YARI
Birhani Mandir Diyana Baar बिरहनी मंदिर दियना बार 01
First Discourse from the series of 10 discourses - Birhani Mandir Diyana Baar बिरहनी मंदिर दियना बार by Osho. These discourses were given during JAN 11-20 1979.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
बिरहिनी मंदिर दियना बार।
बिन बाती बिन तेल जुगति सों बिन दीपक उजियार।।
प्रानपिया मेरे गृह आयो, रचि-रचि सेज संवार।।
सुखमन सेज परमतत रहिया, पिया निर्गुन निरकार।।
गावहु री मिलि आनंद मंगल, यारी मिलि के यार।।
रसना राम कहत तें थाको।
पानी कहे कहुं प्यास बुझत है, प्यास बुझे जदि चाखो।।
पुरुष-नाम नारी ज्यों जानै, जानि बूझि जनि भाखो।।
दृष्टी से मुष्टी नहिं आवै, नाम निरंजन वाको।।
गुरु परताप साध की संगति, उलट दृष्टि जब ताको।।
यारी कहै सुनो भाई संतो, बज्र बेधि कियो नाको।।
दिल में नये अरमान बसाने का दिन आया
गुंचे की तरह दिल को खिलाने का दिन आया
फूलों की तरह हंसने-हंसाने का दिन आया
बादल की तरह झूम के छाने का दिन आया
मुस्कान की बरखा में नहाने का दिन आया
एक बुद्धपुरुष का जन्म इस पृथ्वी पर परम उत्सव का क्षण है। बुद्धत्व मनुष्य की चेतना का कमल है। जैसे वसंत में फूल खिल जाते हैं, ऐसे ही वसंत की घड़ियां भी होती हैं पृथ्वी पर, जब बहुत फूल खिलते हैं, बहुत रंग के फूल खिलते हैं, रंग-रंग के फूल खिलते हैं। वैसे वसंत आने पृथ्वी पर कम हो गए, क्योंकि हमने बुलाना बंद कर दिया। वैसे वसंत अपने आप नहीं आते, आमंत्रण से आते हैं। अतिथि बनाएं हम उन्हें तो आते हैं। आतिथेय बनें हम उनके तो आते हैं। प्रकृति का वसंत तो जड़ है, आता है, जाता है; लेकिन आत्मा के वसंत तो बुलाए जाते हैं तो आते हैं। हमने बुलाना ही बंद कर दिया। हमने प्रभु को पुकारना ही बंद कर दिया। पुकारते नहीं प्रभु को, आता नहीं प्रभु, तो फिर हम कहते हैं: प्रभु है कहां? प्रमाण क्या है उसका?
बिना बुलाए उसका कोई भी प्रमाण नहीं। बिना उसके आए उसका कोई भी प्रमाण नहीं। और जब आता है तो बाढ़ की तरह आता है। एक प्रमाण नहीं, अनंत प्रमाण लेकर आता है। स्वतःप्रमाण होकर आता है। जिस व्यक्ति ने भी कभी उसे पुकारा है, पुकार खाली नहीं गई है। यारी की पुकार भी खाली नहीं गई। यारी भी भर उठे--बड़ी सुगंध से! और लुटी सुगंध! उनके गीतों में बंटी सुगंध! और जब भी किसी व्यक्ति के जीवन में परमात्मा का आगमन होता है तो गीतों की झड़ी लग जाती है; उस व्यक्ति की श्वास-श्वास गीत बन जाता है। उसका उठना-बैठना संगीत हो जाता है। उसके पैर जहां पड़ जाते हैं, वहां तीर्थ बन जाते हैं।
ऐसे ही एक अदभुत व्यक्ति के साथ आज हम यात्रा शुरू करते हैं। यारी का जन्म हुआ दिल्ली में। नाम था: यार मोहम्मद। फिर मोहम्मद तो जल्दी ही खो गया। क्योंकि जिसे परमात्मा को पुकारना हो, वह हिंदू नहीं रह सकता, वह मुसलमान भी नहीं रह सकता, वह ईसाई भी नहीं रह सकता। परमात्मा को पुकारने के लिए कुछ शर्तें पूरी करनी पड़ती हैं। और पहली शर्त है--विशेषण छोड़ देने पड़ते हैं, आग्रह छोड़ देने पड़ते हैं, मंदिर और मस्जिद छोड़ देने पड़ते हैं। तभी तो खुद मंदिर बनोगे, खुद मस्जिद बनोगे। जब तक बाहर के मंदिर और मस्जिद को पकड़े रहोगे, याद ही न आएगी कि अपने भीतर भी एक मंदिर था। और उस मंदिर में न कभी दीप जले, और उस मंदिर में न कभी धूप जली। उस मंदिर में कभी नाद न हुआ। अपने भीतर भी एक मस्जिद थी, जिसमें कभी अजान न उठी, जिसमें कभी नमाजें न पढ़ी गईं, जहां अंधेरा था तो अंधेरा ही रहा।
बाहर के मंदिर-मस्जिदों में जो भटका है, वह भीतर के असली मंदिर और मस्जिद से वंचित रह जाएगा। जिसने नजर बाहर रखी, वह कभी परमात्मा को नहीं पा सकेगा। और धन को खोजने वाले भी बाहर खोजते हैं, और ध्यान को खोजने वाले भी बाहर खोजते हैं। धन के खोजने वालों को क्षमा किया जा सकता है, ध्यान के खोजने वालों को क्षमा नहीं किया जा सकता। धन तो बाहर है, ध्यान तो बाहर नहीं है। पद खोजते हो, प्रतिष्ठा खोजते हो; बाहर ही खोजनी पड़ेगी। परमात्मा खोजना है तो भीतर खोजना पड़ेगा। और भीतर कोई हिंदू है? कि भीतर कोई मुसलमान है? कि भीतर कोई ईसाई है? कि कोई जैन है? कि कोई बौद्ध है? कि कोई सिक्ख है? कि पारसी है? भीतर तो तुम निर्मल हो, निराकार हो। भीतर तो तुम विशेषणरहित हो--न तुम ब्राह्मण, न तुम शूद्र; न तुम स्त्री, न तुम पुरुष; न तुम गोरे, न तुम काले। भीतर तो तुम बच्चे भी नहीं, जवान भी नहीं, बूढ़े भी नहीं। भीतर तो तुम शाश्वत हो, समयातीत हो, कालातीत हो। और भीतर का ही स्वाद मिले तो परमात्मा का स्वाद मिले।
सो जल्दी ही यार मोहम्मद का मोहम्मद कहां खो गया, पता नहीं! अब तो लोग अनुमान लगाते हैं कि यार मोहम्मद नाम रहा होगा। यह अनुमान है, ऐतिहासिक कोई प्रमाण नहीं। ऐसा ही होता है। ये तो बाहर के रंग हैं। यह तो एक उसकी वर्षा का झोंका आया कि ये रंग बह जाएंगे। शिष्य थे वीरू फकीर के। वीरू मुसलमान नहीं हैं। वीरू तो जन्मे थे हिंदू घर में। लेकिन जब कोई ज्योति जलती है तो सब तरह के दीवाने चले आते हैं, भांति-भांति के परवाने चले आते हैं! उस मदमस्ती में कौन देखता है--कौन हिंदू, कौन मुसलमान? वीरू खुद एक मुसलमान फकीर स्त्री के शिष्य थे--बावरी साहिबा के।
संतों का जगत कुछ और ही है। वहां बाहर के भेदों का कोई मूल्य नहीं। यह स्त्री, बावरी साहिबा भी बड़ी अदभुत स्त्री थी। स्त्रियां तो थोड़ी ही हुई हैं जो अंगुलियों पर गिनी जा सकें, उनमें बावरी भी एक है। उसका तो नाम भी पता नहीं। ऐसी पागल हुई प्रभु के प्रेम में कि बस इतनी ही याद रह गई है कि बावरी थी, कि दीवानी थी, कि पागल थी। बावरी थी मुसलमान--संस्कारगत, जन्मगत। शिष्य थे वीरू--जन्मगत, संस्कारगत हिंदू। प्रशिष्य थे यारी साहब, फिर मुसलमान। ऐसे यारी में दो धाराओं का मिलन हुआ। ऐसे यारी में संगम हुआ। और यारी के वचनों में जगह-जगह उस संगम की झलक मिलेगी।
पहले मोहम्मद गया; फिर यार थे, यार से यारी हो गए। वह बात भी समझ लेनी चाहिए। यार का अर्थ होता है--मित्र; यारी का अर्थ होता है--मैत्री, मित्रता। जब अहंकार खो जाए तो मित्र मैत्री हो जाता है, मित्र मित्रता हो जाता है। जब अहंकार खो जाए तो फूल खो जाता है, सुवास रह जाती है। फिर तुम पकड़ नहीं सकते इस सुवास को, मुट्ठी में बांध नहीं सकते इस सुवास को। न उसका कोई रूप है, न रंग है। ऐसी ही मैत्री है।
बुद्ध ने तो कहा है कि बुद्धपुरुष कल्याण-मित्र होते हैं। यारी एक कल्याण-मित्र हैं।
मगर एक और अनूठी बात कि यारी से यार शब्द भी खो गया। मित्र में भी थोड़ी सी सीमा है। मित्रता असीम है। मित्र में केंद्र है, कहीं छिपा मैं है। मित्रता में मैं तो गया, बिलकुल गया! प्रेम अपनी परिशुद्धि में प्रकट होता है। मित्रता और मैत्री में भी थोड़ा फर्क है। मित्रता होती है दो व्यक्तियों के बीच; एक संबंध है मित्रता। मैत्री संबंध नहीं है, समाधि की अवस्था है। मैत्री, दूसरा न भी हो तो भी चलती है, तो भी बहती है। मित्रता के लिए दूसरा जरूरी है, मैं और तू का नाता जरूरी है। मित्रता में द्वैत शेष रहता है। मैत्री में द्वैत भी अशेष हो जाता है।
मैत्री का अर्थ है: वृक्ष हो तो, चट्टान हो तो, आकाश में बादल हो तो, कोई भी न हो तो, तो भी सुवास उड़ती रहती है; तू से नहीं बंधी है। जब मैं ही न रहा तो तू कैसे रहेगा? मैं और तू तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इधर गया मैं, उधर गया तू। तब एक सहज प्रेम का प्रवाह रह जाता है--निरुद्देश्य, किसी पते पर निवेदित नहीं। प्रेम की पाती तो लिखी जाती है, लेकिन किसी पते पर नहीं। और जब तुम बिना किसी पते के प्रेम की पाती लिखते हो तो परमात्मा तक पहुंचती है।
मैत्री मित्रता की पराकाष्ठा है। छूट गए सीमाओं के बंधन, गिर गईं जंजीरें, मैत्री ने पंख फैला दिए, उड़ गई आकाश में! प्रेम का चरम रूप है। इसलिए नाम प्यारा है! यार मोहम्मद से रह गए यार; फिर यार भी खो गया, बची यारी। और इसलिए मैं कहता हूं:
दिल में नये अरमान बसाने का दिन आया
गुंचे की तरह दिल को खिलाने का दिन आया
फूलों की तरह हंसने-हंसाने का दिन आया
बादल की तरह झूम के छाने का दिन आया
मुस्कान की बरखा में नहाने का दिन आया
गिरने देना यारी के वचनों को जैसे वर्षा की बूंदाबांदी हो। घिरने देना उनके मेघ को तुम्हारे ऊपर! नहा लेना! यही वस्तुतः गंगा का स्नान है। संतों की वाणी बरस जाए तुम पर तो देह ही नहीं शुद्ध हो जाती, प्राणों के प्राणों तक भी शुद्धि पहुंच जाती है। तन ही नहीं नहा लेता, मन ही नहीं नहा लेता, तन और मन के पीछे छिपा हुआ साक्षी भी सारी धूल झाड़ कर उठ बैठता है। नींद टूट जाती है। और तुम्हारे भीतर जो कली न मालूम कितने दिन से बे-खिली पड़ी थी, खिल उठती है। खिले हुए फूलों के संग-साथ का यही तो अर्थ है। खिले हुए फूलों के संग-साथ का यही तो प्रयोजन है कि तुम्हें भी याद आ जाए कि तुम भी खिलने को आए थे यहां और बिना खिले मत लौट जाना। तुम्हें भी याद आ जाए कि खिलना तुम्हारी भी क्षमता है, तुम्हारा भी स्वभाव है।
ऐसे करना यारी का सत्संग!
सूत्र: ‘बिरहिनी मंदिर दियना बार।’
हम सब विरह में हैं, हमें पता हो या न पता हो। बीमार तो बीमार है, बीमार को पता हो या न पता हो। बीमारी महीनों चलती है; और जब तक कोई चिकित्सक न मिल जाए, ठीक-ठीक निदान भी नहीं हो पाता कि बीमारी क्या है। नहीं मिला था चिकित्सक तो भी बीमारी तो चलती थी।
रूस में एक बड़े वैज्ञानिक किरलियान ने एक नये किस्म की फोटोग्राफी का आविष्कार किया है, जिसमें बीमारी के आने के छह महीने पहले बीमारी का पता चल जाता है। बीमार होने के छह महीने पहले! अभी बीमार को भी छह महीने बाद पता चलेगा। और बीमार को भी पता चलते-चलते जब महीने, दो महीने बीत जाएंगे, तब वह चिकित्सक के पास जाएगा। लेकिन किरलियान फोटो से छह महीने पहले पता चल जाता है कि किस तरह की बीमारी, किस भांति की बीमारी पकड़ने वाली है। कहीं बीमारी ने पकड़ ही लिया है किसी गहरे तल पर। उस गहरे तल से आते-आते तुम्हारे चेतन तक, अचेतन से चेतन की यात्रा करते-करते समय लगेगा। फिर कुछ दिन तो तुम टालोगे। कुछ दिन तो तुम मन समझा लोगे कि यों ही होगा, कि सर्दी-जुकाम है, कि सिरदर्द है, कि थकान है, कि काम ज्यादा है, कि कल रात ठीक से सो नहीं पाए। टालते रहोगे कुछ बहाने खोज कर। और कुछ बीमारियां तो ऐसी हैं कि आदमी जिंदगी भर टाल सकता है। और कुछ बीमारियां तो इतनी सूक्ष्म हैं कि टालने की जरूरत ही नहीं पड़ती, पता ही नहीं चलता है। उतनी सूक्ष्म बुद्धि ही कम लोगों के पास है। उतनी प्रकीर्ण संवेदनशीलता ही बहुत कम लोगों के पास है।
फिर शरीर की बीमारियों की बात हुई यह तो; मन की बीमारियां और भी गहरी हैं। मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि चार में से तीन लोग मानसिक रूप से बीमार हैं। चार में से तीन तो बड़ी संख्या हो गई! और मनोवैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि चौथा स्वस्थ है, यह भी हम गारंटी से नहीं कह सकते। तीन तो निश्चित बीमार हैं, चौथा संदिग्ध है।
यह तो खूब बात हुई! इसका तो अर्थ हुआ कि सारी मनुष्यता बीमार है! और यह तो मन की बीमारी की बात है; फिर उसके गहरे आत्मा की बीमारी है। जब मन में चार में से तीन बीमार हैं और चौथा संदिग्ध है, तो आत्मा के संबंध में तो निश्चित मानो कि चारों बीमार हैं और चारों की बीमारी सुनिश्चित है। उस बीमारी का नाम विरह है।
विरह का अर्थ होता है: हमें अपनी जड़ें भूल गई हैं; हमारा परमात्मा से संबंध टूट गया है। हम जिसमें हैं, उसका ही हमें पता भूल गया है। जो हमारी श्वासों की श्वास है, जो हमारे प्राणों का प्राण है, उससे हमारे सेतु छिन्न-भिन्न हो गए हैं। जो हमारा आनंद बनेगा, उसकी ही तरफ हमने पीठ कर ली है। और जो हमें शाश्वत जीवन का द्वार खोलेगा, हम उस द्वार से विपरीत भागे जा रहे हैं। हम धन की तलाश में हैं, ध्यान की तलाश में नहीं। धन बाहर है, बहुत दूर है; क्षितिज की भांति है; भागते रहो, भागते रहो, कभी मिलता नहीं। और ध्यान भीतर है; भागो तो नहीं मिलता, रुक जाओ तो मिल जाता है, ठहर जाओ तो मिल जाता है। और हम सब भाग रहे हैं। और हर भाग-दौड़ हमें अपने से ही दूर लिए जा रही है, अपने ही स्रोत से दूर लिए जा रही है।
जैसे कोई वृक्ष भागने लगे। बस फिर दुर्दिन आए! क्योंकि जड़ें उखड़ जाएंगी। और जहां प्राणों के स्रोत थे, जहां जलस्रोत थे, जिस भूमि से भोजन मिलता था, उससे नाते छिन्न-भिन्न हो जाएंगे। जैसे कोई वृक्ष आवारा हो जाए, घुमक्कड़ हो जाए, खानाबदोश हो जाए, तो क्या खाक जीएगा! जल्दी ही हरियाली खो जाएगी। जल्दी ही पत्ते झड़ जाएंगे। कलियां फूल तो न बनेंगी, कलियों की तरह ही झड़ जाएंगी और धूल में मिल जाएंगी। फूल फिर कभी न खिलेंगे। वसंत तो आता रहेगा, जाता रहेगा; मगर इस वृक्ष के जीवन में फिर कोई वसंत से संबंध न होगा। और वर्षा भी आएगी, और बादल भी घिरेंगे, और मेघ भी बरसेंगे, लेकिन इस वृक्ष पर अब हरी पत्तियां न फूटेंगी, अब नये कलगे न निकलेंगे। यह वृक्ष तो रूखा-सूखा, मुर्दा, अस्थिपंजर मात्र, सब तरफ से उद्विग्न, विक्षिप्त भटकता रहेगा। ऐसे हम हो गए हैं। ऐसा मनुष्य हो गया है।
विरह का अर्थ है: जिसके साथ हमारे जीवन का सारा सार है, उससे ही हम टूट गए हैं। जो हमारे प्राणों का प्राण है, जो हमारा प्यारा है, उससे ही हम विमुख हो गए हैं।
सम्मुख हो जाओ। उसकी तरफ आंखें उठाओ। उससे गले लग जाओ। उसमें डूबो। और उसमें डूब कर ही तुम पाओगे कि तुमने अपने को बचा लिया। और अपने को जो बचाएंगे, वे अंततः पाएंगे कि बुरी तरह डूबे, बुरी तरह टूटे, बुरी तरह मिटे! बचे तो नहीं, सब गंवा बैठे।
ऐसे लोग जो परमात्मा के विपरीत जीते हैं, खाली हाथ ही आते हैं और खाली हाथ ही जाते हैं। और भी ज्यादा खाली हाथ जाते हैं। वे लोग जो परमात्मा में जीते हैं, वे भरे-भरे जीते हैं। उनकी जिंदगी में एक परितोष होगा, एक अपूर्व आनंद होगा, एक उत्सव होगा। उनसे गीत फूटेंगे, उनसे नृत्य उमगेंगे। उनके पैरों में घूंघर बंधेगी। पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे! वे थोड़े से मतवाले लोग ही जीवन के रहस्य को पहचान पाते हैं, और जीवन के रस को पी पाते हैं। और जीवन का रस अमृत है; जिसने पी लिया, उसकी फिर कोई मृत्यु नहीं। और जो बिना पीए रह गया, उसका कोई जीवन नहीं। झूठा ही जीता है वह। ऐसे ही ऊपर-ऊपर जीता है वह। उसका जीवन नपुंसक है। उसमें कोई ऊर्जा नहीं है।
बिरहिनी मंदिर दियना बार।
यह तुमसे कहा है। यह सबसे कहा है। उन सबसे कहा है जो परमात्मा के विपरीत जी रहे हैं और विरह में तड़प रहे हैं। समझ में भी नहीं आता कि विरह किस बात का है! ऐसा लगता तो है, आभास तो होता है कि कुछ खोया-खोया है; कुछ जो होना था, नहीं हुआ है। ऐसी कुछ-कुछ झलक तो मिलती है, लेकिन बड़ी धुंधली-धुंधली, आभास मात्र; अनुमान सा लगता है। अंधेरे में देखा हो जैसे, ऐसा प्रतीत होता है। और उसी आभास के कारण हम और भी तेजी से दौड़ने लगते हैं, कि जरूर कुछ खोया है और पाना है। मगर जो खोया है वह भीतर खोया है; और दौड़ते हम बाहर हैं। जितना दौड़ते हैं, उतने ही दूर निकल जाते हैं--उससे जिसे पाना है।
इस दुनिया में जो बहुत सफल हो जाते हैं, ध्यान रखना, उनकी सफलता महंगी बात है। क्योंकि जितने वे सफल हो जाते हैं इस दुनिया में--धन पाने में, पद पाने में, प्रतिष्ठा पाने में--उतने ही असफल हो जाते हैं अपने अंतर्लोक में। इधर धन के ढेर लग जाते हैं, उधर भीतर दरिद्रता के ढेर लग जाते हैं। इधर बाहर पद ऊंचे से ऊंचा होने लगता है, भीतर खाई गहरी से गहरी होने लगती है। इधर बाहर प्रतिष्ठा मिलने लगती है, सम्मान मिलने लगता है, भीतर दीनता कांटे की तरह चुभने लगती है।
बिरहिनी मंदिर दियना बार।
मंदिर से अर्थ है तुम्हारी देह से। क्योंकि इसी मंदिर में तो परमात्मा विराजमान है। कहां भागे जाते हो? किसे खोजने निकले हो? अनंत से तो खोज रहे हो, मिला नहीं। जरूर कोई बुनियादी चूक हो रही है। जो भीतर हो, उसे बाहर खोजोगे तो कैसे पाओगे? मंदिर हो तुम!
और तुम्हारे तथाकथित पंडित-पुरोहित तुम्हारी देह की निंदा में संलग्न हैं। सदियों से उनका एक ही काम है कि तुम्हारी देह की निंदा करें, कि तुम्हें देह का शत्रु बनाएं, कि तुम्हें बताएं कि देह के कारण ही तुम परमात्मा से टूटे हो।
झूठी यह बात है, सरासर झूठी यह बात है, सौ प्रतिशत झूठी यह बात है। तुम्हारी देह परमात्मा के विपरीत नहीं है। तुम्हारी देह को तो परमात्मा ने अपना आवास बनाया है। तुम्हारी देह मंदिर है, पूजा का स्थल है, काबा है, काशी है! तुम्हारी देह को दबाना मत, सताना मत। तुम्हारी देह को तोड़ने में मत लग जाना। हालांकि यही तुम्हें सिखाया गया है, यही जहर तुम्हें पिलाया गया है। दूध के साथ, घुट्टी के साथ तुम्हें यह जहर पिलाया गया है कि देह पाप है। और जिसको यह समझ में आ गई बात, जिसके भीतर यह बात बहुत गहराई में बैठ गई, यह नासमझी कि देह पाप है, वह परमात्मा से कभी भी न मिल सकेगा। क्योंकि देह से डरा-डरा बाहर-बाहर रहेगा और देह के भीतर तो प्रवेश कैसे करेगा? पाप में कहीं प्रवेश किया जाता है!
देह उसकी भेंट है, पाप नहीं। देह पुण्य है, पाप नहीं। देह पवित्र है, अपवित्र नहीं। देह का सम्मान करो। देह का सत्कार करो। और तभी तो तुम प्रवेश कर पाओगे। देह से मैत्री बनाओ, यारी साधो! और धीरे-धीरे देह में भीतर सरको।
योग तैयार करता है तुम्हारी देह को, ताकि तुम भीतर सरक सको; तुम्हारे देह के द्वार खोलता है। और ध्यान तुम्हें देह के भीतर बैठने की कला सिखाता है। और जिसने देह के द्वार खोल लिए योग से और जिसने ध्यान से भीतर बैठने की कला सीख ली, पा लिया उसने परमात्मा को! सदा परमात्मा ऐसे ही पाया गया है।
...मंदिर दियना बार।
आत्म-ज्योति भीतर जलानी है। यह दीया तुम्हारी देह में जलना है। जलाना है, कहना शायद ठीक नहीं--जल ही रहा है, पहचानना है, प्रत्यभिज्ञा करनी है।
रंग है जिसमें मगर बू-ए-वफा कुछ भी नहीं,
ऐसे फूलों से न घर अपना सजाना हरगिज।
दिल तुम्हारा है वफाओं की परस्तिश के लिए,
इस मोहब्बत के शिवाले को न ढाना हरगिज।
यह तुम्हारी देह, यह तुम्हारा दिल धड़कता है जो भीतर, इसी के अंतरतम में परमात्मा विराजमान है। तुम झूठे फूलों में भटके हो, जब कि सच्चा फूल तुम्हारे भीतर खिलने को राजी है। तुम्हारी झील में नीलकमल खिलने को राजी है; और तुम मांगते फिरते हो प्लास्टिक के फूलों को! बाजारों में खरीद रहे हो कागज के फूलों को!
रंग है जिसमें मगर बू-ए-वफा कुछ भी नहीं,
ऐसे फूलों से न घर अपना सजाना हरगिज।
दिल तुम्हारा है वफाओं की परस्तिश के लिए,
इस मोहब्बत के शिवाले को न ढाना हरगिज।
उतरो देह की सीढ़ियों से, पाओगे हृदय को। वह तुम्हारा अंतरगृह है। फिर उतरो हृदय की सीढ़ियों से और तुम पाओगे उस अमृत के स्रोत को--जिसके बिना जीवन उदास है, जिसके बिना जीवन संताप है, जिसके बिना जीवन विषाद है!
बिरहिनी मंदिर दियना बार।
ऐ विरही लोगो! अपने घर में आत्म-ज्योति को जलाओ, या जलती आत्म-ज्योति को पहचानो।
कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल, कब रात बसर होगी
सुनते थे वह आएंगे, सुनते थे सहर होगी
कब जान लहू होगी, कब अश्क गुहर होगा
किस दिन तेरी शनवाई ऐ दीदा-ए-तर होगी
कब महकेगी फस्ले-गुल, कब बहकेगा मयखाना
कब सुब्हे-सुखन होगी, कब शामे-नजर होगी
वाइज है न जाहिद है, नासेह है न कातिल है
अब शहर में यारों की किस तरह बसर होगी
दुनिया बड़ी सूनी हो गई है। दुनिया बड़ी सूनी है! अब नहीं मिलते यारी जैसे लोग। दुनिया बड़ी उदास है। आदमियों की भीड़ बढ़ती गई है और आदमी खोता गया है। आदमियों की भीड़ बढ़ती गई है और आत्मा खोती गई है। अब नहीं मिलते वे प्यारे लोग, या बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। कभी गांव-गांव उनके दीये जलते थे। कभी बस्ती-बस्ती उनकी रोशनी से रोशन थी। इस जमीन ने बड़े प्यारे फूल उगाए हैं!
क्यों ऐसा हो गया? अब प्यारे फूल क्यों नहीं उगते? झाड़ियां अब भी हैं, मगर गुलाब के फूलों के दर्शन नहीं होते। कहीं कोई बुनियादी चूक हमारे दृष्टिकोण में हो गई है। हम ज्यादा से ज्यादा बहिर्मुखी हो गए हैं। और अब तो बहिर्मुखता की हद आ गई! अब तो इस हद के आगे गए तो मौत है। इस हद के आगे गए तो आदमियत समाप्त है। अब तो लौट पड़ना होगा। अब तो फिर खोए खजाने खोजने होंगे।
कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल, कब रात बसर होगी
सुनते थे वह आएंगे, सुनते थे सहर होगी
सदियों-सदियों तक लोगों ने परमात्मा की प्रतीक्षा में दिन और रातें बिताई थीं। अब तो याद भी नहीं आती! अब तो परमात्मा हमारी जिंदगी का हिस्सा ही नहीं है। अब तो हम परमात्मा शब्द का भी उपयोग करते हैं तो औपचारिक ढंग से करते हैं। अब उसमें अर्थ नहीं रह गया है, क्योंकि अर्थ हम डालते ही नहीं हैं तो उसमें अर्थ आएगा कहां से? शब्दों में अर्थ नहीं होते, अर्थ तो जीवन से डालने होते हैं।
कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल, कब रात बसर होगी
कब टूटेगी यह रात? और दिल की ये बेचैनियां और दिल के ये दुख भरे क्षण कब समाप्त होंगे?
सुनते थे वह आएंगे, सुनते थे सहर होगी
सुनते रहे हैं, सुनते रहे हैं कि सुबह होगी, सुबह होगी; होती मालूम नहीं होती। अंधेरा सघन से सघन होता जाता है।
कब जान लहू होगी, कब अश्क गुहर होगा
कब आएगा वह क्षण जब आंसू मोती बन जाते हैं?
सच, आंसू मोती बन जाते हैं! जो परमात्मा की राह पर रोता है, उसके आंसू मोती बन जाते हैं। आदमी की राह पर जो चलता है, उसके तो मोती भी आंसुओं से बदतर हैं। यहां तो धन भी पा लो तो निर्धनता ही हाथ लगती है। यहां तो मोती भी आज नहीं कल पता चलते हैं कि बस दो कौड़ी के थे। मगर एक और राह भी है।
कब जान लहू होगी, कब अश्क गुहर होगा
किस दिन तेरी शनवाई ऐ दीदा-ए-तर होगी
और कब तेरे दर्शन होंगे? उसके दर्शन होते ही तुम्हारी साधारण आंखें असाधारण दृष्टियों में बदल जाती हैं; तुम्हारी साधारण देह दीप्त हो उठती है। तुम्हारी देह फिर मिट्टी की नहीं रह जाती, आकाश की हो जाती है। फिर जमीन की कशिश तुम्हें नीचे नहीं खींच पाती, फिर आकाश का प्रसाद तुम्हें ऊपर उठा लेता है।
कब महकेगी फस्ले-गुल...
कब आएगा वसंत? कब खिलेंगे फूल? कब उठेगी महक?
कब महकेगी फस्ले-गुल, कब बहकेगा मयखाना
कब हम नाचेंगे दीवाने होकर? क्योंकि जो नहीं नाचा दीवाना होकर, वह व्यर्थ ही आया और व्यर्थ ही गया। जब तक पृथ्वी मयखाना न हो जाए, जब तक तुम्हारा जीवन मस्ती की एक लहर न हो जाए, जब तक तुम्हारी श्वास-श्वास में परमात्मा की शराब की सुगंध न आने लगे--तब तक जानना कि व्यर्थ ही जीए हो, तब तक जानना कि अभी यात्रा ने ठीक मोड़ नहीं लिया है।
कब महकेगी फस्ले-गुल, कब बहकेगा मयखाना
कब सुब्हे-सुखन होगी, कब शामे-नजर होगी
कब होगी वह प्यारी प्रभात जब सूरज उगेगा? कब आएगी वह सांझ विश्राम की, परम विश्राम की?
वाइज है न जाहिद है, नासेह है न कातिल है
अब शहर में यारों की किस तरह बसर होगी
अब तो यहां प्रेमियों का रहना मुश्किल हो गया। अब तो यहां भक्तों का जीना मुश्किल हो गया। अब तो यहां संतों की संभावना ही क्षीण होती चली जाती है। यह हमने कैसी दुनिया बना ली! यह हमने आदमी को कैसी शक्ल दे दी! और परिणाम क्या है? परिणाम यही है कि चारों तरफ एक गहन हताशा है। परिणाम यही है कि चारों तरफ दिलों ने धड़कना बंद कर दिया है। आंखों में मस्ती नहीं है। प्राणों में कोई गीत नहीं है। पैरों में कोई नृत्य नहीं है। परिणाम यही है कि थके-मांदे, किसी तरह धक्के खाते भीड़ के, हम अपनी कब्रों की तरफ बढ़े जाते हैं। कहीं कोई तारा नहीं दिखाई पड़ता, दूर आकाश में भी कोई तारा नहीं दिखाई पड़ता।
तारों ही तारों से भर जाता है आकाश, बस भीतर की ज्योति दिखाई पड़ जाए पहले। वहीं से शुरू होती है ठीक-ठीक यात्रा। जिसने भीतर ज्योति देखी, उसे चारों तरफ ज्योतिर्मय के दर्शन होने लगते हैं।
बिरहिनी मंदिर दियना बार।
इसलिए यारी कहते हैं: एक काम कर लो। तुम्हारा विरह मुझे छूता है, तुम्हारा दुख मुझे छूता है। तुम्हें मैं कुंजी देता हूं:
बिरहिनी मंदिर दियना बार।
बिन बाती बिन तेल जुगति सों बिन दीपक उजियार।
मैं तुम्हें एक ऐसी युक्ति देता हूं। एक ऐसा चमत्कार तुम्हारे भीतर घट सकता है; क्योंकि मेरे भीतर घटा है। जो एक के भीतर घटा है, सबके भीतर घट सकता है। बिन बाती बिन तेल! वहां भीतर एक ज्योति जलती है; उसमें तेल नहीं डालना पड़ता, उसमें बाती नहीं लगानी पड़ती। वहां कोई दीपक भी है, यह कहना ठीक नहीं; मगर उजियारा बहुत है, रोशनी बहुत है। जिन दीयों में तेल भरना पड़ता है, वे तो बुझ जाएंगे, आज नहीं कल बुझ जाएंगे, तेल चुकेगा और बुझ जाएंगे। जिनकी बाती लगानी पड़ती है, बाती जल जाएगी और बुझ जाएंगे। जिन्हें दीयों की जरूरत पड़ती है--मिट्टी के दीये हैं, कभी भी टूट जाएंगे। एक ऐसी ज्योति खोजनी है...और वह ज्योति हमारा स्वरूप-सिद्ध अधिकार है; हम ही हैं वह ज्योति--न जहां तेल है, न बाती है, न दीया है, और उजियारा बहुत!
मगर तुमने तो भीतर आंख फेरनी ही बंद कर दी। तुम्हारी आंखें तो बाहर ऐसी अटक गई हैं कि भूल ही गई हैं कि भीतर भी एक लोक है। दौड़े चले जाते हो! बाहर की चीजों में बहुत चमक मालूम पड़ती है। बहुत चौंधियाए हुए हो!
बिन बाती बिन तेल जुगति सों बिन दीपक उजियार।
यह अपूर्व घटना घटती है साधक को। और जिस दिन यह घटती है उस दिन ही परमात्मा का रहस्य पहली दफा अनुभव में आता है--रहस्यों का रहस्य--कि हमारे भीतर एक शाश्वत उजियाला है, जो जन्म के पहले भी था और मृत्यु के बाद भी रहेगा! और ऐसा उजियाला, जिसका कोई कारण नहीं है, जो अकारण है! चूंकि अकारण है, इसलिए बुझाया नहीं जा सकता। चूंकि अकारण है, इसलिए मौत भी उसे मिटा न सकेगी। मिट्टी का दीया होता तो मौत मिटा देती। तुम देह नहीं हो। और अगर तेल भरा होता तो कभी न कभी चुक ही जाता। कितना ही तेल हो, कभी न कभी चुक जाएगा।
यह सूरज करोड़ों-करोड़ों वर्षों से, अरबों वर्षों से रोशनी दे रहा है। मगर वैज्ञानिक कहते हैं, यह भी चुक रहा है। इसका तेल भी चुका जा रहा है, इसका ईंधन भी चुका जा रहा है। घबड़ा मत जाना, जल्दी नहीं चुकने वाला है। कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि कम से कम चार हजार साल और...मगर सूरज भी चुक जाएगा। सूरज कितना बड़ा दीया है! इस जमीन से साठ हजार गुना बड़ा है! लेकिन उसकी रोशनी भी रोज-रोज झरती जाती है, रोज-रोज कम होती जाती है। कितने ही बड़े खजाने हों, एक न एक दिन चुक ही जाएंगे--देर-अबेर!
सिर्फ एक खजाना नहीं चुकता है--वह परमात्मा का है। सिर्फ एक ज्योति नहीं बुझती है--वह परमात्मा की है। और जागो! तुम उस ज्योति के धनी हो। तुम उस ज्योति के मालिक हो। तुम्हें बहुमूल्य से बहुमूल्य भेंट दी गई है। और अभागे हो तुम कि उस भेंट को न तुम देखते हो, न उस भेंट का सम्मान करते हो, न उस भेंट के लिए तुमने परमात्मा को कोई धन्यवाद दिया है।
मलिका-ए-शहरे-जिंदगी तेरा
शुक्र किस तौर से अदा कीजे
दौलते-दिल का कुछ शुमार नहीं
तंगदस्ती का क्या गिला कीजे
हम कंजूस हैं, यह और बात; मगर जो हमें मिला है, वह अजस्र स्रोत है। लुटाते जाओ, लुटाते जाओ, तो भी लुटा न पाओगे। बांटो, कितना ही बांटो और बांट न पाओगे। मगर हम बड़े कंजूस हैं। हम देने में बड़े कंजूस हैं। हम प्रेम भी देने में डरते हैं। हम रोशनी भी देने में डरते हैं। हमें डर लगा रहता है, कहीं चुक न जाए! और हमारे डर का कारण है। हमने बाहर का गणित सीखा है। बाहर का गणित यही है कि चीजें चुक जाती हैं। कितना ही धन हो, चुक जाता है। अगर बांटते रहोगे तो जल्दी ही खजाने खाली हो जाएंगे।
मगर तुम्हें भीतर का गणित पता ही नहीं कि भीतर का गणित बाहर के गणित से ठीक उलटा है। बाहर का अर्थशास्त्र है कि बचाओगे तो बचेगा; बांटोगे, खत्म हो जाएगा। यह सीमित अर्थशास्त्र की भाषा है। भीतर का अर्थशास्त्र भी है--और वही वस्तुतः अर्थशास्त्र है। बाहर का अर्थशास्त्र तो अनर्थशास्त्र है। भीतर का ही अर्थशास्त्र वास्तविक है। वहां का सूत्र है: बांटो तो बचेगा, बचाया तो सड़ जाएगा।
बांटो ज्ञान! बांटो प्रेम! बांट सको जो भी भीतर का, बांटो। और तुम चकित होकर पाओगे: जितना बांटते हो, उतना ही बढ़ता जाता है। जिसने जितना बांटा, उसने उतना पाया।
मलिका-ए-शहरे-जिंदगी तेरा
शुक्र किस तौर से अदा कीजे
दौलते-दिल का कुछ शुमार नहीं
तंगदस्ती का क्या गिला कीजे
जो तेरे हुस्न के फकीर हुए
उनको तशवीशे-रोजगार कहां
दर्द बेचेंगे, गीत गाएंगे
इससे खुशवक्त कारोबार कहां
जिन्होंने एक बार तेरी संपदा देख ली, तेरी ज्योति देख ली...
जो तेरे हुस्न के फकीर हुए
और जिसने एक बार तेरा सौंदर्य देख लिया, तेरी महिमा देख ली...
जो तेरे हुस्न के फकीर हुए
उनको तशवीशे-रोजगार कहां
उन्हें फिर जिंदगी में कोई और कमाने जैसी चीज नहीं रह जाती। उन्होंने तो पा लिया। सब पाने का पा लिया। धनों का धन पा लिया।
जो तेरे हुस्न के फकीर हुए
उनको तशवीशे-रोजगार कहां
दर्द बेचेंगे, गीत गाएंगे
इससे खुशवक्त कारोबार कहां
अब तो तुझे ही बांटेंगे। अब तो तेरे ही गीत गाएंगे। तेरे विरह की पीड़ा बांटेंगे। तेरे मिलन के गीत गाएंगे।
जाम छलका तो जम गई महफिल
मिन्नते-लुत्फे-गमगुसार किसे?
अश्क टपका तो खिल गया गुलशन
रंजे-कमजर्फी-ए-बहार किसे?
जाम छलका तो जम गई महफिल
और जहां कभी ऐसा एक भी व्यक्ति हो जिसने भीतर का उजियाला देखा हो, उसका जाम छलकने लगता है, बहने लगता है ऊपर से। इतनी शराब उसके भीतर होती है कि बहने लगती है।
बुद्ध इसलिए नहीं बोले हैं कि तुम्हें समझाना था। वह तो गौण बात है। बोलना ही पड़ा।
जाम छलका तो जम गई महफिल
जीसस बोले हैं; इसलिए नहीं कि तुम्हें जगाना था। वह तो गौण बात है। वह तो परिणाम है। बोलना ही पड़ा। दीया जलेगा तो ज्योति बिखरेगी ही। इसलिए नहीं कि जो भटके हैं उन्हें राह मिल जाए। उन्हें राह मिल जाएगी, यह और बात। और फूल खिलेगा तो रंग, फूल खिलेगा तो गंध बिखरेगी। इसलिए नहीं कि तुम्हारे नासापुटों को सुवास मिल जाए। हां, जो पास से गुजरेंगे उनके नासापुट सुगंध से भर ही जाएंगे, वह गौण बात।
जाम छलका तो जम गई महफिल
इसलिए जहां भी कभी किसी ने भीतर का उजियाला देख लिया--बिन बाती बिन तेल जुगति सों बिन दीपक उजियार--उनका जाम छलकने लगता है। वहीं मधुशाला खुल जाती है।
जाम छलका तो जम गई महफिल
मिन्नते-लुत्फे-गमगुसार किसे?
अश्क टपका तो खिल गया गुलशन
उनका एक आंसू भी टपके तो बहार आ जाए। तो पूरी बगिया में फूल ही फूल हो जाएं।
मीरा के आंसुओं की याद करो। कौन फूल मुकाबला करेगा उन आंसुओं का!
अश्क टपका तो खिल गया गुलशन
रंजे-कमजर्फी-ए-बहार किसे?
खुशनशीं हैं कि चश्मो-दिल की मुराद
दैर में है न खानकाह में है
हम कहां किस्मत आजमाने जाएं
हर सनम अपनी बारगाह में है
और यह बड़ी खुशी की बात है, यह सुसमाचार...। इसे खूब गांठ बांध कर हृदय में रख लेना।
खुशनशीं हैं कि चश्मो-दिल की मुराद
दैर में है न खानकाह में है
न तो वह मंदिर में है, न वह मस्जिद में है। यह खुशनसीब हो तुम। कहीं मंदिर में होता तो बहुत मुश्किल हो जाती। पंडित-पुरोहित तुम्हें वहां तक पहुंचने ही न देते।
मैंने सुना है कि एक नीग्रो एक रात एक चर्च के द्वार पर दस्तक दिया। लेकिन चर्च था सफेद चमड़ी वालों का। पादरी ने द्वार तो खोले, लेकिन पादरी डरा। यद्यपि यही पादरी रोज-रोज प्रवचन देता था कि सब परमात्मा के बेटे हैं, एक ही परमात्मा के बेटे हैं। और यही पादरी रोज-रोज समझाता था कि अपने पड़ोसी को वैसा ही प्रेम करो जैसा अपने को। और यही पादरी यह भी कहता था कि परमात्मा प्रेम है। लेकिन यह काला आदमी, यह नीग्रो रात चर्च के द्वार पर दस्तक देगा...पादरी थोड़ा डरा। वह चर्च तो सफेद चमड़ी वालों का था। उस नीग्रो ने कहा: मुझे भीतर आने दो। तुम्हारी बातें सुन-सुन कर मेरी हिम्मत बढ़ गई है। तुम कहते हो कि प्रेम परमात्मा है। तुम कहते हो कि पड़ोसी को प्रेम करो जैसा अपने को प्रेम करते हो। मैं भी पड़ोसी हूं तुम्हारा। और तुम कहते हो कि सभी उसकी संतान हैं। मैं भी उसकी संतान हूं। मुझे भीतर आने दो। मेरे हृदय में भी बड़ी पुकार उठी है और मैं उसकी प्रार्थना करना चाहता हूं।
पादरी एकदम न भी न कह सका, क्योंकि कैसे झुठलाए उन सारी बातों को जो उसने हमेशा कही हैं? और हां भी न कह सका, क्योंकि वे तो बातें ही थीं। वे तो करने के लिए अच्छी थीं। कुछ बातें होती हैं जो सिर्फ करने की होती हैं, कहने की होती हैं, बात के ही लिए होती हैं। जिंदगी उनसे बिलकुल भिन्न होती है। असलियत तो यह थी कि काला आदमी भीतर प्रवेश करे, यह उसकी हिम्मत न थी। उसने तरकीब निकाली।
पंडित-पुरोहित तो सदा से चालबाज रहे हैं, सदा से चालबाज और चतुर रहे हैं। चतुर थे इसीलिए तो पंडित-पुरोहित हो गए। चालबाज थे इसीलिए तो पंडित-पुरोहित हो गए। सदियों से उन्होंने शोषण किया है अपनी चालबाजी से।
उसे एक चालबाजी समझ में आई। उसने कहा कि जरूर-जरूर तुम आना, लेकिन पहले पवित्र हो लो। उपवास करो। प्रार्थना करो। सब पाप छोड़ो। कामवासना छोड़ो। क्रोध छोड़ो। लोभ छोड़ो। उसने इतनी लंबी फेहरिस्त दी, इसी आशा में कि न कभी यह नीग्रो ये बातें पूरी कर पाएगा और न यह झंझट खड़ी होगी इसके मंदिर में प्रवेश की। जैसे शूद्र को ब्राह्मण प्रवेश न करने दे मंदिर में, वैसी ही स्थिति अमरीका में नीग्रो के ऊपर है, नीग्रो शूद्र हो गया है! उसका प्रवेश नहीं हो सकता चर्च में। पुरोहित खुश था। फेहरिस्त उसने इतनी लंबी दी थी कि बड़े-बड़े संत भी पूरी नहीं कर पाएं। और जब कर पाएगा पूरी तब देखेंगे।
चला गया नीग्रो। सीधा-सादा आदमी, मान ली उसने बात कि यह तो ठीक ही है, जब पवित्र हो जाऊं तभी तो प्रार्थना करूंगा। उस भोले आदमी को यह खयाल न आया कि सफेद आदमियों पर यह शर्त लागू नहीं होती। किन-किन सफेद लोगों से तुमने कहा है? किन-किन गोरों को तुमने कहा है कि पवित्र होकर आओ? मुझ अकेले पर यह शर्त लागू होती है! चला तो गया। सीधा-सादा आदमी, बात मान ली, लग गया अपने को पवित्र करने में।
तीन सप्ताह बाद पादरी चौंका। क्योंकि सुबह ही सुबह सूरज ऊग रहा था, द्वार खोल रहा था पादरी चर्च के, कि देखा कि वह नीग्रो आ रहा है। वह बहुत घबड़ाया कि अब यह फिर बात उठाएगा। और घबड़ाहट और भी बढ़ गई, क्योंकि उस नीग्रो के आसपास पवित्रता का एक ऐसा आभामंडल था जैसा कि इस पादरी ने कभी नहीं देखा था। इसने तो आभामंडल देखे थे केवल संतों की तस्वीर में। उस नीग्रो के चारों तरफ आभामंडल था। एक अपूर्व अंतर्ज्योति से दैदीप्यमान वह नीग्रो चला आता था। उसे किस मुंह से इनकार करेगा? अब तो बड़ी मुश्किल हुई जाती है।
लेकिन वह नीग्रो आया, द्वार के बाहर ही खड़ा हुआ, हंसा और वापस लौट गया। पादरी तो और भी चौंका कि बात क्या हुई? भागा, उस नीग्रो को पकड़ा, कहा कि क्या बात है? हंसे क्यों? लौट क्यों चले? पूछा क्यों नहीं मंदिर में आने के लिए?
उस नीग्रो ने कहा: कल रात परमात्मा प्रकट हुआ। तीन सप्ताह से उपवास करता था, प्रार्थना करता था, पूजा करता था...बस उसकी ही याद में लगा दिए थे तीन सप्ताह...तुमने जो कहा था। कल रात परमात्मा प्रकट हुआ और कहने लगा: पागल, तू उस चर्च में जाने की फिक्र छोड़। मैंने पूछा: क्यों? तो परमात्मा ने कहा: अब तू नहीं मानता तो तुझे बताए देता हूं। उस चर्च में जाने की तो मैं भी कई सदियों से कोशिश कर रहा हूं, वे मुझे भी भीतर नहीं घुसने देते, वे तुझे क्या भीतर घुसने देंगे!
मंदिर खाली पड़े हैं। मस्जिदें खाली हैं। चर्च खाली हैं। गुरुद्वारे खाली हैं। सिनागॉग खाली हैं। सदियां हो गईं, परमात्मा को भी वहां प्रवेश नहीं है। लेकिन यह अच्छा ही है।
खुशनशीं हैं कि चश्मो-दिल की मुराद
कि हमारे अंतरतम की आकांक्षा और हमारी आंखों की आकांक्षा; उसके दर्शन की इच्छा और दिल को उसके दिल में डुबा देने की इच्छा...
खुशनशीं हैं कि चश्मो-दिल की मुराद
दैर में है न खानकाह में है
अच्छा ही है कि वह हमारी आंखों का प्यारा, आंखों का तारा और हमारे दिल की प्यास न तो मंदिरों में है, न मस्जिदों में है।
हम कहां किस्मत आजमाने जाएं
अब कहीं और भाग्य को आजमाने की जरूरत नहीं है।
हर सनम अपनी बारगाह में है
अपने भीतर, अपनी बांहों में है!
बिन बाती बिन तेल जुगति सों बिन दीपक उजियार।
प्रानपिया मेरे गृह आयो, रचि-रचि सेज संवार।
ऐसी तुम्हें जरा सी स्मृति आ जाए तो बस प्राणपिया आ गया।
प्रानपिया मेरे गृह आयो, रचि-रचि सेज संवार।
अब संवारो सेज को। तैयारी करो। इस देह को उसके योग्य बनाओ। इस मन को उसके योग्य बनाओ। उसने द्वार पर दस्तक दे दी। जैसे ही स्मरण आया कि वह मेरे भीतर है, मेरी बांहों में है, मेरे पास है, मुझसे भी ज्यादा पास है, मैं भी इतने पास नहीं जितना वह मेरे पास है--जैसे ही यह सवाल, जैसे ही यह समझ तुम्हारे भीतर तरंग लेने लगे, अब तैयारी करो! अब सजाओ--सेज को सजाओ।
प्रानपिया मेरे गृह आयो, रचि-रचि सेज संवार।
सुखमन सेज परमतत रहिया, पिया निर्गुन निरकार।
कैसे सजाओगे सेज? समाधि उसकी सेज है। तुम्हारे भीतर से सारी समस्याएं गिर जाएं और समाधान का उदय हो जाए तो फूलों से सज गई सेज! समाधि उसकी सेज है। और समाधि तक पहुंचने का रास्ता--संतुलन।
सुखमन सेज परमतत रहिया...
योग की भाषा में तीन नाड़ियां हैं--इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना। इड़ा एक तरफ, पिंगला दूसरी तरफ--अतियां। मध्य में है सुषुम्ना। सब अतियों को छोड़ दो और मध्य में आ जाओ। जिसको बुद्ध ने कहा है मज्झिम निकाय। बीच में आ जाओ। पाइथागोरस ने जिसको कहा है स्वर्ण-नियम। मध्य में आ जाओ। न बाएं झुको, न दाएं झुको। न त्याग, न भोग--मध्य में आ जाओ। न बहुत खाओ, न उपवास करो--मध्य में आ जाओ। न संसार में आसक्ति रखो, न विरक्ति रखो--मध्य में आ जाओ। न तो संसार में ही डूब रहो और न संसार से भगोड़े हो जाओ--मध्य में आ जाओ। संसार में ऐसे रहो, नहीं के जैसे, जल में कमलवत। बस सज गई सेज। संतुलन बना तुम्हारे भीतर कि सेज सज गई।
खयाल रखना, भोगी तो चूकता ही चूकता है, त्यागी भी चूक जाता है। भोगी चूक जाता है, क्योंकि धन, पद, प्रतिष्ठा को पागल की तरह पकड़ता है। त्यागी चूक जाता है, क्योंकि वह धन, पद, प्रतिष्ठा को पागल की तरह छोड़ता है। पकड़ोगे, जोर से पकड़ोगे, वह भी गलत है। छोड़ने का आग्रह करोगे, वह भी गलत है। न तो यहां कुछ पकड़ने योग्य है, न कुछ छोड़ने योग्य है। देख लो, सार देख लो और संतुलित हो जाओ। महावीर ने इसे सम्यकत्व कहा है। मध्य में आ जाओ। समतुल हो जाओ।
प्रानपिया मेरे गृह आयो, रचि-रचि सेज संवार।
सुखमन सेज परमतत रहिया...
एक बार तुम संतुलित हो जाओ तो जो परमतत्व है, बस प्रकट हो जाए। जो है, वह प्रकट हो जाए।
...पिया निर्गुन निरकार।
न तो उस प्यारे का कोई गुण है, न उस प्यारे का कोई आकार है। और अगर तुम्हें उस प्यारे से मिलना है तो तुम भी निर्गुण हो जाओ और तुम भी निराकार हो जाओ।
देह का आकार है। देह के भीतर जाओ। मन का भी आकार है, उतना ठोस नहीं जितना देह का। देह का आकार ऐसे है जैसे चट्टान का आकार। मन का आकार ऐसे है जैसे जल की धार का आकार--बदलता, भागता, परिवर्तनशील। पर आकार तो है। देह से चलो भीतर और मन से भी चलो भीतर, तो तुम पाओगे--शून्य आकाश, निराकार। न वहां चट्टान जैसा आकार है थिर और न वहां मन जैसा आकार है चंचल। वहां आकार नहीं है। जैसे बादलरहित आकाश! उस अवस्था में ही तुम परमात्मा से मिल सकते हो। उस अवस्था में ही विरह मिलन में रूपांतरित होगा।
गावहु री मिलि आनंदमंगल, यारी मिलि के यार।
फिर हो जाएगा प्रियतम से मिलन। फिर तो बचेगी एक ही बात--गावहु री मिलि आनंदमंगल! इसीलिए तो संतों ने खूब गाया, खूब जी भर गाया। सारे संतों ने गाया! जिससे जैसे बना वैसे गाया। वे कोई गायक नहीं हैं, न कोई कवि हैं, न कोई संगीतज्ञ हैं। मगर जिससे जैसा बना, गाया। जिससे जैसा बना, नाचे। जिससे जो भी वाद्य बज सका, बजाया। उसमें तुम कला मत खोजना। कला गौण है। उसमें तो तुम आत्मा खोजना, भाव खोजना।
जुनूं की याद मनाओ कि जश्न का दिन है
सलीब-ओ-दार सजाओ कि जश्न का दिन है
तरब की बज्म है, बदलो दिलों के पैराहन
जिगर के चाक सिलाओ कि जश्न का दिन है
तुनुक-मिजाज है साकी, न रंगे-मय देखो
भरे जो शीशा, चढ़ाओ कि जश्न का दिन है
तमीजे-रहबर-ओ-रहजन करो न आज के दिन
हर इक से हाथ मिलाओ कि जश्न का दिन है
है इंतजारे-मलामत में नासेहों का हुजूम
नजर सम्हाल के जाओ कि जश्न का दिन है
बहुत अजीज हो लेकिन शिकस्तादिल यारो
तुम आज याद न आओ कि जश्न का दिन है
वह शोरिशे-गमे-दिल जिसकी लय नहीं कोई
गजल की धुन में सुनाओ कि जश्न का दिन है
गाओ! उठने दो गजलें! पीओ! नाचो!
तुनुक-मिजाज है साकी, न रंगे-मय देखो
भरे जो शीशा, चढ़ाओ कि जश्न का दिन है
और वह जो ढाल दे तुम्हारी प्याली में, पी जाओ। और आज विधि-विधान न समझो। आज सब विधि-विधान तोड़ो और नाचो! ऐसे ही संत नाचे--मीरा और चैतन्य! ऐसे ही संत गाए--कबीर और नानक!
जुनूं की याद मनाओ कि जश्न का दिन है
ऐसे ही पागल हुए, मदमस्त हुए। इसी मदमस्ती से अदभुत वचनों का जन्म हुआ है।
गावहु री मिलि आनंदमंगल, यारी मिलि के यार।
सब बदल जाता है उसको मिलते ही। ऐसे कुछ भी नहीं बदलता और फिर भी सब बदल जाता है। यही होंगे वृक्ष, मगर यही नहीं होंगे। इनकी हरियाली में तुम उसकी हरियाली पाओगे। इनके फूलों में तुम उसकी खिलावट देखोगे। यही होंगे चांद-तारे, मगर यही नहीं होंगे। इनसे उसकी रोशनी को झरते पाओगे। यही होंगी गंगा और जमन, मगर यही नहीं होंगी। ये आकाश से उतरने लगेंगी। ये आकाशीय हो जाएंगी। यही होंगे लोग, मगर यही नहीं होंगे। क्योंकि इनके भीतर जो छिपा है, उसका तुम्हें दर्शन होने लगेगा। अभी तो तुमने देहें देखी हैं, बाहर-बाहर से देखी हैं। अभी भीतर का तो अनुभव नहीं हुआ है। उतना ही तुम दूसरों में भीतर देख सकते हो जितना अपने भीतर देख लेते हो।
तुम न आए थे तो हर चीज वही थी कि जो है,
आसमां हद्दे-नजर, राहगुजर राहगुजर, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय
और अब शीशा-ए-मय, राहगुजर, रंगे-फलक
रंग है दिल का मेरे ‘खूने-जिगर होने तक’
चंपई रंग कभी, राहते-दीदार का रंग
सुर्मई रंग कि है साअते-बेजार का रंग
जर्द पत्तों का, खस-ओ-खार का रंग
सुर्ख फूलों का, दहकते हुए गुलजार का रंग,
जहर का रंग, लहू का रंग, शबे-तार का रंग,
आसमां, राहगुजर, शीशा-ए-मय
कोई भीगा हुआ दामन, कोई दुखती हुई रग
कोई हर लहजा बदलता हुआ आईना है
अब जो आए हो तो ठहरो कि कोई रंग, कोई रुत,
कोई शै एक जगह पर ठहरे
फिर से इक बार हर इक चीज वही हो कि जो है
आसमां हद्दे-नजर, राहगुजर राहगुजर, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय
झेन फकीर कहते हैं: साधक तीन अवस्थाओं से गुजरता है। पहली--जब पहाड़ पहाड़ हैं और नदियां नदियां हैं। दूसरी--जब पहाड़ पहाड़ नहीं रह जाते, नदियां नदियां नहीं रह जातीं। और तीसरी--जब पहाड़ फिर पहाड़ हो जाते हैं और नदियां फिर नदियां हो जाती हैं।
प्यारा वचन है यह। पहले पहाड़ पहाड़ हैं--जैसे तुमने देखे हैं, धूल भरी आंखों से; उदास, सुस्त, अंधेरे भरे हृदय से। देखे और नहीं देखे। देखने की फुर्सत कहां थी? भीतर विचारों का इतना हुजूम था, इतनी भीड़ थी! अपने में ही इतने उलझे और खोए थे कि कहां खोलते आंख? कि कैसे देखते पहाड़ और कैसे देखते नदियों को?
फिर चित्त शांत होता है। विचार शून्य होने लगते हैं। ध्यान की दशा आती है। और अचानक पहली दफा भीतर का जंजाल समाप्त हो जाता है, शोरगुल बंद हो जाता है--और जगत की रौनक बदल जाती है।
इसलिए झेन फकीर कहते हैं: पहले पहाड़ पहाड़ थे, नदियां नदियां थीं। फिर ऐसी घड़ी आई कि पहाड़ पहाड़ न रहे, नदियां नदियां न रहीं। सब बदल गया। वह ध्यान की अवस्था है। सब नया हो गया। सब ऐसा हो गया जैसा कभी न था। और फिर समाधि की अवस्था। फिर सब ठहर गया। फिर वापस सब वही हो गया जैसा था। लेकिन अब तुम वही नहीं हो। और जब तुम वही नहीं हो तो संसार भी वही नहीं है।
नरक है तो यहां। स्वर्ग है तो यहां। मोक्ष है तो यहां। सब तुम्हारी चित्त की दशाएं हैं।
तुम न आए थे तो हर चीज वही थी कि जो है,
आसमां हद्दे-नजर, राहगुजर राहगुजर, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय
और अब शीशा-ए-मय, राहगुजर, रंगे-फलक
रंग है दिल का मेरे ‘खूने-जिगर होने तक’
चंपई रंग कभी, राहते-दीदार का रंग
सुर्मई रंग कि है साअते-बेजार का रंग
जर्द पत्तों का, खस-ओ-खार का रंग
सुर्ख फूलों का, दहकते हुए गुलजार का रंग,
जहर का रंग, लहू का रंग, शबे-तार का रंग,
आसमां, राहगुजर, शीशा-ए-मय
कोई भीगा हुआ दामन, कोई दुखती हुई रग
कोई हर लहजा बदलता हुआ आईना है
अब जो आए हो तो ठहरो कि कोई रंग, कोई रुत,
कोई शै एक जगह पर ठहरे
फिर से इक बार हर इक चीज वही हो कि जो है
आसमां हद्दे-नजर, राहगुजर राहगुजर, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय
प्यारा आ जाए एक बार तो जरूरी नहीं है कि रुके। बहुत बार झलकें आएंगी और झलकें जाएंगी। उस अवस्था का नाम ध्यान है, जब झलक आती है, झलक जाती है। और जब प्यारा ठहर जाता है, उस अवस्था का नाम समाधि है। फिर कोई जाना नहीं, फिर कोई आना नहीं।
रसना राम कहत तें थाको।
कब से राम-राम जप रहे हो, थक नहीं गए हो? यारी कहते हैं कि मैं तो बहुत थक गया राम-राम जपते-जपते।
रसना राम कहत तें थाको।
मैं तो खूब जपा, खूब थक गया! असल में राम-राम दोहराने से सिवाय थकान के कुछ और मिलता भी नहीं। राम-राम जपने से थक जाते हो, उसी थकने को तुम विश्राम समझ लेते हो!
थकान और विश्राम में बड़ा भेद है। थकान नकारात्मक अवस्था है। विश्राम विधायक अवस्था है। थकान है टूट कर गिर पड़ना। विश्राम है मौज से लेट जाना। और थकान को अनेक लोग विश्राम समझ लेते हैं, क्योंकि विश्राम का उन्हें पता नहीं है। इसलिए अनेक लोगों को यह खयाल है, मंत्र-जाप से बड़ा विश्राम मिलता है। मंत्र-जाप से विश्राम नहीं मिलता। मंत्र-जाप से तुम थक जाते हो, मन थक जाता है। थकान से निद्रा आ जाती है।
इसलिए मंत्र, जिनको नींद नहीं आती, उनके लिए बड़ा सम्यक उपाय है। और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि महर्षि महेश योगी जैसे लोग, जो सिर्फ मंत्र सिखाते हैं, अमरीका जैसे देश में काफी अनुयायी खोज लेते हैं। क्योंकि अमरीका नींद की बीमारी से परेशान है, नींद आती नहीं। अनिद्रा अमरीका के लिए बड़े से बड़ा सवाल है। इसलिए किसी भी तरह नींद आ जाए। और ठीक ही है कि नींद की दवा लेने की बजाय तो राम-राम जप कर नींद ले आना ठीक है। मैं भी पक्ष में हूं। मगर खयाल रहे, यह कोई ध्यान नहीं है।
यह तो ऐसे ही है जैसे कि बेटा नहीं सोता, छोटा बच्चा नहीं सोता और मां लोरी गाती है। लोरी में ज्यादा शब्द नहीं होते, मंत्र जैसी होती है लोरी। वही-वही सब दोहराना पड़ता है--राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा। राजा बेटा सुनते-सुनते घबड़ा जाता है। सुनते-सुनते थक जाता है कि यह भी क्या लगा रखा है--राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा! एक ही लय, एक ही धुन! उदासी आती है, थकान आती है, ऊब आती है। और राजा बेटा भाग भी नहीं सकता। भाग कर जाए भी कहां? एक ही भागने का उपाय बचता है कि नींद में भाग जाए। तो चुपचाप नींद में सरक जाता है। बचने के लिए यही एक उपाय है कि नींद में सरक जाए।
इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि धार्मिक सभाओं में लोग सोते हैं, क्योंकि वही कहानी है जो बहुत बार सुनी है। वही राम-कथा, वही सीता का चोरी जाना, वही रावण। कितनी बार तो सुन लिया और कितनी बार तो देख लिया! नींद न आ जाए तो क्या हो! कई डाक्टर तो अपने मरीजों को, जो सो नहीं सकते, धर्मसभाओं में भेजते हैं कि वहां बैठना। और कोई दवा काम करे या न करे, लेकिन धर्मसभा में नींद निश्चित आ जाती है।
मैं विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था। दर्शनशास्त्र में एक प्रोफेसर थे, जिनको मानना पड़ेगा कि वे इस ढंग से बोलते थे कि जो रात भर भी ठीक से सोया हो, उसे भी नींद आ जाए! तो जब भी कोई विद्यार्थी, कोई संगी-साथी नींद से परेशान होता, मैं कह देता कि तुम उनकी क्लास में चले जाओ। और यह बात रामबाण की तरह काम करती। धीरे-धीरे तो यह खबर पहुंच गई, और लोगों को भी खबर लग गई। और वे बड़े प्रभावित होते थे, क्योंकि उनकी कक्षा में भीड़ काफी लोगों की होती। परीक्षा के दिनों में तो बहुत लोग जाते; क्योंकि परीक्षा के दिनों में विद्यार्थियों को घबड़ाहट में नींद नहीं आती। मगर उनकी वाणी सुनते ही... संस्कृत के पंडित थे और संस्कृत के बड़े उल्लेख देते थे। और एक स्वर में बोलते थे। जैसे इकतारा बजता है, ऐसे बजते थे! किसी को भी नींद आ जाती थी।
यारी कहते हैं: ‘रसना राम कहत तें थाको।’
मैं थक गया राम-राम रटते-रटते, जीभ थक गई मेरी, तब कहीं मुझे समझ आई कि यह बाहर-बाहर राम को दोहराना किसी काम का नहीं!
पानी कहे कहुं प्यास बुझत है...
पानी को रटने से, पानी-पानी कहने से प्यास नहीं बुझती। यह मैं क्या पागलपन करता रहा कि राम-राम रटता रहा!
...प्यास बुझे जदि चाखो।
प्यास बुझती है अगर पानी को पीओ तो। बैठ कर जपते रहो एच टू ओ, एच टू ओ, एच टू ओ--पानी का मूल सूत्र; शायद नींद आ जाए, मगर प्यास तो न बुझे। और प्यास न बुझे तो नींद भी कितनी देर रहेगी? जल्दी ही टूटेगी; प्यास नींद को तोड़ देगी।
रसना राम कहत तें थाको।
पानी कहे कहुं प्यास बुझत है, प्यास बुझे जदि चाखो।
पुरुष-नाम नारी ज्यों जानै, जानि बूझि जनि भाखो।
इस देश में तो प्रचलन रहा है कि पत्नी पति का नाम नहीं लेती--समादर में। यद्यपि यह अधूरा नियम था। अगर पतियों ने भी पाला होता तो यह नियम बड़ा महत्वपूर्ण होता। अगर पत्नियों का नाम भी पतियों ने प्रेम में और आदर में न लिया होता तो बड़ी सम्मानजनक यह बात होती। मगर एक सम्मानजनक बात भी अधूरी हो तो अपमानजनक हो जाती है। पत्नियों को तो पतियों ने सिखा दिया कि पति परमात्मा है। पतियों ने ही शास्त्र लिखे, या पुरुषों ने। लेकिन किसी एक ने भी यह न कहा कि पत्नी भी परमात्मा है! स्त्री तो नरक का द्वार और पति परमात्मा है! इस तरह की मूढ़तापूर्ण बातें शास्त्रों में भरी पड़ी हैं। और इस तरह के अहंकार से भरे हुए वक्तव्य इधर से उधर तक शास्त्रों में छाए हुए हैं। स्त्री नरक का द्वार! और स्त्री से ही सब पैदा हुए हो! और बड़े से बड़े संत तुम्हारे, फिर चाहे वे तुलसीदास ही क्यों न हों, स्त्री से ही पैदा हुए हैं। लेकिन स्त्री की गिनती करते हैं--ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी! इनको तो पीटो, मारो; यही इनका अधिकार है। यही इनका हक है। यही इनको मिलना चाहिए। और स्त्री नरक का द्वार है, और पुरुष पति है--और पति परमात्मा है! पति यानी स्वामी। और स्त्री दासी है!
मगर बात में मूल्य तो था, खराब हाथों में पड़ कर खराब हो गई। और कभी-कभी तो अमृत भी गलत हाथों में पड़ जाए तो जहर हो जाता है। बात का मूल्य तो था। स्त्री पति का नाम नहीं लेती, यद्यपि जानती है; भीतर-भीतर जानती है, बाहर-बाहर नहीं लेती, आदरवश नहीं लेती। इस बात का यारी ने खूब ठीक उपयोग किया।
यारी कहते हैं: मुझे भी पता है उसका नाम, लेकिन ले नहीं सकता; आदर के कारण नहीं लेता हूं अब। भीतर-भीतर रखता हूं, भीतर-भीतर सम्हालता हूं।
पुरुष-नाम नारी ज्यों जानै, जानि बूझि जनि भाखो।
उसे कहना थोड़े ही है, उसे तो भीतर सम्हालना है। जैसे बीज भूमि के अंतरगर्भ में समा जाता है, ऐसे ही राम, ऐसे ही अल्लाह, ऐसे ही उसकी याद तुम्हारे अंतरतम में समा जानी चाहिए, तुम्हारे हृदय में प्रविष्ट हो जानी चाहिए। बाहर बकवास करने से क्या होगा?
दृष्टी से मुष्टी नहिं आवै, नाम निरंजन वाको।
और तुम सोचते हो कि बहुत-बहुत तरह के दर्शनशास्त्र सीख लोगे तो उसे मुट्ठी में ले लोगे, तो गलती में हो।
दृष्टी से मुष्टी नहिं आवै...
असल में दृष्टि तो बाधा है। सब दर्शनशास्त्र दृष्टियां हैं और दृष्टि बाधा है। आंख होनी चाहिए--दृष्टि से मुक्त, पक्षपात से मुक्त। दृष्टि यानी पक्षपात। हिंदू की दृष्टि, मुसलमान की दृष्टि, जैन की दृष्टि--ये सब दृष्टियां हैं, नय, देखने के ढंग। तुमने पहले ही तय कर लिया कि इस ढंग से देखेंगे परमात्मा को। तुमने पहले ही पक्षपात बना लिए। अब परमात्मा को तुम अपनी दृष्टि की चौखट से देखोगे, कभी न पकड़ पाओगे। क्योंकि वह किसी चौखट में नहीं आता। वह निराकार है; तुम्हारी दृष्टि का आकार है। वह निःशब्द है; तुम्हारी दृष्टि शब्दों से बनी है। वह अज्ञेय है; तुम्हारी दृष्टि ज्ञान का हिस्सा है। और सब ज्ञान उधार है, सब बासा है; दूसरों से सीख लिया है।
दृष्टी से मुष्टी नहिं आवै...
इसलिए जिसका भी कोई पक्षपात है, जो कहता है कि ऐसा हो परमात्मा, ऐसा ही है परमात्मा--कि उसके चार हाथ हैं, कि तीन सिर हैं, कि सूंड है उसकी हाथी जैसी--जिसने कोई दृष्टि बना ली है, वह तो चूक जाएगा।
कहते हैं, तुलसीदास को जब कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया तो वे झुके नहीं। क्योंकि उन्होंने कहा कि जब तक धनुष-बाण हाथ नहीं लोगे, मैं नहीं झुक सकता। उन्होंने एक दृष्टि बना ली है कि परमात्मा को धनुष-बाण लिए ही होना चाहिए। अब धनुष-बाण कोई बड़ा सुंदर प्रतीक भी नहीं है; हिंसा का प्रतीक है, हत्या का प्रतीक है। धनुष-बाण सुसंस्कृत भी नहीं है। लेकिन बस तुलसीदास को एक दृष्टि बंध गई कि धनुष-बाण वाले राम को ही झुकूंगा। मुरली वाले कृष्ण के सामने न झुक सके। मुरली कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण प्रतीक है। मुरली कहीं अधिक बहुमूल्य है--संगीत का, स्वर का, गीत का, उत्सव का प्रतीक है! धनुष-बाण तो युद्ध का प्रतीक है, हिंसा का, वैमनस्य का, संघर्ष का। धनुष-बाण तो राजनीति का प्रतीक है, युद्ध का प्रतीक है। बांसुरी तो प्रेम का प्रतीक है। लेकिन बांसुरी हाथ में लिए कृष्ण के सामने तुलसीदास नहीं झुके, ऐसा नाभादास ने अपने संस्मरणों में लिखा है। कहा कि नहीं, जब तक धनुष-बाण हाथ न लोगे, तब तक नहीं झुकूंगा।
तो तुलसीदास जैसे पंडित, विचारशील व्यक्ति की ऐसी हालत है तो साधारण आदमी की तो क्या कहो! उसने भी धारणा बना ली है। जैन हिंदू मंदिर में नहीं झुकता।
एक जैन मित्र को लेकर मैं एक हिंदू मंदिर में गया था। वे तो नहीं झुके। मैंने पूछा: बात? झुकने का तो अपना मजा है। किसके सामने झुके, यह तो बहाना है। झुकने का अपना आनंद है। झुके क्यों नहीं?
उन्होंने कहा: कैसे झुकता? मैं तो सिर्फ वीतराग प्रभु के सामने झुकता हूं। यहां तो रामचंद्र जी सीता जी के साथ खड़े हैं, वीतराग नहीं हैं। मैं तो वीतराग प्रभु...यह तो राग है। ये तो आभूषण पहने खड़े हैं। मुकुट बांधा हुआ है। मैं नहीं झुकूंगा! मैं तो वीतराग दिगंबर प्रभु के सामने झुकता हूं, अरिहंत के सामने झुकता हूं, निर्ग्रंथ के सामने झुकता हूं!
बात ही चूक गए! झुकने से मिलता है प्रभु। और जब तुमने कहा इसके सामने झुकूंगा, तो तुमने अपने आग्रह को झुकने से भी महत्वपूर्ण बना लिया। बस चूक गए। जहां आग्रह है वहां चूक है। सत्य का कोई आग्रह नहीं होता।
इसलिए मैं कहता हूं: महात्मा गांधी ने सत्याग्रह शब्द बड़ा गलत शब्द निर्माण किया। सत्य का कोई आग्रह नहीं होता। सब आग्रह असत्य के होते हैं। आग्रह मात्र असत्य का होता है, सत्य तो निराग्रही होता है। सत्य की कोई न दृष्टि होती है, न पक्षपात होता है।
दृष्टी से मुष्टी नहिं आवै, नाम निरंजन वाको।
वह तो निरंजन है। वह तो निराकार है। वह तो समष्टि में व्याप्त है। उसका न रूप है, न रंग है। तुम दृष्टि बना कर मत चलो। तुम किसी सिद्धांत को लेकर उसे खोजने मत निकलो। जो सिद्धांत लेकर खोजने निकला है, उसे सत्य कभी न मिलेगा; उसका सिद्धांत ही बाधा बनेगा। तुम तो खाली मन, शून्य भाव से, कोरी आंखें लेकर चलो। बस कोरी आंखों से ही प्रभु का मिलन होता है। कोरी आंखों में ही आता है वह। कोरे, निर्मल, निर्दोष हृदय में ही प्रवेश करता है वह।
गुरु परताप साध की संगति, उलट दृष्टि जब ताको।
दो बातें बहुमूल्य हैं--गुरु परताप, साध की संगति। गुरु का सत्संग, गुरु का आशीष, गुरु का प्रसाद, गुरु की महिमा...। किसे गुरु कहें? जिसने पा लिया। जो फूल खिल गया। खिले फूल के साथ कली रह जाए तो कितनी देर कली रहेगी? देर-अबेर याद आ ही जाएगी कि मैं भी खिल सकती हूं। देर-अबेर स्मरण बैठ ही जाएगा। उत्साह जग ही आएगा। उमंग पैदा हो जाएगी। यात्रा शुरू हो जाएगी।
तुमने देखा, मृदंग पर थाप पड़ी और तुम्हारे पैर भी थाप देने लगते हैं! क्या हो गया तुम्हें? मृदंग की थाप तुम्हारे भीतर भी किसी सोए हुए संगीत को जगाने लगी। कोई वीणा बजी और तुम्हारा सिर डोलने लगा। क्या हुआ तुम्हें? वीणा ने तुम्हारे भीतर पड़ी वीणा को भी छेड़ दिया। ऐसी ही घटना घटती है गुरु के सत्संग में। मगर उसकी वीणा बजनी चाहिए। उसकी मृदंग पर थाप पड़नी चाहिए। गुरु वह है जो जाग गया है। गुरु वह है जो पहुंच गया घर। अब उसकी वीणा बज रही है। अब उसके मृदंग पर थाप पड़ रही है। नृत्य शुरू हो गया है। उसके नाचते हुए पैरों को तुमने देख लिया है। तुम्हारे पैर भी फड़क उठेंगे। तुम्हारे भीतर भी सोई हुई ऊर्जा अंगड़ाई लेगी, करवट लेगी। तुम्हारे भीतर भी कुछ होना शुरू हो जाएगा। तुम अपने को अचानक पाओगे कि जैसे एक धारा में पड़ गए, एक प्रवाह में पड़ गए--जो ले चला तुम्हें सागर की तरफ।
गुरु परताप साध की संगति...
तो ऐसे के साथ होना जिसने पा लिया। और ऐसों के साथ होना जो पाने की राह पर चल पड़े हैं--साध की संगति।
बुद्ध ने तीन शरण कहे हैं: बुद्धं शरणं गच्छामि। उसकी शरण जाओ जो जाग गया। संघं शरणं गच्छामि। उनकी शरण जाओ जो जागने की यात्रा पर चल पड़े हैं, साध-संगति। धम्मं शरणं गच्छामि। और तब तीसरी शरण संभव होगी कि तुम धर्म की शरण जा सकोगे। पहले उसको पकड़ो जो जाग गया है। फिर उनके साथ हो लो जो जागने की यात्रा में संलग्न हैं। उनकी रौ में बह जाओ।
ध्यान रखना, अकेले-अकेले यात्रा कठिन है। अकेले-अकेले भटकने की बहुत संभावना है। जब लोग किसी दुर्गम यात्रा पर निकलते हैं तो संग-साथ में निकलते हैं, दस-पांच मित्र साथ होकर निकलते हैं। क्योंकि बहुत डर है। जंगली जानवर हैं। अंधेरी रातें हैं। लुटेरे हैं। हत्यारे हैं। और फिर रात कहीं रुकना होगा अंधेरे में; अकेला आदमी होगा तो मुश्किल में पड़ जाएगा। दस आदमी होंगे तो नौ सोएंगे, एक जाग कर पहरा देगा। और जब उसे नींद आने लगेगी, दूसरे को जगा देगा। और जब उसे नींद आने लगेगी, तीसरे को जगा देगा। पहरा जारी रहेगा। सुरक्षा बनी रहेगी।
इसलिए समस्त जाग्रत बुद्धों ने संघ का निर्माण किया है। यही मेरे संन्यास का अर्थ है। मेरा साथ तो तुम्हें मिले ही, लेकिन साध-संग भी मिले। संन्यासियों का रंग भी मिले। और जहां बड़ी उत्तुंग लहर चल रही हो, जहां बहुतों ने अपनी बूंदों को मिला कर एक उत्तुंग लहर बनाई हो, अगर तुम उस पर चढ़ जाओ तो यात्रा बहुत आसान हो जाएगी।
ऐसा ही समझो न, नदी में छोड़ते हैं नाव को और अगर हवा जा रही हो तो पाल खोल देते हैं। बस, फिर पतवार नहीं चलानी पड़ती, हवाएं भर जाती हैं पाल में और नाव बहने लगती है। और कुशल नाविक ठीक-ठीक हवा के क्षण में अपनी नाव के पाल को खोल लेता है। जब हजारों लोग सत्य की खोज में संलग्न होते हैं तो हवाएं बहती हैं परमात्मा की तरफ। समझदार आदमी अपनी नाव का पाल उनके साथ खोल लेता है।
चश्मे-मयगूं जरा इधर कर दे
दस्ते-कुदरत को बेअसर कर दे
तेज है आज दर्दे-दिल साकी
तल्खी-ए-मय को तेजतर कर दे
जोशे-वहशत है तिश्नाकाम अभी
चाके-दामन को ता-जिगर कर दे
मेरी किस्मत से खेलने वाले
मुझको किस्मत से बेखबर कर दे
लुट रही है मेरी मताए-नियाज
काश वह इस तरफ नजर कर दे
‘फैज’ तकमीले-आरजू मालूम
हो सके तो यूं ही बसर कर दे
चश्मे-मयगूं जरा इधर कर दे
मद भरी आंख जरा इधर कर दे।
दस्ते-कुदरत को बेअसर कर दे
और प्रकृति का जो मेरे ऊपर प्रभाव है, उसे बेअसर कर दे।
सदगुरु की आंख हो जाए तुम्हारी तरफ...
चश्मे-मयगूं जरा इधर कर दे
उसकी आंख में मद भरा है परमात्मा का। उसकी आंख में शराब ढल रही है परमात्मा की। सदगुरु की आंख तुम्हारी तरफ हो जाए तो बड़ी आसान है बात, कि वह जो प्रकृति की तुम्हारे ऊपर बड़ी जकड़ है, वह तत्क्षण ढीली हो जाए। जब बड़ी शराब उतरने लगे तो छोटी शराबें अपने आप रास्ते से हट जाती हैं।
तेज है आज दर्दे-दिल साकी
तल्खी-ए-मय को तेजतर कर दे
यही प्रार्थना है शिष्य की गुरु से कि और तेज, और तेज करता जा अपनी मस्ती को, और मेरी तरफ, और गहरे में मेरी अंतरात्मा में अपनी आंख को डालता जा।
जोशे-वहशत है तिश्नाकाम अभी
चाके-दामन को ता-जिगर कर दे
मेरी किस्मत से खेलने वाले
मुझको किस्मत से बेखबर कर दे
लुट रही है मेरी मताए-नियाज
काश वह इस तरफ नजर कर दे
बस एक ही प्रार्थना है, एक ही श्रद्धा है कि काश वह इस तरफ नजर कर दे!
‘फैज’ तकमीले-आरजू मालूम
इतना ही मालूम हो जाए कि उसकी नजर किसी दिन मेरी तरफ होगी तो भी पर्याप्त है।
हो सके तो यूं ही बसर कर दे
तब तो फिर जिंदगी ऐसे भी बसर हो सकती है। इतना भरोसा हो जाए!
‘फैज’ तकमीले-आरजू मालूम
हो सके तो यूं ही बसर कर दे
फिर तो शिष्य पड़ा रह जाता है गुरु के चरणों में इस राह में कि ठीक है, आज नहीं कल, कल नहीं परसों, कभी तो उसकी नजर होगी। कभी तो उसकी मदमस्ती मुझमें भी उतरेगी। और उतरती है, और निश्चित उतरती है, क्योंकि जिसकी प्रतीक्षा है और जिसकी श्रद्धा है, वह खाली नहीं लौटता है।
गुरु परताप साध की संगति, उलट दृष्टि जब ताको।
दृष्टि को उलटा करना है। आंख को भीतर ले जाना है। कौन पलटाएगा तुम्हारी आंख भीतर? बाहर देखने की आदत जड़ हो गई है। जिसने अपनी आंख भीतर पलटा ली है, वही तुम्हें सूत्र दे सकता है। वही तुम्हें जुगति सिखा सकता है, युक्ति दे सकता है।
यारी कहै सुनो भाई संतो, बज्र बेधि कियो नाको।
कठिन मार्ग है। वज्र को बेध कर रास्ता बनाना है। संग-साथ चाहिए होगा। मशाल की तरह कोई राह दिखाए अंधेरे में। और संगी-साथी हों, ताकि अकेले में भय न पकड़ ले, घबड़ाहट न पकड़ ले, भीरुता न पकड़ ले। टूट जाती हैं वज्र जैसी कठिनाइयां भी।
चश्मे-नम, जाने-शोरीदा काफी नहीं
तोहमते-इश्क-पोशीदा काफी नहीं
आज बाजार में पा-ब-जौला चलो
चश्मे-नम, जाने-शोरीदा काफी नहीं
उद्विग्न प्राण ही पर्याप्त नहीं हैं।
तोहमते-इश्क-पोशीदा काफी नहीं
इतना ही काफी नहीं है कि तुम, प्रेम नहीं मिल रहा है परमात्मा का मुझे, इसकी शिकायत करते रहो।
आज बाजार में पा-ब-जौला चलो
पैर में जंजीरें हैं, कोई फिक्र नहीं, उठो और चलो। सिर्फ बैठे-बैठे प्यास की बात और परमात्मा का प्रेम नहीं मिल रहा है, इसकी शिकायत से काम नहीं होगा।
आज बाजार में पा-ब-जौला चलो
जंजीर है पैर में सही, जंजीर बांधे ही चलो!
दस्त-अफ्सां चलो, मस्त-ओ-रक्सां चलो
मस्ती से चलो। रहने दो जंजीर, फिक्र न करो। जो भी चले हैं, पहले जंजीरों के साथ ही चले हैं। फिर वही जंजीरें एक दिन आभूषण हो गई हैं। जो भी चले हैं, अंधेरे में चले हैं। फिर वही अंधेरे एक दिन सुबह के आगमन के आधार बन गए हैं। रातें ही दिन बन गई हैं!
दस्त-अफ्सां चलो, मस्त-ओ-रक्सां चलो
खाक-बर-सर चलो, खूं-ब-दामां चलो
राह तकता है सब शहरे-जानां चलो
हाकिमे-शहर भी, मजमाए-आम भी
तीरे-इल्जाम भी, संगे-दुश्नाम भी
सुब्हे-नाशाद भी, रोजे-नाकाम भी
इनका दमसाज अपने सिवा कौन है
शहरे-जानां में अब बा-सफा कौन है
दस्ते-कातिल के शायां रहा कौन है
घबड़ाओ मत! यह भी मत सोचो कि मैं पापी और कैसे पहुंच पाऊंगा?
इनका दमसाज अपने सिवा कौन है
तुम्हारे जैसे ही लोग सदा रहे हैं। तुम्हारे ही जैसे लोग आज भी हैं।
इनका दमसाज अपने सिवा कौन है
शहरे-जानां में अब बा-सफा कौन है
अब इस दुनिया में पवित्र है कौन? इस दुनिया में कभी कोई पवित्र पैदा नहीं होता। पवित्रता तो इस दुनिया में ही अर्जित करनी होती है।
इनका दमसाज अपने सिवा कौन है
शहरे-जानां में अब बा-सफा कौन है
दस्ते-कातिल के शायां रहा कौन है
अब परमात्मा के चरणों में सिर को चढ़ा सके, उसकी खंजर से अपने सिर को कटा सके--दस्ते-कातिल के शायां रहा कौन है--अब इस योग्य कौन है?
मगर फिक्र न करो। तुम्हीं योग्य हो जाओगे।
रख्ते-दिल बांध लो, दिलफिगारो चलो
फिर हमीं कत्ल हो आएं यारो चलो
कोई फिक्र न करो। दिल का सामान, सफर का सामान बांध लो।
रख्ते-दिल बांध लो, दिलफिगारो चलो
फिर हमीं कत्ल हो आएं यारो चलो
अब नहीं हैं पवित्र लोग परमात्मा की राह पर मिट जाने को तो क्या करें, हम ही चलेंगे।
रख्ते-दिल बांध लो, दिलफिगारो चलो
फिर हमीं कत्ल हो आएं यारो चलो
जो मिटता है वही उसे पाता है। मिटना ही उसे पाने की कला है। बूंद जब सागर में मिट जाती है तो सागर हो जाती है।
आज इतना ही।
बिन बाती बिन तेल जुगति सों बिन दीपक उजियार।।
प्रानपिया मेरे गृह आयो, रचि-रचि सेज संवार।।
सुखमन सेज परमतत रहिया, पिया निर्गुन निरकार।।
गावहु री मिलि आनंद मंगल, यारी मिलि के यार।।
रसना राम कहत तें थाको।
पानी कहे कहुं प्यास बुझत है, प्यास बुझे जदि चाखो।।
पुरुष-नाम नारी ज्यों जानै, जानि बूझि जनि भाखो।।
दृष्टी से मुष्टी नहिं आवै, नाम निरंजन वाको।।
गुरु परताप साध की संगति, उलट दृष्टि जब ताको।।
यारी कहै सुनो भाई संतो, बज्र बेधि कियो नाको।।
दिल में नये अरमान बसाने का दिन आया
गुंचे की तरह दिल को खिलाने का दिन आया
फूलों की तरह हंसने-हंसाने का दिन आया
बादल की तरह झूम के छाने का दिन आया
मुस्कान की बरखा में नहाने का दिन आया
एक बुद्धपुरुष का जन्म इस पृथ्वी पर परम उत्सव का क्षण है। बुद्धत्व मनुष्य की चेतना का कमल है। जैसे वसंत में फूल खिल जाते हैं, ऐसे ही वसंत की घड़ियां भी होती हैं पृथ्वी पर, जब बहुत फूल खिलते हैं, बहुत रंग के फूल खिलते हैं, रंग-रंग के फूल खिलते हैं। वैसे वसंत आने पृथ्वी पर कम हो गए, क्योंकि हमने बुलाना बंद कर दिया। वैसे वसंत अपने आप नहीं आते, आमंत्रण से आते हैं। अतिथि बनाएं हम उन्हें तो आते हैं। आतिथेय बनें हम उनके तो आते हैं। प्रकृति का वसंत तो जड़ है, आता है, जाता है; लेकिन आत्मा के वसंत तो बुलाए जाते हैं तो आते हैं। हमने बुलाना ही बंद कर दिया। हमने प्रभु को पुकारना ही बंद कर दिया। पुकारते नहीं प्रभु को, आता नहीं प्रभु, तो फिर हम कहते हैं: प्रभु है कहां? प्रमाण क्या है उसका?
बिना बुलाए उसका कोई भी प्रमाण नहीं। बिना उसके आए उसका कोई भी प्रमाण नहीं। और जब आता है तो बाढ़ की तरह आता है। एक प्रमाण नहीं, अनंत प्रमाण लेकर आता है। स्वतःप्रमाण होकर आता है। जिस व्यक्ति ने भी कभी उसे पुकारा है, पुकार खाली नहीं गई है। यारी की पुकार भी खाली नहीं गई। यारी भी भर उठे--बड़ी सुगंध से! और लुटी सुगंध! उनके गीतों में बंटी सुगंध! और जब भी किसी व्यक्ति के जीवन में परमात्मा का आगमन होता है तो गीतों की झड़ी लग जाती है; उस व्यक्ति की श्वास-श्वास गीत बन जाता है। उसका उठना-बैठना संगीत हो जाता है। उसके पैर जहां पड़ जाते हैं, वहां तीर्थ बन जाते हैं।
ऐसे ही एक अदभुत व्यक्ति के साथ आज हम यात्रा शुरू करते हैं। यारी का जन्म हुआ दिल्ली में। नाम था: यार मोहम्मद। फिर मोहम्मद तो जल्दी ही खो गया। क्योंकि जिसे परमात्मा को पुकारना हो, वह हिंदू नहीं रह सकता, वह मुसलमान भी नहीं रह सकता, वह ईसाई भी नहीं रह सकता। परमात्मा को पुकारने के लिए कुछ शर्तें पूरी करनी पड़ती हैं। और पहली शर्त है--विशेषण छोड़ देने पड़ते हैं, आग्रह छोड़ देने पड़ते हैं, मंदिर और मस्जिद छोड़ देने पड़ते हैं। तभी तो खुद मंदिर बनोगे, खुद मस्जिद बनोगे। जब तक बाहर के मंदिर और मस्जिद को पकड़े रहोगे, याद ही न आएगी कि अपने भीतर भी एक मंदिर था। और उस मंदिर में न कभी दीप जले, और उस मंदिर में न कभी धूप जली। उस मंदिर में कभी नाद न हुआ। अपने भीतर भी एक मस्जिद थी, जिसमें कभी अजान न उठी, जिसमें कभी नमाजें न पढ़ी गईं, जहां अंधेरा था तो अंधेरा ही रहा।
बाहर के मंदिर-मस्जिदों में जो भटका है, वह भीतर के असली मंदिर और मस्जिद से वंचित रह जाएगा। जिसने नजर बाहर रखी, वह कभी परमात्मा को नहीं पा सकेगा। और धन को खोजने वाले भी बाहर खोजते हैं, और ध्यान को खोजने वाले भी बाहर खोजते हैं। धन के खोजने वालों को क्षमा किया जा सकता है, ध्यान के खोजने वालों को क्षमा नहीं किया जा सकता। धन तो बाहर है, ध्यान तो बाहर नहीं है। पद खोजते हो, प्रतिष्ठा खोजते हो; बाहर ही खोजनी पड़ेगी। परमात्मा खोजना है तो भीतर खोजना पड़ेगा। और भीतर कोई हिंदू है? कि भीतर कोई मुसलमान है? कि भीतर कोई ईसाई है? कि कोई जैन है? कि कोई बौद्ध है? कि कोई सिक्ख है? कि पारसी है? भीतर तो तुम निर्मल हो, निराकार हो। भीतर तो तुम विशेषणरहित हो--न तुम ब्राह्मण, न तुम शूद्र; न तुम स्त्री, न तुम पुरुष; न तुम गोरे, न तुम काले। भीतर तो तुम बच्चे भी नहीं, जवान भी नहीं, बूढ़े भी नहीं। भीतर तो तुम शाश्वत हो, समयातीत हो, कालातीत हो। और भीतर का ही स्वाद मिले तो परमात्मा का स्वाद मिले।
सो जल्दी ही यार मोहम्मद का मोहम्मद कहां खो गया, पता नहीं! अब तो लोग अनुमान लगाते हैं कि यार मोहम्मद नाम रहा होगा। यह अनुमान है, ऐतिहासिक कोई प्रमाण नहीं। ऐसा ही होता है। ये तो बाहर के रंग हैं। यह तो एक उसकी वर्षा का झोंका आया कि ये रंग बह जाएंगे। शिष्य थे वीरू फकीर के। वीरू मुसलमान नहीं हैं। वीरू तो जन्मे थे हिंदू घर में। लेकिन जब कोई ज्योति जलती है तो सब तरह के दीवाने चले आते हैं, भांति-भांति के परवाने चले आते हैं! उस मदमस्ती में कौन देखता है--कौन हिंदू, कौन मुसलमान? वीरू खुद एक मुसलमान फकीर स्त्री के शिष्य थे--बावरी साहिबा के।
संतों का जगत कुछ और ही है। वहां बाहर के भेदों का कोई मूल्य नहीं। यह स्त्री, बावरी साहिबा भी बड़ी अदभुत स्त्री थी। स्त्रियां तो थोड़ी ही हुई हैं जो अंगुलियों पर गिनी जा सकें, उनमें बावरी भी एक है। उसका तो नाम भी पता नहीं। ऐसी पागल हुई प्रभु के प्रेम में कि बस इतनी ही याद रह गई है कि बावरी थी, कि दीवानी थी, कि पागल थी। बावरी थी मुसलमान--संस्कारगत, जन्मगत। शिष्य थे वीरू--जन्मगत, संस्कारगत हिंदू। प्रशिष्य थे यारी साहब, फिर मुसलमान। ऐसे यारी में दो धाराओं का मिलन हुआ। ऐसे यारी में संगम हुआ। और यारी के वचनों में जगह-जगह उस संगम की झलक मिलेगी।
पहले मोहम्मद गया; फिर यार थे, यार से यारी हो गए। वह बात भी समझ लेनी चाहिए। यार का अर्थ होता है--मित्र; यारी का अर्थ होता है--मैत्री, मित्रता। जब अहंकार खो जाए तो मित्र मैत्री हो जाता है, मित्र मित्रता हो जाता है। जब अहंकार खो जाए तो फूल खो जाता है, सुवास रह जाती है। फिर तुम पकड़ नहीं सकते इस सुवास को, मुट्ठी में बांध नहीं सकते इस सुवास को। न उसका कोई रूप है, न रंग है। ऐसी ही मैत्री है।
बुद्ध ने तो कहा है कि बुद्धपुरुष कल्याण-मित्र होते हैं। यारी एक कल्याण-मित्र हैं।
मगर एक और अनूठी बात कि यारी से यार शब्द भी खो गया। मित्र में भी थोड़ी सी सीमा है। मित्रता असीम है। मित्र में केंद्र है, कहीं छिपा मैं है। मित्रता में मैं तो गया, बिलकुल गया! प्रेम अपनी परिशुद्धि में प्रकट होता है। मित्रता और मैत्री में भी थोड़ा फर्क है। मित्रता होती है दो व्यक्तियों के बीच; एक संबंध है मित्रता। मैत्री संबंध नहीं है, समाधि की अवस्था है। मैत्री, दूसरा न भी हो तो भी चलती है, तो भी बहती है। मित्रता के लिए दूसरा जरूरी है, मैं और तू का नाता जरूरी है। मित्रता में द्वैत शेष रहता है। मैत्री में द्वैत भी अशेष हो जाता है।
मैत्री का अर्थ है: वृक्ष हो तो, चट्टान हो तो, आकाश में बादल हो तो, कोई भी न हो तो, तो भी सुवास उड़ती रहती है; तू से नहीं बंधी है। जब मैं ही न रहा तो तू कैसे रहेगा? मैं और तू तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इधर गया मैं, उधर गया तू। तब एक सहज प्रेम का प्रवाह रह जाता है--निरुद्देश्य, किसी पते पर निवेदित नहीं। प्रेम की पाती तो लिखी जाती है, लेकिन किसी पते पर नहीं। और जब तुम बिना किसी पते के प्रेम की पाती लिखते हो तो परमात्मा तक पहुंचती है।
मैत्री मित्रता की पराकाष्ठा है। छूट गए सीमाओं के बंधन, गिर गईं जंजीरें, मैत्री ने पंख फैला दिए, उड़ गई आकाश में! प्रेम का चरम रूप है। इसलिए नाम प्यारा है! यार मोहम्मद से रह गए यार; फिर यार भी खो गया, बची यारी। और इसलिए मैं कहता हूं:
दिल में नये अरमान बसाने का दिन आया
गुंचे की तरह दिल को खिलाने का दिन आया
फूलों की तरह हंसने-हंसाने का दिन आया
बादल की तरह झूम के छाने का दिन आया
मुस्कान की बरखा में नहाने का दिन आया
गिरने देना यारी के वचनों को जैसे वर्षा की बूंदाबांदी हो। घिरने देना उनके मेघ को तुम्हारे ऊपर! नहा लेना! यही वस्तुतः गंगा का स्नान है। संतों की वाणी बरस जाए तुम पर तो देह ही नहीं शुद्ध हो जाती, प्राणों के प्राणों तक भी शुद्धि पहुंच जाती है। तन ही नहीं नहा लेता, मन ही नहीं नहा लेता, तन और मन के पीछे छिपा हुआ साक्षी भी सारी धूल झाड़ कर उठ बैठता है। नींद टूट जाती है। और तुम्हारे भीतर जो कली न मालूम कितने दिन से बे-खिली पड़ी थी, खिल उठती है। खिले हुए फूलों के संग-साथ का यही तो अर्थ है। खिले हुए फूलों के संग-साथ का यही तो प्रयोजन है कि तुम्हें भी याद आ जाए कि तुम भी खिलने को आए थे यहां और बिना खिले मत लौट जाना। तुम्हें भी याद आ जाए कि खिलना तुम्हारी भी क्षमता है, तुम्हारा भी स्वभाव है।
ऐसे करना यारी का सत्संग!
सूत्र: ‘बिरहिनी मंदिर दियना बार।’
हम सब विरह में हैं, हमें पता हो या न पता हो। बीमार तो बीमार है, बीमार को पता हो या न पता हो। बीमारी महीनों चलती है; और जब तक कोई चिकित्सक न मिल जाए, ठीक-ठीक निदान भी नहीं हो पाता कि बीमारी क्या है। नहीं मिला था चिकित्सक तो भी बीमारी तो चलती थी।
रूस में एक बड़े वैज्ञानिक किरलियान ने एक नये किस्म की फोटोग्राफी का आविष्कार किया है, जिसमें बीमारी के आने के छह महीने पहले बीमारी का पता चल जाता है। बीमार होने के छह महीने पहले! अभी बीमार को भी छह महीने बाद पता चलेगा। और बीमार को भी पता चलते-चलते जब महीने, दो महीने बीत जाएंगे, तब वह चिकित्सक के पास जाएगा। लेकिन किरलियान फोटो से छह महीने पहले पता चल जाता है कि किस तरह की बीमारी, किस भांति की बीमारी पकड़ने वाली है। कहीं बीमारी ने पकड़ ही लिया है किसी गहरे तल पर। उस गहरे तल से आते-आते तुम्हारे चेतन तक, अचेतन से चेतन की यात्रा करते-करते समय लगेगा। फिर कुछ दिन तो तुम टालोगे। कुछ दिन तो तुम मन समझा लोगे कि यों ही होगा, कि सर्दी-जुकाम है, कि सिरदर्द है, कि थकान है, कि काम ज्यादा है, कि कल रात ठीक से सो नहीं पाए। टालते रहोगे कुछ बहाने खोज कर। और कुछ बीमारियां तो ऐसी हैं कि आदमी जिंदगी भर टाल सकता है। और कुछ बीमारियां तो इतनी सूक्ष्म हैं कि टालने की जरूरत ही नहीं पड़ती, पता ही नहीं चलता है। उतनी सूक्ष्म बुद्धि ही कम लोगों के पास है। उतनी प्रकीर्ण संवेदनशीलता ही बहुत कम लोगों के पास है।
फिर शरीर की बीमारियों की बात हुई यह तो; मन की बीमारियां और भी गहरी हैं। मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि चार में से तीन लोग मानसिक रूप से बीमार हैं। चार में से तीन तो बड़ी संख्या हो गई! और मनोवैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि चौथा स्वस्थ है, यह भी हम गारंटी से नहीं कह सकते। तीन तो निश्चित बीमार हैं, चौथा संदिग्ध है।
यह तो खूब बात हुई! इसका तो अर्थ हुआ कि सारी मनुष्यता बीमार है! और यह तो मन की बीमारी की बात है; फिर उसके गहरे आत्मा की बीमारी है। जब मन में चार में से तीन बीमार हैं और चौथा संदिग्ध है, तो आत्मा के संबंध में तो निश्चित मानो कि चारों बीमार हैं और चारों की बीमारी सुनिश्चित है। उस बीमारी का नाम विरह है।
विरह का अर्थ होता है: हमें अपनी जड़ें भूल गई हैं; हमारा परमात्मा से संबंध टूट गया है। हम जिसमें हैं, उसका ही हमें पता भूल गया है। जो हमारी श्वासों की श्वास है, जो हमारे प्राणों का प्राण है, उससे हमारे सेतु छिन्न-भिन्न हो गए हैं। जो हमारा आनंद बनेगा, उसकी ही तरफ हमने पीठ कर ली है। और जो हमें शाश्वत जीवन का द्वार खोलेगा, हम उस द्वार से विपरीत भागे जा रहे हैं। हम धन की तलाश में हैं, ध्यान की तलाश में नहीं। धन बाहर है, बहुत दूर है; क्षितिज की भांति है; भागते रहो, भागते रहो, कभी मिलता नहीं। और ध्यान भीतर है; भागो तो नहीं मिलता, रुक जाओ तो मिल जाता है, ठहर जाओ तो मिल जाता है। और हम सब भाग रहे हैं। और हर भाग-दौड़ हमें अपने से ही दूर लिए जा रही है, अपने ही स्रोत से दूर लिए जा रही है।
जैसे कोई वृक्ष भागने लगे। बस फिर दुर्दिन आए! क्योंकि जड़ें उखड़ जाएंगी। और जहां प्राणों के स्रोत थे, जहां जलस्रोत थे, जिस भूमि से भोजन मिलता था, उससे नाते छिन्न-भिन्न हो जाएंगे। जैसे कोई वृक्ष आवारा हो जाए, घुमक्कड़ हो जाए, खानाबदोश हो जाए, तो क्या खाक जीएगा! जल्दी ही हरियाली खो जाएगी। जल्दी ही पत्ते झड़ जाएंगे। कलियां फूल तो न बनेंगी, कलियों की तरह ही झड़ जाएंगी और धूल में मिल जाएंगी। फूल फिर कभी न खिलेंगे। वसंत तो आता रहेगा, जाता रहेगा; मगर इस वृक्ष के जीवन में फिर कोई वसंत से संबंध न होगा। और वर्षा भी आएगी, और बादल भी घिरेंगे, और मेघ भी बरसेंगे, लेकिन इस वृक्ष पर अब हरी पत्तियां न फूटेंगी, अब नये कलगे न निकलेंगे। यह वृक्ष तो रूखा-सूखा, मुर्दा, अस्थिपंजर मात्र, सब तरफ से उद्विग्न, विक्षिप्त भटकता रहेगा। ऐसे हम हो गए हैं। ऐसा मनुष्य हो गया है।
विरह का अर्थ है: जिसके साथ हमारे जीवन का सारा सार है, उससे ही हम टूट गए हैं। जो हमारे प्राणों का प्राण है, जो हमारा प्यारा है, उससे ही हम विमुख हो गए हैं।
सम्मुख हो जाओ। उसकी तरफ आंखें उठाओ। उससे गले लग जाओ। उसमें डूबो। और उसमें डूब कर ही तुम पाओगे कि तुमने अपने को बचा लिया। और अपने को जो बचाएंगे, वे अंततः पाएंगे कि बुरी तरह डूबे, बुरी तरह टूटे, बुरी तरह मिटे! बचे तो नहीं, सब गंवा बैठे।
ऐसे लोग जो परमात्मा के विपरीत जीते हैं, खाली हाथ ही आते हैं और खाली हाथ ही जाते हैं। और भी ज्यादा खाली हाथ जाते हैं। वे लोग जो परमात्मा में जीते हैं, वे भरे-भरे जीते हैं। उनकी जिंदगी में एक परितोष होगा, एक अपूर्व आनंद होगा, एक उत्सव होगा। उनसे गीत फूटेंगे, उनसे नृत्य उमगेंगे। उनके पैरों में घूंघर बंधेगी। पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे! वे थोड़े से मतवाले लोग ही जीवन के रहस्य को पहचान पाते हैं, और जीवन के रस को पी पाते हैं। और जीवन का रस अमृत है; जिसने पी लिया, उसकी फिर कोई मृत्यु नहीं। और जो बिना पीए रह गया, उसका कोई जीवन नहीं। झूठा ही जीता है वह। ऐसे ही ऊपर-ऊपर जीता है वह। उसका जीवन नपुंसक है। उसमें कोई ऊर्जा नहीं है।
बिरहिनी मंदिर दियना बार।
यह तुमसे कहा है। यह सबसे कहा है। उन सबसे कहा है जो परमात्मा के विपरीत जी रहे हैं और विरह में तड़प रहे हैं। समझ में भी नहीं आता कि विरह किस बात का है! ऐसा लगता तो है, आभास तो होता है कि कुछ खोया-खोया है; कुछ जो होना था, नहीं हुआ है। ऐसी कुछ-कुछ झलक तो मिलती है, लेकिन बड़ी धुंधली-धुंधली, आभास मात्र; अनुमान सा लगता है। अंधेरे में देखा हो जैसे, ऐसा प्रतीत होता है। और उसी आभास के कारण हम और भी तेजी से दौड़ने लगते हैं, कि जरूर कुछ खोया है और पाना है। मगर जो खोया है वह भीतर खोया है; और दौड़ते हम बाहर हैं। जितना दौड़ते हैं, उतने ही दूर निकल जाते हैं--उससे जिसे पाना है।
इस दुनिया में जो बहुत सफल हो जाते हैं, ध्यान रखना, उनकी सफलता महंगी बात है। क्योंकि जितने वे सफल हो जाते हैं इस दुनिया में--धन पाने में, पद पाने में, प्रतिष्ठा पाने में--उतने ही असफल हो जाते हैं अपने अंतर्लोक में। इधर धन के ढेर लग जाते हैं, उधर भीतर दरिद्रता के ढेर लग जाते हैं। इधर बाहर पद ऊंचे से ऊंचा होने लगता है, भीतर खाई गहरी से गहरी होने लगती है। इधर बाहर प्रतिष्ठा मिलने लगती है, सम्मान मिलने लगता है, भीतर दीनता कांटे की तरह चुभने लगती है।
बिरहिनी मंदिर दियना बार।
मंदिर से अर्थ है तुम्हारी देह से। क्योंकि इसी मंदिर में तो परमात्मा विराजमान है। कहां भागे जाते हो? किसे खोजने निकले हो? अनंत से तो खोज रहे हो, मिला नहीं। जरूर कोई बुनियादी चूक हो रही है। जो भीतर हो, उसे बाहर खोजोगे तो कैसे पाओगे? मंदिर हो तुम!
और तुम्हारे तथाकथित पंडित-पुरोहित तुम्हारी देह की निंदा में संलग्न हैं। सदियों से उनका एक ही काम है कि तुम्हारी देह की निंदा करें, कि तुम्हें देह का शत्रु बनाएं, कि तुम्हें बताएं कि देह के कारण ही तुम परमात्मा से टूटे हो।
झूठी यह बात है, सरासर झूठी यह बात है, सौ प्रतिशत झूठी यह बात है। तुम्हारी देह परमात्मा के विपरीत नहीं है। तुम्हारी देह को तो परमात्मा ने अपना आवास बनाया है। तुम्हारी देह मंदिर है, पूजा का स्थल है, काबा है, काशी है! तुम्हारी देह को दबाना मत, सताना मत। तुम्हारी देह को तोड़ने में मत लग जाना। हालांकि यही तुम्हें सिखाया गया है, यही जहर तुम्हें पिलाया गया है। दूध के साथ, घुट्टी के साथ तुम्हें यह जहर पिलाया गया है कि देह पाप है। और जिसको यह समझ में आ गई बात, जिसके भीतर यह बात बहुत गहराई में बैठ गई, यह नासमझी कि देह पाप है, वह परमात्मा से कभी भी न मिल सकेगा। क्योंकि देह से डरा-डरा बाहर-बाहर रहेगा और देह के भीतर तो प्रवेश कैसे करेगा? पाप में कहीं प्रवेश किया जाता है!
देह उसकी भेंट है, पाप नहीं। देह पुण्य है, पाप नहीं। देह पवित्र है, अपवित्र नहीं। देह का सम्मान करो। देह का सत्कार करो। और तभी तो तुम प्रवेश कर पाओगे। देह से मैत्री बनाओ, यारी साधो! और धीरे-धीरे देह में भीतर सरको।
योग तैयार करता है तुम्हारी देह को, ताकि तुम भीतर सरक सको; तुम्हारे देह के द्वार खोलता है। और ध्यान तुम्हें देह के भीतर बैठने की कला सिखाता है। और जिसने देह के द्वार खोल लिए योग से और जिसने ध्यान से भीतर बैठने की कला सीख ली, पा लिया उसने परमात्मा को! सदा परमात्मा ऐसे ही पाया गया है।
...मंदिर दियना बार।
आत्म-ज्योति भीतर जलानी है। यह दीया तुम्हारी देह में जलना है। जलाना है, कहना शायद ठीक नहीं--जल ही रहा है, पहचानना है, प्रत्यभिज्ञा करनी है।
रंग है जिसमें मगर बू-ए-वफा कुछ भी नहीं,
ऐसे फूलों से न घर अपना सजाना हरगिज।
दिल तुम्हारा है वफाओं की परस्तिश के लिए,
इस मोहब्बत के शिवाले को न ढाना हरगिज।
यह तुम्हारी देह, यह तुम्हारा दिल धड़कता है जो भीतर, इसी के अंतरतम में परमात्मा विराजमान है। तुम झूठे फूलों में भटके हो, जब कि सच्चा फूल तुम्हारे भीतर खिलने को राजी है। तुम्हारी झील में नीलकमल खिलने को राजी है; और तुम मांगते फिरते हो प्लास्टिक के फूलों को! बाजारों में खरीद रहे हो कागज के फूलों को!
रंग है जिसमें मगर बू-ए-वफा कुछ भी नहीं,
ऐसे फूलों से न घर अपना सजाना हरगिज।
दिल तुम्हारा है वफाओं की परस्तिश के लिए,
इस मोहब्बत के शिवाले को न ढाना हरगिज।
उतरो देह की सीढ़ियों से, पाओगे हृदय को। वह तुम्हारा अंतरगृह है। फिर उतरो हृदय की सीढ़ियों से और तुम पाओगे उस अमृत के स्रोत को--जिसके बिना जीवन उदास है, जिसके बिना जीवन संताप है, जिसके बिना जीवन विषाद है!
बिरहिनी मंदिर दियना बार।
ऐ विरही लोगो! अपने घर में आत्म-ज्योति को जलाओ, या जलती आत्म-ज्योति को पहचानो।
कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल, कब रात बसर होगी
सुनते थे वह आएंगे, सुनते थे सहर होगी
कब जान लहू होगी, कब अश्क गुहर होगा
किस दिन तेरी शनवाई ऐ दीदा-ए-तर होगी
कब महकेगी फस्ले-गुल, कब बहकेगा मयखाना
कब सुब्हे-सुखन होगी, कब शामे-नजर होगी
वाइज है न जाहिद है, नासेह है न कातिल है
अब शहर में यारों की किस तरह बसर होगी
दुनिया बड़ी सूनी हो गई है। दुनिया बड़ी सूनी है! अब नहीं मिलते यारी जैसे लोग। दुनिया बड़ी उदास है। आदमियों की भीड़ बढ़ती गई है और आदमी खोता गया है। आदमियों की भीड़ बढ़ती गई है और आत्मा खोती गई है। अब नहीं मिलते वे प्यारे लोग, या बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। कभी गांव-गांव उनके दीये जलते थे। कभी बस्ती-बस्ती उनकी रोशनी से रोशन थी। इस जमीन ने बड़े प्यारे फूल उगाए हैं!
क्यों ऐसा हो गया? अब प्यारे फूल क्यों नहीं उगते? झाड़ियां अब भी हैं, मगर गुलाब के फूलों के दर्शन नहीं होते। कहीं कोई बुनियादी चूक हमारे दृष्टिकोण में हो गई है। हम ज्यादा से ज्यादा बहिर्मुखी हो गए हैं। और अब तो बहिर्मुखता की हद आ गई! अब तो इस हद के आगे गए तो मौत है। इस हद के आगे गए तो आदमियत समाप्त है। अब तो लौट पड़ना होगा। अब तो फिर खोए खजाने खोजने होंगे।
कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल, कब रात बसर होगी
सुनते थे वह आएंगे, सुनते थे सहर होगी
सदियों-सदियों तक लोगों ने परमात्मा की प्रतीक्षा में दिन और रातें बिताई थीं। अब तो याद भी नहीं आती! अब तो परमात्मा हमारी जिंदगी का हिस्सा ही नहीं है। अब तो हम परमात्मा शब्द का भी उपयोग करते हैं तो औपचारिक ढंग से करते हैं। अब उसमें अर्थ नहीं रह गया है, क्योंकि अर्थ हम डालते ही नहीं हैं तो उसमें अर्थ आएगा कहां से? शब्दों में अर्थ नहीं होते, अर्थ तो जीवन से डालने होते हैं।
कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल, कब रात बसर होगी
कब टूटेगी यह रात? और दिल की ये बेचैनियां और दिल के ये दुख भरे क्षण कब समाप्त होंगे?
सुनते थे वह आएंगे, सुनते थे सहर होगी
सुनते रहे हैं, सुनते रहे हैं कि सुबह होगी, सुबह होगी; होती मालूम नहीं होती। अंधेरा सघन से सघन होता जाता है।
कब जान लहू होगी, कब अश्क गुहर होगा
कब आएगा वह क्षण जब आंसू मोती बन जाते हैं?
सच, आंसू मोती बन जाते हैं! जो परमात्मा की राह पर रोता है, उसके आंसू मोती बन जाते हैं। आदमी की राह पर जो चलता है, उसके तो मोती भी आंसुओं से बदतर हैं। यहां तो धन भी पा लो तो निर्धनता ही हाथ लगती है। यहां तो मोती भी आज नहीं कल पता चलते हैं कि बस दो कौड़ी के थे। मगर एक और राह भी है।
कब जान लहू होगी, कब अश्क गुहर होगा
किस दिन तेरी शनवाई ऐ दीदा-ए-तर होगी
और कब तेरे दर्शन होंगे? उसके दर्शन होते ही तुम्हारी साधारण आंखें असाधारण दृष्टियों में बदल जाती हैं; तुम्हारी साधारण देह दीप्त हो उठती है। तुम्हारी देह फिर मिट्टी की नहीं रह जाती, आकाश की हो जाती है। फिर जमीन की कशिश तुम्हें नीचे नहीं खींच पाती, फिर आकाश का प्रसाद तुम्हें ऊपर उठा लेता है।
कब महकेगी फस्ले-गुल...
कब आएगा वसंत? कब खिलेंगे फूल? कब उठेगी महक?
कब महकेगी फस्ले-गुल, कब बहकेगा मयखाना
कब हम नाचेंगे दीवाने होकर? क्योंकि जो नहीं नाचा दीवाना होकर, वह व्यर्थ ही आया और व्यर्थ ही गया। जब तक पृथ्वी मयखाना न हो जाए, जब तक तुम्हारा जीवन मस्ती की एक लहर न हो जाए, जब तक तुम्हारी श्वास-श्वास में परमात्मा की शराब की सुगंध न आने लगे--तब तक जानना कि व्यर्थ ही जीए हो, तब तक जानना कि अभी यात्रा ने ठीक मोड़ नहीं लिया है।
कब महकेगी फस्ले-गुल, कब बहकेगा मयखाना
कब सुब्हे-सुखन होगी, कब शामे-नजर होगी
कब होगी वह प्यारी प्रभात जब सूरज उगेगा? कब आएगी वह सांझ विश्राम की, परम विश्राम की?
वाइज है न जाहिद है, नासेह है न कातिल है
अब शहर में यारों की किस तरह बसर होगी
अब तो यहां प्रेमियों का रहना मुश्किल हो गया। अब तो यहां भक्तों का जीना मुश्किल हो गया। अब तो यहां संतों की संभावना ही क्षीण होती चली जाती है। यह हमने कैसी दुनिया बना ली! यह हमने आदमी को कैसी शक्ल दे दी! और परिणाम क्या है? परिणाम यही है कि चारों तरफ एक गहन हताशा है। परिणाम यही है कि चारों तरफ दिलों ने धड़कना बंद कर दिया है। आंखों में मस्ती नहीं है। प्राणों में कोई गीत नहीं है। पैरों में कोई नृत्य नहीं है। परिणाम यही है कि थके-मांदे, किसी तरह धक्के खाते भीड़ के, हम अपनी कब्रों की तरफ बढ़े जाते हैं। कहीं कोई तारा नहीं दिखाई पड़ता, दूर आकाश में भी कोई तारा नहीं दिखाई पड़ता।
तारों ही तारों से भर जाता है आकाश, बस भीतर की ज्योति दिखाई पड़ जाए पहले। वहीं से शुरू होती है ठीक-ठीक यात्रा। जिसने भीतर ज्योति देखी, उसे चारों तरफ ज्योतिर्मय के दर्शन होने लगते हैं।
बिरहिनी मंदिर दियना बार।
इसलिए यारी कहते हैं: एक काम कर लो। तुम्हारा विरह मुझे छूता है, तुम्हारा दुख मुझे छूता है। तुम्हें मैं कुंजी देता हूं:
बिरहिनी मंदिर दियना बार।
बिन बाती बिन तेल जुगति सों बिन दीपक उजियार।
मैं तुम्हें एक ऐसी युक्ति देता हूं। एक ऐसा चमत्कार तुम्हारे भीतर घट सकता है; क्योंकि मेरे भीतर घटा है। जो एक के भीतर घटा है, सबके भीतर घट सकता है। बिन बाती बिन तेल! वहां भीतर एक ज्योति जलती है; उसमें तेल नहीं डालना पड़ता, उसमें बाती नहीं लगानी पड़ती। वहां कोई दीपक भी है, यह कहना ठीक नहीं; मगर उजियारा बहुत है, रोशनी बहुत है। जिन दीयों में तेल भरना पड़ता है, वे तो बुझ जाएंगे, आज नहीं कल बुझ जाएंगे, तेल चुकेगा और बुझ जाएंगे। जिनकी बाती लगानी पड़ती है, बाती जल जाएगी और बुझ जाएंगे। जिन्हें दीयों की जरूरत पड़ती है--मिट्टी के दीये हैं, कभी भी टूट जाएंगे। एक ऐसी ज्योति खोजनी है...और वह ज्योति हमारा स्वरूप-सिद्ध अधिकार है; हम ही हैं वह ज्योति--न जहां तेल है, न बाती है, न दीया है, और उजियारा बहुत!
मगर तुमने तो भीतर आंख फेरनी ही बंद कर दी। तुम्हारी आंखें तो बाहर ऐसी अटक गई हैं कि भूल ही गई हैं कि भीतर भी एक लोक है। दौड़े चले जाते हो! बाहर की चीजों में बहुत चमक मालूम पड़ती है। बहुत चौंधियाए हुए हो!
बिन बाती बिन तेल जुगति सों बिन दीपक उजियार।
यह अपूर्व घटना घटती है साधक को। और जिस दिन यह घटती है उस दिन ही परमात्मा का रहस्य पहली दफा अनुभव में आता है--रहस्यों का रहस्य--कि हमारे भीतर एक शाश्वत उजियाला है, जो जन्म के पहले भी था और मृत्यु के बाद भी रहेगा! और ऐसा उजियाला, जिसका कोई कारण नहीं है, जो अकारण है! चूंकि अकारण है, इसलिए बुझाया नहीं जा सकता। चूंकि अकारण है, इसलिए मौत भी उसे मिटा न सकेगी। मिट्टी का दीया होता तो मौत मिटा देती। तुम देह नहीं हो। और अगर तेल भरा होता तो कभी न कभी चुक ही जाता। कितना ही तेल हो, कभी न कभी चुक जाएगा।
यह सूरज करोड़ों-करोड़ों वर्षों से, अरबों वर्षों से रोशनी दे रहा है। मगर वैज्ञानिक कहते हैं, यह भी चुक रहा है। इसका तेल भी चुका जा रहा है, इसका ईंधन भी चुका जा रहा है। घबड़ा मत जाना, जल्दी नहीं चुकने वाला है। कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि कम से कम चार हजार साल और...मगर सूरज भी चुक जाएगा। सूरज कितना बड़ा दीया है! इस जमीन से साठ हजार गुना बड़ा है! लेकिन उसकी रोशनी भी रोज-रोज झरती जाती है, रोज-रोज कम होती जाती है। कितने ही बड़े खजाने हों, एक न एक दिन चुक ही जाएंगे--देर-अबेर!
सिर्फ एक खजाना नहीं चुकता है--वह परमात्मा का है। सिर्फ एक ज्योति नहीं बुझती है--वह परमात्मा की है। और जागो! तुम उस ज्योति के धनी हो। तुम उस ज्योति के मालिक हो। तुम्हें बहुमूल्य से बहुमूल्य भेंट दी गई है। और अभागे हो तुम कि उस भेंट को न तुम देखते हो, न उस भेंट का सम्मान करते हो, न उस भेंट के लिए तुमने परमात्मा को कोई धन्यवाद दिया है।
मलिका-ए-शहरे-जिंदगी तेरा
शुक्र किस तौर से अदा कीजे
दौलते-दिल का कुछ शुमार नहीं
तंगदस्ती का क्या गिला कीजे
हम कंजूस हैं, यह और बात; मगर जो हमें मिला है, वह अजस्र स्रोत है। लुटाते जाओ, लुटाते जाओ, तो भी लुटा न पाओगे। बांटो, कितना ही बांटो और बांट न पाओगे। मगर हम बड़े कंजूस हैं। हम देने में बड़े कंजूस हैं। हम प्रेम भी देने में डरते हैं। हम रोशनी भी देने में डरते हैं। हमें डर लगा रहता है, कहीं चुक न जाए! और हमारे डर का कारण है। हमने बाहर का गणित सीखा है। बाहर का गणित यही है कि चीजें चुक जाती हैं। कितना ही धन हो, चुक जाता है। अगर बांटते रहोगे तो जल्दी ही खजाने खाली हो जाएंगे।
मगर तुम्हें भीतर का गणित पता ही नहीं कि भीतर का गणित बाहर के गणित से ठीक उलटा है। बाहर का अर्थशास्त्र है कि बचाओगे तो बचेगा; बांटोगे, खत्म हो जाएगा। यह सीमित अर्थशास्त्र की भाषा है। भीतर का अर्थशास्त्र भी है--और वही वस्तुतः अर्थशास्त्र है। बाहर का अर्थशास्त्र तो अनर्थशास्त्र है। भीतर का ही अर्थशास्त्र वास्तविक है। वहां का सूत्र है: बांटो तो बचेगा, बचाया तो सड़ जाएगा।
बांटो ज्ञान! बांटो प्रेम! बांट सको जो भी भीतर का, बांटो। और तुम चकित होकर पाओगे: जितना बांटते हो, उतना ही बढ़ता जाता है। जिसने जितना बांटा, उसने उतना पाया।
मलिका-ए-शहरे-जिंदगी तेरा
शुक्र किस तौर से अदा कीजे
दौलते-दिल का कुछ शुमार नहीं
तंगदस्ती का क्या गिला कीजे
जो तेरे हुस्न के फकीर हुए
उनको तशवीशे-रोजगार कहां
दर्द बेचेंगे, गीत गाएंगे
इससे खुशवक्त कारोबार कहां
जिन्होंने एक बार तेरी संपदा देख ली, तेरी ज्योति देख ली...
जो तेरे हुस्न के फकीर हुए
और जिसने एक बार तेरा सौंदर्य देख लिया, तेरी महिमा देख ली...
जो तेरे हुस्न के फकीर हुए
उनको तशवीशे-रोजगार कहां
उन्हें फिर जिंदगी में कोई और कमाने जैसी चीज नहीं रह जाती। उन्होंने तो पा लिया। सब पाने का पा लिया। धनों का धन पा लिया।
जो तेरे हुस्न के फकीर हुए
उनको तशवीशे-रोजगार कहां
दर्द बेचेंगे, गीत गाएंगे
इससे खुशवक्त कारोबार कहां
अब तो तुझे ही बांटेंगे। अब तो तेरे ही गीत गाएंगे। तेरे विरह की पीड़ा बांटेंगे। तेरे मिलन के गीत गाएंगे।
जाम छलका तो जम गई महफिल
मिन्नते-लुत्फे-गमगुसार किसे?
अश्क टपका तो खिल गया गुलशन
रंजे-कमजर्फी-ए-बहार किसे?
जाम छलका तो जम गई महफिल
और जहां कभी ऐसा एक भी व्यक्ति हो जिसने भीतर का उजियाला देखा हो, उसका जाम छलकने लगता है, बहने लगता है ऊपर से। इतनी शराब उसके भीतर होती है कि बहने लगती है।
बुद्ध इसलिए नहीं बोले हैं कि तुम्हें समझाना था। वह तो गौण बात है। बोलना ही पड़ा।
जाम छलका तो जम गई महफिल
जीसस बोले हैं; इसलिए नहीं कि तुम्हें जगाना था। वह तो गौण बात है। वह तो परिणाम है। बोलना ही पड़ा। दीया जलेगा तो ज्योति बिखरेगी ही। इसलिए नहीं कि जो भटके हैं उन्हें राह मिल जाए। उन्हें राह मिल जाएगी, यह और बात। और फूल खिलेगा तो रंग, फूल खिलेगा तो गंध बिखरेगी। इसलिए नहीं कि तुम्हारे नासापुटों को सुवास मिल जाए। हां, जो पास से गुजरेंगे उनके नासापुट सुगंध से भर ही जाएंगे, वह गौण बात।
जाम छलका तो जम गई महफिल
इसलिए जहां भी कभी किसी ने भीतर का उजियाला देख लिया--बिन बाती बिन तेल जुगति सों बिन दीपक उजियार--उनका जाम छलकने लगता है। वहीं मधुशाला खुल जाती है।
जाम छलका तो जम गई महफिल
मिन्नते-लुत्फे-गमगुसार किसे?
अश्क टपका तो खिल गया गुलशन
उनका एक आंसू भी टपके तो बहार आ जाए। तो पूरी बगिया में फूल ही फूल हो जाएं।
मीरा के आंसुओं की याद करो। कौन फूल मुकाबला करेगा उन आंसुओं का!
अश्क टपका तो खिल गया गुलशन
रंजे-कमजर्फी-ए-बहार किसे?
खुशनशीं हैं कि चश्मो-दिल की मुराद
दैर में है न खानकाह में है
हम कहां किस्मत आजमाने जाएं
हर सनम अपनी बारगाह में है
और यह बड़ी खुशी की बात है, यह सुसमाचार...। इसे खूब गांठ बांध कर हृदय में रख लेना।
खुशनशीं हैं कि चश्मो-दिल की मुराद
दैर में है न खानकाह में है
न तो वह मंदिर में है, न वह मस्जिद में है। यह खुशनसीब हो तुम। कहीं मंदिर में होता तो बहुत मुश्किल हो जाती। पंडित-पुरोहित तुम्हें वहां तक पहुंचने ही न देते।
मैंने सुना है कि एक नीग्रो एक रात एक चर्च के द्वार पर दस्तक दिया। लेकिन चर्च था सफेद चमड़ी वालों का। पादरी ने द्वार तो खोले, लेकिन पादरी डरा। यद्यपि यही पादरी रोज-रोज प्रवचन देता था कि सब परमात्मा के बेटे हैं, एक ही परमात्मा के बेटे हैं। और यही पादरी रोज-रोज समझाता था कि अपने पड़ोसी को वैसा ही प्रेम करो जैसा अपने को। और यही पादरी यह भी कहता था कि परमात्मा प्रेम है। लेकिन यह काला आदमी, यह नीग्रो रात चर्च के द्वार पर दस्तक देगा...पादरी थोड़ा डरा। वह चर्च तो सफेद चमड़ी वालों का था। उस नीग्रो ने कहा: मुझे भीतर आने दो। तुम्हारी बातें सुन-सुन कर मेरी हिम्मत बढ़ गई है। तुम कहते हो कि प्रेम परमात्मा है। तुम कहते हो कि पड़ोसी को प्रेम करो जैसा अपने को प्रेम करते हो। मैं भी पड़ोसी हूं तुम्हारा। और तुम कहते हो कि सभी उसकी संतान हैं। मैं भी उसकी संतान हूं। मुझे भीतर आने दो। मेरे हृदय में भी बड़ी पुकार उठी है और मैं उसकी प्रार्थना करना चाहता हूं।
पादरी एकदम न भी न कह सका, क्योंकि कैसे झुठलाए उन सारी बातों को जो उसने हमेशा कही हैं? और हां भी न कह सका, क्योंकि वे तो बातें ही थीं। वे तो करने के लिए अच्छी थीं। कुछ बातें होती हैं जो सिर्फ करने की होती हैं, कहने की होती हैं, बात के ही लिए होती हैं। जिंदगी उनसे बिलकुल भिन्न होती है। असलियत तो यह थी कि काला आदमी भीतर प्रवेश करे, यह उसकी हिम्मत न थी। उसने तरकीब निकाली।
पंडित-पुरोहित तो सदा से चालबाज रहे हैं, सदा से चालबाज और चतुर रहे हैं। चतुर थे इसीलिए तो पंडित-पुरोहित हो गए। चालबाज थे इसीलिए तो पंडित-पुरोहित हो गए। सदियों से उन्होंने शोषण किया है अपनी चालबाजी से।
उसे एक चालबाजी समझ में आई। उसने कहा कि जरूर-जरूर तुम आना, लेकिन पहले पवित्र हो लो। उपवास करो। प्रार्थना करो। सब पाप छोड़ो। कामवासना छोड़ो। क्रोध छोड़ो। लोभ छोड़ो। उसने इतनी लंबी फेहरिस्त दी, इसी आशा में कि न कभी यह नीग्रो ये बातें पूरी कर पाएगा और न यह झंझट खड़ी होगी इसके मंदिर में प्रवेश की। जैसे शूद्र को ब्राह्मण प्रवेश न करने दे मंदिर में, वैसी ही स्थिति अमरीका में नीग्रो के ऊपर है, नीग्रो शूद्र हो गया है! उसका प्रवेश नहीं हो सकता चर्च में। पुरोहित खुश था। फेहरिस्त उसने इतनी लंबी दी थी कि बड़े-बड़े संत भी पूरी नहीं कर पाएं। और जब कर पाएगा पूरी तब देखेंगे।
चला गया नीग्रो। सीधा-सादा आदमी, मान ली उसने बात कि यह तो ठीक ही है, जब पवित्र हो जाऊं तभी तो प्रार्थना करूंगा। उस भोले आदमी को यह खयाल न आया कि सफेद आदमियों पर यह शर्त लागू नहीं होती। किन-किन सफेद लोगों से तुमने कहा है? किन-किन गोरों को तुमने कहा है कि पवित्र होकर आओ? मुझ अकेले पर यह शर्त लागू होती है! चला तो गया। सीधा-सादा आदमी, बात मान ली, लग गया अपने को पवित्र करने में।
तीन सप्ताह बाद पादरी चौंका। क्योंकि सुबह ही सुबह सूरज ऊग रहा था, द्वार खोल रहा था पादरी चर्च के, कि देखा कि वह नीग्रो आ रहा है। वह बहुत घबड़ाया कि अब यह फिर बात उठाएगा। और घबड़ाहट और भी बढ़ गई, क्योंकि उस नीग्रो के आसपास पवित्रता का एक ऐसा आभामंडल था जैसा कि इस पादरी ने कभी नहीं देखा था। इसने तो आभामंडल देखे थे केवल संतों की तस्वीर में। उस नीग्रो के चारों तरफ आभामंडल था। एक अपूर्व अंतर्ज्योति से दैदीप्यमान वह नीग्रो चला आता था। उसे किस मुंह से इनकार करेगा? अब तो बड़ी मुश्किल हुई जाती है।
लेकिन वह नीग्रो आया, द्वार के बाहर ही खड़ा हुआ, हंसा और वापस लौट गया। पादरी तो और भी चौंका कि बात क्या हुई? भागा, उस नीग्रो को पकड़ा, कहा कि क्या बात है? हंसे क्यों? लौट क्यों चले? पूछा क्यों नहीं मंदिर में आने के लिए?
उस नीग्रो ने कहा: कल रात परमात्मा प्रकट हुआ। तीन सप्ताह से उपवास करता था, प्रार्थना करता था, पूजा करता था...बस उसकी ही याद में लगा दिए थे तीन सप्ताह...तुमने जो कहा था। कल रात परमात्मा प्रकट हुआ और कहने लगा: पागल, तू उस चर्च में जाने की फिक्र छोड़। मैंने पूछा: क्यों? तो परमात्मा ने कहा: अब तू नहीं मानता तो तुझे बताए देता हूं। उस चर्च में जाने की तो मैं भी कई सदियों से कोशिश कर रहा हूं, वे मुझे भी भीतर नहीं घुसने देते, वे तुझे क्या भीतर घुसने देंगे!
मंदिर खाली पड़े हैं। मस्जिदें खाली हैं। चर्च खाली हैं। गुरुद्वारे खाली हैं। सिनागॉग खाली हैं। सदियां हो गईं, परमात्मा को भी वहां प्रवेश नहीं है। लेकिन यह अच्छा ही है।
खुशनशीं हैं कि चश्मो-दिल की मुराद
कि हमारे अंतरतम की आकांक्षा और हमारी आंखों की आकांक्षा; उसके दर्शन की इच्छा और दिल को उसके दिल में डुबा देने की इच्छा...
खुशनशीं हैं कि चश्मो-दिल की मुराद
दैर में है न खानकाह में है
अच्छा ही है कि वह हमारी आंखों का प्यारा, आंखों का तारा और हमारे दिल की प्यास न तो मंदिरों में है, न मस्जिदों में है।
हम कहां किस्मत आजमाने जाएं
अब कहीं और भाग्य को आजमाने की जरूरत नहीं है।
हर सनम अपनी बारगाह में है
अपने भीतर, अपनी बांहों में है!
बिन बाती बिन तेल जुगति सों बिन दीपक उजियार।
प्रानपिया मेरे गृह आयो, रचि-रचि सेज संवार।
ऐसी तुम्हें जरा सी स्मृति आ जाए तो बस प्राणपिया आ गया।
प्रानपिया मेरे गृह आयो, रचि-रचि सेज संवार।
अब संवारो सेज को। तैयारी करो। इस देह को उसके योग्य बनाओ। इस मन को उसके योग्य बनाओ। उसने द्वार पर दस्तक दे दी। जैसे ही स्मरण आया कि वह मेरे भीतर है, मेरी बांहों में है, मेरे पास है, मुझसे भी ज्यादा पास है, मैं भी इतने पास नहीं जितना वह मेरे पास है--जैसे ही यह सवाल, जैसे ही यह समझ तुम्हारे भीतर तरंग लेने लगे, अब तैयारी करो! अब सजाओ--सेज को सजाओ।
प्रानपिया मेरे गृह आयो, रचि-रचि सेज संवार।
सुखमन सेज परमतत रहिया, पिया निर्गुन निरकार।
कैसे सजाओगे सेज? समाधि उसकी सेज है। तुम्हारे भीतर से सारी समस्याएं गिर जाएं और समाधान का उदय हो जाए तो फूलों से सज गई सेज! समाधि उसकी सेज है। और समाधि तक पहुंचने का रास्ता--संतुलन।
सुखमन सेज परमतत रहिया...
योग की भाषा में तीन नाड़ियां हैं--इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना। इड़ा एक तरफ, पिंगला दूसरी तरफ--अतियां। मध्य में है सुषुम्ना। सब अतियों को छोड़ दो और मध्य में आ जाओ। जिसको बुद्ध ने कहा है मज्झिम निकाय। बीच में आ जाओ। पाइथागोरस ने जिसको कहा है स्वर्ण-नियम। मध्य में आ जाओ। न बाएं झुको, न दाएं झुको। न त्याग, न भोग--मध्य में आ जाओ। न बहुत खाओ, न उपवास करो--मध्य में आ जाओ। न संसार में आसक्ति रखो, न विरक्ति रखो--मध्य में आ जाओ। न तो संसार में ही डूब रहो और न संसार से भगोड़े हो जाओ--मध्य में आ जाओ। संसार में ऐसे रहो, नहीं के जैसे, जल में कमलवत। बस सज गई सेज। संतुलन बना तुम्हारे भीतर कि सेज सज गई।
खयाल रखना, भोगी तो चूकता ही चूकता है, त्यागी भी चूक जाता है। भोगी चूक जाता है, क्योंकि धन, पद, प्रतिष्ठा को पागल की तरह पकड़ता है। त्यागी चूक जाता है, क्योंकि वह धन, पद, प्रतिष्ठा को पागल की तरह छोड़ता है। पकड़ोगे, जोर से पकड़ोगे, वह भी गलत है। छोड़ने का आग्रह करोगे, वह भी गलत है। न तो यहां कुछ पकड़ने योग्य है, न कुछ छोड़ने योग्य है। देख लो, सार देख लो और संतुलित हो जाओ। महावीर ने इसे सम्यकत्व कहा है। मध्य में आ जाओ। समतुल हो जाओ।
प्रानपिया मेरे गृह आयो, रचि-रचि सेज संवार।
सुखमन सेज परमतत रहिया...
एक बार तुम संतुलित हो जाओ तो जो परमतत्व है, बस प्रकट हो जाए। जो है, वह प्रकट हो जाए।
...पिया निर्गुन निरकार।
न तो उस प्यारे का कोई गुण है, न उस प्यारे का कोई आकार है। और अगर तुम्हें उस प्यारे से मिलना है तो तुम भी निर्गुण हो जाओ और तुम भी निराकार हो जाओ।
देह का आकार है। देह के भीतर जाओ। मन का भी आकार है, उतना ठोस नहीं जितना देह का। देह का आकार ऐसे है जैसे चट्टान का आकार। मन का आकार ऐसे है जैसे जल की धार का आकार--बदलता, भागता, परिवर्तनशील। पर आकार तो है। देह से चलो भीतर और मन से भी चलो भीतर, तो तुम पाओगे--शून्य आकाश, निराकार। न वहां चट्टान जैसा आकार है थिर और न वहां मन जैसा आकार है चंचल। वहां आकार नहीं है। जैसे बादलरहित आकाश! उस अवस्था में ही तुम परमात्मा से मिल सकते हो। उस अवस्था में ही विरह मिलन में रूपांतरित होगा।
गावहु री मिलि आनंदमंगल, यारी मिलि के यार।
फिर हो जाएगा प्रियतम से मिलन। फिर तो बचेगी एक ही बात--गावहु री मिलि आनंदमंगल! इसीलिए तो संतों ने खूब गाया, खूब जी भर गाया। सारे संतों ने गाया! जिससे जैसे बना वैसे गाया। वे कोई गायक नहीं हैं, न कोई कवि हैं, न कोई संगीतज्ञ हैं। मगर जिससे जैसा बना, गाया। जिससे जैसा बना, नाचे। जिससे जो भी वाद्य बज सका, बजाया। उसमें तुम कला मत खोजना। कला गौण है। उसमें तो तुम आत्मा खोजना, भाव खोजना।
जुनूं की याद मनाओ कि जश्न का दिन है
सलीब-ओ-दार सजाओ कि जश्न का दिन है
तरब की बज्म है, बदलो दिलों के पैराहन
जिगर के चाक सिलाओ कि जश्न का दिन है
तुनुक-मिजाज है साकी, न रंगे-मय देखो
भरे जो शीशा, चढ़ाओ कि जश्न का दिन है
तमीजे-रहबर-ओ-रहजन करो न आज के दिन
हर इक से हाथ मिलाओ कि जश्न का दिन है
है इंतजारे-मलामत में नासेहों का हुजूम
नजर सम्हाल के जाओ कि जश्न का दिन है
बहुत अजीज हो लेकिन शिकस्तादिल यारो
तुम आज याद न आओ कि जश्न का दिन है
वह शोरिशे-गमे-दिल जिसकी लय नहीं कोई
गजल की धुन में सुनाओ कि जश्न का दिन है
गाओ! उठने दो गजलें! पीओ! नाचो!
तुनुक-मिजाज है साकी, न रंगे-मय देखो
भरे जो शीशा, चढ़ाओ कि जश्न का दिन है
और वह जो ढाल दे तुम्हारी प्याली में, पी जाओ। और आज विधि-विधान न समझो। आज सब विधि-विधान तोड़ो और नाचो! ऐसे ही संत नाचे--मीरा और चैतन्य! ऐसे ही संत गाए--कबीर और नानक!
जुनूं की याद मनाओ कि जश्न का दिन है
ऐसे ही पागल हुए, मदमस्त हुए। इसी मदमस्ती से अदभुत वचनों का जन्म हुआ है।
गावहु री मिलि आनंदमंगल, यारी मिलि के यार।
सब बदल जाता है उसको मिलते ही। ऐसे कुछ भी नहीं बदलता और फिर भी सब बदल जाता है। यही होंगे वृक्ष, मगर यही नहीं होंगे। इनकी हरियाली में तुम उसकी हरियाली पाओगे। इनके फूलों में तुम उसकी खिलावट देखोगे। यही होंगे चांद-तारे, मगर यही नहीं होंगे। इनसे उसकी रोशनी को झरते पाओगे। यही होंगी गंगा और जमन, मगर यही नहीं होंगी। ये आकाश से उतरने लगेंगी। ये आकाशीय हो जाएंगी। यही होंगे लोग, मगर यही नहीं होंगे। क्योंकि इनके भीतर जो छिपा है, उसका तुम्हें दर्शन होने लगेगा। अभी तो तुमने देहें देखी हैं, बाहर-बाहर से देखी हैं। अभी भीतर का तो अनुभव नहीं हुआ है। उतना ही तुम दूसरों में भीतर देख सकते हो जितना अपने भीतर देख लेते हो।
तुम न आए थे तो हर चीज वही थी कि जो है,
आसमां हद्दे-नजर, राहगुजर राहगुजर, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय
और अब शीशा-ए-मय, राहगुजर, रंगे-फलक
रंग है दिल का मेरे ‘खूने-जिगर होने तक’
चंपई रंग कभी, राहते-दीदार का रंग
सुर्मई रंग कि है साअते-बेजार का रंग
जर्द पत्तों का, खस-ओ-खार का रंग
सुर्ख फूलों का, दहकते हुए गुलजार का रंग,
जहर का रंग, लहू का रंग, शबे-तार का रंग,
आसमां, राहगुजर, शीशा-ए-मय
कोई भीगा हुआ दामन, कोई दुखती हुई रग
कोई हर लहजा बदलता हुआ आईना है
अब जो आए हो तो ठहरो कि कोई रंग, कोई रुत,
कोई शै एक जगह पर ठहरे
फिर से इक बार हर इक चीज वही हो कि जो है
आसमां हद्दे-नजर, राहगुजर राहगुजर, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय
झेन फकीर कहते हैं: साधक तीन अवस्थाओं से गुजरता है। पहली--जब पहाड़ पहाड़ हैं और नदियां नदियां हैं। दूसरी--जब पहाड़ पहाड़ नहीं रह जाते, नदियां नदियां नहीं रह जातीं। और तीसरी--जब पहाड़ फिर पहाड़ हो जाते हैं और नदियां फिर नदियां हो जाती हैं।
प्यारा वचन है यह। पहले पहाड़ पहाड़ हैं--जैसे तुमने देखे हैं, धूल भरी आंखों से; उदास, सुस्त, अंधेरे भरे हृदय से। देखे और नहीं देखे। देखने की फुर्सत कहां थी? भीतर विचारों का इतना हुजूम था, इतनी भीड़ थी! अपने में ही इतने उलझे और खोए थे कि कहां खोलते आंख? कि कैसे देखते पहाड़ और कैसे देखते नदियों को?
फिर चित्त शांत होता है। विचार शून्य होने लगते हैं। ध्यान की दशा आती है। और अचानक पहली दफा भीतर का जंजाल समाप्त हो जाता है, शोरगुल बंद हो जाता है--और जगत की रौनक बदल जाती है।
इसलिए झेन फकीर कहते हैं: पहले पहाड़ पहाड़ थे, नदियां नदियां थीं। फिर ऐसी घड़ी आई कि पहाड़ पहाड़ न रहे, नदियां नदियां न रहीं। सब बदल गया। वह ध्यान की अवस्था है। सब नया हो गया। सब ऐसा हो गया जैसा कभी न था। और फिर समाधि की अवस्था। फिर सब ठहर गया। फिर वापस सब वही हो गया जैसा था। लेकिन अब तुम वही नहीं हो। और जब तुम वही नहीं हो तो संसार भी वही नहीं है।
नरक है तो यहां। स्वर्ग है तो यहां। मोक्ष है तो यहां। सब तुम्हारी चित्त की दशाएं हैं।
तुम न आए थे तो हर चीज वही थी कि जो है,
आसमां हद्दे-नजर, राहगुजर राहगुजर, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय
और अब शीशा-ए-मय, राहगुजर, रंगे-फलक
रंग है दिल का मेरे ‘खूने-जिगर होने तक’
चंपई रंग कभी, राहते-दीदार का रंग
सुर्मई रंग कि है साअते-बेजार का रंग
जर्द पत्तों का, खस-ओ-खार का रंग
सुर्ख फूलों का, दहकते हुए गुलजार का रंग,
जहर का रंग, लहू का रंग, शबे-तार का रंग,
आसमां, राहगुजर, शीशा-ए-मय
कोई भीगा हुआ दामन, कोई दुखती हुई रग
कोई हर लहजा बदलता हुआ आईना है
अब जो आए हो तो ठहरो कि कोई रंग, कोई रुत,
कोई शै एक जगह पर ठहरे
फिर से इक बार हर इक चीज वही हो कि जो है
आसमां हद्दे-नजर, राहगुजर राहगुजर, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय
प्यारा आ जाए एक बार तो जरूरी नहीं है कि रुके। बहुत बार झलकें आएंगी और झलकें जाएंगी। उस अवस्था का नाम ध्यान है, जब झलक आती है, झलक जाती है। और जब प्यारा ठहर जाता है, उस अवस्था का नाम समाधि है। फिर कोई जाना नहीं, फिर कोई आना नहीं।
रसना राम कहत तें थाको।
कब से राम-राम जप रहे हो, थक नहीं गए हो? यारी कहते हैं कि मैं तो बहुत थक गया राम-राम जपते-जपते।
रसना राम कहत तें थाको।
मैं तो खूब जपा, खूब थक गया! असल में राम-राम दोहराने से सिवाय थकान के कुछ और मिलता भी नहीं। राम-राम जपने से थक जाते हो, उसी थकने को तुम विश्राम समझ लेते हो!
थकान और विश्राम में बड़ा भेद है। थकान नकारात्मक अवस्था है। विश्राम विधायक अवस्था है। थकान है टूट कर गिर पड़ना। विश्राम है मौज से लेट जाना। और थकान को अनेक लोग विश्राम समझ लेते हैं, क्योंकि विश्राम का उन्हें पता नहीं है। इसलिए अनेक लोगों को यह खयाल है, मंत्र-जाप से बड़ा विश्राम मिलता है। मंत्र-जाप से विश्राम नहीं मिलता। मंत्र-जाप से तुम थक जाते हो, मन थक जाता है। थकान से निद्रा आ जाती है।
इसलिए मंत्र, जिनको नींद नहीं आती, उनके लिए बड़ा सम्यक उपाय है। और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि महर्षि महेश योगी जैसे लोग, जो सिर्फ मंत्र सिखाते हैं, अमरीका जैसे देश में काफी अनुयायी खोज लेते हैं। क्योंकि अमरीका नींद की बीमारी से परेशान है, नींद आती नहीं। अनिद्रा अमरीका के लिए बड़े से बड़ा सवाल है। इसलिए किसी भी तरह नींद आ जाए। और ठीक ही है कि नींद की दवा लेने की बजाय तो राम-राम जप कर नींद ले आना ठीक है। मैं भी पक्ष में हूं। मगर खयाल रहे, यह कोई ध्यान नहीं है।
यह तो ऐसे ही है जैसे कि बेटा नहीं सोता, छोटा बच्चा नहीं सोता और मां लोरी गाती है। लोरी में ज्यादा शब्द नहीं होते, मंत्र जैसी होती है लोरी। वही-वही सब दोहराना पड़ता है--राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा। राजा बेटा सुनते-सुनते घबड़ा जाता है। सुनते-सुनते थक जाता है कि यह भी क्या लगा रखा है--राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा! एक ही लय, एक ही धुन! उदासी आती है, थकान आती है, ऊब आती है। और राजा बेटा भाग भी नहीं सकता। भाग कर जाए भी कहां? एक ही भागने का उपाय बचता है कि नींद में भाग जाए। तो चुपचाप नींद में सरक जाता है। बचने के लिए यही एक उपाय है कि नींद में सरक जाए।
इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि धार्मिक सभाओं में लोग सोते हैं, क्योंकि वही कहानी है जो बहुत बार सुनी है। वही राम-कथा, वही सीता का चोरी जाना, वही रावण। कितनी बार तो सुन लिया और कितनी बार तो देख लिया! नींद न आ जाए तो क्या हो! कई डाक्टर तो अपने मरीजों को, जो सो नहीं सकते, धर्मसभाओं में भेजते हैं कि वहां बैठना। और कोई दवा काम करे या न करे, लेकिन धर्मसभा में नींद निश्चित आ जाती है।
मैं विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था। दर्शनशास्त्र में एक प्रोफेसर थे, जिनको मानना पड़ेगा कि वे इस ढंग से बोलते थे कि जो रात भर भी ठीक से सोया हो, उसे भी नींद आ जाए! तो जब भी कोई विद्यार्थी, कोई संगी-साथी नींद से परेशान होता, मैं कह देता कि तुम उनकी क्लास में चले जाओ। और यह बात रामबाण की तरह काम करती। धीरे-धीरे तो यह खबर पहुंच गई, और लोगों को भी खबर लग गई। और वे बड़े प्रभावित होते थे, क्योंकि उनकी कक्षा में भीड़ काफी लोगों की होती। परीक्षा के दिनों में तो बहुत लोग जाते; क्योंकि परीक्षा के दिनों में विद्यार्थियों को घबड़ाहट में नींद नहीं आती। मगर उनकी वाणी सुनते ही... संस्कृत के पंडित थे और संस्कृत के बड़े उल्लेख देते थे। और एक स्वर में बोलते थे। जैसे इकतारा बजता है, ऐसे बजते थे! किसी को भी नींद आ जाती थी।
यारी कहते हैं: ‘रसना राम कहत तें थाको।’
मैं थक गया राम-राम रटते-रटते, जीभ थक गई मेरी, तब कहीं मुझे समझ आई कि यह बाहर-बाहर राम को दोहराना किसी काम का नहीं!
पानी कहे कहुं प्यास बुझत है...
पानी को रटने से, पानी-पानी कहने से प्यास नहीं बुझती। यह मैं क्या पागलपन करता रहा कि राम-राम रटता रहा!
...प्यास बुझे जदि चाखो।
प्यास बुझती है अगर पानी को पीओ तो। बैठ कर जपते रहो एच टू ओ, एच टू ओ, एच टू ओ--पानी का मूल सूत्र; शायद नींद आ जाए, मगर प्यास तो न बुझे। और प्यास न बुझे तो नींद भी कितनी देर रहेगी? जल्दी ही टूटेगी; प्यास नींद को तोड़ देगी।
रसना राम कहत तें थाको।
पानी कहे कहुं प्यास बुझत है, प्यास बुझे जदि चाखो।
पुरुष-नाम नारी ज्यों जानै, जानि बूझि जनि भाखो।
इस देश में तो प्रचलन रहा है कि पत्नी पति का नाम नहीं लेती--समादर में। यद्यपि यह अधूरा नियम था। अगर पतियों ने भी पाला होता तो यह नियम बड़ा महत्वपूर्ण होता। अगर पत्नियों का नाम भी पतियों ने प्रेम में और आदर में न लिया होता तो बड़ी सम्मानजनक यह बात होती। मगर एक सम्मानजनक बात भी अधूरी हो तो अपमानजनक हो जाती है। पत्नियों को तो पतियों ने सिखा दिया कि पति परमात्मा है। पतियों ने ही शास्त्र लिखे, या पुरुषों ने। लेकिन किसी एक ने भी यह न कहा कि पत्नी भी परमात्मा है! स्त्री तो नरक का द्वार और पति परमात्मा है! इस तरह की मूढ़तापूर्ण बातें शास्त्रों में भरी पड़ी हैं। और इस तरह के अहंकार से भरे हुए वक्तव्य इधर से उधर तक शास्त्रों में छाए हुए हैं। स्त्री नरक का द्वार! और स्त्री से ही सब पैदा हुए हो! और बड़े से बड़े संत तुम्हारे, फिर चाहे वे तुलसीदास ही क्यों न हों, स्त्री से ही पैदा हुए हैं। लेकिन स्त्री की गिनती करते हैं--ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी! इनको तो पीटो, मारो; यही इनका अधिकार है। यही इनका हक है। यही इनको मिलना चाहिए। और स्त्री नरक का द्वार है, और पुरुष पति है--और पति परमात्मा है! पति यानी स्वामी। और स्त्री दासी है!
मगर बात में मूल्य तो था, खराब हाथों में पड़ कर खराब हो गई। और कभी-कभी तो अमृत भी गलत हाथों में पड़ जाए तो जहर हो जाता है। बात का मूल्य तो था। स्त्री पति का नाम नहीं लेती, यद्यपि जानती है; भीतर-भीतर जानती है, बाहर-बाहर नहीं लेती, आदरवश नहीं लेती। इस बात का यारी ने खूब ठीक उपयोग किया।
यारी कहते हैं: मुझे भी पता है उसका नाम, लेकिन ले नहीं सकता; आदर के कारण नहीं लेता हूं अब। भीतर-भीतर रखता हूं, भीतर-भीतर सम्हालता हूं।
पुरुष-नाम नारी ज्यों जानै, जानि बूझि जनि भाखो।
उसे कहना थोड़े ही है, उसे तो भीतर सम्हालना है। जैसे बीज भूमि के अंतरगर्भ में समा जाता है, ऐसे ही राम, ऐसे ही अल्लाह, ऐसे ही उसकी याद तुम्हारे अंतरतम में समा जानी चाहिए, तुम्हारे हृदय में प्रविष्ट हो जानी चाहिए। बाहर बकवास करने से क्या होगा?
दृष्टी से मुष्टी नहिं आवै, नाम निरंजन वाको।
और तुम सोचते हो कि बहुत-बहुत तरह के दर्शनशास्त्र सीख लोगे तो उसे मुट्ठी में ले लोगे, तो गलती में हो।
दृष्टी से मुष्टी नहिं आवै...
असल में दृष्टि तो बाधा है। सब दर्शनशास्त्र दृष्टियां हैं और दृष्टि बाधा है। आंख होनी चाहिए--दृष्टि से मुक्त, पक्षपात से मुक्त। दृष्टि यानी पक्षपात। हिंदू की दृष्टि, मुसलमान की दृष्टि, जैन की दृष्टि--ये सब दृष्टियां हैं, नय, देखने के ढंग। तुमने पहले ही तय कर लिया कि इस ढंग से देखेंगे परमात्मा को। तुमने पहले ही पक्षपात बना लिए। अब परमात्मा को तुम अपनी दृष्टि की चौखट से देखोगे, कभी न पकड़ पाओगे। क्योंकि वह किसी चौखट में नहीं आता। वह निराकार है; तुम्हारी दृष्टि का आकार है। वह निःशब्द है; तुम्हारी दृष्टि शब्दों से बनी है। वह अज्ञेय है; तुम्हारी दृष्टि ज्ञान का हिस्सा है। और सब ज्ञान उधार है, सब बासा है; दूसरों से सीख लिया है।
दृष्टी से मुष्टी नहिं आवै...
इसलिए जिसका भी कोई पक्षपात है, जो कहता है कि ऐसा हो परमात्मा, ऐसा ही है परमात्मा--कि उसके चार हाथ हैं, कि तीन सिर हैं, कि सूंड है उसकी हाथी जैसी--जिसने कोई दृष्टि बना ली है, वह तो चूक जाएगा।
कहते हैं, तुलसीदास को जब कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया तो वे झुके नहीं। क्योंकि उन्होंने कहा कि जब तक धनुष-बाण हाथ नहीं लोगे, मैं नहीं झुक सकता। उन्होंने एक दृष्टि बना ली है कि परमात्मा को धनुष-बाण लिए ही होना चाहिए। अब धनुष-बाण कोई बड़ा सुंदर प्रतीक भी नहीं है; हिंसा का प्रतीक है, हत्या का प्रतीक है। धनुष-बाण सुसंस्कृत भी नहीं है। लेकिन बस तुलसीदास को एक दृष्टि बंध गई कि धनुष-बाण वाले राम को ही झुकूंगा। मुरली वाले कृष्ण के सामने न झुक सके। मुरली कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण प्रतीक है। मुरली कहीं अधिक बहुमूल्य है--संगीत का, स्वर का, गीत का, उत्सव का प्रतीक है! धनुष-बाण तो युद्ध का प्रतीक है, हिंसा का, वैमनस्य का, संघर्ष का। धनुष-बाण तो राजनीति का प्रतीक है, युद्ध का प्रतीक है। बांसुरी तो प्रेम का प्रतीक है। लेकिन बांसुरी हाथ में लिए कृष्ण के सामने तुलसीदास नहीं झुके, ऐसा नाभादास ने अपने संस्मरणों में लिखा है। कहा कि नहीं, जब तक धनुष-बाण हाथ न लोगे, तब तक नहीं झुकूंगा।
तो तुलसीदास जैसे पंडित, विचारशील व्यक्ति की ऐसी हालत है तो साधारण आदमी की तो क्या कहो! उसने भी धारणा बना ली है। जैन हिंदू मंदिर में नहीं झुकता।
एक जैन मित्र को लेकर मैं एक हिंदू मंदिर में गया था। वे तो नहीं झुके। मैंने पूछा: बात? झुकने का तो अपना मजा है। किसके सामने झुके, यह तो बहाना है। झुकने का अपना आनंद है। झुके क्यों नहीं?
उन्होंने कहा: कैसे झुकता? मैं तो सिर्फ वीतराग प्रभु के सामने झुकता हूं। यहां तो रामचंद्र जी सीता जी के साथ खड़े हैं, वीतराग नहीं हैं। मैं तो वीतराग प्रभु...यह तो राग है। ये तो आभूषण पहने खड़े हैं। मुकुट बांधा हुआ है। मैं नहीं झुकूंगा! मैं तो वीतराग दिगंबर प्रभु के सामने झुकता हूं, अरिहंत के सामने झुकता हूं, निर्ग्रंथ के सामने झुकता हूं!
बात ही चूक गए! झुकने से मिलता है प्रभु। और जब तुमने कहा इसके सामने झुकूंगा, तो तुमने अपने आग्रह को झुकने से भी महत्वपूर्ण बना लिया। बस चूक गए। जहां आग्रह है वहां चूक है। सत्य का कोई आग्रह नहीं होता।
इसलिए मैं कहता हूं: महात्मा गांधी ने सत्याग्रह शब्द बड़ा गलत शब्द निर्माण किया। सत्य का कोई आग्रह नहीं होता। सब आग्रह असत्य के होते हैं। आग्रह मात्र असत्य का होता है, सत्य तो निराग्रही होता है। सत्य की कोई न दृष्टि होती है, न पक्षपात होता है।
दृष्टी से मुष्टी नहिं आवै, नाम निरंजन वाको।
वह तो निरंजन है। वह तो निराकार है। वह तो समष्टि में व्याप्त है। उसका न रूप है, न रंग है। तुम दृष्टि बना कर मत चलो। तुम किसी सिद्धांत को लेकर उसे खोजने मत निकलो। जो सिद्धांत लेकर खोजने निकला है, उसे सत्य कभी न मिलेगा; उसका सिद्धांत ही बाधा बनेगा। तुम तो खाली मन, शून्य भाव से, कोरी आंखें लेकर चलो। बस कोरी आंखों से ही प्रभु का मिलन होता है। कोरी आंखों में ही आता है वह। कोरे, निर्मल, निर्दोष हृदय में ही प्रवेश करता है वह।
गुरु परताप साध की संगति, उलट दृष्टि जब ताको।
दो बातें बहुमूल्य हैं--गुरु परताप, साध की संगति। गुरु का सत्संग, गुरु का आशीष, गुरु का प्रसाद, गुरु की महिमा...। किसे गुरु कहें? जिसने पा लिया। जो फूल खिल गया। खिले फूल के साथ कली रह जाए तो कितनी देर कली रहेगी? देर-अबेर याद आ ही जाएगी कि मैं भी खिल सकती हूं। देर-अबेर स्मरण बैठ ही जाएगा। उत्साह जग ही आएगा। उमंग पैदा हो जाएगी। यात्रा शुरू हो जाएगी।
तुमने देखा, मृदंग पर थाप पड़ी और तुम्हारे पैर भी थाप देने लगते हैं! क्या हो गया तुम्हें? मृदंग की थाप तुम्हारे भीतर भी किसी सोए हुए संगीत को जगाने लगी। कोई वीणा बजी और तुम्हारा सिर डोलने लगा। क्या हुआ तुम्हें? वीणा ने तुम्हारे भीतर पड़ी वीणा को भी छेड़ दिया। ऐसी ही घटना घटती है गुरु के सत्संग में। मगर उसकी वीणा बजनी चाहिए। उसकी मृदंग पर थाप पड़नी चाहिए। गुरु वह है जो जाग गया है। गुरु वह है जो पहुंच गया घर। अब उसकी वीणा बज रही है। अब उसके मृदंग पर थाप पड़ रही है। नृत्य शुरू हो गया है। उसके नाचते हुए पैरों को तुमने देख लिया है। तुम्हारे पैर भी फड़क उठेंगे। तुम्हारे भीतर भी सोई हुई ऊर्जा अंगड़ाई लेगी, करवट लेगी। तुम्हारे भीतर भी कुछ होना शुरू हो जाएगा। तुम अपने को अचानक पाओगे कि जैसे एक धारा में पड़ गए, एक प्रवाह में पड़ गए--जो ले चला तुम्हें सागर की तरफ।
गुरु परताप साध की संगति...
तो ऐसे के साथ होना जिसने पा लिया। और ऐसों के साथ होना जो पाने की राह पर चल पड़े हैं--साध की संगति।
बुद्ध ने तीन शरण कहे हैं: बुद्धं शरणं गच्छामि। उसकी शरण जाओ जो जाग गया। संघं शरणं गच्छामि। उनकी शरण जाओ जो जागने की यात्रा पर चल पड़े हैं, साध-संगति। धम्मं शरणं गच्छामि। और तब तीसरी शरण संभव होगी कि तुम धर्म की शरण जा सकोगे। पहले उसको पकड़ो जो जाग गया है। फिर उनके साथ हो लो जो जागने की यात्रा में संलग्न हैं। उनकी रौ में बह जाओ।
ध्यान रखना, अकेले-अकेले यात्रा कठिन है। अकेले-अकेले भटकने की बहुत संभावना है। जब लोग किसी दुर्गम यात्रा पर निकलते हैं तो संग-साथ में निकलते हैं, दस-पांच मित्र साथ होकर निकलते हैं। क्योंकि बहुत डर है। जंगली जानवर हैं। अंधेरी रातें हैं। लुटेरे हैं। हत्यारे हैं। और फिर रात कहीं रुकना होगा अंधेरे में; अकेला आदमी होगा तो मुश्किल में पड़ जाएगा। दस आदमी होंगे तो नौ सोएंगे, एक जाग कर पहरा देगा। और जब उसे नींद आने लगेगी, दूसरे को जगा देगा। और जब उसे नींद आने लगेगी, तीसरे को जगा देगा। पहरा जारी रहेगा। सुरक्षा बनी रहेगी।
इसलिए समस्त जाग्रत बुद्धों ने संघ का निर्माण किया है। यही मेरे संन्यास का अर्थ है। मेरा साथ तो तुम्हें मिले ही, लेकिन साध-संग भी मिले। संन्यासियों का रंग भी मिले। और जहां बड़ी उत्तुंग लहर चल रही हो, जहां बहुतों ने अपनी बूंदों को मिला कर एक उत्तुंग लहर बनाई हो, अगर तुम उस पर चढ़ जाओ तो यात्रा बहुत आसान हो जाएगी।
ऐसा ही समझो न, नदी में छोड़ते हैं नाव को और अगर हवा जा रही हो तो पाल खोल देते हैं। बस, फिर पतवार नहीं चलानी पड़ती, हवाएं भर जाती हैं पाल में और नाव बहने लगती है। और कुशल नाविक ठीक-ठीक हवा के क्षण में अपनी नाव के पाल को खोल लेता है। जब हजारों लोग सत्य की खोज में संलग्न होते हैं तो हवाएं बहती हैं परमात्मा की तरफ। समझदार आदमी अपनी नाव का पाल उनके साथ खोल लेता है।
चश्मे-मयगूं जरा इधर कर दे
दस्ते-कुदरत को बेअसर कर दे
तेज है आज दर्दे-दिल साकी
तल्खी-ए-मय को तेजतर कर दे
जोशे-वहशत है तिश्नाकाम अभी
चाके-दामन को ता-जिगर कर दे
मेरी किस्मत से खेलने वाले
मुझको किस्मत से बेखबर कर दे
लुट रही है मेरी मताए-नियाज
काश वह इस तरफ नजर कर दे
‘फैज’ तकमीले-आरजू मालूम
हो सके तो यूं ही बसर कर दे
चश्मे-मयगूं जरा इधर कर दे
मद भरी आंख जरा इधर कर दे।
दस्ते-कुदरत को बेअसर कर दे
और प्रकृति का जो मेरे ऊपर प्रभाव है, उसे बेअसर कर दे।
सदगुरु की आंख हो जाए तुम्हारी तरफ...
चश्मे-मयगूं जरा इधर कर दे
उसकी आंख में मद भरा है परमात्मा का। उसकी आंख में शराब ढल रही है परमात्मा की। सदगुरु की आंख तुम्हारी तरफ हो जाए तो बड़ी आसान है बात, कि वह जो प्रकृति की तुम्हारे ऊपर बड़ी जकड़ है, वह तत्क्षण ढीली हो जाए। जब बड़ी शराब उतरने लगे तो छोटी शराबें अपने आप रास्ते से हट जाती हैं।
तेज है आज दर्दे-दिल साकी
तल्खी-ए-मय को तेजतर कर दे
यही प्रार्थना है शिष्य की गुरु से कि और तेज, और तेज करता जा अपनी मस्ती को, और मेरी तरफ, और गहरे में मेरी अंतरात्मा में अपनी आंख को डालता जा।
जोशे-वहशत है तिश्नाकाम अभी
चाके-दामन को ता-जिगर कर दे
मेरी किस्मत से खेलने वाले
मुझको किस्मत से बेखबर कर दे
लुट रही है मेरी मताए-नियाज
काश वह इस तरफ नजर कर दे
बस एक ही प्रार्थना है, एक ही श्रद्धा है कि काश वह इस तरफ नजर कर दे!
‘फैज’ तकमीले-आरजू मालूम
इतना ही मालूम हो जाए कि उसकी नजर किसी दिन मेरी तरफ होगी तो भी पर्याप्त है।
हो सके तो यूं ही बसर कर दे
तब तो फिर जिंदगी ऐसे भी बसर हो सकती है। इतना भरोसा हो जाए!
‘फैज’ तकमीले-आरजू मालूम
हो सके तो यूं ही बसर कर दे
फिर तो शिष्य पड़ा रह जाता है गुरु के चरणों में इस राह में कि ठीक है, आज नहीं कल, कल नहीं परसों, कभी तो उसकी नजर होगी। कभी तो उसकी मदमस्ती मुझमें भी उतरेगी। और उतरती है, और निश्चित उतरती है, क्योंकि जिसकी प्रतीक्षा है और जिसकी श्रद्धा है, वह खाली नहीं लौटता है।
गुरु परताप साध की संगति, उलट दृष्टि जब ताको।
दृष्टि को उलटा करना है। आंख को भीतर ले जाना है। कौन पलटाएगा तुम्हारी आंख भीतर? बाहर देखने की आदत जड़ हो गई है। जिसने अपनी आंख भीतर पलटा ली है, वही तुम्हें सूत्र दे सकता है। वही तुम्हें जुगति सिखा सकता है, युक्ति दे सकता है।
यारी कहै सुनो भाई संतो, बज्र बेधि कियो नाको।
कठिन मार्ग है। वज्र को बेध कर रास्ता बनाना है। संग-साथ चाहिए होगा। मशाल की तरह कोई राह दिखाए अंधेरे में। और संगी-साथी हों, ताकि अकेले में भय न पकड़ ले, घबड़ाहट न पकड़ ले, भीरुता न पकड़ ले। टूट जाती हैं वज्र जैसी कठिनाइयां भी।
चश्मे-नम, जाने-शोरीदा काफी नहीं
तोहमते-इश्क-पोशीदा काफी नहीं
आज बाजार में पा-ब-जौला चलो
चश्मे-नम, जाने-शोरीदा काफी नहीं
उद्विग्न प्राण ही पर्याप्त नहीं हैं।
तोहमते-इश्क-पोशीदा काफी नहीं
इतना ही काफी नहीं है कि तुम, प्रेम नहीं मिल रहा है परमात्मा का मुझे, इसकी शिकायत करते रहो।
आज बाजार में पा-ब-जौला चलो
पैर में जंजीरें हैं, कोई फिक्र नहीं, उठो और चलो। सिर्फ बैठे-बैठे प्यास की बात और परमात्मा का प्रेम नहीं मिल रहा है, इसकी शिकायत से काम नहीं होगा।
आज बाजार में पा-ब-जौला चलो
जंजीर है पैर में सही, जंजीर बांधे ही चलो!
दस्त-अफ्सां चलो, मस्त-ओ-रक्सां चलो
मस्ती से चलो। रहने दो जंजीर, फिक्र न करो। जो भी चले हैं, पहले जंजीरों के साथ ही चले हैं। फिर वही जंजीरें एक दिन आभूषण हो गई हैं। जो भी चले हैं, अंधेरे में चले हैं। फिर वही अंधेरे एक दिन सुबह के आगमन के आधार बन गए हैं। रातें ही दिन बन गई हैं!
दस्त-अफ्सां चलो, मस्त-ओ-रक्सां चलो
खाक-बर-सर चलो, खूं-ब-दामां चलो
राह तकता है सब शहरे-जानां चलो
हाकिमे-शहर भी, मजमाए-आम भी
तीरे-इल्जाम भी, संगे-दुश्नाम भी
सुब्हे-नाशाद भी, रोजे-नाकाम भी
इनका दमसाज अपने सिवा कौन है
शहरे-जानां में अब बा-सफा कौन है
दस्ते-कातिल के शायां रहा कौन है
घबड़ाओ मत! यह भी मत सोचो कि मैं पापी और कैसे पहुंच पाऊंगा?
इनका दमसाज अपने सिवा कौन है
तुम्हारे जैसे ही लोग सदा रहे हैं। तुम्हारे ही जैसे लोग आज भी हैं।
इनका दमसाज अपने सिवा कौन है
शहरे-जानां में अब बा-सफा कौन है
अब इस दुनिया में पवित्र है कौन? इस दुनिया में कभी कोई पवित्र पैदा नहीं होता। पवित्रता तो इस दुनिया में ही अर्जित करनी होती है।
इनका दमसाज अपने सिवा कौन है
शहरे-जानां में अब बा-सफा कौन है
दस्ते-कातिल के शायां रहा कौन है
अब परमात्मा के चरणों में सिर को चढ़ा सके, उसकी खंजर से अपने सिर को कटा सके--दस्ते-कातिल के शायां रहा कौन है--अब इस योग्य कौन है?
मगर फिक्र न करो। तुम्हीं योग्य हो जाओगे।
रख्ते-दिल बांध लो, दिलफिगारो चलो
फिर हमीं कत्ल हो आएं यारो चलो
कोई फिक्र न करो। दिल का सामान, सफर का सामान बांध लो।
रख्ते-दिल बांध लो, दिलफिगारो चलो
फिर हमीं कत्ल हो आएं यारो चलो
अब नहीं हैं पवित्र लोग परमात्मा की राह पर मिट जाने को तो क्या करें, हम ही चलेंगे।
रख्ते-दिल बांध लो, दिलफिगारो चलो
फिर हमीं कत्ल हो आएं यारो चलो
जो मिटता है वही उसे पाता है। मिटना ही उसे पाने की कला है। बूंद जब सागर में मिट जाती है तो सागर हो जाती है।
आज इतना ही।