NARAD
Bhakti-Sutra (भक्ति-सूत्र) 01
First Discourse from the series of 20 discourses - Bhakti-Sutra (भक्ति-सूत्र) by Osho. These discourses were given during JAN 11-20 1976, MAR 11-22 1976.
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अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः।।1।।
सा त्वस्मिन्परमप्रेमरूपा।।2।।
अमृतस्वरूपा च।।3।।
यल्लब्ध्वा पुमान सिद्धो भवति अमृतो भवति तृप्तो भवति।।4।।
यत्प्राप्य न किञ्चिद्वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति।।5।।
यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति।।6।।
जीवन है ऊर्जा--ऊर्जा का सागर। समय के किनारे पर अथक, अंतहीन ऊर्जा की लहरें टकराती रहती हैं; न कोई प्रारंभ है, न कोई अंत; बस मध्य है, बीच है। मनुष्य भी उसमें एक छोटी तरंग है; एक छोटा बीज है--अनंत संभावनाओं का।
तरंग की आकांक्षा स्वाभाविक है कि सागर हो जाए। और बीज की आकांक्षा स्वाभाविक है कि वृक्ष हो जाए। बीज जब तक फूलों में खिले न, तब तक तृप्ति संभव नहीं है।
मनुष्य कामना है परमात्मा होने की। उससे पहले पड़ाव बहुत हैं, मंजिल नहीं है। रात्रि विश्राम हो सकता है। राह में बहुत जगहें मिल जाएंगी, लेकिन कहीं घर मत बना लेना। घर तो परमात्मा ही हो सकता है।
परमात्मा का अर्थ है: तुम जो हो सकते हो, उसकी पूर्णता।
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है; कहीं आकाश में बैठा कोई रूप नहीं है; कोई नाम नहीं है। परमात्मा है तुम्हारी आत्यंतिक संभावना--आखिरी संभावना, जिसके पार फिर और कोई होना नहीं है; जिसके आगे फिर कोई जाना नहीं है; जहां पहुंच कर तृप्ति हो जाती है, परितोष हो जाता है।
प्रत्येक मनुष्य तब तक पीड़ित रहेगा। तब तक तुम चाहे कितना ही धन कमा लो, कितना ही वैभव जुटा लो, कहीं कोई पीड़ा का कीड़ा तुम्हें भीतर काटता ही रहेगा; कोई बेचैनी सालती ही रहेगी; कोई कांटा चुभता ही रहेगा। लाख करो भुलाने के उपाय--बहुत तरह की शराबें हैं विस्मरण के लिए, लेकिन भुला न पाओगे। और अच्छा है कि भुला न पाओगे; क्योंकि काश, तुम भुलाने में सफल हो जाओ तो फिर बीज बीज ही रह जाएगा, फूल न बनेगा--और जब तक फूल न बने और जब तक मुक्त आकाश को गंध फूल की न मिल जाए, तब तक परितृप्ति कैसी! जब तक तुम अपने परम शिखर को छूकर बिखर न जाओ, जब तक तुम्हारा विस्फोट न हो जाए अनंत में, जब तक तुम्हारी गंगा उसी सागर में वापस न लौट जाए जहां से आई है, तब तक अगर तुम भूल गए तो आत्मघात होगा, तब तक अगर तुमने अपने को भुलाने में सफलता पा ली तो उससे बड़ी और कोई विफलता नहीं हो सकती।
अभागे हैं वे जिन्होंने समझ लिया कि सफल हो गए। धन्यभागी हैं वे, जो जानते हैं कि कुछ भी करो, असफलता हाथ लगती है। क्योंकि ये ही वे लोग हैं जो किसी न किसी दिन, कभी न कभी परमात्मा तक पहुंच जाएंगे।
जहां सफलता मिली वहीं घर बन जाता है। जहां असफलता मिली वहीं से पैर आगे चलने को तत्पर हो जाते हैं।
परमात्मा तक पहुंचे बिना कोई तृप्ति संभव नहीं है।
कहा मैंने, जीवन ऊर्जा है।
ऊर्जा के तीन रूप हैं। एक तो बीज-रूप है: कुछ भी प्रकट नहीं है। फिर वृक्ष-रूप है: सब-कुछ प्रकट हो गया है, लेकिन प्राण अप्रकट हैं। फिर फूल-रूप है: फिर प्राण भी प्रकट हुआ; फिर वह अनूठी अपूर्व गंध भी आ गई, पंखुड़ियां खिल गईं और खुले आकाश के साथ मिलन हो गया, अनंत के साथ एकता हो गई!
साधारणतः बीज का अर्थ है: कामना। वृक्ष का अर्थ है: प्रेम। फूल का अर्थ है: भक्ति। जब तक तुम बीज में हो, तब तक कामवासना में रहोगे। जब तुम वृक्ष बनोगे तब तुम्हारे जीवन में प्रेम का अवतरण होगा। और जब तुम फूल बनोगे, तब भक्ति।
भक्ति परम शिखर है। वह आखिरी बात है।
इसे हम थोड़ा समझ लें, तभी इन अनूठे सूत्रों में प्रवेश हो सकेगा।
तुम शरीर हो; तुम मन भी हो; तुम उसके पार भी कुछ हो, जिसका तुम्हें पता नहीं।
शरीर तो बहुत स्थूल है। उसका पता चल जाता है। उसके लिए किसी बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं है। शरीर तो वजन रखता है। उसका बोध हो जाता है। उसके लिए किसी ध्यान की जरूरत नहीं है।
मन की भी थोड़ी झलक तुम्हें मिल जाती है, क्योंकि मन स्थूल और सूक्ष्म के मध्य में है--शरीर से भी जुड़ा है, आत्मा से भी। शरीर की तरफ से थोड़ी सी खबरें मन की मिल जाती हैं, क्योंकि एक धागा शरीर के तट से जुड़ा है। लेकिन आत्मा की तुम्हें कोई खबर नहीं मिलती। आत्मा कोरा शब्द मालूम होता है। आत्मा शब्द सुनते से ही तुम्हारे भीतर कोई घूंघर नहीं बजते। आत्मा शब्द सुनते से ही बेचैनी सी होती है। शब्द बेबूझ है। भाषा-कोश का अर्थ तो पता है; जीवन के कोश का कुछ अर्थ पता नहीं।
शरीर के साथ जुड़ी है कामवासना। कामवासना स्थूल है। शरीर शरीर को मांगता है: कामवासना का अर्थ। शरीर अपने से विपरीत शरीर को मांगता है; क्योंकि एक किनारा अधूरा है, दूसरे किनारे की चाह पैदा होती है। पुरुष स्त्री को मांगता है, स्त्री पुरुष को मांगती है, ताकि जीवन की सरिता बीच में बह सके, दो किनारे जुड़ जाएं। पुरुष अकेला है। स्त्री अकेली है।
शरीर के तल पर शरीर की मांग है, शरीर से मिलन की आकांक्षा है। क्षण भर को मिलन हो भी जाता है। क्षण भर को शरीर शरीर में डूब जाते हैं और खो भी जाते हैं--लेकिन बस क्षण भर को! उससे पीड़ा मिटती नहीं, गहन हो जाती है। उस मिलन के बाद बड़ा गहरा विषाद हो जाता है, क्योंकि मिलन के बाद गहरा विछोह होता है। मिलता कुछ भी नहीं; ऐसा लगता है, उलटा खो गया।
शरीर का मिलन क्षण भर को ही हो सकता है। स्थूल एक-दूसरे में विलीन नहीं हो सकते। स्थूल की सीमा है। स्थूल अपनी सीमा को छोड़ नहीं सकता, अन्यथा स्थूल न रह जाएगा।
बर्फ के दो टुकड़ों को तुम मिलाने की कोशिश करो, मुश्किल होगी। लेकिन वे ही पिघल जाएं जल हो कर, बिलकुल मिल जाते हैं। फिर कोई अड़चन नहीं होती। सीमा खो गई, मिलन सुलभ हो गया।
शरीर बर्फ की तरह है--जमा हुआ, ठोस। ऊर्जा वही है; पिघल जाए तो मन बनता है। मन जल की तरह है। सीमा तो है, लेकिन तरल सीमा है, ठोस नहीं। तुम मन को कैसा भी ढालो, ढल जाता है। शरीर को कैसा भी ढालो तो न ढलेगा। मन को कैसा भी ढालो, ढल जाएगा।
हिंदू के घर में बच्चा पैदा हो, मुसलमान के घर में रख दो, मुसलमान हो जाएगा। शरीर नहीं होगा, मन हो जाएगा। शरीर तो बाप की ही झलक देगा, मां की झलक देगा। शरीर की खबर तो वहीं जुड़ी रहेगी जहां से शरीर आया है, लेकिन मन मुसलमान का हो जाएगा। बच्चे को याद भी न रहेगी कि वह कभी हिंदू था। हिंदू होने के पहले ही, मन इसके पहले कि ढलता, मुसलमान हो गया। मुसलमान बाद में चाहे तो हिंदू हो जाए, ईसाई हो जाए; आस्तिक नास्तिक हो जाए, नास्तिक आस्तिक हो जाए--मन में कुछ अड़चन नहीं है।
मन तरल है। मन प्रतिपल बदलता रहता है। उसकी तरलता अनूठी है।
कामवासना है शरीर जैसी और शरीर की।
प्रेम है मन जैसा और मन का।
प्रेम की मांग शरीर की मांग से ऊपर है। प्रेम कहता है: दूसरे का मन मिल जाए! प्रेम करने वाला वेश्या के द्वार पर न जाएगा। यह बात ही बेहूदी मालूम पड़ेगी। यह बात ही संभव नहीं है। यह सोच भी बेहूदा मालूम पड़ेगा। लेकिन कामवासना से भरा व्यक्ति वेश्या के घर चला जाएगा; शरीर की ही मांग है।
शरीर खरीदा जा सकता है; मन खरीदा नहीं जा सकता।
शरीर जड़ है। मन थोड़ा-थोड़ा चेतन है; इसलिए इतना नीचे नहीं उतरा जा सकता कि खरीद और बेच की जा सके।
मन प्रेम मांगता है: कोई, जो अपना सर्वस्व देने को तैयार हो, बिना किसी शर्त के। मन अपने को किसी को दे देना चाहता है, बेशर्त लुटा देना चाहता है। मन की मांग प्रेम की है।
जब दो मन मिलते हैं तो जो रस पैदा होता है, उसका नाम प्रेम है। जब दो शरीर मिलते हैं तो जो रस पैदा होता है, उसका नाम काम है।
फिर मन के भी पार तुम्हारा अस्तित्व है--आत्मा का। आत्मा ऐसे है जैसे पानी भाप बन कर आकाश में उड़ गया। पानी ही है, लेकिन अब तरल सीमा भी न रही। अब कोई सीमा न रही; आकाश में फैलना हो गया! अदृश्य हो जाती है भाप; थोड़ी दूर तक दिखाई पड़ती है, फिर खो जाती है!
आत्मा अदृश्य है--भाप जैसी!
आत्मा की तलाश किसकी है?
शरीर मांगता है शरीर को। मन मांगता है मन को। आत्मा मांगती है आत्मा को।
शरीर और शरीर के मिलन से जो रस पैदा होता है--क्षणभंगुर--उसका नाम: काम। मन और मन के मिलन से जो रस पैदा होता है--थोड़ा ज्यादा स्थायी, जीवन भर चल सकता है। आकांक्षा तो मन की होती है कि जीवन के पार भी चलेगा। प्रेमी कहते हैं, ‘मौत हमारे प्रेम को न तोड़ पाएगी।’ अगर प्रेम जाना है, तो प्रेमी कहता है, कुछ हमें छुड़ा न पाएगा। शरीर मिट जाएगा तो भी हमारा प्रेम नष्ट न होगा।
यह कामना ही है, लेकिन मन थोड़ा ज्यादा दूरगामी है। शरीर से उसकी सीमा थोड़ी बड़ी है।
फिर आत्मा है; शाश्वत की मांग है उसकी। उससे कम पर उसकी तृप्ति नहीं। क्षणभंगुर को भी क्या चाहना! अंधेरी रात में क्षण भर को बिजली चमकती है, फिर अंधेरा और अंधेरा हो जाता है। दुख ही बेहतर है। दुख की दुनिया में क्षण भर को सुख का फूल खिलता है, दुख और दूभर हो जाता है, फिर झेलना और मुश्किल हो जाता है।
आत्मा मन के प्रेम को भी नहीं मांगती, क्योंकि मन तरल है: आज किसी से प्रेम किया, कल किसी और के प्रेम में पड़ सकता है। मन का कोई बहुत भरोसा नहीं है। जब प्रेम में होता है तो ऐसा ही कहता है, ‘अब तेरे सिवाय किसी को कभी प्रेम न कर सकूंगा। अब तेरे सिवाय मेरे लिए कोई और नहीं।’ मगर ये मन की ही बातें हैं। मन का भरोसा कितना! आज कहता है; कल बदल जाए! अभी कहता है; अभी बदल जाए!
मन पानी की तरह तरल है।
आत्मा की मांग है शाश्वत की, चिरंतन की, सनातन की। आत्मा की मांग है आत्मा की। आत्मा और आत्मा के मिलन पर जो रस पैदा होता है, उसका नाम भक्ति है।
शरीर की सीमा है ठोस। मन की सीमा है तरल। आत्मा की कोई सीमा नहीं।
काम क्षणभंगुर है। प्रेम थोड़ा दूर तक जाता है, थोड़ा स्थायी हो सकता है। भक्ति शाश्वत है।
काम में शरीर और शरीर का मिलन होता है--स्थूल का स्थूल से; मन में--सूक्ष्म का सूक्ष्म से; आत्मा में--निराकार का निराकार से। भक्ति निराकार का निराकार से मिलने का शास्त्र है।
ऐसा समझो कि तुम अपने घर में बैठे हो द्वार-खिड़कियां बंद करके, रोशनी नहीं आती सूरज की भीतर, हवा के झोंके नहीं आते, फूलों की गंध नहीं आती, पक्षियों के कलरव की आवाज नहीं आती--तुम अपने में बंद बैठे हो, ऐसा शरीर है, द्वार-दरवाजे सब बंद!
फिर तुमने द्वार-दरवाजे खोले, खिड़कियां खोलीं, हवा के नये झोंकों ने प्रवेश किया, सूरज की किरणें आईं, पक्षियों के गीत गूंजने लगे, आकाश की झलक मिली: ऐसा मन है! थोड़ा खुलता है। लेकिन बैठे तुम घर में ही हो।
फिर भक्ति है कि तुम घर के बाहर निकल आए, खुले आकाश में खड़े हो गए: अब सूरज आता नहीं, बरस रहा है; अब हवा कहीं से आती नहीं, तुम्हारे चारों तरफ आंदोलित होती है; अब तुम पक्षियों के कलरव में एक हो गए!
भक्ति-सूत्र पूरा शास्त्र है भक्ति का। एक-एक सूत्र को अति ध्यानपूर्वक समझने की कोशिश करना, और अति प्रेमपूर्वक भी, क्योंकि यह प्रेम का ही शास्त्र है। इसे तुम तर्क से न समझ पाओगे। स्वाद ही समझा पाएगा।
अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः।
‘अब भक्ति की व्याख्या।’
क्यों, ‘अब’ ‘अथातो’...!
हो चुकी बात काम की बहुत। हो चुकी चर्चा प्रेम की बहुत। अथातो भक्तिं... अब भक्ति की बात हो। जी लिए बहुत। देख लिए शरीर के भी खेल। देख लिए मन के भी जाल। गुजर चुके उन सब पड़ावों से। अब भक्ति की थोड़ी बात हो।
‘अब!’ अचानक शुरू होता है शास्त्र!
सिर्फ भारत में ऐसे शास्त्र हैं जो ‘अथातो’ से शुरू होते हैं; दुनिया की किसी भाषा में ऐसे शास्त्र नहीं हैं। क्योंकि यह तो बड़ा अधूरा मालूम पड़ता है।
कहीं ‘अब’ से कोई शास्त्र शुरू होता है! यह तो ऐसा लगता है जैसे इसके पहले कोई बात चल रही थी; कोई कथा आगे चल रही थी जो छूट गई है; कोई बीच का अध्याय है, प्रारंभ का नहीं।
पश्चिम के व्याख्याकार जब पहली दफा ब्रह्मसूत्र से परिचित हुए--वह भी ऐसे ही शुरू होता है: ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा,’ अब ब्रह्म की जिज्ञासा--तो उन्होंने कहा कि इसके पहले कोई किताब थी जो खो गई है। निश्चित ही, क्योंकि यह तो मध्य से शुरुआत हो रही है।
नहीं, कोई किताब खो नहीं गई है; यह शुरुआत ही है। यह जीवन की किताब का आखिरी अध्याय है। शास्त्र शुरू ही हो रहा है, मगर जीवन की किताब का आखिरी अध्याय है। यह उनके लिए नहीं है जो अभी शरीर की वासना में पड़े हों। वे इसे न समझ पाएंगे। अभी देर है। अभी फल पकेगा। अभी उनके गिरने का समय नहीं आया। यह उनके लिए नहीं है जो अभी प्रेम की कविता में डूबे हैं और उसको ही जिन्होंने आखिरी समझा है। उन दो को छोड़ने के लिए ‘अथातो।’
तो, शुरू में ही शास्त्र कह देता है कि कौन है अधिकारी। यह अधिकारी की व्याख्या है ‘अथातो।’ यह कहता है कि अगर चुक गए हो कामवासना से, भर गया हो मन--तो, अन्यथा अभी थोड़ी देर और भटको, क्योंकि भटके बिना कोई अनुभव नहीं है। अगर अभी प्रेम में रस आता हो तो क्षमा करो; अभी इस मंदिर में प्रवेश न हो सकेगा। अभी तुम किसी और ही प्रतिमा के पुजारी हो; अभी परमात्मा की प्यास नहीं जगी। अभी तुम या तो बीज हो या वृक्ष हो, अभी फूल होने का समय नहीं आया। और जब तक समय न आ जाए तब तक कुछ भी तो नहीं होता। इसलिए व्यर्थ मेहनत नहीं करनी है।
यह, जीवन की पाठशाला में जिनका आखिरी अध्याय करीब आ गया, इसका यह मतलब नहीं है कि यह बूढ़ों के लिए है। जैसे पश्चिम के लोगों ने गलत समझा--उन्होंने समझा कि यह आधी किताब है, आधी शायद खो गई--वैसे पूरब के लोगों ने भी गलत समझा। उन्होंने समझा कि यह तो बूढ़ों के लिए है।
नहीं, प्रौढ़ों के लिए है, बूढ़ों के लिए नहीं है। प्रौढ़ कोई कभी भी हो सकता है। एक छोटा बच्चा प्रौढ़ हो सकता है। प्रगाढ़ बुद्धिमत्ता चाहिए! और नहीं तो बूढ़े भी बचकाने रह जाते हैं। कोई बूढ़े होने से थोड़े ही पक जाता है। धूप में पक जाने से बाल कोई वृद्ध नहीं हो जाता। बूढ़े के मन में भी वही कामनाएं चलती रहती हैं, वही वासनाएं चलती रहती हैं। तो उसके लिए भी नहीं हैं ये शास्त्र।
फिर कभी-कभी कोई जवान भी भर जवानी में जाग जाता है, अभी जब कि सोने के दिन थे तब जाग जाता है। कभी कोई छोटा बच्चा भी अचानक बीज से छलांग लेता है और फूल हो जाता है। कोई शंकराचार्य छोटी उम्र में, बड़ी छोटी उम्र में...। उम्र का कोई सवाल नहीं है, बोध का सवाल है।
‘अथातो’... अब भक्ति की व्याख्या करते हैं। व्याख्या करते हैं, परिभाषा नहीं। परिभाषा हो नहीं सकती। कुछ चीजें हैं जिनका वर्णन हो सकता है, व्याख्या हो सकती है, परिभाषा नहीं हो सकती। जैसे कि तुमने कोई स्वाद पाया और तुम किसी दूसरे को समझाने लगे जिसके जीवन में अभी वैसा स्वाद आया नहीं, लेकिन स्वाद को समझने की उत्सुकता आई है, रस जगा है, जिज्ञासा बनी है--तुम क्या करोगे? तुम वर्णन करोगे; तुम्हें जो स्वाद मिला है उसका तुम वर्णन करोगे, कैसा मिला! तुम कुछ प्रतीक चुनोगे; जिससे, जिससे तुम बात कर रहे हो, उसकी भाषा में कुछ संकेत दिए जा सकें; उसके अनुभव से तुम अपना अनुभव जोड़ने की कोशिश करोगे।
व्याख्या का अर्थ होता है: तुम्हें, जिन्हें अनुभव नहीं है, उनसे अपने अनुभव को जोड़ने की चेष्टा; जो तैयार तो हैं मंदिर में प्रवेश के, लेकिन अभी मंदिर में प्रवेश नहीं हुआ है, उन्हें मंदिर की खबर देनी है; मंदिर के भीतर क्या घट रहा है, मंदिर के भीतर कैसा अनुभव हुआ है, थोड़ा सा स्वाद उनके लिए लाना है।
क्या करेंगे? परिभाषा करेंगे? व्याख्या करेंगे। परिभाषा नहीं हो सकती। परिभाषा तो उनके बीच हो सकती है जो दोनों ही जानने वाले हों। परिभाषा संक्षिप्त होती है। परिभाषा तो एक-दो वचनों में, वाक्यों में पूरी हो जाती है। लेकिन व्याख्या थोड़ी लंबी होती है। और व्याख्या से सिर्फ हम दृश्य देते हैं, झलक देते हैं। वह बिलकुल ठीक नहीं होती व्याख्या, क्योंकि ठीक हो नहीं सकती; थोड़ी-थोड़ी ठीक होती है, थोड़ी-थोड़ी गलत होती है। क्योंकि ज्ञानी जब अज्ञानी से बात करता है तो अज्ञानी की भाषा में करता है। परिभाषा तो बिलकुल ठीक होती है, व्याख्या बिलकुल ठीक नहीं होती--हो नहीं सकती।
जब बुद्ध बोलेंगे उनसे जिनके जीवन में बुद्धत्व नहीं है, तो अगर बुद्ध अपनी ही भाषा का उपयोग करें तो परिभाषा होगी; अगर बुद्ध उनकी भाषा का उपयोग करें जिनसे बोल रहे हैं, तो व्याख्या होगी। इसलिए सूत्र पहले ही कह देता है, ‘अथातो भक्तिं व्याख्या,’ अब हम भक्ति की व्याख्या करते हैं।
‘वह ईश्वर के प्रति परम प्रेमरूपा है।’
भक्ति की पहली व्याख्या का सूत्र: ‘वह ईश्वर के प्रति परम प्रेमरूपा है।’
मैंने तुम्हें कहा, ऊर्जा का एक रूप है: काम; ऊर्जा का दूसरा रूप है: प्रेम; ऊर्जा का तीसरा रूप है: भक्ति। भक्ति और काम के बीच में प्रेम है। प्रेम का एक हाथ काम से जुड़ा है; प्रेम का दूसरा हाथ भक्ति से जुड़ा है। अगर कामवासना की व्याख्या करनी हो तो भी प्रेम से ही करनी होगी। अगर भक्ति की व्याख्या करनी हो तो भी प्रेम से ही करनी होगी। क्योंकि प्रेम सेतु है दोनों के बीच। प्रेम दोनों का मध्य बिंदु है। प्रेम दोनों का संतुलन है।
जिसने भक्ति को जाना वे उनसे बोले जिन्होंने भक्ति को नहीं जाना, तो वे किस भाषा में बोले? प्रेम के अतिरिक्त और कोई भाषा नहीं बचती। काम में तो बोला ही नहीं जा सकता, क्योंकि काम एक छोर है, भक्ति दूसरा छोर है। भक्ति तो काम के करीब-करीब विपरीत है। तो, अगर काम से कहना हो तो इतना ही कहा जा सकता है कि जो कामना नहीं है, वही भक्ति। लेकिन इससे कुछ हल न होगा, निषेध हो जाएगा।
हम पूछते हैं, ‘भक्ति क्या है?’ अगर काम से कहना हो तो हम इतना ही बता सकते हैं कि भक्ति क्या नहीं है। लेकिन पूछने वाला पूछ रहा है, ‘हम यह नहीं पूछते कि भक्ति क्या नहीं है। पत्थर नहीं है, वृक्ष नहीं है, पक्षी नहीं है--माना; भक्ति है क्या? तो कहां से शुरू करें?’
‘...परम प्रेमरूपा है।’
प्रेम से शुरुआत करनी पड़ेगी। लेकिन प्रेम में एक शर्त लगाई है: परम प्रेमरूपा! परम प्रेमरूपा का अर्थ है: ऋण काम। अगर सिर्फ प्रेमरूपा कहते तो फिर भक्ति में और प्रेम में कोई फर्क न रह जाता; फिर तो प्रेम ही भक्ति हो जाती। फिर तीसरे की कोई जरूरत न होती; काम और प्रेम, दो काफी थे विभाजन के लिए।
नहीं, प्रेम में थोड़ा सा काम शेष रहता है। भक्ति में उतना भी काम शेष नहीं रह जाता। अब हम इसे ऐसा समझें कि काम में थोड़ा सा प्रेम है। इसलिए तो आदमी काम में उलझा रहता है। एक प्रतिशत होगा प्रेम, निन्यानबे प्रतिशत केवल कामना है, केवल वासना है; लेकिन वह एक प्रतिशत प्रेम काम को भी एक सुंदर प्रतिमा बना देता है; काम को भी एक भावभंगिमा दे देता है; जो उसकी नहीं है, उधार है; काम की कुरूपता को ढांक लेता है, और एक सौंदर्य का आवरण दे देता है; काम की व्यर्थता को ढांक लेता है और सार्थकता की थोड़ी सी झलक दे देता है।
कामवासना में भी प्रेम का थोड़ा सा अंश है। और प्रेम में भी कामवासना का थोड़ा सा अंश है। दोनों जुड़े हैं। इसलिए प्रेम भी पूरा प्रेम नहीं है; कुछ उसमें अभी भी विजातीय है। प्रेम में भी थोड़ी कामवासना है।
इसे हम ऐसा समझें कि कामी कामवासना में पड़ता है; कामवासना में पड़ने के कारण थोड़े से प्रेम का आविर्भाव हो जाता है। प्रेमी प्रेम में डूबता है; प्रेम में डूबने के कारण कामवासना आ जाती है। दोनों में बड़ा फर्क है, लेकिन तालमेल भी है। कामी काम के कारण प्रेम करने लगता है। प्रेमी प्रेम के कारण काम में उतरता है। दोनों में मौलिक अंतर है। क्योंकि प्रेमी का काम बड़ा मधुर और प्रीतिकर हो जाएगा। कामी का प्रेम भी गंदा होगा। उसके प्रेम में भी बदबू होगी। लेकिन दोनों एक-दूसरे में घुले-मिले हैं।
परम प्रेमरूपा है भक्ति। परम प्रेमरूपा का अर्थ हुआ: प्रेम खालिस सोना बचा; चौदह कैरेट नहीं, अट्ठारह कैरेट नहीं, खालिस! उसमें एक भी कैरेट कामवासना का न रहा। शुद्ध प्रेम हो गया, तो भक्ति!
क्योंकि तुम प्रेम को शायद थोड़ा सा जानते हो, इसलिए प्रेम के आधार पर भक्ति को समझाया जा रहा है। तुम प्रेम की थोड़ी सी भाषा जानते हो, वह भी पूरी नहीं जानते; कहीं सपने में झलक मिली है; कहीं टटोलते-टटोलते हाथ पड़ गया है; कहीं से कोई थोड़ी पहचान आ गई है; सांयोगिक रही होगी, लेकिन तुम्हें थोड़ा सा स्वाद है।
जैसे कि पीतल पीला है, और सोना तुमने नहीं देखा, तो हम पीतल से सोने को समझाते हैं।
कहते हैं: ऐसा ही पीला, पर और शुद्ध, ज्योतिर्मय, सूर्य की किरण जैसा चमकता हुआ! कुछ प्रतीक खोजते हैं। प्रतीक खोजना वर्णन है, व्याख्या है।
‘वह भक्ति ईश्वर के प्रति परम प्रेमरूपा है।’
सूत्र के जो भी अनुवाद किए गए हैं हिंदी में, उन सबमें यही अनुवाद किया गया है: वह भक्ति ईश्वर के प्रति परम प्रेमरूपा है। पर संस्कृत में बात कुछ और है।
सा त्वस्मिन्परमप्रेमरूपा।
ईश्वर शब्द का प्रयोग नहीं किया है। ईश्वर शब्द नहीं है--‘उसके प्रति!’ त्वस्मिन्! बड़ा फर्क है। जिन्होंने भी हिंदी में अनुवाद किए हैं, उन्होंने बात को संकीर्ण कर दिया।
‘उसके प्रति’--‘उसका’ नाम नहीं हो सकता, इशारा है। बड़ी दूर है वह। उसे ईश्वर कहने से बात हल न होगी। क्योंकि उसे ईश्वर कहने से ही हम उसकी परिभाषा कर देंगे।
ईश्वर शब्द का अर्थ होता है; ऐश्वर्यवान; सारा ऐश्वर्य जिसका है, वह ईश्वर। यह हमारी परिभाषा है, क्योंकि हम ऐश्वर्य की भाषा में सोचने के आदी हो गए हैं। हमारे लिए ईश्वर ऐसा है जैसे सम्राट; सारे जगत का है, पर है सम्राट ही। धन की भाषा में हम सोचने के आदी हो गए हैं, ऐश्वर्य की भाषा में सोचने के आदी हो गए हैं, तो ईश्वर कहते हैं।
लेकिन धन से, और ईश्वर का क्या लेना-देना? ऐश्वर्य से और ईश्वर का क्या संबंध? सम्राटों से उसकी कल्पना करनी ठीक नहीं। इसलिए संस्कृत शब्द ठीक है: त्वस्मिन्-‘उसके प्रति।’ नाम मत दो उसे। नाम तुम दोगे, तुम्हारा नाम होगा, तुम्हारा मन प्रविष्ट हो जाएगा। सिर्फ इतना ही कहो: ‘उसके।’ इशारा करो। अंगुली बता दो। शब्द मत दो।
वह अनाम है; नाम में मत घसीटो।
वह अरूप है; रूप का आग्रह मत करो।
वह निराकार है; तुम कोई आकार मत दो।
‘ईश्वर’ देते ही आकार मिल जाता है। ईश्वर शब्द आते ही, तुम्हारे मन में आकार उठने शुरू हो जाते हैं।
सोचो थोड़ा, ‘उसके प्रति’--कोई आकार उठता है? उसके प्रति! तुम पूछोगे, ‘किसके प्रति? यह कौन है ‘उस?’ किसकी बात कर रहे हैं?
‘ईश्वर’ कहते ही हल हो गया, तुम निश्चिंत हुए, तुमने कहा, समझ गए। जहां तुमने कहा, समझ गए, वहीं नासमझी है। तुम न समझो, बड़ी कृपा होगी। तुम बहुत जल्दी समझ जाते हो, वहीं भूल हो जाती है।
परमात्मा इतना आसान नहीं कि समझ में आ जाए। वस्तुतः उसे समझने के लिए सब समझ छोड़नी पड़ती है। उसे केवल वे ही समझ पाते हैं जो समझ का आग्रह भी छोड़ देते हैं।
इसलिए अच्छा होगा, हम भी कहें, ‘उसके प्रति!’ ‘उसके’ कहते ही बड़ा विराट का द्वार खुलता है। फिर ये पशु-पक्षी, पौधे, आकाश सब सम्मिलित हो जाते हैं। परमात्मा कहते ही, ईश्वर कहते ही, बात कुछ बिगड़ जाती है; भेद खड़ा हो जाता है; स्रष्टा और सृष्टि का भेद हो जाता है। फिर तुम सृष्टि की निंदा में लग जाते हो और स्रष्टा की पूजा में। और कहीं स्रष्टा और सृष्टि अलग नहीं हैं।
स्रष्टा शब्द ठीक नहीं है; सृजन की ऊर्जा है। वही सृष्टि है, वही स्रष्टा है।
‘उसके प्रति’ कहना बिलकुल ठीक है।
सा त्वस्मिन्परमप्रेमरूपा।
उसके प्रति परमप्रेमरूप है। न नाम का पता है, न धाम का पता है। इसका क्या अर्थ हुआ? इसका अर्थ यह हुआ कि प्रेम तो नाम-धाम के बिना नहीं हो सकता, भक्ति हो सकती है। प्रेम के लिए तो नाम-धाम चाहिए।
तुम अगर कहो कि मैं प्रेम में पड़ गया हूं, और कोई पूछे, ‘किसके प्रति’; तुम कहो, ‘इसका कुछ पता नहीं’, तो तुम पागल हो।
प्रेम तो साकार के प्रति है, इसलिए नाम पता है। प्रेम का तो कोई एड्रेस है, पत्र लिखा जा सकता है। परमात्मा का कोई एड्रेस नहीं, पत्र लिखा नहीं जा सकता। परमात्मा के लिए तो बड़ा बावलापन चाहिए। निराकार के प्रति प्रेम! इसका अर्थ यह हुआ कि ऑब्जेक्ट, विषय तो खो गया, सब्जेक्ट, केवल तुम्हीं बचे।
जिन्होंने परमात्मा के प्रति प्रेम जाना, उन्होंने वस्तुतः यही जाना कि वहां कोई भी नहीं है। बस प्रेम ही प्रेम है। असल में परमात्मा के प्रति प्रेम कहना ठीक नहीं है, वहां ‘प्रति’ है ही नहीं। वहां सिर्फ प्रेम का निवेदन है, किसी के प्रति नहीं है; सिर्फ प्रेम का आविर्भाव है; शुद्ध प्रेम की ऊर्जा का उठान है, उत्थान है, ऊर्ध्वगमन है; किसी के प्रति नहीं है। पर कहना होगा तुम्हारी भाषा में।
इसलिए सूत्र कहता है: ‘वह उसके प्रति परम प्रेमरूपा है।’
परम प्रेम तभी है जब प्रेमी की भी जरूरत न रह जाए। जब तक प्रेमी की जरूरत है, तब तक तुम्हारा प्रेम परम प्रेम नहीं है, निर्भर है। निर्भर है तो शुद्ध नहीं हो सकता। जिससे तुम प्रेम करोगे, वह तुम्हारे प्रेम को आच्छादित करेगा। जिससे तुम प्रेम करोगे, वह तुम्हारे प्रेम को रंग देगा; जिसको तुम प्रेम करोगे, वह तुम्हारे प्रेम को ढंग देगा--परम नहीं हो सकता।
ऐसा समझो कि जब भी सोने का आभूषण बनाओगे, तो शुद्ध न रह जाएगा, कुछ न कुछ मिलाना पड़ेगा। क्योंकि शुद्ध सोना इतना नाजुक है, उसके आभूषण नहीं बनते। उसमें कुछ मिलाना ही पड़ेगा विजातीय--कुछ तांबा मिलाओ, कुछ और मिलाओ। वह अट्ठारह कैरेट रह जाएगा, बीस कैरेट होगा, बाईस कैरेट होगा; लेकिन शुद्ध नहीं हो सकता, चौबीस कैरेट नहीं हो सकता।
ऐसा समझो कि भक्ति के जब तुम आभूषण बनाते हो तो प्रेम हो जाता है और जब तुम प्रेम के आभूषणों को पिघला लेते हो और शुद्ध कर लेते हो, तब भक्ति हो जाती है। लेकिन जब तुम प्रेम के आभूषण पिघलाते हो तो प्रेमी भी पिघल जाता है। तुम जिसे प्रेम करते थे, वह बचता नहीं। तुम भी नहीं बचते; प्रेम ही बचता है। वे दोनों गए। वह द्वैत गया। और जब प्रेम ही बचता है, तब प्रेम शुद्ध है। न मैं न तू, दोनों खो गए!
जलालुद्दीन रूमी की बड़ी प्रसिद्ध कविता है, मुझे बड़ी प्यारी है। एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पर दस्तक देता है। भीतर से आवाज आती है, ‘कौन है?’ प्रेमी कहता है, ‘मैं हूं तेरा प्रेमी। पहचाना नहीं? मेरी पगध्वनि विस्मृत हो गई! मेरी आवाज पहचान से उतर गई!’ लेकिन भीतर से आवाज आई, ‘अभी तुम इस योग्य नहीं कि द्वार खुलें। अभी तुम अधिकारी नहीं।’
प्रेमी बड़ा हैरान हुआ। क्योंकि प्रेमी तो सदा सोचता है कि अधिकारी है ही। हर व्यक्ति की यही भूल है कि हर व्यक्ति जन्म से ही समझता है कि वह प्रेम का अधिकारी है। इसलिए प्रेम को कोई सीखता ही नहीं, बिना सीखे ही प्रेम करने लगते हैं। और इसलिए फिर प्रेम में इतनी भूलें होती हैं और प्रेम में इतना उपद्रव होता है, और सारा जीवन बरबाद हो जाता है।
प्रेम संभावना है, सत्य नहीं। प्रेम को प्रगटाना है; वह प्रकट नहीं है। प्रेम कोई मिली हुई संपदा नहीं है; खोजनी है; सृजन करना है उसका।
प्रेमी लौट गया; वर्षों भटकता रहा; प्रेम की खोज करता रहा; प्रेम का अर्थ समझने की चेष्टा करता रहा; ध्यान किया, प्रार्थना की--धीरे-धीरे प्रेम का आविर्भाव हुआ, वह लौटा। फिर उसने दस्तक दी। भीतर से आवाज आई, ‘कौन?’ तो, जलालुद्दीन कहता है कि अब प्रेमी ने कहा, ‘तू ही है।’ और द्वार खुल गए।
जलालुद्दीन से अगर मेरी कभी मुलाकात हो जाए--कभी न कभी हो सकती है, क्योंकि जो रहा है वह कहीं होगा; जो है वह मिटता नहीं--तो उससे मैं कहूं कि कविता पूरी कर दो, यह अधूरी है। अभी भी द्वार खुलने नहीं चाहिए। क्योंकि जहां ‘तू’ है वहां ‘मैं’ मिट नहीं सकता।
प्रेमी ने पहले कहा, ‘मैं!’ अब उसने बदल लिया पहलू; लेकिन पहलू बदलने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। अब वह कहता है, ‘तू!’ लेकिन ‘तू’ का क्या अर्थ है अगर ‘मैं’ मिट गया हो? किसको कहोगे ‘तू?’ किस प्रसंग में कहोगे ‘तू?’
‘तू’ का सारा अर्थ ‘मैं’ में छिपा है। जब तक ‘मैं’ हूं, तभी तक ‘तू’ में अर्थ है। जब ‘मैं’ ही न रहा तो ‘तू’ कौन?
जलालुद्दीन से मैं कहूं कि इसे थोड़ा और आगे बढ़ा, एक दफा और लौटा इस प्रेमी को। जल्दी मत कर। कविता खत्म करने की इतनी जल्दी भी क्या है; और चार लाइन जोड़ी जा सकती हैं। जाने दे वापस। प्रेयसी से कहलवा दे कि कुछ-कुछ तैयार हुआ, लेकिन पूरा नहीं। थोड़ी अधिकारी होने की क्षमता आई; लेकिन अभी प्रारंभ है। थोड़ा और भटक। थोड़ा और खोज। इतना पहुंचा है तो आगे भी पहुंच ही जाएगा। रास्ता ठीक है, जिस पर चल पड़ा है, मंजिल अभी नहीं आई। आधी यात्रा हो गई है--‘मैं’ खो गया; आधी और होनी चाहिए--‘तू’ भी खो जाए! फिर ला, कुछ वर्षों बाद! फिर लाने की वैसे जरूरत भी नहीं है। फिर तो प्रेयसी वहीं चली आएगी जहां प्रेमी है।
परम प्रेम तब है जब न प्रेमी रहा न प्रेयसी रही, जब द्वंद्व खो गया।
‘...उसके प्रति परम प्रेमरूपा है...।’
और तब--
अभी मैखानए दीदार हर जर्रे में खुलता है
अगर इंसान अपने आप से बेगाना हो जाए।
और तब कण-कण में उसकी मधुशाला का दरवाजा खुल जाता है! कण-कण में!
अभी मैखनाए दीदार हर जर्रे में खुलता है
कण-कण में उसका मधु बिखर जाता है और कण-कण में उसकी मधुशाला का द्वार खुल जाता है--अगर इंसान अपने आप से बेगाना हो जाए! अगर आदमी अपने को भूल जाए, तो परमात्मा को पाने में अड़चन कहां! अपने से बेगाना हो जाए! मैं को भूल जाए, मैं को छोड़ दे, मैं को न पकड़े रखे तो उसकी मधुशाला कण-कण पर बिखर जाती है! फिर सभी जगह उसकी ही मस्ती है।
न तुम हो, न वह है; मस्ती ही मस्ती है--वही परम प्रेमरूप है!
अमृतस्वरूपा च।
बड़े अदभुत सूत्र हैं। छोटे, बीज-रूप!
‘और अमृतस्वरूपा है।’
‘वह भक्ति परम प्रेमरूपा है और अमृतस्वरूपा है।’ क्योंकि जिसने परम प्रेम जाना, फिर उसकी कोई मृत्यु नहीं। क्यों? क्योंकि वह तो मर ही चुका, अब मरेगा कैसे? मरना तो तभी तक शेष है जब तक तुम मिटे नहीं, मरे नहीं। मौत तो तभी तक डराएगी जब तक तुम हो। जिसने अपने को खो दिया उसकी कैसी मौत! उसने मौत पर विजय पा ली! वह अमृस्वरूप को उपलब्ध हो गया!
ध्यान रखना: अहंकार की ही मृत्यु होती है, तुम्हारी कभी नहीं होती; कभी हुई नहीं, हो नहीं सकती। तुम शाश्वत हो, सनातन हो; सदा थे, सदा रहोगे। अन्यथा कोई उपाय नहीं है। तुम चाहो भी अपने को मिटा लेना तो नहीं मिटा सकते। मौत होती ही नहीं। लेकिन तुमने एक अपना काल्पनिक आकार, रूप समझ रखा है। उस कल्पना की मौत होती है। तुमने अपनी एक अहंकार की प्रतिमा बना रखी है। परमात्मा से जुदा तुमने अपने को ‘मैं’ कहने का भाव बना रखा है। वही मैं-भाव मरता है। चूंकि तुम उससे बड़े जुड़े हो, तुम्हें लगता है, ‘मैं’ मरा! ‘मैं-भाव’ छूट जाए... ‘अमृतस्वरूपा च’... तब, तब जो मिलता है उसकी कोई मृत्यु नहीं है।
यल्लब्ध्वा पुमान सिद्धो भवति अमृतो भवति तृप्तो भवति।
‘उस भक्ति को प्राप्त कर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है और तृप्त हो जाता है।’
‘...सिद्ध हो जाता है।’
सिद्ध का क्या अर्थ होता है?
सिद्ध का अर्थ होता है: जो होने को थे वही हो गए। जो बीज की तरह लाए थे वह खिल गया फूल की तरह: सिद्ध का अर्थ होता है।
सिद्ध का अर्थ होता है: अब और साधना करने को न रही; अब और कोई साध्य न रहा; अब सभी साधनों के पार आ गए।
सिद्ध का अर्थ होता है: तुमने पा लिया अपने स्वभाव को, अपने स्वरूप को; पहुंच गए उस परम मंदिर में जिसकी तलाश थी, जन्मों-जन्मों अनंतकाल तक जिसे खोजा था, जिसके लिए भटके थे।
स्वयं को खोते ही व्यक्ति सिद्ध हो जाता है। इसका अर्थ हुआ कि सारा भटकाव अहंकार का है। तुम इसलिए नहीं भटकते कि कोई तुम्हें और भटका रहा है; तुम इसलिए भटकते हो कि तुम हो। जब तक तुम हो, भटकोगे। तुम मिटे कि पहुंचे। मिटने में ही पहुंच जाना है। होने में ही भटकना है।
‘अमर हो जाता है, तृप्त हो जाता है।’
‘जिस भक्ति के प्राप्त होने पर मनुष्य न किसी वस्तु की इच्छा करता है, न द्वेष करता है, न आसक्त होता है और न उसे विषय-भोगों में उत्साह होता है।’
इब्तिदा वो थी कि जीने के लिए मरता था मैं
इन्तिहा ये है कि मरने की भी हसरत न रही।
ऐसे भी दिन थे जब जीने के लिए ऐसी आतुरता थी कि मरने को भी तैयार हो जाता था। और आखिरी वक्त--‘इन्तिहा ये है’--और आखिरी बात यह है, पहुंच जाने की बात यह है--‘कि मरने की भी हसरत न रही।’ जीने की तो बात छोड़ो, मरने की भी आकांक्षा नहीं उठती।
तुमने कभी खयाल किया, तुम्हें मरने की आकांक्षा तभी उठती है जब तुम्हारी जीवन की आकांक्षा पूरी नहीं होती! जहां-जहां अड़चन आती है जीवन की आकांक्षा में, वहीं तुम कहते हो कि मर जाना बेहतर है। मरना तुम चाहते नहीं। जीना तुम चाहते हो अपनी शर्तों पर। शर्त कभी पूरी नहीं होती, तो मरने की तैयारी करने लगते हो।
रूसी कहानी है कि एक लकड़हारा लौट रहा है गट्ठर लेकर सिर पर। जिंदगी भर लकड़ियां ढोता रहा है, थक गया है।... सभी थक जाते हैं, और सभी लकड़ियां ढो रहे हैं। काटो जंगल से, बेचो बाजार में; फिर दूसरे दिन काटो जंगल से, फिर बेचो बाजार में!... थक गया है। हड्डी-हड्डी जरा-जीर्ण हो गई है। उस दिन तो वह बड़ा दुखी है कि इससे भी क्या सार है! यही करता रहा, यही करता रहूंगा, और एक दिन मर जाऊंगा और मिट्टी में गिर जाऊंगा।
तो उसने कहा, ऐ मौत, सभी को आती है, एक मुझ ही को छोड़ देती है। मुझे क्यों नहीं आती? उठा ले मुझे! ऐसे मौत साधारणतः इतना जल्दी सुनती नहीं। पर कहानी है कि मौत ने सुन लिया। मौत आ गई। लकड़हारा गट्ठर को पटक कर दुखी मन से बैठा था। मौत ने आकर कहा, मैं आ गई हूं, बोलो क्या काम है?
देखा मौत को, हाथ-पैर कंप गए, प्राण कंप गए, श्वास रुक गई। उसने कहा, नहीं, कुछ काम नहीं; कोई और दिखाई नहीं पड़ा, गट्ठर उठवा कर सिर पर रखवाना है। कृपा कर और गट्ठर उठा कर सिर पर रख दे।
तुम जब भी मरने की बात करते हो तब गौर से देखना: वहां जीने की आकांक्षा बड़ी गहरी है। इसलिए जो लोग आत्महत्या करते हैं, तुम चौंकना मत, तुम यह मत सोचना कि इन लोगों ने आत्महत्या कर ली, बात क्या है! आदमी तो जीना चाहता है; ये मर कैसे गए! ये बहुत बुरी तरह जीना चाहते थे, बड़ी प्रगाढ़ता से जीना चाहते थे। इनकी शर्तें बड़ी थीं; जिंदगी पूरी न कर पाई। ये जिंदगी से नाराज हो गए। ये जिंदगी को तो न मिटा पाए; जिंदगी को मिटाने के लिए तत्पर हो गए थे--अपने को मिटा लिया। मगर इनकी आत्महत्या में जीवन की आकांक्षा है, जीवेषणा है।
जब तुम जीवन की आकांक्षा छोड़ देते हो, तब तुम चकित हो जाओगे कि उसके साथ ही साथ मृत्यु की आकांक्षी भी छूट जाती है। जिस व्यक्ति के जीवन को जीवेषणा से छुटकारा मिल गया; जो अभी राजी है कि मौत आ जाए तो तैयार पाए; जो यह भी नहीं कहता कि कल मुझे जीना है--उसे तुम कभी आत्महत्या करता न पाओगे; हालांकि तुम्हें लगेगा कि इसे तो आत्महत्या कर लेनी चाहिए। जब यह आदमी कहता है कि मुझे जीने का कोई सवाल नहीं है तो इसे आत्महत्या कर लेनी चाहिए। लेकिन आत्महत्या तभी की जाती है जब जीने की बड़ी गहरी आकांक्षा होती है। यह आत्महत्या भी क्यों करे? मरने की भी हसरत न रही। उतनी आकांक्षा भी नहीं है अब।
‘...न किसी वस्तु की इच्छा करता है।’
क्योंकि जिसने भक्ति को जान लिया, वस्तुएं व्यर्थ हो गईं।
तुम जब कभी प्रेम को जानते हो तब भी वस्तुएं व्यर्थ हो जाती हैं।
तुमने कभी खयाल किया, प्रेमी एक-दूसरे को वस्तुओं की भेंट देने लगते हैं! वह प्रेम का लक्षण है। क्यों? अब वस्तुओं का मोह नहीं रह जाता। वस्तुएं देने योग्य हो जाती हैं; पकड़ रखने योग्य नहीं रह जातीं।
जिसे तुम प्रेम करते हो उसे तुम सब दे देना चाहते हो। इसलिए कंजूस प्रेम नहीं कर पाते। कृपण आदमी के जीवन में कोई प्रेम नहीं हो सकता। क्योंकि कृपणता और प्रेम एक साथ नहीं हो सकते; एक ही घर में उन दोनों का निवास नहीं हो सकता।
तो ध्यान रखना: कृपण तो प्रेमी भी नहीं हो सकता, भक्त होना तो असंभव है। लेकिन अक्सर तुम कृपणों को भक्त पाओगे। वह भक्ति झूठी है। निजाम हैदराबाद भक्त आदमी थे। लेकिन मैंने सुना है कि वे दुनिया के सबसे बड़े संपत्तिशाली आदमी थे। इतनी बड़ी संपत्ति और किसी के पास नहीं थी। लेकिन कृपण तुम ऐसा आदमी न पाओगे। जो टोपी उन्होंने सिंहासन पर बैठते वक्त पहनी थी, वे चालीस साल उसको पहने रहे। उससे बास आती थी। वह इतनी गंदी हो गई थी। वे उसको धुलने नहीं देते थे, क्योंकि धुलने में कहीं बिगड़ न जाए, कहीं खराब न हो जाए। वे मरते दम तक उसी को पहने रहे। मेहमान सिगरेट अधजली छोड़ जाते तो ऐश-ट्रे से वे इकट्ठी कर लेते थे--खुद पीने के लिए! यह तुम भरोसा न करोगे। और यह आदमी भक्त था! पांच बार इबादत करता था भगवान की। यह असंभव है। यह बिलकुल असंभव है।
यह आदमी किसको धोखा दे रहा है? अभी तो इस आदमी के जीवन में प्रेम भी नहीं है! जली सिगरेटें, झूठी सिगरेटें इकट्ठी कर रहा है! जैसे ही मेहमान जाएं, जो पहला काम निजाम करते थे, वह यह कि जल्दी से सिगरेटें सम्हाल कर रख लेना, फिर फुर्सत से पीएंगे!
जहां भी तुम कृपण को पाओ, वहां तुम समझ लेना कि अगर वह भगवान की बातें कर रहा हो, प्रेम और भक्ति की बातें कर रहा हो, तो वे किसी गहरे घाव को छिपाने की तरकीबें हैं। कृपण कभी भक्त नहीं हो सकता। कृपण प्रेमी ही नहीं हो पाता। वह पहली ही सीढ़ी नहीं चढ़ता, दूसरी पर तो पहुंचेगा कैसे?
जब तुम प्रेम करते हो, तत्क्षण तुम्हारी पकड़ वस्तुओं से उठ जाती है, तुम भेंट कर सकते हो, दान दे सकते हो! और देकर तुम प्रसन्न होते हो, उदास नहीं। और जो तुमसे ले लेता है, तुम उसके अनुगृहीत होते हो कि उसने हलका किया। तुम ऐसा नहीं सोचते कि वह तुम्हारा अनुगृहीत होए; क्योंकि अगर उतना भी रह गया तो सौदा हुआ, फिर तुम कृपण हो।
हिंदुस्तान में रिवाज है कि ब्राह्मण घर आए तो पहले उसे भेंट दो, दान दो, फिर दक्षिणा भी दो। दक्षिणा का मतलब होता है धन्यवाद कि तुमने भेंट स्वीकार की! दक्षिणा बड़ा अदभुत शब्द है! पहले दान दो, और चूंकि ब्राह्मण ने स्वीकार किया, इनकार भी कर सकता था, फिर दक्षिणा दो कि धन्यभाग कि तुमने स्वीकार किया! तुम इनकार कर देते तो मेरा प्रेम अधूरा वापस लौट आता! तुमने द्वार दिया!
इसलिए प्रेमी अनुगृहीत होता है देकर। भक्त सब लुटा कर अनुगृहीत होता है।
‘...किसी वस्तु की इच्छा नहीं करता है, न द्वेष करता है।’
क्योंकि जब इच्छा ही नहीं रही तो द्वेष कहां! द्वेष तो इच्छा की छाया है। जब तक तुम इच्छा करते हो तब तक द्वेष भी करोगे। क्योंकि जो वस्तु तुम चाहते हो, वह अगर किसी और के कब्जे में है तो तुम क्या करोगे? तुम द्वेष करोगे। तुम ईर्ष्या करोगे। तुम जलोगे।
‘...न आसक्त होता है।’
क्योंकि जब इच्छा ही न रही...।
समझ लो इसको ठीक से।
जिसके जीवन में वस्तुओं की इच्छा है, उसका अर्थ है कि उसने प्रेम को नहीं जाना, पहली बात। वह चूक गया। वस्तुएं तो पड़ी रह जाएंगी, प्रेम साथ जाता है। थोड़ा जाता है, भक्ति होती तो पूरा जाता। उतना जाता जितना प्रेम था। जितना खालिस सोना था, साथ चला जाता; शेष विजातीय पड़ा रह जाता।
अगर तुम प्रेम तक नहीं पहुंच पाए तो उसका अर्थ केवल इतना है कि तुम जो भी इकट्ठा कर रहे हो, वह सब मौत छीन लेगी। इसलिए कृपण मौत से डरता है। जीता नहीं और मौत से डरता है। जीने की तैयारी करता है, जीता कभी नहीं। क्योंकि जीने में तो खर्च है। जीने में तो प्रेम लाना पड़ेगा। जीने में तो व्यक्तित्व प्रवेश कर जाएंगे वस्तुओं की दुनिया समाप्त हो जाएगी। न, वह सिर्फ जीने की तैयारी करता है; मकान बनाता है जिसमें कभी रहेगा; धन इकट्ठा करता है जिसको कभी भोगेगा; शादी करता है, पत्नी, जिससे कभी प्रेम करेगा, फुरसत से; बच्चे पैदा करता है कि कभी जब समय होगा, सुविधा होगी, तब एक बार आशीर्वाद बरसा देंगे। मगर वह दिन कभी आता नहीं, वह तैयारी ही करता है। एक दिन मौत उसे उठा लेती है। और जो भी उसने इकट्ठा किया था, वह सब पड़ा रह जाता है। इसका भय सताता है।
इसलिए कृपण डरता रहता है और डर के कारण और भी कृपण होता जाता है। मौत के खिलाफ इंतजाम करता है।
मौत के खिलाफ एक ही इंतजाम है--और वह है प्रेम। मौत के खिलाफ दूसरा कोई इंतजाम नहीं है, कोई सुरक्षा नहीं है। कोई बीमा-कंपनी मौत के खिलाफ सुरक्षा नहीं दे सकती। सिर्फ प्रेम...।
क्योंकि प्रेम के क्षण में तुम वस्तुओं के ऊपर उठते हो और व्यक्तित्व दृष्टि में आता है; व्यक्तियों का संसार शुरू होता है; वस्तुओं का समाप्त होता है। तब वस्तुएं साधनरूप हो जाती हैं। तुम प्रेम के लिए उनका उपयोग करते हो, लेकिन वे तुम्हारा उपयोग नहीं कर पातीं। जब तुम वस्तुओं की इच्छा करते हो तो जो वस्तुएं तुम्हारे पास हैं, उनमें तुम्हारी आसक्ति होती है: कोई छीन न ले! और जो तुम्हारे पास नहीं हैं, दूसरों के पास हैं; उनसे तुम्हारा द्वेष होता है, क्योंकि उनके पास हैं और तुम्हारे पास नहीं हैं। इच्छा के दो पहलू बन जाते हैं: फिर अपने पास जो है उसे पकड़ो, और दूसरे के पास जो है उसे छीनो। तब सारा जीवन एक छीना-झपट, एक आपाधापी, एक दौड़-धूप हो जाती है; हाथ कुछ भी नहीं लगता। मरते वक्त हाथ खाली होते हैं।
‘...न आसक्त होता है, न उसे विषय-भोगों में उत्साह होता है।’
यह बहुत समझ लेने जैसा है। विषय-भोगों में तुम्हें उत्साह तभी तक है, जब तक तुम्हें परम भोग का स्वाद नहीं मिला। क्षुद्र को भोगता आदमी तभी तक है जब तक विराट के भोग का द्वार नहीं खुला। कंकड़-पत्थर बीनते हो, क्योंकि हीरे-जवाहरातों का पता नहीं। कूड़ा-करकट इकट्ठा करते हो, क्योंकि संपत्ति की कोई पहचान नहीं है।
यह लक्षण है भक्त का कि उसे विषय-भोगों में कोई उत्साह नहीं होता। कामी को सिर्फ विषय-भोग में उत्साह होता है, और कोई उत्साह नहीं होता। प्रेमी को विषय-भोग में उत्साह नहीं होता; किन्हीं और चीजों में उत्साह होता है; अगर उनके सहारे काम भी चले तो ठीक।
जैसे समझो: अगर तुम किसी व्यक्ति के प्रेम में हो, तो तुम चाहोगे कि दोनों बैठ कर कभी शांत आकाश में तारों को देखो। कामी नहीं चाहेगा यह। कामी कहेगा, क्यों फिजूल समय खराब करना? तारों में क्या रखा है? एक दफा देख लिए सदा के लिए देख लिए। कामी को तो शरीर में रस है, तारों में नहीं, चांद में नहीं, पक्षियों के गीत में नहीं। दो प्रेमी बैठ कर सितार सुन सकते हैं या गीत गा सकते हैं। या दो प्रेमी बैठ कर शांत, मौन ध्यान कर सकते हैं, प्रार्थना कर सकते हैं। उस प्रार्थना के माध्यम से ही अगर काम भी जीवन में आ जाए तो उन्हें कोई विरोध नहीं है। लेकिन शुरू उन्होंने प्रार्थना की थी। चांद को देखते-देखते वे करीब आ जाएं और एक-दूसरे का हाथ हाथ में ले लें तो उन्हें कुछ विरोध नहीं है; लेकिन देखना उन्होंने चांद को शुरू किया था।
प्रेमियों की आंख एक-दूसरे पर नहीं होतीं; एक साथ किसी और चीज पर होती हैं। कामियों की आंख एक-दूसरे पर होती हैं, और किसी चीज पर नहीं होतीं। प्रेमी किसी और तीसरी चीज को देखते हैं अपने से पार। प्रेम का कोई गंतव्य है, काम का कोई गंतव्य नहीं है। काम अपने आप में समाप्त हो जाता है। प्रेम अपने से पार जाता है। जो पार ले जाए, जो अतिक्रमण कराए, जो तुम्हें तुमसे ऊपर देखने की सुविधा दे, वही प्रेम है।
तो प्रेमी कभी बैठ कर सितार सुनेंगे, या कभी गीत गाएंगे, या कभी नाचेंगे, या कभी खुले आकाश के नीचे लेटेंगे, या कभी सागर-तट पर घूमेंगे, कभी सागर के नाद को सुनेंगे। लेकिन प्रेमी, कामी नहीं!
प्रेमी का कुछ लक्ष्य है जो दोनों से पार है। लेकिन बार-बार उस लक्ष्य से वे अपने पर लौट आएंगे। भक्त कभी नहीं लौटता--गया सो गया! वह जब चांद की तरफ गया तो गया, गया, गया, फिर नहीं लौटता। भक्त पीछे लौटना नहीं जानता। कामी तो कहीं जाता ही नहीं; प्रेमी जाता है, लौट, लौट आता है; भक्त गया सो गया।
काम ऐसे है जैसे पिंजरे में बंद पक्षी; कहीं जाता नहीं, वहीं पिंजरे में ही उछल-कूद करता रहता है, वहीं हलन-चलन करता रहता है। बस पिंजरा उसकी सीमा है।
प्रेम ऐसे है जैसे कबूतर उड़ते हैं आकाश में, फिर अपने घर में वापस लौट आते हैं। पिंजड़ों में बंद नहीं हैं। न लौटें तो कोई उन्हें बुलाता नहीं है; कोई पकड़ने नहीं जा सकता, अपने से लौट आते हैं। घर के ऊपर एक छत्ता लगा दिया होता है। उड़ते हैं दूर आकाश में, बड़ी दूर की यात्रा करते हैं, थकते हैं, लौट आते हैं वापस। प्रेमी ऐसे पक्षी हैं जो पिंजड़ों में बंद नहीं हैं; जाते हैं दूर अपने से पार, लौट-लौट आते हैं। भक्त ऐसा पक्षी है जो गया सो गया; उसका लौटने का कोई घर नहीं है। उसका घर सदा आगे है--और आगे! वह जब तक परमात्मा तक ही न पहुंच जाए तब तक यात्रा जारी रहती है।
‘भक्ति के प्राप्त होने पर मनुष्य न किसी वस्तु की इच्छा करता है, न द्वेष करता है, न आसक्त होता है, और न उसे विषय-भोगों में उत्साह होता है।’
यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति।
‘उस भक्ति को जान कर मनुष्य उन्मत्त हो जाता है, स्तब्ध हो जाता है, और आत्माराम हो जाता है।’
...उन्मत्त हो जाता है! पागल हो जाता है!
भक्ति अपूर्व उन्मत्तता है। आंखें सदा नशे से सरोबोर रहती हैं। मन सदा एक अपूर्व बेहोशी में डूबा होता है। जीवन साधारण गति नहीं रह जाती, नृत्य हो जाता है। जीवन से गद्य खो जाता है, पद्य का जन्म होता है। किसी और ही आयाम में प्रवेश हो जाता है।
वह सिजदा क्या, रहे अहसास जिसमें सिर उठाने का
इबादत और बकदरे होश तौहीने इबादत है।
भक्त का सिर झुकता है तो फिर उठता नहीं। साधारण लोगों को तो पागल मालूम पड़ेगा। साधारण लोग तो सिर झुकाते ही नहीं, सिर्फ दिखाते हैं कि सिर झुकाते हैं। दिखाते भर हैं! अहंकार तो अकड़ा खड़ा रहता है, शरीर ही कवायद करता है।
वह सिजदा क्या, रहे अहसास जिसमें सिर उठाने का
लेकिन भक्त ऐसे पागल हैं कि वे इसी को सिजदा कहते हैं, इसी को सिर झुकाना कहते हैं कि जब यह खयाल ही न रह जाए कि अब सिर उठाना भी है! झुका दिए, उसको उठाना क्या! मिटा दिया, उसे वापस सम्हालना क्या!
इबादत और बकदरे होश तौहीने इबादत है।
और होश क्या बचाना! जब डूबे तो डूबे! होशियारी से कहीं कोई डूबता है? हिसाब रख कर कहीं कोई प्रेम में गया है? गणित को तो छोड़ जाना पड़ता है पीछे। तर्क के तो पार जाना होता है। बुद्धि तो बेईमानी है, चालाकी है। बुद्धि तो कुशलता है, गणित है। प्रेम इस तरह के गणित को स्वीकार नहीं करता। फिर भक्ति की तो बात ही क्या!
प्रेम में भी गणित टूटने लगता है। प्रेम में भी दो और दो चार नहीं होते सदा, कभी पांच हो जाते हैं, कभी तीन ही रह जाते हैं। प्रेम में हिसाब-किताब की दुनिया डांवाडोल हो जाती है।
भक्ति तो आखिरी शराब है; फिर उसके आगे और कोई नशा नहीं!
वह सिजदा क्या, रहे अहसास जिसमें सिर उठाने का
इबादत और बकदरे होश...
प्रार्थना और वह भी होश के साथ! तो भले आदमी, प्रार्थना करने ही क्यों गए? दुकान ही चलाते। वहीं तुम्हारी पात्रता थी। जब प्रार्थना करने गए तो फिर क्या होश, क्या हिसाब?
इबादत और बकदरे होश तौहीने इबादत है।
फिर तो तुम प्रार्थना की बेइज्जती कर रहे हो, तौहीन कर रहे हो।
सुना है मैंने, एक फकीर दीवाना हो गया। घर के लोग समझे नहीं। मित्र-प्रियजन पहचाने नहीं। यह बीमारी न थी। यह, जो आदमियों की साधारण बीमारी है, उससे मुक्त हो जाना था। लेकिन, साधारण बीमारी को हम स्वास्थ्य समझते हैं। उन्होंने वैद्य को बुला लिया। वैद्य ने उसकी नब्ज की जांच की। तो कहते हैं, उस फकीर ने कहा:
चारागर! मस्त की दुनिया है जमाने से जुदा।
होश में आ कि जहां हम हैं वहां होश नहीं।
होश में आ कि जहां हम हैं वहां होश नहीं!
कहा: वैद्य, मस्तों की दुनिया और ही दुनिया है। यह तू क्या कर रहा है? होश में आ! क्या नब्ज पकड़ रहा है?
मस्तों की एक और ही दुनिया है। दीवाने कुछ और ही आयाम में जीते हैं। उसे हम समझें कि वह आयाम क्या है।
तुम कहां जीते हो? तुम वहां जीते हो जहां गणित है, हिसाब है, साफ-सुथरी रेखाएं हैं। तुम ऐसे जीते हो जैसे कोई बगीचा बना लेता है, साफ-सुथरा! भक्त ऐसे जीता है जैसे कोई जंगल में जीता है: कुछ साफ-सुथरा नहीं है; आदमी के हाथ की कोई छाप नहीं है, सिर्फ परमात्मा के हस्ताक्षर हैं। वह किसी नियम से नहीं जीता। क्योंकि जिसने प्रेम को पा लिया उसके लिए कोई नियम लागू नहीं होते; जरूरत नहीं रह जाती।
संत अगस्तीन को कोई पूछता था कि मुझे एक ही नियम बता दो। बहुत नियमों की बात मुझसे मत करो, मैं नासमझ हूं। बहुत आज्ञाएं मुझे मत दो, क्योंकि मैं भूल ही जाऊंगा। तुम मुझे एक ही सार की बात बता दो। मैं शास्त्रों को नहीं जानता हूं।
आदमी बड़ा अनूठा था! क्योंकि अपने अज्ञान को स्वीकार करने से बड़ी घटना इस जगत में और नहीं है। मैं अज्ञानी हूं, उसने कहा: मुझे तुम साधारण सा सूत्र दे दो, जो मैं पाल लूं, जो मुझे भूले न।
तो अगस्तीन ने बहुत सोचा, अगस्तीन बोलने में कुशल आदमी था, लेकिन इस आदमी के सामने उसका बोलना खो गया। उसने बहुत सोचा। उसने कहा: फिर तुम एक काम करो। प्रेम, बस इतना ही याद रखो, फिर शेष सब अपने से हो जाएगा।
तुम प्रेम करो--सब नियम पूरे हो जाते हैं। और तुम सब नियम पूरे करो और प्रेम को छोड़ दो, तो तुम सिर्फ धोखे में हो। बिना प्रेम के कोई नियम पूरा नहीं होता। बिना प्रेम के सारी नीति अनीति है और सारा आचरण सिर्फ दुराचरण को छिपाने की व्यवस्था है।
प्रेम के अतिरिक्त कोई आचरण नहीं। और जिसने प्रेम को पा लिया, उसके लिए फिर आचरण के कोई नियम नहीं, कोई अनुशासन नहीं; उसने परम अनुशासन पा लिया!
‘उस भक्ति को जान कर मनुष्य उन्मत्त हो जाता है।’
यह वर्णन है, यह व्याख्या है, परिभाषा नहीं। उस भक्ति के संबंध में कुछ खबरें दे रहे हैं।
‘...उन्मत्त हो जाता है।’
तुमने पागल को देखा है। पागल भी नियम छोड़ देता है, लोकलाज छोड़ देता है, कुल-मर्यादा छोड़ देता है! पागल से हम आशा भी नहीं रखते। पागल और भक्त में थोड़ी सी समानता है--थोड़ी सी! अंतर बड़ा है, थोड़ी सी समानता है! पागल सामान्य जीवन से नीचे गिर जाता है, भक्त ऊपर उठ जाता है। दोनों सामान्य जीवन के पार हो जाते हैं--एक नीचे गिर कर, दूसरा ऊपर उठ कर। पार होने की समानता है।
इसलिए यह सूत्र है कि ध्यान रखना: भक्ति की पहचान उन्मत्तता है। हमने चैतन्य को नाचते देखा है। घर के लोग परेशान थे: पागल हो गया! मीरा को हमने नाचते देखा है सड़कों पर। घर के लोग, प्रियजन, परिवार के लोग--और मीरा शाही खानदान से थी। बड़े दुखी थे। मार डालने की भी चेष्टा की क्योंकि यह बदनामी का कारण थी। यह राजघराने की महिला और राजस्थान में, जहां घूंघट के बाहर आना ही संभव न था, रास्तों पर नाचने लगी लोकलाज खोकर! सब मर्यादा, कुल-मर्यादा भूली!... पर मीरा पागल हो गई है...!
कहते हैं, मीरा एक मंदिर में गई। उस मंदिर में रिवाज था कि कोई स्त्री प्रवेश न कर सकेगी। बहुत से मंदिर स्त्रियों के लिए बंद रहे, डरपोकों ने बनाए होंगे, कायरों ने बनाए होंगे, व्यभिचारियों ने बनाए होंगे।
उस मंदिर का जो पुजारी था, वह बाल-ब्रह्मचारी था। और दूर-दूर तक उसकी ख्याति थी। ख्याति उसकी यही थी कि स्त्रियों को वह देखता भी नहीं, मंदिर से बाहर निकलता नहीं। मीरा उस द्वार पर पहुंच गई। कृष्ण का मंदिर था, वह नाचने लगी। वह भीतर प्रवेश करने लगी। उसे रोका गया। पुजारी घबड़ाया हुआ आया। उसने कहा कि सुनो, यहां स्त्रियों का प्रवेश नहीं है।
मीरा ने गौर से उस पुजारी को देखा और उसने कहा: मैंने तो सोचा था कि एक ही पुरुष है। तो दो हैं पुरुष? तुम भी एक पुरुष हो? मैंने तो कृष्ण को ही जाना कि एक पुरुष है, बाकी तो सब प्रकृति है। पुरुष तो एक ही है, बाकी तो सब गोपियां हैं। और कृष्ण के मंदिर में इतने दिन रह कर तुम क्या करते रहे? अभी भी तुम पुरुष हो? तुम्हें मेरी ‘स्त्री’ दिखाई पड़ती है, लेकिन मुझे तुम्हारा ‘पुरुष’ दिखाई नहीं पड़ता। रास्ता दो!
उस दिन जैसे किसी ने नींद से जगाया उस पुजारी को! रास्ता दे दिया। आंखें आंसुओं से भर गईं, पश्चात्ताप से भर गईं। यह अब तक का समय व्यर्थ गंवाया!... किसको रोक रहा था?
अब मीरा क्या लोकलाज रखे, उसे कोई पुरुष दिखाई नहीं पड़ता। तो घूंघट सरक गया है, कपड़ों का हिसाब नहीं रहा है, रास्तों पर नाच रही है!
भक्त उन्मत्त हो जाता है--होगा ही।
ऐसा समझो कि छोटी प्याली में सागर समा जाए तो प्याली पागल न होगी तो और क्या होगा? बूंद में सागर उतर आए तो बूंद कहां हिसाब रख पाएगी, और बूंदों की दुनिया के नियम कैसे बचेंगे? फिर तो सागर की उन्मत्तता होगी। फिर तो सागर की उन्मत्त लहरें होंगी। फिर बूंद चीखे-चिल्लाए और कहे कि मेरे तो नियम थे और व्यवस्था थी, वह सब टूटी जा रही है... वह टूटेगी ही!
जब भक्त के जीवन में परमात्मा उतरता है, जब भक्त जगह देता है, द्वार देता है, हटता है मार्ग से और परमात्मा को उतरने देता है, तब एक आंधी आती है, तब एक तूफान उठता है फिर जो कभी जाता नहीं। फिर भक्त किसी और ही जगत में जीता है। फिर जीता नहीं अपनी तरफ से, परमात्मा ही उसमें जीता है।
मोहब्बत में गिरां पा हो न इतना खौफे-रहजन से
जो इस रास्ते में लुट जाएं बड़ी तकदीर वाले हैं।
लुटेरों से घबड़ाओ मत प्रेम के मार्ग पर--लुटेरे सहयोगी हैं।
जो इस रास्ते में लुट जाएं बड़ी तकदीर वाले हैं।
हम उसे देखा किए जब तक हमें गफलत रही
पड़ गया आंखों पर परदा होश आ जाने के बाद।
हम उसे देखा किए जब तक हमें गफलत रही
जब तक हम बेहोश रहे, तब तक उसे देखा किए।
पड़ गया आंखों पर परदा होश आ जाने के बाद।
और जैसे ही होश आया, गणित की दुनिया वापस लौटी, आंख पर परदा पड़ गया।
उन्मत्तता पहला लक्षण है।
‘भक्त स्तब्ध हो जाता है।’
अवाक! ठिठक जाता है! अब तक जो गति थी, सब रुक जाती है। अब तक जो जाना था, सब व्यर्थ हो जाता है। अब तक जिसको जीवन पहचाना था, तो वह अचानक मृत्यु जैसा हो जाता है। अब तक जो था, सब गिर जाता है, बिखर जाता है; जैसे ताश के पत्तों का घर बनाया था; या जैसे कागज की नाव में सागर के पार जाने की आकांक्षा संजोई थी! सब ठिठक जाता है, सब गिर जाता है! अवाक! श्वास भी जैसे रुक जाए! चुप हो जाता है। बोल खो जाता है। बोली बंद हो जाती है। समय लगता है वापस बोली की दुनिया को लौटने में। वापस बोलने की योग्यता जुटाने में समय लगता है।
बुद्ध को ज्ञान हुआ, सात दिन तक चुप बैठे रहे, सात दिन तक अवाक! सब ठहर गया, ठिठक गया! देव घबड़ा गए। देवताओं में परेशानी हो गई कि कहीं बुद्ध चुप ही न रह जाएं। जब भी कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है तभी यह संभावना है कि कहीं वह चुप ही न रह जाए; क्योंकि घटना इतनी बड़ी है। कहीं बोल सदा के लिए न खो जाए, कहीं स्तब्धता उसके जीवन की व्यवस्था न बन जाए! तो कहते हैं, ब्रह्मा और देवता बुद्ध के चरणों में आए, प्रार्थना की कि आप बोलें। आप कुछ भी बोलें। और रुकना खतरनाक है।
सदियों तक हम प्रतीक्षा करते हैं कि कोई बुद्धत्व को उपलब्ध हो तो खबर लाए उस लोक की। देवता भी तरसते हैं, आदमी ही नहीं।
अल्लाह! अल्लाह! मंजरे बर्के जमाल
देखती है आंख, लब खामोश है।
आंख तो देखती है, ओंठ चुप हो जाते हैं। आंख तो पहचानती है, ओंठ बोल नहीं पाते हैं।
है ऐसी ही बात जो चुप हूं
वर्ना क्या बात कहनी नहीं आती!
‘स्तब्धता...!’
इसे थोड़ा समझें।
योगी मौन साधता है, भक्त को मौन आता है। योगी स्तब्ध होने की चेष्टा करता है, भक्त के ऊपर स्तब्धता बरसती है। योगी को जो चेष्टा से मिलता है, भक्त को निश्चेष्ट प्रसादरूप मिलता है। योगी जो उपाय कर-कर के पाता है, भक्त सिर्फ प्रेम में अपने को खोकर पा लेता है।
‘जिस भक्ति को जान कर मनुष्य उन्मत्त हो जाता है, स्तब्ध, शांत हो जाता है, और आत्माराम हो जाता है।’
‘आत्माराम’ शब्द समझने जैसा है।
अब राम और आत्मा में फासला नहीं रह जाता, इसलिए एक शब्द बनाया: आत्माराम! अब यह कहना ठीक नहीं कि आत्मा है, अब यह भी कहना ठीक नहीं कि राम है; अब कुछ ऐसा है जिसमें दोनों हैं और दोनों अलग नहीं हैं, जुदा नहीं हैं--आत्माराम!
उनसे मिल कर मैं उन्हीं में खो गया
और जो कुछ है, वह आगे राज है।
उसके आगे फिर कुछ कहा नहीं जा सकता। फिर वह रहस्य की बात है, राज है।
वाक्या यह दोनों आलम में रहेगा यादगार
जिंदगानी मैंने हासिल की है मर जाने के बाद।
दोनों लोकों में यह बात याद रहेगी।
वाक्या यह दोनों आलम में रहेगा यादगार
जिंदगानी मैंने हासिल की है मर जाने के बाद।
जिन्होंने भी पाई जिंदगी, मर कर ही पाई। जो मरने से डरते रहे, वे चूकते ही चले गए। दो तरह की मौत है: एक जो अपने से आती है और एक जो तुम स्वीकार कर लेते हो, जो तुम बुला लेते हो। मौत तो अपने से बहुत बार आई है और तुम मरे हो, फिर-फिर पैदा हुए हो; जिस दिन तुम मौत को अपने हाथ से स्वीकार कर लोगे, स्वेच्छया, उसी दिन मृत्यु समाधि बन जाती है।
जीसस ने कहा है: ‘बचाओगे अपने को, मिट जाओगे। मिटा दो--बचाने का बस एक ही उपाय है।’
जिंदगानी मैंने हासिल की है मर जाने के बाद।
जैसे ही तुम मिटे कि परमात्मा हुआ!
मेरे पास लोग आते हैं, वे पूछते हैं कि हम परमात्मा को कैसे खोजें? मैं कहता हूं: तुम कृपा करके मत खोजना, नहीं तो परमात्मा बचता ही चला जाएगा। तुम जहां-जहां जाओगे, उसे न पाओगे। क्योंकि तुम्हारी मौजूदगी ही तुम्हारी आंख पर परदा है। परमात्मा नहीं छिपा है। यह तो बात ही मत पूछो कि परमात्मा को कहां खोजें? इतना ही पूछो कि मेरी आंख पर परदा क्या है कि जो है और दिखाई नहीं पड़ता है? तुम छिपे हो अपने ही परदे में, अपनी ही आड़ में। परमात्मा कहीं खो नहीं गया है। परमात्मा खो नहीं सकता।
एक छोटे स्कूल में शिक्षक ने बच्चों से पूछा: हाथी कहां पाए जाते हैं? एक छोटी लड़की ने खड़े होकर कहा: हाथी, पहली बात, खोते ही नहीं। इतने बड़े होते हैं, तो खोएंगे कहां? पाने का सवाल नहीं है।
परमात्मा कैसे खो जाएगा? वही सब-कुछ है। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं। तुमने कैसे खोया है--यह पूछो। यह मत पूछो कि परमात्मा कैसे खो गया है।
तजाहुल से मेरे नामोनिशां के पूछने वाले
वहीं रहता हूं मैं अब तक जहां ढूंढा नहीं तूने।
अपने भीतर भर हम नहीं ढूंढते। क्योंकि अपने भीतर ढूंढने का एक ही उपाय है: अहंकार मरे तो तुम अपने भीतर जाओ। अहंकार द्वार पर खड़ा है, अटकाता है। वह तुम्हें भीतर नहीं जाने देता। अहंकार की पर्त पिघले तो तुम अपने भीतर जाओ। ‘मैं’ मिटे तो तुम जानो कि तुम कौन हो।
वहीं रहता हूं मैं अब तक जहां ढूंढा नहीं तूने।
जैसे ही तुम छोड़ते हो ‘मैं’, छोड़ते हो ‘तू’, ‘मैं-तू’ का जाल और ‘मैं-तू’ का भेद मिटता है--एक अभेद की रोशनी, एक अभेद का प्रकाश, जहां न कोई सीमा है, न जहां कोई अलग-अलग है, जहां एक का ही विस्तार है...!
हम लहरें हैं उस सागर की। थोड़ा भीतर झांकें, सागर हमारे भीतर है। हर लहर के भीतर सागर है। लेकिन लहरें बड़े अहंकार पर चढ़ गईं हैं। उन्हें यह बात ही नहीं समझ में आती कि अपने भीतर झांकने से उसका पता चल सकता है जिससे हम पैदा हुए हैं और जिसमें हम खो जाएंगे।
भक्ति मृत्यु की कला है। भक्ति परमात्मा को खोजने की कला नहीं है, अपने को खोने की कला है। मुझे फिर दोहराने दें। भक्ति परमात्मा को खोजने की कला नहीं है, अपने को खोने की कला है। खोजने में तो अहंकार बना ही रखता है। खोजने वाला बना रहता है। खोना है अपने को। और जिसने अपने को खोया उसने उसे पाया। अपने भीतर ही नहीं फिर, फिर सब तरफ वही मालूम पड़ता है। फिर हर पत्ती में उसी की हरियाली है। हर हवा के झोंके में उसी की ताजगी है। चांद-तारों में वही तुम्हारी तरफ झांकता है और तुम्हारे भीतर भी वही चांद-तारों की तरफ झांकता है।
एक बार परदा हटे--
सुबह फूटी तो आसमां पे तेरे
रंगे रूख्सार की फुहार गिरी।
रात छाई तो रू-ए आलम पर
तेरी जुल्फों की आबशार गिरी।
उसी की जुल्फें हैं रात ढांक लेती हैं गहरे अंधेरे में तुम्हें। उसी का रंग-रूप है। उसी की बहार है। उसी के गीत हैं! उसी की हरियाली है! उसी का जन्म है, उसी की मृत्यु है। तुमने व्यर्थ ही अपने को बीच में खड़ा कर लिया है।
अपने को बीच में खड़ा करने के कारण परमात्मा खो गया है। और परमात्मा को तुम जब तक न जान लो, तब तक तुम अपनी ही ऊंचाई और अपनी गहराई से वंचित रहोगे।
परमात्मा यानी तुम्हारी आखिरी ऊंचाई! परमात्मा यानी तुम्हारी आखिरी गहराई! जब तक तुम उसे न जान लो, तब तक तुम अपनी ही ऊंचाई और गहराई से वंचित रहोगे।
उस मनुष्य से ज्यादा दरिद्र और कोई भी नहीं जिसके जीवन में परमात्मा का भाव खो गया है; जिसके जीवन में परमात्मा की तरफ उठने की आकांक्षा खो गई है। जो आदमी होने से तृप्त हो गया, उस आदमी से दरिद्र और कोई भी नहीं।
नीत्शे ने कहा है: अभागे होंगे वे दिन जब आदमी की प्रत्यंचा पर परमात्मा की तरफ जाने का तीर न चढ़ेगा।
पर बहुत से ऐसे लोग हैं जिनकी प्रत्यंचा पर परमात्मा की तरफ जाने वाला तीर कभी भी नहीं चढ़ता। तब वे छिछले रह जाते हैं। तब वे उथले रह जाते हैं। तब उन्हें पता नहीं चल पाता कि जो गहराई बिलकुल उनके ही पैरों के नीचे छिपी थी, और सदा उपलब्ध थी, बस जरा डूबने की बात थी; और जो ऊंचाई सदा उनके ही सिर पर थी, आसमां की तरह फैली थी, जरा आंखें ऊपर उठाने की बात थी--वे भूल ही जाते हैं।
आदमी ही हो जाने से तृप्त मत हो जाना। उससे बड़ा कोई दुर्भाग्य नहीं है।
खयाल जिसमें है, पर तब जमाल का तेरे
उस एक खयाल की रफअत किसी को क्या मालूम।
और जिसके हृदय में तेरे सौंदर्य का एक छोटा सा खयाल भी है, परमात्मा के अनंत सौंदर्य का थोड़ा सा खयाल भी है...।
खयाल जिसमें है, पर तब जमाल का तेरे
उस एक खयाल की रफअत किसी को क्या मालूम।
उस एक छोटे से विचार की गहराई किसी को क्या मालूम!
परमात्मा के खयाल की गहराई और ऊंचाई--वही तुम्हारा विस्तार है, तुम्हारा विकास है।
इस सदी की सबसे बड़ी तकलीफ यही है कि उसके सौंदर्य का बोध खो गया है। और हम लाख उपाय करते हैं सिद्ध करने के कि वह नहीं है। और हमें पता नहीं कि जितना हम सिद्ध कर लेते हैं कि वह नहीं है, उतना ही हम अपनी ही ऊंचाइयों और गहराइयों से वंचित हुए जा रहे हैं।
परमात्मा को भुलाने का अर्थ अपने को भुलाना है। परमात्मा को भूल जाने का अर्थ अपने को भटका लेना है। फिर दिशा खो जाती है। फिर तुम कहीं पहुंचते मालूम नहीं पड़ते। फिर तुम कोल्हू के बैल हो जाते हो, चक्कर लगाते रहते हो।
आंखें खोलो! थोड़ा हृदय को अपने से ऊपर जाने की सुविधा दो। काम को प्रेम बनाओ। प्रेम को भक्ति बनने दो।
परमात्मा से पहले तृप्त होना ही मत।
पीड़ा होगी बहुत। विरह होगा बहुत। बहुत आंसू पड़ेंगे मार्ग में। पर घबड़ाना मत। क्योंकि जो मिलने वाला है उसका कोई भी मूल्य नहीं है। हम कुछ भी करें, जिस दिन मिलेगा उस दिन हम जानेंगे, जो हमने किया था वह ना-कुछ था।
तुम्हारे एक-एक आंसू पर हजार-हजार फूल खिलेंगे। और तुम्हारी एक-एक पीड़ा हजार-हजार मंदिरों का द्वार बन जाएगी। घबड़ाना मत। जहां भक्तों के पैर पड़े, वहां काबा बन जाते हैं।
आज इतना ही।
सा त्वस्मिन्परमप्रेमरूपा।।2।।
अमृतस्वरूपा च।।3।।
यल्लब्ध्वा पुमान सिद्धो भवति अमृतो भवति तृप्तो भवति।।4।।
यत्प्राप्य न किञ्चिद्वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति।।5।।
यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति।।6।।
जीवन है ऊर्जा--ऊर्जा का सागर। समय के किनारे पर अथक, अंतहीन ऊर्जा की लहरें टकराती रहती हैं; न कोई प्रारंभ है, न कोई अंत; बस मध्य है, बीच है। मनुष्य भी उसमें एक छोटी तरंग है; एक छोटा बीज है--अनंत संभावनाओं का।
तरंग की आकांक्षा स्वाभाविक है कि सागर हो जाए। और बीज की आकांक्षा स्वाभाविक है कि वृक्ष हो जाए। बीज जब तक फूलों में खिले न, तब तक तृप्ति संभव नहीं है।
मनुष्य कामना है परमात्मा होने की। उससे पहले पड़ाव बहुत हैं, मंजिल नहीं है। रात्रि विश्राम हो सकता है। राह में बहुत जगहें मिल जाएंगी, लेकिन कहीं घर मत बना लेना। घर तो परमात्मा ही हो सकता है।
परमात्मा का अर्थ है: तुम जो हो सकते हो, उसकी पूर्णता।
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है; कहीं आकाश में बैठा कोई रूप नहीं है; कोई नाम नहीं है। परमात्मा है तुम्हारी आत्यंतिक संभावना--आखिरी संभावना, जिसके पार फिर और कोई होना नहीं है; जिसके आगे फिर कोई जाना नहीं है; जहां पहुंच कर तृप्ति हो जाती है, परितोष हो जाता है।
प्रत्येक मनुष्य तब तक पीड़ित रहेगा। तब तक तुम चाहे कितना ही धन कमा लो, कितना ही वैभव जुटा लो, कहीं कोई पीड़ा का कीड़ा तुम्हें भीतर काटता ही रहेगा; कोई बेचैनी सालती ही रहेगी; कोई कांटा चुभता ही रहेगा। लाख करो भुलाने के उपाय--बहुत तरह की शराबें हैं विस्मरण के लिए, लेकिन भुला न पाओगे। और अच्छा है कि भुला न पाओगे; क्योंकि काश, तुम भुलाने में सफल हो जाओ तो फिर बीज बीज ही रह जाएगा, फूल न बनेगा--और जब तक फूल न बने और जब तक मुक्त आकाश को गंध फूल की न मिल जाए, तब तक परितृप्ति कैसी! जब तक तुम अपने परम शिखर को छूकर बिखर न जाओ, जब तक तुम्हारा विस्फोट न हो जाए अनंत में, जब तक तुम्हारी गंगा उसी सागर में वापस न लौट जाए जहां से आई है, तब तक अगर तुम भूल गए तो आत्मघात होगा, तब तक अगर तुमने अपने को भुलाने में सफलता पा ली तो उससे बड़ी और कोई विफलता नहीं हो सकती।
अभागे हैं वे जिन्होंने समझ लिया कि सफल हो गए। धन्यभागी हैं वे, जो जानते हैं कि कुछ भी करो, असफलता हाथ लगती है। क्योंकि ये ही वे लोग हैं जो किसी न किसी दिन, कभी न कभी परमात्मा तक पहुंच जाएंगे।
जहां सफलता मिली वहीं घर बन जाता है। जहां असफलता मिली वहीं से पैर आगे चलने को तत्पर हो जाते हैं।
परमात्मा तक पहुंचे बिना कोई तृप्ति संभव नहीं है।
कहा मैंने, जीवन ऊर्जा है।
ऊर्जा के तीन रूप हैं। एक तो बीज-रूप है: कुछ भी प्रकट नहीं है। फिर वृक्ष-रूप है: सब-कुछ प्रकट हो गया है, लेकिन प्राण अप्रकट हैं। फिर फूल-रूप है: फिर प्राण भी प्रकट हुआ; फिर वह अनूठी अपूर्व गंध भी आ गई, पंखुड़ियां खिल गईं और खुले आकाश के साथ मिलन हो गया, अनंत के साथ एकता हो गई!
साधारणतः बीज का अर्थ है: कामना। वृक्ष का अर्थ है: प्रेम। फूल का अर्थ है: भक्ति। जब तक तुम बीज में हो, तब तक कामवासना में रहोगे। जब तुम वृक्ष बनोगे तब तुम्हारे जीवन में प्रेम का अवतरण होगा। और जब तुम फूल बनोगे, तब भक्ति।
भक्ति परम शिखर है। वह आखिरी बात है।
इसे हम थोड़ा समझ लें, तभी इन अनूठे सूत्रों में प्रवेश हो सकेगा।
तुम शरीर हो; तुम मन भी हो; तुम उसके पार भी कुछ हो, जिसका तुम्हें पता नहीं।
शरीर तो बहुत स्थूल है। उसका पता चल जाता है। उसके लिए किसी बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं है। शरीर तो वजन रखता है। उसका बोध हो जाता है। उसके लिए किसी ध्यान की जरूरत नहीं है।
मन की भी थोड़ी झलक तुम्हें मिल जाती है, क्योंकि मन स्थूल और सूक्ष्म के मध्य में है--शरीर से भी जुड़ा है, आत्मा से भी। शरीर की तरफ से थोड़ी सी खबरें मन की मिल जाती हैं, क्योंकि एक धागा शरीर के तट से जुड़ा है। लेकिन आत्मा की तुम्हें कोई खबर नहीं मिलती। आत्मा कोरा शब्द मालूम होता है। आत्मा शब्द सुनते से ही तुम्हारे भीतर कोई घूंघर नहीं बजते। आत्मा शब्द सुनते से ही बेचैनी सी होती है। शब्द बेबूझ है। भाषा-कोश का अर्थ तो पता है; जीवन के कोश का कुछ अर्थ पता नहीं।
शरीर के साथ जुड़ी है कामवासना। कामवासना स्थूल है। शरीर शरीर को मांगता है: कामवासना का अर्थ। शरीर अपने से विपरीत शरीर को मांगता है; क्योंकि एक किनारा अधूरा है, दूसरे किनारे की चाह पैदा होती है। पुरुष स्त्री को मांगता है, स्त्री पुरुष को मांगती है, ताकि जीवन की सरिता बीच में बह सके, दो किनारे जुड़ जाएं। पुरुष अकेला है। स्त्री अकेली है।
शरीर के तल पर शरीर की मांग है, शरीर से मिलन की आकांक्षा है। क्षण भर को मिलन हो भी जाता है। क्षण भर को शरीर शरीर में डूब जाते हैं और खो भी जाते हैं--लेकिन बस क्षण भर को! उससे पीड़ा मिटती नहीं, गहन हो जाती है। उस मिलन के बाद बड़ा गहरा विषाद हो जाता है, क्योंकि मिलन के बाद गहरा विछोह होता है। मिलता कुछ भी नहीं; ऐसा लगता है, उलटा खो गया।
शरीर का मिलन क्षण भर को ही हो सकता है। स्थूल एक-दूसरे में विलीन नहीं हो सकते। स्थूल की सीमा है। स्थूल अपनी सीमा को छोड़ नहीं सकता, अन्यथा स्थूल न रह जाएगा।
बर्फ के दो टुकड़ों को तुम मिलाने की कोशिश करो, मुश्किल होगी। लेकिन वे ही पिघल जाएं जल हो कर, बिलकुल मिल जाते हैं। फिर कोई अड़चन नहीं होती। सीमा खो गई, मिलन सुलभ हो गया।
शरीर बर्फ की तरह है--जमा हुआ, ठोस। ऊर्जा वही है; पिघल जाए तो मन बनता है। मन जल की तरह है। सीमा तो है, लेकिन तरल सीमा है, ठोस नहीं। तुम मन को कैसा भी ढालो, ढल जाता है। शरीर को कैसा भी ढालो तो न ढलेगा। मन को कैसा भी ढालो, ढल जाएगा।
हिंदू के घर में बच्चा पैदा हो, मुसलमान के घर में रख दो, मुसलमान हो जाएगा। शरीर नहीं होगा, मन हो जाएगा। शरीर तो बाप की ही झलक देगा, मां की झलक देगा। शरीर की खबर तो वहीं जुड़ी रहेगी जहां से शरीर आया है, लेकिन मन मुसलमान का हो जाएगा। बच्चे को याद भी न रहेगी कि वह कभी हिंदू था। हिंदू होने के पहले ही, मन इसके पहले कि ढलता, मुसलमान हो गया। मुसलमान बाद में चाहे तो हिंदू हो जाए, ईसाई हो जाए; आस्तिक नास्तिक हो जाए, नास्तिक आस्तिक हो जाए--मन में कुछ अड़चन नहीं है।
मन तरल है। मन प्रतिपल बदलता रहता है। उसकी तरलता अनूठी है।
कामवासना है शरीर जैसी और शरीर की।
प्रेम है मन जैसा और मन का।
प्रेम की मांग शरीर की मांग से ऊपर है। प्रेम कहता है: दूसरे का मन मिल जाए! प्रेम करने वाला वेश्या के द्वार पर न जाएगा। यह बात ही बेहूदी मालूम पड़ेगी। यह बात ही संभव नहीं है। यह सोच भी बेहूदा मालूम पड़ेगा। लेकिन कामवासना से भरा व्यक्ति वेश्या के घर चला जाएगा; शरीर की ही मांग है।
शरीर खरीदा जा सकता है; मन खरीदा नहीं जा सकता।
शरीर जड़ है। मन थोड़ा-थोड़ा चेतन है; इसलिए इतना नीचे नहीं उतरा जा सकता कि खरीद और बेच की जा सके।
मन प्रेम मांगता है: कोई, जो अपना सर्वस्व देने को तैयार हो, बिना किसी शर्त के। मन अपने को किसी को दे देना चाहता है, बेशर्त लुटा देना चाहता है। मन की मांग प्रेम की है।
जब दो मन मिलते हैं तो जो रस पैदा होता है, उसका नाम प्रेम है। जब दो शरीर मिलते हैं तो जो रस पैदा होता है, उसका नाम काम है।
फिर मन के भी पार तुम्हारा अस्तित्व है--आत्मा का। आत्मा ऐसे है जैसे पानी भाप बन कर आकाश में उड़ गया। पानी ही है, लेकिन अब तरल सीमा भी न रही। अब कोई सीमा न रही; आकाश में फैलना हो गया! अदृश्य हो जाती है भाप; थोड़ी दूर तक दिखाई पड़ती है, फिर खो जाती है!
आत्मा अदृश्य है--भाप जैसी!
आत्मा की तलाश किसकी है?
शरीर मांगता है शरीर को। मन मांगता है मन को। आत्मा मांगती है आत्मा को।
शरीर और शरीर के मिलन से जो रस पैदा होता है--क्षणभंगुर--उसका नाम: काम। मन और मन के मिलन से जो रस पैदा होता है--थोड़ा ज्यादा स्थायी, जीवन भर चल सकता है। आकांक्षा तो मन की होती है कि जीवन के पार भी चलेगा। प्रेमी कहते हैं, ‘मौत हमारे प्रेम को न तोड़ पाएगी।’ अगर प्रेम जाना है, तो प्रेमी कहता है, कुछ हमें छुड़ा न पाएगा। शरीर मिट जाएगा तो भी हमारा प्रेम नष्ट न होगा।
यह कामना ही है, लेकिन मन थोड़ा ज्यादा दूरगामी है। शरीर से उसकी सीमा थोड़ी बड़ी है।
फिर आत्मा है; शाश्वत की मांग है उसकी। उससे कम पर उसकी तृप्ति नहीं। क्षणभंगुर को भी क्या चाहना! अंधेरी रात में क्षण भर को बिजली चमकती है, फिर अंधेरा और अंधेरा हो जाता है। दुख ही बेहतर है। दुख की दुनिया में क्षण भर को सुख का फूल खिलता है, दुख और दूभर हो जाता है, फिर झेलना और मुश्किल हो जाता है।
आत्मा मन के प्रेम को भी नहीं मांगती, क्योंकि मन तरल है: आज किसी से प्रेम किया, कल किसी और के प्रेम में पड़ सकता है। मन का कोई बहुत भरोसा नहीं है। जब प्रेम में होता है तो ऐसा ही कहता है, ‘अब तेरे सिवाय किसी को कभी प्रेम न कर सकूंगा। अब तेरे सिवाय मेरे लिए कोई और नहीं।’ मगर ये मन की ही बातें हैं। मन का भरोसा कितना! आज कहता है; कल बदल जाए! अभी कहता है; अभी बदल जाए!
मन पानी की तरह तरल है।
आत्मा की मांग है शाश्वत की, चिरंतन की, सनातन की। आत्मा की मांग है आत्मा की। आत्मा और आत्मा के मिलन पर जो रस पैदा होता है, उसका नाम भक्ति है।
शरीर की सीमा है ठोस। मन की सीमा है तरल। आत्मा की कोई सीमा नहीं।
काम क्षणभंगुर है। प्रेम थोड़ा दूर तक जाता है, थोड़ा स्थायी हो सकता है। भक्ति शाश्वत है।
काम में शरीर और शरीर का मिलन होता है--स्थूल का स्थूल से; मन में--सूक्ष्म का सूक्ष्म से; आत्मा में--निराकार का निराकार से। भक्ति निराकार का निराकार से मिलने का शास्त्र है।
ऐसा समझो कि तुम अपने घर में बैठे हो द्वार-खिड़कियां बंद करके, रोशनी नहीं आती सूरज की भीतर, हवा के झोंके नहीं आते, फूलों की गंध नहीं आती, पक्षियों के कलरव की आवाज नहीं आती--तुम अपने में बंद बैठे हो, ऐसा शरीर है, द्वार-दरवाजे सब बंद!
फिर तुमने द्वार-दरवाजे खोले, खिड़कियां खोलीं, हवा के नये झोंकों ने प्रवेश किया, सूरज की किरणें आईं, पक्षियों के गीत गूंजने लगे, आकाश की झलक मिली: ऐसा मन है! थोड़ा खुलता है। लेकिन बैठे तुम घर में ही हो।
फिर भक्ति है कि तुम घर के बाहर निकल आए, खुले आकाश में खड़े हो गए: अब सूरज आता नहीं, बरस रहा है; अब हवा कहीं से आती नहीं, तुम्हारे चारों तरफ आंदोलित होती है; अब तुम पक्षियों के कलरव में एक हो गए!
भक्ति-सूत्र पूरा शास्त्र है भक्ति का। एक-एक सूत्र को अति ध्यानपूर्वक समझने की कोशिश करना, और अति प्रेमपूर्वक भी, क्योंकि यह प्रेम का ही शास्त्र है। इसे तुम तर्क से न समझ पाओगे। स्वाद ही समझा पाएगा।
अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः।
‘अब भक्ति की व्याख्या।’
क्यों, ‘अब’ ‘अथातो’...!
हो चुकी बात काम की बहुत। हो चुकी चर्चा प्रेम की बहुत। अथातो भक्तिं... अब भक्ति की बात हो। जी लिए बहुत। देख लिए शरीर के भी खेल। देख लिए मन के भी जाल। गुजर चुके उन सब पड़ावों से। अब भक्ति की थोड़ी बात हो।
‘अब!’ अचानक शुरू होता है शास्त्र!
सिर्फ भारत में ऐसे शास्त्र हैं जो ‘अथातो’ से शुरू होते हैं; दुनिया की किसी भाषा में ऐसे शास्त्र नहीं हैं। क्योंकि यह तो बड़ा अधूरा मालूम पड़ता है।
कहीं ‘अब’ से कोई शास्त्र शुरू होता है! यह तो ऐसा लगता है जैसे इसके पहले कोई बात चल रही थी; कोई कथा आगे चल रही थी जो छूट गई है; कोई बीच का अध्याय है, प्रारंभ का नहीं।
पश्चिम के व्याख्याकार जब पहली दफा ब्रह्मसूत्र से परिचित हुए--वह भी ऐसे ही शुरू होता है: ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा,’ अब ब्रह्म की जिज्ञासा--तो उन्होंने कहा कि इसके पहले कोई किताब थी जो खो गई है। निश्चित ही, क्योंकि यह तो मध्य से शुरुआत हो रही है।
नहीं, कोई किताब खो नहीं गई है; यह शुरुआत ही है। यह जीवन की किताब का आखिरी अध्याय है। शास्त्र शुरू ही हो रहा है, मगर जीवन की किताब का आखिरी अध्याय है। यह उनके लिए नहीं है जो अभी शरीर की वासना में पड़े हों। वे इसे न समझ पाएंगे। अभी देर है। अभी फल पकेगा। अभी उनके गिरने का समय नहीं आया। यह उनके लिए नहीं है जो अभी प्रेम की कविता में डूबे हैं और उसको ही जिन्होंने आखिरी समझा है। उन दो को छोड़ने के लिए ‘अथातो।’
तो, शुरू में ही शास्त्र कह देता है कि कौन है अधिकारी। यह अधिकारी की व्याख्या है ‘अथातो।’ यह कहता है कि अगर चुक गए हो कामवासना से, भर गया हो मन--तो, अन्यथा अभी थोड़ी देर और भटको, क्योंकि भटके बिना कोई अनुभव नहीं है। अगर अभी प्रेम में रस आता हो तो क्षमा करो; अभी इस मंदिर में प्रवेश न हो सकेगा। अभी तुम किसी और ही प्रतिमा के पुजारी हो; अभी परमात्मा की प्यास नहीं जगी। अभी तुम या तो बीज हो या वृक्ष हो, अभी फूल होने का समय नहीं आया। और जब तक समय न आ जाए तब तक कुछ भी तो नहीं होता। इसलिए व्यर्थ मेहनत नहीं करनी है।
यह, जीवन की पाठशाला में जिनका आखिरी अध्याय करीब आ गया, इसका यह मतलब नहीं है कि यह बूढ़ों के लिए है। जैसे पश्चिम के लोगों ने गलत समझा--उन्होंने समझा कि यह आधी किताब है, आधी शायद खो गई--वैसे पूरब के लोगों ने भी गलत समझा। उन्होंने समझा कि यह तो बूढ़ों के लिए है।
नहीं, प्रौढ़ों के लिए है, बूढ़ों के लिए नहीं है। प्रौढ़ कोई कभी भी हो सकता है। एक छोटा बच्चा प्रौढ़ हो सकता है। प्रगाढ़ बुद्धिमत्ता चाहिए! और नहीं तो बूढ़े भी बचकाने रह जाते हैं। कोई बूढ़े होने से थोड़े ही पक जाता है। धूप में पक जाने से बाल कोई वृद्ध नहीं हो जाता। बूढ़े के मन में भी वही कामनाएं चलती रहती हैं, वही वासनाएं चलती रहती हैं। तो उसके लिए भी नहीं हैं ये शास्त्र।
फिर कभी-कभी कोई जवान भी भर जवानी में जाग जाता है, अभी जब कि सोने के दिन थे तब जाग जाता है। कभी कोई छोटा बच्चा भी अचानक बीज से छलांग लेता है और फूल हो जाता है। कोई शंकराचार्य छोटी उम्र में, बड़ी छोटी उम्र में...। उम्र का कोई सवाल नहीं है, बोध का सवाल है।
‘अथातो’... अब भक्ति की व्याख्या करते हैं। व्याख्या करते हैं, परिभाषा नहीं। परिभाषा हो नहीं सकती। कुछ चीजें हैं जिनका वर्णन हो सकता है, व्याख्या हो सकती है, परिभाषा नहीं हो सकती। जैसे कि तुमने कोई स्वाद पाया और तुम किसी दूसरे को समझाने लगे जिसके जीवन में अभी वैसा स्वाद आया नहीं, लेकिन स्वाद को समझने की उत्सुकता आई है, रस जगा है, जिज्ञासा बनी है--तुम क्या करोगे? तुम वर्णन करोगे; तुम्हें जो स्वाद मिला है उसका तुम वर्णन करोगे, कैसा मिला! तुम कुछ प्रतीक चुनोगे; जिससे, जिससे तुम बात कर रहे हो, उसकी भाषा में कुछ संकेत दिए जा सकें; उसके अनुभव से तुम अपना अनुभव जोड़ने की कोशिश करोगे।
व्याख्या का अर्थ होता है: तुम्हें, जिन्हें अनुभव नहीं है, उनसे अपने अनुभव को जोड़ने की चेष्टा; जो तैयार तो हैं मंदिर में प्रवेश के, लेकिन अभी मंदिर में प्रवेश नहीं हुआ है, उन्हें मंदिर की खबर देनी है; मंदिर के भीतर क्या घट रहा है, मंदिर के भीतर कैसा अनुभव हुआ है, थोड़ा सा स्वाद उनके लिए लाना है।
क्या करेंगे? परिभाषा करेंगे? व्याख्या करेंगे। परिभाषा नहीं हो सकती। परिभाषा तो उनके बीच हो सकती है जो दोनों ही जानने वाले हों। परिभाषा संक्षिप्त होती है। परिभाषा तो एक-दो वचनों में, वाक्यों में पूरी हो जाती है। लेकिन व्याख्या थोड़ी लंबी होती है। और व्याख्या से सिर्फ हम दृश्य देते हैं, झलक देते हैं। वह बिलकुल ठीक नहीं होती व्याख्या, क्योंकि ठीक हो नहीं सकती; थोड़ी-थोड़ी ठीक होती है, थोड़ी-थोड़ी गलत होती है। क्योंकि ज्ञानी जब अज्ञानी से बात करता है तो अज्ञानी की भाषा में करता है। परिभाषा तो बिलकुल ठीक होती है, व्याख्या बिलकुल ठीक नहीं होती--हो नहीं सकती।
जब बुद्ध बोलेंगे उनसे जिनके जीवन में बुद्धत्व नहीं है, तो अगर बुद्ध अपनी ही भाषा का उपयोग करें तो परिभाषा होगी; अगर बुद्ध उनकी भाषा का उपयोग करें जिनसे बोल रहे हैं, तो व्याख्या होगी। इसलिए सूत्र पहले ही कह देता है, ‘अथातो भक्तिं व्याख्या,’ अब हम भक्ति की व्याख्या करते हैं।
‘वह ईश्वर के प्रति परम प्रेमरूपा है।’
भक्ति की पहली व्याख्या का सूत्र: ‘वह ईश्वर के प्रति परम प्रेमरूपा है।’
मैंने तुम्हें कहा, ऊर्जा का एक रूप है: काम; ऊर्जा का दूसरा रूप है: प्रेम; ऊर्जा का तीसरा रूप है: भक्ति। भक्ति और काम के बीच में प्रेम है। प्रेम का एक हाथ काम से जुड़ा है; प्रेम का दूसरा हाथ भक्ति से जुड़ा है। अगर कामवासना की व्याख्या करनी हो तो भी प्रेम से ही करनी होगी। अगर भक्ति की व्याख्या करनी हो तो भी प्रेम से ही करनी होगी। क्योंकि प्रेम सेतु है दोनों के बीच। प्रेम दोनों का मध्य बिंदु है। प्रेम दोनों का संतुलन है।
जिसने भक्ति को जाना वे उनसे बोले जिन्होंने भक्ति को नहीं जाना, तो वे किस भाषा में बोले? प्रेम के अतिरिक्त और कोई भाषा नहीं बचती। काम में तो बोला ही नहीं जा सकता, क्योंकि काम एक छोर है, भक्ति दूसरा छोर है। भक्ति तो काम के करीब-करीब विपरीत है। तो, अगर काम से कहना हो तो इतना ही कहा जा सकता है कि जो कामना नहीं है, वही भक्ति। लेकिन इससे कुछ हल न होगा, निषेध हो जाएगा।
हम पूछते हैं, ‘भक्ति क्या है?’ अगर काम से कहना हो तो हम इतना ही बता सकते हैं कि भक्ति क्या नहीं है। लेकिन पूछने वाला पूछ रहा है, ‘हम यह नहीं पूछते कि भक्ति क्या नहीं है। पत्थर नहीं है, वृक्ष नहीं है, पक्षी नहीं है--माना; भक्ति है क्या? तो कहां से शुरू करें?’
‘...परम प्रेमरूपा है।’
प्रेम से शुरुआत करनी पड़ेगी। लेकिन प्रेम में एक शर्त लगाई है: परम प्रेमरूपा! परम प्रेमरूपा का अर्थ है: ऋण काम। अगर सिर्फ प्रेमरूपा कहते तो फिर भक्ति में और प्रेम में कोई फर्क न रह जाता; फिर तो प्रेम ही भक्ति हो जाती। फिर तीसरे की कोई जरूरत न होती; काम और प्रेम, दो काफी थे विभाजन के लिए।
नहीं, प्रेम में थोड़ा सा काम शेष रहता है। भक्ति में उतना भी काम शेष नहीं रह जाता। अब हम इसे ऐसा समझें कि काम में थोड़ा सा प्रेम है। इसलिए तो आदमी काम में उलझा रहता है। एक प्रतिशत होगा प्रेम, निन्यानबे प्रतिशत केवल कामना है, केवल वासना है; लेकिन वह एक प्रतिशत प्रेम काम को भी एक सुंदर प्रतिमा बना देता है; काम को भी एक भावभंगिमा दे देता है; जो उसकी नहीं है, उधार है; काम की कुरूपता को ढांक लेता है, और एक सौंदर्य का आवरण दे देता है; काम की व्यर्थता को ढांक लेता है और सार्थकता की थोड़ी सी झलक दे देता है।
कामवासना में भी प्रेम का थोड़ा सा अंश है। और प्रेम में भी कामवासना का थोड़ा सा अंश है। दोनों जुड़े हैं। इसलिए प्रेम भी पूरा प्रेम नहीं है; कुछ उसमें अभी भी विजातीय है। प्रेम में भी थोड़ी कामवासना है।
इसे हम ऐसा समझें कि कामी कामवासना में पड़ता है; कामवासना में पड़ने के कारण थोड़े से प्रेम का आविर्भाव हो जाता है। प्रेमी प्रेम में डूबता है; प्रेम में डूबने के कारण कामवासना आ जाती है। दोनों में बड़ा फर्क है, लेकिन तालमेल भी है। कामी काम के कारण प्रेम करने लगता है। प्रेमी प्रेम के कारण काम में उतरता है। दोनों में मौलिक अंतर है। क्योंकि प्रेमी का काम बड़ा मधुर और प्रीतिकर हो जाएगा। कामी का प्रेम भी गंदा होगा। उसके प्रेम में भी बदबू होगी। लेकिन दोनों एक-दूसरे में घुले-मिले हैं।
परम प्रेमरूपा है भक्ति। परम प्रेमरूपा का अर्थ हुआ: प्रेम खालिस सोना बचा; चौदह कैरेट नहीं, अट्ठारह कैरेट नहीं, खालिस! उसमें एक भी कैरेट कामवासना का न रहा। शुद्ध प्रेम हो गया, तो भक्ति!
क्योंकि तुम प्रेम को शायद थोड़ा सा जानते हो, इसलिए प्रेम के आधार पर भक्ति को समझाया जा रहा है। तुम प्रेम की थोड़ी सी भाषा जानते हो, वह भी पूरी नहीं जानते; कहीं सपने में झलक मिली है; कहीं टटोलते-टटोलते हाथ पड़ गया है; कहीं से कोई थोड़ी पहचान आ गई है; सांयोगिक रही होगी, लेकिन तुम्हें थोड़ा सा स्वाद है।
जैसे कि पीतल पीला है, और सोना तुमने नहीं देखा, तो हम पीतल से सोने को समझाते हैं।
कहते हैं: ऐसा ही पीला, पर और शुद्ध, ज्योतिर्मय, सूर्य की किरण जैसा चमकता हुआ! कुछ प्रतीक खोजते हैं। प्रतीक खोजना वर्णन है, व्याख्या है।
‘वह भक्ति ईश्वर के प्रति परम प्रेमरूपा है।’
सूत्र के जो भी अनुवाद किए गए हैं हिंदी में, उन सबमें यही अनुवाद किया गया है: वह भक्ति ईश्वर के प्रति परम प्रेमरूपा है। पर संस्कृत में बात कुछ और है।
सा त्वस्मिन्परमप्रेमरूपा।
ईश्वर शब्द का प्रयोग नहीं किया है। ईश्वर शब्द नहीं है--‘उसके प्रति!’ त्वस्मिन्! बड़ा फर्क है। जिन्होंने भी हिंदी में अनुवाद किए हैं, उन्होंने बात को संकीर्ण कर दिया।
‘उसके प्रति’--‘उसका’ नाम नहीं हो सकता, इशारा है। बड़ी दूर है वह। उसे ईश्वर कहने से बात हल न होगी। क्योंकि उसे ईश्वर कहने से ही हम उसकी परिभाषा कर देंगे।
ईश्वर शब्द का अर्थ होता है; ऐश्वर्यवान; सारा ऐश्वर्य जिसका है, वह ईश्वर। यह हमारी परिभाषा है, क्योंकि हम ऐश्वर्य की भाषा में सोचने के आदी हो गए हैं। हमारे लिए ईश्वर ऐसा है जैसे सम्राट; सारे जगत का है, पर है सम्राट ही। धन की भाषा में हम सोचने के आदी हो गए हैं, ऐश्वर्य की भाषा में सोचने के आदी हो गए हैं, तो ईश्वर कहते हैं।
लेकिन धन से, और ईश्वर का क्या लेना-देना? ऐश्वर्य से और ईश्वर का क्या संबंध? सम्राटों से उसकी कल्पना करनी ठीक नहीं। इसलिए संस्कृत शब्द ठीक है: त्वस्मिन्-‘उसके प्रति।’ नाम मत दो उसे। नाम तुम दोगे, तुम्हारा नाम होगा, तुम्हारा मन प्रविष्ट हो जाएगा। सिर्फ इतना ही कहो: ‘उसके।’ इशारा करो। अंगुली बता दो। शब्द मत दो।
वह अनाम है; नाम में मत घसीटो।
वह अरूप है; रूप का आग्रह मत करो।
वह निराकार है; तुम कोई आकार मत दो।
‘ईश्वर’ देते ही आकार मिल जाता है। ईश्वर शब्द आते ही, तुम्हारे मन में आकार उठने शुरू हो जाते हैं।
सोचो थोड़ा, ‘उसके प्रति’--कोई आकार उठता है? उसके प्रति! तुम पूछोगे, ‘किसके प्रति? यह कौन है ‘उस?’ किसकी बात कर रहे हैं?
‘ईश्वर’ कहते ही हल हो गया, तुम निश्चिंत हुए, तुमने कहा, समझ गए। जहां तुमने कहा, समझ गए, वहीं नासमझी है। तुम न समझो, बड़ी कृपा होगी। तुम बहुत जल्दी समझ जाते हो, वहीं भूल हो जाती है।
परमात्मा इतना आसान नहीं कि समझ में आ जाए। वस्तुतः उसे समझने के लिए सब समझ छोड़नी पड़ती है। उसे केवल वे ही समझ पाते हैं जो समझ का आग्रह भी छोड़ देते हैं।
इसलिए अच्छा होगा, हम भी कहें, ‘उसके प्रति!’ ‘उसके’ कहते ही बड़ा विराट का द्वार खुलता है। फिर ये पशु-पक्षी, पौधे, आकाश सब सम्मिलित हो जाते हैं। परमात्मा कहते ही, ईश्वर कहते ही, बात कुछ बिगड़ जाती है; भेद खड़ा हो जाता है; स्रष्टा और सृष्टि का भेद हो जाता है। फिर तुम सृष्टि की निंदा में लग जाते हो और स्रष्टा की पूजा में। और कहीं स्रष्टा और सृष्टि अलग नहीं हैं।
स्रष्टा शब्द ठीक नहीं है; सृजन की ऊर्जा है। वही सृष्टि है, वही स्रष्टा है।
‘उसके प्रति’ कहना बिलकुल ठीक है।
सा त्वस्मिन्परमप्रेमरूपा।
उसके प्रति परमप्रेमरूप है। न नाम का पता है, न धाम का पता है। इसका क्या अर्थ हुआ? इसका अर्थ यह हुआ कि प्रेम तो नाम-धाम के बिना नहीं हो सकता, भक्ति हो सकती है। प्रेम के लिए तो नाम-धाम चाहिए।
तुम अगर कहो कि मैं प्रेम में पड़ गया हूं, और कोई पूछे, ‘किसके प्रति’; तुम कहो, ‘इसका कुछ पता नहीं’, तो तुम पागल हो।
प्रेम तो साकार के प्रति है, इसलिए नाम पता है। प्रेम का तो कोई एड्रेस है, पत्र लिखा जा सकता है। परमात्मा का कोई एड्रेस नहीं, पत्र लिखा नहीं जा सकता। परमात्मा के लिए तो बड़ा बावलापन चाहिए। निराकार के प्रति प्रेम! इसका अर्थ यह हुआ कि ऑब्जेक्ट, विषय तो खो गया, सब्जेक्ट, केवल तुम्हीं बचे।
जिन्होंने परमात्मा के प्रति प्रेम जाना, उन्होंने वस्तुतः यही जाना कि वहां कोई भी नहीं है। बस प्रेम ही प्रेम है। असल में परमात्मा के प्रति प्रेम कहना ठीक नहीं है, वहां ‘प्रति’ है ही नहीं। वहां सिर्फ प्रेम का निवेदन है, किसी के प्रति नहीं है; सिर्फ प्रेम का आविर्भाव है; शुद्ध प्रेम की ऊर्जा का उठान है, उत्थान है, ऊर्ध्वगमन है; किसी के प्रति नहीं है। पर कहना होगा तुम्हारी भाषा में।
इसलिए सूत्र कहता है: ‘वह उसके प्रति परम प्रेमरूपा है।’
परम प्रेम तभी है जब प्रेमी की भी जरूरत न रह जाए। जब तक प्रेमी की जरूरत है, तब तक तुम्हारा प्रेम परम प्रेम नहीं है, निर्भर है। निर्भर है तो शुद्ध नहीं हो सकता। जिससे तुम प्रेम करोगे, वह तुम्हारे प्रेम को आच्छादित करेगा। जिससे तुम प्रेम करोगे, वह तुम्हारे प्रेम को रंग देगा; जिसको तुम प्रेम करोगे, वह तुम्हारे प्रेम को ढंग देगा--परम नहीं हो सकता।
ऐसा समझो कि जब भी सोने का आभूषण बनाओगे, तो शुद्ध न रह जाएगा, कुछ न कुछ मिलाना पड़ेगा। क्योंकि शुद्ध सोना इतना नाजुक है, उसके आभूषण नहीं बनते। उसमें कुछ मिलाना ही पड़ेगा विजातीय--कुछ तांबा मिलाओ, कुछ और मिलाओ। वह अट्ठारह कैरेट रह जाएगा, बीस कैरेट होगा, बाईस कैरेट होगा; लेकिन शुद्ध नहीं हो सकता, चौबीस कैरेट नहीं हो सकता।
ऐसा समझो कि भक्ति के जब तुम आभूषण बनाते हो तो प्रेम हो जाता है और जब तुम प्रेम के आभूषणों को पिघला लेते हो और शुद्ध कर लेते हो, तब भक्ति हो जाती है। लेकिन जब तुम प्रेम के आभूषण पिघलाते हो तो प्रेमी भी पिघल जाता है। तुम जिसे प्रेम करते थे, वह बचता नहीं। तुम भी नहीं बचते; प्रेम ही बचता है। वे दोनों गए। वह द्वैत गया। और जब प्रेम ही बचता है, तब प्रेम शुद्ध है। न मैं न तू, दोनों खो गए!
जलालुद्दीन रूमी की बड़ी प्रसिद्ध कविता है, मुझे बड़ी प्यारी है। एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पर दस्तक देता है। भीतर से आवाज आती है, ‘कौन है?’ प्रेमी कहता है, ‘मैं हूं तेरा प्रेमी। पहचाना नहीं? मेरी पगध्वनि विस्मृत हो गई! मेरी आवाज पहचान से उतर गई!’ लेकिन भीतर से आवाज आई, ‘अभी तुम इस योग्य नहीं कि द्वार खुलें। अभी तुम अधिकारी नहीं।’
प्रेमी बड़ा हैरान हुआ। क्योंकि प्रेमी तो सदा सोचता है कि अधिकारी है ही। हर व्यक्ति की यही भूल है कि हर व्यक्ति जन्म से ही समझता है कि वह प्रेम का अधिकारी है। इसलिए प्रेम को कोई सीखता ही नहीं, बिना सीखे ही प्रेम करने लगते हैं। और इसलिए फिर प्रेम में इतनी भूलें होती हैं और प्रेम में इतना उपद्रव होता है, और सारा जीवन बरबाद हो जाता है।
प्रेम संभावना है, सत्य नहीं। प्रेम को प्रगटाना है; वह प्रकट नहीं है। प्रेम कोई मिली हुई संपदा नहीं है; खोजनी है; सृजन करना है उसका।
प्रेमी लौट गया; वर्षों भटकता रहा; प्रेम की खोज करता रहा; प्रेम का अर्थ समझने की चेष्टा करता रहा; ध्यान किया, प्रार्थना की--धीरे-धीरे प्रेम का आविर्भाव हुआ, वह लौटा। फिर उसने दस्तक दी। भीतर से आवाज आई, ‘कौन?’ तो, जलालुद्दीन कहता है कि अब प्रेमी ने कहा, ‘तू ही है।’ और द्वार खुल गए।
जलालुद्दीन से अगर मेरी कभी मुलाकात हो जाए--कभी न कभी हो सकती है, क्योंकि जो रहा है वह कहीं होगा; जो है वह मिटता नहीं--तो उससे मैं कहूं कि कविता पूरी कर दो, यह अधूरी है। अभी भी द्वार खुलने नहीं चाहिए। क्योंकि जहां ‘तू’ है वहां ‘मैं’ मिट नहीं सकता।
प्रेमी ने पहले कहा, ‘मैं!’ अब उसने बदल लिया पहलू; लेकिन पहलू बदलने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। अब वह कहता है, ‘तू!’ लेकिन ‘तू’ का क्या अर्थ है अगर ‘मैं’ मिट गया हो? किसको कहोगे ‘तू?’ किस प्रसंग में कहोगे ‘तू?’
‘तू’ का सारा अर्थ ‘मैं’ में छिपा है। जब तक ‘मैं’ हूं, तभी तक ‘तू’ में अर्थ है। जब ‘मैं’ ही न रहा तो ‘तू’ कौन?
जलालुद्दीन से मैं कहूं कि इसे थोड़ा और आगे बढ़ा, एक दफा और लौटा इस प्रेमी को। जल्दी मत कर। कविता खत्म करने की इतनी जल्दी भी क्या है; और चार लाइन जोड़ी जा सकती हैं। जाने दे वापस। प्रेयसी से कहलवा दे कि कुछ-कुछ तैयार हुआ, लेकिन पूरा नहीं। थोड़ी अधिकारी होने की क्षमता आई; लेकिन अभी प्रारंभ है। थोड़ा और भटक। थोड़ा और खोज। इतना पहुंचा है तो आगे भी पहुंच ही जाएगा। रास्ता ठीक है, जिस पर चल पड़ा है, मंजिल अभी नहीं आई। आधी यात्रा हो गई है--‘मैं’ खो गया; आधी और होनी चाहिए--‘तू’ भी खो जाए! फिर ला, कुछ वर्षों बाद! फिर लाने की वैसे जरूरत भी नहीं है। फिर तो प्रेयसी वहीं चली आएगी जहां प्रेमी है।
परम प्रेम तब है जब न प्रेमी रहा न प्रेयसी रही, जब द्वंद्व खो गया।
‘...उसके प्रति परम प्रेमरूपा है...।’
और तब--
अभी मैखानए दीदार हर जर्रे में खुलता है
अगर इंसान अपने आप से बेगाना हो जाए।
और तब कण-कण में उसकी मधुशाला का दरवाजा खुल जाता है! कण-कण में!
अभी मैखनाए दीदार हर जर्रे में खुलता है
कण-कण में उसका मधु बिखर जाता है और कण-कण में उसकी मधुशाला का द्वार खुल जाता है--अगर इंसान अपने आप से बेगाना हो जाए! अगर आदमी अपने को भूल जाए, तो परमात्मा को पाने में अड़चन कहां! अपने से बेगाना हो जाए! मैं को भूल जाए, मैं को छोड़ दे, मैं को न पकड़े रखे तो उसकी मधुशाला कण-कण पर बिखर जाती है! फिर सभी जगह उसकी ही मस्ती है।
न तुम हो, न वह है; मस्ती ही मस्ती है--वही परम प्रेमरूप है!
अमृतस्वरूपा च।
बड़े अदभुत सूत्र हैं। छोटे, बीज-रूप!
‘और अमृतस्वरूपा है।’
‘वह भक्ति परम प्रेमरूपा है और अमृतस्वरूपा है।’ क्योंकि जिसने परम प्रेम जाना, फिर उसकी कोई मृत्यु नहीं। क्यों? क्योंकि वह तो मर ही चुका, अब मरेगा कैसे? मरना तो तभी तक शेष है जब तक तुम मिटे नहीं, मरे नहीं। मौत तो तभी तक डराएगी जब तक तुम हो। जिसने अपने को खो दिया उसकी कैसी मौत! उसने मौत पर विजय पा ली! वह अमृस्वरूप को उपलब्ध हो गया!
ध्यान रखना: अहंकार की ही मृत्यु होती है, तुम्हारी कभी नहीं होती; कभी हुई नहीं, हो नहीं सकती। तुम शाश्वत हो, सनातन हो; सदा थे, सदा रहोगे। अन्यथा कोई उपाय नहीं है। तुम चाहो भी अपने को मिटा लेना तो नहीं मिटा सकते। मौत होती ही नहीं। लेकिन तुमने एक अपना काल्पनिक आकार, रूप समझ रखा है। उस कल्पना की मौत होती है। तुमने अपनी एक अहंकार की प्रतिमा बना रखी है। परमात्मा से जुदा तुमने अपने को ‘मैं’ कहने का भाव बना रखा है। वही मैं-भाव मरता है। चूंकि तुम उससे बड़े जुड़े हो, तुम्हें लगता है, ‘मैं’ मरा! ‘मैं-भाव’ छूट जाए... ‘अमृतस्वरूपा च’... तब, तब जो मिलता है उसकी कोई मृत्यु नहीं है।
यल्लब्ध्वा पुमान सिद्धो भवति अमृतो भवति तृप्तो भवति।
‘उस भक्ति को प्राप्त कर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है और तृप्त हो जाता है।’
‘...सिद्ध हो जाता है।’
सिद्ध का क्या अर्थ होता है?
सिद्ध का अर्थ होता है: जो होने को थे वही हो गए। जो बीज की तरह लाए थे वह खिल गया फूल की तरह: सिद्ध का अर्थ होता है।
सिद्ध का अर्थ होता है: अब और साधना करने को न रही; अब और कोई साध्य न रहा; अब सभी साधनों के पार आ गए।
सिद्ध का अर्थ होता है: तुमने पा लिया अपने स्वभाव को, अपने स्वरूप को; पहुंच गए उस परम मंदिर में जिसकी तलाश थी, जन्मों-जन्मों अनंतकाल तक जिसे खोजा था, जिसके लिए भटके थे।
स्वयं को खोते ही व्यक्ति सिद्ध हो जाता है। इसका अर्थ हुआ कि सारा भटकाव अहंकार का है। तुम इसलिए नहीं भटकते कि कोई तुम्हें और भटका रहा है; तुम इसलिए भटकते हो कि तुम हो। जब तक तुम हो, भटकोगे। तुम मिटे कि पहुंचे। मिटने में ही पहुंच जाना है। होने में ही भटकना है।
‘अमर हो जाता है, तृप्त हो जाता है।’
‘जिस भक्ति के प्राप्त होने पर मनुष्य न किसी वस्तु की इच्छा करता है, न द्वेष करता है, न आसक्त होता है और न उसे विषय-भोगों में उत्साह होता है।’
इब्तिदा वो थी कि जीने के लिए मरता था मैं
इन्तिहा ये है कि मरने की भी हसरत न रही।
ऐसे भी दिन थे जब जीने के लिए ऐसी आतुरता थी कि मरने को भी तैयार हो जाता था। और आखिरी वक्त--‘इन्तिहा ये है’--और आखिरी बात यह है, पहुंच जाने की बात यह है--‘कि मरने की भी हसरत न रही।’ जीने की तो बात छोड़ो, मरने की भी आकांक्षा नहीं उठती।
तुमने कभी खयाल किया, तुम्हें मरने की आकांक्षा तभी उठती है जब तुम्हारी जीवन की आकांक्षा पूरी नहीं होती! जहां-जहां अड़चन आती है जीवन की आकांक्षा में, वहीं तुम कहते हो कि मर जाना बेहतर है। मरना तुम चाहते नहीं। जीना तुम चाहते हो अपनी शर्तों पर। शर्त कभी पूरी नहीं होती, तो मरने की तैयारी करने लगते हो।
रूसी कहानी है कि एक लकड़हारा लौट रहा है गट्ठर लेकर सिर पर। जिंदगी भर लकड़ियां ढोता रहा है, थक गया है।... सभी थक जाते हैं, और सभी लकड़ियां ढो रहे हैं। काटो जंगल से, बेचो बाजार में; फिर दूसरे दिन काटो जंगल से, फिर बेचो बाजार में!... थक गया है। हड्डी-हड्डी जरा-जीर्ण हो गई है। उस दिन तो वह बड़ा दुखी है कि इससे भी क्या सार है! यही करता रहा, यही करता रहूंगा, और एक दिन मर जाऊंगा और मिट्टी में गिर जाऊंगा।
तो उसने कहा, ऐ मौत, सभी को आती है, एक मुझ ही को छोड़ देती है। मुझे क्यों नहीं आती? उठा ले मुझे! ऐसे मौत साधारणतः इतना जल्दी सुनती नहीं। पर कहानी है कि मौत ने सुन लिया। मौत आ गई। लकड़हारा गट्ठर को पटक कर दुखी मन से बैठा था। मौत ने आकर कहा, मैं आ गई हूं, बोलो क्या काम है?
देखा मौत को, हाथ-पैर कंप गए, प्राण कंप गए, श्वास रुक गई। उसने कहा, नहीं, कुछ काम नहीं; कोई और दिखाई नहीं पड़ा, गट्ठर उठवा कर सिर पर रखवाना है। कृपा कर और गट्ठर उठा कर सिर पर रख दे।
तुम जब भी मरने की बात करते हो तब गौर से देखना: वहां जीने की आकांक्षा बड़ी गहरी है। इसलिए जो लोग आत्महत्या करते हैं, तुम चौंकना मत, तुम यह मत सोचना कि इन लोगों ने आत्महत्या कर ली, बात क्या है! आदमी तो जीना चाहता है; ये मर कैसे गए! ये बहुत बुरी तरह जीना चाहते थे, बड़ी प्रगाढ़ता से जीना चाहते थे। इनकी शर्तें बड़ी थीं; जिंदगी पूरी न कर पाई। ये जिंदगी से नाराज हो गए। ये जिंदगी को तो न मिटा पाए; जिंदगी को मिटाने के लिए तत्पर हो गए थे--अपने को मिटा लिया। मगर इनकी आत्महत्या में जीवन की आकांक्षा है, जीवेषणा है।
जब तुम जीवन की आकांक्षा छोड़ देते हो, तब तुम चकित हो जाओगे कि उसके साथ ही साथ मृत्यु की आकांक्षी भी छूट जाती है। जिस व्यक्ति के जीवन को जीवेषणा से छुटकारा मिल गया; जो अभी राजी है कि मौत आ जाए तो तैयार पाए; जो यह भी नहीं कहता कि कल मुझे जीना है--उसे तुम कभी आत्महत्या करता न पाओगे; हालांकि तुम्हें लगेगा कि इसे तो आत्महत्या कर लेनी चाहिए। जब यह आदमी कहता है कि मुझे जीने का कोई सवाल नहीं है तो इसे आत्महत्या कर लेनी चाहिए। लेकिन आत्महत्या तभी की जाती है जब जीने की बड़ी गहरी आकांक्षा होती है। यह आत्महत्या भी क्यों करे? मरने की भी हसरत न रही। उतनी आकांक्षा भी नहीं है अब।
‘...न किसी वस्तु की इच्छा करता है।’
क्योंकि जिसने भक्ति को जान लिया, वस्तुएं व्यर्थ हो गईं।
तुम जब कभी प्रेम को जानते हो तब भी वस्तुएं व्यर्थ हो जाती हैं।
तुमने कभी खयाल किया, प्रेमी एक-दूसरे को वस्तुओं की भेंट देने लगते हैं! वह प्रेम का लक्षण है। क्यों? अब वस्तुओं का मोह नहीं रह जाता। वस्तुएं देने योग्य हो जाती हैं; पकड़ रखने योग्य नहीं रह जातीं।
जिसे तुम प्रेम करते हो उसे तुम सब दे देना चाहते हो। इसलिए कंजूस प्रेम नहीं कर पाते। कृपण आदमी के जीवन में कोई प्रेम नहीं हो सकता। क्योंकि कृपणता और प्रेम एक साथ नहीं हो सकते; एक ही घर में उन दोनों का निवास नहीं हो सकता।
तो ध्यान रखना: कृपण तो प्रेमी भी नहीं हो सकता, भक्त होना तो असंभव है। लेकिन अक्सर तुम कृपणों को भक्त पाओगे। वह भक्ति झूठी है। निजाम हैदराबाद भक्त आदमी थे। लेकिन मैंने सुना है कि वे दुनिया के सबसे बड़े संपत्तिशाली आदमी थे। इतनी बड़ी संपत्ति और किसी के पास नहीं थी। लेकिन कृपण तुम ऐसा आदमी न पाओगे। जो टोपी उन्होंने सिंहासन पर बैठते वक्त पहनी थी, वे चालीस साल उसको पहने रहे। उससे बास आती थी। वह इतनी गंदी हो गई थी। वे उसको धुलने नहीं देते थे, क्योंकि धुलने में कहीं बिगड़ न जाए, कहीं खराब न हो जाए। वे मरते दम तक उसी को पहने रहे। मेहमान सिगरेट अधजली छोड़ जाते तो ऐश-ट्रे से वे इकट्ठी कर लेते थे--खुद पीने के लिए! यह तुम भरोसा न करोगे। और यह आदमी भक्त था! पांच बार इबादत करता था भगवान की। यह असंभव है। यह बिलकुल असंभव है।
यह आदमी किसको धोखा दे रहा है? अभी तो इस आदमी के जीवन में प्रेम भी नहीं है! जली सिगरेटें, झूठी सिगरेटें इकट्ठी कर रहा है! जैसे ही मेहमान जाएं, जो पहला काम निजाम करते थे, वह यह कि जल्दी से सिगरेटें सम्हाल कर रख लेना, फिर फुर्सत से पीएंगे!
जहां भी तुम कृपण को पाओ, वहां तुम समझ लेना कि अगर वह भगवान की बातें कर रहा हो, प्रेम और भक्ति की बातें कर रहा हो, तो वे किसी गहरे घाव को छिपाने की तरकीबें हैं। कृपण कभी भक्त नहीं हो सकता। कृपण प्रेमी ही नहीं हो पाता। वह पहली ही सीढ़ी नहीं चढ़ता, दूसरी पर तो पहुंचेगा कैसे?
जब तुम प्रेम करते हो, तत्क्षण तुम्हारी पकड़ वस्तुओं से उठ जाती है, तुम भेंट कर सकते हो, दान दे सकते हो! और देकर तुम प्रसन्न होते हो, उदास नहीं। और जो तुमसे ले लेता है, तुम उसके अनुगृहीत होते हो कि उसने हलका किया। तुम ऐसा नहीं सोचते कि वह तुम्हारा अनुगृहीत होए; क्योंकि अगर उतना भी रह गया तो सौदा हुआ, फिर तुम कृपण हो।
हिंदुस्तान में रिवाज है कि ब्राह्मण घर आए तो पहले उसे भेंट दो, दान दो, फिर दक्षिणा भी दो। दक्षिणा का मतलब होता है धन्यवाद कि तुमने भेंट स्वीकार की! दक्षिणा बड़ा अदभुत शब्द है! पहले दान दो, और चूंकि ब्राह्मण ने स्वीकार किया, इनकार भी कर सकता था, फिर दक्षिणा दो कि धन्यभाग कि तुमने स्वीकार किया! तुम इनकार कर देते तो मेरा प्रेम अधूरा वापस लौट आता! तुमने द्वार दिया!
इसलिए प्रेमी अनुगृहीत होता है देकर। भक्त सब लुटा कर अनुगृहीत होता है।
‘...किसी वस्तु की इच्छा नहीं करता है, न द्वेष करता है।’
क्योंकि जब इच्छा ही नहीं रही तो द्वेष कहां! द्वेष तो इच्छा की छाया है। जब तक तुम इच्छा करते हो तब तक द्वेष भी करोगे। क्योंकि जो वस्तु तुम चाहते हो, वह अगर किसी और के कब्जे में है तो तुम क्या करोगे? तुम द्वेष करोगे। तुम ईर्ष्या करोगे। तुम जलोगे।
‘...न आसक्त होता है।’
क्योंकि जब इच्छा ही न रही...।
समझ लो इसको ठीक से।
जिसके जीवन में वस्तुओं की इच्छा है, उसका अर्थ है कि उसने प्रेम को नहीं जाना, पहली बात। वह चूक गया। वस्तुएं तो पड़ी रह जाएंगी, प्रेम साथ जाता है। थोड़ा जाता है, भक्ति होती तो पूरा जाता। उतना जाता जितना प्रेम था। जितना खालिस सोना था, साथ चला जाता; शेष विजातीय पड़ा रह जाता।
अगर तुम प्रेम तक नहीं पहुंच पाए तो उसका अर्थ केवल इतना है कि तुम जो भी इकट्ठा कर रहे हो, वह सब मौत छीन लेगी। इसलिए कृपण मौत से डरता है। जीता नहीं और मौत से डरता है। जीने की तैयारी करता है, जीता कभी नहीं। क्योंकि जीने में तो खर्च है। जीने में तो प्रेम लाना पड़ेगा। जीने में तो व्यक्तित्व प्रवेश कर जाएंगे वस्तुओं की दुनिया समाप्त हो जाएगी। न, वह सिर्फ जीने की तैयारी करता है; मकान बनाता है जिसमें कभी रहेगा; धन इकट्ठा करता है जिसको कभी भोगेगा; शादी करता है, पत्नी, जिससे कभी प्रेम करेगा, फुरसत से; बच्चे पैदा करता है कि कभी जब समय होगा, सुविधा होगी, तब एक बार आशीर्वाद बरसा देंगे। मगर वह दिन कभी आता नहीं, वह तैयारी ही करता है। एक दिन मौत उसे उठा लेती है। और जो भी उसने इकट्ठा किया था, वह सब पड़ा रह जाता है। इसका भय सताता है।
इसलिए कृपण डरता रहता है और डर के कारण और भी कृपण होता जाता है। मौत के खिलाफ इंतजाम करता है।
मौत के खिलाफ एक ही इंतजाम है--और वह है प्रेम। मौत के खिलाफ दूसरा कोई इंतजाम नहीं है, कोई सुरक्षा नहीं है। कोई बीमा-कंपनी मौत के खिलाफ सुरक्षा नहीं दे सकती। सिर्फ प्रेम...।
क्योंकि प्रेम के क्षण में तुम वस्तुओं के ऊपर उठते हो और व्यक्तित्व दृष्टि में आता है; व्यक्तियों का संसार शुरू होता है; वस्तुओं का समाप्त होता है। तब वस्तुएं साधनरूप हो जाती हैं। तुम प्रेम के लिए उनका उपयोग करते हो, लेकिन वे तुम्हारा उपयोग नहीं कर पातीं। जब तुम वस्तुओं की इच्छा करते हो तो जो वस्तुएं तुम्हारे पास हैं, उनमें तुम्हारी आसक्ति होती है: कोई छीन न ले! और जो तुम्हारे पास नहीं हैं, दूसरों के पास हैं; उनसे तुम्हारा द्वेष होता है, क्योंकि उनके पास हैं और तुम्हारे पास नहीं हैं। इच्छा के दो पहलू बन जाते हैं: फिर अपने पास जो है उसे पकड़ो, और दूसरे के पास जो है उसे छीनो। तब सारा जीवन एक छीना-झपट, एक आपाधापी, एक दौड़-धूप हो जाती है; हाथ कुछ भी नहीं लगता। मरते वक्त हाथ खाली होते हैं।
‘...न आसक्त होता है, न उसे विषय-भोगों में उत्साह होता है।’
यह बहुत समझ लेने जैसा है। विषय-भोगों में तुम्हें उत्साह तभी तक है, जब तक तुम्हें परम भोग का स्वाद नहीं मिला। क्षुद्र को भोगता आदमी तभी तक है जब तक विराट के भोग का द्वार नहीं खुला। कंकड़-पत्थर बीनते हो, क्योंकि हीरे-जवाहरातों का पता नहीं। कूड़ा-करकट इकट्ठा करते हो, क्योंकि संपत्ति की कोई पहचान नहीं है।
यह लक्षण है भक्त का कि उसे विषय-भोगों में कोई उत्साह नहीं होता। कामी को सिर्फ विषय-भोग में उत्साह होता है, और कोई उत्साह नहीं होता। प्रेमी को विषय-भोग में उत्साह नहीं होता; किन्हीं और चीजों में उत्साह होता है; अगर उनके सहारे काम भी चले तो ठीक।
जैसे समझो: अगर तुम किसी व्यक्ति के प्रेम में हो, तो तुम चाहोगे कि दोनों बैठ कर कभी शांत आकाश में तारों को देखो। कामी नहीं चाहेगा यह। कामी कहेगा, क्यों फिजूल समय खराब करना? तारों में क्या रखा है? एक दफा देख लिए सदा के लिए देख लिए। कामी को तो शरीर में रस है, तारों में नहीं, चांद में नहीं, पक्षियों के गीत में नहीं। दो प्रेमी बैठ कर सितार सुन सकते हैं या गीत गा सकते हैं। या दो प्रेमी बैठ कर शांत, मौन ध्यान कर सकते हैं, प्रार्थना कर सकते हैं। उस प्रार्थना के माध्यम से ही अगर काम भी जीवन में आ जाए तो उन्हें कोई विरोध नहीं है। लेकिन शुरू उन्होंने प्रार्थना की थी। चांद को देखते-देखते वे करीब आ जाएं और एक-दूसरे का हाथ हाथ में ले लें तो उन्हें कुछ विरोध नहीं है; लेकिन देखना उन्होंने चांद को शुरू किया था।
प्रेमियों की आंख एक-दूसरे पर नहीं होतीं; एक साथ किसी और चीज पर होती हैं। कामियों की आंख एक-दूसरे पर होती हैं, और किसी चीज पर नहीं होतीं। प्रेमी किसी और तीसरी चीज को देखते हैं अपने से पार। प्रेम का कोई गंतव्य है, काम का कोई गंतव्य नहीं है। काम अपने आप में समाप्त हो जाता है। प्रेम अपने से पार जाता है। जो पार ले जाए, जो अतिक्रमण कराए, जो तुम्हें तुमसे ऊपर देखने की सुविधा दे, वही प्रेम है।
तो प्रेमी कभी बैठ कर सितार सुनेंगे, या कभी गीत गाएंगे, या कभी नाचेंगे, या कभी खुले आकाश के नीचे लेटेंगे, या कभी सागर-तट पर घूमेंगे, कभी सागर के नाद को सुनेंगे। लेकिन प्रेमी, कामी नहीं!
प्रेमी का कुछ लक्ष्य है जो दोनों से पार है। लेकिन बार-बार उस लक्ष्य से वे अपने पर लौट आएंगे। भक्त कभी नहीं लौटता--गया सो गया! वह जब चांद की तरफ गया तो गया, गया, गया, फिर नहीं लौटता। भक्त पीछे लौटना नहीं जानता। कामी तो कहीं जाता ही नहीं; प्रेमी जाता है, लौट, लौट आता है; भक्त गया सो गया।
काम ऐसे है जैसे पिंजरे में बंद पक्षी; कहीं जाता नहीं, वहीं पिंजरे में ही उछल-कूद करता रहता है, वहीं हलन-चलन करता रहता है। बस पिंजरा उसकी सीमा है।
प्रेम ऐसे है जैसे कबूतर उड़ते हैं आकाश में, फिर अपने घर में वापस लौट आते हैं। पिंजड़ों में बंद नहीं हैं। न लौटें तो कोई उन्हें बुलाता नहीं है; कोई पकड़ने नहीं जा सकता, अपने से लौट आते हैं। घर के ऊपर एक छत्ता लगा दिया होता है। उड़ते हैं दूर आकाश में, बड़ी दूर की यात्रा करते हैं, थकते हैं, लौट आते हैं वापस। प्रेमी ऐसे पक्षी हैं जो पिंजड़ों में बंद नहीं हैं; जाते हैं दूर अपने से पार, लौट-लौट आते हैं। भक्त ऐसा पक्षी है जो गया सो गया; उसका लौटने का कोई घर नहीं है। उसका घर सदा आगे है--और आगे! वह जब तक परमात्मा तक ही न पहुंच जाए तब तक यात्रा जारी रहती है।
‘भक्ति के प्राप्त होने पर मनुष्य न किसी वस्तु की इच्छा करता है, न द्वेष करता है, न आसक्त होता है, और न उसे विषय-भोगों में उत्साह होता है।’
यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति।
‘उस भक्ति को जान कर मनुष्य उन्मत्त हो जाता है, स्तब्ध हो जाता है, और आत्माराम हो जाता है।’
...उन्मत्त हो जाता है! पागल हो जाता है!
भक्ति अपूर्व उन्मत्तता है। आंखें सदा नशे से सरोबोर रहती हैं। मन सदा एक अपूर्व बेहोशी में डूबा होता है। जीवन साधारण गति नहीं रह जाती, नृत्य हो जाता है। जीवन से गद्य खो जाता है, पद्य का जन्म होता है। किसी और ही आयाम में प्रवेश हो जाता है।
वह सिजदा क्या, रहे अहसास जिसमें सिर उठाने का
इबादत और बकदरे होश तौहीने इबादत है।
भक्त का सिर झुकता है तो फिर उठता नहीं। साधारण लोगों को तो पागल मालूम पड़ेगा। साधारण लोग तो सिर झुकाते ही नहीं, सिर्फ दिखाते हैं कि सिर झुकाते हैं। दिखाते भर हैं! अहंकार तो अकड़ा खड़ा रहता है, शरीर ही कवायद करता है।
वह सिजदा क्या, रहे अहसास जिसमें सिर उठाने का
लेकिन भक्त ऐसे पागल हैं कि वे इसी को सिजदा कहते हैं, इसी को सिर झुकाना कहते हैं कि जब यह खयाल ही न रह जाए कि अब सिर उठाना भी है! झुका दिए, उसको उठाना क्या! मिटा दिया, उसे वापस सम्हालना क्या!
इबादत और बकदरे होश तौहीने इबादत है।
और होश क्या बचाना! जब डूबे तो डूबे! होशियारी से कहीं कोई डूबता है? हिसाब रख कर कहीं कोई प्रेम में गया है? गणित को तो छोड़ जाना पड़ता है पीछे। तर्क के तो पार जाना होता है। बुद्धि तो बेईमानी है, चालाकी है। बुद्धि तो कुशलता है, गणित है। प्रेम इस तरह के गणित को स्वीकार नहीं करता। फिर भक्ति की तो बात ही क्या!
प्रेम में भी गणित टूटने लगता है। प्रेम में भी दो और दो चार नहीं होते सदा, कभी पांच हो जाते हैं, कभी तीन ही रह जाते हैं। प्रेम में हिसाब-किताब की दुनिया डांवाडोल हो जाती है।
भक्ति तो आखिरी शराब है; फिर उसके आगे और कोई नशा नहीं!
वह सिजदा क्या, रहे अहसास जिसमें सिर उठाने का
इबादत और बकदरे होश...
प्रार्थना और वह भी होश के साथ! तो भले आदमी, प्रार्थना करने ही क्यों गए? दुकान ही चलाते। वहीं तुम्हारी पात्रता थी। जब प्रार्थना करने गए तो फिर क्या होश, क्या हिसाब?
इबादत और बकदरे होश तौहीने इबादत है।
फिर तो तुम प्रार्थना की बेइज्जती कर रहे हो, तौहीन कर रहे हो।
सुना है मैंने, एक फकीर दीवाना हो गया। घर के लोग समझे नहीं। मित्र-प्रियजन पहचाने नहीं। यह बीमारी न थी। यह, जो आदमियों की साधारण बीमारी है, उससे मुक्त हो जाना था। लेकिन, साधारण बीमारी को हम स्वास्थ्य समझते हैं। उन्होंने वैद्य को बुला लिया। वैद्य ने उसकी नब्ज की जांच की। तो कहते हैं, उस फकीर ने कहा:
चारागर! मस्त की दुनिया है जमाने से जुदा।
होश में आ कि जहां हम हैं वहां होश नहीं।
होश में आ कि जहां हम हैं वहां होश नहीं!
कहा: वैद्य, मस्तों की दुनिया और ही दुनिया है। यह तू क्या कर रहा है? होश में आ! क्या नब्ज पकड़ रहा है?
मस्तों की एक और ही दुनिया है। दीवाने कुछ और ही आयाम में जीते हैं। उसे हम समझें कि वह आयाम क्या है।
तुम कहां जीते हो? तुम वहां जीते हो जहां गणित है, हिसाब है, साफ-सुथरी रेखाएं हैं। तुम ऐसे जीते हो जैसे कोई बगीचा बना लेता है, साफ-सुथरा! भक्त ऐसे जीता है जैसे कोई जंगल में जीता है: कुछ साफ-सुथरा नहीं है; आदमी के हाथ की कोई छाप नहीं है, सिर्फ परमात्मा के हस्ताक्षर हैं। वह किसी नियम से नहीं जीता। क्योंकि जिसने प्रेम को पा लिया उसके लिए कोई नियम लागू नहीं होते; जरूरत नहीं रह जाती।
संत अगस्तीन को कोई पूछता था कि मुझे एक ही नियम बता दो। बहुत नियमों की बात मुझसे मत करो, मैं नासमझ हूं। बहुत आज्ञाएं मुझे मत दो, क्योंकि मैं भूल ही जाऊंगा। तुम मुझे एक ही सार की बात बता दो। मैं शास्त्रों को नहीं जानता हूं।
आदमी बड़ा अनूठा था! क्योंकि अपने अज्ञान को स्वीकार करने से बड़ी घटना इस जगत में और नहीं है। मैं अज्ञानी हूं, उसने कहा: मुझे तुम साधारण सा सूत्र दे दो, जो मैं पाल लूं, जो मुझे भूले न।
तो अगस्तीन ने बहुत सोचा, अगस्तीन बोलने में कुशल आदमी था, लेकिन इस आदमी के सामने उसका बोलना खो गया। उसने बहुत सोचा। उसने कहा: फिर तुम एक काम करो। प्रेम, बस इतना ही याद रखो, फिर शेष सब अपने से हो जाएगा।
तुम प्रेम करो--सब नियम पूरे हो जाते हैं। और तुम सब नियम पूरे करो और प्रेम को छोड़ दो, तो तुम सिर्फ धोखे में हो। बिना प्रेम के कोई नियम पूरा नहीं होता। बिना प्रेम के सारी नीति अनीति है और सारा आचरण सिर्फ दुराचरण को छिपाने की व्यवस्था है।
प्रेम के अतिरिक्त कोई आचरण नहीं। और जिसने प्रेम को पा लिया, उसके लिए फिर आचरण के कोई नियम नहीं, कोई अनुशासन नहीं; उसने परम अनुशासन पा लिया!
‘उस भक्ति को जान कर मनुष्य उन्मत्त हो जाता है।’
यह वर्णन है, यह व्याख्या है, परिभाषा नहीं। उस भक्ति के संबंध में कुछ खबरें दे रहे हैं।
‘...उन्मत्त हो जाता है।’
तुमने पागल को देखा है। पागल भी नियम छोड़ देता है, लोकलाज छोड़ देता है, कुल-मर्यादा छोड़ देता है! पागल से हम आशा भी नहीं रखते। पागल और भक्त में थोड़ी सी समानता है--थोड़ी सी! अंतर बड़ा है, थोड़ी सी समानता है! पागल सामान्य जीवन से नीचे गिर जाता है, भक्त ऊपर उठ जाता है। दोनों सामान्य जीवन के पार हो जाते हैं--एक नीचे गिर कर, दूसरा ऊपर उठ कर। पार होने की समानता है।
इसलिए यह सूत्र है कि ध्यान रखना: भक्ति की पहचान उन्मत्तता है। हमने चैतन्य को नाचते देखा है। घर के लोग परेशान थे: पागल हो गया! मीरा को हमने नाचते देखा है सड़कों पर। घर के लोग, प्रियजन, परिवार के लोग--और मीरा शाही खानदान से थी। बड़े दुखी थे। मार डालने की भी चेष्टा की क्योंकि यह बदनामी का कारण थी। यह राजघराने की महिला और राजस्थान में, जहां घूंघट के बाहर आना ही संभव न था, रास्तों पर नाचने लगी लोकलाज खोकर! सब मर्यादा, कुल-मर्यादा भूली!... पर मीरा पागल हो गई है...!
कहते हैं, मीरा एक मंदिर में गई। उस मंदिर में रिवाज था कि कोई स्त्री प्रवेश न कर सकेगी। बहुत से मंदिर स्त्रियों के लिए बंद रहे, डरपोकों ने बनाए होंगे, कायरों ने बनाए होंगे, व्यभिचारियों ने बनाए होंगे।
उस मंदिर का जो पुजारी था, वह बाल-ब्रह्मचारी था। और दूर-दूर तक उसकी ख्याति थी। ख्याति उसकी यही थी कि स्त्रियों को वह देखता भी नहीं, मंदिर से बाहर निकलता नहीं। मीरा उस द्वार पर पहुंच गई। कृष्ण का मंदिर था, वह नाचने लगी। वह भीतर प्रवेश करने लगी। उसे रोका गया। पुजारी घबड़ाया हुआ आया। उसने कहा कि सुनो, यहां स्त्रियों का प्रवेश नहीं है।
मीरा ने गौर से उस पुजारी को देखा और उसने कहा: मैंने तो सोचा था कि एक ही पुरुष है। तो दो हैं पुरुष? तुम भी एक पुरुष हो? मैंने तो कृष्ण को ही जाना कि एक पुरुष है, बाकी तो सब प्रकृति है। पुरुष तो एक ही है, बाकी तो सब गोपियां हैं। और कृष्ण के मंदिर में इतने दिन रह कर तुम क्या करते रहे? अभी भी तुम पुरुष हो? तुम्हें मेरी ‘स्त्री’ दिखाई पड़ती है, लेकिन मुझे तुम्हारा ‘पुरुष’ दिखाई नहीं पड़ता। रास्ता दो!
उस दिन जैसे किसी ने नींद से जगाया उस पुजारी को! रास्ता दे दिया। आंखें आंसुओं से भर गईं, पश्चात्ताप से भर गईं। यह अब तक का समय व्यर्थ गंवाया!... किसको रोक रहा था?
अब मीरा क्या लोकलाज रखे, उसे कोई पुरुष दिखाई नहीं पड़ता। तो घूंघट सरक गया है, कपड़ों का हिसाब नहीं रहा है, रास्तों पर नाच रही है!
भक्त उन्मत्त हो जाता है--होगा ही।
ऐसा समझो कि छोटी प्याली में सागर समा जाए तो प्याली पागल न होगी तो और क्या होगा? बूंद में सागर उतर आए तो बूंद कहां हिसाब रख पाएगी, और बूंदों की दुनिया के नियम कैसे बचेंगे? फिर तो सागर की उन्मत्तता होगी। फिर तो सागर की उन्मत्त लहरें होंगी। फिर बूंद चीखे-चिल्लाए और कहे कि मेरे तो नियम थे और व्यवस्था थी, वह सब टूटी जा रही है... वह टूटेगी ही!
जब भक्त के जीवन में परमात्मा उतरता है, जब भक्त जगह देता है, द्वार देता है, हटता है मार्ग से और परमात्मा को उतरने देता है, तब एक आंधी आती है, तब एक तूफान उठता है फिर जो कभी जाता नहीं। फिर भक्त किसी और ही जगत में जीता है। फिर जीता नहीं अपनी तरफ से, परमात्मा ही उसमें जीता है।
मोहब्बत में गिरां पा हो न इतना खौफे-रहजन से
जो इस रास्ते में लुट जाएं बड़ी तकदीर वाले हैं।
लुटेरों से घबड़ाओ मत प्रेम के मार्ग पर--लुटेरे सहयोगी हैं।
जो इस रास्ते में लुट जाएं बड़ी तकदीर वाले हैं।
हम उसे देखा किए जब तक हमें गफलत रही
पड़ गया आंखों पर परदा होश आ जाने के बाद।
हम उसे देखा किए जब तक हमें गफलत रही
जब तक हम बेहोश रहे, तब तक उसे देखा किए।
पड़ गया आंखों पर परदा होश आ जाने के बाद।
और जैसे ही होश आया, गणित की दुनिया वापस लौटी, आंख पर परदा पड़ गया।
उन्मत्तता पहला लक्षण है।
‘भक्त स्तब्ध हो जाता है।’
अवाक! ठिठक जाता है! अब तक जो गति थी, सब रुक जाती है। अब तक जो जाना था, सब व्यर्थ हो जाता है। अब तक जिसको जीवन पहचाना था, तो वह अचानक मृत्यु जैसा हो जाता है। अब तक जो था, सब गिर जाता है, बिखर जाता है; जैसे ताश के पत्तों का घर बनाया था; या जैसे कागज की नाव में सागर के पार जाने की आकांक्षा संजोई थी! सब ठिठक जाता है, सब गिर जाता है! अवाक! श्वास भी जैसे रुक जाए! चुप हो जाता है। बोल खो जाता है। बोली बंद हो जाती है। समय लगता है वापस बोली की दुनिया को लौटने में। वापस बोलने की योग्यता जुटाने में समय लगता है।
बुद्ध को ज्ञान हुआ, सात दिन तक चुप बैठे रहे, सात दिन तक अवाक! सब ठहर गया, ठिठक गया! देव घबड़ा गए। देवताओं में परेशानी हो गई कि कहीं बुद्ध चुप ही न रह जाएं। जब भी कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है तभी यह संभावना है कि कहीं वह चुप ही न रह जाए; क्योंकि घटना इतनी बड़ी है। कहीं बोल सदा के लिए न खो जाए, कहीं स्तब्धता उसके जीवन की व्यवस्था न बन जाए! तो कहते हैं, ब्रह्मा और देवता बुद्ध के चरणों में आए, प्रार्थना की कि आप बोलें। आप कुछ भी बोलें। और रुकना खतरनाक है।
सदियों तक हम प्रतीक्षा करते हैं कि कोई बुद्धत्व को उपलब्ध हो तो खबर लाए उस लोक की। देवता भी तरसते हैं, आदमी ही नहीं।
अल्लाह! अल्लाह! मंजरे बर्के जमाल
देखती है आंख, लब खामोश है।
आंख तो देखती है, ओंठ चुप हो जाते हैं। आंख तो पहचानती है, ओंठ बोल नहीं पाते हैं।
है ऐसी ही बात जो चुप हूं
वर्ना क्या बात कहनी नहीं आती!
‘स्तब्धता...!’
इसे थोड़ा समझें।
योगी मौन साधता है, भक्त को मौन आता है। योगी स्तब्ध होने की चेष्टा करता है, भक्त के ऊपर स्तब्धता बरसती है। योगी को जो चेष्टा से मिलता है, भक्त को निश्चेष्ट प्रसादरूप मिलता है। योगी जो उपाय कर-कर के पाता है, भक्त सिर्फ प्रेम में अपने को खोकर पा लेता है।
‘जिस भक्ति को जान कर मनुष्य उन्मत्त हो जाता है, स्तब्ध, शांत हो जाता है, और आत्माराम हो जाता है।’
‘आत्माराम’ शब्द समझने जैसा है।
अब राम और आत्मा में फासला नहीं रह जाता, इसलिए एक शब्द बनाया: आत्माराम! अब यह कहना ठीक नहीं कि आत्मा है, अब यह भी कहना ठीक नहीं कि राम है; अब कुछ ऐसा है जिसमें दोनों हैं और दोनों अलग नहीं हैं, जुदा नहीं हैं--आत्माराम!
उनसे मिल कर मैं उन्हीं में खो गया
और जो कुछ है, वह आगे राज है।
उसके आगे फिर कुछ कहा नहीं जा सकता। फिर वह रहस्य की बात है, राज है।
वाक्या यह दोनों आलम में रहेगा यादगार
जिंदगानी मैंने हासिल की है मर जाने के बाद।
दोनों लोकों में यह बात याद रहेगी।
वाक्या यह दोनों आलम में रहेगा यादगार
जिंदगानी मैंने हासिल की है मर जाने के बाद।
जिन्होंने भी पाई जिंदगी, मर कर ही पाई। जो मरने से डरते रहे, वे चूकते ही चले गए। दो तरह की मौत है: एक जो अपने से आती है और एक जो तुम स्वीकार कर लेते हो, जो तुम बुला लेते हो। मौत तो अपने से बहुत बार आई है और तुम मरे हो, फिर-फिर पैदा हुए हो; जिस दिन तुम मौत को अपने हाथ से स्वीकार कर लोगे, स्वेच्छया, उसी दिन मृत्यु समाधि बन जाती है।
जीसस ने कहा है: ‘बचाओगे अपने को, मिट जाओगे। मिटा दो--बचाने का बस एक ही उपाय है।’
जिंदगानी मैंने हासिल की है मर जाने के बाद।
जैसे ही तुम मिटे कि परमात्मा हुआ!
मेरे पास लोग आते हैं, वे पूछते हैं कि हम परमात्मा को कैसे खोजें? मैं कहता हूं: तुम कृपा करके मत खोजना, नहीं तो परमात्मा बचता ही चला जाएगा। तुम जहां-जहां जाओगे, उसे न पाओगे। क्योंकि तुम्हारी मौजूदगी ही तुम्हारी आंख पर परदा है। परमात्मा नहीं छिपा है। यह तो बात ही मत पूछो कि परमात्मा को कहां खोजें? इतना ही पूछो कि मेरी आंख पर परदा क्या है कि जो है और दिखाई नहीं पड़ता है? तुम छिपे हो अपने ही परदे में, अपनी ही आड़ में। परमात्मा कहीं खो नहीं गया है। परमात्मा खो नहीं सकता।
एक छोटे स्कूल में शिक्षक ने बच्चों से पूछा: हाथी कहां पाए जाते हैं? एक छोटी लड़की ने खड़े होकर कहा: हाथी, पहली बात, खोते ही नहीं। इतने बड़े होते हैं, तो खोएंगे कहां? पाने का सवाल नहीं है।
परमात्मा कैसे खो जाएगा? वही सब-कुछ है। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं। तुमने कैसे खोया है--यह पूछो। यह मत पूछो कि परमात्मा कैसे खो गया है।
तजाहुल से मेरे नामोनिशां के पूछने वाले
वहीं रहता हूं मैं अब तक जहां ढूंढा नहीं तूने।
अपने भीतर भर हम नहीं ढूंढते। क्योंकि अपने भीतर ढूंढने का एक ही उपाय है: अहंकार मरे तो तुम अपने भीतर जाओ। अहंकार द्वार पर खड़ा है, अटकाता है। वह तुम्हें भीतर नहीं जाने देता। अहंकार की पर्त पिघले तो तुम अपने भीतर जाओ। ‘मैं’ मिटे तो तुम जानो कि तुम कौन हो।
वहीं रहता हूं मैं अब तक जहां ढूंढा नहीं तूने।
जैसे ही तुम छोड़ते हो ‘मैं’, छोड़ते हो ‘तू’, ‘मैं-तू’ का जाल और ‘मैं-तू’ का भेद मिटता है--एक अभेद की रोशनी, एक अभेद का प्रकाश, जहां न कोई सीमा है, न जहां कोई अलग-अलग है, जहां एक का ही विस्तार है...!
हम लहरें हैं उस सागर की। थोड़ा भीतर झांकें, सागर हमारे भीतर है। हर लहर के भीतर सागर है। लेकिन लहरें बड़े अहंकार पर चढ़ गईं हैं। उन्हें यह बात ही नहीं समझ में आती कि अपने भीतर झांकने से उसका पता चल सकता है जिससे हम पैदा हुए हैं और जिसमें हम खो जाएंगे।
भक्ति मृत्यु की कला है। भक्ति परमात्मा को खोजने की कला नहीं है, अपने को खोने की कला है। मुझे फिर दोहराने दें। भक्ति परमात्मा को खोजने की कला नहीं है, अपने को खोने की कला है। खोजने में तो अहंकार बना ही रखता है। खोजने वाला बना रहता है। खोना है अपने को। और जिसने अपने को खोया उसने उसे पाया। अपने भीतर ही नहीं फिर, फिर सब तरफ वही मालूम पड़ता है। फिर हर पत्ती में उसी की हरियाली है। हर हवा के झोंके में उसी की ताजगी है। चांद-तारों में वही तुम्हारी तरफ झांकता है और तुम्हारे भीतर भी वही चांद-तारों की तरफ झांकता है।
एक बार परदा हटे--
सुबह फूटी तो आसमां पे तेरे
रंगे रूख्सार की फुहार गिरी।
रात छाई तो रू-ए आलम पर
तेरी जुल्फों की आबशार गिरी।
उसी की जुल्फें हैं रात ढांक लेती हैं गहरे अंधेरे में तुम्हें। उसी का रंग-रूप है। उसी की बहार है। उसी के गीत हैं! उसी की हरियाली है! उसी का जन्म है, उसी की मृत्यु है। तुमने व्यर्थ ही अपने को बीच में खड़ा कर लिया है।
अपने को बीच में खड़ा करने के कारण परमात्मा खो गया है। और परमात्मा को तुम जब तक न जान लो, तब तक तुम अपनी ही ऊंचाई और अपनी गहराई से वंचित रहोगे।
परमात्मा यानी तुम्हारी आखिरी ऊंचाई! परमात्मा यानी तुम्हारी आखिरी गहराई! जब तक तुम उसे न जान लो, तब तक तुम अपनी ही ऊंचाई और गहराई से वंचित रहोगे।
उस मनुष्य से ज्यादा दरिद्र और कोई भी नहीं जिसके जीवन में परमात्मा का भाव खो गया है; जिसके जीवन में परमात्मा की तरफ उठने की आकांक्षा खो गई है। जो आदमी होने से तृप्त हो गया, उस आदमी से दरिद्र और कोई भी नहीं।
नीत्शे ने कहा है: अभागे होंगे वे दिन जब आदमी की प्रत्यंचा पर परमात्मा की तरफ जाने का तीर न चढ़ेगा।
पर बहुत से ऐसे लोग हैं जिनकी प्रत्यंचा पर परमात्मा की तरफ जाने वाला तीर कभी भी नहीं चढ़ता। तब वे छिछले रह जाते हैं। तब वे उथले रह जाते हैं। तब उन्हें पता नहीं चल पाता कि जो गहराई बिलकुल उनके ही पैरों के नीचे छिपी थी, और सदा उपलब्ध थी, बस जरा डूबने की बात थी; और जो ऊंचाई सदा उनके ही सिर पर थी, आसमां की तरह फैली थी, जरा आंखें ऊपर उठाने की बात थी--वे भूल ही जाते हैं।
आदमी ही हो जाने से तृप्त मत हो जाना। उससे बड़ा कोई दुर्भाग्य नहीं है।
खयाल जिसमें है, पर तब जमाल का तेरे
उस एक खयाल की रफअत किसी को क्या मालूम।
और जिसके हृदय में तेरे सौंदर्य का एक छोटा सा खयाल भी है, परमात्मा के अनंत सौंदर्य का थोड़ा सा खयाल भी है...।
खयाल जिसमें है, पर तब जमाल का तेरे
उस एक खयाल की रफअत किसी को क्या मालूम।
उस एक छोटे से विचार की गहराई किसी को क्या मालूम!
परमात्मा के खयाल की गहराई और ऊंचाई--वही तुम्हारा विस्तार है, तुम्हारा विकास है।
इस सदी की सबसे बड़ी तकलीफ यही है कि उसके सौंदर्य का बोध खो गया है। और हम लाख उपाय करते हैं सिद्ध करने के कि वह नहीं है। और हमें पता नहीं कि जितना हम सिद्ध कर लेते हैं कि वह नहीं है, उतना ही हम अपनी ही ऊंचाइयों और गहराइयों से वंचित हुए जा रहे हैं।
परमात्मा को भुलाने का अर्थ अपने को भुलाना है। परमात्मा को भूल जाने का अर्थ अपने को भटका लेना है। फिर दिशा खो जाती है। फिर तुम कहीं पहुंचते मालूम नहीं पड़ते। फिर तुम कोल्हू के बैल हो जाते हो, चक्कर लगाते रहते हो।
आंखें खोलो! थोड़ा हृदय को अपने से ऊपर जाने की सुविधा दो। काम को प्रेम बनाओ। प्रेम को भक्ति बनने दो।
परमात्मा से पहले तृप्त होना ही मत।
पीड़ा होगी बहुत। विरह होगा बहुत। बहुत आंसू पड़ेंगे मार्ग में। पर घबड़ाना मत। क्योंकि जो मिलने वाला है उसका कोई भी मूल्य नहीं है। हम कुछ भी करें, जिस दिन मिलेगा उस दिन हम जानेंगे, जो हमने किया था वह ना-कुछ था।
तुम्हारे एक-एक आंसू पर हजार-हजार फूल खिलेंगे। और तुम्हारी एक-एक पीड़ा हजार-हजार मंदिरों का द्वार बन जाएगी। घबड़ाना मत। जहां भक्तों के पैर पड़े, वहां काबा बन जाते हैं।
आज इतना ही।