SAHAJOBAI
Bin Ghan Parat Phuhar (बिन घन परत फुहार) 06
Sixth Discourse from the series of 10 discourses - Bin Ghan Parat Phuhar (बिन घन परत फुहार) by Osho. These discourses were given during OCT 01-10 1975.
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पहला प्रश्न:
भगवान, बुद्ध शून्यता का आग्रह करते हैं और शंकर पूर्णता का। वे अपने-अपने आग्रह के लिए भारी तर्क और वाद-विवाद भी खड़ा करते हैं। इन्हें सत्य का, परमात्मा का पता है। फिर भी ये दूसरे का खंडन एवं स्वयं का मंडन क्यों करते हैं? और एक आप हैं जो दोनों का एक साथ समर्थन करते हैं, ऐसा क्यों?
बुद्ध ने शून्य से ही परमात्मा को जाना। जैसा उन्होंने जाना, वैसा ही वे दूसरों को भी जना सकते हैं। जिस मार्ग से वे चले, उस पर ही वे तुम्हें भी ले जा सकते हैं। जिस मार्ग से वे स्वयं नहीं चले, उससे तुम्हें ले जाना खतरनाक है। उस पर मार्ग-दर्शन असंभव होगा।
ऐसा नहीं है कि बुद्ध नहीं जानते हैं कि दूसरे मार्ग से भी पहुंचना हो जाता है। लेकिन यह कहना भी कि दूसरे मार्ग से भी पहुंचा जा सकता है, तुम्हारी जो एक मार्ग के प्रति अनन्य श्रद्धा है उसे उखाड़ना है। तुम पर करुणा करके ही दूसरे मार्ग का खंडन करते हैं, क्योंकि तुम वैसे ही बड़ी उलझन में हो। तुम्हारी उलझन यही है कि तुम कोई निष्कर्ष नहीं ले पाते। निष्कर्ष न लेना ही तो तुम्हारा रोग है।
अगर बुद्ध कहें, शून्य से भी पहुंचता है व्यक्ति, पूर्ण से भी पहुंचता है; पूरब से भी, पश्चिम में भी; तो तुम्हारी अनिर्णय की अवस्था में और भी अनिर्णय हो जाएगा। इसलिए बुद्ध जोर देते हैं, शून्य से ही पहुंचता है। और जब वे कहते हैं पूर्ण से नहीं पहुंचता, तो कुल उनका मतलब इतना ही है कि शून्य से ही पहुंचता है। वे पूर्ण के संबंध में कुछ भी नहीं कह रहे हैं। वे सिर्फ इतना कह रहे हैं कि तुम जो सुनने वाले हो, तुम्हारे अनिर्णय को मैं न बढ़ाना चाहूंगा। तुम वैसे ही काफी भटके हो। आग्रहपूर्वक कहते हैं, बस यही मार्ग है; दूसरा मार्ग गलत है। जब तक तुम्हें साफ न हो जाए कि दूसरा गलत है, तब तक तुम इस मार्ग पर कदम ही न रखोगे।
इसलिए ज्ञानियों को बहुत बार उन बातों का खंडन करना पड़ा, जिनका वे खंडन नहीं करना चाहते थे। अज्ञानियों पर करुणा के कारण!
लेकिन अज्ञानी अज्ञानी है। उस पर तुम करुणा करो तो भी वह गलत समझेगा। बुद्ध ने कहा कि शून्य से पहुंच सकते हो। इस बात को तुम्हारे हृदय में मजबूत बिठाने के लिए उन्होंने कहा, पूर्ण से न पहुंच सकोगे; तुमने सुना कि पूर्ण से न पहुंच सकेंगे, इसलिए पूर्ण से जाना तो व्यर्थ है। रही शून्य की बात, जब पूर्ण से ही न पहुंच सकेंगे तो शून्य से क्या पहुंचेंगे! और ये बुद्ध अज्ञानी मालूम पड़ते हैं, क्योंकि विवाद करते हैं, खंडन करते हैं, तर्क देते हैं। ये बुद्ध गलत मालूम पड़ते हैं--अपने को ठीक कहते हैं, दूसरे को गलत कहते हैं। अज्ञानी ने यही सुना। बुद्ध की करुणा से जो निकला, अज्ञानी ने अपनी मूढ़ता में सुना।
एक बड़ी प्राचीन कथा है।
जीसस भागे जा रहे हैं एक खेत के बीच से। उन्हें भागते देख कर खेत का मालिक उनसे पूछने लगा: कहां भागे जाते हैं? और इस तरह भाग रहे हैं, जैसे कोई शेर, सिंह पीछे लगा हो। यहां तो कोई है नहीं, पीछे कोई दिखाई नहीं पड़ता! लेकिन वे इतनी तेजी में हैं कि रुक कर उत्तर भी नहीं दे सकते।
तो वह आदमी भी उनके साथ हो लिया। फर्लांग भर जाकर उसने उन्हें पकड़ा, और कहा कि सुनो भी, कहां भागे जाते हो? कौन पीछे लगा है? इतने क्यों भयभीत हो? और मैं तुम्हें जानता हूं कि तुम तो पृथ्वी की सुगंध हो। तुम्हारा कौन अहित कर सकेगा? तुमने अंधों को आंखें दीं, बहरों को कान दिए; मैंने सुना है कि तुमने मिट्टी के पक्षी बनाए और उन्हें जीवन दे दिया, और वे आकाश में उड़ गए; और तुमने मुर्दों को कब्र से पुकारा और वे जीवित हो गए। तुम्हें क्या भय है? तुम किससे भागे जाते हो? क्या मैंने जो सुना वह गलत है?
जीसस ने कहा: नहीं, तूने जो सुना ठीक सुना। मैं वही हूं, जिसके हाथ के इशारे से आंखें खुलीं; जिसके श्वास के धक्के से कान सुनने लगे; जिसने मिट्टी में से भी प्राण को पुकारा और पक्षी आकाश में उड़े। मैं वहीं हूं, जिसके मंत्र को सुन कर मुर्दे जाग गए--पुनरुज्जीवित हुए। मगर मुझे रोक मत! मुझे जाने दे। फिर उसने कहा: अगर तुम वही हो तो तुम भागे कहां जाते हो, किससे भागे जाते हो?
तो जीसस ने कहा: एक मूर्ख मेरे पीछे पड़ा है। मैं उसी से भाग रहा हूं।
वह किसान हंसने लगा। उसने कहा: अंधों को तुम आंखें दे सके, बहरों को कान दे सके, मिट्टी को प्राण दे सके, मुर्दों को पुनरुज्जीवित कर सके, एक मूर्ख पर तुम्हारी शक्ति काम नहीं आती?
जीसस ने कहा: कभी काम नहीं आती। मूर्ख पर मैंने सब उपाय कर लिए। कुछ भी नहीं होता। कोई परिणाम नहीं होता। मैं करता कुछ हूं, होता कुछ है। मैं चाहता कुछ हूं, परिणाम कुछ आते हैं।
तो उस किसान ने पूछा: बस इतना और मुझे बता दो, फिर तुम्हें न रोकूंगा कि तुम अंधे के साथ सफल हो गए, मुर्दे के साथ भी सफल हो गए, क्या मूर्ख मुर्दे से भी बुरी हालत में है? उसके सामने तुम्हारा सामर्थ्य काम नहीं आया?
जीसस ने कहा कि कारण है। अंधा तो चाहता है कि आंख खुल जाए, इसलिए मेरा मंत्र काम आता है। बहरा चाहता है कान ठीक हो जाएं, मुर्दा भी चाहता है कि जीवित हो जाए, मिट्टी भी चाहती है--मांगती है कि प्राण मिल जाएं, तो मैं जो करता हूं उसमें उनका साथ है। मूर्ख तो मानता है वह ज्ञानी है। इसलिए मूर्खता को मिटाने के लिए उसकी कोई उत्सुकता नहीं है।
जीसस ही नहीं भाग रहे हैं मूर्खों से, बुद्ध भी भाग रहे हैं, शंकर भी भाग रहे हैं।
बुद्ध ने तो महाकरुणा से कहा कि शून्य से ही तुम पहुंच सकोगे। लेकिन तुमने अपने अहंकार से सुना होगा कि यह बुद्ध भी अहंकारी है, अपने ही मार्ग को ठीक कहता है, दूसरे के मार्ग को गलत कहता है।
बुद्ध दूसरे के मार्ग को गलत कह ही नहीं रहे हैं। वे सिर्फ इतना ही कह रहे हैं, जो समझते हैं वे समझ लेंगे कि मैं इस मार्ग से चला हूं, इससे मैं पहुंच गया हूं, तुम भी पहुंच जाओगे। और तुम्हारा मन इतनी दुविधा में है कि अगर मैं कहूं दोनों मार्ग से पहुंच जाओगे, तो तुम चलोगे ही नहीं, तुम चौराहे पर ही बैठे रह जाओगे। तुम कहोगे, पहले यह निर्णय तो हो जाए कि किस मार्ग से पहुंचूंगा, तभी चलना ठीक है, अन्यथा कहीं गलत चले और दूर निकल गए!
बुद्ध ने समझाया, तुमने नहीं सुना। हजार साल, डेढ़ हजार साल बुद्ध को बीते, तब शंकर का आविर्भाव हुआ। बुद्ध ने कहा था, शून्य से पहुंच जाओगे। शंकर ने देखा, बहुत थोड़े से लोग जिन्होंने सुना वे पहुंचे; बहुत सारे लोग, जिन्होंने सुना तो समझा नहीं, पहुंचे नहीं; उलटे शून्य की बकवास में उलझ गए हैं, शून्य का वाद खड़ा कर लिया है। शून्य का जीवन तो नहीं बनाया, जैसा सहजो कहती है: सोवै तो सुन्न में! ऐसा जीवन तो नहीं बनाया है कि सोवें तो शून्य में, उठें तो शून्य में, चले तो शून्य में; शून्य का जीवन तो नहीं बनाया शून्य का शास्त्र बना लिया है। शून्यवादी हो गए हैं। हर किसी का खंडन करने तो तत्पर हैं। खुद के जीवन में तो कोई क्रांति नहीं घटी, लेकिन दूसरों के विचार को तोड़ने में बड़े प्रवीण हो गए हैं।
तो धारा को बदलना जरूरी था।
शंकर ने कहा, पूर्ण से ही पहुंचता है कोई। शून्य में भटक जाता है। और शंकर ने उतने ही जोर से कहा कि पूर्ण से पहुंचता है कोई, जितने जोर से बुद्ध ने कहा था। और शंकर ने उतना ही विरोध किया शून्य का जितना बुद्ध ने पूर्ण का किया था। और शंकर ने कहा, पूर्ण ब्रह्म ही मार्ग है। लेकिन जो जानते हैं वे कहते हैं, शंकर बुद्ध का ही छिपा हुआ रूप हैं। जो जानते हैं वे कहते हैं, शंकर वही कह रहे हैं जो बुद्ध ने कहा था, सिर्फ शब्द भर बदल दिए हैं। शंकर की अगर तुम पूर्ण की परिभाषा देखोगे तो तुम हैरान हो जाओगे, वह वही है जो बुद्ध की शून्य की परिभाषा है।
क्या है शून्य? निराकार, निर्गुण, अनादि-अनंत--यह शून्य की परिभाषा है बुद्ध की। क्या है ब्रह्म? निराकार, निर्गुण, अनादि-अनंत--यह शंकर की पूर्ण की परिभाषा है। सिर्फ शब्द बदला है। और शब्द भी इसलिए बदला है कि शून्य के आस-पास बहुत उपद्रव खड़ा हो गया, वह शब्द गंदा हो गया। जब बुद्ध ने उसका उपयोग किया था, तब यह सुबह की ओस की तरह ताजा था। जब बुद्ध ने उपयोग किया था शून्य का, तब वह उपयोग पहली बार हुआ था। उसके पहले पूर्ण का बहुत उपयोग हो चुका था, वह बासा हो गया था। इतने लोग उसकी चर्चा कर चुके थे कि अब उसमें कोई सार न था; उसमें कोई प्राण न थे, पुकार न थी; आवाहन उससे पैदा नहीं होता था--वह शब्द शास्त्रीय हो गया था। जब भी कोई शब्द शास्त्रीय हो जाता है तो साधना के मार्ग पर पत्थर की तरह पड़ जाता है, सीढ़ी नहीं रह जाता। तब पंडित उसका विचार करने लगते हैं और प्रज्ञावान उसे छोड़ देते हैं।
तो बुद्ध ने वेदों, उपनिषदों के पूर्ण को त्याग दिया। जो जानते हैं वे कहते हैं, बुद्ध से बड़ा उपनिषदों का कोई ऋषि नहीं। उपनिषदों का सारा सार बुद्ध में है। लेकिन पूर्ण शब्द को छोड़ दिया है, ब्रह्म शब्द को छोड़ दिया है, शून्य को पकड़ा। विधायक ढंग से अभिव्यक्ति छोड़ दी, नकारात्मक अभिव्यक्ति पकड़ी। पाजिटिव--विधायक--को इनकार किया, निषेध को--निगेटिव को--स्वीकार किया। परमात्मा की व्याख्या बहुत हो चुकी थी दिन की तरह, बुद्ध ने रात की तरह व्याख्या की। बहुत हो चुकी थी परमात्मा की व्याख्या प्रकाश की तरह, बुद्ध ने अंधकार की तरह व्याख्या की। बहुत हो चुकी थी व्याख्या परमात्मा की जीवन की तरह, बुद्ध ने मृत्यु की तरह, निर्वाण की तरह उसकी व्याख्या की।
मृत्यु भी उतनी ही परमात्मा है। रात भी उतनी ही परमात्मा है जितना दिन।
एक पहलू चूक गया था, चर्चा बहुत हो चुकी थी, चर्चा ही चर्चा रह गई थी; हवा में धुआं ही धुआं था बातचीत का, शब्दों का जाल गुथ गया था। एक नई अभिव्यंजना चाहिए थी, परमात्मा नये शब्द की तलाश में था, जिससे फिर उन हृदयों पर दस्तक दे सके जो अभी पांडित्य की मूढ़ता से अछूते हैं। फिर उन्हें पुकार सके जो निर्दोष हैं, निष्कलुष हैं, जो सहज हैं। बुद्ध ने शून्य पकड़ा। महत्वपूर्ण शब्द था।
तुम सोचो, बुद्ध और महावीर एक साथ ही पैदा हुए। लेकिन बुद्ध का प्रभाव अप्रतिम हुआ, महावीर का नहीं हुआ। बुद्ध का विचार सारे जगत पर फैलता चला गया, उसकी लहरें दूर-दिगंत तक गईं। महावीर का विचार बड़ी सीमित दुनिया में रहा, थोड़े से लोगों तक गया। दोनों एक से प्रज्ञावान हैं। दोनों का एक अनुभव है। दोनों बड़े समर्थ हैं। एक-दूसरे से श्रेष्ठ हैं, कहीं कोई किसी से पीछे नहीं है। फिर महावीर का विचार दूर-दिगंत तक गया क्यों नहीं? कारण था। महावीर पिटे-पिटाए शब्दों का उपयोग कर रहे थे। उन्होंने परमात्मा को पुराने और बासे शब्दों से ही पुकारा--आत्मा। बुद्ध ने कहा, अनात्मा। चोट लगी! महावीर ने कहा, आत्मा ही ज्ञान है। बुद्ध ने कहा, आत्मा? आत्मा अज्ञान है। अनात्मा--न होना, मिट जाना--ज्ञान है।
दोनों एक साथ थे, लेकिन बुद्ध ने परमात्मा को नई व्याख्या दी, नये अर्थ दिए, नावीन्य लाए। उस नावीन्य का परिणाम हुआ। अछूते हृदयों को उसने छुआ।
महावीर का विचार पंडितों के घेरे में पड़ कर टूट गया। लोगों ने कहा कि ठीक है, वही कहते हैं जो सदा कहा है। लेकिन बुद्ध पर सोचना पड़ा।
लेकिन पंद्रह सौ साल बीतते-बीतते, बुद्ध के पीछे इतना बड़ा शास्त्रों का जाल खड़ा हुआ कि सब उपनिषद, सब वेद फीके पड़ गए। अकेले बुद्ध के पीछे इतने दर्शन के विवाद खड़े हुए जितने मनुष्य-जाति के इतिहास में किसी मनुष्य के पीछे खड़े नहीं हुए। इतने शास्त्र रचे गए। कहते हैं सब धर्मों के शास्त्र जोड़ लिए जाएं और बुद्धों के शास्त्र, तो बुद्धों के शास्त्र ज्यादा हैं। इतनी चिंतना चली, पंद्रह सौ साल में एक तूफान आ गया। अक्सर ऐसा होता है, जब नई अभिव्यक्ति मिलती है सत्य को तो उसके पीछे बड़े तूफान उठते हैं। पक्ष में, विपक्ष में; मित्र थे, शत्रु थे; जिनके भवन गिर गए, वे थे; जो नया भवन बना रहे थे, वे थे। पुराने शब्दों की हत्या हो गई, नये शब्दों का प्रसव हुआ। बड़ा ऊहापोह चला। पंद्रह सौ वर्ष तक, शंकर के आते-आते तक बुद्ध छा गए। लेकिन तब वही हो गया बुद्ध के शास्त्रों का जो उपनिषद और वेद की हालत बुद्ध ने पाई थी, मर गए वे, पिट गए, पांडित्य हो गए, विश्वविद्यालय में चर्चा के योग्य हो गए; अब उनमें कोई प्राण न रहा--साधक के काम के न रहे, सिद्ध का तो कोई उनसे प्रयोजन न रहा।फिर वह बुद्धि का विश्लेषण महत्वपूर्ण हो गया। शंकर ने फिर तूफान को बदल दिया। शंकर ने कहा: शून्य नहीं है ब्रह्म, पूर्ण है।
पंद्रह सौ साल के अंतराल के बाद यह पूर्ण शब्द फिर से नया होकर आया। उपनिषद को फिर से नया प्राण मिला। वेद फिर से जागे। शंकर ने सब स्थापित कर दिया, जो बुद्ध तोड़ गए थे।
और तुम चकित होओगे कि वे दोनों एक ही काम में लगे हैं।
न तो बुद्ध तोड़ रहे हैं उपनिषद को, न शंकर बचा रहे हैं। उपनिषदों का जो प्राणों का प्राण है उसी को बुद्ध बचा रहे हैं, उसी को शंकर बचा रहे हैं। जो तोड़ रहे हैं वह ऊपर की खोल है। वह सदा गंदी हो जाती है। जैसे तुमने बच्चे को आज कपड़े पहनाए, वह पुराने कपड़े उतारने को राजी नहीं है। वह कहता है इससे मेरा मोह हो गया है, यह कमीज मुझे बहुत प्रिय है, मैं दूसरी पहनना नहीं चाहता। लेकिन तुम जानते हो यह गंदी हो गई है, वर्षों पुरानी हो गई है, छिद्र हो गए हैं--इसे उतारो।
बच्चा सोचता है शायद तुम उसे नग्न करने में उत्सुक हो; धूप में, ताप में, सर्दी में नग्न घूमेगा? कपड़े के पीछे क्यों पड़े हो? उसको इससे प्रेम है, वह पकड़ता है। लेकिन तुम उसका कपड़ा बदल देते हो। बदल देते हो एक दफा, तब वह प्रसन्न हो जाता है कि नया कपड़ा! उसकी चाल बदल जाती है, प्रसन्नता से चलता है, लेकिन फिर साल भर बाद वही हालत आ जाती है। यह कपड़ा भी पुराना हो जाता है, फिर बदलने का क्षण आ जाता है।
जागे हुए व्यक्ति किसी के विपरीत नहीं हैं--हो ही नहीं सकते। क्योंकि जाग कर उन्होंने एक को ही पाया है।
तो न तो शंकर बुद्ध के विपरीत हैं, न बुद्ध शंकर के विपरीत हैं। वे दोनों एक ही बात कह रहे हैं, उनके कहने के ढंग अलग हैं।
और तब तुम मुझसे पूछते हो कि ‘मैं दोनों का समर्थन करता हूं।’
यह ठीक बात है। पूछने योग्य है। एकदम जरूरी है।
अब दोनों का विवाद भी व्यर्थ हो गया है। बुद्ध को बीते पच्चीस सौ साल हो गए, शंकर को बीते हजार साल हो गए, अब दोनों का विवाद भी बासा हो गया है। अब दोनों के बीच संवाद को नई गति मिलनी चाहिए। अब कोई चाहिए, जो कहे कि यह विवाद है ही नहीं, दोनों एक ही बात कह रहे हैं। इसलिए मैं शून्य का भी समर्थन करता हूं और पूर्ण का भी। अब यह एक तीसरी भाव-भंगिमा है। बात वही है। मैं वही कह रहा हूं जो बुद्ध ने कहा, मैं वही कह रहा हूं जो शंकर ने कहा। लेकिन इतना फर्क है कि मैं पच्चीस सौ साल बाद हूं।
अब सत्य एक नया अर्थ लेगा, एक नई अभिव्यक्ति। एक नये स्वर में वही गीत गाना है, पर अब स्वर नया चाहिए। नये वाद्य पर वही धुन बजानी है, पर वाद्य नया चाहिए। शंकर का वाद्य भी पुराना पड़ गया, बुद्ध का भी वाद्य पुराना पड़ गया। अब तुम शून्य की बात करो तो भी पुरानी है, पूर्ण की बात करो तो भी पुरानी है। नित-नूतन परमात्मा है, क्योंकि परमात्मा सनातन है। जो सदा है, वह सदा नया है। अब एक नया स्वर...। तो मैं कहता हूं, शंकर का शून्य, या बुद्ध का पूर्ण; या बुद्ध का शून्य, या शंकर का पूर्ण उस एक की ही कथा है।
इसलिए सहजो मुझे रुचती है।
जो सोवै तो सुन्न में, जागै तो हरिनाम! रात भी उसकी, दिन भी उसी का। सोते भी उसी में हैं, जागते भी उसी में हैं। रात का अंधकार भी वही है, दिन का प्रकाश भी वही हैं। दोनों ही महिमावान हैं। यह तो तुम्हारा भय है, पक्षपात है कि तुम कहते हो परमात्मा प्रकाश जैसा है, क्योंकि अंधेरे में तुम डरते हो। अंधेरा भी वही है। और जब तुम शांत होओगे, तब तुम पाओगे अंधेरे की भी अपनी गरिमा है। अंधेरे का अपना सौंदर्य है। कोई प्रकाश उसका मुकाबला नहीं कर सकता। अंधेरे की अपनी शांति है। प्रकाश का अपना मजा है। कोई तुलना की बात नहीं है। प्रकाश को भी पीओ, अंधेरे को भी पीओ। सभी घाट उसके हैं। तुम घाटों से बंधी गंगा मत देखो। घाटों से मुक्त बहती गंगा देखो।
तो मैं कहता हूं, शंकर का घाट भी उसी का है, बुद्ध का घाट भी उसी का है। बुद्ध के घाट से भी नाव छोड़ोगे तो उस पार लगोगे, और शंकर के घाट से भी नाव छोड़ोगे तो उस पार लगोगे। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, जरा जागो! सारी गंगा उसी की है। मोहम्मद का भी उसी का घाट है, जीसस का भी उसी का घाट है, जरथुस्त्र का भी घाट उसी का है। और कितने घाट बनाओगे, गंगा बड़ी है। पटे घाट तो थोड़े ही होंगे, गैर-पटे घाट भी उसी के हैं। सहजोबाई, कबीर, दादू--ये गैर-पटे घाट हैं, ये गरीब घाट हैं। इन पर कोई संगमरमर नहीं लगा है, और इन पर कोई बड़े कीमती पत्थर नहीं हैं। ये काशी के घाट नहीं हैं, ये तो ऊबड़-खाबड़ घाट हैं जंगल के। पर इनसे भी नाव छोड़ दोगे तो भी उस पर पार लगोगे।
घाट जहां बने हैं वहां से भी तुम उसी पार जाओगे, जहां नहीं बने हैं वहां से भी उसी पार जाओगे। अगर तुम बहुत सुसंस्कृत घाट खोजते हो तो बुद्ध का घाट है, शंकर का घाट है। परिमार्जित है, सुसंस्कृत है, सुंदर है। वहां फिसलने का डर कम होगा--पत्थर पटे हैं। सहजोबाई का घाट भी है, पर वहां पत्थर नहीं पटे हैं, वहां फिसल सकते हो। कीचड़ भी पाओगे।
लेकिन बिना-पटे घाटों से नाव छोड़ने का मजा भी और है।
पटे घाट पर पिटा-पिटायापन होता है, पंडे-पुजारी होते हैं, मार्ग-दर्शक होते हैं, गाइड होते हैं, उनका शोरगुल-उपद्रव होता है। बिना-पटे घाटों पर कोई भी नहीं होता। तुम अकेले होते हो। अपने ही हाथों पर भरोसा रख कर नाव पर उतरना पड़ता है। कोई गाइड नहीं होता, कोई मार्ग-दर्शक नहीं होता, कोई नक्शे देने वाला नहीं होता। भटकने की संभावना भी होती है। लेकिन तब पहुंचने की पुलक भी बढ़ जाती है।
मैं कहता हूं, सारी गंगा उसी की है। अब यह एक नया स्वर होगा। और जान लेना, मैं वही कहता हूं जो बुद्ध कहते हैं, मैं वही कहता हूं जो शंकर कहते हैं। रत्ती भर भेद नहीं है। फिर भी भाषा में भेद पड़ेंगे, क्योंकि लोक की रुचि बदल जाती है, लोक के समझने के ढंग बदल जाते हैं, लोक-मन बदल जाता है--इस कारण।
न तो शंकर बुद्ध का खंडन करते हैं--शंकर और बुद्ध का खंडन क्या करेंगे? शंकर का सारा होना बुद्धत्व का समर्थन है। गहन से गहन में शंकर बुद्ध को नमस्कार कर रहे हैं। बुद्ध कैसे शंकर का खंडन करेंगे? बुद्ध कैसे उपनिषदों का, वेदों का खंडन करेंगे? यद्यपि पंडित कहते हैं कि वे वेद-विरोधी हैं। पंडित तो अंधा है। अंधा भी नहीं है, मूढ़ है। क्योंकि अंधे की तो आंख भी खुल जाती है, मूढ़ पर कोई दवा काम नहीं आती। मूढ़ वही है जिसे यह खयाल है कि मैं जानता हूं और जो जानता नहीं है। वह अपनी मूढ़ता को मिटाने को भी तैयार नहीं। दुनिया में एक ही बीमारी है--मूढ़ता, कि उसका मरीज उसे मिटाने को तैयार नहीं होता, बचाता है। इसलिए सब बीमारियां मिट जाती हैं, मूढ़ता नहीं मिटती। जीसस ने ठीक ही कहा कि एक मूढ़ से भाग रहा हूं, मुझे मत रोक, वह मेरे पीछे पड़ा है। सब चमत्कार वहां हार जाते हैं।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, सहजोबाई का मार्ग है प्रेम, भक्ति, समर्पण, गुरु-पूजा। फिर भी वह अंतर्मुखता, अंतर्यात्रा और वीतरागता पर जोर क्यों देने लगती है?
उसका जोर तो बिलकुल ठीक है। तुम्हें अड़चन होती है। क्योंकि तुम इन सब चीजों को सोचते हो, जानते नहीं। सोचने के कारण, तुम्हें सदा चीजों में विरोध दिखाई पड़ने लगता है। विचार में विरोध दिखाई पड़ता है। निर्विचार में अविरोध दिखाई पड़ता है।
जैसे मैंने तुमसे कह दिया कि एक मार्ग है प्रेम, एक है ध्यान। बस तुम्हें विरोध दिखाई पड़ने लगा। अब अगर किसी ने ध्यान की बात कही, तुम कहोगे यह प्रेम का विरोधी है। अगर प्रेम की बात कही, तुम कहोगे यह ध्यान का विरोधी है। और तुमसे कितनी बार कही जाए यह बात कि प्रेम उसी अनुभव का नाम है जिसका नाम ध्यान है। प्रेम और ध्यान में रत्ती भर फर्क नहीं है। अगर फर्क भी है तो वह प्रेम और ध्यान का नहीं है, प्रेम और ध्यान तक पहुंचने की थोड़ी सी व्यवस्था का है।
तुममें से कोई पैदल चल कर यहां आया है, तुममें से कोई साइकिल पर सवार होकर चला आया है, कोई कार पर बैठा है; कोई दौड़ता आया है, कोई धीमे-धीमे आया है; कोई अकेला आया है, कोई किसी के साथ आया है। पर इस सबका क्या मूल्य है कि तुम कैसे आए? तुम यहां आ गए हो, मेरे पास हो। यहां आते ही तुम साइकिल पर आए कि पैदल आए कि साथ आए कि अकेले आए, सब बात असंगत हो गई। अब उसे उठाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम यह थोड़े ही कहोगे कि मैं इस आदमी के पास नहीं बैठ सकता, यह साइकिल पर आया हम पैदल आए। अब बात ही तुम भूल गए। हो सकता है रास्ते पर थोड़ी अड़चन भी हुई होगी, जो साइकिल पर आ रहा था उसको देख कर थोड़ी ईर्ष्या भी उठी होगी, तुम पैदल आ रहे थे। जो कार से निकल गया था तेजी से, राह की कीचड़ को उड़ाता, उस पर थोड़ा क्रोध भी आया होगा, थोड़ा वैमनस्य भी जगा होगा।
मैंने सुना है, एक कार के ड्राइवर ने अपनी गाड़ी रोकी और पास बैठे एक किसान से पूछा कि रास्ता कहां जाता है? उसने कहा: किसी और से पूछो। उसने कहा: भाई, तुम क्यों नहीं बता सकते? उसने कहा: हम पैदल-यात्री हैं। किसी कार वाले से पूछो। हम क्यों बताएं? हम पैदल-यात्री हैं। हमारा संप्रदाय ही अलग है। हम पैदल चलते हैं, तुम कार पर चलते हो। हमसे तुमसे लेना-देना क्या? पूछ लो किसी और से?
राह पर शायद अड़चन भी हुई हो, लेकिन जब आ ही गए, पहुंच गए मंजिल पर, तो न तो कार वाला कार में है, न साइकिल वाला साइकिल पर है, न पैदल चलने वाला पैदल है; सब उतर गए अपने-अपने वाहन से--वाहन सब छूट गए।
ध्यान तो वाहन है, और ध्यान मंजिल भी है। प्रेम वाहन है, और प्रेम मंजिल भी है। वाहन की तरह तो प्रेम और ध्यान अलग हैं, मंजिल की तरह अलग नहीं हैं। वे साधन भी हैं और साध्य भी हैं। तुम उनसे पहुंचते हो और तुम उन्हीं पर पहुंचते भी हो।
तो ध्यान रखना निरंतर, जब भी मैं प्रेम और ध्यान की चर्चा कर रहा हूं तो दो तरह से कर रहा हूं। कभी जब साधन की चर्चा करता हूं, तब मैं कहता हूं वे अलग हैं; और जब साध्य की तरह चर्चा करता हूं, तो मैं कहता हूं वे एक हैं।
‘सहजोबाई का मार्ग है प्रेम, शक्ति, समर्पण, गुरु-पूजा। फिर भी वह अंतर्मुखता, अंतर्यात्रा और वीतरागता पर क्यों जोर देने लगती है?’
क्योंकि कोई विरोध नहीं है। अगर प्रेम परिपूर्ण होगा तो वीतराग हो ही जाएगा। वीतरागता अगर परिपूर्ण होगी, उससे प्रेम की अहर्निश-धारा बहने ही लगेगी।
क्या है वीतराग का अर्थ? वीतराग का अर्थ है: जो राग के ऊपर उठ गया। और प्रेम का कथा अर्थ है? जो काम के ऊपर उठ गया।
तुम शब्दों के आर-पार देखने में कब सफल हो पाओगे? शब्द तुम्हारी आंखों को इतना क्यों अटका लेते हैं?
प्रेम का अर्थ है: राग से मुक्ति। वीतराग का भी वही अर्थ है। ‘वीतराग’ ध्यानियों का शब्द है; और ‘भक्ति’ प्रेमियों का शब्द है। बस इतनी झंझट है, और कोई झंझट नहीं है। अगर तुम महावीर से पूछोगे, वे कहेंगे, वीतराग। अगर तुम मीरा से, सहजो से, दया से पूछोगे, चैतन्य से पूछोगे, वे कहेंगे, प्रेम, भक्ति। बस तुम अड़चन में पड़ जाओगे।
समर्पण? अंतर्मुखता में और समर्पण में भेद क्या है? तुम जब स्वयं को समर्पण करते हो तो तुम किसे समर्पण करते हो, तुम्हें पता है? जब तुम स्वयं को समर्पण करते हो तब तुम अपनी बहिर्मुखता को ही समर्पण करते हो, और क्या समर्पण करते हो? और है क्या तुम्हारे पास देने को? अपने अहंकार को चरणों में उतार कर रख देते हो। फिर जो भीतर बच रहता है, वही तो अंतर्मुखता है। बहिर्मुखी गया, वह तुमने छोड़ दिया, उसका तुमने त्याग कर दिया। फिर अंतर्मुखता बचती है, वही तुम्हारा शुद्ध अस्तित्व है।
तुम पूछते हो: ‘गुरु-पूजा और अंतर्यात्रा...।’
गुरु बाहर है। मगर जो बाहर गुरु है, वह भीतर के गुरु तक पहुंचाने की सीढ़ी मात्र है। जब तुम बाहर के गुरु के चरणों में अपने को बिलकुल छोड़ देते हो, आंख खोल कर देखते हो तुम पाते हो बाहर का गुरु तुम्हारे समर्पित होते ही विदा हो गया। वह तो तुम्हारे बाहर के देखने का ढंग ही था, इसलिए गुरु बाहर दिखाई पड़ता था। अचानक तुम पाते हो यह स्वर तो भीतर बज रहा है। यह तो कोई बाहर नहीं है, कोई भीतर बोल रहा है।
मैंने सुना है, एक फकीर मस्जिद में पहुंचा। थोड़ी देर हो गई थी शायद उसे, लोग मस्जिद से विदा हो रहे थे। तो उसने कहा: भाइयो, इतनी जल्दी संगत उठ गई। इतनी जल्दी क्या है? प्रार्थना इतनी त्वरा से क्यों की गई? थोड़ी धीरे, आहिस्ता करते। एक आदमी ने कहा: खुद को तो दोष नहीं देते कि देर से आए हो, और संगत को दोष दे रहे हो। पैगंबर ने प्रार्थना पूरी कर दी। मोहम्मद के जमाने की कहानी है। पैगंबर ने प्रार्थना पूरी कर दी। अब मस्जिद में बैठ कर क्या करना है?
यह सुन कर कि प्रार्थना पूरी हो गई, कहते हैं, उस आदमी की आंखों से आंसू बहे, और मुंह से एक आह निकली। जो आस-पास खड़े थे उन्होंने देखा कि उसकी आह बड़ी असाधारण थी। छू गई। प्रार्थना से ज्यादा गहरी मालूम पड़ी। न केवल आह निकली बल्कि लोगों को ऐसा लगा जैसे लोगों ने उसकी आह में उसके जलते हुए हृदय की गंध पाई। एक धुआं उठा। एक लपट जैसे बाहर आई। एक आदमी उसके पैर पर गिर पड़ा और उसने कहा: भाई, इतना दुख मत करो। अगर अपनी आह तुम मुझे दे दो, तो मैंने जो प्रार्थनाएं की हैं वे मैं तुम्हें दे देता हूं। इतने दुखी मत होओ।
सौदा हो गया। उस फकीर ने आह दे दी, और उस आदमी ने अपनी प्रार्थनाएं दे दीं। रात जिस आदमी ने आह ले ली और प्रार्थनाएं दे दीं, अचानक नींद में सुना कि तू धन्यभागी है! तूने आह ले ली, आह से बड़ी कोई प्रार्थना नहीं है। तूने लपट ले ली, अंत में लपट ही तृप्ति सिद्ध होती है। तूने उसकी अभीप्सा ले ली, उसके प्राणों की पीड़ा ले ली, तुझे स्वर्ग का राज्य आज मिल गया है। और परमात्मा इतना प्रसन्न है कि अभी भी लोग प्रार्थनाओं को देकर आह लेने को राजी हैं कि आज जितने लोगों ने पृथ्वी पर प्रार्थनाएं की हैं सबकी प्रार्थनाएं पूरी कर दी गईं इस खुशी में।
जब तुम्हारे भीतर से प्रगाढ़ परमात्मा की प्यास उठती है तो तुम परमात्मा को बाहर थोड़े ही पाओगे, उसी प्यास में छिपा हुआ पाओगे। प्यास ही प्रार्थना बन जाती है। जब तुम्हारे भीतर गहन आह उठती है, तुम उसी आह में दबे हुए अस्तित्व के सारे सार को पाओगे।
जब तुम किसी गुरु के चरणों में सिर झुकाते हो, तो तुम झुकाते क्या हो? वह तुम्हारी जो बाहर के देखने की दृष्टि थी, वही झुका देते हो--बहिर्मुखता, अहंकार। और जब तुम झुक कर उठते हो, अगर झुकना सच में हुआ, तो तुम पाओगे गुरु बाहर से विदा हो गया, अब वह तुम्हारे भीतर है। अब तुम्हें उसकी आवाज अहर्निश भीतर से सुनाई पड़ने लगेगी, वह तुम्हारी अंतर्वीणा हो जाएगी। तो बाहर का गुरु तो भीतर के गुरु को जगाने का उपकरण मात्र है। अगर तुम समर्पित हो जाओ, तो बाहर का गुरु भीतर के गुरु से एक हो जाता है।
किसे तुम गुरु कहते हो?
उसी को हम गुरु कहते हैं जिसमें तुमने अपने भीतर के आत्यंतिक रूप को झलका पाया है। जैसे तुम होना चाहोगे, जैसा तुम्हारा अंतर्तम चाहता है कि तुम होते, जिसमें तुम्हें ऐसी झलक मिली है, जिसमें तुमने अपने भीतर के स्वर सुने हैं। जो तुम कहना चाहते थे और न कह सके, और किसी की वाणी में तुमने वह स्वर सुना। जैसा तुम चाहते कि तुम्हारे हाथ का स्पर्श होता, और किसी के हाथ के स्पर्श में तुमने वही जादू पाया। जैसा तुम चाहते कि तुम्हारी आंख होती, और किन्हीं आंखों में तुमने झांका और वैसी ही आंखें पाईं। जिसमें तुमने अपने को पाया है, अपनी नियति को पाया है, वही गुरु है।
इसलिए ध्यान रखना, तुम्हारा गुरु जरूरी नहीं कि सभी का गुरु हो। गुरु तो निजी अनुभव है। जो तुम्हें जमा है वह सभी को जमेगा, यह जरूरी थोड़े ही है। किसी को बुद्ध जमेंगे, शून्य की बात जमेगी; किसी को पूर्ण की बात जमेगी, शंकर जमेंगे। मगर एक बात तय है, जब भी कभी कोई गुरु तुम्हें जम जाएगा उसी वक्त तुम मिट जाओगे। गुरु और शिष्य साथ-साथ थोड़े ही हो सकते हैं। जब तक दो हैं तब तक गुरु अभी मिला ही कहां? जब अचानक गुरु मिलता है तो शिष्य तो खो जाता है। और तब तुम अपने भीतर पाते हो...।
अगर तुमने मुझमें अपने गुरु को देखा, तो तुम जल्दी ही पाने लगोगे कि मैं तुम्हारे भीतर बोल रहा हूं। अगर मैं बाहर भी बोल रहा हूं, तो भी तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर जो अनलिखा पड़ा है उसे लिख रहा हूं, जो अनपढ़ा पड़ा है उसे पढ़ रहा हूं। तुम अचानक पाओगे, यह तो तुम अपने भीतर भी खोज लेते, लेकिन तुम्हारे पास खोजने की व्यवस्था न थी। मैंने तुम्हें वही दिखाया है जो तुम्हारे पास आंख होती तो तुम अपने भीतर देख ही लेते। मैं तुम्हें कुछ नया नहीं सिखा रहा हूं। जिसे तुम भूल गए हो, उसे भर जगा रहा हूं।
तो गुरु का अर्थ ही इतना है।
तुम यह मत पूछो कि सहजोबाई गुरु-पूजा की बात करती है, फिर अंतर्यात्रा की बात करने लगती है! गुरु की अगर पूजा हो गई, तो अंतर्यात्रा शुरू हो गई, क्योंकि गुरु भीतर है। इसीलिए तो हिंदू गाते रहे हैं: ‘गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु महेश।’ वह आत्यंतिक है, वह आखिरी है, वह परमात्मा है।
इसलिए तो सहजो कहती है: हरि को तज डारूं पै गुरु न बिसारूं! क्योंकि हरि तो एक बंद किताब थी, गुरु ने ही उसे खोला। हरि तो छिपा पड़ा था भीतर, पर कौन जगाता, कौन चेताता? गुरु ने जगाया और चेताया। गुरु तुम्हें तुम्हीं को दे रहा है। इसलिए वह अंतर्यात्रा है।
भक्ति और ध्यान के शब्दों में बहुत मत उलझना। शब्दों में उलझना ही मत। शब्दों से जागना है। निःशब्द की तरफ चलना है। इसलिए शब्दों का उपयोग भला करना, लेकिन शब्दों को जंजीरें मत बनाना। और सदा याद रखना कि धर्म के जगत में विपरीत दिखाई पड़ने वाले शब्द भी वस्तुतः विपरीत नहीं हैं। वे एक-दूसरे के परिपूर्वक हैं।
अगर प्रेम ठीक चला, भक्ति ठीक चली, ध्यान उपलब्ध होगा। अगर ध्यान ठीक चला, समाधि लगी, भक्ति उपलब्ध होगी।
वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, कल आपने कहा कि यदि तुम्हें पता है कि मैं संतुष्ट हूं कि मैं सुखी हूं, तो समझना कि अभी संतोष और सुख नहीं आए हैं। इस हालत में स्वयं साधु होकर सहजोबाई कैसे कह सकी: साध सुखी सहजो कहै?
समझना पड़े।
निश्चित ही मैंने कहा कि अगर तुम्हें लगता रहे कि तुम संतुष्ट हो, तो जानना कि कुछ न कुछ असंतोष कहीं न कहीं भीतर शेष है। कोई न कोई रेखा असंतोष की शेष है। अन्यथा संतोष को तौलोगे कैसे, पहचानोगे कैसे? तौल के लिए विपरीत चाहिए। अगर तराजू में एक ही पलड़ा रह जाए तो तुम तौलोगे कैसे? दूसरे पलड़े पर भी बांट चाहिए।
तो जब तुम्हें लगता है संतुष्ट हूं, तब कहीं न कहीं भीतर असंतोष अभी मौजूद है। उसी की तुलना में लगता है कि संतुष्ट हूं। जब परम संतोष आता है, तब न तो पता चलता है कि असंतुष्ट हूं, न पता चलता कि संतुष्ट हूं। हां, कोई पूछे तो बात और। तुम्हें पता नहीं चलता। कोई पूछे कि संतुष्ट हो? तो तुम कहोगे--निश्चित! कोई न पूछे, तो तुम्हारे भीतर यह खबर नहीं आती कि संतुष्ट हूं। खबर आने का कोई कारण न रहा, कोई प्रयोजन न रहा।
पर तब सवाल उठता है कि साधु होकर सहजोबाई खुद ही कहती है: साध सुखी सहजो कहै! तो क्या अभी साधु पुरी नहीं हो पाई?
फर्क है सहजो के वक्तव्य में। सहजो यह नहीं कह रही है कि ‘मैं सुखी सहजो कहै।’ अगर ऐसा कहती, तो दुख शेष है। सहजो यह नहीं कह रही है--‘मैं सुखी सहजो कहै’--यह तो कह ही नहीं रही है। सहजो तो सिर्फ परिभाषा कर रही है, वह अपने संबंध में कुछ कह ही नहीं रही है। वह तो ऐसे ही कह रही है कि देखो सूरज उग गया, सुबह हो गई; कि देखो पक्षी गीत गा रहे हैं। अपने संबंध में कुछ भी नहीं कह रही है। एक वक्तव्य दे रही है तथ्य के संबंध में। साध सुखी सहजो कहै! वह यह कह रही है कि साधु सुखी होता है। और सुख की परिभाषा वही है जो मैंने कही, उसे सुख का पता भी नहीं चलता। साधु सुखी होता है, इतना भर सहजो कह रही है। यह सिर्फ परिभाषा है साधुता की। इसमें अपने संबंध में कोई वक्तव्य नहीं है। इसमें किसी और के संबंध में भी कोई वक्तव्य नहीं है। इसमें तो सिर्फ एक सिद्धांत के संबंध में सूचन है कि साधु सुखी होता है, असाधु दुखी होता है। अगर किसी को दुखी पाओ, तो समझना असाधु है। किसी को सुखी पाओ, तो समझना साधु है। और मैं तुमसे कहता हूं, सुखी वही है जिसे पता भी नहीं चलता कि मैं दुखी हूं या सुखी हूं। जिसे सुख-दुख का पता ही नहीं, वही सुखी है। और वही साधु है।
अभी चार दिन पहले एक महिला आई। उसने मुझे कहा कि मैं बड़ी दुखी हूं अपने पति के कारण। वे दुश्चरित्र हैं। आचरणहीन हैं।
मैंने उससे कहा: अगर वे आचरणहीन हैं, तो उन्हें दुखी होने दे। आचरणहीनता के कारण वे दुखी होंगे, तू क्यों दुखी है? यह तो मैंने सुना ही नहीं कि कोई दूसरा आचरणहीनता करे और कोई दूसरा दुखी हो। अगर तू दुखी है, तो कारण तेरे ही भीतर होगा। उनकी आचरणहीनता तेरे दुख का कारण नहीं हो सकती। उनकी आचरणहीनता उनके दुख का कारण होगी। लेकिन मैं तेरे पति को जानता हूं, वे दुखी नहीं हैं। होंगे आचरणहीन, मगर दुखी नहीं हैं।
और मैंने कहा: अगर कोई व्यक्ति आचरणहीन होकर भी सुखी है तो तुझसे तो ज्यादा ही साधु है--तू आचरणवान होकर भी सुखी नहीं है। तू तो चमत्कार कर रही है! तेरे पति भी चमत्कार कर रहे हैं! वे आचरणहीन होंगे, लेकिन सुखी हैं। तू आचरणवान होगी, लेकिन दुखी है। तेरे आचरणवान होने में भी कोई आचरणहीनता है, और तेरे पति की आचरणहीनता में भी कोई आचरण है। अन्यथा जो हो रहा है वह नहीं हो सकता।
तो मैंने उससे कहा: इसे तू कसौटी मान कि जब भी तू दुखी है, समझना कि कुछ असाधु तेरे भीतर है। क्योंकि असाधु होने के साथ ही दुख जुड़ा है। तू अपने पति की आचरणहीनता से दुखी नहीं। तू अपनी अपेक्षा से दुखी है कि पति आचरणवान होने चाहिए। तू इस कारण दुखी है कि तू सोचती है, तू इतनी आचरणवान है और इतना कष्ट झेल रही है संयम का और आचरण का, और पति मजा कर रहा है। मजा तू भी करना चाहती है। भीतर तू भी वही चाहती है जो पति कर रहा है, लेकिन उतनी तेरी हिम्मत नहीं है।
तू दुखी अपने कारण हो रही है। अगर आचरणहीन होना हो आचरणहीन हो जा, मगर दुखी मत हो कम से कम। सुखी होना हो तो सुखी हो जा, मगर यह आचरणवान होने का बोझ मत ढो।
और मेरी अपनी समझ यह है कि अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन में सुख की तलाश करता रहे तो आचरणवान अपने आप हो जाता है, क्योंकि सुख फलता ही नहीं जब तक आचरणहीनता हो। मैं तुमसे आचरणवान होने को नहीं कहता, मैं तुमसे सुखी होने को कहता हूं। क्योंकि आचरणवान होने को तुमसे सदियों से कहा गया है, तुम सिर्फ दुखी हुए हो, कुछ भी न हुआ।
मैं तुमसे सुखी होने का कहता हूं। सुखी मेरे लिए मापदंड है।
तुमसे कहा गया है सदा कि अगर पुण्य करोगे तो सुख मिलेगा। मैं तुमसे कहता हूं, सुखी हो तो तुम पुण्यवान हो। तुमसे कहा गया है, पाप करोगे तो दुख पाओगे। मैं तुमसे कहता हूं, तुम दुखी हो, तुम पापी हो।
दुख पाप है, सुख पुण्य है।
और जब कोई व्यक्ति ठीक से देखने लगता है तो सहजो की परिभाषा समझ में आ जाएगी। सहजो अपने संबंध में कुछ भी नहीं कह रही है। अपने संबंध में कहती तो मैं सहजो पर बोलता ही नहीं, बात ही बेकार थी फिर। अगर वह यह कहती--‘मैं सुखी सहजो कहै,’ तो यह तो साफ था कि यह औरत अभी भी दुखी है, ढांक रही है, सुख की कल्पना कर-कर के अपने को समझा रही है। तो यह बात भला सुख की करती, तुम उसके चेहरे पर दुख पाते। लेकिन सहजो अपनी बात ही नहीं करती।
अगर ठीक समझो, तो सुखी आदमी अपनी बात ही नहीं करता। सिर्फ दुखी आदमी अपनी बात करते हैं। तुम्हें भी पता है। दुखी आदमी से मिल जाओ, वह बात ही किए चला जाता है, अपना दुख रोए चला जाता है। तुमने कभी किसी आदमी को अपना सुख हंसता हुआ पाया?
दुख रोते हुए लोग पाए जाते हैं, सुख हंसता हुआ कोई नहीं पाया जाता।
सुख को भी क्या किससे कहना? सुख को लोग सम्हालते हैं। कबीर ने कहा है: हीरा पायौ, गांठ गठियायौ। मिल गया हीरा, आदमी अपनी गांठ में बांध कर नदारद होता है। भीड़-भाड़ में कहता नहीं फिरता कि हीरा मिल गया। जिसको सुख मिलता है, वह गांठ में बांध कर चुपचाप नदारद हो जाता है। दुखी आदमी चिल्लाता है कि बड़ा दुखी हूं। दुखी चिल्लाता है, क्योंकि सोचता है शायद कहने से दुख कम हो जाए। सुखी सम्हालता है, क्योंकि सम्हालने से सुख बढ़ता है।
सुख तो बीज है। उसे छिपा लो गहरे में, अपने अंतस में--फूटेगा, बढ़ेगा, उसमें बड़े फल आएंगे, बड़े फूल लगेंगे।
अगर सहजो ने कहा होता--‘मैं सुखी सहजो कहै,’ तो मैं सहजो पर बोलने वाला नहीं था। बात ही बेकार हो गई। नहीं, उसने अपनी तो बात ही नहीं कही है। वह तो सिर्फ एक शुद्ध वैज्ञानिक परिभाषा कह रही है: साध सुखी सहजो कहै! साधु सुखी होता है, ऐसा सहजो का कहना है।
अगर इसका तुम गहनतम अर्थ समझो तो इतना ही है कि तुम सुखी हुए, तुम साधु हुए। और सुख की क्या परिभाषा है वह मैं तुमसे कहता हूं। सुख की परिभाषा है, जहां तुम्हें पता ही न चले; क्योंकि पता ही दुख का चलता है। सुख का कहीं पता चलता है?
सिर में दर्द होता है, सिर का पता चलता है। जब सिर में दर्द नहीं होता तब सिर का पता चलता है? अगर सिर बिलकुल स्वस्थ होता है तो पता ही नहीं चलता कि कहां है। वह तो थोड़ा बोझ हो, भारी हो, दर्द हो, कुछ तकलीफ हो, कोई चिंता हो भीतर, अड़चन हो, तो सिर का पता चलता है। सिर यानी सिरदर्द। सिरदर्द से अलग और सिर कहीं होता नहीं। जिसका सिरदर्द बिलकुल ही नहीं है वह बिना सिर का है, उसका कोई सिर नहीं है। जब शरीर का पता चले तो शरीर रुग्ण है। श्वास का पता चलता है जब कोई तकलीफ होती है श्वास में। सर्दी-जुकाम हो, तो श्वास का पता चलता है। नहीं तो श्वास चलती जाती है, किसको पता चलता है? जितना ही तुम स्वस्थ हो, उतना ही शरीर का पता नहीं चलता।
और यही मैं तुमसे कहता हूं, भीतर का भी सूत्र है। तुम्हें अगर बहुत पता चलता है कि मैं हूं, तो तुम समझना कि तुम्हारी आत्मा बीमार है। मैं का पता चलना आत्मा की बीमारी है। जब तुम होते हो--पता ही नहीं चलता मैं का--तब आत्मा स्वस्थ हुई, तब तुम घर लौटे आए।
इसलिए बुद्ध ने भी ठीक ही कहा कि आत्मा है ही नहीं। वह स्वस्थ आत्मा की परिभाषा है--‘अनत्ता’--अनात्मा। आत्मा कहने में ही रोग आ गया। वे कहते हैं कि मैं--आत्मा का अर्थ मैं--तो मैं का पता चलता है, अभी थोड़ी गड़बड़ है। बिलकुल पता ही नहीं चलता, कोरा आकाश रह जाता है, शून्य।
साध सुखी सहजो कहै।
चौथा प्रश्न:
भगवान, अद्वैत को उपलब्ध सहजो कहती है: ‘भक्ति करै निहकाम।’ पर प्रश्न उठता है कि भक्त और भगवान अलग कैसे रहे? कृपापूर्वक इसे स्पष्ट करें।
भक्ति करै निहकाम! निष्काम भक्ति। तो भक्ति दो तरह की हो सकती है। एक सकाम, एक निष्काम। सकाम का अर्थ है: कोई मांग। निष्काम का अर्थ है: कोई मांग नहीं। निष्काम का अर्थ है: भक्ति में ही आनंद है। नाचते हैं, गीत गाते हैं, नर्तन, कीर्तन, भजन अपने आप में ही लक्ष्य है। गीत गाते हैं, गीत गाने में मजा है इसलिए। नाचते हैं, नाचने में मजा है इसलिए। नाचने के पार कोई पुरस्कार नहीं है। नाचने के बाद परमात्मा से हम प्रतीक्षा न करेंगे कि इतनी देर नाचे अब पुरस्कार मिल जाए, अब घर जाएं।
भक्त का नृत्य कोई नर्तकी का नृत्य नहीं है, जो नाच रही है और राह देख रही है, कुछ मिल जाए। भक्त का नृत्य अस्तित्व का नृत्य है, जो कुछ मांगने को है ही नहीं आगे। नृत्य आखिरी घड़ी है आनंद की, अहोभाव है।
तो निष्काम भक्ति का अर्थ है: भक्ति ही आनंद है। सकाम भक्ति का अर्थ है: भक्ति साधन है पाना कुछ और है; अगर वह मिलेगा तो आनंद मिलेगा। लड़का पैदा नहीं होता, लड़का हो जाए; मुकदमा जीत जाएं अदालत में; धन पास में नहीं, धन मिल जाए; पद मिल जाए, चुनाव जीत जाएं, कुछ हो जाए। चुनाव के वक्त सभी राजनेता सदगुरुओं की तलाश में निकल जाते हैं, किसी का आशीर्वाद मिल जाए। मंदिरों में पहुंच जाते हैं, मंत्र-तंत्र करने लगते हैं, ज्योतिषियों से मिलने लगते हैं। दिल्ली में ऐसा एक राजनेता नहीं जिसका अपना ज्योतिषी न हो। जो उससे पूछताछ न करता हो कि जीतेंगे कि नहीं--कौन सा मंत्र बांधें, कौन सा ताबीज बांधें, कहां से राख लाएं, किस साईंबाबा के चरण में पड़ें? कहीं से कोई तरकीब मिल जाए। लेकिन यह जो भक्ति है, इसको भक्ति कहोगे? यह तो नाममात्र को भक्ति है। यह तो भक्ति को बदनाम करना है, नाम भी न हुआ।
सहजो कहती है: भक्ति करै निहकाम! जो बौले सो हरिकथा, भक्ति करै निहकाम! बोलना ही हरिकथा है। उससे कुछ भेद नहीं रहा। जो बोलै सो हरिकथा! शब्द-शब्द उसी की याद है। चुप रहे तो भी उसी की याद है। बोले तो, न बोले तो। और भक्ति अब जीवन का ढंग है, वह जीवन का आनंद है।
अब तुम्हें समझना है तुम्हारा प्रश्न।
प्रश्न उठता है कि ‘भक्त और भगवान अलग कैसे रहे?’
जब निष्काम भक्ति हो गई और सहजो अद्वैत को उपलब्ध हो गई, एक को पा लिया, तो अब ‘किसकी भक्ति?’
निष्काम भक्ति में मांग तो चली ही जाती है, वह किसकी भी पूछना गलत है। निष्काम भक्ति में भगवान भी नहीं है। भक्ति ही भगवान है। निष्काम भक्ति का अर्थ यह नहीं है कि वह भगवान के लिए भक्ति हो रही है कि भगवान के सामने भक्ति हो रही है। निष्काम भक्ति--जब तुम्हारी कोई कामना ही न रही, तो कौन भक्त और कौन भगवान; कौन लेने वाला, कौन देने वाला? वह तो तुम्हारी कामना के कारण तुम भिखारी थे और कोई भगवान था। जब तुम्हारी कामना ही चली गई, तो अब कौन भगवान है और कौन भक्त है? भक्त उसी दिन मिट जाता है जिस दिन कामना मिट जाती है। भगवान भी उसी दिन मिट जाता है जिस दिन कामना मिट जाती है। तब तो दोनों किनारे खो जाते हैं, बीच की धारा रह जाती है। वह बीच की धारा का नाम भक्ति है।
प्रेमी भी खो जाता है, प्रेमिका भी खो जाती है, प्रेम रह जाता है। ध्यानी खो जाता है, ध्यान का विषय खो जाता है, ध्यान रह जाता है। जिसको हम अद्वैत कहते हैं उससे तुम यह मत समझना कि भक्त बचता है, या भगवान बचता है। वे तो दोनों द्वैत के ही हिस्से थे, भक्त और भगवान। न तो भक्त बचता, न भगवान बचता। दोनों के बीच कोई एक नई ही घटना घटती है, वह भक्ति है।
भक्ति करै निहकाम! अब सहजो--नाचती तुम अगर कहीं उसे पाओ--मिल जाए, तो उससे यह मत पूछना, किस भगवान के लिए नाच रही है? वह कहेगी, नाचना भगवान है। तुम उससे यह मत पूछना कि तू किसलिए नाच रही है? वह कहेगी, मैं नहीं हूं। नाचना ही बचा है।
नाचने में उस तरफ से भगवान भी खो गया, इस तरफ से भक्त भी खो गया। भक्ति अब निष्काम हो गई। जब तक मैं रहूंगा, तब तक थोड़ी कामना तो रहेगी। मेरे मिटने पर ही कामना मिटेगी, और अगर कामना पूरी मिट जाए तो मेरे बचने का कोई उपाय न रहेगा।
तो पहले तो भक्ति के दो रूप--सकाम भक्ति, जिसको भक्ति कहना ठीक नहीं; फिर निष्काम भक्ति। फिर निष्काम भक्ति के भी दो चरण हैं। एक, जब भक्त कुछ भी नहीं मांगता, सिर्फ भगवान को मांगता है; लेकिन वह भी मांग है। भक्त कहता है, न धन चाहिए, न पद चाहिए, न प्रतिष्ठा चाहिए, बस तुम्हीं को चाहिए। यह कामना बड़ी शुद्ध हो गई, बड़ी शुद्ध हो गई, कोई अशुद्धि न रही इस कामना में, लेकिन कामना फिर भी कामना है।
मैंने सुना है, एक सम्राट युद्ध के लिए गया। जब वह वापस लौटने लगा देशों को जीत कर, अनंत-अपार संपदा को लेकर, तो उसने अपने घर खबर भेजी। उसकी सौ पत्नियां थीं, उसने खबर भेजी कि तुम्हारे लिए क्या ले आऊं? प्रत्येक अपनी-अपनी आकांक्षा जाहिर कर दे। किसी ने कहा कि हीरे-जवाहरात लाना, किसी ने कुछ कहा, किसी ने कुछ कहा। अलग-अलग स्त्रियों की अलग-अलग रुचियां थीं।
लेकिन एक रानी ने कहा कि बस तुम आ जाओ। और कुछ भी नहीं चाहिए। तुम जल्दी घर लौट आओ।
निश्चित ही सभी रानियों के लिए वह सब-कुछ लाया। लेकिन यह रानी उसे बड़ी प्रीतिकर हो गई। इसने कुछ भी न मांगा। इसने सिर्फ उसी को मांगा।
इसका प्रेम उन सबसे ज्यादा शुद्धतम है, लेकिन मांगा तो।
अगर इतनी मांग भी परमात्मा से रह गई तो भी भक्त मिटेगा नहीं। दोनों के बीच बड़ी शुद्ध रोशनी जलने लगेगी, भक्त और भगवान के बीच बड़ी शुद्धता आ जाएगी, लेकिन दोनों बने रहेंगे अभी। अभी पिघल कर बिलकुल मिट न जाएंगे।
लेकिन जब भक्त इतना भी नहीं मांगता। क्योंकि भक्त जानता है, मांगना क्या है, भगवान मिला ही हुआ है! मांगते थे यही भूल थी, मांगते थे इसीलिए नहीं मिलता था, मिला ही हुआ है। जिस दिन इस अहोभाव का जन्म होता है, उस दिन न तो कोई भक्त है, न कोई भगवान है। उस दिन भक्त में भगवान नाचता है। उस दिन नाचने में भक्त और भगवान दोनों लीन हो जाते हैं।
बोलौं सो हरिकथा--कहै सो हरिकथा। कबीर ने कहा है: उठूं बैठूं परिक्रमा। अब मंदिर में नहीं जाता परिक्रमा करने, उठना-बैठना परिक्रमा है।
ऐसी अवस्था है आखिरी। सब अवस्थाओं के पार। ऐसी अवस्था है, परमानंद।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, काम-केंद्रित प्रेम और प्रेम-केंद्रित काम की भिन्नता हमें समझाने की कृपा करें।
काम-केंद्रित प्रेम सीढ़ी से नीचे उतरना है, सीढ़ी वही है। प्रेम-केंद्रित काम सीढ़ी पर ऊपर चढ़ना है, सीढ़ी वही है। लेकिन दिशा का भेद है।
जब तुम किसी को इसलिए प्रेम करते हो कि उससे कोई कामना, वासना पूरी करनी है, तब प्रेम तो सिर्फ बहाना होता है, फुसलावा होता है, असली नहीं होता। नजर तो काम पर लगी होती है।
रामकृष्ण ने कहा है, चील उड़ती है आकाश में, नजर नीचे घूरे पर लगी होती है; कूड़े-करकट में मरा चूहा पड़ा है, नजर वहां लगी है। तुम चील को आकाश में उड़ता देख कर यह मत समझ लेना कि चील बड़ी ऊंची उड़ रही है। ऊंची कितनी ही उड़ रही हो, नजर उसकी बड़ी नीचे लगी है।
काम-केंद्रित प्रेम आकाश में उड़ती चील है। नजर मरे चूहे पर लगी है। तैयारी कर रही है, जैसे ही मौका मिल जाए झपट जाए।
रामकृष्ण ने कहा है, एक दिन मैंने देखा, एक चील एक चूहे को ले भागी। और चीलों ने झपट्टे मारे, चील पर हमले होने लगे। उस चील ने सब तरह बचाव के उपाय किए, लेकिन कोई बचाव नहीं। क्षत-विक्षत। घबड़ाहट में, संघर्ष में, उसके मुंह से चूहा छूट गया। चूहा छूटते से ही बाकी चीलें भी उसे छोड़ कर भाग गईं। वे चूहे के पीछे थीं, उन्हें कोई चील से लेना-देना न था। अब वह चील एक वृक्ष पर बैठ कर विश्राम कर रही है।
रामकृष्ण ने कहा: ऐसी ही दशा उसकी है जो काम को छोड़ देता और प्रेम के विश्राम में बैठ जाता है। फिर उसका कोई पीछा नहीं करता, कोई प्रतिस्पर्धा ही नहीं है फिर, कोई संघर्ष नहीं है।
काम में प्रतिस्पर्धा है। प्रेम में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। तुम जैसे ही प्रेम में उठना शुरू होते हो, तुम्हारी नजर नीचे नहीं है अब। सीढ़ियां वही हैं, उन्हीं पायदानों पर पैर रख कर ऊपर बढ़ रहे हो, लेकिन ऊपर जा रहे हो। उन्हीं पायदानों पर पैर रख कर कोई तुम्हारे पड़ोस से नीचे जा रहा है। पायदान वही हैं। यह भी हो सकता है। समझो कि नंबर तीन के पायदान पर तुम खड़े हो, और नंबर तीन के ही पायदान पर एक दूसरा आदमी भी खड़ा है। तुम दोनों एक ही पायदान पर खड़े हो। लेकिन हो सकता है तुम्हारी अवस्था एक न हो। क्योंकि वह दूसरा आदमी नीचे की तरफ जा रहा है, तुम ऊपर की तरफ जा रहे हो। तुम एक ही पायदान पर खड़े हो। कोई भेद नहीं है। लेकिन नजर अलग-अलग है। और दोनों में बड़ा भेद है, क्योंकि एक ऊपर की तरफ देख रहा है--एक का काम प्रेम बनेगा, प्रेम से करुणा बनेगा। तुम्हारी करुणा का तो तुम्हें पता ही नहीं है। प्रेम भी तुम्हारा नाममात्र को है, वह भी काम बनने के लिए तत्पर है--वह नीचे उतर रहा है।
काम प्रेम को भी डुबा लेता है, प्रेम काम को भी उबार लेता है।
तो ध्यान यह रखना कि तुम्हारे जीवन में प्रेम प्रमुख हो। अगर काम प्रवेश भी करे, तो वह प्रेम का अंग हो। तुम्हारे जीवन में अगर किसी से शरीर के संबंध भी हों, तो वे तुम्हारे आत्मिक संबंधों की छाया हों। उससे ज्यादा नहीं।
अगर आत्मिक संबंध हो तो शरीर के संबंध भी पवित्र हो जाते हैं। छाया की भांति। और तुम्हारे जीवन में अगर शरीर का संबंध ही सब-कुछ हो, और आत्मा का संबंध केवल छाया हो शरीर के संबंधों की, तो वह आत्मा का संबंध भी झूठा हो जाता है। वह भी गंदा और अपवित्र हो जाता है।
ध्यान रखना, दिशा महत्वपूर्ण है। श्रेष्ठ के साथ निकृष्ट में भी एक श्रेष्ठता आ जाती है। निकृष्ट के साथ श्रेष्ठ भी डूबने लगता है। स्मरण यही रखना कि श्रेष्ठ की परिधि में तुम्हारी निकृष्टता समाए, निकृष्ट की परिधि में तुम्हारी श्रेष्ठता न समाए। तुम्हारी श्रेष्ठता की परिधि बड़ी हो, उसमें अगर छोटी बातें भी आए तो वे उसके भीतर आएं।
तुमने कभी खयाल किया। एक गरीब आदमी है, एक भिखमंगा, उसे तुम एक हीरे की अंगूठी दे दो। कोई देखेगा ही नहीं उसकी अंगूठी की तरफ। लोग समझेंगे, होगा कोई कांच का टुकड़ा। और तुम एक अमीर को, एक सम्राट को कांच के टुकड़े की अंगूठी दे दो, और उसकी अंगूठी पर हजारों लोगों की नजर जाएगी, क्योंकि वे सोचेंगे, होगा कोई कोहनूर हीरा। सम्राट के साथ कांच का टुकड़ा भी कोहनूर हो जाता है, भिखारी के साथ कोहनूर भी कांच का टुकड़ा हो जाता है।
ऐसा ही है। प्रेम के साथ काम भी कोहनूर हो जाता है, काम के साथ प्रेम भी कांच का टुकड़ा हो जाता है।
एंफेसिस, जोर, दिशा, उस पर ध्यान देना जरूरी है। तुम क्या करते हो यह महत्वपूर्ण नहीं है, तुम जो करते हो वह किस वृहत्तर योजना का अंग है, वह महत्वपूर्ण है। तुम्हारे प्रत्येक कृत्य की अर्थवत्ता, तुम्हारे जीवन की वृहत्त शैली का परिणाम है। तुम क्या करते हो यह महत्वपूर्ण नहीं है, तुम क्या हो यह महत्वपूर्ण है।
एक पुरानी सूफी कथा है।
एक सम्राट गुजर रहा है, वह जंगल में रास्ता भटक गया है। प्रसन्न हुआ देख कर कि एक वृक्ष के नीचे एक आदमी सोया है; शायद इससे रास्ता मिल जाएगा। वह उसके जब पास पहुंचता था, तब उसने देखा उस आदमी का मुंह खुला है--कुछ लोग मुंह खोल कर सोते हैं--और एक सांप उसके मुंह में चला जा रहा है। आखिरी पूंछ ही सांप की सम्राट को दिखाई पड़ी। उसने उठाया अपना कोड़ा और उस आदमी को पीटना शुरू किया। वह आदमी तो नींद से चौंका, और उसे कुछ समझ में न आया, वह हाथ-पैर जोड़े चिल्लाए कि यह क्या कर रहे हैं आप? किसलिए मार रहे हैं? मैंने किसी का क्या बिगाड़ा है? हे भगवान! यह कहां के दुष्ट से मिलना हो गया! और यह आदमी बलशाली है, बड़े घोड़े पर बैठा है, शक्तिशाली है, इससे लड़ा भी नहीं जा सकता! और उस सम्राट ने उसको मजबूर किया कि आस-पास जो भी गंदे फल पड़े थे, सड़े फल पड़े थे, खाओ। तो वह मानता ही नहीं है, वह कोड़े लगाए जाता है उस आदमी को जबर्दस्ती, वह रो रहा है और खा रहा है; और वे सड़े-गले हैं, दुर्गंध आ रही है; और उसने उसको इतना पीटा और इतने उसको खिला दिए सड़े फल कि उसे वमन हो गया, वह गिर पड़ा। तो जब उसे वमन हुआ तो उसका सांप उस वमन के साथ बाहर आ गया।
जब उसने सांप देखा तब...उसकी कुछ समझ में नहीं आया कि यह क्या हुआ? तब उसने सम्राट के पैर पकड़ लिए कि तुम्हारी बड़ी कृपा कि तुमने मुझे मारा, और ये गंदे फल खिलाए, लहूलुहान कर दिया मेरे शरीर को। धन्यभाग मेरे। परमात्मा ने तुम्हें ठीक समय पर भेजा अन्यथा मैं मर जाता। लेकिन एक बात मुझे पूछनी है। अगर तुम कह देते कि मैंने सांप खा लिया है, या सांप को निगल गया हूं, सांप मेरे भीतर चला गया है, तो मैंने तुम्हें गालियां न दी होतीं, अभिशाप न दिए होते।
सम्राट ने कहा: अगर मैं कह देता तो सांप का निकालना असंभव हो जाता। तू घबड़ाहट में ही मर जाता। मेरे मारने से तू मर नहीं गया है। अगर मैं कह देता कि तू सांप निगल गया है, तो फिर मैं तुझे फल खिलाने में समर्थ न हो पाता, तू बेहोश ही हो जाता, यह बात ही मुश्किल हो जाती। इसलिए मुझे अपने को संयम रखना पड़ा कि तुझसे कहूं न, तुझे मारूं। वमन पहली चीज है, तेरी फिकर छोड़ दूं। किसी तरह उलटी हो जाए तो सांप बाहर फिंक जाए।
इस कहानी के आधार पर सूफियों में कहावत है। वह कहावत तुमने सुनी होगी, कहानी शायद तुमने यह न सुनी हो।
कहावत है: ‘नादान दोस्त से दाना दुश्मन बेहतर।’
नादान दोस्त से दाना दुश्मन बेहतर। नासमझ दोस्त से समझदार दुश्मन बेहतर। यह आदमी समझदार था। दुश्मनी की तरह मालूम पड़ा, क्योंकि दुश्मनी की--मारा लहूलुहान कर दिया, लेकिन समझदार था, इसकी दुश्मनी के भी फल आए। नासमझ दोस्त होता, जान जाती। असली सवाल दोस्ती-दुश्मनी का नहीं है, असली सवाल समझदारी का है।
मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि समझदारी के बड़े वर्तुल में दुश्मनी भी महत्वपूर्ण और कीमती, बहुमूल्य हो जाती है।
प्रेम के संग लग जाए काम, तो काम भी राम तक ले जाने का कारण हो जाता है। और काम के संग लग जाए प्रेम, तो प्रेम जो सदा ऊपर ले जाने वाला है, वह भी नीचे उतारने में कारण बन जाता है। और इस जीवन की कीमिया और गणित को ठीक से समझना जरूरी है, क्योंकि यह जरा नाजुक बात है। इसे तुम ठीक से समझोगे तो ही तुम्हारे जीवन पर इसका परिणाम होगा। सदा ध्यान रखो, तुम जो कर रहे हो वह किसी वृहत्तर इकाई में किस भांति बैठता है; वह कृत्य तुम जो कर रहे हो वह मूल्यवान नहीं है, वृहत्तर इकाई में उस कृत्य की क्या सार्थकता है, वह कहां ले जाएगा अंततः, वह कहां पहुंचाएगा अंततः, क्या उसका आत्यंतिक परिणाम होगा? फिर कई बार तुम ऐसे कृत्य भी कर सकते हो, जिन्हें दूसरे गलत कहेंगे, लेकिन तुम जानते हो वह गलत नहीं हैं। क्योंकि उनसे तुम एक यात्रा कर रहे हो जो तुम्हें श्रेष्ठ की तरफ ले जाएगी। तब जहर का भी उपयोग आदमी अमृत की तरह कर लेता है। तब भला दूसरे ठीक कहें, गलत कहें, यह बात महत्वपूर्ण नहीं रह जाती; तुम्हारे भीतर एक परिप्रेक्ष्य होता है, एक दृष्टि होती है। तुम जानते हो कि यह जो मैं कर रहा हूं यह उस वृहत्तर आकाश से जुड़ा है, फिर कोई भय नहीं है।
तुम परमात्मा को ध्यान में रख कर करना, क्योंकि उससे बड़ी कोई इकाई नहीं है। परमात्मा यानी बड़ी से बड़ी इकाई की हमारी धारणा। तुम उसको ध्यान में रख कर करना। तुम चोरी भी करो तो परमात्मा को ध्यान में रख कर करना, तो चोरी भी पुण्य हो जाएगी। और तुम पुण्य भी करो और अहंकार को ध्यान में रख कर करो, तो पुण्य भी पाप हो जाएगा। छोटी इकाई के साथ मत बांधना, क्षुद्र के साथ मत बांधना। क्षुद्र डुबाता है। विराट उबारता है।
इसलिए मैं निरंतर जोर देता हूं कि संभोग भी करना तो समाधि को ध्यान में रखना। मेरी बात के स्वभावतः भयंकर परिणाम हुए। लोग समझने में असमर्थ हुए। उन्होंने तो समझा कि शायद मैं संभोग की शिक्षा दे रहा हूं लोगों को।
उन्हीं से तो जीसस भाग रहे थे, जिन्होंने ऐसा समझा।
मैं सिर्फ यह कह रहा हूं कि तुम अपने क्षुद्र को भी विराट के साथ बांध देना। वह बड़ी नाव तुम्हारे क्षुद्र को भी पार ले जाएगी, और अंतिम अर्थों में तुम्हारा क्षुद्र भी निखर आएगा। और यही तो जीवन की कला होनी चाहिए कि उसमें क्षुद्र भी निखर आए और पवित्र हो जाए। उसमें बुरा भी शुभ हो जाए, और पाप का भी उपयोग हो जाए। उसे भी फेंकना न पड़े। कहते हैं असली शिल्पी आड़े-टेढ़े पत्थर को भी फेंकता नहीं, उसका भी उपयोग कर लेता है। शिल्पी पर निर्भर है। और अगर तुम्हारे पास जो है उसका तुम उपयोग नहीं जानते, तो तुम आगे कैसे बढ़ोगे? चलना तो वहीं से पड़ेगा जहां तुम हो।
संभोग तुम्हारी दशा है, समाधि संभावना है।
संभोग से ही एक-एक कदम समाधि की तरफ रखोगे तो ही पहुंच पाओगे। अगर तुमने ऐसा सोच लिया कि संभोग और समाधि के बीच कोई सेतु नहीं है, तो तुम पहुंचोगे कैसे? निश्चित ही अज्ञान और ज्ञान के बीच कोई सेतु होना चाहिए। क्षुद्र और विराट के बीच कोई सेतु होना चाहिए। नहीं तो क्षुद्र तो क्षुद्र ही रह जाएगा फिर विराट तक जाएगा कैसे? तुम और परमात्मा के बीच कोई रास्ता होना ही चाहिए। परमात्मा तुमसे कितना ही दूर हो लेकिन जुड़ा तो होना ही चाहिए, इतना ही मेरा कहना है। बिना जुड़े तो फिर बात ही खत्म हो गई। तुम कितने ही दूर हो परमात्मा से लेकिन किसी न किसी तरह से तुम उसके पास भी होने चाहिए, अन्यथा फिर भटकाव का अंत ही नहीं हो सकता। फिर तुम घर कैसे वापस लौटोगे? एक धागा भी जुड़ा रह गया हो तो भी काफी है। बस इतना ही मेरा कहना है। समाधि का एक धागा संभोग तक से जुड़ा है। तुम संभोग पर ध्यान मत देना, उस धागे पर ध्यान देना। वही धागा तुम्हें उठा लेगा। एक दिन तुम पाओगे संभोग विसर्जित हो गया, समाधि फलित हो गई।
काम में भी प्रेम को खोजना। काम में भी प्रेम पर ही ध्यान देना। तुम्हारा ध्यान जिस तरफ होगा वही जीत जाता है। ध्यान भोजन है, ध्यान ऊर्जा है। बुरे से बुरे में भी शुभ को देखने की चेष्टा करना, वही शुभ अतिक्रमण करा देगा।
बड़ा भेद है काम-केंद्रित प्रेम और प्रेम-केंद्रित काम में।
शब्द तो वही के वही हैं दोनों में। काम-केंद्रित प्रेम में भी तीन शब्द हैं: काम, केंद्रित, प्रेम। प्रेम-केंद्रित काम में भी तीन ही शब्द हैं, वही तीन: प्रेम, केंद्रित, काम। पर कितना अंतर है। एक से संसार बनता है, एक से मोक्ष निर्मित होता है। सीढ़ी वही है। उतरो, संसार मिल जाता है। चढ़ो, परमात्मा उपलब्ध हो जाता है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, ज्ञानियों ने, बुद्धों ने, भक्तों ने परमात्मा को अनेक रूप, अरूप में देखा और अपने ढंग से नाम भी दिए, जिनमें ‘अनाम’ और ‘नेति-नेति’ भी सम्मिलित हैं। दर्शन की यह भिन्नता क्या द्रष्टा के व्यक्तित्व की भिन्नता पर निर्भर है?
दर्शन की कोई भिन्नता नहीं है। अभिव्यक्ति की भिन्नता है। जो देखा है, वह तो एक ही है। हां, जो कहा है वह अनेक है। ‘एकम् तद सदविप्राः बहुधा वदंति।’ ज्ञानियों ने उस एक को ही देखा है, कहा बहुत ढंग से है, क्योंकि कहा बहुत ढंग से जा सकता है। देखने के बहुत ढंग नहीं हैं, क्योंकि जब तक देखने का ढंग शेष है तब तक तो वह दिखाई ही न पड़ेगा।
इसे समझना।
जब तक दृष्टि शेष है तब तक दर्शन न होगा। जब तक तुम्हारे पास कोई दृष्टि है, देखने का ढंग है, कोई चश्मा है, तब तक तुम उसे रंग लोगे, तुम वही न देखोगे जो है। तुम वही देखोगे जो तुम देख सकते थे, देखना चाहते थे। तुम अपने को ही आरोपित कर लोगे।
दृष्टि-मुक्त होते ही ‘दर्शन’ उपलब्ध होता है।
जब तुम्हारी कोई आंख न रही। इसका अर्थ जब तुम्हारी आंख शुद्ध हो गई। जब तुम न हिंदू रहे, न मुसलमान; न जैन, न ईसाई; न पारसी, न सिक्ख। जब तुम्हारी कोई दृष्टि न रही। जब तुम परमात्मा के समक्ष बिलकुल शुद्ध, शून्य होकर खड़े हुए कि मेरे पास कुछ दृष्टि नहीं है। मैं सिर्फ दर्पण हूं, तू जैसा हो वैसा ही झलक। मैं कुछ भी न जोडूंगा, कुछ भी घटाऊंगा न। मेरे पास कुछ है ही नहीं जोड़ने-घटाने को, अब मैं हूं ही नहीं। अब तू है, और मैं दर्पण हूं।
जिस दिन दृष्टि मिट जाती है, नय जिसको महावीर ने कहा है वह मिट जाता है, उस दिन उस शुद्ध नय की अवस्था में, उस शुद्ध दृष्टि में ‘दर्शन’ उपलब्ध होता है। ‘दर्शन’ तो एक ही है। लेकिन जब हम उसे कहने जाते हैं तब फर्क आ जाता है। समझो, परमात्मा को देखा किसी ने, जाना सत्य को, परम आनंद की वर्षा हुई--बिन घन परत फुहार--अमृत बरसने लगा, अब इसको कहना है। इसको कैसे कहना? जो हुआ है वह इतना बड़ा है, जो हुआ है वह इतना विराट है, समाता नहीं--यह हृदय बहुत छोटा है। सागर ने छलांग ले ली बूंद में। बड़ी मुश्किल हो गई है। अब इसको कहना है।
मीरा नाच कर कहेगी, क्योंकि मीरा को नाच सुगम है, वह उसके व्यक्तित्व में है। यह आनंद की घटना घटी है, मीरा इसे शब्दों में नहीं कहेगी, वह शब्द की मालिक नहीं है। उसके रोएं-रोएं से प्रकट होगा यह आनंद। वह नाचेगी। पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे! और कुछ सूझा नहीं तो उसने पैर में घुंघरू बांध लिए और नाचने लगी। कोई और उपाय न था। यही उसके लिए आसान था। यही उसके पूरे जीवन का संस्कार था। जब इस पर चोट पड़ी आनंद की तो नाच पैदा हुआ।
बुद्ध नहीं नाचे। वह उनके व्यक्तित्व में न था। जब यह चोट पड़ी आनंद की तो वे चुप हो गए, सन्नाटा छा गया; सात दिन तक बोले ही नहीं। कहते हैं देवताओं ने प्रार्थना की। ब्रह्मा स्वयं आए, चरणों पर गिरे और कहा: आप बोलो। क्योंकि ऐसा सदियों में कभी कोई जागता है। वे जो अंधेरे में भटक रहे हैं, उनके लिए तुम्हारी वाणी दीया बनेगी। उनके लिए तुम्हारे शब्द बाहर निकालने का कारण हो जाएंगे। तुम चुप मत रहो।
लेकिन बुद्ध ने कहा: बोलने का कोई मन नहीं है। उस आनंद को मैं चुप रह कर ही कह सकता हूं। कहने से बिगड़ जाएगी बात। कहने से कह न पाऊंगा। और मुझे भरोसा नहीं है कि सुनने वाले समझ पाएंगे। मुझसे भी कोई कहता यह बात जो मैंने नहीं जानी थी तब, मैं भी नहीं समझ पाता। यह कही तो जा ही नहीं सकती। इसमें तो चुप ही रहा जा सकता है। जो समझेगा, वह चुप्पी में भी समझ लेगा। और जो नहीं समझेगा, वह कहने से भी नहीं समझेगा।
बुद्ध ने बड़ी जिद की चुप रहने की। न तो वे नाचने को तैयार थे, न बोलने को तैयार थे। देवताओं ने बड़ा विचार-विमर्श किया कि बुद्ध को किसी तरह बोलने के लिए राजी करना ही होगा। और वे एक तर्क ले आए, जिसका जवाब बुद्ध न दे सके, तो राजी हुए। उन्होंने कहा: आप बिलकुल ठीक कहते हैं, सौ लोग सुनेंगे, निन्यानबे नहीं समझेंगे। लेकिन क्या आप कहते हैं कि एक भी न समझेगा सौ मैं से?
बुद्ध ने कहा कि जो समझ सकता है मुझे सुन कर, वह मुझे बिना सुने भी देर-अबेर समझ ही लेगा। और जो समझ ही नहीं सकता मुझे सुन कर, उसे मैं लाख सिर पटकता रहूं, कुछ परिणाम न होगा।
देवताओं ने कहा: आप बिलकुल ठीक कहते हैं। लेकिन इन दोनों के मध्य में भी एक व्यक्ति हो सकता है कि जो न सुने, तो बहुत देर तक भटकता रहे, और सुन ले, तो पार लग जाए। उस एक के लिए बोलें। माना कि वह करोड़ में एक होगा। लेकिन बुद्धत्व तो करोड़ों में एक को ही मिलता है। एक को भी मिल जाए तो बहुत है। उस एक के लिए बोलें।
तो बुद्ध बोले।
बुद्ध का बोलना बड़ा ही परिमार्जित है। उन्होंने एक भी ऐसी बात नहीं कही जिसको कहने में अड़चन मालूम पड़े। इसलिए उन्होंने परमात्मा की बात नहीं कही। वे बड़े तर्कनिष्ठ हैं, कि परमात्मा की बात कहना ठीक नहीं। कहने से गड़बड़ होता है। और जिन्होंने अब तक कही है उनको भी शर्त लगानी पड़ती है। जैसे लाओत्से ने कहा--‘जो सत्य कहा जा सके वह सत्य ही नहीं है’, और फिर कहना पड़ा। तो बुद्ध कहते हैं, जो कहा ही न जा सके उसे कहना ही नहीं। इतना भी मत कहना कि उसे कहा नहीं जा सकता, क्योंकि यह भी तो कहना हो गया। तो उन्होंने फिर बड़ी परिमार्जित बात कही। शुद्धतम वक्तव्य है बुद्ध का। लेकिन उसे वे ही समझ पाएंगे जो उतनी शुद्ध प्रज्ञा से भरे हैं।
कोई दूसरा मीरा को समझ पाएगा। उसके नाच से किसी को नाच पकड़ जाएगा। कोई तीसरा किसी तीसरे ढंग से।
नानक को जब ज्ञान हुआ तो अपने एक संगी-साथी को, बचपन के संगी-साथी को, मरदाना को लेकर निकल पड़े, गाने लगे। कोई प्रश्न पूछता नानक से आकर, कोई पूछता, परमात्मा है? नानक कहते, मरदाना, छेड़। तो मरदाना अपना वाद्य छेड़ देता और नानक गाते। यह उत्तर होता। पूछता कोई ईश्वर की बात, कर्म की, सिद्धांत की, इसकी, उसकी; वे जब भी कोई कुछ पूछता, वे कहते, मरदाना, छेड़।
यह उनका उत्तर था, गीत उनका उत्तर था। क्योंकि वे कहते कि बात वह इतनी बड़ी है पद्य से न कही जा सकेगी। तर्क से न समझाई जा सकेगी, गाकर ही कही जा सकती है। शायद गीत तुम्हें कहीं चोट कर दे।
तो फिर अनंत-अनंत रूप प्रकट होते हैं। अभिव्यक्ति के वे रूप हैं, ‘दर्शन’ के नहीं, ध्यान रखना। ‘दर्शन’ तो एक का ही होता है। लेकिन उस एक की खबर लेकर जब लोग उतरते हैं उस परम आलोक के जगत से, जब आते हैं पृथ्वी पर, जब तुम्हारे बाजार, तुम्हारे मंदिर-मस्जिद में आते हैं, जब वे तुम्हें देखते हैं--परमात्मा को देखा और फिर जब तुम्हें देखते हैं--तुम दोनों के बीच जब वे माध्यम बनते हैं, तब माध्यम अलग होगा, क्योंकि हर व्यक्ति की अपनी सामर्थ्य है। मीरा नाच सकती है, नानक गा सकते हैं, बुद्ध बोल सकते हैं, शंकर तर्क कर सकते हैं। शंकर ने उठा लिया झंडा और पूरे मुल्क में घूम गए, वे तर्क ही करते रहे। शंकर से बड़ा तार्किक व्यक्ति खोजना कठिन है, परमात्मा को तर्क से समझाते रहे। नास्तिकों के तर्क का खंडन करते रहे। वह उनकी क्षमता थी। वह तर्कनिष्ठ व्यक्तित्व है।
इस तरह हजार-हजार लोग हुए। उनका दर्शन एक, उनकी अभिव्यक्ति अलग-अलग है। उनकी अभिव्यक्ति पर तुम ज्यादा ध्यान मत देना। अभिव्यक्ति में जो छिपा है--नानक जो गाकर कह रहे हैं, मीरा जो नाच कर कह रही है, बुद्ध जो बोल कर कह रहे हैं, शंकर जिसके लिए तर्क दे रहे हैं--उसके लिए न तो तर्क दिया जा सकता है, उसके लिए न तो बोल कर समझाया जा सकता है, उसे न गाकर समझाया जा सकता है, उसे न तो नाच कर बताया जा सकता है; वह अवक्तव्य है--उसके संबंध में कोई वक्तव्य नहीं हो सकता। लेकिन, परमात्मा की तरफ देखो, तो वक्तव्य नहीं हो सकता; तुम्हारी तरफ देखो, तो वक्तव्य देने की जरूरत मालूम पड़ती है। परमात्मा की तरफ देखो, तो चुप रह जाओ--कुछ कहने को नहीं है; तुम्हारी तरफ देखो, तो लगता है बहुत कहने को है--शायद कोई सुन ले। शायद ही है वह बात--शायद कोई सुन ले। पर वह ‘शायद’ प्रयोग करने जैसा है।
अज्ञानी ‘यदि’ में जीता है और ज्ञानी ‘शायद’ में।
इसे तुम समझो। अज्ञानी अक्सर सोचता रहता है, यदि ऐसा होता, यदि वैसा होता--अतीत के बाबत कि यदि मैंने ऐसी बात की होती, तो ऐसा परिणाम हो जाता। यदि मैंने यह जुआ खेल लिया होता तो इतना पैसा पा जाता, यदि मैंने लाटरी की यह टिकट खरीद ली होती तो आज लाख रुपये होते। ‘यदि।’
मोहम्मद कहते थे कि ‘यदि’ से तुम पहचान सकते हो आदमी कितना अज्ञानी है। मोहम्मद ने उल्लेख किया है कि एक आदमी को मकान खोजना था। वह एक मित्र से मिला रास्ते पर तो उसने कहा: मकान खोजना है, कुछ सहायता करो। उसने कहा: अरे, एक मकान खाली पड़ा है बहुत दिनों से। अभी दिलवा देते हैं। चलो। वह आदमी बड़ा प्रसन्न हुआ, परेशान था, मकान नहीं मिल रहा था। उसने कहा: सौभाग्य से कि यह मित्र मिल गया, और मकान खाली पड़ा है। मकान मिलते कहां हैं? लेकिन जब वह पहुंचा मकान पर, तब उसकी आत्मा बैठ गई मकान को देख कर। वह तो एक खंडहर था।
वह मित्र जाकर कहने लगा कि देखो, यदि छप्पर होता इस पर तो तुम मजे से रह सकते थे। और अगर दीवाल भी ठीक-ठाक होती, जरा द्वार-दरवाजे भी लगे होते तो कोई चोरी वगैरह का भी डर नहीं था। और यदि इसके पास एकाध कमरा और होता तो इतने दिनों के पुराने मित्र हो, मैं भी यहीं तुम्हारे पास रहने आ जाता।
उस आदमी ने कहा: भाई तुम्हारी बड़ी कृपा है। लेकिन ‘यदि’ में रहना बहुत मुश्किल है। ‘यदि’ में कोई रहे कैसे? मित्रों के पास रहना सदा सुखद है, और तुम मिल गए बड़ा सौभाग्य है, लेकिन ‘यदि’ में रहना बहुत मुश्किल है।
अज्ञानी ‘यदि’ में रहता है और ज्ञानी ‘शायद’ में। शायद में भी अपने लिए नहीं, तुम्हारे लिए। अपने लिए तो अस्तित्व में। लेकिन तुम्हारे लिए एक ‘शायद’ में। ‘शायद’ सुन लो, ‘शायद’ किसी क्षण में तुम्हारा अंतस जग जाए, चौंक जाए; ‘शायद’ कोई बात चोट कर जाए; ‘शायद’ तुम्हारी नींद में कोई चीज खलल बन जाए और तुम आंख खोल दो; ‘शायद’ तुम्हारा सपना टूट जाए।
तो बुद्ध चालीस वर्ष तक इसी ‘शायद’ में मेहनत करते हैं। मीरा नाचती है; नानक गाते हैं। अगर वे अपनी तरफ देखें तो अब कुछ करने को नहीं बचा है, बात खत्म हो गई। न कोई ‘यदि’ बची है, न कोई ‘शायद’ बचा है। अगर तुम्हारी तरफ देखते हैं तो लगता है, एक महाकरुणा जन्मती है। वही शक्ति जो तुम्हारे भीतर वासना है, ज्ञानी में करुणा बन जाती है। वह रोक नहीं पाता, वह बहने लगती है। और फर्क भी क्या है? अगर कोई न भी जागा तो कोई हर्ज नहीं है, कोई जाग गया तो बहुत बड़ी घटना है। कोई न जागा तो कोई हर्ज नहीं है।
इस ‘शायद’ के कारण इतनी अभिव्यक्तियां हैं। अगर यह ‘शायद’ न होता, तो तुम ज्ञानियों की कोई अभिव्यक्ति न पाते। तुम उन सभी को मौन बैठा पाते। उन्होंने जो जाना है वह तो एक है, लेकिन जिनसे कहना है वे अनेक हैं। और जिसके द्वारा कहना उसकी सीमा है। इसलिए भेद है। भेद अपनी सीमा के कारण, भेद तुम्हारी समझ के कारण। अनेक को समझाना है। जाना एक को है, बताना अनेक को है। जाना तो एक ही है, लेकिन बताना अनेक तरह से पड़ेगा। और फिर व्यक्ति की सीमा है। ऐसा ही समझो कि बिजली दौड़ती है पंखे से तो पंखा चलता है; बिजली दौड़ती है बल्ब से तो प्रकाश होता है; बिजली दौड़ती है रेडियो से तो रेडियो में आवाज होती है। बिजली एक है, लेकिन माध्यम जिससे दौड़ती है...। परमात्मा की बिजली जब दौड़ी मीरा से--पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे; परमात्मा की बिजली जब दौड़ी शंकर से, तर्क का बड़ा तूफान उठा। न तो तर्क समर्थ है, न नृत्य समर्थ है, क्योंकि परमात्मा इतना बड़ा है किसी में भी नहीं समाता।
लेकिन कितनी ही छोटी अंगुली हो, चांद की तरफ इशारा तो हो ही सकता है। फिर अंगुली सुंदर हो तो भी हो सकता है, अंगुली पर हीरे जड़ी अंगूठियां हों तो भी हो सकता है, अंगुली दीन-दरिद्र की काली-कलूटी हो तो भी हो सकता है। चांद की तरफ इशारे में अंगुली के ढंग से क्या फर्क पड़ता है? फर्क तब पड़ता है जब तुम अंगुली पकड़ लेते हो और चांद को भूल जाते हो।
अंगुली मत पकड़ना। सदा ध्यान चांद की तरफ रखना, अंगुली को भूलना। जो कहा है उसे भूलना, जो नहीं कहा जा सकता उसे याद रखना। जो लिखा है उसे विस्मृत करना, जो नहीं लिखा जा सकता उसे पढ़ना। जो बताने के पार है, फिर भी महाकरुणावान व्यक्तियों ने बताने की कोशिश की है, तुम उनके इशारे को जोर से मत पकड़ लेना, इशारे को भूल जाना। आंख उठाना आकाश की तरफ, देखना आकाश के चांद को, तब तुम पाओगे मोहम्मद की अंगुली, महावीर की अंगुली, कृष्ण की अंगुली, क्राइस्ट की अंगुली--अंगुलियों के भेद हैं, चांद तो आकाश में एक ही है।
‘दर्शन’ तो एक है, अभिव्यक्ति अनेक है।
आज इतना ही।
भगवान, बुद्ध शून्यता का आग्रह करते हैं और शंकर पूर्णता का। वे अपने-अपने आग्रह के लिए भारी तर्क और वाद-विवाद भी खड़ा करते हैं। इन्हें सत्य का, परमात्मा का पता है। फिर भी ये दूसरे का खंडन एवं स्वयं का मंडन क्यों करते हैं? और एक आप हैं जो दोनों का एक साथ समर्थन करते हैं, ऐसा क्यों?
बुद्ध ने शून्य से ही परमात्मा को जाना। जैसा उन्होंने जाना, वैसा ही वे दूसरों को भी जना सकते हैं। जिस मार्ग से वे चले, उस पर ही वे तुम्हें भी ले जा सकते हैं। जिस मार्ग से वे स्वयं नहीं चले, उससे तुम्हें ले जाना खतरनाक है। उस पर मार्ग-दर्शन असंभव होगा।
ऐसा नहीं है कि बुद्ध नहीं जानते हैं कि दूसरे मार्ग से भी पहुंचना हो जाता है। लेकिन यह कहना भी कि दूसरे मार्ग से भी पहुंचा जा सकता है, तुम्हारी जो एक मार्ग के प्रति अनन्य श्रद्धा है उसे उखाड़ना है। तुम पर करुणा करके ही दूसरे मार्ग का खंडन करते हैं, क्योंकि तुम वैसे ही बड़ी उलझन में हो। तुम्हारी उलझन यही है कि तुम कोई निष्कर्ष नहीं ले पाते। निष्कर्ष न लेना ही तो तुम्हारा रोग है।
अगर बुद्ध कहें, शून्य से भी पहुंचता है व्यक्ति, पूर्ण से भी पहुंचता है; पूरब से भी, पश्चिम में भी; तो तुम्हारी अनिर्णय की अवस्था में और भी अनिर्णय हो जाएगा। इसलिए बुद्ध जोर देते हैं, शून्य से ही पहुंचता है। और जब वे कहते हैं पूर्ण से नहीं पहुंचता, तो कुल उनका मतलब इतना ही है कि शून्य से ही पहुंचता है। वे पूर्ण के संबंध में कुछ भी नहीं कह रहे हैं। वे सिर्फ इतना कह रहे हैं कि तुम जो सुनने वाले हो, तुम्हारे अनिर्णय को मैं न बढ़ाना चाहूंगा। तुम वैसे ही काफी भटके हो। आग्रहपूर्वक कहते हैं, बस यही मार्ग है; दूसरा मार्ग गलत है। जब तक तुम्हें साफ न हो जाए कि दूसरा गलत है, तब तक तुम इस मार्ग पर कदम ही न रखोगे।
इसलिए ज्ञानियों को बहुत बार उन बातों का खंडन करना पड़ा, जिनका वे खंडन नहीं करना चाहते थे। अज्ञानियों पर करुणा के कारण!
लेकिन अज्ञानी अज्ञानी है। उस पर तुम करुणा करो तो भी वह गलत समझेगा। बुद्ध ने कहा कि शून्य से पहुंच सकते हो। इस बात को तुम्हारे हृदय में मजबूत बिठाने के लिए उन्होंने कहा, पूर्ण से न पहुंच सकोगे; तुमने सुना कि पूर्ण से न पहुंच सकेंगे, इसलिए पूर्ण से जाना तो व्यर्थ है। रही शून्य की बात, जब पूर्ण से ही न पहुंच सकेंगे तो शून्य से क्या पहुंचेंगे! और ये बुद्ध अज्ञानी मालूम पड़ते हैं, क्योंकि विवाद करते हैं, खंडन करते हैं, तर्क देते हैं। ये बुद्ध गलत मालूम पड़ते हैं--अपने को ठीक कहते हैं, दूसरे को गलत कहते हैं। अज्ञानी ने यही सुना। बुद्ध की करुणा से जो निकला, अज्ञानी ने अपनी मूढ़ता में सुना।
एक बड़ी प्राचीन कथा है।
जीसस भागे जा रहे हैं एक खेत के बीच से। उन्हें भागते देख कर खेत का मालिक उनसे पूछने लगा: कहां भागे जाते हैं? और इस तरह भाग रहे हैं, जैसे कोई शेर, सिंह पीछे लगा हो। यहां तो कोई है नहीं, पीछे कोई दिखाई नहीं पड़ता! लेकिन वे इतनी तेजी में हैं कि रुक कर उत्तर भी नहीं दे सकते।
तो वह आदमी भी उनके साथ हो लिया। फर्लांग भर जाकर उसने उन्हें पकड़ा, और कहा कि सुनो भी, कहां भागे जाते हो? कौन पीछे लगा है? इतने क्यों भयभीत हो? और मैं तुम्हें जानता हूं कि तुम तो पृथ्वी की सुगंध हो। तुम्हारा कौन अहित कर सकेगा? तुमने अंधों को आंखें दीं, बहरों को कान दिए; मैंने सुना है कि तुमने मिट्टी के पक्षी बनाए और उन्हें जीवन दे दिया, और वे आकाश में उड़ गए; और तुमने मुर्दों को कब्र से पुकारा और वे जीवित हो गए। तुम्हें क्या भय है? तुम किससे भागे जाते हो? क्या मैंने जो सुना वह गलत है?
जीसस ने कहा: नहीं, तूने जो सुना ठीक सुना। मैं वही हूं, जिसके हाथ के इशारे से आंखें खुलीं; जिसके श्वास के धक्के से कान सुनने लगे; जिसने मिट्टी में से भी प्राण को पुकारा और पक्षी आकाश में उड़े। मैं वहीं हूं, जिसके मंत्र को सुन कर मुर्दे जाग गए--पुनरुज्जीवित हुए। मगर मुझे रोक मत! मुझे जाने दे। फिर उसने कहा: अगर तुम वही हो तो तुम भागे कहां जाते हो, किससे भागे जाते हो?
तो जीसस ने कहा: एक मूर्ख मेरे पीछे पड़ा है। मैं उसी से भाग रहा हूं।
वह किसान हंसने लगा। उसने कहा: अंधों को तुम आंखें दे सके, बहरों को कान दे सके, मिट्टी को प्राण दे सके, मुर्दों को पुनरुज्जीवित कर सके, एक मूर्ख पर तुम्हारी शक्ति काम नहीं आती?
जीसस ने कहा: कभी काम नहीं आती। मूर्ख पर मैंने सब उपाय कर लिए। कुछ भी नहीं होता। कोई परिणाम नहीं होता। मैं करता कुछ हूं, होता कुछ है। मैं चाहता कुछ हूं, परिणाम कुछ आते हैं।
तो उस किसान ने पूछा: बस इतना और मुझे बता दो, फिर तुम्हें न रोकूंगा कि तुम अंधे के साथ सफल हो गए, मुर्दे के साथ भी सफल हो गए, क्या मूर्ख मुर्दे से भी बुरी हालत में है? उसके सामने तुम्हारा सामर्थ्य काम नहीं आया?
जीसस ने कहा कि कारण है। अंधा तो चाहता है कि आंख खुल जाए, इसलिए मेरा मंत्र काम आता है। बहरा चाहता है कान ठीक हो जाएं, मुर्दा भी चाहता है कि जीवित हो जाए, मिट्टी भी चाहती है--मांगती है कि प्राण मिल जाएं, तो मैं जो करता हूं उसमें उनका साथ है। मूर्ख तो मानता है वह ज्ञानी है। इसलिए मूर्खता को मिटाने के लिए उसकी कोई उत्सुकता नहीं है।
जीसस ही नहीं भाग रहे हैं मूर्खों से, बुद्ध भी भाग रहे हैं, शंकर भी भाग रहे हैं।
बुद्ध ने तो महाकरुणा से कहा कि शून्य से ही तुम पहुंच सकोगे। लेकिन तुमने अपने अहंकार से सुना होगा कि यह बुद्ध भी अहंकारी है, अपने ही मार्ग को ठीक कहता है, दूसरे के मार्ग को गलत कहता है।
बुद्ध दूसरे के मार्ग को गलत कह ही नहीं रहे हैं। वे सिर्फ इतना ही कह रहे हैं, जो समझते हैं वे समझ लेंगे कि मैं इस मार्ग से चला हूं, इससे मैं पहुंच गया हूं, तुम भी पहुंच जाओगे। और तुम्हारा मन इतनी दुविधा में है कि अगर मैं कहूं दोनों मार्ग से पहुंच जाओगे, तो तुम चलोगे ही नहीं, तुम चौराहे पर ही बैठे रह जाओगे। तुम कहोगे, पहले यह निर्णय तो हो जाए कि किस मार्ग से पहुंचूंगा, तभी चलना ठीक है, अन्यथा कहीं गलत चले और दूर निकल गए!
बुद्ध ने समझाया, तुमने नहीं सुना। हजार साल, डेढ़ हजार साल बुद्ध को बीते, तब शंकर का आविर्भाव हुआ। बुद्ध ने कहा था, शून्य से पहुंच जाओगे। शंकर ने देखा, बहुत थोड़े से लोग जिन्होंने सुना वे पहुंचे; बहुत सारे लोग, जिन्होंने सुना तो समझा नहीं, पहुंचे नहीं; उलटे शून्य की बकवास में उलझ गए हैं, शून्य का वाद खड़ा कर लिया है। शून्य का जीवन तो नहीं बनाया, जैसा सहजो कहती है: सोवै तो सुन्न में! ऐसा जीवन तो नहीं बनाया है कि सोवें तो शून्य में, उठें तो शून्य में, चले तो शून्य में; शून्य का जीवन तो नहीं बनाया शून्य का शास्त्र बना लिया है। शून्यवादी हो गए हैं। हर किसी का खंडन करने तो तत्पर हैं। खुद के जीवन में तो कोई क्रांति नहीं घटी, लेकिन दूसरों के विचार को तोड़ने में बड़े प्रवीण हो गए हैं।
तो धारा को बदलना जरूरी था।
शंकर ने कहा, पूर्ण से ही पहुंचता है कोई। शून्य में भटक जाता है। और शंकर ने उतने ही जोर से कहा कि पूर्ण से पहुंचता है कोई, जितने जोर से बुद्ध ने कहा था। और शंकर ने उतना ही विरोध किया शून्य का जितना बुद्ध ने पूर्ण का किया था। और शंकर ने कहा, पूर्ण ब्रह्म ही मार्ग है। लेकिन जो जानते हैं वे कहते हैं, शंकर बुद्ध का ही छिपा हुआ रूप हैं। जो जानते हैं वे कहते हैं, शंकर वही कह रहे हैं जो बुद्ध ने कहा था, सिर्फ शब्द भर बदल दिए हैं। शंकर की अगर तुम पूर्ण की परिभाषा देखोगे तो तुम हैरान हो जाओगे, वह वही है जो बुद्ध की शून्य की परिभाषा है।
क्या है शून्य? निराकार, निर्गुण, अनादि-अनंत--यह शून्य की परिभाषा है बुद्ध की। क्या है ब्रह्म? निराकार, निर्गुण, अनादि-अनंत--यह शंकर की पूर्ण की परिभाषा है। सिर्फ शब्द बदला है। और शब्द भी इसलिए बदला है कि शून्य के आस-पास बहुत उपद्रव खड़ा हो गया, वह शब्द गंदा हो गया। जब बुद्ध ने उसका उपयोग किया था, तब यह सुबह की ओस की तरह ताजा था। जब बुद्ध ने उपयोग किया था शून्य का, तब वह उपयोग पहली बार हुआ था। उसके पहले पूर्ण का बहुत उपयोग हो चुका था, वह बासा हो गया था। इतने लोग उसकी चर्चा कर चुके थे कि अब उसमें कोई सार न था; उसमें कोई प्राण न थे, पुकार न थी; आवाहन उससे पैदा नहीं होता था--वह शब्द शास्त्रीय हो गया था। जब भी कोई शब्द शास्त्रीय हो जाता है तो साधना के मार्ग पर पत्थर की तरह पड़ जाता है, सीढ़ी नहीं रह जाता। तब पंडित उसका विचार करने लगते हैं और प्रज्ञावान उसे छोड़ देते हैं।
तो बुद्ध ने वेदों, उपनिषदों के पूर्ण को त्याग दिया। जो जानते हैं वे कहते हैं, बुद्ध से बड़ा उपनिषदों का कोई ऋषि नहीं। उपनिषदों का सारा सार बुद्ध में है। लेकिन पूर्ण शब्द को छोड़ दिया है, ब्रह्म शब्द को छोड़ दिया है, शून्य को पकड़ा। विधायक ढंग से अभिव्यक्ति छोड़ दी, नकारात्मक अभिव्यक्ति पकड़ी। पाजिटिव--विधायक--को इनकार किया, निषेध को--निगेटिव को--स्वीकार किया। परमात्मा की व्याख्या बहुत हो चुकी थी दिन की तरह, बुद्ध ने रात की तरह व्याख्या की। बहुत हो चुकी थी परमात्मा की व्याख्या प्रकाश की तरह, बुद्ध ने अंधकार की तरह व्याख्या की। बहुत हो चुकी थी व्याख्या परमात्मा की जीवन की तरह, बुद्ध ने मृत्यु की तरह, निर्वाण की तरह उसकी व्याख्या की।
मृत्यु भी उतनी ही परमात्मा है। रात भी उतनी ही परमात्मा है जितना दिन।
एक पहलू चूक गया था, चर्चा बहुत हो चुकी थी, चर्चा ही चर्चा रह गई थी; हवा में धुआं ही धुआं था बातचीत का, शब्दों का जाल गुथ गया था। एक नई अभिव्यंजना चाहिए थी, परमात्मा नये शब्द की तलाश में था, जिससे फिर उन हृदयों पर दस्तक दे सके जो अभी पांडित्य की मूढ़ता से अछूते हैं। फिर उन्हें पुकार सके जो निर्दोष हैं, निष्कलुष हैं, जो सहज हैं। बुद्ध ने शून्य पकड़ा। महत्वपूर्ण शब्द था।
तुम सोचो, बुद्ध और महावीर एक साथ ही पैदा हुए। लेकिन बुद्ध का प्रभाव अप्रतिम हुआ, महावीर का नहीं हुआ। बुद्ध का विचार सारे जगत पर फैलता चला गया, उसकी लहरें दूर-दिगंत तक गईं। महावीर का विचार बड़ी सीमित दुनिया में रहा, थोड़े से लोगों तक गया। दोनों एक से प्रज्ञावान हैं। दोनों का एक अनुभव है। दोनों बड़े समर्थ हैं। एक-दूसरे से श्रेष्ठ हैं, कहीं कोई किसी से पीछे नहीं है। फिर महावीर का विचार दूर-दिगंत तक गया क्यों नहीं? कारण था। महावीर पिटे-पिटाए शब्दों का उपयोग कर रहे थे। उन्होंने परमात्मा को पुराने और बासे शब्दों से ही पुकारा--आत्मा। बुद्ध ने कहा, अनात्मा। चोट लगी! महावीर ने कहा, आत्मा ही ज्ञान है। बुद्ध ने कहा, आत्मा? आत्मा अज्ञान है। अनात्मा--न होना, मिट जाना--ज्ञान है।
दोनों एक साथ थे, लेकिन बुद्ध ने परमात्मा को नई व्याख्या दी, नये अर्थ दिए, नावीन्य लाए। उस नावीन्य का परिणाम हुआ। अछूते हृदयों को उसने छुआ।
महावीर का विचार पंडितों के घेरे में पड़ कर टूट गया। लोगों ने कहा कि ठीक है, वही कहते हैं जो सदा कहा है। लेकिन बुद्ध पर सोचना पड़ा।
लेकिन पंद्रह सौ साल बीतते-बीतते, बुद्ध के पीछे इतना बड़ा शास्त्रों का जाल खड़ा हुआ कि सब उपनिषद, सब वेद फीके पड़ गए। अकेले बुद्ध के पीछे इतने दर्शन के विवाद खड़े हुए जितने मनुष्य-जाति के इतिहास में किसी मनुष्य के पीछे खड़े नहीं हुए। इतने शास्त्र रचे गए। कहते हैं सब धर्मों के शास्त्र जोड़ लिए जाएं और बुद्धों के शास्त्र, तो बुद्धों के शास्त्र ज्यादा हैं। इतनी चिंतना चली, पंद्रह सौ साल में एक तूफान आ गया। अक्सर ऐसा होता है, जब नई अभिव्यक्ति मिलती है सत्य को तो उसके पीछे बड़े तूफान उठते हैं। पक्ष में, विपक्ष में; मित्र थे, शत्रु थे; जिनके भवन गिर गए, वे थे; जो नया भवन बना रहे थे, वे थे। पुराने शब्दों की हत्या हो गई, नये शब्दों का प्रसव हुआ। बड़ा ऊहापोह चला। पंद्रह सौ वर्ष तक, शंकर के आते-आते तक बुद्ध छा गए। लेकिन तब वही हो गया बुद्ध के शास्त्रों का जो उपनिषद और वेद की हालत बुद्ध ने पाई थी, मर गए वे, पिट गए, पांडित्य हो गए, विश्वविद्यालय में चर्चा के योग्य हो गए; अब उनमें कोई प्राण न रहा--साधक के काम के न रहे, सिद्ध का तो कोई उनसे प्रयोजन न रहा।फिर वह बुद्धि का विश्लेषण महत्वपूर्ण हो गया। शंकर ने फिर तूफान को बदल दिया। शंकर ने कहा: शून्य नहीं है ब्रह्म, पूर्ण है।
पंद्रह सौ साल के अंतराल के बाद यह पूर्ण शब्द फिर से नया होकर आया। उपनिषद को फिर से नया प्राण मिला। वेद फिर से जागे। शंकर ने सब स्थापित कर दिया, जो बुद्ध तोड़ गए थे।
और तुम चकित होओगे कि वे दोनों एक ही काम में लगे हैं।
न तो बुद्ध तोड़ रहे हैं उपनिषद को, न शंकर बचा रहे हैं। उपनिषदों का जो प्राणों का प्राण है उसी को बुद्ध बचा रहे हैं, उसी को शंकर बचा रहे हैं। जो तोड़ रहे हैं वह ऊपर की खोल है। वह सदा गंदी हो जाती है। जैसे तुमने बच्चे को आज कपड़े पहनाए, वह पुराने कपड़े उतारने को राजी नहीं है। वह कहता है इससे मेरा मोह हो गया है, यह कमीज मुझे बहुत प्रिय है, मैं दूसरी पहनना नहीं चाहता। लेकिन तुम जानते हो यह गंदी हो गई है, वर्षों पुरानी हो गई है, छिद्र हो गए हैं--इसे उतारो।
बच्चा सोचता है शायद तुम उसे नग्न करने में उत्सुक हो; धूप में, ताप में, सर्दी में नग्न घूमेगा? कपड़े के पीछे क्यों पड़े हो? उसको इससे प्रेम है, वह पकड़ता है। लेकिन तुम उसका कपड़ा बदल देते हो। बदल देते हो एक दफा, तब वह प्रसन्न हो जाता है कि नया कपड़ा! उसकी चाल बदल जाती है, प्रसन्नता से चलता है, लेकिन फिर साल भर बाद वही हालत आ जाती है। यह कपड़ा भी पुराना हो जाता है, फिर बदलने का क्षण आ जाता है।
जागे हुए व्यक्ति किसी के विपरीत नहीं हैं--हो ही नहीं सकते। क्योंकि जाग कर उन्होंने एक को ही पाया है।
तो न तो शंकर बुद्ध के विपरीत हैं, न बुद्ध शंकर के विपरीत हैं। वे दोनों एक ही बात कह रहे हैं, उनके कहने के ढंग अलग हैं।
और तब तुम मुझसे पूछते हो कि ‘मैं दोनों का समर्थन करता हूं।’
यह ठीक बात है। पूछने योग्य है। एकदम जरूरी है।
अब दोनों का विवाद भी व्यर्थ हो गया है। बुद्ध को बीते पच्चीस सौ साल हो गए, शंकर को बीते हजार साल हो गए, अब दोनों का विवाद भी बासा हो गया है। अब दोनों के बीच संवाद को नई गति मिलनी चाहिए। अब कोई चाहिए, जो कहे कि यह विवाद है ही नहीं, दोनों एक ही बात कह रहे हैं। इसलिए मैं शून्य का भी समर्थन करता हूं और पूर्ण का भी। अब यह एक तीसरी भाव-भंगिमा है। बात वही है। मैं वही कह रहा हूं जो बुद्ध ने कहा, मैं वही कह रहा हूं जो शंकर ने कहा। लेकिन इतना फर्क है कि मैं पच्चीस सौ साल बाद हूं।
अब सत्य एक नया अर्थ लेगा, एक नई अभिव्यक्ति। एक नये स्वर में वही गीत गाना है, पर अब स्वर नया चाहिए। नये वाद्य पर वही धुन बजानी है, पर वाद्य नया चाहिए। शंकर का वाद्य भी पुराना पड़ गया, बुद्ध का भी वाद्य पुराना पड़ गया। अब तुम शून्य की बात करो तो भी पुरानी है, पूर्ण की बात करो तो भी पुरानी है। नित-नूतन परमात्मा है, क्योंकि परमात्मा सनातन है। जो सदा है, वह सदा नया है। अब एक नया स्वर...। तो मैं कहता हूं, शंकर का शून्य, या बुद्ध का पूर्ण; या बुद्ध का शून्य, या शंकर का पूर्ण उस एक की ही कथा है।
इसलिए सहजो मुझे रुचती है।
जो सोवै तो सुन्न में, जागै तो हरिनाम! रात भी उसकी, दिन भी उसी का। सोते भी उसी में हैं, जागते भी उसी में हैं। रात का अंधकार भी वही है, दिन का प्रकाश भी वही हैं। दोनों ही महिमावान हैं। यह तो तुम्हारा भय है, पक्षपात है कि तुम कहते हो परमात्मा प्रकाश जैसा है, क्योंकि अंधेरे में तुम डरते हो। अंधेरा भी वही है। और जब तुम शांत होओगे, तब तुम पाओगे अंधेरे की भी अपनी गरिमा है। अंधेरे का अपना सौंदर्य है। कोई प्रकाश उसका मुकाबला नहीं कर सकता। अंधेरे की अपनी शांति है। प्रकाश का अपना मजा है। कोई तुलना की बात नहीं है। प्रकाश को भी पीओ, अंधेरे को भी पीओ। सभी घाट उसके हैं। तुम घाटों से बंधी गंगा मत देखो। घाटों से मुक्त बहती गंगा देखो।
तो मैं कहता हूं, शंकर का घाट भी उसी का है, बुद्ध का घाट भी उसी का है। बुद्ध के घाट से भी नाव छोड़ोगे तो उस पार लगोगे, और शंकर के घाट से भी नाव छोड़ोगे तो उस पार लगोगे। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, जरा जागो! सारी गंगा उसी की है। मोहम्मद का भी उसी का घाट है, जीसस का भी उसी का घाट है, जरथुस्त्र का भी घाट उसी का है। और कितने घाट बनाओगे, गंगा बड़ी है। पटे घाट तो थोड़े ही होंगे, गैर-पटे घाट भी उसी के हैं। सहजोबाई, कबीर, दादू--ये गैर-पटे घाट हैं, ये गरीब घाट हैं। इन पर कोई संगमरमर नहीं लगा है, और इन पर कोई बड़े कीमती पत्थर नहीं हैं। ये काशी के घाट नहीं हैं, ये तो ऊबड़-खाबड़ घाट हैं जंगल के। पर इनसे भी नाव छोड़ दोगे तो भी उस पर पार लगोगे।
घाट जहां बने हैं वहां से भी तुम उसी पार जाओगे, जहां नहीं बने हैं वहां से भी उसी पार जाओगे। अगर तुम बहुत सुसंस्कृत घाट खोजते हो तो बुद्ध का घाट है, शंकर का घाट है। परिमार्जित है, सुसंस्कृत है, सुंदर है। वहां फिसलने का डर कम होगा--पत्थर पटे हैं। सहजोबाई का घाट भी है, पर वहां पत्थर नहीं पटे हैं, वहां फिसल सकते हो। कीचड़ भी पाओगे।
लेकिन बिना-पटे घाटों से नाव छोड़ने का मजा भी और है।
पटे घाट पर पिटा-पिटायापन होता है, पंडे-पुजारी होते हैं, मार्ग-दर्शक होते हैं, गाइड होते हैं, उनका शोरगुल-उपद्रव होता है। बिना-पटे घाटों पर कोई भी नहीं होता। तुम अकेले होते हो। अपने ही हाथों पर भरोसा रख कर नाव पर उतरना पड़ता है। कोई गाइड नहीं होता, कोई मार्ग-दर्शक नहीं होता, कोई नक्शे देने वाला नहीं होता। भटकने की संभावना भी होती है। लेकिन तब पहुंचने की पुलक भी बढ़ जाती है।
मैं कहता हूं, सारी गंगा उसी की है। अब यह एक नया स्वर होगा। और जान लेना, मैं वही कहता हूं जो बुद्ध कहते हैं, मैं वही कहता हूं जो शंकर कहते हैं। रत्ती भर भेद नहीं है। फिर भी भाषा में भेद पड़ेंगे, क्योंकि लोक की रुचि बदल जाती है, लोक के समझने के ढंग बदल जाते हैं, लोक-मन बदल जाता है--इस कारण।
न तो शंकर बुद्ध का खंडन करते हैं--शंकर और बुद्ध का खंडन क्या करेंगे? शंकर का सारा होना बुद्धत्व का समर्थन है। गहन से गहन में शंकर बुद्ध को नमस्कार कर रहे हैं। बुद्ध कैसे शंकर का खंडन करेंगे? बुद्ध कैसे उपनिषदों का, वेदों का खंडन करेंगे? यद्यपि पंडित कहते हैं कि वे वेद-विरोधी हैं। पंडित तो अंधा है। अंधा भी नहीं है, मूढ़ है। क्योंकि अंधे की तो आंख भी खुल जाती है, मूढ़ पर कोई दवा काम नहीं आती। मूढ़ वही है जिसे यह खयाल है कि मैं जानता हूं और जो जानता नहीं है। वह अपनी मूढ़ता को मिटाने को भी तैयार नहीं। दुनिया में एक ही बीमारी है--मूढ़ता, कि उसका मरीज उसे मिटाने को तैयार नहीं होता, बचाता है। इसलिए सब बीमारियां मिट जाती हैं, मूढ़ता नहीं मिटती। जीसस ने ठीक ही कहा कि एक मूढ़ से भाग रहा हूं, मुझे मत रोक, वह मेरे पीछे पड़ा है। सब चमत्कार वहां हार जाते हैं।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, सहजोबाई का मार्ग है प्रेम, भक्ति, समर्पण, गुरु-पूजा। फिर भी वह अंतर्मुखता, अंतर्यात्रा और वीतरागता पर जोर क्यों देने लगती है?
उसका जोर तो बिलकुल ठीक है। तुम्हें अड़चन होती है। क्योंकि तुम इन सब चीजों को सोचते हो, जानते नहीं। सोचने के कारण, तुम्हें सदा चीजों में विरोध दिखाई पड़ने लगता है। विचार में विरोध दिखाई पड़ता है। निर्विचार में अविरोध दिखाई पड़ता है।
जैसे मैंने तुमसे कह दिया कि एक मार्ग है प्रेम, एक है ध्यान। बस तुम्हें विरोध दिखाई पड़ने लगा। अब अगर किसी ने ध्यान की बात कही, तुम कहोगे यह प्रेम का विरोधी है। अगर प्रेम की बात कही, तुम कहोगे यह ध्यान का विरोधी है। और तुमसे कितनी बार कही जाए यह बात कि प्रेम उसी अनुभव का नाम है जिसका नाम ध्यान है। प्रेम और ध्यान में रत्ती भर फर्क नहीं है। अगर फर्क भी है तो वह प्रेम और ध्यान का नहीं है, प्रेम और ध्यान तक पहुंचने की थोड़ी सी व्यवस्था का है।
तुममें से कोई पैदल चल कर यहां आया है, तुममें से कोई साइकिल पर सवार होकर चला आया है, कोई कार पर बैठा है; कोई दौड़ता आया है, कोई धीमे-धीमे आया है; कोई अकेला आया है, कोई किसी के साथ आया है। पर इस सबका क्या मूल्य है कि तुम कैसे आए? तुम यहां आ गए हो, मेरे पास हो। यहां आते ही तुम साइकिल पर आए कि पैदल आए कि साथ आए कि अकेले आए, सब बात असंगत हो गई। अब उसे उठाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम यह थोड़े ही कहोगे कि मैं इस आदमी के पास नहीं बैठ सकता, यह साइकिल पर आया हम पैदल आए। अब बात ही तुम भूल गए। हो सकता है रास्ते पर थोड़ी अड़चन भी हुई होगी, जो साइकिल पर आ रहा था उसको देख कर थोड़ी ईर्ष्या भी उठी होगी, तुम पैदल आ रहे थे। जो कार से निकल गया था तेजी से, राह की कीचड़ को उड़ाता, उस पर थोड़ा क्रोध भी आया होगा, थोड़ा वैमनस्य भी जगा होगा।
मैंने सुना है, एक कार के ड्राइवर ने अपनी गाड़ी रोकी और पास बैठे एक किसान से पूछा कि रास्ता कहां जाता है? उसने कहा: किसी और से पूछो। उसने कहा: भाई, तुम क्यों नहीं बता सकते? उसने कहा: हम पैदल-यात्री हैं। किसी कार वाले से पूछो। हम क्यों बताएं? हम पैदल-यात्री हैं। हमारा संप्रदाय ही अलग है। हम पैदल चलते हैं, तुम कार पर चलते हो। हमसे तुमसे लेना-देना क्या? पूछ लो किसी और से?
राह पर शायद अड़चन भी हुई हो, लेकिन जब आ ही गए, पहुंच गए मंजिल पर, तो न तो कार वाला कार में है, न साइकिल वाला साइकिल पर है, न पैदल चलने वाला पैदल है; सब उतर गए अपने-अपने वाहन से--वाहन सब छूट गए।
ध्यान तो वाहन है, और ध्यान मंजिल भी है। प्रेम वाहन है, और प्रेम मंजिल भी है। वाहन की तरह तो प्रेम और ध्यान अलग हैं, मंजिल की तरह अलग नहीं हैं। वे साधन भी हैं और साध्य भी हैं। तुम उनसे पहुंचते हो और तुम उन्हीं पर पहुंचते भी हो।
तो ध्यान रखना निरंतर, जब भी मैं प्रेम और ध्यान की चर्चा कर रहा हूं तो दो तरह से कर रहा हूं। कभी जब साधन की चर्चा करता हूं, तब मैं कहता हूं वे अलग हैं; और जब साध्य की तरह चर्चा करता हूं, तो मैं कहता हूं वे एक हैं।
‘सहजोबाई का मार्ग है प्रेम, शक्ति, समर्पण, गुरु-पूजा। फिर भी वह अंतर्मुखता, अंतर्यात्रा और वीतरागता पर क्यों जोर देने लगती है?’
क्योंकि कोई विरोध नहीं है। अगर प्रेम परिपूर्ण होगा तो वीतराग हो ही जाएगा। वीतरागता अगर परिपूर्ण होगी, उससे प्रेम की अहर्निश-धारा बहने ही लगेगी।
क्या है वीतराग का अर्थ? वीतराग का अर्थ है: जो राग के ऊपर उठ गया। और प्रेम का कथा अर्थ है? जो काम के ऊपर उठ गया।
तुम शब्दों के आर-पार देखने में कब सफल हो पाओगे? शब्द तुम्हारी आंखों को इतना क्यों अटका लेते हैं?
प्रेम का अर्थ है: राग से मुक्ति। वीतराग का भी वही अर्थ है। ‘वीतराग’ ध्यानियों का शब्द है; और ‘भक्ति’ प्रेमियों का शब्द है। बस इतनी झंझट है, और कोई झंझट नहीं है। अगर तुम महावीर से पूछोगे, वे कहेंगे, वीतराग। अगर तुम मीरा से, सहजो से, दया से पूछोगे, चैतन्य से पूछोगे, वे कहेंगे, प्रेम, भक्ति। बस तुम अड़चन में पड़ जाओगे।
समर्पण? अंतर्मुखता में और समर्पण में भेद क्या है? तुम जब स्वयं को समर्पण करते हो तो तुम किसे समर्पण करते हो, तुम्हें पता है? जब तुम स्वयं को समर्पण करते हो तब तुम अपनी बहिर्मुखता को ही समर्पण करते हो, और क्या समर्पण करते हो? और है क्या तुम्हारे पास देने को? अपने अहंकार को चरणों में उतार कर रख देते हो। फिर जो भीतर बच रहता है, वही तो अंतर्मुखता है। बहिर्मुखी गया, वह तुमने छोड़ दिया, उसका तुमने त्याग कर दिया। फिर अंतर्मुखता बचती है, वही तुम्हारा शुद्ध अस्तित्व है।
तुम पूछते हो: ‘गुरु-पूजा और अंतर्यात्रा...।’
गुरु बाहर है। मगर जो बाहर गुरु है, वह भीतर के गुरु तक पहुंचाने की सीढ़ी मात्र है। जब तुम बाहर के गुरु के चरणों में अपने को बिलकुल छोड़ देते हो, आंख खोल कर देखते हो तुम पाते हो बाहर का गुरु तुम्हारे समर्पित होते ही विदा हो गया। वह तो तुम्हारे बाहर के देखने का ढंग ही था, इसलिए गुरु बाहर दिखाई पड़ता था। अचानक तुम पाते हो यह स्वर तो भीतर बज रहा है। यह तो कोई बाहर नहीं है, कोई भीतर बोल रहा है।
मैंने सुना है, एक फकीर मस्जिद में पहुंचा। थोड़ी देर हो गई थी शायद उसे, लोग मस्जिद से विदा हो रहे थे। तो उसने कहा: भाइयो, इतनी जल्दी संगत उठ गई। इतनी जल्दी क्या है? प्रार्थना इतनी त्वरा से क्यों की गई? थोड़ी धीरे, आहिस्ता करते। एक आदमी ने कहा: खुद को तो दोष नहीं देते कि देर से आए हो, और संगत को दोष दे रहे हो। पैगंबर ने प्रार्थना पूरी कर दी। मोहम्मद के जमाने की कहानी है। पैगंबर ने प्रार्थना पूरी कर दी। अब मस्जिद में बैठ कर क्या करना है?
यह सुन कर कि प्रार्थना पूरी हो गई, कहते हैं, उस आदमी की आंखों से आंसू बहे, और मुंह से एक आह निकली। जो आस-पास खड़े थे उन्होंने देखा कि उसकी आह बड़ी असाधारण थी। छू गई। प्रार्थना से ज्यादा गहरी मालूम पड़ी। न केवल आह निकली बल्कि लोगों को ऐसा लगा जैसे लोगों ने उसकी आह में उसके जलते हुए हृदय की गंध पाई। एक धुआं उठा। एक लपट जैसे बाहर आई। एक आदमी उसके पैर पर गिर पड़ा और उसने कहा: भाई, इतना दुख मत करो। अगर अपनी आह तुम मुझे दे दो, तो मैंने जो प्रार्थनाएं की हैं वे मैं तुम्हें दे देता हूं। इतने दुखी मत होओ।
सौदा हो गया। उस फकीर ने आह दे दी, और उस आदमी ने अपनी प्रार्थनाएं दे दीं। रात जिस आदमी ने आह ले ली और प्रार्थनाएं दे दीं, अचानक नींद में सुना कि तू धन्यभागी है! तूने आह ले ली, आह से बड़ी कोई प्रार्थना नहीं है। तूने लपट ले ली, अंत में लपट ही तृप्ति सिद्ध होती है। तूने उसकी अभीप्सा ले ली, उसके प्राणों की पीड़ा ले ली, तुझे स्वर्ग का राज्य आज मिल गया है। और परमात्मा इतना प्रसन्न है कि अभी भी लोग प्रार्थनाओं को देकर आह लेने को राजी हैं कि आज जितने लोगों ने पृथ्वी पर प्रार्थनाएं की हैं सबकी प्रार्थनाएं पूरी कर दी गईं इस खुशी में।
जब तुम्हारे भीतर से प्रगाढ़ परमात्मा की प्यास उठती है तो तुम परमात्मा को बाहर थोड़े ही पाओगे, उसी प्यास में छिपा हुआ पाओगे। प्यास ही प्रार्थना बन जाती है। जब तुम्हारे भीतर गहन आह उठती है, तुम उसी आह में दबे हुए अस्तित्व के सारे सार को पाओगे।
जब तुम किसी गुरु के चरणों में सिर झुकाते हो, तो तुम झुकाते क्या हो? वह तुम्हारी जो बाहर के देखने की दृष्टि थी, वही झुका देते हो--बहिर्मुखता, अहंकार। और जब तुम झुक कर उठते हो, अगर झुकना सच में हुआ, तो तुम पाओगे गुरु बाहर से विदा हो गया, अब वह तुम्हारे भीतर है। अब तुम्हें उसकी आवाज अहर्निश भीतर से सुनाई पड़ने लगेगी, वह तुम्हारी अंतर्वीणा हो जाएगी। तो बाहर का गुरु तो भीतर के गुरु को जगाने का उपकरण मात्र है। अगर तुम समर्पित हो जाओ, तो बाहर का गुरु भीतर के गुरु से एक हो जाता है।
किसे तुम गुरु कहते हो?
उसी को हम गुरु कहते हैं जिसमें तुमने अपने भीतर के आत्यंतिक रूप को झलका पाया है। जैसे तुम होना चाहोगे, जैसा तुम्हारा अंतर्तम चाहता है कि तुम होते, जिसमें तुम्हें ऐसी झलक मिली है, जिसमें तुमने अपने भीतर के स्वर सुने हैं। जो तुम कहना चाहते थे और न कह सके, और किसी की वाणी में तुमने वह स्वर सुना। जैसा तुम चाहते कि तुम्हारे हाथ का स्पर्श होता, और किसी के हाथ के स्पर्श में तुमने वही जादू पाया। जैसा तुम चाहते कि तुम्हारी आंख होती, और किन्हीं आंखों में तुमने झांका और वैसी ही आंखें पाईं। जिसमें तुमने अपने को पाया है, अपनी नियति को पाया है, वही गुरु है।
इसलिए ध्यान रखना, तुम्हारा गुरु जरूरी नहीं कि सभी का गुरु हो। गुरु तो निजी अनुभव है। जो तुम्हें जमा है वह सभी को जमेगा, यह जरूरी थोड़े ही है। किसी को बुद्ध जमेंगे, शून्य की बात जमेगी; किसी को पूर्ण की बात जमेगी, शंकर जमेंगे। मगर एक बात तय है, जब भी कभी कोई गुरु तुम्हें जम जाएगा उसी वक्त तुम मिट जाओगे। गुरु और शिष्य साथ-साथ थोड़े ही हो सकते हैं। जब तक दो हैं तब तक गुरु अभी मिला ही कहां? जब अचानक गुरु मिलता है तो शिष्य तो खो जाता है। और तब तुम अपने भीतर पाते हो...।
अगर तुमने मुझमें अपने गुरु को देखा, तो तुम जल्दी ही पाने लगोगे कि मैं तुम्हारे भीतर बोल रहा हूं। अगर मैं बाहर भी बोल रहा हूं, तो भी तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर जो अनलिखा पड़ा है उसे लिख रहा हूं, जो अनपढ़ा पड़ा है उसे पढ़ रहा हूं। तुम अचानक पाओगे, यह तो तुम अपने भीतर भी खोज लेते, लेकिन तुम्हारे पास खोजने की व्यवस्था न थी। मैंने तुम्हें वही दिखाया है जो तुम्हारे पास आंख होती तो तुम अपने भीतर देख ही लेते। मैं तुम्हें कुछ नया नहीं सिखा रहा हूं। जिसे तुम भूल गए हो, उसे भर जगा रहा हूं।
तो गुरु का अर्थ ही इतना है।
तुम यह मत पूछो कि सहजोबाई गुरु-पूजा की बात करती है, फिर अंतर्यात्रा की बात करने लगती है! गुरु की अगर पूजा हो गई, तो अंतर्यात्रा शुरू हो गई, क्योंकि गुरु भीतर है। इसीलिए तो हिंदू गाते रहे हैं: ‘गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु महेश।’ वह आत्यंतिक है, वह आखिरी है, वह परमात्मा है।
इसलिए तो सहजो कहती है: हरि को तज डारूं पै गुरु न बिसारूं! क्योंकि हरि तो एक बंद किताब थी, गुरु ने ही उसे खोला। हरि तो छिपा पड़ा था भीतर, पर कौन जगाता, कौन चेताता? गुरु ने जगाया और चेताया। गुरु तुम्हें तुम्हीं को दे रहा है। इसलिए वह अंतर्यात्रा है।
भक्ति और ध्यान के शब्दों में बहुत मत उलझना। शब्दों में उलझना ही मत। शब्दों से जागना है। निःशब्द की तरफ चलना है। इसलिए शब्दों का उपयोग भला करना, लेकिन शब्दों को जंजीरें मत बनाना। और सदा याद रखना कि धर्म के जगत में विपरीत दिखाई पड़ने वाले शब्द भी वस्तुतः विपरीत नहीं हैं। वे एक-दूसरे के परिपूर्वक हैं।
अगर प्रेम ठीक चला, भक्ति ठीक चली, ध्यान उपलब्ध होगा। अगर ध्यान ठीक चला, समाधि लगी, भक्ति उपलब्ध होगी।
वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, कल आपने कहा कि यदि तुम्हें पता है कि मैं संतुष्ट हूं कि मैं सुखी हूं, तो समझना कि अभी संतोष और सुख नहीं आए हैं। इस हालत में स्वयं साधु होकर सहजोबाई कैसे कह सकी: साध सुखी सहजो कहै?
समझना पड़े।
निश्चित ही मैंने कहा कि अगर तुम्हें लगता रहे कि तुम संतुष्ट हो, तो जानना कि कुछ न कुछ असंतोष कहीं न कहीं भीतर शेष है। कोई न कोई रेखा असंतोष की शेष है। अन्यथा संतोष को तौलोगे कैसे, पहचानोगे कैसे? तौल के लिए विपरीत चाहिए। अगर तराजू में एक ही पलड़ा रह जाए तो तुम तौलोगे कैसे? दूसरे पलड़े पर भी बांट चाहिए।
तो जब तुम्हें लगता है संतुष्ट हूं, तब कहीं न कहीं भीतर असंतोष अभी मौजूद है। उसी की तुलना में लगता है कि संतुष्ट हूं। जब परम संतोष आता है, तब न तो पता चलता है कि असंतुष्ट हूं, न पता चलता कि संतुष्ट हूं। हां, कोई पूछे तो बात और। तुम्हें पता नहीं चलता। कोई पूछे कि संतुष्ट हो? तो तुम कहोगे--निश्चित! कोई न पूछे, तो तुम्हारे भीतर यह खबर नहीं आती कि संतुष्ट हूं। खबर आने का कोई कारण न रहा, कोई प्रयोजन न रहा।
पर तब सवाल उठता है कि साधु होकर सहजोबाई खुद ही कहती है: साध सुखी सहजो कहै! तो क्या अभी साधु पुरी नहीं हो पाई?
फर्क है सहजो के वक्तव्य में। सहजो यह नहीं कह रही है कि ‘मैं सुखी सहजो कहै।’ अगर ऐसा कहती, तो दुख शेष है। सहजो यह नहीं कह रही है--‘मैं सुखी सहजो कहै’--यह तो कह ही नहीं रही है। सहजो तो सिर्फ परिभाषा कर रही है, वह अपने संबंध में कुछ कह ही नहीं रही है। वह तो ऐसे ही कह रही है कि देखो सूरज उग गया, सुबह हो गई; कि देखो पक्षी गीत गा रहे हैं। अपने संबंध में कुछ भी नहीं कह रही है। एक वक्तव्य दे रही है तथ्य के संबंध में। साध सुखी सहजो कहै! वह यह कह रही है कि साधु सुखी होता है। और सुख की परिभाषा वही है जो मैंने कही, उसे सुख का पता भी नहीं चलता। साधु सुखी होता है, इतना भर सहजो कह रही है। यह सिर्फ परिभाषा है साधुता की। इसमें अपने संबंध में कोई वक्तव्य नहीं है। इसमें किसी और के संबंध में भी कोई वक्तव्य नहीं है। इसमें तो सिर्फ एक सिद्धांत के संबंध में सूचन है कि साधु सुखी होता है, असाधु दुखी होता है। अगर किसी को दुखी पाओ, तो समझना असाधु है। किसी को सुखी पाओ, तो समझना साधु है। और मैं तुमसे कहता हूं, सुखी वही है जिसे पता भी नहीं चलता कि मैं दुखी हूं या सुखी हूं। जिसे सुख-दुख का पता ही नहीं, वही सुखी है। और वही साधु है।
अभी चार दिन पहले एक महिला आई। उसने मुझे कहा कि मैं बड़ी दुखी हूं अपने पति के कारण। वे दुश्चरित्र हैं। आचरणहीन हैं।
मैंने उससे कहा: अगर वे आचरणहीन हैं, तो उन्हें दुखी होने दे। आचरणहीनता के कारण वे दुखी होंगे, तू क्यों दुखी है? यह तो मैंने सुना ही नहीं कि कोई दूसरा आचरणहीनता करे और कोई दूसरा दुखी हो। अगर तू दुखी है, तो कारण तेरे ही भीतर होगा। उनकी आचरणहीनता तेरे दुख का कारण नहीं हो सकती। उनकी आचरणहीनता उनके दुख का कारण होगी। लेकिन मैं तेरे पति को जानता हूं, वे दुखी नहीं हैं। होंगे आचरणहीन, मगर दुखी नहीं हैं।
और मैंने कहा: अगर कोई व्यक्ति आचरणहीन होकर भी सुखी है तो तुझसे तो ज्यादा ही साधु है--तू आचरणवान होकर भी सुखी नहीं है। तू तो चमत्कार कर रही है! तेरे पति भी चमत्कार कर रहे हैं! वे आचरणहीन होंगे, लेकिन सुखी हैं। तू आचरणवान होगी, लेकिन दुखी है। तेरे आचरणवान होने में भी कोई आचरणहीनता है, और तेरे पति की आचरणहीनता में भी कोई आचरण है। अन्यथा जो हो रहा है वह नहीं हो सकता।
तो मैंने उससे कहा: इसे तू कसौटी मान कि जब भी तू दुखी है, समझना कि कुछ असाधु तेरे भीतर है। क्योंकि असाधु होने के साथ ही दुख जुड़ा है। तू अपने पति की आचरणहीनता से दुखी नहीं। तू अपनी अपेक्षा से दुखी है कि पति आचरणवान होने चाहिए। तू इस कारण दुखी है कि तू सोचती है, तू इतनी आचरणवान है और इतना कष्ट झेल रही है संयम का और आचरण का, और पति मजा कर रहा है। मजा तू भी करना चाहती है। भीतर तू भी वही चाहती है जो पति कर रहा है, लेकिन उतनी तेरी हिम्मत नहीं है।
तू दुखी अपने कारण हो रही है। अगर आचरणहीन होना हो आचरणहीन हो जा, मगर दुखी मत हो कम से कम। सुखी होना हो तो सुखी हो जा, मगर यह आचरणवान होने का बोझ मत ढो।
और मेरी अपनी समझ यह है कि अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन में सुख की तलाश करता रहे तो आचरणवान अपने आप हो जाता है, क्योंकि सुख फलता ही नहीं जब तक आचरणहीनता हो। मैं तुमसे आचरणवान होने को नहीं कहता, मैं तुमसे सुखी होने को कहता हूं। क्योंकि आचरणवान होने को तुमसे सदियों से कहा गया है, तुम सिर्फ दुखी हुए हो, कुछ भी न हुआ।
मैं तुमसे सुखी होने का कहता हूं। सुखी मेरे लिए मापदंड है।
तुमसे कहा गया है सदा कि अगर पुण्य करोगे तो सुख मिलेगा। मैं तुमसे कहता हूं, सुखी हो तो तुम पुण्यवान हो। तुमसे कहा गया है, पाप करोगे तो दुख पाओगे। मैं तुमसे कहता हूं, तुम दुखी हो, तुम पापी हो।
दुख पाप है, सुख पुण्य है।
और जब कोई व्यक्ति ठीक से देखने लगता है तो सहजो की परिभाषा समझ में आ जाएगी। सहजो अपने संबंध में कुछ भी नहीं कह रही है। अपने संबंध में कहती तो मैं सहजो पर बोलता ही नहीं, बात ही बेकार थी फिर। अगर वह यह कहती--‘मैं सुखी सहजो कहै,’ तो यह तो साफ था कि यह औरत अभी भी दुखी है, ढांक रही है, सुख की कल्पना कर-कर के अपने को समझा रही है। तो यह बात भला सुख की करती, तुम उसके चेहरे पर दुख पाते। लेकिन सहजो अपनी बात ही नहीं करती।
अगर ठीक समझो, तो सुखी आदमी अपनी बात ही नहीं करता। सिर्फ दुखी आदमी अपनी बात करते हैं। तुम्हें भी पता है। दुखी आदमी से मिल जाओ, वह बात ही किए चला जाता है, अपना दुख रोए चला जाता है। तुमने कभी किसी आदमी को अपना सुख हंसता हुआ पाया?
दुख रोते हुए लोग पाए जाते हैं, सुख हंसता हुआ कोई नहीं पाया जाता।
सुख को भी क्या किससे कहना? सुख को लोग सम्हालते हैं। कबीर ने कहा है: हीरा पायौ, गांठ गठियायौ। मिल गया हीरा, आदमी अपनी गांठ में बांध कर नदारद होता है। भीड़-भाड़ में कहता नहीं फिरता कि हीरा मिल गया। जिसको सुख मिलता है, वह गांठ में बांध कर चुपचाप नदारद हो जाता है। दुखी आदमी चिल्लाता है कि बड़ा दुखी हूं। दुखी चिल्लाता है, क्योंकि सोचता है शायद कहने से दुख कम हो जाए। सुखी सम्हालता है, क्योंकि सम्हालने से सुख बढ़ता है।
सुख तो बीज है। उसे छिपा लो गहरे में, अपने अंतस में--फूटेगा, बढ़ेगा, उसमें बड़े फल आएंगे, बड़े फूल लगेंगे।
अगर सहजो ने कहा होता--‘मैं सुखी सहजो कहै,’ तो मैं सहजो पर बोलने वाला नहीं था। बात ही बेकार हो गई। नहीं, उसने अपनी तो बात ही नहीं कही है। वह तो सिर्फ एक शुद्ध वैज्ञानिक परिभाषा कह रही है: साध सुखी सहजो कहै! साधु सुखी होता है, ऐसा सहजो का कहना है।
अगर इसका तुम गहनतम अर्थ समझो तो इतना ही है कि तुम सुखी हुए, तुम साधु हुए। और सुख की क्या परिभाषा है वह मैं तुमसे कहता हूं। सुख की परिभाषा है, जहां तुम्हें पता ही न चले; क्योंकि पता ही दुख का चलता है। सुख का कहीं पता चलता है?
सिर में दर्द होता है, सिर का पता चलता है। जब सिर में दर्द नहीं होता तब सिर का पता चलता है? अगर सिर बिलकुल स्वस्थ होता है तो पता ही नहीं चलता कि कहां है। वह तो थोड़ा बोझ हो, भारी हो, दर्द हो, कुछ तकलीफ हो, कोई चिंता हो भीतर, अड़चन हो, तो सिर का पता चलता है। सिर यानी सिरदर्द। सिरदर्द से अलग और सिर कहीं होता नहीं। जिसका सिरदर्द बिलकुल ही नहीं है वह बिना सिर का है, उसका कोई सिर नहीं है। जब शरीर का पता चले तो शरीर रुग्ण है। श्वास का पता चलता है जब कोई तकलीफ होती है श्वास में। सर्दी-जुकाम हो, तो श्वास का पता चलता है। नहीं तो श्वास चलती जाती है, किसको पता चलता है? जितना ही तुम स्वस्थ हो, उतना ही शरीर का पता नहीं चलता।
और यही मैं तुमसे कहता हूं, भीतर का भी सूत्र है। तुम्हें अगर बहुत पता चलता है कि मैं हूं, तो तुम समझना कि तुम्हारी आत्मा बीमार है। मैं का पता चलना आत्मा की बीमारी है। जब तुम होते हो--पता ही नहीं चलता मैं का--तब आत्मा स्वस्थ हुई, तब तुम घर लौटे आए।
इसलिए बुद्ध ने भी ठीक ही कहा कि आत्मा है ही नहीं। वह स्वस्थ आत्मा की परिभाषा है--‘अनत्ता’--अनात्मा। आत्मा कहने में ही रोग आ गया। वे कहते हैं कि मैं--आत्मा का अर्थ मैं--तो मैं का पता चलता है, अभी थोड़ी गड़बड़ है। बिलकुल पता ही नहीं चलता, कोरा आकाश रह जाता है, शून्य।
साध सुखी सहजो कहै।
चौथा प्रश्न:
भगवान, अद्वैत को उपलब्ध सहजो कहती है: ‘भक्ति करै निहकाम।’ पर प्रश्न उठता है कि भक्त और भगवान अलग कैसे रहे? कृपापूर्वक इसे स्पष्ट करें।
भक्ति करै निहकाम! निष्काम भक्ति। तो भक्ति दो तरह की हो सकती है। एक सकाम, एक निष्काम। सकाम का अर्थ है: कोई मांग। निष्काम का अर्थ है: कोई मांग नहीं। निष्काम का अर्थ है: भक्ति में ही आनंद है। नाचते हैं, गीत गाते हैं, नर्तन, कीर्तन, भजन अपने आप में ही लक्ष्य है। गीत गाते हैं, गीत गाने में मजा है इसलिए। नाचते हैं, नाचने में मजा है इसलिए। नाचने के पार कोई पुरस्कार नहीं है। नाचने के बाद परमात्मा से हम प्रतीक्षा न करेंगे कि इतनी देर नाचे अब पुरस्कार मिल जाए, अब घर जाएं।
भक्त का नृत्य कोई नर्तकी का नृत्य नहीं है, जो नाच रही है और राह देख रही है, कुछ मिल जाए। भक्त का नृत्य अस्तित्व का नृत्य है, जो कुछ मांगने को है ही नहीं आगे। नृत्य आखिरी घड़ी है आनंद की, अहोभाव है।
तो निष्काम भक्ति का अर्थ है: भक्ति ही आनंद है। सकाम भक्ति का अर्थ है: भक्ति साधन है पाना कुछ और है; अगर वह मिलेगा तो आनंद मिलेगा। लड़का पैदा नहीं होता, लड़का हो जाए; मुकदमा जीत जाएं अदालत में; धन पास में नहीं, धन मिल जाए; पद मिल जाए, चुनाव जीत जाएं, कुछ हो जाए। चुनाव के वक्त सभी राजनेता सदगुरुओं की तलाश में निकल जाते हैं, किसी का आशीर्वाद मिल जाए। मंदिरों में पहुंच जाते हैं, मंत्र-तंत्र करने लगते हैं, ज्योतिषियों से मिलने लगते हैं। दिल्ली में ऐसा एक राजनेता नहीं जिसका अपना ज्योतिषी न हो। जो उससे पूछताछ न करता हो कि जीतेंगे कि नहीं--कौन सा मंत्र बांधें, कौन सा ताबीज बांधें, कहां से राख लाएं, किस साईंबाबा के चरण में पड़ें? कहीं से कोई तरकीब मिल जाए। लेकिन यह जो भक्ति है, इसको भक्ति कहोगे? यह तो नाममात्र को भक्ति है। यह तो भक्ति को बदनाम करना है, नाम भी न हुआ।
सहजो कहती है: भक्ति करै निहकाम! जो बौले सो हरिकथा, भक्ति करै निहकाम! बोलना ही हरिकथा है। उससे कुछ भेद नहीं रहा। जो बोलै सो हरिकथा! शब्द-शब्द उसी की याद है। चुप रहे तो भी उसी की याद है। बोले तो, न बोले तो। और भक्ति अब जीवन का ढंग है, वह जीवन का आनंद है।
अब तुम्हें समझना है तुम्हारा प्रश्न।
प्रश्न उठता है कि ‘भक्त और भगवान अलग कैसे रहे?’
जब निष्काम भक्ति हो गई और सहजो अद्वैत को उपलब्ध हो गई, एक को पा लिया, तो अब ‘किसकी भक्ति?’
निष्काम भक्ति में मांग तो चली ही जाती है, वह किसकी भी पूछना गलत है। निष्काम भक्ति में भगवान भी नहीं है। भक्ति ही भगवान है। निष्काम भक्ति का अर्थ यह नहीं है कि वह भगवान के लिए भक्ति हो रही है कि भगवान के सामने भक्ति हो रही है। निष्काम भक्ति--जब तुम्हारी कोई कामना ही न रही, तो कौन भक्त और कौन भगवान; कौन लेने वाला, कौन देने वाला? वह तो तुम्हारी कामना के कारण तुम भिखारी थे और कोई भगवान था। जब तुम्हारी कामना ही चली गई, तो अब कौन भगवान है और कौन भक्त है? भक्त उसी दिन मिट जाता है जिस दिन कामना मिट जाती है। भगवान भी उसी दिन मिट जाता है जिस दिन कामना मिट जाती है। तब तो दोनों किनारे खो जाते हैं, बीच की धारा रह जाती है। वह बीच की धारा का नाम भक्ति है।
प्रेमी भी खो जाता है, प्रेमिका भी खो जाती है, प्रेम रह जाता है। ध्यानी खो जाता है, ध्यान का विषय खो जाता है, ध्यान रह जाता है। जिसको हम अद्वैत कहते हैं उससे तुम यह मत समझना कि भक्त बचता है, या भगवान बचता है। वे तो दोनों द्वैत के ही हिस्से थे, भक्त और भगवान। न तो भक्त बचता, न भगवान बचता। दोनों के बीच कोई एक नई ही घटना घटती है, वह भक्ति है।
भक्ति करै निहकाम! अब सहजो--नाचती तुम अगर कहीं उसे पाओ--मिल जाए, तो उससे यह मत पूछना, किस भगवान के लिए नाच रही है? वह कहेगी, नाचना भगवान है। तुम उससे यह मत पूछना कि तू किसलिए नाच रही है? वह कहेगी, मैं नहीं हूं। नाचना ही बचा है।
नाचने में उस तरफ से भगवान भी खो गया, इस तरफ से भक्त भी खो गया। भक्ति अब निष्काम हो गई। जब तक मैं रहूंगा, तब तक थोड़ी कामना तो रहेगी। मेरे मिटने पर ही कामना मिटेगी, और अगर कामना पूरी मिट जाए तो मेरे बचने का कोई उपाय न रहेगा।
तो पहले तो भक्ति के दो रूप--सकाम भक्ति, जिसको भक्ति कहना ठीक नहीं; फिर निष्काम भक्ति। फिर निष्काम भक्ति के भी दो चरण हैं। एक, जब भक्त कुछ भी नहीं मांगता, सिर्फ भगवान को मांगता है; लेकिन वह भी मांग है। भक्त कहता है, न धन चाहिए, न पद चाहिए, न प्रतिष्ठा चाहिए, बस तुम्हीं को चाहिए। यह कामना बड़ी शुद्ध हो गई, बड़ी शुद्ध हो गई, कोई अशुद्धि न रही इस कामना में, लेकिन कामना फिर भी कामना है।
मैंने सुना है, एक सम्राट युद्ध के लिए गया। जब वह वापस लौटने लगा देशों को जीत कर, अनंत-अपार संपदा को लेकर, तो उसने अपने घर खबर भेजी। उसकी सौ पत्नियां थीं, उसने खबर भेजी कि तुम्हारे लिए क्या ले आऊं? प्रत्येक अपनी-अपनी आकांक्षा जाहिर कर दे। किसी ने कहा कि हीरे-जवाहरात लाना, किसी ने कुछ कहा, किसी ने कुछ कहा। अलग-अलग स्त्रियों की अलग-अलग रुचियां थीं।
लेकिन एक रानी ने कहा कि बस तुम आ जाओ। और कुछ भी नहीं चाहिए। तुम जल्दी घर लौट आओ।
निश्चित ही सभी रानियों के लिए वह सब-कुछ लाया। लेकिन यह रानी उसे बड़ी प्रीतिकर हो गई। इसने कुछ भी न मांगा। इसने सिर्फ उसी को मांगा।
इसका प्रेम उन सबसे ज्यादा शुद्धतम है, लेकिन मांगा तो।
अगर इतनी मांग भी परमात्मा से रह गई तो भी भक्त मिटेगा नहीं। दोनों के बीच बड़ी शुद्ध रोशनी जलने लगेगी, भक्त और भगवान के बीच बड़ी शुद्धता आ जाएगी, लेकिन दोनों बने रहेंगे अभी। अभी पिघल कर बिलकुल मिट न जाएंगे।
लेकिन जब भक्त इतना भी नहीं मांगता। क्योंकि भक्त जानता है, मांगना क्या है, भगवान मिला ही हुआ है! मांगते थे यही भूल थी, मांगते थे इसीलिए नहीं मिलता था, मिला ही हुआ है। जिस दिन इस अहोभाव का जन्म होता है, उस दिन न तो कोई भक्त है, न कोई भगवान है। उस दिन भक्त में भगवान नाचता है। उस दिन नाचने में भक्त और भगवान दोनों लीन हो जाते हैं।
बोलौं सो हरिकथा--कहै सो हरिकथा। कबीर ने कहा है: उठूं बैठूं परिक्रमा। अब मंदिर में नहीं जाता परिक्रमा करने, उठना-बैठना परिक्रमा है।
ऐसी अवस्था है आखिरी। सब अवस्थाओं के पार। ऐसी अवस्था है, परमानंद।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, काम-केंद्रित प्रेम और प्रेम-केंद्रित काम की भिन्नता हमें समझाने की कृपा करें।
काम-केंद्रित प्रेम सीढ़ी से नीचे उतरना है, सीढ़ी वही है। प्रेम-केंद्रित काम सीढ़ी पर ऊपर चढ़ना है, सीढ़ी वही है। लेकिन दिशा का भेद है।
जब तुम किसी को इसलिए प्रेम करते हो कि उससे कोई कामना, वासना पूरी करनी है, तब प्रेम तो सिर्फ बहाना होता है, फुसलावा होता है, असली नहीं होता। नजर तो काम पर लगी होती है।
रामकृष्ण ने कहा है, चील उड़ती है आकाश में, नजर नीचे घूरे पर लगी होती है; कूड़े-करकट में मरा चूहा पड़ा है, नजर वहां लगी है। तुम चील को आकाश में उड़ता देख कर यह मत समझ लेना कि चील बड़ी ऊंची उड़ रही है। ऊंची कितनी ही उड़ रही हो, नजर उसकी बड़ी नीचे लगी है।
काम-केंद्रित प्रेम आकाश में उड़ती चील है। नजर मरे चूहे पर लगी है। तैयारी कर रही है, जैसे ही मौका मिल जाए झपट जाए।
रामकृष्ण ने कहा है, एक दिन मैंने देखा, एक चील एक चूहे को ले भागी। और चीलों ने झपट्टे मारे, चील पर हमले होने लगे। उस चील ने सब तरह बचाव के उपाय किए, लेकिन कोई बचाव नहीं। क्षत-विक्षत। घबड़ाहट में, संघर्ष में, उसके मुंह से चूहा छूट गया। चूहा छूटते से ही बाकी चीलें भी उसे छोड़ कर भाग गईं। वे चूहे के पीछे थीं, उन्हें कोई चील से लेना-देना न था। अब वह चील एक वृक्ष पर बैठ कर विश्राम कर रही है।
रामकृष्ण ने कहा: ऐसी ही दशा उसकी है जो काम को छोड़ देता और प्रेम के विश्राम में बैठ जाता है। फिर उसका कोई पीछा नहीं करता, कोई प्रतिस्पर्धा ही नहीं है फिर, कोई संघर्ष नहीं है।
काम में प्रतिस्पर्धा है। प्रेम में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। तुम जैसे ही प्रेम में उठना शुरू होते हो, तुम्हारी नजर नीचे नहीं है अब। सीढ़ियां वही हैं, उन्हीं पायदानों पर पैर रख कर ऊपर बढ़ रहे हो, लेकिन ऊपर जा रहे हो। उन्हीं पायदानों पर पैर रख कर कोई तुम्हारे पड़ोस से नीचे जा रहा है। पायदान वही हैं। यह भी हो सकता है। समझो कि नंबर तीन के पायदान पर तुम खड़े हो, और नंबर तीन के ही पायदान पर एक दूसरा आदमी भी खड़ा है। तुम दोनों एक ही पायदान पर खड़े हो। लेकिन हो सकता है तुम्हारी अवस्था एक न हो। क्योंकि वह दूसरा आदमी नीचे की तरफ जा रहा है, तुम ऊपर की तरफ जा रहे हो। तुम एक ही पायदान पर खड़े हो। कोई भेद नहीं है। लेकिन नजर अलग-अलग है। और दोनों में बड़ा भेद है, क्योंकि एक ऊपर की तरफ देख रहा है--एक का काम प्रेम बनेगा, प्रेम से करुणा बनेगा। तुम्हारी करुणा का तो तुम्हें पता ही नहीं है। प्रेम भी तुम्हारा नाममात्र को है, वह भी काम बनने के लिए तत्पर है--वह नीचे उतर रहा है।
काम प्रेम को भी डुबा लेता है, प्रेम काम को भी उबार लेता है।
तो ध्यान यह रखना कि तुम्हारे जीवन में प्रेम प्रमुख हो। अगर काम प्रवेश भी करे, तो वह प्रेम का अंग हो। तुम्हारे जीवन में अगर किसी से शरीर के संबंध भी हों, तो वे तुम्हारे आत्मिक संबंधों की छाया हों। उससे ज्यादा नहीं।
अगर आत्मिक संबंध हो तो शरीर के संबंध भी पवित्र हो जाते हैं। छाया की भांति। और तुम्हारे जीवन में अगर शरीर का संबंध ही सब-कुछ हो, और आत्मा का संबंध केवल छाया हो शरीर के संबंधों की, तो वह आत्मा का संबंध भी झूठा हो जाता है। वह भी गंदा और अपवित्र हो जाता है।
ध्यान रखना, दिशा महत्वपूर्ण है। श्रेष्ठ के साथ निकृष्ट में भी एक श्रेष्ठता आ जाती है। निकृष्ट के साथ श्रेष्ठ भी डूबने लगता है। स्मरण यही रखना कि श्रेष्ठ की परिधि में तुम्हारी निकृष्टता समाए, निकृष्ट की परिधि में तुम्हारी श्रेष्ठता न समाए। तुम्हारी श्रेष्ठता की परिधि बड़ी हो, उसमें अगर छोटी बातें भी आए तो वे उसके भीतर आएं।
तुमने कभी खयाल किया। एक गरीब आदमी है, एक भिखमंगा, उसे तुम एक हीरे की अंगूठी दे दो। कोई देखेगा ही नहीं उसकी अंगूठी की तरफ। लोग समझेंगे, होगा कोई कांच का टुकड़ा। और तुम एक अमीर को, एक सम्राट को कांच के टुकड़े की अंगूठी दे दो, और उसकी अंगूठी पर हजारों लोगों की नजर जाएगी, क्योंकि वे सोचेंगे, होगा कोई कोहनूर हीरा। सम्राट के साथ कांच का टुकड़ा भी कोहनूर हो जाता है, भिखारी के साथ कोहनूर भी कांच का टुकड़ा हो जाता है।
ऐसा ही है। प्रेम के साथ काम भी कोहनूर हो जाता है, काम के साथ प्रेम भी कांच का टुकड़ा हो जाता है।
एंफेसिस, जोर, दिशा, उस पर ध्यान देना जरूरी है। तुम क्या करते हो यह महत्वपूर्ण नहीं है, तुम जो करते हो वह किस वृहत्तर योजना का अंग है, वह महत्वपूर्ण है। तुम्हारे प्रत्येक कृत्य की अर्थवत्ता, तुम्हारे जीवन की वृहत्त शैली का परिणाम है। तुम क्या करते हो यह महत्वपूर्ण नहीं है, तुम क्या हो यह महत्वपूर्ण है।
एक पुरानी सूफी कथा है।
एक सम्राट गुजर रहा है, वह जंगल में रास्ता भटक गया है। प्रसन्न हुआ देख कर कि एक वृक्ष के नीचे एक आदमी सोया है; शायद इससे रास्ता मिल जाएगा। वह उसके जब पास पहुंचता था, तब उसने देखा उस आदमी का मुंह खुला है--कुछ लोग मुंह खोल कर सोते हैं--और एक सांप उसके मुंह में चला जा रहा है। आखिरी पूंछ ही सांप की सम्राट को दिखाई पड़ी। उसने उठाया अपना कोड़ा और उस आदमी को पीटना शुरू किया। वह आदमी तो नींद से चौंका, और उसे कुछ समझ में न आया, वह हाथ-पैर जोड़े चिल्लाए कि यह क्या कर रहे हैं आप? किसलिए मार रहे हैं? मैंने किसी का क्या बिगाड़ा है? हे भगवान! यह कहां के दुष्ट से मिलना हो गया! और यह आदमी बलशाली है, बड़े घोड़े पर बैठा है, शक्तिशाली है, इससे लड़ा भी नहीं जा सकता! और उस सम्राट ने उसको मजबूर किया कि आस-पास जो भी गंदे फल पड़े थे, सड़े फल पड़े थे, खाओ। तो वह मानता ही नहीं है, वह कोड़े लगाए जाता है उस आदमी को जबर्दस्ती, वह रो रहा है और खा रहा है; और वे सड़े-गले हैं, दुर्गंध आ रही है; और उसने उसको इतना पीटा और इतने उसको खिला दिए सड़े फल कि उसे वमन हो गया, वह गिर पड़ा। तो जब उसे वमन हुआ तो उसका सांप उस वमन के साथ बाहर आ गया।
जब उसने सांप देखा तब...उसकी कुछ समझ में नहीं आया कि यह क्या हुआ? तब उसने सम्राट के पैर पकड़ लिए कि तुम्हारी बड़ी कृपा कि तुमने मुझे मारा, और ये गंदे फल खिलाए, लहूलुहान कर दिया मेरे शरीर को। धन्यभाग मेरे। परमात्मा ने तुम्हें ठीक समय पर भेजा अन्यथा मैं मर जाता। लेकिन एक बात मुझे पूछनी है। अगर तुम कह देते कि मैंने सांप खा लिया है, या सांप को निगल गया हूं, सांप मेरे भीतर चला गया है, तो मैंने तुम्हें गालियां न दी होतीं, अभिशाप न दिए होते।
सम्राट ने कहा: अगर मैं कह देता तो सांप का निकालना असंभव हो जाता। तू घबड़ाहट में ही मर जाता। मेरे मारने से तू मर नहीं गया है। अगर मैं कह देता कि तू सांप निगल गया है, तो फिर मैं तुझे फल खिलाने में समर्थ न हो पाता, तू बेहोश ही हो जाता, यह बात ही मुश्किल हो जाती। इसलिए मुझे अपने को संयम रखना पड़ा कि तुझसे कहूं न, तुझे मारूं। वमन पहली चीज है, तेरी फिकर छोड़ दूं। किसी तरह उलटी हो जाए तो सांप बाहर फिंक जाए।
इस कहानी के आधार पर सूफियों में कहावत है। वह कहावत तुमने सुनी होगी, कहानी शायद तुमने यह न सुनी हो।
कहावत है: ‘नादान दोस्त से दाना दुश्मन बेहतर।’
नादान दोस्त से दाना दुश्मन बेहतर। नासमझ दोस्त से समझदार दुश्मन बेहतर। यह आदमी समझदार था। दुश्मनी की तरह मालूम पड़ा, क्योंकि दुश्मनी की--मारा लहूलुहान कर दिया, लेकिन समझदार था, इसकी दुश्मनी के भी फल आए। नासमझ दोस्त होता, जान जाती। असली सवाल दोस्ती-दुश्मनी का नहीं है, असली सवाल समझदारी का है।
मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि समझदारी के बड़े वर्तुल में दुश्मनी भी महत्वपूर्ण और कीमती, बहुमूल्य हो जाती है।
प्रेम के संग लग जाए काम, तो काम भी राम तक ले जाने का कारण हो जाता है। और काम के संग लग जाए प्रेम, तो प्रेम जो सदा ऊपर ले जाने वाला है, वह भी नीचे उतारने में कारण बन जाता है। और इस जीवन की कीमिया और गणित को ठीक से समझना जरूरी है, क्योंकि यह जरा नाजुक बात है। इसे तुम ठीक से समझोगे तो ही तुम्हारे जीवन पर इसका परिणाम होगा। सदा ध्यान रखो, तुम जो कर रहे हो वह किसी वृहत्तर इकाई में किस भांति बैठता है; वह कृत्य तुम जो कर रहे हो वह मूल्यवान नहीं है, वृहत्तर इकाई में उस कृत्य की क्या सार्थकता है, वह कहां ले जाएगा अंततः, वह कहां पहुंचाएगा अंततः, क्या उसका आत्यंतिक परिणाम होगा? फिर कई बार तुम ऐसे कृत्य भी कर सकते हो, जिन्हें दूसरे गलत कहेंगे, लेकिन तुम जानते हो वह गलत नहीं हैं। क्योंकि उनसे तुम एक यात्रा कर रहे हो जो तुम्हें श्रेष्ठ की तरफ ले जाएगी। तब जहर का भी उपयोग आदमी अमृत की तरह कर लेता है। तब भला दूसरे ठीक कहें, गलत कहें, यह बात महत्वपूर्ण नहीं रह जाती; तुम्हारे भीतर एक परिप्रेक्ष्य होता है, एक दृष्टि होती है। तुम जानते हो कि यह जो मैं कर रहा हूं यह उस वृहत्तर आकाश से जुड़ा है, फिर कोई भय नहीं है।
तुम परमात्मा को ध्यान में रख कर करना, क्योंकि उससे बड़ी कोई इकाई नहीं है। परमात्मा यानी बड़ी से बड़ी इकाई की हमारी धारणा। तुम उसको ध्यान में रख कर करना। तुम चोरी भी करो तो परमात्मा को ध्यान में रख कर करना, तो चोरी भी पुण्य हो जाएगी। और तुम पुण्य भी करो और अहंकार को ध्यान में रख कर करो, तो पुण्य भी पाप हो जाएगा। छोटी इकाई के साथ मत बांधना, क्षुद्र के साथ मत बांधना। क्षुद्र डुबाता है। विराट उबारता है।
इसलिए मैं निरंतर जोर देता हूं कि संभोग भी करना तो समाधि को ध्यान में रखना। मेरी बात के स्वभावतः भयंकर परिणाम हुए। लोग समझने में असमर्थ हुए। उन्होंने तो समझा कि शायद मैं संभोग की शिक्षा दे रहा हूं लोगों को।
उन्हीं से तो जीसस भाग रहे थे, जिन्होंने ऐसा समझा।
मैं सिर्फ यह कह रहा हूं कि तुम अपने क्षुद्र को भी विराट के साथ बांध देना। वह बड़ी नाव तुम्हारे क्षुद्र को भी पार ले जाएगी, और अंतिम अर्थों में तुम्हारा क्षुद्र भी निखर आएगा। और यही तो जीवन की कला होनी चाहिए कि उसमें क्षुद्र भी निखर आए और पवित्र हो जाए। उसमें बुरा भी शुभ हो जाए, और पाप का भी उपयोग हो जाए। उसे भी फेंकना न पड़े। कहते हैं असली शिल्पी आड़े-टेढ़े पत्थर को भी फेंकता नहीं, उसका भी उपयोग कर लेता है। शिल्पी पर निर्भर है। और अगर तुम्हारे पास जो है उसका तुम उपयोग नहीं जानते, तो तुम आगे कैसे बढ़ोगे? चलना तो वहीं से पड़ेगा जहां तुम हो।
संभोग तुम्हारी दशा है, समाधि संभावना है।
संभोग से ही एक-एक कदम समाधि की तरफ रखोगे तो ही पहुंच पाओगे। अगर तुमने ऐसा सोच लिया कि संभोग और समाधि के बीच कोई सेतु नहीं है, तो तुम पहुंचोगे कैसे? निश्चित ही अज्ञान और ज्ञान के बीच कोई सेतु होना चाहिए। क्षुद्र और विराट के बीच कोई सेतु होना चाहिए। नहीं तो क्षुद्र तो क्षुद्र ही रह जाएगा फिर विराट तक जाएगा कैसे? तुम और परमात्मा के बीच कोई रास्ता होना ही चाहिए। परमात्मा तुमसे कितना ही दूर हो लेकिन जुड़ा तो होना ही चाहिए, इतना ही मेरा कहना है। बिना जुड़े तो फिर बात ही खत्म हो गई। तुम कितने ही दूर हो परमात्मा से लेकिन किसी न किसी तरह से तुम उसके पास भी होने चाहिए, अन्यथा फिर भटकाव का अंत ही नहीं हो सकता। फिर तुम घर कैसे वापस लौटोगे? एक धागा भी जुड़ा रह गया हो तो भी काफी है। बस इतना ही मेरा कहना है। समाधि का एक धागा संभोग तक से जुड़ा है। तुम संभोग पर ध्यान मत देना, उस धागे पर ध्यान देना। वही धागा तुम्हें उठा लेगा। एक दिन तुम पाओगे संभोग विसर्जित हो गया, समाधि फलित हो गई।
काम में भी प्रेम को खोजना। काम में भी प्रेम पर ही ध्यान देना। तुम्हारा ध्यान जिस तरफ होगा वही जीत जाता है। ध्यान भोजन है, ध्यान ऊर्जा है। बुरे से बुरे में भी शुभ को देखने की चेष्टा करना, वही शुभ अतिक्रमण करा देगा।
बड़ा भेद है काम-केंद्रित प्रेम और प्रेम-केंद्रित काम में।
शब्द तो वही के वही हैं दोनों में। काम-केंद्रित प्रेम में भी तीन शब्द हैं: काम, केंद्रित, प्रेम। प्रेम-केंद्रित काम में भी तीन ही शब्द हैं, वही तीन: प्रेम, केंद्रित, काम। पर कितना अंतर है। एक से संसार बनता है, एक से मोक्ष निर्मित होता है। सीढ़ी वही है। उतरो, संसार मिल जाता है। चढ़ो, परमात्मा उपलब्ध हो जाता है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, ज्ञानियों ने, बुद्धों ने, भक्तों ने परमात्मा को अनेक रूप, अरूप में देखा और अपने ढंग से नाम भी दिए, जिनमें ‘अनाम’ और ‘नेति-नेति’ भी सम्मिलित हैं। दर्शन की यह भिन्नता क्या द्रष्टा के व्यक्तित्व की भिन्नता पर निर्भर है?
दर्शन की कोई भिन्नता नहीं है। अभिव्यक्ति की भिन्नता है। जो देखा है, वह तो एक ही है। हां, जो कहा है वह अनेक है। ‘एकम् तद सदविप्राः बहुधा वदंति।’ ज्ञानियों ने उस एक को ही देखा है, कहा बहुत ढंग से है, क्योंकि कहा बहुत ढंग से जा सकता है। देखने के बहुत ढंग नहीं हैं, क्योंकि जब तक देखने का ढंग शेष है तब तक तो वह दिखाई ही न पड़ेगा।
इसे समझना।
जब तक दृष्टि शेष है तब तक दर्शन न होगा। जब तक तुम्हारे पास कोई दृष्टि है, देखने का ढंग है, कोई चश्मा है, तब तक तुम उसे रंग लोगे, तुम वही न देखोगे जो है। तुम वही देखोगे जो तुम देख सकते थे, देखना चाहते थे। तुम अपने को ही आरोपित कर लोगे।
दृष्टि-मुक्त होते ही ‘दर्शन’ उपलब्ध होता है।
जब तुम्हारी कोई आंख न रही। इसका अर्थ जब तुम्हारी आंख शुद्ध हो गई। जब तुम न हिंदू रहे, न मुसलमान; न जैन, न ईसाई; न पारसी, न सिक्ख। जब तुम्हारी कोई दृष्टि न रही। जब तुम परमात्मा के समक्ष बिलकुल शुद्ध, शून्य होकर खड़े हुए कि मेरे पास कुछ दृष्टि नहीं है। मैं सिर्फ दर्पण हूं, तू जैसा हो वैसा ही झलक। मैं कुछ भी न जोडूंगा, कुछ भी घटाऊंगा न। मेरे पास कुछ है ही नहीं जोड़ने-घटाने को, अब मैं हूं ही नहीं। अब तू है, और मैं दर्पण हूं।
जिस दिन दृष्टि मिट जाती है, नय जिसको महावीर ने कहा है वह मिट जाता है, उस दिन उस शुद्ध नय की अवस्था में, उस शुद्ध दृष्टि में ‘दर्शन’ उपलब्ध होता है। ‘दर्शन’ तो एक ही है। लेकिन जब हम उसे कहने जाते हैं तब फर्क आ जाता है। समझो, परमात्मा को देखा किसी ने, जाना सत्य को, परम आनंद की वर्षा हुई--बिन घन परत फुहार--अमृत बरसने लगा, अब इसको कहना है। इसको कैसे कहना? जो हुआ है वह इतना बड़ा है, जो हुआ है वह इतना विराट है, समाता नहीं--यह हृदय बहुत छोटा है। सागर ने छलांग ले ली बूंद में। बड़ी मुश्किल हो गई है। अब इसको कहना है।
मीरा नाच कर कहेगी, क्योंकि मीरा को नाच सुगम है, वह उसके व्यक्तित्व में है। यह आनंद की घटना घटी है, मीरा इसे शब्दों में नहीं कहेगी, वह शब्द की मालिक नहीं है। उसके रोएं-रोएं से प्रकट होगा यह आनंद। वह नाचेगी। पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे! और कुछ सूझा नहीं तो उसने पैर में घुंघरू बांध लिए और नाचने लगी। कोई और उपाय न था। यही उसके लिए आसान था। यही उसके पूरे जीवन का संस्कार था। जब इस पर चोट पड़ी आनंद की तो नाच पैदा हुआ।
बुद्ध नहीं नाचे। वह उनके व्यक्तित्व में न था। जब यह चोट पड़ी आनंद की तो वे चुप हो गए, सन्नाटा छा गया; सात दिन तक बोले ही नहीं। कहते हैं देवताओं ने प्रार्थना की। ब्रह्मा स्वयं आए, चरणों पर गिरे और कहा: आप बोलो। क्योंकि ऐसा सदियों में कभी कोई जागता है। वे जो अंधेरे में भटक रहे हैं, उनके लिए तुम्हारी वाणी दीया बनेगी। उनके लिए तुम्हारे शब्द बाहर निकालने का कारण हो जाएंगे। तुम चुप मत रहो।
लेकिन बुद्ध ने कहा: बोलने का कोई मन नहीं है। उस आनंद को मैं चुप रह कर ही कह सकता हूं। कहने से बिगड़ जाएगी बात। कहने से कह न पाऊंगा। और मुझे भरोसा नहीं है कि सुनने वाले समझ पाएंगे। मुझसे भी कोई कहता यह बात जो मैंने नहीं जानी थी तब, मैं भी नहीं समझ पाता। यह कही तो जा ही नहीं सकती। इसमें तो चुप ही रहा जा सकता है। जो समझेगा, वह चुप्पी में भी समझ लेगा। और जो नहीं समझेगा, वह कहने से भी नहीं समझेगा।
बुद्ध ने बड़ी जिद की चुप रहने की। न तो वे नाचने को तैयार थे, न बोलने को तैयार थे। देवताओं ने बड़ा विचार-विमर्श किया कि बुद्ध को किसी तरह बोलने के लिए राजी करना ही होगा। और वे एक तर्क ले आए, जिसका जवाब बुद्ध न दे सके, तो राजी हुए। उन्होंने कहा: आप बिलकुल ठीक कहते हैं, सौ लोग सुनेंगे, निन्यानबे नहीं समझेंगे। लेकिन क्या आप कहते हैं कि एक भी न समझेगा सौ मैं से?
बुद्ध ने कहा कि जो समझ सकता है मुझे सुन कर, वह मुझे बिना सुने भी देर-अबेर समझ ही लेगा। और जो समझ ही नहीं सकता मुझे सुन कर, उसे मैं लाख सिर पटकता रहूं, कुछ परिणाम न होगा।
देवताओं ने कहा: आप बिलकुल ठीक कहते हैं। लेकिन इन दोनों के मध्य में भी एक व्यक्ति हो सकता है कि जो न सुने, तो बहुत देर तक भटकता रहे, और सुन ले, तो पार लग जाए। उस एक के लिए बोलें। माना कि वह करोड़ में एक होगा। लेकिन बुद्धत्व तो करोड़ों में एक को ही मिलता है। एक को भी मिल जाए तो बहुत है। उस एक के लिए बोलें।
तो बुद्ध बोले।
बुद्ध का बोलना बड़ा ही परिमार्जित है। उन्होंने एक भी ऐसी बात नहीं कही जिसको कहने में अड़चन मालूम पड़े। इसलिए उन्होंने परमात्मा की बात नहीं कही। वे बड़े तर्कनिष्ठ हैं, कि परमात्मा की बात कहना ठीक नहीं। कहने से गड़बड़ होता है। और जिन्होंने अब तक कही है उनको भी शर्त लगानी पड़ती है। जैसे लाओत्से ने कहा--‘जो सत्य कहा जा सके वह सत्य ही नहीं है’, और फिर कहना पड़ा। तो बुद्ध कहते हैं, जो कहा ही न जा सके उसे कहना ही नहीं। इतना भी मत कहना कि उसे कहा नहीं जा सकता, क्योंकि यह भी तो कहना हो गया। तो उन्होंने फिर बड़ी परिमार्जित बात कही। शुद्धतम वक्तव्य है बुद्ध का। लेकिन उसे वे ही समझ पाएंगे जो उतनी शुद्ध प्रज्ञा से भरे हैं।
कोई दूसरा मीरा को समझ पाएगा। उसके नाच से किसी को नाच पकड़ जाएगा। कोई तीसरा किसी तीसरे ढंग से।
नानक को जब ज्ञान हुआ तो अपने एक संगी-साथी को, बचपन के संगी-साथी को, मरदाना को लेकर निकल पड़े, गाने लगे। कोई प्रश्न पूछता नानक से आकर, कोई पूछता, परमात्मा है? नानक कहते, मरदाना, छेड़। तो मरदाना अपना वाद्य छेड़ देता और नानक गाते। यह उत्तर होता। पूछता कोई ईश्वर की बात, कर्म की, सिद्धांत की, इसकी, उसकी; वे जब भी कोई कुछ पूछता, वे कहते, मरदाना, छेड़।
यह उनका उत्तर था, गीत उनका उत्तर था। क्योंकि वे कहते कि बात वह इतनी बड़ी है पद्य से न कही जा सकेगी। तर्क से न समझाई जा सकेगी, गाकर ही कही जा सकती है। शायद गीत तुम्हें कहीं चोट कर दे।
तो फिर अनंत-अनंत रूप प्रकट होते हैं। अभिव्यक्ति के वे रूप हैं, ‘दर्शन’ के नहीं, ध्यान रखना। ‘दर्शन’ तो एक का ही होता है। लेकिन उस एक की खबर लेकर जब लोग उतरते हैं उस परम आलोक के जगत से, जब आते हैं पृथ्वी पर, जब तुम्हारे बाजार, तुम्हारे मंदिर-मस्जिद में आते हैं, जब वे तुम्हें देखते हैं--परमात्मा को देखा और फिर जब तुम्हें देखते हैं--तुम दोनों के बीच जब वे माध्यम बनते हैं, तब माध्यम अलग होगा, क्योंकि हर व्यक्ति की अपनी सामर्थ्य है। मीरा नाच सकती है, नानक गा सकते हैं, बुद्ध बोल सकते हैं, शंकर तर्क कर सकते हैं। शंकर ने उठा लिया झंडा और पूरे मुल्क में घूम गए, वे तर्क ही करते रहे। शंकर से बड़ा तार्किक व्यक्ति खोजना कठिन है, परमात्मा को तर्क से समझाते रहे। नास्तिकों के तर्क का खंडन करते रहे। वह उनकी क्षमता थी। वह तर्कनिष्ठ व्यक्तित्व है।
इस तरह हजार-हजार लोग हुए। उनका दर्शन एक, उनकी अभिव्यक्ति अलग-अलग है। उनकी अभिव्यक्ति पर तुम ज्यादा ध्यान मत देना। अभिव्यक्ति में जो छिपा है--नानक जो गाकर कह रहे हैं, मीरा जो नाच कर कह रही है, बुद्ध जो बोल कर कह रहे हैं, शंकर जिसके लिए तर्क दे रहे हैं--उसके लिए न तो तर्क दिया जा सकता है, उसके लिए न तो बोल कर समझाया जा सकता है, उसे न गाकर समझाया जा सकता है, उसे न तो नाच कर बताया जा सकता है; वह अवक्तव्य है--उसके संबंध में कोई वक्तव्य नहीं हो सकता। लेकिन, परमात्मा की तरफ देखो, तो वक्तव्य नहीं हो सकता; तुम्हारी तरफ देखो, तो वक्तव्य देने की जरूरत मालूम पड़ती है। परमात्मा की तरफ देखो, तो चुप रह जाओ--कुछ कहने को नहीं है; तुम्हारी तरफ देखो, तो लगता है बहुत कहने को है--शायद कोई सुन ले। शायद ही है वह बात--शायद कोई सुन ले। पर वह ‘शायद’ प्रयोग करने जैसा है।
अज्ञानी ‘यदि’ में जीता है और ज्ञानी ‘शायद’ में।
इसे तुम समझो। अज्ञानी अक्सर सोचता रहता है, यदि ऐसा होता, यदि वैसा होता--अतीत के बाबत कि यदि मैंने ऐसी बात की होती, तो ऐसा परिणाम हो जाता। यदि मैंने यह जुआ खेल लिया होता तो इतना पैसा पा जाता, यदि मैंने लाटरी की यह टिकट खरीद ली होती तो आज लाख रुपये होते। ‘यदि।’
मोहम्मद कहते थे कि ‘यदि’ से तुम पहचान सकते हो आदमी कितना अज्ञानी है। मोहम्मद ने उल्लेख किया है कि एक आदमी को मकान खोजना था। वह एक मित्र से मिला रास्ते पर तो उसने कहा: मकान खोजना है, कुछ सहायता करो। उसने कहा: अरे, एक मकान खाली पड़ा है बहुत दिनों से। अभी दिलवा देते हैं। चलो। वह आदमी बड़ा प्रसन्न हुआ, परेशान था, मकान नहीं मिल रहा था। उसने कहा: सौभाग्य से कि यह मित्र मिल गया, और मकान खाली पड़ा है। मकान मिलते कहां हैं? लेकिन जब वह पहुंचा मकान पर, तब उसकी आत्मा बैठ गई मकान को देख कर। वह तो एक खंडहर था।
वह मित्र जाकर कहने लगा कि देखो, यदि छप्पर होता इस पर तो तुम मजे से रह सकते थे। और अगर दीवाल भी ठीक-ठाक होती, जरा द्वार-दरवाजे भी लगे होते तो कोई चोरी वगैरह का भी डर नहीं था। और यदि इसके पास एकाध कमरा और होता तो इतने दिनों के पुराने मित्र हो, मैं भी यहीं तुम्हारे पास रहने आ जाता।
उस आदमी ने कहा: भाई तुम्हारी बड़ी कृपा है। लेकिन ‘यदि’ में रहना बहुत मुश्किल है। ‘यदि’ में कोई रहे कैसे? मित्रों के पास रहना सदा सुखद है, और तुम मिल गए बड़ा सौभाग्य है, लेकिन ‘यदि’ में रहना बहुत मुश्किल है।
अज्ञानी ‘यदि’ में रहता है और ज्ञानी ‘शायद’ में। शायद में भी अपने लिए नहीं, तुम्हारे लिए। अपने लिए तो अस्तित्व में। लेकिन तुम्हारे लिए एक ‘शायद’ में। ‘शायद’ सुन लो, ‘शायद’ किसी क्षण में तुम्हारा अंतस जग जाए, चौंक जाए; ‘शायद’ कोई बात चोट कर जाए; ‘शायद’ तुम्हारी नींद में कोई चीज खलल बन जाए और तुम आंख खोल दो; ‘शायद’ तुम्हारा सपना टूट जाए।
तो बुद्ध चालीस वर्ष तक इसी ‘शायद’ में मेहनत करते हैं। मीरा नाचती है; नानक गाते हैं। अगर वे अपनी तरफ देखें तो अब कुछ करने को नहीं बचा है, बात खत्म हो गई। न कोई ‘यदि’ बची है, न कोई ‘शायद’ बचा है। अगर तुम्हारी तरफ देखते हैं तो लगता है, एक महाकरुणा जन्मती है। वही शक्ति जो तुम्हारे भीतर वासना है, ज्ञानी में करुणा बन जाती है। वह रोक नहीं पाता, वह बहने लगती है। और फर्क भी क्या है? अगर कोई न भी जागा तो कोई हर्ज नहीं है, कोई जाग गया तो बहुत बड़ी घटना है। कोई न जागा तो कोई हर्ज नहीं है।
इस ‘शायद’ के कारण इतनी अभिव्यक्तियां हैं। अगर यह ‘शायद’ न होता, तो तुम ज्ञानियों की कोई अभिव्यक्ति न पाते। तुम उन सभी को मौन बैठा पाते। उन्होंने जो जाना है वह तो एक है, लेकिन जिनसे कहना है वे अनेक हैं। और जिसके द्वारा कहना उसकी सीमा है। इसलिए भेद है। भेद अपनी सीमा के कारण, भेद तुम्हारी समझ के कारण। अनेक को समझाना है। जाना एक को है, बताना अनेक को है। जाना तो एक ही है, लेकिन बताना अनेक तरह से पड़ेगा। और फिर व्यक्ति की सीमा है। ऐसा ही समझो कि बिजली दौड़ती है पंखे से तो पंखा चलता है; बिजली दौड़ती है बल्ब से तो प्रकाश होता है; बिजली दौड़ती है रेडियो से तो रेडियो में आवाज होती है। बिजली एक है, लेकिन माध्यम जिससे दौड़ती है...। परमात्मा की बिजली जब दौड़ी मीरा से--पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे; परमात्मा की बिजली जब दौड़ी शंकर से, तर्क का बड़ा तूफान उठा। न तो तर्क समर्थ है, न नृत्य समर्थ है, क्योंकि परमात्मा इतना बड़ा है किसी में भी नहीं समाता।
लेकिन कितनी ही छोटी अंगुली हो, चांद की तरफ इशारा तो हो ही सकता है। फिर अंगुली सुंदर हो तो भी हो सकता है, अंगुली पर हीरे जड़ी अंगूठियां हों तो भी हो सकता है, अंगुली दीन-दरिद्र की काली-कलूटी हो तो भी हो सकता है। चांद की तरफ इशारे में अंगुली के ढंग से क्या फर्क पड़ता है? फर्क तब पड़ता है जब तुम अंगुली पकड़ लेते हो और चांद को भूल जाते हो।
अंगुली मत पकड़ना। सदा ध्यान चांद की तरफ रखना, अंगुली को भूलना। जो कहा है उसे भूलना, जो नहीं कहा जा सकता उसे याद रखना। जो लिखा है उसे विस्मृत करना, जो नहीं लिखा जा सकता उसे पढ़ना। जो बताने के पार है, फिर भी महाकरुणावान व्यक्तियों ने बताने की कोशिश की है, तुम उनके इशारे को जोर से मत पकड़ लेना, इशारे को भूल जाना। आंख उठाना आकाश की तरफ, देखना आकाश के चांद को, तब तुम पाओगे मोहम्मद की अंगुली, महावीर की अंगुली, कृष्ण की अंगुली, क्राइस्ट की अंगुली--अंगुलियों के भेद हैं, चांद तो आकाश में एक ही है।
‘दर्शन’ तो एक है, अभिव्यक्ति अनेक है।
आज इतना ही।