YARI

Birhani Mandir Diyana Baar बिरहनी मंदिर दियना बार 07

Seventh Discourse from the series of 10 discourses - Birhani Mandir Diyana Baar बिरहनी मंदिर दियना बार by Osho. These discourses were given during JAN 11-20 1979.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.


बिन बंदगी इस आलम में, खाना तुझे हराम है रे।
बंदा करै सोई बंदगी, खिदमत में आठों जाम है रे।
यारी मौला बिसारिके, तू क्या लागा बेकाम है रे।
कुछ जीते बंदगी कर ले, आखिर को गोर मुकाम है रे।

गुरु के चरन की रज लैके, दोउ नैन के बीच अंजन दीया।
तिमिर माहिं उजियार हुआ, निरंकार पिया को देखि लीया।।
कोटि सुरज तंह छपे घने, तीनि लोक धनी धन पाइ पीया।
सतगुरु ने जो करी किरपा, मरिके यारी जुग-जुग जीया।।

तब लग खोजे चला जावै, जब लग मुद्दा नहिं हाथ आवै।
जब खोज मरै तब घर करै, फिर खोज पकरि के बैठ जावै।।
आप में आप को आप देखै, और कहूं नहिं चित्त जावै।
यारी मुद्दा हासिल हुआ, आगे को चलना क्या भावै।।
ये हवाएं, यह सितारों का सुहाना साया
आह यह खुंकी, यह ठंडक, यह उदासी, यह गुदाज
तैरती फिरती है पिछले की रसीली आवाज
डालियां ओस की बूंदों से लदी जाती हैं
चांदनी कोह के माथे से उतर आई है
यह घनी रात, यह महकी हुई अफसुर्दा फजा
दूर तालाब के मंजर की सलोनी रंगत
फर्श पर लेटा हुआ नील गगन हो जैसे
यह शबे-माह दुआओं में मगन हो जैसे
सुरमई धुंध में लिपटा हुआ बोझल मंजर
गुल जमीनों की खामोशी में यह सुर, यह सरगम
ये चट्टानें, ये तराशीदा नगीं फितरत के
यह खुनक नर्म हवाओं की चटीली आवाज
तूले-हिज्रां वो मसीहा है कि जिसके हाथों
दिल के दुखने का भी अंदाज बदल जाता है
नुकरई गर्द में चुपचाप खड़े हैं अशजार
जुगनू उड़ते हैं कि सीले हुए शोलों की लपक
तारे जिस तरह घनी झाड़ियों की गोद भरें
फैलती जाती हैं सायों की मुकद्दस महकें
करवटें लेती हैं हरियाली की सोंधी लपटें
यह सिजल रैन, यह संगीत, यह तारों की फबन
कौन सुन पाएगा फितरत की जबाने-मासूम
जाने कब दीदा-ए-इन्सां में धनक उतरेगी
ऐ मेरी झूमती, इठलाती जमीं करवट ले
दिले-हर जर्रा धड़कता है कहीं आहट ले
दामने-कोह में अलगोजे का लहरा गूंजा
कोई चरवाहा दुखे दिल को लिए जागा है
कितने पुरदर्द हैं सुर, कितनी हाजीं है यह अलाप
जिस तरह चोटें रगे-जां की चमकती जाएं
चांद लचकाता किरनों के चमकते हुए तीर
किस सुयम्बर के रचाने का तमन्नाई है
रसमसे जंगलों की नींद में डूबी हुई लय
रगे-मंजर में फजा-ए-दिले-शब बोलती है
अधखिले गुंचों में शबनम की तरी डोलती है
यह फजा रसभरी कलियों की गिरह खोलती है
यह खुनक रात सितारों के गुहर रोलती है
सांवली चांदनी, मदमाती छलक पड़ती है
इन हवाओं में गुलाबी सी छलक पड़ती है
टिमटिमाती हैं कहीं दूर चरागों की लवें
रहगुजर नींद भरी आंखों से यूं तकती है
कि पशेमां न हो मेहमाने-सुबुकगाम कोई
वज्अ-ए-जादा पे न आए कहीं इलजाम कोई
यह सरे-चर्ख दमकता हुआ महताब नहीं
रात का नाग है काढ़े हुए मुकैश का फन
गीत पे सन्नाटे की बदमस्त हुआ जाता है
झूम-झूम उठती है लहराई हुई चंद्रकिरन
यह उदाहट, यह धुंधलका, यह कसक, यह महकार
कुंदनी पंख समेटे हुए तारों के बदन
अर्श के नील में पानी में घुले जाते हैं
ओस खाए हुए रुखसार सबा की रंगत
पौ का छलका हुआ शफ्फाक लहू है कि नहीं
महका-महका हुआ सोने का धुआं छाया है
किस्मते-शर्के-हसीं जाग रही है शायद
मेरी महबूब जमीं जाग रही है शायद
प्रकृति परमात्मा का प्रकट रूप है।
परमात्मा है आत्मा तो प्रकृति है शरीर।
परमात्मा है प्रेमी तो प्रकृति है प्रेयसी।
परमात्मा है गायक तो प्रकृति है गीत।
परमात्मा है वादक तो प्रकृति है उसका वादन।
और परमात्मा है नर्तक तो प्रकृति है उसका नृत्य।
जिसने प्रकृति को न पहचाना, उसे परमात्मा की कोई याद न कभी आई है, न कभी आएगी। जिसने प्रकृति को धुत्कारा, जिसने प्रकृति को इनकारा, वह परमात्मा से इतना दूर हो गया कि जुड़ना असंभव है। फूलों में अगर उसकी झलक न मिली, तो पत्थर की मूर्तियों में न मिलेगी। चांद-तारों में अगर उसकी रोशनी न दिखी, तो मंदिर में आदमी के हाथों से जलाई हुई आरतियां और दीये क्या खाक रोशनी दे सकेंगे! और हवाएं जब गुजरती हैं वृक्षों से, उनके गीत में अगर उसकी पगध्वनि न सुनाई पड़ी, तो तुम्हारे भजन और तुम्हारे कीर्तन, सब व्यर्थ हैं।
प्रकृति से पहला नाता बनता है भक्त का। प्रकृति से पहला नाता, फिर परमात्मा से जोड़ हो सकता है। प्रकृति उसका द्वार है, उसका मंदिर है।
तुम परमात्मा को तो चाहते रहे हो, लेकिन प्रकृति को इनकार करते रहे हो। इसलिए परमात्मा चाहा भी गया इतना सदियों-सदियों तक और पाया भी नहीं गया।
प्रार्थना तुम्हारी झूठी हो जाती है, क्योंकि तुम्हारी प्रार्थना में प्रेम की भनक नहीं होती, प्रेम की छनक नहीं होती, प्रेम की महक नहीं होती। तुम्हारी प्रार्थना झूठी हो जाती है, क्योंकि तुम्हारे ओंठों से तो उठती है, लेकिन तुम्हारे हृदय से नहीं आती। तुम कवि तो हो जाते हो, लेकिन ऋषि नहीं हो पाते। तुम बिठा लेते हो किसी तरह शब्दों के छंद, लेकिन तुम्हारे प्राण उन छंदों में गाते नहीं। तुम्हारे प्रेम और तुम्हारी प्रार्थना और तुम्हारे प्राणों का रस तुम्हारे छंदों में नहीं होता। तो तुम वीणा भी बजा लेते हो, लेकिन प्राण नहीं पड़ते। तुम आरती भी उतार लेते हो, और तुम जैसे थे वैसे के वैसे रह जाते हो। न तुम्हारी धूल झरती, न तुम्हारा स्नान होता, न तुम नये होते, न तुम ताजे होते। न तुम्हारी जिंदगी में कोई नई लौ, कोई नया जागरण आता है। कितनी बार तो तुम मंदिर और मस्जिद में प्रार्थना कर आए हो! कितना तो तुम सिर पटक चुके हो न मालूम कितने-कितने दरवाजों पर! फिर भी कुछ तो न हुआ, और जिंदगी हाथ से निकली जाती है!
और परमात्मा इतने करीब है कि तुम कल्पना भी नहीं कर सकते कि उसी की हवाओं ने तुम्हें घेरा है, कि तुम श्वास लेते हो तो वही है, कि तुम्हारा दिल धड़कता है तो वही है, कि तुम उठते हो तो उसमें, कि तुम बैठते हो तो उसमें, कि तुम जागते हो तो उसमें, कि तुम सोते हो तो उसमें, कि तुमने खाया भी उसे है, तुमने पीया भी उसे है, तुमने ओढ़ा भी उसे है--वही है!
मगर तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरुओं ने तुम्हें प्रकृति से दुश्मनी सिखा दी। और वहीं उन्होंने परमात्मा और तुम्हारे बीच एक ऐसा पहाड़ उतार दिया, एक ऐसी खाई खोद दी, कि जिसको पार करना असंभव है, कि जिस पर सेतु बांधना असंभव है। क्योंकि जिससे सेतु बनता था, उसका ही इनकार कर दिया गया। प्रकृति सेतु है।
तो जिसके हृदय में सुबह के उगते सूरज को देख कर नमस्कार नहीं उठता, उसकी नमाज झूठी है। और जिसके हृदय में रात तारों से भरे हुए आकाश को देख कर मस्ती नहीं छा जाती, उसकी प्रार्थना दो कौड़ी की है। सागर पर लहरें जब नाचती हैं और तुम भी अगर न नाच उठो, तो तुम कभी भी धर्म का अर्थ न समझ पाओगे। शास्त्रों को समझ लो, शब्दों को समझ लो, मगर अर्थ चूका का चूका रह जाएगा।
आज के ये वचन यारी के, प्रार्थना के संबंध में हैं। और प्रार्थना के संबंध में पहली बात मैं तुमसे कह दूं--प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता ही तुम्हें धीरे-धीरे, जो छिपा है, प्रच्छन्न है, अप्रकट है, उसके बोध से भरेगी।
उपनिषद के ऋषियों के वचन तुम कंठस्थ कर लो। प्यारे वचन हैं। कंठस्थ करोगे तो तुम्हें भी अच्छा लगेगा। मगर बस तोतों की रटंत होगी! पंडित हो जाओगे, प्रज्ञावान नहीं। कुछ बात, असली बात की कमी रह जाएगी। कुछ चूका-चूका होगा। शब्द तो सब वही होंगे जो उपनिषद में हैं, मगर प्राण कहां से लाओगे? आत्मा कहां से लाओगे? आंखें कहां से लाओगे?
काश, इतना आसान होता कि गुरुग्रंथ पढ़ते और तुम गुरु हो जाते! काश, इतना आसान होता कि तुम कुरान कंठस्थ कर लेते और परमात्मा का पैगाम तुम्हारे भीतर गूंज उठता! तो दुनिया कभी की धार्मिक हो गई होती! सारी पृथ्वी धर्म से भर गई होती! इतना आसान नहीं। इतना उधार नहीं है परमात्मा।
धर्म जीवित होता है तो नगद होता है। और नगद का अर्थ है--तुम्हारे हृदय से उठना चाहिए। तुम्हारे प्राणों के प्राण से आवाज आनी चाहिए। ऊपर से मत थोपो प्रार्थनाएं, भीतर जगाओ। यही भेद है सदगुरु का और मिथ्यागुरु का। मिथ्यागुरु थोप देता है प्रार्थना तुम्हारे ऊपर--एक क्रियाकांड तुम्हें दे देता है। सदगुरु तुम्हारे प्राणों को जगाता है, छेड़ता है। तुम्हारे भीतर पड़ी तानों को जन्माता है। सदगुरु, तुम्हारे भीतर जो है, उसी को उभारता है, निखारता है। तुम्हें जिसका पता नहीं है और जो तुम्हारे भीतर है, उससे ही तुम्हारी पहचान करवाता है।
कोशिशे-नामा-ओ-पैगाम बजा है लेकिन
फुर्सते-नामा-ओ-पैगाम कहां से लाऊं
दौरे-पैमाना-ए-इशरत है बहुत खूब मगर
बद्दले-गर्दिशे-अय्याम कहां से लाऊं
इन्किलाबाते-शबो-रोज के गमखाने में
जुल्फो-रुख की सहरो-शाम कहां से लाऊं
सारी दुनिया मुझे बेताब नजर आती है
मैं तेरे वास्ते आराम कहां से लाऊं
जिस तरफ देखिए वीरानी सी वीरानी है
शौके-तिज्ईने-दरो-बाम कहां से लाऊं
तू ही कह दे कि तेरी नजरे-मोहब्बत के लिए
आशिकी की हवसे-खाम कहां से लाऊं
शाइरी खुद मेरी फितरत का तकाजा है मगर
मस्तिए-हाफिज-ओ-खय्याम कहां से लाऊं
गीत भी तुम बना लो, तुकबंदी होगी।
मस्तिए-हाफिज-ओ-खय्याम कहां से लाऊं
हाफिज और उमरखय्याम की मस्ती तुम कहां से लाओगे? उमरखय्याम की रुबाइयात भी रच लो, मगर फिर भी खाली बोतल होगी, उसमें शराब न होगी। और बोतल कितनी ही कीमती हो, सोने जड़ी हो, हीरे जड़ी हो, अगर उसके भीतर शराब न हो तो दो कौड़ी की है। ऐसी ही तुम्हारी प्रार्थनाएं हैं--सुंदर, प्यारी, चमकती, दमकती, सजी-संवरी--मगर भीतर कुछ भी नहीं है।
शाइरी खुद मेरी फितरत का तकाजा है मगर
मस्तिए-हाफिज-ओ-खय्याम कहां से लाऊं
हाफिज और खय्याम की मस्ती भी आ सकती है, लेकिन बाहर से न आएगी। तुम्हारे भीतर ही एक झरना है। उसी झरने से तो तुम जी रहे हो। वही झरना तो तुम्हारी चेतना है। उसी झरने को प्रकट करना है। कोई सोया है तुम्हारे भीतर, उसे आवाज देनी है। उसे ललकार देनी है। उसे चुनौती देनी है। और वह उठ आए तो बंदा पैदा होता है, तो बंदगी पैदा होती है।
बिन बंदगी इस आलम में, खाना तुझे हराम है रे।
यारी कहते हैं कि अगर प्रार्थना पैदा न हो, तो जीना बिलकुल व्यर्थ है।
बिन बंदगी इस आलम में, खाना तुझे हराम है रे।
फिर एक श्वास लेनी भी बोझ है। भोजन करना भी हराम है। क्योंकि बंदगी नहीं है तो जिंदगी कहां? बंदगी ही जिंदगी है। जिन्होंने जाना है, सभी ने यही कहा है। सभी जानने वाले इस संबंध में एकमत हैं। सबै सयाने एकमत! और उनका एकमत क्या है? कि जहां बंदगी है, वहां जिंदगी है। बंदगी नहीं तो तुम एक लाश ढो रहे हो! तुम मुर्दा हो! चल लेते हो, उठ लेते हो, खा लेते हो, सो लेते हो, इससे मत समझ लेना कि तुम जीवित हो। जन्म मिला है तुम्हें, अभी जीवन नहीं। और जन्म मिला है तो मृत्यु भी मिल जाएगी। मगर जन्म और मृत्यु के बीच में जीवन हो, यह कोई अनिवार्य नहीं है। जीवन जगाना होता है। जन्म तो अवसर है। मृत्यु है अवसर का छिन जाना।
मगर अवसर को बहुत ही कम लोग उपयोग कर पाते हैं। जमीन ही पड़ी रहती है, गुलाब कभी लगते नहीं। गुलाब बोओ तो लगें। श्रम लो तो धरती सुवास से भरे, सुगंध छूटे। श्रम लो तो धरती रंगीन हो, दुल्हन बने, हरी साड़ियां ओढ़े। लाल फूल झलमलाएं। सुवास उड़े हवाओं में। मौज हो, मस्ती हो, उत्सव हो।
पर जमीन ऐसी भी पड़ी रह जा सकती है। और यह भी हो सकता है: फूलों के बीज भी तुम्हारे पास थे, जमीन भी तुम्हारे पास थी, जल की भी कोई कमी न थी; फिर भी सब उदास रह गया, व्यर्थ रह गया। तुमने कभी बीज जमीन में न डाले। तुमने कभी बीजों को पानी से न सींचा। तुमने कभी कोई इस बात का स्मरण ही न लिया कि जीवन मिलता नहीं है, निर्मित करना होता है; सृजन है।
शब्द तो सभी के पास हैं, लेकिन सभी कवि नहीं हैं। और पैर भी सभी के पास हैं, लेकिन सभी नर्तक नहीं हैं। और अंगुलियां भी सभी के पास हैं, इससे वीणा न छिड़ जाएगी। और वीणा भी सभी के पास है, मैं तुमसे कहता हूं; मगर तुम्हारी जिंदगी में कहीं कोई संगीत नहीं है, कोई रस तुम्हारे जीवन में बहता नहीं है। तुमने जन्म को ही सब समझ लिया।
जन्म मूल्यवान है, लेकिन उसका मूल्य इसी में है कि जीवन बन जाए। जीवन बनाना होता है। जीवन एक कला है! जीवन ऐसे ही नहीं मिलता। जीवन साधना है, श्रम है। और उस साधना के बिना तुम जी भी लोगे, और तुम्हें भ्रांति भी रहेगी कि जीए, लेकिन तुम धोखा खा गए! असली जन्म तो तब होता है जब तुम्हें अपने भीतर छिपे परमात्मा का अनुभव होता है। और उस अनुभव की यात्रा ही बंदगी है। उस अनुभव की यात्रा का नाम ही प्रार्थना है।
बिन बंदगी इस आलम में, खाना तुझे हराम है रे।
सीधी-सीधी बात कह देते हैं यारी, एक ही चीज मूल्यवान है: प्रार्थना। और प्रार्थना क्या है?
छनती हुई नजरों से जज्बात की दुनियाएं
बेख्वाबियां, अफसाने, महताब, तमन्नाएं
कुछ उलझी हुई बातें, कुछ बहके हुए नग्मे
कुछ अश्क जो आंखों से बेवजह छलक जाएं
और प्रार्थना क्या है? कुछ आंसू, जो बेवजह, बिना किसी कारण के, किसी अहोभाव में आंखों से छलक जाएं!
कुछ अश्क जो आंखों से बेवजह छलक जाएं
कुछ उलझी हुई बातें, कुछ बहके हुए नग्मे
प्रार्थना गणित नहीं है, प्रेम है; हिसाब नहीं है, तर्क नहीं है। और तुमने प्रार्थना के भी हिसाब बना लिए हैं। तुमने हवन और यज्ञ के हिसाब बना लिए हैं, क्रियाकांड बना लिए हैं।
कुछ उलझी हुई बातें...
जब तुम अस्तित्व के साथ कुछ बात करने में लीन हो जाते हो, जब तुम वृक्षों से बोलते हो, चांद-तारों से गुफ्तगू करते हो, कि सूरज को सुबह-सुबह नमस्कार करते हो...
कुछ उलझी हुई बातें...
ये बातें उलझी हुई ही होंगी। समझदार चांद-तारों से बातें नहीं करते। समझदार रुपये गिनते हैं, सिक्के जमा करते हैं। समझदार पद की यात्रा करते हैं; महत्वाकांक्षा, सफलता, यश, ये उनकी असली मंजिलें हैं। नासमझ चांद-तारों से बातें करते हैं। नासमझ, पंख नहीं हैं, तो भी आकाश में उड़ते हैं।
प्रार्थना गुफ्तगू है, संवाद है। यह जो सूरज छन-छन कर पड़ रहा है हरे वृक्षों से, इससे कभी बात करने का मन नहीं होता? कभी किसी वृक्ष को गले लगने का मन नहीं होता? कभी किसी फूल को खिले देख कर उसके पास नाचने का मन नहीं होता? तो फिर तुम चूक जाओगे। तो फिर तुम्हारी जिंदगी हराम है। फिर तुम्हारी जिंदगी में राम नहीं है, इसलिए जिंदगी हराम है।
छनती हुई नजरों से जज्बात की दुनियाएं
एक भावना का लोक है!
छनती हुई नजरों से जज्बात की दुनियाएं
बेख्वाबियां, अफसाने, महताब, तमन्नाएं
कुछ उलझी हुई बातें, कुछ बहके हुए नग्मे
कुछ अश्क जो आंखों से बेवजह छलक जाएं
कभी अकारण आंख से आंसू गिरे हैं? अकारण! कि एक पक्षी आकाश में उड़ गया और आनंद-विभोर तुम्हारी आंखें गीली हो आईं, कि धन्यभागी हूं कि यह सौभाग्य का क्षण कि मैंने पक्षी को आकाश में उड़ते देखा!
रामकृष्ण को पहली समाधि जो लगी थी, वह लगी थी, एक काली बदली पृष्ठभूमि में थी, झील के पास से गुजरते थे रामकृष्ण। होगी कोई तेरह-चौदह साल की उम्र। बगुलों की एक कतार--सफेद बगुले, काली पृष्ठभूमि, घनी काली बदरिया! झील का सन्नाटा! चुपचाप प्रार्थना में लीन खड़े हुए वृक्ष! रामकृष्ण अकेले! पगडंडी से गुजरते थे। उनके आने से, उनके पैरों की आहट से ही बगुले जो झील के किनारे बैठे थे--पंख फैला दिए उन्होंने! काली बदली में सफेद बगुले ऐसे तीर की तरह निकल गए। और कुछ हो गया। रामकृष्ण वहीं गिर पड़े! घर बेहोशी में लाए गए--बेहोशी हमारी तरफ से। उनकी तरफ से तो पहली दफा होश आया, तब तक बेहोश थे। दुनिया ने समझा बेहोश हो गए। वे मस्ती में थे!
यह बंदगी है! यह प्रार्थना का क्षण है! इतना सुंदर था वह दृश्य, ऐसी चोट की उस दृश्य ने कि सारा जीवन बदल गया रामकृष्ण का। यह उनका परमात्मा का पहला अनुभव था। यह पहली पहचान! यह पहला प्रेम! और फिर यह प्रेम गहरा होता चला गया।
मैं तुमसे यही कहना चाहता हूं कि तुम प्रार्थना सीखने मंदिरों में मत जाना; वहां झूठी प्रार्थनाएं सदियों से चल रही हैं। किसी झील पर जाना। बगुलों की उड़ती हुई पंक्ति देखना। आकाश में तैरते हुए सफेद बादल देखना। वृक्षों के सन्नाटे को सुनना। और कुछ होगा। किसी दिन तुम्हारी आंखें गीली हो उठेंगी। शब्दों की बात नहीं है, आंखों की बात है। विचार की बात नहीं है, भाव की बात है। और जिस दिन भाव जगेगा, उस दिन फिर परमात्मा के लिए प्रमाण नहीं पूछे जाते--वही भाव प्रमाण हो जाता है।
बिन बंदगी इस आलम में, खाना तुझे हराम है रे।
क्यों? क्योंकि जिसकी जिंदगी में बंदगी नहीं, उसकी सितार बिन छेड़ी पड़ी है। उसकी बांसुरी से गीत नहीं जन्मा है।
मनुष्य संभावना है प्रार्थना की, बीज है प्रार्थना का। अगर बीज वृक्ष न हो तो व्यर्थ; बीज वृक्ष हो तो सार्थक। अर्थ का अर्थ ही क्या होता है? जीवन में फल और फूल लगें तो सार्थकता; नहीं तो आदमी बांझ रह जाता है। प्रार्थना मनुष्य का परम परिष्कार है। उसके ऊपर कुछ भी नहीं है, उसके पार कुछ भी नहीं है। तो प्रार्थना घटनी ही चाहिए। प्रार्थना के घटने पर ही तुम द्विज बनोगे; तुम्हारा दूसरा जन्म होगा; तुम ब्राह्मण बनोगे।
सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं, कोई ब्राह्मण की तरह पैदा नहीं होता। सब शूद्र की तरह पैदा होते हैं और बहुत कम लोग हैं जो ब्राह्मण बन कर मरते हैं। शूद्र की तरह पैदा होना, शूद्र की तरह मर जाना, इसे अधिक लोगों ने अपनी नियति समझ लिया है। और खयाल रखना, जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता। जब तक ब्रह्म का ज्ञान नहीं, तब तक कैसे ब्राह्मण? बुद्ध ने कहा है: जो ब्रह्म को जाने सो ब्राह्मण।
और ब्रह्म को क्या जानोगे? अभी तो आंख भी नहीं उठाई उसकी तरफ। अभी तो प्रार्थना भी नहीं जन्मी, परमात्मा को कैसे जानोगे?
तो एक तुम्हें स्मरण दिलाना चाहता हूं: तुम्हारे बाहर चारों तरफ फैली हुई प्रकृति है, यह परमात्मा का प्रकट रूप है। और दूसरा तुम्हें स्मरण दिलाना चाहता हूं: तुम्हारे भीतर प्रेम का झरना सुगबुगा रहा है, फूटने को तत्पर है। प्रकृति का बोध और प्रेम का झरना फूट पड़े, जहां प्रकृति और प्रेम के झरने में मिलन हो जाता है, वहीं प्रार्थना पैदा हो जाती है।
सब कुछ ले लो, किंतु किसी पर मिटने का अधिकार न छीनो।
मुझसे मेरा प्यार न छीनो।
और हमसे प्यार छिन गया है। हम प्यार जानते ही नहीं। और जिसको हम प्यार कहते हैं, वह प्यार का केवल आभास है। क्योंकि प्रेम का लक्षण और कसौटी यही है कि मिटने की तैयारी हो। जो आदमी मिटने को तैयार नहीं है, उसने प्रेम नहीं जाना। तुम्हारा प्रेम तो एक शोषण है, जिसमें तुम दूसरे को मिटाने में लगे हो।
मुझसे मेरा प्यार न छीनो।
सब कुछ ले लो, किंतु किसी पर मिटने का अधिकार न छीनो।
सपनों का आधार न छीनो।

क्रूर-कठिन तप की ज्वाला में
जलती तन-मन की अभिलाषा
तृप्ति मगर प्राणों की मेरे
दूर किसी के मुख की आशा
इस जीवनव्यापी ममता के अपनेपन का तार न छीनो।

दुनिया के शोषण ने मेरे
विश्वासों का खून पिया है
पर मैंने संघर्षों में भी
उस छवि पर अभिमान किया है
आदर्शों की मूर्तिमती पावनता की मनुहार न छीनो।

रुद्ध विभा के सिंहद्वार को
जिनको सुधि आ खोला करती
कुहर-भरे सूने मानस में
जिनकी पगध्वनि डोला करती
उन अयास फैली बांहों की तृष्णा का संसार न छीनो।
जिन सांसों का स्वर अब भी
कानों से सट कर गूंज रहा है
जिन आंखों की सिक्त नीलिमा
को अब तक मन पूज रहा है
उस चितवन की लहराती सी ज्वाला भरी पुकार न छीनो।

थक जाते हैं प्राण कभी
जब जीवन की बलि देते-देते
थक जाती हैं पतवारें जब
दुर्दिन की नौका खेते-खेते
प्यासी गति में तब बल भरने वाला किरण-उभार न छीनो।

मैं जिसकी करुणा का ऋण
साकार बना इतराता फिरता
जिसकी अवसादी अपूर्ति का
स्वर बन नभ में घन सा फिरता
उस विह्वलता-दानिन की नतमुखी सजल अनुहार न छीनो।
मुझसे मेरा प्यार न छीनो।
सब कुछ ले लो, किंतु किसी पर मिटने का अधिकार न छीनो।
भीतर हो प्रेम...उलटी लगेगी यह बात कि जो मिटने को तैयार है वही जीवन को पाने का हकदार है। और जो मिटता है, वही परम जीवन को पाता है। बीज मिटता है तो वृक्ष होता है; और सरिता मिटती है तो सागर होती है।
प्रेम है मिटने की कला। प्रेम है अपने को पोंछ देने की कला। प्रेम है निर-अहंकार होने का शास्त्र, विधि, विज्ञान।
प्रकृति की संवेदना हो, प्रकृति का बोध हो और आंखें गीली हो जाएं, और भीतर प्रेम की तत्परता हो, मिटने की तत्परता हो, खोने की तत्परता हो--बस बंदगी पैदा हो जाएगी, प्रार्थना पैदा हो जाएगी!
बिन बंदगी इस आलम में, खाना तुझे हराम है रे।
बंदा करै सोई बंदगी, खिदमत में आठों जाम है रे।
और एक बड़ी अदभुत बात यारी कहते हैं, खूब गांठ बांध कर हृदय में रख लेना!
बंदा करै सोई बंदगी...
बंदगी करने से कोई बंदा नहीं होता। बंदा जो करता है वही बंदगी! यह सवाल नहीं है कि प्रार्थना कैसे की जाए। ‘कैसा’ सवाल तुमने उठाया--कैसे--कि बस तुम क्रियाकांड में पड़े।
बंदा करै सोई बंदगी...
कबीर ने कहा है: उठूं बैठूं सो परिक्रमा, खाऊं पिऊं सो सेवा।
कबीर से किसी ने पूछा है कि आप प्रार्थना कब करते हो? भगवान की सेवा कब करते हो? मंदिर की परिक्रमा को कब जाते हो?
तो कबीर ने कहा: उठूं बैठूं सो परिक्रमा, खाऊं पिऊं सो सेवा। मैं उठता हूं, बैठता हूं, यह उसकी परिक्रमा चल रही है। मैं खाता-पीता हूं, वही खा-पी रहा है। यह उसकी सेवा चल रही है। और किसको प्रसाद लगाऊं? और किसके सामने थाल सजाऊं?
जीवन को आनंदमग्न भाव से जीना। जीवन को समर्पित भाव से जीना। इस बोध से जीना कि हम परमात्मा के सूरज की छोटी-छोटी किरणें हैं, कि हम उसके गीत के छोटे-छोटे शब्द हैं, छोटी-छोटी पंक्तियां हैं, कि हम उसकी विराट दीपावली के छोटे-छोटे दीये हैं, कि हम उसके सागर की बूंदें हैं। जिसको यह खयाल आ गया, वह बंदा हो गया। खुदा यानी सागर, बंदा यानी बूंद। और फिर बंदा जो करे, वही बंदगी है। इसलिए जरूरी नहीं है कि वह माला लेकर बैठे। और जरूरी नहीं है कि गायत्री पढ़े। और जरूरी नहीं है कि नमोकार का स्मरण करे। और जरूरी नहीं है कि जपुजी दोहराए। बंदा जो करे, वही बंदगी। असली सवाल बंदे का जन्म है।
बंदा करै सोई बंदगी, खिदमत में आठों जाम है रे।
और फिर ऐसा नहीं है कि कर ली घड़ी भर को प्रार्थना और हो गया समाप्त मामला। चले गए मंदिर, पटक लिया सिर, चढ़ा दिए दो पैसे, कि दो फूल, और भागे बाजार। बंदा तो चौबीस घंटे उसकी बंदगी में होता है। श्वास भीतर आती है तो उसका स्मरण है, श्वास बाहर जाती है तो उसका स्मरण है। उसका स्मरण खोता ही नहीं।
तो किसी जीवन के खंड को प्रार्थनापूर्ण करने से कुछ भी नहीं होता। अखंड प्रार्थना होती है, तभी कुछ होता है। जब सतत उसकी धारा बहती है, अविराम तुम्हारे भीतर राम का स्मरण चलता है। ‘राम’ शब्द का नहीं, स्मरण रखना। शब्दों से क्या लेना-देना है? एक बोध बना रहता है। एक भीतर मीठी-मीठी कसक बनी रहती है। एक मधुर पीड़ा हृदय को घेरे रहती है। चलते हो तो लगता है उसकी पृथ्वी पर चल रहा हूं--पवित्र भूमि! आकाश को देखते हो तो लगता है उसी का विस्तार देख रहा हूं--पवित्र आकाश! लोगों से मिलते हो तो भीतर यह बोध बना ही रहता है, खड़ा ही रहता है पृष्ठभूमि में कि उसी से मिल रहा हूं।
राबिया, एक सूफी फकीर स्त्री अपने द्वार पर बैठी थी। हसन नाम का एक फकीर भी उसके पास बैठा सत्संग कर रहा था। तभी एक तगड़ा जवान भिखमंगा भीख मांगने आ गया। राबिया ने ब्रह्मवार्ता तो वहीं बंद कर दी, उठ कर भीतर गई, भोजन लाई, भिखमंगे को भोजन दिया। हसन विचारशील आदमी था। भिखारी के चले जाने पर उसने कहा कि राबिया, इस मस्त तगड़े आदमी को भोजन देना, भिक्षा देनी क्या उचित है?
राबिया हंसने लगी, उसने कहा: अब वह जिस रूप में भी आए, उसी में स्वीकार है! किस भिखमंगे की बात कर रहे हो? कभी वह दीन-दुर्बल की तरह भी आता है, कभी मस्त, तड़ंग, शक्तिशाली की तरह भी आता है। लेकिन वही आता है! मैंने भिक्षा भिखारी को नहीं दी है। यह भिक्षा नहीं थी, सेवा थी। यह उसको ही चढ़ा दिया है। उसका ही था, उसको ही दे दिया है।
जिस व्यक्ति को इस बात की प्रतीति होनी शुरू हो जाती है कि हम उसी के सागर की मछलियां हैं, उसे फिर हर घड़ी, हर रंग, हर रूप में उसकी छवि झलकने लगती है। फिर भिखमंगा है तो वही और सम्राट है तो वही। वही है! उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है।
बंदा करै सोई बंदगी, खिदमत में आठों जाम है रे।
बंदे से भूल हो ही नहीं सकती। और जिससे अभी भूल हो सकती है, वह बंदा नहीं है। तुम्हें सिखाए गए हैं चरित्र के मार्ग--यह करो, यह न करो; यह करना शुभ है, यह करना अशुभ है। तुम्हें नीति सिखाई गई है, धर्म नहीं। धर्म जानता ही नहीं कि क्या शुभ है, क्या अशुभ है। धर्म तो कहता है--तुम्हारा होना अशुभ है, तुम्हारा न होना शुभ है। तुम मिट जाओ, फिर परमात्मा हो जाता है। फिर परमात्मा जो भी करे वह शुभ ही है। तुम अगर हो, तो शुभ भी करोगे तो अशुभ होगा। तुम दान भी दोगे तो अहंकार मजबूत होगा। तुम मंदिर भी बनाओगे तो उस पर पत्थर लगाने की आकांक्षा से बनाओगे, कि नाम का पत्थर लगा दूं, कि रह जाएगी याद सदा को, कि छोड़ जाऊं जमीन पर कुछ चिह्न, कि मैं भी था, कि मैं भी कुछ था! कि बहुत आए और गए, लेकिन ऐसा मंदिर कोई भी नहीं बना गया!
तुम मंदिर भी बनाओगे, और तुम हो, तो भूल हो गई। तुम पूजा भी करोगे तो तुम्हारी नजरें देखती रहेंगी कि लोग प्रभावित हो रहे हैं कि नहीं।
तुम जरा जाकर मंदिर में देखो। जिस दिन कोई नहीं होता, पुजारी जल्दी से पूजा खत्म कर देता है। उस दिन कुछ मस्ती नहीं आती। अगर देखने वाले लोग इकट्ठे हों, तो उस दिन बड़ी देर होती है पूजा, खूब चलती है; नाचता है, गाता है। नजर में देखने वाले लोग हैं।
इंग्लैंड के एक चर्च में इंग्लैंड की महारानी आने को थी। तो न मालूम कितने फोन चर्च के पादरी को आए। ऐसा तो कभी न हुआ था, हजारों फोन आए! सभी यह पूछ रहे थे कि क्या कल महारानी चर्च में आ रही हैं? क्या उनका आना बिलकुल पक्का है? क्या सब सुनिश्चित हो गया है? उस पादरी ने सभी को फोन पर यह कहा कि महारानी का तो कुछ पक्का नहीं है, पक्का हो भी नहीं सकता, कल का भरोसा किसको है! आज जिंदगी है, कल न हो! आज महारानी हैं, कल न हों! आज मैं हूं, कल न होऊं! आज तुम हो, कल न होओ! महारानी का कुछ पक्का नहीं है। इसलिए गैर-पक्की बात का मैं कुछ कह नहीं सकता। इतना तुमसे कहता हूं: परमात्मा कल भी चर्च में रहेगा।
मगर परमात्मा में किसको उत्सुकता है? लोगों ने बार-बार पूछा कि वह तो हमें पता है कि परमात्मा रहेगा; हम पूछते हैं कि महारानी कल आ रही हैं कि नहीं? लोगों को उत्सुकता महारानी को दिखाने में है कि हम भी चर्च आते हैं। बड़ी भीड़ इकट्ठी हुई। ऐसा कभी हुआ ही न था। महारानी भी बहुत प्रभावित हुई। उसने पादरी को पूछा कि इतने लोग चर्च में आते हैं!
पादरी ने कहा: इनमें से कोई भी चर्च नहीं आया है। ये सब तमाशबीन हैं। ये आपके लिए आए हैं। यह चर्च तो कल भी था और परसों भी था, लेकिन यहां कोई दिखाई नहीं पड़ता था। और आज ऐसे भक्ति-भाव से बैठे हैं अपनी-अपनी बाइबिल लिए!
तुम अपने पर खयाल करना। अगर चार लोग देखते हों तो तुम्हारी प्रार्थना रंग लेने लगती है। और अगर कोई देखने वाला न हो, फिर कौन फिक्र करता है! अगर परमात्मा ही अकेला हो देखने वाला तो कौन फिक्र करता है!
असली प्रार्थना लोगों को देख कर नहीं की जाती; वह कोई मान-प्रतिष्ठा की बात नहीं है। वह तो हृदय का उदगार है। शायद असली प्रार्थना, भीड़-भाड़ हो, तो की ही न जा सके। एकांत का ही निवेदन है। वह एकांत का गीत है, एकांत संगीत है।
सूफी कहते हैं: रात के एकांत में, जब तुम्हारी पत्नी को भी पता न चले, तब चुपचाप उठ कर, उससे दो बात कर लेना। वे बातें सुनी जाएंगी। अगर जरा भी कहीं रस रहा कि सुनाई पड़ जाए दूसरे को कि देखो, मैं कैसी तपश्चर्या कर रहा हूं! कितने उपवास कर रहा हूं! कितनी प्रार्थना कर रहा हूं...!
लोग हिसाब रखते हैं कि कितनी मालाएं फेरनी है। माला फेरने में भी हिसाब! तुम कभी किसी से बिना हिसाब के भी जुड़ोगे कि नहीं? कभी किसी से भाव से जुड़ोगे कि नहीं? कि गणित ही बिठाते रहोगे? कोई आदमी सौ माला फेरता है तो बस...एक सौ एक नहीं फेरता। वहां भी कंजूसी चल रही है। परमात्मा के साथ भी लेन-देन का हिसाब है!
नहीं, यह कोई ढंग नहीं है। बंदा इस तरह की बातें नहीं करता। बंदा कोई गणित नहीं बिठाता।
इन प्यालों में पड़ करके तो विष भी अमृत बन जाता है!
और बंदे के प्याले में विष भी पड़ जाए तो अमृत हो जाता है। और जो बंदा नहीं है, उसके प्याले में अमृत भी पड़ जाए तो विष हो जाता है।
इन प्यालों में पड़ करके तो विष भी अमृत बन जाता है!
वसुधा की सारी मस्ती का
सार भरे नयनों के प्याले,
गागर से सागर छलका कर
कर देते जग को मतवाले।
पत्थर मन भी सहज पिघल कर इनके रंग में सन जाता है!
इन प्यालों में पड़ करके तो विष भी अमृत बन जाता हैं!

सार भरे संपूर्ण मधुरता का
जग की, अधरों के प्याले,
ओंठों पर लाते पल भर को
बह जाते हैं मधु के नाले।
मिट जाती कटुता युग-युग की ऐसा मीठा क्षण आता है।
इन प्यालों में पड़ करके तो विष भी अमृत बन जाता है।

इन प्यालों में ही तो सारी
भरी सरसता है जीवन की,
सुख बन जातीं इनके द्वारा
सभी वेदनाएं तन-मन की।
मानव इनके हेतु इसी से हंस कर दुख भी अपनाता है!
इन प्यालों में पड़ करके तो विष भी अमृत बन जाता है!
बंदे को चिंता नहीं रह जाती। धार्मिक को चिंता नहीं रह जाती--सुख मिले, कि दुख न मिले। क्योंकि उसके पास तो एक कीमिया है, उसके पास तो दुख आकर भी सुख हो जाता है। उसके पास आते-आते अंगार फूल बन जाते हैं। उसके पास आते-आते कांटे तत्क्षण अपना रूप बदल लेते हैं। उसके पास आते-आते रात सुबह हो जाती है।
एक बार बंदा होने की कला आ जाए तो फिर--
बंदा करै सोई बंदगी, खिदमत में आठों जाम है रे।
फिर उसकी सुबह से सांझ और सांझ से सुबह सतत अखंड प्रवाह की भांति परमात्मा की अनुस्मृति से भरी रहती है। उसे अलग से बैठ कर स्मरण नहीं करना होता है। अलग से बैठ कर तो वे ही स्मरण करते हैं जिन्हें स्मरण करना नहीं आता। पांच बार नमाज वे ही पढ़ते हैं जिन्हें नमाज नहीं आती। जिन्हें नमाज आती है वे चौबीस घंटे नमाज में होते हैं। उनका उठना-बैठना नमाज है। उनका चलना-फिरना नमाज है। उनका सांस लेना बस पर्याप्त है, ध्यान है।
यारी मौला बिसारिके, तू क्या लागा बेकाम है रे।
और यारी कहते हैं कि तूने मालिक को तो बिसार दिया, मौला को तो बिसार दिया है।
यारी मौला बिसारिके, तू क्या लागा बेकाम है रे।
और न मालूम कितने बेकाम धंधों में लग गया है!
कौन सी बात बेकाम है और कौन सी बात काम की है? कसौटी एक है--मौत। जो मौत के पार तुम्हारे साथ जाएगा वह सार्थक; जो मौत तुमसे छीन लेगी वह व्यर्थ। तुम्हारा धन, तुम्हारा पद, तुम्हारी प्रतिष्ठा, तुम्हारा नाम, सब मौत छीन लेगी। इसमें से तुम कुछ भी बचा कर न ले जा सकोगे--एक कौड़ी भी नहीं, एक तिनका भी नहीं! यही कसौटी है। कस लेना मौत पर। जिस काम में भी लगे हो, गौर से देख लेना, इसमें से जो मिलेगा वह मौत के पार जाएगा? जाएगा तो ठीक। लगे रहना। फिर यह काम बंदगी है। और अगर लगे कि यह तो कुछ जाने वाला नहीं है, तो फिर उसमें पूरा जीवन मत गंवा देना। फिर उसमें ही सारी ऊर्जा मत समाप्त कर देना। फिर जितना जरूरी हो, कर लेना। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अपनी रोटी मत कमाना, कि अपने लिए एक छप्पर मत बनाना। ठीक जो जरूरी हो वह कर लेना।
और जरूरतें बहुत कम हैं। वासनाएं अनंत हैं, आवश्यकताएं बहुत कम हैं। आवश्यकताएं पूरी हो सकती हैं, वासनाएं कभी पूरी नहीं होतीं। और आवश्यकताओं से प्रार्थना में बाधा नहीं पड़ती, वासना से बाधा पड़ती है। अब कुछ नासमझ हैं जिन्होंने वासना को आवश्यकता समझ रखा है। और कुछ नासमझ हैं जिन्होंने यह सोच कर कि वासना आवश्यकता है, आवश्यकता को भी छोड़ दिया है। ये दोनों ही गलत हैं। एक भोगी है, एक त्यागी हो गया है। भोगी ने वासना को आवश्यकता समझ रखा है। वह कहता है कि जब तक मेरे पास करोड़ रुपये न होंगे, तब तक कैसे सुख हो सकता है? और जब उसके पास करोड़ हो जाएंगे, उससे भी सुख नहीं होगा। क्योंकि जब उसके पास लाख थे, तब वह करोड़ मांगता था। अब करोड़ हो गए, तो गणित सौ गुना आगे फैल जाएगा। अब एक अरब होंगे, तो सुख होगा। और अरब होकर भी सुख नहीं होगा।
अमरीका का बहुत बड़ा धनपति एण्ड्रू कारनेगी जब मरा, मरने के ठीक कुछ घड़ी पहले किसी ने उससे पूछा कि आप तो तृप्त जा रहे होंगे? क्योंकि आपने अपने ही हाथ से अरबों रुपये कमा कर दुनिया को दिखा दिया।
एण्ड्रू कारनेगी जब मरा तो उसके पास दस अरब रुपयों की संपत्ति थी। और खुद की कमाई हुई! खाली हाथ शुरू किया था और दस अरब का साम्राज्य खड़ा कर दिया था। लेकिन एण्ड्रू कारनेगी ने उदासी से कहा कि नहीं, मैं प्रसन्न नहीं जा रहा हूं, क्योंकि मेरे इरादे सौ अरब कमाने के थे। मैं एक हारा हुआ आदमी हूं--नब्बे अरब से हारा हूं! तुम क्या दस अरब की बातें कर रहे हो!
क्या तुम सोचते हो एण्ड्रू कारनेगी के पास सौ अरब होते तो वह तृप्त मर जाता? जिनके पास सौ अरब थे, वे भी तृप्त नहीं मरते। सभी, जो वासनाओं को आवश्यकता समझ लेते हैं, भ्रांति में पड़ जाते हैं। और इनकी भ्रांति का एक दुष्परिणाम यह होता है कि कुछ लोग इससे उलटे हो जाते हैं, वे कहते हैं कि सब छोड़ देना है। तो वे अपनी रोटी भी नहीं कमाते, वे अपने वस्त्र भी नहीं कमाते। मगर रोटी की जरूरत तो छूटती नहीं, वस्त्र की जरूरत तो छूटती नहीं। कोई और तुम्हारे लिए कमाएगा।
तो तुम्हारा संन्यासी बोझिल हो जाता है, बोझ हो जाता है, भार हो जाता है। समाज के ऊपर, समाज की छाती पर चट्टान की तरह हो जाता है। ऐसे संन्यास के दिन लद गए। अब ऐसे संन्यास का कोई भविष्य नहीं है।
इसलिए मैं एक नये संन्यास को जन्म दे रहा हूं। एक ऐसे संन्यासी को, जो भोगी के विपरीत नहीं है और जो भोगी के साथ भी नहीं है। जो त्यागी भी नहीं है, जो भोगी भी नहीं है--जो दोनों के मध्य में है। जिसने इतनी बात समझ ली है कि वासनाओं के पीछे दौड़ना बेकाम है। आवश्यकताएं पूरी कर लेना उचित है। आवश्यकताएं पूरी करने में थोड़ी ही शक्ति लगती है। और आवश्यकताएं पूरी होकर जो शक्ति बच जाती है, उस शक्ति को ध्यान बनने दो, प्रार्थना बनने दो, पूजा बनने दो, अहोभाव बनने दो। और तुम पाओगे कि मृत्यु के समय जब तुम विदा होओगे तो मौत ने तुमसे कुछ भी नहीं छीना। क्योंकि आवश्यकताएं तो तुमने पकड़ी ही नहीं थीं, वे तो रोज की हैं--भोजन कर लिया, कोई बच थोड़े ही रहता है।
मौत के लिए तुम कुछ ज्यादा छोड़ न जाओगे छीनने को। मौत तुम्हें देख कर बड़ी उदास हो जाएगी। और तुम ले जाओगे एक बड़ी संपदा अपने साथ। और जो संपदा चिताओं के पार चली जाती है वही संपदा पंख बन जाती है तुम्हारे लिए मोक्ष के, परम मुक्ति के!
यारी मौला बिसारिके, तू क्या लागा बेकाम है रे।
जरा गौर करो, कितनी बेकाम की बातों में लगे हो! कोई प्रधानमंत्री बनने में लगा है, कोई राष्ट्रपति बनने में लगा है। बन कर भी क्या करोगे? जो बन गए हैं, उन्होंने क्या कर लिया है? उन पदों पर बैठ कर तुम सिर्फ हास्यास्पद मालूम होओगे। छोटे बच्चों जैसी बातें हैं--जो बड़ी कुर्सियों पर बैठ जाएं और समझें कि हम बड़े हो गए। कुर्सियां किसी को बड़ा नहीं करतीं। बड़ा होना बड़ी और बात है। हां, जो बड़ा है, जहां बैठ जाता है, वहीं सिंहासन जरूर हो जाता है। मगर सिंहासन किसी को बड़ा नहीं करते।
बुद्ध जहां बैठेंगे, वहां सिंहासन है। कबीर के पैर जहां पड़ जाएंगे, वहां मंदिर खड़े होंगे। तुम्हारे भीतर संपदा हो तो तुम जहां बैठोगे, वहीं साम्राज्य निर्मित हो जाएगा। लेकिन वह साम्राज्य बड़ा सूक्ष्म है, और आंख वालों को ही दिखाई पड़ सकता है। और जिनके पास भाव की समझ है, उनकी प्रतीति में आ सकता है।
कुछ जीते बंदगी कर ले, आखिर को गोर मुकाम है रे।
फिर तो कब्र में विश्राम होगा।
आखिर को गोर मुकाम है रे।
आखिर तो कब्र मिलने वाली है। वहां पूर्णाहुति हो जाएगी तुम्हारी सारी जिंदगी की दौड़-धूप की, आपाधापी की।
कुछ जीते बंदगी कर ले...
यह जो जिंदगी थोड़ी देर को मिली है, यह जो ऊर्जा का परमात्मा ने दान दिया है, इसे प्रार्थना बना लो। इस ऊर्जा में से जितनी प्रार्थना बन गई, उतनी ही तुम्हारे जीवन की सार्थकता होगी। उतनी ही तुम्हारे जीवन की गरिमा होगी। उतना ही तुम्हारे जीवन का सौंदर्य होगा, महिमा होगी।
वाजिब ही को है दवाम, बाकी फानी
कय्यूम को है कयाम, बाकी फानी
कहने को जमीनो-आस्मां सब कुछ है
बाकी है उसी का नाम, बाकी फानी
सिर्फ उसका नाम बच रहता है। और उसके नाम से जो जुड़ गया, वह बच रहता है, उसकी याद बच रहती है। उसकी याद शाश्वत है, बाकी सब क्षणभंगुर है। पानी के बबूले हैं। अभी बने, अभी मिटे। ओस की बूंदें हैं। सुबह के सूरज की रोशनी में ऐसे चमकती हैं जैसे मोती हों, मगर अभी उड़ जाएंगी भाप होकर। थोड़ी देर बाद इनका कोई पता-ठिकाना न मिलेगा। ऐसी ही तुम्हारी आपाधापी की जिंदगी है--पानी का एक बबूला, कि ओस की एक बूंद, कि अब झरी, तब झरी, कि अब फूटा, तब फूटा!
कुछ शाश्वत से पहचान कर लो। कुछ सनातन से गांठ जोड़ लो। कुछ उस प्यारे से संबंध बना लो। कबीर कहते हैं: मैं राम की दुल्हनिया! ऐसा कुछ करो...ऐसा कुछ करो कि भांवर पड़ जाए उससे, जो सदा है, सदा रहा है, और सदा रहेगा।
कैसे उससे संबंध हो जाए? क्या हम करें? रोओ! नाचो! डोलो!
मुंह से उठा नकाब दो, मैं भी तुम्हें निहार लूं
आंखों को नूर कुछ मिले, देख जरा बहार लूं
पर्दे पड़े हैं हर तरफ, कैसा अजीब हिजाब है
झांक कहीं से दो जरा, मैं भी तो दिल निखार लूं
लहरें उधर मचल रहीं, चांद में क्या छिपे हो तुम
रात में ही अगर मिलो, आंखों में भर खुमार लूं
अब्र यह क्यों झलक रहा, नीले फलक में हो अगर
बर्क में कौंध उठो जरा, मैं भी तो हो निसार लूं
गुंचा व गुल में है कशिश, खुश्बू है इनमें रंग है
बू ही में कुछ महक उठो, फूलों से कर सिंगार लूं
तार जो दिल में बज रहे, खोया हुआ है इनमें सुर
उसका कोई पता नहीं, कैसे सम्हाल तार लूं
अपना ही दिल है क्या कहूं, फिर भी नहीं है हाथ में
उसकी रविश अजीब है, कैसे भला करार लूं
ढूंढ़ा है जिस जगह तुम्हें, पर्दे वहीं पड़े हुए
कौन सा वह मुकाम है, जाके जहां पुकार लूं
आंख जिधर चली गई, पाई उधर कशिश नई
मुझमें कशिश की गर कमी, किससे कशिश उधार लूं
दिल को अगर हो खींचते, पर्दा भी दो जरा उठा
आंख को रहगुजर बना, दिल में तुम्हें उतार लूं
पुकारो! बंधे-बंधाए शब्दों में नहीं, अपनी ही बात हो। फिर चाहे तुम्हारी प्रार्थना तुतलाने जैसी क्यों न हो, तो भी पहुंच जाएगी। बड़े सुसंस्कृत, बड़े व्याकरण से शुद्ध, बड़े शास्त्रीय शब्द न हुए तो चलेगा। तुम्हारे होने चाहिए शब्द! तुम्हारी प्रार्थना बस तुम्हारी ही प्रार्थना होनी चाहिए। प्रार्थना भी उधार लेते हो! किसी दूसरे के जूते उधार नहीं पहनते। किसी दूसरे के कपड़े उधार नहीं पहनते। किसी दूसरे की जूठन नहीं खाते। और उस परमात्मा के रास्ते पर जब भी चलते हो, तभी जूठन को अपने चारों तरफ सम्हाल लेते हो! यह तो अपमानजनक है। परमात्मा के साथ तो सीधा-सीधा संबंध होना चाहिए। भाव की बात हो।
मुंह से उठा नकाब दो, मैं भी तुम्हें निहार लूं
आंखों को नूर कुछ मिले, देख जरा बहार लूं
पर्दे पड़े हैं हर तरफ, कैसा अजीब हिजाब है
पर्दे पर पर्दे हैं!
झांक कहीं से दो जरा, मैं भी तो दिल निखार लूं
अब्र यह क्यों झलक रहा, नीले फलक में हो अगर
बर्क में कौंध उठो जरा, मैं भी तो हो निसार लूं
बदली में बिजली की भांति कौंध जाओ।
गुंचा व गुल में है कशिश, खुश्बू है इनमें रंग है
बू ही में कुछ महक उठो, फूलों से कर सिंगार लूं
चलो छोड़ो, फूल से ही महक उठो! इसी फूल से अपना सिंगार कर लूं।
दिल को अगर हो खींचते, पर्दा भी दो जरा उठा
आंख को रहगुजर बना, दिल में तुम्हें उतार लूं
तो फिर आंख को ही रास्ता बना लूं! आंख ही रास्ता बनती है। जरा आंख खोलो! जरा जागो! जरा इस प्रकृति को पहचानो! जरा इस प्रकृति के प्रेम में उतरो! इस प्रकृति को छेड़ने दो तुम्हारे हृदय के तार! प्रकृति से भागो मत, क्योंकि प्रकृति परमात्मा है। उसका प्रकट रूप, उसकी अभिव्यक्ति। इसी से जोड़ बनेगा। इसी से भांवर पड़ेगी।
कुछ जीते बंदगी कर ले, आखिर को गोर मुकाम है रे।
गुरु के चरन की रज लैके, दोउ नैन के बीच अंजन दीया।
आंख से ही बनता है रास्ता। आंख से ही वह उतरता है।
गुरु के चरन की रज लैके, दोउ नैन के बीच अंजन दीया।
गुरु के चरणों में जो झुका! गुरु के चरण तो केवल बहाना हैं, ताकि झुकने की कला आ जाए। वृक्षों के पास झुक जाओगे तो भी हो जाएगा। चांद-तारों के सामने झुक जाओगे तो भी हो जाएगा। झुकने के लिए कोई बहाना चाहिए। गुरु का अर्थ है: जो अब नहीं है। जो नहीं है, उसके सामने झुकोगे, तो तुम्हें भी नहीं होने की कला आ जाएगी।
गुरु का अर्थ है: जो मिट गया। आया परमात्मा और जिसे ले गया। जिसकी बूंद सागर में समा गई--और जिसकी बूंद में सागर समा गया! गुरु का अर्थ है: अब जो अपने को व्यक्ति की भाषा में सोचता ही नहीं; जो अब अपने को अलग मानता ही नहीं। इसीलिए तो उपनिषद कह सके: अहं ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं! यह कोई अहंकार की उदघोषणा नहीं है; ठीक उलटी बात है, यह निर-अहंकार की उदघोषणा है।
इसीलिए तो जीसस कह सके: मैं हूं द्वार! मैं हूं मार्ग! मैं हूं सत्य! यह कोई अहंकार की घोषणा नहीं है। लगती ऊपर से ऐसी ही है! इसमें ‘मैं’ की कोई बात ही नहीं है। जीसस यह कह रहे हैं: मैं अब नहीं हूं--द्वार है, मार्ग है, सत्य है!
लेकिन तुम्हारी भाषा में बोलना पड़ता है तो तुम्हारे शब्दों के उपयोग करने पड़ते हैं। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं: सर्व धर्मान्‌ परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज! सब छोड़-छाड़ कर, सब धर्म इत्यादि, तू मेरी शरण आ!
अहंकारी जब इसको पढ़ते हैं, उनको लगता है कि अरे, यह तो बड़े अहंकार की बात है! कृष्ण खुद ही अपने मुंह से कह रहे हैं कि मेरी शरण आओ!
कृष्ण इसीलिए कह पा रहे हैं, क्योंकि अब कृष्ण नहीं हैं। अब कृष्ण अपनी तरफ से तो समाप्त हो गए हैं। अब तो कृष्ण उसके ही प्रतिनिधि हैं। अब तो उसके लिए ही एक द्वार हैं।
गुरु का अर्थ है: जिसके भीतर अहं ब्रह्मास्मि का उदघोष उठा; जिसके भीतर अनलहक की गूंज उठी; जो अब नहीं है। उसकी चरणरज का अर्थ होता है--उसके चरणों में समर्पण।
समर्पण से ही आंख में अंजन लगाना होता है, तभी आंख खुलती है, अंधा आंख वाला होता है। समर्पण का काजल तुम्हारी आंख में लग जाए, तो जो नहीं दिखाई पड़ता है वह दिखाई पड़ने लगे। जो दिखाई पड़ता रहा है वह दो कौड़ी का हो जाए और जो अब तक नहीं दिखा था वही सब कुछ हो जाए।
सृष्टि अभी दिखाई पड़ती है; वह भी पूरी-पूरी नहीं। आंख पर काजल लग जाए समर्पण का तो स्रष्टा दिखाई पड़ता है। फिर सृष्टि उसका ही आवरण हो जाती है, उसका ही घूंघट! और अगर तुम्हारी प्रेयसी से तुम्हें प्रेम है, तो उसके घूंघट से भी प्रेम होगा।
गुरु के चरन की रज लैके, दोउ नैन के बीच अंजन दीया।
तिमिर माहिं उजियार हुआ, निरंकार पिया को देखि लीया।।
और जैसे ही तुमने समर्पण का अंजन आंख में दिया कि तत्क्षण, जरा भी देर नहीं होती--तिमिर माहिं उजियार हुआ--तो मन का जो अंधेरा था वह मिट जाता है और भीतर उजाला ही उजाला हो जाता है। मन है अंधकार--विचारों की भीड़, वासनाओं की भीड़, आकांक्षाओं की भीड़--बड़ा गहन अंधकार है! और जैसे ही किसी ने समर्पण किया... समर्पण का अर्थ है: अपने मन को किसी के चरणों में रख दिया। और गुरु तो शून्य है। तुमने मन उसके सामने रखा कि उसके शून्य में तिरोहित हो जाएगा। गुरु के चरणों में मन को रखते ही मन तिरोहित हो जाता है। जो वर्षों ध्यान करने से नहीं होता, वह एक क्षण गुरु के चरणों में सिर रखने से हो जाता है।
वर्षों ध्यान से भी यही करना होता है--मन को मिटाना पड़ता है। लेकिन तब तुम्हीं को मिटाना पड़ता है। इंच-इंच तोड़ना पड़ता है यह पहाड़। और गुरु एक ऐसी शून्य प्रक्रिया है कि जिसके चरणों में सिर रखा कि तुम्हारा सिर खो गया। फिर तुम बिना सिर के रहोगे। फिर धड़ ही धड़ बचा, फिर कोई सिर नहीं है। फिर कोई अहंकार नहीं है। और जहां अहंकार नहीं है वहां कैसा अंधेरा? अहंकार अर्थात अंधेरा। निरअहंकार अर्थात उजियार।
तिमिर माहिं उजियार हुआ...
और तब तुम्हारे जीवन में आ जाता है वसंत। तब तुम्हारे जीवन में आ जाता है मधुमास!
आज तो मधुमास रे मन!
आज फूलों से सुवासित हो उठी तृष्णा विजन की
आज पीले मधुकणों से भर गई छाती पवन की
आज द्राक्षा पर्णिका से उड़ चली मस्ती गगन में
आज पूनों बह चली रस-फुल्ल महुओं के सदन में
आज तो मधुमास रे मन!

आज पुरवाई घने वन में चली परिमल भरी सी
स्वर्ण कलशों में सजल केशर लिए चंपा परी सी
और वन-तुलसी न पूछो! गंध से निर्बंध लथपथ
है तृषित उर आज कैसा गीत आकुल, सुधि शिथिल, श्लथ
आज तो मधुमास रे मन!

कनक पुलकों में तरंगित चित्र-लेखा सी धरा छवि
दूर तक सहकार श्यामल रेणुका से घिर चला कवि
लो! प्रखर, सन-सन सुरभि से नागकेसर रूप विह्वल
बज उठी किंकिणि मधुप रव सी, हुई बन-बाल चंचल
आज तो मधुमास रे मन!
नील सागर ले उड़ी घन कुंतलों में कौन अपने
स्निग्ध नीलाकाश प्राणों में जगाता नील सपने
आज किसके रूप से जल-सिक्त, धूमिल, कामिनी-वन
आज संगीहीन मेरे प्राण पुलकित हैं अचेतन
आज मैं मधुमत्त उन्मन!

अनमने फागुन दिवस ये हो रहे हैं प्राण कैसे
आज संध्या के प्रथम ही भर चला उर लालसा से
आज आंधी सा प्रखर आलेष पिक की काकली में
एक अंगूरी पिपासा मुक्त अंगों की गली में
आज तो मधुमास रे मन!
मन मिटा कि वसंत आया। मन मिटा कि कोयल बोली। मन मिटा कि फूल खिले। मन मिटा कि रोशनी हुई। मन है तो अंधेरा है। और मन है तो पतझड़ है। और मन है तो मरुस्थल है सब। मन गया कि हरा-भरा उपवन, कि रस-भरा जीवन!
आज मैं मधुमत्त उन्मन!
और जहां मन गया, उन्मनी अवस्था आई।
आज तो मधुमास रे मन!
फिर मधु बरसा। फिर अमृत के द्वार खुले। फिर कोई मृत्यु नहीं है। फिर जीवन सच्चिदानंद है। फिर जीवन जीवन है। अभी तुम जिसे जीवन कहते हो, क्या खाक जीवन है! अभी तो जीवन से पहचान भी नहीं हुई।
तिमिर माहिं उजियार हुआ, निरंकार पिया को देखि लीया।
और जैसे ही भीतर उजियाला हो, वैसे ही उस परम प्यारे के दर्शन हो जाते हैं। क्योंकि परम प्यारा तुम्हारे भीतर उतना ही है, जितना तुम्हारे बाहर। तुम भी उसके एक रूप, उसके एक ढंग, उसकी एक अभिव्यक्ति! उसके रस की एक धार! उसके गीत की एक कड़ी! तुम भी उसके पैर की झंकार! भीतर जहां उजियाला हुआ, कि तुम चकित हो जाओगे--नहीं पाओगे अपने को, पाओगे परमात्मा को! नहीं पाओगे अपना कोई पता। खोजते रहोगे उजाले में और तुम्हारी कोई पहचान अपने से न होगी।
अंधेरे में हो तुम! उजाले में नहीं हो तुम। तुम्हारा होना और अंधेरा पर्यायवाची हैं; तुम्हारा न होना और उजाला पर्यायवाची हैं। शायद इसीलिए तो लोग अंधेरे को जोर से पकड़ते हैं, क्योंकि अंधेरा गया कि तुम गए। अंधेरे में लोग क्यों जी रहे हैं? अंधेरे का कुछ लाभ है। अंधेरे में कुछ आशा है। अंधेरे का कुछ प्रयोजन है। ज्ञानी पुकारते हैं कि जागो! तुम जागते नहीं। तुम करवट लेकर फिर सो जाते हो। ज्ञानी कहते हैं: स्वयं को देखो! तुम सुन लेते हो, मगर देखते नहीं। तुम कहते हो: देखेंगे, कभी देखेंगे, जरूर देखेंगे, बात तो ठीक है। अब आप कहते हैं तो ठीक ही होगी। आपकी बात इतनी ठीक है कि हम आपको नमस्कार करते हैं, कि आपकी पूजा करेंगे, कि मंदिर में आपकी प्रतिमा रखेंगे।
मगर ज्ञानी क्या कहते हैं, वह तुम कभी करते नहीं। जरूर तुम्हारे न्यस्त स्वार्थ के विपरीत है। तुम्हारा न्यस्त स्वार्थ क्या है? तुम्हारा एक गहन स्वार्थ है कि मैं रहूं। बुद्ध से लोगों ने बार-बार पूछा है कि आप कहते हैं निर्वाण में आत्मा बचेगी ही नहीं, तो फिर ऐसे निर्वाण से सार क्या है? फिर हम यहीं भले। फिर संसार ही भला, कम से कम हम हैं तो! फिर दुख ही भला, कम से कम हम हैं तो! तुम्हारा सुख, तुम्हारा आनंद, तुम्हारा महासुख जंचता नहीं, क्योंकि जब हम ही न होंगे तो महासुख का क्या सार?
तर्क से यह बात समझ में भी आती है कि जब मैं ही न होऊंगा तो महासुख से क्या सार? मगर तुम समझे नहीं। जब तुम न होओगे, तभी महासुख है। तुम्हारा नहीं है महासुख। महासुख तुम्हारी शून्यता का फूल है। बीज मिट जाता है तो वृक्ष। अगर बीज कहने लगे कि मैं मिटूं, फिर वृक्ष होगा, तो सार क्या है?
मगर वृक्ष में बीज ही तो प्रकट हुआ है मिट कर! परमात्मा में तुम ही मिट कर प्रकट होओगे। एक अर्थ में तुम मिट जाओगे--पुराने अर्थ में। पुराना तादात्म्य समाप्त हो जाएगा। तुम्हारी पुरानी सीमा टूट जाएगी। तुम्हारी पुरानी परिभाषा बिखर जाएगी। एक नये अर्थ में प्रकट होओगे। तब क्षुद्र थे, अब विराट होकर प्रकट होओगे। एक अर्थ में मृत्यु और दूसरे अर्थ में पुनर्जीवन।
तिमिर माहिं उजियार हुआ, निरंकार पिया को देखि लीया।
अहंकार गया तो निरंकार पिया को देख लिया। वह प्यारा अहंकार के अभाव में देखा जाता है। उस पर पर्दा नहीं है, तुम्हारी आंख पर अहंकार का पर्दा है। इस पर्दे को हटाओ।
जाग उठी जीवन में कैसी मधु की पुलक पुनीत हिलोर
कितना सुंदर रे यह मधुवन--कितना कलरव, हास्यविभोर
जाग उठी मेरे लघु मन में चिर यौवन के वैभव सी
तम अभिशप्त प्राणरजनी में किरणमयी हेमांगिनी श्री
इस जड़ता के स्नायुजाल में धमक उठा कैसा कंपन
महामृत्यु सी सुप्त धमनियों में लहरा कैसा प्लावन
अवसित महाशून्य में मेरा आत्ममरण, दुःसह पीड़न
शापज्वलित पापी प्राणों में जाग उठे मेरे पावन
छवि की रीती, शुष्क पंखुरियों में मधु का उदगम कैसा
व्यथा-मूक जर्जर प्राणों में यह उन्मन गुंजन कैसा
वह प्रचंड उन्माद, वेदना आज हुई कितनी शीतल
इस अशांत विमथित उर में क्या जाग उठे मेरे उज्ज्वल
कैसी अलख शांति बहती है नीर भरी पल-पल में
कैसा पवन पूत मद फैला है सारे भूतल में
एक बूंद में उमड़ पड़ा सागर का वीचि-विलास सघन
गीत-गंध-रस-विरहित उर में जाग उठे मेरे मोहन
वह प्यारा जाग उठे तुम्हारे भीतर तो पहले तो भरोसा ही नहीं आता। कैसे आए भरोसा? अशांति को जाना है अब तक और एकदम शांति का दीया जला! अब तक दुख से पहचान थी, एकदम सुख की गंध उठी! अब तक अंधेरा ही अंधेरा जीवन था, आज उजियारा हुआ! अब तक कुछ भी न जाना था, और आज परम प्यारे को जान लिया!
एक बूंद में उमड़ पड़ा सागर का वीचि-विलास सघन
एक छोटी सी बूंद में सागर का अवतरण!
एक बूंद में उमड़ पड़ा सागर का वीचि-विलास सघन
गीत-गंध-रस-विरहित उर में जाग उठे मेरे मोहन
भरोसा भी नहीं आता पहली बार जब यह घटना घटती है। पहली बार जब यह घटना घटती है तो आश्चर्य-विमुग्ध, अवाक रह जाता है भक्त। क्योंकि भक्त पाता है कि मैं भगवान हूं। कैसे भरोसा करे? कैसे मान ले? असंभव घटा है, अघट घटा है! मगर मानना ही पड़ेगा। मुकरा भी नहीं जा सकता है। जो घट ही गया है, उसे इनकार भी नहीं किया जा सकता है। कुछ दिन तक तो सन्नाटे में रह जाता है भक्त। कुछ दिन तक तो बोल ही नहीं पाता।
बुद्ध सात दिन तक नहीं बोले। समाधि फल गई, सात दिन तक चुपचाप बैठे रहे। कथाएं कहती हैं कि देवता स्वर्ग में बहुत बेचैन हो उठे--बुद्ध बोलेंगे या नहीं बोलेंगे? कहीं चुप ही तो न रह जाएंगे? क्योंकि कितनी मुश्किल से कभी कोई बुद्ध होता है और फिर चुप रह जाए! तो जो भटक रहे हैं रास्तों पर, अंधेरे में टटोल रहे हैं जो, उनके लिए कौन मार्ग देगा? उनके लिए कौन इशारे देगा? उनके लिए कौन निर्देश देगा?
बुद्ध चुप हैं, क्योंकि जो घटा है, ऐसा सन्नाटा छोड़ गया है अपने पीछे--न कुछ कहने को सूझता, न कुछ करने को सूझता! सात दिन तक उठे ही नहीं हैं वृक्ष के नीचे से। बैठे ही रह गए! पत्थर की मूर्ति होकर रह गए। मानने में नहीं आता कि ऐसा हो सकता है।
परमात्मा इस जगत में सबसे असंभव घटना है। फिर भी घटना घटी है, घटती है! और धन्यभागी हैं वे, जिनके भीतर सोया मोहन जाग उठे। तुम भी धन्यभागी हो सकते हो, मगर धन्यभाग की तैयारी करनी होगी। अतिथि को, परम अतिथि को बुलाना है, तो घर-द्वार सजाओगे या नहीं? परम अतिथि को आमंत्रित करना है, तो कुछ आयोजन करोगे या नहीं? बंदनवार बांधोगे या नहीं? ‘स्वागत’ द्वार पर लिखोगे या नहीं?
कुछ तैयारी करनी है। और तैयारी को अगर ठीक से समझो तो एक ही बात है तैयारी की--अहंकार को विदा करना है, निर-अहंकार का द्वार खोलना है। और तब एक क्षण में घटना घट जाती है।
जाग उठी जीवन में कैसी मधु की पुलक पुनीत हिलोर
कितना सुंदर रे यह मधुवन--कितना कलरव, हास्यविभोर
जाग उठी मेरे लघु मन में चिर यौवन के वैभव सी
जाग उठी जीवन में कैसी मधु की पुलक पुनीत हिलोर
आता नहीं भरोसा!
इस जड़ता के स्नायुजाल में धमक उठा कैसा कंपन
महामृत्यु सी सुप्त धमनियों में लहरा कैसा प्लावन
अवसित महाशून्य में मेरा आत्ममरण दुःसह पीड़न
शापज्वलित पापी प्राणों में जाग उठे मेरे पावन
जानते हैं हम तो केवल पापों को, पाप की पीड़ाओं को, पाप के दंश को। और यह कैसे हुआ?
शापज्वलित पापी प्राणों में जाग उठे मेरे पावन
छवि की रीती, शुष्क पंखुरियों में मधु का उदगम कैसा
व्यथा-मूक जर्जर प्राणों में यह उन्मन गुंजन कैसा
वह प्रचंड उन्माद, वेदना आज हुई कितनी शीतल
इस अशांत विमथित उर में क्या जाग उठे मेरे उज्ज्वल
नहीं आता भरोसा, मगर करना पड़ता है भरोसा। हजार संदेह उठते हैं, मगर करनी पड़ती है श्रद्धा। क्योंकि जो घट ही गया है, अब उसे झुठलाया नहीं जा सकता।
कैसी अलख शांति बहती है नीर भरी पल-पल में
कैसा पवन पूत मद फैला है सारे भूतल में
एक बूंद में उमड़ पड़ा सागर का वीचि-विलास सघन
गीत-गंध-रस-विरहित उर में जाग उठे मेरे मोहन
गुरु के चरन की रज लैके, दोउ नैन के बीच अंजन दीया।
तिमिर माहिं उजियार हुआ, निरंकार पिया को देखि लीया।।
कोटि सुरज तंह छपे घने...
और जैसे हजार-हजार सूरज एक साथ निकल आएं! जैसे सूर्यों की कतारें निकल आईं! जैसे सूर्यों की दीपमाला सज गई!
कोटि सुरज तंह छपे घने, तीनि लोक धनी धन पाइ पीया।
और जिसने उस धनी को पा लिया, उसी ने धन पाया। उस मालिक को पा लिया, उसी ने मालकियत पाई।
तीनि लोक धनी धन पाइ पीया।
वह प्यारा इस सारे अस्तित्व का मालिक है। उसके साथ हम एक हो गए तो हम भी मालिक हो गए। खोते हैं हम क्या? खोने को हमारे पास है भी क्या? और पाते हैं कितना! बूंद जब सागर में उतरती है तो क्या खोती है? उसके पास था भी क्या? मगर सागर में उतरने के पहले बूंद भी झिझकती है, डरती है!
खलील जिब्रान ने लिखा है: जब कोई नदी सागर में गिरती है तो ठिठकती है क्षण भर को, डरती है, कंपित हो उठती है, लौट कर पीछे देखती है--वे सारी पर्वत श्रृंखलाएं, वे सुंदर यात्रापथ, वे वन, वे घाटियां, वे लोग, वे तीर्थ, वे पूजा के चढ़ाए गए फूल, अंधेरी रातों में बहाए गए दीये--वह सब याद आता होगा। वे सारी स्मृतियां, वे सारे सुंदर दिन जो बीत गए। और सामने है अथाह सागर! और एक कदम और कि नदी खो जाएगी; उसका अहंकार खो जाएगा; उसकी सीमा टूट जाएगी; उसका व्यक्तित्व न बचेगा।
जिब्रान ठीक ही कहता है कि डरती होगी नदी, घबड़ाती होगी नदी, ठिठकती होगी, लौट जाना चाहती होगी। मगर अब लौटने का कोई उपाय भी नहीं है। जो प्रार्थना में गया, एक ऐसी घड़ी आती है कि फिर लौटने का कोई उपाय नहीं रह जाता। लौटना चाहो तो भी लौट नहीं सकते। उस विराट का सम्मोहन ऐसा आकर्षित करता है, ऐसी कशिश खींचती है कि तुम्हारे बावजूद भी तुम्हें सागर में उतरना ही होगा।
कोटि सुरज तंह छपे घने, तीनि लोक धनी धन पाइ पीया।
और उस परम प्यारे को पाते ही सब कुछ तुम्हारा है। इसके पहले कुछ भी तुम्हारा न था। और जो-जो तुमने कहा था मेरा, झूठा था। तुम ही न थे अपने तो और तुम्हारा कोई क्या होता! कहा मेरी पत्नी, कहा मेरा पति, कहा मेरा भाई, मेरा मित्र--सब झूठा है, क्योंकि तुम ही अपने नहीं। अभी तुम्हें यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं, अपने की तो बात ही छोड़ दो। अभी यह मैं क्या है, इसकी कोई पहचान ही नहीं। क्योंकि जो पहचानने गए, उन्हें तो यह मिला नहीं। जो नहीं पहचाने, वे ही कहते हैं--मैं हूं। जिन्होंने जाना, वे तो कहते हैं--मैं नहीं हूं। ज्ञान के प्रकाश में मैं का अंधेरा पाया नहीं जाता। और मैं तभी तक पाया जाता हैं, जब तक ज्ञान नहीं होता।
‘मैं’ एक भ्रांति है। फिर ‘मेरा’ भ्रांति से पैदा हुई भ्रांति है। ‘मैं’ ही असत्य है तो ‘मेरा’ तो असत्य होगा ही। फिर मेरा घर, फिर मेरा धर्म, मेरा मंदिर, मेरी मस्जिद, मेरी किताब, मेरा धर्मग्रंथ, मेरे सिद्धांत, सब तुम्हारी भ्रांतियां हैं, मैं की भ्रांतियां हैं। सब, समग्रीभूत रूप से, जो भी मैं से जुड़ा है, भ्रांत है। तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। लेकिन यह देखना कि कुछ भी नहीं है, बड़ा पीड़ादायी है। इसलिए हम मान कर चलते हैं, हम आंख बंद करके चलते हैं। हम कहते हैं कि नहीं, यह पत्नी मेरी है, सदा-सदा के लिए मेरी है। हम एक-दूसरे को बहुत भरोसा दिलाते हैं। पति पत्नी से कहता है: सदा-सदा के लिए तेरा हूं। जन्मों-जन्मों के लिए तेरा हूं। हम-तुम एक-दूसरे के लिए बने हैं।
पत्नी भी यही कहती है कि तुम्हारे अतिरिक्त और कोई पुरुष में मुझे रस ही नहीं है। और कोई पुरुष मुझे दिखाई ही नहीं पड़ता। बस, तुम्हीं हो जीवन के सार। तुम्हीं हो सब कुछ, मेरे प्राणों के प्राण!
मगर ये सब बातें हैं भुलावे की। हम एक-दूसरे को समझा रहे हैं। हम एक-दूसरे को सहारा दे रहे हैं। हम यह कह रहे हैं कि घबड़ाओ मत, मैं तुम्हारा हूं। इससे यह तुम्हारी प्रतीति बनी रहेगी कि तुम भी हो।
जितना तुम्हारे पास धन होता है, उतने तुम आश्वस्त हो जाते हो--इतना है मेरे पास, घबड़ाहट क्या है? जितना पद होता है, उतनी तुम्हारी अकड़ बढ़ जाती है। क्यों? क्योंकि इतना बड़ा मेरा पद है, तो मैं भी कुछ हूं।
ऐसे मैं की भ्रांति को हम सम्हालते चले जाते हैं। और इसी मैं की भ्रांति को सम्हालने का नाम संसार है। जो इस संसार के प्रति जाग गया, जिसने यह देख लिया कि यह सब भ्रांति है, यहां कुछ भी अपना नहीं है, कुछ अपना हो नहीं सकता है--बस उसके जीवन में उस परम धन की वर्षा हो जाती है।
सतगुरु ने जो करी किरपा, मरिके यारी जुग-जुग जीया।
मगर मर कर ही जी सकते हो। स्मरण रखना इस सूत्र को--मरिके यारी जुग-जुग जीया! सतगुरु ने जो करि किरपा!
लेकिन यह वचन बड़ा अदभुत है! तुम तो जाते हो गुरुओं के पास कुछ पाने। मरने नहीं, कुछ पाने--कि धन और मिल जाए, कि पद और मिल जाए। चुनाव लड़ने के पहले नेतागण गुरुओं के दर्शन करने जाते हैं कि चुनाव जीत जाएं। दुकान खोलने के पहले आदमी राम को स्मरण कर लेता है कि बोहनी ठीक हो। नया धंधा करने के पहले आदमी पंडित-पुजारियों को बुला कर यज्ञ-हवन करवा लेते हैं। मकान बनाने के पहले भूमिपूजन होता है।
तुम तो जब भी परमात्मा को स्मरण करते हो या परमात्मा के लोगों के पास जाते हो, तो कुछ आकांक्षा से जाते हो, मरने नहीं जाते। तुम जीवन का विस्तार चाहते हो, फैलाव चाहते हो। और इस तरह की आकांक्षाएं जो तुम्हारी पूरी करते हैं, जो तुम्हें आशीर्वाद देते हैं, वे सदगुरु नहीं हैं, वे मिथ्यागुरु हैं। उनके कारण ही तुम भटक रहे हो और भटकाए गए हो और भटकाए जाते रहोगे। वे तुम्हारे सेवक हैं। वे तुम्हारी बीमारियों को आशीर्वाद देते हैं।
तुम्हारी बीमारियां मिटानी हैं। और तुम्हारी सबसे बड़ी बीमारी है तुम्हारा मैं-भाव।
ठीक कहते हैं यारी: सतगुरु ने जो करि किरपा! बड़ी कृपा की सदगुरु ने। क्या कृपा की? मरिके यारी जुग-जुग जीया। कि यारी को मरने की कला सिखा दी, कि यारी को दिया धक्का, कि यारी को ऐसा चौंकाया, ऐसा चौंकाया कि यारी फिर अपने को पा ही न सका। मिटाया, ऐसा मिटाया कि कहीं कोई खोज-खबर न मिली। काटी गर्दन, ऐसी काटी कि बचने का कोई उपाय न छोड़ा।
कबीर कहते हैं:
कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।
घर बारै जो आपना, चलै हमारे साथ।।
कहते हैं: लट्ठ लिए बाजार में खड़ा हूं। जो अपना सिर तुड़वाने को उत्सुक हो, जो अपने घर में आग लगा देने को उत्सुक हो...! बाहर के घर की बात नहीं हो रही है; भीतर के घर की बात हो रही है, जिसमें तुम बसे हो--अहंकार का घर।
सतगुरु ने जो करी किरपा, मरिके यारी जुग-जुग जीया।
और जो मरना सीख गया, वह जीना सीख गया। और जो मर गया बिलकुल, वह अमृत को पा गया। गोरख का वचन याद करो--
मरौ हे जोगी मरौ, मरौ मरन है मीठा।
तिस मरणी मरौ जिस मरणी मरि गोरख दीठा।।
जैसे गोरख मर गया और मर कर जो उसने देखा, वैसा ही मरना तुम्हें भी फल जाए, तुम भी ऐसे ही मर जाओ!
मरौ हे जोगी मरौ, मरौ मरन है मीठा।
मरण से ज्यादा और कुछ मीठा नहीं है। यह किस मृत्यु की बात हो रही है? यह तुम्हारी साधारण मृत्यु की बात नहीं है। वह तो तुम मरते ही रहे हो, न मालूम कितनी बार मरते रहे हो और फिर-फिर जन्मते रहे हो! यह उस मरण की बात है जिसके बाद कोई जन्म नहीं होता। यह महामरण की बात है, यह महामृत्यु की बात है।
यह सदगुरु की कृपा से ही संभव है। अपने आप तो तुम अपने को कैसे मारोगे? अपने आप को तो मारना ऐसे ही कठिन हो जाएगा जैसे कोई अपने जूते के बंदों को पकड़ कर खुद को उठाने की कोशिश करे। अपने आप को मारना तो बहुत कठिन हो जाएगा, क्योंकि तुम मार-मार कर भी पाओगे कि मारने वाला बचा।
जो आदमी अहंकार छोड़ने की कोशिश करता है और निर-अहंकारी बनने की चेष्टा करता है, उसको एक नया अहंकार भर पैदा हो जाता है कि मैं निर-अहंकारी हूं, और कुछ नहीं। बस इतना ही होता है कि अहंकार नई वेशभूषा में उपलब्ध हो जाता है, जो कि पुराने से भी ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि सूक्ष्म है। पुराना तो स्थूल अहंकार था; वह तो किसी को भी दिखाई पड़ता था। यह सूक्ष्म अहंकार अब दिखाई भी नहीं पड़ेगा। यह पारदर्शी अहंकार है। इसके आर-पार दिखाई पड़ता है, इसलिए यह खुद तो दिखाई ही नहीं पड़ेगा। यह शुद्ध कांच की भांति हो गया। अब बड़ी मुश्किल हुई। अब तुम कांच के घेरे में बंद हुए। तुम समझोगे मुक्त हूं, क्योंकि सूरज भी आता है, वृक्ष भी दिखाई पड़ते हैं, चांद-तारे भी दिखाई पड़ते हैं। तुम सोचोगे, अब मेरे आसपास कोई घेरा नहीं है। क्योंकि कांच का शुद्ध घेरा है।
संसारी जिसको हम कहते हैं, वह स्थूल अहंकारी है। और जिनको तुम त्यागी कहते हो--तुम्हारे ऋषि-मुनि, तुम्हारे साधु-संन्यासी--उनमें से अधिक, सौ में से निन्यानबे सूक्ष्म अहंकारी होते हैं। क्यों? क्योंकि वे मरे नहीं हैं। उन्होंने अपने को निर-अहंकार की साधना में लगाया है। निर-अहंकार की कोई साधना नहीं होती। जो निर-अहंकार को साधेगा, उसने अहंकार को ही नये रूप में साध लिया। निर-अहंकार की कोई साधना नहीं हो सकती है।
मुझसे लोग आकर पूछते हैं कभी कि हम कैसे निर-अहंकारी हो जाएं?
तुम कभी न हो सकोगे; क्योंकि निर-अहंकारी होने में लगोगे, यह नया अहंकार होगा। निर-अहंकारी नहीं हुआ जाता। फिर क्या करें? अहंकार को समझो। अहंकार को पहचानो। अहंकार को जाकर भीतर देखो--कहां है? खोजो! सदगुरु की कृपा से यह संभव हो पाता है कि वह तुम्हें ले चले तुम्हारे भीतर, तुम्हारे बावजूद; कि तुम भागो तो भागने न दे; कि पकड़े तुम्हारा हाथ, कि तुम छुड़ाना चाहो तो छोड़े नहीं; कि तुम्हें दिखा ही न दे, तब तक जाने न दे, हटने न दे। तुम्हें एक बात दिखा दे कि तुम नहीं हो। बस इतना जिस दिन हो गया, उस दिन तुम्हारा हाथ छोड़ देता है। फिर कोई प्रयोजन ही न रहा; तुम्हें दिख गया कि मैं नहीं हूं। निर-अहंकार नहीं साधा; अहंकार को देखा और नहीं पाया--अब जो शेष रह जाता है उसका नाम निर-अहंकार है। यह महामृत्यु है।
गोरख ने ठीक कहा कि यह बड़ी मीठी मृत्यु है, क्योंकि इस मृत्यु में अमृत का स्वाद मिलेगा। और यह ऐसी मृत्यु है कि इसी से तुम्हें दर्शन होंगे सत्य के।
तिस मरणी मरौ जिस मरणी मरि गोरख दीठा।
दिखाई पड़ा परमात्मा, जब तुम न रहे।
मरिके यारी जुग-जुग जीया।
तब लग खोजे चला जावै, जब लग मुद्दा नहिं हाथ आवै।
खोजते रहना तब तक, जब तक कि परम सत्य हाथ न लग जाए।
तब लग खोजे चला जावै...
रुकना मत। रुकने के बहुत मौके आएंगे। मन बहुत बार लौट जाना चाहेगा। मन बहुत सी शंकाएं, दुःशंकाएं, कुशंकाएं पैदा करेगा। मन बहुत से संदेह उठाएगा, प्रश्नचिह्न जमाएगा। मन कहेगा: किस उलझन में पड़ गए हो! सब ठीक-ठाक चलता था। सफलता मिलने के ही करीब थी। चार कदम और चले होते तो जगत में ख्याति मिल गई होती। इस किस धंधे में पड़ गए! इस किस उलझन में पड़ गए! यह कहां की भीतर की खोज में लग गए!
मन बड़े तर्क देगा। मरने के पहले मन अपने को बचाने की हर चेष्टा करेगा। स्वाभाविक भी है। आत्मरक्षा का प्रत्येक को अधिकार भी है। मन भी अपनी आत्मरक्षा करता है। और बड़ी तरकीब से करता है, बड़े तार्किक ढंग से करता है। मन कहेगा: न कोई परमात्मा है, न कोई आत्मा है, न कोई मोक्ष है, न कोई स्वर्ग है। ये सब काल्पनिक कवियों की बातें हैं। मृत्यु के बाद और कुछ भी नहीं है। कौन मृत्यु के बाद कब लौटा है और बता पाया है! झंझट में न पड़ो।
ध्यान को बैठोगे, तो मन बड़े उपद्रव मचाएगा। इतने उपद्रव मचाएगा, जितने तुम जब ध्यान को नहीं बैठते तो नहीं मचाता। साधारणतः तुम अपनी दूकान पर बैठे रहते हो तो मन इतने उपद्रव नहीं करता। कभी जाकर एकांत में बैठ कर जरा ध्यान करना, एक घड़ी भर को। मन ऐसे उपद्रव खड़े करेगा, ऐसी लहरों पर लहरें, कि तुम भी चकित होओगे कि मैं आया था ध्यान करने, मन शांत करने, यह और अशांति हुई जा रही है! इससे तो घर पर ही भला था। अपने काम-धाम में लगा था।
जब तुम घर पर हो, काम-धाम में लगे हो, बाजार में उलझे हो, मन को कोई चिंता नहीं। मन तुम्हारा मालिक है, डरे क्यों तुमसे? जब तुम एकांत में बैठते हो, तुम मन की मालकियत खत्म करने में लगे। अब मन संघर्ष करेगा, प्रतिरोध करेगा। सब तरह के उपद्रव खड़े करेगा, सब तरफ के आकर्षण खड़े करेगा। हजार-हजार प्रलोभन देगा। और हजार भय दिखलाएगा अज्ञात के कि कहां चल पड़े हो? खो जाओगे! पागल हो जाओगे! और अज्ञात खतरनाक भी मालूम होता है, क्योंकि अपरिचित है। परिचित में एक तरह की सुरक्षा मालूम होती है, जाना-माना है। यह कहां चले? किस शून्य में चले?
ऐसे ही क्षण में सदगुरु की जरूरत है कि भागने न दे, कि द्वार रोक ले। उसका प्रेम तुम्हें भागने न देगा। उसका प्रेम तुम्हारे तर्कों से ज्यादा सबल है। उसकी मौजूदगी तुम्हारे विचारों से ज्यादा प्रबल है। अकेले में तो तुम भाग जाओगे। कौन रोकेगा? कौन अटकाएगा? कौन समझाएगा-बुझाएगा? कौन कहेगा कि थोड़ी देर और? कौन कहेगा कि अब कहां जा रहे हो, अब तो परमात्मा मिलने के ही करीब है!
बुद्ध एक जंगल से गुजरते हैं। रास्ता भटक गए हैं। आनंद बहुत थका-मांदा है, दिन भर की थकान है, सांझ होने के करीब आ रही है, गांव का कुछ पता नहीं है। एक आदमी से आनंद पूछता है कि भाई, गांव कितनी दूर है? वह कहता है: बस कोई दो कोस और। आशा बंधती है कि दो कोस! फिर दो कोस निकल जाते हैं। आनंद फिर किसी से पूछता है कि भाई, गांव कितनी दूर है? वह कहता है: बस यही कोई दो कोस। फिर दो कोस निकल जाते हैं, अब तो सूरज ढलने के भी करीब आ गया। आनंद बड़ा हैरान है कि ये कैसे दो कोस हैं जो पूरे नहीं होते! वह फिर किसी से पूछता है। वह कहता: ज्यादा दूर नहीं है भाई, यही कोई दो कोस। आनंद बुद्ध से कहता है कि इस इलाके के आदमी भी हद्द के झूठे मालूम होते हैं! छह कोस तो हम चल चुके, गांव का कोई पता नहीं!
बुद्ध ने कहा: ये लोग झूठे नहीं हैं। ये सिर्फ दयावान हैं। मैं जानता हूं कि ये क्यों दो कोस कहते हैं। ये इसलिए दो कोस कहते हैं कि तुम दो कोस चल लोगे। अगर ये कहें कि दस कोस, तुम यहीं बैठ जाओगे। तुम कहोगे: हो गई बात खत्म। ये दो कोस कहते हैं, कि तुम चल लोगे दो कोस। दो कोस की आशा बंधाए रखते हैं। बुद्ध ने कहा: मैं इनकी बात पहचानता हूं, क्योंकि यही तो मुझे करना पड़ता है तुम्हारे साथ। तुम कहते हो--और कितनी देर है समाधि में? मैं कहता हूं--बस, अब हुई, तब हुई। यही दो कोस! ये लोग मेरे जैसे लोग हैं।
ऐसी ही एक कहानी मैं और पढ़ रहा था। एक पति-पत्नी पहाड़ों की यात्रा को गए हैं और एक दिन जंगल में खो गए हैं। लौट रहे हैं। ठीक ऐसी ही कहानी है जैसी बुद्ध और आनंद की। बड़े हताश, बड़े उदास! और एक बूढ़ा किसान अपने झोपड़े के सामने बैठा है। उसकी बुढ़िया पास में ही गाय के लिए दाना डाल रही है। तो वे पूछते हैं कि भाई, डाकबंगला कितनी दूर है? हम डाकबंगले पर ठहरे हैं और रास्ता भटक गए हैं। बूढ़ा कहता है: यही कोई चार कोस। लेकिन बुढ़िया कहती है कि नहीं, जरा उनके चेहरे की तरफ तो देखो, वे कितने थके-मांदे हैं! दो कोस काफी है। जरा उनके चेहरे की तरफ देखो, कितने थके-मांदे हैं! कितने उदास! दो कोस काफी है, चार कोस नहीं। चार कोस अतिशय हो जाएगा, भारी पड़ जाएगा।
सदगुरु समझाए रखता है कि बस अभी हुआ। और ऐसा भी नहीं है कि वह झूठ कहता है। अगर तुम पूरे तन्मय हो जाओ तो अभी हो जाए। यह जो पुकार भीतर की सुनाई पड़ रही है तुम्हें, यह जो धीमी-धीमी सी आकांक्षा जगी है तुममें सत्य की तलाश की, यह कई बार मंदी पड़ जाएगी, कई बार बिलकुल खो जाएगी, सुनाई ही न पड़ेगी। तब लौट जाओगे वापस अपनी दुनिया में। लेकिन कोई चाहिए, जब तुम्हें भीतर की आवाज न सुनाई पड़े तो तुम्हारी भीतर की आवाज बन जाए। ऐसा कोई चाहिए, जिसकी आवाज तुम्हें अपने भीतर की आवाज का ही विस्तार मालूम पड़े। जो उस भाषा में बोले जिससे तुम्हारे भीतर की अंतरात्मा बोलती है। जिसमें तुम्हें अपना भविष्य दिखाई पड़े, ऐसा कोई गुरु चाहिए। जो तुम्हारे जीवन में अभी होने को है, जिसमें हो गया हो, ऐसा कोई गुरु चाहिए।
तब लग खोजे चला जावै, जब लग मुद्दा नहिं हाथ आवै।
कहते हैं यारी: रोकना मत खोज को। तब तक जारी रखना, जब तक कि सार हाथ में न आ जाए। और सार क्या है? वही जो मृत्यु के पार जा सकता है।
जब खोज मरै तब घर करै...
बड़ा प्यारा वचन है! और जब घड़ी आ जाए सार को पाने की, जब सार मिल जाए, तो खोज मर गई।
जब खोज मरै तब घर करै...
तब विश्राम कर लेना, तब घर कर लेना। तब आ गए अपने निज स्थल पर। अब न कहीं जाना है, अब न कुछ पाना है। अब करो विश्राम। अब फैला कर पैर तान लो चादर।
जब खोज मरै तब घर करै...
उसके पहले कहीं किसी पड़ाव को मंजिल मत समझ लेना। कहीं रास्ते में मत रुक जाना। किसी मील के पत्थर को मत समझ लेना कि मंजिल आ गई।
जब खोज मरै तब घर करै, फिर खोज पकरि के बैठ जावै।
फिर जो मिल गया है उसको पकड़ कर बैठ रहना। अब न कहीं जाना है, न कुछ होना है।
आप में आप को आप देखै...
अब घटना घट गई--अनलहक! अहं ब्रह्मास्मि!
आप में आप को आप देखै, और कहूं नहिं चित्त जावै।
अब तो चित्त जाएगा भी नहीं कहीं। चाहोगे भी ले जाना तो न ले जा सकोगे। वही चित्त जो पहले भीतर नहीं आता था और बाहर-बाहर भागता था, और भीतर लाना चाहते थे तो भी नहीं आता था; भाग-भाग जाता था, छिटक-छिटक जाता था; पारे की भांति था; जितनी मुट्ठी बांधते थे, उतना बिखर-बिखर जाता था; वही चित्त अब बाहर ले जाना भी चाहोगे तो न ले जा सकोगे। चूंकि अब परम विश्राम मिला, परम तृप्ति मिली!
बाहर तो दुख ही दुख पाए। सुख की तो केवल आशा थी। मिला सुख कभी नहीं। दिखाई पड़ा दूर क्षितिज पर! बढ़ते रहे और वह भी दूर हटता रहा! एक मृग-मरीचिका थी। दूर के ढोल सुहावने! पास आए तो दुख पाया। दूर से जो सुख मालूम पड़ा था, पास आकर दुख हो गया था। अब महासुख बरसेगा, तो चित्त जाए क्यों? अब तो डुबकी मारेगा तो निकलेगा नहीं।
आप में आप को आप देखै, और कहूं नहिं चित्त जावै।
यारी मुद्दा हासिल हुआ, आगे को चलना क्या भावै।
अब सवाल ही कहां है? अब चलने की बात कहां है? अब सार मिल गया। सार अर्थात परम प्यारा मिल गया!
चुप रहो! सौंदर्य की बहती विजनगंधी हवा
चुप रहो! संदर्भ से टूटे सृजन की शर्बरी
दूर अनजाने अनिद्रित कूल की भीगी हुई
चुप रहो! प्रत्यूष की भटकी किरण यायावरी।

चुप रहो! नीले कुहासे में डुबोए गीत ओ!
छिन गए हैं छटपटाती आस्था के स्वर सभी।
बिन उगे ही जल गई अभिव्यक्ति अपने बीज में
चुप रहो! ओ प्रेरणा के संपुटित अक्षर अभी।

चुप रहो! रस के अजन्मे अधबने विश्वास ओ!
रह गया है प्यार का हर लेख जिसका अनपढ़ा।
चुप रहो! ओ मंत्रद्रष्टा कर्थ सारे चुप रहो!
बह गया मन से सदा को कथ्य जिसका अनगढ़ा।

चुप रहो! सप्तर्षि मंडल के शिखर पर कांप कर
ज्योति के ओ प्रज्वलित आशय ध्रुवांतों के धनी!
चुप रहो कातर क्षणों की बंदिनी अनुभूतियां!
मत मुझे बांधो अनागत की प्रवंचक रागिनी।

चुप रहो! सारे अगम अनुबंध सुधि की राह के
सत्य का सब खून देकर भी रहो विश्रब्ध मन।
चुप रहो! ओ बालुका के स्वप्नपंखी मारुती!
चुप रहो। वैधव्य में डूबी विवशता के रुदन!

चुप रहो! वनपंखियों की रूपगंधी ओ हवा!
आज तो कुछ भी कहीं कोई नहीं है, चुप रहो!
चुप रहो! अनुगूंजते ओ शंखवर्षी बादलो!
गुनगुनाती ओ गुफाओ, कंदराओ, चुप रहो!
जब विश्राम का क्षण आ जाता है, चुप्पी सध जाती है। न जाने का मन होता, न कुछ करने का मन होता, न कुछ कहने का मन होता। मन ही नहीं होता। मनन ही नहीं होता तो मन कैसे हो? गमन ही नहीं होता तो मन कैसे हो? कोई लक्ष्य न रहा; सारे लक्ष्य पूरे हो गए। कोई भविष्य न रहा; समय विलीन हो गया। वासना चुकी तो भविष्य चुक गया। और आगे जाने को कुछ न बचा, समय मिट गया। इस समय के मिट जाने के क्षण में ही शाश्वत तुम्हारे भीतर उतर आता है।
उस शाश्वत का नाम ही सार है। सत्य कहो उसे, परमात्मा कहो उसे, मोक्ष कहो उसे, निर्वाण कहो उसे--ये सिर्फ शब्दों के भेद हैं। और कुछ भी न कहो, चुप रहो, तो भी चलेगा। और कुछ कहो तो भी कहां कह पाते हो उसे? कह कर भी तो चुप्पी ही बनी रह जाती है। सब शब्द असमर्थ हैं। वह अकथ्य है, अनिर्वचनीय है।
ये बड़े प्यारे सूत्र हैं--प्रार्थना कैसे परमात्मा हो जाती है! प्रार्थना का सेतु कैसे एक दिन परमात्मा तक पहुंचा देता है!
बिन बंदगी इस आलम में, खाना तुझे हराम है रे।
बंदा करै सोई बंदगी, खिदमत में आठों जाम है रे।
यारी मौला बिसारिके, तू क्या लागा बेकाम है रे।
कुछ जीते बंदगी कर ले, आखिर को गोर मुकाम है रे।
गुरु के चरन की रज लैके, दोउ नैन के बीच अंजन दीया।
तिमिर माहिं उजियार हुआ, निरंकार पिया को देखि लीया।।
कोटि सुरज तंह छपे घने, तीनि लोक धनी धन पाइ पीया।
सतगुरु ने जो करी किरपा, मरिके यारी जुग-जुग जीया।।
तब लग खोजे चला जावै, जब लग मुद्दा नहिं हाथ आवै।
जब खोज मरै तब घर करै, फिर खोज पकरि के बैठ जावै।।
आप में आप को आप देखै, और कहूं नहिं चित्त जावै।
यारी मुद्दा हासिल हुआ, आगे को चलना क्या भावै।।

आज इतना ही।

Spread the love