SAHAJOBAI
Bin Ghan Parat Phuhar (बिन घन परत फुहार) 02
Second Discourse from the series of 10 discourses - Bin Ghan Parat Phuhar (बिन घन परत फुहार) by Osho. These discourses were given during OCT 01-10 1975.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आपने कहा कि भक्ति के मार्ग पर जीवन की किसी भी बात का इनकार नहीं है। शरीर, इंद्रियां, परिवार, सब स्वीकार है। सबमें ही भगवान की झलकें मिलती हैं। फिर क्योंकर सहजोबाई शरीर, इंद्रियों एवं घर-परिवार को बंधन, प्रपंच, परमात्मा से विपरीत मानती हैं?
यह प्रश्न थोड़ा जटिल है। समझना चाहोगे तो ही समझ में आ सकेगा। सर्व-स्वीकार का अर्थ है: अस्वीकार भी स्वीकृत है। सर्व में अस्वीकार भी सम्मिलित है। परिवार तो सम्मिलित है ही, संन्यास भी सम्मिलित है। घर-द्वार तो सम्मिलित है ही, निर्जन एकांत भी स्वीकृत है।
सर्व-स्वीकार का अर्थ तुम यह मत समझना कि सिर्फ संसारी स्वीकृत है और संन्यासी नहीं स्वीकृत है। मौज की बात है परमात्मा किसमें क्या रूप लेगा। किसी को गृहस्थ बनाएगा, किसी को ब्रह्मचारी रखेगा। अगर ब्रह्मचर्य का अस्वीकार हो जाए तो वह कैसा स्वीकार हुआ! सर्व-स्वीकार न हुआ। वह तो तरकीब हो गई, मन की चालाकी हो गई।
सहजो संन्यासिनी थी, ब्रह्मचारिणी थी। उसने घर-गृहस्थी जानी नहीं, संसार उसे भाया नहीं। उसने तो गुरु-चरणों में सब छोड़ दिया। वही चरण उसके घर थे, वही चरण उसका परिवार थे। परमात्मा की परम स्वीकृति में यह भी सम्मिलित है।
और, जब मैं तुमसे कहता हूं, संसार से भागने की कोई जरूरत नहीं, तो तुम यह मत समझना कि मैं कह रहा हूं कि संसार को पकड़ने की जरूरत है। भागने की जरूरत नहीं है, अगर संसार में रह कर ही तुम्हें परमात्मा मिल सकता हो। अगर संसार में रह कर तुम्हें परमात्मा की कोई संभावना ही न दिखाई पड़ती हो, तो परमात्मा को पाने का सवाल है, संसार को पकड़े रहने का सवाल नहीं है: छोड़ देना। अपने भीतर के तार कहां मेल खाते हैं, कहां तुम्हारी वाणी में संगीत पैदा होता है, उसकी तलाश करना।
संन्यासी को दुकान पर बिठा दो, परेशान होगा। दुकानदार को मंदिर में बिठा दो, वहीं दुकान खोल देगा, या बेचैन होगा।
इसलिए कृष्ण ने गीता में अर्जुन को कहा: तू भाग मत। वह तेरा ढंग नहीं, तेरा स्वभाव नहीं, तेरा स्वधर्म नहीं। लड़ना तेरे रोएं-रोएं में छिपा है; तेरे खून की बूंद-बूंद में क्षत्रिय है। तू जंगल में भी भाग कर संन्यासी हो न सकेगा। बिना धनुष के, बिना तेरे गांडीव के तेरी आत्मा ही खो जाएगी; तेरा व्यक्तित्व उससे बना है। तेरा होने का ढंग तेरी तलवार की धार में है; वह तलवार छूटते ही तुझ पर जंग खा जाएगी। तू तलवार ही नहीं खोएगा अपने को खो देगा; तेरे व्यक्तित्व की निजता नष्ट हो जाएगी।
तू स्वधर्म से मत भाग।
पहले अपना स्वधर्म ठीक से पहचान ले, फिर उसी पहचान के माध्यम से परमात्मा जो तेरे स्वधर्म से करवाना चाहे उसे होने दे। फिर तू निमित्त हो जा। अगर अर्जुन में कृष्ण ने जरा भी संन्यास की संभावना देखी होती, वे उससे कहते, तू जा; युद्ध तेरे लिए नहीं है। कृष्ण भी रोक नहीं पाते। रोकने का कारण भी न होता। और कृष्ण रोकते भी, अगर अर्जुन के भीतर संन्यास की ही संभावना होती, तो अर्जुन रुकता नहीं। सारी बात सुनता, धन्यवाद देता, कहता, आपने इतना श्रम किया! फिर भी मैं पहचानता हूं कि मेरा स्वधर्म मुझे वहीं ले जा रहा है। आपकी ही मान रहा हूं--स्वधर्मे निधनं श्रेयः। पर मेरा स्वधर्म मुझे जंगल ले जा रहा है। तो मैं जाता हूं।
तुम किसी ढांचे में अपने को बिठाने की कोशिश मत करना, अन्यथा बेचैनी होगी। तुम्हारा जिस तरफ सहज प्रवाह हो, उसको ही तुम जीवन की दिशा बना लेना। बहुत लोग हैं जो बाजार में बैठ कर परमात्मा को न पा सकेंगे, उनके स्वभाव से मेल नहीं खाता।...
मेरे परिवार में मेरे बड़े काका हैं, दुकानदार की उनमें कोई वृत्ति नहीं है। जन्म से कवि हैं। जब विश्वविद्यालय से पढ़ कर वापस लौटे, तो कविता से तो कोई धन मिलता नहीं, न कविता से पेट भरता है; और पूरा परिवार तो व्यवसाय में डूबा है, तो उन्हें भी व्यवसाय में ही डुबाने की कोशिश की गई। नौकरी में भी उनका कोई रस नहीं है, तो कोई उपाय न था, तो उनको दुकान पर ही बिठाया। मैं छोटा था तबसे मैं उनका निरीक्षण करता रहा हूं: अगर कोई घर का मौजूद न हो और ग्राहक दुकान पर आ जाए, तो वे उसे चुपचाप हाथ से इशारा कर देते कि--आगे।
अब ऐसे व्यक्ति से तो दुकान चलेगी नहीं--ग्राहक कोई भिखारी तो नहीं है। ऐसा ग्राहक को आगे का इशारा करना! वह भी चुपचाप कि कोई सुन न ले! क्योंकि कोई सुन ले तो घर के लोग नाराज हों कि तुम्हें दुकान पर दुकान चलाने को बिठाया है या बिगाड़ने को बिठाया है। और जिस ग्राहक को वे ऐसा इशारा कर दें वह दुबारा दुकान पर भी न आए कि इस तरह की दुकान पर क्या जाना जहां भिखमंगे की तरह व्यवहार किया जाता हो! और वे इतने दुख और इतनी नाराजगी से देखें ग्राहक को...! ऐसे तो दुकान नहीं चल सकती।
ग्राहक न आए तो वे बड़े प्रसन्न। दिन खाली चला जाए, तो उनके आनंद का कोई अंत नहीं। तो वे दो पंक्तियां कविता की जोड़ लें, या एक गीत बना लें। दुकान के खातेबही में भी उन्होंने कविताएं लिख दीं। उनके स्वभाव के यह अनुकूल न था, जबर्दस्ती उन्हें दुकानदार होना पड़े, तो प्राण कुंठित होंगे। ऐसे ही तुम दुकानदार को जबर्दस्ती कविता करने बिठा दो, तो भी मुसीबत होगी। वह कविता में भी दुकान को ही बसाएगा। उसकी कविता के स्वप्न में भी दुकान का ही विस्तार हो जाएगा।
न तो दुकान बुरी है और न भली है। न कविता बुरी है, न कविता भली है। बुरा-भला कुछ भी नहीं है। तुमसे जिसका मेल खा जाए, जो तुम्हारे स्वधर्म के अनुकूल आ जाए। फिर उसके लिए चाहे सब-कुछ छोड़ना पड़े तो छोड़ देना, लेकिन स्वधर्म को मत छोड़ना।
स्वधर्म छोड़ कर सारा संसार भी मिलता हो तो मत लेना, क्योंकि आखिर में तुम पाओगे कि वह मिलना नहीं था, धोखा हो गया।
अंततः तो स्वधर्म ही हाथ में रह जाता है, शेष सब खो जाता है। इस जगत में हम स्वधर्म को लेकर ही आते हैं और स्वधर्म को लेकर ही विदा होते हैं। बाकी तो सब बीच की कहानी है--बनती है, मिटती है, बिखर जाती है।
तो, जब मैं कहता हूं, सर्व-स्वीकार, तो तुम ध्यान रखना, उसका मेरा मतलब यह नहीं है कि संन्यासी, जीवन को त्याग कर जाने वाला, हिमालय की गुफाओं में विराजमान: वह अस्वीकृत है। नहीं, वह भी स्वीकृत है।
अगर किसी को हिमालय में ही गीत फूटता है, और वहीं उसके जीवन में नृत्य आता है, तो मैं कौन हूं, या कोई भी कौन है जो उसे रोके बाजार में? उसे वहीं होना चाहिए।
लेकिन ऐसा मत सोचना कि हिमालय के कारण गीत पैदा होता है; अन्यथा भूल से दुकानदार भी वहां पहुंच जाएगा--सोचेगा कि हिमालय में गीत पैदा होता है, नृत्य होता है--तो मैं भी छोडूं और मैं भी हिमालय चला जाऊं। वह वहां सिर्फ दुखी होगा, उदास होगा, पीड़ित होगा।
न तो हिमालय में गीत है, न बाजार में। गीत तुममें है--गीत तुम्हारे स्वभाव में है। तुम्हारे और तुम्हारे अस्तित्व में जब मेल पड़ता है, तब गीत का जन्म होता है।
गीत तुमसे बाहर नहीं है।
तो तुम्हारा स्वभाव और तुम्हारी परिस्थिति में मेल बने: इस तरह की चिंतना करना, इस तरह का जीवन-आचरण निर्मित करना कि तुम्हारा जीवन और तुम्हारे भीतर की धारा में विरोध न हो; संगति हो, तालमेल हो, लयबद्धता हो। तुम्हारा भीतर का जीवन और तुम्हारा बाहर का जीवन पैर मिला कर चल सके। भीतर तुम जा रहे हो पश्चिम और बाहर तुम जा रहे हो पूरब, तो तुम्हारे जीवन में तनाव होगा, परेशानी होगी, चिंता होगी, संताप होगा; और अंततः विषाद के अतिरिक्त कभी कुछ हाथ में न आएगा। समाधिस्थ तुम न हो पाओगे।
समाधि उस दशा का नाम है, जब तुम्हारे बाहर और भीतर में ऐसा मेल हो जाता है--ऐसा मेल कि बाहर बाहर नहीं मालूम पड़ता, भीतर भीतर नहीं मालूम पड़ता--बाहर भीतर हो जाता है, भीतर बाहर हो जाता है। ऐसा मेल हो जाता है कि सीमा-रेखा खींचनी मुश्किल हो जाती है--कहां मेरा भीतर है, कहां मेरा बाहर है। बस उसी क्षण, उसी संयोग, संवाद, संगीत के क्षण में परमात्मा तुममें उतर आता है। जितना होगा तनाव, उतना ही परमात्मा का अवतरण असंभव है; जितनी होगी संवाद की अंतर्दशा, उतना ही द्वार खुल जाता है।
तो सहजोबाई को मैं न कहूंगा कि वह घर-गृहस्थी बसाए, पत्नी बने, मां बने; मैं न कहूंगा। मुझसे आकर पूछती तो मैं कहता कि जो तुझे ठीक लगता है। जबर्दस्ती मत करना अपने साथ; तेरा ब्रह्मचर्य आरोपित न हो। वह आरोपित नहीं था। क्योंकि कभी सहजो को किसी ने दुखी न देखा। वह सदा प्रफुल्लित थी, वह सदा फूल सी खिली थी। किसी ने कोई कारण न पाया कि उसने जीवन की जो धारा चुनी है उससे अन्यथा धारा भी हो सकती थी। वही उसकी धारा थी।
तो अंततः कौन निर्णायक है?
कहते हैं, फल प्रमाण है वृक्ष का। तो जीवन की उपलब्धि प्रमाण है जीवन की। अगर सहजो ने अपने जीवन में परम आनंद पाया, तो जैसा उसने जीवन जीया वही उसके जीने योग्य था। अगर वह प्रफुल्लित हो सकी, खिल सकी, उसका कमल खिल सका, तो वही सबूत है कि उसने जैसा जीवन जीया वह ठीक था; अन्यथा फूल न खिलता।
अंत ही वक्तव्य है तुम्हारे पूरे जीवन पर।
अगर मृत्यु के क्षण तक तुमने समाधि को उपलब्ध कर लिया--मरने के पहले अगर तुम परम समाधान को उपलब्ध हो गए, तो मैं तुमसे न कहूंगा कि तुम जीवन में कुछ फर्क करो। तुम्हारा जैसा जीवन था, उस पर छाप लग गई कि वह सही था। अगर उसमें जरा भी भूल-चूक होती, तो तुम इस समाधिस्थ अवस्था को उपलब्ध न होते। तुम अगर मंजिल को पहुंच गए, तो मार्ग ठीक था। मार्ग के ठीक होने का और सबूत क्या है? कोई मार्ग अपने आप में ठीक थोड़े ही होता है; मंजिल पर पहुंचता है इसलिए ठीक होता है। क्या तुम ऐसा कह सकोगे कि मैं बिलकुल ठीक मार्ग पर चल रहा हूं, यद्यपि मंजिल कभी नहीं आती। मार्ग मेरा बिलकुल ठीक है, मंजिल कभी नहीं आती है। मैं तो तुमसे कहूंगा, कुमार्ग पर भी चलना पड़े--मंजिल आ जाए, तो कुमार्ग कुमार्ग न रहा, सुमार्ग हो गया। जिससे मंजिल आ जाए वही मार्ग है। अंत ही वक्तव्य है, अंत ही निष्कर्ष है; और अंत तक रुकना नहीं पड़ता, क्योंकि प्रति घड़ी वक्तव्य मिलता है, प्रति घड़ी तुम जानते हो।
अगर तुम्हारे बाहर और भीतर में मेल है, तो प्रति घड़ी जैसे मंदिर की घंटियां बजती हों ऐसे तुम्हारे भीतर कुछ बजता चलता है। जैसे नदी के किनारे पहुंच कर हवाएं शीतल होने लगती हैं, ऐसा जैसे ही तुम्हारे बाहर-भीतर में तालमेल होता है, वैसे ही तुम्हारे भीतर शीतलता उतरने लगती है, जैसे बगीचे के पास जाकर फूलों की सुगंध घेरने लगती है, ऐसे जैसे तुम्हारे भीतर तालमेल होता है एक सुगंध--अनिर्वचनीय सुगंध--तुम्हारे भीतर उठने लगती है। किसी से पूछने जाने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे भीतर कसौटी है कि तुम्हारा जीवन ठीक जा रहा है या नहीं। और दूसरा कोई निर्णय देगा भी कैसे? दे भी नहीं सकता।
सोचो, कृष्ण ने एक तरह का जीवन जीया, महावीर का जीवन बिलकुल भिन्न है। बुद्ध का जीवन और भी अलग है। मोहम्मद और महावीर में तुम कहां संबंध जोड़ पाओगे? क्राइस्ट और कृष्ण बड़े दूर हैं। लेकिन सभी ने पा लिया। उनके रास्ते अलग-अगल हैं, लेकिन एक बात तय है कि वे जिस रास्ते पर थे, उससे उनका स्वधर्म मेल खाता था। बस उतनी बात सबमें समान है। महावीर अपने रास्ते पर अपने स्वधर्म से मेल खाते हैं, क्राइस्ट अपने रास्ते पर अपने स्वधर्म से मेल खाते हैं, मोहम्मद अपने रास्ते पर अपने स्वधर्म से मेल खाते हैं। उतनी एक बात सबसे समान है।
रास्ते अलग हैं, व्यक्तित्व अलग हैं, ढंग अलग हैं। कहां कृष्ण बांसुरी बजाते हुए! तुम महावीर के ओंठ पर बांसुरी की कल्पना भी न कर सकोगे, वह बात जंचेगी ही नहीं। बांसुरी और महावीर के पास मिल भी जाएगी, तो तुम समझोगे कि कोई भूल गया होगा, कि महावीर की तो नहीं हो सकती! बांसुरी से महावीर का क्या लेना-देना? और कृष्ण अगर तुम्हें नग्न खड़े मिल जाएं किसी वृक्ष के नीचे आंख बंद किए, तो तुम मान न सकोगे कि वह कृष्ण हैं, बिना मोरमुकुट के। वह पहचान में भी न आएंगे। उन्हें तुम नाचता हुआ पाओगे तो ही पहचान सकोगे। कृष्ण के नृत्य से उनके भीतर का कुछ मेल है। महावीर के शून्य मौन से भीतर का कुछ मेल है।उस मेल के कारण ही, दोनों ही प्रबुद्ध हैं।
जीवन के ढंग का सवाल नहीं है, ढंग तो अनंत होंगे, क्योंकि अनंत आत्माएं हैं। प्रत्येक आत्मा का अपना स्वभाव है, अपनी निजता है, अपनी विशिष्टता है। उस विशिष्टता को मिटाना नहीं है, उस विशिष्टता को ठीक-ठीक सम्यक परिवेश देना है।
सहजो ठीक कहती है, उसे नहीं जंचा। लेकिन तुमसे मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम्हें जंचे, न जंचे, तो तुम किसी को मान कर चल पड़ो। जनक को घर-गृहस्थी में, सिंहासन पर, सम्राट हुए-हुए घटना घट गई।
उपनिषदों में एक बड़ी प्राचीन कथा है--तुलाधर वैश्य की कथा।
एक तपस्वी वर्षों से तपश्चर्या कर रहा है। जाजलि उस तपस्वी का नाम है। उसने इतनी घनघोर तपश्चर्या की कि शरीर को उसने वृक्ष की तरह सुखा दिया, जैसे सूखी ठूंठ हो। हिलता नहीं था। वह ऐसा अडिग खड़ा रहता था कि कहते हैं, पक्षियों ने घोसले बना लिए उसकी जटा में--अंडे रख दिए। अंडे बड़े हो गए, अंडे फूट गए--बच्चे हो गए--पक्षी जब उड़ गए, तभी जाजलि वहां से हटा। सोच कर कि बच्चों को तकलीफ होगी, अंडे हैं गिर न जाएं, वह खड़ा ही रहा--हिला-डुला भी नहीं, भीख मांगने भी न गया, महीनों भूखों रहा--लेकिन जब बच्चे आकाश में उड़ गए, तब वह हिला। पर उस दिन उसे बड़ा गौरव और बड़े गर्व का भाव पैदा हुआ कि मुझ जैसा तपस्वी कौन? मुझ जैसा अहिंसक कौन? एक अकड़ पैदा हुई।
जब उसके भीतर यह अहंकार का भाव उठ रहा था, तब उसने एक आवाज सुनी एकांत जंगल में कि कोई हंस रहा है। किसी अदृश्य व्यक्ति की आवाज: कि जाजलि, अहंकार से मत भर। अगर ज्ञानी खोजना हो तो पहले तुलाधर वैश्य के चरणों में जाकर बैठ। उसे तो कुछ समझ में न आया, कि तुलाधर? और वैश्य! और उसके चरणों में जाजलि जैसा तपस्वी बैठे! जिसके बालों में पक्षियों ने घोसले बनाए और जो हिला नहीं, ऐसी जिसकी अहिंसा है, और ऐसी जिसकी दया और करुणा है! मगर देखना तो पड़ेगा ही जाकर कि यह कौन है तुलाधर वैश्य?
तो वह खोजने गया।
काशी में तुलाधर वैश्य था। वह उसके पास गया। उसे तो भरोसा ही न आया--वह एक साधारण दुकानदार था, और दिन-रात तराजू पकड़े रहता था, इसलिए उसका नाम तुलाधर हो गया था--तौलता ही रहता था चीजें। वह तौल ही रहा था, ग्राहकों की भीड़ लगी थी; यह जाजलि पहुंचा, तो उसने इसकी तरफ देखा भी नहीं, इतना ही कहा कि जाजलि, तू बैठ। बहुत परेशान मत हो कि तेरे जटा-जूट में पक्षियों ने घोसले रखे! बहुत मत अकड़ कि तू हटा नहीं--पक्षी बड़े हो गए, उड़ गए--तब हटा! बैठ, शांति से बैठ; पहले मुझे ग्राहकों को निपटा लेने दे! यह बात जब तुलाधर ने कही तो जाजलि बहुत हैरान हुआ! उसने कहा, यह तो बड़ी मुसीबत हो गई, यह आदमी जानता तो है ही कुछ--मुझसे तो आगे निश्चित है। इसने तो सब बात ही खराब कर दी। और इसके पास कुछ दिखाई नहीं पड़ता कि कला क्या है, साधना क्या है?
बैठ गया। लेकिन ध्वस्त हो गया अहंकार! देखता रहा बैठे-बैठे: अच्छे लोग आए, बुरे लोग आए, भलीभांति बोले तुलाधर से, कोई अपमान भी किया--दुकान, दुकान का हिसाब! लेकिन तुलाधर समान रहा, समभावी रहा। न तो क्रोध, न राग; न तो किसी के पक्ष, न विपक्ष। जाजलि बैठा देखता रहा: उसकी तुला में किंचितमात्र कोई फर्क न पड़ा--अपने आए, पराए आए, उसका तौल एक सा ही रहा।
सांझ जब हो गई, दुकान जब बंद होने लगी, तो जाजलि ने कहा: मेरे लिए क्या उपदेश है? तो तुलाधर ने कहा: मैं तो साधारण दुकानदार हूं, मैं कोई पंडित नहीं, इतना ही मैं जानता हूं कि जैसे तराजू के दोनों पलड़े जब समान होते हैं तो एक संतुलन सध जाता है; ऐसे ही जब मन के दोनों ही पक्ष--क्रोध का, अक्रोध का; प्रेम का, घृणा का; राग का, द्वेष का--समतुल हो जाते हैं और भीतर का तराजू सध जाता है, उसी क्षण--बस उसी क्षण समाधि घट जाती है।
मैं तो तराजू को साधते-साधते खुद भी सध गया, और ज्यादा मैंने कुछ किया नहीं। न तो पक्षियों ने घोसले बनाए, न मैंने कोई तपश्चर्या की। मैं साधारण दुकानदार हूं, जाजलि! मैं कोई तपस्वी नहीं हूं। पर मेरा कुल राज इतना है कि तराजू को साधते-साधते मुझे साधने की कला आ गई; और एक बात मैंने पकड़ ली कि जब भीतर बिलकुल संतुलन होता है तो अहंकार शून्य हो जाता है।
संतुलन शून्यता है। और उसी शून्य में पूर्ण उतर आता है।
पर, ये तो एक दुकानदार की बातें हैं; तुम बड़े पंडित हो, तुम ज्ञानी हो, तुम तपस्वी हो; तुम्हें इससे शायद कुछ लाभ हो, न लाभ हो। इतना ही मैं जानता हूं, इतना मैं कहे देता हूं: जंगल में रहो और अहंकार पकड़ जाए, तो फेंक दिए गए संसार में। संसार में रहो और तराजू समतुल हो जाए, हिमालय उपलब्ध हो गया--बाजार में। प्रश्न नहीं है कि तुम कहां जाते हो, क्या करते हो; प्रश्न यह है कि तुम क्या हो?
तो जब मैं कहता हूं कि परमात्मा के मार्ग पर सब स्वीकार है--घर-गृहस्थी, परिवार; तब तुम ध्यान रखना: हिमालय, एकांत, निर्जन, संन्यास--वह भी स्वीकार है; अस्वीकार कुछ है ही नहीं।
जीवन को तरल बनाओ। और तुम्हारे जीवन की धारा जिस तरफ बहती हो, जहां बहने में तुम्हें सुख और रस उपलब्ध होता हो, वहीं बहे चले जाओ। रस कसौटी है।
गंगा पूरब की तरफ बहती है, नर्मदा पश्चिम की तरफ बहती है। अगर दोनों का बीच में मिलना हो जाए, तो बड़ी बेचैनी होगी। क्योंकि गंगा भी कहेगी मैं सागर की तरफ जाती हूं, नर्मदा भी कहेगी मैं भी सागर की तरफ जाती हूं। दो में से एक तो गलत होना ही चाहिए! दोनों भले गलत हों, दोनों सही तो नहीं हो सकतीं! बड़ा विवाद खड़ा हो जाएगा। और बीच मध्य रास्ते पर, चौराहे पर खड़े होकर विवाद के हल करने का उपाय क्या है? जाकर ही देखना होगा। लेकिन जाकर अगर देखोगे, तो पूरब जाती गंगा भी पहुंच जाती है सागर में, पश्चिम जाती नर्मदा भी पहुंच जाती है सागर में, और सागर एक है। सागर कहीं पूरब और पश्चिम का है! भले तुम नाम रख लो उसका: अरब की खाड़ी कहो, बंगाल की खाड़ी कहो, इससे क्या फर्क पड़ता है? सागर एक है, सभी नदियां सागर पहुंच जाती हैं।
जिस तरफ ढलान मिले, जिस तरफ रस आए, जिस तरफ तुम्हारे जीवन में कविता पैदा होती मालूम हो, जिस तरफ तुम गुनगुना के जा सको, जिस तरफ तुम नाचते हुए चल सको, वही तुम्हारा मार्ग है। फिर किसी की मत सुनना--किसी की गंगा पूरब जाती हो, उससे कहना, शुभाशीष, जाओ। परंतु मेरी नर्मदा तो पश्चिम जा रही है, और मैं आनंदित हूं। और मुझे मेरी ढलान मिल गई है, मुझे मेरा मार्ग मिल गया है। और जब प्रति कदम मैं आनंदित हूं, तो मान कर चला जा सकता है कि अंत में परम आनंद होगा।
एक-एक इंच पर कसौटी है। जहां बेचैनी हो, तनाव हो, दुख हो, पीड़ा हो, सम्हलना। जीवन का संगीत टूट रहा है! पैर कहीं गलत पड़ते होंगे, स्वधर्म के कहीं विपरीत जाते होओगे।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः। कहीं किसी दूसरे के धर्म में उलझ गए होओगे। किसी और के धर्म ने तुम्हें आकर्षित कर लिया, लोभ पैदा कर दिया। गंगा को जाते देख कर पूरब की तरफ, नर्मदा के मन में भी आकांक्षा उठ गई कि मैं भी पूरब जाऊं। नर्मदा अगर पूरब की तरफ जाएगी, तो तकलीफें पाएगी, कष्ट पाएगी और सागर तक नहीं पहुंच पाएगी।
प्रत्येक व्यक्ति का अपना ढलान है। सदा अपने भीतर के कांटे पर नजर रखो। तुम्हारा कांटा सदा ही ठीक बताता है। तुम दूसरे के कांटे को देखने लगते हो जरूरत से ज्यादा, तब तुम उलझन में पड़ जाते हो। तुम जब दूसरे का अनुकरण करने लगते हो, तब तुम च्युत होते हो--आत्मच्युत होते हो। जब तक तुम भीतर के कांटे पर नजर रखते हो, और अपने अंतःकरण को पूछते हो, और अपनी अंतर्वाणी को सुनते हो, तब तक तुम कभी भी भटकते नहीं। और तब, तुम यह भी जानोगे कि जो मेरा मार्ग है, जरूरी नहीं कि दूसरे का मार्ग हो। तब तुम यह फिकर ही छोड़ दोगे कि मार्ग का निर्णय किया जाए। तब तुम इतना ही देखोगे, अगर गंगा भी नाचती जा रही है तो सागर की तरफ ही जा रही होगी--उसका सागर पूरब में होगा, मेरा सागर पश्चिम में है। मैं भी नाचता जा रहा हूं, गंगा भी नाचती जा रही है, तो दोनों सागर की तरफ ही जा रहे होंगे। क्योंकि जब तक नदी सागर की तरफ न जाए, तब तक नाच ही नहीं सकती। वह सागर का पास आना ही पैरों का नृत्य बनता है; परमात्मा का पास आना ही भीतर का आनंद बनता है।
आनंद कसौटी है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, क्या प्रेम में राग और आसक्ति निहित नहीं है?
प्रेम में राग हो तो प्रेम नरक बन जाएगा। प्रेम में आसक्ति हो तो प्रेम कारागृह होगा। प्रेम राग-शून्य हो, स्वर्ग बन जाएगा। प्रेम आसक्ति मुक्त हो, तो प्रेम ही परमात्मा है।
प्रेम की दोनों संभावनाएं हैं। प्रेम के साथ तुम राग और आसक्ति को जोड़ सकते हो। तो ऐसा हुआ, जैसे तुमने प्रेम के पक्षी के गले में पत्थर बांध दिए, अब वह उड़ न सकेगा। जैसे तुमने प्रेम के पक्षी को सोने के पिंजड़े में बंद कर दिया। पिंजड़ा कितना ही बहुमूल्य हो, हीरे-जवाहरात जड़े हों, तो भी पिंजड़ा पिंजड़ा है--पंखों को नष्ट कर देगा।
जब प्रेम से तुम राग और आसक्ति को काट देते हो; प्रेम जब निर्मल होता है, निर्दोष होता है, निराकार होता है; जब तुम प्रेम में सिर्फ देते हो, मांगते नहीं; जब प्रेम दान होता है--जब प्रेम सम्राट होता है, भिखारी नहीं--जब तुम आनंदित होते हो, क्योंकि किसी ने तुम्हारा प्रेम स्वीकार किया; लेकिन जब तुम प्रेम का सौदा नहीं करते, जब तुम बदले में कुछ भी नहीं मांगते; तब तुम प्रेम के पक्षी को मुक्त कर देते हो आकाश में, तब तुम उसके पंखों को बल देते हो, तब यह पक्षी अनंत की यात्रा पर निकल सकता है।
प्रेम ने गिराया भी है, प्रेम ने उठाया भी है। निर्भर करता है कि तुमने प्रेम के साथ कैसा व्यवहार किया। इसलिए ‘प्रेम’ बड़ा बेबूझ शब्द है। वह द्वार है--उसके इस तरफ दुख है, उस तरफ आनंद है; उसके इस तरफ नरक है, उस तरफ स्वर्ग है; उसके इस तरफ संसार है, उस तरफ मोक्ष है--प्रेम द्वार है।
अगर तुमने राग और आसक्ति से भरे प्रेम को जाना, तो तुम, जब जीसस तुमसे कहेंगे: ‘प्रेम परमात्मा है’, तुम न समझ पाओगे। जब सहजो प्रेम के गीत गाने लगेगी तब तुम्हें बड़ी बेचैनी होगी, कि यह बात जंचती नहीं। प्रेम तो मैंने भी किया--हमने तो सिर्फ दुख ही पाया, हमने तो प्रेम के नाम पर सिर्फ कांटों की फसल काटी--कभी फूल न खिले। यह प्रेम कल्पना का मालूम पड़ेगा। यह प्रेम जो भक्ति बन जाता है, प्रार्थना बन जाता है, मुक्ति बन जाता है, यह तुम्हें लगेगा शब्दों का जाल है।
प्रेम तो तुमने भी जाना, लेकिन जब भी तुमने प्रेम जाना तभी तुमने राग, आसक्ति का प्रेम जाना। तुम्हारा प्रेम वस्तुतः प्रेम न था। तुम्हारा प्रेम राग, काम और आसक्ति के ऊपर डाला गया पर्दा था। भीतर कुछ और था, बाहर से तुमने प्रेम कहा था। तुम एक स्त्री के प्रेम में पड़े या एक पुरुष के प्रेम में पड़े, तब तुमने चाहा क्या है? चाह तो कामवासना की है, प्रेम तो सिर्फ ऊपर की सजावट है।
अगर तुम अपने भीतर गहरा खोजोगे, तुम खुद ही देख लोगे कि प्रेम तो सिर्फ बातचीत है, भीतर तो कामवासना की लपटें जल रही हैं। उन लपटों को सीधा-सीधा किसी से निवेदन करना उचित नहीं है, थोड़ी कूटनीति चाहिए। जिस स्त्री के शरीर को तुम भोगना चाहते हो, उससे तुम कहते हो, मुझे तेरी आत्मा से प्रेम है। न तुम्हें अपनी आत्मा का पता है, उसकी आत्मा का तो पता ही कैसा होगा?
लेकिन शरीर के लोलुप व्यक्ति आत्मा की बातें करते हैं। शरीर को भोगने की आकांक्षा से भीतर के सौंदर्य की झूठी चर्चा करते हैं। तब अगर तुम सुनोगे सहजो, दया, राबिया की बातें कि उन्होंने प्रेम से परमात्मा पाया, तो तुम कैसे मानोगे? तुमने तो प्रेम से सदा ही बंधन पाया। लेकिन इसमें कसूर प्रेम का नहीं था, कसूर तुम्हारा है। अगर चिकित्सक कुशल हो तो जहर से भी औषधि बना लेता है, और अगर चिकित्सा का कोई पता ही न हो तो अमृत भी जहर हो सकता है।
न तो जहर जहर है, न अमृत अमृत है--उपयोग पर निर्भर है।
कभी जहर बचाता है, कभी अमृत मार डालता है। ‘प्रेम’ शब्द से कुछ अर्थ नहीं है बहुत। प्रेम अमृत भी हो सकता है, जहर भी हो सकता है--तुम पर निर्भर है। प्रेम जहर हो जाएगा, अगर उसमें आसक्ति है। अगर तुमने प्रेम को अपनी कामवासना के लिए वाहन बनाया, और प्रेम से तुमने केवल शरीर की निम्नतम तृप्तियों को खोजा, तो तुम पाओगे, प्रेम से कलह मिली, दुख मिला, पीड़ा मिली, बंधन मिला। सपने बहुत मिले, सपने सफल कभी न हुए। भ्रम बहुत दिखाई पड़े, बड़ी मृग-मरीचिकाएं बंधीं, बड़े इंद्रधनुष बने, लेकिन जब भी तुम पास पहुंचे सब कचड़ा हो गया। इंद्रधनुष सब मिट्टी में गिर गए, सपने सब व्यर्थ साबित हुए। वह महल स्वर्ण का जो दूर से दिखाई पड़ता था सूर्य की किरणों में चमकता हुआ, पास आने पर सदा ही कारागृह सिद्ध हुआ। इसमें प्रेम का कोई कसूर नहीं है। तुमने प्रेम के नाम से कुछ और ही, किसी और ही चीज के सिक्के चला दिए। तुम खोटे सिक्के को चला रहे हो।
तो प्रेम को आसक्ति से मुक्त करना जरूरी है। प्रेम को बंधन नहीं बनने देना है, प्रेम बनना चाहिए मुक्ति। तुम जिसे प्रेम करो उसे मुक्त करो। तुम जिसे प्रेम करो अगर तुम उसे मुक्त करो, तो तुम बंध न सकोगे; फिर तुम्हें कोई भी बांध न सकेगा। लेकिन तुम जिसे प्रेम करते हो उसे बांधना चाहते हो, तुम उसके चारों तरफ एक चारदीवारी खड़ी करना चाहते हो, तुम उसके हाथों में जंजीरें डाल देना चाहते हो। जिसके हाथ में तुमने जंजीर डाली, वह तुम्हारे हाथ में भी जंजीर डालेगा।
जीवन से वही मिलता है जो तुम जीवन को देते हो, इस सत्य को कभी भूलना ही मत। यही तो कुल जमा कर्म का सिद्धांत है: तुम जो देते हो, वही पाते हो। अगर प्रेम से बंधन मिला, तो सबूत है इस बात का कि तुमने प्रेम से किसी को बंधन देना चाहा होगा। अगर तुम प्रेम के द्वारा मुक्त करो--तुम प्रेम दो और भूल जाओ, तुम प्रेम दो और बदले में न मांगो, तुम प्रेम दो और तुम्हारी कोई शर्त न हो, कोई सौदा न हो--तुम प्रेम दो और धन्यवाद दो कि किसी ने तुम्हारे प्रेम को स्वीकार किया, इतना क्या कम है, अस्वीकार भी किया जा सकता था; तब तुम धीरे-धीरे पाओगे प्रेम ऊपर उठने लगा, कामवासना नीचे पड़ी रह गई। तब प्रेम का पक्षी कामवासना के अंडे को तोड़ कर उड़ जाता है। और तब एक नये ही आयाम में तुम्हारी गति होती है। तुम्हारी चेतना एक नये लोक में प्रवेश करती है।
‘क्या प्रेम में राग और आसक्ति निहित नहीं है?’
हो भी सकती है। न भी हो।
साधारणतः होती है। सौ में निन्यानबे मौके पर होती है। लेकिन इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। अगर एक मौके पर भी नहीं होती, तो वह एक मौका भी काफी प्रमाण है कि यदि तुम चाहो तो सौ मौकों पर भी नहीं हो सकती। अगर एक बीज टूट कर वृक्ष बन सकता है, तो सभी बीज टूट कर वृक्ष बन सकते हैं। नहीं बनते, यह दूसरी बात है; ठीक भूमि न मिलती होगी।
जीसस ने कहा है: तुम एक मुट्ठी भर बीज फेंक दो। कोई रास्ते पर पड़ जाता है जहां लोगों के पैर चलते हैं, आते-जाते यात्री गुजरते हैं, वह बीज पनप न पाएगा। कोई रास्ते के किनारे पड़ जाता है; वहां पनप भी जाएगा, अंकुरित भी हो जाएगा, तो जानवर चर जाएंगे या बच्चे तोड़ लेंगे। कोई बीज पत्थर पर पड़ जाता है--चट्टान पर--वह तो कभी पनपेगा ही नहीं। कोई बीज ऐसी भूमि में पड़ जाता है, जो उर्वरा है। वह पनपेगा, वह अंकुरित होगा, वह वृक्ष बनेगा, उसमें फूल आएंगे, फल लगेंगे।
कभी कोई बुद्ध, कोई फरीद, कोई सहजो, इनका बीज खिलता है--फूल को उपलब्ध होता है। अगर तुम्हारा नहीं हो पाता, तो थोड़ा गौर करना, तुम कुछ गलत जगह पड़े होओगे। या तो ऐसी जगह, जहां चट्टान है; या ऐसी जगह, जहां चट्टान तो नहीं है, लेकिन लोगों का बहुत आवागमन है; या ऐसी जगह है जहां लोगों का आवागमन भी नहीं है, लेकिन कोई बचाव नहीं है--बागुड़ नहीं है। तुम्हें ठीक भूमि मिलनी चाहिए, तो तुम्हारे भीतर भी वही पैदा हो जाएगा जो बुद्ध के, कृष्ण के भीतर पैदा होता है। संभावना तो हमारी वही है, प्रत्येक की वही है; उससे कम संभावना परमात्मा किसी को देता ही नहीं। परमात्मा ही तुम्हें बनाता है, तो परमात्मा परमात्मा के अतिरिक्त और किसी को बना भी नहीं सकता। परमात्मा के हाथ तुम्हें बनाने में लगे हैं, परमात्मा तुम्हारा प्राण होकर छिपा है तुम्हारी संभावना होकर छिपा है।
प्रेम मुक्ति बन सकता है, वह हर प्रेम की संभावना है, हर हृदय की संभावना है। लेकिन सजग होना पड़े, आसक्ति को काटना पड़े। तुम तो उलटा आसक्ति के जाल को बढ़ाए जाते हो। तुम प्रेम की बात ही भूल गए हो। तुम तो राग को ही प्रेम कहने लगे हो।
मैंने सुना है, एक बड़ी प्राचीन सूफियों की कथा है कि पहाड़ियों की तलहटी में बसा हुआ एक गांव था। उस गांव के आस-पास जंगल के अतिरिक्त और कुछ भी न था। तो उस गांव के लोगों ने एक ही कला विकसित की थी कि जंगल से लकड़ियां काट लाते, उन्हीं लकड़ियों से मूर्तियां भी बनाते, घर के और साज-सामान बनाते। वह पूरा गांव बढ़ई हो गया था, क्योंकि केवल लकड़ी ही उपलब्ध थी, उतना ही माध्यम था। और उस गांव के लोगों का कुल धंधा इतना था कि आते-जाते राहगीर गांव से गुजरते, पहाड़ी घाटी से गुजरते, तो उन्हें लकड़ी के सामान बेचना। एक राहगीरों का जत्था गुजर रहा था तो उसने कहा कि ठीक तुम्हारे ऊपर पहाड़ की चोटी पर भी एक गांव है; तुम कभी वहां भी बेचने गए अपना सामान? वहां लोग बड़े धनी हैं, और तुम्हारे सामान की बड़ी अच्छी बिक्री हो जाएगी। उन्हें तो खयाल ही न था। क्योंकि घाटी में रहने वाले को शिखरों का खयाल ही नहीं आता। अपनी घाटी में मस्त थे; जो भी दीन-दरिद्रता थी, ठीक थी; और पहाड़ पर चढ़ना--चढ़ाई कठिन है! कभी पहाड़ पर रहने वाला भला घाटी में आ जाए भूल-चूक से, घाटी में रहने वाला भूल-चूक से पहाड़ नहीं पहुंचता। उतार आसान है, चढ़ाव कठिन है।
खैर, कई बार ऐसी यात्रियों से खबरें मिलीं, तो गांव ने कुछ जवानों को तय किया कि कुछ सामान लेकर जाओ। अगर वे धनी हैं, अपना सामान बेच कर आओ। युवक चढ़े। बड़ी कठिन थी चढ़ाई। कठिन और भी थी, क्योंकि चढ़ने की कोई आदत ही न थी। घाटी के सुलभ जीवन में रहे थे, बड़ी मुश्किल से...। और भरोसा भी नहीं होता था कि पता नहीं अफवाह ही हो। कोई ऊपर रहता भी है! और इतने ऊपर कोई रहेगा कैसे, जब चढ़ना इतना मुश्किल हो रहा है! खैर, किसी तरह थके-मांदे वे पहुंचे। कई दिनों की यात्रा के बाद पहाड़ के शिखर पर पहुंचे।
बात तो लोगों ने ठीक ही कही थी। नगर तो बड़ा अदभुत था। स्वर्ण-शिखरों से मंडित उस नगर के मंदिर थे। सूरज की किरणों में वे मंदिर ऐसे चमकते कि इन युवकों ने तो स्वप्न में भी कभी ऐसी कल्पना नहीं की थी। उन्होंने जाकर बाजार में अपनी दुकान लगाई, लोगों को बुला-बुला कर सामान दिखाने लगे, लेकिन लोग हंसते। कोई खरीदने को तैयार न था। आखिर उन्होंने पूछा: बात क्या है? उन्होंने कहा: इन लकड़ी के सामानों का हम क्या करेंगे? यहां सोने-चांदी की खदानें हैं, पागलो! हम मूर्ति बनाते हैं स्वर्ण की। ये लकड़ी की मूर्तियों का हम क्या करेंगे? उन्हें विश्वास तो न आया कि लकड़ियों से भी मूल्यवान कोई चीज हो सकती है संसार में, और इससे भी कीमती कोई मूर्तियां हो सकती हैं। वे बड़े नाराज हुए। दुखी भी थे, नाराज भी हुए। और इन लोगों के व्यवहार से बड़े विक्षुब्ध हुए। गांव के लोगों ने कहा भी कि तुम हमारे मंदिरों में आओ, हम तुम्हें अपनी मूर्तियां दिखाएं। मगर वे इतने विक्षुब्ध थे, इतने क्रोधित थे कि उन्होंने मंदिरों में जाना उचित न समझा। वे अपने सामान को लेकर वापस घाटी में उतर गए। और जब घाटी में लोगों ने पूछा कि क्या हुआ? तो उन्होंने कहा कि वहां लोग तो रहते हैं, लेकिन बड़े दुष्ट प्रकृति के। और एक चीज से सावधान रहना, और एक चीज से बचने की कोशिश करना, उस चीज का नाम स्वर्ण है--वह हमारा सबसे ज्यादा दुश्मन मालूम होता है--स्वर्ण; हमने देखा तो नहीं कि वह क्या है, क्योंकि वे लोग हमसे बड़ा असदव्यवहार कर रहे थे; और एक भी मूर्ति बिक न सकी। कहते हैं घाटी के लोग अब पहाड़ की तरफ नहीं जाते, और घाटी में यह बात प्रचलित हो गई कि पहाड़ पर हमारे दुश्मन रहते हैं, वे हमारे मित्र नहीं हैं; और स्वर्ण नाम की चीज से सदा सावधान रहना, क्योंकि उससे ही हमारी संस्कृति के नष्ट हो जाने का खतरा है।
करीब-करीब ऐसी ही दशा उन सारे लोगों की है, जो प्रेम की घाटी में रहे और जिन्होंने प्रेम के शिखर को नहीं जाना। प्रेम की घाटी में लकड़ी का सामान है--वह वासना का सब फैलाव है। प्रेम के शिखर पर स्वर्ण है। लेकिन वासना में जीने वाला आदमी स्वर्ण की बातें ही सुन कर डरता है, वह कहता है यह तो हमारे शत्रुओं की बात है। हम तो अपनी कामवासना में मस्त हैं, ये ऊंची बातें हमसे मत करो, हमारी नींद मत तोड़ो, और हमारे सपनों को खराब मत करो।
पर, मैं तुमसे कहता हूं कि तुम जहां जी रहे हो, वह ऐसा ही है जैसे कोई तुम्हें महल भेंट करे, और तुम महल के पोर्च में ही जीवन गुजार दो--भीतर प्रवेश ही न करो--तुम समझो कि पोर्च ही सब-कुछ है। पोर्च तो सिर्फ प्रवेश है। जितने भीतर जाओगे, जितने अंतर्तम में प्रवेश करोगे, उतने ही आनंद के, स्वर्ण के शिखर उपलब्ध होंगे।
कामवासना तो केवल प्रेम का पोर्च है। वहां से गुजर जाना है, वहां रुक नहीं जाना है। पोर्च से गुजरने में कुछ भी हर्ज नहीं है--ध्यान रखना, मैं पोर्च की निंदा नहीं कर रहा हूं। पोर्च से गुजरना ही पड़ेगा महल में जाना है तो, लेकिन गुजरने के लिए रुक मत जाना, वहीं घर मत बना लेना, वहीं बिस्तर मत लगा देना, वहीं ठहर मत जाना--उसी को जिंदगी मत समझ लेना।
गुजरना काम से जरूर--गुजरना ही होगा, वह जिंदगी का अनिवार्य हिस्सा है। लेकिन पार करने के लिए गुजरना। जैसे कोई सीढ़ियों से गुजरता है, सेतु से गुजरता है--पार होने के लिए।
भीतर बड़ी अदभुत संभावनाएं छिपी हैं। प्रेम जिसने काम की तरह जाना, राग-आसक्ति की तरह जाना, वह जीवन के नरक से ही परिचित हो पाएगा। और तुम थोड़ा सोचो, नरक में भी तुम्हें थोड़ा सुख मिल रहा है, तो स्वर्ग का तो कहना ही क्या! कामवासना में भी थोड़ी झलक तो सुख की मिलती ही है, पोर्च में भी थोड़ी खबर तो महल की आ ही जाती है। भीतर जलती हुई धूप हो, तो पोर्च में भी थोड़ी गंध उड़ आती है; भीतर छाई शांति हो, तो पोर्च में भी थोड़ी शीतलता उतर आती है; भीतर संगीत बजता हो, तो पोर्च तक भी थोड़े स्वर तो भटके-भूले आ ही जाते हैं। तो कामवासना में भी थोड़ी तो मोक्ष की भनक पड़ती है। कामवासना में भी थोड़ी तो परमात्मा की छवि उतरती है। छवि ऐसी ही है, जैसे आकाश में चांद हो और झील में प्रतिबिंब बनता हो। है प्रतिबिंब, जरा सी झील हिल जाए नष्ट हो जाता है; कुछ वास्तविक नहीं है। लेकिन फिर भी है तो वास्तविक का ही प्रतिबिंब। कामवासना में प्रेम की ही छवि है--झील पर बनी, शरीर और मन की झील पर बनी छवि है। आंख उठाओ, झील में छवि को जब इतना सुंदर पाया है तो थोड़ा आंख उठा कर उस चांद को देखो जिसकी छवि है।
राबिया, एक फकीर औरत अपने घर में बैठी थी। हसन नाम का एक फकीर उसके घर मेहमान था। सुबह हो गई, सूरज उगा। हसन बाहर गया, और उसने जोर से आवाज दी कि राबिया, भीतर क्या कर रही है? बाहर आ, देख कितना सुंदर सूरज निकला है, परमात्मा की सृष्टि को देख! राबिया ने कहा: हसन! बेहतर हो तू ही भीतर आ जा, क्योंकि तू परमात्मा की सृष्टि को देख रहा है बाहर, भीतर मैं स्वयं उसी को देख रही हूं।
सृष्टि सुंदर है। लेकिन स्रष्टा से थोड़े ही मुकाबला करोगे? गीत सुंदर है। गायक के प्राणों की जरा सी भनक है वहां। ये चित्र बड़े सुंदर हैं, जो चारों तरफ खुदे हैं, लेकिन चित्रकार की बड़ी छोटी सी कृति है यह। चित्रों पर चित्रकार समाप्त नहीं हो गया, सृष्टि पर स्रष्टा पूरा नहीं हो गया है। अनंत-अनंत सृष्टियां हो सकती हैं उस स्रष्टा से, फिर भी वह पीछे उतना ही शेष रहेगा--उतना ही।
ईशावास्य कहता है: ‘पूर्ण से पूर्ण को भी निकाल लें तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है।’
उस परमात्मा से अनंत सृष्टियां निकलती चली आएं तो भी पीछे वह उतना का ही उतना शेष रह जाता है, उसकी असीमता में भेद नहीं पड़ता, वह चुकता नहीं है। और जब यह सृष्टि इतनी सुंदर है, तो थोड़ा तो सोचो! महल के बाहर ही इतना सुख है, भीतर कितना न होगा! आसक्ति और राग से भरे प्रेम में भी थोड़े से संगीत के भूले-बिसरे सुर सुनाई पड़े, तो जब परम शुद्ध हो जाएगा प्रेम, राग की अशुद्धि और आसक्ति गिर जाएगी, स्वर्ण जब निखरेगा, धूल-धवांस, कूड़ा-करकट जल जाएगा अग्नि में, तब तुम थोड़ी कल्पना करो! वह कल्पना ही तुम्हें पुलक से भर देगी, एक नये आमंत्रण से भर देगी, एक नई अभीप्सा जग जाएगी। उस अभीप्सा का नाम ही धर्म है।
प्रेम को उसकी परिशुद्धि में जानने की खोज ही धर्म है।
और प्रेम की परिशुद्धि को ही हमने परमात्मा कहा है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आप कैसे जानते हैं कि सहजोबाई आत्मोपलब्ध थीं? क्या उनके वचन ही इसका पर्याप्त प्रमाण हैं?
प्रश्न थोड़ा कठिन है।
वचन पर्याप्त प्रमाण नहीं हो सकते, क्योंकि वचन तो उधार भी हो सकते हैं। जो कहा है, वह तो किसी और का कहा हुआ भी दोहराया जा सकता है। इसलिए वचन पर्याप्त प्रमाण नहीं हो सकते, अपर्याप्त प्रमाण हो सकते हैं।
इसे थोड़ा ठीक समझ लो।
अपर्याप्त प्रमाण का अर्थ यह है कि वचनों से थोड़ा इशारा मिल सकता है। लेकिन वह इशारा ही होगा। वह निश्चित ही सही होगा, कहना मुश्किल है। वचनों से इशारा तो मिलता है।
जब तुम किसी दूसरे का वचन दोहराते हो, तब कुछ न कुछ भूल-चूक हो जानी सुनिश्चित है। पंडित के वचन को पहचान लेने में बड़ी कठिनाई नहीं है। पंडित का वचन तत्क्षण पकड़ में आ जाता है, क्योंकि वह दोहराता है, खुद तो उसे कुछ पता नहीं है। वह कितनी ही चेष्टा से सही-सही दोहराए, तो भी कुछ न कुछ भूल हो जानी सुनिश्चित है, क्योंकि भीतर तो उसके भूल ही भूल भरी है, ऊपर से दोहराने की कोशिश कर रहा है। जो दोहरा रहा है वह भूल भरा है। तो कुछ भूलें मिश्रित हो जानी अनिवार्य हैं। ऐसा ही समझो कि तुम्हारे हाथ तो कालिख से भरे हैं, और तुम किसी शुभ्र-भवन की सफाई में लगे हो--तुम काले हो, कालिख से भरे हो, काजल से भरे हो, और शुभ्र-भवन की सफाई में लगे हो--तुम्हारे हाथ की छापें कई जगह छूट ही जाएंगी--मजबूरी है। शायद अज्ञानी न पहचान सकें, लेकिन जिन्होंने जाना है वे तो पहचान ही लेंगे।
तो, वचन से अपर्याप्त प्रमाण मिल सकता है, इशारा मिल सकता है कि शायद इसने जाना हो। फिर जब कोई व्यक्ति जान कर कहता है, तो उसके कहने में एक बल होता है, जो कि बिन जाने कहे व्यक्ति की वाणी में नहीं होता--हो नहीं सकता, असंभव है। क्योंकि बल अनुभव से आता है।
मैं पढ़ रहा था एक ईसाई संत का जीवन। उसने लिखा कि मैं एक गांव से गुजरता था, और ठीक वैसी घटना घटी जैसी जीसस के जीवन में घटी थी। जीसस एक रात एक गांव से गुजर रहे थे, एक युवक ने उनका वस्त्र पकड़ लिया। उस युवक का नाम ‘निकोडेमस’ था। और निकोडेमस ने कहा कि मैं क्या करूं कि तुम जिसे परमात्मा का राज्य कहते हो वह मुझे भी मिल जाए? तो जीसस ने कहा: तू सब छोड़ और मेरे पीछे आ। कम फॉलो मी।
यह ईसाई फकीर ने लिखा है कि एक रात ऐसी घटना मुझे भी घट गई। एक गांव से गुजरता था, एक युवक ने मुझे पकड़ लिया। उसने कहा कि मैं भी वही पाना चाहता हूं जिसकी तुम चर्चा करते हो, मुझे बताओ मैं क्या करूं? उस ईसाई फकीर ने लिखा है, मुझे याद आया कि जीसस ने कहा था, सब छोड़ दे और मेरे पीछे आ। लेकिन मैं यह कहने की हिम्मत न जुटा सका कि सब छोड़ दे, मेरे पीछे आ। ज्यादा से ज्यादा मैं इतना ही कह सका: सब छोड़ दे और जीसस के पीछे जा।
इतना फर्क तो होगा ही।
कृष्ण कह सके अर्जुन से: सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। छोड़ सब धर्म, मेरी शरण आ। पंडित न कह सकेगा। पंडित कहेगा--सब धर्म छोड़, कृष्ण की शरण जा। पंडित को यह कहने में कि मेरी शरण आ, डर लगेगा। पहले तो यह डर लगेगा कि लोग समझेंगे कि यह तो बड़े अहंकार की बात हो गई। अहंकार हो तो ही अहंकार का खयाल उठता है। कृष्ण को जरा भी न उठा। कृष्ण ने सोचा भी न कि सदियों तक यह किताब रहेगी, लोगों के हाथ में प्रमाण रहेगा, लोग कहेंगे कृष्ण बड़ा अहंकारी रहा होगा--कहता है अर्जुन से, सब छोड़, मेरी शरण आ। कहीं ऐसा कोई कहता है! यह तो बड़ी अहंकार की बात हो गई।
बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो बुद्ध ने कहा, मुझे वह उपलब्ध हुआ है जो करोड़ों में कभी एक को उपलब्ध होता है। सहज उपलब्ध न होने वाली घटना घटी है। मैं सम्यक बुद्धत्व को प्राप्त हुआ हूं।
पढ़ने वाले को लगेगा, यह तो बड़ी अहंकार की घोषणा मालूम पड़ती है। कहीं ज्ञानी ऐसा कहते हैं? ज्ञानी तो कहते हैं--हम विनम्र हैं, तुम्हारे चरणों की धूल हैं। लेकिन ध्यान रखना, जिनसे ऐसे वचन पैदा हुए हैं, उन्हें पता ही नहीं है। अहंकार तो बचा ही नहीं, इसलिए कौन चिंता करे?
पंडित और ज्ञानी के वचन में फर्क होता है। पंडित के वचन में उधारी होगी--हिम्मत न होगी, साहस न होगा, बल न होगा, और पंडित के वचन में शास्त्र की गंध होगी। ज्ञानी के वचन में सहज स्फुरणा होगी--अभी आ रहे हैं स्रोत से, ताजे और नये। अभी ढाले जा रहे हैं, अभी बाजार में चले हुए सिक्के नहीं हैं ये। नये-ताजे नोट हैं--अभी निकले हैं टकसाल से, अभी किन्हीं हाथों ने छुआ भी नहीं। तुम पहचान लेते हो न टकसाल से निकला नया नोट और बाजार में चला नोट! क्या अड़चन आती है पहचानने में? क्योंकि नोटों को तुम पहचानते हो। जब तुम जागोगे, वचनों को भी पहचान लोगे।
ये सहजोबाई के वचन टकसाल से निकले हैं, बिलकुल सीधे-सीधे हैं। यह सहजोबाई कोई पंडित तो है ही नहीं, न ही कोई कवि है। वचन सीधे-सीधे हैं, कोई बहुत बड़ा आडंबर नहीं है। बात साफ-साफ, दो-टूक कह दी है--कुछ छिपाया नहीं है। और इस ढंग से कही है जिस ढंग से किसी ने पहले नहीं कही थी। इसलिए उधारी का उपाय नहीं।
जब भी परमात्मा किसी में उतरता है, हर बार नये ढंग से उतरता है; पुनरुक्ति परमात्मा को पसंद ही नहीं है।
सहजोबाई का एक-एक पद बिलकुल अनूठा है। पहले कभी नहीं था, बाद में फिर कभी नहीं हुआ। इसलिए अपर्याप्त प्रमाण मैं कहता हूं। इससे कुछ पक्का नहीं होता, इतना भर होता है कि संभावना है, इशारा है।
फिर मैं कैसे कहता हूं कि सहजोबाई आत्मोपलब्ध थी?
शब्दों के बीच खाली जगह को पढ़ना पड़े, पंक्तियों के बीच रिक्त स्थान को पढ़ना पड़े। पंक्तियों से अपर्याप्त प्रमाण मिलेगा, वह जो खाली जगह है वहां पर्याप्त प्रमाण मिल जाएगा। लेकिन सहजोबाई के शब्दों में खाली जगह को तुम तभी पढ़ पाओगे, जब तुम अपने भीतर खाली जगह को पढ़ो। इसलिए मैंने कहा, प्रश्न जरा कठिन है। मेरे उत्तर देने से हल न होगा, तुम्हारे जीवन में जब उत्तर आएगा तब हल होगा।
प्रश्न बहुत तरह के होते हैं। एक तो, जो मैं उत्तर दे दूं, हल हो जाए। एक, जो जब तुम बढ़ो और विकसित हो, तब हल हो। जैसे एक छोटा बच्चा पूछे कि यह कामवासना क्या है? पूछ सकता है। किताब पढ़ ले, जिसमें लिखा है--कामवासना; शब्दकोश देख ले, जिसमें लिखा है--कामवासना; और पूछे कामवासना क्या है? उसको कैसे समझाओ? उसे क्या कहो? उसके जीवन में कामवासना की अभी कोई भी घटना नहीं घटी, अभी कामवासना का धुआं उसके चित्त पर नहीं फैला, अभी वह जानता नहीं कामवासना क्या है? अभी तुम कुछ भी कहोगे वह सिर के ऊपर से निकल जाएगा। हां, जब उसके जीवन में उम्र आएगी, कामवासना उठेगी, तब तुम कुछ कहोगे तो कहीं चोट पड़ेगी, कहीं तालमेल बैठेगा--उसकी समझ में तुम्हारे वक्तव्य में कुछ संवाद होगा।
सहजोबाई आत्मोपलब्ध है, यह तुम आत्मोपलब्ध होओगे तो ही समझ पाओगे। जो व्यक्ति भी आत्मोपलब्ध है, वह तत्क्षण पहचान लेगा कि कोई दूसरा आत्मोपलब्ध है या नहीं। इसमें जरा भी दिक्कत नहीं होती। इसमें कुछ करना ही नहीं पड़ता। यह पहचान किसी प्रयास से नहीं होती। यह पहचान, सहज प्रमाण होता है इसका, बस घटती है। ऐसा ही समझो कि तुम एक परदेश में भेज दिए जाओ, जहां तुम्हारी भाषा कोई भी नहीं समझता, जहां सभी अलग तरह की भाषाएं बोलते हैं। तुम अकेले हो, तुम अपनी भाषा बोलते हो लेकिन कोई नहीं समझता, कोई नहीं सुनता। और अचानक एक आदमी तुम्हारी भाषा को सुनने वाला मिल जाए। क्या देर लगेगी दोनों को पहचानने में? एक शब्द भी न बोला जाएगा कि पहचान हो जाएगी कि अपनी ही भाषा बोलने वाला है।
जब दो आत्मोपलब्ध व्यक्तियों का मिलन होता है, हजारों सालों के फासले पर भी, तो भी भाषा वे एक बोलते हैं। सहजोबाई और जीसस, बुद्ध और महावीर, जरथुस्त्र और लाओत्सु, जिसको तुम भाषा कहते हो वह तो अलग-अलग बोलते हैं--लाओत्सु चीनी बोलता है, जीसस हिब्रू बोलते हैं, कृष्ण संस्कृत बोलते हैं, महावीर प्राकृत बोलते हैं, बुद्ध पाली बोलते हैं, सहजो हिंदी बोलती है--सब अलग-अलग भाषा बोलते हैं, जिसे तुम भाषा कहते हो। लेकिन आत्मोपलब्ध की भी एक भाषा है, जिसे वे सभी एक सा बोलते हैं, उसमें जरा भी फर्क नहीं है। वे तत्क्षण पहचान लेंगे। अगर तुम उनको एक कमरे में बंद कर दो, वे तत्क्षण पहचान लेंगे उनका इशारा, उनकी आंख, उनका उठना-बैठना, उनका होना, उनके जीवन की सुवास, उनके चारों तरफ की रोशनी, वे सब पहचान लेंगे, क्योंकि वे खुद भी वही जानते हैं।
ये हजारों साल के फासले पर भी पहचान लिया जाता है, इससे कोई भेद नहीं पड़ता। लेकिन, इसलिए मैंने कहा कठिन है--मेरे उत्तर से हल न होगा। जिस दिन तुम जागोगे, उसी दिन तुम पाओगे कि सब जागने वालों को तुम पहचान गए। सोने वाला नहीं पहचान सकता कि कौन जागा हुआ है।
यहां हम इतने लोग बैठे हैं, हम सब सो जाएं, एक आदमी जागा हो। जागा हुआ सोयों को भी पहचानता है कि सोए हैं, अपने को भी जानता है कि जागा हुआ है। सोए हुए न तो अपने को जानते कि हम सोए हैं, और न यही जानते हैं कि कोई जागा हुआ है। फिर इतनों में से कोई और दूसरा जागे। दोनों जागे एक-दूसरे को पहचान लेंगे तत्क्षण कि जागे हुए हैं; और दोनों यह भी जान लेंगे कि बाकी सब सोए हुए हैं। इसमें कुछ अड़चन पड़ेगी? बस ऐसा ही जीवन की नींद के बाहर जागना है, दो जागे हुए सदा पहचान लेते हैं।
मैं तो किसी एक ऐसे व्यक्ति के नाम का भी उल्लेख नहीं करता हूं, जो जागा हुआ न हो। अगर सहजो की वाणी पर बोलने की मैंने तैयारी दिखाई, तो कोई और कारण नहीं है। सहजो की कविता में कुछ भी नहीं रखा, अगर कविता ही बोलनी होती तो बड़े-बड़े कवि हैं। सहजो ने कोई बड़ा तत्वदर्शन भी स्थापित नहीं किया है। अगर दार्शनिकों पर बोलना होता तो बड़े-बड़े अफलातून हैं। सहजो एक साधारण अशिक्षित; न कवि, न पंडित; एक बड़ी साधारण, सरल-चित्त महिला है। पर जागी हुई है। बस उसका जागना ही बहुमूल्य है, बाकी सब दो कौड़ी का है।
तुम कितने ही बड़े पंडित रहो--सोए रहो--किसी काम के नहीं। तुम कुछ भी न जानो--सिर्फ जाग जाओ--सब जानना हो गया।
तो मैं पहचानता हूं कि सहजोबाई आत्मोपलब्ध है, अन्यथा मैं उसका नाम भी न उठाता; सोयों की भी क्या बात करनी! और सोए हुओं के सामने सोयों की क्या बात करनी! सोए हुओं को तो तुम भलीभांति जानते ही हो। थोड़े जागे हुओं की बात करनी है कि शायद तुम्हें भी रस पकड़ जाए, जागने की आकांक्षा आ जाए, शायद तुम्हारे भीतर भी कोई पुकार उठे, तुम थोड़ी करवट बदलो।
चौथा प्रश्न:
भगवान, क्या स्त्रियों और पुरुषों के प्रश्न भी भिन्न होते हैं? और क्या उनके पूछने के ढंग में भी फर्क होता है।
निश्चित होता है। होगा ही। क्योंकि प्रश्न तुम्हारे भीतर से पैदा होते हैं। तुम्हारी खबर लाते हैं प्रश्न। तुम्हारा प्रश्न तुम्हारा प्रश्न है। उसका ढांचा, उसका ढंग तुम दोगे।
निश्चित ही स्त्रियां अलग ढंग से पूछती हैं, पुरुष अलग ढंग से पूछते हैं। मेरे निरीक्षण में, पहली तो बात स्त्रियां पूछती नहीं--वह उनका ढंग है। मुश्किल से पूछती हैं। समझने की कोशिश करती हैं, पूछने की कम। पुरुष पूछने की कोशिश ज्यादा करते हैं, समझने की कम। चूंकि पूछते ज्यादा हैं, इसलिए ऐसा भ्रम पैदा होता है कि समझते ज्यादा होंगे। चूंकि स्त्री पूछती कम है, इसलिए ऐसा भ्रम पैदा होता है कि समझती ही न होगी--पूछती नहीं है? पर बात बिलकुल उलटी है।
मेरे पास पुरुष आते हैं, बड़े प्रश्नों का जाल लेकर आते हैं। अक्सर पुरुष मुझसे आकर कहते हैं, मैं उनसे पूछता हूं: पूछना है कुछ?
तो वे कहते हैं, बहुत पूछना है, कहां से शुरू करें? इतना पूछना है कि पूछें कैसे, कहां से पूछें, समझ में नहीं आता।
स्त्रियों से पूछता हूं: कुछ पूछना है? वे कहती हैं कि नहीं। कुछ भी नहीं पूछना है। पूछने को कुछ है ही नहीं; बस आपके पास बैठने को आ गए हैं, दर्शन को आए हैं।
पुरुष भी नहीं पूछ पाता कभी, तो कारण यह होता है कि इतने प्रश्न होते हैं कि उनकी भीड़ के कारण नहीं पूछ पाता। स्त्री भी नहीं पूछती, इसलिए नहीं कि भीड़ है, इसलिए कि पूछने को कुछ नहीं है।
पुरुष मेरे पास आकर बैठते हैं तो उनकी बुद्धि की भीड़ को मैं देख पाता हूं। उनके सिर में बड़े विचारों की तरंगें चल रही हैं। अगर उनका सिर खोला जाए तो एक पागलखाना निकल पड़ेगा, पागल भाग खड़े होंगे--सब तरफ छितर-बितर हो जाएंगे, जैसे भूत-प्रेत खोल दिए गए हों किसी बंद कारागृह से। वे सुनते भी हैं, तो सिर से सुनते हैं। उनसे कोई संबंध भी बनता है, तो सिर से बनता है। जब तक सिर उनका न काटा जाए, तब तक हृदय से कोई संबंध नहीं बनता।
स्त्रियां आती हैं तो उनके सिर में बहुत भनक नहीं होती। उनके हृदय में एक धड़कन होती है, एक पुलक होती है--भावाविष्ट, हार्दिक! सुनती कम हैं, पीती ज्यादा हैं। उनकी आंखें ज्यादा सक्रिय होती हैं। उनके विचार कम सक्रिय होते हैं।
ऐसा मुझे अनुभव आया कि पुरुष अगर मेरे प्रेम में पड़ जाते हैं, तो वे मुझे कहते हैं कि हमें आपके विचार प्रिय हैं, इसलिए आपसे प्रेम हो गया। स्त्रियां अगर मेरे प्रेम में पड़ जाती हैं, तो वे कहती हैं, हमें आपसे प्रेम हो गया, इसलिए आपके विचार भी प्रिय लगते हैं।
यह फर्क है; भारी फर्क है।
पुरुष कहते हैं कि हमें आपके विचार प्रिय लगते हैं, इसलिए आपसे प्रेम हो गया। विचार प्रथम हैं, प्रेम नंबर दो है। स्त्रियां कहती हैं, हमें आपसे प्रेम हो गया, इसलिए आपके विचार भी ठीक लगते हैं। प्रेम पहले है, विचार नंबर दो है।
दोनों का व्यक्तित्व अलग-अलग है, भिन्न-भिन्न है। इसलिए स्त्रियों ने कोई बड़े शास्त्र नहीं रचे, न कोई बड़े दर्शन को जन्म दिया। पुरुषों ने बड़े शास्त्र रचे, बड़े संप्रदाय रचे, बड़े दर्शनशास्त्र पैदा किए। लेकिन प्रतीति ऐसी है कि पुरुष के बजाय स्त्रियां ज्यादा सुख से जीयी हैं। इसको मनोवैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं अब।
इसे समझने की कोशिश करें।
पागलखानों में पुरुषों की संख्या ज्यादा है, स्त्रियों की बहुत कम। कारागृहों में पुरुषों की संख्या बहुत ज्यादा है, स्त्रियों की न के बराबर। मानसिक रोग पुरुषों को जितनी सरलता से पकड़ते हैं, स्त्रियों को नहीं। पुरुष जितनी आत्महत्याएं करते हैं, स्त्रियां नहीं--हालांकि स्त्रियां कहती बहुत हैं--करती नहीं। स्त्रियां अक्सर कहती रहती हैं--आत्महत्या कर लेंगे। कभी-कभी गोली भी खाती हैं, लेकिन गिनती की--सुबह ठीक हो जाती हैं। मरना नहीं चाहतीं। अगर मरने की बात भी करती हैं, तो वह भी जीवन की किसी गहन आकांक्षा के कारण--जीवन को जैसा चाहा था, वैसा नहीं है। इसलिए मरने को भी तैयार हो जाती है, लेकिन मरना चाहती नहीं। स्त्री जीवन से बड़ी गहरी बंधी है।
पुरुष जरा सी बात में मरने को तैयार हो जाता है। फिर जब पुरुष कुछ करता है तो पूरी सफलता से ही करता है, फिर वह मरता ही है। फिर वह ऐसा नहीं करता कि अधूरे उपाय करे, वह गणित उसका पूरा है, वैज्ञानिक है; वह मरने का सारा इंतजाम करके मरता है। स्त्री मरने की बात करे, बहुत ध्यान मत देना; कोई चिंता करने की बात नहीं। पुरुष मरने की बात करे, थोड़ा सोचना। अक्सर तो ऐसा होता है पुरुष मर जाएगा, मरने की बात न करेगा। स्त्री मरने की बात करती रहेगी, और जीती रहेगी।
स्त्रियों को शारीरिक बीमारियां भी पुरुषों से कम होती हैं, क्योंकि अगर मन थोड़ा शांत और स्वस्थ हो तो शरीर भी स्वस्थ और शांत होता है। स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा जीती हैं, पांच साल औसत ज्यादा। अगर पुरुष सत्तर साल जीएगा, तो स्त्रियां पचहत्तर साल जीएंगी। इसलिए मैं कहता हूं कि विवाह की व्यवस्था में हमें फर्क कर देना चाहिए। अभी हम कहते हैं कि लड़का तीन-चार साल बड़ा होना चाहिए लड़की से, यह बिलकुल ही उलटा है। लड़की बड़ी होनी चाहिए--चार-पांच साल बड़ी, लड़के से। दोनों करीब-करीब साथ-साथ मरेंगे, नहीं तो विधवाओं से पृथ्वी भर जाती है। तुम पाओगे, विधुर व्यक्ति कम पाओगे। विधवाएं ज्यादा पाओगे। जगह-जगह मंदिरों में बैठी हुई मिलेंगी तुम्हें। उसका कारण है कि वे पांच-सात साल ज्यादा जीने वाली हैं। उचित यह होगा कि लड़कियां पांच-सात साल बड़ी हों, तो मरने के वक्त दो-चार महीने के फासले पर दोनों विदा हो जाएंगे, ठीक होगा जीवन।
लेकिन पुरुष की अकड़ है। वह विवाह में भी उम्र ज्यादा रखना चाहता है, ताकि बड़ा मालूम पड़े। वह हर चीज में उसे बड़ा होना चाहिए, उम्र में भी बड़ा होना चाहिए, हालांकि बड़ा वह कभी हो नहीं पाता कितनी ही उम्र हो जाए। जब भी वह किसी स्त्री के प्रेम में पड़ता है, तो वह उसी स्त्री में मां को खोजने लगता है, बड़ा वह हो नहीं पाता। छोटी से छोटी बच्ची भी बड़ी होती है, क्योंकि छोटी बच्ची भी जो पहला खेल खेलती है वह मां बनने का खेलती है, इससे कम का उसका काम नहीं है। छोटे गुड्डों को सजाती है, बिठाती है, मां बनती है। छोटी से छोटी बच्ची मां है, और बूढ़े से ब़ूढा व्यक्ति भी बच्चा होता है--पुरुष बच्चा होता है।
लेकिन अकड़, अहंकार! तो बड़ा होना चाहिए हर बात में। स्त्री लंबी हो तो दूल्हे के मन को दुख लगता है, बड़ी बेचैनी मालूम पड़ती है, पुरुष स्त्री से लंबा ही होना चाहिए। हर चीज में उसे बड़ा होना चाहिए। कहीं हीनता की कोई ग्रंथि काम कर रही है पुरुष में। और मनोवैज्ञानिक कहते हैं, वह हीनता की ग्रंथि यह है कि स्त्री जीवन को जन्म देने में समर्थ है और पुरुष समर्थ नहीं है, यह हीनता की ग्रंथि है। इससे एक इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स है।
स्त्री बच्चे को पैदा कर सकती है, जीवन को जन्म दे सकती है। परमात्मा उसका सीधा उपयोग करता है, वह सीधी माध्यम है। पुरुष सांयोगिक मालूम होता है। पुरुष को विदा किया जा सकता है, एक इंजेक्शन भी पुरुष का काम कर देगा। उसकी कोई इतनी अनिवार्यता नहीं है। लेकिन मां को विदा नहीं किया जा सकता, क्योंकि मां भीतर से जन्माएगी--उसका खून, उसकी हड्डी-मांस-मज्जा नये जन्म को निर्मित करेगा--नये जीवन को गति देगा। स्त्रियां बड़ी तृप्त मालूम होती हैं, और जब वे मां बन जाती हैं तब तो बड़ी तृप्ति उनको घेर लेती है, क्योंकि एक अर्थ में वे परमात्मा का उपकरण बन गईं।
वैज्ञानिक चिंतक कहते हैं कि पुरुष इतनी दौड़-धूप करता है वह सिर्फ इसी बात की कमी पूरा करने के लिए। स्त्रियां चित्र नहीं बनातीं, मूर्ति नहीं बनातीं, कविता नहीं करतीं, कहानी नहीं लिखतीं, उपन्यास नहीं लिखतीं, नाटक-सिनेमा, चांद पर जाने की दौड़, हवाई जहाज का बनाना--कुछ नहीं करतीं; क्योंकि इतना बड़ा कृत्य परमात्मा ने उन्हें दिया है कि उससे पर्याप्त तृप्ति हो जाती है, करने का भाव पूरा हो जाता है। लेकिन पुरुष हजार चीजें बनाता है। वह यह कह रहा है कि कोई फिकर नहीं, अगर हम बच्चे को जन्म नहीं दे सकते, हम मूर्ति बनाएंगे, सृष्टा बनेंगे, कविता लिखेंगे। लेकिन कितनी ही कविता सुंदर हो, एक बच्चे की आंखों की कविता से तो बड़ी नहीं हो सकती। और कितनी ही मूर्ति संगमरमर की हो, एक जीवित बच्चे की प्रतिमा तो नहीं बन सकती। और तुम चाहे चांद पर पहुंच जाओ, चाहे मंगल पर पहुंच जाओ, तुम मातृत्व पर नहीं पहुंच पाओगे।
तो पुरुष के जीवन में तो तृप्ति तभी आती है, जब वह अपने को ही जन्म ले लेने देता है अपने भीतर से, जैसे बुद्ध, कृष्ण, महावीर। इसलिए हमने ज्ञानियों को द्विज कहा है, उन्होंने अपने को स्वयं जन्म दे दिया, दुबारा जन्म दे दिया। एक जन्म तो वह था जो मां-बाप से मिला, और एक उन्होंने स्वयं अपने ध्यान, अपनी समाधि से अपने को जन्म दिया--वे पुनरुज्जीवित हुए। कभी कोई बुद्ध ही तुम पाओगे कि स्त्री जैसा शांत हो जाता है। इसलिए बुद्ध की प्रतिभा में स्त्रैणता दिखाई पड़ेगी, वही गोलाई आ जाती है बुद्ध के जीवन में जो स्त्री के जीवन में है। वही तृप्ति, वही अहोभाव--एक परितोष।
निश्चित ही स्त्री-पुरुष के ढंग अलग हैं। और इन ढंगों को हम ठीक-ठीक पहचान लें तो बातें बड़ी सुगम हो जाती हैं, यात्रा सुगम हो जाती है; व्यर्थ के भटकाव, उलझाव बच जाते हैं।
स्त्री एक तो पूछती नहीं, और कभी अगर पूछती है, तो उसका पूछना सदा व्यावहारिक होता है--पारमार्थिक नहीं होता, मेटाफिजिकल नहीं होता।
इस संबंध में एक प्रश्न और है:
भगवान, कल आपके प्रवचन के बाद मैंने बहुतेरी संन्यासिनियों से सहजोबाई के संबंध में प्रश्न बनाने को कहा, पर उन सभी ने मुस्कुरा दिया। हां भी नहीं भरी। स्त्रियां मुक्त स्त्री के संबंध में भी जानने-पूछने को उत्सुक क्यों नहीं हैं?
जानने की, पूछने की उत्सुकता पुरुष की है। होने की, जीने की उत्सुकता स्त्री की है। छोटे-छोटे बच्चे भी...तुम फर्क कर सकते हो। लड़कियां अगर खेलती होंगी, तो उनके खेल का ढंग सृजनात्मक होगा, वे कुछ बनाएंगी। लड़कों के खेल का ढंग विध्वंसात्मक होगा, वे कुछ तोड़ेंगे। अगर लड़के को तुमने मोटर-खिलौना दे दिया है, वह जल्दी ही तोड़ कर उसके अंदर देखेगा, क्या है? जानने की उत्सुकता, जिज्ञासा कि भीतर क्या है? घड़ी हाथ लग गई, खोल डालेगा। तुम कहते हो सब नष्ट कर दी, लेकिन वह बेचारा वैज्ञानिक उत्सुकता कर रहा है। वह यह देख रहा है कि कैसे चलती है? चींटा चल रहा है, अंगूठे से मसल देगा। वह कोई हिंसा नहीं कर रहा है, उसको हिंसा से कोई प्रयोजन भी नहीं है अभी, चींटे ने कुछ बिगाड़ा भी नहीं है; वह यह देख रहा है कि भीतर कौन सी चीज है जो चला रही है?
पुरुष की उत्सुकता जानने की है। वह जानना चाहता है, हर जगह खोजना चाहता है, जहां-जहां पर्दे पड़े हों उठा कर देखना चाहता है कि मामला क्या है? स्त्री की वैसी उत्सुकता नहीं है। जानने की नहीं, जीने की है। बड़ी व्यावहारिक उत्सुकता है, जो बिलकुल जरूरी है जीवन के लिए, उतना ही पूछेगी।
स्त्रियां मेरे पास नहीं आतीं पूछने कि ईश्वर है या नहीं, स्वर्ग-नरक है या नहीं, सृष्टि को किसने बनाया? ये सब पुरुषों के प्रश्न हैं। स्त्री अगर कभी कुछ पूछती भी है, तो यही पूछती है कि मन में असंतोष है, संतोष कैसे हो; क्रोध आ जाता है, शांति कैसे हो; जीवन ऐसे ही व्यर्थ जा रहा है, इसमें सार्थकता कैसे आ जाए; प्रार्थना-पूजा कैसे हो? उसके प्रश्न व्यावहारिक हैं। और मैं मानता हूं कि व्यावहारिक होना लंबे अर्थों में ज्यादा होशियारीपूर्ण है, ज्यादा बुद्धिमत्तापूर्ण है। क्या करोगे जान कर कि किसने बनाया संसार को, किस दिन बनाया, कौन सी तारीख-दिन में बनाया, क्यों बनाया--क्या करोगे जान कर?
मैं कल रात एक यहूदी फकीर का जीवन पढ़ रहा था। एक आदमी, जब भी वह फकीर बोलता था, तो बार-बार खड़े हो-हो कर प्रश्न पूछता था। वह उससे ऊब गया था, परेशान हो गया था उस आदमी से। वह जिद्दी था, और प्रश्न ऐसे उलटे-सीधे पूछता था। फकीर ने एक दिन समझाया कि परमात्मा ने संसार बनाया। वह आदमी उठ कर खड़ा हो गया। उसने कहा: कब बनाया, और उसके पहले क्यों नहीं बनाया?
प्रश्न तो बिलकुल ठीक है।
फकीर इसके पहले कि कुछ बोले कि उस पूछने वाले ने कहा: और अगर उसका तुम्हें न पता हो कि पहले क्यों नहीं बनाया, तो यह हमें बताओ कि बनाने के बाद फिर क्या कर रहा है वह?
सभी प्रश्न संगत हैं। क्योंकि अगर समझ लो कि ईसाई जैसा कहते हैं कि चार हजार चार वर्ष पहले, सोमवार को बनाना शुरू किया, शनिवार को पूरा किया, रविवार को विश्राम किया; तो चार हजार चार वर्ष के पूर्व क्या करता रहा? खाली बैठा रहा? थका नहीं, पागल नहीं हुआ? कुछ तो करता ही रहा होगा? खाली भी आदमी बैठा रहता है तो कुछ भी करता है--अखबार पढ़ता है, रेडियो खोलता है। मगर वह भी नहीं था, वह करता क्या रहा?
खैर, उस आदमी ने कहा: वह भी तुम्हें पता न हो, क्योंकि बहुत पुरानी बात हो गई, उसके बाद क्या कर रहा है? छह दिन में दुनिया बन गई, सातवें दिन विश्राम किया, फिर...?
उस फकीर ने कहा कि अब वह तुम जैसे आदमियों के हिसाब लगाता रहता है कि कौन-कौन नालायकी के सवाल पूछ रहे हैं, और इनको क्या-क्या दंड दिया जाए?
एक तो व्यर्थ के प्रश्न हैं। वे कितने ही व्यर्थ के हों, लेकिन पुरुष को सार्थक लगते हैं। और एक सार्थक प्रश्न हैं; वे कितने ही क्षुद्र मालूम पड़ें, कितने ही छोटे मालूम पड़ें, लेकिन उनके भीतर बड़ी महिमा है। क्योंकि अंततः जिज्ञासा काफी नहीं है, मुमुक्षा चाहिए। जानने से कुछ न होगा, होने से कुछ होगा। जीवन रूपांतरित करना है, नया होना है, आलोकित होना है, बुझे दीये को जलाना है। इसलिए यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। एक ही सवाल महत्वपूर्ण है कि भीतर का बुझा दिया कैसे जले, आंख बंद है कैसे खुले, नींद गहरी है कैसे टूटे--कैसे मैं स्वयं के लिए प्रकाश बन जाऊं?
स्त्री-पुरुष के प्रश्नों में फर्क है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि पुरुष भी जब जीवन को सच में ही रूपांतरित करने में लगता है, तो उसके प्रश्न भी स्त्रियों जैसे व्यावहारिक हो जाते हैं।
और कुछ-कुछ स्त्रियां भी, कभी-कभी पुरुष की बीमारी से संक्रामित हो जाती हैं, और वे पुरुषों जैसे सवाल पूछने लगती हैं।
जोर मेरा है व्यावहारिक पर, जिससे तुम्हारा जीवन रूपांतरित होता हो, उसे पूछना, वही जिज्ञासा सार्थक है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, स्त्रियों को संघ में प्रवेश देने के कारण, भगवान बुद्ध का धर्म भारत में पांच हजार की जगह पांच सौ वर्ष ही चला। आप तो अपने संघ में स्त्रियों को मुक्तभाव से प्रवेश दे रहे हैं; क्या बताने की कृपा करेंगे कि आपका धर्म कितना दीर्घजीवी होगा?
भविष्य की चिंता अज्ञान का ही हिस्सा है। कल क्या होगा, इसकी फिकर कल करेगा। बुद्ध ने इसकी फिकर की होगी, ऐसी कहानी तो है, लेकिन कहानी कहां तक सच है, कहना मुश्किल है।
मैंने भी बहुत बार तुमसे कही है कि बुद्ध ने कहा कि अब मेरा धर्म पांच सौ वर्ष ही चलेगा, स्त्रियां सम्मिलित कर ली गई हैं। इसका एक ही अर्थ हो सकता है, इसका यह अर्थ तो हो ही नहीं सकता कि बुद्ध भविष्य की चिंता करते हैं। धर्म पांच सौ वर्ष चले कि पांच हजार वर्ष चले कि पचास हजार वर्ष चले, इससे बुद्ध को क्या प्रयोजन है?
तो प्रयोजन कुछ दूसरा ही रहा होगा।
वह प्रयोजन इतना ही है कि बुद्ध की जो जीवन-पद्धति है वह मूलतः पुरुष के लिए विकसित की गई थी। महावीर की भी जो जीवन-पद्धति है, वह भी मूलतः पुरुष के लिए विकसित की गई थी। वे दोनों मार्ग संकल्प के हैं, समर्पण के नहीं; तपश्चर्या के, प्रभु अनुकंपा के नहीं। परमात्मा की दोनों के मार्ग में कोई जगह नहीं है; प्रार्थना-पूजा का कोई उपाय नहीं है। ध्यान के हैं दोनों मार्ग। ध्यान का जो भी मार्ग है, वह स्त्री को मौजूं नहीं आ सकता। स्त्री के लिए प्रार्थना और प्रेम का मार्ग मौजूं आता है।
तो महावीर ने जो मार्ग, या बुद्ध ने जो मार्ग विकसित किया वह ध्यान का है। फिर अचानक, पीछे स्त्रियां भी उत्सुक हो गईं, और उन्होंने कहा, हमें भी दीक्षित करें। तो बुद्ध को चिंता पकड़ी होगी। वह चिंता इसकी नहीं है वस्तुतः कि कितने दिन धर्म चलेगा। अगर उन्होंने कहा भी होगा तो वह एक तथ्यगत वक्तव्य है, वह बुद्ध की चिंता नहीं है। लेकिन बुद्ध के सामने सवाल यह उठा कि जो मार्ग है वह तो ध्यान का है, अगर स्त्रियां उसमें समाविष्ट होती हैं तो दो ही उपाय हैं--या तो स्त्रियां मार्ग को बदल कर प्रार्थना का कर देंगी, और या फिर ध्यान का मार्ग स्त्रियों को बदल कर पुरुष जैसा करे। दूसरी बात करीब-करीब असंभव है, पहली ही बात संभव है।
स्त्रियां जब प्रविष्ट होंगी, तो वे ध्यान के मार्ग को भी प्रार्थना का मार्ग बना देंगी, और मार्ग प्रार्थना का नहीं है, तो विकृति आ जाएगी। इसलिए महावीर ने तो कह ही दिया कि स्त्री-पर्याय से मोक्ष हो ही नहीं सकता। उसका केवल इतना ही अर्थ है, क्योंकि यह तो हो ही नहीं सकता अर्थ कि महावीर कहते हैं कि स्त्री मुक्त हो ही नहीं सकती। यह तो बात बड़ी नासमझी की होगी। महावीर जैसे पुरुष से ऐसी नासमझी की संभावना नहीं है। और महावीर तो निरंतर कहते हैं--आत्मा न तो स्त्री है, न पुरुष। इसलिए पर्याय तो शरीर की है, शरीर से मोक्ष का क्या लेना-देना? पुरुष की पर्याय भी यहीं पड़ी रह जाएगी, स्त्री की पर्याय भी यहीं पड़ी रह जाएगी। यह तो ऐसा हुआ कि कोई कहे कि स्त्रियों के वस्त्रों से मोक्ष न होगा, पुरुष के वस्त्र पहनोगे तब मोक्ष होगा।
महावीर तो जानते हैं कि शरीर तो वस्त्रों से ज्यादा नहीं है, फिर उन्होंने ऐसा क्यों कहां? कहने का कारण है। महावीर का मार्ग भी ध्यान का मार्ग है। महावीर यह कह रहे हैं कि स्त्री-पर्याय से मेरे मार्ग का संबंध नहीं जुड़ेगा। तो अगर स्त्री को मेरे ही मार्ग से मुक्त होना हो, तो उसे पुरुष होकर ही मुक्त होना पड़ेगा, यह अर्थ है। वह पुरुष होगी तो ही मुक्त हो सकेगी।
ध्यान के मार्ग से स्त्री मुक्ति नहीं हो सकती, प्रेम के मार्ग से ही मुक्त हो सकती है, ध्यान से उसका तालमेल नहीं बैठता। हृदय जब उसका भरता है अहोभाव से, तभी वह पुलकित होती है और नाचती है, तभी उसके भीतर समाधि की दशा उतरती है। नृत्य और कीर्तन, और भजन, पूजा और अर्चन, उनसे ही उसका हृदय-कमल खिलता है।
तो महावीर और बुद्ध यह कह रहे हैं असल में--जब वे कह रहे हैं: मेरा धर्म, तब वे यही कह रहे हैं--ध्यान का मार्ग ऐसा है कि स्त्री उससे मुक्त न हो सकेगी, और स्त्री बड़ी घटना है, वह मार्ग को रूपांतरित कर लेगी।
ऐसा हुआ। आज तुम जाओ जैनों के मंदिरों में, तुम वहां जैनियों को महावीर की प्रार्थना-पूजा करते पाओगे। महावीर का पूजा-प्रार्थना से कोई भी संबंध नहीं है, और जैनी पूजा-प्रार्थना कर रहा है। स्त्रियों ने भटका दिया। स्त्रियों ने पूजा-प्रार्थना शुरू कर दी। वे तो महावीर को भी प्रेम ही करेंगी, प्रेम करेंगी तो महावीर के सामने नाचना चाहेंगी आरती लेकर। उन्होंने धीरे-धीरे मार्ग को भटका दिया, अब बड़ी कठिनाई है। अगर तुम कृष्ण के मंदिर में नाचो, तब तो ठीक है, क्योंकि नाचने से कृष्ण का तालमेल है। वह पद्धति नाचने की है। तुम जब महावीर के मंदिर में नाचो, तो गड़बड़ हो गई। यह तो ऐसे ही हुआ कि तुम कृष्ण के मंदिर में जाकर और तपश्चर्या करने लगो, वह पद्धति वहां की नहीं है। यह तो ऐसा हुआ कि तुमने एक फोर्ड कंपनी की कार खरीदी और रॉल्स रॉयस में उसके औजार लगाने लगे।
ध्यान की पद्धति बिलकुल अलग पद्धति है, प्रेम की पद्धति बिलकुल अलग। ये दो ही पद्धतियां हैं, दो ही मार्ग हैं। प्रेम की पद्धति पर जो सही है, वह ध्यान की पद्धति पर अड़चन होगा। ध्यान की पद्धति पर जो सही है, वह प्रेम के मार्ग पर बाधा बन जाएगी। मार्ग शुद्ध रहने चाहिए।
और तुम मुझसे पूछते हो। मेरा न तो ध्यान की पद्धति से कोई आग्रह है, न प्रेम की पद्धति से कोई आग्रह है। मेरा कोई मार्ग नहीं है। मेरे पास तो तुम जब आते हो, तो मैं तुम्हारी तरफ देखता हूं, तुम्हारा क्या मार्ग है वह तुम्हें बता देता हूं। तुम्हें मैं अपने मार्ग पर चलाने की कोशिश ही नहीं कर रहा हूं, वह मेरी चेष्टा नहीं है। मैं तुम्हें देखता हूं। तुम्हें देख कर ही तय करता हूं कि तुम्हारा क्या मार्ग होगा। मेरा किसी मार्ग से कोई लगाव नहीं--मेरा बिलकुल अनाग्रह है। इसलिए अगर कोई स्त्री आती है, तो उसे मैं प्रेम-प्रार्थना की तरफ लगा देता हूं। कभी कोई पुरुष भी आता है जो हृदय से भरपूर है, उसे भी प्रार्थना पर लगा देता हूं। कभी कोई स्त्री भी आती है जिसके भीतर प्रेम का अंकुरण नहीं हो सकेगा, तो उसे ध्यान पर लगा देता हूं।
फिर प्रार्थना के भी बहुत रूप हैं। इस्लाम की अपनी प्रार्थनाओं का ढंग है, हिंदुओं का अपना है। फिर ध्यान के भी अनंत रूप हैं। जैनों का अलग है, बौद्धों का अलग है, पतंजलि का अलग है, लाओत्सु का अलग है।
मैं तुम्हें देखता हूं।
इस बात को तुम ठीक से समझ लो।
दो रास्ते हैं। एक तो मेरा रास्ता हो, तो तुम कोई भी हो तुमसे कोई प्रयोजन नहीं, मेरे रास्ते पर चलना है तो मैं चुन कर लूंगा। मैं उन्हीं लोगों को लूंगा जो मेरे रास्ते पर चल सकते हैं, उनको नहीं लूंगा जो मेरे रास्ते को विकृत करते हों। उनको मैं कहूंगा, यह रास्ता तुम्हारे लिए नहीं है, तुम कोई और मंदिर खोजो।
बुद्ध में एक चुना हुआ रास्ता है बुद्ध का। महावीर का एक चुना हुआ रास्ता है। मेरा किसी रास्ते से कोई आग्रह नहीं है। मैं अपने रास्ते पर तुम्हें नहीं चला रहा हूं। तुम इसे ही मेरा रास्ता कह सकते हो कि मैं तुम्हें तुम्हारे रास्ते पर चलाना चाहता हूं। तुम्हें देखता हूं गौर से; तुम मुझे ज्यादा कीमती हो किसी भी मार्ग के मुबाकले। एक-एक व्यक्ति मेरे लिए मूल्यवान है।
तालमुद में यहूदियों का एक वचन है: कि ‘एक व्यक्ति भी सारी सृष्टि से ज्यादा मूल्यवान है।’ उसे मैं अंगीकार करता हूं। एक-एक व्यक्ति इतना बहुमूल्य है कि सारी सृष्टि एक पलड़े पर रख दो, और एक व्यक्ति को दूसरे पलड़े पर, तो एक व्यक्ति ज्यादा वजनी साबित होगा। इतनी गरिमा है व्यक्ति की।
मैं तुम्हें देखता हूं, तुम्हें क्या मौजूं आएगा वही तुमसे कहता हूं। इसलिए मुझे सब स्वीकार है। तुम नाच कर जाओ परमात्मा की तरफ, मेरी मंगलकामना तुम्हारे साथ है। तुम आंख बंद करके, ध्यानस्थ होकर जाओ, मेरी मंगलकामना तुम्हारे साथ है। तुम स्त्री की तरह जाओ, तुम पुरुष की तरह जाओ--ये सब तो जाने के ढंग हैं--पहुंचना तो एक ही मंजिल पर है।
परमात्मा तो एक है, उसके नाम अनेक हैं। सत्य तो एक है, पर उस तक पहुंचने की राहें बहुत हैं। मैं सभी राहों को स्वीकार करता हूं। और हर राह कारगर हो सकती है। इस पर निर्भर करता है कि तुमसे राह का तालमेल बैठता है या नहीं।
तो मेरी नजर तुम पर है। मैं दवाई की फिकर नहीं करता, मैं मरीज की फिकर करता हूं। मरीज के हिसाब से दवाई चुनता हूं। कुछ चिकित्सक हैं जो दवाई तय कर लिए हैं; वे कहते हैं, जिन मरीजों को जमती है वे ही यहां आएं, दूसरे मरीजों को कोई लाभ न होगा।
महावीर का एक संप्रदाय है; बुद्ध का एक संप्रदाय है; मेरा कोई संप्रदाय नहीं। मैं संप्रदाय-शून्य हूं।
महावीर का एक घाट है। वे तीर्थंकर हैं। उस घाट से वे नाव को उतारते हैं।
मेरा कोई घाट नहीं। नाव मेरे पास है, तुम जिस घाट से उतरना चाहो, और जिस घाट से लगना चाहो, वह नाव वहीं काम आ जाएगी--सारी गंगा मेरी है।
आज इतना ही।
भगवान, आपने कहा कि भक्ति के मार्ग पर जीवन की किसी भी बात का इनकार नहीं है। शरीर, इंद्रियां, परिवार, सब स्वीकार है। सबमें ही भगवान की झलकें मिलती हैं। फिर क्योंकर सहजोबाई शरीर, इंद्रियों एवं घर-परिवार को बंधन, प्रपंच, परमात्मा से विपरीत मानती हैं?
यह प्रश्न थोड़ा जटिल है। समझना चाहोगे तो ही समझ में आ सकेगा। सर्व-स्वीकार का अर्थ है: अस्वीकार भी स्वीकृत है। सर्व में अस्वीकार भी सम्मिलित है। परिवार तो सम्मिलित है ही, संन्यास भी सम्मिलित है। घर-द्वार तो सम्मिलित है ही, निर्जन एकांत भी स्वीकृत है।
सर्व-स्वीकार का अर्थ तुम यह मत समझना कि सिर्फ संसारी स्वीकृत है और संन्यासी नहीं स्वीकृत है। मौज की बात है परमात्मा किसमें क्या रूप लेगा। किसी को गृहस्थ बनाएगा, किसी को ब्रह्मचारी रखेगा। अगर ब्रह्मचर्य का अस्वीकार हो जाए तो वह कैसा स्वीकार हुआ! सर्व-स्वीकार न हुआ। वह तो तरकीब हो गई, मन की चालाकी हो गई।
सहजो संन्यासिनी थी, ब्रह्मचारिणी थी। उसने घर-गृहस्थी जानी नहीं, संसार उसे भाया नहीं। उसने तो गुरु-चरणों में सब छोड़ दिया। वही चरण उसके घर थे, वही चरण उसका परिवार थे। परमात्मा की परम स्वीकृति में यह भी सम्मिलित है।
और, जब मैं तुमसे कहता हूं, संसार से भागने की कोई जरूरत नहीं, तो तुम यह मत समझना कि मैं कह रहा हूं कि संसार को पकड़ने की जरूरत है। भागने की जरूरत नहीं है, अगर संसार में रह कर ही तुम्हें परमात्मा मिल सकता हो। अगर संसार में रह कर तुम्हें परमात्मा की कोई संभावना ही न दिखाई पड़ती हो, तो परमात्मा को पाने का सवाल है, संसार को पकड़े रहने का सवाल नहीं है: छोड़ देना। अपने भीतर के तार कहां मेल खाते हैं, कहां तुम्हारी वाणी में संगीत पैदा होता है, उसकी तलाश करना।
संन्यासी को दुकान पर बिठा दो, परेशान होगा। दुकानदार को मंदिर में बिठा दो, वहीं दुकान खोल देगा, या बेचैन होगा।
इसलिए कृष्ण ने गीता में अर्जुन को कहा: तू भाग मत। वह तेरा ढंग नहीं, तेरा स्वभाव नहीं, तेरा स्वधर्म नहीं। लड़ना तेरे रोएं-रोएं में छिपा है; तेरे खून की बूंद-बूंद में क्षत्रिय है। तू जंगल में भी भाग कर संन्यासी हो न सकेगा। बिना धनुष के, बिना तेरे गांडीव के तेरी आत्मा ही खो जाएगी; तेरा व्यक्तित्व उससे बना है। तेरा होने का ढंग तेरी तलवार की धार में है; वह तलवार छूटते ही तुझ पर जंग खा जाएगी। तू तलवार ही नहीं खोएगा अपने को खो देगा; तेरे व्यक्तित्व की निजता नष्ट हो जाएगी।
तू स्वधर्म से मत भाग।
पहले अपना स्वधर्म ठीक से पहचान ले, फिर उसी पहचान के माध्यम से परमात्मा जो तेरे स्वधर्म से करवाना चाहे उसे होने दे। फिर तू निमित्त हो जा। अगर अर्जुन में कृष्ण ने जरा भी संन्यास की संभावना देखी होती, वे उससे कहते, तू जा; युद्ध तेरे लिए नहीं है। कृष्ण भी रोक नहीं पाते। रोकने का कारण भी न होता। और कृष्ण रोकते भी, अगर अर्जुन के भीतर संन्यास की ही संभावना होती, तो अर्जुन रुकता नहीं। सारी बात सुनता, धन्यवाद देता, कहता, आपने इतना श्रम किया! फिर भी मैं पहचानता हूं कि मेरा स्वधर्म मुझे वहीं ले जा रहा है। आपकी ही मान रहा हूं--स्वधर्मे निधनं श्रेयः। पर मेरा स्वधर्म मुझे जंगल ले जा रहा है। तो मैं जाता हूं।
तुम किसी ढांचे में अपने को बिठाने की कोशिश मत करना, अन्यथा बेचैनी होगी। तुम्हारा जिस तरफ सहज प्रवाह हो, उसको ही तुम जीवन की दिशा बना लेना। बहुत लोग हैं जो बाजार में बैठ कर परमात्मा को न पा सकेंगे, उनके स्वभाव से मेल नहीं खाता।...
मेरे परिवार में मेरे बड़े काका हैं, दुकानदार की उनमें कोई वृत्ति नहीं है। जन्म से कवि हैं। जब विश्वविद्यालय से पढ़ कर वापस लौटे, तो कविता से तो कोई धन मिलता नहीं, न कविता से पेट भरता है; और पूरा परिवार तो व्यवसाय में डूबा है, तो उन्हें भी व्यवसाय में ही डुबाने की कोशिश की गई। नौकरी में भी उनका कोई रस नहीं है, तो कोई उपाय न था, तो उनको दुकान पर ही बिठाया। मैं छोटा था तबसे मैं उनका निरीक्षण करता रहा हूं: अगर कोई घर का मौजूद न हो और ग्राहक दुकान पर आ जाए, तो वे उसे चुपचाप हाथ से इशारा कर देते कि--आगे।
अब ऐसे व्यक्ति से तो दुकान चलेगी नहीं--ग्राहक कोई भिखारी तो नहीं है। ऐसा ग्राहक को आगे का इशारा करना! वह भी चुपचाप कि कोई सुन न ले! क्योंकि कोई सुन ले तो घर के लोग नाराज हों कि तुम्हें दुकान पर दुकान चलाने को बिठाया है या बिगाड़ने को बिठाया है। और जिस ग्राहक को वे ऐसा इशारा कर दें वह दुबारा दुकान पर भी न आए कि इस तरह की दुकान पर क्या जाना जहां भिखमंगे की तरह व्यवहार किया जाता हो! और वे इतने दुख और इतनी नाराजगी से देखें ग्राहक को...! ऐसे तो दुकान नहीं चल सकती।
ग्राहक न आए तो वे बड़े प्रसन्न। दिन खाली चला जाए, तो उनके आनंद का कोई अंत नहीं। तो वे दो पंक्तियां कविता की जोड़ लें, या एक गीत बना लें। दुकान के खातेबही में भी उन्होंने कविताएं लिख दीं। उनके स्वभाव के यह अनुकूल न था, जबर्दस्ती उन्हें दुकानदार होना पड़े, तो प्राण कुंठित होंगे। ऐसे ही तुम दुकानदार को जबर्दस्ती कविता करने बिठा दो, तो भी मुसीबत होगी। वह कविता में भी दुकान को ही बसाएगा। उसकी कविता के स्वप्न में भी दुकान का ही विस्तार हो जाएगा।
न तो दुकान बुरी है और न भली है। न कविता बुरी है, न कविता भली है। बुरा-भला कुछ भी नहीं है। तुमसे जिसका मेल खा जाए, जो तुम्हारे स्वधर्म के अनुकूल आ जाए। फिर उसके लिए चाहे सब-कुछ छोड़ना पड़े तो छोड़ देना, लेकिन स्वधर्म को मत छोड़ना।
स्वधर्म छोड़ कर सारा संसार भी मिलता हो तो मत लेना, क्योंकि आखिर में तुम पाओगे कि वह मिलना नहीं था, धोखा हो गया।
अंततः तो स्वधर्म ही हाथ में रह जाता है, शेष सब खो जाता है। इस जगत में हम स्वधर्म को लेकर ही आते हैं और स्वधर्म को लेकर ही विदा होते हैं। बाकी तो सब बीच की कहानी है--बनती है, मिटती है, बिखर जाती है।
तो, जब मैं कहता हूं, सर्व-स्वीकार, तो तुम ध्यान रखना, उसका मेरा मतलब यह नहीं है कि संन्यासी, जीवन को त्याग कर जाने वाला, हिमालय की गुफाओं में विराजमान: वह अस्वीकृत है। नहीं, वह भी स्वीकृत है।
अगर किसी को हिमालय में ही गीत फूटता है, और वहीं उसके जीवन में नृत्य आता है, तो मैं कौन हूं, या कोई भी कौन है जो उसे रोके बाजार में? उसे वहीं होना चाहिए।
लेकिन ऐसा मत सोचना कि हिमालय के कारण गीत पैदा होता है; अन्यथा भूल से दुकानदार भी वहां पहुंच जाएगा--सोचेगा कि हिमालय में गीत पैदा होता है, नृत्य होता है--तो मैं भी छोडूं और मैं भी हिमालय चला जाऊं। वह वहां सिर्फ दुखी होगा, उदास होगा, पीड़ित होगा।
न तो हिमालय में गीत है, न बाजार में। गीत तुममें है--गीत तुम्हारे स्वभाव में है। तुम्हारे और तुम्हारे अस्तित्व में जब मेल पड़ता है, तब गीत का जन्म होता है।
गीत तुमसे बाहर नहीं है।
तो तुम्हारा स्वभाव और तुम्हारी परिस्थिति में मेल बने: इस तरह की चिंतना करना, इस तरह का जीवन-आचरण निर्मित करना कि तुम्हारा जीवन और तुम्हारे भीतर की धारा में विरोध न हो; संगति हो, तालमेल हो, लयबद्धता हो। तुम्हारा भीतर का जीवन और तुम्हारा बाहर का जीवन पैर मिला कर चल सके। भीतर तुम जा रहे हो पश्चिम और बाहर तुम जा रहे हो पूरब, तो तुम्हारे जीवन में तनाव होगा, परेशानी होगी, चिंता होगी, संताप होगा; और अंततः विषाद के अतिरिक्त कभी कुछ हाथ में न आएगा। समाधिस्थ तुम न हो पाओगे।
समाधि उस दशा का नाम है, जब तुम्हारे बाहर और भीतर में ऐसा मेल हो जाता है--ऐसा मेल कि बाहर बाहर नहीं मालूम पड़ता, भीतर भीतर नहीं मालूम पड़ता--बाहर भीतर हो जाता है, भीतर बाहर हो जाता है। ऐसा मेल हो जाता है कि सीमा-रेखा खींचनी मुश्किल हो जाती है--कहां मेरा भीतर है, कहां मेरा बाहर है। बस उसी क्षण, उसी संयोग, संवाद, संगीत के क्षण में परमात्मा तुममें उतर आता है। जितना होगा तनाव, उतना ही परमात्मा का अवतरण असंभव है; जितनी होगी संवाद की अंतर्दशा, उतना ही द्वार खुल जाता है।
तो सहजोबाई को मैं न कहूंगा कि वह घर-गृहस्थी बसाए, पत्नी बने, मां बने; मैं न कहूंगा। मुझसे आकर पूछती तो मैं कहता कि जो तुझे ठीक लगता है। जबर्दस्ती मत करना अपने साथ; तेरा ब्रह्मचर्य आरोपित न हो। वह आरोपित नहीं था। क्योंकि कभी सहजो को किसी ने दुखी न देखा। वह सदा प्रफुल्लित थी, वह सदा फूल सी खिली थी। किसी ने कोई कारण न पाया कि उसने जीवन की जो धारा चुनी है उससे अन्यथा धारा भी हो सकती थी। वही उसकी धारा थी।
तो अंततः कौन निर्णायक है?
कहते हैं, फल प्रमाण है वृक्ष का। तो जीवन की उपलब्धि प्रमाण है जीवन की। अगर सहजो ने अपने जीवन में परम आनंद पाया, तो जैसा उसने जीवन जीया वही उसके जीने योग्य था। अगर वह प्रफुल्लित हो सकी, खिल सकी, उसका कमल खिल सका, तो वही सबूत है कि उसने जैसा जीवन जीया वह ठीक था; अन्यथा फूल न खिलता।
अंत ही वक्तव्य है तुम्हारे पूरे जीवन पर।
अगर मृत्यु के क्षण तक तुमने समाधि को उपलब्ध कर लिया--मरने के पहले अगर तुम परम समाधान को उपलब्ध हो गए, तो मैं तुमसे न कहूंगा कि तुम जीवन में कुछ फर्क करो। तुम्हारा जैसा जीवन था, उस पर छाप लग गई कि वह सही था। अगर उसमें जरा भी भूल-चूक होती, तो तुम इस समाधिस्थ अवस्था को उपलब्ध न होते। तुम अगर मंजिल को पहुंच गए, तो मार्ग ठीक था। मार्ग के ठीक होने का और सबूत क्या है? कोई मार्ग अपने आप में ठीक थोड़े ही होता है; मंजिल पर पहुंचता है इसलिए ठीक होता है। क्या तुम ऐसा कह सकोगे कि मैं बिलकुल ठीक मार्ग पर चल रहा हूं, यद्यपि मंजिल कभी नहीं आती। मार्ग मेरा बिलकुल ठीक है, मंजिल कभी नहीं आती है। मैं तो तुमसे कहूंगा, कुमार्ग पर भी चलना पड़े--मंजिल आ जाए, तो कुमार्ग कुमार्ग न रहा, सुमार्ग हो गया। जिससे मंजिल आ जाए वही मार्ग है। अंत ही वक्तव्य है, अंत ही निष्कर्ष है; और अंत तक रुकना नहीं पड़ता, क्योंकि प्रति घड़ी वक्तव्य मिलता है, प्रति घड़ी तुम जानते हो।
अगर तुम्हारे बाहर और भीतर में मेल है, तो प्रति घड़ी जैसे मंदिर की घंटियां बजती हों ऐसे तुम्हारे भीतर कुछ बजता चलता है। जैसे नदी के किनारे पहुंच कर हवाएं शीतल होने लगती हैं, ऐसा जैसे ही तुम्हारे बाहर-भीतर में तालमेल होता है, वैसे ही तुम्हारे भीतर शीतलता उतरने लगती है, जैसे बगीचे के पास जाकर फूलों की सुगंध घेरने लगती है, ऐसे जैसे तुम्हारे भीतर तालमेल होता है एक सुगंध--अनिर्वचनीय सुगंध--तुम्हारे भीतर उठने लगती है। किसी से पूछने जाने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे भीतर कसौटी है कि तुम्हारा जीवन ठीक जा रहा है या नहीं। और दूसरा कोई निर्णय देगा भी कैसे? दे भी नहीं सकता।
सोचो, कृष्ण ने एक तरह का जीवन जीया, महावीर का जीवन बिलकुल भिन्न है। बुद्ध का जीवन और भी अलग है। मोहम्मद और महावीर में तुम कहां संबंध जोड़ पाओगे? क्राइस्ट और कृष्ण बड़े दूर हैं। लेकिन सभी ने पा लिया। उनके रास्ते अलग-अगल हैं, लेकिन एक बात तय है कि वे जिस रास्ते पर थे, उससे उनका स्वधर्म मेल खाता था। बस उतनी बात सबमें समान है। महावीर अपने रास्ते पर अपने स्वधर्म से मेल खाते हैं, क्राइस्ट अपने रास्ते पर अपने स्वधर्म से मेल खाते हैं, मोहम्मद अपने रास्ते पर अपने स्वधर्म से मेल खाते हैं। उतनी एक बात सबसे समान है।
रास्ते अलग हैं, व्यक्तित्व अलग हैं, ढंग अलग हैं। कहां कृष्ण बांसुरी बजाते हुए! तुम महावीर के ओंठ पर बांसुरी की कल्पना भी न कर सकोगे, वह बात जंचेगी ही नहीं। बांसुरी और महावीर के पास मिल भी जाएगी, तो तुम समझोगे कि कोई भूल गया होगा, कि महावीर की तो नहीं हो सकती! बांसुरी से महावीर का क्या लेना-देना? और कृष्ण अगर तुम्हें नग्न खड़े मिल जाएं किसी वृक्ष के नीचे आंख बंद किए, तो तुम मान न सकोगे कि वह कृष्ण हैं, बिना मोरमुकुट के। वह पहचान में भी न आएंगे। उन्हें तुम नाचता हुआ पाओगे तो ही पहचान सकोगे। कृष्ण के नृत्य से उनके भीतर का कुछ मेल है। महावीर के शून्य मौन से भीतर का कुछ मेल है।उस मेल के कारण ही, दोनों ही प्रबुद्ध हैं।
जीवन के ढंग का सवाल नहीं है, ढंग तो अनंत होंगे, क्योंकि अनंत आत्माएं हैं। प्रत्येक आत्मा का अपना स्वभाव है, अपनी निजता है, अपनी विशिष्टता है। उस विशिष्टता को मिटाना नहीं है, उस विशिष्टता को ठीक-ठीक सम्यक परिवेश देना है।
सहजो ठीक कहती है, उसे नहीं जंचा। लेकिन तुमसे मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम्हें जंचे, न जंचे, तो तुम किसी को मान कर चल पड़ो। जनक को घर-गृहस्थी में, सिंहासन पर, सम्राट हुए-हुए घटना घट गई।
उपनिषदों में एक बड़ी प्राचीन कथा है--तुलाधर वैश्य की कथा।
एक तपस्वी वर्षों से तपश्चर्या कर रहा है। जाजलि उस तपस्वी का नाम है। उसने इतनी घनघोर तपश्चर्या की कि शरीर को उसने वृक्ष की तरह सुखा दिया, जैसे सूखी ठूंठ हो। हिलता नहीं था। वह ऐसा अडिग खड़ा रहता था कि कहते हैं, पक्षियों ने घोसले बना लिए उसकी जटा में--अंडे रख दिए। अंडे बड़े हो गए, अंडे फूट गए--बच्चे हो गए--पक्षी जब उड़ गए, तभी जाजलि वहां से हटा। सोच कर कि बच्चों को तकलीफ होगी, अंडे हैं गिर न जाएं, वह खड़ा ही रहा--हिला-डुला भी नहीं, भीख मांगने भी न गया, महीनों भूखों रहा--लेकिन जब बच्चे आकाश में उड़ गए, तब वह हिला। पर उस दिन उसे बड़ा गौरव और बड़े गर्व का भाव पैदा हुआ कि मुझ जैसा तपस्वी कौन? मुझ जैसा अहिंसक कौन? एक अकड़ पैदा हुई।
जब उसके भीतर यह अहंकार का भाव उठ रहा था, तब उसने एक आवाज सुनी एकांत जंगल में कि कोई हंस रहा है। किसी अदृश्य व्यक्ति की आवाज: कि जाजलि, अहंकार से मत भर। अगर ज्ञानी खोजना हो तो पहले तुलाधर वैश्य के चरणों में जाकर बैठ। उसे तो कुछ समझ में न आया, कि तुलाधर? और वैश्य! और उसके चरणों में जाजलि जैसा तपस्वी बैठे! जिसके बालों में पक्षियों ने घोसले बनाए और जो हिला नहीं, ऐसी जिसकी अहिंसा है, और ऐसी जिसकी दया और करुणा है! मगर देखना तो पड़ेगा ही जाकर कि यह कौन है तुलाधर वैश्य?
तो वह खोजने गया।
काशी में तुलाधर वैश्य था। वह उसके पास गया। उसे तो भरोसा ही न आया--वह एक साधारण दुकानदार था, और दिन-रात तराजू पकड़े रहता था, इसलिए उसका नाम तुलाधर हो गया था--तौलता ही रहता था चीजें। वह तौल ही रहा था, ग्राहकों की भीड़ लगी थी; यह जाजलि पहुंचा, तो उसने इसकी तरफ देखा भी नहीं, इतना ही कहा कि जाजलि, तू बैठ। बहुत परेशान मत हो कि तेरे जटा-जूट में पक्षियों ने घोसले रखे! बहुत मत अकड़ कि तू हटा नहीं--पक्षी बड़े हो गए, उड़ गए--तब हटा! बैठ, शांति से बैठ; पहले मुझे ग्राहकों को निपटा लेने दे! यह बात जब तुलाधर ने कही तो जाजलि बहुत हैरान हुआ! उसने कहा, यह तो बड़ी मुसीबत हो गई, यह आदमी जानता तो है ही कुछ--मुझसे तो आगे निश्चित है। इसने तो सब बात ही खराब कर दी। और इसके पास कुछ दिखाई नहीं पड़ता कि कला क्या है, साधना क्या है?
बैठ गया। लेकिन ध्वस्त हो गया अहंकार! देखता रहा बैठे-बैठे: अच्छे लोग आए, बुरे लोग आए, भलीभांति बोले तुलाधर से, कोई अपमान भी किया--दुकान, दुकान का हिसाब! लेकिन तुलाधर समान रहा, समभावी रहा। न तो क्रोध, न राग; न तो किसी के पक्ष, न विपक्ष। जाजलि बैठा देखता रहा: उसकी तुला में किंचितमात्र कोई फर्क न पड़ा--अपने आए, पराए आए, उसका तौल एक सा ही रहा।
सांझ जब हो गई, दुकान जब बंद होने लगी, तो जाजलि ने कहा: मेरे लिए क्या उपदेश है? तो तुलाधर ने कहा: मैं तो साधारण दुकानदार हूं, मैं कोई पंडित नहीं, इतना ही मैं जानता हूं कि जैसे तराजू के दोनों पलड़े जब समान होते हैं तो एक संतुलन सध जाता है; ऐसे ही जब मन के दोनों ही पक्ष--क्रोध का, अक्रोध का; प्रेम का, घृणा का; राग का, द्वेष का--समतुल हो जाते हैं और भीतर का तराजू सध जाता है, उसी क्षण--बस उसी क्षण समाधि घट जाती है।
मैं तो तराजू को साधते-साधते खुद भी सध गया, और ज्यादा मैंने कुछ किया नहीं। न तो पक्षियों ने घोसले बनाए, न मैंने कोई तपश्चर्या की। मैं साधारण दुकानदार हूं, जाजलि! मैं कोई तपस्वी नहीं हूं। पर मेरा कुल राज इतना है कि तराजू को साधते-साधते मुझे साधने की कला आ गई; और एक बात मैंने पकड़ ली कि जब भीतर बिलकुल संतुलन होता है तो अहंकार शून्य हो जाता है।
संतुलन शून्यता है। और उसी शून्य में पूर्ण उतर आता है।
पर, ये तो एक दुकानदार की बातें हैं; तुम बड़े पंडित हो, तुम ज्ञानी हो, तुम तपस्वी हो; तुम्हें इससे शायद कुछ लाभ हो, न लाभ हो। इतना ही मैं जानता हूं, इतना मैं कहे देता हूं: जंगल में रहो और अहंकार पकड़ जाए, तो फेंक दिए गए संसार में। संसार में रहो और तराजू समतुल हो जाए, हिमालय उपलब्ध हो गया--बाजार में। प्रश्न नहीं है कि तुम कहां जाते हो, क्या करते हो; प्रश्न यह है कि तुम क्या हो?
तो जब मैं कहता हूं कि परमात्मा के मार्ग पर सब स्वीकार है--घर-गृहस्थी, परिवार; तब तुम ध्यान रखना: हिमालय, एकांत, निर्जन, संन्यास--वह भी स्वीकार है; अस्वीकार कुछ है ही नहीं।
जीवन को तरल बनाओ। और तुम्हारे जीवन की धारा जिस तरफ बहती हो, जहां बहने में तुम्हें सुख और रस उपलब्ध होता हो, वहीं बहे चले जाओ। रस कसौटी है।
गंगा पूरब की तरफ बहती है, नर्मदा पश्चिम की तरफ बहती है। अगर दोनों का बीच में मिलना हो जाए, तो बड़ी बेचैनी होगी। क्योंकि गंगा भी कहेगी मैं सागर की तरफ जाती हूं, नर्मदा भी कहेगी मैं भी सागर की तरफ जाती हूं। दो में से एक तो गलत होना ही चाहिए! दोनों भले गलत हों, दोनों सही तो नहीं हो सकतीं! बड़ा विवाद खड़ा हो जाएगा। और बीच मध्य रास्ते पर, चौराहे पर खड़े होकर विवाद के हल करने का उपाय क्या है? जाकर ही देखना होगा। लेकिन जाकर अगर देखोगे, तो पूरब जाती गंगा भी पहुंच जाती है सागर में, पश्चिम जाती नर्मदा भी पहुंच जाती है सागर में, और सागर एक है। सागर कहीं पूरब और पश्चिम का है! भले तुम नाम रख लो उसका: अरब की खाड़ी कहो, बंगाल की खाड़ी कहो, इससे क्या फर्क पड़ता है? सागर एक है, सभी नदियां सागर पहुंच जाती हैं।
जिस तरफ ढलान मिले, जिस तरफ रस आए, जिस तरफ तुम्हारे जीवन में कविता पैदा होती मालूम हो, जिस तरफ तुम गुनगुना के जा सको, जिस तरफ तुम नाचते हुए चल सको, वही तुम्हारा मार्ग है। फिर किसी की मत सुनना--किसी की गंगा पूरब जाती हो, उससे कहना, शुभाशीष, जाओ। परंतु मेरी नर्मदा तो पश्चिम जा रही है, और मैं आनंदित हूं। और मुझे मेरी ढलान मिल गई है, मुझे मेरा मार्ग मिल गया है। और जब प्रति कदम मैं आनंदित हूं, तो मान कर चला जा सकता है कि अंत में परम आनंद होगा।
एक-एक इंच पर कसौटी है। जहां बेचैनी हो, तनाव हो, दुख हो, पीड़ा हो, सम्हलना। जीवन का संगीत टूट रहा है! पैर कहीं गलत पड़ते होंगे, स्वधर्म के कहीं विपरीत जाते होओगे।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः। कहीं किसी दूसरे के धर्म में उलझ गए होओगे। किसी और के धर्म ने तुम्हें आकर्षित कर लिया, लोभ पैदा कर दिया। गंगा को जाते देख कर पूरब की तरफ, नर्मदा के मन में भी आकांक्षा उठ गई कि मैं भी पूरब जाऊं। नर्मदा अगर पूरब की तरफ जाएगी, तो तकलीफें पाएगी, कष्ट पाएगी और सागर तक नहीं पहुंच पाएगी।
प्रत्येक व्यक्ति का अपना ढलान है। सदा अपने भीतर के कांटे पर नजर रखो। तुम्हारा कांटा सदा ही ठीक बताता है। तुम दूसरे के कांटे को देखने लगते हो जरूरत से ज्यादा, तब तुम उलझन में पड़ जाते हो। तुम जब दूसरे का अनुकरण करने लगते हो, तब तुम च्युत होते हो--आत्मच्युत होते हो। जब तक तुम भीतर के कांटे पर नजर रखते हो, और अपने अंतःकरण को पूछते हो, और अपनी अंतर्वाणी को सुनते हो, तब तक तुम कभी भी भटकते नहीं। और तब, तुम यह भी जानोगे कि जो मेरा मार्ग है, जरूरी नहीं कि दूसरे का मार्ग हो। तब तुम यह फिकर ही छोड़ दोगे कि मार्ग का निर्णय किया जाए। तब तुम इतना ही देखोगे, अगर गंगा भी नाचती जा रही है तो सागर की तरफ ही जा रही होगी--उसका सागर पूरब में होगा, मेरा सागर पश्चिम में है। मैं भी नाचता जा रहा हूं, गंगा भी नाचती जा रही है, तो दोनों सागर की तरफ ही जा रहे होंगे। क्योंकि जब तक नदी सागर की तरफ न जाए, तब तक नाच ही नहीं सकती। वह सागर का पास आना ही पैरों का नृत्य बनता है; परमात्मा का पास आना ही भीतर का आनंद बनता है।
आनंद कसौटी है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, क्या प्रेम में राग और आसक्ति निहित नहीं है?
प्रेम में राग हो तो प्रेम नरक बन जाएगा। प्रेम में आसक्ति हो तो प्रेम कारागृह होगा। प्रेम राग-शून्य हो, स्वर्ग बन जाएगा। प्रेम आसक्ति मुक्त हो, तो प्रेम ही परमात्मा है।
प्रेम की दोनों संभावनाएं हैं। प्रेम के साथ तुम राग और आसक्ति को जोड़ सकते हो। तो ऐसा हुआ, जैसे तुमने प्रेम के पक्षी के गले में पत्थर बांध दिए, अब वह उड़ न सकेगा। जैसे तुमने प्रेम के पक्षी को सोने के पिंजड़े में बंद कर दिया। पिंजड़ा कितना ही बहुमूल्य हो, हीरे-जवाहरात जड़े हों, तो भी पिंजड़ा पिंजड़ा है--पंखों को नष्ट कर देगा।
जब प्रेम से तुम राग और आसक्ति को काट देते हो; प्रेम जब निर्मल होता है, निर्दोष होता है, निराकार होता है; जब तुम प्रेम में सिर्फ देते हो, मांगते नहीं; जब प्रेम दान होता है--जब प्रेम सम्राट होता है, भिखारी नहीं--जब तुम आनंदित होते हो, क्योंकि किसी ने तुम्हारा प्रेम स्वीकार किया; लेकिन जब तुम प्रेम का सौदा नहीं करते, जब तुम बदले में कुछ भी नहीं मांगते; तब तुम प्रेम के पक्षी को मुक्त कर देते हो आकाश में, तब तुम उसके पंखों को बल देते हो, तब यह पक्षी अनंत की यात्रा पर निकल सकता है।
प्रेम ने गिराया भी है, प्रेम ने उठाया भी है। निर्भर करता है कि तुमने प्रेम के साथ कैसा व्यवहार किया। इसलिए ‘प्रेम’ बड़ा बेबूझ शब्द है। वह द्वार है--उसके इस तरफ दुख है, उस तरफ आनंद है; उसके इस तरफ नरक है, उस तरफ स्वर्ग है; उसके इस तरफ संसार है, उस तरफ मोक्ष है--प्रेम द्वार है।
अगर तुमने राग और आसक्ति से भरे प्रेम को जाना, तो तुम, जब जीसस तुमसे कहेंगे: ‘प्रेम परमात्मा है’, तुम न समझ पाओगे। जब सहजो प्रेम के गीत गाने लगेगी तब तुम्हें बड़ी बेचैनी होगी, कि यह बात जंचती नहीं। प्रेम तो मैंने भी किया--हमने तो सिर्फ दुख ही पाया, हमने तो प्रेम के नाम पर सिर्फ कांटों की फसल काटी--कभी फूल न खिले। यह प्रेम कल्पना का मालूम पड़ेगा। यह प्रेम जो भक्ति बन जाता है, प्रार्थना बन जाता है, मुक्ति बन जाता है, यह तुम्हें लगेगा शब्दों का जाल है।
प्रेम तो तुमने भी जाना, लेकिन जब भी तुमने प्रेम जाना तभी तुमने राग, आसक्ति का प्रेम जाना। तुम्हारा प्रेम वस्तुतः प्रेम न था। तुम्हारा प्रेम राग, काम और आसक्ति के ऊपर डाला गया पर्दा था। भीतर कुछ और था, बाहर से तुमने प्रेम कहा था। तुम एक स्त्री के प्रेम में पड़े या एक पुरुष के प्रेम में पड़े, तब तुमने चाहा क्या है? चाह तो कामवासना की है, प्रेम तो सिर्फ ऊपर की सजावट है।
अगर तुम अपने भीतर गहरा खोजोगे, तुम खुद ही देख लोगे कि प्रेम तो सिर्फ बातचीत है, भीतर तो कामवासना की लपटें जल रही हैं। उन लपटों को सीधा-सीधा किसी से निवेदन करना उचित नहीं है, थोड़ी कूटनीति चाहिए। जिस स्त्री के शरीर को तुम भोगना चाहते हो, उससे तुम कहते हो, मुझे तेरी आत्मा से प्रेम है। न तुम्हें अपनी आत्मा का पता है, उसकी आत्मा का तो पता ही कैसा होगा?
लेकिन शरीर के लोलुप व्यक्ति आत्मा की बातें करते हैं। शरीर को भोगने की आकांक्षा से भीतर के सौंदर्य की झूठी चर्चा करते हैं। तब अगर तुम सुनोगे सहजो, दया, राबिया की बातें कि उन्होंने प्रेम से परमात्मा पाया, तो तुम कैसे मानोगे? तुमने तो प्रेम से सदा ही बंधन पाया। लेकिन इसमें कसूर प्रेम का नहीं था, कसूर तुम्हारा है। अगर चिकित्सक कुशल हो तो जहर से भी औषधि बना लेता है, और अगर चिकित्सा का कोई पता ही न हो तो अमृत भी जहर हो सकता है।
न तो जहर जहर है, न अमृत अमृत है--उपयोग पर निर्भर है।
कभी जहर बचाता है, कभी अमृत मार डालता है। ‘प्रेम’ शब्द से कुछ अर्थ नहीं है बहुत। प्रेम अमृत भी हो सकता है, जहर भी हो सकता है--तुम पर निर्भर है। प्रेम जहर हो जाएगा, अगर उसमें आसक्ति है। अगर तुमने प्रेम को अपनी कामवासना के लिए वाहन बनाया, और प्रेम से तुमने केवल शरीर की निम्नतम तृप्तियों को खोजा, तो तुम पाओगे, प्रेम से कलह मिली, दुख मिला, पीड़ा मिली, बंधन मिला। सपने बहुत मिले, सपने सफल कभी न हुए। भ्रम बहुत दिखाई पड़े, बड़ी मृग-मरीचिकाएं बंधीं, बड़े इंद्रधनुष बने, लेकिन जब भी तुम पास पहुंचे सब कचड़ा हो गया। इंद्रधनुष सब मिट्टी में गिर गए, सपने सब व्यर्थ साबित हुए। वह महल स्वर्ण का जो दूर से दिखाई पड़ता था सूर्य की किरणों में चमकता हुआ, पास आने पर सदा ही कारागृह सिद्ध हुआ। इसमें प्रेम का कोई कसूर नहीं है। तुमने प्रेम के नाम से कुछ और ही, किसी और ही चीज के सिक्के चला दिए। तुम खोटे सिक्के को चला रहे हो।
तो प्रेम को आसक्ति से मुक्त करना जरूरी है। प्रेम को बंधन नहीं बनने देना है, प्रेम बनना चाहिए मुक्ति। तुम जिसे प्रेम करो उसे मुक्त करो। तुम जिसे प्रेम करो अगर तुम उसे मुक्त करो, तो तुम बंध न सकोगे; फिर तुम्हें कोई भी बांध न सकेगा। लेकिन तुम जिसे प्रेम करते हो उसे बांधना चाहते हो, तुम उसके चारों तरफ एक चारदीवारी खड़ी करना चाहते हो, तुम उसके हाथों में जंजीरें डाल देना चाहते हो। जिसके हाथ में तुमने जंजीर डाली, वह तुम्हारे हाथ में भी जंजीर डालेगा।
जीवन से वही मिलता है जो तुम जीवन को देते हो, इस सत्य को कभी भूलना ही मत। यही तो कुल जमा कर्म का सिद्धांत है: तुम जो देते हो, वही पाते हो। अगर प्रेम से बंधन मिला, तो सबूत है इस बात का कि तुमने प्रेम से किसी को बंधन देना चाहा होगा। अगर तुम प्रेम के द्वारा मुक्त करो--तुम प्रेम दो और भूल जाओ, तुम प्रेम दो और बदले में न मांगो, तुम प्रेम दो और तुम्हारी कोई शर्त न हो, कोई सौदा न हो--तुम प्रेम दो और धन्यवाद दो कि किसी ने तुम्हारे प्रेम को स्वीकार किया, इतना क्या कम है, अस्वीकार भी किया जा सकता था; तब तुम धीरे-धीरे पाओगे प्रेम ऊपर उठने लगा, कामवासना नीचे पड़ी रह गई। तब प्रेम का पक्षी कामवासना के अंडे को तोड़ कर उड़ जाता है। और तब एक नये ही आयाम में तुम्हारी गति होती है। तुम्हारी चेतना एक नये लोक में प्रवेश करती है।
‘क्या प्रेम में राग और आसक्ति निहित नहीं है?’
हो भी सकती है। न भी हो।
साधारणतः होती है। सौ में निन्यानबे मौके पर होती है। लेकिन इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। अगर एक मौके पर भी नहीं होती, तो वह एक मौका भी काफी प्रमाण है कि यदि तुम चाहो तो सौ मौकों पर भी नहीं हो सकती। अगर एक बीज टूट कर वृक्ष बन सकता है, तो सभी बीज टूट कर वृक्ष बन सकते हैं। नहीं बनते, यह दूसरी बात है; ठीक भूमि न मिलती होगी।
जीसस ने कहा है: तुम एक मुट्ठी भर बीज फेंक दो। कोई रास्ते पर पड़ जाता है जहां लोगों के पैर चलते हैं, आते-जाते यात्री गुजरते हैं, वह बीज पनप न पाएगा। कोई रास्ते के किनारे पड़ जाता है; वहां पनप भी जाएगा, अंकुरित भी हो जाएगा, तो जानवर चर जाएंगे या बच्चे तोड़ लेंगे। कोई बीज पत्थर पर पड़ जाता है--चट्टान पर--वह तो कभी पनपेगा ही नहीं। कोई बीज ऐसी भूमि में पड़ जाता है, जो उर्वरा है। वह पनपेगा, वह अंकुरित होगा, वह वृक्ष बनेगा, उसमें फूल आएंगे, फल लगेंगे।
कभी कोई बुद्ध, कोई फरीद, कोई सहजो, इनका बीज खिलता है--फूल को उपलब्ध होता है। अगर तुम्हारा नहीं हो पाता, तो थोड़ा गौर करना, तुम कुछ गलत जगह पड़े होओगे। या तो ऐसी जगह, जहां चट्टान है; या ऐसी जगह, जहां चट्टान तो नहीं है, लेकिन लोगों का बहुत आवागमन है; या ऐसी जगह है जहां लोगों का आवागमन भी नहीं है, लेकिन कोई बचाव नहीं है--बागुड़ नहीं है। तुम्हें ठीक भूमि मिलनी चाहिए, तो तुम्हारे भीतर भी वही पैदा हो जाएगा जो बुद्ध के, कृष्ण के भीतर पैदा होता है। संभावना तो हमारी वही है, प्रत्येक की वही है; उससे कम संभावना परमात्मा किसी को देता ही नहीं। परमात्मा ही तुम्हें बनाता है, तो परमात्मा परमात्मा के अतिरिक्त और किसी को बना भी नहीं सकता। परमात्मा के हाथ तुम्हें बनाने में लगे हैं, परमात्मा तुम्हारा प्राण होकर छिपा है तुम्हारी संभावना होकर छिपा है।
प्रेम मुक्ति बन सकता है, वह हर प्रेम की संभावना है, हर हृदय की संभावना है। लेकिन सजग होना पड़े, आसक्ति को काटना पड़े। तुम तो उलटा आसक्ति के जाल को बढ़ाए जाते हो। तुम प्रेम की बात ही भूल गए हो। तुम तो राग को ही प्रेम कहने लगे हो।
मैंने सुना है, एक बड़ी प्राचीन सूफियों की कथा है कि पहाड़ियों की तलहटी में बसा हुआ एक गांव था। उस गांव के आस-पास जंगल के अतिरिक्त और कुछ भी न था। तो उस गांव के लोगों ने एक ही कला विकसित की थी कि जंगल से लकड़ियां काट लाते, उन्हीं लकड़ियों से मूर्तियां भी बनाते, घर के और साज-सामान बनाते। वह पूरा गांव बढ़ई हो गया था, क्योंकि केवल लकड़ी ही उपलब्ध थी, उतना ही माध्यम था। और उस गांव के लोगों का कुल धंधा इतना था कि आते-जाते राहगीर गांव से गुजरते, पहाड़ी घाटी से गुजरते, तो उन्हें लकड़ी के सामान बेचना। एक राहगीरों का जत्था गुजर रहा था तो उसने कहा कि ठीक तुम्हारे ऊपर पहाड़ की चोटी पर भी एक गांव है; तुम कभी वहां भी बेचने गए अपना सामान? वहां लोग बड़े धनी हैं, और तुम्हारे सामान की बड़ी अच्छी बिक्री हो जाएगी। उन्हें तो खयाल ही न था। क्योंकि घाटी में रहने वाले को शिखरों का खयाल ही नहीं आता। अपनी घाटी में मस्त थे; जो भी दीन-दरिद्रता थी, ठीक थी; और पहाड़ पर चढ़ना--चढ़ाई कठिन है! कभी पहाड़ पर रहने वाला भला घाटी में आ जाए भूल-चूक से, घाटी में रहने वाला भूल-चूक से पहाड़ नहीं पहुंचता। उतार आसान है, चढ़ाव कठिन है।
खैर, कई बार ऐसी यात्रियों से खबरें मिलीं, तो गांव ने कुछ जवानों को तय किया कि कुछ सामान लेकर जाओ। अगर वे धनी हैं, अपना सामान बेच कर आओ। युवक चढ़े। बड़ी कठिन थी चढ़ाई। कठिन और भी थी, क्योंकि चढ़ने की कोई आदत ही न थी। घाटी के सुलभ जीवन में रहे थे, बड़ी मुश्किल से...। और भरोसा भी नहीं होता था कि पता नहीं अफवाह ही हो। कोई ऊपर रहता भी है! और इतने ऊपर कोई रहेगा कैसे, जब चढ़ना इतना मुश्किल हो रहा है! खैर, किसी तरह थके-मांदे वे पहुंचे। कई दिनों की यात्रा के बाद पहाड़ के शिखर पर पहुंचे।
बात तो लोगों ने ठीक ही कही थी। नगर तो बड़ा अदभुत था। स्वर्ण-शिखरों से मंडित उस नगर के मंदिर थे। सूरज की किरणों में वे मंदिर ऐसे चमकते कि इन युवकों ने तो स्वप्न में भी कभी ऐसी कल्पना नहीं की थी। उन्होंने जाकर बाजार में अपनी दुकान लगाई, लोगों को बुला-बुला कर सामान दिखाने लगे, लेकिन लोग हंसते। कोई खरीदने को तैयार न था। आखिर उन्होंने पूछा: बात क्या है? उन्होंने कहा: इन लकड़ी के सामानों का हम क्या करेंगे? यहां सोने-चांदी की खदानें हैं, पागलो! हम मूर्ति बनाते हैं स्वर्ण की। ये लकड़ी की मूर्तियों का हम क्या करेंगे? उन्हें विश्वास तो न आया कि लकड़ियों से भी मूल्यवान कोई चीज हो सकती है संसार में, और इससे भी कीमती कोई मूर्तियां हो सकती हैं। वे बड़े नाराज हुए। दुखी भी थे, नाराज भी हुए। और इन लोगों के व्यवहार से बड़े विक्षुब्ध हुए। गांव के लोगों ने कहा भी कि तुम हमारे मंदिरों में आओ, हम तुम्हें अपनी मूर्तियां दिखाएं। मगर वे इतने विक्षुब्ध थे, इतने क्रोधित थे कि उन्होंने मंदिरों में जाना उचित न समझा। वे अपने सामान को लेकर वापस घाटी में उतर गए। और जब घाटी में लोगों ने पूछा कि क्या हुआ? तो उन्होंने कहा कि वहां लोग तो रहते हैं, लेकिन बड़े दुष्ट प्रकृति के। और एक चीज से सावधान रहना, और एक चीज से बचने की कोशिश करना, उस चीज का नाम स्वर्ण है--वह हमारा सबसे ज्यादा दुश्मन मालूम होता है--स्वर्ण; हमने देखा तो नहीं कि वह क्या है, क्योंकि वे लोग हमसे बड़ा असदव्यवहार कर रहे थे; और एक भी मूर्ति बिक न सकी। कहते हैं घाटी के लोग अब पहाड़ की तरफ नहीं जाते, और घाटी में यह बात प्रचलित हो गई कि पहाड़ पर हमारे दुश्मन रहते हैं, वे हमारे मित्र नहीं हैं; और स्वर्ण नाम की चीज से सदा सावधान रहना, क्योंकि उससे ही हमारी संस्कृति के नष्ट हो जाने का खतरा है।
करीब-करीब ऐसी ही दशा उन सारे लोगों की है, जो प्रेम की घाटी में रहे और जिन्होंने प्रेम के शिखर को नहीं जाना। प्रेम की घाटी में लकड़ी का सामान है--वह वासना का सब फैलाव है। प्रेम के शिखर पर स्वर्ण है। लेकिन वासना में जीने वाला आदमी स्वर्ण की बातें ही सुन कर डरता है, वह कहता है यह तो हमारे शत्रुओं की बात है। हम तो अपनी कामवासना में मस्त हैं, ये ऊंची बातें हमसे मत करो, हमारी नींद मत तोड़ो, और हमारे सपनों को खराब मत करो।
पर, मैं तुमसे कहता हूं कि तुम जहां जी रहे हो, वह ऐसा ही है जैसे कोई तुम्हें महल भेंट करे, और तुम महल के पोर्च में ही जीवन गुजार दो--भीतर प्रवेश ही न करो--तुम समझो कि पोर्च ही सब-कुछ है। पोर्च तो सिर्फ प्रवेश है। जितने भीतर जाओगे, जितने अंतर्तम में प्रवेश करोगे, उतने ही आनंद के, स्वर्ण के शिखर उपलब्ध होंगे।
कामवासना तो केवल प्रेम का पोर्च है। वहां से गुजर जाना है, वहां रुक नहीं जाना है। पोर्च से गुजरने में कुछ भी हर्ज नहीं है--ध्यान रखना, मैं पोर्च की निंदा नहीं कर रहा हूं। पोर्च से गुजरना ही पड़ेगा महल में जाना है तो, लेकिन गुजरने के लिए रुक मत जाना, वहीं घर मत बना लेना, वहीं बिस्तर मत लगा देना, वहीं ठहर मत जाना--उसी को जिंदगी मत समझ लेना।
गुजरना काम से जरूर--गुजरना ही होगा, वह जिंदगी का अनिवार्य हिस्सा है। लेकिन पार करने के लिए गुजरना। जैसे कोई सीढ़ियों से गुजरता है, सेतु से गुजरता है--पार होने के लिए।
भीतर बड़ी अदभुत संभावनाएं छिपी हैं। प्रेम जिसने काम की तरह जाना, राग-आसक्ति की तरह जाना, वह जीवन के नरक से ही परिचित हो पाएगा। और तुम थोड़ा सोचो, नरक में भी तुम्हें थोड़ा सुख मिल रहा है, तो स्वर्ग का तो कहना ही क्या! कामवासना में भी थोड़ी झलक तो सुख की मिलती ही है, पोर्च में भी थोड़ी खबर तो महल की आ ही जाती है। भीतर जलती हुई धूप हो, तो पोर्च में भी थोड़ी गंध उड़ आती है; भीतर छाई शांति हो, तो पोर्च में भी थोड़ी शीतलता उतर आती है; भीतर संगीत बजता हो, तो पोर्च तक भी थोड़े स्वर तो भटके-भूले आ ही जाते हैं। तो कामवासना में भी थोड़ी तो मोक्ष की भनक पड़ती है। कामवासना में भी थोड़ी तो परमात्मा की छवि उतरती है। छवि ऐसी ही है, जैसे आकाश में चांद हो और झील में प्रतिबिंब बनता हो। है प्रतिबिंब, जरा सी झील हिल जाए नष्ट हो जाता है; कुछ वास्तविक नहीं है। लेकिन फिर भी है तो वास्तविक का ही प्रतिबिंब। कामवासना में प्रेम की ही छवि है--झील पर बनी, शरीर और मन की झील पर बनी छवि है। आंख उठाओ, झील में छवि को जब इतना सुंदर पाया है तो थोड़ा आंख उठा कर उस चांद को देखो जिसकी छवि है।
राबिया, एक फकीर औरत अपने घर में बैठी थी। हसन नाम का एक फकीर उसके घर मेहमान था। सुबह हो गई, सूरज उगा। हसन बाहर गया, और उसने जोर से आवाज दी कि राबिया, भीतर क्या कर रही है? बाहर आ, देख कितना सुंदर सूरज निकला है, परमात्मा की सृष्टि को देख! राबिया ने कहा: हसन! बेहतर हो तू ही भीतर आ जा, क्योंकि तू परमात्मा की सृष्टि को देख रहा है बाहर, भीतर मैं स्वयं उसी को देख रही हूं।
सृष्टि सुंदर है। लेकिन स्रष्टा से थोड़े ही मुकाबला करोगे? गीत सुंदर है। गायक के प्राणों की जरा सी भनक है वहां। ये चित्र बड़े सुंदर हैं, जो चारों तरफ खुदे हैं, लेकिन चित्रकार की बड़ी छोटी सी कृति है यह। चित्रों पर चित्रकार समाप्त नहीं हो गया, सृष्टि पर स्रष्टा पूरा नहीं हो गया है। अनंत-अनंत सृष्टियां हो सकती हैं उस स्रष्टा से, फिर भी वह पीछे उतना ही शेष रहेगा--उतना ही।
ईशावास्य कहता है: ‘पूर्ण से पूर्ण को भी निकाल लें तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है।’
उस परमात्मा से अनंत सृष्टियां निकलती चली आएं तो भी पीछे वह उतना का ही उतना शेष रह जाता है, उसकी असीमता में भेद नहीं पड़ता, वह चुकता नहीं है। और जब यह सृष्टि इतनी सुंदर है, तो थोड़ा तो सोचो! महल के बाहर ही इतना सुख है, भीतर कितना न होगा! आसक्ति और राग से भरे प्रेम में भी थोड़े से संगीत के भूले-बिसरे सुर सुनाई पड़े, तो जब परम शुद्ध हो जाएगा प्रेम, राग की अशुद्धि और आसक्ति गिर जाएगी, स्वर्ण जब निखरेगा, धूल-धवांस, कूड़ा-करकट जल जाएगा अग्नि में, तब तुम थोड़ी कल्पना करो! वह कल्पना ही तुम्हें पुलक से भर देगी, एक नये आमंत्रण से भर देगी, एक नई अभीप्सा जग जाएगी। उस अभीप्सा का नाम ही धर्म है।
प्रेम को उसकी परिशुद्धि में जानने की खोज ही धर्म है।
और प्रेम की परिशुद्धि को ही हमने परमात्मा कहा है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आप कैसे जानते हैं कि सहजोबाई आत्मोपलब्ध थीं? क्या उनके वचन ही इसका पर्याप्त प्रमाण हैं?
प्रश्न थोड़ा कठिन है।
वचन पर्याप्त प्रमाण नहीं हो सकते, क्योंकि वचन तो उधार भी हो सकते हैं। जो कहा है, वह तो किसी और का कहा हुआ भी दोहराया जा सकता है। इसलिए वचन पर्याप्त प्रमाण नहीं हो सकते, अपर्याप्त प्रमाण हो सकते हैं।
इसे थोड़ा ठीक समझ लो।
अपर्याप्त प्रमाण का अर्थ यह है कि वचनों से थोड़ा इशारा मिल सकता है। लेकिन वह इशारा ही होगा। वह निश्चित ही सही होगा, कहना मुश्किल है। वचनों से इशारा तो मिलता है।
जब तुम किसी दूसरे का वचन दोहराते हो, तब कुछ न कुछ भूल-चूक हो जानी सुनिश्चित है। पंडित के वचन को पहचान लेने में बड़ी कठिनाई नहीं है। पंडित का वचन तत्क्षण पकड़ में आ जाता है, क्योंकि वह दोहराता है, खुद तो उसे कुछ पता नहीं है। वह कितनी ही चेष्टा से सही-सही दोहराए, तो भी कुछ न कुछ भूल हो जानी सुनिश्चित है, क्योंकि भीतर तो उसके भूल ही भूल भरी है, ऊपर से दोहराने की कोशिश कर रहा है। जो दोहरा रहा है वह भूल भरा है। तो कुछ भूलें मिश्रित हो जानी अनिवार्य हैं। ऐसा ही समझो कि तुम्हारे हाथ तो कालिख से भरे हैं, और तुम किसी शुभ्र-भवन की सफाई में लगे हो--तुम काले हो, कालिख से भरे हो, काजल से भरे हो, और शुभ्र-भवन की सफाई में लगे हो--तुम्हारे हाथ की छापें कई जगह छूट ही जाएंगी--मजबूरी है। शायद अज्ञानी न पहचान सकें, लेकिन जिन्होंने जाना है वे तो पहचान ही लेंगे।
तो, वचन से अपर्याप्त प्रमाण मिल सकता है, इशारा मिल सकता है कि शायद इसने जाना हो। फिर जब कोई व्यक्ति जान कर कहता है, तो उसके कहने में एक बल होता है, जो कि बिन जाने कहे व्यक्ति की वाणी में नहीं होता--हो नहीं सकता, असंभव है। क्योंकि बल अनुभव से आता है।
मैं पढ़ रहा था एक ईसाई संत का जीवन। उसने लिखा कि मैं एक गांव से गुजरता था, और ठीक वैसी घटना घटी जैसी जीसस के जीवन में घटी थी। जीसस एक रात एक गांव से गुजर रहे थे, एक युवक ने उनका वस्त्र पकड़ लिया। उस युवक का नाम ‘निकोडेमस’ था। और निकोडेमस ने कहा कि मैं क्या करूं कि तुम जिसे परमात्मा का राज्य कहते हो वह मुझे भी मिल जाए? तो जीसस ने कहा: तू सब छोड़ और मेरे पीछे आ। कम फॉलो मी।
यह ईसाई फकीर ने लिखा है कि एक रात ऐसी घटना मुझे भी घट गई। एक गांव से गुजरता था, एक युवक ने मुझे पकड़ लिया। उसने कहा कि मैं भी वही पाना चाहता हूं जिसकी तुम चर्चा करते हो, मुझे बताओ मैं क्या करूं? उस ईसाई फकीर ने लिखा है, मुझे याद आया कि जीसस ने कहा था, सब छोड़ दे और मेरे पीछे आ। लेकिन मैं यह कहने की हिम्मत न जुटा सका कि सब छोड़ दे, मेरे पीछे आ। ज्यादा से ज्यादा मैं इतना ही कह सका: सब छोड़ दे और जीसस के पीछे जा।
इतना फर्क तो होगा ही।
कृष्ण कह सके अर्जुन से: सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। छोड़ सब धर्म, मेरी शरण आ। पंडित न कह सकेगा। पंडित कहेगा--सब धर्म छोड़, कृष्ण की शरण जा। पंडित को यह कहने में कि मेरी शरण आ, डर लगेगा। पहले तो यह डर लगेगा कि लोग समझेंगे कि यह तो बड़े अहंकार की बात हो गई। अहंकार हो तो ही अहंकार का खयाल उठता है। कृष्ण को जरा भी न उठा। कृष्ण ने सोचा भी न कि सदियों तक यह किताब रहेगी, लोगों के हाथ में प्रमाण रहेगा, लोग कहेंगे कृष्ण बड़ा अहंकारी रहा होगा--कहता है अर्जुन से, सब छोड़, मेरी शरण आ। कहीं ऐसा कोई कहता है! यह तो बड़ी अहंकार की बात हो गई।
बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो बुद्ध ने कहा, मुझे वह उपलब्ध हुआ है जो करोड़ों में कभी एक को उपलब्ध होता है। सहज उपलब्ध न होने वाली घटना घटी है। मैं सम्यक बुद्धत्व को प्राप्त हुआ हूं।
पढ़ने वाले को लगेगा, यह तो बड़ी अहंकार की घोषणा मालूम पड़ती है। कहीं ज्ञानी ऐसा कहते हैं? ज्ञानी तो कहते हैं--हम विनम्र हैं, तुम्हारे चरणों की धूल हैं। लेकिन ध्यान रखना, जिनसे ऐसे वचन पैदा हुए हैं, उन्हें पता ही नहीं है। अहंकार तो बचा ही नहीं, इसलिए कौन चिंता करे?
पंडित और ज्ञानी के वचन में फर्क होता है। पंडित के वचन में उधारी होगी--हिम्मत न होगी, साहस न होगा, बल न होगा, और पंडित के वचन में शास्त्र की गंध होगी। ज्ञानी के वचन में सहज स्फुरणा होगी--अभी आ रहे हैं स्रोत से, ताजे और नये। अभी ढाले जा रहे हैं, अभी बाजार में चले हुए सिक्के नहीं हैं ये। नये-ताजे नोट हैं--अभी निकले हैं टकसाल से, अभी किन्हीं हाथों ने छुआ भी नहीं। तुम पहचान लेते हो न टकसाल से निकला नया नोट और बाजार में चला नोट! क्या अड़चन आती है पहचानने में? क्योंकि नोटों को तुम पहचानते हो। जब तुम जागोगे, वचनों को भी पहचान लोगे।
ये सहजोबाई के वचन टकसाल से निकले हैं, बिलकुल सीधे-सीधे हैं। यह सहजोबाई कोई पंडित तो है ही नहीं, न ही कोई कवि है। वचन सीधे-सीधे हैं, कोई बहुत बड़ा आडंबर नहीं है। बात साफ-साफ, दो-टूक कह दी है--कुछ छिपाया नहीं है। और इस ढंग से कही है जिस ढंग से किसी ने पहले नहीं कही थी। इसलिए उधारी का उपाय नहीं।
जब भी परमात्मा किसी में उतरता है, हर बार नये ढंग से उतरता है; पुनरुक्ति परमात्मा को पसंद ही नहीं है।
सहजोबाई का एक-एक पद बिलकुल अनूठा है। पहले कभी नहीं था, बाद में फिर कभी नहीं हुआ। इसलिए अपर्याप्त प्रमाण मैं कहता हूं। इससे कुछ पक्का नहीं होता, इतना भर होता है कि संभावना है, इशारा है।
फिर मैं कैसे कहता हूं कि सहजोबाई आत्मोपलब्ध थी?
शब्दों के बीच खाली जगह को पढ़ना पड़े, पंक्तियों के बीच रिक्त स्थान को पढ़ना पड़े। पंक्तियों से अपर्याप्त प्रमाण मिलेगा, वह जो खाली जगह है वहां पर्याप्त प्रमाण मिल जाएगा। लेकिन सहजोबाई के शब्दों में खाली जगह को तुम तभी पढ़ पाओगे, जब तुम अपने भीतर खाली जगह को पढ़ो। इसलिए मैंने कहा, प्रश्न जरा कठिन है। मेरे उत्तर देने से हल न होगा, तुम्हारे जीवन में जब उत्तर आएगा तब हल होगा।
प्रश्न बहुत तरह के होते हैं। एक तो, जो मैं उत्तर दे दूं, हल हो जाए। एक, जो जब तुम बढ़ो और विकसित हो, तब हल हो। जैसे एक छोटा बच्चा पूछे कि यह कामवासना क्या है? पूछ सकता है। किताब पढ़ ले, जिसमें लिखा है--कामवासना; शब्दकोश देख ले, जिसमें लिखा है--कामवासना; और पूछे कामवासना क्या है? उसको कैसे समझाओ? उसे क्या कहो? उसके जीवन में कामवासना की अभी कोई भी घटना नहीं घटी, अभी कामवासना का धुआं उसके चित्त पर नहीं फैला, अभी वह जानता नहीं कामवासना क्या है? अभी तुम कुछ भी कहोगे वह सिर के ऊपर से निकल जाएगा। हां, जब उसके जीवन में उम्र आएगी, कामवासना उठेगी, तब तुम कुछ कहोगे तो कहीं चोट पड़ेगी, कहीं तालमेल बैठेगा--उसकी समझ में तुम्हारे वक्तव्य में कुछ संवाद होगा।
सहजोबाई आत्मोपलब्ध है, यह तुम आत्मोपलब्ध होओगे तो ही समझ पाओगे। जो व्यक्ति भी आत्मोपलब्ध है, वह तत्क्षण पहचान लेगा कि कोई दूसरा आत्मोपलब्ध है या नहीं। इसमें जरा भी दिक्कत नहीं होती। इसमें कुछ करना ही नहीं पड़ता। यह पहचान किसी प्रयास से नहीं होती। यह पहचान, सहज प्रमाण होता है इसका, बस घटती है। ऐसा ही समझो कि तुम एक परदेश में भेज दिए जाओ, जहां तुम्हारी भाषा कोई भी नहीं समझता, जहां सभी अलग तरह की भाषाएं बोलते हैं। तुम अकेले हो, तुम अपनी भाषा बोलते हो लेकिन कोई नहीं समझता, कोई नहीं सुनता। और अचानक एक आदमी तुम्हारी भाषा को सुनने वाला मिल जाए। क्या देर लगेगी दोनों को पहचानने में? एक शब्द भी न बोला जाएगा कि पहचान हो जाएगी कि अपनी ही भाषा बोलने वाला है।
जब दो आत्मोपलब्ध व्यक्तियों का मिलन होता है, हजारों सालों के फासले पर भी, तो भी भाषा वे एक बोलते हैं। सहजोबाई और जीसस, बुद्ध और महावीर, जरथुस्त्र और लाओत्सु, जिसको तुम भाषा कहते हो वह तो अलग-अलग बोलते हैं--लाओत्सु चीनी बोलता है, जीसस हिब्रू बोलते हैं, कृष्ण संस्कृत बोलते हैं, महावीर प्राकृत बोलते हैं, बुद्ध पाली बोलते हैं, सहजो हिंदी बोलती है--सब अलग-अलग भाषा बोलते हैं, जिसे तुम भाषा कहते हो। लेकिन आत्मोपलब्ध की भी एक भाषा है, जिसे वे सभी एक सा बोलते हैं, उसमें जरा भी फर्क नहीं है। वे तत्क्षण पहचान लेंगे। अगर तुम उनको एक कमरे में बंद कर दो, वे तत्क्षण पहचान लेंगे उनका इशारा, उनकी आंख, उनका उठना-बैठना, उनका होना, उनके जीवन की सुवास, उनके चारों तरफ की रोशनी, वे सब पहचान लेंगे, क्योंकि वे खुद भी वही जानते हैं।
ये हजारों साल के फासले पर भी पहचान लिया जाता है, इससे कोई भेद नहीं पड़ता। लेकिन, इसलिए मैंने कहा कठिन है--मेरे उत्तर से हल न होगा। जिस दिन तुम जागोगे, उसी दिन तुम पाओगे कि सब जागने वालों को तुम पहचान गए। सोने वाला नहीं पहचान सकता कि कौन जागा हुआ है।
यहां हम इतने लोग बैठे हैं, हम सब सो जाएं, एक आदमी जागा हो। जागा हुआ सोयों को भी पहचानता है कि सोए हैं, अपने को भी जानता है कि जागा हुआ है। सोए हुए न तो अपने को जानते कि हम सोए हैं, और न यही जानते हैं कि कोई जागा हुआ है। फिर इतनों में से कोई और दूसरा जागे। दोनों जागे एक-दूसरे को पहचान लेंगे तत्क्षण कि जागे हुए हैं; और दोनों यह भी जान लेंगे कि बाकी सब सोए हुए हैं। इसमें कुछ अड़चन पड़ेगी? बस ऐसा ही जीवन की नींद के बाहर जागना है, दो जागे हुए सदा पहचान लेते हैं।
मैं तो किसी एक ऐसे व्यक्ति के नाम का भी उल्लेख नहीं करता हूं, जो जागा हुआ न हो। अगर सहजो की वाणी पर बोलने की मैंने तैयारी दिखाई, तो कोई और कारण नहीं है। सहजो की कविता में कुछ भी नहीं रखा, अगर कविता ही बोलनी होती तो बड़े-बड़े कवि हैं। सहजो ने कोई बड़ा तत्वदर्शन भी स्थापित नहीं किया है। अगर दार्शनिकों पर बोलना होता तो बड़े-बड़े अफलातून हैं। सहजो एक साधारण अशिक्षित; न कवि, न पंडित; एक बड़ी साधारण, सरल-चित्त महिला है। पर जागी हुई है। बस उसका जागना ही बहुमूल्य है, बाकी सब दो कौड़ी का है।
तुम कितने ही बड़े पंडित रहो--सोए रहो--किसी काम के नहीं। तुम कुछ भी न जानो--सिर्फ जाग जाओ--सब जानना हो गया।
तो मैं पहचानता हूं कि सहजोबाई आत्मोपलब्ध है, अन्यथा मैं उसका नाम भी न उठाता; सोयों की भी क्या बात करनी! और सोए हुओं के सामने सोयों की क्या बात करनी! सोए हुओं को तो तुम भलीभांति जानते ही हो। थोड़े जागे हुओं की बात करनी है कि शायद तुम्हें भी रस पकड़ जाए, जागने की आकांक्षा आ जाए, शायद तुम्हारे भीतर भी कोई पुकार उठे, तुम थोड़ी करवट बदलो।
चौथा प्रश्न:
भगवान, क्या स्त्रियों और पुरुषों के प्रश्न भी भिन्न होते हैं? और क्या उनके पूछने के ढंग में भी फर्क होता है।
निश्चित होता है। होगा ही। क्योंकि प्रश्न तुम्हारे भीतर से पैदा होते हैं। तुम्हारी खबर लाते हैं प्रश्न। तुम्हारा प्रश्न तुम्हारा प्रश्न है। उसका ढांचा, उसका ढंग तुम दोगे।
निश्चित ही स्त्रियां अलग ढंग से पूछती हैं, पुरुष अलग ढंग से पूछते हैं। मेरे निरीक्षण में, पहली तो बात स्त्रियां पूछती नहीं--वह उनका ढंग है। मुश्किल से पूछती हैं। समझने की कोशिश करती हैं, पूछने की कम। पुरुष पूछने की कोशिश ज्यादा करते हैं, समझने की कम। चूंकि पूछते ज्यादा हैं, इसलिए ऐसा भ्रम पैदा होता है कि समझते ज्यादा होंगे। चूंकि स्त्री पूछती कम है, इसलिए ऐसा भ्रम पैदा होता है कि समझती ही न होगी--पूछती नहीं है? पर बात बिलकुल उलटी है।
मेरे पास पुरुष आते हैं, बड़े प्रश्नों का जाल लेकर आते हैं। अक्सर पुरुष मुझसे आकर कहते हैं, मैं उनसे पूछता हूं: पूछना है कुछ?
तो वे कहते हैं, बहुत पूछना है, कहां से शुरू करें? इतना पूछना है कि पूछें कैसे, कहां से पूछें, समझ में नहीं आता।
स्त्रियों से पूछता हूं: कुछ पूछना है? वे कहती हैं कि नहीं। कुछ भी नहीं पूछना है। पूछने को कुछ है ही नहीं; बस आपके पास बैठने को आ गए हैं, दर्शन को आए हैं।
पुरुष भी नहीं पूछ पाता कभी, तो कारण यह होता है कि इतने प्रश्न होते हैं कि उनकी भीड़ के कारण नहीं पूछ पाता। स्त्री भी नहीं पूछती, इसलिए नहीं कि भीड़ है, इसलिए कि पूछने को कुछ नहीं है।
पुरुष मेरे पास आकर बैठते हैं तो उनकी बुद्धि की भीड़ को मैं देख पाता हूं। उनके सिर में बड़े विचारों की तरंगें चल रही हैं। अगर उनका सिर खोला जाए तो एक पागलखाना निकल पड़ेगा, पागल भाग खड़े होंगे--सब तरफ छितर-बितर हो जाएंगे, जैसे भूत-प्रेत खोल दिए गए हों किसी बंद कारागृह से। वे सुनते भी हैं, तो सिर से सुनते हैं। उनसे कोई संबंध भी बनता है, तो सिर से बनता है। जब तक सिर उनका न काटा जाए, तब तक हृदय से कोई संबंध नहीं बनता।
स्त्रियां आती हैं तो उनके सिर में बहुत भनक नहीं होती। उनके हृदय में एक धड़कन होती है, एक पुलक होती है--भावाविष्ट, हार्दिक! सुनती कम हैं, पीती ज्यादा हैं। उनकी आंखें ज्यादा सक्रिय होती हैं। उनके विचार कम सक्रिय होते हैं।
ऐसा मुझे अनुभव आया कि पुरुष अगर मेरे प्रेम में पड़ जाते हैं, तो वे मुझे कहते हैं कि हमें आपके विचार प्रिय हैं, इसलिए आपसे प्रेम हो गया। स्त्रियां अगर मेरे प्रेम में पड़ जाती हैं, तो वे कहती हैं, हमें आपसे प्रेम हो गया, इसलिए आपके विचार भी प्रिय लगते हैं।
यह फर्क है; भारी फर्क है।
पुरुष कहते हैं कि हमें आपके विचार प्रिय लगते हैं, इसलिए आपसे प्रेम हो गया। विचार प्रथम हैं, प्रेम नंबर दो है। स्त्रियां कहती हैं, हमें आपसे प्रेम हो गया, इसलिए आपके विचार भी ठीक लगते हैं। प्रेम पहले है, विचार नंबर दो है।
दोनों का व्यक्तित्व अलग-अलग है, भिन्न-भिन्न है। इसलिए स्त्रियों ने कोई बड़े शास्त्र नहीं रचे, न कोई बड़े दर्शन को जन्म दिया। पुरुषों ने बड़े शास्त्र रचे, बड़े संप्रदाय रचे, बड़े दर्शनशास्त्र पैदा किए। लेकिन प्रतीति ऐसी है कि पुरुष के बजाय स्त्रियां ज्यादा सुख से जीयी हैं। इसको मनोवैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं अब।
इसे समझने की कोशिश करें।
पागलखानों में पुरुषों की संख्या ज्यादा है, स्त्रियों की बहुत कम। कारागृहों में पुरुषों की संख्या बहुत ज्यादा है, स्त्रियों की न के बराबर। मानसिक रोग पुरुषों को जितनी सरलता से पकड़ते हैं, स्त्रियों को नहीं। पुरुष जितनी आत्महत्याएं करते हैं, स्त्रियां नहीं--हालांकि स्त्रियां कहती बहुत हैं--करती नहीं। स्त्रियां अक्सर कहती रहती हैं--आत्महत्या कर लेंगे। कभी-कभी गोली भी खाती हैं, लेकिन गिनती की--सुबह ठीक हो जाती हैं। मरना नहीं चाहतीं। अगर मरने की बात भी करती हैं, तो वह भी जीवन की किसी गहन आकांक्षा के कारण--जीवन को जैसा चाहा था, वैसा नहीं है। इसलिए मरने को भी तैयार हो जाती है, लेकिन मरना चाहती नहीं। स्त्री जीवन से बड़ी गहरी बंधी है।
पुरुष जरा सी बात में मरने को तैयार हो जाता है। फिर जब पुरुष कुछ करता है तो पूरी सफलता से ही करता है, फिर वह मरता ही है। फिर वह ऐसा नहीं करता कि अधूरे उपाय करे, वह गणित उसका पूरा है, वैज्ञानिक है; वह मरने का सारा इंतजाम करके मरता है। स्त्री मरने की बात करे, बहुत ध्यान मत देना; कोई चिंता करने की बात नहीं। पुरुष मरने की बात करे, थोड़ा सोचना। अक्सर तो ऐसा होता है पुरुष मर जाएगा, मरने की बात न करेगा। स्त्री मरने की बात करती रहेगी, और जीती रहेगी।
स्त्रियों को शारीरिक बीमारियां भी पुरुषों से कम होती हैं, क्योंकि अगर मन थोड़ा शांत और स्वस्थ हो तो शरीर भी स्वस्थ और शांत होता है। स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा जीती हैं, पांच साल औसत ज्यादा। अगर पुरुष सत्तर साल जीएगा, तो स्त्रियां पचहत्तर साल जीएंगी। इसलिए मैं कहता हूं कि विवाह की व्यवस्था में हमें फर्क कर देना चाहिए। अभी हम कहते हैं कि लड़का तीन-चार साल बड़ा होना चाहिए लड़की से, यह बिलकुल ही उलटा है। लड़की बड़ी होनी चाहिए--चार-पांच साल बड़ी, लड़के से। दोनों करीब-करीब साथ-साथ मरेंगे, नहीं तो विधवाओं से पृथ्वी भर जाती है। तुम पाओगे, विधुर व्यक्ति कम पाओगे। विधवाएं ज्यादा पाओगे। जगह-जगह मंदिरों में बैठी हुई मिलेंगी तुम्हें। उसका कारण है कि वे पांच-सात साल ज्यादा जीने वाली हैं। उचित यह होगा कि लड़कियां पांच-सात साल बड़ी हों, तो मरने के वक्त दो-चार महीने के फासले पर दोनों विदा हो जाएंगे, ठीक होगा जीवन।
लेकिन पुरुष की अकड़ है। वह विवाह में भी उम्र ज्यादा रखना चाहता है, ताकि बड़ा मालूम पड़े। वह हर चीज में उसे बड़ा होना चाहिए, उम्र में भी बड़ा होना चाहिए, हालांकि बड़ा वह कभी हो नहीं पाता कितनी ही उम्र हो जाए। जब भी वह किसी स्त्री के प्रेम में पड़ता है, तो वह उसी स्त्री में मां को खोजने लगता है, बड़ा वह हो नहीं पाता। छोटी से छोटी बच्ची भी बड़ी होती है, क्योंकि छोटी बच्ची भी जो पहला खेल खेलती है वह मां बनने का खेलती है, इससे कम का उसका काम नहीं है। छोटे गुड्डों को सजाती है, बिठाती है, मां बनती है। छोटी से छोटी बच्ची मां है, और बूढ़े से ब़ूढा व्यक्ति भी बच्चा होता है--पुरुष बच्चा होता है।
लेकिन अकड़, अहंकार! तो बड़ा होना चाहिए हर बात में। स्त्री लंबी हो तो दूल्हे के मन को दुख लगता है, बड़ी बेचैनी मालूम पड़ती है, पुरुष स्त्री से लंबा ही होना चाहिए। हर चीज में उसे बड़ा होना चाहिए। कहीं हीनता की कोई ग्रंथि काम कर रही है पुरुष में। और मनोवैज्ञानिक कहते हैं, वह हीनता की ग्रंथि यह है कि स्त्री जीवन को जन्म देने में समर्थ है और पुरुष समर्थ नहीं है, यह हीनता की ग्रंथि है। इससे एक इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स है।
स्त्री बच्चे को पैदा कर सकती है, जीवन को जन्म दे सकती है। परमात्मा उसका सीधा उपयोग करता है, वह सीधी माध्यम है। पुरुष सांयोगिक मालूम होता है। पुरुष को विदा किया जा सकता है, एक इंजेक्शन भी पुरुष का काम कर देगा। उसकी कोई इतनी अनिवार्यता नहीं है। लेकिन मां को विदा नहीं किया जा सकता, क्योंकि मां भीतर से जन्माएगी--उसका खून, उसकी हड्डी-मांस-मज्जा नये जन्म को निर्मित करेगा--नये जीवन को गति देगा। स्त्रियां बड़ी तृप्त मालूम होती हैं, और जब वे मां बन जाती हैं तब तो बड़ी तृप्ति उनको घेर लेती है, क्योंकि एक अर्थ में वे परमात्मा का उपकरण बन गईं।
वैज्ञानिक चिंतक कहते हैं कि पुरुष इतनी दौड़-धूप करता है वह सिर्फ इसी बात की कमी पूरा करने के लिए। स्त्रियां चित्र नहीं बनातीं, मूर्ति नहीं बनातीं, कविता नहीं करतीं, कहानी नहीं लिखतीं, उपन्यास नहीं लिखतीं, नाटक-सिनेमा, चांद पर जाने की दौड़, हवाई जहाज का बनाना--कुछ नहीं करतीं; क्योंकि इतना बड़ा कृत्य परमात्मा ने उन्हें दिया है कि उससे पर्याप्त तृप्ति हो जाती है, करने का भाव पूरा हो जाता है। लेकिन पुरुष हजार चीजें बनाता है। वह यह कह रहा है कि कोई फिकर नहीं, अगर हम बच्चे को जन्म नहीं दे सकते, हम मूर्ति बनाएंगे, सृष्टा बनेंगे, कविता लिखेंगे। लेकिन कितनी ही कविता सुंदर हो, एक बच्चे की आंखों की कविता से तो बड़ी नहीं हो सकती। और कितनी ही मूर्ति संगमरमर की हो, एक जीवित बच्चे की प्रतिमा तो नहीं बन सकती। और तुम चाहे चांद पर पहुंच जाओ, चाहे मंगल पर पहुंच जाओ, तुम मातृत्व पर नहीं पहुंच पाओगे।
तो पुरुष के जीवन में तो तृप्ति तभी आती है, जब वह अपने को ही जन्म ले लेने देता है अपने भीतर से, जैसे बुद्ध, कृष्ण, महावीर। इसलिए हमने ज्ञानियों को द्विज कहा है, उन्होंने अपने को स्वयं जन्म दे दिया, दुबारा जन्म दे दिया। एक जन्म तो वह था जो मां-बाप से मिला, और एक उन्होंने स्वयं अपने ध्यान, अपनी समाधि से अपने को जन्म दिया--वे पुनरुज्जीवित हुए। कभी कोई बुद्ध ही तुम पाओगे कि स्त्री जैसा शांत हो जाता है। इसलिए बुद्ध की प्रतिभा में स्त्रैणता दिखाई पड़ेगी, वही गोलाई आ जाती है बुद्ध के जीवन में जो स्त्री के जीवन में है। वही तृप्ति, वही अहोभाव--एक परितोष।
निश्चित ही स्त्री-पुरुष के ढंग अलग हैं। और इन ढंगों को हम ठीक-ठीक पहचान लें तो बातें बड़ी सुगम हो जाती हैं, यात्रा सुगम हो जाती है; व्यर्थ के भटकाव, उलझाव बच जाते हैं।
स्त्री एक तो पूछती नहीं, और कभी अगर पूछती है, तो उसका पूछना सदा व्यावहारिक होता है--पारमार्थिक नहीं होता, मेटाफिजिकल नहीं होता।
इस संबंध में एक प्रश्न और है:
भगवान, कल आपके प्रवचन के बाद मैंने बहुतेरी संन्यासिनियों से सहजोबाई के संबंध में प्रश्न बनाने को कहा, पर उन सभी ने मुस्कुरा दिया। हां भी नहीं भरी। स्त्रियां मुक्त स्त्री के संबंध में भी जानने-पूछने को उत्सुक क्यों नहीं हैं?
जानने की, पूछने की उत्सुकता पुरुष की है। होने की, जीने की उत्सुकता स्त्री की है। छोटे-छोटे बच्चे भी...तुम फर्क कर सकते हो। लड़कियां अगर खेलती होंगी, तो उनके खेल का ढंग सृजनात्मक होगा, वे कुछ बनाएंगी। लड़कों के खेल का ढंग विध्वंसात्मक होगा, वे कुछ तोड़ेंगे। अगर लड़के को तुमने मोटर-खिलौना दे दिया है, वह जल्दी ही तोड़ कर उसके अंदर देखेगा, क्या है? जानने की उत्सुकता, जिज्ञासा कि भीतर क्या है? घड़ी हाथ लग गई, खोल डालेगा। तुम कहते हो सब नष्ट कर दी, लेकिन वह बेचारा वैज्ञानिक उत्सुकता कर रहा है। वह यह देख रहा है कि कैसे चलती है? चींटा चल रहा है, अंगूठे से मसल देगा। वह कोई हिंसा नहीं कर रहा है, उसको हिंसा से कोई प्रयोजन भी नहीं है अभी, चींटे ने कुछ बिगाड़ा भी नहीं है; वह यह देख रहा है कि भीतर कौन सी चीज है जो चला रही है?
पुरुष की उत्सुकता जानने की है। वह जानना चाहता है, हर जगह खोजना चाहता है, जहां-जहां पर्दे पड़े हों उठा कर देखना चाहता है कि मामला क्या है? स्त्री की वैसी उत्सुकता नहीं है। जानने की नहीं, जीने की है। बड़ी व्यावहारिक उत्सुकता है, जो बिलकुल जरूरी है जीवन के लिए, उतना ही पूछेगी।
स्त्रियां मेरे पास नहीं आतीं पूछने कि ईश्वर है या नहीं, स्वर्ग-नरक है या नहीं, सृष्टि को किसने बनाया? ये सब पुरुषों के प्रश्न हैं। स्त्री अगर कभी कुछ पूछती भी है, तो यही पूछती है कि मन में असंतोष है, संतोष कैसे हो; क्रोध आ जाता है, शांति कैसे हो; जीवन ऐसे ही व्यर्थ जा रहा है, इसमें सार्थकता कैसे आ जाए; प्रार्थना-पूजा कैसे हो? उसके प्रश्न व्यावहारिक हैं। और मैं मानता हूं कि व्यावहारिक होना लंबे अर्थों में ज्यादा होशियारीपूर्ण है, ज्यादा बुद्धिमत्तापूर्ण है। क्या करोगे जान कर कि किसने बनाया संसार को, किस दिन बनाया, कौन सी तारीख-दिन में बनाया, क्यों बनाया--क्या करोगे जान कर?
मैं कल रात एक यहूदी फकीर का जीवन पढ़ रहा था। एक आदमी, जब भी वह फकीर बोलता था, तो बार-बार खड़े हो-हो कर प्रश्न पूछता था। वह उससे ऊब गया था, परेशान हो गया था उस आदमी से। वह जिद्दी था, और प्रश्न ऐसे उलटे-सीधे पूछता था। फकीर ने एक दिन समझाया कि परमात्मा ने संसार बनाया। वह आदमी उठ कर खड़ा हो गया। उसने कहा: कब बनाया, और उसके पहले क्यों नहीं बनाया?
प्रश्न तो बिलकुल ठीक है।
फकीर इसके पहले कि कुछ बोले कि उस पूछने वाले ने कहा: और अगर उसका तुम्हें न पता हो कि पहले क्यों नहीं बनाया, तो यह हमें बताओ कि बनाने के बाद फिर क्या कर रहा है वह?
सभी प्रश्न संगत हैं। क्योंकि अगर समझ लो कि ईसाई जैसा कहते हैं कि चार हजार चार वर्ष पहले, सोमवार को बनाना शुरू किया, शनिवार को पूरा किया, रविवार को विश्राम किया; तो चार हजार चार वर्ष के पूर्व क्या करता रहा? खाली बैठा रहा? थका नहीं, पागल नहीं हुआ? कुछ तो करता ही रहा होगा? खाली भी आदमी बैठा रहता है तो कुछ भी करता है--अखबार पढ़ता है, रेडियो खोलता है। मगर वह भी नहीं था, वह करता क्या रहा?
खैर, उस आदमी ने कहा: वह भी तुम्हें पता न हो, क्योंकि बहुत पुरानी बात हो गई, उसके बाद क्या कर रहा है? छह दिन में दुनिया बन गई, सातवें दिन विश्राम किया, फिर...?
उस फकीर ने कहा कि अब वह तुम जैसे आदमियों के हिसाब लगाता रहता है कि कौन-कौन नालायकी के सवाल पूछ रहे हैं, और इनको क्या-क्या दंड दिया जाए?
एक तो व्यर्थ के प्रश्न हैं। वे कितने ही व्यर्थ के हों, लेकिन पुरुष को सार्थक लगते हैं। और एक सार्थक प्रश्न हैं; वे कितने ही क्षुद्र मालूम पड़ें, कितने ही छोटे मालूम पड़ें, लेकिन उनके भीतर बड़ी महिमा है। क्योंकि अंततः जिज्ञासा काफी नहीं है, मुमुक्षा चाहिए। जानने से कुछ न होगा, होने से कुछ होगा। जीवन रूपांतरित करना है, नया होना है, आलोकित होना है, बुझे दीये को जलाना है। इसलिए यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। एक ही सवाल महत्वपूर्ण है कि भीतर का बुझा दिया कैसे जले, आंख बंद है कैसे खुले, नींद गहरी है कैसे टूटे--कैसे मैं स्वयं के लिए प्रकाश बन जाऊं?
स्त्री-पुरुष के प्रश्नों में फर्क है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि पुरुष भी जब जीवन को सच में ही रूपांतरित करने में लगता है, तो उसके प्रश्न भी स्त्रियों जैसे व्यावहारिक हो जाते हैं।
और कुछ-कुछ स्त्रियां भी, कभी-कभी पुरुष की बीमारी से संक्रामित हो जाती हैं, और वे पुरुषों जैसे सवाल पूछने लगती हैं।
जोर मेरा है व्यावहारिक पर, जिससे तुम्हारा जीवन रूपांतरित होता हो, उसे पूछना, वही जिज्ञासा सार्थक है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, स्त्रियों को संघ में प्रवेश देने के कारण, भगवान बुद्ध का धर्म भारत में पांच हजार की जगह पांच सौ वर्ष ही चला। आप तो अपने संघ में स्त्रियों को मुक्तभाव से प्रवेश दे रहे हैं; क्या बताने की कृपा करेंगे कि आपका धर्म कितना दीर्घजीवी होगा?
भविष्य की चिंता अज्ञान का ही हिस्सा है। कल क्या होगा, इसकी फिकर कल करेगा। बुद्ध ने इसकी फिकर की होगी, ऐसी कहानी तो है, लेकिन कहानी कहां तक सच है, कहना मुश्किल है।
मैंने भी बहुत बार तुमसे कही है कि बुद्ध ने कहा कि अब मेरा धर्म पांच सौ वर्ष ही चलेगा, स्त्रियां सम्मिलित कर ली गई हैं। इसका एक ही अर्थ हो सकता है, इसका यह अर्थ तो हो ही नहीं सकता कि बुद्ध भविष्य की चिंता करते हैं। धर्म पांच सौ वर्ष चले कि पांच हजार वर्ष चले कि पचास हजार वर्ष चले, इससे बुद्ध को क्या प्रयोजन है?
तो प्रयोजन कुछ दूसरा ही रहा होगा।
वह प्रयोजन इतना ही है कि बुद्ध की जो जीवन-पद्धति है वह मूलतः पुरुष के लिए विकसित की गई थी। महावीर की भी जो जीवन-पद्धति है, वह भी मूलतः पुरुष के लिए विकसित की गई थी। वे दोनों मार्ग संकल्प के हैं, समर्पण के नहीं; तपश्चर्या के, प्रभु अनुकंपा के नहीं। परमात्मा की दोनों के मार्ग में कोई जगह नहीं है; प्रार्थना-पूजा का कोई उपाय नहीं है। ध्यान के हैं दोनों मार्ग। ध्यान का जो भी मार्ग है, वह स्त्री को मौजूं नहीं आ सकता। स्त्री के लिए प्रार्थना और प्रेम का मार्ग मौजूं आता है।
तो महावीर ने जो मार्ग, या बुद्ध ने जो मार्ग विकसित किया वह ध्यान का है। फिर अचानक, पीछे स्त्रियां भी उत्सुक हो गईं, और उन्होंने कहा, हमें भी दीक्षित करें। तो बुद्ध को चिंता पकड़ी होगी। वह चिंता इसकी नहीं है वस्तुतः कि कितने दिन धर्म चलेगा। अगर उन्होंने कहा भी होगा तो वह एक तथ्यगत वक्तव्य है, वह बुद्ध की चिंता नहीं है। लेकिन बुद्ध के सामने सवाल यह उठा कि जो मार्ग है वह तो ध्यान का है, अगर स्त्रियां उसमें समाविष्ट होती हैं तो दो ही उपाय हैं--या तो स्त्रियां मार्ग को बदल कर प्रार्थना का कर देंगी, और या फिर ध्यान का मार्ग स्त्रियों को बदल कर पुरुष जैसा करे। दूसरी बात करीब-करीब असंभव है, पहली ही बात संभव है।
स्त्रियां जब प्रविष्ट होंगी, तो वे ध्यान के मार्ग को भी प्रार्थना का मार्ग बना देंगी, और मार्ग प्रार्थना का नहीं है, तो विकृति आ जाएगी। इसलिए महावीर ने तो कह ही दिया कि स्त्री-पर्याय से मोक्ष हो ही नहीं सकता। उसका केवल इतना ही अर्थ है, क्योंकि यह तो हो ही नहीं सकता अर्थ कि महावीर कहते हैं कि स्त्री मुक्त हो ही नहीं सकती। यह तो बात बड़ी नासमझी की होगी। महावीर जैसे पुरुष से ऐसी नासमझी की संभावना नहीं है। और महावीर तो निरंतर कहते हैं--आत्मा न तो स्त्री है, न पुरुष। इसलिए पर्याय तो शरीर की है, शरीर से मोक्ष का क्या लेना-देना? पुरुष की पर्याय भी यहीं पड़ी रह जाएगी, स्त्री की पर्याय भी यहीं पड़ी रह जाएगी। यह तो ऐसा हुआ कि कोई कहे कि स्त्रियों के वस्त्रों से मोक्ष न होगा, पुरुष के वस्त्र पहनोगे तब मोक्ष होगा।
महावीर तो जानते हैं कि शरीर तो वस्त्रों से ज्यादा नहीं है, फिर उन्होंने ऐसा क्यों कहां? कहने का कारण है। महावीर का मार्ग भी ध्यान का मार्ग है। महावीर यह कह रहे हैं कि स्त्री-पर्याय से मेरे मार्ग का संबंध नहीं जुड़ेगा। तो अगर स्त्री को मेरे ही मार्ग से मुक्त होना हो, तो उसे पुरुष होकर ही मुक्त होना पड़ेगा, यह अर्थ है। वह पुरुष होगी तो ही मुक्त हो सकेगी।
ध्यान के मार्ग से स्त्री मुक्ति नहीं हो सकती, प्रेम के मार्ग से ही मुक्त हो सकती है, ध्यान से उसका तालमेल नहीं बैठता। हृदय जब उसका भरता है अहोभाव से, तभी वह पुलकित होती है और नाचती है, तभी उसके भीतर समाधि की दशा उतरती है। नृत्य और कीर्तन, और भजन, पूजा और अर्चन, उनसे ही उसका हृदय-कमल खिलता है।
तो महावीर और बुद्ध यह कह रहे हैं असल में--जब वे कह रहे हैं: मेरा धर्म, तब वे यही कह रहे हैं--ध्यान का मार्ग ऐसा है कि स्त्री उससे मुक्त न हो सकेगी, और स्त्री बड़ी घटना है, वह मार्ग को रूपांतरित कर लेगी।
ऐसा हुआ। आज तुम जाओ जैनों के मंदिरों में, तुम वहां जैनियों को महावीर की प्रार्थना-पूजा करते पाओगे। महावीर का पूजा-प्रार्थना से कोई भी संबंध नहीं है, और जैनी पूजा-प्रार्थना कर रहा है। स्त्रियों ने भटका दिया। स्त्रियों ने पूजा-प्रार्थना शुरू कर दी। वे तो महावीर को भी प्रेम ही करेंगी, प्रेम करेंगी तो महावीर के सामने नाचना चाहेंगी आरती लेकर। उन्होंने धीरे-धीरे मार्ग को भटका दिया, अब बड़ी कठिनाई है। अगर तुम कृष्ण के मंदिर में नाचो, तब तो ठीक है, क्योंकि नाचने से कृष्ण का तालमेल है। वह पद्धति नाचने की है। तुम जब महावीर के मंदिर में नाचो, तो गड़बड़ हो गई। यह तो ऐसे ही हुआ कि तुम कृष्ण के मंदिर में जाकर और तपश्चर्या करने लगो, वह पद्धति वहां की नहीं है। यह तो ऐसा हुआ कि तुमने एक फोर्ड कंपनी की कार खरीदी और रॉल्स रॉयस में उसके औजार लगाने लगे।
ध्यान की पद्धति बिलकुल अलग पद्धति है, प्रेम की पद्धति बिलकुल अलग। ये दो ही पद्धतियां हैं, दो ही मार्ग हैं। प्रेम की पद्धति पर जो सही है, वह ध्यान की पद्धति पर अड़चन होगा। ध्यान की पद्धति पर जो सही है, वह प्रेम के मार्ग पर बाधा बन जाएगी। मार्ग शुद्ध रहने चाहिए।
और तुम मुझसे पूछते हो। मेरा न तो ध्यान की पद्धति से कोई आग्रह है, न प्रेम की पद्धति से कोई आग्रह है। मेरा कोई मार्ग नहीं है। मेरे पास तो तुम जब आते हो, तो मैं तुम्हारी तरफ देखता हूं, तुम्हारा क्या मार्ग है वह तुम्हें बता देता हूं। तुम्हें मैं अपने मार्ग पर चलाने की कोशिश ही नहीं कर रहा हूं, वह मेरी चेष्टा नहीं है। मैं तुम्हें देखता हूं। तुम्हें देख कर ही तय करता हूं कि तुम्हारा क्या मार्ग होगा। मेरा किसी मार्ग से कोई लगाव नहीं--मेरा बिलकुल अनाग्रह है। इसलिए अगर कोई स्त्री आती है, तो उसे मैं प्रेम-प्रार्थना की तरफ लगा देता हूं। कभी कोई पुरुष भी आता है जो हृदय से भरपूर है, उसे भी प्रार्थना पर लगा देता हूं। कभी कोई स्त्री भी आती है जिसके भीतर प्रेम का अंकुरण नहीं हो सकेगा, तो उसे ध्यान पर लगा देता हूं।
फिर प्रार्थना के भी बहुत रूप हैं। इस्लाम की अपनी प्रार्थनाओं का ढंग है, हिंदुओं का अपना है। फिर ध्यान के भी अनंत रूप हैं। जैनों का अलग है, बौद्धों का अलग है, पतंजलि का अलग है, लाओत्सु का अलग है।
मैं तुम्हें देखता हूं।
इस बात को तुम ठीक से समझ लो।
दो रास्ते हैं। एक तो मेरा रास्ता हो, तो तुम कोई भी हो तुमसे कोई प्रयोजन नहीं, मेरे रास्ते पर चलना है तो मैं चुन कर लूंगा। मैं उन्हीं लोगों को लूंगा जो मेरे रास्ते पर चल सकते हैं, उनको नहीं लूंगा जो मेरे रास्ते को विकृत करते हों। उनको मैं कहूंगा, यह रास्ता तुम्हारे लिए नहीं है, तुम कोई और मंदिर खोजो।
बुद्ध में एक चुना हुआ रास्ता है बुद्ध का। महावीर का एक चुना हुआ रास्ता है। मेरा किसी रास्ते से कोई आग्रह नहीं है। मैं अपने रास्ते पर तुम्हें नहीं चला रहा हूं। तुम इसे ही मेरा रास्ता कह सकते हो कि मैं तुम्हें तुम्हारे रास्ते पर चलाना चाहता हूं। तुम्हें देखता हूं गौर से; तुम मुझे ज्यादा कीमती हो किसी भी मार्ग के मुबाकले। एक-एक व्यक्ति मेरे लिए मूल्यवान है।
तालमुद में यहूदियों का एक वचन है: कि ‘एक व्यक्ति भी सारी सृष्टि से ज्यादा मूल्यवान है।’ उसे मैं अंगीकार करता हूं। एक-एक व्यक्ति इतना बहुमूल्य है कि सारी सृष्टि एक पलड़े पर रख दो, और एक व्यक्ति को दूसरे पलड़े पर, तो एक व्यक्ति ज्यादा वजनी साबित होगा। इतनी गरिमा है व्यक्ति की।
मैं तुम्हें देखता हूं, तुम्हें क्या मौजूं आएगा वही तुमसे कहता हूं। इसलिए मुझे सब स्वीकार है। तुम नाच कर जाओ परमात्मा की तरफ, मेरी मंगलकामना तुम्हारे साथ है। तुम आंख बंद करके, ध्यानस्थ होकर जाओ, मेरी मंगलकामना तुम्हारे साथ है। तुम स्त्री की तरह जाओ, तुम पुरुष की तरह जाओ--ये सब तो जाने के ढंग हैं--पहुंचना तो एक ही मंजिल पर है।
परमात्मा तो एक है, उसके नाम अनेक हैं। सत्य तो एक है, पर उस तक पहुंचने की राहें बहुत हैं। मैं सभी राहों को स्वीकार करता हूं। और हर राह कारगर हो सकती है। इस पर निर्भर करता है कि तुमसे राह का तालमेल बैठता है या नहीं।
तो मेरी नजर तुम पर है। मैं दवाई की फिकर नहीं करता, मैं मरीज की फिकर करता हूं। मरीज के हिसाब से दवाई चुनता हूं। कुछ चिकित्सक हैं जो दवाई तय कर लिए हैं; वे कहते हैं, जिन मरीजों को जमती है वे ही यहां आएं, दूसरे मरीजों को कोई लाभ न होगा।
महावीर का एक संप्रदाय है; बुद्ध का एक संप्रदाय है; मेरा कोई संप्रदाय नहीं। मैं संप्रदाय-शून्य हूं।
महावीर का एक घाट है। वे तीर्थंकर हैं। उस घाट से वे नाव को उतारते हैं।
मेरा कोई घाट नहीं। नाव मेरे पास है, तुम जिस घाट से उतरना चाहो, और जिस घाट से लगना चाहो, वह नाव वहीं काम आ जाएगी--सारी गंगा मेरी है।
आज इतना ही।