SAHAJOBAI

Bin Ghan Parat Phuhar (बिन घन परत फुहार) 08

Eighth Discourse from the series of 10 discourses - Bin Ghan Parat Phuhar (बिन घन परत फुहार) by Osho. These discourses were given during OCT 01-10 1975.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आपने कहानी कही कि किसी राजा ने कैसे क्रूरता के द्वारा एक आदमी को उसके उदरस्थ सांप से उबारा। हम भी तो वैसे ही मद-मत्सर का सांप उदरस्थ किए बैठे हैं। उससे हमें बचाने के लिए आप भी क्यों नहीं कोई क्रूर उपाय करते?
जो काम सुई से हो जाए उसे तलवार से करने की कोई जरूरत नहीं है। और जो काम सुई से हो सकता है, वह तलवार से करने से हो भी न सकेगा। वस्तुतः सुई के काम को तो तलवार और बिगाड़ देगी। जो कहानियां मैं कहता हूं उनके शब्दों को मत पकड़ना। उनके सार को समझना।
निश्चित ही रोग ने तुम्हें पकड़ा है। लेकिन रोग स्थूल नहीं है, बहुत सूक्ष्म है। सांप तो उदरस्थ हुआ है मोह-मत्सर का, लेकिन शरीर को पीटने से अलग न हो जाएगा। उतनी ही सूक्ष्म प्रक्रिया से गुजरना होगा। सांप अगर साधारण होता, तो राजा ने जो कहानी में किया उससे काम हो सकता था। कोड़े मारे, जबर्दस्ती सड़े फल खिलाए; कंठ तक भर गए फल, उनकी सड़ांध--वमन शुरू हो गई। वह मारता ही गया। उस घबड़ाहट-बेचैनी में, उलटी में फल तो बाहर गिरे ही सांप भी बाहर गिर गया।
इस कहानी को अगर तुम सीधा का सीधा पकड़ लो, और आश्चर्य न होगा कि तुम पकड़ लो, क्योंकि बहुत से तुम्हारे साधु-संन्यासियों ने ऐसे ही पकड़ा हुआ है। रोग भीतर है, शरीर को पीट रहे हैं। बीमारी अंतस में है, आचरण को बदल रहे हैं। अहंकार गहन में छिपा है, धूप में खड़े शरीर को तपा रहे हैं। कोड़े शरीर पर मार रहे हैं। कांटों पर लेटे हैं। और अहंकार ऐसा सूक्ष्म है कि कोई कांटा उसे छू न सकेगा। वरन कांटों पर लेट कर भी वह मजबूत होता रहेगा। तुम्हारे शरीर को पीटने से सांप निकलता होता तब तो बड़ी आसान बात थी। शरीर में सांप नहीं है, सांप मन में है। मन की सूक्ष्म अचेतन पर्तों में है। और अगर तुम समझ सको तो मैं तुमसे कहूंगा कि सांप अगर वास्तविक होता तो भी कुछ आसान बात हो जाती। सांप काल्पनिक है। है नहीं, तुमने माना है कि है। इसलिए बड़े सूक्ष्म उपाय चाहिए।
मैं तुम्हें एक और कहानी कहूं, शायद उससे समझ में आ जाए।
एक आदमी को, रात सोया, सपना आया। सपने में उसने देखा कि वह सांप लील गया है। घबड़ा कर उठ बैठा। सपना इतना वास्तविक था, इतना साकार था, और घबड़ाहट ने इतने जोर से पकड़ा था कि वह चिल्लाने लगा। पत्नी उठी, घर के लोग उठे, उन्होंने बहुत समझाया कि सपना देखा होगा। उसने कहा कि नहीं, सपना नहीं देखा, मैं अनुभव कर रहा हूं अभी भी कि वह भीतर है: उसे मैं पेट में चलता हुआ अनुभव करता हूं।
उसे वमन करवाई गई। कुछ न हुआ, कोई सांप न निकला। सांप होता तो निकलता। लेकिन जब उलटी भी हो गई और सांप न निकला, तो उस आदमी के तर्क ने स्वभावतः कहा कि सांप बहुत गहरे है, यह उलटी ऊपर-ऊपर हो रही है। सांप तो अंतड़ियों में चला गया है। सब उपाय किए गए। चिकित्सक हार गए। एक्सरे लिए गए, सांप न था। लेकिन वह आदमी मानने को राजी न था। वह कहता है, मैं अपने पर भरोसा करूं कि तुम्हारी मशीनों पर? मशीनों से क्या भूल नहीं हो सकती? तुम्हारे विश्लेषण को सुनूं या अपनी प्रतीति को? सांप चल रहा है। मैं उठ नहीं सकता, बैठ नहीं सकता, खा-पी नहीं सकता। वह आदमी करीब-करीब पागल हो गया।
फिर उसे एक मनस्विद के पास ले जाया गया, क्योंकि शरीर में सांप नहीं था, मन में था। उस मनस्विद ने क्या किया? उसने उस आदमी की सारी बातें सुनीं, और कहा कि निश्चित ही सांप है। एक्सरे गलत हो गया होगा, चिकित्सक समझ नहीं पाए। लेकिन मैं तो देख रहा हूं। हाथ फेरा उसके पेट पर, उसने कहा कि सांप है, तुम सही हो। इस चिकित्सक पर उसे भरोसा आया। उसने कहा: आदमी तुम इस गांव में समझदार हो। यद्यपि चिकित्सक झूठ बोल रहा था। क्योंकि झूठ को काटना हो तो झूठ के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।
तुमने कभी सोचा, झूठ को सच से नहीं काटा जा सकता। क्योंकि झूठ और सच का कहीं मेल ही नहीं होता। कटेंगे कैसे? अगर झूठी बीमारी हो तो भूल कर भी एलोपैथी की दवा मत लेना, अन्यथा नुकसान होगा, क्योंकि वह दवा सच है। झूठी बीमारी के लिए होमियोपैथी सही है। वह दवा झूठ है। वह मान्यता की दवा है, मान्यता की बीमारी है। इसलिए होमियोपैथी से कभी किसी को नुकसान नहीं होता। फायदा हो तो हो जाए, नुकसान कभी नहीं होता। क्योंकि नुकसान होने के लिए तो दवा असली होनी चाहिए। वे तो शक्कर की गोलियां हैं। ऐसा नहीं है कि होमियोपैथी काम नहीं करती। करती है, क्योंकि आदमी गड़बड़ है। होमियोपैथी की खूबी नहीं है वह, आदमी की बीमारी की खूबी है। आदमी की सौ मैं से नब्बे बीमारियां झूठ हैं। जो झूठ बीमारी है, उसके लिए सही दवा खतरनाक है। क्योंकि सही दवा कुछ करेगी। और अगर बीमारी न हुई तो तुम्हें काटेगी। अगर बीमारी होती तो बीमारी को काटती। उससे घातक परिणाम हो सकते हैं। जहर है। अगर बीमारी होती तो जहर बीमारी को मिटा देता, लेकिन बीमारी नहीं है तो जहर तुम्हारे शरीर में फैल जाएगा। इसलिए झूठे मरीजों के लिए एलोपैथी नहीं है। झूठे मरीजों के लिए होमियोपैथी। और झूठे मरीज सच्चे मरीजों से ज्यादा हैं। इसलिए दुनिया में एलोपैथी के साथ-साथ होमियोपैथी का काफी प्रचार होना चाहिए। जानते हुए कि दवा झूठी है। पर करोगे क्या? बीमार झूठे हैं। उनको कभी बीमारी हुई नहीं है, और ठीक होने का खयाल है।
उस चिकित्सक ने कहा कि सांप निश्चित है। भरोसा आया। यह आदमी समझदार मालूम हुआ। उस चिकित्सक ने कहा: हम इसे निकाल लेंगे। यह तुम दवा लो, रात भर विश्राम करो, सुबह जब तुम मल-विसर्जन करोगे सांप निकल जाएगा। वह आदमी रात निश्चिंतता से सोया। ठीक चिकित्सक मिल गया तो आधी बीमारी तो वैसे ही ठीक हो जाती है। चिकित्सक ने एक सांप पकड़वाया। और वह आदमी सुबह-सुबह जब मल-विसर्जन के लिए गया तो वह सांप उसके पाखाने में डलवा दिया, उसके पहले। जब वह आदमी बाहर आया, चिकित्सक ने कहा: अब चल कर देखना चाहिए, सांप निश्चित निकल गया होगा। सांप पाया गया पाखाने में पड़ा हुआ। वह आदमी प्रफुल्लित हो गया। उसने कहा कि सब अंतर की बेचैनी चली गई। सांप निकल गया। मगर ये नासमझ कहते थे सांप है ही नहीं।
तुम्हारी बीमारी दूसरी कहानी जैसी है। तुम बीमार हो नहीं, तुम्हें खयाल है। तुम्हें अहंकार का भ्रम है। अहंकार तो हो नहीं सकता। अहंकार तो एक झूठी धारणा है। सिर्फ खयाल है, विचारों की तरंग है। इसलिए ध्यान से मिटेगा, तप से नहीं मिटेगा। इसलिए तो मैं तप के पक्ष में नहीं हूं कि तुम उलटे-सीधे आसन करो, शीर्षासन करो, धूप में खड़े रहो, नाहक शरीर को सताओ, उपवास करो, कोड़े मारो। इससे न मिटेगा। तुम पहली कहानी को जरूरत से ज्यादा पकड़ लिए। दूसरी कहानी को समझो। सूक्ष्म है। सूक्ष्म ही उपाय करना होगा। और सूक्ष्म भी कहना ठीक नहीं है। है ही नहीं। इसलिए कुछ होमियोपैथिक उपाय चाहिए। ध्यान होमियोपैथी है। जो नहीं है, उसको मिटाने की व्यवस्था है। सिर्फ तुम्हें जगाना है। नींद में तुमने जो सपने की तरह देखा है और सच माना है, जागते ही तुम पाओगे वह सच था ही नहीं। उसे मिटाना न था, सिर्फ जानना था।
इसलिए कठोर होने का मेरे पास कोई उपाय नहीं है। तुम चाहोगे कि मैं कठोर हो जाऊं, तुम्हें अच्छा भी लगेगा। क्योंकि तुम्हें लगेगा कुछ हो रहा है। जब मैं तुमसे कहता हूं, ध्यान करो, तभी तुम्हारे भीतर से मेरा संबंध टूट जाता है। तुम कहते हो, ध्यान! कुछ ऐसी बात बताओ जो हम कर सकें। उपवास हम कर सकते हैं। भूखे मरने में क्या कठिनाई है? विचार न करना हो तो मुसीबत है। मैं तुमसे कहता हूं, अहंकार छोड़ दो। तुम कहते हो, यह बड़ा मुश्किल है। कोई ऐसी बात बताओ दान, धर्म, शास्त्र पठन-पाठन, त्याग, तप, हम करेंगे। लेकिन उस सबसे तो तुम्हारा अहंकार ही बढ़ेगा। हां, तुम्हारा अहंकार धार्मिक लिबास पहन लेगा। तुम्हारा अहंकार पवित्र हो जाएगा। लेकिन पवित्र अहंकार और भी खतरनाक है। अपवित्र में तो थोड़ा सा कुछ और भी मिला है। पवित्र तो बिलकुल शुद्ध जहर है। और इसलिए तुम्हारे सब इलाज असफल हो जाते हैं। क्योंकि तुम इलाज तो असली करते हो और बीमारी पर तुमने कभी ध्यान नहीं दिया है कि वह झूठ है।
मैं मुल्ला नसरुद्दीन की दुकान पर बैठा हुआ था। एक आदमी ने आकर खटमल मारने की दवा चाही। नसरुद्दीन ने उसे दवा दी। उस आदमी ने कहा: बड़े मियां, खटमल तो मरेंगे, लेकिन पाप किसको लगेगा? मुझे लगेगा कि तुम्हें लगेगा? दवा तो मैं डालूंगा, दवा बनाई तुमने है। या कि पाप आधा-आधा पड़ेगा? नसरुद्दीन ने कहा: पाप किसी को भी नहीं लगेगा, तुम बेफिकर रहो। उस आदमी ने कहा: मतलब? नसरुद्दीन ने कहा: खटमल मरेंगे तभी पाप लगेगा न? यह दवा शुद्ध भारतीय है। देसी है बिलकुल। ग्रामोद्योग से बनी है। इससे कभी कुछ खटमल मरता नहीं है। यह तो बहाना है।
तुम्हारी तपश्चर्याएं व्यर्थ चली जाती हैं, क्योंकि तुमने यह ठीक से देखा ही नहीं कि तुम किसे मारने चले हो। वह इनसे मरेगा? इनसे उसके मरने का कोई संबंध ही नहीं है। तुम्हारी सब तपश्चर्याएं नुकसान तो पहुंचा सकती हैं भला, मिटा कुछ भी नहीं सकतीं।
मेरा सारा जोर ध्यान पर है। ध्यान का मतलब क्या होता है? ध्यान का मतलब इतना ही होता है: मन को इतना शून्य और शांत कर लेना, ताकि जो तुम देखो उसमें तुम्हारा मन कुछ मिश्रित न कर पाए। अगर तुम गुलाब के फूल को देखो, तो तुम सिर्फ गुलाब के फूल को ही देखो। तुम्हारा मन यह न कह पाए, बड़ा सुंदर है, कितना प्यारा है! या कुछ भी नहीं है यह, इससे अच्छे फूल देखे हैं! तुम्हारा मन कुछ भी न कहे। कोई वक्तव्य न दे। जब तुम्हारा मन वक्तव्य नहीं देता, तब ध्यान है। तब तुम्हारा मन एक निर्मल दर्पण हो जाता है। तब तुम्हें वही दिखाई पड़ता है, जो है। अभी तुम्हें वह दिखाई पड़ता है, जो नहीं है--जो तुम जोड़ते हो। जो तुम्हारा मन अस्तित्व के साथ जोड़ देता है। अभी तुम्हारी मान्यताएं तुम्हें दिखाई पड़ती हैं। तुम्हारी मान्यताएं ही माया हैं। अभी तुम हर जगह वही देख लेते हो जो तुम देखने को तैयार हो।
जब तुम ध्यान से देखोगे, तब चीजें कुछ और हो जाती हैं।
समझो। राह से जाते हो एक आदमी गाली देता है। अभी भी तुम कुछ देखते हो जब वह गाली देता है तो। तुम ऐसा नहीं कि नहीं देखते। तुम देखते हो कि यह आदमी दुष्ट है कि यह आदमी बुरा है कि इस आदमी को दंड मिलना चाहिए। लेकिन जब तुम ध्यान से किसी दिन देखोगे तो शायद तुम्हें पता चले, यह आदमी ठीक है। यह जो कह रहा है यह मेरा वास्तविक वर्णन है, यह गाली नहीं है। इसने कहा, चोर! मैं चोर हूं। तुम झुक कर शायद इस आदमी के पैर पड़ो कि धन्यभाग, आप मिल गए! आपने एक तथ्य की घोषणा कर दी। चोर मैं हूं। तुमने मुझे जगाया। तुमने मुझे होश से भर दिया। मेरा धन्यवाद! और ऐसी ही कृपा करते रहना। जब तुम्हें कोई चीज मुझमें दिखाई पड़ जाए तो बता देना।
मित्र तो वही है जो तुम्हारे दोष को प्रकट कर दे। दुश्मन वही है जो तुम्हारे दोष को ढांक दे।
लेकिन अब तक तुम्हारी परिभाषा अलग है। तुम मित्र उसे कहते हो जो तुम्हारे दोष ढांके। दुश्मन उसे कहते हो जो तुम्हारे दोष उभारे। लेकिन ध्यान की स्थिति में तो बात बदल जाएगी। कबीर ने कहा है: ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन-कुटी छवाय।’ जब भी कहीं कोई निंदक मिल जाए, तुम्हारी निंदा करने वाला मिल जाए, उसे घर ही बुला लेना--कि अब तुम कहीं जाओ मत। यहीं पास ही रहो। यहीं आंगन-कुटी छवा देते हैं, तुम्हारे ठहरने का इंतजाम कर देते हैं। क्योंकि तुम दूर-दूर रहो, कभी-कभी मिलो, न मालूम कितनी चूक जाएं भूलें। तुम पास ही रहो, और तुम नजर मुझ पर रखो, और जब भी तुम्हें कुछ बुराई दिखाई पड़े तो पूरे मन से कह देना, छिपाना मत। सभ्यता-संस्कृति का खयाल मत करना। तुम बिलकुल कठोर होकर साफ-साफ कह देना। क्योंकि तुम्हारे बिना तो मैं भटक जाऊंगा।
‘निंदक नियरे राखिए’--यह ध्यान से देखी गई बात है।
गाली बिना ध्यान के सुनो, तुम उस आदमी को मारने को उतारू हो जाओगे। गाली ध्यान से सुनो, तुम उस आदमी को धन्यवाद दोगे। और जीवन के सभी रूप बदल जाते हैं। जीवन को देखने के दो ढंग हैं। एक विचार से और एक ध्यान से। विचार से देखा गया जीवन संसार है। ध्यान से देखा गया संसार ही परमात्मा है। परमात्मा और संसार दो चीजें नहीं हैं, तुम्हारे देखने के दो ढंग हैं।
मुझे पता है तुम्हारी बीमारी झूठ है। इसलिए तो तुमसे मैं निरंतर कहता हूं कि अगर तुम चाहो तो इसी क्षण परमात्मा को पा सकते हो। एक क्षण भी स्थगित करने की जरूरत नहीं है। अगर बीमारी असली हो, तब तो यह नहीं हो सकता। तब तो समय लगेगा। एक आदमी पड़ा है, बीमार। वस्तुतः बीमार है। तब तो वर्षों लगेंगे इलाज में। चिकित्सा होगी, बीमारी कटेगी। लेकिन एक आदमी सिर्फ सम्मोहित पड़ा है। खयाल है कि बीमार है, है नहीं बीमार। लोगों ने धारणा दे दी है कि बीमार है, है नहीं बीमार।
मेरे एक प्रोफेसर थे। उनसे मेरा बड़ा लगाव था। उनसे मैं एक दिन यही बात कह रहा था। पर उन्होंने मेरी बात मानी नहीं। उन्होंने कहा कि यह कैसे हो सकता है? तुम मुझे कोई झूठी बीमारी पकड़ा के दिखलाओ। मैंने उनसे कुछ कहा नहीं। यह भी नहीं कहा कि पकड़ा कर दिखलाएंगे, क्योंकि उससे भी बाधा पड़ती। मैं--बात आई, गई--भूल गया।
कोई दो-तीन महीने बाद मैंने उनकी पत्नी से जाकर कहा कि तुम एक कृपा करना। सुबह उठते ही उनसे सिर्फ इतना पूछ लेना कि रात नींद नहीं आई क्या? आंखें लाल मालूम पड़ती हैं। जरा हाथ देखूं, बुखार तो नहीं है? और हाथ रख कर देख लेना और कहना, अरे! दो-तीन डिग्री से कम बुखार न होगा। तुम उठा क्यों न लिए रात में मुझे? पत्नी ने कहा: तुम्हारा मतलब क्या? मैंने कहा कि मैं एक प्रयोग कर रहा हूं। तुम कुछ बताना मत। इतनी मुझ पर कृपा करना। चिट लिख कर दे आया कि यह-यह तुम्हें बोलना है। और वे जो कुछ भी कहें चिट के पीछे लिख देना। उसमें शब्द भी मत जोड़ना अपनी तरफ से।
उनके नौकर से कह आया। माली से कह आया। उन सबको चिट दे आया कि वे बाहर जब आएं...तो नौकर से मैंने कहा, तुम बुहारी लगाते उनसे कहना, कि मालिक, कुछ तबीयत ठीक नहीं मालूम होती। वे जो भी कहें तुम लिख लेना। माली से--जब वे दरवाजे के पास युनिवर्सिटी जाने लगे, तो तुम जरा दरवाजे पर आकार कह देना, कि आप चल कुछ डगमगाते से रहे हैं। तबीयत ठीक नहीं है? वे क्या कहते हैं। ऐसा मैं युनिवर्सिटी डिपार्टमेंट तक--उनके चपरासी से, उनके क्लर्क से, सबसे कह आया। रास्ते में पोस्ट आफिस पड़ता था। पोस्ट मास्टर से कह आया कि यहां से निकलें तो उनको जरा इतना तुम पूछ लेना। युनिवर्सिटी तक आते-आते--ज्यादा फासला नहीं था, मुश्किल से आधा मील का फासला था उनके घर से--उनकी आंखें लाल थीं, शरीर कंप रहा था। मैं दरवाजे पर ही मिला। उन्होंने कहा कि सुनो, किसी की कार ले आओ। मेरी गाड़ी तो ठीक हालत में नहीं है। और पैदल अब मैं न जा सकूंगा। बुखार चढ़ा है। रात भर तबीयत खराब रही। वे बाहर ही डिपार्टमेंट के कुर्सी पर बैठ गए, आंख बंद कर ली।
मैं किसी की गाड़ी लाया, उनको बिठा कर उनके घर पहुंचा आया। सांझ गया। वे पड़े थे बिस्तर में। उनका टेम्प्रेचर लिया, एक सौ तीन था। मैं सब चिटें लेकर पहुंचा था। पत्नी ने जब उनसे सुबह पूछा कि आपकी तबीयत ठीक नहीं? उन्होंने कहा: कौन कहता है ठीक नहीं? मैं बिलकुल मजे से सोया रात भर। तुझे भी वहम पकड़ जाते हैं। बाहर नौकर से--उन्होंने कहा कि हां, ज्यादा फासला नहीं है, पत्नी और बाहर के नौकर में। उन्होंने कहा: जरा रात ठीक से नींद नहीं आई। नहीं, तबीयत वगैरह ठीक है। लेकिन उस हिम्मत से इनकार नहीं किया जिस हिम्मत से इनकार पत्नी को किया था। माली से उन्होंने कहा कि हां, थोड़ा सा ताप मालूम पड़ता है। लेकिन कुछ खास नहीं--आया, चला जाएगा। पोस्ट मास्टर से उन्होंने कहा कि सिर में दर्द है। और रात तबीयत जरा ज्यादा ही खराब रही। डिपार्टमेंट के चपरासी से उन्होंने कहा कि हां, रात बहुत तबीयत खराब रही। और आज मैं क्लास न ले सकूंगा। तुम खबर कर देना। और जब वे मुझे मिले, तब तो वे कुर्सी पर एकदम गिर पड़े थे। रात एक सौ तीन डिग्री बुखार था।
मैंने सब चिटें उन्हें बता दीं कि ये-ये आपके वक्तव्य हैं। इनमें कौन सा सच माना जाए। आप धीरे-धीरे बीमारी की तरफ झुकते गए। सुबह आप बिलकुल बीमार नहीं थे। यह पत्नी सामने मौजूद है। वह भी कहती है, यह भी चमत्कार है कि ये कैसे बीमार हुए? क्योंकि उसने सिर्फ दोहराया था। आपका माली मौजूद है, आपका चपरासी मौजूद है, मैं उनको बुला लेता हूं। वे मेरे वचन दोहरा रहे थे। आप बीमार हो गए हैं। बुखार असली है, और बीमारी झूठ है। ताप असली चढ़ा है। आधार बिलकुल झूठ है। मान्यता है। जैसे ही उन्होंने चिटें पढ़ीं--एक के बाद एक--बुखार उतरता गया। जब सारी चिटें पढ़ लीं और उन्होंने सारी स्थिति समझी, वे उठ कर बैठ गए बिस्तर के बाहर। कहा कि देखूं, फिर से थर्मामीटर लाओ। बुखार वापस नार्मल हो गया। यह जो पांच डिग्री का फर्क पड़ा है, यह मान्यता थी। यह असली बुखार होता तो चिटें देखने से ठीक नहीं हो सकता था। यह बुखार नकली था।
इसलिए मैं कहता हूं, तुम परमात्मा को अभी पा सकते हो--इसी क्षण। तुम्हारी धारणा कि तुमने उसे खोया है बस धारणा ही है। कोई खो सकता है परमात्मा को कभी? जो खो जाए वह भी परमात्मा हो सकता है? परमात्मा का अर्थ है तुम्हारा स्वभाव। उसे तुम खोओगे कैसे? दबा सकते हो, ढांक सकते हो, लेकिन मिटा नहीं सकते। स्थगित करने की धारणा तुम्हारे मन में पैदा होती है। तुम कहते हो, जन्म-जन्म तपश्चर्या करेंगे तब पाएंगे, इतनी जल्दी कैसे होगा? यह भी चालबाजी है। यह सिर्फ टालना है। तुम पाना नहीं चाहते। अन्यथा अभी भी तुम्हें कोई रोक नहीं रहा है।
मैं तुम्हें एक फ्रेंच कहानी कहता हूं।
बड़ी पुरानी कहानी है कि एक आदमी के पास बड़ा बगीचा था और एक सरोवर था। उसको सफेद लिली के फूलों से बड़ा प्रेम था। तो उसने अपने सरोवर में सफेद लिली के फूल लगाए। लेकिन लिली बड़ी तेजी से बढ़ती थी--चौबीस घंटे में दुगुनी जगह घेर लेती थी। तो वह थोड़ा घबड़ाया। क्योंकि सरोवर में उसने मछलियां भी पाल रखी थीं। बड़ी सुस्वादु मछलियां। अगर लिली पूरे सरोवर को घेर ले तो मछलियां मर जाएंगी। उनके लिए खुला आकाश, सूरज की रोशनी, हवा, सब चाहिए। अगर लिली पूरे सरोवर को ढांक ले, तो और सब तरह का जीवन सरोवर से नष्ट हो जाएगा। लेकिन उसे लिली के सफेद फूलों से भी बड़ा लगाव था।
वह बड़ा मुश्किल में पड़ा। उसने जाकर एक विशेषज्ञ की सलाह ली कि मैं क्या करूं? विशेषज्ञ ने कहा कि वह लिली चौबीस घंटे में दो गुनी हो जाती है। तुम्हारे सरोवर का माप देख कर मैं कह सकता हूं कि तीस दिन में पूरा सरोवर लिली से ढंग जाएगा। फिर तुम्हें जो करना हो तुम करो। वह आदमी बड़े पशोपेश में पड़ा। लिली के फूल बड़े प्यारे थे। वह लिली को उखाड़ना न चाहता था। मछलियां भी बड़ी सुस्वादु थीं। बड़ी मुश्किल से पाली थीं। बड़ी बेजोड़ मछलियां थीं, दूर-दूर देशों से इकट्ठी की थीं। वे मर न जाएं। तो फिर उसने सोचा, ऐसा करें, अभी कोई जल्दी तो है नहीं, तीस दिन हैं। जब सरोवर आधा डूब जाएगा लिली से तब कुछ करना शुरू करेंगे। तब तक रुकें। तब तक मछलियां भी रहें, फूल भी रहें; कोई हर्जा नहीं है। जब आधा डूब जाएगा तब काटना शुरू करेंगे।
अब कहानी की पहेली यह है कि सरोवर कब आधा डूबेगा? उनतीसवें दिन आधा डूबेगा! यह मत सोचना कि पंद्रह दिन में आधा डूबेगा! लिली आधा--अपने को दुगना करती है रोज--उनतीसवें दिन सरोवर आधा डूबेगा। और तब एक ही दिन बचेगा सफाई करने के लिए। शायद सफाई हो न सकेगी! और यही हुआ। उसने सोचा, आधा डूबेगा तब देख लेंगे। अभी बिगड़ा क्या है? अभी जल्दी क्या है? पहले तो लिली कुछ बहुत ज्यादा बढ़ती मालूम न पड़ी। सरोवर के कोने में बनी रही। उनतीसवें दिन जब वह सुबह जागा, तो उसने देखा, आधा सरोवर हो गया। तब वह थोड़ा घबड़ाया। तब उसे गणित का हिसाब आया। उसने कहा: ये तो मारे गए! यह तो एक ही दिन बचा है अब सफाई के लिए। कहानी कुछ कहती नहीं, सफाई हो पाई कि नहीं हो पाई। लेकिन जीवन में भी यही हो रहा है। तुम सोचते हो अभी जल्दी क्या है? आधा जब जीवन जा चुका होगा तब देख लेंगे। इसीलिए लोग कहते हैं धर्म जवान के लिए थोड़े ही है, बूढ़े के लिए है। लेकिन तब इतनी कम शक्ति बचती है और इतना कम समय बचता है, और जीवन सारा का सारा ढंक जाता है व्यर्थ बोझों से, व्यर्थ विचारों से कि आखिरी क्षण में मरते हुए बिस्तर पर तुम शायद कुछ कर न पाओगे। शायद राम-नाम भी तुम्हारे मुंह से न निकल सके। क्योंकि तुम्हारे मुंह से वही निकल सकता है, जो कंठ में हो। कंठ से वही आ सकता है जो हृदय में हो। जो हृदय में नहीं, कंठ में नहीं, वह मुंह से कैसे निकलेगा? मरते वक्त शायद तुमसे वही निकलेगा जो तुमने जीवन भर अर्जित किया है।
एक आदमी मर रहा था। उसने पूछा आंख खोल कर कि मेरा बड़ा बेटा कहां है? पत्नी ने कहा: वह तुम्हारे पास ही खड़ा है। तुम्हारे पैरों के पास। उससे छोटा कहां है? वह भी पास बैठा था। आदमी की आंखें धुंधली हो गई हैं। सांझ हो रही है और मरने के वह करीब है। उसने टेक लगा कर उठने की कोशिश की, और कहा कि तीसरा बेटा कहां है? पत्नी ने कहा: आप उठने की कोशिश मत करें, वह तुम्हारे बाएं बैठा है। हम सब यहीं मौजूद हैं। कोई कहीं नहीं है, सब यहीं मौजूद हैं।
वह बहुत घबड़ा गया। वह उठ कर बैठ गया और उसने कहा कि इसका मतलब? फिर दुकान पर कौन है? वह मर रहा है! वह यह पूछ भी नहीं रहा है कि बेटे यहां मेरे पास हैं? वह असल में यह पूछ रहा है कि दुकान चल रही है? सब बंद करके तो नहीं आ गए हैं यहीं?
मरते क्षण भी दुकान ही ओंठ पर होगी। अगर सारे जीवन दुकान ओंठ पर रही, स्वाभाविक है। मृत्यु तो वही लाएगी जो तुमने जीवन में कमाया है। मृत्यु तुम्हें वही प्रकट कर देगी जो जीवन भर की तुम्हारी संपदा है, अर्जन है। टालना मत। टालने की तरकीबें हैं बहुत। बड़ी तरकीब यही है कि कोई आज तो परमात्मा मिलना नहीं, कल मिलेगा। इस जन्म में तो मिलना नहीं, अगले जन्म में मिलेगा। तो अभी तो जो तुम कर रहे हो वह करते रहो, थोड़ा-थोड़ा उस तरफ भी यात्रा करते जाओ--कभी उपवास कर लो, कभी मंत्र-जाप कर लो, कभी मंदिर हो जाओ--ऐसे धीरे-धीरे करते-करते कभी मिल जाएगा। तुम भी जानते हो कि तुम पाना नहीं चाहते। क्योंकि मैं तुमसे कहता हूं, अगर पाना है, तो अभी मिलने का उपाय है। ऐसा सोचो मत कि परमात्मा उपलब्ध नहीं है। तुम अभी उसे उपलब्ध होने को तैयार नहीं हो। उसका आकाश तो खुला है, लेकिन तुम अपने द्वार-दरवाजे बंद करके बैठे हो। तुम परमात्मा से भयभीत हो। इसलिए तुम ऐसे सिद्धांतों को मान लेते हो जिनसे स्थगित करने में सुविधा मिलती है। सार? सार इतना है कि तुम एक स्वप्न देख रहे हो कि तुमने परमात्मा को खो दिया है।
इस स्वप्न से जगाना है, होश लाना है। अचानक तुम पाओगे उसे खोया ही नहीं जा सकता। जैसे सागर की मछली सागर को नहीं खो सकती। सागर में ही पैदा होती, सागर में ही जीती, सागर में ही समाप्त होती। फिर भी सागर की मछली तो कभी सागर के बाहर भी फेंक दी जा सकती है। कोई बड़ी लहर फेंक दे, कोई मछुआ खींच ले। लेकिन परमात्मा के बाहर तो तुम फेंके ही नहीं जा सकते। कोई लहर नहीं फेंक सकती, क्योंकि उसके बाहर कोई तट नहीं है। और कोई मछुआ नहीं खींच सकता, क्योंकि उसके अतिरिक्त कोई मछुआ नहीं है।
किसी रेत पर तुम्हें नहीं फेंका जा सकता, क्योंकि उसकी ही रेत है, उसका ही सागर है। परमात्मा के बाहर होने के लिए न तो जगह है, न कोई समय है, न कोई सुविधा है। परमात्मा के भीतर होना एकमात्र होने का ढंग है। फिर तुमने कैसे उसे भूला है? फिर तुम कैसे उससे चूके हो? जरूर तुम्हारी धारणा होगी। खयाल है कि तुम परमात्मा को खो बैठे हो। विचार है। एक मूर्च्छा है।
इसलिए क्रूर उपाय करने की कोई जरूरत नहीं है। बड़ी सीधी सी बात है। छोटी सी सुई से तुम्हारे विचार का बबूला टूट जाएगा। तलवारें उठा कर और बबूले पर हमला करने की कोई जरूरत नहीं। उसमें सिर्फ हमला करने वाला ही पागल सिद्ध होगा। बबूले से ज्यादा नहीं है तुम्हारी स्थिति। तुम्हारा अहंकार पानी का बबूला है। सुई से भी टूट जाएगा। एक फूंक भी हवा की, और फूट जाएगा। आश्चर्य तो यह है कि तुम कैसे उसे सम्हाले हो? आश्चर्य यह नहीं है कि वह क्यों नहीं मिटता। मिट तो अभी सकता है। सम्हाले हो तुम। पानी के बबूले की चादर सम्हाले हो। सम्हाले रहते हो पूरे जिंदगी, यह चमत्कार है।
परमात्मा को जो पा लेते हैं उन्होंने कुछ भी नहीं पाया है। जो मिला था, उसी को जान लिया है। परमात्मा को जिन्होंने खो दिया, उनकी उपलब्धि बड़ी आश्चर्यजनक है। वे चमत्कारी हैं। क्योंकि जो मिला है, उसे जिसे खोया नहीं जा सकता, उन्होंने खोने की भ्रांति बना ली है।
बुद्ध को ज्ञान हुआ तो किसी ने पूछा: क्या मिला? बुद्ध ने कहा: मिला कुछ भी नहीं, उलटा कुछ खो गया। मिला तो वही जो मिला ही हुआ था। उसको मिलना कहना ठीक नहीं है। और जो कभी मिला नहीं था लेकिन खयाल था कि है, वह खो गया। जो नहीं था वह खो गया, जो था वह प्रकट हो गया है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, आपका ही वचन है, हम जो हैं उसे छिपाने में और जो नहीं हैं उसे दिखाने में लगे हैं। अपने अनुभव से मैं कह सकता हूं कि साधारण मनुष्यों के लिए यह बात कितनी सच है। मगर क्या कारण है कि समस्त पशुओं में केवल मनुष्य नाम का पशु इस दिखावे के रोग का शिकार होता है?
मनुष्य भटकता है, क्योंकि पहुंच सकता है। पशु भटकते नहीं, क्योंकि पहुंच नहीं सकते। पहुंचने की संभावना के साथ ही भटकने की संभावना भी खुल जाती है। गिरेगा तो वही जो चढ़ेगा। जो चढ़ेगा ही नहीं, वह गिरेगा भी नहीं। छोटा बच्चा जमीन पर सरकता है, तब गिरता नहीं। लेकिन जब खड़ा होने लगता है, तब गिरता है और घुटने तोड़-तोड़ लेता है। जो खड़ा होगा, वह गिरने की जोखिम लेता है। मगर खड़े होने का मजा ऐसा है कि वह जोखिम लेने जैसी है।
पशु में कोई दिखावा नहीं है। क्योंकि पशु को इतना भी होश नहीं है कि दूसरे को दिखाए कि मैं क्या हूं। उसे पता ही नहीं है। वह बिलकुल अंधेरे में जी रहा है। उसे यह कभी विचार-तरंग भी नहीं उठी कि दूसरे मेरे संबंध में क्या सोचते हैं। मनुष्य उठा है। उठते ही उसे दूसरे भी दिखाई पड़े। दूसरे पहले दिखाई पड़ जाते हैं अपने बजाय। जब भी तुम जागते हो सुबह तो तुमने एक खयाल किया, तुम्हें अपना पता नहीं चलता, पहले कमरा दिखाई पड़ता है, चीजें दिखाई पड़ती हैं--कहां हो। घड़ी दिखाई पड़ती है दीवाल पर। जब तुम सुबह उठते हो तो तुम्हारे बाहर दूध वाले की आवाज सुनाई पड़ती है, पत्नी के बर्तन रखने की आवाज सुनाई पड़ती है, बच्चा स्कूल जाने की तैयारी कर रहा है, उसका बस्ता भरा जा रहा है उसकी आवाज आती है। तुम्हें अपना पता तो नहीं चलता, दूसरी चीजों का पता तत्क्षण चलता है।
मनुष्य जागा है पशुओं से। जागते ही उसे सारी दुनिया का पता चला है। एक और जागरण चाहिए जब उसे अपना पता चलेगा, वही जागरण तो सहजो, कबीर, नानक, दादू, उनको घटा है। एक जागरण है पशु के बाहर। फिर एक और जागरण है--मनुष्य के बाहर। तब पूर्ण जागरण है। पशु से जागना आधा जागना है। पशु से जागने का अर्थ है: दूसरों का तो हमें पता चल रहा है, अपना कोई पता नहीं चल रहा है। अभी आधी-आधी नींद टूटी है। प्रकाश दूसरों पर पड़ रहा है, अपने पर नहीं लौटा है। अगर तुम जागते ही चले गए, तो प्रकाश अपने पर भी लौटेगा। तुम्हें दूसरों की ही आवाज नहीं सुनाई पड़ेगी, अपना भी बोध होगा। वही बोध तो मनुष्य को धार्मिक बनाता है।
पशुओं में कोई दिखावा नहीं है। न तो वे गहने सजाते हैं, न वे वस्त्र पहनते, न वे उत्सव में जाते तैयार होकर। उन्हें पता ही नहीं है कि दूसरे की आंख है कि दूसरे की आंख निर्णय लेती है कि तुम कैसे दिखाई पड़ रहे हो। उन्हें कोई अनुभव नहीं है। वे एक गहन मूर्च्छा में सोए हैं।
पशुओं में और संतों में एक समानता है।
समानता यही है कि पशु गहरी मूर्च्छा में सोए हैं, कोई विजातीय स्वर नहीं है--मूर्च्छा ही मूर्च्छा है। संत में भी कोई विजातीय स्वर नहीं है--जागरण ही जागरण है। पशु इसलिए दिखावे में उत्सुक नहीं है क्योंकि उसे दूसरे का पता नहीं है। संत इसलिए दिखावे में उत्सुक नहीं है क्योंकि उसे अपना पता है। इन दोनों के बीच में आदमी है--त्रिशंकु--मध्य में लटका। आधा पशु है--अंधेरे में डूबा है, आधा जाग गया है--रोशनी हो गई है। वह जो आधा जागा है उससे दूसरे दिखाई पड़ रहे हैं, दूसरे की आंख का निर्णय दिखाई पड़ता है। कोई देख कर प्रसन्न हो जाता है, उसे लगता है हमें स्वीकार किया गया। कोई देख कर मुंह फेर लेता है, उसे लगता है मेरा तिरस्कार किया गया। क्या करूं कि मेरा तिरस्कार न हो? क्या करूं कि मुझे इस तरह की चोटें न पड़ें, लोग मेरा सम्मान करें? क्या करूं कि लोग मुझे प्रेम करें? तो वह दूसरे को देख रहा है। पशु एक तरफ के सुख में हैं, पर वह सुख मूर्च्छित है। उन्हें खुद भी पता नहीं है कि वे सुखी हैं। संत महासुख में है। उसे पता है सुख ही सुख है, और कुछ भी नहीं है।
पशु भी शांत हैं, संत भी शांत हैं। बीच में आदमी है जो अशांत है। आधा पशु, आधा परमात्मा--ऐसी बेचैनी है। आदमी नरसिंह का अवतार है। नरसिंह के अवतार से ज्यादा मूल्यवान प्रतीक हिंदुओं के किसी दूसरे अवतार की धारणा में नहीं है। आधा पशु, आधा मनुष्य। बड़ी बेचैनी है आदमी के भीतर, क्योंकि आधा पत्थर की तरह खींच रहा है मूर्च्छा की तरफ, आधा जाना चाहता है, उड़ना चाहता है आकाश की तरफ। पत्थर उड़ने नहीं देता। उड़ने की आकांक्षा के कारण पत्थर का भी सुख मिल नहीं पाता। पत्थर पड़ा है, सुखी है। पक्षी उड़ रहा है, सुखी है। तुम एक ऐसे पक्षी की कल्पना करो जो आधा पत्थर है, आधा पक्षी। वह तड़फेगा। तुम उसे देखोगे वह तड़प रहा है, उसे कोई चैन नहीं। पत्थर होता तो भी पड़ा रहता एक वृक्ष की छाया में, विश्राम करता, सपने देखता। पूरा पक्षी होता, आकाश में उड़ता, सूरज से मिलने की आकांक्षा बांधता। यह आधा पक्षी, आधा पत्थर। आधा पड़ा है जमीन में, आधा आकाश की तरफ अभीप्सा से भरा है। उड़ नहीं पाता। विश्राम भी नहीं संभव है, उड़ान भी नहीं संभव है। सिर्फ बेचैनी में तड़फता है, फड़फड़ाता है पंख। ऐसा ही आदमी है।
दो उपाय हैं। या तो वापस लौट कर पशु बन जाओ--पूरे पत्थर हो जाओ। या, वह जो पत्थर की तरह अभी अधूरा अटका है उसे भी जगाओ--उसमें भी पंख लग जाएं, उसे भी पक्षी बना लो।
अधिक लोग पत्थर बनने की तरफ झुकते हैं। यद्यपि वह संभावना संभव नहीं है, वह मात्र धोखा है। वह रास्ता कहीं ले जाता नहीं। शराब पीने वाला क्या कर रहा है? वह यही कह रहा है कि भूल जाऊं ये पंख, और यह आकाश, और यह सूर्य। यह उड़ने की अभीप्सा भूल जाऊं। जैसा हूं, ठीक। पत्थर बना रह जाऊं। तो शराबी को तुम रास्ते पर नाली में पड़ा हुआ देख रहे हो। उड़ने की तो बात दूर, चलने की भी आकांक्षा नहीं रह गई। दूसरे की फिकर की तो बात ही और किसी की कोई फिकर का सवाल ही नहीं रहा है। कुत्ता उसका मुंह चाटता रहे, उसे मतलब नहीं है। मक्खियां भिनभिनाती रहें उसके ऊपर, उसे मतलब नहीं है। लोग निंदा करते हुए पास से गुजरते जाएं, उसे मतलब नहीं। उसे कुछ सुनाई ही नहीं पड़ रहा। उसने वह जो पंख वाला आधा हिस्सा था उसको शराब पीकर बेहोश कर लिया। लेकिन कितनी देर बेहोश रहोगे? सुबह होगी, होश आएगा। तब बड़ी निंदा से मन भरेगा। तब तुम और भी ज्यादा पछताओगे, जितने तुम कभी भी न पछताए थे। तब तुम्हें और भी पीड़ा पकड़ेगी कि यह मैं क्या कर रहा हूं? यह मुझसे क्या हो रहा है? उस पीड़ा के कारण, उस बेचैनी के कारण तुम और दूसरे दिन और ज्यादा शराब पीओगे। क्योंकि अब उस बेचैनी को डुबाने का और कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ता। एक दुष्चक्र पैदा होगा। भुलाने के लिए शराब पीओगे। होश में जब आओगे तब पीड़ा और भी गहन हो जाएगी, संताप और भी पकड़ेगा कि मैं क्या कर रहा हूं अपने जीवन का? तब इस चिंता को भुलाने के लिए और शराब पीओगे। फिर इसका कोई अंत नहीं है।
शराब और ध्यान--जैसा मैंने कहा, पशुओं और संतों में एक तरह की समानता है--वैसी समानता शराब और ध्यान में भी है। शराब पीछे लौटना है, ध्यान आगे जाना है। शराब पत्थर के साथ राजी होना है, ध्यान पत्थर को भी पक्षी बना लेना है। इसलिए समस्त ध्यानियों ने शराब का विरोध किया है। उसका और कोई कारण नहीं है। कोई शराब से दुश्मनी नहीं है। शराब से क्या देना-देना है? समस्त ध्यानियों ने शराब का विरोध किया है। उस विरोध का इतना ही कारण है कि तुम पीछे जाने की कोशिश कर रहे हो, जो हो ही नहीं सकती। तुम असंभव को संभव बनाने में लगे हो। इस जगत में जो जान लिया गया उसे भुलाया नहीं जा सकता। जितना ज्ञान हो गया उसे मिटाया नहीं जा सकता। जो अनुभव में आ गया उसे अनुभव में बाहर फेंकने का कोई उपाय नहीं है। पीछे लौटना होता ही नहीं। बच्चा जवान हो गया, फिर उसको बच्चा कैसे करोगे? तुम गर्भ के बाहर आ गए, फिर तुम्हें गर्भ में कैसे रखा जा सकेगा? जीवन आगे की तरफ ही जाता है। पीछे की तरफ कोई सीढ़ी नहीं है। इसलिए ध्यानी शराब के विरोध में हैं। वह विरोध शराब का नहीं है। वह विरोध तुम्हारी इस चेष्टा का है कि तुम पीछे गिरना चाहते हो। और गिर सकते नहीं, उठना पड़ेगा। और हर बार तुम उठोगे तो और भी ज्यादा लड़खड़ा जाओगे, चलना मुश्किल हो जाएगा। गिरना संभव नहीं होगा, पीछे लौट न सकोगे, आगे जाना असंभव होने लगेगा, तब तुम्हारी दुविधा भयंकर हो जाएगी। तुम्हारे भीतर संताप और तनाव भारी होगा। तुम खंड-खंड हो जाओगे। जिसको सहजो ने कहा है चित्त-भंग। तुम्हारा चित्त खंडित हो जाएगा, तुम्हारा दर्पण टूट-फूट जाएगा। फिर उस टूटे-फूटे दर्पण में तुम सत्य की छाया भी न पा सकोगे। फिर परमात्मा के सामने तुम प्रतिबिंब भी न बना सकोगे।
ध्यान भी शराब है। होश की शराब है। बेहोशी की एक मस्ती है, लेकिन होश की मस्ती से उसकी क्या तुलना करोगे! होश की भी एक मस्ती है।
कहती है सहजो: पांव पड़ै कित कै किती, हरि संभाल तब लेह।
एक होश की मस्ती है कि पैर कहीं से कहीं पड़ रहे हैं। परमात्मा सम्हालता है। अब खुद तो सम्हालने वाला कोई बचा ही नहीं। ध्यानी भी मस्ती में डोलता है, नाचता है। शराबी भी डोलता है, नाचता है। लेकिन ध्यानी के नाच में तुम सुरभि पाओगे अज्ञात की, सुगंध पाओगे सत्य की। शराबी के नाच में तुम दुर्गंध पाओगे बेहोशी की, तंद्रा की, मूर्च्छा की। बड़ा फर्क है। शराबी ऐसे है जैसे सड़ गया फूल। ध्यानी ऐसे है जैसे खिल गई कली--अपने पूर्ण निखार पर आ गई।
ठीक है सवाल कि मनुष्य ही दिखावे में उत्सुक है। क्योंकि मनुष्य थोड़ा जाग गया है, पशु सोए हैं। इसे तुम दुर्भाग्य मत समझो। यह सौभाग्य है। यह संतत्व की तरफ पहला कदम है। यद्यपि इसी को तुम सब मत समझ लेना। इसी पर रुक मत जाना। अन्यथा यह दुर्भाग्य हो जाएगा। सीढ़ी चढ़ाती है, अगर तुम छोड़ते जाओ। एक पायदान पर पैर रखो, छोड़ो, तो सीढ़ी सौभाग्य है। लेकिन सीढ़ी के पायदान को पकड़ कर बैठ जाओ तो सीढ़ी दुर्भाग्य है। फिर वह तुम्हें कहीं का न रखेगी। न नीचे के रहे, न ऊपर के। न घर के, न घाट के।
दिखावे की आकांक्षा सुंदर होने की आकांक्षा का पहला कदम है। अभी उत्सुकता इसमें है कि दूसरे तुम्हें सुंदर जानें। थोड़े और जागोगे तब उत्सुकता इसमें होगी कि मैं सुंदर होऊं। दूसरे जाने या न जानें, इससे क्या लेना-देना है। क्योंकि सुंदर होना इतना सुखद है। मेरे भीतर एक शांति हो। दूसरे जानें या न जानें, इससे क्या लेना-देना है। मैं भीतर अशांत होऊं और तुम जानते रहो कि मैं शांत हूं, इससे मुझे क्या मिलेगा? इससे क्या सार है? इससे मेरी अशांति कटती नहीं, घटती नहीं। बल्कि मेरे भीतर और एक उपद्रव खड़ा हो जाता है कि भीतर अशांति चलती है, बाहर से शांति को थोपने की चेष्टा करता हूं। अशांत तक होने की शांति नहीं रह जाती कि अशांति भी प्रकट कर दूं। वह भी नहीं हो सकता। अब क्रोध उठता है, मैं मुस्कुराता हूं कि यह क्रोध किसी को पता न चल जाए। कहीं यह न पता चल जाए कि मैं क्रोधी हूं। तो क्रोध की अशांति तो चल ही रही है भीतर, अब यह मुस्कुराहट को और थोपना है। यह झूठी मुस्कुराहट और अशांत कर देती है।
दूसरे को दिखावे से तो कुछ सार नहीं है। लेकिन सीढ़ी का एक पायदान है। दूसरे को दिखाने का इतना ही अर्थ है कि तुम्हें होश थोड़ा आया है कि सुंदर होना चाहिए, शांत होना चाहिए, आनंदित होना चाहिए, स्वस्थ होना चाहिए। होश थोड़ा आया है कि भीतर परमात्मा की वीणा बजनी चाहिए। यह होश अच्छा है। इसे आगे ले चलो। धीरे-धीरे तुम पाओगे कि यह होश तुम्हें उस जगह ले आएगा जहां तुम भीतर सुंदर को जगाओगे, बाहर की चिंता छोड़ दोगे। भीतर शांति को निर्मित करोगे, बाहर की चिंता छोड़ दोगे। अंतस को रूपांतरित करोगे, आचरण की फिकर भूल जाओगे। और आचरण तो अपने आप छाया की तरह पीछे चला आता है। बुद्ध ने कहा है, जैसे गाड़ी चलती है तो चाक के निशान पीछे छूटते चले जाते हैं, ऐसे ही जब भीतर की अंतरक्रांति होती है तो तुम्हारे जीवन में आचरण पीछे आता है। जैसे गाड़ी के पीछे चके के निशान आते हैं। एस धम्मो सनंतनो! ऐसा ही सनातन धर्म है। ऐसा ही सदा का नियम है। जब भीतर बदल जाता है तो बाहर कैसे बिना बदला रहेगा। जब तुम अंतस में सुंदर हो जाते हो तो उस सौंदर्य की किरणें तुम्हारे जीवन में सब तरफ प्रकट होने लगती हैं। अन्यथा असंभव है। जब घर का दीया जलेगा तो खिड़की से, रंध्र से, द्वार से रोशनी बाहर भी पड़ने लगेगी। दूर से भी लोग देख लेंगे कि घर के भीतर दीया जला है। अंधेरे में भी रोशनी उनके रास्ते तक पहुंच जाएगी।
जब भीतर की चेतना जगती है तो आचरण अपने आप बदल जाता है। वह तो बाहर जाती रोशनी है। लेकिन तुम उलटा काम कर रहे हो। भीतर तो दीया अंधेरा है, तुम रोशनी को चिपका रहे हो--खिड़की में, दीवाल पर, बाहर--कि लोगों को पता चल जाए कि घर अंधेरा नहीं है। रोशनी चिपका रहे हो बाहर। इस चिपकाने के कारण तुम्हारे भीतर का अंधेरा तो मिटता ही नहीं, और भी अंधेरा मालूम होता है। तुम और भी चिंता में डूबते चले जाते हो। तुम्हारा जीवन नरक हो जाता है। नहीं, आकांक्षा तो शुभ है कि तुम सुंदर होना चाहते हो। उसने जरा गलत पहलू पकड़ लिया है। तुम दूसरे की आंख में सुंदर होना चाहते हो, यह गलत पहलू है। यह अधार्मिक आदमी की दृष्टि है। धार्मिक आदमी भी सुंदर होना चाहता है, लेकिन दूसरे से प्रयोजन नहीं है। वह अपनी आंख बंद करता है और भीतर उस परम सौंदर्य की प्रतिमा को निहारता है। उसमें डूबता है, रसलीन होता है।
अच्छा है कि तुम पशु नहीं रहे। लेकिन जैसे तुम अभी हो अगर ऐसे ही रहे, तो तुम्हारे मन में पशु से भी ईर्ष्या पैदा होगी। क्योंकि पुराना घर छूट गया, नया घर मिला नहीं। पशुता का सुख था वह खो गया, और परमात्मा का सुख मिला नहीं। बीच में लटके रह गए। यह तो अच्छा ही हुआ कि पिछला घर छूट गया। अब नये को बनाओ। और पुराने में लौटने की कल्पना मत करो। उसमें कभी कोई सफल नहीं हो पाया है।
अधार्मिक आदमी असफल आदमी है। वह कभी सफल हो ही नहीं सकता। उसकी प्रक्रिया धर्म के अनुकूल नहीं है, नियम के अनुकूल नहीं है। वह विपरीत चलने की कोशिश कर रहा है। वह बूढ़ा है तो जवान होने की कोशिश कर रहा है। जवान है तो बच्चा होने की कोशिश कर रहा है। वह उलटा जा रहा है। वह कहीं जा न पाएगा। वह इस जाने की चेष्टा में ही नष्ट हो जाता है।
सौभाग्यशाली हो कि तुम्हें सौंदर्य का बोध उठा। इस बोध को और बढ़ाओ। तब तुम भीतर सुंदर होने की चेष्टा करोगे--आभूषण से नहीं, अंतर्तम से। वस्त्र न बदलोगे। वह जो भीतर का चैतन्य है, उसे बदलोगे। कौन क्या कहता है, यह फिकर भूल जाओगे तुम। तुम क्या हो उसका आनंद इतना गहन है, कौन चिंता करता है लोगों के मंतव्य की। तुम्हारे पास हीरा है, तो कबीर कहते हैं: ‘हीरा पायो गांठ गठियायो’--चुपचाप गांठ बांधी और भागे। फिर कौन फिकर करता है दिखाने की बाजार में।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन जिस गांव में रहता था--छोटा गांव। गांव का एक पुराना रिवाज था कि अगर किसी को किसी की कोई चीज पड़ी हुई मिल जाए, तो वह बाजार में जाकर तीन बार जोर से चिल्ला कर ऐलान करे कि मुझे एक हीरा मिल गया है, या एक रुपया मिल गया है, या सौ का नोट मिल गया। किसी का हो तो वह ले ले। तीन बार घोषणा कर दे। अगर कोई न आए, तो फिर वह उसका मालिक। अगर कोई कह दे कि मेरा है, तो वह उसे दे दिया जाए।
मुल्ला नसरुद्दीन को एक हीरा मिल गया। नियम के अनुसार वह बाजार गया। उसने तीन बार घोषणा की कि मुझे हीरा मिल गया है। जिसका हो ले जाए। कोई भी न आया। हीरा रख कर घर आ गया। पत्नी ने पूछा: आधी रात कहां गए थे? उसने कहा: बाजार गया था। आधी रात! तब बाजार में कोई था ही नहीं। जब सब सो चुके थे। तब वह बाजार पहुंचा। नियम का उसने पालन किया। और तीन बार धीरे-धीरे कि उसको खुद भी सुनाई न पड़ता था क्या कह रहा है कि मुझे हीरा मिला है। डर कि कहीं कोई रात में भी, कोई भिखमंगा, कोई इधर-उधर पड़ा हो, सोया हो, कोई दुकानदार जग रहा है--कहने लगे मेरा है। इतने धीमे उसने कहा कि उसको खुद ही मुश्किल से सुनाई पड़ा कि वह क्या कह रहा है। और घर आकर उसने कहा: अब हम मालिक हैं। जब हीरा मिल जाए तो ऐसी ही दशा होती है। कौन फिकर करता है? किसको बताने जाता है? बताने में खतरा ही है।
इसलिए तो सहजो कहती है कि हृदय में ही जपना उसके नाम को। ओंठ से ओंठ को भी पता न चले। खुद को भी पता न चले। सहजो कै करतार! ज्यादा से ज्यादा सहजो को पता चले और कर्ता को पता चले। अच्छा तो यह होगा...हस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं। सहजो कै करतार--या तो सहजो, या करतार--बस दो। ठीक मतलब तो यह होगा कि सहजो कै करतार--अच्छा तो यह होगा कि सहजो को भी पता न चले, बस करतार को ही पता चले।
पता ही किसी को न चले। क्या कहना है। घोषणाएं वे ही करते हैं जिनके पास नहीं है। जिनके पास है, होना ही पर्याप्त घोषणा है। किसी और घोषणा की जरूरत नहीं रह जाती। जब तुम चिल्ला-चिल्ला कर किसी को समझाते हो कि तुम आचरणवान हो, तब तुम भी जानते हो कि तुम आचरणवान नहीं हो। अन्यथा चिल्ला कर घोषणा करने की जरूरत न होती।
अक्सर... बर्ट्रेंड रसल ने अपने एक लेख में लिखा, मुझे बात जमती है। उसने लिखा है कि अगर कहीं भीड़ हो और किसी की चोरी हो जाए, जेब कट जाए, तो जेब जिसने काटी है अगर उसको अपने को बचाना हो, तो सबसे जरूरी काम है कि वह सबसे ज्यादा शोरगुल मचाए--कि जेब कट गई, किसने काटी है, पकड़ो चोर को! तो लोगों की उस पर नजर ही न जाएगी कि यह भी बेचारा चोर हो सकता है! यह तो संतपुरुष मालूम होता है। चोर को पकड़ने के लिए दौड़ रहा है, भाग रहा है। अक्सर ऐसा होता है, समाज में जो लोग दूसरों के चरित्र की बड़ी निंदा करते हैं, या किसी के चरित्र के ऊपर बड़ा शोरगुल मचाते हैं, वे वे ही लोग हैं जो इस शोरगुल में अपने चरित्र को छिपा लेना चाहता हैं। अगर एक वेश्या पकड़ी जाए तो जो लोग उसे पत्थर मारने पहुंच जाते हैं, अक्सर तो वे वे ही हैं जो उस वेश्या के ग्राहक थे। क्योंकि अब वे सोचते हैं, अगर पत्थर मारने न गए तो गांव-पड़ोस के लोग क्या समझेंगे कि तुम भी वेश्या के ग्राहकों में हो! तो जो बड़े से बड़ा ग्राहक है, तुम सबसे पहले पत्थर मारते हुए पाओगे।
ऐसा जीसस के जीवन में उल्लेख है।
एक वेश्या को लाया गया। और लोगों ने कहा कि हम इसे मार डालेंगे, क्योंकि यहूदी किताबों में लिखा है कि जो स्त्री दुराचरण करे उसे पत्थरों से मार डालना चाहिए। तो जीसस ने कहा कि ठीक लिखा है किताब में, तुम पत्थर से मार डालो। तुम सब पत्थर हाथ में उठा लो। नदी के किनारे जीसस बैठे थे। पत्थर बहुत बड़े थे। उन सबने पत्थर उठा लिए।
जीसस ने कहा: एक बात और सुन लो। पत्थर वही मारे जिसके मन में इस स्त्री के प्रति कामवासना कभी न उठी हो। धीरे-धीरे, पंच-प्रमुख जो आगे खड़े थे वे अपने पत्थर गिरा कर पीछे भीड़ में सरकने लगे। क्योंकि वे ही तो असली ग्राहक थे। कहते हैं, वे लोग चुपचाप भाग गए वहां से। जीसस को अकेला छोड़ दिया उस वेश्या के पास। वह वेश्या रोने लगी। वह जीसस के पैरों पर गिर पड़ी। उसने कहा: मुझे क्षमा करो, मैंने बहुत पाप किया है। जीसस ने कहा: मैं क्षमा करने वाला कौन हूं? और मैं तुझे पापी कहने वाला भी कौन हूं? यह तेरे और तेरे परमात्मा के बीच की बात है। यह निपटारा तू अपने परमात्मा से करना। निंदा तो वही करते हैं जिनका कुछ हाथ होता है। जीसस ने कहा: मैं तो निर्णय करने वाला भी कौन हूं? मैं तो अपने ही को देख लूं, इतना काफी है। तेरे जीवन में बाधा देने वाला मैं कौन हूं? तू जो हो सकी है, जो तू हो सकती थी, हुई है। परमात्मा ने शायद ऐसा ही चाहा हो। यह तेरे और तेरे परमात्मा के बीच की बात है। अगर तुझे लगता है कि गलत किया, अब मत करना। वह भी तुझे लगता है कि गलत किया, तो अब मत करना। तुझे लगता है ठीक, जारी रखना। मैं निर्णय देने वाला कौन? मैं न्यायाधीश नहीं हूं। तुम अपने न्यायाधीशों को अक्सर ग्राहक पाओगे।
अभी मैं एक, अमरीका के एक नगर में घटी घटना पढ़ रहा था। कैलिफोर्निया के नगर सनफ्रांसिस्को में एक जज पर अभी मुकदमा चला, कुछ वर्ष पहले। वह मुकदमा था कि वह जज एक छोटे से क्लब में शराब पिलाने, और वेश्याओं को लाने, और वेश्याओं के दलाल का काम करता था। और बड़ी हैरानी की तो बात यह हुए कि वह सनफ्रांसिस्को का सबसे कठिन न्यायाधीश था, सबसे कठोर न्यायाधीश था। उसने न मालूम कितने वेश्याओं के दलालों को कठोर से कठोर सजाए दी थीं। और लोग उसकी अदालत में मुकदमा चला जाए तो घबड़ाते थे। वह खुद पकड़ा गया उसी धंधे में। तब बड़ी हैरानी हुई। कोई सोच भी नहीं सकता था कि वह जज, और पकड़ा जाएगा। ऐसे काम में कल्पना भी नहीं हो सकती थी। फिर उस पर मुकदमा चला, तो उसी के एक मित्र जज ने उसको कुछ साधारण सी सजा देकर छोड़ने की कोशिश की। बाद में पता चला कि वह भी उसी धंधे में सम्मिलित था।
जिंदगी बड़ी जटिल है। तुम जिनको न्यायाधीश कहते हो, अक्सर तो तुम उनको अपराधियों में श्रेष्ठतम पाओगे। जिनको तुम राजनेता कहते हो, अक्सर तो वे ही कारागृहों में होने चाहिए। लेकिन वे काफी कुशल हैं। वे होशियार हैं। और एक तरकीब वे जानते हैं कि जो काम तुम्हें करना हो तुम उसकी गहरी निंदा करो, कोई शक भी न करेगा कि तुम ऐसा काम कर सकते हो। दूसरे को दिखावा, दूसरे के सामने घोषणा छिपाने का उपाय है। तुम कुछ छिपाना चाहते हो, तभी तुम दूसरे के सामने घोषणा करते हो कि मैं चरित्रवान, कि मैं त्यागी, कि मैं ज्ञानी। तुम कुछ छिपाना चाहते हो।
जो ज्ञान की घोषणा करे, वह अज्ञान को छिपाना चाहता है। जो त्याग की घोषणा करे, वह भोग को छिपाना चाहता है। घोषणा का अर्थ ही है कि उससे विपरीत को तुम छिपाने में लगे हो। लेकिन परमात्मा से तो कुछ छिपेगा न। और लोगों से छिपाने का सार क्या है? तुम भी कल मिट्टी में गिर जाओगे, जिनसे तुमने छिपाया वे भी मिट्टी में गिर जाएंगे। उनकी आंखों की कोई आखिरी मूल्यवत्ता नहीं है। उनके मतों का कोई अर्थ नहीं है। उनके निर्णय की कोई सार्थकता नहीं है। उन्होंने तुम्हें अच्छा कहा या बुरा कहा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारे सामने तुम कैसे हो, यही बात असली है। इसलिए फरीद कहता है: ‘फरीदा जे तू अकलि लतीफ।’ अगर तू सच में होशियार है, होशियारी की घोषणाएं मत करता फिर। अगर तू सच में होशियार है, तो झांक कर अपने गिरेबां में देख। दूसरों के खिलाफ काले अक्षर मत लिख। और दूसरे की निंदा-आलोचना में मत पड़। अपने में ही देख। वहां बुराई से, गहरी से गहरी बुराई तू पाएगा। शक्ति कम है, समय थोड़ा है। उसे मिटा। जाग।
पशु से आदमी जाग आया, यह तो शुभ है। अब आदमी से भी जागे। आदमी तभी पूरा आदमी होता है जब आदमियत का भी अतिक्रमण हो जाता है। धन्य हैं वे मनुष्य, जीसस ने कहा है, जो मनुष्य के ऊपर उठ जाते हैं। नीत्शे का वचन है कि अभागा होगा वह दिन, जिस दिन मनुष्य का तीर मनुष्य के ऊपर उठने की आकांक्षा छोड़ देगा। अभागा होगा वह दिन, जिस दिन मनुष्य की अभीप्सा की प्रत्यंचा पर अतिक्रमण का तीर न चढ़ेगा। जब आदमी आदमी होने से राजी हो जाएगा, अभागा होगा वह दिन! परमात्मा होने से कम पर राजी होना ही मत। उससे कम पर राजी होना अपने ही हाथ से उस सबको गंवाना है जो तुम्हें मिलने को बिलकुल तैयार था। जिसके लिए कुछ भी न करना था, सिर्फ आंख खो
लनी थी। हाथ हिलाना था और जो तुम्हारी मुट्ठी में आ जाता। श्वास लेनी थी और तुम उसकी सुगंध से भर जाते। कुछ भी न करना था--पलक उठानी थी और सूर्य सामने था। तुम उससे वंचित रह जाओगे। थोड़े पर राजी मत हो जाना। आदमी होने पर राजी मत हो जाना। दुनिया में तीन तरह के लोग हैं। एक, जो पशु होने के लिए उत्सुक हैं। दूसरे, जो ज्यादा से ज्यादा आदमी होने के लिए उत्सुक हैं। तीसरे, जो परमात्मा से कम के लिए राजी नहीं हैं। तुम तीसरे तरह के आदमी बनना। क्योंकि तभी जीवन अपनी पराकाष्ठा में खिलता है, जीवन का कमल अपनी परिपूर्ण सुगंध में आकाश में समर्पित होता है।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, आपने बताया कि विज्ञान धर्म पर नहीं पहुंचा सकता, क्योंकि विज्ञान सकारण खोज है। तो क्या धर्म की खोज अकारण की जाती है?
धर्म की खोज भी सकारण की जाती है। लेकिन धर्म की उपलब्धि तब होती है जब अकारण हो जाते हो तुम।
इसे समझने की कोशिश करो।
खोज तो सकारण होती है। नहीं तो खोज ही कैसे शुरू होगी। तुम संसार से ऊब जाते हो। या संसार की व्यर्थता दिखाई पड़ने लगती है; तो तुम सार्थकता की खोज में निकलते हो। संसार का झूठ साफ हो जाता है, तो तुम सत्य के प्रति उत्सुक होते हो; देह की वासनाएं व्यर्थ हो जाती हैं, तो तुम आत्मा की तलाश करते हो। सोचते हो, शायद आनंद यहां नहीं मिला, वहां मिले। शांति यहां न पाई, वहां मिले। यहां सब क्षणभंगुर पाया, शायद शाश्वत से वहां संबंध हो जाए। सकारण ही तुम खोज पर निकलते हो। खोज पर तो सकारण ही निकलोगे।
खोज का अर्थ ही सकारण होता है।
खोज का मतलब ही यह है, कुछ खोजने निकलते हैं। कुछ खोजने निकले हैं, मतलब कुछ लोभ से निकले हैं, कुछ पाने की अभीप्सा है, प्यास है। लेकिन खोज की शुरुआत तो बिलकुल ठीक है, सकारण है। लेकिन खोज का अंत अकारण होता है। खोजते-खोजते तुम एक दिन ऐसी घड़ी में पहुंच जाते हो, जहां तुम पाते हो कि अब खोज ही बाधा बन रही है। खोजते-खोजते तुम एक ऐसी जगह आते हो, जहां तुम पाते हो कि यह आनंद की खोज ही दुख का कारण है। संसार में खोजते थे आनंद को, वहां न पाया। अब परमात्मा में खोज रहे हैं, वहां भी नहीं मिल रहा है। पर यह तो बड़े अनुभव से पता चलता है कि आनंद की खोज, आनंद की तृष्णा, आनंद की वासना ही दुख का कारण है। जिस दिन यह बोध होता है उस दिन खोज भी विदा हो जाती है। उस दिन तुम खोजने नहीं जाते। खोज भी गिर जाती है। संसार की पहले गिर गई, अब परमात्मा की भी गिर जाती है। और जिस क्षण कोई खोज नहीं होती, अचानक तुम पाते हो स्वर उठ रहा है भीतर आनंद का। बिन घन परत फुहार! अब कोई बादल भी नहीं हैं और वर्षा हो रही है। जो खोजेगा नहीं, वह तो कभी पहुंचेगा नहीं। जो खोजता ही रहेगा, वह भी कभी नहीं पहुंचता है। इस जटिलता को समझो। खोजने वाला पहुंच सकता है। नहीं खोजने वाला तो पहुंचेगा कैसे? लेकिन खोजने वाला भी अंततः खोज के कारण नहीं पहुंचता, खोज को भी खो देता है तब पहुंचता है। हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराई। खोजने निकले थे। जिसको खोजने निकले थे वह तो मिला नहीं कबीर, उलटे कबीर ही खो गए--हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराई; तब हुआ मिलन।
लाओत्सु कहता है: खोजो और तुम भटक जाओगे। मगर यह आगे की बात है। यह उनके लिए नहीं है जिन्होंने खोज ही शुरू नहीं की। यह उनके लिए है जिन्होंने खोज खूब कर ली, अब खोज से भी थक गए। उनसे लाओत्सु कह रहा है, खोजो और भटक जाओगे। पाना है, खोज भी छोड़ दो। मगर ध्यान रखना, खोज तुम तभी छोड़ पाओगे जब तुमने खोज की हो, ज्यादा अक्लमंदी मत दिखाना कि जब खोज ही छोड़नी है, तो खोज करनी ही क्या? फिर हम वैसे ही बैठे रहें! दुकान पर ही बैठे अपना काम कर रहे हैं। कहां पंचायत में पड़ो? और यह पंचायत तो बड़ी जाल मालूम पड़ती है। पहले खोजो, फिर खोज को भी छोड़ो।
बुद्ध ने छह वर्ष तक खोज की। बड़ी कठोर खोज की। फिर एक दिन पाया, कुछ मिलता नहीं खोज से। थक गए। न कहीं सत्य का कोई अनुभव, न कहीं कोई परमात्मा की झलक, न कहीं आत्मा का कोई स्मरण, कुछ भी नहीं मिलता। इतने थक गए--आत्यंतिक रूप से थक गए--कि खोज गिर गई। उस सांझ वृक्ष के तले सो गए। उस रात कोई स्वप्न भी न आया। क्योंकि स्वप्न भी जब तुम कुछ खोजते हो तभी आता है। धन खोजते हो, धन का स्वप्न आता है। कृष्ण को खोजने लगो, वे मुरली बजाते हुए खड़े हैं--उनका सपना आने लगता है। क्राइस्ट को खोजो, वे सूली पर लटके दिखाई देने लगते हैं। जो खोजो वह सपने में झलकने लगता है। सपना तुम्हारी वासना की खबर देता है। सपना थर्मामीटर है। वह बताता है तुम क्या खोज रहे हो।
इसलिए मनोविज्ञान तुम्हारे सपने की सबसे पहले फिकर करता है। वह तुमसे नहीं पूछता कि तुम्हारी क्या तकलीफ है। वह कहता है तुम्हारे सपने बताओ। क्योंकि तुम तो शायद धोखा भी दे दो। तुम तकलीफ बताने तक में धोखा दे देते हो। तुम इलाज करवाने जाते हो और चिकित्सक को भी धोखा देते हो। उसको भी तुम तकलीफ असली नहीं बताते, नकली तकलीफें बताते हो।
मेरे पास लोग आते हैं, उनकी तकलीफ कुछ है, बताते कुछ हैं। उनको भी शायद पता नहीं है कि वे यह क्या कर रहे हैं? किसको धोखा दे रहे हैं? अगर मुझे अपनी तकलीफ ही नहीं बतानी है, तो समय क्यों खराब करना? लेकिन वे तकलीफ भी कुछ दूसरी बताते हैं। वे तकलीफ भी कुछ ऐसी बताते हैं, जो जंचे। वे तकलीफ कुछ ऐसी बताते हैं जिससे प्रतिष्ठा बढ़े। हो सकता है कामवासना सता रही हो। लेकिन वह तकलीफ नहीं बताते। वह तकलीफ बताने में घबड़ाहट है। कोई क्या कहेगा? कोई सुन लेगा कि कामवासना सता रही है। उम्र सत्तर साल हो गई, अब कामवासना सता रही है? वह अहंकार के विपरीत पड़ती है। वे तकलीफ नहीं बताते, वे तकलीफ कुछ और बताते हैं। वे कहते हैं, परमात्मा को कैसे पाएं? मन में शांति नहीं है, शांति कैसे आए? मैं उनसे पूछता हूं, पहले अशांति तो बताओ कि अशांति क्या है? शांति की पीछे बात करेंगे। अशांति किस बात की है? वे कहते हैं, सभी तरह की अशांति है; आप तो शांति का उपाय बता दें। अशांति को नहीं छूने देना चाहते। क्योंकि अशांति पता भी चल जाए तो दूसरों को, तो एक प्रतिष्ठा होगी वह टूट न जाए। बीमारी तक बताने में आदमी डरता है। खुद भी जानने में डरता है। फिर तो इलाज कैसे होगा?
मनोवैज्ञानिक तुम क्या कहते हो इस पर भरोसा नहीं करते। इससे ज्यादा आदमी पर गैर-भरोसा और क्या होगा? आदमी की विकृति और क्या होगी? वे कहते हैं, तुम अपने सपने बताओ। हम सपने में से छान-छान कर हिसाब लगाएंगे कि तकलीफ कहां है? तुम भला दिन में कह रहे हो कि हम राम-राम जपते रहते हैं। रात में तुम एक सुंदर स्त्री का सपना देखते हो। वह सपना ज्यादा सही है। वह ज्यादा खबर दे रहा है कि राम-राम जप रहे हो वह तो ठीक है, लेकिन माला के मनकों के बीच से कामना के छेद हैं। माला के मनके भला कुछ हों, उनके भीतर पिरोया हुआ धागा कामना का है। वह ढंका है। ऐसे राम-राम जपते रहते हो, लेकिन राम-राम से कुछ लेना-देना नहीं है। शायद वह भी भीतर के काम को दबाने का एक उपाय है कि जपते रहो राम-राम, ताकि भीतर का कुछ पता न चले। शोरगुल मचाए रहो भीतर, ताकि भीतर का पता न चले। लेकिन भीतर कामवासना कंप रही है, अपने पूरे रोग के साथ। रात सपने में तो प्रकट हो जाएगी। उस वक्त तो तुम न दबा सकोगे। उस वक्त तो मंत्र छूट चुका होगा। उस वक्त तो काम प्रकट हो जाएगा।
तुम चकित होओगे। तुम जिनको साधु कहते हो, अगर उनके तुम सपने देखो, तभी तुम समझ पाओगे कि वे साधु हैं या नहीं। साधुओं के सपने बड़े असाधु होते हैं। असाधुओं के सपने शायद कभी-कभी साधु के भी हों, लेकिन साधु के कभी नहीं होते। जेलखाने में पड़ा हुआ अपराधी शायद कभी-कभी सपना भी देखता है कि संन्यस्त हो जाऊं कि छोड़ दूं सब, बहुत भोग लिया कष्ट। भिक्षा का एक पात्र ले लूं, निकल जाऊं। बुद्ध के मार्ग पर चल पडूं कि महावीर के? लेकिन जिनको तुम बुद्ध-महावीर के मार्ग पर चलता हुआ पा रहे हो--साधु-संन्यासियों को--उसके पास जाओ, उनसे पूछो कि तुम अपने सपनों की कथा कहो। तो रात वे सपने संसार के देख रहे हैं। दिन में उपवास किया है, रात सम्राट के महल में भोजन के लिए बुलाए गए हैं। सपना भोजन का देख रहे हैं। उपवास करो, तुमको पता चल जाएगा। उस रात सपना तुम भोजन का देखोगे। जब भरे पेट हो, तो कभी-कभी हो भी सकता है कि उपवास का सपना देख लो, कभी-कभी। लेकिन खाली पेट तो भोजन का ही सपना होगा। सपना खबर देता है तुम्हारी असलियत की।
उस रात बुद्ध को कोई सपने न आए। कोई दौड़ ही न बची। संसार तो पहले ही व्यर्थ हो गया था, अब मोक्ष भी व्यर्थ हो गया। संसार तो छोड़ ही चुके थे, निर्वाण भी छूटा आज। अब कुछ पाने को न रहा। इतने थक गए कि दिखाई पड़ा कि कुछ है ही नहीं पाने को यहां। सब दौड़ व्यर्थ है। सब। स्मरण रखना, संसार की दौड़ नहीं, सब दौड़ व्यर्थ है। अध्यात्म की दौड़ भी। उस रात जो परम शांति उपलब्ध हुई...खोज ही बंद हो गई, दौड़ ही बंद हो गई। हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराई। सुबह आंख खुली, भोर का आखिरी तारा डूबता था। कहते हैं उसे देखते-देखते वे परम ज्ञान को उपलब्ध हो गए। वह आंख बड़ी निर्मल रही होगी। सब सपने छूट गए थे; सब विचार, आकांक्षा, भविष्य, तृष्णा, कुछ पाने का खयाल, कुछ भी न बचा था। निर्विकार था मन। कहीं जाने को न था, कुछ होने को न था। कुछ पाने को न था। रुक गया समय। ठहर गई धारा। उसी क्षण सब पा लिया।
तो खोज तो शुरू करनी पड़ती है, और छोड़नी भी पड़ती है। ऐसा ही समझो कि सीढ़ी पर चढ़ना भी पड़ता है और सीढ़ी को छोड़ना भी पड़ता है। तभी तुम एक दूसरे आयाम में प्रवेश करते हो। धर्म की खोज तो सकारण होती है, लेकिन धर्म की उपलब्धि अकारण होती है।

चौथा प्रश्न:
भगवान, आपने कहा, अगर मेरे पास आने का कारण बता सको, तो समझो कि मेरे पास आए ही नहीं। और यदि उत्तर में कंधा उचका दो, तो समझो कि आए हो। मैं न तो ठीक से कारण बताने की स्थिति में हूं, और न यह कहने की स्थिति में ही कि अकारण आ गया हूं। तब कृपया बताए कि मैं कहां हूं?
यह आनंद मैत्रेय जी ने पूछा। यही तो कंधा उचकाना है। न पता कि कारण से आए। न पता है कि अकारण से आए। कंधा उचकाने का और मतलब क्या होता है? पता नहीं है। सुंदर है यह दशा। क्योंकि तुम्हें जो भी पता होगा, वह गलत ही पता होगा। तुम्हारा ज्ञान अज्ञान से ही भरा हुआ होगा। तुम्हारे निर्णय तुम्हारे संदेह पर ही खड़े होंगे। तुम्हारी खोज, तुम्हारी खोज की आकांक्षा तुमसे ही तो उठेगी। और तुम ही गलत हो, तो तुम्हारी खोज सही नहीं हो सकती। यह उचित है कि कोई उत्तर नहीं। यह शुभ है। तब तुम्हारे भीतर जगह खाली है, और उत्तर उतर सकता है।
जो बहुत स्पष्ट हैं कि किसलिए आए हैं, उनकी स्पष्टता ही मुझसे मिलन में बाधा हो जाएगी। क्योंकि तुम स्पष्ट हो ही नहीं सकते। अगर तुम स्पष्ट ही होते तो मेरे पास आने की जरूरत नहीं थी। तुम्हारी स्पष्टता भ्रांत है। लेकिन अगर तुम बहुत स्पष्ट हो, तो वही स्पष्टता बाधा बनेगी। तुम थोड़े तरल हो जाओ, इतने ठोस, इतने स्पष्ट नहीं। तुम कहो, हमें कुछ पता नहीं है। किसी तरह आ गए हैं, टटोलते। साफ नहीं था कहां जा रहे हैं? साफ नहीं था क्यों आ गए हैं? हमें यह भी पता नहीं है कि क्यों यहां रुक गए हैं? क्यों आगे नहीं बढ़ गए? हमें कुछ भी पता नहीं, क्योंकि हम बेहोश हैं।
यह बड़ी शुभ दशा है। इस दशा में कुछ घट सकता है। क्योंकि इस दशा में तुम्हारा अहंकार झूठी बातें तुमसे नहीं कह रहा है। अहंकार असलियत की बात कह रहा है कि बस यहां पाया है कि हम आ गए हैं। जरूर आए होंगे किसी गलत कारण से ही, क्योंकि ठीक कारण अगर हमारे पास होता तो कहीं जाने की कोई जरूरत न थी। अब तो वह भी पक्का नहीं कि वह कारण क्या था! वह भी डांवाडोल हो गया है। तुम अगर मेरे पास ऐसी दशा में हो, जिसको मैं अराजक कहता हूं, केऑटिक कहता हूं, बड़ा शुभ है; क्योंकि अराजकता के बाहर ही सृष्टि होती है। तुम अगर बिलकुल अराजक अवस्था में मेरे पास हो, तुम्हें खुद ही पता नहीं, एक बादल की तरह हो जिसका कोई रूप-आकर नहीं, तो तुम उसी रूप में ढल जाओगे जो रूप तुम्हारे स्वभाव का है। अगर तुम कोई रूप-आकार लेकर आए हो, तो तुम जिद में रहोगे। तुम्हारा आकार ही तुम्हें तरल न होने देगा, तुम्हें बहने न देगा।
मेरे पास कुछ लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, हमें राम का दर्शन करना है। अब उनका राम का दर्शन ही बाधा है। मैं उनसे कहता हूं, तुम राम पर कृपा करो! क्यों उन्हें कष्ट देते हो? नहीं, वे कहते हैं, हमें तो राम का दर्शन करना है। हमें तो धनुर्धारी राम का दर्शन...। तुम्हारे पागलपन की वजह से राम धनुर्धर बने खड़े हैं। कब तक खड़े रखोगे उनको? थक गए होंगे। तुम उनको क्षमा करो! और राम बीच में खड़े हैं मेरे और तुम्हारे। मुश्किल है मामला। तुम मुझे सुन ही न पाओगे। तुम ऐसी बातें सुन लोगे, जो मैंने कही नहीं। तुम ऐसी बातें समझ लोगे, जो मेरे प्रयोजन में न थीं। राम को हटाओ। तुम लक्ष्य लेकर मेरे पास मत खड़े रहो। नहीं, तुम्हारा लक्ष्य ही उपद्रव होगा। तुम कहो, हमें कुछ पता ही नहीं है। हमें पता ही नहीं है कि राम को खाजना है कि बुद्ध को कि कृष्ण को। तुम कहो, हमें कुछ पता नही है। जो कह सकता है कि मुझे कुछ पता नहीं है, उसने पहला कदम उठा लिया उस तरफ जहां सब पता हो जाएगा। अज्ञान की स्वीकृति ज्ञान की पहली किरण है। बालवत, छोटे बच्चे की भांति, जिसे कुछ पता नहीं है। कोई उत्सुकता ले लाई, कोई कुतूहल ले आया, कोई जिज्ञासा ले आई। वह ले आने का काम हो गया उससे, लेकिन वह कोई अंत नहीं है। आ गए यहां उससे। एक लहर ले आई। इस किनारे लग गए, अब तुम मुझ पर छोड़ दो। अब तुम कोई भी आकांक्षा रख कर यहां मत बैठे रहो कि ऐसा होना चाहिए। तब जो होना चाहिए वह हो जाएगा। इसको ही मैं कंधा बिचकाना कहता हूं।

आखिरी सवाल:
भगवान, जहां सहजोबाई की भक्ति-भावना की परिणति अद्वैत में होती है, वहां गोस्वामी तुलसीदास की भक्ति में द्वैत बना रहता है। इस भेद पर प्रकाश डालें।
थोड़ी कठिनाई आएगी तुम्हें समझने में।
धर्म के दो रूप हैं। एक रूप तो है पुराणपंथी धर्म का, सांप्रदायिक धर्म का, जरा-जीर्ण धर्म का, खंडहर हुए धर्म का। और एक रूप है सदा नित-नूतन पैदा होने वाले धर्म का। पहले धर्म को मैं कहता हूं पुरातन। दूसरे धर्म को मैं कहता हूं सनातन। सनातन से मेरा अर्थ प्राचीन नहीं है। सनातन से मेरा अर्थ नित-नवीन है। जो प्रतिपल ओस की तरह ताजा है, खंडहर नहीं है। सुबह के सूरज की भांति नया है। पुराना धर्म स्थिति-स्थापक हो जाता है। वह संप्रदाय बन जाता है। नया धर्म बगावती होता है, विद्रोही होता है। वह स्थिति-स्थापक नहीं होता, अराजक होता है। पुराना धर्म एक तरह की गुलामी बन जाता है, नया धर्म एक तरह की स्वतंत्रता की घोषणा है। और मजा यह है कि सब नये धर्म धीरे-धीरे पुराने बन जाते हैं। और सब पुराने धर्म कभी नये थे। इसलिए जटिलता और बढ़ जाती है।
तुलसीदास पुराने धर्म--पुरातन धर्म--के प्रतीक हैं। उस धर्म के जो कभी नया रहा होगा। कभी राम के साथ नया रहा होगा। वह बात बड़ी पुरानी हो गई। तुलसीदास ज्ञानी हैं, प्रज्ञावान नहीं। पंडित हैं, बुद्ध नहीं। महाकवि हैं, हजार सहजोबाई भी जोड़ दो तो तुलसीदास जैसा कवि पैदा नहीं हो सकता। अनूठे हैं, उनका साहित्य, उनके शब्द, उनकी रचना। पर जाग्रत पुरुष नहीं हैं। करोड़ तुलसीदास जोड़ दो तो भी सहजो के एक वचन की ताजगी नहीं है।
सहजो की बात और। यह खुद जान के आ रही है। यह खुद मूल-स्रोत से उठ रही है। तुलसीदास उधार हैं। इसलिए मैंने तुलसीदास की कभी चर्चा नहीं की। जान कर नहीं की। कई बार मेरे पास मित्र आते हैं, वे कहते हैं, आप कबीर, नानक, दादू और जिनके कभी नाम नहीं सुने--सहजोबाई, दयाबाई--इनकी तक चर्चा करते हैं; गोस्वामी तुलसीदास को क्यों छोड़ देते हैं जो कि भारत के हृदय-हृदय में बसे हैं। जान कर छोड़ देता हूं। यह मुझे पता है कि वे भारत के हृदय-हृदय में बसे हैं। मगर वे बसे गलत कारणों से हैं। वे बसे ही इसलिए हैं कि भारत का जरा-जीर्ण मन, प्राचीन सड़ा हुआ मन उनको बसाए है।
तुलसीदास मृत धर्म के पोषक हैं। वे पंडित हैं, क्रांतिकारी नहीं हैं। अंगार नहीं है उनके भीतर कबीर, सहजो, फरीद की; राख है। कभी अंगारा रहा होगा भीतर; वह राम के समय में रहा होगा। तुलसीदास तो केवल लकीर के फकीर हैं। वे उसको पीट रहे हैं लकीर को। भारत के हृदय में उनकी जगह बन गई, क्योंकि मृत धर्म की जगह अधिक लोगों के मन में बन जाती है। लोग मुर्दा हैं। मुर्दे से मुर्दे का मेल हो जाता है। कबीर की जगह न बन पाई। सहजो की लकीर ही न खिंची। क्योंकि इनकी लकीर खींचनी हो तो तुम्हें भी जीवित होना पड़ेगा। इन्हें अपने हृदय में बसाना हो तो तुम्हें अपने हृदय को ही बदलना पड़ेगा। इनकी शर्त बड़ी महंगी है। तुलसीदास के पद दोहराने में कोई शर्त नहीं है। वह तुम्हारे ही मन को ठीक ढंग से दोहरा रहे हैं। वह तुम्हारी ही अभिव्यक्ति है। तुमसे भिन्न वे कुछ भी नहीं कह रहे हैं। जो तुम मानते हो पहले से, वे उसी को और सुंदर वस्त्रों में प्रस्तुत कर रहे हैं। वे तुम्हें जंचते हैं। उन्होंने तुम्हारी ही बात कह दी।
इसलिए तुलसीदास की रामायण घर-घर में बैठ गई। क्योंकि घर-घर की प्रतिनिधि है वह। भीड़ की प्रतिनिधि है। अंधी भीड़ है। समूह बड़ा है। खुद कुछ पता नहीं है। तुम्हारी जो सनातन से चली आती धारणाएं, मान्यताएं हैं--सदा से चली आती धारणाएं, मान्यताएं हैं--उनको उन्होंने बड़े सुंदर ढंग से प्रतिपादित कर दिया। उन्होंने तुम्हारे मन को मोह लिया। वे कुछ नई बात नहीं कर रहे हैं। वे तुम्हीं को दोहरा रहे हैं।
अगर ठीक से समझो, तो जब तुम्हें तुलसीदास जंचते हैं तो तुम क्रांति से बचने की कोशिश कर रहे हो। वह धर्म की लाश है जिसमें से प्राण का पखेरू कभी का उड़ चुका। इसलिए तुलसीदास को हिंदू-संप्रदाय ने बड़े स्वीकार भाव से, अहोभाव से अंगीकार किया। लेकिन कबीर उपद्रव हैं। सहजो उपद्रव है। नई खबर लाते हैं परमात्मा के घर से। सुबह ताजा-ताजा उनका व्यक्तित्व उठता है। उन्हें तो बहुत थोड़े से लोग ही पहचान पाएंगे। वे ही लोग पहचान पाएंगे जो नये होने की तत्परता और क्षमता रखते हैं। जो उनके साथ आग से गुजरने को राजी हैं। थोड़े से लोग उनके स्वर को पहचान पाएंगे। उनकी बांसुरी के गीत करोड़ों लोगों को नहीं लुभाएंगे। चुने लोग उनकी राह पर चलेंगे। हां, ऐसा हो सकता है कभी कि उनकी लकीर भी पुरानी पड़ जाए। और उसको भी पंडित मिल जाएं, और पंडित उनकी लकीर को पीटने लगें, तो फिर करोड़ों लोग भी उनके साथ हो लेंगे।
अगर धर्म मुर्दा हो जाए तो लोग साथ हो जाते हैं, क्योंकि मुर्दा धर्म से तुम्हें बदलने की जरूरत नहीं होती। बल्कि मुर्दा धर्म तुम्हें बचाता है। बदलता नहीं, बचाता है। तुम्हारी सुरक्षा करता है। जैसे नानक के साथ हुआ। नानक का स्वर क्रांति का स्वर था। लेकिन सिक्ख धर्म का स्वर अब कोई क्रांति का स्वर नहीं है। अब वह एक पिटा-पिटाया धर्म है। नानक ने तो आग जलाई। अब सिक्ख तो वैसे ही हैं जैसे हिंदू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं, बत खत्म हो गई। नानक ने जब क्रांति जगाई तब बहुत थोड़े से लोग--बहुत थोड़े से लोग, अंगुलियों पर गिने जा सकें--उसमें आंदोलित हुए। ‘सिक्ख’ शब्द का जन्म ही ‘शिष्य’ से हुआ। थोड़े से शिष्य मिल गए जो सीखने को राजी थे। जो तैयार थे नानक के साथ जहां ले जाएं जाने को। गहन अंधकार में या प्रकाश में, रात्रि में या दिन में, कोई भी परिणाम हो, उनके साथ जाने को राजी थे। उन थोड़े से शिष्यों से सिक्ख धर्म का सूत्रपात हुआ। लेकिन समय बीतता है। चीजें संगठित होती हैं, संप्रदाय बनता है, पंडित इकट्ठे होते हैं, व्याख्या चलती है, मंदिर-गुरुद्वारे-गिरजे बनते हैं, चीजें थिर हो जाती हैं, जड़ हो जाती हैं। क्रांति की अंगार तो बुझ जाती है, पांडित्य की राख चढ़ जाती है। ध्यान की तो फिकर भूल जाती है, शास्त्र महत्वपूर्ण हो जाता है। नानक जब थे तो नानक महत्वपूर्ण थे, अब गुरुग्रंथ साहिब महत्वपूर्ण है। मूल, निर्विचार, निर्विकार--वह तो खो गया, शब्दों पर जोर है अब। अब लोग बैठे हैं, ग्रंथी बैठे हैं, वे पढ़ रहे हैं। कुशल होंगे पढ़ने में, व्याख्या करने में। गाने में कुशल होंगे। पर नानक की आवाज कहां? अब एक किताब है। किताब तुम पर निर्भर है। तुम जो अर्थ करना चाहो, कर लो। नानक तुम पर निर्भर नहीं हैं। तुम उनका अर्थ वह न कर सकोगे जो चाहोगे। नानक जीवित हैं।
तो गुरु तो खो गया गुरुग्रंथ हाथ में रह जाता है। सभी धर्मों के साथ यही होता है। महावीर के साथ जो चलते हैं उनकी हिम्मत, उनका साहस और! नग्न चलना पड़ेगा। भीड़ के पत्थर खाने पड़ेंगे। अब जैन हैं। अपने मंदिर में बैठ कर पूजा-पाठ कर लेता है, महावीर की वाणी सुन लेता है। कोई फर्क उसकी जिंदगी में इससे नहीं पड़ता। उसने महावीर को मार डाला है। वह महावीर के साथ मर कर स्वयं नया नहीं हुआ। उसने महावीर को ही मार डाला, अपने साथ पुराना कर लिया है।
तुलसीदास स्थिति-स्थापक धर्म के प्रतिपोषक हैं। वह जो मरा-मराया धर्म है। तुलसीदास एक पंडित हैं, और बड़े पंडित हैं। पांडित्य की उनकी महिमा है। लेकिन अनुभव, स्वयं का बोध नहीं। इसलिए तुलसीदास को मैं छोड़ता रहा हूं। जान कर छोड़ता रहा हूं। जिस कारण से लोग तुलसीदास में उत्सुक होते हैं वही कारण मेरा उन्हें छोड़ देने का है। उत्सुक होते हैं कि करोड़ों के हृदयों के सिरताज हैं वे--गांव-गांव में बेपढ़ा-लिखा आदमी भी उनकी चौपाई दोहराता है। इस कारण लोग उनमें उत्सुक होते हैं। उनका नाम है। दुनिया भर की भाषाओं में रामचरित मानस के अनुवाद होते हैं। तुम चकित होओगे जान कर कि रूस जैसे मुल्क में भी अनुवाद हुआ है। तो रूस को तो धर्म से कुछ लेना-देना नहीं। लेकिन तुलसीदास के रामचरित मानस का उसने भी अनुवाद किया है। कबीर को अनुवाद करने में थोड़ा डर लगेगा। रूस के क्रांतिकारियों के लिए भी कबीर बहुत क्रांतिकारी हैं, और रूस के तथाकथित क्रांतिकारियों के लिए भी रामचरित मानस में कोई डर नहीं है। स्थिति-स्थापक बातें हैं। जो है, जैसा चल रहा है, ठीक है। उसे स्वीकार कर लेना है। रूपांतर नहीं।
तुलसीदास हिंदू है। सहजोबाई हिंदू नहीं है। कबीर, नानक न हिंदू हैं, न मुसलमान हैं, न ईसाई हैं। ज्ञानी कभी हिंदू, मुसलमान, ईसाई नहीं हुआ। और भीड़ सदा हिंदू, मुसलमान, ईसाई की है।
भीड़ तो लकीर पर चलती है--राजपथ पर चलती है। संत पगडंडियों पर चलते हैं--घने जंगलों में। खुद ही चलते हैं और रास्ता बनाते हैं। किसी के पिटे-पिटाए रास्ते पर नहीं चलते। संतों के नहिं लेहड़े! संतों की भीड़ नहीं होती। सिंहों के नहिं लेहड़े! सिंहों की भी भीड़ नहीं होती। संत तो अकेला है। अपने अकेलेपन को उपलब्ध हुआ है। अकेलेपन का नाजुक फूल उसके भीतर खिला है, बहुत थोड़े से लोग जो इतनी ऊपर आंखें उठाने को राजी होंगे, वही उस फूल को देख पाएंगे। भीड़ तो संत को इनकार करेगी। क्योंकि भीड़ को तो सदा संत उपद्रव का कारण मालूम पड़ेगा; कि सब ठीक चल रहा है, यह गड़बड़ किए देता है। सब सुविधा बनाई थी, फिर यह एक आदमी खड़ा हो गया, कहने लगा शास्त्रों में क्या रखा है? मंदिरों में क्या रखा है? पूजा-प्रार्थना में क्या रखा है? फिर इसने कुछ नया स्वर उठा दिया। हम किसी तरह व्यवस्था जमा पाता हैं, संत आ जाता है; गड़बड़ कर देता है।
तो संतों में, तुम ध्यान रखना, सभी संत नहीं होते। सरकारी संत संत नहीं होते। सरकारी संत जैसे विनोबा भावे, उनको मैं सरकारी संत कहता हूं। संत नहीं हैं, शुद्ध राजनीतिज्ञ हैं। हिसाब से चलते हैं। और क्या हवा कैसी बह रही है, उसी तरफ पाल तान देते हैं। लोग जो चाहते हैं, लोग जिसको स्वीकार करेंगे, वही कहते हैं। ऐसे संत को मान्यता मिलेगी। सरकार भी मान्यता देगी। बीमार होंगे तो प्रधानमंत्री भी भागे हुए जाएंगे। क्योंकि ऐसा संत राजनीति का हिस्सा है। उसके साथ समाज की आधारशिला मजबूत बनी रहती है, हिलती नहीं। लेकिन कबीर, दादू, फरीद, सहजोबाई, ये तो कंपा देते हैं। ये तो सब आधारशिला मिटा देते हैं। ये तो तुमने जिसे ठीक समझा है उसे गलत कर देते हैं, और जिसको तुमने कभी ठीक नहीं समझा उसकी तुम्हारे भीतर अभीप्सा जगाते हैं। ये तुम्हें तुम्हारे पार ले जाना चाहते हैं। इनका व्यवहार तो सर्जन का होगा। ये तुम्हारे बहुत से अंग काटेंगे। ये मलहम-पट्टी नहीं कर सकते। सरकारी संत मलहम-पट्टी करते हैं। फर्स्ट एड उनका काम है। तुम गिर पड़े, उठा कर मलहम-पट्टी बांध दी। वास्तविक संत तो सर्जन हैं। वे तो शल्य-चिकित्सक हैं। वे तो जो भी गलत पाते हैं उस अंग को काट देंगे। उसके लिए तैयारी चाहिए।
सहजो अद्वैत पर पहुंच जाती है, क्योंकि सहजो का कोई सिद्धांत नहीं है जिसे सिद्ध करना है। सहजो सत्य की खोज में निकली है। अगर सत्य अद्वैत है, तो वही सिद्ध होगा। अगर सत्य एक है, तो वही सिद्ध होगा। लेकिन तुलसीदास सत्य की खोज में नहीं निकले हैं।
तुलसीदास के जीवन में एक घटना है--पता नहीं कहां तक सच हो। लगती है कि सच होगी। कहते हैं मथुरा गए तो कृष्ण के मंदिर में ले जाए गए। तो उन्होंने झुकने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि तब तक न झुकूंगा जब तब धनुषबाण हाथ में न लोगे। क्योंकि कृष्ण वहां बांसुरी लिए खड़े हैं, वह तो राम के भक्त हैं। कृष्ण के सामने कैसे झुक सकते हैं। भक्ति भी इतनी दीन! भक्ति भी इतनी दरित्र! भक्ति भी इतनी ओछी, संकीर्ण कि वे कृष्ण के सामने नहीं झुक सकते, क्योंकि वह तो राम के भक्त हैं! और कहानी भी बड़ी मजेदार है। जिन्होंने गढ़ी होगी, या जिन्होंने बढ़ाई-चढ़ाई होगी, वे भी पागल रहे होंगे। कहानी कहती है कि कृष्ण ने उनको राजी करने के लिए धनुषबाण हाथ लिया। मूर्ति बदली। बांसुरी खो गई, धनुषबाण हाथ में आ गया। राम बन गए कृष्ण, तब वे झुके।
यह तो बड़ा अजीब मामला हुआ। यह तो भगवान के सामने खुद का झुकाना न हुआ, भगवान को अपने सामने झुकाना हुआ। यह तो यह हुआ कि हमारी शर्त पूरी करो, हमारे रंग-रूप में, हमारे सिद्धांत के अनुसार बैठो, तो हम झुकेंगे। यह कोई झुकना हुआ? सशर्त कोई समर्पण होता है? और भगवान ने यह रूप लिया। तो तुलसीदास तो संकीर्ण मालूम पड़े ही इस कथा में, भगवान भी बिलकुल दुकानदार मालूम पड़े। दो कौड़ी के मालूम पड़े। इतनी भी क्या उत्सुकता थी? न झुकते तो तुलसीदास को कुछ हर्जा था? बड़े लोलुप मालूम पड़े। किसी को झुकाने में अति रस मालूम पड़ा कि कोई भी शर्त हो...कोई हर्जा नहीं...चाहे झुकाने के लिए हमको इतना क्यों न झुकना पड़े कि हम धनुषबाण हाथ लेकर खड़े हों; मगर तुम्हारे झुकने में बड़ा रस है।
न तो इसमें परमात्मा परमात्मा मालूम पड़ते और न भक्त भक्त मालूम पड़ता। यह कहानी मनुष्य के अहंकार की कहानी है। इसमें भक्त भी अहंकारी है, परमात्मा भी अहंकारी है।
तुलसीदास द्वैत को मान कर चल रहे हैं। वह एक सिद्धांतवादी हैं। पंडित सदा सिद्धांत के अनुसार चलता है। उसका सिद्धांत तो उसने पहले ही मान रखा है। इसी सिद्धांत को सिद्ध करना है। राम का रूप तो उसने तय कर रखा है कि धनुषबाण होना चाहिए। बस। उसने सिद्ध कर लिया पहले से ही। अब इसी की खोज करनी है। वह सत्य की शुद्ध खोज में नहीं निकला है। सत्य का तो उसे पता ही है। उसने अपने सिद्धांत में सत्य को तो मान ही लिया है। अब इसी मान्यता को उसे सत्य पर आरोपित कर देना है।
एक मनोवैज्ञानिक हैं राजस्थान विश्वविद्यालय में। वे पुनर्जन्म की खोज करते हैं। कोई उन्हें मेरे पास मिलने लिवा लाया। तो उन्होंने कहा कि मैं पुनर्जन्म है इस बात को मनोवैज्ञानिक खोज से सिद्ध करने की कोशिश कर रहा हूं। मैंने उनसे पूछा--सहजता से पूछा तो वे समझ नहीं पाए। मैंने उनसे पूछा: सिद्ध होगा तब होगा, आप मानते हैं कि पुनर्जन्म है? उन्होंने कहा: निश्चित! मैं मानता हूं कि पुनर्जन्म है; और अब मैं सिद्ध करने की कोशिश कर रहा हूं। तो मैंने कहा: अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया आपकी बात सुन कर। बिना सिद्ध किए आपने मान कैसे लिया है कि पुनर्जन्म है? मान तो लिया है पहले। अब सिद्ध कर रहे हैं! तो सिद्ध करना झूठ ही होगा। अब तो आप वही-वही चुन लेंगे जिससे सिद्ध होगा, और वह-वह छोड़ देंगे जिससे सिद्ध न होगा। यह कोई वैज्ञानिक बुद्धि थोड़े ही हुई। यह तो बड़ी पक्षपातग्रस्त बुद्धि है। यह तो एक जज ने मान लिया कि तुम चोर हो, और अब सिद्ध करने बैठा है कि तुम चोर हो। तो जितने प्रमाण आएंगे तुम्हारे चोर होने के, उनको तो लिख लेगा, और जितने प्रमाण आएंगे तुम्हारे चोर न होने के, उनको टाल देगा। जो गवाह कहेगा तुम चोर हो, उसको गवाह मानेगा; और जो कहेगा तुम चोर नहीं हो, उसको विस्मृत कर देगा। यह कोई सिद्ध करने का ढंग हुआ? यह तो वैज्ञानिक बुद्धि न हुई। वे थोड़े बेचैन हुए। क्योंकि उनका दावा है कि वे वैज्ञानिक हैं। पर बड़ी मुश्किल में पड़ गए।
दो तरह से लोग सत्य की खोज में जाते हैं। एक तो जिन्होंने मान लिया पहले से कि सत्य ऐसा है। यह बिना जाने मान लिया। अब सिर्फ सिद्ध करना है। दूसरे वे लोग हैं जो कहते हैं हमें सत्य का कोई पता नहीं। हम जानने निकले हैं: कैसा है तो पता होता, तो जानने की जरूरत ही क्या थी? हम अपने को खोलेंगे, उघाड़ेंगे, साफ करेंगे, शुद्ध करेंगे। हमारी आंख को निर्मल करेंगे, अपने दीये के प्रकाश को बढ़ाएंगे, और देखेंगे कि सत्य कैसा है। फिर जो दिखाई पड़ेगा उसी को मानेंगे।
यह दूसरा वर्ग शुद्ध खोजी है। सहजो शुद्ध खोजी है। तुलसीदास नहीं हैं। तुलसीदास हिंदू हैं। सहजो धार्मिक है। तुलसीदास मान्यता से घिरे हैं। सहजो मान्यता-मुक्त है। इसलिए तुलसीदास द्वैत पर ही रह गए और सहजो अद्वैत पर पहुंच गई है।
जब मैं तुलसीदास, सहजो, या इस तरह के व्यक्तियों की कोई चर्चा करता हूं, तो ध्यान रखना, मेरा कोई प्रयोजन व्यक्तियों से नहीं है। मेरा प्रयोजन तुमसे है। जब मैं तुलसीदास और सहजो की व्याख्या कर रहा हूं, तो मेरा कुल प्रयोजन इतना है--कृपा करके गोस्वामी तुलसीदास मत बनना। बनना ही हो तो सहजो बनना।
मुझे किसी की आलोचना में, समालोचना में कोई रस नहीं है। क्या लेना-देना है? अगर तुमसे कुछ कह रहा हूं तो तुम्हारे लिए कह रहा हूं। क्योंकि तुम्हारे भीतर भी दोनों संभावनाएं हैं। हो सकता है तुम मान्यता के साथ सत्य की खोज में निकले हो। तब तुम्हारी खोज पहले से ही विषाक्त हो गई। सब मान्यताएं छोड़ दो। सत्य की तरफ केवल वे ही जा सकते हैं जो परम नग्नता में, सभी मान्यताओं के वस्त्रों से मुक्त उस तरफ जाते हैं। जो परमात्मा से कहते हैं, जो तू जैसा हो, वैसा ही प्रकट होना। हमारी कोई आकांक्षा नहीं है। हम तुझे तेरे स्वभाव में जानना चाहते हैं। तू जैसा है, वैसा जानना चाहते हैं। हमारा कोई आरोपण नहीं, हमारा कोई आग्रह नहीं। हम कोई प्रतिमा तुझे नहीं देना चाहते कि तू ऐसा प्रकट हो।
कठोर, कठिन होगा यह मार्ग। क्योंकि तुम्हारे अहंकार के लिए कोई स्थान न मिलेगा। तुम्हारे अहंकार के लिए कोई जमीन न मिलेगी। लेकिन जो सत्य की तरफ चला है, उसे अहंकार को छोड़ ही देना पड़ता है। हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराई। जहां तुम खो जाओगे, वहां तुम्हारी मान्यताएं कैसे बचेंगी? तुम्हारा धर्म, संप्रदाय, तुम्हारा शास्त्र कहां बचेगा? हिंदू, मुसलमान, ईसाई कहां बचेगा? जब तुम खो जाओगे तभी तुम जानोगे परमात्मा क्या है? जब तक तुम हो, तब तक परमात्मा नहीं। जब परमात्मा है, तब तुम नहीं हो सकते हो। तुम्हारा न होना ही उसका होना है।
आज इतना ही।

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