QUESTION & ANSWER
Bahutere Hain Ghat (बहुतेरे हैं घाट) 01
First Discourse from the series of 4 discourses - Bahutere Hain Ghat (बहुतेरे हैं घाट) by Osho. These discourses were given during MAR 21-24 1981.
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पहला प्रश्न:
भगवान,आज आपके संबोधि दिवस उत्सव पर एक नयी प्रवचनमाला प्रारंभ हो रही है: बहुतेरे हैं घाट।भगवान, संत पलटू के इस सूत्र को हमें समझाने की अनुकंपा करें: जैसे नदी एक है, बहुतेरे हैं घाट।
आनंद दिव्या, मनुष्य का मन मनुष्य के भीतर भेद का सूत्र है। जब तक मन है तब तक भेद है। मन एक नहीं, अनेक है। मन के पार गए कि अनेक के पार गए। जैसे ही मन छूटा, विचार छूटे, वैसे ही भेद गया, द्वैत गया, दुई गई, दुविधा गई। फिर जो शेष रह जाता है वह अभिव्यक्ति योग्य भी नहीं है। क्योंकि अभिव्यक्ति भी विचार में करनी होगी। विचार में आते ही फिर खंडित हो जाएगा। मन के पार अखंड का साम्राज्य है। मन के पार ‘मैं’ नहीं है, ‘तू’ नहीं है। मन के पार हिंदू नहीं है, मुसलमान नहीं है, ईसाई नहीं है। मन के पार अमृत है, भगवत्ता है, सत्य है। और उसका स्वाद एक है।
फिर कैसे कोई उस अ-मनी दशा तक पहुंचता है, यह बात और। जितने मन हैं उतने मार्ग हो सकते हैं। क्योंकि जो जहां है वहीं से तो यात्रा शुरू करेगा। और इसलिए हर यात्रा अलग होगी। बुद्ध अपने ढंग से पहुंचेंगे, महावीर अपने ढंग से पहुंचेंगे, जीसस अपने ढंग से, जरथुस्त्र अपने ढंग से।
लेकिन यह ढंग, यह शैली, यह रास्ता तो छूट जाएगा मंजिल के आ जाने पर। रास्ते तो वहीं तक हैं जब तक मंजिल नहीं आ गई। सीढ़ियां वहीं तक हैं जब तक मंदिर का द्वार नहीं आ गया। और जैसे ही मंजिल आती है, रास्ता भी मिट जाता है, राहगीर भी मिट जाता है। न पथ है वहां, न पथिक है वहां। जैसे नदी सागर में खो जाए।
यूं खोती नहीं, यूं सागर हो जाती है। एक तरफ से खोती है--नदी की भांति खो जाती है। और यह अच्छा है कि नदी की भांति खो जाए। नदी सीमित है, बंधी है, किनारों में आबद्ध है। दूसरी तरफ से नदी सागर हो जाती है। यह बड़ी उपलब्धि है। खोया कुछ भी नहीं; या खोईं केवल जंजीरें, खोया केवल कारागृह, खोई सीमा और पाया असीम! दांव पर तो कुछ भी न लगाया और मिल गई सारी संपदा जीवन की, सत्य की; मिल गया सारा साम्राज्य। नदी खोकर सागर हो जाती है। मगर खोकर ही सागर होती है। और हर नदी अलग ढंग से पहुंचेगी। गंगा अपने ढंग से और सिंधु अपने ढंग से और ब्रह्मपुत्र अपने ढंग से। लेकिन सब सागर में पहुंच जाती हैं। और सागर का स्वाद एक है।
पलटू यही कह रहे हैं: जैसे नदी एक है, बहुतेरे हैं घाट।
नदी को पार करना हो तो अलग-अलग घाटों से नदी पार की जा सकती है। अलग-अलग नावों में बैठा जा सकता है। अलग-अलग मांझी हो सकते हैं। अलग होंगी पतवारें। लेकिन उस पार पहुंच कर सब अलगपन मिट जाएगा। फिर कौन पूछता है--‘किस नाव से आए? कौन था मांझी? नाव का बनाने वाला कारीगर कौन था? नाव इस लकड़ी की बनी थी या उस लकड़ी की बनी थी?’ उस पार पहुंचे कि इस पार का सब भूला। ये घाट, ये नदी, ये पतवार, ये मांझी, ये सब उस पार उतरते ही विस्मृत हो जाते हैं। और उस पार ही चलना है।
लेकिन लोग हैं पागल। वे नावों से बंध जाते हैं, घाटों से बंध जाते हैं। और जो घाट से बंध गया वह पार तो कैसे होगा? जिसने घाट से ही मोह बना लिया, जिसने घाट के साथ आसक्ति बना ली, जिसने घाट के साथ अपने नेह को लगा लिया, उसने खूंटा गड़ा लिया। अब यह छोड़ेगा नहीं। यह छोड़ नहीं सकता। इससे छुड़ाओगे भी तो यह नाराज होगा कि मेरा घाट मुझसे छुड़ाते हो, मेरा धर्म मुझसे छुड़ाते हो, मेरा शास्त्र मुझसे छुड़ाते हो! जिसे यह शास्त्र समझ रहा है, वही इसकी मौत बन गई। और जिसे यह घाट समझ रहा है, वह अगर पार न ले जाए तो घाट न हुआ, कब्र हो गई।
यूं ही मंदिर कब्र बन गए हैं। यूं ही मस्जिदें मजार हो गई हैं। यूं ही शास्त्र मनुष्य की छाती पर बोझ हो गए हैं। सुंदर-सुंदर प्यारे-प्यारे शब्द मनुष्य के हाथ में जंजीरें बन गए हैं, पैरों में बेड़ियां बन गए हैं। यह मनुष्य का कारागृह बड़ी सुंदर ईंटों से बना है, बड़ी प्यारी ईंटों से बना है। इसे छोड़ने का मन नहीं होता। और इसीलिए हर आदमी कारागृह में है। फिर कारागृह अलग-अलग हो सकते हैं। फिर चर्च हो, कि गुरुद्वारा हो, कि मंदिर हो, कि शिवालय हो, क्या फर्क पड़ता है? तुम कहां बंधे हो, इससे भेद नहीं।
मैंने सुना है, एक रात कुछ लोगों ने ज्यादा शराब पी ली। पूर्णिमा की रात थी, बड़ी सुंदर रात थी। चांदी बरसती थी। और वे मस्त नशे में झूम रहे थे। मस्ती में रात का सौंदर्य और भी हजार गुना हो गया था। एक पियक्कड़ ने कहा कि चलें आज, नौका-विहार को चलें। ऐसी प्यारी रात! ऐसा चांद न कभी देखा, न कभी सुना! यह रात सोने जैसी नहीं। यह रात तो आज नाव में विहार करने जैसी है। और भी दीवानों को जंचा। वे सभी गए नदी पर। मांझी अपनी नावें बांध कर घर जा चुके थे। उन्होंने सुंदर सी नाव चुनी, उस नाव में सवार हुए, पतवारें उठाईं, खेना शुरू किया। और रात देर तक नाव को खेते रहे, खेते रहे।
फिर भोर होने के करीब आ गई। ठंडी हवाएं चलीं। ठंडी हवाओं ने थोड़ा सा नशा कम किया। उन पियक्कड़ों में से एक ने कहा, ‘न मालूम कितनी दूर निकल आए होंगे! रात भर नाव खेई है। अब लौटने का समय हो गया। कोई उतरे और जरा देख ले कि हम किस दिशा में चले आए हैं। क्योंकि हम तो नशे में थे। हमें पता नहीं हम कहां पहुंच गए हैं, किस दिशा में आ गए हैं। अब घर वापस लौटना है। इसलिए कोई उतरे किनारे पर, जरा देखे कि हम कहां हैं। अगर समझ में न आ सके तो पूछे किसी से कि हम उत्तर चले आए, कि पूरब चले आए, कि पश्चिम चले आए, कि हम अंततः कहां आ गए हैं।
एक आदमी उतरा और उतर कर खिलखिला कर हंसने लगा। यूं खिलखिलाने लगा कि बाकी लोग समझे कि पागल हो गए हो! उसकी खिलखिलाहट ने उनका नशा और भी उतार दिया। पूछें उससे कि बात क्या है हंसने की? वह कुछ कहे न। उसे हंसी ऐसी आ रही है कि अपने पेट को पकड़े। दूसरा उतरा; वह भी हंसने लगा। तीसरा उतरा; वह भी हंसने लगा। वे सभी उतर आए और उस घाट पर भीड़ लग गई। क्योंकि वे सभी हंस रहे थे। भीड़ ने पूछा कि बात क्या है? बामुश्किल एक ने कहा, ‘बात यह है कि रात हम नौका-विहार को निकले थे। बड़ी प्यारी रात थी। रात भर हमने पतवार चलाई। हम थक गए, हम पसीना-पसीना हो गए। और अब उतर कर हमने देखा कि हम नाव को किनारे से खोलना भूल ही गए थे। यह रात भर की यात्रा बिलकुल व्यर्थ गई; हम जहां हैं, यहीं थे, रात भर यहीं रहे। पतवारें जोर से चलाते थे तो नाव हिलती थी। हम सोचते थे यात्रा हो रही है।’
ऐसे ही लोग बंधे हैं, होश में नहीं हैं, मूर्च्छा में हैं। और मूर्च्छा में तुम जिसको भी पकड़ लोगे वही तुम्हारे लिए खूंटा हो जाएगा। उसके आस-पास ही तुम चक्कर काटते रहोगे।
लोग मंदिरों में परिक्रमा कर रहे हैं--खूंटों के चक्कर काट रहे हैं। लोग काबा जा रहे हैं, काशी जा रहे हैं, गंगा जा रहे हैं, कैलाश जा रहे हैं, गिरनार जा रहे हैं--खूंटों की पूजा चल रही है। किसी को इस बात की फिकर नहीं कि सदियां बीत गईं, नाव चलाते-चलाते थक गए, मगर पहुंचे कहां? पहुंचने की सुध-बुध ही नहीं है।
घाट खतरनाक हो सकते हैं। मूर्च्छित के हाथ में कोई भी चीज खतरनाक हो जाती है। और फिर हर घाट वाला यह दावा करता है कि मेरा घाट पुराना है, कि मेरा घाट सोने से मढ़ा है, कि मेरा ही घाट सच है, और सब घाट झूठ हैं, जो मेरे घाट से उतरेगा वही पहुंचेगा।
बड़ा विवाद मचा हुआ है। सदियों से लोग शास्त्रार्थ कर रहे हैं--क्या सत्य है? अंधे विचार कर रहे हैं कि हाथी कैसा है? कोई कह रहा है--जिसने सूंड छुई है--कि यूं है। कोई कह रहा है--जिसने हाथी के कान छुए हैं--कि सूप जैसा है। कोई कह रहा है--जिसने हाथी के पैर छुए हैं--कि मंदिर के खंभों जैसा है। भारी विवाद है अंधों में। भारी शास्त्रार्थ है। एक-दूसरे को गलत सिद्ध करने में लगे हैं। लेकिन किसी को होश नहीं कि आंख ही न हो अपने पास, दृष्टि ही न हो, तो दर्शन क्या होगा?
ये दर्शनशास्त्र, जिनमें लोग उलझे हैं, अंधों की ईजादें हैं। आंख वाले चुप हो जाते हैं। चुप हो जाते हैं सत्य के संबंध में, परमात्मा के संबंध में। जरूर बोलते हैं तो बोलते हैं उन विधियों के संबंध में, जिनसे परमात्मा तक पहुंचा जा सकता है। उनका बोलना इशारा है; चांद-तारों की तरफ उठाई हुई अंगुलियां हैं। लेकिन अंगुलियां चांद-तारे नहीं हैं। और अंगुलियों को ही जो पकड़ ले वह नासमझ है।
पलटू ठीक कहते हैं: जैसे नदी एक है, बहुतेरे हैं घाट।
यह अस्तित्व तो एक है। इसमें कोई मूसा की तरह, और कोई ईसा की तरह, और कोई कबीर की तरह, और कोई नानक की तरह--अलग-अलग रास्तों से, अलग-अलग ढंग और विधियों से सत्य तक पहुंच गया है। लेकिन विधियों को पकड़ने से कोई नहीं पहुंचता; विधियों पर चलने से पहुंचता है। नावों को ढोने से कोई नहीं पहुंचता; नाव में सवारी करनी होती है, यात्रा करनी होती है।
किनारों पर बैठ कर विवाद करने से कोई भी सार नहीं है। किनारे छोड़ो! छोड़ो नाव को, पतवारें उठाओ! वह जो दूर किनारा है, वह जो अभी दिखाई भी नहीं पड़ता है, अभी जिसको देखने की आंख भी नहीं है, जिसे पहचानने की क्षमता भी नहीं है--वह जो दूर किनारा है, वही मंजिल है। वह जो अभी अदृश्य है, वही मंजिल है। और मजा यह है कि वह कितने ही दूर हो, साथ ही वह तुम्हारे भीतर भी है।
यूं समझो कि तुम अपने से बाहर हो, इसलिए जो पास से पास है वह दूर हो गया है। तुम बाहर ही बाहर भटक रहे हो। और तुम अपने से दूर ही दूर निकलते जा रहे हो। आदमी भी कैसा पागल है! गौरीशंकर पर चढ़ेगा; पाने को वहां कुछ भी नहीं।
जब एडमंड हिलेरी से पूछा गया कि क्यों, किसलिए तुमने यह भयंकर यात्रा की? यह खतरनाक यात्रा करने का मूल कारण क्या है? क्योंकि एडमंड हिलेरी के गौरीशंकर पर पहुंचने के पहले न मालूम कितने यात्री-दल चढ़े, खो गए; न मालूम कितने यात्री गिरे और उनकी लाशों का भी पता न चला। यह क्रम कोई सत्तर साल से चल रहा था। गौरीशंकर की यात्रा में अनेकों जानें गईं। और पाने को वहां कुछ भी नहीं था, यह तय है। जब एडमंड हिलेरी से पूछा गया तो उसने कंधे बिचकाए। उसने कहा, ‘यह भी कोई सवाल है! गौरीशंकर है, यही काफी चुनौती है। अब तक अनचढ़ा है, यही काफी चुनौती है। अब तक दुर्गम रहा है, यही काफी चुनौती है। आदमी को चढ़ना ही होगा।’ पाने का जैसे कोई सवाल नहीं!
अहंकार अजीब तरह की चुनौतियां स्वीकार कर लेता है: गौरीशंकर पर चढ़ना है, चांद पर जाना है। अब मंगल-ग्रह पर जाने की बात चल रही है। और यह बात कुछ रुकेगी नहीं। यह बात आगे बढ़ेगी। अभी ग्रहों पर, फिर तारों पर पहुंचना होगा। और फिर अनंत विस्तार है तारों का। यूं आदमी अपने से दूर निकलता जाता है।
किनारा दूसरा कहीं बाहर नहीं है। ये बहुतेरे जो घाट हैं, ये इसलिए बहुत हैं कि तुम अलग-अलग बाहर की यात्राओं पर निकल गए हो। तुम अपने से ही बहुत दूर चले गए हो। तुम्हें अपनी ही खबर नहीं रही--कहां छोड़ आए, किस जंगल में अपने को भूल आए हो, कहां तुम खो गए हो--इसका तुम्हें होश नहीं। तुम्हारी नजरें किसी और चीज पर लगी हैं। किसी की धन पर, किसी की पद पर, किसी की परमात्मा पर, किसी की स्वर्ग पर, किसी की मोक्ष पर। लेकिन नजर बाहर अटकी है; वहां पहुंचना है। और मामला कुछ और है: वहां तुम हो; यहां पहुंचना है। दूर तुम जा चुके हो, पास आना है। क्रमशः, आहिस्ता-आहिस्ता, उस बिंदु पर लौट आना है जो हमारा केंद्र है। उस पर आते ही सारे राज खुल जाते हैं; सारे रहस्य जो आच्छादित हैं, अनाच्छादित हो जाते हैं; जो ढके हैं, उघड़ जाते हैं।
उपनिषद के ऋषि ने प्रार्थना की है: ‘हे परमात्मा! सोने से ढके हुए इस पात्र को तू उघाड़ दे!’ प्रार्थना प्यारी है। ‘सोने से ढके हुए इस पात्र को तू उघाड़ दे!’ यह सोने से ढका है। चूंकि सोने से ढका है, इसलिए हम ढक्कन को ही पकड़ लेते हैं। ऐसे प्यारे ढक्कन को कौन छोड़े! जोर से पकड़ लेते हैं कि कोई और न पकड़ ले। मगर रहस्य इसी सोने में ढका है। और जब तक कोई इस सोने को न छोड़े।
यह ‘सोना’ शब्द भी बड़ा प्यारा है। एक अर्थ तो ‘स्वर्ण’ और एक अर्थ ‘नींद’। ये नींद से भरे हुए लोग ही स्वर्ण को पकड़े बैठे हैं। यही ढकना है--यह नींद, यह बेहोशी, यह मूर्च्छा। जाग जाओ! अब जागोगे कैसे? बहुतेरे घाट हो सकते हैं।
महावीर एक तरह से जागे, बुद्ध दूसरी तरह से जागे। और स्वभावतः, जब कोई व्यक्ति जागता है, तो जिस विधि से जागता है उसी की बात करता है। और किसी की बात करे भी तो कैसे करे? जो मार्ग परिचित है उसकी ही बात करेगा। जिस रास्ते से चल कर वह आया है, उसी रास्ते से उसकी पहचान है। जिस नाव पर बैठ कर उसने यात्रा की है, उसी नाव से तुम्हें परिचित करा सकता है। लेकिन इससे तुम यह मत समझ लेना कि बस एक ही नाव है। वही समझ लिया गया है।
ईसाई सोचते हैं: जो जीसस की नाव में नहीं बैठेगा वह नहीं पहुंचेगा।
मगर उनको यह भी खयाल नहीं आता कि जीसस खुद कैसे पहुंचे? तब तक तो जीसस की नाव नहीं थी। यह तो सीधी-साफ बात है। जीसस तो ईसाई नहीं थे। उन्होंने ‘ईसाई’ शब्द भी नहीं सुना था। कभी सपने में भी यह शब्द और इसकी अनुगूंज उन्हें न आई होगी। जब जीसस पहुंच सके बिना ईसाई हुए तो दूसरे क्यों न पहुंच सकेंगे?
बौद्ध सोचते हैं: बस उनका ही रास्ता एकमात्र रास्ता है। लेकिन बुद्ध को तो इस रास्ते का कोई भी पता न था। बुद्ध तो टटोलते-टटोलते, खोजते-खोजते, अंधेरे में किसी तरह इस द्वार को पाए थे। इस द्वार का नाम बौद्ध द्वार है, इसकी उन्हें कभी कल्पना भी नहीं थी। वे खुद भी बिना बौद्ध हुए पहुंचे थे।
और यही सत्य सबके संबंध में है। जो भी पहुंचा है, किसी और के रास्ते पर चल कर नहीं पहुंचा है। उसे अपने ही घाट से पहुंचना है। प्रत्येक को अपने ही घाट से पहुंचना है। प्रत्येक को अपनी ही नाव बनानी है। स्वयं की चेतना की ही नाव गढ़नी है। चलना है और चल कर ही अपना रास्ता बनाना है। बने-बनाए रास्ते नहीं हैं। काश, बने-बनाए रास्ते होते! सीमेंट और कोलतार के बने हुए राजपथ होते! तो सत्य तक पहुंचाने वाली बसें चलतीं, रेलगाड़ियां होतीं, पटरियों पर लोग दौड़ते। फिर कोई अड़चन न होती। अड़चन यही है कि कोई बना हुआ रास्ता नहीं है।
बुद्ध के वचन स्मरणीय हैं। बुद्ध ने कहा है: जैसे पक्षी आकाश में उड़ते हैं तो उनके कोई पग-चिह्न नहीं छूट जाते। पक्षी उड़ता जरूर है, लेकिन कोई रास्ता नहीं बनता, आकाश खाली का खाली रहता है, कि कोई दूसरा पक्षी ठीक उसी पक्षी के पग-चिह्नों पर चल कर आकाश में नहीं उड़ सकता। पग-चिह्न ही नहीं बनते।
यूं ही सत्य का आकाश भी है। वहां कोई चरण-चिह्न नहीं बनते। लेकिन लोग चरण-चिह्नों को पूज रहे हैं। लोगों ने गढ़ लिए हैं चरण-चिह्न। समय की रेत पर जरूर चरण-चिह्न बनते हैं; लेकिन सत्य तो समयातीत है, कालातीत है, वहां कोई चरण-चिह्न नहीं बनते। वहां तो प्रत्येक को चलना पड़ता है और क्रमशः अपने भीतर की जागृति से ही अपने रास्ते को निर्मित करना होता है।
अनुकरण नहीं--स्वयं होना जरूरी है। निजता की उदघोषणा जरूरी है।
अब तक यही सिखाया गया है सदियों से कि पकड़ लो कोई घाट, कि पकड़ लो कोई नाव, कि पकड़ लो कोई शास्त्र, कि बंधा हुआ कोई सिद्धांत, कि रटे-रटाए सदियों के सड़े-गले उत्तर दोहराए जाओ।
जिंदगी सदा नये सवाल उठाती है और तुम्हारे जवाब हमेशा पुराने होते हैं। इसलिए जिंदगी और तुम्हारा तालमेल नहीं हो पाता, संगीत नहीं बन पाता। जिंदगी कुछ पूछती है, तुम कुछ जवाब देते हो। जिंदगी पूरब की पूछती है, तुम पश्चिम का जवाब देते हो। जिंदगी कभी वही दुबारा नहीं पूछती। और तुम्हारे जवाब वही हैं जो तुम्हारे बाप-दादों ने दिए थे, उनके बाप-दादों ने दिए थे। मजा यह है कि जितना पुराना जवाब हो, लोग समझते हैं उतना ही ज्यादा ठीक होगा। जितना पुराना हो उतना ही ज्यादा गलत होगा! जवाब नया चाहिए, नितनूतन चाहिए! जवाब तुम्हारी स्व-स्फुरणा से पैदा होना चाहिए। जवाब तुम्हारे बोध से आना चाहिए।
लेकिन सदियों से तुम्हें बुद्धूपन सिखाया जा रहा है, मूढ़ता पिलाई जा रही है, अंधविश्वास तुम्हारी खोपड़ी में भरे जा रहे हैं। और तब यह दुर्गति मनुष्यता की हो गई है। इस दुर्गति में तुम्हारे तथाकथित महात्माओं का हाथ है। इस दुर्गति में तुम्हारे धर्मगुरुओं का हाथ है। इस दुर्गति में उन सारे लोगों का हाथ है, जिनकी चाहे नीयत अच्छी हो, इरादे नेक हों, मगर जिनकी समझ कुछ भी नहीं। अंधे आदमी की नीयत कितनी ही अच्छी हो, और वह तुम्हारा हाथ पकड़ कर रास्ता दिखाने लगे, तो नानक ने कहा है: ‘अंधा अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत।’ नीयत बड़ी अच्छी थी। मार्ग-द्रष्टा बन रहा था। इरादे बुरे न थे। इरादों पर कोई शक नहीं है मुझे। लेकिन आंख ही न हो बेचारे के पास तो इरादे क्या करेंगे?
आंख वालों ने सदा यही कहा है: अप्प दीपो भव! अपने दीये खुद बनो। आंख वालों ने तुम्हें स्वतंत्रता दी है, निजता दी है। आंख वालों ने कहा है: तुम्हारे भीतर ज्योति छिपी है, जरा तलाशो, जरा निखारो! आंख वालों ने कहा है: क्या तुम बाहर की शराबें पी रहे हो? तुम्हारे भीतर शराबों की शराब है, जिसे एक बार पी लिया तो आदमी को ऐसी मदमस्ती आ जाती है जो कभी नहीं उतरती; और ऐसी मदमस्ती कि जो बेहोशी भी नहीं होती; जो बेहोशी भी होती है और साथ ही साथ होश भी होती है। मस्ती से भरा हुआ होश--या होश से भरी हुई मस्ती।
मय भी है, मीना भी है, महफिल भी है और शाम भी
पर इंतजार में तेरे खाली रहा ये जाम भी।
है वस्ल का वादा तेरा, आ जा सहर करीब है
जागी हुई हैं मस्तियां सोई हुई है शाम भी।
कासिद भी न आया इधर, न बात ही पहुंची उधर
दोनों ही कशमकश में हैं हसरत भी और पयाम भी।
न दम मेरा निकल सका, न तू ही हमनवा बना यादों में
तेरी जल गए शायर भी और कलाम भी।
बेजार क्यूं ‘खलिश’ है तू माहौल रूठा देख कर
माना खिजां में घिर गए साकी भी और जाम भी।
मय भी है, मीना भी है, महफिल भी है और शाम भी
पर इंतजार में तेरे खाली रहा ये जाम भी।
किसका इंतजार कर रहे हो? कोई आने वाला नहीं। किसका इंतजार कर रहे हो? जिसे आना था वह तुम्हारे भीतर मौजूद है। किसकी प्रतीक्षा में बैठे हो? जो आना था आ ही गया है--तुम्हारे साथ ही आया है। जिसे तुम खोज रहे हो वह खोजने वाले में छिपा है। इसे उससे कहीं और खोजा नहीं जा सकता। जो अपने में डूबेगा, जो अपने में उतरेगा, जो अपने में ठहरेगा, वही उसे पाने में समर्थ होता है।
हां, जो पा लेता है, बता भी नहीं सकता कि क्या पाया। गूंगे का गुड़ हो जाता है। कहना भी चाहे तो कह नहीं सकता। कहना चाहा है। जिसने पाया है उसने कहना चाहा है। मगर बात अनकही ही रह गई। कोई शास्त्र नहीं कह पाया। कोई शास्त्र कभी कह भी नहीं पाएगा। यह असंभव है। क्योंकि जो निशब्द में अनुभव होता है, शब्द उसे कैसे प्रकट करेंगे? जो मौन में पाया जाता है उसे भाषा में कैसे अनुवाद किया जा सकता है? इसीलिए सत्संग का मूल्य है।
सत्संग का अर्थ इतना ही है कि जिसे मिला हो, जो पहुंच गया हो, उसके पास बैठने की कला; उसके पास चुपचाप मौजूद होने का ढंग, शैली; उसकी आंखों में झांकने की कला। उसके पास, उसकी उपस्थिति में कुछ घट सकता है। घटेगा तो तुम्हारे भीतर। लेकिन उसकी उपस्थिति, जो तुम्हारे भीतर सोया है उसे जगाने के लिए बहाना बन सकती है।
तुमने देखा होगा बहुत बार कि अगर दो-चार आदमी उदास बैठे हों और तुम हंसते, गीत गुनगुनाते भी उनके पास जाओ तो उदास हो जाओगे। उन चार उदास आदमियों की उदासी तुम्हारी हंसी को सोख लेगी। जैसे स्याही सोखता न स्याहीसोख, ऐसे उनकी उदासी तुम्हारी हंसी को सोख लेगी। तुम अचानक पाओगे तुम्हारे गीत उड़ गए। तुम अचानक पाओगे तुम्हारा आनंद कहीं तिरोहित हो गया। तुम अचानक पाओगे घटा छा गई। सूरज अभी-अभी निकला था और अब अंधेरा हो गया। क्या हुआ? उन चार लोगों की मौजूदगी ने तुम्हारे भीतर कुछ किया। उनकी उदासी ने तुम्हारे भीतर की सोई हुई उदासी को झकझोर दिया।
जो घटना उदासी में घटती है, वैसी ही घटना हंसी-खुशी में भी घटती है। तुम उदास हो और चार मित्र आ जाएं, हंसी-खुशी की बात चल पड़े, मौज-बहार की बात होने लगे--तुम भूल जाते हो अपनी उदासी। तुम भी हंस पड़ते हो। तुम भी गीत में सम्मिलित हो जाते हो। अगर वे चारों नाचने लगें तो तुम्हारे पैरों में भी थिरक आ जाती है, पुलक आ जाती है।
तुमने देखा, कोई नर्तक नाचता हो, तो तुम्हें चाहे नाच न भी आता हो तो भी तुम्हारे पैरों में कोई चीज गतिमान हो उठती है। तुम्हें चाहे संगीत, तुम्हें चाहे लय और ताल का कोई बोध न हो, फिर भी तुम्हारे हाथ, कुर्सी पर ही सही, थाप देने लगते हैं।
यूं ही सत्संग में घटित होता है। जिसने पाया है, तुम उसे तो प्रभावित नहीं कर सकते। करोड़ों लोग भी उसके पास उदास बैठे रहें, तो भी जिसने पाया है, जिसने जीवन के अनुभव को जीया है, जिसने चखा है, जो उतर गया घाटों के पार और पहुंच गया वहां जहां पहुंचना है, तो करोड़ों उदास लोग भी उसके आनंद को खंडित नहीं कर सकते। उसकी मस्ती उससे छीनी नहीं जा सकती। लेकिन एक व्यक्ति भी करोड़ों लोगों के भीतर आनंद के स्वर छेड़ सकता है।
यह बात कही तो नहीं जा सकती, मगर फिर भी निशब्द में संवादित हो जाती है। मौन में ही झरती है।
मुमकिन नहीं कि बज्मे-तरब फिर सजा सकूं।
अब ये भी है बहुत कि तुम्हें याद आ सकूं।।
ये क्या तिलिस्म है कि तेरी जल्वागाह से।
नजदीक आ सकूं न कहीं दूर जा सकूं।।
जौके-निगाह और बहारों के दर्मियां।
पर्दे गिरे हैं वो कि न जिनको उठा सकूं।।
किस तरह कर सकोगे बहारों को मुतमइन।
अहले-चमन, जो मैं भी चमन में न आ सकूं।।
तेरी हसीं फिजा में, मेरे ऐ नये वतन।
ऐसा भी है कोई, जिसे अपना बना सकूं।।
‘आजाद’ साजे-दिल पे हैं रक्सां के जमजमे।
खुद सुन सकूं मगर न किसी को सुना सकूं।।
ऐसा भी गीत है जो खुद तो सुना जाता है--खुद सुन सकूं मगर न किसी को सुना सकूं--नहीं सुनाया जा सकता, मगर फिर भी मौन में संवादित होता है। एक ऐसा भी संगीत है जो वीणा पर नहीं बजाया जाता; जिसके लिए किसी साज की कोई जरूरत नहीं है। एक ऐसा भी संगीत है जो आत्मा में बजता है, और जो भी मौन है, जो भी तैयार है उसे अंगीकार करने को, जो भी उसके स्वागत के लिए उत्सुक है, जो भी उसे पी जाने को राजी है, उसके भीतर भी बज उठता है। बात हृदय से हृदय तक हो जाती है; कही नहीं जाती, सुनी नहीं जाती।
पलटू का सूत्र प्यारा है: बहुतेरे हैं घाट। इसलिए लड़ना मत, झगड़ना मत, विवाद में न पड़ना, तर्क के ऊहापोह में न उलझना। मत फिकर करना कि क्या ठीक है और क्या गलत। तुम्हारी प्रीति को जो रुच जाए, तुम्हारे प्रेम को जो भा जाए, उस पर चल पड़ना। विवाद अटका लेता है, उलझा लेता है--इसी घाट पर। और विवाद तुम्हारे मन को इतने विरोधाभासी विचारों से भर देता है कि चलना मुश्किल हो जाता है। क्या ठीक है?
लोग मुझसे पूछते हैं कि ‘हम कैसे चल पड़ें जब तक तय न हो जाए कि क्या ठीक है?’ यह तय कैसे होगा कि क्या ठीक है? इसको तय करने का कोई उपाय नहीं। यह तो अनुभव से ही निर्णीत होगा। यह तो अंत में तय होगा, प्रथम तय नहीं हो सकता।
मगर उनकी बात भी सोचने जैसी तो है। सभी का सवाल वही है--कैसे चल पड़ें जब तक तय न हो? और जब तक चल न पड़ोगे, कभी तय न होगा। तो स्वभावतः जिन्होंने सोच रखा है तय हो जाएगा, तर्क से सिद्ध हो जाएगा तभी चलेंगे, वे कभी नहीं चलेंगे। वे यहीं अटके रहेंगे। वे विवाद में ही पड़े रहेंगे।
विवाद और विवाद पैदा करता है। विवाद धुआं पैदा करता है। आंखें और मुश्किल से देखने में वैसे ही देखने में असमर्थ थीं, और भी असमर्थ हो जाती हैं। सत्य विवाद की बात नहीं, अनुभव की बात है।
इसलिए किसी भी घाट से उतर जाओ और किसी भी नाव से उतर जाओ, निर्णय अंत में होगा। और यह बेहतर है कि चाहे भटकना पड़े तो भटक जाओ, मगर घाट पर मत रुके रहो। क्योंकि भटकने वाला भी सीखेगा। अगर आज नाव गलत गई, अगर आज गलत यात्रा में गया, आज गलत दिशा में गया, तो कल ठीक दिशा में जा सकता है। आदमी भूलों से सीखता है। लेकिन जो भूल करने से भी डरते हैं उनके जीवन में तो सीख कभी पैदा नहीं होती। जो इतने होशियार हैं कि जब सब तरह से तय हो जाएगा, सौ प्रतिशत निर्णय हो जाएगा तभी चलेंगे, वे कभी नहीं चल पाएंगे।
चलने के लिए साहस चाहिए। और चलने के लिए तर्क साहस नहीं देता। तर्क बहुत कायर है। तर्क बहुत नपुंसक है। चलने के लिए प्रेम चाहिए। चलने के लिए प्रीति के सिवा और कोई उपाय नहीं। कुछ लोग बुद्ध के प्रेम में पड़ गए, इसलिए चल पड़े; इसलिए नहीं कि बुद्ध के तर्क से सिद्ध हुआ कि वे जो कहते हैं वह सही है। कुछ लोग लाओत्सु के प्रेम में पड़ गए और चल पड़े। चल पड़े तो पहुंचे।
हृदय की सुनो। और हृदय की भाषा और है; वह तर्क की भाषा नहीं है, वह प्रेम की भाषा है। बुद्धि को जरा बाद दो, एक तरफ हटा कर रखो। बुद्धि सिर्फ विवाद पैदा करती है, इसलिए उसे बाद दो।
बुद्धि को थोड़ा हटाओ और थोड़े प्रेम को जगने दो। प्रेम में दो पत्ते भी ऊग आएं तो तुम्हारे जीवन में क्रांति सुनिश्चित है। प्रेम के दो पत्ते काफी हैं विचार के बहुत ऊहापोह के मुकाबले। विचार के पहाड़ भी किसी काम नहीं आते। सिर्फ उनके नीचे लोग दब जाते हैं और मर जाते हैं।
पलटू यह कह रहे हैं कि मान लो बहुतेरे हैं घाट। मत विवाद करो। जो जिस घाट से जाना चाहे, जाने दो। तुम्हें जो प्रीतिकर लगे उस पर चल पड़ो। यह नदी एक है। हमेशा यात्रा का ध्यान करो--चलना है। चलने वाले पहुंचते हैं। और अगर भटकते हैं तो भी पहुंच जाते हैं, क्योंकि हर भटकन सिखावन बनती है।
इस सूत्र को याद रखो: इसके पहले कि कोई सही द्वार पर दस्तक दे, हजारों गलत द्वारों पर दस्तक देनी पड़ती है। क्योंकि हजार द्वारों में एक ही द्वार सच्चा द्वार है। मगर दस्तक ही न दोगे तो नौ सौ निन्यानबे जो गलत हैं उनको छोड़ने का क्या उपाय तुम्हारे पास है? क्या मार्ग तुम्हारे पास है? दस्तक दो! दस्तक तय कर देगी--‘यह द्वार नहीं है, दीवाल है। आगे बढ़ो।’ यूं ही भूल कर-कर के, चूक कर-कर के आदमी का निशाना अचूक हो जाता है। भूल करते-करते आदमी सीख जाता है। और इसके सिवा कभी कोई दूसरा मार्ग नहीं रहा है।
मेरे संन्यासियों से लोग पूछते हैं कि क्या बात है, क्यूं संन्यासी हो गए हो? और मेरे संन्यासी को अड़चन स्वाभाविक है--पुरानी अड़चन है, सदा की अड़चन है--वह जवाब नहीं दे पाता, या जो भी जवाब देता है उसको खुद लगता है कि वह जवाब नहीं है। चाहे किसी तरह समझा-बुझा दे, मगर खुद उसके प्राणों में यह बात साफ होती है कि जो मैंने जवाब दिया उसमें कुछ कमी है।
जवाब दिया ही नहीं जा सकता। यह मामला प्रेम का है, यह प्रीति का है। यह मामला पागलपन का है, परवानों का है। अब परवाना क्या जवाब दे कि शमा पर क्यों जल जाता है? और कौन समझेगा उसके जवाब को? सिर्फ थोड़े से दूसरे जो परवाने हैं वे समझ पाएंगे। मगर उनको समझाने की कोई जरूरत नहीं। कोई और तो समझेगा नहीं। और तो उसे पागल ही कहेंगे।
जिसे सत्य को खोजना है उसे भीड़ के द्वारा अपमानित होने के लिए तैयार रहना चाहिए। भीड़ उसकी निंदा करेगी, भीड़ विरोध करेगी, भीड़ इनकार करेगी, भीड़ उपेक्षा करेगी। भीड़ उसे पागल कहेगी। भीड़ सब तरह से उसके मार्ग में रुकावटें डालेगी। लेकिन दीवाने को कोई कभी रोक नहीं पाया है। सच तो यह है, जितना उसे रोकने की कोशिश की जाती है, उसके भीतर उतना ही बल आ जाता है। वह हर राह के पत्थर को सीढ़ी बना लेता है। दीवाने विवाद नहीं करते। दीवाने तो निर्विवाद जीते हैं। और जो निर्विवाद जीते हैं उनकी मंजिल दूर नहीं। उनकी मंजिल आ ही गई!
एक ही कदम में यात्रा पूरी हो सकती है; बस साहस की बात है। एक क्षण में निर्वाण का अमृत तुम पर बरस सकता है; बस प्रेम से भरी छाती चाहिए। इसलिए जिसको जो घाट प्यारा हो, कहना: जाओ, चलो, नाव में बैठो, यात्रा करो। और मुझे जो प्रीतिकर है उस पर चलने दो।
पलटू विवाद को काटने के लिए यह कह रहे हैं। पलटू पांडित्य को काटने के लिए यह वचन कह रहे हैं: जैसे नदी एक है, बहुतेरे हैं घाट। यह सूत्र प्यारा है और सभी साधकों को स्मरण रखने योग्य है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान,दीवारों से बातें करना अच्छा लगता हैहम भी पागल हो जाएंगे ऐसा लगता हैआंखों को भी ले डूबा इस दिल का पागलपनआते-जाते जो मिलता है तुम सा लगता हैहम भी पागल हो जाएंगे ऐसा लगता हैकिसको पत्थर मारूं ऐ दिल कौन पराया हैशीशमहल में एक-एक चेहरा अपना लगता हैहम भी पागल हो जाएंगे ऐसा लगता हैदीवारों से बातें करना अच्छा लगता है
वीणा भारती, दीवालों से बातें करना आ जाए तो ध्यान आ गया। दीवालों से ज्यादा देर बातें चल नहीं सकतीं। क्योंकि दीवालें तो कुछ भी न कहेंगी। दीवालें तो कोई उत्तर न देंगी। दीवालें तो कोई प्रश्न न उठाएंगी। न आएगा उत्तर, न आएगा प्रश्न, कोई कब तक दीवालों से बातें कर सकता है!
बोधिधर्म के संबंध में यह प्रसिद्ध है कि वह नौ साल तक दीवाल के सामने बैठा देखता रहा। और दीवाल को देखते-देखते ही परम संबोधि को उपलब्ध हुआ। बहुतेरे हैं घाट! अब यह तुमने कभी सोचा भी नहीं होगा कि दीवाल को देखते-देखते भी कोई परम संबोधि को उपलब्ध हो सकता है। मगर यह बात तो साफ मालूम पड़ती है कि नौ साल तक अगर कोई दीवाल को ही देखेगा तो बात कब तक चलाओगे! अकेले ही अकेले कब तक खींचोगे! एकालाप रहेगा, वार्तालाप तो हो नहीं सकता। दीवाल तो पहले से ही संबोधि को उपलब्ध है। दीवाल तो कहेगी: ‘तुम्हारी मर्जी, बकना है बको। हम तो पहुंच चुके!’ कब तक तुम एकालाप करोगे? दीवाल तो हां-हूं भी न करेगी। कम से कम हां-हूं भी करे, तो भी चर्चा जारी रहे। दीवाल तो बस चुप ही रहेगी। और कोरी दीवाल!
जरूर शुरू-शुरू में तुम अपने सपने उस दीवाल पर आरोपित करोगे। दीवाल का परदा बना लोगे। अपने चित्त की फिल्म को दीवाल पर फैलाओगे। अपने कचरे को दीवाल पर फेंकोगे। मगर कब तक? आखिर वही फिल्म बार-बार देखते-देखते थक भी जाओगे, ऊब भी जाओगे। और जल्दी ही यह समझ में आ जाएगा कि दीवाल तो चुप है, मैं खुद ही बकवास किए जा रहा हूं। और सार क्या? दीवाल सिर भी तो नहीं हिलाती। न कोई प्रशस्ति, न कोई प्रशंसा। यह भी तो नहीं कहती कि क्या प्यारी बात कही! न ताली बजाती। किसी तरह का सहारा नहीं देगी दीवाल।
नौ साल तक बोधिधर्म दीवाल को देखता रहा, वीणा! और देखते-देखते दीवाल जैसा ही कोरा हो गया। जैसी दीवाल चुप थी, ऐसा ही चुप हो गया। सत्संग हो गया। दीवाल से मिल गया वह, जो बड़े से बड़े पंडित से न मिलता। दीवाल से पा लिया उसे जो शास्त्रों में नहीं है।
सिर्फ सूफियों के पास एक किताब है, जिसमें कुछ भी नहीं लिखा है; वह कोरी है। कोई एक हजार साल पुरानी किताब है। और जब पहली दफा वह किताब पाई गई, तो कथा है कि जिस सूफी फकीर के पास वह किताब पाई गई वह जीवन भर उसे छिपाए रहा। वह किसी को भी, अपने प्यारे से प्यारे शिष्य को भी, उस किताब को देखने नहीं देता था। उसने उस किताब को ठीक से पोटली में बांध कर, अपने साथ ही रखता था। नहाने भी जाता था तो किताब अपने साथ ही ले जाता था। रात सोता था तो तकिए के नीचे रख कर सोता था। क्योंकि सब शिष्यों की नजर उस किताब पर थी--उस किताब में राज क्या है! बड़ी आकांक्षा थी कि एक दफा देख लें। सब द्वार-दरवाजे बंद करके उस किताब को पढ़ता था। शिष्यों को शक-शुबहा होता था, झांकते भी थे। आखिर शिष्य ही थे! कुतूहल, जिज्ञासा। छप्पर पर चढ़ जाते, संधों में से देखते कि पढ़ रहा है। है कोई राज की बात! कभी किसी के सामने न खोलता।
जब मरा यह फकीर तो उसकी अंत्येष्टि करने की फिकर तो शिष्यों ने बाद में की, सबसे पहले तकिए के नीचे से किताब निकाली। जैसे इसी की प्रतीक्षा कर रहे थे कि कब तुम विदा होओ और हम देखें! और जो पाया तो भौचक्क रह गए। किताब खाली थी। किताब में सिर्फ कोरे कागज थे, कुछ लिखा ही न था। तब से एक हजार साल बीत गए। गुरुओं से शिष्यों को वह किताब दी जाती रही है। कुछ भी नहीं लिखा है। एक शब्द नहीं लिखा है। शुरू से लेकर अंत तक बिलकुल खाली है; दीवाल ही है।
बोधिधर्म ज्यादा होशियार था। क्या ढोना! दीवाल हर जगह मौजूद है; कहीं भी बैठ रहे, बस दीवाल पर नजर रखी। तुमने मंदिरों को भी कचरा कर लिया है; उसने दीवालों को मंदिर बना लिया था।
वीणा, मत फिकर इसकी कर कि दीवालों से बातें करना अच्छा लगता है। और किससे बातें करेगी? आदमियों से बातें करना मतलब करीब-करीब विक्षिप्त लोगों से बातें करना है; जिन्हें कुछ पता नहीं, उनसे बातें करना है। यूं तो लोग बातों के घर हैं। ईश्वर के संबंध में कहो तो वे बताने को राजी हैं। मोक्ष के संबंध में कहो तो बताने को राजी हैं। जिनकी उन्हें कोई सपने में भी खबर नहीं है, उस संबंध में भी बताने का राजी हैं। पूछो भर। पूछने की भी जरूरत नहीं। जो असली बक्काड़ हैं, न भी पूछो तो गर्दन पकड़ लेंगे।
एक छोटा बच्चा अपने मित्र को कह रहा था कि मेरी मां गजब की है! बस जरा सा निमित्त भर मिल जाए, फिर घंटों तक रुकती ही नहीं। फिर बात में से बात, बात में से बात निकालती ही चली जाती है। वह तो यह कहो कि पिताजी को दफ्तर जाना पड़ता है, स्नान भी करना पड़ता है, सो वे किसी तरह भाग निकलते हैं। नहीं तो उसकी बात का अंत ही न आए।
दूसरे लड़के ने कहा, यह कुछ भी नहीं। मेरी मां को निमित्त वगैरह की कोई जरूरत ही नहीं। उसने तो देखा कि शुरू कर देती है। यही नहीं, एक दिन पिताजी चुप बैठे थे। तो उसने कहा, ‘चुप क्यों बैठे हो?’ और शुरू! ‘तुम्हें क्या लकड़बग्घा मार गया है? ऐसे चुप बैठे हो जैसे मैं मर ही गई!’ कोई निमित्त की जरूरत नहीं।
इन लोगों से वीणा, बात भी क्या करेगी? इनसे बात करेगी तो जरूर पागल हो जाएगी। दीवालों ने तो कभी किसी को पागल नहीं किया।
तू कहती है--
‘दीवारों से बातें करना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जाएंगे ऐसा लगता है’
असंभव! अगर दीवालों से ही बातें की तो पागल नहीं हो सकती। एक उल्लेख नहीं पूरी मनुष्य-जाति के इतिहास में। एक बोधिधर्म का उल्लेख है, नौ साल तक बातें की, परम बोधि को उपलब्ध हुआ। पागल का तो कोई उल्लेख ही नहीं है। पागल दीवालों से बातें नहीं करते। पागलों के लिए तो पूरी पृथ्वी उपलब्ध है। एक से एक पहुंचे हुए पागल यहां हैं।
दो प्रोफेसर पागल हो गए थे। यूं भी प्रोफेसर करीब-करीब पागल होते हैं, नहीं तो प्रोफेसर ही नहीं हो सकते। पागल होना तो अनिवार्य योग्यता है। जरा ज्यादा हो गए थे। मतलब सीमा के बाहर निकल गए थे। तो उनको पागलखाने में रखा गया। जगह की कमी थी, इसलिए दोनों प्रोफेसर को एक ही कमरे में रखा गया। मनोवैज्ञानिक यह जानने को उत्सुक था कि ये लोग बात क्या करते हैं! तो वह सुनता था दीवाल के पास छिप कर। दरवाजे के छेद से, चाबी के छेद से देखता भी, सुनता भी। बड़ा हैरान हुआ, क्योंकि दोनों की बातों में कोई तुक नहीं था, कोई संगति नहीं थी। एक कहता आसमान की तो दूसरा कहता पाताल की। कोई लेना-देना नहीं। मगर एक बात बड़ी गजब की थी कि जब एक बोलता तो दूसरा बिलकुल चुपचाप बैठ कर सुनता। बीच-बीच में सिर भी हिलाता। जब पहला खतम करता तो दूसरा शुरू करता और पहला चुप हो जाता और बीच-बीच में सिर हिलाता। और संबंध कोई था ही नहीं बातचीत का, किसी तरह का संबंध नहीं था। कोई सूत्र नहीं था। उसे हैरानी इसी बात से हुई। यह तो बात हैरानी की नहीं थी कि दोनों अल्ल-बल्ल बक रहे थे। कहां-कहां की बातें कर रहे थे। दूसरे की बात से पहले की बात का कहीं कोई सुर-ताल नहीं था। मगर हैरानी की बात यह थी--ये तो पागल थे तो ठीक है--हैरानी की बात यह थी कि जब एक बोलता है तो दूसरा क्यों चुप हो जाता है! और चुप ही नहीं हो जाता, बीच-बीच में सिर भी हिलाता है।
तो उसने उन दोनों से पूछा कि महानुभाव! इतना राज भर मुझे बता दो कि जब एक बोलता है तो दूसरा चुप क्यों हो जाता है?
उन्होंने कहा, तुमने हमें क्या समझा है? तुमने हमें पागल समझा है? अरे यह तो वार्तालाप का नियम है कि जब एक बोले तो दूसरा चुप हो जाए और सिर हिलाए। सो हम वार्तालाप का नियम पालन करते हैं।
लोग वार्तालाप का नियम ही पालन कर रहे हैं। जरा तुम गौर करो, खुद अपने पर ही गौर करो। जब तुम दूसरे से बात कर रहे होते हो तो तुम वार्तालाप का नियम ही पालन कर रहे होते हो। वह बोल रहा है तो तुम चुप रहते हो। और अगर वह तुम्हें बोलने ही नहीं देता, तो तुम लोगों से कहते हो कि बड़ा बोर है! बोर का मतलब यह कि तुम्हें बोर नहीं करने देता, अकेले ही किए जाता है। बोर किए ही चला जाता है, तुम्हें मौका ही नहीं देता। तुम्हें भी मौका दे तो फिर तुम कहते हो--‘अहा, वार्तालाप में मजा आ गया! कैसा प्यारा आदमी है!’ लेकिन उसे तुम्हें भी मौका देना चाहिए।
तुम जरा गौर करना। जब तुम किसी से बात कर रहे हो तो तुम सुन रहे हो उसकी बात? तुम बिलकुल नहीं सुन रहे। तुम्हारे भीतर हजार और बातें चल रही हैं जिनको तुम सुन रहे हो। फिर भी तुम सिर हिलाते हो; और ठीक समय पर हिलाते हो; जब हिलाना चाहिए तब सिर हिलाते हो। भीतर तुम अपना गणित बिठा रहे हो। भीतर तुम अपना हिसाब बिठा रहे हो। तुम्हें उस आदमी से कुछ लेना-देना नहीं। वह क्या बक रहा है, तुम जानते हो कि बकने दो। जब अपना समय आएगा, देख लेंगे। अब आता ही है अपना समय। तुम अपनी तैयारी कर रहे हो कि तुम क्या कहना चाहते हो। तुम सिर्फ प्रतीक्षा कर रहे हो कि उसकी बातों में कहीं से कोई नुस्खा मिल जाए; कोई एकाध बात ऐसी कह दे जो तुम्हारे लिए कारण बन जाए तुम्हारी बातें कहने का। बस जैसे ही कारण मिला कि तुम शुरू हुए। तुम शुरू हुए, वह चुप हो जाता है। यह मत समझना कि तुम्हें सुन रहा है; अब वह अपना गणित बिठा रहा है कि ठीक, कि बक लो थोड़ी देर, तब तक मैं भी तैयारी कर लूं, फिर मैं भी तुम्हें वह मजा चखाऊंगा कि छठी का दूध याद आ जाए। अरे थोड़ी देर की बात है, सह लो। वक्त पर सिर हिलाएगा, मुस्कुराएगा, हां भरेगा; मगर भीतर अपना गणित बिठा रहा है।
वीणा, लोगों से बात करो तो पागल हो सकती हो। दीवालें बेचारी बहुत निर्दोष हैं। दीवालें पागल न कर सकेंगी। और यह अच्छा लक्षण है कि दीवालों से बातें करना अच्छा लगने लगा है। यह पागल होने का लक्षण नहीं है; यह पागलपन से छूटने का लक्षण है। यह शुरुआत है। इसको ध्यान बना लो। और जब दीवाल तुम से कुछ भी नहीं कह रही है तो दीवाल को ज्यादा न सताओ। डर यह है कि दीवाल न पागल हो जाए। तुम्हारे पागल होने का कोई डर नहीं! तुम तो पागल हो ही, वीणा! अब और क्या खाक पागल होओगी! डर यह है कि दीवाल पागल न हो जाए।
सामर्थ्य की सीमा है। बोधिधर्म न मालूम किस मजबूत दीवाल के पास बैठा था! पुराने जमाने की दीवालें होती भी बड़ी थीं। आजकल की पतली दीवालें कि तुम दीवाल से बातें करो और पड़ोसी जवाब दे कि हां, बाई ठीक कह रही। सत्य वचन! अरे, यही तो हम कहते हैं!
लोग कहते हैं पुराने जमाने में दीवालों को कान होते थे। नहीं होते थे। अब होते हैं। कान ही नहीं होते, मुंह भी होते हैं। दीवालें इतनी पतली हैं कि डर यह है कि पास-पड़ोस के लोग जवाब न देने लगें। इसलिए ज्यादा दीवाल को मत सताना। थोड़े दिन ठीक, फिर दीवाल पर दया करो। जब दीवाल के सामने ही बैठे हैं तो क्या कहना, क्या सुनना! फिर दीवाल जैसे ही मौन, दीवाल जैसे ही कोरे हो जाना चाहिए। दीवाल जैसे ही चुप हो जाना चाहिए। और वही चुप्पी कुंजी है।
विक्षिप्त कोई हो नहीं सकता चुप होने से। चुप होने से व्यक्ति विमुक्त होता है। यह तुम्हारे भीतर चलती बकवास है जो तुम्हें विक्षिप्त कर सकती है--जो विक्षिप्त कर रही है! प्रत्येक आदमी पागल है।
खलील जिब्रान ने एक छोटी सी घटना लिखी है। उसका एक मित्र पागल हो गया। तो वह उसको मिलने पागलखाने गया। मित्र बगीचे में पागलखाने के बैठा हुआ था, बड़ा प्रसन्न था। खलील जिब्रान सहानुभूति प्रकट करने गया था। वह इतना प्रसन्न था कि सहानुभूति प्रकट करने का मौका ही न मिले। प्रसन्न आदमी से क्या सहानुभूति प्रकट करो! वह तो यूं मस्त हो रहा था, वृक्षों के साथ डोल रहा था, पक्षियों के साथ गुनगुना रहा था। पागल ही जो था।
फिर भी खलील जिब्रान तो अपनी तय करके आया था, तो बिना कहे जा नहीं सकता था। कहा कि भई, बहुत दुख होता है यह देख कर कि तुम यहां हो।
उस आदमी ने कहा, ‘मुझे देख कर तुम्हें दुख होता है? अरे, मुझे देख कर तुम्हें दुख नहीं होना चाहिए। हालत उलटी है। तुम्हें देख कर मुझे दुख होता है। मैं तो जब से इस दीवाल के भीतर आया हूं, पागलखाने के बाहर आ गया। दुख मुझे होता है कि तुम अभी भी उस बड़े पागलखाने में हो--दीवाल के बाहर जो पागलखाना है। यहां तो थोड़े से चुनिंदे लोग हैं जो पागल नहीं। दीवाल के बाहर है असली पागलखाना।’
खलील जिब्रान तो बहुत चौंका। बात में थोड़ी सचाई भी थी। रात सो नहीं सका। विचारशील व्यक्ति था, सोचने लगा कि बात में थोड़ी सचाई तो है। दीवाल के बाहर एक बड़ा पागलखाना ही तो है।
तुम खुद ही इसका परीक्षण कर सकते हो। दस मिनट के लिए तुम्हारी खोपड़ी में जो भी चलता है उसको कागज पर लिखो। संकोच न करना, संपादन न करना। कुछ काटना नहीं, पीटना नहीं। किसी को बताना नहीं है, द्वार-दरवाजे बंद रखना। सिगड़ी जला कर रखना। जैसे ही लिख लो, जल्दी से डाल देना; किसी के हाथ न लग जाए! इसलिए डरने की कोई जरूरत नहीं है। जो आए मन में, जैसा आए मन में, लिखना। और तुम बड़े हैरान होओगे। क्या-क्या तुम्हारे मन में आता है! पड़ोसी का कुत्ता भौंकने लगता है और तुम्हारे मन में चला कुछ--कि यह कुत्ता क्यों भौंक रहा है! ये हरामजादे कुत्ते! इनको कोई काम ही नहीं है! किसी को शांति से न रहने देंगे। चल पड़ी गाड़ी, मालगाड़ी समझो! हर डब्बे में सामान भरा है।
तब तुम्हें याद आएगा कि अरे तुम्हारी एक प्रेयसी हुआ करती थी; उसके पास भी कुत्ता था।...अब गाड़ी चली। कुत्ते ने सिलसिला शुरू करवा दिया। कुत्ता भी क्या वक्त पर भौंका! कुछ देर प्रेयसी की बातें चलेंगी। फिर उसकी मां ने कैसे बिगाड़ खड़ा किया। उसके दुष्ट बाप ने किस तरह बाधा डाली। समाज किस तरह आड़े आ गया।
तुम कहां जाकर पहुंचोगे अंत में, कहना मुश्किल है। और जब तुम लौट कर पूरा कागज पढ़ोगे तो तुम्हें भरोसा ही नहीं आएगा कि इसमें क्या सिलसिला है? क्या तुक है? कोई वचन आधा ही आकर खतम हो जाता है। उसमें पूर्ण विराम भी नहीं लगता। उसके बीच में ही दूसरा वचन घुस जाता है। बीच-बीच में फिल्मी गाने आते हैं--लारे-लप्पा! गीता के वचन भी आते हैं--न हन्यते हन्यमाने शरीरे! कुछ हिसाब ही नहीं। क्या-क्या नहीं आता!
पंद्रह मिनट के, दस मिनट के प्रयोग से ही तुम साफ समझ लोगे कि तुम्हारे भीतर जो छिपा है वह विक्षिप्त है। और क्या विक्षिप्तता होगी? तुम यह कागज किसी को बता भी न सकोगे।
आदमी पागल ही है। और उसके पागलपन का कुल कारण इतना है कि विचारों का जो कुंभ-मेला उसके भीतर लगा हुआ है...। क्या-क्या विचार!...नागा बाबा! कैसे-कैसे नागा बाबा कि जननेंद्रिय से बांध कर जीप को घसीट दें! ऐसे-ऐसे विचार! और कुंभ का मेला! उसमें क्या नहीं! हर चीज देखो। बंबई की नंगी धोबन देखो। अब बंबई और नंगी धोबन का क्या संबंध है!
बचपन में मेरे गांव में आते थे लोग। एक छोटा सा डब्बा, मगर उसमें बंबई की नंगी धोबन जरूर होती थी। मैं कई बार सोचा कि बंबई से और नंगी धोबन का क्या संबंध! और अब तो बंबई भी न रही, अब तो मुंबई हो गई! अब नंगी धोबन का क्या होगा?...ऐसे-ऐसे विचार आएंगे, ऊंचे विचार आएंगे! तुम कभी कल्पना भी नहीं कर सकोगे कि क्या-क्या तुम्हारे भीतर कचरा-कबाड़ भरा हुआ है। इसको एक दफा देखो गौर से।
तो वीणा, दीवाल से बातें करने से कोई पागल नहीं होता। मुल्ला नसरुद्दीन कह रहा था, ‘जिसने यह सिद्ध किया है कि पृथ्वी घूमती है, वह अवश्य भंगेड़ी रहा होगा।’
मैंने कहा, ‘तुझे क्या हो गया नसरुद्दीन? कैसे तुझे इस बात का पता चला? कैसे तूने जाना?’
उसने कहा, ‘इसमें क्या मामला है? कल रात भांग खाने के बाद मुझे भी ऐसा ही लगा कि पृथ्वी घूम रही है। उसके पहले कभी मुझे ऐसा अनुभव ही नहीं हुआ था। निश्चित ही, जिसने यह सिद्ध किया वह भंगेड़ी रहा होगा।’
तू कहती है--
‘दीवारों से बातें करना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जाएंगे ऐसा लगता है
आंखों को भी ले डूबा इस दिल का पागलपन
आते-जाते जो मिलता है तुम सा लगता है।’
यह तो पागलपन की बात न हुई। यह तो बड़े बोध की बात हुई। यह तो पहली किरण उतरी। मेरे प्रेम में तुम्हें सब व्यक्ति मेरे जैसे लगने लगें तो ही वह प्रेम सच्चा है। मुझ पर ही अटक जाए तो सड़ जाएगा। जब भी प्रेम अटकता है तो सड़ जाता है। प्रेम प्रवाह है; फैलता ही जाना चाहिए, फैलता ही जाना चाहिए। अनंत तक फैलता जाना चाहिए। मुझसे तुम्हारा प्रेम, मुझ पर रुक जाए तो बंधन हो गया, बोझ हो गया। मैं द्वार बनूं, बस इससे ज्यादा नहीं। मेरे द्वार से तुम्हारा प्रेम निकले और खुले आकाश में फैलता जाए, फैलता जाए, सारे चांद-तारों को अपने भीतर ले ले। कुछ तुम्हारे प्रेम के बाहर न रह जाए। जरूर पहले-पहल तो यह पागलपन जैसा लगेगा वीणा, क्योंकि हमें यही सिखाया गया है कि एक से ही प्रेम करना। प्रेम को एक से ही बंधना चाहिए, प्रेम बंधन है, यही हमें सिखाया गया है।
मेरे पास लोगों के शादियों के निमंत्रण-पत्र आते हैं कि ‘वर-वधू विवाह के बंधन में बंध रहे हैं।’ क्या गजब के लोग! कम से कम निमंत्रण-पत्र में तो ये घोषणाएं न करो। मगर बात छिपाए भी छिपती नहीं। उन्होंने सोचा ही नहीं कि बंधन का क्या मतलब! ‘बंधन में बंध रहे हैं।’ प्रेम में मुक्त होना चाहिए कि बंधना चाहिए? प्रेम मुक्ति है, बंधन नहीं। और जो बांध ले वह प्रेम के नाम पर धोखा है, कुछ और है।
तू कहती है--
‘आंखों को भी ले डूबा इस दिल का पागलपन
आते-जाते जो मिलता है तुम सा लगता है’
ऐसा ही होना चाहिए।
मन की खिड़की को
खुली ही रहने दो
बंद मत करो।
आने दो भीतर
ऊषा की किरणों को,
विहंगों के कलरव को,
हवा की लहरों को,
फूलों की सुगंधों को।
आने दो भीतर जलती दोपहर,
आने दो धूल भरे अंधड़,
आने दो तूफानी बौछारें,
घोर नैश अंधकार
किंचित मत डरो।
आश्वस्त रहो
फिर झांकेगी
इसी खिड़की में से भोर,
पंछी फिर चहकेंगे,
फूल फिर महकेंगे।
मन की खिड़की को
खुली ही रहने दो
बंद मत करो।
प्रेम तो खुलना है, खिलना है। जैसे फूल खिल जाए। और जब फूल खिलता है और सुगंध उड़ती है तो फिर किन्हीं नासापुटों का पता लेकर थोड़े ही उड़ती है, कि फलाने की नाक तक जाना है, कि हम तो वहीं जाएंगे! जब सुगंध उड़ती है तो जिसे लेना हो ले ले, जिसे पीना हो पी ले।
प्रेम मुक्ति है। प्रेम परम मुक्ति है।
इस एक से बंधने की धारणा ने बड़ी हैरानी खड़ी की। इससे प्रेम ईर्ष्या बन गया। इससे प्रेम परिग्रह बन गया। इससे प्रेम एक संघर्ष बन गया। इससे प्रेमी दुश्मन हो गए, मित्र नहीं। प्रेमी और मित्र, करीब-करीब असंभव बात है। प्रेमी मित्र होते ही नहीं। एक-दूसरे के बिलकुल दुश्मन। एक-दूसरे के पीछे पड़े--हाथ धोकर पीछे पड़े! एक-दूसरे को ठिकाने लगाने में लगे। यह कोई प्रेम है? लेकिन आदमी बेहोश है, तो प्रेम करे तो प्रेम बेहोश। जो करे वही बेहोश। बेहोश आदमी से और अपेक्षा नहीं हो सकती।
मेरे संन्यासी एक ही तो काम में लगे हैं कि कैसे यह मूर्च्छा टूटे? कैसे इस मूर्च्छा के पार जाएं? कैसे जागरण हो? और जैसे-जैसे जागरण होगा वैसे-वैसे उस जागरण के साथ जीवन का सारा सिलसिला बदलेगा, धारा बदलेगी, धारा का रुख बदलेगा। फिर प्रेम फैलेगा--यूं जैसे कि कोई कंकड़ फेंक दे शांत झील में। कंकड़ के गिरते ही लहर उठती है। फिर और लहर, फिर और लहर, लहरों पर लहरें उठती जाती हैं और दूर-दूर किनारों तक फैलती चली जाती हैं। ऐसा ही प्रेम शुरू तो एक से होता है, लेकिन फिर फैलता चला जाता है। और इस अस्तित्व के तो कोई किनारे नहीं। इसलिए फिर कहीं रुकता ही नहीं। फिर रुकने का कोई उपाय ही नहीं है। और जिसने भी प्रेम को रोकना चाहा, उसने उसे विषाक्त कर दिया। उसने उसे मार डाला, उसने भ्रूण-हत्या कर दी।
इस दुनिया में सबसे बड़ी हत्या प्रेम की हत्या है। आदमी को मार डालो, इतना बुरा नहीं; मगर उसके प्रेम को न मारो। क्योंकि आदमी मरेगा तो फिर जन्म ले लेगा। लेकिन उसका प्रेम मार डाला, तो शायद फिर भी जन्म ले ले, मगर वह जो प्रेम मर गया है, फिर पनपेगा कि नहीं? और फिर भी उस प्रेम को मारने वाले मौजूद रहेंगे, क्योंकि तुम्हीं कोई एक हत्यारे नहीं हो। प्रेम को मारने का इतना आयोजन है।...
बच्चा पैदा हुआ और हमने उसके प्रेम को मारना शुरू किया। मां कहती है, ‘मुझे प्रेम करो, क्योंकि मैं तुम्हारी मां हूं। और मुझसे ही प्रेम करना।’ बाप कहता है, ‘मुझे प्रेम करो, क्योंकि मैं तुम्हारा बाप हूं।’ जैसे कि बाप होना कोई प्रेम के लिए अनिवार्य कारण है। बाप होंगे तो होंगे। मगर इससे प्रेम उत्पन्न होना ही चाहिए, ऐसा क्या है? सिर्फ बाप होना कानूनी अधिकार हो सकता है। लेकिन प्रेम का क्या अधिकार है? प्रेम को जन्माने की कोशिश नहीं की जाती; प्रेम को जबरदस्ती आरोपित करने की कोशिश की जाती है। और बच्चा मजबूर है, क्योंकि असहाय है। उसे मां को प्रेम करना होगा, नहीं तो जीना मुश्किल हो जाएगा। मां को देख कर मुस्कुराना होगा, चाहे मुस्कुराहट आती हो या न आती हो। यहीं से राजनीति शुरू होती है। फिर जिंदगी भर यह मुस्कुराएगा। इसकी मुस्कुराहट बस ओंठों पर, ओंठों से जरा भी गहरी नहीं। उतनी ही गहरी समझो जितना लिपस्टिक जाता है। इससे ओंठ थोड़े खराब ही हो जाते हैं।
लिपस्टिक लगाने वाली स्त्रियों के ओंठ देखे? बिना लिपस्टिक लगाए जरा देखना, चमड़ी खराब हो गई, सूख गई। वह जो धोखा दिया उसमें सब कुछ खराब होने ही वाला है। यह हंसी भी ओंठों पर। यह प्रेम भी ओंठों पर। यह प्रेम भी बातचीत।
मुल्ला नसरुद्दीन घर आया। अखबार पढ़ने बैठ गया। सभी पति बैठते हैं। यह पति-धर्म है कि घर में आए कि जल्दी से अखबार उठाया। क्योंकि और कहां छिपें? कोई जगह नहीं मालूम होती जहां छिप जाएं। पत्नी ने चौतरफा राज किया हुआ है। और घूम रही है वह सब तरफ अपना बेलन लिए। ये बेचारे अखबार, चाहे पढ़ें, चाहे न पढ़ें...। मुल्ला नसरुद्दीन पढ़ ही नहीं रहा था, क्योंकि जाहिर था, उलटा अखबार पकड़े बैठा था। पत्नी तो भनभना गई। उसने कहा कि हद हो गई। तुम अखबार पढ़ नहीं रहे हो। तुम उलटा अखबार लिए बैठे हो तो पढ़ कैसे रहे हो?
और उसने तो एकदम शोरगुल मचा दिया कि अब तुम्हें मुझसे प्रेम ही नहीं रहा। पत्नियों के तर्क का तो कोई हिसाब ही नहीं। कहां अखबार...उलटा ही पढ़ रहा है, तो पढ़ने दो। उलटी खोपड़ी है समझो। इससे तुम्हारा क्या बिगड़ रहा है? बेचारा सिर्फ उलटा अखबार पढ़ रहा है, निर्दोष। किसी का कोई नुकसान नहीं कर रहा है, न कोई हिंसा कर रहा है, न कोई हड़ताल कर रहा है, न कोई घिराव कर रहा है, न कोई आंदोलन कर रहा है; चुपचाप बैठा उलटा अखबार पढ़ रहा है। इसमें किसी का क्या बिगाड़ रहा है? वीणा ही जैसा, जैसे कि दीवाल के सामने बैठी। उलटा अखबार पढ़ रहा है--ध्यान कर रहा है। मगर पत्नी तो बिगड़ पड़ी, ‘तुम अखबार पढ़ नहीं रहे हो। तुम सिर्फ मुझसे बचना चाहते हो। तुम्हें मेरा चेहरा देखने में कष्ट होता है। और पहले तुम मुझसे कहते थे कि अहा! तू क्या है! पूर्णिमा का चांद भी तेरे सामने फीका है! और अब उलटा अखबार पढ़ रहे हो। तुम्हें मुझसे अब जरा भी प्रेम नहीं रहा।’
वह तो दहाड़ मार कर रोने लगी। पत्नियों का क्या भरोसा, कब क्या करने लगें! इसीलिए तो पुरुष निरंतर सदियों से कहता रहा है--स्त्री को कोई नहीं समझ सकता। स्त्री को समझ सकते हो, गलती बात कह रहे हो; पत्नी को कोई नहीं समझ सकता। स्त्री को समझने में क्या कठिनाई है? सीधा-सादा मामला है, कोई ऐसी अड़चन नहीं। मगर पत्नी को समझना बहुत कठिन है। और पत्नी तुम्हीं बना बैठे। तुम पति बन गए। पति का मतलब मालिक, तो बेचारी पत्नी क्या करे? पत्नी का मतलब, जो पति से तनी-तनी रहे। रहेगी ही! जब तुम पति बन कर बैठ गए तो वह क्या करे! वह तनी-तनी रहेगी।
पत्नी तन गई, जोर से रोने लगी कि अब तुम्हें मुझसे प्रेम ही नहीं रहा। नसरुद्दीन ने अखबार बंद किया और कहा, ‘फजलू की मां! कैसी बातें कर रही हो? अरे मुझे प्रेम है। हजार बार कहता हूं, कसम खाकर कहता हूं, अल्लाह की कसम खाकर कहता हूं कि मुझे प्रेम है। और तेरा चेहरा पूर्णिमा के चांद से भी ज्यादा सुंदर है। और तेरे शरीर की सुगंध फूलों से भी ज्यादा महकदार है। फिर-फिर कहता हूं कि मुझे तुझसे प्रेम है। और अब यह अपना मुंह बंद कर और मुझे अखबार पढ़ने दे!’
क्या करो, मजबूरी है तो कहना पड़ता है प्रेम है। मगर असलियत को कहां तक छिपाओगे? वह निकल ही आती है: ‘अब अपना मुंह बंद कर। अब बहुत हो चुकी बकवास। और मुझे अखबार पढ़ने दे। अरे, शांति से एक घड़ी भर तो बैठ लेने दे। थका-मांदा दफ्तर से आता हूं। और इधर प्रेम का राग! न समय का कोई ध्यान, न ऋतु का कोई सवाल, बस प्रेम का राग छेड़ो!’
आदमी सिर्फ कह रहा है कि प्रेम। कहना पड़ रहा है। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक यह सिलसिला जारी है। सबके पीछे मूल कारण यह है कि हम प्रेम पर कब्जा करने की कोशिश करते हैं। मां-बाप करने की कोशिश करते हैं, फिर पति-पत्नी करने की कोशिश करते हैं, फिर बच्चे करने की कोशिश करते हैं। हम प्रेम को एक-दूसरे पर मालकियत का साधन बनाते हैं, जब कि सच्चा प्रेम मुक्ति है।
वीणा, तुझे मुझसे प्रेम है तो स्वभावतः मैं ही तुझे सबमें दिखाई पड़ने लगूंगा। दिखाई पड़ना ही चाहिए। प्रेम फैले तो ही सत्य है। फैलता ही चला जाए तो विराट सत्य है। कहीं रुके ही न। यह कुछ पागल होने की बात नहीं है। यह तो शुभ समाचार है।
मेरी मोहब्बत की कोई कीमत नहीं है, कोई सिला नहीं है।
मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है, कोई गिला नहीं है।।
मैं अपने मजबूर दिल के हाथों कुछ इतना मजबूर हो गया था।
मैं तुमको अपनी तरह का इन्सां समझ के मसहूर हो गया था।।
खबर न थी पत्थरों के सीने में दिल बनाता रहा हूं अब तक।
मैं बर्फ की सिल पे अपनी चिंगारियां लुटाता रहा हूं अब तक।।
मैं गीत गाता रहा हूं हाथों में एक टूटा सितार लेकर।
रहा हूं मैं बेकरार अक्सर तुम्हें खुद अपना करार देकर।।
मेरी मोहब्बत, मेरी अकीदत का अब मुझे ये सिला मिला है।
कि तेरे जख्मे-जिगर को मेरे ही तारे-दिल से सिया गया है।।
अगर कोई और मेरे अहदे-वफा का आईनादार होता।
अगर तुम्हारी जगह कोई और दूसरा गमगुसार होता।।
तो मैं उसे अपनी रूह से अपने दिल से बाहर ढकेल देता।
मैं उसके सिर पर हिकारतों के जहन्नुमों को उंडेल देता।।
मगर मैं अब तुमको क्या कहूं, मेरे रूहो-दिल का सरूर हो तुम।
मुझे अंधेरा भी दो तो खुश हूं कि मेरी आंखों का नूर हो तुम।।
आदमी का प्रेम विक्षिप्त है। आदमी का प्रेम उसकी सारी मूर्च्छा को अपने साथ लिए हुए है। अब यह व्यक्ति गीत गा रहा है--
अगर कोई और मेरे अहदे-वफा का आईनादार होता।
अगर तुम्हारी जगह कोई और दूसरा गमगुसार होता।।
तो मैं उसे अपनी रूह से अपने दिल से बाहर ढकेल देता।
मैं उसके सिर पर हिकारतों के जहन्नुमों को उंडेल देता।।
यह असलियत है।
मगर मैं अब तुमको क्या कहूं, मेरे रूहो-दिल का सरूर हो तुम।
मुझे अंधेरा भी दो तो खुश हूं कि मेरी आंखों का नूर हो तुम।।
आदमी प्रेम के नाम पर भी केवल पाखंड पालता है। असलियत कुछ और, भीतर कुछ और, बाहर कुछ और। कहता कुछ है, जीता कुछ है।
मेरी शिक्षा का बुनियादी हिस्सा है: तुम्हारा प्रेम ध्यान से उमगना चाहिए, तो ही प्रेम हो सकेगा। प्रेम ध्यान की चरम शिखा है। प्रेम ध्यान की ज्योति है। जहां ध्यान नहीं है, वहां प्रेम नहीं है। लाख तुम उपाय करो, सब उपाय व्यर्थ जाएंगे। हजार तुम चेष्टाएं करो, नहीं कोई चेष्टा काम आने वाली है। तुम्हारी सारी चेष्टाएं बेमानी हैं। एक ही संभावना है तुम्हारे प्रेम के सत्य होने की और वह है--ध्यान से उमगे।
वीणा, दीवारों के सामने बैठ, मगर बातें मत कर। दीवाल के सामने चुप बैठ। कोरी दीवाल पर अपनी व्यर्थ की विक्षिप्तता को मत उंडेल। दीवाल के सामने दीवाल ही होने लगो। और दीवाल सच में ही उपयोगी ध्यान का साधन हो सकती है। कितनी देर मन चलेगा? महीने, दो महीने, साल, दो साल। बैठती ही रहो दीवाल के सामने। धीरे-धीरे मन विदा हो जाएगा। दीवाल जैसा ही कोरापन भीतर भी आ जाएगा। और जब भीतर भी दीवाल जैसा कोरापन होगा, तो जीवन की परम संपदा मिल गई। बहुतेरे हैं घाट--दीवाल भी घाट हो सकती है!
आखिरी सवाल:
भगवान,आपके धर्म का नाम क्या है? आपके धर्म का आराध्य कौन है? आराधना क्या है? आपके धर्म का लक्ष्य क्या है? आपके आस-पास हजारों लोग जो संगठन बना रहे हैं, उसका उद्देश्य क्या है? कृपया यह भी बताएं कि इस उदास मनुष्यता का कल्याण कब और कैसे होगा?
चिंतामणि पाठक, जब तक तुम जैसे लोग हैं, जब तक चिंतामणि पाठक जीवित हैं, तब तक इस उदास मनुष्यता का कल्याण नहीं हो सकता। असंभव है। तुम्हारा प्रश्न ही सबूत दे रहा है कि तुम न होने दोगे कल्याण, या कि तुम जबरदस्ती कल्याण करने को उतारू हो। वह भी अकल्याण का ही उपाय है।
और तुम्हें उदास मनुष्यता के कल्याण की क्या फिकर? चिंतामणि पाठक, पहले अपनी चिंता से तो मुक्त होओ। तुम चिंता को मणि समझे बैठे हो और उदास मनुष्यता की चिंता कर रहे हो!
जरा होश तो सम्हालो। मनुष्यता कहां है? खोजने निकलो जरा, मनुष्यों को पाओगे, मनुष्यता को कहीं भी नहीं पाओगे। मनुष्यता तो कोरा शब्द है। और ये कोरे शब्द आदमी को खूब भटकाए हैं और इन्हीं कोरे शब्दों ने आदमी को उदास बना रखा है--‘मनुष्यता का कल्याण! राष्ट्र का कल्याण! समाज का कल्याण!’ न कहीं समाज है, न कहीं राष्ट्र है, न कहीं मनुष्यता है। जहां भी पाओगे व्यक्ति को पाओगे। व्यक्ति सत्य है, बाकी सब बकवास है।
और अगर चाहते हो कि व्यक्ति की उदासी कैसे मिटे, तो कम से कम अपनी उदासी तो मिटाओ--तुम्हीं पहले व्यक्ति हो! वहीं से शुरू करो। अपना दीया तो जलाओ। अगर खुद अंधेरे में हो तो तुम किसका दीया जलाओगे? डर यह है कि कहीं तुम किसी के जलते दीये को न बुझा दो।
अंधा आदमी दूसरों की आंखें भी फोड़ सकता है। और बड़ी नेकनीयत, कि इसको भी अपने जैसा कर लूं। कैसा प्यारा भाव! कैसी सेवा की सदिच्छा कि इसको भी अपने जैसा कर लूं! कि यह बेचारा अंट-संट चीजें देखता है! यह भ्रांति में पड़ा हुआ है। कहां प्रकाश है, कहां रंग हैं, कहां इंद्रधनुष हैं, कहां चांद-तारे हैं? यह किन बातों में पड़ा है, किन सपनों में खोया है? इसको रास्ते पर लगाऊं! इसकी आंखें फोड़ दी जाएं तो यह ठिकाने पर आ जाए।
अगर अंधे सेवा करेंगे तो आंख वालों को अंधा करेंगे। अगर मूर्च्छित सेवा करेंगे तो और मूर्च्छा फैलाएंगे। अंधेरे से भरे लोग और दे भी क्या सकते हैं? हम वही तो दे सकते हैं जो हमारे पास है।
लेकिन चिंतामणि पाठक बड़े गहरे सवाल पूछ रहे हैं--उनके हिसाब से! पूछते हैं: ‘आपके धर्म का नाम क्या है?’
जैसे कि धर्म का कोई नाम हो सकता है! जब धर्म का नाम होता है तो समझो अधर्म हो गया। धर्म तो अनाम है, क्योंकि परमात्मा अनाम है। और अनाम को खोजना नाम वाले धर्मों में नहीं हो सकता। विशेषण जहां जुड़ गए वहां तो तुम्हारे आग्रह जुड़ गए।
मेरे धर्म का कोई नाम नहीं। सच तो यह है कि मैं अपने धर्म को धर्म भी नहीं कहता, सिर्फ धार्मिकता कहता हूं। मेरा जोर गुण पर है, सिद्धांतों पर नहीं, नामों पर नहीं, रूपों पर नहीं।
प्रेम का कोई नाम होता है? किसी से पूछो कि आपके प्रेम का क्या नाम है? वह बेचारा क्या कहेगा? वह सिर्फ तुम्हारी तरफ भौचक्का होकर देखेगा कि यह आदमी पगला गया। प्रेम का नाम पूछ रहा है! प्रेम का कोई नाम होता है? प्रेम ईसाई होता है, कि हिंदू, कि मुसलमान, कि जैन, कि बौद्ध? और अगर प्रेम का कोई नाम नहीं होता, तो धर्म तो प्रेम की पराकाष्ठा है। उसका तो कैसे नाम हो सकता है?
मेरे धर्म का कोई नाम नहीं है।
तुम्हारे ऐजाजे-हुस्न की मेरे दिल पर लाखों इनायतें हैं।
तुम्हारी ही देन मेरे जौके-नजर की सारी लताफतें हैं।।
जवां है सूरज जबीं पे जिसके तुम्हारे माथे की रोशनी है।
सहर हसीं है कि उसके रुख पर तुम्हारे रुख की सबाहतें हैं।।
मैं जिन बहारों की परवरिश कर रहा हूं जिंदाने-गम में हमदम।
किसी के गेसू और चश्मो-रुखसारो-लब की रंगीं हिकायतें हैं।।
न जाने छलकाए जाम कितने, न जाने कितने सुबू उछाले।
मगर मेरी तिश्नगी कि अब भी तेरी नजर से शिकायतें हैं।।
मैं अपनी आंखों में सैले-अश्के-रवां नहीं, बिजलियां लिए हूं।
जो सरबुलंद और गयूर हैं अहले-गम ये उनकी रिवायतें हैं।।
मैं रात की गोद में सितारे नहीं शरारे बखेरता हूं।
सहर के दिल में जो अपने अश्कों से बो रहा हूं बगावतें हैं।।
धार्मिकता एक बगावत है, एक विद्रोह है। और धर्म परंपराएं हैं। धर्म हैं अतीत, जिनका वक्त जा चुका, जो कभी के मर चुके हैं और जिनकी लाशों को तुम ढो रहे हो। उन लाशों में कभी प्राण थे, यह सच है। मगर जब प्राण थे तब वे लाशें नहीं थीं; तब वे भी धार्मिकताएं थीं।
बुद्ध के पास जो घट रहा था वह धार्मिकता थी। और अब बौद्ध धर्म के नाम पर जो दुनिया में है वह केवल लाश है। उसका रंग-रूप, उसका रंग-ढंग, उसका आकार-प्रकार बिलकुल वैसा ही है जैसे बुद्ध की धार्मिकता का था। बस एक बात की कमी है, उसमें प्राण थे और यह निष्प्राण है। उसमें दिल धड़कता था, उसकी सांसें चलती थीं; और अब इसकी कोई सांसें नहीं चलतीं और कोई दिल नहीं धड़कता। उस वीणा में संगीत था, उसके तार अभी जिंदा थे; और अब इसके तार कभी के टूट गए हैं, अब इसमें कोई संगीत नहीं उठता। और यही सारे धर्मों के साथ हुआ है।
मैं अपने धर्म को कोई नाम नहीं देना चाहता। मैं तो सतत बगावत सिखा रहा हूं; विद्रोह अतीत से, विद्रोह परंपरा से, विद्रोह शास्त्रों से, विद्रोह शब्दों से, विद्रोह मन से। फिर जो शेष रह जाता है वह अनाम है, विशेषण-शून्य है। उसी शून्य का नाम धार्मिकता है। उसी शून्यता में पूर्ण का फूल खिलता है।
तुम पूछते हो: ‘आपके धर्म का आराध्य कौन है? आराधना क्या है?’
मैं किसी व्यक्तिवाची ईश्वर को नहीं मानता। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है जो ऊपर बैठा है सातवें आकाश पर और इस दुनिया को चला रहा है। परमात्मा को व्यक्ति की भाषा में सोचना ही बुनियादी रूप से गलत है। भगवान नहीं, भगवत्ता की भाषा में सोचो। हां, जो भगवत्ता को उपलब्ध हो जाता है उसको हमने भगवान कहा है, वह और बात। बुद्ध को भगवान कहा है, यद्यपि बुद्ध ने भगवान से इनकार किया है कि कोई भगवान नहीं। इसी अर्थों में इनकार किया है जो मैं कह रहा हूं, कि कोई व्यक्ति नहीं है जो सारे जगत को चला रहा है और तुम्हारी खोपड़ी पर तुम्हारी किस्मत लिखता है कि तुम टैक्सी ड्राइवर होओगे, कि तुम एम जी रोड पर कपड़े की दुकान खोलोगे, कि तुम पुण्य नगरी पूना में भीख मांगोगे, कि गुंडागर्दी करोगे। और अगर ऐसा कोई परमात्मा है तो बिलकुल पागल है। क्या-क्या बकवास लिखता है!
कोई परमात्मा नहीं है। भगवत्ता एक अनुभव है, व्यक्ति नहीं। और जब भी तुम अपनी चेतना की पूर्ण शांति को अनुभव करते हो और उस शांति में उठते हुए प्रेम के संगीत को पहचानते हो, तब भगवत्ता का अनुभव होता है।
तो तुम मत पूछो मुझसे कि मेरा आराध्य कौन है। मेरा आराध्य कोई भी नहीं। और इसलिए यहां कोई आराधना नहीं है; जब आराध्य ही नहीं तो आराधना क्या? मैं ध्यान सिखाता हूं, आराधना नहीं। आराधना तो अनिवार्य रूप से किसी व्यक्तिवाची परमात्मा को मान कर चलती है। कोई परमात्मा है जिसकी स्तुति करो, जिसका गुणगान गाओ, जिसकी खुशामद करो--स्तुति का मतलब खुशामद--और जिस पर रिश्वत चढ़ाओ।
और पता नहीं यह परमात्मा को भी कैसी-कैसी रिश्वतें पसंद आती हैं! नारियल चढ़ाओ! इनका अभी नारियल से जी नहीं भरा! सदियां हो गईं, लोग नारियल फोड़े चले जा रहे हैं। लेकिन ये सब रिश्वतें हैं। एक नारियल चढ़ा देते हो और कहते हो कि मेरे लड़के को नौकरी लगनी चाहिए। अगर न लगी तो खयाल रखना! अगर लग गई तो फिर नारियल चढ़ाऊंगा। अगर न लगी तो मुझसे बुरा कोई नहीं! कि मेरे घर बेटा पैदा हो जाए! एक नारियल! कीमत भी क्या चुका रहे हो? और नारियल चढ़ा कर जो बेटा भी होगा, वह भी कुछ बेटा होगा? अरे नारियल ही होगा! और नारियल लगता भी आदमी के चेहरे जैसा है; आंखें भी, दाढ़ी-मूंछ भी! बस नारियल ही पैदा होंगे।
यह कोई परमात्मा नहीं है, जिसकी तुम प्रार्थना करो, स्तुति करो। इसी ने तुम्हें खुशामद सिखाई है। और इसीलिए भारत में रिश्वत का मिटाना बहुत मुश्किल है, असंभव है। क्योंकि यह देश तो परमात्मा तक को रिश्वत देता रहा है। ये छोटे-मोटे तहसीलदार, हवलदार, कलेक्टर, कमिश्नर, इन बेचारों की क्या हैसियत? अरे एक नारियल में परमात्मा को मना लेते हैं, थोड़ा प्रसाद चढ़ा देते हैं।
ऐसे झाड़ हैं देश में जिनमें चिंदियां लटकी हुई हैं। उन झाड़ों के जो देवता हैं, चिंदियों के प्रेमी हैं। लोग जाकर मनौती कर आते हैं कि अगर मेरे घर बच्चा हुआ तो एक चिंदी बांध जाऊंगा। और स्वभावतः, अब इतने लोग मनौतियां करेंगे तो कुछ के घर तो बच्चे पैदा ही होने वाले हैं। सो वे चिंदियां बांध जाएंगे। वे चिंदियां फिर उस वृक्ष की विज्ञापन हो जाती हैं। जब इतनी चिंदियां बंधी हैं, हजारों चिंदियां वृक्ष पर बंधी हैं, जाहिर है कि वृक्ष का देवता पहुंचा हुआ देवता है। सो और-और लोग आने लगते हैं। जिनकी चिंदियां काम नहीं आईं, जिनकी इस वृक्ष ने नहीं सुनी, वे दूसरे वृक्षों की तलाश में गए। कहीं न कहीं कोई न कोई मौके-अवसर पर उनके घर भी बेटा पैदा होगा, किसी वृक्ष पर चिंदी बांधेंगे वे। यह मूढ़ता, यह बकवास है।
न कोई आराध्य है, न कोई आराधना है।
और तुम पूछते हो: ‘आपके धर्म का लक्ष्य क्या है?’
कोई भी लक्ष्य नहीं। लक्ष्य की भाषा ही व्यवसाय की भाषा है।
मेरा धर्म आनंद-उत्सव है। अब आनंद-उत्सव का कोई लक्ष्य होता है? आनंद अपना ही लक्ष्य है। किसी से पूछो, ‘तुम्हारे प्रेम का लक्ष्य क्या है?’ बताएगा। यहां हमारे देश में तो कोई भी बता देगा प्रेम का लक्ष्य, कि एक स्कूटर पाना है। किसी को दहेज में कुछ और पाना है। क्या-क्या चीजें लोग मांग रहे हैं! प्रेम का लक्ष्य! प्रेम का लक्ष्य प्रेम नहीं है, कुछ और है।
प्रेम अगर सच में है तो प्रेम अपना लक्ष्य है, उसका कोई और लक्ष्य नहीं। प्रेम अपना आनंद है--परम आनंद है। आनंद का कोई लक्ष्य नहीं है। धार्मिकता आनंद का पर्यायवाची है।
इश्क का नग्मा जुनूं के साज पर गाते हैं हम।
अपने गम की आंच से पत्थर को पिघलाते हैं हम।।
जाग उठते हैं तो सूली पर भी नींद आती नहीं।
वक्त पड़ जाए तो अंगारों पे सो जाते हैं हम।।
जिंदगी को हमसे बढ़ कर कौन कर सकता है प्यार।
और अगर मरने पे आ जाएं तो मर जाते हैं हम।।
दफ्न होकर खाक में भी दफ्न रह सकते नहीं।
लाला-ओ-गुल बन के वीरानों पे छा जाते हैं हम।।
हम कि करते हैं चमन में एहतमामे-रंगो-बू।
रू-ए-गेती से नकाबे-हुस्न सरकाते हैं हम।।
अक्स पड़ते ही संवर जाते हैं चेहरे के नुकूश।
शाहिदे-हस्ती को यूं आईना दिखलाते हैं हम।।
मैकशों को मुज्दा, सदियों के प्यासों को नवेद।
अपनी महफिल अपना साकी ले के अब आते हैं हम।।
एक शुभ समाचार, उनको जो सदियों के प्यासे हैं। मैकशों को मुज्दा! उनके लिए एक शुभ घड़ी, जिन्हें परमात्मा को पीने की ललक है, अभीप्सा है। सदियों के प्यासों को नवेद! और सदियों से जो प्यासे हैं, उनके लिए शुभ संदेश!
अपनी महफिल अपना साकी ले के अब आते हैं हम।
यह तो मैकदा है, कोई मंदिर नहीं। मत पूछो कि मेरे धर्म का नाम क्या है। पियक्कड़ों का कोई धर्म होता है? मयकशों का कोई धर्म होता है? मस्ती होती है, आनंद होता है। मत पूछो मेरा लक्ष्य क्या है। कोई लक्ष्य नहीं है। यह अस्तित्व किसी लक्ष्य के लिए नहीं है। यह अस्तित्व स्वस्फूर्त आनंद है।
और तुम पूछते हो कि ‘आपके आस-पास हजारों लोग जो संगठन बना रहे हैं, उसका क्या उद्देश्य है?’
न कोई संगठन है यहां, न कोई संगठन बना रहा है। लेकिन मैकदे में भी तो थोड़ी व्यवस्था करनी पड़ती है! बस मैकदे की व्यवस्था है। मैकदे का भी अपना निजाम होता है। आखिर मैकदे में किसी को साकी होना होगा, कोई सुराही लेकर आएगा, कोई प्यालियां बांटेगा, कोई सुराही से शराब ढालेगा। मैकदे का अपना निजाम होता है, अपनी व्यवस्था होती है। यह कोई संगठन नहीं, यह सिर्फ व्यवस्था है कि जो पियक्कड़ हैं वे प्यासे न रह जाएं और जो गैर-पियक्कड़ हैं उनको भीतर न आने दिया जाए।
मैकशों को मुज्दा, सदियों के प्यासों को नवेद।
अपनी महफिल अपना साकी ले के अब आते हैं हम।।
आज इतना ही।
भगवान,
आनंद दिव्या, मनुष्य का मन मनुष्य के भीतर भेद का सूत्र है। जब तक मन है तब तक भेद है। मन एक नहीं, अनेक है। मन के पार गए कि अनेक के पार गए। जैसे ही मन छूटा, विचार छूटे, वैसे ही भेद गया, द्वैत गया, दुई गई, दुविधा गई। फिर जो शेष रह जाता है वह अभिव्यक्ति योग्य भी नहीं है। क्योंकि अभिव्यक्ति भी विचार में करनी होगी। विचार में आते ही फिर खंडित हो जाएगा। मन के पार अखंड का साम्राज्य है। मन के पार ‘मैं’ नहीं है, ‘तू’ नहीं है। मन के पार हिंदू नहीं है, मुसलमान नहीं है, ईसाई नहीं है। मन के पार अमृत है, भगवत्ता है, सत्य है। और उसका स्वाद एक है।
फिर कैसे कोई उस अ-मनी दशा तक पहुंचता है, यह बात और। जितने मन हैं उतने मार्ग हो सकते हैं। क्योंकि जो जहां है वहीं से तो यात्रा शुरू करेगा। और इसलिए हर यात्रा अलग होगी। बुद्ध अपने ढंग से पहुंचेंगे, महावीर अपने ढंग से पहुंचेंगे, जीसस अपने ढंग से, जरथुस्त्र अपने ढंग से।
लेकिन यह ढंग, यह शैली, यह रास्ता तो छूट जाएगा मंजिल के आ जाने पर। रास्ते तो वहीं तक हैं जब तक मंजिल नहीं आ गई। सीढ़ियां वहीं तक हैं जब तक मंदिर का द्वार नहीं आ गया। और जैसे ही मंजिल आती है, रास्ता भी मिट जाता है, राहगीर भी मिट जाता है। न पथ है वहां, न पथिक है वहां। जैसे नदी सागर में खो जाए।
यूं खोती नहीं, यूं सागर हो जाती है। एक तरफ से खोती है--नदी की भांति खो जाती है। और यह अच्छा है कि नदी की भांति खो जाए। नदी सीमित है, बंधी है, किनारों में आबद्ध है। दूसरी तरफ से नदी सागर हो जाती है। यह बड़ी उपलब्धि है। खोया कुछ भी नहीं; या खोईं केवल जंजीरें, खोया केवल कारागृह, खोई सीमा और पाया असीम! दांव पर तो कुछ भी न लगाया और मिल गई सारी संपदा जीवन की, सत्य की; मिल गया सारा साम्राज्य। नदी खोकर सागर हो जाती है। मगर खोकर ही सागर होती है। और हर नदी अलग ढंग से पहुंचेगी। गंगा अपने ढंग से और सिंधु अपने ढंग से और ब्रह्मपुत्र अपने ढंग से। लेकिन सब सागर में पहुंच जाती हैं। और सागर का स्वाद एक है।
पलटू यही कह रहे हैं: जैसे नदी एक है, बहुतेरे हैं घाट।
नदी को पार करना हो तो अलग-अलग घाटों से नदी पार की जा सकती है। अलग-अलग नावों में बैठा जा सकता है। अलग-अलग मांझी हो सकते हैं। अलग होंगी पतवारें। लेकिन उस पार पहुंच कर सब अलगपन मिट जाएगा। फिर कौन पूछता है--‘किस नाव से आए? कौन था मांझी? नाव का बनाने वाला कारीगर कौन था? नाव इस लकड़ी की बनी थी या उस लकड़ी की बनी थी?’ उस पार पहुंचे कि इस पार का सब भूला। ये घाट, ये नदी, ये पतवार, ये मांझी, ये सब उस पार उतरते ही विस्मृत हो जाते हैं। और उस पार ही चलना है।
लेकिन लोग हैं पागल। वे नावों से बंध जाते हैं, घाटों से बंध जाते हैं। और जो घाट से बंध गया वह पार तो कैसे होगा? जिसने घाट से ही मोह बना लिया, जिसने घाट के साथ आसक्ति बना ली, जिसने घाट के साथ अपने नेह को लगा लिया, उसने खूंटा गड़ा लिया। अब यह छोड़ेगा नहीं। यह छोड़ नहीं सकता। इससे छुड़ाओगे भी तो यह नाराज होगा कि मेरा घाट मुझसे छुड़ाते हो, मेरा धर्म मुझसे छुड़ाते हो, मेरा शास्त्र मुझसे छुड़ाते हो! जिसे यह शास्त्र समझ रहा है, वही इसकी मौत बन गई। और जिसे यह घाट समझ रहा है, वह अगर पार न ले जाए तो घाट न हुआ, कब्र हो गई।
यूं ही मंदिर कब्र बन गए हैं। यूं ही मस्जिदें मजार हो गई हैं। यूं ही शास्त्र मनुष्य की छाती पर बोझ हो गए हैं। सुंदर-सुंदर प्यारे-प्यारे शब्द मनुष्य के हाथ में जंजीरें बन गए हैं, पैरों में बेड़ियां बन गए हैं। यह मनुष्य का कारागृह बड़ी सुंदर ईंटों से बना है, बड़ी प्यारी ईंटों से बना है। इसे छोड़ने का मन नहीं होता। और इसीलिए हर आदमी कारागृह में है। फिर कारागृह अलग-अलग हो सकते हैं। फिर चर्च हो, कि गुरुद्वारा हो, कि मंदिर हो, कि शिवालय हो, क्या फर्क पड़ता है? तुम कहां बंधे हो, इससे भेद नहीं।
मैंने सुना है, एक रात कुछ लोगों ने ज्यादा शराब पी ली। पूर्णिमा की रात थी, बड़ी सुंदर रात थी। चांदी बरसती थी। और वे मस्त नशे में झूम रहे थे। मस्ती में रात का सौंदर्य और भी हजार गुना हो गया था। एक पियक्कड़ ने कहा कि चलें आज, नौका-विहार को चलें। ऐसी प्यारी रात! ऐसा चांद न कभी देखा, न कभी सुना! यह रात सोने जैसी नहीं। यह रात तो आज नाव में विहार करने जैसी है। और भी दीवानों को जंचा। वे सभी गए नदी पर। मांझी अपनी नावें बांध कर घर जा चुके थे। उन्होंने सुंदर सी नाव चुनी, उस नाव में सवार हुए, पतवारें उठाईं, खेना शुरू किया। और रात देर तक नाव को खेते रहे, खेते रहे।
फिर भोर होने के करीब आ गई। ठंडी हवाएं चलीं। ठंडी हवाओं ने थोड़ा सा नशा कम किया। उन पियक्कड़ों में से एक ने कहा, ‘न मालूम कितनी दूर निकल आए होंगे! रात भर नाव खेई है। अब लौटने का समय हो गया। कोई उतरे और जरा देख ले कि हम किस दिशा में चले आए हैं। क्योंकि हम तो नशे में थे। हमें पता नहीं हम कहां पहुंच गए हैं, किस दिशा में आ गए हैं। अब घर वापस लौटना है। इसलिए कोई उतरे किनारे पर, जरा देखे कि हम कहां हैं। अगर समझ में न आ सके तो पूछे किसी से कि हम उत्तर चले आए, कि पूरब चले आए, कि पश्चिम चले आए, कि हम अंततः कहां आ गए हैं।
एक आदमी उतरा और उतर कर खिलखिला कर हंसने लगा। यूं खिलखिलाने लगा कि बाकी लोग समझे कि पागल हो गए हो! उसकी खिलखिलाहट ने उनका नशा और भी उतार दिया। पूछें उससे कि बात क्या है हंसने की? वह कुछ कहे न। उसे हंसी ऐसी आ रही है कि अपने पेट को पकड़े। दूसरा उतरा; वह भी हंसने लगा। तीसरा उतरा; वह भी हंसने लगा। वे सभी उतर आए और उस घाट पर भीड़ लग गई। क्योंकि वे सभी हंस रहे थे। भीड़ ने पूछा कि बात क्या है? बामुश्किल एक ने कहा, ‘बात यह है कि रात हम नौका-विहार को निकले थे। बड़ी प्यारी रात थी। रात भर हमने पतवार चलाई। हम थक गए, हम पसीना-पसीना हो गए। और अब उतर कर हमने देखा कि हम नाव को किनारे से खोलना भूल ही गए थे। यह रात भर की यात्रा बिलकुल व्यर्थ गई; हम जहां हैं, यहीं थे, रात भर यहीं रहे। पतवारें जोर से चलाते थे तो नाव हिलती थी। हम सोचते थे यात्रा हो रही है।’
ऐसे ही लोग बंधे हैं, होश में नहीं हैं, मूर्च्छा में हैं। और मूर्च्छा में तुम जिसको भी पकड़ लोगे वही तुम्हारे लिए खूंटा हो जाएगा। उसके आस-पास ही तुम चक्कर काटते रहोगे।
लोग मंदिरों में परिक्रमा कर रहे हैं--खूंटों के चक्कर काट रहे हैं। लोग काबा जा रहे हैं, काशी जा रहे हैं, गंगा जा रहे हैं, कैलाश जा रहे हैं, गिरनार जा रहे हैं--खूंटों की पूजा चल रही है। किसी को इस बात की फिकर नहीं कि सदियां बीत गईं, नाव चलाते-चलाते थक गए, मगर पहुंचे कहां? पहुंचने की सुध-बुध ही नहीं है।
घाट खतरनाक हो सकते हैं। मूर्च्छित के हाथ में कोई भी चीज खतरनाक हो जाती है। और फिर हर घाट वाला यह दावा करता है कि मेरा घाट पुराना है, कि मेरा घाट सोने से मढ़ा है, कि मेरा ही घाट सच है, और सब घाट झूठ हैं, जो मेरे घाट से उतरेगा वही पहुंचेगा।
बड़ा विवाद मचा हुआ है। सदियों से लोग शास्त्रार्थ कर रहे हैं--क्या सत्य है? अंधे विचार कर रहे हैं कि हाथी कैसा है? कोई कह रहा है--जिसने सूंड छुई है--कि यूं है। कोई कह रहा है--जिसने हाथी के कान छुए हैं--कि सूप जैसा है। कोई कह रहा है--जिसने हाथी के पैर छुए हैं--कि मंदिर के खंभों जैसा है। भारी विवाद है अंधों में। भारी शास्त्रार्थ है। एक-दूसरे को गलत सिद्ध करने में लगे हैं। लेकिन किसी को होश नहीं कि आंख ही न हो अपने पास, दृष्टि ही न हो, तो दर्शन क्या होगा?
ये दर्शनशास्त्र, जिनमें लोग उलझे हैं, अंधों की ईजादें हैं। आंख वाले चुप हो जाते हैं। चुप हो जाते हैं सत्य के संबंध में, परमात्मा के संबंध में। जरूर बोलते हैं तो बोलते हैं उन विधियों के संबंध में, जिनसे परमात्मा तक पहुंचा जा सकता है। उनका बोलना इशारा है; चांद-तारों की तरफ उठाई हुई अंगुलियां हैं। लेकिन अंगुलियां चांद-तारे नहीं हैं। और अंगुलियों को ही जो पकड़ ले वह नासमझ है।
पलटू ठीक कहते हैं: जैसे नदी एक है, बहुतेरे हैं घाट।
यह अस्तित्व तो एक है। इसमें कोई मूसा की तरह, और कोई ईसा की तरह, और कोई कबीर की तरह, और कोई नानक की तरह--अलग-अलग रास्तों से, अलग-अलग ढंग और विधियों से सत्य तक पहुंच गया है। लेकिन विधियों को पकड़ने से कोई नहीं पहुंचता; विधियों पर चलने से पहुंचता है। नावों को ढोने से कोई नहीं पहुंचता; नाव में सवारी करनी होती है, यात्रा करनी होती है।
किनारों पर बैठ कर विवाद करने से कोई भी सार नहीं है। किनारे छोड़ो! छोड़ो नाव को, पतवारें उठाओ! वह जो दूर किनारा है, वह जो अभी दिखाई भी नहीं पड़ता है, अभी जिसको देखने की आंख भी नहीं है, जिसे पहचानने की क्षमता भी नहीं है--वह जो दूर किनारा है, वही मंजिल है। वह जो अभी अदृश्य है, वही मंजिल है। और मजा यह है कि वह कितने ही दूर हो, साथ ही वह तुम्हारे भीतर भी है।
यूं समझो कि तुम अपने से बाहर हो, इसलिए जो पास से पास है वह दूर हो गया है। तुम बाहर ही बाहर भटक रहे हो। और तुम अपने से दूर ही दूर निकलते जा रहे हो। आदमी भी कैसा पागल है! गौरीशंकर पर चढ़ेगा; पाने को वहां कुछ भी नहीं।
जब एडमंड हिलेरी से पूछा गया कि क्यों, किसलिए तुमने यह भयंकर यात्रा की? यह खतरनाक यात्रा करने का मूल कारण क्या है? क्योंकि एडमंड हिलेरी के गौरीशंकर पर पहुंचने के पहले न मालूम कितने यात्री-दल चढ़े, खो गए; न मालूम कितने यात्री गिरे और उनकी लाशों का भी पता न चला। यह क्रम कोई सत्तर साल से चल रहा था। गौरीशंकर की यात्रा में अनेकों जानें गईं। और पाने को वहां कुछ भी नहीं था, यह तय है। जब एडमंड हिलेरी से पूछा गया तो उसने कंधे बिचकाए। उसने कहा, ‘यह भी कोई सवाल है! गौरीशंकर है, यही काफी चुनौती है। अब तक अनचढ़ा है, यही काफी चुनौती है। अब तक दुर्गम रहा है, यही काफी चुनौती है। आदमी को चढ़ना ही होगा।’ पाने का जैसे कोई सवाल नहीं!
अहंकार अजीब तरह की चुनौतियां स्वीकार कर लेता है: गौरीशंकर पर चढ़ना है, चांद पर जाना है। अब मंगल-ग्रह पर जाने की बात चल रही है। और यह बात कुछ रुकेगी नहीं। यह बात आगे बढ़ेगी। अभी ग्रहों पर, फिर तारों पर पहुंचना होगा। और फिर अनंत विस्तार है तारों का। यूं आदमी अपने से दूर निकलता जाता है।
किनारा दूसरा कहीं बाहर नहीं है। ये बहुतेरे जो घाट हैं, ये इसलिए बहुत हैं कि तुम अलग-अलग बाहर की यात्राओं पर निकल गए हो। तुम अपने से ही बहुत दूर चले गए हो। तुम्हें अपनी ही खबर नहीं रही--कहां छोड़ आए, किस जंगल में अपने को भूल आए हो, कहां तुम खो गए हो--इसका तुम्हें होश नहीं। तुम्हारी नजरें किसी और चीज पर लगी हैं। किसी की धन पर, किसी की पद पर, किसी की परमात्मा पर, किसी की स्वर्ग पर, किसी की मोक्ष पर। लेकिन नजर बाहर अटकी है; वहां पहुंचना है। और मामला कुछ और है: वहां तुम हो; यहां पहुंचना है। दूर तुम जा चुके हो, पास आना है। क्रमशः, आहिस्ता-आहिस्ता, उस बिंदु पर लौट आना है जो हमारा केंद्र है। उस पर आते ही सारे राज खुल जाते हैं; सारे रहस्य जो आच्छादित हैं, अनाच्छादित हो जाते हैं; जो ढके हैं, उघड़ जाते हैं।
उपनिषद के ऋषि ने प्रार्थना की है: ‘हे परमात्मा! सोने से ढके हुए इस पात्र को तू उघाड़ दे!’ प्रार्थना प्यारी है। ‘सोने से ढके हुए इस पात्र को तू उघाड़ दे!’ यह सोने से ढका है। चूंकि सोने से ढका है, इसलिए हम ढक्कन को ही पकड़ लेते हैं। ऐसे प्यारे ढक्कन को कौन छोड़े! जोर से पकड़ लेते हैं कि कोई और न पकड़ ले। मगर रहस्य इसी सोने में ढका है। और जब तक कोई इस सोने को न छोड़े।
यह ‘सोना’ शब्द भी बड़ा प्यारा है। एक अर्थ तो ‘स्वर्ण’ और एक अर्थ ‘नींद’। ये नींद से भरे हुए लोग ही स्वर्ण को पकड़े बैठे हैं। यही ढकना है--यह नींद, यह बेहोशी, यह मूर्च्छा। जाग जाओ! अब जागोगे कैसे? बहुतेरे घाट हो सकते हैं।
महावीर एक तरह से जागे, बुद्ध दूसरी तरह से जागे। और स्वभावतः, जब कोई व्यक्ति जागता है, तो जिस विधि से जागता है उसी की बात करता है। और किसी की बात करे भी तो कैसे करे? जो मार्ग परिचित है उसकी ही बात करेगा। जिस रास्ते से चल कर वह आया है, उसी रास्ते से उसकी पहचान है। जिस नाव पर बैठ कर उसने यात्रा की है, उसी नाव से तुम्हें परिचित करा सकता है। लेकिन इससे तुम यह मत समझ लेना कि बस एक ही नाव है। वही समझ लिया गया है।
ईसाई सोचते हैं: जो जीसस की नाव में नहीं बैठेगा वह नहीं पहुंचेगा।
मगर उनको यह भी खयाल नहीं आता कि जीसस खुद कैसे पहुंचे? तब तक तो जीसस की नाव नहीं थी। यह तो सीधी-साफ बात है। जीसस तो ईसाई नहीं थे। उन्होंने ‘ईसाई’ शब्द भी नहीं सुना था। कभी सपने में भी यह शब्द और इसकी अनुगूंज उन्हें न आई होगी। जब जीसस पहुंच सके बिना ईसाई हुए तो दूसरे क्यों न पहुंच सकेंगे?
बौद्ध सोचते हैं: बस उनका ही रास्ता एकमात्र रास्ता है। लेकिन बुद्ध को तो इस रास्ते का कोई भी पता न था। बुद्ध तो टटोलते-टटोलते, खोजते-खोजते, अंधेरे में किसी तरह इस द्वार को पाए थे। इस द्वार का नाम बौद्ध द्वार है, इसकी उन्हें कभी कल्पना भी नहीं थी। वे खुद भी बिना बौद्ध हुए पहुंचे थे।
और यही सत्य सबके संबंध में है। जो भी पहुंचा है, किसी और के रास्ते पर चल कर नहीं पहुंचा है। उसे अपने ही घाट से पहुंचना है। प्रत्येक को अपने ही घाट से पहुंचना है। प्रत्येक को अपनी ही नाव बनानी है। स्वयं की चेतना की ही नाव गढ़नी है। चलना है और चल कर ही अपना रास्ता बनाना है। बने-बनाए रास्ते नहीं हैं। काश, बने-बनाए रास्ते होते! सीमेंट और कोलतार के बने हुए राजपथ होते! तो सत्य तक पहुंचाने वाली बसें चलतीं, रेलगाड़ियां होतीं, पटरियों पर लोग दौड़ते। फिर कोई अड़चन न होती। अड़चन यही है कि कोई बना हुआ रास्ता नहीं है।
बुद्ध के वचन स्मरणीय हैं। बुद्ध ने कहा है: जैसे पक्षी आकाश में उड़ते हैं तो उनके कोई पग-चिह्न नहीं छूट जाते। पक्षी उड़ता जरूर है, लेकिन कोई रास्ता नहीं बनता, आकाश खाली का खाली रहता है, कि कोई दूसरा पक्षी ठीक उसी पक्षी के पग-चिह्नों पर चल कर आकाश में नहीं उड़ सकता। पग-चिह्न ही नहीं बनते।
यूं ही सत्य का आकाश भी है। वहां कोई चरण-चिह्न नहीं बनते। लेकिन लोग चरण-चिह्नों को पूज रहे हैं। लोगों ने गढ़ लिए हैं चरण-चिह्न। समय की रेत पर जरूर चरण-चिह्न बनते हैं; लेकिन सत्य तो समयातीत है, कालातीत है, वहां कोई चरण-चिह्न नहीं बनते। वहां तो प्रत्येक को चलना पड़ता है और क्रमशः अपने भीतर की जागृति से ही अपने रास्ते को निर्मित करना होता है।
अनुकरण नहीं--स्वयं होना जरूरी है। निजता की उदघोषणा जरूरी है।
अब तक यही सिखाया गया है सदियों से कि पकड़ लो कोई घाट, कि पकड़ लो कोई नाव, कि पकड़ लो कोई शास्त्र, कि बंधा हुआ कोई सिद्धांत, कि रटे-रटाए सदियों के सड़े-गले उत्तर दोहराए जाओ।
जिंदगी सदा नये सवाल उठाती है और तुम्हारे जवाब हमेशा पुराने होते हैं। इसलिए जिंदगी और तुम्हारा तालमेल नहीं हो पाता, संगीत नहीं बन पाता। जिंदगी कुछ पूछती है, तुम कुछ जवाब देते हो। जिंदगी पूरब की पूछती है, तुम पश्चिम का जवाब देते हो। जिंदगी कभी वही दुबारा नहीं पूछती। और तुम्हारे जवाब वही हैं जो तुम्हारे बाप-दादों ने दिए थे, उनके बाप-दादों ने दिए थे। मजा यह है कि जितना पुराना जवाब हो, लोग समझते हैं उतना ही ज्यादा ठीक होगा। जितना पुराना हो उतना ही ज्यादा गलत होगा! जवाब नया चाहिए, नितनूतन चाहिए! जवाब तुम्हारी स्व-स्फुरणा से पैदा होना चाहिए। जवाब तुम्हारे बोध से आना चाहिए।
लेकिन सदियों से तुम्हें बुद्धूपन सिखाया जा रहा है, मूढ़ता पिलाई जा रही है, अंधविश्वास तुम्हारी खोपड़ी में भरे जा रहे हैं। और तब यह दुर्गति मनुष्यता की हो गई है। इस दुर्गति में तुम्हारे तथाकथित महात्माओं का हाथ है। इस दुर्गति में तुम्हारे धर्मगुरुओं का हाथ है। इस दुर्गति में उन सारे लोगों का हाथ है, जिनकी चाहे नीयत अच्छी हो, इरादे नेक हों, मगर जिनकी समझ कुछ भी नहीं। अंधे आदमी की नीयत कितनी ही अच्छी हो, और वह तुम्हारा हाथ पकड़ कर रास्ता दिखाने लगे, तो नानक ने कहा है: ‘अंधा अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत।’ नीयत बड़ी अच्छी थी। मार्ग-द्रष्टा बन रहा था। इरादे बुरे न थे। इरादों पर कोई शक नहीं है मुझे। लेकिन आंख ही न हो बेचारे के पास तो इरादे क्या करेंगे?
आंख वालों ने सदा यही कहा है: अप्प दीपो भव! अपने दीये खुद बनो। आंख वालों ने तुम्हें स्वतंत्रता दी है, निजता दी है। आंख वालों ने कहा है: तुम्हारे भीतर ज्योति छिपी है, जरा तलाशो, जरा निखारो! आंख वालों ने कहा है: क्या तुम बाहर की शराबें पी रहे हो? तुम्हारे भीतर शराबों की शराब है, जिसे एक बार पी लिया तो आदमी को ऐसी मदमस्ती आ जाती है जो कभी नहीं उतरती; और ऐसी मदमस्ती कि जो बेहोशी भी नहीं होती; जो बेहोशी भी होती है और साथ ही साथ होश भी होती है। मस्ती से भरा हुआ होश--या होश से भरी हुई मस्ती।
मय भी है, मीना भी है, महफिल भी है और शाम भी
पर इंतजार में तेरे खाली रहा ये जाम भी।
है वस्ल का वादा तेरा, आ जा सहर करीब है
जागी हुई हैं मस्तियां सोई हुई है शाम भी।
कासिद भी न आया इधर, न बात ही पहुंची उधर
दोनों ही कशमकश में हैं हसरत भी और पयाम भी।
न दम मेरा निकल सका, न तू ही हमनवा बना यादों में
तेरी जल गए शायर भी और कलाम भी।
बेजार क्यूं ‘खलिश’ है तू माहौल रूठा देख कर
माना खिजां में घिर गए साकी भी और जाम भी।
मय भी है, मीना भी है, महफिल भी है और शाम भी
पर इंतजार में तेरे खाली रहा ये जाम भी।
किसका इंतजार कर रहे हो? कोई आने वाला नहीं। किसका इंतजार कर रहे हो? जिसे आना था वह तुम्हारे भीतर मौजूद है। किसकी प्रतीक्षा में बैठे हो? जो आना था आ ही गया है--तुम्हारे साथ ही आया है। जिसे तुम खोज रहे हो वह खोजने वाले में छिपा है। इसे उससे कहीं और खोजा नहीं जा सकता। जो अपने में डूबेगा, जो अपने में उतरेगा, जो अपने में ठहरेगा, वही उसे पाने में समर्थ होता है।
हां, जो पा लेता है, बता भी नहीं सकता कि क्या पाया। गूंगे का गुड़ हो जाता है। कहना भी चाहे तो कह नहीं सकता। कहना चाहा है। जिसने पाया है उसने कहना चाहा है। मगर बात अनकही ही रह गई। कोई शास्त्र नहीं कह पाया। कोई शास्त्र कभी कह भी नहीं पाएगा। यह असंभव है। क्योंकि जो निशब्द में अनुभव होता है, शब्द उसे कैसे प्रकट करेंगे? जो मौन में पाया जाता है उसे भाषा में कैसे अनुवाद किया जा सकता है? इसीलिए सत्संग का मूल्य है।
सत्संग का अर्थ इतना ही है कि जिसे मिला हो, जो पहुंच गया हो, उसके पास बैठने की कला; उसके पास चुपचाप मौजूद होने का ढंग, शैली; उसकी आंखों में झांकने की कला। उसके पास, उसकी उपस्थिति में कुछ घट सकता है। घटेगा तो तुम्हारे भीतर। लेकिन उसकी उपस्थिति, जो तुम्हारे भीतर सोया है उसे जगाने के लिए बहाना बन सकती है।
तुमने देखा होगा बहुत बार कि अगर दो-चार आदमी उदास बैठे हों और तुम हंसते, गीत गुनगुनाते भी उनके पास जाओ तो उदास हो जाओगे। उन चार उदास आदमियों की उदासी तुम्हारी हंसी को सोख लेगी। जैसे स्याही सोखता न स्याहीसोख, ऐसे उनकी उदासी तुम्हारी हंसी को सोख लेगी। तुम अचानक पाओगे तुम्हारे गीत उड़ गए। तुम अचानक पाओगे तुम्हारा आनंद कहीं तिरोहित हो गया। तुम अचानक पाओगे घटा छा गई। सूरज अभी-अभी निकला था और अब अंधेरा हो गया। क्या हुआ? उन चार लोगों की मौजूदगी ने तुम्हारे भीतर कुछ किया। उनकी उदासी ने तुम्हारे भीतर की सोई हुई उदासी को झकझोर दिया।
जो घटना उदासी में घटती है, वैसी ही घटना हंसी-खुशी में भी घटती है। तुम उदास हो और चार मित्र आ जाएं, हंसी-खुशी की बात चल पड़े, मौज-बहार की बात होने लगे--तुम भूल जाते हो अपनी उदासी। तुम भी हंस पड़ते हो। तुम भी गीत में सम्मिलित हो जाते हो। अगर वे चारों नाचने लगें तो तुम्हारे पैरों में भी थिरक आ जाती है, पुलक आ जाती है।
तुमने देखा, कोई नर्तक नाचता हो, तो तुम्हें चाहे नाच न भी आता हो तो भी तुम्हारे पैरों में कोई चीज गतिमान हो उठती है। तुम्हें चाहे संगीत, तुम्हें चाहे लय और ताल का कोई बोध न हो, फिर भी तुम्हारे हाथ, कुर्सी पर ही सही, थाप देने लगते हैं।
यूं ही सत्संग में घटित होता है। जिसने पाया है, तुम उसे तो प्रभावित नहीं कर सकते। करोड़ों लोग भी उसके पास उदास बैठे रहें, तो भी जिसने पाया है, जिसने जीवन के अनुभव को जीया है, जिसने चखा है, जो उतर गया घाटों के पार और पहुंच गया वहां जहां पहुंचना है, तो करोड़ों उदास लोग भी उसके आनंद को खंडित नहीं कर सकते। उसकी मस्ती उससे छीनी नहीं जा सकती। लेकिन एक व्यक्ति भी करोड़ों लोगों के भीतर आनंद के स्वर छेड़ सकता है।
यह बात कही तो नहीं जा सकती, मगर फिर भी निशब्द में संवादित हो जाती है। मौन में ही झरती है।
मुमकिन नहीं कि बज्मे-तरब फिर सजा सकूं।
अब ये भी है बहुत कि तुम्हें याद आ सकूं।।
ये क्या तिलिस्म है कि तेरी जल्वागाह से।
नजदीक आ सकूं न कहीं दूर जा सकूं।।
जौके-निगाह और बहारों के दर्मियां।
पर्दे गिरे हैं वो कि न जिनको उठा सकूं।।
किस तरह कर सकोगे बहारों को मुतमइन।
अहले-चमन, जो मैं भी चमन में न आ सकूं।।
तेरी हसीं फिजा में, मेरे ऐ नये वतन।
ऐसा भी है कोई, जिसे अपना बना सकूं।।
‘आजाद’ साजे-दिल पे हैं रक्सां के जमजमे।
खुद सुन सकूं मगर न किसी को सुना सकूं।।
ऐसा भी गीत है जो खुद तो सुना जाता है--खुद सुन सकूं मगर न किसी को सुना सकूं--नहीं सुनाया जा सकता, मगर फिर भी मौन में संवादित होता है। एक ऐसा भी संगीत है जो वीणा पर नहीं बजाया जाता; जिसके लिए किसी साज की कोई जरूरत नहीं है। एक ऐसा भी संगीत है जो आत्मा में बजता है, और जो भी मौन है, जो भी तैयार है उसे अंगीकार करने को, जो भी उसके स्वागत के लिए उत्सुक है, जो भी उसे पी जाने को राजी है, उसके भीतर भी बज उठता है। बात हृदय से हृदय तक हो जाती है; कही नहीं जाती, सुनी नहीं जाती।
पलटू का सूत्र प्यारा है: बहुतेरे हैं घाट। इसलिए लड़ना मत, झगड़ना मत, विवाद में न पड़ना, तर्क के ऊहापोह में न उलझना। मत फिकर करना कि क्या ठीक है और क्या गलत। तुम्हारी प्रीति को जो रुच जाए, तुम्हारे प्रेम को जो भा जाए, उस पर चल पड़ना। विवाद अटका लेता है, उलझा लेता है--इसी घाट पर। और विवाद तुम्हारे मन को इतने विरोधाभासी विचारों से भर देता है कि चलना मुश्किल हो जाता है। क्या ठीक है?
लोग मुझसे पूछते हैं कि ‘हम कैसे चल पड़ें जब तक तय न हो जाए कि क्या ठीक है?’ यह तय कैसे होगा कि क्या ठीक है? इसको तय करने का कोई उपाय नहीं। यह तो अनुभव से ही निर्णीत होगा। यह तो अंत में तय होगा, प्रथम तय नहीं हो सकता।
मगर उनकी बात भी सोचने जैसी तो है। सभी का सवाल वही है--कैसे चल पड़ें जब तक तय न हो? और जब तक चल न पड़ोगे, कभी तय न होगा। तो स्वभावतः जिन्होंने सोच रखा है तय हो जाएगा, तर्क से सिद्ध हो जाएगा तभी चलेंगे, वे कभी नहीं चलेंगे। वे यहीं अटके रहेंगे। वे विवाद में ही पड़े रहेंगे।
विवाद और विवाद पैदा करता है। विवाद धुआं पैदा करता है। आंखें और मुश्किल से देखने में वैसे ही देखने में असमर्थ थीं, और भी असमर्थ हो जाती हैं। सत्य विवाद की बात नहीं, अनुभव की बात है।
इसलिए किसी भी घाट से उतर जाओ और किसी भी नाव से उतर जाओ, निर्णय अंत में होगा। और यह बेहतर है कि चाहे भटकना पड़े तो भटक जाओ, मगर घाट पर मत रुके रहो। क्योंकि भटकने वाला भी सीखेगा। अगर आज नाव गलत गई, अगर आज गलत यात्रा में गया, आज गलत दिशा में गया, तो कल ठीक दिशा में जा सकता है। आदमी भूलों से सीखता है। लेकिन जो भूल करने से भी डरते हैं उनके जीवन में तो सीख कभी पैदा नहीं होती। जो इतने होशियार हैं कि जब सब तरह से तय हो जाएगा, सौ प्रतिशत निर्णय हो जाएगा तभी चलेंगे, वे कभी नहीं चल पाएंगे।
चलने के लिए साहस चाहिए। और चलने के लिए तर्क साहस नहीं देता। तर्क बहुत कायर है। तर्क बहुत नपुंसक है। चलने के लिए प्रेम चाहिए। चलने के लिए प्रीति के सिवा और कोई उपाय नहीं। कुछ लोग बुद्ध के प्रेम में पड़ गए, इसलिए चल पड़े; इसलिए नहीं कि बुद्ध के तर्क से सिद्ध हुआ कि वे जो कहते हैं वह सही है। कुछ लोग लाओत्सु के प्रेम में पड़ गए और चल पड़े। चल पड़े तो पहुंचे।
हृदय की सुनो। और हृदय की भाषा और है; वह तर्क की भाषा नहीं है, वह प्रेम की भाषा है। बुद्धि को जरा बाद दो, एक तरफ हटा कर रखो। बुद्धि सिर्फ विवाद पैदा करती है, इसलिए उसे बाद दो।
बुद्धि को थोड़ा हटाओ और थोड़े प्रेम को जगने दो। प्रेम में दो पत्ते भी ऊग आएं तो तुम्हारे जीवन में क्रांति सुनिश्चित है। प्रेम के दो पत्ते काफी हैं विचार के बहुत ऊहापोह के मुकाबले। विचार के पहाड़ भी किसी काम नहीं आते। सिर्फ उनके नीचे लोग दब जाते हैं और मर जाते हैं।
पलटू यह कह रहे हैं कि मान लो बहुतेरे हैं घाट। मत विवाद करो। जो जिस घाट से जाना चाहे, जाने दो। तुम्हें जो प्रीतिकर लगे उस पर चल पड़ो। यह नदी एक है। हमेशा यात्रा का ध्यान करो--चलना है। चलने वाले पहुंचते हैं। और अगर भटकते हैं तो भी पहुंच जाते हैं, क्योंकि हर भटकन सिखावन बनती है।
इस सूत्र को याद रखो: इसके पहले कि कोई सही द्वार पर दस्तक दे, हजारों गलत द्वारों पर दस्तक देनी पड़ती है। क्योंकि हजार द्वारों में एक ही द्वार सच्चा द्वार है। मगर दस्तक ही न दोगे तो नौ सौ निन्यानबे जो गलत हैं उनको छोड़ने का क्या उपाय तुम्हारे पास है? क्या मार्ग तुम्हारे पास है? दस्तक दो! दस्तक तय कर देगी--‘यह द्वार नहीं है, दीवाल है। आगे बढ़ो।’ यूं ही भूल कर-कर के, चूक कर-कर के आदमी का निशाना अचूक हो जाता है। भूल करते-करते आदमी सीख जाता है। और इसके सिवा कभी कोई दूसरा मार्ग नहीं रहा है।
मेरे संन्यासियों से लोग पूछते हैं कि क्या बात है, क्यूं संन्यासी हो गए हो? और मेरे संन्यासी को अड़चन स्वाभाविक है--पुरानी अड़चन है, सदा की अड़चन है--वह जवाब नहीं दे पाता, या जो भी जवाब देता है उसको खुद लगता है कि वह जवाब नहीं है। चाहे किसी तरह समझा-बुझा दे, मगर खुद उसके प्राणों में यह बात साफ होती है कि जो मैंने जवाब दिया उसमें कुछ कमी है।
जवाब दिया ही नहीं जा सकता। यह मामला प्रेम का है, यह प्रीति का है। यह मामला पागलपन का है, परवानों का है। अब परवाना क्या जवाब दे कि शमा पर क्यों जल जाता है? और कौन समझेगा उसके जवाब को? सिर्फ थोड़े से दूसरे जो परवाने हैं वे समझ पाएंगे। मगर उनको समझाने की कोई जरूरत नहीं। कोई और तो समझेगा नहीं। और तो उसे पागल ही कहेंगे।
जिसे सत्य को खोजना है उसे भीड़ के द्वारा अपमानित होने के लिए तैयार रहना चाहिए। भीड़ उसकी निंदा करेगी, भीड़ विरोध करेगी, भीड़ इनकार करेगी, भीड़ उपेक्षा करेगी। भीड़ उसे पागल कहेगी। भीड़ सब तरह से उसके मार्ग में रुकावटें डालेगी। लेकिन दीवाने को कोई कभी रोक नहीं पाया है। सच तो यह है, जितना उसे रोकने की कोशिश की जाती है, उसके भीतर उतना ही बल आ जाता है। वह हर राह के पत्थर को सीढ़ी बना लेता है। दीवाने विवाद नहीं करते। दीवाने तो निर्विवाद जीते हैं। और जो निर्विवाद जीते हैं उनकी मंजिल दूर नहीं। उनकी मंजिल आ ही गई!
एक ही कदम में यात्रा पूरी हो सकती है; बस साहस की बात है। एक क्षण में निर्वाण का अमृत तुम पर बरस सकता है; बस प्रेम से भरी छाती चाहिए। इसलिए जिसको जो घाट प्यारा हो, कहना: जाओ, चलो, नाव में बैठो, यात्रा करो। और मुझे जो प्रीतिकर है उस पर चलने दो।
पलटू विवाद को काटने के लिए यह कह रहे हैं। पलटू पांडित्य को काटने के लिए यह वचन कह रहे हैं: जैसे नदी एक है, बहुतेरे हैं घाट। यह सूत्र प्यारा है और सभी साधकों को स्मरण रखने योग्य है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान,
वीणा भारती, दीवालों से बातें करना आ जाए तो ध्यान आ गया। दीवालों से ज्यादा देर बातें चल नहीं सकतीं। क्योंकि दीवालें तो कुछ भी न कहेंगी। दीवालें तो कोई उत्तर न देंगी। दीवालें तो कोई प्रश्न न उठाएंगी। न आएगा उत्तर, न आएगा प्रश्न, कोई कब तक दीवालों से बातें कर सकता है!
बोधिधर्म के संबंध में यह प्रसिद्ध है कि वह नौ साल तक दीवाल के सामने बैठा देखता रहा। और दीवाल को देखते-देखते ही परम संबोधि को उपलब्ध हुआ। बहुतेरे हैं घाट! अब यह तुमने कभी सोचा भी नहीं होगा कि दीवाल को देखते-देखते भी कोई परम संबोधि को उपलब्ध हो सकता है। मगर यह बात तो साफ मालूम पड़ती है कि नौ साल तक अगर कोई दीवाल को ही देखेगा तो बात कब तक चलाओगे! अकेले ही अकेले कब तक खींचोगे! एकालाप रहेगा, वार्तालाप तो हो नहीं सकता। दीवाल तो पहले से ही संबोधि को उपलब्ध है। दीवाल तो कहेगी: ‘तुम्हारी मर्जी, बकना है बको। हम तो पहुंच चुके!’ कब तक तुम एकालाप करोगे? दीवाल तो हां-हूं भी न करेगी। कम से कम हां-हूं भी करे, तो भी चर्चा जारी रहे। दीवाल तो बस चुप ही रहेगी। और कोरी दीवाल!
जरूर शुरू-शुरू में तुम अपने सपने उस दीवाल पर आरोपित करोगे। दीवाल का परदा बना लोगे। अपने चित्त की फिल्म को दीवाल पर फैलाओगे। अपने कचरे को दीवाल पर फेंकोगे। मगर कब तक? आखिर वही फिल्म बार-बार देखते-देखते थक भी जाओगे, ऊब भी जाओगे। और जल्दी ही यह समझ में आ जाएगा कि दीवाल तो चुप है, मैं खुद ही बकवास किए जा रहा हूं। और सार क्या? दीवाल सिर भी तो नहीं हिलाती। न कोई प्रशस्ति, न कोई प्रशंसा। यह भी तो नहीं कहती कि क्या प्यारी बात कही! न ताली बजाती। किसी तरह का सहारा नहीं देगी दीवाल।
नौ साल तक बोधिधर्म दीवाल को देखता रहा, वीणा! और देखते-देखते दीवाल जैसा ही कोरा हो गया। जैसी दीवाल चुप थी, ऐसा ही चुप हो गया। सत्संग हो गया। दीवाल से मिल गया वह, जो बड़े से बड़े पंडित से न मिलता। दीवाल से पा लिया उसे जो शास्त्रों में नहीं है।
सिर्फ सूफियों के पास एक किताब है, जिसमें कुछ भी नहीं लिखा है; वह कोरी है। कोई एक हजार साल पुरानी किताब है। और जब पहली दफा वह किताब पाई गई, तो कथा है कि जिस सूफी फकीर के पास वह किताब पाई गई वह जीवन भर उसे छिपाए रहा। वह किसी को भी, अपने प्यारे से प्यारे शिष्य को भी, उस किताब को देखने नहीं देता था। उसने उस किताब को ठीक से पोटली में बांध कर, अपने साथ ही रखता था। नहाने भी जाता था तो किताब अपने साथ ही ले जाता था। रात सोता था तो तकिए के नीचे रख कर सोता था। क्योंकि सब शिष्यों की नजर उस किताब पर थी--उस किताब में राज क्या है! बड़ी आकांक्षा थी कि एक दफा देख लें। सब द्वार-दरवाजे बंद करके उस किताब को पढ़ता था। शिष्यों को शक-शुबहा होता था, झांकते भी थे। आखिर शिष्य ही थे! कुतूहल, जिज्ञासा। छप्पर पर चढ़ जाते, संधों में से देखते कि पढ़ रहा है। है कोई राज की बात! कभी किसी के सामने न खोलता।
जब मरा यह फकीर तो उसकी अंत्येष्टि करने की फिकर तो शिष्यों ने बाद में की, सबसे पहले तकिए के नीचे से किताब निकाली। जैसे इसी की प्रतीक्षा कर रहे थे कि कब तुम विदा होओ और हम देखें! और जो पाया तो भौचक्क रह गए। किताब खाली थी। किताब में सिर्फ कोरे कागज थे, कुछ लिखा ही न था। तब से एक हजार साल बीत गए। गुरुओं से शिष्यों को वह किताब दी जाती रही है। कुछ भी नहीं लिखा है। एक शब्द नहीं लिखा है। शुरू से लेकर अंत तक बिलकुल खाली है; दीवाल ही है।
बोधिधर्म ज्यादा होशियार था। क्या ढोना! दीवाल हर जगह मौजूद है; कहीं भी बैठ रहे, बस दीवाल पर नजर रखी। तुमने मंदिरों को भी कचरा कर लिया है; उसने दीवालों को मंदिर बना लिया था।
वीणा, मत फिकर इसकी कर कि दीवालों से बातें करना अच्छा लगता है। और किससे बातें करेगी? आदमियों से बातें करना मतलब करीब-करीब विक्षिप्त लोगों से बातें करना है; जिन्हें कुछ पता नहीं, उनसे बातें करना है। यूं तो लोग बातों के घर हैं। ईश्वर के संबंध में कहो तो वे बताने को राजी हैं। मोक्ष के संबंध में कहो तो बताने को राजी हैं। जिनकी उन्हें कोई सपने में भी खबर नहीं है, उस संबंध में भी बताने का राजी हैं। पूछो भर। पूछने की भी जरूरत नहीं। जो असली बक्काड़ हैं, न भी पूछो तो गर्दन पकड़ लेंगे।
एक छोटा बच्चा अपने मित्र को कह रहा था कि मेरी मां गजब की है! बस जरा सा निमित्त भर मिल जाए, फिर घंटों तक रुकती ही नहीं। फिर बात में से बात, बात में से बात निकालती ही चली जाती है। वह तो यह कहो कि पिताजी को दफ्तर जाना पड़ता है, स्नान भी करना पड़ता है, सो वे किसी तरह भाग निकलते हैं। नहीं तो उसकी बात का अंत ही न आए।
दूसरे लड़के ने कहा, यह कुछ भी नहीं। मेरी मां को निमित्त वगैरह की कोई जरूरत ही नहीं। उसने तो देखा कि शुरू कर देती है। यही नहीं, एक दिन पिताजी चुप बैठे थे। तो उसने कहा, ‘चुप क्यों बैठे हो?’ और शुरू! ‘तुम्हें क्या लकड़बग्घा मार गया है? ऐसे चुप बैठे हो जैसे मैं मर ही गई!’ कोई निमित्त की जरूरत नहीं।
इन लोगों से वीणा, बात भी क्या करेगी? इनसे बात करेगी तो जरूर पागल हो जाएगी। दीवालों ने तो कभी किसी को पागल नहीं किया।
तू कहती है--
‘दीवारों से बातें करना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जाएंगे ऐसा लगता है’
असंभव! अगर दीवालों से ही बातें की तो पागल नहीं हो सकती। एक उल्लेख नहीं पूरी मनुष्य-जाति के इतिहास में। एक बोधिधर्म का उल्लेख है, नौ साल तक बातें की, परम बोधि को उपलब्ध हुआ। पागल का तो कोई उल्लेख ही नहीं है। पागल दीवालों से बातें नहीं करते। पागलों के लिए तो पूरी पृथ्वी उपलब्ध है। एक से एक पहुंचे हुए पागल यहां हैं।
दो प्रोफेसर पागल हो गए थे। यूं भी प्रोफेसर करीब-करीब पागल होते हैं, नहीं तो प्रोफेसर ही नहीं हो सकते। पागल होना तो अनिवार्य योग्यता है। जरा ज्यादा हो गए थे। मतलब सीमा के बाहर निकल गए थे। तो उनको पागलखाने में रखा गया। जगह की कमी थी, इसलिए दोनों प्रोफेसर को एक ही कमरे में रखा गया। मनोवैज्ञानिक यह जानने को उत्सुक था कि ये लोग बात क्या करते हैं! तो वह सुनता था दीवाल के पास छिप कर। दरवाजे के छेद से, चाबी के छेद से देखता भी, सुनता भी। बड़ा हैरान हुआ, क्योंकि दोनों की बातों में कोई तुक नहीं था, कोई संगति नहीं थी। एक कहता आसमान की तो दूसरा कहता पाताल की। कोई लेना-देना नहीं। मगर एक बात बड़ी गजब की थी कि जब एक बोलता तो दूसरा बिलकुल चुपचाप बैठ कर सुनता। बीच-बीच में सिर भी हिलाता। जब पहला खतम करता तो दूसरा शुरू करता और पहला चुप हो जाता और बीच-बीच में सिर हिलाता। और संबंध कोई था ही नहीं बातचीत का, किसी तरह का संबंध नहीं था। कोई सूत्र नहीं था। उसे हैरानी इसी बात से हुई। यह तो बात हैरानी की नहीं थी कि दोनों अल्ल-बल्ल बक रहे थे। कहां-कहां की बातें कर रहे थे। दूसरे की बात से पहले की बात का कहीं कोई सुर-ताल नहीं था। मगर हैरानी की बात यह थी--ये तो पागल थे तो ठीक है--हैरानी की बात यह थी कि जब एक बोलता है तो दूसरा क्यों चुप हो जाता है! और चुप ही नहीं हो जाता, बीच-बीच में सिर भी हिलाता है।
तो उसने उन दोनों से पूछा कि महानुभाव! इतना राज भर मुझे बता दो कि जब एक बोलता है तो दूसरा चुप क्यों हो जाता है?
उन्होंने कहा, तुमने हमें क्या समझा है? तुमने हमें पागल समझा है? अरे यह तो वार्तालाप का नियम है कि जब एक बोले तो दूसरा चुप हो जाए और सिर हिलाए। सो हम वार्तालाप का नियम पालन करते हैं।
लोग वार्तालाप का नियम ही पालन कर रहे हैं। जरा तुम गौर करो, खुद अपने पर ही गौर करो। जब तुम दूसरे से बात कर रहे होते हो तो तुम वार्तालाप का नियम ही पालन कर रहे होते हो। वह बोल रहा है तो तुम चुप रहते हो। और अगर वह तुम्हें बोलने ही नहीं देता, तो तुम लोगों से कहते हो कि बड़ा बोर है! बोर का मतलब यह कि तुम्हें बोर नहीं करने देता, अकेले ही किए जाता है। बोर किए ही चला जाता है, तुम्हें मौका ही नहीं देता। तुम्हें भी मौका दे तो फिर तुम कहते हो--‘अहा, वार्तालाप में मजा आ गया! कैसा प्यारा आदमी है!’ लेकिन उसे तुम्हें भी मौका देना चाहिए।
तुम जरा गौर करना। जब तुम किसी से बात कर रहे हो तो तुम सुन रहे हो उसकी बात? तुम बिलकुल नहीं सुन रहे। तुम्हारे भीतर हजार और बातें चल रही हैं जिनको तुम सुन रहे हो। फिर भी तुम सिर हिलाते हो; और ठीक समय पर हिलाते हो; जब हिलाना चाहिए तब सिर हिलाते हो। भीतर तुम अपना गणित बिठा रहे हो। भीतर तुम अपना हिसाब बिठा रहे हो। तुम्हें उस आदमी से कुछ लेना-देना नहीं। वह क्या बक रहा है, तुम जानते हो कि बकने दो। जब अपना समय आएगा, देख लेंगे। अब आता ही है अपना समय। तुम अपनी तैयारी कर रहे हो कि तुम क्या कहना चाहते हो। तुम सिर्फ प्रतीक्षा कर रहे हो कि उसकी बातों में कहीं से कोई नुस्खा मिल जाए; कोई एकाध बात ऐसी कह दे जो तुम्हारे लिए कारण बन जाए तुम्हारी बातें कहने का। बस जैसे ही कारण मिला कि तुम शुरू हुए। तुम शुरू हुए, वह चुप हो जाता है। यह मत समझना कि तुम्हें सुन रहा है; अब वह अपना गणित बिठा रहा है कि ठीक, कि बक लो थोड़ी देर, तब तक मैं भी तैयारी कर लूं, फिर मैं भी तुम्हें वह मजा चखाऊंगा कि छठी का दूध याद आ जाए। अरे थोड़ी देर की बात है, सह लो। वक्त पर सिर हिलाएगा, मुस्कुराएगा, हां भरेगा; मगर भीतर अपना गणित बिठा रहा है।
वीणा, लोगों से बात करो तो पागल हो सकती हो। दीवालें बेचारी बहुत निर्दोष हैं। दीवालें पागल न कर सकेंगी। और यह अच्छा लक्षण है कि दीवालों से बातें करना अच्छा लगने लगा है। यह पागल होने का लक्षण नहीं है; यह पागलपन से छूटने का लक्षण है। यह शुरुआत है। इसको ध्यान बना लो। और जब दीवाल तुम से कुछ भी नहीं कह रही है तो दीवाल को ज्यादा न सताओ। डर यह है कि दीवाल न पागल हो जाए। तुम्हारे पागल होने का कोई डर नहीं! तुम तो पागल हो ही, वीणा! अब और क्या खाक पागल होओगी! डर यह है कि दीवाल पागल न हो जाए।
सामर्थ्य की सीमा है। बोधिधर्म न मालूम किस मजबूत दीवाल के पास बैठा था! पुराने जमाने की दीवालें होती भी बड़ी थीं। आजकल की पतली दीवालें कि तुम दीवाल से बातें करो और पड़ोसी जवाब दे कि हां, बाई ठीक कह रही। सत्य वचन! अरे, यही तो हम कहते हैं!
लोग कहते हैं पुराने जमाने में दीवालों को कान होते थे। नहीं होते थे। अब होते हैं। कान ही नहीं होते, मुंह भी होते हैं। दीवालें इतनी पतली हैं कि डर यह है कि पास-पड़ोस के लोग जवाब न देने लगें। इसलिए ज्यादा दीवाल को मत सताना। थोड़े दिन ठीक, फिर दीवाल पर दया करो। जब दीवाल के सामने ही बैठे हैं तो क्या कहना, क्या सुनना! फिर दीवाल जैसे ही मौन, दीवाल जैसे ही कोरे हो जाना चाहिए। दीवाल जैसे ही चुप हो जाना चाहिए। और वही चुप्पी कुंजी है।
विक्षिप्त कोई हो नहीं सकता चुप होने से। चुप होने से व्यक्ति विमुक्त होता है। यह तुम्हारे भीतर चलती बकवास है जो तुम्हें विक्षिप्त कर सकती है--जो विक्षिप्त कर रही है! प्रत्येक आदमी पागल है।
खलील जिब्रान ने एक छोटी सी घटना लिखी है। उसका एक मित्र पागल हो गया। तो वह उसको मिलने पागलखाने गया। मित्र बगीचे में पागलखाने के बैठा हुआ था, बड़ा प्रसन्न था। खलील जिब्रान सहानुभूति प्रकट करने गया था। वह इतना प्रसन्न था कि सहानुभूति प्रकट करने का मौका ही न मिले। प्रसन्न आदमी से क्या सहानुभूति प्रकट करो! वह तो यूं मस्त हो रहा था, वृक्षों के साथ डोल रहा था, पक्षियों के साथ गुनगुना रहा था। पागल ही जो था।
फिर भी खलील जिब्रान तो अपनी तय करके आया था, तो बिना कहे जा नहीं सकता था। कहा कि भई, बहुत दुख होता है यह देख कर कि तुम यहां हो।
उस आदमी ने कहा, ‘मुझे देख कर तुम्हें दुख होता है? अरे, मुझे देख कर तुम्हें दुख नहीं होना चाहिए। हालत उलटी है। तुम्हें देख कर मुझे दुख होता है। मैं तो जब से इस दीवाल के भीतर आया हूं, पागलखाने के बाहर आ गया। दुख मुझे होता है कि तुम अभी भी उस बड़े पागलखाने में हो--दीवाल के बाहर जो पागलखाना है। यहां तो थोड़े से चुनिंदे लोग हैं जो पागल नहीं। दीवाल के बाहर है असली पागलखाना।’
खलील जिब्रान तो बहुत चौंका। बात में थोड़ी सचाई भी थी। रात सो नहीं सका। विचारशील व्यक्ति था, सोचने लगा कि बात में थोड़ी सचाई तो है। दीवाल के बाहर एक बड़ा पागलखाना ही तो है।
तुम खुद ही इसका परीक्षण कर सकते हो। दस मिनट के लिए तुम्हारी खोपड़ी में जो भी चलता है उसको कागज पर लिखो। संकोच न करना, संपादन न करना। कुछ काटना नहीं, पीटना नहीं। किसी को बताना नहीं है, द्वार-दरवाजे बंद रखना। सिगड़ी जला कर रखना। जैसे ही लिख लो, जल्दी से डाल देना; किसी के हाथ न लग जाए! इसलिए डरने की कोई जरूरत नहीं है। जो आए मन में, जैसा आए मन में, लिखना। और तुम बड़े हैरान होओगे। क्या-क्या तुम्हारे मन में आता है! पड़ोसी का कुत्ता भौंकने लगता है और तुम्हारे मन में चला कुछ--कि यह कुत्ता क्यों भौंक रहा है! ये हरामजादे कुत्ते! इनको कोई काम ही नहीं है! किसी को शांति से न रहने देंगे। चल पड़ी गाड़ी, मालगाड़ी समझो! हर डब्बे में सामान भरा है।
तब तुम्हें याद आएगा कि अरे तुम्हारी एक प्रेयसी हुआ करती थी; उसके पास भी कुत्ता था।...अब गाड़ी चली। कुत्ते ने सिलसिला शुरू करवा दिया। कुत्ता भी क्या वक्त पर भौंका! कुछ देर प्रेयसी की बातें चलेंगी। फिर उसकी मां ने कैसे बिगाड़ खड़ा किया। उसके दुष्ट बाप ने किस तरह बाधा डाली। समाज किस तरह आड़े आ गया।
तुम कहां जाकर पहुंचोगे अंत में, कहना मुश्किल है। और जब तुम लौट कर पूरा कागज पढ़ोगे तो तुम्हें भरोसा ही नहीं आएगा कि इसमें क्या सिलसिला है? क्या तुक है? कोई वचन आधा ही आकर खतम हो जाता है। उसमें पूर्ण विराम भी नहीं लगता। उसके बीच में ही दूसरा वचन घुस जाता है। बीच-बीच में फिल्मी गाने आते हैं--लारे-लप्पा! गीता के वचन भी आते हैं--न हन्यते हन्यमाने शरीरे! कुछ हिसाब ही नहीं। क्या-क्या नहीं आता!
पंद्रह मिनट के, दस मिनट के प्रयोग से ही तुम साफ समझ लोगे कि तुम्हारे भीतर जो छिपा है वह विक्षिप्त है। और क्या विक्षिप्तता होगी? तुम यह कागज किसी को बता भी न सकोगे।
आदमी पागल ही है। और उसके पागलपन का कुल कारण इतना है कि विचारों का जो कुंभ-मेला उसके भीतर लगा हुआ है...। क्या-क्या विचार!...नागा बाबा! कैसे-कैसे नागा बाबा कि जननेंद्रिय से बांध कर जीप को घसीट दें! ऐसे-ऐसे विचार! और कुंभ का मेला! उसमें क्या नहीं! हर चीज देखो। बंबई की नंगी धोबन देखो। अब बंबई और नंगी धोबन का क्या संबंध है!
बचपन में मेरे गांव में आते थे लोग। एक छोटा सा डब्बा, मगर उसमें बंबई की नंगी धोबन जरूर होती थी। मैं कई बार सोचा कि बंबई से और नंगी धोबन का क्या संबंध! और अब तो बंबई भी न रही, अब तो मुंबई हो गई! अब नंगी धोबन का क्या होगा?...ऐसे-ऐसे विचार आएंगे, ऊंचे विचार आएंगे! तुम कभी कल्पना भी नहीं कर सकोगे कि क्या-क्या तुम्हारे भीतर कचरा-कबाड़ भरा हुआ है। इसको एक दफा देखो गौर से।
तो वीणा, दीवाल से बातें करने से कोई पागल नहीं होता। मुल्ला नसरुद्दीन कह रहा था, ‘जिसने यह सिद्ध किया है कि पृथ्वी घूमती है, वह अवश्य भंगेड़ी रहा होगा।’
मैंने कहा, ‘तुझे क्या हो गया नसरुद्दीन? कैसे तुझे इस बात का पता चला? कैसे तूने जाना?’
उसने कहा, ‘इसमें क्या मामला है? कल रात भांग खाने के बाद मुझे भी ऐसा ही लगा कि पृथ्वी घूम रही है। उसके पहले कभी मुझे ऐसा अनुभव ही नहीं हुआ था। निश्चित ही, जिसने यह सिद्ध किया वह भंगेड़ी रहा होगा।’
तू कहती है--
‘दीवारों से बातें करना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जाएंगे ऐसा लगता है
आंखों को भी ले डूबा इस दिल का पागलपन
आते-जाते जो मिलता है तुम सा लगता है।’
यह तो पागलपन की बात न हुई। यह तो बड़े बोध की बात हुई। यह तो पहली किरण उतरी। मेरे प्रेम में तुम्हें सब व्यक्ति मेरे जैसे लगने लगें तो ही वह प्रेम सच्चा है। मुझ पर ही अटक जाए तो सड़ जाएगा। जब भी प्रेम अटकता है तो सड़ जाता है। प्रेम प्रवाह है; फैलता ही जाना चाहिए, फैलता ही जाना चाहिए। अनंत तक फैलता जाना चाहिए। मुझसे तुम्हारा प्रेम, मुझ पर रुक जाए तो बंधन हो गया, बोझ हो गया। मैं द्वार बनूं, बस इससे ज्यादा नहीं। मेरे द्वार से तुम्हारा प्रेम निकले और खुले आकाश में फैलता जाए, फैलता जाए, सारे चांद-तारों को अपने भीतर ले ले। कुछ तुम्हारे प्रेम के बाहर न रह जाए। जरूर पहले-पहल तो यह पागलपन जैसा लगेगा वीणा, क्योंकि हमें यही सिखाया गया है कि एक से ही प्रेम करना। प्रेम को एक से ही बंधना चाहिए, प्रेम बंधन है, यही हमें सिखाया गया है।
मेरे पास लोगों के शादियों के निमंत्रण-पत्र आते हैं कि ‘वर-वधू विवाह के बंधन में बंध रहे हैं।’ क्या गजब के लोग! कम से कम निमंत्रण-पत्र में तो ये घोषणाएं न करो। मगर बात छिपाए भी छिपती नहीं। उन्होंने सोचा ही नहीं कि बंधन का क्या मतलब! ‘बंधन में बंध रहे हैं।’ प्रेम में मुक्त होना चाहिए कि बंधना चाहिए? प्रेम मुक्ति है, बंधन नहीं। और जो बांध ले वह प्रेम के नाम पर धोखा है, कुछ और है।
तू कहती है--
‘आंखों को भी ले डूबा इस दिल का पागलपन
आते-जाते जो मिलता है तुम सा लगता है’
ऐसा ही होना चाहिए।
मन की खिड़की को
खुली ही रहने दो
बंद मत करो।
आने दो भीतर
ऊषा की किरणों को,
विहंगों के कलरव को,
हवा की लहरों को,
फूलों की सुगंधों को।
आने दो भीतर जलती दोपहर,
आने दो धूल भरे अंधड़,
आने दो तूफानी बौछारें,
घोर नैश अंधकार
किंचित मत डरो।
आश्वस्त रहो
फिर झांकेगी
इसी खिड़की में से भोर,
पंछी फिर चहकेंगे,
फूल फिर महकेंगे।
मन की खिड़की को
खुली ही रहने दो
बंद मत करो।
प्रेम तो खुलना है, खिलना है। जैसे फूल खिल जाए। और जब फूल खिलता है और सुगंध उड़ती है तो फिर किन्हीं नासापुटों का पता लेकर थोड़े ही उड़ती है, कि फलाने की नाक तक जाना है, कि हम तो वहीं जाएंगे! जब सुगंध उड़ती है तो जिसे लेना हो ले ले, जिसे पीना हो पी ले।
प्रेम मुक्ति है। प्रेम परम मुक्ति है।
इस एक से बंधने की धारणा ने बड़ी हैरानी खड़ी की। इससे प्रेम ईर्ष्या बन गया। इससे प्रेम परिग्रह बन गया। इससे प्रेम एक संघर्ष बन गया। इससे प्रेमी दुश्मन हो गए, मित्र नहीं। प्रेमी और मित्र, करीब-करीब असंभव बात है। प्रेमी मित्र होते ही नहीं। एक-दूसरे के बिलकुल दुश्मन। एक-दूसरे के पीछे पड़े--हाथ धोकर पीछे पड़े! एक-दूसरे को ठिकाने लगाने में लगे। यह कोई प्रेम है? लेकिन आदमी बेहोश है, तो प्रेम करे तो प्रेम बेहोश। जो करे वही बेहोश। बेहोश आदमी से और अपेक्षा नहीं हो सकती।
मेरे संन्यासी एक ही तो काम में लगे हैं कि कैसे यह मूर्च्छा टूटे? कैसे इस मूर्च्छा के पार जाएं? कैसे जागरण हो? और जैसे-जैसे जागरण होगा वैसे-वैसे उस जागरण के साथ जीवन का सारा सिलसिला बदलेगा, धारा बदलेगी, धारा का रुख बदलेगा। फिर प्रेम फैलेगा--यूं जैसे कि कोई कंकड़ फेंक दे शांत झील में। कंकड़ के गिरते ही लहर उठती है। फिर और लहर, फिर और लहर, लहरों पर लहरें उठती जाती हैं और दूर-दूर किनारों तक फैलती चली जाती हैं। ऐसा ही प्रेम शुरू तो एक से होता है, लेकिन फिर फैलता चला जाता है। और इस अस्तित्व के तो कोई किनारे नहीं। इसलिए फिर कहीं रुकता ही नहीं। फिर रुकने का कोई उपाय ही नहीं है। और जिसने भी प्रेम को रोकना चाहा, उसने उसे विषाक्त कर दिया। उसने उसे मार डाला, उसने भ्रूण-हत्या कर दी।
इस दुनिया में सबसे बड़ी हत्या प्रेम की हत्या है। आदमी को मार डालो, इतना बुरा नहीं; मगर उसके प्रेम को न मारो। क्योंकि आदमी मरेगा तो फिर जन्म ले लेगा। लेकिन उसका प्रेम मार डाला, तो शायद फिर भी जन्म ले ले, मगर वह जो प्रेम मर गया है, फिर पनपेगा कि नहीं? और फिर भी उस प्रेम को मारने वाले मौजूद रहेंगे, क्योंकि तुम्हीं कोई एक हत्यारे नहीं हो। प्रेम को मारने का इतना आयोजन है।...
बच्चा पैदा हुआ और हमने उसके प्रेम को मारना शुरू किया। मां कहती है, ‘मुझे प्रेम करो, क्योंकि मैं तुम्हारी मां हूं। और मुझसे ही प्रेम करना।’ बाप कहता है, ‘मुझे प्रेम करो, क्योंकि मैं तुम्हारा बाप हूं।’ जैसे कि बाप होना कोई प्रेम के लिए अनिवार्य कारण है। बाप होंगे तो होंगे। मगर इससे प्रेम उत्पन्न होना ही चाहिए, ऐसा क्या है? सिर्फ बाप होना कानूनी अधिकार हो सकता है। लेकिन प्रेम का क्या अधिकार है? प्रेम को जन्माने की कोशिश नहीं की जाती; प्रेम को जबरदस्ती आरोपित करने की कोशिश की जाती है। और बच्चा मजबूर है, क्योंकि असहाय है। उसे मां को प्रेम करना होगा, नहीं तो जीना मुश्किल हो जाएगा। मां को देख कर मुस्कुराना होगा, चाहे मुस्कुराहट आती हो या न आती हो। यहीं से राजनीति शुरू होती है। फिर जिंदगी भर यह मुस्कुराएगा। इसकी मुस्कुराहट बस ओंठों पर, ओंठों से जरा भी गहरी नहीं। उतनी ही गहरी समझो जितना लिपस्टिक जाता है। इससे ओंठ थोड़े खराब ही हो जाते हैं।
लिपस्टिक लगाने वाली स्त्रियों के ओंठ देखे? बिना लिपस्टिक लगाए जरा देखना, चमड़ी खराब हो गई, सूख गई। वह जो धोखा दिया उसमें सब कुछ खराब होने ही वाला है। यह हंसी भी ओंठों पर। यह प्रेम भी ओंठों पर। यह प्रेम भी बातचीत।
मुल्ला नसरुद्दीन घर आया। अखबार पढ़ने बैठ गया। सभी पति बैठते हैं। यह पति-धर्म है कि घर में आए कि जल्दी से अखबार उठाया। क्योंकि और कहां छिपें? कोई जगह नहीं मालूम होती जहां छिप जाएं। पत्नी ने चौतरफा राज किया हुआ है। और घूम रही है वह सब तरफ अपना बेलन लिए। ये बेचारे अखबार, चाहे पढ़ें, चाहे न पढ़ें...। मुल्ला नसरुद्दीन पढ़ ही नहीं रहा था, क्योंकि जाहिर था, उलटा अखबार पकड़े बैठा था। पत्नी तो भनभना गई। उसने कहा कि हद हो गई। तुम अखबार पढ़ नहीं रहे हो। तुम उलटा अखबार लिए बैठे हो तो पढ़ कैसे रहे हो?
और उसने तो एकदम शोरगुल मचा दिया कि अब तुम्हें मुझसे प्रेम ही नहीं रहा। पत्नियों के तर्क का तो कोई हिसाब ही नहीं। कहां अखबार...उलटा ही पढ़ रहा है, तो पढ़ने दो। उलटी खोपड़ी है समझो। इससे तुम्हारा क्या बिगड़ रहा है? बेचारा सिर्फ उलटा अखबार पढ़ रहा है, निर्दोष। किसी का कोई नुकसान नहीं कर रहा है, न कोई हिंसा कर रहा है, न कोई हड़ताल कर रहा है, न कोई घिराव कर रहा है, न कोई आंदोलन कर रहा है; चुपचाप बैठा उलटा अखबार पढ़ रहा है। इसमें किसी का क्या बिगाड़ रहा है? वीणा ही जैसा, जैसे कि दीवाल के सामने बैठी। उलटा अखबार पढ़ रहा है--ध्यान कर रहा है। मगर पत्नी तो बिगड़ पड़ी, ‘तुम अखबार पढ़ नहीं रहे हो। तुम सिर्फ मुझसे बचना चाहते हो। तुम्हें मेरा चेहरा देखने में कष्ट होता है। और पहले तुम मुझसे कहते थे कि अहा! तू क्या है! पूर्णिमा का चांद भी तेरे सामने फीका है! और अब उलटा अखबार पढ़ रहे हो। तुम्हें मुझसे अब जरा भी प्रेम नहीं रहा।’
वह तो दहाड़ मार कर रोने लगी। पत्नियों का क्या भरोसा, कब क्या करने लगें! इसीलिए तो पुरुष निरंतर सदियों से कहता रहा है--स्त्री को कोई नहीं समझ सकता। स्त्री को समझ सकते हो, गलती बात कह रहे हो; पत्नी को कोई नहीं समझ सकता। स्त्री को समझने में क्या कठिनाई है? सीधा-सादा मामला है, कोई ऐसी अड़चन नहीं। मगर पत्नी को समझना बहुत कठिन है। और पत्नी तुम्हीं बना बैठे। तुम पति बन गए। पति का मतलब मालिक, तो बेचारी पत्नी क्या करे? पत्नी का मतलब, जो पति से तनी-तनी रहे। रहेगी ही! जब तुम पति बन कर बैठ गए तो वह क्या करे! वह तनी-तनी रहेगी।
पत्नी तन गई, जोर से रोने लगी कि अब तुम्हें मुझसे प्रेम ही नहीं रहा। नसरुद्दीन ने अखबार बंद किया और कहा, ‘फजलू की मां! कैसी बातें कर रही हो? अरे मुझे प्रेम है। हजार बार कहता हूं, कसम खाकर कहता हूं, अल्लाह की कसम खाकर कहता हूं कि मुझे प्रेम है। और तेरा चेहरा पूर्णिमा के चांद से भी ज्यादा सुंदर है। और तेरे शरीर की सुगंध फूलों से भी ज्यादा महकदार है। फिर-फिर कहता हूं कि मुझे तुझसे प्रेम है। और अब यह अपना मुंह बंद कर और मुझे अखबार पढ़ने दे!’
क्या करो, मजबूरी है तो कहना पड़ता है प्रेम है। मगर असलियत को कहां तक छिपाओगे? वह निकल ही आती है: ‘अब अपना मुंह बंद कर। अब बहुत हो चुकी बकवास। और मुझे अखबार पढ़ने दे। अरे, शांति से एक घड़ी भर तो बैठ लेने दे। थका-मांदा दफ्तर से आता हूं। और इधर प्रेम का राग! न समय का कोई ध्यान, न ऋतु का कोई सवाल, बस प्रेम का राग छेड़ो!’
आदमी सिर्फ कह रहा है कि प्रेम। कहना पड़ रहा है। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक यह सिलसिला जारी है। सबके पीछे मूल कारण यह है कि हम प्रेम पर कब्जा करने की कोशिश करते हैं। मां-बाप करने की कोशिश करते हैं, फिर पति-पत्नी करने की कोशिश करते हैं, फिर बच्चे करने की कोशिश करते हैं। हम प्रेम को एक-दूसरे पर मालकियत का साधन बनाते हैं, जब कि सच्चा प्रेम मुक्ति है।
वीणा, तुझे मुझसे प्रेम है तो स्वभावतः मैं ही तुझे सबमें दिखाई पड़ने लगूंगा। दिखाई पड़ना ही चाहिए। प्रेम फैले तो ही सत्य है। फैलता ही चला जाए तो विराट सत्य है। कहीं रुके ही न। यह कुछ पागल होने की बात नहीं है। यह तो शुभ समाचार है।
मेरी मोहब्बत की कोई कीमत नहीं है, कोई सिला नहीं है।
मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है, कोई गिला नहीं है।।
मैं अपने मजबूर दिल के हाथों कुछ इतना मजबूर हो गया था।
मैं तुमको अपनी तरह का इन्सां समझ के मसहूर हो गया था।।
खबर न थी पत्थरों के सीने में दिल बनाता रहा हूं अब तक।
मैं बर्फ की सिल पे अपनी चिंगारियां लुटाता रहा हूं अब तक।।
मैं गीत गाता रहा हूं हाथों में एक टूटा सितार लेकर।
रहा हूं मैं बेकरार अक्सर तुम्हें खुद अपना करार देकर।।
मेरी मोहब्बत, मेरी अकीदत का अब मुझे ये सिला मिला है।
कि तेरे जख्मे-जिगर को मेरे ही तारे-दिल से सिया गया है।।
अगर कोई और मेरे अहदे-वफा का आईनादार होता।
अगर तुम्हारी जगह कोई और दूसरा गमगुसार होता।।
तो मैं उसे अपनी रूह से अपने दिल से बाहर ढकेल देता।
मैं उसके सिर पर हिकारतों के जहन्नुमों को उंडेल देता।।
मगर मैं अब तुमको क्या कहूं, मेरे रूहो-दिल का सरूर हो तुम।
मुझे अंधेरा भी दो तो खुश हूं कि मेरी आंखों का नूर हो तुम।।
आदमी का प्रेम विक्षिप्त है। आदमी का प्रेम उसकी सारी मूर्च्छा को अपने साथ लिए हुए है। अब यह व्यक्ति गीत गा रहा है--
अगर कोई और मेरे अहदे-वफा का आईनादार होता।
अगर तुम्हारी जगह कोई और दूसरा गमगुसार होता।।
तो मैं उसे अपनी रूह से अपने दिल से बाहर ढकेल देता।
मैं उसके सिर पर हिकारतों के जहन्नुमों को उंडेल देता।।
यह असलियत है।
मगर मैं अब तुमको क्या कहूं, मेरे रूहो-दिल का सरूर हो तुम।
मुझे अंधेरा भी दो तो खुश हूं कि मेरी आंखों का नूर हो तुम।।
आदमी प्रेम के नाम पर भी केवल पाखंड पालता है। असलियत कुछ और, भीतर कुछ और, बाहर कुछ और। कहता कुछ है, जीता कुछ है।
मेरी शिक्षा का बुनियादी हिस्सा है: तुम्हारा प्रेम ध्यान से उमगना चाहिए, तो ही प्रेम हो सकेगा। प्रेम ध्यान की चरम शिखा है। प्रेम ध्यान की ज्योति है। जहां ध्यान नहीं है, वहां प्रेम नहीं है। लाख तुम उपाय करो, सब उपाय व्यर्थ जाएंगे। हजार तुम चेष्टाएं करो, नहीं कोई चेष्टा काम आने वाली है। तुम्हारी सारी चेष्टाएं बेमानी हैं। एक ही संभावना है तुम्हारे प्रेम के सत्य होने की और वह है--ध्यान से उमगे।
वीणा, दीवारों के सामने बैठ, मगर बातें मत कर। दीवाल के सामने चुप बैठ। कोरी दीवाल पर अपनी व्यर्थ की विक्षिप्तता को मत उंडेल। दीवाल के सामने दीवाल ही होने लगो। और दीवाल सच में ही उपयोगी ध्यान का साधन हो सकती है। कितनी देर मन चलेगा? महीने, दो महीने, साल, दो साल। बैठती ही रहो दीवाल के सामने। धीरे-धीरे मन विदा हो जाएगा। दीवाल जैसा ही कोरापन भीतर भी आ जाएगा। और जब भीतर भी दीवाल जैसा कोरापन होगा, तो जीवन की परम संपदा मिल गई। बहुतेरे हैं घाट--दीवाल भी घाट हो सकती है!
आखिरी सवाल:
भगवान,
चिंतामणि पाठक, जब तक तुम जैसे लोग हैं, जब तक चिंतामणि पाठक जीवित हैं, तब तक इस उदास मनुष्यता का कल्याण नहीं हो सकता। असंभव है। तुम्हारा प्रश्न ही सबूत दे रहा है कि तुम न होने दोगे कल्याण, या कि तुम जबरदस्ती कल्याण करने को उतारू हो। वह भी अकल्याण का ही उपाय है।
और तुम्हें उदास मनुष्यता के कल्याण की क्या फिकर? चिंतामणि पाठक, पहले अपनी चिंता से तो मुक्त होओ। तुम चिंता को मणि समझे बैठे हो और उदास मनुष्यता की चिंता कर रहे हो!
जरा होश तो सम्हालो। मनुष्यता कहां है? खोजने निकलो जरा, मनुष्यों को पाओगे, मनुष्यता को कहीं भी नहीं पाओगे। मनुष्यता तो कोरा शब्द है। और ये कोरे शब्द आदमी को खूब भटकाए हैं और इन्हीं कोरे शब्दों ने आदमी को उदास बना रखा है--‘मनुष्यता का कल्याण! राष्ट्र का कल्याण! समाज का कल्याण!’ न कहीं समाज है, न कहीं राष्ट्र है, न कहीं मनुष्यता है। जहां भी पाओगे व्यक्ति को पाओगे। व्यक्ति सत्य है, बाकी सब बकवास है।
और अगर चाहते हो कि व्यक्ति की उदासी कैसे मिटे, तो कम से कम अपनी उदासी तो मिटाओ--तुम्हीं पहले व्यक्ति हो! वहीं से शुरू करो। अपना दीया तो जलाओ। अगर खुद अंधेरे में हो तो तुम किसका दीया जलाओगे? डर यह है कि कहीं तुम किसी के जलते दीये को न बुझा दो।
अंधा आदमी दूसरों की आंखें भी फोड़ सकता है। और बड़ी नेकनीयत, कि इसको भी अपने जैसा कर लूं। कैसा प्यारा भाव! कैसी सेवा की सदिच्छा कि इसको भी अपने जैसा कर लूं! कि यह बेचारा अंट-संट चीजें देखता है! यह भ्रांति में पड़ा हुआ है। कहां प्रकाश है, कहां रंग हैं, कहां इंद्रधनुष हैं, कहां चांद-तारे हैं? यह किन बातों में पड़ा है, किन सपनों में खोया है? इसको रास्ते पर लगाऊं! इसकी आंखें फोड़ दी जाएं तो यह ठिकाने पर आ जाए।
अगर अंधे सेवा करेंगे तो आंख वालों को अंधा करेंगे। अगर मूर्च्छित सेवा करेंगे तो और मूर्च्छा फैलाएंगे। अंधेरे से भरे लोग और दे भी क्या सकते हैं? हम वही तो दे सकते हैं जो हमारे पास है।
लेकिन चिंतामणि पाठक बड़े गहरे सवाल पूछ रहे हैं--उनके हिसाब से! पूछते हैं: ‘आपके धर्म का नाम क्या है?’
जैसे कि धर्म का कोई नाम हो सकता है! जब धर्म का नाम होता है तो समझो अधर्म हो गया। धर्म तो अनाम है, क्योंकि परमात्मा अनाम है। और अनाम को खोजना नाम वाले धर्मों में नहीं हो सकता। विशेषण जहां जुड़ गए वहां तो तुम्हारे आग्रह जुड़ गए।
मेरे धर्म का कोई नाम नहीं। सच तो यह है कि मैं अपने धर्म को धर्म भी नहीं कहता, सिर्फ धार्मिकता कहता हूं। मेरा जोर गुण पर है, सिद्धांतों पर नहीं, नामों पर नहीं, रूपों पर नहीं।
प्रेम का कोई नाम होता है? किसी से पूछो कि आपके प्रेम का क्या नाम है? वह बेचारा क्या कहेगा? वह सिर्फ तुम्हारी तरफ भौचक्का होकर देखेगा कि यह आदमी पगला गया। प्रेम का नाम पूछ रहा है! प्रेम का कोई नाम होता है? प्रेम ईसाई होता है, कि हिंदू, कि मुसलमान, कि जैन, कि बौद्ध? और अगर प्रेम का कोई नाम नहीं होता, तो धर्म तो प्रेम की पराकाष्ठा है। उसका तो कैसे नाम हो सकता है?
मेरे धर्म का कोई नाम नहीं है।
तुम्हारे ऐजाजे-हुस्न की मेरे दिल पर लाखों इनायतें हैं।
तुम्हारी ही देन मेरे जौके-नजर की सारी लताफतें हैं।।
जवां है सूरज जबीं पे जिसके तुम्हारे माथे की रोशनी है।
सहर हसीं है कि उसके रुख पर तुम्हारे रुख की सबाहतें हैं।।
मैं जिन बहारों की परवरिश कर रहा हूं जिंदाने-गम में हमदम।
किसी के गेसू और चश्मो-रुखसारो-लब की रंगीं हिकायतें हैं।।
न जाने छलकाए जाम कितने, न जाने कितने सुबू उछाले।
मगर मेरी तिश्नगी कि अब भी तेरी नजर से शिकायतें हैं।।
मैं अपनी आंखों में सैले-अश्के-रवां नहीं, बिजलियां लिए हूं।
जो सरबुलंद और गयूर हैं अहले-गम ये उनकी रिवायतें हैं।।
मैं रात की गोद में सितारे नहीं शरारे बखेरता हूं।
सहर के दिल में जो अपने अश्कों से बो रहा हूं बगावतें हैं।।
धार्मिकता एक बगावत है, एक विद्रोह है। और धर्म परंपराएं हैं। धर्म हैं अतीत, जिनका वक्त जा चुका, जो कभी के मर चुके हैं और जिनकी लाशों को तुम ढो रहे हो। उन लाशों में कभी प्राण थे, यह सच है। मगर जब प्राण थे तब वे लाशें नहीं थीं; तब वे भी धार्मिकताएं थीं।
बुद्ध के पास जो घट रहा था वह धार्मिकता थी। और अब बौद्ध धर्म के नाम पर जो दुनिया में है वह केवल लाश है। उसका रंग-रूप, उसका रंग-ढंग, उसका आकार-प्रकार बिलकुल वैसा ही है जैसे बुद्ध की धार्मिकता का था। बस एक बात की कमी है, उसमें प्राण थे और यह निष्प्राण है। उसमें दिल धड़कता था, उसकी सांसें चलती थीं; और अब इसकी कोई सांसें नहीं चलतीं और कोई दिल नहीं धड़कता। उस वीणा में संगीत था, उसके तार अभी जिंदा थे; और अब इसके तार कभी के टूट गए हैं, अब इसमें कोई संगीत नहीं उठता। और यही सारे धर्मों के साथ हुआ है।
मैं अपने धर्म को कोई नाम नहीं देना चाहता। मैं तो सतत बगावत सिखा रहा हूं; विद्रोह अतीत से, विद्रोह परंपरा से, विद्रोह शास्त्रों से, विद्रोह शब्दों से, विद्रोह मन से। फिर जो शेष रह जाता है वह अनाम है, विशेषण-शून्य है। उसी शून्य का नाम धार्मिकता है। उसी शून्यता में पूर्ण का फूल खिलता है।
तुम पूछते हो: ‘आपके धर्म का आराध्य कौन है? आराधना क्या है?’
मैं किसी व्यक्तिवाची ईश्वर को नहीं मानता। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है जो ऊपर बैठा है सातवें आकाश पर और इस दुनिया को चला रहा है। परमात्मा को व्यक्ति की भाषा में सोचना ही बुनियादी रूप से गलत है। भगवान नहीं, भगवत्ता की भाषा में सोचो। हां, जो भगवत्ता को उपलब्ध हो जाता है उसको हमने भगवान कहा है, वह और बात। बुद्ध को भगवान कहा है, यद्यपि बुद्ध ने भगवान से इनकार किया है कि कोई भगवान नहीं। इसी अर्थों में इनकार किया है जो मैं कह रहा हूं, कि कोई व्यक्ति नहीं है जो सारे जगत को चला रहा है और तुम्हारी खोपड़ी पर तुम्हारी किस्मत लिखता है कि तुम टैक्सी ड्राइवर होओगे, कि तुम एम जी रोड पर कपड़े की दुकान खोलोगे, कि तुम पुण्य नगरी पूना में भीख मांगोगे, कि गुंडागर्दी करोगे। और अगर ऐसा कोई परमात्मा है तो बिलकुल पागल है। क्या-क्या बकवास लिखता है!
कोई परमात्मा नहीं है। भगवत्ता एक अनुभव है, व्यक्ति नहीं। और जब भी तुम अपनी चेतना की पूर्ण शांति को अनुभव करते हो और उस शांति में उठते हुए प्रेम के संगीत को पहचानते हो, तब भगवत्ता का अनुभव होता है।
तो तुम मत पूछो मुझसे कि मेरा आराध्य कौन है। मेरा आराध्य कोई भी नहीं। और इसलिए यहां कोई आराधना नहीं है; जब आराध्य ही नहीं तो आराधना क्या? मैं ध्यान सिखाता हूं, आराधना नहीं। आराधना तो अनिवार्य रूप से किसी व्यक्तिवाची परमात्मा को मान कर चलती है। कोई परमात्मा है जिसकी स्तुति करो, जिसका गुणगान गाओ, जिसकी खुशामद करो--स्तुति का मतलब खुशामद--और जिस पर रिश्वत चढ़ाओ।
और पता नहीं यह परमात्मा को भी कैसी-कैसी रिश्वतें पसंद आती हैं! नारियल चढ़ाओ! इनका अभी नारियल से जी नहीं भरा! सदियां हो गईं, लोग नारियल फोड़े चले जा रहे हैं। लेकिन ये सब रिश्वतें हैं। एक नारियल चढ़ा देते हो और कहते हो कि मेरे लड़के को नौकरी लगनी चाहिए। अगर न लगी तो खयाल रखना! अगर लग गई तो फिर नारियल चढ़ाऊंगा। अगर न लगी तो मुझसे बुरा कोई नहीं! कि मेरे घर बेटा पैदा हो जाए! एक नारियल! कीमत भी क्या चुका रहे हो? और नारियल चढ़ा कर जो बेटा भी होगा, वह भी कुछ बेटा होगा? अरे नारियल ही होगा! और नारियल लगता भी आदमी के चेहरे जैसा है; आंखें भी, दाढ़ी-मूंछ भी! बस नारियल ही पैदा होंगे।
यह कोई परमात्मा नहीं है, जिसकी तुम प्रार्थना करो, स्तुति करो। इसी ने तुम्हें खुशामद सिखाई है। और इसीलिए भारत में रिश्वत का मिटाना बहुत मुश्किल है, असंभव है। क्योंकि यह देश तो परमात्मा तक को रिश्वत देता रहा है। ये छोटे-मोटे तहसीलदार, हवलदार, कलेक्टर, कमिश्नर, इन बेचारों की क्या हैसियत? अरे एक नारियल में परमात्मा को मना लेते हैं, थोड़ा प्रसाद चढ़ा देते हैं।
ऐसे झाड़ हैं देश में जिनमें चिंदियां लटकी हुई हैं। उन झाड़ों के जो देवता हैं, चिंदियों के प्रेमी हैं। लोग जाकर मनौती कर आते हैं कि अगर मेरे घर बच्चा हुआ तो एक चिंदी बांध जाऊंगा। और स्वभावतः, अब इतने लोग मनौतियां करेंगे तो कुछ के घर तो बच्चे पैदा ही होने वाले हैं। सो वे चिंदियां बांध जाएंगे। वे चिंदियां फिर उस वृक्ष की विज्ञापन हो जाती हैं। जब इतनी चिंदियां बंधी हैं, हजारों चिंदियां वृक्ष पर बंधी हैं, जाहिर है कि वृक्ष का देवता पहुंचा हुआ देवता है। सो और-और लोग आने लगते हैं। जिनकी चिंदियां काम नहीं आईं, जिनकी इस वृक्ष ने नहीं सुनी, वे दूसरे वृक्षों की तलाश में गए। कहीं न कहीं कोई न कोई मौके-अवसर पर उनके घर भी बेटा पैदा होगा, किसी वृक्ष पर चिंदी बांधेंगे वे। यह मूढ़ता, यह बकवास है।
न कोई आराध्य है, न कोई आराधना है।
और तुम पूछते हो: ‘आपके धर्म का लक्ष्य क्या है?’
कोई भी लक्ष्य नहीं। लक्ष्य की भाषा ही व्यवसाय की भाषा है।
मेरा धर्म आनंद-उत्सव है। अब आनंद-उत्सव का कोई लक्ष्य होता है? आनंद अपना ही लक्ष्य है। किसी से पूछो, ‘तुम्हारे प्रेम का लक्ष्य क्या है?’ बताएगा। यहां हमारे देश में तो कोई भी बता देगा प्रेम का लक्ष्य, कि एक स्कूटर पाना है। किसी को दहेज में कुछ और पाना है। क्या-क्या चीजें लोग मांग रहे हैं! प्रेम का लक्ष्य! प्रेम का लक्ष्य प्रेम नहीं है, कुछ और है।
प्रेम अगर सच में है तो प्रेम अपना लक्ष्य है, उसका कोई और लक्ष्य नहीं। प्रेम अपना आनंद है--परम आनंद है। आनंद का कोई लक्ष्य नहीं है। धार्मिकता आनंद का पर्यायवाची है।
इश्क का नग्मा जुनूं के साज पर गाते हैं हम।
अपने गम की आंच से पत्थर को पिघलाते हैं हम।।
जाग उठते हैं तो सूली पर भी नींद आती नहीं।
वक्त पड़ जाए तो अंगारों पे सो जाते हैं हम।।
जिंदगी को हमसे बढ़ कर कौन कर सकता है प्यार।
और अगर मरने पे आ जाएं तो मर जाते हैं हम।।
दफ्न होकर खाक में भी दफ्न रह सकते नहीं।
लाला-ओ-गुल बन के वीरानों पे छा जाते हैं हम।।
हम कि करते हैं चमन में एहतमामे-रंगो-बू।
रू-ए-गेती से नकाबे-हुस्न सरकाते हैं हम।।
अक्स पड़ते ही संवर जाते हैं चेहरे के नुकूश।
शाहिदे-हस्ती को यूं आईना दिखलाते हैं हम।।
मैकशों को मुज्दा, सदियों के प्यासों को नवेद।
अपनी महफिल अपना साकी ले के अब आते हैं हम।।
एक शुभ समाचार, उनको जो सदियों के प्यासे हैं। मैकशों को मुज्दा! उनके लिए एक शुभ घड़ी, जिन्हें परमात्मा को पीने की ललक है, अभीप्सा है। सदियों के प्यासों को नवेद! और सदियों से जो प्यासे हैं, उनके लिए शुभ संदेश!
अपनी महफिल अपना साकी ले के अब आते हैं हम।
यह तो मैकदा है, कोई मंदिर नहीं। मत पूछो कि मेरे धर्म का नाम क्या है। पियक्कड़ों का कोई धर्म होता है? मयकशों का कोई धर्म होता है? मस्ती होती है, आनंद होता है। मत पूछो मेरा लक्ष्य क्या है। कोई लक्ष्य नहीं है। यह अस्तित्व किसी लक्ष्य के लिए नहीं है। यह अस्तित्व स्वस्फूर्त आनंद है।
और तुम पूछते हो कि ‘आपके आस-पास हजारों लोग जो संगठन बना रहे हैं, उसका क्या उद्देश्य है?’
न कोई संगठन है यहां, न कोई संगठन बना रहा है। लेकिन मैकदे में भी तो थोड़ी व्यवस्था करनी पड़ती है! बस मैकदे की व्यवस्था है। मैकदे का भी अपना निजाम होता है। आखिर मैकदे में किसी को साकी होना होगा, कोई सुराही लेकर आएगा, कोई प्यालियां बांटेगा, कोई सुराही से शराब ढालेगा। मैकदे का अपना निजाम होता है, अपनी व्यवस्था होती है। यह कोई संगठन नहीं, यह सिर्फ व्यवस्था है कि जो पियक्कड़ हैं वे प्यासे न रह जाएं और जो गैर-पियक्कड़ हैं उनको भीतर न आने दिया जाए।
मैकशों को मुज्दा, सदियों के प्यासों को नवेद।
अपनी महफिल अपना साकी ले के अब आते हैं हम।।
आज इतना ही।