NARAD
Bhakti-Sutra (भक्ति-सूत्र) 02
Second Discourse from the series of 20 discourses - Bhakti-Sutra (भक्ति-सूत्र) by Osho. These discourses were given during JAN 11-20 1976, MAR 11-22 1976.
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पहला प्रश्न:
भगवान, ‘अथातो’--‘अब’ का मोड़-बिंदु हम सामान्य सांसारिकजनों के जीवन में कब आ पाता है? कृपा कर समझाएं।
पहली बात कि सामान्य कोई भी नहीं है। यदि तुम सामान्य होते तो फिर ‘अथातो’ का बिंदु कभी भी न आ पाता।
सामान्य कोई भी नहीं है, क्योंकि परमात्मा छिपा बैठा है। और परमात्मा से ज्यादा असामान्य क्या होगा?
असाधारण हो तुम। तुमने समझा होगा, कंकड़-पत्थर हो। और कंकड़-पत्थर तुम नहीं हो। कंकड़-पत्थर हैं ही नहीं अस्तित्व में। अस्तित्व केवल हीरों से बना है।
इसलिए पहली तो इस भ्रांति को अपने मन में जगह मत देना कि तुम सामान्य हो। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अहंकार को आरोपित करना। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अपने को दूसरों से असामान्य समझना। मैं यह कह रहा हूं कि असामान्य होना जगत का स्वभाव है। तुम असामान्य हो, ऐसा नहीं; यहां सभी कुछ असामान्य है। यहां सामान्य होने की सुविधा ही नहीं है।
और इस विरोधाभास को ठीक से समझना--क्योंकि तुमने अपने को सामान्य समझ रखा है, इसलिए तुम असामान्य होने की बड़ी चेष्टा करते हो--धन से, पद से, प्रतिष्ठा से।
अहंकार की खोज ही यही है कि मान तो लिया है तुमने कि तुम सामान्य हो--और सामान्य होने में पीड़ा होती है, चुभता है कांटा, मन राजी नहीं होता--तो तुम असामान्य होने का ढोंग करते हो; जब कि मजा यह है कि तुम असामान्य हो, इसके ढोंग की कोई भी जरूरत नहीं। इसलिए जिन्होंने यह जान लिया कि असामान्य हैं, वे तो अहंकार को छोड़ ही देते हैं तत्क्षण। अब जरूरत ही न रही।
ऐसा समझो कि हीरा है, और हीरे ने समझ रखा है कि कंकड़-पत्थर है। कंकड़-पत्थर समझ रखा है, इसलिए अपने को सजाता है कि हीरा दिखाई पड़े। कंकड़-पत्थर होने को कौन राजी है। तो हीरा अपने को कंकड़-पत्थर मान कर सजाता है, रंग-रोगन करता है कि कोई जान न ले कि मैं कंकड़-पत्थर हूं। लेकिन जिस दिन यह पहचान पाएगा कि मैं हीरा था ही, उसी दिन कंकड़ होने की भ्रांति भी मिट जाएगी और स्वयं को सजाने की आकांक्षा भी मिट जाएगी। वह कंकड़-पत्थर की भ्रांति की ही छाया थी। उस दिन विनम्रता का जन्म होता है।
जिस दिन तुम जानते हो कि तुम असामान्य हो, उसी दिन असामान्य होने की दौड़ मिट जाती है; जिस दिन तुम जान लेते हो कि तुम असाधारण हो... क्योंकि अन्यथा होने का उपाय नहीं।
परमात्मा के हस्ताक्षर हैं तुम पर।
रोएं-रोएं पर उसका गीत लिखा है।
रोएं-रोएं पर उसके हाथों के चिह्न हैं।
क्योंकि उसने ही तुम्हें बनाया है।
वही तुम्हारी धड़कनों में है।
वही तुम्हारी श्वास में है।
सामान्य तुम नहीं हो। अगर सामान्य होते तो धर्म का फिर कोई उपाय नहीं। फिर ‘अथातो’ का बिंदु कभी आएगा ही नहीं। अगर तुम सामान्य ही होते तो कैसे परमात्मा की ज्योति तुममें प्रज्वलित होगी? तब कैसे तुम जागोगे और कैसे तुम बुद्ध बनोगे? असंभव है फिर।
नहीं, तुम बन पाते हो बुद्ध, तुम जागते हो, तुम समाधिस्थ हो पाते हो--क्योंकि वह तुम्हारा स्वभाव है। जब तुम नहीं जानते थे तब भी तुम वही थे। जानने भर का फर्क पड़ता है; अस्तित्व तो सदा एकरस है। कोई जान लेता है, कोई बिना जाने जीए जाता है। ज्ञान और अज्ञान का ही भेद है। अस्तित्व में जरा भी भेद नहीं है। तुममें और बुद्ध में रत्ती भर भेद नहीं है। जहां तक अस्तित्व का संबंध है। लेकिन बुद्ध ने लौट कर अपने को देख लिया, तुमने लौट कर अपने को नहीं देखा। तुम भिखारी बने हो, बुद्ध सम्राट हो गए हैं।
जिसने अपने को लौट कर देख लिया, वह सम्राट हो गया। सम्राट तो सभी थे; कुछ को याद आ गई; खबर आ गई, सुराग मिल गया; कुछ को खबर ही न मिली; कुछ भिखारी ही बने हुए सम्राट बनने की चेष्टा में लगे रहे।
तुम जो बनने की चेष्टा कर रहे हो, वह तुम हो। यही तो संदेश है सारे धर्म का।
तुम जिसे खोज रहे हो उसे तुमने कभी खोया नहीं, केवल विस्मरण किया है।
इस पूरे अस्तित्व में मैंने अब तक कोई ऐसी चीज नहीं देखी जो सामान्य हो। घास का पत्ता भी उसी के रंगों से लबालब भरा है। कंकड़-पत्थरों में भी वही सोया है। जागने वालों में वही जागता है, सोने वालों में वही सोता है। बुद्धिमानों में वही बुद्धिमान है। अज्ञानियों में वही अज्ञानी है।
इसलिए सामान्य होने का तो कोई उपाय नहीं है। जरा गौर से किसी की भी आंखों में झांकना, या दर्पण के सामने खड़े होकर अपनी ही आंखों में झांकना--और तुम पाओगे कि कोई और झांक रहा है तुम्हारे भीतर से।
तुम तुमसे ज्यादा हो। तुम तुम पर ही समाप्त नहीं। तुम तो केवल सीमा हो तुम्हारे अस्तित्व की। अभी गहरे तुम गए ही नहीं, डुबकी लगाई ही नहीं।
इसलिए पहली बात: सामान्य मानने की भ्रांति में मत पड़ जाना। इसलिए तो उपनिषद कहते हैं: ‘तत्वमसि श्वेतकेतु! तू वही है श्वेतकेतु!’
जिन्होंने जाना, वे घोषणा करते हैं: अहं ब्रह्यास्मि! मैं वही हूं! मैं ब्रह्म हूं!
ये उदघोषणाएं अहंकार की नहीं हैं। ये उदघोषणाएं स्वभाव की हैं। ऐसा है। ऐसा तथ्य है। इसे झुठलाने का कोई उपाय नहीं है। इसे तुम कितना ही भुलाओ, एक न एक दिन तुम्हें लौट कर अपने घर आ ही जाना पड़ेगा।
तो, यह तो पहली बात, सामान्य मत मान लेना। क्योंकि जो तुम मान लिए कि सामान्य हो तो खोज बंद हो गई। तुमने स्वीकार कर लिया कि तुम मात्र मनुष्य हो, कुछ और ज्यादा नहीं, तो और ज्यादा होने का द्वार बंद हो गया, संभावना अवरुद्ध हो गई।
गंगोत्री पर गंगा कितनी दीन-हीन है। कितनी क्षीणकाय है! बस जरा सी धार है। गोमुख से गिर जाती है। अगर गंगा गंगोत्री पर ही अपने को मान ले कि बस, यही हूं, तो कभी की सूख जाएगी, कभी की खो जाएगी किन्हीं भी रेगिस्तानों में। लेकिन गंगोत्री पर जो छोटी सी गंगा है, बढ़ती जाती है, बड़ी होती जाती है, सागर से मिलती है तो सागर हो जाती है।
तुम अभी गंगोत्री पर हो सकते हो, लेकिन हो गंगा ही। सागर अभी दूर है... ऐसा तुम्हारी नासमझी में दिखाई पड़ता है। और जब मैं तुममें झांकता हूं तो तुम्हारे भविष्य को भी तुम्हारे पीछे ही खड़ा हुआ पाता हूं। जब मैं तुममें झांकता हूं तो तुम्हारे बीज में मैं उन फूलों को खिलते हुए देखता हूं जिनको तुम कभी खिलते हुए देखोगे।
मेरे लिए तुम परमात्मा हो, उससे कम कोई भी नहीं। उससे कम कोई हो नहीं ही सकता। इसलिए सामान्य की भ्रांति में मत पड़ जाना।
दूसरी बात: ‘अथातो’ का बिंदु, ‘अब’ का क्रांति-बिंदु तभी आता है जब तुम जीवन के दुख और पीड़ा को सजग होकर भोगने लगते हो।
अभी भी तुमने बहुत पीड़ा भोगी है, लेकिन सोए-सोए। पीड़ा तो भोगी है, लेकिन इस आशा में कि शायद सुख मिल जाएगा, शायद सुख आता ही होगा! आज दुखी हो, कोई चिंता नहीं! किसी तरह बिता लो आज को, बस जरा सी समय की बात है, कल सब ठीक हो जाएगा! थोड़ी ही देर की पीड़ा है, कल सब ठीक हो जाएगा--ऐसी आशा में तुम जीए हो। उसी आशा में छिप कर तुम्हारी पीड़ा का दर्शन तुम्हें नहीं हो पाया। तुमने उसे ओट में छिपा रखा है।
इन परदों को हटाओ।
न कोई कल है, न कोई कल कभी आएगा--बस, आज है, अभी और यहीं! कल के लिए मत बैठे रहो।
यह ‘कल’ आज को भुलाने की तरकीब है।
फिर ‘कल’ के बहुत रूप हैं।
धन इकट्ठा करने वाला अभी तो जीवन को गंवाता है, सोचता है: कल जब धन इकट्ठा हो जाएगा तब भोग लूंगा सारे सुख।
यश की आकांक्षा में दौड़ने वाला सोचता है: अभी कैसे? अभी तो दांव पर लगाना है सब।
जब यश मिल जाएगा, भोग लूंगा।
वह यश कभी नहीं मिलता। कोई सिकंदर कभी जीत नहीं पाता। यश की दौड़ अधूरी रह जाती है। धन कभी इतना नहीं हो पाता कि तुम्हारी गरीबी को मिटा दे। इतना हो ही नहीं पाता। ऐसा कभी हो ही नहीं सकता कि धन इतना हो जाए कि तुम्हारी गरीबी मिट जाए। क्योंकि गरीबी एक दृष्टिकोण है; धन से उसके मिटने न मिटने का कोई सवाल नहीं, कोई संबंध नहीं। जितना धन होगा, उतने ही तुम आगे की आकांक्षा, आशा से भर जाओगे।
तुम्हारी आशा सदा छलांग लगाती है--तुमसे आगे। वह हमेशा कल पर खड़ी रहती है। तुम यहां, तुम्हारी आशा सदा कल है। लाख होता है तो दस लाख मांगती है। दस लाख होते हैं तो करोड़ मांगती है। करोड़ होते हैं तो दस करोड़ मांगती है। वह सदा तुमसे आगे छलांग लगा लेती है। तुम उसे कभी भी न पकड़ पाओगे। उसे पकड़ने का कोई उपाय नहीं। लेकिन तुम आज को गंवा दोगे। अभिलाषा को तो कभी तुम पूरा न कर पाओगे, लेकिन आज को गंवा दोगे, जो कि अस्तित्व का सार है।
पीड़ा है तो पीड़ा को देखो। पीड़ा को भोगो, कल से झुठलाओ मत। समझाओ मत। कल के नाम की शामक दवाएं लेकर सो जाओ मत। आज को जागो! पीड़ा है तो पीड़ा सही। भोगो उसे। कांटा है तो चुभने दो। क्योंकि वही चुभन तुम्हें जगाएगी। उसी पीड़ा से तुम उठोगे। उसी पीड़ा में तुम देखोगे कि तुम्हारा जीवन कुछ गलत ढांचे पर दौड़ता है। अब तक तुमने जो भी किया है, कहीं बुनियादी भूल हो गई है। तुमने अब तक जो भी किया है, परमात्मा को छोड़ कर किया है, बाद देकर किया है। अब तक तुमने जो भी किया है, उसमें परमात्मा की कोई जगह नहीं है।
कहते हैं, गैलीलियो ने सृष्टि-शास्त्र पर एक किताब लिखी, और अपने एक मित्र को दिखाने ले गया। मित्र आस्तिक था। उसने पूरी किताब देख ली, उसमें ईश्वर का कहीं उल्लेख ही न था। सृष्टि-शास्त्र और स्रष्टा का कोई उल्लेख न था! वैज्ञानिक करते ही नहीं उल्लेख। उसकी कोई जरूरत नहीं मालूम होती।
मित्र ने पूछा: और सब ठीक है, व्यवस्थित है, तर्कबद्ध है, समझ में आता है; लेकिन जरा खाली जगह मालूम पड़ती है। ईश्वर का कोई उल्लेख ही नहीं, एक बार भी नहीं! इनकार करने के लिए भी नहीं कि कह देते कि ईश्वर नहीं है। इतना भी नहीं। ईश्वर के बिना सृष्टि थोड़ी अधूरी मालूम पड़ती है।
गैलीलियो ने कहा: नहीं, उसकी कोई जरूरत ही नहीं। क्योंकि उसके बिना ही मैं सब समझा दिया हूं। उस हाइपोथीसिस की, ईश्वर की परिकल्पना का मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। कोई चीज पूछ लो मुझसे, अगर अनसमझाई रह गई हो।
गैलीलियो ने जैसे सृष्टि-शास्त्र की रचना की, ऐसे ही तुमने अपने जीवन को बनाया है, उसमें ईश्वर के लिए कोई जगह नहीं। उसी खाली जगह में पीड़ा का जन्म होता है। परमात्मा का जो मंदिर है, अगर खाली रहा तो वहीं से पीड़ा का आविर्भाव होता है।
इसे थोड़ा समझने की कोशिश करना।
पीड़ा तब तक रहेगी जब तक तुम्हारे जीवन में परमात्मा की ज्योति जलती नहीं। पीड़ा परमात्मा का अभाव है। जहां परमात्मा होना चाहिए और नहीं है, वहीं पीड़ा है।
तो कब तुम्हारे जीवन में ‘अथातो’ की क्रांति आएगी? कब तुम कहोगे, ‘अब भक्ति की खोज...?’
तुम कहोगे तभी जब तुम पाओगे कि तुमने अब तक जीवन की जो सार-संपदा समझी थी, वह सिवाय पीड़ा के निचोड़ के और कुछ भी नहीं। जिसे तुमने प्रेम जाना, वह प्रेम न था। जिसे तुमने धन जाना, वह धन न था। जिसे तुमने ‘स्वयं’ जाना, वह ‘स्वयं’ न था। तुम्हारा सारा आधार ही गलत है।
अहंकार को तुमने जाना ‘स्वयं।’ वह तुम न थे। वह पहचान भ्रांत थी। बाहर के धन को तुमने जाना धन, वह धन न था। जो खो जाए वह धन है? मौत जिसे छीन ले वह धन है?
ज्ञानी तुम्हारी संपदा को विपदा कहते हैं, तुम्हारी संपत्ति को विपत्ति कहते हैं।
संपत्ति तो वही है जो मौत भी न छीन पाए। संपत्ति तो वही है जो कोई भी न छीन पाए, जिसकी चोरी न हो सके, जिसे लुटेरे न ले सकें। मौत जिसके सामने हार जाए वही संपत्ति है।
तुमने सुना होगा: मित्र तो वही है जो विपत्ति में काम आ जाए। वह संपत्ति की परिभाषा है। संपत्ति तो वही है जो विपत्ति में काम आ जाए। और मौत से बड़ी विपत्ति कहां है! वहीं कसौटी है। मौत के द्वार से भी जो चली जाए, नाचती हुई, वही संपत्ति है।
जिसे तुमने धन समझा वह धन नहीं है; वह भीतर की निर्धनता को भुलाने का उपाय है।
जिसे तुमने अहंकार समझा वह तुम नहीं हो; वह अपने आप को ढांक लेने की तरकीब है, अपने अज्ञान को झुठला लेने की तरकीब है।
जिसको तुमने पद समझा वह तुम नहीं हो। जिसको तुमने पद समझा वह तुम्हें तृप्ति न देगा; तुम और और अतृप्त होते चले जाओगे। पद तो वही है जहां विश्राम आ जाए। पद का अर्थ ही होता है: जिस पर विश्राम आ जाए; जिस जगह बैठ कर विश्राम आ जाए, राहत मिले; जिस जगह बैठ कर यात्रा समाप्त हो जाए; पैरों को चलने की अब और जरूरत न रह जाए।
जहां पद अनावश्यक हो जाएं वही जगह पद है, वहीं पहुंच गए; अब कोई जरूरत नहीं कहीं जाने की। लेकिन ऐसा कोई पद तुमने बाहर जाना है जहां पहुंच कर जाने की यात्रा समाप्त हो जाए? बाहर ऐसा कोई भी पद नहीं है। सारे संसार को जीतने वाले सम्राट भी आकांक्षा से वैसे ही विह्वल होते हैं जैसे सड़क के किनारे पड़ा हुआ भिखारी। जरा भी भेद नहीं है।
मैंने सुना है, जापान का एक सम्राट रात को घोड़े पर सवार होकर अपनी राजधानी में चक्कर लगाता था रोज। अनेक बार उसने एक फकीर को देखा, अनेक बार! रात के किसी भी पहर में वह गया, उसने उसे सदा जागते हुए देखा, वृक्ष के नीचे कभी खड़ा, कभी बैठा, लेकिन सदा जागा हुआ।
सम्राट की उत्सुकता बढ़ी--सोता क्यों नहीं! पूछा एक दिन, न रुक सका। पूछा कि उत्सुकता है, उचित तो नहीं, क्योंकि तुम्हारा काम है, तुम जागो, सोओ, मेरा क्या लेना-देना; लेकिन रोज यहां से निकलता हूं तो मन में जिज्ञासा घनी होती चली गई है: क्यों जागते हो?
तो उस फकीर ने कहा: कुछ सम्हाल रहा हूं। कुछ मिल गया है, उसकी रक्षा कर रहा हूं।
सम्राट ने चारों तरफ देखा फकीर के, वहां तो कुछ भी नहीं है: एक भिक्षापात्र पड़ा है टूटा-फूटा, कुछ चीथड़े, कपड़े पड़े हैं। फकीर हंसने लगा, उसने कहा, वहां मत देखो, मेरे भीतर देखो। जो मिला है वह भीतर है, वह खो न जाए! जागने में ही उसकी रक्षा है। सोने में उसका खो जाना है। मूर्च्छा में फिर भूल जाऊंगा। होश रखना है!
सम्राट ने कहा: मुझे तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
सम्राट की अपनी भाषा है; जो बाहर है, वही उसकी भाषा है। फकीर की अपनी भाषा है; जो भीतर है, वही उसका जगत है। वे अलग यात्रा पर हैं।
सम्राट ने कहा: तुम किसी संपत्ति की रक्षा कर रहे हो? तो फिर मुझमें और तुममें फर्क क्या है?
फकीर ने कहा: फर्क ज्यादा नहीं है, थोड़ा ही है--फिर भी है। फर्क इतना है कि तुम बाहर से अमीर हो, मैं बाहर से गरीब हूं; मैं भीतर से अमीर हूं, तुम भीतर से गरीब हो। फर्क इतना ही है। मैं भी गरीब हूं, मैं भी अमीर हूं; तुम भी गरीब हो, तुम भी अमीर हो--इसलिए ज्यादा फर्क नहीं कह सकता; लेकिन तुम बाहर से अमीर हो, मैं भीतर से अमीर हूं। मौत बताएगी। मौत ही कसौटी होगी।
अगर तुम जीवन में झांको अपने और बचते न रहो अपने से... जैसा मैं देखता हूं, तुम बचते हो; तुम तरकीबें निकालते हो किसी तरह अपने से बचने की; किसी तरह अपने से मुलाकात न हो जाए। हजार ढंग करते हो: कभी शराब पीते हो, कभी सिनेमा जाते हो, कभी भजन-कीर्तन भी करते हो--मगर अपने को भुलाने को। कहीं भी डूब जाओ, किसी तरह अपनी याद न आए! नहीं तो तुम्हारा भजन-कीर्तन भी झूठा है; वह भी शराब है। भजन-कीर्तन तो तभी सच है, जब वह अपने को याद लाने को आधार बने, जगाए तुम्हें, सुलाए न।
जिस दिन तुम जीवन की पीड़ा को देखोगे, आंख भर कर साक्षात करोगे अपना--और दुख ही दुख पाओगे...।
मेरे पास लोग आते हैं वे कहते हैं कि नरक है? मैं उनसे कहता हूं, हद हो गई! वहीं रहते हो! मुझसे पूछने आते हो?
वे सोचते हैं कि नरक कहीं पृथ्वी के नीचे पाताल में दबा है। किन्हीं पागलों ने सोचा होगा। किन्हीं नासमझों ने कही होगी यह बात तुमसे।
नरक तो जीवन को अंधेरे में जीने का ढंग है। वह तो एक दृष्टिकोण है। वह तो एक शैली है। स्थान से इसका कुछ लेना-देना नहीं है।
स्वर्ग भी जीवन की एक शैली है। वह तुम पर निर्भर है। जाग कर जीओ तो जहां हो वहां स्वर्ग! सोए-सोए जीओ तो जहां हो, वहां नरक।
नींद से पैदा होता है नरक।
जरा विचारो, देखो--और तुम पाओगे, सब तरफ तुम नरक से घिरे हो। और नरक की जरूरत है क्या? इतना नरक काफी नहीं कि तुम और नरक की कल्पनाएं करते हो पाताल में?
जिस दिन तुम्हें जीवन का नरक दिखाई पड़ेगा, उसी दिन ‘अथातो’ का बिंदु आ गया; उसी दिन तुम कहोगे, अब बस हुआ, अब रुकना है; पैर ठिठक जाएंगे।
जैसे ही तुम ठिठकते हो इस संसार की दौड़ में, वैसे ही क्रांति घटित हो जाती है: एक नया आकाश, जिसका कहीं छोर नहीं, जिसका कहीं प्रारंभ और अंत नहीं, तुम्हें उपलब्ध हो जाता है!
अभी तुम जीते हो बड़ी संकीर्ण गली में: रोज संकरी होती जाती है, रोज संकरी होती जाती है; रोज-रोज तुम बंधते जाते हो, रोज-रोज जंजीरें जकड़ती जाती हैं।
तुम्हारा जीवन ऐसा है जैसे तुम अपना ही काराग्रह निर्मित करने में लगे हो। चाहे तुम काराग्रह को घर कहो, मंदिर कहो, तुम्हारे नामों से कोई धोखे में आनेवाला नहीं है। बीमारियों को तुम अच्छे सुंदर नाम दे दो, इससे बीमारियों का दंश जाता नहीं।
जाग कर पहचानो, देखो!
जिस दिन तुम्हें पीड़ा दिख जाएगी, वहीं पैर ठिठक जाएंगे--लौट पड़ोगे तुम!
वह जो लौटना है, उसको महावीर ने प्रतिक्रमण कहा: अपनी तरफ आना! उसको पंतजलि ने प्रत्याहार कहा: अपनी तरफ आना! उसको जीसस ने ‘कनवर्सन’ कहा है: क्रांति, रूपातंरण!
अभी तुम्हारे जीवन का ढंग कामवासना है; जब तुम ठिठक जाओगे, तब तुम्हारे जीवन का ढंग प्रेम होगा; जब तुम लौट पड़ोगे, तब भक्ति। अभी जहां जा रहे हो वहां काम की खोज है, वासना की खोज है।
कामना ही संसार है।
संसार तुमसे कहीं बाहर नहीं है। मंदिर, मस्जिद में छिप कर तुम संसार से न बच सकोगे; हिमालय की गुफाओं में बैठ कर भी तुम संसार से न बच सकोगे--क्योंकि संसार तुम्हारी कामना में है! वहां भी बैठ कर तुम कामना ही करोगे।
लोग परमात्मा के सामने बैठ कर भी मांगे चले जाते हैं। मांग रुकती ही नहीं! मंदिर में खड़े हैं, लेकिन राम के उन्मुख नहीं होते। मूर्ति होगी सामने, लेकिन वहां भी मांगे चले जाते हैं।
एक आदमी मेरे पास आया और उसने कहा कि अब मुझे भरोसा आ गया। लड़के को नौकरी न मिलती थी। परमात्मा से प्रार्थना की और तीन सप्ताह का समय दे दिया कि अगर तीन सप्ताह में मिल गई तो सदा के लिए भरोसा हो जाएगा; अगर न मिली तो बात खत्म; फिर तुम नहीं हो! और उस आदमी ने कहा, मिल गई। अब तो रोज पूजा करता हूं, प्रार्थना भी करता हूं। इसलिए आपके पास आया हूं।
मैंने कहा: संयोग से मिल गई होगी। क्योंकि परमात्मा तुम्हारी धमकी से डर जाए कि तीन सप्ताह बस, तुम्हारा अल्टीमेटम! तो तुम पागल हुए हो! और यह बड़ा खतरनाक विश्वास है जो तुमने पैदा किया है; यह किसी भी दिन टूटेगा।
मैंने कहा: एक बार और कोशिश करो।
उसने कहा: क्या मतलब?
मैंने कहा: एकाध और कोशिश करो। तुम्हारी पत्नी बीमार रहती है...। जब कुंजी ही मिल गई तो पत्नी को भी ठीक कर लो।
उसने कहा: ठीक कहा आपने।
कल ही वह गया। दे आया अल्टीमेटम फिर। तीन सप्ताह बाद आया, बहुत उदास था। उसने कहा: खराब कर दिया आपने सब। कुछ फायदा नहीं हुआ; और खराब तबीयत हो गई। भरोसा डगमगा गया मेरा।
तुम्हारा भरोसा भी तुम्हारी मांग पर ही खड़ा है: परमात्मा कुछ दे तो परमात्मा है! परमात्मा तुम्हारा अनुसरण करे तो परमात्मा है! तुम जो मांगो, पूरा करे तो परमात्मा है! परमात्मा तुम्हारी सेवा में रत रहे तो परमात्मा है! परमात्मा मालिक नहीं है; मालिक तुम हो! और अगर उसे तुम्हारी पूजा-प्रार्थना चाहनी हो तो बदले में सेवा करता रहे तुम्हारी!
तुम्हारी प्रार्थना भी झूठी है; वह भी कामना है; वहां भी संसार ही है।
जब तक तुम बाहर कुछ मांग रहे हो, जब तक तुम सोचते हो बाहर कुछ मिल जाएगा, जिससे तृप्ति होगी, जिससे मन चैन से भर जाएगा, राहत की श्वास आएगी, आनंद के क्षण उठेंगे--अगर बाहर तुम ऐसा मांगते चले जा रहे हो, तो अभी तुम नरक से बाहर नहीं जा सकते।
बाहर जाना नरक में जाना है। बाहर जाती हुई चेतना नरक के बाहर नहीं जा सकती।
ठिठकता है कोई देख कर जीवन की व्यर्थता, जीवन का असार, निष्फलता, हाथ में सिवाय पीड़ा के और कोई संग्रह नहीं, हृदय में सिवाय आंसुओं के और कुछ दिखाई नहीं पड़ता, जीवन बिलकुल अंधकारपूर्ण है, नाव डूबी--अब डूबी, तब डूबी जैसी हालत है--ऐसे क्षण में जब कोई ठिठक जाता है, उस ठिठकने के क्षण में प्रेम का आविर्भाव होता है, कामना गई! अब तुम मांगते नहीं, अब तुम देने को उत्सुक हो जाते हो।
प्रेम देता है, काम मांगता है। जब तक मांग है तब तक समझना, काम; जब देना शुरू हो जाए...। क्योंकि तुम मांगते इसलिए हो कि मांगने से बढ़ेगी संपत्ति और सुख आएगा। ठिठका हुआ व्यक्ति देना शुरू करता है: मांग कर देख लिया़, सुख न आया, दुख आया; अब जरा उलटा करके देख लें। देना शुरू करता है और पाता है कि सुख के हलके झोंके आने लगे; बजने लगी वीणा, कहीं दूर यद्यपि, बहुत दूर यद्यपि--पर बजने लगी, स्वर सुनाई पड़ने लगे, कोई नया लोक शुरू हुआ।
यह तो ठिठके हुए आदमी की बात है। वह देने लगता है, बांटने लगता है--और जैसे-जैसे बांटता है, वैसे-वैसे स्वर साफ होते हैं और तब चौंक कर उसे पता चलता है: ये स्वर मेरे ही भीतर से आते हैं! अब तक सोचा था सुगंध बाहर है; यह मेरे भीतर से आती है! कस्तूरी कुंडल बसै! यह मेरे ही नाफे में बसी है। तब लौटना शुरू होता है। ‘अथातो’ आ गया बिंदु: अब! और तभी तुम नारद के इन भक्ति-सूत्रों को समझ पाओगे। इसके पहले, जो बाहर जा रहा है, उसके लिए ये नहीं है। जो ठिठका है उसके लिए भी ये नहीं हैं। जो लौट पड़ा है, उसके लिए ये हैं। पहली बात।
दूसरी बात: जब तक तुम सोचते हो कि तुम ही अपने सुख को ले आओगे, तब तक ‘अथातो’ का बिंदु नहीं आता। तुम न ला पाओगे अपने सुख को, तुम ही तो सारा दुख ले आए हो। यह तुम्हारे ही उपक्रम का फल है। यह तुम्हारे ही श्रम की निष्पत्ति है। पुरानी भाषा में कहें तो कहते हैं, यह तुम्हारे ही कर्मों का फल है। यह पुरानी भाषा है; बात यही है। यह तुमने ही किया है। यह जो दुख तुम्हें घेरा है, यह तुमने ही आमंत्रण दिया था। ये मेहमान बिन बुलाए नहीं आ गए हैं; यह तुमने निमंत्रण भेजे थे। तुमने बड़ा आग्रह किया था कि आओ। यद्यपि तुमने कुछ और सोच कर बुलाया था। तुम्हारे समझने में भूल थी। बुलाए थे मित्र, आ गए हैं शत्रु। बुलाया था सुख, आ गया है दुख। आग्रह किया था फूलों के लिए, आ गए हैं कांटे--क्योंकि कांटे दूर से फूल जैसे दिखाई पड़ते हैं; क्योंकि शत्रु दूर से मित्र जैसे दिखाई पड़ते हैं।
एक छोटा बच्चा अपने साथियों के साथ यात्रा पर गया था। वहां से उसने पत्र लिखा अपनी मां को कि पहले दिन सब अपरिचित थे, मैं किसी को जानता न था। दूसरे दिन, सभी मित्र हो गए, क्योंकि पहचान हो गई। तीसरे दिन सभी शत्रु हो गए।
यह तीन दिन की कथा पूरी जिंदगी की कथा है। पहले दिन जब तुम देखते हो आंख खोल कर: कोई परिचित नहीं, अनजान जगत है, अपरिचित लोगों से घिरा हुआ है सब, अजनबी और अजनबी! फिर सभी मित्र मालूम होते हैं। फिर शत्रुता शुरू हो जाती है। दूर से जो मित्र मालूम पड़ता है, जैसे-जैसे पास आते हैं वैसे-वैसे शत्रुता शुरू हो जाती है। दूर के ढोल हैं बड़े सुहावने, पास आने पर बिलकुल व्यर्थ हो जाते हैं।
...तुमने ही निमंत्रण दिए थे; हो सकता है किन्हीं पिछले जन्मों में दिए हों, अब तुम बिलकुल भूल ही गए होओ, लेकिन तुमने ही बुलाया था। जो तुम्हारे पास आ गया है वह तुम्हारा कृत्य है। और तुम्हारे कृत्य से यह दुख बढ़ता जाएगा, पर्त-दर-पर्त तुम्हारे चारों तरफ इकट्ठा होता जाएगा। यह तुम्हारे गले को घोंट रहा है।
तुम्हारे किए दुख होता है। जब तुम ठिठकोगे, तब तुम अचानक पाओगे; करने की कोई जरूरत ही नहीं। सब अनकिए, तुम्हारे बिन किए हो रहा है।
प्रेम के क्षण में जीवन स्वस्फूर्त मालूम होता है: सब अपने आप हो रहा है। पैदा होना, जवान होना, बूढ़े हो जाना, जन्म-मौत, सब अपने आप हो रहा है।
लेकिन जब तुम लौटोगे, भक्ति का आयाम शुरू होगा, तब तुम पाओगे कि अपने आप नहीं हो रहा है। तुम करने वाले नहीं हो, अपने आप भी नहीं हो रहा है। जीवन के रोएं-रोएं में छिपा है कोई प्रयोजन। जीवन के कण-कण में छिपी है कोई नियति; कहो, छिपा है कोई परमात्मा! उससे हो रहा है।
कामवासना में लगा आदमी अपने पर भरोसा करता है। प्रेम में खड़े आदमी का अपने पर भरोसा डगमगा जाता है। भक्ति में जाते व्यक्ति का भरोसा अपने से बिलकुल ही शून्य हो जाता है़, परमात्मा पर हो जाता है।
सुना है मैंने, ‘जोश’ की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं:
खुदा को सौंप दो ऐ ‘जोश’ पुश्तारा गुनाहों का
चलोगे अपने सर पर रख के यह बारे-गरां कब तक?
यह भारी बोझ अपने सिर पर रख कर कब तक चलोगे? दे दो परमात्मा को। तुम नाहक ही परेशान हो!
मैंने सुना है, एक आदमी को, उसकी पचहत्तरवीं वर्ष गांठ थी, तो मित्रों ने कहा: कुछ नया अनुभव तुम्हारे लिए...? तो ऐसी कोई चीज तुमने जीवन में न की हो...? उसने कहा: हवाई जहाज में कभी नहीं बैठा। तो उन्होंने कहा: चलो। उसे हवाई जहाज में बिठला कर आधा घंटा शहर का चक्कर लगवाया। आधे घंटे बाद जब वह उतरा, तो जो पायलट उसे उड़ा रहा था, उसने पूछा: आप प्रसन्न तो हैं? परेशान तो नहीं हुए? क्योंकि पहली ही उड़ान थी। उसने कहा: नहीं, परेशान तो नहीं हुआ; पर डर के कारण मैंने अपना पूरा वजन जहाज पर नहीं रखा। डर के मारे अपना पूरा वजन जहाज पर नहीं रखा कि कहीं वजन के कारण कोई उपद्रव न हो जाए।
अब हवाई जहाज में तुम बैठो, वजन पूरा रखो या न रखो, वजन पूरा हवाई जहाज पर है।
सुना हैं मैंने, एक सम्राट अपने रथ से लौटता था, जंगल से महल की तरफ, एक गरीब आदमी को उसने राह पर बड़ा बोझ ढोते हुए देखा। दया आ गई। कहा, आ, बैठ जा तू भी रथ में। कहां तुझे उतरना है, छोड़ देंगे। वह बैठ तो गया रथ में, लेकिन पोटली उसने सिर की सिर पर ही रखे रही। सम्राट ने कहा: पोटली नीचे क्यों नहीं रख देता? उसने कहा: इतनी ही आपकी कृपा क्या कम है कि मुझे बिठा लिया! अब पोटली का वजन भी आप पर छोडूं, नहीं-नहीं, यह मुझसे न होगा।
लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम रथ में बैठ कर पोटली नीचे रखो रथ पर या सिर पर रखो, वजन तो रथ पर ही है।
जो जरा से लौटते हैं अपनी तरफ, उनको पता चलता है कि हम नाहक ही परेशान थे; करने वाला कर रहा था; जो होने वाला था हो रहा था; हम व्यर्थ ही बीच में उछल-कूद कर रहे थे!
तब तुम समझना कि अब तुम्हारे भीतर भक्ति की शुरुआत हुई।
भक्ति की शुरुआत का अर्थ है कि न मैं करने वाला हूं, न मैं कर सकता हूं--मैं हूं ही नहीं, वही है! और तब तुम्हारे मन में उसके प्रति अनन्य प्रेम का जन्म होता है।
तुम्हारा सारा बोझ वही ढो रहा है।
और तब तो भक्त ऐसी घड़ी में आ जाता है कि वह जानता है कि भक्ति भी करने का सवाल नहीं, प्रार्थना भी मेरे किए न होगी। वही प्रार्थना करेगा मुझसे तो होगी। अब तो उसकी तरफ जाना भी मुझसे न होगा; वही चलेगा मेरे पैरों से तो ही पहुंच पाऊंगा।
उठता नहीं है अब तो कदम मुझ गरीब का
मंजिल को कह दो, दौड़ के ले मुझको राह में।
धीरे-धीरे उसे अपनी असहाय अवस्था का बोध होता है कि मैं तो कुछ भी नहीं हूं। अब तो मुझ गरीब का पैर भी नहीं उठता! वही उठाए तो उठता है। और अब भय भी क्या, डर भी क्या! अगर उसे पहुंचाना ही है तो मंजिल खुद ही आकर बीच राह में मुझे ले लेगी।
इसलिए भक्त किनारे को नहीं मांगता। वह तो कहता है: तू अगर मंझधार में भी डुबा दे तो वही किनारा है। उसने अपना सारा बोझ उसी को दे दिया।
कृष्ण ने गीता में अर्जुन को बस इतनी ही बात समझाई है कि तू सारा बोझ परमात्मा पर छोड़ दे। तू आराम से बैठ हवाई जहाज में, नाहक अपने बोझ को मत उठाए रख। रथ में बैठ ही गया है, सिर की पोटली भी नीचे रख दे। निमित्त मात्र हो जा!
दूसरा प्रश्न:
भगवान, कल का एक सूत्र था कि भक्ति उसके प्रति प्रेमरूपा है। कृपया समझाएं कि भक्ति की यात्रा और सदगुरु के बीच कैसा संबंध है।
गुरु का अर्थ है: सोए हुओं में जागा हुआ व्यक्ति; अंधों में आंख वाला। बस इतना ही। तुम्हें जो स्मरण नहीं आ रहा है, उसे स्मरण आ गया है। तुम जिसे पीठ की तरफ छिपाए हो, वह उसके आमने-सामने खड़ा हो गया है। उसने अपनी आंखों में झांक लिया; उसने अपने हृदय में टटोल लिया--और उसने परमात्मा को छिपे वहां पाया है।
गुरु का अर्थ है: जो मिट गया और अब केवल परमात्मा है वहां।
परमात्मा तुम्हारे लिए बड़े दूर का शब्द है। अनंत फासला मालूम होता है। तुम्हारी नींद में और परमात्मा में अनंत फासला मालूम होता है। होगा ही, क्योंकि परमात्मा जागे हुए चैतन्य का अनुभव है। इसलिए तो तुम मानते हो तो भी मान नहीं पाते। कहते हो, मानते हो, फिर भी भीतर संदेह खड़ा रहता है। लाख दबाते हो, छिपाते हो; मगर तुम जानते हो कि कहीं तो संदेह है: ‘परमात्मा हो सकता है।’
मैंने सुना है कि एक आदमी की कार बिगड़ गई थी। चाक एक बाहर आ गया था। और वह बड़ी गालियां बक रहा था, क्रोध में था। और गालियां तुम्हें सीखनी हों तो ड्राइवरों से सीखो, और कोई उतना कुशल नहीं। अकेला था। बीच जंगल में गाड़ी बिगड़ गई है और वह गालियां दे रहा है, दिल भर के गालियां दे रहा है। एक दूसरी कार आकर रुकी। एक पादरी, एक ईसाई पुरोहित उसमें था, वह उतरा। उसने देखा कि इतनी गालियां बक रहा है--और गालियां साधारण नहीं, परमात्मा तक को दे रहा है! तो उसने कहा: रुक भाई, यह उचित नहीं है। परमात्मा पर भरोसा कर। सब हो जाता है।
उस आदमी ने कहा: कैसे सब हो जाता है? क्या यह चाक लग जाएगा जाकर?
पादरी थोड़ा डरा, पर अब लौट भी नहीं सकता था अपनी बात से, तो उसने कहा: क्यों नहीं लग जाएगा? भरोसा हो तो सब हो जाता है।
तो उसने कहा कि तुम ही प्रार्थना करो।
अब पादरी और भी मुश्किल में पड़ा, क्योंकि वह भी जानता है कि परमात्मा है कहां? इतना न सोचा था कि बात आगे बढ़ जाएगी। अब यह आदमी सामने खड़ा है और अब पीछे लौटना भी कायरता मालूम होती है। उसने सोचा कि एक कोशिश करने में क्या हर्ज है; यहां कोई और है भी नहीं इस जंगल में देखने वाला; पराजय भी होगी तो बस इस एक आदमी के सामने। तो उसने प्रार्थना की--और हैरानी की बात: चाक उचका और गाड़ी में लग गया! तो उस पादरी ने आंख खोली, उस चाक को उचकते देखा तो वह चिल्लाया: हे भगवान, क्या तुम सच में हो?
जिंदगी भर लोगों को परमात्मा के संबंध में समझा रहा था, भरोसा नहीं है! धंधा है, व्यवसाय है। तो कोई पूजा का व्यवसाय करता है, कोई परमात्मा का व्यवसाय करता है। भरोसा किसी को नहीं है।
आस्तिक से आस्तिक, जिसको तुम कहते हो, वह भी भीतर संदेह को लिए बैठा है। इसलिए आस्तिक डरता है कि नास्तिक की बात कहीं कान में न पड़ जाए। असली आस्तिक डरेगा? शास्त्रों में लिखा है: नास्तिकों की बात मत सुनना। ये शास्त्र आस्तिकों ने न लिखे होंगे--ये उन्होंने लिखे होंगे जिनके हृदय में संदेह का कीड़ा अभी भी है। अन्यथा डर क्या है? अगर तुम्हारे भीतर आस्था परिपूर्ण है, अगर तुम्हारा संदेह सच में ही समाप्त हो गया है, जल गया है, तो नास्तिक की बात सुनने में भय क्या है? जरूर सुनना। शायद तुम्हारे शांत, मौन श्रवण को अनुभव करके नास्तिक के जीवन में कोई फर्क हो जाए। तुम्हारे जीवन में तो कोई अंतर पड़ने वाला नहीं; शायद तुम्हारे ईश्वर की अनन्य आस्था नास्तिक को भी संक्रामक हो जाए! आ जाने देना पास।
लेकिन आस्तिक डरते हैं, भयभीत होते हैं। डर अपने ही संदेह का है, कोई और तुम्हें डरा नहीं सकता।
तुम भयभीत हो, डरे हुए हो। तुम्हें पता है कि अगर बाहर से कोई संदेह की बात करे तो तुम्हारे भीतर का संदेह, जो सो गया है, जग जाएगा, छिपा है, प्रकट हो जाएगा; बाहर का संदेह तुम्हारे भीतर के संदेह को पुकार दे देगा, प्रतिसंवेदना शुरू हो जाएगी, तुम भीतर कंपने लगोगे।
परमात्मा दूर है बहुत तुम्हारे लिए, नींद में बड़ा दूर है! वस्तुतः दूर नहीं है; तुम्हारी नींद का ही फासला है। परमात्मा के लिए तुम दूर नहीं हो, तुम्हारे लिए परमात्मा दूर है--इसे ध्यान रखना।
जैसे तुम सोए हो, सूरज निकल आया, सूरज की किरणें तुम्हारे ऊपर बरस रही हैं, लेकिन तुम सोए हो: सूरज के लिए तुम दूर नहीं हो, तुम्हारे ऊपर बरस रहा है, तुम्हारे रोएं-रोएं को जगाने की चेष्टा कर रहा है; लेकिन तुम गहरी नींद में हो, तुम्हारे लिए सूरज तो बहुत दूर है, पता ही नहीं कि है भी या नहीं। तुम तो गहन अंधकार में खोए हो।
ऐसी घड़ियों में जब परमात्मा बहुत दूर मालूम पड़ता है, सदगुरु उपयोगी हो सकता है: क्योंकि सदगुरु तुम जैसा है, तुम्हारे पास है, मनुष्य जैसा मनुष्य है, हड्डी-मांस-मज्जा का है--और फिर भी तुमसे कुछ ज्यादा है, और फिर भी तुमने जो नहीं जाना है, उसने जाना है; तुम जो नहीं हुए, वह हो गया है। तुम जो कल होओगे, उसकी वह खबर है। वह तुम्हारा भविष्य है। वह तुम्हारी संभावनाओं का द्वार है।
परमात्मा बहुत दूर है; गुरु बहुत पास है। इसलिए परमात्मा के पास गुरु के बिना शायद ही कभी कोई पहुंच पाता है। गुरु ऐसा झरोखा है जिससे दूर के आकाश को तुम देख पाओगे। झरोखा पास है।
कमरे में तुम बैठे हो, तुमसे मैं आकाश की बातें करूं और आकाश के अनंत सौंदर्य की चर्चा करूं--व्यर्थ है। तुमसे सूरज की किरणों की कहानी कहूं--व्यर्थ है। तुमसे फूलों की वार्ता करूं--व्यर्थ है। लेकिन एक झरोखा खोल दूं, एक खिड़की खोल दूं जो बंद थी--तुम अपनी ही जगह हो, तुममें कोई फर्क नहीं हुआ, तुम उठे भी नहीं अपनी जगह से, तुम अपनी ही कोच पर आराम कर रहे हो, तुमने कुछ भी फर्क न किया--लेकिन एक झरोखा खुल गया, दूर का आकाश अब उतना दूर नहीं! एक कोना आकाश का दिखाई पड़ने लगा--और कोने को जिसने पकड़ लिया, वह पूरे को पकड़ ही लेगा। थोड़ी फूलों की गंध भी भीतर आने लगी। थोड़ी सी किरणें भी आ गईं और नाचने लगीं फर्श पर। तुम वहीं के वहीं बैठे हो, तुममें कोई फर्क नहीं हुआ; लेकिन एक झरोखा तुम्हारे पास खुल गया!
गुरु एक झरोखा है। तुम वही हो, लेकिन गुरु के पास होते ही उस झरोखे से तुम बड़े आकाश को, विराट आकाश को झांक पाओगे।
गुरु जैसे बूंद है, लेकिन बूंद का स्वाद तो वही है जो सागर का है, वैसा ही नमकीन है।
बुद्ध कहा करते थे कि बूंद चख लो एक सागर की, तुमने सारा सागर चख लिया।
गुरु एक बूंद है, लेकिन ऐसी बूंद जिसने पहचान लिया अपने भीतर छिपे सागर को। तुम भी बूंद हो, लेकिन ऐसी बूंद जिसे अपने भीतर छिपे सागर की कोई खबर नहीं। बूंद और बूंद की थोड़ी बात हो सकती है। ऐसे तो गुरु और शिष्य के बीच भी वार्ता बहुत मुश्किल है, तो खोजी और परमात्मा के बीच तो वार्ता असंभव है।
गुरु पर रुकना नहीं है; गुरु से गुजर जाना है। गुरु तो द्वार है; उससे तो पार हो जाना है। इसलिए सदगुरु और गुरु में यही फर्क है।
सदगुरु का अर्थ है: जो तुम्हें परमात्मा की तरफ ले जाए; इतना ही नहीं जो तुम्हें तुमसे मुक्त करे और जो तुम्हें अपने से भी मुक्त करे।
वही गुरु सदगुरु है जो तुम्हें अपने से भी मुक्त होना सिखाए, नहीं तो आखिर में गुरु पकड़ जाएगा। कहीं ऐसा न हो कि कोच से तो तुम उठ आओ और खिड़की के चौखटे को पकड़ लो। तब तुम चूक गए। तो जो तुम्हें अपने को पकड़ाने की चेष्टा में लगा हो उससे सावधान रहना।
गुरु पहले तुमसे तुम्हारा संसार, तुम्हारे गलत दृष्टिकोण छीन लेगा। और जब वे छिन गए, तो आखिरी चीज जो वह छीनेगा, वह स्वयं को तुमसे छीन लेगा, ताकि तुम खुले आकाश में प्रवेश पा जाओ।
और असली सवाल झुकने की कला सीखने का है। गुरु के पास तुम झुकने की कला सीख लोगे। जिस दिन तुम्हें झुकना आ गया, बस सब आ गया। असली सवाल मिटने की कला सीखने का है। गुरु के पास तुम मिटना सीख लोगे। जिस दिन मिटना आ गया, सब आ गया।
कुछ जज्ब-ए-सादिक हो, कुछ इखलासो-इरादत
इससे हमें क्या बहस वह बुत है कि खुदा है।
कुछ जज्ब-ए-सादिक हो,...
कुछ सत्य भावना हो, कुछ प्रेम का आविर्भाव हो--
...कुछ इखलासो-इरादत
कुछ हमारे इरादों में, हमारी भावनाओं में प्रेम के अंकुर का अंकुरण हो--
इससे हमें क्या बहस वह बुत है कि खुदा है।
वह पत्थर की मूर्ति हो कि परमात्मा हो, इससे क्या बहस! थोड़ा प्रेम करना आ जाए, थोड़ा स्वाद लग जाए अनंत का, थोड़ी भावना की पवित्रता आ जाए, थोड़ी झुकने की कला समझ में आ जाए।
बहस नासमझ करते हैं। समझदार समय का उपयोग कर लेते हैं और जीवन की कोई गहराई सीख लेते हैं।
यही फर्क है विद्यार्थी और शिष्य में।
विद्यार्थी बहस में उत्सुक है, शिष्य जीवन को बदलने में। विद्यार्थी कुछ ज्ञान की सूचनाएं इकट्ठी करने चला आया है, शिष्य अस्तित्व को बदलने आया है। विद्यार्थी दांव पर कुछ भी नहीं लगाता है। विद्यार्थी तो सिर्फ स्मृति का निखार कर रहा है। शिष्य जीवन को दांव पर लगाता है; सब-कुछ खोना हो तो भी तैयारी दिखलाता है। क्योंकि जब तक तुम सब खोने को तैयार न हो जाओ तब तक तुम सबको पाने के मालिक न हो सकोगे। जिसने सब खोया उसने सब पाया।
तो गुरु के पास तो बारहखड़ी सीखनी है, अल्फाबेट। परमात्मा का गीत तो अभी कठिन पड़ेगा। तुम्हें अभी बारहखड़ी ही नहीं आती। गुरु के पास अ ब स सीख लेना है--अ ब स परमात्मा का। जब तुम सीख गए, तुम चले अपनी यात्रा पर।
पक्षी के बच्चे पैदा होते हैं, अंडों से बाहर आते हैं। तुमने कभी देखा होगा झाड़ों में लटके घोसलों के किनारों पर बैठे, डरते हैं, आकाश को देखते हैं: बड़ा आकाश है! अभी तक अंडे में ही रहे थे, बड़ी छोटी दुनिया थी, बड़ी सुरक्षित थी, ऊष्ण थी। मां गर्मी देती रहती थी। अब दुनिया बड़ी ठंडी मालूम पड़ती है। वह ऊष्णता मां की गई। किनारे पर बैठते हैं, मां उड़ती है। वह उड़ान उनके भीतर भी किसी सोई हुई, प्रसुप्त आकांक्षा को जन्म देती है। वे भी उड़ना चाहते हैं--कौन नहीं उड़ना चाहता! क्योंकि उड़ने में मुक्ति है, स्वातंत्र्य है। लेकिन डगमगाते हैं, डरते हैं। बैठे हैं घोसले के किनारे। उन्हें अपने पंखों का पता नहीं। हो भी कैसे सकता है? पंखों का पता तो तभी चलता है जब तुम उड़ो। उड़ने के पहले पंखों का पता चल नहीं सकता। उड़ने के बिना कैसे तुम जानोगे कि तुम्हारे पास भी पंख हैं? पैर पता चलते हैं जब तुम चलते हो। आंख पता चलती है जब तुम देखते हो। कान पता चलते हैं जब तुम सुनते हो। पंख पता चलते हैं जब तुम उड़ते हो।
अभी पक्षी उड़ा नहीं, अभी अंडे से बाहर आया है। अभी उसे कैसे पता हो सकता है कि मेरे पास भी पंख हैं। अभी वह डरता है। क्या करता है? क्या चाहता है? चाहता है उड़ना। कोशिश भी करता है, लेकिन पकड़े है जोर से घोसले को कि कहीं इस विराट शून्य में खो न जाए।
मां क्या करती है? एक धक्का देती है। घबड़ाता है पक्षी, घबड़ाहट में पंख खुल जाते हैं। घबड़ा कर लौट आता है वापस एक चक्कर मार कर, लेकिन अब उसे पता हो गया: पंख उसके पास हैं; थोड़ी देर होगी चाहे, कला सीखने में थोड़ा समय लगेगा--लेकिन पंख हैं! एक बड़ा भरोसा आया! एक हिम्मत जगी! एक आत्मविश्वास का जन्म हुआ: तो यह आकाश भी अपना है! दो छोटे पंखों के सहारे पूरा आकाश अपना हो जाता है। बस, दो छोटे पंखों के सहारे सारे आकाश की मालकियत मिल गई! फिर थोड़ी-थोड़ी दूर जाने के प्रयोग करता है--और दूर, और दूर, बड़े वर्तुल बनाता है--और एक दिन फिर दूर आकाश की यात्रा पर निकल जाता है। अब मां को धक्का देने की जरूरत नहीं पड़ती।
गुरु तुम्हें एक धक्का देगा घोसले के बाहर। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। यह तुम भी कर सकते थे। जब तुम कर लोगे तब तुम पाओगे: अरे, यह तो मैं भी कर सकता था! लेकिन यह तुम पाओगे तब जब तुम कर लोगे। इसके पहले, इसके पहले कैसे तुम जानो कि पंख हैं? गुरु तुम्हें दिखा देगा तब तुम्हें लगेगा: अरे, यह तो बिना गुरु के भी हो सकता था!
कृष्णमूर्ति के साथ यही हुआ: धक्का दिया एनीबीसेंट ने, लीडबीटर ने, उनके गुरुओं ने--पंख खुले! कृष्णमूर्ति को समझ आई कि यह तो मुझसे ही हो सकता था। पंख मेरे, पंख खुले तो मेरे: धक्के के बिना भी अगर मैं जरा सी हिम्मत कर लेता तो हो जाता। तब से चालीस-पचास वर्ष बीत गए, वे दूसरों को यही सिखा रहे हैं कि हिम्मत करो, कूद जाओ, पंख तुम्हारे हैं, गुरु की कोई जरूरत नहीं! लेकिन कोई कूदता हुआ मालूम नहीं पड़ता। बात बिलकुल ठीक कहते हैं। बात में जरा भी गलती नहीं है। भूल-चूक कोई खोज नहीं सकता इसमें।
लेकिन कोई चाहिए जो तुम्हें धक्का दे दे। और जब गुरु धक्का देगा तो बहुत बुरा लगेगा। तो पहले गुरु तुम्हें पास बुलाएगा, प्रेम देगा। ताकि तुम आ जाओ और निकट, और निकट, और निकट; फिर एक दिन धक्का देगा। तुम चौंकोगे बहुत: ऐसा प्रेमी आदमी ऐसा दुष्ट कैसे हो गया! लेकिन जरूरी है कि वह धक्का दे तो ही तुम्हारे पंख खुलेंगे।
इसलिए जो परमात्मा को खोजने चले हों सीधे वे थोड़ा सम्हल जाएं, वह सीधी खोज कहीं अहंकार का ही नया करतब न हो, कहीं अहंकार की ही नई ईजाद न हो! फिर ऐसे लोग हो सकता है वहीं बैठे रहें घोसले में, आंख बंद कर लें और खुले आकाश के सपने देखने लगें। वह आसान है।
गुरु को खोजो; परमात्मा की खोज की कोई जरूरत नहीं। गुरु को खोजते ही वह खोज हो जाएगी।
हे फर्ज तुझ पै फकत बंदा-ए-खुदा की तलाश
खुदा की फिक्र न कर, वोह मिला, मिला न मिला।
उसकी बहुत चिंता नहीं है। लेकिन किसी खुदा के बंदे की तलाश कर ले। किसी गुरु को खोज ले। फिर परमात्मा मिला न मिला, तू छोड़ फिकर। मिल ही जाएगा, उसकी बात ही मत उठा। क्योंकि गुरु को खोजने में ही पहला कदम उठ जाता है।
गुरु को खोजने का अर्थ है: अहंकार का समर्पण।
किसी के चरणों में झुकने का अर्थ है: झुकने की कला का पहला अभ्यास।
झुक गए तो खुदा तो मिल ही जाएगा। बस तुम झुके न थे, वहीं अड़चन थी। इसलिए गुरु की बड़ी अनिवार्यता है। जरूरत बिलकुल नहीं है, अनिवार्यता है पूरी। जरूरत बिलकुल नहीं है; ऐसा लगता है कि हो सकता है अपने आप। कहां अड़चन है? पंख तुम्हारे पास हैं, उड़ने की क्षमता तुम्हारे पास है, आकाश मौजूद है--सब मौजूद है फिर गुरु की क्या जरूरत है? अगर कोई तर्क से विचार करे तो गुरु की जरूरत मालूम नहीं होगी। लेकिन तुम में साहस नहीं है, इसलिए गुरु की जरूरत है। वह साहस को कौन पूरा करे? तुम्हें हिम्मत कौन दे? कौन तुम्हें धक्का दे दे?
मेरे गांव में एक बूढ़े सज्जन हैं। उन्होंने करीब-करीब गांव के सभी बच्चों को तैरना सिखाया होगा। वे नदी के प्रेमी हैं। और गांव भर के बच्चे जैसे ही तैरने योग्य हो जाते हैं, नदी पहुंच जाते हैं। और वे सुबह पूरा समय पांच-छह घंटे का, गांव भर के बच्चों को तैरना सिखाने में देते हैं। मुझे भी उन्होंने ही तैरना सिखाया। जब मैं सीख गया, मैंने उनसे कहा: यह भी कोई बात हुई, तुमने सिखाया जरा भी नहीं, सिर्फ मुझे धकाया। उन्होंने कहा: बस वही सिखाना है। वे फेंक देते हैं बच्चे को। बच्चा घबड़ाता है। वे खड़े हैं सामने। दो-तीन फीट दूर फेंक देते हैं गहरे में। बच्चा घबड़ाता है, तड़फड़ाता है, हाथ-पैर फेंकता है। वही तैरने की शुरुआत है। हाथ-पैर फेंकना ही तैरने की शुरुआत है। फिर धीरे-धीरे व्यवस्था आ जाती है। पहले अव्यवस्थित फेंकता है। पहले घबड़ाहट में फेंकता है। फिर वे दौड़ कर उसे बचा लेते हैं। फिर फेंकते हैं। फिर ले आते हैं किनारे पर। फिर फेंकते हैं। कभी मुंह में पानी चला जाता है, कभी नाक में पानी चला जाता है, कभी बड़ी घबड़ाहट होती है। कभी ऐसा लगता है कि यह तो बचना मुश्किल है, मरे! और कुछ नहीं सिखाते वे। दस-पांच दफा फेंकते हैं। हाथ-पैर में गति व्यवस्थित होने लगती है। दो-चार दिन में बच्चा तैरना सीख जाता है। सिखाते कुछ भी नहीं, सिर्फ पानी में तुम अपने से न कूद सकोगे, घबड़ाहट लगेगी, उतनी घबड़ाहट भर छीन लेने की बात है।
परमात्मा उपलब्ध है गुरु के बिना, मगर उपलब्ध हो न सकेगा। जब वह उपलब्ध हो जाएगा तब तुम जानोगे कि हो सकता था। लेकिन वह सदा बाद में।
कोलंबस ने अमरीका खोजा। जब तक नहीं खोजा, तो कोई भरोसा नहीं था किसी को; लोग सोचते थे यह गया, यह लौटने वाला नहीं है। क्योंकि यह सिर्फ कल्पना के आधार पर कि यदि पृथ्वी गोल है... जो कि गैलीलियो और कोपरनिकस ने सिद्ध कर दिया था कि पृथ्वी गोल है, मगर कोई देखा तो नहीं था; देखा तो अभी तक नहीं था। जब पहली दफा अंतरिक्ष-यात्रा शुरू हुई और मनुष्य पृथ्वी के घेरे के बाहर गया तब पहली दफा दिखाई पड़ा कि पृथ्वी गोल है, इसके पहले तो किसी ने देखा न था, यह तो धारणा थी, तर्कसिद्ध थी, हजार प्रमाण थे इसके, लेकिन सब प्रमाण परोक्ष थे। कोलंबस ने कहा कि जब पृथ्वी गोल है तो अगर मैं जाऊं यात्रा पर और करता ही रहूं यात्रा सीधा, सीधा, तो एक दिन वापस इसी जगह लौट आऊंगा। अगर बीच में कुछ हुआ तो मिल गई कोई जगह तो ठीक है, नहीं तो वापस अपने घर आ जाएंगे। गोल अगर पृथ्वी है तो लौट ही आएंगे अपनी जगह, भटकने का कोई सवाल नहीं है।
कोई साथ जाने को राजी न था। बड़ी मुश्किल से सालों की खोज के बाद अस्सी आदमी तैयार हो सके। उनमें कई ऐसे थे, जो मरने को तत्पर थे, जिनको जिंदगी में कोई सार न था। कुछ पागल थे, दीवाने थे, उन्होंने कहा, चलो, कोई हर्जा नहीं; मरेंगे, और क्या होगा! ढंग का कोई एक आदमी तैयार नहीं था। कुछ को सम्राट की आज्ञा हुई थी, इसलिए कुछ सैनिकों को जाना पड़ रहा था, तो वे गए थे।
इन अस्सी आदमियों को लेकर कोलंबस गया। जिसने धन की सहायता दी थी, जिस रानी ने, उसके दरबारियों ने कहा था: यह फिजूल पैसा खराब हो रहा है। ये अस्सी आदमी मरेंगे। ये लाखों रुपये खराब होंगे। पर उस रानी ने कहा: करने दो, एक प्रयोग है देखेंगे।
कोलंबस अमरीका खोज कर लौट आया। दरबार में उसका स्वागत हुआ। तो उन्हीं दरबारियों ने कहा: यह कोई क्या खास बात है, यह कोई भी खोज लेता। अगर पृथ्वी गोल है, कोई भी जाता तो मिल जाता।
कोलंबस की थाली में एक अंडा रखा था। उसने अंडा उठाया और उसने कहा: इसे कोई सीधा खड़ा करके बता दे टेबल पर। कई ने कोशिश की खड़ा करने की; पर अब अंडा कैसे सीधा खड़ा हो? वह गिर-गिर जाए। उन्होंने कहा: यह हो ही नहीं सकता; यह असंभव है।
कोलंबस ने जोर से अंडे को ठोका टेबल पर, नीचे की पर्त सीधी हो गई, अंदर दब गई, अंडा खड़ा हो गया। उन्होंने कहा: अरे, यह तो कोई भी कर देता! कोलंबस ने कहा: लेकिन किसी ने किया नहीं।
करने के बाद तो सभी कुछ आसान हो जाता है। करने के पहले असली सवाल है। उस करने के पहले गुरु की जरूरत है।
अनिवार्यता बिलकुल नहीं, और अनिवार्यता पूरी है। जानोगे, तब पाओगे: हो जाता है बिना गुरु के। लेकिन तब तुम यह भी पाओगे... अगर तुम पीछे लौट कर देखो कि हो नहीं सकता था, तुम हिम्मत ही न जुटा पाते।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, भक्ति साधना भी है और सिद्धि भी। कृपापूर्वक उसके अलग-अलग रूपों को हमें समझाएं।
न, भक्ति के कोई रूप नहीं हैं।
प्रेम के कहीं कोई रूप होते हैं? प्रेम तो बस एक है। उसका स्वाद एक है।
भेद तो बुद्धि से होते हैं; हृदय में भेद नहीं होते। हिंदू की बौद्धिक धारणा अलग, मुसलमान की बौद्धिक धारणा अलग, ईसाई का फलसफा अलग है। वे बुद्धि की बातें हैं। लेकिन जब हिंदू भक्ति से भरता है और जब मुसलमान भक्ति से भरता है और जब ईसाई भक्ति से भरता है, तो उन भक्तियों में भेद नहीं हैं, वे एक हैं।
भक्ति हृदय की बात है। उसका तुम्हारे अंतस्तल से संबंध है, तुम्हारी बुद्धि की बाहरी बातों से नहीं। क्या तुमने सीखा है, उससे संबंध नहीं है; क्या तुम्हारा स्वभाव है, उससे संबंध है। लेकिन यह बात सच है कि भक्ति साधना भी है और सिद्धि भी। वहां पहला कदम ही आखिरी कदम भी है। वहां साधन ही साध्य भी है।
भक्ति का अर्थ है: परम प्रेम। परम प्रेम की साधना करनी है। और जब सिद्धि होगी तब क्या होगा? परम प्रेम उपलब्ध होगा। परम प्रेम को ही साधना है और परम प्रेम को ही पाना है। प्रेम ही वहां मार्ग है और प्रेम ही वहां मंजिल है।
होना भी यही चाहिए। क्योंकि जब तुम भी किसी यात्रा पर जाते हो तो तुम जो पहला कदम उठाते हो मार्ग पर, उस पहले कदम में मंजिल एक कदम करीब आ गई। तो कदम तुमने मार्ग पर ही नहीं उठाया, मंजिल पर भी उठाया। हजार मील की यात्रा तुम पूरी कर लोगे एक-एक कदम उठा-उठा कर। एक-एक कदम मंजिल करीब आती जाती है। एक दिन तुम मंजिल पर पहुंच जाते हो। उसमें कौन सा कदम सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण था? लगेगा: आखिरी कदम, क्योंकि आखिरी कदम ने ही मंजिल पर पहुंचाया। नहीं, जितना आखिरी कदम महत्वपूर्ण है, उतना ही पहला कदम भी था। क्योंकि पहला कदम अगर चूक जाता तो आखिरी तो हो ही न पाता।
तुम पानी को गरम कर रहे हो, निन्यानबे डिग्री तक गर्म करते हो, सौ डिग्री पर भाप बन जाता है। क्या सौवीं डिग्री के कारण भाप बनता है? अगर पहली डिग्री न होती तो सौ डिग्री हो नहीं सकता था, निन्यानबे डिग्री ही रह जाता, भाप नहीं बनता।
पहला कदम आखिरी कदम भी है। मार्ग मंजिल भी है।
मार्ग क्या है भक्त का?
भक्त का मार्ग है: अहोभाव।
अहोभाव को समझना जरूरी है। वही उसकी विधि है।
साधारणतः कामवासना देखती है वह जो तुम्हारे पास नहीं है। कामवासना की दृष्टि अभाव पर रहती है; जो तुम्हारे पास नहीं है, उसी को देखती है। भक्ति उलटी स्थिति है; जो तुम्हारे पास है, उसे देखती है।
जब जो तुम्हारे पास नहीं है, तुम उसको देखते हो, तब तुम सदा पीड़ित रहते हो, क्योंकि इतना कम है, इतना कम है़, इतना कम है! और यह तो कम रहेगा ही। लाख रुपये तुम्हारे पास हैं, वह तुम नहीं देखते; अरबों-खरबों जो तुम्हारे पास नहीं हैं, वह तुम देखते हो। जो पत्नी तुम्हारे पास है, उसे तुम नहीं देखते; सारे संसार की स्त्रियां दिखाई पड़ती हैं।
अगर पति से कोई पूछे ठीक-ठीक कि तू अपनी पत्नी की शक्ल बता सकता है? तो दिक्कत खड़ी हो जाएगी। कौन देखता है अपनी पत्नी को! पड़ोस की पत्नी का सब नाक-नक्शा बता देगा वह। आज उसने कैसी साड़ी पहनी है, यह भी बता देगा। लेकिन अपनी पत्नी...।
‘जो है’ उसे हम देखते ही नहीं; जो नहीं है उसे देखते हैं़, इसलिए पीड़ित रहते हैं। क्योंकि ‘नहीं है’ खलता है, कांटे की तरह चुभता है, अभाव मालूम पड़ता है। दीनता-दरिद्रता मालूम पड़ती है। ‘जो है’ अगर उसे देखें तो अहोभाव पैदा होता है। तो इतना दिया है परमात्मा ने कि तुम सिवाय धन्यवाद के और क्या कर सकोगे! तो अचानक तुम पाते हो कि तुम सम्राट हो गए, भिखारी न रहे!
दिल दिया, दर्द दिया, दर्द में लज्जत दी है
मेरे अल्हाह ने क्या-क्या मुझे दौलत दी है!
और तब दर्द भी सौभाग्य मालूम होने लगता है!
दिल दिया, दर्द दिया, दर्द में लज्जत दी है
पीड़ा में भी एक मिठास है। सुख की तो छोड़ो, दुख में भी एक गहराई है--वह भक्त को दिखाई पड़ती है। स्वर्ग की तो छोड़ो, नरक में भी एक सौंदर्य है--वह भक्त को दिखाई पड़ता है। कामी को तो स्वर्ग में भी स्वर्ग दिखाई नहीं पड़ता; भक्त को नरक में भी स्वर्ग दिखाई पड़ता है।
और तुम्हें जो दिखाई पड़ता है तुम उसी में जीने लगते हो। क्योंकि आदमी जिसको अनुभव करता है, जिसको देखता है, उसी में जीता है।
भक्त भाव में जीता है।
कामी अभाव में जीता है।
दिल दिया, दर्द दिया, दर्द में लज्जत दी है
और तब तो दर्द में भी लज्जत दिखाई पड़ने लगती है।
दर्द में भी एक काव्य है।
दर्द का भी एक रहस्य है।
पीड़ा में भी कुछ अनूठी मिठास है।
पीड़ा का भी काव्य है।
और पीड़ा में भी कुछ जन्मता है, जो बिना पीड़ा के नहीं जन्म सकता।
रंज हो, दर्द हो, वहशत हो, जुनूं हो, कुछ हो
आप जिस हाल से खुश हों, वही हाल अच्छा है।
और भक्त कहता है: जो परमात्मा ने दिया है: ‘रंज हो, दर्द हो, वहशत हो, जुनूं हो, कुछ हो।’ भक्त को जैसे ही यह दिखाई पड़ना शुरू होता है कि कितना दिया है; मेरी कोई पात्रता न थी और इतना दिया है; अपात्र था और जीवन दिया; कमाया कुछ भी न था, इतने अनंत आनंद की क्षमता दी; सौभाग्य दिया कि होऊं, कि मेरे नासापुट श्वास लें, कि मेरी आंखें सूरज की किरणों को देखें, कि मेरा हृदय प्रेम की पुलक को अनुभव करे, कि मेरे कानों पर संगीत का साक्षात्कार हो! कुछ भी न था, शून्य से बनाया मुझे और सब-कुछ दिया!
आप जिस हाल से खुश हों वही हाल अच्छा है।
और तब भक्त अपनी कोई मर्जी नहीं रखता; परमात्मा की मर्जी ही उसकी मर्जी है: वह जहां ले जाए वहीं जाएंगे। वह जो कराए वही करेंगे!
भक्त छोड़ ही देता है सब। भक्त उपकरण-मात्र हो जाता है। परमात्मा ही उससे बहता है। यही साधना है और यही सिद्धि भी है। जिस दिन यह स्थिति परिपूर्ण हो जाएगी...।
कब होती है स्थिति परिपूर्ण? यह सौभाग्य कब पूरा होता है?... जब भक्त की मंजिल आ जाती है। पहले तो साधारण आदमी, जो कामवासना में जीता है, शिकायत करता है; शिकायत ही उसका जीवन है।
तुम लोगों की बातें सुनो, सिवाय शिकायत के उनके जीवन में कुछ भी नहीं है: यह नहीं है, यह ठीक नहीं है; यह गलत हो रहा है, यह गलत हो रहा है; सब गलत हो रहा है! गलत-गलत से वे घिर गए हैं। शिकायत ही शिकायत है।
भक्त की बात सुनो: अहोभाव ही अहोभाव है।
लेकिन जब मंजिल आती है, पहले शिकायत खो जाती है, भक्त अहोभाव से भर जाता है; फिर तो अहोभाव भी खो जाता है। क्योंकि धन्यवाद भी देने का मतलब है कि थोड़ी-बहुत शिकायत शेष रही होगी। नहीं तो धन्यवाद क्यों?
इसे थोड़ा समझें।
धन्यवाद भी हम तभी देते हैं कि अगर इससे अन्यथा होता तो शिकायत होती। धन्यवाद शिकायत का उलटा है।
रूमाल तुम्हारे हाथ से गिर गया, किसी ने उठा कर दे दिया, तुमने कहा, धन्यवाद। इसका मतलब है कि अगर वह उठा कर न देता तो शिकायत होती। तो इसका अर्थ यह हुआ कि धन्यवाद ऊपर आ गया है, शिकायत भीतर चली गई है।
तो भक्त जब तक मार्ग पर है, अहोभाव से भरा रहता है।
शिकायत से बेहतर है अहोभाव, क्योंकि शिकायत में सिर्फ पीड़ा होती है, दुख होता है, दर्द होता है, अंधेरा ही अंधेरा होता है। अहोभाव में सब रोशन हो जाता है, सब खिल जाता है! लेकिन अभी भी कमी है। मंजिल पर आते सब बात ही समाप्त हो जाती है, कुछ कहने को नहीं रह जाता।
जब अहोभाव भी नहीं बचता तब अहोभाव पूरा हो जाता है।
इस तरह मिटना है कि कुछ भी न बचे। शिकायत तो मरे ही, अहोभाव भी मर जाए।
दिल है तो उसी का है, जिगर है तो उसी का है
अपने को राह-ए-इश्क में बरबाद जो कर दे।
दिल है तो उसी का, जिगर है तो उसी का
बस उसी के पास दिल पैदा होगा, उसी के पास जिगर आएगा।
अपने को राह-ए-इश्क में बरबाद जो कर दे।
प्रेम की राह पर जो अपने को पूरा मिटा दे, वही पहली दफा हो पाता है।
भक्ति का अर्थ है: अपने को मिटाने की कला। वह मृत्यु की कला है; अपने को खोने की कला; अपने को डुबाने की कला।
चौथा प्रश्न:
भगवान, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं एक अधपका फल हूं...?
प्रतीत होने का सवाल ही नहीं, होओगे ही! नहीं तो कभी के गिर गए होते। पके फल वृक्षों से थोड़े ही लटके रहे जाते हैं। पके फल तो गिर जाते हैं। गिरना ही सबूत है कि फल पक गया, और कोई सबूत नहीं। पीले हो जाने से कोई पक गया, ऐसा मत समझ लेना--गिर जाने से...।
उपनिषद कहते हैं: ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः।’ उन्होंने ही भोगा, जिन्होंने त्यागा। क्योंकि त्याग से ही पता चलता है कि ठीक से भोगा, समझ गए कि भोग बेकार है। जिस दिन भोग पक जाता है उस दिन त्याग अपने आप हो जाता है। जिस दिन फल पक जाता है उस दिन गिर जाता है।
‘ऐसा प्रतीत होता है...।’
प्रतीत होने की बात ही छोड़ दो; ऐसा जानो कि है, कि मैं एक अधपका फल हूं, निश्चित। इस प्रतीति को सत्य समझो, तो पकने की दौड़ शुरू होगी; तो ‘अथातो’ का क्षण शीघ्र ही पास आ जाएगा।
आदमी जब पक जाता है तभी पूरा आदमी होता है। जिस दिन तुम पूरे आदमी होते तो हो उसी दिन गिर जाते हो। आदमी गिरा कि परमात्मा शुरू हो जाता है। जहां आदमी का अंत वहां परमात्मा की शुरुआत है।
आदमी हैं शुमार से बाहर
कहत है फिर भी आदमियत का!
बहुत आदमी हैं, लेकिन आदमियत कहां? आदमियत की बड़ी कमी है, क्योंकि पके हुए आदमी कहां?
फर्श से ताअर्श मुमकिन है तरक्की ओ उरूज
फिर फरिश्ता भी बना लेंगे तुझे, इन्सां तो बन।
पहले आदमी बन, फिर हम तुझे देवता भी बना लेंगे।
फिर फरिश्ता भी बना लेंगे तुझे, इन्सां तो बन।
पहले पक। फिर देवत्व तो अपने आप आ जाता है। जो आदमी पूरा हुआ कि वहीं से देवत्व की शुरुआत है।
कैसे पकोगे?
बड़ा मुश्किल हो गया है पकना। इसलिए मुश्किल हो गया है कि तुम्हारे सारे संस्कार, सारी शिक्षा, सारा धर्म तुम्हें दमन सिखाते हैं, अनुभव नहीं सिखाते।
ऐसा समझो कि जिन-जिन चीजों की जानकारी से तुम्हें जीवन व्यर्थ मालूम पड़ता है, उनकी जानकारी ही पूरी नहीं होने देते।
बच्चे को हम सिखाते हैं: क्रोध मत कर। सिखाना चाहिए कि क्रोध जितना बन सके कर ले। जब बच्चा क्रोधित हो तो कहना चाहिए: खूब कर ले। क्योंकि अभी तो घर है अपना, फिर बाहर की दुनिया में जाएगा, वहां तुझे लोग क्रोध न करने देंगे, अपने घर में पूरा कर ले। पिता पर, मां पर, कर ले पूरा। क्योंकि दूसरे लोग इतनी कृपा न करेंगे। तू क्रोध को पूरी तरह कर ले, ताकि क्रोध की जलन का तुझे अनुभव हो जाए और क्रोध की व्यर्थता तुझे दिखाई पड़ जाए।
और क्रोध जहर है, और सिवाय हानि के कुछ लाभ नहीं देता।
और क्रोध मूढ़ता है, दूसरे के कसूर के लिए अपने को दंड देना है।
क्रोध अज्ञान है, क्योंकि क्रोध में तू दूसरे के हाथ में खिलौना हो गया है; कोई भी तेरी कुंजी दबा दे सकता है; कोई भी तुझे क्रोधित कर दे सकता है, तो तू दूसरे का गुलाम हो गया, तेरी मालकियत खो गई।
मगर यह तो तब होगा जब क्रोध पूरी तरह अनुभव किया जाए।
मेरी प्रतीति ऐसी है कि अगर तुमने एक बार भी जीवन में क्रोध का पूरा अनुभव कर लिया तो पक गया क्रोध, उसके बाद तुम क्रोध न करोगे। क्रोध की बात ही खत्म हो गई। हाथ जल गया!
दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने लगता है। लेकिन तुम्हें दूध से ही नहीं जलने दिया गया, छाछ को फूंक कर पीने की तो बात बहुत दूर।
तुम्हें सिखाया गया है, कामवासना से बचो, इसलिए तुम कामवासना में पड़े हो और सड़ते हो। मैं तुमसे कहता हूं, बचना मत। कामवासना में पूरे ही उतर जाना। ठीक तलहटी तक उतर जाना, ताकि और जानने को कुछ शेष न रह जाए। उसे इतनी पूर्णता से जान लेना कि रस ही खो जाए। जिस चीज को हम पूरा जान लेते हैं उसमें रस समाप्त हो जाता है। जहां-जहां रस हो तुम्हारा, जानना कि वहां-वहां अधूरा जानना हुआ है, इसलिए अधपकापन है। और ऐसा जीवन पूरा अधपका रह जाता है।
पको!
अनुभव पकाता है।
अनुभव की धूप पकाती है।
अनुभव की पीड़ा पकाती है।
अनुभव की भूल-चूक पकाती है।
भटकाना पकाता है।
राह से उतर जाना पकाता है।
जब तुम पक जाते हो, गिर जाते हो।
उस गिरने में ही--उस गिरने में ही देवत्व का क्षण शुरू होता है।
इसलिए अपने को बचाओ मत; जल्दी करो। जहां-जहां रस हो उसको पूरा-पूरा भोग ही लो। भोगने में आधा-आधा मत करना।
मैं देखता हूं: ऐसा ही होता है। मंदिर में बैठते हो तब दुकान की सोचते हो, क्योंकि दुकान पर कभी पूरे बैठे नहीं! जब दुकान पर बैठते हो तो मंदिर की सोचते हो, क्योंकि मंदिर में कभी पूरे बैठे नहीं। जहां हो वहीं अधूरे हो।
दुकान पर बैठते हो तब तुम्हें बड़ी ज्ञान की बातें सूझने लगती हैं कि इसमें क्या रखा है! संसार असार है! यह सब सुनी बकवास है। अगर यह तुमने जान लिया होता तो तुम्हारी जिंदगी में क्रांति हो गई होती। यह सब तुमने सुन लिया है, ये तोतारटंत है। यह तुमने कचरा इकट्ठा कर लिया है, यह सब उधार है। दुकान पर बैठ कर ये उधार आने लगता है दिमाग में, फिर मंदिर जाते हो, मंदिर में बैठते हो तो लगता है घंटा भर खराब कर रहे हो, इतनी देर में कुछ कमा ही लेते क्योंकि दुकान पर पूरे रहे ही नहीं, वहां मंदिर सताता रहा।
जहां हो वहां पूरे, जो करो उसे पूरा, उसमें उतर ही जाओ क्योंकि एक बात सदा स्मरण रखो कि अनुभव के अतिरिक्त और कोई चीज मुक्त नहीं करती। और अपने को धोखा देने की मत कोशिश करना, कोई और सुगम मार्ग नहीं है। अनुभव एकमात्र मार्ग है। और जो अनुभव से बचना चाहते हैं और सस्ते में चाहते हैं ज्ञान को उपलब्ध हो जाएं, वे भटकते रहेंगे, वे अधपके रह जाएंगे, यही तो गति है तुम्हारी, दुर्गति कहनी चाहिए।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, क्या भक्ति-साधना के भी कुछ साधन हैं, कुछ टेक्नीक हैं? या वह सर्वथा स्वतःस्फूर्त और सहज है?
नहीं, कोई साधन नहीं हैं।
प्रेम का कहीं कोई साधन होता है? कोई टेक्नीक? कोई टेक्नीक नहीं होता।
प्रेम परम साधन है, स्वयं ही।
खाकसारी का है गाफिल! बहुत ऊंचा मर्तबा
मिट जाने का, ऐ सोने वाले!... बहुत ऊंचाई है मिट जाने की।
खाकसारी का है गाफिल! बहुत ऊंचा मर्तबा
यह जमीं वोह है कि जिस पर आसमां कोई नहीं।
बस भक्ति तो मिट जाना है, ना-कुछ हो जाना है; अपने को शून्य कर लेना है, ताकि परमात्मा तुममें पूर्ण हो सके; जगह देनी है ताकि उसका प्रवेश हो सके; टूटना है!
तुमने बहुत चीजों को टूटते देखा है, अभी अपने को टूटते नहीं देखा। तुमने बहुत चीजें मिटते देखीं, अपने को मिटते नहीं देखा। तुमने बहुतों को मरते देखा, अपने को मरते नहीं देखा।
भक्ति अपने को मरते देखना है। वह मृत्यु का साक्षात्कार है।
हुबाब देख लिया, आबगीना देख लिया
शिकस्ते दिल की नजाकत किसी को क्या मालूम!
बुलबुले को देखा पानी के, उसको टूटता देखा...! कई बार तुमने देखा होगा पानी के बुलबुले को टूटता।
छोटे बच्चे सोप के बुलबुले उठाते हैं और उनका टूटना देखते हैं, उनकी रंगीनी देखते हैं सूरज की किरणों में। गौर किया? बुलबुले के भीतर कुछ भी नहीं होता, बाहर भी कुछ नहीं; बाहर भी खाली आकाश है, भीतर भी खाली आकाश है, बीच में एक छोटी सी पानी की पर्त है।
हुबाब देख लिया,...
ऐसे बुलबुले को टूटते देख लिया।
...आबगीना देख लिया
कभी शीशे को पटक कर देखा: टुकड़े-टुकड़े हो जाता है, खंड-खंड हो जाता है। लेकिन यह कुछ भी नहीं है।
शिकस्ते दिल की नजाकत किसी को क्या मालूम!
जिसने दिल को टूटता देखा, उसकी सूक्ष्मता का किसी को कोई भी पता नहीं है। क्योंकि जहां दिल टूटता है, जहां दिल भी एक बबूले की तरह टूट जाता है, जहां तुम्हारा होना एक बबूले की तरह टूट जाता है--वहां तुम अचानक पाते हो कि भीतर की आत्मा विराट परमात्मा से मिल गई; जरा सी दीवाल थी, खो गई!
तुम्हारा अहंकार कांच के दर्पण से ज्यादा नहीं है: गिरा नहीं कि टूटा। जरा झुको और गिरा दो इसे। मिटना सीखो--बस भक्ति का सूत्र इतना ही है।
योग में हजार विधियां हैं; भक्ति का सूत्र एक ही है। पर एक काफी है। वैसे ही जैसे कहावत है: सौ सुनार की एक लुहार की! ऐसे ही योगी खटखट-खटखट बहुत मचाता है। इसलिए तो उसके कर्म को ‘खटकरम’ कहते हैं। बहुत उपद्रव करता है। न मालूम कितनी विधियां बनाता है! इसलिए तो उसकी विधियों को गोरखधंधा कहते हैं। वह महायोगी गोरख के नाम से बना है शब्द: गोरखधंधा! गोरख ने इतनी विधियां खोजीं कि विधियों में ही कोई खो जाए, पहुंचने की तो बात ही अलग। इसलिए--गोरखधंधा।
भक्ति तो एक ही सूत्र जानती है: अपने को खो दो। झुको। मिटो।
परमात्मा द्वार पर खड़ा है: इधर तुम झुके नहीं, उधर वह मिला नहीं।
आज इतना ही।
भगवान, ‘अथातो’--‘अब’ का मोड़-बिंदु हम सामान्य सांसारिकजनों के जीवन में कब आ पाता है? कृपा कर समझाएं।
पहली बात कि सामान्य कोई भी नहीं है। यदि तुम सामान्य होते तो फिर ‘अथातो’ का बिंदु कभी भी न आ पाता।
सामान्य कोई भी नहीं है, क्योंकि परमात्मा छिपा बैठा है। और परमात्मा से ज्यादा असामान्य क्या होगा?
असाधारण हो तुम। तुमने समझा होगा, कंकड़-पत्थर हो। और कंकड़-पत्थर तुम नहीं हो। कंकड़-पत्थर हैं ही नहीं अस्तित्व में। अस्तित्व केवल हीरों से बना है।
इसलिए पहली तो इस भ्रांति को अपने मन में जगह मत देना कि तुम सामान्य हो। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अहंकार को आरोपित करना। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अपने को दूसरों से असामान्य समझना। मैं यह कह रहा हूं कि असामान्य होना जगत का स्वभाव है। तुम असामान्य हो, ऐसा नहीं; यहां सभी कुछ असामान्य है। यहां सामान्य होने की सुविधा ही नहीं है।
और इस विरोधाभास को ठीक से समझना--क्योंकि तुमने अपने को सामान्य समझ रखा है, इसलिए तुम असामान्य होने की बड़ी चेष्टा करते हो--धन से, पद से, प्रतिष्ठा से।
अहंकार की खोज ही यही है कि मान तो लिया है तुमने कि तुम सामान्य हो--और सामान्य होने में पीड़ा होती है, चुभता है कांटा, मन राजी नहीं होता--तो तुम असामान्य होने का ढोंग करते हो; जब कि मजा यह है कि तुम असामान्य हो, इसके ढोंग की कोई भी जरूरत नहीं। इसलिए जिन्होंने यह जान लिया कि असामान्य हैं, वे तो अहंकार को छोड़ ही देते हैं तत्क्षण। अब जरूरत ही न रही।
ऐसा समझो कि हीरा है, और हीरे ने समझ रखा है कि कंकड़-पत्थर है। कंकड़-पत्थर समझ रखा है, इसलिए अपने को सजाता है कि हीरा दिखाई पड़े। कंकड़-पत्थर होने को कौन राजी है। तो हीरा अपने को कंकड़-पत्थर मान कर सजाता है, रंग-रोगन करता है कि कोई जान न ले कि मैं कंकड़-पत्थर हूं। लेकिन जिस दिन यह पहचान पाएगा कि मैं हीरा था ही, उसी दिन कंकड़ होने की भ्रांति भी मिट जाएगी और स्वयं को सजाने की आकांक्षा भी मिट जाएगी। वह कंकड़-पत्थर की भ्रांति की ही छाया थी। उस दिन विनम्रता का जन्म होता है।
जिस दिन तुम जानते हो कि तुम असामान्य हो, उसी दिन असामान्य होने की दौड़ मिट जाती है; जिस दिन तुम जान लेते हो कि तुम असाधारण हो... क्योंकि अन्यथा होने का उपाय नहीं।
परमात्मा के हस्ताक्षर हैं तुम पर।
रोएं-रोएं पर उसका गीत लिखा है।
रोएं-रोएं पर उसके हाथों के चिह्न हैं।
क्योंकि उसने ही तुम्हें बनाया है।
वही तुम्हारी धड़कनों में है।
वही तुम्हारी श्वास में है।
सामान्य तुम नहीं हो। अगर सामान्य होते तो धर्म का फिर कोई उपाय नहीं। फिर ‘अथातो’ का बिंदु कभी आएगा ही नहीं। अगर तुम सामान्य ही होते तो कैसे परमात्मा की ज्योति तुममें प्रज्वलित होगी? तब कैसे तुम जागोगे और कैसे तुम बुद्ध बनोगे? असंभव है फिर।
नहीं, तुम बन पाते हो बुद्ध, तुम जागते हो, तुम समाधिस्थ हो पाते हो--क्योंकि वह तुम्हारा स्वभाव है। जब तुम नहीं जानते थे तब भी तुम वही थे। जानने भर का फर्क पड़ता है; अस्तित्व तो सदा एकरस है। कोई जान लेता है, कोई बिना जाने जीए जाता है। ज्ञान और अज्ञान का ही भेद है। अस्तित्व में जरा भी भेद नहीं है। तुममें और बुद्ध में रत्ती भर भेद नहीं है। जहां तक अस्तित्व का संबंध है। लेकिन बुद्ध ने लौट कर अपने को देख लिया, तुमने लौट कर अपने को नहीं देखा। तुम भिखारी बने हो, बुद्ध सम्राट हो गए हैं।
जिसने अपने को लौट कर देख लिया, वह सम्राट हो गया। सम्राट तो सभी थे; कुछ को याद आ गई; खबर आ गई, सुराग मिल गया; कुछ को खबर ही न मिली; कुछ भिखारी ही बने हुए सम्राट बनने की चेष्टा में लगे रहे।
तुम जो बनने की चेष्टा कर रहे हो, वह तुम हो। यही तो संदेश है सारे धर्म का।
तुम जिसे खोज रहे हो उसे तुमने कभी खोया नहीं, केवल विस्मरण किया है।
इस पूरे अस्तित्व में मैंने अब तक कोई ऐसी चीज नहीं देखी जो सामान्य हो। घास का पत्ता भी उसी के रंगों से लबालब भरा है। कंकड़-पत्थरों में भी वही सोया है। जागने वालों में वही जागता है, सोने वालों में वही सोता है। बुद्धिमानों में वही बुद्धिमान है। अज्ञानियों में वही अज्ञानी है।
इसलिए सामान्य होने का तो कोई उपाय नहीं है। जरा गौर से किसी की भी आंखों में झांकना, या दर्पण के सामने खड़े होकर अपनी ही आंखों में झांकना--और तुम पाओगे कि कोई और झांक रहा है तुम्हारे भीतर से।
तुम तुमसे ज्यादा हो। तुम तुम पर ही समाप्त नहीं। तुम तो केवल सीमा हो तुम्हारे अस्तित्व की। अभी गहरे तुम गए ही नहीं, डुबकी लगाई ही नहीं।
इसलिए पहली बात: सामान्य मानने की भ्रांति में मत पड़ जाना। इसलिए तो उपनिषद कहते हैं: ‘तत्वमसि श्वेतकेतु! तू वही है श्वेतकेतु!’
जिन्होंने जाना, वे घोषणा करते हैं: अहं ब्रह्यास्मि! मैं वही हूं! मैं ब्रह्म हूं!
ये उदघोषणाएं अहंकार की नहीं हैं। ये उदघोषणाएं स्वभाव की हैं। ऐसा है। ऐसा तथ्य है। इसे झुठलाने का कोई उपाय नहीं है। इसे तुम कितना ही भुलाओ, एक न एक दिन तुम्हें लौट कर अपने घर आ ही जाना पड़ेगा।
तो, यह तो पहली बात, सामान्य मत मान लेना। क्योंकि जो तुम मान लिए कि सामान्य हो तो खोज बंद हो गई। तुमने स्वीकार कर लिया कि तुम मात्र मनुष्य हो, कुछ और ज्यादा नहीं, तो और ज्यादा होने का द्वार बंद हो गया, संभावना अवरुद्ध हो गई।
गंगोत्री पर गंगा कितनी दीन-हीन है। कितनी क्षीणकाय है! बस जरा सी धार है। गोमुख से गिर जाती है। अगर गंगा गंगोत्री पर ही अपने को मान ले कि बस, यही हूं, तो कभी की सूख जाएगी, कभी की खो जाएगी किन्हीं भी रेगिस्तानों में। लेकिन गंगोत्री पर जो छोटी सी गंगा है, बढ़ती जाती है, बड़ी होती जाती है, सागर से मिलती है तो सागर हो जाती है।
तुम अभी गंगोत्री पर हो सकते हो, लेकिन हो गंगा ही। सागर अभी दूर है... ऐसा तुम्हारी नासमझी में दिखाई पड़ता है। और जब मैं तुममें झांकता हूं तो तुम्हारे भविष्य को भी तुम्हारे पीछे ही खड़ा हुआ पाता हूं। जब मैं तुममें झांकता हूं तो तुम्हारे बीज में मैं उन फूलों को खिलते हुए देखता हूं जिनको तुम कभी खिलते हुए देखोगे।
मेरे लिए तुम परमात्मा हो, उससे कम कोई भी नहीं। उससे कम कोई हो नहीं ही सकता। इसलिए सामान्य की भ्रांति में मत पड़ जाना।
दूसरी बात: ‘अथातो’ का बिंदु, ‘अब’ का क्रांति-बिंदु तभी आता है जब तुम जीवन के दुख और पीड़ा को सजग होकर भोगने लगते हो।
अभी भी तुमने बहुत पीड़ा भोगी है, लेकिन सोए-सोए। पीड़ा तो भोगी है, लेकिन इस आशा में कि शायद सुख मिल जाएगा, शायद सुख आता ही होगा! आज दुखी हो, कोई चिंता नहीं! किसी तरह बिता लो आज को, बस जरा सी समय की बात है, कल सब ठीक हो जाएगा! थोड़ी ही देर की पीड़ा है, कल सब ठीक हो जाएगा--ऐसी आशा में तुम जीए हो। उसी आशा में छिप कर तुम्हारी पीड़ा का दर्शन तुम्हें नहीं हो पाया। तुमने उसे ओट में छिपा रखा है।
इन परदों को हटाओ।
न कोई कल है, न कोई कल कभी आएगा--बस, आज है, अभी और यहीं! कल के लिए मत बैठे रहो।
यह ‘कल’ आज को भुलाने की तरकीब है।
फिर ‘कल’ के बहुत रूप हैं।
धन इकट्ठा करने वाला अभी तो जीवन को गंवाता है, सोचता है: कल जब धन इकट्ठा हो जाएगा तब भोग लूंगा सारे सुख।
यश की आकांक्षा में दौड़ने वाला सोचता है: अभी कैसे? अभी तो दांव पर लगाना है सब।
जब यश मिल जाएगा, भोग लूंगा।
वह यश कभी नहीं मिलता। कोई सिकंदर कभी जीत नहीं पाता। यश की दौड़ अधूरी रह जाती है। धन कभी इतना नहीं हो पाता कि तुम्हारी गरीबी को मिटा दे। इतना हो ही नहीं पाता। ऐसा कभी हो ही नहीं सकता कि धन इतना हो जाए कि तुम्हारी गरीबी मिट जाए। क्योंकि गरीबी एक दृष्टिकोण है; धन से उसके मिटने न मिटने का कोई सवाल नहीं, कोई संबंध नहीं। जितना धन होगा, उतने ही तुम आगे की आकांक्षा, आशा से भर जाओगे।
तुम्हारी आशा सदा छलांग लगाती है--तुमसे आगे। वह हमेशा कल पर खड़ी रहती है। तुम यहां, तुम्हारी आशा सदा कल है। लाख होता है तो दस लाख मांगती है। दस लाख होते हैं तो करोड़ मांगती है। करोड़ होते हैं तो दस करोड़ मांगती है। वह सदा तुमसे आगे छलांग लगा लेती है। तुम उसे कभी भी न पकड़ पाओगे। उसे पकड़ने का कोई उपाय नहीं। लेकिन तुम आज को गंवा दोगे। अभिलाषा को तो कभी तुम पूरा न कर पाओगे, लेकिन आज को गंवा दोगे, जो कि अस्तित्व का सार है।
पीड़ा है तो पीड़ा को देखो। पीड़ा को भोगो, कल से झुठलाओ मत। समझाओ मत। कल के नाम की शामक दवाएं लेकर सो जाओ मत। आज को जागो! पीड़ा है तो पीड़ा सही। भोगो उसे। कांटा है तो चुभने दो। क्योंकि वही चुभन तुम्हें जगाएगी। उसी पीड़ा से तुम उठोगे। उसी पीड़ा में तुम देखोगे कि तुम्हारा जीवन कुछ गलत ढांचे पर दौड़ता है। अब तक तुमने जो भी किया है, कहीं बुनियादी भूल हो गई है। तुमने अब तक जो भी किया है, परमात्मा को छोड़ कर किया है, बाद देकर किया है। अब तक तुमने जो भी किया है, उसमें परमात्मा की कोई जगह नहीं है।
कहते हैं, गैलीलियो ने सृष्टि-शास्त्र पर एक किताब लिखी, और अपने एक मित्र को दिखाने ले गया। मित्र आस्तिक था। उसने पूरी किताब देख ली, उसमें ईश्वर का कहीं उल्लेख ही न था। सृष्टि-शास्त्र और स्रष्टा का कोई उल्लेख न था! वैज्ञानिक करते ही नहीं उल्लेख। उसकी कोई जरूरत नहीं मालूम होती।
मित्र ने पूछा: और सब ठीक है, व्यवस्थित है, तर्कबद्ध है, समझ में आता है; लेकिन जरा खाली जगह मालूम पड़ती है। ईश्वर का कोई उल्लेख ही नहीं, एक बार भी नहीं! इनकार करने के लिए भी नहीं कि कह देते कि ईश्वर नहीं है। इतना भी नहीं। ईश्वर के बिना सृष्टि थोड़ी अधूरी मालूम पड़ती है।
गैलीलियो ने कहा: नहीं, उसकी कोई जरूरत ही नहीं। क्योंकि उसके बिना ही मैं सब समझा दिया हूं। उस हाइपोथीसिस की, ईश्वर की परिकल्पना का मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। कोई चीज पूछ लो मुझसे, अगर अनसमझाई रह गई हो।
गैलीलियो ने जैसे सृष्टि-शास्त्र की रचना की, ऐसे ही तुमने अपने जीवन को बनाया है, उसमें ईश्वर के लिए कोई जगह नहीं। उसी खाली जगह में पीड़ा का जन्म होता है। परमात्मा का जो मंदिर है, अगर खाली रहा तो वहीं से पीड़ा का आविर्भाव होता है।
इसे थोड़ा समझने की कोशिश करना।
पीड़ा तब तक रहेगी जब तक तुम्हारे जीवन में परमात्मा की ज्योति जलती नहीं। पीड़ा परमात्मा का अभाव है। जहां परमात्मा होना चाहिए और नहीं है, वहीं पीड़ा है।
तो कब तुम्हारे जीवन में ‘अथातो’ की क्रांति आएगी? कब तुम कहोगे, ‘अब भक्ति की खोज...?’
तुम कहोगे तभी जब तुम पाओगे कि तुमने अब तक जीवन की जो सार-संपदा समझी थी, वह सिवाय पीड़ा के निचोड़ के और कुछ भी नहीं। जिसे तुमने प्रेम जाना, वह प्रेम न था। जिसे तुमने धन जाना, वह धन न था। जिसे तुमने ‘स्वयं’ जाना, वह ‘स्वयं’ न था। तुम्हारा सारा आधार ही गलत है।
अहंकार को तुमने जाना ‘स्वयं।’ वह तुम न थे। वह पहचान भ्रांत थी। बाहर के धन को तुमने जाना धन, वह धन न था। जो खो जाए वह धन है? मौत जिसे छीन ले वह धन है?
ज्ञानी तुम्हारी संपदा को विपदा कहते हैं, तुम्हारी संपत्ति को विपत्ति कहते हैं।
संपत्ति तो वही है जो मौत भी न छीन पाए। संपत्ति तो वही है जो कोई भी न छीन पाए, जिसकी चोरी न हो सके, जिसे लुटेरे न ले सकें। मौत जिसके सामने हार जाए वही संपत्ति है।
तुमने सुना होगा: मित्र तो वही है जो विपत्ति में काम आ जाए। वह संपत्ति की परिभाषा है। संपत्ति तो वही है जो विपत्ति में काम आ जाए। और मौत से बड़ी विपत्ति कहां है! वहीं कसौटी है। मौत के द्वार से भी जो चली जाए, नाचती हुई, वही संपत्ति है।
जिसे तुमने धन समझा वह धन नहीं है; वह भीतर की निर्धनता को भुलाने का उपाय है।
जिसे तुमने अहंकार समझा वह तुम नहीं हो; वह अपने आप को ढांक लेने की तरकीब है, अपने अज्ञान को झुठला लेने की तरकीब है।
जिसको तुमने पद समझा वह तुम नहीं हो। जिसको तुमने पद समझा वह तुम्हें तृप्ति न देगा; तुम और और अतृप्त होते चले जाओगे। पद तो वही है जहां विश्राम आ जाए। पद का अर्थ ही होता है: जिस पर विश्राम आ जाए; जिस जगह बैठ कर विश्राम आ जाए, राहत मिले; जिस जगह बैठ कर यात्रा समाप्त हो जाए; पैरों को चलने की अब और जरूरत न रह जाए।
जहां पद अनावश्यक हो जाएं वही जगह पद है, वहीं पहुंच गए; अब कोई जरूरत नहीं कहीं जाने की। लेकिन ऐसा कोई पद तुमने बाहर जाना है जहां पहुंच कर जाने की यात्रा समाप्त हो जाए? बाहर ऐसा कोई भी पद नहीं है। सारे संसार को जीतने वाले सम्राट भी आकांक्षा से वैसे ही विह्वल होते हैं जैसे सड़क के किनारे पड़ा हुआ भिखारी। जरा भी भेद नहीं है।
मैंने सुना है, जापान का एक सम्राट रात को घोड़े पर सवार होकर अपनी राजधानी में चक्कर लगाता था रोज। अनेक बार उसने एक फकीर को देखा, अनेक बार! रात के किसी भी पहर में वह गया, उसने उसे सदा जागते हुए देखा, वृक्ष के नीचे कभी खड़ा, कभी बैठा, लेकिन सदा जागा हुआ।
सम्राट की उत्सुकता बढ़ी--सोता क्यों नहीं! पूछा एक दिन, न रुक सका। पूछा कि उत्सुकता है, उचित तो नहीं, क्योंकि तुम्हारा काम है, तुम जागो, सोओ, मेरा क्या लेना-देना; लेकिन रोज यहां से निकलता हूं तो मन में जिज्ञासा घनी होती चली गई है: क्यों जागते हो?
तो उस फकीर ने कहा: कुछ सम्हाल रहा हूं। कुछ मिल गया है, उसकी रक्षा कर रहा हूं।
सम्राट ने चारों तरफ देखा फकीर के, वहां तो कुछ भी नहीं है: एक भिक्षापात्र पड़ा है टूटा-फूटा, कुछ चीथड़े, कपड़े पड़े हैं। फकीर हंसने लगा, उसने कहा, वहां मत देखो, मेरे भीतर देखो। जो मिला है वह भीतर है, वह खो न जाए! जागने में ही उसकी रक्षा है। सोने में उसका खो जाना है। मूर्च्छा में फिर भूल जाऊंगा। होश रखना है!
सम्राट ने कहा: मुझे तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
सम्राट की अपनी भाषा है; जो बाहर है, वही उसकी भाषा है। फकीर की अपनी भाषा है; जो भीतर है, वही उसका जगत है। वे अलग यात्रा पर हैं।
सम्राट ने कहा: तुम किसी संपत्ति की रक्षा कर रहे हो? तो फिर मुझमें और तुममें फर्क क्या है?
फकीर ने कहा: फर्क ज्यादा नहीं है, थोड़ा ही है--फिर भी है। फर्क इतना है कि तुम बाहर से अमीर हो, मैं बाहर से गरीब हूं; मैं भीतर से अमीर हूं, तुम भीतर से गरीब हो। फर्क इतना ही है। मैं भी गरीब हूं, मैं भी अमीर हूं; तुम भी गरीब हो, तुम भी अमीर हो--इसलिए ज्यादा फर्क नहीं कह सकता; लेकिन तुम बाहर से अमीर हो, मैं भीतर से अमीर हूं। मौत बताएगी। मौत ही कसौटी होगी।
अगर तुम जीवन में झांको अपने और बचते न रहो अपने से... जैसा मैं देखता हूं, तुम बचते हो; तुम तरकीबें निकालते हो किसी तरह अपने से बचने की; किसी तरह अपने से मुलाकात न हो जाए। हजार ढंग करते हो: कभी शराब पीते हो, कभी सिनेमा जाते हो, कभी भजन-कीर्तन भी करते हो--मगर अपने को भुलाने को। कहीं भी डूब जाओ, किसी तरह अपनी याद न आए! नहीं तो तुम्हारा भजन-कीर्तन भी झूठा है; वह भी शराब है। भजन-कीर्तन तो तभी सच है, जब वह अपने को याद लाने को आधार बने, जगाए तुम्हें, सुलाए न।
जिस दिन तुम जीवन की पीड़ा को देखोगे, आंख भर कर साक्षात करोगे अपना--और दुख ही दुख पाओगे...।
मेरे पास लोग आते हैं वे कहते हैं कि नरक है? मैं उनसे कहता हूं, हद हो गई! वहीं रहते हो! मुझसे पूछने आते हो?
वे सोचते हैं कि नरक कहीं पृथ्वी के नीचे पाताल में दबा है। किन्हीं पागलों ने सोचा होगा। किन्हीं नासमझों ने कही होगी यह बात तुमसे।
नरक तो जीवन को अंधेरे में जीने का ढंग है। वह तो एक दृष्टिकोण है। वह तो एक शैली है। स्थान से इसका कुछ लेना-देना नहीं है।
स्वर्ग भी जीवन की एक शैली है। वह तुम पर निर्भर है। जाग कर जीओ तो जहां हो वहां स्वर्ग! सोए-सोए जीओ तो जहां हो, वहां नरक।
नींद से पैदा होता है नरक।
जरा विचारो, देखो--और तुम पाओगे, सब तरफ तुम नरक से घिरे हो। और नरक की जरूरत है क्या? इतना नरक काफी नहीं कि तुम और नरक की कल्पनाएं करते हो पाताल में?
जिस दिन तुम्हें जीवन का नरक दिखाई पड़ेगा, उसी दिन ‘अथातो’ का बिंदु आ गया; उसी दिन तुम कहोगे, अब बस हुआ, अब रुकना है; पैर ठिठक जाएंगे।
जैसे ही तुम ठिठकते हो इस संसार की दौड़ में, वैसे ही क्रांति घटित हो जाती है: एक नया आकाश, जिसका कहीं छोर नहीं, जिसका कहीं प्रारंभ और अंत नहीं, तुम्हें उपलब्ध हो जाता है!
अभी तुम जीते हो बड़ी संकीर्ण गली में: रोज संकरी होती जाती है, रोज संकरी होती जाती है; रोज-रोज तुम बंधते जाते हो, रोज-रोज जंजीरें जकड़ती जाती हैं।
तुम्हारा जीवन ऐसा है जैसे तुम अपना ही काराग्रह निर्मित करने में लगे हो। चाहे तुम काराग्रह को घर कहो, मंदिर कहो, तुम्हारे नामों से कोई धोखे में आनेवाला नहीं है। बीमारियों को तुम अच्छे सुंदर नाम दे दो, इससे बीमारियों का दंश जाता नहीं।
जाग कर पहचानो, देखो!
जिस दिन तुम्हें पीड़ा दिख जाएगी, वहीं पैर ठिठक जाएंगे--लौट पड़ोगे तुम!
वह जो लौटना है, उसको महावीर ने प्रतिक्रमण कहा: अपनी तरफ आना! उसको पंतजलि ने प्रत्याहार कहा: अपनी तरफ आना! उसको जीसस ने ‘कनवर्सन’ कहा है: क्रांति, रूपातंरण!
अभी तुम्हारे जीवन का ढंग कामवासना है; जब तुम ठिठक जाओगे, तब तुम्हारे जीवन का ढंग प्रेम होगा; जब तुम लौट पड़ोगे, तब भक्ति। अभी जहां जा रहे हो वहां काम की खोज है, वासना की खोज है।
कामना ही संसार है।
संसार तुमसे कहीं बाहर नहीं है। मंदिर, मस्जिद में छिप कर तुम संसार से न बच सकोगे; हिमालय की गुफाओं में बैठ कर भी तुम संसार से न बच सकोगे--क्योंकि संसार तुम्हारी कामना में है! वहां भी बैठ कर तुम कामना ही करोगे।
लोग परमात्मा के सामने बैठ कर भी मांगे चले जाते हैं। मांग रुकती ही नहीं! मंदिर में खड़े हैं, लेकिन राम के उन्मुख नहीं होते। मूर्ति होगी सामने, लेकिन वहां भी मांगे चले जाते हैं।
एक आदमी मेरे पास आया और उसने कहा कि अब मुझे भरोसा आ गया। लड़के को नौकरी न मिलती थी। परमात्मा से प्रार्थना की और तीन सप्ताह का समय दे दिया कि अगर तीन सप्ताह में मिल गई तो सदा के लिए भरोसा हो जाएगा; अगर न मिली तो बात खत्म; फिर तुम नहीं हो! और उस आदमी ने कहा, मिल गई। अब तो रोज पूजा करता हूं, प्रार्थना भी करता हूं। इसलिए आपके पास आया हूं।
मैंने कहा: संयोग से मिल गई होगी। क्योंकि परमात्मा तुम्हारी धमकी से डर जाए कि तीन सप्ताह बस, तुम्हारा अल्टीमेटम! तो तुम पागल हुए हो! और यह बड़ा खतरनाक विश्वास है जो तुमने पैदा किया है; यह किसी भी दिन टूटेगा।
मैंने कहा: एक बार और कोशिश करो।
उसने कहा: क्या मतलब?
मैंने कहा: एकाध और कोशिश करो। तुम्हारी पत्नी बीमार रहती है...। जब कुंजी ही मिल गई तो पत्नी को भी ठीक कर लो।
उसने कहा: ठीक कहा आपने।
कल ही वह गया। दे आया अल्टीमेटम फिर। तीन सप्ताह बाद आया, बहुत उदास था। उसने कहा: खराब कर दिया आपने सब। कुछ फायदा नहीं हुआ; और खराब तबीयत हो गई। भरोसा डगमगा गया मेरा।
तुम्हारा भरोसा भी तुम्हारी मांग पर ही खड़ा है: परमात्मा कुछ दे तो परमात्मा है! परमात्मा तुम्हारा अनुसरण करे तो परमात्मा है! तुम जो मांगो, पूरा करे तो परमात्मा है! परमात्मा तुम्हारी सेवा में रत रहे तो परमात्मा है! परमात्मा मालिक नहीं है; मालिक तुम हो! और अगर उसे तुम्हारी पूजा-प्रार्थना चाहनी हो तो बदले में सेवा करता रहे तुम्हारी!
तुम्हारी प्रार्थना भी झूठी है; वह भी कामना है; वहां भी संसार ही है।
जब तक तुम बाहर कुछ मांग रहे हो, जब तक तुम सोचते हो बाहर कुछ मिल जाएगा, जिससे तृप्ति होगी, जिससे मन चैन से भर जाएगा, राहत की श्वास आएगी, आनंद के क्षण उठेंगे--अगर बाहर तुम ऐसा मांगते चले जा रहे हो, तो अभी तुम नरक से बाहर नहीं जा सकते।
बाहर जाना नरक में जाना है। बाहर जाती हुई चेतना नरक के बाहर नहीं जा सकती।
ठिठकता है कोई देख कर जीवन की व्यर्थता, जीवन का असार, निष्फलता, हाथ में सिवाय पीड़ा के और कोई संग्रह नहीं, हृदय में सिवाय आंसुओं के और कुछ दिखाई नहीं पड़ता, जीवन बिलकुल अंधकारपूर्ण है, नाव डूबी--अब डूबी, तब डूबी जैसी हालत है--ऐसे क्षण में जब कोई ठिठक जाता है, उस ठिठकने के क्षण में प्रेम का आविर्भाव होता है, कामना गई! अब तुम मांगते नहीं, अब तुम देने को उत्सुक हो जाते हो।
प्रेम देता है, काम मांगता है। जब तक मांग है तब तक समझना, काम; जब देना शुरू हो जाए...। क्योंकि तुम मांगते इसलिए हो कि मांगने से बढ़ेगी संपत्ति और सुख आएगा। ठिठका हुआ व्यक्ति देना शुरू करता है: मांग कर देख लिया़, सुख न आया, दुख आया; अब जरा उलटा करके देख लें। देना शुरू करता है और पाता है कि सुख के हलके झोंके आने लगे; बजने लगी वीणा, कहीं दूर यद्यपि, बहुत दूर यद्यपि--पर बजने लगी, स्वर सुनाई पड़ने लगे, कोई नया लोक शुरू हुआ।
यह तो ठिठके हुए आदमी की बात है। वह देने लगता है, बांटने लगता है--और जैसे-जैसे बांटता है, वैसे-वैसे स्वर साफ होते हैं और तब चौंक कर उसे पता चलता है: ये स्वर मेरे ही भीतर से आते हैं! अब तक सोचा था सुगंध बाहर है; यह मेरे भीतर से आती है! कस्तूरी कुंडल बसै! यह मेरे ही नाफे में बसी है। तब लौटना शुरू होता है। ‘अथातो’ आ गया बिंदु: अब! और तभी तुम नारद के इन भक्ति-सूत्रों को समझ पाओगे। इसके पहले, जो बाहर जा रहा है, उसके लिए ये नहीं है। जो ठिठका है उसके लिए भी ये नहीं हैं। जो लौट पड़ा है, उसके लिए ये हैं। पहली बात।
दूसरी बात: जब तक तुम सोचते हो कि तुम ही अपने सुख को ले आओगे, तब तक ‘अथातो’ का बिंदु नहीं आता। तुम न ला पाओगे अपने सुख को, तुम ही तो सारा दुख ले आए हो। यह तुम्हारे ही उपक्रम का फल है। यह तुम्हारे ही श्रम की निष्पत्ति है। पुरानी भाषा में कहें तो कहते हैं, यह तुम्हारे ही कर्मों का फल है। यह पुरानी भाषा है; बात यही है। यह तुमने ही किया है। यह जो दुख तुम्हें घेरा है, यह तुमने ही आमंत्रण दिया था। ये मेहमान बिन बुलाए नहीं आ गए हैं; यह तुमने निमंत्रण भेजे थे। तुमने बड़ा आग्रह किया था कि आओ। यद्यपि तुमने कुछ और सोच कर बुलाया था। तुम्हारे समझने में भूल थी। बुलाए थे मित्र, आ गए हैं शत्रु। बुलाया था सुख, आ गया है दुख। आग्रह किया था फूलों के लिए, आ गए हैं कांटे--क्योंकि कांटे दूर से फूल जैसे दिखाई पड़ते हैं; क्योंकि शत्रु दूर से मित्र जैसे दिखाई पड़ते हैं।
एक छोटा बच्चा अपने साथियों के साथ यात्रा पर गया था। वहां से उसने पत्र लिखा अपनी मां को कि पहले दिन सब अपरिचित थे, मैं किसी को जानता न था। दूसरे दिन, सभी मित्र हो गए, क्योंकि पहचान हो गई। तीसरे दिन सभी शत्रु हो गए।
यह तीन दिन की कथा पूरी जिंदगी की कथा है। पहले दिन जब तुम देखते हो आंख खोल कर: कोई परिचित नहीं, अनजान जगत है, अपरिचित लोगों से घिरा हुआ है सब, अजनबी और अजनबी! फिर सभी मित्र मालूम होते हैं। फिर शत्रुता शुरू हो जाती है। दूर से जो मित्र मालूम पड़ता है, जैसे-जैसे पास आते हैं वैसे-वैसे शत्रुता शुरू हो जाती है। दूर के ढोल हैं बड़े सुहावने, पास आने पर बिलकुल व्यर्थ हो जाते हैं।
...तुमने ही निमंत्रण दिए थे; हो सकता है किन्हीं पिछले जन्मों में दिए हों, अब तुम बिलकुल भूल ही गए होओ, लेकिन तुमने ही बुलाया था। जो तुम्हारे पास आ गया है वह तुम्हारा कृत्य है। और तुम्हारे कृत्य से यह दुख बढ़ता जाएगा, पर्त-दर-पर्त तुम्हारे चारों तरफ इकट्ठा होता जाएगा। यह तुम्हारे गले को घोंट रहा है।
तुम्हारे किए दुख होता है। जब तुम ठिठकोगे, तब तुम अचानक पाओगे; करने की कोई जरूरत ही नहीं। सब अनकिए, तुम्हारे बिन किए हो रहा है।
प्रेम के क्षण में जीवन स्वस्फूर्त मालूम होता है: सब अपने आप हो रहा है। पैदा होना, जवान होना, बूढ़े हो जाना, जन्म-मौत, सब अपने आप हो रहा है।
लेकिन जब तुम लौटोगे, भक्ति का आयाम शुरू होगा, तब तुम पाओगे कि अपने आप नहीं हो रहा है। तुम करने वाले नहीं हो, अपने आप भी नहीं हो रहा है। जीवन के रोएं-रोएं में छिपा है कोई प्रयोजन। जीवन के कण-कण में छिपी है कोई नियति; कहो, छिपा है कोई परमात्मा! उससे हो रहा है।
कामवासना में लगा आदमी अपने पर भरोसा करता है। प्रेम में खड़े आदमी का अपने पर भरोसा डगमगा जाता है। भक्ति में जाते व्यक्ति का भरोसा अपने से बिलकुल ही शून्य हो जाता है़, परमात्मा पर हो जाता है।
सुना है मैंने, ‘जोश’ की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं:
खुदा को सौंप दो ऐ ‘जोश’ पुश्तारा गुनाहों का
चलोगे अपने सर पर रख के यह बारे-गरां कब तक?
यह भारी बोझ अपने सिर पर रख कर कब तक चलोगे? दे दो परमात्मा को। तुम नाहक ही परेशान हो!
मैंने सुना है, एक आदमी को, उसकी पचहत्तरवीं वर्ष गांठ थी, तो मित्रों ने कहा: कुछ नया अनुभव तुम्हारे लिए...? तो ऐसी कोई चीज तुमने जीवन में न की हो...? उसने कहा: हवाई जहाज में कभी नहीं बैठा। तो उन्होंने कहा: चलो। उसे हवाई जहाज में बिठला कर आधा घंटा शहर का चक्कर लगवाया। आधे घंटे बाद जब वह उतरा, तो जो पायलट उसे उड़ा रहा था, उसने पूछा: आप प्रसन्न तो हैं? परेशान तो नहीं हुए? क्योंकि पहली ही उड़ान थी। उसने कहा: नहीं, परेशान तो नहीं हुआ; पर डर के कारण मैंने अपना पूरा वजन जहाज पर नहीं रखा। डर के मारे अपना पूरा वजन जहाज पर नहीं रखा कि कहीं वजन के कारण कोई उपद्रव न हो जाए।
अब हवाई जहाज में तुम बैठो, वजन पूरा रखो या न रखो, वजन पूरा हवाई जहाज पर है।
सुना हैं मैंने, एक सम्राट अपने रथ से लौटता था, जंगल से महल की तरफ, एक गरीब आदमी को उसने राह पर बड़ा बोझ ढोते हुए देखा। दया आ गई। कहा, आ, बैठ जा तू भी रथ में। कहां तुझे उतरना है, छोड़ देंगे। वह बैठ तो गया रथ में, लेकिन पोटली उसने सिर की सिर पर ही रखे रही। सम्राट ने कहा: पोटली नीचे क्यों नहीं रख देता? उसने कहा: इतनी ही आपकी कृपा क्या कम है कि मुझे बिठा लिया! अब पोटली का वजन भी आप पर छोडूं, नहीं-नहीं, यह मुझसे न होगा।
लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम रथ में बैठ कर पोटली नीचे रखो रथ पर या सिर पर रखो, वजन तो रथ पर ही है।
जो जरा से लौटते हैं अपनी तरफ, उनको पता चलता है कि हम नाहक ही परेशान थे; करने वाला कर रहा था; जो होने वाला था हो रहा था; हम व्यर्थ ही बीच में उछल-कूद कर रहे थे!
तब तुम समझना कि अब तुम्हारे भीतर भक्ति की शुरुआत हुई।
भक्ति की शुरुआत का अर्थ है कि न मैं करने वाला हूं, न मैं कर सकता हूं--मैं हूं ही नहीं, वही है! और तब तुम्हारे मन में उसके प्रति अनन्य प्रेम का जन्म होता है।
तुम्हारा सारा बोझ वही ढो रहा है।
और तब तो भक्त ऐसी घड़ी में आ जाता है कि वह जानता है कि भक्ति भी करने का सवाल नहीं, प्रार्थना भी मेरे किए न होगी। वही प्रार्थना करेगा मुझसे तो होगी। अब तो उसकी तरफ जाना भी मुझसे न होगा; वही चलेगा मेरे पैरों से तो ही पहुंच पाऊंगा।
उठता नहीं है अब तो कदम मुझ गरीब का
मंजिल को कह दो, दौड़ के ले मुझको राह में।
धीरे-धीरे उसे अपनी असहाय अवस्था का बोध होता है कि मैं तो कुछ भी नहीं हूं। अब तो मुझ गरीब का पैर भी नहीं उठता! वही उठाए तो उठता है। और अब भय भी क्या, डर भी क्या! अगर उसे पहुंचाना ही है तो मंजिल खुद ही आकर बीच राह में मुझे ले लेगी।
इसलिए भक्त किनारे को नहीं मांगता। वह तो कहता है: तू अगर मंझधार में भी डुबा दे तो वही किनारा है। उसने अपना सारा बोझ उसी को दे दिया।
कृष्ण ने गीता में अर्जुन को बस इतनी ही बात समझाई है कि तू सारा बोझ परमात्मा पर छोड़ दे। तू आराम से बैठ हवाई जहाज में, नाहक अपने बोझ को मत उठाए रख। रथ में बैठ ही गया है, सिर की पोटली भी नीचे रख दे। निमित्त मात्र हो जा!
दूसरा प्रश्न:
भगवान, कल का एक सूत्र था कि भक्ति उसके प्रति प्रेमरूपा है। कृपया समझाएं कि भक्ति की यात्रा और सदगुरु के बीच कैसा संबंध है।
गुरु का अर्थ है: सोए हुओं में जागा हुआ व्यक्ति; अंधों में आंख वाला। बस इतना ही। तुम्हें जो स्मरण नहीं आ रहा है, उसे स्मरण आ गया है। तुम जिसे पीठ की तरफ छिपाए हो, वह उसके आमने-सामने खड़ा हो गया है। उसने अपनी आंखों में झांक लिया; उसने अपने हृदय में टटोल लिया--और उसने परमात्मा को छिपे वहां पाया है।
गुरु का अर्थ है: जो मिट गया और अब केवल परमात्मा है वहां।
परमात्मा तुम्हारे लिए बड़े दूर का शब्द है। अनंत फासला मालूम होता है। तुम्हारी नींद में और परमात्मा में अनंत फासला मालूम होता है। होगा ही, क्योंकि परमात्मा जागे हुए चैतन्य का अनुभव है। इसलिए तो तुम मानते हो तो भी मान नहीं पाते। कहते हो, मानते हो, फिर भी भीतर संदेह खड़ा रहता है। लाख दबाते हो, छिपाते हो; मगर तुम जानते हो कि कहीं तो संदेह है: ‘परमात्मा हो सकता है।’
मैंने सुना है कि एक आदमी की कार बिगड़ गई थी। चाक एक बाहर आ गया था। और वह बड़ी गालियां बक रहा था, क्रोध में था। और गालियां तुम्हें सीखनी हों तो ड्राइवरों से सीखो, और कोई उतना कुशल नहीं। अकेला था। बीच जंगल में गाड़ी बिगड़ गई है और वह गालियां दे रहा है, दिल भर के गालियां दे रहा है। एक दूसरी कार आकर रुकी। एक पादरी, एक ईसाई पुरोहित उसमें था, वह उतरा। उसने देखा कि इतनी गालियां बक रहा है--और गालियां साधारण नहीं, परमात्मा तक को दे रहा है! तो उसने कहा: रुक भाई, यह उचित नहीं है। परमात्मा पर भरोसा कर। सब हो जाता है।
उस आदमी ने कहा: कैसे सब हो जाता है? क्या यह चाक लग जाएगा जाकर?
पादरी थोड़ा डरा, पर अब लौट भी नहीं सकता था अपनी बात से, तो उसने कहा: क्यों नहीं लग जाएगा? भरोसा हो तो सब हो जाता है।
तो उसने कहा कि तुम ही प्रार्थना करो।
अब पादरी और भी मुश्किल में पड़ा, क्योंकि वह भी जानता है कि परमात्मा है कहां? इतना न सोचा था कि बात आगे बढ़ जाएगी। अब यह आदमी सामने खड़ा है और अब पीछे लौटना भी कायरता मालूम होती है। उसने सोचा कि एक कोशिश करने में क्या हर्ज है; यहां कोई और है भी नहीं इस जंगल में देखने वाला; पराजय भी होगी तो बस इस एक आदमी के सामने। तो उसने प्रार्थना की--और हैरानी की बात: चाक उचका और गाड़ी में लग गया! तो उस पादरी ने आंख खोली, उस चाक को उचकते देखा तो वह चिल्लाया: हे भगवान, क्या तुम सच में हो?
जिंदगी भर लोगों को परमात्मा के संबंध में समझा रहा था, भरोसा नहीं है! धंधा है, व्यवसाय है। तो कोई पूजा का व्यवसाय करता है, कोई परमात्मा का व्यवसाय करता है। भरोसा किसी को नहीं है।
आस्तिक से आस्तिक, जिसको तुम कहते हो, वह भी भीतर संदेह को लिए बैठा है। इसलिए आस्तिक डरता है कि नास्तिक की बात कहीं कान में न पड़ जाए। असली आस्तिक डरेगा? शास्त्रों में लिखा है: नास्तिकों की बात मत सुनना। ये शास्त्र आस्तिकों ने न लिखे होंगे--ये उन्होंने लिखे होंगे जिनके हृदय में संदेह का कीड़ा अभी भी है। अन्यथा डर क्या है? अगर तुम्हारे भीतर आस्था परिपूर्ण है, अगर तुम्हारा संदेह सच में ही समाप्त हो गया है, जल गया है, तो नास्तिक की बात सुनने में भय क्या है? जरूर सुनना। शायद तुम्हारे शांत, मौन श्रवण को अनुभव करके नास्तिक के जीवन में कोई फर्क हो जाए। तुम्हारे जीवन में तो कोई अंतर पड़ने वाला नहीं; शायद तुम्हारे ईश्वर की अनन्य आस्था नास्तिक को भी संक्रामक हो जाए! आ जाने देना पास।
लेकिन आस्तिक डरते हैं, भयभीत होते हैं। डर अपने ही संदेह का है, कोई और तुम्हें डरा नहीं सकता।
तुम भयभीत हो, डरे हुए हो। तुम्हें पता है कि अगर बाहर से कोई संदेह की बात करे तो तुम्हारे भीतर का संदेह, जो सो गया है, जग जाएगा, छिपा है, प्रकट हो जाएगा; बाहर का संदेह तुम्हारे भीतर के संदेह को पुकार दे देगा, प्रतिसंवेदना शुरू हो जाएगी, तुम भीतर कंपने लगोगे।
परमात्मा दूर है बहुत तुम्हारे लिए, नींद में बड़ा दूर है! वस्तुतः दूर नहीं है; तुम्हारी नींद का ही फासला है। परमात्मा के लिए तुम दूर नहीं हो, तुम्हारे लिए परमात्मा दूर है--इसे ध्यान रखना।
जैसे तुम सोए हो, सूरज निकल आया, सूरज की किरणें तुम्हारे ऊपर बरस रही हैं, लेकिन तुम सोए हो: सूरज के लिए तुम दूर नहीं हो, तुम्हारे ऊपर बरस रहा है, तुम्हारे रोएं-रोएं को जगाने की चेष्टा कर रहा है; लेकिन तुम गहरी नींद में हो, तुम्हारे लिए सूरज तो बहुत दूर है, पता ही नहीं कि है भी या नहीं। तुम तो गहन अंधकार में खोए हो।
ऐसी घड़ियों में जब परमात्मा बहुत दूर मालूम पड़ता है, सदगुरु उपयोगी हो सकता है: क्योंकि सदगुरु तुम जैसा है, तुम्हारे पास है, मनुष्य जैसा मनुष्य है, हड्डी-मांस-मज्जा का है--और फिर भी तुमसे कुछ ज्यादा है, और फिर भी तुमने जो नहीं जाना है, उसने जाना है; तुम जो नहीं हुए, वह हो गया है। तुम जो कल होओगे, उसकी वह खबर है। वह तुम्हारा भविष्य है। वह तुम्हारी संभावनाओं का द्वार है।
परमात्मा बहुत दूर है; गुरु बहुत पास है। इसलिए परमात्मा के पास गुरु के बिना शायद ही कभी कोई पहुंच पाता है। गुरु ऐसा झरोखा है जिससे दूर के आकाश को तुम देख पाओगे। झरोखा पास है।
कमरे में तुम बैठे हो, तुमसे मैं आकाश की बातें करूं और आकाश के अनंत सौंदर्य की चर्चा करूं--व्यर्थ है। तुमसे सूरज की किरणों की कहानी कहूं--व्यर्थ है। तुमसे फूलों की वार्ता करूं--व्यर्थ है। लेकिन एक झरोखा खोल दूं, एक खिड़की खोल दूं जो बंद थी--तुम अपनी ही जगह हो, तुममें कोई फर्क नहीं हुआ, तुम उठे भी नहीं अपनी जगह से, तुम अपनी ही कोच पर आराम कर रहे हो, तुमने कुछ भी फर्क न किया--लेकिन एक झरोखा खुल गया, दूर का आकाश अब उतना दूर नहीं! एक कोना आकाश का दिखाई पड़ने लगा--और कोने को जिसने पकड़ लिया, वह पूरे को पकड़ ही लेगा। थोड़ी फूलों की गंध भी भीतर आने लगी। थोड़ी सी किरणें भी आ गईं और नाचने लगीं फर्श पर। तुम वहीं के वहीं बैठे हो, तुममें कोई फर्क नहीं हुआ; लेकिन एक झरोखा तुम्हारे पास खुल गया!
गुरु एक झरोखा है। तुम वही हो, लेकिन गुरु के पास होते ही उस झरोखे से तुम बड़े आकाश को, विराट आकाश को झांक पाओगे।
गुरु जैसे बूंद है, लेकिन बूंद का स्वाद तो वही है जो सागर का है, वैसा ही नमकीन है।
बुद्ध कहा करते थे कि बूंद चख लो एक सागर की, तुमने सारा सागर चख लिया।
गुरु एक बूंद है, लेकिन ऐसी बूंद जिसने पहचान लिया अपने भीतर छिपे सागर को। तुम भी बूंद हो, लेकिन ऐसी बूंद जिसे अपने भीतर छिपे सागर की कोई खबर नहीं। बूंद और बूंद की थोड़ी बात हो सकती है। ऐसे तो गुरु और शिष्य के बीच भी वार्ता बहुत मुश्किल है, तो खोजी और परमात्मा के बीच तो वार्ता असंभव है।
गुरु पर रुकना नहीं है; गुरु से गुजर जाना है। गुरु तो द्वार है; उससे तो पार हो जाना है। इसलिए सदगुरु और गुरु में यही फर्क है।
सदगुरु का अर्थ है: जो तुम्हें परमात्मा की तरफ ले जाए; इतना ही नहीं जो तुम्हें तुमसे मुक्त करे और जो तुम्हें अपने से भी मुक्त करे।
वही गुरु सदगुरु है जो तुम्हें अपने से भी मुक्त होना सिखाए, नहीं तो आखिर में गुरु पकड़ जाएगा। कहीं ऐसा न हो कि कोच से तो तुम उठ आओ और खिड़की के चौखटे को पकड़ लो। तब तुम चूक गए। तो जो तुम्हें अपने को पकड़ाने की चेष्टा में लगा हो उससे सावधान रहना।
गुरु पहले तुमसे तुम्हारा संसार, तुम्हारे गलत दृष्टिकोण छीन लेगा। और जब वे छिन गए, तो आखिरी चीज जो वह छीनेगा, वह स्वयं को तुमसे छीन लेगा, ताकि तुम खुले आकाश में प्रवेश पा जाओ।
और असली सवाल झुकने की कला सीखने का है। गुरु के पास तुम झुकने की कला सीख लोगे। जिस दिन तुम्हें झुकना आ गया, बस सब आ गया। असली सवाल मिटने की कला सीखने का है। गुरु के पास तुम मिटना सीख लोगे। जिस दिन मिटना आ गया, सब आ गया।
कुछ जज्ब-ए-सादिक हो, कुछ इखलासो-इरादत
इससे हमें क्या बहस वह बुत है कि खुदा है।
कुछ जज्ब-ए-सादिक हो,...
कुछ सत्य भावना हो, कुछ प्रेम का आविर्भाव हो--
...कुछ इखलासो-इरादत
कुछ हमारे इरादों में, हमारी भावनाओं में प्रेम के अंकुर का अंकुरण हो--
इससे हमें क्या बहस वह बुत है कि खुदा है।
वह पत्थर की मूर्ति हो कि परमात्मा हो, इससे क्या बहस! थोड़ा प्रेम करना आ जाए, थोड़ा स्वाद लग जाए अनंत का, थोड़ी भावना की पवित्रता आ जाए, थोड़ी झुकने की कला समझ में आ जाए।
बहस नासमझ करते हैं। समझदार समय का उपयोग कर लेते हैं और जीवन की कोई गहराई सीख लेते हैं।
यही फर्क है विद्यार्थी और शिष्य में।
विद्यार्थी बहस में उत्सुक है, शिष्य जीवन को बदलने में। विद्यार्थी कुछ ज्ञान की सूचनाएं इकट्ठी करने चला आया है, शिष्य अस्तित्व को बदलने आया है। विद्यार्थी दांव पर कुछ भी नहीं लगाता है। विद्यार्थी तो सिर्फ स्मृति का निखार कर रहा है। शिष्य जीवन को दांव पर लगाता है; सब-कुछ खोना हो तो भी तैयारी दिखलाता है। क्योंकि जब तक तुम सब खोने को तैयार न हो जाओ तब तक तुम सबको पाने के मालिक न हो सकोगे। जिसने सब खोया उसने सब पाया।
तो गुरु के पास तो बारहखड़ी सीखनी है, अल्फाबेट। परमात्मा का गीत तो अभी कठिन पड़ेगा। तुम्हें अभी बारहखड़ी ही नहीं आती। गुरु के पास अ ब स सीख लेना है--अ ब स परमात्मा का। जब तुम सीख गए, तुम चले अपनी यात्रा पर।
पक्षी के बच्चे पैदा होते हैं, अंडों से बाहर आते हैं। तुमने कभी देखा होगा झाड़ों में लटके घोसलों के किनारों पर बैठे, डरते हैं, आकाश को देखते हैं: बड़ा आकाश है! अभी तक अंडे में ही रहे थे, बड़ी छोटी दुनिया थी, बड़ी सुरक्षित थी, ऊष्ण थी। मां गर्मी देती रहती थी। अब दुनिया बड़ी ठंडी मालूम पड़ती है। वह ऊष्णता मां की गई। किनारे पर बैठते हैं, मां उड़ती है। वह उड़ान उनके भीतर भी किसी सोई हुई, प्रसुप्त आकांक्षा को जन्म देती है। वे भी उड़ना चाहते हैं--कौन नहीं उड़ना चाहता! क्योंकि उड़ने में मुक्ति है, स्वातंत्र्य है। लेकिन डगमगाते हैं, डरते हैं। बैठे हैं घोसले के किनारे। उन्हें अपने पंखों का पता नहीं। हो भी कैसे सकता है? पंखों का पता तो तभी चलता है जब तुम उड़ो। उड़ने के पहले पंखों का पता चल नहीं सकता। उड़ने के बिना कैसे तुम जानोगे कि तुम्हारे पास भी पंख हैं? पैर पता चलते हैं जब तुम चलते हो। आंख पता चलती है जब तुम देखते हो। कान पता चलते हैं जब तुम सुनते हो। पंख पता चलते हैं जब तुम उड़ते हो।
अभी पक्षी उड़ा नहीं, अभी अंडे से बाहर आया है। अभी उसे कैसे पता हो सकता है कि मेरे पास भी पंख हैं। अभी वह डरता है। क्या करता है? क्या चाहता है? चाहता है उड़ना। कोशिश भी करता है, लेकिन पकड़े है जोर से घोसले को कि कहीं इस विराट शून्य में खो न जाए।
मां क्या करती है? एक धक्का देती है। घबड़ाता है पक्षी, घबड़ाहट में पंख खुल जाते हैं। घबड़ा कर लौट आता है वापस एक चक्कर मार कर, लेकिन अब उसे पता हो गया: पंख उसके पास हैं; थोड़ी देर होगी चाहे, कला सीखने में थोड़ा समय लगेगा--लेकिन पंख हैं! एक बड़ा भरोसा आया! एक हिम्मत जगी! एक आत्मविश्वास का जन्म हुआ: तो यह आकाश भी अपना है! दो छोटे पंखों के सहारे पूरा आकाश अपना हो जाता है। बस, दो छोटे पंखों के सहारे सारे आकाश की मालकियत मिल गई! फिर थोड़ी-थोड़ी दूर जाने के प्रयोग करता है--और दूर, और दूर, बड़े वर्तुल बनाता है--और एक दिन फिर दूर आकाश की यात्रा पर निकल जाता है। अब मां को धक्का देने की जरूरत नहीं पड़ती।
गुरु तुम्हें एक धक्का देगा घोसले के बाहर। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। यह तुम भी कर सकते थे। जब तुम कर लोगे तब तुम पाओगे: अरे, यह तो मैं भी कर सकता था! लेकिन यह तुम पाओगे तब जब तुम कर लोगे। इसके पहले, इसके पहले कैसे तुम जानो कि पंख हैं? गुरु तुम्हें दिखा देगा तब तुम्हें लगेगा: अरे, यह तो बिना गुरु के भी हो सकता था!
कृष्णमूर्ति के साथ यही हुआ: धक्का दिया एनीबीसेंट ने, लीडबीटर ने, उनके गुरुओं ने--पंख खुले! कृष्णमूर्ति को समझ आई कि यह तो मुझसे ही हो सकता था। पंख मेरे, पंख खुले तो मेरे: धक्के के बिना भी अगर मैं जरा सी हिम्मत कर लेता तो हो जाता। तब से चालीस-पचास वर्ष बीत गए, वे दूसरों को यही सिखा रहे हैं कि हिम्मत करो, कूद जाओ, पंख तुम्हारे हैं, गुरु की कोई जरूरत नहीं! लेकिन कोई कूदता हुआ मालूम नहीं पड़ता। बात बिलकुल ठीक कहते हैं। बात में जरा भी गलती नहीं है। भूल-चूक कोई खोज नहीं सकता इसमें।
लेकिन कोई चाहिए जो तुम्हें धक्का दे दे। और जब गुरु धक्का देगा तो बहुत बुरा लगेगा। तो पहले गुरु तुम्हें पास बुलाएगा, प्रेम देगा। ताकि तुम आ जाओ और निकट, और निकट, और निकट; फिर एक दिन धक्का देगा। तुम चौंकोगे बहुत: ऐसा प्रेमी आदमी ऐसा दुष्ट कैसे हो गया! लेकिन जरूरी है कि वह धक्का दे तो ही तुम्हारे पंख खुलेंगे।
इसलिए जो परमात्मा को खोजने चले हों सीधे वे थोड़ा सम्हल जाएं, वह सीधी खोज कहीं अहंकार का ही नया करतब न हो, कहीं अहंकार की ही नई ईजाद न हो! फिर ऐसे लोग हो सकता है वहीं बैठे रहें घोसले में, आंख बंद कर लें और खुले आकाश के सपने देखने लगें। वह आसान है।
गुरु को खोजो; परमात्मा की खोज की कोई जरूरत नहीं। गुरु को खोजते ही वह खोज हो जाएगी।
हे फर्ज तुझ पै फकत बंदा-ए-खुदा की तलाश
खुदा की फिक्र न कर, वोह मिला, मिला न मिला।
उसकी बहुत चिंता नहीं है। लेकिन किसी खुदा के बंदे की तलाश कर ले। किसी गुरु को खोज ले। फिर परमात्मा मिला न मिला, तू छोड़ फिकर। मिल ही जाएगा, उसकी बात ही मत उठा। क्योंकि गुरु को खोजने में ही पहला कदम उठ जाता है।
गुरु को खोजने का अर्थ है: अहंकार का समर्पण।
किसी के चरणों में झुकने का अर्थ है: झुकने की कला का पहला अभ्यास।
झुक गए तो खुदा तो मिल ही जाएगा। बस तुम झुके न थे, वहीं अड़चन थी। इसलिए गुरु की बड़ी अनिवार्यता है। जरूरत बिलकुल नहीं है, अनिवार्यता है पूरी। जरूरत बिलकुल नहीं है; ऐसा लगता है कि हो सकता है अपने आप। कहां अड़चन है? पंख तुम्हारे पास हैं, उड़ने की क्षमता तुम्हारे पास है, आकाश मौजूद है--सब मौजूद है फिर गुरु की क्या जरूरत है? अगर कोई तर्क से विचार करे तो गुरु की जरूरत मालूम नहीं होगी। लेकिन तुम में साहस नहीं है, इसलिए गुरु की जरूरत है। वह साहस को कौन पूरा करे? तुम्हें हिम्मत कौन दे? कौन तुम्हें धक्का दे दे?
मेरे गांव में एक बूढ़े सज्जन हैं। उन्होंने करीब-करीब गांव के सभी बच्चों को तैरना सिखाया होगा। वे नदी के प्रेमी हैं। और गांव भर के बच्चे जैसे ही तैरने योग्य हो जाते हैं, नदी पहुंच जाते हैं। और वे सुबह पूरा समय पांच-छह घंटे का, गांव भर के बच्चों को तैरना सिखाने में देते हैं। मुझे भी उन्होंने ही तैरना सिखाया। जब मैं सीख गया, मैंने उनसे कहा: यह भी कोई बात हुई, तुमने सिखाया जरा भी नहीं, सिर्फ मुझे धकाया। उन्होंने कहा: बस वही सिखाना है। वे फेंक देते हैं बच्चे को। बच्चा घबड़ाता है। वे खड़े हैं सामने। दो-तीन फीट दूर फेंक देते हैं गहरे में। बच्चा घबड़ाता है, तड़फड़ाता है, हाथ-पैर फेंकता है। वही तैरने की शुरुआत है। हाथ-पैर फेंकना ही तैरने की शुरुआत है। फिर धीरे-धीरे व्यवस्था आ जाती है। पहले अव्यवस्थित फेंकता है। पहले घबड़ाहट में फेंकता है। फिर वे दौड़ कर उसे बचा लेते हैं। फिर फेंकते हैं। फिर ले आते हैं किनारे पर। फिर फेंकते हैं। कभी मुंह में पानी चला जाता है, कभी नाक में पानी चला जाता है, कभी बड़ी घबड़ाहट होती है। कभी ऐसा लगता है कि यह तो बचना मुश्किल है, मरे! और कुछ नहीं सिखाते वे। दस-पांच दफा फेंकते हैं। हाथ-पैर में गति व्यवस्थित होने लगती है। दो-चार दिन में बच्चा तैरना सीख जाता है। सिखाते कुछ भी नहीं, सिर्फ पानी में तुम अपने से न कूद सकोगे, घबड़ाहट लगेगी, उतनी घबड़ाहट भर छीन लेने की बात है।
परमात्मा उपलब्ध है गुरु के बिना, मगर उपलब्ध हो न सकेगा। जब वह उपलब्ध हो जाएगा तब तुम जानोगे कि हो सकता था। लेकिन वह सदा बाद में।
कोलंबस ने अमरीका खोजा। जब तक नहीं खोजा, तो कोई भरोसा नहीं था किसी को; लोग सोचते थे यह गया, यह लौटने वाला नहीं है। क्योंकि यह सिर्फ कल्पना के आधार पर कि यदि पृथ्वी गोल है... जो कि गैलीलियो और कोपरनिकस ने सिद्ध कर दिया था कि पृथ्वी गोल है, मगर कोई देखा तो नहीं था; देखा तो अभी तक नहीं था। जब पहली दफा अंतरिक्ष-यात्रा शुरू हुई और मनुष्य पृथ्वी के घेरे के बाहर गया तब पहली दफा दिखाई पड़ा कि पृथ्वी गोल है, इसके पहले तो किसी ने देखा न था, यह तो धारणा थी, तर्कसिद्ध थी, हजार प्रमाण थे इसके, लेकिन सब प्रमाण परोक्ष थे। कोलंबस ने कहा कि जब पृथ्वी गोल है तो अगर मैं जाऊं यात्रा पर और करता ही रहूं यात्रा सीधा, सीधा, तो एक दिन वापस इसी जगह लौट आऊंगा। अगर बीच में कुछ हुआ तो मिल गई कोई जगह तो ठीक है, नहीं तो वापस अपने घर आ जाएंगे। गोल अगर पृथ्वी है तो लौट ही आएंगे अपनी जगह, भटकने का कोई सवाल नहीं है।
कोई साथ जाने को राजी न था। बड़ी मुश्किल से सालों की खोज के बाद अस्सी आदमी तैयार हो सके। उनमें कई ऐसे थे, जो मरने को तत्पर थे, जिनको जिंदगी में कोई सार न था। कुछ पागल थे, दीवाने थे, उन्होंने कहा, चलो, कोई हर्जा नहीं; मरेंगे, और क्या होगा! ढंग का कोई एक आदमी तैयार नहीं था। कुछ को सम्राट की आज्ञा हुई थी, इसलिए कुछ सैनिकों को जाना पड़ रहा था, तो वे गए थे।
इन अस्सी आदमियों को लेकर कोलंबस गया। जिसने धन की सहायता दी थी, जिस रानी ने, उसके दरबारियों ने कहा था: यह फिजूल पैसा खराब हो रहा है। ये अस्सी आदमी मरेंगे। ये लाखों रुपये खराब होंगे। पर उस रानी ने कहा: करने दो, एक प्रयोग है देखेंगे।
कोलंबस अमरीका खोज कर लौट आया। दरबार में उसका स्वागत हुआ। तो उन्हीं दरबारियों ने कहा: यह कोई क्या खास बात है, यह कोई भी खोज लेता। अगर पृथ्वी गोल है, कोई भी जाता तो मिल जाता।
कोलंबस की थाली में एक अंडा रखा था। उसने अंडा उठाया और उसने कहा: इसे कोई सीधा खड़ा करके बता दे टेबल पर। कई ने कोशिश की खड़ा करने की; पर अब अंडा कैसे सीधा खड़ा हो? वह गिर-गिर जाए। उन्होंने कहा: यह हो ही नहीं सकता; यह असंभव है।
कोलंबस ने जोर से अंडे को ठोका टेबल पर, नीचे की पर्त सीधी हो गई, अंदर दब गई, अंडा खड़ा हो गया। उन्होंने कहा: अरे, यह तो कोई भी कर देता! कोलंबस ने कहा: लेकिन किसी ने किया नहीं।
करने के बाद तो सभी कुछ आसान हो जाता है। करने के पहले असली सवाल है। उस करने के पहले गुरु की जरूरत है।
अनिवार्यता बिलकुल नहीं, और अनिवार्यता पूरी है। जानोगे, तब पाओगे: हो जाता है बिना गुरु के। लेकिन तब तुम यह भी पाओगे... अगर तुम पीछे लौट कर देखो कि हो नहीं सकता था, तुम हिम्मत ही न जुटा पाते।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, भक्ति साधना भी है और सिद्धि भी। कृपापूर्वक उसके अलग-अलग रूपों को हमें समझाएं।
न, भक्ति के कोई रूप नहीं हैं।
प्रेम के कहीं कोई रूप होते हैं? प्रेम तो बस एक है। उसका स्वाद एक है।
भेद तो बुद्धि से होते हैं; हृदय में भेद नहीं होते। हिंदू की बौद्धिक धारणा अलग, मुसलमान की बौद्धिक धारणा अलग, ईसाई का फलसफा अलग है। वे बुद्धि की बातें हैं। लेकिन जब हिंदू भक्ति से भरता है और जब मुसलमान भक्ति से भरता है और जब ईसाई भक्ति से भरता है, तो उन भक्तियों में भेद नहीं हैं, वे एक हैं।
भक्ति हृदय की बात है। उसका तुम्हारे अंतस्तल से संबंध है, तुम्हारी बुद्धि की बाहरी बातों से नहीं। क्या तुमने सीखा है, उससे संबंध नहीं है; क्या तुम्हारा स्वभाव है, उससे संबंध है। लेकिन यह बात सच है कि भक्ति साधना भी है और सिद्धि भी। वहां पहला कदम ही आखिरी कदम भी है। वहां साधन ही साध्य भी है।
भक्ति का अर्थ है: परम प्रेम। परम प्रेम की साधना करनी है। और जब सिद्धि होगी तब क्या होगा? परम प्रेम उपलब्ध होगा। परम प्रेम को ही साधना है और परम प्रेम को ही पाना है। प्रेम ही वहां मार्ग है और प्रेम ही वहां मंजिल है।
होना भी यही चाहिए। क्योंकि जब तुम भी किसी यात्रा पर जाते हो तो तुम जो पहला कदम उठाते हो मार्ग पर, उस पहले कदम में मंजिल एक कदम करीब आ गई। तो कदम तुमने मार्ग पर ही नहीं उठाया, मंजिल पर भी उठाया। हजार मील की यात्रा तुम पूरी कर लोगे एक-एक कदम उठा-उठा कर। एक-एक कदम मंजिल करीब आती जाती है। एक दिन तुम मंजिल पर पहुंच जाते हो। उसमें कौन सा कदम सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण था? लगेगा: आखिरी कदम, क्योंकि आखिरी कदम ने ही मंजिल पर पहुंचाया। नहीं, जितना आखिरी कदम महत्वपूर्ण है, उतना ही पहला कदम भी था। क्योंकि पहला कदम अगर चूक जाता तो आखिरी तो हो ही न पाता।
तुम पानी को गरम कर रहे हो, निन्यानबे डिग्री तक गर्म करते हो, सौ डिग्री पर भाप बन जाता है। क्या सौवीं डिग्री के कारण भाप बनता है? अगर पहली डिग्री न होती तो सौ डिग्री हो नहीं सकता था, निन्यानबे डिग्री ही रह जाता, भाप नहीं बनता।
पहला कदम आखिरी कदम भी है। मार्ग मंजिल भी है।
मार्ग क्या है भक्त का?
भक्त का मार्ग है: अहोभाव।
अहोभाव को समझना जरूरी है। वही उसकी विधि है।
साधारणतः कामवासना देखती है वह जो तुम्हारे पास नहीं है। कामवासना की दृष्टि अभाव पर रहती है; जो तुम्हारे पास नहीं है, उसी को देखती है। भक्ति उलटी स्थिति है; जो तुम्हारे पास है, उसे देखती है।
जब जो तुम्हारे पास नहीं है, तुम उसको देखते हो, तब तुम सदा पीड़ित रहते हो, क्योंकि इतना कम है, इतना कम है़, इतना कम है! और यह तो कम रहेगा ही। लाख रुपये तुम्हारे पास हैं, वह तुम नहीं देखते; अरबों-खरबों जो तुम्हारे पास नहीं हैं, वह तुम देखते हो। जो पत्नी तुम्हारे पास है, उसे तुम नहीं देखते; सारे संसार की स्त्रियां दिखाई पड़ती हैं।
अगर पति से कोई पूछे ठीक-ठीक कि तू अपनी पत्नी की शक्ल बता सकता है? तो दिक्कत खड़ी हो जाएगी। कौन देखता है अपनी पत्नी को! पड़ोस की पत्नी का सब नाक-नक्शा बता देगा वह। आज उसने कैसी साड़ी पहनी है, यह भी बता देगा। लेकिन अपनी पत्नी...।
‘जो है’ उसे हम देखते ही नहीं; जो नहीं है उसे देखते हैं़, इसलिए पीड़ित रहते हैं। क्योंकि ‘नहीं है’ खलता है, कांटे की तरह चुभता है, अभाव मालूम पड़ता है। दीनता-दरिद्रता मालूम पड़ती है। ‘जो है’ अगर उसे देखें तो अहोभाव पैदा होता है। तो इतना दिया है परमात्मा ने कि तुम सिवाय धन्यवाद के और क्या कर सकोगे! तो अचानक तुम पाते हो कि तुम सम्राट हो गए, भिखारी न रहे!
दिल दिया, दर्द दिया, दर्द में लज्जत दी है
मेरे अल्हाह ने क्या-क्या मुझे दौलत दी है!
और तब दर्द भी सौभाग्य मालूम होने लगता है!
दिल दिया, दर्द दिया, दर्द में लज्जत दी है
पीड़ा में भी एक मिठास है। सुख की तो छोड़ो, दुख में भी एक गहराई है--वह भक्त को दिखाई पड़ती है। स्वर्ग की तो छोड़ो, नरक में भी एक सौंदर्य है--वह भक्त को दिखाई पड़ता है। कामी को तो स्वर्ग में भी स्वर्ग दिखाई नहीं पड़ता; भक्त को नरक में भी स्वर्ग दिखाई पड़ता है।
और तुम्हें जो दिखाई पड़ता है तुम उसी में जीने लगते हो। क्योंकि आदमी जिसको अनुभव करता है, जिसको देखता है, उसी में जीता है।
भक्त भाव में जीता है।
कामी अभाव में जीता है।
दिल दिया, दर्द दिया, दर्द में लज्जत दी है
और तब तो दर्द में भी लज्जत दिखाई पड़ने लगती है।
दर्द में भी एक काव्य है।
दर्द का भी एक रहस्य है।
पीड़ा में भी कुछ अनूठी मिठास है।
पीड़ा का भी काव्य है।
और पीड़ा में भी कुछ जन्मता है, जो बिना पीड़ा के नहीं जन्म सकता।
रंज हो, दर्द हो, वहशत हो, जुनूं हो, कुछ हो
आप जिस हाल से खुश हों, वही हाल अच्छा है।
और भक्त कहता है: जो परमात्मा ने दिया है: ‘रंज हो, दर्द हो, वहशत हो, जुनूं हो, कुछ हो।’ भक्त को जैसे ही यह दिखाई पड़ना शुरू होता है कि कितना दिया है; मेरी कोई पात्रता न थी और इतना दिया है; अपात्र था और जीवन दिया; कमाया कुछ भी न था, इतने अनंत आनंद की क्षमता दी; सौभाग्य दिया कि होऊं, कि मेरे नासापुट श्वास लें, कि मेरी आंखें सूरज की किरणों को देखें, कि मेरा हृदय प्रेम की पुलक को अनुभव करे, कि मेरे कानों पर संगीत का साक्षात्कार हो! कुछ भी न था, शून्य से बनाया मुझे और सब-कुछ दिया!
आप जिस हाल से खुश हों वही हाल अच्छा है।
और तब भक्त अपनी कोई मर्जी नहीं रखता; परमात्मा की मर्जी ही उसकी मर्जी है: वह जहां ले जाए वहीं जाएंगे। वह जो कराए वही करेंगे!
भक्त छोड़ ही देता है सब। भक्त उपकरण-मात्र हो जाता है। परमात्मा ही उससे बहता है। यही साधना है और यही सिद्धि भी है। जिस दिन यह स्थिति परिपूर्ण हो जाएगी...।
कब होती है स्थिति परिपूर्ण? यह सौभाग्य कब पूरा होता है?... जब भक्त की मंजिल आ जाती है। पहले तो साधारण आदमी, जो कामवासना में जीता है, शिकायत करता है; शिकायत ही उसका जीवन है।
तुम लोगों की बातें सुनो, सिवाय शिकायत के उनके जीवन में कुछ भी नहीं है: यह नहीं है, यह ठीक नहीं है; यह गलत हो रहा है, यह गलत हो रहा है; सब गलत हो रहा है! गलत-गलत से वे घिर गए हैं। शिकायत ही शिकायत है।
भक्त की बात सुनो: अहोभाव ही अहोभाव है।
लेकिन जब मंजिल आती है, पहले शिकायत खो जाती है, भक्त अहोभाव से भर जाता है; फिर तो अहोभाव भी खो जाता है। क्योंकि धन्यवाद भी देने का मतलब है कि थोड़ी-बहुत शिकायत शेष रही होगी। नहीं तो धन्यवाद क्यों?
इसे थोड़ा समझें।
धन्यवाद भी हम तभी देते हैं कि अगर इससे अन्यथा होता तो शिकायत होती। धन्यवाद शिकायत का उलटा है।
रूमाल तुम्हारे हाथ से गिर गया, किसी ने उठा कर दे दिया, तुमने कहा, धन्यवाद। इसका मतलब है कि अगर वह उठा कर न देता तो शिकायत होती। तो इसका अर्थ यह हुआ कि धन्यवाद ऊपर आ गया है, शिकायत भीतर चली गई है।
तो भक्त जब तक मार्ग पर है, अहोभाव से भरा रहता है।
शिकायत से बेहतर है अहोभाव, क्योंकि शिकायत में सिर्फ पीड़ा होती है, दुख होता है, दर्द होता है, अंधेरा ही अंधेरा होता है। अहोभाव में सब रोशन हो जाता है, सब खिल जाता है! लेकिन अभी भी कमी है। मंजिल पर आते सब बात ही समाप्त हो जाती है, कुछ कहने को नहीं रह जाता।
जब अहोभाव भी नहीं बचता तब अहोभाव पूरा हो जाता है।
इस तरह मिटना है कि कुछ भी न बचे। शिकायत तो मरे ही, अहोभाव भी मर जाए।
दिल है तो उसी का है, जिगर है तो उसी का है
अपने को राह-ए-इश्क में बरबाद जो कर दे।
दिल है तो उसी का, जिगर है तो उसी का
बस उसी के पास दिल पैदा होगा, उसी के पास जिगर आएगा।
अपने को राह-ए-इश्क में बरबाद जो कर दे।
प्रेम की राह पर जो अपने को पूरा मिटा दे, वही पहली दफा हो पाता है।
भक्ति का अर्थ है: अपने को मिटाने की कला। वह मृत्यु की कला है; अपने को खोने की कला; अपने को डुबाने की कला।
चौथा प्रश्न:
भगवान, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं एक अधपका फल हूं...?
प्रतीत होने का सवाल ही नहीं, होओगे ही! नहीं तो कभी के गिर गए होते। पके फल वृक्षों से थोड़े ही लटके रहे जाते हैं। पके फल तो गिर जाते हैं। गिरना ही सबूत है कि फल पक गया, और कोई सबूत नहीं। पीले हो जाने से कोई पक गया, ऐसा मत समझ लेना--गिर जाने से...।
उपनिषद कहते हैं: ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः।’ उन्होंने ही भोगा, जिन्होंने त्यागा। क्योंकि त्याग से ही पता चलता है कि ठीक से भोगा, समझ गए कि भोग बेकार है। जिस दिन भोग पक जाता है उस दिन त्याग अपने आप हो जाता है। जिस दिन फल पक जाता है उस दिन गिर जाता है।
‘ऐसा प्रतीत होता है...।’
प्रतीत होने की बात ही छोड़ दो; ऐसा जानो कि है, कि मैं एक अधपका फल हूं, निश्चित। इस प्रतीति को सत्य समझो, तो पकने की दौड़ शुरू होगी; तो ‘अथातो’ का क्षण शीघ्र ही पास आ जाएगा।
आदमी जब पक जाता है तभी पूरा आदमी होता है। जिस दिन तुम पूरे आदमी होते तो हो उसी दिन गिर जाते हो। आदमी गिरा कि परमात्मा शुरू हो जाता है। जहां आदमी का अंत वहां परमात्मा की शुरुआत है।
आदमी हैं शुमार से बाहर
कहत है फिर भी आदमियत का!
बहुत आदमी हैं, लेकिन आदमियत कहां? आदमियत की बड़ी कमी है, क्योंकि पके हुए आदमी कहां?
फर्श से ताअर्श मुमकिन है तरक्की ओ उरूज
फिर फरिश्ता भी बना लेंगे तुझे, इन्सां तो बन।
पहले आदमी बन, फिर हम तुझे देवता भी बना लेंगे।
फिर फरिश्ता भी बना लेंगे तुझे, इन्सां तो बन।
पहले पक। फिर देवत्व तो अपने आप आ जाता है। जो आदमी पूरा हुआ कि वहीं से देवत्व की शुरुआत है।
कैसे पकोगे?
बड़ा मुश्किल हो गया है पकना। इसलिए मुश्किल हो गया है कि तुम्हारे सारे संस्कार, सारी शिक्षा, सारा धर्म तुम्हें दमन सिखाते हैं, अनुभव नहीं सिखाते।
ऐसा समझो कि जिन-जिन चीजों की जानकारी से तुम्हें जीवन व्यर्थ मालूम पड़ता है, उनकी जानकारी ही पूरी नहीं होने देते।
बच्चे को हम सिखाते हैं: क्रोध मत कर। सिखाना चाहिए कि क्रोध जितना बन सके कर ले। जब बच्चा क्रोधित हो तो कहना चाहिए: खूब कर ले। क्योंकि अभी तो घर है अपना, फिर बाहर की दुनिया में जाएगा, वहां तुझे लोग क्रोध न करने देंगे, अपने घर में पूरा कर ले। पिता पर, मां पर, कर ले पूरा। क्योंकि दूसरे लोग इतनी कृपा न करेंगे। तू क्रोध को पूरी तरह कर ले, ताकि क्रोध की जलन का तुझे अनुभव हो जाए और क्रोध की व्यर्थता तुझे दिखाई पड़ जाए।
और क्रोध जहर है, और सिवाय हानि के कुछ लाभ नहीं देता।
और क्रोध मूढ़ता है, दूसरे के कसूर के लिए अपने को दंड देना है।
क्रोध अज्ञान है, क्योंकि क्रोध में तू दूसरे के हाथ में खिलौना हो गया है; कोई भी तेरी कुंजी दबा दे सकता है; कोई भी तुझे क्रोधित कर दे सकता है, तो तू दूसरे का गुलाम हो गया, तेरी मालकियत खो गई।
मगर यह तो तब होगा जब क्रोध पूरी तरह अनुभव किया जाए।
मेरी प्रतीति ऐसी है कि अगर तुमने एक बार भी जीवन में क्रोध का पूरा अनुभव कर लिया तो पक गया क्रोध, उसके बाद तुम क्रोध न करोगे। क्रोध की बात ही खत्म हो गई। हाथ जल गया!
दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने लगता है। लेकिन तुम्हें दूध से ही नहीं जलने दिया गया, छाछ को फूंक कर पीने की तो बात बहुत दूर।
तुम्हें सिखाया गया है, कामवासना से बचो, इसलिए तुम कामवासना में पड़े हो और सड़ते हो। मैं तुमसे कहता हूं, बचना मत। कामवासना में पूरे ही उतर जाना। ठीक तलहटी तक उतर जाना, ताकि और जानने को कुछ शेष न रह जाए। उसे इतनी पूर्णता से जान लेना कि रस ही खो जाए। जिस चीज को हम पूरा जान लेते हैं उसमें रस समाप्त हो जाता है। जहां-जहां रस हो तुम्हारा, जानना कि वहां-वहां अधूरा जानना हुआ है, इसलिए अधपकापन है। और ऐसा जीवन पूरा अधपका रह जाता है।
पको!
अनुभव पकाता है।
अनुभव की धूप पकाती है।
अनुभव की पीड़ा पकाती है।
अनुभव की भूल-चूक पकाती है।
भटकाना पकाता है।
राह से उतर जाना पकाता है।
जब तुम पक जाते हो, गिर जाते हो।
उस गिरने में ही--उस गिरने में ही देवत्व का क्षण शुरू होता है।
इसलिए अपने को बचाओ मत; जल्दी करो। जहां-जहां रस हो उसको पूरा-पूरा भोग ही लो। भोगने में आधा-आधा मत करना।
मैं देखता हूं: ऐसा ही होता है। मंदिर में बैठते हो तब दुकान की सोचते हो, क्योंकि दुकान पर कभी पूरे बैठे नहीं! जब दुकान पर बैठते हो तो मंदिर की सोचते हो, क्योंकि मंदिर में कभी पूरे बैठे नहीं। जहां हो वहीं अधूरे हो।
दुकान पर बैठते हो तब तुम्हें बड़ी ज्ञान की बातें सूझने लगती हैं कि इसमें क्या रखा है! संसार असार है! यह सब सुनी बकवास है। अगर यह तुमने जान लिया होता तो तुम्हारी जिंदगी में क्रांति हो गई होती। यह सब तुमने सुन लिया है, ये तोतारटंत है। यह तुमने कचरा इकट्ठा कर लिया है, यह सब उधार है। दुकान पर बैठ कर ये उधार आने लगता है दिमाग में, फिर मंदिर जाते हो, मंदिर में बैठते हो तो लगता है घंटा भर खराब कर रहे हो, इतनी देर में कुछ कमा ही लेते क्योंकि दुकान पर पूरे रहे ही नहीं, वहां मंदिर सताता रहा।
जहां हो वहां पूरे, जो करो उसे पूरा, उसमें उतर ही जाओ क्योंकि एक बात सदा स्मरण रखो कि अनुभव के अतिरिक्त और कोई चीज मुक्त नहीं करती। और अपने को धोखा देने की मत कोशिश करना, कोई और सुगम मार्ग नहीं है। अनुभव एकमात्र मार्ग है। और जो अनुभव से बचना चाहते हैं और सस्ते में चाहते हैं ज्ञान को उपलब्ध हो जाएं, वे भटकते रहेंगे, वे अधपके रह जाएंगे, यही तो गति है तुम्हारी, दुर्गति कहनी चाहिए।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, क्या भक्ति-साधना के भी कुछ साधन हैं, कुछ टेक्नीक हैं? या वह सर्वथा स्वतःस्फूर्त और सहज है?
नहीं, कोई साधन नहीं हैं।
प्रेम का कहीं कोई साधन होता है? कोई टेक्नीक? कोई टेक्नीक नहीं होता।
प्रेम परम साधन है, स्वयं ही।
खाकसारी का है गाफिल! बहुत ऊंचा मर्तबा
मिट जाने का, ऐ सोने वाले!... बहुत ऊंचाई है मिट जाने की।
खाकसारी का है गाफिल! बहुत ऊंचा मर्तबा
यह जमीं वोह है कि जिस पर आसमां कोई नहीं।
बस भक्ति तो मिट जाना है, ना-कुछ हो जाना है; अपने को शून्य कर लेना है, ताकि परमात्मा तुममें पूर्ण हो सके; जगह देनी है ताकि उसका प्रवेश हो सके; टूटना है!
तुमने बहुत चीजों को टूटते देखा है, अभी अपने को टूटते नहीं देखा। तुमने बहुत चीजें मिटते देखीं, अपने को मिटते नहीं देखा। तुमने बहुतों को मरते देखा, अपने को मरते नहीं देखा।
भक्ति अपने को मरते देखना है। वह मृत्यु का साक्षात्कार है।
हुबाब देख लिया, आबगीना देख लिया
शिकस्ते दिल की नजाकत किसी को क्या मालूम!
बुलबुले को देखा पानी के, उसको टूटता देखा...! कई बार तुमने देखा होगा पानी के बुलबुले को टूटता।
छोटे बच्चे सोप के बुलबुले उठाते हैं और उनका टूटना देखते हैं, उनकी रंगीनी देखते हैं सूरज की किरणों में। गौर किया? बुलबुले के भीतर कुछ भी नहीं होता, बाहर भी कुछ नहीं; बाहर भी खाली आकाश है, भीतर भी खाली आकाश है, बीच में एक छोटी सी पानी की पर्त है।
हुबाब देख लिया,...
ऐसे बुलबुले को टूटते देख लिया।
...आबगीना देख लिया
कभी शीशे को पटक कर देखा: टुकड़े-टुकड़े हो जाता है, खंड-खंड हो जाता है। लेकिन यह कुछ भी नहीं है।
शिकस्ते दिल की नजाकत किसी को क्या मालूम!
जिसने दिल को टूटता देखा, उसकी सूक्ष्मता का किसी को कोई भी पता नहीं है। क्योंकि जहां दिल टूटता है, जहां दिल भी एक बबूले की तरह टूट जाता है, जहां तुम्हारा होना एक बबूले की तरह टूट जाता है--वहां तुम अचानक पाते हो कि भीतर की आत्मा विराट परमात्मा से मिल गई; जरा सी दीवाल थी, खो गई!
तुम्हारा अहंकार कांच के दर्पण से ज्यादा नहीं है: गिरा नहीं कि टूटा। जरा झुको और गिरा दो इसे। मिटना सीखो--बस भक्ति का सूत्र इतना ही है।
योग में हजार विधियां हैं; भक्ति का सूत्र एक ही है। पर एक काफी है। वैसे ही जैसे कहावत है: सौ सुनार की एक लुहार की! ऐसे ही योगी खटखट-खटखट बहुत मचाता है। इसलिए तो उसके कर्म को ‘खटकरम’ कहते हैं। बहुत उपद्रव करता है। न मालूम कितनी विधियां बनाता है! इसलिए तो उसकी विधियों को गोरखधंधा कहते हैं। वह महायोगी गोरख के नाम से बना है शब्द: गोरखधंधा! गोरख ने इतनी विधियां खोजीं कि विधियों में ही कोई खो जाए, पहुंचने की तो बात ही अलग। इसलिए--गोरखधंधा।
भक्ति तो एक ही सूत्र जानती है: अपने को खो दो। झुको। मिटो।
परमात्मा द्वार पर खड़ा है: इधर तुम झुके नहीं, उधर वह मिला नहीं।
आज इतना ही।