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Birhani Mandir Diyana Baar बिरहनी मंदिर दियना बार 08

Eighth Discourse from the series of 10 discourses - Birhani Mandir Diyana Baar बिरहनी मंदिर दियना बार by Osho. These discourses were given during JAN 11-20 1979.
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पहला प्रश्न:
भगवान, स्वामी चैतन्य भारती जब शिविर लेने जाते हैं, तो कहते हैं--मैं भी ज्ञान को उपलब्ध हो गया हूं। ऐसा किस भाव से कहते हैं?
आनंद सत्यार्थी! ज्ञान को कोई उपलब्ध हो तो लोगों के मन में विरोध का भाव क्यों जगता है? इस पर विचार करना। चैतन्य भारती ज्ञान को उपलब्ध हुए या नहीं, यह चैतन्य भारती समझें। तुम्हें क्यों चिंता है? तुम्हें क्यों अड़चन है? इस पर विचार करना।
चैतन्य भारती का ज्ञान या अज्ञान तुम्हारे जीवन की समस्या नहीं है। दूसरे की समस्याओं को अपनी न बनाओ। अपनी ही समस्याएं इतनी हैं कि हल हो जाएं तो परमात्मा को धन्यवाद देना। लेकिन कोई ज्ञान को उपलब्ध हो गया, ऐसा कहा--सच हो कि झूठ, यह सवाल नहीं है--कि लोगों को एकदम प्रतिरोध पैदा होता है, लोगों को चोट लगती है, उनके अहंकार को चोट लगती है: तो अरे, चैतन्य भारती ज्ञान को उपलब्ध हो गए? यह कैसे हो सकता है!
तुमने उनसे भी बड़ी घटना घटा रखी है कि तुम अज्ञान को उपलब्ध हो गए हो! यह ज्यादा बड़ा काम है। क्योंकि ज्ञान तो स्वाभाविक है, अज्ञान परभाव है। ज्ञान तो नैसर्गिक है, अज्ञान कृत्रिम है। ज्ञानी तो तुम पैदा हुए हो, अज्ञान तुम्हारा अर्जन है। जब कोई कहे कि मैं अज्ञान को उपलब्ध हो गया हूं, तब चमत्कार है। कोई ज्ञान को उपलब्ध हो जाए, इसमें चमत्कार कुछ भी नहीं है, सभी को होना चाहिए ज्ञान को उपलब्ध। ज्ञान को उपलब्ध हो गया हूं, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि उपलब्ध तो हम उसको होते हैं जो हम नहीं हैं। ज्ञान तो हमारी स्वाभाविक दशा है, बोध तो हमारी आत्मा है। उसे तो हम लेकर ही आए हैं। वह तो सदा-सदा से हमारी स्थिति है।
आश्चर्य तो यह है कि रोशनी अंधेरे में कैसे खो गई! आश्चर्य तो यह है कि जागना जिसका स्वभाव है, वह सो कैसे गया! जब भी तुमसे कोई कहे, आनंद सत्यार्थी, कि मैं अज्ञानी हूं, तब चमत्कार को नमस्कार करना। ज्ञानी कोई कहे, इसमें क्या अड़चन है?
लेकिन लोगों को अड़चन होती है। क्योंकि जब भी कोई कहता है--मैं ज्ञानी, तो तुम्हारे भीतर चोट लगती है, तुम्हारे अहंकार को, कि मेरे रहते और तुम ज्ञानी हो गए! अभी मैं भी नहीं हुआ ज्ञानी, और तुम ज्ञानी हो गए! बर्दाश्त नहीं किया जा सकता यह।
समझदार अगर होओ तो कहोगे कि अरे चैतन्य भारती तक ज्ञान को उपलब्ध हो गए, तो अब मैं भी हो जाऊं! अब अड़चन क्या रही? जब चैतन्य भारती ज्ञान को उपलब्ध हो सकते हैं तो आनंद सत्यार्थी क्यों नहीं हो सकते? प्रसन्न होओ। कोई ज्ञान को उपलब्ध हो गया तो प्रसन्न होओ। आनंदित होओ। जश्न मनाओ कि एक और व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध हो गया, तुम्हारे लिए रास्ता और आसान हो गया। अज्ञानियों की पंक्ति थोड़ी छोटी हो गई। क्यू थोड़ा आगे सरका, तुम भी थोड़ा आगे बढ़े।
नहीं, लेकिन उलटा होता है। किसी ने कहा कि मैं ज्ञान को उपलब्ध हुआ, कि तुम्हें चोट लगी, तुम्हें बेचैनी हुई!
और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि चैतन्य भारती ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं। यह चैतन्य भारती की चिंता है। यह तुम्हारी चिंता नहीं है। और ऐसी व्यर्थ की चिंताओं में लोग सदियां गंवाते हैं, जन्मों को खो दिया है उन्होंने। अभी भी सोच रहे हैं। अभी भी सोच रहे हैं कि बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध हुए थे कि नहीं? कि महावीर वस्तुतः तीर्थंकर थे कि नहीं? कि जीसस वस्तुतः ईश्वर के बेटे थे या नहीं? अभी भी सोच रहे हैं! इतनी देर में तो तुम्हीं बुद्ध हो जाते, तुम्हीं महावीर हो जाते, तुम्हीं मोहम्मद हो जाते। इतनी देर में तो तुम्हारी ही कुरान पैदा हो गई होती! इतना समय इसमें गंवाया है। और इससे होगा भी क्या? अगर यह तय भी हो जाए कि मोहम्मद पैगंबर नहीं थे, तो तुम्हें क्या लाभ? और यह भी तय हो जाए कि मोहम्मद पैगंबर थे, तो तुम्हें क्या लाभ? लाखों लोग मानते हैं कि मोहम्मद पैगंबर थे; लाभ क्या है? उतने ही लाखों मानते हैं कि नहीं थे; लाभ क्या है?
दूसरा कहां है, इससे तुम्हें कोई लाभ होने वाला नहीं है। ऐसे व्यर्थ के प्रश्न यहां लाओ ही मत। अपनी चिंता करो। समय ऐसे ही काफी गंवाया है, और न गंवाओ। अपने जीवन से संबंधित प्रश्न उठाओ, ताकि उन प्रश्नों को मैं काट सकूं, तुम्हें निष्प्रश्न कर सकूं।
यह प्रश्न उठाना भी हो तो चैतन्य भारती को उठाना चाहिए कि मैं ज्ञान को उपलब्ध हुआ या नहीं? तो चैतन्य भारती तो डर के मारे उठाते नहीं। बाहर जाकर कहते होंगे, यहां नहीं कहते। कहना चाहिए मुझसे।
तुम चिंता न करो चैतन्य भारती की। और जब कोई ज्ञान को उपलब्ध होगा तो मैं ही घोषणा करूंगा, तुम चिंता क्यों करते हो? चैतन्य भारती ज्ञान को उपलब्ध होंगे तो चैतन्य भारती को कहने की जरूरत नहीं रहेगी, मैं कहूंगा। मैं गवाही रहूंगा। इतनी जल्दबाजी करोगे, अपने मुंह मियां मिट्ठू बनोगे--व्यर्थ की चिंताएं और व्यर्थ की समस्याओं में उलझ जाओगे।
और फिर भी मैं तुमसे कहता हूं कि ज्ञान को उपलब्ध होना बड़ी घटना नहीं है, बहुत छोटी घटना है, सरल घटना है! सरल है, इसीलिए कठिन है। इतनी सरल है, इतनी सुगम है, यही कठिनाई है!
अहंकार कठिन बातों में रस लेता है, क्योंकि कठिन बातों में होती है चुनौती। अहंकार चढ़ना चाहता है गौरीशंकर। अहंकार जाना चाहता है चांद-तारों पर। यह अहंकार है जिसने ज्ञान को बहुत बड़ी बात बना लिया है। खूब बड़ी बना ली बात, अब चढ़ने का मजा है और शिखर पर झंडा गाड़ कर चिल्ला कर कहेंगे कि हम ज्ञान को उपलब्ध हो गए। यह ‘मैं’ का ही उदघोष रहेगा। और ‘मैं’ बिना उदघोष के नहीं रह सकता। मजा ही इस बात में है। मजा ज्ञान में कम है; ज्ञान को उपलब्ध हो गया हूं, इसकी घोषणा में ज्यादा है। और यही सब अज्ञान के रास्ते हैं।
मैं तुमसे कह रहा हूं यह कि ज्ञान तुम्हारा स्वभाव है; उपलब्ध नहीं होना है। उपलब्ध होने की भाषा ही जाने दो। यह कोई पाने की चीज नहीं है, जो आगे कभी भविष्य में मिलनी है, प्रयास से मिलनी है, प्रयत्न से मिलनी है। यह कोई ऐसी मंजिल नहीं है, जो चल-चल कर मिलनी है। यह ऐसी मंजिल है, जो बैठ जाओ तो मिल गई। बैठ जाओ तो पता चलता है कि मिली ही थी, दौड़ते थे इसलिए चूकते थे।
चैतन्य भारती इसी क्षण ज्ञान को उपलब्ध हो सकते हैं और आनंद सत्यार्थी भी इसी क्षण ज्ञान को उपलब्ध हो सकते हैं, क्योंकि ज्ञान को उपलब्ध हो। एक झीना सा घूंघट डाल रखा है; जब चाहो तब पर्दा हटा दो। लेकिन ये घोषणाएं पर्दे को और मोटा कर देंगी। ये घोषणाएं पर्दे को और सघन कर देंगी।
तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि चैतन्य भारती ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं। यही कह रहा हूं कि उपलब्धि की भाषा जाने दो तो चैतन्य भारती ज्ञान को उपलब्ध हैं ही। यह घोषणा छोड़ दो। इसकी चिंता ही न लो। और तुम भी, आनंद सत्यार्थी, इसी क्षण वहां हो जहां होना है। हम परमात्मा में हैं ही।
लेकिन हमने हर चीज को महत्वाकांक्षा बना लिया है--परमात्मा को भी, ज्ञान को भी, सत्य को भी। यह मन का खेल है, हर चीज को महत्वाकांक्षा बना देता है। क्योंकि जब महत्वाकांक्षा बन जाती है तो भविष्य पैदा हो जाता है। जब भविष्य पैदा हो गया तो बस यात्रा शुरू हुई कि अब पाना है ज्ञान, पाना है सत्य, पाना है मोक्ष। बस पाने की दौड़ मन है। और जहां मन है वहां कहां मोक्ष! वहां कहां ज्ञान!
जिस दिन ज्ञान घटेगा, उस दिन तुम चकित होकर हैरान होओगे कि कैसे आश्चर्य की बात है कि मैं अज्ञानी था! यह हो ही नहीं सकता। अज्ञान हो ही नहीं सकता और मैं मानता रहा, मानता रहा। मेरी मान्यता उसे बनाए रखी, बनाए रखी। मैं उसे जिलाए रखा हजार-हजार मेहनत करके।
और सबसे बड़ी मेहनत अज्ञान को बचाने की है कि ज्ञान पाना है। यह सबसे बड़ी आड़ है। ज्ञान पाना है, अर्थात आज तो होगा नहीं, कल होगा। और कल कभी आता नहीं। ज्ञान पाना है, मतलब भविष्य की योजना बनानी है। अभी तो जैसे अज्ञानी हैं, रहेंगे; कल ज्ञान को उपलब्ध होंगे।
लेकिन खयाल रखना, अगर आज अज्ञानी रहे, तो अज्ञान की पर्त आज चौबीस घंटे और मजबूत होगी। अगर आज नहीं टूट सकती थी तो कल कैसे टूटेगी? कल तो टूटना और मुश्किल हो जाएगी। तोड़नी हो तो अभी, इसी क्षण। टालना मत! टाली, कि सदा के लिए टाली। अभी या कभी नहीं!
तुम सब ज्ञानी हो, यह मेरा उदघोष! तुम अभी ज्ञानी हो, तुम्हें पता हो या न हो। सारा अस्तित्व ज्ञानपूर्ण है, क्योंकि परमात्मा सबके भीतर मौजूद है। तुम यह उपलब्धि की भाषा छोड़ दो।
तुम्हारे मन को चोट लगी कि चैतन्य भारती कहते हैं कि मैं ज्ञान को उपलब्ध हो गया। तुम्हें इस पर भरोसा नहीं आया। क्यों? क्यों भरोसा न आया? क्या अड़चन आई तुम्हें? यही अड़चन आई कि इतना कठिन काम और चैतन्य भारती ने कर लिया! इतना महाकठिन काम! कभी कोई बुद्ध, कभी कोई महावीर कर पाता है। चैतन्य भारती कर लिए!
तुमने गौरीशंकर नाहक खड़ा कर रखा है। ज्ञान कोई गौरीशंकर नहीं है, समतल भूमि पर चलना है। ‘चलना’ भी कहना ठीक नहीं, समतल भूमि पर बैठना है। विश्राम है ज्ञान, विराम है ज्ञान।
लेकिन हम व्यर्थ के प्रश्नों में और समस्याओं में समय खराब करते हैं।
चैतन्य भारती कहें तो खूब ताली बजा कर उनका स्वागत करना, फूलमालाएं पहना देना। हर्जा क्या है? चलो एक आदमी और ज्ञान को उपलब्ध हुआ। बैंड-बाजे बजा देना, शहनाई बजा देना। और उत्फुल्ल होना। बुरा क्या है? कोई दुर्घटना तो नहीं घट गई।
लेकिन मैं अपने संन्यासियों को कहना चाहता हूं: मैं तुम्हारी घोषणा करूंगा। जल्दी न करो। जल्दबाजी अज्ञानी का लक्षण है। जब मैं तुम्हारे लिए बोल सकता हूं तो तुम चुप ही रहो। तुम बोल कर अपने लिए व्यर्थ अड़चन खड़ी कर लोगे। और डर यह है कि तुम्हारे बोलने में कहीं अहंकार का रस ही न हो! ज्यादा संभावना यही है कि तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारी समाधि तुम्हारे अहंकार का नया आभूषण हो। तब ज्ञान तो और दूर हो जाएगा, समाधि और दूर हो जाएगी। और बजाय इसके कि तुम जागते, तुम और गहरी निद्रा में खो जाओगे।
और मैं चाहता हूं कि तुम जागो। जाग जाओगे तो मैं दुनिया को कह दूंगा, तुम घबड़ाओ मत। मैं चाहता हूं लाखों-लाखों लोग जागें। यह घटना इतनी सरल हो जानी चाहिए कि जो भी घड़ी भर शांत बैठना सीख ले वही जाग जाए। इतनी ही सरल बनाने की चेष्टा में संलग्न हूं। इसलिए मुझसे नाराज हैं साधु-संन्यासी, क्योंकि उनकी बड़ी-बड़ी दुर्धर्ष साधना को, बड़ी कठिन साधना को, जिसका वे सदियों से गुणगान करते रहे और जिसको पाने में जन्म-जन्म लगते हैं...उन्होंने संन्यास को बड़ा कठोर और कठिन बना दिया था, असंभव बना दिया था। उस पर ऐसी शर्तें लगा दी थीं कि कोई पूरी ही न कर पाए। मैंने सब शर्तें अलग कर ली हैं संन्यास से।
इसका अर्थ समझते हो? संन्यास से सारी शर्तें अलग करने का अर्थ है कि मैंने निर्वाण से सारी शर्तें अलग कर ली हैं। मैंने कह दिया है कि तुम जैसे हो ऐसे ही पर्याप्त हो। जरा भी कुछ जोड़ना नहीं है, जरा भी कुछ घटाना नहीं है। तुम जैसे हो, परमात्मा के प्यारे हो। इससे साधु-संत नाराज हैं। स्वामी--पुराने ढब के--बहुत नाराज हैं, परेशान हैं। उनकी परेशानी स्वाभाविक है। क्योंकि उन्होंने इतना उपवास किया, इतनी तपश्चर्या की, घर-द्वार छोड़ा, तब वे संन्यासी हुए। तुमने न घर छोड़ा, न द्वार छोड़ा, न उपवास किए, न व्रत किए--और तुमको मैंने संन्यास दे दिया! तुम इस इशारे को समझो। इसका अर्थ यह है कि मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि संन्यास कोई पाने की बात नहीं है, सिर्फ समझ की एक छोटी सी किरण है। प्रयास नहीं है, सिर्फ बोध मात्र है।
मगर जब यह बोध तुम्हें हो जाए तो तुम चकित होओगे कि इस बोध को ‘हो गया है’, ऐसा किसी से कहने का भाव भी पैदा नहीं होगा। क्या कहना है? जो समझ सकते हैं, समझ लेंगे। हां, तुम्हारा जीवन, तुम्हारा उठना-बैठना प्रसादपूर्ण हो जाएगा। तुम्हारे एक-एक शब्द में माधुर्य हो जाएगा, संगीत हो जाएगा! तुम्हारे पास जो आएंगे, उन्हें प्रतीत होने लगेगी एक अपूर्व शीतलता। तुम्हारे पास बूंदाबांदी होने लगेगी। लोगों को खबर मिलने लगेगी। अपने से खबर मिलने लगेगी।
और यह ज्यादा आनंदपूर्ण हुआ होता कि आनंद सत्यार्थी को पता चलता कि चैतन्य भारती ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं। आनंद सत्यार्थी यह खबर लाते कि मुझे लगता है चैतन्य भारती ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं। तब मजा बहुत होता। तब आनंद बहुत होता। मगर चैतन्य भारती ने घोषणा करके आनंद सत्यार्थी को और दुश्मन बना लिया। अब तो चैतन्य भारती किसी दिन ज्ञान को भी उपलब्ध हो जाएं तो भी आनंद सत्यार्थी को दिखाई नहीं पड़ेगा, क्योंकि वे कहेंगे कि यह तो पुरानी ही घोषणा करते रहे हैं। आज ही चैतन्य भारती ज्ञान को उपलब्ध हो सकते हैं, मगर आनंद सत्यार्थी को भरोसा न आएगा।
कहना क्या है? हीरा पायो गांठ गठियायो, वाको बार-बार क्यों खोले! मिल गया हीरा, चुपचाप अपनी गांठ में सम्हाल लो।
फिर, मैं हूं यहां। शिष्य के बहुत काम गुरु अपने सिर ले लेता है--उसके पाप भी, उसके पुण्य भी; उसका अज्ञान भी, उसका ज्ञान भी। एक बार तुम मेरी नौका में सवार हो गए, फिर अब जो भी होगा, मुझे कहने दो। तुम इस तरह की बातें कहोगे तो व्यर्थ की अड़चनें पैदा होंगी। लाभ नहीं होगा किसी को, हानि होगी।
इस प्रश्न को मैंने इसीलिए लिया कि और-और लोगों ने भी मुझे पत्र लिखे हैं कि चैतन्य भारती ऐसा कहते हैं, कि चैतन्य भारती वैसा कहते हैं। कि चैतन्य भारती की इतनी शिकायतें मेरे पास आई हैं कि जिसका हिसाब नहीं है! और उन शिकायतों का कुल कारण इतना है कि तुम्हारे जीवन से प्रकट होने दो। मत कहो! तुम्हारे निःशब्द में यह भाव अपने आप दूसरे के प्राणों में जगमगाए। यह धुन दूसरे को सुनाई पड़े। बस ठीक है। कहने से प्रयोजन भी क्या है? क्या तुम सोचते हो तुम्हारे कहने से कोई मान लेगा कि तुम ज्ञान को उपलब्ध हो गए हो? जो मान भी लेते वे भी नहीं मानेंगे, क्योंकि तुम उनके अहंकार को चोट कर दिए। उनके अहंकार को घाव लग गया। वे बदला लेंगे। क्या तुम सोचते हो कि तुम्हारे यह कहने से कि तुम ज्ञान को उपलब्ध हो गए हो, तुम्हारी बातों का वजन बढ़ जाएगा? बातों में वजन होता है या नहीं होता है। तुम्हारी उदघोषणाओं से बातों का कोई वजन नहीं बढ़ता।
संन्यासी को खूब सावधान होना चाहिए--क्या कहे, क्या न कहे। खूब होशपूर्वक एक-एक शब्द बोलना चाहिए।
और चैतन्य भारती को मैं बाहर भेज रहा हूं; यह उनकी साधना है। उन्हें भेजता हूं शिविर लेने; यह उनको दी गई साधना है। इसमें जरा चूके तो गिरेंगे। यह कठिन साधना है, सम्हल कर चलने की जरूरत है। क्योंकि सबसे बड़ी कठिनाई दुनिया में है...भीड़ सबसे बड़ी कठिनाई है। लोग मुझे पूजें, लोग मुझे मानें, लोग सम्मान दें, लोगों की आंख मुझ पर लगे--यह रस अहंकार का सूक्ष्म से सूक्ष्म रस है।
तो जब मैं चैतन्य भारती को भेज रहा हूं तो उन्हें समझ ही लेना चाहिए कि यही उनका रोग होगा कहीं भीतर, जिसको तोड़ने की मैंने चेष्टा की है। किसी को ऐसे ही कहीं नहीं भेज देता हूं। यहां जिसको भी जो काम दिया गया है, उसका प्रयोजन है। जिस दिन प्रयोजन पूरा हो जाएगा, उस दिन काम बदल दिया जाएगा। चैतन्य भारती को भेज रहा हूं सिर्फ इसीलिए कि यही उनकी एकमात्र बीमारी है; जिस दिन यह टूट जाएगी, उस दिन ज्ञान मिला ही हुआ है, मिला ही था। बस यह एक बीमारी है, इस बीमारी को तोड़ने के लिए उन्हें बाहर भेज रहा हूं, भीड़ में भेज रहा हूं। क्योंकि उनको यहां आश्रम में बिठा दिया जाए, तो यह बीमारी को टूटने की चुनौती न मिलेगी। चुनौती से ही बीमारियां टूटती हैं।
तो जब मैं किसी को भेजता हूं कहीं, उसे समझ लेना चाहिए कि कुछ प्रयोजन होगा, कोई अर्थ होगा। किसी और को भेज सकता था। लेकिन इतने हजारों संन्यासियों में से चैतन्य भारती को चुना है जाने के लिए, मृदुला को चुना है जाने के लिए। तो समझ लेना चाहिए उनको कि कहीं कोई रस होगा। उस रस की आखिरी जड़ काटने के लिए तुम्हें भेज रहा हूं। उस जड़ को पानी मत दो, उसे काटो। जिस दिन कट जाएगी...
और आज कट सकती है, अभी कट सकती है! क्योंकि जड़ तुम्हारे मानने में है। यहां मानना गिरा कि वहां अज्ञान गया। अज्ञान को तुम सम्हाले हो। ज्ञान की घोषणा अज्ञान को बचने का आखिरी उपाय हो सकती है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं आपको सुनते-सुनते कई बार रोने लगता हूं और मुझे पता भी नहीं चलता है कि कब मेरे आंसू सूख गए और मैं आनंद-विभोर होकर उड़ानें भरने लगा! कृपया इस स्थिति को समझाएं।
प्रदीप चैतन्य! यह स्थिति नहीं है, यह सौभाग्य है। इसे समझो मत, इसे जीओ। अक्सर तो हम उन बातों को समझना चाहते हैं जो समस्याएं हैं। समस्याओं को समझने के द्वारा हम हल करना चाहते हैं।
यह कोई समस्या नहीं है। यह समाधि की पहली पगध्वनि है। यह पास आती समाधि की पहली लहर है। यह पहली सुगंध है जो तुम्हारे नासापुटों को भर रही है। इसे समस्या न बनाओ। इसे समझने की चेष्टा न करो। क्योंकि समझने की चेष्टा की, तो अवरुद्ध हो जाएगी यह घटना, यह प्रवाह बंद हो जाएगा। क्योंकि जिस चीज को भी हम समझने बैठ जाते हैं, बुद्धि बीच में आ जाती है। घटना घट रही है हृदय में, समझना घटेगा बुद्धि में। बस बुद्धि बीच में आई कि हृदय सिकुड़ जाएगा।
हृदय बहुत संवेदनशील है। विचार, बुद्धि, तर्क, विश्लेषण, व्याख्या--इन सब को नहीं झेल पाता, बंद हो जाता है। तुम्हारे जीवन में प्रेम उठा, और कोई तुमसे पूछे--प्रेम क्या है, पहले समझाओ। अगर तुम समझाने बैठ गए, तो एक बात पक्की समझना कि वह जो प्रेम का छोटा सा अंकुर उमगा था, मर जाएगा। और तुम अगर समझने में लग गए कि प्रेम क्या है, तो प्रेम की जो झलक आई थी वह खो जाएगी। कुछ चीजें हैं जो समझी नहीं जातीं, जीयी जाती हैं।
तुमने कहा: ‘मैं आपको सुनते-सुनते कई बार रोने लगता हूं और मुझे पता भी नहीं चलता है कि कब मेरे आंसू सूख गए और मैं आनंद-विभोर होकर उड़ानें भरने लगा।’
प्रदीप चैतन्य, शुभ हो रहा है, सौभाग्य हो रहा है! इसे समझने की चेष्टा न करो। समझना छोड़ो, इसमें डुबकी मारो। उसी डुबकी से समझ आएगी। समझ लगाई तो डुबकी रुक जाएगी। इसमें डूबो। भाव-विभोर हो जाओ।
लेकिन मन हर चीज के पीछे प्रश्नचिह्न लगाने की कला जानता है। हर चीज के पीछे! जिन चीजों पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाए जा सकते, उन पर भी प्रश्नचिह्न लगा देता है। और एक दफा प्रश्नचिह्न मन ने लगा दिया तो बस यात्रा अपना रुख बदल देती है, अपना मोड़ बदल देती है। तुम गलत रास्ते पर उतर जाते हो।
सुबह हुई, सूरज उगा, पक्षियों ने गीत गाए और मैंने तुमसे कहा कि कितनी सुंदर सुबह है! और तुमने पूछा: सौंदर्य यानी क्या? अब देखो, एकदम तुम्हारा चित्त न तो सूरज को देखेगा अब, न पक्षियों के गीत सुनेगा, न आकाश में भटकते हुए शुभ्र बादल देखेगा। यह सुबह की ताजगी, यह सुबह की मदमस्ती, सब तुमने एक तरफ एक प्रश्नचिह्न लगा कर हटा दी। तुम्हारी आंखें तुम्हारे प्रश्नचिह्न से भर गईं--सौंदर्य क्या?
और कौन सौंदर्य को कब बतला पाया है? कौन सौंदर्य को कब समझा पाया है? मैं भी न समझा सकूंगा। और जब भी ऐसी बातें समझाने की कोशिश की जाती है, तो कुछ समझाया जाता है और कुछ और समझ में आता है। ये बातें समझाने की हैं ही नहीं। मैं समझाऊं भी तो सुनोगे तुम, और तत्क्षण सुनते ही तुम्हारे भीतर अपने अर्थ पैदा हो जाएंगे।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने एक मित्र से कह रहा था...। बड़ा खुश था और छाती फुलाए बैठा था। तो मित्र ने पूछा कि बड़े खुश हो, बड़ी छाती फुलाए बैठे हो, मामला क्या है? उसने कहा: आज मैंने पत्नी को ऐसी घुड़की दी! बस समझो चारों खाने चित्त कर दिया एक घुड़की में! मित्र ने पूछा कि भरोसा नहीं आता, क्योंकि तुम्हारी पत्नी को हम जानते हैं और तुम्हें भी जानते हैं। हमें वह दिन भी याद है जब पत्नी तुम्हारा पीछा की थी और तुम घबरा कर बिस्तर के नीचे छुप गए थे। पत्नी मोटी है और तगड़ी है, तो बिस्तर के नीचे तो आ नहीं सकती। तो वही एक बचाव की जगह है। और इसी बीच मेहमानों ने कुछ द्वार पर दस्तक दे दी थी। तो पत्नी हाथ जोड़ने लगी थी कि बाहर आ जाओ। अब मेहमान देखेंगे तो क्या कहेंगे! तो हमें वह दिन याद है कि तुमने कहा था कि नहीं आते, आज पता ही चल जाए दुनिया को कि इस घर का मालिक कौन है! जहां बैठना है वहां बैठेंगे! घर का मालिक कौन है, आज यह तय ही हो जाए! मेहमानों के सामने ही तय हो जाए, ताकि दुनिया को भी पता चल जाए कि घर का मालिक कौन है!
तो मित्र ने कहा: हम मान नहीं सकते कि तुम्हारी घुड़की से...
लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि मानो। बड़ी बकवास लगा रखी थी उसने। खोपड़ी खाए जा रही थी। मैंने कहा: बस, एक शब्द और बोल कि सिर खोल दूंगा! कि एकदम रास्ते पर आ गई।
मित्र ने कहा: फिर क्या हुआ?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: फिर क्या हुआ, एक शब्द नहीं बोल सकी। बोली: अरे जा-जा! तीन शब्द बोली। एक घुड़की में रास्ते पर ला दिया। एक शब्द बोलती तो मजा चखा देता। डर के मारे तीन शब्द बोली कि अरे, जा-जा।
अर्थ कौन लगाएगा? अर्थ तो तुम लगाओगे। कोई सौंदर्य का पारखी अपने सौंदर्य-बोध को भी तुम्हारे भीतर उतार दे, तो भी तुम्हारे पात्र में पड़ते ही अमृत जहर हो जाएगा। तुम्हारा पात्र ऐसी गंदगी से भरा है! तुमने ऐसा कूड़ा-करकट अपने भीतर इकट्ठा कर रखा है कि किरण भी उतरेगी तो गंदी हो जाएगी।
इसलिए कुछ बातें समझाई नहीं जातीं। एक तो उन्हें समझाना कठिन है, क्योंकि वे शब्द की पकड़ में नहीं आतीं। दूसरा उन्हें समझाना उचित भी नहीं है, क्योंकि जिसको तुम समझाओगे, वह उनके अपने अर्थ निकालेगा।
इसलिए बुद्ध ईश्वर के संबंध में चुप रह गए। सत्य के संबंध में चुप रह गए। नहीं बोले सो नहीं बोले। लाख लोगों ने पूछा, लाख उपायों से पूछा; नहीं बोले सो नहीं बोले। जब भी बुद्ध किसी गांव में आते थे तो उनके शिष्य गांव में घोषणा कर देते थे कि ये ग्यारह प्रश्न बुद्ध से मत पूछना, उनका समय खराब मत करना।
उन ग्यारह प्रश्नों में सारे दर्शनशास्त्र के मूल प्रश्न आ जाते हैं। अगर तुम ग्यारह प्रश्न छोड़ दो तो फिर पूछने को कुछ बचता नहीं; या फिर पूछने को जीवन की वास्तविक समस्याएं ही बचती हैं, व्यर्थ का ऊहापोह नहीं बचता। फिर तुम्हारे रोग ही बचते हैं कि इनकी औषधि की तलाश तुम करो। फिर तत्व की ऊंची-ऊंची बातें और ऊंची-ऊंची उड़ानें नहीं बचतीं। फिर सौंदर्य क्या है? और सत्य क्या है? और निर्वाण क्या है? और ईश्वर क्या है? और ईश्वर ने जगत को बनाया तो क्यों बनाया? और जन्म के पहले हम थे या नहीं? और मृत्यु के बाद हम होंगे या नहीं? इस तरह के सारे प्रश्नों को बुद्ध ने कहा है अव्याख्य; इनकी कोई व्याख्या मत पूछना।
और फिर, तुम तो यह जो प्रश्न पूछ रहे हो, यह तुम्हारे भीतर घटना घट रही है। क्यों इसका स्वाद नहीं लेते? क्यों नहीं इसे पीते? इसमें और डोलो। और मस्त हो जाओ। अभी और इसमें डुबकी लग सकती है।
लेकिन मन डरता है डूबने से। मन कहता है: पहले सोच-समझ लो।
एक संन्यासी ने कल मुझे पूछा कि मैं आना चाहता हूं आपके पास; चाहता हूं आप मेरे सिर पर हाथ रखें। मगर मैं पहले यह पूछना चाहता हूं कि कहीं ऐसा तो न होगा कि आपकी शक्ति मेरी शक्ति को दबा दे? कहीं ऐसा तो न होगा कि मैं सदा के लिए आपका गुलाम हो जाऊं? इसमें कोई सम्मोहन तो नहीं छिपा है?
सिर पर हाथ...और कितने प्रश्नचिह्न मन ने उठा दिए! अब ऐसा आदमी क्या खाक सत्य की यात्रा कर सकेगा! इतना भयभीत आदमी! इतना भीरु! इतना डरा हुआ आदमी एक कदम न उठा सकेगा। कैसे उठाएगा?
उन मित्र ने लिखा है कि पहले आप मुझे आश्वस्त करें। आना चाहता हूं। आप दूसरों के सिर पर हाथ रखते हैं, मन में मेरे भी बड़ी आकांक्षा उठती है। मगर पहले आश्वस्त करें, इसमें कोई जोखिम तो नहीं है?
अब मैं कैसे आश्वस्त करूं? और मैं ही आश्वस्त करूंगा, उससे हल क्या होगा? अगर मैं कह भी दूं कि बिलकुल आश्वस्त रहो, तो मन दूसरा संदेह उठाएगा कि इस आश्वासन पर विश्वास करना कि नहीं करना? जिस मन ने पहले प्रश्न उठाए थे, वह मन इतने से कुछ आश्वस्त तो न हो जाएगा। वह कहेगा कि पता नहीं, यह आश्वासन सच्चा है कि झूठा? फिर जोखिम कोई नहीं है, इसका पक्का भरोसा कैसे हो? कौन भरोसा दिलाए?
नहीं; मैं तुमसे नहीं कह सकता कि जोखिम नहीं है। जोखिम तो है। जोखिम पक्की है। यह मिटने का रास्ता है; और बड़ी जोखिम क्या होगी? तो एक ही आश्वासन दे सकता हूं कि जोखिम निश्चित है। मेरे पास आए तो मिटोगे। मुझसे निकटता बनाई तो तुम वही तो न रह सकोगे जो तुम हो। नहीं तो निकटता बनाने का अर्थ क्या हुआ? सामीप्य का प्रयोजन क्या हुआ? सत्संग का राज ही क्या है और? यही तो कि शिष्य गुरु के निकट आए, आए, आए...खो जाए। बचे न! बचे ही न!
तो मैं तुम्हें यही आश्वासन दे सकता हूं कि तुम्हें दबाऊंगा नहीं, तुम्हें बिलकुल मिटाऊंगा। दबाने में तो तुम बच जाओगे। दबाया हुआ तो कभी उभर सकता है, लौट सकता है। दबाया हुआ तो कशमकश करेगा। दबाऊंगा नहीं, सिर्फ मिटाऊंगा। तुम बचोगे ही नहीं, ऐसे उपाय कर रहा हूं। सम्मोहन नहीं है यह, यह तो सीधी मृत्यु है।
सम्मोहन का तो मतलब होता है कि आदमी अभी बचा है। और जो सम्मोहन में है वह जाग भी सकता है सम्मोहन से। नींद कितनी ही गहरी हो, टूट सकती है। सम्मोहन कितना ही गहरा हो, आदमी उससे चौंक सकता है।
बड़े से बड़े सम्मोहनविद भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि कितनी ही गहरी सम्मोहन की अवस्था हो, अगर उस आदमी की इच्छा है जागने की तो वह तत्क्षण जाग आएगा। अगर उसकी इच्छा के विपरीत तुम कोई काम कराना चाहते हो, उसका सम्मोहन तत्क्षण टूट जाएगा। इस पर बहुत प्रयोग हुए हैं। वह आदमी और सब काम कर देगा।
एक युवक कुछ वर्षों तक मेरे पास था। उसे, सम्मोहित होने में क्या होता है, इसे जानने की बड़ी आकांक्षा थी। तो मैं उसे सम्मोहन का पूरा शास्त्र सिखा रहा था। वह बड़े गहरे सम्मोहन में जाता भी था। और फिर उस अवस्था में उससे जो भी कहो, वैसा ही करेगा। अगर उसे एक तकिया दे दो और कहो कि यह बड़ी सुंदर स्त्री है, तो वह उसे बिलकुल गले लगा लेगा और नाचेगा और कूदेगा और चूमेगा, आलिंगन करेगा, और दीवाना हो जाएगा। अगर उसको यह भी कह दो कि दीवाल नहीं है यह, दरवाजा है, तो सिर टूट जाए, मगर निकलने की कोशिश करेगा।
वह एक दफ्तर में काम करता था। बड़ी कम तनख्वाह थी। और मेरे एक परिचित मित्र उसे अपने दफ्तर में लेने को तैयार थे दुगुनी तनख्वाह पर। मगर उस युवक की आदत थी कि जिस चीज को पकड़ ले उसको छोड़ने में डरता था। वह नौकरी छोड़ने में डरता था। दुगुनी तनख्वाह की नौकरी मिलती है, ज्यादा सुविधापूर्ण नौकरी मिलती है, मगर वह नौकरी छोड़ने में डरता था। तो मेरे मित्र ने कहा कि आप इसको सम्मोहित करते हैं, यह दीवाल तक से निकलने की कोशिश करता है। आप सम्मोहन में ही क्यों नहीं कह देते इसे कि तू यह नौकरी छोड़ दे!
मैंने कहा: यह बात तो बड़ी सीधी है। उसे सम्मोहित किया। सब काम उसने करके दिखाए। गाय नहीं है और उससे कहा कि दूध दोह, तो वह बैठ गया और दूध दोहने लगा--वह जो गाय है ही नहीं, उसका दूध दोह रहा है! उससे जो कहा वही माना। तुम चकित होओगे, उसकी गहराई काफी बढ़ती थी। उसके हाथ पर कंकड़ रख दो और कहो कि यह अंगारा है, तो चीख मार कर कंकड़ फेंकता था। इतना ही नहीं, उसके हाथ पर फफोला आ जाता था। इतना गहरा उसका सम्मोहन जाता था। मगर जब मैंने उससे कहा कि यह तू नौकरी छोड़ दे, वह आंख खोल कर बैठ गया और उसने कहा कि नहीं छोडूंगा। (मैं एकदम हैरान हुआ!) नहीं छोडूंगा! बस यह भर बात आप मुझसे मत कहना।
साधारण कंकड़, ठंडा कंकड़ हाथ पर फफोला ले आता था! उसका मन ही धोखा नहीं खा जाता था, शरीर भी धोखा खा जाता था। शरीर पर फफोले का आना आसान मामला नहीं है। बड़ी गहरी उसकी निष्ठा थी। लेकिन जैसे ही नौकरी की मैंने बात की, वह एकदम उठ कर ही बैठ गया। वह लेटा भी नहीं रहा, कि चुपचाप पड़ा रहता, कुछ नहीं, एकदम उठ कर ही बैठ गया, उसने आंख खोल दी। उसने कहा: यह बात भर आप मुझसे मत कहना। नौकरी मैं न छोडूंगा!
सम्मोहनविद कहते हैं कि सम्मोहन कितना ही गहरा हो, तुम्हारी इच्छा के विपरीत तुमसे कुछ भी नहीं करवाया जा सकता। वह जो तुम कर रहे हो, वह भी तुम्हारी इच्छा के अनुकूल है। उसमें भी तुम्हारे संकल्प का ही हाथ है; तुम्हारे संकल्प के विपरीत नहीं है। यह भी तुम्हारी मर्जी है।
मैं तुम्हें सम्मोहित नहीं कर रहा हूं। संन्यास कोई सम्मोहन नहीं है। संन्यास तो आत्म-विसर्जन है। मैं तो तुम्हें मिटा रहा हूं। तुम्हें शून्य करना है, सम्मोहित नहीं। तुम्हारे भीतर कोई भी न बचे। तुम्हारी गर्दन ही काट डालनी है। और जिस दिन तुम्हारे भीतर कोई भी न बचेगा, एकदम सन्नाटा होगा--उसी सन्नाटे में तुम पहचानोगे अपने स्वभाव को! उसी सन्नाटे में, जब तुम मिट जाओगे, पाओगे कि तुम कौन हो!
इस विरोधाभासी वक्तव्य को खूब याद रखना, क्योंकि सत्य की इससे निकटतम और कोई घोषणा नहीं हो सकती: तुम मिट जाओगे तो पाओगे कि तुम कौन हो। तुम न रहोगे तो होओगे पहली बार।
जोखिम तो है। और जोखिम बड़ी है। सोच-समझ कर ही मेरे करीब आना!
प्रदीप चैतन्य, पूछते हो कि क्या हो रहा है तुम्हें।
व्याख्या न करूंगा, विवेचन नहीं करूंगा। लेकिन जो हो रहा है, अपूर्व हो रहा है। तुम धन्यभागी हो! तुम्हें आशीर्वाद देता हूं, विवेचन नहीं करता, व्याख्या नहीं करता। तुम इसमें और गहरे जाओ। तुम जोखिम उठाओ।
यह सावन की मद भरी रात!
श्यामल पुलकों में लुक-छिप कर उल्लास भरी बह रही वात
मधु पी-पी कर हो गए मत्त वन-वल्लरियों के शिथिल गात
यह सावन की मद भरी रात!

परिमल की घिरी घटा प्यारी, दिशि-दिशि से उमड़ा सोन पात
चंचल हैं रोम-रोम जग के, अंग-अंग रति-रस से विकल, स्नात
यह सावन की मद भरी रात!

नस-नस में छलक-छलक उठती कैसी तृष्णा मदिरा अज्ञात
किस नव तरंग से कसक वक्ष कर रहा प्रबल उत्तप्त घात
यह सावन की मद भरी रात!

इस प्रेरित लोलित रति-गति में जब झूम झमकता विसुध गात
गोरी बांहों में कस प्रिय को कर दूं चुंबन से सुरास्नात
यह सावन की मद भरी रात!
तुम्हारे जीवन में सावन आ रहा है। सावन की पहली खबर आ गई। वे आंसू आंसू नहीं, मोती हैं--जो तुम्हारी आंखों से झरते हैं। वे मोती हैं, क्योंकि तुम्हारी चेष्टा से नहीं झरते हैं। वे मोती हैं, क्योंकि तुम्हारे प्रयास से नहीं झरते हैं। क्योंकि झूठे नहीं हैं, इसलिए मोती हैं। सच्चे हैं।
तुम भाव-विभोर हो जाते हो, फिर आंखें गीली हो जाती हैं। जब आंखें स्नेह से भरती हैं, प्रीति से भरती हैं, तो और आंखों के पास देने को क्या है? आंसुओं की श्रद्धांजलि है। आंसुओं की गीतांजलि है। आंसुओं की आरती है! और वे आंसू तुम्हारी आंख में जले हुए दीये हैं। और इसीलिए जल्दी ही, पहले तुम रोते हो...‘फिर पता नहीं चलता कब आंसू सूख गए और कब मैं आनंद-विभोर होकर उड़ानें भरने लगा।’
वे आंसू रास्ता खोलते हैं, तुम्हारी आंखों को निर्मल कर जाते हैं। और आंखें निर्मल हो जाती हैं, तभी उड़ानें भरी जा सकती हैं। वे आंसू तुम्हें हलका कर जाते हैं। और जब तुम हलके हो जाते हो तो पंख लग जाते हैं।
नहीं; तुम मत पूछो कि कृपया इस स्थिति को समझाएं। समझाऊंगा नहीं। इस स्थिति में और गहरे जाओ तो समझ आएगी। और वह समझ मस्तिष्क की नहीं होगी, हृदय की होगी। वह समझ प्रीति-पगी होगी। वह समझ ‘समझ’ होगी! उस समझ को ज्ञानियों ने ज्ञान नहीं कहा है, प्रज्ञा कहा है। वह अलग ही बात है।
एक है बुद्धि की समझ; वह अनुमान है। दर्शनशास्त्र उन्हीं अनुमानों से भरा है। और एक है हृदय की प्रीति-पगी समझ, प्रेम से उमगी समझ, प्रेम से नहाई हुई समझ। वह बात और है। वही धर्म का जगत है। वही समझ काम आएगी।
लेकिन उसे मैं नहीं समझा सकता। और पीओ! और मदमस्त होओ! यह जो सावन आ रहा है तुम्हारे चारों तरफ, यह जो तुम हरे होने लगे हो, ये जो फूल खिलने लगे हैं, ये जो घटाएं घुमड़ रही हैं--इनको बौद्धिक विचार बनाना मत भूल कर भी! अन्यथा पास आता सावन कब दूर हट गया, पता भी न चलेगा। अगर सोचने बैठ गए कि आंख में आंसू क्यों आते हैं, आंसू सूख जाएंगे। क्योंकि सोचना आंसुओं के विपरीत है। और आंसू सूख गए--सोचने के कारण--तो उड़ानें बंद हो जाएंगी। और तब मन सवाल उठाएगा कि क्या हो गया, अब उड़ानें बंद क्यों हो गईं? अब आंख में आंसू क्यों नहीं आते?
किसी मित्र ने मुझे पूछा है कि पहले मैं आता था, तो सुन कर आनंदमग्न हो जाता था। आंखें आंसुओं से भर जाती थीं, डोलने लगता था; जैसे नाग फन उठा कर, बजती बीन को सुन कर डोलने लगता है! लेकिन अब ऐसा नहीं हो पाता। क्या कारण आ गया है?
कुछ और कारण नहीं है; अब तुम जरा समझदार हो गए। अब तुम जरा सोच-विचार करने लगे। अब तुम कंपने के पहले सोचते हो कि कंपना क्या? वह तो सांप भी सोचने लगे कि यह बीन बज रही है तो मैं डोल क्यों रहा हूं? बस डोलना रुक जाएगा, तत्क्षण रुक जाएगा। जहां यह विचार आया कि डोलना बंद हो जाएगा।
विचार मस्ती के विपरीत है। और विचार सदा आता है। जब तुम पहली दफा यहां आते हो, तब तुम्हें कोई विचार नहीं होता। तुम सुनते हो बीन और डोलने लगते हो। फिर अनुभव हुआ, तो अनुभव के ऊपर मन प्रश्नचिह्न लगाता है। फिर प्रश्नचिह्न लगा कि बस अड़चन शुरू हुई। मन ने तुम्हें भटकाया। मन तुम्हें ले चला किसी और रास्ते पर, जो कि आत्मा का रास्ता नहीं है, जो कि परमात्मा का रास्ता नहीं है।
प्रश्न ही छोड़ दो। मेरे पास अगर आंसू घटते हों, तो अंगीकार करो अहोभाव से। अगर शरीर डोलने लगता हो, अंगीकार करो अहोभाव से। अगर थिर हो जाता हो, अंगीकार करो सहज भाव से।
चिन्मय योगी ने पूछा है, कि आपको सुनते-सुनते एकदम तंद्रा जैसी अवस्था हो जाती है। फिर न आप दिखाई पड़ते हैं, न आपके शब्द सुनाई पड़ते हैं। यह क्या हो रहा है? कहीं मुझसे ध्यान में कोई भूल तो नहीं हो रही है?
ये देखो मन की चालबाजियां! यह ध्यान की शुरुआत है--और मन कहेगा: ध्यान में कोई भूल हो रही है, इसीलिए तो तंद्रा छा जाती है। यह तंद्रा नहीं है। इसके लिए योगशास्त्र में अलग ही शब्द है--योगनिद्रा। यह नींद नहीं है। यह रसमयता की एक अवस्था है। इतनी रसमयता कि न मैं दिखाई पडूं, न मैं सुनाई पडूं। तुम सो नहीं गए हो। तुम मेरे साथ इतने आत्मलीन हो गए हो, इतने एक हो गए हो...!
सुनने के लिए दूरी चाहिए। देखने के लिए भी दूरी चाहिए। थोड़ा फासला तो चाहिए देखने के लिए। दूसरे को ही देख सकते हैं। दूसरे को ही सुन सकते हैं। अपने को कैसे देखोगे?
ऐसी घड़ियां आ जाएंगी, जब तुम इतने लीन हो जाओगे मेरे साथ कि न तुम्हें शब्द सुनाई पड़ेंगे, न तुम्हें मैं दिखाई पडूंगा। और यही घड़ियां हैं जब तुम्हें निःशब्द सुनाई पड़ेगा। और जब तुम्हें मेरी देह तो दिखाई नहीं पड़ेगी, लेकिन मेरा स्वरूप दिखाई पड़ेगा।
उस घटना के दो हिस्से हैं।
पहली घटना होगी कि मेरे शब्द सुनाई पड़ने बंद हो जाएंगे, मेरी देह दिखाई पड़नी बंद हो जाएगी। यह घट रहा है। अब अगर तुम इसी रास्ते पर चले गए बिना सोच-विचार किए--कि कहीं नींद तो नहीं आ रही, कहीं तंद्रा तो नहीं हो रही, कहीं ध्यान में कोई भूल-चूक तो नहीं हो रही--अगर तुम इसी रास्ते पर चले गए, चले गए...जल्दी ही, मैं जो नहीं बोल रहा हूं, जो नहीं बोला जा सकता है, जो शब्द में नहीं बंधता है, वह तुम्हें सुनाई पड़ेगा। मेरा शून्य तुम्हें सुनाई पड़ेगा!
बोलना तो आहत नाद है। ओंठों की टक्कर, कंठ के यंत्र की टक्कर से पैदा होता है। सत्य अनाहत नाद है। झेन फकीर कहते हैं: एक हाथ की ताली बजे--ऐसा है सत्य। आहत नहीं है, दो चीजों की टकराहट नहीं है।
वीणा के तार छेड़ देते हो, संगीत पैदा होता है। यह संगीत द्वंद्व से पैदा हो रहा है। तुम्हारी अंगुली ने तार को छेड़ दिया। यह संगीत एक तरह का संघर्ष है। इसलिए संगीत भी है, मगर इसमें विसंगीत जुड़ा हुआ है। एक और संगीत है जो आहत नहीं होता। उसी को अनाहत कहा है। उसी को ओंकार कहा है।
अगर तुम्हें मेरे शब्द सुनाई पड़ने बंद हो गए और मैं भी दिखाई पड़ना बंद हो गया, और आंखें भी खुली हैं और तुम यहां मौजूद भी हो और तत्क्षण कुछ हो गया कि कान काम नहीं करते; आंख खुली है और काम नहीं करती; तुम जागे हो और लगता है नींद लग गई--यह बड़ी प्यारी घटना है! ध्यान ठीक दिशा में जा रहा है, उसकी सूचक घटना है। अब जल्दी ही दूसरी घटना घटेगी, अगर चलते रहे इसी पर हिम्मत साध कर!
हिम्मत रखनी पड़ेगी, क्योंकि मन निश्चित ही सवाल उठाएगा कि क्या तुम बहरे हो गए? क्या तुम्हारी आंखें खराब हो गईं? तुम्हारा चित्त कहीं विभ्रम में तो नहीं पड़ गया है? तुम विक्षिप्त तो नहीं हो रहे हो? सुन रहे हो और सुनाई नहीं पड़ता! देख रहे हो और दिखाई नहीं पड़ता! कहीं कुछ मस्तिष्क के स्नायुओं में कोई गड़बड़ तो नहीं हो गई? कोई ध्यान ऐसा तो नहीं कर रहे हो जिससे कि तुम्हारा मस्तिष्क दुर्बल हो रहा है, या तुम विक्षिप्त हो रहे हो?
अगर ये सवाल न उठाए और कहा कि ठीक है, पागलपन तो पागलपन और नींद तो नींद और जो भी हो रहा है ठीक, अगर सब छोड़ दिया मुझ पर और चल पड़े, तो दूसरी घटना जल्दी ही सुनाई पड़ेगी तुम्हें--ओंकार सुनाई पड़ेगा! नाद सुनाई पड़ेगा जो आहत नहीं है! एक हाथ की ताली सुनाई पड़ेगी।
और वही सुनाई पड़ जाए तो तुमने मुझे सुना। और निराकार दिखाई पड़ने लगे यहां तुम्हें, तो ही तुमने मुझे देखा। तो ही मैं तुम्हारे काम आया। तो ही मैं तुम्हारी नाव बना। तो ही तुमने अपना हाथ मेरे हाथ में दिया।
यह सावन की मद भरी रात!
श्यामल पुलकों में लुक-छिप कर उल्लास भरी बह रही वात
मधु पी-पी कर हो गए मत्त वन-वल्लरियों के शिथिल गात
यह सावन की मद भरी रात!
डूबो! सावन आ रहा है--नाचो! झूले डालो! सावन आ रहा है--झूलो!

तीसरा प्रश्न:
भगवान, आप कहते हैं कि यहां खोने को कुछ भी नहीं है। फिर भी मैं क्यों सब कुछ दांव पर नहीं लगा सकता हूं?
मुकेश भारती! दांव पर लगाने का अर्थ होता है: ज्ञात की सीमा से अज्ञात में कदम रखना। स्वभावतः मन भयभीत होता है। नहीं इसमें कुछ अस्वाभाविक है। जो परिचित है, जाना-पहचाना है, उसमें जीने में भय नहीं होता। अपने घर के भीतर मालूम होते हैं। और कुशल होते हैं हम जाने-माने के साथ। जब अनजानी डगर पर कोई चलता है, अंधेरे बीहड़ में कोई प्रवेश करता है, तो थक जाते हैं, हिम्मत टूटती है, पैर ठिठक जाते हैं। मन कहता है: यह तुम क्या करने जा रहे हो? कहीं खो गए तो? कहीं न लौट सके तो? किस निर्जन में, अकेले रह जाओगे! संगी-साथी छूट जाएंगे! प्रियजन, मित्र, परिवार...।
ध्यान का मार्ग तो एकांत का मार्ग है। वहां तो तुम बिलकुल अकेले हो जाओगे। नहीं कि बाहर से पत्नी को छोड़ कर जाना पड़ेगा। मगर भीतर तो अकेले हो जाओगे। ध्यान में पत्नी को साथ तो न ले जा सकोगे। ध्यान में अपनी तिजोड़ी को भी साथ न ले जा सकोगे। और वही तुम्हारा बल है। और ध्यान में अपने ज्ञान को भी साथ न ले जा सकोगे। और वही तुम्हारे अहंकार की प्रतिष्ठा है; वही तुम्हारा सिंहासन है।
ध्यान में तुम कुछ भी न ले जा सकोगे; बिलकुल नग्न तुम्हें जाना होगा। डर लगता है! मन कहता है: कहां जा रहे हो? जाने-माने को छोड़ कर अनजान में? जैसे अज्ञात सागर में कोई अपनी नौका को उतारे! दूसरा किनारा दिखाई भी नहीं पड़ता है। हाथ में कोई नक्शा भी नहीं है। पतवारें भी छोटी हैं, नाव भी छोटी है। उत्ताल तरंगें हैं सागर की। मन कहता है: रुके रहो इसी तट पर। किस खतरे को मोल लेते हो? कहीं ऐसा न हो कि हाथ की रोटी भी जाए उसकी तलाश में जिसका कुछ पता भी नहीं, कुछ भरोसा भी नहीं! कहीं ऐसा न हो कि यह किनारा भी खो जाए और वह किनारा भी न मिले! कहीं मझधार में न डूबो!
इसलिए मुकेश, यद्यपि मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हारे पास खोने को कुछ भी नहीं है और तुम भी जानते हो कि तुम्हारे पास खोने को कुछ भी नहीं है...है क्या खोने को? फिर भी मन कहता है: नहीं सही कुछ, मगर जहां भी मैं हूं वह जगह पहचानी हुई है। वह भूतल जाना-माना है। उसका नक्शा मुझे ज्ञात है। रास्ते पहचाने हुए हैं, लोग परिचित हैं। कम से कम पैर के नीचे जमीन है। फिर इस जमीन पर चाहे थोड़े कांटे भी हों, चाहे थोड़े दुख भी हों, मगर इस पर मैं सदा-सदा से रहा हूं। उन कांटों का भी मैं आदी हो गया हूं।
ध्यान रखना, अगर पुराने दुख और नये दुख में चुनना हो, तो लोग पुराने दुख को चुनना पसंद करते हैं; क्योंकि कम से कम पुराना है, उसकी आदत तो हो गई है। यह नये की तो आदत भी नहीं है। पता नहीं कैसा सिद्ध हो! कहीं पुराने से भी भयानक सिद्ध हो! दुख भी नहीं छोड़ते हैं लोग।
फिर तुम्हारे दुख एकदम दुख ही नहीं हैं, उनमें सुखों की आशाएं भी मिश्रित हैं। तुम्हारी रातें एकदम रातें नहीं हैं, उनमें सुबह की झलकें भी छिपी हुई हैं। उनमें प्रभात की भी आशा है, सपना है। होगा प्रभात। रात है तो प्रभात भी आता होगा। दूर क्षितिज पर लगता है--अब मंजिल आई, अब मंजिल आई।
नहीं तुम्हारे पास कुछ खोने को है, क्योंकि खाली हाथ तुम आए हो और खाली हाथ तुम्हें जाना होगा। जन्म और मृत्यु के बीच जो भी तुम इकट्ठा कर लोगे, सब पड़ा रह जाएगा। सब ठाठ पड़ा रह जाएगा! तुम्हारा क्या हो सकता है उसमें कुछ, जिस पर तुम मुट्ठी न बांध सकोगे, जिसे तुम ले जा न सकोगे, जिसे तुम लाए भी नहीं थे, जो यहीं का यहीं रह जाएगा, उसमें तुम्हारा क्या है? खोने का भय क्या है? खोने को कुछ है भी नहीं।
मगर, तुम ठीक पूछते हो मुकेश, कि फिर भी मैं क्यों सब कुछ दांव पर नहीं लगा सकता हूं?
चुनौती स्वीकार करने में डर लगता है। चुनौती स्वीकार करने के लिए साहस चाहिए, अदम्य साहस चाहिए! और, हमारे जहर--समाज के जहर--सिर्फ कायरता सिखाते हैं। हम हर बच्चे को कायर बना देते हैं। हम हर बच्चे को भयों से भर देते हैं। सब बच्चे निर्भय पैदा होते हैं। हम जल्दी ही अपने भय की छूत उन्हें लगा देते हैं। हम कितने भय उन्हें लगा देते हैं जिनका हिसाब नहीं। कोई बच्चा अंधेरे में नहीं डरता, लेकिन हम अंधेरे में डरते हैं, जल्दी ही भय लग जाता है बच्चे को। बच्चे को क्या पता अंधेरे से डरने का? सच तो यह है, मां के पेट में बच्चा नौ महीने अंधेरे में रहा है। रोशनी से डरे तो हो भी सकता है, अंधेरे से क्यों डरेगा?
पश्चिम में जो वैज्ञानिक, बच्चों को कैसे ज्यादा प्राकृतिक ढंग से जन्म दिया जाए, उसकी खोज कर रहे हैं, उन्होंने जो पहली बात पकड़ी है वह यह है कि जब बच्चा पैदा हो तो तेज रोशनी नहीं होनी चाहिए कमरे में। क्योंकि बच्चे की आंखों पर भयंकर चोट पड़ती है। शायद दुनिया में इतने लोग जो चश्मा लगाए हुए हैं, उनको लगाने की जरूरत न रहे। यह बात समझ में आती है। पश्चिम का एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक इस खोज में लगा है। तो उसने पहली बात तो यह खोजी कि अब जो बच्चों को जन्म दिया जाए तो कमरे में तेज प्रकाश नहीं होना चाहिए। आमतौर से अस्पतालों में, जहां बच्चों का जन्म होता है, बड़ा तेज प्रकाश...। बच्चा आ रहा है अंधेरे से, नौ महीने के गहन अंधकार को जीकर आ रहा है। एकदम से उसकी कोमल आंख के तंतु तेज प्रकाश की झपट को नहीं सह पाते। उसकी आंखें पहले से ही तुमने चोट कर दीं।
किसी जानवर को चश्मा नहीं लगता है। सारे जानवरों की आंखें ठीक हैं। सिर्फ आदमी को चश्मा लगता है। जरूर कहीं कुछ आदमी की आंख के साथ बुनियादी भूल हो गई है। कहीं कोई आंख के तंतुओं को जला गया है, आंख के स्नायुओं को कोई चोट पहुंचा गया है।
बच्चे को अंधेरे का डर नहीं हो सकता। लेकिन हमें अंधेरे का डर है। हम अपना डर बच्चे को पकड़ा देते हैं। हम कहते हैं: अंधेरे में मत जा! हम बच्चे को रोशनी से लगाव बनवाते हैं। अंधेरे में जाता हो तो रोकते हैं। बच्चों को बिलकुल भय नहीं होता; सांप आ रहा हो, बच्चे सांप को पकड़ कर खेल सकते हैं। लेकिन हम भय लगा देते हैं। फिर सांप की तो बात दूर, केंचुए से भी बच्चा डरने लगता है। हमारा भय पकड़ गया। बच्चों को क्या भूत-प्रेत का कुछ पता है? हम भय लगा देते हैं। बच्चों को तो भगवान का भी पता नहीं है; हम भय लगा देते हैं। नरक का भय और स्वर्ग का लोभ और भूत-प्रेत का भय, अंधेरे का भय, सांप-बिच्छू का भय...हर चीज का भय! हम भय का एक घेरा बना देते हैं।
यह समाज की जालसाजी है। राजनीति है इसमें गहरी। हर आदमी को कायर बना दो तो हर आदमी गुलाम बन जाएगा। किसी आदमी को हिम्मत मत दो; हो हिम्मत तो ले लो; ताकि हर आदमी शोषण का शिकार बन जाए। जो बच्चा अंधेरे से डरेगा, भगवान से डरेगा, भूत-प्रेत से डरेगा, नरक से डरेगा, वह किसी से भी डरेगा। कोई भी ताकतवर दिखाई पड़ेगा, वह डरेगा। वह भयभीत होगा। वह हर कहीं झुकने को राजी होगा। उसकी तुमने कमर तोड़ दी। वह जिंदगी में छोटी-छोटी बातों के लिए समझौते करेगा। दो कौड़ी के लिए अपनी आत्मा बेच देगा।
आदमी को हम बाजार में बेचने योग्य चीज बनाना चाहते हैं, इसलिए उसे कमजोर कर देते हैं। मां-बाप को भी हिम्मतवर बच्चा, साहसी बच्चा बर्दाश्त नहीं होता, क्योंकि वह मां-बाप को दिक्कत देगा। मां-बाप भी इसी में सुविधा पाते हैं कि बच्चा आज्ञाकारी हो। आज्ञाकारी वही बच्चा हो सकता है जो भीरु हो; नहीं तो मां-बाप की गलत आज्ञा मानने को बच्चा राजी नहीं होगा। और मां-बाप की सभी आज्ञाएं सही नहीं होतीं। मां-बाप ही सही नहीं हैं तो सारी आज्ञाएं कैसे सही होंगी? तो गलत आज्ञाएं भी मानना है, मनवाना है, तो एक ही उपाय है कि बच्चे की हिम्मत तोड़ दो, डरवाओ उसे, सजाएं दो उसे।
छोटे बच्चों को हम कितनी सजाएं देते हैं? अकारण! लेकिन उनके पीछे एक राज है, सब सजाओं के पीछे एक राज है--बच्चा भयभीत हो जाए, तो आज्ञाकारी होता है। डर के कारण आज्ञा मानता है। यह कोई बहुत प्रेम का लक्षण नहीं है। स्कूल में शिक्षक भी इसी में सुविधा पाता है कि बेंत से बच्चे डरते रहें। क्योंकि डरते रहें तो शांत रहते हैं, उसको सुविधा रहती है। नहीं तो वे सिर खाते हैं, उलटे-सीधे सवाल पूछते हैं। ऐसे सवाल पूछते हैं जो शिक्षक को क्या, किसी शिक्षक को जिनका उत्तर नहीं मालूम। और कोई शिक्षक नहीं चाहता कि उसे यह स्वीकार करना पड़े कि मेरे पास इसका उत्तर नहीं है।...डराओ! धमकाओ!
तुम्हारी शिक्षा की सारी प्रणाली भय पर खड़ी है। भला तुमने ऊपर-ऊपर से कानून बना दिए हैं कि बच्चों को मारा न जाए। बच्चे अभी भी मारे जा रहे हैं। तुमने ऊपर-ऊपर भला रुकावट डाल दी हो कि बेंत न चलाए जाएं बच्चों पर। लेकिन तुम्हारी परीक्षा क्या है? बड़ी सूक्ष्म भय की व्यवस्था है। तुमने डरवा दिया है बच्चों को--अगर प्रथम श्रेणी में न आए तो जिंदगी भर भूखे मरोगे! देखते हो, जैसे ही परीक्षा करीब आती है, बच्चे रात-रात नहीं सोते। लगे हैं पागलों की तरह उन बातों को याद करने में जिनका परीक्षा के बाद कभी जिंदगी में कोई उपयोग नहीं होगा। नब्बे प्रतिशत एकदम भूल जाएंगे परीक्षा के बाद। और अट्ठानबे प्रतिशत बातें जो स्कूल में सिखाई जा रही हैं, उनका जिंदगी में कभी कोई उपयोग नहीं होने वाला है। मगर भय की वजह से उनको कंठस्थ कर रहे हैं। भर रहे हैं खोपड़ी में। किसी तरह उगल देना है जाकर परीक्षा में!
तुम्हारी परीक्षाएं क्या हैं? सिर्फ वमन की प्रक्रियाएं हैं। पहले खोपड़ी में भर लो, फिर उलटी कर दो। और जितने ढंग से उलटी कर दो पूरी परीक्षा में, उतने तुम ज्यादा कुशल हो। स्मृति की परीक्षा है, बुद्धि की परीक्षा नहीं है। और सब भय पर आधारित है कि कहीं तृतीय श्रेणी में न आ जाओ, कहीं असफल न हो जाओ; नहीं तो बड़ी बदनामी होगी। बच्चा असफल होकर घर आता है तो देखो, मां-बाप उसे किस ढंग से देखते हैं--दो कौड़ी का कीड़ा-मकोड़ा! कि तुम पैदा होते ही क्यों न मर गए! और अगर प्रथम श्रेणी में प्रथम आ जाए और स्वर्ण-पदक लेकर घर आए तो मां-बाप भी जलसा मनाते हैं, भोज देते हैं। छाती उनकी फूली नहीं समाती। बच्चे ने उनके अहंकार की तृप्ति कर दी, उनके अहंकार को खूब भर दिया।
शिक्षक डरवा रहे हैं, मां-बाप डरवा रहे हैं, पास-पड़ोसी डरवा रहे हैं, पंडित-पुरोहित डरवा रहे हैं, राजनेता डरवा रहे हैं। हर एक डराने पर लगा हुआ है। बीस-पच्चीस साल जब कोई आदमी इस तरह डरवाया जाएगा, तो फिर चुनौती स्वीकार करनी, नई, कठिन हो जाती है।
तुम मंदिर में नमस्कार करते हो, प्रेम के कारण? डर के कारण! कि कहीं गणेशजी नाराज न हो जाएं। नहीं तो गणेशजी को देख कर हंसी आएगी, नमस्कार करने का भाव ही नहीं पैदा हो सकता। छोटे बच्चों को भी हम गर्दन पकड़-पकड़ कर...
मेरे पास ले आते हैं कुछ लोग, खासकर भारतीय मित्र, अपने बच्चों को ले आते हैं! उनकी गर्दन पकड़ कर सिर झुका रहे हैं। वह बच्चा अकड़ रहा है, वे उनकी गर्दन पकड़ कर झुका रहे हैं पैर में। तुम क्या कर रहे हो? क्यों इस बच्चे को मारे डाल रहे हो? यह जिंदगी भर फिर झुकता रहेगा डर के मारे। और दो खतरे हो गए। एक तो डर के मारे झुकेगा, यह नुकसान हो गया। इसकी आत्मा गुलाम की आत्मा होगी। एक मानसिक गुलामी होगी, एक दासता होगी। और दूसरा खतरा कि कभी अगर सच में कहीं झुकने का मौका आएगा तो वहां भी इसका झुकना औपचारिक होगा। उस झुकने में प्राण नहीं होंगे, आत्मा नहीं होगी। उस झुकने में सच्चाई नहीं होगी। तो यह हर तरफ से नुकसान उठाएगा।
और सत्य एक चुनौती है--अज्ञात की चुनौती। उसके लिए साहस चाहिए!
तुम्हें लहर पुकारती!
न पास स्वर्ण की तरी
न पास पर्ण की तरी
न आस-पास दीखती
कहीं समुद्र की परी,
अपार सिंधु सामने
मगर न हार मानना
असीम शक्ति बाहु में
अनंत स्वप्न के व्रती!
तुम्हें लहर पुकारती!

न पास ज्योति की किरण
न दूर मृत्यु के चरण
मिटा विभाग काल का
मुंदे कि काल के नयन!
तिमिर अभेद्य सामने
मगर न हार मानना,
सहस्र कण समुद्र लो
रहा उतार आरती!
तुम्हें लहर पुकारती!

तड़प रहे विनाश-घन,
न दूर हैं विनाश-क्षण,
सवेग डोलती धरा
सशब्द कांपता गगन,
प्रलय-प्रवाह सामने
मगर न हार मानना
अजेय शक्ति सांस में
महान कल्प के कृति!
तुम्हें लहर पुकारती!

अशब्द हो चला गगन
न सांस ले रहा पवन
विलीन हो चली धरा
ठहर न पा रहे चरण!
विनष्ट विश्व सामने
मगर न हार मानना
नवीन सृष्टि स्वप्न ले
तुम्हें लहर निहारती!
तुम्हें लहर पुकारती!
मुकेश, डरते हो जरूर, क्योंकि डरना सिखाया गया है।
मेरे पास आ गए हो, मैं तुम्हें अभय सिखाता हूं। हिम्मत करो! स्वीकार करो चुनौती अज्ञात की! वह जो दूर किनारा दिखाई नहीं पड़ता है, उसकी तलाश में ही तुम्हारी आत्मा पैदा होगी। क्योंकि उसकी तलाश में ही तुम्हारे भीतर कोई केंद्र पैदा होगा। तुम खंड-खंड न रह जाओगे, तुम अखंड हो जाओगे।
जितनी बड़ी चुनौती कोई स्वीकार करता है, उतना ही अखंड हो जाता है। चुनौती प्रक्रिया है एक होने की। और जो व्यक्ति चुनौती स्वीकार नहीं करता, फुसफुसा हो जाता है, टुकड़े-टुकड़े हो जाता है। उसकी जिंदगी में कोई तेज नहीं होता, धार नहीं होती। उसकी तलवार बोथली होती है; साग-सब्जी भला काट लो उससे, बस साग-सब्जी ही कट जाए तो बहुत। उसकी तलवार किसी और काम की नहीं होती।
इसलिए मैं जब तुम्हारे साधु-संतों को देखता हूं--मंदिरों में, आश्रमों में--तो मुझे एक बात जो सबसे पहले दिखाई पड़ती है वह यह कि उनकी तलवार में धार नहीं है, बोथली तलवारें हैं। उनकी आंखों में बुद्धि की चमक नहीं है और न उनके व्यक्तित्व में प्रेम का प्रवाह है। भय के कारण वे संन्यासी हो गए हैं। कंप रहे हैं, डर रहे हैं कि कहीं कोई पाप न हो जाए! पुण्य को करने का आनंद नहीं है; पाप न हो जाए, इसका डर है।
इस भेद को खयाल में रखो! वह आदमी भी पुण्य करता है जिसको पुण्य करने में रस है। और वह आदमी भी पुण्य करता है जिसको पाप करने में भय है। इन दोनों के व्यक्तित्व में अंतर होता है, बुनियादी अंतर होता है। एक आकाश में जीता है, जिसे पुण्य करने में रस है, आनंद है; और एक नरक में जीता है, जिसे पाप करने में भय है। यद्यपि दोनों ही पुण्य करेंगे, मगर दोनों के पुण्य का मूल्य अलग-अलग होगा। एक के पुण्य में धार होगी, तेज होगा, चमक होगी, गरिमा होगी, प्रसाद होगा, नृत्य होगा, गीत होगा। और एक के पुण्य में बोझ होगा; ढो रहा है किसी तरह भय के कारण। एक गुलाम होगा और एक मालिक होगा।
तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी सिर्फ गुलाम हैं। डर रहे हैं कि पाप न हो जाए, कहीं नरक में न सड़ना पड़े! उनके शास्त्रों ने खूब डराया है उन्हें। और नरक के ऐसे-ऐसे वीभत्स चित्र खींचे हैं कि कोई भी डर जाए। जिन्होंने ये चित्र खींचे हैं, ये लोग भले लोग नहीं थे। ये लोग दुष्ट थे। ये तुम्हें गुलाम बना गए हैं। ये तुम्हें खूब डरा गए हैं। कड़ाहियों में जलाए जाओगे। लपटों में फेंके जाओगे। कीड़े-मकोड़े तुम्हारे शरीर में हजारों छेद बना कर घूमेंगे। मरोगे भी नहीं, आग में भी नहीं मरोगे, कड़ाहे में भी नहीं मरोगे--सिर्फ तड़फोगे! प्यास भयंकर लगेगी, सामने सरोवर होगा, लेकिन ओंठ सिले होंगे।
खूब सोचा लोगों ने भी! इनको तुम ऋषि-मुनि कहते हो! ये अडोल्फ हिटलर, स्टैलिन और माओत्से तुंग के पूर्वज थे, ऋषि-मुनि नहीं। इन्होंने जो सोचा, अडोल्फ हिटलर, स्टैलिन और माओत्से तुंग ने करके दिखाया। इन्होंने सोचा था, उन्होंने उसको व्यावहारिक रूप दिया। उन्होंने इस तरह की घटनाएं घटा कर बता दीं।
नहीं कोई नरक है कहीं, सिवाय चालबाजों की चालबाजी में। सिवाय तुम्हें गुलाम बनाने की योजना में, और कहीं कोई नरक नहीं है। और न कहीं कोई स्वर्ग है; क्योंकि स्वर्ग भी प्रलोभन है; वह भय का ही दूसरा हिस्सा है--लोभ। इधर भय दो, उधर लोभ दो।
सर्कस में तुम देखते हो, हाथी तक नचाए जाते हैं। तुम सोचते हो हाथी को कुछ मजा आ रहा है नाचने में? हाथी कुछ प्रसन्न हो रहा है पैर उठा-उठा कर फुदकने में? भार है। हाथी को पैर उठा कर फुदकना, उसकी तुम तकलीफ तो समझो! उसका वजन तो देखो! वह कोई नाचने को नहीं बना है। और जंगल में किसी ने उसे कभी नाचते देखा भी नहीं है। वह कोई मोर नहीं है, हाथी है। और इसीलिए तो सर्कस में देखने में तुम्हें मजा आता है कि अरे, हाथी नाच रहा है! स्टूल पर बैठा है हाथी! बीन बजा रहा है हाथी! और किस ढंग से हाथी को तैयार किया गया है, यह तुम्हें पता है? वही स्वर्ग-नरक!
एक ही प्रक्रिया आदमी आज तक जानता रहा है--कुछ भी करवाना हो तो आदमी को भय दो और लोभ दो। जब हाथी नाचता है तो उसको खाने को सुंदर-सुंदर चीजें मिलती हैं। जिस दिन नहीं नाचता, उस दिन भोजन बंद, कोड़े पड़ते हैं।
अब तो और भी वैज्ञानिकों ने...अब तो पश्चिम में जो सर्कसें बनती हैं, वे तो वैज्ञानिक ढंग से होती हैं। इतनी देर नहीं लगती उनमें। अब तो उन्होंने इस तरह के तख्ते बनाए हैं कि हाथी को उस पर खड़ा कर देते हैं और बिजली के शॉक मारते हैं, तो वह अपने आप ही उठाएगा पैर और नाचेगा, करेगा क्या? अब तुम नीचे से बिजली का शॉक दे रहे हो तो वह गरीब पैर न उठाए तो करे क्या? इसको नाच कहते हो!
तुम्हारे ऋषि-मुनि, तुम्हारे साधु-संन्यासी इसी तरह का नाच कर रहे हैं। नीचे नरक से शॉक आ रहे हैं--बिजली के शॉक! कोई भी नाचेगा, हाथी तक नाच लेता है! मगर यह नाच तो नाच नहीं है। यह तो नाच की दुर्दशा हो गई! और फिर लोभ है कि अगर वह नाच ले अच्छी तरह तो उसे अच्छा भोजन मिलेगा, विश्राम का मौका मिलेगा। तो सिंह जैसे बहादुर जानवर को भी सर्कस में करतब सिखा दिए जाते हैं।
हर आदमी सिंह की तरह पैदा होता है और सर्कस के कठघरों में समाप्त होता है। कोई हिंदू कठघरे में, कोई मुसलमान कठघरे में, कोई ईसाई कठघरे में--ये सब अलग-अलग सर्कसें हैं। कोई ग्रेट बाम्बे सर्कस और कोई ग्रेट रेमन सर्कस, सब सर्कसें हैं। कुछ भी करवा लो आदमी से--उसको सताओ और उसको प्रलोभन दो। तुम इसी में पले हो।
मैं तुम्हें एक नई भाषा सिखा रहा हूं--अभय की, अलोभ की। अब यह कैसे मजे की बात है कि जिन शास्त्रों में अलोभ की चर्चा है, उन्हीं में स्वर्ग का लोभ दिया गया है। तुम कभी विरोधाभास भी नहीं देखते! एक तरफ कहा है कि अलोभ महाव्रत और उन्हीं शास्त्रों में चर्चा है कि जो अलोभ साधेगा उसको स्वर्ग में परियां मिलेंगी, अप्सराएं मिलेंगी। यह तो खूब मजा रहा! यह कौन सा गणित है? अलोभ महाव्रत! जो लोभ छोड़ देगा वह महाव्रती है। और उसको मिलेगा क्या इसके पुरस्कार में? सुंदर-सुंदर स्त्रियां मिलेंगी, जिनकी देह स्वर्ण की! और कितनी ही धूप पड़े...एक तो स्वर्ग में धूप पड़ती ही नहीं, वातानुकूलित है स्वर्ग। मंद-मंद समीर सदा बहता है। मलय समीर बहता ही रहता है। लेकिन अगर धूप भी हो तो स्वर्ण-सुंदरियों को पसीना नहीं आता, शरीर से दुर्गंध नहीं उठती। स्वर्ण-सुंदरियां हैं, पसीना आएगा भी कैसे? सोने से कभी पसीना बहते देखा?
एक तरफ अलोभ और एक तरफ स्वर्ग का लोभ, ये दोनों एक साथ चल रहे हैं। एक तरफ आदमी को कहा जाता है अभय, और नरक का भय दिया जा रहा है, कि तुमने यह किया तो इस तरह सड़ोगे। और कितनी छोटी-छोटी बातों पर आदमी को कितने भय दिए गए हैं!
बर्ट्रेंड रसेल ने लिखा है कि मैंने जिंदगी में जितने पाप किए हैं, अगर सब खोल कर कह दूं, और जो नहीं किए, सिर्फ सोचे, वे भी खोल कर कह दूं, तो कठोर से कठोर न्यायाधीश भी मुझे चार से आठ साल के बीच की सजा दे सकता है, इससे ज्यादा नहीं। और इन सबके लिए मुझे नरक में जन्मों-जन्मों तक...! और ईसाइयों का नरक अनंतकालीन है, खयाल रखना। हिंदू वगैरह के नरक से तो छुटकारा है; एक दफा पाप चुकेंगे, फिर छुटकारा हो जाएगा, सीमा है। मगर ईसाइयों का नरक अनंतकालीन है।
बर्ट्रेंड रसेल की बात तो ठीक है कि कितने ही पाप किए हों, आखिर पापों की सीमा है। दंड की भी सीमा होनी चाहिए। सीमित पाप के लिए असीमित दंड, यह कौन सा न्याय है? अनंतकाल तक नरक में सड़ते रहोगे। हिंदुओं का स्वर्ग, जैनों का स्वर्ग सीमित है। पुण्य चुक जाएंगे, बस वापस भेज दिए जाओगे; इतनी कमाई की थी, वह पूरी हो गई। यह स्वर्ग भी धन है। कमा लिया, फिर दो-चार दिन चले जाओ पहाड़, मस्ती कर लो। फिर जेब खाली हो गई, फिर आ जाओ वापस, फिर जुत जाओ जीवन की बैलगाड़ी में। फिर खींचो बोझ। फिर कमा लेना कुछ, फिर पहाड़ हो आना। दो-चार दिन खुशी मना लेना। हिंदुओं का स्वर्ग एक तरह का ‘हॉली डे होम’ है। कमाई कर ली कुछ, छुट्टी मिल गई कुछ, चले गए। लेकिन ईसाइयों का स्वर्ग अनंतकालीन है, जैसा नरक अनंतकालीन है। और मजे की बात यह भी है कि हिंदू और जैन और बौद्ध, इन्होंने तो अनंत जन्मों को माना है, तो समझ में भी आ सकता है कि अनंत जन्मों में अनंत पाप किए होंगे। मगर ईसाई तो एक ही जन्म को मानते हैं।
तो बर्ट्रेंड रसेल की बात तो अर्थपूर्ण है कि मैंने इस जिंदगी, एक ही जिंदगी है, इस जिंदगी में इतने पाप किए हैं वह मैं कह दूं खोल कर, और इतने मैंने किए नहीं हैं, सिर्फ सोचे हैं, करना चाहता था, किए नहीं हैं--तो भी मुझे चार से आठ साल के बीच की सजा मिल सकती है, वह भी सख्त से सख्त न्यायाधीश हो तो। इसके लिए अनंतकाल तक नरक में सड़ना पड़ेगा! और जिन्होंने चाय नहीं पी, और कॉफी नहीं पी, और सिगरेट नहीं पी, और शराब नहीं पी, बस इस कारण अनंतकाल तक स्वर्ग में मजा-मौज करेंगे! इस कारण! और मजा-मौज में वहां करेंगे क्या? न कॉफी, न सिगरेट, न शराब, तो मजा-मौज में करोगे क्या? तो मजे-मौज के लिए वह सारी व्यवस्था वहां करनी पड़ती है। जो-जो यहां छोड़ा है, वहां खूब इंतजाम है! बहिश्त में इंतजाम है, चश्मे बह रहे हैं शराब के। यहां कुल्हड़ों में पीना पड़ती है, वहां चश्मे बह रहे हैं। मारो डुबकी! जी भर कर पीओ। जितनी पीनी हो उतनी पीओ! यहां स्त्रियां छोड़ो, वहां अप्सराएं हैं, हूरें हैं!
यह अजीब आज तक की मनुष्य की धार्मिक चिंतना रही है। मैं तुम्हें नई भाषा दे रहा हूं--न कोई स्वर्ग, न कोई नरक।
लेकिन स्वर्ग और नरक प्यारे शब्द हैं, इनका अगर सम्यक उपयोग हो सके। तो जब भी तुम जबर्दस्ती कुछ करते हो तो नरक, झूठा कुछ करते हो तो नरक। नरक कोई स्थान नहीं है, बल्कि मनोविज्ञान है। वह जो हाथी नाच रहा है भय के कारण, वह नरक में है। और वह जो मोर, मेघ घिर आए आषाढ़ के, पंख फैला कर नाच रहा है, वह स्वर्ग में है। जब नृत्य सहज हो, सम्यक हो, तुम्हारे भीतर से उमगे, तुम्हारा अंतर्भाव हो, तब स्वर्ग। और जब जबर्दस्ती भय और लोभ के कारण तुम नाचो तो नरक।
जिंदगी दो ढंग से जीयी जा सकती है, एक ढंग नरक और एक ढंग स्वर्ग। मैं तुम्हें स्वर्ग का ढंग सिखा रहा हूं कि कैसे अभी और यहां स्वर्गिक ढंग से जीओ। यह पृथ्वी स्वर्ग है उनके लिए जो सुख की कला जानते हैं। यह पृथ्वी मोक्ष है उनके लिए जो मुक्ति की कला जानते हैं। और यह पृथ्वी नरक है उनके लिए जो नरक का ही निर्माण करने में कुशल हैं।
भय, लोभ, इन आधारों से जो जीता है वह जिंदगी को नरक बना लेता है। अलोभ, अभय, ऐसे जो जीता है वह जिंदगी को स्वर्ग बना लेता है।
और चुनौतियां स्वीकार करो, क्योंकि चुनौतियां ही तुम्हारे भीतर छिपी हुई प्रतिभा को निखार देंगी, धार देंगी। चुनौतियां ही तुम्हें एकजूट करेंगी। चुनौतियां ही तुम्हें संगठित करेंगी भीतर। तुम एकाग्र हो जाओगे। और चुनौतियां ही तुम्हें जगाएंगी, क्योंकि जिसके जीवन में चुनौती नहीं है, वह सोया रहता है। जिसके जीवन में चुनौती है, कैसे सो सकता है?
तुम्हारे घर में आग लगी हो, फिर तुम सो सकते हो? कितने ही थके होओ, घर में आग लगी है, एक क्षण में थकान मिट जाएगी। एक क्षण में नींद समाप्त हो जाएगी।
चुनौती नींद को तोड़ देती है। चुनौती जीवन के सामान्य नियमों को तोड़ देती है। जीवन के सामान्य नियमों का अतिक्रमण हो जाता है। इसलिए तुमसे कहता हूं--
तुम्हें लहर पुकारती!
न पास स्वर्ण की तरी
न पास पर्ण की तरी
न आस-पास दीखती
कहीं समुद्र की परी,
अपार सिंधु सामने
मगर न हार मानना
असीम शक्ति बाहु में
अनंत स्वप्न के व्रती!
तुम्हें लहर पुकारती!
तिमिर अभेद्य सामने
मगर न हार मानना,
सहस्र कण समुद्र लो
रहा उतार आरती!
तुम्हें लहर पुकारती!
मैं तुम्हें पुकार रहा हूं--अज्ञात की यात्रा पर चलो! दांव तो लगाना होगा। साहस तो करना होगा। क्योंकि साहस ही तो नाव बनेगी। अभय ही तो पतवार बनेगा।
मगर तुम्हारा डर भी स्वाभाविक है। तुम्हारे डर की मैं निंदा नहीं करता हूं। तुम्हें डर सिखाया गया है। तुम करो भी तो क्या करो? यही तुम्हारा संस्कार है। मगर इतना भी तुमसे कहना चाहूंगा कि इस संस्कार को पकड़े रहो या छोड़ दो, यह तुम्हारे हाथ में है। इसलिए जिम्मेवारी समाज पर ही टाल कर बैठ मत जाना। मेरी बात का यह मतलब मत ले लेना। यह मत समझ लेना कि मैं यह कह रहा हूं कि अब हम क्या करें? समाज ने तो भय सिखा दिया, सो हम भय में जीएंगे!
नहीं; जब तुम्हें समझ में आ गया कि समाज ने भय सिखा दिया, तो अब तुम्हारा उत्तरदायित्व गहन हो गया। अब तुम छोड़ सकते हो इस भय को। अब तुम्हारा चुनाव है। अब तुम चाहो तो पकड़े रहो इस जंजीर को और चाहो तो छोड़ दो इस जंजीर को। जंजीर ने तुम्हें नहीं पकड़ा है; जंजीर को तुम पकड़े हो। तुम्हारे छोड़ते ही जंजीर गिर जाएगी। जंजीर को तुम में कोई रस नहीं है।
एक नदी बाढ़ पर आई हुई थी। मुल्ला नसरुद्दीन अपने मित्रों के साथ बाढ़ देखने गया था। एक कंबल बहता हुआ दिखाई पड़ा। कूद पड़ा।
मित्रों ने कहा: कहां जा रहे हो?
उसने कहा: वह कंबल!
जब कंबल को पकड़ा, तब चिल्लाया कि बचाओ! मुझे इस कंबल से छुड़ाओ!
मित्र कहने लगे: पागल हो गए हो नसरुद्दीन! कंबल को छोड़ना हो तो छोड़ दो। छुड़ाना क्या है?
उसने कहा: यह कंबल नहीं है, भेड़िया है।...सिर्फ भेड़िये के ऊपर की खाल दिखाई पड़ी तो वह कंबल समझा।...अब यह कंबल मुझे छोड़ता नहीं है।
लेकिन जिंदगी में ऐसी बात नहीं है। जिंदगी में बात...मुल्ला नसरुद्दीन जैसी हालत नहीं है कि कंबल ने तुम्हें पकड़ा हो। कंबल को तुम पकड़े हुए हो। कंबल को तुम में कोई भी रस नहीं है। तुम अभी छोड़ दो, इसी क्षण छूट जाए। और छोड़ोगे तो ही छूटेगा। और धीरे-धीरे कदम बढ़ाओ, एक-एक कदम सही। इंच-इंच बढ़ो, मगर बढ़ो। जरा ज्ञात के बाहर थोड़े पैर रखो। और अज्ञात का ऐसा आनंद है कि एक बार तुमने पैर रखे तो फिर तुम लौट कर ज्ञात की तरफ देखोगे नहीं। एक बार तुमने मजा ले लिया सागर की लहरों का, सागर की लहरों में जीने का, तुम फिर किनारा न खोजोगे, फिर तो तुम चाहोगे कि अब मझधार ही मेरा किनारा बने। अब तो यह सागर मुझे अपने में डुबा ले। अब कहां जाना है! यह किनारा भी छोड़ दोगे, वह किनारा भी छोड़ दोगे। किनारे की आकांक्षा ही सुरक्षा की आकांक्षा है। अब तुम असुरक्षा में जीओगे।
और जो असुरक्षा में जीता है, वही संन्यस्त है। संन्यास का अर्थ है: असुरक्षा में जीने का विज्ञान। गृहस्थ का अर्थ है: सुरक्षा में जीना। गृहस्थ का मतलब इतना ही नहीं होता कि घर में जो रहता है। घर में तो सभी रहते हैं। आश्रम भी आखिर घर ही है। किन्हीं घरों को तुम आश्रम का नाम दे देते हो, बस तुम सोचते हो संन्यस्त हो गए। घर में तो सभी रहते हैं। गृहस्थ का मतलब होता है: घर को पकड़ कर जो रहता है। और संन्यस्त का अर्थ होता है: घर को पकड़ा नहीं, सिर्फ घर में रहता है; घर से मुक्त है; जब चाहे चल पड़े।
एक फकीर से एक सम्राट बहुत प्रभावित हो गया। जापान की घटना है। सम्राट निकलता था रात अपने घोड़े पर सवार होकर गांव का चक्कर लगाने। रोज देखता था इस फकीर को एक वृक्ष के नीचे बैठा--मस्त! कभी बांसुरी बजाता फकीर। कभी नाचता फकीर। कभी गुनगुनाता गीत। कभी चुपचाप बैठा रहता आकाश के तारों को देखता। सम्राट रुक-रुक जाता। जब भी उसके पास से निकलता घोड़े पर, रुक जाता। क्षण भर उसकी छवि देखे बिना न रहा जाता। क्षण भर उसकी मस्ती को चखता। धीरे-धीरे इतना रस हो गया उसे उस फकीर में कि घड़ी कब बीत जाती, पता न चलता। वह खड़ा रहता--चुपचाप, उसकी मस्ती को देखता-परखता! मस्ती ऐसी थी कि खुद भी मस्त होकर घर लौटता! यह रोज का उपक्रम हो गया।
एक दिन इतना भावाभिभूत हो गया कि उस फकीर के चरणों पर गिर पड़ा और कहा कि महाराज, यहां अब न रहने दूंगा। वर्षा करीब आ रही है, वृक्ष है यह, इसके नीचे अब वर्षा में कैसे रहोगे? महल में चलो। मुझ पर कृपा करो! मुझे सेवा का अवसर दो।
वह फकीर तो उठ कर खड़ा हो गया। झोली उसने उठा ली। उसने कहा कि चलो।
सम्राट को बड़ा सदमा लगा। यह बड़े मजे की दुनिया है। सम्राट कह तो रहा था कि चलो, लेकिन प्रसन्न होता यही सुन कर कि फकीर कहता: कैसा महल? कहां का महल? हम जहां हैं वहां मस्त हैं! हम महलों वगैरह में नहीं जाते। हमने महलों इत्यादि का त्याग कर दिया है! अपेक्षा यह थी भीतर! तो और भी पैर पकड़ लेता। लेकिन फकीर उठ कर खड़ा हो गया तो सम्राट थोड़ा सदमे में आ गया कि मैं कुछ गलती में तो नहीं पड़ गया हूं! इस आदमी ने कुछ चालबाजी तो नहीं की! यह कोई महल में ही घुसने की तरकीब तो नहीं थी, कि यहां बैठ कर बांसुरी बजाता रहा, बजाता ही रहा, बजाता ही रहा! यह कहीं मेरे ऊपर ही तो जाल नहीं फेंक रहा था! कहीं यह सिर्फ कांटा ही तो नहीं था मछली को फांसने का! यह भी खूब फंसे! अब कुछ कह भी नहीं सकते। इसने एक बार मौका भी न दिया। इसने यह भी नहीं कहा कि नहीं-नहीं, मैं मजे में हूं। क्या वर्षा का करना है? एकाध बार तो कहता। यह कैसा फकीर है! सारा भाव चला गया।
हमारे भाव भी बड़े सस्ते होते हैं; क्षण भर में चले जाते हैं। फकीर तो बड़ा मस्त! सम्राट ने कुछ कहा ही नहीं, वह घोड़े पर सवार हो गया। सम्राट को नीचे चलना पड़ा, फकीर घोड़े पर बैठ कर चला। सम्राट के दिल को बड़ी चोट लगी कि यह तो बड़ी जल्दी मैंने कर ली। गलती हो गई। मगर अब अपनी बात फेर भी नहीं सकता। वचन का धनी है। तो कहा: ठीक है, अब यह पड़ा रहेगा महल में। इतने लोग पड़े हैं, यह भी पड़ा रहेगा। मगर प्रतिष्ठा उसके मन से खतम हो गई। हमारी प्रतिष्ठाएं बड़ी धारणाओं पर खड़ी होती हैं; जरा-जरा सी बात में टूट जाती हैं। हमारी प्रतिष्ठा का कोई मूल्य थोड़े ही है बड़ा।
फकीर तो महल में जाकर रहने लगा और सम्राट को रोज-रोज कष्ट बढ़ने लगा, क्योंकि फकीर ऐसी मस्ती से रहता! झाड़ के नीचे मस्त था तो आदर पैदा होता था कि वाह, कैसा गजब का त्यागी! वह वहां भी बांसुरी बजाता था, महल में भी बांसुरी बजाता था, मगर अब वह मखमल के गद्दों पर बैठ कर बजाता था। यहां तो छाती पर सांप लोट जाते थे सम्राट के, कि यह कहां का आदमी मैं घर में ले आया! यह कोई फकीरी है? सम्राट से भी ज्यादा शान से वह रहता था। सम्राट को तो कुछ चिंता-फिक्र भी थी, आखिर अपना राज्य, अपना महल, अपनी धन-दौलत...हजार उपद्रव। उसको तो कोई उपद्रव था ही नहीं। वह तो बांसुरी ही बजाए! नाचे! मस्त भोजन करे!
छह महीने किसी तरह सम्राट ने बर्दाश्त किया, लेकिन बात बढ़ती गई, बढ़ती गई, बढ़ती गई, सहने के बाहर हो गई। एक दिन उसने कहा कि महाराज, एक निवेदन करना है--अब मुझ में और आप में फर्क क्या है?
फकीर ने कहा: फर्क जानना चाहते हो?
सम्राट ने कहा: हां, महाराज।
फकीर ने कहा कि तुम छह महीने क्यों नाहक परेशान रहे? यह बात तुम्हें उसी वक्त पूछ लेनी थी जब मैं घोड़े पर बैठा था, क्योंकि मैंने तो देख ली थी यह बात तुम्हारे भीतर उसी वक्त उठ गई थी। जब मैं झोला उठा कर राजी हुआ था चलने को, उसी वक्त तुम्हारा चेहरा मैंने देखा था। यह प्रश्न तो उसी वक्त तुम्हारे भीतर था, तुम छह महीने...तुम बुद्धू हो! छह महीने क्यों छाती जलाई अपनी? वहीं पूछ लेते। मैं झोला डाल कर वहीं बैठ गया होता। क्यों संकोच, लाज रखी? मगर मैं प्रतीक्षा ही कर रहा था कि देखूं कब तुम पूछते हो। तो कल सुबह फर्क बता दूंगा। लेकिन गांव के बाहर बताऊंगा।
सुबह सम्राट जल्दी उठा। उत्सुक था जानने को कि फर्क क्या बताता है यह फकीर अब। क्योंकि फर्क कुछ भी नहीं है। खाना जो मैं खाता हूं, वही खाता है, मुझसे ज्यादा। और मांग करता है--यह लाओ, वह लाओ। मैं जिस कमरे में रहता हूं, उससे ज्यादा सुंदर कमरे में रहता है। मेरा एकाध-दो नौकर से काम चलता है, यह दस-बीसों को उलझाए रखता है। इसकी जरूरतों का कोई अंत नहीं है, मांगे ही चला जाता है। कपड़े शानदार पहनता है कि कोई मुझे देखे तो समझे कि मैं कोई वजीर इत्यादि हूं, यह सम्राट मालूम होता है। और मस्त! और दिन भर बांसुरी बजाना, न कोई चिंता, न कोई फिक्र। कल देखें क्या फर्क बताता है!
सुबह फकीर के साथ सम्राट उठा, कहा: चलें महाराज। गांव के बाहर दोनों निकल आए। वह अपना झोला, वही बांसुरी, वही वस्त्र जो झाड़ के नीचे उसने पहन रखे थे, उनको झोले में छिपा कर रखा था, आज उन्हीं को पहन कर चला। नदी आ गई, गांव का अंत आ गया। वह कहने लगा सम्राट से कि थोड़े और आगे चलें, थोड़े और। दोपहर होने लगी। सम्राट ने कहा कि कब तक चलते रहें? बात जो कहनी है कह-कहवा दो!
उस फकीर ने कहा कि अब हम तो आगे जाते हैं, तुम चलते हो कि नहीं?
सम्राट ने कहा: मैं कैसे चल सकता हूं? मेरा महल, मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, मेरी धन-दौलत।
तो फकीर ने कहा: यही फर्क है। हम जाते हैं, तुम नहीं जा सकते। तुम गृहस्थ हो। हम संन्यस्त हैं।
फिर एक क्षण को सम्राट को दिखाई पड़ा कि अरे, यह मैंने क्या कर लिया! बात तो सच है। कैसे अदभुत आदमी को गंवा दिया! छह महीने सत्संग भी नहीं किया। क्योंकि मैं सत्संग क्या खाक करता! मेरे भीतर तो यह चल रहा था कि यह आदमी तो साधारण आदमी निकला, खोटा निकला! सोना ऊपर से पुता था, भीतर मिट्टी है। एकदम पैर पकड़ लिए फकीर के कि नहीं महाराज, जाने नहीं दूंगा।
फकीर ने कहा कि मुझे कोई अड़चन नहीं, मैं चल सकता हूं! लेकिन फिर अड़चन तुझे होगी। मुझे क्या दिक्कत है, यह घोड़ा रहा तेरा, अभी बैठा जाता हूं। मगर नहीं, अब न जाऊंगा, क्योंकि तुझे फिर अड़चन होगी, तू फिर भी नहीं सम्हलेगा, तू फिर भी नहीं समझेगा।
और जैसे ही उसने कहा कि मैं फिर चल सकता हूं कि क्षण भर में महाराज का चेहरा बदल गया। सम्राट को फिर लगा कि अरे...!
फकीर नहीं रुका। फकीर ने कहा कि नहीं, अब तुझे अर्थ पता चल ही जाना चाहिए कि भेद क्या है। मुझे कोई अड़चन नहीं है। क्योंकि जिसको अड़चन हो वह संन्यासी ही नहीं। मुझे क्या अड़चन है? महल में रहा तो और झाड़ के नीचे रहा तो, मुझे कोई भेद नहीं है। मेरी बांसुरी जैसी बजती थी, बजती रहेगी।
गृहस्थ का अर्थ वह नहीं जो घर में रहता है; गृहस्थ का अर्थ वह कि जो घर को पकड़ कर रहता है। और संन्यस्त का अर्थ वह नहीं कि जो घर को छोड़ देता है; संन्यस्त का अर्थ वह कि जो घर को पकड़ कर नहीं रहता। छोड़ना पड़े तो तत्क्षण बाहर हो जाएगा, पीछे लौट कर भी नहीं देखेगा।
इसी संन्यास के लिए तुम्हें निमंत्रण दिया है। यह संन्यास तुमने स्वीकार भी किया है मुकेश! अब कदम बढ़ाओ। सिर्फ बाहर से संन्यस्त हो जाने से कुछ भी न होगा; अब भीतर से भी संन्यस्त होना है।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, आप जीवन के जिस महाकाव्य को गाए चले जा रहे हैं, उसके अनबोले बोल क्या हैं? कभी उससे उठी प्रेम की उत्ताल लहरें अंतर-बाहर भिगो जाती हैं; कभी उससे उठी ध्यान की तरंगें मन-प्राण को शीतल कर जाती हैं, और फिर कभी शून्य घेरता है--संगीतमय होकर!
नरेंद्र! अनबोले बोल हैं, मगर उन्हें कैसे बोला जा सकता है? अनबोले हैं, अनबोले रहेंगे! हां, उन्हें सुना जा सकता है, लेकिन उन्हें बोला नहीं जा सकता।
ध्यान रखना, अनबोले, जरूरी नहीं है कि अनसुने रहें। अनबोले भी सुने जा सकते हैं। और वही कीमिया है शिष्यत्व की कि जो नहीं बोला जा रहा है वह भी तुम सुन लो। जो बोला जा रहा है, उसे तो कोई भी सुन सकता है। वह विद्यार्थी का लक्षण है। जो नहीं बोला जा रहा है, उसे जब तुम सुन लोगे तो शिष्य हुए। और जिस दिन तुम उसे जीने लगोगे, उस दिन भक्त हुए।
बस ये तीन सीढ़ियां हैं--विद्यार्थी, शिष्य, भक्त। विद्यार्थी सिर्फ सुनता है, जो बोला जाता है। शिष्य सुनता है, जो नहीं बोला जाता। और भक्त उसे जीता है। क्योंकि जीओगे तो ही समझोगे। अनबोले को सुन भी लिया तो क्या होगा? समझ नहीं आएगी। जब जीओगे तब समझ आएगी। इसलिए रोज बोलता हूं। विद्यार्थी होंगे, वे बोले में से कुछ ले लेंगे। शिष्य होंगे, वे अनबोले में से कुछ ले लेंगे। भक्त होंगे, वे अनबोले को जी लेंगे।
शेष है,
जो कहना है।
कहा आज तक--
बहुत,
अनेकों बार
अनेक रीतियों से।
तुम समझे भी--
जिसे,
पता नहीं
किस भांति?
मैं...
क्षण-क्षण की अनुभूति
कहना
चाहता हूं,
सुनो!
शेष है,
जो
कहना है।
वह शेष ही रहेगा।
रवींद्रनाथ को मरते समय एक मित्र ने कहा: तुम धन्यभागी हो! मृत्यु की इस अंतिम घड़ी में परमात्मा को धन्यवाद दो कि तुमने छह हजार गीत गाए। इतने गीत किसी आदमी ने कभी नहीं गाए। और तुम्हारा हर गीत ऐसा है कि संगीत में बंधने योग्य--संगीत से सराबोर है!
पश्चिम में शैली को महाकवि समझा जाता है, उसके केवल दो हजार गीत हैं। रवींद्रनाथ के छह हजार गीत हैं। और गीत संख्या में ही ज्यादा नहीं हैं, गुण में भी ज्यादा हैं।
तो मित्र ने ठीक ही कहा था, लेकिन रवींद्रनाथ की आंखों से झर-झर आंसू गिर पड़े और उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं, धन्यवाद न दे सकूंगा। मैं तो यही कहता हूं परमात्मा से कि अभी मैंने गाया कहां जो मुझे गाना था! अभी तो मैं केवल साज बिठा पाया था, अभी संगीत कहां पैदा हुआ था! और यह तुमने कैसा किया प्रभु कि विदा का क्षण आ गया! गीत गाने भेजा था, वह मैं गा न पाया। उस गाने की चेष्टा में ये छह हजार गीत पैदा हुए हैं; मगर जो शेष था वह शेष ही रहा है। साज बिठा पाया...!
शास्त्रीय संगीतज्ञ देखे न, साज बिठाते हैं। कभी आधा घड़ी लग जाती है। जो नहीं जानते हैं वे तो थोड़े हैरान होते हैं कि घर से ही बिठा कर क्यों नहीं आ गए! अब यहां ठोंका-ठांकी कर रहे हैं! वीणा कसी जा रही है। तबले ठोंके जा रहे हैं। पाउडर मला जा रहा है। यह क्या कर रहे हो? घर से ही क्यों नहीं करके आ गए? लेकिन कुछ चीजें हैं जो रेडीमेड नहीं हो सकतीं, जो क्षण-क्षण में बांधनी होती हैं। अब वह जो वीणा के तार कस रहा है, वह घर भी कस सकता था--तुम कहोगे। जरूर कस सकता था। मगर नहीं, उसे फिर कसने पड़ते। क्योंकि ये जो लोग मौजूद हैं, इनको बिना देखे तार नहीं कसे जा सकते। यह जो माहौल है, यह जो हवा है, इन्हें बिना देखे तार नहीं कसे जा सकते। इनके साथ-साथ तार कसे जाएंगे। यह वीणा के ही तार नहीं कस रहा है, यह वीणा और श्रोताओं के बीच संतुलन साध रहा है। यह न जानने वालों को समझ में नहीं आएगी बात। यह तार ही नहीं कस रहा है, यह तुम्हारे हृदय के साथ तालमेल बिठा रहा है। वह जो तबला कस रहा है, वह तबला ही नहीं कस रहा है। वह जो हथौड़ी से ठोंक रहा है तबले को, तबले को ही नहीं ठोंक रहा है; वह तुम्हारे कान के पर्दों को तबले के साथ बिठा रहा है। वह तबले को तुम्हारे अनुकूल बना रहा है। तुम सुनोगे। सुनने वाले बदल जाएंगे, फिर वीणा कसनी पड़ेगी।
मैं जो बोलता हूं वह तुम्हारी क्षमता के अनुसार होता है। अगर यहां सारे नये लोग बैठे हों सुनने को, तो मैंने तुमसे जो आज बोला, नहीं बोल सकता था। इसलिए गांव-गांव जाकर लोगों से बोलना मुझे बंद कर देना पड़ा। क्योंकि एक बात अनुभव में आने लगी बार-बार कि अगर भीड़-भाड़ में बोलता रहा, तो जो मुझे कहना है, कह ही न पाऊंगा। कहना तो दूर, साज भी न बिठा पाऊंगा।
ऐसा हुआ, लखनऊ के नवाब ने--वाजिद अली शाह ने--वाइसराय को निमंत्रण दिया था। संगीत की महफिल जमी। अंग्रेज वाइसराय, पहली दफा भारत आया था। उसे कुछ शास्त्रीय संगीत का तो पता ही नहीं था। संगीत का भी ऐसे कुछ उसे पता नहीं था। बैठक जमी। और लखनऊ के संगीत के प्रेमी इकट्ठे हुए। बड़े से बड़े संगीतज्ञ बुलाए गए थे। वे कसने लगे--कोई अपनी वीणा, कोई अपनी सारंगी, कोई अपना तबला, कोई अपनी मृदंग--वे सब साज बिठाने लगे। और वाइसराय सिर हिलाने लगा--सोच कर कि संगीत शुरू हो गया! वाजिद अली तो बहुत हैरान हुआ। और दूसरे भी बहुत हैरान हुए कि यह क्या हो रहा है! और जब साज बैठ गए और संगीतज्ञ संगीत जन्माने को तत्पर हुए, तो उसने आंख खोली और वाजिद अली से कहा कि संगीत बंद क्यों हो गया? जारी रखा जाए। मुझे बहुत पसंद आया। यही जारी रखा जाए।
तो रात भर यही चला! अब वाइसराय कहे, वही तो मेहमान था, तो रात भर यही चला कि लोग वीणा कसते रहे, तबला ठोंकते रहे। वाजिद अली अपना सिर ठोंकता रहा। बाकी सुनने वाले सिर ठोंकते रहे। और वाइसराय बड़ा प्रसन्न होता रहा कि क्या गजब का संगीत हो रहा है! सुनने वाले के अनुसार...।
बंद कर देना पड़ा मुझे यात्राओं को। क्योंकि जो सुनने वाले थे, वे केवल इतना ही समझ सकते थे कि तबला ठोंका जाए कि वीणा की तार कसी जाए; बस उसको ही वे संगीत समझते थे। बैठ गया हूं इसलिए अब एक जगह, ताकि धीरे-धीरे सुनने वाले और मेरे बीच एक तारतम्य हो जाए, एक गहराई हो जाए, एक नाता हो जाए; एक लहर में हम बंध जाएं।
आज से कोई डेढ़ सौ साल पहले एक वैज्ञानिक ने पहली दफा एक अदभुत बात खोजी थी। अब उस खोज का महत्व बढ़ता जा रहा है। उस पर नये काम शुरू हुए हैं। उसने एक बात खोजी, अचानक खोज ली। अक्सर महत्वपूर्ण बातें अचानक खोज में आती हैं। एक घर में मेहमान हुआ। उस घर की एक दीवाल पर दो पुराने घड़ियाल--पुरानी घड़ियां, बड़ी-बड़ी घड़ियां, पेंडुलम वाली घड़ियां एक ही दीवाल पर लगी थीं। वह चकित हुआ यह जान कर... वैज्ञानिक था, तो गौर से देखा उसने कि दोनों के पेंडुलम बिलकुल एक से हिलते हैं! एक साथ लयबद्ध! तो उसने एक घड़ी का पेंडुलम पकड़ रखा। लय तोड़ दी। फिर छोड़ दिया पेंडुलम, चला दिया; मगर लय तोड़ दी। लेकिन चकित हुआ कि आधा घड़ी के बीच फिर लय थिर हो गई। फिर वापस पेंडुलम साथ ही साथ घूमने लगे। दोनों बाएं जाएं, दोनों दाएं जाएं, साथ-साथ। उसने कई बार यह प्रयोग किया, रात भर सो न सका। कई बार एक पेंडुलम को रोक दे और उलटा चला दे, कि जब पहला पेंडुलम बाएं जा रहा है, इसको दाएं चला दे। मगर थोड़ी-बहुत देर में बस, फिर वापस धीरे-धीरे धीरे-धीरे दोनों एक लय में बद्ध हो जाएं। बड़ा हैरान हुआ कि मामला क्या है? क्योंकि इन घड़ियों के बीच कोई संबंध नहीं है।
मगर संबंध हैं, जो दिखाई नहीं पड़ते। वर्षों की खोज से उसे पता चला कि वह जो एक पेंडुलम का हिलना है, वह पीछे की दीवाल में सूक्ष्म तरंग पैदा करता है--बड़ी सूक्ष्म तरंग, कि वर्षों के बाद वह खोज पाया उस तरंग को! और वह तरंग दूसरे पेंडुलम को समझ में आ जाती है--और साथ डोलने का मजा!
प्रकृति हमेशा कम से कम शक्ति व्यय करके काम करती है...जिसमें कम से कम शक्ति व्यय हो! अगर दोनों एक-दूसरे के विपरीत डोलें तो दुगनी शक्ति व्यय होती है; अगर एक साथ डोलें तो आधी शक्ति व्यय होती है।
तो जब मैं जनता में, आम जनता में बोल रहा था तो बहुत शक्ति व्यय होती थी और फिर भी बड़ी मुश्किल बात थी। अब सिर्फ उनसे बोल रहा हूं जो प्यासे हैं। अब कुछ कहा जा सकता है। उनसे बोल रहा हूं जिनके पेंडुलम मेरे पेंडुलम के साथ गूंज रहे हैं, डोल रहे हैं; जिनका मुझसे हृदय का तार जुड़ा है।
इसलिए संन्यास की घटना अनिवार्य हो गई। अंततः सिर्फ संन्यासियों से ही बोलना चाहता हूं, जिनका तार मुझसे बिलकुल मिला हुआ है। फिर भी तुमसे कहूं: जो शेष है कहने को, शेष ही रहेगा। हां, चेष्टा हम करते रहेंगे उसे कहने की। और बहुत दूर तक हम उसके करीब भी पहुंचते रहेंगे, करीब-करीब उड़ानें होती रहेंगी। हम रोज-रोज करीब आते जाएंगे, मगर कुछ अनकहा अनकहा रहेगा।
सत्य सदा अनकहा रह जाता है। उसके कितने ही पास आ जाओ, कितने ही पास आ जाओ, उसे कहा नहीं जा सकता। लेकिन उसके पास आते-आते एक नई कला सीखने में आ जाती है--सुना जा सकता है।
फिर से दोहरा दूं। मैं रोज कहता जाता हूं। मेरे कहने से सत्य किसी दिन मैं कह सकूंगा तुमसे, ऐसा नहीं है। फिर क्यों कहे जाता हूं? इसलिए कहे जाता हूं कि जैसे-जैसे मैं करीब आने लगूंगा, जैसे-जैसे करीब आने लगूंगा--तुम भी सुनने की गहराई में बढ़ते जाओगे। और एक दिन वह घड़ी आ जाएगी, मैं तो नहीं कह सकूंगा, लेकिन तुम सुन लोगे। तुम्हारा विद्यार्थी शिष्य हो जाएगा। और सुन लोगे तो उसे जीना ही पड़ेगा। फिर उसके विपरीत न जी सकोगे। तुम्हारा भक्त पैदा हो जाएगा।
है अभी कुछ और है जो कहा नहीं गया।
उठी एक किरण, धाई, क्षितिज को नाप गई,
सुख की स्मिति कसक भरी, निर्धन की नैन कोरों में कांप गई
बच्चे ने किलक भरी, मां की वह नस-नस में व्याप गई
अधूरी हो, पर सहज थी अनुभूति:
मेरी लाज मुझे साज बन ढांप गई--
फिर मुझ बेसब्रे से
रहा नहीं गया।
पर कुछ और रहा जो
कहा नहीं गया।

निर्विकार मरु तक को सींचा है
तो क्या? नदी-नाले, ताल-कुएं से पानी उलीचा है
तो क्या? उड़ा हूं, दौड़ा हूं, तैरा हूं, पारंगत हूं,
इसी अहंकार के मारे
अंधकार में सागर के किनारे
ठिठक गया: नत हूं
उस विशाल में मुझसे
बहा नहीं गया।
इसीलिए जो और रहा, वह
कहा नहीं गया।

शब्द, यह सही है, सब व्यर्थ हैं
पर इसीलिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ हैं।
शायद केवल इतना ही: जो दर्द है
वह बड़ा है, मुझी से
सहा नहीं गया।
तभी तो, जो अभी और रहा, वह
कहा नहीं गया।
ये तो कवि के वचन हैं। और कवि को तो सिर्फ झलकें मिलती हैं। क्योंकि उसका अहंकार पूरा नहीं जाता; झीना-झीना होता जाता है, लेकिन झीना पर्दा बना रहता है, बना रहता है। कवि और ऋषि में यही भेद है। कवि को झलकें मिलती हैं; मगर उसको भी यह झलक मिल जाती है कि--है अभी कुछ और है, जो कहा नहीं गया!
लेकिन ऋषि को तो सत्य का समग्र अनुभव होता है; झलक नहीं, वह तो सत्यमय हो जाता है। अहं ब्रह्मास्मि! वह तो ब्रह्ममय हो जाता है। अनलहक! मैं सत्य हूं, ऐसी उसकी प्रतीति हो जाती है। मैं मिट जाता है, सत्य ही रह जाता है।
उसे कहा नहीं जा सकता--मगर ऋषि उसे कहने की चेष्टा करते रहे हैं। उस चेष्टा से सुनने की कला आ जाती है सुनने वालों में।
मैं तो नहीं कह पाऊंगा, लेकिन तुम जरूर सुन पाओगे। उसी आशा में रोज कहे जाता हूं, जानते हुए--है अभी कुछ और है, जो कहा नहीं गया!

आज इतना ही।

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