SHANDILYA

ATHATO BHAKTI JIGYASA 39

ThirtyNinth Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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सूत्र

अनन्यभक्त्या तद्बुद्धिर्बुद्धिलयादत्यन्तम्‌।। 96।।
आयुश्चिरयितरेषां तु हानिनास्पदत्वात्‌।। 97।।
संसृतिरेषामभक्तिः स्यान्नाज्ञानात्‌ कारणसिद्धेः।। 98।।
त्रीण्येषां नेत्राणि शब्दलिंगाक्षभेदाद्रुद्रवत्‌।। 99।।
आविस्तिरोभावाविकाराः स्युः क्रियाफलसंयोगात्‌।। 100।।
अथातोभक्तिजिज्ञासा!
अब भक्ति की जिज्ञासा!
ऐसे इन अपूर्व सूत्रों का आज अंतिम दिन आ गया। सोचा, विचारा, पर उससे जिज्ञासा पूरी नहीं होती। जिज्ञासा तो तभी पूरी होती है जब रोम-रोम में समा जाए, धड़कन-धड़कन में धड़के, श्वास-प्रश्वास में डोले। इन सूत्रों पर विचार और मनन करके ही जो रुक गया, वह जल सरोवर के पास पहुंचा और प्यासा रह गया। ये सूत्र ऐसे हैं कि तुम्हारे जीवन को सदा-सदा के लिए तृप्त कर दें। इनकी महिमा अपार है। पर इनके हाथ में भी नहीं है कि यदि तुम सहयोग न करो तो तुम्हें तृप्त कर सकें। तुम्हारे सहयोग के बिना कुछ भी न हो सकेगा। तुम्हारी स्वतंत्रता परम है। तुम पीओगे, तो सरोवर काम आ जाएगा। तुम अकड़े खड़े रहे, किनारे पर ही खड़े रहे, तो भी सरोवर के बस में नहीं है कि तुम्हारे कंठ में उतर जाए।
बहुत लोग शास्त्रों से केवल शब्द ही ले पाते हैं। तो उन्होंने कुछ भी नहीं लिया। तो यात्रा व्यर्थ हो गई। वे चले ही नहीं। उन्होंने सिर्फ सोचा, सपना देखा चलने का। चलने के सपने से कोई यात्रा पूरी नहीं होती। चलना होता है, वस्तुतः चलना होता है।
और जीवन में चलने का क्या अर्थ होगा?
यही अर्थ होगा कि जो ठीक लगा, वह केवल बुद्धि में न रह जाए, परिव्याप्त हो जाए समग्र जीवन पर। उसका स्वाद फैल जाए तन-मन-आत्मा में। उसका स्वाद तुम्हारे प्राणों को संगृहीत कर दे, तुम्हारे बिखरे टुकड़ों को जोड़ दे। उसके स्वाद का धागा तुम्हें माला बना दे--अनस्यूत हो जाए।
सूत्रों पर विचार करने का तो अंतिम दिन आ गया, लेकिन यह जिज्ञासा तो, शांडिल्य ने जो जिज्ञासा चाही थी, वह जिज्ञासा नहीं है। मैं जो जिज्ञासा चाहता हूं, वह जिज्ञासा नहीं है। यह तो दार्शनिक मनोमंथन हुआ। यह तो ऊहापोह हुआ। यह ऊहापोह शुभ है, यदि चला दे। अगर चलाए न, तो किसी काम का नहीं है। यह पुकार जो दूर से सुनाई पड़ी है, सदियों को पार करके आई है, इसे मैंने फिर से पुनरुज्जीवित किया। शांडिल्य को मौका दिया कि मुझसे फिर तुमसे बोल लें। शांडिल्य के शब्दों को फिर से जन्माया, निखारा, सदियों की धूल झाड़ी। लेकिन उससे काम पूरा नहीं हो गया। ऐसा मत समझ लेना कि तुम शांडिल्य को समझ गए। समझ से ही अगर काम पूरा होता तो विश्वविद्यालयों में ज्ञानियों का जन्म हो जाता। फिर पंडित प्रज्ञावान हो जाते। फिर बुद्धों में और पंडितों में भेद क्या होता?
पंडित तो तोते ही रह जाते हैं। तोता कितना ही राम-राम जपे, उसका हृदय उस जपन में नहीं होता है। जप देता है, यंत्रवत। मगर उसे तुम भजन तो न कहोगे!
प्रसिद्ध कथा है कि शंकराचार्य उस समय के प्रकांड पंडित मंडन मिश्र से विवाद करने गए। मंडन मिश्र रहते थे मंडला में। मंडला का नाम ही मंडन के नाम पर पड़ा। जब शंकर वहां पहुंचे...शंकर तो युवा थे, मंडन की बड़ी ख्याति थी, शंकर को कोई जानता भी नहीं था...नगर के बाहर ही घाट पर पानी भरती स्त्रियों से उन्होंने पूछा कि मैं महापंडित मंडन मिश्र की तलाश में आया हूं, उनके घर का पता क्या है?
वे स्त्रियां हंसने लगीं, और उन्होंने कहा, मंडन मिश्र का घर भी पूछने की कोई जरूरत है! तुम चले जाओ नगर में, जिस द्वार पर बैठे हुए तोते और मैनाएं उपनिषदों के, वेदों के वचन दोहराते हों, समझ लेना कि वही मंडन मिश्र का घर है।
चमत्कृत शंकर गांव में प्रवेश किए। और निश्चित ही मंडन मिश्र के द्वार पर पक्षी शुद्धतम रूप में वेदों के वचन उद्धृत करते थे, उपनिषद दोहराते थे, गीता का गान करते थे। सैकड़ों विद्यार्थी आ-जा रहे थे। मंडन की ख्याति दूर-दिगंत तक थी। दूर-दूर देशों से विद्यार्थी उनके पास सीखने आते थे।
बहुत चकित हुए शंकर! और जब मंडन से मिले तो और भी चकित हुए। और उन्होंने मंडन से कहा, तुम्हारे द्वार पर ही तोते उपनिषद और वेद का पाठ नहीं करते, मैं तुम्हें भी देखता हूं कि तुम भी एक तोते हो। कंठ तक ही बात पहुंची है। बुद्धि तक बात पहुंची है, तुम्हारा हृदय अछूता है। तुम्हारा हृदय, तुम जो कह रहे हो, उसके पीछे नहीं है। यह तुम्हारे प्राणों का आविर्भाव नहीं है।
ऐसा ही समझो न, बाजार से एक प्लास्टिक का फूल लाकर तुम किसी वृक्ष पर टांग दो। शायद दूर से धोखा दे जाए कि असली फूल है, भ्रांति हो जाए। लेकिन पास आओगे तो समझ न पाओगे कि इस फूल में वृक्षों के प्राणों का संयोग नहीं है? वृक्ष की रसधार इस फूल में बहती नहीं है? वृक्ष की जड़ से यह फूल जुड़ा नहीं है?
ज्ञान अगर प्लास्टिक के फूल जैसा वृक्ष पर लटका हो, तो आदमी पंडित होता है। और जब असली फूल की भांति वृक्ष की ऊर्जा से जन्मता है, वृक्ष की रसधार उसमें बहती है, तब प्रज्ञावान होता है, तब बुद्धपुरुष होता है।
शांडिल्य को तोतों की तरह याद मत रख लेना, अन्यथा इतनी अपूर्व यात्रा की और कहीं न पहुंचे--सिर्फ सपना देखा। इतने महिमापूर्ण वचनों में गहरे गए, मगर कुछ गहराई न मिली, सिर्फ थोड़ा सा कूड़ा-कर्कट शब्दों का, सिद्धांतों का इकट्ठा हो गया। थोड़ा अहंकार और भर गया कि मैं जानता हूं। लेकिन जाना तो कुछ भी नहीं। इतना सस्ता तो जानना नहीं है। जानने में प्राण जोड़ने पड़ते हैं। अंतिम सूत्रों में प्राण जोड़ने की बात ही शांडिल्य ने कही है।
पहला सूत्र--
अनन्यभक्त्या तद्बुद्धिः बुद्धिलयात्‌ अत्यन्तम्‌।
‘अनन्य अर्थात पराभक्ति से बुद्धि के अत्यंत लय होने से तन्मयी बुद्धि का उदय होता है।’
तन्मयी बुद्धि। बड़ा प्यारा शब्द उपयोग किया है! तुम जो जानते हो, जब तन्मय होकर जानोगे, जब वह तुम्हारा जानना होगा, निजी, जब तुम उसके गवाह हो सकोगे, जब तुम गवाही दे सकोगे कि हां, ऐसा है। अगर तुम कहते हो कि परमात्मा है, क्योंकि वेद कहते हैं, तो तुम तोते हो। अगर तुम कहते हो कि परमात्मा है, क्योंकि शांडिल्य कहते हैं, या मैं कहता हूं, तो तुम यंत्रवत हो। खोज करो उस दिन की, तलाशो उस क्षण को, जब तुम कह सकोगे कि मैं कहता हूं कि परमात्मा है, क्योंकि मैं कहता हूं! क्योंकि मैंने जाना! क्योंकि मैंने देखा! देखने से कम पर भरोसा मत कर लेना! सुनी बात दो कौड़ी की, देखी बात में ही सचाई होती है।
किसी ने कहा है, अब पता नहीं जान कर कहा हो, या उसने भी सुन कर कहा हो! कैसे निर्णय करोगे? फिर उसने जान कर ही कहा हो, तो जैसे ही जानने वाला कहता है, वैसे ही सुनने वाले के पास वही सत्य नहीं आता जो जानने वाला कहता है। सुनने वाले के पास शब्द आते हैं, सत्य नहीं आता।
मैंने प्रेम किया, मैंने प्रेम जाना, और मैं तुमसे प्रेम की बातें कहूंगा। तुम्हारे पास प्रेम नहीं पहुंचेगा, प्रेम नाम का शब्द भर पहुंचेगा। और तुम मुझे लाख सुनो, लाख समझो, और लाख सम्हाल कर रख लो, तो भी तुम प्रेम क्या है, यह न जान सकोगे। प्रेम के संबंध में जानना और प्रेम को जानना अलग-अलग बातें हैं। संबंध में जानना जानना है ही नहीं। संबंध का मतलब ही यह होता है कि तुमने जाना नहीं, ऐसे बाहर-बाहर घूमे, भीतर प्रवेश न किया, डरे-डरे रहे, जानने का साहस ही न किया।
अब प्रेम के संबंध में एक तो जानने का ढंग है कि किसी के प्रेम में पड़ जाओ। और एक ढंग है कि किसी ग्रंथालय में जाकर बैठ जाओ और प्रेम के संबंध में जितने शास्त्र लिखे गए हैं उन सबको पढ़ डालो। उन शास्त्रों को पढ़ कर तुम भी शास्त्र रच सकते हो। उन शास्त्रों को पढ़ कर तुम भी पीएच.डी. की थीसिस लिख सकते हो। लेकिन फिर भी तुमने प्रेम को नहीं जाना। प्रेम को जानने के लिए प्रेम करना जरूरी है। और जो तुम जानते हो, जब तन्मय होते हो, उसके साथ एकरस होते हो, एक भाव होते हो, जब तुम्हारा तादात्म्य होता है, जब जानने वाला और जानने में भेद नहीं होता--जब जानने वाला ही जानना हो जाता है--जब दोनों के बीच की सब सीमा, सब अंतराल खो जाता है, जब दोनों एक ही हो जाते हैं--अनन्यभाव हो जाता है--जब प्रेम और प्रेमी में जरा भी भेद नहीं होता, जब तुम प्रेमरूप होते हो, तब जानते हो। तब तुम्हारे भीतर प्रकट होता है जो छिपा था।
इन सूत्रों को सुना, सुन कर रुक मत जाना। इसलिए कहा भी नहीं था। इसलिए शांडिल्य ने भी इन्हें लिखा नहीं था। इसलिए मैंने भी इन्हें तुम्हारे सामने पुनः नहीं कहा है। सिर्फ इसीलिए कहा है कि इससे तुम्हारी प्यास प्रज्वलित हो। इससे तुम्हें एक याद आए कि ऐसा भी संभव है। बस इतना याद आ जाए कि ऐसा भी संभव है, सिर्फ तुम्हारे भीतर एक जिज्ञासा उमग आए। तुम्हारे भीतर एक बुझी हुई प्यास पड़ी है, सदियों से बुझी पड़ी है। तुमने उसे ढांक दिया है, क्योंकि वह प्यास खतरनाक है। उस प्यास के लिए दांव लगाना पड़ता है। तुमने उसे छिपा रखा है। तुमने उसकी जगह छोटी-छोटी प्यासें पैदा कर ली हैं।
विराट प्यास तो एक ही है मनुष्य के भीतर कि मैं जान लूं--सत्य क्या है? या कहो परमात्मा, या कहो इस प्रकृति का रहस्य, कुछ भी नाम दो। गहनतम में, अंतर्तम में पड़ी तो एक ही जिज्ञासा है और एक ही खोज है, हर आदमी की, हर प्राण की, कि मैं जान लूं कि यह अस्तित्व क्या है? मैं आया कहां से? मैं जाता कहां हूं? मैं हूं कौन? मेरे होने का प्रयोजन क्या है? मेरे सारे जीवन की दौड़-धूप की निष्पत्ति क्या है? यह जन्म और मृत्यु के बीच जो फैला है जीवन, इसका प्रयोजन क्या है? इसकी अर्थवत्ता क्या है? मैं इस अर्थ को जान लूं। क्योंकि इस अर्थ को बिना जाने मैं जीऊंगा, तो मेरा जीना छिछला-छिछला होगा। इस अर्थ को बिना जाने मैं जो भी करूंगा, वह गलत ही होगा। क्योंकि जिसे अपने ही होने का पता नहीं, और अस्तित्व क्यों चल रहा है इसका पता नहीं, वह कैसे ठीक कर पाएगा? वह जो भी करेगा, वह अंधे के द्वारा अंधेरे में टटोलने जैसा होगा। भूल-चूक से शायद सत्य पर हाथ पड़ जाए, तो भी सत्य तुम्हारे हाथ नहीं आ पाएगा। हाथ पड़ भी जाएगा तो भी छूट जाएगा। तुम पहचान ही न पाओगे कि यह सत्य है। जिसको प्यास ही नहीं है, वह जल को कैसे पहचानेगा? और जो हीरों की खोज में नहीं गया है, वह हो सकता है हीरों की खदान पर भी पहुंच जाए, तो भी खाली हाथ ही आएगा, भिखमंगा ही लौट आएगा। जो खोजने गया है, जिसने बहुत सपने देखे हैं, बहुत गहन विचार किया है, जो तड़पा है रातों में, जो सोया नहीं, दिन हो कि रात जिसे एक धुन सवार रही है--कि जान लूं हीरे-जवाहरात कहां हैं? वह अगर पहुंच जाए तो शायद पहचान ले। इतनी प्रगाढ़ता से जिसने सपना देखा हो, उसे धीरे-धीरे पहचान की कला आ जाती है।
तो इन सूत्रों को तुमने सुना है, बड़े प्रेम से सुना है, बड़े आह्लाद से सुना है, मगर उतने पर बात पूरी नहीं हो जाती, उतने पर शुरू होती है। तो हमने शुरू किया था अथातो जिज्ञासा से कि अब हम जिज्ञासा करें। और मैं चाहूंगा कि हम अंत भी इसी पर करें। क्योंकि अब एक दूसरे तल पर जिज्ञासा होगी, अस्तित्व के तल पर। एक जिज्ञासा होती है बौद्धिक, इंटलेक्चुअल; और एक जिज्ञासा होती है अस्तित्वगत, एक्झिस्टेंशियल। बुद्धि की जिज्ञासा आज पूरी होगी, अब अस्तित्व की जिज्ञासा शुरू करनी होगी।
पहला सूत्र कहता है: ‘अनन्य अर्थात पराभक्ति से बुद्धि के अत्यंत लय होने से तन्मयी बुद्धि का उदय होता है।’
एक-एक शब्द समझना।
अनन्य! जब तक तुम्हारे और अस्तित्व के बीच जरा सा भी द्वेष है, जरा सी भी दुविधा है, जरा सा भी द्वैत है, तब तक तुम जान न सकोगे। क्योंकि जानना अद्वैत में घटता है। जानने का एकमात्र ढंग प्रेम है। प्रेम के बिना कोई जानना नहीं होता। जानकारी होती है, जानना नहीं होता।
ऐसा समझो कि एक वनस्पतिशास्त्री इस बगीचे में आए, वृक्षों को देखे। जरूर बहुत उसकी जानकारी है, वह हर वृक्ष पर लेबल लगा सकता है कि इसका नाम क्या है, किस जाति का है, कितनी उम्र इसकी होती है, कब फूल लगेंगे, कब फल लगेंगे, लगेंगे कि नहीं लगेंगे, कितना ऊंचा जाएगा, यह सब बता सकता है। मगर यह सब जानकारी है। इस वृक्ष के साथ इसकी कोई अनन्य भाव-दशा नहीं है। इसने किताबों में पढ़ा है, यह पहचान लेता है कि जो किताबों में लिखा है वह इसी वृक्ष के बाबत लिखा है, इस वृक्ष के संबंध में दोहरा देता है।
एक कवि आए, एक प्रेमी आए, एक चित्रकार आए, उसके देखने का ढंग और है। वह इस वृक्ष को देखे, वह इस वृक्ष को गले लगा ले, आलिंगन करे। वह इस वृक्ष के साथ मस्त हो जाए। इस वृक्ष की हरियाली में डूब जाए, इस वृक्ष की हरियाली को अपने में आमंत्रित कर ले। वह वृक्ष के पास बैठे, उठे, वह वृक्ष के साथ दोस्ती करे, मैत्री बनाए; कभी सुबह सूरज के ऊगते क्षण में वृक्ष को देखे, कभी सांझ सूरज के डूबते क्षण में वृक्ष को देखे, कभी चांदनी से भरी रात में, कभी तारों से भरी रात में; कभी अंधेरी अमावस में, कभी पूर्णिमा में; कभी वृक्ष मस्त है और कभी वृक्ष उदास है; और कभी वृक्ष आह्लाद में है और कभी वृक्ष बड़े विषाद में है; और कभी वृक्ष पर फूल खिले हैं और कभी वृक्ष के पत्ते भी गिर गए हैं और वृक्ष नंगा खड़ा है। कभी शीत है और कभी गर्मी है। वृक्ष की अनेक-अनेक भाव-भंगिमाओं को पहचाने, अनेक-अनेक मुद्राओं को पहचाने, वृक्ष के साथ मैत्री करे, वृक्ष से बतियाए, बातचीत करे, बोले, संवाद करे, तो एक और ढंग का जानना होता है, जिसको प्रेम के द्वारा जानना कहते हैं।
चीन के एक सम्राट ने एक बहुत बड़े झेन चित्रकार को कहा कि मुझे राजचिह्न के लिए एक मुर्गे की तस्वीर चाहिए। मगर तस्वीर ऐसी हो कि जैसी कभी किसी मुर्गे की न हुई हो। तो तुम यह तस्वीर बना लाओ। प्रसिद्ध चित्रकार था। उसने कहा, कोशिश करूंगा। सम्राट ने कहा, समय कितना लगेगा? उसने कहा कि कम से कम तीन वर्ष तो लग ही जाएंगे। सम्राट ने कहा, पागल हुए हो, एक मुर्गे की तस्वीर! उस चित्रकार ने कहा कि तस्वीर तो सेकेंडों में बन जाएगी, मगर तस्वीर बनाने के पहले मुझे मुर्गा बनना होगा। नहीं तो मैं मुर्गे को भीतर से कैसे पहचानूंगा? बाहर से तो अभी बना दूं। जिंदगी मेरी चित्र बनाते बीती है, अभी बना दूं। लेकिन वे लकीरें ही होंगी, उनमें मुर्गा नहीं होगा। ऊपर की रूपरेखा होगी।
यही तो फर्क है एक फोटोग्राफ में और एक चित्रकार के द्वारा बनाए गए चित्र में। कैमरा ऊपर की रूपरेखा पकड़ता है। बहुत लोग सोचते थे, जब कैमरा बन गया तो अब चित्रकार की कोई जरूरत न रह जाएगी। तुम चकित होओगे, जब से कैमरा बना है तब से चित्रकार की कीमत बहुत बढ़ गई। क्योंकि पहली दफे फर्क साफ हो गया कि कैमरा सिर्फ लकीरें खींचता है, बाहर की रूपरेखा। लेकिन अंतस्तल रह जाता है।
उस चित्रकार ने कहा कि तीन वर्ष तो मुझे लग ही जाएंगे। मुर्गों के साथ रहूंगा, मुर्गा बनूंगा, मुर्गे को भीतर से जानूंगा। जब मुर्गा सुबह बांग देता है, जब तक मैं भी वैसी बांग न दे सकूं, जब तक बांग मेरे भीतर से न उठ सके, तब तक मैं कैसे जानूंगा कि मुर्गे की शान क्या है, गरिमा क्या है, महिमा क्या है?
सम्राट कुछ राजी तो नहीं हुआ, तीन साल बहुत वक्त होता है। लेकिन उसने कहा, अच्छा ठीक है, तीन वर्ष सही!
एक वर्ष बाद उसने अपने आदमी भेजे कि पता लगाओ, उस पागल का क्या हुआ?
वे गए, उन्होंने देखा कि वह जंगल में सरक गया है। खोज-बीन की तो पता चला कि वह जंगली मुर्गों के साथ रह रहा है। वे गए भी तो उस चित्रकार ने उन्हें पहचाना भी नहीं। वह तो वैसे ही मुर्गों के बीच मुर्गा बन कर बैठा था, बांग दे रहा था। उन्होंने लौट कर कहा कि वह आदमी पागल हो गया है, अब आप प्रतीक्षा मत करो। अब वह आएगा नहीं। मुर्गा बनाने को कहा था उसे, वह खुद मुर्गा बन गया है। अब उससे क्या आशा है कि वह चित्र बनाएगा!
लेकिन तीन साल बाद चित्रकार लौटा। आकर उसने सम्राट के सामने ही मुर्गे की तस्वीर बना दी, सेकेंड लगे। कहते हैं, वैसी तस्वीर कभी नहीं बनाई गई। तस्वीर सुरक्षित है अभी भी। और उस तस्वीर की सबसे बड़ी खूबी यह है कि मुर्गे भी उसे पहचान लेते हैं। और कोई तस्वीर तुम रख दो कमरे में, मुर्गा आएगा, ऐसे निकल जाएगा। मुर्गों को तस्वीर से क्या लेना-देना! लेकिन वह जो तस्वीर है, जो तीन साल चित्रकार ने मुर्गा बन कर बनाई है, मुर्गा आता है तो दरवाजे पर ठिठक जाता है। देखता है उसको, जीवंत है--डर भी जाता है, क्योंकि जंगली मुर्गे की तस्वीर है, जैसे अब बांग दी, तब बांग दी, बस अब बांग देने को ही है, जैसे सुबह होने को ही है।
यह एक और ढंग है जानने का। यह अस्तित्वगत ढंग है। जानकारी बाहर से मिल जाती है, जानना भीतर से करना होता है, एक तादात्म्य, एक अनन्यभाव।
परमात्मा को कैसे जानोगे? शांडिल्य कहते हैं: अनन्यभाव से। परमात्मा के साथ एकरूप हो जाना होगा। भक्त को भगवान और अपने बीच जरा सा भी फासला न रखना होगा। न जरा सी लाज, न जरा सा संकोच, न जरा सी लज्जा। मीरा जो कहती है, सब लोकलाज खोई, वह किसलिए? क्योंकि जरा सी ही लोकलाज रह जाए, तो उतना ही अंतराल रह जाता है, उतना ही फासला रह जाता है। प्रेम में हम सब फासले गिरा देते हैं। प्रेम में हम नग्न हो जाते हैं। प्रेम में वस्त्रों की जरूरत नहीं रह जाती। वस्त्र तो उनके लिए हैं जिनसे हमारा फासला है। वस्त्र तो उनके लिए हैं जिनसे हम कुछ छिपाना चाहते हैं। वस्त्र तो उनके लिए हैं जिनके सामने हम पूरे नहीं खुलना चाहते। परमात्मा के सामने तो भक्त को पूरा खुलना होगा, नग्न होना होगा। बुरा-भला जैसा है, सुंदर-कुरूप जैसा है, साधु-असाधु जैसा है, सब खोल कर रख देना है। सारे हृदय को खोल देना है।
सब तरह से अपनी अस्मिता को छोड़ देगा जो, वही अनन्यभाव को उपलब्ध होता है। जब तक अहंकार है, तब तक अनन्यभाव नहीं, तब तक अन्य भाव है।
इस पूरे दर्शन को खयाल से समझ लो।
जब तक मुझे खयाल है कि मैं हूं, तब तक मेरे और परमात्मा के बीच दूरी रहेगी।
जलालुद्दीन रूमी की प्रसिद्ध कविता है! एक प्रेमी ने अपनी प्रेयसी के द्वार पर दस्तक दी। प्रेयसी ने भीतर से पूछा, कौन है? और प्रेमी ने कहा, मैं हूं। क्या मेरे पगचाप तुझे सुनाई नहीं पड़े? क्या मेरे हाथ की दस्तक तू पहचान नहीं पाई? सन्नाटा हो गया भीतर। प्रेमी ने फिर द्वार खटखटाया कि बात क्या है? मैं आया हूं, तेरा प्रेमी। और प्रेयसी ने भीतर से कहा, इस घर में दो के रहने के लिए जगह नहीं। यह प्रेम का घर है, यहां एक ही हो सकता है, दो नहीं हो सकते।
कबीर ने कहा है न--स्मरण करो--प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समाएं। वहां एक ही बन सकता है प्रेम की गली में। वहां दो का उपाय नहीं है, गली बड़ी संकरी है। जीसस का भी प्रसिद्ध वचन है: स्ट्रेट इज़ माई वे, बट इट इज़ नैरो। सीधा है मेरा मार्ग, पर बड़ा संकीर्ण। और ईसाई सदियों से इसकी व्याख्या करते रहे हैं, और अड़चन में रहे हैं, कि संकीर्ण क्यों? उन्हें कबीर का वचन समझ में आ जाए तो जीसस के वचन का अर्थ समझ में आ जाए। संकीर्ण क्यों? सीधा है मेरा मार्ग और संकीर्ण। जीसस यह क्यों कहते हैं कि और संकीर्ण? बस इतने पर ही बात उन्होंने छोड़ दी है, आगे कुछ कहा नहीं।
कबीर के वचन में उसकी व्याख्या है: प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समाएं। संकीर्ण है मार्ग, क्योंकि वहां दो नहीं बन सकते, बस एक ही बन सकता है। एक के ही गुजरने का उपाय है। दो एक साथ नहीं गुजर सकते।
प्रेमी चला गया। वर्ष बीते। उसने अपने मैं को गलाया, फिर लौटा। द्वार पर दस्तक दी। भीतर से फिर वही सवाल: कौन? और इस बार उसने कहा, तू ही है। फिर द्वार खुले।
जिस दिन तुम कह सकोगे समग्र मन से कि तू ही है, उस दिन अनन्यभाव। उस दिन प्रेम का द्वार खुलता है। और प्रेम ही मंदिर है। और प्रेम के मंदिर में जो गया, वही परमात्मा में गया। और सब मंदिर थोथे हैं। और सब मंदिर तुम्हारे बनाए हुए हैं। और सब मंदिर खेल-खिलौने हैं। हिंदू का, मुसलमान का, ईसाई का, जैन का, बौद्ध का--वे सब राजनीतियां हैं, उनका कोई मूल्य नहीं। उनका धर्म की दृष्टि से कोई अर्थ नहीं है। धर्म की दृष्टि से तो एक ही मंदिर है, वह मंदिर प्रेम का है, अनन्यभाव का। फिर तुम कहां बैठ कर उसके साथ एक हो गए, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता--काबा में, कि काशी में, कि कैलाश में। कहां बैठ कर तुमने अनन्यभाव को जगा लिया, कहां बैठ कर तुम उसके साथ डोलने लगे, मस्त हो गए, मदमस्त हो गए, कहां बैठ कर तुमने उसकी शराब पी ली, कहां बैठ कर तुमने अपने को खोल दिया, उसकी धार को बरस जाने दिया, उसके साथ नाच उठे--कोई फर्क नहीं पड़ता। किसी पवित्र स्थल पर जाने की कोई जरूरत नहीं है। जिस जगह अनन्यभाव हो जाएगा, वहीं तीर्थ बन जाते हैं। जिस व्यक्ति का अनन्यभाव हो जाता है, उसके पैर जहां पड़ते हैं, वहां तीर्थ बन जाते हैं। वह जहां बैठता है, वहां मंदिर उठ आते हैं।
अनन्यभाव। मैं अन्य नहीं हूं। तू अन्य नहीं है। मैं तेरी ही तरंग; मैं तेरा ही पत्ता, तू मेरा वृक्ष; मैं तेरी लहर, तू मेरा सागर; मैं तेरी एक अभिव्यक्ति, एक भाव-भंगिमा, एक मुद्रा। अनन्यभाव हो जाए तो बुद्धि अत्यंत लय हो जाती है। और तब तन्मयी बुद्धि का जन्म होता है।
जब तक तुम सोचते हो मैं अलग हूं, तब तक एक अहंकारी बुद्धि है। यह अहंकार ही तुम्हारी बुद्धि को छोटा बनाए हुए है। अन्यथा तुम्हारे पास जो बुद्धि है, वह उतनी ही विराट है जितनी परमात्मा की बुद्धि। तुम्हारे भीतर जो प्रतिभा है, वह परमात्मा की प्रतिभा है। लेकिन तुमने उसे बड़ा छोटा बना रखा है। तुमने उस पर बड़ी बागुड़ लगा दी है। तुमने बड़ी दीवाल उठा दी है। तुम दीवाल पर दीवाल उठाने में कुशल हो गए हो। हिंदू की दीवाल, मुसलमान की दीवाल, ब्राह्मण की दीवाल, शूद्र की दीवाल, और दीवाल पर दीवाल हैं। दीवालें ही उठाते गए हो। तुम कितनी हजारों दीवालों के पीछे दब गए हो! कितने सिकुड़ गए हो! फैलो! मगर फैलाव उसके साथ है। अहंकार तो छोटा ही होगा।
ब्रह्म शब्द का अर्थ जानते हो? ब्रह्म शब्द का अर्थ है: जो विस्तीर्ण है, जो फैला हुआ है। विस्तार शब्द भी, ब्रह्म जिस धातु से आता है, उसी से आता है। इसीलिए तो हम इस विश्व को ब्रह्मांड कहते हैं--जो फैला हुआ है। यह फैलता ही चला गया है। और यह हमारे रहस्यवादियों की जो अनुभूति थी, आधुनिक भौतिकशास्त्र इसके साथ सहानुभूति में है। पांच हजार साल पहले रहस्यवादी संतों ने कहा था: यह ब्रह्मांड है। अर्थात यह फैलता हुआ विश्व है। और अभी इस सदी में अलबर्ट आइंस्टीन ने सिद्ध किया कि यह जगत जो है, थिर नहीं है। दिस इज़ एन एक्सपैंडिंग यूनिवर्स। यह फैलता हुआ जगत है। यह रोज फैल रहा है, बड़ी गति से फैल रहा है। यहां सब चीज फैल रही हैं। बीज वृक्ष हो रहे हैं। बूंद सागर बन रही है। इस फैलते हुए जगत में तुम यह छोटा सा क्षुद्र अहंकार लिए बैठे हो! वही तुम्हारी अड़चन है, वही तुम्हारा नरक, वही तुम्हारी पीड़ा, वही तुम्हारा बंधन। उसी में तुम जकड़े हो।
तोड़ दो ये जंजीरें। और ये जंजीरें सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं दे रही हैं। इनके तोड़ते ही तुम अचानक पाओगे, तुम्हारे भीतर प्रतिभा जन्मी। ऐसी प्रतिभा जो परमात्मा की प्रतिभा है। फिर तुम पर कोई सीमा नहीं है। और मैं तुम्हें तभी ब्राह्मण कहूंगा, जब तुम पर कोई सीमा न रह जाए। ब्राह्मण का अर्थ भी वही होता है, जिसने ब्रह्म को जाना। बुद्ध ने कहा है कि जो ब्राह्मण के घर में पैदा हुआ, उसको मैं ब्राह्मण नहीं कहता हूं। मैं उसे ब्राह्मण कहता हूं जो ब्रह्म को जाना।
ठीक परिभाषा की है।
किसी घर में पैदा होने से कोई कैसे ब्राह्मण होता है! पैदा तो सभी शूद्र की तरह होते हैं--ब्राह्मण भी। पैदा तो सभी शूद्र की तरह होते हैं। शूद्र का अर्थ होता है: क्षुद्र, सीमित, संकीर्ण। अहंकार शूद्रता की जड़ है। जो भी अहंकारी है, वह शूद्र है। और जो निर-अहंकारी है, वह ब्राह्मण है। निर-अहंकार अनन्यभाव है। अनन्यभाव में ब्राह्मणत्व है। तब तन्मयी बुद्धि पैदा होती है।
क्या है तन्मयी बुद्धि?
तन्मयी बुद्धि का अर्थ होता है: अब मेरी बुद्धि तो गई, अब उसकी बुद्धि मेरे भीतर काम करना शुरू कर दी। जब बुद्ध बोलते हैं तो बुद्ध थोड़े ही बोलते हैं, ब्रह्म बोलता है। इसलिए तो हमने वेदों को अपौरुषेय कहा है--पुरुष ने उन्हें नहीं रचा। पुरुष के द्वारा रचे गए हैं, लेकिन पुरुष उनका रचयिता नहीं है, सिर्फ लेखक है, माध्यम है।
इसलिए तो कुरान को हम इलहाम कहते हैं। उतरा। मोहम्मद पर उतरा, तो मोहम्मद माध्यम हैं, मीडियम हैं। मगर उतरा किसी अज्ञात लोक से। मोहम्मद ने सिर्फ हम तक उसे पहुंचा दिया। इसलिए मुसलमान मोहम्मद को पैगंबर कहते हैं--पैगाम पहुंचाने वाला; संदेशवाहक; पोस्टमैन। चिट्ठी परमात्मा की लिखी हुई है, पाती उसके घर से आई है, मोहम्मद उस पाती को हम तक पहुंचा दिए हैं, सिर्फ माध्यम हैं। जैसे बांसुरी से कोई ने गाया। बांसुरी नहीं गाती--बांसुरी क्या गाएगी? बांसुरी तो बस पोला बांस है, उसमें कहां गान, कहां गीत? बांसुरी तो जड़ है। लेकिन किसी के ओंठों पर रख जाती है, बस फिर उससे गीत बहने लगता है।
ऐसे ही वेद के ऋषि हैं, ऐसे ही कुरान है, ऐसे ही बाइबिल है, ऐसे ही दुनिया के सारे अपूर्व धर्मशास्त्र हैं। बांस की पोंगरी। उनमें से परमात्मा बोला है।
तन्मयी बुद्धि का अर्थ होता है: तुम गए, परमात्मा प्रविष्ट हुआ। तुमने जगह खाली कर दी। अहंकार से भरी बुद्धि विदा हो गई, अब विराट बुद्धि का अवतरण हुआ। तुमने अपने आंगन के चारों तरफ जो दीवाल खींच दी थी, वह गिरा दी। अब तुम्हारा आंगन आकाश हो गया। तन्मयी बुद्धि का वही अर्थ है: आंगन को आकाश बना लेना है। और आंगन आकाश है, मगर तुमने एक छोटी सी दीवाल खींच रखी है। तुमने कुछ ईंट-पत्थर जोड़ कर एक दीवाल बना दी है। तुमने आकाश को खंड में तोड़ लिया है--जरा सा कर दिया, छोटा कर दिया। इतना विराट आकाश तुम्हारा हो सकता था।
स्वामी रामतीर्थ जब अमरीका गए, उनकी मस्ती लोगों की समझ में न आई। अपूर्व थी उनकी मस्ती--एक फकीर की मस्ती! पश्चिम से फकीर खो गया है। यहां भी खोता जा रहा है। क्योंकि मस्ती ही खोती जा रही है, क्योंकि तन्मयी बुद्धि खोती जा रही है। बांस की पोंगरियां रह गई हैं, गीत तो दिखाई नहीं पड़ता। रामतीर्थ की बांस की पोंगरी बांस की पोंगरी नहीं थी, बांसुरी थी, वेणु थी। उसमें से गीत उतर रहा था। जो भी उनके पास आते, देखते कि कुछ हो रहा है, कुछ घट रहा है--कुछ ऊर्जा, कुछ आभा! अंधों को भी दिखाई पड़ जाती। और बहरों को भी कुछ सुनाई पड़ जाती। और जो उनके पास आने की हिम्मत कर लेते, उनको थोड़ा रस भी लग जाता।
पूछा लोगों ने उनसे कि आपके पास कुछ दिखाई नहीं पड़ता, फिर आप इतने मस्त क्यों हैं? क्योंकि अमरीका तो एक ही भाषा समझता है--क्या तुम्हारे पास है? वही भाषा है। धन है तुम्हारे पास, तो तुम मस्त होने के अधिकारी हो। बड़ा मकान है, बड़ा पद है, प्रतिष्ठा है, तो तुम मस्त होने के अधिकारी हो। इस आदमी के पास कुछ भी नहीं है। ऐसा आदमी तो आत्महत्या कर लेता है। इतनी मस्ती किस कारण? तुम्हारे पास कुछ नहीं--मकान नहीं, पत्नी नहीं, धन-दौलत नहीं, कुछ भी नहीं--तुम मस्त क्यों हो रहे हो?
रामतीर्थ ने कहा, जो मेरे पास था, बहुत छोटा था। छोटे के कारण मैंने उसे छोड़ दिया। एक आंगन क्या छोड़ा, पूरा आकाश मेरा हो गया। एक घर क्या छोड़ा, सारे घर मेरे हो गए। इधर छोड़ना था कि उधर साम्राज्य हो गया मेरा। तब से मैं बादशाह हो गया हूं। लोग कहते हैं फकीर, और मैं हंसता हूं, क्योंकि मैं तब से बादशाह हो गया हूं।
वे अपने को बादशाह राम कहते थे। उनकी बड़ी प्रसिद्ध किताब है: बादशाह राम के छह हुक्मनामे। बादशाह ही हुक्मनामे लिख सकता है। आज्ञाएं! थे भी बादशाह!
हर एक बादशाह होने को पैदा हुआ है, मगर फकीर, भिखमंगा रह कर हम मर जाते हैं। मांगते-मांगते ही जिंदगी चुक जाती है। तन्मयी बुद्धि हो जाए, तो बादशाहत मिल जाती है। तुम्हारी बुद्धि तुम्हारी दरिद्रता है। तुम दरिद्र ही रहोगे, याद रखना! तुम्हारे पास कितना ही धन हो, और कितना ही पद हो, और कितनी ही प्रतिष्ठा हो, तुम दरिद्र ही रहोगे। तुम्हारे होने में दरिद्रता छिपी है। तुम दरिद्रता का मूल कारण हो, मूल जड़ हो। तुम जाओ, तुम विदा हो जाओ। तुम अपने को नमस्कार कर लो। तुम अपने से हाथ जोड़ लो। जाओ नदी में सिरा दो अपने को, जैसे कभी-कभी तुम गणेशजी को सिरा आते हो। उस सिराने से कुछ भी न होगा। ये जो भीतर गणेशजी बैठे हैं--सूंड़ अहंकार की--इनको सिरा आओ। और उसी दिन तुम पाओगे: तन्मयी बुद्धि का जन्म हुआ। आकाश मिला, विराट मिला, जिसकी कोई सीमा नहीं--अनंत और असीम।
‘अनन्य अर्थात पराभक्ति से बुद्धि के अत्यंत लय होने से तन्मयी बुद्धि का जन्म होता है।’
और तन्मयी बुद्धि यानी बुद्धत्व।
कृष्ण का आश्वासन है गीता में:
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेकं ये प्रपद्यंते मायामेतां तरंति ते।।
‘मेरी माया में बंधे हो तुम, किंतु मुझमें शरण लेते ही, अनन्य भक्ति के जन्मते ही माया से मुक्त हो जाओगे।’
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
तुम मेरी माया की शक्ति में उलझ गए हो। तुमने मुझे देखा ही नहीं। तुम मेरे सेवकों में उलझ गए हो। तुमने मालिक नहीं देखा। तुम्हारी हालत ऐसी है जैसे तुम राजमहल गए और द्वारपाल को ही सम्राट समझ कर उसके पैर पकड़ लिए। द्वारपाल भी शानदार होता है, गर्वीला होता है, हाथ में उसके तलवार होती है, सुंदर उसकी वेशभूषा होती है, चमकदार बटन होते हैं उसके कोट पर, पालिश किए हुए जूते होते हैं--उसकी अकड़ देखते बनती है। सच तो यह है कि जमाना कुछ ऐसा बदला कि सम्राट तो सीधे-सादे वेशभूषा में रहने लगे हैं, द्वारपाल के पास ही चमकदार वेशभूषाएं रह गई हैं। अब सम्राट इतने बुद्धू नहीं हैं। अब तो द्वारपाल ही चमकदार बटनें लगाता है। मगर तुम एकदम झुक जाओगे। तुम उसके पैर पकड़ लोगे। और शायद समझोगे यही सम्राट है। तो तुम चूक गए। तो तुम दरवाजे पर ही अटक गए। इस जगत में तुमने अगर कोई भी चीज पकड़ ली है--धन, पद, प्रतिष्ठा--तो तुम द्वारपालों में उलझ गए।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
तुम मेरी दुष्परिहार्य माया में उलझ गए हो। तुमने मुझे देखा ही नहीं। जो मेरी शरण आ जाता है।
मामेकं ये प्रपद्यंते मायामेतां तरंति ते।।
वह इस माया से तर जाता है। तुम जरा मेरी तरफ देखो, कृष्ण कहते हैं। मालिक की तरफ देखो।
तुम उसकी साधारण शक्तियों में उलझ गए हो। शक्तियों के मूलस्रोत की तरफ देखो। उसकी शरण आ जाओ। तुम ऐश्वर्य में उलझ गए हो, ईश्वर की तरफ देखो, जो सारे ऐश्वर्य का मूलस्रोत है। उसके चरणों में गिर जाओ। उसके चरण में गिर जाने का नाम अनन्यभक्ति।
लेकिन हम क्षुद्र में उलझे हैं। हमारा प्रेम भी देह में उलझा है। हमारा प्रेम भी नाक-नक्शों में उलझा है। हमारा प्रेम भी बड़ा दयनीय है। मगर हम वहीं अपना गुणगान किए रहते हैं। सुनो--
अब तो नाकामी ही तकदीर बनी जाती है
जिंदगी दर्द की तसवीर बनी जाती है
तेरा मिलना ही था मेराजे-मोहब्बत लेकिन
तुझसे दूरी मेरी तकदीर बनी जाती है

है करिश्मा यह अनोखा शबे-महजूरी का
तीरगी सुबह की तनवीर बनी जाती है
राहें मसदूद हैं, महदूद है दुनिया मेरी
जिंदगी हल्काए-जंजीर बनी जाती है

महफिले-हुस्न की थी जहन में हलकी सी झलक
वही फिरदौस की तस्वीर बनी जाती है
कौन-सा राज है दिल का जो नहीं उन पे अयां
खामोशी ही मेरी तकरीर बनी जाती है

आह की बे-असरी का भी मुझे होश नहीं
बे-खुदी जल्वाए-तासीर बनी जाती है
राजे-गम कैसे छुपाऊं कि खामोशी भी मेरी
मेरे एहसास की तफसीर बनी जाती है
साधारण प्रेम का लोग इतना गुणगान करते हैं कि उतना गुणगान अगर परमात्मा का करें, तो सब मिल जाए। कोई किसी की आंखों का दीवाना हो गया है, कोई किसी के नाक-नक्श का, कोई किसी के बालों के ढंग का, कोई किसी के बोलने की शैली का, कोई किसी की आवाज का, कोई किसी के चलने का, उठने का, बैठने का, कोई किसी के रंग का। तुम्हारी दीवानगी भी बड़ी अजीब है! तुम बड़ी छोटी बातों में उलझ जाते हो। और नाक कितनी ही सुंदर हो और ओंठ कितने ही रस भरे मालूम होते हों, सब मिट्टी है, और सब मिट्टी में ही गिरेगा और मिल जाएगा। सब मिट्टी से ही उठा है और सब मिट्टी में गिर जाने वाला है। और इस सारी मिट्टी के खेल के बीच परमात्मा भी छिपा है, मगर तुम बाहर-बाहर ही भटक जाते हो। तुम द्वारपाल में ही उलझ जाते हो।
तुमने जब किसी सुंदर स्त्री के मोह में अपने को बंधा पाया या सुंदर पुरुष के मोह में बंधा पाया, तब तुमने याद भी किया है कि तुमने उसके भीतर छिपे परमात्मा को देखा या नहीं? फिर अगर तुम दुखी होते हो तो आश्चर्य नहीं है। और अगर तुम्हारा प्रेम जंजीरें ढाल देता है तुम्हारे लिए तो आश्चर्य नहीं है। और अगर तुम्हारा प्रेम तुम्हारे लिए दुख के न मालूम कितने-कितने उपाय ले आता है तो आश्चर्य नहीं है! मूल भूल हो गई। तुमने मालिक को नहीं पहचाना। तुम केवल मालिक के कपड़ों से उलझ गए। परमात्मा का यह सारा जगत उसके वस्त्र हैं, उसकी अभिव्यक्ति है। तुम इसी में मत खो जाना। यह अभिव्यक्ति सुंदर है, मगर उसके मुकाबले क्या जो इसका मालिक है!
सूफी फकीर स्त्री राबिया अपने झोपड़े में बैठी सुबह ध्यान करती थी। मस्त थी! होगी अनन्यभक्ति में। जगी होगी तन्मयी बुद्धि। उसके घर एक फकीर और ठहरा हुआ था--हसन नाम का फकीर। वह उठा, वह बाहर आया। सूरज निकलता था, सूरज की लाली पूरब पर फैली थी, पक्षी उड़ते थे, गीत गाते थे, वृक्ष जाग रहे थे; सुंदर सुबह थी, सुहानी सुबह थी, बड़ी मदमाती सुबह थी। हसन ने जोर से पुकारा कि राबिया, तू भीतर कोठरी में बैठी क्या करती है? बाहर आ! बड़ी सुंदर सुबह पैदा हो रही है। बड़ा प्यारा सूरज निकल रहा है। पक्षी गीत गा रहे हैं, वृक्ष जागे हैं, फूल खिले हैं। हवाओं में बड़ी मदमाती गंध है। तू बाहर आ! हसन ने सोचा भी नहीं था, राबिया तो बाहर न आई, भीतर से खिलखिलाने की आवाज आई। और राबिया ने कहा, हसन, तुम कब तक बाहर भटकते रहोगे? सुबह सुंदर है, मगर मैं सुबह बनाने वाले को भीतर देख रही हूं; तुम्हीं भीतर आ जाओ। बाहर सुंदर होगा, जरूर सुंदर है--क्योंकि जिसने बनाया वह सुंदर है। मूर्ति जब इतनी सुंदर है तो मूर्तिकार कितना सुंदर न होगा! फूल जब इतने सुंदर हैं तो वह चितेरा कितना सुंदर न होगा जिसने फूल रचे! चांद-तारे जब इतने सुंदर हैं तो जरा हस्ताक्षर तो खोजो, किसके हस्ताक्षर हैं इनके ऊपर? उस मालिक की तलाश करो।
माया में मत उलझो, जागो! माया के भीतर कौन खड़ा है? इस जादू में मत पड़ जाओ, जादूगर को तलाशो। मगर नहीं, हम उलझे ही रहते हैं। एक आशा टूटती है, हम दूसरी बना लेते हैं। उम्मीद पर उम्मीद जन्माते चले जाते हैं।
शमएं बुझीं, फलक से सितारे चले गए
उनसे बिछुड़ के सारे सहारे चले गए
मौजे-बलाओ-शोरिशे-तूफां का क्या गिला
पास आके और दूर किनारे चले गए
कैसी बहार, कैसा चमन और कहां के फूल
तुम क्या गए ये सारे नजारे चले गए
तुम यूं गए कि मुड़के भी देखा न एक बार
हम अश्कबार तुमको पुकारे चले गए
मामूर कर दिया था जिन्हें तुमने हुस्न से
रातें गईं, वो चांद-सितारे चले गए
बे-आसरा खुदा न करे यूं भी कोई हो
एक-एक करके सारे सहारे चले गए
‘नुद्रत’ कभी तो आएगा दौरे-बहार भी
इस आरजू में वक्त गुजारे चले गए
बस लोग गुजार रहे हैं वक्त इसी आरजू में कि आता ही होगा वह क्षण तृप्ति का, आनंद का। इस स्त्री से नहीं मिला, किसी और स्त्री से मिलेगा। इस पद पर नहीं मिला, किसी और पद पर मिलेगा। इस गांव में नहीं तो किसी और गांव में, इस घर में नहीं तो किसी और घर में--मिलेगा जरूर।
‘नुद्रत’ कभी तो आएगा दौरे-बहार भी
बसंत कभी तो आएगी।
इस आरजू में वक्त गुजारे चले गए
इसी उम्मीद में, इसी आशा में लोग समय गुजार रहे हैं। मौत आती है, और कुछ भी नहीं आता। आखिर हाथ में मिट्टी आती है, और कुछ भी नहीं आता। सभी अंततः कब्रों में गिर जाते हैं। हम जिंदगी भर अपनी कब्र खुद ही खोदते हैं। और अगर हमने मालिक को देखा होता तो सारी बात बदल जाती।
अनन्य भक्ति से बुद्धि का आत्यंतिक लय हो जाता है। और बुद्धि के आत्यंतिक लय से परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है। भक्त उसी साक्षात्कार को मोक्ष कहते हैं। वही निर्वाण है। मैं का मिट जाना निर्वाण है। परमात्मा परिपूर्ण रूप से तुम्हारे भीतर रह जाए और तुम न रहो, तुम सारी तरह से हट जाओ, तुम्हारी छाया भी न बचे--वही मोक्ष है।
आयुः चिरम्‌ इतरेषां तु हानिः अनास्पदत्वात्‌।
‘साधारण जीवों की आयु प्रारब्ध भोग करने के अर्थ ही है, परंतु भक्तों की आयु भोग के कारण न होने से उनके संचित कर्म आप ही नष्ट हो जाते हैं।’
दूसरा सूत्र। महत्वपूर्ण सवाल है और अंत में उठाने जैसा भी है। जब कोई भक्त अनन्यभाव को उपलब्ध हो जाता है, तन्मयी बुद्धि का जन्म हो जाता है--तो शांडिल्य से पूछा होगा किसी शिष्य ने, उसी के उत्तर में कह रहे हैं--फिर भी शरीर में रहता क्यों है? क्योंकि शरीर तो है ही इसीलिए कि हमारी वासनाएं हैं। शरीर तो है ही इसीलिए कि हमारा अहंकार है। बुद्ध को ज्ञान हुआ, उसके बाद भी चालीस वर्ष शरीर में रहे, क्यों रहे? यह भी प्रश्न उठता रहा है। हम शरीर में इसलिए हैं कि हमारी वासनाएं हैं। हम शरीर में इसलिए हैं कि हमने क्षुद्र के साथ अपना संबंध बनाया है। लेकिन जिसका क्षुद्र से संबंध टूट गया, उसका शरीर से संबंध क्यों नहीं टूट जाता? वह विराट में लीन क्यों नहीं हो जाता है? फिर रुका क्यों रहता है? फिर कौन सी बात रोकती है? सब वासना गई, अहंकार गया, अपनी बुद्धि गई; आंगन आकाश हो गया, बूंद सागर हो गई, व्यक्ति समष्टि हो गया; फिर अब कौन उसे रोके हुए है? भक्त फिर क्यों जीता है? फिर भक्त जीवन-मुक्त की तरह कुछ देर रुकता है--कुछ वर्ष रुक सकता है--यह कैसे होता होगा?
शांडिल्य कहते हैं: साधारणतः हम शरीर में इसीलिए होते हैं कि हमारी वासनाएं हैं। वासना के कारण ही जन्म है। वासना न हो तो शरीर में होने का कोई कारण नहीं। लेकिन भक्त जब अनन्य बुद्धि को उपलब्ध होता है, तो उसके सारे कर्म क्षय हो जाते हैं, उसका अहंकार समाप्त हो जाता है, लेकिन उसकी शरीर की आयु तो इस अनन्यभाव के पहले ही निर्धारित हो चुकी थी। जिस दिन तुम पैदा हुए, उस दिन तुम्हारे शरीर की आयु निर्धारित हो गई। इस निर्धारण का अर्थ इतना ही होता है, तुम्हारी मां, तुम्हारे पिता, उनके बीजाणु, उनके माध्यम से तुम्हें जो शरीर मिला है, उसकी उम्र तय हो गई कि तुम सत्तर साल जीओगे, कि अस्सी साल जीओगे! फिर समझो चालीस साल की उम्र में या तीस साल की उम्र में या पचास साल की उम्र में तुम ज्ञान को उपलब्ध हो गए। तुम्हारे सारे कर्म झड़ गए। शरीर में रहने का कोई कारण न रह गया। लेकिन शरीर की अपनी उम्र है। शरीर की उम्र समाप्त नहीं होती अनन्य बुद्धि से, अनन्यभाव से। शरीर का उससे कोई संबंध नहीं है।
तुम ऐसा ही समझो कि तुम साइकिल चला रहे हो। तुम पैडल मारते आ रहे हो कई मीलों से। फिर तुम्हारी इच्छा चली गई कि अब साइकिल नहीं चलानी है। तुमने पैडल मारने बंद कर दिए। लेकिन साइकिल पुराने मोमेंटम के कारण थोड़ी दूर चली जाएगी। और अगर उतार होगा तो काफी दूर भी जा सकती है। चढ़ाव होगा तो शायद उतनी दूर न जा सके, उतार होगा तो ज्यादा दूर जा सकती है। लेकिन इतना तो तय है कि पैडल न मारते ही साइकिल नहीं रुकती। क्योंकि इतने जन्मों तक तुमने जो पैडल मारे हैं, उनकी एक अपनी ऊर्जा पैदा हो गई है। वह ऊर्जा साइकिल को कुछ देर तक खींचे ले जाएगी।
भक्त भी परमात्मा में पूरी तरह लीन होकर थोड़े दिन, थोड़े वर्षों शरीर में रुका रह जाता है। अब शरीर में रहता नहीं, अब शरीर में अपने को सीमित नहीं मानता, अब शरीर उसका अंत नहीं है, लेकिन फिर भी शरीर में होता है। भाव-दशा बदल गई, मैं-भाव न रहा। सच तो यह है कि अब यह शरीर मेरा है, यह भाव भी नहीं है। अब तो शरीर में परमात्मा ही रहता है।
एक बड़ी प्यारी घटना है। रामकृष्ण की किसी ने तस्वीर उतारी। और जब तस्वीर बन कर आई और रामकृष्ण के सामने रखी गई तो रामकृष्ण उस तस्वीर के पैर पड़ने लगे। उन्हीं की तस्वीर थी! उसे सिर से लगाने लगे। जो उनके विरोधी थे उन्होंने तो कहा कि हम जानते हैं कि यह आदमी पागल है। अपनी तस्वीर कोई सिर से लगाता है! अपने पैर कोई छूता है! जो उनके शिष्य थे उनको भी जरा पीड़ा हुई कि यह हमारा गुरु क्या कर रहा है? लोग क्या कहेंगे? किसी शिष्य ने कहा कि परमहंस देव, आप यह क्या कर रहे हैं, होश में हैं? यह आपकी ही तस्वीर है, इसके आप पैर छू रहे हैं! अपने पैर खुद छू रहे हैं!
रामकृष्ण ने कहा, अरे भली याद दिलाई! मैं तो भूल ही गया था कि यह मेरी तस्वीर है। क्योंकि अब तो उसकी ही तस्वीर सब तस्वीरों में है। मैं तो उसके ही चरण छू रहा था। मैं तो हूं कहां? अब तो जो भी है, वही है। और फिर यह बड़ी परम समाधि अवस्था की तस्वीर है, मैं तो बड़ा तल्लीन हो गया था। यह तस्वीर किसी की भी हो, मगर है समाधि की, अनन्यभाव की, तन्मयी बुद्धि की; मैं तो उसी तन्मयी बुद्धि को नमस्कार करने लगा।
ठीक कहते हैं रामकृष्ण।
अष्टावक्र ने कहा है कि जब कोई परम अनुभूति को उपलब्ध होता है तो बारंबार स्वयं को ही नमस्कार करता है।
क्यों स्वयं को नमस्कार करेगा? विक्षिप्तता है क्या यह? लेकिन स्वयं रहा नहीं है। अब तो सब जगह परमात्मा है, अपने भीतर भी। इसलिए भक्त अपनी देह को भी बड़ा सम्मान करता है। और अगर तुम्हारी भक्ति के अंत में देह का सम्मान न आए, अपमान आ जाए, तो समझना कहीं भूल हो गई, कहीं चूक हो गई। भक्त तो अपनी देह को भी परमात्मा की ही देह मानता है। यह उसी का मंदिर है। इस देह को सताता नहीं। इसलिए भक्तों ने देह को सताया नहीं है। और जिन्होंने देह को सताया है, वे विक्षिप्त हैं, वे रुग्ण हैं, मनोरोग से ग्रस्त हैं।
जिसने सबके भीतर परमात्मा को देख लिया, क्या बस अपने भीतर नहीं देखेगा, और सबके भीतर देख लेगा? जिसने सबके भीतर देख लिया, उसने अपने भीतर भी देख लिया। वस्तुतः जिसने अपने भीतर देखा, उसी ने सबके भीतर देखा। पहले तो अपने भीतर ही देखना घटता है।
फिर जब तक शरीर की आयु है, तब तक शरीर चलता चला जाता है।
तुम्हें याद नहीं है कि तुम कितने जन्मों से शरीर की वासना करते रहे हो। उस वासना ने बड़ा मोमेंटम, बड़ी शक्ति संगृहीत कर ली है। तुम भूल ही गए हो। इसलिए जब ज्ञान को उपलब्ध होओगे तब भी कुछ वर्षों तक जीवन-मुक्त की दशा रहेगी। फिर परम मुक्ति। फिर देह विसर्जित हो जाएगी। फिर दुबारा देह में आना नहीं है। स्मरण तुम्हें नहीं है, यह सच है।
मैंने सुना है, पति-पत्नी को लड़ते-झगड़ते घंटों गुजर गए थे। तो एक महाशय ने उनसे जाकर पूछा, आखिर आपके झगड़े का कारण क्या है? पतिदेव ने अपनी पत्नी की तरफ इशारा करते हुए झल्ला कर कहा, यह तो देवी जी से ही पूछ लीजिए। देवी जी ने छाती पीट ली और कहा, तीन घंटे से अधिक हो गए हैं झगड़ते हुए, इतनी देर तक क्या मुझे याद रहेगा कि क्यों लड़ रही थी?
तीन घंटे पहले जो लड़ाई शुरू हुई थी--और लड़ाई अक्सर व्यर्थ बातों पर शुरू होती है। याद रखने योग्य बातें भी कहां होती हैं? बताने योग्य भी कहां होती हैं? मेरे पास पति-पत्नी कभी झगड़ कर आ जाते हैं--अक्सर रोज ही कोई आ जाता है। तो मैं पूछता हूं, कारण क्या? तो वे एक-दूसरे की तरफ देखते हैं, क्योंकि कारण जो बताए वह बुद्धू मालूम होता है! कारण इतने क्षुद्र हैं, कारण जैसा कुछ है नहीं! शायद लड़ना था, यही कारण है; बाकी तो कोई भी बहाना खोज लिया है। बिना लड़े नहीं चलता है। लड़ने की एक सुगबुगाहट है। लड़ने की एक खुजलाहट है। बिना लड़े मजा नहीं आता है। बिना लड़े अपनी ताकत का पता नहीं चलता। पति-पत्नी तौलते रहते हैं, कौन ज्यादा ताकत में है! बहाना कोई भी होता है फिर--कि चाय जरा ठंडी थी, कि रोटी जरा जल गई थी, कि तुम इतनी देर से घर क्यों आए, कि दफ्तर में काम नहीं था, मैंने फोन करके पूछा था, कि दफ्तर में तुम थे भी नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक सांझ अपने घर आया। रोज आता था तो यही झगड़ा होता था। कुछ भी बहाना बताए, उसकी पत्नी कहती थी--तुम जरूर किसी स्त्री के पीछे पड़े हो। आज सोच कर आया कि अब झगड़े का कारण समाप्त ही कर दूंगा, मैं खुद ही कह दूंगा। आते से ही उसने कहा कि भई, इसके पहले कि तू कुछ शुरू करे, मैं रास्ते पर जा रहा था, एक स्त्री ने इशारा किया। सुंदर स्त्री थी। अब तू तो मुझे जानती ही है कि मेरी नजर तो खराब, मैं उसके पीछे हो लिया। उसकी पत्नी ने कहा कि बंद करो यह बकवास! तुम सरासर झूठ बोल रहे हो। मैं पता कर ली हूं सब कि तुम जुआघर से आ रहे हो, जुआ खेल कर आ रहे हो।
झगड़ा इस पर शुरू हुआ। अगर वह खुद ही कह रहा है कि किसी स्त्री के पीछे चला गया था, अब वह झगड़े की बात ही न रही, उसमें कोई सार ही न रहा। वह बेकार हो गई बात। जुआघर से आ रहे हो।
मैंने यह भी सुना है कि उसकी पत्नी रोज उसके कपड़े देखती है, उसमें खोजती है, एकाध बाल मिल जाए--जो कि मिल ही जाता है--तो बस झगड़ा शुरू हो जाता है: कि तुम किस स्त्री के पीछे पड़े हो? यह किस स्त्री का बाल है? एक दिन वह घर आया और उसने सब तरह से बाहर घंटे भर खड़े होकर सब कपड़े झाड़े, पोंछे, बिलकुल साफ-सुथरा होकर आया। पत्नी को कोई बाल न मिला, वह एकदम छाती पीट कर रोने लगी कि यह तो हद्द हो गई, पत्नी ने कहा, कि अब तुम गंजी स्त्रियों के पीछे भी जाने लगे!
बहाना कोई न कोई चाहिए। अब गंजी स्त्रियां साधारणतः होतीं नहीं, बहुत मुश्किल मामला है गंजी स्त्री खोजना। मगर खोजो तो मिल ही सकती है! हर चीज मिल सकती है खोजने से। गंजी स्त्री भी मिल सकती है। गंजी स्त्री के प्रेम में कौन पड़ेगा, यह भी जरा सोचने जैसा है! मगर यह सवाल नहीं है। बहाना कोई भी, निमित्त कोई भी, झगड़ा उठ आना चाहिए।
आदमी जन्मों-जन्मों से ऐसी क्षुद्र बातों से उलझा रहा है कि उसे याद भी नहीं रहा है कि कहां-कहां हमने क्षुद्रता को कितना मूल्य देकर बहुमूल्य बना दिया है। देह को हमने इतना चाहा है! हमारे सारे सुख देह के सुख हैं, इसलिए हमने देह को चाहा है। जिसको भोजन में सुख है, बिना देह के भोजन का सुख तो नहीं मिल सकता। जिसको अच्छे सुंदर वस्त्र पहनने का सुख है, बिना देह के वस्त्र तो नहीं पहने जा सकते। जिसको रूप का सुख है, बिना आंख के रूप तो नहीं हो सकता। जिसे स्वर का सुख है, बिना कान के स्वर तो नहीं हो सकता। हमारे सारे सुख पांच इंद्रियों पर निर्भर हैं और पांचों इंद्रियां शरीर से जुड़ी हैं। इसलिए हमने जन्मों-जन्मों से कोई भी सुख चाहा हो, शरीर को चाहा है। शरीर बना रहे, इसकी चेष्टा की है, आकांक्षा की है। और जो हमने आकांक्षा की है, वह पूरी हो जाती है। जानने वाले इसलिए कहते हैं: आकांक्षा बहुत सोच कर करना, क्योंकि खतरा है, कहीं पूरी न हो जाए!
तो जन्मों-जन्मों तक हमने शरीर को पैडल मारा है। फिर एक दिन क्रांति का क्षण आता है, सारे जीवन का विषाद सघन होते-होते, होते-होते एक ऐसी घड़ी आ जाती है जब फल पक जाता है और गिर जाता है, और हमें दिखाई पड़ता है--यह सब व्यर्थ था। एक क्षण में अहंकार टूटता है और हम अनन्यभाव को उपलब्ध हो जाते हैं। उस भाव-दशा में भी शरीर चलता रहेगा। शरीर को खबर जरा देर से लगती है। खबर लगते ही लगती है। शरीर बड़ा स्थूल है। उसकी बुद्धि भी बहुत बुद्धि नहीं है। बड़ी स्थूल और बड़ी अविकसित बुद्धि है शरीर के पास। उस तक खबर आते-आते वर्षों लग जाएंगे। और उतनी देर भक्त जीवित रहता है। लेकिन अब जीवन की चर्या और होती है। इस चर्या को ही ब्रह्मचर्य कहा है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है: ईश्वर जैसी चर्या। अब वह ईश्वर होकर जीता है। अब भक्त नहीं रह जाता, अब भगवान होकर जीता है।
संसृतिः एषाम्‌ अभक्तिः स्यात्‌ न अज्ञानात्‌ कारणसिद्धेः।
‘जीव अज्ञान के कारण संसार-बंधन में पड़ा है, यह धारणा ठीक नहीं है, क्योंकि इस कारण का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। जीव का संसार-बंधन भक्तिहीनता के कारण ही है।’
यह सूत्र अपूर्व है! अति बहुमूल्य है! खूब गहरे में ग्रहण करने योग्य है। बार-बार मनन करने योग्य, बार-बार सेवन और भजन करने योग्य है। इसे समझ लेना, इस पर पूरा भक्ति का शास्त्र खड़ा हुआ है। यह आधारभित्ति है।
संसृतिः एषाम्‌ अभक्तिः स्यात्‌ न अज्ञानात्‌ कारणसिद्धेः।
लोग कहते हैं साधारणतः कि मनुष्य संसार में पड़ा हुआ है अज्ञान के कारण। शांडिल्य कहते हैं: यह बात सच नहीं है। यह बड़ी हिम्मत की बात कहते हैं वह। क्योंकि आमतौर से यही समझा जाता है, तुम्हारे साधु-संन्यासी तुम्हें यही समझाते रहते हैं कि अज्ञान के कारण आदमी संसार में पड़ा है। शांडिल्य कहते हैं: अज्ञान का तो अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होता, उसके कारण कोई पड़ेगा कैसे? अज्ञान तो अंधेरे जैसा है। अंधेरे का कोई अस्तित्व है? अंधेरा दिखाई पड़ता है, मगर उसका कोई अस्तित्व नहीं है। इसीलिए तो तुम अंधेरे को धक्का देकर बाहर नहीं निकाल सकते। अगर अस्तित्व होता, तो गांव से गुंडों को इकट्ठा कर लेते, जैसा राजनीतिज्ञ कर लेते हैं, और धक्का दिलवा कर अंधेरे को बाहर कर देते। या तलवारें ले आते, अंधेरे को काट डालते। या बंदूकें ले आते और अंधेरे को डरा देते। कोई न कोई उपाय कर लेते। लेकिन अंधेरे को तुम धक्का देकर निकाल नहीं सकते। बड़े से बड़े पहलवानों को इकट्ठा कर लो तो भी तुम्हीं हारोगे और तुम्हारे पहलवान हारेंगे।
अंधेरा है ही नहीं, तुम किससे लड़ रहे हो? अभाव से लड़ रहे हो! अंधेरे का कोई भाव नहीं है। अंधेरे का कोई पाजिटिव एक्झिस्टेंस, कोई विधायक अवस्था नहीं है। अंधेरा तो केवल प्रकाश का अभाव है। इसलिए अंधेरे से लड़ने वाला मूढ़ है।
जो आदमी अज्ञान तोड़ने में लगा है, वह मूढ़ है। अज्ञान में जो उलझ गया, कि अज्ञान से मुक्त होना है, वह पंडित हो जाएगा, बस और कुछ नहीं होगा। अज्ञान रहेगा, शब्दों के जाल में छिप जाएगा। अज्ञान वहां का वहां रहेगा। पांडित्य से अज्ञान अलग नहीं हो सकता। पांडित्य से अज्ञान अलग करने की कोशिश ऐसे ही है जैसे पहलवानों को और गुंडों को इकट्ठा करके अंधेरे को निकलवाने की कोशिश।
समझदार व्यक्ति अंधेरे से लड़ता नहीं, दीया जलाता है। अंधेरे की बात ही नहीं करता, दीया जलाता है। दीया के जलते ही अंधेरा चला जाता है। प्रकाश का अस्तित्व है। इसलिए हम प्रकाश के साथ कुछ कर सकते हैं। अगर हमें अंधेरे के साथ भी कुछ करना हो, तो हमें प्रकाश के साथ ही कुछ करना पड़ेगा। अगर अंधेरा लाना हो तो भी ला नहीं सकते, पड़ोसियों से मांग नहीं सकते कि भाई, थोड़ा अंधेरा दे दो। आज हमारे घर में अंधेरा कम है और मुझे सोना है। हम पोटलियां बांध कर अंधेरा ला नहीं सकते, बाजार से खरीद नहीं सकते अंधेरा। कोई हमें अंधेरा दे नहीं सकता। क्यों? क्योंकि अंधेरा है ही नहीं, पोटलियों में बांधोगे क्या? पड़ोसी देना भी चाहें तो क्या देंगे? अंधेरे को लाना हो तो प्रकाश को बुझाना पड़ता है, बस, और कुछ नहीं कर सकते तुम। दीये को फूंक दो, अंधेरा आ गया। और अंधेरे को हटाना हो, दीये को जला दो, और अंधेरा गया। इस बात को खयाल रख लेना, केवल विधायक के साथ कुछ किया जा सकता है। नकारात्मक के साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता।
शांडिल्य कहते हैं: लोग कहते हैं कि जीव अज्ञान के कारण संसार-बंधन में पड़ा है, यह धारणा गलत है। क्योंकि अज्ञान का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होता। अज्ञान तो अंधेरा जैसा है। तो फिर आदमी क्यों संसार में पड़ा है? प्रकाश के अभाव के कारण। अंधेरे के भाव के कारण नहीं, प्रकाश के अभाव के कारण। प्रकाश नहीं है, इसलिए। और प्रकाश पैदा होता है अनन्यभाव से। तुम अंधेरे हो, तुम नकारात्मक हो, परमात्मा से जुड़ते ही तुम विधायक हो जाते हो।
‘जीव का संसार-बंधन भक्तिहीनता के कारण है।’
इसलिए मैं कहता हूं, यह मूल आधारभित्ति है। शांडिल्य ने भी खूब अंत तक आधारभित्ति को नहीं कहा! अब तुम समझ सकोगे। इतने सारे सूत्रों को समझने के बाद यह गहरी बात कही जा सकती है। प्रतीक्षा की होगी इस बात को कहने के लिए, कि जब तुम तैयार हो जाओ, जब पूरी भूमिका बन जाए, तब यह घोषणा की जाए। यह घोषणा बहुमूल्य है। भक्ति का अभाव, अनन्यभाव का अभाव, तन्मयी बुद्धि का अभाव।
बुद्धि अंधकार है। मेरी बुद्धि अंधकार है। मैं गया, मेरी बुद्धि गई, उसकी बुद्धिमत्ता उतरी--वही प्रकाश है। तुम अज्ञान के कारण नहीं उलझे हो। और अगर तुम सोचते हो कि अज्ञान के कारण उलझे हो, तो फिर एक ही उपाय रह जाता है--ज्ञान इकट्ठा करो। ज्ञान का कचरा इकट्ठा करते रहो। वही लोग कर रहे हैं। बड़ा पांडित्य फैला हुआ है। और उस पांडित्य से जरा भी, इंच भर भी अंधेरा नहीं कटता। कट ही नहीं सकता। सिर्फ अनन्यभाव से कटता है, सिर्फ परमात्म-भाव से कटता है। परमात्मा की ज्योति के साथ अपने को जोड़ दो। उसकी ज्योति के साथ ही ज्योतिर्मय हो जाओगे।
त्रीणि एषां नेत्राणि शब्दलिंगाक्षभेदात्‌ रुद्रवत्‌।
‘महादेव की भांति शब्द, लिंग और अक्ष, ये तीन नेत्रों द्वारा जीव जान लेता है।’
एक-एक सूत्र बहुमूल्य होता जा रहा है! यह निन्यानबेवां सूत्र है, अब एक सूत्र ही और बचा। अट्ठानबेवां सूत्र आधारभूत। अब निन्यानबेवां सूत्र...अंतिम वक्तव्य दे रहे हैं शांडिल्य। जैसे कोई चित्रकार आखिरी टच चित्र को देता है। सब तरह पूरा हो गया, बस जरा सा कहीं एक रेखा, और जरा सा कहीं रंग, जरा सी गहराई कहीं, जरा सा इशारा कहीं--आखिरी स्पर्श तूलिका का!
‘महादेव की भांति...’
तुमने कहानी सुनी है महादेव के तीन नेत्रों की। वह तुम्हारी ही कहानी है, वह प्रत्येक व्यक्ति की कहानी है। तुम्हें पता नहीं कि तुम महादेव हो। तुम्हें पता नहीं कि तुम्हारे भीतर भगवान विराजा है।
वे तीन आंखें क्या हैं?
शांडिल्य कहते हैं: ‘वे तीन आंखें हैं--शब्द, लिंग और अक्ष।’
ये तीनों बातें समझने जैसी हैं।
शब्द का अर्थ होता है: शास्त्र, शास्ता। दूसरे से जो मिले, वह शब्द। शब्द ‘पर’ से आता है। स्वभावतः खोज ‘पर’ से शुरू होती है। तुमने पढ़ी गीता और तुम्हारे भीतर एक उमंग आई। कि तुमने सुना किसी को कुरान की आयातों को दोहराते और तुम्हारे भीतर कोई चोट पड़ी, तरंग उठी। कि तुम निकले किसी बुद्धपुरुष के पास से, या किसी भक्त से तुम्हारा मिलना हो गया और तुमने पहली दफा जाना कि जीवन का ऐसा ढंग भी संभव है! ऐसे लोग भी हैं! फूलों जैसी जिनकी सुगंध है। दीयों से झरता जैसा जिनका प्रकाश है। और जिनके भीतर अनाहत का नाद हो रहा है। तुम्हारे भीतर कोई बड़ी दूर...देर से दबी हुई आकांक्षा सुगबुगाई! तुम्हारे भीतर आकांक्षा का सूत्रपात हुआ। बीज टूटा, अंकुर आया। तो शुरुआत तो ‘पर’ से होगी, दूसरे से होगी। इसलिए पहली आंख पर-निर्भर होती है--शब्द, शास्त्र, शास्ता।
दूसरी आंख: लिंग। लिंग का अर्थ होता है: अनुमान, विचार, मनन, चिंतन। पहली आंख ‘पर’ से उपलब्ध होती है, दूसरी आंख ‘स्व’ से। सुना दूसरे से, मगर सुनने से क्या होगा? गुनोगे तो कुछ होगा। मनन करोगे तो कुछ होगा। चिंतन करोगे तो कुछ होगा। विचारोगे तो कुछ होगा। सदगुरु से सुनी कोई बात, उसे हृदय में धारोगे, उसे बार-बार उलटाओगे-पलटाओगे, एकांत में बैठ कर उस पर गूढ़ मंथन करोगे, तो कुछ होगा। पहली से दूसरी बात ज्यादा गहरी जाएगी। क्योंकि पहली बात दूसरे से आई थी, दूसरी बात तुम्हारी निज की प्रक्रिया होगी, आत्म-चिंतन पैदा होगा।
तो पहला ‘पर’, दूसरा ‘स्व’। और फिर तीसरा: अक्ष। अक्ष यानी प्रत्यक्ष; साक्षात्कार, अनुभव, सिद्धि। सिद्धि ‘स्व’ और ‘पर’ दोनों से मुक्त है। द्वंद्वातीत है। वहां न तो मैं बचता, न तू बचता। वहां परमात्मा बचता है।
तो ये तीन आंखें हैं।
एक आंख, जो सदगुरु से मिलती है। कहो, श्रवण से मिलती है।
दूसरी आंख, जो मनन से मिलती है, स्वयं से मिलती है।
और तीसरी आंख, जो निदिध्यासन, ध्यान से मिलती है, समाधि से मिलती है।
इनमें योग के तीन सूत्र पूरे हो जाते हैं: श्रवण, मनन, निदिध्यासन।
सदगुरु जगाता है। सदगुरु को भीतर आने दो। शास्त्र के शब्दों को गूंजने दो। लेकिन उतने पर रुक मत जाना। नहीं तो पंडित होकर समाप्त हो जाओगे। तोता-रटंत तुम्हारा जीवन हो जाएगा। उससे आगे बढ़ना। चिंतन करना, मनन करना, विचार करना; अवगाहन करना; अवलोकन करना। खुद डुबकी मारना अब उस विचार में।
लेकिन दूसरे पर भी रुक मत जाना, अन्यथा दार्शनिक होकर समाप्त हो जाओगे; विचारक होकर मर जाओगे। पंडित से विचारक ज्यादा बहुमूल्य है। क्योंकि पंडित सिर्फ दोहराता है, विचारक कम से कम कुछ सोचता है। मगर विचारक भी अभी अनुभव को उपलब्ध नहीं हुआ है। इसलिए उसके सोचने में स्वयं गवाह नहीं हो सकता। अनुमान कर सकता है। कहता है: लगता है कि ईश्वर होना चाहिए। होना ही चाहिए, ऐसा मालूम पड़ता है। सब तरह से अनुमान होता है कि ईश्वर के बिना जगत नहीं हो सकता। आखिर जब इतना बड़ा विराट जगत है तो कोई चलाने वाला होगा। मगर ये गवाहियां नहीं हैं, वह सिर्फ अनुमान कर रहा है। इनसे विवाद किया जा सकता है। इनको खंडित भी किया जा सकता है। इनके विपरीत तर्क दिए जा सकते हैं।
पंडित तो कुछ जवाब भी नहीं दे सकता, पंडित तो केवल दोहरा सकता है। उससे तुम कहो उपनिषद, तो वह उपनिषद दोहरा दे; गीता, तो गीता दोहरा दे; कुरान, तो कुरान दोहरा दे। तुम उससे यह मत पूछना कि इस बात का क्या अर्थ है? अर्थ उसे पता ही नहीं। उसने कभी सोचा ही नहीं। पंडित तो कंप्यूटर की मशीन है। उसे जो भर दिया गया है...ग्रामोफोन का रिकार्ड है, तुम जब भी बजाओ, बजा लेना। जो भी भर दिया गया है, वह फिर दोहरा देगा। तुम ग्रामोफोन के रिकार्ड से अर्थ मत पूछना, कि भई, इस पंक्ति का अर्थ क्या है? ग्रामोफोन के पास कोई अर्थ नहीं होता। पंडित के पास कोई अर्थ नहीं होता।
पंडित से दार्शनिक बेहतर है। मगर दार्शनिक भी कुछ बहुत बेहतर नहीं है, क्योंकि उसके पास कुछ थोड़े अर्थ तो होंगे, मगर वे सब अनुमान होंगे। अनुमान खंडित किए जा सकते हैं। दार्शनिकों में विवाद चलते रहे हैं। आस्तिक और नास्तिक दार्शनिक में होते हैं। आस्तिक कहता है: इतना बड़ा जगत है, इसको जरूर किसी ने बनाया होगा। छोटा सा घड़ा बनता है तो बिना कुम्हार के नहीं बनता। एक छोटा सा घड़ा भी संयोग से नहीं बनता, एक बनाने वाला चाहिए।
ऐसा समझो कि तुम एक रेगिस्तान में गए और वहां तुम्हें एक घड़ी पड़ी मिल जाए, तो क्या तुम यह मान सकोगे कि घड़ी संयोग से बन गई होगी? अपने आप, अपने आप, हजारों-हजारों साल में यह यंत्र अपने आप बन गया होगा? कितने ही हजार साल बीते हों, घड़ी अपने से नहीं बन सकती। कैसे बन जाएगी अपने से? घड़ी के भीतर साफ प्रयोजन मालूम पड़ता है। यह संयोग नहीं हो सकती। यह सिर्फ घटनाओं के घटते-घटते अपने आप घट गई हो, ऐसा नहीं हो सकता।
नास्तिक यही कहता है कि यह सारा जगत घटते-घटते घट गया है। नास्तिक यही कहता है कि अगर एक बंदर को टाइपराइटर पर बिठाल दिया जाए और कई करोड़ों वर्ष तक वह टाइप करता ही रहे--बिना कुछ जाने--तो भी गीता पैदा हो जाएगी एक न एक दिन, संयोगवशात।
मगर यह बात जंचती नहीं कि गीता पैदा हो जाएगी। कितने ही करोड़ वर्ष तक बंदर बैठ कर टाइप करता रहे, ऐसा संयोग शायद ही आए। छोटा-मोटा संयोग आ भी सकता है कि टाइप करता ही रहे तो राम बन जाए--यह हो सकता है। संयोग की बात है--र पर हाथ मार दे, आ की मात्रा पर हाथ मार दे, म पर हाथ मार दे। यह संयोग की बात हो सकती है कि राम बन जाए। लेकिन पूरी गीता संयोग से बन जाए, इसकी संभावना न के बराबर है। घड़ी संयोग से नहीं बन सकती।
तो आस्तिक दार्शनिक कहता है: इतना विराट विश्व, इतना सूक्ष्म प्रक्रियाओं में जड़ा हुआ विश्व, जरूर कोई बनाने वाला होगा।
नास्तिक मजे से जवाब दे सकता है। नास्तिक कहता है: अगर तुम कहते हो कि इतने बड़े विराट विश्व को बनाने वाला कोई होगा, तो फिर तुम्हारे परमात्मा को किसने बनाया? क्योंकि वह तो और भी जटिल है! और अगर तुम कहते हो कि परमात्मा को किसी ने नहीं बनाया, तो तुम्हारी बात ही फिजूल हो गई। जब घड़ा भी बिना बनाए नहीं बनता, तो परमात्मा कैसे बना होगा? जब घड़ी ही बिना बनाए नहीं बनती, तो घड़ी को बनाने वाला कैसे बिना बनाए बना होगा?
फिर तो झंझट शुरू हो गई! फिर परमात्मा को किसी और बड़े परमात्मा ने बनाया, और उसको किसी और बड़े परमात्मा ने बनाया, फिर इसका कोई अंत न होगा। फिर यह अंतहीन तर्क हो गया। और इसी अंतहीन तर्क में दार्शनिक पड़े हुए हैं। न नास्तिक हारता है, न आस्तिक जीतता है। न आस्तिक हारता है, न नास्तिक जीतता है। विवाद जारी है। सदियां बीत गई हैं, विवाद होता रहता है।
अनुमान से कभी भी कोई निर्णय नहीं हो सकता। अनुमान में बल ही नहीं है, अनुमान नपुंसक है। पंडित से तो बेहतर है। चलो कम से कम अनुमान है, अपना तो है। पंडित के पास तो अनुमान भी अपना नहीं है, अनुमान भी दूसरों के हैं। दार्शनिक के पास अनुमान अपना है। एक कदम आगे बढ़ा। एक कदम और उठाना जरूरी है। ‘पर’ से तो छूट गया, अब ‘स्व’ से भी छूट जाए, तब तन्मयी बुद्धि पैदा हो जाएगी। उस तीसरी अवस्था का नाम अक्ष। आंख, असली आंख, प्रत्यक्ष। वही तीसरा नेत्र है।
उसी तीसरे नेत्र से जाना जाता है। फिर स्वयं गवाही हो जाता है व्यक्ति। फिर ऐसा नहीं कहता कि अनुमान है, कि होना चाहिए, कि शायद हो, कि जरूर ही होगा, बिना हुए नहीं चल सकता। तब स्वयं गवाह होता है--चश्मदीद गवाह। कहता है, मैं स्वयं देखा हूं।
इसलिए तो बुद्ध के वचनों में जो बल है, या रामकृष्ण के वचनों में जो बल है, या जीसस के, या मोहम्मद के वचनों में जो बल है, या कबीर या शांडिल्य के वचनों में, या मीरा और चैतन्य के वचनों में, वह बल क्या है? वह बल तर्क का नहीं है, वह बल अनुभव का है। उपनिषदों में तर्क है ही नहीं, उपनिषद सिर्फ घोषणाएं करते हैं।
जब पहली दफा उपनिषदों का पश्चिम की भाषाओं में अनुवाद हुआ, तो पश्चिम के विचारक बड़े हैरान थे कि इनमें कोई तर्क तो है ही नहीं। बस ऋषि कह देता है: अहं ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं। या कह देता है: तत्त्वमसि श्वेतकेतु! श्वेतकेतु, तू भी वही है। सिर्फ निष्कर्ष! इसका प्रमाण क्या है? तर्क क्या है? विधि क्या है? कैसे इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि हे श्वेतकेतु, तू भी वही है, वह तो कुछ है ही नहीं।
ये वचन दार्शनिकों के नहीं हैं, उपनिषदों के वचन सिद्धपुरुषों के वचन हैं। सिद्धपुरुष जो कहता है वह अनुमान नहीं है, उसे दिखाई पड़ता है। वह देखता है श्वेतकेतु में, और कहता है: श्वेतकेतु, तू वही है। जिसको तू खोज रहा है, वह तेरे भीतर बैठा है, मैं देख रहा हूं।
अंधा आदमी अनुमान करता है कि प्रकाश होना चाहिए, या होगा, या बिना हुए कैसे चलेगा! आंख वाला आदमी कहता है: प्रकाश है! अब तुमसे कोई पूछे कि प्रमाण? तुम कहोगे: प्रमाण का सवाल ही नहीं है, मुझे दिखाई पड़ रहा है कि प्रकाश है। इसमें मुझे संदेह ही नहीं पैदा हो रहा है। असंदिग्ध मुझे दिखाई पड़ रहा है कि प्रकाश है। मेरे पास आंख है, बस यही प्रमाण है।
इसलिए अक्ष। अक्ष यानी आंख। असली आंख तीसरी आंख है। असली आंख अनुभव की आंख है--साक्षात्कार।
श्रवण से मनन की तरफ चलो, मनन से ध्यान की तरफ चलो। ‘पर’ से अभीप्सा को जगने दो, जिज्ञासा पैदा होने दो, ‘स्व’ से अभीप्सा को आत्मसात करो, रोएं-रोएं में व्याप्त करो। और फिर परमात्मा से तृप्ति है, संतुष्टि है।
मैंने सुना है एक प्रसिद्ध दार्शनिक के संबंध में। एक आदमी उस दार्शनिक को मिला और कहा, अरे, आप तो जिंदा हैं! हमने सोचा कि आप दुर्घटनाग्रस्त हो गए। उस दार्शनिक ने पूछा, आपने यह अंदाजा कैसे लगाया? यह अनुमान कैसे लगाया? दार्शनिक हमेशा अनुमान की बात पूछता है। अंदाज कैसे लगाया? किस हिसाब से तुमने सोचा? उस आदमी ने कहा, बिलकुल आपके जैसा चेहरा, आपके जैसे कपड़े--काली पैंट--एक आदमी कार के नीचे दब कर मर गया है। उस दार्शनिक ने कहा, क्या उसने सफेद कमीज भी पहनी हुई थी? उस व्यक्ति ने कहा, जी हां। दार्शनिक ने कहा, क्या कमीज के बटन टूटे और कालर फटा हुआ था? उस व्यक्ति ने कहा, नहीं। दार्शनिक ने कहा, तब मैं वह नहीं हो सकता। वह कोई और आदमी रहा होगा।
दार्शनिक अपने संबंध में भी अनुमान ही करता है। उसकी सारी प्रक्रिया अनुमान की है। सोचता रहता, सोचता रहता, लेकिन निष्पत्ति कभी नहीं आती।
पंडित तो बनना मत, नहीं तो तोते हो जाओगे। दार्शनिक पर रुकना मत, अन्यथा केवल जिंदगी तुम्हारी अनुमान रह जाएगी। अनुभव चाहिए। अनुभव आंख है।
अंतिम सूत्र--
आविस्तिरोभावाः विकाराः स्युः क्रियाफलसंयोगात्‌।
‘लय और उत्पत्ति रूप क्रियाफल के संयोग से विकार रूप दिखाई पड़ता है।’
तथाकथित पंडित तुमसे कहते रहे हैं: यह संसार विकार है--परमात्मा का विकार। या तुम्हारे अज्ञान का विकार। शांडिल्य कहते हैं: विकार तो हो ही नहीं सकता। पहली बात, अज्ञान तो है ही नहीं कहीं, इसलिए अज्ञान के कारण विकार नहीं हो सकता। और दूसरी बात, परमात्मा निर्विकार है, उसमें विकार की संभावना नहीं है।
फिर यह जगत क्या है?
इसे समझने के लिए शांडिल्य का एक अपूर्व सिद्धांत स्मरण करो। शांडिल्य कहते हैं: यह जगत विपरीत के बीच लयबद्धता है। दिन है, बिना रात के नहीं हो सकता। जीवन बिना मृत्यु के नहीं हो सकता। पुरुष बिना स्त्री के नहीं हो सकता। उष्णता बिना शीतलता के नहीं हो सकती। सुख बिना दुख के नहीं हो सकता। यहां विपरीत में एक लयबद्धता है। विपरीत से जगत निर्माण हुआ है। सब चीजें अपने विपरीत पर ठहरी हुई हैं। संगीत में स्वर और शून्य का मेल है।
मैं तुमसे बोल रहा हूं, लेकिन अगर मैं शब्द ही शब्द बोलूं, तो तुम कुछ भी न समझ पाओगे। हर दो शब्दों के बीच में थोड़ा मौन भी चाहिए। बोलने में भी शब्द और मौन का संयोग है। बीच-बीच में शून्य है, फिर शब्द, फिर शून्य, फिर शब्द, फिर शून्य। कोई वीणा बजाता है--स्वर, फिर शून्य, स्वर, फिर शून्य। अगर तार को ठोंकता ही रहे और बीच में जरा भी गुंजाइश न दे, तो संगीत पैदा नहीं होगा। संगीत पैदा ही होता है स्वर और शून्य के मेल से।
ऐसा ही परमात्मा और जगत। इन दोनों का मेल ही लय पैदा कर रहा है।
शांडिल्य के हिसाब से परमात्मा बीज है, जगत वृक्ष। हर बीज वृक्ष बन जाता है और हर वृक्ष अंततः फिर बीज बन जाता है। परमात्मा है अनभिव्यक्त और जगत है उसी का व्यक्त रूप। परमात्मा है अनगाया गीत और जगत है गाया हुआ गीत। जगत है स्वर, परमात्मा है शून्य। जगत है दृश्य, परमात्मा है अदृश्य। जगत है श्रम, परमात्मा है विश्राम। जगत है दिन, परमात्मा है रात्रि। दोनों संयुक्त हैं। ये दोनों पंख अस्तित्व के हैं। इनमें कोई विपरीतता नहीं है। जगत विकार नहीं है और न जगत झूठ है। जगत उतना ही सच है जितना परमात्मा सच है। और जगत उतना ही निर्विकार है जितना परमात्मा निर्विकार है। क्योंकि निर्विकार से जो पैदा हुआ, वह निर्विकार होगा। यह जगत उसी की अभिव्यक्ति है।
फिर भ्रांति कहां हो रही है?
भ्रांति सिर्फ इस बात से हो रही है कि हम जगत को ही देखते हैं और परमात्मा को भूल जाते हैं। हमारे विस्मरण में भ्रांति है। कोई विकार नहीं है, सिर्फ विस्मरण। हमने एक चीज को इतने जोर से देखा है, हम दूसरे को भूल गए हैं। हमने सारी आंख एकाग्र कर दी है जगत पर। और उसके पीछे कारण है। क्योंकि जगत दिखाई पड़ता है, दृश्य है, तो आंख उस पर एकाग्र हो जाती है। और परमात्मा अदृश्य है। उसके लिए आंख एकाग्र नहीं करनी होती, अनेकाग्र करनी होती है। जगत को देखना है तो आंख खोलने से हो जाता है, परमात्मा को देखना है तो आंख बंद करनी होती है। खुली आंख से देखा गया परमात्मा जगत, और बंद आंख से देखा गया जगत परमात्मा, बस इतना ही फर्क है। जगत परमात्मा का बहिर्रूप है, परमात्मा जगत की अंतरात्मा है। जैसे देह और आत्मा, ऐसे ब्रह्म और माया।
यहां विकार नहीं है। ये जो विपरीत हैं, ये जो पोलेरिटीज हैं--दिन की और रात की, श्रम और विश्राम की, वसंत और पतझड़ की, जीवन और मृत्यु की, इनको विपरीतता हम इसलिए कहते हैं कि एक-दूसरे के विपरीत दिखाई पड़ती हैं। लेकिन बहुत गहरे खोजने पर पता चलता है कि ये विपरीत नहीं हैं, एक-दूसरे की परिपूरक हैं, कांप्लीमेंटरी हैं।
विज्ञान इसके समर्थन में अब खड़ा हो गया है। इस सदी की बड़ी से बड़ी खोजों में एक खोज है: दि थइरी ऑफ कांप्लीमेंटरिटी। सब चीजें परिपूरक हैं। पुरुष अकेला नहीं हो सकता। बिना स्त्री के तुम सोच सकते हो पुरुष हो सकता है पृथ्वी पर? या स्त्री हो सकती है बिना पुरुष के पृथ्वी पर? ये दोनों परिपूरक हैं। इन दोनों से मिल कर वर्तुल पूरा होता है। ये दोनों एक-दूसरे के अपरिहार्य अंग हैं।
ऐसा ही माया और ब्रह्म।
माया विकार नहीं है, विवर्त नहीं है। माया ब्रह्म की संगिनी है। शिव और शक्ति। राधा और कृष्ण। सीता और राम। ऐसी माया है। ब्रह्म और माया। वह परम रूप है। यह जगत ब्रह्म और माया का युगल है। और इस युगल के बीच विपरीतता दिखाई पड़ती है, वस्तुतः नहीं है। वस्तुतः तो परिपूरकता है।
इस अंतिम सूत्र पर शांडिल्य भक्ति की जिज्ञासा को पूरा करते हैं। क्यों इस अंतिम सूत्र पर पूरा करते हैं? इसलिए ताकि तुम्हें अंततः फिर याद दिला दी जाए--बार-बार याद दिलाई गई है, फिर भी डर है कि तुम भूल न जाओ, इसलिए अंततः फिर याद दिलाते हैं--भक्ति संसार-विपरीत नहीं है। भक्त संसार को छोड़ कर नहीं भागता है। भक्त भगोड़ा नहीं है। भक्त अंगीकार करता है संसार को। भक्त संसार में ही रहता है। और संसार में ही इस ढंग से जीता है कि संसार को भी जी लेता है और परमात्मा को भी जी लेता है। आंख खोल कर संसार को देख लेता है, आंख बंद करके परमात्मा को देख लेता है।
मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि मैं अपने संन्यासियों को संसार में ही रहने को क्यों कहता हूं? इसीलिए कहता हूं कि संसार में परमात्मा छिपा है। इसे छोड़ कर गए, तो ध्यान रखना, तुम परमात्मा को ही छोड़ कर भाग गए हो। इसी में सब तरफ से मौजूद है--यहीं मौजूद है, अभी मौजूद है। मुझमें, तुममें, इन वृक्षों में, इन चहकते पक्षियों में, सूरज की किरणों में, हवा के झोंके में, सबमें मौजूद है, क्योंकि सब उसी का विस्तार है। इस सबके बीच वही एक निनादित हो रहा है।
माया को परमात्मा से विपरीत मत समझ लेना, दुश्मन मत समझ लेना। दुश्मन समझे, तो अड़चन खड़ी होगी। तब तुम्हारे जीवन में बड़ी अड़चनें आ जाएंगी। और इसके बजाय कि तुम मुक्त होओ, तुम विक्षिप्त हो जाओगे। तुम पलायनवादी हो जाओगे, भगोड़े हो जाओगे--तुम पत्नी, बच्चों, परिवार को छोड़ कर जंगल की तरफ जाने लगोगे।
कहीं जाने की जरूरत नहीं है। जितना परमात्मा जंगल में है, उतना ही बाजार में भी है। और जितना महात्माओं में है, उतना ही तुम्हारी पत्नी में भी है। जितना राम और कृष्ण में है, उतना ही तुम्हारे बेटे में भी है; तुम्हारी बेटी में भी है; तुम्हारे मित्र में भी है, तुम्हारे शत्रु में भी है। इस दृष्टि को उपलब्ध होओ। तब तुम्हारा पूरा जीवन भजन हो जाता है। शांडिल्य के सारे सूत्रों का सार एक है: जीवन भजन हो जाए। जीवन और भजन में विरोध न रह जाए। उठो-बैठो तो भजन, उठो-बैठो तो परिक्रमा। खाओ-पीओ सो सेवा।
छोटा-छोटा जीवन का काम, छोटे-छोटे कृत्य उसकी महिमा से भर जाएं। शांडिल्य तुम्हें किसी तरह के संघर्ष में नहीं डालना चाहते। क्योंकि सब संघर्ष अंततः अहंकार को पैदा करता है। और भक्ति का सूत्र संकल्प नहीं है, समर्पण है। तुम डुबकी लो! तुम डूबो! तुम उसके चरण गहो! इस संसार में उसके ही चरण प्रकट हुए हैं। और इसी संसार में तलाशते-तलाशते, गहरे उतरते-उतरते तुम उसे पा लोगे। ये जो लहरें हैं संसार की, इन्हीं में ही उसकी गहराई, उसका सागर भी छिपा हुआ है।
कृष्ण का आश्वासन अंत में हम फिर दोहरा लें--
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेकं ये प्रपद्यंते मायामेतां तरंति ते।।
जो तरना चाहें, जो उतर जाना चाहें, वे शरण गह लें।
माया से मत लड़ो, माया में ब्रह्म की शरण गह लो--और जीवन भजन हो जाएगा।
जीवन ही धर्म हो जाए, ऐसी ही शांडिल्य की अभीप्सा है और आशीर्वाद है!
अथातोभक्तिजिज्ञासा!
आज इतना ही।

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