NARAD
Bhakti-Sutra (भक्ति-सूत्र) 11
Eleventh Discourse from the series of 20 discourses - Bhakti-Sutra (भक्ति-सूत्र) by Osho. These discourses were given during JAN 11-20 1976, MAR 11-22 1976.
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दुःसंगः सर्वथैव त्याज्यः।।43।।
कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाशसर्वनाशकारणत्वात्।।44।।
तरंगायिता अपीमे संगात्समुद्रायन्ति।।45।।
कस्तरति कस्तरति मायाम? यः संगास्त्यजति यो महानुभावं सेवते निर्ममो भवति।।46।।
यो विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकबन्धमुन्मूलयति, निस्त्रैगुण्यौ भवति, योगक्षेमं त्यजति।।47।।
यः कर्मफलं त्यजति, कर्माणि संन्यस्यति ततो निर्द्वन्द्वो भवति।।48।।
वेदानपि संन्यस्यति केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते।।49।।
स तरति स तरति स लोकांस्तारयति।।50।।
जो नहीं है, उसे निर्बल मत जानना। जो नहीं है, उसमें भी बड़ा बल है। अन्यथा, मरु-मरीचिकाएं मनुष्य को आकर्षित न करतीं और स्वप्नों पर भरोसा न आता, क्षितिज आमंत्रण न देता, स्वप्न सत्य मालूम न होते।
जो नहीं है, वह भी बड़ा प्रबल है, और मन के लिए ‘जो है’ उससे भी ज्यादा प्रबल है। मन उसे देख ही नहीं पाता, ‘जो है।’ मन सदा उसका ही चिंतन करता है जो नहीं है, जिसका अभाव है। जो हाथ में नहीं है, मन उसका विचार करता है। जो हाथ में है, उसे तो मन भूल ही जाता है।
मन के इस सूत्र को ठीक से समझ लेना जरूरी है, तो ही भक्ति-सूत्र समझ में आ सकेंगे। क्योंकि मन के विपरीत जो गया, वही भक्ति को उपलब्ध हुआ। मन के साथ जो चला, वह कभी भगवान तक न पहुंच सकेगा।
भगवान यानी ‘जो है’, भक्ति यानी ‘जो है’ उसे देखने की कला।
लेकिन ‘जो है’ वह हमें दिखाई क्यों नहीं पड़ता? ‘जो है’ वह तो हमें सहज ही दिखाई पड़ना चाहिए। ‘जो है’ उसे खोजने की जरूरत ही क्यों हो? ‘जो है’ उसे हम भूले ही क्यों? उसे हम भूले ही कैसे? ‘जो है’ उसे हमने खोया कैसे? ‘जो है’ उसे खोया कैसे जा सकता है?
इसलिए पहली बात समझ लेनी जरूरी है: मन का नियम। मन उसी को जानता है जो नहीं है। तुम्हारे पास अगर दस हजार रुपये हैं तो उन दस हजार रुपयों को मन भूल जाता है। मन उन दस लाख का चिंतन करता है जो होने चाहिए, पर हैं नहीं। मन अभाव का चिंतन करता है। जो पत्नी तुम्हें उपलब्ध है मन उसे भूल जाता है। जो पत्नी उपलब्ध नहीं है, जो स्त्री उपलब्ध नहीं है, मन उसकी कल्पनाएं करता है, योजनाएं बनाता है। तुम्हें जो मिला है, मन उसे देखता ही नहीं; मन उसी पर नजर रखता है, जो मिला नहीं है। हाथ की असलियत मन को नहीं भाती, स्वप्न के आभास भाते हैं। मन स्वप्न के भोजन पर जीता है। मन जीता ही स्वप्न के सहारे है।
जब भी तुम आंख बंद करोगे, भीतर सपनों का जाल पाओगे, चलते ही रहते हैं, रुकते ही नहीं। तुम आंख खोले काम में भी लगे हो, तब भी भीतर उनका सिलसिला जारी रहता है; तब भी पर्त दर पर्त सपने भीतर घने होते रहते हैं। तुम देखो या न देखो, लेकिन मन सपने बुनता रहता है। मन का सपनों का ताना-बाना क्षण भर को रुकता नहीं। उसी सपने के जाल का नाम माया है। उसी सपने के जाल में उलझे तुम परेशान और पीड़ित हो।
जो नहीं है उसने तुम्हें अटकाया है। जो नहीं है उसने तुम्हें भरमाया है। जो नहीं है उसने तुम्हारी आंखें बंद कर दी हैं; और जो है उसे देखना मुश्किल हो गया है।
रात तुम स्वप्न देखते हो, कितनी बार देखे हैं; हर बार सुबह जाग कर पाया, झूठे थे! लेकिन फिर जब रात आज देखोगे स्वप्न तो देखते समय सच मानोगे। झूठ को सच मानने की तुम्हारी कितनी प्रगाढ़ धारणा है! कितनी बार जाग कर भी, कितनी बार देख कर भी कि सपने सुबह झूठ सिद्ध हो जाते हैं, फिर भी जब तुम रात स्वप्न देखोगे आज, तो सच मालूम होगा, शक भी न आएगा।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हमारे मन में श्रद्धा नहीं है। हम बड़े संदेहशील हैं। हमारा निस्तार कैसे होगा? मैं उनसे कहता हूं, मैंने अभी तक संदेहशील व्यक्ति देखा नहीं। तुम सपनों तक पर श्रद्धा करते हो, सत्य की तो बात ही छोड़ो। तुम सपनों तक पर भरोसा करते हो, उन पर तक तुम्हें अभी संदेह नहीं आया, तो तुम और किस पर संदेह करोगे? जो नहीं है, उस पर भी संदेह नहीं हो पाता, तो जो है उस पर तुम कैसे संदेह करोगे?
संदेहशील व्यक्ति मैंने अभी देखा नहीं क्योंकि जो संदेहशील हो वह पहले तो सपनों को तोड़ेगा। जिसने सपने तोड़े, उसके भीतर श्रद्धा का जन्म हुआ। जिसने सपने तोड़े, उसने तब सत्य को जानने का मार्ग साफ कर लिया। आज फिर रात जब तुम सपना देखोगे तब फिर खो जाओगे सपने में। ऐसा कितनी बार हुआ है, कितने जन्मों-जन्मों हुआ है! रात की छोड़ो, क्योंकि रात तुम कहोगे कि हम बेहोश हैं, चलो दिन का ही विचार करें। दिन में भी कितनी बार क्रोध किया है, और कितनी बार तय किया है और पछताए हो कि अब नहीं, अब नहीं, बहुत हो गया। फिर जब क्रोध पकड़ लेता है और क्रोध का धुआं जब तुम्हें घेर लेता है, तब तुम फिर भूल जाते हो; सारे पछतावे, सारे पश्चात्ताप, सारे निर्णय, संकल्प व्यर्थ हो जाते हैं। क्रोध का जरा सा धुंआ और तुम्हारे पैर उखड़ जाते हैं, जड़ें टूट जाती हैं, तुम फिर बेहोश हो जाते हो, तुम फिर बेसुध हो जाते हो। कितनी बार नहीं देखा कि कामवासना व्यर्थ ही भरमाती है; भटकाती है, पहुंचाती कहीं नहीं; दूर से दिखाती है मरूद्यान, पास आने पर मरुस्थल ही पाए जाते हैं। कितनी बार नहीं जाना है इसे! लेकिन फिर तुम भटकोगे, फिर तुम खोओगे। फिर कामवासना पकड़ेगी और तब फिर तुम सपने सजाने लगोगे--और मन कहेगा, ‘हो सकता है, इतनी बार झूठ सिद्ध हुई हो, अब की बार न हो! अपवाद हो सकते हैं। जो अब तक नहीं हुआ, शायद अब हो जाए।’
मन ‘शायद’ पर जीता है। मन आशा पर जीता है।
उमर खय्याम की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं कि मैंने ज्ञानियों से पूछा कि आदमी अब तक थका नहीं, किस सहारे जीता है? आदमी अब तक विषाद को उपलब्ध नहीं हुआ, किस सहारे जीता है? ज्ञानी उत्तर न दे पाए। फकीरों से पूछा। फकीर भी उलझे हुए मालूम पड़े।
तब कोई राह न देख कर, उमर खय्याम कहता है कि मैंने एक रात आकाश से पूछा कि तूने तो सभी को चलते देखा, सदियों-सदियों, युगों-युगों से, कितने लोग उठे, आशाओं और सपनों से भरे कितने लोग धूल में गिरे, तूने तो सबको देखा, सबके अरमान मिट्टी में मिलते देखे, तुझे तो पता चल गया होगा अब तक, आदमी किसके सहारे चलता है? अब तक थकता नहीं, रुकता नहीं!
तो आकाश ने कहा: आशा के सहारे।
तुम्हारा असली आकाश आशा है--जो नहीं हुआ, शायद हो जाए! जो किसी को नहीं हुआ, शायद तुम्हें हो जाए! जो कभी किसी को नहीं हुआ, शायद...!
भविष्य को किसने जाना है? सिकंदर हार जाते हैं, लेकिन तुम चले जाते हो, चलते चले जाते हो। दिन में भी तुम सपने देखते हो, रात में ही नहीं। राह पर चलते हो तब भी सपने देखते हो। दुकान पर बैठते हो, बाजार में उठते हो, बैठते हो तब भी सपने देखते हो। सपने तुम्हारे भीतर एक सतत क्रम है। और इन्हीं सपनों के कारण वह नहीं दिखाई पड़ता, जो है। सपनों की धूल तुम्हारी आंख को दबाए है।
सत्य को जानने के लिए कुछ भी नहीं करना है--सिर्फ असत्य से मुक्त हो जाना है। सत्य को जानने के लिए कुछ भी नहीं करना है--सिर्फ जो नहीं है, उसे देख लेना है कि नहीं है। द्वार साफ है। परदा उठा हुआ है। परदा कभी था ही नहीं।
कल मैं एक गीत पढ़ता था:
हंस मानसर भूला
सनी पंक में चंचु
हो गए उजले पर मटमैले
कंकर चुनने लगा वही जो
मुक्ता चुगता पहले
क्षर में क्या ऐसा सम्मोहन
जो तू अक्षर भूला?
कमल नाम से बिछुड़
कांस के सूखे तिनके जोरे
अवगुंठित कलियों के धोखे
कुंठित शूल बटोरे
पर में क्या ऐसा आकर्षण
जो परमेश्वर भूला?
नीर-क्षीर की दिव्य दृष्टि में
अंध वासना जागी
गति का परम प्रतीक बन गया
जड़ता का अनुरागी
क्षण को अर्पित हुआ
साधना का मन्वंतर भूला
हंस मानसर भूला
सनी पंक में चंचु
हो गए उजले पर मटमैले
कंकर चुगने लगा वही जो
मुक्ता चुगता पहले
क्षर में ऐसा क्या सम्मोहन
जो तू अक्षर भूला?
क्षण में ऐसा क्या आकर्षण हो सकता है जो शाश्वत भूल जाए? असार में ऐसा क्या बल हो सकता है जो सार विस्मृत हो जाए? दूसरे में ऐसी क्या पुकार हो सकती है जो अपना स्वभाव भूल जाए?... पर है।
इसलिए पहली बात तुमसे कहता हूं: व्यर्थ के, असार के, जो नहीं है उसके बल को मत भूलना; उसके बल को स्वीकार करना। जो नहीं है उसमें भी शक्ति है। क्योंकि मन का स्वभाव यही है कि वह जी ही सकता है, ‘जो नहीं है’ उसी के सहारे। जो तुम्हारे पास है अगर तुम उसी को देखो तो मन की जरूरत क्या? जो वर्तमान में है अगर तुम उसी में जीओ तो मन को फैलने का उपाय कहां, अवकाश कहां?
अभी तुम यहां बैठे हो। अगर तुम यहीं हो सिर्फ--मैं हूं, तुम हो और यह क्षण है, तो मन मिट गया, तो मन यहां उठ न सकेगा। हां, तुम सोचने लगो कि दुकान जाना है, दस बजे ऑफिस पहुंच जाना है--मन प्रविष्ट हुआ। मन के लिए भविष्य चाहिए। तुम अगर एक क्षण बाद की सोचने लगो तो मन जीवंत हुआ। तुम एक क्षण पहले की सोचने लगो, तो मन जीवंत हुआ। तुम अगर अभी हो, यहीं हो, तो मन नहीं हो गया।
वर्तमान मन की मृत्यु है। भविष्य और अतीत मन का जीवन है। न तो अतीत है--जा चुका; न भविष्य है--अभी आया भी नहीं। मन जीता ही ‘नहीं’ में है। मन का स्वभाव नकार है--अनस्तित्व, अभाव। मन नास्तिक है। इसलिए मन से कोई कभी आस्तिक नहीं हो पाता। मन के आस्तिक तुम्हें बहुत दिखाई पड़ेंगे--मंदिरों-मस्जिदों में बैठे हैं, पूजा-पाठ करते हैं, लेकिन पूजा-पाठ वे कर नहीं रहे हैं; उनका मन कहीं और भी आगे गया है। कोई स्वर्ग को मांगता होगा; कोई पुण्य के फल मांगता होगा। कोई परलोक के सुख मांगता होगा, कोई इसी लोक के सुख मांगता होगा; लेकिन मन कहीं और जा चुका है।
मन न हो, तो पूजा। मौन पूजा होगी। मन न हो, तो पूजा होगी, तो प्रार्थना होगी, तो ध्यान होगा। जहां मन नहीं वहीं मंदिर शुरू होता है--मन की मौत पर।
इसे थोड़ा खयाल से समझ लो।
तुम अगर यहीं हो जाओ, इसी क्षण में, फिर कुछ पाने को नहीं है--पाया ही हुआ है। परमात्मा मिला ही हुआ है। तुमने उसे खोया कभी नहीं। खोने की भी भ्रांति है। एक सपने में तुम लीन हो गए हो। एक सपना तुम्हें अपने से दूर ले गया है। विचारों के ऊहापोह में तुम उलझ गए हो। जो तुम्हारे पैर के नीचे है, वही मंजिल दिखाई पड़नी बंद हो गई है। जो तुम्हारे हृदय के भीतर है, इस क्षण भी गुनगुना रहा है, उसी का गीत सुनाई पड़ना बंद हो गया है। तुम अपने से दूर हो गए हो।
भक्ति-सूत्र तुम्हें समझ में आ सकेंगे, अगर तुम मन की इस अवस्था को ठीक से समझ लो और इसके बाहर होने शुरू हो जाओ। स्वप्न से जागो। परमात्मा को पाने की कोई भी जरूरत नहीं है--उसे कभी खोया नहीं है। स्वप्न से जागते ही तुम हंसोगे। जैसे आज रात तुम यहां सो जाओ और सपने में देखो कि कलकत्ते में हो या लंदन में हो या दिल्ली में हो--और सुबह आंख खुले और तुम पाओ कि पूना में हो; न कलकत्ता थे, न लंदन थे, न दिल्ली थे--सब सपना था। लेकिन सपने में जब तुम दिल्ली में थे तब तुम सोच भी न सकते थे कि तुम हो पूना में। ठीक ऐसा ही हुआ है। तुम हो तो परमात्मा में, लेकिन तुम्हारा सपना तुम्हें कहीं और बतलाता है।
पहला सूत्र:
‘दुःसंग का सर्वथा त्याग करना चाहिए।’
दुःसंगः सर्वथैव त्याज्यः।
क्या है दुःसंग?
पहला तो मन का संग, दुःसंग है।
तुमने भक्ति-सूत्र की व्याख्याएं पढ़ी होंगी, तो उनमें दुःसंग कहा है उन लोगों को जो बुरे हैं। उनसे क्या लेना-देना? बुरा आदमी तुम्हारा क्या बिगाड़ लेगा, अपना ही बिगाड़ रहा है। इसलिए जिन्होंने भक्ति-सूत्र की व्याख्या में लिखा है, बुरे लोगों का साथ छोड़ दो, वे समझे नहीं।
दुःसंग का अर्थ है: मन का साथ छोड़ दो। यही एकमात्र दुःसंग है। तुम बुरे लोगों का साथ छोड़ दो और मन का साथ बनाए रखो तो कोई दुःसंग छूटने वाला नहीं। तुम जहां रहोगे, तुम जैसे रहोगे, वहीं मन दुःसंग खड़ा कर लेगा। मन बड़ा उत्पादक है, बड़ा सृजनात्मक है। परमात्मा के बाद अगर कहीं कोई स्रष्टा है तो मन है। कितना सृजन करता है--ना-कुछ से। शून्य में आकृतियां बना लेता है। शून्य में रंग भर देता है। शून्य में इंद्रधनुष उग आते हैं, फूल खिल जाते हैं। और अपने ही बनाए खेल में खुद अनुरक्त हो जाता है। अपने ही हाथ से बनाई छायाओं के पीछे दौड़ने लगता है।
इसलिए मेरी व्याख्या है: मन का साथ छोड़ दो।
‘दुःसंग का सर्वथा त्याग करना चाहिए।’
मैं तुमसे नहीं कहता, चोर का साथ छोड़ो। मैं तुमसे नहीं कहता, क्रोधी का साथ छोड़ो। मैं तुमसे कहता हूं: मन का साथ छोड़ो; क्योंकि मन ही चोर है, मन ही क्रोधी है। यह सवाल दूसरे का नहीं है, अन्यथा धार्मिक लोग बड़े कुशल हो गए हैं... दुःसंग का त्याग करना चाहिए, तत्क्षण उनको समझ में आ जाता है कि किन-किन का साथ छोड़ना है। असली बात चूक जाती है, यह अपना साथ, यह ‘मैं भाव’ यह तो बच रहता है, और भी सम्हल कर बच जाता है, यह ‘मैं’ कहने लगता है, मैं साधु हो गया। क्योंकि मैं अब चोरों के साथ उठता-बैठता नहीं। अब मैं बुरे लोगों के साथ नहीं उठता-बैठता।
लेकिन साधु तो वही है जिसे दूसरों में बुरा दिखाई न पड़े। साधु तो वही है जिसे सभी जगह साधु का दर्शन होने लगे। साधु तो वही है जिसकी आंखें जहां पड़ें वहीं साधुता का आविर्भाव हो। तो यह साधु की व्याख्या तो नहीं हो सकती कि चोर का साथ छोड़ दो। कहीं कुछ भूल हो गई। हां, यह बात सच है कि अगर तुमने अपने मन के चोर का साथ छोड़ा तो चोरों से तुम्हारा साथ अपने आप छूट जाएगा।
आखिर चोर से तुम्हारा साथ क्या है? ...क्योंकि तुम भी चोर हो! और क्या साथ हो सकता है? दुष्ट से तुम्हारी संगति क्या है? ...क्योंकि तुम्हारे भीतर भी दुष्टता है, उसी से सेतु बनता है। बुरे आदमी से तुम्हारा साथ क्यों हो गया है? ...तुमने किया है। तुमने निमंत्रण दिया है। बुरा ऐसे ही नहीं आ गया है; तुमने बुलाया है। चाहे तुम खुद भूल भी गए होओगे कि कब बुलावा भेजा था, कब निमंत्रण-पत्र लिखा था, लेकिन आया तुम्हारे ही बुलावे पर है।
इस जगत में कुछ भी आकस्मिक नहीं है। इस जगत में जो कुछ भी है, व्यवस्थाबद्ध है। यह जगत एक परिपूर्ण व्यवस्था है। अगर तुम्हारा चोर से साथ है तो किन्हीं न किन्हीं रास्तों से तुमने चोर को बुलाया होगा। बीज बोए होंगे, तभी तो फसल काटोगे। चोर से साथ होने का एक ही अर्थ है कि तुम्हारे भीतर कहीं चोर है। समान समान से मिलना चाहता है। शराबी से दोस्ती हो गई है, क्योंकि तुम्हारे भीतर शराबी है। हत्यारे से नाता बन गया है, क्योंकि तुम्हारे भीतर हत्या करने की भावना और कामना छिपी है। हिंसा भीतर हो तो हिंसक से दोस्ती बन जाएगी। अहिंसा भीतर हो तो हिंसक से दोस्ती बन ही न पाएगी, तालमेल न बैठेगा--छोड़ना न पड़ेगा, बनना ही मुश्किल हो जाएगा।
तो मेरी व्याख्या को ठीक से समझ लेना: अगर मन का साथ छूट जाए, तो और व्याख्याकारों ने जो कहा है, वह तो अपने से घटित हो जाता है, उसकी चिंता भी नहीं करनी पड़ती। इधर भीतर मन गया--क्रोध गया, लोभ गया, मोह गया, काम गया। वे सब मन के ही फैलाव हैं, वे सब मन की ही सेनाएं हैं। मन का सम्राट उन्हीं सेनाओं के सहारे जीता है--इधर मन मरा कि सेनाएं बिखरीं। इधर सम्राट गया कि साम्राज्य गया। तब तुम अचानक पाओगे: बुरे से संबंध नहीं बनता। तुम बनाना भी चाहो तो नहीं बनता। वस्तुतः तुम अगर बुरे के पीछे भी जाओगे तो बुरा तुमसे बचेगा, बुरा तुमसे डरने लगेगा। क्योंकि शुभ इतनी बड़ी शक्ति है, प्रकाश इतनी बड़ी शक्ति है कि अंधेरा छिप जाता है। जहां प्रकाश आया, अंधेरा भागा। अंधेरा ढूंढने लगता है कोई स्थान, छिप जाए, बचा ले।
साधु अगर असाधु की दोस्ती करे, तो असाधु या तो भागेगा या मिटेगा। यही स्वाभाविक भी मालूम होता है। लेकिन यह दुनिया बड़ी उलटी है। यहां साधु असाधु से डर रहा है। जरूर साधु झूठा है, असाधु मजबूत है। साधु असाधु से डर रहा है। यह दुनिया तो ऐसी हुई कि दवाएं बीमारियों से डर रही हैं। प्रकाश अंधेरे से भागा हुआ है, डरा हुआ है कि छिप जाऊं, कहीं अंधेरा आकर मुझे मिटा न दे। तब तो फिर ‘सत्यमेव जयते’ कभी भी न हो सकेगा, सत्य की विजय फिर कभी न होगी। सत्य तो असत्य से डरा हुआ है।
नहीं, व्याख्या की भूल है। तुम जिसे साधु कहते हो, अगर वह असाधु से डरा है तो सिर्फ इसका सबूत देता है कि साधु नहीं है; भीतर असाधु है और डरता है कि असाधु के संग-साथ रहा तो भीतर का असाधु प्रकट होने लगेगा, बाहर आ जाएगा। यही भय है। असाधु नहीं डरता साधु के साथ होने से, कोई भय नहीं है। लेकिन जब सच्चा साधु होगा तो असाधु डरेगा, या तो बचेगा, या भागेगा।
मैंने सुना है, महावीर के समय में एक बहुत बड़ा डाकू हुआ। वह महावीर से बहुत डरता था। वह बूढ़ा हो गया था। उसने अपने बेटे को शिक्षा दी कि देख, और सब करना, इस एक आदमी के आस-पास मत जाना। यह खतरनाक है, यह अपने धंधे का बिलकुल दुश्मन है। इसके पास गए कि मिटे। तो अगर कभी भूल-चूक से भी तू गुजरता हो और महावीर बोलता हो, तो अपने कानों में अंगुलियां डाल लेना। इसी तरह बामुश्किल मैंने अपने को बचाया है।
निश्चित ही इस डाकू के भीतर साधु छिपा रहा होगा, अन्यथा कौन महावीर से बचता है! इसको डर क्या है? यह जानता है कि महावीर ठीक हैं। लेकिन भूल-चूक हो गई। बेटा आखिर बेटा ही था; बाप तो बहुत कुशल पुराना डाकू था, वह बचाता रहा अपने को। बेटा एक दिन जा रहा था रास्ते से। चूंकि बाप ने मना किया था, इसलिए मन में और आकर्षण भी हो गया कि एकाध शब्द सुन लेने में क्या हर्ज है। ऐसा थोड़ी कि कुछ एकाध शब्द सुन लोगे और सब बदल जाएगा।
तो महावीर बोलते थे, द्वार पर कहीं दूर खड़े होकर उसने एक वाक्य सुना, लेकिन फिर बाप की याद आई, अंगुलियां कान में डाल लीं। भाग खड़ा हुआ। पर एक वाक्य कान में पड़ गया। महावीर से किसी ने पूछा था कोई प्रश्न, और वे जवाब देते थे। पूछा था प्रेत-योनि के संबंध में, कि प्रेत होते हैं तो कैसे होते हैं, देव होते हैं तो कैसे होते हैं।
फिर वर्षों बीत गए, यह डाकू पकड़ा गया। सम्राट के घर डाका डाला था। सम्राट इसके बाप से परेशान था; बाप मर गया, इसके बेटे से परेशान था। और कभी कोई बात पकड़ी न जा सकी थी, कोई उनके खिलाफ जुर्म हाथ में न था, रंगे हाथ वे कभी पकड़े न गए थे। सम्राट ने अपने मनोवैज्ञानिकों से सलाह ली कि इससे सारी बातें निकलवा लेनी हैं; अब हाथ में पड़ गया है तो छोड़ नहीं देना है। कैसे निकलवाएं इससे सारी बातें?
तो मनोवैज्ञानिकों ने एक उपाय सोचा। उन्होंने इसे खूब शराब पिलाई। शराब पिला कर महल की जो सुंदरतम स्त्रियां थीं, उनको इसके चारों तरफ नृत्य करने को कहा। यह आदमी बीच में बैठा है नशे में सरोबोर, वे स्त्रियां नाचने लगीं। ऐसा सुंदर महल इसने कभी देखा भी न था। वे स्त्रियां इसे अप्सराएं मालूम होने लगीं। नशा! इसे शक होने लगा कि मैं इस लोक में हूं या परलोक मैं पहुंच गया हूं। इसने किसी को पूछा। तो मनोवैज्ञानिकों ने यही तो उपाय किया था। उन्होंने कहा कि तुम मर गए हो, स्वर्ग में आ गए हो। और अब तुम अपने जीवन भर में तुमने जो भी पाप किए हैं, उन सब का ब्यौरा दे दो, ताकि परमात्मा उन्हें माफ कर दे। उसकी कृपा अनंत है, भयभीत मत हो। तुम अपना एक-एक पाप बोल दो। जो पाप तुम छिपाओगे वही बच रहेगा; जो तुम बता दोगे उससे तुम्हारा छुटकारा हो जाएगा।
तब जरा डाकू चौंका: ‘सब पाप बता दे!’ तब उसे याद आया, उस दिन का महावीर का वचन कि देवलोक में देवता होते हैं तो उनकी छाया नहीं पड़ती। तो उसने गौर से देखा कि अगर यह देवलोक है...। स्त्रियों की छाया पड़ रही थी, वह सम्हल गया। उसे लगा कि यह सब धोखा है, नशे में हूं। उसने एक भी पाप के संबंध में कुछ भी न कहा। अपने पुण्य की बातें बताईं जो उसने कभी भी न किए थे। उसने कहा: ‘पाप तो कभी किए ही नहीं, मैं करूं भी क्या? परमात्मा क्षमा कर सकता है, लेकिन मैंने किए नहीं। पुण्य ही पुण्य किए हैं।’
सम्राट को उसे छोड़ देना पड़ा। वह जाल काम न आया। वह जैसे ही वहां से छूटा, सीधा महावीर के पास पहुंचा, उनके पैरों में गिर गया, और कहने लगा: तुम्हारे एक वचन ने मेरे प्राण बचाए। अब मैं तुम्हें पूरा-पूरा ही सुन लेना चाहता हूं। इतना ही सुना था, वह भी कुछ बड़ी काम की बात न थी, लेकिन काम पड़ गई। सत्संग काम आ गया। वह भी ऐसी चोरी-चोरी द्वार पर खड़े होकर, एक वाक्य सुना था कि देवताओं की छाया नहीं पड़ती। तब तो सोचा भी न था कि इसकी कोई सार्थकता हो सकेगी, लेकिन काम पड़ गया, मेरे प्राण बचे। तुमने मुझे बचाया। भयंकर नशे में मुझे डुबाया था और सारा इंतजाम किया था और मैं फंस ही गया था और मैं तैयार ही था बोलने को, ताकि क्षमा कर दिया जाऊं। अब तुम मुझे पूरा ही बचा लो। इस सम्राट से तुमने बचाया, अब तुम मुझे मृत्यु से भी बचा लो। इस मौत से तुमने मुझे बचाया, अब तुम मुझे सारी मौतों से बचा लो। अब मैं तुम्हारी शरण हूं।
साधु का एक वचन भी सुन लिया जाए तो असाधु के जीवन में रूपांतरण शुरू हो जाता है--बीज पड़ गया। साधु क्या डरेगा असाधु से? डरे तो असाधु डरे।
मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम बुरे लोगों का साथ छोड़ देना। मैं तो तुमसे यह कहूंगा कि तुम उन्हें बुरे देखोगे तो तुम बुरे रह जाओगे। तुम अगर उन्हें बुरे मानोगे तो तुम्हारी बुराई कभी मिट न सकेगी। तुम तो एक साथ छोड़ दो--भीतर के अपने मन का--और तत्क्षण तुम पाओगे: संसार में कोई बुरा न रहा। चोर में भी तब तुम्हें परमात्मा ही छिपा हुआ दिखाई पड़ेगा। हत्यारे में भी तब तुम्हें उसकी ही ज्योति झिलमिलाई दिखाई पड़ेगी। और तुमसे भयभीत होने लगेगा असाधु, क्योंकि तुम असाधुता की मौत सिद्ध होने लगोगे। तुम्हारी छाया जहां पड़ेगी, वहां से अंधकार हटेगा। निश्चित ही तुम्हारा असाधु से साथ छूट जाएगा। मैं छोड़ने को नहीं कहता हूं--छूट जाएगा। तुम्हें छोड़ना न पड़ेगा--असाधु भाग खड़ा होगा, या असाधु रूपांतरित हो जाएगा।
यह बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है:
‘दुःसंग का सर्वथा त्याग करना चाहिए।’ ...पर दुःसंग है--मन का संग!
‘क्योंकि वह (दुःसंग) काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवं सर्वनाश का कारण है।’
इतना साफ है सूत्र, पर व्याख्याकारों से ज्यादा अंधे लोग खोजना मुश्किल है।
‘क्योंकि वह काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवं सर्वनाश का कारण है।’
कौन तुम्हारा सर्वनाश कर सकेगा? ...तुम्हारे अतिरिक्त और कोई भी नहीं। तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई शत्रु नहीं है और न तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई मित्र है। मन से साथ बना रहे तो तुम अपना ही आत्मघात करते रहोगे। मन से साथ छूट जाए तो तुम्हारे जीवन में नव-जीवन का संचार हो जाएगा, पुनर्जन्म हो जाएगा।
‘काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश, सर्वनाश’--इन शब्दों को समझो।
काम का अर्थ है: सदा इस आशा से जगत को देखना कि उससे कुछ सुख पाना है। काम का अर्थ है: सुख पाने की आकांक्षा से ही चीजों को, व्यक्तियों को, घटनाओं को देखना; आकांक्षा से भरे होकर देखना। जब तुम आकांक्षा से भरकर किसी चीज को देखते हो, तब तुम्हें चीज का सत्स्वरूप दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि तुम्हारी आकांक्षा परदा डाल देती है। तुम जिस चीज को भी वासना से भर कर देखते हो, तुम्हें वही दिखाई पड़ता है जो तुम देखना चाहते हो।
मैं एक मित्र के साथ गंगा के तट पर बैठा था। वे थोड़े बेचैन हो आए। फिर मुझसे कहने लगे, क्षमा करें। आपसे झूठ न कहूंगा, लेकिन मुझे थोड़े समय के लिए छुट्टी दें, मैं तट तक जाना चाहता हूं। वे गए। मैंने देखा कि वे क्यों जाना चाहते हैं। सुंदर स्त्री दिखाई पड़ गई है, वह स्नान कर रही है। वे गए बड़ी आतुरता से, फिर लौटे बड़े उदास। मैंने पूछा: क्या हुआ? उन्होंने कहा: बड़ी भ्रांति हुई। वह स्त्री नहीं है, कोई साधु है। लंबे बाल...! पीठ की तरफ से दिखाई पड़ा था। जब पास से जाकर देखा तो साधु है, स्त्री नहीं है।
मैंने उनसे पूछा कि थोड़ा गौर करो, स्त्री तुम्हें दिखाई पड़ी इसमें तुम इतना ही मत सोचो कि साधु के बालों ने धोखा दे दिया। तुम स्त्री देखना चाहते थे। तुमने आरोपण किया। तुम मुझसे पूछे होते। उतनी दूर जाने की जरूरत न थी।
हम वही देख लेते हैं जो हम कामना करते हैं। तुम अपने चारों तरफ अपनी ही कामना का संसार रच लेते हो।
दो साधु एक रास्ते से गुजरते थे। एक साधु दूसरे से कुछ बोल रहा था। उस दूसरे ने कहा कि यहां सुनाई भी नहीं पड़ेगा मुझे कुछ। यह बाजार, इतना शोरगुल! यह ज्ञान की बात यहां मत करो--एकांत में चल कर करेंगे।
वह साधु वहीं खड़ा हो गया। उसने अपनी जेब से एक रुपया निकाला और आहिस्ता से रास्ते पर गिरा दिया। खननखन की आवाज हुई, भीड़ इकट्ठी हो गई। पहले साधु ने पूछा कि मैं समझा नहीं, यह तुमने क्या किया। उसने रुपया उठाया, जेब में रखा और चल पड़ा। उसने कहा, इतना भरा बाजार है, इतना शोरगुल मच रहा है; लेकिन रुपये की जरा सी खननखन की आवाज--इतने लोग आ गए। ये रुपये के प्रेमी हैं। नरक में भी भयंकर उत्पात मचा हो और अगर रुपया गिर जाए तो ये सुन लेंगे।
हम वही सुन लेते हैं जो हम सुनना चाहते हैं। उस साधु ने कहा: अगर तुम परमात्मा के प्रेमी हो तो यहां भी, बाजार में भी परमात्मा के संबंध में मैं कुछ कहूंगा तो तुम सुन लोगे।
कोई दूसरा बाधा नहीं डाल रहा है। हम वही सुनते हैं जो हम सुनना चाहते हैं। हम वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं। हमें उसी से मिलन हो जाता है जिससे हम मिलना चाहते हैं। इस जीवन की व्यवस्था को ठीक से जो समझ लेता है वह फिर किसी दूसरे को दोष नहीं देता।
ध्यान रखना, कामना तुम्हें कभी सत्य को न देखने देगी। सत्य को देखना हो तो कामना-शून्य चित्त चाहिए।
इस बगीचे में कोई चित्रकार आए तो कुछ और देखेगा। कोई लकड़हारा आ जाए तो कुछ और देखेगा। कोई फूलों को बेचने वाला माली आ जाए तो कुछ और देखेगा। तीनों एक ही जगह आएंगे, लेकन तीनों के दर्शन अलग-अलग होंगे।
कहते हैं, जब संगीत की परम ऊंचाई उपलब्ध होती है तो वीणा शांत भी रखी हो तो संगीतज्ञ को वे स्वर सुनाई पड़ने शुरू हो जाते हैं, जो उस वीणा से प्रकट हो सकते हैं, जो अभी छिपे हैं, अभी जन्मे भी नहीं। लेकिन कान की उत्कंठा उन्हें भी सुन लेती है जो अभी प्रकट नहीं हुए। अनभिव्यक्त भी अभिव्यक्त हो जाता है। आंख हो देखने वाली तो बीज में भी फूल दिखाई पड़ने लगते हैं।
कहते हैं, चमार रास्तों पर लोगों को देखते हैं तो जूतों को ही देख कर आदमी का सब-कुछ समझ जाते हैं। जूते की हालत बहुत कुछ बताती है: तुम्हारी आर्थिक दशा; ठीक चल रही है जिंदगी कि ऐसे ही जा रही है; सफलता पा रहे हो कि असफल हो रहे हो; घर से क्रोध में चले आए हो, झगड़ कर चले आए हो कि शांति में विदा पाई है--सब तुम्हारे जूते की हालत बता देती है। जूते की शिकन-शिकन में तुम्हारी कथा लिखी है, आत्म-कथा है। चमार जूतों को देखता है और सब समझ जाता है। चमार तुम्हारे चेहरे की तरफ देखता ही नहीं। जूतों को देखते-देखते पारंगत हो जाता है। वही उसकी समझ है। वहीं से जानता है।
हजारों लोग तुम रास्तों पर चलते हुए देखोगे, लेकिन सभी लोग एक ही रास्ते पर नहीं चल रहे हैं--एक ही रास्ते पर चल रहे हैं यूं तो, लेकिन सबकी नजर अलग-अलग चीजों पर लगी है। भूखा रेस्तरां, होटल को देखता हुआ चलेगा। जिसने उपवास किया है वही जानता है। फिर कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता संसार में सिवाय भोजन के। कहते हैं, उपवासे आदमी को चांद भी तैरती हुई रोटी की तरह मालूम होता है।
संसार तुम्हारा चुनाव है। तुम्हारी वासना चुनती है। जिस चीज में तुम उत्सुक नहीं हो वह दिखाई नहीं पड़ती। मेरे पास बहुत से संन्यासियों ने आकर यह कहा है कि संन्यास लेने के पहले कपड़े की दुकानें दिखाई पड़ती थीं, अब नहीं दिखाई पड़तीं। अब दिखाई पड़ने का सार भी नहीं। एक ही कपड़ा बचा--गेरुआ। अब कपड़े की दुकानें हैं भी कि मिट गईं--संन्यासी को क्या लेना-देना। बात ही खत्म हो गई!
जिस बात से हमारा संबंध टूट जाता है, वह विदा हो जाती है संसार से। जिससे हमारा संबंध बना रहता है, उसी को हम देखते चलते हैं। ध्यान रखना, तुम्हारा निर्णय तुम्हीं को नहीं बदलता, सारे संसार को बदल देता है--तुम्हारे संसार को बदल देता है। क्योंकि तुम्हारा संसार तुम्हारा निर्णय है।
काम सत्य को न जानने देगा। क्रोध सत्य को न जानने देगा। क्योंकि क्रोध में तो तुम वैसी अवस्था में पहुंच जाते हो जैसे कोई शराबी। कहीं पड़ते हैं पैर, कहीं तुम रखना चाहते थे। कुछ कह जाते हो, कुछ तुम कहना चाहते थे। पीछे पछताओगे, पहले भी पछताए थे। क्रोध तुमसे ऐसे कृत्य करवा लेता है जो तुम कर ही नहीं सकते थे; अपने होश में तुमने कभी न किए होते।
क्रोध यानी बेहोशी।
मोह: किसी को तुम अपना मानते हो, तो देखने के ढंग बदल जाते हैं। जिसे तुम अपना नहीं मानते, देखने के ढंग बदल जाते हैं। वही कृत्य अगर अपना करे तो तुम्हारा निर्णय कुछ और होता है; वही कृत्य कोई दूसरा करे तो निर्णय और हो जाता है। तुम्हारा न्याय तुम्हारे मोह से मर जाता है; सत्य को देखने की क्षमता धूमिल हो जाती है। दूसरा कुछ करे तो पाप; अपना कुछ करे तो ज्यादा से ज्यादा भूल। तुम अगर वही काम करो तो मजबूरी; और दूसरा करे तो अपराध!
तुमने कभी खयाल किया?... तुम अगर रिश्वत ले लेते हो, तो मजबूरी, क्या करें, तनख्वाह से काम नहीं चलता। लेना तुम चाहते नहीं, लेकिन मजबूरी है, बाल-बच्चे हैं, घर-द्वार है, चलाना है। जानते हो, गलत है--मगर इतना भी तुम जानते हो कि अपराध तुमने नहीं किया; तुम क्या करो, समाज ने मजबूर कर दिया है। दूसरा जब रिश्वत लेता है तब अपराध है। तब तुम बड़ा शोरगुल मचाते हो। वस्तुतः तुम्हारा शोरगुल उतना ही बड़ा होता है जितनी तुमने भी रिश्वत ली होती। अपनी भूल को छोटा करने के लिए तुम दूसरे की भूल को बड़ा-बड़ा करके दिखाते हो। तुम संसार में सबकी निंदा करते रहते हो। वही तुम भी करते हो; अन्यथा तुम भी नहीं कर रहे हो।
दूसरे का बेटा असफल हो जाता है, तुम समझते हो, बुद्धिहीन; तुम्हारा बेटा असफल हो जाता है, तो शिक्षक की शरारत!
मेरे पास मां-बाप आ जाते हैं, वे कहते हैं, हमारा बेटा फेल कर दिया, जरूर कोई साजिश है। जो भी फेल होता है, वह कहता है साजिश है; लेकिन दूसरे जो फेल हुए हैं, उनकी बुद्धि ही नहीं तो क्या करेंगे!
तुम कभी गौर करना, मोह तुम्हारी आंख से न्याय को छीन लेता है।
‘काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश,...।’
‘स्मृतिभ्रंश’ बड़ा महत्वपूर्ण शब्द है। बुद्ध ने जिसे सम्यक-स्मृति कहा है, यह उसकी विपरीत अवस्था है--स्मृतिभ्रंश। जिसे कृष्णमूर्ति अवेयरनेस कहते हैं, होश कहते हैं--स्मृतिभ्रंश उसकी विपरीत अवस्था है। जिसको गुरजिएफ ने सेल्फ-रिमेंबरिंग कहा है, आत्म-स्मरण--स्मृतिभ्रंश उसकी विपरीत अवस्था है। जिसको नानक ने, कबीर ने सुरति कहा है--स्मृतिभ्रंश उसकी उलटी अवस्था है।
सुरति स्मृति का ही रूप है। सुरतियोग का अर्थ है: स्मृतियोग--ऐसे जीना कि होश रहे; प्रत्येक कृत्य होशपूर्ण हो; उठो तो जानते हुए; बैठो तो जानते हुए।
एक छोटा सा प्रयोग करो। आज जब तुम्हें फुरसत मिले घंटे भर की, तो अपने कमरे में बैठ जाना द्वार बंद करके और एक क्षण को सारे शरीर को झकझोर कर होश को जगाने की कोशिश करना--बस एक क्षण को कि तुम बिलकुल परिपूर्ण होश से भरे हो। बैठे हो, आस-पास आवाज चल रही है, सड़क पर लोग चल रहे हैं, हृदय धड़क रहा है, श्वास ली जा रही है--तुम सिर्फ होश मात्र हो--एक क्षण के लिए। सारी स्थिति के प्रति होश से भर जाना; फिर उसे भूल जाना; फिर अपने काम में लग जाना। फिर घंटे भर बाद फिर दुबारा कमरे में जाकर, फिर द्वार बंद करके, फिर एक क्षण को अपने होश को जगाना--तब तुम्हें एक बात हैरान करेगी कि बीच का जो घंटा था, वह तुमने बेहोशी में बिताया; तब तुम्हें अपनी बेहोशी का पता चलेगा कि तुम कितने बेहोश हो। पहले एक क्षण को होश को जगा कर देखना, झकझोर देना अपने को; जैसे तूफान आए और झाड़ झकझोर जाए, ऐसे अपने को झकझोर डालना, हिला डालना। एक क्षण को अपनी सारी शक्ति को उठा कर देखना--क्या हूं, कौन हूं, कहां हूं! ज्यादा देर की बात नहीं कर रहा हूं, क्योंकि एक क्षण से ज्यादा तुम न कर पाओगे। इसलिए एक क्षण काफी होगा। बस एक क्षण करके बाहर चले जाना, अपने काम में लग जाना--दुकान है, बाजार है, घर है--भूल जाना। जैसे तुम साधारण जीते हो, घंटे भर जी लेना। फिर घंटे भर बाद कमरे में जाकर फिर झकझोर कर अपने को देखना। तब तुम्हें तुलनात्मक रूप से पता चलेगा कि ये दो क्षण अगर होश के थे, तो बीच का घंटा क्या था! तब तुम तुलना कर पाओगे।
मेरे कहने से तुम न समझोगे; क्योंकि होश को मैं समझा सकता हूं शब्दों में, लेकिन होश तो एक स्वाद है। मीठा, मीठा, मीठा कहने से कुछ न होगा। वह तो तुम्हें मिठाई का पता है, इसलिए मैं मीठा कहता हूं तो तुम्हें अर्थ पता हो गया। मैं कहूं स्मृति, सुरति उससे कुछ न होगा; उसका तुम्हें पता ही नहीं है। तो तुम यह भी न समझ सकोगे कि स्मृतिभ्रंश क्या है। होश को जगाना क्षण भर को, फिर घंटे भर बेहोश; फिर क्षण भर को होश को जगा कर देखना--तुम्हारे सामने तुलना आ जाएगी; तुम खारे और मीठे को पहचान लोगे। वह जो घंटा बीच में बीता, स्मृतिभ्रंश है। वह तुमने बेहोशी में बिताया--जैसे तुम थे ही नहीं, जैसे तुम चले एक यंत्र की भांति; जैसे तुम नशे में थे--और तब तुम्हें अपनी पूरी जिंदगी बेहोश मालूम पड़ेगी।
मन बेहोशी है, स्मृतिभ्रंश है। और स्वभावतः इन सबका जोड़ सर्वनाश है।
‘दुःसंग का सर्वथा त्याग करना चाहिए, क्योंकि वह दुःसंग काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवं सर्वनाश है।’
‘ये काम-क्रोध आदि पहले तरंग की तरह (क्षुद्र आकार में) आते हैं, फिर विशाल समुद्र का आकार ग्रहण कर लेते हैं।’
आता है सब बड़े छोटे से आकार में, तरंग की भांति। अगर तुमने तरंग को ही न पहचाना और पकड़ा, तो चूक गए। पहले कदम में ही जागना। जब क्रोध की पहली लहर आती है, इतनी सूक्ष्म होती है कि पता भी नहीं चलता, चुपचाप प्रविष्ट हो जाती है; इतनी हवा के हलके झकोर की तरह आती है कि पत्ता भी नहीं हिलता, आवाज भी नहीं होती। पर तभी होश रखा, तो ही; नहीं तो बीज प्रविष्ट हो गया।
क्रोध की अवस्थाओं को समझो। पहला: क्रोध आ रहा है, अभी आया नहीं; लहर उठी है, लेकिन अभी प्रवेश नहीं हुआ। फिर लहर प्रविष्ट हो गई, बीज भीतर पड़ गया; देर-अबेर सागर बनेगा। फिर यह सागर जोर से झंझावात करता है। उठती हैं लहरें और तटों से टकराती हैं। फिर उतर गया सागर। फिर लहर भी चली गई। किनारा फिर शांत र
ह गया। ये तीन अवस्थाएं हुईं--क्रोध के पहले, फिर क्रोध की, और क्रोध के बाद।
क्रोध के पहले ही जो लहर को देख लेगा, जो जाग जाएगा, वही बच सकता है। लोग अक्सर जब क्रोध जा चुका होता है तब देखते हैं; लेकिन तब तो क्या करोगे? मेहमान जा चुका! जो होना था हो चुका! अब चिड़िया चुग गई खेत, अब पछताए होत का!
लेकिन हम पछताते तभी हैं जब चिड़िया खेत चुग जाती है। तुम सभी पछताए हो। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो क्रोध करके न पछताया हो। लेकिन तुम्हारा पश्चात्ताप व्यर्थ है। यह तो तब आता है जब सागर उतर चुका। फिर तो तुम करोगे भी क्या? फिर तुम पछता सकते हो और भविष्य के लिए निर्णय ले सकते हो कि अब क्रोध न करूंगा। लेकिन ये निर्णय भी काम न आएंगे। क्योंकि तुमने एक छोटी सी बात भी न सीखी, जिंदगी भर हो गई क्रोध करते, कि जब क्रोध आता है तब तुम्हारा होश नहीं रह जाता, तो निर्णय काम कैसे आएगा? जब क्रोध आता है तब होश नहीं रह जाता, तो निर्णय का भी होश नहीं रह जाता। जब क्रोध चला जाता है, तुम बड़े बुद्धिमान हो जाते हो। क्रोध चले जाने पर कौन बुद्धिमान नहीं हो जाता। कामवासना का ज्वर उतर जाने पर कौन बुद्धिमान नहीं हो जाता! बुढ़ापे में सभी बुद्धिमान हो जाते हैं। लेकिन उस बुद्धिमता का कोई मूल्य नहीं है।
क्रोध की लहर जब आए... यह सूत्र बड़ा महत्वपूर्ण है: ‘ये काम, क्रोधादि--पहले तरंग की तरह (क्षुद्र आकार में)आकर भी समुद्र का आकार धारण कर लेते हैं।’
बीज से ही सुलझ लेना। बो दिया, फिर तो फसल काटनी ही पड़ेगी। फिर पछताना तो एक तरकीब है। वह तरकीब भी बड़ी चालाक है। अक्सर लोग क्रोध करके पछताते हैं और सोचते हैं कि बड़े भले लोग हैं, कम से कम पछताते तो हैं। लेकिन मेरे जाने, हजारों लोगों के निर्णयों को देख कर, एक बात तुमसे कहना चाहूंगा: क्रोध करके पछताना पुनः क्रोध करने की तैयारी है। तुम्हारी एक प्रतिमा है तुम्हारे मन में कि तुम बड़े साधु-पुरुष, साधु-चित्त हो। क्रोध करके तुम्हारी प्र्रतिमा खंडित हो जाती है, गिर जाती है, सिंहासन से नीचे पड़ जाती है। पछता कर तुम उसे वापस सिंहासन पर रखने की कोशिश करते हो कि भला क्रोध हो गया, भूल हो गई, मनुष्य से भूल हो जाती है; ऐसा कोई बहुत बड़ा पाप नहीं हो गया है; किसे क्रोध नहीं होता! और फिर तुम समझाते हो कि क्रोध जरूरी भी था, न करते तो हानि होती; ऐसे अगर क्रोध न करोगे तो हर कोई छाती पर चढ़ बैठेगा। आखिर लोगों को डराना तो पड़ेगा ही। मारो मत, कम से कम फुफकारो तो। कोई मारा तो नहीं, किसी की हत्या तो की नहीं--सिर्फ फुफकारे!
तुम इस तरह के तर्क अपने लिए खोज लोगे। या तुम कहोगे कि बच्चा था, अगर उसको न डांटते, न डपटते, बिगड़ जाता। उसके भविष्य के सुधार के लिए...। तुम हजार बहाने खोज लोगे यह समझाने के लिए कि क्रोध जरूरी था। हालांकि तुम जानते हो कि कोई भी क्रोध जरूरी नहीं है। अगर तुम यह जानते न होते तो तुम यह भी निर्णय करने की चेष्टा क्यों करते कि जरूरी था? यह तर्क भी तुम इसीलिए खोजते हो कि भीतर चोट खलती है, भीतर तुम जानते हो कि भूल हुई है। अब भूल को लीपा-पोती करते हो। अब भूल को सजाते हो। सिंहासन पर फिर प्रतिमा को बिठा लेते हो। फिर तुम उसी जगह आ जाते हो जहां क्रोध करने के पहले थे। इसका अर्थ हुआ: अब तुम फिर पुनः क्रोध करने के लिए उतने ही तत्पर हो जितने पहले थे।
पश्चात्ताप क्रोध की तरकीब है। पश्चात्ताप से धर्म का कोई संबंध नहीं। धार्मिक व्यक्ति पछताता नहीं। और धार्मिक व्यक्ति व्यर्थ के निर्णय नहीं लेता, व्रत, कसमें नहीं खाता। धार्मिक व्यक्ति तो जब कोई चीज को समझ लेता है तो उसकी समझ ही उसकी कसम है; उसकी समझ ही उसका पश्चात्ताप है; उसकी समझ ही उसकी क्रांति है। तब फिर वह यह नहीं कहता कि मैं क्रोध न करूंगा--वह इतना ही कहता है कि अब जब क्रोध आएगा तो मैं जागूंगा।
इस फर्क को समझ लो।
क्रोध न करूंगा, यह तो बेहोश आदमी का ही निर्णय है। यह तो तुम बहुत बार कर चुके और बहुत बार झुठला चुके। समझदार आदमी यह कहता है कि एक बात तो मैं समझ गया कि क्रोध जब आता है, मैं बेहोश हो जाता हूं, इसलिए अब होश रखने की कोशिश करूंगा। क्रोध करूंगा कि नहीं करूंगा, यह मेरे बस में कहां; बस में ही होता तो पहले ही कभी का बंद कर दिया होता। मैं अवश हूं, असहाय हूं। इसलिए यह तो नहीं कह सकता कि क्रोध न करूंगा--इतना ही कर सकता हूं कि इस बार जब क्रोध आएगा तो होश से करूंगा।
इस फर्क को बहुत गौर से ले लेना: ‘क्रोध तो करूंगा, लेकिन होश से करूंगा।’ और क्रोध अगर होश से किया जाए तो होता ही नहीं। क्रोध होश से करना तो ऐसा ही है जैसे जानते हुए पत्थर को कोई रोटी समझ कर भोजन करे। क्रोध होश से करना तो ऐसा ही है जैसे जानते हुए कोई दीवाल से निकलने की कोशिश करे, सिर टकराए, लहूलुहान हो जाए। जानते हुए क्रोध करना तो ऐसे ही है जैसे जानते हुए कोई आग में हाथ डाले। इसलिए जानते हुए करूंगा, होशपूर्वक करूंगा...।
‘होशपूर्वक’ का अर्थ है कि लहर आएगी तब जागूंगा। तूफान जब जा चुका होगा तब पछताने का कोई अर्थ नहीं है। ‘पकडूंगा प्रारंभ में, बीज में।’ जिसने पहले पकड़ लिया, वह मुक्त हो जाता है। फिर बीज को, लहर को सागर बनने की सुविधा नहीं होती। आते सब छोटी-छोटी तरंगों की तरह हैं, इसलिए तो धोखा दे जाते हैं।
जब क्रोध आता है, तुम सोचते हो: ‘किसको पता है? इतना छोटा है, अपने को ही पता नहीं चल रहा है।’
जरा देखना, क्रोध बड़ा नाजुक है; बड़ी हलकी सी लहर आती है। जाते थे तुम रास्ते से, कोई हंसने लगा; उसने कुछ कहा भी नहीं है; तुम्हारे लिए भी हंसा हो, ऐसा भी जरूर नहीं है; तुम ही अकेले नहीं हो, दुनिया बड़ी है। और क्या मतलब तुम्हारे लिए हंसे? लेकिन एक लहर तुम्हारे भीतर सरक जाएगी; तुम तन गए। कुछ खटक गया। कुछ अटक गया। तुम्हारा प्रवाह वैसा ही न रहा जो क्षण भर पहले था। उसकी हंसी पत्थर की तरह भीतर चली गई। तुम और हो गए। अपने चेहरे पर गौर करना, चेहरा तन गया, माथे पर सलें आ गईं, ओंठ भिंच गए, दांत कस गए, हाथों में तनाव आ गया।
इस सारी छोटी सी लहर को गौर से देखना। सूक्ष्म निरीक्षण करना, और तुम हैरान होओगे: जैसे-जैसे तुम निरीक्षण करोगे वैसे-वैसे तुम पाओगे कि और भी सूक्ष्म तरंगों का पता चलता है। आदमी हंसा भी नहीं, जिस ढंग से उसने तुम्हारी तरफ देखा और लहर आ गई। या यह भी हो सकता है कि उसने तुम्हारी तरफ देखा नहीं, और लहर आ गई, कि वह राह से तुम्हें बिना देखे गुजर गया कि क्रोध आ गया। कि तुम्हें और बिना देखे गुजर जाए! जान कर तुम्हें अनदेखा किया, उपेक्षा की! अपमान हो गया!
अहंकार घाव की तरह है। जरा-जरा सी चीज से ठोकरें खाता है। जरा-जरा चीजों से विक्षुब्ध हो जाता है। इस सबको जांचना, देखना। कुछ करने की उतनी बात नहीं है जितनी जाग कर देखने की बात है। तुम्हारे किए कुछ भी न होगा। तुम अभी हो कहां? तुम अभी हो ही नहीं। होश ही होगा तब तुम होओगे। बेहोशी में कोई है?
कौन तरता है? माया से कौन तरता है? ...‘जो सब संगों का परित्याग करता है, जो महानुभावों की सेवा करता है, और जो ममतारहित है।’
कौन तरता है? माया से कौन तरता है? कौन पार निकल पाता है इस तिलिस्म से, झूठ के तिलिस्म से, इस झूठ के जादू से, मन के इस फैलाव से? कहो उसे माया।
कौन तर पाता है? ...‘जो सब संगों का परित्याग करता है।’
तुम जल्दी ही संग हो जाते हो किसी भी चीज के। क्रोध उठा, तुम संग हुए, तुम साथ हुए, तुमने हाथ में हाथ डाल लिया, तुम हमजोली बने। वासना उठी, तुम साथ हुए। संग होना तुम्हारे लिए इतनी तत्परता से होता है कि इधर भाव उठा नहीं कि उधर तुमने गले में फांसी डाली नहीं। तुम साथ होने को इतने तत्पर हो हर चीज के! यह संग की प्रवृत्ति ही तुम्हें डुबा रही है। जरा दूर-दूर चलो। जरा सहयोग सोच समझ कर करो। संग की इतनी जल्दी मत करो। क्रोध आए, आने दो़, तुम साथ मत दो; तुम जरा दूर-दूर खड़े रहो अलगाए, अलग-थलग, पृथक-पृथक! क्रोध को ऐसे देखो जैसे कोई और हो। क्रोध को ऐसे देखो जैसे ‘पर’ है, ‘पर’ है ही। ‘स्व’ तो वही है जो देखने वाला है, जो द्रष्टा है; शेष सब तो ‘पर’ है।
इस सूत्र का अर्थ है: ‘जो सब संगों का परित्याग करता है।’
इस सूत्र का अर्थ है: ‘जो द्रष्टा बनता है, साक्षी बनता है।’
फिर व्याख्याकारों ने बड़ी भूलें की हैं। वे कहते हैं, कसम खाओ कि क्रोध नहीं करोगे; व्रत लो ब्रह्मचर्य का; धन का त्याग करो; घर द्वार छोड़ो, इसको वे संग-परित्याग कहते हैं। मैं नहीं कहता। क्योंकि मैंने उन लोगों को देखा है, जिन्होंने धन छोड़ दिया और फिर भी धन उनसे नहीं छूटा। और मैंने उन लोगों का देखा है, जिन्होंने घर छोड़ दिए और कुछ भी नहीं छूटा; क्योंकि घर भीतर है, बाहर नहीं।
गृहस्थ होना एक दृष्किोण है। संन्यस्त होना भी एक दृष्टिकोण है। तुम घर में रह कर संन्यस्त हो सकते हो। तुम संन्यासी होकर गृहस्थ रह सकते हो। यह बात जरा सूक्ष्म है। यह इतनी स्थूल नहीं है जितनी लोगों ने पकड़ रखी है। लोग तो बिलकुल पदार्थवादी हैं, जिनको तुम संन्यासी कहते हो, वे भी। जिनको तुम मुनि कहते हो, वे भी पदार्थवादी हैं; क्योंकि उनका त्याग भी पदार्थ का त्याग है, दृष्टि का नहीं। कोई घर को छोड़ देता है तो उसको तुम त्यागी कहते हो; कोई घर को पकड़ता है, उसको तुम भोगी कहते हो, लेकिन दोनों की नजर घर पर है। दोनों पदार्थवादी हैं, मैटीरियलिस्ट। अभी अध्यात्म का दोनों में से किसी को भी अनुभव नहीं हुआ।
अध्यात्म का अर्थ है: अब तुम पदार्थ को न पकड़ते हो, न छोड़ते हो, तुम दृष्टियों में रूपांतरण करते हो; तुम दर्शन बदलते हो; तुम अपने देखने का ढंग बदलते हो।
तो मैं तुमसे कहूंगा: जो सब संगों का परित्याग करता है, इसका अर्थ हुआ: क्रोध उठता है तो हाथ में हाथ डाल कर चल नहीं पड़ता--क्रोध से कहता है, ‘ठीक है, मर्जी, तुम उठे; हम भी सोचेगें, निर्णय करेंगे। साथ देने योग्य लगेगा, देंगे; नहीं देने योग्य लगेगा, नहीं देंगे। साथ की अनिवार्यता नहीं है। तुम उठे, इसलिए हम साथ देंगे ही, इस भूल में मत पड़ो। साथ हमारा निर्णय होगा--होशपूर्वक।’ और तब तुम एक क्रांति होते देखोगे तुम्हारे भीतर।
इस होश की आग में जो व्यर्थ है, जल जाता है। कुंदन बचता है, कचरा जल जाता है।
‘जो सब संगों का परित्याग करता है, जो महानुभावों की सेवा करता है, और जो ममतारहित है।’
‘महानुभाव’ बड़ा प्यारा शब्द है। महानुभाव का अर्थ है: जिसके भीतर परम भाव का अवतरण हुआ है; सदगुरु; कोई ऐसा व्यक्ति जिसके भीतर परमात्मा अवतरित हुआ है। महानुभाव: जिसके भीतर आत्यंतिक भाव पैदा हुआ है; जो उस भाव-दशा में है जिसको हम भगवत्ता कहें। ऐसे व्यक्ति के पास होना। कोई बुद्ध मिल जाए, कोई महावीर, कोई कबीर, कोई नानक, कोई जीसस, कोई मोहम्मद, तो महानुभाव की सेवा करना।
सेवा का कुल इतना अर्थ है कि सत्संग करना। ऐसे व्यक्ति की छाया में बैठना। जैसे थका-हारा पथिक, धूप से बचने के लिए वृक्ष की छाया के तले बैठ जाता है और शीतल विश्राम पाता है--ऐसे ही किसी महानुभाव की छाया में बैठना। संसार से थका हुआ, हारा हुआ, विचलित व्यक्तित्व, किसी महानुभाव की छाया में औषधि को उपलब्ध हो जाता है। जो स्वयं एक हो गया है, उसकी निकटता में तुम भी एक होने लगते हो। जो स्वयं एक हो गया है, उसके पास बैठ कर, उसका सत्य संक्रामक होने लगता है।
ध्यान रखना, बीम
ारी ही नहीं लगती, स्वास्थ्य भी लगता है। ध्यान रखना, बुराई ही नहीं तैरती एक से दूसरे में, सत्य भी संक्रमित होता है। सत्य से ज्यादा संक्रामक कुछ भी नहीं है। अगर तुम सत्य के पास रहे तो तुम उसके रंग में रंग ही जाओगे। अगर तुम बगीचे से गुजरे तो तुम्हारे वस्त्र फूलों की थोड़ी न बहुत गंध ले ही लेंगे।
‘...जो महानुभावों की सेवा करता है और जो ममतारहित है।’
दो तरह के संबंध हो सकते हैं। एक तो ममता का संबंध है: मेरा बेटा, मेरी मां, मेरी पत्नी...! यहां संबंध ‘मेरे’ का है। तुम गुरु के साथ ‘मेरे’ का संबंध मत बनाना। अगर तुमने वहां भी ‘मेरे’ का संबंध बनाया, तो तुम चूकोगे। तुम गुरु के हो जाना। तुम भला कहना कि मैं गुरु का; लेकिन ‘मेरा गुरु’ ऐसा मत कहना।
तुम धर्म के साथ ममता का संबंध मत बनाना। यह मत कहना कि ‘मेरा धर्म’--तुम धर्म के हो जाना। लेकिन तुमने ‘मेरा धर्म’ कहा तो तुमने धर्म को भी इस जमीन पर खींच लिया, बहुत नीचे उतार लिया। तुम कीचड़ में घसीट लाए कमल को ।
‘मेरे’ का जहां भी तुमने आधार बनाया, वहीं तुम्हारा मोह, मन, सब वापस लौट आता है। गुरु के साथ तो ‘मेरे’ का संबंध मत बनाना। गुरु के साथ तो आत्मा का संबंध बनाना, मन का नहीं; ममता का नहीं, प्रेम का। और ये बड़ी फर्क की बातें हैं।
प्रेम जानता ही नहीं ‘मैं’ और ‘तू।’ ममता ‘मैं’ और ‘तू’ के बीच चलती है। ममता बड़ी संकीर्ण है। प्रेम विस्तार है--विस्तीर्णता है। अगर तुम ममता से मुक्त हुए और सौभाग्य से तुमने किसी महानुभाव की छाया पा ली, तो तुम्हारी जिंदगी कुछ की कुछ हो जाएगी।
आंसू तो बहुत से हैं, आंखों में ‘जिगर’ लेकिन
बिंध जाए सो मोती है, रह जाए सो दाना है।
तब तुम बिंध जाओगे। प्रेम तुम्हें बींध देगा। तुम मोती हो जाओगे।
आंसू तो बहुत से हैं, आंखों में ‘जिगर’ लेकिन
बिंध जाए सो मोती है, रह जाए सो दाना है।
इस संसार में वे ही केवल मोती बन जाते हैं जो किसी महा प्रेम से बिंध जाएं।
‘जो निर्जन स्थान में निवास करता है, जो लौकिक बंधनों को तोड़ डालता है, जो तीनों गुणों से परे हो जाता है, और जो योगक्षेम का परित्याग कर देता है।’
‘जो निर्जन स्थान में निवास करता है,...।’
व्याख्याएं कहती हैं कि जंगल में निवास करता है। मैं नहीं कहता। क्योंकि निर्जन स्थान एक आत्यंतिक दशा का नाम है--ऐसा भीतर कि वहां कोई भी न हो, बस एकाकी तुम्हारा चैतन्य रह जाए, केवल चैतन्य रह जाए। यह कोई भौगोलिक बात नहीं है कि तुम हिमालय चले जाओ, कि जंगल में चले जाओ। क्योंकि तुम जंगल भी चले जाओगे, तो तुम्हारे मन की भीड़ तो तुम्हारे साथ ही होगी। तुम करोगे क्या जंगल में बैठ कर? तुम कल्पना के जाल रचोगे, सपने देखोगे। तुम जंगल में बैठ कर भी बाजार में ही रहोगे। तुमने बहुत बार मंदिर जाकर देखा है, करते क्या हो मंदिर में? बैठते हो प्रतिमा के सामने--होते वहां नहीं। बैठते हो मंदिर में--होते कहीं और हो।
धर्म के जगत में स्थितियां स्थान की तरह समझ ली गई हैं और बड़ी भूल हो गई है। ‘निर्जन’ स्थिति है, स्थान नहीं; तुम्हारे भीतर की एक अंतर्दशा है, जहां तुम अकेले हो, शुद्ध कुंआरे, जहां तुम किसी से बंधे नहीं, जहां तुम आंख बंद करते हो तो सारा जगत समाप्त हो जाता है--बस तुम ही रह जाते हो; ‘मैं’ का भाव भी नहीं रह जाता, क्योंकि वह भी द्वैत होगा। बस ‘होना’ होता है--निराकार, निर्विकार।
‘जो निर्जन स्थिति में निवास करता है,...।’
स्वभावतः उसके लौकिक बंधन टूट जाते हैं; उसके जीवन में अलौकिक संबंधों का आविर्भाव होता है; वह संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है, मोक्ष के संबंध निर्मित होते हैं। और ध्यान रखना: संसार के संबंध बांधते हैं, मोक्ष के संबंध मुक्त करते हैं; काम बांधता है, प्रेम मुक्त करता है। अगर तुम्हारे प्रेम ने तुम्हें बांधा हो तो समझना कि काम होगा, प्रेम नहीं। प्रेम तो वही जो तुम्हें मुक्त करे। प्रार्थना तो वही जो तुम्हें मुक्त करे।
अगर तुम हिंदू हो गए हो तो बंध गए। यह धार्मिक होने का ढंग नहीं। यह धार्मिक होने की बात ही नहीं। चूक गए। अगर तुम मुसलमान हो गए, बंध गए। तुम धार्मिक हो जाओ, बस काफी है। धार्मिक व्यक्ति न तो हिंदू होता, न मुसलमान होता। धार्मिक व्यक्ति तो उस परम प्रेम में बंधा होता है जो सभी बंधनों को काट जाता है।
इश्क की बरबादियों को रायगां समझा था मैं
बस्तियां निकलीं जिन्हें वीरानियां समझा था मैं।
सोचा था कि प्रेम तो बरबाद कर देता है।
इश्क की बरबादियों को रायगां समझा था मैं
और बरबाद हो जाना तो व्यर्थ हो जाना है।
बस्तियां निकलीं जिन्हें वीरानियां समझा था मैं।
लेकिन बात कुछ और ही निकली। जहां मैंने समझा था वीरानियां होंगी, मरुस्थल होंगे, कुछ भी न बचेगा--वहीं मैंने पाया कि सब-कुछ पा लिया।
तुम्हारे एकांत मैं ही ‘सर्व’ का साक्षात्कार होता है। तुम्हारे प्रेम की आत्यंतिक घड़ी में ही, तुम पाते हो सब पा लिया; यद्यपि पहले ऐसा ही लगता है सब छोड़ रहे हैं, सब त्याग रहे हैं।
मैं तुमसे कहता हूं: त्याग परम भोग का मार्ग है। उपनिषद कहते हैं: ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। उन्होंने ही भोगा जिन्होंने त्यागा। या उन्होंने ही त्यागा जिन्होंने भोगा।’ यह वचन बड़ा अदभुत है। इसके दोनों अर्थ हो सकते हैं, और दोनों सही हैं। क्योंकि भोग तुम्हारे लिए है ही नहीं; तुम सिर्फ भोग की सोचते हो, करते कहां हो! भोग तो सिर्फ उनके लिए है जो वर्तमान में जीते हैं। जिन्होंने मन को छोड़ा, वासना को छोड़ा, जो अपने भीतर लौटे, जिन्होंने अपने से संबंध जोड़ा, उनके जीवन में परम भोग के स्वर उठते हैं।
बस्तियां निकलीं जिन्हें वीरानियां समझा था मैं।
‘जो कर्मफल का त्याग करता है, कर्मों का भी त्याग करता है, और तब सब-कुछ त्याग कर निर्द्वंद्व हो जाता है।’
...तीनों गुणों को छोड़ता, योगक्षेम को छोड़ता, कर्मफल का त्याग करता है, कर्मों का त्याग करता, और सब-कुछ त्याग कर निर्द्वंद्व हो जाता है। यह भक्त की परिभाषा हो रही है। एक-एक चीज को खयाल में लें।
...तीनों गुणों से परे हो जाता है: तमस, रजस, सत्व। परम भक्त न तो तामसी होता--हो ही नहीं सकता, क्योंकि तामस तो तुम जितने मन से दबे होते हो उतना ही होता है। तामस तो मन का अंधकार है, विचारों की भीड़ है, वासनाओं का ऊहापोह है।
भक्ति को उपलब्ध व्यक्ति राजस भी नहीं होता। उसके भीतर करने की कोई उद्दाम वासना नहीं होती। वह किसी त्वरा, ज्वर, दौड़ में नहीं होता। उसे कुछ सिद्ध नहीं करना है। उसे कुछ अहंकार के शिखर उपलब्ध नहीं करने हैं। उसे राजधानियां जीतनी नहीं हैं। उसे सिकंदर नहीं होना है। वह तो जो ‘होना’ है, है ही, इसलिए जाना कहां, दौड़ना क्यों? पहुंचने की उसके लिए कोई मंजिल नहीं है। वह अपनी मंजिल पर है।
यह तो हम समझ लेते हैं कि भक्त तामसी नहीं होता, राजसी नहीं होता; लेकिन नारद का यह अदभुत सूत्र कहता है कि भक्त सात्विक भी नहीं होता है। क्योंकि साधुता भी, असाधुता के विपरीत है। कहना परमात्मा को कि वह साधु है, ठीक न होगा; क्योंकि वह साधु असाधु दोनों से परे होना चाहिए। यह कहना कि परमात्मा को साधु ही पा सकेंगे, गलत होगा; क्योंकि फिर असाधुओं का क्या होगा? यह कहना कि साधुओं में ही परमात्मा है, नितांत गलत है; क्योंकि असाधुओं में भी तो वही है। परमात्मा का अर्थ हुआ तब: सर्वातीत, ट्रांसेंडेंटल, जो सभी के पार है।
भक्त भगवान है, क्योंकि भक्त भगवान की ओर अग्रसर है। भक्त भगवान है, क्योंकि भक्त भगवान होने की तरफ प्रतिक्षण रूपांतरित हो रहा है। भक्त भगवान में बदल रहा है। उसकी हर प्रार्थना उसे भगवान बना रही है। उसकी हर पूजा उसे भगवान बना रही है। भक्त और भगवान के बीच का फासला कम होता जा रहा है प्रतिपल; जल्दी ही छलांग लग जाएगी; जल्दी ही भगवान में भक्त होगा, भक्त में भगवान होंगे; द्वैत गिर जाएगा।
इसलिए सूत्र कहता है: ‘तीनों गुणों से परे हो जाता है जो, योगक्षेम का परित्याग कर देता है।’
न उसे अब कुछ लाभ है, न कुछ हानि है।
‘जो कर्मफल का त्याग करता है,...।’
क्योंकि जो अब अनुभव करता है कि फल तो भविष्य में होते हैं, और भविष्य मन के बिना नहीं हो सकता; फल तो कल होगा, और कल बिना मन के नहीं हो सकता। और जिसने मन से ही संग साथ छोड़ दिया, वह कर्मफल की क्या चिंता करे? लाभ तो कल होगा, हानि भी कल होगी। अभी तो न लाभ है, न हानि है। अभी तो बस वही है, जो है।
जो कर्मफल का त्याग करता, स्वभावतः कर्मों का भी त्याग हो जाता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह कर्म नहीं करता। नहीं, वह ‘करने वाला’ नहीं रह जाता--परमात्मा करता है अब! अब वह बांसुरी की तरह हो जाता है। गीत गाए परमात्मा तो गीत पैदा होता है, न गाए तो बांस की पोंगरी। गाए तो बांसुरी, न गाए तो बांस की पोंगरी।
बांस की पोंगरी खुद नहीं गाती, सिर्फ माध्यम है। भक्त जानता है कि मैं सिर्फ माध्यम हूं, उपकरण हूं! उसका साधन मात्र!
‘और तब सब-कुछ त्याग कर निर्द्वंद्व हो जाता है।’
और तब कोई द्वंद्व नहीं रह जाता। जब कुछ पाने को न रहा, तो कुछ खोने को भी न रहा। जब कहीं जाने को न रहा, तो कुछ करने को भी न रहा। सब छोड़ कर... यही समर्पण है भक्त का। वह उस परम गहराई को उपलब्ध हो जाता है जहां कोई द्वंद्व नहीं।
एक गीत मैं पढ़ता था:
शंख-सीप तो तट पर, लेकिन
मोती पारावार में
यहां-वहां का करती रहती
भीड़ निरर्थक शोर रे
सांस रोक कर तल तक पहंचे
कोई गोताखोर रे
कमठ केंकड़ा यहां, सुनहरी
मछली नीर अपार में
जो बंसी लटकाए बैठे
खोते संध्या भोर रे
तरी लिए जो उन तक पहुंचे
वह मछुआ तो और रे
काई कर्दम यहां, मनोहर
नील कमल मझधार में।
गहरे और गहरे...। किनारे पर ही बैठ कर बंसी लटकाए समय को व्यर्थ मत गंवाओ।
शंख-सीप तो तट पर, लेकिन
मोती परावार में
‘जो वेदों का भी भलीभांति परित्याग कर देता है।’
चौंकोगे तुम: ‘वेदों का!’ कोई आर्यसमाजी मौजूद होगा तो बहुत नाराज हो जाएगा: ‘वेदों का!’ लेकिन भक्त का लक्षण यही है।
‘जो वेदों का भी भलीभांति’--ऐसा वैसा नहीं--‘भलीभांति’, बिलकुल, सर्वथा, त्याग कर देता है, और जो अखंड असीम भगवदप्रेम को प्राप्त कर लेता है।
वेद भी खिलौने हैं बुद्धि के। शास्त्र भी समझा लेना है; सांत्वना है; सत्य नहीं। और भक्त तो ज्ञान की तलाश नहीं कर रहा है। भक्त तो प्रेम की तलाश कर रहा है। वेदों से मिल जाए ज्ञान, सूचनाएं; प्रेम कहां मिलेगा? शास्त्रों में कहीं प्रेम है? जल के संबंध में तुम कितना ही समझ लो, उससे कुछ प्यास तो न बुझेगी। सरोवर चाहिए।
भक्त जल के संबंध में शास्त्रों से तृप्त नहीं होता; वह कहता है, ‘प्यासा हूं, सरोवर चाहिए।’
इल्म के जहल से बेहतर है कहीं जहल का इल्म
मेरे दिल ने ये दिया दर्से-बसीरत मुझको।
ज्ञान की मूढ़ता की बजाय, मूढ़ता का ज्ञान बेहतर है, यह परम ज्ञान मेरे दिलने मुझे दिया।
इल्म के जहल से बेहतर है कहीं जहल का इल्म
ज्ञान की मूढ़ता की बजाय, मूढ़ता का ज्ञान बेहतर है।
मेरे दिल ने ये दिया दर्से-बसीरत मुझको।
यह परम ज्ञान मैंने अपने ही भीतर पाया।
वेद या कुरान या बाइबिल, कोई भी शास्त्र--वेद यानी सारे शास्त्र--शब्दजाल हैं। उनसे तृप्त मत हो जाना। उनसे जो तृप्त हुआ, वह मूढ़ है। वह कितना ही ज्ञानी हो जाए, उसकी मूढ़ता नहीं मिटती; उसकी मूढ़ता भीतर रहती है, पांडित्य का बाहर से आवरण हो जाता है।
‘वेदों का जो भलीभांति त्याग कर देता है और जो अखंड असीम भगवदप्रेम प्राप्त कर लेता है।’
जोर है प्रेम पर, ज्ञान पर नहीं। जान कर क्या होगा? जानने में तो दूरी बनी रहती है। भक्त कहता है, भगवान को जानना नहीं है, भगवान होना है। जानने से क्या होगा? भगवान को पीना है। भगवान को उतारना है अपने में। भगवान में उतर जाना है। दूरी मिटानी है। शास्त्र तो बीच में दीवालें बन जाते हैं। जितना ज्यादा तुम जानने लगते हो उतना ही अहंकार प्रगाढ़ होता है। और अहंकार तो बाधा है प्रेम में; उसे तो छोड़ना होगा। धन का अहंकार ही नहीं, ज्ञान का अहंकार भी छोड़ना होगा। जानने वाले को मिटा ही देना है। कोई भीतर ‘मैं’ भाव ही न रह जाए। तुम एक शून्य हो जाओ। उसी शून्य में प्रेम के कमल खिलते हैं--शून्य की झील पर प्रेम के कमल! और कोई झील नहीं है जहां प्रेम के कमल खिलते हों। तुम मिट जाओ कीचड़ में, तो ही कमल खिलते हैं। तुम्हारी कीचड़ से ही कमल उठते हैं।
‘जो वेदों को भलीभांति परित्याग कर देता है और जो अखंड असीम भगवदप्रेम को प्राप्त कर लेता है, वह तरता है। वह तरता है, यही नहीं, वह लोगों को भी तार लेता है।’ वह एक नाव बन जाता है। खुद तो तरता ही है, लेकिन इतना ही नहीं कि खुद तरता है, औरों को भी तार देता है, तारण तरण हो जाता है; तारता भी, तरता भी! उसके सहारे न मालूम कितने लोग तर जाते हैं।
जिसके जीवन में प्रेम का फूल खिला, वह न मालूम कितने भौरों को आकर्षित कर लेता है। जिसके जीवन में प्रेम का गीत उठा, न मालूम कितने कंठों में गुनगुनाहट शुरू हो जाती है।
घटे अगर तो बस एक मुश्ते-खाक है इन्सां
बढ़े तो बुसअते कौनेन में समा न सके।
घटे तो आदमी है क्या? एक मुट्ठी भर राख!
घटे अगर तो बस एक मुश्ते-खाक है इन्सा
बढ़े तो बुसअते कौनेन में समा न सके।
और अगर बढ़े तो सारे लोग भी छोटे पड़ जाते हैं, समा न सके। दोनों लोक भी छोटे पड़ जाते हैं। आदमी छोटे से छोटा भी हो सकता है। मन उसे संकीर्ण से संकीर्ण कर देता है। आदमी विराट से विराट भी हो सकता है--मन की दीवाल भर टूट जाए, मन का कारागृह न हो।
घटे अगर तो बस एक मुश्ते-खाक है इन्सां
बढ़े तो बुसअते कौनेन में समा न सके।
मन कारागृह है; ध्यान मुक्ति है। काम कारागृह है; प्रेम मुक्ति है। वेद, शास्त्र कारागृह हैं; भक्ति मुक्ति है।
आज इतना ही।
कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाशसर्वनाशकारणत्वात्।।44।।
तरंगायिता अपीमे संगात्समुद्रायन्ति।।45।।
कस्तरति कस्तरति मायाम? यः संगास्त्यजति यो महानुभावं सेवते निर्ममो भवति।।46।।
यो विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकबन्धमुन्मूलयति, निस्त्रैगुण्यौ भवति, योगक्षेमं त्यजति।।47।।
यः कर्मफलं त्यजति, कर्माणि संन्यस्यति ततो निर्द्वन्द्वो भवति।।48।।
वेदानपि संन्यस्यति केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते।।49।।
स तरति स तरति स लोकांस्तारयति।।50।।
जो नहीं है, उसे निर्बल मत जानना। जो नहीं है, उसमें भी बड़ा बल है। अन्यथा, मरु-मरीचिकाएं मनुष्य को आकर्षित न करतीं और स्वप्नों पर भरोसा न आता, क्षितिज आमंत्रण न देता, स्वप्न सत्य मालूम न होते।
जो नहीं है, वह भी बड़ा प्रबल है, और मन के लिए ‘जो है’ उससे भी ज्यादा प्रबल है। मन उसे देख ही नहीं पाता, ‘जो है।’ मन सदा उसका ही चिंतन करता है जो नहीं है, जिसका अभाव है। जो हाथ में नहीं है, मन उसका विचार करता है। जो हाथ में है, उसे तो मन भूल ही जाता है।
मन के इस सूत्र को ठीक से समझ लेना जरूरी है, तो ही भक्ति-सूत्र समझ में आ सकेंगे। क्योंकि मन के विपरीत जो गया, वही भक्ति को उपलब्ध हुआ। मन के साथ जो चला, वह कभी भगवान तक न पहुंच सकेगा।
भगवान यानी ‘जो है’, भक्ति यानी ‘जो है’ उसे देखने की कला।
लेकिन ‘जो है’ वह हमें दिखाई क्यों नहीं पड़ता? ‘जो है’ वह तो हमें सहज ही दिखाई पड़ना चाहिए। ‘जो है’ उसे खोजने की जरूरत ही क्यों हो? ‘जो है’ उसे हम भूले ही क्यों? उसे हम भूले ही कैसे? ‘जो है’ उसे हमने खोया कैसे? ‘जो है’ उसे खोया कैसे जा सकता है?
इसलिए पहली बात समझ लेनी जरूरी है: मन का नियम। मन उसी को जानता है जो नहीं है। तुम्हारे पास अगर दस हजार रुपये हैं तो उन दस हजार रुपयों को मन भूल जाता है। मन उन दस लाख का चिंतन करता है जो होने चाहिए, पर हैं नहीं। मन अभाव का चिंतन करता है। जो पत्नी तुम्हें उपलब्ध है मन उसे भूल जाता है। जो पत्नी उपलब्ध नहीं है, जो स्त्री उपलब्ध नहीं है, मन उसकी कल्पनाएं करता है, योजनाएं बनाता है। तुम्हें जो मिला है, मन उसे देखता ही नहीं; मन उसी पर नजर रखता है, जो मिला नहीं है। हाथ की असलियत मन को नहीं भाती, स्वप्न के आभास भाते हैं। मन स्वप्न के भोजन पर जीता है। मन जीता ही स्वप्न के सहारे है।
जब भी तुम आंख बंद करोगे, भीतर सपनों का जाल पाओगे, चलते ही रहते हैं, रुकते ही नहीं। तुम आंख खोले काम में भी लगे हो, तब भी भीतर उनका सिलसिला जारी रहता है; तब भी पर्त दर पर्त सपने भीतर घने होते रहते हैं। तुम देखो या न देखो, लेकिन मन सपने बुनता रहता है। मन का सपनों का ताना-बाना क्षण भर को रुकता नहीं। उसी सपने के जाल का नाम माया है। उसी सपने के जाल में उलझे तुम परेशान और पीड़ित हो।
जो नहीं है उसने तुम्हें अटकाया है। जो नहीं है उसने तुम्हें भरमाया है। जो नहीं है उसने तुम्हारी आंखें बंद कर दी हैं; और जो है उसे देखना मुश्किल हो गया है।
रात तुम स्वप्न देखते हो, कितनी बार देखे हैं; हर बार सुबह जाग कर पाया, झूठे थे! लेकिन फिर जब रात आज देखोगे स्वप्न तो देखते समय सच मानोगे। झूठ को सच मानने की तुम्हारी कितनी प्रगाढ़ धारणा है! कितनी बार जाग कर भी, कितनी बार देख कर भी कि सपने सुबह झूठ सिद्ध हो जाते हैं, फिर भी जब तुम रात स्वप्न देखोगे आज, तो सच मालूम होगा, शक भी न आएगा।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हमारे मन में श्रद्धा नहीं है। हम बड़े संदेहशील हैं। हमारा निस्तार कैसे होगा? मैं उनसे कहता हूं, मैंने अभी तक संदेहशील व्यक्ति देखा नहीं। तुम सपनों तक पर श्रद्धा करते हो, सत्य की तो बात ही छोड़ो। तुम सपनों तक पर भरोसा करते हो, उन पर तक तुम्हें अभी संदेह नहीं आया, तो तुम और किस पर संदेह करोगे? जो नहीं है, उस पर भी संदेह नहीं हो पाता, तो जो है उस पर तुम कैसे संदेह करोगे?
संदेहशील व्यक्ति मैंने अभी देखा नहीं क्योंकि जो संदेहशील हो वह पहले तो सपनों को तोड़ेगा। जिसने सपने तोड़े, उसके भीतर श्रद्धा का जन्म हुआ। जिसने सपने तोड़े, उसने तब सत्य को जानने का मार्ग साफ कर लिया। आज फिर रात जब तुम सपना देखोगे तब फिर खो जाओगे सपने में। ऐसा कितनी बार हुआ है, कितने जन्मों-जन्मों हुआ है! रात की छोड़ो, क्योंकि रात तुम कहोगे कि हम बेहोश हैं, चलो दिन का ही विचार करें। दिन में भी कितनी बार क्रोध किया है, और कितनी बार तय किया है और पछताए हो कि अब नहीं, अब नहीं, बहुत हो गया। फिर जब क्रोध पकड़ लेता है और क्रोध का धुआं जब तुम्हें घेर लेता है, तब तुम फिर भूल जाते हो; सारे पछतावे, सारे पश्चात्ताप, सारे निर्णय, संकल्प व्यर्थ हो जाते हैं। क्रोध का जरा सा धुंआ और तुम्हारे पैर उखड़ जाते हैं, जड़ें टूट जाती हैं, तुम फिर बेहोश हो जाते हो, तुम फिर बेसुध हो जाते हो। कितनी बार नहीं देखा कि कामवासना व्यर्थ ही भरमाती है; भटकाती है, पहुंचाती कहीं नहीं; दूर से दिखाती है मरूद्यान, पास आने पर मरुस्थल ही पाए जाते हैं। कितनी बार नहीं जाना है इसे! लेकिन फिर तुम भटकोगे, फिर तुम खोओगे। फिर कामवासना पकड़ेगी और तब फिर तुम सपने सजाने लगोगे--और मन कहेगा, ‘हो सकता है, इतनी बार झूठ सिद्ध हुई हो, अब की बार न हो! अपवाद हो सकते हैं। जो अब तक नहीं हुआ, शायद अब हो जाए।’
मन ‘शायद’ पर जीता है। मन आशा पर जीता है।
उमर खय्याम की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं कि मैंने ज्ञानियों से पूछा कि आदमी अब तक थका नहीं, किस सहारे जीता है? आदमी अब तक विषाद को उपलब्ध नहीं हुआ, किस सहारे जीता है? ज्ञानी उत्तर न दे पाए। फकीरों से पूछा। फकीर भी उलझे हुए मालूम पड़े।
तब कोई राह न देख कर, उमर खय्याम कहता है कि मैंने एक रात आकाश से पूछा कि तूने तो सभी को चलते देखा, सदियों-सदियों, युगों-युगों से, कितने लोग उठे, आशाओं और सपनों से भरे कितने लोग धूल में गिरे, तूने तो सबको देखा, सबके अरमान मिट्टी में मिलते देखे, तुझे तो पता चल गया होगा अब तक, आदमी किसके सहारे चलता है? अब तक थकता नहीं, रुकता नहीं!
तो आकाश ने कहा: आशा के सहारे।
तुम्हारा असली आकाश आशा है--जो नहीं हुआ, शायद हो जाए! जो किसी को नहीं हुआ, शायद तुम्हें हो जाए! जो कभी किसी को नहीं हुआ, शायद...!
भविष्य को किसने जाना है? सिकंदर हार जाते हैं, लेकिन तुम चले जाते हो, चलते चले जाते हो। दिन में भी तुम सपने देखते हो, रात में ही नहीं। राह पर चलते हो तब भी सपने देखते हो। दुकान पर बैठते हो, बाजार में उठते हो, बैठते हो तब भी सपने देखते हो। सपने तुम्हारे भीतर एक सतत क्रम है। और इन्हीं सपनों के कारण वह नहीं दिखाई पड़ता, जो है। सपनों की धूल तुम्हारी आंख को दबाए है।
सत्य को जानने के लिए कुछ भी नहीं करना है--सिर्फ असत्य से मुक्त हो जाना है। सत्य को जानने के लिए कुछ भी नहीं करना है--सिर्फ जो नहीं है, उसे देख लेना है कि नहीं है। द्वार साफ है। परदा उठा हुआ है। परदा कभी था ही नहीं।
कल मैं एक गीत पढ़ता था:
हंस मानसर भूला
सनी पंक में चंचु
हो गए उजले पर मटमैले
कंकर चुनने लगा वही जो
मुक्ता चुगता पहले
क्षर में क्या ऐसा सम्मोहन
जो तू अक्षर भूला?
कमल नाम से बिछुड़
कांस के सूखे तिनके जोरे
अवगुंठित कलियों के धोखे
कुंठित शूल बटोरे
पर में क्या ऐसा आकर्षण
जो परमेश्वर भूला?
नीर-क्षीर की दिव्य दृष्टि में
अंध वासना जागी
गति का परम प्रतीक बन गया
जड़ता का अनुरागी
क्षण को अर्पित हुआ
साधना का मन्वंतर भूला
हंस मानसर भूला
सनी पंक में चंचु
हो गए उजले पर मटमैले
कंकर चुगने लगा वही जो
मुक्ता चुगता पहले
क्षर में ऐसा क्या सम्मोहन
जो तू अक्षर भूला?
क्षण में ऐसा क्या आकर्षण हो सकता है जो शाश्वत भूल जाए? असार में ऐसा क्या बल हो सकता है जो सार विस्मृत हो जाए? दूसरे में ऐसी क्या पुकार हो सकती है जो अपना स्वभाव भूल जाए?... पर है।
इसलिए पहली बात तुमसे कहता हूं: व्यर्थ के, असार के, जो नहीं है उसके बल को मत भूलना; उसके बल को स्वीकार करना। जो नहीं है उसमें भी शक्ति है। क्योंकि मन का स्वभाव यही है कि वह जी ही सकता है, ‘जो नहीं है’ उसी के सहारे। जो तुम्हारे पास है अगर तुम उसी को देखो तो मन की जरूरत क्या? जो वर्तमान में है अगर तुम उसी में जीओ तो मन को फैलने का उपाय कहां, अवकाश कहां?
अभी तुम यहां बैठे हो। अगर तुम यहीं हो सिर्फ--मैं हूं, तुम हो और यह क्षण है, तो मन मिट गया, तो मन यहां उठ न सकेगा। हां, तुम सोचने लगो कि दुकान जाना है, दस बजे ऑफिस पहुंच जाना है--मन प्रविष्ट हुआ। मन के लिए भविष्य चाहिए। तुम अगर एक क्षण बाद की सोचने लगो तो मन जीवंत हुआ। तुम एक क्षण पहले की सोचने लगो, तो मन जीवंत हुआ। तुम अगर अभी हो, यहीं हो, तो मन नहीं हो गया।
वर्तमान मन की मृत्यु है। भविष्य और अतीत मन का जीवन है। न तो अतीत है--जा चुका; न भविष्य है--अभी आया भी नहीं। मन जीता ही ‘नहीं’ में है। मन का स्वभाव नकार है--अनस्तित्व, अभाव। मन नास्तिक है। इसलिए मन से कोई कभी आस्तिक नहीं हो पाता। मन के आस्तिक तुम्हें बहुत दिखाई पड़ेंगे--मंदिरों-मस्जिदों में बैठे हैं, पूजा-पाठ करते हैं, लेकिन पूजा-पाठ वे कर नहीं रहे हैं; उनका मन कहीं और भी आगे गया है। कोई स्वर्ग को मांगता होगा; कोई पुण्य के फल मांगता होगा। कोई परलोक के सुख मांगता होगा, कोई इसी लोक के सुख मांगता होगा; लेकिन मन कहीं और जा चुका है।
मन न हो, तो पूजा। मौन पूजा होगी। मन न हो, तो पूजा होगी, तो प्रार्थना होगी, तो ध्यान होगा। जहां मन नहीं वहीं मंदिर शुरू होता है--मन की मौत पर।
इसे थोड़ा खयाल से समझ लो।
तुम अगर यहीं हो जाओ, इसी क्षण में, फिर कुछ पाने को नहीं है--पाया ही हुआ है। परमात्मा मिला ही हुआ है। तुमने उसे खोया कभी नहीं। खोने की भी भ्रांति है। एक सपने में तुम लीन हो गए हो। एक सपना तुम्हें अपने से दूर ले गया है। विचारों के ऊहापोह में तुम उलझ गए हो। जो तुम्हारे पैर के नीचे है, वही मंजिल दिखाई पड़नी बंद हो गई है। जो तुम्हारे हृदय के भीतर है, इस क्षण भी गुनगुना रहा है, उसी का गीत सुनाई पड़ना बंद हो गया है। तुम अपने से दूर हो गए हो।
भक्ति-सूत्र तुम्हें समझ में आ सकेंगे, अगर तुम मन की इस अवस्था को ठीक से समझ लो और इसके बाहर होने शुरू हो जाओ। स्वप्न से जागो। परमात्मा को पाने की कोई भी जरूरत नहीं है--उसे कभी खोया नहीं है। स्वप्न से जागते ही तुम हंसोगे। जैसे आज रात तुम यहां सो जाओ और सपने में देखो कि कलकत्ते में हो या लंदन में हो या दिल्ली में हो--और सुबह आंख खुले और तुम पाओ कि पूना में हो; न कलकत्ता थे, न लंदन थे, न दिल्ली थे--सब सपना था। लेकिन सपने में जब तुम दिल्ली में थे तब तुम सोच भी न सकते थे कि तुम हो पूना में। ठीक ऐसा ही हुआ है। तुम हो तो परमात्मा में, लेकिन तुम्हारा सपना तुम्हें कहीं और बतलाता है।
पहला सूत्र:
‘दुःसंग का सर्वथा त्याग करना चाहिए।’
दुःसंगः सर्वथैव त्याज्यः।
क्या है दुःसंग?
पहला तो मन का संग, दुःसंग है।
तुमने भक्ति-सूत्र की व्याख्याएं पढ़ी होंगी, तो उनमें दुःसंग कहा है उन लोगों को जो बुरे हैं। उनसे क्या लेना-देना? बुरा आदमी तुम्हारा क्या बिगाड़ लेगा, अपना ही बिगाड़ रहा है। इसलिए जिन्होंने भक्ति-सूत्र की व्याख्या में लिखा है, बुरे लोगों का साथ छोड़ दो, वे समझे नहीं।
दुःसंग का अर्थ है: मन का साथ छोड़ दो। यही एकमात्र दुःसंग है। तुम बुरे लोगों का साथ छोड़ दो और मन का साथ बनाए रखो तो कोई दुःसंग छूटने वाला नहीं। तुम जहां रहोगे, तुम जैसे रहोगे, वहीं मन दुःसंग खड़ा कर लेगा। मन बड़ा उत्पादक है, बड़ा सृजनात्मक है। परमात्मा के बाद अगर कहीं कोई स्रष्टा है तो मन है। कितना सृजन करता है--ना-कुछ से। शून्य में आकृतियां बना लेता है। शून्य में रंग भर देता है। शून्य में इंद्रधनुष उग आते हैं, फूल खिल जाते हैं। और अपने ही बनाए खेल में खुद अनुरक्त हो जाता है। अपने ही हाथ से बनाई छायाओं के पीछे दौड़ने लगता है।
इसलिए मेरी व्याख्या है: मन का साथ छोड़ दो।
‘दुःसंग का सर्वथा त्याग करना चाहिए।’
मैं तुमसे नहीं कहता, चोर का साथ छोड़ो। मैं तुमसे नहीं कहता, क्रोधी का साथ छोड़ो। मैं तुमसे कहता हूं: मन का साथ छोड़ो; क्योंकि मन ही चोर है, मन ही क्रोधी है। यह सवाल दूसरे का नहीं है, अन्यथा धार्मिक लोग बड़े कुशल हो गए हैं... दुःसंग का त्याग करना चाहिए, तत्क्षण उनको समझ में आ जाता है कि किन-किन का साथ छोड़ना है। असली बात चूक जाती है, यह अपना साथ, यह ‘मैं भाव’ यह तो बच रहता है, और भी सम्हल कर बच जाता है, यह ‘मैं’ कहने लगता है, मैं साधु हो गया। क्योंकि मैं अब चोरों के साथ उठता-बैठता नहीं। अब मैं बुरे लोगों के साथ नहीं उठता-बैठता।
लेकिन साधु तो वही है जिसे दूसरों में बुरा दिखाई न पड़े। साधु तो वही है जिसे सभी जगह साधु का दर्शन होने लगे। साधु तो वही है जिसकी आंखें जहां पड़ें वहीं साधुता का आविर्भाव हो। तो यह साधु की व्याख्या तो नहीं हो सकती कि चोर का साथ छोड़ दो। कहीं कुछ भूल हो गई। हां, यह बात सच है कि अगर तुमने अपने मन के चोर का साथ छोड़ा तो चोरों से तुम्हारा साथ अपने आप छूट जाएगा।
आखिर चोर से तुम्हारा साथ क्या है? ...क्योंकि तुम भी चोर हो! और क्या साथ हो सकता है? दुष्ट से तुम्हारी संगति क्या है? ...क्योंकि तुम्हारे भीतर भी दुष्टता है, उसी से सेतु बनता है। बुरे आदमी से तुम्हारा साथ क्यों हो गया है? ...तुमने किया है। तुमने निमंत्रण दिया है। बुरा ऐसे ही नहीं आ गया है; तुमने बुलाया है। चाहे तुम खुद भूल भी गए होओगे कि कब बुलावा भेजा था, कब निमंत्रण-पत्र लिखा था, लेकिन आया तुम्हारे ही बुलावे पर है।
इस जगत में कुछ भी आकस्मिक नहीं है। इस जगत में जो कुछ भी है, व्यवस्थाबद्ध है। यह जगत एक परिपूर्ण व्यवस्था है। अगर तुम्हारा चोर से साथ है तो किन्हीं न किन्हीं रास्तों से तुमने चोर को बुलाया होगा। बीज बोए होंगे, तभी तो फसल काटोगे। चोर से साथ होने का एक ही अर्थ है कि तुम्हारे भीतर कहीं चोर है। समान समान से मिलना चाहता है। शराबी से दोस्ती हो गई है, क्योंकि तुम्हारे भीतर शराबी है। हत्यारे से नाता बन गया है, क्योंकि तुम्हारे भीतर हत्या करने की भावना और कामना छिपी है। हिंसा भीतर हो तो हिंसक से दोस्ती बन जाएगी। अहिंसा भीतर हो तो हिंसक से दोस्ती बन ही न पाएगी, तालमेल न बैठेगा--छोड़ना न पड़ेगा, बनना ही मुश्किल हो जाएगा।
तो मेरी व्याख्या को ठीक से समझ लेना: अगर मन का साथ छूट जाए, तो और व्याख्याकारों ने जो कहा है, वह तो अपने से घटित हो जाता है, उसकी चिंता भी नहीं करनी पड़ती। इधर भीतर मन गया--क्रोध गया, लोभ गया, मोह गया, काम गया। वे सब मन के ही फैलाव हैं, वे सब मन की ही सेनाएं हैं। मन का सम्राट उन्हीं सेनाओं के सहारे जीता है--इधर मन मरा कि सेनाएं बिखरीं। इधर सम्राट गया कि साम्राज्य गया। तब तुम अचानक पाओगे: बुरे से संबंध नहीं बनता। तुम बनाना भी चाहो तो नहीं बनता। वस्तुतः तुम अगर बुरे के पीछे भी जाओगे तो बुरा तुमसे बचेगा, बुरा तुमसे डरने लगेगा। क्योंकि शुभ इतनी बड़ी शक्ति है, प्रकाश इतनी बड़ी शक्ति है कि अंधेरा छिप जाता है। जहां प्रकाश आया, अंधेरा भागा। अंधेरा ढूंढने लगता है कोई स्थान, छिप जाए, बचा ले।
साधु अगर असाधु की दोस्ती करे, तो असाधु या तो भागेगा या मिटेगा। यही स्वाभाविक भी मालूम होता है। लेकिन यह दुनिया बड़ी उलटी है। यहां साधु असाधु से डर रहा है। जरूर साधु झूठा है, असाधु मजबूत है। साधु असाधु से डर रहा है। यह दुनिया तो ऐसी हुई कि दवाएं बीमारियों से डर रही हैं। प्रकाश अंधेरे से भागा हुआ है, डरा हुआ है कि छिप जाऊं, कहीं अंधेरा आकर मुझे मिटा न दे। तब तो फिर ‘सत्यमेव जयते’ कभी भी न हो सकेगा, सत्य की विजय फिर कभी न होगी। सत्य तो असत्य से डरा हुआ है।
नहीं, व्याख्या की भूल है। तुम जिसे साधु कहते हो, अगर वह असाधु से डरा है तो सिर्फ इसका सबूत देता है कि साधु नहीं है; भीतर असाधु है और डरता है कि असाधु के संग-साथ रहा तो भीतर का असाधु प्रकट होने लगेगा, बाहर आ जाएगा। यही भय है। असाधु नहीं डरता साधु के साथ होने से, कोई भय नहीं है। लेकिन जब सच्चा साधु होगा तो असाधु डरेगा, या तो बचेगा, या भागेगा।
मैंने सुना है, महावीर के समय में एक बहुत बड़ा डाकू हुआ। वह महावीर से बहुत डरता था। वह बूढ़ा हो गया था। उसने अपने बेटे को शिक्षा दी कि देख, और सब करना, इस एक आदमी के आस-पास मत जाना। यह खतरनाक है, यह अपने धंधे का बिलकुल दुश्मन है। इसके पास गए कि मिटे। तो अगर कभी भूल-चूक से भी तू गुजरता हो और महावीर बोलता हो, तो अपने कानों में अंगुलियां डाल लेना। इसी तरह बामुश्किल मैंने अपने को बचाया है।
निश्चित ही इस डाकू के भीतर साधु छिपा रहा होगा, अन्यथा कौन महावीर से बचता है! इसको डर क्या है? यह जानता है कि महावीर ठीक हैं। लेकिन भूल-चूक हो गई। बेटा आखिर बेटा ही था; बाप तो बहुत कुशल पुराना डाकू था, वह बचाता रहा अपने को। बेटा एक दिन जा रहा था रास्ते से। चूंकि बाप ने मना किया था, इसलिए मन में और आकर्षण भी हो गया कि एकाध शब्द सुन लेने में क्या हर्ज है। ऐसा थोड़ी कि कुछ एकाध शब्द सुन लोगे और सब बदल जाएगा।
तो महावीर बोलते थे, द्वार पर कहीं दूर खड़े होकर उसने एक वाक्य सुना, लेकिन फिर बाप की याद आई, अंगुलियां कान में डाल लीं। भाग खड़ा हुआ। पर एक वाक्य कान में पड़ गया। महावीर से किसी ने पूछा था कोई प्रश्न, और वे जवाब देते थे। पूछा था प्रेत-योनि के संबंध में, कि प्रेत होते हैं तो कैसे होते हैं, देव होते हैं तो कैसे होते हैं।
फिर वर्षों बीत गए, यह डाकू पकड़ा गया। सम्राट के घर डाका डाला था। सम्राट इसके बाप से परेशान था; बाप मर गया, इसके बेटे से परेशान था। और कभी कोई बात पकड़ी न जा सकी थी, कोई उनके खिलाफ जुर्म हाथ में न था, रंगे हाथ वे कभी पकड़े न गए थे। सम्राट ने अपने मनोवैज्ञानिकों से सलाह ली कि इससे सारी बातें निकलवा लेनी हैं; अब हाथ में पड़ गया है तो छोड़ नहीं देना है। कैसे निकलवाएं इससे सारी बातें?
तो मनोवैज्ञानिकों ने एक उपाय सोचा। उन्होंने इसे खूब शराब पिलाई। शराब पिला कर महल की जो सुंदरतम स्त्रियां थीं, उनको इसके चारों तरफ नृत्य करने को कहा। यह आदमी बीच में बैठा है नशे में सरोबोर, वे स्त्रियां नाचने लगीं। ऐसा सुंदर महल इसने कभी देखा भी न था। वे स्त्रियां इसे अप्सराएं मालूम होने लगीं। नशा! इसे शक होने लगा कि मैं इस लोक में हूं या परलोक मैं पहुंच गया हूं। इसने किसी को पूछा। तो मनोवैज्ञानिकों ने यही तो उपाय किया था। उन्होंने कहा कि तुम मर गए हो, स्वर्ग में आ गए हो। और अब तुम अपने जीवन भर में तुमने जो भी पाप किए हैं, उन सब का ब्यौरा दे दो, ताकि परमात्मा उन्हें माफ कर दे। उसकी कृपा अनंत है, भयभीत मत हो। तुम अपना एक-एक पाप बोल दो। जो पाप तुम छिपाओगे वही बच रहेगा; जो तुम बता दोगे उससे तुम्हारा छुटकारा हो जाएगा।
तब जरा डाकू चौंका: ‘सब पाप बता दे!’ तब उसे याद आया, उस दिन का महावीर का वचन कि देवलोक में देवता होते हैं तो उनकी छाया नहीं पड़ती। तो उसने गौर से देखा कि अगर यह देवलोक है...। स्त्रियों की छाया पड़ रही थी, वह सम्हल गया। उसे लगा कि यह सब धोखा है, नशे में हूं। उसने एक भी पाप के संबंध में कुछ भी न कहा। अपने पुण्य की बातें बताईं जो उसने कभी भी न किए थे। उसने कहा: ‘पाप तो कभी किए ही नहीं, मैं करूं भी क्या? परमात्मा क्षमा कर सकता है, लेकिन मैंने किए नहीं। पुण्य ही पुण्य किए हैं।’
सम्राट को उसे छोड़ देना पड़ा। वह जाल काम न आया। वह जैसे ही वहां से छूटा, सीधा महावीर के पास पहुंचा, उनके पैरों में गिर गया, और कहने लगा: तुम्हारे एक वचन ने मेरे प्राण बचाए। अब मैं तुम्हें पूरा-पूरा ही सुन लेना चाहता हूं। इतना ही सुना था, वह भी कुछ बड़ी काम की बात न थी, लेकिन काम पड़ गई। सत्संग काम आ गया। वह भी ऐसी चोरी-चोरी द्वार पर खड़े होकर, एक वाक्य सुना था कि देवताओं की छाया नहीं पड़ती। तब तो सोचा भी न था कि इसकी कोई सार्थकता हो सकेगी, लेकिन काम पड़ गया, मेरे प्राण बचे। तुमने मुझे बचाया। भयंकर नशे में मुझे डुबाया था और सारा इंतजाम किया था और मैं फंस ही गया था और मैं तैयार ही था बोलने को, ताकि क्षमा कर दिया जाऊं। अब तुम मुझे पूरा ही बचा लो। इस सम्राट से तुमने बचाया, अब तुम मुझे मृत्यु से भी बचा लो। इस मौत से तुमने मुझे बचाया, अब तुम मुझे सारी मौतों से बचा लो। अब मैं तुम्हारी शरण हूं।
साधु का एक वचन भी सुन लिया जाए तो असाधु के जीवन में रूपांतरण शुरू हो जाता है--बीज पड़ गया। साधु क्या डरेगा असाधु से? डरे तो असाधु डरे।
मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम बुरे लोगों का साथ छोड़ देना। मैं तो तुमसे यह कहूंगा कि तुम उन्हें बुरे देखोगे तो तुम बुरे रह जाओगे। तुम अगर उन्हें बुरे मानोगे तो तुम्हारी बुराई कभी मिट न सकेगी। तुम तो एक साथ छोड़ दो--भीतर के अपने मन का--और तत्क्षण तुम पाओगे: संसार में कोई बुरा न रहा। चोर में भी तब तुम्हें परमात्मा ही छिपा हुआ दिखाई पड़ेगा। हत्यारे में भी तब तुम्हें उसकी ही ज्योति झिलमिलाई दिखाई पड़ेगी। और तुमसे भयभीत होने लगेगा असाधु, क्योंकि तुम असाधुता की मौत सिद्ध होने लगोगे। तुम्हारी छाया जहां पड़ेगी, वहां से अंधकार हटेगा। निश्चित ही तुम्हारा असाधु से साथ छूट जाएगा। मैं छोड़ने को नहीं कहता हूं--छूट जाएगा। तुम्हें छोड़ना न पड़ेगा--असाधु भाग खड़ा होगा, या असाधु रूपांतरित हो जाएगा।
यह बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है:
‘दुःसंग का सर्वथा त्याग करना चाहिए।’ ...पर दुःसंग है--मन का संग!
‘क्योंकि वह (दुःसंग) काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवं सर्वनाश का कारण है।’
इतना साफ है सूत्र, पर व्याख्याकारों से ज्यादा अंधे लोग खोजना मुश्किल है।
‘क्योंकि वह काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवं सर्वनाश का कारण है।’
कौन तुम्हारा सर्वनाश कर सकेगा? ...तुम्हारे अतिरिक्त और कोई भी नहीं। तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई शत्रु नहीं है और न तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई मित्र है। मन से साथ बना रहे तो तुम अपना ही आत्मघात करते रहोगे। मन से साथ छूट जाए तो तुम्हारे जीवन में नव-जीवन का संचार हो जाएगा, पुनर्जन्म हो जाएगा।
‘काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश, सर्वनाश’--इन शब्दों को समझो।
काम का अर्थ है: सदा इस आशा से जगत को देखना कि उससे कुछ सुख पाना है। काम का अर्थ है: सुख पाने की आकांक्षा से ही चीजों को, व्यक्तियों को, घटनाओं को देखना; आकांक्षा से भरे होकर देखना। जब तुम आकांक्षा से भरकर किसी चीज को देखते हो, तब तुम्हें चीज का सत्स्वरूप दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि तुम्हारी आकांक्षा परदा डाल देती है। तुम जिस चीज को भी वासना से भर कर देखते हो, तुम्हें वही दिखाई पड़ता है जो तुम देखना चाहते हो।
मैं एक मित्र के साथ गंगा के तट पर बैठा था। वे थोड़े बेचैन हो आए। फिर मुझसे कहने लगे, क्षमा करें। आपसे झूठ न कहूंगा, लेकिन मुझे थोड़े समय के लिए छुट्टी दें, मैं तट तक जाना चाहता हूं। वे गए। मैंने देखा कि वे क्यों जाना चाहते हैं। सुंदर स्त्री दिखाई पड़ गई है, वह स्नान कर रही है। वे गए बड़ी आतुरता से, फिर लौटे बड़े उदास। मैंने पूछा: क्या हुआ? उन्होंने कहा: बड़ी भ्रांति हुई। वह स्त्री नहीं है, कोई साधु है। लंबे बाल...! पीठ की तरफ से दिखाई पड़ा था। जब पास से जाकर देखा तो साधु है, स्त्री नहीं है।
मैंने उनसे पूछा कि थोड़ा गौर करो, स्त्री तुम्हें दिखाई पड़ी इसमें तुम इतना ही मत सोचो कि साधु के बालों ने धोखा दे दिया। तुम स्त्री देखना चाहते थे। तुमने आरोपण किया। तुम मुझसे पूछे होते। उतनी दूर जाने की जरूरत न थी।
हम वही देख लेते हैं जो हम कामना करते हैं। तुम अपने चारों तरफ अपनी ही कामना का संसार रच लेते हो।
दो साधु एक रास्ते से गुजरते थे। एक साधु दूसरे से कुछ बोल रहा था। उस दूसरे ने कहा कि यहां सुनाई भी नहीं पड़ेगा मुझे कुछ। यह बाजार, इतना शोरगुल! यह ज्ञान की बात यहां मत करो--एकांत में चल कर करेंगे।
वह साधु वहीं खड़ा हो गया। उसने अपनी जेब से एक रुपया निकाला और आहिस्ता से रास्ते पर गिरा दिया। खननखन की आवाज हुई, भीड़ इकट्ठी हो गई। पहले साधु ने पूछा कि मैं समझा नहीं, यह तुमने क्या किया। उसने रुपया उठाया, जेब में रखा और चल पड़ा। उसने कहा, इतना भरा बाजार है, इतना शोरगुल मच रहा है; लेकिन रुपये की जरा सी खननखन की आवाज--इतने लोग आ गए। ये रुपये के प्रेमी हैं। नरक में भी भयंकर उत्पात मचा हो और अगर रुपया गिर जाए तो ये सुन लेंगे।
हम वही सुन लेते हैं जो हम सुनना चाहते हैं। उस साधु ने कहा: अगर तुम परमात्मा के प्रेमी हो तो यहां भी, बाजार में भी परमात्मा के संबंध में मैं कुछ कहूंगा तो तुम सुन लोगे।
कोई दूसरा बाधा नहीं डाल रहा है। हम वही सुनते हैं जो हम सुनना चाहते हैं। हम वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं। हमें उसी से मिलन हो जाता है जिससे हम मिलना चाहते हैं। इस जीवन की व्यवस्था को ठीक से जो समझ लेता है वह फिर किसी दूसरे को दोष नहीं देता।
ध्यान रखना, कामना तुम्हें कभी सत्य को न देखने देगी। सत्य को देखना हो तो कामना-शून्य चित्त चाहिए।
इस बगीचे में कोई चित्रकार आए तो कुछ और देखेगा। कोई लकड़हारा आ जाए तो कुछ और देखेगा। कोई फूलों को बेचने वाला माली आ जाए तो कुछ और देखेगा। तीनों एक ही जगह आएंगे, लेकन तीनों के दर्शन अलग-अलग होंगे।
कहते हैं, जब संगीत की परम ऊंचाई उपलब्ध होती है तो वीणा शांत भी रखी हो तो संगीतज्ञ को वे स्वर सुनाई पड़ने शुरू हो जाते हैं, जो उस वीणा से प्रकट हो सकते हैं, जो अभी छिपे हैं, अभी जन्मे भी नहीं। लेकिन कान की उत्कंठा उन्हें भी सुन लेती है जो अभी प्रकट नहीं हुए। अनभिव्यक्त भी अभिव्यक्त हो जाता है। आंख हो देखने वाली तो बीज में भी फूल दिखाई पड़ने लगते हैं।
कहते हैं, चमार रास्तों पर लोगों को देखते हैं तो जूतों को ही देख कर आदमी का सब-कुछ समझ जाते हैं। जूते की हालत बहुत कुछ बताती है: तुम्हारी आर्थिक दशा; ठीक चल रही है जिंदगी कि ऐसे ही जा रही है; सफलता पा रहे हो कि असफल हो रहे हो; घर से क्रोध में चले आए हो, झगड़ कर चले आए हो कि शांति में विदा पाई है--सब तुम्हारे जूते की हालत बता देती है। जूते की शिकन-शिकन में तुम्हारी कथा लिखी है, आत्म-कथा है। चमार जूतों को देखता है और सब समझ जाता है। चमार तुम्हारे चेहरे की तरफ देखता ही नहीं। जूतों को देखते-देखते पारंगत हो जाता है। वही उसकी समझ है। वहीं से जानता है।
हजारों लोग तुम रास्तों पर चलते हुए देखोगे, लेकिन सभी लोग एक ही रास्ते पर नहीं चल रहे हैं--एक ही रास्ते पर चल रहे हैं यूं तो, लेकिन सबकी नजर अलग-अलग चीजों पर लगी है। भूखा रेस्तरां, होटल को देखता हुआ चलेगा। जिसने उपवास किया है वही जानता है। फिर कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता संसार में सिवाय भोजन के। कहते हैं, उपवासे आदमी को चांद भी तैरती हुई रोटी की तरह मालूम होता है।
संसार तुम्हारा चुनाव है। तुम्हारी वासना चुनती है। जिस चीज में तुम उत्सुक नहीं हो वह दिखाई नहीं पड़ती। मेरे पास बहुत से संन्यासियों ने आकर यह कहा है कि संन्यास लेने के पहले कपड़े की दुकानें दिखाई पड़ती थीं, अब नहीं दिखाई पड़तीं। अब दिखाई पड़ने का सार भी नहीं। एक ही कपड़ा बचा--गेरुआ। अब कपड़े की दुकानें हैं भी कि मिट गईं--संन्यासी को क्या लेना-देना। बात ही खत्म हो गई!
जिस बात से हमारा संबंध टूट जाता है, वह विदा हो जाती है संसार से। जिससे हमारा संबंध बना रहता है, उसी को हम देखते चलते हैं। ध्यान रखना, तुम्हारा निर्णय तुम्हीं को नहीं बदलता, सारे संसार को बदल देता है--तुम्हारे संसार को बदल देता है। क्योंकि तुम्हारा संसार तुम्हारा निर्णय है।
काम सत्य को न जानने देगा। क्रोध सत्य को न जानने देगा। क्योंकि क्रोध में तो तुम वैसी अवस्था में पहुंच जाते हो जैसे कोई शराबी। कहीं पड़ते हैं पैर, कहीं तुम रखना चाहते थे। कुछ कह जाते हो, कुछ तुम कहना चाहते थे। पीछे पछताओगे, पहले भी पछताए थे। क्रोध तुमसे ऐसे कृत्य करवा लेता है जो तुम कर ही नहीं सकते थे; अपने होश में तुमने कभी न किए होते।
क्रोध यानी बेहोशी।
मोह: किसी को तुम अपना मानते हो, तो देखने के ढंग बदल जाते हैं। जिसे तुम अपना नहीं मानते, देखने के ढंग बदल जाते हैं। वही कृत्य अगर अपना करे तो तुम्हारा निर्णय कुछ और होता है; वही कृत्य कोई दूसरा करे तो निर्णय और हो जाता है। तुम्हारा न्याय तुम्हारे मोह से मर जाता है; सत्य को देखने की क्षमता धूमिल हो जाती है। दूसरा कुछ करे तो पाप; अपना कुछ करे तो ज्यादा से ज्यादा भूल। तुम अगर वही काम करो तो मजबूरी; और दूसरा करे तो अपराध!
तुमने कभी खयाल किया?... तुम अगर रिश्वत ले लेते हो, तो मजबूरी, क्या करें, तनख्वाह से काम नहीं चलता। लेना तुम चाहते नहीं, लेकिन मजबूरी है, बाल-बच्चे हैं, घर-द्वार है, चलाना है। जानते हो, गलत है--मगर इतना भी तुम जानते हो कि अपराध तुमने नहीं किया; तुम क्या करो, समाज ने मजबूर कर दिया है। दूसरा जब रिश्वत लेता है तब अपराध है। तब तुम बड़ा शोरगुल मचाते हो। वस्तुतः तुम्हारा शोरगुल उतना ही बड़ा होता है जितनी तुमने भी रिश्वत ली होती। अपनी भूल को छोटा करने के लिए तुम दूसरे की भूल को बड़ा-बड़ा करके दिखाते हो। तुम संसार में सबकी निंदा करते रहते हो। वही तुम भी करते हो; अन्यथा तुम भी नहीं कर रहे हो।
दूसरे का बेटा असफल हो जाता है, तुम समझते हो, बुद्धिहीन; तुम्हारा बेटा असफल हो जाता है, तो शिक्षक की शरारत!
मेरे पास मां-बाप आ जाते हैं, वे कहते हैं, हमारा बेटा फेल कर दिया, जरूर कोई साजिश है। जो भी फेल होता है, वह कहता है साजिश है; लेकिन दूसरे जो फेल हुए हैं, उनकी बुद्धि ही नहीं तो क्या करेंगे!
तुम कभी गौर करना, मोह तुम्हारी आंख से न्याय को छीन लेता है।
‘काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश,...।’
‘स्मृतिभ्रंश’ बड़ा महत्वपूर्ण शब्द है। बुद्ध ने जिसे सम्यक-स्मृति कहा है, यह उसकी विपरीत अवस्था है--स्मृतिभ्रंश। जिसे कृष्णमूर्ति अवेयरनेस कहते हैं, होश कहते हैं--स्मृतिभ्रंश उसकी विपरीत अवस्था है। जिसको गुरजिएफ ने सेल्फ-रिमेंबरिंग कहा है, आत्म-स्मरण--स्मृतिभ्रंश उसकी विपरीत अवस्था है। जिसको नानक ने, कबीर ने सुरति कहा है--स्मृतिभ्रंश उसकी उलटी अवस्था है।
सुरति स्मृति का ही रूप है। सुरतियोग का अर्थ है: स्मृतियोग--ऐसे जीना कि होश रहे; प्रत्येक कृत्य होशपूर्ण हो; उठो तो जानते हुए; बैठो तो जानते हुए।
एक छोटा सा प्रयोग करो। आज जब तुम्हें फुरसत मिले घंटे भर की, तो अपने कमरे में बैठ जाना द्वार बंद करके और एक क्षण को सारे शरीर को झकझोर कर होश को जगाने की कोशिश करना--बस एक क्षण को कि तुम बिलकुल परिपूर्ण होश से भरे हो। बैठे हो, आस-पास आवाज चल रही है, सड़क पर लोग चल रहे हैं, हृदय धड़क रहा है, श्वास ली जा रही है--तुम सिर्फ होश मात्र हो--एक क्षण के लिए। सारी स्थिति के प्रति होश से भर जाना; फिर उसे भूल जाना; फिर अपने काम में लग जाना। फिर घंटे भर बाद फिर दुबारा कमरे में जाकर, फिर द्वार बंद करके, फिर एक क्षण को अपने होश को जगाना--तब तुम्हें एक बात हैरान करेगी कि बीच का जो घंटा था, वह तुमने बेहोशी में बिताया; तब तुम्हें अपनी बेहोशी का पता चलेगा कि तुम कितने बेहोश हो। पहले एक क्षण को होश को जगा कर देखना, झकझोर देना अपने को; जैसे तूफान आए और झाड़ झकझोर जाए, ऐसे अपने को झकझोर डालना, हिला डालना। एक क्षण को अपनी सारी शक्ति को उठा कर देखना--क्या हूं, कौन हूं, कहां हूं! ज्यादा देर की बात नहीं कर रहा हूं, क्योंकि एक क्षण से ज्यादा तुम न कर पाओगे। इसलिए एक क्षण काफी होगा। बस एक क्षण करके बाहर चले जाना, अपने काम में लग जाना--दुकान है, बाजार है, घर है--भूल जाना। जैसे तुम साधारण जीते हो, घंटे भर जी लेना। फिर घंटे भर बाद कमरे में जाकर फिर झकझोर कर अपने को देखना। तब तुम्हें तुलनात्मक रूप से पता चलेगा कि ये दो क्षण अगर होश के थे, तो बीच का घंटा क्या था! तब तुम तुलना कर पाओगे।
मेरे कहने से तुम न समझोगे; क्योंकि होश को मैं समझा सकता हूं शब्दों में, लेकिन होश तो एक स्वाद है। मीठा, मीठा, मीठा कहने से कुछ न होगा। वह तो तुम्हें मिठाई का पता है, इसलिए मैं मीठा कहता हूं तो तुम्हें अर्थ पता हो गया। मैं कहूं स्मृति, सुरति उससे कुछ न होगा; उसका तुम्हें पता ही नहीं है। तो तुम यह भी न समझ सकोगे कि स्मृतिभ्रंश क्या है। होश को जगाना क्षण भर को, फिर घंटे भर बेहोश; फिर क्षण भर को होश को जगा कर देखना--तुम्हारे सामने तुलना आ जाएगी; तुम खारे और मीठे को पहचान लोगे। वह जो घंटा बीच में बीता, स्मृतिभ्रंश है। वह तुमने बेहोशी में बिताया--जैसे तुम थे ही नहीं, जैसे तुम चले एक यंत्र की भांति; जैसे तुम नशे में थे--और तब तुम्हें अपनी पूरी जिंदगी बेहोश मालूम पड़ेगी।
मन बेहोशी है, स्मृतिभ्रंश है। और स्वभावतः इन सबका जोड़ सर्वनाश है।
‘दुःसंग का सर्वथा त्याग करना चाहिए, क्योंकि वह दुःसंग काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवं सर्वनाश है।’
‘ये काम-क्रोध आदि पहले तरंग की तरह (क्षुद्र आकार में) आते हैं, फिर विशाल समुद्र का आकार ग्रहण कर लेते हैं।’
आता है सब बड़े छोटे से आकार में, तरंग की भांति। अगर तुमने तरंग को ही न पहचाना और पकड़ा, तो चूक गए। पहले कदम में ही जागना। जब क्रोध की पहली लहर आती है, इतनी सूक्ष्म होती है कि पता भी नहीं चलता, चुपचाप प्रविष्ट हो जाती है; इतनी हवा के हलके झकोर की तरह आती है कि पत्ता भी नहीं हिलता, आवाज भी नहीं होती। पर तभी होश रखा, तो ही; नहीं तो बीज प्रविष्ट हो गया।
क्रोध की अवस्थाओं को समझो। पहला: क्रोध आ रहा है, अभी आया नहीं; लहर उठी है, लेकिन अभी प्रवेश नहीं हुआ। फिर लहर प्रविष्ट हो गई, बीज भीतर पड़ गया; देर-अबेर सागर बनेगा। फिर यह सागर जोर से झंझावात करता है। उठती हैं लहरें और तटों से टकराती हैं। फिर उतर गया सागर। फिर लहर भी चली गई। किनारा फिर शांत र
ह गया। ये तीन अवस्थाएं हुईं--क्रोध के पहले, फिर क्रोध की, और क्रोध के बाद।
क्रोध के पहले ही जो लहर को देख लेगा, जो जाग जाएगा, वही बच सकता है। लोग अक्सर जब क्रोध जा चुका होता है तब देखते हैं; लेकिन तब तो क्या करोगे? मेहमान जा चुका! जो होना था हो चुका! अब चिड़िया चुग गई खेत, अब पछताए होत का!
लेकिन हम पछताते तभी हैं जब चिड़िया खेत चुग जाती है। तुम सभी पछताए हो। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो क्रोध करके न पछताया हो। लेकिन तुम्हारा पश्चात्ताप व्यर्थ है। यह तो तब आता है जब सागर उतर चुका। फिर तो तुम करोगे भी क्या? फिर तुम पछता सकते हो और भविष्य के लिए निर्णय ले सकते हो कि अब क्रोध न करूंगा। लेकिन ये निर्णय भी काम न आएंगे। क्योंकि तुमने एक छोटी सी बात भी न सीखी, जिंदगी भर हो गई क्रोध करते, कि जब क्रोध आता है तब तुम्हारा होश नहीं रह जाता, तो निर्णय काम कैसे आएगा? जब क्रोध आता है तब होश नहीं रह जाता, तो निर्णय का भी होश नहीं रह जाता। जब क्रोध चला जाता है, तुम बड़े बुद्धिमान हो जाते हो। क्रोध चले जाने पर कौन बुद्धिमान नहीं हो जाता। कामवासना का ज्वर उतर जाने पर कौन बुद्धिमान नहीं हो जाता! बुढ़ापे में सभी बुद्धिमान हो जाते हैं। लेकिन उस बुद्धिमता का कोई मूल्य नहीं है।
क्रोध की लहर जब आए... यह सूत्र बड़ा महत्वपूर्ण है: ‘ये काम, क्रोधादि--पहले तरंग की तरह (क्षुद्र आकार में)आकर भी समुद्र का आकार धारण कर लेते हैं।’
बीज से ही सुलझ लेना। बो दिया, फिर तो फसल काटनी ही पड़ेगी। फिर पछताना तो एक तरकीब है। वह तरकीब भी बड़ी चालाक है। अक्सर लोग क्रोध करके पछताते हैं और सोचते हैं कि बड़े भले लोग हैं, कम से कम पछताते तो हैं। लेकिन मेरे जाने, हजारों लोगों के निर्णयों को देख कर, एक बात तुमसे कहना चाहूंगा: क्रोध करके पछताना पुनः क्रोध करने की तैयारी है। तुम्हारी एक प्रतिमा है तुम्हारे मन में कि तुम बड़े साधु-पुरुष, साधु-चित्त हो। क्रोध करके तुम्हारी प्र्रतिमा खंडित हो जाती है, गिर जाती है, सिंहासन से नीचे पड़ जाती है। पछता कर तुम उसे वापस सिंहासन पर रखने की कोशिश करते हो कि भला क्रोध हो गया, भूल हो गई, मनुष्य से भूल हो जाती है; ऐसा कोई बहुत बड़ा पाप नहीं हो गया है; किसे क्रोध नहीं होता! और फिर तुम समझाते हो कि क्रोध जरूरी भी था, न करते तो हानि होती; ऐसे अगर क्रोध न करोगे तो हर कोई छाती पर चढ़ बैठेगा। आखिर लोगों को डराना तो पड़ेगा ही। मारो मत, कम से कम फुफकारो तो। कोई मारा तो नहीं, किसी की हत्या तो की नहीं--सिर्फ फुफकारे!
तुम इस तरह के तर्क अपने लिए खोज लोगे। या तुम कहोगे कि बच्चा था, अगर उसको न डांटते, न डपटते, बिगड़ जाता। उसके भविष्य के सुधार के लिए...। तुम हजार बहाने खोज लोगे यह समझाने के लिए कि क्रोध जरूरी था। हालांकि तुम जानते हो कि कोई भी क्रोध जरूरी नहीं है। अगर तुम यह जानते न होते तो तुम यह भी निर्णय करने की चेष्टा क्यों करते कि जरूरी था? यह तर्क भी तुम इसीलिए खोजते हो कि भीतर चोट खलती है, भीतर तुम जानते हो कि भूल हुई है। अब भूल को लीपा-पोती करते हो। अब भूल को सजाते हो। सिंहासन पर फिर प्रतिमा को बिठा लेते हो। फिर तुम उसी जगह आ जाते हो जहां क्रोध करने के पहले थे। इसका अर्थ हुआ: अब तुम फिर पुनः क्रोध करने के लिए उतने ही तत्पर हो जितने पहले थे।
पश्चात्ताप क्रोध की तरकीब है। पश्चात्ताप से धर्म का कोई संबंध नहीं। धार्मिक व्यक्ति पछताता नहीं। और धार्मिक व्यक्ति व्यर्थ के निर्णय नहीं लेता, व्रत, कसमें नहीं खाता। धार्मिक व्यक्ति तो जब कोई चीज को समझ लेता है तो उसकी समझ ही उसकी कसम है; उसकी समझ ही उसका पश्चात्ताप है; उसकी समझ ही उसकी क्रांति है। तब फिर वह यह नहीं कहता कि मैं क्रोध न करूंगा--वह इतना ही कहता है कि अब जब क्रोध आएगा तो मैं जागूंगा।
इस फर्क को समझ लो।
क्रोध न करूंगा, यह तो बेहोश आदमी का ही निर्णय है। यह तो तुम बहुत बार कर चुके और बहुत बार झुठला चुके। समझदार आदमी यह कहता है कि एक बात तो मैं समझ गया कि क्रोध जब आता है, मैं बेहोश हो जाता हूं, इसलिए अब होश रखने की कोशिश करूंगा। क्रोध करूंगा कि नहीं करूंगा, यह मेरे बस में कहां; बस में ही होता तो पहले ही कभी का बंद कर दिया होता। मैं अवश हूं, असहाय हूं। इसलिए यह तो नहीं कह सकता कि क्रोध न करूंगा--इतना ही कर सकता हूं कि इस बार जब क्रोध आएगा तो होश से करूंगा।
इस फर्क को बहुत गौर से ले लेना: ‘क्रोध तो करूंगा, लेकिन होश से करूंगा।’ और क्रोध अगर होश से किया जाए तो होता ही नहीं। क्रोध होश से करना तो ऐसा ही है जैसे जानते हुए पत्थर को कोई रोटी समझ कर भोजन करे। क्रोध होश से करना तो ऐसा ही है जैसे जानते हुए कोई दीवाल से निकलने की कोशिश करे, सिर टकराए, लहूलुहान हो जाए। जानते हुए क्रोध करना तो ऐसे ही है जैसे जानते हुए कोई आग में हाथ डाले। इसलिए जानते हुए करूंगा, होशपूर्वक करूंगा...।
‘होशपूर्वक’ का अर्थ है कि लहर आएगी तब जागूंगा। तूफान जब जा चुका होगा तब पछताने का कोई अर्थ नहीं है। ‘पकडूंगा प्रारंभ में, बीज में।’ जिसने पहले पकड़ लिया, वह मुक्त हो जाता है। फिर बीज को, लहर को सागर बनने की सुविधा नहीं होती। आते सब छोटी-छोटी तरंगों की तरह हैं, इसलिए तो धोखा दे जाते हैं।
जब क्रोध आता है, तुम सोचते हो: ‘किसको पता है? इतना छोटा है, अपने को ही पता नहीं चल रहा है।’
जरा देखना, क्रोध बड़ा नाजुक है; बड़ी हलकी सी लहर आती है। जाते थे तुम रास्ते से, कोई हंसने लगा; उसने कुछ कहा भी नहीं है; तुम्हारे लिए भी हंसा हो, ऐसा भी जरूर नहीं है; तुम ही अकेले नहीं हो, दुनिया बड़ी है। और क्या मतलब तुम्हारे लिए हंसे? लेकिन एक लहर तुम्हारे भीतर सरक जाएगी; तुम तन गए। कुछ खटक गया। कुछ अटक गया। तुम्हारा प्रवाह वैसा ही न रहा जो क्षण भर पहले था। उसकी हंसी पत्थर की तरह भीतर चली गई। तुम और हो गए। अपने चेहरे पर गौर करना, चेहरा तन गया, माथे पर सलें आ गईं, ओंठ भिंच गए, दांत कस गए, हाथों में तनाव आ गया।
इस सारी छोटी सी लहर को गौर से देखना। सूक्ष्म निरीक्षण करना, और तुम हैरान होओगे: जैसे-जैसे तुम निरीक्षण करोगे वैसे-वैसे तुम पाओगे कि और भी सूक्ष्म तरंगों का पता चलता है। आदमी हंसा भी नहीं, जिस ढंग से उसने तुम्हारी तरफ देखा और लहर आ गई। या यह भी हो सकता है कि उसने तुम्हारी तरफ देखा नहीं, और लहर आ गई, कि वह राह से तुम्हें बिना देखे गुजर गया कि क्रोध आ गया। कि तुम्हें और बिना देखे गुजर जाए! जान कर तुम्हें अनदेखा किया, उपेक्षा की! अपमान हो गया!
अहंकार घाव की तरह है। जरा-जरा सी चीज से ठोकरें खाता है। जरा-जरा चीजों से विक्षुब्ध हो जाता है। इस सबको जांचना, देखना। कुछ करने की उतनी बात नहीं है जितनी जाग कर देखने की बात है। तुम्हारे किए कुछ भी न होगा। तुम अभी हो कहां? तुम अभी हो ही नहीं। होश ही होगा तब तुम होओगे। बेहोशी में कोई है?
कौन तरता है? माया से कौन तरता है? ...‘जो सब संगों का परित्याग करता है, जो महानुभावों की सेवा करता है, और जो ममतारहित है।’
कौन तरता है? माया से कौन तरता है? कौन पार निकल पाता है इस तिलिस्म से, झूठ के तिलिस्म से, इस झूठ के जादू से, मन के इस फैलाव से? कहो उसे माया।
कौन तर पाता है? ...‘जो सब संगों का परित्याग करता है।’
तुम जल्दी ही संग हो जाते हो किसी भी चीज के। क्रोध उठा, तुम संग हुए, तुम साथ हुए, तुमने हाथ में हाथ डाल लिया, तुम हमजोली बने। वासना उठी, तुम साथ हुए। संग होना तुम्हारे लिए इतनी तत्परता से होता है कि इधर भाव उठा नहीं कि उधर तुमने गले में फांसी डाली नहीं। तुम साथ होने को इतने तत्पर हो हर चीज के! यह संग की प्रवृत्ति ही तुम्हें डुबा रही है। जरा दूर-दूर चलो। जरा सहयोग सोच समझ कर करो। संग की इतनी जल्दी मत करो। क्रोध आए, आने दो़, तुम साथ मत दो; तुम जरा दूर-दूर खड़े रहो अलगाए, अलग-थलग, पृथक-पृथक! क्रोध को ऐसे देखो जैसे कोई और हो। क्रोध को ऐसे देखो जैसे ‘पर’ है, ‘पर’ है ही। ‘स्व’ तो वही है जो देखने वाला है, जो द्रष्टा है; शेष सब तो ‘पर’ है।
इस सूत्र का अर्थ है: ‘जो सब संगों का परित्याग करता है।’
इस सूत्र का अर्थ है: ‘जो द्रष्टा बनता है, साक्षी बनता है।’
फिर व्याख्याकारों ने बड़ी भूलें की हैं। वे कहते हैं, कसम खाओ कि क्रोध नहीं करोगे; व्रत लो ब्रह्मचर्य का; धन का त्याग करो; घर द्वार छोड़ो, इसको वे संग-परित्याग कहते हैं। मैं नहीं कहता। क्योंकि मैंने उन लोगों को देखा है, जिन्होंने धन छोड़ दिया और फिर भी धन उनसे नहीं छूटा। और मैंने उन लोगों का देखा है, जिन्होंने घर छोड़ दिए और कुछ भी नहीं छूटा; क्योंकि घर भीतर है, बाहर नहीं।
गृहस्थ होना एक दृष्किोण है। संन्यस्त होना भी एक दृष्टिकोण है। तुम घर में रह कर संन्यस्त हो सकते हो। तुम संन्यासी होकर गृहस्थ रह सकते हो। यह बात जरा सूक्ष्म है। यह इतनी स्थूल नहीं है जितनी लोगों ने पकड़ रखी है। लोग तो बिलकुल पदार्थवादी हैं, जिनको तुम संन्यासी कहते हो, वे भी। जिनको तुम मुनि कहते हो, वे भी पदार्थवादी हैं; क्योंकि उनका त्याग भी पदार्थ का त्याग है, दृष्टि का नहीं। कोई घर को छोड़ देता है तो उसको तुम त्यागी कहते हो; कोई घर को पकड़ता है, उसको तुम भोगी कहते हो, लेकिन दोनों की नजर घर पर है। दोनों पदार्थवादी हैं, मैटीरियलिस्ट। अभी अध्यात्म का दोनों में से किसी को भी अनुभव नहीं हुआ।
अध्यात्म का अर्थ है: अब तुम पदार्थ को न पकड़ते हो, न छोड़ते हो, तुम दृष्टियों में रूपांतरण करते हो; तुम दर्शन बदलते हो; तुम अपने देखने का ढंग बदलते हो।
तो मैं तुमसे कहूंगा: जो सब संगों का परित्याग करता है, इसका अर्थ हुआ: क्रोध उठता है तो हाथ में हाथ डाल कर चल नहीं पड़ता--क्रोध से कहता है, ‘ठीक है, मर्जी, तुम उठे; हम भी सोचेगें, निर्णय करेंगे। साथ देने योग्य लगेगा, देंगे; नहीं देने योग्य लगेगा, नहीं देंगे। साथ की अनिवार्यता नहीं है। तुम उठे, इसलिए हम साथ देंगे ही, इस भूल में मत पड़ो। साथ हमारा निर्णय होगा--होशपूर्वक।’ और तब तुम एक क्रांति होते देखोगे तुम्हारे भीतर।
इस होश की आग में जो व्यर्थ है, जल जाता है। कुंदन बचता है, कचरा जल जाता है।
‘जो सब संगों का परित्याग करता है, जो महानुभावों की सेवा करता है, और जो ममतारहित है।’
‘महानुभाव’ बड़ा प्यारा शब्द है। महानुभाव का अर्थ है: जिसके भीतर परम भाव का अवतरण हुआ है; सदगुरु; कोई ऐसा व्यक्ति जिसके भीतर परमात्मा अवतरित हुआ है। महानुभाव: जिसके भीतर आत्यंतिक भाव पैदा हुआ है; जो उस भाव-दशा में है जिसको हम भगवत्ता कहें। ऐसे व्यक्ति के पास होना। कोई बुद्ध मिल जाए, कोई महावीर, कोई कबीर, कोई नानक, कोई जीसस, कोई मोहम्मद, तो महानुभाव की सेवा करना।
सेवा का कुल इतना अर्थ है कि सत्संग करना। ऐसे व्यक्ति की छाया में बैठना। जैसे थका-हारा पथिक, धूप से बचने के लिए वृक्ष की छाया के तले बैठ जाता है और शीतल विश्राम पाता है--ऐसे ही किसी महानुभाव की छाया में बैठना। संसार से थका हुआ, हारा हुआ, विचलित व्यक्तित्व, किसी महानुभाव की छाया में औषधि को उपलब्ध हो जाता है। जो स्वयं एक हो गया है, उसकी निकटता में तुम भी एक होने लगते हो। जो स्वयं एक हो गया है, उसके पास बैठ कर, उसका सत्य संक्रामक होने लगता है।
ध्यान रखना, बीम
ारी ही नहीं लगती, स्वास्थ्य भी लगता है। ध्यान रखना, बुराई ही नहीं तैरती एक से दूसरे में, सत्य भी संक्रमित होता है। सत्य से ज्यादा संक्रामक कुछ भी नहीं है। अगर तुम सत्य के पास रहे तो तुम उसके रंग में रंग ही जाओगे। अगर तुम बगीचे से गुजरे तो तुम्हारे वस्त्र फूलों की थोड़ी न बहुत गंध ले ही लेंगे।
‘...जो महानुभावों की सेवा करता है और जो ममतारहित है।’
दो तरह के संबंध हो सकते हैं। एक तो ममता का संबंध है: मेरा बेटा, मेरी मां, मेरी पत्नी...! यहां संबंध ‘मेरे’ का है। तुम गुरु के साथ ‘मेरे’ का संबंध मत बनाना। अगर तुमने वहां भी ‘मेरे’ का संबंध बनाया, तो तुम चूकोगे। तुम गुरु के हो जाना। तुम भला कहना कि मैं गुरु का; लेकिन ‘मेरा गुरु’ ऐसा मत कहना।
तुम धर्म के साथ ममता का संबंध मत बनाना। यह मत कहना कि ‘मेरा धर्म’--तुम धर्म के हो जाना। लेकिन तुमने ‘मेरा धर्म’ कहा तो तुमने धर्म को भी इस जमीन पर खींच लिया, बहुत नीचे उतार लिया। तुम कीचड़ में घसीट लाए कमल को ।
‘मेरे’ का जहां भी तुमने आधार बनाया, वहीं तुम्हारा मोह, मन, सब वापस लौट आता है। गुरु के साथ तो ‘मेरे’ का संबंध मत बनाना। गुरु के साथ तो आत्मा का संबंध बनाना, मन का नहीं; ममता का नहीं, प्रेम का। और ये बड़ी फर्क की बातें हैं।
प्रेम जानता ही नहीं ‘मैं’ और ‘तू।’ ममता ‘मैं’ और ‘तू’ के बीच चलती है। ममता बड़ी संकीर्ण है। प्रेम विस्तार है--विस्तीर्णता है। अगर तुम ममता से मुक्त हुए और सौभाग्य से तुमने किसी महानुभाव की छाया पा ली, तो तुम्हारी जिंदगी कुछ की कुछ हो जाएगी।
आंसू तो बहुत से हैं, आंखों में ‘जिगर’ लेकिन
बिंध जाए सो मोती है, रह जाए सो दाना है।
तब तुम बिंध जाओगे। प्रेम तुम्हें बींध देगा। तुम मोती हो जाओगे।
आंसू तो बहुत से हैं, आंखों में ‘जिगर’ लेकिन
बिंध जाए सो मोती है, रह जाए सो दाना है।
इस संसार में वे ही केवल मोती बन जाते हैं जो किसी महा प्रेम से बिंध जाएं।
‘जो निर्जन स्थान में निवास करता है, जो लौकिक बंधनों को तोड़ डालता है, जो तीनों गुणों से परे हो जाता है, और जो योगक्षेम का परित्याग कर देता है।’
‘जो निर्जन स्थान में निवास करता है,...।’
व्याख्याएं कहती हैं कि जंगल में निवास करता है। मैं नहीं कहता। क्योंकि निर्जन स्थान एक आत्यंतिक दशा का नाम है--ऐसा भीतर कि वहां कोई भी न हो, बस एकाकी तुम्हारा चैतन्य रह जाए, केवल चैतन्य रह जाए। यह कोई भौगोलिक बात नहीं है कि तुम हिमालय चले जाओ, कि जंगल में चले जाओ। क्योंकि तुम जंगल भी चले जाओगे, तो तुम्हारे मन की भीड़ तो तुम्हारे साथ ही होगी। तुम करोगे क्या जंगल में बैठ कर? तुम कल्पना के जाल रचोगे, सपने देखोगे। तुम जंगल में बैठ कर भी बाजार में ही रहोगे। तुमने बहुत बार मंदिर जाकर देखा है, करते क्या हो मंदिर में? बैठते हो प्रतिमा के सामने--होते वहां नहीं। बैठते हो मंदिर में--होते कहीं और हो।
धर्म के जगत में स्थितियां स्थान की तरह समझ ली गई हैं और बड़ी भूल हो गई है। ‘निर्जन’ स्थिति है, स्थान नहीं; तुम्हारे भीतर की एक अंतर्दशा है, जहां तुम अकेले हो, शुद्ध कुंआरे, जहां तुम किसी से बंधे नहीं, जहां तुम आंख बंद करते हो तो सारा जगत समाप्त हो जाता है--बस तुम ही रह जाते हो; ‘मैं’ का भाव भी नहीं रह जाता, क्योंकि वह भी द्वैत होगा। बस ‘होना’ होता है--निराकार, निर्विकार।
‘जो निर्जन स्थिति में निवास करता है,...।’
स्वभावतः उसके लौकिक बंधन टूट जाते हैं; उसके जीवन में अलौकिक संबंधों का आविर्भाव होता है; वह संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है, मोक्ष के संबंध निर्मित होते हैं। और ध्यान रखना: संसार के संबंध बांधते हैं, मोक्ष के संबंध मुक्त करते हैं; काम बांधता है, प्रेम मुक्त करता है। अगर तुम्हारे प्रेम ने तुम्हें बांधा हो तो समझना कि काम होगा, प्रेम नहीं। प्रेम तो वही जो तुम्हें मुक्त करे। प्रार्थना तो वही जो तुम्हें मुक्त करे।
अगर तुम हिंदू हो गए हो तो बंध गए। यह धार्मिक होने का ढंग नहीं। यह धार्मिक होने की बात ही नहीं। चूक गए। अगर तुम मुसलमान हो गए, बंध गए। तुम धार्मिक हो जाओ, बस काफी है। धार्मिक व्यक्ति न तो हिंदू होता, न मुसलमान होता। धार्मिक व्यक्ति तो उस परम प्रेम में बंधा होता है जो सभी बंधनों को काट जाता है।
इश्क की बरबादियों को रायगां समझा था मैं
बस्तियां निकलीं जिन्हें वीरानियां समझा था मैं।
सोचा था कि प्रेम तो बरबाद कर देता है।
इश्क की बरबादियों को रायगां समझा था मैं
और बरबाद हो जाना तो व्यर्थ हो जाना है।
बस्तियां निकलीं जिन्हें वीरानियां समझा था मैं।
लेकिन बात कुछ और ही निकली। जहां मैंने समझा था वीरानियां होंगी, मरुस्थल होंगे, कुछ भी न बचेगा--वहीं मैंने पाया कि सब-कुछ पा लिया।
तुम्हारे एकांत मैं ही ‘सर्व’ का साक्षात्कार होता है। तुम्हारे प्रेम की आत्यंतिक घड़ी में ही, तुम पाते हो सब पा लिया; यद्यपि पहले ऐसा ही लगता है सब छोड़ रहे हैं, सब त्याग रहे हैं।
मैं तुमसे कहता हूं: त्याग परम भोग का मार्ग है। उपनिषद कहते हैं: ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। उन्होंने ही भोगा जिन्होंने त्यागा। या उन्होंने ही त्यागा जिन्होंने भोगा।’ यह वचन बड़ा अदभुत है। इसके दोनों अर्थ हो सकते हैं, और दोनों सही हैं। क्योंकि भोग तुम्हारे लिए है ही नहीं; तुम सिर्फ भोग की सोचते हो, करते कहां हो! भोग तो सिर्फ उनके लिए है जो वर्तमान में जीते हैं। जिन्होंने मन को छोड़ा, वासना को छोड़ा, जो अपने भीतर लौटे, जिन्होंने अपने से संबंध जोड़ा, उनके जीवन में परम भोग के स्वर उठते हैं।
बस्तियां निकलीं जिन्हें वीरानियां समझा था मैं।
‘जो कर्मफल का त्याग करता है, कर्मों का भी त्याग करता है, और तब सब-कुछ त्याग कर निर्द्वंद्व हो जाता है।’
...तीनों गुणों को छोड़ता, योगक्षेम को छोड़ता, कर्मफल का त्याग करता है, कर्मों का त्याग करता, और सब-कुछ त्याग कर निर्द्वंद्व हो जाता है। यह भक्त की परिभाषा हो रही है। एक-एक चीज को खयाल में लें।
...तीनों गुणों से परे हो जाता है: तमस, रजस, सत्व। परम भक्त न तो तामसी होता--हो ही नहीं सकता, क्योंकि तामस तो तुम जितने मन से दबे होते हो उतना ही होता है। तामस तो मन का अंधकार है, विचारों की भीड़ है, वासनाओं का ऊहापोह है।
भक्ति को उपलब्ध व्यक्ति राजस भी नहीं होता। उसके भीतर करने की कोई उद्दाम वासना नहीं होती। वह किसी त्वरा, ज्वर, दौड़ में नहीं होता। उसे कुछ सिद्ध नहीं करना है। उसे कुछ अहंकार के शिखर उपलब्ध नहीं करने हैं। उसे राजधानियां जीतनी नहीं हैं। उसे सिकंदर नहीं होना है। वह तो जो ‘होना’ है, है ही, इसलिए जाना कहां, दौड़ना क्यों? पहुंचने की उसके लिए कोई मंजिल नहीं है। वह अपनी मंजिल पर है।
यह तो हम समझ लेते हैं कि भक्त तामसी नहीं होता, राजसी नहीं होता; लेकिन नारद का यह अदभुत सूत्र कहता है कि भक्त सात्विक भी नहीं होता है। क्योंकि साधुता भी, असाधुता के विपरीत है। कहना परमात्मा को कि वह साधु है, ठीक न होगा; क्योंकि वह साधु असाधु दोनों से परे होना चाहिए। यह कहना कि परमात्मा को साधु ही पा सकेंगे, गलत होगा; क्योंकि फिर असाधुओं का क्या होगा? यह कहना कि साधुओं में ही परमात्मा है, नितांत गलत है; क्योंकि असाधुओं में भी तो वही है। परमात्मा का अर्थ हुआ तब: सर्वातीत, ट्रांसेंडेंटल, जो सभी के पार है।
भक्त भगवान है, क्योंकि भक्त भगवान की ओर अग्रसर है। भक्त भगवान है, क्योंकि भक्त भगवान होने की तरफ प्रतिक्षण रूपांतरित हो रहा है। भक्त भगवान में बदल रहा है। उसकी हर प्रार्थना उसे भगवान बना रही है। उसकी हर पूजा उसे भगवान बना रही है। भक्त और भगवान के बीच का फासला कम होता जा रहा है प्रतिपल; जल्दी ही छलांग लग जाएगी; जल्दी ही भगवान में भक्त होगा, भक्त में भगवान होंगे; द्वैत गिर जाएगा।
इसलिए सूत्र कहता है: ‘तीनों गुणों से परे हो जाता है जो, योगक्षेम का परित्याग कर देता है।’
न उसे अब कुछ लाभ है, न कुछ हानि है।
‘जो कर्मफल का त्याग करता है,...।’
क्योंकि जो अब अनुभव करता है कि फल तो भविष्य में होते हैं, और भविष्य मन के बिना नहीं हो सकता; फल तो कल होगा, और कल बिना मन के नहीं हो सकता। और जिसने मन से ही संग साथ छोड़ दिया, वह कर्मफल की क्या चिंता करे? लाभ तो कल होगा, हानि भी कल होगी। अभी तो न लाभ है, न हानि है। अभी तो बस वही है, जो है।
जो कर्मफल का त्याग करता, स्वभावतः कर्मों का भी त्याग हो जाता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह कर्म नहीं करता। नहीं, वह ‘करने वाला’ नहीं रह जाता--परमात्मा करता है अब! अब वह बांसुरी की तरह हो जाता है। गीत गाए परमात्मा तो गीत पैदा होता है, न गाए तो बांस की पोंगरी। गाए तो बांसुरी, न गाए तो बांस की पोंगरी।
बांस की पोंगरी खुद नहीं गाती, सिर्फ माध्यम है। भक्त जानता है कि मैं सिर्फ माध्यम हूं, उपकरण हूं! उसका साधन मात्र!
‘और तब सब-कुछ त्याग कर निर्द्वंद्व हो जाता है।’
और तब कोई द्वंद्व नहीं रह जाता। जब कुछ पाने को न रहा, तो कुछ खोने को भी न रहा। जब कहीं जाने को न रहा, तो कुछ करने को भी न रहा। सब छोड़ कर... यही समर्पण है भक्त का। वह उस परम गहराई को उपलब्ध हो जाता है जहां कोई द्वंद्व नहीं।
एक गीत मैं पढ़ता था:
शंख-सीप तो तट पर, लेकिन
मोती पारावार में
यहां-वहां का करती रहती
भीड़ निरर्थक शोर रे
सांस रोक कर तल तक पहंचे
कोई गोताखोर रे
कमठ केंकड़ा यहां, सुनहरी
मछली नीर अपार में
जो बंसी लटकाए बैठे
खोते संध्या भोर रे
तरी लिए जो उन तक पहुंचे
वह मछुआ तो और रे
काई कर्दम यहां, मनोहर
नील कमल मझधार में।
गहरे और गहरे...। किनारे पर ही बैठ कर बंसी लटकाए समय को व्यर्थ मत गंवाओ।
शंख-सीप तो तट पर, लेकिन
मोती परावार में
‘जो वेदों का भी भलीभांति परित्याग कर देता है।’
चौंकोगे तुम: ‘वेदों का!’ कोई आर्यसमाजी मौजूद होगा तो बहुत नाराज हो जाएगा: ‘वेदों का!’ लेकिन भक्त का लक्षण यही है।
‘जो वेदों का भी भलीभांति’--ऐसा वैसा नहीं--‘भलीभांति’, बिलकुल, सर्वथा, त्याग कर देता है, और जो अखंड असीम भगवदप्रेम को प्राप्त कर लेता है।
वेद भी खिलौने हैं बुद्धि के। शास्त्र भी समझा लेना है; सांत्वना है; सत्य नहीं। और भक्त तो ज्ञान की तलाश नहीं कर रहा है। भक्त तो प्रेम की तलाश कर रहा है। वेदों से मिल जाए ज्ञान, सूचनाएं; प्रेम कहां मिलेगा? शास्त्रों में कहीं प्रेम है? जल के संबंध में तुम कितना ही समझ लो, उससे कुछ प्यास तो न बुझेगी। सरोवर चाहिए।
भक्त जल के संबंध में शास्त्रों से तृप्त नहीं होता; वह कहता है, ‘प्यासा हूं, सरोवर चाहिए।’
इल्म के जहल से बेहतर है कहीं जहल का इल्म
मेरे दिल ने ये दिया दर्से-बसीरत मुझको।
ज्ञान की मूढ़ता की बजाय, मूढ़ता का ज्ञान बेहतर है, यह परम ज्ञान मेरे दिलने मुझे दिया।
इल्म के जहल से बेहतर है कहीं जहल का इल्म
ज्ञान की मूढ़ता की बजाय, मूढ़ता का ज्ञान बेहतर है।
मेरे दिल ने ये दिया दर्से-बसीरत मुझको।
यह परम ज्ञान मैंने अपने ही भीतर पाया।
वेद या कुरान या बाइबिल, कोई भी शास्त्र--वेद यानी सारे शास्त्र--शब्दजाल हैं। उनसे तृप्त मत हो जाना। उनसे जो तृप्त हुआ, वह मूढ़ है। वह कितना ही ज्ञानी हो जाए, उसकी मूढ़ता नहीं मिटती; उसकी मूढ़ता भीतर रहती है, पांडित्य का बाहर से आवरण हो जाता है।
‘वेदों का जो भलीभांति त्याग कर देता है और जो अखंड असीम भगवदप्रेम प्राप्त कर लेता है।’
जोर है प्रेम पर, ज्ञान पर नहीं। जान कर क्या होगा? जानने में तो दूरी बनी रहती है। भक्त कहता है, भगवान को जानना नहीं है, भगवान होना है। जानने से क्या होगा? भगवान को पीना है। भगवान को उतारना है अपने में। भगवान में उतर जाना है। दूरी मिटानी है। शास्त्र तो बीच में दीवालें बन जाते हैं। जितना ज्यादा तुम जानने लगते हो उतना ही अहंकार प्रगाढ़ होता है। और अहंकार तो बाधा है प्रेम में; उसे तो छोड़ना होगा। धन का अहंकार ही नहीं, ज्ञान का अहंकार भी छोड़ना होगा। जानने वाले को मिटा ही देना है। कोई भीतर ‘मैं’ भाव ही न रह जाए। तुम एक शून्य हो जाओ। उसी शून्य में प्रेम के कमल खिलते हैं--शून्य की झील पर प्रेम के कमल! और कोई झील नहीं है जहां प्रेम के कमल खिलते हों। तुम मिट जाओ कीचड़ में, तो ही कमल खिलते हैं। तुम्हारी कीचड़ से ही कमल उठते हैं।
‘जो वेदों को भलीभांति परित्याग कर देता है और जो अखंड असीम भगवदप्रेम को प्राप्त कर लेता है, वह तरता है। वह तरता है, यही नहीं, वह लोगों को भी तार लेता है।’ वह एक नाव बन जाता है। खुद तो तरता ही है, लेकिन इतना ही नहीं कि खुद तरता है, औरों को भी तार देता है, तारण तरण हो जाता है; तारता भी, तरता भी! उसके सहारे न मालूम कितने लोग तर जाते हैं।
जिसके जीवन में प्रेम का फूल खिला, वह न मालूम कितने भौरों को आकर्षित कर लेता है। जिसके जीवन में प्रेम का गीत उठा, न मालूम कितने कंठों में गुनगुनाहट शुरू हो जाती है।
घटे अगर तो बस एक मुश्ते-खाक है इन्सां
बढ़े तो बुसअते कौनेन में समा न सके।
घटे तो आदमी है क्या? एक मुट्ठी भर राख!
घटे अगर तो बस एक मुश्ते-खाक है इन्सा
बढ़े तो बुसअते कौनेन में समा न सके।
और अगर बढ़े तो सारे लोग भी छोटे पड़ जाते हैं, समा न सके। दोनों लोक भी छोटे पड़ जाते हैं। आदमी छोटे से छोटा भी हो सकता है। मन उसे संकीर्ण से संकीर्ण कर देता है। आदमी विराट से विराट भी हो सकता है--मन की दीवाल भर टूट जाए, मन का कारागृह न हो।
घटे अगर तो बस एक मुश्ते-खाक है इन्सां
बढ़े तो बुसअते कौनेन में समा न सके।
मन कारागृह है; ध्यान मुक्ति है। काम कारागृह है; प्रेम मुक्ति है। वेद, शास्त्र कारागृह हैं; भक्ति मुक्ति है।
आज इतना ही।