SAHAJOBAI

Bin Ghan Parat Phuhar (बिन घन परत फुहार) 05

Fifth Discourse from the series of 10 discourses - Bin Ghan Parat Phuhar (बिन घन परत फुहार) by Osho. These discourses were given during OCT 01-10 1975.
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निर्दुन्दी निर्वैरता, सहजो अरु निर्वास।
संतोषी निर्मल दसा, तकै न पर की आस।।
जो सोवै तो सुन्न में, जो जागै हरिनाम।
जो बोलै तो हरिकथा, भक्ति करै निहकाम।।
नित ही प्रेम पगै रहैं, छकै रहैं निज रूप।
समदृष्टि सहजो कहै, समझैं रंक न भूप।।
साध असंगी संग तजै, आतम ही को संग।
बोधरूप आनंद में, पियैं सहज को रंग।।
मुए दुखी जीवत दुखी, दुखिया भूख अहार।
साध सुखी सहजो कहै, पायो नित्त विहार।।
एक छोटी कहानी से शुरू करें। हसीद कथा है।
एक सम्राट का इकलौता बेटा था--शराबी, जुआरी, वेश्यागामी। सम्राट परेशान था। सब तरह समझाया, कोई राह न बनी। मजबूरी में, आखिरी उपाय की तरह, शायद इस तरह चेत जाए, सम्राट ने उसे राज्य से बाहर निकाल दिया।
सोचा था, क्षमा मांगेगा, पछतावा करेगा, वापस लौट आएगा। समझ आ जाएगी। ऐसा कुछ भी न हुआ। बेटा गया तो वापस न लौटा। भटकता रहा राज्य की सीमाओं के आस-पास। और अंततः उसने एक शराबियों के अड्डे में प्रवेश पा लिया।
सम्राट का बेटा था, नेतृत्व की क्षमता थी, जल्दी ही अड्डे का साधारण सदस्य न रहा--अगुआ हो गया। जुआ, वेश्या, शराब, अब चौबीस घंटे उसी में पड़ा रहने लगा।
वर्षों तक बूढ़े बाप ने प्रतीक्षा की। बेटा न लौटा सो न लौटा। बाप मरने के करीब आने लगा तब उसे चिंता पकड़ी, तब वह बहुत संतापग्रस्त हुआ। उसने अपने एक वजीर को भेजा कि तू बेटे को समझा कर ले आ। जैसा भी है, न होने से बेहतर है। मेरे मरने के बाद वही मालिक है। शराबी तो शराबी सही। शायद मेरी मौत से समझ आ जाए। शायद साम्राज्य का मालिक बने तो कुछ होश आ जाए।
वजीर गया, अपने शाही-लिबास में, स्वर्ण-रथ पर बैठ कर--सम्राट का राजदूत था। लेकिन बेटे ने उसकी तरफ कोई ध्यान ही न दिया। उसने बड़े उपाय किए, लेकिन बेटे की नजर भी अपनी तरफ मोड़ने में सफल न हो सका।
वापस लौट आया--पराजित।
सम्राट ने अपने दूसरे वजीर को कहा कि तू जा।
दूसरे वजीर ने सोचा, पहले वजीर के जाने के ढंग में भूल थी। बड़ा फासला लेकर गया था। स्वर्ण-रथ पर बैठ कर गया, एक भिखारी को समझाने। अंतर बहुत ज्यादा था, संवाद न हो सका।
तो वह खुद भिखारी बन कर अड्डे पर सम्मिलित हो गया--उसी जैसा हो गया। शराब भी पीता, जुआ भी खेलता। दोस्ती तो बन गई, लेकिन बात उलटी हो गई। इतना ज्यादा डूब गया नशे में, शराब में, वेश्याओं में कि भूल ही गया कि लेने आया था। सम्मिलित ही हो गया।
राजकुमार तो लौटा नहीं, वजीर भी राजकुमार ने डुबा लिया।
महीने बीतने लगे। सम्राट ने कहा: यह तो और भी बुरा हुआ। कम से कम पहला वजीर वापस तो आ गया, बेटा न आया न आया। यह दूसरा वजीर तो गया।
खबरें आनी शुरू हुईं कि वह तो सम्मिलित ही हो गया है। अब तो उसे याद भी नहीं है कि वह वजीर है, चौबीस घंटे पीए पड़ा रहता है।
बहुत बार ऐसा हो जाता है। किनारे पर खड़े होकर डुबने वाले को बचाने का कोई उपाय नहीं है। अगर किनारे पर ही खड़े रहना है, अपने वस्त्र भी बचाने हैं, पानी में भीगना भी नहीं है, जोखिम भी नहीं लेनी है, तो डूबने वाले को बचाने का कोई उपाय नहीं है। तुम कितने ही बुद्धिमान हो, किनारे पर खड़े होकर थोड़े ही बचा सकोगे। साहस चाहिए नदी में उतरने का। लेकिन तब खतरा है, क्योंकि जो डूब रहा है वह तुम्हें भी डूबा ले सकता है।
पहला वजीर किनारे खड़ा रहा, दूसरा वजीर नदी में उतरा। पहला तो वापस लौट आया अपने को बचा कर, लेकिन दूसरा डूब गया।
सम्राट ने अपने बड़े वजीर को कहा कि अब तुम्हारे सिवाय कोई सहारा नहीं है। वह बूढ़ा था, इसलिए अब तक उसे भेजा भी न था। अब तुम जाओ, तुम आखिरी हो। इसके बाद फिर कोई उपाय न कर सकूंगा।
वजीर गया। वह गया जैसे दूसरा वजीर गया था वैसा ही--भिखमंगे के वेश में। शराब पीने का बहाना तो उसने किया, लेकिन शराब पी नहीं। वेश्याओं के नाच में उसने रस तो दिखलाया, लेकिन रस लिया नहीं। जुआ खेला, पासे फेंके, लेकिन भीतर होश जारी रखा। अछूता रहा, जल में जैसे कमल। रहा भी, नहीं भी रहा। उतरा भी और किनारे पर भी खड़ा रहा। डूबने वाले को बचाने भी गया, और अपना किनारा न छोड़ा।
एक दिन राजकुमार को लेकर महल आ गया।
हसीद फकीर कहते हैं, यही सदगुरु का लक्षण है।
सदगुरु अगर तुमसे बहुत दूर खड़ा रहे तो तुम्हें बचा न सकेगा, चाहे अपने को बचा ले। सदगुरु अगर तुम्हारे पास आ जाए जहां तुम डूबते हो, तुम्हें बचाने आ जाए, तो जोखिम है; हो सकता है तुम उसे भी डूबा लो।
तो वही सदगुरु तुम्हें बचा सकता है जो तुम्हारे पास भी हो और दूर भी। जो तुम्हारे निकट से निकट भी आ जाए और तुम्हारे निकट कभी आए नहीं। जो किनारे पर भी खड़ा रहे, साथ ही साथ नदी की मध्य-धार में भी उतर जाए। जिसका एक हाथ तुम्हें बचाए, और जिसका एक हाथ किनारा कभी छोड़े नहीं। जो एक अर्थों में ठीक तुम जैसा हो, और एक अर्थों में तुम जैसा बिलकुल न हो। जो मनुष्य हो, और परमात्मा हो। जो बाहर से ठीक तुम्हारा पड़ोसी हो, और भीतर से तुम जहां कभी होओगे वहां बना रहे। भीतर से कभी केंद्र न छूटे, और बाहर परिधि पर दिखलावा कर सके कि परिधि पर हूं।
इसलिए सदगुरु को पहचानना बहुत कठिन है।
जो किनारे पर खड़े हैं उन्हें तुम पहचान लोगे, लेकिन वे तुम्हें बचा न पाएंगे। उन्हें तुम पहचान लोगे कि वे सदगुरु हैं, लेकिन उनकी और तुम्हारी दूरी इतनी होगी कि सेतु कैसे बनेगा? संबंध कैसे जुड़ेगा? वे होंगे पावन, वे होंगे स्वर्ण-सिंहासनों पर, उन्होंने स्वर्ग की हवा में श्वास ली होगी, उन्होंने अलौकिक फूलों की गंध पी होगी, लेकिन वे तुमसे बड़े दूर हैं। ज्यादा से ज्यादा उन्होंने अपने को बचा लिया होगा।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, जिसने अपने को बचा लिया है वह तुम्हें न बचा सके, तो उसने अपने को बचा लिया है यह भी संदिग्ध है। जिसे किनारा छोड़ने में डर लगे, वह किनारे पर है यह भी संदिग्ध है। जो किनारे पर पहुंच ही गया है, उसे छोड़ने का किनारा भय नहीं पैदा होगा। फिर पा लेंगे। जो पा ही लिया है उसे छोड़ने में डर नहीं होता, जो नहीं पाया है उसे ही छोड़ने में डर होता है कि कहीं छूटा फिर न पा सके, हाथ से गया फिर न आया!
जिसने अपने को बचा लिया है, वह तो खोने की जोखिम उठा सकता है। लेकिन जोखिम उठाने से ही कोई तुम्हें बचा लेगा ऐसा मत सोचना। क्योंकि जोखिम तो मूढ़ भी उठा लेते हैं। कई बार ऐसा हो जाता है।
ऐसा मेरी आंख के सामने एक बार घटा--
मैं नदी के किनारे बैठा था। और एक सज्जन और मेरे पास ही बैठे थे, मेरा कोई परिचय नहीं। एक आदमी डूबने लगा। मैं भी भागा, वे सज्जन भी भागे। वे मुझसे पहले कूद गए। उन्हें कूदा देख कर मैं रुक गया। देखा कि वे तो खुद ही डूबने लगे। वे भूल ही गए कि तैरना नहीं जानते।
कभी कोई डूबता हो तो इतनी तीव्रता से घटना घटती है और बचाने की आकांक्षा इतने जोर से पैदा होती है कि तुम शायद भूल ही जाओ कि तुम तैरना जानते हो?
तब मुझे उन्होंने दोहरी मुसीबत कर दी। मुझे दो आदमियों को नदी से बाहर लाना पड़ा। मैंने उनसे कहा कि महाराज, आप न कूदते तो अच्छा था! वे बोले कि मैं भूल ही गया। भले आदमी, सज्जनचित्त, बचाने की आकांक्षा प्रगाढ़। लेकिन बचाने की आकांक्षा से ही तो कोई नहीं बचा सकता, बचाने की कला भी तो चाहिए।
आकांक्षा इतने जोर से पकड़ ले कि कला खयाल ही न रहे कि हम कभी तैरना सीखे ही नहीं, तो तुम बचाने की जगह डूबाने वाले हो जाओगे। और जिसे तुम बचाने गए हो वही तुम्हें डुबा लेगा।
जोखिम तो मूढ़ भी उठा लेते हैं, अक्सर मूढ़ जल्दी उठा लेते हैं। समझदार तो सोच कर जोखिम उठाता है, मूढ़ तो कूद जाता है। जहां बुद्धिमान झिझकते हैं, वहां मूढ़ दौड़ते हुए प्रवेश कर जाते हैं। लेकिन जोखिम से क्या होगा? जोखिम थोड़े ही बचाती है। जोखिम जरूरी है बचाने के लिए, लेकिन जोखिम थोड़े ही बचाती है।
और जो जानता है बचाना, उसके लिए जोखिम है ही नहीं, तुम्हें मालूम पड़ती है कि जोखिम है। जो बचाना जानता है, उसे तो खयाल भी नहीं है कि जोखिम है। अगर उसने होश का किनारा पा लिया है, तो वह मझधार में भी अपने होश के किनारे को थोड़े ही छोड़ देता है।
तीसरा वजीर बचा लाया। जुआ खेला, बाहर-बाहर। जुआड़ी बन गया, पर अभिनय था। नाटक ही रहा; भीतर जागा रहा। शराब दिखलाता था कि पी रहा हूं, पी नहीं। और शराबियों के अड्डे में किसको इतना होश है कि वह गौर से देखे कि तुमने पी कि नहीं पी। तो बोतल सामने रख कर अगर पानी भी पीता रहेगा, तो शराबियों को थोड़े ही पता चलेगा। जिनको पता चल जाए वह भी कोई शराबी हैं। वेश्याएं नाचीं, आंखें वेश्याओं को देखती रहीं, मन कहीं और था।
ऐसे अस्पर्शित, असंग जीवन के तट पर जो खड़ा है, वही डूबतों को बचा लेता है।
सहजो को ऐसे ही एक गुरु मिल गए, चरणदास। वे बड़े सीधे-साधे आदमी थे। इतने सीधे-साधे कि साधारण आदमी पहचान भी न सके कि मुझमें और इनमें भेद क्या है। बिलकुल सामान्य थे। और ध्यान रखना, सामान्य में ही जब तुम असामान्य की झलक पा लो तभी तुम बचाए जा सकोगे; तभी तुम जानना कि कोई है जो करीब भी और दूर भी है। जो कभी-कभी इतने करीब होता है कि तुम्हें संदेह होने लगता है कि इसमें और हममें भेद क्या है? शायद यह भी तो नहीं डूब रहा है हमारे साथ ही।
जो तुम्हें बचाने आएगा उसे करीब तो आना ही पड़ेगा, वहीं जहां तुम मझधार में डूब रहे हो। डूबते को तो ऐसा ही लगेगा कि यह भी डूबने आ रहा है। लेकिन डूबने वाला भी हाथ-पैर तड़फड़ाता है, तैरने वाला भी हाथ-पैर तड़फड़ाता है। हाथ-पैर तड़फड़ाने में कोई फर्क नहीं होता। तैरना है क्या? सिर्फ हाथ-पैर को ढंग से तड़फड़ाना है। डूबने वाला भी तड़फड़ाता है, तैरने वाला भी तड़फड़ाता है। डूबने वाले को लगे कि यह तो खुद ही तड़फड़ा रहा है।
लेकिन भेद है बड़ा!
डूबने वाला भय से तड़फड़ा रहा है, बचाने वाला प्रेम से। हाथ तो दोनों ही फेंक रहे हैं--एक मूर्च्छा में, एक होश में। होश बचाता है।
तो चरणदास बड़े सीधे-साधे आदमी थे। उन्होंने सहजो को बचाया। इसलिए सहजो उनके गीत गाए चली जाती है। वह कहती है हरि को भी त्यागना हो तो त्याग दूंगी, पर गुरु को न त्यागूंगी। क्योंकि हरि ने तो मझधार में फेंका और डुबाया, गुरु ने मझधार से बचाया और उबारा। तो, हरि को तज डारूं पै गुरु को न बिसारूं!
चरणदास का तो किसी को पता भी न चलता, सहजो के गीतों से उनकी खबर लोगों तक पहुंची। उनकी दो शिष्याएं थीं--सहजो और दया। जैसे दो आंखें हों किसी की। जैसे दो पंख हों किसी पक्षी के। इन दोनों ने चरणदास के गीत गाए, तो लोगों को कुछ खबर मिली।
जल्दी ही हम ‘दया’ की भी बात करेंगे। और दोनों के स्वर इतने एक से हैं, होंगे ही, क्योंकि एक ही गुरु ने दोनों को बचाया है, एक ही गुरु की छाया दोनों पर पड़ी है, और एक ही गुरु का हृदय दोनों में धड़का है। दोनों के गीत एक ही स्रोत से आते हैं। इसलिए मैंने सहजो के पदों के ऊपर जो चर्चा की श्रृंखला रखी है, उसका नाम रखा है: बिन घन परत फुहार! ये शब्द दयाबाई के हैं। जब दयाबाई पर बोलूंगा, तो जो श्रृंखला का नाम रखा है उसमें शब्द सहजो के हैं: जगत तरैया भोर की! जैसे सुबह का डूबता हुआ तारा--अब गया, अब गया--ऐसा जगत है: जगत तरैया भोर की!
दोनों जैसे एक ही प्राण के दो स्पंदन हैं। इसलिए दोनों के शब्द मैंने--सहजोबाई के लिए दया का शब्द उपयोग किया है, दया के लिए सहजोबाई का करूंगा।
यह जो बचने की घटना घटी--सहजोबाई जो उबरी--मध्य से, डूबती नदी से, तो उसने डूबना भी जाना है, बचना भी जाना है; नदी का मध्य भी जाना है और किनारा भी जाना है; डूबने की घबड़ाहट भी जानी है और बचने का आनंद भी जाना है। इसलिए तुम्हारे हृदय के भी बहुत करीब है; आधी बात तो तुम्हें समझ में आ ही जाएगी, क्योंकि डूबते तुम हो, डूबने की घबड़ाहट तुम्हारे पास है। और आधी अगर समझ में आ जाए तो आधी की तरफ भी आंखें खुलेंगी। वह आधी भी समझ में आ जाएगी कि बचने का आनंद क्या है?
इन पदों को समझने की कोशिश करो--
निर्दुन्दी निर्वैरता, सहजो अरु निर्वास।
संतोषी निर्मल दसा, तकै न पर की आस।।
तीन शब्द: निर्द्वंद्व, निर्वैर, निर्वासना। दो हैं जगत में, तब तक तुम डूबोगे। दूसरे का बोध कि दूसरा है, डुबाने का कारण है। जिस दिन तुम जानोगे दो नहीं हैं, एक ही है, उसी दिन उबर जाओगे। बड़ी से बड़ी भ्रांति दूसरे में दूसरा देखना है; और बड़ी से बड़ी क्रांति दूसरे में अपने को पहचान लेना है।
तुम्हारे पास जो बैठा है वह पड़ोसी नहीं है, वह तुम ही हो। रूप होगा अलग, ढंग होगा अलग, लेकिन गहरे में एक ही हृदय की धड़कन है। और गहरे में, एक ही बोध की दशा है। क्या फर्क है तुममें और किसी दूसरे मनुष्य में? फर्क तो हजार हैं। अगर फर्क का हिसाब ही रखोगे तो वह जो समान है, वह चूक जाएगा। बड़े भेद हैं, और भेद में अभेद छिपा है। अगर भेद ही भेद देखे, तो तुम संसार को देख पाओगे परमात्मा को नहीं। अगर अभेद को देखा, संसार खो जाएगा और परमात्मा प्रकट हो जाएगा।
भेद में अभेद को देख लेना परमात्मा के मंदिर पर पहुंच जाना है।
वृक्ष खड़े हैं, चट्टानें हैं, पहाड़ हैं--और भी ज्यादा भेद मालूम होते हैं। लेकिन फिर भी एक बात समान है: चट्टान है और तुम हो--होना समान है। फूल खिलते हैं, तुम भी कभी खिलते हो; फूल मुर्झाते हैं, तुम भी कभी मुर्झाते हो; जलधारा नाचती-गाती सागर की तरफ जाती है, तुम भी कभी नाचते-गाते हो; कभी जलधारा बड़ी उदास होती, कहीं जाती मालूम नहीं पड़ती, ठिठकी-ठिठकी होती है, ऐसे तुम भी कभी उदास होते हो, कहीं जाते नहीं मालूम पड़ते, जैसे जीवन मरुस्थल में खो गया है।
जीवन के भीतर जहां भी तुम्हें कुछ दिखाई पड़े, वहां अभेद को खोजने की चेष्टा करना। तब तुम धीरे-धीरे पाओगे कि भेद बहुत हैं, लेकिन भेद ऊपर-ऊपर हैं, भीतर अभेद है। भेद में आदमी डूब जाता है, अभेद में बच जाता है। अभेद किनारा है, भेद मझधार है। तुम अपने शत्रु में भी देखोगे तो एक बात तो तुम निश्चित ही पा लोगे कि तुम दोनों कहीं तो एक हो: शत्रुता में ही सही, विरोध में ही सही, एक संबंध में तो तुम दोनों एक जैसे हो। और उस एक-जैसेपन का जैसे ही बोध होगा, शत्रु ऊपर-ऊपर शत्रु रह जाएगा भीतर-भीतर एक मैत्री बन जाएगी। तुम अपने शत्रु के बिना भी तो नहीं रह सकते। वह भी तो तुम्हारे जीवन में कुछ जोड़ता है। उसके बिना तुम अधूरे हो जाओगे। जब शत्रु मरेगा तो तुम्हारे भीतर भी कुछ मर जाएगा। तुम उतने ही न रहोगे जैसे थे। हालांकि तुमने हजार बार सोचा होगा कि शत्रु को मार डालें, लेकिन जब शत्रु मरेगा तब तुम पाओगे, अरे! हृदय का कोई कोना खाली हो गया! उसने घेर रखी थी कोई जगह, उसका भी कोई स्थान था तुम्हारे जीवन में।
जहां विरोध है, वहां भी सेतु को खोजना। जहां दो हैं, वहां एक को खोजना। जहां अनेक हैं, वहां भी धारा को खोजना भीतर। नदियां बहुत हैं, सागर एक है। रूप बहुत हैं, रूपों के भीतर छिपा हुआ अरूप एक है। जब तक तुम्हें बहुत दिखाई पड़ते रहें, समझना कि संसार में हो। जिस दिन तुम्हें अचानक बहुत गिर जाएं और एक दिखाई पड़े, उसी क्षण तुम पाओगे कि परमात्मा में आ गए।
कभी-कभी ऐसी घटना अनायास भी घट जाती है। उसे थोड़ा समझना चाहिए।
कभी शायद तुम्हें अचानक ऐसा लगा हो, राह पर चलते-चलते, कहीं एकांत मौन में शांत बैठे-बैठे, अचानक ऐसा लगा हो कि जगत एकदम स्वप्नवत मालूम हुआ है, जैसे सब असार है; जैसे क्षण भर को कोई पर्दा खिंच गया, या आकाश से बादल हट गए और सूरज दिखाई पड़ा है। कभी कोई मर गया हो, मरघट पर बैठे-बैठे अचानक जैसे आंखों से एक धुंध हट गई, और अचानक ऐसा एक अहसास हुआ है कि सब असार है, सब व्यर्थ है, यह सब माया है, सब स्वप्नवत है। जल्दी ही तुम वापस अपनी दुनिया में लौट आते हो, क्योंकि बड़ी घबड़ाने वाली बात है ऐसी स्थिति। जल्दी ही तुम बात करने लगते हो, चीत करने लगते हो--इसी के संबंध में बात करने लगते हो कि ऐसा मुझे हुआ। और उसी बातचीत में भाव-दशा खो जाती है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसा तभी होता है जब कभी-कभी तुम्हारे भीतर से भाषा का जो सतत क्रम है वह टूट जाता है। जब बच्चा पैदा होता है उसके पास कोई भाषा नहीं होती। भाषा तो आदमी धीरे-धीरे सीखता है। बच्चे तो मौन में पैदा होते हैं। उनके पास कोई भाषा नहीं होती। मौन में भेद करना असंभव है।
जब बच्चा पहली दफे आंख खोलता है, तो उसे ऐसा थोड़े ही दिखाई पड़ता है जैसा तुम्हें दिखाई पड़ता है कि ये झाड़, ये पत्थर, ये मकान, ये स्त्री, ये पुरुष, ऐसा थोड़े ही दिखाई पड़ता है। दिखाई ही नहीं पड़ सकता ऐसा तो, क्योंकि उसे पता ही नहीं मकान क्या है, झाड़ क्या है? उसे ऐसा थोड़े दिखाई पड़ता है--यह हरा वृक्ष, लाल फूल। न उसे लाल का पता है, न हरे का पता है। थोड़ी देर कल्पना करो कि बच्चा अभी जब आंख खोलता होगा, उसे कैसा दिखाई पड़ता है! तुम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते।
बच्चे को सभी चीजें इकट्ठी मालूम पड़ती हैं। इकट्ठी मालूम पड़ती हैं ऐसा भी हम कह रहे हैं। उसे तो अनेकता का कोई पता ही नहीं है। एकता का भी कोई पता नहीं। बस दिखाई पड़ता है। सब चीजें जुड़ी हैं। न तो लाल लाल है, न हरा हरा है अभी। कोई सीमा नहीं है। सब चीजें एक-दूसरे से जुड़ी हैं, मिली हैं।
फिर भाषा पैदा होती है। फिर भाषा भेद बनाती है। फिर कुत्ता अलग, बिल्ली अलग, मकान अलग, झाड़ अलग--भेद होने शुरू होते हैं। जितना बच्चा सीखना-समझने लगता है, विचार करने लगता है, भाषा का उपयोग करने लगता है, उतने भेद निर्मित होते चले जाते हैं।
तुम उस व्यक्ति को बड़ा विचारक कहते हो जो बड़े बारीक बाल के खाल के भेद करने लगता है। लेकिन अस्तित्व तो अभेद है। भाषा ने भेद खड़े कर दिए हैं। इसलिए सभी धर्मों ने मौन का महत्व माना है। मौन का और क्या महत्व है? मौन का यही महत्व है कि तुम जरा भाषा को हटा कर देखो। तुम जरा भाषा की पर्तों को अलग करके झांको। मौन का इतना ही अर्थ है कि भाषा के बिना अस्तित्व को देखो। तत्क्षण भेद गिर जाएंगे, अभेद प्रकट हो जाएगा।
इसलिए मौन बड़ी गहरी कीमिया है। और जिसने मौन नहीं जाना, उसने कुछ भी नहीं जाना। मौन कहो, ध्यान कहो, प्रेम कहो, बात एक ही है। प्रेम में भी मौन हो जाता है, शब्द खो जाते हैं। शब्द खो जाते हैं, तो ध्यान हो जाता है। ध्यान से भर जाओ, तो प्रेम बहने लगता है। ध्यान और प्रेम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ध्यान का अर्थ है: चुप हो गए। चुप हुए तो पाया कि एक ही है, दूसरा तो है ही नहीं। और जब पाया कि एक ही है, दूसरा नहीं है, तो प्रेम प्रवाहित होने लगा। दूसरा है, इसलिए प्रेम को रोके थे। जब तुमने पाया कि मैं ही हूं, सभी के हृदय में मैं ही धड़कता हूं, वृक्षों में मैं ही खिला हूं, चांद-तारों में मैं ही चमका हूं, फिर कैसा अप्रेम? फिर कैसी घृणा? फिर कैसा वैर-वैमनस्य?
तो सहजो कहती है: निर्दुन्दी, निर्वैरता! तो पहली तो बात है, तुम निर्द्वंद्व हो जाओ, दो न रहे। दो नहीं रहे तो निर्वैरता अपने आप पैदा हो जाएगी, प्रेम जग जाएगा--फिर कोई शत्रु न रहा। कोई बचा ही नहीं शत्रु रहने को। शत्रु के लिए कम से कम कोई और तो चाहिए, कोई दूसरा चाहिए।
निर्दुन्दी, निर्वैरता! इसलिए निर्वैरता का जैसा बारीक सूत्र सहजो ने दिया है, वैसा शायद ही किसी ने दिया हो। वह कहती है, पहले निर्द्वंद्व हो जाओ, दो न रहे, द्वंद्व न रहे, दुई न रहे; फिर निर्वैरता तो अपने से बह जाती है। निर्दुन्दी, निर्वैरता! निर्द्वंद्व से निकलती है निर्वैरता।
सहजो अरु निर्वास! और निर्वैर से निकलती है निर्वासना। यह बड़ा कीमती सूत्र है। जब दो न रहे, तो अपने आप संघर्ष, शत्रुता गिर गई: तुम निर्वैर हो गए। और जब दो ही न रहे तो पाने को क्या बचा? तो वासना कैसे टिकेगी? पाना तो दूसरे की प्रतिस्पर्धा में है--कहीं दूसरा ज्यादा न पा ले, कहीं मैं दूसरे से पीछे न रह जाऊं--इसलिए तो महत्वाकांक्षा पैदा होती है। इसलिए दूसरे के गले भी काटने पड़ें तो हर्ज नहीं, मुझे मेरे पदों पर पहुंचना है। ऐसे दूसरों पर दया करूंगा। तो कैसे पहुंच पाऊंगा? दूसरों के सिरों की सीढ़ियां बनानी हैं, उनका उपयोग करना है; और पागल की तरह, उन्मत्त की तरह दौड़ना है।
हिटलर की सफलता का सारा राज यही था। उससे ज्यादा बुद्धिमान लोग थे संघर्ष में, पर हार गए। किसी को कल्पना भी न थी कि हिटलर जर्मनी की छाती पर इस तरह प्रभावी हो जाएगा। बहुत बुद्धिमान लोग राजनीति में थे उसके साथ, उन सबको उसने पछाड़ दिया। और उसका कुल कारण इतना था कि उनमें से कोई भी इतना पागल न था, वे थोड़े बुद्धिमान थे। वही उनके हार का कारण बन गया।
हिटलर बिलकुल पागल था। तुम अगर पागल आदमी के साथ दौड़ोगे, समझ लेना जीत न सकोगे। पागल दौड़े ही न, बात और है। अगर दौड़ा तो तुम्हारी हार निश्चित है। तुम कितनी ही ताकत लगाओगे, पागल जैसी ताकत थोड़े ही लगा पाओगे।
तुमने भी कभी खयाल किया हो, अगर तुम क्रोध में हो तो तुम एक बड़ी चट्टान को भी धका कर गिरा देते हो। बिना क्रोध में वह चट्टान हिलती भी नहीं। क्रोध में तुम विक्षिप्त हो, पागल हो। पागलों ने जंजीरें तोड़ दी हैं, जो कि बड़े शक्तिशाली पहलवान अपने होश में नहीं तोड़ पाए--और पागलों ने तोड़ दी हैं। क्योंकि पागल के लिए कोई सीमा ही नहीं है। पागल को कोई होश ही नहीं है।
हिटलर दूसरे महायुद्ध में करीब-करीब सफल हो गया था सारी दुनिया पर मालकियत करने में। और कारण? कारण एक बहुत अनूठा था। सैन्य-शास्त्री कहते हैं कि हिटलर जैसी घटना मनुष्य-जाति के इतिहास में कभी घटी नहीं। इंग्लैंड, अमरीका, रूस, फ्रांस, सभी के सेनापति परेशान थे। क्यों? क्योंकि पागल आदमी से लड़ाई चल रही थी। अगर दूसरी तरफ भी कोई सैन्य-शास्त्र को समझने वाला सेनापति हो, तो गणित साफ होता है।
जैसे, सारी दुनिया के विरोधी हिटलर के सेनापति कहेंगे कि इस जगह हमला होगा। क्योंकि यह हमारी सबसे कमजोर कड़ी है। वहां हिटलर हमला ही न करेगा। वे वहां तैयारी करेंगे, क्योंकि कमजोर कड़ी पर हमला होता है सदा। हिटलर वहां हमला करेगा जहां वे सोचते थे हम सबसे ज्यादा ताकतवर हैं, इसलिए वहां रक्षा की कोई जरूरत नहीं है। हिटलर के सेनापति कहते थे कि आप यह क्या कर रहे हैं? यह तो हार का कारण हो जाएगा। हिटलर कहता, तुम चुप। मुझे परमात्मा से आदेश मिलता है। उसके परमात्मा के आदेशों ने ही उसे पांच साल तक जिताया।
फिर तो धीरे-धीरे बड़ी झंझट हो गई। उसके दांव-पेंच समझने ही असंभव हो गए। जैसे कोई शतरंज खेलता हो पागल आदमी के साथ, जो कोई गणित ही नहीं मानता, जो उलटी-सीधी चालें चलता है। वह बुद्धिमान से बुद्धिमान खिलाड़ी को अड़चन में डाल देगा!
पांच साल तक हिटलर उलझाए रहा। पांच साल लगे विरोधी सेनापतियों को उसकी बुद्धि का ढंग समझने में कि वह किस तरह से चलता है; तब कहीं उनकी जीत शुरू हुए। पांच साल उनको अध्ययन करना पड़ा। सारा मनुष्य-जाति का सैन्य-शास्त्र उसने व्यर्थ कर दिया। वह बिलकुल पागल था। जो कोई सोच ही नहीं सकता, वह काम करेगा। जो कोई कभी विचार भी नहीं कर सकता कि इससे कभी सफलता मिल सकती है, वह वही काम करेगा।
उसने ज्योतिषी रख छोड़े थे। ज्योतिषियों से वह युद्ध का हिसाब लगवाता था कि पूरब जाएं कि पश्चिम जाएं। उसके सेनापति कहते भी कि ज्योतिष से कहीं कोई युद्ध लड़े गए हैं! हमसे पूछिए! पर उसने ज्योतिषी रख छोड़े थे।
जब इंग्लैंड को पता चला कि वह ज्योतिषियों के हिसाब से चल रहा है, तो चर्चिल जैसे आदमी को, जिसको ज्योतिष में बिलकुल विश्वास नहीं था, उसको भी एक ज्योतिषी रखना पड़ा। लेकिन करोगे क्या? क्योंकि जब इससे लड़ना है तो हमको भी एक ज्योतिषी रखना पड़ेगा! ज्योतिषी यह बताए कि उसका ज्योतिषी क्या बता रहा है। सेनापति से तो यह युद्ध हो नहीं सकता।
निर्दुन्दी निर्वैरता, सहजो अरु निर्वास।
पागल दूसरों से आगे निकल जाते हैं। मगर दूसरा चाहिए आगे होने को। अगर दूसरा न हो, फिर किससे आगे निकलना? फिर कैसी वासना, कैसी महत्वाकांक्षा?
तो मूल बात है निर्द्वंद्व। फिर उससे निर्वैर निकल आता है। फिर निर्वैर से निर्वासना निकल आती है--कोई है ही नहीं जिससे संघर्ष करना है।
और, जैसे ही तुम्हें पता चलता है कि दो नहीं है, संघर्ष की भाषा ही व्यर्थ हो जाती है। एक ही है; तभी समर्पण की भाषा सार्थक होती है--तब लड़ना किससे है, झुकना है; तब जूझना किससे है, मिटना है, तब जीतना किससे है; तब हार ही जीत है। तब इस विराट, जो मेरा ही रूप है, उसके साथ लड़ने का कोई कारण नहीं है, उसके साथ बहना है--समर्पण।
फिर नदी के साथ तुम लड़ कर तैरते नहीं, तुम नदी के साथ बहते हो। फिर नदी तुम्हें ले चलती है। रामकृष्ण कहते थे, दो ढंग हैं नदी पार करने के। एक तो नाव-पतवार लेकर तुम चलो; तब नदी से लड़ना पड़ता है, हवाओं से लड़ना पड़ता है। और एक ढंग है, प्रतीक्षा करो ठीक क्षण की, जब हवा ठीक दिशा में बहती हो, नदी मौज में हो, तब तुम पाल तान दो; फिर हवाएं और नदी खुद ही तुम्हें ले जाते हैं, वे खुद ही तुम्हारी पतवार बन जाते हैं।
वासना से भरा हुआ व्यक्ति पतवार लेकर लड़ता है। निर्वासना से भरा व्यक्ति परमात्मा की मर्जी पर छोड़ देता है। उसी की हवाएं ले जाएं अब; वह अपने पाल तान देता है कि तेरी जहां मर्जी; तू जहां लगाएगा, वही हमारी मंजिल।
निर्दुन्दी, निर्वैरता, सहजो अरु निर्वास।
तो ये तीन चीजें हैं: कि तुम निर्द्वंद्व हो जाओ, निर्वैर हो जाओ, निर्वासना से भर जाओ।
संतोषी निर्मल दसा,...
इन तीन से जो फलित होती है वह संतोष की निर्मल दशा है।
संतोषी निर्मल दसा, तकै न पर की आस।
पर तो बचा ही नहीं, तो पर की आस क्या? संतोषी निर्मल दसा! संतोष भी दो तरह के हैं, इसलिए सहजो ने ‘निर्मल’ भी जोड़ा है। संतों को एक-एक शब्द सोच कर बोलना पड़ता है, क्योंकि तुमसे बोले जा रहे हैं शब्द। अनिर्मल संतोष भी होता है। तुम कहोगे अनिर्मल संतोष कैसा होता है? जब तुम जबर्दस्ती संतोष कर लेते हो, तब वह पवित्र संतोष नहीं है। जैसे तुम हार गए। मन को समझाने के लिए कहते हो कि चलो, सब ठीक है। जो भाग्य में लिखा था, हुआ। शायद परमात्मा की इसमें भी कोई अच्छी ही आकांक्षा होगी। शायद अभिशाप में वरदान छिपा हो।
यह संतोष नहीं है, सांत्वना है, कंसोलेशन है। ऐसा तुम अपने को समझा लेते हो, क्योंकि जीवन वैसे ही तो कठिन है; अगर निरंतर असंतोष में रहो तो जलोगे, तो रोएं-रोएं में जहर हो जाएगा, पीड़ा के घाव हो जाएंगे। तो समझा लेना पड़ता है कि शायद इसमें भी कुछ भला ही होगा। जो हुआ ठीक है, परमात्मा जो करता है ठीक है। लेकिन तुम जानते हो ठीक नहीं हुआ! अन्यथा तुम यह भी क्यों कहते कि परमात्मा जो करता है ठीक है। गैर-ठीक का कांटा तो लग गया; ठीक से तुम मलहम-पट्टी कर रहे हो। तुम जो कहते हो अभिशाप में भी वरदान छिपा होगा, अभिशाप तो तुम्हें दिखाई पड़ गया। अब तुम चेष्टा कर रहे हो वरदान को भी आरोपित करने की।
ध्यान रखो, अगर संतोष निर्मल है तो अभिशाप दिखाई ही नहीं पड़ता। वरदान ही वरदान है। अगर संतोष अनिर्मल है तो पहले अभिशाप दिखाई पड़ता है, और अभिशाप को झेलने के लिए तुम वरदान की आशा बांधते हो; क्योंकि अभिशाप इतना बड़ा है, कैसे झेल पाओगे? तो कुछ सहारा चाहिए।
पुराने कर्मों का जाल है। शायद पुराने कर्मों के कारण भोगना पड़ रहा है। लेकिन भोगना पड़ रहा है। तुम जानते हो कि भोग रहे हो, अब तुम कुछ उपाय करते हो जिससे सहारे मिल जाएं। चारों तरफ मकान गिर रहा है, तुम सहारे के लिए लकड़ियां लगा देते हो। मगर यह कोई स्वस्थ मकान की दशा नहीं है। यह तो अंगूर खट्टे हैं, वही बात है। तुम पहुंच नहीं पाते अंगूरों तक, तो तुम कहते हो अंगूर खट्टे हैं, अभी पके ही नहीं। यह तुम किसे धोखा दे रहे हो?
तुम्हें इस तरह के संतोषी इस देश में बहुत मिलेंगे। जो सारी दुनिया की निंदा करते हैं। वे कहते हैं, सारी दुनिया अधार्मिक है। संतोष सीखो तो हमसे सीखो। भारत बड़ा संतोषी है।
मैंने तो संतोषी आदमी मुश्किल से देखे हैं। तुम्हारा संतोष झूठा संतोष है। तुम्हारा संतोष नपुंसक-संतोष है। जब मैं कहता हूं नपुंसक-संतोष, उसका मतलब यह है कि तुम दौड़ने में असमर्थ हो, तुम्हारी हिम्मत संघर्ष की नहीं है, इसलिए तुमने संतोष का बाना ओढ़ रखा है। दौड़ना तुम भी चाहते हो, तुम्हारी इच्छा है कोई और तुम्हारे लिए दौड़ जाए। पहुंचना तो तुम भी चाहते हो सिंहासनों पर, लेकिन तुम चाहते हो परमात्मा तुम्हें उठा कर सिंहासनों पर रख दे, तुम्हें कुछ करना भी न पड़े। क्योंकि करने में हारने का डर है। दौड़े तो डर है। कहीं पीछे रह गए तो अहंकार को चोट लगेगी।
तो दो तरह के अहंकारी हैं दुनिया में। एक, जो पागल की तरह दौड़ते हैं। दूसरे, जो संतोषी की तरह खड़े रहते हैं। पागल की तरह दौड़ने वाला अहंकारी धक्का-मुक्की करता है। संतोषी की तरह खड़ा रहने वाला शायद तुम्हें धोखा दे दे, लगे कि आदमी कितना संतोषी है, किनारे खड़ा है! लेकिन अगर तुम उसके गहन में झांकोगे तो पाओगे, वह इसलिए खड़ा है कि कहीं दौड़ने में हार न जाए। शायद यह उस पागल आदमी से भी ज्यादा अहंकारी है। यह प्रतियोगिता में सम्मिलित ही नहीं हो रहा है, क्योंकि प्रतियोगिता में सम्मिलित होने का मतलब साफ है: जीत सुनिश्चित नहीं है, हार भी हो सकती है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम प्रेम करना चाहते हैं, लेकिन किसी की तरफ बढ़ नहीं पाते, क्योंकि डर लगता है--रिजेक्शन; कहीं दूसरा इनकार न कर दे। हम अपने प्रेम को निवेदन नहीं कर पाते। यह अहंकार है। निश्चित ही जब तुम किसी के प्रति प्रेम निवेदन करोगे, खतरा है इनकारी का भी। दूसरा स्वतंत्र है। तुम प्रेम करना चाहते हो, इससे जरूरी नहीं कि वह भी तुम्हारे प्रेम में पड़ने को राजी हो। तुमने मित्रता का हाथ बढ़ाया है, इससे वह भी हाथ बढ़ाए मित्रता का यह अनिवार्य नहीं है। उसे तुम जंचो ही न! और अक्सर ऐसा होता है। जिसे तुम प्रेम करोगे, उसे तुम न जंचोगे। इसके पीछे भी बड़ी अहंकार की बात है। क्योंकि कोई आदमी ऐसा तो मानता ही नहीं कि मैं प्रेम के योग्य हूं, जब भी उसे कोई प्रेम करता है तो वह कहता है, जो मुझे भी प्रेम करने को राजी है वह दो कौड़ी का है। किसी को अपनी आत्म-गरिमा का तो बोध नहीं है। निंदा ही सिखाई गई है सदियों से। तो तुम इतने निंदित हो अपने भीतर, तुम जानते हो कि मैं भी कोई ऐसा हूं कि मुझे कोई प्रेम करे; जो मुझे प्रेम करता है वह दो कौड़ी का है।
अमरीका का एक हंसोड़ अभिनेता है, ग्रैको मार्क्स। हॉलिवुड के एक प्रसिद्ध क्लब ने--जिसमें कि श्रेष्ठतम हॉलिवुड के अभिनेताओं, दिग्दर्शकों और बड़ी चोटी के लोगों को ही सदस्यता मिलती है, जिसकी सदस्यता पाने के लिए लोग पागल होते हैं, राष्ट्रपति और गवर्नर और इस तरह के लोग ही जिसकी सदस्यता पा सकते हैं--ग्रैको मार्क्स को निमंत्रण दिया कि आप हमें खुशी होगी, हमारे क्लब के सदस्य हो जाएं। ग्रैको मार्क्स ने उत्तर में लिखा कि जो क्लब मुझे सदस्य की तरह स्वीकार करने को राजी है, उस क्लब को मैं क्लब की तरह स्वीकार करने को राजी नहीं हो सकता। वह मुझसे नीचा है, नहीं तो वह मुझे स्वीकार करने को राजी क्यों हो? मैं तो उस क्लब का सदस्य होना चाहता हूं, जो मुझे स्वीकार करने को राजी न हो। अहंकार!
बर्नार्ड शॉ को नोबल-प्राइज मिली, उसने इनकार कर दिया। उसने कहा कि यह मुझसे अब छोटी पड़ती है। यह मेरे योग्य नहीं है। यह तो अब नये, जवान सिक्खड़ हैं, उनको दो। मैं तो बूढ़ा आदमी हुआ, वह वक्त गुजर गया, बीस साल पहले तुमने दी होती तो शायद मैं स्वीकार कर लेता।
जयप्रकाश से बहुत बार कहा गया कि आप राष्ट्रपति हो जाएं। वे कहते हैं मुझसे जरा छोटा पड़ता है पद।
अहंकार की बड़ी अदभुत खूबियां हैं। लोग सोचते हैं त्यागी है यह आदमी, क्योंकि राष्ट्रपति का पद छोड़ रहा है। उस आदमी के भीतर का भाव समझो, वह कह रहा है कि मेरे योग्य नहीं। त्याग का सवाल नहीं है, मेरे योग्य ही नहीं है।
तो कई बार जिनको तुम त्यागी कहते हो, वे तुमसे बड़े अहंकारी होते हैं। और कई बार जो रास्ते के किनारे खड़े हो जाते हैं और संतोष की हवा फैलाते हैं, वे तुमसे ज्यादा असंतुष्ट होते हैं।
तो बाहर की रूप-रेखा से कुछ भी नहीं होता। अंतस रूपांतरित होना चाहिए।
सहजो कहती है: संतोषी निर्मल दसा! संतोष की तो बड़ी निर्मल दशा है। अगर तुम मुझे आज्ञा दो तो मैं कहना चाहूंगा, जब तुम्हें संतोष का भी पता नहीं चलता तभी संतोष की निर्मल दशा है। जब तक पता चलता है, असंतोष है। जब तक तुम्हें ऐसा लगता है कि मैं तो संतोषी, तब तक तुम जानना कि असंतुष्ट तुम हो। जब तुम्हें पता ही न चले कि तुम संतोषी हो--संतोष का भी बोध न रह जाए--तभी जानना: संतोषी निर्मल दसा, तकै न पर की आस!
अब यहीं बड़ी बारीक गुत्थियां हैं। अहंकारी भी हो सकता है पर की आस न करे, मगर वह इसलिए पर की आस नहीं करता कि वह पर की आस कर कैसे सकता है? उसका अहंकार किसी के सामने हाथ फैलाने को राजी नहीं होता। और संतोषी भी पर की आस नहीं करता। दोनों की बातें एक सी दिखाई पड़ती हैं, लेकिन बड़े भेद हैं--स्वर्ग और नरक के। संतोषी इसलिए पर की आस नहीं करता कि पर बचा नहीं। तकै न पर की आस! क्योंकि पर न बचा।
निर्दुन्दी, निर्वैरता, सहजो अरु निर्वास।
संतोषी निर्मल दसा, तकै न पर की आस।।
कोई पर बचा नहीं, इसलिए पर से कोई आशा का सवाल ही न रहा। अहंकारी भी पर की आशा नहीं करता, क्योंकि वह कहता है कि मैं और कैसे पर की आशा करूं? वह मैं नहीं कर सकता। झुकना मुझे नहीं आता। संतोषी भी नहीं झुकता, क्योंकि वह कहता है झुकूं कहां? कोई और तो है ही नहीं, अपने ही पैर झुक कर छू लेने में क्या मजा है, क्या अर्थ है? अहंकारी भी नहीं झुकता, क्योंकि वह कहता है झुकूं कैसे, मैं और झुक सकता हूं? और निर-अहंकारी भी नहीं झुकता, क्योंकि वह कहता है कोई है नहीं जिसके पास झुकूं, अपनी ही प्रतिमा के सामने पूजन करने से तो पागलपन सिद्ध होगा। अपने ही चेहरे को दर्पण में देख कर नमस्कार करने से क्या सार है?
अहंकारी नहीं झुकता, निर-अहंकारी भी नहीं झुकता। पर कारण उनके बड़े अलग-अलग हैं। अहंकारी गलत कारणों के कारण नहीं झुकता, निर-अहंकारी के लिए कारण ही न बचा झुकने का--कोई कारण नहीं है।
संतोषी निर्मल दसा, तकै न पर की आस।
और इस सूत्र को तुम जीवन के सभी पहलुओं पर उपयोगी पाओगे। धार्मिक व्यक्ति को पता नहीं रह जाता कि मैं धार्मिक हूं, अधार्मिक को पता रहता है। स्वस्थ आदमी को पता नहीं रह जाता कि मैं स्वस्थ हूं, सिर्फ बीमार को पता रहता है। बुद्धिमान को पता नहीं रह जाता कि मैं बुद्धिमान हूं, सिर्फ अज्ञानी को पता रहता है।
जब तक तुम्हें पता रहे, तब तक तुम जानना कि दूसरा तत्व कहीं छिपा है, मौजूद है, कहीं भीतर कांटे की तरह गड़ रहा है; तुमने ऊपर से फूल छा लिए होंगे, बात और! घाव है। मलहम-पट्टी की गई है। भीतर मवाद है। जब घाव बिलकुल मिट जाता है तो पता ही नहीं चलता, न घाव के होने का पता चलता है, न घाव के मिटने का पता चलता है। मिट ही गया। बात ही समाप्त हो गई।
और इसके बाद सहजो का जो सूत्र है, उपनिषद छान डालो न पा सकोगे; वेद तलाश डालो न पा सकोगे।
जो सोवै तो सुन्न में, जो जागै हरिनाम।
जो बोलै तो हरिकथा, भक्ति करै निहकाम।।
यह बड़ा ही अनूठा सूत्र है, महामंत्र है।
जो सोवै तो सुन्न में,...
सहजो कहती है: अब मेरी नींद है शून्य की, कोई स्वप्न नहीं। अब मैं सोती हूं तो शून्य में सो जाती हूं।
...जो जागै हरिनाम।
और जब जागती हूं तो हरि-स्मरण में जागती हूं। सोती हूं शून्य में, जागती हूं पूर्ण में। बस ये दो अंग हैं--शून्य और पूर्ण।
बुद्ध ने निर्वाण को शून्य कहा है। शंकर ने निर्वाण को पूर्ण कहा है। सहजो ने दोनों को जोड़ दिया। सहजो सेतु बन गई। बुद्ध की जिद है कि परम अस्तित्व का स्वभाव शून्य है। सहजो कहेगी, बुद्ध ने विश्राम से परमात्मा को देखा। विश्राम की आंख से देखा, तो निराकार, शून्य अनुभव हुआ। शंकर ने परमात्मा को विश्राम की आंख से नहीं, निद्रा की आंख से नहीं, गहरी सो गई स्थिति से नहीं, सुषुप्ति से नहीं, आंख खोल कर, जाग्रत, श्रम की आंख से देखा, तो पाया कि पूर्ण है।
जो जागै हरिनाम! सोकर जो शून्य हो जाता है, जाग कर वही पूर्ण है। वह तो वही है। हमारी दो दशाएं हैं--सोना और जागना। जो नींद से देखेगा वह उसे परम शांति की तरह पाएगा; जो जाग कर देखेगा वह उसे परम आनंद की तरह पाएगा। नींद में आनंद शांति बन जाता है; जागने में शांति आनंद बन जाती है।
तो बुद्ध चुप बैठे हैं वृक्ष के नीचे--बोधिवृक्ष के नीचे। उन्होंने परमात्मा को शून्य की तरह पाया। चैतन्य नाच रहे हैं हरिनाम में--हरि बोल, हरि बोल...चैतन्य नाच रहे हैं; उन्होंने परमात्मा को जागने से देखा।
दोनों एक को ही देख रहे हैं, पर दो पहलू हैं देखने के। तुम आंख बंद करके देखोगे, परमात्मा को शून्य की तरह पाओगे; आंख खोल कर देखोगे यह विराट लीला उसकी, तुम उसे पूर्ण की तरह पाओगे।
शंकर बुद्ध के खंडन में लगे हैं। शंकर के भीतर दार्शनिक मौजूद है, मिट नहीं गया है। मिटते-मिटते भी उसकी रेखा रह गई है। रस्सी जल जाती है तो भी गांठ रह जाती है। शंकर का मौलिक स्वभाव दार्शनिक का है, चिंतक का है। वे परम ज्ञान को उपलब्ध हुए, तब भी उनकी जो चिंतन की धारा है वह रह गई है।
बुद्ध का स्वभाव भी दार्शनिक का है। वे ज्ञान को उपलब्ध हुए। लेकिन चिंतक सदा ही विचार के किसी पहलू को पकड़ता है, क्योंकि बिना विचार के तो चिंतन का कोई उपाय नहीं है। तो बुद्ध ने पाया कि परमात्मा शून्य है। शंकर ने पाया कि पूर्ण है। सहजो दोनों को जोड़ देती है। और अच्छा ही है कि दो लड़ते पुरुषों को एक स्त्री जोड़ देती है।
सहजो का वचन बहुत अदभुत है।
जो सोवै तो सुन्न में, जो जागै हरिनाम।
इसलिए वह कहती है, बुद्ध भी ठीक, शंकर भी ठीक। हमने दोनों तरह परमात्मा को देखा है। और हमने पाया कि वह दो नहीं है, वह एक ही है। हमारी दो दशाएं हैं। आंख बंद करते हैं तो भीतर शून्य है, बाहर आंख खोलते हैं तो पूर्ण विराजमान है। सब जगह वही बरस रहा है।
जो सोवै तो सुन्न में, जो जागै हरिनाम।
इसे तुम साधना भी समझ सकते हो। जागते परमात्मा का स्मरण रखो, और सोते शून्य में खो जाओ। अगर रात सोते में भी तुम परमात्मा की गुनगुनाहट लगाए रखे, तो विश्राम न मिलेगा। परमात्मा को भी विश्राम दो, तुम भी विश्राम करो।
मैंने सुना है, एक आदमी मरा। वह पुजारी था बड़ा, और बड़ा पंडित था। सामने ही घर के द्वार पर एक वेश्या थी, वह भी मरी। जब मृत्यु के देवता ले जाने लगे, तो उस आदमी ने कहा पंडित ने, कि यह क्या गड़बड़ हो रही है, मुझे नरक की तरफ ले जा रहे हो और यह वेश्या स्वर्ग की तरफ जा रही है? कुछ भूल-चूक हो गई है। तुम फिर पता-ठिकाना करके लाओ। पंडित था, अड़ियल था। वह अड़ गया। उसने कहा कि ऐसे नहीं, पहले तुम जाओ, पता करके आओ। यमदूतों ने कहा: कभी भूल हुई ही नहीं। उस पंडित ने कहा कि मुझे तुम नरक ले जाते हो, जो दिन-रात, अहर्निश राम-राम जपता रहा। और यह वेश्या जिसने कभी राम का नाम भी नहीं लिया...।
यमदूतों ने कहा: आपको हम परमात्मा के पास ही ले चलते हैं, आप ही विवाद कर लो।
उस आदमी ने जाकर परमात्मा से कहा कि यह क्या अंधेर है? वेश्या स्वर्ग लाई जा रही है! तो स्वर्ग में भी संसार ही चलने लगा! संसार में इसी की प्रतिष्ठा थी और यहां भी इसी की प्रतिष्ठा है। तो हम तो न घर के रहे, न घाट के। वहां भी हम तुम्हारा नाम जपते मरे, अब नरक में जाएं। और जिंदगी भर तुम्हारा नाम जपा; याद है, एक क्षण को तुम्हें भूले नहीं।
परमात्मा ने कहा: उसी की वजह से भेजे जा रहे हो। न तुम सोए, न मुझे सोने दिया। इस वेश्या ने मेरा नाम न लिया हो, यह ठीक है, लेकिन मुझे कोई उपद्रव भी इसने नहीं दिया। तुमने मुझे उबा डाला है! तुम मेरी खोपड़ी खाते रहे!
चौबीस घंटे किसी भी एक चीज को मत पकड़ लेना।
जीवन में दो घाट हैं, दो किनारे हैं जीवन की सरिता के। श्रम है, विश्राम है; जागना है, सोना है। इसीलिए तो पलक झपती है, बंद होती है। इसीलिए तो श्वास भीतर आती है, बाहर जाती है। इसीलिए तो जन्म होता है, मौत होती है। इसलिए तो स्त्रियां हैं, पुरुष हैं। जीवन पर दो घाट हैं। और दोनों को जो संतुलन में सम्हाल लेता है वही परमात्मा को उपलब्ध होता है।
एक को मत पकड़ लेना। एक को तुमने पकड़ा तो तुमने चुनाव कर लिया, आधे को पकड़ा आधे को तुमने छोड़ दिया। वह आधा भी परमात्मा है।
मेरे पास लोग आते हैं। एक सज्जन को मेरे पास कई वर्ष पहले लाया गया। भले आदमी हैं। बुरे आदमी बुरी झंझटों में पड़ते हैं, भले आदमी भली झंझटों में पड़ जाते हैं। मगर झंझट से नहीं बचते। और कई दफे भले आदमी और भी ज्यादा झंझटों में पड़ जाते हैं। उनका भलापन भी उनके अहंकार की बड़ी गांठ बन जाती है। वे सज्जन लाए गए। मैंने पूछा: क्या हुआ है? उनकी हालत बिलकुल खराब थी। पत्नी भी साथ आई थी, पिता भी साथ आए थे। पूछा: हुआ क्या? क्योंकि वे तो कुछ बोलने-चालने की स्थिति में नहीं थे।
उन्होंने कहा: ये शिवानंद जी की किताबें पढ़-पढ़ कर--पहले आठ घंटे सोते थे, फिर पांच घंटे सोने लगे, फिर तीन घंटे सोने लगे। इनका चित्त अब कुछ विक्षिप्त हो गया है। और हम कितना ही समझाएं, वे कहते हैं कि यह तो--निद्रा का तो त्याग करना है, और ब्रह्मज्ञानी तो सोता ही नहीं। और किताबें रखे रहते हैं, और बस--पहले नींद छोड़ी, फिर दिन भर नींद आने लगी, तो किसी गुरु को पूछा। गुरु ने कहा: अगर नींद कम करनी है तो भोजन कम करो। भोजन अगर लोगे तो नींद दिन भर आएगी--तामसी हो। तो इन्होंने भोजन कम कर दिया, अब सिर्फ दूध पर रहने लगे हैं। शरीर भी सूख गया है, कमजोर भी हो गए हैं। रात भर सोते नहीं हैं। नींद से भयभीत हो गए हैं, क्योंकि जब सोते हैं तो सपने आ जाते हैं। और सपना तो पाप है। सपने का तो त्याग करना है। तो अब यह विक्षिप्त उनकी हालत हुई जा रही है। सुनते किसी की हैं नहीं, क्योंकि ज्ञानी हैं, समझाने को तो उलटा हमीं को समझा देते हैं, तर्क में जीत जाते हैं। पत्नी रोने लगी, उसने कहा कि यह तो सब घर-गृहस्थी बर्बाद हो गई। किसी तरह इनको शिवानंद से छुड़ाओ!
मैंने उनसे कहा: महाराज, किताब कहां है तुम्हारी? वे अपनी झोली में किताब रखे थे। मैंने कहा: जरा शिवानंद का चित्र तो देखो! शिवानंद से मोटा आदमी तुम हिंदुस्तान में भी न पाओगे--चार तरुलताएं इकट्ठीं, तब भी शिवानंद वजनी पड़ेंगे। तुम तामसी हो? सूख के हड्डी हो रहे हो, चलते तुमसे बनता नहीं! शिवानंद चलते तो दो आदमियों के कंधे पर हाथ रखते थे, क्योंकि हाथ वे अपने खुद तो चला नहीं सकते थे। दो आदमियों के कंधे पर हाथ रखें तबवे चलें। उनकी किताब पढ़ कर कम से कम उनका फोटो तो देख लेते! सब किताब में फोटो छपा है।
पर भले आदमी को भली बीमारियां पकड़ लेती हैं, जो कभी-कभी बुरी बीमारियों से भी खतरनाक सिद्ध होती हैं।
जीवन को बड़ा संतुलन चाहिए। संतुलन को मैं संयम कहता हूं। संयम का मेरा अर्थ त्याग नहीं है। संयम का मेरा अर्थ है: भोग और त्याग के बीच संतुलन। संयम का मेरा अर्थ है: जीवन को एक निसर्ग, सहज रूप देना। शरीर को विश्राम चाहिए, भोजन भी चाहिए, श्रम भी चाहिए। रात सोओ भी, दिन जागो भी।
तो फिर धार्मिक आदमी क्या करे?
जो सोवै तो सुन्न में, जो जागै हरिनाम।
जाग कर जब देखे तो हरि को देखे, सोए तो शून्य में गिर जाए। बस इतनी साधना हो--जागते में हरि न भूले, सोने में किसी की याद न रह जाए--हरि की भी न रह जाए, क्योंकि हरि की भी याद रह जाए तो शून्य पूरा न हो पाएगा।
और जब तुम शून्य और पूर्ण के बीच डोलने लगते हो, तब तुम्हें एक नशा पकड़ लेता है, जो नशा होश का है, बेहोशी का नहीं। तो सहजो कहती है: पांव पड़ै कित कै किती! तो पैर कहीं के कहीं पड़ते हैं। लेकिन हरि सम्हाल लेता है। अब खुद सम्हालने की जरूरत न रही, जिसके जीवन में संतुलन आ गया उसे हरि सम्हाल लेता है। जो सोवै तो सुन्न में, जो जागै हरिनाम!
जो बोलै तो हरिकथा,...
जो बोलो, इसी तरह बोलना जैसे हरिकथा बोलते हो। बोलना ही इसीलिए। अगर वह हरिकथा हो तो ही बोलना, नहीं तो बोलना ही मत। बिना बोले चल जाएगा, लेकिन बोलो तो हरिकथा बोलना।
भारत में पुराना रिवाज है, हम तो अर्थ भूल गए, राह पर अजनबी भी मिल जाता है तो ‘राम-राम’ करनी। वह नमस्कार के माध्यम से परमात्मा को स्मरण करना है। तुम तो मतलब से राम-राम भी करने लगे हो। गांव में से गुजरोगे तो जिसको कोई मतलब नहीं है तुमसे, तुम्हें पहचानता भी नहीं है, वह भी कहेगा--जयराम जी। तुम्हें लगेगा कि क्या फिजूल की बात है? न कोई लेना, न देना, नाहक जयराम जी!
लेकिन गांव का आदमी पुराने हिसाब से चल रहा है। वह तुमसे नमस्कार कर रहा है ऐसा नहीं, तुम्हारे बहाने परमात्मा को याद कर रहा है।
जो बोलै तो हरिकथा! तुम दिख गए, एक बहाना मिला। बहाने का उपयोग कर लिया, भगवान का स्मरण कर लिया। इसलिए हिंदुओं ने जैसा नमस्कार खोजा है, दुनिया में कोई नहीं खोज पाया। ‘गुड मॉर्निंग’--ठीक है; कुछ बहुत ज्यादा नहीं है। कुछ ज्यादा नहीं है; ठीक है, काम चल जाता है। लेकिन ‘जयराम जी’ अनूठी है। सुबह की क्या बात करनी जब परमात्मा की ही बात हो सकती है, तो सुबह तो उसमें आ ही जाती है! सुबह में परमात्मा न आता हो, लेकिन परमात्मा में सुबह तो आ ही जाती है। और सुबह सदा ही अच्छी होती है, ऐसा भी नहीं है। सांझ सदा अच्छी होती है, ऐसा भी नहीं है। परमात्मा सदा अच्छा है। सांझ-सुबह में तो फर्क पड़ते रहते हैं। आज मौसम ठीक है, कल मौसम ठीक नहीं है। परमात्मा सदा ठीक है। याद ही करना हो, तो उसकी ही याद करनी चाहिए।
जो बोलै तो हरिकथा, भक्ति करै निहकाम।
और, अगर भक्ति करनी हो, तो निष्काम। उसमें कोई मांग न हो। प्रेम की वही कसौटी है। जहां मांगा, प्रेम वासना हो जाता है--नीचे गिर जाता है। जहां न मांगा, प्रेम वहीं भक्ति हो जाता है--ऊपर उठ जाता है। मांगा कि प्रेम के गले में पत्थर लटक जाते हैं। न मांगा कि प्रेम के पंख लग जाते हैं, आकाश में उड़ना शुरू हो जाता है। भक्ति करै निहकाम!
नित ही प्रेम पगै रहैं, छकै रहैं निज रूप।
समदृष्टि सहजो कहै, समझैं रंक न भूप।।
ऐसी हमारी दशा हो गई है। एक निर्मल संतोष ने घेर लिया है--बाहर-भीतर। संतोष का भी कोई पता नहीं चलता। किसी की आस नहीं रही। कोई पराया नहीं, आस किसकी? कुछ पाने को न रहा, क्योंकि हम ही सब हैं, सब ही हम हैं। कहीं जाने को न रहा, कोई भविष्य न रहा, वर्तमान का क्षण परिपूर्ण है। सोते हैं शून्य में, जागते हैं हरि-स्मरण में, बोलते हैं तो उसकी कथा। नहीं बोलते, तो उसकी भक्ति--बिना किसी मांग के चुपचाप। जब मांगना ही नहीं है तब बोलना क्या है?
तो बोलते हैं तो उसका नाम, बोलते हैं तो उसका स्मरण, बोलते हैं तो उसकी स्तुति। नहीं बोलते हैं तो उसकी भक्ति, तो उसके प्रेम में डूबे रहते हैं। नित ही प्रेम पगै रहैं! अब तो चौबीस घंटे उसके प्रेम में ही पगे हैं। छकै रहैं निज रूप! हृदय भर गया है, कोई कमी न रही--अपने ही से भरे हैं, क्योंकि वह अब दूसरा नहीं है। वह मेरा ही निज-रूप है। छकै रहैं निज रूप!
समदृष्टि सहजो कहै! और दृष्टि अब सम हो गई है। जहां संतोष--वहां दृष्टि सम। जहां शून्य और पूर्ण के बीच संतुलन--वहां दृष्टि सम।
समदृष्टि सहजो कहै, समझैं रंक न भूप।
अब न कोई गरीब दिखता है, न कोई अमीर; न कोई सुंदर, न कोई कुरूप; न कोई स्त्री, न कोई पुरुष; न कोई संसार, न कोई मोक्ष। समदृष्टि सहजो कहै, समझैं रंक न भूप!
साध असंगी संग तजै, आतम ही को संग।
बोधरूप आनंद में, पियैं सहज को रंग।।
साध असंगी संग तजै! साधना हो तो असंग साधो, अकेला होना साधो, क्योंकि तुम्हारे अकेलेपन में ही तुम उसे पाओगे। जब तक तुम दूसरे को खोज रहे हो तब तक तुम्हें कितने ही मिलेंगे, वह नहीं मिलेगा। जब तक तुम दूसरे को खोजते हो, तब तक तुम अपने से बच रहे हो।
सब दूसरे की खोज अपने से पलायन है।
तुम अकेले में बेचैन होते हो। कहते हो क्या करें, कहां जाए, किसको मिले? मित्र खोजते हो, क्लब जाते हो, होटल में बैठते हो, सिनेमा देख आते हो, मंदिर पहुंच जाते हो, लेकिन तुम्हारी खोज दूसरे की खोज है। कोई दूसरा मिल जाए तो थोड़ा अपने से छुटकारा हो, नहीं तो अपने से घबड़ाहट होने लगती है। अपने ही अपने से ऊब पैदा हो जाती है। तुम अपने को झेल नहीं पाते। तुम अपने से परेशान हो जाते हो। तो पत्नी को खोजते हो, पति को खोजते हो, बच्चे पैदा करते हो--भीड़ बढ़ाते जाते हो, इसमें उलझे रहते हो।
अब मेरे पास लोग आते हैं। अगर वे अकेले हैं, तो दुखी। वे कहते हैं, हम अकेले हैं। अगर वे परिवार में हैं, तो दुखी। वे कहते हैं, परिवार है। अकेले हैं तो अकेलापन काटता है। अकेलेपन से बचने के लिए भीड़ इकट्ठी कर लेते हैं, तो भीड़ सताती है। फिर वे कहते हैं, दबे जा रहे हैं, व्यर्थ मरे जा रहे हैं, बोझ ढो रहे हैं, कोल्हू के बैल बन गए हैं। पत्नी है, बच्चे हैं, अब इनको पालना है, शिक्षा दिलानी है, शादी करनी है, अब तो फंस गए! जब तक फंसे नहीं थे तब तक लगता था, क्या करें अपने आप? अपने साथ क्या करें? कुछ सूझता न था। अकेले-अकेले ऊब मालूम पड़ती थी, कुछ चाहिए करने को।
साध असंगी संग तजै! साधु तो वही है जो असंग को साधता है, अकेलेपन को साधता है। जो कहता है मैं अपने अकेले मैं आनंदित रहूंगा। जो धीरे-धीरे अपने निज-रूप में उतरता है। जो अपने ही भीतर गहरा कुआं खोदता है, और उसमें डूबता है। एक ऐसी घड़ी आती है जब अपने ही केंद्र पर कोई पहुंच जाता है, तो फिर किसी के साथ की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
इसका यह मतलब नहीं कि तुम जंगल भाग जाओ। जंगल भी वही भागता है जो पहले अपने से भागने के लिए भीड़ में फंसा। अब भीड़ से बचने के लिए जंगल भागता है। जंगल में फिर अकेला हो जाएगा, फिर भागेगा।
कुछ दिन पहले की बात है। पश्चिम से एक युवक और युवती मेरे पास आए। शादीशुदा हैं। दो वर्ष पहले आए थे तब शादीशुदा न थे। तब मुझसे आशीर्वाद मांगने आए थे कि शादी करनी है। मैंने उनको समझाया भी था कि जल्दी न करो, थोड़े दिन साथ रह लो, एक-दूसरे से परिचित हो जाओ, फिर कर लेना। पर बड़ी जल्दी में थे। प्रेम साधारणतः पागलपन जैसा होता है। नहीं, हम तो सदा एक साथ रहेंगे। देरी क्या करनी है! कल के लिए क्या छोड़ना! शादी कर ली, अब दो साल में एक-दूसरे से ऊब गए, फिर आए। अब वे कहते हैं किसी तरह हमारा छुटकारा करवा दें।
तो मैंने कहा कि पहले भी तुमने न मानी। तब भी जल्दी की, अब भी जल्दी मत करो। छुटकारे की इतनी जल्दी क्या है? तुम ऐसा करो कि दोनों अलग-अलग दो-चार महीने के लिए हो जाओ। पति को गोआ भेज दिया। दूसरे सप्ताह वापस हाजिर कि अकेले में मन नहीं लगता। पत्नी के बिना नहीं रह सकते।
मैंने कहा: पहले भी तुमने भूल की थी, अब अगर तुम्हारा तलाक करवा दिया होता! तीन दिन साथ रहे, फिर हाजिर कि साथ नहीं बनता।
अपने साथ नहीं रह सकते, दूसरे के साथ नहीं रह सकते! अपने से ऊबते हो, दूसरे को पकड़ते हो। दूसरे को पकड़ते हो, दूसरे से ऊब जाते हो। जब अपने से ही ऊब जाते हो तो दूसरे से कैसे न ऊबोगे। थोड़ा सोचो, जब अपने से ही मन नहीं भरता, तो दूसरे से क्या खाक भरेगा! जब तुम अपने को ही इतना प्रेम नहीं कर पाते कि अपने संग रह सको, तो तुम किसको इतना प्रेम कर पाओगे कि उसके संग रह सको?
साध असंगी संग तजै! तो साधु वही है जो इतना अपने प्रेम में डूब जाता है, सहज के कि अपने ही साथ होता है; फिर उसे कोई संग की जरूरत नहीं रह जाती।
आतम ही को संग! फिर वह अपना ही संगी-साथी है। और मजा यह है, पहेली यह है कि जो अपना संगी हो जाता है उसका साथ अगर तुम्हें मिल जाए, तो तुम्हारे आनंद का हिसाब न रहेगा। जो अपने साथ है वह तुम्हारा संग खोजता नहीं, लेकिन अगर तुम मिल जाओ तो तुम्हें छोड़ कर भागता भी नहीं। तुमसे कोई प्रयोजन ही न रहा, न छोड़ने का, न पकड़ने का। वह तो अपनी मस्ती में रहता है। अगर तुम्हें भी मौज है तो उसकी मस्ती थोड़ी तुम ले सकते हो, वह बांटेगा। जैसे दीया जलता हो और बुझी ज्योति का दीया पास आ जाए, तो जलती ज्योति डरती थोड़े ही है कि बांटूगी तो कम हो जाऊंगी! हजार दीये जला लो तुम एक दीये से। दीये की ज्योति वैसी ही रहती है, कुछ कम नहीं होता--और हजार दीयों में ज्योति आ जाती है।
जो व्यक्ति अपने साथ रहना सीख गया, उसकी ज्योति जग गई। अब वह किसी की तलाश में नहीं है। कोई न आए तो मजे में है, कोई आए तो मजे में है। अकेला हो तो उतने ही मजे में है, जितना पूरे संसार में हो तो मजे में है। हिमालय भी उतना ही सुंदर है, बाजार भी उतना ही सुंदर है। लेकिन अब अगर किसी को उसके पास आना हो, तो वह उससे ज्योति का दान ले सकता है। ज्योति से ज्योति जले! और उसकी ज्योति में कोई कमी नहीं आती। वह आनंदित ही होता है, क्योंकि दूसरा जल जाता है और मैं तो बुझता नहीं--प्रकाश बढ़ता है संसार में। और प्रकाश तो एक ही है, ज्योतियां चाहे अलग-अलग हों।
साध असंगी संग तजै, आतम ही को संग।
बोधरूप आनंद में, पियैं सहज को रंग।।
और एक ही आनंद है जगत में, वह है--बोधरूप। वह है चैतन्य का आनंद। अमूर्च्छा का, जागरण का। वह अपने साथ होता है और जागता है भीतर। अपने को जगाता है, निद्रा के बाहर खींचता है। ज्योति को ऊपर उठाता है जो तेल में छिपी थी, बत्ती में दबी थी--उसे प्रकट करता है। अंगार से राख झाड़ता है।
बोधरूप आनंद में! फिर बोध उसका जगता है। आंख खुलती है। वह परम आनंद में जीने लगता है। बोधरूप आनंद में, पियैं सहज को रंग! फिर वह अपने को ही पीता है। और जब तक तुमने अपने को ही न पीया, तुम्हारी प्यास न बुझेगी।
इस संसार का कोई कुआं तुम्हारी प्यास न बुझा सकेगा। इस संसार की कोई प्याली तुम्हारे ओंठों को तृप्त न कर सकेगी, जब तक तुम अपने को ही न पी लोगे। उस एक शराब को ही पीने वाला मुक्त हो जाता है, प्यास से, दौड़ से।
जीसस एक कुएं पर रुके। उन्होंने पानी मांगा, एक स्त्री पानी भर्ती थी। उसने कहा: लेकिन मैं शूद्र हूं। मेरे हाथ का पानी ऊंचे कुल के लोग नहीं पीएंगे। तुम्हारे वस्त्रों से लगता है तुम अच्छे कुल के हो। जीसस ने कहा: पागल! अगर तू अपने कुएं का पानी मुझे पिला देगी, तो मैं भी तुझे वचन देता हूं कि अपने कुएं का पानी तुझे पिलाऊंगा। और मैं तुझसे कहता हूं, तेरे पानी को तो पीकर फिर प्यास लगेगी, मेरे पानी को पीकर फिर कभी प्यास नहीं लगती।
जिसने अपने भीतर का पानी पी लिया, उसकी खुद की प्यास तो मिट ही जाती है वह दूसरे की प्यास को मिटाने में भी समर्थ हो जाता है। क्योंकि वह तुम्हें भी वही दीवानगी लगा दे सकता है--अपने को पीने की।
धर्म संक्रामक है। एक के भीतर पैदा हो जाता है, तुम उसके पास आ जाओ, उसकी हवा में आ जाओ, जरा उसके मौसम में प्रविष्ट कर जाओ, तो तुम भी पकड़ में आ जाते हो। तुम्हारे भीतर भी कोई जगने लगता है।
बोधरूप आनंद में, पियैं सहज को रंग।
और वह जो पीना है, वह जो उस रंग में डूबना है, वह जो उस जल में उतर जाना है, वह बड़ा सहज है। सहजस्फूर्त है। कुछ करना नहीं पड़ता। बिना किए बरसता है। बिन घन परत फुहार! बादल भी दिखाई नहीं पड़ते, कहां से फुहारे आ रहे हैं? आकाश खुला है, बादल घिरे नहीं हैं और वर्षा हो रही है--बिन घन परत फुहार! भीतर कुछ भी करना नहीं पड़ता, कोई कारण नहीं खोजना पड़ता। सहज का अर्थ है: अकारण। ‘सहज’ शब्द बड़ा कीमती है। उसका अर्थ है: जो बिना किए हो जाए। बस तुम भीतर पहुंच जाओ--बिन घन परत फुहार! कोई कारण नहीं है, तुम भीतर पहुंचे और प्यास तृप्त होने लगती है। कंठ पर कोई अमृत की वर्षा शुरू हो जाती है--पियैं सहज को रंग!
मुए दुखी जीवत दुखी, दुखिया भूख अहार।
साध सुखी सहजो कहै, पायो नित्त विहार।।
सहजो कहती है: मुए दुखी! जो मर गए, वे दुखी हैं। जीवत दुखी! जो जी रहे हैं, वे दुखी हैं। दुखिया भूख अहार! भूखे दुखी हैं, जिनके पेट भरे हैं वे दुखी हैं। गरीब दुखी हैं, अमीर दुखी हैं। सफल दुखी हैं, असफल दुखी हैं। जो हार गए वे दुखी हैं, जो जीत गए वे दुखी हैं। दुख तो लगता है संसार का ढंग है। चाहे जीतो, चाहे हारो; चाहे जीओ, चाहे मरो, दुख तो मिलेगा ही--दुख से बचने का कोई उपाय यहां दिखाई नहीं पड़ता। मुए दुखी जीवत दुखी, दुखिया भूख अहार!
साध सुखी सहजो कहै! बस एक साधु सुखी है। क्यों? पायो नित्त विहार! क्योंकि अपने भीतर की परम समाधि को, जो कभी नहीं टूटती, उसे पा लिया।
वही सिर्फ सुखी है, जिसने कुछ ऐसा पा लिया जो अकारण है। इसे थोड़ा समझो।
तुम्हारे सुख का कारण है तो तुम जल्दी ही दुखी हो जाओगे, क्योंकि निर्भर है सुख किसी बात पर। मित्र घर आया, वर्षों से न आया था, तुम बड़े खुश हुए, सुखी हुए। सुखी होने का कारण क्या है? अगर यह मित्र तुम्हें कल भी मिला होता, तो तुम सुखी होते? नहीं, क्योंकि वर्षों बाद आया है। कारण यह है कि वर्षों तक एक खाली जगह छूट गई थी। आज इसने आकर भर दी, इसलिए तुम खुश हो। लेकिन तीन-चार दिन बाद, फिर तुम सुखी रहोगे? क्योंकि फिर तो खाली जगह न रही। खुश थे तुम--यह पांच साल तक न आया था मिलने, एक खाली जगह छूट गई थी--अचानक आया, एक भराव मालूम हुआ। लेकिन पांच दिन बाद, अब तो तुम खाली नहीं हो। अब तुम सोचोगे कब ये सज्जन विदा हों।
मेहमान का लोग स्वागत भी करते हैं, और उससे भी ज्यादा स्वागत तब करते हैं जब वह जाता है। कैसे इससे छुटकारा हो अब? कारण था, कारण मिट गया। तुम्हें भूख लगी तो भोजन में रस आया। लेकिन जब तुम्हारा पेट भर जाएगा तब तो भोजन में रस नहीं रह जाएगा। भूख के कारण रस था। भूख मिट गई, रस खो गया। कामवासना उठी, एक स्त्री या पुरुष में रस आया। लेकिन कामवासना तृप्त हो गई, फिर? फिर तो रस नहीं रह जाएगा। इसलिए तो लोग पत्नियों से ऊबे हैं, पतियों से ऊबे हैं। और जब पहली दफा मिले थे, तो कहा था कि तुम्हारे बिना सब व्यर्थ है। तुम्हीं स्वर्ग हो, तुम्हीं स्वप्न हो, तुम्हीं सब-कुछ हो। और अब पत्नी से भागे फिर रहे हैं, अब पति से भागे फिर रहे हैं। जहां पास आते हैं, तो सिवाय बेचैनी और कलह के कुछ भी होता नहीं दिखाई पड़ता। क्या कारण होगा? सीधी सी बात है। जीवन को समझा नहीं। भूख थी वासना की, वह तृप्त हो गई। जैसे भरा पेट आदमी भोजन की तरफ नहीं देखता। भरी वासना, फिर पत्नी और पति में कोई रस न रहा। फिर जब खाली होओगे, तब फिर रस पैदा होना शुरू हो जाएगा।
जहां-जहां कारण हैं वहां-वहां सुख होगा--क्षणभंगुर होगा। और जल्दी ही दुख आ जाएगा। और जहां-जहां कारण हैं, वहां सुख के तुम मालिक न हो सकोगे। मालिक तो वही रहेगा जिसके हाथ में कारण हैं।
अगर पति इसलिए सुखी है कि पत्नी उसकी वासना को तृप्त कर देती है, तो भीतर एक दुख भी रहेगा कि पत्नी मालिक हो गई है। जब वह दुखी करना चाहेगी वासना तृप्त न करेगी। तब दुख पैदा हो जाएगा। तो जिससे सुख होता है उसी से दुख पैदा हो जाएगा। जो आज फूलमाला डालता है तुम्हारे गले में और तुम प्रसन्न हो जाते हो, कल जब जूता फेंकेगा तब तुम्हें अप्रसन्न भी कर देगा। फूलमाला जब कोई डाले तब जरा सावधानी रखना, क्योंकि तुम एक तरकीब उसके हाथ में दे रहे हो। अगर तुम प्रसन्न हुए तो तुमने एक कुंजी हाथ में दे दी, वह तुम्हें दुखी कर सकता है किसी भी दिन। फूलमाला न डालेगा तो दुखी हो जाओगे; और अगर ज्यादा ही दुखी करना हुआ तो जूतों की माला बना कर ले आएगा।
जहां कारण है, वहां निर्भरता है। जहां निर्भरता है वहां स्वतंत्रता खो जाती, तुम्हारा मोक्ष खो जाता है।
साध सुखी सहजो कहै! सिर्फ वही सुखी है जिसका कारण अपने ही भीतर है, जो अपने से बाहर पर निर्भर नहीं है, जो सुख के लिए किसी के द्वार पर हाथ नहीं फैला रहा है, जिसने अपने भीतर ही उस कुएं को खोज लिया जहां सहज झरना बह रहा है। तुम्हारे भीतर ही छिपा है तुम्हारा आनंद। जब तक तुम बाहर मांगोगे, तब तक तुम सुख भी पाओगे, दुख भी पाओगे। और अंततः जब तुम हिसाब लगाओगे तो तुम पाओगे, सुख तो ना-कुछ पाया, दुख बहुत पाया। दुख के कांटे बहुत मिले, सुख के फूल कभी-कभी। और जब तुम पीछे लौट कर देखोगे तो तुम पाओगे इतने से फूलों के लिए इतने कांटे झेलने में कुछ सार्थकता नहीं मालूम होती। यह तो यात्रा व्यर्थ ही गई। कांटे ही छिदे, फूल तो सिर्फ आशा बंधाते रहे। एक सांत्वना रही कि मिलेंगे फूल, मिलेंगे फूल, मिले कांटे। जब पाया तब कांटा पाया! जब सोचा तब सुख की आस रही!
मुए दुखी जीवत दुखी! तुम जीते-जी दुखी हो। बहुत दुखी हैं लोग। अनेक बार लोग कहते पाए जाते हैं कि मर ही जाते तो अच्छा था।
बड़ी पुरानी कहानी है।
एक लकड़हारा लौट रहा है जंगल से। थक गया है। बूढ़ा हो गया है--जीवन से थक गया है। यही लकड़ी ढोना, ढोना। कई बार मन में होता है, मर ही जाएं। उस दिन तो बड़े जोर से इच्छा उठी कि अब क्या रखा है, कुछ मिलता नहीं, रोज यही लकड़ी ढोओ, सांझ घर पहुंचो, खाना खाओ, सो जाओ, सुबह फिर...हाथ-पैर बूढ़े हो गए हैं, कंपते हैं, चलते भी नहीं बनता, आंखें ठीक से देख भी नहीं सकतीं, कान सुन भी नहीं सकते, अब क्या प्रयोजन है? कुछ भी तो पाया नहीं। जब जवान थे तब न कुछ मिला, तो अब क्या मिलेगा? एक आह उठी और उसने कहा: हे मौत! तू सबको आती है, न मालूम मेरे पीछे पैदा हुओं को आ गई, जवान उठा लिए, मुझे क्यों छोड़ रही है, मुझे क्यों सता रही है? मुझे ले चल। अब तू आ जा!
ऐसा मौत किसी को सुन कर आती नहीं, लेकिन उस दिन कुछ हुआ--आस ही पास होगी--आ गई। वह उतना दुखी हो गया था कि उसने गुस्से में और दुख में अपनी लकड़ियों का गट्ठर नीचे पटक दिया, और बैठ गया था--कि अब तू आ जा। मौत आ गई! मौत सामने आई तो उसकी करीब-करीब अंधी आंखें भी सतेज हो गईं। उसने कहा: तू कौन है? मौत ने कहा: आपने बुलाया। मैं मौत हूं, मैं आ गई। घबड़ाया। प्राण कंप गए। यह कोई...कही थी बात इसका मतलब यह थोड़े ही कि आ ही गए...ऐसा तो आदमी कह ही देता है दुख-सुख में।
उठ कर खड़ा हो गया और कहा: हां, बुलाया जरूर, बूढ़ा हो गया हूं, गठरी उठाने को कोई दिखाई नहीं पड़ता था। गठरी उठवा दो, धन्यवाद!
जिस गठरी को पटका था, मौत को देख कर उसी को उठवा कर सिर पर रख लिया। जीते-जी तुम दुखी हो, कई बार सोचते हो मर जाएं। मौत आ जाए तो तड़फड़ाते हो, कि कहीं मर न जाएं।
मुए दुखी जीवत दुखी, दुखिया भूख अहार।
गरीब दुखी है समझ में आता है। अमीर भी दुखी है। भूखा दुखी है, जिनके पेट ज्यादा भर गए हैं वे दुखी हैं। गरीब का दुख तो हमें समझ में भी आ जाता है कि ठीक है। अमीर का दुख बड़ा बेबूझ मालूम पड़ता है कि यह क्यों दुखी है? सब तुम्हारे पास है फिर तुम क्यों दुखी हो?
हम दुख का स्वभाव ही नहीं समझे हैं। गरीब दुखी होता है, क्योंकि उसकी आशाएं पूरी नहीं होतीं। अमीर इसलिए दुखी होता है कि आशाएं तो पूरी हो जाती हैं, और कुछ भी पूरा नहीं होता। अमीर का दुख गरीब से ज्यादा गहरा है। अमीर गरीब से भी ज्यादा दया का पात्र है। गरीब को तो कम से कम आशा रहती है, अमीर की आशा भी मर जाती है। गरीब तो सोचता है, आज नहीं कल एक छोटा मकान बना लेंगे, सब सुख हो जाएगा। इस आशा में पैर चलते चले जाते हैं। आशा खींचती है। आशा पर संसार टंगा है। अमीर महल बना लेता है, अचानक पाता है महल तो बन गया, अब? और महल बनने से जो-जो आशाएं सोची थीं, वे तो कोई पूरी होती दिखाई नहीं पड़तीं! महल के बनाने में जीवन का बड़ा हिस्सा खो गया, महल के बनाने में न रात देखी, न दिन; न चैन किया, न विश्राम। वे दिन गए, वे लौटाए नहीं जा सकते, और आशा एक भी पूरी नहीं हुई!
अमीर बहुत दया का पात्र है। इसलिए तुम आश्चर्यचकित मत होना, अगर बुद्ध और महावीर जैसे सम्राट-पुत्र सब छोड़ कर भाग गए। गरीब त्याग करे कैसे, अभी उसे आशा है। अमीर त्याग कर सकता है, आशा भी टूट गई। कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, यह सब व्यर्थ साबित हो गया। और ध्यान रखना, तब तक मैं तुम्हें अमीर न कहूंगा जब तक तुम्हारी आशा न टूट जाए; तब तक तुम गरीब ही हो। अगर तुम्हारी आशा अभी भी है, तो उसका मतलब तुम अभी भी गरीब हो। गरीब मेरी परिभाषा में वही है, जिसकी आशा अभी शेष है। जो कहता है, अभी कुछ मिलेगा, तो उससे सब ठीक हो जाएगा। अमीर वही है जो कहता है सब मिल गया, कुछ भी ठीक नहीं हुआ। अब बेचैनी भारी है। अब एक संताप ने पकड़ा है कि अब क्या करना, जीवन हाथ से जा रहा है? और जो कल तक सार्थक मालूम होता था वह सब व्यर्थ हो गया है। अचानक एक ऐसी जगह आ गए जहां रास्ता समाप्त है। आगे भयंकर खड्ड है। आगे कोई मार्ग नहीं है। गरीब वह है जिसे अभी आगे रास्ता शेष है। खड्डा उसका भी आएगा, लेकिन अभी बहुत दूर है--खड्ड दिखाई नहीं पड़ता, लगता है कि मंजिल की तरफ जा रहे हैं।
मेरी दृष्टि में जब भी कोई समाज धनी हो जाता है तो धार्मिक होता है। गरीब समाज धार्मिक नहीं हो सकता। क्योंकि धर्म तो पैदा ही तब होता है जब जीवन की सब आशा टूट जाती है; जब जीवन बिलकुल ही राख मालूम होता है; तभी आंख उठती है आकाश की तरफ और परमात्मा की खोज शुरू होती है।
भारत कभी धार्मिक था, लेकिन वे भारत के स्वर्ण-दिन थे। बुद्ध-महावीर के दिन, तब भारत के सम्राट भी भिखारी बन कर घूमे। अभी तो भारत के भिखारी सभी सम्राट होने का सपना देख रहे हैं। इसलिए भारत अब धार्मिक नहीं है। अब धर्म अगर संभव है, तो सिर्फ अमरीका जैसे मुल्क में संभव है। भारतीय मन को पीड़ा होती है इससे कि हम और धार्मिक नहीं! मगर तुम्हारी पीड़ा का क्या करें?
सत्य यही है कि पूरब से धर्म विदा हो गया। वह पूरब की संपदा सुख-समृद्धि के साथ ही विदा हो गया। अमरीका में आज एक बेचैनी है। क्योंकि सब मिल गया है, अब? अब क्या करना? अब कहां जाएं?
ध्यान रखना, गरीब आदमी भी धार्मिक हो सकता है, लेकिन उसके लिए फिर बहुत बुद्धिमानी चाहिए। अमीर बुद्धू भी हो तो धार्मिक हो सकता है, क्योंकि अमीर बुद्धू भी हो तो भी इतना तो दिखाई ही पड़ सकता है कि सब इकट्ठा कर लिया और कोई सार इकट्ठा न हुआ। गरीब को अगर धार्मिक होना हो तो इतनी प्रतिभा चाहिए कि जो नहीं मिला है वह अगर मिल जाएगा तो कुछ न मिलेगा, यह देख पाए। यह दृष्टि उसमें हो। मैं यह नहीं कहता कि गरीब धार्मिक नहीं हो सकता, लेकिन उसके लिए बड़ी दृष्टि चाहिए, बड़ी प्रांजल प्रतिभा चाहिए। अमीर तो बुद्धू भी हो तो धार्मिक हो जाना चाहिए। गरीब को बहुत प्रांजल प्रतिभा चाहिए, दूर-दृष्टि चाहिए; जहां रास्ता समाप्त होता है और खड्ड आ जाता है, वह अभी दिखना चाहिए। कठिन हो जाता है।
मुए दुखी जीवत दुखी, दुखिया भूख अहार।
फिर सुखी कौन है? संसार में कोई भी सुखी नहीं है। साध सुखी सहजो कहै! साध का अर्थ है: जो संसार में है और संसार में नहीं है। वह जो किनारे पर भी खड़ा है और मझधार में भी खड़ा है--एक साथ। जिसका एक पैर संसार में और एक पैर परमात्मा में।
साध सुखी सहजो कहै! साधु एक बड़ी अनहोनी घटना है। तुम्हारे मंदिर-मस्जिदों में बैठे हुओं को तुम साधु मत समझ लेना। साधु तो एक महान क्रांति है। वह तो इस जगत का सबसे रहस्यपूर्ण तत्व है। साधु वह है, जिसने संसार को व्यर्थ जान लिया। त्याग कर भागेगा, तो उसका अर्थ हुआ कि संसार में अभी भी कुछ...कम से कम इतना तो था ही कि त्यागा जा सके। साधु भाग कर कहां जाए? भागने को कहीं भी नहीं है, सारा संसार ही व्यर्थ हो गया, यहां भी और वहां भी। तो साध अपने भीतर चला जाता है। बाहर जाने की कोई जगह न रही, बाजार से मंदिर जाने की जगह न रही। क्योंकि मंदिर भी बाजार का हिस्सा है, और बाजार भी मंदिर का हिस्सा है, वह सब साथ-साथ है, वह एक ही तराजू के दो पलड़े हैं, वह अलग-अलग नहीं है। असाधु दुकान से मंदिर भागता है, मंदिर से दुकान भागता है ऐसे ही जिंदगी बिताता है। साध वह है जिसे दिखाई पड़ गया कि बाहर जाने में कुछ भी सार नहीं है। साध सुखी सहजो कहै! वह अपने भीतर चला गया। उसने एक नई यात्रा शुरू की। अब वह दुकान से मंदिर नहीं जाता, मंदिर से दुकान नहीं जाता। मंदिर में हो तो भी भीतर जाता है, दुकान पर हो तो भी भीतर जाता है। भीतर जाता है--उसकी यात्रा अंतर्मुखी हो गई।
साधु सुखी सहजो कहै, पायो नित्त विहार।
और उसने अब भीतर की परम मुक्ति को, समाधि को, विहार को पा लिया। उस कुएं को, जिसको पीकर फिर सब प्यास मिट जाती है, बुझ जाती है। उस आत्म-आनंद को चख लिया जिसे चखते ही सब क्षुधा शांत हो जाती है।
इस पद को पूरा दोहरा दूं:
निर्दुन्दी निर्वैरता, सहजो अरु निर्वास।
संतोषी निर्मल दसा, तकै न पर की आस।।
जो सोवै तो सुन्न में, जो जागै हरिनाम।
जो बोलै तो हरिकथा, भक्ति करै निहकाम।।
नित ही प्रेम पगै रहैं, छकै रहैं निज रूप।
समदृष्टि सहजो कहै, समझैं रंक न भूप।।
साध असंगी संग तजै, आतम ही को संग।
बोधरूप आनंद में, पियैं सहज को रंग।।
मुए दुखी जीवत दुखी, दुखिया भूख अहार।
साध सुखी सहजो कहै, पायो नित्त विहार।।
आज इतना ही।

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