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Bin Bati Bin Tel (बिन बाती बिन तेल) 04

Fourth Discourse from the series of 19 discourses - Bin Bati Bin Tel (बिन बाती बिन तेल) by Osho. These discourses were given during JUN 29 - JUL 09 1974.
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आज हम आप से एक सूफी कहानी का अर्थ समझना चाहते हैं।
एक मुरीद बहुत समय से एक फकीर के पीछे पड़ा था, ‘मुझे दुख से छुटकारे का गुर बताइए।
आखिर पीर ने उसे एक दिन कहा, ‘बहुत आसान उपाय है। जो आदमी कहे कि
मैं सबसे सुखी आदमी हूं, उसका अंगरखा मांगकर पहनना।’
फिर क्या था, वह शिष्य सुख की खोज में निकल पड़ा। और वर्षों-वर्षों की भटकन के बाद
एक फकीर को मिला, जो खजूर के नीचे मुंह पर अंगोछा डाले बैठा था।
पूछने पर फकीर ने कहा, ‘हां, मैं सब से सुखी आदमी हूं।’
लेकिन जब अंगरखे की मांग हुई तब उसने हंसकर कहा,
‘देखो तो बेटा, मेरे बदन पर अंगरखा कहां?’
यह कहकर उसने अपने मुंह से अंगोछा हटा लिया।
युवक ने देखा कि यह तो वही पीर था, जिसने सुख का गुर बताया था।
और यह कि उसका शरीर नंगा था।
शायद हर आदमी की तलाश यही है। और कोई दूसरी तलाश हो भी नहीं सकती। इसे हम महासुख का राज जान लें। दुखी हैं हम, और सुख की खोज कर रहे हैं। अगर इस युवक ने किसी सूफी फकीर को पूछा, तो यह पूरे मनुष्य की ही अंतर-आकांक्षा है।
लेकिन पूछना आसान है, जवाब उतना आसान नहीं; क्योंकि जवाब तो तभी दिया जा सकता है, जब पूछनेवाला तैयार हो। तुम पूछ लेते हो इतना काफी नहीं है उत्तर पाने के लिये; उत्तर देनेवाले को देखना पड़ेगा कि तुम उत्तर के लिये तैयार भी हो या नहीं? प्रश्न तो कोई भी पूछ लेता है, उत्तर को झेलने की क्षमता थोड़े से ही लोगों में होती है।
इसलिये सूफी फकीर ने पहला काम तो यह किया कि इस युवक को खोज पर भेजा, कि जा और उस आदमी की तलाश कर, जो परम सुखी हो; जो कहे कि मैं परम सुखी हूं। उससे तू उसका अंगरखा मांग लेना। अंगरखा पहनते ही तू भी सुखी हो जायेगा।
सूफी फकीर समय चाहता है। युवक तैयार नहीं है। उत्तर तो अभी दिया जा सकता है। उत्तर तो फकीर के पास है, लेकिन ग्राहक वहां मौजूद नहीं है। अभी जिज्ञासा, मुमुक्षा नहीं है। यह भेद समझ लेना चाहिए।
एक तो जिज्ञासा होती है कुतूहलवश--जैसा छोटे बच्चे पूछते हैं, यह झाड़ लंबा क्यों है? यह झाड़ हरा क्यों है? ये फूल पीले क्यों हैं? तुम दो मिनट दूसरी बातें करो, वे भूल जाते हैं; फिर वे दुबारा नहीं पूछते। फिर शायद जिंदगी भर दुबारा न पूछें। पूछने में कोई प्राण नहीं है, सिर्फ मन का कुतूहल था। अगर मन के कुतूहल ने ही प्रश्न उठाया हो तो गहरे उत्तर नहीं दिये जा सकते।
इसलिये एक तो जिज्ञासा है, जो केवल मन की है; और एक ऐसी जिज्ञासा है, जो प्राणों की है। उस जिज्ञासा का नाम मुमुक्षा है। प्राणों की जिज्ञासा का अर्थ यह है कि सवाल मेरे जीवन और मृत्यु का है। जो मैं पूछ रहा हूं, उस पर बहुत कुछ निर्भर है; मेरा बचना या मेरा मिटना। अगर जिज्ञासा सिर्फ बौद्धिक है तो तुम दर्शनशास्त्र में भटक जाओगे। और दर्शनशास्त्र से बड़ा जंगल खोजना कठिन है। वहां सिद्धांतों की अनंत शृंखला है। अगर तुमने जिज्ञासा मात्र की, तो तुम शास्त्रों में खो जाओगे। वहां उत्तर हैं, फिर भी वहां उत्तर नहीं हैं। तुम्हारी जिज्ञासा अगर मुमुक्षा है तो तुम शास्त्रों से बच सकोगे। और तो ही तुम सदगुरु को खोज पाओगे।
धर्म, मुमुक्षा से पैदा होता है; फिलासफी जिज्ञासा से।
सूफी फकीर ने कहा कि खोज उस आदमी को, जो कहे कि मैं परम सुखी हूं। उसका अंगरखा मांग लेना। सूफी फकीर जानना चाहता है कि क्या कुछ वर्षों तक यह जिज्ञासा टिकेगी? तुम्हारा तो प्रेम भी नहीं टिकता, जिज्ञासा तो बहुत दूर है टिकने की बात।
एक युवक, जो कि एक सैन्य-टुकड़ी में नया-नया भर्ती हुआ था, अपने सेनापति से जाकर बोला कि मुझे छुट्टी चाहिए। मैं बड़े प्रेम में पड़ गया हूं, और जल्दी ही एक दो सप्ताह के भीतर शादी करके वापस लौट आऊंगा। और यह जीवन-मरण का सवाल है, इसमें आप बाधा मत डालना। वह सेनापति मुस्कुराया और उसने कहा कि ऐसा करो कि अगर सच में ही यह प्रेम है तो एक वर्ष रुक जाओ। अगर एक वर्ष बाद फिर भी तुमने कहा कि शादी करनी है तो मैं तुम्हें छुट्टी दे दूंगा। और तब योग्य होगा। जल्दी मत करो। मैं अनुभव से कहता हूं। यह प्रेम मौसमी फूलों की तरह हैं, खो जाते हैं।
युवक मानकर रुक गया। साल भर बाद उसने फिर दफ्तर पर आकर दस्तक दी। उसने कहा कि छुट्टी चाहिए। साल पूरा हो गया। सेनापति थोड़ा विचार में पड़ा। उसने कहा, क्या तुम अब भी प्रेम में हो? उसने कहा, अब भी! लेकिन स्त्री दूसरी है। और अब देर मत करें क्योंकि मैं भी अब अनुभवी हो गया। अगर देर की तो अगले साल फिर स्त्री तीसरी होगी। और ऐसे तो जिंदगी निकल जायेगी। विवाह कब होगा?
तुम्हारा तो प्रेम भी बदल जाता है।
फकीर चाहता था जानना, कि इसकी जिज्ञासा बदलती है या नहीं? जिज्ञासा अगर न बदले तो मुमुक्षा है। जिज्ञासा अगर बदल जाये तो कुतूहल है, ‘क्यूरियॉसिटी’ है। अगर जीवन-मृत्यु का सवाल है तो जब तक मुक्ति न मिल जाये तब तक कैसे जिज्ञासा बदलेगी? बढ़ेगी गहरी होगी। मोक्ष की खोज को हमने मुमुक्षा कहा है, मुक्ति की खोज को हमने मुमुक्षा कहा है।
सत्य से भी बड़ी खोज मुक्ति की खोज है।
क्योंकि सत्य का खोजी तो हो सकता है शब्दों में भटक जाये, लेकिन मुक्ति का खोजी शब्दों में नहीं भटक सकता। उसके पास कसौटी है। वह हर सत्य को परखेगा क्योंकि सत्य वही है, जो तुम्हें मुक्त करे; और मुक्ति कसौटी है। जो सत्य तुम्हें बांध ले और गुलाम बना ले, वह सत्य नहीं है, संप्रदाय है।
जिज्ञासु तो किसी संप्रदाय में बंध जायेगा। खोज में निकला था सत्य की, आखिर में हथकड़ियां हाथ लगती हैं। लेकिन अगर मुमुक्षा हो तो तब तक समाप्त न होगी, जब तक कि मुक्ति न मिल जाये। अगर प्यास असली है तो जितनी देर तुम प्यासे रहोगे, उतनी बढ़ेगी। अगर भूख असली है तो जितने तुम भूखे रहोगे, उतनी गहरी होगी।
लेकिन तुम्हारी जिज्ञासा तुम्हारी भूख जैसी है। एक बजे रोज भोजन करते हो तो एक बजे घड़ी में देखकर भूख लगती है। अगर घड़ी ग्यारह बजे बंद हो गई हो तो एक बज जाता है, भूख नहीं लगती। अगर घड़ी को किसी ने बदल दिया हो और ग्यारह बजे एक बज जाये तो ग्यारह बजे भूख लग जाती है। और तुम्हें भूख लगती है, अगर पंद्रह मिनट तुम किसी दूसरे काम में लगे रहो तो भूख खो जाती है।
तुम्हारी भूख सिर्फ एक मन की आदत है। उसकी जड़ें शरीर की गहराई में नहीं हैं। वह तुम्हारी जठराग्नि से नहीं उठ रही है। वह तुम्हारे विचार से उठ रही है कि बस एक बज गया, भूख का समय हो गया, अब भोजन करना जरूरी है। और बिना भूख के तुम जो भोजन भरते चले जाते हो; उसमें स्वाद नहीं हो सकता। क्योंकि स्वाद तो भूख में है, भोजन में नहीं है। इसलिये राजमहल में चाहे स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन हों, स्वाद नहीं होता। स्वाद तो भिखारी लेता है। उसके पास रूखी रोटी हो, रूखी रोटी से कोई संबंध ही नहीं है; कितनी गहरी भूख है, उतना ही गहरा स्वाद होता है।
कितनी गहरी मुमुक्षा है, उतने ही गहरे सत्य की उपलब्धि होती है।
इस सूफी फकीर के पास सत्य तो अभी था, इसी क्षण दे सकता था, लेकिन लेने वाला मौजूद नहीं था। और लेने वाले की परीक्षा करनी जरूरी थी। समय बीतना चाहिये। समय के साथ ही जिज्ञासा पकती है और मुमुक्षा बनती है। और बीच में ही अगर आदमी बदल जाये तो फकीर व्यर्थ श्रम से बच गया। समय गुजारना जरूरी था।
फकीर ने कहा, ‘तू जा और खोज। ऐसे लोग देख, जिन्होंने परम सुख को पा लिया है। और तुझे कुछ ज्यादा नहीं करना है, उनका अंगरखा पहन लेना है।’
यह भी थोड़े समझने जैसी बात है कि क्या जिस व्यक्ति ने परम सुख को पा लिया है, उसका अंगरखा पहनने से तुम सुखी हो जाओगे?
अंगरखा पहनना सूफियों का प्रतीकात्मक ढंग है। अंगरखा पहनने का मतलब है, जब कोई व्यक्ति किसी सुखी व्यक्ति को पा जाता है, तो गुरु को पा जाता है, तो गुरु को ओढ़ ले। गुरु छा जाये सब तरफ से--अंगरखा पहनने का अर्थ है। रत्ती भी गुरु से खाली न रहे। रोआं भी गुरु से अनढंका न रहे। गुरु तुम्हारा आकाश हो जाये, अंगरखा हो जाये; वह तुम्हें घेर ले। तुम कहीं से खुले न रह जाओ। कहीं से अनढंके न रह जाओ, कहीं से नग्न न रह जाओ। सब तरफ से गुरु तुम्हें घेर ले। तुम्हारे मन में जरा सी भी जगह न रह जाये, जो गुरु से खाली हो।
सदगुरु को ओढ़ने का अर्थ है, अंगरखा ओढ़ लेना।
तो जब तुम्हें कोई सुखी आदमी मिल जाये, देर मत करना, उसे ओढ़ लेना। क्योंकि उसे ओढ़ते ही तुम बदलना शुरू हो जाओगे।
लेकिन ओढ़ने में बड़ी कठिनाई है। तुम्हें मिटना पड़ेगा। अंगरखा बड़ा महंगा है। सस्ता होता तो बाजार से खरीद लेते। अंगरखा बड़ा महंगा है क्योंकि गुरु को ओढ़ने से ज्यादा कठिन इस पृथ्वी पर और कोई बात नहीं। मरना भी आसान है। कम से कम तुम तो रहते हो! गुरु को ओढ़ने का अर्थ है: तुम बिलकल बुझ गये; तुमने अपनी लकीर मिटा दी। अब गुरु है, तुम नहीं हो। तुम छाया की तरह हो।
किसी की छाया की तरह होकर जीना शिष्यत्व है।
लेकिन किसी की छाया की तरह होकर जीना अति दुर्लभ, अति कठिन है। क्योंकि अहंकार इनकार करेगा। अहंकार मना करेगा। अहंकार पच्चीस तरकीबें और तर्क खोजेगा। अहंकार पहले तो यह कहेगा कि यह आदमी कहता है कि सुख को पा लिया, लेकिन पाया कि नहीं? क्या भरोसा, झूठ बोलता हो! क्या भरोसा, सिर्फ अंगरखा बेचने का रास्ता खोज रहा हो! क्या भरोसा, धोखा!
तो पहले तो मन खोजेगा कि कोई तरकीब मिल जाये जिससे सिद्ध हो जाये, कि यह आदमी परम सुखी नहीं है। तो झंझट मिटी; तो तुम अंगरखा ओढ़ने से बचे।
तो शिष्य पहले तो यह कोशिश करता है कि गुरु गुरु नहीं है। यह बचने का सुगम उपाय है। जैसे ही मन को साफ हो जाता है कि गुरु गुरु नहीं है, तुम छूट गये। तुम्हारा अहंकार जी सकता है। इसलिए जिस गुरु के पास तुम्हारे अहंकार को तृप्त करने की व्यवस्था हो, थोड़े सचेत होना; क्योंकि तर्क तुम्हें ही पता नहीं है, दूसरी तरफ भी ज्ञात है। और आचरण को सुनियोजित कर लेना बड़ी सरल बात है। जो गुरु तुम्हारे तर्क के बाहर पड़ता हो, शायद वहां कोई क्रांति की संभावना है।
गुरजिएफ के पास लोग आते तो गुरजिएफ बड़ा ही अभद्र आचरण करता था। कभी-कभी विक्षिप्त आचरण करता था। पुराने शिष्य बड़े परेशान हो जाते थे कि जब भी नये लोग आते हैं तो तुम ऐसा व्यवहार करके उनको दूर क्यों हटा देते हो? गुरजिएफ कहता, मैं अपना समय नष्ट नहीं करना चाहता। जो मेरे किसी गलत व्यवहार के कारण दूर हट जाता है, वह आज नहीं कल मेरे व्यवहार में गलती खोजकर हटेगा ही। उससे मैं जल्दी छुटकारा चाहता हूं। जिसका धीरज इतना नहीं है कि थोड़ा रुके, जो इतनी जल्दी निर्णय लेता है...
गुरु के संबंध में जल्दी तो निर्णय नहीं लिया जा सकता है। यह कोई सोना नहीं है कि कसौटी पर तुमने कसा और परख लिया। और जितना गहरा गुरु होगा, उतनी ही कठिनाई होगी। उतनी ही जांच-परख मुश्किल होगी। क्योंकि जांच-परख तो उसकी हो सकती है, जो सतह पर जीता हो। जितना गहरा जीवन होगा, तुम्हारी कसौटी के पत्थर वहां नहीं पहुंच पायेंगे। तुम्हारा हृदय वहां पहुंच सकता है। जिस दिन तुम अपने हृदय को ही कसौटी का पत्थर बनाओगे उस दिन तुम पहचान लोगे।
लेकिन कुछ लोग रुक जाते थे। कुछ लोग गुरजिएफ के इस व्यवहार को देखकर भी रुक जाते थे; प्रतीक्षा करते। जो प्रतीक्षा करने को राजी होता, गुरजिएफ का व्यवहार उससे बदल जाता। धीरे-धीरे गुरजिएफ का जो अपना व्यवहार था, वह प्रगट होता।
यह बड़े मजे की बात है। जो गुरु तुम्हें धोखा देना चाहता है, उसका व्यवहार तुम पहले बहुत भला पाओगे। जैसे-जैसे तुम करीब जाओगे, वैसे-वैसे व्यवहार वास्तविक होगा; उतनी ही तुम मुश्किल में पड़ोगे। जितना छोटा आदमी होगा, दूर से देखोगे, बड़ा मालूम होगा; पास आओगे, छोटा होता जायेगा। जितने निकट आओगे, उतना ही छोटा हो जाएगा। जितना बड़ा आदमी होगा, जितने दूर से तुम देखोगे उतना छोटा मालूम होगा। इसलिये मैं कहता हूं, यह बात गणित के बाहर है। जैसे-जैसे तुम करीब आओगे, आदमी बड़ा होता जायेगा। तुम जिस दिन हृदय के बिलकुल करीब पहुंचोगे, तुम्हारा गुरु परमात्मा हो जायेगा, उससे छोटा नहीं। और अगर ऐसा होता हो तो ही जानना कि तुम ठीक दिशा में जा रहे हो। कि तुम जितने गुरु के निकट आते हो, उतना वह बड़ा होने लगे, विराट होने लगे। तुम्हारे पास आने से छोटा हो तो साधारण आदमी है। पास आने से तो सभी छोटे हो जाते हैं; इसलिये राजनीतिज्ञ, जिसको कि बड़ा दिखने की आकांक्षा है, वह किसी को पास नहीं आने देता, वह दूर रखता है। तुम जितने दूर रहो, उतना ही वह बड़ा मालूम पड़ता है। तुम बड़े से बड़े राजनीतिज्ञ के पास चले जाओ, तुम पाओगे वहां छोटा आदमी खड़ा है।
रिचर्ड निक्सन की जो निजी वार्ताएं प्रकाशित हो रही हैं, वे घबड़ाने वाली हैं। क्योंकि वह भी उन शब्दों का प्रयोग करता है, जो अत्यंत तुच्छ लोग प्रयोग करें। क्षुद्र गालियों का उपयोग करता है अपनी निजी वार्ताओं में। दूसरों को छोटा करने, मिटाने की सब आयोजनाएं करता है। यह बड़ी क्षुद्र बात है, जो कि अमरीका के राष्ट्रपति से जिनकी आशा नहीं की जा सकती।
लेकिन तुम यह मत सोचना कि यह निक्सन की गड़बड़ है। यह सभी राष्ट्रपतियों के साथ यही है। बस इतना है कि निक्सन फंस गया है और चीजें जाहिर हो गई हैं। तुम्हारे सभी राजनीतिज्ञों की अंतर्वार्ताएं पकड़ ली जायें, वे सभी इसी उलझन में पाये जायेंगे। ये छोटे लोग हैं। तो फासला रखना पड़ता है। एक चेहरा है राजनीतिज्ञ का, जो बाजार में दिखाई पड़ता है। एक चेहरा उसका निजी है, जो उसके अंतरंग लोग जानते हैं; जो निकट हैं वे जानते हैं।
सदगुरु के पास तुम जाओगे तो पहले तो तुम उसे पहचान न सकोगे; वह बेबूझ मालूम पड़ेगा। जल्दी मत करना। तुम रुकोगे, करीब आओगे, करीब आने का तुम्हें मौका मिलेगा तो ही उसकी सही प्रतिमा प्रगट होगी। बहुत करीब रहकर जब तुम अर्जित कर लोगे योग्यता, तभी उसका यथार्थ स्वरूप तुम्हारे सामने आयेगा। और यह सस्ता सौदा नहीं है; इसलिये सदगुरु जल्दी में नहीं है।
अंगरखा ओढ़ने का अर्थ है: जिस दिन गुरु इतना महत्वपूर्ण हो जायेगा कि तुम अपने को भी खोकर गुरु जैसा होने की आकांक्षा करोगे, उस दिन तुमने अंगरखा ओढ़ लिया।
सूफी फकीर जब अपने शिष्य को उत्तराधिकारी चुनते हैं तो अपना अंगरखा देते हैं। वह प्रतीक है। जिस दिन अंगरखा दिया गुरु ने, उसी दिन शिष्य मिट गया। अब गुरु ही रहेगा। शिष्य जब बिलकुल मिट जाता है, तभी अंगरखा दिया जाता है।
तो फकीर ने ठीक कहा है कि जिस दिन तुम्हें कोई परम सुखी व्यक्ति मिल जाये, उसका अंगरखा ले लेना। लेकिन यह फकीर बड़ी उलझन में डाल रहा है इस युवक को। उलझन यह है, कि एक तो खोजना परम सुखी व्यक्ति को।
यह युवक निश्चित ही राजमहलों में गया होगा पहले, क्योंकि हम सभी को खयाल है, वहां सुखी लोग हैं। निश्चित ही इसने धनपतियों के दरवाजे पर दस्तक दी होगी, राजनेताओं से मिला होगा, अभिनेताओं का पीछा किया होगा। कहानी यह कुछ कहती नहीं, लेकिन यह जरूर किया होगा, क्योंकि तुम सुखी आदमी को कहां खोजोगे? सुखी आदमी को तुम महल में ही खोजोगे, झोपड़े में खोजने तो नहीं जाओगे।
इसने धनपतियों से कहा होगा कि तुम्हारा अंगरखा दे दो, तुम बहुत सुखी हो। उन धनपतियों ने निश्चित कहा होगा कि अंगरखा एक नहीं, चार ले जाओ; लेकिन ये अंगरखे काम न करेंगे क्योंकि हम खुद ही सुखी नहीं हैं। हम खुद दुख में हैं। हम खुद खोज रहे हैं। अगर तुम किसी दिन खोज लो, हमें भी खबर करना। हम थक गये हैं और हम दुख के लिये राजी हो गये हैं। तुम अभी जवान हो, अभी तुम्हारी खोज जारी है। अगर किसी दिन तुम्हें पता चल जाये कोई आदमी, जिसका अंगरखा पहनने से सुख मिलता हो, तो हम उस अंगरखे को सब कुछ देकर खरीद लेंगे। सम्राटों के महल में जाकर इसने पूछा होगा, उन्होंने कहा होगा, अंगरखा क्या, हम पूरा साम्राज्य देने को राजी हैं, लेकिन यह काम न करेगा क्योंकि हम खुद ही दुखी हैं।
युवक बहुत भटका होगा। अनेक वर्षों के बाद पूछते...पूछते...पूछते...लेकिन उसने पूछना जारी रखा; वह रुका नहीं। उसकी खोज बंद न हुई। उसकी जिज्ञासा मुमुक्षा बनती गई। उसकी खोज और भी तड़प-भरी हो गई। उसकी खोज में और त्वरा आ गई, तेजी आ गई। जैसे-जैसे उम्र ढलने लगी, जैसे-जैसे समय बीतने लगा, वैसे-वैसे उसकी खोज और भी तीव्र होती गई, क्योंकि समय कम है और किसी भी क्षण उम्र खो सकती है। और सुख अभी तक पाया नहीं गया।
आश्चर्य की बात है कि इतने लोग जमीन पर बिना सुख पाये कैसे जी लेते हैं! फिर भी उनके जीवन में खोज पैदा नहीं होती। यह चमत्कार है। किसलिये जी रहे हो? और अगर जीवन रोज हाथ से निकलता जा रहा है--जो कि निकलता जा रहा है; रोज जीवन कम होता जा रहा है, प्रतिपल तुम्हारी मौत करीब आ रही है। तो तुम कब की प्रतीक्षा कर रहे हो? कब तुम्हारी खोज शुरू होगी? तुम्हें कुछ भी नहीं मिला है लेकिन तुम समय को खोये जा रहे हो।
पर इस युवक की खोज बढ़ती गई और जब इसने महलों में तलाश की और वहां न पाया; धनपतियों से पूछा और अंगरखा न मिल सका। अंगरखे तो वहां बहुत थे। जहां अंगरखे बहुत होते हैं, वहां आदमी तो होते ही नहीं। बहुत महल हैं, जहां वस्त्र ही वस्त्र इकट्ठे हो गये हैं और आत्मा बिलकुल खो गई है। आदमी वस्तुओं को इकट्ठा करने में पड़ता ही इसलिये है कि सोचता है, शायद वस्तुओं के ज्यादा हो जाने से सुख मिल जाये। जैसे सुख कुछ वस्तुओं के संग्रह में, परिग्रह में हो! जैसे एक वस्तु मेरे पास है तो थोड़ा सुख, दो तो ज्यादा, तीन...अनंत और वस्तुएं मेरे पास हैं तो अनंत सुख होगा।
यह गणित बड़ा अजीब है, लेकिन हम सब इसी गणित में जीते हैं। और हम इस गणित में कभी झांकते भी नहीं कि यह कितना झूठा है! तुम्हारे पास अगर एक कार है और सुख नहीं मिला तो चार कार होने से कैसे सुख मिल जायेगा? थोड़ा-बहुत मिलता तो चार कार होने से चौगुना हो जाता। लेकिन मन बड़ा अदभुत है और तुम उसका धोखा माने चले जाते हो। जब तुम्हारे पास एक भी कार नहीं थी, तब वह कहता था, एक कार हो जाए तो सुखी हो जाऊंगा। अब वह कहता है, दो कार हो जायें, चार कार हो जायें तो सुखी हो जाऊंगा। जब तुम्हारी तिजोरी में कुछ भी न था, तब वह कहता था, तिजोरी भर जाये तो सुखी हो जाना। अब वह कहता है इतनी छोटी तिजोरी में कहीं सुख हो सकता है! बड़ी तिजोरी चाहिये।
तुम इस गणित को कभी फैलाकर भी नहीं देखते कि यह कब रुकेगा गणित? तुम्हारा जीवन समाप्त हो जायेगा, यह गणित रुकेगा नहीं। यह तो क्षितिज की भांति रोज दूर होती जाती है बात। यह तो इंद्रधनुष की भांति है कि तुम पास पहुंचते हो तो खो जाता है, फिर दूर दिखाई पड़ने लगता है। फिर यात्रा शुरू हो जाती है। वासना कभी भी पूरी नहीं होती, सदा दुष्पूर है।
उसने सब महल खटखटाकर देख लिया होगा। तब इसकी आंख खुली और इसने सोचा कि आधा जीवन तो मैंने व्यर्थ ही गंवाया। मैं गलत जगह पूछ रहा था, गलत लोगों से पूछ रहा था।
तब इसने फकीरों के पास फिर से जाना शुरू कर दिया होगा। और तब एक संध्या, जब सूरज ढल गया होगा और थोड़ा अंधेरा उतर आया है, इसे एक आदमी नदी के किनारे बैठा हुआ मिला चट्टान पर। वह एक बांसुरी बजा रहा था...जो इस कहानी में नहीं है। लेकिन मुझे पक्का पता है, वह बांसुरी बजा रहा था। और उसकी बांसुरी में ऐसी धुन थी कि इस आदमी को लगा, हो न हो, इस आदमी को सुख मिल गया है। सुख की एक धुन, एक बांसुरी है, जो बिना बजाये भी बजती रहती है।
जब तुम सुखी आदमी के पास पहुंचोगे तो पूछने की जरूरत न पड़ेगी, क्या तुम सुखी हो? यह तो हम पूछते ही उससे है, जो दुखी है। यह प्रश्न ही संदेह से भरा है। जब तुम सुखी आदमी के पास पहुंचते हो तो तुम्हें उसकी सुगंध मिल जाती है। तुम्हारे नासापुट उसकी सुगंध से भर जाते हैं। तुम्हारा रोआं-रोआं उसके नृत्य को अनुभव करने लगता है। उसकी ध्वनि, उसके होने की ध्वनि ओंकार है। उसके होने की ध्वनि तुम्हें भर देती है, आपूरित कर देती है। अचानक तुम पाते हो कि तुम किसी के पास हो, जो कि एक ‘मैगनेट’ की तरह है। तुम खिंचे जा रहे हो। सुख खींचता है। और जब कोई महासुखी व्यक्ति पास होता है तो तुम एक पतंगे की तरह हो जाते हो, जो उसके दीये का चक्कर लगाने लगती है।
सुनी इस संध्या उसने बांसुरी की आवाज! सोचा, निश्चित ही वह आदमी अब मिल गया है, जिससे सुख का राज पता चल जायेगा। क्योंकि इतना मधुर संगीत जब तक हृदय सुख से न भरा हो, कैसे पैदा होगा? यह बांसुरी कोई साधारण बांसुरी न थी। वह बैठ गया इस आदमी के चरणों में। बांसुरी रुके तो पूछ ले। यह आदमी ठीक है; अंगरखा मिलने का समय आ गया।
बांसुरी बंद हुई, सन्नाटा टूटा, उस युवक ने पूछा कि मैं सोचता हूं कि तुम्हें सुख मिल गया है, तुमने सुख का राज़ जान लिया है। मना मत करना क्योंकि मैं बिलकुल पहचान गया हूं। ये सुर उठ ही नहीं सकते, यह मैंने सारी दुनिया खोजकर देख लिया है। ये सुर अनूठे हैं और अज्ञात के हैं। यह बांसुरी कहीं से बज रही है, जो स्रोत बहुत गहरे में है। तुम मुझे धोखा मत देना, मैं बड़ा भटक रहा हूं।
उस आदमी ने कहा कि निश्चित महासुख मुझे मिल गया है। उस युवक ने पैर पकड़ लिये और कहा होगा, दे दो अंगरखा तुम्हारा। तुम्हारा अंगरखा मैं पहन लूं।
वह आदमी हंसने लगा। उस आदमी ने कहा कि सुख तो मुझे मिल गया है, लेकिन अंगरखा तुम मुझसे मत मांगो क्योंकि देखो, मैं नंगा बैठा हूं।
अंधेरा घना हो गया था और वह अपने चेहरे को छिपाये है एक अंगोछे में। ये सभी प्रतीक बड़े अर्थपूर्ण हैं। जिसको भी महासुख मिल जाता है, उसका चेहरा छिप जाता है।
चेहरा तो हमारे दुख को छिपाने की तरकीब है। चेहरा हमारा अंगोछा है, जिससे हम दुख को छिपा रहे हैं। तुम्हारे भीतर कितना ही दुख हो, लेकिन सुबह तुम जल्दी ही दाढ़ी-मूंछ बनाकर, रंग-रोगन करके, इत्र-फुलैल लगाकर बाहर निकल पड़ते हो। तुम्हारे चेहरे से ऐसा लगता है, बड़े सुखी हो। सुगंध तुमसे नहीं आती, इत्र से आती है। चेहरे पर जो चमक मालूम होती है, वह तुम्हारी नहीं है। वह सुबह-सुबह दाढ़ी बना लेने की वजह से मालूम पड़ रही है। वह जो आंखों में ताजगी दिखाई पड़ती है, वह भी कृत्रिम है, वह भी झूठी है। वह भी अभ्यास से अर्जित है।
हम चेहरों में जीते हैं। चेहरे हमारे अंगोछे हैं, जिनमें हम अपने दुख को छिपाते हैं।
लेकिन जिस व्यक्ति को महासुख मिल गया हो, उसका चेहरा खो जाता है। वह फेसलेस हो जाता है। इस चेहरे की उसे जरूरत ही नहीं रहती। यह चेहरा तो एक धोखा था, जो हमने दूसरों के लिये ओढ़ रखा था। यह चेहरा हमारा था नहीं। यह ओरिजिनल फेस नहीं है, यह तुम्हारा मूल चेहरा नहीं है।
झेन फकीर अपने साधकों को कहते हैं कि जब तक तुम्हें अपना मूल चेहरा न दिखाई पड़ जाये, तब तक खोज जारी रखना।
‘मूल चेहरा क्या है?’ एक शिष्य ने अपने गुरु को पूछा।
उसने कहा, जब तुम पैदा नहीं हुए थे, तब तुम्हारा जो चेहरा था, वही तुम्हारा मूल चेहरा है। या जब तुम मर जाओगे, और लोग तुम्हारे शरीर को जलाकर राख कर देंगे, फिर भी तुम्हारा जो चेहरा बचेगा, वही मूल चेहरा है। बीच में सब झूठ है। बीच में बहुत-बहुत तरह के चेहरे हैं, लेकिन वे मुखौटे हैं; वे ओढ़े हुए हैं। और एक चेहरा भी नहीं है तुम्हारे पास, अनेक चेहरे हैं क्योंकि जरूरत बहुत तरह की है। और जरूरत बदलती है तो चेहरा बदलना पड़ता है।
तुर्गनेव की एक छोटी-सी कहानी है। दो पुलिस के आदमी एक रास्ते से गुजर रहे हैं। एक होटल के सामने, एक आवारा आदमी ने एक आवारा कुत्ते की टांग पकड़ रखी है। और वह उसे पछाड़कर मार डालने को है क्योंकि कुत्ते ने उसे काट लिया है। वहां भीड़ लग गई है, लोग मजा ले रहे हैं। लोग कह रहे हैं, मार ही डालो। यह कुत्ता और लोगों को भी सता चुका है। एक पुलिस वाले ने कहा कि ठीक ही हुआ कि कुत्ता पकड़ा गया। यह पुलिस वालों को भी परेशान करता है। आवारा है। मार ही डालो।
लेकिन तभी दूसरे पुलिस वाले ने उस के कान में कहा कि ठहरो! यह हमारे अधिकारी का, बड़े आफिसर का कुत्ता मालूम होता है। वह पुलिस वाला चिल्ला रहा था कि मार ही डालो, पछाड़ ही डालो...जैसे ही उसने सुना कि हमारे आफिसर का कु
त्ता मालूम पड़ता है, झपटकर उसने उस आवारा आदमी की गर्दन पकड़ ली और कहा कि तू यह क्या कर रहा है? यह कुत्ते को मार रहा है? कुत्ते को उठाकर उसने गले से लगा लिया--आफिसर का कुत्ता है। चेहरा बदल गया!
क्षण भर पहले वह कह रहा था, मार ही डालिए, पुलिस वालों को भी सताता है; लेकिन आफिसर का कुत्ता है तो बात बदल गई। अब कुत्ते को मारना नहीं है। उस आदमी को पकड़कर जेल ले जाना है। जैसे ही उसने कुत्ते को अपने कंधे पर लिया, चूमा, पुचकारा, उसके बगल वाले आदमी ने कहा कि नहीं, भूल हो गई। यह कुत्ता मालिक का नहीं है। तत्क्षण कुत्ता जमीन पर पटक दिया गया और उस आवारा आदमी को छोड़कर उसने कहा कि खत्म करो इस कुत्ते को, यह आवारा है। और यह और लोगों को भी काट चुका है और एक सार्वजनिक उपद्रव है।
भीड़ भी चकित है, क्योंकि चेहरे इतने जल्दी बदलें तो मुश्किल हो जाती है। वह आवारा आदमी भी तय नहीं कर पा रहा है, लेकिन जब पुलिस वाला कह रहा है तो उसने फिर उसकी टांग पकड़ ली और वह पछाड़ने को तैयार ही है, तभी बगल वाले आदमी ने फिर कहा कि नहीं क्षमा करें, कुत्ता तो मालिक का ही मालूम पड़ता है। फिर बात बदल गई। और ऐसी कहानी चलती जाती है। वह कई दफे बदलती है। आवारा आदमी पकड़ लिया जाता है, पुनः कुत्ते को कंधे पर रख लिया जाता है, वह पुलिस थाने की तरफ चल पड़ता है। तब रास्ते में फिर एक आदमी कहता है, अरे! यह आवारा कुत्ते को कंधे पर रखे हो? लगता है तुम भी उसी भूल में पड़े हो, जिसमें मैं एक दिन पड़ गया था कि बड़े पुलिस आफिसर का कुत्ता है। यह उनका कुत्ता नहीं है; फिर हालत बदल जाती है।
तुम्हारा चेहरा, कोई असली चेहरा तो नहीं है, जो न बदले। वह तो जरूरत, सुविधा, आवश्यकता से बनता है, मिटता है। यह चेहरा तुम्हारी आत्मा तो नहीं हो सकती। यह तुम्हारा अंगोछा है, जिसमें तुम अपने को छिपाये हो।
लेकिन जब कोई परम सुख को उपलब्ध हो जाता है, जब स्वर्ग किसी के हृदय में उतर आता है, तब उसके चेहरे खो जाते हैं। जिनको हम चेहरे जानते हैं, वे खो जाते हैं। एक अर्थ में वह ‘फेसलेस’ हो जाता है, चेहरे से शून्य; और एक अर्थ में उसका मूल चेहरा प्रगट हो जाता है। शून्य ही तो मूल चेहरा है। वहां कोई नाक-नक्शा नहीं है, वहां कोई रूप-आकृति नहीं है, वहां निराकार है। वही तो चेहरा है। इसलिये गुरु अंगोछे में छिपाये बैठा है।
फकीर ने अंगोछा अलग कर दिया अपने चेहरे से और कहा कि देख, परम सुख तो मुझे मिल गया है। जितना तुझे लेना हो ले ले; लेकिन अंगरखा मेरे पास नहीं; वह बात मत उठा। मैं नंगा बैठा हूं।
बड़ी मुसीबत हो गई! जिनके पास अंगरखे थे, उनके पास सुख न था; और जिसके पास सुख पाया, उसके पास अंगरखा नहीं है!
गुरु का अंगरखा कोई दिखाई पड़ने वाला अंगरखा हो भी नहीं सकता। गुरु का अंगरखा पदार्थ से निर्मित हो भी नहीं सकता। उस फकीर ने गौर से देखा होगा इस युवक को कि अब क्या करता है! क्योंकि गुरु का अंगरखा ओढ़ने का अर्थ है, गुरु को ही ओढ़ना है, उसका वस्त्र नहीं। गुरु ही अंगरखा है। इसलिये और कोई अंगरखे की जरूरत भी नहीं है।
और इस युवक को बड़ी दुविधा खड़ी हो गई, क्योंकि यह वही आदमी है, जिससे बीस या तीस साल पहले जब वह युवक था--अब तो बूढ़ा हो गया--पूछा था सुख का राज और यह वही आदमी है। युवक ने कहा होगा कि महानुभाव! पहले ही क्यों न कह दिये? मैं आया था। इतनी भटकाने की क्या जरूरत थी?
लेकिन जिंदगी कुछ ऐसी है कि जब तक तुम बहुत द्वारों पर न भटक लो तब तक तुम अपने द्वार पर नहीं आ सकते। और जब तक तुम हर पड़ोसी के दरवाजे को न खटखटा लो, तब तक तुम पहचान भी नहीं सकते कि अपना दरवाजा कौन है?
यात्रियों का अनुभव है कि जब तक तुम दूसरे देशों में न घूम लो तब तक तुम्हें अपने देश की पहचान ही नहीं होती। और जहां तक मैं जानता हूं, यात्री सुख की तलाश में जाते हैं, दुनिया का चक्कर लगाते हैं, लौटकर घर में सुख पाते हैं। बड़ा विश्राम मालूम होता है। थक गये होते हैं। लेकिन उस थकान से गुजरना जरूरी है। नहीं तो घर में तो वे पहले भी मौजूद थे। इस सुख के लिये कहीं जाने की जरूरत न थी। लेकिन घर की पहचान ही खो जाती है। हम उसमें इतने मौजूद हैं, सदा वहीं रहे हैं कि थोड़ी भटकन जरूरी है, ताकि पहचान लौटे। थोड़ा दूर जाना जरूरी है, ताकि अपना घर दिखाई पड़ सके।
यह तीस साल की भटकन आवश्यक थी। इस भटके बिना पहुंचना नहीं हो सकता था।
मेरे पास निरंतर लोग आते हैं। उनमें से जो लोग और गुरुओं के पास भटक चुके हैं, वे ज्यादा काम के साबित होते हैं। उनको गहराई में ले जाना आसान पड़ता है। जो सीधे ही मेरे पास आते हैं, जरा मुश्किल होती है, जरा कठिनाई होती है। लेकिन बहुत-बहुत जन्मों की कथा है। बहुत गुरुओं के पास करीब-करीब सभी भटक चुके हैं। कोई इस जन्म का ही हिसाब नहीं है। तीस साल का ही मामला नहीं है, तीसों जन्मों का मामला है।
लेकिन फिर भी कभी-कभी ऐसा व्यक्ति आ जाता है, जो किसी जन्म में गुरुओं के पास नहीं गया है। उसके साथ तो बिलकुल असंभव है काम करना। और शुरू-शुरू में जैसे खुदाई कोई करे कुएं की, तो कंकड़-पत्थर हाथ आते हैं; फिर गीली जमीन हाथ आती है; फिर पानी हाथ आता है। ऐसी ही खुदाई गुरु को आपके भीतर करनी पड़ती है। पहले तो कंकड़-पत्थर ही हाथ आते हैं। आपकी आत्मा तक पहुंचने के लिये तो काफी प्रतीक्षा और श्रम की जरूरत है। जो बहुत दरवाजों पर भटक चुका है, उसकी पहचान भी साफ हो जाती है। वह यह भी देख लेता है कि कहां, किसकी कुंजी से द्वार खुलेगा। बहुत कुंजियों पर जो भटक चुका है, उसकी सही कुंजी की आंख, सही दृष्टि भी पैदा हो जाती है। जिसे बहुतों ने धोखा दिया है, बहुतों से जिसने धोखा खाया है, वह ठीक को पहचानने में कुशल हो जाता है। इसलिये मैं कहता हूं गलत गुरु भी जरूरी है, क्योंकि उसी से गुजरकर आदमी ठीक गुरु तक पहुंचता है।
इस जगत में गैर-जरूरी कुछ भी हो नहीं सकता। वह जो धोखा दे रहा है, वह भी जरूरी है। वह जो दुकान चला रहा है, वह भी जरूरी है। वह तुम्हारे लिये आवश्यक है क्योंकि तुम वहां से धोखा खाकर गुजरो, वह अनुभव तुम्हें प्रौढ़ करेगा। इस जगत में कुछ भी गैर-जरूरी नहीं है। जो तुम्हें रास्ते से भटका देता है वह भी जरूरी है, क्योंकि उस भटकाव में ही तुम्हें पहली दफा पता चलेगा कि रास्ता क्या है! जो तुम्हारे समय को व्यर्थ करता है, तुम्हारे जीवन को व्यर्थ करता है, वह भी जरूरी है, क्योंकि उसके पास ही तुम्हें त्वरा मिलेगी और खोज में गति आयेगी कि अब जीवन जा रहा है, अब बहुत भटक चुका। और तुम्हारी आंखें तभी पहचान सकती हैं, तभी सत्य को पहचान सकती हैं, जब बहुत-से भ्रमों को भी उन्होंने पहचाना हो।
सत्य को जानने के पहले असत्य को जानना जरूरी है।
इसलिये कृष्णमूर्ति निरंतर कहते हैं कि जो ठीक से पहचान लेता है क्या गलत है, उसको सही की पहचान आ जाती है। जो जान लेता है क्या भ्रांत है, उसको सत्य के दर्शन शुरू हो जाते हैं। पर भ्रांत से गुजरना होगा, तभी तुम पहचान भी सकोगे।
उस युवक ने कहा होगा कि यह क्या मजाक! और यह मजाक बड़ा गहरा है और खतरनाक भी। क्योंकि यह हो सकता था, मैं भटक ही जाता। और यह भी हो सकता था कि तुम न बचते। और अगर तुम्हारे पास ही गुर था, राज था तो उसी दिन क्यों न दे दिया?
नहीं, उस दिन नहीं दिया जा सकता था। पूछ लेना काफी नहीं है पाने के लिये। देनेवाले को यह भी देखना पड़ता है कि पात्र तैयार है या नहीं? अमृत डालने से कुछ भी न होगा, अगर पात्र जहर से भरा हो। अमृत भी जहरीला हो जायेगा। और अगर जहर में अमृत डाल दिया तो जहर अमर हो जायेगा बस, इतना ही होगा। वह फिर जहर मरेगा नहीं कभी। तुम्हें लाभ न मिलेगा, लाभ जहर को मिलेगा।
इसलिये बहुत-से चिकित्सक हैं दुनिया में, जो कहते हैं कि बीमारी में भोजन देना बंद कर देना, क्योंकि वह भोजन तुमको नहीं मिलता, बीमारी को मिलता है। तुम्हारी पूरी देह रोग से भरी है, उस समय तुम जो भोजन लेते हो, वह भोजन तुम्हारी जो शक्ति बनाता है, वह तुम्हारे रोग को मिलती है, तुम्हें नहीं। इसलिये बहुत-सी चिकित्सा-पद्धतियां भोजन बंद कर देंगी चिकित्सा के समय; ताकि बीमारी को कोई शक्ति न मिले।
यह युवक आया था तब बीमार था और जहर से भरा था। आंखें इसकी अंधी थीं। इसके हाथ तब तैयार न थे। अगर हीरा इसे दिया जाता तो यह बोझ समझकर उसे कहीं छोड़ आता। जहर डाल लेना आसान था, अमृत डालना इसमें कठिन था। क्योंकि हम समान को ही ग्रहण कर पाते हैं। असमान को हम त्यक्त कर देते हैं, छूट जाता है। यह बीमार था और बीमारी ले सकता था, लेकिन स्वास्थ्य लेना मुश्किल था। प्रतीक्षा जरूरी थी।
गुरु जब तुम्हें अपने द्वार से वापिस भेजता है, तो कोई बहुत प्रसन्नता से वापिस भेजता है, ऐसा नहीं है। क्योंकि खतरा तो है, जोखम तो है--तुम लौट पाओगे, नहीं लौट पाओगे! लौटोगे तो गुरु मौजूद होगा या नहीं होगा--खतरा तो है ही। लेकिन यह खतरा उठाना पड़े। उठाना पड़े इसलिये, कि तुम तैयार ही इस ढंग से हो सकते हो।
भूल किये बिना कोई भी ठीक होने की अवस्था में नहीं आता। इस दुनिया में भूल करना बुरा नहीं है, एक ही भूल को बार-बार करना बुरा है। इस दुनिया में भटकना बुरा नहीं है क्योंकि भटके बिना कोई सन्मार्ग पर कैसे आयेगा? लेकिन भटकन को आदत बना लेना बुरा है। इस दुनिया में केवल वे ही लोग चूक जाते हैं पाने से, जो भूल करने के डर से उठते ही नहीं और बैठे रहते हैं, कि चले तो कहीं कोई गलती न हो जाये!
मैंने सुना है कि एक किसान, अपने झोपड़े के सामने बैठा हुआ हुक्का पी रहा है। एक यात्री गांव से गुजर रहा था। रात हो गई, वह रास्ता भटक गया है और उस किसान के घर में रुकना चाहता है। किसान ने कहा, मजे से रुको। बात आगे चलाने को, मैत्री स्थापित करने को उस यात्री ने पूछा, कि इस साल कपास कैसी आई? उस किसान ने कहा कि बोई ही नहीं, क्योंकि मौसम कपास के लायक नहीं मालूम पड़ता। बात टूट गई। यात्री ने पूछा तो फिर गेहूं बोया? उसने कहा कि नहीं, क्योंकि हर साल कीड़े गेहूं खा जाते हैं। यात्री जरा मुश्किल में पड़ा, उसने कहा, कुछ...कुछ भी बोया कि नहीं? तो उसने कहा कि मैं सदा जब तक चीज बिलकुल सुरक्षित न हो, कुछ करता ही नहीं। कुछ भी नहीं बोया।--आय प्लेयॅड सेफ।
माना कि कीड़े भी लगते हैं फसल को, माना कि कभी वर्षा ज्यादा हो जाती है; कभी कम होती है, फसल नष्ट भी हो जाती है, लेकिन इसी डर से जो बैठा ही रहे, उसकी फसल तो कभी आ ही न पायेगी।
और आप सभी ‘प्लेइंग-सेफ’ की हालत में हैं; झंझट से बचने की। भूल चूक न हो जाये। बच-बचकर चलते हैं। बस बच-बचकर चलना ही एक परम भूल है। वैसा आदमी कभी पहुंचता ही नहीं; क्योंकि चलने से गिर सकता है, भटक सकता है इसलिये बैठा ही रहता है। भयाक्रांत सत्य तक नहीं पहुंच सकता। भ्रांत पहुंच सकता है। भटका हुआ मार्ग पर आ सकता है, न चला हुआ कैसे आयेगा?
यह तीस साल की भटकन जरूरी थी। गुरु ने इसे भेजा कि भटक!
झेन फकीर, सूफी फकीर एक अनूठा प्रयोग करते रहे हैं; और वह यह है कि वे अकसर शिष्यों को दूसरे गुरुओं के पास भी भेजते हैं। और अकसर ऐसा होता है कि अपने से विरोधी गुरु के पास भी भेजते हैं; जो कि बड़ी अनूठी बात है। एक गुरु के पास आप काम करेंगे, वर्षों की मेहनत के बाद वह कहेगा कि रुको, अब तुम ऐसा करो कि फलां गुरु के पास चले जाओ, जो कि मेरा दुश्मन है।
यह भरोसे योग्य नहीं है कि गुरु अपने दुश्मन के पास भेजेगा। गुरु का
कोई दुश्मन तो होता नहीं। शायद वे एक बड़ा खेल खेल रहे हैं। शायद वे एक-दूसरे के विपरीत कहकर एक हवा पैदा कर रहे हैं, द्वंद्व की; जिसे कि लोग आसानी से समझ लेते हैं और पक्षों में बंट जाते हैं। और पक्षों में बंटकर इस गुरु, या उस गुरु के जाल में पड़ जाते हैं। और जब तक कोई जाल में न पड़ जाये, उस पर काम नहीं किया जा सकता।
बायजीद को जब उसके गुरु ने कहा कि अब तू मेरे विपरीत गुरु के पास चला जा। उसने कहा कि आप यह क्या कहते हैं? यह तो मैं कभी सोच भी नहीं सकता; वह दुश्मन है। बायजीद ने कहा कि जितना काम मैं कर सकता था तेरे एक हिस्से पर, वह मैं कर चुका। अब उसका विपरीत हिस्सा तेरे भीतर है। तो उसके लिये मेरा दुश्मन चाहिये, उस पर मैं काम नहीं कर सकता। यह जो बाहर जिस गुरु के पास भेज रहा हूं, मेरे विपरीत है। तेरे भीतर जो मैंने काम किया है, उसके विपरीत जो हिस्सा है, उस पर यही काम कर सकता है, और वह छिपा पड़ा है।
या तो गुरु में दोनों द्वंद्व हों तो वह तुम पर पूरा काम कर सकता है। लेकिन तब वह गुरु असंगत मालूम पड़ेगा--कभी कहेगा अ, कभी कहेगा ब, कभी कहेगा रात, कभी कहेगा दिन; मुश्किल में डालेगा। लेकिन वह एक गुरु काम कर सकता है, अगर वह द्वंद्वात्मक हो, डाइलेक्टिकल हो; अगर वह दोनों छोरों से काम कर सके। नहीं तो एक ही उपाय है कि एक छोर पर वह काम करे, दूसरे पर उसका विरोधी काम करे।
तीस वर्षों तक यह युवक भटकता रहा और आया उस जगह जहां से शुरुआत हुई थी।
इसके और भी गहरे अर्थ हैं, वह समझ लेने चाहिये। असल में आना वहीं है, जहां से शुरुआत होती है; कहीं और जाने को नहीं है। जहां से जीवन की पहली किरण यात्रा पर निकलती है, वहीं लौट आने का नाम धर्म है।
तुम जहां से शुरू किये थे, अगर तुम वहीं लौट आओ--जिसको जीसस कहते हैं, पुनः बच्चे की भांति हो जाओ, फिर से गर्भस्थ हो जाओ, फिर निर्दोष हो जाओ--वर्तुल पूरा हो गया। यात्रा का प्रथम बिंदु अंतिम मंजिल बन गया। बस तुम पहुंच गये। कहीं और नहीं जाना है। वहीं आ जाना है, जहां से शुरू किया था। और जहां से तुमने शुरू किया था उसके अतिरिक्त और कोई मंजिल हो भी नहीं सकती। वही तुम्हारा घर है।
इस कहानी के अर्थ में समझ लेना जरूरी है। जहां से तुम्हारी जिज्ञासा शुरू होती है, वहीं लौट आना है। तुम्हारे भीतर भी जहां से प्रश्न उठा था, वहीं लौट आना है।
अनेक झेन कथाएं हैं कि किसी झेन गुरु को किसी व्यक्ति ने बीच सभा में टोककर पूछा--गुरु बोल रहा था--बीच सभा में किसी ने टोका और पूछा, ‘निरंतर सुनता हूं: आत्मा... आत्मा ... आत्मा ... परमात्मा...भीतर जाओ...मेरी कुछ समझ में नहीं आता। यह कहां है भीतर?’
उस गुरु ने अपना डंडा उठाया, उसने भीड़ से कहा, ‘रास्ता दो। यह आदमी शब्द से नहीं मानेगा।’ तो वह आदमी थोड़ा घबड़ाया भी, संकुचित भी हुआ, और गुरु नीचे उतर आया।
और झेन फकीर मजबूत फकीर होते हैं क्योंकि झेन फकीर आठ-आठ घंटे श्रम करता है बगीचे में, खेत में। क्योंकि झेन फकीर कहते हैं: ‘ना काम, ना रोटी।’ बिना काम किये एक रोटी भी नहीं मिल सकती। तो वे आठ-आठ घंटे मेहनत करते हैं, गड्ढे खोदते हैं, लकड़ी काटते हैं। मजबूत लोग होते हैं।
डंडा लेकर जब वह मजबूत आदमी चलने लगा और बीच में लोगों ने जगह दे दी, तो वह आदमी थोड़ा सकुचाया भी और उसने कहा कि जाने भी दीजिये, मैंने सिर्फ एक प्रश्न ही पूछा था।
उसने कहा कि जब पूछ ही लिया, तब उत्तर देना जरूरी है। आंख बंद कर और जहां से प्रश्न आया, भीतर उस जगह को खोज। और नहीं खोज पाया तो यह डंडा है।
उस आदमी ने आंखें बंद की होंगी। पहले तो थोड़ा डरा होगा कि पता नहीं, कब आदमी डंडा मार दे! लेकिन आप कुछ ऐसे हैं कि भय को ही मानते हैं।
कभी-कभी भय में आप शांत हो जाते हैं। वह शांति असली तो नहीं है, बहुत गहरी तो नहीं है, लेकिन भय में आप शांत हो जाते हैं। बहुत भय पकड़ ले तो विचार बंद हो जाते हैं। अगर कोई छाती पर छुरा रख दे तो विचार बंद हो जाते हैं; क्योंकि विचार करने की सुविधा नहीं मालूम पड़ती इतने खतरे के सामने। खतरे में विचार टूट जाते हैं। विचार भी एक तरह की सुविधा है। इसलिये जितने आप सुविधा-संपन्न होते हैं, उतने ज्यादा विचार करते हैं--बैठे हैं आराम से; कुछ और काम नहीं, सारी जीवन-ऊर्जा विचार बन जाती है। लेकिन जहां जीवन खतरे में हो...
और वह आदमी खड़ा था डंडा लिये। आंख बंद की होगी उस व्यक्ति ने, डंडा दिखाई पड़ता रहा होगा, विचार बंद हो गये। उसने भीतर झांका और कोई उपाय नहीं था। नहीं तो यह आदमी मार देगा। उसने भीतर झांका होगा, कहां से यह प्रश्न आया कि मैं कौन हूं? उतरा होगा प्रश्न की सीढ़ी के सहारे, भीतर...भीतर...भीतर; जहां से प्रश्न का पहला अंकुर फूटा है। क्योंकि प्रश्न कोई आकाश से नहीं आया, तुमसे आया है। जैसे बीज से अंकुर आता है, ऐसा प्रश्न तुम से आया--कहां से आया, उस मूल स्रोत को उसने खोजा होगा। उसका चेहरा शांत हो गया होगा, भय तिरोहित हो गया क्योंकि उस मूल स्रोत को पाते ही कोई भय नहीं; वहां अमृत है। वहां कैसा भय? खतरा खो गया। यह गुरु भूल गया, इसका डंडा भूल गया, वह आदमी शांत ही खड़ा रहा। घड़ी बीती, दो घड़ी बीती, लोग बेचैन हो गये, लेकिन वह आदमी ध्यान की प्रतिमा बन गया।
गुरु ने उसे हिलाया और कहा कि बस, दे दिया उत्तर? जान लिया कौन है तू? और कहते हैं, कई बार ऐसा हुआ कि ऐसे ही क्षण में निर्वाण उपलब्ध हुआ; ऐसे ही क्षण में ज्ञान हो गया।
वहीं लौट जाना है, जहां से यात्रा शुरू होती है। जिज्ञासा का पहला क्षण मुक्ति का अंतिम क्षण बनेगा। ठीक ही किया इस गुरु ने। तीस साल भटकाया, वर्तुल पूरा किया। और अंत में जब शिष्य आया तो पाया, वही जगह, वही गुरु, वही स्थान, जहां से जिज्ञासा शुरू हुई थी।
कहानी आगे कुछ और नहीं कहती। आगे की बात कहने जैसी नहीं है, इसलिये कहानी अनकही छोड़ दी गई है। आगे की बात यही है कि उसने देख लिया, अंगरखा तो नहीं है। और इसी आदमी ने कहा था कि अंगरखा मांग लेना उससे, जो कहे कि मैं परम सुखी हूं; जिसमें तुम पाओ कि परम सुख घटा है। और अंगरखा नहीं है; और इसी आदमी ने कहा था। बात साफ हो गई होगी। इसी आदमी को ओढ़ लेना। इसी के चरण पड़ जाना।
और परम सुख तभी उपलब्ध होता है, जब परिग्रह का भाव इतना भी नहीं रह जाता। परिग्रह का भाव इस बात की खबर देता है; यह मेरा है, ऐसा भाव--‘मेरा अंगरखा’! इतना भी काफी है नरक पैदा करने के लिये; कोई बहुत बड़ा साम्राज्य नहीं चाहिये। इतना काफी है: ‘मेरा’! ‘मेरा’--काफी साम्राज्य हो जाता है--‘मेरा अंगरखा।’
कथा है पुरानी भारतीयों की, कि जनक के पास एक संन्यासी आया। और उसके गुरु ने उसे भेजा। गुरु उससे थक गया और उसकी जिज्ञासा शांत न हो, मुक्ति भी उपलब्ध न हो, ध्यान भी न आये। तो गुरु ने कहा, तू अब ऐसा कर, हम तेरे काम के नहीं। तू जनक के पास चला जा, वह परम ज्ञानी है।
शिष्य को भरोसा न आया, क्योंकि यह नग्न गुरु था, परम संन्यासी था। जब इससे भी पूरा न हुआ काम, अब जनक क्या करेगा? एक राजा ही है आखिर! थोड़ा-बहुत जानता भी होगा, तो भी परिग्रह से तो कोई मुक्त हुआ नहीं है। और जो अभी राजमहल में है, साम्राज्य जिसके हाथ में है, राज्य का कारोबार चलाता है, वह मुझे क्या देगा? फिर भी उसने कहा, जब गुरु ने कहा, बेमन से आकांक्षा पूरी करनी पड़ेगी।
गुरु की आज्ञा मानकर वह गया--गया नहीं, आज्ञा थी, कर्तव्यवश पहुंचा! सांझ जब उसने दस्तक दी, दरवाजे खुले तो देखा कि वहां राग-रंग चलता था। जनक सिंहासन पर था, स्त्रियां अर्धनग्न नाचती थीं, दरबारी शराब पिये हुए पड़े थे। उसने कहा कि मैं पहले ही जानता था कि यह होने वाला है। अब कहां फंस गया आकर! और गुरु की आज्ञा मानकर गलती की।
बहुत बार शिष्य को लगता है कि गुरु की आज्ञा मानकर गलती की। क्योंकि गुरु पूरी कथा को देख पाता है; शिष्य तो अंशों को देखता है, जिनके अंत का उसे कुछ भी पता नहीं। लौटना चाहा, लेकिन जनक ने कहा, इतनी जल्दी क्या है? जब आ ही गये तो रात विश्राम करो और जल्दी मत करो। जब गुरु ने भेजा है तो मतलब से ही भेजा होगा। संन्यासी ने कहा, रुक जाता हूं, लेकिन जो पूछने आया था, पूछूंगा नहीं। जनक ने कहा, पूछने की कोई जरूरत भी नहीं है।
गुरु से वस्तुतः पूछने की कोई जरूरत भी नहीं है। गुरु जानता है, क्या पूछने तुम आये हो। आज नहीं कल, कल नहीं परसों वह जवाब दे देगा। तुम्हारा प्रश्न तुम्हारे आते से ही पता चल जाता है। तुम अपने प्रश्न को अपने चेहरे पर ही लिये हुए हो। वह तुम्हारी आंखों में खुदा है, उसे कुछ कहने की जरूरत तो नहीं। वह तुम्हारी धड़कन-धड़कन से बोल रहा है। तुम्हारा प्रश्न तुम हो। तुम्हारी समस्या तुम हो।
तुम जब आते हो, तो तुम्हारी समस्या तुम्हारे साथ आती है। उस समस्या की तरंगें तुम्हारे साथ आती हैं। उस समस्या की दुर्गंध तुम्हारे साथ आती है। जैसी समाधि की सुगंध है, वैसी समस्या की दुर्गंध है। जैसे निष्प्रश्न हो गये चित्त की शांति है, वैसे प्रश्न से भरे चित्त की अशांति है। उसकी ध्वनि बज रही है। बेसुरी ध्वनि उसकी बज रही है।
पूछने की कोई खास जरूरत भी नहीं! जनक ने कहा, ‘अब तुम आ ही गये हो तब हम समझ ही गये, किसलिये आये हो। अब रात रुक जाओ, जल्दी मत करो। गुरु ने कहा है तो ठीक ही कहा होगा।’
संन्यासी को जंची तो बात बिलकुल नहीं। इस महल में रुकना क्षण भर भी पाप मालूम पड़ा। जहां शराब बह रही हो, जहां नग्न स्त्रियां नाच रही हों, और यह आदमी जनक, जहां बीच में बैठा हो अड्डा जमाये, इससे क्या आशा?
अहंकार सदा इसी तरह सोचता है। जनक के आसपास क्या था, वह तो उसे दिखाई पड़ा; जनक दिखाई नहीं पड़े। और गुरु ने भेजा था जनक के पास। गुरु ने नहीं भेजा था कि जनक के आसपास क्या है, वहां तू जाना। न तो इन स्त्रियों से प्रश्न पूछना था, न शराब की बोतलों से पूछना था, न ये लुड़के पड़े दरबारियों से पूछना था। इनके पास तो भेजा भी नहीं था, भेजा जनक के पास था। काश! यह संन्यासी सिर्फ जनक को देखता, तो बात हल हो जाती। इसने सब देखा, जनक को छोड़ दिया।
रात संन्यासी सोया। सुबह उठा, विदा मांगी। जनक ने कहा कि रात के सोये हो, बासा हो गया शरीर। चलो नदी पर स्नान कर लें, फिर तुम विदा कर जाओ। ध्यान तो तुम्हें दे नहीं सकता, कम से कम स्नान तो दे ही सकता हूं। क्योंकि ध्यान तो तुम लेने को राजी नहीं मुझसे। और स्नान इतना कुछ बुरा नहीं है। पीछे ही बहती है नदी।
दोनों स्नान करने गये। संन्यासी ने अपनी लंगोटी रखी तट पर, सम्राट ने अपने बहुमूल्य वस्त्र रखे। दोनों उतरे पानी में। और जब वे पानी में खड़े थे, तभी संन्यासी एकदम चिल्लाया कि जनक, भागो! तुम्हारे महल में आग लगी है। महल धू-धू करके जल रहा है। जनक ने कहा, स्नान तो पूरा करें। और जो हो रहा है, उसे रोका नहीं जा सकता। और महल आज नहीं कल जल ही जाते हैं, चिंता की बात क्या? लेकिन संन्यासी वहां सुनने को नहीं था। वह भाग गया था। अपनी लंगोटी जो वह किनारे छोड़ आया था...क्योंकि थोड़ी न बहुत देर में महल की आग किनारे तक आ सकती है। वह अपनी लंगोटी उठाकर वापिस लौट आया।
जनक ने कहा, देखते हो? सवाल परिग्रह का नहीं है। एक लंगोटी भी साम्राज्य की तरह बांध ले सकती है। अभी तुम्हारी लंगोटी में आग नहीं लगी थी, अभी आग बड़ी दूर है। और लंगोटी ही है, जल जायेगी तो क्या मिटा जा रहा है? लेकिन ममत्व...!
अंगरखा नहीं है गुरु के पास, नग्न बैठा है गुरु, इसका कुल मतलब इतना ही है कि ममत्व नहीं है। कुछ भी मेरा नहीं है। जब कुछ भी मेरा नहीं तब परम नग्नता प्रगट होती है। जरूरी नहीं है कि कपड़े
उतार दो; क्योंकि कपड़े उतारने से नग्नता का कोई भी संबंध नहीं है। नंगापन तो आ जायेगा कपड़े उतारने से, नग्नता नहीं।
नग्नता तो बड़ी निर्दोष दशा है। वह तो ऐसे है जैसे छोटा बच्चा जब पैदा होता है, उसे पता ही नहीं होता कि मेरा कुछ है। उसे अपना ही पता नहीं होता कि मैं कुछ हूं। ‘मैं’--‘मेरा’, धीरे-धीरे पैदा होता है।
यह गुरु जब परम आनंद को उपलब्ध हो गया, जिसकी बांसुरी बज रही थी स्वर्ग की--इसके पास कुछ भी नहीं है; इसका मतलब केवल इतना ही है कि इसका कोई ममत्व नहीं है...‘मेरा’!
ध्यान रखना, अंगरखा हो या न हो; यह बड़ा सवाल नहीं है, ‘मेरा’ अंगरखा नहीं है। क्योंकि बहुत गुरु हैं, जो अंगरखे में मिलेंगे। और अगर तुमने कहीं पक्का नियम बना लिया कि गुरु को तो हम तभी स्वीकार करेंगे, जब वह नंगा मिले, तो बहुत गुरु नंगे खड़े हो जायेंगे। क्योंकि तुम नंगेपन को समझ सकते हो। और तब अंगरखा बाधा बन जायेगा। नग्न गुरु हुए हैं, अंगरखे वाले गुरु हुए हैं, पर वे सभी नग्न हैं क्योंकि ममत्व उनका कोई भी नहीं है। साम्राज्य हो तो भी जनक नग्न हैं। क्या तुम्हारे पास है, यह सवाल नहीं है। जब तक तुम सोचते हो ‘मेरा’ है, तब तक तुम संसारी हो। जिस दिन तुम नहीं सोचते कि मेरा है, परमात्मा का है, उसी दिन तुम संन्यस्त हुए।
संन्यास का अर्थ है: सब कुछ परमात्मा का है, मेरा कुछ भी नहीं है।
संसारी का अर्थ है: मेरा सब कुछ है, परमात्मा का कुछ भी नहीं है। और जो परमात्मा के हाथों में भी मालूम पड़ता है उसे भी आज नहीं कल छीन लेना है।
संसारी का जब तक सब न हो जाये, तब तक उसकी कोई तृप्ति नहीं और सब उसका कभी नहीं हो सकता। और संन्यासी का प्रत्येक क्षण तृप्ति का है; क्योंकि वह अतृप्ति की जो दौड़ थी ममत्व की, कि मेरा हो, वह गिर गई है।
और बड़े रहस्यों का रहस्य तो यह है कि जब एक छोटा-सा आंगन छूट जाता है तो पूरा आकाश तुम्हारा आंगन हो जाता है। जब एक छोटा-सा छप्पर छूट जाता है, तो परमात्मा की अनुकंपा, अनंत अनुकंपा तुम्हारा छप्पर हो जाती है। जैसे ही तुम क्षुद्र को छोड़ते हो कि विराट तुम्हारे हाथ में आ जाता है। वह रुका ही इसलिये है कि हाथ तुम्हारे क्षुद्र पर बंधे हैं; हाथ खुले चाहिये। तुम क्षुद्र को पकड़े हुए हो इतने कसकर कि तुम्हारे हाथ खुले नहीं हैं। और विराट तुम पर नहीं बरस सकता है। इस बात को खयाल में ले लें। क्षुद्र को पकड़ना पड़ता है। विराट को पाना हो, तो छोड़ना पड़ता है।
एक बड़ा अनूठा सूत्र उपनिषदों में और गीता में दिया है: तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। जो छोड़ देते हैं, वे ही परम भोग को उपलब्ध होते हैं। इससे ज्यादा कंट्राडिक्टरी, इससे ज्यादा स्व-विरोधी कोई सिद्धांत जगत में नहीं है। त्याग करनेवाले भोग को उपलब्ध होते हैं, फिर भोगियों का क्या होता है? भोगी सिर्फ त्याग में सड़ते हैं। भोगी को मिलता कुछ नहीं, बस खयाल रहता है कि मिल रहा है; मिलेगा...आशा! और हाथ में कुछ भी नहीं। और त्यागी सब छोड़ देता है और सब उसका हो जाता है। जिस क्षण सब छूट जाता है, उस दिन सब तुम्हारा हो जाता है।
यह गुरु नग्न बैठा था। सभी कुछ इसका था, पर अंगरखा भी मेरा नहीं था। इतना भी नहीं था जिसको वह कहे ‘मेरा’ जिसको वह दे सके। अगर शिष्य नासमझ रहा हो, जो कि नहीं हो सकता, क्योंकि तीस साल तक अगर तुम अपनी नासमझी में भी हठ किये जाओ तो समझदार हो जाओगे।
अरब में एक कहावत है कि मूर्ख अगर सतत मूर्खता किये चला जाये तो बुद्धिमान हो जायेगा। पत्थर पर भी निशान पड़ जाते हैं, मूढ़ता में भी दरार पड़ जाती है, अगर तुम उसका अभ्यास किये ही चले जाओ। और मूढ़ता को भी अनुभव होने लगता है, बोध जगने लगता है।
तीस साल जो खोजता ही रहा है, वह नासमझ रहा हो भला प्रारंभ में, अब नासमझ नहीं है। और उसने तत्क्षण उस अदृश्य अंगरखे को देख लिया होगा, जो गुरु का है। और उसने तत्क्षण गुरु की उस महिमा को देख लिया होगा, जो उसका अंगरखा है। उसने गुरु के उस प्रकाश-मंडल को देख लिया होगा, जिसको ओढ़ना है। जहां परम सुख है, वहां वह प्रकाश-मंडल भी मौजूद है। बस, आंख देखने की चाहिए। और ओढ़ने का सवाल बड़ा नहीं है, झुकने का बड़ा सवाल है; क्योंकि जो झुकता है वह गुरु को ओढ़ लेता है। वह झुक गया होगा। वह मिट गया होगा। उसने अपने को खो दिया होगा। उसी क्षण महासुख उस पर भी बरसा होगा।
कहानी यह नहीं कहती। क्योंकि यह कुछ ऐसा है, जो कहा नहीं जा सकता। पर कहानी इशारे पूरे कर देती है। रास्ता पूरा बता देती है। मंजिल के संबंध में चुप है। मंजिल के संबंध में सदा ही चुप रहा जायेगा। कहां तुम पहुंचोगे, कहना कठिन है! कैसे तुम पहुंचोगे, इतना ही बताया जा सकता है। रास्ता ठीक रहा तो तुम जरूर पहुंच जाओगे। मंजिल को बताने का कोई भी उपाय नहीं; सिर्फ मार्ग...।
इसलिये परम ज्ञानियों ने कोई सिद्धांत नहीं दिए, विधियां दी हैं। यह नहीं कहा कि वह रहा तुम्हारा मुकाम, चल पड़ो। उन्होंने इतना ही कहा है, चल पड़ो, यह रहा मार्ग। और अगर तुम ठीक से चले और चलते ही रहे तो मंजिल आ जाती है। शायद मंजिल दूर भी नहीं है, तुम्हारे गलत चलने की वजह से दूर मालूम हो रही है। तुम्हारे भटकते चित्त के कारण दूर हो जाती है। अगर तुम्हारा चित्त ठहर जाये, तो शायद इसी क्षण तुम जहां हो वहीं मंजिल है।
यह युवक अगर पहले ही दिन गौर से देख लेता तो यह तीस साल की भटकन बच जाती। उस दिन भी बांसुरी बज रही थी, पर इसके पास सुननेवाले कान न थे। उस दिन भी यह गुरु नग्न था, लेकिन इसको गुरु को देखने की फुरसत कहां थी? यह अपने में उलझा था। उस दिन सब कुछ मौजूद था, जो आज मौजूद था, लेकिन उस दिन इसकी क्षमता न थी उसे देखने की, जो मौजूद है।
मंजिल भविष्य में नहीं है, मंजिल तो वर्तमान में है। लेकिन तुम्हें प्रतीक्षा करनी प़ड़ेगी क्योंकि तुम्हारा मन निखरे यह एक लंबी यात्रा है। मंजिल तो यहां है और इसी क्षण तुम्हारा चित्त शांत हो तो उसका प्रतिबिंब बन जाये। लेकिन तुम्हारे दर्पण पर बड़ी धूल है और उसकी सफाई करने में समय लगेगा।
सत्य को पाने में समय नहीं लगता, मन की सफाई करने में समय लगता है। समय तुम्हारी जरूरत है। सत्य अभी और यहीं है। ऐसा थोड़े ही है कि सत्य कल होगा! सत्य तुम नहीं थे तब भी था, अभी भी है, कल भी होगा। सत्य शाश्वत है। बस, तुम जिस दिन तैयार होओगे, तुम जिस दिन आंख खोलोगे, उसी दिन प्रगट हो जायेगा। जहां भी तुम आंख खोलोगे, वहीं रास्ता खो जायेगा और मंजिल प्रगट हो जायेगी।
तुम्हारी बंद आंख के कारण रास्ता है। तुम्हारे भीतरी अंधेरे के कारण भटकाव है। तुम संसार हो। कितनी देर तुम लगाओगे, यह तुम पर निर्भर है। तुम चाहो तो इसी क्षण क्रांति घट सकती है। लेकिन शायद तुम उस क्रांति को इतने जल्दी चाहते भी नहीं। तुम्हारे कुछ मोह हैं, कुछ काम हैं, धाम हैं, वे पूरे कर लेने हैं। तुम इतनी जल्दी में भी नहीं हो।
शायद यह युवक भी इतनी जल्दी में नहीं था। अन्यथा क्या जरूरत थी जाने की कहीं और? जब यह आदमी कह रहा था कि जहां भी तुम परम सुख पाओ, या जो भी कहे कि मैं परम सुखी हूं, उसी का अंगरखा पहन लेना। तो पहले तो इसी के पैर पकड़ने थे कि जब तुम्हें यह सूत्र ही पता है, तब मैं पहले तुमसे ही पूछ लूं कि परम सुख मिला या नहीं; फिर कहीं और जाऊं। इसने दूसरा प्रश्न ही न पूछा, यह चल पड़ा! जो आदमी कुंजी दे रहा है कि यह है कुंजी खोलने की, पहले इससे तो पूछ लेना था कि कुंजी तुमने कहां से पाई; तुम्हें ताले का भी पता होगा। और जब तुम कुंजी दे रहे हो तो अब मैं कहीं और कहां जाऊं? अब जाना खतम हुआ।
यह बुद्ध पुरुष के पास पहुंचकर भी खोजने चला गया। यह धोखे में आ गया। इसे एक खिलौना पकड़ा दिया गुरु ने और यह चल पड़ा। इसने लौटकर भी न पूछा कि जहां से यह खबर आती है, जिसकी बात मानकर मैं लंबी यात्रा पर जा रहा हूं, इसमें तो झांककर देख लूं! यह आदमी जो कह रहा है, यह परम सुख को खुद भी उपलब्ध हुआ या नहीं?
अगर यह होश थोड़ा भी होता इस युवक में, तो इसने पैर वहीं पकड़ लिये होते। इसने कहा होता, मंजिल सब खत्म, अब कहीं जाना नहीं! कहां है अंगरखा? दे दो अंगरखा! उसी दिन यह पाता कि गुरु नग्न है। गुरु उस दिन भी नग्न था।
नग्नता का अर्थ है: निर्दोष। नग्नता का अर्थ है: छोटे बच्चे की भांति। नग्नता का अर्थ है: जिसके पास अपना कुछ भी नहीं।
पैर पकड़ लेता; तो बांसुरी उस दिन भी सुनाई पड़ती। नहीं, लेकिन तीस साल की कठिन साधना जरूरी थी।
साधना है, तुम्हारे मन को काटने के लिये; साध्य को पाने के लिये नहीं। साध्य मिला ही हुआ है।

आज इतना ही।

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