SHANDILYA

ATHATO BHAKTI JIGYASA 36

ThirtySixth Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आप कहते हैं संसार में ही परमात्मा छिपा है। इसका प्रमाण क्या है?
संसार में परमात्मा छिपा है, ऐसा मैंने कभी कहा नहीं। संसार परमात्मा है!
छिपे का तो अर्थ हुआ, संसार से कुछ भिन्न है, संसार से कुछ अलग है, संसार की ओट में है, संसार की आड़ में है। कोई आड़ ही नहीं है। संसार ही परमात्मा है। सिर्फ तुम्हारी आंखें अंधी हैं। परमात्मा नहीं छिपा है, परमात्मा प्रकट है। सिर्फ तुम आंखें बंद किए हो। परमात्मा का नाद गूंज रहा है, लेकिन तुम बहरे हो। तुम्हारा हृदय धड़क नहीं रहा, इसलिए उसके छंद को तुम अनुभव नहीं कर पाते हो। सूरज निकला हो तो भी आंख बंद किए खड़े रहो, तो क्या कहोगे सूरज छिपा है? सिर्फ तुमने आंख अपनी छिपा रखी है, परमात्मा नहीं छिपा है। परमात्मा पर ओट नहीं, सिर्फ तुम्हारी आंख पर ओट है। आंख पर पर्दा है, परमात्मा पर पर्दा नहीं है। आंख खोलो। ये जो आंखें तुम्हारी हैं, ये केवल क्षुद्र को देख सकती हैं। एक और भी आंख है तुम्हारे भीतर, जो विराट को देखने में समर्थ है। ये जो आंखें हैं, सतह को छू सकती हैं। एक और आंख है तुम्हारे भीतर, जो गहराई में प्रवेश कर सकती है। परमात्मा उस गहराई का नाम है। प्रेम की आंख खोलो। भजन में उतरो। नाचो। आनंद में डूबो। परमात्मा की तलाश में जाने की जरूरत नहीं, परमात्मा तुम्हारी तलाश करता आएगा। पुकारो! प्रार्थना करो!
तुम पूछते हो: ‘प्रमाण क्या है?’
क्या नहीं है जो प्रमाण नहीं है? हर चीज उसका प्रमाण है। ये पक्षियों का गान, ये वृक्षों का सन्नाटा, ये सूरज की नाचती किरणें, ये हरियाली, ये लोग, तुम--सब प्रमाण हैं। इतना रहस्यपूर्ण जीवन है और तुम पूछते हो: परमात्मा कहां है? प्रमाण क्या है? इतना अनंत उत्सव चल रहा है और तुम पूछते हो: प्रमाण क्या है?
यह रसीली सहर, यह भीगी फजा
यह धुंधलका, ये मस्त नजारे
मय में गल्तां है डूबता महताब
रस में डूबे हैं मलगजे तारे
बेतकल्लुफ समां यह जंगल का
हूर देखे तो खुल्द को वारे
ये घने नख्ल, ये हरे पौधे
जिनमें टांके हैं ओस ने तारे
हाय, ये सुर्ख-सुर्ख ढाक के फूल
ठंडे-ठंडे दहकते अंगारे

मुस्कुराया वह तिफ्लके-मशरिक
जगमगाए वह दश्तोदर सारे
ली शुजाओं ने तन के अंगड़ाई
रेंग कर नूर के बहे धारे
किरनें लचकीं, वह रंग-सा बरसा
वह छूटे सुर्ख व जर्द फव्वारे
वह गुलों की धड़क उठी छाती
वह खुश-अल्हान बाग चहकारे
और तुम पूछते हो: प्रमाण क्या है?
कहां नहीं है प्रमाण? प्रत्येक घटना पर, प्रत्येक वस्तु पर उसके हस्ताक्षर हैं। पढ़ना आना चाहिए। गीता सामने रखी है, गान चल रहा है, लेकिन तुम्हें पढ़ना नहीं आता। तुम्हें गीत की समझ नहीं है। लेकिन समझ नहीं है, ऐसा मानना तुम्हारे अहंकार के विपरीत पड़ता है। तुम तो मान कर चलते हो--समझ है, मैं आंख वाला हूं। अब परमात्मा कहां है?
मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं--परमात्मा है, समझ नहीं है। इसलिए परमात्मा मत खोजो, समझ खोजो। निखारो अपने को। थोड़े ध्यान की दिशा में कदम उठाओ। प्रेम और ध्यान के दो पंख तुम्हारे ऊग आएं, फिर परमात्मा का आकाश ही आकाश है। उड़ना तुम्हें आ जाए, आकाश सदा से है। कुछ करना है तुम्हारे भीतर, बाहर कुछ नहीं करना है।
रामकृष्ण से किसी ने पूछा, परमात्मा का प्रमाण क्या है? रामकृष्ण ने कहा, मैं हूं।
मैं भी तुमसे कहता हूं: मैं हूं प्रमाण। और मैं तुमसे यह भी कहता हूं: तुम भी हो प्रमाण। प्रमाण ही प्रमाण हैं। कण-कण पर प्रमाण हैं और क्षण-क्षण प्रमाण हैं।
मगर प्रमाण को समझने की कला तुम्हें आती है? हम उतना ही समझ पाते हैं जितना हमारी समझने की पात्रता होती है। छोटा बच्चा है। अभी तुम उसके सामने कामशास्त्र की कीमती से कीमती किताब रख दो, तो भी रस उसे नहीं आएगा। तुम वात्स्यायन के कामसूत्र रख दो, वह सरका देगा। उसे अभी परियों की कहानियों में रस है। अभी भूत-प्रेतों की कहानियों में रस है। अभी तुम उसे कोहिनूर हीरा दे दो, वह एक तरफ कर देगा, और दो पैसे के खिलौने को, घुनघुने को बजाने लगेगा। क्या कोहिनूर कोहिनूर नहीं है? लेकिन बच्चे की समझ अभी खिलौने की समझ है। छोटे बच्चे के सामने तुम सौ रुपये का नोट करो और एक चमकता हुआ तांबे का पैसा, बच्चा तांबे के पैसे को चुन लेगा। सौ रुपये का नोट कागज है, उसका कोई मूल्य नहीं है उसके सामने। चमकदार सिक्का उसे लुभा लेगा।
हम अपनी समझ के अनुकूल देख पाते हैं।
यदि तुम्हें परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता, तो एक बात सुनिश्चित है कि तुम्हारे भीतर अभी परमात्मा को देखने की क्षमता और पात्रता नहीं है। उस पात्रता को जगाओ।
लेकिन लोग उलटा काम करते हैं, वे कहते हैं, परमात्मा का प्रमाण चाहिए! लोग उलटी बात पूछते हैं, वे कहते हैं, परमात्मा कहां है, हमें दिखला दें! मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, आप हमें परमात्मा दिखला दें तो हम मान लें। उन्होंने एक बात स्वीकार ही कर ली है कि उनके पास आंखें तो हैं ही; बस परमात्मा मौजूद हो जाए तो वे देख ही लेंगे।
परमात्मा मौजूद ही है। परमात्मा कभी गैर-मौजूद नहीं होता। जो गैर-मौजूद हो जाए वह परमात्मा नहीं है। मौजूदगी ही उसकी है। सारा अस्तित्व उसका है। अस्तित्व और परमात्मा दो नहीं हैं।
इसलिए मैं तुम्हें फिर याद दिला दूं, मैंने कभी नहीं कहा कि संसार में परमात्मा छिपा है। मैं कह रहा हूं यही कि संसार परमात्मा है। तुम्हारे लिए छिपा है, क्योंकि तुम्हारी आंख छिपी है, ओट में है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, प्रश्न पूछने का दुस्साहस किया, इसके लिए क्षमा करें। आपकी ही कृपा-अनुग्रह से हम लोग नेपाल से आए हैं। मधुर उपदेश सुनने को मिला, यह हमारा अहोभाग्य! कल के प्रवचन के दौरान आपने कहा कि एक ही क्षण में पूर्ण पाप कट जाते हैं। लेकिन मैंने सुना है कि पूर्वजन्म का पाप, या कहें प्रारब्ध भोगना पड़ता है। कृपया शंका दूर करें।
भोगना चाहो, तो भोगना पड़ता है। भोगना न चाहो, तो कट सकता है। सब तुम पर निर्भर है। अगर हिसाबी-किताबी हो तो भोगना पड़ेगा। तुमने हिसाब-किताब रखा तो अस्तित्व भी हिसाब-किताब रखता है। तुमने हिसाब-किताब जला दिया, अस्तित्व भी जला देता है। अस्तित्व तो दर्पण है। तुम जैसे हो वैसा ही झलका देता है। अब बंदर अगर दर्पण में झांकेगा तो तुम यह मत समझना कि देवता की तस्वीर दिखाई पड़ेगी। बंदर दर्पण में झांकेगा तो बंदर ही दिखाई पड़ेगा।
निश्चित तुमने जो सुना है, ठीक सुना है। लोग कहते रहे हैं--हिसाबी-किताबी लोग, गणित की लकीर से चलने वाले लोग। हिसाब-किताब में यह बात समझ में आती है कि बुरा किया है, तो भला करके बुरे को मिटाना पड़ेगा। तभी न्याय हो पाएगा। तभी हिसाब-किताब पूरा होगा। इसलिए उनको लगता है कि जन्मों-जन्मों तक बुरा किया, अब जन्मों-जन्मों तक भला करेंगे, तब कहीं चुकतारा हो पाएगा। यह हिसाबी-किताबी की दुनिया है।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन का दादा मर रहा था। तो दादा ने अपने पोते को समझाते हुए कहा, नसरुद्दीन, बेटा काम करो, बेकार फिरना अच्छा नहीं है। जब मैं तुम्हारी उम्र का था तब मैंने एक फर्म में छह रुपये महीने की नौकरी की थी और फिर पांच साल के बाद उतनी ही बड़ी फर्म का मालिक बन गया था। मुल्ला नसरुद्दीन ने हाथ मटका कर कहा, दादा जी, वे जमाने लद गए। अब ऐसी धांधली नहीं चलती। हर जगह कायदे से हिसाब रखा जाता है।
हिसाबी-किताबी मन एक ढंग से सोचता है। प्रेमी दूसरे ढंग से सोचता है। वे ढंग अलग हैं।
अगर तुम ज्ञान के मार्ग पर चलोगे तो तुमने जो सुना है वह ठीक ही सुना है कि पूर्वजन्म के पाप कहें, या प्रारब्ध, उन्हें भोगना पड़ेगा। भोगना ही नहीं पड़ेगा, उनके प्रतिकार के लिए उतने ही शुभ कर्म करने पड़ेंगे। और यह तो अंतहीन प्रक्रिया होगी। इसमें से छूटोगे कैसे? कितने जन्मों तक तुमने पाप किए हैं! उतने ही जन्म लग जाएंगे उन्हें भोगने में। और इस बीच भी तुम खाली तो नहीं बैठे रहोगे। इस बीच भी कुछ तो करोगे। कुछ भी करोगे तो पाप होता रहेगा।
तुम यह मत सोचना कि पाप करने से ही पाप होता है। जीने मात्र से पाप हो जाता है। सांस लेने से पाप हो रहा है। देखते नहीं, तेरापंथी जैन मुनि नाक पर मुंहपट्टी बांधे रखता है। किसलिए? क्योंकि सांस की गर्म हवा हवा में तैरते छोटे-छोटे कीटाणुओं को मार डालती है। सांस ही लेने में पाप हो रहा है। एक सांस में करीब एक लाख जीवाणुओं की हत्या हो जाती है। अब तुम क्या करोगे? सांस तो लोगे कम से कम! अपनी खाट पर ही पड़े रहोगे, मगर सांस तो लोगे? भोजन तो करोगे? पानी तो पीओगे? जीओगे तो कुछ? चलोगे-फिरोगे? हिलने-डुलने में पाप हो रहा है। जीने का अर्थ, कहीं न कहीं कुछ न कुछ होगा।
तो ये इतने जन्म तुम्हें पुराने पाप काटने में लग जाएंगे, और इस बीच तुम बैठे नहीं रहोगे, गोबरगणेश बन कर बैठे नहीं रहोगे, कुछ न कुछ करोगे, उस करने से फिर नया पाप होता रहेगा। फिर इस श्रृंखला का अंत कहां होगा? यह गणित बड़ा लंबा है। इस लंबे गणित में से बाहर आने का उपाय नहीं है। लेकिन जो बाहर आना ही नहीं चाहते, उनको यह गणित बड़ा सहारे का है। वे कहते हैं, हम करें भी क्या? प्रारब्ध तो भोगना पड़ेगा। यह प्रारब्ध को भोगने की बात उनकी तरकीब है। वे बाहर निकलना नहीं चाहते।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम संन्यास तो लेना चाहते हैं, मगर अभी प्रारब्ध! जैसे उन्हें पता है कि प्रारब्ध क्या है। जैसे उन्हें पता है कि प्रारब्ध रोक रहा है। वे कहते हैं, अभी तो प्रारब्ध ऐसा है कि अभी तो संसार में रहना पड़ेगा।
संसार में रहना चाहते हो, सीधा क्यों नहीं कहते? प्रारब्ध की आड़ क्यों लेते हो? यह चालबाजी क्यों? यह बेईमानी क्यों? यह होशियारी क्यों? इतना ही कहो न सीधा कि अभी संसार में रहना है। अभी धंधा करना है, अभी चोरी, बेईमानी करनी है। प्रारब्ध! ऊंचा शब्द उपयोग कर लिया। उसके पीछे तुम छिप गए। उससे तुम्हें सहारा मिल गया। अब तुम्हें यह कहने का भी कारण नहीं रहा कि मैं अपनी वजह से रुका हूं। प्रारब्ध रोक रहा है! तुम्हें जो करना है वह तुम करते हो, तुम्हें जो नहीं करना है वह तुम नहीं करते हो। लेकिन प्रारब्ध के बहाने तुम अपने को बचा लेते हो। स्थगित कर रहे हो तुम जीवन को। तुम कहते हो, पहले सब भोग लेंगे, फिर कहीं मुक्ति होगी। तुम असल में मुक्ति चाहते नहीं।
भक्ति का शास्त्र छलांग में भरोसा करता है। भक्ति का शास्त्र कहता है, तुम परमात्मा पर छोड़ दो इसी क्षण--और तुम मुक्त हो गए।
भक्ति के शास्त्र की कीमिया समझो। भक्ति का शास्त्र कहता है कि तुमने कुछ कभी किया है, यह बात ही भ्रांत है। कर्म का सिद्धांत ही भ्रांत है कि तुमने कुछ किया है। जो परमात्मा ने करवाया है, हुआ है। जिस दिन तुम इस बात को परिपूर्ण रूप से स्वीकार कर लोगे...बड़ी कठिन है बात, क्योंकि फिर अहंकार को कोई जगह नहीं बचती। जब सभी वह करवा रहा है तो अहंकार को कोई स्थान नहीं बचा। पाप भी उसके, पुण्य भी उसके; अच्छा भी उसका, बुरा भी उसका। जिलाए तो वह, मारे तो वह। फिर तुम्हारे अहंकार को कहीं कोई जगह नहीं है। वह अहंकार कहता है, ऐसा कैसे हो सकता है? मैं कर्ता हूं! अहंकार राजी है, अगर बुरे कर्म का भी बोझ हो ढोने को तो भी राजी है, मगर कर्म होना चाहिए। अहंकार कहता है, मैं चोर हूं--यह भी राजी हूं--मुझे ऐसी साधुता नहीं चाहिए जिसमें मैं ही न रहूं। और मैं के बिना गए साधुता फलती नहीं। साधुता का एक ही अर्थ है कि मैं समाप्त हुआ।
भक्त का अर्थ होता है कि उसने सब परमात्मा पर छोड़ दिया--कि तूने जो करवाया, हुआ; तू जो करवा रहा है, होगा; जो आगे भी तू करवाता रहेगा, होता रहेगा। मैं अपने को विदा करता हूं। मैं अपने को नमस्कार करता हूं। भक्त अपने अहंकार को अलविदा कह देता है। यही समर्पण है। इस समर्पण में ही क्रांति घट जाती है। फिर कौन कर्ता? जब कर्ता ही न बचा तो कर्म कैसे? कैसा प्रारब्ध?
तो तुम पूछते हो कि क्या प्रारब्ध भोगना ही पड़ता है?
भोगना चाहो, तो भोगना पड़ता है। भोगना चाहो, तो कर्म का सिद्धांत मानो। अगर न भोगना चाहो, तो भक्ति की ऊर्जा में उतर जाओ।
कर्म का सिद्धांत संकल्प पर आधारित है, भक्ति की क्रांति समर्पण पर। कर्म के सिद्धांत में अहंकार केंद्र पर है। भक्ति के सिद्धांत में कोई अहंकार नहीं। एक ही परमात्मा सब चला रहा है। हम उसके ही हाथ में कठपुतलियां हैं। उसने जो करवाया, वह हुआ है। फिर कोई दंश नहीं है, कोई ग्लानि नहीं, कोई अपराध नहीं।
जरा सोचते हो इस अपूर्व भाव-दशा को, जब चित्त में कोई अपराध नहीं रह जाता, कोई ग्लानि नहीं रह जाती, कोई रोना-धोना नहीं रह जाता--कि ऐसा क्यों किया, वैसा क्यों नहीं किया? ऐसा हो जाता तो अच्छा था, वैसा हो जाता तो अच्छा था। आगे ऐसा कर लूं, आगे यह भूल न हो; यह ठीक हो जाए, वह ठीक हो जाए। सारी चिंता गई। सारी चिंता भक्त एक ही गठरी में उतार कर रख देता है परमात्मा के चरणों में। वह कहता है, यह लो, तुम जानो। अब जो भी तुम्हें मुझसे करवाना हो, करवा लो। चोर बनाना हो तो चोर बन जाऊंगा--अपराध अपने ऊपर न लूंगा। और साधु बनाना हो तो साधु बन जाऊंगा--और पुण्य का अहंकार अपने ऊपर न लूंगा। तुम्हारी जो मौज! तुम्हें जो खेल खेलना हो, मुझसे खेल लो। यह भक्ति की अपूर्व क्रांति है--उत्क्रांति है।
तो मैंने निश्चित कहा तुमसे, क्योंकि शांडिल्य को समझा रहा हूं। वे भक्ति के परम उपदेष्टा हैं। जैसे पतंजलि योग के, ऐसे शांडिल्य भक्ति के। जैसे महावीर कर्म के, ऐसे शांडिल्य भक्ति के। जिनको हिम्मत हो--और बड़ी हिम्मत चाहिए; मैं को छोड़ना ही सबसे बड़ी हिम्मत है। बुरे का भी सहारा मैं ले लेता है; वह कहता है, कोई फिकर नहीं; चिंता रहे, बेचैनी रहे, मगर मैं रहूं! अब यह निश्चिंत आकाश तुम्हें उपलब्ध होता है।
तुमने अपने को पैदा तो नहीं किया है। या कि किया है? तुमने अपने को बनाया तो नहीं। या कि बनाया है? तुम अपने स्रष्टा तो नहीं। तुम उसकी ही मौज की एक लहर हो। उसने चाहा तो हुए। वह जिस दिन चाहेगा, उसी दिन नहीं हो जाओगे। फिर उसने तुमसे जो करवाया, करवाया।
तुम्हारे कृत्यों में तुम्हारापन क्या है? राह जाते थे, एक स्त्री के प्रेम में पड़ गए। प्रेम हुआ, तुमने किया नहीं। बचपन से ही तुम्हें एक धुन सवार थी कि गहरे संगीत में उतरना है। होश नहीं था तब से संगीत की धुन सवार थी। कहते हैं, मोझर्ट जब तीन साल का था, तब उसने बड़े-बड़े संगीतज्ञों को चकित कर दिया। तीन साल का बच्चा! यह संगीत की धुन खुद तो पैदा नहीं की होगी। यह आई होगी। तुम जरा अपने जीवन को ठीक से पहचानने की कोशिश करो! तुमने जो किया है, सब हुआ है। करने की भ्रांति हो रही है। जिस दिन यह दिखाई पड़ जाएगा कि सब हो रहा है, निश्चिंत हुए, विश्राम आ गया। मैं उस परम विश्राम को ही भक्ति कहता हूं। फिर वैसी घड़ी में एक ही क्षण में पूर्ण पाप कट जाते हैं।
असल में यह कहना कि एक ही क्षण में पूर्ण पाप कट जाते हैं, कहना उचित नहीं है, क्योंकि उस क्षण में जाना जाता है--मैंने कुछ किया ही नहीं है, न पाप, न पुण्य; मेरा कुछ भी नहीं है। मेरा कर्तृत्व नहीं है। कर्ता कट जाता है। कर्ता का भाव गिर जाता है। कर्ता के भाव के गिरते ही कर्ता के साथ जुड़ी सारी धारणाएं विदा हो जाती हैं।
तुम्हारी मर्जी! धीरे-धीरे चलना हो; पहुंचना कभी न हो, चलते ही रहना हो, तो ठीक है, काटो पाप! प्रारब्ध भोगो! मगर वह जिम्मा प्रारब्ध पर मत छोड़ो। वह जिम्मा तुम्हारा है। प्रारब्ध तो तरकीब है, बहाना है। अगर मुक्त होना चाहो तो इसी क्षण मुक्ति के द्वार खुले हैं। द्वार मुक्ति के कभी बंद ही नहीं होते। किसी युग में बंद नहीं होते। कलियुग में भी नहीं। किसी काल में बंद नहीं होते, पंचमकाल में भी नहीं। किसी स्थल पर बंद नहीं होते--न नरक में, न पृथ्वी पर, कहीं बंद नहीं होते। मुक्ति के द्वार सदा खुले हैं। जिसकी भी हिम्मत हो, उतर जाए। बस हिम्मत की एक ही शर्त पूरी करनी है। भक्ति यह नहीं कहती है कि कर्म छोड़ो, भक्ति कहती है--कर्ता छोड़ो। एक ही आघात में जड़ कट जाती है। कर्ता ही कट गया तो कर्म कट गए।
कर्म तो पत्तों जैसे हैं, कर्ता जड़ जैसा है। तुम पत्ते काटते रहते हो, नये पत्ते निकलते आएंगे। जड़ में पानी डाल रहे हो, जड़ में खाद डाल रहे हो, जड़ जमीन में गड़ी है, रस पी रही है, और तुम पत्ते काट रहे हो। काटते रहो पत्ते जन्मों-जन्मों तक, नये पत्ते निकलते आएंगे और तुम काटते रहना। जड़ ही काट दो। ज्ञानमार्गी पत्ते काटता है, भक्त जड़ काट देता है। कर्म पत्ते हैं, कर्ता जड़ है। जड़ के काटते ही सब विलीन हो जाता है।
और स्वभावतः, जो पत्ते काटता रहा, उसकी समझ में नहीं आता। क्योंकि वह कहता है कि हम कितने दिन से काट रहे हैं! काटते हैं और नये निकल आते हैं। यह कोई इतना आसान थोड़े ही है। जो जड़ काटना जानता है, वह कहता है, एक क्षण में हो जाता है; एक कुल्हाड़ी, कि बात खत्म हो गई। ज्ञानी हंसता है, वह कहता है, तुम समझ क्या रहे हो अपने आप को? इधर मैं कैंची लिए बैठा हूं, काटता रहता हूं, काटता रहता हूं, नये पत्ते निकलते आते हैं। बड़ा प्रारब्ध का लंबा जाल है। कहीं एक चोट में कटी है? मगर वह कैंची लिए बैठा है, उसे कुल्हाड़ी का पता नहीं है। उसे जड़ का ही पता नहीं है। जड़ छिपी है। पत्ते प्रकट हैं, जड़ अप्रकट है। कर्म तो तुम्हारे दुनिया भर देख लेती है, कर्ता कोई नहीं देख पाता। तुम्हीं बहुत खोज करोगे अपने भीतर, खोदोगे, तो कर्ता पकड़ में आएगा। वह जड़ है। और वह छिपा है भीतर और रस ले रहा है। और वहीं से पल्लव निकल रहे हैं, पत्तेनिकल रहे हैं, शाखाएं निकल रही हैं, फूल निकल रहे हैं, जिंदगी चल रही है।
जीवन कर्ता के भाव से फैल रहा है। आवागमन छूट जाए इसी क्षण, अगर तुम जड़ काट दो।
अथाह सागर में
डूबते जहाज
या
पूजा के अंजुरी भर जल में,
सोचो!
अथाह सागर में
डूबते जहाज
या
पूजा के अंजुरी भर जल में,
वह जो पूजा का अंजुलि भर जल है, उसमें बड़े-बड़े जहाज डूब जाते हैं। उसमें सब डूब जाता है, सारा संसार डूब जाता है।
अथाह सागर में
डूबते जहाज
या
पूजा के अंजुरी भर जल में
अविश्वास के
लंबे युग
या
पूरे समर्पण के
एक पल में,
कहीं नहीं
या
दोनों में
हे राम! तुम हो
या केवल मैं?

अनंत आकाश के
विस्तृत छलावे
या बांहों में लिपटी
मोहक सच्चाई में,
छोटे सुखों की
बेमानी ऊंचाइयां
या
सार्थक दुखों की गहराई में
कहीं नहीं
या दोनों में
हे राम! तुम हो
या केवल मैं?

बुढ़ापे के ठंडे विवेक
या
उद्दाम यौवन की
दहकती आग में,
मृत्यु से हर बार
पराजित शरीर
या
फूलों में विकसित होते पराग में,
कहीं नहीं
या
दोनों में
हे राम! तुम हो
या केवल मैं?

बेलगाम
खल और कामी मन
या
मुक्ति की
कमजोर असफल तलाश में,
धरती पर
स्वामी!
ढूंढूं आकाश में,
कहीं नहीं
या
दोनों में
हे राम! तुम हो
या केवल मैं?
बस इतनी ही बात समझ लेने जैसी है। राम है अगर केवल, और तुम गए, तो अंजुलि भर पूजा के जल में बड़े-बड़े जहाज डूब जाते हैं। अगर तुम हो और राम नहीं है, तो अनंत-अनंत जन्मों तक तुम चेष्टा करो, नाव बनाओ, नाव कभी बनेगी नहीं। पार तुम कभी हो न पाओगे। डुबकी कभी लगेगी नहीं। तुम किनारे पर ही चलते रहोगे और चलते रहोगे। पूजा का अंजुलि भर जल पर्याप्त है। एक भाव समर्पण का पर्याप्त है। हजार उपाय--व्रत, उपवास, त्याग, तपश्चर्या--काम नहीं आते। एक उपाय--झुक जाना, माथा टेक देना उसके चरणों में--पर्याप्त है।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, मैं पचपन वर्ष का हूं। जीवन में तीन बार विवाह हुआ और हर बार पत्नी की मृत्यु हो गई। लेकिन अभी भी स्त्री के प्रति मन ललचाता है। मैं क्या करूं?
क्या चौथी स्त्री को मारने का विचार है? अब तो जागो! परमात्मा ने तीन-तीन बार इशारा किया, तुम्हारे कारण तीन स्त्रियां विदा हो गईं, और तुम अभी भी ललचा रहे हो! चौथी पर नजर खराब है!
एक समय है, तब सब सुंदर है। अब तुम पचपन के हुए! अब कुछ और भी करोगे या यही घरघूले बनाते रहोगे? और तुम सौभाग्यशाली हो! तुमने तो तीन-तीन बार झंझट ली, परमात्मा ने तुम्हें तीन-तीन बार झंझट से बाहर कर दिया। तुम स्वाभाविक संन्यासी हो, अब और क्यों झंझट में पड़ते हो? कहावत तुमने सुनी नहीं कि भगवान जब देता है, छप्पर फाड़ कर देता है! तुमको छप्पर फाड़ कर देता रहा। और क्या चाहते हो?
और तीन-तीन स्त्रियों से अनुभव पर्याप्त नहीं हुआ? क्या पाया? सुख पाया? सुख यहां कोई भी दूसरे से कभी पाता नहीं। न पति पत्नी से पाता है, न पत्नी पति से पाती है। दूसरे से सुख कभी मिला है? सुख अंतर्भाव है। भीतर से उमगता है। और जो अपने से पा लेता है, वह पत्नी से भी पा लेता है, बेटे से भी पा लेता है, पिता से भी पा लेता है, मां से भी पा लेता है। और कोई भी नहीं होता तो अकेले में भी पाता रहता है। उसके भीतर ही उमग रहा है। और जो अपने से नहीं पा सकता, वह किसी से भी नहीं पा सकता। जो तुम्हारे भीतर नहीं है उसे तुम किसी से भी पा न सकोगे।
जीसस का प्रसिद्ध वचन है: जिनके पास है, उन्हें और दिया जाएगा; और जिनके पास नहीं है, उनसे वह भी छीन लिया जाएगा जो उनके पास है।
भीतर सुख चाहिए, भीतर शांति चाहिए, भीतर उल्लास चाहिए--बस फिर और बढ़ता जाता है। फिर हर हालत में बढ़ता है; साथ रहो, संग रहो, अकेले रहो, बाजार में रहो, भीड़ में रहो--कहीं भी रहो--घर में रहो, घर के बाहर रहो, मंदिर में रहो, जहां रहना हो रहो, भीतर सुख बढ़ता है तो बढ़ता चला जाता है। खोजना वहां है। जब तक तुम दूसरे में सुख खोज रहे हो, तब तक तुम भ्रांति में पड़े हो। दूसरा तुममें खोज रहा है, तुम दूसरे में खोज रहे हो, दोनों भिखमंगे हो। न उसके पास है। उसके ही पास होता तो तुममें खोजने आता? ये तीन स्त्रियां जो तुम्हें खोजती चली आईं और मारी गईं, इनके पास सुख होता तो तुमको खोजतीं? तुम किसमें खोज रहे थे? जो तुममें खोजने आया, उसमें तुम खोज रहे हो? जिसके हाथ तुम्हारे सामने भिक्षापात्र की तरह फैले हैं, उसके सामने तुम भी अपना भिक्षापात्र फैला रहे हो? भिखमंगे भिखमंगों के सामने खड़े हैं! फिर अगर जीवन में सुख नहीं मिलता, तो आश्चर्य क्या है?
मांगे से नहीं मिलता सुख, जागे से मिलता है। सुख का सृजन करना होता है। सुख तुम्हारे प्राणों का संगीत है। जैसे वीणा पर कोई तार छेड़ देता है, ऐसे ही जब तुम अपनी अंतर्वीणा को छेड़ते हो, जब उस कला को सीख लेते हो--उसी कला का नाम प्रार्थना है, उसी कला का नाम ध्यान, उसी कला का नाम भजन, उसी कला का नाम भक्ति, ये सब उसी के नाम हैं। वीणा तो मिली है जन्म के साथ, लेकिन कला सीखनी पड़ती है। वह किसी सदगुरु के पास सीखनी पड़ेगी। किसी ऐसे के पास सीखनी पड़ेगी जिसने अपनी वीणा बजा ली हो। बाहर की वीणा भी सीखने जाते हो, किसी उस्ताद के चरणों में बैठना पड़ता है। भीतर की वीणा तो तुम्हें मिली है, वह परमात्मा की भेंट है। उसी वीणा का नाम जीवन है। मगर उस वीणा को कैसे बजाएं, यह पता नहीं है। और जब तक वह वीणा न बजे, तब तक तृप्ति नहीं है। अतृप्ति अनुभव होती है, तुम बाहर तड़फते हो, भागते हो; इससे मिल जाए, उससे मिल जाए, तुम दौड़ते रहते हो, दौड़ते रहते हो जिंदगी भर। और वीणा तुम्हारे भीतर पड़ी है, और संगीत वहां पैदा होना था, और वहीं संगीत पैदा हो जाता तो सब संतुष्टि हो जाती। मगर वहां तुम जाते नहीं। वहां तुम आंख भी ले जाने से डरते हो, क्योंकि वह नंगी पड़ी वीणा तुम्हें बड़ा बेचैन कर देती है। तुम समझ ही नहीं पाते कि क्या है। वे तार तुम्हारी समझ में नहीं आते। और अगर कभी तुम उन्हें छेड़ते हो तो सिर्फ बेसुरापन पैदा होता है, क्योंकि कला तुम्हें नहीं आती।
धर्म और क्या है? अंतर्वीणा को बजाने की कला है!
तीन-तीन बार तुमने प्रयास किया और तुम हार गए, अब तो उम्र भी हो गई। बयालीस साल की उम्र तक पुरुष का स्त्री में रस रहे, स्त्री का पुरुष में रस रहे, यह स्वाभाविक है। इसमें कुछ पाप नहीं है। जैसे चौदह साल की उम्र में रस पैदा होता है। जीवन में सारे परिवर्तन सात-सात साल के बिंदुओं पर होते हैं। पहला परिवर्तन तब होता है जब बच्चा सात साल से आठ साल का होता है। तब उसमें अहंकार का जन्म होता है। वह अपने मां-बाप से मुक्त होने की कोशिश करता है। इसलिए सात साल के बच्चे हर चीज में इनकार करने लगते हैं--नहीं करूंगा, नहीं जाऊंगा। और जो-जो उनसे कहो, वही इनकार करेंगे; और जो इनकार करो कि मत करना--सिगरेट मत पीना, सिनेमा मत जाना, वे पहुंच जाएंगे और सिगरेट भी पीएंगे। इनकार से अहंकार पैदा होने का उपाय बनता है। सात साल की उम्र में अहंकार पैदा होता है, व्यक्ति अपने को अलग करता है मां-बाप से। सात साल की उम्र में वस्तुतः मां-बाप के गर्भ से मुक्त होने की चेष्टा शुरू होती है। चौदह साल में चेष्टा पूरी हो जाती है।
इसलिए चौदह साल के बच्चे मां-बाप को भी जरा बेचैन करते हैं और बच्चों को मां-बाप भी जरा बेचैन करते हैं। चौदह साल का बच्चा बाप के सामने खड़ा होता है तो बाप भी थोड़ी मुश्किल में पड़ता है। और चौदह साल का बच्चा भी अपने को हमेशा मुश्किल में अनुभव करता है। अब उसकी कामवासना जगनी शुरू होती है। दूसरे सात साल पूरे हो गए। अहंकार के बिना कामवासना नहीं जग सकती। पहले अहंकार जगे, तो ही कामवासना जग सकती है। पहले मैं जगे, तो तू की तलाश जग सकती है। नहीं तो तू की तलाश कैसे होगी? चौदह साल में वासना जगती है।
अट्ठाइस साल में वासना अपने शिखर पर पहुंच जाती है। चौदह साल में जगती है, इक्कीस साल में परिपक्व होती है, अट्ठाइस साल में अपने शिखर पर पहुंच जाती है। पैंतीसवें साल में ढलान शुरू हो जाता है। पैंतीस साल में जिंदगी का आधा हिस्सा आ गया। पहाड़ी चढ़ गए तुम जितनी चढ़नी थी, पैंतीस के बाद उतार शुरू होता है। बयालीस में एकदम शिथिल होने लगती है। उनचास में समाप्त हो जाती है।
बयालीस के पहले तक स्त्री में पुरुष का रस, पुरुष में स्त्री का रस स्वाभाविक है। बयालीस के बाद शिथिलता आनी शुरू होती है। उनचास में समाप्त हो जानी चाहिए, अगर जीवन बिलकुल स्वाभाविक चलता जाए। उनचास के बाद एक नया अस्तित्व का चरण उठता है। जैसे एक से सात तक अहंकार को पाला था, ऐसे ही उनचास से छप्पन तक अहंकार का विगलन शुरू होता है। ये ही क्षण हैं जब आदमी धार्मिक होने की चेष्टा में संलग्न होता है। छप्पन से लेकर तिरसठ तक अहंकार शून्य हो जाना चाहिए। और तिरसठ से सत्तर तक निर-अहंकार जीवन होना चाहिए।
अगर सत्तर वर्ष में हम जीवन को बांट दें, तो जैसे पहले से सात साल तक निर-अहंकार जीवन था, ऐसे ही फिर तिरसठ से सत्तर तक निर-अहंकार जीवन हो जाना चाहिए--समाधिस्थ का जीवन, मृत्यु की तैयारी, परमात्मा से मिलने का उपाय।
अब तुम कहते हो कि तुम पचपन के हुए! अब समय गंवाने को नहीं है। ऐसे ही काफी समय गंवा चुके हो। और तीन बार संयोग की बात थी कि स्त्रियां उदारमना थीं, छोड़ कर चली गईं। अब चौथी भी इतनी उदारमना होगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। अवसर भी एक सीमा तक दिए जाते हैं। बार-बार मिलते ही रहेंगे, इतना भी भाग्य पर भरोसा मत करो।
और ध्यान रखो, समझदार आदमी दूसरे के अनुभव से भी सीख लेता है। और नासमझ अपने अनुभव से भी नहीं सीख पाता। तुम्हें मिला क्या है? एक बार इसका निरीक्षण करो। जीवन में सिर्फ आशाएं हैं, अनुभूतियां कुछ भी नहीं। मिलेगा, ऐसी आशा रहती है। मिलता कभी कुछ नहीं। बुद्धिमान आदमी दूसरे के जीवन को भी देख कर समझ जाता है। अब समय आ गया है कि थोड़ी बुद्धिमानी बरतो।
मैंने सुना है, एक अदालत में मुकदमा था। मुल्ला नसरुद्दीन गवाह की तरह मौजूद था। मजिस्ट्रेट ने उससे पूछा कि नसरुद्दीन, जब इस स्त्री की अपने पति के साथ लड़ाई हुई, तब तुम क्या वहां मौजूद थे? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, जी हां! जज ने पूछा कि तुम उसके गवाह की हैसियत से क्या कहना चाहते हो? बोलो! मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, यही हुजूर कि मैं कभी शादी नहीं करूंगा।
आदमी दूसरे के अनुभव से भी सीख लेता है। तुम स्वयं तीन-तीन बार अनुभव से गुजर चुके, तुम कब दूसरे से मुक्त होओगे? काफी हो गई देर। अब तो सांझ भी होने लगी। पचपन साल के हो गए, अब सांझ का वक्त आने लगा, अब रात की तैयारी करो। अब दूसरी यात्रा की तैयारी करो, अब आगे और भी पड़ाव हैं। इस शरीर के पार और भी मंजिलें हैं--इम्तहां अभी और भी हैं! अब यहीं मत उलझे रहो। अब यह जो चित्त बार-बार अभी भी स्त्री की तरफ जा रहा है, यह जाता रहेगा, अगर तुमने ध्यान में न लगाया। इसे कोई डेरा चाहिए, कोई पड़ाव चाहिए, कोई ठहरने की जगह चाहिए। यह जाता रहेगा स्त्री की तरफ, अगर तुमने इसे परमात्मा में न लगाया। अब तो परमात्मा को ही प्रेयसी बनाओ। अब तो उसी प्यारे की खोज करो। अब तो उसी से राग, उसी से रास रचाओ। अब तो उसी से भांवर डालो। अब तो उसी से फेरे पड़ जाएं। उससे पड़े फेरों का कभी फिर अंत नहीं होता। उससे ही साथ हो जाए। अब तो विवाह उसी से कर लो।
कबीर कहते हैं: ‘मैं राम की दुल्हनिया।’
अब तो कुछ ऐसा करो। इस संसार में तीन-तीन बार तुमने रास रचाना चाहा, नहीं रच पाया; तीन-तीन बार भांवरें पड़ीं और टूट-टूट गईं; तीन-तीन बार साथी खोजा और साथी खो-खो गया। अब तो उसे खोजो जो कभी खोता नहीं है। जो मिला सो मिला।
धन्यवाद दो तीन पत्नियों को! नहीं तो एक ही डुबाने को काफी थी। सौभाग्यशाली हो तुम! मगर अपने सौभाग्य को अब दुर्भाग्य में मत बदलो।
और ध्यान रखना कि मैं किसी को असमय में नहीं कहता कि कोई छोड़ कर भाग जाए। लेकिन तुमसे तो कहूंगा। अगर यही बात कोई और मुझसे पूछता...कल ही रात किसी युवक ने पूछी--अभी उम्र होगी कोई अट्ठाइस साल की--कि ब्रह्मचर्य का भी मन में बड़ा भाव उठता है और कामवासना भी उठती है, मैं क्या करूं? मैंने उससे निश्चिंत कहा कि तू अभी कामवासना में जा। अभी ब्रह्मचर्य को रहने दे। लेकिन तुमसे मैं यह न कह सकूंगा।
इसलिए ध्यान रखना, मेरे वक्तव्य विरोधाभासी होंगे बहुत बार। अब कल तुम कभी इसको किसी किताब में पढ़ोगे कि मैंने किसी को कहा है कि ब्रह्मचर्य की फिकर छोड़, अभी तू कामवासना में जा! तुम इसे अपने लिए मत समझ लेना! यह किससे कहा है, किसके संदर्भ में कहा है, वह स्मरण रखना। अगर यह युवक अभी भाग जाए--भागना चाहता है--तो पछताएगा। और पीछे जब कोई पछताता है तो बड़ी मुश्किल हो जाती है। जब समय है किसी जीवन की अनुभूति में उतरने का, तब उतर जाना उचित है। क्योंकि फिर पीछे उतर भी न सकोगे। और बिना उतरे अटके रह जाओगे।
मैंने सुना है, एक पहाड़ी की चोटी पर एक योगी रहता था। वह जवान था, स्वस्थ और सुंदर शरीर का मालिक था। मगर उसने शरीर का खयाल त्याग दिया था। दुनिया को भी त्याग दिया था। ऐश-आराम को त्याग दिया था। पत्नी-बच्चों को छोड़ कर पहाड़ पर भाग आया था। वह दिन भर भगवान की लौ लगाए समाधि में बैठा रहता था, आंखें भी नहीं खोलता था। नीचे पहाड़ के पास बसे गांव से कुछ लोग भोजन लाकर रख जाते थे। जब कोई वहां न होता, चुपचाप भोजन कर लेता, फिर अपनी लौ में लग जाता। एक दिन एक जवान औरत उस पहाड़ी की चोटी पर आई। योगी ने उसे देखा। औरत कोई सुंदर नहीं थी, पर जवान थी। पूछा योगी ने, कहो, कैसे आना हुआ? उस स्त्री ने कहा, मैं योगी जी को देखने आई हूं। सुना है कि यहां बहुत बड़े योगी रहते हैं, जो ब्रह्मचारी हैं। औरत सुंदर तो नहीं थी, लेकिन उसके शरीर में जवानी का खमीर था। उसकी आवाज में शहद और शराब घुले हुए थे। योगी ने उसकी तरफ ध्यान से देखा और उसकी आंखों से दो आंसू टपके और उसने जवाब दिया कि तुम थोड़ी देर करके आईं। पहले यहां एक योगी ब्रह्मचारी रहते थे, अब नहीं रहते। तुम क्या आईं, योगी ब्रह्मचारी जा चुके हैं!
एक उम्र है। असमय में कुछ भी न करो।
तुमसे तो मैं कहूंगा कि पचपन काफी समय हो गया। कौन जाने कितने थोड़े से दिन बचे हों जिंदगी के! अब उन्हें भजन में लगाओ।
हो चुका है चार दिन मेरा-तुम्हारा
प्रेम हंसिनी, हेम हंसिनी, और इतना भी यहां पर कम नहीं है।

एक आंधी है उठी गर्दोगुबारी
औ’ इसी के साथ उड़ जाना मुझे है,
जानता मैं हूं नहीं, कोई नहीं है
कब तुम्हारे पास फिर आना मुझे है,
यह विदा का नाम ही होता बुरा है
डूबने लगती तबीयत, किंतु सोचो--
हो चुका है चार दिन मेरा-तुम्हारा,
प्रेम हंसिनी, हेम हंसिनी, और इतना भी यहां पर कम नहीं है।

पंख चांदी के मिले हों या कि सोने
के मिले हों, एक दिन झड़ते अचानक,
औ’ सभी को देखनी पड़ती किसी दिन,
जड़ प्रकृति की एक सच्चाई भयानक,
किंतु उनके वास्ते रोएं उन्हें जो
बैठ सहलाते रहे हैं, किंतु उनसे जो वसंती
बात बहलाते बवंडर सात दहलाते
रहे हैं, जिंदगी उनके लिए मातम नहीं है।
हो चुका है चार दिन मेरा-तुम्हारा,
प्रेम हंसिनी, हेम हंसिनी, और इतना भी यहां पर कम नहीं है।
हो गया चार दिन का मेरा-तुम्हारा, हो गए चार दिन के राग-रंग, हो गए चार दिन सपने, देख लिए--जरूरी था देखना, जागने के लिए सपने देखना जरूरी है--भटक लिए, अब घर की तलाश हो।
हो चुका है चार दिन मेरा-तुम्हारा,
प्रेम हंसिनी, हेम हंसिनी, और इतना भी यहां पर कम नहीं है।
पचपन वर्ष लंबा समय है। बहुत तो गुजार आए, थोड़ी बची है। हाथी तो निकल गया, शायद पूंछ ही बची है। पूंछ भी निकल जाएगी जब हाथी निकल गया। हाथी तो व्यर्थ ही निकल गया, अब जरा पूंछ को थोड़ी सार्थकता दे लो। संसार की आपाधापी में, दौड़-धाप में, वासना में, इच्छा में, महत्वाकांक्षा में सिर्फ गंवाना ही गंवाना है, पाना कुछ भी नहीं है। और अगर कुछ पाना है तो इतना ही कि इस सारी व्यवस्था के प्रति कोई जाग कर देख ले कि यह सपना है, माया है, मेरी ही वासनाओं का वेग है। अब अपने को देखो, दूसरे से मुक्त होओ। अब भीतर की तरफ मुड़ो। अब घर लौटो।

चौथा प्रश्न:
भगवान, आपके सान्निध्य में मेरा जीवन इतना बदल रहा है कि मैं जन्मों-जन्मों तक भी इस ऋण से मुक्त नहीं हो सकती। मेरा मौन भी गहराता जा रहा है। लेकिन मेरे मौन से मेरे स्वजनों को मेरे ऊपर उदासी उतरती नजर आती है, क्योंकि मैं उनके साथ नहीं रहती। मुझे अपने लिए चिंता होने लगी है कि मैं शांत हो रही हूं या उदास? कृपया मार्ग बताएं।
शांति जब आती है तो बहुत कुछ उसका रंग-ढंग उदासी का होता है। उदासी से उसका थोड़ा तालमेल है। इसलिए अक्सर शांत व्यक्ति को बाहर से देखने वाले लोग समझ सकते हैं कि उदास हो गया। क्योंकि वे पुराने कहकहे अब न होंगे, वह राग-रंग अब न होगा, गपशप में उत्सुकता अब न होगी, परनिंदा में रस अब न होगा, रेडियो-टेलीविजन और फिल्म में जाने में आतुरता न होगी। शांत व्यक्ति में ये सारी बातें खो जाएंगी। उसके भीतर इतनी रसधार बहने लगी है कि अब बाहर उसकी तलाश नहीं है।
मनोरंजन की जरूरत किसको पड़ती है? जो उदास है। इस सत्य को समझने की कोशिश करो।
जितना उदास आदमी, उतने मनोरंजन की जरूरत पड़ती है। इसलिए अमरीका में सबसे ज्यादा मनोरंजन के साधन ईजाद किए जा रहे हैं, क्योंकि अमरीका बहुत उदास है। सब है, और कुछ भी मालूम नहीं होता कि सार्थक है। तो नई-नई तलाश की जाती है--नये उपाय खोजो, नये नशे खोजो, नई स्त्रियां खोजो, नये पुरुष खोजो। खोजते रहो कुछ भी, कहीं अपने को उलझाए रखने के लिए। सांड़ों को लड़ाओ, कबूतर लड़ाओ, तीतर लड़ाओ, या आदमियों को लड़ाओ। उत्तेजना का कोई उपाय खोजो। फिल्में भी बनानी होती हैं तो ऐसी जिनमें उत्तेजना हो। छुरे खिंचें, बंदूकें चलें, हत्याएं हों, आत्महत्याएं हों, जासूसी हो। किसी तरह इस मुर्दा होते आदमी को थोड़ी सी ललक आए। वह जरा रीढ़ को सीधा करके फिल्म देखते वक्त बैठ जाए और देखने लगे कि हां, कुछ हो रहा है! कि जिंदगी में कुछ हो रहा है!
एक स्त्री से थक गए, अब दूसरी स्त्री खोज लो। थोड़ी देर को तो ललक रहेगी। फिर से हनीमून हो जाए। दो-चार दिन फिर से ज्योति आ जाए, लगे कि हां, कुछ हो रहा है! जिंदगी बेकार नहीं है। एक धंधा करते-करते थक गए, धंधा बदल लो। जुआ खेल लो। दांव पर लगा दो रुपये। जब दांव पर आदमी रुपये लगाता है तो पता नहीं जीतेगा कि हारेगा। चित्त ठहर जाता है! एक क्षण को सब भूल जाता है--जिंदगी की उदासी, बेचैनी, बोरियत, सब भूल जाता है। एक क्षण को एकदम ताजा हो जाता है कि पता नहीं क्या होने जा रहा है! लोग खतरे उठाने जाते हैं--पहाड़ चढ़ते हैं, सागर तैरते हैं--सिर्फ इसीलिए कि किसी तरह से यह जो बोरियत चारों तरफ लद गई है, इससे थोड़ी देर के लिए छुटकारा हो जाए।
मनोरंजन की तलाश दुखी और उदास आदमी करते हैं। जो आदमी दुखी नहीं है, उदास नहीं है, वह मनोरंजन की तलाश नहीं करता। यह बड़ी उलटी बात है। अब तुम बुद्ध को अगर कहोगे कि चलो, नाटक दिखा लाएं। तो वे कहेंगे कि भई, तुम्हीं देखो! मैंने सब नाटक देख लिए। तुम बुद्ध को कहोगे कि नर्तकी नाचने आई है, सारा गांव जा रहा है, आप भी चलें! तो बुद्ध कहेंगे कि तुम जाओ, मेरा आशीष, तुम्हारे कुछ क्षण आनंद से कटें। लेकिन मेरे भीतर ऐसा नृत्य हो रहा है कि उसके मुकाबले अब कोई नृत्य कोई अर्थ नहीं रखता। जैसे-जैसे बाहर की उदासी कट जाएगी, वैसे-वैसे बाहर के मनोरंजन का भी कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। यही हो रहा होगा शांता को।
और ध्यान रखना, उसे मैंने नाम दिया है शांता। इसीलिए दिया है कि शांत होने की उसकी क्षमता है। शांति बढ़ रही है। मगर दूसरों को उदासी जैसी लगेगी, उससे चिंता मत लेना। चिंता पैदा होती है, क्योंकि हम दूसरों की बात मान कर सदा जीते रहे हैं। मां कहती है कि तू उदास दिखती है; पिता कहते हैं कि तू उदास दिखती है; पति कहते हैं कि तू उदास दिखती है; भाई, बहन, मित्र, सब कहते हैं उदास दिखती है। इतने लोग गलत तो नहीं होंगे!
ध्यान रखना, इतने लोग सही हो ही नहीं सकते। सही तो कभी कोई एकाध होता है। यहां गलत की ही भीड़ है। सत्य के संबंध में लोकतंत्र नहीं चलता। कोई मत से सत्य तय नहीं होता। नहीं तो बुद्ध कभी के हार जाएं, क्राइस्ट कभी के हार जाएं, कृष्ण कभी के हार जाएं। सत्य के संबंध में कोई मत का अर्थ नहीं है। जो जानता है, जानता है। जो नहीं जानता, वह नहीं जानता। फिर चाहे कितनी ही बड़ी भीड़ हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? न तुम्हारी मां को पता है कि शांति क्या है, न तुम्हारे पिता को पता है, न तुम्हारे भाई को, न तुम्हारी बहन को। हां, उन्हें उत्तेजना पता है, मनोरंजन पता है। अब तुम्हारी उत्तेजना कम हो जाएगी। वे ताश लेकर बैठे हैं, वे कहते हैं, शांता आओ, ताश खेलो! और तुम कहती हो, मुझे ताश में कोई रस नहीं। तुम एक कोने में बैठ कर झाझेन करना चाहती हो--कि आंख बंद करके बैठे भीतर का रस ले रहे हैं। वे कहेंगे, यह क्या हो गया? ताश जैसी चीज! इस समय कोई आंख बंद करके बैठता है? चार आदमी ताश खेलते हैं, बीस आदमी खड़े होकर देखते हैं, वे भी बड़े उत्तेजित हो जाते हैं। एक-एक आदमी के पीछे चार-चार आदमी खड़े हो जाते हैं। दांव कोई लगा रहा है, मगर वे भी उसमें हिस्सेदार हो जाते हैं। जैसे उनका भी दांव लगा हुआ है। वे भी सलाह-मशविरा देने लगते हैं।
फिल्म आ रही है टेलीविजन पर और तुम आंख बंद किए बैठे हो। तो स्वभावतः घर के लोग सोचेंगे, यह क्या हो गया? भिन्नता के कारण उन्हें लगेगा, उदास हो गई शांता। उनकी चिंता मत करना। उनका प्रेम है, लगाव है, आसक्ति है--समझ उनमें नहीं है, आसक्ति उनकी है। और जब समझ नहीं होती तो आसक्ति बड़ी खतरनाक होती है। वे तुम्हें खींचने की कोशिश करेंगे। वे तुम्हें हर तरह से बाहर लाने की कोशिश करेंगे। शुभेच्छा से। उनकी इच्छा यही है कि उदासी टूट जाए। यह कहां की झंझट आ गई? यह भली-चंगी बेटी हंसती थी, नाचती थी, गाती थी, गहनों में रस था, घंटों दर्पण के सामने खड़ी रहती थी। अब इसने गैरिक वस्त्र पहन लिए! अब इसको वस्त्रों में रस नहीं है! नहीं तो रोज सांझ को जाती थी एम.जी.रोड। लोग शॉपिंग करें या न करें, फिर भी जाते हैं शॉपिंग को। ऐसा देखते ही निकलते जाते हैं। दुकानों में जो साड़ियां सजी हैं, उनको देख-देख कर भी बड़े मग्न होते हैं। अब यह एक रंग का कपड़ा दे दिया। अब इसमें कुछ उपाय न रहा बदलने का। घर के लोगों को लगेगा--यह क्या हो गया? अभी तो जवान हो, अभी तो उत्सुकता लेनी थी। अभी तो और-और रंग की नई साड़ियां बाजार में आ रही हैं। रोज-रोज नये ढंग के वस्त्र बन रहे हैं। बेटी को कुछ हो गया! वे चिंता करेंगे। वे खींचने की कोशिश करेंगे। उनसे सावधान रहना! उनकी आसक्ति खतरनाक है।
और तुम्हारी भी पुरानी आदतें पड़ी हैं जिंदगी भर की। वे भी तुमसे कहेंगी कि तुझे हो क्या गया? तेरा ही मन तुझसे कहेगा कि तुझे हो क्या गया? उदास क्यों हो गई? अब फिल्म क्यों नहीं? नाटक क्यों नहीं? तो न केवल बाहर से लोग कहेंगे, तुम्हारा मन भीतर से भी कहेगा कि कुछ गड़बड़ हो गई। क्योंकि जो नई घटना घट रही है, उसका मन को कुछ पता नहीं है।
संन्यास की क्रांति है--मनोभंजन। मनोरंजन नहीं, मनोभंजन।
इन दो शब्दों को याद रखना। मनोरंजन का अर्थ होता है: किसी तरह मन को खिलौने देकर समझा दो। फिर एक तरह के खिलौने बासे पड़ जाएं, फिर दूसरे तरह के खिलौने दे दो। बस उलझाए रहो मन को। मनोरंजन यानी उलझाए रहो। मनोभंजन का अर्थ होता है: देखो सत्य को और मन को विदा दे दो। मन को छोड़ ही दो। उस अ-मन की दशा में समाधि फलित होती है। उसके पहले कदम उठने शुरू हुए हैं। यह शांति ही है। इसमें जरा भी चिंता की जरूरत नहीं है।
जिंदगी को एक बहरे-बेकरां पाती हूं मैं
उनके हाथों मिट के उम्रे-जाविदां पाती हूं मैं
यह मिटने का रास्ता है। यहां परमात्मा के हाथ मिट जाता है व्यक्ति और मिट कर अमरत्व को पा लेता है।
जिंदगी को एक बहरे-बेकरां पाती हूं मैं
उनके हाथों मिट के उम्रे-जाविदां पाती हूं मैं
खुद-ब-खुद दिल हो गया दीनो-जहां से बेनियाज
अब जमीने-इश्क गोया आस्मां पाती हूं मैं
अपने आप इस जगत से एक तरह की उदासी आ जाएगी। क्यों? क्योंकि तुम्हारा सारा प्रेम आकाश की तरफ बहने लगेगा। तुम्हारी चेतनाधारा आकाश की तरफ उन्मुख हो जाएगी।
खुद-ब-खुद दिल हो गया दीनो-जहां से बेनियाज
अपने आप इस संसार से, इस तथाकथित शोरगुल, आपाधापी के संसार से, इस तथाकथित संबंधों के जगत से, इस सपनों के जाल से--खुद-ब-खुद दिल हो गया बेनियाज--उदास हो गया, उदासीन हो गया।
उदासीन शब्द बड़ा प्यारा है। उदास शब्द भी बड़ा प्यारा है। उसका वही अर्थ नहीं है जो शास्त्र में और भाषाकोश में लिखा हुआ है। उसका मौलिक अर्थ बड़ा अदभुत है! उदासीन का अर्थ होता है: अपने भीतर बैठ जाना। उद-आसीन। आसीन से आसन बनता है। अपने भीतर बैठ जाना। बड़ा अपूर्व अर्थ है उदासीन का। उसी से उदास बना है। उदासीन का अर्थ होता है: बाहर में रस न रहा, अपने भीतर रस आने लगा, भीतर बैठ गए। आसन वहां जम गया। बाहर के लोगों को लगेगा--कुछ गलती हो गई। तुम्हारे मन को भी लगता रहेगा--कुछ गलती हो गई। इसलिए सदगुरु की जरूरत है कि वह तुम्हें कहता रहे--गलती नहीं हो गई। नहीं तो तुम्हारे बाहर के लोग तुम्हें खींच लेंगे। तुम्हारा मन तुम्हें खींच लेगा।
खुद-ब-खुद दिल हो गया दीनो-जहां से बेनियाज
अब जमीने-इश्क गोया आस्मां पाती हूं मैं
झुटपुटे से दिल बुझा रहता है तेरी याद में
चांदनी रातों में अश्कों को रवां पाती हूं मैं
और बहुत बार आंसू भी झरेंगे। और बाहर के लोग समझेंगे--आंसू! आंसू यानी दुख।
तुम्हें समझना पड़ेगा, आंसुओं का एक और गुणधर्म है। आंसू आनंद के भी होते हैं। मगर बाहर तो सदा आंसू दुख के ही पाए जाते हैं। लोग दुख में रोते हैं। लेकिन तुम जानोगे धीरे-धीरे कि सुख में तो और भी अदभुत आंसू बहते हैं, बड़े आंसू बहते हैं, मोतियों जैसे आंसू बहते हैं। प्रार्थना में भी आंसू बहते हैं। परमात्मा की याद में भी आंसू बहते हैं। उन आंसुओं में दुख की कोई छाया भी नहीं है। उनमें आनंद ही आनंद है।
चांदनी रातों में अश्कों को रवां पाती हूं मैं
झुटपुटे से दिल बुझा रहता है तेरी याद में
सैकड़ों सज्दे तड़पते हैं जबीने-शौक में
ऐ हकीकत तेरे नक्शे-पा कहां पाती हूं मैं
अब भी आंसू बह निकलते हैं किसी की याद मैं
अंदलीबे-जार को जब नौहाख्वां पाती हूं मैं
अपना ऐ ‘तस्नीम!’ इस दुनिया से घबराता है दिल
बांकी हर शै को फकत वहमो-गुमां पाती हूं मैं
धीरे-धीरे बाहर की बातें तो व्यर्थ हो जाएंगी, भ्रम हो जाएंगी, उनमें कोई अर्थवत्ता न रह जाएगी, भीतर का एक नया जगत प्रकट होगा। संसार का असली रूप प्रकट होगा--परमात्मा प्रकट होगा।
शांता, तेरी आंख खुलनी शुरू हो रही है। मगर पुरानी आंखों का अभ्यास कहेगा कि तू अंधी हो रही है। और बाहर के लोग भी तुझसे कहेंगे कि तेरी आंखों को क्या हुआ? अब वे पुरानी जैसी नहीं मालूम होतीं! यह नये का जन्म हो रहा है। इस नये के जन्म का स्वागत करो, सम्मान करो। इस नये के जन्म का आलिंगन करो। अतिथि आ रहा है, आतिथेय बनो।

पांचवां प्रश्न:
भगवान, हमारे केंद्र में तीन साधक साक्षी के मार्ग पर गतिमान हैं। उनमें से एक मैं भी हूं। मैं इन लोगों से कहता हूं कि अब हमारे लिए कोई भी ध्यान करने की जरूरत नहीं है। अब तो होशपूर्वक सदा सब काम करना ही ध्यान है। लेकिन अन्य दो मित्रों का कहना है कि नटराज ध्यान करने से होश और भी बढ़ेगा। मैंने सब ध्यान बंद कर दिया है। कृपा कर इस दिशा में हमारा मार्गदर्शन करें।
पूछा है सागर के स्वामी सत्य भक्त ने।
सत्य भक्त! तुममें मैं मूढ़ता को रोज-रोज बढ़ते देख रहा हूं। तुम जितने प्रश्न पूछते हो...मैंने अब तक उनका कोई उत्तर नहीं दिया। जान कर ही नहीं दिया। कि तुम्हारे प्रश्न सिर्फ तुम्हारे अहंकार से आ रहे हैं, जिज्ञासा से नहीं। अभी तुमने ध्यान किया भी नहीं है, छोड़ने की तैयारी हो गई! सीढ़ी चढ़े ही नहीं हो अभी। मगर अहंकार बड़ा चालबाज है। वह कहता है, क्या करना है? साक्षी ठीक! अब साक्षी में तो कुछ करना ही नहीं होता। तुम्हारा साक्षी का सिर्फ बहाना है। अभी तुम साक्षी तो हो ही नहीं सकते। अभी तो ध्यान से निखार लाना होगा, तब तुम साक्षी हो सकोगे। अभी तुमने बीज नहीं बोए, तुम फसल काटने की बातें करने लगे हो।
तुमने ध्यान किया कब? और जो थोड़ा-बहुत तुमने पहले किया भी होगा, थोड़ा उछल-कूद, उससे कुछ हुआ नहीं है। उससे सिर्फ तुम्हारा अहंकार और अकड़ गया है। अब तुम यही समझने लगे कि तुम सिद्ध हो गए। और न केवल तुम समझने लगे हो, तुम वहां केंद्र पर सागर में दूसरों को भी समझा रहे हो कि तुम्हें भी कोई जरूरत नहीं है। अगर सच में ही तुम्हें साक्षी का भाव पैदा हो गया होता, तो तुम दूसरों को समझाते कि ध्यान से मेरा साक्षी पैदा हुआ है, तुम ध्यान करो। और अगर तुम्हें साक्षी का भाव पैदा हो गया होता, तो यह प्रश्न भी पैदा नहीं हो सकता था। क्योंकि जिसको साक्षी का भाव पैदा हो गया, उसके सब प्रश्न समाप्त हो गए। यहां जितने लोग हैं, सबसे ज्यादा प्रश्न तुम्हीं पूछते हो--हालांकि मैं उत्तर नहीं देता, यह पहली दफा उत्तर दे रहा हूं। तुम अपनी मूढ़ता में मत पड़ो। अभी ध्यान करना होगा! इतने जल्दी सिद्ध मत हो जाओ। साक्षीभाव आएगा। और साक्षी ध्यान के विपरीत थोड़े ही है। साक्षी के लिए ध्यान प्रक्रिया है। ध्यान की प्रक्रिया से ही अंतिम निखार साक्षी का पैदा होता है। वे एक ही क्रिया के अंग हैं।
लेकिन हमारे चालबाज मन हैं। वे कहते हैं, कुछ न किए अगर सिद्ध हो जाएं तो सबसे अच्छा। फिर तुम सिद्ध हो गए हो, तो तुम्हारे केंद्र पर जो लोग आते होंगे उनको तुम जंचते नहीं होओगे सिद्ध। तो उनको भी समझा रहे हो कि तुम भी सिद्ध हो जाओ। तुम हानि पहुंचा रहे हो! तुम अपने को नुकसान पहुंचा रहे हो, दूसरों को नुकसान पहुंचा रहे हो। सहारा दो दूसरों को ध्यान में जाने के लिए। और खुद भी अभी ध्यान में उतरो। और जब तुम सिद्ध हो जाओगे तो मैं तुम्हें कहूंगा कि तुम सिद्ध हो गए, तुम्हें बार-बार लिख कर भेजने की जरूरत नहीं है।
तुम्हारे हर प्रश्न में यही होता है कि मैं घोषणा कर दूं। प्रश्न मुझे लिख कर भेजते हो तुम बार-बार कि आप कह दें कि मैं सिद्ध हो गया हूं। आप औरों को भी खबर कर दें कि मैं सिद्ध हो गया हूं।
मैं खुद ही खबर कर दूंगा, तुम्हें पूछने की जरूरत नहीं होगी। और जो सिद्ध हो गया है, वह कोई सर्टिफिकेट की तलाश करेगा! तुम चाहते हो, मैं कह दूं कि तुम सिद्ध हो गए हो, तो तुम जाकर घोषणा करने लगो और लोगों की छाती पर बैठ जाओ और तुम उनको परेशान करने लगो। फिर तुम अपना तो अहित करोगे ही, दूसरों का भी अहित करोगे।
अभी ध्यान करो। अभी बीज बोओ! अभी फसल को उगाओ! काटने के दिन भी जरूर आएंगे। और अगर कोई अत्यंत निष्ठा और ईमान से एक क्षण भी ध्यान में उतर जाए, तो एक ही क्षण में वह दिन आ जाता है। मगर इतनी बेईमानी से चलोगे तो कैसे आएगा? तुम करना ही नहीं चाहते।
अब इसको थोड़ा समझ में लेना, यह औरों के भी काम की बात है।
दुनिया में आलसी लोग हैं, काहिल लोग हैं, सुस्त लोग हैं, जो कुछ नहीं करना चाहते। उनके लिए भक्ति में बड़ा सहारा मिल जाता है। वे कहते हैं, करना ही क्या है? सब भगवान कर रहा है। इसलिए हमें कुछ करना नहीं है। दुनिया में कर्मठ लोग हैं, अत्यंत कर्म में लिप्त लोग हैं, अहंकारी लोग हैं, आक्रामक लोग हैं। उनको कर्म के मार्ग पर सहारा मिल जाता है। वे कहते हैं, करके दिखाना है।
भक्ति के मार्ग से सिर्फ उनको ही लाभ होगा जो करेंगे और जानेंगे कि हमारे किए कुछ भी नहीं होता। लेकिन करना तो हमें है; क्योंकि अभी तो हमारे पास कुछ भी नहीं है। हम जब कर-कर के हार जाएंगे, तब परमात्मा की कृपा अवतरित होती है। जब हम पूरा कर चुकेंगे, तब उसकी कृपा अवतरित होती है। वे तो ठीक उपयोग कर रहे हैं भक्ति का। और जिन्होंने कहा कि करना ही क्या है, अब बस ठीक है, हम तो हो गए, उनके लिए भक्ति जहर हो गई। कर्म के मार्ग पर जो इसलिए कर्म में लगा है कि उसके अहंकार को तृप्ति मिलती है, वह कर्म के मार्ग से हानि उठा रहा है। वह उसके लिए जहर हो गया। लेकिन इसलिए करता है कि अभी तो हमें परमात्मा का कुछ पता नहीं, कौन है, कहां है; अभी तो हम विधान करेंगे, विधि करेंगे, अपनी पूरी चेष्टा करेंगे, अपना पूरा संकल्प लगाएंगे; शायद संकल्प के अंतिम चरण में समर्पण का जन्म हो। समर्पण का जन्म संकल्प के अंतिम चरण में ही होता है। क्रिया की पूर्ण निष्पत्ति में निष्क्रिया है। और ध्यान का आखिरी रूप साक्षी है।
तो तुम इतनी जल्दी न करो। और दूसरों को तो भूल कर मत समझाना! अभी तो तुम्हें ही बहुत समझना है।

छठवां प्रश्न:
भगवान, आपके संन्यासी धीरे-धीरे संसार में फैल रहे हैं। उनकी संख्या दिनों-दिन बढ़ रही है। यह संभावना भी तो है कि आपके जाने के बाद आपका संन्यास-धर्म एक वृहत्‌ संगठन का रूप लेगा जिसमें पद-श्रृंखला और राजनीति भी प्रविष्ट हो जाएगी। कृपा कर समझाएं कि क्या यह चक्र सदा-सदा चलता रहेगा?
पूछा है कृष्ण कुमार जाबाली ने।
तुम तो अभी संन्यासी भी नहीं हो। तुम्हें क्या चिंता?
फिर तुम कब तक यहां रहने का इरादा रखते हो? सदा! भविष्य में जो झंझटें आएंगी, उनको तुम्हें हल करना है? तुम अपनी झंझटें हल कर लो, इतना काफी है। भविष्य को भविष्य पर छोड़ो! आखिर भविष्य के लोगों को भी तो कुछ झंझटें हल करने को छोड़ोगे कि नहीं? कि तुम्हारा इरादा तुम्हारे साथ ही सृष्टि का अंत कर देने का है?
लोग बड़ी व्यर्थ के ऊहापोह में पड़ जाते हैं। लेकिन ये सब तरकीबें हैं मन की। और इन तरकीबों का तुम उपयोग वहीं करते हो जहां तुम बचना चाहते हो। एक भी आदमी ने मुझसे अब तक नहीं पूछा, मैंने लाखों लोगों के सवालों के जवाब दिए हैं, एक भी आदमी ने मुझसे नहीं पूछा कि हम मरेंगे, तो हम बच्चे को पैदा करें कि नहीं, क्योंकि फिर इसको भी मरना पड़ेगा। एक आदमी ने नहीं पूछा यह! लोग बच्चे पैदा किए चले जाते हैं। कोई नहीं पूछता यह कि इसको भी झंझटें आएंगी जो हमको आईं, तो झंझटें हल ही क्यों न कर दें, इसको पैदा ही न करें। कोई भी नहीं पूछता कि जब मृत्यु होने ही वाली है आगे, क्या आगे भी मृत्यु होती ही रहेगी? अगर आगे भी मृत्यु होती रहेगी तो बच्चे को पैदा क्यों करना? क्योंकि फिर यह मरेगा। नहीं, बच्चे तुम्हें पैदा करने हैं, तुम यह प्रश्न नहीं पूछते। लेकिन संन्यास लेने में तुम्हें डर है। डर को छिपाने के लिए नये-नये बहाने खड़े करते हो।
अब यह भी खूब अदभुत प्रश्न है! यह प्रश्न यह है कि आपके चले जाने के बाद...
अभी मैं यहां हूं! कोई मैंने ठेका लिया है दुनिया का मेरे चले जाने के बाद कि दुनिया में कोई समस्या नहीं बचने देंगे! समस्याएं उठती रहेंगी। जन्म के साथ मृत्यु आती रहेगी। और जब भी धर्म की कोई नई अवधारणा पैदा होगी--संगठन पैदा होंगे, चर्च बनेगा, संप्रदाय बनेगा और सब रोग आएंगे जो सदा आते रहे हैं। लेकिन इस कारण धर्म की अवधारणा नहीं रोकी जा सकती। जितनों को लाभ हो जाए, उतनों को सही। मेरी मौजूदगी में जितनों को लाभ हो जाएगा, हो जाएगा। और फिर भी जो समझदार हैं पीछे, उनको पीछे भी लाभ होता रहेगा। और जो नासमझ हैं, तुम जैसे, उनको अभी भी लाभ नहीं हो रहा है। तो मेरे होने न होने से क्या फर्क पड़ता है? नासमझों को अभी लाभ नहीं हो रहा, समझदारों को फिर भी होता रहेगा। नासमझों को अभी भी लाभ नहीं हो रहा है, नासमझों को तब भी नहीं होगा।
कृष्ण कुमार! तुम्हें अपनी चिंता है या सारे जगत की चिंता है? इतनी बड़ी चिंता मत लो। छोटी सी चिंताएं तो हल नहीं हो रही हैं। क्रोध तो हल नहीं होता, दुख तो हल नहीं होता, चिंता तो हल नहीं होती, अहंकार तो हल नहीं होता, तुम इतनी बड़ी चिंताएं मत लो।
लेकिन अक्सर ऐसा हो जाता है, आदमी अपनी छोटी चिंताओं को छिपाने के लिए बड़ी-बड़ी चिंताएं ले लेता है--मनुष्यता का क्या होगा? तीसरा महायुद्ध होगा तो फिर क्या होगा? अभी तुम हल नहीं कर पाए अपनी पत्नी से जो रोज युद्ध होता है वह हल नहीं होता, तीसरा महायुद्ध होगा तो फिर क्या होगा? यह तुम अपने मन को भरमा रहे हो। यह तुम अपने मन को नये-नये उपाय दे रहे हो। ताकि तुम्हें यह झंझट न सोचनी पड़े कि घर जाना है और पत्नी तैयार हो रही होगी। और फिर तुम्हें धूल चटाएगी। उस छोटी सी चिंता को हल नहीं कर पाते हो तो बड़ी चिंताएं खड़ी कर लेते हो।
मुल्ला नसरुद्दीन से मैंने एक दिन पूछा कि तेरी कभी अपनी पत्नी से कोई झंझट होती है? क्योंकि मैं झंझट देखता नहीं।
उसने कहा, कभी झंझट नहीं होती, क्योंकि जिस दिन मेरी शादी हुई उसी दिन हमने एक तय कर लिया कि बड़ी-बड़ी समस्याएं मैं हल करूंगा, छोटी-छोटी समस्याएं तू हल कर।
यह तो तूने बड़ा अच्छा उपाय किया; लेकिन कौन सी समस्याएं छोटी हैं, कौन सी बड़ी?
मुल्ला ने कहा, यह आप न पूछें तो ठीक है। क्योंकि जैसे तीसरा महायुद्ध होगा कि नहीं, इसको मैं हल करता हूं। और बच्चे को किस स्कूल में पढ़ने भेजना है, इसको वह हल करती है। किस सिनेमा में जाना है आज, यह वह हल करती है। इजराइल किसके पास होना चाहिए, यह मैं हल करता हूं। मुझे किस डाक्टर के पास इलाज करवाना चाहिए, यह वह हल करती है। और परमात्मा है या नहीं, यह मैं हल करता हूं। बड़ी समस्याएं मैं हल करता हूं, छोटी समस्याएं वह हल करती है। झगड़ा होता नहीं।
पत्नियां बहुत होशियार हैं। वे कहती हैं, बड़ी समस्याएं तुम हल करो--इजरायल, वियतनाम, इत्यादि-इत्यादि; तुम बैठे रहो, सोचते रहो। मगर जिंदगी की असली समस्याएं, उनको वे छोटी समस्याएं हैं, वे पत्नियां खुद हल कर लेती हैं।
तुमसे हल नहीं होतीं अपनी जिंदगी की समस्याएं, तुम अपने को झुठलाने को बड़ी-बड़ी समस्याओं का जाल खड़ा कर लेते हो; उन बड़ी समस्याओं के कारण तुम्हें अपनी समस्याएं इतनी छोटी और ना-चीज मालूम होने लगती हैं कि लगता है, हल ही क्या करना!
तुमने सुनी है न कहानी, अकबर ने एक लकीर खींची दरबार में और अपने दरबारियों से कहा: बिना इस लकीर को छुए कोई इसे छोटा कर दे। कोई न कर सका, लेकिन बीरबल ने एक बड़ी लकीर उसके नीचे खींच दी। और बिना छुए उसको छोटा कर दिया।
यही तरकीब है तुम्हारे मन की। यह तुम्हारा मनुष्य का मनोविज्ञान है। तुम्हारे पास समस्याएं हैं, बड़ी हैं, हल नहीं होतीं, तुम उनके सामने और बड़ी-बड़ी समस्याएं खड़ी कर देते हो; इतनी बड़ी कि वे बिलकुल छोटी हो जाती हैं, ना-चीज हो जाती हैं, खो जाती हैं। अब कौन फिकर करता है कि पत्नी से झंझट आज हुई, जब कि इजराइल में बड़ी भारी समस्या चल रही है! अब क्या फिकर करो कि घर में भोजन नहीं है! करोड़ों लोग प्रतिवर्ष बिना भोजन के मर रहे हैं। अब इसकी क्या चिंता करो कि चाय ठंडी पीनी पड़ रही है! जगत में बड़ी-बड़ी उलझनें हैं। मनुष्यता के बड़े-बड़े सवाल तुम लिए बैठे हो।
कृष्ण कुमार! तुम यहां आए हो, मैं यहां मौजूद हूं, मेरी मौजूदगी तुम्हारी मौजूदगी का मिलन होने दो! कुछ फल लगने दो इस मिलन में! तुम क्या फिकर कर रहे हो कि आगे क्या होगा? और आगे जो लोग हैं, उनके लिए हम आयोजन कर भी कैसे सकते हैं? हम उनके मालिक नहीं। हम किसी के मालिक नहीं। उनकी स्वतंत्रता का वे उपयोग करेंगे। अगर उनको दुख लेना होगा तो दुख लेंगे, और सुख लेना होगा तो सुख लेंगे। हर आदमी स्वतंत्र है अपना नरक और स्वर्ग बनाने को।
जीसस जिंदा थे, तो जिन लोगों ने लाभ लेना था, ले लिया। फिर पीछे जिन लोगों को चर्च बनाना था, उन्होंने चर्च बनाया। तुम क्या सोचते हो जीसस न होते तो चर्च न बनता? किसी और के नाम से बनता। चर्च बनाने वाले चर्च बनाते ही। वह उनकी जरूरत है। अगर बुद्ध न होते तो तुम क्या सोचते हो बुद्ध धर्म न होता? कोई और नाम होता! किसी और के बहाने बनता। किसी और के पीछे बनता। लेकिन जिनको बनाना था, वे बनाते। जिनको पूजा करनी है, वे पूजा करेंगे। तुम उनकी मूर्तियां तोड़ दो, वे पत्थरों की पूजा करेंगे।
मैंने सुना है, एक सूफी फकीर की एक आदमी ने बड़ी सेवा की। वह उस पर बड़ा खुश हो गया। जब जाने लगा तो अपना बड़ा कीमती गधा, जिस पर वह सवार होता था, उसको दे गया। कहा, इसको तू सम्हाल। वह भक्त भी बड़ा प्रसन्न हुआ, वह भी उस गधे को प्रेम करने लगा था।
फिर दो साल बाद वह गधा मर गया। अब भक्त ने सोचा कि सूफी का गधा है, तो कुछ न कुछ सूफी तो है ही। इतने बड़े गुरु का गधा। कोई छोटा-मोटा गधा तो नहीं, कोई साधारण गधा तो नहीं! ऐसे अलौकिक पुरुष का गधा! तो उसने उसकी सम्मानपूर्वक अंत्येष्टि की, कब्र बनवाई। ज्यादा उसके पास था भी नहीं, लेकिन जो भी था, लगा कर, संगमरमर की कब्र बनवा दी।
कब्र बन कर तैयार हुई कि लोग जो रास्ते से निकलते थे, वे फूल चढ़ाने लगे, कोई पैसा चढ़ाने लगा। उस गरीब आदमी ने देखा कि यह भी बड़ा मजा है। मगर था फकीर, पहुंचा हुआ फकीर था गधा! अब पक्का हो गया। हम तो सोचते थे कि गधा ही है, कई दफे संदेह भी आता था कि गधा आखिर गधा ही है। फकीर का भी हो तो क्या होता है, कोई सूफी के बैठने से सूफी थोड़े ही हो गया। मगर अब पक्का हो गया कि सूफी था! पहुंचा हुआ सिद्ध था।
लोग रुपये भी चढ़ाने लगे, मनौतियां करने लगे। लोगों की मनौतियां भी फलने लगीं। किसी को बेटा नहीं होता था, बेटा हो गया। अब दस आदमियों को बेटा न होता हो, दस जाकर मनौती करेंगे, पांच को तो हो ही जाएगा। और यह कहानी पुराने जमाने की है, जब कोई संतति-नियमन इत्यादि भी नहीं था, तब दस को ही हो जाता। किसी की बीमारी थी। अब बीमारी कोई ज्यादा देर थोड़े ही रुकती है! अगर तुम दवा न लो तो भी जाती है एक दिन। दवा लो तो भी जाती है! बीमारियां ठीक होने लगीं, बच्चे पैदा होने लगे, नौकरियां लगने लगीं। वह गरीब आदमी तो धनी होने लगा। उसने पास ही एक अपना स्थान भी बना लिया। वह उस कब्र का रक्षक हो गया। कोई पूछता ही नहीं कि इस कब्र में है कौन? कोई चार-पांच साल बाद तो वहां बड़ा महल खड़ा हो गया। धन ही धन फैल गया।
वह फकीर यात्रा को निकला था, हज को, गुरु, जो गधा दे गया था। वह वहां आकर रुका। उसने तो देखा तो समझ में ही नहीं आया कि एकदम चमत्कार हो गया! उसने पूछा कि भई, यहां मैं एक आदमी छोड़ गया था, गरीब आदमी, मेरी सेवा किया करता था।
वह आदमी अब तो गरीब रहा ही नहीं था। वह तो सोने में मढ़ा बैठा था। हीरे-जवाहरातों के ढेर लगे थे। उसने कहा कि आप मुझे पहचाने नहीं? मैं ही वह गरीब आदमी हूं। एकदम उनके पैर में गिर पड़ा गुरु के और कहा, आपकी बड़ी कृपा! आपकी कृपा से सब हो रहा है, चमत्कार हो रहे हैं।
गुरु ने पूछा, मगर हुआ क्या? कैसे हुआ?
उसने कहा, अब आपको एकांत में बताएंगे। वह जो आप गधा दे गए थे, बड़ा पहुंचा हुआ फकीर था। वह मर गया। उसकी मैंने कब्र बनाई। उससे ये सब चमत्कार हो रहे हैं। होते ही जा रहे हैं चमत्कार! इनका कोई अंत ही नहीं है! लोग बढ़ते ही जाते हैं, भीड़ बढ़ती ही जाती है! मेरे सम्हाले नहीं सम्हल रहा है। अब आप कहां जाते हैं? आप भी यहीं रहो!
वह फकीर हंसने लगा। उस गरीब आदमी ने पूछा, जो अब गरीब नहीं रहा था--कि आप हंसते क्यों हैं? उसने कहा, मैं हंसता इसलिए हूं कि इसकी मां भी बड़ी पहुंची हुई फकीर थी। वह जब मरी तो मैंने उसकी कब्र अपने गांव में बना दी थी, उसी के सहारे मैं जी रहा हूं। यह पुश्तैनी गधा था! यह कोई साधारण गधा था ही नहीं! इसकी मां भी ऐसी पहुंची हुई थी! उसकी कब्र मैंने बनवा दी, वहां भी यही राग-रंग चल रहा है।
अब जिनको कब्र ही पूजनी है, वे गधों की भी पूजेंगे! उनके लिए कोई बुद्ध की ही कब्र जरूरी नहीं है। वे किसी की भी कब्र पूज लेंगे। अब उनके लिए कोई बुद्ध हों, इसकी थोड़े ही आवश्यकता है। अब तुम सोचते हो गणेशजी कभी हुए होंगे? जरा सोचो तो, उनकी शक्ल-सूरत तो देखो! ये कभी हुए होंगे? मगर कोई चिंता नहीं, किसी को कोई चिंता नहीं कि ये हुए भी कि नहीं हुए? ये हो कैसे सकते हैं! मगर पूजा चल रही है। जिसको पूजा करनी है, वह गणेशजी की भी करेगा। कोई बुद्ध जी की ही आवश्यकता थोड़े ही है। लोग रास्ते के किनारे पत्थरों पर पोत देते हैं सिंदूर और फूल चढ़ा देते हैं, और पूजा शुरू हो जाती है। चर्च खड़ा हो जाता है, मंदिर खड़ा हो जाता है।
तुम इसकी चिंता में न पड़ो। जिन्हें मूढ़ता करनी है, वे सदा करते रहेंगे। और मूढ़ता अपने लिए सदा कारण खोज लेगी। कारणों की कमी नहीं है। लोग वृक्षों की पूजा करते हैं, नदियों की पूजा करते हैं। अब नदियां कोई बहना थोड़े ही छोड़ दें! अब गंगा क्या करे? रुक जाए, बहे न? लोग गंगा की ही पूजा कर रहे हैं। वृक्षों की पूजा चल रही है। वृक्ष क्या करें? रुक जाएं, बढ़ें न?
जो सदा होता रहा है, वैसा होता रहेगा। मेरे पीछे भी वही होगा। उसकी चिंता में तुम न पड़ो। और उसको बचाने का कोई उपाय नहीं है! समझदार अभी भी लाभ ले लेंगे, नासमझ अभी भी वंचित रहेंगे। समझदार फिर भी लाभ लेते रहेंगे, नासमझ फिर भी वंचित रहेंगे। यह सवाल नासमझी और समझदारी का है। अब तुम इतना ही तय कर लो कि तुम्हें नासमझों के साथ रहना है कि समझदारों के साथ रहना है, बस! इससे ज्यादा तुम्हारे लिए कोई चिंता का कारण नहीं है।
यह संसार चलता रहेगा। चलता ही रहना चाहिए। और प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है। कोई गधे को ही पूजना चाहे, तो यह उसकी स्वतंत्रता है, यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। इसको तुम रोक कैसे सकते हो? कोई गणेशजी को ही मानना चाहता है, तो माने। यह किसके हाथ में है कि रोके? और क्यों रोके?
मनुष्य की स्वतंत्रता ऐसी अपरिसीम है कि यह सब होता रहेगा। होता ही रहना चाहिए। हम दीये जलाएं। लेकिन तुम पूछते हो: जब दीया बुझ जाएगा, फिर क्या होगा? फिर क्या होगा! जब तक दीया है, तब तक उसकी रोशनी में कुछ पढ़ लो। तुम पूछते हो: जब दीया बुझ जाएगा, फिर क्या होगा? फिर लोग अंधेरे में कैसे पढ़ेंगे? तुम अभी उजाले में नहीं पढ़ रहे हो, और तुम चिंता कर रहे हो कि अंधेरे में लोग कैसे पढ़ेंगे! अब अंधेरे में पढ़ने वाले अंधेरे की बात सोचें।
और दीये हमेशा जलते रहेंगे। यह दीया बुझ जाएगा, कोई और दीया जलेगा। दीये सदा जलते रहे हैं। जिनको पढ़ना है दीये की रोशनी में, वे सदा खोज लेते हैं। वे दूर-दूर से चले आते हैं। तुम देखते हो, यहां कहां-कहां से लोग आए हुए हैं? उन तक दीये की कोई खबर पहुंच गई। यहां जमीन के हर देश से लोग हैं। चले आ रहे हैं। जिसको तलाश है, वह खोज लेगा। अब तुम भी नेपाल से चले आए हो! खाली हाथ मत लौट जाना! यहां प्रभु लुटाया जा रहा है, लूट लो! यहां कुछ रंग जाओ इस रंग में! कुछ जी लो जीवन! यह संगीत कुछ तुम्हारे प्राणों में उतर जाने दो। यह मिश्री तुम्हारे प्राणों में घुल जाने दो। तुम व्यर्थ की चिंताएं मत लो। उनसे तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है।
रंग में, धर्म में, देश में,
बंट रहा आज तक आदमी
रेख भूगोल पर खींच दी--
वो हमारे वतन हो गए।

खून आदम की औलाद का,
मंत्र से पूत जल बन गया,
धर्म, जो प्रेम के गीत थे--
आदमी का कफन हो गए।

नापता अपनी नहीं दूरियां,
नापता चांद को आदमी,
और इंसान के फासले--
अजनबी सी घुटन हो गए।

बंट गया नीलवर्णी गगन,
बंट गई ये धरा श्यामला,
और बारूद-गंधी पवन--
भोगते ही जनम हो गए।

आदमी ब्रह्म का अंश है,
आदमी देव का वंश है,
ये विशेषण हमारे लिए--
आत्मभोगी अहम्‌ हो गए।
करोगे क्या? उपनिषद के ऋषि ने घोषणा की: अहं ब्रह्मास्मि। अज्ञानियों ने सुनी, उन्होंने कहा: अहं ब्रह्मास्मि। उपनिषद के ऋषि का जोर था ब्रह्म पर, अज्ञानी ने जोर दिया अहं पर। उपनिषद के ऋषि ने कहा था: मैं ब्रह्म हूं। वह यह कह रहा था--मैं नहीं हूं, ब्रह्म है। अज्ञानी ने जोर दिया कि मैं ब्रह्म हूं। ब्रह्म-व्रह्म कहां, मैं हूं। दोनों एक ही वचन का उपयोग कर रहे हैं; लेकिन दोनों का जोर बदल गया।
अब क्या करोगे? क्या तुम यह कहोगे कि उपनिषद के ऋषि को चुप ही रहना था, ताकि अज्ञानी यह अहं ब्रह्मास्मि की घोषणा न कर सके? तो क्या तुम सोचते हो यह अज्ञानी कोई और रास्ता अहंकार का न खोज लेता? कोई कमी थी? जिन देशों में उपनिषद नहीं पैदा हुए, वहां अहंकारी नहीं हैं? लेकिन उपनिषद के ऋषि ने तो घोषणा कर दी, अब जो पी ले, पी ले; जो लाभ ले ले, ले ले। समझदार जहर को भी औषधि बना लेते हैं और नासमझ के लिए औषधि भी जहर हो जाती है। करोगे क्या!
मुझे जो कहना है, मैं कह रहा हूं। तुम्हारे मन में बैठ जाए तो सुन लो और सम्हाल लो, भविष्य की तुम चिंता न करो। उसे परमात्मा पर छोड़ो। इतना तो करो कम से कम! और कुछ मत छोड़ो, भविष्य को परमात्मा पर छोड़ो। फिर जो होगा, होगा। जैसा होगा, होगा। हम जितनी देर यहां हैं, हम से जो बन पड़े, हम से जो हो पड़े, वह हम कर लें। उतने से ज्यादा आदमी का वश नहीं है। उससे ज्यादा सिर्फ अहंकार है।

सातवां प्रश्न:
भगवान, प्रतिदिन जब ध्यान में बैठता हूं तो अति प्रसन्नता, आनंद से भर जाता हूं। और फिर सारा दिन ध्यान के समय की प्रतीक्षा में रहता हूं। फिर भी दूसरे व्यक्ति की उपस्थिति के समय, भोजन के समय, इत्यादि-इत्यादि, ध्यान भूल-भूल जाता है। अगर ध्यान में इतना आनंद, इतनी प्रतीक्षा रहती है, तो पूरा समय ध्यान की परिस्थिति क्यों नहीं बनी रहती? भगवान, हमारे पास प्रश्न ही प्रश्न हैं और आपके पास उत्तर ही उत्तर। क्षमाप्रार्थी हूं!
पूछा है ईश्वर समर्पण ने।
समझना।
जीवन में हमेशा अतियां हैं। और अतियों के बीच एक समन्वय चाहिए। दिन भर तुमने श्रम किया, रात तुमने विश्राम किया और सो गए। असल में जितना गहरा श्रम करोगे, उतनी ही रात गहरी नींद आ जाएगी। यह बड़ा अतर्क्य है। तर्क तो यह होता कि दिन भर आराम करते, अभ्यास करते आराम का, तो रात गहरी नींद आनी चाहिए थी। क्योंकि जिसने दिन भर अभ्यास किया विश्राम का, करवटें बदलता रहा बिस्तर पर पड़ा हुआ, बहाने करता रहा सोने का, उसको गहरी नींद आनी चाहिए रात में। तार्किक तो यही होता। क्योंकि दिन भर बिचारे ने अभ्यास किया सोने का, इसके अभ्यास का फल तो मिलना चाहिए। मगर जो दिन भर बिस्तर पर पड़ा रहा, वह रात सो न सकेगा। सोने की जरूरत ही पैदा नहीं हुई।
विपरीत से जीवन चलता है। दिन भर श्रम किया, वह रात सोएगा। इसलिए अमीर आदमी अगर अनिद्रा से बीमार रहने लगते हैं तो कुछ आश्चर्य नहीं। निद्रा का कारण ही नहीं रह जाता। तुमने देखा, बंबई की सड़क पर भी मजदूर सो जाते हैं। भरी दुपहरी में! बंबई का शोरगुल, रास्ता, और कोई अपनी ठेलागाड़ी के ही नीचे पड़ा है और सो रहा है, मस्त घुर्रा रहा है! और उसी के पास खड़े महल में कोई वातानुकूलित भवन में सुंदर-सुंदर शय्याओं पर रात भर करवट बदलता है। कुछ नींद नहीं आती। गरीब को अनिद्रा कभी नहीं सताती। गरीब और अनिद्रा, इसका मेल नहीं है। और अमीर को अगर अनिद्रा न हो तो समझना कि अमीरी में अभी कुछ कमी है। अभी अमीर हुए नहीं। अभी और बैंक-बैलेंस चाहिए। अभी गरीब ही हैं, तभी तो सो रहे हैं, नहीं तो सोते कैसे!
दिन में जो श्रम करता है, वह रात विश्राम करता है। श्रम और विश्राम का तालमेल है। दिन भर रोशनी, रात अंधेरा हो जाता है। रात और दिन का तालमेल है। जीवन और मृत्यु, दोनों साथ-साथ हैं। एक श्वास भीतर गई, तो एक श्वास बाहर जाती है। एक श्वास बाहर गई, तो फिर एक श्वास भीतर आती है। तुम अगर कहोगे कि मैं भीतर ही रखूं श्वास को, तो मुश्किल हो जाएगी। तुम कहो बाहर ही रखूं, तो मुश्किल हो जाएगी।
ऐसा ही स्मरण और विस्मरण का मेल है। ऐसे ही ध्यान और प्रेम का मेल है।
ध्यान और प्रेम दो प्रक्रियाएं हैं। प्रेम में दूसरे का स्मरण रहता है, ध्यान में स्वयं का। तुम चौबीस घंटे स्वयं का स्मरण करोगे तो थक जाओगे। थोड़ी-थोड़ी देर को दूसरे का स्मरण भी आ जाना चाहिए। उतनी देर विश्राम मिल जाता है। फिर से स्वयं का स्मरण आएगा।
इसलिए ईश्वर भाई का प्रश्न महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं: किसी से बात करते समय, किसी की उपस्थिति में, भोजन करते समय ध्यान भूल-भूल जाता है।
यह बिलकुल स्वाभाविक है। भूलना ही चाहिए। अगर तुम दूसरे की उपस्थिति में ध्यान का स्मरण रखोगे, तो तुम दूसरे का अपमान करोगे। क्योंकि उसका मतलब होगा, तुम दूसरे पर ध्यान दे ही नहीं रहे। वह तो ऐसे ही हुआ कि दूसरा आदमी सामने खड़ा है और तुम भीतर कह रहे: राम-राम, राम-राम, राम-राम! अब यह जो राम सामने खड़े हैं, इनका अपमान हो रहा है। तुम भीतर कुछ चला रहे हो! तुम कह रहे हो--होश रखना है! देखता रहूं! जागा रहूं! तुम एक काम में उलझे हो, यह बिचारा सामने खड़ा है, यह देखेगा कि मुझसे तो कुछ लेना ही देना नहीं है। यह अपमान हो जाएगा। यह राम का अपमान हो जाएगा।
जब कोई सामने मौजूद है, भूलो अपने को, पूरी तरह इसमें डूब जाओ! यह घड़ी प्रेम की है। ध्यान को प्रेम में डुबा दो। जब कोई नहीं है, अकेले बैठे हैं, तब फिर प्रेम को ध्यान में उठा दो, फिर ध्यान को पकड़ लो। एकांत में ध्यान, संग-साथ में प्रेम, दोनों के बीच डोलते रहो। इन दोनों के बीच जितनी यात्रा होगी, और जितनी सुगमता से यात्रा होगी, उतना ही आत्मविकास होगा। ये दोनों ऐसे ही हैं जैसे घड़ी का पेंडुलम बाएं जाता, दाएं जाता, बाएं जाता, दाएं जाता। घड़ी के पेंडुलम को बीच में पकड़ लो जोर से--घड़ी ठप्प! फिर घड़ी नहीं चलेगी। यह पेंडुलम जो जाता है दाएं-बाएं, इसके सहारे घड़ी चलती है। और जीवन का पेंडुलम हमेशा बाएं-दाएं जा रहा है। इसी के सहारे जीवन चलता है।
सब तलों पर, सब आयामों में, रात हो कि दिन, काम हो कि विश्राम, भीतर जाती श्वास हो कि बाहर जाती श्वास, ध्यान हो कि प्रेम, हर चीज में इन दो अतियों के बीच एक तालमेल है। संगीत पैदा होता है ध्वनि से और शून्य के मिलन से।
ऐसे ही जीवन का संगीत पैदा होता है प्रेम और ध्यान से। दोनों को सम्हालो! जब अकेले तब ध्यान में, जब कोई मौजूद हो तब प्रेम में। जब प्रेम में, तो अपने को बिलकुल भूल जाओ। और जब ध्यान में, तो दूसरे को बिलकुल भूल जाओ। और यह रूपांतरण इतना सहज होना चाहिए, इतना तरल होना चाहिए, कि इसमें जरा भी अड़चन न हो। यह सहज रूप से हो जाए। जैसे तुम घर के बाहर आते, भीतर जाते; जैसे श्वास लेते, श्वास छोड़ते; इतना ही सहज होना चाहिए।
मैं तुम्हें ध्यान और प्रेम, दोनों की अति एक साथ सिखाता हूं। जो अकेला ध्यान करेगा, उसके व्यक्तित्व में थोड़ी कमी रहेगी। वह रूखा रहेगा। इसलिए अगर जैन मुनि तुम्हें रूखे मालूम पड़ते हैं, बौद्ध भिक्षु रूखे मालूम पड़ते हैं, तो कुछ आश्चर्य नहीं! रूखेपन का कारण है--अकेला ध्यान। एक अंग चुन लिया। एकांगी हैं। अगर तुम्हें सूफी फकीर और भक्त रसपूर्ण मालूम पड़ते हैं, लेकिन होशपूर्ण नहीं मालूम पड़ते, तो वह दूसरी अति हो गई। उन्होंने प्रेम तो चुन लिया, मगर होश खो दिया। प्रेम में बेहोशी आ जाती है। ध्यान में रुक्षता आ जाती है। मैं चाहता हूं कि तुम पूरे मनुष्य हो जाओ।
पृथ्वी पर अब तक जितने धर्म रहे हैं, उन्होंने मनुष्य की समग्रता पर जोर नहीं दिया। अंग-अंग चुन लिए हैं। अंग-अंग चुनने में सरलता है। एक कोई चुन लिया तो बात हल हो गई। एक टांग तोड़ दी, एक ही टांग बचाई। मगर फिर चलना बंद हो जाता है। एक पंख काट दिया, एक ही पंख बचा लिया। मगर फिर उड़ना बंद हो जाता है। यह पृथ्वी बहुत धन्यभागी हो सकती है, अगर दोनों पंख हों। उन पंखों का मेरा नाम है--ध्यान और प्रेम।
दोनों को सम्हालो! दोनों के बीच एक तारतम्य, एक छंद पैदा करो। दोनों के बीच लयबद्धता को आने दो। उन दोनों के बीच तुम तीसरे को पाओगे, वही साक्षी है। उन दोनों के बीच जितना डूब जाओगे, जितनी सरलता से, स्वस्फूर्ति से लीन हो जाओगे, उतनी ही जल्दी तुम पाओगे--तीसरा पैदा हो गया। तीसरा पैदा ही तब हो सकता है जब दो की पूरी सरगम बैठ जाए।
उस तीसरे का नाम साक्षी है। वह पराकाष्ठा है। वही समाधि है। वही ब्रह्म-अनुभव है। वही बुद्धत्व है। वही जिनत्व है।

आज इतना ही।

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