ZEN/SUFI STORIES
Bin Bati Bin Tel (बिन बाती बिन तेल) 02
Second Discourse from the series of 19 discourses - Bin Bati Bin Tel (बिन बाती बिन तेल) by Osho. These discourses were given during JUN 29 - JUL 09 1974.
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एक अंधा आदमी अपने मित्र के घर से रात के समय विदा होने लगा तो
मित्र ने अपनी लालटेन उसके हाथ में थमा दी।
अंधे ने कहा,‘मैं लालटेन लेकर क्या करूं? अंधेरा और रोशनी दोनों मेरे लिए बराबर हैं।’
मित्र ने कहा,‘रास्ता खोजने के लिए तो आपको इसकी जरूरत नहीं है,
लेकिन अंधेरे में कोई दूसरा आपसे न टकरा जाये
इसके लिये यह लालटेन कृपा करके आप अपने साथ रखें।’
अंधा आदमी लालटेन लेकर जो थोड़ी ही दूर गया था कि एक राही उससे टकरा गया।
अंधे ने क्रोध में आकर कहा, ‘देखकर चला करो। यह लालटेन नहीं दिखाई पड़ती है क्या?’
राही ने कहा, ‘भाई तुम्हारी बत्ती ही बुझी हुई है।’
कृपापूर्वक इस कहानी का मर्म हमें समझायें।
प्रकाश दूसरे से मिल सकता है लेकिन आंख दूसरे से नहीं मिल सकती। जानकारी दूसरे से मिल सकती है लेकिन ज्ञान दूसरे से नहीं मिल सकता। और अगर आंख ही न हो तो प्रकाश का क्या करियेगा? ज्ञान न हो तो जानकारी बोझ हो जाती है।
अंधा आदमी बिना लालटेन के ज्यादा सुविधा में था क्योंकि सम्हलकर चलता, होशपूर्वक चलता। अंधा हूं, तो डरकर चलता। हाथ में लालटेन थी, आदमी अंधा था तो आश्वासन से चलने लगा। अब कोई डर न था, अब कोई भय न था, अब कोई कैसे टकराएगा? रोशनी हाथ में है।
लेकिन अंधे आदमी को अपनी रोशनी भी जली है या बुझी है, यह तो दिखाई नहीं पड़ सकता। पहले भी अंधा रोज उन रास्तों से गुजरा होगा, बिना टकराये निकल गया था। आज टकराना सुनिश्चित हो गया। अंधे का भरोसा प्रकाश पर हो गया इसलिए सम्हलकर चलना उसने बंद कर दिया।
पापी जितना सम्हलकर चलता है, पंडित उतना सम्हलकर नहीं चलता। पापी जितना होश रख पाता है उतना पंडित नहीं रख पाता। क्योंकि पापी को तो कोई भी भरोसा नहीं है, भूल होना करीब-करीब निश्चित है। पंडित को भरोसा है, भूल से सुरक्षा है। उसने इंतजाम कर रखा है।
लेकिन सिद्धांत जो दूसरे से मिले हों, हाथ में बुझी हुई लालटेन की तरह हैं।
पांडित्य जो उधार हो, वह आंख नहीं बनता; और आंख सहारा है।
उस अंधे आदमी ने ठीक ही कहा था चलते वक्त कि मेरे पास आंख नहीं है तो मैं लालटेन का क्या करूंगा? उसका तर्क उचित ही था, अनुभव पर आधारित था। जिंदगी उसने अंधे की तरह ही गुजारी है; और गुजार ली है। किसी तरह रास्तों से पार हो ही जाता है। मित्र ने तर्क दिया। और तर्क ठीक मालूम पड़ते हैं और ठीक होते नहीं। क्योंकि जिंदगी कोई तर्क मानकर चलती नहीं।
जिंदगी के रास्ते ज्यादा बेबूझ हैं, तर्क सीधे गणित की तरह हैं।
मित्र का तर्क ठीक ही मालूम पड़ता है। मित्र ने कहा, माना कि तुम तो प्रकाश न देख सकोगे, वह मुझे भी पता है, उसे कहने की कोई जरूरत भी नहीं; लेकिन रास्ता अंधेरा है, रात अंधेरी है, हाथ में प्रकाश होगा तो दूसरे तुमसे टकराने से बच जायेंगे। तो दूसरों के ध्यान से प्रकाश ले जाओ।
अंधा भी जवाब न दे पाया। तर्क तो साफ है। गणित में कहीं कोई भूलचूक नहीं। लेकिन न मित्र को खयाल आया, न अंधे को खयाल आया कि अगर हवा के झोंके ने लालटेन बुझा दी, तो अंधे को पता नहीं चलेगा और अंधा इस भरोसे में चलता रहेगा कि लालटेन जल रही है। इसलिए जो सदा की, रोजमर्रा की सावधानी थी, वह भी छूट जायेगी और आज का यह अपरिचित प्रकाश जो दूसरे ने दिया है, यह भी बुझ सकता है। दोनों को न सूझा, दोनों ही बुद्धि से जी रहे थे। तर्क साफ था, अंधे ने भी स्वीकार कर लिया। लालटेन लेकर रास्ते पर चल पड़ा। दस कदम भी नहीं चला था कि कोई टकरा गया। क्रोध स्वाभाविक है। किसी और दिन कोई आदमी टकरा जाता तो अंधा क्रोध न करता। इसलिए पंडितों में जितना क्रोध दिखाई पड़ेगा, उतना किसी और में नहीं।
कोई और दिन कोई टकरा जाता तो अंधा जानता था कि मैं अंधा हूं, रात अंधेरी है, टकराना स्वाभाविक है। वह टकराने को स्वीकार कर लेता। इसमें एतराज जैसा कुछ भी है नहीं। यह भाग्य था, यह नियति थी कि मैं अंधा हूं और कोई टकरा गया। क्रोध तो तब पैदा होता है जब हम सोचते हैं कि कुछ हो रहा है जो नहीं होना चाहिए था। क्रोध तो तब पैदा होता है जब भाग्य की स्वीकृति नहीं होती। इसे थोड़ा समझें।
जो व्यक्ति भाग्य को स्वीकार करता है, वह अक्रोधी हो जायेगा, क्योंकि वह मानता है, जो होना था वह हुआ है। अनहोना नहीं है कुछ; इसलिए नाराजगी की बात क्या है? इस अंधे से पहले भी लोग टकरा गए होंगे। ऐसा असंभव है कि अंधे से लोग न टकराए हों। पर यह पहले कभी क्रोधित न हुआ होगा। इसने समझा होगा अपनी असहाय अवस्था को। इसने समझा होगा कि अंधा हूं--यह ठीक ही है कि लोग टकरा जाते हैं। थोड़ी-बहुत टकराहट होगी। यह मेरी नियति है, यह मेरा भाग्य है, इस विधि को बदलना आसान नहीं। नाराजगी क्या है? शायद इसके पहले जब कोई अंधे से टकराया होगा तो अंधे ने क्षमा मांगी होगी, क्योंकि अंधा यह तो मान नहीं सकता कि आंखवाले मुझसे टकराये होंगे। अंधा यही समझेगा कि मैं गैर आंखवाला ही आंखवालों से टकरा गया होऊंगा।
अज्ञानी क्षमा मांग ले, पंडित क्षमा नहीं मांग सकता। क्योंकि अज्ञानी स्वीकार करता है कि मैं नासमझ हूं, भूल मुझसे हो सकती है। पंडित स्वीकार नहीं करता कि भूल मुझसे हो सकती है, या कि मैं नासमझ हूं। पंडित से और भूल...होना संभव ही नहीं है!
क्रोध पैदा हुआ, अंधा नाराज हुआ। और अंधे ने जरूर कहा होगा कि ‘क्या अंधे हो? देखकर नहीं चलते? हाथ की लालटेन दिखाई नहीं पड़ती?’
जब भी कोई व्यक्ति अपनी स्थिति को स्वीकार नहीं कर पाता, तभी क्रोध उत्पन्न होना शुरू हो जाता है। अगर तुम्हारे जीवन में क्रोध जलता हो, जगह-जगह निकल आता हो तो इसका अर्थ यही है कि तुम एक बुझी हुई लालटेन लिये हुए चल रहे हो। सोचते हो कि प्रकाश हाथ में है इसलिये कोई टकरायेगा नहीं; लेकिन टकराहट होती है।
सच तो यह है कि सिवाय टकराहट के तुम्हारे जीवन के मार्ग पर कुछ और होता ही नहीं। जिनसे परिचित हो उनसे टकराहट होती है। जिनसे अपरिचित हो उनसे टकराहट होती है--मित्रों से, शत्रुओं से। सिवाय टकराहट के तुम्हारे जीवन की कथा क्या है? जो भी पास आता है उसी से टकराहट होती है और तब तुम बड़े क्रोध से भर जाते हो। और सदा दूसरा दोषी दिखाई पड़ता है। क्योंकि तुम यह तो मान ही नहीं सकते कि तुम्हारा दीया बुझा हुआ है; कि तुम्हारे हाथ में जो रोशनी है, वह खो गयी है। तुम हाथ में अंधेरा लेकर चल रहे हो, यह तो तुम मान ही नहीं सकते। जब भी कोई टकराता है तो उत्तरदायित्व दूसरे का है, वही जिम्मेवार है। इसलिये क्रोध पैदा होता है।
क्रोध का अर्थ है : उत्तरदायित्व दूसरे का है, दूसरा जिम्मेवार है। तुम लाख कोशिश करो क्रोध से बचने की, तुम न बच पाओगे, अगर तुम्हारी दृष्टि दूसरे को जिम्मेवार ठहराने की है। जिस दिन तुम समझोगे कि जिम्मेवार मैं हूं, उस दिन क्रोध को उठने का मूल कारण खो जायेगा। तुमने जड़ काट दी।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, बहुत क्रोध है, कैसे इसे शांत करें? क्रोध को शांत किया नहीं जा सकता। उठा लिया तो भोगना ही पड़ेगा। क्रोध की जड़ काटी जा सकती है; उठे क्रोध को शांत करना मुश्किल है। क्रोध उठे ही न, ऐसी व्यवस्था की जा सकती है। लेकिन तब तुम्हें जीवन की पूरी शैली ही बदलनी पड़े। तुम्हारे जीवन का पूरा ढंग ही तुम्हें रूपांतरित करना पड़े।
अभी तुम्हारे जीवन का ढंग यह है कि दूसरा हमेशा जिम्मेवार मालूम होता है। अगर तुम दुखी हो तो कोई तुम्हें दुखी कर रहा है। अगर तुम परेशान हो तो कोई तुम्हें परेशान कर रहा है। तुम यह मान ही नहीं सकते कि परेशानी तुम्हारे भीतर से आ सकती है, दुख तुम्हारे भीतर से आ सकता है। तुम्हारा अंधापन जिम्मेवार होगा टकराहट में, यह तुम्हारा मन मानने को राजी नहीं होता। और तब तुम टूट पड़ते हो। जब दूसरा जिम्मेवार है तो दूसरे का अपराध सिद्ध करने की तुम कोशिश करते हो। जब तक तुम ऐसा करते रहोगे, तब तक तुम्हारी क्रोध की आग को ईंधन मिलता ही रहेगा। तब तुम घी डाल रहे हो आग में और सोचते हो कि आग शांत हो जाये। पूछते हो, क्रोध कैसे मिटे? पूछो, क्रोध कैसे पैदा होता है? वहीं रोक देना होगा। बीज पर ही रोक देना होगा, पहले कदम पर ही रोक देना होगा।
महावीर का एक बहुत अनूठा सूत्र है। महावीर कहते हैं, पहला कदम उठ गया तो आधी मंज़िल तो आ ही गई। अब बचना मुश्किल है। कदम उठने के पहले ही रुकना आसान है। कदम उठ जाने के बाद यात्रा शुरू हो गई। मध्य से लौटना बहुत मुश्किल है, करीब-करीब असंभव है; क्योंकि ऊर्जा ने एक यात्रा शुरू कर दी।
भोजन किया, गले के नीचे चला गया कि तुम्हारे हाथ के करीब-करीब बाहर हो गया। जब तक तुमने भोजन नहीं किया है तब तक तुम्हारे हाथ में था। तुम चाहते तो न भी करते। तुम चाहते तो उपवास कर लेते। एक बार कंठ के नीचे भोजन उतर गया कि तुम्हारी स्वेच्छा के बाहर हो गया। तब तुम्हारे शरीर ने उसे ले लिया, और शरीर की गतिविधि भोजन को पचाने की, तुम्हारी स्वेच्छा में नहीं है। तुम भोजन नहीं पचाते हो, शरीर भोजन पचाता है। तुमसे पूछता भी नहीं, तुम्हारी जरूरत भी नहीं है। शरीर काम करता है। और अगर पेट में चले गए भोजन से तुम्हें छुटकारा पाना हो तो बड़ी अप्राकृतिक क्रिया करनी पड़े, वमन करना पड़े; जिससे कि पूरे शरीर को धक्के लगेंगे, पूरा तंत्र झकझोर उठेगा। और जितना नुकसान भोजन से हो सकता था, उससे भी ज्यादा नुकसान वमन से हो जायेगा।
अगर क्रोध का पहला कदम उठ गया तो कंठ के नीचे उतर गयी बात। अब लौटना मुश्किल है; और वमन करना पड़े। और वमन कष्टपूर्ण है। क्रोध से जितना नुकसान हो सकता है, उससे भी ज्यादा नुकसान वमन से होगा। तुम टूट जाओगे।
और या फिर एक उपाय है कि तुम दमन कर लो, अगर वमन न करना हो। तो तुम क्रोध को इस भांति पी जाओ कि वह मल बनकर निकल न सके। तब भी तुम कठिनाई में पड़ जाओगे क्योंकि मल शरीर में इकट्ठा हो जाये तो विषाक्त है; तो सारे खून की तह-तह में पहुंच जायेगा, रोएं-रोएं में भर जायेगा। तो जो लोग क्रोध को दमन करते हैं, धीरे-धीरे क्रोध उनके जीवन की व्यवस्था हो जाती है। फिर वे क्रोधित नहीं होते, वे क्रोधित रहते हैं। फिर उठते-बैठते वह क्रोध चल रहा है। वे सिर्फ प्रतीक्षा में हैं कि कहीं कोई बहाना मिल जाये कि उनका क्रोध फूट पड़े। अगर बहाना न मिले तो वे बहाना खोज लेंगे। फिर कोई भी बहाना काम देगा।
तुम्हें भी अपने जीवन का अनुभव है। बहुत बार तुम बहाने खोजते हो; फिर संगत-असंगत भी नहीं देखते। तुम ही पीछे लौटकर सोचोगे तो हंसोगे कि यह मैंने क्या किया! हास्यास्पद था।
एक आदमी एक किसान से उसकी कुल्हाड़ी मांगने आया था। तो उस किसान ने कहा कि आज तो देना मुश्किल है, क्योंकि आज मुझे दाढ़ी बनानी है। जो मांगने आया था वह भी चौंका, लेकिन कुछ बोला नहीं। उससे भी ज्यादा चौंकी किसान की पत्नी; और उसने कहा कि कुछ तो होश-हवास रखो! वह कुल्हाड़ी मांगने आया है और तुम कह रहे हो कि मुझे आज दाढ़ी बनानी है। उस किसान ने कहा कि जब देनी ही नहीं है तो कोई भी बहाना काफी है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि बहाना क्या है? इतनी बात वह भी समझ गया कि देनी नहीं है।
करीब-करीब तुम जब अपने क्रोध को दबा लेते हो तो तुम बहाने की फिक्र नहीं करते। फिर कोई भी बहाना काम दे जाता है। क्रोध ही करना है तो फिर कोई भी बहाना काम कर जाता है। और जहां क्रोध की कोई भी जरूरत न थी, वहां क्रोध फूट पड़ता है। वहां तुम उबल उठते हो और जल उठते हो। जो भी तुम्हारे आसपास हैं, सबको हैरानी होती है। पत्नी समझ नहीं पाती कि पति क्यों नाराज हो रहा है! नाराज़गी का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता। पति समझ नहीं पाता कि मैंने अभी घर में प्रवेश भी नहीं किया कि पत्नी क्यों उबल उठी? नाराज़गी का कोई कारण समझ में नहीं आता। सौ मैं निन्यान्नबे मौके पर दूसरा क्यों नाराज है, यह समझ में नहीं आता। मगर जो नाराज है, वह होश में नहीं है। जैसे क्रोध एक जहर है, जो बेहोश कर देता है।
क्रोध को बीच से तो रोकना मुश्किल है। रोकोगे, तो या तो दमन करना होगा; दमन बहुत खतरनाक है क्योंकि तब तुम्हारे जीवन की पर्त-पर्त में क्रोध छा जायेगा। तुम्हारा प्रेम भी तुम्हारे क्रोध से भर जायेगा। तुम भोजन भी करोगे तो तुम्हारा क्रोध मौजूद रहेगा।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब क्रोध में कोई आदमी भोजन करता है तो वह इस तरह भोजन को चबाता है, जैसे भोजन को मार रहा हो। जब हम क्रोध में आते हैं तो हम कहते हैं कि चबा जाऊंगा। तो चबाने में कहीं न कहीं क्रोध हमारा छिपा हुआ है। नहीं तो ‘चबा जाऊंगा’ इस तरह के भाषा के व्यवहार की कोई जरूरत न थी। क्रोधी आदमी भोजन को पीसता है दांतों के बीच। क्रोधी आदमी रात में भी सोता है तो सपने में दांत पीसता है। क्रोधी आदमियों के दांत घिस जाते हैं। रात में पीसते रहते हैं। क्रोधी आदमी प्रेम भी करेगा तो प्रेम उसका क्रोध जैसा हो जायेगा।
पश्चिम में एक बहुत कुख्यात विचारक हुआ, मार्कविस दी सादे। वह अपने साथ, जैसे डाक्टर एक बैग रखते हैं, ऐसा एक बैग रखता था। बहुत धनपति आदमी था, बड़ा जमींदार था, मार्कविस था। उस बैग में वह प्रेम के सामान छिपाये रखता था। कोड़ा, कांटे, और-और तरह की चीजें उसने ईजाद कर रखी थीं। सुंदर था, धनपति था, सुविधा थी और फ्रांस की रंगीन दुनिया थी। स्त्रियां खोज लेना कोई कठिन न था। लेकिन जब भी वह किसी स्त्री को प्रेम करता तो द्वार-दरवाजे बंद कर देता और बाहर पहरा लगवा देता। पहले तो कोड़ों से उसकी ठीक से पिटाई करता। कांटे चुभाता, सब तरह उसे सताता, तब प्रेम करता। इसलिए मार्कविस दी सादे के नाम पर एक पूरे रोग का नाम ‘सैडिज़म’ पड़ गया। जो व्यक्ति भी प्रेम के माध्यम से दूसरों को सताता है वह ‘सैडिस्ट’ है। मार्कविस दी सादे के नाम से वह शब्द निर्मित हुआ।
अब मार्कविस दी सादे कहता था कि जब तक मैं मारपीट न करूं तब तक मुझ में प्रेम का उदय ही नहीं होता। जब मैं एक स्त्री को तड़फते देखता हूं तब मेरा प्रेम उदय होता है। यह जरा सोचने जैसी बात है। जब आप किसी को तड़फते देखते हैं तब आप में करुणा का जन्म होता है। यह मार्कविस दी सादे जरा गणित में और आगे चला गया। खुद तड़फा ले और फिर प्रेम का अनुभव करे।
लेकिन तुम भी जब किसी को तड़फते देखते हो और तुममें प्रेम का जन्म होता है तो तुम दूसरे को तड़फाने में कुछ न कुछ रस ले रहे हो। दूसरे को तड़फते देखकर तुममें करुणा का जन्म रुग्ण है। करुणा तो सहज होनी चाहिए, दूसरे के तड़फने पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। दूसरा न भी तड़फ रहा हो तो करुणा होनी चाहिए। करुणा तुम्हारा स्वभाव होना चाहिए। लेकिन दूसरा जब तड़फता है तब तुममें करुणा का जन्म होता है, निश्चित ही दूसरे के तड़फने में तुम्हारा क्रोध निष्कासित हो रहा है।
और जब भी क्रोध का निष्कासन होता है तो करुणा का जन्म होता है। यह जरा जटिल बात है। क्योंकि धर्मगुरु यही समझते रहे हैं कि दूसरों को तड़फते देखो तो करुणा करो। मैं तुमसे कहता हूं कि तुम दूसरे को तड़फते देखने के लिए रुकते क्यों हो? तब तुम करुणा करोगे जब दूसरा तड़फेगा, जब दूसरा भूखा मरेगा तब तुम दान करोगे? इतनी देर तुम रुके क्यों? तुम्हारे भीतर कहीं कोई गहन क्रोध छिपा है। मार्कविस दी सादे ज्यादा गणित की आखिरी सीमा पर पहुंच गया। इतनी देर क्यों रुकना? प्रेम के जन्म के लिए दूसरे को तड़फाओ? परिस्थिति पर क्यों निर्भर रहना? खुद तड़फा दो, फिर प्रेम का जन्म हो जाता है।
छोटे-छोटे बच्चे भी इस बात को समझते हैं कि जब भी वे बीमार पड़ते हैं और परेशान होते हैं तभी मां-बाप उनको प्रेम करते हैं। इसलिए बच्चे अकसर झूठे भी बीमार पड़ जाते हैं। या बच्चा अगर गिर पड़े तो चारों तरफ देख लेता है कि कोई है, जो प्रेम प्रगट करेगा? अगर कोई भी नहीं है तो रोना-धोना बेकार है। उठकर चल पड़ता है। लेकिन अगर उसकी मां आसपास हो और वह गिर पड़े तो भारी हायतोबा मचा देता है। क्योंकि उसी हायतोबा से मां का प्रेम उसकी तरफ बहेगा। यह भी कैसा प्रेम है, जो दुख की प्रतीक्षा करता है? इसमें थोड़ा रोग है। इसमें थोड़ा मां रस ले रही है। इस दुख में थोड़ी-सी मां की भी कुछ रेचन-प्रक्रिया हो रही है। उसका क्रोध, उसका दमित वेग इससे बह रहा है।
क्रोध दब जाये तो मवाद की तरह है; जिसे तुमने भीतर छिपा लिया, वह कहीं से भी निकलेगी। और जब भी निकलेगी तब तुम हल्के अनुभव करोगे।
इसलिए क्रोध करके लोग हल्का अनुभव करते हैं। मन बोझ से खाली हो जाता है, जैसे सिर से एक भार उतर गया। तब कितना ही धर्मगुरु कहें कि क्रोध बेकार है, लोग जानते हैं कि क्रोध से हल्कापन आता है। और जब क्रोध को तुम भीतर दबा लेते हो तो सिर भारी हो जाता है। दबा हुआ क्रोध सिरदर्द बन जाता है।
चिकित्सक कहते हैं कि स्त्रियां हृदय की बीमारी से कम पीड़ित होती हैं, हृदय की दुर्बलता से कम पीड़ित होती हैं। हृदय के असफल होने से बहुत कम स्त्रियां मरती हैं। पुरुष मरते हैं; और पुरुषों के मरने की भी एक खास आयु है। चालीस और पचास के बीच पुरुष हार्ट अटैक से, हृदय के आक्रमण से मरते हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि स्त्रियां क्रोध को उतना नहीं दबातीं, जितना पुरुष दबाते हैं। क्योंकि पुरुष का अहंकार स्त्रियों से ज्यादा प्रबल है। भीतर क्रोध जल रहा हो तो भी पुरुष मुस्कुराता है। भीतर से हत्या कर देने का मन हो रहा हो तो भी शिष्टाचार बरतता है। न क्रोधित हो सकता है दूसरे पर, और न खुद पर हो सकता है। न रो सकता है, न चीख सकता है, न चिल्ला सकता है क्योंकि ये सब मर्द के लक्षण नहीं। ऐसा बचपन से बच्चों को समझाया गया है कि रोना मत, क्रोध मत करना। पुरुष का लक्षण है, संयमी, नियंत्रित। और अगर कोई पुरुष रोने लगे तो वह स्त्री है, स्त्रैण है। क्रोधित हो जाये छोटी-छोटी बात में तो बचकाना है, प्रौढ़ नहीं है। छोटे-छोटे बच्चे तक यह समझ जाते हैं फकर्र्, कि स्त्री और पुरुष में एक फर्क है।
मैंने सुना है, एक स्त्री बहुत परेशान थी। उसके छोटे तीन साल के लड़के ने खुद को बाथरूम में बंद कर लिया। न तो बोलता था, न जवाब देता था, भीतर से। यह भी पक्का करना मुश्किल था कि उससे दरवाजा खुल नहीं रहा है या वह खोल नहीं रहा। स्त्री जब थक गयी तो उसने पुलिस स्टेशन को खबर की। पुलिस इन्सपेक्टर आया, उसने पूछा कि बच्चा अंदर है, लड़का है या लड़की? उसने कहा, यह भी कोई पूछने की...इससे क्या मतलब है? निकालो उसे बाहर, लड़का है। उसने कहा कि ठहरो, वह दरवाजे के पास गया और उसने कहा कि बेटी, बाहर निकल आ। वह लड़का तत्काल बाहर निकल आया गुस्से में, कि उससे बेटी कहा! उस इन्सपेक्टर ने कहा कि यह तरकीब हमेशा काम करती है। तीन साल का बच्चा भी मर्द!
आंखों में आंसू की जो ग्रंथियां हैं वे बराबर हैं; पुरुष की हो, चाहे स्त्री की आंख, उसमें रत्ती भर फर्क नहीं है। इसलिए कि प्रकृति ने तो आंखें दोनों की रोने के लिए ही बनायी हैं, लेकिन मर्द रोयेगा नहीं। क्रोध की जितनी ग्रंथियां पुरुष में हैं उतनी ही स्त्री में हैं, उसमें कोई फर्क नहीं। शरीर की जितनी रासायनिक संभावना क्रोध से भरने की पुरुष की है उतनी ही स्त्री की है; उसमें कोई अंतर नहीं।
लेकिन पुरुष दबाता है; उसे दबाना सिखाया जाता है। दबाते-दबाते चालीस साल के करीब वह वक्त आ जाता है, इसके बाद झेलना मुश्किल हो जाता है। इसलिए हृदय दुर्बल हो जाता है, क्योंकि सब दमन हृदय को दुर्बल करता है। पुरुष मरते हैं हृदय रोग से, स्त्रियां नहीं मरतीं। रो-धो लेती हैं, हल्की हो लेती हैं। रोज निपटारा हो जाता है, इकट्ठा नहीं हो पाता। क्रोध कर लेती हैं, नाराज हो जाती हैं, दूसरे को न मार सकें तो खुद को पीट लेती हैं।
यह जानकर हैरान होंगे कि पुरुष स्त्रियों से दुगुने पागल होते हैं। और आमतौर से आप सोचते होंगे स्त्रियां ज्यादा आत्महत्या करती हैं तो आप गलती में हैं। न तो स्त्रियां ज्यादा पागल होती हैं और न ज्यादा आत्महत्या करती हैं; पुरुष ही करते हैं। अपराध भी स्त्रियां कम करती हैं, पुरुष ही करते हैं।
जैसे सारे उपद्रव पुरुष करता है! और मनस्विद कहता है कि इसके मूल में कारण है कि पुरुष सारी मवाद को इकट्ठा करता चला जाता है। फिर वह इतनी इकट्ठी हो जाती है, कि जब फूटकर बहती है तो उससे दुर्घटना ही होती है।
क्रोध को न तो दबाया जा सकता है और न क्रोध का वमन किया जा सकता है। वमन भी नुकसान पहुंचाता है। सारा शरीर संस्थान कंप जाता है। बहुत बार तुम वमन भी करते हो। वमन दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि भोजन तो दृश्य है, क्रोध इतने दृश्य नहीं; लेकिन क्रोध का वमन भी चलता है। कई तरह से क्रोध का वमन हो रहा है।
पुरुष नाराज है, उसने कार निकाली, और एक्सीलरेटर पर उसका पैर तेजी से जायेगा। वह सोचेगा भी नहीं कि यह साठ-सत्तर की जो रफ्तार आ रही है, यह क्रोध का वमन हो सकता है। लेकिन इससे दुर्घटना हो सकती है। पचास प्रतिशत कार दुर्घटनाएं क्रोध के कारण होती हैं। वह वमन का रास्ता बन जाता है। स्पीड जितनी बढ़ती जाती है गाड़ी की, उतना क्रोध वमित होता जाता है। लेकिन यह खतरनाक है। यह खेल खतरनाक है, इससे पूरा जीवन खतरे में पड़ सकता है--खुद का भी, दूसरे का भी।
न मालूम कितनी बीमारियां इसलिए पैदा होती हैं क्योंकि उन बीमारियों के द्वारा तुम्हारा क्रोध वमन हो जाता है। वास्तविक उलटी भी हो सकती है, वमन हो सकता है। अगर तुम बहुत क्रोध से भरे हो तो उलटी हो सकती है, ‘नाशिया’ आ सकता है। वास्तविक क्रोध से भरे हुए, शरीर-शास्त्री कहते हैं भोजन को पचने में दो-गुना समय लगता है। जो भोजन चार घंटे में पचता है वह आठ घंटे में पचेगा। और भोजन इतना ठंडा हो जायेगा आठ घंटे में, कि पचना मुश्किल हो जायेगा।
इसलिए अकसर लोग कहते हैं कि क्रोधी व्यक्ति दुबला होता है। वह भोजन को ठीक से पचा नहीं पाता। उसका भोजन अनपचा फिंक जाता है। वह भी वमन है। तुम्हें खयाल हो कि क्रोध के क्षण में कभी तुमने उल्टी की है? तो हल्कापन लगा होगा। हालांकि तुम सोचोगे कि उल्टी अपने आप हो गई। कोई चीज बाहर निकलना चाहती थी और तुमने रोक ली, उसके साथ भोजन भी बाहर फिंक गया।
बहुत-सी बीमारियां वमन हैं। कोई पचास प्रतिशत बीमारी तो मानसिक वमन है, जो शरीर को, संस्थान को कंपा जाता है।
मनुष्य का स्वयं से बड़ा दुश्मन खोजना कठिन है।
न दमन काम करेगा, न वमन काम करेगा; ठीक काम तो तब शुरू होगा, जब तुम पहले ही बिंदु पर रुक जाओगे, यात्रा शुरू ही न होगी। वहीं रोका जा सकता है। और वहां रुक जाओ तो तुम्हारी ऊर्जा स्वस्थ होगी, प्रवाहित होगी। क्रोध तुम्हारे शरीर में जहर को न फैला पाएगा, करुणा का अमृत तुम्हारे शरीर में बहेगा।
कौन-सा मूल बिंदु है? मूल बिंदु वहां है, जहां हमने दूसरे को जिम्मेवार ठहराया।
यह अंधा आदमी सदा अपने को जिम्मेवार समझता था। जब भी टकराया होगा, उसने कहा होगा, क्षमा करें, मैं अंधा आदमी हूं। लेकिन आज नहीं, आज अंधे के हाथ में लालटेन थी। चिल्लाया वह कि अंधे हो? दिखाई नहीं पड़ता? हाथ की लालटेन इतनी बड़ी है, फिर भी टकराए जा रहे हो?
तुम भी जब दूसरे पर चिल्लाओगे, दिखाई नहीं पड़ता? क्या कर रहे हो? टकराए जा रहे हो! तो एक बार सोचना कि कहीं ऐसा तो नहीं है, कि तुम टकरा रहे हो और दूसरे को दोष दे रहे हो? सौ में निन्यान्नबे मौके पर हालत यही है। सदा हम दोष दूसरे को देते हैं। दूसरे को दोष देने में अहंकार की सुरक्षा है। हम बच जाते हैं। हर एक ने अपनी एक प्रतिमा बना रखी है। वह प्रतिमा ऐसी है कि जैसे तुम देवता हो। दूसरों को भला तुममें शैतान दिखाई पड़ता हो, तुम कभी दर्पण में शैतान नहीं देख पाते; देवता दिखाई पड़ता है। और कभी-कभी अगर यह देवता विकृत हो जाता है तो ये दूसरे हैं, जो परिस्थिति पैदा कर देते हैं, जिसके कारण देवता विकृत हो जाता है। तुम्हारी प्रतिमा तो सर्वांग-सुंदर है। तब अंधे की यह स्थिति स्मरण करना। उस दूसरे आदमी ने कहा कि ि
मत्र, तुम्हारे हाथ की लालटेन बुझी हुई है। अंधेरा घना है। अंधा मैं नहीं हूं, लेकिन हाथ में लालटेन नहीं है।
अगर तुम्हारे जीवन में बहुत कष्ट हो तो समझना कि तुम्हारे जीवन का प्रकाश बुझा हुआ है। और हर आदमी, जो तुम्हारे करीब आता है तुमसे टकरा जाता होगा, जिससे भी मैत्री बनती हो वही शत्रु हो जाता होगा, जिससे भी प्रेम का संबंध बनता हो वही घृणा में रूपांतरित हो जाता होगा। जिससे भी मिलते हो उससे ही कष्ट मिलता है, जो भी पास आता है वह तुम्हारा नरक बन जाता है, तो थोड़ा सोचना कि तुम्हारे हाथ की लालटेन बुझी हुई है।
निश्चित ही हमारे जीवन का प्रकाश बुझा हुआ है, इसलिये ही दूसरे हमसे टकराए चले जाते हैं। हमारा आत्मज्ञान क्षीण है, ना के बराबर है। वह दीया, जैसे है ही नहीं। हमें एक बात का बिलकुल पता नहीं है कि मैं कौन हूं! लेकिन हम सब सोचते हैं कि हमें पता है। यही बुझा हुआ दीया है, जो हम ढो रहे हैं। आत्मज्ञान रत्तीभर नहीं है, पर प्रत्येक को खयाल है कि मैं कम से कम अपने को तो जानता हूं।
आप दूसरों को भला जानते हों, आप बड़े विशेषज्ञ हो सकते हैं, पौधों-पशुओं, पृथ्वी-आकाश के, लेकिन एक संबंध में आप बिलकुल ही भ्रांति में हैं कि मैं अपने को जानता हूं। वहां दीया बिलकुल बुझा हुआ है। स्वयं की तो हमें कोई भी खबर नहीं, कोई भी पहचान नहीं। और यह जो अनपहचाना स्वयं है, यह जो अज्ञान और अंधकार से भरा हुआ स्वयं है, यह आकर्षण है दूसरों को टकराने का।
एक व्यक्ति प्रेम में पड़ जाता है, तो जब वह किसी के प्रेम में पड़ता है, या किसी की मित्रता में पड़ जाता है, तब वह अपना दूसरा ही रूप प्रगट करता है, जो उसका वास्तविक रूप नहीं है। इसलिए सभी प्रेम-विवाह करीब-करीब असफल हो जाते हैं। प्रेम-विवाह का सफल होना बड़ी दुर्लभ घटना है।
एक युवक एक युवती के प्रेम में पड़ता है तो युवक अपना वह चेहरा दिखलाता है, जो असली नहीं है क्योंकि यह असली चेहरा तो इस युवती को दूर हटा देगा। तो वह सर्वांग-सुंदर प्रतिमा प्रगट करता है। युवती भी अपनी वही प्रतिमा प्रगट करती है, जो वास्तविक नहीं है। दोनों एक-दूसरे को आकर्षित करने में लगे हैं। उनकी वाणी मधुर है, कर्कश नहीं है। उनकी देह सुसज्जित है, सुगंधित है, पसीने की बदबू नहीं आती। वे कपड़े ताजे पहनते हैं, स्नान करके मिलते हैं। और यह मिलना कभी घड़ी दो घड़ी का समुद्र के किनारे है, किसी बगीचे में। बगीचे में कोई चौबीस घंटे नहीं रहता। समुद्र के किनारे कोई चौबीस घंटे नहीं बैठ सकता। यह झूठा है। यह ऊपर की सतह है।
फिर कल वे विवाहित हो जाते हैं, तब जिंदगी का पूरा ढांचा बदलता है। ऊपर की सतह को चौबीस घंटे सम्हालना बहुत मुश्किल है, अंततः बहुत बोझ मालूम होगी। आदमी को असली होना ही पड़ेगा, तभी वह ‘रिलेक्स’ हो सकता है, तभी विश्राम कर सकता है। धीरे-धीरे ऊपर का चेहरा उतारकर रख दिया जायेगा। स्त्री अपने रूप में प्रगट होगी, पुरुष अपने रूप में प्रगट होगा, कलह शुरू हो जायेगी। शरीर से बदबू आने लगेगी, शरीर में खामियां दिखाई पड़ने लगेंगी, आवाज की मधुरता चली जायेगी, कर्कश हो जायेगी।
मैंने सुना है, एक आदमी, जब भी उसकी पत्नी हार्मोनियम बजाती और संगीत का अभ्यास करती तो मकान के बाहर टहलने लगता। आखिर उसकी पत्नी ने पूछा कि बात क्या है? जब भी मैं संगीत का अभ्यास करती हूं, तुम बाहर क्यों टहलते हो? उसने कहा, इसलिए ताकि मोहल्लेवाले यह न समझें कि मैं तुम्हारी पिटाई कर रहा हूं।
पति को पत्नी की आवाज कर्कश सुनाई पड़ने लगती है। यह वही आवाज है, जो कभी मधुरतम संगीत थी, जिससे कोयलें फीकी पड़ जातीं। पति की आवाज पत्नी को फिर रुचिकर नहीं मालूम पड़ती। जब भी पति बोलता है तो कुछ उपद्रव है। तो पति चुप रहने लगता है। पति करीब-करीब गूंगे हो जाते हैं। डायलाग, जिसको हम संभाषण कहें, वह घरों में समाप्त हो जाते हैं। पत्नी बोलती रहती है, पति अखबार पढ़ता रहता है।
एक-दूसरे से बचने का उपाय शुरू हो जाता है, जब एक-दूसरे की वास्तविकता प्रगट होती है। दीया भीतर बिलकुल बुझा है। इसलिए हम स्वयं की वास्तविकता दिखलायें भी कैसे? उस वास्तविकता का हमें भी पता नहीं है। हम एक अराजकता हैं, एक व्यक्तित्व नहीं, एक संगीत नहीं, एक शोरगुल हैं। इस शोरगुल को हम किसी तरह ढांके हुए जीते हैं।
यह अंधा आदमी है, लेकिन दूसरे के दिये हुए लालटेन पर भरोसा कर लिया। और तुमने भी दूसरों ने तुम्हें जो आत्मज्ञान दिया है, उस पर भरोसा कर लिया है। कोई उपनिषद पर भरोसा कर रहा है, कोई गीता पर, कोई वेद पर, कोई कुरान पर; लेकिन ये सब प्रकाश दूसरों के दिये हुए हैं। प्रकाश तो कोई तुम्हें दे देगा, आंखें तुम्हें कौन देगा? मित्र आंखें तो निकालकर नहीं दे सकता है कि यह ले जाओ, रास्ता अंधेरा है, इनका उपयोग कर लेना। लालटेन दे सकता है, लेकिन अंधे के लिए लालटेन का कोई भी अर्थ नहीं; खतरा है। उसके लिए लालटेन सहारा नहीं बनेगी। लालटेन ही बाधा हो गई, उसके कारण ही कोई टकरा गया।
और ध्यान रहे, दूसरे के द्वारा दिया गया प्रकाश सदा बुझा हुआ होगा। क्योंकि एक तो दीया तुम्हारे भीतर है, जो जलता है बिन बाती बिन तेल। वह कभी नहीं बुझता। लेकिन उस दीये का तुम्हें पता नहीं। और एक दीया, जो तुम्हें बाहर से दिया जा सकता है, वह सदा बुझता है, क्योंकि उसका तेल है, चुक जायेगा। उसकी बाती है; बुझ जायेगी; हवा का झोंका उसे मिटा देगा। कोई भी कारण मिल जायेगा और वह बुझ जायेगा। वह सदा जलनेवाला नहीं है।
पुरानी पुराण-कथा है कि एलेक्जैंड्रिया में एक प्रकाश स्तंभ था, जो सदा जलता रहता। उस दीये में किसी तेल को डालने की जरूरत न थी, कोई बाती न बदलनी पड़ती थी। सैकड़ों फीट ऊंचा स्तंभ था। वहां तक जाने का भी कोई उपाय न था।
लेकिन मालूम होता है, यह कहानी ही होगी। वह जगत के चमत्कारों में से एक था। यह हो नहीं सकता। बाहर कोई भी दीया बिना बाती बिना तेल के जल नहीं सकता। सूरज इतना बड़ा दीया है, वह भी बुझेगा; क्योंकि उसकी भी बाती और तेल है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि चार हजार साल और सूरज जल सकता है; उसका तेल रोज चुक रहा है। उसका ईंधन समाप्त हो रहा है, क्योंकि रोज ये इतनी किरणें आ रहीं हैं, उतना सूरज बुझता जा रहा है। चार हजार साल में सूरज बिलकुल बुझ जायेगा, चुक जायेगा। सूरज चुक जाता है! इतना बड़ा दीया है, पृथ्वी से साठ हजार गुना बड़ा है, लेकिन अरबों-खरबों सालों में उसकी रोशनी भी खो जाती है। इससे भी बड़े-बड़े सूर्य बुझ चुके हैं। यह सूर्य कोई बहुत बड़ा नहीं है; पृथ्वी से साठ हजार गुना बड़ा है, लेकिन इससे हजारों गुने बड़े सूर्य बुझ चुके हैं, बुझ रहे हैं।
बाहर तो जो भी होगा, अकारण नहीं हो सकता; उसमें कारण होगा। कारण चुकेगा, दीया बुझ जायेगा।
मित्र ने तो बहुत सम्हालकर ही दिया होगा, लेकिन हवा के झोंकों का क्या भरोसा? नहीं, दीये के संबंध में मित्रों का भरोसा नहीं किया जा सकता। और दीये के संबंध में गुरु पर निर्भर मत रहना। गुरु कितना ही दे, तुम्हारे हाथ में ही आते दीया बुझ जायेगा। तुम अंधे ही रहोगे, क्योंकि गुरु की आंख तुम्हारी आंख नहीं बन सकती।
इसलिए वास्तविक गुरु दीये नहीं देता, वास्तविक गुरु केवल आंख को खोलने की विधि देता है। वास्तविक गुरु केवल आंख का उपचार देता है, औषधि देता है। दीयों का क्या भरोसा! कितनी देर चलेंगे? इसलिए वास्तविक गुरु तुम्हें नियम, मर्यादाएं नहीं देता, क्योंकि सभी नियमों की सीमाएं हैं। जो नियम आज ठीक है, वह कल गलत हो सकता है। आज की स्थिति में जो बात मर्यादा थी, कल की स्थिति में अमर्यादा हो सकती है। जो एक परिस्थिति में औषधि है, दूसरी परिस्थिति में जहर हो सकती है। इसलिए वास्तविक गुरु तुम्हें नियम नहीं देता, और न जीवन का अनुशासन देता है। वास्तविक गुरु तुम्हें केवल आंख का उपचार देता है, ताकि हर परिस्थिति में तुम देख सको। दीया बुझ जाये तो तुम जानो, दीया जलता हो तो तुम जानो। रास्ता अंधेरा हो तो दिखाई पड़े, रास्ता प्रकाश से भरा हो तो दिखाई पड़े। कोई टकराए तो तुम पहचानो; तुम किसी से टकराओ तो तुम पहले से जान सको।
झेन फकीर हुआ लिंची, उससे किसी आदमी ने आकर पूछा कि मुझे बताएं, मैं किस तरह का आचरण करूं? मैं कैसा व्यवहार करूं कि मैं सत्य को पा सकूं? लिंची ने कहा, वह मैं तुम्हें नहीं बताऊंगा। तुम गलत आदमी के पास आ गये। क्योंकि आचरण कोई बंधी हुई बात नहीं है। आज तुम्हें कहूं ठीक, कल की परिस्थिति में गलत हो जाये। फिर तुम्हारे साथ चौबीस घंटे मैं न रहूंगा। आज मैं हूं, कल मैं नहीं रहूंगा; तुम किससे पूछोगे? फिर तुम किसी और से पूछोगे, वह कुछ और जवाब देगा।
सारे धर्मों ने आचरण के अलग-अलग नियम निर्धारित किए हैं। जैन से पूछें, तो वह कहता है शाकाहार, शुद्ध शाकाहार आचरण है। और जब तक तुमने जरा-सा भी जीवाणु को नुकसान पहुंचाया कि तुम सत्य को न पा सकोगे। लेकिन ईसाई, मुसलमान चिंता नहीं करते शाकाहार की। फिर भी वहां से भी लोग सत्य तक पहुंचे हैं।
और क्वेकर ही, ईसाइयों का एक संप्रदाय है, वह दूध भी नहीं पीता। वे जैनों को मांसाहारी समझते हैं क्योंकि दूध खून है; और दूध में हिंसा है। जब तुम गाय से दूध छीनते हो तो तुम बछड़े का दूध छीन रहे हो। लेकिन जैनों के शास्त्र, हिंदुओं के शास्त्र दूध को तो पवित्रतम भोजन कहते हैं; शुद्धतम। लेकिन उसमें हिंसा तो है ही, क्योंकि दूध बछड़े के लिए था, तुम्हारे लिए नहीं था। बछड़े का भोजन तुम छीन लिये हो, और तुम सोच रहे हो कि शुद्ध आहार है। और दूध बनता तो खून से है। इसलिए दूध पीने से खून जल्दी बढ़ता है, इसलिये दूध पूरा आहार है। बच्चा और कुछ नहीं लेता, सिर्फ मां का दूध काफी है, सब काम कर देता है दूध, क्योंकि दूध शुद्ध खून है। सारे शरीर को पुष्ट कर देता है। क्वेकर दूध नहीं पीते, लेकिन क्वेकर अंडा खाता है। वह कहता है, जब तक अंडे में चूज़ा प्रगट नहीं हुआ, तब तक कोई हिंसा नहीं।
किसकी सुनिए? अगर जैनों की बात को पूरा मानकर चलिए तो वृक्ष से फल को तोड़ना भी पाप है। क्योंकि चोट लगती है, गहरी चोट लगती है। लेकिन तब तो गेहूं या कोई भी अनाज खाना पाप है। क्योंकि गेहूं बीज है; उससे न मालूम कितने वृक्ष पैदा होते। अगर अंडे से मुर्गी पैदा होनेवाली है तो गेहूं से न मालूम कितने वृक्ष पैदा होनेवाले थे। तुम उन सबको खा गए। वृक्ष का जीवन है, जैसा मुर्गी का जीवन है। गेहूं अंडा है। उससे वृक्ष होनेवाले थे, वह तुम खा गए। अगर आचरण की तरफ कोई विचार करने लग जाये तो किसी निष्कर्ष पर कभी नहीं पहुंच पायेगा। कोई निष्कर्ष ही नहीं है फिर। फिर वह आचरण के संबंध में सोचते-सोचते मर जायेगा। आचरण जीने का न समय बचेगा, न सुविधा।
लिंची ने कहा कि आचरण के सूत्र मैं तुम्हें न दूंगा। तुम मेरे पास रुको, मैं तुम्हें ध्यान दूंगा ताकि तुम्हारी आंखें खुल जायें। फिर खुली आंखों से जो तुम्हें ठीक लगे करना; वही आचरण है। इसलिए सदज्ञानियों ने कहा है, खुली आंख से जो भी ठीक लगे, वही आचरण है। बंद आंख से जो भी किया जाये, वही अनाचरण है। तो बंद आंख से अहिंसा भी अनाचरण है, खुली आंख से हिंसा भी आचरण हो सकती है।
इसीलिए कृष्ण अर्जुन को कह सके, ‘तू फिक्र मत कर; सिर्फ आंख खुली रख और युद्ध में कूद जा; फिर कोई हिंसा नहीं है।’ यह जरा जटिल बात है। खुली आंख से संभोग भी ब्रह्मचर्य हो सकता है। बंद आंख से ब्रह्मचर्य भी दमित संभोग है। पर यह जरा जटिल है बात। इसलिए कृष्ण इतना बड़ा रास रचा सके, इतनी स्त्रियों से प्रेम कर सके।
आंख खुली हो तो आचरण सदा ठीक है। आंख बंद हो तो आचरण सदा गलत है। और जब आंख बंद हो तो जो भी आचरण हम स्वीकार करते हैं, वह दूसरे के दिये हुए दीये हैं। वह अपनी अनुभूति नहीं, वह अंतःप्रज्ञा नहीं।
मित्र प्रेमी था, भला था। सहानुभूति से ही उसने कहा कि दीया ले जाओ, कोई तुमसे टकरा न जाये। लेकिन तर्क छोटा है, जीवन बहुत बड़ा है। तर्क सब इंतजाम कर लेता है, जीवन का एक हल्का-सा हवा का झोंका आता है, दीये बुझ जाते हैं और तर्क की सब व्यवस्था टूट जाती है।
तुम्हारे पास भी जो दीये हैं, जिनके सहारे तुम चल रहे हो, एक सवाल अपने से पूछ लेना कि वह दूसरों के दिये हुए हैं, या स्वयंस्फूर्त हैं? तुम्हारी आंखें उनमें हैं, या सिर्फ मित्रों की सहानुभूति? मित्रों की सहानुभूति पर्याप्त नहीं है! और जब कोई तुम्हें दीया दे, तो उसे धन्यवाद देना लेकिन दीया मत लेना। कहना, दीया तो मैं खुद ही खोजूंगा।
जैसी यह कहानी है, ऐसी एक और झेन कथा है। एक सदगुरु के पास एक युवक कुछ खोजने आया। उसके प्रश्न लंबे थे, जिज्ञासा गहरी थी और रात हो गई थी। तो सदगुरु ने कहा कि रात अंधेरी है, भय तो नहीं लगता?
उस युवक ने कहा, आपने ठीक पहचाना; भय लगता है। गांव तक पहुंचने में बड़ा जंगल बीच में है, खूंखार जानवर हैं।
गुरु ने कहा, ‘काश, मैं तुम्हें साथ दे सकता! लेकिन इस जगत में सब अकेले हैं। जंगल घना है, जंगली जानवर हैं, रास्ता उलझन से भरा है, भटकने की पूरी संभावना है, लेकिन काश, इस जगत में कोई किसी का साथ दे सकता!’
युवक तो थोड़ा हैरान हुआ कि यह भी खूब तरकीब बचने की निकाल रहे हैं! साथ दे सकते हैं, जा सकते हैं। तुम्हारा परिचित है जंगल, तुम यहां झोपड़ा बनाकर रहते हो। लेकिन अशिष्टता होगी कुछ कहना, तो चुप रहा।
फिर गुरु ने कहा, ‘लेकिन एक काम मैं कर सकता हूं, दीया तुम्हें दे सकता हूं। रात अंधेरी है, यह प्रकाश तुम ले जाओ।’
युवक के हाथ में दीया उसने दिया। युवक ने सोचा यही बहुत। न कुछ से यह भी काफी है। डूबते को तिनका भी सहारा है। कम से कम देख तो सकूंगा अंधेरे में, रास्ता कहां है! लेकिन जैसे ही वह सीढ़ियां उतरने लगा, सदगुरु ने फूंक मारी और दीया बुझा दिया। उस युवक ने कहा, ‘आप यह क्या कर रहे हैं? आप क्या मजाक कर रहे हैं?’
गुरु ने कहा, ‘दूसरों का दिया हुआ दीया काम पड़ नहीं सकता। न केवल रास्ता अकेला है, न केवल हर आदमी अकेला पैदा होता है, अकेला चलता है, और अकेला मरता है, यहां उधार ज्ञान से कुछ भी सुविधा नहीं बनती। मैं तुम्हारा शत्रु नहीं हूं, इसलिए तुम्हें यह भ्रांति नहीं दे सकता कि उधार प्रकाश काम आ सकता है। इसके पहले कि हवाएं तुम्हारे दीये को बुझाएं, मैं स्वयं बुझा देता हूं। तुम अंधेरे में ही जाओ, अपना रास्ता खोजो।’
होश रखना! वह तुम्हारे भीतर है। वह मैं नहीं दे सकता। और यह रात कीमती है क्योंकि अंधेरा घना है और जंगली जानवर निकट हैं। रास्ता अनजाना है, गांव दूर है। इस खतरे की स्थिति में हो सकता है, तुम होश को सम्हालो। इस खतरे की स्थिति में तुम सम्हलकर चलो; क्योंकि राजपथों पर कोई भी सम्हलकर नहीं चलता। राजपथ हम बनाते ही इसीलिए हैं ताकि वहां शराब पीकर चल सकें; जहां होश की जरूरत न हो। घरों में कोई होश से नहीं रहता, घर बनाते हम इसीलिये हैं कि वहां सब सुरक्षित है, सावधानी की कोई जरूरत नहीं। जंगल में होश रखना पड़ता है।
कुछ आश्चर्य न होगा कि जिस दिन आदमी ने जंगल छोड़ा और घर बनाए, उसी दिन से आदमी ने होश भी छोड़ा और घरों में सुरक्षित हो गया। इसलिये अगर तुम खानाबदोशों से परिचित हो तो उनमें तुम जिस तरह की सावधानी पाओगे, उस तरह की गृहस्थों में नहीं पा सकते। जो लोग घुमक्कड़ हैं, कुछ जातियां अभी भी घुमक्कड़ हैं। बलूचियों का एक वर्ग अभी भी घूमते ही रहता है।... हब्शी हैं, वे घूमते ही रहते हैं। हालांकि सारी दुनिया के सभ्य लोग उनके खिलाफ हैं। और सब मुल्कों में कानून बनाए जा रहे हैं कि हब्शियों को प्रवेश न करने दिया जाये। उनको बसाया जाये जबरदस्ती। उनको भटकने न दिया जाये क्योंकि यह भटकते हुए आवारा लोग--ये सभ्य नहीं हैं।
लेकिन जो लोग भी हब्शियों के पास रहे हैं, उन्हें उनमें एक चीज दिखाई पड़ती है, जो घरों में रहनेवाले लोगों में खो गई है। वह है एक खास तरह का होश। जिसको चौबीस घंटे भटकना है, जिसको साल भर चलना है, वर्षा हो कि ठंड हो कि गर्मी हो, जिसको रुकने के लिए कोई पड़ाव नहीं, जिसको कोई छाया नहीं, जिसको सुरक्षा की कोई सुविधा नहीं, जिसके भीतर सो सके, निश्चित ही उसमें एक तरह का होश होगा। और आदमी जब खानाबदोश की हालत में था तो उसमें एक होश था।
इसलिए कुछ आश्चर्य की बात नहीं कि भारत में बहुत से लोग घर-गृहस्थी को छोड़कर संन्यासी हुए। संन्यासी का मतलब है, फिर आवारा हो जाना। संन्यासी का मतलब है, फिर घुमक्कड़ हो जाना। संन्यासी परिव्राजक है, खानाबदोश है; वह घर नहीं बनायेगा, वह सुरक्षा में नहीं रुकेगा। वह चलता ही रहेगा। अनजान रास्ते होंगे, खतरे होंगे। रात सोएगा तो खतरा होगा, दिन बैठेगा तो खतरा होगा। आज भोजन है, कल भोजन हो या न हो, इस सारे खतरे की स्थिति में होश जगता है।
सदगुरु ने कहा कि तुम जाओ, अंधेरा शुभ है। जंगली जानवर भी मित्र हैं, अगर तुम होश से जा सको। और जो होश से चलता है, वह भटकता नहीं, पहुंच ही जाता है।
यह मित्र तो करुणावान था, लेकिन बोधपूर्ण नहीं था। यह मित्र समझदार था लेकिन समझदारी इस दुनिया की थी, जो काफी नहीं है। यह मित्र होशियार था और तर्क में कुशल था, लेकिन जीवन के रहस्य का इसे कुछ भी पता नहीं है। इसने इंतजाम किया लेकिन वह इंतजाम टूट गया। दो कदम चला, और इंतजाम टूट गया।
हमारे सभी इंतजाम ऐसे हैं; दो कदम चल भी नहीं पाते कि टूट जाते हैं। जिंदगी इतनी बड़ी है कि गणित में समा नहीं पाती। और जो भी हम सोचते हैं वैसा होता नहीं, कुछ और होता है।
प्रकाश दूसरे से कभी मत लेना। वह झूठा होगा। और तुम उसके कारण ही टकराओगे। लेकिन हमारे पास सारा ज्ञान उधार है। जो भी हम जानते हैं, वह किसी और का जाना हुआ है। आत्मा या परमात्मा या मोक्ष सुनी हुई बातें हैं। शास्त्रों से पढ़े हुए शब्द हैं, अनुभूतियां नहीं।
कथा मधुर है; और कथा यह कह रही है कि अंधे हो तुम। बहुत मित्र हैं, जो सहानुभूति रखते हैं। वे तुम्हें दीये देना भी चाहें तो धन्यवाद देना, लेकिन दीये लेना मत। उनसे पूछना कि अगर कुछ देना ही हो तो आंख का उपचार बताओ।
जो दीये देते हैं, वे तुम्हें शास्त्र पकड़ा देंगे। शास्त्र दीये हैं बुझे हुए और न मालूम कब के बुझ गए हैं! गीता को बुझे हुए कितना समय हो चुका! वह जब कृष्ण ने अर्जुन को दी, तभी बुझ गई। कुरान को बुझे हुए काफी समय हो गया। वह जब मुहम्मद ने लिखवाया, तभी बुझ गया। यह ज्ञान ऐसा है कि इसे हस्तांतरित तो किया नहीं जा सकता। जब भी कोई किसी दूसरे को देता है, तभी बुझ जाता है। जिंदा देने का कोई उपाय नहीं। यह मर ही जाता है देने में। जो शास्त्रों को सम्हाल रहे हैं, वे दीयों को सम्हाल रहे हैं, जो बुझे हुए हैं; जिनकी रोशनी कभी की खो गई।
इसलिए सदगुरु तुम्हें शास्त्र नहीं देता, सदगुरु तुम्हें ज्ञान देता है। वह तुम्हें यह नहीं बताता कि क्या ठीक है, वह तुम्हें आंखें देता है, जो ठीक को देख सकें। और ध्यान उपचार है, ध्यान सिद्धांत नहीं है।
इसलिए बुद्ध को जो जानते हैं, उन्होंने कहा है कि बुद्ध एक वैद्य हैं। नानक को जो लोग पहचानते थे, उन्होंने कहा है कि नानक एक वैद्य हैं। वे जो दे रहे हैं, वह कोई सिद्धांत नहीं है; वे जो दे रहे हैं, वह एक तरकीब है, एक विधि है, एक तकनीक है; जिससे बंद आंख खुल जाती है।
और तुम अंधे होते तो मुश्किल थी। तुम अंधे नहीं हो, सिर्फ आंख बंद है। मगर इतनी सदियों से बंद है कि तुम भूल ही गए हो कि पलक खोली जा सकती है। पलक को लकवा लग गया है बस, और कुछ भी नहीं। पलक बोझिल हो गई है। बहुत-बहुत जन्मों से न खोलने की वजह से तुम्हें खोलने का खयाल ही भूल गया है।
ध्यान का अर्थ है: पलक को खोलने की तरकीब।
और जैसे ही तुम्हारी पलक खुल जाये, सब अंधेरा खो जाता है। आंख हो तो अंधेरे में भी चलना आसान है। आंख न हो तो प्रकाश में भी चलना मुश्किल है। इसलिए असली प्रकाश, आंख है। आंख तुम्हारे भीतर सूरज का अंश है। और भीतर का सूरज जल रहा हो तो बाहर के सूरज से संबंध जुड़ जाता है। भीतर का सूरज न जल रहा हो तो बाहर का सूरज व्यर्थ है, कोई सेतु नहीं बनता।
यह कथा मधुर है। तुम उसे अपने भीतर गुनगुनाना। तुम इसका स्मरण रखना। जल्दी मत करना। दीये सस्ते मिलते हैं। शास्त्र बाजार में बिकते हैं। अज्ञानी मित्र काफी हैं, जो तुमसे सहानुभूति रखते हैं। वे सलाह देने को सदा तैयार हैं। तुम न भी मांगो सलाह, तो तुम्हें सलाह देने को तैयार हैं। गुरु बाजार-बाजार बैठे हैं, जो तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनके पास कोई सामग्री है, जो बेचनी है।
इस कहानी को याद रखना। कोई दीया दे भी, तो वापिस लौटा देना। धन्यवाद देना, करुणा के लिए, प्रेम के लिए, सहानुभूति के लिए, लेकिन उधार ज्ञान मत लेना। क्योंकि जितने तुम उधार से भर जाओगे, उतना ही अपने की खोज मुश्किल हो जाएगी। और जितना उधार पर भरोसा आ जायेगा, उतनी ही खोज की जरूरत न मालूम पड़ेगी। और उधार ज्ञान की वजह से अगर तुम अकड़कर चलने लगे तो ज्यादा देर नहीं है कि तुम टकराओगे; तब क्रोध जन्मेगा। क्रोध का कारण दूसरा आदमी नहीं है, तुम्हारे हाथ में दीया बुझा हुआ है।
उस दीये को खोजो, जो बिना तेल के जलता है, बिना बाती के। वह तुम्हारे भीतर है; उसे तुमने कभी भी खोया नहीं, एक क्षण को उसे खोया नहीं है। अन्यथा तुम हो ही नहीं सकते थे।
तुम मुझे सुन रहे हो, कौन सुन रहा है? वही दीया!
तुम रास्ते पर चलते हो, भला डगमगाते हो, लेकिन कौन चल रहा है? वही दीया! तुम भूल करते हो, लेकिन तुम्हें स्मरण भी आता है कि भूल की। किसे स्मरण आता है? होश भीतर है! कितना ही दबा हो, कितनी ही पर्तें उसके चारों तरफ धुएं की हों, लेकिन दीया भीतर है। थोड़ी-सी धुएं की पर्तें काटनी हैं।
इसलिये धर्म एक प्रक्रिया है, एक उपचार है, एक चिकित्सा है। धर्म कोई दर्शन नहीं, धर्म कोई शास्त्र नहीं, धर्म एक विज्ञान है--अंतश्चक्षु की खोज।
कुछ और?
भगवान, सदाचार के जितने भी नियम हैं, पहले के या आज के, खोजा जाये तो सभी किसी न किसी धर्म से ही निकले हैं--चाहे बाइबिल से, चाहे कुरान से, चाहे मनुस्मृति से, चाहे पतंजलि के योगसूत्र से। पतंजलि ने तो योगसूत्र के आरंभ में ही यम-नियम ऐसे कठिन सदाचार दे रखे हैं। तो फिर हम उनको छोड़कर कैसे चल सकते हैं?
छोड़कर चलने का सवाल नहीं है। उन्हीं को मानकर बैठ जाने का खतरा है। जब मैं कहता हूं कि अंतसप्रकाश से जीयो तो इसका यह मतलब नहीं है कि समाज के सब आचरण के नियम तुम तोड़ दो। उससे तुम मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि वह तो खेल का नियम है। वह तो वैसा ही है, जैसा सड़क पर बायें चलने का नियम है; उसकी कोई शाश्वतता नहीं है। कोई बायें चलनेवाला स्वर्ग पहुंचेगा और दायें चलनेवाला नर्क पहुंच जायेगा, ऐसा नहीं है; लेकिन अगर तुम दायें चले तो कार के नीचे आ जाओगे। क्योंकि पूरा समाज बायां मानकर चल रहा है। इसमें कोई नियम की शाश्वतता नहीं है। अमरीका में वे दायें चल रहे हैं तो दायें चलने का नियम है। अमरीका जाते ही से तुमको नियम अपना बदल लेना पड़ेगा।
जैसा सड़क का नियम है, बस वैसे ही आचरण के नियम हैं। और आचरण के नियमों की जरूरत है क्योंकि तुम अकेले नहीं हो, बहुत लोग यहां रह रहे हैं। यहां कुछ व्यवस्था मानकर चलना पड़ेगी। और यहां किसी का भी दीया जला हुआ नहीं है। अगर बिलकुल व्यवस्था छोड़ दी जाये तो एक क्षण भी जीना संभव नहीं होगा।
लोग झूठ हैं, उनका व्यक्तित्व झूठ है, इसलिये नियम मानकर चलना पड़ता है कि सत्य, आचरण बनाओ। झूठ चलता है; सौ में से नब्बे प्रतिशत झूठ चलता है, लेकिन इस झूठ के बीच भी दस प्रतिशत सत्य को हम जमाते हैं; उससे समाज जीता है। यहां कोई आचरण भीतर से निकल नहीं रहा है किसी के।
तो दो ही उपाय हैं: या तो भीतर से आचरण निकले, तब तक हम प्रतीक्षा करें; और या फिर हम झूठे आचरण के नियम स्थापित कर लें, जिनसे काम चल जाये। ये नियम युटिलिटेरियन हैं, कामचलाऊ हैं। इनकी जरूरत है। इनकी जरूरत इसलिये है कि यहां इतना भीड़-भड़क्का है, कि यहां किसी न किसी तरह रास्ते पर हमें सोचकर चलना पड़ेगा कि आते हुए लोग बायें से चलें, लौटते हुए लोग दायें से चलें; अन्यथा उपद्रव होगा।
और जैसे-जैसे दुनिया की संख्या बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे आचरण के नियमों की ज्यादा जरूरत पड़ती जाती है। एक जंगली कौम, वह बिना नियमों के रह सकती है, या थोड़े-से नियम से काम चल जाता है। जितनी सभ्यता सघन होगी, उतने ज्यादा नियम चाहिये क्योंकि उतने लोग बढ़ते जाते हैं; नहीं तो अराजकता होगी।
जब मैं कहता हूं, अंतसप्रकाश को खोजो तो उससे यह भ्रांत निष्कर्ष मत ले लेना कि तुम्हें सब समाज के नियम तोड़ देने हैं। समाज का नियम तो खेल है। समाज का नियम तो नाटक की एक व्यवस्था है; उसे मानकर ही चलना होगा।
मैंने सुना है, एक गांव में रामलीला हो रही थी; और जो रावण बना था और जो स्त्री सीता बनी थी, वह वस्तुतः उसके प्रेम में था। तो जब शिव का धनुष तोड़ने की बारी आई तो बाहर आवाज गूंजती है राज-मंडप के, कि लंका में आग लगी है। रावण को जाना चाहिए। वह चला जायेगा, इस बीच राम धनुष को तोड़ लेंगे, विवाह हो जायेगा, कथा चलेगी। वह रावण जो था, उसने कहा, ‘लगी रहने दो आग! जल जाये लंका! आज मैं यहां से जानेवाला नहीं।’ बड़ी मुसीबत खड़ी हो गई; क्योंकि वह तो नाटक था और इसके पहले कि कोई रोक-टोक कर सके, परदा गिराये, वह उठा और उसने धनुष तोड़कर रख दिया। वह धनुष कोई शिवजी का धनुष तो था नहीं! साधारण बांस का धनुष था, उसने तोड़कर रख दिया।
जनक सिंहासन पर बैठे घबड़ाए। वह सारी कथा ही उसने खत्म कर दी।
उसने कहा, ‘कहां है तेरी सीता? निकाल! आज तो विवाह होकर रहेगा।’
अब उसका अगर विवाह हो जाये, तो आगे सब उपद्रव! जनक तो बूढ़ा आदमी था, लेकिन पुराना कुशल अभिनेता था। उसने तत्क्षण रास्ता निकाला। उसने कहा, ‘भृत्यो! यह तुम मेरे बच्चों के खेलने का धनुष उठा लाए, शिवजी का धनुष लाओ।’
तब परदा गिराकर रावण को बाहर करना पड़ा, दूसरे आदमी को रावण बनाना पड़ा। क्योंकि उस आदमी ने नाटक का नियम... नाटक तो नियम से चलता है!
जिस समाज में तुम जी रहे हो, वह एक बड़ा नाटक है। वहां मंच बड़ी है। वहां दर्शक कोई है ही नहीं, सभी अभिनेता हैं। वहां तुम्हें नियम मानकर चलना पड़ेगा। वहां तुम जान भी लो कि यह धनुष शिवजी का नहीं है तो भी तोड़ना मत; अन्यथा तुम्हारे जीवन में कठिनाई होगी, सुविधा नहीं होगी; और भीतर के प्रकाश की खोज में मुश्किल पड़ जायेगी।
इसलिये पतंजलि ने, महावीर ने, बुद्ध ने जो शील के नियम कहे हैं, वे सिर्फ इसलिये कहे हैं ताकि तुम समाज के साथ अकारण उपद्रव में न पड़ो; अन्यथा तुम्हारी शक्ति झगड़े में नष्ट होगी। भीतर की खोज कौन करेगा? बुद्ध, पतंजलि के कारण भारत में कभी क्रांति नहीं हुई। क्योंकि बुद्ध और महावीर और पतंजलि ने कहा कि अगर तुम क्रांति में पड़ोगे, तो भीतर की क्रांति में कौन जायेगा? और असली क्रांति वहां है। इन छोटे-छोटे नियम को बदलने से नहीं, कि बायें चलना ठीक नहीं, दायें चलेंगे...!
च्वांगत्से एक छोटी-सी कहानी कहता था। च्वांगत्से कहता था कि एक गांव में एक सर्कस था। सर्कस का मैनेजर था, मैनेजर के पास बंदर थे। उन बंदरों को वह सर्कस में खेल दिखलाता था। बंदरों को रोज सुबह चार रोटी दी जाती थीं, शाम को तीन रोटी दी जाती थीं। एक दिन ऐेसा हुआ कि रोटियां थोड़ी कम पड़ गईं तो मैनेजर ने कहा सुबह कि बंदरो! तीन ले लो, शाम को चार दे देंगे। बंदर एकदम नाराज हो गए। उन्होंने बहुत शोरगुल मचाया, उछल-कूद की। उन्होंने कहा कि नहीं, यह नहीं चलेगा। यह बर्दाश्त के बाहर है। सदा हमें चार मिलती रही हैं। उसने बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन बंदर, तो बंदर! बहुत समझाने की कोशिश की कि चार और तीन सात ही होते हैं। चाहे सुबह चार लो कि तीन लो, चाहे शाम को चार लोगे, तो बंदरों ने कहा कि यह फालतू बातें हमसे मत करो। चार हमें सदा मिलती रही हैं, चार हमें चाहिये। जब उन्हें चार रोटियां दे दी गईं, बंदर एकदम प्रसन्न हो गए। सांझ को तीन रोटियां मिलीं, वे प्रसन्न थे। कुल मिलाकर वे सात थीं।
करीब-करीब क्रांतियां ऐेसी ही हैं--सभी क्रांतियां! उसमें सुबह चार मिलनी चाहियें, तीन नहीं लेंगे; कि शाम को चार मिलनी चाहिये, तीन नहीं लेंगे; लेकिन अंततः जो़ड़ बराबर सात होता है। कोई फर्क नहीं पड़ता। समाज के जीवन में कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ते हैं, बुनियादी क्रांति तो व्यक्ति के जीवन में घटित होती है। इसलिये पतंजलि ने कहा कि तुम इन सब नियमों को मानकर चलना ताकि समाज के साथ व्यर्थ की कलह खड़ी न हो। अन्यथा समाज बड़ा है और तुम कलह में ही नष्ट हो जाओगे। इसलिये विद्रोही व्यक्ति अकसर सत्य को उपलब्ध नहीं हो पाते; न शांति को उपलब्ध हो पाते हैं; क्योंकि वे छोटी-छोटी बातों में लड़ रहे हैं, छोटी-छोटी बातों में उलझ रहे हैं। अगर बदलाहट भी हो जायेगी तो इतना ही फर्क पड़ेगा कि शाम को तीन रोटी, सुबह चार मिलेंगी; और कोई फर्क पड़नेवाला नहीं है। लेकिन तुम्हारा जीवन खो जायेगा।
समाज के साथ एक समझौता है इन नियमों में, कि हम तुम्हारे खेल का नियम मानकर चलते हैं, तुम हमें परेशान न करो। ताकि हम अपने भीतर प्रवेश कर सकें। तुम हमें बाधा न दो। जब समाज आश्वस्त हो जाता है कि तुम्हारा आचरण ठीक है, समाज बाधा नहीं देता। तुम उसका नियम मानकर चल रहे हो, फिर तुम ध्यान में जाओ, संन्यास में जाओ, तुम गहरी प्रज्ञा में प्रवेश करो, वह बाधा नहीं देता बल्कि साथ देता है। एक दफा उसे पता चल जाये कि तुम उपद्रव खड़ा करते हो, तुम नियम तोड़ते हो, तो वह तुम्हारा दुश्मन हो जाता है।
हम बुद्ध को सूली पर नहीं चढ़ाए, न महावीर को सूली पर चढ़ाए। चौबीस तीर्थंकर भारत में हुए, बिना सूली चढ़े चल बसे। बुद्ध, राम, कृष्ण को किसी को हमने सूली पर नहीं चढ़ाया। जीसस को सूली लग गई। उसका कुल कारण इतना था कि जीसस ने कुछ अजनबी प्रयोग कर लिया वहां। जीसस ने समाज के छोटे-मोटे नियमों की खिलाफत कर दी। अगर जीसस ने पतंजलि के सूत्र पढ़े होते, सूली नहीं लगती। छोटी-मोटी बातों पर झगड़ा खड़ा कर लिया। उस झगड़े के कारण कोई परिणाम अच्छा नहीं हुआ। उस झगड़े के कारण लाखों लोग लाभ ले सकते थे जीसस के दीये का, वे वंचित रह गये। और सूली लग जाने की वजह से, जीसस के पीछे जो अनुयायियों का वर्ग आया, वह सूली से प्रभावित होकर आया। वह गलत था। वह जीसस की प्रज्ञा से प्रभावित नहीं हुआ, सूली से प्रभावित हुआ कि महान शहीद हैं। इसलिये क्रिश्चियनिटी बुनियाद में पॉलिटीकल हो गई, राजनैतिक हो गई।
वही भूल इस्लाम के साथ हो गई। मोहम्मद ने छोटी-छोटी बातों में बदलाहट करने की कोशिश की। उसकी वजह से मोहम्मद को चौबीस घंटे तलवार लिये खड़ा रहना पड़ा। और जब मोहम्मद ने तलवार ले ली तो फिर अनुयायी तो तलवार छोड़ ही नहीं सकता। तो फिर यह चौदह सौ वर्ष से मुसलमान तलवार लिये घूम रहे हैं, क्षुद्र बातों की बदलाहट के लिए। जिनका कोई मूल्य नहीं है, वह बदल भी जायें तो भी कोई मूल्य नहीं है।
यह जो च्वांगत्से की कथा है, यह बड़ी मीठी है। इस कथा का नाम है, ‘दी ला आफ सेवन’, सात का सिद्धांत। समाज की व्यवस्था कुल जोड़ में वही रहेगी। तुम सिर पटककर यहां-वहां तीन की जगह चार, चार की जगह तीन कर लोगे, लेकिन पूरे जोड़ में कोई फर्क पड़नेवाला नहीं है। और उचित यही है कि तुम्हारी पूरी जीवन-ऊर्जा अंतःप्रवेश करे, तो तुम व्यर्थ के संघर्ष में न पड़ो। तुम छोटी बातों में मत उलझो।
समाज से अकलह की स्थिति रहे इसलिए पतंजलि का यम-नियमों पर जोर है। और जिस व्यक्ति को धार्मिक क्रांति करनी है, उसे सामाजिक क्रांति से जरा बचना चाहिए। क्योंकि इन दोनों क्रांतियों का मेल नहीं होता है। सामाजिक क्रांतिकारी बाहर के जगत में भटक जाता है। वह अपने तक पहुंच ही नहीं पाता। उसका दीया अपरिचित ही रह जाता है।
इसलिये शील को मानकर चलना, आचरण को मानकर चलना। और जिस समाज में जाओ, उसके शील और आचरण को मान लेना; ताकि तुम्हारी ऊर्जा व्यर्थ संघर्ष में व्यय न हो और तुम्हारी पूरी ऊर्जा अंतर्मुखी हो सके।
संघर्ष बहिर्मुखता है, साधना अंतर्मुखी है।
आज इतना ही।
मित्र ने अपनी लालटेन उसके हाथ में थमा दी।
अंधे ने कहा,‘मैं लालटेन लेकर क्या करूं? अंधेरा और रोशनी दोनों मेरे लिए बराबर हैं।’
मित्र ने कहा,‘रास्ता खोजने के लिए तो आपको इसकी जरूरत नहीं है,
लेकिन अंधेरे में कोई दूसरा आपसे न टकरा जाये
इसके लिये यह लालटेन कृपा करके आप अपने साथ रखें।’
अंधा आदमी लालटेन लेकर जो थोड़ी ही दूर गया था कि एक राही उससे टकरा गया।
अंधे ने क्रोध में आकर कहा, ‘देखकर चला करो। यह लालटेन नहीं दिखाई पड़ती है क्या?’
राही ने कहा, ‘भाई तुम्हारी बत्ती ही बुझी हुई है।’
कृपापूर्वक इस कहानी का मर्म हमें समझायें।
प्रकाश दूसरे से मिल सकता है लेकिन आंख दूसरे से नहीं मिल सकती। जानकारी दूसरे से मिल सकती है लेकिन ज्ञान दूसरे से नहीं मिल सकता। और अगर आंख ही न हो तो प्रकाश का क्या करियेगा? ज्ञान न हो तो जानकारी बोझ हो जाती है।
अंधा आदमी बिना लालटेन के ज्यादा सुविधा में था क्योंकि सम्हलकर चलता, होशपूर्वक चलता। अंधा हूं, तो डरकर चलता। हाथ में लालटेन थी, आदमी अंधा था तो आश्वासन से चलने लगा। अब कोई डर न था, अब कोई भय न था, अब कोई कैसे टकराएगा? रोशनी हाथ में है।
लेकिन अंधे आदमी को अपनी रोशनी भी जली है या बुझी है, यह तो दिखाई नहीं पड़ सकता। पहले भी अंधा रोज उन रास्तों से गुजरा होगा, बिना टकराये निकल गया था। आज टकराना सुनिश्चित हो गया। अंधे का भरोसा प्रकाश पर हो गया इसलिए सम्हलकर चलना उसने बंद कर दिया।
पापी जितना सम्हलकर चलता है, पंडित उतना सम्हलकर नहीं चलता। पापी जितना होश रख पाता है उतना पंडित नहीं रख पाता। क्योंकि पापी को तो कोई भी भरोसा नहीं है, भूल होना करीब-करीब निश्चित है। पंडित को भरोसा है, भूल से सुरक्षा है। उसने इंतजाम कर रखा है।
लेकिन सिद्धांत जो दूसरे से मिले हों, हाथ में बुझी हुई लालटेन की तरह हैं।
पांडित्य जो उधार हो, वह आंख नहीं बनता; और आंख सहारा है।
उस अंधे आदमी ने ठीक ही कहा था चलते वक्त कि मेरे पास आंख नहीं है तो मैं लालटेन का क्या करूंगा? उसका तर्क उचित ही था, अनुभव पर आधारित था। जिंदगी उसने अंधे की तरह ही गुजारी है; और गुजार ली है। किसी तरह रास्तों से पार हो ही जाता है। मित्र ने तर्क दिया। और तर्क ठीक मालूम पड़ते हैं और ठीक होते नहीं। क्योंकि जिंदगी कोई तर्क मानकर चलती नहीं।
जिंदगी के रास्ते ज्यादा बेबूझ हैं, तर्क सीधे गणित की तरह हैं।
मित्र का तर्क ठीक ही मालूम पड़ता है। मित्र ने कहा, माना कि तुम तो प्रकाश न देख सकोगे, वह मुझे भी पता है, उसे कहने की कोई जरूरत भी नहीं; लेकिन रास्ता अंधेरा है, रात अंधेरी है, हाथ में प्रकाश होगा तो दूसरे तुमसे टकराने से बच जायेंगे। तो दूसरों के ध्यान से प्रकाश ले जाओ।
अंधा भी जवाब न दे पाया। तर्क तो साफ है। गणित में कहीं कोई भूलचूक नहीं। लेकिन न मित्र को खयाल आया, न अंधे को खयाल आया कि अगर हवा के झोंके ने लालटेन बुझा दी, तो अंधे को पता नहीं चलेगा और अंधा इस भरोसे में चलता रहेगा कि लालटेन जल रही है। इसलिए जो सदा की, रोजमर्रा की सावधानी थी, वह भी छूट जायेगी और आज का यह अपरिचित प्रकाश जो दूसरे ने दिया है, यह भी बुझ सकता है। दोनों को न सूझा, दोनों ही बुद्धि से जी रहे थे। तर्क साफ था, अंधे ने भी स्वीकार कर लिया। लालटेन लेकर रास्ते पर चल पड़ा। दस कदम भी नहीं चला था कि कोई टकरा गया। क्रोध स्वाभाविक है। किसी और दिन कोई आदमी टकरा जाता तो अंधा क्रोध न करता। इसलिए पंडितों में जितना क्रोध दिखाई पड़ेगा, उतना किसी और में नहीं।
कोई और दिन कोई टकरा जाता तो अंधा जानता था कि मैं अंधा हूं, रात अंधेरी है, टकराना स्वाभाविक है। वह टकराने को स्वीकार कर लेता। इसमें एतराज जैसा कुछ भी है नहीं। यह भाग्य था, यह नियति थी कि मैं अंधा हूं और कोई टकरा गया। क्रोध तो तब पैदा होता है जब हम सोचते हैं कि कुछ हो रहा है जो नहीं होना चाहिए था। क्रोध तो तब पैदा होता है जब भाग्य की स्वीकृति नहीं होती। इसे थोड़ा समझें।
जो व्यक्ति भाग्य को स्वीकार करता है, वह अक्रोधी हो जायेगा, क्योंकि वह मानता है, जो होना था वह हुआ है। अनहोना नहीं है कुछ; इसलिए नाराजगी की बात क्या है? इस अंधे से पहले भी लोग टकरा गए होंगे। ऐसा असंभव है कि अंधे से लोग न टकराए हों। पर यह पहले कभी क्रोधित न हुआ होगा। इसने समझा होगा अपनी असहाय अवस्था को। इसने समझा होगा कि अंधा हूं--यह ठीक ही है कि लोग टकरा जाते हैं। थोड़ी-बहुत टकराहट होगी। यह मेरी नियति है, यह मेरा भाग्य है, इस विधि को बदलना आसान नहीं। नाराजगी क्या है? शायद इसके पहले जब कोई अंधे से टकराया होगा तो अंधे ने क्षमा मांगी होगी, क्योंकि अंधा यह तो मान नहीं सकता कि आंखवाले मुझसे टकराये होंगे। अंधा यही समझेगा कि मैं गैर आंखवाला ही आंखवालों से टकरा गया होऊंगा।
अज्ञानी क्षमा मांग ले, पंडित क्षमा नहीं मांग सकता। क्योंकि अज्ञानी स्वीकार करता है कि मैं नासमझ हूं, भूल मुझसे हो सकती है। पंडित स्वीकार नहीं करता कि भूल मुझसे हो सकती है, या कि मैं नासमझ हूं। पंडित से और भूल...होना संभव ही नहीं है!
क्रोध पैदा हुआ, अंधा नाराज हुआ। और अंधे ने जरूर कहा होगा कि ‘क्या अंधे हो? देखकर नहीं चलते? हाथ की लालटेन दिखाई नहीं पड़ती?’
जब भी कोई व्यक्ति अपनी स्थिति को स्वीकार नहीं कर पाता, तभी क्रोध उत्पन्न होना शुरू हो जाता है। अगर तुम्हारे जीवन में क्रोध जलता हो, जगह-जगह निकल आता हो तो इसका अर्थ यही है कि तुम एक बुझी हुई लालटेन लिये हुए चल रहे हो। सोचते हो कि प्रकाश हाथ में है इसलिये कोई टकरायेगा नहीं; लेकिन टकराहट होती है।
सच तो यह है कि सिवाय टकराहट के तुम्हारे जीवन के मार्ग पर कुछ और होता ही नहीं। जिनसे परिचित हो उनसे टकराहट होती है। जिनसे अपरिचित हो उनसे टकराहट होती है--मित्रों से, शत्रुओं से। सिवाय टकराहट के तुम्हारे जीवन की कथा क्या है? जो भी पास आता है उसी से टकराहट होती है और तब तुम बड़े क्रोध से भर जाते हो। और सदा दूसरा दोषी दिखाई पड़ता है। क्योंकि तुम यह तो मान ही नहीं सकते कि तुम्हारा दीया बुझा हुआ है; कि तुम्हारे हाथ में जो रोशनी है, वह खो गयी है। तुम हाथ में अंधेरा लेकर चल रहे हो, यह तो तुम मान ही नहीं सकते। जब भी कोई टकराता है तो उत्तरदायित्व दूसरे का है, वही जिम्मेवार है। इसलिये क्रोध पैदा होता है।
क्रोध का अर्थ है : उत्तरदायित्व दूसरे का है, दूसरा जिम्मेवार है। तुम लाख कोशिश करो क्रोध से बचने की, तुम न बच पाओगे, अगर तुम्हारी दृष्टि दूसरे को जिम्मेवार ठहराने की है। जिस दिन तुम समझोगे कि जिम्मेवार मैं हूं, उस दिन क्रोध को उठने का मूल कारण खो जायेगा। तुमने जड़ काट दी।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, बहुत क्रोध है, कैसे इसे शांत करें? क्रोध को शांत किया नहीं जा सकता। उठा लिया तो भोगना ही पड़ेगा। क्रोध की जड़ काटी जा सकती है; उठे क्रोध को शांत करना मुश्किल है। क्रोध उठे ही न, ऐसी व्यवस्था की जा सकती है। लेकिन तब तुम्हें जीवन की पूरी शैली ही बदलनी पड़े। तुम्हारे जीवन का पूरा ढंग ही तुम्हें रूपांतरित करना पड़े।
अभी तुम्हारे जीवन का ढंग यह है कि दूसरा हमेशा जिम्मेवार मालूम होता है। अगर तुम दुखी हो तो कोई तुम्हें दुखी कर रहा है। अगर तुम परेशान हो तो कोई तुम्हें परेशान कर रहा है। तुम यह मान ही नहीं सकते कि परेशानी तुम्हारे भीतर से आ सकती है, दुख तुम्हारे भीतर से आ सकता है। तुम्हारा अंधापन जिम्मेवार होगा टकराहट में, यह तुम्हारा मन मानने को राजी नहीं होता। और तब तुम टूट पड़ते हो। जब दूसरा जिम्मेवार है तो दूसरे का अपराध सिद्ध करने की तुम कोशिश करते हो। जब तक तुम ऐसा करते रहोगे, तब तक तुम्हारी क्रोध की आग को ईंधन मिलता ही रहेगा। तब तुम घी डाल रहे हो आग में और सोचते हो कि आग शांत हो जाये। पूछते हो, क्रोध कैसे मिटे? पूछो, क्रोध कैसे पैदा होता है? वहीं रोक देना होगा। बीज पर ही रोक देना होगा, पहले कदम पर ही रोक देना होगा।
महावीर का एक बहुत अनूठा सूत्र है। महावीर कहते हैं, पहला कदम उठ गया तो आधी मंज़िल तो आ ही गई। अब बचना मुश्किल है। कदम उठने के पहले ही रुकना आसान है। कदम उठ जाने के बाद यात्रा शुरू हो गई। मध्य से लौटना बहुत मुश्किल है, करीब-करीब असंभव है; क्योंकि ऊर्जा ने एक यात्रा शुरू कर दी।
भोजन किया, गले के नीचे चला गया कि तुम्हारे हाथ के करीब-करीब बाहर हो गया। जब तक तुमने भोजन नहीं किया है तब तक तुम्हारे हाथ में था। तुम चाहते तो न भी करते। तुम चाहते तो उपवास कर लेते। एक बार कंठ के नीचे भोजन उतर गया कि तुम्हारी स्वेच्छा के बाहर हो गया। तब तुम्हारे शरीर ने उसे ले लिया, और शरीर की गतिविधि भोजन को पचाने की, तुम्हारी स्वेच्छा में नहीं है। तुम भोजन नहीं पचाते हो, शरीर भोजन पचाता है। तुमसे पूछता भी नहीं, तुम्हारी जरूरत भी नहीं है। शरीर काम करता है। और अगर पेट में चले गए भोजन से तुम्हें छुटकारा पाना हो तो बड़ी अप्राकृतिक क्रिया करनी पड़े, वमन करना पड़े; जिससे कि पूरे शरीर को धक्के लगेंगे, पूरा तंत्र झकझोर उठेगा। और जितना नुकसान भोजन से हो सकता था, उससे भी ज्यादा नुकसान वमन से हो जायेगा।
अगर क्रोध का पहला कदम उठ गया तो कंठ के नीचे उतर गयी बात। अब लौटना मुश्किल है; और वमन करना पड़े। और वमन कष्टपूर्ण है। क्रोध से जितना नुकसान हो सकता है, उससे भी ज्यादा नुकसान वमन से होगा। तुम टूट जाओगे।
और या फिर एक उपाय है कि तुम दमन कर लो, अगर वमन न करना हो। तो तुम क्रोध को इस भांति पी जाओ कि वह मल बनकर निकल न सके। तब भी तुम कठिनाई में पड़ जाओगे क्योंकि मल शरीर में इकट्ठा हो जाये तो विषाक्त है; तो सारे खून की तह-तह में पहुंच जायेगा, रोएं-रोएं में भर जायेगा। तो जो लोग क्रोध को दमन करते हैं, धीरे-धीरे क्रोध उनके जीवन की व्यवस्था हो जाती है। फिर वे क्रोधित नहीं होते, वे क्रोधित रहते हैं। फिर उठते-बैठते वह क्रोध चल रहा है। वे सिर्फ प्रतीक्षा में हैं कि कहीं कोई बहाना मिल जाये कि उनका क्रोध फूट पड़े। अगर बहाना न मिले तो वे बहाना खोज लेंगे। फिर कोई भी बहाना काम देगा।
तुम्हें भी अपने जीवन का अनुभव है। बहुत बार तुम बहाने खोजते हो; फिर संगत-असंगत भी नहीं देखते। तुम ही पीछे लौटकर सोचोगे तो हंसोगे कि यह मैंने क्या किया! हास्यास्पद था।
एक आदमी एक किसान से उसकी कुल्हाड़ी मांगने आया था। तो उस किसान ने कहा कि आज तो देना मुश्किल है, क्योंकि आज मुझे दाढ़ी बनानी है। जो मांगने आया था वह भी चौंका, लेकिन कुछ बोला नहीं। उससे भी ज्यादा चौंकी किसान की पत्नी; और उसने कहा कि कुछ तो होश-हवास रखो! वह कुल्हाड़ी मांगने आया है और तुम कह रहे हो कि मुझे आज दाढ़ी बनानी है। उस किसान ने कहा कि जब देनी ही नहीं है तो कोई भी बहाना काफी है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि बहाना क्या है? इतनी बात वह भी समझ गया कि देनी नहीं है।
करीब-करीब तुम जब अपने क्रोध को दबा लेते हो तो तुम बहाने की फिक्र नहीं करते। फिर कोई भी बहाना काम दे जाता है। क्रोध ही करना है तो फिर कोई भी बहाना काम कर जाता है। और जहां क्रोध की कोई भी जरूरत न थी, वहां क्रोध फूट पड़ता है। वहां तुम उबल उठते हो और जल उठते हो। जो भी तुम्हारे आसपास हैं, सबको हैरानी होती है। पत्नी समझ नहीं पाती कि पति क्यों नाराज हो रहा है! नाराज़गी का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता। पति समझ नहीं पाता कि मैंने अभी घर में प्रवेश भी नहीं किया कि पत्नी क्यों उबल उठी? नाराज़गी का कोई कारण समझ में नहीं आता। सौ मैं निन्यान्नबे मौके पर दूसरा क्यों नाराज है, यह समझ में नहीं आता। मगर जो नाराज है, वह होश में नहीं है। जैसे क्रोध एक जहर है, जो बेहोश कर देता है।
क्रोध को बीच से तो रोकना मुश्किल है। रोकोगे, तो या तो दमन करना होगा; दमन बहुत खतरनाक है क्योंकि तब तुम्हारे जीवन की पर्त-पर्त में क्रोध छा जायेगा। तुम्हारा प्रेम भी तुम्हारे क्रोध से भर जायेगा। तुम भोजन भी करोगे तो तुम्हारा क्रोध मौजूद रहेगा।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब क्रोध में कोई आदमी भोजन करता है तो वह इस तरह भोजन को चबाता है, जैसे भोजन को मार रहा हो। जब हम क्रोध में आते हैं तो हम कहते हैं कि चबा जाऊंगा। तो चबाने में कहीं न कहीं क्रोध हमारा छिपा हुआ है। नहीं तो ‘चबा जाऊंगा’ इस तरह के भाषा के व्यवहार की कोई जरूरत न थी। क्रोधी आदमी भोजन को पीसता है दांतों के बीच। क्रोधी आदमी रात में भी सोता है तो सपने में दांत पीसता है। क्रोधी आदमियों के दांत घिस जाते हैं। रात में पीसते रहते हैं। क्रोधी आदमी प्रेम भी करेगा तो प्रेम उसका क्रोध जैसा हो जायेगा।
पश्चिम में एक बहुत कुख्यात विचारक हुआ, मार्कविस दी सादे। वह अपने साथ, जैसे डाक्टर एक बैग रखते हैं, ऐसा एक बैग रखता था। बहुत धनपति आदमी था, बड़ा जमींदार था, मार्कविस था। उस बैग में वह प्रेम के सामान छिपाये रखता था। कोड़ा, कांटे, और-और तरह की चीजें उसने ईजाद कर रखी थीं। सुंदर था, धनपति था, सुविधा थी और फ्रांस की रंगीन दुनिया थी। स्त्रियां खोज लेना कोई कठिन न था। लेकिन जब भी वह किसी स्त्री को प्रेम करता तो द्वार-दरवाजे बंद कर देता और बाहर पहरा लगवा देता। पहले तो कोड़ों से उसकी ठीक से पिटाई करता। कांटे चुभाता, सब तरह उसे सताता, तब प्रेम करता। इसलिए मार्कविस दी सादे के नाम पर एक पूरे रोग का नाम ‘सैडिज़म’ पड़ गया। जो व्यक्ति भी प्रेम के माध्यम से दूसरों को सताता है वह ‘सैडिस्ट’ है। मार्कविस दी सादे के नाम से वह शब्द निर्मित हुआ।
अब मार्कविस दी सादे कहता था कि जब तक मैं मारपीट न करूं तब तक मुझ में प्रेम का उदय ही नहीं होता। जब मैं एक स्त्री को तड़फते देखता हूं तब मेरा प्रेम उदय होता है। यह जरा सोचने जैसी बात है। जब आप किसी को तड़फते देखते हैं तब आप में करुणा का जन्म होता है। यह मार्कविस दी सादे जरा गणित में और आगे चला गया। खुद तड़फा ले और फिर प्रेम का अनुभव करे।
लेकिन तुम भी जब किसी को तड़फते देखते हो और तुममें प्रेम का जन्म होता है तो तुम दूसरे को तड़फाने में कुछ न कुछ रस ले रहे हो। दूसरे को तड़फते देखकर तुममें करुणा का जन्म रुग्ण है। करुणा तो सहज होनी चाहिए, दूसरे के तड़फने पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। दूसरा न भी तड़फ रहा हो तो करुणा होनी चाहिए। करुणा तुम्हारा स्वभाव होना चाहिए। लेकिन दूसरा जब तड़फता है तब तुममें करुणा का जन्म होता है, निश्चित ही दूसरे के तड़फने में तुम्हारा क्रोध निष्कासित हो रहा है।
और जब भी क्रोध का निष्कासन होता है तो करुणा का जन्म होता है। यह जरा जटिल बात है। क्योंकि धर्मगुरु यही समझते रहे हैं कि दूसरों को तड़फते देखो तो करुणा करो। मैं तुमसे कहता हूं कि तुम दूसरे को तड़फते देखने के लिए रुकते क्यों हो? तब तुम करुणा करोगे जब दूसरा तड़फेगा, जब दूसरा भूखा मरेगा तब तुम दान करोगे? इतनी देर तुम रुके क्यों? तुम्हारे भीतर कहीं कोई गहन क्रोध छिपा है। मार्कविस दी सादे ज्यादा गणित की आखिरी सीमा पर पहुंच गया। इतनी देर क्यों रुकना? प्रेम के जन्म के लिए दूसरे को तड़फाओ? परिस्थिति पर क्यों निर्भर रहना? खुद तड़फा दो, फिर प्रेम का जन्म हो जाता है।
छोटे-छोटे बच्चे भी इस बात को समझते हैं कि जब भी वे बीमार पड़ते हैं और परेशान होते हैं तभी मां-बाप उनको प्रेम करते हैं। इसलिए बच्चे अकसर झूठे भी बीमार पड़ जाते हैं। या बच्चा अगर गिर पड़े तो चारों तरफ देख लेता है कि कोई है, जो प्रेम प्रगट करेगा? अगर कोई भी नहीं है तो रोना-धोना बेकार है। उठकर चल पड़ता है। लेकिन अगर उसकी मां आसपास हो और वह गिर पड़े तो भारी हायतोबा मचा देता है। क्योंकि उसी हायतोबा से मां का प्रेम उसकी तरफ बहेगा। यह भी कैसा प्रेम है, जो दुख की प्रतीक्षा करता है? इसमें थोड़ा रोग है। इसमें थोड़ा मां रस ले रही है। इस दुख में थोड़ी-सी मां की भी कुछ रेचन-प्रक्रिया हो रही है। उसका क्रोध, उसका दमित वेग इससे बह रहा है।
क्रोध दब जाये तो मवाद की तरह है; जिसे तुमने भीतर छिपा लिया, वह कहीं से भी निकलेगी। और जब भी निकलेगी तब तुम हल्के अनुभव करोगे।
इसलिए क्रोध करके लोग हल्का अनुभव करते हैं। मन बोझ से खाली हो जाता है, जैसे सिर से एक भार उतर गया। तब कितना ही धर्मगुरु कहें कि क्रोध बेकार है, लोग जानते हैं कि क्रोध से हल्कापन आता है। और जब क्रोध को तुम भीतर दबा लेते हो तो सिर भारी हो जाता है। दबा हुआ क्रोध सिरदर्द बन जाता है।
चिकित्सक कहते हैं कि स्त्रियां हृदय की बीमारी से कम पीड़ित होती हैं, हृदय की दुर्बलता से कम पीड़ित होती हैं। हृदय के असफल होने से बहुत कम स्त्रियां मरती हैं। पुरुष मरते हैं; और पुरुषों के मरने की भी एक खास आयु है। चालीस और पचास के बीच पुरुष हार्ट अटैक से, हृदय के आक्रमण से मरते हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि स्त्रियां क्रोध को उतना नहीं दबातीं, जितना पुरुष दबाते हैं। क्योंकि पुरुष का अहंकार स्त्रियों से ज्यादा प्रबल है। भीतर क्रोध जल रहा हो तो भी पुरुष मुस्कुराता है। भीतर से हत्या कर देने का मन हो रहा हो तो भी शिष्टाचार बरतता है। न क्रोधित हो सकता है दूसरे पर, और न खुद पर हो सकता है। न रो सकता है, न चीख सकता है, न चिल्ला सकता है क्योंकि ये सब मर्द के लक्षण नहीं। ऐसा बचपन से बच्चों को समझाया गया है कि रोना मत, क्रोध मत करना। पुरुष का लक्षण है, संयमी, नियंत्रित। और अगर कोई पुरुष रोने लगे तो वह स्त्री है, स्त्रैण है। क्रोधित हो जाये छोटी-छोटी बात में तो बचकाना है, प्रौढ़ नहीं है। छोटे-छोटे बच्चे तक यह समझ जाते हैं फकर्र्, कि स्त्री और पुरुष में एक फर्क है।
मैंने सुना है, एक स्त्री बहुत परेशान थी। उसके छोटे तीन साल के लड़के ने खुद को बाथरूम में बंद कर लिया। न तो बोलता था, न जवाब देता था, भीतर से। यह भी पक्का करना मुश्किल था कि उससे दरवाजा खुल नहीं रहा है या वह खोल नहीं रहा। स्त्री जब थक गयी तो उसने पुलिस स्टेशन को खबर की। पुलिस इन्सपेक्टर आया, उसने पूछा कि बच्चा अंदर है, लड़का है या लड़की? उसने कहा, यह भी कोई पूछने की...इससे क्या मतलब है? निकालो उसे बाहर, लड़का है। उसने कहा कि ठहरो, वह दरवाजे के पास गया और उसने कहा कि बेटी, बाहर निकल आ। वह लड़का तत्काल बाहर निकल आया गुस्से में, कि उससे बेटी कहा! उस इन्सपेक्टर ने कहा कि यह तरकीब हमेशा काम करती है। तीन साल का बच्चा भी मर्द!
आंखों में आंसू की जो ग्रंथियां हैं वे बराबर हैं; पुरुष की हो, चाहे स्त्री की आंख, उसमें रत्ती भर फर्क नहीं है। इसलिए कि प्रकृति ने तो आंखें दोनों की रोने के लिए ही बनायी हैं, लेकिन मर्द रोयेगा नहीं। क्रोध की जितनी ग्रंथियां पुरुष में हैं उतनी ही स्त्री में हैं, उसमें कोई फर्क नहीं। शरीर की जितनी रासायनिक संभावना क्रोध से भरने की पुरुष की है उतनी ही स्त्री की है; उसमें कोई अंतर नहीं।
लेकिन पुरुष दबाता है; उसे दबाना सिखाया जाता है। दबाते-दबाते चालीस साल के करीब वह वक्त आ जाता है, इसके बाद झेलना मुश्किल हो जाता है। इसलिए हृदय दुर्बल हो जाता है, क्योंकि सब दमन हृदय को दुर्बल करता है। पुरुष मरते हैं हृदय रोग से, स्त्रियां नहीं मरतीं। रो-धो लेती हैं, हल्की हो लेती हैं। रोज निपटारा हो जाता है, इकट्ठा नहीं हो पाता। क्रोध कर लेती हैं, नाराज हो जाती हैं, दूसरे को न मार सकें तो खुद को पीट लेती हैं।
यह जानकर हैरान होंगे कि पुरुष स्त्रियों से दुगुने पागल होते हैं। और आमतौर से आप सोचते होंगे स्त्रियां ज्यादा आत्महत्या करती हैं तो आप गलती में हैं। न तो स्त्रियां ज्यादा पागल होती हैं और न ज्यादा आत्महत्या करती हैं; पुरुष ही करते हैं। अपराध भी स्त्रियां कम करती हैं, पुरुष ही करते हैं।
जैसे सारे उपद्रव पुरुष करता है! और मनस्विद कहता है कि इसके मूल में कारण है कि पुरुष सारी मवाद को इकट्ठा करता चला जाता है। फिर वह इतनी इकट्ठी हो जाती है, कि जब फूटकर बहती है तो उससे दुर्घटना ही होती है।
क्रोध को न तो दबाया जा सकता है और न क्रोध का वमन किया जा सकता है। वमन भी नुकसान पहुंचाता है। सारा शरीर संस्थान कंप जाता है। बहुत बार तुम वमन भी करते हो। वमन दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि भोजन तो दृश्य है, क्रोध इतने दृश्य नहीं; लेकिन क्रोध का वमन भी चलता है। कई तरह से क्रोध का वमन हो रहा है।
पुरुष नाराज है, उसने कार निकाली, और एक्सीलरेटर पर उसका पैर तेजी से जायेगा। वह सोचेगा भी नहीं कि यह साठ-सत्तर की जो रफ्तार आ रही है, यह क्रोध का वमन हो सकता है। लेकिन इससे दुर्घटना हो सकती है। पचास प्रतिशत कार दुर्घटनाएं क्रोध के कारण होती हैं। वह वमन का रास्ता बन जाता है। स्पीड जितनी बढ़ती जाती है गाड़ी की, उतना क्रोध वमित होता जाता है। लेकिन यह खतरनाक है। यह खेल खतरनाक है, इससे पूरा जीवन खतरे में पड़ सकता है--खुद का भी, दूसरे का भी।
न मालूम कितनी बीमारियां इसलिए पैदा होती हैं क्योंकि उन बीमारियों के द्वारा तुम्हारा क्रोध वमन हो जाता है। वास्तविक उलटी भी हो सकती है, वमन हो सकता है। अगर तुम बहुत क्रोध से भरे हो तो उलटी हो सकती है, ‘नाशिया’ आ सकता है। वास्तविक क्रोध से भरे हुए, शरीर-शास्त्री कहते हैं भोजन को पचने में दो-गुना समय लगता है। जो भोजन चार घंटे में पचता है वह आठ घंटे में पचेगा। और भोजन इतना ठंडा हो जायेगा आठ घंटे में, कि पचना मुश्किल हो जायेगा।
इसलिए अकसर लोग कहते हैं कि क्रोधी व्यक्ति दुबला होता है। वह भोजन को ठीक से पचा नहीं पाता। उसका भोजन अनपचा फिंक जाता है। वह भी वमन है। तुम्हें खयाल हो कि क्रोध के क्षण में कभी तुमने उल्टी की है? तो हल्कापन लगा होगा। हालांकि तुम सोचोगे कि उल्टी अपने आप हो गई। कोई चीज बाहर निकलना चाहती थी और तुमने रोक ली, उसके साथ भोजन भी बाहर फिंक गया।
बहुत-सी बीमारियां वमन हैं। कोई पचास प्रतिशत बीमारी तो मानसिक वमन है, जो शरीर को, संस्थान को कंपा जाता है।
मनुष्य का स्वयं से बड़ा दुश्मन खोजना कठिन है।
न दमन काम करेगा, न वमन काम करेगा; ठीक काम तो तब शुरू होगा, जब तुम पहले ही बिंदु पर रुक जाओगे, यात्रा शुरू ही न होगी। वहीं रोका जा सकता है। और वहां रुक जाओ तो तुम्हारी ऊर्जा स्वस्थ होगी, प्रवाहित होगी। क्रोध तुम्हारे शरीर में जहर को न फैला पाएगा, करुणा का अमृत तुम्हारे शरीर में बहेगा।
कौन-सा मूल बिंदु है? मूल बिंदु वहां है, जहां हमने दूसरे को जिम्मेवार ठहराया।
यह अंधा आदमी सदा अपने को जिम्मेवार समझता था। जब भी टकराया होगा, उसने कहा होगा, क्षमा करें, मैं अंधा आदमी हूं। लेकिन आज नहीं, आज अंधे के हाथ में लालटेन थी। चिल्लाया वह कि अंधे हो? दिखाई नहीं पड़ता? हाथ की लालटेन इतनी बड़ी है, फिर भी टकराए जा रहे हो?
तुम भी जब दूसरे पर चिल्लाओगे, दिखाई नहीं पड़ता? क्या कर रहे हो? टकराए जा रहे हो! तो एक बार सोचना कि कहीं ऐसा तो नहीं है, कि तुम टकरा रहे हो और दूसरे को दोष दे रहे हो? सौ में निन्यान्नबे मौके पर हालत यही है। सदा हम दोष दूसरे को देते हैं। दूसरे को दोष देने में अहंकार की सुरक्षा है। हम बच जाते हैं। हर एक ने अपनी एक प्रतिमा बना रखी है। वह प्रतिमा ऐसी है कि जैसे तुम देवता हो। दूसरों को भला तुममें शैतान दिखाई पड़ता हो, तुम कभी दर्पण में शैतान नहीं देख पाते; देवता दिखाई पड़ता है। और कभी-कभी अगर यह देवता विकृत हो जाता है तो ये दूसरे हैं, जो परिस्थिति पैदा कर देते हैं, जिसके कारण देवता विकृत हो जाता है। तुम्हारी प्रतिमा तो सर्वांग-सुंदर है। तब अंधे की यह स्थिति स्मरण करना। उस दूसरे आदमी ने कहा कि ि
मत्र, तुम्हारे हाथ की लालटेन बुझी हुई है। अंधेरा घना है। अंधा मैं नहीं हूं, लेकिन हाथ में लालटेन नहीं है।
अगर तुम्हारे जीवन में बहुत कष्ट हो तो समझना कि तुम्हारे जीवन का प्रकाश बुझा हुआ है। और हर आदमी, जो तुम्हारे करीब आता है तुमसे टकरा जाता होगा, जिससे भी मैत्री बनती हो वही शत्रु हो जाता होगा, जिससे भी प्रेम का संबंध बनता हो वही घृणा में रूपांतरित हो जाता होगा। जिससे भी मिलते हो उससे ही कष्ट मिलता है, जो भी पास आता है वह तुम्हारा नरक बन जाता है, तो थोड़ा सोचना कि तुम्हारे हाथ की लालटेन बुझी हुई है।
निश्चित ही हमारे जीवन का प्रकाश बुझा हुआ है, इसलिये ही दूसरे हमसे टकराए चले जाते हैं। हमारा आत्मज्ञान क्षीण है, ना के बराबर है। वह दीया, जैसे है ही नहीं। हमें एक बात का बिलकुल पता नहीं है कि मैं कौन हूं! लेकिन हम सब सोचते हैं कि हमें पता है। यही बुझा हुआ दीया है, जो हम ढो रहे हैं। आत्मज्ञान रत्तीभर नहीं है, पर प्रत्येक को खयाल है कि मैं कम से कम अपने को तो जानता हूं।
आप दूसरों को भला जानते हों, आप बड़े विशेषज्ञ हो सकते हैं, पौधों-पशुओं, पृथ्वी-आकाश के, लेकिन एक संबंध में आप बिलकुल ही भ्रांति में हैं कि मैं अपने को जानता हूं। वहां दीया बिलकुल बुझा हुआ है। स्वयं की तो हमें कोई भी खबर नहीं, कोई भी पहचान नहीं। और यह जो अनपहचाना स्वयं है, यह जो अज्ञान और अंधकार से भरा हुआ स्वयं है, यह आकर्षण है दूसरों को टकराने का।
एक व्यक्ति प्रेम में पड़ जाता है, तो जब वह किसी के प्रेम में पड़ता है, या किसी की मित्रता में पड़ जाता है, तब वह अपना दूसरा ही रूप प्रगट करता है, जो उसका वास्तविक रूप नहीं है। इसलिए सभी प्रेम-विवाह करीब-करीब असफल हो जाते हैं। प्रेम-विवाह का सफल होना बड़ी दुर्लभ घटना है।
एक युवक एक युवती के प्रेम में पड़ता है तो युवक अपना वह चेहरा दिखलाता है, जो असली नहीं है क्योंकि यह असली चेहरा तो इस युवती को दूर हटा देगा। तो वह सर्वांग-सुंदर प्रतिमा प्रगट करता है। युवती भी अपनी वही प्रतिमा प्रगट करती है, जो वास्तविक नहीं है। दोनों एक-दूसरे को आकर्षित करने में लगे हैं। उनकी वाणी मधुर है, कर्कश नहीं है। उनकी देह सुसज्जित है, सुगंधित है, पसीने की बदबू नहीं आती। वे कपड़े ताजे पहनते हैं, स्नान करके मिलते हैं। और यह मिलना कभी घड़ी दो घड़ी का समुद्र के किनारे है, किसी बगीचे में। बगीचे में कोई चौबीस घंटे नहीं रहता। समुद्र के किनारे कोई चौबीस घंटे नहीं बैठ सकता। यह झूठा है। यह ऊपर की सतह है।
फिर कल वे विवाहित हो जाते हैं, तब जिंदगी का पूरा ढांचा बदलता है। ऊपर की सतह को चौबीस घंटे सम्हालना बहुत मुश्किल है, अंततः बहुत बोझ मालूम होगी। आदमी को असली होना ही पड़ेगा, तभी वह ‘रिलेक्स’ हो सकता है, तभी विश्राम कर सकता है। धीरे-धीरे ऊपर का चेहरा उतारकर रख दिया जायेगा। स्त्री अपने रूप में प्रगट होगी, पुरुष अपने रूप में प्रगट होगा, कलह शुरू हो जायेगी। शरीर से बदबू आने लगेगी, शरीर में खामियां दिखाई पड़ने लगेंगी, आवाज की मधुरता चली जायेगी, कर्कश हो जायेगी।
मैंने सुना है, एक आदमी, जब भी उसकी पत्नी हार्मोनियम बजाती और संगीत का अभ्यास करती तो मकान के बाहर टहलने लगता। आखिर उसकी पत्नी ने पूछा कि बात क्या है? जब भी मैं संगीत का अभ्यास करती हूं, तुम बाहर क्यों टहलते हो? उसने कहा, इसलिए ताकि मोहल्लेवाले यह न समझें कि मैं तुम्हारी पिटाई कर रहा हूं।
पति को पत्नी की आवाज कर्कश सुनाई पड़ने लगती है। यह वही आवाज है, जो कभी मधुरतम संगीत थी, जिससे कोयलें फीकी पड़ जातीं। पति की आवाज पत्नी को फिर रुचिकर नहीं मालूम पड़ती। जब भी पति बोलता है तो कुछ उपद्रव है। तो पति चुप रहने लगता है। पति करीब-करीब गूंगे हो जाते हैं। डायलाग, जिसको हम संभाषण कहें, वह घरों में समाप्त हो जाते हैं। पत्नी बोलती रहती है, पति अखबार पढ़ता रहता है।
एक-दूसरे से बचने का उपाय शुरू हो जाता है, जब एक-दूसरे की वास्तविकता प्रगट होती है। दीया भीतर बिलकुल बुझा है। इसलिए हम स्वयं की वास्तविकता दिखलायें भी कैसे? उस वास्तविकता का हमें भी पता नहीं है। हम एक अराजकता हैं, एक व्यक्तित्व नहीं, एक संगीत नहीं, एक शोरगुल हैं। इस शोरगुल को हम किसी तरह ढांके हुए जीते हैं।
यह अंधा आदमी है, लेकिन दूसरे के दिये हुए लालटेन पर भरोसा कर लिया। और तुमने भी दूसरों ने तुम्हें जो आत्मज्ञान दिया है, उस पर भरोसा कर लिया है। कोई उपनिषद पर भरोसा कर रहा है, कोई गीता पर, कोई वेद पर, कोई कुरान पर; लेकिन ये सब प्रकाश दूसरों के दिये हुए हैं। प्रकाश तो कोई तुम्हें दे देगा, आंखें तुम्हें कौन देगा? मित्र आंखें तो निकालकर नहीं दे सकता है कि यह ले जाओ, रास्ता अंधेरा है, इनका उपयोग कर लेना। लालटेन दे सकता है, लेकिन अंधे के लिए लालटेन का कोई भी अर्थ नहीं; खतरा है। उसके लिए लालटेन सहारा नहीं बनेगी। लालटेन ही बाधा हो गई, उसके कारण ही कोई टकरा गया।
और ध्यान रहे, दूसरे के द्वारा दिया गया प्रकाश सदा बुझा हुआ होगा। क्योंकि एक तो दीया तुम्हारे भीतर है, जो जलता है बिन बाती बिन तेल। वह कभी नहीं बुझता। लेकिन उस दीये का तुम्हें पता नहीं। और एक दीया, जो तुम्हें बाहर से दिया जा सकता है, वह सदा बुझता है, क्योंकि उसका तेल है, चुक जायेगा। उसकी बाती है; बुझ जायेगी; हवा का झोंका उसे मिटा देगा। कोई भी कारण मिल जायेगा और वह बुझ जायेगा। वह सदा जलनेवाला नहीं है।
पुरानी पुराण-कथा है कि एलेक्जैंड्रिया में एक प्रकाश स्तंभ था, जो सदा जलता रहता। उस दीये में किसी तेल को डालने की जरूरत न थी, कोई बाती न बदलनी पड़ती थी। सैकड़ों फीट ऊंचा स्तंभ था। वहां तक जाने का भी कोई उपाय न था।
लेकिन मालूम होता है, यह कहानी ही होगी। वह जगत के चमत्कारों में से एक था। यह हो नहीं सकता। बाहर कोई भी दीया बिना बाती बिना तेल के जल नहीं सकता। सूरज इतना बड़ा दीया है, वह भी बुझेगा; क्योंकि उसकी भी बाती और तेल है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि चार हजार साल और सूरज जल सकता है; उसका तेल रोज चुक रहा है। उसका ईंधन समाप्त हो रहा है, क्योंकि रोज ये इतनी किरणें आ रहीं हैं, उतना सूरज बुझता जा रहा है। चार हजार साल में सूरज बिलकुल बुझ जायेगा, चुक जायेगा। सूरज चुक जाता है! इतना बड़ा दीया है, पृथ्वी से साठ हजार गुना बड़ा है, लेकिन अरबों-खरबों सालों में उसकी रोशनी भी खो जाती है। इससे भी बड़े-बड़े सूर्य बुझ चुके हैं। यह सूर्य कोई बहुत बड़ा नहीं है; पृथ्वी से साठ हजार गुना बड़ा है, लेकिन इससे हजारों गुने बड़े सूर्य बुझ चुके हैं, बुझ रहे हैं।
बाहर तो जो भी होगा, अकारण नहीं हो सकता; उसमें कारण होगा। कारण चुकेगा, दीया बुझ जायेगा।
मित्र ने तो बहुत सम्हालकर ही दिया होगा, लेकिन हवा के झोंकों का क्या भरोसा? नहीं, दीये के संबंध में मित्रों का भरोसा नहीं किया जा सकता। और दीये के संबंध में गुरु पर निर्भर मत रहना। गुरु कितना ही दे, तुम्हारे हाथ में ही आते दीया बुझ जायेगा। तुम अंधे ही रहोगे, क्योंकि गुरु की आंख तुम्हारी आंख नहीं बन सकती।
इसलिए वास्तविक गुरु दीये नहीं देता, वास्तविक गुरु केवल आंख को खोलने की विधि देता है। वास्तविक गुरु केवल आंख का उपचार देता है, औषधि देता है। दीयों का क्या भरोसा! कितनी देर चलेंगे? इसलिए वास्तविक गुरु तुम्हें नियम, मर्यादाएं नहीं देता, क्योंकि सभी नियमों की सीमाएं हैं। जो नियम आज ठीक है, वह कल गलत हो सकता है। आज की स्थिति में जो बात मर्यादा थी, कल की स्थिति में अमर्यादा हो सकती है। जो एक परिस्थिति में औषधि है, दूसरी परिस्थिति में जहर हो सकती है। इसलिए वास्तविक गुरु तुम्हें नियम नहीं देता, और न जीवन का अनुशासन देता है। वास्तविक गुरु तुम्हें केवल आंख का उपचार देता है, ताकि हर परिस्थिति में तुम देख सको। दीया बुझ जाये तो तुम जानो, दीया जलता हो तो तुम जानो। रास्ता अंधेरा हो तो दिखाई पड़े, रास्ता प्रकाश से भरा हो तो दिखाई पड़े। कोई टकराए तो तुम पहचानो; तुम किसी से टकराओ तो तुम पहले से जान सको।
झेन फकीर हुआ लिंची, उससे किसी आदमी ने आकर पूछा कि मुझे बताएं, मैं किस तरह का आचरण करूं? मैं कैसा व्यवहार करूं कि मैं सत्य को पा सकूं? लिंची ने कहा, वह मैं तुम्हें नहीं बताऊंगा। तुम गलत आदमी के पास आ गये। क्योंकि आचरण कोई बंधी हुई बात नहीं है। आज तुम्हें कहूं ठीक, कल की परिस्थिति में गलत हो जाये। फिर तुम्हारे साथ चौबीस घंटे मैं न रहूंगा। आज मैं हूं, कल मैं नहीं रहूंगा; तुम किससे पूछोगे? फिर तुम किसी और से पूछोगे, वह कुछ और जवाब देगा।
सारे धर्मों ने आचरण के अलग-अलग नियम निर्धारित किए हैं। जैन से पूछें, तो वह कहता है शाकाहार, शुद्ध शाकाहार आचरण है। और जब तक तुमने जरा-सा भी जीवाणु को नुकसान पहुंचाया कि तुम सत्य को न पा सकोगे। लेकिन ईसाई, मुसलमान चिंता नहीं करते शाकाहार की। फिर भी वहां से भी लोग सत्य तक पहुंचे हैं।
और क्वेकर ही, ईसाइयों का एक संप्रदाय है, वह दूध भी नहीं पीता। वे जैनों को मांसाहारी समझते हैं क्योंकि दूध खून है; और दूध में हिंसा है। जब तुम गाय से दूध छीनते हो तो तुम बछड़े का दूध छीन रहे हो। लेकिन जैनों के शास्त्र, हिंदुओं के शास्त्र दूध को तो पवित्रतम भोजन कहते हैं; शुद्धतम। लेकिन उसमें हिंसा तो है ही, क्योंकि दूध बछड़े के लिए था, तुम्हारे लिए नहीं था। बछड़े का भोजन तुम छीन लिये हो, और तुम सोच रहे हो कि शुद्ध आहार है। और दूध बनता तो खून से है। इसलिए दूध पीने से खून जल्दी बढ़ता है, इसलिये दूध पूरा आहार है। बच्चा और कुछ नहीं लेता, सिर्फ मां का दूध काफी है, सब काम कर देता है दूध, क्योंकि दूध शुद्ध खून है। सारे शरीर को पुष्ट कर देता है। क्वेकर दूध नहीं पीते, लेकिन क्वेकर अंडा खाता है। वह कहता है, जब तक अंडे में चूज़ा प्रगट नहीं हुआ, तब तक कोई हिंसा नहीं।
किसकी सुनिए? अगर जैनों की बात को पूरा मानकर चलिए तो वृक्ष से फल को तोड़ना भी पाप है। क्योंकि चोट लगती है, गहरी चोट लगती है। लेकिन तब तो गेहूं या कोई भी अनाज खाना पाप है। क्योंकि गेहूं बीज है; उससे न मालूम कितने वृक्ष पैदा होते। अगर अंडे से मुर्गी पैदा होनेवाली है तो गेहूं से न मालूम कितने वृक्ष पैदा होनेवाले थे। तुम उन सबको खा गए। वृक्ष का जीवन है, जैसा मुर्गी का जीवन है। गेहूं अंडा है। उससे वृक्ष होनेवाले थे, वह तुम खा गए। अगर आचरण की तरफ कोई विचार करने लग जाये तो किसी निष्कर्ष पर कभी नहीं पहुंच पायेगा। कोई निष्कर्ष ही नहीं है फिर। फिर वह आचरण के संबंध में सोचते-सोचते मर जायेगा। आचरण जीने का न समय बचेगा, न सुविधा।
लिंची ने कहा कि आचरण के सूत्र मैं तुम्हें न दूंगा। तुम मेरे पास रुको, मैं तुम्हें ध्यान दूंगा ताकि तुम्हारी आंखें खुल जायें। फिर खुली आंखों से जो तुम्हें ठीक लगे करना; वही आचरण है। इसलिए सदज्ञानियों ने कहा है, खुली आंख से जो भी ठीक लगे, वही आचरण है। बंद आंख से जो भी किया जाये, वही अनाचरण है। तो बंद आंख से अहिंसा भी अनाचरण है, खुली आंख से हिंसा भी आचरण हो सकती है।
इसीलिए कृष्ण अर्जुन को कह सके, ‘तू फिक्र मत कर; सिर्फ आंख खुली रख और युद्ध में कूद जा; फिर कोई हिंसा नहीं है।’ यह जरा जटिल बात है। खुली आंख से संभोग भी ब्रह्मचर्य हो सकता है। बंद आंख से ब्रह्मचर्य भी दमित संभोग है। पर यह जरा जटिल है बात। इसलिए कृष्ण इतना बड़ा रास रचा सके, इतनी स्त्रियों से प्रेम कर सके।
आंख खुली हो तो आचरण सदा ठीक है। आंख बंद हो तो आचरण सदा गलत है। और जब आंख बंद हो तो जो भी आचरण हम स्वीकार करते हैं, वह दूसरे के दिये हुए दीये हैं। वह अपनी अनुभूति नहीं, वह अंतःप्रज्ञा नहीं।
मित्र प्रेमी था, भला था। सहानुभूति से ही उसने कहा कि दीया ले जाओ, कोई तुमसे टकरा न जाये। लेकिन तर्क छोटा है, जीवन बहुत बड़ा है। तर्क सब इंतजाम कर लेता है, जीवन का एक हल्का-सा हवा का झोंका आता है, दीये बुझ जाते हैं और तर्क की सब व्यवस्था टूट जाती है।
तुम्हारे पास भी जो दीये हैं, जिनके सहारे तुम चल रहे हो, एक सवाल अपने से पूछ लेना कि वह दूसरों के दिये हुए हैं, या स्वयंस्फूर्त हैं? तुम्हारी आंखें उनमें हैं, या सिर्फ मित्रों की सहानुभूति? मित्रों की सहानुभूति पर्याप्त नहीं है! और जब कोई तुम्हें दीया दे, तो उसे धन्यवाद देना लेकिन दीया मत लेना। कहना, दीया तो मैं खुद ही खोजूंगा।
जैसी यह कहानी है, ऐसी एक और झेन कथा है। एक सदगुरु के पास एक युवक कुछ खोजने आया। उसके प्रश्न लंबे थे, जिज्ञासा गहरी थी और रात हो गई थी। तो सदगुरु ने कहा कि रात अंधेरी है, भय तो नहीं लगता?
उस युवक ने कहा, आपने ठीक पहचाना; भय लगता है। गांव तक पहुंचने में बड़ा जंगल बीच में है, खूंखार जानवर हैं।
गुरु ने कहा, ‘काश, मैं तुम्हें साथ दे सकता! लेकिन इस जगत में सब अकेले हैं। जंगल घना है, जंगली जानवर हैं, रास्ता उलझन से भरा है, भटकने की पूरी संभावना है, लेकिन काश, इस जगत में कोई किसी का साथ दे सकता!’
युवक तो थोड़ा हैरान हुआ कि यह भी खूब तरकीब बचने की निकाल रहे हैं! साथ दे सकते हैं, जा सकते हैं। तुम्हारा परिचित है जंगल, तुम यहां झोपड़ा बनाकर रहते हो। लेकिन अशिष्टता होगी कुछ कहना, तो चुप रहा।
फिर गुरु ने कहा, ‘लेकिन एक काम मैं कर सकता हूं, दीया तुम्हें दे सकता हूं। रात अंधेरी है, यह प्रकाश तुम ले जाओ।’
युवक के हाथ में दीया उसने दिया। युवक ने सोचा यही बहुत। न कुछ से यह भी काफी है। डूबते को तिनका भी सहारा है। कम से कम देख तो सकूंगा अंधेरे में, रास्ता कहां है! लेकिन जैसे ही वह सीढ़ियां उतरने लगा, सदगुरु ने फूंक मारी और दीया बुझा दिया। उस युवक ने कहा, ‘आप यह क्या कर रहे हैं? आप क्या मजाक कर रहे हैं?’
गुरु ने कहा, ‘दूसरों का दिया हुआ दीया काम पड़ नहीं सकता। न केवल रास्ता अकेला है, न केवल हर आदमी अकेला पैदा होता है, अकेला चलता है, और अकेला मरता है, यहां उधार ज्ञान से कुछ भी सुविधा नहीं बनती। मैं तुम्हारा शत्रु नहीं हूं, इसलिए तुम्हें यह भ्रांति नहीं दे सकता कि उधार प्रकाश काम आ सकता है। इसके पहले कि हवाएं तुम्हारे दीये को बुझाएं, मैं स्वयं बुझा देता हूं। तुम अंधेरे में ही जाओ, अपना रास्ता खोजो।’
होश रखना! वह तुम्हारे भीतर है। वह मैं नहीं दे सकता। और यह रात कीमती है क्योंकि अंधेरा घना है और जंगली जानवर निकट हैं। रास्ता अनजाना है, गांव दूर है। इस खतरे की स्थिति में हो सकता है, तुम होश को सम्हालो। इस खतरे की स्थिति में तुम सम्हलकर चलो; क्योंकि राजपथों पर कोई भी सम्हलकर नहीं चलता। राजपथ हम बनाते ही इसीलिए हैं ताकि वहां शराब पीकर चल सकें; जहां होश की जरूरत न हो। घरों में कोई होश से नहीं रहता, घर बनाते हम इसीलिये हैं कि वहां सब सुरक्षित है, सावधानी की कोई जरूरत नहीं। जंगल में होश रखना पड़ता है।
कुछ आश्चर्य न होगा कि जिस दिन आदमी ने जंगल छोड़ा और घर बनाए, उसी दिन से आदमी ने होश भी छोड़ा और घरों में सुरक्षित हो गया। इसलिये अगर तुम खानाबदोशों से परिचित हो तो उनमें तुम जिस तरह की सावधानी पाओगे, उस तरह की गृहस्थों में नहीं पा सकते। जो लोग घुमक्कड़ हैं, कुछ जातियां अभी भी घुमक्कड़ हैं। बलूचियों का एक वर्ग अभी भी घूमते ही रहता है।... हब्शी हैं, वे घूमते ही रहते हैं। हालांकि सारी दुनिया के सभ्य लोग उनके खिलाफ हैं। और सब मुल्कों में कानून बनाए जा रहे हैं कि हब्शियों को प्रवेश न करने दिया जाये। उनको बसाया जाये जबरदस्ती। उनको भटकने न दिया जाये क्योंकि यह भटकते हुए आवारा लोग--ये सभ्य नहीं हैं।
लेकिन जो लोग भी हब्शियों के पास रहे हैं, उन्हें उनमें एक चीज दिखाई पड़ती है, जो घरों में रहनेवाले लोगों में खो गई है। वह है एक खास तरह का होश। जिसको चौबीस घंटे भटकना है, जिसको साल भर चलना है, वर्षा हो कि ठंड हो कि गर्मी हो, जिसको रुकने के लिए कोई पड़ाव नहीं, जिसको कोई छाया नहीं, जिसको सुरक्षा की कोई सुविधा नहीं, जिसके भीतर सो सके, निश्चित ही उसमें एक तरह का होश होगा। और आदमी जब खानाबदोश की हालत में था तो उसमें एक होश था।
इसलिए कुछ आश्चर्य की बात नहीं कि भारत में बहुत से लोग घर-गृहस्थी को छोड़कर संन्यासी हुए। संन्यासी का मतलब है, फिर आवारा हो जाना। संन्यासी का मतलब है, फिर घुमक्कड़ हो जाना। संन्यासी परिव्राजक है, खानाबदोश है; वह घर नहीं बनायेगा, वह सुरक्षा में नहीं रुकेगा। वह चलता ही रहेगा। अनजान रास्ते होंगे, खतरे होंगे। रात सोएगा तो खतरा होगा, दिन बैठेगा तो खतरा होगा। आज भोजन है, कल भोजन हो या न हो, इस सारे खतरे की स्थिति में होश जगता है।
सदगुरु ने कहा कि तुम जाओ, अंधेरा शुभ है। जंगली जानवर भी मित्र हैं, अगर तुम होश से जा सको। और जो होश से चलता है, वह भटकता नहीं, पहुंच ही जाता है।
यह मित्र तो करुणावान था, लेकिन बोधपूर्ण नहीं था। यह मित्र समझदार था लेकिन समझदारी इस दुनिया की थी, जो काफी नहीं है। यह मित्र होशियार था और तर्क में कुशल था, लेकिन जीवन के रहस्य का इसे कुछ भी पता नहीं है। इसने इंतजाम किया लेकिन वह इंतजाम टूट गया। दो कदम चला, और इंतजाम टूट गया।
हमारे सभी इंतजाम ऐसे हैं; दो कदम चल भी नहीं पाते कि टूट जाते हैं। जिंदगी इतनी बड़ी है कि गणित में समा नहीं पाती। और जो भी हम सोचते हैं वैसा होता नहीं, कुछ और होता है।
प्रकाश दूसरे से कभी मत लेना। वह झूठा होगा। और तुम उसके कारण ही टकराओगे। लेकिन हमारे पास सारा ज्ञान उधार है। जो भी हम जानते हैं, वह किसी और का जाना हुआ है। आत्मा या परमात्मा या मोक्ष सुनी हुई बातें हैं। शास्त्रों से पढ़े हुए शब्द हैं, अनुभूतियां नहीं।
कथा मधुर है; और कथा यह कह रही है कि अंधे हो तुम। बहुत मित्र हैं, जो सहानुभूति रखते हैं। वे तुम्हें दीये देना भी चाहें तो धन्यवाद देना, लेकिन दीये लेना मत। उनसे पूछना कि अगर कुछ देना ही हो तो आंख का उपचार बताओ।
जो दीये देते हैं, वे तुम्हें शास्त्र पकड़ा देंगे। शास्त्र दीये हैं बुझे हुए और न मालूम कब के बुझ गए हैं! गीता को बुझे हुए कितना समय हो चुका! वह जब कृष्ण ने अर्जुन को दी, तभी बुझ गई। कुरान को बुझे हुए काफी समय हो गया। वह जब मुहम्मद ने लिखवाया, तभी बुझ गया। यह ज्ञान ऐसा है कि इसे हस्तांतरित तो किया नहीं जा सकता। जब भी कोई किसी दूसरे को देता है, तभी बुझ जाता है। जिंदा देने का कोई उपाय नहीं। यह मर ही जाता है देने में। जो शास्त्रों को सम्हाल रहे हैं, वे दीयों को सम्हाल रहे हैं, जो बुझे हुए हैं; जिनकी रोशनी कभी की खो गई।
इसलिए सदगुरु तुम्हें शास्त्र नहीं देता, सदगुरु तुम्हें ज्ञान देता है। वह तुम्हें यह नहीं बताता कि क्या ठीक है, वह तुम्हें आंखें देता है, जो ठीक को देख सकें। और ध्यान उपचार है, ध्यान सिद्धांत नहीं है।
इसलिए बुद्ध को जो जानते हैं, उन्होंने कहा है कि बुद्ध एक वैद्य हैं। नानक को जो लोग पहचानते थे, उन्होंने कहा है कि नानक एक वैद्य हैं। वे जो दे रहे हैं, वह कोई सिद्धांत नहीं है; वे जो दे रहे हैं, वह एक तरकीब है, एक विधि है, एक तकनीक है; जिससे बंद आंख खुल जाती है।
और तुम अंधे होते तो मुश्किल थी। तुम अंधे नहीं हो, सिर्फ आंख बंद है। मगर इतनी सदियों से बंद है कि तुम भूल ही गए हो कि पलक खोली जा सकती है। पलक को लकवा लग गया है बस, और कुछ भी नहीं। पलक बोझिल हो गई है। बहुत-बहुत जन्मों से न खोलने की वजह से तुम्हें खोलने का खयाल ही भूल गया है।
ध्यान का अर्थ है: पलक को खोलने की तरकीब।
और जैसे ही तुम्हारी पलक खुल जाये, सब अंधेरा खो जाता है। आंख हो तो अंधेरे में भी चलना आसान है। आंख न हो तो प्रकाश में भी चलना मुश्किल है। इसलिए असली प्रकाश, आंख है। आंख तुम्हारे भीतर सूरज का अंश है। और भीतर का सूरज जल रहा हो तो बाहर के सूरज से संबंध जुड़ जाता है। भीतर का सूरज न जल रहा हो तो बाहर का सूरज व्यर्थ है, कोई सेतु नहीं बनता।
यह कथा मधुर है। तुम उसे अपने भीतर गुनगुनाना। तुम इसका स्मरण रखना। जल्दी मत करना। दीये सस्ते मिलते हैं। शास्त्र बाजार में बिकते हैं। अज्ञानी मित्र काफी हैं, जो तुमसे सहानुभूति रखते हैं। वे सलाह देने को सदा तैयार हैं। तुम न भी मांगो सलाह, तो तुम्हें सलाह देने को तैयार हैं। गुरु बाजार-बाजार बैठे हैं, जो तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनके पास कोई सामग्री है, जो बेचनी है।
इस कहानी को याद रखना। कोई दीया दे भी, तो वापिस लौटा देना। धन्यवाद देना, करुणा के लिए, प्रेम के लिए, सहानुभूति के लिए, लेकिन उधार ज्ञान मत लेना। क्योंकि जितने तुम उधार से भर जाओगे, उतना ही अपने की खोज मुश्किल हो जाएगी। और जितना उधार पर भरोसा आ जायेगा, उतनी ही खोज की जरूरत न मालूम पड़ेगी। और उधार ज्ञान की वजह से अगर तुम अकड़कर चलने लगे तो ज्यादा देर नहीं है कि तुम टकराओगे; तब क्रोध जन्मेगा। क्रोध का कारण दूसरा आदमी नहीं है, तुम्हारे हाथ में दीया बुझा हुआ है।
उस दीये को खोजो, जो बिना तेल के जलता है, बिना बाती के। वह तुम्हारे भीतर है; उसे तुमने कभी भी खोया नहीं, एक क्षण को उसे खोया नहीं है। अन्यथा तुम हो ही नहीं सकते थे।
तुम मुझे सुन रहे हो, कौन सुन रहा है? वही दीया!
तुम रास्ते पर चलते हो, भला डगमगाते हो, लेकिन कौन चल रहा है? वही दीया! तुम भूल करते हो, लेकिन तुम्हें स्मरण भी आता है कि भूल की। किसे स्मरण आता है? होश भीतर है! कितना ही दबा हो, कितनी ही पर्तें उसके चारों तरफ धुएं की हों, लेकिन दीया भीतर है। थोड़ी-सी धुएं की पर्तें काटनी हैं।
इसलिये धर्म एक प्रक्रिया है, एक उपचार है, एक चिकित्सा है। धर्म कोई दर्शन नहीं, धर्म कोई शास्त्र नहीं, धर्म एक विज्ञान है--अंतश्चक्षु की खोज।
कुछ और?
भगवान, सदाचार के जितने भी नियम हैं, पहले के या आज के, खोजा जाये तो सभी किसी न किसी धर्म से ही निकले हैं--चाहे बाइबिल से, चाहे कुरान से, चाहे मनुस्मृति से, चाहे पतंजलि के योगसूत्र से। पतंजलि ने तो योगसूत्र के आरंभ में ही यम-नियम ऐसे कठिन सदाचार दे रखे हैं। तो फिर हम उनको छोड़कर कैसे चल सकते हैं?
छोड़कर चलने का सवाल नहीं है। उन्हीं को मानकर बैठ जाने का खतरा है। जब मैं कहता हूं कि अंतसप्रकाश से जीयो तो इसका यह मतलब नहीं है कि समाज के सब आचरण के नियम तुम तोड़ दो। उससे तुम मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि वह तो खेल का नियम है। वह तो वैसा ही है, जैसा सड़क पर बायें चलने का नियम है; उसकी कोई शाश्वतता नहीं है। कोई बायें चलनेवाला स्वर्ग पहुंचेगा और दायें चलनेवाला नर्क पहुंच जायेगा, ऐसा नहीं है; लेकिन अगर तुम दायें चले तो कार के नीचे आ जाओगे। क्योंकि पूरा समाज बायां मानकर चल रहा है। इसमें कोई नियम की शाश्वतता नहीं है। अमरीका में वे दायें चल रहे हैं तो दायें चलने का नियम है। अमरीका जाते ही से तुमको नियम अपना बदल लेना पड़ेगा।
जैसा सड़क का नियम है, बस वैसे ही आचरण के नियम हैं। और आचरण के नियमों की जरूरत है क्योंकि तुम अकेले नहीं हो, बहुत लोग यहां रह रहे हैं। यहां कुछ व्यवस्था मानकर चलना पड़ेगी। और यहां किसी का भी दीया जला हुआ नहीं है। अगर बिलकुल व्यवस्था छोड़ दी जाये तो एक क्षण भी जीना संभव नहीं होगा।
लोग झूठ हैं, उनका व्यक्तित्व झूठ है, इसलिये नियम मानकर चलना पड़ता है कि सत्य, आचरण बनाओ। झूठ चलता है; सौ में से नब्बे प्रतिशत झूठ चलता है, लेकिन इस झूठ के बीच भी दस प्रतिशत सत्य को हम जमाते हैं; उससे समाज जीता है। यहां कोई आचरण भीतर से निकल नहीं रहा है किसी के।
तो दो ही उपाय हैं: या तो भीतर से आचरण निकले, तब तक हम प्रतीक्षा करें; और या फिर हम झूठे आचरण के नियम स्थापित कर लें, जिनसे काम चल जाये। ये नियम युटिलिटेरियन हैं, कामचलाऊ हैं। इनकी जरूरत है। इनकी जरूरत इसलिये है कि यहां इतना भीड़-भड़क्का है, कि यहां किसी न किसी तरह रास्ते पर हमें सोचकर चलना पड़ेगा कि आते हुए लोग बायें से चलें, लौटते हुए लोग दायें से चलें; अन्यथा उपद्रव होगा।
और जैसे-जैसे दुनिया की संख्या बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे आचरण के नियमों की ज्यादा जरूरत पड़ती जाती है। एक जंगली कौम, वह बिना नियमों के रह सकती है, या थोड़े-से नियम से काम चल जाता है। जितनी सभ्यता सघन होगी, उतने ज्यादा नियम चाहिये क्योंकि उतने लोग बढ़ते जाते हैं; नहीं तो अराजकता होगी।
जब मैं कहता हूं, अंतसप्रकाश को खोजो तो उससे यह भ्रांत निष्कर्ष मत ले लेना कि तुम्हें सब समाज के नियम तोड़ देने हैं। समाज का नियम तो खेल है। समाज का नियम तो नाटक की एक व्यवस्था है; उसे मानकर ही चलना होगा।
मैंने सुना है, एक गांव में रामलीला हो रही थी; और जो रावण बना था और जो स्त्री सीता बनी थी, वह वस्तुतः उसके प्रेम में था। तो जब शिव का धनुष तोड़ने की बारी आई तो बाहर आवाज गूंजती है राज-मंडप के, कि लंका में आग लगी है। रावण को जाना चाहिए। वह चला जायेगा, इस बीच राम धनुष को तोड़ लेंगे, विवाह हो जायेगा, कथा चलेगी। वह रावण जो था, उसने कहा, ‘लगी रहने दो आग! जल जाये लंका! आज मैं यहां से जानेवाला नहीं।’ बड़ी मुसीबत खड़ी हो गई; क्योंकि वह तो नाटक था और इसके पहले कि कोई रोक-टोक कर सके, परदा गिराये, वह उठा और उसने धनुष तोड़कर रख दिया। वह धनुष कोई शिवजी का धनुष तो था नहीं! साधारण बांस का धनुष था, उसने तोड़कर रख दिया।
जनक सिंहासन पर बैठे घबड़ाए। वह सारी कथा ही उसने खत्म कर दी।
उसने कहा, ‘कहां है तेरी सीता? निकाल! आज तो विवाह होकर रहेगा।’
अब उसका अगर विवाह हो जाये, तो आगे सब उपद्रव! जनक तो बूढ़ा आदमी था, लेकिन पुराना कुशल अभिनेता था। उसने तत्क्षण रास्ता निकाला। उसने कहा, ‘भृत्यो! यह तुम मेरे बच्चों के खेलने का धनुष उठा लाए, शिवजी का धनुष लाओ।’
तब परदा गिराकर रावण को बाहर करना पड़ा, दूसरे आदमी को रावण बनाना पड़ा। क्योंकि उस आदमी ने नाटक का नियम... नाटक तो नियम से चलता है!
जिस समाज में तुम जी रहे हो, वह एक बड़ा नाटक है। वहां मंच बड़ी है। वहां दर्शक कोई है ही नहीं, सभी अभिनेता हैं। वहां तुम्हें नियम मानकर चलना पड़ेगा। वहां तुम जान भी लो कि यह धनुष शिवजी का नहीं है तो भी तोड़ना मत; अन्यथा तुम्हारे जीवन में कठिनाई होगी, सुविधा नहीं होगी; और भीतर के प्रकाश की खोज में मुश्किल पड़ जायेगी।
इसलिये पतंजलि ने, महावीर ने, बुद्ध ने जो शील के नियम कहे हैं, वे सिर्फ इसलिये कहे हैं ताकि तुम समाज के साथ अकारण उपद्रव में न पड़ो; अन्यथा तुम्हारी शक्ति झगड़े में नष्ट होगी। भीतर की खोज कौन करेगा? बुद्ध, पतंजलि के कारण भारत में कभी क्रांति नहीं हुई। क्योंकि बुद्ध और महावीर और पतंजलि ने कहा कि अगर तुम क्रांति में पड़ोगे, तो भीतर की क्रांति में कौन जायेगा? और असली क्रांति वहां है। इन छोटे-छोटे नियम को बदलने से नहीं, कि बायें चलना ठीक नहीं, दायें चलेंगे...!
च्वांगत्से एक छोटी-सी कहानी कहता था। च्वांगत्से कहता था कि एक गांव में एक सर्कस था। सर्कस का मैनेजर था, मैनेजर के पास बंदर थे। उन बंदरों को वह सर्कस में खेल दिखलाता था। बंदरों को रोज सुबह चार रोटी दी जाती थीं, शाम को तीन रोटी दी जाती थीं। एक दिन ऐेसा हुआ कि रोटियां थोड़ी कम पड़ गईं तो मैनेजर ने कहा सुबह कि बंदरो! तीन ले लो, शाम को चार दे देंगे। बंदर एकदम नाराज हो गए। उन्होंने बहुत शोरगुल मचाया, उछल-कूद की। उन्होंने कहा कि नहीं, यह नहीं चलेगा। यह बर्दाश्त के बाहर है। सदा हमें चार मिलती रही हैं। उसने बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन बंदर, तो बंदर! बहुत समझाने की कोशिश की कि चार और तीन सात ही होते हैं। चाहे सुबह चार लो कि तीन लो, चाहे शाम को चार लोगे, तो बंदरों ने कहा कि यह फालतू बातें हमसे मत करो। चार हमें सदा मिलती रही हैं, चार हमें चाहिये। जब उन्हें चार रोटियां दे दी गईं, बंदर एकदम प्रसन्न हो गए। सांझ को तीन रोटियां मिलीं, वे प्रसन्न थे। कुल मिलाकर वे सात थीं।
करीब-करीब क्रांतियां ऐेसी ही हैं--सभी क्रांतियां! उसमें सुबह चार मिलनी चाहियें, तीन नहीं लेंगे; कि शाम को चार मिलनी चाहिये, तीन नहीं लेंगे; लेकिन अंततः जो़ड़ बराबर सात होता है। कोई फर्क नहीं पड़ता। समाज के जीवन में कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ते हैं, बुनियादी क्रांति तो व्यक्ति के जीवन में घटित होती है। इसलिये पतंजलि ने कहा कि तुम इन सब नियमों को मानकर चलना ताकि समाज के साथ व्यर्थ की कलह खड़ी न हो। अन्यथा समाज बड़ा है और तुम कलह में ही नष्ट हो जाओगे। इसलिये विद्रोही व्यक्ति अकसर सत्य को उपलब्ध नहीं हो पाते; न शांति को उपलब्ध हो पाते हैं; क्योंकि वे छोटी-छोटी बातों में लड़ रहे हैं, छोटी-छोटी बातों में उलझ रहे हैं। अगर बदलाहट भी हो जायेगी तो इतना ही फर्क पड़ेगा कि शाम को तीन रोटी, सुबह चार मिलेंगी; और कोई फर्क पड़नेवाला नहीं है। लेकिन तुम्हारा जीवन खो जायेगा।
समाज के साथ एक समझौता है इन नियमों में, कि हम तुम्हारे खेल का नियम मानकर चलते हैं, तुम हमें परेशान न करो। ताकि हम अपने भीतर प्रवेश कर सकें। तुम हमें बाधा न दो। जब समाज आश्वस्त हो जाता है कि तुम्हारा आचरण ठीक है, समाज बाधा नहीं देता। तुम उसका नियम मानकर चल रहे हो, फिर तुम ध्यान में जाओ, संन्यास में जाओ, तुम गहरी प्रज्ञा में प्रवेश करो, वह बाधा नहीं देता बल्कि साथ देता है। एक दफा उसे पता चल जाये कि तुम उपद्रव खड़ा करते हो, तुम नियम तोड़ते हो, तो वह तुम्हारा दुश्मन हो जाता है।
हम बुद्ध को सूली पर नहीं चढ़ाए, न महावीर को सूली पर चढ़ाए। चौबीस तीर्थंकर भारत में हुए, बिना सूली चढ़े चल बसे। बुद्ध, राम, कृष्ण को किसी को हमने सूली पर नहीं चढ़ाया। जीसस को सूली लग गई। उसका कुल कारण इतना था कि जीसस ने कुछ अजनबी प्रयोग कर लिया वहां। जीसस ने समाज के छोटे-मोटे नियमों की खिलाफत कर दी। अगर जीसस ने पतंजलि के सूत्र पढ़े होते, सूली नहीं लगती। छोटी-मोटी बातों पर झगड़ा खड़ा कर लिया। उस झगड़े के कारण कोई परिणाम अच्छा नहीं हुआ। उस झगड़े के कारण लाखों लोग लाभ ले सकते थे जीसस के दीये का, वे वंचित रह गये। और सूली लग जाने की वजह से, जीसस के पीछे जो अनुयायियों का वर्ग आया, वह सूली से प्रभावित होकर आया। वह गलत था। वह जीसस की प्रज्ञा से प्रभावित नहीं हुआ, सूली से प्रभावित हुआ कि महान शहीद हैं। इसलिये क्रिश्चियनिटी बुनियाद में पॉलिटीकल हो गई, राजनैतिक हो गई।
वही भूल इस्लाम के साथ हो गई। मोहम्मद ने छोटी-छोटी बातों में बदलाहट करने की कोशिश की। उसकी वजह से मोहम्मद को चौबीस घंटे तलवार लिये खड़ा रहना पड़ा। और जब मोहम्मद ने तलवार ले ली तो फिर अनुयायी तो तलवार छोड़ ही नहीं सकता। तो फिर यह चौदह सौ वर्ष से मुसलमान तलवार लिये घूम रहे हैं, क्षुद्र बातों की बदलाहट के लिए। जिनका कोई मूल्य नहीं है, वह बदल भी जायें तो भी कोई मूल्य नहीं है।
यह जो च्वांगत्से की कथा है, यह बड़ी मीठी है। इस कथा का नाम है, ‘दी ला आफ सेवन’, सात का सिद्धांत। समाज की व्यवस्था कुल जोड़ में वही रहेगी। तुम सिर पटककर यहां-वहां तीन की जगह चार, चार की जगह तीन कर लोगे, लेकिन पूरे जोड़ में कोई फर्क पड़नेवाला नहीं है। और उचित यही है कि तुम्हारी पूरी जीवन-ऊर्जा अंतःप्रवेश करे, तो तुम व्यर्थ के संघर्ष में न पड़ो। तुम छोटी बातों में मत उलझो।
समाज से अकलह की स्थिति रहे इसलिए पतंजलि का यम-नियमों पर जोर है। और जिस व्यक्ति को धार्मिक क्रांति करनी है, उसे सामाजिक क्रांति से जरा बचना चाहिए। क्योंकि इन दोनों क्रांतियों का मेल नहीं होता है। सामाजिक क्रांतिकारी बाहर के जगत में भटक जाता है। वह अपने तक पहुंच ही नहीं पाता। उसका दीया अपरिचित ही रह जाता है।
इसलिये शील को मानकर चलना, आचरण को मानकर चलना। और जिस समाज में जाओ, उसके शील और आचरण को मान लेना; ताकि तुम्हारी ऊर्जा व्यर्थ संघर्ष में व्यय न हो और तुम्हारी पूरी ऊर्जा अंतर्मुखी हो सके।
संघर्ष बहिर्मुखता है, साधना अंतर्मुखी है।
आज इतना ही।