैंड की आबादी तो है चार करोड़ और संन्यासी हैं बीस लाख। हिंदुस्तान में भी पचास लाख की संख्या है। जहां जिस दुनिया में इतने संन्यासी हों, जिस दुनिया में इतने सत्पुरुष हों, वहां तो प्रकाश ही प्रकाश फैल जाना चाहिए। जरूर ये दीये बुझे हुए होंगे। तो गिनती में तो काम आ जाते हैं, लेकिन प्रकाश इनसे कुछ भी निकलता नहीं है। शोरगुल मचाने में, उपद्रव करवाने में काम आ जाते हैं, लोगों को लड़ाने में काम आ जाते हैं। इनसे कोई प्रेम पैदा नहीं होता है। और यही थोथी नीति हमें पकड़े हुए है।
आपका चित्त सोचने में समर्थ होगा, तो आपको दिखाई पड़ेगा आप कहां हैं? हो सकता है वह, वह मूर्ति बहुत रुचिकर न हो जो आपको अपनी दिखाई पड़े। हो सकता है वह बहुत कष्टप्रद हो। हो सकता है इतने दिन का धोखा टूटे तो आप घबड़ा जाएं। लेकिन इस पीड़ा से गुजरना ही पड़ेगा।
जिसको स्वयं को नया जन्म देना हो, उसे प्रसव की पीड़ा झेलनी ही पड़ती है। पीड़ा से गुजरना ही होगा। अपने सारे वस्त्र उतार कर, अपनी सब थोथी नैतिकता उतार कर देखना ही होगा: मेरे भीतर क्या है और कौन है? वहां अगर पशु दिखाई पड़े, तो जल्दी से फिर से नीति के वस्त्र पहनने की जरूरत नहीं है। क्योंकि उन वस्त्रों के कारण ही वह पशु जिंदा है और बचा हुआ है। उन वस्त्रों को उतार ही दें। जैसे हैं वैसे अपने को जानने को राजी हो जाएं, तो शायद वह तथ्य ही आपको इतनी पीड़ा देगा कि उसे बदलने को आपको राजी हो ही जाना पड़ेगा। कोई और मार्ग नहीं रह जाएगा।
अगर एक चोर स्पष्ट रूप से इस बात को जान ले कि मैं चोर हूं, अगर एक हिंसक स्पष्ट रूप से इस बात को जान ले कि मैं हिंसक हूं, तो बहुत दिन तक उस हिंसा और चोरी के साथ रहना संभव नहीं है। जैसे कोई बीमारियों के साथ बहुत दिन नहीं रह सकता। स्मरण आ जाए कि मुझे बीमारी पकड़े है तो उपचार की चिंता शुरू हो जाती है।
ये तो बीमारियां और भी गहरी हैं, ये तो बीमारियां शरीर से कहीं बहुत गहरे मन को और प्राणों को भी स्पर्श करती हैं। अगर इनका बोध हो जाए। लेकिन मनुष्य को बोध नहीं हो पाता। नहीं हो पाता इसलिए कि उसने बहुत सी तकरीबें लगा रखी हैं, जिन तरकीबों में वह अपने मन को बहला लेता है और भुला लेता है और भीतर की बात भीतर पड़ी रह जाती है।
इसलिए जब भी यह सवाल उठता है कि हम इन सारी बातों को छोड़ कर सच जो है हमारे भीतर उसे देखने को राजी हों, तो घबड़ाहट होती है कि उससे तो अनीति फैल जाएगी, उससे तो सब अनाचार फैल जाएगा। अनाचार होगा तो ही तो फैलेगा। अनाचार होगा तो ही तो प्रकट होगा। नहीं होगा तो कैसे प्रकट होगा?
इसलिए स्वतंत्र होने के लिए केवल वही समर्थ हो सकता है जो अपने भीतर छिपा हुआ पशु है उसे देखने को राजी हो, छिपाने को नहीं। और जो इतना साहस करता है कि अपने भीतर के पशु को देखने के लिए तैयार हो जाता है, मैं मानता हूं कि उसने पहला कदम उठा लिया। उसने इतना साहस किया है कि अपने पशु को देखने की हिम्मत दिखलाई है। बहुत कठिन है कि वह दूसरा साहस भी न करे--कि इस पशु से मुक्त होने का उपाय भी करे।
पशु से तभी मुक्त हुआ जा सकता है--अनीति और अनाचार से--जब हम उसके प्रति सजग हो जाएं। जो उसके प्रति सोए हुए हैं वे उससे कैसे मुक्त हो सकेंगे?
अच्छा है कि दुनिया में सच्चे बेईमान हों बजाय झूठे ईमानदारों के। उस दुनिया में कुछ काम हो सकेगा। कोई परिवर्तन हो सकेगा। हम ऐसी दुनिया चाहते हैं जहां चोर हों तो वे साफ तो हों कि चोर हैं। वे कम से कम दान न करते हों, मंदिर न बनवाते हों। तो दुनिया में कुछ काम हो सकता है।
जो चक्कर है समाज के ऊपर वह यह है कि हमने कुछ झूठी तरकीबें निकाल ली हैं अपने को छिपाने की और उनको हम नीति कह रहे हैं, आचार कह रहे हैं। न तो वह नीति है और न वह आचार है।
एक आदमी रात को भोजन नहीं करता, सोचता है, अहिंसक हो गया। हद मूर्खता की बात है! अहिंसक होना इतनी सस्ती बात है कि आप रात भोजन न करें या कि पानी छान कर पी लें तो आप अहिंसक हो जाएंगे? अहिंसा तो इतनी बड़ी क्रांति है कि जब तक पूरी आत्मा जाग न जाए, तब तक नहीं संभव है। लेकिन आपने सस्ती तरकीबें निकाल लीं और मामला हल हो गया, आप अहिंसक हो गए। और जब इतना सस्ता अहिंसक होने की सुविधा हो तो फिर सच में अहिंसक होने को कौन तैयार होगा? कौन उस क्रांति से, पीड़ा से गुजरने को तैयार होगा? इसलिए घबड़ाहट होती है। अगर विचार स्वतंत्र हुआ तो कहीं रात में कोई खाना न खाने लगे, अनाचार फैल जाएगा। जैसे कि दुनिया में रात में कोई खाना न खाएगा तो अनाचार समाप्त हो जाएगा!
इतना सस्ता नहीं है, अनाचार बहुत गहरा है। आप कब खाते हैं और क्या खाते हैं इस पर बहुत निर्भर नहीं है। आपके प्राणों तक भिदा हुआ है। इसलिए घबड़ाहट होती है कि अगर हमने सब ऊपर से सब बातें छोड़ दीं और व्यक्ति स्वतंत्र हुआ, तो वह न मालूम क्या खाने लगेगा, न मालूम क्या पीने लगेगा, न मालूम कैसे कपड़े पहनने लगेगा, न मालूम सड़कों पर गीत गाने लगेगा, मंदिर नहीं जाएगा, भजन नहीं गाएगा। यह जो भय हमें व्याप्तता है यह इसलिए व्याप्तता है, यह इस बात की सूचना है कि हमने हजारों वर्ष में जो भी नीति खड़ी की है झूठी है और मिथ्या है।
जो नैतिक विचार मनुष्य को स्वतंत्रता देने के लिए राजी नहीं है, वह झूठा होगा। कसौटी स्वतंत्रता है--कि मनुष्य स्वतंत्र हो और नैतिक हो, तो ही नीति वास्तविक है। मैं समझता हूं कि जरूर यह होगा। यह होगा, अगर आप स्वतंत्र होंगे तो चीजें उभरेंगी और साफ होंगी। लेकिन यह हितकर है कि चीजें उभरें और साफ हों। आपके ठीक-ठीक निदान के लिए, ठीक-ठीक डाइग्नोसिस के लिए, आपके ठीक-ठीक उपचार के लिए बीमारी का साफ-साफ स्पष्ट हो जाना जरूरी है। आपके घाव और फोड़े दिखाई पड़ने चाहिए, छिपे हुए नहीं होने चाहिए, तो उनका उपचार हो सकता है। फिर बिना उपचार किए रहना कठिन है।
अब तक जिन मनुष्यों ने भी वास्तविक आचरण को पाया है, वे वे ही हैं जिन्होंने अपने वास्तविक अनाचरण को देखा है। जो लोग भी परमात्मा तक ऊपर उठ सके हैं, वे वे ही हैं जिन्होंने नीचे घुस कर अपने पशु को पहचाना है। जिसको आकाश छूना हो, उसे नरक तक अपनी जड़ों को खोज लेना जरूरी है। नहीं तो नहीं है। जिसे ऊपर उठना हो, उसे बहुत गहरे भीतर के सारे पशु को उघाड़ कर देख लेना आवश्यक है। इसके पहले कि आपको परमात्मा के दर्शन हों, आपको पशु का दर्शन करना ही होगा। वह आपका तथ्य है, वह आपके भीतर मौजूद है। उससे भाग कर कहीं जा नहीं सकते।
इसलिए घबड़ाइए मत। स्वतंत्रता से मत घबड़ाइए। घबड़ाइए असत्य से, घबड़ाइए धोखे से, घबड़ाइए प्रवंचना से, घबड़ाइए सेल्फ डिसेप्शन से। घबड़ाइए उस धोखे से जो हम अपने को दिए जा रहे हैं। घबड़ाइए उन वस्त्रों से जो हमने थोप रखे हैं अपने लिए और छिपा रखा है अपना चेहरा। राम का चेहरा लगाने से कुछ आप राम नहीं हो जाएंगे। भीतर जो है आप वही होंगे।
तो मैं मानता हूं कि पीड़ा उत्पन्न होगी, अगर आप स्वतंत्र होने का निर्णय करेंगे। लेकिन पीड़ा को उत्पन्न होने दें। अगर सच में ही आपको स्वयं को बदलने की कोई कल्पना, कोई अभीप्सा जगी है, तो देखें, जो भीतर है उसे स्पष्टतः देखें। अपनी सच्चाई से ठीक-ठीक परिचित हों। नहीं हो सकेंगे, जब तक कि परतंत्र होंगे विचार में, नहीं यह हो सकता है।
भारत से एक भिक्षु कोई चौदह सौ, पंद्रह सौ वर्ष पहले चीन गया। वहां एक राजा था, वू। उसने बहुत मंदिर बनवाए थे, बहुत मूर्तियां बनवाईं, बहुत ग्रंथ छपाए थे। उसने भी सुना कि भारत से कोई बहुत अदभुत भिक्षु आता है, तो उसका स्वागत करने के लिए राज्य की सीमा पर आया। वह बहुत प्रसन्न था। जो भी भिक्षु इसके पहले आया था उसने ही उससे कहा था कि तुम अत्यंत धार्मिक हो, तुम बहुत पुण्यशाली हो, स्वर्ग तुम्हारा है। क्योंकि उसने इतने मंदिर बनाए थे, इतनी मूर्तियां बनवाई थीं, इतने शास्त्र छपवाए थे, इतने भिक्षुओं को मुफ्त भोजन कराता था, तो वे ही भिक्षु जो मुफ्त भोजन करते थे उसकी प्रशंसा भी गाते थे। स्वाभाविक है। वे ही भिक्षु उसकी प्रशंसा भी गाते थे कि स्वर्ग बिलकुल तुम्हारा है, तुम सुनिश्चित रहो। तुमने इतना अदभुत दान किया, इतना धर्म किया, स्वर्ग तुम्हारा है।
जब इस नये भिक्षु के आने की खबर सारे चीन में फैली, तो वह गया, उसने उस भिक्षु का स्वागत किया। नाम था उसका, बोधिधर्म। स्वागत करके उसने तो जल्दी...उसे फिकर तो इसी बात की थी पूछने की कि मैंने इतने मंदिर बनाए, इतने करोड़ों रुपये खर्च किए, इसका फल क्या है? जैसे ही थोड़ा निश्चिंत हुआ, उसने एकांत में बोधिधर्म को पूछा: मैंने इतने मंदिर बनाए, इतना धर्म किया, मुझे इससे क्या मिलेगा?
बोधिधर्म ने कहा: कुछ भी नहीं। और चूंकि तुम्हें मिलने का खयाल पैदा हो रहा है और चूंकि तुम्हें यह अहंकार पैदा हो रहा है कि तुमने इतना किया, इससे कुछ नुकसान जरूर हो सकता है। मिलेगा तो कुछ भी नहीं।
वह तो बहुत घबड़ा गया। उसने कहा: तो ये सारे भिक्षु तो मुझसे कहते थे कि स्वर्ग तुम्हारा निश्चित है।
भिक्षु तुम्हारा खाते थे, इसलिए तुम्हारी प्रशंसा करते थे, बोधिधर्म ने कहा। मैं तुम्हें सत्य कहता हूं, तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा। क्योंकि धर्म का, तुमने क्या बनाया है इससे कोई संबंध नहीं। कितनी मूर्तियां बनाईं, इससे कोई संबंध नहीं। कितने मंदिर खड़े किए, इससे कोई संबंध नहीं। तुम्हारी आत्मा कितनी परिवर्तित हुई, इससे संबंध है। क्या मंदिर बनाने से तुम्हारी आत्मा परिवर्तित हो जाएगी? क्या मूर्तियां खड़ी करने से तुम्हारी आत्मा परिवर्तित हो जाएगी? इससे तो कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। तुम्हारी आत्मा वही की वही है। जो इस जगत में बड़ा राज्य चाहती थी, वही अब बुढ़ापे में स्वर्ग का राज्य भी जीतने की तैयारी कर रही है, इसलिए मंदिर बनाती है। इस जगत में राज्य चाहिए था तो सैनिक तुम पालते थे और उनको खिलाते थे मुफ्त; उस जगत में राज्य चाहिए तो भिक्षु पालते हो और उनको मुफ्त खिलाते हो। फर्क कहां है? इस जगत में राज्य चाहिए था तो सीमाएं बढ़ाते थे; उस जगत में स्वर्ग में राज्य चाहिए तो तुम दान करते हो, दया दिखलाते हो। लेकिन यह सब झूठा है। यह तुम्हारे प्राणों से निकल नहीं रहा। इसके पीछे भी वहां कुछ पाने की आकांक्षा वैसे ही काम कर रही है जैसे यहां कुछ पाने की आकांक्षा पैदा कर रही थी।
जिनका लोभ बहुत गहरा है वे पृथ्वी का ही राज्य पाकर तृप्त नहीं होते हैं, वे स्वर्ग में भी राज्य चाहते हैं। यह जो, यह जो तथाकथित धार्मिकता है प्रलोभन पर खड़ी हुई कि तुम्हें स्वर्ग में पुण्य मिलेगा और पाप करोगे, झूठ बोलोगे, बेईमानी करोगे तो नरक में दंड मिलेगा। यह जो दंड पर और प्रलोभन पर, यह जो फीयर पर, भय पर खड़ी हुई नैतिकता है, यह असत्य है। क्योंकि धर्म का पहला सूत्र अभय है, फीयरलेसनेस है। धर्म का पहला सूत्र भय, फीयर नहीं है। जहां भय है वहां धर्म नहीं हो सकता। जहां अभय है वहीं धर्म हो सकता है। और अभय कौन हो सकता है? जो स्वतंत्र हो। जहां फ्रीडम है, वहां फीयरलेसनेस हो सकती है। जहां स्वतंत्रता है, वहां अभय हो सकता है। और जहां स्वतंत्रता नहीं है, वहां अभय नहीं हो सकता, वहां तो भय होगा। भय के कारण ही तो हम परतंत्र हैं।
और यह जो प्रश्न आप पूछते हैं, यह भी भय से ही उत्पन्न हुआ है कि अनीति न हो जाए, अनाचार न हो जाए। यह भी भय से उत्पन्न हुआ है।
अनीति है, अनाचार है, होने की कोई संभावना अब नहीं है। अगर कहीं भी कोई नरक है, तो इस जमीन से बदतर नहीं हो सकता। और क्या इससे बदतर हो सकता है? चौबीस घंटे हम हिंसा में रत हैं। चौबीस घंटे हम बेईमानी में रत हैं। चौबीस घंटे हम धोखा दे रहे हैं अपने को और सबको। और जो बहुत समझदार हैं वे भगवान तक को धोखा दे रहे हैं। वे वहां प्रार्थना कर रहे हैं, स्तुति कर रहे हैं, भगवान तक को फुसला रहे हैं, खुशामद कर रहे हैं। वहां भी, वहां भी वे जाकर जो भी उनसे बन सकता है--जो इस दुनिया के रास्ते हैं, खुशामद के, वे भगवान के साथ स्तुति करके कर रहे हैं, प्रार्थना करके कर रहे हैं कि तुम बहुत महान हो, तुम पतित-पावन हो और हम तो पतित हैं। वे वहां खुशामद कर रहे हैं। वे वहां रिश्वत दे रहे हैं।
यहां दुनिया में सब तरफ धोखा है--मंदिर में धोखा है, धर्म में धोखा है; सब तरफ बेईमानी है। और इस बेईमानी और इस धोखे की दुनिया में हम यह विचार करते हैं कि और कहीं अनैतिकता न आ जाए! अनैतिकता और क्या आएगी? प्रेम बिलकुल भी मन में नहीं है। घृणा है, हिंसा है। इसलिए तो आए दिन युद्ध होता है। आए दिन कहीं न कहीं मनुष्य लड़ता है।
इधर मुझे किसी ने कहा कि तीन हजार साल मनुष्य के इतिहास में साढ़े चार हजार बार युद्ध हुए हैं। यह कैसी दुनिया है? यहां रोज युद्ध हो रहा है। जब युद्ध नहीं हो रहा तो युद्ध की तैयारी हो रही है। शांति का अब तक कोई वक्त मनुष्य के इतिहास में नहीं जाना गया है। दो तरह के वक्त हमने जाने हैं: युद्ध का वक्त और युद्ध की तैयारी का वक्त। शांति का अभी तक कोई वक्त किसी मनुष्य-समाज ने नहीं जाना है। या तो लड़ते हैं या लड़ने की तैयारी करते हैं। जब तक लड़ने की तैयारी करते हैं तब तक समझते हैं कोल्ड वॉर चल रहा है और जब लड़ने लगते हैं तो हॉट वॉर शुरू हो जाती है। लेकिन दोनों वक्त लड़ाई चल रही है। चौबीस घंटे लड़ाई चल रही है। हर आदमी एक दूसरे आदमी से लड़ रहा है।
जहां भी महत्वाकांक्षा है वहां चौबीस घंटे लड़ाई होगी। आप बैठे हैं यहां निश्चिंत लेकिन हर आदमी का हाथ दूसरे आदमी की जेब में है। आप बैठे हैं निश्चिंत लेकिन हर आदमी दूसरे की गर्दन दबाए हुए है। चौबीस घंटे यह चल रहा है। और इसको हम कहते हैं यह बड़ी नैतिक दुनिया है! यह नैतिक दुनिया है, इसमें कहीं अनाचार न आ जाए मनुष्य के स्वतंत्र होने से!
यह मनुष्य की परतंत्रता का फल है। और अगर इसे तोड़ना ही है, तो साहस करके मनुष्य को स्वतंत्र करने की कोई न कोई चिंता करनी आवश्यक हो गई है। मनुष्य स्वतंत्र हो, अभय हो, सच्चाइयों को जाने, पहचाने, तो जरूर ही जो अशुभ है उसके परिवर्तन की आकांक्षा पैदा होनी शुरू होती है। अशुभ का दर्शन अशुभ के परिवर्तन का कारण बन जाता है।
इसलिए मैं नहीं देखता कि स्वतंत्रता से कोई भी अशुभ फलित हो सकता है। बाकी सब बातें परतंत्रता को स्थापित रखने के कारण खोजती हैं। परतंत्रता बनी रहे इसलिए सामान्यजन की बातें की जाती हैं। इसलिए मनुष्य बिगड़ न जाए इसकी बातें की जाती हैं। कोई मालिक गुलामों को छोड़ने को कभी राजी नहीं होता। वह यही कहता है कि गुलाम छूट जाएंगे तो बड़ी मुसीबत में पड़ जाएंगे। ये तो हमारी वजह से मजे में हैं। अगर ये छूट गए तो दिक्कत और कठिनाई इन पर आएगी। सब मालिक यही कहते हैं। मालिक की यही भाषा है।
शोषक की यही भाषा है कि शोषित स्वतंत्र न हो जाए। सारी दुनिया के धर्म-पुरोहित, राजनेता इस बात में सहमत हैं कि मनुष्य को स्वतंत्रता की कोई आवश्यकता नहीं है। मनुष्य जितना परतंत्र हो उतना ही अच्छा होगा। अगर मनुष्य बिलकुल विचार बंद कर दे करना तो बहुत अच्छी बात है। इसके बाबत भी वह चिंतन करते हैं कि मनुष्य का सब विचार ही बंद हो जाए। तो माइंड-वॉश के लिए वे उपाय खोजते हैं कि कोई चिंतनशील आदमी हो तो उसके मन की सफाई करके कैसे उसके मन को कोरा कर दिया जाए। मैस्कलीन और एल एस डी जैसे ड्रग्स खोजते हैं कि आदमी इनको पीने लगे तो उसमें चिंतन समाप्त हो जाए।
सारी दुनिया में जो शोषक हैं--चाहे वह राज्य का अधिकारी हो, चाहे धर्म का, ये दो ही बड़े गहरे शोषक हैं। उन सबकी यह इच्छा है कि मनुष्य में स्वतंत्रता का कोई विचार पैदा न हो। क्योंकि स्वतंत्र और विचारपूर्ण मनुष्य सारी दुनिया में क्रांति का कारण हो जाएगा। यह सड़ी-गला समाज फिर नहीं चल सकती। यह सड़ी-गली दुनिया फिर नहीं बरदाश्त की जा सकती। इसमें बहुत क्रांति हो जाएगी, इसमें बहुत आग लग जाएगी, इसमें बहुत सी चीजें तोड़ देनी पड़ेंगी। तो बहुत भय मालूम होता है। इसलिए मनुष्य सोच न पाए।
इसलिए जो टोटेलिटेरियन मुल्क हैं, जहां कि तानाशाही है, वहां तो उन्होंने चिंतन को बंद ही कर दिया है। चिंतन, इसका मतलब मौत। सोचो कि गोली मारो। आज नहीं कल सारी दुनिया में वे इसी कोशिश में हैं कि सोचो मत। खाओ-पीओ, मकान में रहो, रेडियो सुनो, अखबार पढ़ो, लेकिन सोचो मत। क्योंकि सोचना बड़ी खतरनाक बात है। सोचना बड़ी विद्रोही बात है।
जहां चिंतन है, वहां विद्रोह है। और इसलिए वे पच्चीस उपाय खोजते हैं कि कभी सोचना मत। हम जो कहें उसे मान लो। राजनीतिज्ञ भी यही कहता है कि हम जो कहें उसे मान लो, धर्म-पुरोहित भी यही कहता है कि हम जो कहें उसे मान लो, सारी दुनिया में सभी सत्ताधिकारी यही कहते हैं कि हम जो कहें उसे मान लो। क्योंकि सोचने में खतरा है। खतरा आपको नहीं है, खतरा उनकी सत्ता को है, खतरा उनकी शोषण की दुकान को है। इसलिए वे इसकी सारी व्यवस्था करते हैं, हजार दलीलें खोजते हैं।
लेकिन स्मरण रखें, स्वतंत्रता से बड़ा कोई मूल्य नहीं है। और स्वतंत्रता के विरोध में जो भी कहा जाता हो, वह जरूर कुछ न कुछ खतरनाक है और मनुष्य के हित में नहीं हो सकता। स्वतंत्रता तो परमात्मा तक पहुंचने का द्वार है। और जीवन में जो भी सुंदर है और जो भी शुभ है, वह केवल स्वतंत्र चेतना ही पा सकती है। परतंत्र चेतना नहीं पा सकती है।
दूसरे प्रकार के प्रश्न भी कुछ इसी बात से संबंधित हैं।
पूछा है कि
भगवान, समाज में ही व्यक्ति का जन्म होता है, समाज ही उसे शिक्षा देता है, समाज ही उसे पालता और पोसता और बड़ा करता है, तो व्यक्ति समाज से स्वतंत्र कैसे हो सकता है?
ठीक लगती है यह बात। समाज में आपका जन्म होता है। लेकिन जो जन्मता है, वह समाज से नहीं आता। जो आपके भीतर है वह समाज से आया हुआ नहीं है। बुद्ध बारह वर्ष बाद जब अपने घर वापस अपने गांव में लौटे, तो सारा गांव उनके स्वागत को गया। उनके पिता भी गए। बारह वर्ष बाद उनका लड़का वापस लौटता था। सारा गांव तो उस लड़के का स्वागत करने गया था, पिता अपना क्रोध प्रकट करने गए थे। क्योंकि पिता को यह भ्रम था कि यह मेरा लड़का, मुझसे आया, मुझसे बिना पूछे भाग गया।
जाकर उन्होंने जो पहली बात बुद्ध को कही वह यही कि मेरे द्वार अब भी खुले हैं। अगर तू क्षमा मांगने को राजी हो और वापस लौट आए, तो मैं अभी क्षमा कर सकता हूं। और मेरे दिल में बहुत दुख होता है यह बात देख कर कि हमारे वंश में, हमारे कुल में कभी किसी ने भिक्षा नहीं मांगी। तेरे हाथ में भिक्षा का पात्र देख कर मेरे प्राण छटपटाते हैं। तू राजपुत्र है, तुझे भिक्षा मांगने की जरूरत नहीं। यह हमारे कुल में, हमारे वंश में कभी नहीं हुआ।
पता है बुद्ध ने क्या कहा? बुद्ध ने कहा: आप भूल करते हैं, मैं आपसे आया जरूर, लेकिन आपके कुल का नहीं हूं। आप एक चौरस्ते की भांति थे, जिस पर से मैं आया। लेकिन मेरी यात्रा अलग से चल रही है, बहुत पहले से। मैं आपसे पैदा हुआ, लेकिन आपका नहीं हूं। और आपके कुल में भिक्षा न मांगी गई होगी। जहां तक मुझे खयाल है, मेरे कुल में हमेशा भिक्षा ही मांगी गई है। जहां तक मुझे स्मरण है, मैंने हमेशा ही भिक्षा मांगी है। आपके कुल में न मांगी गई होगी। मैं आपसे पैदा हुआ, लेकिन आपका ही नहीं हूं।
समाज में आप पैदा हुए हैं, लेकिन जो आपके भीतर है वह समाज का नहीं है। समाज ने आपको शिक्षा दी है, समाज ने आपको भोजन दिया है, लेकिन आत्मा नहीं। और अगर इस भोजन और शिक्षा और वस्त्र को ही आप आत्मा समझ लेंगे, तो फिर डूब जाएंगे।
आत्मा इससे कुछ और भिन्न और पृथक है। उसकी खोज के लिए समाज की सारी जंजीरों से ऊपर उठ जाना जरूरी है।
इसका यह मतलब नहीं है कि मैं आपसे यह कहता हूं कि रास्ते पर लिखा है बाएं चलो, तो आप दाएं चलने लगें। यह मैं नहीं कह रहा हूं। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि आप रास्ते पर दाएं चलने लगें या बीच रास्ते पर चलने लगें। यह स्वतंत्रता नहीं है। यह तो मूर्खता होगी। इन नियमों को तोड़ने के लिए नहीं कह रहा हूं कि सारे लोग दो पैर से चलते हैं तो आप दोनों हाथ-पैर से चल कर स्वतंत्र हो जाएं। चारों हाथ-पैर से चलने लगें और स्वतंत्रता की घोषणा कर दें। यह मैं नहीं कह रहा हूं। इस तल पर नहीं कह रहा हूं। शरीर की और समाज की औपचारिकता के तल पर नहीं कह रहा हूं। कह रहा हूं उस तल पर, वह जो आपके भीतर बहुत गहरा तल है विचार का, वहां मुक्त हों। वहां देखना शुरू करें, वहां अंतर्दृष्टि को जगाएं, वहां सोचना शुरू करें। वहां चिंतन जन्मे, वहां होश आए कि मैं जो सोचता हूं, जो करता हूं, वह कहां तक उचित है? कहां तक ठीक है? वहां समाज आपको न पकड़ पाए।
कल अगर आप हिंदू हैं और कोई आकर आपसे कहे कि चलो मस्जिदों में आग लगाओ, क्योंकि यह धर्म का काम है। तो उस वक्त आप विचार करें कि क्या मस्जिदों को जलाना धर्म का काम हो सकता है? या कल कोई मुसलमान, आप मुसलमान हैं और आपसे आकर कहे कि चलो हिंदुओं के मंदिर की मूर्तियां तोड़ो, यह धर्म का काम है। उस वक्त आप सोचें। यह सड़क पर बाएं चलने की बात नहीं रही अब। उस वक्त आप सोचें कि क्या यह उचित है? क्या यह धर्म हो सकता है कि हम कोई मंदिर जलाएं और कोई मूर्ति तोड़ें?
जब कोई धर्म आपसे कहे कि लड़ो और दूसरे को दुश्मन मानो, तब सोचना जरूरी है कि क्या धर्म घृणा और हिंसा सिखा सकता है? तब विचार करना जरूरी है और समाज से मुक्त होना जरूरी है।
अगर दुनिया के युवक समाज से इन अर्थों में मुक्त हो सकें, तो दुनिया में न कोई युद्ध का कारण है, न कोई हिंसा का कारण है। न भारतीय को पाकिस्तानी से लड़ाया जा सकता है, न हिंदू को मुसलमान से लड़ाया जा सकता है। क्योंकि तब ये निपट गंवारियां, बेवकूफियां मालूम होंगी। और तब ज्ञात होगा कि हजारों वर्ष से आदमी ये क्या नासमझियां करता रहा है। इस तल पर स्वतंत्र होना जरूरी है।
जब कोई आपसे कहे कि यह किताब सत्य है, इसको मानो और पूजा। और इसके इधर-उधर जरा भी चिंतन मत करना। तब सोचना जरूरी है कि क्या कोई किताब किसी मनुष्य को सत्य दे सकती है? क्या किताब के पन्नों में और शब्दों में सत्य मिल सकता है? अगर मिल सकता होता तो दुनिया में कब का सत्य सबको मिल गया होता। कितनी किताबें हैं, कितने धर्मग्रंथ हैं। लेकिन जिन लोगों के सिर पर जितने धर्मग्रंथ हैं वे उतने ही जीवन में व्यर्थ मालूम पड़ते हैं।
तो चिंतन की जरूरत है कि क्या सत्य किताब से मिल सकता है या कि मुझे खुद खोजना होगा? अगर कोई आपसे किताब लाकर देकर कहे कि इस किताब को सम्हाल कर रखो, बस इस किताब में जो है उससे तुम्हें प्रेम मिल जाएगा, तो आपको शक होगा कि किताब से कैसे प्रेम मिल जाएगा? प्रेम तो जब हृदय में जागेगा तो मिलेगा। सत्य भी जब हृदय में जागेगा तो मिलेगा।
इन सारे तलों पर सोचने की जरूरत है। एक पत्थर की मूर्ति रख कर कोई कहता है कि ये भगवान हैं, इनकी पूजा करो, तो चिंतन उठना जरूरी है। कोई किसी झाड़ को पूज रहा है, कोई किसी मंदिर में मूर्ति को पूज रहा है, कोई किसी किताब को पूज रहा है। सोचना जरूरी है कि क्या ये भगवान हैं? और क्या यह पूजा केवल अज्ञान नहीं होगी? या कि मैं खोजूं और जानूं कि कहां है जीवन-स्रोत? कहां है इस सारे जगत का जीवन-स्रोत? कहां छिपा है? मैं उसे खोजूं या कि एक पत्थर को लेकर बैठ जाऊं? यहां चिंतन की, यहां विचार के मुक्त होने की जरूरत है।
तो आपसे यह नहीं कह रहा हूं कि आप खाने-पीने के मामले में, कि कपड़े पहनने के मामले में, कि सड़क पर चलने के मामले में कोई समाज से स्वतंत्र हो जाएं। यह तो सब सामाजिक घेरा है। यह कोई आत्मा का स्थान नहीं है। लेकिन चित्त के तल पर, विचार के तल पर आपकी दृष्टि सजग हो, सोचपूर्ण हो, विचार करती हो, खुद निर्णय लेती हो और जहां अंधी बात दिखाई पड़ती हो वहां ठहरना जानती हो, रुकना जानती हो, अस्वीकार करना जानती हो। जहां कोई सार्थक बात दिखाई पड़ती हो अर्थपूर्ण, जीवन को ऊंचा ले जाने वाली, वहां स्वीकार करना जानती हो। जहां कोई व्यर्थ घृणा में, हिंसा में, अज्ञान में, अंधेरे में ले जाने वाली कोई बात खड़ी हो, वहां अस्वीकार करना जानती हो। ऐसी स्वतंत्र विचार की बुद्धि के लिए आपसे निवेदन किया हूं।
तो यह कोई कपड़े छोड़ कर, खाना बदल कर, कोई रास्ते पर उलटा-सीधा चलने को नहीं कह रहा हूं आपसे। यह तो समाज का तल है। उस तल पर कोई सवाल नहीं है। उस पर कोई बंधन भी नहीं है। बल्कि आप बाएं चलते हैं इसी वजह से चल पाते हैं, अगर दाएं या बीच में चलेंगे तो चल भी नहीं पाएंगे। समाज के जो नियम हैं आम जिंदगी को चलाने के उनसे कुछ नहीं कह रहा हूं। लेकिन चिंतन के, सत्य की खोज के और जीवन की खोज के जहां सवाल हैं, जहां आत्मा तक पहुंचने का सवाल है वहां, वहां सोचना पड़ेगा, वहां विचार करना पड़ेगा, वहां स्वतंत्र होना पड़ेगा। और वहां स्वतंत्र होंगे तो ही उसको पा सकते हैं जो समाज से नहीं आता, समाज के बहुत पहले है, समाज के बहुत बाद है। जो मां-बाप से पैदा नहीं होता। इसलिए मां-बाप की दी गई कोई भी शिक्षा, समाज की दी गई कोई भी शिक्षा आत्मा का ज्ञान नहीं बन सकती। उस ज्ञान के लिए तो अत्यंत स्वतंत्र ऊर्जा की खोज और अनुसंधान आवश्यक है।
मैं समझता हूं मेरी बात आपको खयाल में आई होगी। और बहुत से प्रश्न हैं, कल और परसों उनके बाबत बात करूंगा।
अब हम ध्यान के लिए थोड़ी देर बैठेंगे।
थोड़ी सी बात समझ लें।
ध्यान भी चित्त की परिपूर्ण स्वतंत्रता में जाने का प्रयोग है। बाहर जो भी है उसमें हम इतने व्यस्त हैं, भीतर जो है उस पर न दृष्टि जाती है, न ध्यान जाता है। बाहर जो है उसमें ही हम व्यस्त नहीं हैं, बल्कि उसकी जो-जो प्रतिक्रियाएं हमारे मन में होती हैं उसमें भी हम बहुत आकुपाइड और घिरे हुए हैं। अगर अकेले भी कहीं बैठ जाएंगे तो भी वही सोचेंगे जो भीड़ ने आपको दिया है। मित्रों की सोचेंगे, शत्रुओं की सोचेंगे, धंधे की साचेंगे, कुछ और सोचेंगे। लेकिन सोच-विचार जारी रहेगा। और आप अकेले नहीं हो पाएंगे।
भीतर सारा सोच-विचार विलीन हो जाए। भीतर सारी चिंता शांत और शून्य हो जाए। भीतर कोई भी तरंग न उठती हो, ऐसा घनीभूत मौन हो जाए, ऐसी साइलेंस, ऐसी शांति वहां भीतर आ जाए कि वहां कोई लहर भी चित्त में न उठती हो, ऐसी स्थिति का नाम ध्यान है।
आप कहेंगे, यह तो बहुत मुश्किल है, यह तो बहुत कठिन है। क्योंकि चित्त तो एक क्षण को भी शांत नहीं होता, मौन नहीं होता। वहां तो कुछ न कुछ काम जारी है--कोई न कोई विचार, कोई न कोई बात, कोई न कोई स्मृति वहां काम कर रही है। भविष्य या अतीत कोई न कोई पकड़े हुए है। वहां तो चौबीस घंटे काम है। शरीर तो कभी विश्राम भी करता, वहां कोई विश्राम नहीं है। रात सोते हैं तो सपने चलते रहते हैं, दिन जागते हैं तो न मालूम कौन कौन सी चिंताएं और विचार चलते रहते हैं।
तो कैसे यह होगा? और कई आपमें से बैठे होंगे माला लेकर और यह नहीं हुआ होगा। और कई बैठे होंगे नाम-स्मरण किया होगा और नहीं हुआ होगा। और कई ने प्रार्थनाएं की होंगी और मंत्र पढ़े होंगे और यह नहीं हुआ होगा। तो और यह खयाल पैदा हो गया होगा कि यह तो बहुत कठिन बात है। यह बात कठिन नहीं है। आप जो करते हैं वह गलत है इसलिए नहीं हो पाता।
माला फेरते हैं, मन शांत नहीं होगा। क्योंकि माला फेरने से और शांति का कुछ भी संबंध नहीं है। और राम-राम जपेंगे तो मन शांत नहीं होगा, क्योंकि यह जपना भी एक अशांति है। यह खुद एक उपद्रव है। एक आदमी बैठा हुआ है राम-राम-राम कहता रहे, तो यह अशांत होने का लक्षण हुआ। आप अगर कुत्ता-कुत्ता-कुत्ता करते रहे या बिल्ली-बिल्ली, तो आपको लोग पागल कहेंगे, लेकिन राम-राम कहते रहें, तो लोग कहेंगे कि बड़ा धार्मिक है।
मामला बिलकुल एक ही जैसा है। कोई फर्क नहीं है। किसी एक शब्द को बार-बार दोहराना जड़ता का लक्ष्ण है। उससे भी मन शांत नहीं होगा। हां, हो सकता है बहुत अगर जिद्दी हों और लगे ही रहे, तो मन सो जाए। लेकिन सो जाने में और शांत होने में बहुत अंतर है।
छोटे बच्चे को सुलाना होता है, मां एक ही कड़ी गुनगुनाने लगती है--सो जा मुन्ना, सो जा मुन्ना, या कुछ बकवास करने लगती है। उसको शायद यह खयाल पैदा होता होगा कि बड़ा गीत मधुर है इसलिए बच्चा सो रहा। बच्चा ऊब जाता है, बोर हो जाता है। थोड़ी देर में एक ही कड़ी सुनते-सुनते सो जाता है। यह बोर्डम का फल है, यह कोई गीत का फल नहीं है। यह कोई आपके गीत के माधुर्य का परिणाम नहीं है। यह बच्चा ऊब गया आपकी बकवास से। एक ही शब्द लगाए हुए हैं, लगाए हुए, घबड़ा गया, सो गया। ऐसे ही राम-राम जपते रहें, तो चित्त घबड़ा जाए, ऊब जाए, तो सो जाएगा।
उस सोने को आप शांति मत मानना। वह तो अफीम से भी मिलती है, शराब से भी मिलती है। इन दोनों में फर्क नहीं है। अफीम से भी मिलती है, शराब से भी मिलती है, और कोई नये इंजेक्शन हैं उनसे भी मिलती है। हजार दवाइयां हैं सो जाने के लिए। उसी भ्रांति की ये बहुत पुरानी, बहुत प्रचलित दवाइयां हैं।
कोई भी एक शब्द को लेकर दोहराते जाएं, मन ऊब जाएगा, घबड़ा जाएगा। अगर उस ऊबने के पहले ही आप उठ जाएं तो बात अलग है। अगर लगे ही रहे, लगे ही रहे, तो सो जाएगा। सो जाने के बाद जब आप जागेंगे आपको लगेगा कि बड़ी शांति हुई। वह नींद थी, वह शांति नहीं थी। वह एक भ्रांति के शब्द को बार-बार दोहराने से पैदा हो जाती है। उसमें कोई बड़ी खूबी की बात नहीं है। इन सब बातों को मैं ध्यान नहीं कहता हूं। यह कोई भी ध्यान नहीं है।
फिर मैं किस बात को ध्यान कहता हूं? मैं कहता हूं परिपूर्ण जागृति को ध्यान; नींद को नहीं, सो जाने को नहीं।
अभी हम जो ध्यान करेंगे वह जागृति का एक प्रयोग है। चारों तरफ जो भी हो रहा है उसके प्रति पूरी तरह जाग कर बैठे रहना है। कोई पता हिलेगा, कोई पक्षी आवाज करेगा, कोई कुत्ता भौंकेगा, कोई बच्चा रोएगा, कोई खांसेगा, कोई कुछ होगा, चारों तरफ बहुत सी आवाजें होंगी। और जैसे जैसे आपका चित्त शांत होगा, धीमी-धीमी आवाजें भी सुनाई पड़नी शुरू जो जाएंगी। कोई छोटा-मोटा पक्षी जो पूर्णतया अभी आपको सुनाई नहीं पड़ रहा, वह भी सुनाई पड़ेगा।
चारों तरफ एक दुनिया है घटनाओं की, इन घटनाओं के प्रति पूरी तरह जाग कर बैठे रहना।