ADI SHANKRA
Bhaj Govindam (भज गोविन्दम्) 10
Tenth Discourse from the series of 10 discourses - Bhaj Govindam (भज गोविन्दम्) by Osho. These discourses were given during NOV 11-20 1975.
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पहला प्रश्न:
भगवान, कल आपने समझाया कि प्राणायाम का अर्थ है: ऐसी विधि जिससे प्राणों का विस्तार हो; और प्रत्याहार है: मूल स्रोत की ओर वापस लौटना। पहले विस्तार, फिर वापसी--ऐसा क्यों?
क्योंकि जीवन विरोध से निर्मित है; और जीवन के होने का और कोई ढंग नहीं। श्वास बाहर जाती है, फिर भीतर वापस लौटती है। पूछा कभी--ऐसा क्यों? जब भीतर ही जाना है श्वास को तो बाहर ले जाने की जरूरत क्या? लेकिन अगर श्वास भीतर ही रह जाए, बाहर न जाए, तो मौत घटेगी, जीवन नहीं। श्वास अगर बाहर ही रह जाए, भीतर न आए, तो भी मौत घटेगी, जीवन नहीं। जीवन गति है--दो विरोधों के बीच गति है; दो तटों के बीच सरिता का प्रवाह है। श्वास बाहर जाती है, भीतर आती है; भीतर आती है, बाहर जाती है--प्रतिपल प्राणायाम भी हो रहा है, प्रत्याहार भी हो रहा है।
श्वास का बाहर जाना प्राणायाम है, श्वास का भीतर आना प्रत्याहार है। और ऐसी ही लयबद्धता तुम्हारी चेतना में भी सध जाए, ऐसी ही गति तुम्हारी चेतना में भी थिर हो जाए, ऐसे ही तुम बाहर अनंत तक फैल जाओ और ऐसे ही तुम भीतर शून्य तक पहुंच जाओ--भीतर हो शून्य, बाहर हो अनंत--ये दोनों तुम्हारे कूल-किनारे हो जाएं, इनके बीच तुम सतत प्रवाहित होओ, तो ही तुम भगवत-स्वरूप हो पाओगे। क्योंकि भगवान का यही स्वरूप है--भीतर शून्य, बाहर पूर्ण।
यह सारा अस्तित्व परमात्मा का प्राणायाम है। सृष्टि है प्राणायाम, प्रलय है प्रत्याहार। एक श्वास बाहर गई, सृष्टि हुई; श्वास भीतर लौटी, प्रलय हुआ।
इसे तुम अगर ठीक से समझ पाओ तो जीवन में सब जगह दिखाई पड़ेगा। जन्म है प्राणायाम, मृत्यु है प्रत्याहार; जन्म में तुम फैलते हो, मृत्यु में सिकुड़ जाते हो, वापस लौट जाते हो। और जीवन जन्म और मृत्यु के किनारों के बीच है। जन्म जीवन नहीं; मृत्यु भी जीवन नहीं। जन्म और मृत्यु के बीच जो प्रवाहित है, जो अज्ञात नृत्य कर रहा है छंद में, लय में लीन है--वही है जीवन।
मन की आकांक्षा है तर्कयुक्त होने की और जीवन है विरोधयुक्त, इसलिए जीवन अतर्क्य है। और जिन्होंने तर्क से जानना चाहा वे भटके और कभी पहुंचे नहीं।
तर्क तो यही कहेगा: प्राणायाम और प्रत्याहार तो विरोध हो गया--कुछ एक कहें! ज्ञान और भक्ति तो विरोध हो गया--कुछ एक कहें! शून्य और पूर्ण तो विरोध हो गया--कुछ एक कहें!
ध्यान रखना, जीवन सदा ही विरोधी है; क्योंकि जीवन विरोधों से बड़ा है; जीवन विरोधों को आत्मसात कर लेता है। तर्क बड़ा छोटा है; छोटी बुद्धि का उपाय है; वह एक को ही समा पाता है, तो विपरीत बाहर छूट जाता है।
इसलिए बुद्ध ने अगर शून्य कहा, तो यह अर्थ न था कि पूर्ण उसमें समाया नहीं है। लेकिन बुद्ध को मानने वालों ने कहा कि जब शून्य है तो पूर्ण नहीं हो सकता। और जब शंकर ने कहा पूर्ण, तो यह अर्थ न था कि शून्य उसमें समाया नहीं है। लेकिन शंकर के मानने वालों ने कहा, जब पूर्ण है तो शून्य कैसे हो सकता है।
यहीं तो अनुयायी भटक जाता है। अनुयायी जीता है तर्क से और बुद्धि से। और जो जानते हैं, उन्होंने विरोध को एक साथ जाना है। लेकिन वे भी विरोध को एक साथ कहने में अड़चन अनुभव करते हैं, क्योंकि समझाना है तुम्हें। अगर विरोध एक साथ कहे जाएं, तो तुम्हें लगता है बड़ी असंगति हो गई। तुम्हारा मन चेष्टा ही करता रहता है तर्कबद्ध, सरणीबद्ध गणित की। और जीवन किसी गणित को मानता नहीं; जीवन सब गणित की सीमाओं को तोड़ कर बहता है। जीवन तो बाढ़ है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, कल आपने अकाम की सूक्ष्म विवेचना की। स्वप्न-अवस्था में भी अकाम आ जाए, इसकी कीमिया पर कुछ उपदेश दें।
तुम स्वप्न की चिंता न करो, तुम जाग्रत में ही साध लो। जाग्रत में जो सध जाएगा, वह स्वप्न में अपने आप उतरने लगता है। क्योंकि तुम्हारे स्वप्न तुम्हारे जाग्रत की प्रतिध्वनियां हैं। तुमने जाग्रत में जो किया है, वही स्वप्न में तुम फिर-फिर अनुगूंज सुन लेते हो उसकी। उसी की प्रतिध्वनि है। स्वप्न कुछ नया तो देता नहीं। स्वप्न भी क्या नया देगा?
दिन भर धन इकट्ठा करते हो, तो रात रुपये गिनते रहते हो। दिन भर मन में कामवासना तिरती है, तो रात काम के स्वप्न चलते हैं। जिनके जीवन में भजन है, उनकी निद्रा में भी भजन प्रविष्ट हो जाता है; और जिनका दिन शांत और शून्य है, उनकी रात भी शांत और शून्य हो जाती है। रात तो पीछा करती है दिन का; वह दिन की छाया है। रात को बदलने की फिक्र ही मत करो।
अगर रात के स्वप्नों में कामवासना परेशान करती है, तो यही समझो कि जाग्रत में कहीं धोखा हो रहा है। इशारा समझो। स्वप्न तो इंगित करते हैं--दिन में भी तुम जिन्हें समझने से चूक जाते हो, स्वप्न उन्हें स्पष्ट इशारा कर देते हैं। हो सकता है कि दिन में तुम बड़े साधु बने बैठे होओ। लेकिन वह साधुता बगुले जैसी है। एक टांग पर खड़ा है! उसको देख कर तो ऐसा ही लगेगा कि कोई तपस्वी है। और कितना शुभ्र है! अब बगुले से ज्यादा और सफेदी कहां खोजोगे? और कैसा खड़ा है! कौन योगी खड़ा होगा! हिलता भी नहीं! ऐसा बाहर को देख कर मत भूल में पड़ जाना। भीतर वह मछलियों का चिंतन कर रहा है, भीतर वह मछलियों की राह देख रहा है। यह सब आसन, यह सब सिद्धासन, मछलियों की आकांक्षा में साधा है।
खैर बगुला दूसरे को धोखा दे दे, अपने को कैसे धोखा देगा? खुद तो जानता है कि किसलिए खड़ा है। यह श्वास साधे किसलिए खड़ा है--उसे पता है।
लेकिन आदमी बगुले से भी ज्यादा बेईमान है। वह दूसरों को ही धोखा नहीं देता, दूसरों को धोखा देते-देते अपने को भी धोखा दे लेता है। जब दूसरे मानने लगते हैं उसकी बात, तो धीरे-धीरे खुद भी अपनी बात मानने लगता है। तब तुम्हें पता लगेगा कि तुम्हारे जाग्रत और स्वप्न में विरोध हो गया। तब तुम्हें जाग्रत में तो कोई कामवासना की तरंग उठती नहीं मालूम होती। क्योंकि तुमने बहुत बुरी तरह दबाया है; तुम उसकी छाती पर चढ़ बैठे हो; तुम उसे उठने नहीं देते। नहीं कि वह समाप्त हो गई है; बस तुम उठने नहीं देते। नहीं कि वह मिट गई है; तुम सिर्फ उसे प्रकट नहीं होने देते। उसे तुम दबाए हो छाती के कोनों में। रात जब तुम शिथिल हो जाते हो, दबाने वाला सो जाता है, तब जो लहर दिन भर दबाई थी, वह मुक्त होकर विचरण करने लगती है; वही तुम्हारे स्वप्न में कामवासना बन जाती है। जिन्होंने दमन किया है, स्वप्न में उसे पाएंगे।
स्वप्न को इशारा समझो; स्वप्न तुम्हारा मित्र है। वह यही कह रहा है कि दबाने से कुछ भी न होगा, रात हम प्रकट हो जाएंगे। दिन भर दबाओगे, रात हम फिर मौजूद हो जाएंगे। किसी तरह दूसरों को धोखा दे लोगे, अपने को भी धोखा दे लोगे, लेकिन हमसे छुटकारा ऐसे नहीं होगा।
अब तुम पूछते हो कि स्वप्न में भी कामवासना से मुक्त होने के लिए क्या करें?
इससे ऐसा लगता है कि जाग्रत में तो तुम मुक्त हो ही गए हो, अब रह गई है स्वप्न से मुक्त होने की बात। यहीं भ्रांति है। स्वप्न इतना ही कह रहा है कि जाग्रत में भी तुम मुक्त नहीं हुए हो। क्योंकि जिस दिन जाग्रत में मुक्त हो जाओगे, उस दिन स्वप्न में कुछ बचता ही नहीं। स्वप्न तो तुम्हारी ही सूक्ष्म कथा है।
तुम मुझसे यह पूछ रहे हो कि जैसे हमने जाग्रत में दबा लिया, ऐसी कोई तरकीब हमें बता दें कि स्वप्न में भी दबा लें। फिर तो तुम्हारी मुक्ति का कोई उपाय न रह जाएगा। क्योंकि जो दबा है, वह सदा मौजूद रहेगा और कभी न कभी प्रकट होगा। वह तो धधकता हुआ ज्वालामुखी है। बाहर लपटें न आएं, इससे क्या होता है! भीतर तो तुम जलोगे और सड़ोगे; भीतर तो तुम गलोगे। कैंसर की तरह बढ़ेगा रोग; तुम्हारे रोएं-रोएं में फैल जाएगा।
नहीं, स्वप्न को समझो। स्वप्न की समझ इतना ही कह रही है कि दिन में तुमने कुछ चालबाजी की है, दिन में तुमने कुछ धोखा किया है। अब दिन को अपने समझने की कोशिश करो कि कहां तुम धोखा किए हो? कहां तुमने दबाया है? और जहां तुमने दबाया हो, वहां उसे उघाड़ो।
मन का एक गहरा सूत्र समझ लो कि जैसे वृक्षों की जड़ें अगर अंधेरी भूमि में दबी रहें, तो ही अंकुरण जारी रहता है--पत्ते आते हैं, फूल लगते हैं, फल लगते हैं। अगर तुम वृक्ष की जड़ों को उखाड़ लो भूमि के बाहर--अंधेरे गर्त के बाहर निकाल लो, रोशनी में रख लो--वृक्ष मर जाता है। ठीक यही मन का सूत्र है: मन में जो भी रोग हों, उन्हें निकालो बाहर, रोशनी में लाओ। रोशनी मौत है रोग की।
तुम उलटा करते रहे हो; और तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरु तुम्हें उलटा ही समझाते रहे हैं। वे कहते रहे हैं: और दबा दो! बिलकुल दबा दो; जड़ का पता ही न चले!
लेकिन जड़ जितनी गहरी जम जाएगी, जितनी गहरी दबा दी जाएगी, उतना ही खतरा हो रहा है; उतना ही तुम्हारे जीवन में विष फैल जाएगा।
उघाड़ो! अपने को अपनी आंखों के सामने लाओ! छिपो मत, भागो मत--जागो! तो दिन में भी खोदो अपनी जड़ों को। लाओ रोशनी में, देखो।
इसे ही मैं ध्यान कहता हूं। ध्यान कोई विधि थोड़े ही है कि तुमने कर ली और छुटकारा हुआ। ध्यान एक सतत प्रक्रिया है होश की। चौबीस घंटे, उठते, बैठते ध्यान रखो।
राह पर तुम जा रहे हो। एक सुंदर स्त्री पास से गुजर गई या सुंदर पुरुष पास से गुजर गया। जिसको तुम लुच्चा कहते हो, वह ठिठक कर खड़ा हो गया, देखने लगा। इसीलिए लुच्चा कहते हैं। लुच्चा आता है लोचन शब्द से। जो आंख गड़ा कर देखता है, वह लुच्चा। उसी से आलोचक भी आता है। वे दोनों एक ही अर्थ रखते हैं। वह खड़ा हो गया ठिठक कर, देखने लगा।
तुम साधु हो, तुम कोई लुच्चे नहीं हो। तुम चोरी-छिपे देखते हो; तुम ठिठक कर नहीं देखते, तुम दूसरे बहाने देखते हो; तुम पास की दुकान में देखने लगते हो। देखते दुकान में हो, देखना चाहते हो सुंदर स्त्री को। या हो सकता है कि तुमने और भी गहरा दमन कर लिया है। तुमने इतना दमन कर लिया है कि तुम आंखें नीची करके, देखते ही नहीं स्त्री को--न दुकान, न किसी बहाने से--तुम सिर्फ आंखें नीची किए अपने बाजार की तरफ चले जाते हो। तब रात सपने में तुम देखोगे; क्योंकि देखना तो तुमने चाहा था।
और यह भी हो सकता है कि यह आंख झुका कर चलने की आदत तुम्हारी गहरी बन गई हो कि तुम्हें पता भी न चलता हो, कब तुम आंख झुका लेते हो। यह झुक ही जाती हो आदतवश; स्त्री की भनक पड़ती हो और आंख झुक जाती हो। ऐसा तुमने शील और आचरण तय कर लिया हो। ऐसा तुमने चरित्र निर्मित कर लिया हो। तब तुम आंख झुका कर चले जाते हो, तुम्हें झुकानी भी नहीं पड़ती। यह तो सिर्फ यांत्रिक कुशलता से हो जाता है। तुम्हें शायद पता भी न चले कि स्त्री पास से गुजरी थी। लेकिन आंख का झुकना बताता है कि तुम्हें चाहे ऊपर से पता न चला हो, भीतर तुम्हारे प्राणों में कोई कंपा, कोई हवा का झोंका भीतर गया, कोई तरंग उठी; उसी तरंग ने आंखें झुका दीं। आंखें झुकाना बचने की तरकीब है। तुम गुजर गए।
दुनिया तुम्हें संत कहेगी, सज्जन कहेगी, साधु कहेगी। इससे अहंकार को मजा भी आएगा, रस भी मिलेगा--रिस्पेक्टबिलिटी; आदर मिलता है। तुम और भी धार्मिक होने लगोगे। आंख भी फोड़ सकते हो। अहंकार ऐसा है कि आदमी कुछ भी कर सकता है।
लेकिन इससे तुम किसे धोखा दोगे? तुम्हारे अंतरतम को तुम धोखा न दे पाओगे। रात के अंधेरे में, गहरी तंद्रा में, बेहोशी में जब तुम पड़े होओगे, तब तुम्हारा सज्जन तो सोया है, संत तो गहरी नींद में पड़ा है--तब मन में वे सब राग उठने शुरू होंगे जो तुमने दबाए; वे गीत गूंजने लगेंगे जो तुमने अनसुने किए; उन्हीं से स्वप्न निर्मित होगा।
स्वप्न जब निर्मित हो, तो यह मत सोचना कि स्वप्न में कुछ खराबी है। स्वप्न तो मित्र है, वह तो यह कह रहा है कि तुमने खूब गहरा धोखा दे दिया। अभी भी चेतो! इस धोखे से कुछ सार नहीं, मैं भीतर मौजूद हूं। ऐसे कामवासना न जाएगी। जाग कर पहचानो अपनी वृत्ति को, होश को सम्हालो।
असली सवाल पास से गुजरी स्त्री को देखने या न देखने का नहीं है, तुम्हारे भीतर जो देखने की तरंग उठी, उसको देखने या न देखने का है। स्त्री देखी तो, स्त्री न देखी तो, कोई बड़ा सवाल नहीं है। तुम्हारे भीतर जो तरंग देखने की उठी थी, जो वासना उठी थी, उसे देखा कि नहीं? अगर उसे नहीं देखा तो स्वप्न में आएगा; अगर उसे देख लिया तो स्वप्न में आने की कोई जरूरत न रही। अगर तुम ऐसे प्रतिपल अपने भीतर की उठती वासना को देखते रहो, तुम पाओगे स्वप्न शून्य हो गए।
कल मैं एक गीत पढ़ रहा था। मेरे एक मित्र हैं, खुमार बाराबंकवी। उर्दू के कवि हैं। उनकी पंक्ति है:
हो न हो अब आ गई मंजिल करीब
रास्ते सुनसान नजर आते हैं
जैसे-जैसे मंजिल करीब आने लगेगी, मन के रास्ते सुनसान नजर आने लगेंगे, वीरान होने लगेंगे। वहां स्वप्न से भी मिलना न होगा। बाजार तो खो ही जाएंगे, बाजारों की प्रतिछवियां भी खो जाएंगी। मित्र और शत्रु तो विदा हो ही जाएंगे, उनकी डोलती छायाएं भी विदा हो जाएंगी।
हो न हो अब आ गई मंजिल करीब
रास्ते सुनसान नजर आते हैं
जब तुम्हारे भीतर रास्ते सब सुनसान नजर आने लगें, तब पहचान लेना कि अब मंजिल बहुत दूर नहीं है, करीब है। जब तक तुम अपने भीतर के रास्तों को स्वप्नों से भरा हुआ पाओ, तब तक धोखे में मत पड़ना, तुम बाजार में ही हो। दुनिया तुम्हें साधु कहती होगी, तुमने अपने को साधु मान लिया होगा, लेकिन संसारी मरा नहीं है, केवल छिप गया है। और छिपा संसारी और भी खतरनाक है; क्योंकि छिपा संसारी वैसे ही है, जैसे कोई छिपा रोग। प्रकट हो तो इलाज भी हो जाए; छिपा हो तो इलाज भी मुश्किल। और रोगी अगर इनकार करता हो कि मैं रोगी हूं ही नहीं, तो चिकित्सक भी क्या करे? कम से कम रोगी स्वीकार करे कि मैं रोगी हूं, तो कुछ हो सकता है।
और यह कोई छोटे-छोटे लोगों के जीवन की घटना नहीं है, जिनको तुम बड़े-बड़े महात्मा कहते हो, उनके जीवन में भी यही उपद्रव है। महात्मा गांधी को भी, जीवन के आखिरी दिनों में भी कामवासना के स्वप्न आते रहे, स्वप्नदोष होता रहा। मगर वे आदमी ईमानदार थे, यद्यपि गलत रास्ते पर थे। क्योंकि अगर जीवन भर की चेष्टा के बाद भी और स्वप्न में कामवासना पकड़ती हो, तो उसका अर्थ है कि चेष्टा गलत रास्ते पर होती रही। चेष्टा में कोई कमी न थी। उन जैसा चेष्टारत आदमी तुम न पा सकोगे। बड़ी निष्ठा से उन्होंने मेहनत की थी। लेकिन निष्ठा से थोड़े ही मंजिल पास आती है। अकेली निष्ठा से अगर मंजिल पास आती होती, तब तो कोई भी पहुंच जाता।
न अकेली निष्ठा से मंजिल आती है पास, न अकेली ठीक राह से मंजिल आती है पास; जब ठीक राह से निष्ठा का मिलन होता है, तब मंजिल पास आती है।
तुम कितनी ही ईमानदारी से रेत से तेल निचोड़ने की कोशिश करो--तुम्हारी ईमानदारी थोड़े ही पर्याप्त है, रेत में तेल होना भी तो चाहिए। तुम कहो कि मैं कितनी निष्ठा, कितनी श्रद्धा से निचोड़ रहा हूं! अटूट है, अखंड है मेरी निष्ठा! पर इससे क्या होगा? रेत में तेल होना भी तो चाहिए। और दूसरा आदमी तुमसे कम निष्ठा से भी निचोड़े, लेकिन अगर तिल के दानों से निचोड़ता हो तो शायद मिल जाए, क्योंकि तेल वहां है। यह भी हो सकता है कि कोई तिल के दाने भी रखे बैठा रहे, लेकिन आस्था ही न हो, तो निचोड़ेगा कैसे?
इसलिए जब निष्ठा और ठीक मार्ग का मिलन होता है, तब जीवन में क्रांति घटती है।
जीवन के अंत तक गांधी को स्वप्न पीड़ित करते रहे। मगर मैं कहता हूं, वे ईमानदार आदमी थे, तुम्हारे दूसरे साधु-संतों की तरह नहीं कि स्वप्न तो सताते रहे और उन्होंने कभी बाहर उनकी चर्चा न की। उन्होंने तो खुली चर्चा की। उनके शिष्य इससे परेशान थे। शिष्य चाहते थे, इसकी खुली चर्चा मत करो। क्योंकि शिष्यों को चोट लगती कि हमारे गुरु को और ऐसे सपने आते हैं! शिष्यों का जो गुरु के प्रति महात्मा का भाव था वह और शिष्यों के अहंकार को पीड़ा होती कि लोग क्या कहेंगे! वे गांधी को कहते, यह चर्चा खुली मत करो।
गांधी ने अंतिम दिनों में एक युवा स्त्री के साथ नग्न, बिस्तर पर सोना शुरू किया। कई शिष्य तो भाग गए। उनमें से कई अब बड़े गांधीवादी हैं जो भाग गए थे। अब वही ठेकेदार हो गए हैं; अब वे कहते हैं, वही वसीयतदार हैं! वही थे जो भाग गए थे गांधी के खिलाफ और गांधी के विरोध में हो गए थे कि यह क्या गड़बड़ है! ऐसा कहीं सुना, देखा? लेकिन गांधी की पीड़ा को कोई भी न समझा।
गांधी की पीड़ा यह थी। आखिर-आखिर में उनका तंत्र-शास्त्रों से संबंध जुड़ा। जीवन भर उन्होंने ब्रह्मचर्य की व्यर्थ चेष्टा में गंवाया। अंत में उन्हें तंत्र-शास्त्रों का पता चला कि अगर वासना से मुक्त होना हो तो जागना जरूरी है। और जागना हो तो परिस्थिति चाहिए, भागने से कुछ भी न होगा। तो परिस्थिति पैदा करने के लिए एक नग्न युवती के साथ रात सोते थे एक वर्ष तक--ताकि परिस्थिति पूरी रहे और उनके मन में कोई वासना उठे तो वे देख सकें, पहचान सकें। जिंदगी भर दबाया था, अब उघाड़ने के लिए भी बड़ी अथक चेष्टा करनी पड़ी। यह नग्न युवती के साथ सोना, उसे जगाने की अथक चेष्टा थी, जिसको अपने ही हाथों दबाया था।
जीवन भगोड़ेपन से हल नहीं होता, जीवन तो साक्षात्कार करने से हल होता है। जीवन की सभी समस्याओं का साक्षात्कार करना होगा। मत पूछो कि स्वप्न में कामवासना से मुक्त होने के लिए क्या करो। इतना ही जानो कि स्वप्न में जो वासना आ रही है, वह तुम्हारे जागरण में दबाई गई है। जागरण में मत दबाओ, जागरण में जागो और देखो! उघाड़ो!
तुम्हें तकलीफ होगी, क्योंकि तुम्हारे अहंकार को बड़ा बुरा लगेगा कि मैं ब्रह्मचारी, संन्यासी, त्यागी, और कामवासना मेरे भीतर है!
मगर ऐसे झूठे मोह को छोड़ना पड़े, ऐसे झूठे दंभ का कोई सार नहीं। वह तो है ही, तुम देखो या न देखो, इससे भेद न पड़ेगा। देख लो तो शायद मुक्ति भी हो जाए। और यही समझ लेने की बात है कि सिर्फ दर्शन से भी मुक्ति हो जाती है।
तुम एक चेष्टा करो कुछ महीनों के लिए--कुछ भी दबाओ मत; जो भी भीतर आता हो, उसे आंख के पर्दे पर पूरा का पूरा भीतर आ जाने दो। किंचित भी निंदा मत करना, क्योंकि जरा सी भी निंदा दबाने का कारण हो जाती है।
समझो कि एक कामवासना का विचार आया और तुमने कहा--बुरा है, पाप है। दमन शुरू हो गया। तुमने नहीं भी कहा बुरा है, पाप है; तुमने ऐसे देखा कि मजबूरी में देख रहे हो कि न देखते तो अच्छा था। तुमने भगवान से कहा, भगवान, यह क्या दिखला रहा है! बस दमन शुरू हो गया। निर्णय तुमने लिया--अच्छा कहा, बुरा कहा; शिकायत की, पश्चात्ताप किया, अपराध का भाव अनुभव किया--किसी तरह का मूल्यांकन किया और दमन शुरू हो गया।
तुम ऐसे ही देखो, जैसे तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है। जैसे तुम वृक्ष में लगे फूलों को देखते हो, या आकाश में उड़ते बादलों को देखते हो, या राह से चलते लोगों को देखते हो; कोई प्रयोजन नहीं है, चुपचाप देखते हो; जैसे तुम्हारा कुछ लेन-देन नहीं है--निष्पक्ष, दूर खड़े, साक्षी-भाव से--तब वृत्तियां अपने पूरे रूप में उभरती हैं।
घबड़ा मत जाना, क्योंकि जन्मों-जन्मों दबाया है। जब वे पूरे रूप में उभरेंगी तो तुम्हें ऐसा लगेगा--क्या मैं पागल हुआ जा रहा हूं? यह क्या हो रहा है? क्या सब मेरा नीति-धर्म नष्ट हो जाएगा? क्या मेरा सब चरित्र टूट जाएगा, खंडित हो जाएगा? क्या मैंने इतनी मुश्किल से, कठिनाई से अपनी जो प्रतिष्ठा बनाई है, वह सब धूल-धूसरित हो जाएगी?
घबड़ाना मत। यही साहस है। इसी साहस को मैं तपश्चर्या कहता हूं। धूप में खड़े होने में कोई साहस नहीं है, नग्न बर्फ में खड़े होने में भी कोई साहस नहीं है। सब शरीर की कसरतें हैं, थोड़े अभ्यास से आ जाती हैं। बड़े से बड़ा साहस--मैं भीतर जैसा हूं, वैसा ही देख लेने में है। और उसी से रूपांतरण हो जाता है, उसी से क्रांति घट जाती है।
तुम जरा देखो। यहां तुम देखना शुरू करोगे, अचानक तुम पाओगे कि स्वप्न के रास्ते खाली होने लगे। क्योंकि जो-जो तुम जागने में देख लोगे, फिर तुम्हारी आत्मा को स्वप्न में दिखाने का कोई प्रयोजन न रहा। जो तुमने ही देख लिया, उसे दिखाने की क्या जरूरत रही? स्वप्न खाली हो जाएंगे।
और काश, तुम्हारी रात स्वप्नों से खाली हो जाए, तो समाधि हो जाएगी। पतंजलि ने कहा है, सुषुप्ति और समाधि में जरा सा ही भेद है--बड़ा जरा सा भेद है--वह भेद इतना ही है कि सुषुप्ति मूर्च्छित है और समाधि जाग्रत है। जब सब स्वप्न तिरोहित हो जाते हैं...
अभी तुमने खयाल किया--सुबह तुम उठ कर याद कर सकते हो, कोई स्वप्न आया; यह भी याद कर सकते हो कि रात, पूरी रात सपनों ही सपनों से भरी रही। तो तुम्हारे भीतर कोई होश तो है--जो सपने देखता है; जो सपनों को पहचानता है; जो सपनों की याद रखता है। अब तुम ऐसा सोचो कि सब सपने खो गए, तब तुम्हारा यह होश जो सपनों में अटक जाता था, सपनों को देखता था, अब समाधि को देखेगा। क्योंकि सपने तो रहे नहीं, रास्ते पर राहगीर तो रहे नहीं, सुनसान रास्ता रह गया; अब सुनसान रास्ता दिखाई पड़ेगा। सुबह जब तुम उठोगे, तो तुम कहोगे--सुषुप्ति देखी, स्वप्न नहीं देखा।
सुषुप्ति को देख लेना समाधि है।
रास्ता खाली था, भीड़ न थी। लोग थे ही नहीं देखने को, तो राह देखी। आकाश बादलों से न घिरा था, बदलियां थी ही नहीं; आकाश देख लिया। बदलियों के कारण आकाश पर पर्दा पड़ जाता है। सपनों के कारण सुषुप्ति पर पर्दा पड़ जाता है। और सुषुप्ति समाधि है।
रोज रात तुम वहीं पहुंचते हो, जहां बुद्ध पहुंचते हैं; रोज रात तुम वहीं पहुंचते हो, जहां शंकर जीते हैं। लेकिन तुम्हारे बीच और समाधि में बड़ी भीड़ है; समाधि और तुम्हारे बीच बड़ा मेला लगा है। और वह मेला तुमने ही जुटाया है। गलत ढंग से जीवन के साथ व्यवहार करने से तुम कूड़ा-करकट इकट्ठा करते जाते हो।
क्षण-क्षण निपटारा कर लो। जो सामने आए, उसे भरपूर देख लो, उसे पूरा-पूरा देख लो, उसमें जरा भी ना-नुच मत करना। फिर तो कोई प्रयोजन न रहा। सपने में इसीलिए आता था कि तुमने ठीक से न देखा दिन में, लौट-लौट आना पड़ा।
तुमने कभी खयाल किया, अगर किसी भी बात को तुम ठीक से भोग लो, तो उसकी याद आनी बंद हो जाती है। अगर किसी को भी तुम गौर से देख लो, तो छुटकारा हो जाता है। गौर से जी लो, तो फिर कोई राग-रंग बंधे नहीं रह जाते। अधूरे अनुभव अटके रह जाते हैं और मन की आकांक्षा उन्हें पूरे करने की होती है। तो जो-जो तुम अधूरा जीए हो, वह तुम्हारे पास इकट्ठा हो गया है, उसकी भीड़ इकट्ठी हो गई है। अब कृपा करो, ऐसा मत करो। और सपने में मत पूछो मुझसे कि कैसे उसको रोकें; सपने से इतना ही पहचानो कि जागरण में रोका है। जागरण में भी मत रोको।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जाओ और जो भी तुम्हारे मन में वासना उठे, उसे पूरा कर गुजरो; मैं यह नहीं कह रहा हूं। क्योंकि उस तरह तो तुम पूरा करने की चेष्टा भी कर लिए हो, वह भी पूरा नहीं हुआ है। जन्मों-जन्मों आदमी वही करता रहा है। क्रोध करने से कहीं क्रोध गया है? काम करने से कहीं काम गया है? लोभ करने से कहीं लोभ गया है?
यही द्वंद्व है। करो तो मजबूत होता है, क्योंकि अभ्यास बनता है। आज क्रोध किया, कल क्रोध किया, परसों भी क्रोध किया था, तो क्रोध की श्र्ृंखला मजबूत होती चली जाती है; अभ्यस्त क्रोधी हो जाते हो तुम। फिर जरा सी चिनगारी मिली कि क्रोध आदतवश उभर आता है। करो तो अभ्यास बनता है, दबाओ तो भीतर घाव बनते हैं।
दोनों के मध्य में मार्ग है--न तो करो, न दबाओ--सिर्फ देखो। यही साक्षी का सूत्र है--सिर्फ द्रष्टा बनो, कर्ता मत बनो।
दोनों हालत में तुम कुछ करते हो। अगर क्रोध आ गया, तो या तो तुम दूसरे पर क्रोध को फेंकते हो या अपने भीतर दबाते हो। दोनों गलत हैं। कामवासना उठी, तो या तो दूसरे पर उलीचते हो या अपने ही भीतर दबाते हो। दोनों गलत हैं। न तो उलीचो किसी पर। क्योंकि किसी ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है! और तुम्हारी वासना के द्वारा दूसरे पर उलीच कर तुम दूसरे को भी वासना के कीचड़-कबाड़ में घसीट रहे हो। उसकी वैसे ही समस्याएं कुछ कम न थीं, और आप मिल गए। वह अपनी ही उलझनों में उलझा था, और आपने और उलझा दिया। नहीं, उलीचो मत किसी पर। क्योंकि जिस पर भी तुम उलीचोगे, वह भी तुम पर वापस में उलीचेगा। आज तुम किसी पर वासना आरोपित करोगे, तो उसकी भी वासना है, वह तुम पर आरोपित करेगा।
इसीलिए तो वासना में बंधन मालूम पड़ता है। तुम जिसे बांधते हो, वह तुम्हें बांध लेता है; तुम जिसे भोगते हो, वह तुम्हें भोगने लगता है; तुम जिसे पकड़ते हो, वह तुम्हें पकड़ लेता है। किसी पर उलीचो मत--न काम, न क्रोध, न कुछ और। और अपने भीतर भी मत दबाओ; जब दूसरे पर इतनी कृपा की, तो अपने पर भी कृपा करो। तुमने भी तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? दबाओ भी मत।
और दोनों के मध्य में बड़ी बारीक, बड़ी सूक्ष्म यात्रा है। देखो! भरपूर देखो! क्योंकि देखने से किसी का कोई नुकसान नहीं हो रहा है। और जैसे-जैसे तुम देखोगे, तुम पाओगे--देखते-देखते ही एक जागरण आया। देखते-देखते ही होश उठा। और होश ही सब कुछ है।
माइले-दैरो-हरम तूने यह सोचा भी कभी
जिंदगी खुद ही इबादत है अगर होश रहे
माइले-दैरो-हरम...
ओ मंदिर और मस्जिद की तरफ झुकने वाले!
...तूने यह सोचा भी कभी
जिंदगी खुद ही इबादत है अगर होश रहे
फिर कोई और प्रार्थना नहीं, कोई पूजा नहीं, फिर कोई और ध्यान ही नहीं।
जिंदगी खुद ही इबादत है अगर होश रहे
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आपने कहा, कामना अनिवार्यतः दुख में ले जाती है। तो क्या पुण्य की कामना, धर्म की कामना, भगवान की कामना भी दुख में ही ले जाएगी?
कामना मात्र दुख में ले जाती है; इससे कुछ भी भेद नहीं पड़ता कि कामना किसकी है। कामना के विषय से कामना का स्वरूप नहीं बदलता। धन चाहो, तो भी चाह वही है; धर्म चाहो, तो भी चाह वही है; चाह का स्वरूप वही है। चाह का अर्थ है कि तुम जहां हो, जैसे हो, वहां तृप्त नहीं--धन चाहिए तो तृप्त होओगे; धर्म चाहिए तो तृप्त होओगे। चाह का अर्थ है: तुम असंतुष्ट हो, अतृप्त हो। चाह, असंतोष से उठी हुई आह है। फिर असंतोष किस बात का है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। असंतोष है; संतोष नहीं है। कामना तुमने किसकी की है, इससे क्या फर्क पड़ता है? कुछ लोग जमीन पर अच्छा मकान बना रहे हैं, कुछ लोग स्वर्ग में अच्छा मकान बना रहे हैं!
मैं एक दिन राह से निकल रहा था, एक महिला मेरे पास आई और उसने मुझे एक पैंफ्लेट दिया। पैंफ्लेट में एक बड़ा सुंदर भवन बना हुआ था--बगीचा, फूल, झरने बह रहे हैं--और ऊपर लिखा है: क्या आपको एक अच्छे बंगले की तलाश है? मैंने सोचा, यह क्या मामला है! उसको उलट कर देखा, तो वह बंगला यहां का नहीं है, वह ईसाई मिशनरियों का प्रचार था। स्वर्ग में--जहां चश्मे बह रहे हैं, फूल लगे हैं, वृक्ष हैं--सुंदर बंगले बने हैं! अंदर लिखा था कि यदि ऐसे भवन आपको स्वर्ग में चाहिए, तो सिवाय जीसस के और कोई मार्ग नहीं।
तुम स्वर्ग की भी कामना करोगे, तुम ही करोगे न? वह तुम्हारे ही मन का विस्तार होगा; तुम्हारी ही भाषा होगी; तुम्हारे ही रंग होंगे। तुम थोड़ा सोचो एक दिन बैठ कर कि स्वर्ग में तुम क्या-क्या चाहोगे। तुम जरा फेहरिस्त बनाओ। तुम बड़े हैरान होओगे, यह फेहरिस्त यहीं की है। रॉल्स रॉयस कार चाहोगे? क्या करोगे क्या? स्वर्ग में चाहोगे क्या? कौन सी फिल्म अभिनेत्री चाहोगे? ताजमहल चाहोगे वहां? थोड़ा फेहरिस्त बनाओ अपने स्वर्ग की। डरना मत, फाड़ देना; किसी को दिखाना थोड़े ही है, खुद ही बनाना है। लेकिन उससे यह जाहिर हो जाएगा कि तुम चाहोगे क्या।
अगर स्वर्ग देने को परमात्मा राजी हो और कहे कि लो, क्या मांगते हो--तुम क्या मांगोगे? वे मांगें बता देंगी कि तुम्हारा स्वर्ग तुम्हारे संसार का ही विस्तार है। थोड़ा साफ-सुथरा होगा यहां से, थोड़ा परिष्कृत होगा; यहां क्षणभंगुर है, वहां स्थायी होगा। मगर ये सब तो विस्तार के फासले हैं, इनमें कोई फर्क नहीं है। यहां अभिनेत्री थोड़े दिन में बूढ़ी हो जाएगी, वहां कभी न होगी। वहां कहते हैं, सोलह साल के बाद उम्र बढ़ती ही नहीं स्त्रियों की स्वर्ग में! सोलह पर ही रुक गई है! उर्वशी लाखों साल पहले भी सोलह की थी, अभी भी सोलह की है! तुम जब भी जाओगे, तभी सोलह की पाओगे।
इससे कुछ उर्वशी के संबंध में पता नहीं चलता, इससे मनुष्य की कामना का पता चलता है कि वह चाहता है स्त्री सोलह पर रुक जाए।
स्वर्ग में चश्मे बह रहे हैं शराब के! यहां पाबंदी लगाओ, क्या होगा? स्वर्ग में बोतलों में नहीं बिकती, झरने बह रहे हैं! मछलियों की तरह तैरो शराब में, जितना पीना हो पीयो, क्योंकि स्वर्ग में कोई पाबंदी हो सकती है? अगर वहां भी पाबंदी रही--नियम, विधि-विधान रहा और लाइसेंस लेना पड़ा--तो यह भी कोई स्वतंत्रता हुई, यह तो परतंत्रता ही रही। नहीं, वहां कोई पुलिसवाला भी खड़ा नहीं मिलता चौरस्ते पर।
स्वर्ग तुम्हारे ही सपनों का जाल है। तुम भगवान को भी चाहते हो--किसलिए? दुख के कारण? पीड़ा के कारण? अशांति के कारण? तो उसी कारण तो लोग धन को भी चाहते हैं; और उसी कारण तो लोग यश को भी चाहते हैं; और उसी कारण तो लोग पद को भी चाहते हैं। तो परमात्मा तुम्हारा समझो परम-पद हुआ। ऐसा तो कहते भी हैं तुम्हारे साधु-संन्यासी कि परमात्मा यानी परम-पद।
साधु-संन्यासियों की भाषा थोड़ी तुम समझो, तो तुम बड़े हैरान होओगे। उनकी भाषा का बड़ा सूक्ष्म विश्लेषण करना जरूरी है। वे कहते हैं, इस धन में क्या रखा है--आज छिन जाएगा, कल छिन जाएगा। अरे, उस धन को खोजो जो कभी न छिनेगा। लेकिन खोजो धन को ही।
तो यह तो बड़े मजे की बात हुई। जो इस धन को खोज रहे हैं, जो छिन जाएगा--ये भोगी, ये भ्रष्ट, ये पापी, ये नरक में पड़ेंगे; क्योंकि ये क्षणभंगुर धन को खोज रहे हैं। और जो शाश्वत धन को खोज रहे हैं--ये पुण्यात्मा, ये महात्मा! इन दोनों में फर्क क्या है?
इतना ही फर्क समझ में आता है कि क्षणभंगुर को खोजने वाला थोड़ा कम चालाक, शाश्वत को खोजने वाला ज्यादा होशियार, कुशल; ज्यादा बेईमान। जैसे छोटे बच्चे कंकड़-पत्थर बीन रहे हैं, तुम उनसे कहते हो--छोड़ो भी नासमझो, क्या कंकड़-पत्थर बीन रहे हो! अरे, अगर बीनना ही हो तो हीरे-जवाहरात। ये क्या कंकड़-पत्थर बीन रहे हो! तुम इतना ही बता रहे हो कि तुम जरा ज्यादा चालाक, तुम जरा सांसारिक हिसाब-किताब में ज्यादा होशियार हो गए हो; यह बच्चा अभी भोला-भाला है।
तुम जिनको सांसारिक कहते हो, उनको मैं देखता हूं तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासियों से ज्यादा भोले-भाले हैं। बस इतना ही फर्क है। तुम्हारे साधु-संन्यासी ज्यादा बेईमान, ज्यादा चालाक। शाश्वत, अमृत, अनंत की खोज चल रही है। कामना? कामना वही है।
जो मैं कह रहा हूं, वह बड़ी भिन्न बात है; जो शंकर कह रहे हैं, वह बड़ी भिन्न बात है; जो बुद्ध कह रहे हैं, वह बड़ी भिन्न बात है। वे तुमसे यह नहीं कह रहे हैं कि तुम सत्य की कामना करो, कि तुम परमात्मा की कामना करो। वे यह कह रहे हैं कि जब सब कामना छूट जाती है तो परमात्मा मिलता है।
यह बड़ी अलग बात है। जब सब कामना छूट जाती है तो परमात्मा मिलता है। इसलिए परमात्मा को पाने की कामना तो की ही नहीं जा सकती, क्योंकि तब तो वही बाधा हो जाएगी। जब सब कामना--बेशर्त रूप से सब कामना छूट जाती है--जब कामना नहीं रह जाती मन में, जब काम नहीं रह जाता, तब जो शेष बचता है वही राम है। इसलिए राम को कोई चाह नहीं सकता। चाह छोड़ सकता है, राम को पा सकता है, लेकिन राम को चाह नहीं सकता। चाहा कि भूल हो गई।
सौदागरी नहीं, ये इबादत खुदा की है
ऐ बेखबर, जजा की तमन्ना भी छोड़ दे
यह कोई सौदा नहीं है, यह कोई सौदागरी नहीं है, इबादत खुदा की है। ऐ बेखबर, ऐ बेहोश आदमी, जजा की तमन्ना भी छोड़ दे। इसके प्रतिकार में कुछ मिलेगा, यह आशा छोड़ दे। क्योंकि इसके प्रतिकार में कुछ मिले, प्रत्युत्तर में कुछ मिले, जजा की तमन्ना रहे, तो कुछ भी न मिलेगा। क्योंकि फिर तो तू परमात्मा को समझ ही न पाया।
कामना छूट जाने का परिणाम है परमात्मा। कामना छोड़ने से मिलता नहीं, मिल जाता है। इसलिए तुम पाने के लिए भी अगर इस तरह सब कामना छोड़ो...तुम यह भी कर सकते हो कि अच्छा, परमात्मा की भी कामना छोड़ देंगे; अगर इसी तरह मिलता है, तो यह कामना भी छोड़ देंगे, मगर पाकर रहेंगे। तो तुम्हें न मिलेगा; तो तुम चूक जाओगे। तुम समझे ही नहीं बात। तुम इसे आधार नहीं बना सकते दावे का; तुम दावेदार नहीं हो सकते। यह कोई सौदागरी नहीं है, इबादत है खुदा की।
इसे समझो। जैसे ही तुम्हारे भीतर कोई कामना नहीं रह जाती, तुम कहते हो--मैं तृप्त हूं, जैसा हूं; मुझे इंच भर भी अन्यथा नहीं चाहिए, रत्ती भर भी भिन्न नहीं चाहिए; यही होना पर्याप्त है; अहोभागी हूं। और तुम नाचते हो, गाते हो; क्योंकि जैसे हो, परमसुख है। कोई कामना न रही; तुम सम्राट हो गए, तुम भिखारी न रहे। इसी सम्राट से उस परम सम्राट का मिलन होता है। सम्राट से मिलना हो तो सम्राट हो जाना जरूरी है। समान ही समान से मिल पाता है।
अगर तुमने ईश्वर की भी कामना की, वह भी दुख में ले जाएगी। इसलिए तुम अपने मंदिर-मस्जिदों में अनेक बैठे फकीरों को दुखी पाओगे। तुम दूसरे कारण से दुखी हो कि धन नहीं मिला, यश नहीं मिला, पद नहीं मिला; वे दुखी हैं कि अभी परमात्मा नहीं मिला। मगर दुख जारी है। जहां कामना है, वहां विषाद होगा; क्योंकि कामना कोई भी पूरी नहीं होती; कामना का स्वभाव ही दुष्पूर है।
बुद्ध ने कहा है, तृष्णा दुष्पूर है। ऐसा नहीं है कि तुम्हारी सामर्थ्य की कमी है, इसलिए तुम उसे नहीं भर पाते; न भरना उसका स्वभाव है। तुम कितना ही कुछ करो, भरती नहीं। भर सकती नहीं। भरना उसने जाना ही नहीं। वह उसकी नियति नहीं है। जिस दिन कोई व्यक्ति कामना का यह दुष्पूर स्वभाव समझ लेता है, उस दिन वह परमात्मा को चाहने की कामना नहीं करता; वह सारी कामना को छोड़ देता है, गिरा देता है। उस गिरने के क्षण में ही वह अचानक पाता है, अरे! जिसे मैं खोजता था, वह घर में रहा! जिसे मैं तलाशता था, वह भीतर मौजूद है! मेरी कामना के अंधेपन के कारण उसे देख न पाया।
इसलिए शंकर कहते हैं कि वह प्रभु तेरे भीतर मौजूद है। जिस दिन भी तू सारी दौड़-धूप को छोड़ कर, आपाधापी को छोड़ कर, कामना को छोड़ कर अपने घर वापस लौट आएगा, अपने घर में बैठेगा--निश्चिंत, विश्राम में, अहोभाव में--कुछ पाना नहीं, कहीं जाना नहीं, उसी दिन अचानक तू पाएगा: एक नया संगीत भीतर बजने लगा। वह बज तो सदा से रहा था, लेकिन कामना के शोरगुल के कारण सुनाई न पड़ता था। वह बड़ी धीमी आवाज थी, वह बड़ी सूक्ष्म आवाज थी, अहर्निश उसका नाद था। लेकिन सुने कौन? तुम घर पर न थे और परमात्मा तुम्हारे घर में था।
तुम अपने घर कभी आते ही नहीं! तुम्हें फुरसत कहां घर लौटने की। इतना विस्तार है कामनाओं का--कभी एक के पीछे, कभी दूसरे के पीछे; तुम्हें फुरसत कहां है कि तुम अपने घर आओ और उसे देख लो जो तुम्हारे घर सदा से ही ठहरा हुआ है।
परमात्मा को खोजने कहीं जाना नहीं, अपने घर लौट आना है। वही है प्रत्याहार।
चौथा प्रश्न:
भगवान, यह प्रत्याहार तो असंभव प्रयोग मालूम होता है। गंगा का गंगोत्री में लौट जाना और वृक्ष का लौट कर पौधे और बीज में समाना क्या संभव है? और शंकर और आप भी यही साधने को कह रहे हैं!
गंगा का गंगोत्री में लौटना या वृक्ष का वापस बीज में समाना तुम्हें असंभव मालूम पड़ता है? यही रोज घट रहा है! बीज रोज फिर वृक्ष बन जाता है। वह पास लगे हुए गुलमोहर में लटके हुए बीज देखो--सारा वृक्ष बीज बन गया है। और गंगा रोज गंगोत्री लौटती है--चढ़ कर बादलों में, घटाओं में--फिर बरसती है हिमालय पर, फिर गंगोत्री में लौट आती है। यह रोज ही घट रहा है।
फिर तुम कहोगे, फिर करने की क्या बात है?
करने की बात इतनी है, इस घटती घटना को जाग कर देखना है। यह सोते-सोते घट रहा है। अनेक बार तुम अपने घर लौट आते हो, लेकिन तुम्हें होश नहीं है। तुम सरायों में ठहरने के इतने आदी हो गए हो कि तुम घर भी लौट आते हो तो उसे भी सराय समझते हो।
मेरे एक मित्र हैं, उनका धंधा ऐसा है कि उन्हें दिन-रात यात्रा करनी पड़ती है; महीने में चार-पांच दिन ही घर लौटते हैं। घर लौटते हैं तो उन्हें नींद नहीं आती, क्योंकि रेल की खड़बड़ में उनकी सोने की आदत हो गई है; जब तक वे ट्रेन में न सोएं, उन्हें नींद नहीं आती। वे मुझसे कहने लगे, बड़ी मुसीबत है। कोई बीस साल से यही काम करते हैं। तो जब तक शोरगुल न मचता हो, और हर घड़ी, आधा घड़ी के बाद फिर स्टेशन न आता हो, और फिर आवाजें और फिर धूम-धक्का--उन्हें नींद नहीं आती! तो मैंने उन्हें कहा, तुम एक काम करो, तुम रेलवे लाइन के पास क्यों नहीं मकान किराए से ले लेते? उन्होंने कहा, यह बात जंची; मैं बड़े-बड़े डाक्टरों के पास हो आया!
अब उन्होंने रेलवे लाइन के पास मकान ले लिया है। अब वे बड़े मजे में हैं। अब वे घर में भी सो जाते हैं, क्योंकि फिर ट्रेन निकली, हर दस-पंद्रह मिनट में ट्रेन निकल रही है। वे बड़े प्रसन्न हैं।
तुम्हें कठिनाई लगेगी उनकी सोचने में, क्योंकि तुम जब पहली दफा ट्रेन में जाओगे तो नींद न आएगी। आदत! सभी आदतें बांधने वाली हो जाती हैं।
तुम अपने घर के बाहर इतने रहे हो कि जब तुम घर भी आते हो, तो तुम घर नहीं आते; पहचान ही नहीं होती; प्रतिभिज्ञा नहीं होती। लगता है, यह भी कोई सराय है--ठहरे रात, सुबह चल पड़े।
गंगोत्री में रोज गंगा लौटती है, और तुम पूछते हो कठिन! तुम अपने मूल स्रोत पर बने ही हो, और तुम पूछते हो कठिन! तुम अपने मूल स्रोत से दूर जाओगे भी कैसे? जाओगे भी कहां? खयालों में गए होओगे, असलियत में नहीं जा सकते। ऐसे ही, जैसे रात तुम पूना में सो जाओ और सपना देखो कलकत्ते का। तो क्या सुबह उठ कर फिर ट्रेन पकड़ कर पूना वापस लौटना पड़ेगा? सपने में कलकत्ते में थे, तो सुबह उठ कर क्या भागोगे कि अब ट्रेन पकड़ें, घर जाएं! न, सुबह तुम जाग कर पाओगे कि पूना में ही सो रहे हो। अपने से दूर जाना सिर्फ एक खयाल है, सिर्फ एक विचार है।
अगर तुम मुझसे पूछो, और तुम्हें अड़चन न हो, तो मैं कहना चाहूंगा: गंगा गंगोत्री से कभी गई ही नहीं; बीज कभी वृक्ष बना ही नहीं--एक सपना देखा है कि वृक्ष हो गए; एक सपना देखा है कि गंगोत्री से गंगा निकल आई, सागर की तरफ चली। क्योंकि अपने स्वभाव से बाहर जाने का उपाय कहां? तुम मुझसे पूछते हो कि स्वभाव में लौटना बड़ा कठिन है! मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि स्वभाव से बाहर जाना कठिन ही नहीं, असंभव है; कोई कभी गया नहीं। तुम इसी क्षण बुद्ध हो, इसी क्षण जिन हो, इसी क्षण परमात्मा हो। लेकिन तुम्हारे खयाल! तुम्हारे खयाल कुछ और हैं। तुम कहते हो, यह बात जंचती नहीं; मैं तो पान की दुकान करता हूं--कैसे बुद्ध हो सकता हूं?
पान की दुकान करने से कुछ बाधा है? कोई बोधिवृक्ष के नीचे बैठने से ही बुद्ध होता है? पान की दुकान पर बैठे भी तुम बुद्ध हो, मैं कह रहा हूं। क्योंकि तुम कुछ भी करो--पान की दुकान करो, कि बूचड़खाना चलाओ--तुम कुछ भी करो, तुम बुद्धत्व के बाहर जा नहीं सकते।
मछली तो शायद कभी सागर के बाहर आ भी जाए, तुम परमात्मा के बाहर कैसे जाओगे? क्योंकि सागर की कोई सीमा है, किनारा है; परमात्मा का तो कोई किनारा नहीं और कोई सीमा नहीं। तो यह तुम्हारा खयाल है कि तुम पान की दुकान कर रहे हो--करो मजे से, मगर इससे तुम यह मत सोच लेना कि तुम बुद्ध न रहे। बस इतना ही होश आ जाए, तो गंगा लौट गई गंगोत्री। होश का आ जाना...
हजार उपद्रव आएंगे रास्ते पर। संसार रोकेगा तुम्हें पहले--दुकान रोकेगी, धन रोकेगा, पद रोकेगा। किसी तरह इनसे छूटे तो मंदिर-मस्जिद रोकेंगे, वेद-पुराण रोकेंगे, गीता-कुरान रोकेंगे। अगर तुम सबसे बच कर निकल आए, तो ही तुम आ पाओगे।
दैरो-हरम भी मंजिले-जानां में आए थे
उस प्यारे की खोज में मंदिर और मस्जिद भी बीच में आ गए थे।
पर शुक्र है कि बढ़ गए दामन बचा के हम
पर हम अपना दामन बचाए और बढ़ गए।
बहुत कुछ आएगा राह में, बस जरा सा दामन बचा कर--उसी को मैं होश कह रहा हूं। शंकर ने सावधानी कहा, महा सावधानी कहा। जागे हुए! फिर तुम्हें कोई भी न रोक पाएगा। दुकान बेचारी बहुत कमजोर है; मंदिर-मस्जिद भी न रोक पाएंगे। किताबें, बही-खाते ना-कुछ हैं; वेद-कुरान भी न रोक पाएंगे।
दैरो-हरम भी मंजिले-जानां में आए थे
उस प्यारे के रास्ते पर बहुत कुछ बाधाएं आईं। मंदिर और मस्जिद तक बाधाएं बन कर खड़े हो गए।
पर शुक्र है कि बढ़ गए दामन बचा के हम
पांचवां प्रश्न:
भगवान, आप जो ध्यान प्रयोग कराते हैं, उसमें योग और भक्ति का समावेश है। तो क्या प्रत्याहार के लिए दोनों आवश्यक हैं?
जीवन दो ढंग का हो सकता है: एक जीवन होता है जो केवल आवश्यक के आधार पर निर्मित होता है; और एक जीवन होता है जो अतिशय के आधार पर निर्मित होता है।
मोर को नाचते हुए देखो। क्या पंखों में जो इंद्रधनुषों के रंगों का फैलाव है वह आवश्यक है? पंख अगर काट दो तो मोर के जीवन में क्या कोई कठिनाई और अड़चन आ जाएगी? मोर फिर भी जी लेगा। क्योंकि पंखों से न तो कोई जीवन की धारा का संबंध है, न भोजन का संबंध है, न बच्चे पैदा करने में कोई बाधा पड़ेगी। पंख तो अतिरेक हैं; वे तो जरूरत से ज्यादा की खबर हैं, जरूरत की खबर नहीं हैं।
ये पक्षी गीत गा रहे हैं, इनके ओंठ सी दो, कुछ हर्ज हो जाएगा? क्या फर्क पड़ेगा? पक्षी फिर भी जी लेंगे। गीत बंद हो जाएंगे, क्योंकि गीत आवश्यक थोड़े ही थे--बाढ़ थी; अतिरेक था।
तुम नाचते हो, मत नाचो; दुकान करो, घर आ जाओ। गीत गाते हो, मत गाओ। कोई बाधा आ जाएगी? प्रेम करते हो, मत करो; दुकान करना काफी है। प्रेम न करोगे तो क्या अड़चन आ जाएगी? क्या मर जाओगे? नहीं जो प्रेम करते, वे भी जी रहे हैं; नहीं जो गीत गाते, वे भी जी रहे हैं। बल्कि शायद थोड़ी ज्यादा ही अच्छी तरह से जी रहे हैं; क्योंकि वह उपद्रव भी बचा; उतनी शक्ति बचती है, वह भी धन कमाने में लगा देते हैं। लेकिन तुम्हारे जीवन की गरिमा खो जाएगी।
आवश्यक से जीने का मामला कंजूस का है। मैं तुम्हें यहां आवश्यक से जीना नहीं सिखा रहा हूं, मैं तुम्हें यहां आवश्यक के पार जाना सिखा रहा हूं। ऐसे जीओ अतिरेक से। मैं भी जानता हूं, अकेले ज्ञान से भी परमात्मा मिल जाता है, कोई भक्ति की जरूरत नहीं है। अकेली भक्ति से भी परमात्मा मिल जाता है, कोई ज्ञान की जरूरत नहीं है। लेकिन तब परमात्मा पाना भी तुम्हारा बड़ा सौदे जैसा हिसाब हुआ। बिलकुल जरूरी-जरूरी चलते हो। दो पैसे से जहां काम चल जाए, वहां तीन पैसा भी खर्च करने में घबड़ाते हो। बड़ी कृपणता हुई, परमात्मा के रास्ते पर भी तुम कंजूस रहे।
मैं तुम्हें जरा दिलफेंक होना सिखा रहा हूं। काम तो चल जाएगा; मुझे भी पता है कि लोग ज्ञान से भी पहुंच गए हैं, भक्ति की कोई जरूरत न थी। कोई मीरा जैसे नाचे तंबूरा लेकर, इसकी कोई जरूरत न थी। लेकिन फिर भी मैं कहूंगा: अगर तुम नाच सको, तो परमात्मा के एक-दूसरे ही रूप का तुम्हारे सामने आविर्भाव होगा। वह गणित का नहीं है, वह काव्य का है। मिलने को तो मिल जाएगा परमात्मा--ज्ञान से भी, शुष्कता से भी, गणित से भी। लेकिन परमात्मा के भी पास गए और आवश्यकता से गए! वह संबंध भी जरूरत का संबंध रहा! उस संबंध में भी उछले न, कूदे न, बहे न, पिघले न! उस संबंध में भी भोग की परम घड़ी न आई! वह भी व्यवसाय रहा!
भक्ति से भी लोग पहुंच गए हैं, कोई ज्ञान जरूरी नहीं है। लेकिन पहुंच तो गए, लेकिन जहां पहुंचे हैं उसका बोध? वह आवश्यक नहीं है पहुंचने के लिए, छोड़ा जा सकता है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, जब अतिशय मिलता हो तो आवश्यक के लिए क्यों चेष्टा करनी? जब अतिशय मिल सकता हो और जब जीवन परम विलास बन सकता हो, परम भोग बन सकता हो, तो क्या कंजूस की तरह चलना? क्या कदम फूंक-फूंक कर रखना? जहां नाचना हो, वहां कदम फूंक-फूंक कर नहीं रखे जाते। और कदम फूंक-फूंक कर रखने वाला आदमी नाचने में कुशल नहीं हो सकता।
तुम कब अपनी कृपणता तोड़ोगे? तुम कब बहोगे निर्बाध? क्योंकि मेरे देखे जीवन का जो परम सौभाग्य है, वह अतिशय में है। देखो मोर को--पंखों पर परमात्मा ने इतने रंग भरे हैं! इतनी मेहनत की है! अगर कोई वैज्ञानिक मोर को बनाए, तो एक बात पक्की समझना, पंख नहीं होंगे। बिलकुल फिजूल हैं, क्या जरूरत है इनकी! भोजन की नलिका होगी, पेट पचाने को होगा, जननेंद्रिय होगी, क्योंकि बच्चे पैदा करने होंगे--पंख नहीं होंगे। बस काव्य भर नहीं होगा, गीत भर नहीं होगा, नाच भर नहीं होगा। इन्हीं नासमझों की वजह से तो जिंदगी में से सब रंग खो गया; क्योंकि वे हर जगह बता रहे हैं कि क्या जरूरी है, बस उतना ही करो; जरूरी से इंच भर आगे मत बढ़ो।
और तुम प्रकृति को देखो: परमात्मा जरूरत से बिलकुल राजी नहीं है; जरूरी पर बिलकुल नहीं रुकता, गैर-जरूरी पर बहा जाता है। पक्षी गीत गा रहे हैं, कोई आवश्यक नहीं है; वृक्षों में फूल खिल रहे हैं, जरा भी आवश्यक नहीं है; फूलों से गंध बह रही है, जरा भी आवश्यक नहीं है; नदियां भागी जाती हैं कलकल नाद करती सागर की तरफ; सागर अपना तुमुल घोष करता रहता है, टकराता रहता है तटों से--जरा भी जरूरी नहीं है। क्या जरूरी है? थोड़ा सोचो तुम: अगर परमात्मा भी कहीं कोई अर्थशास्त्री होता, कोई इकोनामिस्ट होता और दुनिया को जरूरत से बनाता, तो यह दुनिया रहने योग्य न होती, सिर्फ आत्महत्या करने योग्य होती; यहां रह कर भी क्या करते, बस जरूरत ही जरूरत होती।
ज्ञान से भी पहुंच जाओगे, भक्ति से भी पहुंच जाओगे। लेकिन ज्ञान, भक्ति से, दोनों से जिस ढंग से पहुंचोगे, वह पहुंचना और है, वह मजा और है। फिर तुम्हारी मर्जी। तुम्हें अगर छोटे-छोटे आंगन में रहने का रस लग गया है, खुला आकाश डराता है, तो ठीक है, छोटे घर-घूलों में रहो। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, खुला आकाश भी इतने में ही उपलब्ध है, इतने ही श्रम से विराट उपलब्ध है। तुम छोटे और जरूरत की बात क्यों करते हो?
तुम्हारे ज्ञान को इतना बढ़ने दो कि भक्ति हो जाए। तुम्हारी भक्ति को इतना गहराने दो कि ज्ञान हो जाए। तुम दोनों छोर छू लो, ताकि कुछ अछूता न रह जाए। इस जगत में जो भी मिल सकता था, तुम पूरे को ही पा लो, तो ही धन्यता है।
छठवां प्रश्न:
भगवान, आपको रोज सुन रहा हूं। समझ में भी बात उतरती है; आंखों से आंसू टपकते हैं; भूचाल की भांति हृदय डोलता है--और लगता है कि आत्मज्ञान का दिन है यह, लेकिन वह आता नहीं। यद्यपि दूसरे दिन के प्रवचन में फिर यही अनुभव दोहरता है। पता नहीं, इस धूप-छांव का क्या प्रयोजन है?
कहीं कोई धूप-छांव नहीं है, सिर्फ तुम्हारे मन की भ्रांति है। हम राजी नहीं होते, कुछ भी मिले। मन ज्यादा की मांग कर देता है। और मन तो सदा ही ज्यादा की मांग कर सकता है। क्या तुम ऐसी कोई घड़ी सोच सकते हो तुम्हारे जीवन में, जिससे ज्यादा की तुम कल्पना न कर सको?
रोज मिलता है, क्योंकि आत्मज्ञान ही मैं बांट रहा हूं। रोज तुम पर बरसता है। तुम्हारी आंखें ठीक कहती हैं, क्योंकि आंसू बहाती हैं। वे ज्यादा पहचान लेती हैं; तुम्हारी बुद्धि से ज्यादा समझदार हैं। और तुम्हारा हृदय ठीक खबर देता है, क्योंकि डोलने लगता है। मगर तुम्हारी खोपड़ी मजबूत है, ठोस है। वह खोपड़ी सोचे जाती है कि हां, कुछ तो हो रहा है, लेकिन अभी पूरा नहीं हुआ, अभी आत्मज्ञान तो हुआ ही नहीं।
आत्मज्ञान है क्या? कब होगा, जब तुम मानोगे कि अब हुआ! क्या हो जाएगा, जब तुम मानोगे कि अब हुआ! कोई कसौटी है तुम्हारे पास?
नहीं, मन तुम्हें धोखा दे रहा है। आंसुओं की सुनो, हृदय की गुनो, विचार तो सदा ही तुम्हें धोखा देगा। विचार तो कहेगा, हां हुआ, पर अभी पूरा नहीं हुआ।
क्या है पूरा? कब होगा पूरा? तुम अगर परमात्मा के सामने भी पहुंच गए, तुम कहोगे--हां पाया, लेकिन अभी पूरा नहीं पाया। क्योंकि परमात्मा में भी तुम कुछ न कुछ विस्तार तो कर ही सकते हो--कि नाक थोड़ी लंबी होती; कि और तो सब ठीक लगते हैं, जरा कान कंधों को छूते, जैसे बुद्ध-महावीर के छूते हैं; कान जरा छोटे हैं; कि अजानबाहु नहीं है। क्या तुम सोच सकते हो कि परमात्मा अगर तुम्हें मिल जाए, तो तुम एकदम राजी हो जाओगे कि पूरा पाया?
मन कभी कहता ही नहीं कि पूरा पाया। मन की आदत ही नहीं है। वह मन का हिसाब नहीं है। मन कहता है, हां मिला, मगर अभी और मिल सकता है। यह मन तो तुम्हें सब जगह भटकाएगा। इसे छोड़ो, आंसुओं का भरोसा करो। श्रद्धा करो आंसुओं पर, वे ज्यादा सरल हैं, ज्यादा स्वाभाविक हैं, ज्यादा आंतरिक हैं, ज्यादा हार्दिक हैं, ज्यादा प्राथमिक हैं। भरोसा करो हृदय की धड़कन का, क्योंकि वहीं नृत्य पहली दफा उतरता है। और बुद्धि? बुद्धि आदमी की है, सभ्यता की है, समाज की है; शास्त्रों से आई है, उधार है। आंसू तुम्हारे हैं, बुद्धि तुम्हारी नहीं। बुद्धि तुम्हें किसी ने दी है, आंसू किसी ने नहीं--तुम लेकर आए थे। हृदय तुम्हारा है, हृदय में उठते कंपन तुम्हारे हैं, हृदय में उठते संवेदन तुम्हारे हैं। वे तुम्हें किसी ने दिए नहीं। यद्यपि दूसरों ने उनको छीन लिया है; सब तरह के अवरोध खड़े कर दिए हैं।
और अगर तुम हृदय और आंखों की सुन सको, अगर तुम अपने प्राणों की सुन सको, तो कौन फिक्र करता है कल की! और कौन चिंता करता है आत्मज्ञान की! आनंद का यह क्षण तुम्हें अहोभागी बना जाएगा। तुम धन्यवाद से भरोगे--एक गहरी इबादत, एक गहरी प्रार्थना तुम्हारे भीतर उतर आएगी। तुम परमात्मा को धन्यवाद दोगे कि मेरी पात्रता से ज्यादा मुझे तूने दिया। आज दिया, जब कि कोई भरोसा ही न था। फिर धूप-छांव का खेल मालूम न पड़ेगा। आज का निपटारा आज हो गया। कल जब फिर देगा, फिर धन्यवाद दे देंगे।
और आज और कल को तौलना भी मत, क्योंकि सब तुलना मन की है, बुद्धि की है। जीवन में प्रत्येक क्षण अनूठा है। कल फिर सुबह होगी, कल फिर उसकी वर्षा होगी, कल फिर धन्यवाद दे देना। और दो दिनों को कभी तौलना मत, और दो क्षणों को कभी तौलना मत; क्योंकि एक साथ दो क्षण तो मिलते ही नहीं, एक ही क्षण मिलता है। सब तौल मानसिक है। अस्तित्व में तो कोई तौल संभव नहीं है। और अगर ऐसे तुम बढ़ते जाओ--धन्यभागी, अहोभागी, कृतार्थ, गहन कृतज्ञता से भरे--तो आत्मज्ञान कहीं कोई ऐसी चीज थोड़े ही है कि एकदम अचानक तुम्हें मिल जाएगी। ऐसे ही ऐसे बढ़ता जाता है; ऐसे ही ऐसे गहन होता जाता है। आत्मज्ञान कोई वस्तु थोड़े ही है, प्रक्रिया है। आत्मज्ञान कोई चीज थोड़े ही है कि कहीं रखी है, एकदम झपट्टा मार दोगे तो तुम्हें मिल जाएगी। आत्मज्ञान तुम्हारा रूपांतरण है, तुम्हारा विकास है।
और आत्मज्ञान का कोई अंत नहीं है; इसलिए तो हम आत्मा को अनंत कहते हैं--बढ़ता ही जाता है; सदा बढ़ता ही जाता है। कभी कोई ऐसी घड़ी नहीं आती, जब तुम कह दो--बस अब चुक गया। अनंत है। परमात्मा के जितने दर्शन करोगे, उतना ही पाओगे--बड़ा होता जा रहा है, विस्तीर्ण होता जा रहा है; नये-नये द्वार खुलते जाते हैं; नये फूल खिलते जाते हैं; हजार-हजार कमल हैं उसकी चेतना के; एक-एक कमल में हजार-हजार पंखुड़ियां हैं; एक-एक पंखुड़ी के हजार-हजार रंग हैं--तुम देखते जाओगे, तुम उतरते जाओगे, रोज बढ़ता जाएगा।
न पीछे का हिसाब रखना; क्योंकि उस हिसाब में तुम्हारी बुद्धि भर गई, तो जो अभी मिल रहा था, उससे चूक जाओगे। न आगे की चिंता करना; क्योंकि जिसने आज दिया है, वह कल भी देगा; जिसने आज दिया है, वह कल क्यों न देगा? कल की भी फिक्र मत करना। बीते कल को भी जाने दो; आने वाले कल को भी मत सोचो; आज काफी है। और अगर तुम्हारे मन में यह भाव गहन हो जाए: आज काफी है, यह क्षण पर्याप्त है; तो यही क्षण भजन का हो गया।
भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम् मूढ़मते।
आज इतना ही।
भगवान, कल आपने समझाया कि प्राणायाम का अर्थ है: ऐसी विधि जिससे प्राणों का विस्तार हो; और प्रत्याहार है: मूल स्रोत की ओर वापस लौटना। पहले विस्तार, फिर वापसी--ऐसा क्यों?
क्योंकि जीवन विरोध से निर्मित है; और जीवन के होने का और कोई ढंग नहीं। श्वास बाहर जाती है, फिर भीतर वापस लौटती है। पूछा कभी--ऐसा क्यों? जब भीतर ही जाना है श्वास को तो बाहर ले जाने की जरूरत क्या? लेकिन अगर श्वास भीतर ही रह जाए, बाहर न जाए, तो मौत घटेगी, जीवन नहीं। श्वास अगर बाहर ही रह जाए, भीतर न आए, तो भी मौत घटेगी, जीवन नहीं। जीवन गति है--दो विरोधों के बीच गति है; दो तटों के बीच सरिता का प्रवाह है। श्वास बाहर जाती है, भीतर आती है; भीतर आती है, बाहर जाती है--प्रतिपल प्राणायाम भी हो रहा है, प्रत्याहार भी हो रहा है।
श्वास का बाहर जाना प्राणायाम है, श्वास का भीतर आना प्रत्याहार है। और ऐसी ही लयबद्धता तुम्हारी चेतना में भी सध जाए, ऐसी ही गति तुम्हारी चेतना में भी थिर हो जाए, ऐसे ही तुम बाहर अनंत तक फैल जाओ और ऐसे ही तुम भीतर शून्य तक पहुंच जाओ--भीतर हो शून्य, बाहर हो अनंत--ये दोनों तुम्हारे कूल-किनारे हो जाएं, इनके बीच तुम सतत प्रवाहित होओ, तो ही तुम भगवत-स्वरूप हो पाओगे। क्योंकि भगवान का यही स्वरूप है--भीतर शून्य, बाहर पूर्ण।
यह सारा अस्तित्व परमात्मा का प्राणायाम है। सृष्टि है प्राणायाम, प्रलय है प्रत्याहार। एक श्वास बाहर गई, सृष्टि हुई; श्वास भीतर लौटी, प्रलय हुआ।
इसे तुम अगर ठीक से समझ पाओ तो जीवन में सब जगह दिखाई पड़ेगा। जन्म है प्राणायाम, मृत्यु है प्रत्याहार; जन्म में तुम फैलते हो, मृत्यु में सिकुड़ जाते हो, वापस लौट जाते हो। और जीवन जन्म और मृत्यु के किनारों के बीच है। जन्म जीवन नहीं; मृत्यु भी जीवन नहीं। जन्म और मृत्यु के बीच जो प्रवाहित है, जो अज्ञात नृत्य कर रहा है छंद में, लय में लीन है--वही है जीवन।
मन की आकांक्षा है तर्कयुक्त होने की और जीवन है विरोधयुक्त, इसलिए जीवन अतर्क्य है। और जिन्होंने तर्क से जानना चाहा वे भटके और कभी पहुंचे नहीं।
तर्क तो यही कहेगा: प्राणायाम और प्रत्याहार तो विरोध हो गया--कुछ एक कहें! ज्ञान और भक्ति तो विरोध हो गया--कुछ एक कहें! शून्य और पूर्ण तो विरोध हो गया--कुछ एक कहें!
ध्यान रखना, जीवन सदा ही विरोधी है; क्योंकि जीवन विरोधों से बड़ा है; जीवन विरोधों को आत्मसात कर लेता है। तर्क बड़ा छोटा है; छोटी बुद्धि का उपाय है; वह एक को ही समा पाता है, तो विपरीत बाहर छूट जाता है।
इसलिए बुद्ध ने अगर शून्य कहा, तो यह अर्थ न था कि पूर्ण उसमें समाया नहीं है। लेकिन बुद्ध को मानने वालों ने कहा कि जब शून्य है तो पूर्ण नहीं हो सकता। और जब शंकर ने कहा पूर्ण, तो यह अर्थ न था कि शून्य उसमें समाया नहीं है। लेकिन शंकर के मानने वालों ने कहा, जब पूर्ण है तो शून्य कैसे हो सकता है।
यहीं तो अनुयायी भटक जाता है। अनुयायी जीता है तर्क से और बुद्धि से। और जो जानते हैं, उन्होंने विरोध को एक साथ जाना है। लेकिन वे भी विरोध को एक साथ कहने में अड़चन अनुभव करते हैं, क्योंकि समझाना है तुम्हें। अगर विरोध एक साथ कहे जाएं, तो तुम्हें लगता है बड़ी असंगति हो गई। तुम्हारा मन चेष्टा ही करता रहता है तर्कबद्ध, सरणीबद्ध गणित की। और जीवन किसी गणित को मानता नहीं; जीवन सब गणित की सीमाओं को तोड़ कर बहता है। जीवन तो बाढ़ है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, कल आपने अकाम की सूक्ष्म विवेचना की। स्वप्न-अवस्था में भी अकाम आ जाए, इसकी कीमिया पर कुछ उपदेश दें।
तुम स्वप्न की चिंता न करो, तुम जाग्रत में ही साध लो। जाग्रत में जो सध जाएगा, वह स्वप्न में अपने आप उतरने लगता है। क्योंकि तुम्हारे स्वप्न तुम्हारे जाग्रत की प्रतिध्वनियां हैं। तुमने जाग्रत में जो किया है, वही स्वप्न में तुम फिर-फिर अनुगूंज सुन लेते हो उसकी। उसी की प्रतिध्वनि है। स्वप्न कुछ नया तो देता नहीं। स्वप्न भी क्या नया देगा?
दिन भर धन इकट्ठा करते हो, तो रात रुपये गिनते रहते हो। दिन भर मन में कामवासना तिरती है, तो रात काम के स्वप्न चलते हैं। जिनके जीवन में भजन है, उनकी निद्रा में भी भजन प्रविष्ट हो जाता है; और जिनका दिन शांत और शून्य है, उनकी रात भी शांत और शून्य हो जाती है। रात तो पीछा करती है दिन का; वह दिन की छाया है। रात को बदलने की फिक्र ही मत करो।
अगर रात के स्वप्नों में कामवासना परेशान करती है, तो यही समझो कि जाग्रत में कहीं धोखा हो रहा है। इशारा समझो। स्वप्न तो इंगित करते हैं--दिन में भी तुम जिन्हें समझने से चूक जाते हो, स्वप्न उन्हें स्पष्ट इशारा कर देते हैं। हो सकता है कि दिन में तुम बड़े साधु बने बैठे होओ। लेकिन वह साधुता बगुले जैसी है। एक टांग पर खड़ा है! उसको देख कर तो ऐसा ही लगेगा कि कोई तपस्वी है। और कितना शुभ्र है! अब बगुले से ज्यादा और सफेदी कहां खोजोगे? और कैसा खड़ा है! कौन योगी खड़ा होगा! हिलता भी नहीं! ऐसा बाहर को देख कर मत भूल में पड़ जाना। भीतर वह मछलियों का चिंतन कर रहा है, भीतर वह मछलियों की राह देख रहा है। यह सब आसन, यह सब सिद्धासन, मछलियों की आकांक्षा में साधा है।
खैर बगुला दूसरे को धोखा दे दे, अपने को कैसे धोखा देगा? खुद तो जानता है कि किसलिए खड़ा है। यह श्वास साधे किसलिए खड़ा है--उसे पता है।
लेकिन आदमी बगुले से भी ज्यादा बेईमान है। वह दूसरों को ही धोखा नहीं देता, दूसरों को धोखा देते-देते अपने को भी धोखा दे लेता है। जब दूसरे मानने लगते हैं उसकी बात, तो धीरे-धीरे खुद भी अपनी बात मानने लगता है। तब तुम्हें पता लगेगा कि तुम्हारे जाग्रत और स्वप्न में विरोध हो गया। तब तुम्हें जाग्रत में तो कोई कामवासना की तरंग उठती नहीं मालूम होती। क्योंकि तुमने बहुत बुरी तरह दबाया है; तुम उसकी छाती पर चढ़ बैठे हो; तुम उसे उठने नहीं देते। नहीं कि वह समाप्त हो गई है; बस तुम उठने नहीं देते। नहीं कि वह मिट गई है; तुम सिर्फ उसे प्रकट नहीं होने देते। उसे तुम दबाए हो छाती के कोनों में। रात जब तुम शिथिल हो जाते हो, दबाने वाला सो जाता है, तब जो लहर दिन भर दबाई थी, वह मुक्त होकर विचरण करने लगती है; वही तुम्हारे स्वप्न में कामवासना बन जाती है। जिन्होंने दमन किया है, स्वप्न में उसे पाएंगे।
स्वप्न को इशारा समझो; स्वप्न तुम्हारा मित्र है। वह यही कह रहा है कि दबाने से कुछ भी न होगा, रात हम प्रकट हो जाएंगे। दिन भर दबाओगे, रात हम फिर मौजूद हो जाएंगे। किसी तरह दूसरों को धोखा दे लोगे, अपने को भी धोखा दे लोगे, लेकिन हमसे छुटकारा ऐसे नहीं होगा।
अब तुम पूछते हो कि स्वप्न में भी कामवासना से मुक्त होने के लिए क्या करें?
इससे ऐसा लगता है कि जाग्रत में तो तुम मुक्त हो ही गए हो, अब रह गई है स्वप्न से मुक्त होने की बात। यहीं भ्रांति है। स्वप्न इतना ही कह रहा है कि जाग्रत में भी तुम मुक्त नहीं हुए हो। क्योंकि जिस दिन जाग्रत में मुक्त हो जाओगे, उस दिन स्वप्न में कुछ बचता ही नहीं। स्वप्न तो तुम्हारी ही सूक्ष्म कथा है।
तुम मुझसे यह पूछ रहे हो कि जैसे हमने जाग्रत में दबा लिया, ऐसी कोई तरकीब हमें बता दें कि स्वप्न में भी दबा लें। फिर तो तुम्हारी मुक्ति का कोई उपाय न रह जाएगा। क्योंकि जो दबा है, वह सदा मौजूद रहेगा और कभी न कभी प्रकट होगा। वह तो धधकता हुआ ज्वालामुखी है। बाहर लपटें न आएं, इससे क्या होता है! भीतर तो तुम जलोगे और सड़ोगे; भीतर तो तुम गलोगे। कैंसर की तरह बढ़ेगा रोग; तुम्हारे रोएं-रोएं में फैल जाएगा।
नहीं, स्वप्न को समझो। स्वप्न की समझ इतना ही कह रही है कि दिन में तुमने कुछ चालबाजी की है, दिन में तुमने कुछ धोखा किया है। अब दिन को अपने समझने की कोशिश करो कि कहां तुम धोखा किए हो? कहां तुमने दबाया है? और जहां तुमने दबाया हो, वहां उसे उघाड़ो।
मन का एक गहरा सूत्र समझ लो कि जैसे वृक्षों की जड़ें अगर अंधेरी भूमि में दबी रहें, तो ही अंकुरण जारी रहता है--पत्ते आते हैं, फूल लगते हैं, फल लगते हैं। अगर तुम वृक्ष की जड़ों को उखाड़ लो भूमि के बाहर--अंधेरे गर्त के बाहर निकाल लो, रोशनी में रख लो--वृक्ष मर जाता है। ठीक यही मन का सूत्र है: मन में जो भी रोग हों, उन्हें निकालो बाहर, रोशनी में लाओ। रोशनी मौत है रोग की।
तुम उलटा करते रहे हो; और तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरु तुम्हें उलटा ही समझाते रहे हैं। वे कहते रहे हैं: और दबा दो! बिलकुल दबा दो; जड़ का पता ही न चले!
लेकिन जड़ जितनी गहरी जम जाएगी, जितनी गहरी दबा दी जाएगी, उतना ही खतरा हो रहा है; उतना ही तुम्हारे जीवन में विष फैल जाएगा।
उघाड़ो! अपने को अपनी आंखों के सामने लाओ! छिपो मत, भागो मत--जागो! तो दिन में भी खोदो अपनी जड़ों को। लाओ रोशनी में, देखो।
इसे ही मैं ध्यान कहता हूं। ध्यान कोई विधि थोड़े ही है कि तुमने कर ली और छुटकारा हुआ। ध्यान एक सतत प्रक्रिया है होश की। चौबीस घंटे, उठते, बैठते ध्यान रखो।
राह पर तुम जा रहे हो। एक सुंदर स्त्री पास से गुजर गई या सुंदर पुरुष पास से गुजर गया। जिसको तुम लुच्चा कहते हो, वह ठिठक कर खड़ा हो गया, देखने लगा। इसीलिए लुच्चा कहते हैं। लुच्चा आता है लोचन शब्द से। जो आंख गड़ा कर देखता है, वह लुच्चा। उसी से आलोचक भी आता है। वे दोनों एक ही अर्थ रखते हैं। वह खड़ा हो गया ठिठक कर, देखने लगा।
तुम साधु हो, तुम कोई लुच्चे नहीं हो। तुम चोरी-छिपे देखते हो; तुम ठिठक कर नहीं देखते, तुम दूसरे बहाने देखते हो; तुम पास की दुकान में देखने लगते हो। देखते दुकान में हो, देखना चाहते हो सुंदर स्त्री को। या हो सकता है कि तुमने और भी गहरा दमन कर लिया है। तुमने इतना दमन कर लिया है कि तुम आंखें नीची करके, देखते ही नहीं स्त्री को--न दुकान, न किसी बहाने से--तुम सिर्फ आंखें नीची किए अपने बाजार की तरफ चले जाते हो। तब रात सपने में तुम देखोगे; क्योंकि देखना तो तुमने चाहा था।
और यह भी हो सकता है कि यह आंख झुका कर चलने की आदत तुम्हारी गहरी बन गई हो कि तुम्हें पता भी न चलता हो, कब तुम आंख झुका लेते हो। यह झुक ही जाती हो आदतवश; स्त्री की भनक पड़ती हो और आंख झुक जाती हो। ऐसा तुमने शील और आचरण तय कर लिया हो। ऐसा तुमने चरित्र निर्मित कर लिया हो। तब तुम आंख झुका कर चले जाते हो, तुम्हें झुकानी भी नहीं पड़ती। यह तो सिर्फ यांत्रिक कुशलता से हो जाता है। तुम्हें शायद पता भी न चले कि स्त्री पास से गुजरी थी। लेकिन आंख का झुकना बताता है कि तुम्हें चाहे ऊपर से पता न चला हो, भीतर तुम्हारे प्राणों में कोई कंपा, कोई हवा का झोंका भीतर गया, कोई तरंग उठी; उसी तरंग ने आंखें झुका दीं। आंखें झुकाना बचने की तरकीब है। तुम गुजर गए।
दुनिया तुम्हें संत कहेगी, सज्जन कहेगी, साधु कहेगी। इससे अहंकार को मजा भी आएगा, रस भी मिलेगा--रिस्पेक्टबिलिटी; आदर मिलता है। तुम और भी धार्मिक होने लगोगे। आंख भी फोड़ सकते हो। अहंकार ऐसा है कि आदमी कुछ भी कर सकता है।
लेकिन इससे तुम किसे धोखा दोगे? तुम्हारे अंतरतम को तुम धोखा न दे पाओगे। रात के अंधेरे में, गहरी तंद्रा में, बेहोशी में जब तुम पड़े होओगे, तब तुम्हारा सज्जन तो सोया है, संत तो गहरी नींद में पड़ा है--तब मन में वे सब राग उठने शुरू होंगे जो तुमने दबाए; वे गीत गूंजने लगेंगे जो तुमने अनसुने किए; उन्हीं से स्वप्न निर्मित होगा।
स्वप्न जब निर्मित हो, तो यह मत सोचना कि स्वप्न में कुछ खराबी है। स्वप्न तो मित्र है, वह तो यह कह रहा है कि तुमने खूब गहरा धोखा दे दिया। अभी भी चेतो! इस धोखे से कुछ सार नहीं, मैं भीतर मौजूद हूं। ऐसे कामवासना न जाएगी। जाग कर पहचानो अपनी वृत्ति को, होश को सम्हालो।
असली सवाल पास से गुजरी स्त्री को देखने या न देखने का नहीं है, तुम्हारे भीतर जो देखने की तरंग उठी, उसको देखने या न देखने का है। स्त्री देखी तो, स्त्री न देखी तो, कोई बड़ा सवाल नहीं है। तुम्हारे भीतर जो तरंग देखने की उठी थी, जो वासना उठी थी, उसे देखा कि नहीं? अगर उसे नहीं देखा तो स्वप्न में आएगा; अगर उसे देख लिया तो स्वप्न में आने की कोई जरूरत न रही। अगर तुम ऐसे प्रतिपल अपने भीतर की उठती वासना को देखते रहो, तुम पाओगे स्वप्न शून्य हो गए।
कल मैं एक गीत पढ़ रहा था। मेरे एक मित्र हैं, खुमार बाराबंकवी। उर्दू के कवि हैं। उनकी पंक्ति है:
हो न हो अब आ गई मंजिल करीब
रास्ते सुनसान नजर आते हैं
जैसे-जैसे मंजिल करीब आने लगेगी, मन के रास्ते सुनसान नजर आने लगेंगे, वीरान होने लगेंगे। वहां स्वप्न से भी मिलना न होगा। बाजार तो खो ही जाएंगे, बाजारों की प्रतिछवियां भी खो जाएंगी। मित्र और शत्रु तो विदा हो ही जाएंगे, उनकी डोलती छायाएं भी विदा हो जाएंगी।
हो न हो अब आ गई मंजिल करीब
रास्ते सुनसान नजर आते हैं
जब तुम्हारे भीतर रास्ते सब सुनसान नजर आने लगें, तब पहचान लेना कि अब मंजिल बहुत दूर नहीं है, करीब है। जब तक तुम अपने भीतर के रास्तों को स्वप्नों से भरा हुआ पाओ, तब तक धोखे में मत पड़ना, तुम बाजार में ही हो। दुनिया तुम्हें साधु कहती होगी, तुमने अपने को साधु मान लिया होगा, लेकिन संसारी मरा नहीं है, केवल छिप गया है। और छिपा संसारी और भी खतरनाक है; क्योंकि छिपा संसारी वैसे ही है, जैसे कोई छिपा रोग। प्रकट हो तो इलाज भी हो जाए; छिपा हो तो इलाज भी मुश्किल। और रोगी अगर इनकार करता हो कि मैं रोगी हूं ही नहीं, तो चिकित्सक भी क्या करे? कम से कम रोगी स्वीकार करे कि मैं रोगी हूं, तो कुछ हो सकता है।
और यह कोई छोटे-छोटे लोगों के जीवन की घटना नहीं है, जिनको तुम बड़े-बड़े महात्मा कहते हो, उनके जीवन में भी यही उपद्रव है। महात्मा गांधी को भी, जीवन के आखिरी दिनों में भी कामवासना के स्वप्न आते रहे, स्वप्नदोष होता रहा। मगर वे आदमी ईमानदार थे, यद्यपि गलत रास्ते पर थे। क्योंकि अगर जीवन भर की चेष्टा के बाद भी और स्वप्न में कामवासना पकड़ती हो, तो उसका अर्थ है कि चेष्टा गलत रास्ते पर होती रही। चेष्टा में कोई कमी न थी। उन जैसा चेष्टारत आदमी तुम न पा सकोगे। बड़ी निष्ठा से उन्होंने मेहनत की थी। लेकिन निष्ठा से थोड़े ही मंजिल पास आती है। अकेली निष्ठा से अगर मंजिल पास आती होती, तब तो कोई भी पहुंच जाता।
न अकेली निष्ठा से मंजिल आती है पास, न अकेली ठीक राह से मंजिल आती है पास; जब ठीक राह से निष्ठा का मिलन होता है, तब मंजिल पास आती है।
तुम कितनी ही ईमानदारी से रेत से तेल निचोड़ने की कोशिश करो--तुम्हारी ईमानदारी थोड़े ही पर्याप्त है, रेत में तेल होना भी तो चाहिए। तुम कहो कि मैं कितनी निष्ठा, कितनी श्रद्धा से निचोड़ रहा हूं! अटूट है, अखंड है मेरी निष्ठा! पर इससे क्या होगा? रेत में तेल होना भी तो चाहिए। और दूसरा आदमी तुमसे कम निष्ठा से भी निचोड़े, लेकिन अगर तिल के दानों से निचोड़ता हो तो शायद मिल जाए, क्योंकि तेल वहां है। यह भी हो सकता है कि कोई तिल के दाने भी रखे बैठा रहे, लेकिन आस्था ही न हो, तो निचोड़ेगा कैसे?
इसलिए जब निष्ठा और ठीक मार्ग का मिलन होता है, तब जीवन में क्रांति घटती है।
जीवन के अंत तक गांधी को स्वप्न पीड़ित करते रहे। मगर मैं कहता हूं, वे ईमानदार आदमी थे, तुम्हारे दूसरे साधु-संतों की तरह नहीं कि स्वप्न तो सताते रहे और उन्होंने कभी बाहर उनकी चर्चा न की। उन्होंने तो खुली चर्चा की। उनके शिष्य इससे परेशान थे। शिष्य चाहते थे, इसकी खुली चर्चा मत करो। क्योंकि शिष्यों को चोट लगती कि हमारे गुरु को और ऐसे सपने आते हैं! शिष्यों का जो गुरु के प्रति महात्मा का भाव था वह और शिष्यों के अहंकार को पीड़ा होती कि लोग क्या कहेंगे! वे गांधी को कहते, यह चर्चा खुली मत करो।
गांधी ने अंतिम दिनों में एक युवा स्त्री के साथ नग्न, बिस्तर पर सोना शुरू किया। कई शिष्य तो भाग गए। उनमें से कई अब बड़े गांधीवादी हैं जो भाग गए थे। अब वही ठेकेदार हो गए हैं; अब वे कहते हैं, वही वसीयतदार हैं! वही थे जो भाग गए थे गांधी के खिलाफ और गांधी के विरोध में हो गए थे कि यह क्या गड़बड़ है! ऐसा कहीं सुना, देखा? लेकिन गांधी की पीड़ा को कोई भी न समझा।
गांधी की पीड़ा यह थी। आखिर-आखिर में उनका तंत्र-शास्त्रों से संबंध जुड़ा। जीवन भर उन्होंने ब्रह्मचर्य की व्यर्थ चेष्टा में गंवाया। अंत में उन्हें तंत्र-शास्त्रों का पता चला कि अगर वासना से मुक्त होना हो तो जागना जरूरी है। और जागना हो तो परिस्थिति चाहिए, भागने से कुछ भी न होगा। तो परिस्थिति पैदा करने के लिए एक नग्न युवती के साथ रात सोते थे एक वर्ष तक--ताकि परिस्थिति पूरी रहे और उनके मन में कोई वासना उठे तो वे देख सकें, पहचान सकें। जिंदगी भर दबाया था, अब उघाड़ने के लिए भी बड़ी अथक चेष्टा करनी पड़ी। यह नग्न युवती के साथ सोना, उसे जगाने की अथक चेष्टा थी, जिसको अपने ही हाथों दबाया था।
जीवन भगोड़ेपन से हल नहीं होता, जीवन तो साक्षात्कार करने से हल होता है। जीवन की सभी समस्याओं का साक्षात्कार करना होगा। मत पूछो कि स्वप्न में कामवासना से मुक्त होने के लिए क्या करो। इतना ही जानो कि स्वप्न में जो वासना आ रही है, वह तुम्हारे जागरण में दबाई गई है। जागरण में मत दबाओ, जागरण में जागो और देखो! उघाड़ो!
तुम्हें तकलीफ होगी, क्योंकि तुम्हारे अहंकार को बड़ा बुरा लगेगा कि मैं ब्रह्मचारी, संन्यासी, त्यागी, और कामवासना मेरे भीतर है!
मगर ऐसे झूठे मोह को छोड़ना पड़े, ऐसे झूठे दंभ का कोई सार नहीं। वह तो है ही, तुम देखो या न देखो, इससे भेद न पड़ेगा। देख लो तो शायद मुक्ति भी हो जाए। और यही समझ लेने की बात है कि सिर्फ दर्शन से भी मुक्ति हो जाती है।
तुम एक चेष्टा करो कुछ महीनों के लिए--कुछ भी दबाओ मत; जो भी भीतर आता हो, उसे आंख के पर्दे पर पूरा का पूरा भीतर आ जाने दो। किंचित भी निंदा मत करना, क्योंकि जरा सी भी निंदा दबाने का कारण हो जाती है।
समझो कि एक कामवासना का विचार आया और तुमने कहा--बुरा है, पाप है। दमन शुरू हो गया। तुमने नहीं भी कहा बुरा है, पाप है; तुमने ऐसे देखा कि मजबूरी में देख रहे हो कि न देखते तो अच्छा था। तुमने भगवान से कहा, भगवान, यह क्या दिखला रहा है! बस दमन शुरू हो गया। निर्णय तुमने लिया--अच्छा कहा, बुरा कहा; शिकायत की, पश्चात्ताप किया, अपराध का भाव अनुभव किया--किसी तरह का मूल्यांकन किया और दमन शुरू हो गया।
तुम ऐसे ही देखो, जैसे तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है। जैसे तुम वृक्ष में लगे फूलों को देखते हो, या आकाश में उड़ते बादलों को देखते हो, या राह से चलते लोगों को देखते हो; कोई प्रयोजन नहीं है, चुपचाप देखते हो; जैसे तुम्हारा कुछ लेन-देन नहीं है--निष्पक्ष, दूर खड़े, साक्षी-भाव से--तब वृत्तियां अपने पूरे रूप में उभरती हैं।
घबड़ा मत जाना, क्योंकि जन्मों-जन्मों दबाया है। जब वे पूरे रूप में उभरेंगी तो तुम्हें ऐसा लगेगा--क्या मैं पागल हुआ जा रहा हूं? यह क्या हो रहा है? क्या सब मेरा नीति-धर्म नष्ट हो जाएगा? क्या मेरा सब चरित्र टूट जाएगा, खंडित हो जाएगा? क्या मैंने इतनी मुश्किल से, कठिनाई से अपनी जो प्रतिष्ठा बनाई है, वह सब धूल-धूसरित हो जाएगी?
घबड़ाना मत। यही साहस है। इसी साहस को मैं तपश्चर्या कहता हूं। धूप में खड़े होने में कोई साहस नहीं है, नग्न बर्फ में खड़े होने में भी कोई साहस नहीं है। सब शरीर की कसरतें हैं, थोड़े अभ्यास से आ जाती हैं। बड़े से बड़ा साहस--मैं भीतर जैसा हूं, वैसा ही देख लेने में है। और उसी से रूपांतरण हो जाता है, उसी से क्रांति घट जाती है।
तुम जरा देखो। यहां तुम देखना शुरू करोगे, अचानक तुम पाओगे कि स्वप्न के रास्ते खाली होने लगे। क्योंकि जो-जो तुम जागने में देख लोगे, फिर तुम्हारी आत्मा को स्वप्न में दिखाने का कोई प्रयोजन न रहा। जो तुमने ही देख लिया, उसे दिखाने की क्या जरूरत रही? स्वप्न खाली हो जाएंगे।
और काश, तुम्हारी रात स्वप्नों से खाली हो जाए, तो समाधि हो जाएगी। पतंजलि ने कहा है, सुषुप्ति और समाधि में जरा सा ही भेद है--बड़ा जरा सा भेद है--वह भेद इतना ही है कि सुषुप्ति मूर्च्छित है और समाधि जाग्रत है। जब सब स्वप्न तिरोहित हो जाते हैं...
अभी तुमने खयाल किया--सुबह तुम उठ कर याद कर सकते हो, कोई स्वप्न आया; यह भी याद कर सकते हो कि रात, पूरी रात सपनों ही सपनों से भरी रही। तो तुम्हारे भीतर कोई होश तो है--जो सपने देखता है; जो सपनों को पहचानता है; जो सपनों की याद रखता है। अब तुम ऐसा सोचो कि सब सपने खो गए, तब तुम्हारा यह होश जो सपनों में अटक जाता था, सपनों को देखता था, अब समाधि को देखेगा। क्योंकि सपने तो रहे नहीं, रास्ते पर राहगीर तो रहे नहीं, सुनसान रास्ता रह गया; अब सुनसान रास्ता दिखाई पड़ेगा। सुबह जब तुम उठोगे, तो तुम कहोगे--सुषुप्ति देखी, स्वप्न नहीं देखा।
सुषुप्ति को देख लेना समाधि है।
रास्ता खाली था, भीड़ न थी। लोग थे ही नहीं देखने को, तो राह देखी। आकाश बादलों से न घिरा था, बदलियां थी ही नहीं; आकाश देख लिया। बदलियों के कारण आकाश पर पर्दा पड़ जाता है। सपनों के कारण सुषुप्ति पर पर्दा पड़ जाता है। और सुषुप्ति समाधि है।
रोज रात तुम वहीं पहुंचते हो, जहां बुद्ध पहुंचते हैं; रोज रात तुम वहीं पहुंचते हो, जहां शंकर जीते हैं। लेकिन तुम्हारे बीच और समाधि में बड़ी भीड़ है; समाधि और तुम्हारे बीच बड़ा मेला लगा है। और वह मेला तुमने ही जुटाया है। गलत ढंग से जीवन के साथ व्यवहार करने से तुम कूड़ा-करकट इकट्ठा करते जाते हो।
क्षण-क्षण निपटारा कर लो। जो सामने आए, उसे भरपूर देख लो, उसे पूरा-पूरा देख लो, उसमें जरा भी ना-नुच मत करना। फिर तो कोई प्रयोजन न रहा। सपने में इसीलिए आता था कि तुमने ठीक से न देखा दिन में, लौट-लौट आना पड़ा।
तुमने कभी खयाल किया, अगर किसी भी बात को तुम ठीक से भोग लो, तो उसकी याद आनी बंद हो जाती है। अगर किसी को भी तुम गौर से देख लो, तो छुटकारा हो जाता है। गौर से जी लो, तो फिर कोई राग-रंग बंधे नहीं रह जाते। अधूरे अनुभव अटके रह जाते हैं और मन की आकांक्षा उन्हें पूरे करने की होती है। तो जो-जो तुम अधूरा जीए हो, वह तुम्हारे पास इकट्ठा हो गया है, उसकी भीड़ इकट्ठी हो गई है। अब कृपा करो, ऐसा मत करो। और सपने में मत पूछो मुझसे कि कैसे उसको रोकें; सपने से इतना ही पहचानो कि जागरण में रोका है। जागरण में भी मत रोको।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जाओ और जो भी तुम्हारे मन में वासना उठे, उसे पूरा कर गुजरो; मैं यह नहीं कह रहा हूं। क्योंकि उस तरह तो तुम पूरा करने की चेष्टा भी कर लिए हो, वह भी पूरा नहीं हुआ है। जन्मों-जन्मों आदमी वही करता रहा है। क्रोध करने से कहीं क्रोध गया है? काम करने से कहीं काम गया है? लोभ करने से कहीं लोभ गया है?
यही द्वंद्व है। करो तो मजबूत होता है, क्योंकि अभ्यास बनता है। आज क्रोध किया, कल क्रोध किया, परसों भी क्रोध किया था, तो क्रोध की श्र्ृंखला मजबूत होती चली जाती है; अभ्यस्त क्रोधी हो जाते हो तुम। फिर जरा सी चिनगारी मिली कि क्रोध आदतवश उभर आता है। करो तो अभ्यास बनता है, दबाओ तो भीतर घाव बनते हैं।
दोनों के मध्य में मार्ग है--न तो करो, न दबाओ--सिर्फ देखो। यही साक्षी का सूत्र है--सिर्फ द्रष्टा बनो, कर्ता मत बनो।
दोनों हालत में तुम कुछ करते हो। अगर क्रोध आ गया, तो या तो तुम दूसरे पर क्रोध को फेंकते हो या अपने भीतर दबाते हो। दोनों गलत हैं। कामवासना उठी, तो या तो दूसरे पर उलीचते हो या अपने ही भीतर दबाते हो। दोनों गलत हैं। न तो उलीचो किसी पर। क्योंकि किसी ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है! और तुम्हारी वासना के द्वारा दूसरे पर उलीच कर तुम दूसरे को भी वासना के कीचड़-कबाड़ में घसीट रहे हो। उसकी वैसे ही समस्याएं कुछ कम न थीं, और आप मिल गए। वह अपनी ही उलझनों में उलझा था, और आपने और उलझा दिया। नहीं, उलीचो मत किसी पर। क्योंकि जिस पर भी तुम उलीचोगे, वह भी तुम पर वापस में उलीचेगा। आज तुम किसी पर वासना आरोपित करोगे, तो उसकी भी वासना है, वह तुम पर आरोपित करेगा।
इसीलिए तो वासना में बंधन मालूम पड़ता है। तुम जिसे बांधते हो, वह तुम्हें बांध लेता है; तुम जिसे भोगते हो, वह तुम्हें भोगने लगता है; तुम जिसे पकड़ते हो, वह तुम्हें पकड़ लेता है। किसी पर उलीचो मत--न काम, न क्रोध, न कुछ और। और अपने भीतर भी मत दबाओ; जब दूसरे पर इतनी कृपा की, तो अपने पर भी कृपा करो। तुमने भी तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? दबाओ भी मत।
और दोनों के मध्य में बड़ी बारीक, बड़ी सूक्ष्म यात्रा है। देखो! भरपूर देखो! क्योंकि देखने से किसी का कोई नुकसान नहीं हो रहा है। और जैसे-जैसे तुम देखोगे, तुम पाओगे--देखते-देखते ही एक जागरण आया। देखते-देखते ही होश उठा। और होश ही सब कुछ है।
माइले-दैरो-हरम तूने यह सोचा भी कभी
जिंदगी खुद ही इबादत है अगर होश रहे
माइले-दैरो-हरम...
ओ मंदिर और मस्जिद की तरफ झुकने वाले!
...तूने यह सोचा भी कभी
जिंदगी खुद ही इबादत है अगर होश रहे
फिर कोई और प्रार्थना नहीं, कोई पूजा नहीं, फिर कोई और ध्यान ही नहीं।
जिंदगी खुद ही इबादत है अगर होश रहे
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आपने कहा, कामना अनिवार्यतः दुख में ले जाती है। तो क्या पुण्य की कामना, धर्म की कामना, भगवान की कामना भी दुख में ही ले जाएगी?
कामना मात्र दुख में ले जाती है; इससे कुछ भी भेद नहीं पड़ता कि कामना किसकी है। कामना के विषय से कामना का स्वरूप नहीं बदलता। धन चाहो, तो भी चाह वही है; धर्म चाहो, तो भी चाह वही है; चाह का स्वरूप वही है। चाह का अर्थ है कि तुम जहां हो, जैसे हो, वहां तृप्त नहीं--धन चाहिए तो तृप्त होओगे; धर्म चाहिए तो तृप्त होओगे। चाह का अर्थ है: तुम असंतुष्ट हो, अतृप्त हो। चाह, असंतोष से उठी हुई आह है। फिर असंतोष किस बात का है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। असंतोष है; संतोष नहीं है। कामना तुमने किसकी की है, इससे क्या फर्क पड़ता है? कुछ लोग जमीन पर अच्छा मकान बना रहे हैं, कुछ लोग स्वर्ग में अच्छा मकान बना रहे हैं!
मैं एक दिन राह से निकल रहा था, एक महिला मेरे पास आई और उसने मुझे एक पैंफ्लेट दिया। पैंफ्लेट में एक बड़ा सुंदर भवन बना हुआ था--बगीचा, फूल, झरने बह रहे हैं--और ऊपर लिखा है: क्या आपको एक अच्छे बंगले की तलाश है? मैंने सोचा, यह क्या मामला है! उसको उलट कर देखा, तो वह बंगला यहां का नहीं है, वह ईसाई मिशनरियों का प्रचार था। स्वर्ग में--जहां चश्मे बह रहे हैं, फूल लगे हैं, वृक्ष हैं--सुंदर बंगले बने हैं! अंदर लिखा था कि यदि ऐसे भवन आपको स्वर्ग में चाहिए, तो सिवाय जीसस के और कोई मार्ग नहीं।
तुम स्वर्ग की भी कामना करोगे, तुम ही करोगे न? वह तुम्हारे ही मन का विस्तार होगा; तुम्हारी ही भाषा होगी; तुम्हारे ही रंग होंगे। तुम थोड़ा सोचो एक दिन बैठ कर कि स्वर्ग में तुम क्या-क्या चाहोगे। तुम जरा फेहरिस्त बनाओ। तुम बड़े हैरान होओगे, यह फेहरिस्त यहीं की है। रॉल्स रॉयस कार चाहोगे? क्या करोगे क्या? स्वर्ग में चाहोगे क्या? कौन सी फिल्म अभिनेत्री चाहोगे? ताजमहल चाहोगे वहां? थोड़ा फेहरिस्त बनाओ अपने स्वर्ग की। डरना मत, फाड़ देना; किसी को दिखाना थोड़े ही है, खुद ही बनाना है। लेकिन उससे यह जाहिर हो जाएगा कि तुम चाहोगे क्या।
अगर स्वर्ग देने को परमात्मा राजी हो और कहे कि लो, क्या मांगते हो--तुम क्या मांगोगे? वे मांगें बता देंगी कि तुम्हारा स्वर्ग तुम्हारे संसार का ही विस्तार है। थोड़ा साफ-सुथरा होगा यहां से, थोड़ा परिष्कृत होगा; यहां क्षणभंगुर है, वहां स्थायी होगा। मगर ये सब तो विस्तार के फासले हैं, इनमें कोई फर्क नहीं है। यहां अभिनेत्री थोड़े दिन में बूढ़ी हो जाएगी, वहां कभी न होगी। वहां कहते हैं, सोलह साल के बाद उम्र बढ़ती ही नहीं स्त्रियों की स्वर्ग में! सोलह पर ही रुक गई है! उर्वशी लाखों साल पहले भी सोलह की थी, अभी भी सोलह की है! तुम जब भी जाओगे, तभी सोलह की पाओगे।
इससे कुछ उर्वशी के संबंध में पता नहीं चलता, इससे मनुष्य की कामना का पता चलता है कि वह चाहता है स्त्री सोलह पर रुक जाए।
स्वर्ग में चश्मे बह रहे हैं शराब के! यहां पाबंदी लगाओ, क्या होगा? स्वर्ग में बोतलों में नहीं बिकती, झरने बह रहे हैं! मछलियों की तरह तैरो शराब में, जितना पीना हो पीयो, क्योंकि स्वर्ग में कोई पाबंदी हो सकती है? अगर वहां भी पाबंदी रही--नियम, विधि-विधान रहा और लाइसेंस लेना पड़ा--तो यह भी कोई स्वतंत्रता हुई, यह तो परतंत्रता ही रही। नहीं, वहां कोई पुलिसवाला भी खड़ा नहीं मिलता चौरस्ते पर।
स्वर्ग तुम्हारे ही सपनों का जाल है। तुम भगवान को भी चाहते हो--किसलिए? दुख के कारण? पीड़ा के कारण? अशांति के कारण? तो उसी कारण तो लोग धन को भी चाहते हैं; और उसी कारण तो लोग यश को भी चाहते हैं; और उसी कारण तो लोग पद को भी चाहते हैं। तो परमात्मा तुम्हारा समझो परम-पद हुआ। ऐसा तो कहते भी हैं तुम्हारे साधु-संन्यासी कि परमात्मा यानी परम-पद।
साधु-संन्यासियों की भाषा थोड़ी तुम समझो, तो तुम बड़े हैरान होओगे। उनकी भाषा का बड़ा सूक्ष्म विश्लेषण करना जरूरी है। वे कहते हैं, इस धन में क्या रखा है--आज छिन जाएगा, कल छिन जाएगा। अरे, उस धन को खोजो जो कभी न छिनेगा। लेकिन खोजो धन को ही।
तो यह तो बड़े मजे की बात हुई। जो इस धन को खोज रहे हैं, जो छिन जाएगा--ये भोगी, ये भ्रष्ट, ये पापी, ये नरक में पड़ेंगे; क्योंकि ये क्षणभंगुर धन को खोज रहे हैं। और जो शाश्वत धन को खोज रहे हैं--ये पुण्यात्मा, ये महात्मा! इन दोनों में फर्क क्या है?
इतना ही फर्क समझ में आता है कि क्षणभंगुर को खोजने वाला थोड़ा कम चालाक, शाश्वत को खोजने वाला ज्यादा होशियार, कुशल; ज्यादा बेईमान। जैसे छोटे बच्चे कंकड़-पत्थर बीन रहे हैं, तुम उनसे कहते हो--छोड़ो भी नासमझो, क्या कंकड़-पत्थर बीन रहे हो! अरे, अगर बीनना ही हो तो हीरे-जवाहरात। ये क्या कंकड़-पत्थर बीन रहे हो! तुम इतना ही बता रहे हो कि तुम जरा ज्यादा चालाक, तुम जरा सांसारिक हिसाब-किताब में ज्यादा होशियार हो गए हो; यह बच्चा अभी भोला-भाला है।
तुम जिनको सांसारिक कहते हो, उनको मैं देखता हूं तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासियों से ज्यादा भोले-भाले हैं। बस इतना ही फर्क है। तुम्हारे साधु-संन्यासी ज्यादा बेईमान, ज्यादा चालाक। शाश्वत, अमृत, अनंत की खोज चल रही है। कामना? कामना वही है।
जो मैं कह रहा हूं, वह बड़ी भिन्न बात है; जो शंकर कह रहे हैं, वह बड़ी भिन्न बात है; जो बुद्ध कह रहे हैं, वह बड़ी भिन्न बात है। वे तुमसे यह नहीं कह रहे हैं कि तुम सत्य की कामना करो, कि तुम परमात्मा की कामना करो। वे यह कह रहे हैं कि जब सब कामना छूट जाती है तो परमात्मा मिलता है।
यह बड़ी अलग बात है। जब सब कामना छूट जाती है तो परमात्मा मिलता है। इसलिए परमात्मा को पाने की कामना तो की ही नहीं जा सकती, क्योंकि तब तो वही बाधा हो जाएगी। जब सब कामना--बेशर्त रूप से सब कामना छूट जाती है--जब कामना नहीं रह जाती मन में, जब काम नहीं रह जाता, तब जो शेष बचता है वही राम है। इसलिए राम को कोई चाह नहीं सकता। चाह छोड़ सकता है, राम को पा सकता है, लेकिन राम को चाह नहीं सकता। चाहा कि भूल हो गई।
सौदागरी नहीं, ये इबादत खुदा की है
ऐ बेखबर, जजा की तमन्ना भी छोड़ दे
यह कोई सौदा नहीं है, यह कोई सौदागरी नहीं है, इबादत खुदा की है। ऐ बेखबर, ऐ बेहोश आदमी, जजा की तमन्ना भी छोड़ दे। इसके प्रतिकार में कुछ मिलेगा, यह आशा छोड़ दे। क्योंकि इसके प्रतिकार में कुछ मिले, प्रत्युत्तर में कुछ मिले, जजा की तमन्ना रहे, तो कुछ भी न मिलेगा। क्योंकि फिर तो तू परमात्मा को समझ ही न पाया।
कामना छूट जाने का परिणाम है परमात्मा। कामना छोड़ने से मिलता नहीं, मिल जाता है। इसलिए तुम पाने के लिए भी अगर इस तरह सब कामना छोड़ो...तुम यह भी कर सकते हो कि अच्छा, परमात्मा की भी कामना छोड़ देंगे; अगर इसी तरह मिलता है, तो यह कामना भी छोड़ देंगे, मगर पाकर रहेंगे। तो तुम्हें न मिलेगा; तो तुम चूक जाओगे। तुम समझे ही नहीं बात। तुम इसे आधार नहीं बना सकते दावे का; तुम दावेदार नहीं हो सकते। यह कोई सौदागरी नहीं है, इबादत है खुदा की।
इसे समझो। जैसे ही तुम्हारे भीतर कोई कामना नहीं रह जाती, तुम कहते हो--मैं तृप्त हूं, जैसा हूं; मुझे इंच भर भी अन्यथा नहीं चाहिए, रत्ती भर भी भिन्न नहीं चाहिए; यही होना पर्याप्त है; अहोभागी हूं। और तुम नाचते हो, गाते हो; क्योंकि जैसे हो, परमसुख है। कोई कामना न रही; तुम सम्राट हो गए, तुम भिखारी न रहे। इसी सम्राट से उस परम सम्राट का मिलन होता है। सम्राट से मिलना हो तो सम्राट हो जाना जरूरी है। समान ही समान से मिल पाता है।
अगर तुमने ईश्वर की भी कामना की, वह भी दुख में ले जाएगी। इसलिए तुम अपने मंदिर-मस्जिदों में अनेक बैठे फकीरों को दुखी पाओगे। तुम दूसरे कारण से दुखी हो कि धन नहीं मिला, यश नहीं मिला, पद नहीं मिला; वे दुखी हैं कि अभी परमात्मा नहीं मिला। मगर दुख जारी है। जहां कामना है, वहां विषाद होगा; क्योंकि कामना कोई भी पूरी नहीं होती; कामना का स्वभाव ही दुष्पूर है।
बुद्ध ने कहा है, तृष्णा दुष्पूर है। ऐसा नहीं है कि तुम्हारी सामर्थ्य की कमी है, इसलिए तुम उसे नहीं भर पाते; न भरना उसका स्वभाव है। तुम कितना ही कुछ करो, भरती नहीं। भर सकती नहीं। भरना उसने जाना ही नहीं। वह उसकी नियति नहीं है। जिस दिन कोई व्यक्ति कामना का यह दुष्पूर स्वभाव समझ लेता है, उस दिन वह परमात्मा को चाहने की कामना नहीं करता; वह सारी कामना को छोड़ देता है, गिरा देता है। उस गिरने के क्षण में ही वह अचानक पाता है, अरे! जिसे मैं खोजता था, वह घर में रहा! जिसे मैं तलाशता था, वह भीतर मौजूद है! मेरी कामना के अंधेपन के कारण उसे देख न पाया।
इसलिए शंकर कहते हैं कि वह प्रभु तेरे भीतर मौजूद है। जिस दिन भी तू सारी दौड़-धूप को छोड़ कर, आपाधापी को छोड़ कर, कामना को छोड़ कर अपने घर वापस लौट आएगा, अपने घर में बैठेगा--निश्चिंत, विश्राम में, अहोभाव में--कुछ पाना नहीं, कहीं जाना नहीं, उसी दिन अचानक तू पाएगा: एक नया संगीत भीतर बजने लगा। वह बज तो सदा से रहा था, लेकिन कामना के शोरगुल के कारण सुनाई न पड़ता था। वह बड़ी धीमी आवाज थी, वह बड़ी सूक्ष्म आवाज थी, अहर्निश उसका नाद था। लेकिन सुने कौन? तुम घर पर न थे और परमात्मा तुम्हारे घर में था।
तुम अपने घर कभी आते ही नहीं! तुम्हें फुरसत कहां घर लौटने की। इतना विस्तार है कामनाओं का--कभी एक के पीछे, कभी दूसरे के पीछे; तुम्हें फुरसत कहां है कि तुम अपने घर आओ और उसे देख लो जो तुम्हारे घर सदा से ही ठहरा हुआ है।
परमात्मा को खोजने कहीं जाना नहीं, अपने घर लौट आना है। वही है प्रत्याहार।
चौथा प्रश्न:
भगवान, यह प्रत्याहार तो असंभव प्रयोग मालूम होता है। गंगा का गंगोत्री में लौट जाना और वृक्ष का लौट कर पौधे और बीज में समाना क्या संभव है? और शंकर और आप भी यही साधने को कह रहे हैं!
गंगा का गंगोत्री में लौटना या वृक्ष का वापस बीज में समाना तुम्हें असंभव मालूम पड़ता है? यही रोज घट रहा है! बीज रोज फिर वृक्ष बन जाता है। वह पास लगे हुए गुलमोहर में लटके हुए बीज देखो--सारा वृक्ष बीज बन गया है। और गंगा रोज गंगोत्री लौटती है--चढ़ कर बादलों में, घटाओं में--फिर बरसती है हिमालय पर, फिर गंगोत्री में लौट आती है। यह रोज ही घट रहा है।
फिर तुम कहोगे, फिर करने की क्या बात है?
करने की बात इतनी है, इस घटती घटना को जाग कर देखना है। यह सोते-सोते घट रहा है। अनेक बार तुम अपने घर लौट आते हो, लेकिन तुम्हें होश नहीं है। तुम सरायों में ठहरने के इतने आदी हो गए हो कि तुम घर भी लौट आते हो तो उसे भी सराय समझते हो।
मेरे एक मित्र हैं, उनका धंधा ऐसा है कि उन्हें दिन-रात यात्रा करनी पड़ती है; महीने में चार-पांच दिन ही घर लौटते हैं। घर लौटते हैं तो उन्हें नींद नहीं आती, क्योंकि रेल की खड़बड़ में उनकी सोने की आदत हो गई है; जब तक वे ट्रेन में न सोएं, उन्हें नींद नहीं आती। वे मुझसे कहने लगे, बड़ी मुसीबत है। कोई बीस साल से यही काम करते हैं। तो जब तक शोरगुल न मचता हो, और हर घड़ी, आधा घड़ी के बाद फिर स्टेशन न आता हो, और फिर आवाजें और फिर धूम-धक्का--उन्हें नींद नहीं आती! तो मैंने उन्हें कहा, तुम एक काम करो, तुम रेलवे लाइन के पास क्यों नहीं मकान किराए से ले लेते? उन्होंने कहा, यह बात जंची; मैं बड़े-बड़े डाक्टरों के पास हो आया!
अब उन्होंने रेलवे लाइन के पास मकान ले लिया है। अब वे बड़े मजे में हैं। अब वे घर में भी सो जाते हैं, क्योंकि फिर ट्रेन निकली, हर दस-पंद्रह मिनट में ट्रेन निकल रही है। वे बड़े प्रसन्न हैं।
तुम्हें कठिनाई लगेगी उनकी सोचने में, क्योंकि तुम जब पहली दफा ट्रेन में जाओगे तो नींद न आएगी। आदत! सभी आदतें बांधने वाली हो जाती हैं।
तुम अपने घर के बाहर इतने रहे हो कि जब तुम घर भी आते हो, तो तुम घर नहीं आते; पहचान ही नहीं होती; प्रतिभिज्ञा नहीं होती। लगता है, यह भी कोई सराय है--ठहरे रात, सुबह चल पड़े।
गंगोत्री में रोज गंगा लौटती है, और तुम पूछते हो कठिन! तुम अपने मूल स्रोत पर बने ही हो, और तुम पूछते हो कठिन! तुम अपने मूल स्रोत से दूर जाओगे भी कैसे? जाओगे भी कहां? खयालों में गए होओगे, असलियत में नहीं जा सकते। ऐसे ही, जैसे रात तुम पूना में सो जाओ और सपना देखो कलकत्ते का। तो क्या सुबह उठ कर फिर ट्रेन पकड़ कर पूना वापस लौटना पड़ेगा? सपने में कलकत्ते में थे, तो सुबह उठ कर क्या भागोगे कि अब ट्रेन पकड़ें, घर जाएं! न, सुबह तुम जाग कर पाओगे कि पूना में ही सो रहे हो। अपने से दूर जाना सिर्फ एक खयाल है, सिर्फ एक विचार है।
अगर तुम मुझसे पूछो, और तुम्हें अड़चन न हो, तो मैं कहना चाहूंगा: गंगा गंगोत्री से कभी गई ही नहीं; बीज कभी वृक्ष बना ही नहीं--एक सपना देखा है कि वृक्ष हो गए; एक सपना देखा है कि गंगोत्री से गंगा निकल आई, सागर की तरफ चली। क्योंकि अपने स्वभाव से बाहर जाने का उपाय कहां? तुम मुझसे पूछते हो कि स्वभाव में लौटना बड़ा कठिन है! मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि स्वभाव से बाहर जाना कठिन ही नहीं, असंभव है; कोई कभी गया नहीं। तुम इसी क्षण बुद्ध हो, इसी क्षण जिन हो, इसी क्षण परमात्मा हो। लेकिन तुम्हारे खयाल! तुम्हारे खयाल कुछ और हैं। तुम कहते हो, यह बात जंचती नहीं; मैं तो पान की दुकान करता हूं--कैसे बुद्ध हो सकता हूं?
पान की दुकान करने से कुछ बाधा है? कोई बोधिवृक्ष के नीचे बैठने से ही बुद्ध होता है? पान की दुकान पर बैठे भी तुम बुद्ध हो, मैं कह रहा हूं। क्योंकि तुम कुछ भी करो--पान की दुकान करो, कि बूचड़खाना चलाओ--तुम कुछ भी करो, तुम बुद्धत्व के बाहर जा नहीं सकते।
मछली तो शायद कभी सागर के बाहर आ भी जाए, तुम परमात्मा के बाहर कैसे जाओगे? क्योंकि सागर की कोई सीमा है, किनारा है; परमात्मा का तो कोई किनारा नहीं और कोई सीमा नहीं। तो यह तुम्हारा खयाल है कि तुम पान की दुकान कर रहे हो--करो मजे से, मगर इससे तुम यह मत सोच लेना कि तुम बुद्ध न रहे। बस इतना ही होश आ जाए, तो गंगा लौट गई गंगोत्री। होश का आ जाना...
हजार उपद्रव आएंगे रास्ते पर। संसार रोकेगा तुम्हें पहले--दुकान रोकेगी, धन रोकेगा, पद रोकेगा। किसी तरह इनसे छूटे तो मंदिर-मस्जिद रोकेंगे, वेद-पुराण रोकेंगे, गीता-कुरान रोकेंगे। अगर तुम सबसे बच कर निकल आए, तो ही तुम आ पाओगे।
दैरो-हरम भी मंजिले-जानां में आए थे
उस प्यारे की खोज में मंदिर और मस्जिद भी बीच में आ गए थे।
पर शुक्र है कि बढ़ गए दामन बचा के हम
पर हम अपना दामन बचाए और बढ़ गए।
बहुत कुछ आएगा राह में, बस जरा सा दामन बचा कर--उसी को मैं होश कह रहा हूं। शंकर ने सावधानी कहा, महा सावधानी कहा। जागे हुए! फिर तुम्हें कोई भी न रोक पाएगा। दुकान बेचारी बहुत कमजोर है; मंदिर-मस्जिद भी न रोक पाएंगे। किताबें, बही-खाते ना-कुछ हैं; वेद-कुरान भी न रोक पाएंगे।
दैरो-हरम भी मंजिले-जानां में आए थे
उस प्यारे के रास्ते पर बहुत कुछ बाधाएं आईं। मंदिर और मस्जिद तक बाधाएं बन कर खड़े हो गए।
पर शुक्र है कि बढ़ गए दामन बचा के हम
पांचवां प्रश्न:
भगवान, आप जो ध्यान प्रयोग कराते हैं, उसमें योग और भक्ति का समावेश है। तो क्या प्रत्याहार के लिए दोनों आवश्यक हैं?
जीवन दो ढंग का हो सकता है: एक जीवन होता है जो केवल आवश्यक के आधार पर निर्मित होता है; और एक जीवन होता है जो अतिशय के आधार पर निर्मित होता है।
मोर को नाचते हुए देखो। क्या पंखों में जो इंद्रधनुषों के रंगों का फैलाव है वह आवश्यक है? पंख अगर काट दो तो मोर के जीवन में क्या कोई कठिनाई और अड़चन आ जाएगी? मोर फिर भी जी लेगा। क्योंकि पंखों से न तो कोई जीवन की धारा का संबंध है, न भोजन का संबंध है, न बच्चे पैदा करने में कोई बाधा पड़ेगी। पंख तो अतिरेक हैं; वे तो जरूरत से ज्यादा की खबर हैं, जरूरत की खबर नहीं हैं।
ये पक्षी गीत गा रहे हैं, इनके ओंठ सी दो, कुछ हर्ज हो जाएगा? क्या फर्क पड़ेगा? पक्षी फिर भी जी लेंगे। गीत बंद हो जाएंगे, क्योंकि गीत आवश्यक थोड़े ही थे--बाढ़ थी; अतिरेक था।
तुम नाचते हो, मत नाचो; दुकान करो, घर आ जाओ। गीत गाते हो, मत गाओ। कोई बाधा आ जाएगी? प्रेम करते हो, मत करो; दुकान करना काफी है। प्रेम न करोगे तो क्या अड़चन आ जाएगी? क्या मर जाओगे? नहीं जो प्रेम करते, वे भी जी रहे हैं; नहीं जो गीत गाते, वे भी जी रहे हैं। बल्कि शायद थोड़ी ज्यादा ही अच्छी तरह से जी रहे हैं; क्योंकि वह उपद्रव भी बचा; उतनी शक्ति बचती है, वह भी धन कमाने में लगा देते हैं। लेकिन तुम्हारे जीवन की गरिमा खो जाएगी।
आवश्यक से जीने का मामला कंजूस का है। मैं तुम्हें यहां आवश्यक से जीना नहीं सिखा रहा हूं, मैं तुम्हें यहां आवश्यक के पार जाना सिखा रहा हूं। ऐसे जीओ अतिरेक से। मैं भी जानता हूं, अकेले ज्ञान से भी परमात्मा मिल जाता है, कोई भक्ति की जरूरत नहीं है। अकेली भक्ति से भी परमात्मा मिल जाता है, कोई ज्ञान की जरूरत नहीं है। लेकिन तब परमात्मा पाना भी तुम्हारा बड़ा सौदे जैसा हिसाब हुआ। बिलकुल जरूरी-जरूरी चलते हो। दो पैसे से जहां काम चल जाए, वहां तीन पैसा भी खर्च करने में घबड़ाते हो। बड़ी कृपणता हुई, परमात्मा के रास्ते पर भी तुम कंजूस रहे।
मैं तुम्हें जरा दिलफेंक होना सिखा रहा हूं। काम तो चल जाएगा; मुझे भी पता है कि लोग ज्ञान से भी पहुंच गए हैं, भक्ति की कोई जरूरत न थी। कोई मीरा जैसे नाचे तंबूरा लेकर, इसकी कोई जरूरत न थी। लेकिन फिर भी मैं कहूंगा: अगर तुम नाच सको, तो परमात्मा के एक-दूसरे ही रूप का तुम्हारे सामने आविर्भाव होगा। वह गणित का नहीं है, वह काव्य का है। मिलने को तो मिल जाएगा परमात्मा--ज्ञान से भी, शुष्कता से भी, गणित से भी। लेकिन परमात्मा के भी पास गए और आवश्यकता से गए! वह संबंध भी जरूरत का संबंध रहा! उस संबंध में भी उछले न, कूदे न, बहे न, पिघले न! उस संबंध में भी भोग की परम घड़ी न आई! वह भी व्यवसाय रहा!
भक्ति से भी लोग पहुंच गए हैं, कोई ज्ञान जरूरी नहीं है। लेकिन पहुंच तो गए, लेकिन जहां पहुंचे हैं उसका बोध? वह आवश्यक नहीं है पहुंचने के लिए, छोड़ा जा सकता है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, जब अतिशय मिलता हो तो आवश्यक के लिए क्यों चेष्टा करनी? जब अतिशय मिल सकता हो और जब जीवन परम विलास बन सकता हो, परम भोग बन सकता हो, तो क्या कंजूस की तरह चलना? क्या कदम फूंक-फूंक कर रखना? जहां नाचना हो, वहां कदम फूंक-फूंक कर नहीं रखे जाते। और कदम फूंक-फूंक कर रखने वाला आदमी नाचने में कुशल नहीं हो सकता।
तुम कब अपनी कृपणता तोड़ोगे? तुम कब बहोगे निर्बाध? क्योंकि मेरे देखे जीवन का जो परम सौभाग्य है, वह अतिशय में है। देखो मोर को--पंखों पर परमात्मा ने इतने रंग भरे हैं! इतनी मेहनत की है! अगर कोई वैज्ञानिक मोर को बनाए, तो एक बात पक्की समझना, पंख नहीं होंगे। बिलकुल फिजूल हैं, क्या जरूरत है इनकी! भोजन की नलिका होगी, पेट पचाने को होगा, जननेंद्रिय होगी, क्योंकि बच्चे पैदा करने होंगे--पंख नहीं होंगे। बस काव्य भर नहीं होगा, गीत भर नहीं होगा, नाच भर नहीं होगा। इन्हीं नासमझों की वजह से तो जिंदगी में से सब रंग खो गया; क्योंकि वे हर जगह बता रहे हैं कि क्या जरूरी है, बस उतना ही करो; जरूरी से इंच भर आगे मत बढ़ो।
और तुम प्रकृति को देखो: परमात्मा जरूरत से बिलकुल राजी नहीं है; जरूरी पर बिलकुल नहीं रुकता, गैर-जरूरी पर बहा जाता है। पक्षी गीत गा रहे हैं, कोई आवश्यक नहीं है; वृक्षों में फूल खिल रहे हैं, जरा भी आवश्यक नहीं है; फूलों से गंध बह रही है, जरा भी आवश्यक नहीं है; नदियां भागी जाती हैं कलकल नाद करती सागर की तरफ; सागर अपना तुमुल घोष करता रहता है, टकराता रहता है तटों से--जरा भी जरूरी नहीं है। क्या जरूरी है? थोड़ा सोचो तुम: अगर परमात्मा भी कहीं कोई अर्थशास्त्री होता, कोई इकोनामिस्ट होता और दुनिया को जरूरत से बनाता, तो यह दुनिया रहने योग्य न होती, सिर्फ आत्महत्या करने योग्य होती; यहां रह कर भी क्या करते, बस जरूरत ही जरूरत होती।
ज्ञान से भी पहुंच जाओगे, भक्ति से भी पहुंच जाओगे। लेकिन ज्ञान, भक्ति से, दोनों से जिस ढंग से पहुंचोगे, वह पहुंचना और है, वह मजा और है। फिर तुम्हारी मर्जी। तुम्हें अगर छोटे-छोटे आंगन में रहने का रस लग गया है, खुला आकाश डराता है, तो ठीक है, छोटे घर-घूलों में रहो। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, खुला आकाश भी इतने में ही उपलब्ध है, इतने ही श्रम से विराट उपलब्ध है। तुम छोटे और जरूरत की बात क्यों करते हो?
तुम्हारे ज्ञान को इतना बढ़ने दो कि भक्ति हो जाए। तुम्हारी भक्ति को इतना गहराने दो कि ज्ञान हो जाए। तुम दोनों छोर छू लो, ताकि कुछ अछूता न रह जाए। इस जगत में जो भी मिल सकता था, तुम पूरे को ही पा लो, तो ही धन्यता है।
छठवां प्रश्न:
भगवान, आपको रोज सुन रहा हूं। समझ में भी बात उतरती है; आंखों से आंसू टपकते हैं; भूचाल की भांति हृदय डोलता है--और लगता है कि आत्मज्ञान का दिन है यह, लेकिन वह आता नहीं। यद्यपि दूसरे दिन के प्रवचन में फिर यही अनुभव दोहरता है। पता नहीं, इस धूप-छांव का क्या प्रयोजन है?
कहीं कोई धूप-छांव नहीं है, सिर्फ तुम्हारे मन की भ्रांति है। हम राजी नहीं होते, कुछ भी मिले। मन ज्यादा की मांग कर देता है। और मन तो सदा ही ज्यादा की मांग कर सकता है। क्या तुम ऐसी कोई घड़ी सोच सकते हो तुम्हारे जीवन में, जिससे ज्यादा की तुम कल्पना न कर सको?
रोज मिलता है, क्योंकि आत्मज्ञान ही मैं बांट रहा हूं। रोज तुम पर बरसता है। तुम्हारी आंखें ठीक कहती हैं, क्योंकि आंसू बहाती हैं। वे ज्यादा पहचान लेती हैं; तुम्हारी बुद्धि से ज्यादा समझदार हैं। और तुम्हारा हृदय ठीक खबर देता है, क्योंकि डोलने लगता है। मगर तुम्हारी खोपड़ी मजबूत है, ठोस है। वह खोपड़ी सोचे जाती है कि हां, कुछ तो हो रहा है, लेकिन अभी पूरा नहीं हुआ, अभी आत्मज्ञान तो हुआ ही नहीं।
आत्मज्ञान है क्या? कब होगा, जब तुम मानोगे कि अब हुआ! क्या हो जाएगा, जब तुम मानोगे कि अब हुआ! कोई कसौटी है तुम्हारे पास?
नहीं, मन तुम्हें धोखा दे रहा है। आंसुओं की सुनो, हृदय की गुनो, विचार तो सदा ही तुम्हें धोखा देगा। विचार तो कहेगा, हां हुआ, पर अभी पूरा नहीं हुआ।
क्या है पूरा? कब होगा पूरा? तुम अगर परमात्मा के सामने भी पहुंच गए, तुम कहोगे--हां पाया, लेकिन अभी पूरा नहीं पाया। क्योंकि परमात्मा में भी तुम कुछ न कुछ विस्तार तो कर ही सकते हो--कि नाक थोड़ी लंबी होती; कि और तो सब ठीक लगते हैं, जरा कान कंधों को छूते, जैसे बुद्ध-महावीर के छूते हैं; कान जरा छोटे हैं; कि अजानबाहु नहीं है। क्या तुम सोच सकते हो कि परमात्मा अगर तुम्हें मिल जाए, तो तुम एकदम राजी हो जाओगे कि पूरा पाया?
मन कभी कहता ही नहीं कि पूरा पाया। मन की आदत ही नहीं है। वह मन का हिसाब नहीं है। मन कहता है, हां मिला, मगर अभी और मिल सकता है। यह मन तो तुम्हें सब जगह भटकाएगा। इसे छोड़ो, आंसुओं का भरोसा करो। श्रद्धा करो आंसुओं पर, वे ज्यादा सरल हैं, ज्यादा स्वाभाविक हैं, ज्यादा आंतरिक हैं, ज्यादा हार्दिक हैं, ज्यादा प्राथमिक हैं। भरोसा करो हृदय की धड़कन का, क्योंकि वहीं नृत्य पहली दफा उतरता है। और बुद्धि? बुद्धि आदमी की है, सभ्यता की है, समाज की है; शास्त्रों से आई है, उधार है। आंसू तुम्हारे हैं, बुद्धि तुम्हारी नहीं। बुद्धि तुम्हें किसी ने दी है, आंसू किसी ने नहीं--तुम लेकर आए थे। हृदय तुम्हारा है, हृदय में उठते कंपन तुम्हारे हैं, हृदय में उठते संवेदन तुम्हारे हैं। वे तुम्हें किसी ने दिए नहीं। यद्यपि दूसरों ने उनको छीन लिया है; सब तरह के अवरोध खड़े कर दिए हैं।
और अगर तुम हृदय और आंखों की सुन सको, अगर तुम अपने प्राणों की सुन सको, तो कौन फिक्र करता है कल की! और कौन चिंता करता है आत्मज्ञान की! आनंद का यह क्षण तुम्हें अहोभागी बना जाएगा। तुम धन्यवाद से भरोगे--एक गहरी इबादत, एक गहरी प्रार्थना तुम्हारे भीतर उतर आएगी। तुम परमात्मा को धन्यवाद दोगे कि मेरी पात्रता से ज्यादा मुझे तूने दिया। आज दिया, जब कि कोई भरोसा ही न था। फिर धूप-छांव का खेल मालूम न पड़ेगा। आज का निपटारा आज हो गया। कल जब फिर देगा, फिर धन्यवाद दे देंगे।
और आज और कल को तौलना भी मत, क्योंकि सब तुलना मन की है, बुद्धि की है। जीवन में प्रत्येक क्षण अनूठा है। कल फिर सुबह होगी, कल फिर उसकी वर्षा होगी, कल फिर धन्यवाद दे देना। और दो दिनों को कभी तौलना मत, और दो क्षणों को कभी तौलना मत; क्योंकि एक साथ दो क्षण तो मिलते ही नहीं, एक ही क्षण मिलता है। सब तौल मानसिक है। अस्तित्व में तो कोई तौल संभव नहीं है। और अगर ऐसे तुम बढ़ते जाओ--धन्यभागी, अहोभागी, कृतार्थ, गहन कृतज्ञता से भरे--तो आत्मज्ञान कहीं कोई ऐसी चीज थोड़े ही है कि एकदम अचानक तुम्हें मिल जाएगी। ऐसे ही ऐसे बढ़ता जाता है; ऐसे ही ऐसे गहन होता जाता है। आत्मज्ञान कोई वस्तु थोड़े ही है, प्रक्रिया है। आत्मज्ञान कोई चीज थोड़े ही है कि कहीं रखी है, एकदम झपट्टा मार दोगे तो तुम्हें मिल जाएगी। आत्मज्ञान तुम्हारा रूपांतरण है, तुम्हारा विकास है।
और आत्मज्ञान का कोई अंत नहीं है; इसलिए तो हम आत्मा को अनंत कहते हैं--बढ़ता ही जाता है; सदा बढ़ता ही जाता है। कभी कोई ऐसी घड़ी नहीं आती, जब तुम कह दो--बस अब चुक गया। अनंत है। परमात्मा के जितने दर्शन करोगे, उतना ही पाओगे--बड़ा होता जा रहा है, विस्तीर्ण होता जा रहा है; नये-नये द्वार खुलते जाते हैं; नये फूल खिलते जाते हैं; हजार-हजार कमल हैं उसकी चेतना के; एक-एक कमल में हजार-हजार पंखुड़ियां हैं; एक-एक पंखुड़ी के हजार-हजार रंग हैं--तुम देखते जाओगे, तुम उतरते जाओगे, रोज बढ़ता जाएगा।
न पीछे का हिसाब रखना; क्योंकि उस हिसाब में तुम्हारी बुद्धि भर गई, तो जो अभी मिल रहा था, उससे चूक जाओगे। न आगे की चिंता करना; क्योंकि जिसने आज दिया है, वह कल भी देगा; जिसने आज दिया है, वह कल क्यों न देगा? कल की भी फिक्र मत करना। बीते कल को भी जाने दो; आने वाले कल को भी मत सोचो; आज काफी है। और अगर तुम्हारे मन में यह भाव गहन हो जाए: आज काफी है, यह क्षण पर्याप्त है; तो यही क्षण भजन का हो गया।
भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम् मूढ़मते।
आज इतना ही।