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Birhani Mandir Diyana Baar बिरहनी मंदिर दियना बार 10

Tenth Discourse from the series of 10 discourses - Birhani Mandir Diyana Baar बिरहनी मंदिर दियना बार by Osho. These discourses were given during JAN 11-20 1979.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आपने कहा--‘सत्संग, जागो! सुबह पास ही है, हाथ फैलाओ और पकड़ो! रुकी-रुकी सी शबे-मर्ग खत्म पर आई मौत की रात समाप्त होने को आ गई। वो पौ फटी, वो नई जिंदगी नजर आई सुबह होने को है। नई जिंदगी का नया निखार, एक नई शैली, एक नया अंदाज! परमात्मा को याद करने का क्षण, सत्संग, करीब आ गया। नाचो, गुनगुनाओ, मस्त होओ, बांटो। जागो--नाचते हुए।’ इस मधुभरी मस्ती को छलकते देख अपने अपने न रहे। घर घर न रहा। यह कैसा प्रेम--दोस्त दूर हो गए! यह कैसा जागना हुआ--लोग नफरत करने लगे! यह कैसी नई जिंदगी आई--गुनगुनाती हुई, नाचती हुई, मधुभरी मस्ती ले आई! सब छूट गया!
सत्संग! कहावत है: मुसीबत में जो साथ आए, वह मित्र। दुख में जो साथ रहे, वह साथी।
मैं तुमसे कहता हूं: मस्ती में जो काम आए, साथ रहे, वह साथी। दुख में साथ देने वाले तो बहुत मिल जाएंगे। मस्ती में साथ देने वाले लोग नहीं मिलते। और कारण साफ है। गणित स्पष्ट है।
दुखी आदमी पर दया करने में अहंकार को तृप्ति मिलती है। तुम भी जब भिखमंगे को दो पैसे दे देते हो तो जरा भीतर देखना। दिए तो हैं दो पैसे, लेकिन भीतर एक तृप्ति मिलती है कि अहा, कैसा दानी! मुझ जैसा कोई और करुणावान नहीं। इतने लोग निकले जा रहे हैं रास्ते से, किसी को चिंता नहीं है इस गरीब बूढ़े भिखारी की। एक अकेला मैं! दिए हैं दो पैसे, कुछ प्राण नहीं दे दिए हैं, लेकिन एक रौनक आ जाती है चेहरे पर। अहंकार में एक चमक आ जाती है। एक और आभूषण जुड़ जाता है कि दयावान, करुणावान!
सहानुभूति दिखाने में बड़ा रुग्ण मजा है। क्योंकि सहानुभूति दिखाने में तुम ऊपर होते हो और जिसको सहानुभूति दिखाते हो वह पड़ा है जमीन पर धूल-धूसरित। दुख में साथ देना बहुत कठिन नहीं है। सच तो यह है कि लोग दुख में ही साथ देते हैं। मस्ती में, आनंद में किसी को साथ देना बहुत कठिन है। क्योंकि जिसका तुम्हें साथ देना है वह तुमसे ऊपर! वह तुम्हारे अहंकार को चोट पहुंचा रहा है। तुम दया के पात्र, वह दया का पात्र नहीं है। तुम्हें झोली फैलानी पड़ेगी उसके सामने। वह भरेगा तुम्हारी झोली फूलों से। उसके पास है। उसके हृदय में आनंद नाच रहा है, गीत फूट रहे हैं। वह बरसाएगा अमृत तुम पर। नहीं; इसे झेलना मुश्किल हो जाता है।
सत्संग! जिन्होंने तुम्हें सदा दुखी जाना, आज अचानक तुम्हें आनंद-मस्त कैसे देखें? यह बर्दाश्त के बाहर है। यह नहीं सहा जा सकता। तो अपने पराए हो गए, इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है। न होते पराए तो आश्चर्य होता। दोस्त दुश्मन हो गए, यह सीधा गणित है। दोस्त दुश्मन न होते तो चमत्कार होता। जिन्होंने तुम्हें साथ दिया था दुख में, वे तुम्हें मस्ती में कैसे साथ दे सकते हैं? उन्होंने साथ ही इसलिए दिया था कि तुम दुखी थे। और तुम्हारे दुख में उन्हें एक रस था। तुम्हारे दुखी होने के कारण वे तुमसे ऊपर थे, तुम नीचे थे।
मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक था। मेरे एक सहयोगी शिक्षक ने एक पारसी युवती से विवाह करना चाहा। मित्र तो ब्राह्मण थे। परिवार विरोध में था। समाज विरोध में था। लेकिन वे जिद्द पर अड़े थे। पारसी स्त्री गरीब थी। न केवल गरीब थी, बल्कि विधवा भी थी। वे मुझसे कहने लगे: इस गरीब स्त्री का उद्धार और कौन करेगा? फिर, इस विधवा से विवाह करना धर्म की बात है। कम से कम आप तो मुझे साथ दें।
मैंने कहा: मैं भी साथ नहीं दूंगा, पर मेरे साथ न देने का कारण और है। जहां तक मैं तुम्हें जानता हूं, तुम इस स्त्री के प्रेम में नहीं हो। तुम इसकी दीनता-दरिद्रता, इसके वैधव्य के प्रेम में हो, जो कि रुग्ण बात है। तुम अगर मुझसे कहो कि मुझे इस स्त्री से प्रेम है, मैं तुम्हारे साथ हूं। लेकिन तुम यह बात उठाते हो कि यह दीन है, दरिद्र है, विधवा है। यह कोई प्रेम की बात तो न हुई। यह तो तुम्हारा इसके दुख में रस है। समझो यह दीन-दरिद्र न होती और समझो कि यह विधवा न होती--फिर? फिर भी तुम विवाह करते?
वे थोड़े विचार में पड़ गए। मैंने कहा: तुम्हारी झिझक ही कहती है कि तुम्हारा प्रेम इस स्त्री की दीनता से है। और दीनता से प्रेम अहंकार की तृप्ति है। तुम अपने भीतर बड़ा अहंकार अनुभव कर रहे हो। समाज-सेवी! इत्यादि-इत्यादि, कि विधवा से विवाह करने चले हो! कि ब्राह्मण होकर, बड़े ऊंचे ब्राह्मण होकर एक पारसी युवती को मुक्ति दिलाने चले हो। तुम बड़े मुक्तिदाता, बड़े मसीहा! यह प्रेम नहीं है, सहानुभूति होगी। और सहानुभूति प्रेम नहीं होती।
स्मरण रखना, सहानुभूति में प्रेम होता ही नहीं। प्रेम को अगर कोई और शब्द खोजना हो तो वह है समानुभूति। सहानुभूति नहीं, समानुभूति। सिंपैथी नहीं, एंपैथी। प्रेम में समानुभूति होती है। जैसा दूसरा अनुभव करता है, वैसा ही तुम अनुभव करते हो। एक तरंगबद्ध हो जाते हो। तुम्हारी वीणा दूसरे की वीणा के साथ बजने लगती है। एक संगत पैदा होती है। तुम्हारे स्वर लयबद्ध हो जाते हैं। तुम दोनों की जीवन-ऊर्जा का, तुम्हारे दोनों के जीवन रस-स्रोतों का एक समागम होता है, एक संगम बनता है।
लेकिन सहानुभूति? सहानुभूति अपमानजनक शब्द है। मैंने उनसे कहा कि मैं भी तुम्हें सावधान किए देता हूं। तुम्हारे माता-पिता के कारण दूसरे हैं। मेरे कारण दूसरे हैं। तुम्हारे माता-पिता इसलिए डर रहे हैं कि विधवा से विवाह करोगे, यह उनके अहंकार को चोट पड़ रही है। तुम्हारे अहंकार को मजा आ रहा है कि देखो विधवा से विवाह करके दिखला रहा हूं! उनके अहंकार को चोट पड़ रही है। मगर ये दोनों की भाषा एक है। तुम्हारी बात में और तुम्हारे मां-बाप की बात में कोई भेद नहीं है। तुम्हारा गणित एक है। वे सोच रहे हैं: इतने ऊंचे ब्राह्मण होकर और विजातीय से शादी करोगे? यह पतन है। उनकी कुलीनता, उनके संस्कार, उनकी लंबी कुल की यश-गाथा, उस पर तुम धब्बा लगा रहे हो। और विधवा से विवाह करोगे, जो कि हिंदू धर्म के अनुसार वर्जित है। तो उनके धर्म को चोट लगा रहे हो तुम। उनकी प्रतिष्ठा है, उनको पूजने वाले लोग हैं। वे बड़े पंडित हैं, बड़े पुजारी हैं। बड़े ज्ञानी पुरोहित हैं। बड़े यज्ञ-हवन करवाते हैं। लोग उन पर हाथ उठाएंगे, इशारे उठाएंगे। लोग उन पर धूल फेंकेंगे। और कहेंगे कि अपने बेटे को न रोक पाए अधर्म करने से! उनके अहंकार को चोट लग रही है। और तुम्हारे अहंकार को मजा आ रहा है कि ऐसे ऊंचे कुल से आया हूं, फिर भी एक विधवा स्त्री को दया करके हाथ बढ़ाया है। तुम्हारी दोनों की भाषा एक है, गणित एक है, तर्क एक है। तुम अपने बाप के बेटे हो। और तुम्हारे बाप भी तुम्हारे बाप हैं। तुम में और तुम्हारे बाप में कोई फर्क नहीं है। एक सा ही खून बह रहा है। लेकिन मैं किसी और कारण से तुमसे कहता हूं कि यह विवाह मत करो। क्योंकि अगर तुम विधवा से विवाह कर रहे हो, विवाह हो जाने के बाद वह विधवा नहीं रह जाएगी, फिर क्या करोगे?
उन्हें मेरी बातें कुछ बेबूझ लगीं। उन्होंने कहा: आप भी खूब अजीब बातें करते हैं! इतने लोगों से मैं बात कर चुका, किसी ने मुझे ऐसा नहीं कहा। विश्वविद्यालय में सैकड़ों अध्यापकों से मेरी चर्चा हुई, क्योंकि महीनों से यह बात चल रही है, सब ने कहा कि हिम्मत करो। पढ़े-लिखे आदमी हो, क्या डरते हो, उठाओ जोखम! आप कुछ अजीब सी बातें कह रहे हैं!
मैंने कहा: तो तुम फिर विवाह कर लो और साल भर बाद मुझे मिलना।
साल भर भी नहीं हुआ, तीन-चार महीने बाद मुझे मिले। आंखें नीचे झुका लीं और कहा: आप ठीक कहते थे। मैंने विवाह विधवा से किया था और विवाह होते ही वह विधवा नहीं रह गई। और मैंने विवाह एक गरीब स्त्री से किया था, मुझसे विवाह करते ही अब वह गरीब नहीं रह गई। और मन वैसा प्रसन्न नहीं है जैसा मैं सोचता था; खिन्न है, उदास है।
मैंने कहा: अब तुम एक काम करो, मर जाओ, ताकि वह फिर विधवा हो जाए। फिर कोई उसका उद्धार करे। किसी और को अवसर दो अब तुम। अब तुम किसलिए जी रहे हो? अब इतना और करो। इतना तो किया, इतना और करो--फिर उसे विधवा कर दो। और दान कर जाओ जो पैसा-लत्ता तुम्हारे पास हो, तो फिर दीन-दरिद्र हो जाए। और दोहरी विधवा हो जाए। फिर किसी को मसीहा होने का, उद्धार करने का अवसर दो। यह मौका किसी का क्यों छीन रहे हो? फिर कोई समाज-सेवक, कोई सर्वोदयी आएगा, उद्धार करेगा।
उन्होंने कहा: आप अजीब बातें करते हैं!
मैंने कहा: तुम पहले भी यही कहते थे कि अजीब बातें करते हैं। अब भी मैं ठीक-ठीक बात तुमसे कर रहा हूं।
मित्रता इस जगत में दुख की मित्रता है, सहानुभूति की मित्रता है। सत्संग! तुम अचानक मस्ती से भर गए। मित्र छिटक गए। छिटक ही जाएंगे। तुम उनसे ऊपर उठने लगे, यह तुम्हारी जुर्रत! यह तुम्हारी हिम्मत! तुम आकाश के तारे तोड़ने लगे और वे अभी धूल पर ही कंकड़ बीन रहे हैं, जमीन पर ही! वे अभी जमीन पर घिसट रहे हैं और तुम आकाश में उड़ने लगे! यह बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। तुम्हारी मस्ती को वे पागलपन करार देंगे। देना ही पड़ेगा उनको। आखिर उन्हें भी अपने अहंकार की रक्षा करनी है। तुम्हारी मस्ती को वे विक्षिप्तता कहेंगे। तुम्हारी इस मौज को वे पाखंड कहेंगे।
लेकिन जान लेना, जो मस्ती में साथ खड़ा न रह सके, उससे तुम्हारी दोस्ती रुग्ण थी, स्वस्थ नहीं थी। काश, सच यह दोस्ती होती तो वह आनंदमग्न होता, तुम्हें मस्त देख कर मस्त होता, तुम्हें छाती से लगाता।
और जिनको तुम कहते हो: ‘अपने पराए हो गए...’
कौन यहां अपना है? सब सौदा है। सब हिसाब-किताब है। जिसको तुम तथाकथित प्रेम कहते हो, वह भी सब सौदा है और हिसाब-किताब है। उस सब में भी लेन-देन है, शोषण है, पारस्परिक शोषण है। पत्नी पति का शोषण कर रही है, पति पत्नी का शोषण कर रहा है। पति कहता है कि मैं चाहता हूं कि तू प्रसन्न हो, आनंदित हो। मगर यह बात सच नहीं है। कल अगर पत्नी किसी और के प्रेम में पड़ जाए और प्रसन्न हो और आनंदित हो, फिर तुम देखना यह पति अपनी बंदूक में गोली भरने लगेगा, अपने छुरे पर धार रखने लगेगा। अब भूल ही जाएगा कि मैंने कहा था कि तू आनंदित होगी, तू प्रसन्न होगी, तो मैं भी प्रसन्न होऊंगा। अब पत्नी आनंदित है, प्रसन्न है। इसमें क्या शर्त लगाते हो कि मेरे साथ ही प्रसन्न हो? प्रसन्न है, किसी के भी साथ है। अगर सच में प्रेम हो तो अब भी रहेगा। लेकिन हमारा प्रेम प्रेम कहां है? लेन-देन है, सौदा है। कांट्रैक्ट है हमारा प्रेम। शर्तबंदी है उसमें।
जिनको तुम सोचते थे--अपने हैं, भाई हैं, बंधु हैं--वे अब साथ नहीं दे रहे हैं। अड़चन स्वाभाविक है। उनकी भी अड़चन समझो। अगर तुम्हें साथ दें तो लोग उनको भी कहते हैं कि अरे, क्या हो गया है तुम्हारे भाई को? उन्होंने साथ छोड़ दिया। कम से कम अपनी झंझट छुड़ा ली। उन्होंने कहा कि हमने साथ ही छोड़ दिया, हमने त्याग ही कर दिया। उनको अपनी प्रतिष्ठा बचाए रखनी है समाज में। तुमने दांव पर लगा दी प्रतिष्ठा, उनको अपनी प्रतिष्ठा बचानी है। तुम्हारे साथ रहें तो उनकी प्रतिष्ठा भी दांव पर लग जाएगी। इतनी उनकी हिम्मत नहीं है। इतने दूर तक तुमसे नाता नहीं है। तुम्हारे साथ इतनी यात्रा करने की उनकी कभी तैयारी न थी। उन्होंने कभी सोचा भी न था कि तुम इतने दूर निकल जाओगे।
लेकिन घबड़ाना मत। दुख के साथी गए, सुख के साथी मिलेंगे। नये मित्र बनेंगे। यह जो मेरे संन्यासियों का जगत है, यह नये मित्र तुम्हें देगा। नये--जिनके संबंध स्वस्थ होंगे। यह तुम्हारा नया परिवार है। छोटा-मोटा परिवार गया, जाने दो। छोटे-मोटे आंगन छूटे, छूटने दो। यह पूरा आकाश अब तुम्हारा है।
यह संन्यास, तुम्हारे लिए मैं एक घर का ही तो निर्माण कर रहा हूं। नहीं तो संन्यास देने की जरूरत भी क्या थी? तुम बिना संन्यास के भी मुझे सुन सकते थे, ध्यान कर सकते थे। संन्यास का सूत्रपात इसीलिए है कि मुझे पता है कि तुम्हारे घर छूटेंगे, तुम्हारे परिवार टूटेंगे; तुम्हारी पत्नियां छोड़ेंगी, तुम्हारे पति छोड़ेंगे; तुम्हारे बच्चे तुम्हारा त्याग कर देंगे। फिर तुम्हें एक नया घर और एक नया समाज जरूरी होगा। अन्यथा बिलकुल अकेले पड़ जाओगे, टूट जाओगे, बिखर जाओगे। सह न पाओगे उतनी आग। कहीं कोई शरण चाहिए होगी। तो ये गैरिक मित्र तुम्हारे मित्र होंगे। यह गैरिक मित्रों का परिवार तुम्हारा परिवार है।
अच्छा ही हुआ कि तुम जाग गए और तुम्हें यह दिखाई पड़ गया--न तो मित्र मित्र हैं, न अपने अपने हैं। सब झूठे नाते-रिश्ते हैं। सच्चा तो इस जगत में केवल एक ही नाता होता है, वह ध्यान का नाता है। और बाकी सब नाते झूठे होते हैं। उनसे संबंध जुड़ जाए जो ध्यानी हैं, और इस कारण संबंध जुड़े कि तुम भी ध्यान के रास्ते पर चले हो, वे भी ध्यान के रास्ते पर चले हैं, ध्यान की तलाश में दोनों का संग-साथ हो गया, प्रभु की खोज में दोनों रास्ते पर मिल गए हैं और हाथ में हाथ ले लिया है, कि एक ही दिशा में जाते हैं तो साथ-साथ चलेंगे--ऐसे ही इस पृथ्वी पर सदा-सदा संन्यासियों के संघ निर्मित हुए हैं। बुद्ध का महासंघ निर्मित हुआ। एक ही दिशा में जाते हुए लोग, एक ही सत्य की तलाश में लगे लोग, स्वभावतः एक-दूसरे के साथ मैत्री का एक संबंध निर्मित कर लिए। यह मित्रता टिकेगी। यह मित्रता आनंद की मित्रता है। यह मदमस्ती की मित्रता है।
और अब इस मित्रता को पुराने आग्रहों में मत ढालना। इस मित्रता पर अपेक्षाएं मत रखना। क्योंकि अपेक्षाओं से ही बंधन निर्मित होते हैं। इसको शुद्ध मैत्री रहने देना--बिना किसी अपेक्षा के। न इसमें कुछ मांग हो, न इसमें मांग की कोई छिपी-दबी आकांक्षा हो। इसको शुद्ध मैत्री...शुद्ध मैत्री से मेरा अर्थ है: मैं आनंदित हूं, गीत गा रहा हूं, आते हो? तुम भी गाओगे गीत मेरे साथ? या तुम आनंदित हो, गीत गा रहे हो, आ जाऊं मैं और नाचूं तुम्हारे साथ? बस इतनी! आनंद को एक-दूसरे में बांटने की मित्रता। इससे ज्यादा न कोई आग्रह है, न कोई अपेक्षा है।
और कल जब कोई मित्र अपनी राह बदल ले और किसी और दिशा में जाने लगे, तो कोई कष्ट भी नहीं है। मिलन प्यारा था और विरह भी प्यारा है। जब अपेक्षा नहीं होती तो विरह से कोई कष्ट नहीं होते। जब अपेक्षा होती है तो विरह से कष्ट होते हैं। जब हम न्यस्त स्वार्थ बना लेते हैं तब अड़चन आती है।
तो अच्छा हुआ--गया पुराना घर, गए पुराने मित्र, गए परिवार, प्रियजन। अब नया परिवार, नये मित्र--और नया ढंग और नई शैली परिवार बनाने की और मैत्री बनाने की! भूल कर भी पुराने ढंग से परिवार मत बना लेना। नहीं तो फिर उसी जाल में पड़ जाओगे। अब पुराने ढंग की दोस्ती मत बनाना; सहानुभूति के संबंध ही मत बनाना। किसी के दयापात्र होना अशोभन है। बांट सको तो बांटो अपने आनंद को। लेकिन अपने दुख की झोली मत बनाओ। यह तुम्हारी आत्मा का अपमान है। अपने परमात्मा को भिखारी मत बनाओ। रोओ मत, गिड़गिड़ाओ मत। तुम्हारे भीतर बैठा परमात्मा सम्राट है।
लेकिन जो हुआ वह होना ही था।
इसका निर्णय करो, सितारो--
किसके लिए बना है कौन!

फागुन आया, जग बौराया,
कोयल बोली, फूल खिले,
और, दूर उस नील क्षितिज पर
धरती-अंबर गले मिले,
किंतु, सदा के डाही पतझर ने छोटा सा प्रश्न किया,
यह छोटा सा प्रश्न किया--
इसका निर्णय करो, सितारो--
किसके लिए बना है कौन!

सावन आया, घन घहराया,
नदियां उमड़ीं, ताप मिटा,
दूर क्षितिज पर सरित-सिंधु का
अंतर अपने आप मिटा,
किंतु, सदा के डाही दिनकर ने छोटा सा प्रश्न किया,
यह छोटा सा प्रश्न किया--
इसका निर्णय करो, सितारो--
किसके लिए बना है कौन!

सृष्टि बनी, स्रष्टा सकुचाया--
यह भी कोई चीज बनी!
जागा मानव, जगी मानवी,
जगी प्रेम की छांह घनी,
किंतु, सदा के डाही प्राणों के स्वर ने यह प्रश्न किया,
यह छोटा सा प्रश्न किया--
बनी मुखरता मानव के हित,
बना मानवी के हित मौन
इसका निर्णय करो, सितारो--
किसके लिए बना है कौन!
तुम्हारे प्रेम के नाते प्रेम के नाते नहीं हैं, शोषण के नाते हैं। पति पत्नी का शोषण कर रहा है, साधन बना रहा है--अपनी कामवासना की तृप्ति के लिए। पत्नी पति का शोषण कर रही है, साधन बना रही है। मनुष्य एक-दूसरे को साधनों में ढाल रहे हैं। और जिस व्यक्ति को भी तुमने साधन बनाया, तुमने उसका सम्मान नहीं किया। प्रेम तो बहुत दूर, सम्मान भी नहीं किया, समादर भी नहीं किया। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में साध्य है, साधन नहीं।
जर्मनी के प्रसिद्ध विचारक, दार्शनिक इमेनुअल कांट ने कहा है: नीति का आधारभूत नियम है कि प्रत्येक व्यक्ति अपना साध्य है, साधन नहीं। किसी को साधन मत बनाना; वही अनीति है। और हम सब यही करते हैं। हमारे भीतर एक प्रश्न सदा चलता रहता है--
इसका निर्णय करो, सितारो--
किसके लिए बना है कौन!
पति पत्नी के लिए बना, ऐसा पत्नी सोचती है। पति पत्नी के लिए बना, स्वभावतः ऐसी पत्नी की धारणा है; कहे, चाहे न कहे। और पत्नी पति के लिए बनी, ऐसी पति की धारणा है। और सदियों-सदियों से पति इसकी घोषणा भी करता रहा है कि मैं स्वामी हूं, तू दासी है। पत्नियां होशियार हैं। चिट्ठी इत्यादि लिखती हैं तो उसमें लिखती हैं: आपकी दासी! यह सिर्फ कूटनीति है। क्योंकि किसी भी घर में जाकर देख लो, पता चल जाएगा दास कौन है! पत्नी इतनी आश्वस्त है अपनी मालकियत की कि घोषणा भी नहीं करती। जानती ही है कि मानते रहो तुम अपने को स्वामी। हर्जा क्या है तुम्हारे स्वामी मानने से? उसे पक्का पता है कि स्वामिनी कौन है।
इसलिए तुम देखते हो, हमारी भाषा में शब्द है: घरवाली! घरवाला नहीं। क्योंकि हम जानते हैं घर किसका है--घरवाली का है। पतियों को भलीभांति पता है कि घर के भीतर उनकी हैसियत कितनी है। और पत्नी और पति के बीच यह समझौता है कि घर के बाहर तुम मालिक बने रहना, घर के भीतर मैं।
मुल्ला नसरुद्दीन से किसी ने पूछा कि तुम्हारी पत्नी से तुम्हारा कभी झगड़ा होता है?
उसने कहा: कभी नहीं! मैंने यह निपटारा पहले ही कर लिया। पहली ही रात, सुहागरात को ही मैंने कहा कि यह पहले ही तय हो जाए बात कि हम लड़ेंगे नहीं, झंझट नहीं करेंगे। दुनिया लड़ रही है, क्या सार है इसमें! पत्नी ने कहा: ठीक है।
कैसे निर्णय किया? मित्र ने पूछा।
तो उसने कहा: पत्नी ने कहा कि बड़ी-बड़ी समस्याओं के तुम निर्णय लेना, छोटी-छोटी समस्याओं के मैं निर्णय ले लूंगी। और तब से ऐसा ही चल रहा है--मुल्ला ने कहा--कोई झगड़ा आया नहीं।
मित्र को भरोसा न आया। किस पुरुष को भरोसा आएगा? उसने कहा कि मुझे जरा विस्तार से कहो, बड़ी-बड़ी समस्याएं यानी क्या?
तो उसने कहा कि ईश्वर है या नहीं? भूत-प्रेत होते हैं या नहीं? कितने नरक हैं, कितने स्वर्ग हैं? इस तरह के सब बड़े-बड़े प्रश्न मैं तय करता हूं। और छोटे-छोटे प्रश्न, जैसे कौन सी साड़ी खरीदनी है, बच्चे को किस स्कूल में भेजना है, कौन सी फिल्म देखनी है, कौन से होटल में खाना खाने जाना है, कौन सा जेवर खरीदना है--ये सब छोटी-मोटी बातें, इनका निर्णय पत्नी करती है। तनख्वाह कैसे खर्च की जाए, कौन सी कार खरीदी जाए--ये सब छोटी-मोटी बातें हैं, इनका निर्णय पत्नी करती है। बड़ी-बड़ी बातें, इनका निर्णय मैं करता हूं।
पत्नियां कुशल हैं। छोटी-छोटी बातें उन्होंने अपने हाथ में ले रखी हैं। घर का राज्य उन्होंने अपने हाथ में ले रखा है। यह एक समझौता है। मगर दोनों अपने मन में यही सोच रहे हैं कि मालिक मैं हूं।
मालकियत का भाव ही घृणा का भाव है, प्रेम का नहीं। और तुम्हारे जीवन में जो थोड़ी सी पहली दफा आनंद की पुलक और झलक उठी है, बहुतों को डाह होगी। बहुतों को ईर्ष्या होगी। और उनकी ईर्ष्या से तुम परेशान मत होना। उनकी ईर्ष्या भी स्वाभाविक है। उन्होंने भी चाहा है कि वे भी मस्त होकर रहते। उन्होंने भी चाहा है कि वे भी नाचते और गाते। मगर यह नहीं हो पाया। उनके जीवन में यह नहीं हो पाया। उनकी जंजीरें बड़ी हैं। और जंजीरें तोड़ने की उनकी हिम्मत नहीं है। उनके हाथों में बेड़ियां पड़ी हैं। और बेड़ियों से छूट भागने का उनका साहस नहीं है। तुम्हारा साहस उन्हें दुस्साहस मालूम हो रहा है। वे तुमसे बदला लेंगे।
इस दुखी जगत में जहां हरेक दुखी है, जब भी कोई आदमी सुखी होगा, लोग उससे बदला लेंगे। तुम्हें अगर सहानुभूति चाहिए हो और बहुत मित्र चाहिए हों तो दुखी रहो। तुम्हें बहुत मित्र मिलेंगे, बहुत सहानुभूति मिलेगी। हरेक तुम्हारी पीठ थपथपाएगा, हरेक तुम्हारे आंसू पोंछेगा। मगर तुम्हें रोना पड़ेगा। जितना रोओगे उतने संगी-साथी मिलेंगे। तुम हंस रहे हो और यहां लोग रो रहे हैं। रोते हुए लोग तुम्हारी हंसी में कैसे साथ दें? नहीं, यह नहीं हो सकेगा।
लेकिन चिंता भी क्या लेनी? इसको समस्या भी क्यों बनाना? इस प्रश्न के साथ उलझो ही मत। तुम्हारी जिंदगी में एक छोटी सी किरण उतरी है, इस किरण की तलाश में और आगे बढ़ना है। प्रेम की थोड़ी झलक उतरी है, इसको प्रार्थना बनाना है, इसे परमात्मा तक पहुंचाना है।
चांद तो थक गया
गगन भी बादलों से ढंक गया;
वन तो वनैला है
अभी क्या ठिकाना कितनी दूर तक फैला है?
अंधकार।
घनसार
अरे पर देखो तो वो पत्तियों में
जुगनू टिमक गया!
अभी जुगनू ही टिमका है, और रात बहुत लंबी है; अंधेरा बहुत विस्तीर्ण है, दूर-दूर आकाश तक फैला है। मगर जुगनू भी टिमक गया, अगर एक छोटा सा दीया भी जल गया, तो तुम्हारा यात्रापथ अब प्रकाशित हो सकता है। रोशनी है, अगर यह भरोसा भी आ गया, तो फिर रोशनी के स्रोत खोजे जा सकते हैं।
मैंने तुमसे जो कहा, यह जान कर ही कहा है। सभी से यही कह रहा हूं कि जागो! सुबह पास है, हाथ फैलाओ और पकड़ो!
लेकिन यह खयाल रखना कि सुबह को पकड़ोगे तो रात के साथी छूट जाएंगे। उनसे संग-साथ ही रात का था। वे तुम्हारे सुबह के साथी नहीं हो सकते। सुबह के साथी तो वे होंगे जिनको सुबह मिल गई है। तुम्हें संग-साथ बदलना होगा। जब तुम अंधेरी गलियों में भटकते थे तो तुम्हारी दोस्ती थी किन्हीं से, जो अंधेरी गलियों में भटकते थे। तुम रोशन, प्रकाशित मार्गों पर आ गए तो तुम्हें दोस्ती भी बदलनी होगी। अब तुम यह आग्रह रखो कि अंधेरी गलियों के साथी संग-साथ में रहें, यह कैसे हो सकता है? दो ही उपाय हैं। या तो वे अपनी अंधेरी गलियां छोड़ें और प्रकाश के रास्तों पर आएं। और उनकी अंधेरी गलियों में बहुत स्वार्थ जुड़े हैं, बहुत न्यस्त स्वार्थ। वहां उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया है। ऐसे कैसे छोड़ दें? तुमने भी कुछ आसानी से नहीं छोड़ दिया है।
सत्संग मुझे जानते हैं कम से कम दस वर्षों से। अभी-अभी चार-छह महीने पहले संन्यास लिया है। तुम्हें भी इतनी देर लग गई, और मैं पुकारता रहा, पुकारता रहा। और जिनसे तुम्हारी दोस्ती है, वे तो यहां आते नहीं, वे तो यहां आने से भी घबड़ाते हैं। अब तुम्हारे संन्यास ने विघ्न खड़ा कर दिया। अब तुम्हारा संन्यास उनके सामने एक बड़ा प्रश्नचिह्न बन कर खड़ा हो गया। तुम्हारे मित्र डरेंगे कि कहीं तुमसे दोस्ती रखी और यह गैरिक रंग न चढ़ जाए! तुम्हारे मित्रों की पत्नियां डरेंगी कि जरा इन सज्जन से बचो! अब इनका संग-साथ छोड़ो! इनके साथ रहना अब खतरनाक है। कहीं यह रंग तुम्हें न लग जाए!
और जैसे बीमारियां लगती हैं, वैसे ही स्वास्थ्य भी लगता है। स्वास्थ्य भी बड़ी तीव्रता से संक्रमित होता है। हर चीज छूती है और लगती है। और जब दुख लोगों को पकड़ जाता है तो सुख भी पकड़ेगा।
मगर घबड़ाओ न। छोटी सी जिंदगी है, चार दिन की जिंदगी है। गीत अपना गाना है--चाहे कोई भी परिणाम हो और चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े!
गुम है इक कैफ में फजा-ए-हयात
खामुशी सिज्दा-ए-नियाज में है
हुस्ने-मासूम ख्वाबे-नाज में है
ऐ कि तू रंग-ओ-बू का तूफान है
ऐ कि तू जल्वागर बहार में है
जिंदगी तेरे इख्तियार में है
फूल लाखों बरस नहीं रहते
दो घड़ी और है बहारे-शबाब
आ कि कुछ सुन-सुना लें हम
आ मोहब्बत के गीत गा लें हम
मेरी तनहाइयों पे शाम रहे
हसरते-दीद नातमाम रहे
दिल में बेताब है सदा-ए-हयात
आंख गौहर निसार करती है
आसमां पर उदास हैं तारे
चांदनी इंतजार करती है
आ कि थोड़ा सा प्यार कर लें हम
जिंदगी जरनिगार कर लें हम
आ कि कुछ सुन-सुना लें हम
आ मोहब्बत के गीत गा लें हम
क्षण भर की जिंदगी है। अब गए, तब गए। क्या फिक्र करते हो घर की, परिवार की? क्या फिक्र करते हो मित्रों की, प्रियजनों की? एक ही बात की फिक्र करो कि तुम अपना गीत गाकर जाओगे, कि तुम अपना नृत्य नाच कर जाओगे, कि तुम अपनी सुगंध बिखरा कर जाओगे, कि मरते समय तुम्हें यह अपराध-भाव न लगेगा कि मैं अपनी जिंदगी अपने ढंग से न जी सका। बस, यही सिद्धि है। मरते समय तुम्हें यह आनंद रहे कि जैसा जीना था, वैसा जीया; जो करना था, वही किया; न तो झुका, न समझौते किए। अपनी मौज में रहा। अपनी मस्ती में रहा। जरूर बहुत कठिनाइयां आईं, लेकिन वे सब कठिनाइयां भी चुनौतियां हैं। और हर चुनौती आत्मा को निखारती है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, रिंदों के लिए तो मयखाना काबे के बराबर होता है मुर्शिद की गली का हर फेरा इक हज के बराबर होता है
दिनेश! ऐसा ही है। पियक्कड़ों के लिए तो मधुशाला ही काबा है। ऐसा ही है कि शिष्यों के लिए तो गुरु की परिक्रमा कर लेना हज का पूरा हो जाना है।
मगर पियक्कड़ होना आसान नहीं है। पीना बड़ा जोखिम का काम है। बाहर की शराब पीना तो बहुत जोखिम का काम नहीं है; भीतर की शराब पीना बहुत जोखिम का काम है। क्योंकि बाहर की शराब तो घड़ी दो घड़ी को बेहोश कर जाती है, फिर होश आ जाता है। और भीतर की शराब ने तो जो बेहोश किया सो किया; फिर होश कभी आता ही नहीं। एक घूंट भी उतर गई गले से तो तुम सदा के लिए दूसरे ही व्यक्ति हो जाते हो; तुम्हारा पुनर्जन्म हो जाता है। संसार वही रहता है और तुम वही नहीं रह जाते। इसलिए जगह-जगह अड़चन आती है।
यह देखा, अभी ‘सत्संग’ की अड़चन देखी! यह पियक्कड़ होने का फल! ठीक कहते हो--
‘रिंदों के लिए तो मयखाना काबे के बराबर होता है’
पियक्कड़ कोई हो, तो जहां बैठ कर पी ले, वहां काबा है। जहां पियक्कड़ के पैर पड़ जाएं, वहां तीर्थ बनते हैं। नहीं तो तीर्थ बने कैसे?
काबा बना कैसे? किसी पियक्कड़ की याद है। किसी मोहम्मद की याद है।
गिरनार और शिखरजी बने कैसे? किन्हीं पियक्कड़ों की याद हैं--किन्हीं महावीरों की, किन्हीं पार्श्वनाथों की।
बोधगया कि जेरुसलम, ये पैदा कैसे हुए? सदियां बीत गईं, मगर यहां बैठ कर जिन्होंने पी थी भीतर की शराब, उनकी याद नहीं भूलती। आज भी वहां गंध आती है। आज भी वहां जाने वाला एक मस्ती के माहौल में डूबने लगता है। सदियां बीत गईं, पीने वालों की याद, पीने वालों की स्मृति, पीने वालों की छाया अब भी उन स्थलों को घेरे हुए है। पीने वालों का प्रसाद उस मिट्टी को भी सोना कर गया है। ऐसे ही तो तीर्थ बनते हैं।
मगर पीना बहुत कम लोगों को आता है। कुछ हैं जो भूल से बाहर की शराब को ही पीकर समझ लेते हैं कि पहुंच गए, हो गए सिद्ध। वे भी चूक गए! और कुछ हैं जो बाहर की शराब ही नहीं छोड़ते, जो बाहर की शराब में सभी शराबें छोड़ देते हैं--इस डर से कि पीने में खतरा है, पीने में बेहोशी है। कुछ हैं जो बाहर की शराब पीकर बरबाद हो जाते हैं, और कुछ हैं जो बाहर की शराब से बच कर बहुत बुद्धिमान हो जाते हैं और पीने का ढंग ही भूल जाते हैं, पीने का सलीका ही भूल जाते हैं, तो भीतर की शराब से वंचित रह जाते हैं। दोनों चूकते हैं। बाहर की शराब पीनी नहीं है और भीतर की शराब जरूर पीनी है--तब कोई पहुंचता है।
दिल की यकसूई ने बेपर्दा दिखाया था तुझे
बीच में मुफ्त कदम आ गया बीनाई का
तल्लीनता ने तो तेरा पर्दा उठा दिया था, तेरा घूंघट हटा दिया था। मगर तभी बुद्धिमानी बीच में आ गई, तभी समझदारी बीच में आ गई।
दिल की यकसूई ने बेपर्दा दिखाया था तुझे
बीच में मुफ्त कदम आ गया बीनाई का
और जो पांडित्य को उपलब्ध हो गया, तथाकथित ज्ञान को उपलब्ध हो गया, वह चूका। बाहर के पीने वाले चूक जाते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि बस यही शराब है दुनिया में। यह शराब है नहीं, शराब का धोखा है। अंगूरों से जो ढाली जाती है, वह सिर्फ धोखा है। आत्माओं में जो ढलती है, वह सच है। असली मधुशालाओं में आत्मा की शराब ढलती है, आत्मा की शराब निचुड़ती है।
कुछ तो प्रतीक्षा नहीं कर पाते, क्योंकि भीतर की जो शराब है, लंबी साधना से उपलब्ध होती है। भीतर की शराब समाधि से उपलब्ध होती है। लंबी, कठिन यात्रा है। प्राणों से ही निचोड़नी होती है वह भीतर की सुरा तो।
कहां से लाऊं सब्रे-हजरते-ऐयूब ऐ साकी
खुम आएगा, सुराही आएगी, तब जाम आएगा
मैं कहां से इतना धीरज लाऊं?
कहां से लाऊं सब्रे-हजरते-ऐयूब ऐ साकी
एक प्रसिद्ध संतोषी पैगंबर हुए हैं, उनके लिए कहा है: सब्रे-हजरते-ऐयूब! उन बहुत संतोषी पैगंबर की जैसी क्षमता थी प्रतीक्षा की, वैसी प्रतीक्षा की क्षमता मैं कहां से लाऊं?
कहां से लाऊं सब्रे-हजरते-ऐयूब ऐ साकी
खुम आएगा, सुराही आएगी, तब जाम आएगा
बड़ी देर लग रही है। जल्दबाजी में जो है, वह बाहर की शराब पी लेगा। क्योंकि बाहर की शराब बड़ी आसानी से मिलती है। बड़ी प्रतीक्षा चाहिए तो भीतर की मधुशाला का द्वार खुलता है। वहां मारते ही रहो टक्कर, वहां मारते ही रहो सिर, एक दिन द्वार जरूर खुलता है। मगर जब तुम पूरे प्राणपण से पुकारते हो, तब द्वार खुलता है।
तो कुछ तो प्रतीक्षा नहीं कर पाते, तो बाहर की व्यर्थ बातों में उलझ जाते हैं। कुछ बाहर की व्यर्थता तो देख लेते हैं, उस कारण बड़ी बुद्धिमानी को उपलब्ध हो जाते हैं। और फिर भीतर की यात्रा में वही बुद्धिमानी बाधा बन जाती है।
मुंह पे आशिक के मोहब्बत की शिकायत, नासेह
बात करने का भी नादां न करीना आया
आ गया था जो खराबात में, पी लेनी थी
तुझको सोहबत का भी जाहिद न करीना आया
यहां भी आ जाते हैं पंडित किस्म के लोग, शास्त्रीय किस्म के लोग--जो केवल शब्दों-शब्दों में ही जीते रहे हैं। वे आकर भी बिना पीए चले जाते हैं।
मुंह पे आशिक के मोहब्बत की शिकायत, नासेह
प्रेमी के मुंह पर तो, हे उपदेशक! प्रेम की निंदा मत कर। वहां तो चुप रह। क्योंकि प्रेमी के समक्ष तेरा बोलना अनुचित है। तुझे प्रेम का पता ही क्या है? वह तो प्रेमी को पता है।
मुंह पे आशिक के मोहब्बत की शिकायत, नासेह
बात करने का भी नादां न करीना आया
कितना ही हो तू बुद्धिमान और कितना ही शास्त्रों का बोझ हो, लेकिन तुझे अभी बात करने का भी तरीका नहीं आया।
आ गया था जो खराबात में, पी लेनी थी
और जब मधुशाला में आ ही गया था...
आ गया था जो खराबात में, पी लेनी थी
तुझको सोहबत का भी जाहिद न करीना आया
तुझे सत्संग का भी ढंग नहीं आता! तो पंडित हैं, वे विवाद में पड़ते हैं। सत्संग नहीं कर सकते, संवाद नहीं कर सकते, सिर्फ विवाद कर सकते हैं। सत्संग तो संवाद का निचोड़ है। सत्संग, सोहबत तो किसी सदगुरु के पास चुप बैठने की कला है, मौन बैठने की कला है, निर्विचार बैठने की कला है। और अगर कोई किसी सदगुरु के पास निर्विचार मौन बैठ जाए, तो सुरा बहने लगती है। सुरा बह ही रही है। लेकिन तुम्हारे विचारों की दीवालें, और तुम्हारे तर्क-जाल, और तुम्हारे सिद्धांत, और तुम्हारे शास्त्र बड़ी बाधाएं खड़ी करते हैं; सुरा को तुम तक पहुंचने नहीं देते।
आ गया था जो खराबात में, पी लेनी थी
तुझको सोहबत का भी जाहिद न करीना आया
मुगबचे हैं मुतहैय्यर, मुतबस्सिम साकी
पीने वाले तुझे पीने का न अंदाज आया
शराब पिलाने वाले हैरान हैं और पीने वालों को पीने का करीना भी नहीं, अंदाज भी नहीं।
पिलाने वाले सदा हैरान रहे हैं। बुद्ध ने पिलाई, कृष्ण ने पिलाई। और पीने वाले पीते ही नहीं। तुम देखते हो अर्जुन को? कृष्ण पिलाए जाते हैं और अर्जुन पीता ही नहीं। इसीलिए तो इतनी लंबी गीता चली। नहीं तो एक बार आंख में देख लेता कृष्ण की, सुरा ढल जाती, बात खत्म हो जाती। बिना बात के बात हो जाती। बिना कहे संवाद हो जाता। मगर नहीं, उठाए गया प्रश्न, किए गया संदेह। कृष्ण जैसे व्यक्ति के पास बैठ कर भी बकवास में लगा रहा।
फिर भी शक है कि अंततः भी समझ पाया या नहीं। कहता तो अर्जुन यह है अंत में कि मेरे सब संदेह मिट गए। मगर कौन जाने, सिर्फ थक कर कहता हो कि महाराज, अब तुम तो थकते नहीं, अब मेरी खोपड़ी और न खाओ, मेरे सब संदेह मिट गए। कौन जाने! संभावना इसी बात की बहुत है कि ऊब गया होगा कि यह आदमी पीछा छोड़ने वाला नहीं है। यह लड़वा कर रहेगा। तो कहा होगा कि ठीक है महाराज, अब जो होना है सो हो जाए। तुमसे बातचीत करने से तो युद्ध में ही उतर जाना बेहतर है।
ऐसी ही भावदशा हुई होगी। तो उसने कहा कि मेरे सब संदेह गिर गए। एकदम से सब संदेह गिर गए! इतनी देर तक नहीं गिरे और फिर एकदम से गिर गए! कोई आसार भी नहीं थे गिरने के। और कृष्ण ने कोई ऐसी बात भी नहीं कह दी थी नई जिसमें गिर गए हों। वे तो पहले से वही बात कह रहे थे, बार-बार वही बात कह रहे थे। इधर से, उधर से, हर तरफ से वही बात कह रहे थे।
गीता में एक ही बात तो दोहराई गई है--फलाकांक्षा छोड़ दे! फलाकांक्षा छोड़ दे! समर्पण कर! और क्या है? एक छोटे से शब्द ‘समर्पण’ में पूरी गीता आ जाती है। सर्व धर्मान्‌ परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। आ जा मेरी शरण। छोड़ सब। कितनी बार तो कहा था, समझ में नहीं आया। फिर एकदम से आ गया।
संभावना इसी बात की है कि अर्जुन थक गया। जागा नहीं, थक गया। उसने कहा, अब और हुज्जत करने से कोई सार नहीं है। और भीड़ भी लग गई होगी। युद्ध का मौका था। चारों तरफ लोग खड़े थे। भीड़ लग गई होगी। और उसको भीतर-भीतर दिक्कत होने लगी होगी कि अब कब तक मैं प्रश्न पूछूं! लोग क्या कहेंगे--कैसा जड़बुद्धि है! और देर भी होने लगी होगी, इतनी लंबी गीता, तुम सोचो! अठारह अक्षौहिणी सेना खड़ी है। बैंड बज चुके हैं, बाजे बज चुके हैं, शंख-नाद हो चुके हैं। योद्धा मरने-मारने को तत्पर हैं। मरने-मारने में ऐसा रस है कि लोग अपने तीर चढ़ाए खड़े होंगे। तलवारें निकाल ली होंगी। और इतनी देर हुई जा रही है। तालें ठोंक रहे हैं और देर हुई जा रही है। नगाड़े बज रहे हैं और मल्लयुद्ध की तैयारी हो गई है। और यह अर्जुन व्यर्थ के प्रश्न पूछे जा रहा है। भीड़ लग गई होगी। लोगों में खुसर-फुसर होने लगी होगी कि हद हो गई! इसको इतना बुद्धू कभी नहीं समझा था! उसने देखी होगी कि हालत बिगड़ती जाती है, इससे लड़ लेना ही बेहतर है। इस बात की ही संभावना है कि थक कर उसने कह दिया कि मेरे सब भ्रम गिर गए।
क्यों कहता हूं कि इस बात की संभावना है? क्योंकि इतिहास नहीं कहता कि अर्जुन कभी भी बुद्धपुरुष बना। अगर सारे संदेह गिर गए होते तो अर्जुन की गिनती भी अवतारों में होती, बुद्धपुरुषों में होती। वह तो नहीं। सच तो यह है कि अंतिम यात्रा में जब स्वर्ग की ओर चले पांडव, तो सारे भाई धीरे-धीरे गल गए, अर्जुन भी गल गया। युधिष्ठिर जब मोक्ष के द्वार पर पहुंचे तो सिर्फ उनका कुत्ता साथ था, और कोई भी नहीं। सब रास्ते में गल गए, मोक्ष तक कोई भी नहीं पहुंच पाया। अगर अर्जुन के सारे संदेह गिर गए थे तो फिर यह महाभारत की कथा कि मोक्ष की यात्रा में सब बीच में गल गए और मोक्ष तक केवल युधिष्ठिर पहुंचे और उनका कुत्ता पहुंचा...।
शायद कुत्ता ही अकेला था जो निःसंदिग्ध श्रद्धापूर्ण था, जिसकी श्रद्धा में कोई संदेह नहीं था। और इसलिए युधिष्ठिर ने मोक्ष में प्रवेश करने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा: पहले मेरा कुत्ता प्रवेश करे तो मैं प्रवेश करूं। जिसकी इतनी श्रद्धा कि जब मेरे सब भाई गल गए, मेरी पत्नी गल गई, संगी-साथी गल गए, कोई यहां तक नहीं पहुंच पाया, सब नीचे ही छूट गए, सबके पड़ाव आ गए और रुक गए--और मेरा कुत्ता भर मेरे साथ आया!
उसकी श्रद्धा रही होगी असंदिग्ध। उस कुत्ते को कहा जा सकता है कि वह बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ। अर्जुन को तो नहीं कहा जा सकता।
कृष्ण जैसे व्यक्ति का साथ हो, तब भी कहां सत्संग हो पाता है!
मुगबचे हैं मुतहैय्यर, मुतबस्सिम साकी
पीने वाले तुझे पीने का न अंदाज आया
पिलाने वाले आते रहे, आते रहे--पैगंबर, तीर्थंकर, मसीहा--पिलाने वाले आते रहे। और तुम हो कि बैठे हो, पीते ही नहीं।
लेके खुद पीरेमुगां हाथ में मीना आया
मैकशो! शर्म कि इस पर भी न पीना आया
खुद परमात्मा भी बहुत बार लेकर सुराही आ गया है।
लेके खुद पीरेमुगां हाथ में मीना आया
मैकशो! शर्म कि इस पर भी न पीना आया
कैसे मैकश हो? कैसे पियक्कड़ हो? परमात्मा भी सामने खड़ा हो तो भी तुम झिझकते हो पीने से। तुम हजार-हजार तर्क खड़े कर लेते हो न पीने के लिए। तुम बड़े-बड़े संदेह कर लेते हो न पीने के लिए। तुम बड़े सिद्धांतों के जाल रच लेते हो न पीने के लिए।
पियक्कड़ होना, दिनेश, आसान नहीं है। बात तो ठीक है--
‘रिंदों के लिए तो मयखाना काबे के बराबर होता है’
मगर रिंद तो होने चाहिए। रिंद हो तो मयखाना जरूर काबे के बराबर है। काबा क्या है फिर? लेकिन पियक्कड़ हो कोई। और--
‘मुर्शिद की गली का हर फेरा इक हज के बराबर होता है’
सच है! लेकिन शिष्य कहां हैं? बहुत खोजो तो विद्यार्थी मिलते हैं।
विद्यार्थी का मतलब होता है: जो सूचनाएं संगृहीत करने में उत्सुक है। शिष्य का अर्थ होता है: जो ज्ञान की ज्योति बनने के लिए आतुर है। परमात्मा के संबंध में जो जानना चाहता है वह विद्यार्थी। और परमात्मा को जो जानना चाहता है वह शिष्य। मगर परमात्मा के संबंध में जानना बहुत आसान है; परमात्मा को जानना बहुत कठिन है। परमात्मा को जानने वाले को तो अपने को गंवाना होता है, खोना होता है। और जो अपने को खोता है उसे तो लोग पागल समझते हैं। यहां बुद्धिमान तो विद्यार्थी होने पर रुक जाते हैं। यहां तो दीवाने ही जाते हैं परमात्मा को जानने को। क्योंकि परमात्मा को जानने का असली अर्थ होता है परमात्मा हो जाना। जिसने उसे जाना, वह वही हो गया। बूंद सागर को तभी जानेगी जब सागर में गिर जाए और सागर हो जाए।
जब अहले-होश कहते हैं अफसाना आपका
सुनता है और हंसता है दीवाना आपका
वे जो बुद्धिमान हैं, वे जो परमात्मा की बात करते हैं, तो जो परमात्मा के दीवाने हैं, जो जानने वाले हैं, वे हंसते हैं। पंडितों की बात सुन कर परमहंस हंसते हैं।
जब अहले-होश कहते हैं अफसाना आपका
क्योंकि उन्हें कहानी आपकी पता ही नहीं है और कहे जा रहे हैं। राम-कथा कहने वाले कितने लोग हैं, राम को कौन जानता है? और राम को बिना जाने तुम कितनी ही राम-कथा कहो, और कितनी ही कुशलता से कहो, कितनी ही सुसंबद्ध तुम्हारी तर्क-सरणी हो, मगर राम को बिना जाने राम-कथा कहोगे, तो दीवाने हंसेंगे।
और दीवानों के हंसने के पीछे राज है। वे हंसते हैं इसलिए कि तुम्हें जिसका पता नहीं है, उसकी बातें कर रहे हो! जिसकी तुम्हें कोई खबर नहीं है, जिसका तुम्हें सपने में भी कभी प्रतिबिंब नहीं मिला, उसकी बातें कर रहे हो!
औरों की बातें छोड़ो, अभी कुछ दिन पहले मोरारजी देसाई ने अहमदाबाद में रामायण पर प्रवचन दिए! अलीगढ़ में मुसलमान जलाए जाते रहे और मारे जाते रहे। उसी वक्त! और मोरारजी देसाई रामायण की कथा करते रहे अहमदाबाद में। यह भी खूब रही! और मोरारजी देसाई को रामायण से क्या लेना-देना है?
मगर राजनेता हर तरह के इंतजाम करता है! हिंदू इससे खुश होते हैं तो चलो रामायण; चलो इससे वोट मिलती है तो रामायण। मुसलमान की वोट लेना हो तो अल्ला-ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान। सन्मति का मतलब होता है--मुझे वोट देना। किसी और को दी, तो वह सन्मति नहीं है।
ये बातें...जिन्होंने परमात्मा का थोड़ा सा स्वाद लिया है, उन्हें बड़ी हंसी आएगी। मोरारजी देसाई रामायण पर बोल रहे हैं, यह देख कर कोई परमहंस न हंसेगा क्या? बहुत हंसी आएगी। यह तो खूब मजा हो गया। ये तो अंधे प्रकाश पर प्रवचन दे रहे हैं। ये बहरे शास्त्रीय संगीत की आलोचना कर रहे हैं, समालोचना कर रहे हैं, विश्लेषण कर रहे हैं। जिन्होंने कभी प्रेम नहीं जाना, वे प्रेम के काव्य लिख रहे हैं, महाकाव्य लिख रहे हैं। इनकी सब बातें व्यर्थ होंगी, दो कौड़ी की होंगी। मगर इनकी बातें भी चल जाती हैं, क्योंकि बाकी भी अंधे हैं। तो अंधों में अंधों की चल जाती है।
सच तो यह है कि अंधों में आंख वाले की चलना मुश्किल हो जाती है। क्योंकि आंख वाला जो कहता है, अंधे कैसे उससे राजी हों? अंधा जब कोई कुछ कहता है तो अंधे राजी हो जाते हैं, क्योंकि उनका भी अनुभव वही है। तालमेल बैठ जाता है। अंधे अंधों में बड़ा संबंध हो जाता है।
राजनीति अंधों के द्वारा अंधों को मार्गदर्शन देने का ही नाम है; और धर्म आंख वालों के द्वारा अंधों को। लेकिन हर धार्मिक व्यक्ति को अड़चन आ जाती है, क्योंकि अंधे नाराज होते हैं। उनकी धारणाएं टूटती हैं, उनकी मान्यताएं टूटती हैं। और उनका अहंकार टूटता है, यह बात जान कर कि हम अंधे हैं।
और अंधों की भीड़ है, अगर लोकतांत्रिक ढंग से निर्णय करना हो तो जो अंधे कहें वही सच है। आंख वाले तो कभी-कभार होते हैं। आंख वालों के लिए तो पियक्कड़ होना जरूरी है, शिष्य होना जरूरी है, तभी आंख खुलेगी।
सागर हमारा, मीना हमारा
जन्नत हमारी, तोबा हमारा
दाता के दर से लेकर फिरेंगे
भर देगा इक दिन कासा हमारा
मय पे किसी को, खुम पे किसी को
साकी पे अपने दावा हमारा
वह जो पियक्कड़ है, वह कहता है: हमें कोई शराब का भी दावा नहीं है, सुराही का भी दावा नहीं है, प्याले का भी दावा नहीं है। इन छोटी-मोटी बातों की हम फिक्र नहीं करते। हमने तो साकी पर दावा कर लिया है। हमने तो मालिक पर दावा कर लिया है। और उसको पा लिया तो सब पा लिया।
मय पे किसी को, खुम पे किसी को
साकी पे अपने दावा हमारा
भक्त तो भगवान पर दावा कर लेता है। भक्त तो भगवान का दावेदार है। और सब उसका है; इसलिए भगवान का जिसने हाथ पकड़ लिया, सारे संसार का साम्राज्य उसका है। फिर तो उसके इशारे पर हवाएं चलने लगती हैं और उसके इशारे पर फूल खिलने लगते हैं।
असर देखो जरा लगजिश में ‘या साकी’ के कहने का
फरिश्ते दौड़ कर बाजू हमारा थाम लेते हैं
वह तो जब भी कहता है या मालिक! या साकी! जब भी याद कर लेता है परमात्मा की...
असर देखो जरा लगजिश में ‘या साकी’ के कहने का
कभी लड़खड़ाता है, कभी पैर डगमगाते हैं, और डगमगाते हैं बहुत। क्योंकि जो पीएगा उसके डगमगाएंगे।
असर देखो जरा लगजिश में ‘या साकी’ के कहने का
फरिश्ते दोड़ कर बाजू हमारा थाम लेते हैं
फिर तो सारा अस्तित्व उसे थामता है। देवदूत दौड़-दौड़ कर उसके बाजू थाम लेते हैं। पीने वाला गिरता ही नहीं। भीतर की शराब की बात कर रहा हूं। तुम भूल कर बाहर की शराब की बात मत समझ लेना। पीने वाले लड़खड़ाते तो हैं, मगर गिरते नहीं। उनका लड़खड़ाना भी एक भांति का नृत्य है। उनका लड़खड़ाना भी एक आनंद-उत्सव है।
दिनेश, बात तो यही है--
‘रिंदों के लिए तो मयखाना काबे के बराबर होता है
मुर्शिद की गली का हर फेरा इक हज के बराबर होता है’

तीसरा प्रश्न:
प्यारे भगवान! यह तन-मन-जीवन सुलग उठे कोई ऐसी आग लगाए है--कोई ऐसी आग लगाए है प्रेम पथ पर चला है राही मारग चला नहीं जाता हाथ पकड़ कर मुझ अंधे को हरि की ओर झुकाए है कोई ऐसी आग लगाए है!
तरु! इसके पहले कि हम परमात्मा को खोजें, परमात्मा हमें खोज रहा है। इसके पहले कि हम उसे पुकारें, उसने हमें पुकार दे ही दी है। पुकार ही रहा है अनंत काल से!
सच तो यह है, जानने वालों का कहना यह है कि जब भी कोई व्यक्ति परमात्मा को खोजने निकलता है, उसका अर्थ केवल इतना ही है कि परमात्मा ने उस व्यक्ति को खोज लिया है। जब भी कोई उसकी तलाश में निकलता है, उसका अर्थ इतना ही है कि परमात्मा ने कहीं किसी गहरे में उसके हृदय पर अपना हाथ रख ही दिया है।
हमारी खोज भी तो छोटी सी होगी। हमारी छोटी सी खोज उस विराट को कैसे पा सकती है? और हमारी खोज भी तो अंधी होगी, अज्ञान की होगी। अज्ञान की खोज की निष्पत्ति ज्ञान में कैसे हो सकती है? अंधे की खोज की निष्पत्ति किसी गड्ढे में, किसी खाई में गिरने में तो हो सकती है; मंजिल पर पहुंचने में कैसे हो सकती है?
जरूर जो पहुंचते हैं, उसके सहारे ही पहुंचते हैं। वही पहुंचाता है तो पहुंचते हैं। वही सम्हालता है तो सम्हलते हैं। यही तो भक्ति-शास्त्र की मौलिक मान्यता है, धारणा है, उसकी आधारशिला है कि हमारे किए कुछ भी न होगा। वही कुछ करेगा तो होगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि हम काहिल और सुस्त हो जाएं और बैठ जाएं और कुछ न करें। नहीं; जो हम से बन सके, हम जरूर करें। लेकिन यह भी याद रखें कि हमारा प्रयास हमारा ही प्रयास है छोटा सा। हमारा प्रयास इतना ही कर सकता है कि उसके बढ़े हुए हाथ को, जो हमारे हृदय को छू रहा है, हमें पहचनवा दे।
छोटा बच्चा रोता है मां के लिए। रोने से कोई मां के आने का कार्य-कारण का संबंध नहीं है। कोई रोने के कारण मां को आना ही चाहिए, ऐसी अनिवार्यता नहीं है। लेकिन बच्चा रोता है तो मां के आने की सुगमता हो जाती है। बच्चा यह सोचे कि मेरे रोने से तो आने का कोई कार्य-कारण का संबंध नहीं है, तो रोकर क्या करूं, चुपचाप पड़ा रहूं! तो शायद मां को दौड़ने का अवसर ही न आएगा। बच्चा रोए भी और जानना चाहिए कि रोने भर से उसके आने की कोई अनिवार्यता नहीं है। कोई ऐसा नहीं है कि सौ डिग्री तक पानी गरम किया तो भाप बनना ही चाहिए। बने तो कार्य-कारण। और कभी बने, कभी न बने, तो उससे बात जाहिर हो जाती है कि कार्य-कारण का संबंध नहीं है।
तुम रोओ तो परमात्मा आता है, लेकिन अनिवार्यता नहीं है। क्योंकि तुम्हारे रोने में अगर हृदय न हो, अगर अनौपचारिक प्रेम न हो, अगर समग्र समर्पण न हो--तो तुम्हारा रोना ऊपर-ऊपर होता है। वह आवाज दूर-दूर तक आकाश तक पहुंच ही नहीं पाती। वह रोना इतना उथला होता है कि तुम्हारे ही अंतस्तल तक नहीं पहुंच पाता। लेकिन अगर तुम प्राणपण से रोओ तो एक बात समझ में आनी शुरू हो जाती है--कि मैंने रोना शुरू किया, उसके पहले उसका हाथ आ गया है।
शायद तेरी मोहब्बत कोई चुरा रहा है
बन कर निशात रूहे-महजूं पे छा रहा है
रूहे-तरब की सूरत गम में समा रहा है
अश्कों में मुस्कुरा कर आहों में गा रहा है
शायद तेरी मोहब्बत कोई चुरा रहा है

बेसम्त-ओ-बेजिहत इक आलम है और मैं हूं
इक सिहर, इक फजा-ए-मुबहम है और मैं हूं
जैसे बगैर भूले कुछ याद आ रहा है
शायद तेरी मोहब्बत कोई चुरा रहा है

रातों को नींद बन कर छिपता हुआ नजर से
दिल में मेरे समाने आंखों की रहगुजर से
मुझको सुला-सुला कर ख्वाबों में आ रहा है
शायद तेरी मोहब्बत कोई चुरा रहा है

जिस तरह दोस्त गुजरे दीवानावार कोई
और फिर उसे पुकारे बेइख्तियार कोई
मेरे करीब होकर इस तरह जा रहा है
शायद तेरी मोहब्बत कोई चुरा रहा है

छेड़ा है साजे-माहे-कामिल फलक पे जाकर
मसहूर कर रहा है, किरनों की लय में गाकर
बेसौत-ओ-बेसदा इक नगमा सुना रहा है
शायद तेरी मोहब्बत कोई चुरा रहा है
तरु! कोई हृदय को चुराने आ गया है! इसलिए तो हमने भगवान को एक नाम दिया: हरि। हरि का अर्थ होता है: जो हृदय को चुरा ले, हरण कर ले। हरि का अर्थ होता है चोर। दुनिया की किसी भाषा में ऐसा प्यारा शब्द भगवान को नहीं दिया गया। बड़े ऊंचे-ऊंचे शब्द दिए गए हैं--राम, रहीम, रहमान, अल्लाह, जिहोवा--सब बड़े-बड़े शब्द हैं। किसी का अर्थ होता है महाकरुणावान। किसी का अर्थ होता है महादानी। किसी का अर्थ होता है महास्रष्टा। लेकिन हमने जो शब्द दिया है उसका कोई मुकाबला नहीं! हरि जैसा कोई शब्द दुनिया में नहीं है। हरि का अर्थ होता है चोर, जो चुरा ही ले जाए! तुम बचाए रहो, बचाए रहो, बचाए रहो, जिंदगी-जिंदगी, मगर एक दिन वह चुरा ही ले जाएगा।
शायद तेरी मोहब्बत कोई चुरा रहा है
और जब हरि चुराने आए तो बाधा न डालना। बस इतना ही भक्त को करना है। अड़चन न डालना। द्वार-दरवाजे खुले छोड़ देना। चोर जब आए तो अतिथि मानना, स्वागत करना, बंदनवार सजाना। चोर जब आए तो अपने हृदय को खुद ही उसके चरणों में रख देना। इतनी ही तो भक्त की कला है।
छेड़ा है साजे-माहे-कामिल फलक पे जाकर
यह चांद-तारों में किसका गीत गूंज रहा है? यह कौन बांसुरी बजा रहा है चांद-तारों में? यह कौन सितार छेड़ दिया है?
छेड़ा है साजे-माहे-कामिल फलक पे जाकर
यह पूरे चांद में किसकी वीणा बज रही है?
छेड़ा है साजे-माहे-कामिल फलक पे जाकर
मसहूर कर रहा है, किरनों की लय में गाकर
एक-एक किरण उसकी बांसुरी की आवाज है।
बेसौत-ओ-बेसदा...
और ऐसी आवाज जो ध्वनि-विहीन है--अनाहत। जिसमें कोई शोरगुल नहीं है। जो शून्य है। शून्य संगीत!
बेसौत-ओ-बेसदा इक नगमा सुना रहा है
शायद तेरी मोहब्बत कोई चुरा रहा है
बन कर निशात रूहे-महजूं पे छा रहा है
रूहे-तरब की सूरत गम में समा रहा है
अश्कों में मुस्कुरा कर आहों में गा रहा है
शायद तेरी मोहब्बत कोई चुरा रहा है
तरु! चुरा लेने देना। बाधा न डालना, रुकावट न डालना। यह चोर नहीं है, यह मित्र है। यह चोरी नहीं है, क्योंकि इस चोरी में केवल तुम्हारे बंधन और तुम्हारी जंजीरें चुराई जाएंगी। इस चोरी में केवल तुम्हारा कारागृह तोड़ा जाएगा। इस चोरी में कैद तो मिटेगी, मुक्ति उपलब्ध होती है।

चौथा प्रश्न:
भगवान, तेरो नाम जो ध्यायो सब पायो सुख लायो तेरो नाम! जब से तेरी मरजी पर सब छोड़ा है, तब से जो कुछ हो रहा है, इससे ‘गुणा’ आश्चर्य-विमुग्ध है।
गुणा! जो भी छोड़ता है, वही चकित होता है। क्योंकि कर-कर के जो नहीं हो पाया, वह छोड़ने से होता है। अपने से जो नहीं हो पाया, जब हम थक कर असहाय उसके चरणों में गिर जाते हैं, तत्क्षण हो जाता है।
कुछ चीजें हैं जो करने से होती हैं। वे सब छोटी-छोटी चीजें हैं। हमारा करना ही बहुत छोटा-छोटा है। हमारे हाथ कितने बड़े हैं? हां, रेत भरनी हो तो इस हाथ में भरी जा सकती है। कंकड़-पत्थर उठाने हों तो उठाए जा सकते हैं। चांद-तारे तो नहीं। हाथ की सामर्थ्य कितनी है? सागर तो इन चुल्लुओं में नहीं भरे जा सकते। और परमात्मा सागर है, परमात्मा विस्तीर्ण है। इसलिए तो हमने उसे ब्रह्म कहा। ब्रह्म का अर्थ होता है: जो फैलता ही चला जाता है।
तुम जान कर चकित होओगे: आधुनिक भौतिकी इस सिद्धांत को अभी-अभी खोजी है कि जगत रोज-रोज विस्तीर्ण हो रहा है। यह जो विश्व है, एक्सपैंडिंग है, यह विस्तीर्ण होता विश्व है। यह वैसे ही का वैसा नहीं है, यह फैल रहा है। और बड़ी तेजी से फैल रहा है! यह फैलता ही चला जा रहा है। ये चांद-तारे तुमसे रोज दूर होते चले जा रहे हैं--बड़ी तीव्र गति से! प्रकाश की गति से अस्तित्व फैल रहा है।
प्रकाश की गति बहुत है। एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील। जो तारा तुम देख रहे हो रात में, वह प्रति सेकेंड एक लाख छियासी हजार मील तुमसे दूर होता जा रहा है। उसकी अत्यधिक गति के कारण ही तो तुम्हें झिलमिलाहट मालूम होती है। तारे जो झिलमिलाते मालूम होते हैं, वह इसीलिए कि वे इतनी तेजी से भाग रहे हैं...ठहरे ही नहीं हैं। ठहरे होते तो झिलमिलाहट नहीं होती। सारा अस्तित्व फैलता जा रहा है।
यह तो अभी खोजा भौतिक शास्त्रियों ने। लेकिन इस देश में हमने करीब दस हजार साल से परमात्मा को नाम दिया है--ब्रह्म। अगर ब्रह्म का ठीक-ठीक अंग्रेजी में अनुवाद करो तो एक्सपैंशन होगा--जो फैल रहा है। ब्रह्म से ही शब्द बना है--विस्तार, विस्तीर्ण, वृहत्‌। जो बड़ा होता जा रहा है, वही ब्रह्म।
इस जगत को हम ब्रह्मांड कहते हैं। यह उसका प्रकट रूप है। इस विराट को कैसे हम आदमी की छोटी-छोटी मुट्ठियों में भरेंगे? यह तो मुट्ठी खोल कर पाया जाता है, मुट्ठी बांध कर नहीं पाया जाता। और मुट्ठी खोलने का अर्थ है समर्पण।
तू ठीक कहती है गुणा--
‘प्रभु, तेरो नाम
जो ध्यायो सब पायो
सुख लाओ तेरो नाम!
जब से तेरी मर्जी पर सब छोड़ा, तब से जो कुछ हो रहा है इससे गुणा आश्चर्य-विमुग्ध है।’
जो भी छोड़ेगा उसकी मर्जी पर वह आश्चर्य-विमुग्ध हो जाएगा। एक घर छूटता है, सारे घर अपने हो जाते हैं। एक आंगन छूटता है, सारे आकाश अपने हो जाते हैं। एक बूंद छूटती है, सारे सागर अपने हो जाते हैं। और सबसे बड़ा आश्चर्य जो घटता है वह यह: अतीत खो जाता है, भविष्य खो जाता है, वर्तमान में थिरता हो जाती है।
हमारी भविष्य की इतनी चिंता क्या है? क्योंकि अपने सिर पर उठाए हैं--यह करना, यह करना; ऐसा करना; ऐसा हो पाएगा कि नहीं हो पाएगा! हजार चिंताएं, दुश्चिंताएं मन को घेरती हैं--सफलता मिलेगी या नहीं? मेरी आकांक्षाएं पूर्ण हो पाएंगी या नहीं? संभावना तो बहुत कम लगती है कि आकांक्षाएं पूर्ण हों, क्योंकि कभी किसी की नहीं हुईं। तुम अपवाद नहीं हो सकते हो। इसलिए डर भी लगता है, पैर भी कंपते हैं, प्राण भी कंपते हैं। भीतर आदमी भयभीत रहता है। सब तरह की योजनाएं बनाता है, सब तरह के जाल रचता है, विचार खोजता है--और फिर भी हारता है, फिर भी टूटता है!
चिंता का अर्थ होता है: भविष्य मेरे अनुकूल हो सकेगा या नहीं? और चिंता का यह भी अर्थ होता है कि अतीत जैसा हुआ, काश, वैसा न होता! अतीत के संबंध में भी लोग चिंता करते हैं कि कल मैंने जो ऐसा काम किया, अगर न करता।
अब हद्द हो गई मूढ़ता की! जो हो गया सो हो गया; अब उसे अनकिया नहीं किया जा सकता। अब कोई उपाय नहीं है। मगर लोग बैठ कर सिर धुनते हैं--कि मैंने यह बात न कही होती! कि मैंने यह काम न किया होता! लोग बड़ा पश्चात्ताप करते हैं। और इन पश्चात्ताप करने वाले लोगों को तुम धार्मिक भी कहते हो। धार्मिक और पश्चात्ताप! तब तो धार्मिकता मूढ़ता का ही दूसरा नाम होगा। धार्मिक पश्चात्ताप नहीं करता। पश्चात्ताप का तो अर्थ ही यह है कि जो मैंने किया वैसा न करता; ऐसा न होता, वैसा होता। मगर जो हो गया, हो गया; उससे अन्यथा अब कुछ हो नहीं सकता।
धार्मिक व्यक्ति वह है जो अतीत को ऐसे छोड़ देता है, जैसे सांप अपनी केंचुली को छोड़ देता है, पीछे लौट कर भी नहीं देखता। पश्चात्ताप धार्मिक नहीं है। पश्चात्ताप तो मन का ही उपद्रव है। पश्चात्ताप पीछे की तरफ मन का उपद्रव है और चिंता भविष्य की तरफ मन का उपद्रव है। और जिसने सब परमात्मा पर छोड़ दिया उसको क्या होता है? वह कहता है: परमात्मा ने जैसा करवाया वैसा हुआ। और परमात्मा जैसा कल करवाएगा वैसा होगा। मैं क्यों बीच में आऊं? जिसने सब परमात्मा पर छोड़ दिया, उसकी चिंता गई, उसका पश्चात्ताप गया। और जहां चिंता नहीं, पश्चात्ताप नहीं, वहां अतीत नहीं, भविष्य नहीं; वहां समय मिट जाता है। और समय का मिट जाना ही शाश्वत की उपलब्धि है। समय का शून्य हो जाना ही शाश्वत में प्रवेश है। उस प्रवेश का द्वार वर्तमान का क्षण है। जहां अतीत नहीं, भविष्य नहीं, वहां वर्तमान का क्षण अपने द्वार खोल देता है।
तुम वर्तमान में कभी होते ही नहीं। वर्तमान में तो सिर्फ भक्त ही हो सकता है। क्योंकि भक्त को कोई चिंता ही नहीं है। मारेगा तो मरेंगे। जिलाएगा तो जीएंगे। उसके हाथ से मरने में भी मजा है और उसके हाथ से जीने में भी मजा है। हाथ उसके हैं! मरने और जीने की किसको फिक्र है? गर्दन काटेगा तो वही काटेगा। अगर वही काटने वाला है तो मजा ही मजा है। और कल अगर उसने गलत करवा लिया था, उसकी मौज। उसका कोई प्रयोजन होगा। और ठीक करवा लिया था तो उसकी मौज। उसका कुछ प्रयोजन होगा।
न तो भक्त ठीक करने का अहंकार लेता है और न गलत करने का अपराध-भाव लेता है। भक्त बड़ी अदभुत दशा है। न ठीक करने का अहंकार--कि मैंने ऐसा किया, कि मैंने वैसा किया! कि इतना दान किया, इतना पुण्य किया, इतने उपवास किए, इतने व्रत किए! भक्त यह करता ही नहीं। भक्त कहता है: कर्ता मैं हूं ही नहीं। कर्ता एक है। उसने जो करवाया वह किया। कभी उपवास करवाए तो उपवास किए और कभी व्रत करवाए तो व्रत किए। मैं कौन हूं? भक्त के लिए न कोई पुण्य है, न कुछ पाप है।
अनूठी कहानी है। कबीर के घर सुबह-सुबह बहुत लोग आते थे भजन-कीर्तन को। और जब वे जाने लगते तो कबीर कहते: अरे भाई, जाते कहां हो, भोजन तो कर जाओ! वह भीड़-भड़क्का रोज भोजन करती। कबीर गरीब आदमी, जुलाहे, किसी तरह कपड़ा बुन-बुना कर बेचते। इतने लोगों को रोज भोजन कहां से करवाएं? पत्नी परेशान, बेटा परेशान। आखिर बेटे ने एक दिन कहा कि बहुत हो गया। अब यह बंद करो। हम कहां से लाएं? अब तो गांव में कोई उधार देने को भी राजी नहीं है। बेटे ने क्रोध में कहा कि क्या हम चोरी करने लगें?
कबीर तो गदगद हो गए। उन्होंने कहा: अरे तो नासमझ, पहले क्यों नहीं बताया? इतने दिन से परेशान हो रहा था, पहले क्यों नहीं कहा?
कमाल तो बहुत हैरान हुआ--कबीर का बेटा, उसका नाम था कमाल--वह तो बड़ा ही हैरान हुआ कि ये क्या कह रहे हैं! समझे भी मेरी बात कि नहीं? उसने कहा: आप समझे भी कि नहीं, मैं कह रहा हूं--क्या चोरी करने लगें?
कबीर ने कहा: तो यह पहले ही सोचना था न! बेटा, इतने दिन तक क्यों उधार मांगता रहा? जब यह तरकीब भी है!
कमाल भी था तो कबीर का ही बेटा। उसने कहा: अच्छा तो ठीक है। तुम मजाक समझ रहे हो? तुम मजाक कर रहे हो? आज ही रात!
जिद्दी था बेटा भी। रात चलने लगा तो उसने कबीर से कहा: आप भी चलिए।...चोरी करने जा रहा है।...आप भी चलिए। क्योंकि अकेले मैं कितना ला सकूंगा? बनिए की दुकान में सेंध लगाएंगे, गेहूं का एक बोरा खींच लाएंगे। फिर खिलाओ जितने दिन तक खिलाना है लोगों को। फिर देखेंगे जब दुबारा मौका आएगा।
सोचा था, कबीर अब बात बदल देंगे, कहेंगे कि मैं तो मजाक कर रहा था। मगर कबीर उठ कर खड़े हो गए कि चल! जैसे मंदिर पूजा करने जा रहे हों! चल!
अब तो कमाल के भी पैर लड़खड़ाने लगे। मगर उसने भी कहा कि तर्क को आखिर तक खींचना जरूरी है। बात तो पूरी पक्की पता चल जाए कि कहां तक जा सकती है बात। सेंध लगाने लगा और कबीर खड़े देखते रहे, तब भी नहीं रोका। सोचा था कि जब सेंध लगाने लगूंगा, तब कहेंगे कि अरे, नासमझ! मजाक भी नहीं समझता? सेंध भी लग गई, बेटे ने सोचा, शायद अब कहें, अब कहें। मगर कबीर चुप ही खड़े हैं। बेटा सेंध लगा कर बैठा है। कबीर ने कहा: अब तू क्या कर रहा है? अब जाता क्यों नहीं भीतर?
उस बेटे ने सिर से हाथ मार लिया कि हद्द हो गई! यह तो दिखता है चोरी करवा कर रहेंगे। यह किस तरह की बात हुई!
यह बड़ी अनूठी घटना है कबीर के जीवन में। बेटा भीतर गया, आखिर कबीर का ही बेटा था, उसने कहा कि मैं भी कुछ हारने वाला नहीं, बात को आखिर तक ही ले जाना पड़ेगा, मगर निर्णय होना ही चाहिए। वह एक बोरा किसी तरह खींच-खांच कर लाया। सोचा कि शायद अब कहेंगे कि अब बस, बहुत हो गया, अब चल घर, छोड़ दे बोरा वहीं। कबीर ने कुछ कहा तो बेटे ने समझा कि अब शायद कह रहे हैं। लेकिन कबीर ने यह कहा कि जाकर घर के लोगों को तो जगा दे कि चोरी हो गई, कि कोई तुम्हारा बोरा लिए जा रहा है। इतना तो अपना कर्तव्य है कि घर के लोगों को जगा दें। फिर उसकी मर्जी, फिर जो हो सो हो।
तो उसने कहा: यह भी खूब चोरी रही! यह पहले ही क्यों नहीं आपने कहा कि घर के लोगों को जगाना पड़ेगा?
इतना तो करना पड़ेगा। घर के लोग सोए हैं, उनको बेचारों को पता ही नहीं कि क्या हो रहा है, कि भगवान हम से क्या करवा रहा है! इतना तो हम कर सकते हैं कि घर के लोगों को जगा दें। फिर जो उसकी मर्जी।
भक्त की ऐसी दशा है--जो उसकी मर्जी। भक्त शुद्ध वर्तमान में ठहर जाता है; न उसे पाप है कुछ, न पुण्य है कुछ। यह बड़ी ऊंची बात है। यह द्वंद्वातीत बात है। यह अतिक्रमण है सारे भेदों का। इस दशा में वर्तमान का क्षण सब कुछ होता है--न पश्चात्ताप है, न पुण्य का दर्प है।
शरद चांदनी
बरसी
अंजुरी भर कर पी लो
ऊंघ रहे हैं तारे
सिहरी सरसी
ओ प्रिय कुमुद ताकते
अनझिप
क्षण में
तुम भी जी लो।
देखते हो, चांद-तारे अभी जी रहे हैं। फूल अभी खिल रहे हैं। नदियां अभी बह रही हैं। सागर अभी उत्ताल तरंगों से भरे हैं। हवाएं अभी गुजर रही हैं वृक्षों से। वृक्ष अभी हरे हैं। न तो वृक्षों को कल की कोई याद है, न आने वाले कल की कोई चिंता है। न चांद-तारों को कल का पता है, न आने वाले कल का कोई पता है। ऐसे ही तुम भी जी सकते हो। और ऐसे जीने का नाम ही धर्म है, ध्यान है।
शरद चांदनी
बरसी
अंजुरी भर कर पी लो
ऊंघ रहे हैं तारे
सिहरी सरसी
ओ प्रिय कुमुद ताकते
अनझिप
क्षण में
तुम भी जी लो।
सींच रही है ओस
हमारे गाने
घने कुहासे में
झिपते
चेहरे पहचाने
खंभों पर बत्तियां
खड़ी हैं सीठी
ठिठक गए हैं मानो
पल-छिन
आने-जाने
उठी ललक
हिय उमगा
अनकहनी
अलसानी
जगी लालसा
मीठी,
खड़े रहो ढिंग
गहो हाथ
पाहुन मन-भाने
ओ प्रिय रहो साथ
भर-भर कर अंजुरी
पी लो,
बरसी
शरद चांदनी
मेरा
अंतःस्पंदन
तुम भी क्षण-क्षण जी लो!
ओ प्रिय कुमुद ताकते
अनझिप
क्षण में
तुम भी जी लो।
समर्पण ले आता है तुम्हें क्षण में। चिंता गई, स्मृति गई, कल्पना गई। अचानक तुम पाते हो अपने को--अभी और यहां! और अभी और यहां परमात्मा है! अभी और यहां अस्तित्व है! उसी क्षण छलांग लग जाती है। अहंकार पाया ही नहीं जाता।
अहंकार जीता है अतीत में और भविष्य में। वर्तमान में उसकी मृत्यु हो जाती है। वर्तमान अहंकार की मृत्यु है। और जहां अहंकार नहीं, वहां जो है, वही है। और तब बड़ा चकित हो उठता है हृदय। विस्मय-विमुग्ध, अवाक! आंखों पर भरोसा नहीं आता, कानों पर भरोसा नहीं आता। क्योंकि कान उन ध्वनियों को सुन लेते हैं जो ध्वनियां नहीं हैं। और आंख उस रूप को देख लेती है जो रूप में अटता नहीं है। और हृदय उस मेहमान को, उस पाहुन को पहचान लेते हैं, जो सदा-सदा से मौजूद था, न मालूम हम कैसे उसकी तरफ पीठ किए रहे! न मालूम हम कैसे अंधे थे, या कि आंखें बंद किए रहे! न मालूम हम कितनी गहन निद्रा में सोए थे!

पांचवां प्रश्न:
भगवान, उस परमप्रिय का निर्वचन क्यों नहीं हो सकता है? जिसका अनुभव हो सकता है, उसका निर्वचन क्यों नहीं?
यह बात महत्वपूर्ण है। नई नहीं है, बहुत पुरानी है। अति प्राचीन है यह प्रश्न। सदा-सदा पूछा गया है।
पश्चिम के एक आधुनिक दार्शनिक लुडविग विट्‌गिंस्टीन ने इस प्रश्न को बहुत प्रगाढ़ता से फिर इस सदी में उठाया था--कि जो अनुभव किया जा सकता है, वह निश्चित ही कहा जा सकता है। और जो कहा नहीं जा सकता, वह अनुभव ही नहीं किया गया होगा। लेकिन विट्‌गिंस्टीन सही नहीं है। ऐसे भी अनुभव हैं जो अनुभव तो होते हैं, मगर कहे नहीं जा सकते। शायद विट्‌गिंस्टीन ने किसी को कभी प्रेम नहीं किया। दार्शनिक-तार्किक करते भी नहीं। ऐसी झंझटों में पड़ते भी नहीं। शायद विट्‌गिंस्टीन ने कभी किसी को प्रेम नहीं किया, अन्यथा उसे पता चल जाता।
साधारण जीवन में भी एक स्त्री के तुम प्रेम में पड़ जाओ या एक पुरुष के, और उसे भी कहना मुश्किल हो जाता है। प्रेम क्या है, कौन कब कह पाया है! प्रार्थना तो और आगे की बात है। परमात्मा तो और-और आगे की बात है। लेकिन प्रेम को ही कौन कह पाता है! जिस स्त्री के सौंदर्य से तुम मुग्ध हुए हो, उसके सौंदर्य को शब्दों में कहां बांध पाते हो? एक स्त्री का--जो क्षणभंगुर है, जैसे तुम क्षणभंगुर हो; जो अभी है और कल नहीं हो जाएगी; और जिसका यौवन, जो आज बड़ा उद्दाम है और आज बड़ा प्रगाढ़ है, कल विदा हो जाएगा; पानी का बबूला है; पानी के बबूले पर चमक गई सूरज की किरण है; पानी के बबूले पर चमकी सूरज की किरण ने छोटा सा इंद्रधनुष पैदा कर दिया है--लेकिन नहीं, एक स्त्री का सौंदर्य भी कहां बंध पाता है शब्दों में! एक पुरुष का सौंदर्य कहां बंध पाता है शब्दों में!
छोड़ो स्त्री-पुरुष को। क्योंकि स्त्री-पुरुष फिर भी विकास का अंतिम चरण हैं। एक फूल का सौंदर्य कहां बंध पाता है शब्दों में! कौन कब कह पाया है? बड़े महाकवि टेनिसन ने कहा है: अगर एक फूल को मैं कह पाऊं पूरा का पूरा, तो उस फूल के कहने में ही सारे अस्तित्व के संबंध में वक्तव्य हो जाएगा। एक फूल को अगर कह पाऊं पूरा का पूरा--जितनी गंध उसकी, जितना रंग उसका, जितना रस उसका, जितना सौंदर्य उसका...। लेकिन कहां हम कह पाते हैं!
फिर जाने दो, फूल भी जरा रहस्यमय है। किसी ने तुम्हारे मुंह में बताशा रख दिया। उसकी मिठास कहां कह पाते हो! अनुभव तो होता है। और यह मत सोचना कि तुम कहने लगे मीठा-मीठा, तो तुमने कह दिया। कहने का मतलब यह होता है कि जिसने कभी मिठास नहीं देखी, उसको समझा पाओ, तब कहा। अगर बुद्ध कबीर से कहें और कबीर समझ जाएं, यह कोई कहना न हुआ। कबीर यारी से कहें और यारी समझ जाएं, यह कोई कहना न हुआ। आंख वाले आंख वालों से प्रकाश की बातें करें, यह कोई कहना न हुआ। कहने का तो मजा तब है जब आंख वाला बोले और अंधा समझे।
निर्वचन का क्या अर्थ होता है?
निर्वचन का अर्थ होता है--जिसने जाना वह बोले और जिसने नहीं जाना वह समझे, तो निर्वचन। तुम समझ लेते हो, किसी ने कहा मीठा, तुम समझ गए कि क्या अर्थ है। मगर कैसे समझे तुम? शब्द से समझे? मीठा शब्द ने तुम्हें कुछ मिठास दी? नहीं; तुमने भी बताशे खाए हैं। तुमने भी बताशों का स्वाद लिया है। सो तुम जानते हो कि मीठा शब्द का क्या अर्थ है। अर्थ शब्द में नहीं है, तुम्हारे अनुभव में है। इसलिए मीठा शब्द सार्थक मालूम होता है। लेकिन उस आदमी को कहो, जिसने मिठास जानी नहीं।
समझो, एक छोटा बच्चा पैदा हो, तभी हम उसकी जीभ में मिठास को अनुभव करने वाले जो तंतु हैं, उनको बिजली का शॉक देकर खत्म कर दें। यह बिलकुल आसान है, इसमें कुछ अड़चन नहीं है। पूरी जीभ मिठास का अनुभव नहीं करती। जीभ का कुछ हिस्सा है जो कड़वाहट का अनुभव करता है; कुछ हिस्सा है जो मिठास का अनुभव करता है; कुछ हिस्सा है जो खटास का अनुभव करता है। जीभ पूरी की पूरी सारे अनुभव नहीं करती।
इसलिए कभी तुम देखना, अगर कड़वी दवा तुम पीते हो या कड़वी दवा की गोली तुम खाते हो, तो तुम्हें चाहे खयाल में हो या न हो, कड़वी दवा की गोली जब भी कोई निगलता है तो उसे जीभ के बीच में रखता है। अब की दफा तुम खयाल करना। अनजाने ही करते रहे होओगे। जीभ के बीच में रखते हो, क्योंकि बीच में कड़वाहट का अनुभव नहीं होता। और फिर जल्दी से पानी गटक जाते हो। क्योंकि जीभ का जो आखिरी हिस्सा है, उसको अगर गोली छुए तो कड़वाहट का अनुभव होता है। वहीं कड़वाहट के तंतु हैं।
और ये तंतु तो बड़े सूक्ष्म हैं। ये बड़े जल्दी मारे जा सकते हैं। बुखार में मर जाते हैं, बिजली के शॉक की तो जरूरत क्या है! एक आठ-दस दिन बुखार आ गया, फिर स्वाद नहीं मालूम होता। क्योंकि वे तंतु बड़े सूक्ष्म हैं और नाजुक हैं।
हम एक बच्चे के साथ यह प्रयोग कर सकते हैं कि बच्चा पैदा हो, और उसके जितने तंतु हैं मिठास को अनुभव करने वाले, उनको हम साफ ही कर दें। उनकी प्लास्टिक सर्जरी कर दें। उनको निकाल कर अलग ही कर दें, जीभ को छील दें। फिर तुम कहना इससे कि बताशा मीठा है। वह कहेगा: कुछ और कहो, इतने से कुछ नहीं होता। मीठा यानी क्या? मीठे से तुम्हारा मतलब क्या है?
तुम भी बड़े हैरान होओगे कि अब मीठे से क्या मतलब बताना है। मीठा यानी मीठा! वह कहेगा: इससे कुछ हल नहीं होता। यह तो पुनरुक्ति है। मीठा यानी मीठा, इसमें क्या हल हुआ? जरा समझा कर बताओ।
क्या समझा कर बताओगे?
नहीं; अनुभव होते हैं और फिर भी निर्वचन नहीं हो पाता। और जिन अनुभवों का निर्वचन हो जाता है, उसका केवल इतना ही अर्थ है कि वे सामान्य अनुभव हैं, सभी को उनका अनुभव हो रहा है। लेकिन परमात्मा का अनुभव तो बड़ा असामान्य अनुभव है। कभी-कभार इक्के-दुक्के विरले व्यक्ति को होता है। उस विरले व्यक्ति की मुसीबत समझो। उसने जान लिया। लेकिन अब तुमसे कैसे कहे? गूंगे केरी सरकरा! बिलकुल गूंगा हो जाता है वैसा आदमी। और ऐसा भी नहीं है कि नहीं बोलता।
बुद्ध बयालीस वर्ष तक बोले, मगर ईश्वर के संबंध में एक शब्द न कहा। कहा ही नहीं। ईश्वर की बात ही बचाते रहे। तुम पूछो ईश्वर की, वे कुछ और ही उत्तर देंगे। तुम पूछो ईश्वर की, वे कहेंगे--ध्यान करो। अब यह कोई उत्तर हुआ? तुम भी कहोगे कि हम पूछते हैं--ईश्वर क्या? आप कहते हैं--ध्यान करो! हम पूछते हैं जमीन की, आप कहते हैं आसमान की; यह कोई उत्तर हुआ?
मगर बुद्ध भी क्या करें? बुद्ध इतना ही कह सकते हैं। तुम पूछते हो: बताशा कैसा? बुद्ध कहते हैं: बताशा खाओ। ध्यान यानी बताशा खाओ। बताशा चखो। उसी चखने से स्वाद मिलेगा। इस जीवन के साधारण अनुभव भी...किसी का सौंदर्य प्रकट नहीं हो पाता। तुमने अगर प्रेम किया हो तो तुम्हें थोड़ा अनुभव मिलेगा--उसका, जो अनिर्वचनीय है।
कितनी रंगीं है फजा, कितनी हसीं है दुनिया
कितना सरशार है जौके-चमनआराई आज
इस सलीके से सजाई गई बज्मे-गेती
तू भी दीवारे-अजंता से उतर आई आज
जब कोई किसी के प्रेम में पड़ता है तो उसे अनुभव होता है:
कितनी रंगीं है फजा, कितनी हसीं है दुनिया
कितना सरशार है जौके-चमनआराई आज
यही उद्यान, रोज तुम इससे गुजरते थे; और आज जब तुम्हारी आंखें प्रेम से भर गई हैं, तब तुम्हें लगेगा: कैसा उत्सव हो रहा है वृक्षों में आज! यही वातावरण सदा से था, लेकिन आज इसमें एक रसधार बहने लगेगी। यही दुनिया है और आज एकदम हसीन हो जाएगी--ऐसी हसीन कि कभी न थी।
कितनी रंगीं है फजा, कितनी हसीं है दुनिया
कितना सरशार है जौके-चमनआराई आज
इस सलीके से सजाई गई बज्मे-गेती
तू भी दीवारे-अजंता से उतर आई आज
और जब भी तुम किसी स्त्री को प्रेम करोगे, तुम्हें ऐसा न लगेगा कि वह स्त्री साधारण है। सारी दुनिया उसे साधारण समझे, मगर तुम्हें तो लगेगा कि अजंता की दीवार से कोई अप्सरा की तस्वीर थी जो नीचे उतर आई है। दुनिया तुम्हें पागल कहेगी। दुनिया कहेगी कि साधारण स्त्री है, हम भलीभांति जानते हैं। लेकिन तुम्हारे लिए उस साधारण में आज कुछ असाधारण दिखाई पड़ा। तुम्हारी प्रेम की आंख खुली। आज साधारण साधारण नहीं रहा, आज असाधारण हो गया। हां, विवाह कर लोगे और कुछ दिन इसके साथ रहोगे, फिर साधारण साधारण हो जाएगा। क्योंकि इतनी क्षमता तुम्हारी नहीं है कि प्रेम की आंख सदा खुली रख सको; वह तो सुहागरात पूरी होते-होते ही बंद हो जाती है।
लेकिन जब तुम्हारी प्रेम की आंख खुली है थोड़ी सी, तब तुमसे कोई पूछे कि वर्णन करो, विवेचन करो, विश्लेषण करो, व्याख्या करो। तुम एकदम गूंगे हो जाओगे। तुमसे कुछ कहते न बनेगा।
कितनी रंगीं है फजा, कितनी हसीं है दुनिया
कितना सरशार है जौके-चमनआराई आज
इस सलीके से सजाई गई बज्मे-गेती
तू भी दीवारे-अजंता से उतर आई आज

रुनुमाई की यह साअत यह तहीदस्ति-ए-शौक
न चुरा सकता हूं आंखें न मिला सकता हूं
प्यार, सौगात, वफा, नज्र, मोहब्बत, तोहफा
यही दौलत तेरे कदमों पे लुटा सकता हूं

कब से तखईल में लर्जां था यह नाजुक पैकर
कब से ख्वाबों में मचलती थी जवानी तेरी
मेरे अफसाने का उन्वान बनी जाती है
ढल के सांचे में हकीकत की कहानी मेरी

मरहले झेल के निकला है मजाके-तख्लीक
सइ-ए-पैहम ने दिए हैं ये खद-ओ-खाल तुझे
जिंदगी चलती रही कांटों पर, अंगारों पर
तब मिली इतनी हसीं, इतनी सुबुक चाल तुझे

तेरे कामत में है इन्सां की बुलंदी का विकार
दुख्तरे-शहर है तहजीब का शहकार है तू
अब न झपकेगी पलक, अब न हटेंगी नजरें
हुस्न का मेरे लिए आखिरी मेयार है तू

यह तेरा पैकरे-सीमीं, यह गुलाबी सारी
दस्ते-मेहनत ने शफक बनके उढ़ा दी तुझको
जिससे महरूम है फितरत का जमाले-रंगीं
तरबियत ने वो लताफत भी सिखा दी तुझको
आगहीं ने तेरी बातों में खिलाईं कलियां
इल्म ने शक्करी लहजे में निचोड़े अंगूर
दिलरुबाई का यह अंदाज किसे आता था
तू है जिस सांस में नजदीक उसी सांस से दूर

तेरी हस्ती, तेरी मस्ती, तेरा जल्वा, तेरा हुस्न
सौ दिए जलते हैं उमड़ी हुई जुल्मत के खिलाफ
लबे-शादाब पे छलकी हुई गुलनार हंसी
इक बगावत है यह आईने-जराहत के खिलाफ

हौसले जाग उठे, सोजे-यकीं जाग उठा
निगहे-नाज के बेनाम इशारों को सलाम
तू जहां रहती है उस अर्शे-हसीं पर सज्दा
जिन पे तू मिलती है उन राहों को सलाम

आ करीब आ कि यह जूड़ा मैं परीशां कर दूं
तश्नाकामी को घटाओं का पयाम आ जाए
जिसके माथे से उभरती हों हजारों सुबहें
मेरी दुनिया में भी ऐसी कोई शाम आ जाए
एक छोटा सा प्रेम, एक साधारण सा स्त्री-पुरुष का प्रेम--और सारे शब्द ओछे मालूम पड़ने लगते हैं। तो प्रार्थना की तो बात ही कैसे करें? और फिर परमात्मा, वह तो परमप्रिय है। उसके लिए न कोई शब्द है, न कोई और अभिव्यक्ति का उपाय और माध्यम है।
तुमने पूछा है: ‘उस परमप्रिय का निर्वचन क्यों नहीं हो सकता है?’
क्योंकि वह परमप्रिय है इसलिए।
तुमने पूछा: ‘जिसका अनुभव हो सकता है, उसका निर्वचन क्यों नहीं?’
क्योंकि उसका अनुभव विरले लोग करते हैं। अनुभव करने वाले दो लोगों के बीच निर्वचन हो सकता है। और कहने की भी जरूरत न पड़े, बिन कहे भी हो सकता है।
फरीद और कबीर का मिलना हुआ था। वे दो दिन तक साथ बैठे रहे, न कोई कुछ बोला, न कुछ चाला। न कबीर ने कुछ कहा, न फरीद ने कुछ कहा। दोनों के शिष्य तो बड़े आतुर होकर बैठे थे कि कुछ बात होगी, कुछ गुफ्तगू होगी इन दो पहुंचे हुए सिद्धों में, कुछ चर्चा होगी। हम पर भी कुछ बूंदाबांदी हो जाएगी अमृत की। इनके बीच कुछ लेन-देन होगा तो हम भी कुछ सुन लेंगे। मगर नहीं कुछ बात हुई। एक शब्द नहीं आदान-प्रदान हुआ। मिले तो गले मिले। फिर विदाई हुई तो गले मिल कर विदाई हो गई। जैसे ही दोनों विदा हुए, कबीर के शिष्यों ने कबीर से पूछा कि यह क्या हुआ? आप हम से तो इतना बोलते हैं, आपकी जबान क्यों खो गई? आप चुप क्यों रह गए?
कबीर ने कहा: नासमझो! तुमसे बोलता हूं ताकि तुम प्यास से भर सको उस परमात्मा की। मगर अगर फरीद से बोलता तो नासमझी होती। क्योंकि जहां मैं हूं, वहीं फरीद है। वहां बोलने की कोई बात ही नहीं। जो मैंने चखा, वही उन्होंने चखा है। उन्हें भी स्वाद पता है, मुझे भी स्वाद पता है। गले मिले, उतने में बात हो गई। आंख में आंख डाली, उतने में सब हो गया।
फरीद के शिष्यों ने भी पूछा कि आपको क्या हुआ--जैसे ही गांव से विदा हुए--आप चुप क्यों रहे? हमसे तो इतना बोलते हैं!
फरीद ने कहा: पागलो, बोल कर क्या अपनी फजीहत करवानी थी? वह जो आदमी है, उसे पता ही है; उससे बोलना क्या? उससे कहना क्या? हम दोनों एक ही सागर में डुबकी मार रहे हैं। अब मैं कहूं कि बड़ा मजा आ रहा है सागर में डुबकी मारने का, तो यह व्यर्थ होगा वक्तव्य, क्योंकि वे भी डुबकी मार रहे हैं उसी सागर में! मेरा और उनका अनुभव एक। मैं भी मिट गया हूं, वे भी मिट गए हैं। यह तो जब हाथ में हाथ लिया, तभी समझ में आ गया। फिर कहने को क्या बचा था?
तो यह विरोधाभास खयाल में रखना। इस जगत में तीन तरह की वार्ताएं हो सकती हैं। पहली वार्ता, जो तुम्हें जगह-जगह होती हुई मिलेगी--दो अज्ञानियों के बीच। जगह-जगह हो रही है सिर-फोड़ी। एक-दूसरे की खोपड़ी में अपना-अपना कचरा डाल रहे हैं। बड़ा विवाद है--मैं सही, तुम गलत! बड़ी मैं-मैं, तू-तू है। सारा संसार इस वार्ता से भरा हुआ है। दूसरे ढंग की वार्ता--एक ज्ञानी और अज्ञानी के बीच। वहां बड़ी कठिनाई है। पहली वार्ता में कोई कठिनाई नहीं है। न तुम्हें पता है, न उसे पता है। दोनों का अनुभव शून्य है। इसलिए मजे से बातें करो। ईश्वर के संबंध में बातें करो, मोक्ष के संबंध में बातें करो; कोई अड़चन नहीं है। पान वाले भी, तांगे वाले भी ब्रह्मचर्चा कर रहे हैं; कोई अड़चन नहीं है। अड़चन है दूसरे ढंग की वार्ता में--जब ज्ञानी अज्ञानी से बोलता है। क्योंकि ज्ञानी बोलता है कुछ, अज्ञानी समझता है कुछ। और यह बिलकुल स्वाभाविक है। इसलिए अज्ञानी को सुनने का ढंग सीखना पड़ता है, सुनने की कला सीखनी पड़ती है। और ज्ञानी को अपनी अभिव्यक्ति को मांजना पड़ता है।
इसलिए सभी जानने वाले सदगुरु नहीं होते। जान तो लेते हैं, मगर जना नहीं पाते। सभी जानने वाले सदगुरु नहीं होते। फिर कौन जानने वाला सदगुरु होता है? जिसने जाना है और जिसने उस कला को भी ईजाद किया है जिससे अज्ञानियों के अंधेरे में भी थोड़ी सी खबर पहुंचाई जा सके। थोड़ी सी भनक सही। थोड़ी सी ध्वनि जगाई जा सके। सदगुरु का अर्थ होता है: ऐसा ज्ञानी, जिसने स्वयं तो जाना है, जो दूसरे को जगाने की कला में भी निष्णात है। करोड़ों लोगों में एकाध ज्ञानी होता है। हजारों ज्ञानियों में एकाध सदगुरु होता है।
यह दूसरी वार्ता बड़ी कठिन है, अति कठिन है। इस झंझट में बहुत से ज्ञानी तो पड़ते ही नहीं। जान लिया, फिर वे चुपचाप आंख बंद करके रह जाते हैं। फिर वे बोलते ही नहीं। फिर वे चुप्पी साध लेते हैं। कौन झंझट करे! कौन सिर मारे! यह तो महाकरुणा पैदा हो तो ही संभव हो पाता है सिर मारना। नहीं तो जिनको तुम समझाने चले हो, वही तुम्हारी गर्दन काटने को तैयार होते हैं। कौन झंझट में पड़े!
समझो, जीसस अगर चुप रह जाते तो सूली न लगती। सुकरात अगर चुपचाप बैठा रहता, मस्त रहता अपनी मस्ती में, तो जहर न पिलाया गया होता। और मंसूर ने अगर अनलहक की घोषणा न की होती अज्ञानियों के सामने--कि मैं ब्रह्म हूं, कि मैं सत्य हूं, कि बंदे में और खुदा में कोई फर्क नहीं है, बंदा खुदा है--अगर यह घोषणा न की होती...। घोषणा की थी कि लोग समझ सकें। याद दिलाने के लिए। मगर लोगों ने बदला लिया। हाथ-पैर काट डाले, गर्दन तोड़ दी।
बहुत से ज्ञानी चुप रह जाते हैं। और मजा यह है कि अज्ञानी भी इन चुप रह जाने वाले ज्ञानियों से बहुत प्रसन्न होते हैं। उनको सूली भी नहीं चढ़ाते, जहर भी नहीं पिलाते। क्यों अज्ञानी उनको सूली नहीं देते? दें भी कैसे, उन्होंने कुछ कहा ही नहीं। कहें तो अड़चन शुरू हो। और दूसरा, अज्ञानियों को भी इसमें सुख रहता है कि चुपचाप हैं, हमारी जिंदगी में कोई झंझट खड़ी नहीं करते। लेकिन कुछ ज्ञानी करुणावश बोले हैं। पृथ्वी उनके बोलने के कारण सौभाग्यशाली है। इस पृथ्वी पर जो थोड़ी-बहुत गरिमा है, गौरव है, वह इन थोड़े से बुद्धपुरुषों के कारण है जो बोले हैं; जो हर झंझट उठा कर बोले हैं; जो उनसे बोले हैं जो उनके दुश्मन हो जाएंगे बोलने के कारण। मगर बोले हैं!
बुद्ध ने कहा है: दो तरह के ज्ञानी होते हैं--एक अर्हत और एक बोधिसत्व। अर्हत वे--जो बोलते नहीं, जान कर चुप हो जाते हैं। बोधिसत्व वे--जो जान कर जगाने की चेष्टा में संलग्न होते हैं।
और तीसरी वार्ता है दो ज्ञानियों के बीच--करनी ही नहीं पड़ती, चुपचाप बैठ गए, हो गई। एक वार्ता है दो अज्ञानियों के बीच--बहुत करो, बहुत सिरमारी होती है, फल कुछ भी नहीं। और एक वार्ता है दो ज्ञानियों के बीच--शब्द उठते ही नहीं; कहने के पहले, जो कहना है, कह दिया जाता है, समझ लिया जाता है। और इन दोनों के बीच में एक वार्ता है--ज्ञानी और अज्ञानी के बीच। वह सर्वाधिक कठिन है। और वहीं निर्वचन का सवाल उठता है।
अनुभव हैं ऐसे, जो कहे नहीं जा सकते। लेकिन फिर भी उनके संबंध में तुम्हारी प्यास जगाई जा सकती है। तुम्हारे भीतर प्रज्वलित की जा सकती है एक अग्नि, एक लपट--जो उन अनंत-अनंत सूर्यों की तलाश में निकल जाए। तुम्हारे पंखों को फड़फड़ाने की कला दी जा सकती है। तुम्हें हिला कर जगाया जा सकता है, ताकि तुम उस अनंत की यात्रा पर चलो; ताकि तुम परमात्मा की खोज में लगो।
परमात्मा के संबंध में जो भी कहा जाता है, वह परमात्मा के संबंध में नहीं कहा जाता, सिर्फ तुम्हारी प्यास को उभारने के लिए कहा जाता है।
और तुम्हारी प्यास जग जाए, तो उसी प्यास में तुम्हारा अहंकार जलने लगता है। उसी प्यास की लपटों में तुम जल जाते हो, मिट जाते हो। और जहां तुम मिट गए, वहां परमात्मा है। मैं का न हो जाना परमात्मा का होना है। मिटो, ताकि हो सको।
बिरहिनी मंदिर दियना बार! जलाओ एक लपट, एक दीया अपने भीतर प्यास का। मंदिर हो तुम। ज्योति को जगाओ अपने मंदिर में। वही ज्योति तुम्हें महाज्योति की तरफ ले चलेगी। वही ज्योति एक दिन महाज्योति बन जाती है।

आज इतना ही।

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