YARI
Birhani Mandir Diyana Baar बिरहनी मंदिर दियना बार 04
Fourth Discourse from the series of 10 discourses - Birhani Mandir Diyana Baar बिरहनी मंदिर दियना बार by Osho. These discourses were given during JAN 11-20 1979.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
पहला प्रश्न:
भगवान, बचपन से ही सुनता रहा हूं तथाकथित साधु-महात्माओं से कि संसार असार है। इधर आप कहते हैं कि संसार असार नहीं है--एक प्रेमपूर्ण महोत्सव है, अविरल रसपूर्ण बहता हुआ झरना है। पीने वाला चाहिए। रवीन्द्रनाथ ने भी एक बार कहा था: ‘मोरिते चाहिना आमि, ए शुन्दोर भूवने! मैं इस सुंदर रसपूर्ण संसार को छोड़ कर यूं ही मरना नहीं चाहता।’ यह सब मुझे विश्वास ही नहीं आता था। न जाने किसके अनजान आमंत्रण से यहां चला आया, अनायास; और यहां आश्रमवासियों में जो एक निष्पाप बालक-सुलभ चपलता देखी, तो बस ठगा सा रह गया। मनुष्य के जीवन में इतना रस, ऐसे अकथनीय अमृत की रसधार परमात्मा के रूप में आप बरसाते हैं--ऐसी कल्पना ही न थी। लेकिन इधर आपने खूब फंसाया मुझे। अब आफत में पड़ा। क्योंकि जब अब घर वापस लौटूंगा तो वही बासा घिसा-पिटा जीवन उपलब्ध होगा। कृपया अब आप ही मेरा मार्गदर्शन करें। इसलिए कल आपके पवित्र कर-कमलों से संन्यास भी लिया है। अब तो तुम्हीं ने दर्द दिया है, तुम्हीं दवा देना!
रजत बोस! मनुष्यता के जीवन में जो सबसे बड़ी दुर्घटना घटी है, वह हैं तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी। उन्होंने मनुष्य के चित्त को विषाक्त कर दिया है। उन्होंने मनुष्य के चित्त को रुग्ण कर दिया है। उन्होंने ऐसी बातें समझाई हैं कि मनुष्य की जड़ें पृथ्वी से कंप गई हैं, हिल गई हैं। और जब किसी वृक्ष की जड़ें पृथ्वी से हिल जाएं, उखड़ जाएं, तो पत्ते भी मुरझा जाते हैं, कलियां फूल नहीं हो पातीं, फलों के आने की तो बात ही बहुत दूर हो जाती है। इतनी जो उदासी है जगत में, उसके पीछे तुम्हारे साधु-संन्यासियों का हाथ है।
जगत असार नहीं है, क्योंकि जगत में परमात्मा के हाथ का हस्ताक्षर है, असार कैसे होगा? जगत परमात्मा की अभिव्यक्ति है, उसका गीत है, उसका नृत्य है। एक-एक पत्ती, एक-एक फूल पर, एक-एक कण पर तुम उसकी छाप पाओगे। इसे जिन्होंने असार कहा, उन्होंने परमात्मा को ही नासमझ कह दिया, मूढ़ कह दिया। परमात्मा मूढ़ हो, तो ही उसका जगत असार हो सकता है। परमात्मा विक्षिप्त हो, तो ही असार का निर्माण करेगा।
अब यह बहुत मजे की बात है, यही साधु-संन्यासी तुम्हें समझाते हैं कि परमात्मा स्रष्टा है; उसने ही संसार बनाया है; उसने ही यह खेल रचा; उसने ही यह लीला जन्माई। और अगर जगत असार है तो फिर परमात्मा में कैसे सार हो सकता है? अगर गीत विक्षिप्त है तो गायक पागल रहा होगा। और नृत्य अगर नृत्य नहीं, सिर्फ उछलकूद है, तो नर्तक नर्तक न रहा, रुग्ण हो गया।
संसार को असार कहना, तो फिर तुम परमात्मा को असारता से बचा न सकोगे। संसार के संबंध में जो भी कहा गया है वह तुम्हारे परमात्मा पर लागू हो जाएगा। और जिसने संसार को इनकार कर दिया उसने परमात्मा के साथ सेतु बनाने की व्यवस्था ही तोड़ दी। इन्हीं फूलों के संग, इन्हीं रंगों के संग तो उसके भुवन तक की यात्रा करनी है, उसके लोक तक की यात्रा करनी है। इन्हीं प्रकृति के पंखों पर सवार होकर तो परमात्मा की खोज में निकलना है। यह देह भी उसकी है। यह चित्त भी उसका है। यह संसार भी उसका है। इसमें जिसका भी तुम निषेध करोगे उतने ही तुम पंगु हो जाओगे।
तुम्हारे साधु-संन्यासियों ने तुम्हें पंगु बनाया, क्योंकि जो पंगु होता है वह गुलाम होने को राजी होता है। जो पंगु होता है उसे दूसरे के सहारे की जरूरत होती है। जो पंगु होता है उसे बैसाखी चाहिए पड़ेगी। और तुम्हारे साधु-संन्यासी तुम्हारी बैसाखी बन गए। पहले तुम्हें पंगु बनाया, पहले तुम्हारे पैर तोड़ दिए, फिर तुम्हें बैसाखियां बेचने लगे। ये एक ही धंधे के दो हिस्से हैं। पहले तुम्हें कहा संसार में कोई सार नहीं। फिर तुम खिन्न हुए, उदास हुए, फिर तुम्हें बताया कि तुम्हारी उदासी को दूर करने का उपाय है: आओ भजन करो, कीर्तन करो, ध्यान लगाओ।
और मैं तुमसे कहता हूं: तुम्हारा भजन भी झूठा होगा। क्योंकि जिसको फूलों में कुछ रस न दिखाई पड़ा और जिसे चांद-तारों में कोई रस न दिखाई पड़ा, उसे थोथे शब्दों में...हरे कृष्णा हरे रामा...इसमें कुछ मिल जाएगा? जिसे इतने हरे जगत में हरियाली न दिखाई पड़ी, उसे अपने ही ओंठों से उठाए गए शब्दों में जीवन के स्रोत मिल जाएंगे? जिसे सूरज में उसकी छवि नहीं दिखाई पड़ी, अपनी ही गढ़ी प्रतिमा में उसे खोज लेगा? जो इतना ज्वलंत होकर प्रकट है और नहीं दिखाई पड़ता, उसे तुम मंदिर और मस्जिद में पा लोगे? और जिसके वेद झरने गा रहे हैं और जिसकी कुरान आकाश में बादलों में गीत बन कर गरजती है और जिसकी गीता समुद्र की लहरों पर उठती है, नाचती है--वहां तुम्हें न दिखाई पड़ी, आदमी की छपी, हाथ की लिखी किताबों में तुम उसे पा लोगे? उसकी ही लिखी किताब असार और तुम्हारे पंडितों के द्वारा लिखी गई पोथियां सार? यह तो बड़ा अजीब हुआ। पंडित तो खुद उसका लिखा हुआ है और उसका लिखा संसार असार! तुम असार! तुम्हारा जीवन असार! फिर सार कहां पाओगे? कहीं भी न पाओगे। तब तुम द्वार-द्वार दरवाजे-दरवाजे भीख मांगोगे और तुम्हारा जीवन एक लंबी दुर्घटना हो जाएगी। वही हुआ है।
लेकिन मंदिर-मस्जिद जीते ही तुम्हारे जीवन के दुख पर हैं। तुम जितने बीमार रहो, उतना ही उनके हित में है। तुम जितने सड़ो-गलो, उतना ही उनके हित में है। तुम नाचने लगो, तुम अलमस्त हो जाओ, तुम मंदिर जाओगे? तुम मस्जिद जाओगे? तुम तो जहां बैठोगे वहीं मंदिर होगा। तुम्हारी मस्ती तुम्हारा मंदिर होगी। तुम्हारा आनंद तुम्हारा भजन होगा। तुम्हारे भीतर जब रसधार बहेगी तो तुम किसी और से पूछने जाओगे--परमात्मा कहां है? उसका प्रमाण खोजोगे? भीतर प्रमाण मिलेंगे। भीतर उसकी ज्योति जगेगी। फिर कौन फिक्र करता है शास्त्रों की?
शास्त्रों की फिक्र सिर्फ अंधे करते हैं, सिर्फ अज्ञानी करते हैं। जिसके भीतर ज्ञान की छोटी सी भी किरण जनम जाती है, उसके लिए सब शास्त्र फीके पड़ जाते हैं। उसके अपने भीतर ही गीता पैदा होने लगी। भगवान उसके भीतर बोलने लगा। भगवदगीता उसके भीतर जन्मने लगी। भगवान उसके भीतर गुनगुनाने लगा। कुरान उसके भीतर पैदा होने लगी। अब क्यों किसी कुरान में, क्यों किसी पुराण में...?
पंडित और पुरोहित जी ही तब तक सकता है, जब तक तुम मुर्दा रहो, तुम मुर्दा-मुर्दा रहो। तुम्हारी मुर्दगी में उसका शोषण है। वहीं कुंजी छिपी है।
रजत! यहां मैं कुछ और ही पाठ दे रहा हूं। इसलिए अगर पंडित-पुरोहित, तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी मुझसे नाराज हैं, तो आश्चर्य नहीं है; गणित साफ है। मैं उनके धंधे की जड़ काट रहा हूं। अगर तुमने मेरी बात सुनी तो तुम उनसे मुक्त हो जाओगे। तुमने अगर मेरी बात सुनी तो तुम उनके ग्राहक न रह जाओगे। तुम्हें अगर मेरी जरा सी भी बात समझ में आ गई तो तुम छूट जाओगे हजारों साल के शोषण के जाल से, गुलामी से। और जिन्होंने तुम्हें चूसा है, वे तुम्हें और भी चूसना चाहते हैं। वे तुम्हें सदा चूसना चाहते हैं। वे तुम्हें इतनी आसानी से छोड़ नहीं देना चाहते। इसलिए वे मुझसे नाराज हैं।
मेरा तो संदेश यही है कि परमात्मा के लिए और किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है--प्रकृति को परखो! जरा आंखें गड़ा कर गुलाब के फूल में झांको, और तुम्हें उसका मुखड़ा दिखाई पड़ेगा। बेले की सुगंध को नासापुटों में भर जाने दो, और तुम पाओगे--वही लहरा गया तुम्हारे भीतर।
हम ऐसे अहले-नजर को सबूते-हक के लिए
अगर रसूल न आते तो सुबह काफी थी
जरा सी समझ हो तो पैगंबरों की कोई जरूरत न थी आने की, तीर्थंकरों की कोई आने की जरूरत न थी।
हम ऐसे अहले-नजर को सबूते-हक के लिए
परमात्मा का प्रमाण देने के लिए, परमात्मा की गवाही देने के लिए किसी और बात की जरूरत न थी, बस थोड़ी सी समझ चाहिए।
अगर रसूल न आते तो सुबह काफी थी
अगर न आते पैगंबर और न आते मसीहा और न आते तीर्थंकर, कोई चिंता की बात न थी। सुबह काफी थी। सुबह उठता हुआ सूरज पर्याप्त प्रमाण है। सांझ उगा हुआ चांद पर्याप्त प्रमाण है। आकाश के तारों का संगीत काफी प्रमाण है। और क्या प्रमाण चाहिए?
एक बीज टूट जाता है और हरे पत्ते निकल आते हैं--परमात्मा का प्रमाण है। और क्या प्रमाण चाहिए? और बड़ा क्या चमत्कार होगा? मुर्दा से दिखते बीज से हरे पत्ते निकल आए हैं, पत्तों में पत्ते निकलते गए हैं, कलियां आ गई हैं, हरे पत्तों में लाल कलियां आ गई हैं! फूल खिल आया है। जिन पत्तों में कोई गंध न थी, जिस भूमि से पत्ते उठे उस भूमि में कोई गंध न थी, और फूल ने वातावरण को सुगंध से भर दिया, आपूरित कर दिया! और क्या चमत्कार है? इतना काफी है। जिनके पास आंखें हैं, जिनके पास अनुभव करने को हृदय है, जिनके पास थोड़ी सी भी प्रज्ञा है, जरा सा भी बोध है--उनके लिए परमात्मा का प्रमाण सुबह में मिल जाता है, सांझ में मिल जाता है, उठते-बैठते मिल जाता है, लोगों की आंखों में मिल जाता है। उनके लिए किसी रसूल की कोई जरूरत नहीं है।
स्वप्न है संसार, तो किस सत्य के कवि गीत गाए?
तोड़ कर अपना हृदय किस सत्य की प्रतिमा बनाए?
जानता कवि कौन सा सुख, फूल को जो फल बनाता;
दूज का क्यों चांद दौड़ा पूर्णिमा की ओर जाता?
जागती पिक की कुहुक से प्राण में कैसी कहानी;
रूप स्वप्नातीत किसका रात कर देता सुहानी?
गंध से आतुर समीरण, ज्योति से उमगे सितारे,
स्नेह से फैली नदी, सौंदर्य से जकड़े किनारे,
लोच भर देती हवा में खेतियां क्यों लहलहातीं,
जान पड़ जाती किरण में सुन खगों की क्यों प्रभाती?
मेघ वर्षा के धरा को नित नया संस्कार करते,
चंद्र किरणों में शिथिल नव किसलयों के गात झरते,
स्वप्न हैं ये सब अगर, किस सत्य के कवि गीत गाए?
कौन सुषमा से बड़ा संदेश मानव को सुनाए?
नहीं, प्रभात से बड़ी कोई प्रभाती नहीं है। तुम्हारी प्रभातियां दो कौड़ी की हैं। प्रभात को देखो। तुम्हारे गढ़े हुए देवता तुम्हारे ही गढ़े हुए देवता हैं--तुम्हारे हाथ के खिलौने हैं! उसके गढ़े हुए जगत को देखो। वहां तुम्हें उसकी थोड़ी-बहुत झनक मिल जाए तो मिल जाए।
और कैसा मजा है! जगत असार है, इसी के पत्थरों से तुम्हारा परमात्मा निर्मित होता है। जगत असार है, इसी की मिट्टी तुम्हारे देवता बनाती है। जगत असार है, इसी जगत में तुम्हारे साधु-संन्यासी जन्मे हैं। जगत असार है तो तुम कैसे सार हो जाओगे? अगर मूल ही असार है तो तुम कैसे सार हो जाओगे?
नहीं, जगत असार नहीं है। हां, तुमसे यह जरूर कहूंगा: जगत से भी बड़ा और सार है। मगर जगत असार नहीं है। जगत तो सार है, पर जगत पर ही रुक मत जाना--और भी बड़े सार हैं! जगत तो बहुमूल्य है, मगर वहीं अटक मत जाना--और भी बड़ी संपदाएं हैं। जगत के भी पार और जगत हैं!
तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जगत में उलझ जाना। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जगत में ही रह जाना, रुक जाना। मैं यह कह रहा हूं: जगत को सीढ़ी बनाओ। यह उसी के मंदिर की सीढ़ी है, इसको असार मत कहो। लेकिन सीढ़ी मंदिर नहीं है, यह भी ध्यान रखना; नहीं तो दूसरी भूल हो जाएगी कि सीढ़ी पर ही बैठ रहो। सीढ़ी मंदिर नहीं है। यद्यपि बिना सीढ़ी के मंदिर नहीं हो सकता। और सीढ़ी तोड़ दी तो मंदिर तक कभी न पहुंच पाओगे। जीवन को उसके समस्त सौंदर्य में स्वीकार करो। जीवन को उसके सारे छंद में अंगीकार करो।
मुझे दे दे
रसीले ओंठ, मासूमाना पेशानी, हसीं आंखें
कि मैं इक बार फिर रंगीनियों में गर्क हो जाऊं
मेरी हस्ती को तेरी इक नजर आगोश में ले ले
हमेशा के लिए इस दाम में महफूज हो जाऊं
जिया-ए-हुस्न से जुल्माते-दुनिया में न फिर आऊं
गुजश्ता हसरतों के दाग मेरे दिल से धुल जाएं
मैं आने वाले गम की फिक्र से आजाद हो जाऊं
मेरे माजी-ओ-मुस्तकबिल सरासर मह्व हो जाएं
मुझे वह इक नजर, इक जाविदानी सी नजर दे दे
एक ही प्रार्थना की जा सकती है कि मुझे वह आंख मिल जाए, मुझे वह दृष्टि मिल जाए।
मुझे वह इक नजर, इक जाविदानी सी नजर दे दे
वह स्वर्णिम आंख दे दे, जो तुझे देख ले, तुझे पहचान ले।
मुझे दे दे
रसीले ओंठ, मासूमाना पेशानी, हसीं आंखें
कि मैं इक बार फिर रंगीनियों में गर्क हो जाऊं
यह संसार उसकी रंगीनी है। यह उसका विलास है, उसका वैभव है। ईश्वर का ऐश्वर्य है यह संसार। इसी ऐश्वर्य के कारण तो वह ईश्वर है। यह उसका साम्राज्य है। इसी साम्राज्य के कारण तो वह सम्राट है।
कि मैं इक बार फिर रंगीनियों में गर्क हो जाऊं
मेरी हस्ती को तेरी इक नजर आगोश में ले ले
मेरे सारे प्राणों को तू अपनी गोद में ले ले।
हमेशा के लिए इस दाम में महफूज हो जाऊं
मैं तेरे इस प्यारे जाल में हमेशा के लिए खो जाना चाहता हूं, डूब जाना चाहता हूं, एक हो जाना चाहता हूं। माना कि यह जाल है, मगर बड़ा प्यारा है। और उस प्यारे का जाल है, कौन इसमें न फंसना चाहेगा! इससे जो भागते हैं, भगोड़े हैं। इससे जो भागते हैं, उन्होंने परमात्मा का अस्वीकार कर दिया, इनकार कर दिया। जब परमात्मा जाल फेंके, तो मछलियो, उसमें फंस जाना।
जीसस ने एक दिन एक मछुए के कंधे पर हाथ रखा। सुबह-सुबह थी। अभी सूरज उगता था क्षितिज पर। आकाश लालिमा से भरा था। उस मछुए ने जाल फेंका ही था कि जीसस ने उसके कंधे पर हाथ रखा पीछे से आकर। उसने लौट कर देखा। जीसस ने कहा: कब तक तू इन साधारण मछलियों को पकड़ता रहेगा? मैं तुझे आदमियों को फांसने का रास्ता बताऊंगा। तू मेरे साथ आ।
जीसस की आंखें! सुबह की वह प्यारी घड़ी। कुछ हो गया। उस मछुए ने जाल वहीं छोड़ दिया, निकाला भी नहीं। जीसस के साथ हो लिया। उसके भाई ने, जो उसके ही पास खड़ा नाव में जाल फेंक रहा था, चिल्ला कर कहा कि कहां जाते हो?
उस मछुए ने कहा: मैंने बहुत दिन तक मछलियां पकड़ीं, इस आदमी ने मुझे पकड़ लिया! इसकी आंख के जाल में उलझ गया। मैं जाता हूं। अलविदा!
गांव के बाहर ही पहुंच पाए थे जीसस उस युवक को लेकर...हिम्मतवर रहा होगा, ऐसे अज्ञात आदमी के साथ, ऐसी अज्ञात यात्रा पर निकल पड़ा! प्रश्न भी न उठाया, जिज्ञासा भी न की कि कौन हो? कहां ले जाते हो? चल पड़ा।
ऐसा ही पागलपन हो, ऐसा ही प्रेम हो, और ऐसी ही दुस्साहस की क्षमता हो, तो कोई वस्तुतः संन्यासी हो पाता है। भगोड़ों का काम नहीं है संन्यासी होना। भगोड़े तो भयभीत लोग हैं। जो संसार से भयभीत हैं, वे क्या खाक परमात्मा को पाएंगे! जो संसार तक से भयभीत हैं, परमात्मा को देख कर तो उनके प्राण निकल जाएंगे। जो उसकी कृति को भी न देख सके, कृतिकार के सामने तो राख हो जाएंगे।
गांव के बाहर पहुंचे ही थे कि एक आदमी भागा हुआ आया और उसने उस मछुए को कहा: पागल! तू कहां जा रहा है? तेरे पिता बीमार थे, वे मर गए। घर चलो।
उस युवक ने जीसस से कहा कि मैं जाऊं? तीन दिन में अंत्येष्टि क्रिया करके वापस लौट आऊंगा।
लेकिन जीसस ने कहा: गांव में काफी मुर्दे हैं, वे मुर्दे को दफना देंगे। तू मेरे साथ आ।
और वह युवक अपने पिता का अंतिम संस्कार करने भी गांव न गया। और जीसस का वचन सुनते हो--गांव में काफी मुर्दे हैं, वे मुर्दे को दफना देंगे! तू मेरे साथ आ।
तुम्हारे पंडित-पुरोहितों ने, तुम्हारे साधु-संन्यासियों ने जमीन को मुर्दों से भर दिया है। यहां कभी एकाध कोई जीसस, कोई मोहम्मद, कोई नानक, कोई कबीर थोड़ी सी जिंदगी की खबर ले आता है, थोड़ी धुन छेड़ता है परमात्मा की। मगर पंडितों-पुरोहितों का बड़ा जाल है। नानक की धुन को दबा देते हैं। कबीर की धुन को दबा देते हैं। जीसस जो कहते हैं उस पर व्याख्याओं के इतने-इतने आवरण डाल देते हैं कि सत्य उन व्याख्याओं में कहीं खो जाता है, उसका पता लगाना मुश्किल हो जाता है।
मेरी हस्ती को तेरी इक नजर आगोश में ले ले
हमेशा के लिए इस दाम में महफूज हो जाऊं
जिया-ए-हुस्न से जुल्माते-दुनिया में न फिर आऊं
अपने प्रकाश में मुझे उठा ले, ताकि वापस अंधेरे में मुझे न गिरना पड़े, अंधेरे की दुनियाओं में न गिरना पड़े।
इस दुनिया से ऊपर दुनियाएं हैं, उनकी आकांक्षा करो, अभीप्सा करो। मगर इस दुनिया को अस्वीकार मत करना। इसी दुनिया के माध्यम से उन ऊपर की दुनियाओं को पाने का उपाय है। और जिस दिन तुम उन ऊपर की दुनियाओं को पा लोगे, उस दिन तुम इस नीचे की दुनिया को भी धन्यवाद दोगे, याद रखना। अनुग्रह स्वीकार करोगे--कि न होती नीचे की दुनिया, हम ऊपर की दुनिया तक कभी न पहुंच पाते। सीढ़ियों से चढ़ कर जब तुम ऊपर पहुंच जाते हो तो क्या सीढ़ियों को धन्यवाद नहीं देते? और नाव से जब तुम उस पार पहुंच जाते हो और नाव से उतरते हो तो क्या धन्यवाद नहीं देते?
यह संसार नाव है। समझदार इसे परमात्मा के किनारे पर लगा देता है। नासमझ नाव से कूद पड़ता है।
मैं तुमसे कहता हूं: नाव से कूदना मत। इसको ठीक दिशा दो। जरूर दिशा दो! इसको सम्यक गति दो। पतवार सम्हालो। यह नाव व्यर्थ नहीं है, असार नहीं है। यह उस किनारे तक ले जा सकती है। इसी देह की नाव में तो चलना होगा उस किनारे तक! इन्हीं इंद्रियों की तो पतवारें बनानी होंगी। यह मिट्टी अपने भीतर अमृत को छिपाए है, इसी मिट्टी में तलाशोगे तो अमृत भी मिल जाएगा।
गुजश्ता हसरतों के दाग मेरे दिल से धुल जाएं
मैं आने वाले गम की फिक्र से आजाद हो जाऊं
मेरे माजी-ओ-मुस्तकबिल सरासर मह्व हो जाएं
मुझे वह इक नजर, इक जाविदानी सी नजर दे दे
अतीत भी मिट जाए, भविष्य भी मिट जाए।
मेरे माजी-ओ-मुस्तकबिल सरासर मह्व हो जाएं
दोनों एक हो जाएं, न कोई अतीत रहे, न कोई भविष्य रहे। बस वर्तमान का क्षण रह जाए। यह वर्तमान का शुद्ध क्षण प्रार्थना है। यह वर्तमान का शुद्ध क्षण ध्यान है, समाधि है।
मुझे वह इक नजर, इक जाविदानी सी नजर दे दे
बस नजर चाहिए, दृष्टि चाहिए, बोध चाहिए; नहीं कहीं भागना है, नहीं कुछ छोड़ना है। क्योंकि सब उसका है, छोड़ोगे क्या? तुम्हारा है क्या जिसे तुम छोड़ोगे?
लेकिन तुम्हारे साधु-संन्यासी निश्चित तुम्हें समझाते रहे हैं इसी तरह की बातें। और उनसे तुम मुक्त न हो जाओ तो तुम परमात्मा की छवि का कभी भी अनुभव न कर पाओगे। मैं तुमसे कहता हूं: संसार असार नहीं है; तुम्हारे तथाकथित पंडित-पुरोहित बकवास हैं, असार हैं। अगर छोड़ना हो तो उनको छोड़ देना। फूलों के संसार को मत छोड़ना, चांद-तारों के संसार को मत छोड़ना। यही संसार द्वार है।
और रजत, तुमने पूछा--कि इधर आपने खूब फंसाया मुझे, अब आफत में पड़ा। क्योंकि अब जब घर लौटूंगा तो वही बासा घिसा-पिटा जीवन उपलब्ध होगा।
नहीं होगा। जीवन तो जो यहां है वही वहां है, आंख चाहिए--इक जाविदानी सी नजर दे दे। तुम्हारी आंख बदलनी चाहिए, तो फिर तुम जहां भी रहोगे वहीं तुम इसी पुलक का अनुभव करोगे। और आंख ही तुम्हें दे रहा हूं। संन्यास कुछ और नहीं है, तुम्हारी तत्परता है एक नई आंख स्वीकार करने की, एक नई दृष्टि अंगीकार करने की। और तुम तत्पर हो लेने को तो मैं देने को राजी हूं। तुम झोली फैलाओ तो मैं तुम्हारी झोली भर दूं। फिर तुम जहां भी रहोगे, यही तो चांद वहां होगा, यही तो तारे वहां होंगे, यही तो सूरज उगेगा, यही तो हवाएं वहां होंगी, यही तो लोग वहां होंगे। यह सारा जगत एक है। तुम्हारी नजर बासी नहीं होनी चाहिए, नहीं तो लोग बासे हो जाते हैं। और तुम लोगों को दोष देते हो कि लोग घिसे-पिटे, लोग बासे, जीवन घिसा-पिटा, जीवन बासा। जीवन न बासा होता कभी, न घिसा-पिटा होता। तुमने कभी ओस की कोई बूंद देखी जो घिसी-पिटी हो, कि बासी हो? नहीं। तुमने कोई नदी देखी जो बासी हो, घिसी-पिटी हो? और सदियों से बह रही है, फिर भी बासी नहीं है, घिसी-पिटी नहीं है। सूरज रोज तो उगता है, लेकिन कभी बासा और घिसा-पिटा होता है? इस जगत में कुछ भी बासा, घिसा-पिटा नहीं है। सिर्फ तुम्हारी आंख! तुम्हारी आंख पर धूल जम जाए तो सारा संसार घिसा-पिटा मालूम होता है।
मैंने सुना, एक बूढ़ी स्त्री अपनी खिड़की पर खड़े होकर खिड़की के कांच के पीछे से आकाश के चांद-तारों को देखती थी, सूरज को उगते देखती थी, और जिंदगी बड़ी घिसी-पिटी मालूम होती थी। एक दिन एक मेहमान उसके घर में रुका। उस मेहमान ने उठ कर उसकी कांच की खिड़की को साफ कर दिया। उस पर खूब धूल जमी थी। खिड़की साफ हो गई, चांद-तारे साफ झलकने लगे। सूरज उगा--और ही उगा! नये ही ढंग से उगा! वह बूढ़ी तो बहुत चकित हुई। उसने सोचा: तो मैं तो समझती थी कि संसार ही घिसा-पिटा हो गया। मैं रह भी चुकी हूं कोई नब्बे साल दुनिया में, तो वही का वही! तुमने यह क्या जादू कर दिया? आज चांद ताजा है।
चांद वही का वही है, सिर्फ कांच पर जमी थोड़ी सी धूल हट गई है। चांद पर कोई धूल न थी। तुम्हारी आंख पर धूल है तो संसार घिसा-पिटा है। जरा आंख की धूल झड़ जाने दो। पक्षपात, विचारों का व्यर्थ समूह हटा दो। एक छोटे बालक की भांति आश्चर्यचकित हो जाओ, यही मेरी देशना है। इस जगत को आश्चर्य भरी हुई नजरों से देखो। फिर से देखो। फिर-फिर देखो। और तुम इसे रोज-रोज नया-नया पाओगे। तुम पाओगे कि जितनी तुम्हारी आंख ताजी होती जाती है, उतना जगत ताजा होता जाता है। फिर तुम कहीं भी रहो, फिर तुम्हें नरक भेजा ही नहीं जा सकता, क्योंकि तुम जहां भी रहोगे वहीं स्वर्ग होगा।
लोग कहते हैं कि संतों को स्वर्ग भेजा जाता है और पापियों को नरक। यह बात बिलकुल गलत है। संतों को स्वर्ग नहीं भेजा जाता--संत तो जहां होते हैं वहां स्वर्ग होता है। और पापियों को नरक नहीं भेजा जाता--पापी जहां होते हैं वहीं नरक होता है। भेजने की जरूरत ही नहीं पड़ती। वे खुद ही अपना नरक और अपना स्वर्ग बना लेते हैं।
तो रजत! चिंता न करो। इस जाल में अगर सच में ही फंसे हो तो बहुत जालों से मुक्त हो जाओगे। और यह जाल गुलामी का जाल नहीं है। मैं तुम्हें मुक्त करता हूं। मैं तुम्हें मुक्त करता हूं ज्ञान से, मैं तुम्हें मुक्त करता हूं तुम्हारे थोथे चरित्र से, मैं तुम्हें मुक्त करता हूं तुम्हारी थोथी शुभ-अशुभ की धारणाओं से। मैं तुम्हें सिर्फ मुक्त करता हूं। मैं तो सिर्फ इतना ही चाहता हूं कि तुम वर्तमान क्षण में, अतीत को, भविष्य को भूल कर जीने की कला सीख लो। फिर कभी कुछ बासा नहीं होता। फिर प्रतिपल परमात्मा आता है और प्रतिपल उसकी पगध्वनि सुनी जाती है। प्रतिपल उसका संगीत बरसता है--और ऐसा बरसता है कि तुम अपनी झोली में उसे भर न पाओगे; इतना बरसता है कि तुम्हारे हाथ छोटे पड़ जाएंगे, तुम्हारी झोली छोटी पड़ जाएगी। बाढ़ की तरह आता है परमात्मा जब आता है। और परमात्मा प्रतिपल आने को आतुर है--द्वार दो, राह दो, अपने को खाली करो।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, आश्चर्य है कि भारत की राजधानी से निकलने वाली एक पोर्नो पत्रिका ने, जो अश्लीलता का धंधा करती है, लिखा है कि आपको फांसी दे दी जाए। इसका राज क्या है?
आनंद मैत्रेय! राज जरा भी नहीं है। बात बिलकुल सीधी-साफ है। अश्लील पत्रिकाएं बिकती हैं तुम्हारे साधु-संन्यासियों के कारण! अगर मेरी चले तो अश्लील पत्रिकाएं दुनिया में बिक ही न सकेंगी। अगर मेरी चले तो अश्लील पत्रिका कौन खरीदेगा? किसलिए खरीदेगा?
अश्लील पत्रिका खरीदते कौन लोग हैं?
वे वे ही लोग हैं, जिन्होंने कामवासना का दमन किया है। वे वे ही लोग हैं, जिन्होंने अपनी कामवासना का सत्कार नहीं किया, स्वागत नहीं किया। वे वे ही लोग हैं, जो पंडित-पुजारियों, साधु-संन्यासियों के हाथ के शिकार हुए हैं। वे ही लोग अश्लील पत्रिकाएं पढ़ते हैं। यद्यपि गीता में छिपा कर पढ़ते हैं, कोई कुरान में छिपा कर पढ़ते हैं, कोई बाइबिल की जिल्द में छिपा कर पढ़ते हैं, मगर ये वे ही लोग हैं।
यह सारी दुनिया तो धार्मिक लोगों से भरी है, इसमें अश्लील पत्रिकाएं पढ़ता कौन है? जो किताबें पढ़ते हैं कि ब्रह्मचर्य ही जीवन है, वे ही अश्लील पत्रिकाएं पढ़ते हैं। ये दोनों अलग-अलग पाठक नहीं हैं। एक तरफ पढ़ते हैं कि ब्रह्मचर्य ही जीवन है और फिर अपने पर जबर्दस्ती ब्रह्मचर्य थोपने की कोशिश करते हैं। नहीं थोप पाते और भीतर चित्त उद्विग्न होने लगता है। और जो रोक लिया है, वह नये-नये रास्ते खोज कर निकलने लगता है। वे ही अश्लील पत्रिकाएं पढ़ते हैं, अश्लील फिल्में देखते हैं। उनके लिए ही अश्लील फिल्में लिखी जाती हैं, बनाई जाती हैं, अश्लील कहानियां लिखी जाती हैं, गीत रचे जाते हैं। भद्दी तस्वीरें, बेहूदी तस्वीरें उन्हीं के लिए तैयार की जाती हैं।
तुम जान कर चकित होओगे कि राज इसमें बिलकुल नहीं, गणित बहुत सीधा-साफ है। तुम्हारे साधु, तुम्हारे मुनि, तुम्हारे संन्यासी न हों, वेश्या समाप्त हो जाएगी। वेश्या तुम्हारे मुनि महाराजों का दूसरा अंग है। ये दोनों एक ही दुकान में साझीदार हैं। इधर मुनि, संन्यासी, त्यागी निंदा करता है वासना की। उस निंदा से तुम्हारे भीतर वासना का दमन शुरू होता है। और वासना जब इतनी इकट्ठी हो जाती है कि तुम उससे उबलने लगते हो, तो कोई निकास खोजना होगा। फिर वेश्या पैदा होती है। फिर हजार तरह की अश्लीलताएं पैदा होती हैं।
मैं जो कुछ भी कह रहा हूं, खतरनाक है। खतरनाक इसलिए है कि अगर मेरी बात चले, तो जिस अश्लील पत्रिका की तुमने बात की, मैंने भी उसे देखा, सारी तस्वीरें नंगी हैं और बेहूदी हैं, कुरूप हैं, बेढंगी हैं, फूहड़ हैं। सौंदर्य का कोई लक्षण नहीं है उसमें। किसी को भी हैरानी होगी कि ऐसी अश्लील पत्रिका को मुझसे क्या अड़चन हो सकती है? उसके संपादक सरकार से प्रार्थना करें कि मुझे छोटा-मोटा दंड नहीं, बिलकुल फांसी की सजा होनी चाहिए! मृत्युदंड दिया जाना चाहिए!
मगर इसमें गणित है। मैं चाहता हूं लोग वासना का दमन न करें। अगर वासना का दमन न होगा, तो अश्लील तसवीरें कौन खरीदेगा? अश्लील पत्रिकाएं कौन खरीदेगा? यह तो दमित चित्त के कारण होता है। तुम जाओ जरा आदिवासियों को, जो नग्न रहते हैं, उनको तुम अश्लील पत्रिका बेचो। वे बहुत हंसेंगे। वे कहेंगे: तुम पागल हो गए हो! इसमें मामला ही क्या है? उन्होंने नग्न स्त्रियां देखी हैं, नग्न पुरुष देखे हैं--बचपन से ही देखे हैं।
तुम्हीं सोचो न, कोई आए और कहे तुम्हें कि यह नंगी गाय की तस्वीर है, खरीद लो। तो तुम कहोगे, मैं कोई पागल हो गया हूं! नंगी गाय की तस्वीर मैं करूंगा क्या? लेकिन जरा सोचो, एक ऐसी दुनिया है जहां गायों को कपड़े पहना दिए गए हैं और जहां नंगी गाय दिखाई ही नहीं पड़ती। वहां लोग सोचने लगेंगे कि मामला क्या है? वहां नंगी गाय की तस्वीर बिकेगी। अगर कोई कहेगा, नंगी गाय की तस्वीर; तुम कहोगे, लाओ। तुम दुगने, चार गुने पैसे देने को तैयार हो जाओगे; एक बार देखने की उत्सुकता जगेगी, कि बात क्या है? जरा गायों को तुम पहना तो दो कपड़े--सुंदर-सुंदर साड़ियां, चोलियां, घूंघट डाल दो और निकालो जरा गाय को बाजार में। लोग झांक-झांक कर देखने लगेंगे कि मामला क्या है! लोग घूंघट उठा कर देखना चाहेंगे, कि कुछ राज होना ही चाहिए।
जिन चीजों को छिपाया जाता है उनको देखने की उत्सुकता जगती है--यह सीधा गणित है। जरा अपने दरवाजे पर एक तख्ती लगा दो कि यहां झांकना मना है। और फिर तुम देख लेना, कोई माई का लाल निकल नहीं सकेगा बिना झांके! और कोई अगर निकल गया लाज-संकोच में--कि चार आदमी देख रहे हैं, कोई क्या कहेगा--अकड़ कर गर्दन को कड़ी करके निकल गया, तो मन लौट-लौट कर झांकना चाहेगा। आएगा वह आदमी, किसी और बहाने आएगा। कोई अच्छा बहाना खोज कर आएगा, लेकिन आएगा। और अगर कमजोर हुआ, बहुत ही कायर दिल हुआ और हिम्मत न जुटा पाया, तो सपने में उस दरवाजे को देखेगा, और सपने में झांक कर देखेगा!
जिन चीजों का इनकार किया जाता है, उन चीजों में रस पैदा हो जाता है। निषेध में निमंत्रण है। ये अश्लील पत्रिकाएं...ऊपर से तो ऐसा लगता है कि साधु-संन्यासी इनके बड़े विरोध में हैं। हैं विरोध में। आचार्य तुलसी ने आंदोलन चलाया था अश्लील पत्रिकाओं के विरोध में। जब उनके एक शिष्य मुनि मुझसे मिलने आए और कहा कि मेरा भी समर्थन? मैंने कहा: मैं समर्थन नहीं करूंगा। अश्लील पत्रिकाओं के विरोध में आंदोलन चलाने का मतलब तो और रस पैदा करवाना है!
मैंने उनसे पूछा कि आचार्य तुलसी को अश्लील पत्रिकाओं से क्या तकलीफ है? देखते हैं अश्लील पत्रिकाएं? नहीं देखते तो उनको पता कैसे चलता है? अश्लील पत्रिकाओं से उनका विरोध क्या है? विरोध होगा कैसे? विरोध के लिए भी तो कम से कम देखना जरूरी होगा। उन्हें अड़चन क्या है?
और यह विरोध नया तो नहीं है, यह विरोध सदियों से चल रहा है। इस विरोध से अश्लील पत्रिकाएं समाप्त नहीं हुईं, अश्लील किताबें समाप्त नहीं हुईं, अश्लील फिल्में समाप्त नहीं हुईं। इतना ही हो जाता है कि सभी चीजें धीरे-धीरे छिप कर बहने लगती हैं। जमीन के ऊपर नहीं चलतीं, अंडरग्राउंड हो जाती हैं, भूमिगत हो जाती हैं। अगर तुम किताबों की दुकान पर जाओगे, सब किताबें--गीता, कुरान इत्यादि ऊपर बिकती हैं, काउंटर के नीचे छिपी रहती हैं असली चीजें। असली चीजें काउंटर के नीचे छिपी रहती हैं!
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने किताब के दुकानदार को तार किया, कि शेक्सपियर का पूरा सेट भेज दो, और कालिदास की भी सब किताबें, और भवभूति की भी, और साथ में कुछ पढ़ने योग्य सामग्री भी भेज देना!
पढ़ने योग्य सामग्री और क्या होगी? शेक्सपियर को कोई पढ़ता है? कालिदास को कोई पढ़ता है? इनको तो लोग सजा कर रख लेते हैं बैठकखाने में। ये किताबें पढ़ी जाने वाली किताबें नहीं हैं। मैंने बहुत बैठकखानों में ये किताबें सजी देखी हैं। और जब मैंने किताबें निकालीं, तो देखा कि उनके पन्ने भी अभी काटे नहीं गए हैं, कोई पन्ना जुड़ा है तो जुड़ा ही है। किसी ने कभी किताब खोल कर देखी ही नहीं है। पढ़ा कुछ और जाता है। वह अलग ही बिकता है। वह नीचे-नीचे बहता है।
मैं कह रहा हूं कि मनुष्य की कामवासना का विरोध अवैज्ञानिक है। मनुष्य की कामवासना में ही मनुष्य के ब्रह्मचर्य की ऊर्जा छिपी है। लेकिन ब्रह्मचर्य वासना का विपरीत नहीं है, वासना का अंतिम खिलाव है। जैसे वासना की भूमि में ही ब्रह्मचर्य का फूल खिलता है! मैं यह कह रहा हूं कि वासना की ऊर्जा और ब्रह्मचर्य का प्रागट्य एक ही घटना के दो पहलू हैं। इसलिए वासना से लड़ना मत, अन्यथा ब्रह्मचर्य कभी उपलब्ध न होगा। व्यभिचार उपलब्ध होगा, ब्रह्मचर्य नहीं। जितना वासना को दबाओगे, उतने व्यभिचारी हो जाओगे। अगर बाहर से भी न हुए, तो चित्त व्यभिचारी हो जाएगा।
वासना को जीओ, समझो--ध्यानपूर्वक, प्रेमपूर्वक। वासना परमात्मा की भेंट है; उसमें ही छिपा है कहीं कुछ राज! उसे खोजो। जैसे-जैसे समझ बढ़ेगी, तुम अचानक पाओगे कि वासना तिरोहित होने लगी। और यह तिरोहित होना अपूर्व सौंदर्य को लिए होता है, क्योंकि इसमें कहीं कोई दमन नहीं है। कहीं चित्त में कोई घाव नहीं छूट जाते।
और एक दिन जब ब्रह्मचर्य आता है सहज स्वस्फूर्त--आरोपित नहीं, जबर्दस्ती थोपा गया नहीं, चेष्टा से लाया गया नहीं--स्वस्फूर्त, समझ के फल की तरह आता है, तब उस ब्रह्मचर्य में जरूर अदभुत रस है! मैं ब्रह्मचर्य का पक्षपाती हूं; लेकिन वासना के विपरीत में जो ब्रह्मचर्य है, वह तो झूठा है। वह ब्रह्मचर्य नहीं है। वह व्यभिचार है भीतर, ऊपर ब्रह्मचर्य का लेबल लगा है। मैं उस ब्रह्मचर्य के पक्ष में हूं, जो वासना की गली में से गुजर कर, समझपूर्वक, वासना को समझ कर, वासना को जान कर, देख कर, पहचान कर फलित होता है; जो वासना की प्रक्रिया का ही अंतिम निष्कर्ष है। और जब खिलता है कमल ब्रह्मचर्य का ऐसे, तब जीवन अपूर्व सुगंध से भर जाता है, आलोक से भर जाता है!
अगर मेरी बात मानी जाए तो इसके दो परिणाम होंगे। एक परिणाम तो यह होगा कि लोग सहज हो जाएंगे। और सहज व्यक्ति अश्लील पत्रिकाओं, अश्लील फिल्मों को देखने नहीं जाएगा; जरूरत ही न रही। सहज व्यक्ति धीरे-धीरे इस मूढ़ता को छोड़ ही देगा, कि शरीर को हमेशा छिपाए रखना है। शरीर को हमेशा छिपाए रखना घातक है। वही अश्लील पत्रिकाओं को बिकवा रहा है। अपने बच्चों के साथ मां-बाप को कभी नग्न होकर स्नान करना चाहिए, ताकि बच्चे बचपन से ही समझें कि देह में है क्या, देह जैसी देह है। जिन अंगों को तुम नहीं छिपाते, उनको कोई नहीं देखना चाहता। हाथ को तुमने नहीं छिपाया है, तो हाथ के लिए कोई दीवानगी नहीं है।
मध्य युग में, विक्टोरिया के जमाने में हालतें ऐसी थीं कि इंग्लैंड में स्त्रियों के पैर भी छिपा दिए जाते थे। ऐसा घाघरा पहनाते थे कि वह जमीन को छूता हुआ, सरकता हुआ चले, ताकि पैर न दिखाई पड़ें। तो पैरों की भी तस्वीरें बिकती थीं। अब नहीं बिकतीं। अब क्या बिकेंगी पैरों की तस्वीरें! कम से कम पश्चिम में तो कोई पैर की तस्वीर नहीं बिक सकती, क्योंकि स्त्रियां इतनी छोटी-छोटी फ्राक पहने हुए हैं कि पूरे पैर ही दिखाई पड़ रहे हैं, पैर की तस्वीर कौन खरीदेगा?
तुम जान कर हैरान होओगे कि ऐसी मूढ़ स्त्रियां और ऐसे मूढ़ पुरुष भी थे इंग्लैंड में जो कि कुर्सियों के पैर भी ढांक कर रखते थे, क्योंकि उनको पैर कहा जाता है! तो कुर्सियों के पैर पर कपड़े का आवरण चढ़ा देते थे। तब यह भी हो सकता है, कि जब तुम्हारी मेजबान महिला भीतर गई हो, तुम जल्दी से उसकी कुर्सी के पैर का जरा सा कपड़ा उघाड़ कर देख लो। यह भी हो सकता है, यह बिलकुल स्वाभाविक है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने मुझे कहा कि मेरे पिता ने मुझसे कहा कि एक गंदी फिल्म बस्ती में लगी है, वहां मत जाना देखने, क्योंकि उसमें तुम ऐसी चीजें देखोगे जो न देखते तो अच्छा था। मुल्ला को पता भी नहीं था कि कोई ऐसी फिल्म लगी है। अब जब बाप ऐसा कहे, तो जाना ही पड़ा। तो मुल्ला से मैंने पूछा कि फिर तुम्हें ऐसी चीजें दिखाई पड़ीं उसमें, जो अच्छा होता कि तुम न देखते? उसने कहा कि हां, क्योंकि मेरे पिताजी भी वहां थे। वे मुझे दिखाई पड़े। उन्होंने मुझे देख लिया, मैंने उन्हें देख लिया; बात साफ हो गई कि ऐसी चीजें दिखाई पड़ीं, मुझको भी और उनको भी, जो दिखाई नहीं पड़नी थीं। उस दिन से न तो उन्होंने कुछ कहा है, न मैंने कुछ कहा है। अब हम चुप्पी साधे हुए हैं।
यह अश्लील साहित्य मनुष्य के रुग्ण चित्त का लक्षण है। उस पत्रिका की नाराजगी बिलकुल तार्किक है। अगर मेरी बात चले, तो ये पत्रिकाओं के प्राण निकल जाएंगे। इसलिए मुझे फांसी होनी ही चाहिए, नहीं तो ये पत्रिकाएं नहीं चलेंगी! मेरे संन्यासी तो ऐसी पत्रिकाएं नहीं खरीद सकते। कोई कारण नहीं है। अगर तुमने जीवित मनुष्यों को नग्न देखा है, तो तुम क्यों तस्वीरों में रस लोगे? और अगर तुमने जीवित स्त्री-पुरुषों को प्रेम किया है और तुमने प्रेम का रस जाना है, प्रेम के फूल जाने हैं और प्रेम के कांटे भी जाने हैं, और प्रेम का सुख जाना है और प्रेम का दुख भी जाना है--तो तुम वेश्याओं के यहां जाओगे? यह असंभव है।
मैं जिस मनुष्य की बात कर रहा हूं, अगर वह मनुष्य पृथ्वी पर आया, तो वेश्याएं अपने आप तिरोहित हो जाएंगी। तुम जान कर हैरान होओगे कि पश्चिम में अब वेश्याएं ही नहीं होतीं, वैश्य भी होते हैं। क्योंकि स्त्रियों ने कहा कि सिर्फ पुरुष ही वेश्याओं को भोगते रहें, यह तो असमानता है। इसलिए पश्चिम के प्रमुख नगरों में, लंदन, न्यूयार्क, वाशिंगटन जैसे नगरों में पुरुष वेश्याएं हैं। उनको मैं वैश्य कहता हूं। तुम नाराज मत होना; कोई वैश्य यहां आया हो, तो मेरा मतलब तुम्हारे ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र वाले वैश्य से नहीं है। क्योंकि वेश्या तो स्त्री का नाम है, अब पुरुष को क्या कहो अगर वह अपना शरीर बेचता हो? तो उसका नाम वैश्य। मुझ पर मुकदमा मत चला देना कि मैंने वैश्यों के खिलाफ कुछ कह दिया! अब मैं भी क्या करूं, भाषा में कोई शब्द है नहीं। क्योंकि वेश्याएं सदा से रहीं, वैश्य कभी रहे नहीं। अंग्रेजी में तो सुविधा है, वे कहते हैं: मेल प्रॉस्टिट्यूट। अब हिंदी में कहो--पुरुष वेश्या, जंचता नहीं। क्योंकि वेश्या का मतलब ही स्त्री होता है।
यह हालत वैसी है, जैसे कि हिंदुस्तान में कोई पुरुष नर्सों का काम नहीं करते अभी, सभी स्त्रियां नर्सों का काम करती हैं। अब कोई पुरुष नर्स का काम करे, उसको क्या कहोगे? नर्सा? पश्चिम में पुरुष भी शुरू कर दिए हैं काम। मेरे कई संन्यासी हैं जो नर्स का काम करते हैं। उनका...वे मेल नर्स।
कुछ न कुछ हमें खोजना पड़ेगा, आज नहीं कल। वैश्य जंचता है। वैश्य का मतलब होता है--बेचने वाला। उसी से तो वेश्या बना है। वह अपने तन को बेचती है। पुरुष भी अपने तन को बेचने लगे हैं।
यह तन का बेचना अशोभन है। लेकिन इस तन के बेचने के पीछे जिनका हाथ है, वे तुम्हारे बड़े-बड़े संत-महंत, उनका हाथ है। उन्होंने तुम्हारे जीवन को तृप्त नहीं होने दिया सहजता से। तो तुमने पीछे के दरवाजे खोज लिए हैं। मुझ पर साधु-संत भी नाराज हैं, अश्लील किताबें बेचने वाले भी नाराज हैं। यह बड़ी हैरानी की बात है!
तो आनंद मैत्रेय का प्रश्न महत्वपूर्ण है, कि इसका राज क्या?
इसका राज साफ है। उन दोनों की साझेदारी है। चाहे उन्हें पता हो या न हो। वे दोनों एक साथ जुड़े हुए हैं। मैं दोनों की जड़ काट दूंगा। वे दोनों एक ही वृक्ष की शाखाएं हैं। और मैं जड़ काटना चाहता हूं। मैं चाहता हूं: मनुष्य वासना को स्वीकार कर ले--सरलता से, अहोभाव से। वासना का दमन बंद कर दे। और लोग कम से कम विश्राम के क्षणों में तो नग्न हों। नदी पर स्नान करते हुए लोग अगर नग्न हों, समुद्र में स्नान करते हुए लोग अगर नग्न हों, घर के बगीचे में धूप लेते हुए अगर लोग नग्न हों--तो धीरे-धीरे नग्नता की जो हमारे मन में पागल चाह पैदा हो गई है देखने की, वह समाप्त हो जाएगी। उसके प्राण निकल जाएंगे। वह बच कैसे सकती है? इसे मैं जड़ का काटना कहता हूं। और तब एक ज्यादा स्वस्थ मनुष्य और एक ज्यादा स्वस्थ मनुष्यता का जन्म हो सकता है।
निश्चित ही, मैं बहुत से न्यस्त स्वार्थों के विपरीत बोल रहा हूं। इसलिए मुझ पर हजार तरह की झंझटें आनी निश्चित हैं, स्वाभाविक हैं। न आएं तो चमत्कार होगा!
तीसरा प्रश्न:
भगवान, मैं हृदय की वेदना व्यक्त करना चाहता हूं, जो कि मैंने आज तक किसी से व्यक्त नहीं की। मेरे मन की हालत खंड-खंड हो गई है। एक तरफ सत्संग का प्रेम और परमात्मा से मिलन की चाहत और दूसरी तरफ भौतिक कामवासना की तरफ हर पल का झुकाव। आज प्रौढ़ावस्था तक उससे छुटकारा नहीं पा सका हूं। समझ आती है तो अधूरी रहती है। और स्त्री-शरीर के अनेक अनुभवों के बावजूद भी और ज्यादा वृत्ति तंग करती है। सब अच्छी कही हुई बातें और सिखावनें बाहर ही रह जाती हैं। मैं वही का वही! सब भूल कर लोलुप हो जाता हूं। वासना मन को घेरे रहती है। स्वप्न में भी वही चलता है। किस क्रिया से मैं छुटकारा या समता पा सकूं, वह रास्ता दिखाएं। कृपा करें।
राधारमण! अभी मैंने जो कहा उस पर विचार करना। क्यों छुटकारा चाहते हो? किसने तुमसे कहा कि छुटकारा चाहो? छुटकारा चाहने की चेष्टा में ही उपद्रव हो रहा है।
वासना को अंगीकार करो। प्रकृति से मिली है, तुमने कुछ बनाई नहीं है। अगर कोई कसूरवार होगा कभी तो परमात्मा कसूरवार होगा, तुम कसूरवार नहीं। इतना मैं तुम्हें आश्वासन देता हूं कि परमात्मा तुमसे यह नहीं पूछेगा कि तुम कामवासना में क्यों जीए? और पूछे तो उसका कालर पकड़ कर हिला देना और कहना कि दी थी तुमने, मेरा क्या कसूर था? न बनाते! नहीं, परमात्मा ने कभी किसी से पूछा नहीं है। कैसे पूछेगा?
तुम अपनी तस्वीर में लाल रंग भरो और फिर तस्वीर पर नाराज हो जाओ कि इसमें लाल रंग क्यों है, तो लोग तुम्हें पागल कहेंगे। तुम्हीं ने लाल रंग भरा।
अगर कोई कसूरवार है तो परमात्मा कसूरवार होगा, तुम तो कसूरवार नहीं हो। मैं तुम्हें मुक्त करता हूं तुम्हारे कसूर से। तुम यह पाप का भाव छोड़ो।
और मजा यह है और विरोधाभास भी: अगर पाप का तुम भाव छोड़ दो वासना के प्रति तो कभी के मुक्त हो गए होते, प्रौढ़ावस्था तक रुकना न पड़ता। मेरे देखे, वैज्ञानिक हिसाब से चौदह वर्ष की उम्र में कामवासना शुरू होती है, पकती है; और बयालीस वर्ष की उम्र में अपने आप समाप्त हो जाए, अगर व्यक्ति स्वीकार करके शांति से आनंदपूर्वक जीए। अपने आप समाप्त हो जाए!
हर सात वर्ष में परिवर्तन होते हैं। पहले सात वर्ष में वासना बिलकुल ही छिपी होती है। सात वर्ष से चौदह वर्ष की उम्र में हलकी-हलकी झलकें आनी शुरू होती हैं। समझ में नहीं पड़ता बच्चे की कि यह क्या हो रहा है। लेकिन हलकी-हलकी झलकें आनी शुरू होती हैं। उसमें उत्सुकता जगने लगती है। चौदह वर्ष में, चौदह वर्ष की उम्र तक वासना पक जाती है, प्रकट होने को तैयार हो जाती है।
मगर हमने जो व्यवस्था बनाई है वह बड़ी बेहूदी है, अवैज्ञानिक है। जब बच्चा कामवासना से तैयार हो जाता है चौदह साल का, तब हम उसे दमन शुरू करवाते हैं। विवाह तो होगा चौबीस साल में, कि पच्चीस साल में, कि तीस साल में। चौदह साल से लेकर और चौबीस साल तक दस साल के फासले में वासना का क्या होगा? दबाएगा बच्चा। और दबाने से रुग्ण होगा। तो वासना स्वप्न में प्रविष्ट हो जाएगी। या कोई विकृत प्रक्रिया पकड़ लेगा वासना को प्रकट करने की।
यह तुम्हें जान लेना चाहिए कि अठारह वर्ष की उम्र में वासना सबसे प्रबल वेग लेती है। साढ़े सत्रह वर्ष की उम्र में ठीक...क्योंकि चौदह वर्ष से इक्कीस वर्ष के ठीक मध्य में वासना सर्वाधिक प्रबल होती है। उतनी प्रबल फिर कभी नहीं होगी। और उसी वक्त हम दमन करवा रहे हैं। उसी वक्त हम कह रहे हैं कि अभी पढ़ाई में मन लगाओ। उसी वक्त हम कह रहे हैं कि अभी तो रामभजन करो। उसी वक्त हम दबाने का सारा-सारा उपाय कर रहे हैं। फिर तुम्हारे बच्चे अगर विकृत हो जाते हैं...और एक दफे विकृति पकड़ ले तो आसानी से नहीं छूटती।
ध्यान रखना, जो प्राकृतिक है, आसानी से उसके पार जाया जा सकता है। जो अप्राकृतिक है, उसके पार जाना कठिन हो जाता है। अप्राकृतिक जटिल हो जाता है। और अप्रकृति पैदा हो जानी स्वाभाविक है। हजार तरह की विकृतियां संभव हैं। और सारी मनुष्य-जाति विकृति से भर गई है। चौबीस या पच्चीस साल या छब्बीस साल या जैसे-जैसे सभ्यता आगे जा रही है, उम्र बढ़ती जा रही है विवाह की, क्योंकि इतनी शिक्षा पूरी होगी तब विवाह। पच्चीस साल और तीस साल के बीच में कभी विवाह होगा।
अब मजा यह है कि वासना उतार पर हो गई, तब विवाह होगा। जब वासना अपने उद्दाम वेग में थी तब विवाह न हुआ। अब वासना का वेग क्षीण होने लगा। साढ़े सत्रह वर्ष में सबसे ऊंचा शिखर छूती है वासना। यह मैं वैज्ञानिक शोध की बात कर रहा हूं। और फिर उसके बाद उतार शुरू हो जाता है। पांच-सात साल में जब उतार हो गया, फिर विवाह होगा। अब विवाह में संभोग तो होगा, लेकिन संभोग से तृप्ति नहीं होगी। वह तृप्ति हो सकती थी साढ़े सत्रह साल की उम्र में, अब नहीं हो सकती। अब वेग ही नहीं है इतना कि तृप्ति हो सके। अब भूख ही इतनी गहरी नहीं है कि तृप्ति हो सके। अब तुम्हारी वासना फुसफुसी हो गई। अब यह फुसफुसी वासना जिंदगी भर पीछा करेगी। तृप्त हो गई होती तो कभी के तुम इससे छूट गए होते, कभी के छूट गए होते। मगर तृप्त नहीं हो पाएगी। और हर बार जब वासना में उतरोगे, आनंद तो कोई भी अनुभव नहीं होगा, और विषाद अनुभव होगा पीछे कि शक्ति भी खोई, कुछ पाया भी नहीं, यह कैसी पशुता में मैं उतरता हूं! तो निंदा और घनी होती जाएगी। जितनी निंदा घनी होगी, उतने ही तुम उतरोगे तो जरूर, और अपने को चाहोगे कि न उतरता तो अच्छा था। तुम्हारे भीतर विरोध खड़ा हो जाएगा, द्वंद्व खड़ा हो जाएगा। एक हिस्सा जाएगा और एक हिस्सा खींचेगा।
यह ऐसा हुआ जैसे बैलगाड़ी में दोनों तरफ बैल जोत दिए और लगे फटकारने बैलों को दोनों तरफ। बैलगाड़ी के अस्थिपंजर उखड़ जाएंगे। वही तुम्हारी दशा हो गई है। वही सारी मनुष्यता की दशा हो गई है।
तृप्ति से मुक्ति संभव है, अतृप्ति से कभी कोई मुक्त नहीं होता।
अब रोज-रोज तुम्हारी वासना क्षीण होती जाएगी और रोज-रोज तुम्हारा विषाद घना होता जाएगा। अब बयालीस वर्ष में तो क्या, बयासी वर्ष में भी छुटकारा संभव नहीं है। अब तो तुम मरते दम तक वासना में ही दबे-दबे मरोगे। और तब तुम्हें पंडितों-पुरोहितों, साधु-संतों की बातें बिलकुल ठीक मालूम होंगी। यह समझने की कोशिश करो। क्योंकि वे कहते हैं कि वासना सिर्फ दुख है। और तुम्हारा अनुभव भी कहेगा कि हां, दुख है। अब यह बड़ा अदभुत तर्क हो गया। उन्हीं ने ऐसा जाल रचा कि वासना दुख हो जाए और तुम्हारा भी अनुभव अब यही कहेगा कि वासना दुख है, तो संत ठीक ही कहते हैं।
इसलिए मेरे जैसे लोगों की बात तुम्हारी समझ में न पड़ेगी। क्योंकि तुम्हारा अनुभव मेरे विपरीत है। मैं कहता हूं: वासना परम आनंद है। मगर तुम राजी नहीं हो सकते। तुम कहोगे: किससे कह रहे हैं आप? और लोग समझते हैं कि उन्होंने बच्चे पैदा कर लिए, इसलिए उन्होंने वासना को जाना है। बच्चे पैदा करने के लिए वासना जानने की कोई जरूरत नहीं है। बच्चे पैदा करना तो इतना सरल काम है, गधे-घोड़े भी कर रहे हैं! इसके लिए कोई जानकारी या होश की जरूरत नहीं है। बच्चे पैदा करना तो इतना सरल काम है जैसे बटन दबा कर बिजली जला देना। लेकिन क्या तुम समझते हो कि बटन दबा कर बिजली जला ली तो तुम समझ गए कि बिजली क्या है?
बिजली क्या है, यह तुम नहीं समझ जाओगे बटन दबाने से। बिजली को जानना तो एक बड़ी गहन यात्रा है। बड़ी लंबी यात्रा है। अभी भी वैज्ञानिक रहस्य को खोल नहीं पाए हैं कि बिजली क्या है? उपयोग सीख गए हैं। बिजली से हजार काम लेने लगे हैं। लेकिन, बिजली क्या है, इसका उत्तर अभी विज्ञान के पास नहीं है।
और कामवासना जीवंत बिजली है, जीवंत विद्युत है। वह विद्युत का और भी ऊपरी, और भी आगे का कदम है, आगे का पड़ाव है। अभी तो भौतिक विद्युत का भी रहस्य नहीं खुल पाया है, तो जैविक विद्युत का, बायोलाजिकल इलेक्ट्रिसिटी का रहस्य तो अभी बहुत दूर है। अभी तो उस पर काम भी शुरू नहीं हुआ है। लेकिन कोई बच्चे पैदा कर लेता है... बच्चे तो तुम दर्जनों पैदा कर लेते हो। जितना नासमझ आदमी हो उतने बच्चे पैदा कर लेता है। बच्चे पैदा करने में क्या है? लेकिन बच्चे पैदा करने वाला सोचने लगता है कि मैं वासना को जानता हूं--और छुटकारा नहीं हुआ अभी तक।
वासना को तुम नहीं जानते। वासना को जानने का शास्त्र है। वासना को जानने की कला है। उसी कला का नाम तंत्र है। उसके बड़े सूक्ष्म उपाय हैं, विधियां हैं। मैं चाहता हूं कि लोग तंत्र की विधियां समझें, सीखें। मगर जिनको मैं समझाना चाहता हूं, जिनको मैं सिखाना चाहता हूं, जो सीख कर वासना से मुक्त हो सकते हैं--वे ही प्रस्तावना करते हैं कि मुझे फांसी की सजा दे दी जाए। और उनको भी मैं कसूर नहीं दे सकता, उनका अनुभव उनसे यही कहता है कि वासना में क्या सुख है? वासना तो नरक है! हालांकि नरक कह-कह कर वे मुक्त नहीं हुए हैं।
राधारमण! तुम्हारी अवस्था तुम्हारी ही नहीं है, करीब-करीब निन्यानबे प्रतिशत मनुष्यता की है। और जैसे तुम कहते हो--कि मैं हृदय की वेदना व्यक्त करना चाहता हूं, जो कि मैंने आज तक किसी से व्यक्त नहीं की--ऐसे ही और भी लोग हैं जो किसी से व्यक्त नहीं कर रहे हैं। करें भी क्या! अपना रोना क्या रोना! और अपना रोना रोएंगे तो लोग हंसेंगे। मजा यह है! अगर तुम किसी से कहोगे कि मैं प्रौढ़ हो गया और वासना से मुक्त नहीं हुआ, तो वह कहेगा: अरे, अभी तक वासना से मुक्त नहीं हुए? वह ऐसा दिखाएगा जैसे वह तो मुक्त हो गया है। वह यह मौका नहीं छोड़ सकता कि अपने को तुमसे ऊपर रख ले। और तुम्हें ऐसा दीन कर देगा, ऐसा हीन कर देगा, कि कहने से सार क्या है?
तुम जाकर किसी साधु-संन्यासी को कहोगे कि मैं अभी वासना से मुक्त नहीं हुआ, तो वह कहेगा: पशु हो तुम! नारकीय हो तुम! कीड़े हो तुम! वह तुम्हें गालियां देगा। तो कहने में सार क्या है? छुपाए रहो अपने दर्द को! छुपाए-छुपाए मर जाओ!
तुम तो ईमानदार आदमी हो कि तुमने यह निवेदन कर दिया, लेकिन निन्यानबे प्रतिशत आदमियों की यही अवस्था है। कहते नहीं किसी से। कहना क्या है? कौन समझेगा? लोग हंसेंगे उलटे। लोग उलटे अपमान करेंगे। तुम्हारी प्रतिष्ठा होगी कुछ तो वह भी गिर जाएगी। यहां तो प्रतिष्ठा उनकी है जो दावेदार हैं। दावा झूठा हो कि सच, इससे कुछ सवाल नहीं है। दावा ऐसा हो कि कोई उसमें भूल-चूक न पकड़ पाए, बस। वासना है भीतर तो रहने दो, बाहर तो ज्ञान की चर्चा करो, वेद की ऋचाएं उद्धृत करो। बाहर तो ब्रह्मचर्य की चर्चा करो।
मैं तुम्हारे साधु-संन्यासियों को जानता हूं, क्योंकि वे भी जब मेरे पास आते हैं तो उनकी भी पीड़ा यही है। तुम यह मत सोचना कि तुम गृहस्थ हो, इसलिए तुम्हारी पीड़ा नहीं मिटी। तुम्हारे साधु-संन्यासियों की पीड़ा तुमसे भी ज्यादा है। क्योंकि तुम्हें तो कुछ सुविधा थी, मिट भी जाती; उन्हें तो वह भी सुविधा नहीं है। वे तो बिलकुल जले जा रहे हैं, आग से भरे हैं। अगर तुम्हारे साधु-संन्यासियों की खोपड़ी खोली जाए, छोटी-छोटी खिड़की बनाई जाएं खोपड़ी में और उनकी जांच की जाए, तो तुम चकित होओगे कि तुम जितना नारकीय दृश्य वहां देखोगे, तुम्हें कहीं भी दिखाई न पड़ेगा।
तुम खुद भी प्रयोग करके देख सकते हो। रोज तुम भोजन कर लेते हो, फिर तुम भोजन के सपने तो नहीं देखते। एक दिन उपवास करो, उस रात भोजन का सपना देखोगे। दो-चार दिन का उपवास करो, भोजन ही भोजन की सोचोगे। और सब सोच-विचार खो जाएगा, मैं तुमसे कहता हूं, राधारमण! कामवासना का विचार भी खो जाएगा, एक पांच-सात दिन उपवास करो, भोजन ही भोजन दिखाई पड़ने लगेगा। रास्ते पर निकलोगे तो स्त्रियां दिखाई नहीं पड़ेंगी, होटलें दिखाई पड़ेंगी। होटलों के अक्षर बिलकुल साफ-साफ दिखाई पड़ेंगे, बोर्ड बिलकुल पढ़ोगे, बार-बार पढ़ोगे। रास्ते पर निकलोगे तो और कुछ नहीं, यह भजिये की गंध, यह पकौड़ों की गंध, राह तुम्हें एकदम गंधों से भरी मालूम होगी--भोजन की एक से एक गंध! इसी रास्ते से जिंदगी भर गुजरे थे, ये गंधें तुम्हें कभी मालूम न पड़ी थीं, क्योंकि पेट भरा था, तृप्त थे तुम।
अभी तुम रास्ते से गुजरते हो, स्त्रियां ही स्त्रियां दिखाई पड़ती हैं। तुम्हारे भीतर वासना दबी पड़ी है। तुमने अच्छा किया कि कहा, निवेदन किया। रास्ता बन सकता है। लेकिन रास्ते को बनाने के लिए कुछ बड़ी महत्वपूर्ण बातें समझनी होंगी।
तुमने कहा: ‘मेरे मन की हालत खंड-खंड हो गई है।’
तुमने की है हालत खंड-खंड, हो नहीं गई है! तुम जिम्मेवार हो। दोष किसी और पर डाला नहीं जा सकता। अंततः तो जिम्मेवारी अपनी है। पंडित-पुरोहितों पर भी दोष डालने से कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि उनकी तुमने मानी, यह तो जिम्मेवारी तुम्हारी है। न मानते। मैंने नहीं मानी। मेरे पास अनंत संन्यासी इकट्ठे हो रहे हैं, इन्होंने नहीं मानी। तुम भी न मानते। लेकिन अभी भी तुम उनकी ही मान रहे हो। यह प्रश्न भी उनकी ही मान्यता से पैदा हुआ है। यह अड़चन भी उन्होंने दी, यह प्रश्न भी उसी से पैदा हुआ है।
तुम कह रहे हो: ‘एक तरफ सत्संग का प्रेम और परमात्मा से मिलन की चाहत और दूसरी तरफ भौतिक कामवासना की तरफ हर पल का झुकाव।’
ये दोनों अलग बातें नहीं हैं। जिन्होंने तुमसे कहा अलग हैं, उन्होंने तुम्हें गलत समझाया। ये दोनों बिलकुल एक सी बातें हैं। जिस चाहत से तुमने किसी स्त्री को चाहा है, वही चाहत तो नये पंख लगा कर परमात्मा को चाहेगी; विपरीत नहीं है। जिस वासना के कारण तुम्हें किसी स्त्री के चेहरे में सौंदर्य दिखाई पड़ा था, उसी के कारण तो तुम्हें किसी कमल में सौंदर्य दिखाई पड़ेगा; चाहत तो वही है। उसी के कारण तो तुम्हें सूर्यास्त में सौंदर्य दिखाई पड़ेगा, रात तारों में सौंदर्य दिखाई पड़ेगा; वही चाहत है। और उसी चाहत से एक दिन तुम्हें यह सारा जगत सौंदर्य से भरपूर मालूम पड़ेगा। तब परमात्मा का अनुभव शुरू होगा।
लेकिन तुम कह रहे हो: ‘एक तरफ परमात्मा की चाहत और दूसरी तरफ कामवासना की तरफ झुकाव।’
तुमने इनको विपरीत मान रखा है, वहीं तुम्हारी भूल हो रही है, वहीं मूल भूल हो रही है। और जब मूल भूल हो जाए तो फिर तुम जो भी करोगे वह गलत हो जाएगा। पहला कदम ही गलत पड़ गया। ये दोनों बातें विपरीत नहीं हैं। ये दोनों बातें अलग-अलग दिशाओं में नहीं हैं। ये एक ही रास्ते के पड़ाव हैं। काम पहला पड़ाव है, प्रेम दूसरा पड़ाव है, प्रार्थना तीसरा पड़ाव है--एक ही रास्ते पर! यही मेरी मौलिक देन है तुम्हारे लिए। ये एक ही रास्ते के पड़ाव हैं। इसलिए जरा भी चिंता न लो।
खंड-खंड तुम अपने आप हुए जा रहे हो, अपनी व्याख्या के कारण। मेरी व्याख्या समझो, खंड समाप्त हो गए, इसी क्षण समाप्त हो गए। खंडों को जोड़ना नहीं पड़ेगा, सिर्फ तोड़ना बंद हो गया। वही तो सौंदर्य को चाहता है जो परमात्मा को चाहेगा। वही चाहत, वही प्रेम।
माना कि स्त्री में बड़ा स्थूल सौंदर्य है, पुरुष में बड़ा स्थूल सौंदर्य है और परमात्मा में एक सूक्ष्म सौंदर्य है--सूक्ष्मातिसूक्ष्म! लेकिन सौंदर्य तो सौंदर्य है। हीरा जब पहली दफा खोदा जाता है खदान से तो पत्थर जैसा लगता है, सिर्फ जौहरी देख पाते हैं। और मैं तुमसे कहता हूं कि जिसे तुम कामवासना कह रहे हो, वह हीरा है। मैं जौहरी की तरह तुमसे कह रहा हूं कि वह हीरा है। उसे काटना होगा, निखारना होगा; उसे साफ-सुथरा करना होगा; तब कहीं तुम पहचान पाओगे कि यह हीरा है।
तुम्हें पता है, जब पहली दफा कोहिनूर हीरा मिला तो जिस आदमी को मिला उसके घर महीनों बच्चे उससे खेलते रहे, क्योंकि समझा कि पत्थर है। कोहिनूर हीरा! और कोहिनूर हीरे के साथ बड़ी प्यारी कहानी जुड़ी है। गोलकुंडा में मिला था। जिस आदमी को मिला था, वह एक गरीब किसान था। छोटा सा एक खेत था और खेत में से बहता हुआ एक छोटा सा झरना था। उस झरने की रेत में ही उसे एक दिन यह पत्थर चमकता हुआ मिल गया। सोचा, उठा लिया, कि बच्चे खेलेंगे। आकर बच्चों को दे दिया। बच्चे उससे खेलते भी रहे, वह घर में कभी इस कोने, कभी उस कोने पड़ा रहा। कोहिनूर हीरा--जो अब इंग्लैंड की रानी एलिजाबेथ के मुकुट में लगा है और जो इस समय दुनिया का सबसे बहुमूल्य हीरा है! जिस कोहिनूर के पीछे न मालूम कितने लोगों की जानें गईं, उससे बच्चे खेलते रहे। किसी को पता ही न था।
और कहानी अदभुत है कि उस किसान के घर एक रात एक यात्री फकीर मेहमान हुआ। उस फकीर ने जमानों की बातें कीं, दूर-दर की, क्योंकि वह सारी दुनिया घूमा हुआ था। और उसने उस किसान से कहा कि तू भी यहां क्यों समय खराब कर रहा है? मिट्टी में क्यों सिर फोड़ रहा है? ऐसी जगह हैं जहां सोने की खदानें हैं, हीरों की खदानें हैं। मैं तुझे पता दे देता हूं, तू जा। इतनी मेहनत से तो तू अरबपति हो जाएगा।
तो उसने अपना खेत बेच दिया। जिस खेत में कोहिनूर मिला था, उसने बेच दिया। और उसी खेत में फिर खदान मिली सबसे बड़ी गोलकुंडा की, जिससे दुनिया के सबसे कीमती हीरे निकले। वह उसने ऐसा दो कौड़ी में बेच दिया, खेत की कीमत में बेच दिया। और खेत को बेच कर निकल पड़ा तलाश में। अपने पत्नी-बच्चों को कहा कि तुम रुको, मैं जाता हूं धन की तलाश में। कोई चार-पांच साल बाद भिखमंगे की हालत में वापस लौटा। वे जो पैसे थे सब खर्च हो गए। न कहीं कोई हीरे की खदानें मिलीं, न कोई धनी हो पाया। भटक कर अपने घर वापस आ गया। लेकिन जिस दिन घर वापस आ गया, उसी दिन उसकी आंख खुली। वह हीरा जो बच्चों को खेलने दे गया था, इस चार-पांच साल की यात्रा में खदानें तो नहीं मिलीं, लेकिन हीरों की परख आ गई। हीरे-हीरे की धुन सवार रही। जौहरियों के पास बैठा, दुकानदारों के पास बैठा। हीरे देखे, हीरों की परख आ गई। हीरे तो नहीं मिले, मगर परख आ गई। और परख आ गई तो हीरे मिल गए, क्योंकि परख ही असली सवाल है। विश्वास ही न कर सका अपनी आंखों पर कि हीरा मेरे घर में है और मैं सारी दुनिया में खोजता रहा! फिर लाख उपाय किए कि खेत वापस मिल जाए, लेकिन अब खेत कैसे वापस मिले? खबर उड़ गई! उस खेत में सबसे बड़ी खदान है गोलकुंडे की।
निजाम, हैदराबाद के सम्राट के पास जितने हीरे थे, वे सब उसी खदान के हीरे थे। काफी हीरे थे। अभी भी हैं। जब निजाम हैदराबाद अपनी पूरी शान में थे तो उनके पास इतने हीरे थे कि हर वर्ष उन हीरों को धूप देने के लिए सात छतों पर फैलाना पड़ता था, सिर्फ धूप देने के लिए। फावड़ों से निकालना पड़ता था और फावड़ों से ही वापस कमरों में बंद करना पड़ता था। जैसे हीरे न हों, कंकड़-पत्थर हों। ये उसी गरीब किसान के खेत में सारे हीरे मिले।
तुम्हारी दशा भी उसी गरीब किसान जैसी है। वह जो तुम्हारे खेत में छोटा सा झरना बहता है कामवासना का, वहीं हीरों की खदानें हैं। परख चाहिए।
पहली बात स्मरण रखो: कामवासना परमात्मा की ही तलाश है। और इसीलिए कामवासना में तुम सदा पाओगे--कुछ कमी रह गई, कुछ कमी रह गई। क्योंकि तलाश परमात्मा की है, देह से कैसे राजी होओगे? अदेही प्रेम चाहिए। अदेही सौंदर्य चाहिए। मगर देह की सीढ़ी बनानी होगी।
तुम कहते हो: ‘एक तरफ सत्संग का प्रेम और परमात्मा से मिलन की चाहत और दूसरी तरफ भौतिक कामवासना की तरफ हर पल का झुकाव।’
इनको दो तरफ मत रखो, इन्हें एक साथ रखो। ये एक ही यात्रा के पड़ाव हैं।
‘आज प्रौढ़ावस्था तक उससे छुटकारा नहीं पा सका हूं।’
इसी गलत विवेचन के कारण छुटकारा नहीं मिला। जरा सा गलत विवेचन हो जाए, इंच भर की गलत भूल हो जाए कि हजारों मील का फासला हो जाता है सत्य से।
लेकिन तुम सोच रहे होओगे कि छुटकारा इसलिए नहीं मिला कि मैंने पूरी कोशिश नहीं की। छुटकारा इसीलिए नहीं मिला कि तुमने पूरी कोशिश की। तुमने खूब लड़ाई की अपने से। मगर लड़ाई से छुटकारा नहीं मिलता। बोध से, ध्यान से छुटकारा मिलता है।
और छुटकारा शब्द ठीक शब्द नहीं है, क्योंकि छुटकारे में यह भाव है ही कहीं कि गलत है। छुटकारा न कहो, अतिक्रमण कहो, पार जाना कहो।
‘समझ आती है तो अधूरी रहती है।’
वह समझ नहीं है। शास्त्रीय समझ है, अनुभवगत नहीं है।
‘और स्त्री के शरीर के अनेक अनुभवों के बावजूद भी वृत्ति और ज्यादा तंग करती है।’
स्त्रियों के शरीर के अनुभव से पुरुष मुक्त होता है, पुरुष के शरीर के अनुभव से स्त्री मुक्त होती है। सभी अनुभव मुक्तिदायी हैं। मगर अनुभव पूरा नहीं हो पाता, क्योंकि तुम भीतर लड़ रहे हो। तुम जब स्त्री को आलिंगन भी कर रहे हो, तब भी तुम सोच रहे हो कि अरे पापी, यह क्या कर रहा है! अरे नारकीय, यह क्या कर रहा है! सड़ेगा नरक में! वे तुम्हारे संत भीतर से उपदेश दे रहे हैं। वे बीच में खड़े हैं। वे डंडा लिए बीच में ही खड़े रहते हैं। वे तुम्हें मिलने नहीं देते। तुम भीतर निंदा कर रहे हो, कोस रहे हो अपने को। ऐसे कहीं समझ पैदा होगी? अधूरी-अधूरी होगी। और अधूरी समझ समझ नहीं है। समझ या तो पूरी होती है या नहीं होती। या तो नासमझ या समझ, इन दोनों के बीच में कोई पड़ाव नहीं है। तुम समझ को बांट नहीं सकते। तुम यह नहीं कह सकते कि अभी आधी समझ है। आधी समझ का क्या मतलब होगा? समझ काटी नहीं जा सकती खंडों में। समझ अखंड है।
लेकिन मैं जानता हूं तुम्हारी अड़चन क्या है। क्योंकि वही तो अड़चन सारी मनुष्यता की है। जब स्त्री के पास होते हो, तब तुम्हारे सारे संत-महंत भीतर स्त्री के विपरीत बोलने लगते हैं कि स्त्री नरक का द्वार है। ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी! बोलने लगे तुम्हारे सारे संत-महंत। और जब स्त्री से दूर होते हो, तब तड़फती है तुम्हारी वासना। तुम्हारी दुविधा मैं जानता हूं--न घर के, न घाट के। घाट पर होते हो, तब घर की याद आती है; जब घर होते हो, तब घाट की याद आती है। धोबी के गधे जैसी तुम्हारी अवस्था हो गई है।
और यह ऐसा है। जो चीज मिल जाती है उसमें पूरा रस नहीं ले पाते और जो नहीं मिलती वह मिलनी चाहिए, इसकी वासना सताती है। जब अभाव रहता है, तब मांग; और जब मिलती है कोई चीज, तब उसे पूरा जी नहीं पाते। इसलिए सब बंटा-बंटा रह गया है।
‘सब अच्छी कही हुई बातें और सिखावनें बाहर ही रह जाती हैं।’
रह ही जाएंगी। क्योंकि अच्छी बातें अगर बाहर से आती हैं तो बाहर ही रह जाएंगी। सिखावनें अगर औरों की हैं तो उधार हैं, बाहर ही रह जाएंगी। असली बात तो भीतर से आती है, जन्मती है भीतर। तुम्हारी बातें अच्छी, तुम्हारी नहीं हैं, किन्हीं औरों की हैं। तुमने उनको गोद ले लिया है। जैसे गोद ले लेते हैं न लोग। अब किसी ने किसी का बच्चा गोद ले लिया, गोद लेकर वह मां हो गई, गोद लेकर तुम पिता हो गए।
मगर क्या तुम समझते हो कि गोद लिया बच्चा सच में किसी को मां बना सकता है? क्योंकि मां बनने की अनिवार्य प्रक्रिया तो हुई ही नहीं। वह नौ महीने का गर्भ, वह नौ महीने की तकलीफें, वह नौ महीने का बोझ, वह उलटियां, भोजन का पचना नहीं, रात नींद का न आना, वह नौ महीने की पीड़ा कौन झेलेगा? मां बनना कोई मुफ्त में तो नहीं होता। उसके लिए कीमत चुकानी होती है। और जिस दिन बच्चा पैदा होता है उस दिन की पीड़ा असह पीड़ा है। गोद लेकर तो तुमने बड़ी होशियारी कर ली, सब झंझट से ही बच गए।
लेकिन ध्यान रखना, जिस दिन बच्चा पैदा होता है, उसके पैदा होने में ही दूसरी तरफ मां पैदा होती है। बच्चा अकेला ही पैदा नहीं होता। जब तक बच्चा नहीं था, तब तक वह स्त्री स्त्री थी, मां नहीं थी। जिस दिन बच्चा पैदा हुआ, उस दिन स्त्री में कुछ नया अंग जुड़ा, मां बनी। तो दो पैदा हुए उस दिन। एक तरफ बच्चा पैदा हुआ, एक तरफ मां पैदा हुई। फिर बच्चे का पालना, फिर बच्चे की सारी तकलीफें, फिर रात-रात जागना, फिर रात में दस बार जागना, फिर बच्चे को दूध देना, अपने प्राणों से बच्चे को जोड़े रखना, फिर बच्चे की सब तरह तीमार, सब तरह फिकर, वह सारा दान, वह सारा प्रेम, वह सारी करुणा--उस सबसे मिल कर मां बनती है। तुमने होशियारी की, तुमने गणित का काम किया, तुम सारी झंझट से बच गए। तुमने परखनली का शिशु ले लिया, कि तुम गए और किसी और का बच्चा उधार ले लिया।
ठीक ऐसी ही घटना ज्ञान के संबंध में भी घटती है। असली ज्ञान के लिए तो तुम्हें भीतर बहुत सी पीड़ाएं झेलनी पड़ती हैं, बहुत सी तपश्चर्याएं झेलनी पड़ती हैं, बहुत
से अनुभवों से गुजरना पड़ता है, निखरना पड़ता है, बहुत सी आग झेलनी पड़ती है। ज्ञान भीतर पैदा होता है। जैसे गर्भ, ऐसे ज्ञान भीतर पैदा होता है। ऐसा ज्ञान मुक्त करता है। ऐसे ज्ञान से तुम सच में ज्ञानी होते हो। एक तरफ ज्ञान जन्मता है, दूसरी तरफ ज्ञानी जन्मता है।
लेकिन तुमने उधार ले लिया है ज्ञान। अच्छी सिखावनें कहां से लाए हो? किताबों में पढ़ ली हैं। और हो सकता है जिन्होंने किताबों में लिखी हैं, उन्होंने और किताबों में पढ़ ली होंगी। उधारी पर उधारी चल रही है। धर्म नगद होता है। उधार धर्म धर्म नहीं होता।
इसलिए तुम्हारी अड़चन है, राधारमण। तुम कहते हो: ‘सब अच्छी कही बातें और सिखावनें बाहर ही रह जाती हैं।’
रह ही जाएंगी। बाहर की हैं, बाहर ही रह जाएंगी। भीतर जा भी कैसे सकती हैं? गोद लिया बच्चा गर्भ में जाएगा कैसे? गर्भ से आया हुआ बच्चा एक बात है। लेकिन अब तुम गोद लिए बच्चे को गर्भ में कैसे ले जाओगे? वह तो बाहर ही रहेगा। और बच्चे को चाहे पता चले न चले, तुम्हें तो सदा पता रहेगा कि अपना नहीं है। तुम्हें तो कैसे भूलेगी यह बात कि अपना नहीं है। इसे भुलाने का कोई उपाय नहीं है। तुम्हारे बीच और बच्चे के बीच एक फासला बना ही रहेगा। संबंध औपचारिक रहेगा। संबंध आत्मिक नहीं हो सकता।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं: ज्ञान की चिंता न करो, ध्यान की चिंता करो। ध्यान के गर्भ में ज्ञान का बच्चा जन्मता है। वह तुम्हारे भीतर जन्मेगा। और जब भीतर जन्मेगा तभी भीतर हो सकता है।
कहते हो: ‘बाहर की सारी सिखावनें बाहर रह जाती हैं और मैं वही का वही।’
वही के वही रहोगे। मगर ईमानदार आदमी हो। सच्ची बात कह रहे हो। लोग कहते ही नहीं हैं यह बात। और सच्ची बात कही है तो रास्ता खुल जाएगा। अब कुछ हो सकता है। बाहर की बातें बाहर ही रहेंगी। तुम वही के वही रहोगे। तुम्हारे भीतर क्रांति तो तब पैदा होगी जब भीतर का दीया जलेगा।
मैं तुमसे कहता हूं: भीतर का दीया जल सकता है। कोई कारण नहीं है। बुद्ध का जला, महावीर का जला, यारी का जला, तुम्हारा जल सकता है। हरेक व्यक्ति भीतर के दीये को लेकर पैदा हुआ है। लेकिन जलाने की प्रक्रियाएं सीखनी होंगी। सत्संग करना होगा। साहस करना होगा किसी जीवंत बुद्ध के साथ चलने का। संन्यस्त होना होगा। शिष्य बनना होगा।
और ध्यान रखना, असली गुरु ज्ञान नहीं सिखाता, असली गुरु ध्यान सिखाता है। और ज्ञान तुम्हारे भीतर पैदा होता है। नकली गुरु ज्ञान सिखाता है। और तब सब बातें बाहर की बाहर रह जाती हैं।
‘मैं वही का वही’--तुम कहते हो--‘सब भूल कर लोलुप हो जाता हूं। वासना मन को घेरे रहती है। स्वप्न में भी वही चलता है। किस क्रिया से छुटकारा या समता पा सकूं?’
छुटकारा तो नहीं। छुटकारे की तो भाषा छोड़ दो। अतिक्रमण! समता भी नहीं। अतिक्रमण! क्योंकि समता भी मुर्दा-मुर्दा होगी। किसी भांति शांत हो जाए यह आग वासना की। मगर यह आग बड़ी कीमती है, शांत इसे करना नहीं है। इसी आग के सहारे तो परमात्मा की अग्नि जलानी है। इसी चिंगारी से तो पूरे जंगल में आग लगेगी। इसे दबा नहीं देना है। इसे राख नहीं कर देना है। इसी चिंगारी में तो तुम्हारा भविष्य है, आशा है।
इसलिए छुटकारा नहीं, समता नहीं--अतिक्रमण। और अतिक्रमण का उपाय है: वासना में ध्यानपूर्वक जाओ, समग्ररूपेण जाओ। और अभी भी देर नहीं हो गई है। ऐसे तो देर हो गई है, मगर अब जो हुआ हुआ। अभी भी देर नहीं हो गई है। और सुबह का भूला सांझ भी घर आ जाए तो भूला नहीं कहलाता। अगर मरते-मरते क्षण तक भी वासना का अतिक्रमण हो गया तो समझना कि घर आ गए।
यह हो सकता है। भूले-भटके तुम ठीक जगह आ गए हो, जहां यह हो सकता है। लेकिन साहस तो करना होगा। सस्ते में नहीं होगा। तुम चाहो कि मेरी बातें सुन कर हो जाए, तो नहीं होगा। मैं जो कहता हूं, वह करोगे, तो हो सकता है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, प्रेम को अंधा कहा गया है, और आप प्रेम सिखाते हैं। प्रेम को पागलपन कहा है, और आप प्रेम सिखाते हैं। प्रेम को स्वप्न कहा गया है, और आप प्रेम सिखाते हैं। क्यों?
इसलिए कि न तो प्रेम अंधा है, और न प्रेम पागलपन है, और न प्रेम स्वप्न है; या प्रेम ऐसा अंधापन है जिसमें आंखें हैं, और प्रेम ऐसा पागलपन है जिसमें प्रज्ञा है, और प्रेम ऐसा स्वप्न है जिसमें सत्य छिपा है।
प्रेम इस जगत में सबसे महती घटना है। जो प्रेम से चूक गया वह सत्य से चूक जाएगा। प्रेम परमात्मा है। इसलिए प्रेम सिखाता हूं।
जहां तुझको बिठा कर पूजते हैं पूजने वाले
वो मंदिर और होते हैं, शिवाले और होते हैं
दहाने-जख्म से कहते हैं जिनको मरहबा बिस्मिल
वो खंजर और होते हैं, वो भाले और होते हैं
जिन्हें महरूमि-ए-तामीर ही अस्ले-तमन्ना है
वो आहें और होती हैं, वो नाले और होते हैं
जिन्हें हासिल है तेरा कुर्ब, खुशकिस्मत सही, लेकिन
तेरी हसरत लिए मर जाने वाले और होते हैं
जो ठोकर ही नहीं खाते, वो सब कुछ हैं, मगर वाइज
वो जिनको दस्ते-रहमत खुद सम्हाले, और होते हैं
तलाशे-शमअ से पैदा है सोजे-नातमाम ‘अख्तर’
खुद अपनी आग में जल जाने वाले और होते हैं
एक तो प्रार्थना है, पूजा है, जो प्रेमरहित है। वही चल रही है मंदिरों-मस्जिदों में, गुरुद्वारों में। एक और प्रार्थना है जो प्रेम से परिपूर्ण है, औपचारिक नहीं है; वही मैं तुम्हें सिखा रहा हूं।
जहां तुझको बिठा कर पूजते हैं पूजने वाले
वो मंदिर और होते हैं, शिवाले और होते हैं
यह वैसा मंदिर नहीं है, यह वैसा शिवालय नहीं है--जहां मंदिरों में पत्थर की मूर्तियां रख कर बिठा दी गई हैं और पूजा चल रही है; जहां परमात्मा मुर्दा है और जहां पूजा औपचारिक है।
जहां तुझको बिठा कर पूजते हैं पूजने वाले
वो मंदिर और होते हैं, शिवाले और होते हैं
दहाने-जख्म से कहते हैं जिनको मरहबा बिस्मिल
वो खंजर और होते हैं, वो भाले और होते हैं
जिन्हें महरूमि-ए-तामीर ही अस्ले-तमन्ना है
वो आहें और होती हैं, वो नाले और होते हैं
हाथ में औपचारिकता की थाली लेकर तुम जो अर्चना उतारते हो, पूजा करते हो, आरती उतारते हो--वे आवाजें परमात्मा तक नहीं पहुंचतीं। दीये जलाते हो घी के, हृदय के दीये कब जलाओगे? धूप जलाते हो बाजार से खरीद कर लाई गई, प्राणों की धूप कब जगमगाओगे?
जिन्हें महरूमि-ए-तामीर ही अस्ले-तमन्ना है
जिनको केवल एक ही आकांक्षा है कि परमात्मा मिल जाए!
वो आहें और होती हैं, वो नाले और होते हैं
कुछ ऐसी आह भरो! कुछ ऐसी आवाज उठाओ! कुछ ऐसी सदा दो! कुछ इस तरह पुकारो कि रोआं-रोआं सम्मिलित हो, कि कण-कण सम्मिलित हो, कि आवाज सिर्फ ओंठों की न हो, कि कंठ से ही न निकली हो, प्राणों के प्राण से आई हो। फिर पहुंचती है। फिर जरूर पहुंचती है। मगर वैसी आवाज तो प्रेम की ही आवाज होगी।
इसलिए मैं प्रेम सिखाता हूं, क्योंकि प्रेम ही तुम्हारी औपचारिकता में प्राण डाले। प्रेम ही तुम्हारे शिष्टाचार से तुम्हें छुटकारा दिलाए। परमात्मा से कोई शिष्टाचार का नाता नहीं है। लेकिन तुमने वहां भी शिष्टाचार का नाता बना लिया है। मंदिर में चले जाते हो और बड़ा शिष्ट व्यवहार करते हो। हंसोगे कब उसके साथ? गाओगे कब उसके साथ? नाचोगे कब उसके साथ? हाथ में हाथ उसका कब लोगे? चरण उसके कब गहोगे? ऐसे तो सिर तुमने बहुत पटका है, मगर भीतर तुम कहीं और थे। सिर पत्थर पर पड़ा है और भीतर तुम कहीं और थे। तुम अपने को कब चढ़ाओगे?
जिन्हें हासिल है तेरा कुर्ब, खुशकिस्मत सही, लेकिन
तेरी हसरत लिए मर जाने वाले और होते हैं
हां, प्रेम पागलपन है, क्योंकि मर जाने की हिम्मत देता है, मिट जाने की हिम्मत देता है। प्रेम परवाना बनाता है। और सिर्फ परवाने ही शमा को उपलब्ध हो पाते हैं। परमात्मा शमा है। मैं तुम्हें परवाना बनाता हूं। तुम्हें साहस देता हूं कि जाओ, जल मरो। क्योंकि उसी मिटने में तुम्हारा नया जन्म होगा।
जो ठोकर ही नहीं खाते, वो सब कुछ हैं, मगर वाइज
यह प्यारा वचन समझना! जो जीवन में भूल करते ही नहीं, वे ठीक हैं, अच्छे हैं, हे उपदेशक!
जो ठोकर ही नहीं खाते, वो सब कुछ हैं, मगर वाइज
वो जिनको दस्ते-रहमत खुद सम्हाले, और होते हैं
लेकिन मैं उन लोगों की बात कर रहा हूं जो गिरें तो परमात्मा का हाथ खुद उन्हें सम्हाले।
जो ठोकर ही नहीं खाते, वो सब कुछ हैं, मगर वाइज
अच्छे लोग हैं, ठोकर नहीं खाते, भूल नहीं करते, चूक नहीं करते, पाप नहीं करते, चोरी नहीं करते--लेकिन असली बात वहां नहीं है। असली बात तो वहां है कि अगर तुम ठोकर खाओ तो परमात्मा का हाथ तुम्हें सम्हाले। जब तक उसका हाथ सम्हालने को न आए, तब तक समझना तुम्हारी आवाज उस तक नहीं पहुंची। तुम्हीं अपने को सम्हाले रखो, यह अच्छी बात है, ठीक है, लेकिन कामचलाऊ है। तुम सज्जन हो जाओगे, संत नहीं हो पाओगे। सज्जन वह है जो खुद को सम्हाले रखता है। संत वह है जो परमात्मा पर सब छोड़ देता है और परमात्मा जिसे सम्हालता है।
जो ठोकर ही नहीं खाते, वो सब कुछ हैं, मगर वाइज
वो जिनको दस्ते-रहमत खुद सम्हाले, और होते हैं
तलाशे-शमअ से पैदा है सोजे-नातमाम ‘अख्तर’
खुद अपनी आग में जल जाने वाले और होते हैं
तो तुम ठीक ही कहते हो, मैं प्रेम सिखाता हूं। प्रेम एक अर्थ में अंधा है, क्योंकि दुनिया की भाषा नहीं बोलता प्रेम। प्रेम अंधा है, क्योंकि गणित नहीं जानता प्रेम। प्रेम अंधा है, क्योंकि प्रेम जुआरी है, दुकानदार नहीं है। और प्रेम पागलपन भी है। लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं: उससे बड़ी और कोई प्रज्ञा नहीं है। उससे बड़ी कोई और समझदारी नहीं है। क्योंकि जिन्होंने प्रेम किया उन्होंने परमात्मा पाया और जिन्होंने समझदारी रखी उन्होंने धन पाया, पद पाया। लेकिन धन और पद सब पड़े रह जाते हैं।
साज बे-मुतरिब-ओ-मिजराब नजर आते हैं
फिर भी नग्मे हैं कि बेताब नजर आते हैं
वही महफिल है, वही रौनके-महफिल, लेकिन
कितने बदले हुए आदाब नजर आते हैं
दुनिया कैसी बदल गई! अब यहां परवाने नहीं हैं। शमा तो वही है। शमा जली जाती है, परवानों का कोई पता ही नहीं है। लोगों ने हिम्मत खो दी। प्रेम में अंधे नहीं हो सकते, प्रेम में पागल नहीं हो सकते, प्रेम का स्वप्न भी नहीं देख सकते।
साज बे-मुतरिब...
इसलिए वीणा पड़ी है और उससे कोई संगीत नहीं उठता। संगीतज्ञ का ही कोई पता नहीं है, ऐसा बेहोश है संगीतज्ञ।
साज बे-मुतरिब-ओ-मिजराब नजर आते हैं
साजिंदा और वाद्य, सब खाली पड़े हैं।
फिर भी नग्मे हैं कि बेताब नजर आते हैं
लेकिन कुछ है जो प्रकट होना चाहता है।
परमात्मा अब भी गीत गाना चाहता है, मगर तुम वीणा को नहीं सम्हालते। परमात्मा अब भी तुम्हारे हृदय में गुनगुनाना चाहता है, मगर तुम हृदय नहीं खोलते। तुम बड़े समझदार हो गए हो। तुम बड़े भयभीत हो गए हो। तुम अपनी सुरक्षा में लगे हो। तुम समर्पण नहीं करते।
वही महफिल है, वही रौनके-महफिल, लेकिन
कितने बदले हुए आदाब नजर आते हैं
इसी महफिल में मीरा, इसी महफिल में यारी, इसी महफिल में सहजो, इसी में आ गए लोग, नाच गए लोग, पा गए लोग--और इसी महफिल में तुम कचरा इकट्ठा करते रहोगे!
वही महफिल है, वही रौनके-महफिल, लेकिन
कितने बदले हुए आदाब नजर आते हैं
क्या तमाशा है कि गुंचे तो हैं पजमुर्दा-ओ-जर्द
खार आसूदा-ओ-शादाब नजर आते हैं
कैसा तमाशा हो गया है! फूल तो मुरझाए हुए हैं, पत्ते तो पीले पड़ गए हैं, और कांटे खूब हरे हैं, खूब भरे हैं।
काफिला आज यह किस मोड़ पर आ पहुंचा है
अब कदम और भी बेताब नजर आते हैं
कल करेंगे यही तुगियाने-गुलेतर पैदा
आज जो आग के सैलाब नजर आते हैं
कल यही ख्वाब हकीकत में बदल जाएंगे
आज जो ख्वाब फकत ख्वाब नजर आते हैं
हां, प्रेम स्वप्न है, मगर ऐसा स्वप्न जो सत्य बन जाता है। बस प्रेम ही एकमात्र ऐेसा स्वप्न है, जो सत्य बन जाता है।
कल यही ख्वाब हकीकत में बदल जाएंगे
आज जो ख्वाब फकत ख्वाब नजर आते हैं
कौन सा मेहरे-दरख्शां है उभरने वाला
आईने दिल के शफकताब नजर आते हैं
मुस्कुराते हुए फर्दा के उफुक पर ‘अख्तर’
एक क्या सैकड़ों महताब नजर आते हैं
उग रहे हैं बहुत सूरज! तैयार हो जाओ। क्षितिज पर कुछ घटने को है।
मुस्कुराते हुए फर्दा के उफुक पर ‘अख्तर’
एक क्या सैकड़ों महताब नजर आते हैं
हर पच्चीस सौ वर्ष पूरे होने पर मनुष्य-जाति के जीवन में एक बड़े संक्रमण का क्षण आता है, क्रांति का क्षण आता है--हर पच्चीस सौ वर्ष बाद! कृष्ण के पच्चीस सौ वर्ष बाद बुद्ध। बुद्ध को फिर पच्चीस सौ वर्ष पूरे हो गए। और पता है, बुद्ध के समय में एक सैलाब आया था, एक बाढ़ आई थी सतपुरुषों की, बुद्धों की। ईरान में जरथुस्त्र, और यूनान में हेराक्लतु, पाइथागोरस, साक्रेटीज, और चीन में कनफ्यूशियस, लाओत्सु, च्वांगत्सु, लीहत्सु, मेनशियस, और भारत में बुद्ध, महावीर, संजय बेलट्ठीपुत्त, अजित केशकंबली, मक्खली गोशाल--अदभुत लोग हुए। जैसे सागर ने ऐसी ऊंचाई कभी न ली थी!
संसार का वर्तुल पच्चीस सौ वर्ष में एक चक्कर पूरा करता है। पच्चीस सौ वर्ष पूरे हो गए। इस सदी के ये अंतिम बीस-पच्चीस वर्ष अपूर्व हैं। तुम सौभाग्यशाली हो कि इस घड़ी में हो। अगर उपयोग कर लिया, तिर जाओगे। कभी-कभी ऐसा होता है, जब हवाएं ठीक दिशा में बहती हैं तो पतवार नहीं चलानी होती; सिर्फ पाल खोल दिए नाव के और हवाएं ले चलती हैं। हां, हवाएं अगर अनुकूल न हों तो फिर पतवार चलानी पड़ती है, फिर बड़ा श्रम करना पड़ता है। हवाएं बहुत प्रतिकूल होने के दिन हैं तो निश्चित ही बहुत श्रम करना होगा; और हवाएं अनुकूल हैं तो बिना श्रम के, सिर्फ समर्पण से घटना घट जाती है।
महफिल तो वही है, जहां अदभुत फूल खिलें! तुम भी फूल बन सकते हो। और समय बहुत अनुकूल करीब आ रहा है, रोज-रोज करीब आ रहा है। तैयारी करो!
साज बे-मुतरिब-ओ-मिजराब नजर आते हैं
फिर भी नग्मे हैं कि बेताब नजर आते हैं
वही महफिल है, वही रौनके-महफिल, लेकिन
कितने बदले हुए आदाब नजर आते हैं
क्या तमाशा है कि गुंचे तो हैं पजमुर्दा-ओ-जर्द
खार आसूदा-ओ-शादाब नजर आते हैं
काफिला आज यह किस मोड़ पर आ पहुंचा है
अब कदम और भी बेताब नजर आते हैं
कल करेंगे यही तुगियाने-गुलेतर पैदा
आज जो आग के सैलाब नजर आते हैं
कल यही ख्वाब हकीकत में बदल जाएंगे
आज जो ख्वाब फकत ख्वाब नजर आते हैं
कौन सा मेहरे-दरख्शां है उभरने वाला
आईने दिल के शफकताब नजर आते हैं
मुस्कुराते हुए फर्दा के उफुक पर ‘अख्तर’
एक क्या सैकड़ों महताब नजर आते हैं
एक अपूर्व घड़ी, एक सौभाग्य की घड़ी है--जागो। इस घड़ी का उपयोग कर लो! और उपयोग सिर्फ प्रेमी ही कर पाएंगे, इसलिए प्रेम सिखाता हूं।
तुम भी ठीक कहते हो कि प्रेम है अंधा, और आप प्रेम सिखाते हैं; प्रेम है पागलपन, और आप प्रेम सिखाते हैं; प्रेम है स्वप्न, और आप प्रेम सिखाते हैं! तुम भी ठीक कहते हो एक अर्थ में। तुम्हारे तथाकथित समझदार प्रेम को अंधा ही कहते हैं। सिर तो सदा प्रेम को अंधा कहता है, क्योंकि प्रेम हृदय का होता है, सिर का नहीं होता। खोपड़ी तो सदा प्रेम के विपरीत है, क्योंकि जब प्रेम आ जाता है, मालिक आ जाता है, तो खोपड़ी को नौकरी बजानी पड़ती है। जब तक मालिक घर में नहीं होता, नौकर मालिक होते हैं; जब मालिक घर में आ जाता है, नौकरों को तत्क्षण जी-हुजूर करना पड़ता है।
सिर तभी तक मालिक है, जब तक तुम्हारा हृदय सोया हुआ है। इसलिए सिर तो खिलाफत करेगा, सिर तो कहेगा: क्या पागलपन! क्या प्रेम, क्या प्रार्थना, क्या भक्ति? नहीं कोई परमात्मा है। कहां कोई प्रमाण है? किन व्यर्थ की बातों में पड़े जाते हो? सिर तो विरोध करेगा ही। उसकी तो सारी की सारी शक्ति निकल जाएगी। जैसे ही हृदय खिला, सिर शक्तिशाली नहीं रह जाता। जैसे ही प्रेम जगा, तर्क दो कौड़ी का हो जाता है।
लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं: मस्तिष्क मालिक की तरह बहुत खतरनाक है, सेवक की तरह बहुत बहुमूल्य है। मस्तिष्क को सेवक बनाओ, हृदय को मालिक बनने दो। और तब तुम्हारी जिंदगी ठीक दिशा में चलने लगेगी। दिशा तो हृदय दे, इशारा मंजिल का हृदय से मिले। और चलने की व्यवस्था मस्तिष्क करे। चलने के वाहन और चलने की विधियां मस्तिष्क खोजे। और हृदय निर्णय करे: कहां जाना है, किस दिशा में जाना है, क्या पाना है।
मस्तिष्क मूल्य नहीं दे सकता जीवन को; केवल यंत्र दे सकता है, तकनीक दे सकता है। जीवन के मूल्य तो हृदय से आते हैं।
इसलिए मैं प्रेम सिखाता हूं, यद्यपि तुम्हारा मस्तिष्क उसे अंधा कहेगा। मगर तुम मस्तिष्क की मत सुनना। क्योंकि मस्तिष्क की जिन्होंने सुनी उन्होंने जीवन को ऐसे ही गंवा दिया।
और निश्चित ही प्रेम पागलपन है, क्योंकि यहां जिनको तुम समझदार कहते हो उनकी समझदारी क्या है? कोई धन इकट्ठा करता है, कोई पद, कोई प्रतिष्ठा, और फिर मौत आती है और सब पड़ा रह जाता है। यह कौन सी समझदारी हुई? अगर यह समझदारी है तो प्रेम पागलपन है।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: प्रेम ही समझदारी है, क्योंकि प्रेम ऐसी संपदा कमाता है जिसको मौत छीन नहीं पाती। प्रार्थना में तुम ऐसे साम्राज्य के मालिक हो जाते हो जिस पर आंच ही न पड़ेगी। चिता पर जल जाएगी तुम्हारी देह और पड़ा रह जाएगा देह से तुमने जो कमाया था। लेकिन देह के भीतर जो है, देह के पार जो है, अदेही जो है, प्रेम उसे जान लेता है, पहचान लेता है। और उससे पहचान हो जाए तो तुम्हारा अमृत से संबंध जुड़ गया। और माना कि प्रेम स्वप्न है--अभी तो स्वप्न ही है, क्योंकि अभी तो तुम व्यर्थ की चीजों को यथार्थ समझ कर उनके पीछे दीवाने हो, इसलिए प्रेम स्वप्न है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: ऐसा स्वप्न, जो सत्य बन सकता है; ऐसा स्वप्न, जो तुम्हें सत्य के द्वार तक ले आए।
प्रेम करो। जितना कर सको उतना करो। बेझिझक, बेशर्त प्रेम करो। मनुष्यों से करो, पशुओं से करो, पक्षियों से करो, पौधों से करो, पत्थरों से करो। जितना कर सको करो। प्रेम को जितना लुटाओगे उतना ही परमात्मा को अपने निकट पाओगे। प्रेम सेतु है।
आज इतना ही।
भगवान, बचपन से ही सुनता रहा हूं तथाकथित साधु-महात्माओं से कि संसार असार है। इधर आप कहते हैं कि संसार असार नहीं है--एक प्रेमपूर्ण महोत्सव है, अविरल रसपूर्ण बहता हुआ झरना है। पीने वाला चाहिए। रवीन्द्रनाथ ने भी एक बार कहा था: ‘मोरिते चाहिना आमि, ए शुन्दोर भूवने! मैं इस सुंदर रसपूर्ण संसार को छोड़ कर यूं ही मरना नहीं चाहता।’ यह सब मुझे विश्वास ही नहीं आता था। न जाने किसके अनजान आमंत्रण से यहां चला आया, अनायास; और यहां आश्रमवासियों में जो एक निष्पाप बालक-सुलभ चपलता देखी, तो बस ठगा सा रह गया। मनुष्य के जीवन में इतना रस, ऐसे अकथनीय अमृत की रसधार परमात्मा के रूप में आप बरसाते हैं--ऐसी कल्पना ही न थी। लेकिन इधर आपने खूब फंसाया मुझे। अब आफत में पड़ा। क्योंकि जब अब घर वापस लौटूंगा तो वही बासा घिसा-पिटा जीवन उपलब्ध होगा। कृपया अब आप ही मेरा मार्गदर्शन करें। इसलिए कल आपके पवित्र कर-कमलों से संन्यास भी लिया है। अब तो तुम्हीं ने दर्द दिया है, तुम्हीं दवा देना!
रजत बोस! मनुष्यता के जीवन में जो सबसे बड़ी दुर्घटना घटी है, वह हैं तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी। उन्होंने मनुष्य के चित्त को विषाक्त कर दिया है। उन्होंने मनुष्य के चित्त को रुग्ण कर दिया है। उन्होंने ऐसी बातें समझाई हैं कि मनुष्य की जड़ें पृथ्वी से कंप गई हैं, हिल गई हैं। और जब किसी वृक्ष की जड़ें पृथ्वी से हिल जाएं, उखड़ जाएं, तो पत्ते भी मुरझा जाते हैं, कलियां फूल नहीं हो पातीं, फलों के आने की तो बात ही बहुत दूर हो जाती है। इतनी जो उदासी है जगत में, उसके पीछे तुम्हारे साधु-संन्यासियों का हाथ है।
जगत असार नहीं है, क्योंकि जगत में परमात्मा के हाथ का हस्ताक्षर है, असार कैसे होगा? जगत परमात्मा की अभिव्यक्ति है, उसका गीत है, उसका नृत्य है। एक-एक पत्ती, एक-एक फूल पर, एक-एक कण पर तुम उसकी छाप पाओगे। इसे जिन्होंने असार कहा, उन्होंने परमात्मा को ही नासमझ कह दिया, मूढ़ कह दिया। परमात्मा मूढ़ हो, तो ही उसका जगत असार हो सकता है। परमात्मा विक्षिप्त हो, तो ही असार का निर्माण करेगा।
अब यह बहुत मजे की बात है, यही साधु-संन्यासी तुम्हें समझाते हैं कि परमात्मा स्रष्टा है; उसने ही संसार बनाया है; उसने ही यह खेल रचा; उसने ही यह लीला जन्माई। और अगर जगत असार है तो फिर परमात्मा में कैसे सार हो सकता है? अगर गीत विक्षिप्त है तो गायक पागल रहा होगा। और नृत्य अगर नृत्य नहीं, सिर्फ उछलकूद है, तो नर्तक नर्तक न रहा, रुग्ण हो गया।
संसार को असार कहना, तो फिर तुम परमात्मा को असारता से बचा न सकोगे। संसार के संबंध में जो भी कहा गया है वह तुम्हारे परमात्मा पर लागू हो जाएगा। और जिसने संसार को इनकार कर दिया उसने परमात्मा के साथ सेतु बनाने की व्यवस्था ही तोड़ दी। इन्हीं फूलों के संग, इन्हीं रंगों के संग तो उसके भुवन तक की यात्रा करनी है, उसके लोक तक की यात्रा करनी है। इन्हीं प्रकृति के पंखों पर सवार होकर तो परमात्मा की खोज में निकलना है। यह देह भी उसकी है। यह चित्त भी उसका है। यह संसार भी उसका है। इसमें जिसका भी तुम निषेध करोगे उतने ही तुम पंगु हो जाओगे।
तुम्हारे साधु-संन्यासियों ने तुम्हें पंगु बनाया, क्योंकि जो पंगु होता है वह गुलाम होने को राजी होता है। जो पंगु होता है उसे दूसरे के सहारे की जरूरत होती है। जो पंगु होता है उसे बैसाखी चाहिए पड़ेगी। और तुम्हारे साधु-संन्यासी तुम्हारी बैसाखी बन गए। पहले तुम्हें पंगु बनाया, पहले तुम्हारे पैर तोड़ दिए, फिर तुम्हें बैसाखियां बेचने लगे। ये एक ही धंधे के दो हिस्से हैं। पहले तुम्हें कहा संसार में कोई सार नहीं। फिर तुम खिन्न हुए, उदास हुए, फिर तुम्हें बताया कि तुम्हारी उदासी को दूर करने का उपाय है: आओ भजन करो, कीर्तन करो, ध्यान लगाओ।
और मैं तुमसे कहता हूं: तुम्हारा भजन भी झूठा होगा। क्योंकि जिसको फूलों में कुछ रस न दिखाई पड़ा और जिसे चांद-तारों में कोई रस न दिखाई पड़ा, उसे थोथे शब्दों में...हरे कृष्णा हरे रामा...इसमें कुछ मिल जाएगा? जिसे इतने हरे जगत में हरियाली न दिखाई पड़ी, उसे अपने ही ओंठों से उठाए गए शब्दों में जीवन के स्रोत मिल जाएंगे? जिसे सूरज में उसकी छवि नहीं दिखाई पड़ी, अपनी ही गढ़ी प्रतिमा में उसे खोज लेगा? जो इतना ज्वलंत होकर प्रकट है और नहीं दिखाई पड़ता, उसे तुम मंदिर और मस्जिद में पा लोगे? और जिसके वेद झरने गा रहे हैं और जिसकी कुरान आकाश में बादलों में गीत बन कर गरजती है और जिसकी गीता समुद्र की लहरों पर उठती है, नाचती है--वहां तुम्हें न दिखाई पड़ी, आदमी की छपी, हाथ की लिखी किताबों में तुम उसे पा लोगे? उसकी ही लिखी किताब असार और तुम्हारे पंडितों के द्वारा लिखी गई पोथियां सार? यह तो बड़ा अजीब हुआ। पंडित तो खुद उसका लिखा हुआ है और उसका लिखा संसार असार! तुम असार! तुम्हारा जीवन असार! फिर सार कहां पाओगे? कहीं भी न पाओगे। तब तुम द्वार-द्वार दरवाजे-दरवाजे भीख मांगोगे और तुम्हारा जीवन एक लंबी दुर्घटना हो जाएगी। वही हुआ है।
लेकिन मंदिर-मस्जिद जीते ही तुम्हारे जीवन के दुख पर हैं। तुम जितने बीमार रहो, उतना ही उनके हित में है। तुम जितने सड़ो-गलो, उतना ही उनके हित में है। तुम नाचने लगो, तुम अलमस्त हो जाओ, तुम मंदिर जाओगे? तुम मस्जिद जाओगे? तुम तो जहां बैठोगे वहीं मंदिर होगा। तुम्हारी मस्ती तुम्हारा मंदिर होगी। तुम्हारा आनंद तुम्हारा भजन होगा। तुम्हारे भीतर जब रसधार बहेगी तो तुम किसी और से पूछने जाओगे--परमात्मा कहां है? उसका प्रमाण खोजोगे? भीतर प्रमाण मिलेंगे। भीतर उसकी ज्योति जगेगी। फिर कौन फिक्र करता है शास्त्रों की?
शास्त्रों की फिक्र सिर्फ अंधे करते हैं, सिर्फ अज्ञानी करते हैं। जिसके भीतर ज्ञान की छोटी सी भी किरण जनम जाती है, उसके लिए सब शास्त्र फीके पड़ जाते हैं। उसके अपने भीतर ही गीता पैदा होने लगी। भगवान उसके भीतर बोलने लगा। भगवदगीता उसके भीतर जन्मने लगी। भगवान उसके भीतर गुनगुनाने लगा। कुरान उसके भीतर पैदा होने लगी। अब क्यों किसी कुरान में, क्यों किसी पुराण में...?
पंडित और पुरोहित जी ही तब तक सकता है, जब तक तुम मुर्दा रहो, तुम मुर्दा-मुर्दा रहो। तुम्हारी मुर्दगी में उसका शोषण है। वहीं कुंजी छिपी है।
रजत! यहां मैं कुछ और ही पाठ दे रहा हूं। इसलिए अगर पंडित-पुरोहित, तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी मुझसे नाराज हैं, तो आश्चर्य नहीं है; गणित साफ है। मैं उनके धंधे की जड़ काट रहा हूं। अगर तुमने मेरी बात सुनी तो तुम उनसे मुक्त हो जाओगे। तुमने अगर मेरी बात सुनी तो तुम उनके ग्राहक न रह जाओगे। तुम्हें अगर मेरी जरा सी भी बात समझ में आ गई तो तुम छूट जाओगे हजारों साल के शोषण के जाल से, गुलामी से। और जिन्होंने तुम्हें चूसा है, वे तुम्हें और भी चूसना चाहते हैं। वे तुम्हें सदा चूसना चाहते हैं। वे तुम्हें इतनी आसानी से छोड़ नहीं देना चाहते। इसलिए वे मुझसे नाराज हैं।
मेरा तो संदेश यही है कि परमात्मा के लिए और किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है--प्रकृति को परखो! जरा आंखें गड़ा कर गुलाब के फूल में झांको, और तुम्हें उसका मुखड़ा दिखाई पड़ेगा। बेले की सुगंध को नासापुटों में भर जाने दो, और तुम पाओगे--वही लहरा गया तुम्हारे भीतर।
हम ऐसे अहले-नजर को सबूते-हक के लिए
अगर रसूल न आते तो सुबह काफी थी
जरा सी समझ हो तो पैगंबरों की कोई जरूरत न थी आने की, तीर्थंकरों की कोई आने की जरूरत न थी।
हम ऐसे अहले-नजर को सबूते-हक के लिए
परमात्मा का प्रमाण देने के लिए, परमात्मा की गवाही देने के लिए किसी और बात की जरूरत न थी, बस थोड़ी सी समझ चाहिए।
अगर रसूल न आते तो सुबह काफी थी
अगर न आते पैगंबर और न आते मसीहा और न आते तीर्थंकर, कोई चिंता की बात न थी। सुबह काफी थी। सुबह उठता हुआ सूरज पर्याप्त प्रमाण है। सांझ उगा हुआ चांद पर्याप्त प्रमाण है। आकाश के तारों का संगीत काफी प्रमाण है। और क्या प्रमाण चाहिए?
एक बीज टूट जाता है और हरे पत्ते निकल आते हैं--परमात्मा का प्रमाण है। और क्या प्रमाण चाहिए? और बड़ा क्या चमत्कार होगा? मुर्दा से दिखते बीज से हरे पत्ते निकल आए हैं, पत्तों में पत्ते निकलते गए हैं, कलियां आ गई हैं, हरे पत्तों में लाल कलियां आ गई हैं! फूल खिल आया है। जिन पत्तों में कोई गंध न थी, जिस भूमि से पत्ते उठे उस भूमि में कोई गंध न थी, और फूल ने वातावरण को सुगंध से भर दिया, आपूरित कर दिया! और क्या चमत्कार है? इतना काफी है। जिनके पास आंखें हैं, जिनके पास अनुभव करने को हृदय है, जिनके पास थोड़ी सी भी प्रज्ञा है, जरा सा भी बोध है--उनके लिए परमात्मा का प्रमाण सुबह में मिल जाता है, सांझ में मिल जाता है, उठते-बैठते मिल जाता है, लोगों की आंखों में मिल जाता है। उनके लिए किसी रसूल की कोई जरूरत नहीं है।
स्वप्न है संसार, तो किस सत्य के कवि गीत गाए?
तोड़ कर अपना हृदय किस सत्य की प्रतिमा बनाए?
जानता कवि कौन सा सुख, फूल को जो फल बनाता;
दूज का क्यों चांद दौड़ा पूर्णिमा की ओर जाता?
जागती पिक की कुहुक से प्राण में कैसी कहानी;
रूप स्वप्नातीत किसका रात कर देता सुहानी?
गंध से आतुर समीरण, ज्योति से उमगे सितारे,
स्नेह से फैली नदी, सौंदर्य से जकड़े किनारे,
लोच भर देती हवा में खेतियां क्यों लहलहातीं,
जान पड़ जाती किरण में सुन खगों की क्यों प्रभाती?
मेघ वर्षा के धरा को नित नया संस्कार करते,
चंद्र किरणों में शिथिल नव किसलयों के गात झरते,
स्वप्न हैं ये सब अगर, किस सत्य के कवि गीत गाए?
कौन सुषमा से बड़ा संदेश मानव को सुनाए?
नहीं, प्रभात से बड़ी कोई प्रभाती नहीं है। तुम्हारी प्रभातियां दो कौड़ी की हैं। प्रभात को देखो। तुम्हारे गढ़े हुए देवता तुम्हारे ही गढ़े हुए देवता हैं--तुम्हारे हाथ के खिलौने हैं! उसके गढ़े हुए जगत को देखो। वहां तुम्हें उसकी थोड़ी-बहुत झनक मिल जाए तो मिल जाए।
और कैसा मजा है! जगत असार है, इसी के पत्थरों से तुम्हारा परमात्मा निर्मित होता है। जगत असार है, इसी की मिट्टी तुम्हारे देवता बनाती है। जगत असार है, इसी जगत में तुम्हारे साधु-संन्यासी जन्मे हैं। जगत असार है तो तुम कैसे सार हो जाओगे? अगर मूल ही असार है तो तुम कैसे सार हो जाओगे?
नहीं, जगत असार नहीं है। हां, तुमसे यह जरूर कहूंगा: जगत से भी बड़ा और सार है। मगर जगत असार नहीं है। जगत तो सार है, पर जगत पर ही रुक मत जाना--और भी बड़े सार हैं! जगत तो बहुमूल्य है, मगर वहीं अटक मत जाना--और भी बड़ी संपदाएं हैं। जगत के भी पार और जगत हैं!
तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जगत में उलझ जाना। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जगत में ही रह जाना, रुक जाना। मैं यह कह रहा हूं: जगत को सीढ़ी बनाओ। यह उसी के मंदिर की सीढ़ी है, इसको असार मत कहो। लेकिन सीढ़ी मंदिर नहीं है, यह भी ध्यान रखना; नहीं तो दूसरी भूल हो जाएगी कि सीढ़ी पर ही बैठ रहो। सीढ़ी मंदिर नहीं है। यद्यपि बिना सीढ़ी के मंदिर नहीं हो सकता। और सीढ़ी तोड़ दी तो मंदिर तक कभी न पहुंच पाओगे। जीवन को उसके समस्त सौंदर्य में स्वीकार करो। जीवन को उसके सारे छंद में अंगीकार करो।
मुझे दे दे
रसीले ओंठ, मासूमाना पेशानी, हसीं आंखें
कि मैं इक बार फिर रंगीनियों में गर्क हो जाऊं
मेरी हस्ती को तेरी इक नजर आगोश में ले ले
हमेशा के लिए इस दाम में महफूज हो जाऊं
जिया-ए-हुस्न से जुल्माते-दुनिया में न फिर आऊं
गुजश्ता हसरतों के दाग मेरे दिल से धुल जाएं
मैं आने वाले गम की फिक्र से आजाद हो जाऊं
मेरे माजी-ओ-मुस्तकबिल सरासर मह्व हो जाएं
मुझे वह इक नजर, इक जाविदानी सी नजर दे दे
एक ही प्रार्थना की जा सकती है कि मुझे वह आंख मिल जाए, मुझे वह दृष्टि मिल जाए।
मुझे वह इक नजर, इक जाविदानी सी नजर दे दे
वह स्वर्णिम आंख दे दे, जो तुझे देख ले, तुझे पहचान ले।
मुझे दे दे
रसीले ओंठ, मासूमाना पेशानी, हसीं आंखें
कि मैं इक बार फिर रंगीनियों में गर्क हो जाऊं
यह संसार उसकी रंगीनी है। यह उसका विलास है, उसका वैभव है। ईश्वर का ऐश्वर्य है यह संसार। इसी ऐश्वर्य के कारण तो वह ईश्वर है। यह उसका साम्राज्य है। इसी साम्राज्य के कारण तो वह सम्राट है।
कि मैं इक बार फिर रंगीनियों में गर्क हो जाऊं
मेरी हस्ती को तेरी इक नजर आगोश में ले ले
मेरे सारे प्राणों को तू अपनी गोद में ले ले।
हमेशा के लिए इस दाम में महफूज हो जाऊं
मैं तेरे इस प्यारे जाल में हमेशा के लिए खो जाना चाहता हूं, डूब जाना चाहता हूं, एक हो जाना चाहता हूं। माना कि यह जाल है, मगर बड़ा प्यारा है। और उस प्यारे का जाल है, कौन इसमें न फंसना चाहेगा! इससे जो भागते हैं, भगोड़े हैं। इससे जो भागते हैं, उन्होंने परमात्मा का अस्वीकार कर दिया, इनकार कर दिया। जब परमात्मा जाल फेंके, तो मछलियो, उसमें फंस जाना।
जीसस ने एक दिन एक मछुए के कंधे पर हाथ रखा। सुबह-सुबह थी। अभी सूरज उगता था क्षितिज पर। आकाश लालिमा से भरा था। उस मछुए ने जाल फेंका ही था कि जीसस ने उसके कंधे पर हाथ रखा पीछे से आकर। उसने लौट कर देखा। जीसस ने कहा: कब तक तू इन साधारण मछलियों को पकड़ता रहेगा? मैं तुझे आदमियों को फांसने का रास्ता बताऊंगा। तू मेरे साथ आ।
जीसस की आंखें! सुबह की वह प्यारी घड़ी। कुछ हो गया। उस मछुए ने जाल वहीं छोड़ दिया, निकाला भी नहीं। जीसस के साथ हो लिया। उसके भाई ने, जो उसके ही पास खड़ा नाव में जाल फेंक रहा था, चिल्ला कर कहा कि कहां जाते हो?
उस मछुए ने कहा: मैंने बहुत दिन तक मछलियां पकड़ीं, इस आदमी ने मुझे पकड़ लिया! इसकी आंख के जाल में उलझ गया। मैं जाता हूं। अलविदा!
गांव के बाहर ही पहुंच पाए थे जीसस उस युवक को लेकर...हिम्मतवर रहा होगा, ऐसे अज्ञात आदमी के साथ, ऐसी अज्ञात यात्रा पर निकल पड़ा! प्रश्न भी न उठाया, जिज्ञासा भी न की कि कौन हो? कहां ले जाते हो? चल पड़ा।
ऐसा ही पागलपन हो, ऐसा ही प्रेम हो, और ऐसी ही दुस्साहस की क्षमता हो, तो कोई वस्तुतः संन्यासी हो पाता है। भगोड़ों का काम नहीं है संन्यासी होना। भगोड़े तो भयभीत लोग हैं। जो संसार से भयभीत हैं, वे क्या खाक परमात्मा को पाएंगे! जो संसार तक से भयभीत हैं, परमात्मा को देख कर तो उनके प्राण निकल जाएंगे। जो उसकी कृति को भी न देख सके, कृतिकार के सामने तो राख हो जाएंगे।
गांव के बाहर पहुंचे ही थे कि एक आदमी भागा हुआ आया और उसने उस मछुए को कहा: पागल! तू कहां जा रहा है? तेरे पिता बीमार थे, वे मर गए। घर चलो।
उस युवक ने जीसस से कहा कि मैं जाऊं? तीन दिन में अंत्येष्टि क्रिया करके वापस लौट आऊंगा।
लेकिन जीसस ने कहा: गांव में काफी मुर्दे हैं, वे मुर्दे को दफना देंगे। तू मेरे साथ आ।
और वह युवक अपने पिता का अंतिम संस्कार करने भी गांव न गया। और जीसस का वचन सुनते हो--गांव में काफी मुर्दे हैं, वे मुर्दे को दफना देंगे! तू मेरे साथ आ।
तुम्हारे पंडित-पुरोहितों ने, तुम्हारे साधु-संन्यासियों ने जमीन को मुर्दों से भर दिया है। यहां कभी एकाध कोई जीसस, कोई मोहम्मद, कोई नानक, कोई कबीर थोड़ी सी जिंदगी की खबर ले आता है, थोड़ी धुन छेड़ता है परमात्मा की। मगर पंडितों-पुरोहितों का बड़ा जाल है। नानक की धुन को दबा देते हैं। कबीर की धुन को दबा देते हैं। जीसस जो कहते हैं उस पर व्याख्याओं के इतने-इतने आवरण डाल देते हैं कि सत्य उन व्याख्याओं में कहीं खो जाता है, उसका पता लगाना मुश्किल हो जाता है।
मेरी हस्ती को तेरी इक नजर आगोश में ले ले
हमेशा के लिए इस दाम में महफूज हो जाऊं
जिया-ए-हुस्न से जुल्माते-दुनिया में न फिर आऊं
अपने प्रकाश में मुझे उठा ले, ताकि वापस अंधेरे में मुझे न गिरना पड़े, अंधेरे की दुनियाओं में न गिरना पड़े।
इस दुनिया से ऊपर दुनियाएं हैं, उनकी आकांक्षा करो, अभीप्सा करो। मगर इस दुनिया को अस्वीकार मत करना। इसी दुनिया के माध्यम से उन ऊपर की दुनियाओं को पाने का उपाय है। और जिस दिन तुम उन ऊपर की दुनियाओं को पा लोगे, उस दिन तुम इस नीचे की दुनिया को भी धन्यवाद दोगे, याद रखना। अनुग्रह स्वीकार करोगे--कि न होती नीचे की दुनिया, हम ऊपर की दुनिया तक कभी न पहुंच पाते। सीढ़ियों से चढ़ कर जब तुम ऊपर पहुंच जाते हो तो क्या सीढ़ियों को धन्यवाद नहीं देते? और नाव से जब तुम उस पार पहुंच जाते हो और नाव से उतरते हो तो क्या धन्यवाद नहीं देते?
यह संसार नाव है। समझदार इसे परमात्मा के किनारे पर लगा देता है। नासमझ नाव से कूद पड़ता है।
मैं तुमसे कहता हूं: नाव से कूदना मत। इसको ठीक दिशा दो। जरूर दिशा दो! इसको सम्यक गति दो। पतवार सम्हालो। यह नाव व्यर्थ नहीं है, असार नहीं है। यह उस किनारे तक ले जा सकती है। इसी देह की नाव में तो चलना होगा उस किनारे तक! इन्हीं इंद्रियों की तो पतवारें बनानी होंगी। यह मिट्टी अपने भीतर अमृत को छिपाए है, इसी मिट्टी में तलाशोगे तो अमृत भी मिल जाएगा।
गुजश्ता हसरतों के दाग मेरे दिल से धुल जाएं
मैं आने वाले गम की फिक्र से आजाद हो जाऊं
मेरे माजी-ओ-मुस्तकबिल सरासर मह्व हो जाएं
मुझे वह इक नजर, इक जाविदानी सी नजर दे दे
अतीत भी मिट जाए, भविष्य भी मिट जाए।
मेरे माजी-ओ-मुस्तकबिल सरासर मह्व हो जाएं
दोनों एक हो जाएं, न कोई अतीत रहे, न कोई भविष्य रहे। बस वर्तमान का क्षण रह जाए। यह वर्तमान का शुद्ध क्षण प्रार्थना है। यह वर्तमान का शुद्ध क्षण ध्यान है, समाधि है।
मुझे वह इक नजर, इक जाविदानी सी नजर दे दे
बस नजर चाहिए, दृष्टि चाहिए, बोध चाहिए; नहीं कहीं भागना है, नहीं कुछ छोड़ना है। क्योंकि सब उसका है, छोड़ोगे क्या? तुम्हारा है क्या जिसे तुम छोड़ोगे?
लेकिन तुम्हारे साधु-संन्यासी निश्चित तुम्हें समझाते रहे हैं इसी तरह की बातें। और उनसे तुम मुक्त न हो जाओ तो तुम परमात्मा की छवि का कभी भी अनुभव न कर पाओगे। मैं तुमसे कहता हूं: संसार असार नहीं है; तुम्हारे तथाकथित पंडित-पुरोहित बकवास हैं, असार हैं। अगर छोड़ना हो तो उनको छोड़ देना। फूलों के संसार को मत छोड़ना, चांद-तारों के संसार को मत छोड़ना। यही संसार द्वार है।
और रजत, तुमने पूछा--कि इधर आपने खूब फंसाया मुझे, अब आफत में पड़ा। क्योंकि अब जब घर लौटूंगा तो वही बासा घिसा-पिटा जीवन उपलब्ध होगा।
नहीं होगा। जीवन तो जो यहां है वही वहां है, आंख चाहिए--इक जाविदानी सी नजर दे दे। तुम्हारी आंख बदलनी चाहिए, तो फिर तुम जहां भी रहोगे वहीं तुम इसी पुलक का अनुभव करोगे। और आंख ही तुम्हें दे रहा हूं। संन्यास कुछ और नहीं है, तुम्हारी तत्परता है एक नई आंख स्वीकार करने की, एक नई दृष्टि अंगीकार करने की। और तुम तत्पर हो लेने को तो मैं देने को राजी हूं। तुम झोली फैलाओ तो मैं तुम्हारी झोली भर दूं। फिर तुम जहां भी रहोगे, यही तो चांद वहां होगा, यही तो तारे वहां होंगे, यही तो सूरज उगेगा, यही तो हवाएं वहां होंगी, यही तो लोग वहां होंगे। यह सारा जगत एक है। तुम्हारी नजर बासी नहीं होनी चाहिए, नहीं तो लोग बासे हो जाते हैं। और तुम लोगों को दोष देते हो कि लोग घिसे-पिटे, लोग बासे, जीवन घिसा-पिटा, जीवन बासा। जीवन न बासा होता कभी, न घिसा-पिटा होता। तुमने कभी ओस की कोई बूंद देखी जो घिसी-पिटी हो, कि बासी हो? नहीं। तुमने कोई नदी देखी जो बासी हो, घिसी-पिटी हो? और सदियों से बह रही है, फिर भी बासी नहीं है, घिसी-पिटी नहीं है। सूरज रोज तो उगता है, लेकिन कभी बासा और घिसा-पिटा होता है? इस जगत में कुछ भी बासा, घिसा-पिटा नहीं है। सिर्फ तुम्हारी आंख! तुम्हारी आंख पर धूल जम जाए तो सारा संसार घिसा-पिटा मालूम होता है।
मैंने सुना, एक बूढ़ी स्त्री अपनी खिड़की पर खड़े होकर खिड़की के कांच के पीछे से आकाश के चांद-तारों को देखती थी, सूरज को उगते देखती थी, और जिंदगी बड़ी घिसी-पिटी मालूम होती थी। एक दिन एक मेहमान उसके घर में रुका। उस मेहमान ने उठ कर उसकी कांच की खिड़की को साफ कर दिया। उस पर खूब धूल जमी थी। खिड़की साफ हो गई, चांद-तारे साफ झलकने लगे। सूरज उगा--और ही उगा! नये ही ढंग से उगा! वह बूढ़ी तो बहुत चकित हुई। उसने सोचा: तो मैं तो समझती थी कि संसार ही घिसा-पिटा हो गया। मैं रह भी चुकी हूं कोई नब्बे साल दुनिया में, तो वही का वही! तुमने यह क्या जादू कर दिया? आज चांद ताजा है।
चांद वही का वही है, सिर्फ कांच पर जमी थोड़ी सी धूल हट गई है। चांद पर कोई धूल न थी। तुम्हारी आंख पर धूल है तो संसार घिसा-पिटा है। जरा आंख की धूल झड़ जाने दो। पक्षपात, विचारों का व्यर्थ समूह हटा दो। एक छोटे बालक की भांति आश्चर्यचकित हो जाओ, यही मेरी देशना है। इस जगत को आश्चर्य भरी हुई नजरों से देखो। फिर से देखो। फिर-फिर देखो। और तुम इसे रोज-रोज नया-नया पाओगे। तुम पाओगे कि जितनी तुम्हारी आंख ताजी होती जाती है, उतना जगत ताजा होता जाता है। फिर तुम कहीं भी रहो, फिर तुम्हें नरक भेजा ही नहीं जा सकता, क्योंकि तुम जहां भी रहोगे वहीं स्वर्ग होगा।
लोग कहते हैं कि संतों को स्वर्ग भेजा जाता है और पापियों को नरक। यह बात बिलकुल गलत है। संतों को स्वर्ग नहीं भेजा जाता--संत तो जहां होते हैं वहां स्वर्ग होता है। और पापियों को नरक नहीं भेजा जाता--पापी जहां होते हैं वहीं नरक होता है। भेजने की जरूरत ही नहीं पड़ती। वे खुद ही अपना नरक और अपना स्वर्ग बना लेते हैं।
तो रजत! चिंता न करो। इस जाल में अगर सच में ही फंसे हो तो बहुत जालों से मुक्त हो जाओगे। और यह जाल गुलामी का जाल नहीं है। मैं तुम्हें मुक्त करता हूं। मैं तुम्हें मुक्त करता हूं ज्ञान से, मैं तुम्हें मुक्त करता हूं तुम्हारे थोथे चरित्र से, मैं तुम्हें मुक्त करता हूं तुम्हारी थोथी शुभ-अशुभ की धारणाओं से। मैं तुम्हें सिर्फ मुक्त करता हूं। मैं तो सिर्फ इतना ही चाहता हूं कि तुम वर्तमान क्षण में, अतीत को, भविष्य को भूल कर जीने की कला सीख लो। फिर कभी कुछ बासा नहीं होता। फिर प्रतिपल परमात्मा आता है और प्रतिपल उसकी पगध्वनि सुनी जाती है। प्रतिपल उसका संगीत बरसता है--और ऐसा बरसता है कि तुम अपनी झोली में उसे भर न पाओगे; इतना बरसता है कि तुम्हारे हाथ छोटे पड़ जाएंगे, तुम्हारी झोली छोटी पड़ जाएगी। बाढ़ की तरह आता है परमात्मा जब आता है। और परमात्मा प्रतिपल आने को आतुर है--द्वार दो, राह दो, अपने को खाली करो।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, आश्चर्य है कि भारत की राजधानी से निकलने वाली एक पोर्नो पत्रिका ने, जो अश्लीलता का धंधा करती है, लिखा है कि आपको फांसी दे दी जाए। इसका राज क्या है?
आनंद मैत्रेय! राज जरा भी नहीं है। बात बिलकुल सीधी-साफ है। अश्लील पत्रिकाएं बिकती हैं तुम्हारे साधु-संन्यासियों के कारण! अगर मेरी चले तो अश्लील पत्रिकाएं दुनिया में बिक ही न सकेंगी। अगर मेरी चले तो अश्लील पत्रिका कौन खरीदेगा? किसलिए खरीदेगा?
अश्लील पत्रिका खरीदते कौन लोग हैं?
वे वे ही लोग हैं, जिन्होंने कामवासना का दमन किया है। वे वे ही लोग हैं, जिन्होंने अपनी कामवासना का सत्कार नहीं किया, स्वागत नहीं किया। वे वे ही लोग हैं, जो पंडित-पुजारियों, साधु-संन्यासियों के हाथ के शिकार हुए हैं। वे ही लोग अश्लील पत्रिकाएं पढ़ते हैं। यद्यपि गीता में छिपा कर पढ़ते हैं, कोई कुरान में छिपा कर पढ़ते हैं, कोई बाइबिल की जिल्द में छिपा कर पढ़ते हैं, मगर ये वे ही लोग हैं।
यह सारी दुनिया तो धार्मिक लोगों से भरी है, इसमें अश्लील पत्रिकाएं पढ़ता कौन है? जो किताबें पढ़ते हैं कि ब्रह्मचर्य ही जीवन है, वे ही अश्लील पत्रिकाएं पढ़ते हैं। ये दोनों अलग-अलग पाठक नहीं हैं। एक तरफ पढ़ते हैं कि ब्रह्मचर्य ही जीवन है और फिर अपने पर जबर्दस्ती ब्रह्मचर्य थोपने की कोशिश करते हैं। नहीं थोप पाते और भीतर चित्त उद्विग्न होने लगता है। और जो रोक लिया है, वह नये-नये रास्ते खोज कर निकलने लगता है। वे ही अश्लील पत्रिकाएं पढ़ते हैं, अश्लील फिल्में देखते हैं। उनके लिए ही अश्लील फिल्में लिखी जाती हैं, बनाई जाती हैं, अश्लील कहानियां लिखी जाती हैं, गीत रचे जाते हैं। भद्दी तस्वीरें, बेहूदी तस्वीरें उन्हीं के लिए तैयार की जाती हैं।
तुम जान कर चकित होओगे कि राज इसमें बिलकुल नहीं, गणित बहुत सीधा-साफ है। तुम्हारे साधु, तुम्हारे मुनि, तुम्हारे संन्यासी न हों, वेश्या समाप्त हो जाएगी। वेश्या तुम्हारे मुनि महाराजों का दूसरा अंग है। ये दोनों एक ही दुकान में साझीदार हैं। इधर मुनि, संन्यासी, त्यागी निंदा करता है वासना की। उस निंदा से तुम्हारे भीतर वासना का दमन शुरू होता है। और वासना जब इतनी इकट्ठी हो जाती है कि तुम उससे उबलने लगते हो, तो कोई निकास खोजना होगा। फिर वेश्या पैदा होती है। फिर हजार तरह की अश्लीलताएं पैदा होती हैं।
मैं जो कुछ भी कह रहा हूं, खतरनाक है। खतरनाक इसलिए है कि अगर मेरी बात चले, तो जिस अश्लील पत्रिका की तुमने बात की, मैंने भी उसे देखा, सारी तस्वीरें नंगी हैं और बेहूदी हैं, कुरूप हैं, बेढंगी हैं, फूहड़ हैं। सौंदर्य का कोई लक्षण नहीं है उसमें। किसी को भी हैरानी होगी कि ऐसी अश्लील पत्रिका को मुझसे क्या अड़चन हो सकती है? उसके संपादक सरकार से प्रार्थना करें कि मुझे छोटा-मोटा दंड नहीं, बिलकुल फांसी की सजा होनी चाहिए! मृत्युदंड दिया जाना चाहिए!
मगर इसमें गणित है। मैं चाहता हूं लोग वासना का दमन न करें। अगर वासना का दमन न होगा, तो अश्लील तसवीरें कौन खरीदेगा? अश्लील पत्रिकाएं कौन खरीदेगा? यह तो दमित चित्त के कारण होता है। तुम जाओ जरा आदिवासियों को, जो नग्न रहते हैं, उनको तुम अश्लील पत्रिका बेचो। वे बहुत हंसेंगे। वे कहेंगे: तुम पागल हो गए हो! इसमें मामला ही क्या है? उन्होंने नग्न स्त्रियां देखी हैं, नग्न पुरुष देखे हैं--बचपन से ही देखे हैं।
तुम्हीं सोचो न, कोई आए और कहे तुम्हें कि यह नंगी गाय की तस्वीर है, खरीद लो। तो तुम कहोगे, मैं कोई पागल हो गया हूं! नंगी गाय की तस्वीर मैं करूंगा क्या? लेकिन जरा सोचो, एक ऐसी दुनिया है जहां गायों को कपड़े पहना दिए गए हैं और जहां नंगी गाय दिखाई ही नहीं पड़ती। वहां लोग सोचने लगेंगे कि मामला क्या है? वहां नंगी गाय की तस्वीर बिकेगी। अगर कोई कहेगा, नंगी गाय की तस्वीर; तुम कहोगे, लाओ। तुम दुगने, चार गुने पैसे देने को तैयार हो जाओगे; एक बार देखने की उत्सुकता जगेगी, कि बात क्या है? जरा गायों को तुम पहना तो दो कपड़े--सुंदर-सुंदर साड़ियां, चोलियां, घूंघट डाल दो और निकालो जरा गाय को बाजार में। लोग झांक-झांक कर देखने लगेंगे कि मामला क्या है! लोग घूंघट उठा कर देखना चाहेंगे, कि कुछ राज होना ही चाहिए।
जिन चीजों को छिपाया जाता है उनको देखने की उत्सुकता जगती है--यह सीधा गणित है। जरा अपने दरवाजे पर एक तख्ती लगा दो कि यहां झांकना मना है। और फिर तुम देख लेना, कोई माई का लाल निकल नहीं सकेगा बिना झांके! और कोई अगर निकल गया लाज-संकोच में--कि चार आदमी देख रहे हैं, कोई क्या कहेगा--अकड़ कर गर्दन को कड़ी करके निकल गया, तो मन लौट-लौट कर झांकना चाहेगा। आएगा वह आदमी, किसी और बहाने आएगा। कोई अच्छा बहाना खोज कर आएगा, लेकिन आएगा। और अगर कमजोर हुआ, बहुत ही कायर दिल हुआ और हिम्मत न जुटा पाया, तो सपने में उस दरवाजे को देखेगा, और सपने में झांक कर देखेगा!
जिन चीजों का इनकार किया जाता है, उन चीजों में रस पैदा हो जाता है। निषेध में निमंत्रण है। ये अश्लील पत्रिकाएं...ऊपर से तो ऐसा लगता है कि साधु-संन्यासी इनके बड़े विरोध में हैं। हैं विरोध में। आचार्य तुलसी ने आंदोलन चलाया था अश्लील पत्रिकाओं के विरोध में। जब उनके एक शिष्य मुनि मुझसे मिलने आए और कहा कि मेरा भी समर्थन? मैंने कहा: मैं समर्थन नहीं करूंगा। अश्लील पत्रिकाओं के विरोध में आंदोलन चलाने का मतलब तो और रस पैदा करवाना है!
मैंने उनसे पूछा कि आचार्य तुलसी को अश्लील पत्रिकाओं से क्या तकलीफ है? देखते हैं अश्लील पत्रिकाएं? नहीं देखते तो उनको पता कैसे चलता है? अश्लील पत्रिकाओं से उनका विरोध क्या है? विरोध होगा कैसे? विरोध के लिए भी तो कम से कम देखना जरूरी होगा। उन्हें अड़चन क्या है?
और यह विरोध नया तो नहीं है, यह विरोध सदियों से चल रहा है। इस विरोध से अश्लील पत्रिकाएं समाप्त नहीं हुईं, अश्लील किताबें समाप्त नहीं हुईं, अश्लील फिल्में समाप्त नहीं हुईं। इतना ही हो जाता है कि सभी चीजें धीरे-धीरे छिप कर बहने लगती हैं। जमीन के ऊपर नहीं चलतीं, अंडरग्राउंड हो जाती हैं, भूमिगत हो जाती हैं। अगर तुम किताबों की दुकान पर जाओगे, सब किताबें--गीता, कुरान इत्यादि ऊपर बिकती हैं, काउंटर के नीचे छिपी रहती हैं असली चीजें। असली चीजें काउंटर के नीचे छिपी रहती हैं!
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने किताब के दुकानदार को तार किया, कि शेक्सपियर का पूरा सेट भेज दो, और कालिदास की भी सब किताबें, और भवभूति की भी, और साथ में कुछ पढ़ने योग्य सामग्री भी भेज देना!
पढ़ने योग्य सामग्री और क्या होगी? शेक्सपियर को कोई पढ़ता है? कालिदास को कोई पढ़ता है? इनको तो लोग सजा कर रख लेते हैं बैठकखाने में। ये किताबें पढ़ी जाने वाली किताबें नहीं हैं। मैंने बहुत बैठकखानों में ये किताबें सजी देखी हैं। और जब मैंने किताबें निकालीं, तो देखा कि उनके पन्ने भी अभी काटे नहीं गए हैं, कोई पन्ना जुड़ा है तो जुड़ा ही है। किसी ने कभी किताब खोल कर देखी ही नहीं है। पढ़ा कुछ और जाता है। वह अलग ही बिकता है। वह नीचे-नीचे बहता है।
मैं कह रहा हूं कि मनुष्य की कामवासना का विरोध अवैज्ञानिक है। मनुष्य की कामवासना में ही मनुष्य के ब्रह्मचर्य की ऊर्जा छिपी है। लेकिन ब्रह्मचर्य वासना का विपरीत नहीं है, वासना का अंतिम खिलाव है। जैसे वासना की भूमि में ही ब्रह्मचर्य का फूल खिलता है! मैं यह कह रहा हूं कि वासना की ऊर्जा और ब्रह्मचर्य का प्रागट्य एक ही घटना के दो पहलू हैं। इसलिए वासना से लड़ना मत, अन्यथा ब्रह्मचर्य कभी उपलब्ध न होगा। व्यभिचार उपलब्ध होगा, ब्रह्मचर्य नहीं। जितना वासना को दबाओगे, उतने व्यभिचारी हो जाओगे। अगर बाहर से भी न हुए, तो चित्त व्यभिचारी हो जाएगा।
वासना को जीओ, समझो--ध्यानपूर्वक, प्रेमपूर्वक। वासना परमात्मा की भेंट है; उसमें ही छिपा है कहीं कुछ राज! उसे खोजो। जैसे-जैसे समझ बढ़ेगी, तुम अचानक पाओगे कि वासना तिरोहित होने लगी। और यह तिरोहित होना अपूर्व सौंदर्य को लिए होता है, क्योंकि इसमें कहीं कोई दमन नहीं है। कहीं चित्त में कोई घाव नहीं छूट जाते।
और एक दिन जब ब्रह्मचर्य आता है सहज स्वस्फूर्त--आरोपित नहीं, जबर्दस्ती थोपा गया नहीं, चेष्टा से लाया गया नहीं--स्वस्फूर्त, समझ के फल की तरह आता है, तब उस ब्रह्मचर्य में जरूर अदभुत रस है! मैं ब्रह्मचर्य का पक्षपाती हूं; लेकिन वासना के विपरीत में जो ब्रह्मचर्य है, वह तो झूठा है। वह ब्रह्मचर्य नहीं है। वह व्यभिचार है भीतर, ऊपर ब्रह्मचर्य का लेबल लगा है। मैं उस ब्रह्मचर्य के पक्ष में हूं, जो वासना की गली में से गुजर कर, समझपूर्वक, वासना को समझ कर, वासना को जान कर, देख कर, पहचान कर फलित होता है; जो वासना की प्रक्रिया का ही अंतिम निष्कर्ष है। और जब खिलता है कमल ब्रह्मचर्य का ऐसे, तब जीवन अपूर्व सुगंध से भर जाता है, आलोक से भर जाता है!
अगर मेरी बात मानी जाए तो इसके दो परिणाम होंगे। एक परिणाम तो यह होगा कि लोग सहज हो जाएंगे। और सहज व्यक्ति अश्लील पत्रिकाओं, अश्लील फिल्मों को देखने नहीं जाएगा; जरूरत ही न रही। सहज व्यक्ति धीरे-धीरे इस मूढ़ता को छोड़ ही देगा, कि शरीर को हमेशा छिपाए रखना है। शरीर को हमेशा छिपाए रखना घातक है। वही अश्लील पत्रिकाओं को बिकवा रहा है। अपने बच्चों के साथ मां-बाप को कभी नग्न होकर स्नान करना चाहिए, ताकि बच्चे बचपन से ही समझें कि देह में है क्या, देह जैसी देह है। जिन अंगों को तुम नहीं छिपाते, उनको कोई नहीं देखना चाहता। हाथ को तुमने नहीं छिपाया है, तो हाथ के लिए कोई दीवानगी नहीं है।
मध्य युग में, विक्टोरिया के जमाने में हालतें ऐसी थीं कि इंग्लैंड में स्त्रियों के पैर भी छिपा दिए जाते थे। ऐसा घाघरा पहनाते थे कि वह जमीन को छूता हुआ, सरकता हुआ चले, ताकि पैर न दिखाई पड़ें। तो पैरों की भी तस्वीरें बिकती थीं। अब नहीं बिकतीं। अब क्या बिकेंगी पैरों की तस्वीरें! कम से कम पश्चिम में तो कोई पैर की तस्वीर नहीं बिक सकती, क्योंकि स्त्रियां इतनी छोटी-छोटी फ्राक पहने हुए हैं कि पूरे पैर ही दिखाई पड़ रहे हैं, पैर की तस्वीर कौन खरीदेगा?
तुम जान कर हैरान होओगे कि ऐसी मूढ़ स्त्रियां और ऐसे मूढ़ पुरुष भी थे इंग्लैंड में जो कि कुर्सियों के पैर भी ढांक कर रखते थे, क्योंकि उनको पैर कहा जाता है! तो कुर्सियों के पैर पर कपड़े का आवरण चढ़ा देते थे। तब यह भी हो सकता है, कि जब तुम्हारी मेजबान महिला भीतर गई हो, तुम जल्दी से उसकी कुर्सी के पैर का जरा सा कपड़ा उघाड़ कर देख लो। यह भी हो सकता है, यह बिलकुल स्वाभाविक है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने मुझे कहा कि मेरे पिता ने मुझसे कहा कि एक गंदी फिल्म बस्ती में लगी है, वहां मत जाना देखने, क्योंकि उसमें तुम ऐसी चीजें देखोगे जो न देखते तो अच्छा था। मुल्ला को पता भी नहीं था कि कोई ऐसी फिल्म लगी है। अब जब बाप ऐसा कहे, तो जाना ही पड़ा। तो मुल्ला से मैंने पूछा कि फिर तुम्हें ऐसी चीजें दिखाई पड़ीं उसमें, जो अच्छा होता कि तुम न देखते? उसने कहा कि हां, क्योंकि मेरे पिताजी भी वहां थे। वे मुझे दिखाई पड़े। उन्होंने मुझे देख लिया, मैंने उन्हें देख लिया; बात साफ हो गई कि ऐसी चीजें दिखाई पड़ीं, मुझको भी और उनको भी, जो दिखाई नहीं पड़नी थीं। उस दिन से न तो उन्होंने कुछ कहा है, न मैंने कुछ कहा है। अब हम चुप्पी साधे हुए हैं।
यह अश्लील साहित्य मनुष्य के रुग्ण चित्त का लक्षण है। उस पत्रिका की नाराजगी बिलकुल तार्किक है। अगर मेरी बात चले, तो ये पत्रिकाओं के प्राण निकल जाएंगे। इसलिए मुझे फांसी होनी ही चाहिए, नहीं तो ये पत्रिकाएं नहीं चलेंगी! मेरे संन्यासी तो ऐसी पत्रिकाएं नहीं खरीद सकते। कोई कारण नहीं है। अगर तुमने जीवित मनुष्यों को नग्न देखा है, तो तुम क्यों तस्वीरों में रस लोगे? और अगर तुमने जीवित स्त्री-पुरुषों को प्रेम किया है और तुमने प्रेम का रस जाना है, प्रेम के फूल जाने हैं और प्रेम के कांटे भी जाने हैं, और प्रेम का सुख जाना है और प्रेम का दुख भी जाना है--तो तुम वेश्याओं के यहां जाओगे? यह असंभव है।
मैं जिस मनुष्य की बात कर रहा हूं, अगर वह मनुष्य पृथ्वी पर आया, तो वेश्याएं अपने आप तिरोहित हो जाएंगी। तुम जान कर हैरान होओगे कि पश्चिम में अब वेश्याएं ही नहीं होतीं, वैश्य भी होते हैं। क्योंकि स्त्रियों ने कहा कि सिर्फ पुरुष ही वेश्याओं को भोगते रहें, यह तो असमानता है। इसलिए पश्चिम के प्रमुख नगरों में, लंदन, न्यूयार्क, वाशिंगटन जैसे नगरों में पुरुष वेश्याएं हैं। उनको मैं वैश्य कहता हूं। तुम नाराज मत होना; कोई वैश्य यहां आया हो, तो मेरा मतलब तुम्हारे ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र वाले वैश्य से नहीं है। क्योंकि वेश्या तो स्त्री का नाम है, अब पुरुष को क्या कहो अगर वह अपना शरीर बेचता हो? तो उसका नाम वैश्य। मुझ पर मुकदमा मत चला देना कि मैंने वैश्यों के खिलाफ कुछ कह दिया! अब मैं भी क्या करूं, भाषा में कोई शब्द है नहीं। क्योंकि वेश्याएं सदा से रहीं, वैश्य कभी रहे नहीं। अंग्रेजी में तो सुविधा है, वे कहते हैं: मेल प्रॉस्टिट्यूट। अब हिंदी में कहो--पुरुष वेश्या, जंचता नहीं। क्योंकि वेश्या का मतलब ही स्त्री होता है।
यह हालत वैसी है, जैसे कि हिंदुस्तान में कोई पुरुष नर्सों का काम नहीं करते अभी, सभी स्त्रियां नर्सों का काम करती हैं। अब कोई पुरुष नर्स का काम करे, उसको क्या कहोगे? नर्सा? पश्चिम में पुरुष भी शुरू कर दिए हैं काम। मेरे कई संन्यासी हैं जो नर्स का काम करते हैं। उनका...वे मेल नर्स।
कुछ न कुछ हमें खोजना पड़ेगा, आज नहीं कल। वैश्य जंचता है। वैश्य का मतलब होता है--बेचने वाला। उसी से तो वेश्या बना है। वह अपने तन को बेचती है। पुरुष भी अपने तन को बेचने लगे हैं।
यह तन का बेचना अशोभन है। लेकिन इस तन के बेचने के पीछे जिनका हाथ है, वे तुम्हारे बड़े-बड़े संत-महंत, उनका हाथ है। उन्होंने तुम्हारे जीवन को तृप्त नहीं होने दिया सहजता से। तो तुमने पीछे के दरवाजे खोज लिए हैं। मुझ पर साधु-संत भी नाराज हैं, अश्लील किताबें बेचने वाले भी नाराज हैं। यह बड़ी हैरानी की बात है!
तो आनंद मैत्रेय का प्रश्न महत्वपूर्ण है, कि इसका राज क्या?
इसका राज साफ है। उन दोनों की साझेदारी है। चाहे उन्हें पता हो या न हो। वे दोनों एक साथ जुड़े हुए हैं। मैं दोनों की जड़ काट दूंगा। वे दोनों एक ही वृक्ष की शाखाएं हैं। और मैं जड़ काटना चाहता हूं। मैं चाहता हूं: मनुष्य वासना को स्वीकार कर ले--सरलता से, अहोभाव से। वासना का दमन बंद कर दे। और लोग कम से कम विश्राम के क्षणों में तो नग्न हों। नदी पर स्नान करते हुए लोग अगर नग्न हों, समुद्र में स्नान करते हुए लोग अगर नग्न हों, घर के बगीचे में धूप लेते हुए अगर लोग नग्न हों--तो धीरे-धीरे नग्नता की जो हमारे मन में पागल चाह पैदा हो गई है देखने की, वह समाप्त हो जाएगी। उसके प्राण निकल जाएंगे। वह बच कैसे सकती है? इसे मैं जड़ का काटना कहता हूं। और तब एक ज्यादा स्वस्थ मनुष्य और एक ज्यादा स्वस्थ मनुष्यता का जन्म हो सकता है।
निश्चित ही, मैं बहुत से न्यस्त स्वार्थों के विपरीत बोल रहा हूं। इसलिए मुझ पर हजार तरह की झंझटें आनी निश्चित हैं, स्वाभाविक हैं। न आएं तो चमत्कार होगा!
तीसरा प्रश्न:
भगवान, मैं हृदय की वेदना व्यक्त करना चाहता हूं, जो कि मैंने आज तक किसी से व्यक्त नहीं की। मेरे मन की हालत खंड-खंड हो गई है। एक तरफ सत्संग का प्रेम और परमात्मा से मिलन की चाहत और दूसरी तरफ भौतिक कामवासना की तरफ हर पल का झुकाव। आज प्रौढ़ावस्था तक उससे छुटकारा नहीं पा सका हूं। समझ आती है तो अधूरी रहती है। और स्त्री-शरीर के अनेक अनुभवों के बावजूद भी और ज्यादा वृत्ति तंग करती है। सब अच्छी कही हुई बातें और सिखावनें बाहर ही रह जाती हैं। मैं वही का वही! सब भूल कर लोलुप हो जाता हूं। वासना मन को घेरे रहती है। स्वप्न में भी वही चलता है। किस क्रिया से मैं छुटकारा या समता पा सकूं, वह रास्ता दिखाएं। कृपा करें।
राधारमण! अभी मैंने जो कहा उस पर विचार करना। क्यों छुटकारा चाहते हो? किसने तुमसे कहा कि छुटकारा चाहो? छुटकारा चाहने की चेष्टा में ही उपद्रव हो रहा है।
वासना को अंगीकार करो। प्रकृति से मिली है, तुमने कुछ बनाई नहीं है। अगर कोई कसूरवार होगा कभी तो परमात्मा कसूरवार होगा, तुम कसूरवार नहीं। इतना मैं तुम्हें आश्वासन देता हूं कि परमात्मा तुमसे यह नहीं पूछेगा कि तुम कामवासना में क्यों जीए? और पूछे तो उसका कालर पकड़ कर हिला देना और कहना कि दी थी तुमने, मेरा क्या कसूर था? न बनाते! नहीं, परमात्मा ने कभी किसी से पूछा नहीं है। कैसे पूछेगा?
तुम अपनी तस्वीर में लाल रंग भरो और फिर तस्वीर पर नाराज हो जाओ कि इसमें लाल रंग क्यों है, तो लोग तुम्हें पागल कहेंगे। तुम्हीं ने लाल रंग भरा।
अगर कोई कसूरवार है तो परमात्मा कसूरवार होगा, तुम तो कसूरवार नहीं हो। मैं तुम्हें मुक्त करता हूं तुम्हारे कसूर से। तुम यह पाप का भाव छोड़ो।
और मजा यह है और विरोधाभास भी: अगर पाप का तुम भाव छोड़ दो वासना के प्रति तो कभी के मुक्त हो गए होते, प्रौढ़ावस्था तक रुकना न पड़ता। मेरे देखे, वैज्ञानिक हिसाब से चौदह वर्ष की उम्र में कामवासना शुरू होती है, पकती है; और बयालीस वर्ष की उम्र में अपने आप समाप्त हो जाए, अगर व्यक्ति स्वीकार करके शांति से आनंदपूर्वक जीए। अपने आप समाप्त हो जाए!
हर सात वर्ष में परिवर्तन होते हैं। पहले सात वर्ष में वासना बिलकुल ही छिपी होती है। सात वर्ष से चौदह वर्ष की उम्र में हलकी-हलकी झलकें आनी शुरू होती हैं। समझ में नहीं पड़ता बच्चे की कि यह क्या हो रहा है। लेकिन हलकी-हलकी झलकें आनी शुरू होती हैं। उसमें उत्सुकता जगने लगती है। चौदह वर्ष में, चौदह वर्ष की उम्र तक वासना पक जाती है, प्रकट होने को तैयार हो जाती है।
मगर हमने जो व्यवस्था बनाई है वह बड़ी बेहूदी है, अवैज्ञानिक है। जब बच्चा कामवासना से तैयार हो जाता है चौदह साल का, तब हम उसे दमन शुरू करवाते हैं। विवाह तो होगा चौबीस साल में, कि पच्चीस साल में, कि तीस साल में। चौदह साल से लेकर और चौबीस साल तक दस साल के फासले में वासना का क्या होगा? दबाएगा बच्चा। और दबाने से रुग्ण होगा। तो वासना स्वप्न में प्रविष्ट हो जाएगी। या कोई विकृत प्रक्रिया पकड़ लेगा वासना को प्रकट करने की।
यह तुम्हें जान लेना चाहिए कि अठारह वर्ष की उम्र में वासना सबसे प्रबल वेग लेती है। साढ़े सत्रह वर्ष की उम्र में ठीक...क्योंकि चौदह वर्ष से इक्कीस वर्ष के ठीक मध्य में वासना सर्वाधिक प्रबल होती है। उतनी प्रबल फिर कभी नहीं होगी। और उसी वक्त हम दमन करवा रहे हैं। उसी वक्त हम कह रहे हैं कि अभी पढ़ाई में मन लगाओ। उसी वक्त हम कह रहे हैं कि अभी तो रामभजन करो। उसी वक्त हम दबाने का सारा-सारा उपाय कर रहे हैं। फिर तुम्हारे बच्चे अगर विकृत हो जाते हैं...और एक दफे विकृति पकड़ ले तो आसानी से नहीं छूटती।
ध्यान रखना, जो प्राकृतिक है, आसानी से उसके पार जाया जा सकता है। जो अप्राकृतिक है, उसके पार जाना कठिन हो जाता है। अप्राकृतिक जटिल हो जाता है। और अप्रकृति पैदा हो जानी स्वाभाविक है। हजार तरह की विकृतियां संभव हैं। और सारी मनुष्य-जाति विकृति से भर गई है। चौबीस या पच्चीस साल या छब्बीस साल या जैसे-जैसे सभ्यता आगे जा रही है, उम्र बढ़ती जा रही है विवाह की, क्योंकि इतनी शिक्षा पूरी होगी तब विवाह। पच्चीस साल और तीस साल के बीच में कभी विवाह होगा।
अब मजा यह है कि वासना उतार पर हो गई, तब विवाह होगा। जब वासना अपने उद्दाम वेग में थी तब विवाह न हुआ। अब वासना का वेग क्षीण होने लगा। साढ़े सत्रह वर्ष में सबसे ऊंचा शिखर छूती है वासना। यह मैं वैज्ञानिक शोध की बात कर रहा हूं। और फिर उसके बाद उतार शुरू हो जाता है। पांच-सात साल में जब उतार हो गया, फिर विवाह होगा। अब विवाह में संभोग तो होगा, लेकिन संभोग से तृप्ति नहीं होगी। वह तृप्ति हो सकती थी साढ़े सत्रह साल की उम्र में, अब नहीं हो सकती। अब वेग ही नहीं है इतना कि तृप्ति हो सके। अब भूख ही इतनी गहरी नहीं है कि तृप्ति हो सके। अब तुम्हारी वासना फुसफुसी हो गई। अब यह फुसफुसी वासना जिंदगी भर पीछा करेगी। तृप्त हो गई होती तो कभी के तुम इससे छूट गए होते, कभी के छूट गए होते। मगर तृप्त नहीं हो पाएगी। और हर बार जब वासना में उतरोगे, आनंद तो कोई भी अनुभव नहीं होगा, और विषाद अनुभव होगा पीछे कि शक्ति भी खोई, कुछ पाया भी नहीं, यह कैसी पशुता में मैं उतरता हूं! तो निंदा और घनी होती जाएगी। जितनी निंदा घनी होगी, उतने ही तुम उतरोगे तो जरूर, और अपने को चाहोगे कि न उतरता तो अच्छा था। तुम्हारे भीतर विरोध खड़ा हो जाएगा, द्वंद्व खड़ा हो जाएगा। एक हिस्सा जाएगा और एक हिस्सा खींचेगा।
यह ऐसा हुआ जैसे बैलगाड़ी में दोनों तरफ बैल जोत दिए और लगे फटकारने बैलों को दोनों तरफ। बैलगाड़ी के अस्थिपंजर उखड़ जाएंगे। वही तुम्हारी दशा हो गई है। वही सारी मनुष्यता की दशा हो गई है।
तृप्ति से मुक्ति संभव है, अतृप्ति से कभी कोई मुक्त नहीं होता।
अब रोज-रोज तुम्हारी वासना क्षीण होती जाएगी और रोज-रोज तुम्हारा विषाद घना होता जाएगा। अब बयालीस वर्ष में तो क्या, बयासी वर्ष में भी छुटकारा संभव नहीं है। अब तो तुम मरते दम तक वासना में ही दबे-दबे मरोगे। और तब तुम्हें पंडितों-पुरोहितों, साधु-संतों की बातें बिलकुल ठीक मालूम होंगी। यह समझने की कोशिश करो। क्योंकि वे कहते हैं कि वासना सिर्फ दुख है। और तुम्हारा अनुभव भी कहेगा कि हां, दुख है। अब यह बड़ा अदभुत तर्क हो गया। उन्हीं ने ऐसा जाल रचा कि वासना दुख हो जाए और तुम्हारा भी अनुभव अब यही कहेगा कि वासना दुख है, तो संत ठीक ही कहते हैं।
इसलिए मेरे जैसे लोगों की बात तुम्हारी समझ में न पड़ेगी। क्योंकि तुम्हारा अनुभव मेरे विपरीत है। मैं कहता हूं: वासना परम आनंद है। मगर तुम राजी नहीं हो सकते। तुम कहोगे: किससे कह रहे हैं आप? और लोग समझते हैं कि उन्होंने बच्चे पैदा कर लिए, इसलिए उन्होंने वासना को जाना है। बच्चे पैदा करने के लिए वासना जानने की कोई जरूरत नहीं है। बच्चे पैदा करना तो इतना सरल काम है, गधे-घोड़े भी कर रहे हैं! इसके लिए कोई जानकारी या होश की जरूरत नहीं है। बच्चे पैदा करना तो इतना सरल काम है जैसे बटन दबा कर बिजली जला देना। लेकिन क्या तुम समझते हो कि बटन दबा कर बिजली जला ली तो तुम समझ गए कि बिजली क्या है?
बिजली क्या है, यह तुम नहीं समझ जाओगे बटन दबाने से। बिजली को जानना तो एक बड़ी गहन यात्रा है। बड़ी लंबी यात्रा है। अभी भी वैज्ञानिक रहस्य को खोल नहीं पाए हैं कि बिजली क्या है? उपयोग सीख गए हैं। बिजली से हजार काम लेने लगे हैं। लेकिन, बिजली क्या है, इसका उत्तर अभी विज्ञान के पास नहीं है।
और कामवासना जीवंत बिजली है, जीवंत विद्युत है। वह विद्युत का और भी ऊपरी, और भी आगे का कदम है, आगे का पड़ाव है। अभी तो भौतिक विद्युत का भी रहस्य नहीं खुल पाया है, तो जैविक विद्युत का, बायोलाजिकल इलेक्ट्रिसिटी का रहस्य तो अभी बहुत दूर है। अभी तो उस पर काम भी शुरू नहीं हुआ है। लेकिन कोई बच्चे पैदा कर लेता है... बच्चे तो तुम दर्जनों पैदा कर लेते हो। जितना नासमझ आदमी हो उतने बच्चे पैदा कर लेता है। बच्चे पैदा करने में क्या है? लेकिन बच्चे पैदा करने वाला सोचने लगता है कि मैं वासना को जानता हूं--और छुटकारा नहीं हुआ अभी तक।
वासना को तुम नहीं जानते। वासना को जानने का शास्त्र है। वासना को जानने की कला है। उसी कला का नाम तंत्र है। उसके बड़े सूक्ष्म उपाय हैं, विधियां हैं। मैं चाहता हूं कि लोग तंत्र की विधियां समझें, सीखें। मगर जिनको मैं समझाना चाहता हूं, जिनको मैं सिखाना चाहता हूं, जो सीख कर वासना से मुक्त हो सकते हैं--वे ही प्रस्तावना करते हैं कि मुझे फांसी की सजा दे दी जाए। और उनको भी मैं कसूर नहीं दे सकता, उनका अनुभव उनसे यही कहता है कि वासना में क्या सुख है? वासना तो नरक है! हालांकि नरक कह-कह कर वे मुक्त नहीं हुए हैं।
राधारमण! तुम्हारी अवस्था तुम्हारी ही नहीं है, करीब-करीब निन्यानबे प्रतिशत मनुष्यता की है। और जैसे तुम कहते हो--कि मैं हृदय की वेदना व्यक्त करना चाहता हूं, जो कि मैंने आज तक किसी से व्यक्त नहीं की--ऐसे ही और भी लोग हैं जो किसी से व्यक्त नहीं कर रहे हैं। करें भी क्या! अपना रोना क्या रोना! और अपना रोना रोएंगे तो लोग हंसेंगे। मजा यह है! अगर तुम किसी से कहोगे कि मैं प्रौढ़ हो गया और वासना से मुक्त नहीं हुआ, तो वह कहेगा: अरे, अभी तक वासना से मुक्त नहीं हुए? वह ऐसा दिखाएगा जैसे वह तो मुक्त हो गया है। वह यह मौका नहीं छोड़ सकता कि अपने को तुमसे ऊपर रख ले। और तुम्हें ऐसा दीन कर देगा, ऐसा हीन कर देगा, कि कहने से सार क्या है?
तुम जाकर किसी साधु-संन्यासी को कहोगे कि मैं अभी वासना से मुक्त नहीं हुआ, तो वह कहेगा: पशु हो तुम! नारकीय हो तुम! कीड़े हो तुम! वह तुम्हें गालियां देगा। तो कहने में सार क्या है? छुपाए रहो अपने दर्द को! छुपाए-छुपाए मर जाओ!
तुम तो ईमानदार आदमी हो कि तुमने यह निवेदन कर दिया, लेकिन निन्यानबे प्रतिशत आदमियों की यही अवस्था है। कहते नहीं किसी से। कहना क्या है? कौन समझेगा? लोग हंसेंगे उलटे। लोग उलटे अपमान करेंगे। तुम्हारी प्रतिष्ठा होगी कुछ तो वह भी गिर जाएगी। यहां तो प्रतिष्ठा उनकी है जो दावेदार हैं। दावा झूठा हो कि सच, इससे कुछ सवाल नहीं है। दावा ऐसा हो कि कोई उसमें भूल-चूक न पकड़ पाए, बस। वासना है भीतर तो रहने दो, बाहर तो ज्ञान की चर्चा करो, वेद की ऋचाएं उद्धृत करो। बाहर तो ब्रह्मचर्य की चर्चा करो।
मैं तुम्हारे साधु-संन्यासियों को जानता हूं, क्योंकि वे भी जब मेरे पास आते हैं तो उनकी भी पीड़ा यही है। तुम यह मत सोचना कि तुम गृहस्थ हो, इसलिए तुम्हारी पीड़ा नहीं मिटी। तुम्हारे साधु-संन्यासियों की पीड़ा तुमसे भी ज्यादा है। क्योंकि तुम्हें तो कुछ सुविधा थी, मिट भी जाती; उन्हें तो वह भी सुविधा नहीं है। वे तो बिलकुल जले जा रहे हैं, आग से भरे हैं। अगर तुम्हारे साधु-संन्यासियों की खोपड़ी खोली जाए, छोटी-छोटी खिड़की बनाई जाएं खोपड़ी में और उनकी जांच की जाए, तो तुम चकित होओगे कि तुम जितना नारकीय दृश्य वहां देखोगे, तुम्हें कहीं भी दिखाई न पड़ेगा।
तुम खुद भी प्रयोग करके देख सकते हो। रोज तुम भोजन कर लेते हो, फिर तुम भोजन के सपने तो नहीं देखते। एक दिन उपवास करो, उस रात भोजन का सपना देखोगे। दो-चार दिन का उपवास करो, भोजन ही भोजन की सोचोगे। और सब सोच-विचार खो जाएगा, मैं तुमसे कहता हूं, राधारमण! कामवासना का विचार भी खो जाएगा, एक पांच-सात दिन उपवास करो, भोजन ही भोजन दिखाई पड़ने लगेगा। रास्ते पर निकलोगे तो स्त्रियां दिखाई नहीं पड़ेंगी, होटलें दिखाई पड़ेंगी। होटलों के अक्षर बिलकुल साफ-साफ दिखाई पड़ेंगे, बोर्ड बिलकुल पढ़ोगे, बार-बार पढ़ोगे। रास्ते पर निकलोगे तो और कुछ नहीं, यह भजिये की गंध, यह पकौड़ों की गंध, राह तुम्हें एकदम गंधों से भरी मालूम होगी--भोजन की एक से एक गंध! इसी रास्ते से जिंदगी भर गुजरे थे, ये गंधें तुम्हें कभी मालूम न पड़ी थीं, क्योंकि पेट भरा था, तृप्त थे तुम।
अभी तुम रास्ते से गुजरते हो, स्त्रियां ही स्त्रियां दिखाई पड़ती हैं। तुम्हारे भीतर वासना दबी पड़ी है। तुमने अच्छा किया कि कहा, निवेदन किया। रास्ता बन सकता है। लेकिन रास्ते को बनाने के लिए कुछ बड़ी महत्वपूर्ण बातें समझनी होंगी।
तुमने कहा: ‘मेरे मन की हालत खंड-खंड हो गई है।’
तुमने की है हालत खंड-खंड, हो नहीं गई है! तुम जिम्मेवार हो। दोष किसी और पर डाला नहीं जा सकता। अंततः तो जिम्मेवारी अपनी है। पंडित-पुरोहितों पर भी दोष डालने से कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि उनकी तुमने मानी, यह तो जिम्मेवारी तुम्हारी है। न मानते। मैंने नहीं मानी। मेरे पास अनंत संन्यासी इकट्ठे हो रहे हैं, इन्होंने नहीं मानी। तुम भी न मानते। लेकिन अभी भी तुम उनकी ही मान रहे हो। यह प्रश्न भी उनकी ही मान्यता से पैदा हुआ है। यह अड़चन भी उन्होंने दी, यह प्रश्न भी उसी से पैदा हुआ है।
तुम कह रहे हो: ‘एक तरफ सत्संग का प्रेम और परमात्मा से मिलन की चाहत और दूसरी तरफ भौतिक कामवासना की तरफ हर पल का झुकाव।’
ये दोनों अलग बातें नहीं हैं। जिन्होंने तुमसे कहा अलग हैं, उन्होंने तुम्हें गलत समझाया। ये दोनों बिलकुल एक सी बातें हैं। जिस चाहत से तुमने किसी स्त्री को चाहा है, वही चाहत तो नये पंख लगा कर परमात्मा को चाहेगी; विपरीत नहीं है। जिस वासना के कारण तुम्हें किसी स्त्री के चेहरे में सौंदर्य दिखाई पड़ा था, उसी के कारण तो तुम्हें किसी कमल में सौंदर्य दिखाई पड़ेगा; चाहत तो वही है। उसी के कारण तो तुम्हें सूर्यास्त में सौंदर्य दिखाई पड़ेगा, रात तारों में सौंदर्य दिखाई पड़ेगा; वही चाहत है। और उसी चाहत से एक दिन तुम्हें यह सारा जगत सौंदर्य से भरपूर मालूम पड़ेगा। तब परमात्मा का अनुभव शुरू होगा।
लेकिन तुम कह रहे हो: ‘एक तरफ परमात्मा की चाहत और दूसरी तरफ कामवासना की तरफ झुकाव।’
तुमने इनको विपरीत मान रखा है, वहीं तुम्हारी भूल हो रही है, वहीं मूल भूल हो रही है। और जब मूल भूल हो जाए तो फिर तुम जो भी करोगे वह गलत हो जाएगा। पहला कदम ही गलत पड़ गया। ये दोनों बातें विपरीत नहीं हैं। ये दोनों बातें अलग-अलग दिशाओं में नहीं हैं। ये एक ही रास्ते के पड़ाव हैं। काम पहला पड़ाव है, प्रेम दूसरा पड़ाव है, प्रार्थना तीसरा पड़ाव है--एक ही रास्ते पर! यही मेरी मौलिक देन है तुम्हारे लिए। ये एक ही रास्ते के पड़ाव हैं। इसलिए जरा भी चिंता न लो।
खंड-खंड तुम अपने आप हुए जा रहे हो, अपनी व्याख्या के कारण। मेरी व्याख्या समझो, खंड समाप्त हो गए, इसी क्षण समाप्त हो गए। खंडों को जोड़ना नहीं पड़ेगा, सिर्फ तोड़ना बंद हो गया। वही तो सौंदर्य को चाहता है जो परमात्मा को चाहेगा। वही चाहत, वही प्रेम।
माना कि स्त्री में बड़ा स्थूल सौंदर्य है, पुरुष में बड़ा स्थूल सौंदर्य है और परमात्मा में एक सूक्ष्म सौंदर्य है--सूक्ष्मातिसूक्ष्म! लेकिन सौंदर्य तो सौंदर्य है। हीरा जब पहली दफा खोदा जाता है खदान से तो पत्थर जैसा लगता है, सिर्फ जौहरी देख पाते हैं। और मैं तुमसे कहता हूं कि जिसे तुम कामवासना कह रहे हो, वह हीरा है। मैं जौहरी की तरह तुमसे कह रहा हूं कि वह हीरा है। उसे काटना होगा, निखारना होगा; उसे साफ-सुथरा करना होगा; तब कहीं तुम पहचान पाओगे कि यह हीरा है।
तुम्हें पता है, जब पहली दफा कोहिनूर हीरा मिला तो जिस आदमी को मिला उसके घर महीनों बच्चे उससे खेलते रहे, क्योंकि समझा कि पत्थर है। कोहिनूर हीरा! और कोहिनूर हीरे के साथ बड़ी प्यारी कहानी जुड़ी है। गोलकुंडा में मिला था। जिस आदमी को मिला था, वह एक गरीब किसान था। छोटा सा एक खेत था और खेत में से बहता हुआ एक छोटा सा झरना था। उस झरने की रेत में ही उसे एक दिन यह पत्थर चमकता हुआ मिल गया। सोचा, उठा लिया, कि बच्चे खेलेंगे। आकर बच्चों को दे दिया। बच्चे उससे खेलते भी रहे, वह घर में कभी इस कोने, कभी उस कोने पड़ा रहा। कोहिनूर हीरा--जो अब इंग्लैंड की रानी एलिजाबेथ के मुकुट में लगा है और जो इस समय दुनिया का सबसे बहुमूल्य हीरा है! जिस कोहिनूर के पीछे न मालूम कितने लोगों की जानें गईं, उससे बच्चे खेलते रहे। किसी को पता ही न था।
और कहानी अदभुत है कि उस किसान के घर एक रात एक यात्री फकीर मेहमान हुआ। उस फकीर ने जमानों की बातें कीं, दूर-दर की, क्योंकि वह सारी दुनिया घूमा हुआ था। और उसने उस किसान से कहा कि तू भी यहां क्यों समय खराब कर रहा है? मिट्टी में क्यों सिर फोड़ रहा है? ऐसी जगह हैं जहां सोने की खदानें हैं, हीरों की खदानें हैं। मैं तुझे पता दे देता हूं, तू जा। इतनी मेहनत से तो तू अरबपति हो जाएगा।
तो उसने अपना खेत बेच दिया। जिस खेत में कोहिनूर मिला था, उसने बेच दिया। और उसी खेत में फिर खदान मिली सबसे बड़ी गोलकुंडा की, जिससे दुनिया के सबसे कीमती हीरे निकले। वह उसने ऐसा दो कौड़ी में बेच दिया, खेत की कीमत में बेच दिया। और खेत को बेच कर निकल पड़ा तलाश में। अपने पत्नी-बच्चों को कहा कि तुम रुको, मैं जाता हूं धन की तलाश में। कोई चार-पांच साल बाद भिखमंगे की हालत में वापस लौटा। वे जो पैसे थे सब खर्च हो गए। न कहीं कोई हीरे की खदानें मिलीं, न कोई धनी हो पाया। भटक कर अपने घर वापस आ गया। लेकिन जिस दिन घर वापस आ गया, उसी दिन उसकी आंख खुली। वह हीरा जो बच्चों को खेलने दे गया था, इस चार-पांच साल की यात्रा में खदानें तो नहीं मिलीं, लेकिन हीरों की परख आ गई। हीरे-हीरे की धुन सवार रही। जौहरियों के पास बैठा, दुकानदारों के पास बैठा। हीरे देखे, हीरों की परख आ गई। हीरे तो नहीं मिले, मगर परख आ गई। और परख आ गई तो हीरे मिल गए, क्योंकि परख ही असली सवाल है। विश्वास ही न कर सका अपनी आंखों पर कि हीरा मेरे घर में है और मैं सारी दुनिया में खोजता रहा! फिर लाख उपाय किए कि खेत वापस मिल जाए, लेकिन अब खेत कैसे वापस मिले? खबर उड़ गई! उस खेत में सबसे बड़ी खदान है गोलकुंडे की।
निजाम, हैदराबाद के सम्राट के पास जितने हीरे थे, वे सब उसी खदान के हीरे थे। काफी हीरे थे। अभी भी हैं। जब निजाम हैदराबाद अपनी पूरी शान में थे तो उनके पास इतने हीरे थे कि हर वर्ष उन हीरों को धूप देने के लिए सात छतों पर फैलाना पड़ता था, सिर्फ धूप देने के लिए। फावड़ों से निकालना पड़ता था और फावड़ों से ही वापस कमरों में बंद करना पड़ता था। जैसे हीरे न हों, कंकड़-पत्थर हों। ये उसी गरीब किसान के खेत में सारे हीरे मिले।
तुम्हारी दशा भी उसी गरीब किसान जैसी है। वह जो तुम्हारे खेत में छोटा सा झरना बहता है कामवासना का, वहीं हीरों की खदानें हैं। परख चाहिए।
पहली बात स्मरण रखो: कामवासना परमात्मा की ही तलाश है। और इसीलिए कामवासना में तुम सदा पाओगे--कुछ कमी रह गई, कुछ कमी रह गई। क्योंकि तलाश परमात्मा की है, देह से कैसे राजी होओगे? अदेही प्रेम चाहिए। अदेही सौंदर्य चाहिए। मगर देह की सीढ़ी बनानी होगी।
तुम कहते हो: ‘एक तरफ सत्संग का प्रेम और परमात्मा से मिलन की चाहत और दूसरी तरफ भौतिक कामवासना की तरफ हर पल का झुकाव।’
इनको दो तरफ मत रखो, इन्हें एक साथ रखो। ये एक ही यात्रा के पड़ाव हैं।
‘आज प्रौढ़ावस्था तक उससे छुटकारा नहीं पा सका हूं।’
इसी गलत विवेचन के कारण छुटकारा नहीं मिला। जरा सा गलत विवेचन हो जाए, इंच भर की गलत भूल हो जाए कि हजारों मील का फासला हो जाता है सत्य से।
लेकिन तुम सोच रहे होओगे कि छुटकारा इसलिए नहीं मिला कि मैंने पूरी कोशिश नहीं की। छुटकारा इसीलिए नहीं मिला कि तुमने पूरी कोशिश की। तुमने खूब लड़ाई की अपने से। मगर लड़ाई से छुटकारा नहीं मिलता। बोध से, ध्यान से छुटकारा मिलता है।
और छुटकारा शब्द ठीक शब्द नहीं है, क्योंकि छुटकारे में यह भाव है ही कहीं कि गलत है। छुटकारा न कहो, अतिक्रमण कहो, पार जाना कहो।
‘समझ आती है तो अधूरी रहती है।’
वह समझ नहीं है। शास्त्रीय समझ है, अनुभवगत नहीं है।
‘और स्त्री के शरीर के अनेक अनुभवों के बावजूद भी वृत्ति और ज्यादा तंग करती है।’
स्त्रियों के शरीर के अनुभव से पुरुष मुक्त होता है, पुरुष के शरीर के अनुभव से स्त्री मुक्त होती है। सभी अनुभव मुक्तिदायी हैं। मगर अनुभव पूरा नहीं हो पाता, क्योंकि तुम भीतर लड़ रहे हो। तुम जब स्त्री को आलिंगन भी कर रहे हो, तब भी तुम सोच रहे हो कि अरे पापी, यह क्या कर रहा है! अरे नारकीय, यह क्या कर रहा है! सड़ेगा नरक में! वे तुम्हारे संत भीतर से उपदेश दे रहे हैं। वे बीच में खड़े हैं। वे डंडा लिए बीच में ही खड़े रहते हैं। वे तुम्हें मिलने नहीं देते। तुम भीतर निंदा कर रहे हो, कोस रहे हो अपने को। ऐसे कहीं समझ पैदा होगी? अधूरी-अधूरी होगी। और अधूरी समझ समझ नहीं है। समझ या तो पूरी होती है या नहीं होती। या तो नासमझ या समझ, इन दोनों के बीच में कोई पड़ाव नहीं है। तुम समझ को बांट नहीं सकते। तुम यह नहीं कह सकते कि अभी आधी समझ है। आधी समझ का क्या मतलब होगा? समझ काटी नहीं जा सकती खंडों में। समझ अखंड है।
लेकिन मैं जानता हूं तुम्हारी अड़चन क्या है। क्योंकि वही तो अड़चन सारी मनुष्यता की है। जब स्त्री के पास होते हो, तब तुम्हारे सारे संत-महंत भीतर स्त्री के विपरीत बोलने लगते हैं कि स्त्री नरक का द्वार है। ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी! बोलने लगे तुम्हारे सारे संत-महंत। और जब स्त्री से दूर होते हो, तब तड़फती है तुम्हारी वासना। तुम्हारी दुविधा मैं जानता हूं--न घर के, न घाट के। घाट पर होते हो, तब घर की याद आती है; जब घर होते हो, तब घाट की याद आती है। धोबी के गधे जैसी तुम्हारी अवस्था हो गई है।
और यह ऐसा है। जो चीज मिल जाती है उसमें पूरा रस नहीं ले पाते और जो नहीं मिलती वह मिलनी चाहिए, इसकी वासना सताती है। जब अभाव रहता है, तब मांग; और जब मिलती है कोई चीज, तब उसे पूरा जी नहीं पाते। इसलिए सब बंटा-बंटा रह गया है।
‘सब अच्छी कही हुई बातें और सिखावनें बाहर ही रह जाती हैं।’
रह ही जाएंगी। क्योंकि अच्छी बातें अगर बाहर से आती हैं तो बाहर ही रह जाएंगी। सिखावनें अगर औरों की हैं तो उधार हैं, बाहर ही रह जाएंगी। असली बात तो भीतर से आती है, जन्मती है भीतर। तुम्हारी बातें अच्छी, तुम्हारी नहीं हैं, किन्हीं औरों की हैं। तुमने उनको गोद ले लिया है। जैसे गोद ले लेते हैं न लोग। अब किसी ने किसी का बच्चा गोद ले लिया, गोद लेकर वह मां हो गई, गोद लेकर तुम पिता हो गए।
मगर क्या तुम समझते हो कि गोद लिया बच्चा सच में किसी को मां बना सकता है? क्योंकि मां बनने की अनिवार्य प्रक्रिया तो हुई ही नहीं। वह नौ महीने का गर्भ, वह नौ महीने की तकलीफें, वह नौ महीने का बोझ, वह उलटियां, भोजन का पचना नहीं, रात नींद का न आना, वह नौ महीने की पीड़ा कौन झेलेगा? मां बनना कोई मुफ्त में तो नहीं होता। उसके लिए कीमत चुकानी होती है। और जिस दिन बच्चा पैदा होता है उस दिन की पीड़ा असह पीड़ा है। गोद लेकर तो तुमने बड़ी होशियारी कर ली, सब झंझट से ही बच गए।
लेकिन ध्यान रखना, जिस दिन बच्चा पैदा होता है, उसके पैदा होने में ही दूसरी तरफ मां पैदा होती है। बच्चा अकेला ही पैदा नहीं होता। जब तक बच्चा नहीं था, तब तक वह स्त्री स्त्री थी, मां नहीं थी। जिस दिन बच्चा पैदा हुआ, उस दिन स्त्री में कुछ नया अंग जुड़ा, मां बनी। तो दो पैदा हुए उस दिन। एक तरफ बच्चा पैदा हुआ, एक तरफ मां पैदा हुई। फिर बच्चे का पालना, फिर बच्चे की सारी तकलीफें, फिर रात-रात जागना, फिर रात में दस बार जागना, फिर बच्चे को दूध देना, अपने प्राणों से बच्चे को जोड़े रखना, फिर बच्चे की सब तरह तीमार, सब तरह फिकर, वह सारा दान, वह सारा प्रेम, वह सारी करुणा--उस सबसे मिल कर मां बनती है। तुमने होशियारी की, तुमने गणित का काम किया, तुम सारी झंझट से बच गए। तुमने परखनली का शिशु ले लिया, कि तुम गए और किसी और का बच्चा उधार ले लिया।
ठीक ऐसी ही घटना ज्ञान के संबंध में भी घटती है। असली ज्ञान के लिए तो तुम्हें भीतर बहुत सी पीड़ाएं झेलनी पड़ती हैं, बहुत सी तपश्चर्याएं झेलनी पड़ती हैं, बहुत
से अनुभवों से गुजरना पड़ता है, निखरना पड़ता है, बहुत सी आग झेलनी पड़ती है। ज्ञान भीतर पैदा होता है। जैसे गर्भ, ऐसे ज्ञान भीतर पैदा होता है। ऐसा ज्ञान मुक्त करता है। ऐसे ज्ञान से तुम सच में ज्ञानी होते हो। एक तरफ ज्ञान जन्मता है, दूसरी तरफ ज्ञानी जन्मता है।
लेकिन तुमने उधार ले लिया है ज्ञान। अच्छी सिखावनें कहां से लाए हो? किताबों में पढ़ ली हैं। और हो सकता है जिन्होंने किताबों में लिखी हैं, उन्होंने और किताबों में पढ़ ली होंगी। उधारी पर उधारी चल रही है। धर्म नगद होता है। उधार धर्म धर्म नहीं होता।
इसलिए तुम्हारी अड़चन है, राधारमण। तुम कहते हो: ‘सब अच्छी कही बातें और सिखावनें बाहर ही रह जाती हैं।’
रह ही जाएंगी। बाहर की हैं, बाहर ही रह जाएंगी। भीतर जा भी कैसे सकती हैं? गोद लिया बच्चा गर्भ में जाएगा कैसे? गर्भ से आया हुआ बच्चा एक बात है। लेकिन अब तुम गोद लिए बच्चे को गर्भ में कैसे ले जाओगे? वह तो बाहर ही रहेगा। और बच्चे को चाहे पता चले न चले, तुम्हें तो सदा पता रहेगा कि अपना नहीं है। तुम्हें तो कैसे भूलेगी यह बात कि अपना नहीं है। इसे भुलाने का कोई उपाय नहीं है। तुम्हारे बीच और बच्चे के बीच एक फासला बना ही रहेगा। संबंध औपचारिक रहेगा। संबंध आत्मिक नहीं हो सकता।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं: ज्ञान की चिंता न करो, ध्यान की चिंता करो। ध्यान के गर्भ में ज्ञान का बच्चा जन्मता है। वह तुम्हारे भीतर जन्मेगा। और जब भीतर जन्मेगा तभी भीतर हो सकता है।
कहते हो: ‘बाहर की सारी सिखावनें बाहर रह जाती हैं और मैं वही का वही।’
वही के वही रहोगे। मगर ईमानदार आदमी हो। सच्ची बात कह रहे हो। लोग कहते ही नहीं हैं यह बात। और सच्ची बात कही है तो रास्ता खुल जाएगा। अब कुछ हो सकता है। बाहर की बातें बाहर ही रहेंगी। तुम वही के वही रहोगे। तुम्हारे भीतर क्रांति तो तब पैदा होगी जब भीतर का दीया जलेगा।
मैं तुमसे कहता हूं: भीतर का दीया जल सकता है। कोई कारण नहीं है। बुद्ध का जला, महावीर का जला, यारी का जला, तुम्हारा जल सकता है। हरेक व्यक्ति भीतर के दीये को लेकर पैदा हुआ है। लेकिन जलाने की प्रक्रियाएं सीखनी होंगी। सत्संग करना होगा। साहस करना होगा किसी जीवंत बुद्ध के साथ चलने का। संन्यस्त होना होगा। शिष्य बनना होगा।
और ध्यान रखना, असली गुरु ज्ञान नहीं सिखाता, असली गुरु ध्यान सिखाता है। और ज्ञान तुम्हारे भीतर पैदा होता है। नकली गुरु ज्ञान सिखाता है। और तब सब बातें बाहर की बाहर रह जाती हैं।
‘मैं वही का वही’--तुम कहते हो--‘सब भूल कर लोलुप हो जाता हूं। वासना मन को घेरे रहती है। स्वप्न में भी वही चलता है। किस क्रिया से छुटकारा या समता पा सकूं?’
छुटकारा तो नहीं। छुटकारे की तो भाषा छोड़ दो। अतिक्रमण! समता भी नहीं। अतिक्रमण! क्योंकि समता भी मुर्दा-मुर्दा होगी। किसी भांति शांत हो जाए यह आग वासना की। मगर यह आग बड़ी कीमती है, शांत इसे करना नहीं है। इसी आग के सहारे तो परमात्मा की अग्नि जलानी है। इसी चिंगारी से तो पूरे जंगल में आग लगेगी। इसे दबा नहीं देना है। इसे राख नहीं कर देना है। इसी चिंगारी में तो तुम्हारा भविष्य है, आशा है।
इसलिए छुटकारा नहीं, समता नहीं--अतिक्रमण। और अतिक्रमण का उपाय है: वासना में ध्यानपूर्वक जाओ, समग्ररूपेण जाओ। और अभी भी देर नहीं हो गई है। ऐसे तो देर हो गई है, मगर अब जो हुआ हुआ। अभी भी देर नहीं हो गई है। और सुबह का भूला सांझ भी घर आ जाए तो भूला नहीं कहलाता। अगर मरते-मरते क्षण तक भी वासना का अतिक्रमण हो गया तो समझना कि घर आ गए।
यह हो सकता है। भूले-भटके तुम ठीक जगह आ गए हो, जहां यह हो सकता है। लेकिन साहस तो करना होगा। सस्ते में नहीं होगा। तुम चाहो कि मेरी बातें सुन कर हो जाए, तो नहीं होगा। मैं जो कहता हूं, वह करोगे, तो हो सकता है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, प्रेम को अंधा कहा गया है, और आप प्रेम सिखाते हैं। प्रेम को पागलपन कहा है, और आप प्रेम सिखाते हैं। प्रेम को स्वप्न कहा गया है, और आप प्रेम सिखाते हैं। क्यों?
इसलिए कि न तो प्रेम अंधा है, और न प्रेम पागलपन है, और न प्रेम स्वप्न है; या प्रेम ऐसा अंधापन है जिसमें आंखें हैं, और प्रेम ऐसा पागलपन है जिसमें प्रज्ञा है, और प्रेम ऐसा स्वप्न है जिसमें सत्य छिपा है।
प्रेम इस जगत में सबसे महती घटना है। जो प्रेम से चूक गया वह सत्य से चूक जाएगा। प्रेम परमात्मा है। इसलिए प्रेम सिखाता हूं।
जहां तुझको बिठा कर पूजते हैं पूजने वाले
वो मंदिर और होते हैं, शिवाले और होते हैं
दहाने-जख्म से कहते हैं जिनको मरहबा बिस्मिल
वो खंजर और होते हैं, वो भाले और होते हैं
जिन्हें महरूमि-ए-तामीर ही अस्ले-तमन्ना है
वो आहें और होती हैं, वो नाले और होते हैं
जिन्हें हासिल है तेरा कुर्ब, खुशकिस्मत सही, लेकिन
तेरी हसरत लिए मर जाने वाले और होते हैं
जो ठोकर ही नहीं खाते, वो सब कुछ हैं, मगर वाइज
वो जिनको दस्ते-रहमत खुद सम्हाले, और होते हैं
तलाशे-शमअ से पैदा है सोजे-नातमाम ‘अख्तर’
खुद अपनी आग में जल जाने वाले और होते हैं
एक तो प्रार्थना है, पूजा है, जो प्रेमरहित है। वही चल रही है मंदिरों-मस्जिदों में, गुरुद्वारों में। एक और प्रार्थना है जो प्रेम से परिपूर्ण है, औपचारिक नहीं है; वही मैं तुम्हें सिखा रहा हूं।
जहां तुझको बिठा कर पूजते हैं पूजने वाले
वो मंदिर और होते हैं, शिवाले और होते हैं
यह वैसा मंदिर नहीं है, यह वैसा शिवालय नहीं है--जहां मंदिरों में पत्थर की मूर्तियां रख कर बिठा दी गई हैं और पूजा चल रही है; जहां परमात्मा मुर्दा है और जहां पूजा औपचारिक है।
जहां तुझको बिठा कर पूजते हैं पूजने वाले
वो मंदिर और होते हैं, शिवाले और होते हैं
दहाने-जख्म से कहते हैं जिनको मरहबा बिस्मिल
वो खंजर और होते हैं, वो भाले और होते हैं
जिन्हें महरूमि-ए-तामीर ही अस्ले-तमन्ना है
वो आहें और होती हैं, वो नाले और होते हैं
हाथ में औपचारिकता की थाली लेकर तुम जो अर्चना उतारते हो, पूजा करते हो, आरती उतारते हो--वे आवाजें परमात्मा तक नहीं पहुंचतीं। दीये जलाते हो घी के, हृदय के दीये कब जलाओगे? धूप जलाते हो बाजार से खरीद कर लाई गई, प्राणों की धूप कब जगमगाओगे?
जिन्हें महरूमि-ए-तामीर ही अस्ले-तमन्ना है
जिनको केवल एक ही आकांक्षा है कि परमात्मा मिल जाए!
वो आहें और होती हैं, वो नाले और होते हैं
कुछ ऐसी आह भरो! कुछ ऐसी आवाज उठाओ! कुछ ऐसी सदा दो! कुछ इस तरह पुकारो कि रोआं-रोआं सम्मिलित हो, कि कण-कण सम्मिलित हो, कि आवाज सिर्फ ओंठों की न हो, कि कंठ से ही न निकली हो, प्राणों के प्राण से आई हो। फिर पहुंचती है। फिर जरूर पहुंचती है। मगर वैसी आवाज तो प्रेम की ही आवाज होगी।
इसलिए मैं प्रेम सिखाता हूं, क्योंकि प्रेम ही तुम्हारी औपचारिकता में प्राण डाले। प्रेम ही तुम्हारे शिष्टाचार से तुम्हें छुटकारा दिलाए। परमात्मा से कोई शिष्टाचार का नाता नहीं है। लेकिन तुमने वहां भी शिष्टाचार का नाता बना लिया है। मंदिर में चले जाते हो और बड़ा शिष्ट व्यवहार करते हो। हंसोगे कब उसके साथ? गाओगे कब उसके साथ? नाचोगे कब उसके साथ? हाथ में हाथ उसका कब लोगे? चरण उसके कब गहोगे? ऐसे तो सिर तुमने बहुत पटका है, मगर भीतर तुम कहीं और थे। सिर पत्थर पर पड़ा है और भीतर तुम कहीं और थे। तुम अपने को कब चढ़ाओगे?
जिन्हें हासिल है तेरा कुर्ब, खुशकिस्मत सही, लेकिन
तेरी हसरत लिए मर जाने वाले और होते हैं
हां, प्रेम पागलपन है, क्योंकि मर जाने की हिम्मत देता है, मिट जाने की हिम्मत देता है। प्रेम परवाना बनाता है। और सिर्फ परवाने ही शमा को उपलब्ध हो पाते हैं। परमात्मा शमा है। मैं तुम्हें परवाना बनाता हूं। तुम्हें साहस देता हूं कि जाओ, जल मरो। क्योंकि उसी मिटने में तुम्हारा नया जन्म होगा।
जो ठोकर ही नहीं खाते, वो सब कुछ हैं, मगर वाइज
यह प्यारा वचन समझना! जो जीवन में भूल करते ही नहीं, वे ठीक हैं, अच्छे हैं, हे उपदेशक!
जो ठोकर ही नहीं खाते, वो सब कुछ हैं, मगर वाइज
वो जिनको दस्ते-रहमत खुद सम्हाले, और होते हैं
लेकिन मैं उन लोगों की बात कर रहा हूं जो गिरें तो परमात्मा का हाथ खुद उन्हें सम्हाले।
जो ठोकर ही नहीं खाते, वो सब कुछ हैं, मगर वाइज
अच्छे लोग हैं, ठोकर नहीं खाते, भूल नहीं करते, चूक नहीं करते, पाप नहीं करते, चोरी नहीं करते--लेकिन असली बात वहां नहीं है। असली बात तो वहां है कि अगर तुम ठोकर खाओ तो परमात्मा का हाथ तुम्हें सम्हाले। जब तक उसका हाथ सम्हालने को न आए, तब तक समझना तुम्हारी आवाज उस तक नहीं पहुंची। तुम्हीं अपने को सम्हाले रखो, यह अच्छी बात है, ठीक है, लेकिन कामचलाऊ है। तुम सज्जन हो जाओगे, संत नहीं हो पाओगे। सज्जन वह है जो खुद को सम्हाले रखता है। संत वह है जो परमात्मा पर सब छोड़ देता है और परमात्मा जिसे सम्हालता है।
जो ठोकर ही नहीं खाते, वो सब कुछ हैं, मगर वाइज
वो जिनको दस्ते-रहमत खुद सम्हाले, और होते हैं
तलाशे-शमअ से पैदा है सोजे-नातमाम ‘अख्तर’
खुद अपनी आग में जल जाने वाले और होते हैं
तो तुम ठीक ही कहते हो, मैं प्रेम सिखाता हूं। प्रेम एक अर्थ में अंधा है, क्योंकि दुनिया की भाषा नहीं बोलता प्रेम। प्रेम अंधा है, क्योंकि गणित नहीं जानता प्रेम। प्रेम अंधा है, क्योंकि प्रेम जुआरी है, दुकानदार नहीं है। और प्रेम पागलपन भी है। लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं: उससे बड़ी और कोई प्रज्ञा नहीं है। उससे बड़ी कोई और समझदारी नहीं है। क्योंकि जिन्होंने प्रेम किया उन्होंने परमात्मा पाया और जिन्होंने समझदारी रखी उन्होंने धन पाया, पद पाया। लेकिन धन और पद सब पड़े रह जाते हैं।
साज बे-मुतरिब-ओ-मिजराब नजर आते हैं
फिर भी नग्मे हैं कि बेताब नजर आते हैं
वही महफिल है, वही रौनके-महफिल, लेकिन
कितने बदले हुए आदाब नजर आते हैं
दुनिया कैसी बदल गई! अब यहां परवाने नहीं हैं। शमा तो वही है। शमा जली जाती है, परवानों का कोई पता ही नहीं है। लोगों ने हिम्मत खो दी। प्रेम में अंधे नहीं हो सकते, प्रेम में पागल नहीं हो सकते, प्रेम का स्वप्न भी नहीं देख सकते।
साज बे-मुतरिब...
इसलिए वीणा पड़ी है और उससे कोई संगीत नहीं उठता। संगीतज्ञ का ही कोई पता नहीं है, ऐसा बेहोश है संगीतज्ञ।
साज बे-मुतरिब-ओ-मिजराब नजर आते हैं
साजिंदा और वाद्य, सब खाली पड़े हैं।
फिर भी नग्मे हैं कि बेताब नजर आते हैं
लेकिन कुछ है जो प्रकट होना चाहता है।
परमात्मा अब भी गीत गाना चाहता है, मगर तुम वीणा को नहीं सम्हालते। परमात्मा अब भी तुम्हारे हृदय में गुनगुनाना चाहता है, मगर तुम हृदय नहीं खोलते। तुम बड़े समझदार हो गए हो। तुम बड़े भयभीत हो गए हो। तुम अपनी सुरक्षा में लगे हो। तुम समर्पण नहीं करते।
वही महफिल है, वही रौनके-महफिल, लेकिन
कितने बदले हुए आदाब नजर आते हैं
इसी महफिल में मीरा, इसी महफिल में यारी, इसी महफिल में सहजो, इसी में आ गए लोग, नाच गए लोग, पा गए लोग--और इसी महफिल में तुम कचरा इकट्ठा करते रहोगे!
वही महफिल है, वही रौनके-महफिल, लेकिन
कितने बदले हुए आदाब नजर आते हैं
क्या तमाशा है कि गुंचे तो हैं पजमुर्दा-ओ-जर्द
खार आसूदा-ओ-शादाब नजर आते हैं
कैसा तमाशा हो गया है! फूल तो मुरझाए हुए हैं, पत्ते तो पीले पड़ गए हैं, और कांटे खूब हरे हैं, खूब भरे हैं।
काफिला आज यह किस मोड़ पर आ पहुंचा है
अब कदम और भी बेताब नजर आते हैं
कल करेंगे यही तुगियाने-गुलेतर पैदा
आज जो आग के सैलाब नजर आते हैं
कल यही ख्वाब हकीकत में बदल जाएंगे
आज जो ख्वाब फकत ख्वाब नजर आते हैं
हां, प्रेम स्वप्न है, मगर ऐसा स्वप्न जो सत्य बन जाता है। बस प्रेम ही एकमात्र ऐेसा स्वप्न है, जो सत्य बन जाता है।
कल यही ख्वाब हकीकत में बदल जाएंगे
आज जो ख्वाब फकत ख्वाब नजर आते हैं
कौन सा मेहरे-दरख्शां है उभरने वाला
आईने दिल के शफकताब नजर आते हैं
मुस्कुराते हुए फर्दा के उफुक पर ‘अख्तर’
एक क्या सैकड़ों महताब नजर आते हैं
उग रहे हैं बहुत सूरज! तैयार हो जाओ। क्षितिज पर कुछ घटने को है।
मुस्कुराते हुए फर्दा के उफुक पर ‘अख्तर’
एक क्या सैकड़ों महताब नजर आते हैं
हर पच्चीस सौ वर्ष पूरे होने पर मनुष्य-जाति के जीवन में एक बड़े संक्रमण का क्षण आता है, क्रांति का क्षण आता है--हर पच्चीस सौ वर्ष बाद! कृष्ण के पच्चीस सौ वर्ष बाद बुद्ध। बुद्ध को फिर पच्चीस सौ वर्ष पूरे हो गए। और पता है, बुद्ध के समय में एक सैलाब आया था, एक बाढ़ आई थी सतपुरुषों की, बुद्धों की। ईरान में जरथुस्त्र, और यूनान में हेराक्लतु, पाइथागोरस, साक्रेटीज, और चीन में कनफ्यूशियस, लाओत्सु, च्वांगत्सु, लीहत्सु, मेनशियस, और भारत में बुद्ध, महावीर, संजय बेलट्ठीपुत्त, अजित केशकंबली, मक्खली गोशाल--अदभुत लोग हुए। जैसे सागर ने ऐसी ऊंचाई कभी न ली थी!
संसार का वर्तुल पच्चीस सौ वर्ष में एक चक्कर पूरा करता है। पच्चीस सौ वर्ष पूरे हो गए। इस सदी के ये अंतिम बीस-पच्चीस वर्ष अपूर्व हैं। तुम सौभाग्यशाली हो कि इस घड़ी में हो। अगर उपयोग कर लिया, तिर जाओगे। कभी-कभी ऐसा होता है, जब हवाएं ठीक दिशा में बहती हैं तो पतवार नहीं चलानी होती; सिर्फ पाल खोल दिए नाव के और हवाएं ले चलती हैं। हां, हवाएं अगर अनुकूल न हों तो फिर पतवार चलानी पड़ती है, फिर बड़ा श्रम करना पड़ता है। हवाएं बहुत प्रतिकूल होने के दिन हैं तो निश्चित ही बहुत श्रम करना होगा; और हवाएं अनुकूल हैं तो बिना श्रम के, सिर्फ समर्पण से घटना घट जाती है।
महफिल तो वही है, जहां अदभुत फूल खिलें! तुम भी फूल बन सकते हो। और समय बहुत अनुकूल करीब आ रहा है, रोज-रोज करीब आ रहा है। तैयारी करो!
साज बे-मुतरिब-ओ-मिजराब नजर आते हैं
फिर भी नग्मे हैं कि बेताब नजर आते हैं
वही महफिल है, वही रौनके-महफिल, लेकिन
कितने बदले हुए आदाब नजर आते हैं
क्या तमाशा है कि गुंचे तो हैं पजमुर्दा-ओ-जर्द
खार आसूदा-ओ-शादाब नजर आते हैं
काफिला आज यह किस मोड़ पर आ पहुंचा है
अब कदम और भी बेताब नजर आते हैं
कल करेंगे यही तुगियाने-गुलेतर पैदा
आज जो आग के सैलाब नजर आते हैं
कल यही ख्वाब हकीकत में बदल जाएंगे
आज जो ख्वाब फकत ख्वाब नजर आते हैं
कौन सा मेहरे-दरख्शां है उभरने वाला
आईने दिल के शफकताब नजर आते हैं
मुस्कुराते हुए फर्दा के उफुक पर ‘अख्तर’
एक क्या सैकड़ों महताब नजर आते हैं
एक अपूर्व घड़ी, एक सौभाग्य की घड़ी है--जागो। इस घड़ी का उपयोग कर लो! और उपयोग सिर्फ प्रेमी ही कर पाएंगे, इसलिए प्रेम सिखाता हूं।
तुम भी ठीक कहते हो कि प्रेम है अंधा, और आप प्रेम सिखाते हैं; प्रेम है पागलपन, और आप प्रेम सिखाते हैं; प्रेम है स्वप्न, और आप प्रेम सिखाते हैं! तुम भी ठीक कहते हो एक अर्थ में। तुम्हारे तथाकथित समझदार प्रेम को अंधा ही कहते हैं। सिर तो सदा प्रेम को अंधा कहता है, क्योंकि प्रेम हृदय का होता है, सिर का नहीं होता। खोपड़ी तो सदा प्रेम के विपरीत है, क्योंकि जब प्रेम आ जाता है, मालिक आ जाता है, तो खोपड़ी को नौकरी बजानी पड़ती है। जब तक मालिक घर में नहीं होता, नौकर मालिक होते हैं; जब मालिक घर में आ जाता है, नौकरों को तत्क्षण जी-हुजूर करना पड़ता है।
सिर तभी तक मालिक है, जब तक तुम्हारा हृदय सोया हुआ है। इसलिए सिर तो खिलाफत करेगा, सिर तो कहेगा: क्या पागलपन! क्या प्रेम, क्या प्रार्थना, क्या भक्ति? नहीं कोई परमात्मा है। कहां कोई प्रमाण है? किन व्यर्थ की बातों में पड़े जाते हो? सिर तो विरोध करेगा ही। उसकी तो सारी की सारी शक्ति निकल जाएगी। जैसे ही हृदय खिला, सिर शक्तिशाली नहीं रह जाता। जैसे ही प्रेम जगा, तर्क दो कौड़ी का हो जाता है।
लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं: मस्तिष्क मालिक की तरह बहुत खतरनाक है, सेवक की तरह बहुत बहुमूल्य है। मस्तिष्क को सेवक बनाओ, हृदय को मालिक बनने दो। और तब तुम्हारी जिंदगी ठीक दिशा में चलने लगेगी। दिशा तो हृदय दे, इशारा मंजिल का हृदय से मिले। और चलने की व्यवस्था मस्तिष्क करे। चलने के वाहन और चलने की विधियां मस्तिष्क खोजे। और हृदय निर्णय करे: कहां जाना है, किस दिशा में जाना है, क्या पाना है।
मस्तिष्क मूल्य नहीं दे सकता जीवन को; केवल यंत्र दे सकता है, तकनीक दे सकता है। जीवन के मूल्य तो हृदय से आते हैं।
इसलिए मैं प्रेम सिखाता हूं, यद्यपि तुम्हारा मस्तिष्क उसे अंधा कहेगा। मगर तुम मस्तिष्क की मत सुनना। क्योंकि मस्तिष्क की जिन्होंने सुनी उन्होंने जीवन को ऐसे ही गंवा दिया।
और निश्चित ही प्रेम पागलपन है, क्योंकि यहां जिनको तुम समझदार कहते हो उनकी समझदारी क्या है? कोई धन इकट्ठा करता है, कोई पद, कोई प्रतिष्ठा, और फिर मौत आती है और सब पड़ा रह जाता है। यह कौन सी समझदारी हुई? अगर यह समझदारी है तो प्रेम पागलपन है।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: प्रेम ही समझदारी है, क्योंकि प्रेम ऐसी संपदा कमाता है जिसको मौत छीन नहीं पाती। प्रार्थना में तुम ऐसे साम्राज्य के मालिक हो जाते हो जिस पर आंच ही न पड़ेगी। चिता पर जल जाएगी तुम्हारी देह और पड़ा रह जाएगा देह से तुमने जो कमाया था। लेकिन देह के भीतर जो है, देह के पार जो है, अदेही जो है, प्रेम उसे जान लेता है, पहचान लेता है। और उससे पहचान हो जाए तो तुम्हारा अमृत से संबंध जुड़ गया। और माना कि प्रेम स्वप्न है--अभी तो स्वप्न ही है, क्योंकि अभी तो तुम व्यर्थ की चीजों को यथार्थ समझ कर उनके पीछे दीवाने हो, इसलिए प्रेम स्वप्न है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: ऐसा स्वप्न, जो सत्य बन सकता है; ऐसा स्वप्न, जो तुम्हें सत्य के द्वार तक ले आए।
प्रेम करो। जितना कर सको उतना करो। बेझिझक, बेशर्त प्रेम करो। मनुष्यों से करो, पशुओं से करो, पक्षियों से करो, पौधों से करो, पत्थरों से करो। जितना कर सको करो। प्रेम को जितना लुटाओगे उतना ही परमात्मा को अपने निकट पाओगे। प्रेम सेतु है।
आज इतना ही।