QUESTION & ANSWER
Bahuri Na Aiso Daon 06
Sixth Discourse from the series of 10 discourses - Bahuri Na Aiso Daon by Osho. These discourses were given during AUG 01-10 1980.
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पहला प्रश्न:
भगवान, सितारवादक पंडित रविशंकर से जब हालैंड के प्रसिद्ध दैनिक पत्र वोल्क्सक्रान्ट के प्रतिनिधि ने आपके संबंध में पूछा, तो उन्होंने जो वक्तव्य दिया, वह इस प्रकार है: ‘इस लोकतांत्रिक जगत में प्रत्येक व्यक्ति वह काम करने को स्वतंत्र है, जिसे वह उचित मानता है। इसलिए लोग अगर ओशो के पास जाना चाहते हैं तो उन्हें स्वयं ही तय करना होगा। मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूं, लेकिन वे पाश्र्चात्य लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय मालूम पड़ते हैं। आपको कुछ त्याग नहीं करना पड़ता है और पाश्र्चात्यजन जो चाहते हैं वे उसे सर्वाधिक मात्रा में वहां उपलब्ध करते हैं। अगर आपको यह द्वंद्व है तो यह चीज आपके सर्वथा योग्य है। वहां आपको सभी चीजें मिल सकती हैं—सेक्स, गांजा-भांग और आध्यात्मिक मुक्ति, सब एक साथ।’ भगवान, इतने बड़े कलाविद रविशंकर का आपको जाने बिना आप पर यह वक्तव्य देना क्या उचित था? क्या आप इस पर कुछ कहने की अनुकंपा करेंगे?
आनंद रागेन! मैं, जो मुझे जान ले उसके लिए अबूझ पहेली हो जाता हूं। फिर तो उसे वक्तव्य देना बहुत मुश्किल हो जाए। जो मुझे नहीं जानता वही मेरे संबंध में आसानी से वक्तव्य दे सकता है; जितना कम जानता है—उतनी सुनिश्र्चितता से; अगर बिलकुल नहीं जानता—तो पूर्णता से।
रविशंकर निश्र्चित ही बड़े कलाविद हैं। उनके सितारवादन का मैं प्रशंसक हूं। लेकिन वह जो ब्राह्मणपन है, वह जो पांडित्य है भीतर, वे जो संस्कार हैं हिंदू के, वे छूटे भी नहीं छूटते। संस्कार अचेतन होते हैं। उनकी अंतर-धारा होती है।
भारत में वे आते हैं, पूना भी आते हैं। और पूना जब आते हैं तो उनको सुनने वालों में नब्बे प्रतिशत मेरे संन्यासी होते हैं। फिर भी इस आश्रम आने की हिम्मत वे नहीं जुटा पाए। और ऐसा नहीं है कि वे नहीं जाते हैं महात्माओं के पास, गुरुओं के पास। सत्य साईं बाबा के पास जाते हैं। वहां भारत की जो जड़, मुर्दा संस्कृति है उसको समर्थन मिलता है।
मैं तो आग की तरह मालूम होता हूं पंडितों को। मेरे पास आना साहस की बात है। तैयारी हो जिसमें अतीत से मुक्त होने की, वही केवल मुझसे परिचित हो सकता है। मैं तो एक चुनौती हूं। और जो डूबेगा वही पार जाएगा। और पंडित इसी पार बैठा रहता है और उस पार की बातें करता है। और इसी पार बैठे-बैठे उस पार की बातें करने में कुछ खर्च लगता है? हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए!
और इस देश में तो हड्डी-मांस-मज्जा में ज्ञान भर गया है। जिन्होंने कुछ भी नहीं जाना है, वे भी परम सत्यों के संबंध में अपने को अधिकारी मानते हैं। क्योंकि कुछ वेद, कुछ गीता, कुछ रामायण के सूत्र उन्हें तोतों की तरह कंठस्थ हो जाते हैं।
रविशंकर जैसे लोग भारत के अतीत से ऐसे जकड़े हैं कि मुझे पहचानना और समझना तो बहुत दूर की बात, मेरे निकट आने की क्षमता भी उनकी नहीं है। मेरे पास तो वे ही आ सकते हैं जो परवाने हैं, क्योंकि यह तो शमा है। जो जलने को तत्पर है, उसके लिए ही आमंत्रण है। क्योंकि जल कर ही तो कोई नया होता है। मिट कर ही तो कोई पुनर्जन्म होता है।
फिर एक बात खयाल रखना कि कोई सितार कितना ही अच्छा बजाए, इससे तुम उससे कोई ऑपरेशन करवाने को राजी नहीं हो जाओगे; क्योंकि वह बड़ा सितारवादक है, इसलिए चलो इसी से अपेंडिक्स निकलवा लें। तुम कहोगे: सितारवादक होगा, और कितना ही बड़ा हो, लेकिन इससे अपेंडिक्स निकालने का क्या संबंध है?
लेकिन जीवन के बहुत से संबंधों में हमारा सोचना ऐसा ही भ्रांत है। एक आदमी बहुत बड़ा रसायनविद है या भौतिकशास्त्री है। अगर वह ईश्र्वर के संबंध में कुछ कहता है तो उसकी बात अधिकारपूर्ण मानी जाती है। यह बात उतनी ही मूर्खतापूर्ण है जितनी कोई रविशंकर से अपेंडिक्स निकलवाए, क्योंकि वे बड़े सितारवादक हैं। कोई व्यक्ति भौतिकशास्त्र का ज्ञाता होगा, लेकिन इससे कोई ब्रह्म से परिचय नहीं हो जाता। और कोई व्यक्ति बड़ा गणितज्ञ होगा, इससे बड़ा संगीतज्ञ नहीं हो जाता। और कोई व्यक्ति बड़ा संगीतज्ञ होगा, इससे कोई बड़ा जौहरी नहीं हो जाता। ये जीवन के छोटे-छोटे पहलू हैं। एक को जानने के लिए, सच तो यह है और बहुत सी बातों से अनजाना रह जाना पड़ता है। एक को जानने के लिए बहुत सी बातों को जानने से वंचित रहना पड़ता है। यहां तो चुनाव करने पड़ते हैं। चुनाव में निश्र्चित ही कुछ पाओगे तो कुछ गंवाओगे। और ज्यादा गंवाना पड़ता है।
विज्ञान की परिभाषा की जाती है: नोइंग मोर एण्ड मोर अबाउट लेस एण्ड लेस। कम से कम के संबंध में ज्यादा से ज्यादा जानना—यह विज्ञान की परिभाषा है। परिभाषा बिलकुल ठीक है। अगर यह विज्ञान की परिभाषा है तो धर्म की क्या परिभाषा होगी? नोइंग लेस एण्ड लेस अबाउट मोर एण्ड मोर। कम से कम जानना ज्यादा से ज्यादा के संबंध में। फिर अध्यात्म की क्या परिभाषा होगी? नोइंग नथिंग अबाउट ऑल! समग्र के संबंध में कुछ भी न जानना। पूर्ण के संबंध में शून्य हो जाना।
मेरी सारी शिक्षा इतनी ही है: पूर्ण को जानना हो, शून्य हो जाओ। ज्ञान से आपूरित होना हो, अज्ञानी हो जाओ।
लेकिन भारत की प्राचीन परंपरा ऐसी नहीं है। वह पंडितों द्वारा निर्मित है। नहीं कि कभी-कभी किसी बुद्ध ने उठ कर क्रांति की उदघोषणा नहीं की है; मगर उन बुद्धों को हमने राह से हटा दिया। हटाने की हमने अलग-अलग तरकीबें उपयोग की हैं। सबसे सुगम तरकीब है पूजा। जो व्यक्ति ज्यादा उपद्रव करे, उसकी पूजा करो। पूजा करना हमारा इस बात का निवेदन है कि आपकी बात बिलकुल सच है, मानते हैं, जिद नहीं करते, मगर अभी हमारी सामर्थ्य नहीं। अभी तो हम दो फूल चढ़ाते हैं; जब सामर्थ्य होगी तब जरूर आपके मार्ग पर चलेंगे। यह छुटकारे का उपाय है। आप महान हो। हम साधारण जन, पृथक जन! आप अलौकिक, हम सांसारिक! आप हो अवतार, तीर्थंकर, बुद्ध और हम ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे, हमारा काम इतना है कि आपकी पूजा करें, स्मरण करें, अरे आप तिराओगे तो तर जाएंगे! आप तारणहार हो, खेवनहार हो! आप मांझी हो! हमारे किए कुछ न होगा।
सो भारत प्रतीक्षा करता है।
किसी मित्र ने पूछा है कि हमेशा जब भी धर्म पर संकट आया और जब भी देश में अंधेरा घिरा और जब भी देश में अनाचार हुआ, तो भगवान ने अवतार लिया। अब भगवान अवतार क्यों नहीं लेते?
कभी अवतार नहीं लिया और कभी अवतार नहीं लेंगे। भगवान कोई व्यक्ति थोड़े ही है कि अवतार ले ले। भगवान तो एक अनुभूति है भगवत्ता की कि जीवन पदार्थ पर समाप्त नहीं है। लेकिन काहिल, सुस्त, आलसी, बेईमान लोग, जो कुछ भी नहीं करना चाहते, जो जीवन की क्रांति से बचना चाहते हैं, उन्होंने यह तरकीब ईजाद की है कि जब संकट होगा, अंधेरा होगा, धर्म की ग्लानि होगी, तो आएंगे कृष्ण, आएंगे महावीर, आएंगे बुद्ध और हमारे सब कष्टों का हरण हो जाएगा। पहले हुआ था हरण? बुद्ध तो आ चुके, महावीर भी आ चुके, कृष्ण भी आ चुके, राम भी आ चुके, कितने तो अवतार हो चुके, कितने तो तीर्थंकर हो चुके, तुम्हारी मुसीबतों का हरण कब हुआ? तुम्हारा अंधेरा कब मिटा? दीये तो बहुत सुनते हैं जले, मगर तुम तो दीये के नीचे रहे और दीये के नीचे अंधेरा है। तुम तो दीये के नीचे से ही स्तुतियां करते रहे।
मैं विश्र्वविद्यालय में विद्यार्थी था। पहली ही विश्र्वविद्यालय की सभा थी। डाक्टर त्रिपाठी, एक बहुत बड़े इतिहास-विद, आक्सफोर्ड में भी प्रोफेसर रहे थे, और भी दुनिया के अनेक विश्र्वविद्यालयों में, वे उपकुलपति थे। पक्के शराबी! मगर थे पंडित। थे ज्ञानी! शास्त्रों के ज्ञाता। और इतिहास पर उनकी गहरी पकड़ थी। बुद्ध-जयंती थी तो उन्होंने बुद्ध पर प्रवचन दिया और कहा कि कभी-कभी मेरे मन में यह सवाल उठता है कि कैसा धन्यभाग होता, अगर मैं बुद्ध के समय में हुआ होता तो जरूर उनके चरणों में जाकर बैठता, सुनता उनकी अमृतवाणी, आह्लादित होता, आनंदित होता, रूपांतरित होता! मैं तो विद्यार्थी था। लेकिन मुझसे ऐसी झूठी बातें नहीं सुनी जातीं। मैं खड़ा हुआ। मैंने उनसे कहा कि मेरा एक निवेदन है कि आप इस पर पुनर्विचार करें। एक दो मिनट आप आंख बंद करें और इस पर पुनर्विचार करें। क्या यह सच है कि अगर आप बुद्ध के समय में होते तो उनके चरणों में बैठते? क्या आप सोचते हैं आज कोई भी व्यक्ति बुद्ध नहीं है? क्या आप किसी भी व्यक्ति के चरणों में इस जीवन में बैठे हैं?
वे थोड़े झिझके। मैंने कहा: आंख बंद करें और थोड़ी देर सोचें। मैं जल्दी जवाब नहीं चाहता। मैं जवाब में उतना उत्सुक नहीं हूं, जितना आप थोड़े मनन में उतर जाएं इसमें उत्सुक हूं।
मैंने कहा: आपकी जिंदगी में रमण महर्षि मौजूद थे। या तो मुझसे कहो कि रमण बुद्ध नहीं थे। कह दो कि रमण बुद्ध नहीं थे तो बात खत्म हो जाएगी। और या फिर कहो कि क्यों नहीं गए उनके चरणों में? और यह मत कहना कि सुविधा नहीं मिली। आक्सफोर्ड जाने की सुविधा है, अमरीका जाने की सुविधा है, जापान जाने की सुविधा है, सारी दुनिया के कोने-कोने में जाने की सुविधा है, सिर्फ अरुणाचल जाने की सुविधा न मिली।
यह तो उनकी हिम्मत न थी कहने की कि कह दें कि रमण बुद्ध न थे। और तब बड़ी मुश्किल में पड़ गए। और मैंने उनसे कहा: कृष्णमूर्ति अभी जिंदा हैं, आप उनके चरणों में बैठे? आप किसी के चरणों में बैठे हैं? मगर मजा आता है यह बात कहने में कि पच्चीस सौ साल पहले अगर मैं होता तो बुद्ध के चरणों में बैठता।
मैंने कहा: आप बुद्ध को गालियां देते। आप उन्हीं लोगों में होते जिन्होंने बुद्ध को गालियां दी हैं। आपने पत्थर फेंके होते। आपने बुद्ध का अपमान किया होता। ये वे ही लोग, जो बुद्ध जीवित होते हैं तो अपमान करते हैं, गालियां देते हैं और बुद्ध मर जाएं तो पूजा के फूल चढ़ाते हैं। बड़े काइयां हैं लोग, बड़े बेईमान हैं लोग! और फिर याद करते हैं कि आएं बुद्ध, हमें छुटकारा दिलाएं। मुसीबतें तुम खड़ी करो और बुद्ध छुटकारा दिलाएं! अंधेरा तुम फैलाओ और बुद्ध रोशनी करें! यह किस ढंग का हिसाब है? इसमें कौन सी तर्कसरणी है?
लेकिन पंडित की एक अकड़ होती है, एक अहंकार होता है। और पंडित हमेशा अतीत पर जीता है; उसका कोई भविष्य नहीं होता, कोई वर्तमान नहीं होता।
रविशंकर पंडित हैं। पंडित होने से यहां मेरे पास आने में अड़चन है। और पंडित आए तो मैं उसकी गर्दन बेरहमी से काटता भी हूं, क्योंकि पंडित की जब तक गर्दन न काटो तब तक पंडित की तुम कोई भी सेवा नहीं कर सकते। उसकी गर्दन कट जाए तो उसे जीवन मिल जाए।
सितारवादक होने से मेरे संबंध में वक्तव्य देने का उनको कोई अधिकार नहीं है। मुझे जान कर वक्तव्य दें। लेकिन और भी अड़चने हैं। पश्र्चिम में बढ़ती मेरी लोकप्रियता उन सारे लोगों के लिए ईर्ष्या का कारण बन गई, जो किसी कारण पश्र्चिम में लोकप्रिय हैं। महर्षि महेश योगी को अड़चन है। अभी परसों ही मेरे पास एक मित्र का पत्र था कि मैं महर्षि महेश योगी के पास गया तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैं तो परंपरा का अंग हूं, मेरी तो जड़ें शंकराचार्य तक फैली हुई हैं। तुम हो उखड़े हुए लोग, क्योंकि तुम जो प्रश्न पूछ रहे हो, ये परंपरा-विरोधी हैं। अगर इस तरह के प्रश्न पूछने हों तो रजनीश के पास जाओ। तुम जैसे भ्रष्ट लोगों के लिए बस वही जगह है और कहीं कोई जगह नहीं है। यहां आना है तो परंपरागत ढंग से आना होगा, परंपरा के ढंग से आना होगा, यहां उखड़े हुए लोगों के लिए कोई जगह नहीं है।
महर्षि महेश योगी को तकलीफ है। मुक्तानंद के प्राणों में संकट छाया हुआ है। मगर उन लोगों के जीवन में भी अड़चन है, जैसे कि रविशंकर। उनसे मेरे क्षेत्र का कोई लेना-देना नहीं है। मैं सितारवादक नहीं हूं, उन्होंने कोई जीवन-सत्य का अनुभव नहीं किया है। लेकिन किसी की भी लोकप्रियता ईर्ष्या का कारण हो जाती है। अहंकार को चोट लगने लगती है। वे जहां जाते हैं वहां उनसे पूछा जाता है। मुझे अनेक मित्रों ने कहा है कि हमने जब भी रविशंकर से पूछा, वे क्रुद्ध होकर जवाब देते हैं और आपके खिलाफ कुछ बोलते हैं। और मजा यह है कि वे जो भी कह रहे हैं बिलकुल अज्ञान पर आधारित है। मुझसे बिलकुल भी परिचित नहीं हैं, दूर से भी परिचित नहीं हैं, खुद भी कहते हैं कि मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूं। बात वहीं खत्म हो जाती है। और कोई जानने का ढंग भी होता है दुनिया में? किसी को जानना हो तो व्यक्तिगत रूप से ही जाना जाता है, सन्निधि में जाना जाता है, निकटता में जाना जाता है, सामीप्य में जाना जाता है। और यह तो जानना कुछ ऐसा है कि कुछ ऐसा नहीं कि आप आए और किसी ने परिचय करा दिया, घड़ी आधा घड़ी में जानना हो गया। इसमें दिन लगते हैं, सप्ताह लगते हैं, महीने लगते हैं, वर्षों लग सकते हैं, जीवन लग सकता है। कितनी त्वरा और कितनी तीव्रता से कोई जानने बैठा है, कितनी अभीप्सा और कितनी मुमुक्षा है—इस पर निर्भर करता है।
मगर वक्तव्य देने में तो भारतीयों से कोई टक्कर नहीं ले सकता। किसी के भी पक्ष और विपक्ष में बुलवाना हो, कोई उन्हें अड़चन नहीं है। अगर उनकी लोकप्रियता बढ़ती हो तो पक्ष में बोलने को तैयार हैं और अगर लोकप्रियता को हानि पहुंचती हो तो विपक्ष में बोलने को तैयार हैं। अहंकार के लिए जो उचित मालूम पड़े, वे उसके पक्ष में बोलने को तैयार हैं।
मेरे कारण बहुतों के अहंकारों को चोट पहुंच रही है। मेरी भी मजबूरी है। यह हमेशा होता रहा है। मैं इसमें कुछ कर सकता नहीं। जिस व्यक्ति का अहंकार मिट जाएगा, उसके कारण बहुतों के अहंकार को चोट पहुंचेगी। तुम्हारे अहंकार को केवल वही भर सकता है और मक्खन लगा सकता है जिसका खुद का भी अभी अहंकार शेष हो। क्योंकि वह तुमसे प्रतिकार की आशा करेगा कि मैं तुम्हारी स्तुति करूं, तुम मेरी स्तुति करो। मैं तो किसी की स्तुति करता नहीं। इसलिए स्वभावतः लोगों को मेरी मौजूदगी कांटे की तरह चुभ रही है। वह चुभन तरह-तरह से निकलती है। वह मवाद बह-बह जाती है।
और जो उन्होंने कहा है वह अत्यंत मूढ़तापूर्ण है। उन्होंने कहा कि वहां आपको कुछ त्याग नहीं करना पड़ता है। किसने कहा पंडित रविशंकर शुक्ल को यह कि यहां कुछ त्याग नहीं करना पड़ता है? यहां ही त्याग करना पड़ता है! पांडित्य का त्याग करना पड़ता है, ज्ञान का त्याग करना पड़ता है, अहंकार का त्याग करना पड़ता है। और बाकी चीजें तो बहुत आसान है छोड़ देना। पत्नी को छोड़ देना बहुत कठिन नहीं। पंडित रविशंकर अपनी पत्नी को छोड़ भागे हैं। उनकी पत्नी ने ही मुझे आकर निवेदन किया रोते हुए कि मेरे साथ जो अनाचार हुआ है, मुझे जिस तरह दीन-हीन छोड़ गए हैं...। पत्नी को क्यों छोड़ भागे हैं? उसमें कुछ अड़चन न थी। असल में भागने में ही सुविधा थी, क्योंकि तब स्वच्छंद व्यवहार की आसानी हो जाती थी।
और ध्यान रखना, लोग धन छोड़ सकते हैं, क्योंकि धन बाहर है। लेकिन ज्ञान नहीं छोड़ सकते, क्योंकि ज्ञान भीतर है। ज्ञान को जोर से पकड़ते हैं, वही तो उनकी जीवन-संपदा है। तो उन्हें लगता होगा यहां कुछ नहीं छोड़ना पड़ता है, क्योंकि यहां मैं किसी से नहीं कहता पत्नी छोड़ो, बच्चे छोड़ो, घर-द्वार छोड़ो; क्योंकि मानता हूं मैं कि जिन्होंने पत्नी छोड़ी, घर-द्वार छोड़े, बच्चे छोड़े, वे कायर थे, भगोड़े थे। और मैं मानता हूं कि वे धार्मिक तो कतई नहीं थे। क्योंकि धर्म से इन सबके छोड़ने का कोई संबंध नहीं है। और मैं यह भी मानता हूं कि जिन्होंने इस जीवन के सारे संबंधों को छोड़ कर जंगल की राह पकड़ी, ये कमजोर थे; ये जीवन के संग्राम के प्रति पीठ कर रहे थे; ये कायर थे; ये जूझ न सके। और मैं यह भी मानता हूं कि इन लोगों के कारण दुनिया में बहुत दुख फैला। कितनी स्त्रियां पतियों के रहते हुए विधवा हो गईं! कितने बच्चे बापों के रहते हुए अनाथ हो गए! कितनी स्त्रियों को भीख मांगनी पड़ी और कितने बच्चों को भीख मांगनी पड़ी, और कितनी स्त्रियां वेश्याएं हो गई होंगी इन संन्यासियों कि वजह से, उसका कुछ हिसाब लगाया है?
हिंदुओं के इस समय कोई पचपन लाख संन्यासी हैं। ये जिन स्त्रियों और बच्चों को छोड़ कर भाग आए हैं, उनका कोई ब्योरा तो इकट्ठा करे। तो तुम चकित होओगे कि इस दुनिया में जितना पाप इन तथाकथित त्यागियों के कारण हुआ है उतना पाप किसी और चीज के कारण नहीं हुआ है। और मजा यह है कि फिर ये सारे त्यागी जीते तो इन्हीं गृहस्थों पर हैं। इनका भोजन कौन जुटाता है, इनकी रोटी कौन जुटाता है, इनके कपड़े कौन लाता है? इनके लिए मंदिर और तीर्थ कौन खड़े करता है? इनके मंदिरों पर स्वर्ण-कलश कौन चढ़ाता है? वे ही लोग, जिनकी ये निंदा कर रहे हैं, जिनको ये छोड़ भागे हैं।
रविशंकर कहते हैं कि वहां आपको कुछ त्याग नहीं करना पड़ता। यह सौ प्रतिशत बात गलत है। यहां कुछ त्याग करना पड़ता है, जो सूक्ष्म है, जो दिखाई नहीं पड़ता—लेकिन जो असली त्याग है! अहंकार छोड़ने से किसी को पता नहीं चलेगा। घर छोड़ोगे, पत्नी रोएगी, बच्चे चिल्लाएंगे, मोहल्ले को, गांव को पता चलेगा। और मूढ़ों की यह दुनिया है, अखबारों में फोटो छपेगी कि देखो क्या महान त्यागी! अहंकार छोड़ोगे, कानोंकान खबर भी नहीं होगी। धन छोड़ोगे, तो धन के लोभियों से भरा हुआ यह समाज है, गिद्ध की तरह टूट रहे हैं धन पर, दीवाने हैं, मंदिर भी जाते हैं तो धन मांगते हैं।
रामकृष्ण कहते थे कि चील चाहे कितनी ही ऊपर उड़े, उसकी नजर नीचे लगी रहती है घूरों पर—कोई मरा चूहा पड़ा हो, कोई मरा सांप पड़ा हो! उड़ती है आकाश में, नजर लगी रहती है घूरों पर, मरे चूहों पर।
तुम मंदिर जाते हो, उड़ते आकाश में हो, मगर मांगते क्या हो? और धन मिल जाए, और पद मिल जाए, और प्रतिष्ठा मिल जाए। मरते दम तक आकांक्षा नहीं जाती।
कल मैं मोरारजी देसाई का वक्तव्य पढ़ता था। बड़ा मजेदार वक्तव्य है। कहा है उन्होंने कि पैंतालीस साल जिसकी उम्र न हो, उसको भारतीय संसद का सदस्य होने का अधिकार नहीं होना चाहिए। पैंतालीस साल की उम्र हो तब भारतीय संसद का सदस्य! दूसरी बात भी अब कह ही दें, काहे को छिपाए बैठे हैं—जब पचासी साल का हो जाए, तब भारत का प्रधानमंत्री! सो वे अकेले प्रधानमंत्री हो सकते हैं। और पैंतालीस साल में जब कोई भारतीय संसद का सदस्य होगा तो स्वभावतः पचासी साल तक भी हो जाए अगर प्रधानमंत्री तो बहुत। ज्यादा संभावना तो यही है कि मृत्यु के पश्र्चात, पोस्थूमस प्रधानमंत्री! मर गए, कब्र में हो गए, तब प्रधानमंत्री हुए। जैसे मरणोपरांत पुरस्कार दिए जाते हैं न—नोबल प्राइज और और तरह के पुरस्कार, ऐसे ही फलां आदमी मर गया, चलो अब इनको प्रधानमंत्री बना दो। अब इनसे कुछ भूल-चूक तो हो ही न सकेगी, एक बात तो पक्की है। अब ये किसी का नुकसान तो कर ही न सकेंगे।
क्या मूर्खतापूर्ण बातें हैं! पैंतालीस साल में भारतीय संसद का कोई सदस्य बने, जब कि मरने के करीब होने लगता है आदमी, जीवन से उसके संबंध टूटने लगते हैं, छूटने लगते हैं, जीवन की ऊर्जा क्षीण होने लगती है। भारत की औसत उम्र छत्तीस वर्ष है। तो औसत अर्थों में तो भारत की संसद का कोई सदस्य ही नहीं हो सकता। और जिस देश की औसत उम्र छत्तीस वर्ष हो, उस देश में अगर यह शर्तबंदी लगाई जाए तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
लेकिन अतीत के मोही, मृत्यु के पूजक बुढ़ापे के भी पूजक होते हैं। जितना कोई बूढ़ा हो, उतनी उसकी बात कीमती हो जाती है। हालांकि गधे भी बूढ़े होते हैं, लेकिन गधों के बूढ़े होने से कुछ वे ज्ञानी नहीं हो जाते। गधा बूढ़ा होगा तो गधा ही रहता है, खच्चर बूढ़ा होगा तो खच्चर ही रहता है। और घोड़ा जवान भी होगा तो भी जवान होता है। सच तो यह है कि बच्चों के पास जो प्रतिभा होती है, वह बूढ़ों के पास कभी नहीं होती। बहुत थोड़े से ऐसे सौभाग्यशाली लोग हैं, जो अपने बचपन की प्रतिभा को बचा पाते हैं; नहीं तो यह समाज ऐसा है कि यह सबकी प्रतिभाओं पर जंग लगा देता है। जब जंग लग जाती है, जब तलवारों की धार मर जाती है, तब हम कहते हैं: अहा, कैसी प्राचीन तलवार है!
मेरी बातें तो इतनी नई हैं जितनी सुबह की ओस, इतनी नई जैसे अभी-अभी खिले हुए फूल! पंडितों को ये बातें नहीं समझ में आ सकतीं। उनको तो पत्थर चाहिए पुराने और जितने पुराने हों और उन पर लेख अगर ब्राह्मी-लिपि में लिखे हों, तो फिर तो कहने ही क्या? फिर तो उनका सिर एकदम नतमस्तक हो जाता है। प्राचीन के पूजक, मुर्दा के पूजक, मरघटों के पूजक!
और अनिवार्य है यह कि पंडित अतीतवादी हो, क्योंकि उसकी संपदा क्या है—स्मृति! ज्ञान तो उसकी कोई संपदा नहीं है।
मेरे पास जो लोग इकट्ठे हो रहे हैं, वे ही त्यागी हैं, क्योंकि वे कुछ अंतर्तम में त्याग कर रहे हैं। और मेरे हिसाब में, मेरे गणित में जो भीतर त्याग करता है उसके भीतर भोग का जन्म होता है, क्योंकि त्याग कोई अपने आप में मूल्य नहीं है। त्याग कोई अपने आप में लक्ष्य नहीं है। त्याग का अर्थ इतना ही है, जिससे हमें परमात्मा की रसधार में बहने का मौका मिले, हम उसके आनंद को उपलब्ध हों। त्याग साधन है, साध्य नहीं है। साध्य तो भोग ही है—महाभोग! भागवत भोग! जो भीतर का त्यागता है, वही भीतर के भोग को उपलब्ध होता है।
तो मेरे पास जो व्यक्ति हैं, उनमें एक अपूर्व घटना घटेगी। एक अर्थ में भीतर त्याग होगा। उस त्याग को ही मैं ध्यान कहता हूं। उसमें अहंकार मरेगा, मन विसर्जित होगा, ज्ञान छूटेगा। कचरा-कूड़ा सब बाहर निकाल देंगे। शून्यता का जन्म होगा। और शून्यता पात्रता है। उस पात्रता में फिर परमात्मा के अमृत की वर्षा होती है। वह भोग है।
जिन्होंने त्यागा उन्होंने ही भोगा। तेन त्यक्तेन भुंजिथाः! जिन्होंने त्यागा उन्होंने ही भोगा। इस उपनिषद-वचन को मैं बहुत मूल्य देता हूं। दुनिया में थोड़े ही वचन हैं जो इस कोटि में आते हैं; जो इस महत्ता को, इस गरिमा को प्रकट करते हैं। मगर पंडितों के पास तो थोथा मन होता है। इनकी समझ कितनी?
तो उन्होंने कहा कि वहां कुछ त्याग नहीं करना पड़ता। और पाश्र्चात्य जन जो चाहते हैं, वे उसे वहां सर्वाधिक मात्रा में उपलब्ध कर सकते हैं।
भारतीय अहंकार छूटता ही नहीं। अब रविशंकर रहते पश्र्चिम में हैं। मैं रहता हूं भारत में। और ये भारतीय संस्कृति के पोषक! क्या करते हो पश्र्चिम में? धन इकट्ठा कर रहे हैं। सब तरह का भोग, जिसकी निंदा भारतीय करते हैं, जिसकी निंदा वे खुद भी करेंगे! भारतीय मन ऐसा पाखंडी और चालाक है, जिसका हिसाब नहीं। बूढ़े देशों का मन ऐसा हो जाता है। बुढ़ापे से चालाकी आती है, बेईमानी आती है, सरलता खो जाती है। पश्र्चिम को कहेंगे भौतिकवादी। और ये सारे अध्यात्मवादी पश्र्चिम की तरफ भागे जाते हैं।
मुक्तानंद बैठे हैं मियामी बीच पर। भाड़ झोंक रहे हो वहां? क्योंकि भलीभांति मालूम है कि वह गोबरपुरी में जो आश्रम बना रखा है, वहां कौन आएगा? गोबरपुरी के गणेश हैं—गोबरगणेश! मगर मियामी बीच पर भारत से कोई आ गए हैं सिद्ध महात्मा, बस इतना प्रचार करना काफी है। और मियामी बीच पर क्यों? क्योंकि वहां पर्यटक आते हैं, खर्च ही करने आते हैं। जिनके पास खर्च करने को है, वे ही आते हैं। वहां आश्रम बना रखा है। वह आश्रम क्या है, होटल है। और वहां मुक्तानंद चौबीस घंटे करते क्या हैं?
मेरे एक संन्यासी निर्ग्रंथ अभी वहां होकर आए हैं। तो मुक्तानंद पूरे समय चौके में खड़े रहते हैं और भारतीय ढंग का भोजन बनवाते रहते हैं, क्योंकि अमरीकी लोगों को भारतीय भोजन आकर्षित करता है। यह अध्यात्म का प्रचार हो रहा है! भारतीय भोजन तैयार करवाया जा रहा है, भारतीय मिष्ठान्न तैयार करवाए जा रहे हैं और उनकी बिक्री हो रही है। और अमरीकी जन प्रसन्न हो रहे हैं, कि यह भारतीय भोजन, इसका स्वाद, इसकी विशिष्टता और फिर इसमें अध्यात्म की भी पुट मिली है कि बनवाने वाला कोई सिद्ध पुरुष, कोई परमहंस! मगर परमहंस न हुए, बावर्ची हुए!
रविशंकर को सितार की साधना करने में भारत में कोई अड़चन है? अमरीका में बैठने की क्या जरूरत है? लेकिन धन वहां है और गाली भी धन को है!
बटर्रेंड रसल कहा करते थे कि अगर कहीं किसी ने जेब काट ली हो और शोरगुल मचे कि किसी की जेब कट गई, पकड़ो, तो जो आदमी सबसे ज्यादा चिल्ला रहा हो कि पकड़ो चोर को, मारो चोर को, कहां है—उसी को पहले पकड़ लेना। क्योंकि जहां तक संभावना है उसी ने जेब काटी होगी। क्योंकि बचने की तरकीब यही है। क्योंकि जो इतने जोर-शोर से चिल्ला रहा है कि पकड़ो चोर को, मारो चोर को, निकल न जाए—स्वभावतः उसको कोई
नहीं पकड़ेगा कि यह तो बेचारा साहूकार मालूम होता है। यह तो भला आदमी है, सज्जन आदमी है, चोर को पकड़वाने को उत्सुक है। बचने का यही रास्ता है।
ये सारे भौतिकवादी लोग पश्र्चिम को गाली देते हैं, मगर इस गाली में भी एक बड़ा मनोविज्ञान है। यह मनोविज्ञान दिखाई नहीं पड़ता। इसके बड़े सूक्ष्म और नाजुक पहलू हैं।
जैन मुनि को जो लोग सुनने जाते हैं, उनके जो श्रावक हैं, वे सब धनी हैं। और जैन मुनि का काम है धन को गाली देना और धन की निंदा करना। और श्रावक सिर हिलाते हैं, कहते हैं कि जी महाराज, सत्य महाराज! धन्य हो महाराज! क्योंकि इन सबको भी लगता तो है कि किस कचरे में पड़े हैं, मगर छोड़ भी नहीं सकते। तो जो इनको कह रहा है, ठीक ही कह रहा है। जितनी गाली देता है यह जैन मुनि, जितनी निंदा करता है धन की, उतने ही धनी उसके पास जाते हैं। यह बड़ी हैरानी की बात है कि धनियों को धन को दी गई गाली इतनी प्रीतिकर क्यों लगती है—इसलिए कि उनको भी लग तो रहा है कहीं गहरे में कि हम मूढ़ता कर रहे हैं। मगर जो धन को गाली दे रहा है वह भी जानता है तुम्हारे मनोविज्ञान को। वह धन की गाली तुमको प्रभावित करने के लिए ही दे रहा है। तो दोनों के बीच अच्छी सांठ-गांठ हो गई।
भारत के आध्यात्मिक शास्त्रों को तुम पढ़ोगे तो बहुत हैरान होओगे। स्त्रियों के नख-शिख का ऐसा वर्णन है कि क्या कोई अश्लील साहित्य लिखने वाले लोग करेंगे। और आध्यात्मिक पुरुषों ने, सिद्धों ने किया है वर्णन। किसी चीज को छोड़ा नहीं है। एक-एक चीज का वर्णन किया है। उनके शरीर के अंग-अंग का वर्णन किया, अनुपात का, उनके शरीर के उठने-बैठने का वर्गीकरण किया है। स्त्रियों का जैसा सुंदर वर्णन भारतीय धर्मशास्त्रों में मिलेगा, कहीं भी नहीं मिल सकता। और साथ में गाली! और साथ में निंदा! यह वर्णन ही इसलिए किया जा रहा है कि वे तुम्हें सजग कर रहे हैं कि सावधान, इन-इन चीजों से सावधान रहना, ये-ये चीजें स्त्री की तुम्हें आकर्षित करती हैं। सावधान करने के बहाने वर्णन भी किए दे रहे हैं।
अब जरा सोचने जैसी बात है कि इतना क्या इनको रस होगा! इतना रसपूर्ण वर्णन, इसमें जरूर भीतर कहीं कोई लगाव, कहीं कोई दबाव, कहीं कोई दमन पड़ा है। इस बहाने रस ले रहे हैं। कामिनी और कांचन को ऐसी गाली...बस दो चीजों को गाली देते हैं; धन को, सोने को और स्त्री को। क्योंकि पूरा भारतीय मन इन दो ही चीजों से भरा हुआ है। और इन गालियों के आधार पर भारतीय सोचते हैं कि हम त्यागी, व्रती, अध्यात्मवादी!
ये पंडित रविशंकर अपनी पत्नी को यहां छोड़ कर वहां न मालूम कितनी स्त्रियों के साथ रहे हैं, रह रहे हैं! ऐसा उनकी पत्नी ने मुझे कहा। यहां भी उनके स्त्रियों से संबंध थे, इसलिए पत्नी से नहीं बन सका। इसलिए भारत छोड़ा। और वे लोगों को समझा रहे हैं कि पश्र्चिम के लोग जो पाना चाहते हैं वह वहां सर्वाधिक मात्रा में उपलब्ध है। क्या मूर्खतापूर्ण बातें कर रहे हो! अगर पश्र्चिम के लोगों को स्त्रियां चाहिए तो पूना आने की जरूरत है? पश्र्चिम में स्त्रियों की कुछ कमी है, कि इतनी लंबी यात्रा करें? पश्र्चिम में स्त्रियां ही स्त्रियां हैं। समुद्र-तट नग्न स्त्रियों से भरे पड़े हैं। उन्हें यहां भारत आकर पूना का नरक झेलने की जरूरत है? कि हजार तरह की बीमारियां झेलें, अमीबा से परेशान रहें, डीसेंट्री और हैपेटाइटिस और न मालूम किस-किस तरह की बीमारियां भोगें, जो उन्होंने पश्र्चिम में कभी भोगी नहीं थी! शरीर को दुर्बल करें। स्त्रियों के लिए! ऐसी कुछ स्त्रियों की तलाश करनी हो तो पश्र्चिम में स्त्रियां ज्यादा आसानी से उपलब्ध हैं। रविशंकर वहां तलाश कर रहे हैं स्त्रियों की और वहां के लोग तलाश करने पूना आ रहे हैं! कोई महाराष्ट्रियन स्त्रियों से कुश्ती लड़नी है? शराब पीने के लिए पूना आ रहे हैं, जहां कि शराब पर पाबंदी है! अच्छी से अच्छी शराब पश्र्चिम में उपलब्ध है बिना किसी कानूनी बाधा के। शराब वहां पीएंगे या यहां आएंगे? और गांजा, भांग और मारिजुआना और एल एस डी और हशिश पश्र्चिम में नहीं मिल रहा है? यहां तो कोई चीज शुद्ध नहीं है।
यहां तो मुल्ला नसरुद्दीन एक रात जहर खाकर मरना चाहता था, तो रात में कई बार घड़ी देखे कि अभी तक मरा कि नहीं मरा! सुबह भी होने लगी, दूध वाला भी दरवाजा खटखटाने लगा। उसने कहा: हद हो गई, यह भी कौन सा मरना हुआ! हद हो गई, बैकुंठ में भी दूध वाला आया हुआ है! घड़ी भी वही, कमरा भी वही, मामला क्या है, क्या पूरा का पूरा कमरा ही बैकुंठ चला आया है?
और जब पत्नी कमरे में घुसी तो उसने कहा कि यह कभी...यह बैकुंठ वगैरह नहीं है। यह वही का वह घर है। छाती पीट ली। भागा हुआ गया केमिस्ट की दुकान पर और गर्दन पकड़ ली उसकी, कहा कि दुष्ट, रात भर जगाए रखा, पैसे के पैसे ले लिए, यह कैसा जहर दिया?
उसने कहा: भई गर्दन छोड़ो, मैं क्या कर सकता हूं? इस देश में कोई चीज शुद्ध मिलती है? अरे पानी शुद्ध नहीं मिलता, जहर कहां से शुद्ध मिलेगा? मैं क्या कर सकता हूं? जहां हर चीज में मिलावट है, उसमें मेरा क्या कसूर है? कोशिश करते रहो, कभी संयोगवशात अगर हाथ लग जाए शुद्ध चीज तो लग जाए।
यहां हशिश शुद्ध मिलेगा? यहां गांजा-भांग कोई चीज शुद्ध मिल सकती है? यहां कोई चीज शुद्ध नहीं मिलती। हर चीज अशुद्ध है।
मैं एक मित्र के घर मेहमान था। उनकी साबूदाने की फैक्टरी थी। मैंने कहा: साबूदाने की फैक्टरी! मैं तो सोचता था साबूदाना पौधों में लगता होगा।
उन्होंने कहा: अरे वे जमाने गए जब पौधों में लगता था। अब तो चावल से ही साबूदाना बनाते हैं।
तो तुम जो साबूदाना खा रहे हो वह साबूदाना वगैरह नहीं है; उस चावल को पीस कर, उसकी लुगदी बना कर, उसकी छोटी-छोटी गोलियां बना कर उसको साबूदाने की शक्ल दी जाती है। अब बड़ा मजा है, यहां मरीजों को हम साबूदाना खिला रहे हैं! चावल से बचाएंगे और साबूदाना खिला रहे हैं। और साबूदाना और भी गर्हित! कम से कम चावल शुद्ध भी है, साबूदाने का कोई भरोसा ही नहीं। यहां कोई चीज शुद्ध मिल सकती है?
कश्मीर का नाम ही केसर के कारण पड़ा है, क्योंकि वहां केसर सारे कश्मीर में पैदा होती थी। मगर भारत में केसर और शुद्ध मिल जाए—असंभव! मेरे दूध के लिए केसर लाती है तो मंजू लाती है अफ्रीका से। यहां तो केसर शुद्ध मिल सकती नहीं। भुट्टे के दाने पर जो घास-पात उगी रहती है, उसको काट-काट कर केसरिया रंग में रंगते हैं और थोड़ी सी केसर छिड़क देते हैं उसके ऊपर, जिसमें थोड़ी गंध आने लगे। बस केसर हो गई! भुट्टे के बालों का तुम मजा ले रहे हो केसर के नाम से।
पश्र्चिम में सब शुद्ध उपलब्ध है। उसको पाने के लिए पूना आना पड़ेगा? क्या मूर्खतापूर्ण बात रविशंकर ने भी कही! और यहां सारी तकलीफें झेलनी पड़ती हैं, हजार तकलीफें, हजार मुसीबतें। मेरे संन्यासी जितनी मुसीबतें यहां आकर झेल रहे हैं, उन्होंने जीवन में कभी नहीं झेली थीं। जो तपश्र्चर्या उनको यहां करनी पड़ रही है वह उनको कभी भी नहीं करनी पड़ी थी।
कौन उन्हें यहां रोके हुए है? और इस आश्रम में रविशंकर आ तो जाते, कम से कम देख तो लेते! मैं गांजा-भांग को तरसा जा रहा हूं; न गांजा मिलता है, न भांग। कितने ही तरसो, कितने ही तरसो, कोई उपाय नहीं। आश्रम में गांजा-भांग का प्रवेश ही निषिद्ध है! लेकिन कुछ भी कह देते हैं; जो मुंह में आए कह देते हैं। ऐसा लगता है गांजा-भांग पीए रहे होंगे जब ये बातें कहीं।
सेक्स के लिए किसी को यहां आने की क्या जरूरत है? गांजा-भांग के लिए यहां आने की क्या जरूरत है? अगर यहां लोग आ रहे हैं तो आ रहे हैं—आत्मिक विकास के लिए। यहां न मालूम कितने लोगों का आकर गांजा-भांग छूट गया है, मांसाहार छूट गया है, शराब छूट गई है। हालांकि मैं कुछ भी छोड़ने को नहीं कहता हूं, लेकिन मेरी जीवन-दृष्टि यही है कि तुम्हारी समझ से कुछ छूटे तो ही छूटता है। मैं कहूं और तुम छोड़ दो, फिर कल कोई कहेगा, तुम फिर शुरू कर दोगे। तुम्हारी ही समझ से छूटे तो दुनिया में फिर तुम्हें कोई कुछ भी कहता रहे, तुम दुबारा शुरू न कर सकोगे।
लोग यहां आ रहे हैं, क्योंकि यहां उन्हें कुछ जीवन का स्वाद मिल रहा है।
तुमने पूछा है कि ‘इतने बड़े कलाविद को आपको बिना जाने क्या आप पर वक्तव्य देना उचित था।’
भारतीयों के लिए सभी कुछ संभव है। भारतीयों को बकवास करना जितना आसान है उतना दुनिया में किसी के लिए नहीं।
कहते हैं कि अगर दो अंग्रेज शराब पी लें, तो बिलकुल चुपचाप बैठ जाएंगे, फिर बोलेंगे ही नहीं। वैसे ही नहीं बोलते, मगर अगर शराब पी लें तो बिलकुल चुप हो जाएंगे। उनका अंतर्तम बिलकुल ही प्रकट हो जाएगा। रस ही न लेंगे दूसरे में। दो जर्मन अगर शराब पी लें, तो झगड़ा-झांसा होना निश्र्चित है, मार-पीट होगी, हड्डी-पसली टूटेगी, शोरगुल मचेगा। और दो भारतीय अगर शराब पी लें, तो आध्यात्मिक चर्चा करेंगे। फिर और कुछ बचता नहीं। फिर तो एकदम वेदांत! फिर तो एकदम आकाश में उड़ते हैं।
मेरे एक मित्र हैं, उनकी पत्नी ने मुझे आकर कहा कि और सब तो ठीक है, किसी तरह बीस साल बरदाश्त कर लिए पति के साथ, लेकिन जब से इन्होंने आपको सुनना शुरू किया है तब से मेरी मुसीबत बहुत बढ़ गई। मैंने कहा: मैं कुछ समझा नहीं। उसने कहा कि ये शराबी हैं, रोज रात को शराब पीना। मगर ठीक है, पी-पा कर सो जाते थे। जब से आपको सुनने लगे हैं, तब से एक बड़ी मुसीबत हो गई है, न सोते हैं, न सोने देते हैं। जब ये डट कर पी लेते हैं तो ये भूल ही जाते हैं ये कौन हैं। ये समझते हैं कि ये आप ही हो गए। और मैं ही एक श्रोता। और आप तो बोलते भी हो तो कम से कम तीन हजार लोग होते हैं तो बंट जाता है; मैं अकेली! और फिर ये घंटों क्या प्रवचन देते हैं, मेरी खोपड़ी खा जाते हैं! हिला-हिला कर, उठा-उठा कर बिठा देते हैं कि बैठ, समझ इस बात को, क्या भगवान ने कहा है! और मुझे ऐसा गुस्सा आता है कि गर्दन काट दूं इस दुष्ट की। एक तो पीएं हैं, मुंह से बास आ रही है और अध्यात्म की बकवास लगा रखी है!
तो मैंने उनको कहा कि अगर तुम्हें ऐसा ही है तो तुम...बड़ा मकान है, तुम बगल के कमरे में रहने लगो, अलग-अलग कमरों में। एक दिन चला यह। दूसरे दिन उनकी पत्नी ने कहा: यह और एक मुसीबत है। वह उसी कमरे में ठीक है।
मैंने कहा: क्यों?
क्योंकि ये रात में आकर दरवाजा खटखटाते हैं, कि दरवाजा खोल, अरे वह गजब की बात याद आई है! और न मालूम कहां-कहां की बातें ले आते हैं और आपकी बातों में मिला देते हैं! फिल्मी गाने आ जाते हैं, पूरी फिल्म की कहानी आ जाती है उदाहरण स्वरूप! पहले तो कम से कम मैं बिस्तर में पड़ी रहती थी, बकता रहता था यह इसको जो बकना हो, बक। मगर अब यह दरवाजा खटखटाता है। न खोलूं तो दरवाजे के बाहर से शोरगुल मचाता है। उससे बच्चे जग जाते हैं, मोहल्ले वाले भी कहने लगे कि भई यह क्या है!
यह तो भारतीयों का लक्षण है, आनंद रागेन। इनको अध्यात्म से ज्यादा और किसी चीज की बकवास करने में रस नहीं है। और बकवास है सब। अनुभव कुछ भी नहीं, सब बकवास है। अगर सामर्थ्य हो पंडित रविशंकर में तो मैं उन्हें चुनौती करता हूं, वे यहां आए, मेरे सामने बैठें। यहां जरा बात हो ले। तो जरा देखूं कितना अध्यात्म है, कितना ज्ञान है, कितना पांडित्य है, कितनी समझ है! ज्यादा समझ नहीं हो सकती, क्योंकि जो व्यक्ति सत्य साईं बाबा के पास जाता है उसकी गिनती मैं गधों में लिख देता हूं। हालांकि इससे मैं चमत्कृत होता हूं कि गधा सितार अच्छा बजाता है! यह और चमत्कार की बात है, क्योंकि आमतौर से गधे सितार नहीं बजाते। चीपों-चीपों, एक ही संगीत जानते हैं, मगर सितार...!
मैं चुनौती देता हूं, वे आएं। मैं हमेशा तैयार हूं। यहां बैठ कर
दो-दो बातें हो लें। जरा बात साफ हो जाए कि क्या अध्यात्म है और क्या बकवास है।
पति पत्नी को हरेक बात पर ‘ऐ जी, सुनिए’ कहने की आदत को देख कर उनका चार वर्षीय मुन्ना भी उन्हें मम्मी-पापा न कह कर ‘ऐ जी, सुनिए’ कहने लगा। इस पर पति-पत्नी बेहद चिंतित हुए। अंत में पति ने सुझाव दिया कि तुम मुझे पापा कहा करो और मैं तुम्हें मम्मी कहा करूंगा, तब यह नालायक सुधरेगा, नहीं तो यह सुधरने वाला नहीं है।
ऐसे ही इस देश का अध्यात्म है—‘ऐ जी, सुनिए।’ सुनते-सुनते छोटे-छोटे बच्चे कह रहे हैं—‘ऐ जी, सुनिए।’ लोगों की जबान पर रखा है अध्यात्म।
और मुझसे घबड़ाहट पैदा हुई है, बहुत घबड़ाहट पैदा हुई है। क्योंकि मैं किसी अध्यात्म की बात कर रहा हूं, जो उनकी जबान पर नहीं है। उन्हें मुझसे बड़ी चिंता हो गई है। उनकी सुरक्षा खतरे में पड़ गई है। उनका पांडित्य खतरे में पड़ गया है। अगर मैं सच हूं तो लाखों-करोड़ों पंडितों की रोटी-रोजी जाएगी। इसलिए मेरा विरोध है। अगर मैं सच हूं तो लाखों ब्राह्मणों की पत्ती कट जाएगी। मुझे गलत सिद्ध करने की सब तरफ से चेष्टा की जाएगी।
सुरेश ने अपने दादाजी सेठ चंदूलाल से कहा कि दादाजी, क्या आपके मुंह में दांत हैं?
चंदूलाल ने कहा: नहीं बेटा, यह बात तू क्यों पूछता है?
सुरेश ने कहा कि कोई और बात नहीं, यह मेरा अखरोट रख लीजिए, जरा मैं खेलने जा रहा हूं।
मेरे हाथ में इनका अखरोट खतरे में पड़ा जा रहा है! मैं कोई वेदांती नहीं हूं, बिना दांत का नहीं हूं। दांत हैं! इनका अखरोट खतरे में है। छोटे-छोटे बच्चे भी हिसाब से चलते हैं। और कहने में क्या लगता है, कुछ भी कह दो!
तीन महिलाएं अपने पति के विषय में चर्चा कर रही थीं। पहली बोली: हमारे विवाह को इतने वर्ष हो गए, पर हम दोनों में आज तक एक बार भी तू-तू, मैं-मैं नहीं हुई।
दूसरी ने लंबी श्वास लेते हुए कहा: काश, मैं भी यही कह सकती!
तीसरी बोली: अरी तू भी कह दे न! आखिर इसने भी कहा ही तो है, कहने में क्या बनता-बिगड़ता है?
अब तू-तू, मैं-मैं किस पति-पत्नी में नहीं होती, यह कौन नहीं जानता! पति-पत्नी ही क्या जिनमें तू-तू, मैं-मैं न हो! वे पति-पत्नी ही नहीं हैं।
ढब्ब जी ने चंदूलाल से कहा कि भई कल तुम जो अपनी पत्नी के साथ घूमने जा रहे थे, तो मेरी तरफ देखा भी नहीं। चंदूलाल ने कहा: तुम कैसे पहचाने कि वह मेरी पत्नी थी?
ढब्बू जी ने कहा: अरे, इसमें क्या है? जिस अधिकारपूर्वक वह तुम्हें गालियां दे रही थी, उससे साफ जाहिर था कि पत्नी के सिवाय इतना अधिकारपूर्वक कौन गाली दे सकता है! और तुम जैसे पूंछ दबाए चले जा रहे थे कि मेरी तरफ देखा भी नहीं, मैं खांसा भी, खंखारा भी, मगर तुमने मेरी तरफ देखा भी नहीं। तुम यूं बच कर निकल गए जैसे मैं हूं नहीं दुनिया में। तभी मैं समझ गया कि पत्नी के साथ जा रहे हो।
कोई जोड़ा उदास चला जा रहा हो, समझ लो कि पति-पत्नी हैं। अगर कोई पति-पत्नी जैसे मालूम पड़ते हों, प्रसन्न दिखते हों, तो पति-पत्नी जरूर होंगे, मगर पत्नी किसी और की और पति किसी और का। तभी जरा प्रसन्नता रहती है, नहीं तो प्रसन्नता कहां रखी है!
कहने में लगता क्या है? तो रविशंकर को जो लगा कह दिया। मगर मैं अपने संन्यासियों को कहता हूं कि जहां भी रविशंकर मिलें, उनको मेरी चुनौती कह देना। और बार-बार, जब मिलें तब। और कहना कि आ जाओ। और ऐसे वे पूना आते हैं, इसलिए कोई कठिनाई नहीं है। आमना-सामना हो ले, दो बातें हो जाएं। साफ हो जाए कि सितार बजाने से कोई अध्यात्म नहीं आ जाता है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, मेरा एक प्रश्न है, उत्तर देने की कृपा करें।
...पहली तो बात कि यह प्रश्न नहीं है, और उत्तर की इसको कोई अपेक्षा नहीं है। तुम प्रश्न सुनोगे तो समझ में आ जाएगा। प्रश्नकर्ता, तथाकथित प्रश्नकर्ता हैं: अशोक कुमार वाचस्पति। पंडित हैं, प्रश्न कैसे पूछ सकते हैं? प्रश्न तो अज्ञानी पूछते हैं। ये तो ज्ञानी हैं। इन्होंने तो सलाह दी है, प्रश्न का तो बहाना है। सलाह दी है। तुम प्रश्न सुनोगे तो समझ में आ जाएगा कि सलाह है। सलाह भी कहना ठीक नहीं, आदेश है। क्या होना चाहिए उसका सूचन है। और पांडित्य का जहर इनके रग-रग में भरा होगा, क्योंकि संबोधन भी नहीं किया। अरे कुछ तो लिख देते! अगर बहुत ही बड़े पंडित थे तो कम से कम संबोधन में लिख देते कि बच्चा! अरे कुछ तो लिख देते! मगर संबोधन भी नहीं किया। क्या संबोधन करना! सीधा—‘मेरा एक प्रश्न है, उत्तर देने की कृपा करें!’ कृपा भी लिखा, यह भी बड़ी कृपा है। भूल-चूक से लिख गए लगता है। पुरानी आदत से लिख गए लगता है। औपचारिकतावश, शिष्टाचारवश लिख गए लगता है।
सुनो उनका तथाकथित प्रश्न—‘यह अथर्ववेद का वचन है तथा ब्राह्मण-ग्रंथ में भी इसी प्रकार है: जिस दिन पूर्ण वैराग्य हो, उसी दिन संन्यास ग्रहण करें। क्योंकि पूर्ण विद्वान, जितेंद्रिय, विषय-भोग की कामना से रहित, परोपकार की इच्छा से युक्त, जो पुरुष या स्त्री हो, वह ही संन्यास ग्रहण करे। और वेद में भी कहा है कि पूर्ण ज्ञानी विद्वान ही संन्यास ले। कठोपनिषद में कहा है: जो दुराचार से पृथक नहीं, जिसको शांति नहीं, जिसकी आत्मा योगी नहीं और जिसका मन शांत नहीं है, वह संन्यास लेकर भी प्रज्ञान योनि, उत्तम ज्ञान या उपदेश से परमात्मा क्या आत्मा को भी नहीं जान सकता और न ही प्राप्त ही हो सकता है। क्या आप ऐसे गुणों से युक्त स्त्री-पुरुषों को संन्यास देते हैं? अगर नहीं तो अपने देश, जाति, व्यक्ति की संस्कृति नष्ट हो जाएगी। अतः उक्त गुणों से युक्त व्यक्ति को ही संन्यास दें, अन्य को नहीं। और यह भी सत्य है कि जिस प्रकार गुणरहित डाक्टर, प्रोफेसर आदि कार्य नहीं कर सकते, उसी प्रकार संन्यास का भी धर्म है। अगर गुणरहित है तो उसको संन्यास न दें।’
इसमें प्रश्न कहां है? इसलिए मैं बड़ी चिंता में पड़ा कि उत्तर क्या दूं। मगर उन्होंने कहा है कि उत्तर देने की कृपा करें। कृपा न करूं तो भी ठीक न होगा। इसलिए कृपा करता हूं। अब झेलो! कृपा नहीं है, कृपाण है!
अथर्ववेद का वचन हो या ब्राह्मण-ग्रंथ में हो, किसी का ठेका नहीं है संन्यास पर। ईसाई संन्यासी हुए, वे कोई अथर्ववेद के कारण नहीं और न ब्राह्मण-ग्रंथों के कारण। और मुसलमान संन्यासी हैं, और जैन संन्यासी हैं, और हिंदू संन्यासी हैं, और बौद्ध संन्यासी हैं, दुनिया में तीन सौ धर्म हैं और तीन सौ ही धर्मों की अपने-अपने संन्यास की रूप-रेखा है। अथर्ववेद की कोई तानाशाही है? ब्राह्मण-ग्रंथों का कोई ठेका है कि संन्यास की क्या परिभाषा होगी? मेरा संन्यास, मेरी परिभाषा होगी। मेरा संन्यास हिंदुओं का संन्यास नहीं है। फिर हिंदुओं के भी कितने संन्यास हैं! शंकराचार्य के संन्यास से रामानुज के संन्यास का कोई तालमेल नहीं है। रामानुज तो कहते हैं कि शंकराचार्य प्रच्छन्न बौद्ध हैं, छिपे हुए बौद्ध हैं। ये धोखाधड़ी से बौद्ध धर्म का प्रचार कर रहे हैं। बौद्ध संन्यासी की क्या वेदों से संगति जोड़ोगे? बुद्ध तो वेद को मानते नहीं। बुद्ध तो वेद को कचरा समझते हैं। और वेदों में है भी निन्यानबे प्रतिशत कचरा; एक प्रतिशत भी अगर मिल जाए जो कचरा नहीं है तो बड़ी खोज-बीन से मिलता है, बामुश्किल, नहीं तो कचरा ही कचरा है। स्वयं कृष्ण भी गीता में वेद को कचरा से ज्यादा नहीं मानते, औरों की तो बात छोड़ दो। कृष्ण स्वयं कहते हैं कि वेद निम्न कोटि के लोगों के लिए है, उच्च कोटि के लोगों के लिए नहीं। और महावीर ने तो वेद-मुक्त होने का अनिवार्य आग्रह किया है। महावीर को हिंदू इसीलिए तो नास्तिक कहते रहे, क्योंकि वे वेद-विरोधी थे। और कबीरदास में क्या वेद है? और नानक में क्या वेद है? मगर संन्यासी तो सबके हैं। अगर इतने सब लोगों के संन्यास की अपनी अवधारणा हो सकती है तो मेरे संन्यास की अपनी अवधारणा है।
अशोक कुमार वाचस्पति, मैं किसी शास्त्र से आबद्ध नहीं हूं। मैं स्वयं जो कह रहा हूं वही मेरा शास्त्र है। अगर तुम्हारे शास्त्र से मेल खा जाए तो तुम्हारे शास्त्र का सौभाग्य; अगर मेल न खाए तो तुम्हारे शास्त्र का दुर्भाग्य। मेरा कुछ लेना-देना नहीं है।
अब तुम जो कहते हो उसके एक-एक शब्द को समझना जरूरी होगा।
तुम कहते हो: ‘जिस दिन पूर्ण वैराग्य हो,...।’
जब पूर्ण वैराग्य हो जाए तो संन्यास की जरूरत क्या? यह तो ऐसी मूर्खतापूर्ण बात हुई कि कोई कहे जिस दिन पूर्ण स्वास्थ्य हो उसी दिन अस्पताल में भरती होना। फिर तुम्हारी खोपड़ी में गौमाता का गोबर भरा है? फिर काहे के लिए अस्पताल में भरती होओगे? जब पूर्ण स्वास्थ्य ही हो गया...पूर्ण! खयाल रखना ‘पूर्ण’ शब्द पर...तो अस्पताल में अब काहे के लिए भरती होना है, डाक्टरों को सताना है? जब पूर्ण वैराग्य हो...अरे वैराग्य ही पूर्ण करने के लिए तो संन्यास की प्रक्रिया है। संन्यास की साधना ही यही है कि तुम्हारा वैराग्य पूर्ण हो; उसको तुम पहली शर्त बना रहे हो। यह तो यूं हुआ कि स्कूल में भरती होने के पहले ही यह शर्त हो कि सर्टिफिकेट कहां हैं, मैट्रिक पास हो कि नहीं, अगर मैट्रिक पास नहीं तो मैट्रिक में भरती नहीं होने देंगे! एम.ए. की डिग्री है तो युनिवर्सिटी में प्रवेश मिलेगा। अभी जब एम.ए. की डिग्री नहीं है तो युनिवर्सिटी में कैसे प्रवेश मिले? पर तब बड़ी मुश्किल यह हो जाएगी कि एम.ए. की डिग्री मिलेगी कहां से?
पूर्ण वैराग्य होगा कैसे? वैराग्य भी तो एक सतत साधना से उपलब्ध होता है; क्रमशः, स्वयं को परिशुद्ध करने से उपलब्ध होता है। इसीलिए महावीर और बुद्ध ने युवकों को संन्यास देने पर जोर दिया। वेदों की धारणा थी बुढ़ापे में संन्यास। जैसे मोरार जी देसाई, गीता-ज्ञान मर्मज्ञ हैं वे! क्या गजब की बात: पैंतालीस वर्ष की उम्र में संसद के सदस्य! और दूसरी जो उनके दिल में छिपी बात है, जो कह नहीं सकते, हिम्मत नहीं है, छाती नहीं है कहने की, मैं कहे देता हूं कि पचासी वर्ष की उम्र में भारत के प्रधानमंत्री! ऐसी ही वेदों की धारणा थी: पचहत्तर वर्ष में संन्यास! पहली तो बात, पचहत्तर वर्ष तक कितने लोग जिंदा रहेंगे? और अगर स्वमूत्र पीकर कोई पचहत्तर साल तक जिंदा रह भी जाए तो यह भी कोई जिंदा रहना हुआ? इस शर्त पर जिंदा रहना! इससे तो मर ही जाते तो अच्छा था। और कितने लोग इस शर्त पर जिंदा रहने के लिए तैयारी दिखलाएंगे? पचहत्तर साल में संन्यास!
महावीर और बुद्ध ने एक बड़ी क्रांति की। उन्होंने कहा कि संन्यास तो तब जब जीवन ऊर्जा से भरा है, युवा है। और यही विरोध उनका था कि युवक व्यक्ति पूर्ण वैराग्य को कैसे उपलब्ध हो सकता है। और मैं तुमसे कहता हूं कि युवक व्यक्ति ही पूर्ण वैराग्य को उपलब्ध हो सकता है, अगर संन्यास से गुजरे। हां, संन्यास की पहली शर्त नहीं हो सकती यह, क्योंकि युवा व्यक्ति है, अभी पूर्ण वैराग्य कहां से होगा? अभी तो संन्यास से गुजरेगा तो वैराग्य की सीमाओं को छुएगा। हां, पचहत्तर साल का बूढ़ा तुम चाहो तो उसको पूर्ण विरागी कह सकते हो, चाहे पूर्ण नपुंसक। तुम्हारी मर्जी। मैं तो नपुंसक ही कहूंगा। मैं तो दो और दो चार ही मानता हूं, उलटी-सीधी बातें करने का मुझे रस नहीं है।
पचहत्तर साल की उम्र में पूर्ण वैराग्य का क्या अर्थ होता है? न भोजन पचता है, न संभोग कर सकते हो, न जीवन की दौड़ में अब जीत सकते हो। अब युवा आ गए। अब युवा दौड़ रहे हैं। अब तुम्हारे पास कुछ भी नहीं बचा, तो तुमने एक नया झंडा उठाया—संन्यास का! जिंदगी ने तुम्हें छोड़ दिया और तुम कहते हो: हम जिंदगी को छोड़ रहे हैं! किसको धोखा दे रहे हो? आत्मवंचना में हो तुम। जब जिंदगी ने तुम्हें छोड़ दिया, तब तुम क्या खाक जिंदगी छोड़ रहे हो! जिंदगी तो तब छोड़ने का मजा है जब जिंदगी अपने उभार पर हो, अपने तूफान पर हो।
यह कोई संन्यास नहीं था, जिसको वेद के समय में संन्यास कहा जाता था। वह संन्यास की बिलकुल ही बुढ़ापे की, बूढ़ों की धारणा थी। उसका कोई मूल्य नहीं है। वह तो बड़ी तरकीब थी। वह तो अपनी कमजोरी को एक सुंदर शब्द की आड़ देना था, चालबाजी थी, होशियारी थी। और होशियारी में तो पूछो ही मत, लोग क्या-क्या नहीं कर लेते!
मुल्ला नसरुद्दीन यात्रा करके लौट रहा था। जहाज तूफान में उलझ गया। और यूं लगे कि अब गया तब गया। सब लोग प्रार्थना करने लगे। मुल्ला आखिर तक हिम्मत बांधे रहा, नहीं की प्रार्थना, नहीं की प्रार्थना। क्योंकि प्रार्थना करने का मतलब है कि कुछ व्रत लो, नियम लो, कि हे प्रभु ऐसा करूंगा, वैसा करूंगा, बचाओ! उसने सोचा अगर बच जाएं बिना ही इसके तो अच्छा। मगर जब देखा कि अब डूबी ही डूबी, आखिर नाव के और जो लोग थे उन्होंने भी कहा कि नसरुद्दीन, अब तुम भी कुछ कसम लो, हम सब कसमें ले चुके। अब दिखता है तुम्हारे पाप के कारण ही डूब रही है। और बिलकुल जब डूबने की हालत आ गई कि अब देर नहीं है, तो नसरुद्दीन ने कहा: हे प्रभु, मेरा जो महल है संगमरमर का, वह जो नौ लाख का महल है, उसको बेच कर गरीबों में बांट दूंगा—अगर यह नौका बच गई।
संयोग की बात नौका बच गई। अब तुम सोच सकते हो नसरुद्दीन की छाती पर सांप लोट गए, कि जरा देर और रुक जाता, यह तो बचने ही वाली थी, यह तूफान जाने ही वाला था! मगर फंस गए। अब करना क्या? मगर होशियार आदमी रास्ते निकाल ही लेता है। और गांव भर में...नाव जब किनारे लगी, गांव भर में एक ही चर्चा, एक ही गरम-गरम चर्चा कि गजब कर दिया नसरुद्दीन ने! क्योंकि लोग जानते थे यह ऐसा महाकंजूस, कि इसके दरवाजे पर भिखारी भी नहीं आते, क्योंकि भिखारी अगर आ भी जाएं तो दूसरे भिखारी कह देते: भैया, क्यों समय खराब कर रहे हो? तुम नये मालूम होते हो इस गांव में। इस आदमी से भीख नहीं मिलेगी। और तुम्हारे पास कुछ होगा, अगर अकेला हुआ तो छुड़ा लेगा। इसने लोगों से उनके भिक्षापात्र तक छीन लिए हैं। भागो, आगे बढ़ो!
यह आदमी नौ लाख का महल दान करेगा! बस एक ही चर्चा थी कि कब होगा, कब होगा! और दूसरे दिन नसरुद्दीन ने घोषणा की कि मकान बिकने वाला है, जिनको भी लेना हो आ जाएं। दूसरे दिन लोग आए। लोग देख कर बड़े हैरान भी हुए। नसरुद्दीन ने मकान के सामने ही संगमरमर के खंभे के साथ एक बिलकुल मरियल बिल्ली भी बांध रखी थी। लोगों ने पूछा: यह मरियल बिल्ली किसलिए बांधी है?
नसरुद्दीन ने कहा: ठहरो, अभी समझ में आएगा। उसने कहा कि यह मकान मुझे बेचना है। नौ लाख इसके दाम हैं और एक रुपया बिल्ली का दाम है। दोनों चीजें साथ बिकेंगी। दुनिया जानती है कि इस मकान के दाम नौ लाख हैं, इससे कम एक पैसे का यह मकान नहीं है। लेकिन मैं एक झंझट में फंस गया हूं। ऐ भाइयो एवं बहनो, तुम मुझे इस झंझट से बचा लो। झंझट से बचने की तरकीब यह है कि बिल्ली के दाम नौ लाख रुपये हैं और मकान का दाम एक रुपया; दोनों साथ-साथ बिकेंगे। जिसको लेना हो ले लो।
लोगों ने...कई लोग उत्सुक थे लेने को, मकान शानदार था! उन्होंने कहा: हमें क्या है, यह एक रुपये में और सही, एक रुपया और ज्यादा! मरी बिल्ली फेंक-फाक देंगे, करना क्या है? ले लिया। लेकिन नसरुद्दीन की तरकीब तुमने देखी, उसने एक रुपया गरीबों में बांट दिया, नौ लाख रुपये बैंक में जमा करवा दिया। मकान का दाम बांटने की कसम खाई थी, कोई बिल्ली के दाम बांटने की तो कसम खाई थी नहीं।
मरते वक्त लोग बहुत चालबाज हो जाते हैं, होशियार हो जाते हैं, बूढ़े होते-होते होशियार हो जाते हैं।
तुम कहते हो: ‘पूर्ण वैराग्य हो जिस दिन उसी दिन संन्यास ग्रहण करें।’
फिर काहे के लिए संन्यास ग्रहण करें? फिर तो पूर्ण वैराग्य उपलब्ध हो ही गया। पूर्ण के आगे भी कुछ बचता है? यह जरूर किसी बेईमान ने सूत्र खोजा होगा, जो बचना चाहता है संन्यास से—फिर चाहे यह अथर्ववेद में हो और चाहे ब्राह्मण-ग्रंथों में हो। असल में ब्राह्मणों से ज्यादा काइयां और बेईमान जाति दुनिया में दूसरी नहीं रही क्योंकि यह सबसे ज्यादा पुराना पुरोहितों का वर्ग है। और यह संन्यास के पक्ष में नहीं है। यह बातें करता है संन्यास की, मगर संन्यास के पक्ष में नहीं है।
संन्यास की बुनियादी क्रांति क्षत्रियों से आई है, ब्राह्मणों से नहीं। असली संन्यासी हुए जैनों और बौद्धों के द्वारा। वे सब क्षत्रिय थे। बुद्ध और महावीर के मुकाबले ब्राह्मणों ने कौन सा संन्यासी दिया है? शंकराचार्य का नाम ले सकते हो, मगर उनमें मैं रामानुज से राजी हूं। क्योंकि शंकराचार्य जो भी कहते हैं वह सब चोरी है—और बुद्ध की है। उसमें एक शब्द उनका अपना नहीं है। नाम बदल लेते हैं। जैसे अभी कुछ दिन पहले मैंने तुमसे कहा कि बुद्ध के विपस्सना ध्यान को मैंने आचार्य तुलसी को समझाया था। विपस्सना कहें तो वह बुद्ध का है, तो उसका नया नाम रख लिया—प्रेक्षा। ऐसे ही बुद्ध के सिद्धांतों को शंकराचार्य ने नये नाम दे दिए। नाम देने में क्या लगता है? जो मर्जी हो नाम दे दो। जिसको बुद्ध ने व्यवहार-सत्य कहा है—वस्तुतः सत्य नहीं, बस व्यावहारिक रूप से सत्य—उसको शंकराचार्य ने माया कहा है। बात वही की वही है, कुछ फर्क नहीं है। बुद्ध ने जिसको शून्य कहा है, शंकराचार्य ने उसी को पूर्ण कहा है। शब्द बिलकुल उलटा है, मगर बात वही की वही है। जो शून्य की परिभाषा है वही पूर्ण की परिभाषा है। परिभाषा को देखोगे तो जरा भी भेद न पाओगे। शून्य शब्द से मत घबड़ा जाना। पूर्ण शब्द से आंदोलित मत हो जाना। सत्य तो एक है; उसको नकारात्मक ढंग से कहना हो तो शून्य और सकारात्मक ढंग से कहना हो तो पूर्ण। मगर बात तो वही की वही है। न शून्य की कोई सीमा होती, न पूर्ण की कोई सीमा होती। न शून्य के ऊपर कुछ होता, न पूर्ण के ऊपर कुछ होता है।
ब्राह्मणों के पास एक भी वैसा ज्वलंत उदाहरण नहीं है जो बुद्ध के सामने खड़ा किया जा सके। ब्राह्मण सदा से संन्यास-विरोधी हैं। मगर विरोध करने की हिम्मत भी उनकी चालबाजी से भरी हुई—पचहत्तर साल के बाद संन्यास! तो उन्होंने जीवन को चार हिस्सों में बांट दिया था। चार वर्ण जैसे उन्होंने बांट दिए समाज को, ऐसे ही उन्होंने जीवन को भी चार आश्रमों में बांट दिया। पहला आश्रम ब्रह्मचर्य: पच्चीस वर्ष तक शिक्षा का अध्ययन। दूसरा आश्रम गृहस्थ: पच्चीस से पचास वर्ष तक। तीसरा आश्रम वानप्रस्थ। ‘वानप्रस्थ’ भी बड़े गजब का शब्द है! वानप्रस्थ का अर्थ होता है: जंगल की तरफ मुंह। अभी गए नहीं, अभी जाना नहीं, सिर्फ मुंह फेर लेना। मतलब सोचने लगना कि जाएंगे, कि अब जाते हैं कि अब जाते हैं, कि तैयारी करना। पच्चीस साल तैयारी करोगे जंगल जाने की! क्या-क्या स्थगन के उपाय! पचास साल की उम्र से सोचोगे पचहत्तर साल तक, फिर पचहत्तर साल में संन्यास। जैसे कि हर व्यक्ति को सौ साल जीना हो! अगर हर व्यक्ति को सौ साल जीना था तो तुम्हारे वेद के ऋषि क्यों आशीर्वाद देते हैं कि सौ साल जीओ? जिस देश में लोग सौ साल जीते ही हों, उस देश में किसी को आशीर्वाद देना कि सौ साल जीओ—आशीर्वाद नहीं होगा।
वैज्ञानिकों ने खोज-बीन की है तो पता चला है कि वैदिक युग के समय में कोई भी आदमी चालीस-पैंतालीस साल से ज्यादा नहीं जीता था। चालीस साल अंतिम उम्र मालूम होती है, क्योंकि चालीस साल से ज्यादा पुरानी कोई हड्डी और अस्थिपंजर नहीं मिले हैं। और यह बात ठीक भी लगती है। अभी भी भारत की औसत उम्र छत्तीस साल है। तो उन गए-गुजरे दिनों की तो याद करो, जब न विज्ञान था, न औषधि की कोई व्यवस्था थी, न आधुनिक चिकित्सा थी, न आधुनिक उपकरण थे; जब कि मंत्र-तंत्र के बल पर लोग जीने की कोशिश कर रहे थे; जब कि ताबीज और गंडे चले रहे थे; जब कि भूत-प्रेत निकाले जा रहे थे; जब कि पंडित-पुरोहित यज्ञ करके वर्षा करवा रहे थे; जब कि देवताओं को मनाया जा रहा था; जब एक-एक से एक मूर्खताएं हो रही थीं! उन दिनों लोग अगर चालीस साल से ज्यादा न जीते हों तो कुछ आश्र्चर्य नहीं। और तभी सौ साल जीने के आशीर्वाद का कुछ अर्थ होता है।
रूस में आज अनेक लोग हैं जो डेढ़ सौ साल की उम्र के हैं। अगर इनसे कहो कि बेटा सौ साल तक जीना, तो कुश्तमकुश्ती हो जाएगी। वहीं मार-पीट हो जाएगी कि तुम हमें पचास साल पहले ही मार डालना चाहते हो! सौ साल तक जीने की बात का आशीर्वाद तो तभी सार्थक हो सकता है जब मुश्किल से कोई पचास साल जीता हो। तो दुगुनी उम्र दे दी और क्या आशीर्वाद चाहिए!
तुम कहते हो: ‘जब पूर्ण वैराग्य हो उस दिन संन्यास ग्रहण करें, क्योंकि पूर्ण विद्वान...!’
विद्वान से संन्यास का क्या संबंध? विद्वता से संन्यास का क्या संबंध? विद्वान तो सब थोथापन है, उच्छिष्ट! दूसरों का थूका हुआ चाटता रहता है विद्वान। विद्वान से संन्यास का क्या लेना-देना है? यह भी शर्त कि पूर्ण विद्वान! समस्त शास्त्रों का ज्ञाता! चारों वेदों का ज्ञाता!
वेद को जो जाने ही नहीं, वह भी संन्यासी हो सकता है। जिसने शास्त्र पढ़े ही न हों, वह भी संन्यासी हो सकता है। कबीर को क्या कहोगे? कबीर जैसा मस्त संन्यासी कहां पाओगे? और कबीर कहते हैं: मसि कागद छुओ नहीं! स्याही तो छुई नहीं हाथ से, कागज छुआ नहीं। और कबीर यह भी कहते हैं: लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात। विद्वान तो लिखालिखी वाला होता है—इधर ऐसा लिखा है, उधर वैसा लिखा है। यह प्रश्न देख रहे हो? पहले तो प्रश्न ही नहीं। अथर्ववेद में ऐसा लिखा, ब्राह्मण-ग्रंथ में ऐसा लिखा, कठोपनिषद में ऐसा लिखा। यह लिखालिखी की बकवास है, देखादेखी कुछ भी नहीं।
अशोक कुमार वाचस्पति, कुछ देखा भी कि बस लिखा ही लिखी में पड़े हो? सब उच्छिष्ट है। विद्वान से कोई संबंध संन्यास का नहीं है। सचाई तो यह है: जो जितना निर्दोषचित्त हो, जितना सरलचित्त हो, जिसको अपने अज्ञान का जितना गहन बोध हो, वही संन्यासी हो सकता है। साक्रेटीज संन्यासी हो सकता है, तुम नहीं। क्योंकि साक्रेटीज कहता है: मैं एक ही बात जानता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता। और जिन उपनिषदों का तुम उल्लेख कर रहे हो, उनमें से भी तुम मतलब की बातें छांट लिए हो। अन्यथा उपनिषदों में ऐसे अदभुत वचन भी हैं कि अज्ञान तो भटकाता ही है, ज्ञान महाअंधकार में भटका देता है। तो फिर पूर्ण विद्वान की क्या हालत होगी, जरा सोचो! इसको तो फिर कुल-किनारा ही न मिलेगा अंधकार का।
संन्यास का विद्वान होने से कोई संबंध नहीं है। संन्यासी को चाहिए बच्चे जैसी सरलता, जिज्ञासा, आश्र्चर्य का भाव, विस्मय-विमुग्ध होने की क्षमता। संन्यासी को उत्तर नहीं चाहिए, जिज्ञासा चाहिए। तुम्हारे पास उत्तर है। और जिसके पास उत्तर हो उसको हम विद्वान कहते हैं।
‘जितेंद्रिय’—जिसने इंद्रियों को जीत लिया हो! तो फिर संन्यास का प्रयोजन कहां बचता है? तुमने तो वे सारी शर्तें पहले लगा दीं जो कि संन्यास का परिणाम हैं। ‘विषयभोग की कामना से रहित’...। और अगर यह सच है तो तुम्हारा एक भी ऋषि संन्यासी नहीं था, क्योंकि तुम्हारा एक भी ऋषि जितेंद्रिय नहीं मालूम होता। अप्सराएं आ जाती हैं, उर्वशी आ जाती है और ऋषि डांवाडोल हो जाते हैं। किसी का वीर्यपात हो जाता है। और कैसी-कैसी जगह वीर्यपात हो जाता है! नाव में बैठे हैं और देख ली इन्होंने मछुए की लड़की—और ऋषि-मुनि और वीर्यपात हो गया! मछली उनका वीर्य निगल गई और मछली गर्भवती हो गई! क्या-क्या गजब की बातें कर रहे हो! कुछ तो होश में आओ, कुछ तो जागो कि यह बीसवीं सदी आ गई, इस कूड़े-करकट को तो होली में जला डालो। रावण को बहुत दिन जला चुके, वह जलता नहीं, क्योंकि हर साल फिर जलाना पड़ता है। इस कचरे को जला दो।
और तुम्हारे ऋषि-मुनि क्या भोगवासना से रहित हैं? नहीं तो इंद्र घबड़ाता क्यों है इनसे? जब किसी ऋषि ने साधना की कि इंद्र का सिंहासन डोला। बड़ी अजीब बात है! ऋषि से इंद्र का सिंहासन क्यों डोलता है? क्योंकि ऋषि के भीतर कामना सिंहासन पाने की है। वह उसी संघर्ष में लगा है, राजनीति में लगा है। वह कह रहा है कि हम सिंहासन पर बैठ कर रहेंगे। बहुत दिन नचा चुके तुम मेनका को, अब हम नचाएंगे। अब मेनका हमारी बंदरिया होगी, तुम्हारी बंदरिया कब तक रहे! अब बहुत दिन भोग चुके उर्वशी को, कुछ तो छोड़ो भैया! कुछ हमारे लिए भी छोड़ो।
ये ऋषि-मुनि यहां तो छोड़ते दिखाई पड़ रहे हैं, लेकिन स्वर्ग में भोगने की इच्छा है। ये कौन हैं लोग जिन्होंने स्वर्ग में कल्पवृक्ष की कल्पना की है, कि जिसके नीचे बैठने से सारी कामनाएं पूरी हो जाती हैं? ये कामना से मुक्त लोग हैं? तो कल्पवृक्ष नरक में होना चाहिए, स्वर्ग में नहीं।
और यह कोई एक ही धर्म की बात नहीं, सारे धर्म इसी तरह गर्हित हैं। इस्लाम कहता है: स्वर्ग में न केवल सुंदर स्त्रियां हैं, वरन सुंदर छोकरे भी हैं। क्योंकि अरबी देशों में समलिंगीय व्यवहार बहुत प्रचलित था, अभी भी प्रचलित है। तुम उर्दू की कविता में देखोगे तो तुमको दिखाई पड़ेगा कि उर्दू की कविता में जो प्रेम का काव्य है वह स्त्रियों के बाबत कम है, पुरुषों के बाबत ज्यादा है। पुरुष पुरुषों पर दीवाने हैं, छोकरों पर दीवाने हैं। तो मुसलमानों के स्वर्ग में हूरें भी हैं, अप्सराएं भी हैं और गिल्में भी। गिल्में यानी सुंदर छोकरे। क्या गजब के लोग थे! कैसी अदभुत साधना हो रही थी—कामवासना से मुक्ति हो रही थी! और बहिश्त में चश्मे बहते हैं शराब के। यहां शराब पीयो तो पाप है और वहां शराब पीयो तो पुण्य है।
और तुम्हारे वेद सोमरस की प्रशंसा से भरे हैं। और सोमरस अगर कुछ भी है तो निश्र्चित ही कोई नशीली औषधि है। अभी सारे वैज्ञानिक इस खोज में लगे हुए हैं कि सोमरस है क्या, यह किस जड़ी-बूटी का रस था? यह जरूर मारिजुआना जैसी कोई चीज है, जिसको पी-पी कर ऋषि-मुनि मस्त होते रहे।
और तुम्हारे साधु-संन्यासी गांजा, अफीम और चरस सदियों से पीते रहे हैं। और बात यहां तक पहुंच गई थी कि जब कोई आदमी बहुत दिन तक गांजा, चरस, भांग पीएगा तो फिर इनका उस पर असर नहीं होता, उसका शरीर धीरे-धीरे इनका आदी हो जाता है। तो तुम्हारे साधु-संन्यासी सांपों को पालते थे कि उनको जीभ पर कटाते थे सांप से। जब जीभ पर सांप से कटाते तो थोड़ा-बहुत नशा उनको आता, थोड़ी-बहुत मस्ती आती।
‘जितेंद्रिय, विषय-भोग की कामना से रहित’...। कब होगी यह घटना, कहां होगी यह घटना? और जिनको तुम ईश्र्वर कहते हो, वे भी कुछ विषय-भोग की कामना से रहित नहीं मालूम होते। विष्णु भगवान लेटे हैं क्षीर-सागर में, क्या कर रहे हैं वहां लेटे-लेटे? लक्ष्मी मैया पैर दबा रही हैं! ये लक्ष्मी मैया वहां एकांत में क्या कर रही हैं? जरा तुम तो कहीं लेट जाओ जाकर और किसी मैया से पांव दबवाओ, फौरन भीड़ लग जाएगी, फौरन उपद्रव हो जाएगा। लक्ष्मीनारायण हैं ये! तुम्हारे रामचंद्र जी भी सीता मैया के साथ खड़े हैं। और कृष्ण जी तो गजब ही कर गए हैं, कृष्ण को तुम संन्यासी कहते हो कि नहीं?
हे अशोक कुमार वाचस्पति! हे नानापेठ पुणे के निवासी! कृष्ण को तुम क्या कहते हो, संन्यासी कहते हो कि नहीं? ये सोलह हजार रानियां, ये काहे के लिए इकट्ठी की हैं? यह प्रदर्शन...कोई कुंभ का मेला भरा है? और इनमें दूसरों की उड़ाई हुई औरतें हैं, चोरी की गई औरतें हैं। ये सोलह हजार स्त्रियां ऐसी ही थोड़े ही मिल गईं। और यह बांसुरी बज रही यमुना तट पर और ये गोपियां नाच रहीं—यह सब खेल-खिलवाड़, यह लीला! और ये झाड़ पर चढ़े बैठे कृष्ण कन्हैया! कल ही तो आ गए थे यहां कन्हैयालाल! स्त्रियों के कपड़े लेकर चढ़ गए हैं ऊपर। अभी कोई चढ़ जाए तो तुम कहोगे: यह रजनीशी संन्यासी है! और ऊपर बैठ कर डाल पर क्या कर रहे हैं, वह देखा? अब बेचारी भ
ारतीय नारियां हैं, सो लोक-लज्जा से पानी में दबी बैठी हैं, अब करें क्या! सो वे धीरे-धीरे कपड़े लटकाते हैं। जैसे छोटे बच्चों को तुम कोई चीज देने के लिए हाथ बढ़ाते हो, फिर पीछे खींच लेते हो, वह तुम्हारे पास आया तो पीछे खींच ली—ऐसे ही वे कपड़े लटकाते हैं। और जैसे ही वे महिलाएं हाथ उठाती हैं, वे कपड़े ऊपर खींच लेते हैं, ताकि वे पूरी की पूरी नंगी खड़ी हो जाएं। क्या खेल चल रहे हैं! मालूम होता है नानापेठ में अभी तक इनकी कोई खबर नहीं आई।
वाचस्पति, कुछ इनको सोचो-विचारो।
‘भोगवासना से रहित, परोपकार करने की इच्छा से युक्त’...। और परोपकार करने की इच्छा भी तो इच्छा ही है। वह भी तो भोगवासना ही है। वह भी कोई इच्छा से मुक्ति तो नहीं है!...‘जो पुरुष या स्त्री हो वह संन्यास ग्रहण करे।’ ऐसी शर्तें लगा दीं कि न कोई पूरी कर सकेगा, न कोई संन्यासी हो सकेगा। यह संन्यास रोकने का उपाय था ब्राह्मणों का, क्योंकि ब्राह्मण नहीं चाहते लोग संन्यासी हों।
संन्यासी के कई खतरे हैं ब्राह्मण को। पहला, कि संन्यासी होते से ही व्यक्ति ब्राह्मण के चक्कर से मुक्त हो जाता है। संन्यासी होते ही वर्ण से मुक्त हो जाता है। संन्यासी होते ही से न क्षत्रिय, न शूद्र, न ब्राह्मण, कोई भी नहीं रह जाता—वर्णातीत हो जाता है। और संन्यासी होते से ही समस्त आचरण से भी मुक्त हो जाता है, आचरण-अतीत हो जाता है, अतिक्रमण कर जाता है चरित्र का। उस पर फिर कोई नियम-व्रत लागू नहीं होते। उसका जीवन स्वच्छंद होता है। उसके जीवन में स्वयं का छंद होता है। वह अपने अंतर्तम से जीता है।
ब्राह्मण यह बरदाश्त नहीं कर सकते थे। यह तो उनकी सत्ता को चुनौती हो जाती है। लेकिन यह भी नहीं कह सकते थे कि संन्यास गलत है, क्योंकि यह कहते, तो भी लोग कहते कि संन्यास जैसी सुंदर चीज और तुम गलत कह रहे हो? तो फिर उन्होंने चालबाजी निकाली। फिर उन्होंने ऐसी शर्तें लगा दीं कि न तुम कर सकोगे शर्तें पूरी कभी, न कभी संन्यास होगा और जो भी संन्यासी होगा उसको हम बता सकेंगे कि यह गलत संन्यासी है, इसमें देखो भोग-विलास है, इसमें देखो इच्छा है, इसमें देखो पूर्ण विद्वान नहीं है, इसमें देखो जितेंद्रिय नहीं है, इसमें देखो अभी वैराग्य पूरा नहीं हुआ। हम भूल-चूक बता सकेंगे। तो संन्यासी की निंदा करने की हमें सुविधा मिल गई और लोगों को संन्यास से रोकने की सुविधा मिल गई।
ब्राह्मण चाहता है, लोग कभी भी ज्ञान को उपलब्ध न हों। तभी तो उसका शोषण चलेगा। तभी तो वह लोगों की छाती पर बैठ कर इनका खून चूसता रहेगा। हजारों साल से चूस रहा है। खटमलों की तरह हैं ये ब्राह्मण। ये खून पी रहे हैं आदमी का। और अभी भी इनसे छुटकारा नहीं हुआ। इसलिए मेरे संन्यास से उनको घबड़ाहट हो रही है, क्योंकि मेरा संन्यास लोगों को एक मुक्ति दे रहा है, जिसमें वे कम से कम सब तरह के ब्राह्मणों के चक्कर से छूट जाएंगे।
तुम कहते हो: ‘वेद में कहा है पूर्ण ज्ञानी विद्वान ही संन्यास ले।’
वेद का अधिकार क्या है? किसी शास्त्र का किसी पर कोई अधिकार नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी स्वयं की चेतना की रोशनी में जीना चाहिए। और कौन है पूर्ण विद्वान, किसको पूर्ण विद्वान कहेगा वेद? बुद्ध को पूर्ण विद्वान कहेगा? क्योंकि वेद तो बुद्ध को आते नहीं। महावीर को कहेगा? महावीर को भी नहीं आते। जरथुस्त्र को कहेगा, लाओत्सु को कहेगा? इनको भी नहीं आते। सुना ही नहीं, नाम ही नहीं सुना। जीसस को कहेगा? मोहम्मद को कहेगा? कभी नहीं। पूर्ण विद्वान किसको कहेगा? वेद? जो चारों वेदों का ज्ञाता हो। और वेदों में है क्या, निन्यानबे प्रतिशत कचरा है! उस कचरे को जो इकट्ठा किए बैठा है, वह पूर्ण ज्ञानी!
और वेदों की तुम जरा कथाएं देखो, तो तुम चकित हो जाओगे। इनमें कहीं ज्ञान का कोई प्रमाण नहीं मिलता। बड़ी क्षुद्र वासनाओं से भरे हुए लोग। बड़ी क्षुद्र आकांक्षाएं, प्रार्थनाओं से भरे हुए लोग। इनको शास्त्रों को जान कर भी क्या हो जाएगा? इससे संन्यास का क्या संबंध है?
‘और कठोपनिषद में कहा है—जो दुराचार से पृथक नहीं, जिसको शांति नहीं, जिसकी आत्मा योगी नहीं...!’
बड़े मजे की बातें हैं। आत्मा भी कहीं योगी होती है? योग तो शरीर पर ही समाप्त हो जाता है। ध्यान मन पर समाप्त हो जाता है। आत्मा न तो योगी होती है, न ध्यानी होती है। आत्मा तो वह है जो योग और ध्यान के पार साक्षी है; मात्र साक्षी है, कर्ता नहीं। योग तो क्रिया है। योगी होने का अर्थ है शरीर से बंधे होना। ध्यानी होने का अर्थ है मन से बंधे होना। जो ध्यान और योग दोनों के पार चला जाता है, वही आत्मा को जान पाता है।
तुम कहते हो: ‘जिसकी आत्मा योगी नहीं है और जिसका मन शांत नहीं है, तब वह संन्यास लेकर भी प्रज्ञान योनि, उत्तम ज्ञान या उपदेश से परमात्मा क्या, आत्मा को भी नहीं जान सकता।’
जैसे कि आत्मा के अतिरिक्त कोई और परमात्मा भी है! आत्मा को उसकी परम शुद्धि में जान लेना ही परमात्मा है। आत्मा को जाना कि परमात्मा को जाना। जिसने स्वयं को जाना उसने ‘उसको’ जाना।
इसलिए मुझसे उन्होंने कहा है: ‘आप ऐसे गुणों से युक्त स्त्री-पुरुषों को संन्यास देते हैं?’ ऐसे गुणों से युक्त स्त्री-पुरुष आएं तो उनको मैं कहूंगा: तुम्हें संन्यास की कोई जरूरत नहीं है। तुम संन्यासी हो ही, बात ही खत्म हो गई। तुम स्वस्थ हो। मैं तो उन्हें इनकार कर दूंगा। ऐसा व्यक्ति अगर मेरे पास आए तो उसको मैं इनकार कर दूंगा संन्यास देने से, उसको जरूरत ही नहीं है। और अगर ऐसा व्यक्ति मेरे पास संन्यास लेने आता है तो बड़ी हैरानी की बात होगी कि अब इस आदमी को बचा क्या है! जितेंद्रिय है, पूर्ण ज्ञानी है, मन शांत हो गया, आत्मा का बोध हो गया, पूर्ण विद्वान है—अब और बचा क्या है इसको संन्यास लेने के लिए? क्या सिर्फ गेरुआ वस्त्र पहन लेने से कुछ कमी पूरी हो जाएगी? अब वस्त्रों से क्या लेना-देना है? उसे तो मैं संन्यास दूंगा ही नहीं। और तुम कहते हो उसको ही संन्यास देना।
तुम कहते हो: ‘अगर नहीं तो अपने देश...।’
मेरा कोई देश नहीं है, तुम्हारा होगा। मेरी कोई जाति नहीं है, तुम्हारी होगी। मेरी कोई संस्कृति नहीं है, तुम्हारी होगी। मैं ही नहीं हूं तो मेरा देश क्या, मेरी जाति क्या, मेरी संस्कृति क्या? ये थोथे आग्रह मेरे ऊपर नहीं हैं। यह सारी पृथ्वी, यह सारा अस्तित्व, इसके साथ मैं अपने को एकरूप मानता हूं—एकरूप जानता हूं! और जिस सड़े-गले देश, जाति और व्यक्ति और संस्कृति के नष्ट होने से तुम डर रहे हो, उसको मैं नष्ट करना चाहता हूं। वही तो तुम्हें सड़ा रही है। जिस कैंसर को तुम पकड़े हुए हो और सोच रहे हो यह हमारी आत्मा है, तुम्हारी आत्मा नहीं है। वही तो तुम्हारी आत्मा का घाव है। उसी की मवाद को तो निकालना है। उसी कैंसर को तो निकाल फेंकना है।
मैं तुम्हें अतीत से मुक्त करना चाहता हूं। यह सब तुम्हारा अतीत है—अपना देश, अपनी जाति, अपनी संस्कृति! ये सब अहंकार की घोषणाएं हैं। मेरे पास जो लोग इकट्ठे हो रहे हैं, ये शुद्ध मनुष्यमात्र हैं। न कोई इटालियन, न कोई जर्मन, न कोई भारतीय, न कोई जापानी। न कोई हिंदू, न कोई मुसलमान, न कोई ईसाई, न कोई बौद्ध। न कोई गोरा, न कोई काला। न कोई स्त्री, न कोई पुरुष। यहां कोई फिकर नहीं है इन सब बातों की। इन टुच्ची बातों में जो लोग पड़े हैं, उनको मानसिक चिकित्सा की जरूरत है। मनुष्य-जाति ने बहुत दुख उठा लिया है इन्हीं बेवकूफी की बातों के कारण। मैं तो इन सबको होली में डाल देना चाहता हूं। मैं तो एक पृथ्वी चाहता हूं और एक मनुष्यता!
तुम पूछते हो: ‘उक्त गुणों से युक्त व्यक्ति को ही संन्यास दें, अन्य को नहीं।’
यह प्रश्न है या प्रश्न के नाम पर सीधी अभद्रता? ध्यान रखना, जो बिना मांगे सलाह देता है वह आदमी मूढ़ है। मैंने तुमसे सलाह मांगी नहीं और तुम सलाह दे रहे हो मुझे। सलाह ही नहीं, आदेश दे रहे हो।
और तुम कहते हो: ‘यह भी सत्य है कि जिस प्रकार गुणरहित डाक्टर, प्रोफेसर आदि कार्य नहीं कर सकते, उसी प्रकार संन्यास का भी धर्म है। और अगर गुणरहित है तो उसको संन्यास न दें।’
निश्र्चित ही, डाक्टर को डाक्टर होना चाहिए, उसका शिक्षण है। प्रोफेसर को प्रोफेसर होना चाहिए, उसका शिक्षण है। संन्यासी को भी संन्यासी होना चाहिए, उसका शिक्षण है। संन्यास की दीक्षा संन्यास के प्रशिक्षण में प्रवेश है। संन्यास की दीक्षा से कोई सिद्ध नहीं हो जाता। सिद्ध और संन्यासी का वही भेद है। संन्यास है प्रवेश और सिद्ध हो जाना है पूर्णता। संन्यास की प्रक्रिया से गुजर कर कोई सिद्ध होता है।
लेकिन तुम अगर कहो कि सिद्ध को ही संन्यास देंगे, तो तुमने तो बैलों को गाड़ी के पीछे बांध दिया। अब यह गाड़ी क्या खाक चलेगी! अब इसका चलना असंभव है।
जरूर संन्यास का भी धर्म है, लेकिन संन्यास का धर्म सनातन धर्म नहीं है और न हिंदू धर्म है, न मुसलमान धर्म है, न ईसाई धर्म है। संन्यास का धर्म का अर्थ तो इतना ही होता है: अपने स्वभाव के अनुसार जीना, अपने बोध के अनुसार जीना।
इसलिए मेरे पास जो लोग आ रहे हैं, उन्हें मैं दीक्षा दे रहा हूं। उनकी न पात्रता पूछता हूं, न अपात्रता। क्योंकि पात्रता तो मैं पैदा करूंगा, पूछना क्या है? उन्होंने जिज्ञासा जाहिर की, इतना ही पर्याप्त है। उन्होंने आकांक्षा की संन्यासी होने की, इतना काफी है। और जब परमात्मा उनको जीवन देता है बिना उनकी पात्रता पूछे, तो मैं कौन हूं जो उनको संन्यास देने से रोकूं?
सूफी फकीर जुन्नैद के पड़ोस में एक आदमी रहता था, जो बड़ा व्यभिचारी, दुराचारी, शराबी, सब खूबियां उसमें थीं। जुन्नैद ने एक दिन परमात्मा से कहा: हे प्रभु, इस आदमी को उठा क्यों नहीं लेता? इस आदमी की वजह से कितना अनाचार फैल रहा है!
उस रात जुन्नैद को स्वप्न में परमात्मा दिखाई पड़ा! उसने कहा: जुन्नैद, तुझे इस आदमी के पड़ोस में रहते कितने दिन हुए—केवल सात दिन! और मैं इस आदमी को सत्तर साल से जिंदा रखे हूं। मैं जिसे सत्तर साल से श्र्वास दे रहा हूं, जीवन दे रहा हूं, उसे तू सात दिन भी बरदाश्त नहीं कर सका! और सिर्फ तू पड़ोस में रह रहा है। तेरा वह कुछ बिगाड़ नहीं रहा है। यह कैसा अधैर्य? और तू यह नहीं देखता कि अगर वह आदमी गलत होता तो मैं उसे जिलाए क्यों रखता? उसमें कुछ राज है, कुछ खूबी है।
जब परमात्मा जीवन देता है तो मैं मानता हूं कि उसने तुम्हें अवसर दिया है संन्यासी होने का। जीवन है क्या? जीवन है संन्यासी होने का अवसर। जीवन है तुम्हारे भीतर जो बीज हैं, उनको फूल बनाने का अवसर। जीवन है तुम्हारे भीतर गुलाब खिलाने का अवसर। मेरे पास तो जो आएगा, बेशर्त उसे संन्यास दूंगा। जुआरी आएगा, शराबी आएगा, चोर आएगा—उसे भी संन्यास दूंगा। क्योंकि मैं मानता हूं कि चोर भी अचोर हो सकता है, जुआरी जुआरीपन छोड़ सकता है। और जिसने कभी हत्या की थी, जरूरी नहीं कि उस हत्या से सदा के लिए बंध गया।
कोई कृत्य किसी व्यक्ति को समग्ररूप से नहीं घेरता है। इसलिए कृत्यों का मैं कोई हिसाब नहीं रखता। मैं तो व्यक्ति की जिज्ञासा को मूल्य देता हूं, उसकी अभीप्सा को मूल्य देता हूं। संन्यास का अर्थ है, वह परमात्मा की खोज के लिए आतुर है। कितना ही बुरा हो और कितने ही गड्ढे में पड़ा हो और कितने ही अंधकार में हो, अगर सूरज की तलाश है तो मैं उसे साथ दूंगा। न मुझे वेदों की चिंता है, न तुम्हारे उपनिषदों की चिंता है, न तुम्हारे शास्त्रों की चिंता है।
मैं तो संन्यास की एक नई अवधारणा को जन्म दे रहा हूं। उसका शास्त्र बना लूंगा, उसका वेद बना लूंगा। वेद बनाने में क्या रखा है? शास्त्र बनाने में क्या रखा है? जो भी बात सत्य के अनुसरण में बोली जाती है, वही शास्त्र है और जो बात भी सत्य की उदघोषणा करती है वही वेद है।
समझने की कोशिश करो अशोक कुमार वाचस्पति, समझाने की नहीं।
आए हैं समझाने लोग, हैं कितने दीवाने लोग!
आए हैं समझाने लोग, हैं कितने दीवाने लोग
दैरो हरम में चैन जो मिलता
क्यों आते मैखाने लोग?
जान के सब कुछ भी न जानें
हैं कितने अनजाने लोग
वक्त काम नहीं आते हैं
ये जाने-पहचाने लोग
अब जब मुझको होश नहीं है
आए हैं समझाने लोग
हैं कितने दीवाने लोग, आए हैं समझाने लोग!
दैरो हरम में चैन जो मिलता
क्यों जाते मैखाने लोग?
यह मंदिर नहीं, मस्जिद नहीं, दैरो हरम नहीं। यह तो मयखाना है। तुम यहां कहां की बकवास लेकर आ गए? यह तो रिंदों की जमात है, पियक्कड़ों का मजमा है। और अब तुम मुझे समझाने आए हो, जब कि बात बिलकुल बिगड़ ही चुकी।
अब जब मुझको होश नहीं है
आए हैं समझाने लोग
हैं कितने दीवाने लोग!
देर कर दी अशोक कुमार वाचस्पति। जरा जल्दी आना था। मैं तो बिगड़ ही गया और हजारों को बिगाड़ भी चुका। और अब तो यह बात चल पड़ी है, रुकने वाली नहीं है। अब तो यह नया वेद निर्मित होगा, अब तो यह नया शास्त्र बनेगा, बनने ही लगा! अब तो मनुष्यों की एक नई तस्वीर उभरने ही लगी।
मेरा संन्यासी भविष्य के मनुष्य की उदघोषणा है। इसका अतीत से कोई संबंध नहीं है। इसका संबंध वर्तमान से है और भविष्य से है।
अशोक कुमार वाचस्पति, तुम्हें इतना ज्ञान है, संन्यास लो भैया! इतने शास्त्रों के ज्ञाता, अब और क्या पूर्ण ज्ञान होगा? और सभी कुछ तो तुम्हें पता है कि संन्यासी में क्या-क्या होना चाहिए, अब क्या कर रहे हो बैठे-बैठे? नानापेठ में मक्खियां कब तक मारते रहोगे?
सेठ चंदूलाल ने अपने बेटे से कहा; कहना पड़ा, मजबूरी थी, क्योंकि बेटे ने चंदूलाल से प्रार्थना की कि अब मैं शादी करना चाहता हूं। मेरा एक लड़की से प्रेम हो गया है।
चंदूलाल बोले: बेटा, मेरी नसीहत याद रखो, कभी शादी न करना।
बेटे ने कहा: पिताजी आपकी बात मान कर अपने बेटे को भी मैं यही नसीहत दूंगा।
सच यह है कि चंदूलाल के बाप ने भी उनको यही नसीहत दी थी और चंदूलाल के बाप को उनके बाप ने यही नसीहत दी थी। बस नसीहत देने में क्या हर्जा है? जब इतना ज्ञान तुम्हें हो गया, तो अब क्या कर रहे बैठे-बैठे नानापेठ में? अब संन्यासी हो जाओ। तुम्हें अच्छा नाम देंगे—स्वामी नानालाल भारती!
दो अफीमची बात कर रहे थे। एक ने पूछा: यार, यदि नदी में आग लग जाए तो सारी मछलियां कहां जाएंगी?
दूसरे ने कहा: तू चिंता मत कर, वे सब पेड़ों पर चढ़ जाएंगी।
पहले ने कहा: तुम भी गजब के आदमी हो जी! हद के बेवकूफ हो! क्या मछलियां गाय-भैंसें हैं जो पेड़ों पर चढ़ जाएं?
ज्ञान की तो बातें कर रहे हो, नशा उतारो, थोड़े मूर्च्छा से जगो! यह सब बकवास मिथ्या है।
चंदूलाल बहुत गुस्से में पहुंचा दुकानदार के पास और बोला कि सुनो जी, यहां से हाथीदांत की जो मैं कंघी ले गया था वह नकली थी।
दुकानदार ने कहा: साहब अगर हाथी भी नकली दांत लगाने लगे हैं तो इसमें मेरा क्या कसूर?
आज इतना ही।
भगवान, सितारवादक पंडित रविशंकर से जब हालैंड के प्रसिद्ध दैनिक पत्र वोल्क्सक्रान्ट के प्रतिनिधि ने आपके संबंध में पूछा, तो उन्होंने जो वक्तव्य दिया, वह इस प्रकार है: ‘इस लोकतांत्रिक जगत में प्रत्येक व्यक्ति वह काम करने को स्वतंत्र है, जिसे वह उचित मानता है। इसलिए लोग अगर ओशो के पास जाना चाहते हैं तो उन्हें स्वयं ही तय करना होगा। मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूं, लेकिन वे पाश्र्चात्य लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय मालूम पड़ते हैं। आपको कुछ त्याग नहीं करना पड़ता है और पाश्र्चात्यजन जो चाहते हैं वे उसे सर्वाधिक मात्रा में वहां उपलब्ध करते हैं। अगर आपको यह द्वंद्व है तो यह चीज आपके सर्वथा योग्य है। वहां आपको सभी चीजें मिल सकती हैं—सेक्स, गांजा-भांग और आध्यात्मिक मुक्ति, सब एक साथ।’ भगवान, इतने बड़े कलाविद रविशंकर का आपको जाने बिना आप पर यह वक्तव्य देना क्या उचित था? क्या आप इस पर कुछ कहने की अनुकंपा करेंगे?
आनंद रागेन! मैं, जो मुझे जान ले उसके लिए अबूझ पहेली हो जाता हूं। फिर तो उसे वक्तव्य देना बहुत मुश्किल हो जाए। जो मुझे नहीं जानता वही मेरे संबंध में आसानी से वक्तव्य दे सकता है; जितना कम जानता है—उतनी सुनिश्र्चितता से; अगर बिलकुल नहीं जानता—तो पूर्णता से।
रविशंकर निश्र्चित ही बड़े कलाविद हैं। उनके सितारवादन का मैं प्रशंसक हूं। लेकिन वह जो ब्राह्मणपन है, वह जो पांडित्य है भीतर, वे जो संस्कार हैं हिंदू के, वे छूटे भी नहीं छूटते। संस्कार अचेतन होते हैं। उनकी अंतर-धारा होती है।
भारत में वे आते हैं, पूना भी आते हैं। और पूना जब आते हैं तो उनको सुनने वालों में नब्बे प्रतिशत मेरे संन्यासी होते हैं। फिर भी इस आश्रम आने की हिम्मत वे नहीं जुटा पाए। और ऐसा नहीं है कि वे नहीं जाते हैं महात्माओं के पास, गुरुओं के पास। सत्य साईं बाबा के पास जाते हैं। वहां भारत की जो जड़, मुर्दा संस्कृति है उसको समर्थन मिलता है।
मैं तो आग की तरह मालूम होता हूं पंडितों को। मेरे पास आना साहस की बात है। तैयारी हो जिसमें अतीत से मुक्त होने की, वही केवल मुझसे परिचित हो सकता है। मैं तो एक चुनौती हूं। और जो डूबेगा वही पार जाएगा। और पंडित इसी पार बैठा रहता है और उस पार की बातें करता है। और इसी पार बैठे-बैठे उस पार की बातें करने में कुछ खर्च लगता है? हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए!
और इस देश में तो हड्डी-मांस-मज्जा में ज्ञान भर गया है। जिन्होंने कुछ भी नहीं जाना है, वे भी परम सत्यों के संबंध में अपने को अधिकारी मानते हैं। क्योंकि कुछ वेद, कुछ गीता, कुछ रामायण के सूत्र उन्हें तोतों की तरह कंठस्थ हो जाते हैं।
रविशंकर जैसे लोग भारत के अतीत से ऐसे जकड़े हैं कि मुझे पहचानना और समझना तो बहुत दूर की बात, मेरे निकट आने की क्षमता भी उनकी नहीं है। मेरे पास तो वे ही आ सकते हैं जो परवाने हैं, क्योंकि यह तो शमा है। जो जलने को तत्पर है, उसके लिए ही आमंत्रण है। क्योंकि जल कर ही तो कोई नया होता है। मिट कर ही तो कोई पुनर्जन्म होता है।
फिर एक बात खयाल रखना कि कोई सितार कितना ही अच्छा बजाए, इससे तुम उससे कोई ऑपरेशन करवाने को राजी नहीं हो जाओगे; क्योंकि वह बड़ा सितारवादक है, इसलिए चलो इसी से अपेंडिक्स निकलवा लें। तुम कहोगे: सितारवादक होगा, और कितना ही बड़ा हो, लेकिन इससे अपेंडिक्स निकालने का क्या संबंध है?
लेकिन जीवन के बहुत से संबंधों में हमारा सोचना ऐसा ही भ्रांत है। एक आदमी बहुत बड़ा रसायनविद है या भौतिकशास्त्री है। अगर वह ईश्र्वर के संबंध में कुछ कहता है तो उसकी बात अधिकारपूर्ण मानी जाती है। यह बात उतनी ही मूर्खतापूर्ण है जितनी कोई रविशंकर से अपेंडिक्स निकलवाए, क्योंकि वे बड़े सितारवादक हैं। कोई व्यक्ति भौतिकशास्त्र का ज्ञाता होगा, लेकिन इससे कोई ब्रह्म से परिचय नहीं हो जाता। और कोई व्यक्ति बड़ा गणितज्ञ होगा, इससे बड़ा संगीतज्ञ नहीं हो जाता। और कोई व्यक्ति बड़ा संगीतज्ञ होगा, इससे कोई बड़ा जौहरी नहीं हो जाता। ये जीवन के छोटे-छोटे पहलू हैं। एक को जानने के लिए, सच तो यह है और बहुत सी बातों से अनजाना रह जाना पड़ता है। एक को जानने के लिए बहुत सी बातों को जानने से वंचित रहना पड़ता है। यहां तो चुनाव करने पड़ते हैं। चुनाव में निश्र्चित ही कुछ पाओगे तो कुछ गंवाओगे। और ज्यादा गंवाना पड़ता है।
विज्ञान की परिभाषा की जाती है: नोइंग मोर एण्ड मोर अबाउट लेस एण्ड लेस। कम से कम के संबंध में ज्यादा से ज्यादा जानना—यह विज्ञान की परिभाषा है। परिभाषा बिलकुल ठीक है। अगर यह विज्ञान की परिभाषा है तो धर्म की क्या परिभाषा होगी? नोइंग लेस एण्ड लेस अबाउट मोर एण्ड मोर। कम से कम जानना ज्यादा से ज्यादा के संबंध में। फिर अध्यात्म की क्या परिभाषा होगी? नोइंग नथिंग अबाउट ऑल! समग्र के संबंध में कुछ भी न जानना। पूर्ण के संबंध में शून्य हो जाना।
मेरी सारी शिक्षा इतनी ही है: पूर्ण को जानना हो, शून्य हो जाओ। ज्ञान से आपूरित होना हो, अज्ञानी हो जाओ।
लेकिन भारत की प्राचीन परंपरा ऐसी नहीं है। वह पंडितों द्वारा निर्मित है। नहीं कि कभी-कभी किसी बुद्ध ने उठ कर क्रांति की उदघोषणा नहीं की है; मगर उन बुद्धों को हमने राह से हटा दिया। हटाने की हमने अलग-अलग तरकीबें उपयोग की हैं। सबसे सुगम तरकीब है पूजा। जो व्यक्ति ज्यादा उपद्रव करे, उसकी पूजा करो। पूजा करना हमारा इस बात का निवेदन है कि आपकी बात बिलकुल सच है, मानते हैं, जिद नहीं करते, मगर अभी हमारी सामर्थ्य नहीं। अभी तो हम दो फूल चढ़ाते हैं; जब सामर्थ्य होगी तब जरूर आपके मार्ग पर चलेंगे। यह छुटकारे का उपाय है। आप महान हो। हम साधारण जन, पृथक जन! आप अलौकिक, हम सांसारिक! आप हो अवतार, तीर्थंकर, बुद्ध और हम ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे, हमारा काम इतना है कि आपकी पूजा करें, स्मरण करें, अरे आप तिराओगे तो तर जाएंगे! आप तारणहार हो, खेवनहार हो! आप मांझी हो! हमारे किए कुछ न होगा।
सो भारत प्रतीक्षा करता है।
किसी मित्र ने पूछा है कि हमेशा जब भी धर्म पर संकट आया और जब भी देश में अंधेरा घिरा और जब भी देश में अनाचार हुआ, तो भगवान ने अवतार लिया। अब भगवान अवतार क्यों नहीं लेते?
कभी अवतार नहीं लिया और कभी अवतार नहीं लेंगे। भगवान कोई व्यक्ति थोड़े ही है कि अवतार ले ले। भगवान तो एक अनुभूति है भगवत्ता की कि जीवन पदार्थ पर समाप्त नहीं है। लेकिन काहिल, सुस्त, आलसी, बेईमान लोग, जो कुछ भी नहीं करना चाहते, जो जीवन की क्रांति से बचना चाहते हैं, उन्होंने यह तरकीब ईजाद की है कि जब संकट होगा, अंधेरा होगा, धर्म की ग्लानि होगी, तो आएंगे कृष्ण, आएंगे महावीर, आएंगे बुद्ध और हमारे सब कष्टों का हरण हो जाएगा। पहले हुआ था हरण? बुद्ध तो आ चुके, महावीर भी आ चुके, कृष्ण भी आ चुके, राम भी आ चुके, कितने तो अवतार हो चुके, कितने तो तीर्थंकर हो चुके, तुम्हारी मुसीबतों का हरण कब हुआ? तुम्हारा अंधेरा कब मिटा? दीये तो बहुत सुनते हैं जले, मगर तुम तो दीये के नीचे रहे और दीये के नीचे अंधेरा है। तुम तो दीये के नीचे से ही स्तुतियां करते रहे।
मैं विश्र्वविद्यालय में विद्यार्थी था। पहली ही विश्र्वविद्यालय की सभा थी। डाक्टर त्रिपाठी, एक बहुत बड़े इतिहास-विद, आक्सफोर्ड में भी प्रोफेसर रहे थे, और भी दुनिया के अनेक विश्र्वविद्यालयों में, वे उपकुलपति थे। पक्के शराबी! मगर थे पंडित। थे ज्ञानी! शास्त्रों के ज्ञाता। और इतिहास पर उनकी गहरी पकड़ थी। बुद्ध-जयंती थी तो उन्होंने बुद्ध पर प्रवचन दिया और कहा कि कभी-कभी मेरे मन में यह सवाल उठता है कि कैसा धन्यभाग होता, अगर मैं बुद्ध के समय में हुआ होता तो जरूर उनके चरणों में जाकर बैठता, सुनता उनकी अमृतवाणी, आह्लादित होता, आनंदित होता, रूपांतरित होता! मैं तो विद्यार्थी था। लेकिन मुझसे ऐसी झूठी बातें नहीं सुनी जातीं। मैं खड़ा हुआ। मैंने उनसे कहा कि मेरा एक निवेदन है कि आप इस पर पुनर्विचार करें। एक दो मिनट आप आंख बंद करें और इस पर पुनर्विचार करें। क्या यह सच है कि अगर आप बुद्ध के समय में होते तो उनके चरणों में बैठते? क्या आप सोचते हैं आज कोई भी व्यक्ति बुद्ध नहीं है? क्या आप किसी भी व्यक्ति के चरणों में इस जीवन में बैठे हैं?
वे थोड़े झिझके। मैंने कहा: आंख बंद करें और थोड़ी देर सोचें। मैं जल्दी जवाब नहीं चाहता। मैं जवाब में उतना उत्सुक नहीं हूं, जितना आप थोड़े मनन में उतर जाएं इसमें उत्सुक हूं।
मैंने कहा: आपकी जिंदगी में रमण महर्षि मौजूद थे। या तो मुझसे कहो कि रमण बुद्ध नहीं थे। कह दो कि रमण बुद्ध नहीं थे तो बात खत्म हो जाएगी। और या फिर कहो कि क्यों नहीं गए उनके चरणों में? और यह मत कहना कि सुविधा नहीं मिली। आक्सफोर्ड जाने की सुविधा है, अमरीका जाने की सुविधा है, जापान जाने की सुविधा है, सारी दुनिया के कोने-कोने में जाने की सुविधा है, सिर्फ अरुणाचल जाने की सुविधा न मिली।
यह तो उनकी हिम्मत न थी कहने की कि कह दें कि रमण बुद्ध न थे। और तब बड़ी मुश्किल में पड़ गए। और मैंने उनसे कहा: कृष्णमूर्ति अभी जिंदा हैं, आप उनके चरणों में बैठे? आप किसी के चरणों में बैठे हैं? मगर मजा आता है यह बात कहने में कि पच्चीस सौ साल पहले अगर मैं होता तो बुद्ध के चरणों में बैठता।
मैंने कहा: आप बुद्ध को गालियां देते। आप उन्हीं लोगों में होते जिन्होंने बुद्ध को गालियां दी हैं। आपने पत्थर फेंके होते। आपने बुद्ध का अपमान किया होता। ये वे ही लोग, जो बुद्ध जीवित होते हैं तो अपमान करते हैं, गालियां देते हैं और बुद्ध मर जाएं तो पूजा के फूल चढ़ाते हैं। बड़े काइयां हैं लोग, बड़े बेईमान हैं लोग! और फिर याद करते हैं कि आएं बुद्ध, हमें छुटकारा दिलाएं। मुसीबतें तुम खड़ी करो और बुद्ध छुटकारा दिलाएं! अंधेरा तुम फैलाओ और बुद्ध रोशनी करें! यह किस ढंग का हिसाब है? इसमें कौन सी तर्कसरणी है?
लेकिन पंडित की एक अकड़ होती है, एक अहंकार होता है। और पंडित हमेशा अतीत पर जीता है; उसका कोई भविष्य नहीं होता, कोई वर्तमान नहीं होता।
रविशंकर पंडित हैं। पंडित होने से यहां मेरे पास आने में अड़चन है। और पंडित आए तो मैं उसकी गर्दन बेरहमी से काटता भी हूं, क्योंकि पंडित की जब तक गर्दन न काटो तब तक पंडित की तुम कोई भी सेवा नहीं कर सकते। उसकी गर्दन कट जाए तो उसे जीवन मिल जाए।
सितारवादक होने से मेरे संबंध में वक्तव्य देने का उनको कोई अधिकार नहीं है। मुझे जान कर वक्तव्य दें। लेकिन और भी अड़चने हैं। पश्र्चिम में बढ़ती मेरी लोकप्रियता उन सारे लोगों के लिए ईर्ष्या का कारण बन गई, जो किसी कारण पश्र्चिम में लोकप्रिय हैं। महर्षि महेश योगी को अड़चन है। अभी परसों ही मेरे पास एक मित्र का पत्र था कि मैं महर्षि महेश योगी के पास गया तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैं तो परंपरा का अंग हूं, मेरी तो जड़ें शंकराचार्य तक फैली हुई हैं। तुम हो उखड़े हुए लोग, क्योंकि तुम जो प्रश्न पूछ रहे हो, ये परंपरा-विरोधी हैं। अगर इस तरह के प्रश्न पूछने हों तो रजनीश के पास जाओ। तुम जैसे भ्रष्ट लोगों के लिए बस वही जगह है और कहीं कोई जगह नहीं है। यहां आना है तो परंपरागत ढंग से आना होगा, परंपरा के ढंग से आना होगा, यहां उखड़े हुए लोगों के लिए कोई जगह नहीं है।
महर्षि महेश योगी को तकलीफ है। मुक्तानंद के प्राणों में संकट छाया हुआ है। मगर उन लोगों के जीवन में भी अड़चन है, जैसे कि रविशंकर। उनसे मेरे क्षेत्र का कोई लेना-देना नहीं है। मैं सितारवादक नहीं हूं, उन्होंने कोई जीवन-सत्य का अनुभव नहीं किया है। लेकिन किसी की भी लोकप्रियता ईर्ष्या का कारण हो जाती है। अहंकार को चोट लगने लगती है। वे जहां जाते हैं वहां उनसे पूछा जाता है। मुझे अनेक मित्रों ने कहा है कि हमने जब भी रविशंकर से पूछा, वे क्रुद्ध होकर जवाब देते हैं और आपके खिलाफ कुछ बोलते हैं। और मजा यह है कि वे जो भी कह रहे हैं बिलकुल अज्ञान पर आधारित है। मुझसे बिलकुल भी परिचित नहीं हैं, दूर से भी परिचित नहीं हैं, खुद भी कहते हैं कि मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूं। बात वहीं खत्म हो जाती है। और कोई जानने का ढंग भी होता है दुनिया में? किसी को जानना हो तो व्यक्तिगत रूप से ही जाना जाता है, सन्निधि में जाना जाता है, निकटता में जाना जाता है, सामीप्य में जाना जाता है। और यह तो जानना कुछ ऐसा है कि कुछ ऐसा नहीं कि आप आए और किसी ने परिचय करा दिया, घड़ी आधा घड़ी में जानना हो गया। इसमें दिन लगते हैं, सप्ताह लगते हैं, महीने लगते हैं, वर्षों लग सकते हैं, जीवन लग सकता है। कितनी त्वरा और कितनी तीव्रता से कोई जानने बैठा है, कितनी अभीप्सा और कितनी मुमुक्षा है—इस पर निर्भर करता है।
मगर वक्तव्य देने में तो भारतीयों से कोई टक्कर नहीं ले सकता। किसी के भी पक्ष और विपक्ष में बुलवाना हो, कोई उन्हें अड़चन नहीं है। अगर उनकी लोकप्रियता बढ़ती हो तो पक्ष में बोलने को तैयार हैं और अगर लोकप्रियता को हानि पहुंचती हो तो विपक्ष में बोलने को तैयार हैं। अहंकार के लिए जो उचित मालूम पड़े, वे उसके पक्ष में बोलने को तैयार हैं।
मेरे कारण बहुतों के अहंकारों को चोट पहुंच रही है। मेरी भी मजबूरी है। यह हमेशा होता रहा है। मैं इसमें कुछ कर सकता नहीं। जिस व्यक्ति का अहंकार मिट जाएगा, उसके कारण बहुतों के अहंकार को चोट पहुंचेगी। तुम्हारे अहंकार को केवल वही भर सकता है और मक्खन लगा सकता है जिसका खुद का भी अभी अहंकार शेष हो। क्योंकि वह तुमसे प्रतिकार की आशा करेगा कि मैं तुम्हारी स्तुति करूं, तुम मेरी स्तुति करो। मैं तो किसी की स्तुति करता नहीं। इसलिए स्वभावतः लोगों को मेरी मौजूदगी कांटे की तरह चुभ रही है। वह चुभन तरह-तरह से निकलती है। वह मवाद बह-बह जाती है।
और जो उन्होंने कहा है वह अत्यंत मूढ़तापूर्ण है। उन्होंने कहा कि वहां आपको कुछ त्याग नहीं करना पड़ता है। किसने कहा पंडित रविशंकर शुक्ल को यह कि यहां कुछ त्याग नहीं करना पड़ता है? यहां ही त्याग करना पड़ता है! पांडित्य का त्याग करना पड़ता है, ज्ञान का त्याग करना पड़ता है, अहंकार का त्याग करना पड़ता है। और बाकी चीजें तो बहुत आसान है छोड़ देना। पत्नी को छोड़ देना बहुत कठिन नहीं। पंडित रविशंकर अपनी पत्नी को छोड़ भागे हैं। उनकी पत्नी ने ही मुझे आकर निवेदन किया रोते हुए कि मेरे साथ जो अनाचार हुआ है, मुझे जिस तरह दीन-हीन छोड़ गए हैं...। पत्नी को क्यों छोड़ भागे हैं? उसमें कुछ अड़चन न थी। असल में भागने में ही सुविधा थी, क्योंकि तब स्वच्छंद व्यवहार की आसानी हो जाती थी।
और ध्यान रखना, लोग धन छोड़ सकते हैं, क्योंकि धन बाहर है। लेकिन ज्ञान नहीं छोड़ सकते, क्योंकि ज्ञान भीतर है। ज्ञान को जोर से पकड़ते हैं, वही तो उनकी जीवन-संपदा है। तो उन्हें लगता होगा यहां कुछ नहीं छोड़ना पड़ता है, क्योंकि यहां मैं किसी से नहीं कहता पत्नी छोड़ो, बच्चे छोड़ो, घर-द्वार छोड़ो; क्योंकि मानता हूं मैं कि जिन्होंने पत्नी छोड़ी, घर-द्वार छोड़े, बच्चे छोड़े, वे कायर थे, भगोड़े थे। और मैं मानता हूं कि वे धार्मिक तो कतई नहीं थे। क्योंकि धर्म से इन सबके छोड़ने का कोई संबंध नहीं है। और मैं यह भी मानता हूं कि जिन्होंने इस जीवन के सारे संबंधों को छोड़ कर जंगल की राह पकड़ी, ये कमजोर थे; ये जीवन के संग्राम के प्रति पीठ कर रहे थे; ये कायर थे; ये जूझ न सके। और मैं यह भी मानता हूं कि इन लोगों के कारण दुनिया में बहुत दुख फैला। कितनी स्त्रियां पतियों के रहते हुए विधवा हो गईं! कितने बच्चे बापों के रहते हुए अनाथ हो गए! कितनी स्त्रियों को भीख मांगनी पड़ी और कितने बच्चों को भीख मांगनी पड़ी, और कितनी स्त्रियां वेश्याएं हो गई होंगी इन संन्यासियों कि वजह से, उसका कुछ हिसाब लगाया है?
हिंदुओं के इस समय कोई पचपन लाख संन्यासी हैं। ये जिन स्त्रियों और बच्चों को छोड़ कर भाग आए हैं, उनका कोई ब्योरा तो इकट्ठा करे। तो तुम चकित होओगे कि इस दुनिया में जितना पाप इन तथाकथित त्यागियों के कारण हुआ है उतना पाप किसी और चीज के कारण नहीं हुआ है। और मजा यह है कि फिर ये सारे त्यागी जीते तो इन्हीं गृहस्थों पर हैं। इनका भोजन कौन जुटाता है, इनकी रोटी कौन जुटाता है, इनके कपड़े कौन लाता है? इनके लिए मंदिर और तीर्थ कौन खड़े करता है? इनके मंदिरों पर स्वर्ण-कलश कौन चढ़ाता है? वे ही लोग, जिनकी ये निंदा कर रहे हैं, जिनको ये छोड़ भागे हैं।
रविशंकर कहते हैं कि वहां आपको कुछ त्याग नहीं करना पड़ता। यह सौ प्रतिशत बात गलत है। यहां कुछ त्याग करना पड़ता है, जो सूक्ष्म है, जो दिखाई नहीं पड़ता—लेकिन जो असली त्याग है! अहंकार छोड़ने से किसी को पता नहीं चलेगा। घर छोड़ोगे, पत्नी रोएगी, बच्चे चिल्लाएंगे, मोहल्ले को, गांव को पता चलेगा। और मूढ़ों की यह दुनिया है, अखबारों में फोटो छपेगी कि देखो क्या महान त्यागी! अहंकार छोड़ोगे, कानोंकान खबर भी नहीं होगी। धन छोड़ोगे, तो धन के लोभियों से भरा हुआ यह समाज है, गिद्ध की तरह टूट रहे हैं धन पर, दीवाने हैं, मंदिर भी जाते हैं तो धन मांगते हैं।
रामकृष्ण कहते थे कि चील चाहे कितनी ही ऊपर उड़े, उसकी नजर नीचे लगी रहती है घूरों पर—कोई मरा चूहा पड़ा हो, कोई मरा सांप पड़ा हो! उड़ती है आकाश में, नजर लगी रहती है घूरों पर, मरे चूहों पर।
तुम मंदिर जाते हो, उड़ते आकाश में हो, मगर मांगते क्या हो? और धन मिल जाए, और पद मिल जाए, और प्रतिष्ठा मिल जाए। मरते दम तक आकांक्षा नहीं जाती।
कल मैं मोरारजी देसाई का वक्तव्य पढ़ता था। बड़ा मजेदार वक्तव्य है। कहा है उन्होंने कि पैंतालीस साल जिसकी उम्र न हो, उसको भारतीय संसद का सदस्य होने का अधिकार नहीं होना चाहिए। पैंतालीस साल की उम्र हो तब भारतीय संसद का सदस्य! दूसरी बात भी अब कह ही दें, काहे को छिपाए बैठे हैं—जब पचासी साल का हो जाए, तब भारत का प्रधानमंत्री! सो वे अकेले प्रधानमंत्री हो सकते हैं। और पैंतालीस साल में जब कोई भारतीय संसद का सदस्य होगा तो स्वभावतः पचासी साल तक भी हो जाए अगर प्रधानमंत्री तो बहुत। ज्यादा संभावना तो यही है कि मृत्यु के पश्र्चात, पोस्थूमस प्रधानमंत्री! मर गए, कब्र में हो गए, तब प्रधानमंत्री हुए। जैसे मरणोपरांत पुरस्कार दिए जाते हैं न—नोबल प्राइज और और तरह के पुरस्कार, ऐसे ही फलां आदमी मर गया, चलो अब इनको प्रधानमंत्री बना दो। अब इनसे कुछ भूल-चूक तो हो ही न सकेगी, एक बात तो पक्की है। अब ये किसी का नुकसान तो कर ही न सकेंगे।
क्या मूर्खतापूर्ण बातें हैं! पैंतालीस साल में भारतीय संसद का कोई सदस्य बने, जब कि मरने के करीब होने लगता है आदमी, जीवन से उसके संबंध टूटने लगते हैं, छूटने लगते हैं, जीवन की ऊर्जा क्षीण होने लगती है। भारत की औसत उम्र छत्तीस वर्ष है। तो औसत अर्थों में तो भारत की संसद का कोई सदस्य ही नहीं हो सकता। और जिस देश की औसत उम्र छत्तीस वर्ष हो, उस देश में अगर यह शर्तबंदी लगाई जाए तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
लेकिन अतीत के मोही, मृत्यु के पूजक बुढ़ापे के भी पूजक होते हैं। जितना कोई बूढ़ा हो, उतनी उसकी बात कीमती हो जाती है। हालांकि गधे भी बूढ़े होते हैं, लेकिन गधों के बूढ़े होने से कुछ वे ज्ञानी नहीं हो जाते। गधा बूढ़ा होगा तो गधा ही रहता है, खच्चर बूढ़ा होगा तो खच्चर ही रहता है। और घोड़ा जवान भी होगा तो भी जवान होता है। सच तो यह है कि बच्चों के पास जो प्रतिभा होती है, वह बूढ़ों के पास कभी नहीं होती। बहुत थोड़े से ऐसे सौभाग्यशाली लोग हैं, जो अपने बचपन की प्रतिभा को बचा पाते हैं; नहीं तो यह समाज ऐसा है कि यह सबकी प्रतिभाओं पर जंग लगा देता है। जब जंग लग जाती है, जब तलवारों की धार मर जाती है, तब हम कहते हैं: अहा, कैसी प्राचीन तलवार है!
मेरी बातें तो इतनी नई हैं जितनी सुबह की ओस, इतनी नई जैसे अभी-अभी खिले हुए फूल! पंडितों को ये बातें नहीं समझ में आ सकतीं। उनको तो पत्थर चाहिए पुराने और जितने पुराने हों और उन पर लेख अगर ब्राह्मी-लिपि में लिखे हों, तो फिर तो कहने ही क्या? फिर तो उनका सिर एकदम नतमस्तक हो जाता है। प्राचीन के पूजक, मुर्दा के पूजक, मरघटों के पूजक!
और अनिवार्य है यह कि पंडित अतीतवादी हो, क्योंकि उसकी संपदा क्या है—स्मृति! ज्ञान तो उसकी कोई संपदा नहीं है।
मेरे पास जो लोग इकट्ठे हो रहे हैं, वे ही त्यागी हैं, क्योंकि वे कुछ अंतर्तम में त्याग कर रहे हैं। और मेरे हिसाब में, मेरे गणित में जो भीतर त्याग करता है उसके भीतर भोग का जन्म होता है, क्योंकि त्याग कोई अपने आप में मूल्य नहीं है। त्याग कोई अपने आप में लक्ष्य नहीं है। त्याग का अर्थ इतना ही है, जिससे हमें परमात्मा की रसधार में बहने का मौका मिले, हम उसके आनंद को उपलब्ध हों। त्याग साधन है, साध्य नहीं है। साध्य तो भोग ही है—महाभोग! भागवत भोग! जो भीतर का त्यागता है, वही भीतर के भोग को उपलब्ध होता है।
तो मेरे पास जो व्यक्ति हैं, उनमें एक अपूर्व घटना घटेगी। एक अर्थ में भीतर त्याग होगा। उस त्याग को ही मैं ध्यान कहता हूं। उसमें अहंकार मरेगा, मन विसर्जित होगा, ज्ञान छूटेगा। कचरा-कूड़ा सब बाहर निकाल देंगे। शून्यता का जन्म होगा। और शून्यता पात्रता है। उस पात्रता में फिर परमात्मा के अमृत की वर्षा होती है। वह भोग है।
जिन्होंने त्यागा उन्होंने ही भोगा। तेन त्यक्तेन भुंजिथाः! जिन्होंने त्यागा उन्होंने ही भोगा। इस उपनिषद-वचन को मैं बहुत मूल्य देता हूं। दुनिया में थोड़े ही वचन हैं जो इस कोटि में आते हैं; जो इस महत्ता को, इस गरिमा को प्रकट करते हैं। मगर पंडितों के पास तो थोथा मन होता है। इनकी समझ कितनी?
तो उन्होंने कहा कि वहां कुछ त्याग नहीं करना पड़ता। और पाश्र्चात्य जन जो चाहते हैं, वे उसे वहां सर्वाधिक मात्रा में उपलब्ध कर सकते हैं।
भारतीय अहंकार छूटता ही नहीं। अब रविशंकर रहते पश्र्चिम में हैं। मैं रहता हूं भारत में। और ये भारतीय संस्कृति के पोषक! क्या करते हो पश्र्चिम में? धन इकट्ठा कर रहे हैं। सब तरह का भोग, जिसकी निंदा भारतीय करते हैं, जिसकी निंदा वे खुद भी करेंगे! भारतीय मन ऐसा पाखंडी और चालाक है, जिसका हिसाब नहीं। बूढ़े देशों का मन ऐसा हो जाता है। बुढ़ापे से चालाकी आती है, बेईमानी आती है, सरलता खो जाती है। पश्र्चिम को कहेंगे भौतिकवादी। और ये सारे अध्यात्मवादी पश्र्चिम की तरफ भागे जाते हैं।
मुक्तानंद बैठे हैं मियामी बीच पर। भाड़ झोंक रहे हो वहां? क्योंकि भलीभांति मालूम है कि वह गोबरपुरी में जो आश्रम बना रखा है, वहां कौन आएगा? गोबरपुरी के गणेश हैं—गोबरगणेश! मगर मियामी बीच पर भारत से कोई आ गए हैं सिद्ध महात्मा, बस इतना प्रचार करना काफी है। और मियामी बीच पर क्यों? क्योंकि वहां पर्यटक आते हैं, खर्च ही करने आते हैं। जिनके पास खर्च करने को है, वे ही आते हैं। वहां आश्रम बना रखा है। वह आश्रम क्या है, होटल है। और वहां मुक्तानंद चौबीस घंटे करते क्या हैं?
मेरे एक संन्यासी निर्ग्रंथ अभी वहां होकर आए हैं। तो मुक्तानंद पूरे समय चौके में खड़े रहते हैं और भारतीय ढंग का भोजन बनवाते रहते हैं, क्योंकि अमरीकी लोगों को भारतीय भोजन आकर्षित करता है। यह अध्यात्म का प्रचार हो रहा है! भारतीय भोजन तैयार करवाया जा रहा है, भारतीय मिष्ठान्न तैयार करवाए जा रहे हैं और उनकी बिक्री हो रही है। और अमरीकी जन प्रसन्न हो रहे हैं, कि यह भारतीय भोजन, इसका स्वाद, इसकी विशिष्टता और फिर इसमें अध्यात्म की भी पुट मिली है कि बनवाने वाला कोई सिद्ध पुरुष, कोई परमहंस! मगर परमहंस न हुए, बावर्ची हुए!
रविशंकर को सितार की साधना करने में भारत में कोई अड़चन है? अमरीका में बैठने की क्या जरूरत है? लेकिन धन वहां है और गाली भी धन को है!
बटर्रेंड रसल कहा करते थे कि अगर कहीं किसी ने जेब काट ली हो और शोरगुल मचे कि किसी की जेब कट गई, पकड़ो, तो जो आदमी सबसे ज्यादा चिल्ला रहा हो कि पकड़ो चोर को, मारो चोर को, कहां है—उसी को पहले पकड़ लेना। क्योंकि जहां तक संभावना है उसी ने जेब काटी होगी। क्योंकि बचने की तरकीब यही है। क्योंकि जो इतने जोर-शोर से चिल्ला रहा है कि पकड़ो चोर को, मारो चोर को, निकल न जाए—स्वभावतः उसको कोई
नहीं पकड़ेगा कि यह तो बेचारा साहूकार मालूम होता है। यह तो भला आदमी है, सज्जन आदमी है, चोर को पकड़वाने को उत्सुक है। बचने का यही रास्ता है।
ये सारे भौतिकवादी लोग पश्र्चिम को गाली देते हैं, मगर इस गाली में भी एक बड़ा मनोविज्ञान है। यह मनोविज्ञान दिखाई नहीं पड़ता। इसके बड़े सूक्ष्म और नाजुक पहलू हैं।
जैन मुनि को जो लोग सुनने जाते हैं, उनके जो श्रावक हैं, वे सब धनी हैं। और जैन मुनि का काम है धन को गाली देना और धन की निंदा करना। और श्रावक सिर हिलाते हैं, कहते हैं कि जी महाराज, सत्य महाराज! धन्य हो महाराज! क्योंकि इन सबको भी लगता तो है कि किस कचरे में पड़े हैं, मगर छोड़ भी नहीं सकते। तो जो इनको कह रहा है, ठीक ही कह रहा है। जितनी गाली देता है यह जैन मुनि, जितनी निंदा करता है धन की, उतने ही धनी उसके पास जाते हैं। यह बड़ी हैरानी की बात है कि धनियों को धन को दी गई गाली इतनी प्रीतिकर क्यों लगती है—इसलिए कि उनको भी लग तो रहा है कहीं गहरे में कि हम मूढ़ता कर रहे हैं। मगर जो धन को गाली दे रहा है वह भी जानता है तुम्हारे मनोविज्ञान को। वह धन की गाली तुमको प्रभावित करने के लिए ही दे रहा है। तो दोनों के बीच अच्छी सांठ-गांठ हो गई।
भारत के आध्यात्मिक शास्त्रों को तुम पढ़ोगे तो बहुत हैरान होओगे। स्त्रियों के नख-शिख का ऐसा वर्णन है कि क्या कोई अश्लील साहित्य लिखने वाले लोग करेंगे। और आध्यात्मिक पुरुषों ने, सिद्धों ने किया है वर्णन। किसी चीज को छोड़ा नहीं है। एक-एक चीज का वर्णन किया है। उनके शरीर के अंग-अंग का वर्णन किया, अनुपात का, उनके शरीर के उठने-बैठने का वर्गीकरण किया है। स्त्रियों का जैसा सुंदर वर्णन भारतीय धर्मशास्त्रों में मिलेगा, कहीं भी नहीं मिल सकता। और साथ में गाली! और साथ में निंदा! यह वर्णन ही इसलिए किया जा रहा है कि वे तुम्हें सजग कर रहे हैं कि सावधान, इन-इन चीजों से सावधान रहना, ये-ये चीजें स्त्री की तुम्हें आकर्षित करती हैं। सावधान करने के बहाने वर्णन भी किए दे रहे हैं।
अब जरा सोचने जैसी बात है कि इतना क्या इनको रस होगा! इतना रसपूर्ण वर्णन, इसमें जरूर भीतर कहीं कोई लगाव, कहीं कोई दबाव, कहीं कोई दमन पड़ा है। इस बहाने रस ले रहे हैं। कामिनी और कांचन को ऐसी गाली...बस दो चीजों को गाली देते हैं; धन को, सोने को और स्त्री को। क्योंकि पूरा भारतीय मन इन दो ही चीजों से भरा हुआ है। और इन गालियों के आधार पर भारतीय सोचते हैं कि हम त्यागी, व्रती, अध्यात्मवादी!
ये पंडित रविशंकर अपनी पत्नी को यहां छोड़ कर वहां न मालूम कितनी स्त्रियों के साथ रहे हैं, रह रहे हैं! ऐसा उनकी पत्नी ने मुझे कहा। यहां भी उनके स्त्रियों से संबंध थे, इसलिए पत्नी से नहीं बन सका। इसलिए भारत छोड़ा। और वे लोगों को समझा रहे हैं कि पश्र्चिम के लोग जो पाना चाहते हैं वह वहां सर्वाधिक मात्रा में उपलब्ध है। क्या मूर्खतापूर्ण बातें कर रहे हो! अगर पश्र्चिम के लोगों को स्त्रियां चाहिए तो पूना आने की जरूरत है? पश्र्चिम में स्त्रियों की कुछ कमी है, कि इतनी लंबी यात्रा करें? पश्र्चिम में स्त्रियां ही स्त्रियां हैं। समुद्र-तट नग्न स्त्रियों से भरे पड़े हैं। उन्हें यहां भारत आकर पूना का नरक झेलने की जरूरत है? कि हजार तरह की बीमारियां झेलें, अमीबा से परेशान रहें, डीसेंट्री और हैपेटाइटिस और न मालूम किस-किस तरह की बीमारियां भोगें, जो उन्होंने पश्र्चिम में कभी भोगी नहीं थी! शरीर को दुर्बल करें। स्त्रियों के लिए! ऐसी कुछ स्त्रियों की तलाश करनी हो तो पश्र्चिम में स्त्रियां ज्यादा आसानी से उपलब्ध हैं। रविशंकर वहां तलाश कर रहे हैं स्त्रियों की और वहां के लोग तलाश करने पूना आ रहे हैं! कोई महाराष्ट्रियन स्त्रियों से कुश्ती लड़नी है? शराब पीने के लिए पूना आ रहे हैं, जहां कि शराब पर पाबंदी है! अच्छी से अच्छी शराब पश्र्चिम में उपलब्ध है बिना किसी कानूनी बाधा के। शराब वहां पीएंगे या यहां आएंगे? और गांजा, भांग और मारिजुआना और एल एस डी और हशिश पश्र्चिम में नहीं मिल रहा है? यहां तो कोई चीज शुद्ध नहीं है।
यहां तो मुल्ला नसरुद्दीन एक रात जहर खाकर मरना चाहता था, तो रात में कई बार घड़ी देखे कि अभी तक मरा कि नहीं मरा! सुबह भी होने लगी, दूध वाला भी दरवाजा खटखटाने लगा। उसने कहा: हद हो गई, यह भी कौन सा मरना हुआ! हद हो गई, बैकुंठ में भी दूध वाला आया हुआ है! घड़ी भी वही, कमरा भी वही, मामला क्या है, क्या पूरा का पूरा कमरा ही बैकुंठ चला आया है?
और जब पत्नी कमरे में घुसी तो उसने कहा कि यह कभी...यह बैकुंठ वगैरह नहीं है। यह वही का वह घर है। छाती पीट ली। भागा हुआ गया केमिस्ट की दुकान पर और गर्दन पकड़ ली उसकी, कहा कि दुष्ट, रात भर जगाए रखा, पैसे के पैसे ले लिए, यह कैसा जहर दिया?
उसने कहा: भई गर्दन छोड़ो, मैं क्या कर सकता हूं? इस देश में कोई चीज शुद्ध मिलती है? अरे पानी शुद्ध नहीं मिलता, जहर कहां से शुद्ध मिलेगा? मैं क्या कर सकता हूं? जहां हर चीज में मिलावट है, उसमें मेरा क्या कसूर है? कोशिश करते रहो, कभी संयोगवशात अगर हाथ लग जाए शुद्ध चीज तो लग जाए।
यहां हशिश शुद्ध मिलेगा? यहां गांजा-भांग कोई चीज शुद्ध मिल सकती है? यहां कोई चीज शुद्ध नहीं मिलती। हर चीज अशुद्ध है।
मैं एक मित्र के घर मेहमान था। उनकी साबूदाने की फैक्टरी थी। मैंने कहा: साबूदाने की फैक्टरी! मैं तो सोचता था साबूदाना पौधों में लगता होगा।
उन्होंने कहा: अरे वे जमाने गए जब पौधों में लगता था। अब तो चावल से ही साबूदाना बनाते हैं।
तो तुम जो साबूदाना खा रहे हो वह साबूदाना वगैरह नहीं है; उस चावल को पीस कर, उसकी लुगदी बना कर, उसकी छोटी-छोटी गोलियां बना कर उसको साबूदाने की शक्ल दी जाती है। अब बड़ा मजा है, यहां मरीजों को हम साबूदाना खिला रहे हैं! चावल से बचाएंगे और साबूदाना खिला रहे हैं। और साबूदाना और भी गर्हित! कम से कम चावल शुद्ध भी है, साबूदाने का कोई भरोसा ही नहीं। यहां कोई चीज शुद्ध मिल सकती है?
कश्मीर का नाम ही केसर के कारण पड़ा है, क्योंकि वहां केसर सारे कश्मीर में पैदा होती थी। मगर भारत में केसर और शुद्ध मिल जाए—असंभव! मेरे दूध के लिए केसर लाती है तो मंजू लाती है अफ्रीका से। यहां तो केसर शुद्ध मिल सकती नहीं। भुट्टे के दाने पर जो घास-पात उगी रहती है, उसको काट-काट कर केसरिया रंग में रंगते हैं और थोड़ी सी केसर छिड़क देते हैं उसके ऊपर, जिसमें थोड़ी गंध आने लगे। बस केसर हो गई! भुट्टे के बालों का तुम मजा ले रहे हो केसर के नाम से।
पश्र्चिम में सब शुद्ध उपलब्ध है। उसको पाने के लिए पूना आना पड़ेगा? क्या मूर्खतापूर्ण बात रविशंकर ने भी कही! और यहां सारी तकलीफें झेलनी पड़ती हैं, हजार तकलीफें, हजार मुसीबतें। मेरे संन्यासी जितनी मुसीबतें यहां आकर झेल रहे हैं, उन्होंने जीवन में कभी नहीं झेली थीं। जो तपश्र्चर्या उनको यहां करनी पड़ रही है वह उनको कभी भी नहीं करनी पड़ी थी।
कौन उन्हें यहां रोके हुए है? और इस आश्रम में रविशंकर आ तो जाते, कम से कम देख तो लेते! मैं गांजा-भांग को तरसा जा रहा हूं; न गांजा मिलता है, न भांग। कितने ही तरसो, कितने ही तरसो, कोई उपाय नहीं। आश्रम में गांजा-भांग का प्रवेश ही निषिद्ध है! लेकिन कुछ भी कह देते हैं; जो मुंह में आए कह देते हैं। ऐसा लगता है गांजा-भांग पीए रहे होंगे जब ये बातें कहीं।
सेक्स के लिए किसी को यहां आने की क्या जरूरत है? गांजा-भांग के लिए यहां आने की क्या जरूरत है? अगर यहां लोग आ रहे हैं तो आ रहे हैं—आत्मिक विकास के लिए। यहां न मालूम कितने लोगों का आकर गांजा-भांग छूट गया है, मांसाहार छूट गया है, शराब छूट गई है। हालांकि मैं कुछ भी छोड़ने को नहीं कहता हूं, लेकिन मेरी जीवन-दृष्टि यही है कि तुम्हारी समझ से कुछ छूटे तो ही छूटता है। मैं कहूं और तुम छोड़ दो, फिर कल कोई कहेगा, तुम फिर शुरू कर दोगे। तुम्हारी ही समझ से छूटे तो दुनिया में फिर तुम्हें कोई कुछ भी कहता रहे, तुम दुबारा शुरू न कर सकोगे।
लोग यहां आ रहे हैं, क्योंकि यहां उन्हें कुछ जीवन का स्वाद मिल रहा है।
तुमने पूछा है कि ‘इतने बड़े कलाविद को आपको बिना जाने क्या आप पर वक्तव्य देना उचित था।’
भारतीयों के लिए सभी कुछ संभव है। भारतीयों को बकवास करना जितना आसान है उतना दुनिया में किसी के लिए नहीं।
कहते हैं कि अगर दो अंग्रेज शराब पी लें, तो बिलकुल चुपचाप बैठ जाएंगे, फिर बोलेंगे ही नहीं। वैसे ही नहीं बोलते, मगर अगर शराब पी लें तो बिलकुल चुप हो जाएंगे। उनका अंतर्तम बिलकुल ही प्रकट हो जाएगा। रस ही न लेंगे दूसरे में। दो जर्मन अगर शराब पी लें, तो झगड़ा-झांसा होना निश्र्चित है, मार-पीट होगी, हड्डी-पसली टूटेगी, शोरगुल मचेगा। और दो भारतीय अगर शराब पी लें, तो आध्यात्मिक चर्चा करेंगे। फिर और कुछ बचता नहीं। फिर तो एकदम वेदांत! फिर तो एकदम आकाश में उड़ते हैं।
मेरे एक मित्र हैं, उनकी पत्नी ने मुझे आकर कहा कि और सब तो ठीक है, किसी तरह बीस साल बरदाश्त कर लिए पति के साथ, लेकिन जब से इन्होंने आपको सुनना शुरू किया है तब से मेरी मुसीबत बहुत बढ़ गई। मैंने कहा: मैं कुछ समझा नहीं। उसने कहा कि ये शराबी हैं, रोज रात को शराब पीना। मगर ठीक है, पी-पा कर सो जाते थे। जब से आपको सुनने लगे हैं, तब से एक बड़ी मुसीबत हो गई है, न सोते हैं, न सोने देते हैं। जब ये डट कर पी लेते हैं तो ये भूल ही जाते हैं ये कौन हैं। ये समझते हैं कि ये आप ही हो गए। और मैं ही एक श्रोता। और आप तो बोलते भी हो तो कम से कम तीन हजार लोग होते हैं तो बंट जाता है; मैं अकेली! और फिर ये घंटों क्या प्रवचन देते हैं, मेरी खोपड़ी खा जाते हैं! हिला-हिला कर, उठा-उठा कर बिठा देते हैं कि बैठ, समझ इस बात को, क्या भगवान ने कहा है! और मुझे ऐसा गुस्सा आता है कि गर्दन काट दूं इस दुष्ट की। एक तो पीएं हैं, मुंह से बास आ रही है और अध्यात्म की बकवास लगा रखी है!
तो मैंने उनको कहा कि अगर तुम्हें ऐसा ही है तो तुम...बड़ा मकान है, तुम बगल के कमरे में रहने लगो, अलग-अलग कमरों में। एक दिन चला यह। दूसरे दिन उनकी पत्नी ने कहा: यह और एक मुसीबत है। वह उसी कमरे में ठीक है।
मैंने कहा: क्यों?
क्योंकि ये रात में आकर दरवाजा खटखटाते हैं, कि दरवाजा खोल, अरे वह गजब की बात याद आई है! और न मालूम कहां-कहां की बातें ले आते हैं और आपकी बातों में मिला देते हैं! फिल्मी गाने आ जाते हैं, पूरी फिल्म की कहानी आ जाती है उदाहरण स्वरूप! पहले तो कम से कम मैं बिस्तर में पड़ी रहती थी, बकता रहता था यह इसको जो बकना हो, बक। मगर अब यह दरवाजा खटखटाता है। न खोलूं तो दरवाजे के बाहर से शोरगुल मचाता है। उससे बच्चे जग जाते हैं, मोहल्ले वाले भी कहने लगे कि भई यह क्या है!
यह तो भारतीयों का लक्षण है, आनंद रागेन। इनको अध्यात्म से ज्यादा और किसी चीज की बकवास करने में रस नहीं है। और बकवास है सब। अनुभव कुछ भी नहीं, सब बकवास है। अगर सामर्थ्य हो पंडित रविशंकर में तो मैं उन्हें चुनौती करता हूं, वे यहां आए, मेरे सामने बैठें। यहां जरा बात हो ले। तो जरा देखूं कितना अध्यात्म है, कितना ज्ञान है, कितना पांडित्य है, कितनी समझ है! ज्यादा समझ नहीं हो सकती, क्योंकि जो व्यक्ति सत्य साईं बाबा के पास जाता है उसकी गिनती मैं गधों में लिख देता हूं। हालांकि इससे मैं चमत्कृत होता हूं कि गधा सितार अच्छा बजाता है! यह और चमत्कार की बात है, क्योंकि आमतौर से गधे सितार नहीं बजाते। चीपों-चीपों, एक ही संगीत जानते हैं, मगर सितार...!
मैं चुनौती देता हूं, वे आएं। मैं हमेशा तैयार हूं। यहां बैठ कर
दो-दो बातें हो लें। जरा बात साफ हो जाए कि क्या अध्यात्म है और क्या बकवास है।
पति पत्नी को हरेक बात पर ‘ऐ जी, सुनिए’ कहने की आदत को देख कर उनका चार वर्षीय मुन्ना भी उन्हें मम्मी-पापा न कह कर ‘ऐ जी, सुनिए’ कहने लगा। इस पर पति-पत्नी बेहद चिंतित हुए। अंत में पति ने सुझाव दिया कि तुम मुझे पापा कहा करो और मैं तुम्हें मम्मी कहा करूंगा, तब यह नालायक सुधरेगा, नहीं तो यह सुधरने वाला नहीं है।
ऐसे ही इस देश का अध्यात्म है—‘ऐ जी, सुनिए।’ सुनते-सुनते छोटे-छोटे बच्चे कह रहे हैं—‘ऐ जी, सुनिए।’ लोगों की जबान पर रखा है अध्यात्म।
और मुझसे घबड़ाहट पैदा हुई है, बहुत घबड़ाहट पैदा हुई है। क्योंकि मैं किसी अध्यात्म की बात कर रहा हूं, जो उनकी जबान पर नहीं है। उन्हें मुझसे बड़ी चिंता हो गई है। उनकी सुरक्षा खतरे में पड़ गई है। उनका पांडित्य खतरे में पड़ गया है। अगर मैं सच हूं तो लाखों-करोड़ों पंडितों की रोटी-रोजी जाएगी। इसलिए मेरा विरोध है। अगर मैं सच हूं तो लाखों ब्राह्मणों की पत्ती कट जाएगी। मुझे गलत सिद्ध करने की सब तरफ से चेष्टा की जाएगी।
सुरेश ने अपने दादाजी सेठ चंदूलाल से कहा कि दादाजी, क्या आपके मुंह में दांत हैं?
चंदूलाल ने कहा: नहीं बेटा, यह बात तू क्यों पूछता है?
सुरेश ने कहा कि कोई और बात नहीं, यह मेरा अखरोट रख लीजिए, जरा मैं खेलने जा रहा हूं।
मेरे हाथ में इनका अखरोट खतरे में पड़ा जा रहा है! मैं कोई वेदांती नहीं हूं, बिना दांत का नहीं हूं। दांत हैं! इनका अखरोट खतरे में है। छोटे-छोटे बच्चे भी हिसाब से चलते हैं। और कहने में क्या लगता है, कुछ भी कह दो!
तीन महिलाएं अपने पति के विषय में चर्चा कर रही थीं। पहली बोली: हमारे विवाह को इतने वर्ष हो गए, पर हम दोनों में आज तक एक बार भी तू-तू, मैं-मैं नहीं हुई।
दूसरी ने लंबी श्वास लेते हुए कहा: काश, मैं भी यही कह सकती!
तीसरी बोली: अरी तू भी कह दे न! आखिर इसने भी कहा ही तो है, कहने में क्या बनता-बिगड़ता है?
अब तू-तू, मैं-मैं किस पति-पत्नी में नहीं होती, यह कौन नहीं जानता! पति-पत्नी ही क्या जिनमें तू-तू, मैं-मैं न हो! वे पति-पत्नी ही नहीं हैं।
ढब्ब जी ने चंदूलाल से कहा कि भई कल तुम जो अपनी पत्नी के साथ घूमने जा रहे थे, तो मेरी तरफ देखा भी नहीं। चंदूलाल ने कहा: तुम कैसे पहचाने कि वह मेरी पत्नी थी?
ढब्बू जी ने कहा: अरे, इसमें क्या है? जिस अधिकारपूर्वक वह तुम्हें गालियां दे रही थी, उससे साफ जाहिर था कि पत्नी के सिवाय इतना अधिकारपूर्वक कौन गाली दे सकता है! और तुम जैसे पूंछ दबाए चले जा रहे थे कि मेरी तरफ देखा भी नहीं, मैं खांसा भी, खंखारा भी, मगर तुमने मेरी तरफ देखा भी नहीं। तुम यूं बच कर निकल गए जैसे मैं हूं नहीं दुनिया में। तभी मैं समझ गया कि पत्नी के साथ जा रहे हो।
कोई जोड़ा उदास चला जा रहा हो, समझ लो कि पति-पत्नी हैं। अगर कोई पति-पत्नी जैसे मालूम पड़ते हों, प्रसन्न दिखते हों, तो पति-पत्नी जरूर होंगे, मगर पत्नी किसी और की और पति किसी और का। तभी जरा प्रसन्नता रहती है, नहीं तो प्रसन्नता कहां रखी है!
कहने में लगता क्या है? तो रविशंकर को जो लगा कह दिया। मगर मैं अपने संन्यासियों को कहता हूं कि जहां भी रविशंकर मिलें, उनको मेरी चुनौती कह देना। और बार-बार, जब मिलें तब। और कहना कि आ जाओ। और ऐसे वे पूना आते हैं, इसलिए कोई कठिनाई नहीं है। आमना-सामना हो ले, दो बातें हो जाएं। साफ हो जाए कि सितार बजाने से कोई अध्यात्म नहीं आ जाता है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, मेरा एक प्रश्न है, उत्तर देने की कृपा करें।
...पहली तो बात कि यह प्रश्न नहीं है, और उत्तर की इसको कोई अपेक्षा नहीं है। तुम प्रश्न सुनोगे तो समझ में आ जाएगा। प्रश्नकर्ता, तथाकथित प्रश्नकर्ता हैं: अशोक कुमार वाचस्पति। पंडित हैं, प्रश्न कैसे पूछ सकते हैं? प्रश्न तो अज्ञानी पूछते हैं। ये तो ज्ञानी हैं। इन्होंने तो सलाह दी है, प्रश्न का तो बहाना है। सलाह दी है। तुम प्रश्न सुनोगे तो समझ में आ जाएगा कि सलाह है। सलाह भी कहना ठीक नहीं, आदेश है। क्या होना चाहिए उसका सूचन है। और पांडित्य का जहर इनके रग-रग में भरा होगा, क्योंकि संबोधन भी नहीं किया। अरे कुछ तो लिख देते! अगर बहुत ही बड़े पंडित थे तो कम से कम संबोधन में लिख देते कि बच्चा! अरे कुछ तो लिख देते! मगर संबोधन भी नहीं किया। क्या संबोधन करना! सीधा—‘मेरा एक प्रश्न है, उत्तर देने की कृपा करें!’ कृपा भी लिखा, यह भी बड़ी कृपा है। भूल-चूक से लिख गए लगता है। पुरानी आदत से लिख गए लगता है। औपचारिकतावश, शिष्टाचारवश लिख गए लगता है।
सुनो उनका तथाकथित प्रश्न—‘यह अथर्ववेद का वचन है तथा ब्राह्मण-ग्रंथ में भी इसी प्रकार है: जिस दिन पूर्ण वैराग्य हो, उसी दिन संन्यास ग्रहण करें। क्योंकि पूर्ण विद्वान, जितेंद्रिय, विषय-भोग की कामना से रहित, परोपकार की इच्छा से युक्त, जो पुरुष या स्त्री हो, वह ही संन्यास ग्रहण करे। और वेद में भी कहा है कि पूर्ण ज्ञानी विद्वान ही संन्यास ले। कठोपनिषद में कहा है: जो दुराचार से पृथक नहीं, जिसको शांति नहीं, जिसकी आत्मा योगी नहीं और जिसका मन शांत नहीं है, वह संन्यास लेकर भी प्रज्ञान योनि, उत्तम ज्ञान या उपदेश से परमात्मा क्या आत्मा को भी नहीं जान सकता और न ही प्राप्त ही हो सकता है। क्या आप ऐसे गुणों से युक्त स्त्री-पुरुषों को संन्यास देते हैं? अगर नहीं तो अपने देश, जाति, व्यक्ति की संस्कृति नष्ट हो जाएगी। अतः उक्त गुणों से युक्त व्यक्ति को ही संन्यास दें, अन्य को नहीं। और यह भी सत्य है कि जिस प्रकार गुणरहित डाक्टर, प्रोफेसर आदि कार्य नहीं कर सकते, उसी प्रकार संन्यास का भी धर्म है। अगर गुणरहित है तो उसको संन्यास न दें।’
इसमें प्रश्न कहां है? इसलिए मैं बड़ी चिंता में पड़ा कि उत्तर क्या दूं। मगर उन्होंने कहा है कि उत्तर देने की कृपा करें। कृपा न करूं तो भी ठीक न होगा। इसलिए कृपा करता हूं। अब झेलो! कृपा नहीं है, कृपाण है!
अथर्ववेद का वचन हो या ब्राह्मण-ग्रंथ में हो, किसी का ठेका नहीं है संन्यास पर। ईसाई संन्यासी हुए, वे कोई अथर्ववेद के कारण नहीं और न ब्राह्मण-ग्रंथों के कारण। और मुसलमान संन्यासी हैं, और जैन संन्यासी हैं, और हिंदू संन्यासी हैं, और बौद्ध संन्यासी हैं, दुनिया में तीन सौ धर्म हैं और तीन सौ ही धर्मों की अपने-अपने संन्यास की रूप-रेखा है। अथर्ववेद की कोई तानाशाही है? ब्राह्मण-ग्रंथों का कोई ठेका है कि संन्यास की क्या परिभाषा होगी? मेरा संन्यास, मेरी परिभाषा होगी। मेरा संन्यास हिंदुओं का संन्यास नहीं है। फिर हिंदुओं के भी कितने संन्यास हैं! शंकराचार्य के संन्यास से रामानुज के संन्यास का कोई तालमेल नहीं है। रामानुज तो कहते हैं कि शंकराचार्य प्रच्छन्न बौद्ध हैं, छिपे हुए बौद्ध हैं। ये धोखाधड़ी से बौद्ध धर्म का प्रचार कर रहे हैं। बौद्ध संन्यासी की क्या वेदों से संगति जोड़ोगे? बुद्ध तो वेद को मानते नहीं। बुद्ध तो वेद को कचरा समझते हैं। और वेदों में है भी निन्यानबे प्रतिशत कचरा; एक प्रतिशत भी अगर मिल जाए जो कचरा नहीं है तो बड़ी खोज-बीन से मिलता है, बामुश्किल, नहीं तो कचरा ही कचरा है। स्वयं कृष्ण भी गीता में वेद को कचरा से ज्यादा नहीं मानते, औरों की तो बात छोड़ दो। कृष्ण स्वयं कहते हैं कि वेद निम्न कोटि के लोगों के लिए है, उच्च कोटि के लोगों के लिए नहीं। और महावीर ने तो वेद-मुक्त होने का अनिवार्य आग्रह किया है। महावीर को हिंदू इसीलिए तो नास्तिक कहते रहे, क्योंकि वे वेद-विरोधी थे। और कबीरदास में क्या वेद है? और नानक में क्या वेद है? मगर संन्यासी तो सबके हैं। अगर इतने सब लोगों के संन्यास की अपनी अवधारणा हो सकती है तो मेरे संन्यास की अपनी अवधारणा है।
अशोक कुमार वाचस्पति, मैं किसी शास्त्र से आबद्ध नहीं हूं। मैं स्वयं जो कह रहा हूं वही मेरा शास्त्र है। अगर तुम्हारे शास्त्र से मेल खा जाए तो तुम्हारे शास्त्र का सौभाग्य; अगर मेल न खाए तो तुम्हारे शास्त्र का दुर्भाग्य। मेरा कुछ लेना-देना नहीं है।
अब तुम जो कहते हो उसके एक-एक शब्द को समझना जरूरी होगा।
तुम कहते हो: ‘जिस दिन पूर्ण वैराग्य हो,...।’
जब पूर्ण वैराग्य हो जाए तो संन्यास की जरूरत क्या? यह तो ऐसी मूर्खतापूर्ण बात हुई कि कोई कहे जिस दिन पूर्ण स्वास्थ्य हो उसी दिन अस्पताल में भरती होना। फिर तुम्हारी खोपड़ी में गौमाता का गोबर भरा है? फिर काहे के लिए अस्पताल में भरती होओगे? जब पूर्ण स्वास्थ्य ही हो गया...पूर्ण! खयाल रखना ‘पूर्ण’ शब्द पर...तो अस्पताल में अब काहे के लिए भरती होना है, डाक्टरों को सताना है? जब पूर्ण वैराग्य हो...अरे वैराग्य ही पूर्ण करने के लिए तो संन्यास की प्रक्रिया है। संन्यास की साधना ही यही है कि तुम्हारा वैराग्य पूर्ण हो; उसको तुम पहली शर्त बना रहे हो। यह तो यूं हुआ कि स्कूल में भरती होने के पहले ही यह शर्त हो कि सर्टिफिकेट कहां हैं, मैट्रिक पास हो कि नहीं, अगर मैट्रिक पास नहीं तो मैट्रिक में भरती नहीं होने देंगे! एम.ए. की डिग्री है तो युनिवर्सिटी में प्रवेश मिलेगा। अभी जब एम.ए. की डिग्री नहीं है तो युनिवर्सिटी में कैसे प्रवेश मिले? पर तब बड़ी मुश्किल यह हो जाएगी कि एम.ए. की डिग्री मिलेगी कहां से?
पूर्ण वैराग्य होगा कैसे? वैराग्य भी तो एक सतत साधना से उपलब्ध होता है; क्रमशः, स्वयं को परिशुद्ध करने से उपलब्ध होता है। इसीलिए महावीर और बुद्ध ने युवकों को संन्यास देने पर जोर दिया। वेदों की धारणा थी बुढ़ापे में संन्यास। जैसे मोरार जी देसाई, गीता-ज्ञान मर्मज्ञ हैं वे! क्या गजब की बात: पैंतालीस वर्ष की उम्र में संसद के सदस्य! और दूसरी जो उनके दिल में छिपी बात है, जो कह नहीं सकते, हिम्मत नहीं है, छाती नहीं है कहने की, मैं कहे देता हूं कि पचासी वर्ष की उम्र में भारत के प्रधानमंत्री! ऐसी ही वेदों की धारणा थी: पचहत्तर वर्ष में संन्यास! पहली तो बात, पचहत्तर वर्ष तक कितने लोग जिंदा रहेंगे? और अगर स्वमूत्र पीकर कोई पचहत्तर साल तक जिंदा रह भी जाए तो यह भी कोई जिंदा रहना हुआ? इस शर्त पर जिंदा रहना! इससे तो मर ही जाते तो अच्छा था। और कितने लोग इस शर्त पर जिंदा रहने के लिए तैयारी दिखलाएंगे? पचहत्तर साल में संन्यास!
महावीर और बुद्ध ने एक बड़ी क्रांति की। उन्होंने कहा कि संन्यास तो तब जब जीवन ऊर्जा से भरा है, युवा है। और यही विरोध उनका था कि युवक व्यक्ति पूर्ण वैराग्य को कैसे उपलब्ध हो सकता है। और मैं तुमसे कहता हूं कि युवक व्यक्ति ही पूर्ण वैराग्य को उपलब्ध हो सकता है, अगर संन्यास से गुजरे। हां, संन्यास की पहली शर्त नहीं हो सकती यह, क्योंकि युवा व्यक्ति है, अभी पूर्ण वैराग्य कहां से होगा? अभी तो संन्यास से गुजरेगा तो वैराग्य की सीमाओं को छुएगा। हां, पचहत्तर साल का बूढ़ा तुम चाहो तो उसको पूर्ण विरागी कह सकते हो, चाहे पूर्ण नपुंसक। तुम्हारी मर्जी। मैं तो नपुंसक ही कहूंगा। मैं तो दो और दो चार ही मानता हूं, उलटी-सीधी बातें करने का मुझे रस नहीं है।
पचहत्तर साल की उम्र में पूर्ण वैराग्य का क्या अर्थ होता है? न भोजन पचता है, न संभोग कर सकते हो, न जीवन की दौड़ में अब जीत सकते हो। अब युवा आ गए। अब युवा दौड़ रहे हैं। अब तुम्हारे पास कुछ भी नहीं बचा, तो तुमने एक नया झंडा उठाया—संन्यास का! जिंदगी ने तुम्हें छोड़ दिया और तुम कहते हो: हम जिंदगी को छोड़ रहे हैं! किसको धोखा दे रहे हो? आत्मवंचना में हो तुम। जब जिंदगी ने तुम्हें छोड़ दिया, तब तुम क्या खाक जिंदगी छोड़ रहे हो! जिंदगी तो तब छोड़ने का मजा है जब जिंदगी अपने उभार पर हो, अपने तूफान पर हो।
यह कोई संन्यास नहीं था, जिसको वेद के समय में संन्यास कहा जाता था। वह संन्यास की बिलकुल ही बुढ़ापे की, बूढ़ों की धारणा थी। उसका कोई मूल्य नहीं है। वह तो बड़ी तरकीब थी। वह तो अपनी कमजोरी को एक सुंदर शब्द की आड़ देना था, चालबाजी थी, होशियारी थी। और होशियारी में तो पूछो ही मत, लोग क्या-क्या नहीं कर लेते!
मुल्ला नसरुद्दीन यात्रा करके लौट रहा था। जहाज तूफान में उलझ गया। और यूं लगे कि अब गया तब गया। सब लोग प्रार्थना करने लगे। मुल्ला आखिर तक हिम्मत बांधे रहा, नहीं की प्रार्थना, नहीं की प्रार्थना। क्योंकि प्रार्थना करने का मतलब है कि कुछ व्रत लो, नियम लो, कि हे प्रभु ऐसा करूंगा, वैसा करूंगा, बचाओ! उसने सोचा अगर बच जाएं बिना ही इसके तो अच्छा। मगर जब देखा कि अब डूबी ही डूबी, आखिर नाव के और जो लोग थे उन्होंने भी कहा कि नसरुद्दीन, अब तुम भी कुछ कसम लो, हम सब कसमें ले चुके। अब दिखता है तुम्हारे पाप के कारण ही डूब रही है। और बिलकुल जब डूबने की हालत आ गई कि अब देर नहीं है, तो नसरुद्दीन ने कहा: हे प्रभु, मेरा जो महल है संगमरमर का, वह जो नौ लाख का महल है, उसको बेच कर गरीबों में बांट दूंगा—अगर यह नौका बच गई।
संयोग की बात नौका बच गई। अब तुम सोच सकते हो नसरुद्दीन की छाती पर सांप लोट गए, कि जरा देर और रुक जाता, यह तो बचने ही वाली थी, यह तूफान जाने ही वाला था! मगर फंस गए। अब करना क्या? मगर होशियार आदमी रास्ते निकाल ही लेता है। और गांव भर में...नाव जब किनारे लगी, गांव भर में एक ही चर्चा, एक ही गरम-गरम चर्चा कि गजब कर दिया नसरुद्दीन ने! क्योंकि लोग जानते थे यह ऐसा महाकंजूस, कि इसके दरवाजे पर भिखारी भी नहीं आते, क्योंकि भिखारी अगर आ भी जाएं तो दूसरे भिखारी कह देते: भैया, क्यों समय खराब कर रहे हो? तुम नये मालूम होते हो इस गांव में। इस आदमी से भीख नहीं मिलेगी। और तुम्हारे पास कुछ होगा, अगर अकेला हुआ तो छुड़ा लेगा। इसने लोगों से उनके भिक्षापात्र तक छीन लिए हैं। भागो, आगे बढ़ो!
यह आदमी नौ लाख का महल दान करेगा! बस एक ही चर्चा थी कि कब होगा, कब होगा! और दूसरे दिन नसरुद्दीन ने घोषणा की कि मकान बिकने वाला है, जिनको भी लेना हो आ जाएं। दूसरे दिन लोग आए। लोग देख कर बड़े हैरान भी हुए। नसरुद्दीन ने मकान के सामने ही संगमरमर के खंभे के साथ एक बिलकुल मरियल बिल्ली भी बांध रखी थी। लोगों ने पूछा: यह मरियल बिल्ली किसलिए बांधी है?
नसरुद्दीन ने कहा: ठहरो, अभी समझ में आएगा। उसने कहा कि यह मकान मुझे बेचना है। नौ लाख इसके दाम हैं और एक रुपया बिल्ली का दाम है। दोनों चीजें साथ बिकेंगी। दुनिया जानती है कि इस मकान के दाम नौ लाख हैं, इससे कम एक पैसे का यह मकान नहीं है। लेकिन मैं एक झंझट में फंस गया हूं। ऐ भाइयो एवं बहनो, तुम मुझे इस झंझट से बचा लो। झंझट से बचने की तरकीब यह है कि बिल्ली के दाम नौ लाख रुपये हैं और मकान का दाम एक रुपया; दोनों साथ-साथ बिकेंगे। जिसको लेना हो ले लो।
लोगों ने...कई लोग उत्सुक थे लेने को, मकान शानदार था! उन्होंने कहा: हमें क्या है, यह एक रुपये में और सही, एक रुपया और ज्यादा! मरी बिल्ली फेंक-फाक देंगे, करना क्या है? ले लिया। लेकिन नसरुद्दीन की तरकीब तुमने देखी, उसने एक रुपया गरीबों में बांट दिया, नौ लाख रुपये बैंक में जमा करवा दिया। मकान का दाम बांटने की कसम खाई थी, कोई बिल्ली के दाम बांटने की तो कसम खाई थी नहीं।
मरते वक्त लोग बहुत चालबाज हो जाते हैं, होशियार हो जाते हैं, बूढ़े होते-होते होशियार हो जाते हैं।
तुम कहते हो: ‘पूर्ण वैराग्य हो जिस दिन उसी दिन संन्यास ग्रहण करें।’
फिर काहे के लिए संन्यास ग्रहण करें? फिर तो पूर्ण वैराग्य उपलब्ध हो ही गया। पूर्ण के आगे भी कुछ बचता है? यह जरूर किसी बेईमान ने सूत्र खोजा होगा, जो बचना चाहता है संन्यास से—फिर चाहे यह अथर्ववेद में हो और चाहे ब्राह्मण-ग्रंथों में हो। असल में ब्राह्मणों से ज्यादा काइयां और बेईमान जाति दुनिया में दूसरी नहीं रही क्योंकि यह सबसे ज्यादा पुराना पुरोहितों का वर्ग है। और यह संन्यास के पक्ष में नहीं है। यह बातें करता है संन्यास की, मगर संन्यास के पक्ष में नहीं है।
संन्यास की बुनियादी क्रांति क्षत्रियों से आई है, ब्राह्मणों से नहीं। असली संन्यासी हुए जैनों और बौद्धों के द्वारा। वे सब क्षत्रिय थे। बुद्ध और महावीर के मुकाबले ब्राह्मणों ने कौन सा संन्यासी दिया है? शंकराचार्य का नाम ले सकते हो, मगर उनमें मैं रामानुज से राजी हूं। क्योंकि शंकराचार्य जो भी कहते हैं वह सब चोरी है—और बुद्ध की है। उसमें एक शब्द उनका अपना नहीं है। नाम बदल लेते हैं। जैसे अभी कुछ दिन पहले मैंने तुमसे कहा कि बुद्ध के विपस्सना ध्यान को मैंने आचार्य तुलसी को समझाया था। विपस्सना कहें तो वह बुद्ध का है, तो उसका नया नाम रख लिया—प्रेक्षा। ऐसे ही बुद्ध के सिद्धांतों को शंकराचार्य ने नये नाम दे दिए। नाम देने में क्या लगता है? जो मर्जी हो नाम दे दो। जिसको बुद्ध ने व्यवहार-सत्य कहा है—वस्तुतः सत्य नहीं, बस व्यावहारिक रूप से सत्य—उसको शंकराचार्य ने माया कहा है। बात वही की वही है, कुछ फर्क नहीं है। बुद्ध ने जिसको शून्य कहा है, शंकराचार्य ने उसी को पूर्ण कहा है। शब्द बिलकुल उलटा है, मगर बात वही की वही है। जो शून्य की परिभाषा है वही पूर्ण की परिभाषा है। परिभाषा को देखोगे तो जरा भी भेद न पाओगे। शून्य शब्द से मत घबड़ा जाना। पूर्ण शब्द से आंदोलित मत हो जाना। सत्य तो एक है; उसको नकारात्मक ढंग से कहना हो तो शून्य और सकारात्मक ढंग से कहना हो तो पूर्ण। मगर बात तो वही की वही है। न शून्य की कोई सीमा होती, न पूर्ण की कोई सीमा होती। न शून्य के ऊपर कुछ होता, न पूर्ण के ऊपर कुछ होता है।
ब्राह्मणों के पास एक भी वैसा ज्वलंत उदाहरण नहीं है जो बुद्ध के सामने खड़ा किया जा सके। ब्राह्मण सदा से संन्यास-विरोधी हैं। मगर विरोध करने की हिम्मत भी उनकी चालबाजी से भरी हुई—पचहत्तर साल के बाद संन्यास! तो उन्होंने जीवन को चार हिस्सों में बांट दिया था। चार वर्ण जैसे उन्होंने बांट दिए समाज को, ऐसे ही उन्होंने जीवन को भी चार आश्रमों में बांट दिया। पहला आश्रम ब्रह्मचर्य: पच्चीस वर्ष तक शिक्षा का अध्ययन। दूसरा आश्रम गृहस्थ: पच्चीस से पचास वर्ष तक। तीसरा आश्रम वानप्रस्थ। ‘वानप्रस्थ’ भी बड़े गजब का शब्द है! वानप्रस्थ का अर्थ होता है: जंगल की तरफ मुंह। अभी गए नहीं, अभी जाना नहीं, सिर्फ मुंह फेर लेना। मतलब सोचने लगना कि जाएंगे, कि अब जाते हैं कि अब जाते हैं, कि तैयारी करना। पच्चीस साल तैयारी करोगे जंगल जाने की! क्या-क्या स्थगन के उपाय! पचास साल की उम्र से सोचोगे पचहत्तर साल तक, फिर पचहत्तर साल में संन्यास। जैसे कि हर व्यक्ति को सौ साल जीना हो! अगर हर व्यक्ति को सौ साल जीना था तो तुम्हारे वेद के ऋषि क्यों आशीर्वाद देते हैं कि सौ साल जीओ? जिस देश में लोग सौ साल जीते ही हों, उस देश में किसी को आशीर्वाद देना कि सौ साल जीओ—आशीर्वाद नहीं होगा।
वैज्ञानिकों ने खोज-बीन की है तो पता चला है कि वैदिक युग के समय में कोई भी आदमी चालीस-पैंतालीस साल से ज्यादा नहीं जीता था। चालीस साल अंतिम उम्र मालूम होती है, क्योंकि चालीस साल से ज्यादा पुरानी कोई हड्डी और अस्थिपंजर नहीं मिले हैं। और यह बात ठीक भी लगती है। अभी भी भारत की औसत उम्र छत्तीस साल है। तो उन गए-गुजरे दिनों की तो याद करो, जब न विज्ञान था, न औषधि की कोई व्यवस्था थी, न आधुनिक चिकित्सा थी, न आधुनिक उपकरण थे; जब कि मंत्र-तंत्र के बल पर लोग जीने की कोशिश कर रहे थे; जब कि ताबीज और गंडे चले रहे थे; जब कि भूत-प्रेत निकाले जा रहे थे; जब कि पंडित-पुरोहित यज्ञ करके वर्षा करवा रहे थे; जब कि देवताओं को मनाया जा रहा था; जब एक-एक से एक मूर्खताएं हो रही थीं! उन दिनों लोग अगर चालीस साल से ज्यादा न जीते हों तो कुछ आश्र्चर्य नहीं। और तभी सौ साल जीने के आशीर्वाद का कुछ अर्थ होता है।
रूस में आज अनेक लोग हैं जो डेढ़ सौ साल की उम्र के हैं। अगर इनसे कहो कि बेटा सौ साल तक जीना, तो कुश्तमकुश्ती हो जाएगी। वहीं मार-पीट हो जाएगी कि तुम हमें पचास साल पहले ही मार डालना चाहते हो! सौ साल तक जीने की बात का आशीर्वाद तो तभी सार्थक हो सकता है जब मुश्किल से कोई पचास साल जीता हो। तो दुगुनी उम्र दे दी और क्या आशीर्वाद चाहिए!
तुम कहते हो: ‘जब पूर्ण वैराग्य हो उस दिन संन्यास ग्रहण करें, क्योंकि पूर्ण विद्वान...!’
विद्वान से संन्यास का क्या संबंध? विद्वता से संन्यास का क्या संबंध? विद्वान तो सब थोथापन है, उच्छिष्ट! दूसरों का थूका हुआ चाटता रहता है विद्वान। विद्वान से संन्यास का क्या लेना-देना है? यह भी शर्त कि पूर्ण विद्वान! समस्त शास्त्रों का ज्ञाता! चारों वेदों का ज्ञाता!
वेद को जो जाने ही नहीं, वह भी संन्यासी हो सकता है। जिसने शास्त्र पढ़े ही न हों, वह भी संन्यासी हो सकता है। कबीर को क्या कहोगे? कबीर जैसा मस्त संन्यासी कहां पाओगे? और कबीर कहते हैं: मसि कागद छुओ नहीं! स्याही तो छुई नहीं हाथ से, कागज छुआ नहीं। और कबीर यह भी कहते हैं: लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात। विद्वान तो लिखालिखी वाला होता है—इधर ऐसा लिखा है, उधर वैसा लिखा है। यह प्रश्न देख रहे हो? पहले तो प्रश्न ही नहीं। अथर्ववेद में ऐसा लिखा, ब्राह्मण-ग्रंथ में ऐसा लिखा, कठोपनिषद में ऐसा लिखा। यह लिखालिखी की बकवास है, देखादेखी कुछ भी नहीं।
अशोक कुमार वाचस्पति, कुछ देखा भी कि बस लिखा ही लिखी में पड़े हो? सब उच्छिष्ट है। विद्वान से कोई संबंध संन्यास का नहीं है। सचाई तो यह है: जो जितना निर्दोषचित्त हो, जितना सरलचित्त हो, जिसको अपने अज्ञान का जितना गहन बोध हो, वही संन्यासी हो सकता है। साक्रेटीज संन्यासी हो सकता है, तुम नहीं। क्योंकि साक्रेटीज कहता है: मैं एक ही बात जानता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता। और जिन उपनिषदों का तुम उल्लेख कर रहे हो, उनमें से भी तुम मतलब की बातें छांट लिए हो। अन्यथा उपनिषदों में ऐसे अदभुत वचन भी हैं कि अज्ञान तो भटकाता ही है, ज्ञान महाअंधकार में भटका देता है। तो फिर पूर्ण विद्वान की क्या हालत होगी, जरा सोचो! इसको तो फिर कुल-किनारा ही न मिलेगा अंधकार का।
संन्यास का विद्वान होने से कोई संबंध नहीं है। संन्यासी को चाहिए बच्चे जैसी सरलता, जिज्ञासा, आश्र्चर्य का भाव, विस्मय-विमुग्ध होने की क्षमता। संन्यासी को उत्तर नहीं चाहिए, जिज्ञासा चाहिए। तुम्हारे पास उत्तर है। और जिसके पास उत्तर हो उसको हम विद्वान कहते हैं।
‘जितेंद्रिय’—जिसने इंद्रियों को जीत लिया हो! तो फिर संन्यास का प्रयोजन कहां बचता है? तुमने तो वे सारी शर्तें पहले लगा दीं जो कि संन्यास का परिणाम हैं। ‘विषयभोग की कामना से रहित’...। और अगर यह सच है तो तुम्हारा एक भी ऋषि संन्यासी नहीं था, क्योंकि तुम्हारा एक भी ऋषि जितेंद्रिय नहीं मालूम होता। अप्सराएं आ जाती हैं, उर्वशी आ जाती है और ऋषि डांवाडोल हो जाते हैं। किसी का वीर्यपात हो जाता है। और कैसी-कैसी जगह वीर्यपात हो जाता है! नाव में बैठे हैं और देख ली इन्होंने मछुए की लड़की—और ऋषि-मुनि और वीर्यपात हो गया! मछली उनका वीर्य निगल गई और मछली गर्भवती हो गई! क्या-क्या गजब की बातें कर रहे हो! कुछ तो होश में आओ, कुछ तो जागो कि यह बीसवीं सदी आ गई, इस कूड़े-करकट को तो होली में जला डालो। रावण को बहुत दिन जला चुके, वह जलता नहीं, क्योंकि हर साल फिर जलाना पड़ता है। इस कचरे को जला दो।
और तुम्हारे ऋषि-मुनि क्या भोगवासना से रहित हैं? नहीं तो इंद्र घबड़ाता क्यों है इनसे? जब किसी ऋषि ने साधना की कि इंद्र का सिंहासन डोला। बड़ी अजीब बात है! ऋषि से इंद्र का सिंहासन क्यों डोलता है? क्योंकि ऋषि के भीतर कामना सिंहासन पाने की है। वह उसी संघर्ष में लगा है, राजनीति में लगा है। वह कह रहा है कि हम सिंहासन पर बैठ कर रहेंगे। बहुत दिन नचा चुके तुम मेनका को, अब हम नचाएंगे। अब मेनका हमारी बंदरिया होगी, तुम्हारी बंदरिया कब तक रहे! अब बहुत दिन भोग चुके उर्वशी को, कुछ तो छोड़ो भैया! कुछ हमारे लिए भी छोड़ो।
ये ऋषि-मुनि यहां तो छोड़ते दिखाई पड़ रहे हैं, लेकिन स्वर्ग में भोगने की इच्छा है। ये कौन हैं लोग जिन्होंने स्वर्ग में कल्पवृक्ष की कल्पना की है, कि जिसके नीचे बैठने से सारी कामनाएं पूरी हो जाती हैं? ये कामना से मुक्त लोग हैं? तो कल्पवृक्ष नरक में होना चाहिए, स्वर्ग में नहीं।
और यह कोई एक ही धर्म की बात नहीं, सारे धर्म इसी तरह गर्हित हैं। इस्लाम कहता है: स्वर्ग में न केवल सुंदर स्त्रियां हैं, वरन सुंदर छोकरे भी हैं। क्योंकि अरबी देशों में समलिंगीय व्यवहार बहुत प्रचलित था, अभी भी प्रचलित है। तुम उर्दू की कविता में देखोगे तो तुमको दिखाई पड़ेगा कि उर्दू की कविता में जो प्रेम का काव्य है वह स्त्रियों के बाबत कम है, पुरुषों के बाबत ज्यादा है। पुरुष पुरुषों पर दीवाने हैं, छोकरों पर दीवाने हैं। तो मुसलमानों के स्वर्ग में हूरें भी हैं, अप्सराएं भी हैं और गिल्में भी। गिल्में यानी सुंदर छोकरे। क्या गजब के लोग थे! कैसी अदभुत साधना हो रही थी—कामवासना से मुक्ति हो रही थी! और बहिश्त में चश्मे बहते हैं शराब के। यहां शराब पीयो तो पाप है और वहां शराब पीयो तो पुण्य है।
और तुम्हारे वेद सोमरस की प्रशंसा से भरे हैं। और सोमरस अगर कुछ भी है तो निश्र्चित ही कोई नशीली औषधि है। अभी सारे वैज्ञानिक इस खोज में लगे हुए हैं कि सोमरस है क्या, यह किस जड़ी-बूटी का रस था? यह जरूर मारिजुआना जैसी कोई चीज है, जिसको पी-पी कर ऋषि-मुनि मस्त होते रहे।
और तुम्हारे साधु-संन्यासी गांजा, अफीम और चरस सदियों से पीते रहे हैं। और बात यहां तक पहुंच गई थी कि जब कोई आदमी बहुत दिन तक गांजा, चरस, भांग पीएगा तो फिर इनका उस पर असर नहीं होता, उसका शरीर धीरे-धीरे इनका आदी हो जाता है। तो तुम्हारे साधु-संन्यासी सांपों को पालते थे कि उनको जीभ पर कटाते थे सांप से। जब जीभ पर सांप से कटाते तो थोड़ा-बहुत नशा उनको आता, थोड़ी-बहुत मस्ती आती।
‘जितेंद्रिय, विषय-भोग की कामना से रहित’...। कब होगी यह घटना, कहां होगी यह घटना? और जिनको तुम ईश्र्वर कहते हो, वे भी कुछ विषय-भोग की कामना से रहित नहीं मालूम होते। विष्णु भगवान लेटे हैं क्षीर-सागर में, क्या कर रहे हैं वहां लेटे-लेटे? लक्ष्मी मैया पैर दबा रही हैं! ये लक्ष्मी मैया वहां एकांत में क्या कर रही हैं? जरा तुम तो कहीं लेट जाओ जाकर और किसी मैया से पांव दबवाओ, फौरन भीड़ लग जाएगी, फौरन उपद्रव हो जाएगा। लक्ष्मीनारायण हैं ये! तुम्हारे रामचंद्र जी भी सीता मैया के साथ खड़े हैं। और कृष्ण जी तो गजब ही कर गए हैं, कृष्ण को तुम संन्यासी कहते हो कि नहीं?
हे अशोक कुमार वाचस्पति! हे नानापेठ पुणे के निवासी! कृष्ण को तुम क्या कहते हो, संन्यासी कहते हो कि नहीं? ये सोलह हजार रानियां, ये काहे के लिए इकट्ठी की हैं? यह प्रदर्शन...कोई कुंभ का मेला भरा है? और इनमें दूसरों की उड़ाई हुई औरतें हैं, चोरी की गई औरतें हैं। ये सोलह हजार स्त्रियां ऐसी ही थोड़े ही मिल गईं। और यह बांसुरी बज रही यमुना तट पर और ये गोपियां नाच रहीं—यह सब खेल-खिलवाड़, यह लीला! और ये झाड़ पर चढ़े बैठे कृष्ण कन्हैया! कल ही तो आ गए थे यहां कन्हैयालाल! स्त्रियों के कपड़े लेकर चढ़ गए हैं ऊपर। अभी कोई चढ़ जाए तो तुम कहोगे: यह रजनीशी संन्यासी है! और ऊपर बैठ कर डाल पर क्या कर रहे हैं, वह देखा? अब बेचारी भ
ारतीय नारियां हैं, सो लोक-लज्जा से पानी में दबी बैठी हैं, अब करें क्या! सो वे धीरे-धीरे कपड़े लटकाते हैं। जैसे छोटे बच्चों को तुम कोई चीज देने के लिए हाथ बढ़ाते हो, फिर पीछे खींच लेते हो, वह तुम्हारे पास आया तो पीछे खींच ली—ऐसे ही वे कपड़े लटकाते हैं। और जैसे ही वे महिलाएं हाथ उठाती हैं, वे कपड़े ऊपर खींच लेते हैं, ताकि वे पूरी की पूरी नंगी खड़ी हो जाएं। क्या खेल चल रहे हैं! मालूम होता है नानापेठ में अभी तक इनकी कोई खबर नहीं आई।
वाचस्पति, कुछ इनको सोचो-विचारो।
‘भोगवासना से रहित, परोपकार करने की इच्छा से युक्त’...। और परोपकार करने की इच्छा भी तो इच्छा ही है। वह भी तो भोगवासना ही है। वह भी कोई इच्छा से मुक्ति तो नहीं है!...‘जो पुरुष या स्त्री हो वह संन्यास ग्रहण करे।’ ऐसी शर्तें लगा दीं कि न कोई पूरी कर सकेगा, न कोई संन्यासी हो सकेगा। यह संन्यास रोकने का उपाय था ब्राह्मणों का, क्योंकि ब्राह्मण नहीं चाहते लोग संन्यासी हों।
संन्यासी के कई खतरे हैं ब्राह्मण को। पहला, कि संन्यासी होते से ही व्यक्ति ब्राह्मण के चक्कर से मुक्त हो जाता है। संन्यासी होते ही वर्ण से मुक्त हो जाता है। संन्यासी होते ही से न क्षत्रिय, न शूद्र, न ब्राह्मण, कोई भी नहीं रह जाता—वर्णातीत हो जाता है। और संन्यासी होते से ही समस्त आचरण से भी मुक्त हो जाता है, आचरण-अतीत हो जाता है, अतिक्रमण कर जाता है चरित्र का। उस पर फिर कोई नियम-व्रत लागू नहीं होते। उसका जीवन स्वच्छंद होता है। उसके जीवन में स्वयं का छंद होता है। वह अपने अंतर्तम से जीता है।
ब्राह्मण यह बरदाश्त नहीं कर सकते थे। यह तो उनकी सत्ता को चुनौती हो जाती है। लेकिन यह भी नहीं कह सकते थे कि संन्यास गलत है, क्योंकि यह कहते, तो भी लोग कहते कि संन्यास जैसी सुंदर चीज और तुम गलत कह रहे हो? तो फिर उन्होंने चालबाजी निकाली। फिर उन्होंने ऐसी शर्तें लगा दीं कि न तुम कर सकोगे शर्तें पूरी कभी, न कभी संन्यास होगा और जो भी संन्यासी होगा उसको हम बता सकेंगे कि यह गलत संन्यासी है, इसमें देखो भोग-विलास है, इसमें देखो इच्छा है, इसमें देखो पूर्ण विद्वान नहीं है, इसमें देखो जितेंद्रिय नहीं है, इसमें देखो अभी वैराग्य पूरा नहीं हुआ। हम भूल-चूक बता सकेंगे। तो संन्यासी की निंदा करने की हमें सुविधा मिल गई और लोगों को संन्यास से रोकने की सुविधा मिल गई।
ब्राह्मण चाहता है, लोग कभी भी ज्ञान को उपलब्ध न हों। तभी तो उसका शोषण चलेगा। तभी तो वह लोगों की छाती पर बैठ कर इनका खून चूसता रहेगा। हजारों साल से चूस रहा है। खटमलों की तरह हैं ये ब्राह्मण। ये खून पी रहे हैं आदमी का। और अभी भी इनसे छुटकारा नहीं हुआ। इसलिए मेरे संन्यास से उनको घबड़ाहट हो रही है, क्योंकि मेरा संन्यास लोगों को एक मुक्ति दे रहा है, जिसमें वे कम से कम सब तरह के ब्राह्मणों के चक्कर से छूट जाएंगे।
तुम कहते हो: ‘वेद में कहा है पूर्ण ज्ञानी विद्वान ही संन्यास ले।’
वेद का अधिकार क्या है? किसी शास्त्र का किसी पर कोई अधिकार नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी स्वयं की चेतना की रोशनी में जीना चाहिए। और कौन है पूर्ण विद्वान, किसको पूर्ण विद्वान कहेगा वेद? बुद्ध को पूर्ण विद्वान कहेगा? क्योंकि वेद तो बुद्ध को आते नहीं। महावीर को कहेगा? महावीर को भी नहीं आते। जरथुस्त्र को कहेगा, लाओत्सु को कहेगा? इनको भी नहीं आते। सुना ही नहीं, नाम ही नहीं सुना। जीसस को कहेगा? मोहम्मद को कहेगा? कभी नहीं। पूर्ण विद्वान किसको कहेगा? वेद? जो चारों वेदों का ज्ञाता हो। और वेदों में है क्या, निन्यानबे प्रतिशत कचरा है! उस कचरे को जो इकट्ठा किए बैठा है, वह पूर्ण ज्ञानी!
और वेदों की तुम जरा कथाएं देखो, तो तुम चकित हो जाओगे। इनमें कहीं ज्ञान का कोई प्रमाण नहीं मिलता। बड़ी क्षुद्र वासनाओं से भरे हुए लोग। बड़ी क्षुद्र आकांक्षाएं, प्रार्थनाओं से भरे हुए लोग। इनको शास्त्रों को जान कर भी क्या हो जाएगा? इससे संन्यास का क्या संबंध है?
‘और कठोपनिषद में कहा है—जो दुराचार से पृथक नहीं, जिसको शांति नहीं, जिसकी आत्मा योगी नहीं...!’
बड़े मजे की बातें हैं। आत्मा भी कहीं योगी होती है? योग तो शरीर पर ही समाप्त हो जाता है। ध्यान मन पर समाप्त हो जाता है। आत्मा न तो योगी होती है, न ध्यानी होती है। आत्मा तो वह है जो योग और ध्यान के पार साक्षी है; मात्र साक्षी है, कर्ता नहीं। योग तो क्रिया है। योगी होने का अर्थ है शरीर से बंधे होना। ध्यानी होने का अर्थ है मन से बंधे होना। जो ध्यान और योग दोनों के पार चला जाता है, वही आत्मा को जान पाता है।
तुम कहते हो: ‘जिसकी आत्मा योगी नहीं है और जिसका मन शांत नहीं है, तब वह संन्यास लेकर भी प्रज्ञान योनि, उत्तम ज्ञान या उपदेश से परमात्मा क्या, आत्मा को भी नहीं जान सकता।’
जैसे कि आत्मा के अतिरिक्त कोई और परमात्मा भी है! आत्मा को उसकी परम शुद्धि में जान लेना ही परमात्मा है। आत्मा को जाना कि परमात्मा को जाना। जिसने स्वयं को जाना उसने ‘उसको’ जाना।
इसलिए मुझसे उन्होंने कहा है: ‘आप ऐसे गुणों से युक्त स्त्री-पुरुषों को संन्यास देते हैं?’ ऐसे गुणों से युक्त स्त्री-पुरुष आएं तो उनको मैं कहूंगा: तुम्हें संन्यास की कोई जरूरत नहीं है। तुम संन्यासी हो ही, बात ही खत्म हो गई। तुम स्वस्थ हो। मैं तो उन्हें इनकार कर दूंगा। ऐसा व्यक्ति अगर मेरे पास आए तो उसको मैं इनकार कर दूंगा संन्यास देने से, उसको जरूरत ही नहीं है। और अगर ऐसा व्यक्ति मेरे पास संन्यास लेने आता है तो बड़ी हैरानी की बात होगी कि अब इस आदमी को बचा क्या है! जितेंद्रिय है, पूर्ण ज्ञानी है, मन शांत हो गया, आत्मा का बोध हो गया, पूर्ण विद्वान है—अब और बचा क्या है इसको संन्यास लेने के लिए? क्या सिर्फ गेरुआ वस्त्र पहन लेने से कुछ कमी पूरी हो जाएगी? अब वस्त्रों से क्या लेना-देना है? उसे तो मैं संन्यास दूंगा ही नहीं। और तुम कहते हो उसको ही संन्यास देना।
तुम कहते हो: ‘अगर नहीं तो अपने देश...।’
मेरा कोई देश नहीं है, तुम्हारा होगा। मेरी कोई जाति नहीं है, तुम्हारी होगी। मेरी कोई संस्कृति नहीं है, तुम्हारी होगी। मैं ही नहीं हूं तो मेरा देश क्या, मेरी जाति क्या, मेरी संस्कृति क्या? ये थोथे आग्रह मेरे ऊपर नहीं हैं। यह सारी पृथ्वी, यह सारा अस्तित्व, इसके साथ मैं अपने को एकरूप मानता हूं—एकरूप जानता हूं! और जिस सड़े-गले देश, जाति और व्यक्ति और संस्कृति के नष्ट होने से तुम डर रहे हो, उसको मैं नष्ट करना चाहता हूं। वही तो तुम्हें सड़ा रही है। जिस कैंसर को तुम पकड़े हुए हो और सोच रहे हो यह हमारी आत्मा है, तुम्हारी आत्मा नहीं है। वही तो तुम्हारी आत्मा का घाव है। उसी की मवाद को तो निकालना है। उसी कैंसर को तो निकाल फेंकना है।
मैं तुम्हें अतीत से मुक्त करना चाहता हूं। यह सब तुम्हारा अतीत है—अपना देश, अपनी जाति, अपनी संस्कृति! ये सब अहंकार की घोषणाएं हैं। मेरे पास जो लोग इकट्ठे हो रहे हैं, ये शुद्ध मनुष्यमात्र हैं। न कोई इटालियन, न कोई जर्मन, न कोई भारतीय, न कोई जापानी। न कोई हिंदू, न कोई मुसलमान, न कोई ईसाई, न कोई बौद्ध। न कोई गोरा, न कोई काला। न कोई स्त्री, न कोई पुरुष। यहां कोई फिकर नहीं है इन सब बातों की। इन टुच्ची बातों में जो लोग पड़े हैं, उनको मानसिक चिकित्सा की जरूरत है। मनुष्य-जाति ने बहुत दुख उठा लिया है इन्हीं बेवकूफी की बातों के कारण। मैं तो इन सबको होली में डाल देना चाहता हूं। मैं तो एक पृथ्वी चाहता हूं और एक मनुष्यता!
तुम पूछते हो: ‘उक्त गुणों से युक्त व्यक्ति को ही संन्यास दें, अन्य को नहीं।’
यह प्रश्न है या प्रश्न के नाम पर सीधी अभद्रता? ध्यान रखना, जो बिना मांगे सलाह देता है वह आदमी मूढ़ है। मैंने तुमसे सलाह मांगी नहीं और तुम सलाह दे रहे हो मुझे। सलाह ही नहीं, आदेश दे रहे हो।
और तुम कहते हो: ‘यह भी सत्य है कि जिस प्रकार गुणरहित डाक्टर, प्रोफेसर आदि कार्य नहीं कर सकते, उसी प्रकार संन्यास का भी धर्म है। और अगर गुणरहित है तो उसको संन्यास न दें।’
निश्र्चित ही, डाक्टर को डाक्टर होना चाहिए, उसका शिक्षण है। प्रोफेसर को प्रोफेसर होना चाहिए, उसका शिक्षण है। संन्यासी को भी संन्यासी होना चाहिए, उसका शिक्षण है। संन्यास की दीक्षा संन्यास के प्रशिक्षण में प्रवेश है। संन्यास की दीक्षा से कोई सिद्ध नहीं हो जाता। सिद्ध और संन्यासी का वही भेद है। संन्यास है प्रवेश और सिद्ध हो जाना है पूर्णता। संन्यास की प्रक्रिया से गुजर कर कोई सिद्ध होता है।
लेकिन तुम अगर कहो कि सिद्ध को ही संन्यास देंगे, तो तुमने तो बैलों को गाड़ी के पीछे बांध दिया। अब यह गाड़ी क्या खाक चलेगी! अब इसका चलना असंभव है।
जरूर संन्यास का भी धर्म है, लेकिन संन्यास का धर्म सनातन धर्म नहीं है और न हिंदू धर्म है, न मुसलमान धर्म है, न ईसाई धर्म है। संन्यास का धर्म का अर्थ तो इतना ही होता है: अपने स्वभाव के अनुसार जीना, अपने बोध के अनुसार जीना।
इसलिए मेरे पास जो लोग आ रहे हैं, उन्हें मैं दीक्षा दे रहा हूं। उनकी न पात्रता पूछता हूं, न अपात्रता। क्योंकि पात्रता तो मैं पैदा करूंगा, पूछना क्या है? उन्होंने जिज्ञासा जाहिर की, इतना ही पर्याप्त है। उन्होंने आकांक्षा की संन्यासी होने की, इतना काफी है। और जब परमात्मा उनको जीवन देता है बिना उनकी पात्रता पूछे, तो मैं कौन हूं जो उनको संन्यास देने से रोकूं?
सूफी फकीर जुन्नैद के पड़ोस में एक आदमी रहता था, जो बड़ा व्यभिचारी, दुराचारी, शराबी, सब खूबियां उसमें थीं। जुन्नैद ने एक दिन परमात्मा से कहा: हे प्रभु, इस आदमी को उठा क्यों नहीं लेता? इस आदमी की वजह से कितना अनाचार फैल रहा है!
उस रात जुन्नैद को स्वप्न में परमात्मा दिखाई पड़ा! उसने कहा: जुन्नैद, तुझे इस आदमी के पड़ोस में रहते कितने दिन हुए—केवल सात दिन! और मैं इस आदमी को सत्तर साल से जिंदा रखे हूं। मैं जिसे सत्तर साल से श्र्वास दे रहा हूं, जीवन दे रहा हूं, उसे तू सात दिन भी बरदाश्त नहीं कर सका! और सिर्फ तू पड़ोस में रह रहा है। तेरा वह कुछ बिगाड़ नहीं रहा है। यह कैसा अधैर्य? और तू यह नहीं देखता कि अगर वह आदमी गलत होता तो मैं उसे जिलाए क्यों रखता? उसमें कुछ राज है, कुछ खूबी है।
जब परमात्मा जीवन देता है तो मैं मानता हूं कि उसने तुम्हें अवसर दिया है संन्यासी होने का। जीवन है क्या? जीवन है संन्यासी होने का अवसर। जीवन है तुम्हारे भीतर जो बीज हैं, उनको फूल बनाने का अवसर। जीवन है तुम्हारे भीतर गुलाब खिलाने का अवसर। मेरे पास तो जो आएगा, बेशर्त उसे संन्यास दूंगा। जुआरी आएगा, शराबी आएगा, चोर आएगा—उसे भी संन्यास दूंगा। क्योंकि मैं मानता हूं कि चोर भी अचोर हो सकता है, जुआरी जुआरीपन छोड़ सकता है। और जिसने कभी हत्या की थी, जरूरी नहीं कि उस हत्या से सदा के लिए बंध गया।
कोई कृत्य किसी व्यक्ति को समग्ररूप से नहीं घेरता है। इसलिए कृत्यों का मैं कोई हिसाब नहीं रखता। मैं तो व्यक्ति की जिज्ञासा को मूल्य देता हूं, उसकी अभीप्सा को मूल्य देता हूं। संन्यास का अर्थ है, वह परमात्मा की खोज के लिए आतुर है। कितना ही बुरा हो और कितने ही गड्ढे में पड़ा हो और कितने ही अंधकार में हो, अगर सूरज की तलाश है तो मैं उसे साथ दूंगा। न मुझे वेदों की चिंता है, न तुम्हारे उपनिषदों की चिंता है, न तुम्हारे शास्त्रों की चिंता है।
मैं तो संन्यास की एक नई अवधारणा को जन्म दे रहा हूं। उसका शास्त्र बना लूंगा, उसका वेद बना लूंगा। वेद बनाने में क्या रखा है? शास्त्र बनाने में क्या रखा है? जो भी बात सत्य के अनुसरण में बोली जाती है, वही शास्त्र है और जो बात भी सत्य की उदघोषणा करती है वही वेद है।
समझने की कोशिश करो अशोक कुमार वाचस्पति, समझाने की नहीं।
आए हैं समझाने लोग, हैं कितने दीवाने लोग!
आए हैं समझाने लोग, हैं कितने दीवाने लोग
दैरो हरम में चैन जो मिलता
क्यों आते मैखाने लोग?
जान के सब कुछ भी न जानें
हैं कितने अनजाने लोग
वक्त काम नहीं आते हैं
ये जाने-पहचाने लोग
अब जब मुझको होश नहीं है
आए हैं समझाने लोग
हैं कितने दीवाने लोग, आए हैं समझाने लोग!
दैरो हरम में चैन जो मिलता
क्यों जाते मैखाने लोग?
यह मंदिर नहीं, मस्जिद नहीं, दैरो हरम नहीं। यह तो मयखाना है। तुम यहां कहां की बकवास लेकर आ गए? यह तो रिंदों की जमात है, पियक्कड़ों का मजमा है। और अब तुम मुझे समझाने आए हो, जब कि बात बिलकुल बिगड़ ही चुकी।
अब जब मुझको होश नहीं है
आए हैं समझाने लोग
हैं कितने दीवाने लोग!
देर कर दी अशोक कुमार वाचस्पति। जरा जल्दी आना था। मैं तो बिगड़ ही गया और हजारों को बिगाड़ भी चुका। और अब तो यह बात चल पड़ी है, रुकने वाली नहीं है। अब तो यह नया वेद निर्मित होगा, अब तो यह नया शास्त्र बनेगा, बनने ही लगा! अब तो मनुष्यों की एक नई तस्वीर उभरने ही लगी।
मेरा संन्यासी भविष्य के मनुष्य की उदघोषणा है। इसका अतीत से कोई संबंध नहीं है। इसका संबंध वर्तमान से है और भविष्य से है।
अशोक कुमार वाचस्पति, तुम्हें इतना ज्ञान है, संन्यास लो भैया! इतने शास्त्रों के ज्ञाता, अब और क्या पूर्ण ज्ञान होगा? और सभी कुछ तो तुम्हें पता है कि संन्यासी में क्या-क्या होना चाहिए, अब क्या कर रहे हो बैठे-बैठे? नानापेठ में मक्खियां कब तक मारते रहोगे?
सेठ चंदूलाल ने अपने बेटे से कहा; कहना पड़ा, मजबूरी थी, क्योंकि बेटे ने चंदूलाल से प्रार्थना की कि अब मैं शादी करना चाहता हूं। मेरा एक लड़की से प्रेम हो गया है।
चंदूलाल बोले: बेटा, मेरी नसीहत याद रखो, कभी शादी न करना।
बेटे ने कहा: पिताजी आपकी बात मान कर अपने बेटे को भी मैं यही नसीहत दूंगा।
सच यह है कि चंदूलाल के बाप ने भी उनको यही नसीहत दी थी और चंदूलाल के बाप को उनके बाप ने यही नसीहत दी थी। बस नसीहत देने में क्या हर्जा है? जब इतना ज्ञान तुम्हें हो गया, तो अब क्या कर रहे बैठे-बैठे नानापेठ में? अब संन्यासी हो जाओ। तुम्हें अच्छा नाम देंगे—स्वामी नानालाल भारती!
दो अफीमची बात कर रहे थे। एक ने पूछा: यार, यदि नदी में आग लग जाए तो सारी मछलियां कहां जाएंगी?
दूसरे ने कहा: तू चिंता मत कर, वे सब पेड़ों पर चढ़ जाएंगी।
पहले ने कहा: तुम भी गजब के आदमी हो जी! हद के बेवकूफ हो! क्या मछलियां गाय-भैंसें हैं जो पेड़ों पर चढ़ जाएं?
ज्ञान की तो बातें कर रहे हो, नशा उतारो, थोड़े मूर्च्छा से जगो! यह सब बकवास मिथ्या है।
चंदूलाल बहुत गुस्से में पहुंचा दुकानदार के पास और बोला कि सुनो जी, यहां से हाथीदांत की जो मैं कंघी ले गया था वह नकली थी।
दुकानदार ने कहा: साहब अगर हाथी भी नकली दांत लगाने लगे हैं तो इसमें मेरा क्या कसूर?
आज इतना ही।