SAHAJOBAI
Bin Ghan Parat Phuhar (बिन घन परत फुहार) 09
Ninth Discourse from the series of 10 discourses - Bin Ghan Parat Phuhar (बिन घन परत फुहार) by Osho. These discourses were given during OCT 01-10 1975.
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सहजो सुपने एक पल, बीतैं बरस पचास।
आंख खुलै जब झूठ है, ऐसे ही घट-बास।।
जगत तरैयां भोर की, सहजो ठहरत नाहिं।
जैसे मोती ओस की, पानी अंजुली माहिं।।
धूआं को सो गढ़ बन्यौ, मन में राज संजोय।
साईं माईं सहजिया, कबहूं सांच न होय।।
निरगुन सरगुन एक प्रभु, देख्यो समझ विचार।
सदगुरु ने आंखें दयीं, निस्चै कियो निहार।।
सहजो हरि बहुरंग है, वही प्रगट वही गूप।
जल पाले में भेद ना, ज्यों सूरज अरु धूप।।
चरणदास गुरु की दया, गयो सकल संदेह।
छूटे वाद-विवाद सब, भयी सहज गति तेह।।
साधारणतः समझा जाता है कि नास्तिक संदेह करता है, आस्तिक श्रद्धा। लेकिन आस्तिक का भी संदेह होता है और नास्तिक की भी श्रद्धा होती है। आस्तिक परमात्मा पर श्रद्धा करता है, संसार पर संदेह; नास्तिक संसार पर श्रद्धा करता है, परमात्मा पर संदेह।
संदेह और श्रद्धा की मात्रा प्रत्येक में बराबर ही होती है। दिशा का भेद होता है। गलत दिशा में श्रद्धा लग जाए, तो आदमी भटक जाता है। और ठीक दिशा में संदेह भी लग जाए, तो भी आदमी पहुंच जाता है। न तो कोई श्रद्धा से पहुंचता है, न कोई संदेह से भटकता है। दिशा का सवाल है। सभी आस्तिक संसार पर संदेह करते हैं, सभी नास्तिक संसार पर श्रद्धा करते हैं। तो ऐसा मत सोचना कि श्रद्धा से कोई पहुंचता है, अन्यथा नास्तिक भी पहुंच जाते। और ऐसा मत समझना कि संदेह से कोई भटकता है, अन्यथा आस्तिक भी भटक जाते।
न तो संदेह रोकता है, न श्रद्धा पहुंचाती है। सम्यक दिशा में संदेह भी पहुंचा देता है, असम्यक दिशा में श्रद्धा भी भटका देती है। आत्यंतिक अर्थों में दिशा का मूल्य है।
नास्तिक और आस्तिक एक ही जैसे व्यक्ति हैं। नास्तिक सिर के बल खड़ा है, आस्तिक पैर के बल खड़ा हो गया। नास्तिक उलटा खड़ा है। जहां संदेह चाहिए वहां श्रद्धा कर रहा है, जहां श्रद्धा चाहिए वहां संदेह कर रहा है। इसलिए कोई भी नास्तिक एक क्षण में आस्तिक हो सकता है, और कोई भी आस्तिक एक क्षण में नास्तिक हो सकता है--उलटे खड़े होने से सीधे खड़े होने में देर कितनी लगती है? सीधे खड़े होने से उलटे खड़े होने में कितनी असुविधा है?
एक छोटी सी घटना एक सांझ सागर में घटी। सूरज डूबा। एक मछली क्षण भर पहले तक सूरज की किरणों के जाल में, सागर के अनंत विस्तार में, बड़ी आनंदित थी, बड़ी प्रफुल्लित थी। नाचती थी, तैरती थी। कहीं कोई दुख-ताप न था। मन में संदेह की कोई जरा सी रेखा न थी। बड़ी सरल, सहज। लेकिन क्षण भर पहले ही एक नास्तिक मछली से मिलना हो गया। उसने सब अस्त-व्यस्त कर दिया।
उस नास्तिक मछली से दूसरी मछलियां दूर-दूर ही रहती थीं। यह नई मछली थी, इसे कुछ ज्यादा पता न था। नास्तिक मछली पास आई, तो सज्जनतावश उसकी बात सुन ली। नास्तिक मछली ने कहा: किस बात पर इठला रही है? कौन सी खुशी में आ रही है? कौन सा उत्सव हो रहा है? प्रतीत होता है तू भी और साधारण मछलियों की तरह ही अंधविश्वासी है। कोई आनंद नहीं है। आनंद केवल भ्रांति है। और जिस सागर में--तू सोचती है--तू इठला रही है, तैर रही है, उछल रही है, प्रफुल्लित हो रही है, वह सागर भी कहीं नहीं है। कभी सागर देखा? युवा मछली डरी। सुना था, देखा तो उसने भी नहीं था।
जब कोई सागर में ही पैदा होता है, सागर में ही बड़ा होता है, सागर में ही जीता है और सागर से बाहर न गया हो, तो सागर को देखने का उपाय ही नहीं होता। देखने के लिए फासला चाहिए, दूरी चाहिए, भेद चाहिए।
मछली ने सुना था कि सागर है, देखा तो नहीं था। आंख भी सागर से ही बनी थी। आंख को जो छू रहा था वह भी सागर था। मछली में और सागर में भेद चाहिए, तब दिखाई पड़ सकता है। थोड़ा अंतराल चाहिए। इतना भी फासला कहां था।
मछली ने सुना था, सागर है। वह नास्तिक मछली हंसने लगी और उसने कहा: जैसे मनुष्य परमात्मा को मानते हैं, अंधविश्वासी, वैसे ही मछलियां सागर को मानती हैं। न तो परमात्मा है, न कोई सागर है। गौर से देख, आंख खोल कर देख। अभी तो तू जवान है। अभी इतनी घबड़ाती क्यों है? चारों तरफ महाशून्य ने घेर रखा है। मौत के अतिरिक्त और कुछ भी सत्य नहीं है।
मछली ने अपने चारों तरफ देखा--नई मछली ने, युवा मछली ने। निश्चय ही चारों तरफ एक शून्य घिरा है। सूरज तो ढलने के करीब है। सागर की नीलिमा चारों तरफ है--कोरा आकाश मालूम होता है। और दूर जैसे आंख जाती है वैसे नीला सागर भी अंधेरे में डूब गया है। सब तरफ घनी रात है।
कहां से सागर? उसके मन में भी प्रश्न उठा।
नीचे झांक कर देखा, अतल शून्य। घबड़ा गई, हाथ-पैर कंप गए। रोआं-रोआं चिंता से भर गया। अगर गिर गई इस शून्य में तो कौन बचाएगा? भूल ही गई यह बात कि अब तक इसी शून्य में तैरती रही, कभी गिरी नहीं। भूल ही गई यह बात कि क्षण भर पहले तक खुश थी, प्रसन्न थी और यह शून्य कभी भी काटा न था। लेकिन आज चारों तरफ गौर से देखा तो जैसे भयभीत आदमी के हाथ-पैर में पक्षाघात लग जाए, ऐसे ही मछली ने चाहा भी कि तैरे तो न तैर सकी। भीतर से तैरने वाले प्राण ही शिथिल हो गए। डर बहुत भयंकर हुआ। चारों तरफ सन्नाटा है। रात घिरती जाती है। सब तरफ शून्य है, अगर गिर गई तो क्या होगा? सहारा कहीं पकड़ना जरूरी है। गौर से देखा कि क्या करूं, किसका सहारा लूं? कोई भी तो नहीं है। तो सोचा, अपनी ही पूंछ को पकड़ कर अपने को सम्हालने की कोशिश कर लूं। झुकी, मुड़ी--कोई हठयोगी तो थी नहीं--बहुत चेष्टा की पूंछ को पकड़ने की, पूंछ पकड़ में न आई; तो और भी घबड़ा गई।
कहानी कहती है कि सागर यह सब चुपचाप देखते था। हंस भी रहा था कि पागल मछली, तुझे सागर दिखाई नहीं पड़ता। तू भी सागर है! और दया से भी भर रहा था कि बेचारी गरीब मछली कितनी मुसीबत में पड़ गई है। क्षण भर पहले तक श्रद्धा का आनंद था। क्षण में धुएं के बादल घिर गए, संदेह के बादल घिर गए। आकाश दब गया, ढंक गया।
आखिर सागर से न रहा गया। और सागर ने कहा: सुन पागल, अब तक तू नहीं गिरी, किसने तुझे सम्हाला है? आज अचानक क्यों गिर जाएगी?
गिरने का खयाल ही संदेह के साथ आता है। श्रद्धा सम्हाले रखती है। उसके अनजाने हाथ सब तरफ से सम्हाले रखते हैं। संदेह उठा कि सब हाथ हटते मालूम होते हैं। अतल खाई खुल जाती है।
मछली डरी। उसने कहा: तुम कौन हो? क्योंकि सागर तो नहीं है। सिर्फ लोगों का अंधविश्वास है। सागर हंसा। उसने कहा: सागर ही है। मछलियां आती हैं, चली जाती हैं। विश्वासी, अंधविश्वासी, अविश्वासी आते हैं, खो जाते हैं। सागर सदा बना रहता है। जो क्षणभंगुर है उसे तो खयाल है कि हूं। और जो शाश्वत है, उस पर संदेह है! पागल, संदेह ही करना हो तो अपने पर कर। एक दिन तू न थी। और एक दिन तू फिर नहीं हो जाएगी। सागर तो सदा था और सदा होगा। क्षणभंगुर पर संदेह कर, शाश्वत पर श्रद्धा।
नास्तिकता का अर्थ है: क्षणभंगुर पर श्रद्धा।
शाश्वत पर अश्रद्धा, संदेह है।
जो उस मछली की दशा है वैसी ही मनुष्य की दशा है। और इस सदी में तो और भी ज्यादा। क्योंकि न मालूम कितने लोगों ने तुम्हारे भीतर संदेह को तो बढ़ाया है, श्रद्धा देने वाला तुम्हें कोई मिला नहीं। और जिनको तुम श्रद्धा देने वाले समझते हो, उनके पास खुद ही नहीं है। तो या तो तुम्हें संदेह देने वाले लोग हैं--प्रकट रूप से, या अप्रकट रूप से तुम्हें संदेह देने वाले लोग हैं।
नास्तिकों ने तो तुम्हें संदेह दिया ही, जिनको तुम तथाकथित आस्तिक कहते हो--मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में बैठे--उनको देख कर भी तुम्हारी श्रद्धा नहीं बढ़ी। उनके जीवन ने भी तुम्हें संदेह ही दिया। उनके व्यवहार से भी श्रद्धा का संगीत नहीं उठा, उनके होने के ढंग में भी श्रद्धा की सुगंध न मिली। उनके पास भी संदेह की ही दुर्गंध आई। ऐसा न लगा कि वे भी श्रद्धा को उपलब्ध हुए। न तो उनके जीवन में, न उनके होने के ढंग में, न उनकी आंखों की झलक में, न उनके पैरों की चाल में, श्रद्धा का नृत्य कहीं भी न मिला। हो सकता है वे तुमसे ज्यादा चतुर हों। हो सकता है तुमसे ज्यादा तर्ककुशल हों। हो सकता है परमात्मा को मानने में उन्होंने ज्यादा बुद्धिमत्ता का प्रयोग किया हो। लेकिन परमात्मा उन्हें मिला है, ऐसी प्रतीति उनके स्पर्श से नहीं हुई।
नास्तिक तो नास्तिक है ही, तुम्हारे मंदिर-मस्जिद भी आस्तिक की वीणा नहीं बजाते हैं। वहां से भी छिपे नास्तिकों का ही स्वर उठता हुआ मालूम पड़ता है।
सब तरफ से आदमी नास्तिकता से घिर गया है।
करना क्या है?
शायद तुमसे निरंतर कहा गया है, संदेह छोड़ो, श्रद्धा बढ़ाओ। मैं तुमसे नहीं कहता। मैं कहता हूं: संदेह भी शुभ है, ठीक दिशा में लगाओ। क्षणभंगुर पर संदेह करो। संदेह को व्यर्थ मत फेंको। वह भी बड़ी कीमती कीमिया है। परमात्मा ने जो भी दिया है वह सार्थक है। संदेह भी सार्थक है। इनकार भी सार्थक है। नहीं-नहीं कहने की भी कोई मूल्यवत्ता है।
पर उससे ही नहीं कहो, जो नहीं कहने योग्य है।
तुमसे मैं यह नहीं कहता कि तुम संदेह को काट कर फेंक दो। क्योंकि संदेह अगर काट कर फेंक दिया गया तो तुम अपंग हो जाओगे। तुम अपने आधे प्राण काट दोगे। तब तुम्हारा एक ही पंख बचेगा, उससे तुम उड़ न पाओगे। उससे तुम पहुंच न पाओगे।
तो मैं तुमसे कहता हूं: संदेह का भी उपयोग करो, श्रद्धा का भी। दोनों तुम्हारे पैर हैं। हां, ठीक-ठीक दिशा में उपयोग कर लो। दिशा भर का भेद है; संयोजन बदलना है। जरा से फर्क से महत फर्क पड़ता है।
इन सहजो के सूत्रों में इसी तरफ खबर है।
सहजो सुपने एक पल, बीतैं बरस पचास।
आंख खुलै जब झूठ है, ऐसे ही घट-बास।।
यह संदेह का सम्यक उपयोग है। संदेह करना है, परमात्मा तक जाने की जरूरत नहीं। तुम्हारे चारों तरफ जो संसार घिरा है। उससे ज्यादा योग्य विषय संदेह के लिए तुम दूसरा न पा सकोगे। पहले इस पर तो संदेह कर लो।...सुपने एक पल, बीतैं बरस पचास! कभी तुमने खयाल किया। क्षण भर को झपकी लग गई है, दफ्तर में बैठ काम कर रहे हो। या सुबह बैठ कर अखबार पढ़ रहे हो--आंख बंद हो गई, क्षण भर को झपकी लग गई। झपकी लगते वक्त दीवाल पर टंगी घड़ी देखी थी। फिर झपकी खुली तो देखा, एक मिनट बीता है मुश्किल से। लेकिन झपकी में तुमने एक लंबा सपना देखा। सपना देखा इतना लंबा कि अगर उतने सपने को घटना पड़े तो पचास वर्ष लग जाएं--कि तुम छोटे थे, कि तुम बूढ़े हो गए सपने में, कि तुमने विवाह कर लिया, कि तुम्हारे बच्चे हो गए, कि बच्चों के विवाह का क्षण करीब आ गया, कि शहनाई बजती थी...और शहनाई की ही आवाज से नींद टूट गई। घड़ी में देखा, क्षण बीता है। इतना लंबा सपना देख लिया, इतने से क्षण में! वैज्ञानिक भी इस बात से राजी हैं कि समय सापेक्ष है, और तुम्हारे समय की प्रतीति रोज बदलती है। जब तुम प्रसन्न होते हो, समय जल्दी बीत जाता है। जब तुम दुखी होते हो, समय मुश्किल से बीतता है। तुम आनंदित होते हो, पता नहीं चलता कहां बीत गए घंटे--क्षण-पल मालूम होते हैं। जब तुम दुखी होते हो, जीवन बोझ से दबा होता है, उदास होते हो, क्षण-पल घंटों जैसे लगते हैं, बीतते नहीं लगते।...कि बीतेगी यह रात या नहीं बीतेगी--इतनी लंबा जाती है।
समय तुम्हारे मन के ऊपर निर्भर है। तुम जितने मूर्च्छित होते हो, उसी मात्रा में सपने तुम्हारे मन को पकड़ते हैं। तुम जितने जाग्रत होते हो, उसी मात्रा में सपने कम पकड़ते हैं। मूर्च्छा गहरी हो, तो एक क्षण में वर्षों का सपना हो सकता है। होश गहरा हो--परिपूर्ण हो--तो समय मिट ही जाता है। वर्षों का तो सवाल ही नहीं है, समय ही समाप्त हो जाता है। पूछो महावीर से, बुद्ध से, जीसस से; वे कहते हैं, जब समाधि फलित होती है तो समय विलीन हो जाता है। परिपूर्ण समाधान की अवस्था में समय होता ही नहीं। परिपूर्ण मूर्च्छा की अवस्था में समय होता है--खूब लंबा होता है। और हम बीच में भटकते हैं--कभी मूर्च्छित, कभी होश; कभी सुखी, कभी दुखी। दुख में समय बहुत लंबा हो जाता है।
ईसाई कहते हैं कि नरक शाश्वत है। एक बार गिर गए तो फिर छूटोगे नहीं। बर्ट्रेंड रसल ने बड़ा वैज्ञानिक तर्क उठाया है। ईसाइयत के खिलाफ एक किताब लिखी है: वॉय आइ एम नॉट ए क्रिश्चियन? कि मैं ईसाई क्यों नहीं हूं? उसमें बहुत तर्क दिए हैं। उसमें एक तर्क यह भी है--और तर्क बड़ा काम का मालूम पड़ता है। रसल कहता है कि मैंने अपनी जिंदगी में जो भी पाप किए--और ईसाई तो एक ही जिंदगी मानते हैं, इसलिए ज्यादा झंझट नहीं है--इस जिंदगी में मैंने जितने पाप किए और जितने पाप सोचे--किए नहीं सिर्फ सोचे--किए और सोचे सभी पाप अगर मैं कठोर से कठोर अदालत के सामने भी व्यक्त कर दूं, तो रसल कहता है, मुझे पांच साल से ज्यादा की सजा नहीं मिल सकती। वे भी किए और सोचे--अगर सोचे वाले पापों पर भी दंड मिलता हो--तो पांच साल से ज्यादा मुझे कोई कठोर से कठोर न्यायाधीश भी सजा नहीं दे सकता। लेकिन यह ईसाइयत तो बिलकुल ही व्यर्थ की बकवास मालूम होती है। इतने से पापों के लिए अनंतकाल तक मुझे नरक में डाल दिया जाएगा, यह बात समझ में नहीं आती। यह तो दंड जरूरत से ज्यादा मालूम पड़ता है। यह तो ऐसा लगता जैसे ईसाइयों का परमात्मा दंड देने को बड़ा आतुर है, फंस भर जाओ! पाप ही क्या किए हैं तुमने?
तुम भी सोचो तो रसल की बात ठीक लगेगी। कुछ थोड़ा बहुत पैसा चुरा लिया होगा, कहीं किसी की जेब काट ली होगी, कहीं मौका पाकर नोट पड़ा होगा तो नहीं बताया होगा--रख लिया होगा, किसी की पत्नी की तरफ वासना से देख लिया होगा, किसी के मकान की तरफ ईर्ष्या से देख लिया होगा, किसी को गाली दे दी होगी, किसी से लड़ लिए होगे, यही पाप है। बड़े छोटे-मोटे हैं। दो कौड़ी के हैं। इन पापों के लिए अनंतकाल तक नरक में सड़ना पड़ेगा! रसल की बात ठीक लगेगी। रसल को कोई ईसाई जवाब नहीं दे सका, क्योंकि बात बिलकुल साफ है। रसल कहता है, कितने ही पाप किए हों, दंड की एक सीमा होनी चाहिए, क्योंकि पाप की एक सीमा है। दंड अनंत, सीमित पापों के लिए!
लेकिन मेरे पास कुछ और कारण हैं। रसल तो मर चुका, जीवित होता तो उससे मैं कहता कि सवाल तुम समझे ही नहीं। जीसस का वचन चुक गए। जीसस जब कहते हैं, अनंत है नरक, तो वे यह कहते हैं कि दुख वहां इतना है कि एक क्षण अनंत मालूम पड़ेगा। दुख की मात्रा से लंबाई मालूम पड़ती है। अनंत से मतलब अनंत नहीं है। वह तो केवल प्रतीक है। दुख इतना गहन है कि रात काटे न कटेगी। अनंत मालूम पड़ेगी। यह दुख की घनता को बताने के लिए ‘अनंत’ शब्द का प्रयोग है। अनंत शब्द का समय की लंबाई से कोई मतलब नहीं है। अनंत शब्द का अर्थ समय के भीतर दुख की गहराई से है। एक क्षण को भी नरक में रहोगे, तो ऐसा लगेगा यह क्षण अब समाप्त होने वाला नहीं है। इतना ही प्रयोजन है। दुख के क्षण अनंत हो जाते हैं। सुख के क्षण छोटे हो जाते हैं। आनंद के क्षण में समय बचता ही नहीं। इसलिए जिन्होंने आनंद जाना है, उन्होंने कहा, कालातीत, वह समय के पार है। वहां समय समाप्त हो जाता है।
जीसस से कोई पूछता है कि तुम्हारे प्रभु के राज्य के संबंध में कोई एकाध ऐसी बात बताओ जो इस पृथ्वी के राज्य से बिलकुल अलग हो। तो जीसस ने जो बात बताई वह यह है: देयर शैल बी टाइम नो लांगर। उस परमात्मा के राज्य में समय न होगा। यह एक बुनियादी भेद होगा, पृथ्वी के राज्य से और परमात्मा के राज्य में। समय उतना ही होगा जितना तुम्हारा दुख है। समय की मात्रा तुम्हारे दुख से फैलती है, तुम्हारे सुख से सिकुड़ती है। महादुख में अनंत हो जाती है। महासुख में शून्य हो जाती है।
सहजो कहती है: सहजो सुपने एक पल, बीतैं बरस पचास।
स्वप्न के एक क्षण में पचास वर्ष बीत जाते हैं। इससे तुम्हें कभी खयाल न आया कि जिनको तुम जीवन के पचास वर्ष कह रहे हो, कौन जाने वह सपने का एक क्षण ही हो! यह संदेह को ठीक दिशा देनी है।
चीन में एक बड़ी पुरानी कथा है। एक सम्राट का बेटा मरता था। वह इकलौता बेटा था। आखिरी घड़ी करीब थी; चिकित्सकों ने कहा, बच न सकेगा अब। तो तीन दिन से सम्राट सोया ही नहीं, उसके पास बैठा है। आखिरी श्वास घिसटती है। कभी भी टूट सकती है। बड़ा प्यारा बेटा है। इकलौता है। इसके ऊपर सारी आशाएं थीं, सारे सपने थे। यही भविष्य था। बूढ़ा सम्राट रोता है। लेकिन कुछ करने का उपाय नहीं। सब किया जा चुका है। कोई दवा काम नहीं आती, कोई चिकित्सक जीत नहीं पाता। बीमारी असाध्य है। मृत्यु होगी ही।
चौथी रात सम्राट बैठा है। तीन रात सोया नहीं--झपकी आ गई। सपना देखा एक बड़ा कि बड़े स्वर्ण-महल हैं, सारी पृथ्वी पर चक्रवर्ती राज्य है उसका, एकछत्र राज्य है। बारह सुंदर, स्वस्थ, युवा उसके बेटे हैं। उनके शरीर का सौष्ठव, उनके बुद्धि की प्रतिभा की कोई तुलना नहीं है। हीरे-जवाहरात उसके महल की सीढ़ियों पर जड़े हैं। अपार संपदा है। वह बड़े सुख में, गहन सुख में...कोई दुख नहीं है...जब वह ऐसा सपना देख रहा है, तभी पत्नी छाती पीट कर रोई। लड़का मर चुका है। नींद टूट गई। सामने पड़ी लाश देखी। अभी-अभी सपने में जाते, विदा होते महल--स्वर्ण के, चमकते हुए; वे बारह पुत्र--उनकी सुंदर सौष्ठव देह, उनकी प्रतिभा; आनंद की वह आखिरी झलक जो अभी सपने ने पैदा की थी, वह भी अभी मौजूद थी। और इधर बेटा मर गया। इधर चीख-पुकार मची।
सम्राट किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। कुछ सोच न पाया। एक क्षण को ठगा सा रह गया। पत्नी समझी कि कहीं पागल तो नहीं हो गया--आंख से आंसू न गिरा, ओंठ से चीख न निकली, दुख का एक शब्द न उठा, एक आह न प्रकट हुई। पत्नी घबड़ाई। उसने पति को हिलाया कि तुम्हें क्या हो गया? पता था कि बेटे का दुख भारी होगा। कहीं विक्षिप्त तो नहीं हो गया! कहीं पागल तो नहीं हो गया! ऐसा सुन्न क्यों हो गए हो? बोलो कुछ। पति हंसने लगा। उसने कहा: मैं बड़ी दुविधा में पड़ गया हूं। किसके लिए रोऊं? अभी बारह सुंदर युवक मेरे बेटे थे, स्वर्ण के महल थे, सब सुख था, वह अचानक टूट गया। उन बारह के लिए रोऊं जो मर गए, या इस एक के लिए रोऊं जो मर गया? क्योंकि जब मैं उन बारह के साथ था, इस एक को भूल ही गया था। पता ही न था कि मेरा कोई बेटा है। अब इस एक के पास हूं, उन बारह को भूल गया हूं। सच कौन है?
सहजो सुपने एक पल, बीतैं बरस पचास।
स्वप्न में एक क्षण में पचास वर्ष जीवन के बीत जाते हैं। तुम्हारे जीवन के पचास वर्ष भी सपने के एक पल से ज्यादा नहीं हैं। कितने लोग इस जीवन में रहे हैं। कितने अनंत लोग इस पृथ्वी पर हुए हैं। उन्होंने भी ऐसे ही सपने देखे थे, जैसा तुम देखते हो। उन्होंने भी ऐसी ही महत्वाकांक्षाएं पाली थीं, जैसी तुम पालते हो। उन्होंने भी पद और प्रतिष्ठा के लिए ऐसी ही दौड़ साधी थी। वे भी लड़े थे, मरे थे। उन्होंने भी सुख-दुख पाए थे, मित्र-शत्रु बनाए थे, अपने-पराए माने थे। फिर सब विदा हो गए। वैज्ञानिक कहते हैं, जिस जगह पर तुम बैठे हो, जिस जगह पर एक आदमी खड़ा है, उस पर कम से कम दस लोगों की लाशें दबी हैं। उस जमीन में कोई दस लोग मर कर मिट्टी हो चुके हैं। तुम भी उन्हीं दस लोगों की धूल में आज नहीं कल समाविष्ट हो जाओगे। धूल रह जाती है आखिर में, सब सपने उड़ जाते हैं। मिट्टी मिट्टी में गिर जाती है। दो मिट्टियों के बीच यह जो थोड़ी देर के लिए सपने का संसार है, संदेह करना हो इस पर करो। और आश्चर्य है कि लोग इस पर तो संदेह नहीं करते, शाश्वत पर संदेह करते हैं।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते कि हम अंधविश्वासी नहीं हैं, हम विचारवान हैं, सुशिक्षित हैं। हमने तर्क सीखा है। और हमें ईश्वर पर श्रद्धा नहीं आती। मैं उनसे कहता हूं, छोड़ो ईश्वर को। अगर तुम सचमुच में ही सुशिक्षित हो, तुमने तर्क सीखा है और तुम विचारवान हो, तो संसार के संबंध में तुम्हारा क्या खयाल है? वे कहते हैं, संसार है। यह कौन सा तर्क हुआ! यह तो बिलकुल आंख अंधी है।
अगर संदेह ही सीख गए हो, तो जरा अपने जीवन पर संदेह करके देखो; और तुम पाओगे कि सपने में और इस जीवन में कोई भेद नहीं है। सपना तुम किसे कहते हो? जब होता है तब तो सही मालूम पड़ता है। रात जब तुम सपना देखते हो तब थोड़े ही झूठ मालूम पड़ता है। सुबह जब जागते हो तब पता चलता है, जाग कर पता चलता है कि सपना था। जो भी आज तक इस पृथ्वी पर जागे हैं, उन सबका एक वक्तव्य समान है कि यह जगत सपना है। बुद्ध जागे कि सहजो जागे कि कबीर जागे कि फरीद, जागते ही यह जगत सपना हो जाता है। जागते ही पता चलता था कि धन की, पद की दौड़ मन का एक जाल है।
सहजो सुपने एक पल, बीतैं बरस पचास।
आंख खुलै जब झूठ है, ऐसे ही घट-बास।।
जब आंख खुलती है, तब पता चलता है सब झूठ था। ऐसे ही घट-बास! ऐसा ही इस शरीर में रहना है। इस शरीर में रहना तभी तक सच मालूम पड़ता है जब तक आंख बंद है। जब आंख खुल जाती है तब पता चलता है, कैसे-कैसे सपने देखे, कैसी-कैसी भ्रांतियां पालीं, कैसे-कैसे मन के जाल को यथार्थ समझ लिया। केवल लहरें थीं विचार की, तरंगें थीं विचार की--आईं और गईं। उनकी कोई रेखा भी नहीं छूट जाती है। जैसे पानी पर किसी ने लिखा हो, हस्ताक्षर किए हों--कर भी नहीं पाता और मिट जाते हैं।
आंख खुलै जब झूठ है, ऐसे ही घट-बास।
तुम्हें शरीर सच मालूम हो रहा है तो संसार सच मालूम होगा। तुम्हें संसार सच मालूम हो रहा है तो शरीर सच मालूम होगा। ये दोनों सचाइयां एक साथ जुड़ी हैं। अगर तुम्हें संसार पर संदेह आ जाए, शरीर पर संदेह आ जाएगा। क्योंकि शरीर तुम्हारा संसार का हिस्सा है। अगर तुम्हें शरीर पर संदेह आ जाए, संसार पर संदेह आ जाएगा। क्योंकि संसार तुम्हारे शरीर का ही फैला हुआ रूप है। यह शरीर एक दिन नहीं था, इतना तय है। यह शरीर एक दिन नहीं हो जाएगा, इतना भी तय है। बस थोड़ी सी बीच में, दो शून्यों के बीच में थोड़ी सी लहर...। इस लहर को तुम सच मान लेते हो। कभी संदेह नहीं करते। और सब लहरों के पीछे छिपा हुआ जो अस्तित्व है--परमात्मा कहो, आत्मा कहो, मोक्ष कहो--उस पर तुम्हें संदेह आता है। नहीं, नास्तिक को मैं बहुत तर्कनिष्ठ नहीं कहता। बहुत जो तर्कनिष्ठ है वह तो आस्तिक हो ही जाएगा। नास्तिक तो बाहरखड़ी सीख रहा है अभी; अ ब स सीख रहा है। जब और थोड़ा तर्क में गहरा उतरेगा, संदेह प्रगाढ़ होगा और संदेह में धार आएगी, तो जो सहजो कहती है वही दिखाई पड़ेगा: आंख खुलै जब झूठ है, ऐसे ही घट-बास!
जगत तरैयां भोर की, सहजो ठहरत नाहिं।
यह प्रतीक बड़ा प्यारा है। जगत तरैया भोर की! सुबह की आखिरी तरैया है जगत। सुबह कभी उठ कर देखा है? सब तारे डूब गए हैं, बस आखिरी तरैया रह गई है। अब गई, अब गई। एक क्षण है, और एक क्षण बाद तुम खोजते रह जाओगे और पता न चलेगी कहां खो गई। अभी थी, अभी दिखाई पड़ती थी, अब दिखाई नहीं पड़ती है।
जगत तरैयां भोर की, सहजो ठहरत नाहिं।
यह जगत ऐसे ही सुबह के आखिरी डूबते हुए तारे की भांति है। यह ठहरता नहीं। अब गया, तब गया। होश भी नहीं सम्हल पाता और चला जाता है। आ भी नहीं पाते कि विदा का क्षण आ जाता है। हो भी कहां पाते हो और मौत पकड़ लेती है।
जगत तरैयां भोर की, सहजो ठहरत नाहिं।
जैसे मोती ओस की, पानी अंजुली माहिं।।
जैसे सुबह ओस का कण घास के पत्ते पर, बिलकुल मोती लगता है। मोती भी फीके मालूम पड़ते हैं। सुबह का सूरज उगता है। घास के पत्तों पर चमकते ओस-कण मोतियों को मात कर देते हैं--झेंपा देते हैं। जैसे मोती ओस की! है तो मोती, दिखाई पड़ने मात्र को। वस्तुतः है ओस-कण। और कितनी देर टिकता है? हवा का एक झोंका--ओस मिट्टी में खो जाती है। सूरज की किरण--ओस भाप बन जाती है। जैसे मोती ओस की, पानी अंजुली माहिं! या जैसे पानी को कोई अपनी अंजुली में भरता है। लगता है कि भर गया...और गिरना शुरू हो गया है--अंगुलियों से बहा जा रहा है। क्षण भी न बीतेगा अंजुली खाली हो जाएगी। ऐसे ही लगता ही है कि सब पा लिया, पा भी नहीं पाते और अंजुली खाली होने शुरू हो जाती है।
जगत तरैयां भोर की, सहजो ठहरत नाहिं।
जैसे मोती ओस की, पानी अंजुली माहिं।।
क्षणभंगुरता को गौर से देखो। वही पहला कदम है शाश्वत को देखने की तरफ। जिसने क्षणभंगुर को पहचान लिया, उसके पास शाश्वत को परखने की कसौटी आ गई। जिसने क्षणभंगुर को न पहचाना, वह कभी शाश्वत को न पहचान पाएगा।
शिक्षण क्षणभंगुर का लेना होगा।
गौर से देखो उस सबको जो आता है और चला जाता है। होता है और नहीं हो जाता है। बनता है और मिटता है। फूल खिलता है सुबह, सांझ मुर्झा जाता है। गौर से देखो क्षणभंगुर को। सौंदर्य अभी है, कल नहीं होगा। जवानी अभी थी, जा चुकी। गौर से जिसने देखा क्षणभंगुर को उसे धीरे-धीरे एक बात साफ हो जाएगी कि क्षणभंगुर में सत्य को खोजना पागलपन है। जो टिकता ही नहीं उसमें सत्य कैसे हो सकता है? सत्य की परिभाषा है, जो सदा है। सत्य की परिभाषा है, जो अबाध है। जिसका कभी खंडन नहीं होता। किसी भी क्षण में जिससे विपरीत घटित नहीं होता। जो सदा वैसा ही है जैसा था--एकरस। जिसमें कोई भंग नहीं आता। पर इसे जानने के लिए पहले तो क्षणभंगुर को गौर से देख लेना पड़े। क्षणभंगुर को पहचानते-पहचानते ही शाश्वत की पहचान उभरने लगती है। असार को देखते-देखते ही सार की भनक पड़ने लगती है। गलत को देखते-देखते ही ठीक की पहचान हो जाती है। और कोई उपाय नहीं है। और एक बात ध्यान रखना, क्योंकि वह भूल अक्सर होती है। अगर मैं कहता हूं--संसार क्षणभंगुर है, जल्दी मत मान लेना। या सहजो कहती है: सहजो सुपने एक पल, बीतैं बरस पचास। आंख खुलै जब झूठ है, ऐसे ही घट-बास! जल्दी मत मान लेना। क्योंकि जल्दी जो मान लेगा वह अपने अनुभव से वंचित रह जाता है। यह तुम्हारा अनुभव होगा तो ही तुम्हें सत्य तक ले जाएगा। उधार अनुभव से कुछ भी न होगा।
ऐसे तो तुमने भी सुना है कि संसार क्षणभंगुर है। लेकिन तुम्हें सत्य की शाश्वतता का इससे कुछ पता नहीं चला। क्षणभंगुरता तुमने देखी नहीं है, सुनी है। पहचानी नहीं है, मान ली है। कोई और कहता है। उधार है, बासी है। शास्त्र कहते हैं, संत कहते हैं। लेकिन तुम्हारे अनुभव से नहीं प्रकटी। परिपक्व नहीं है। तुमने पक कर नहीं जानी है, तुमने मान ली है। मानने से कोई ज्ञान को उपलब्ध नहीं होता। जानने से ज्ञान बनता है। मानने से ज्यादा से ज्यादा अज्ञान ढंकता है, मिटता नहीं।
जगत तरैयां भोर की, सहजो ठहरत नाहिं।
जैसे मोती ओस की, पानी अंजुली माहिं।।
धूआं को सो गढ़ बन्यौ, मन में राज संजोय।
झाईं माईं सहजिया, कबहूं सांच न होय।।
यह जो मन का सारा खेल है--धूआं को सो गढ़ बन्यौ--जैसे कोई धुएं का गढ़ बना ले। कभी-कभी आकाश में बादलों को तुमने देखा हो। कितने रूप-रंग लेते हैं, कितने आकार लेते हैं। कभी लगता है, बादल का एक टुकड़ा हाथी बन गया। मगर जरा गौर से देखते रहना--तुम देख भी न पाओगे थोड़ी देर कि हाथी बिखर गया। धुएं का हाथी कितनी देर टिक सकता है? कभी बादलों में लग सकता है कि गढ़ बना है, बड़ा महल बना है। लेकिन जब तुम्हें लग रहा है तब भी वह महल बिखर रहा है।
धूआं को सो गढ़ बन्यौ, मन में राज संयोग।
यह जो मन के सारे राज्य हैं, सपने हैं; मन की कल्पनाएं-आकांक्षाएं हैं, वासनाएं हैं, तृष्णाएं हैं--धुएं के गढ़ हैं।
बड़े अछूते प्रतीक सहजो के लिए हैं। बड़े कुंआरे प्रतीक हैं। पिटे-पिटाए नहीं हैं। उसने अपने जानने से ही लिए होंगे। वह कोई कवि नहीं है, रहस्यवादिनी है। वह कोई कविता नहीं कर रही है, वह स्वयं कविता है। शब्दों से उसे कुछ लेना नहीं है। वह जो मौन में और शून्य में जाना है, उसे शब्दों के सहारे थोड़ा तैरा देना है ताकि तुम तक पहुंच जाए। शब्द तो कागज की नाव हैं। उसने उसमें शून्य के अनुभव को रख के भेजा है तुम तक। शब्द तो संदेशवाहक हैं, डाकिया हैं। उनको बहुत सजाने का सवाल नहीं है। बड़े कुंआरे प्रतीक हैं।
धूआं को सो गढ़ बन्यौ,...
यह जो मन का जाल; जिसने गौर से देखा, पाया धुएं का जाल है। कितने खेल रचता है। जो नहीं है, उसको मान लेना है। जो है, उसे भूल जाता है। और हर बार हारता है, फिर भी जागता नहीं। तुमने जितनी कामनाएं की सभी में तुम हारे हो, फिर भी जागे नहीं। आश्चर्यजनक है! जाग नहीं पाते कि मन दूसरा गढ़ बना देता है। वह कहता है, पुराना गलत हो गया, कोई फिकर नहीं। लोगों ने सच न होने दिया; दुश्मन ज्यादा थे; परिस्थिति अनुकूल न मिली; भाग्य ने साथ न दिया; चेष्टा पूरी न हो पाई। इसलिए बिखर गया। मन सदा यह कहता है कि तुम्हारी वासना में तुम असफल हुए उसका कारण--वासना का स्वभाव ही असफल होना है--ऐसा नहीं है। और कारण बताता है मन। इन कारणों से असफल हुए। अगर पूरी ताकत लगाई होती तो जीत जाते। ताकत कम लगाई; श्रम पूरा न उठाया; दूसरा जो तुम्हारी प्रतिस्पर्धा में था चालबाज था, चालाक था। तुम सीधे-सीधे आदमी थे; तुम्हें भी षडयंत्र रचना था, तुम्हें भी दुनियादारी में पड़ना था, तो जीतते। हजार बहाने मन खोज देता है। क्यों तुम हारे। एक बात नहीं देखने देता कि वासना का स्वभाव ही हार जाना है--वासना कभी पूरी होती ही नहीं, वह तुम्हें बहाने बता देता है। कहता है, अगली बार ऐसी भूल मत करना, अब दुबारा जब संघर्ष में उत्तरों तो तैयारी से उतरना। लेकिन कोई कभी जीतता नहीं। सिकंदर और नेपोलियन भी खाली हाथ विदा होते हैं। धनपति भी निर्धन ही मरते हैं। पदों पर, सिंहासनों पर बैठे हुए लोग भी भीतर भिखारी ही रह जाते हैं। बड़े पंडित हो जाते हैं, बहुत जान लेते हैं, फिर भी भीतर का अंधेरा नहीं मिटता और दिया तले अंधेरा बना रहता है।
धूआं को सो गढ़ बन्यौ, मन में राज संजोय।
झाईं माईं सहजिया, कबहूं सांच न होय।।
जैसे कि कोई चांद को देखे झील में। चांद तो सच है, लेकिन झील का चांद सच नहीं है। जैसे कोई देखे अपनी ही छवि को दर्पण में। तो दर्पण की छवि कितनी ही सुंदर मालूम पड़े, सच नहीं है। झाईं माईं सहजिया--परछाईं में; कबहूं सांच न होय--परछाईं में कभी सत्य नहीं होता। संसार परमात्मा की परछाईं है। जहां तुम पाओ सत्य नहीं है, लेकिन सत्य भासता है, उसका अर्थ यही हुआ कि परछाईं है। तुम भागे जा रहे हो, तुम्हारी छाया तुम्हारे पीछे भागी जा रही है। मैं तुम्हारी छाया को पकड़ने में लग जाऊं तो तुम्हें न पकड़ पाऊंगा। यद्यपि विपरीत सच है। तुम्हें पकड़ लूं, तुम्हारी छाया पकड़ में आ जाएगी।
मैंने सुना है कि एक छोटा बच्चा एक आंगन में खेल रहा है। वह अपनी छाया को पकड़ने की कोशिश कर रहा है। सुबह की धूप होगी, सर्दी के दिन होंगे, वह सरक-सरक कर अपनी छाया को पकड़ने की कोशिश कर रहा है। एक फकीर द्वार पर भीख मांगने खड़ा है। वह गौर से देखने लगा। वह बच्चा पकड़ने की कोशिश करता है लेकिन पकड़ नहीं पाता। क्योंकि जब वह आगे बढ़ता है, छाया आगे बढ़ जाती है। फिर आगे बढ़ता है और भी ताकत से, फिर छाया आगे बढ़ जाती है। वह बच्चा रोने लगा है। उसकी आंख से आंसू गिर रहे हैं। वह हार गया है। उसकी मां उसे समझाने की कोशिश कर रही है कि छाया पकड़ी नहीं जा सकती। लेकिन बच्चे को क्या छाया, क्या माया? बच्चा कहता है, मैं पकड़ कर रहूंगा। अगर मुझसे नहीं पकड़ी जाती, तुम पकड़ दो। लेकिन मुझे पकड़नी है। बच्चा हारने को राजी नहीं है। वह फकीर द्वार पर खड़ा देखता है, वह भीतर आया। उसने मां से कहा कि रुको। उसने बच्चे का हाथ उसके माथे पर रखवा दिया और कहा: देख। हाथ माथे पर पड़ा, छाया पर भी हाथ पड़ गया। बच्चा खिलखिला कर हंसने लगा है। छाया उसने पकड़ ली।
छाया को पकड़ने का और कोई उपाय नहीं। छाया को पकड़ना हो तो छाया में ही पकड़ा जा सकता है। तुम्हारे राजनेता, धनपति, प्रतिष्ठित लोग--जो लगते हैं कि जिन्होंने कुछ पकड़ लिया संसार में--अपने माथे पर हाथ रखे हैं। छाया पकड़ी हुई मालूम पड़ रही है। तुम्हारी दिल्ली, तुम्हारे लंदन, तुम्हारे पेरिस और वाशिंगटन में अपने-अपने माथे पर हाथ रखे लोग बैठे हैं। छाया पकड़ी हुई मालूम पड़ रही है। जो नहीं पकड़ पाते हैं वे रो रहे हैं। वे छाया को सीधा पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं। बाकी दोनों ही बातें मूढ़ता थी। बच्चे का रोना भी मूढ़ता थी। अब बच्चा प्रफुल्लित है, हंस रहा है कि पकड़ ली उसने, जीत गया, वह भी उतनी ही मूढ़ता है। शायद दूसरी मूढ़ता पहले से भी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि पहली असफलता में तो एक सचाई थी, दूसरी सफलता में बिलकुल ही सचाई नहीं है।
झाईं-माईं सहजिया, कबहूं सांच न होय।
परछाईं कभी सच नहीं है। परछाईं का भी एक सच है कि वह है। पर परछाईं की तरह ही है, सत्य की तरह नहीं है। तुम उसे पकड़ने में मत पड़ जाना।
मैंने सुना है कि रमजान के दिन थे और मुल्ला नसरुद्दीन एक एकांत रास्ते से गुजर रहा था। चांद देखने को मुसलमान बड़े पीड़ित और परेशान थे। दिख जाए चांद तो उपवास पूरा हो। वह एक कुएं पर पानी पीने को रुका। उसने बाल्टी अंदर डाली। कुएं में चांद था। अरे! उसने कहा कि यही झंझट हो रही है। वे लोग आकाश में देख रहे हैं और चांद यहां उलझा है। अब इसको कोई न निकालेगा अगर, तो मर जाएंगे लाखों लोग भूखे। तो उसने पानी-वानी पीने की तो फिकिर छोड़ दी, उसने बाल्टी में चांद को भरने की कोशिश की। बड़ा मुश्किल काम था। क्योंकि पानी हिलने लगा, तो चांद छितरने लगा। संसार की यही मुसीबत है। वहां चीजों को पकड़ने जाओ, तो वे छितरती हैं। मुट्ठी बांधो, तो पारा सिद्ध होती है। छूट-छूट जाती हैं। बड़ी उसने मेहनत की, बड़ा हिलाया-डुलाया, बड़ा सम्हाल के बाल्टी रखी, आखिर एक ऐसी घड़ी आ गई कि ठीक बाल्टी में वह पानी भर गया जिसमें चांद की छाया पड़ रही थी। उसने कहा कि हो गया निपटारा। एक पुण्य का कृत्य हो गया। अब इसको खींच लें।
उसने बड़ी खींचने की कोशिश की। इस उपद्रव में चांद को पकड़ने की, उसकी रस्सी कुएं के भीतर की एक चट्टान से उलझ गई। बड़ी ताकत लगाई, वह निकले न। उसने कहा: मरे! वजनी है बहुत! अकेले से न होगा! मगर इधर कोई आस-पास दिखाई भी नहीं पड़ता। खुद पर ही करना पड़ेगा। यह तो ताकत और लगानी पड़ेगी। बड़ी ताकत लगाई। जब बहुत ही लगा दी, तो रस्सी टूट गई--जो कि होता है सदा। रस्सी टूट गई तो वह भड़ाम से जाकर कुएं के बाहर पाट पर गिरा। खोपड़ी में चोट भी लगी, आंख भी खुली, चांद ऊपर दिखा। उसने कहा, चलो चोट लग गई कोई हर्जा नहीं, तुम तो छूटे। लाखों लोगों के प्राण बचे।
मगर ऐसा सौभाग्य भी कम लोगों को मिलता है कि चोट लग जाए--रस्सी उलझ जाए, गिर पड़ें, खोपड़ी तिलमिला जाए, और आकाश की तरफ आंख उठ जाए और असली चांद दिख जाए। जीवन की हार जब पूरी होती है तभी परमात्मा की सुध आनी शुरू होती है। जब जीवन पूरी तरह पराजित होता है, तुम चारों खाने चित्त गिर गए होते हो, तब तुम्हारी आंख आकाश की तरफ उठती है। अन्यथा आदमी कुएं के चांद को पकड़ने में लगा रहता है। नहीं पकड़ पाता तो सोचता है और थोड़ी कुशलता चाहिए।
लेकिन परछाईं के चांद सत्य नहीं हैं। दिखाई पड़ते हैं। इसलिए ज्ञानियों ने संसार को माया कहा है। परमात्मा है सत्य। संसार है उसकी परछाईं सत्य की छाया का नाम माया है।
धूआं को सो गढ़ बन्यौ, मन में राज संजोय।
झाईं माईं सहजिया, कबहूं सांच न होय।।
निरगुन सरगुन एक प्रभु, देख्यो समझ विचार।
सदगुरु ने आंखें दयीं, निस्चै कियो निहार।।
निरगुन सरगुन एक प्रभु, देख्यो समझ विचार! लेकिन परमात्मा की तरफ की यात्रा का पहला कदम जब तक पूरा न हो जाए, तब तक परमात्मा एक शाब्दिक बातचीत रहता है। जब तक संसार व्यर्थ न हो, तब तक परमात्मा सार्थक नहीं हो सकता। दो दिन पहले एक मित्र मेरे पास थे। अपने बेटे को लेकर आए थे। कहने लगे बेटा होशियार है बहुत। और उसने संन्यास ले लिया यह भी अच्छा किया। लेकिन दोनों सम्हालने चाहिए--संसार भी और संन्यास भी। इस जगत में भी सफलता पानी चाहिए और उस जगत में भी। ऊपर से देखने पर बात बिलकुल ठीक लगती है कि इस जगत में भी सफलता मिलनी चाहिए, उस जगत में भी। लेकिन जब तक तुम्हें इस जगत की सफलता सफलता दिखाई पड़ती है तब तक उस जगत की सफलता की तरफ तो तुम चेष्टा ही न करोगे।
इस बात से मैं राजी हूं कि संसार छोड़ कर भागने की कोई भी जरूरत नहीं है। संसार में तुम परिपूर्ण रहते हुए संन्यस्त हो सकते हो। लेकिन संसार में रहते हुए एक बात के प्रति तो तुम्हें जाग ही जाना होगा कि संसार की सफलता सफलता नहीं है। वह चांद कुएं का है। वह छाया है। संसार में रहते हुए ही संन्यस्त हुआ जा सकता है। और कोई उपाय नहीं। जाओगे भी कहां? सभी तरफ संसार है। जो है, सभी तरफ संसार फैला है। भागोगे कहां? भागने को कोई जगह नहीं है। जागने को जगह है। जागने का अर्थ इतना होता है कि तुम यह देख लेना कि यह जो दौड़ संसार की है वहां चांद असली नहीं है। अगर कामचलाऊ चलना भी पड़े तो चलते रहना। अगर भीड़ वहां जाती हो तो भीड़ के साथ खड़े रहना, कोई हर्जा नहीं है। क्योंकि भीड़ को नाहक नाराज करने से भी क्या सार है। और उनको तो वहां सफलता दिखाई पड़ रही है। यही तो उस फकीर ने उस बच्चे के सिर पर हाथ रख कर किया। बच्चा है, नाहक रुलाने से भी क्या फायदा है। इतने से तो खुश हो जाता है कि छाया पकड़ ली। तो एक तरकीब कर दी कि सिर हाथ पर रख दिया। छाया पकड़ में आ गई।
लेकिन तुम्हें तो जाग ही जाना चाहिए कि संसार की कोई सफलता सफलता नहीं है। सब सफलता गंवाया गया श्रम है। सब सफलता खोया गया समय है। सब सफलता अपने को बेचना है और कूड़ा-करकट को खरीद लाना है। एक दिन तुम पाओगे बाजार तो सब खरीद के घर में आ गया, तुम बाजार में कहीं खो गए। तुम तो न बचे, और सब बच गया।
निरगुन सरगुन एक प्रभु, देख्यो समझ विचार।
संसार की क्षणभंगुरता स्पष्ट हो जाए तो फिर परमात्मा की तरफ आंख उठती है, आंख खुलती है। और वैसी जो आंख है--उसको ‘निरगुन सरगुन एक प्रभु’--उसको तो निर्गुन और सगुण एक ही दिखाई पड़ता है। हिंदू, मुसलमान, ईसाई का परमात्मा एक ही दिखाई पड़ता है। जिनको ये परमात्मा अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं, समझ लेना कि उनकी अभी आंख परमात्मा की तरफ नहीं उठी। क्योंकि परमात्मा तो एक है। चांद तो एक है, कुएं हजार हैं। और हजार कुओं में हजार प्रतिबिंब बनते हैं। कोई मुसलमान का कुआं है, उसमें मुसलमान का प्रतिबिंब है। कोई हिंदू का कुआं है, उसमें हिंदू का प्रतिबिंब है। किसी में गंदा पानी भरा है, किसी में स्वच्छ पानी भरा है। तो प्रतिबिंब में थोड़ा फर्क भी पड़ता है। कोई कुआं संगमरमर से बना है। कोई कुआं साधारण मिट्टी का ही है; कुछ भी उसमें पत्थर नहीं लगे हैं। तो भी प्रतिबिंब में थोड़ा फर्क पड़ता है। लेकिन जिसका प्रतिबिंब है, वह एक है। प्रतिबिंब अनेक हो सकते हैं, लेकिन सत्य एक है।
निरगुन सरगुन एक प्रभु,...
तुम उसे सगुण कहो तो ठीक, क्योंकि सभी गुण उसके हैं। तुम उसे निर्गुण कहो तो ठीक, क्योंकि जो सभी गुण जिसके हैं कोई गुण उसका नहीं है। जिसके सभी गुण हैं वह गुणों के पार है। तुम उसके हाथ पूरे भरे कहो, तो ठीक है। तुम उसके हाथ पूरे शून्य कहो, तो ठीक है। क्योंकि शून्य और पूर्ण एक ही अवस्था के दो नाम हैं। तुम चाहो तो हर हरियाली में उसे देखो, हर फूल में उसे पहचानो, हर तारे में उसकी झलक पाओ। और तुम चाहो तो हर हरियाली के पीछे, चांद-तारों के पीछे, पहाड़ों के पीछे, जो छिपा हुआ निराकार अस्तित्व है उसमें उसे खोजो। चाहो, उसकी अभिव्यक्ति में पकड़ो, और चाहे उसकी आत्मा में। आत्मा देखोगे तो निगुर्ण है। अभिव्यक्ति देखोगे तो सगुण है। उसके वस्त्र देखोगे तो बड़े प्यारे, बड़े रंग-बिरंगे हैं। उसके भीतर जाओगे, सब रंग खो जाते हैं। विराट शून्य मिलता है।
निरगुन सरगुन एक प्रभु, देख्यो समझ विचार।
लेकिन यह देखने से मिलता है यह अनुभव। यह अगर अकेले विचार करने से मिलता, तो विचारक इसे पा लेते। यह अकेले विचार करने से नहीं मिलता। बहुत लोग विचार करते रहते हैं परमात्मा के संबंध में। उनका विचार कहीं भी नहीं ले जाता। क्योंकि विचार तो मन का ही जाल है। मन से ही तो जो पकड़ में आता है वह संसार है। विचार से पकड़ने की कोशिश परमात्मा को ऐसे ही है जैसे कोई छाया को पकड़ रहा हो, पकड़ में न आती हो; विचार खुद ही छाया है। उस छाया से तुम क्या पकड़ने जाओगे सत्य को? मन चाहिए शून्य, निर्विचार। यही अर्थ है ध्यान का। विचार से कोई कभी परमात्मा को नहीं पाता। ध्यान से पाता है। ध्यान निर्विचार दशा है। जब तुम्हारे मन में सब तरंगें समाप्त हो गईं, कोई विचार नहीं उठता, झील परिपूर्ण मौन है, सन्नाटा है गहन, तब तुम्हारे संबंध जुड़ते हैं।
...देख्यो समझ विचार।
तीन शब्द सहजो प्रयोग कर रही है: दृष्टि, समझ और विचार। कुछ लोग विचार से पाने की कोशिश करते हैं। वे उपलब्ध नहीं हो पाते। दार्शनिक बन जाते हैं। फिलॉसफी पैदा हो जाती है। बड़ा तत्व का ऊहापोह करते हैं। उनसे अगर तुम विचार की बात करो तो वे विचार का बड़ा फैलाव खड़ा कर देते हैं। लेकिन उनके विचार के जाल में परमात्मा की मछली कभी फंसती नहीं। जाल उनका कितना ही बड़ा हो मछली कभी पकड़ में नहीं आती।
फिर कुछ लोग हैं जो समझदारी से उसे पाने की कोशिश करते हैं। समझ आती है जीवन के अनुभव से। जीवन के अनंत अनुभव हैं। उन सारे अनुभवों का जो निचोड़ है उसका नाम समझ है। जवान आदमी परमात्मा को विचार से पाना चाहता है। बूढ़े समझदारी से। वे कहते हैं, हमने जीवन देखा है। मगर जीवन तो छाया है। छाया का अनुभव भी सत्य तक कैसे ले जाएगा? विचार से तो मुक्त होना ही है, समझ से भी मुक्त होना है। विचार पढ़ने-लिखने से आ जाते हैं। इसलिए विश्वविद्यालय से जब कोई लौटता है तो बड़े विचारों से भरा होता है। बूढ़े उस पर हंसते हैं। वे कहते हैं, थोड़ा ठहरो, जरा जीवन को देखो, तब पता चलेगा।
मैंने सुना है कि दिल्ली से कृषिशास्त्र में एक व्यक्ति को डॉक्टरेट की उपाधि मिली। उपाधि के अंतिम परीक्षण के लिए उसे देहात भेजा गया, एक किसान के खेत का पूरा विवरण बनाने के लिए, ताकि पता चल जाए कि व्यावहारिक भी है उसका ज्ञान या नहीं। तो उसने और सब विवरण तो बना लिया--कितने झाड़ हैं, कितनी पैदावार है, कितनी जमीन एकड़ है, कितने एकड़ पर कितनी पैदावार होती है, कितना बीज बोया जाता है, कितनी फसल आती है--सब आंकड़े बिठा लिए। एक चीज उसकी समझ में नहीं आ रही थी। और किसान उसके ढंग से हंस रहा था, और वह उसको कोई सहायता भी नहीं दे रहा था। वह कह रहा था कि तुम खुद ही जानकार हो। झाड़ को उसने देख कर कहा कि इस झाड़ की हालत ऐसी है कि मुझे लगता है इसमें इस साल सेव लगेंगे नहीं। किसान ने कहा कि यह तो मुझे भी पक्का है कि सेव इसमें नहीं लगेंगे। क्योंकि यह झाड़ सेव का है ही नहीं। ऐसा उसकी चीजों पर वह हंस रहा था। झोपड़े में एक बकरा था--बूढ़ा बकरा, जिसको दाढ़ी भी उग गई थी। यह युवक कभी विश्वविद्यालय को छोड़ कर बाहर तो गया नहीं था। कृषिशास्त्र भी किताब से सीखा था। विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में ही जिंदगी गंवाई थी। इसमें यह जानवर इसकी कुछ पहचान में न आया। और दाढ़ी...और...तो इसने कहा कि यह कौन है? तो उस किसान ने कहा: अब आप ही बताओ कि यह कौन है! आप जानकार हो! हम तो गरीब किसान, हम क्या जानें!
उसने तार किया विश्वविद्यालय को। विवरण लिखा कि बूढ़ा है, दाढ़ी है; कौन है, खबर करो। तो उधर से खबर आई कि मूरख, वह किसान है। उसको भी नहीं पहचान पा रहा था। दाढ़ी है...बूढ़ा है...तो वहां से जो खबर रजिस्ट्रार ने दी, उसने सोचा कि अब यह किसान को ही नहीं समझ पा रहा है, हद हो गई!
एक जिंदगी है किताब की। एक जिंदगी है जीवन के अनुभव की। किताब से विचार मिल सकते हैं, समझ नहीं मिलती। समझ तो जीवन के कड़वे-मीठे अनुभव से मिलती है। वही नालेज और व़िजडम का फर्क है। विचार और समझ। लेकिन सहजो कहती है, अकेली समझ से अगर वह मिलता होता तो सभी बूढ़ों को मिल जाता। अगर विचार से मिलता होता तो सभी विचारकों को मिल गया होता। लेकिन न तो विचारकों को मिलता दिखाता है--न जवानों को मिलता दिखता है, न बूढ़ों को मिलता दिखता है। तब फिर कोई एक और तीसरी चीज चाहिए...देख्यो समझ विचार! विचार का भी उपयोग किया, समझ का भी उपयोग किया, लेकिन दोनों का उपयोग देखने के लिए किया।...देख्यो समझ विचार।
सदगुरु ने आंखें दयीं, निस्चै कियो निहार।
तो सदगुरु न तो विचार देता; या अगर विचार देता है, तो इसीलिए देता है कि तुम्हारी बंद आंखें खुलें। न सदगुरु समझ देता; अगर समझ भी देता है, तो इसी सहारे के लिए देता है कि तुम्हारी आंखें खुलें। लेकिन मौलिक बात है, आंख खुले।
संसार को देखने की एक आंख है, परमात्मा को देखने की दूसरी आंख है। तो तुम कितने ही कुशल हो जाओ संसार को समझने और जानने में, उसी आंख से तुम परमात्मा को न जान सकोगे। वह आयाम अलग है। और आंख खुले तो ही कुछ हो सकता है। आंख कैसे खुलेगी? संसार से नकारात्मक सहारा मिल सकता है। संसार से असफलता मिल सकती है। विषाद मिल सकता है, दुख मिल सकता है। दुख, विषाद, असफलता के कारण तुम्हारे मन में एक आकांक्षा पैदा हो सकती है कि संसार के पार जो है उसे मैं खोजूं। बस इतना ही संसार से मिल सकता है। विचार से तुम्हें संसार के प्रति संदेह मिल सकता है, परमात्मा के प्रति श्रद्धा न मिलेगी। लेकिन संसार के प्रति संदेह आ जाए तो परमात्मा की तरफ श्रद्धा में जाने में सुगमता हो जाएगी, सुविधा हो जाएगी। कम से कम व्यर्थ से छुटकारा हुआ, तो सार्थक के लिए जगह बन जाती है। जैसे किसी को नया बगीचा लगाना है तो पहले वह घास-पात को उखाड़ता है। व्यर्थ के झाड़-झंखाड़ को उखाड़ता है। दो-चार फीट जमीन खोद के व्यर्थ की जड़ें जो हैं उनको निकाल फेंकता है। इसको फेंक देने से कोई बगीचा नहीं लग जाता है। लेकिन बगीचे लगने की सुविधा बन जाती है। अगर इसको ही तुम लगाए रखो, तो तुम बगीचा बो भी दो तो भी नष्ट हो जाएगा, क्योंकि गलत की गढ़ने की बड़ी क्षमता होती है। सही को गलत हमेशा दबा लेता है। अगर तुमने घास-पात छोड़ दिया और बीज तुमने बो दिए फूलों के, तो फूलों के बीज कहां खो जाएंगे पता न चलेगा।
मुल्ला नसरुद्दीन के पड़ोस में एक आदमी ने मकान लिया। नसरुद्दीन का बगीचा बड़ा सुंदर था। उस आदमी को भी मन में हुआ, वह भी बगीचा लगाए। उसने पूछा नसरुद्दीन से कि मैंने बीज बो दिए हैं, अब बीज में से अंकुर भी आ गए हैं और घास-पात भी उग आया है। तो मैं कैसे पहचानूं कि कौन कौन है? घास-पात क्या है और बीज क्या है? नसरुद्दीन ने कहा: सरल तरकीब है। दोनों को उखाड़ लो, जो फिर से उग आए वह घास-पात, जो फिर न उगे समझ लेना कि असली था, बीज था। घास-पात को बोना नहीं पड़ता, वह अपने आप उगता है। दोनों उखाड़ लो। तुम्हें पक्का पता चल जाएगा, कौन कौन है? बगीचा तैयार करना हो तो नकारात्मक तैयारी है--घास-पात उखाड़ दो, जड़ें निकाल दो, मिट्टी साफ कर लो। पर यही बगीचा तैयार नहीं हो गया। यह बगीचा तैयार होने की शुरुआत है। बीज बोने पड़ेंगे।
संसार के प्रति संदेह आ जाए इतना विचार और समझ से हो सकता है, बस। इतना हो जाए तो भी सौभाग्य है। क्योंकि सौ में निन्यानबे को तो इतना भी नहीं हो पाता। कई बार तो ऐसा दिखाई पड़ता है कि समझ लोगों को और भटका देती है। जवान तो जवान, बूढ़े और भी संसार में ग्रस्त हो जाते हैं। जवान में तो थोड़ा सा संन्यास का भाव भी होता है, बूढ़े में वह भी नहीं बचता। क्योंकि मौत इतनी जोर से करीब आती है, वह सोचता है: दो दिन और बचे हैं, भोग लूं; चार दिन और बचे हैं...अब कहां परमात्मा? देखेंगे फिर। जिंदगी तो गई...इतने दिन और थोड़ा सुख मिलता है, वह और भोग लें। समझदारों की नासमझी का हिसाब नहीं है। कभी-कभी जवान तो हिम्मत करके निकल जाता है संन्यास के पथ पर, बूढ़े नहीं हिम्मत कर पाते।
इसलिए तुम चकित होओगे कि संसार में जो बड़े संन्यासी हुए वे सब जवान घरों...जब निकले थे तो जवान थे। बुद्ध, महावीर जवान थे। तुमने बुद्ध और महावीर के मुकाबले कोई बूढ़ों को कभी संन्यासी होते देखा? तुम एक नाम न गिना सकोगे। बूढ़े तो इतने ज्यादा संसार में अनुभवी हो जाते हैं कि उनका अनुभव ही उन्हें डुबा देता है।
तो न तो विचार से कोई पहुंचता, न कोई अनुभव से पहुंचता। संसार का अनुभव और विचार दोनों ही व्यर्थ हैं। हां, इतना ही उपयोग हो सकता है कि दोनों से तुम्हें पता चल जाए कि कोई आंख तुम्हारे भीतर बंद पड़ी है, कोई तीसरा नेत्र बंद पड़ा है, वह खुले तो शायद परमात्मा की छवि का कोई अनुभव हो सके, तो शायद सत्य से कोई संबंध-सेतु बन जाए।
सदगुरु ने आंखें दयीं,...
सदगुरु विचार नहीं देता। न समझ देता है। सदगुरु देखने की क्षमता देता है, दृष्टि देता है। सदगुरु आंख देता है। कैसे देता है आंख? यह थोड़ा सूक्ष्म, नाजुक है। सदगुरु तुम्हें कैसे आंख देता है? सदगुरु पहले तो तुम्हें अपनी आंख से देखने की सुविधाएं देता है। जैसे कोई छोटे बच्चे को अपने कंधे पर बिठा ले और कहे कि देख। कंधे पर बैठ कर बच्चा दूर तक देख पाता है। नीचे खड़ा हो जाता है, उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ता। कंधे पर बैठ जाता है तो दूर तक देख लेता है। सदगुरु पहले तो तुम्हें कंधे पर बिठा कर अपनी आंख से देखने के कुछ मौके देता है, वह अपनी आंख तुम्हारे सामने रख देता है कि जरा इससे भी झांको। जैसे मैं तुमसे जो बातें कर रहा हूं तुम्हें कोई विचार देने को नहीं कर रहा हूं, विचार देने से क्या होगा। तुम्हारे पास जरूरत से ज्यादा पहले ही है। जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह इसलिए कह रहा हूं ताकि तुम जरा मेरी आंख से भी देखो। यह भी एक आंख है। ऐसे भी देखा जा सकता है। तुम्हें झलक मेरी आंख से मिल जाए तो तुम्हारी अपनी आंख में एक स्फुरणा शुरू हो जाएगी। एक बार तुम किसी की आंख से देख लो--तो दूसरे की आंख तुम्हारी नहीं हो सकती--लेकिन दूसरे की आंख की प्रतीति में तुम्हारी अपनी आंख के खुलने का शुभारंभ हो जाता है।
ऐसा ही समझो कि बिजली चमक गई। अंधेरी रात थी। एक क्षण को चमकी बिजली, लेकिन उस क्षण में तुम्हें सब दिखाई पड़ गया है--रास्ता, वृक्ष, पहाड़-पर्वत। अंधेरा घनघोर हो गया फिर। लेकिन अब तुम्हें पता है कि कि रास्ता है। टटोलना पड़ेगा, खोजना पड़ेगा, गिरने का भय है, लेकिन रास्ता कम से कम है। गुरु की आंख से देखने से एक श्रद्धा उमगती है कि रास्ता है। गुरु के पास होने से धीरे-धीरे उसकी सुगंध तुम्हारे नासापुटों को भरती है और तुम्हें अहसास होना शुरू होता है: जो इसको हुआ वह हमें भी हो सकता है। जो एक व्यक्ति के लिए संभव हुआ, वह सबके लिए संभव है।
बुद्ध या महावीर या कृष्ण या सहजो के पास उनके जीवन का आनंद संक्रामक हो जाएगा। कभी-कभी तुम्हारे बावजूद भी तुम्हारी आंख खुल जाएगी। कभी-कभी अनजाने भी वे तुम्हें हिला देंगे, जगा देंगे। तुम जरा सी पलक खोल कर देख लोगे, तुम्हें भरोसा आने लगेगा। छोटा बच्चा चलता है। मां उसे हाथ का सहारा दे देती है। चलना तो छोटे बच्चे को पड़ता है। लेकिन सहारे की वजह से आश्वासन आ जाता है। सोचता है, अब गिरने वाला नहीं हूं, मां साथ है। फिर भी गिरेगा, कई बार गिरेगा। लेकिन हर बार गिरने के बाद जब उठेगा तो उसकी गिरने की संभावना कम होती जाएगी। और मां उसे आश्वासन दिए जा रही है कि चलो, घबड़ाओ मत। जैसे मैं चलती हूं, तुम भी चल सकोगे। गुरु ऐसे हाथ को सहारा देता है। जानता है कि क्षमता तुम्हारे भीतर छिपी है, थोड़े से प्रयोग की जरूरत है। तुम शायद घबड़ा गए हो। जन्मों-जन्मों से तुमने वह आंख खोल कर नहीं देखी जिससे परमात्मा दिखता है। तुम शायद भूल ही गए हो। शायद आज अचानक कोई तुम्हें याद भी दिलाए तो तुम्हें याद नहीं आता। लेकिन किसी के सान्निध्य में, सत्संग में, कभी न कभी तुम्हारे भीतर भी उस केंद्र पर चोट पड़ने लगती है। सतत चोट की जरूरत है। इसलिए सत्संग एक सतत प्रक्रिया है।
सदगुरु ने आंखें दयीं, निस्चै कियो निहार।
मन से तो सदा संदेह ही जाने जाते हैं। विचार...विचार...विचार...निश्चित कुछ भी नहीं होता। जिनको तुम निश्चित विचार कहते हो, उनमें भी तुम पीछे संदेह को छिपा पाओगे। अक्सर तो तुम इसीलिए कहते हो कि मेरा विचार बिलकुल दृढ़ है, जब तुम यह कहते हो तब तुमको भी पता है कि दृढ़ इसीलिए कह रहे हो कि तुम्हें खुद ही शक है। तुम मरने-मारने को उतारू हो जाते हो अपने विचार के लिए। वह भी इसी की खबर है कि तुम भीतर से डांवाडोल हो। निश्चय बड़ी और बात है। निश्चय का मतलब है: जहां संदेह है ही नहीं। और संदेह वहीं मिटता है जहां विचार भी मिट जाते हैं। निस्चै कियो निहार! वहां विचार नहीं होता। वहां निहार। वहां दिखाई पड़ता है। दर्शन होता है। सोचते थोड़े ही हो। एक अंधा आदमी सोचता है कि प्रकाश है। आंख वाला आदमी देखता है कि प्रकाश है। अंधा विचार करता है, आंख वाला निहारता है।
सदगुरु ने आंखें दयीं, निस्चै कियो निहार।
और जहां निहार है वहां निश्चय है; जहां विचार है वहां विभ्रम है। विचार के पीछे ही चलती रहती है अनिश्चय की धारा। निहार चाहिए। परमात्मा को कोई सोचता नहीं। या तो तुम परमात्मा को देख लेते हो, या नहीं देखते। मान्यता का सवाल नहीं है। ‘दर्शन’ की बात है--साक्षात्कार!
सहजो हरि बहुरंग है, वही प्रगट वही गूप।
वही तो प्रकट है, वही गुप्त है। सहजो हरि बहुरंग है! सभी रंग उसी के हैं। और फिर भी कोई रंग उसका नहीं है।
जल पाले में भेद ना, ज्यों सूरज अरु धूप।
बड़े प्यारे वचन हैं।
जल पाले में भेद ना,...
जल में और ओस में क्या कोई भेद हैं? जल में और पाला छा जाए, उसमें कोई भेद है? कोई भी भेद नहीं है।
...ज्यों सूरज अरु धूप।
जैसे सूरज में और सूरज की धूप में कोई भेद है! ऐसे परमात्मा में और परमात्मा की सृष्टि में क्या कोई भेद है?...ज्यों सूरज अरु धूप! वही है। वही फैला है। सूरज में वही संग्रहीभूत है, केंद्रित है। धूप में वही फैला है, विस्तीर्ण है। यह धूप का जो चंदोवा है उसी का फैलाव है। यह जो विराट अस्तित्व दिखाई पड़ रहा है, यह उसी का फैलाव है। स्रष्टा और सृष्टि में क्या कोई भेद है? नर्तक और नृत्य में क्या कोई भेद है? गायक और गीत में क्या कोई भेद है? एक प्रकट है, एक गृप्त है। गीत प्रकट है, गायक गुप्त है। नृत्य प्रकट है, नर्तक गुप्त है। सृष्टि प्रकट है, स्रष्टा गुप्त है। पर छिपा है कण-कण में।
सहजो हरि बहुरंग है, वही प्रगट वही गूप।
जल पाले में भेद ना, ज्यों सूरज अरु धूप।।
चरणदास गुरु की दया, गयो सकल संदेह।
छूटे वाद-विवाद सब, भयी सहज गति तेह।।
चरणदास गुरु की दया! जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने सदा यही कहा है कि वह अपने प्रयास से नहीं जाना, प्रसाद से जाना है। जानने वालों को जानते ही यह पता चलता है कि हमारा प्रयास तो कितना छोटा है--मुट्ठी से आकाश पकड़ने चले हैं! हमारा प्रयास तो कितना छोटा है--बूंद सागर होने चली है! हमारे प्रयास से ही अगर होता हो, तो कभी हो ही न सकेगा।
एक बात ठीक से समझ लेना।
अगर तुम्हारे प्रयास से ही परमात्मा मिलता हो, तो कभी न मिल सकेगा। तुम तो प्रयास भी करोगे तो गलत करोगे। तुम गलत हो। तुम जाओगे भी तो गलत राह में जाओगे। तुम्हारे भीतर गलत वासना भरी है। तुम जो भी करोगे वह गलत होगा, क्योंकि तुम अभी गलत हो। गलत से सही तो होगा भी कैसे? अगर गलत से सही हो जाए, तब तो फिर सही होने की कोई जरूरत ही न रही। तो मनुष्य जो भी करेगा उससे तो पा न सकेगा। तो दो उपाय हैं। या तो परमात्मा की अनुकंपा हो। लेकिन हमें परमात्मा का भी पता नहीं है। हमें उसकी अनुकंपा भी बरस रही हो, तो उसका हम कैसे उपयोग करें इसका भी पता नहीं है। वह दीया भी जला दे हमारे पास, तो भी हम ऐसे मूढ़ हैं कि हम आंख बंद किए खड़े रहेंगे। वह हमारे द्वार पर दस्तक दे, तो हम कहेंगे, होगा हवा का झोंका। हम उसे पहचान भी न सकेंगे।
परमात्मा की अनुकंपा तो हम पर बरस ही रही है। पर हम पहचान नहीं पाते, हम पकड़ नहीं पाते। जैसे मछली सागर को नहीं देख पाई, ऐसा हम उसे नहीं देख पाते। इसलिए गुरु बहुत महत्वपूर्ण हो गया धर्म की खोज में। क्योंकि गुरु का अर्थ है, जिसे हम देख पाते हैं। गुरु चमत्कार है एक अर्थ में। चमत्कार इस अर्थ में है कि वह तुम्हारे जैसा है, और तुम्हारे जैसा नहीं है। परमात्मा तुमसे बिलकुल अन्यथा है, सेतु नहीं बनता। वह अप्रकट है, तुम प्रकट हो। वह असीम है, तुम सीमित हो। वह निर्विचार है, तुम विचार हो। वह सब कहीं है, तुम कहीं-कहीं हो। तालमेल नहीं बैठता। वह इतना विराट, तुम इतने अणु, कैसे संबंध जुड़े? बूंद कैसे सागर से मिले? गुरु के साथ एक चमत्कार घटता है। वह तुम जैसा है, और तुम जैसा नहीं है। एक तरफ से गुरु बूंद है और एक तरफ से सागर है, इसलिए गुरु इस जगत में सबसे अनूठी घटना है। एक तरफ मनुष्य है, एक तरफ से मनुष्य नहीं है। एक तरफ से उसकी दीवालें हैं, ठीक तुम जैसी, और दूसरी तरफ से उसके द्वार-दरवाजे बिलकुल खुले हैं--खुला आकाश है।
गुरु से संबंध बन सकता है। और गुरु के सहारे धीरे-धीरे परमात्मा से संबंध बन सकता है। इसलिए सहजो कहती है कि हरि को चाहे भुला भी दूं, गुरु को न भुला सकूंगी। क्योंकि उसके बिना हरि से कोई संबंध ही न होता।
चरणदास गुरु की दया, गयो सकल संदेह।
संदेह जाता भी नहीं अपने सोचने से; तुम सोच-सोच के कितनी ही कोशिश करो! तुम्हारा सोचना ऐसा ही है जैसे अपने ही जूते के बंद को पकड़ कर खुद को उठाना। चेष्टा कितनी करो, थोड़ा उछल-कूद भी कर ले सकते हो, लेकिन फिर पाओगे जमीन पर ही खड़े हो। कोई और हाथ चाहिए सहारे के लिए जो तुम्हें उठा ले। और कोई ऐसा हाथ चाहिए जो तुम जैसा हो, जिसे तुम पहचान भी सको--और फिर भी विराट का हो, जिसे तुम पहचान भी लो, लेकिन पूरा न पहचान पाओ। थोड़ा सा पहचान पाओ, थोड़ा सा न पहचान पाओ।
गुरु एक रहस्य है। उसे तुम समझते भी हो और समझ भी नहीं पाते। इसलिए जो सोचते हैं उन्होंने गुरु को समझ लिया, वे भी गलती में हैं; और जो सोचते हैं वे गुरु को बिलकुल नहीं समझ पाए, वे भी गलती में हैं। संबंध तो उनका बनेगा गुरु से जिन्हें लगता है, थोड़ा सा समझ में आता है और थोड़ा सा समझ के बाहर रह जाता है। वह जो थोड़ा सा समझ में आता है, तुम्हें आश्वस्त करेगा। वह जो थोड़ा समझ में नहीं आता, वह तुम्हें तुम्हारे पार ले जाएगा, उससे अतिक्रमण होगा।
चरणदास गुरु की दया, गयो सकल संदेह।
दृष्टि मिली। आंखें खुलीं। गुरु की आंख से पहचाना। संसार खो गया, सत्य दिखाई पड़ा। फिर तो अपनी ही आंख काम आने लगती है। एक दफा शुरू हो जाए। एक बार कोई पहचान करवा दे।
छूटे वाद-विवाद सब,...
फिर न कोई वाद रहा, न कोई विवाद रहा। न कोई नास्तिकता, न कोई आस्तिकता। न कोई हिंदू, न कोई मुसलमान।
...भयी सहज गति तेह।
और उस दिन से गति सहज हो गई। उसके पहले सब उलटा-सुलटा था, उसके पहले सब उलझा-उलझा था। अब गति सहज हो गई है। अब कुछ करना नहीं पड़ता। अब जो भी हो रहा है वही पूजा है, वही प्रार्थना है। जो बोलूं सो हरिकथा! कबीर ने कहा है: खाऊं-पीऊं सो सेवा! मैं खाता-पीता हूं, वह भी परमात्मा की ही सेवा है अब। अब वही है भीतर, वही बाहर है। चलूं-फिरूं परिक्रमा! अब कोई मंदिर-मस्जिद नहीं जाता उसका चक्कर लगाने। अब तो ऐसे ही चलता-फिरता हूं, तो वह भी उसी की परिक्रमा है।
छूटे वाद-विवाद सब, भयी सहज गति तेह।
सहजगति को ठीक से समझ लो, क्योंकि सहजता धर्म का आखिरी फूल है। सहज समाधि। तुम संसार में हो, वहां भी सहज नहीं हो। वहां भी बड़े जटिल हो। कुछ हो, कुछ दिखलाते हो। कुछ हो, कुछ समझाते हो। मंदिर में जाते हो, वहां भी सहज नहीं हो। वहां भी झूठे आंसू बहाते हो। वहां भी दिखावा साथ ले जाते हो। वहां भी पूजा-प्रार्थना करते हो, उसमें भी कोई सचाई नहीं है, सहजता नहीं है। सब तरफ पाखंड है। सब तरफ धोखा-धड़ी है। सब तरफ तुम कोशिश कर रहे हो कुछ बतलाने की, जो तुम नहीं हो। सहजता का अर्थ है: तुम जैसे हो वैसे हो। तुम अपने होने से परिपूर्ण राजी हो गए। अब तो न तुम कुछ छिपाते, न कुछ तुम दिखावा करते। अच्छे हो अच्छे, बुरे हो बुरे। सुंदर हो सुंदर, असुंदर हो असुंदर। जैसे हो उसके साथ एक तारतम्य बैठ गया। क्योंकि तुमने जान लिया कि सहज होना ही परमात्मा के संग होना है। जितने असहज होओगे उतने ही उससे दूर पड़ जाओगे। जितनी चेष्टा करोगे कुछ होने की, उतने ही वास्तविक होने से भटक जाओगे।
लाओत्सु कहता है: जो अति साधारण हैं उनसे असाधारण और कोई भी नहीं है। जो इतने साधारण हैं कि उन्हें पता ही नहीं कि साधारण हैं कि असाधारण हैं।
झेन फकीर बोकोजू से कोई पूछता है कि अब ज्ञान उपलब्ध हो जाने के बाद तुम्हारी साधना क्या है? तो बोकोजू ने कहा: जंगल से लकड़ियां काट कर लाता हूं, कुएं से पानी भरता हूं। भूख लगती है तब भोजन करता हूं। नींद आती है तब सो जाता हूं। बस, इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। पर इतना काफी है। यह है सहज गति।
तुम्हें कठिन होगा। तुम्हें अड़चन होगी। क्योंकि तुम्हारे अहंकार के कारण तुमने अपने महात्माओं के आस-पास भी बड़ी महिमा के जाल रच रखे हैं। वे तुम्हारे अहंकार के कारण हैं। उनके हाथ से चमत्कार होने चाहिए, ताबीज निकलने चाहिए। तुम अपने महात्माओं को भी मदारी बनाए बिना नहीं मानते। और उन्हें अगर महात्मा बनना है तुम्हारा तो मदारी बनने को राजी होना पड़ता है। एक सांठ-गांठ है। तुम कहते हो जब तक मदारी न होओगे तब तक हम महात्मा न मानेंगे। अगर उनको अपने को महात्मा मनवाना है तो मदारी बनना पड़ता है। तब तुम दोनों के बीच एक तारतम्य बैठ जाता है। तुम तो झूठ हो, तुम्हारे गुरु जिनको बनना हो उन्हें भी तुम्हारी शर्तें मनवाने को तुम राजी कर लेते हो। तुम तो पाखंडी हो, तुम्हारे गुरु भी तुम पाखंडी कर लेते हो। इस जगत में एक बड़ा अचंभा होता है, और वह अचंभा यह है कि गुरु के पीछे तो कभी-कभी शिष्य चलते हैं, अधिकतर तो गुरु शिष्य के पीछे चलते हैं। तुम नियम निर्धारण करते हो कि गुरु कैसा व्यवहार करे, कैसा आचरण करे, कब उठे, कब सोए, क्या खाए, क्या पीए! तुम निर्धारण करते हो। श्रावक तय करते हैं मुनि का आचरण।
एक मुनि, जैन मुनि मुझसे मिलने आना चाहते थे। उन्होंने पत्र भेजा कि बड़ी आकांक्षा है, लेकिन श्रावक नहीं आने देते। श्रावक तुम्हें नहीं आने देते? हद हो गई! तुम गुरु हो? वे शिष्य हैं? शिष्य नहीं आने देते गुरु को! क्या कारण होगा? मैंने उन्होंने पुछवाया कि गौर से खोजना, शिष्य तुम्हें नहीं रोक सकते, कारण कुछ और होगा। शर्त है एक। और शर्त वह है कि तुम हमारी मान कर चलोगे तो हम तुम्हारी मान कर चलेंगे। तुम जब तक हमारा अनुसरण करोगे, हम तुम्हारे श्रावक हैं। जिस दिन तुमने हमारा अनुसरण छोड़ा, बात खत्म हुई। और तुम कमजोर हो। इतने सस्ते पर गुरु बने बैठे हो। तुम ध्यान सीखने मेरे पास आना चाहते हो। ध्यान की खोज के लिए भी तुम्हारी इतनी हिम्मत नहीं है? तुम्हारे शिष्य कहते हैं, नहीं। क्योंकि शिष्यों को लगता है--हमारा गुरु और कहीं ध्यान सीखने जाए, तो फिर हम इस गुरु को गुरु मान कर क्या कर रहे हैं? तो शिष्यों के सामने गुरु को बताना पड़ता है कि मैं ध्यानी हूं, तुम्हें ध्यान सिखाऊंगा। और उसे ध्यान का कुछ पता नहीं है। और इतना भी साहस नहीं है, इतनी भी निष्ठा नहीं है जीवन की कि ध्यान की खोज में जाए और जरूरत पड़े तो ध्यान की खोज के लिए गुरुडम भी छोड़ दे। संसार को तुम सिखाते हो, त्याग करो--धन का, दौलत का। तुम क्या पकड़े हो?
मैंने उनको कहा कि छोड़ दो। ध्यान बड़ा है। अनुयायी फिर मिल जाएंगे। और न मिले तो हर्ज क्या है? खबर आई कि आपको पता नहीं है कि मैं बचपन से संन्यासी हो गया हूं। न तो पढ़ा-लिखा हूं। न रोटी-रोजी कमा सकता हूं। न चालीस साल से कोई काम किया है। अगर आज छोड़ दूं तो मैं मुश्किल में पड़ जाऊंगा। तो फिर यह मामला खाने-पीने व्यवस्था-आयोजन का हुआ। न तुम गुरु हो, न वे शिष्य हैं। वे जानते हैं कि तुम्हारी रोटी वे दे रहे हैं, इसलिए तुम्हारे मालिक हैं। और तुम भी जानते हो कि वे तुम्हें रोटी दे रहे हैं, इसलिए तुम चाहे ऊपर बैठे रहो, वह दिखावा है। दूसरों को तुम समझा रहे हो--संसार छोड़ दो। तुम इतना साहस नहीं कर सकते कि इतनी सुरक्षा छोड़ दो! ठीक है, गड्ढे खोदने पड़ेंगे सड़क पर, रोटी तो कमा ही लोगे। इतने लोग कमा रहे हैं। लेकिन वह भी हिम्मत नहीं रही है। तुम्हारे गुरु नपुंसक हो जाते हैं। कोई बल नहीं रह जाता। इतने निर्बल हो जाते हैं। तुम उनको ऊपर बिठाए हो, लेकिन वे सर्फ गुड्डियां हैं। धागे तुम्हारे हाथ में हैं। तुम जैसा नचाओ वैसे नाचते हैं। तुम जो बुलवाओ वैसा बोलते हैं।
सहजगति का अर्थ है: किसी के सामने अब कोई दिखावा न रहा। हम जो हैं उससे हम राजी हैं। और जिस दिन तुम अपने होने से राजी हो, और अपने स्वभाव में लीन हो गए, उस दिन तुम परमात्मा में लीन हो गए। उस दिन मिल गया मछली को सागर। सागर तो पास ही था, बस लीन होने की बात थी। मछली अपने को जान ले तो सागर को जान लिया। क्योंकि मछली वस्तुतः सागर है। तुम जितने सहज हो जाओ उतने ही सिद्ध होने लगते हो। सहजता सिद्धि है। लेकिन तुम महिमामंडित करते हो। चमत्कार होना चाहिए! मेरे पास आ जाते हैं लोग, वे कहते हैं, अगर आप चमत्कार करें तो लाखों लोग आ जाएं! उनको मैं करूंगा क्या, लाखों लोगों को? मैं कोई मदारी नहीं हूं। नहीं, वे कहते हैं, हम तो इसलिए कहते हैं कि उससे लाखों लोगों को लाभ होगा। लाखों लोगों को लाभ होगा होगा तब, हानि तो पहले मुझे हो जाएगी। और अगर मुझे हानि हो गई तो उनको मुझसे लाभ कैसे होगा?
स्वाभाविक है कि अगर तुम सहजता को उपलब्ध हो जाओ तो तुमसे पागल लोग प्रभावित न होंगे। तुमसे केवल वे ही लोग प्रभावित होंगे जो स्वयं भी सहजता की ओर गतिमान हो रहे हैं। पागलों के प्रभावित होने के अपने ढंग हैं। उनके पागल मन को तृप्ति मिलनी चाहिए तब वे प्रभावित होते हैं।
ऐसा बहुत बार हुआ। मैं मुल्क में यात्रा करता रहता था तो रोज ऐसे पागलों से मिलना हो जाता। मैं भी उनको इनकार करूं तो भी वे मानने को राजी नहीं। एक आदमी ने मेरे पैर पकड़ लिए, उसने कहा: आप एक गिलास पानी अपने हाथ से मुझे दे दें। मुझे पक्का भरोसा है कि आपके पानी से मेरा पेटदर्द, आज कोई सात साल, आठ साल से चलता है, वह ठीक हो जाएगा। मैंने कहा: पहले तुम समझ लो, मुझे पेटदर्द होता है! मैं मेरे हाथ से पानी पीता हूं, उससे ठीक नहीं होता। तुम्हारा कैसे ठीक होगा? मुझे भी जरूरत पड़ती है तो डॉक्टर को बुलाना पड़ता है। इसलिए तुम यह फिकर छोड़ो। पर जितना मैंने इनकार किया उतना ही उसे लगा कि मैं आशीर्वाद देना नहीं चाहता। उसने तो और पैर पकड़ लिए। उसने कहा: प्राण जाएं लेकिन अब मैं यहां से हट नहीं सकता। मुझे पक्का है, आप जितना इनकार कर रहे हैं उतना मुझे भरोसा आ रहा है कि जरूर कोई बात है।
फिर मैंने देखा कि यह तो उलटा ही हुआ जा रहा है। इसका भरोसा और बढ़ता जा रहा है। और भरोसे में खतरा है। कहीं पानी पीने से ठीक हो गया, तो खतरा है! न हो तो कोई हर्जा नहीं है, बात खत्म हो गई। तुम्हारा दर्द तुम लिए, हम अपने घर गए। लेकिन अगर कहीं ठीक हो गया, जिसका डर है। तो मैंने कहा: अब इसको दे ही देना उचित है। उसको मैंने पानी दिया। जैसा डर था वैसा हुआ। पानी कर वह बोला: अरे! दर्द गया!
अब यह आदमी पागल है। इसका दर्द झूठ है। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि यह तकलीफ नहीं पा रहा। यह आठ साल से तकलीफ पा रहा है। लेकिन तकलीफ इसकी काल्पनिक है।
फिर तो दो साल बाद जब उस गांव में मैं गया तो पता चला, उसने तो गजब कर दिया है। वह तो जिस गिलास में मैंने उसको पानी पीने दिया था, वह गिलास उसने सम्हाल के रख लिया। वह दूसरों को उसी गिलास से पानी देता है। और उसने मुझे बताया कि आपकी कृपा से न मालूम कितनों को लाभ हो गया।
अब यह जो पागल मन है, पहले बीमारी पैदा करता है, फिर उसी पागलपन से इलाज भी पैदा कर लेता है। इसे कुछ का कुछ दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। अहंकार भीतर सारे रोग की जड़ है। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हमें आपके पास प्रकाश का मंडल दिखाई पड़ गया। तुम्हें कोई आंख की खराबी होगी! कोई धोखाधड़ी हो गई होगी! या तुम बहुत ज्यादा कैलेंडर वगैरह में संतों की तस्वीरें देखते रहे होगे, जिनमें मंडल बना होता है। वह जरूरत से ज्यादा तुम्हारे मन में बैठा गया होगा। उसका प्रक्षेपण कर लिया होगा, मुझे क्षमा करो! वे कहते हैं, हम कैसे मानें? अपनी आंख से देखा है! तुम्हारी आंख अंधी है। तुम्हारे देखने का क्या भरोसा? लेकिन मैं उनको इनकार करूं तो वे मानने को राजी नहीं होते। क्योंकि वे मेरे चरणों में तभी झुक सकते हैं जब उन्हें वह मंडल दिखाई पड़ जाए। वह उनके अहंकार की शर्त है। अगर मंडल दिखाई न पड़े, फिर चरणों में झुकने का क्या मतलब? वे मेरे शिष्य भी तभी हो सकते हैं जब उन्हें सिद्ध हो जाए कि मैं कोई साधारण गुरु नहीं हूं--हाथ से राख झड़ती है, ताबीज निकलते हैं, स्विसमेड घड़ियां निकलती हैं--तब। तब उनके अहंकार को तृप्ति मिलेगी।
पागलों की एक जमात है। यह पागलों की जमात अपने पागलपन को अपने गुरुओं पर भी आरोपित करती रहती है, उसको ही मैं गुरु कहता हूं जो इस तरह के आरोपण न होने दे। तो ही तुम्हारा साथ दे पाएगा, तो ही तुम्हें संदेह के पार ले जा सकेगा। हालांकि सुगम यही है, गुरु के लिए सुविधापूर्ण और कम्फर्टेबल यही है कि तुम जो कहो, वह कहे बिलकुल ठीक। क्योंकि न उसे झंझट होती, न तुम्हें झंझट में पड़ना पड़ता है। दोनों एक झूठे सपने में सम्मिलित हो जाते हैं। तुम्हारा संसार तो झूठा है ही, तुमने अपने सांसारिक मन से झूठे गुरु भी खड़े कर लिए हैं। और तुम उन झूठे गुरुओं से चाहते हो कि सत्य तक पहुंच जाओगे!
सहज को खोजना। परमात्मा सहज में छिपा है। वह बिलकुल सहज है। पौधों, पक्षियों, पशुओं, चांद-तारों, पहाड़ों, झरनों जैसा सहज है। अगर तुम किसी सहज व्यक्ति को कहीं पा जाओ, तो उसका सत्संग मत छोड़ना। आभामंडल देखने की चिंता मत करना। न ही चमत्कारों की आकांक्षा करना।
चरणदास गुरु की दया, गयो सकल संदेह।
छूटे वाद-विवाद सब, भयी सहज गति तेह।।
और सहज में गति हो गई। तुम सहज हो जाओ, तुम सुंदर हो जाओगे। तुम सहज हो जाओ, तुम सत्य हो जाओगे। ‘सहज’ शब्द को तुम परमात्मा का पर्यायवाची समझो। तुम्हारी असहजता कट जाए, सब रोग कटा, सब जाल कटे, संसार कटा। जिस दिन तुम सहज होओ उस दिन तुम्हारे जीवन में वह अमृत की वर्षा हो जाएगी: बिन घन परत फुहार! बिन दामिनि उजियार अति। बिन घन परत फुहार। मगन भयो मनवा तहां, दया निहार निहार!
बस तुम सहज हो जाओ, फिर देर नहीं है। इधर तुम सहज हुए, उधर--बिन दामिनि उजियार अति! फिर बिजली भी नहीं चमकती और प्रकाश ही प्रकाश है। स्रोतरहित प्रकाश है। कहीं से आता नहीं, सदा से है, ऐसा प्रकाश है। बिन घन परत फुहार! आकाश में मेघ नहीं दिखाई पड़ते, और वर्षा होती है। अमृत झरता है। क्योंकि वह अमृत इस अस्तित्व का स्वभाव है। मगन भयो मनवा तहां! और तब तुम नाच उठते हो मग्न होकर, क्योंकि कोई दुख शेष नहीं रह गया। दुख था तुम्हारे अंधेपन में। दुख था तुम्हारे अहंकार में, तुम्हारी असहजता में। गया। मगन भयो मनवा तहां, दया निहार निहार! और अब अनुकंपा को देख-देख कर, निहार-निहार कर, सत्य को चारों तरफ देख कर नाचते हो। मग्न हुए।
बिन घन परत फुहार।
आज इतना ही।
आंख खुलै जब झूठ है, ऐसे ही घट-बास।।
जगत तरैयां भोर की, सहजो ठहरत नाहिं।
जैसे मोती ओस की, पानी अंजुली माहिं।।
धूआं को सो गढ़ बन्यौ, मन में राज संजोय।
साईं माईं सहजिया, कबहूं सांच न होय।।
निरगुन सरगुन एक प्रभु, देख्यो समझ विचार।
सदगुरु ने आंखें दयीं, निस्चै कियो निहार।।
सहजो हरि बहुरंग है, वही प्रगट वही गूप।
जल पाले में भेद ना, ज्यों सूरज अरु धूप।।
चरणदास गुरु की दया, गयो सकल संदेह।
छूटे वाद-विवाद सब, भयी सहज गति तेह।।
साधारणतः समझा जाता है कि नास्तिक संदेह करता है, आस्तिक श्रद्धा। लेकिन आस्तिक का भी संदेह होता है और नास्तिक की भी श्रद्धा होती है। आस्तिक परमात्मा पर श्रद्धा करता है, संसार पर संदेह; नास्तिक संसार पर श्रद्धा करता है, परमात्मा पर संदेह।
संदेह और श्रद्धा की मात्रा प्रत्येक में बराबर ही होती है। दिशा का भेद होता है। गलत दिशा में श्रद्धा लग जाए, तो आदमी भटक जाता है। और ठीक दिशा में संदेह भी लग जाए, तो भी आदमी पहुंच जाता है। न तो कोई श्रद्धा से पहुंचता है, न कोई संदेह से भटकता है। दिशा का सवाल है। सभी आस्तिक संसार पर संदेह करते हैं, सभी नास्तिक संसार पर श्रद्धा करते हैं। तो ऐसा मत सोचना कि श्रद्धा से कोई पहुंचता है, अन्यथा नास्तिक भी पहुंच जाते। और ऐसा मत समझना कि संदेह से कोई भटकता है, अन्यथा आस्तिक भी भटक जाते।
न तो संदेह रोकता है, न श्रद्धा पहुंचाती है। सम्यक दिशा में संदेह भी पहुंचा देता है, असम्यक दिशा में श्रद्धा भी भटका देती है। आत्यंतिक अर्थों में दिशा का मूल्य है।
नास्तिक और आस्तिक एक ही जैसे व्यक्ति हैं। नास्तिक सिर के बल खड़ा है, आस्तिक पैर के बल खड़ा हो गया। नास्तिक उलटा खड़ा है। जहां संदेह चाहिए वहां श्रद्धा कर रहा है, जहां श्रद्धा चाहिए वहां संदेह कर रहा है। इसलिए कोई भी नास्तिक एक क्षण में आस्तिक हो सकता है, और कोई भी आस्तिक एक क्षण में नास्तिक हो सकता है--उलटे खड़े होने से सीधे खड़े होने में देर कितनी लगती है? सीधे खड़े होने से उलटे खड़े होने में कितनी असुविधा है?
एक छोटी सी घटना एक सांझ सागर में घटी। सूरज डूबा। एक मछली क्षण भर पहले तक सूरज की किरणों के जाल में, सागर के अनंत विस्तार में, बड़ी आनंदित थी, बड़ी प्रफुल्लित थी। नाचती थी, तैरती थी। कहीं कोई दुख-ताप न था। मन में संदेह की कोई जरा सी रेखा न थी। बड़ी सरल, सहज। लेकिन क्षण भर पहले ही एक नास्तिक मछली से मिलना हो गया। उसने सब अस्त-व्यस्त कर दिया।
उस नास्तिक मछली से दूसरी मछलियां दूर-दूर ही रहती थीं। यह नई मछली थी, इसे कुछ ज्यादा पता न था। नास्तिक मछली पास आई, तो सज्जनतावश उसकी बात सुन ली। नास्तिक मछली ने कहा: किस बात पर इठला रही है? कौन सी खुशी में आ रही है? कौन सा उत्सव हो रहा है? प्रतीत होता है तू भी और साधारण मछलियों की तरह ही अंधविश्वासी है। कोई आनंद नहीं है। आनंद केवल भ्रांति है। और जिस सागर में--तू सोचती है--तू इठला रही है, तैर रही है, उछल रही है, प्रफुल्लित हो रही है, वह सागर भी कहीं नहीं है। कभी सागर देखा? युवा मछली डरी। सुना था, देखा तो उसने भी नहीं था।
जब कोई सागर में ही पैदा होता है, सागर में ही बड़ा होता है, सागर में ही जीता है और सागर से बाहर न गया हो, तो सागर को देखने का उपाय ही नहीं होता। देखने के लिए फासला चाहिए, दूरी चाहिए, भेद चाहिए।
मछली ने सुना था कि सागर है, देखा तो नहीं था। आंख भी सागर से ही बनी थी। आंख को जो छू रहा था वह भी सागर था। मछली में और सागर में भेद चाहिए, तब दिखाई पड़ सकता है। थोड़ा अंतराल चाहिए। इतना भी फासला कहां था।
मछली ने सुना था, सागर है। वह नास्तिक मछली हंसने लगी और उसने कहा: जैसे मनुष्य परमात्मा को मानते हैं, अंधविश्वासी, वैसे ही मछलियां सागर को मानती हैं। न तो परमात्मा है, न कोई सागर है। गौर से देख, आंख खोल कर देख। अभी तो तू जवान है। अभी इतनी घबड़ाती क्यों है? चारों तरफ महाशून्य ने घेर रखा है। मौत के अतिरिक्त और कुछ भी सत्य नहीं है।
मछली ने अपने चारों तरफ देखा--नई मछली ने, युवा मछली ने। निश्चय ही चारों तरफ एक शून्य घिरा है। सूरज तो ढलने के करीब है। सागर की नीलिमा चारों तरफ है--कोरा आकाश मालूम होता है। और दूर जैसे आंख जाती है वैसे नीला सागर भी अंधेरे में डूब गया है। सब तरफ घनी रात है।
कहां से सागर? उसके मन में भी प्रश्न उठा।
नीचे झांक कर देखा, अतल शून्य। घबड़ा गई, हाथ-पैर कंप गए। रोआं-रोआं चिंता से भर गया। अगर गिर गई इस शून्य में तो कौन बचाएगा? भूल ही गई यह बात कि अब तक इसी शून्य में तैरती रही, कभी गिरी नहीं। भूल ही गई यह बात कि क्षण भर पहले तक खुश थी, प्रसन्न थी और यह शून्य कभी भी काटा न था। लेकिन आज चारों तरफ गौर से देखा तो जैसे भयभीत आदमी के हाथ-पैर में पक्षाघात लग जाए, ऐसे ही मछली ने चाहा भी कि तैरे तो न तैर सकी। भीतर से तैरने वाले प्राण ही शिथिल हो गए। डर बहुत भयंकर हुआ। चारों तरफ सन्नाटा है। रात घिरती जाती है। सब तरफ शून्य है, अगर गिर गई तो क्या होगा? सहारा कहीं पकड़ना जरूरी है। गौर से देखा कि क्या करूं, किसका सहारा लूं? कोई भी तो नहीं है। तो सोचा, अपनी ही पूंछ को पकड़ कर अपने को सम्हालने की कोशिश कर लूं। झुकी, मुड़ी--कोई हठयोगी तो थी नहीं--बहुत चेष्टा की पूंछ को पकड़ने की, पूंछ पकड़ में न आई; तो और भी घबड़ा गई।
कहानी कहती है कि सागर यह सब चुपचाप देखते था। हंस भी रहा था कि पागल मछली, तुझे सागर दिखाई नहीं पड़ता। तू भी सागर है! और दया से भी भर रहा था कि बेचारी गरीब मछली कितनी मुसीबत में पड़ गई है। क्षण भर पहले तक श्रद्धा का आनंद था। क्षण में धुएं के बादल घिर गए, संदेह के बादल घिर गए। आकाश दब गया, ढंक गया।
आखिर सागर से न रहा गया। और सागर ने कहा: सुन पागल, अब तक तू नहीं गिरी, किसने तुझे सम्हाला है? आज अचानक क्यों गिर जाएगी?
गिरने का खयाल ही संदेह के साथ आता है। श्रद्धा सम्हाले रखती है। उसके अनजाने हाथ सब तरफ से सम्हाले रखते हैं। संदेह उठा कि सब हाथ हटते मालूम होते हैं। अतल खाई खुल जाती है।
मछली डरी। उसने कहा: तुम कौन हो? क्योंकि सागर तो नहीं है। सिर्फ लोगों का अंधविश्वास है। सागर हंसा। उसने कहा: सागर ही है। मछलियां आती हैं, चली जाती हैं। विश्वासी, अंधविश्वासी, अविश्वासी आते हैं, खो जाते हैं। सागर सदा बना रहता है। जो क्षणभंगुर है उसे तो खयाल है कि हूं। और जो शाश्वत है, उस पर संदेह है! पागल, संदेह ही करना हो तो अपने पर कर। एक दिन तू न थी। और एक दिन तू फिर नहीं हो जाएगी। सागर तो सदा था और सदा होगा। क्षणभंगुर पर संदेह कर, शाश्वत पर श्रद्धा।
नास्तिकता का अर्थ है: क्षणभंगुर पर श्रद्धा।
शाश्वत पर अश्रद्धा, संदेह है।
जो उस मछली की दशा है वैसी ही मनुष्य की दशा है। और इस सदी में तो और भी ज्यादा। क्योंकि न मालूम कितने लोगों ने तुम्हारे भीतर संदेह को तो बढ़ाया है, श्रद्धा देने वाला तुम्हें कोई मिला नहीं। और जिनको तुम श्रद्धा देने वाले समझते हो, उनके पास खुद ही नहीं है। तो या तो तुम्हें संदेह देने वाले लोग हैं--प्रकट रूप से, या अप्रकट रूप से तुम्हें संदेह देने वाले लोग हैं।
नास्तिकों ने तो तुम्हें संदेह दिया ही, जिनको तुम तथाकथित आस्तिक कहते हो--मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में बैठे--उनको देख कर भी तुम्हारी श्रद्धा नहीं बढ़ी। उनके जीवन ने भी तुम्हें संदेह ही दिया। उनके व्यवहार से भी श्रद्धा का संगीत नहीं उठा, उनके होने के ढंग में भी श्रद्धा की सुगंध न मिली। उनके पास भी संदेह की ही दुर्गंध आई। ऐसा न लगा कि वे भी श्रद्धा को उपलब्ध हुए। न तो उनके जीवन में, न उनके होने के ढंग में, न उनकी आंखों की झलक में, न उनके पैरों की चाल में, श्रद्धा का नृत्य कहीं भी न मिला। हो सकता है वे तुमसे ज्यादा चतुर हों। हो सकता है तुमसे ज्यादा तर्ककुशल हों। हो सकता है परमात्मा को मानने में उन्होंने ज्यादा बुद्धिमत्ता का प्रयोग किया हो। लेकिन परमात्मा उन्हें मिला है, ऐसी प्रतीति उनके स्पर्श से नहीं हुई।
नास्तिक तो नास्तिक है ही, तुम्हारे मंदिर-मस्जिद भी आस्तिक की वीणा नहीं बजाते हैं। वहां से भी छिपे नास्तिकों का ही स्वर उठता हुआ मालूम पड़ता है।
सब तरफ से आदमी नास्तिकता से घिर गया है।
करना क्या है?
शायद तुमसे निरंतर कहा गया है, संदेह छोड़ो, श्रद्धा बढ़ाओ। मैं तुमसे नहीं कहता। मैं कहता हूं: संदेह भी शुभ है, ठीक दिशा में लगाओ। क्षणभंगुर पर संदेह करो। संदेह को व्यर्थ मत फेंको। वह भी बड़ी कीमती कीमिया है। परमात्मा ने जो भी दिया है वह सार्थक है। संदेह भी सार्थक है। इनकार भी सार्थक है। नहीं-नहीं कहने की भी कोई मूल्यवत्ता है।
पर उससे ही नहीं कहो, जो नहीं कहने योग्य है।
तुमसे मैं यह नहीं कहता कि तुम संदेह को काट कर फेंक दो। क्योंकि संदेह अगर काट कर फेंक दिया गया तो तुम अपंग हो जाओगे। तुम अपने आधे प्राण काट दोगे। तब तुम्हारा एक ही पंख बचेगा, उससे तुम उड़ न पाओगे। उससे तुम पहुंच न पाओगे।
तो मैं तुमसे कहता हूं: संदेह का भी उपयोग करो, श्रद्धा का भी। दोनों तुम्हारे पैर हैं। हां, ठीक-ठीक दिशा में उपयोग कर लो। दिशा भर का भेद है; संयोजन बदलना है। जरा से फर्क से महत फर्क पड़ता है।
इन सहजो के सूत्रों में इसी तरफ खबर है।
सहजो सुपने एक पल, बीतैं बरस पचास।
आंख खुलै जब झूठ है, ऐसे ही घट-बास।।
यह संदेह का सम्यक उपयोग है। संदेह करना है, परमात्मा तक जाने की जरूरत नहीं। तुम्हारे चारों तरफ जो संसार घिरा है। उससे ज्यादा योग्य विषय संदेह के लिए तुम दूसरा न पा सकोगे। पहले इस पर तो संदेह कर लो।...सुपने एक पल, बीतैं बरस पचास! कभी तुमने खयाल किया। क्षण भर को झपकी लग गई है, दफ्तर में बैठ काम कर रहे हो। या सुबह बैठ कर अखबार पढ़ रहे हो--आंख बंद हो गई, क्षण भर को झपकी लग गई। झपकी लगते वक्त दीवाल पर टंगी घड़ी देखी थी। फिर झपकी खुली तो देखा, एक मिनट बीता है मुश्किल से। लेकिन झपकी में तुमने एक लंबा सपना देखा। सपना देखा इतना लंबा कि अगर उतने सपने को घटना पड़े तो पचास वर्ष लग जाएं--कि तुम छोटे थे, कि तुम बूढ़े हो गए सपने में, कि तुमने विवाह कर लिया, कि तुम्हारे बच्चे हो गए, कि बच्चों के विवाह का क्षण करीब आ गया, कि शहनाई बजती थी...और शहनाई की ही आवाज से नींद टूट गई। घड़ी में देखा, क्षण बीता है। इतना लंबा सपना देख लिया, इतने से क्षण में! वैज्ञानिक भी इस बात से राजी हैं कि समय सापेक्ष है, और तुम्हारे समय की प्रतीति रोज बदलती है। जब तुम प्रसन्न होते हो, समय जल्दी बीत जाता है। जब तुम दुखी होते हो, समय मुश्किल से बीतता है। तुम आनंदित होते हो, पता नहीं चलता कहां बीत गए घंटे--क्षण-पल मालूम होते हैं। जब तुम दुखी होते हो, जीवन बोझ से दबा होता है, उदास होते हो, क्षण-पल घंटों जैसे लगते हैं, बीतते नहीं लगते।...कि बीतेगी यह रात या नहीं बीतेगी--इतनी लंबा जाती है।
समय तुम्हारे मन के ऊपर निर्भर है। तुम जितने मूर्च्छित होते हो, उसी मात्रा में सपने तुम्हारे मन को पकड़ते हैं। तुम जितने जाग्रत होते हो, उसी मात्रा में सपने कम पकड़ते हैं। मूर्च्छा गहरी हो, तो एक क्षण में वर्षों का सपना हो सकता है। होश गहरा हो--परिपूर्ण हो--तो समय मिट ही जाता है। वर्षों का तो सवाल ही नहीं है, समय ही समाप्त हो जाता है। पूछो महावीर से, बुद्ध से, जीसस से; वे कहते हैं, जब समाधि फलित होती है तो समय विलीन हो जाता है। परिपूर्ण समाधान की अवस्था में समय होता ही नहीं। परिपूर्ण मूर्च्छा की अवस्था में समय होता है--खूब लंबा होता है। और हम बीच में भटकते हैं--कभी मूर्च्छित, कभी होश; कभी सुखी, कभी दुखी। दुख में समय बहुत लंबा हो जाता है।
ईसाई कहते हैं कि नरक शाश्वत है। एक बार गिर गए तो फिर छूटोगे नहीं। बर्ट्रेंड रसल ने बड़ा वैज्ञानिक तर्क उठाया है। ईसाइयत के खिलाफ एक किताब लिखी है: वॉय आइ एम नॉट ए क्रिश्चियन? कि मैं ईसाई क्यों नहीं हूं? उसमें बहुत तर्क दिए हैं। उसमें एक तर्क यह भी है--और तर्क बड़ा काम का मालूम पड़ता है। रसल कहता है कि मैंने अपनी जिंदगी में जो भी पाप किए--और ईसाई तो एक ही जिंदगी मानते हैं, इसलिए ज्यादा झंझट नहीं है--इस जिंदगी में मैंने जितने पाप किए और जितने पाप सोचे--किए नहीं सिर्फ सोचे--किए और सोचे सभी पाप अगर मैं कठोर से कठोर अदालत के सामने भी व्यक्त कर दूं, तो रसल कहता है, मुझे पांच साल से ज्यादा की सजा नहीं मिल सकती। वे भी किए और सोचे--अगर सोचे वाले पापों पर भी दंड मिलता हो--तो पांच साल से ज्यादा मुझे कोई कठोर से कठोर न्यायाधीश भी सजा नहीं दे सकता। लेकिन यह ईसाइयत तो बिलकुल ही व्यर्थ की बकवास मालूम होती है। इतने से पापों के लिए अनंतकाल तक मुझे नरक में डाल दिया जाएगा, यह बात समझ में नहीं आती। यह तो दंड जरूरत से ज्यादा मालूम पड़ता है। यह तो ऐसा लगता जैसे ईसाइयों का परमात्मा दंड देने को बड़ा आतुर है, फंस भर जाओ! पाप ही क्या किए हैं तुमने?
तुम भी सोचो तो रसल की बात ठीक लगेगी। कुछ थोड़ा बहुत पैसा चुरा लिया होगा, कहीं किसी की जेब काट ली होगी, कहीं मौका पाकर नोट पड़ा होगा तो नहीं बताया होगा--रख लिया होगा, किसी की पत्नी की तरफ वासना से देख लिया होगा, किसी के मकान की तरफ ईर्ष्या से देख लिया होगा, किसी को गाली दे दी होगी, किसी से लड़ लिए होगे, यही पाप है। बड़े छोटे-मोटे हैं। दो कौड़ी के हैं। इन पापों के लिए अनंतकाल तक नरक में सड़ना पड़ेगा! रसल की बात ठीक लगेगी। रसल को कोई ईसाई जवाब नहीं दे सका, क्योंकि बात बिलकुल साफ है। रसल कहता है, कितने ही पाप किए हों, दंड की एक सीमा होनी चाहिए, क्योंकि पाप की एक सीमा है। दंड अनंत, सीमित पापों के लिए!
लेकिन मेरे पास कुछ और कारण हैं। रसल तो मर चुका, जीवित होता तो उससे मैं कहता कि सवाल तुम समझे ही नहीं। जीसस का वचन चुक गए। जीसस जब कहते हैं, अनंत है नरक, तो वे यह कहते हैं कि दुख वहां इतना है कि एक क्षण अनंत मालूम पड़ेगा। दुख की मात्रा से लंबाई मालूम पड़ती है। अनंत से मतलब अनंत नहीं है। वह तो केवल प्रतीक है। दुख इतना गहन है कि रात काटे न कटेगी। अनंत मालूम पड़ेगी। यह दुख की घनता को बताने के लिए ‘अनंत’ शब्द का प्रयोग है। अनंत शब्द का समय की लंबाई से कोई मतलब नहीं है। अनंत शब्द का अर्थ समय के भीतर दुख की गहराई से है। एक क्षण को भी नरक में रहोगे, तो ऐसा लगेगा यह क्षण अब समाप्त होने वाला नहीं है। इतना ही प्रयोजन है। दुख के क्षण अनंत हो जाते हैं। सुख के क्षण छोटे हो जाते हैं। आनंद के क्षण में समय बचता ही नहीं। इसलिए जिन्होंने आनंद जाना है, उन्होंने कहा, कालातीत, वह समय के पार है। वहां समय समाप्त हो जाता है।
जीसस से कोई पूछता है कि तुम्हारे प्रभु के राज्य के संबंध में कोई एकाध ऐसी बात बताओ जो इस पृथ्वी के राज्य से बिलकुल अलग हो। तो जीसस ने जो बात बताई वह यह है: देयर शैल बी टाइम नो लांगर। उस परमात्मा के राज्य में समय न होगा। यह एक बुनियादी भेद होगा, पृथ्वी के राज्य से और परमात्मा के राज्य में। समय उतना ही होगा जितना तुम्हारा दुख है। समय की मात्रा तुम्हारे दुख से फैलती है, तुम्हारे सुख से सिकुड़ती है। महादुख में अनंत हो जाती है। महासुख में शून्य हो जाती है।
सहजो कहती है: सहजो सुपने एक पल, बीतैं बरस पचास।
स्वप्न के एक क्षण में पचास वर्ष बीत जाते हैं। इससे तुम्हें कभी खयाल न आया कि जिनको तुम जीवन के पचास वर्ष कह रहे हो, कौन जाने वह सपने का एक क्षण ही हो! यह संदेह को ठीक दिशा देनी है।
चीन में एक बड़ी पुरानी कथा है। एक सम्राट का बेटा मरता था। वह इकलौता बेटा था। आखिरी घड़ी करीब थी; चिकित्सकों ने कहा, बच न सकेगा अब। तो तीन दिन से सम्राट सोया ही नहीं, उसके पास बैठा है। आखिरी श्वास घिसटती है। कभी भी टूट सकती है। बड़ा प्यारा बेटा है। इकलौता है। इसके ऊपर सारी आशाएं थीं, सारे सपने थे। यही भविष्य था। बूढ़ा सम्राट रोता है। लेकिन कुछ करने का उपाय नहीं। सब किया जा चुका है। कोई दवा काम नहीं आती, कोई चिकित्सक जीत नहीं पाता। बीमारी असाध्य है। मृत्यु होगी ही।
चौथी रात सम्राट बैठा है। तीन रात सोया नहीं--झपकी आ गई। सपना देखा एक बड़ा कि बड़े स्वर्ण-महल हैं, सारी पृथ्वी पर चक्रवर्ती राज्य है उसका, एकछत्र राज्य है। बारह सुंदर, स्वस्थ, युवा उसके बेटे हैं। उनके शरीर का सौष्ठव, उनके बुद्धि की प्रतिभा की कोई तुलना नहीं है। हीरे-जवाहरात उसके महल की सीढ़ियों पर जड़े हैं। अपार संपदा है। वह बड़े सुख में, गहन सुख में...कोई दुख नहीं है...जब वह ऐसा सपना देख रहा है, तभी पत्नी छाती पीट कर रोई। लड़का मर चुका है। नींद टूट गई। सामने पड़ी लाश देखी। अभी-अभी सपने में जाते, विदा होते महल--स्वर्ण के, चमकते हुए; वे बारह पुत्र--उनकी सुंदर सौष्ठव देह, उनकी प्रतिभा; आनंद की वह आखिरी झलक जो अभी सपने ने पैदा की थी, वह भी अभी मौजूद थी। और इधर बेटा मर गया। इधर चीख-पुकार मची।
सम्राट किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। कुछ सोच न पाया। एक क्षण को ठगा सा रह गया। पत्नी समझी कि कहीं पागल तो नहीं हो गया--आंख से आंसू न गिरा, ओंठ से चीख न निकली, दुख का एक शब्द न उठा, एक आह न प्रकट हुई। पत्नी घबड़ाई। उसने पति को हिलाया कि तुम्हें क्या हो गया? पता था कि बेटे का दुख भारी होगा। कहीं विक्षिप्त तो नहीं हो गया! कहीं पागल तो नहीं हो गया! ऐसा सुन्न क्यों हो गए हो? बोलो कुछ। पति हंसने लगा। उसने कहा: मैं बड़ी दुविधा में पड़ गया हूं। किसके लिए रोऊं? अभी बारह सुंदर युवक मेरे बेटे थे, स्वर्ण के महल थे, सब सुख था, वह अचानक टूट गया। उन बारह के लिए रोऊं जो मर गए, या इस एक के लिए रोऊं जो मर गया? क्योंकि जब मैं उन बारह के साथ था, इस एक को भूल ही गया था। पता ही न था कि मेरा कोई बेटा है। अब इस एक के पास हूं, उन बारह को भूल गया हूं। सच कौन है?
सहजो सुपने एक पल, बीतैं बरस पचास।
स्वप्न में एक क्षण में पचास वर्ष जीवन के बीत जाते हैं। तुम्हारे जीवन के पचास वर्ष भी सपने के एक पल से ज्यादा नहीं हैं। कितने लोग इस जीवन में रहे हैं। कितने अनंत लोग इस पृथ्वी पर हुए हैं। उन्होंने भी ऐसे ही सपने देखे थे, जैसा तुम देखते हो। उन्होंने भी ऐसी ही महत्वाकांक्षाएं पाली थीं, जैसी तुम पालते हो। उन्होंने भी पद और प्रतिष्ठा के लिए ऐसी ही दौड़ साधी थी। वे भी लड़े थे, मरे थे। उन्होंने भी सुख-दुख पाए थे, मित्र-शत्रु बनाए थे, अपने-पराए माने थे। फिर सब विदा हो गए। वैज्ञानिक कहते हैं, जिस जगह पर तुम बैठे हो, जिस जगह पर एक आदमी खड़ा है, उस पर कम से कम दस लोगों की लाशें दबी हैं। उस जमीन में कोई दस लोग मर कर मिट्टी हो चुके हैं। तुम भी उन्हीं दस लोगों की धूल में आज नहीं कल समाविष्ट हो जाओगे। धूल रह जाती है आखिर में, सब सपने उड़ जाते हैं। मिट्टी मिट्टी में गिर जाती है। दो मिट्टियों के बीच यह जो थोड़ी देर के लिए सपने का संसार है, संदेह करना हो इस पर करो। और आश्चर्य है कि लोग इस पर तो संदेह नहीं करते, शाश्वत पर संदेह करते हैं।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते कि हम अंधविश्वासी नहीं हैं, हम विचारवान हैं, सुशिक्षित हैं। हमने तर्क सीखा है। और हमें ईश्वर पर श्रद्धा नहीं आती। मैं उनसे कहता हूं, छोड़ो ईश्वर को। अगर तुम सचमुच में ही सुशिक्षित हो, तुमने तर्क सीखा है और तुम विचारवान हो, तो संसार के संबंध में तुम्हारा क्या खयाल है? वे कहते हैं, संसार है। यह कौन सा तर्क हुआ! यह तो बिलकुल आंख अंधी है।
अगर संदेह ही सीख गए हो, तो जरा अपने जीवन पर संदेह करके देखो; और तुम पाओगे कि सपने में और इस जीवन में कोई भेद नहीं है। सपना तुम किसे कहते हो? जब होता है तब तो सही मालूम पड़ता है। रात जब तुम सपना देखते हो तब थोड़े ही झूठ मालूम पड़ता है। सुबह जब जागते हो तब पता चलता है, जाग कर पता चलता है कि सपना था। जो भी आज तक इस पृथ्वी पर जागे हैं, उन सबका एक वक्तव्य समान है कि यह जगत सपना है। बुद्ध जागे कि सहजो जागे कि कबीर जागे कि फरीद, जागते ही यह जगत सपना हो जाता है। जागते ही पता चलता था कि धन की, पद की दौड़ मन का एक जाल है।
सहजो सुपने एक पल, बीतैं बरस पचास।
आंख खुलै जब झूठ है, ऐसे ही घट-बास।।
जब आंख खुलती है, तब पता चलता है सब झूठ था। ऐसे ही घट-बास! ऐसा ही इस शरीर में रहना है। इस शरीर में रहना तभी तक सच मालूम पड़ता है जब तक आंख बंद है। जब आंख खुल जाती है तब पता चलता है, कैसे-कैसे सपने देखे, कैसी-कैसी भ्रांतियां पालीं, कैसे-कैसे मन के जाल को यथार्थ समझ लिया। केवल लहरें थीं विचार की, तरंगें थीं विचार की--आईं और गईं। उनकी कोई रेखा भी नहीं छूट जाती है। जैसे पानी पर किसी ने लिखा हो, हस्ताक्षर किए हों--कर भी नहीं पाता और मिट जाते हैं।
आंख खुलै जब झूठ है, ऐसे ही घट-बास।
तुम्हें शरीर सच मालूम हो रहा है तो संसार सच मालूम होगा। तुम्हें संसार सच मालूम हो रहा है तो शरीर सच मालूम होगा। ये दोनों सचाइयां एक साथ जुड़ी हैं। अगर तुम्हें संसार पर संदेह आ जाए, शरीर पर संदेह आ जाएगा। क्योंकि शरीर तुम्हारा संसार का हिस्सा है। अगर तुम्हें शरीर पर संदेह आ जाए, संसार पर संदेह आ जाएगा। क्योंकि संसार तुम्हारे शरीर का ही फैला हुआ रूप है। यह शरीर एक दिन नहीं था, इतना तय है। यह शरीर एक दिन नहीं हो जाएगा, इतना भी तय है। बस थोड़ी सी बीच में, दो शून्यों के बीच में थोड़ी सी लहर...। इस लहर को तुम सच मान लेते हो। कभी संदेह नहीं करते। और सब लहरों के पीछे छिपा हुआ जो अस्तित्व है--परमात्मा कहो, आत्मा कहो, मोक्ष कहो--उस पर तुम्हें संदेह आता है। नहीं, नास्तिक को मैं बहुत तर्कनिष्ठ नहीं कहता। बहुत जो तर्कनिष्ठ है वह तो आस्तिक हो ही जाएगा। नास्तिक तो बाहरखड़ी सीख रहा है अभी; अ ब स सीख रहा है। जब और थोड़ा तर्क में गहरा उतरेगा, संदेह प्रगाढ़ होगा और संदेह में धार आएगी, तो जो सहजो कहती है वही दिखाई पड़ेगा: आंख खुलै जब झूठ है, ऐसे ही घट-बास!
जगत तरैयां भोर की, सहजो ठहरत नाहिं।
यह प्रतीक बड़ा प्यारा है। जगत तरैया भोर की! सुबह की आखिरी तरैया है जगत। सुबह कभी उठ कर देखा है? सब तारे डूब गए हैं, बस आखिरी तरैया रह गई है। अब गई, अब गई। एक क्षण है, और एक क्षण बाद तुम खोजते रह जाओगे और पता न चलेगी कहां खो गई। अभी थी, अभी दिखाई पड़ती थी, अब दिखाई नहीं पड़ती है।
जगत तरैयां भोर की, सहजो ठहरत नाहिं।
यह जगत ऐसे ही सुबह के आखिरी डूबते हुए तारे की भांति है। यह ठहरता नहीं। अब गया, तब गया। होश भी नहीं सम्हल पाता और चला जाता है। आ भी नहीं पाते कि विदा का क्षण आ जाता है। हो भी कहां पाते हो और मौत पकड़ लेती है।
जगत तरैयां भोर की, सहजो ठहरत नाहिं।
जैसे मोती ओस की, पानी अंजुली माहिं।।
जैसे सुबह ओस का कण घास के पत्ते पर, बिलकुल मोती लगता है। मोती भी फीके मालूम पड़ते हैं। सुबह का सूरज उगता है। घास के पत्तों पर चमकते ओस-कण मोतियों को मात कर देते हैं--झेंपा देते हैं। जैसे मोती ओस की! है तो मोती, दिखाई पड़ने मात्र को। वस्तुतः है ओस-कण। और कितनी देर टिकता है? हवा का एक झोंका--ओस मिट्टी में खो जाती है। सूरज की किरण--ओस भाप बन जाती है। जैसे मोती ओस की, पानी अंजुली माहिं! या जैसे पानी को कोई अपनी अंजुली में भरता है। लगता है कि भर गया...और गिरना शुरू हो गया है--अंगुलियों से बहा जा रहा है। क्षण भी न बीतेगा अंजुली खाली हो जाएगी। ऐसे ही लगता ही है कि सब पा लिया, पा भी नहीं पाते और अंजुली खाली होने शुरू हो जाती है।
जगत तरैयां भोर की, सहजो ठहरत नाहिं।
जैसे मोती ओस की, पानी अंजुली माहिं।।
क्षणभंगुरता को गौर से देखो। वही पहला कदम है शाश्वत को देखने की तरफ। जिसने क्षणभंगुर को पहचान लिया, उसके पास शाश्वत को परखने की कसौटी आ गई। जिसने क्षणभंगुर को न पहचाना, वह कभी शाश्वत को न पहचान पाएगा।
शिक्षण क्षणभंगुर का लेना होगा।
गौर से देखो उस सबको जो आता है और चला जाता है। होता है और नहीं हो जाता है। बनता है और मिटता है। फूल खिलता है सुबह, सांझ मुर्झा जाता है। गौर से देखो क्षणभंगुर को। सौंदर्य अभी है, कल नहीं होगा। जवानी अभी थी, जा चुकी। गौर से जिसने देखा क्षणभंगुर को उसे धीरे-धीरे एक बात साफ हो जाएगी कि क्षणभंगुर में सत्य को खोजना पागलपन है। जो टिकता ही नहीं उसमें सत्य कैसे हो सकता है? सत्य की परिभाषा है, जो सदा है। सत्य की परिभाषा है, जो अबाध है। जिसका कभी खंडन नहीं होता। किसी भी क्षण में जिससे विपरीत घटित नहीं होता। जो सदा वैसा ही है जैसा था--एकरस। जिसमें कोई भंग नहीं आता। पर इसे जानने के लिए पहले तो क्षणभंगुर को गौर से देख लेना पड़े। क्षणभंगुर को पहचानते-पहचानते ही शाश्वत की पहचान उभरने लगती है। असार को देखते-देखते ही सार की भनक पड़ने लगती है। गलत को देखते-देखते ही ठीक की पहचान हो जाती है। और कोई उपाय नहीं है। और एक बात ध्यान रखना, क्योंकि वह भूल अक्सर होती है। अगर मैं कहता हूं--संसार क्षणभंगुर है, जल्दी मत मान लेना। या सहजो कहती है: सहजो सुपने एक पल, बीतैं बरस पचास। आंख खुलै जब झूठ है, ऐसे ही घट-बास! जल्दी मत मान लेना। क्योंकि जल्दी जो मान लेगा वह अपने अनुभव से वंचित रह जाता है। यह तुम्हारा अनुभव होगा तो ही तुम्हें सत्य तक ले जाएगा। उधार अनुभव से कुछ भी न होगा।
ऐसे तो तुमने भी सुना है कि संसार क्षणभंगुर है। लेकिन तुम्हें सत्य की शाश्वतता का इससे कुछ पता नहीं चला। क्षणभंगुरता तुमने देखी नहीं है, सुनी है। पहचानी नहीं है, मान ली है। कोई और कहता है। उधार है, बासी है। शास्त्र कहते हैं, संत कहते हैं। लेकिन तुम्हारे अनुभव से नहीं प्रकटी। परिपक्व नहीं है। तुमने पक कर नहीं जानी है, तुमने मान ली है। मानने से कोई ज्ञान को उपलब्ध नहीं होता। जानने से ज्ञान बनता है। मानने से ज्यादा से ज्यादा अज्ञान ढंकता है, मिटता नहीं।
जगत तरैयां भोर की, सहजो ठहरत नाहिं।
जैसे मोती ओस की, पानी अंजुली माहिं।।
धूआं को सो गढ़ बन्यौ, मन में राज संजोय।
झाईं माईं सहजिया, कबहूं सांच न होय।।
यह जो मन का सारा खेल है--धूआं को सो गढ़ बन्यौ--जैसे कोई धुएं का गढ़ बना ले। कभी-कभी आकाश में बादलों को तुमने देखा हो। कितने रूप-रंग लेते हैं, कितने आकार लेते हैं। कभी लगता है, बादल का एक टुकड़ा हाथी बन गया। मगर जरा गौर से देखते रहना--तुम देख भी न पाओगे थोड़ी देर कि हाथी बिखर गया। धुएं का हाथी कितनी देर टिक सकता है? कभी बादलों में लग सकता है कि गढ़ बना है, बड़ा महल बना है। लेकिन जब तुम्हें लग रहा है तब भी वह महल बिखर रहा है।
धूआं को सो गढ़ बन्यौ, मन में राज संयोग।
यह जो मन के सारे राज्य हैं, सपने हैं; मन की कल्पनाएं-आकांक्षाएं हैं, वासनाएं हैं, तृष्णाएं हैं--धुएं के गढ़ हैं।
बड़े अछूते प्रतीक सहजो के लिए हैं। बड़े कुंआरे प्रतीक हैं। पिटे-पिटाए नहीं हैं। उसने अपने जानने से ही लिए होंगे। वह कोई कवि नहीं है, रहस्यवादिनी है। वह कोई कविता नहीं कर रही है, वह स्वयं कविता है। शब्दों से उसे कुछ लेना नहीं है। वह जो मौन में और शून्य में जाना है, उसे शब्दों के सहारे थोड़ा तैरा देना है ताकि तुम तक पहुंच जाए। शब्द तो कागज की नाव हैं। उसने उसमें शून्य के अनुभव को रख के भेजा है तुम तक। शब्द तो संदेशवाहक हैं, डाकिया हैं। उनको बहुत सजाने का सवाल नहीं है। बड़े कुंआरे प्रतीक हैं।
धूआं को सो गढ़ बन्यौ,...
यह जो मन का जाल; जिसने गौर से देखा, पाया धुएं का जाल है। कितने खेल रचता है। जो नहीं है, उसको मान लेना है। जो है, उसे भूल जाता है। और हर बार हारता है, फिर भी जागता नहीं। तुमने जितनी कामनाएं की सभी में तुम हारे हो, फिर भी जागे नहीं। आश्चर्यजनक है! जाग नहीं पाते कि मन दूसरा गढ़ बना देता है। वह कहता है, पुराना गलत हो गया, कोई फिकर नहीं। लोगों ने सच न होने दिया; दुश्मन ज्यादा थे; परिस्थिति अनुकूल न मिली; भाग्य ने साथ न दिया; चेष्टा पूरी न हो पाई। इसलिए बिखर गया। मन सदा यह कहता है कि तुम्हारी वासना में तुम असफल हुए उसका कारण--वासना का स्वभाव ही असफल होना है--ऐसा नहीं है। और कारण बताता है मन। इन कारणों से असफल हुए। अगर पूरी ताकत लगाई होती तो जीत जाते। ताकत कम लगाई; श्रम पूरा न उठाया; दूसरा जो तुम्हारी प्रतिस्पर्धा में था चालबाज था, चालाक था। तुम सीधे-सीधे आदमी थे; तुम्हें भी षडयंत्र रचना था, तुम्हें भी दुनियादारी में पड़ना था, तो जीतते। हजार बहाने मन खोज देता है। क्यों तुम हारे। एक बात नहीं देखने देता कि वासना का स्वभाव ही हार जाना है--वासना कभी पूरी होती ही नहीं, वह तुम्हें बहाने बता देता है। कहता है, अगली बार ऐसी भूल मत करना, अब दुबारा जब संघर्ष में उत्तरों तो तैयारी से उतरना। लेकिन कोई कभी जीतता नहीं। सिकंदर और नेपोलियन भी खाली हाथ विदा होते हैं। धनपति भी निर्धन ही मरते हैं। पदों पर, सिंहासनों पर बैठे हुए लोग भी भीतर भिखारी ही रह जाते हैं। बड़े पंडित हो जाते हैं, बहुत जान लेते हैं, फिर भी भीतर का अंधेरा नहीं मिटता और दिया तले अंधेरा बना रहता है।
धूआं को सो गढ़ बन्यौ, मन में राज संजोय।
झाईं माईं सहजिया, कबहूं सांच न होय।।
जैसे कि कोई चांद को देखे झील में। चांद तो सच है, लेकिन झील का चांद सच नहीं है। जैसे कोई देखे अपनी ही छवि को दर्पण में। तो दर्पण की छवि कितनी ही सुंदर मालूम पड़े, सच नहीं है। झाईं माईं सहजिया--परछाईं में; कबहूं सांच न होय--परछाईं में कभी सत्य नहीं होता। संसार परमात्मा की परछाईं है। जहां तुम पाओ सत्य नहीं है, लेकिन सत्य भासता है, उसका अर्थ यही हुआ कि परछाईं है। तुम भागे जा रहे हो, तुम्हारी छाया तुम्हारे पीछे भागी जा रही है। मैं तुम्हारी छाया को पकड़ने में लग जाऊं तो तुम्हें न पकड़ पाऊंगा। यद्यपि विपरीत सच है। तुम्हें पकड़ लूं, तुम्हारी छाया पकड़ में आ जाएगी।
मैंने सुना है कि एक छोटा बच्चा एक आंगन में खेल रहा है। वह अपनी छाया को पकड़ने की कोशिश कर रहा है। सुबह की धूप होगी, सर्दी के दिन होंगे, वह सरक-सरक कर अपनी छाया को पकड़ने की कोशिश कर रहा है। एक फकीर द्वार पर भीख मांगने खड़ा है। वह गौर से देखने लगा। वह बच्चा पकड़ने की कोशिश करता है लेकिन पकड़ नहीं पाता। क्योंकि जब वह आगे बढ़ता है, छाया आगे बढ़ जाती है। फिर आगे बढ़ता है और भी ताकत से, फिर छाया आगे बढ़ जाती है। वह बच्चा रोने लगा है। उसकी आंख से आंसू गिर रहे हैं। वह हार गया है। उसकी मां उसे समझाने की कोशिश कर रही है कि छाया पकड़ी नहीं जा सकती। लेकिन बच्चे को क्या छाया, क्या माया? बच्चा कहता है, मैं पकड़ कर रहूंगा। अगर मुझसे नहीं पकड़ी जाती, तुम पकड़ दो। लेकिन मुझे पकड़नी है। बच्चा हारने को राजी नहीं है। वह फकीर द्वार पर खड़ा देखता है, वह भीतर आया। उसने मां से कहा कि रुको। उसने बच्चे का हाथ उसके माथे पर रखवा दिया और कहा: देख। हाथ माथे पर पड़ा, छाया पर भी हाथ पड़ गया। बच्चा खिलखिला कर हंसने लगा है। छाया उसने पकड़ ली।
छाया को पकड़ने का और कोई उपाय नहीं। छाया को पकड़ना हो तो छाया में ही पकड़ा जा सकता है। तुम्हारे राजनेता, धनपति, प्रतिष्ठित लोग--जो लगते हैं कि जिन्होंने कुछ पकड़ लिया संसार में--अपने माथे पर हाथ रखे हैं। छाया पकड़ी हुई मालूम पड़ रही है। तुम्हारी दिल्ली, तुम्हारे लंदन, तुम्हारे पेरिस और वाशिंगटन में अपने-अपने माथे पर हाथ रखे लोग बैठे हैं। छाया पकड़ी हुई मालूम पड़ रही है। जो नहीं पकड़ पाते हैं वे रो रहे हैं। वे छाया को सीधा पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं। बाकी दोनों ही बातें मूढ़ता थी। बच्चे का रोना भी मूढ़ता थी। अब बच्चा प्रफुल्लित है, हंस रहा है कि पकड़ ली उसने, जीत गया, वह भी उतनी ही मूढ़ता है। शायद दूसरी मूढ़ता पहले से भी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि पहली असफलता में तो एक सचाई थी, दूसरी सफलता में बिलकुल ही सचाई नहीं है।
झाईं-माईं सहजिया, कबहूं सांच न होय।
परछाईं कभी सच नहीं है। परछाईं का भी एक सच है कि वह है। पर परछाईं की तरह ही है, सत्य की तरह नहीं है। तुम उसे पकड़ने में मत पड़ जाना।
मैंने सुना है कि रमजान के दिन थे और मुल्ला नसरुद्दीन एक एकांत रास्ते से गुजर रहा था। चांद देखने को मुसलमान बड़े पीड़ित और परेशान थे। दिख जाए चांद तो उपवास पूरा हो। वह एक कुएं पर पानी पीने को रुका। उसने बाल्टी अंदर डाली। कुएं में चांद था। अरे! उसने कहा कि यही झंझट हो रही है। वे लोग आकाश में देख रहे हैं और चांद यहां उलझा है। अब इसको कोई न निकालेगा अगर, तो मर जाएंगे लाखों लोग भूखे। तो उसने पानी-वानी पीने की तो फिकिर छोड़ दी, उसने बाल्टी में चांद को भरने की कोशिश की। बड़ा मुश्किल काम था। क्योंकि पानी हिलने लगा, तो चांद छितरने लगा। संसार की यही मुसीबत है। वहां चीजों को पकड़ने जाओ, तो वे छितरती हैं। मुट्ठी बांधो, तो पारा सिद्ध होती है। छूट-छूट जाती हैं। बड़ी उसने मेहनत की, बड़ा हिलाया-डुलाया, बड़ा सम्हाल के बाल्टी रखी, आखिर एक ऐसी घड़ी आ गई कि ठीक बाल्टी में वह पानी भर गया जिसमें चांद की छाया पड़ रही थी। उसने कहा कि हो गया निपटारा। एक पुण्य का कृत्य हो गया। अब इसको खींच लें।
उसने बड़ी खींचने की कोशिश की। इस उपद्रव में चांद को पकड़ने की, उसकी रस्सी कुएं के भीतर की एक चट्टान से उलझ गई। बड़ी ताकत लगाई, वह निकले न। उसने कहा: मरे! वजनी है बहुत! अकेले से न होगा! मगर इधर कोई आस-पास दिखाई भी नहीं पड़ता। खुद पर ही करना पड़ेगा। यह तो ताकत और लगानी पड़ेगी। बड़ी ताकत लगाई। जब बहुत ही लगा दी, तो रस्सी टूट गई--जो कि होता है सदा। रस्सी टूट गई तो वह भड़ाम से जाकर कुएं के बाहर पाट पर गिरा। खोपड़ी में चोट भी लगी, आंख भी खुली, चांद ऊपर दिखा। उसने कहा, चलो चोट लग गई कोई हर्जा नहीं, तुम तो छूटे। लाखों लोगों के प्राण बचे।
मगर ऐसा सौभाग्य भी कम लोगों को मिलता है कि चोट लग जाए--रस्सी उलझ जाए, गिर पड़ें, खोपड़ी तिलमिला जाए, और आकाश की तरफ आंख उठ जाए और असली चांद दिख जाए। जीवन की हार जब पूरी होती है तभी परमात्मा की सुध आनी शुरू होती है। जब जीवन पूरी तरह पराजित होता है, तुम चारों खाने चित्त गिर गए होते हो, तब तुम्हारी आंख आकाश की तरफ उठती है। अन्यथा आदमी कुएं के चांद को पकड़ने में लगा रहता है। नहीं पकड़ पाता तो सोचता है और थोड़ी कुशलता चाहिए।
लेकिन परछाईं के चांद सत्य नहीं हैं। दिखाई पड़ते हैं। इसलिए ज्ञानियों ने संसार को माया कहा है। परमात्मा है सत्य। संसार है उसकी परछाईं सत्य की छाया का नाम माया है।
धूआं को सो गढ़ बन्यौ, मन में राज संजोय।
झाईं माईं सहजिया, कबहूं सांच न होय।।
निरगुन सरगुन एक प्रभु, देख्यो समझ विचार।
सदगुरु ने आंखें दयीं, निस्चै कियो निहार।।
निरगुन सरगुन एक प्रभु, देख्यो समझ विचार! लेकिन परमात्मा की तरफ की यात्रा का पहला कदम जब तक पूरा न हो जाए, तब तक परमात्मा एक शाब्दिक बातचीत रहता है। जब तक संसार व्यर्थ न हो, तब तक परमात्मा सार्थक नहीं हो सकता। दो दिन पहले एक मित्र मेरे पास थे। अपने बेटे को लेकर आए थे। कहने लगे बेटा होशियार है बहुत। और उसने संन्यास ले लिया यह भी अच्छा किया। लेकिन दोनों सम्हालने चाहिए--संसार भी और संन्यास भी। इस जगत में भी सफलता पानी चाहिए और उस जगत में भी। ऊपर से देखने पर बात बिलकुल ठीक लगती है कि इस जगत में भी सफलता मिलनी चाहिए, उस जगत में भी। लेकिन जब तक तुम्हें इस जगत की सफलता सफलता दिखाई पड़ती है तब तक उस जगत की सफलता की तरफ तो तुम चेष्टा ही न करोगे।
इस बात से मैं राजी हूं कि संसार छोड़ कर भागने की कोई भी जरूरत नहीं है। संसार में तुम परिपूर्ण रहते हुए संन्यस्त हो सकते हो। लेकिन संसार में रहते हुए एक बात के प्रति तो तुम्हें जाग ही जाना होगा कि संसार की सफलता सफलता नहीं है। वह चांद कुएं का है। वह छाया है। संसार में रहते हुए ही संन्यस्त हुआ जा सकता है। और कोई उपाय नहीं। जाओगे भी कहां? सभी तरफ संसार है। जो है, सभी तरफ संसार फैला है। भागोगे कहां? भागने को कोई जगह नहीं है। जागने को जगह है। जागने का अर्थ इतना होता है कि तुम यह देख लेना कि यह जो दौड़ संसार की है वहां चांद असली नहीं है। अगर कामचलाऊ चलना भी पड़े तो चलते रहना। अगर भीड़ वहां जाती हो तो भीड़ के साथ खड़े रहना, कोई हर्जा नहीं है। क्योंकि भीड़ को नाहक नाराज करने से भी क्या सार है। और उनको तो वहां सफलता दिखाई पड़ रही है। यही तो उस फकीर ने उस बच्चे के सिर पर हाथ रख कर किया। बच्चा है, नाहक रुलाने से भी क्या फायदा है। इतने से तो खुश हो जाता है कि छाया पकड़ ली। तो एक तरकीब कर दी कि सिर हाथ पर रख दिया। छाया पकड़ में आ गई।
लेकिन तुम्हें तो जाग ही जाना चाहिए कि संसार की कोई सफलता सफलता नहीं है। सब सफलता गंवाया गया श्रम है। सब सफलता खोया गया समय है। सब सफलता अपने को बेचना है और कूड़ा-करकट को खरीद लाना है। एक दिन तुम पाओगे बाजार तो सब खरीद के घर में आ गया, तुम बाजार में कहीं खो गए। तुम तो न बचे, और सब बच गया।
निरगुन सरगुन एक प्रभु, देख्यो समझ विचार।
संसार की क्षणभंगुरता स्पष्ट हो जाए तो फिर परमात्मा की तरफ आंख उठती है, आंख खुलती है। और वैसी जो आंख है--उसको ‘निरगुन सरगुन एक प्रभु’--उसको तो निर्गुन और सगुण एक ही दिखाई पड़ता है। हिंदू, मुसलमान, ईसाई का परमात्मा एक ही दिखाई पड़ता है। जिनको ये परमात्मा अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं, समझ लेना कि उनकी अभी आंख परमात्मा की तरफ नहीं उठी। क्योंकि परमात्मा तो एक है। चांद तो एक है, कुएं हजार हैं। और हजार कुओं में हजार प्रतिबिंब बनते हैं। कोई मुसलमान का कुआं है, उसमें मुसलमान का प्रतिबिंब है। कोई हिंदू का कुआं है, उसमें हिंदू का प्रतिबिंब है। किसी में गंदा पानी भरा है, किसी में स्वच्छ पानी भरा है। तो प्रतिबिंब में थोड़ा फर्क भी पड़ता है। कोई कुआं संगमरमर से बना है। कोई कुआं साधारण मिट्टी का ही है; कुछ भी उसमें पत्थर नहीं लगे हैं। तो भी प्रतिबिंब में थोड़ा फर्क पड़ता है। लेकिन जिसका प्रतिबिंब है, वह एक है। प्रतिबिंब अनेक हो सकते हैं, लेकिन सत्य एक है।
निरगुन सरगुन एक प्रभु,...
तुम उसे सगुण कहो तो ठीक, क्योंकि सभी गुण उसके हैं। तुम उसे निर्गुण कहो तो ठीक, क्योंकि जो सभी गुण जिसके हैं कोई गुण उसका नहीं है। जिसके सभी गुण हैं वह गुणों के पार है। तुम उसके हाथ पूरे भरे कहो, तो ठीक है। तुम उसके हाथ पूरे शून्य कहो, तो ठीक है। क्योंकि शून्य और पूर्ण एक ही अवस्था के दो नाम हैं। तुम चाहो तो हर हरियाली में उसे देखो, हर फूल में उसे पहचानो, हर तारे में उसकी झलक पाओ। और तुम चाहो तो हर हरियाली के पीछे, चांद-तारों के पीछे, पहाड़ों के पीछे, जो छिपा हुआ निराकार अस्तित्व है उसमें उसे खोजो। चाहो, उसकी अभिव्यक्ति में पकड़ो, और चाहे उसकी आत्मा में। आत्मा देखोगे तो निगुर्ण है। अभिव्यक्ति देखोगे तो सगुण है। उसके वस्त्र देखोगे तो बड़े प्यारे, बड़े रंग-बिरंगे हैं। उसके भीतर जाओगे, सब रंग खो जाते हैं। विराट शून्य मिलता है।
निरगुन सरगुन एक प्रभु, देख्यो समझ विचार।
लेकिन यह देखने से मिलता है यह अनुभव। यह अगर अकेले विचार करने से मिलता, तो विचारक इसे पा लेते। यह अकेले विचार करने से नहीं मिलता। बहुत लोग विचार करते रहते हैं परमात्मा के संबंध में। उनका विचार कहीं भी नहीं ले जाता। क्योंकि विचार तो मन का ही जाल है। मन से ही तो जो पकड़ में आता है वह संसार है। विचार से पकड़ने की कोशिश परमात्मा को ऐसे ही है जैसे कोई छाया को पकड़ रहा हो, पकड़ में न आती हो; विचार खुद ही छाया है। उस छाया से तुम क्या पकड़ने जाओगे सत्य को? मन चाहिए शून्य, निर्विचार। यही अर्थ है ध्यान का। विचार से कोई कभी परमात्मा को नहीं पाता। ध्यान से पाता है। ध्यान निर्विचार दशा है। जब तुम्हारे मन में सब तरंगें समाप्त हो गईं, कोई विचार नहीं उठता, झील परिपूर्ण मौन है, सन्नाटा है गहन, तब तुम्हारे संबंध जुड़ते हैं।
...देख्यो समझ विचार।
तीन शब्द सहजो प्रयोग कर रही है: दृष्टि, समझ और विचार। कुछ लोग विचार से पाने की कोशिश करते हैं। वे उपलब्ध नहीं हो पाते। दार्शनिक बन जाते हैं। फिलॉसफी पैदा हो जाती है। बड़ा तत्व का ऊहापोह करते हैं। उनसे अगर तुम विचार की बात करो तो वे विचार का बड़ा फैलाव खड़ा कर देते हैं। लेकिन उनके विचार के जाल में परमात्मा की मछली कभी फंसती नहीं। जाल उनका कितना ही बड़ा हो मछली कभी पकड़ में नहीं आती।
फिर कुछ लोग हैं जो समझदारी से उसे पाने की कोशिश करते हैं। समझ आती है जीवन के अनुभव से। जीवन के अनंत अनुभव हैं। उन सारे अनुभवों का जो निचोड़ है उसका नाम समझ है। जवान आदमी परमात्मा को विचार से पाना चाहता है। बूढ़े समझदारी से। वे कहते हैं, हमने जीवन देखा है। मगर जीवन तो छाया है। छाया का अनुभव भी सत्य तक कैसे ले जाएगा? विचार से तो मुक्त होना ही है, समझ से भी मुक्त होना है। विचार पढ़ने-लिखने से आ जाते हैं। इसलिए विश्वविद्यालय से जब कोई लौटता है तो बड़े विचारों से भरा होता है। बूढ़े उस पर हंसते हैं। वे कहते हैं, थोड़ा ठहरो, जरा जीवन को देखो, तब पता चलेगा।
मैंने सुना है कि दिल्ली से कृषिशास्त्र में एक व्यक्ति को डॉक्टरेट की उपाधि मिली। उपाधि के अंतिम परीक्षण के लिए उसे देहात भेजा गया, एक किसान के खेत का पूरा विवरण बनाने के लिए, ताकि पता चल जाए कि व्यावहारिक भी है उसका ज्ञान या नहीं। तो उसने और सब विवरण तो बना लिया--कितने झाड़ हैं, कितनी पैदावार है, कितनी जमीन एकड़ है, कितने एकड़ पर कितनी पैदावार होती है, कितना बीज बोया जाता है, कितनी फसल आती है--सब आंकड़े बिठा लिए। एक चीज उसकी समझ में नहीं आ रही थी। और किसान उसके ढंग से हंस रहा था, और वह उसको कोई सहायता भी नहीं दे रहा था। वह कह रहा था कि तुम खुद ही जानकार हो। झाड़ को उसने देख कर कहा कि इस झाड़ की हालत ऐसी है कि मुझे लगता है इसमें इस साल सेव लगेंगे नहीं। किसान ने कहा कि यह तो मुझे भी पक्का है कि सेव इसमें नहीं लगेंगे। क्योंकि यह झाड़ सेव का है ही नहीं। ऐसा उसकी चीजों पर वह हंस रहा था। झोपड़े में एक बकरा था--बूढ़ा बकरा, जिसको दाढ़ी भी उग गई थी। यह युवक कभी विश्वविद्यालय को छोड़ कर बाहर तो गया नहीं था। कृषिशास्त्र भी किताब से सीखा था। विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में ही जिंदगी गंवाई थी। इसमें यह जानवर इसकी कुछ पहचान में न आया। और दाढ़ी...और...तो इसने कहा कि यह कौन है? तो उस किसान ने कहा: अब आप ही बताओ कि यह कौन है! आप जानकार हो! हम तो गरीब किसान, हम क्या जानें!
उसने तार किया विश्वविद्यालय को। विवरण लिखा कि बूढ़ा है, दाढ़ी है; कौन है, खबर करो। तो उधर से खबर आई कि मूरख, वह किसान है। उसको भी नहीं पहचान पा रहा था। दाढ़ी है...बूढ़ा है...तो वहां से जो खबर रजिस्ट्रार ने दी, उसने सोचा कि अब यह किसान को ही नहीं समझ पा रहा है, हद हो गई!
एक जिंदगी है किताब की। एक जिंदगी है जीवन के अनुभव की। किताब से विचार मिल सकते हैं, समझ नहीं मिलती। समझ तो जीवन के कड़वे-मीठे अनुभव से मिलती है। वही नालेज और व़िजडम का फर्क है। विचार और समझ। लेकिन सहजो कहती है, अकेली समझ से अगर वह मिलता होता तो सभी बूढ़ों को मिल जाता। अगर विचार से मिलता होता तो सभी विचारकों को मिल गया होता। लेकिन न तो विचारकों को मिलता दिखाता है--न जवानों को मिलता दिखता है, न बूढ़ों को मिलता दिखता है। तब फिर कोई एक और तीसरी चीज चाहिए...देख्यो समझ विचार! विचार का भी उपयोग किया, समझ का भी उपयोग किया, लेकिन दोनों का उपयोग देखने के लिए किया।...देख्यो समझ विचार।
सदगुरु ने आंखें दयीं, निस्चै कियो निहार।
तो सदगुरु न तो विचार देता; या अगर विचार देता है, तो इसीलिए देता है कि तुम्हारी बंद आंखें खुलें। न सदगुरु समझ देता; अगर समझ भी देता है, तो इसी सहारे के लिए देता है कि तुम्हारी आंखें खुलें। लेकिन मौलिक बात है, आंख खुले।
संसार को देखने की एक आंख है, परमात्मा को देखने की दूसरी आंख है। तो तुम कितने ही कुशल हो जाओ संसार को समझने और जानने में, उसी आंख से तुम परमात्मा को न जान सकोगे। वह आयाम अलग है। और आंख खुले तो ही कुछ हो सकता है। आंख कैसे खुलेगी? संसार से नकारात्मक सहारा मिल सकता है। संसार से असफलता मिल सकती है। विषाद मिल सकता है, दुख मिल सकता है। दुख, विषाद, असफलता के कारण तुम्हारे मन में एक आकांक्षा पैदा हो सकती है कि संसार के पार जो है उसे मैं खोजूं। बस इतना ही संसार से मिल सकता है। विचार से तुम्हें संसार के प्रति संदेह मिल सकता है, परमात्मा के प्रति श्रद्धा न मिलेगी। लेकिन संसार के प्रति संदेह आ जाए तो परमात्मा की तरफ श्रद्धा में जाने में सुगमता हो जाएगी, सुविधा हो जाएगी। कम से कम व्यर्थ से छुटकारा हुआ, तो सार्थक के लिए जगह बन जाती है। जैसे किसी को नया बगीचा लगाना है तो पहले वह घास-पात को उखाड़ता है। व्यर्थ के झाड़-झंखाड़ को उखाड़ता है। दो-चार फीट जमीन खोद के व्यर्थ की जड़ें जो हैं उनको निकाल फेंकता है। इसको फेंक देने से कोई बगीचा नहीं लग जाता है। लेकिन बगीचे लगने की सुविधा बन जाती है। अगर इसको ही तुम लगाए रखो, तो तुम बगीचा बो भी दो तो भी नष्ट हो जाएगा, क्योंकि गलत की गढ़ने की बड़ी क्षमता होती है। सही को गलत हमेशा दबा लेता है। अगर तुमने घास-पात छोड़ दिया और बीज तुमने बो दिए फूलों के, तो फूलों के बीज कहां खो जाएंगे पता न चलेगा।
मुल्ला नसरुद्दीन के पड़ोस में एक आदमी ने मकान लिया। नसरुद्दीन का बगीचा बड़ा सुंदर था। उस आदमी को भी मन में हुआ, वह भी बगीचा लगाए। उसने पूछा नसरुद्दीन से कि मैंने बीज बो दिए हैं, अब बीज में से अंकुर भी आ गए हैं और घास-पात भी उग आया है। तो मैं कैसे पहचानूं कि कौन कौन है? घास-पात क्या है और बीज क्या है? नसरुद्दीन ने कहा: सरल तरकीब है। दोनों को उखाड़ लो, जो फिर से उग आए वह घास-पात, जो फिर न उगे समझ लेना कि असली था, बीज था। घास-पात को बोना नहीं पड़ता, वह अपने आप उगता है। दोनों उखाड़ लो। तुम्हें पक्का पता चल जाएगा, कौन कौन है? बगीचा तैयार करना हो तो नकारात्मक तैयारी है--घास-पात उखाड़ दो, जड़ें निकाल दो, मिट्टी साफ कर लो। पर यही बगीचा तैयार नहीं हो गया। यह बगीचा तैयार होने की शुरुआत है। बीज बोने पड़ेंगे।
संसार के प्रति संदेह आ जाए इतना विचार और समझ से हो सकता है, बस। इतना हो जाए तो भी सौभाग्य है। क्योंकि सौ में निन्यानबे को तो इतना भी नहीं हो पाता। कई बार तो ऐसा दिखाई पड़ता है कि समझ लोगों को और भटका देती है। जवान तो जवान, बूढ़े और भी संसार में ग्रस्त हो जाते हैं। जवान में तो थोड़ा सा संन्यास का भाव भी होता है, बूढ़े में वह भी नहीं बचता। क्योंकि मौत इतनी जोर से करीब आती है, वह सोचता है: दो दिन और बचे हैं, भोग लूं; चार दिन और बचे हैं...अब कहां परमात्मा? देखेंगे फिर। जिंदगी तो गई...इतने दिन और थोड़ा सुख मिलता है, वह और भोग लें। समझदारों की नासमझी का हिसाब नहीं है। कभी-कभी जवान तो हिम्मत करके निकल जाता है संन्यास के पथ पर, बूढ़े नहीं हिम्मत कर पाते।
इसलिए तुम चकित होओगे कि संसार में जो बड़े संन्यासी हुए वे सब जवान घरों...जब निकले थे तो जवान थे। बुद्ध, महावीर जवान थे। तुमने बुद्ध और महावीर के मुकाबले कोई बूढ़ों को कभी संन्यासी होते देखा? तुम एक नाम न गिना सकोगे। बूढ़े तो इतने ज्यादा संसार में अनुभवी हो जाते हैं कि उनका अनुभव ही उन्हें डुबा देता है।
तो न तो विचार से कोई पहुंचता, न कोई अनुभव से पहुंचता। संसार का अनुभव और विचार दोनों ही व्यर्थ हैं। हां, इतना ही उपयोग हो सकता है कि दोनों से तुम्हें पता चल जाए कि कोई आंख तुम्हारे भीतर बंद पड़ी है, कोई तीसरा नेत्र बंद पड़ा है, वह खुले तो शायद परमात्मा की छवि का कोई अनुभव हो सके, तो शायद सत्य से कोई संबंध-सेतु बन जाए।
सदगुरु ने आंखें दयीं,...
सदगुरु विचार नहीं देता। न समझ देता है। सदगुरु देखने की क्षमता देता है, दृष्टि देता है। सदगुरु आंख देता है। कैसे देता है आंख? यह थोड़ा सूक्ष्म, नाजुक है। सदगुरु तुम्हें कैसे आंख देता है? सदगुरु पहले तो तुम्हें अपनी आंख से देखने की सुविधाएं देता है। जैसे कोई छोटे बच्चे को अपने कंधे पर बिठा ले और कहे कि देख। कंधे पर बैठ कर बच्चा दूर तक देख पाता है। नीचे खड़ा हो जाता है, उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ता। कंधे पर बैठ जाता है तो दूर तक देख लेता है। सदगुरु पहले तो तुम्हें कंधे पर बिठा कर अपनी आंख से देखने के कुछ मौके देता है, वह अपनी आंख तुम्हारे सामने रख देता है कि जरा इससे भी झांको। जैसे मैं तुमसे जो बातें कर रहा हूं तुम्हें कोई विचार देने को नहीं कर रहा हूं, विचार देने से क्या होगा। तुम्हारे पास जरूरत से ज्यादा पहले ही है। जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह इसलिए कह रहा हूं ताकि तुम जरा मेरी आंख से भी देखो। यह भी एक आंख है। ऐसे भी देखा जा सकता है। तुम्हें झलक मेरी आंख से मिल जाए तो तुम्हारी अपनी आंख में एक स्फुरणा शुरू हो जाएगी। एक बार तुम किसी की आंख से देख लो--तो दूसरे की आंख तुम्हारी नहीं हो सकती--लेकिन दूसरे की आंख की प्रतीति में तुम्हारी अपनी आंख के खुलने का शुभारंभ हो जाता है।
ऐसा ही समझो कि बिजली चमक गई। अंधेरी रात थी। एक क्षण को चमकी बिजली, लेकिन उस क्षण में तुम्हें सब दिखाई पड़ गया है--रास्ता, वृक्ष, पहाड़-पर्वत। अंधेरा घनघोर हो गया फिर। लेकिन अब तुम्हें पता है कि कि रास्ता है। टटोलना पड़ेगा, खोजना पड़ेगा, गिरने का भय है, लेकिन रास्ता कम से कम है। गुरु की आंख से देखने से एक श्रद्धा उमगती है कि रास्ता है। गुरु के पास होने से धीरे-धीरे उसकी सुगंध तुम्हारे नासापुटों को भरती है और तुम्हें अहसास होना शुरू होता है: जो इसको हुआ वह हमें भी हो सकता है। जो एक व्यक्ति के लिए संभव हुआ, वह सबके लिए संभव है।
बुद्ध या महावीर या कृष्ण या सहजो के पास उनके जीवन का आनंद संक्रामक हो जाएगा। कभी-कभी तुम्हारे बावजूद भी तुम्हारी आंख खुल जाएगी। कभी-कभी अनजाने भी वे तुम्हें हिला देंगे, जगा देंगे। तुम जरा सी पलक खोल कर देख लोगे, तुम्हें भरोसा आने लगेगा। छोटा बच्चा चलता है। मां उसे हाथ का सहारा दे देती है। चलना तो छोटे बच्चे को पड़ता है। लेकिन सहारे की वजह से आश्वासन आ जाता है। सोचता है, अब गिरने वाला नहीं हूं, मां साथ है। फिर भी गिरेगा, कई बार गिरेगा। लेकिन हर बार गिरने के बाद जब उठेगा तो उसकी गिरने की संभावना कम होती जाएगी। और मां उसे आश्वासन दिए जा रही है कि चलो, घबड़ाओ मत। जैसे मैं चलती हूं, तुम भी चल सकोगे। गुरु ऐसे हाथ को सहारा देता है। जानता है कि क्षमता तुम्हारे भीतर छिपी है, थोड़े से प्रयोग की जरूरत है। तुम शायद घबड़ा गए हो। जन्मों-जन्मों से तुमने वह आंख खोल कर नहीं देखी जिससे परमात्मा दिखता है। तुम शायद भूल ही गए हो। शायद आज अचानक कोई तुम्हें याद भी दिलाए तो तुम्हें याद नहीं आता। लेकिन किसी के सान्निध्य में, सत्संग में, कभी न कभी तुम्हारे भीतर भी उस केंद्र पर चोट पड़ने लगती है। सतत चोट की जरूरत है। इसलिए सत्संग एक सतत प्रक्रिया है।
सदगुरु ने आंखें दयीं, निस्चै कियो निहार।
मन से तो सदा संदेह ही जाने जाते हैं। विचार...विचार...विचार...निश्चित कुछ भी नहीं होता। जिनको तुम निश्चित विचार कहते हो, उनमें भी तुम पीछे संदेह को छिपा पाओगे। अक्सर तो तुम इसीलिए कहते हो कि मेरा विचार बिलकुल दृढ़ है, जब तुम यह कहते हो तब तुमको भी पता है कि दृढ़ इसीलिए कह रहे हो कि तुम्हें खुद ही शक है। तुम मरने-मारने को उतारू हो जाते हो अपने विचार के लिए। वह भी इसी की खबर है कि तुम भीतर से डांवाडोल हो। निश्चय बड़ी और बात है। निश्चय का मतलब है: जहां संदेह है ही नहीं। और संदेह वहीं मिटता है जहां विचार भी मिट जाते हैं। निस्चै कियो निहार! वहां विचार नहीं होता। वहां निहार। वहां दिखाई पड़ता है। दर्शन होता है। सोचते थोड़े ही हो। एक अंधा आदमी सोचता है कि प्रकाश है। आंख वाला आदमी देखता है कि प्रकाश है। अंधा विचार करता है, आंख वाला निहारता है।
सदगुरु ने आंखें दयीं, निस्चै कियो निहार।
और जहां निहार है वहां निश्चय है; जहां विचार है वहां विभ्रम है। विचार के पीछे ही चलती रहती है अनिश्चय की धारा। निहार चाहिए। परमात्मा को कोई सोचता नहीं। या तो तुम परमात्मा को देख लेते हो, या नहीं देखते। मान्यता का सवाल नहीं है। ‘दर्शन’ की बात है--साक्षात्कार!
सहजो हरि बहुरंग है, वही प्रगट वही गूप।
वही तो प्रकट है, वही गुप्त है। सहजो हरि बहुरंग है! सभी रंग उसी के हैं। और फिर भी कोई रंग उसका नहीं है।
जल पाले में भेद ना, ज्यों सूरज अरु धूप।
बड़े प्यारे वचन हैं।
जल पाले में भेद ना,...
जल में और ओस में क्या कोई भेद हैं? जल में और पाला छा जाए, उसमें कोई भेद है? कोई भी भेद नहीं है।
...ज्यों सूरज अरु धूप।
जैसे सूरज में और सूरज की धूप में कोई भेद है! ऐसे परमात्मा में और परमात्मा की सृष्टि में क्या कोई भेद है?...ज्यों सूरज अरु धूप! वही है। वही फैला है। सूरज में वही संग्रहीभूत है, केंद्रित है। धूप में वही फैला है, विस्तीर्ण है। यह धूप का जो चंदोवा है उसी का फैलाव है। यह जो विराट अस्तित्व दिखाई पड़ रहा है, यह उसी का फैलाव है। स्रष्टा और सृष्टि में क्या कोई भेद है? नर्तक और नृत्य में क्या कोई भेद है? गायक और गीत में क्या कोई भेद है? एक प्रकट है, एक गृप्त है। गीत प्रकट है, गायक गुप्त है। नृत्य प्रकट है, नर्तक गुप्त है। सृष्टि प्रकट है, स्रष्टा गुप्त है। पर छिपा है कण-कण में।
सहजो हरि बहुरंग है, वही प्रगट वही गूप।
जल पाले में भेद ना, ज्यों सूरज अरु धूप।।
चरणदास गुरु की दया, गयो सकल संदेह।
छूटे वाद-विवाद सब, भयी सहज गति तेह।।
चरणदास गुरु की दया! जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने सदा यही कहा है कि वह अपने प्रयास से नहीं जाना, प्रसाद से जाना है। जानने वालों को जानते ही यह पता चलता है कि हमारा प्रयास तो कितना छोटा है--मुट्ठी से आकाश पकड़ने चले हैं! हमारा प्रयास तो कितना छोटा है--बूंद सागर होने चली है! हमारे प्रयास से ही अगर होता हो, तो कभी हो ही न सकेगा।
एक बात ठीक से समझ लेना।
अगर तुम्हारे प्रयास से ही परमात्मा मिलता हो, तो कभी न मिल सकेगा। तुम तो प्रयास भी करोगे तो गलत करोगे। तुम गलत हो। तुम जाओगे भी तो गलत राह में जाओगे। तुम्हारे भीतर गलत वासना भरी है। तुम जो भी करोगे वह गलत होगा, क्योंकि तुम अभी गलत हो। गलत से सही तो होगा भी कैसे? अगर गलत से सही हो जाए, तब तो फिर सही होने की कोई जरूरत ही न रही। तो मनुष्य जो भी करेगा उससे तो पा न सकेगा। तो दो उपाय हैं। या तो परमात्मा की अनुकंपा हो। लेकिन हमें परमात्मा का भी पता नहीं है। हमें उसकी अनुकंपा भी बरस रही हो, तो उसका हम कैसे उपयोग करें इसका भी पता नहीं है। वह दीया भी जला दे हमारे पास, तो भी हम ऐसे मूढ़ हैं कि हम आंख बंद किए खड़े रहेंगे। वह हमारे द्वार पर दस्तक दे, तो हम कहेंगे, होगा हवा का झोंका। हम उसे पहचान भी न सकेंगे।
परमात्मा की अनुकंपा तो हम पर बरस ही रही है। पर हम पहचान नहीं पाते, हम पकड़ नहीं पाते। जैसे मछली सागर को नहीं देख पाई, ऐसा हम उसे नहीं देख पाते। इसलिए गुरु बहुत महत्वपूर्ण हो गया धर्म की खोज में। क्योंकि गुरु का अर्थ है, जिसे हम देख पाते हैं। गुरु चमत्कार है एक अर्थ में। चमत्कार इस अर्थ में है कि वह तुम्हारे जैसा है, और तुम्हारे जैसा नहीं है। परमात्मा तुमसे बिलकुल अन्यथा है, सेतु नहीं बनता। वह अप्रकट है, तुम प्रकट हो। वह असीम है, तुम सीमित हो। वह निर्विचार है, तुम विचार हो। वह सब कहीं है, तुम कहीं-कहीं हो। तालमेल नहीं बैठता। वह इतना विराट, तुम इतने अणु, कैसे संबंध जुड़े? बूंद कैसे सागर से मिले? गुरु के साथ एक चमत्कार घटता है। वह तुम जैसा है, और तुम जैसा नहीं है। एक तरफ से गुरु बूंद है और एक तरफ से सागर है, इसलिए गुरु इस जगत में सबसे अनूठी घटना है। एक तरफ मनुष्य है, एक तरफ से मनुष्य नहीं है। एक तरफ से उसकी दीवालें हैं, ठीक तुम जैसी, और दूसरी तरफ से उसके द्वार-दरवाजे बिलकुल खुले हैं--खुला आकाश है।
गुरु से संबंध बन सकता है। और गुरु के सहारे धीरे-धीरे परमात्मा से संबंध बन सकता है। इसलिए सहजो कहती है कि हरि को चाहे भुला भी दूं, गुरु को न भुला सकूंगी। क्योंकि उसके बिना हरि से कोई संबंध ही न होता।
चरणदास गुरु की दया, गयो सकल संदेह।
संदेह जाता भी नहीं अपने सोचने से; तुम सोच-सोच के कितनी ही कोशिश करो! तुम्हारा सोचना ऐसा ही है जैसे अपने ही जूते के बंद को पकड़ कर खुद को उठाना। चेष्टा कितनी करो, थोड़ा उछल-कूद भी कर ले सकते हो, लेकिन फिर पाओगे जमीन पर ही खड़े हो। कोई और हाथ चाहिए सहारे के लिए जो तुम्हें उठा ले। और कोई ऐसा हाथ चाहिए जो तुम जैसा हो, जिसे तुम पहचान भी सको--और फिर भी विराट का हो, जिसे तुम पहचान भी लो, लेकिन पूरा न पहचान पाओ। थोड़ा सा पहचान पाओ, थोड़ा सा न पहचान पाओ।
गुरु एक रहस्य है। उसे तुम समझते भी हो और समझ भी नहीं पाते। इसलिए जो सोचते हैं उन्होंने गुरु को समझ लिया, वे भी गलती में हैं; और जो सोचते हैं वे गुरु को बिलकुल नहीं समझ पाए, वे भी गलती में हैं। संबंध तो उनका बनेगा गुरु से जिन्हें लगता है, थोड़ा सा समझ में आता है और थोड़ा सा समझ के बाहर रह जाता है। वह जो थोड़ा सा समझ में आता है, तुम्हें आश्वस्त करेगा। वह जो थोड़ा समझ में नहीं आता, वह तुम्हें तुम्हारे पार ले जाएगा, उससे अतिक्रमण होगा।
चरणदास गुरु की दया, गयो सकल संदेह।
दृष्टि मिली। आंखें खुलीं। गुरु की आंख से पहचाना। संसार खो गया, सत्य दिखाई पड़ा। फिर तो अपनी ही आंख काम आने लगती है। एक दफा शुरू हो जाए। एक बार कोई पहचान करवा दे।
छूटे वाद-विवाद सब,...
फिर न कोई वाद रहा, न कोई विवाद रहा। न कोई नास्तिकता, न कोई आस्तिकता। न कोई हिंदू, न कोई मुसलमान।
...भयी सहज गति तेह।
और उस दिन से गति सहज हो गई। उसके पहले सब उलटा-सुलटा था, उसके पहले सब उलझा-उलझा था। अब गति सहज हो गई है। अब कुछ करना नहीं पड़ता। अब जो भी हो रहा है वही पूजा है, वही प्रार्थना है। जो बोलूं सो हरिकथा! कबीर ने कहा है: खाऊं-पीऊं सो सेवा! मैं खाता-पीता हूं, वह भी परमात्मा की ही सेवा है अब। अब वही है भीतर, वही बाहर है। चलूं-फिरूं परिक्रमा! अब कोई मंदिर-मस्जिद नहीं जाता उसका चक्कर लगाने। अब तो ऐसे ही चलता-फिरता हूं, तो वह भी उसी की परिक्रमा है।
छूटे वाद-विवाद सब, भयी सहज गति तेह।
सहजगति को ठीक से समझ लो, क्योंकि सहजता धर्म का आखिरी फूल है। सहज समाधि। तुम संसार में हो, वहां भी सहज नहीं हो। वहां भी बड़े जटिल हो। कुछ हो, कुछ दिखलाते हो। कुछ हो, कुछ समझाते हो। मंदिर में जाते हो, वहां भी सहज नहीं हो। वहां भी झूठे आंसू बहाते हो। वहां भी दिखावा साथ ले जाते हो। वहां भी पूजा-प्रार्थना करते हो, उसमें भी कोई सचाई नहीं है, सहजता नहीं है। सब तरफ पाखंड है। सब तरफ धोखा-धड़ी है। सब तरफ तुम कोशिश कर रहे हो कुछ बतलाने की, जो तुम नहीं हो। सहजता का अर्थ है: तुम जैसे हो वैसे हो। तुम अपने होने से परिपूर्ण राजी हो गए। अब तो न तुम कुछ छिपाते, न कुछ तुम दिखावा करते। अच्छे हो अच्छे, बुरे हो बुरे। सुंदर हो सुंदर, असुंदर हो असुंदर। जैसे हो उसके साथ एक तारतम्य बैठ गया। क्योंकि तुमने जान लिया कि सहज होना ही परमात्मा के संग होना है। जितने असहज होओगे उतने ही उससे दूर पड़ जाओगे। जितनी चेष्टा करोगे कुछ होने की, उतने ही वास्तविक होने से भटक जाओगे।
लाओत्सु कहता है: जो अति साधारण हैं उनसे असाधारण और कोई भी नहीं है। जो इतने साधारण हैं कि उन्हें पता ही नहीं कि साधारण हैं कि असाधारण हैं।
झेन फकीर बोकोजू से कोई पूछता है कि अब ज्ञान उपलब्ध हो जाने के बाद तुम्हारी साधना क्या है? तो बोकोजू ने कहा: जंगल से लकड़ियां काट कर लाता हूं, कुएं से पानी भरता हूं। भूख लगती है तब भोजन करता हूं। नींद आती है तब सो जाता हूं। बस, इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। पर इतना काफी है। यह है सहज गति।
तुम्हें कठिन होगा। तुम्हें अड़चन होगी। क्योंकि तुम्हारे अहंकार के कारण तुमने अपने महात्माओं के आस-पास भी बड़ी महिमा के जाल रच रखे हैं। वे तुम्हारे अहंकार के कारण हैं। उनके हाथ से चमत्कार होने चाहिए, ताबीज निकलने चाहिए। तुम अपने महात्माओं को भी मदारी बनाए बिना नहीं मानते। और उन्हें अगर महात्मा बनना है तुम्हारा तो मदारी बनने को राजी होना पड़ता है। एक सांठ-गांठ है। तुम कहते हो जब तक मदारी न होओगे तब तक हम महात्मा न मानेंगे। अगर उनको अपने को महात्मा मनवाना है तो मदारी बनना पड़ता है। तब तुम दोनों के बीच एक तारतम्य बैठ जाता है। तुम तो झूठ हो, तुम्हारे गुरु जिनको बनना हो उन्हें भी तुम्हारी शर्तें मनवाने को तुम राजी कर लेते हो। तुम तो पाखंडी हो, तुम्हारे गुरु भी तुम पाखंडी कर लेते हो। इस जगत में एक बड़ा अचंभा होता है, और वह अचंभा यह है कि गुरु के पीछे तो कभी-कभी शिष्य चलते हैं, अधिकतर तो गुरु शिष्य के पीछे चलते हैं। तुम नियम निर्धारण करते हो कि गुरु कैसा व्यवहार करे, कैसा आचरण करे, कब उठे, कब सोए, क्या खाए, क्या पीए! तुम निर्धारण करते हो। श्रावक तय करते हैं मुनि का आचरण।
एक मुनि, जैन मुनि मुझसे मिलने आना चाहते थे। उन्होंने पत्र भेजा कि बड़ी आकांक्षा है, लेकिन श्रावक नहीं आने देते। श्रावक तुम्हें नहीं आने देते? हद हो गई! तुम गुरु हो? वे शिष्य हैं? शिष्य नहीं आने देते गुरु को! क्या कारण होगा? मैंने उन्होंने पुछवाया कि गौर से खोजना, शिष्य तुम्हें नहीं रोक सकते, कारण कुछ और होगा। शर्त है एक। और शर्त वह है कि तुम हमारी मान कर चलोगे तो हम तुम्हारी मान कर चलेंगे। तुम जब तक हमारा अनुसरण करोगे, हम तुम्हारे श्रावक हैं। जिस दिन तुमने हमारा अनुसरण छोड़ा, बात खत्म हुई। और तुम कमजोर हो। इतने सस्ते पर गुरु बने बैठे हो। तुम ध्यान सीखने मेरे पास आना चाहते हो। ध्यान की खोज के लिए भी तुम्हारी इतनी हिम्मत नहीं है? तुम्हारे शिष्य कहते हैं, नहीं। क्योंकि शिष्यों को लगता है--हमारा गुरु और कहीं ध्यान सीखने जाए, तो फिर हम इस गुरु को गुरु मान कर क्या कर रहे हैं? तो शिष्यों के सामने गुरु को बताना पड़ता है कि मैं ध्यानी हूं, तुम्हें ध्यान सिखाऊंगा। और उसे ध्यान का कुछ पता नहीं है। और इतना भी साहस नहीं है, इतनी भी निष्ठा नहीं है जीवन की कि ध्यान की खोज में जाए और जरूरत पड़े तो ध्यान की खोज के लिए गुरुडम भी छोड़ दे। संसार को तुम सिखाते हो, त्याग करो--धन का, दौलत का। तुम क्या पकड़े हो?
मैंने उनको कहा कि छोड़ दो। ध्यान बड़ा है। अनुयायी फिर मिल जाएंगे। और न मिले तो हर्ज क्या है? खबर आई कि आपको पता नहीं है कि मैं बचपन से संन्यासी हो गया हूं। न तो पढ़ा-लिखा हूं। न रोटी-रोजी कमा सकता हूं। न चालीस साल से कोई काम किया है। अगर आज छोड़ दूं तो मैं मुश्किल में पड़ जाऊंगा। तो फिर यह मामला खाने-पीने व्यवस्था-आयोजन का हुआ। न तुम गुरु हो, न वे शिष्य हैं। वे जानते हैं कि तुम्हारी रोटी वे दे रहे हैं, इसलिए तुम्हारे मालिक हैं। और तुम भी जानते हो कि वे तुम्हें रोटी दे रहे हैं, इसलिए तुम चाहे ऊपर बैठे रहो, वह दिखावा है। दूसरों को तुम समझा रहे हो--संसार छोड़ दो। तुम इतना साहस नहीं कर सकते कि इतनी सुरक्षा छोड़ दो! ठीक है, गड्ढे खोदने पड़ेंगे सड़क पर, रोटी तो कमा ही लोगे। इतने लोग कमा रहे हैं। लेकिन वह भी हिम्मत नहीं रही है। तुम्हारे गुरु नपुंसक हो जाते हैं। कोई बल नहीं रह जाता। इतने निर्बल हो जाते हैं। तुम उनको ऊपर बिठाए हो, लेकिन वे सर्फ गुड्डियां हैं। धागे तुम्हारे हाथ में हैं। तुम जैसा नचाओ वैसे नाचते हैं। तुम जो बुलवाओ वैसा बोलते हैं।
सहजगति का अर्थ है: किसी के सामने अब कोई दिखावा न रहा। हम जो हैं उससे हम राजी हैं। और जिस दिन तुम अपने होने से राजी हो, और अपने स्वभाव में लीन हो गए, उस दिन तुम परमात्मा में लीन हो गए। उस दिन मिल गया मछली को सागर। सागर तो पास ही था, बस लीन होने की बात थी। मछली अपने को जान ले तो सागर को जान लिया। क्योंकि मछली वस्तुतः सागर है। तुम जितने सहज हो जाओ उतने ही सिद्ध होने लगते हो। सहजता सिद्धि है। लेकिन तुम महिमामंडित करते हो। चमत्कार होना चाहिए! मेरे पास आ जाते हैं लोग, वे कहते हैं, अगर आप चमत्कार करें तो लाखों लोग आ जाएं! उनको मैं करूंगा क्या, लाखों लोगों को? मैं कोई मदारी नहीं हूं। नहीं, वे कहते हैं, हम तो इसलिए कहते हैं कि उससे लाखों लोगों को लाभ होगा। लाखों लोगों को लाभ होगा होगा तब, हानि तो पहले मुझे हो जाएगी। और अगर मुझे हानि हो गई तो उनको मुझसे लाभ कैसे होगा?
स्वाभाविक है कि अगर तुम सहजता को उपलब्ध हो जाओ तो तुमसे पागल लोग प्रभावित न होंगे। तुमसे केवल वे ही लोग प्रभावित होंगे जो स्वयं भी सहजता की ओर गतिमान हो रहे हैं। पागलों के प्रभावित होने के अपने ढंग हैं। उनके पागल मन को तृप्ति मिलनी चाहिए तब वे प्रभावित होते हैं।
ऐसा बहुत बार हुआ। मैं मुल्क में यात्रा करता रहता था तो रोज ऐसे पागलों से मिलना हो जाता। मैं भी उनको इनकार करूं तो भी वे मानने को राजी नहीं। एक आदमी ने मेरे पैर पकड़ लिए, उसने कहा: आप एक गिलास पानी अपने हाथ से मुझे दे दें। मुझे पक्का भरोसा है कि आपके पानी से मेरा पेटदर्द, आज कोई सात साल, आठ साल से चलता है, वह ठीक हो जाएगा। मैंने कहा: पहले तुम समझ लो, मुझे पेटदर्द होता है! मैं मेरे हाथ से पानी पीता हूं, उससे ठीक नहीं होता। तुम्हारा कैसे ठीक होगा? मुझे भी जरूरत पड़ती है तो डॉक्टर को बुलाना पड़ता है। इसलिए तुम यह फिकर छोड़ो। पर जितना मैंने इनकार किया उतना ही उसे लगा कि मैं आशीर्वाद देना नहीं चाहता। उसने तो और पैर पकड़ लिए। उसने कहा: प्राण जाएं लेकिन अब मैं यहां से हट नहीं सकता। मुझे पक्का है, आप जितना इनकार कर रहे हैं उतना मुझे भरोसा आ रहा है कि जरूर कोई बात है।
फिर मैंने देखा कि यह तो उलटा ही हुआ जा रहा है। इसका भरोसा और बढ़ता जा रहा है। और भरोसे में खतरा है। कहीं पानी पीने से ठीक हो गया, तो खतरा है! न हो तो कोई हर्जा नहीं है, बात खत्म हो गई। तुम्हारा दर्द तुम लिए, हम अपने घर गए। लेकिन अगर कहीं ठीक हो गया, जिसका डर है। तो मैंने कहा: अब इसको दे ही देना उचित है। उसको मैंने पानी दिया। जैसा डर था वैसा हुआ। पानी कर वह बोला: अरे! दर्द गया!
अब यह आदमी पागल है। इसका दर्द झूठ है। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि यह तकलीफ नहीं पा रहा। यह आठ साल से तकलीफ पा रहा है। लेकिन तकलीफ इसकी काल्पनिक है।
फिर तो दो साल बाद जब उस गांव में मैं गया तो पता चला, उसने तो गजब कर दिया है। वह तो जिस गिलास में मैंने उसको पानी पीने दिया था, वह गिलास उसने सम्हाल के रख लिया। वह दूसरों को उसी गिलास से पानी देता है। और उसने मुझे बताया कि आपकी कृपा से न मालूम कितनों को लाभ हो गया।
अब यह जो पागल मन है, पहले बीमारी पैदा करता है, फिर उसी पागलपन से इलाज भी पैदा कर लेता है। इसे कुछ का कुछ दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। अहंकार भीतर सारे रोग की जड़ है। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हमें आपके पास प्रकाश का मंडल दिखाई पड़ गया। तुम्हें कोई आंख की खराबी होगी! कोई धोखाधड़ी हो गई होगी! या तुम बहुत ज्यादा कैलेंडर वगैरह में संतों की तस्वीरें देखते रहे होगे, जिनमें मंडल बना होता है। वह जरूरत से ज्यादा तुम्हारे मन में बैठा गया होगा। उसका प्रक्षेपण कर लिया होगा, मुझे क्षमा करो! वे कहते हैं, हम कैसे मानें? अपनी आंख से देखा है! तुम्हारी आंख अंधी है। तुम्हारे देखने का क्या भरोसा? लेकिन मैं उनको इनकार करूं तो वे मानने को राजी नहीं होते। क्योंकि वे मेरे चरणों में तभी झुक सकते हैं जब उन्हें वह मंडल दिखाई पड़ जाए। वह उनके अहंकार की शर्त है। अगर मंडल दिखाई न पड़े, फिर चरणों में झुकने का क्या मतलब? वे मेरे शिष्य भी तभी हो सकते हैं जब उन्हें सिद्ध हो जाए कि मैं कोई साधारण गुरु नहीं हूं--हाथ से राख झड़ती है, ताबीज निकलते हैं, स्विसमेड घड़ियां निकलती हैं--तब। तब उनके अहंकार को तृप्ति मिलेगी।
पागलों की एक जमात है। यह पागलों की जमात अपने पागलपन को अपने गुरुओं पर भी आरोपित करती रहती है, उसको ही मैं गुरु कहता हूं जो इस तरह के आरोपण न होने दे। तो ही तुम्हारा साथ दे पाएगा, तो ही तुम्हें संदेह के पार ले जा सकेगा। हालांकि सुगम यही है, गुरु के लिए सुविधापूर्ण और कम्फर्टेबल यही है कि तुम जो कहो, वह कहे बिलकुल ठीक। क्योंकि न उसे झंझट होती, न तुम्हें झंझट में पड़ना पड़ता है। दोनों एक झूठे सपने में सम्मिलित हो जाते हैं। तुम्हारा संसार तो झूठा है ही, तुमने अपने सांसारिक मन से झूठे गुरु भी खड़े कर लिए हैं। और तुम उन झूठे गुरुओं से चाहते हो कि सत्य तक पहुंच जाओगे!
सहज को खोजना। परमात्मा सहज में छिपा है। वह बिलकुल सहज है। पौधों, पक्षियों, पशुओं, चांद-तारों, पहाड़ों, झरनों जैसा सहज है। अगर तुम किसी सहज व्यक्ति को कहीं पा जाओ, तो उसका सत्संग मत छोड़ना। आभामंडल देखने की चिंता मत करना। न ही चमत्कारों की आकांक्षा करना।
चरणदास गुरु की दया, गयो सकल संदेह।
छूटे वाद-विवाद सब, भयी सहज गति तेह।।
और सहज में गति हो गई। तुम सहज हो जाओ, तुम सुंदर हो जाओगे। तुम सहज हो जाओ, तुम सत्य हो जाओगे। ‘सहज’ शब्द को तुम परमात्मा का पर्यायवाची समझो। तुम्हारी असहजता कट जाए, सब रोग कटा, सब जाल कटे, संसार कटा। जिस दिन तुम सहज होओ उस दिन तुम्हारे जीवन में वह अमृत की वर्षा हो जाएगी: बिन घन परत फुहार! बिन दामिनि उजियार अति। बिन घन परत फुहार। मगन भयो मनवा तहां, दया निहार निहार!
बस तुम सहज हो जाओ, फिर देर नहीं है। इधर तुम सहज हुए, उधर--बिन दामिनि उजियार अति! फिर बिजली भी नहीं चमकती और प्रकाश ही प्रकाश है। स्रोतरहित प्रकाश है। कहीं से आता नहीं, सदा से है, ऐसा प्रकाश है। बिन घन परत फुहार! आकाश में मेघ नहीं दिखाई पड़ते, और वर्षा होती है। अमृत झरता है। क्योंकि वह अमृत इस अस्तित्व का स्वभाव है। मगन भयो मनवा तहां! और तब तुम नाच उठते हो मग्न होकर, क्योंकि कोई दुख शेष नहीं रह गया। दुख था तुम्हारे अंधेपन में। दुख था तुम्हारे अहंकार में, तुम्हारी असहजता में। गया। मगन भयो मनवा तहां, दया निहार निहार! और अब अनुकंपा को देख-देख कर, निहार-निहार कर, सत्य को चारों तरफ देख कर नाचते हो। मग्न हुए।
बिन घन परत फुहार।
आज इतना ही।