SHANDILYA
ATHATO BHAKTI JIGYASA 35
ThirtyFifth Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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सूत्र
तत्छक्तिर्मांया जड़सामान्यात्।। 86।।
व्यापकत्वाद्वयाप्यानाम्।। 87।।
न प्राणिबुद्धिभ्योऽसम्भवात्।। 88।।
निर्मायोच्चावचं श्रुतीश्च निर्मिमीते पितृवत्।। 89।।
मिश्रोपदेशान्नेति चेन्न स्वल्पत्वात्।। 90।।
स्मरण करें पूर्वसूत्र का।
‘यह संपूर्ण विश्व भजनीय है; भगवान से अभिन्न है; क्योंकि सब कुछ उसका ही स्वरूप है।’
भजनीयेन अद्वितीयम् इदं कृत्स्नस्य तत् स्वरूपत्वात्।
यहां जो भी है, वही है। यहां प्रत्येक वस्तु आराध्य है। यहां और मूर्तियां बनाने की जरूरत नहीं है, सभी मूर्तियां उसकी हैं। यहां और मंदिर खड़े करना व्यर्थ है, सारा अस्तित्व उसका मंदिर है।
मनुष्य अधार्मिक हुआ इसी भ्रांति के कारण कि उसने मंदिर खड़े किए, मस्जिदें बनाईं, गिरजे बनाए। गिरजों-मंदिर-मस्जिदों ने एक भ्रम पैदा किया कि भगवान मंदिर में है।
भगवान सब जगह है, मंदिर के बाहर भी है, मंदिर में भी है। मंदिर भगवान में है। और सारा अस्तित्व भगवान में है।
पूजा का खयाल उठता है जब तुम मंदिर जाते हो। और यह शेष सब कौन है? इस शेष सबको तुम झुकते नहीं। इस शेष सबके आनंद से तुम भरते नहीं। फिर मंदिर कितने होंगे? यह सारा जीवन वंचित हो गया तुम्हारे मंदिरों के कारण। परमात्मा सिकुड़ गया, छोटा हो गया। तुमने उसकी मूर्तियां बना लीं, तुमने पवित्र तीर्थस्थल बना लिए। यह सारा स्थान ही तीर्थ है। यह सारा आकाश तीर्थ है। सब नदियां गंगाएं हैं। और सारी पृथ्वी पवित्र है। सब रूपों में वही है। इस पूर्व सूत्र का स्मरण करें। यह सूत्र अपूर्व है--
भजनीयेन अद्वितीयम् इदं...
अब दूसरे और किसका भजन करने जाते हो? भजन करने और कहीं जाने की जरूरत कहां है? तुम जहां हो, आंख खोलो। जिस पर आंख पड़ जाए, वही भजनीय है। तुम जहां हो, सुनो। जो सुनाई पड़ जाए, वही ओंकार का नाद है। छुओ किसी को, जो छूने में आ जाए, वह वही है। जिसे तुम अछूत कहते हो, उसमें भी तुम उसी को छूते हो। अस्पृश्य में भी उसी का स्पर्श होता है। जिसको तुम जड़ कहते हो, उसमें भी वही सोया है। जिसको तुम चेतन कहते हो, उसमें वही जागा है। इस विराट की प्रतीति जितनी सघन हो जाए, उतना शुभ।
और देखो, तुम्हारे मंदिर-मस्जिद ने न केवल परमात्मा को सिकोड़ कर छोटा कर दिया, तुम्हें भी सिकोड़ कर छोटा कर दिया। मंदिर जाने वाला हिंदू हो गया। मस्जिद जाने वाला मुसलमान हो गया। काश, हमने परमात्मा को ऐसा देखा होता जैसा शांडिल्य देखते हैं, तो कोई हिंदू न होता, कोई मुसलमान न होता। अगर तुम प्रत्येक वस्तु में परमात्मा को देखते, तो कैसे हिंदू होते? कैसे मुसलमान होते? कैसे एक-दूसरे की हत्याएं करते? धर्म के नाम पर अधर्म फैला। मंदिरों-मस्जिदों के नाम पर कितना खून बहा! परमात्मा को संकीर्ण किया, इतना ही नहीं, तुम भी संकीर्ण हो गए। होना ही था। जितना परमात्मा तुम्हारा संकीर्ण होगा, उतने ही संकीर्ण तुम हो जाओगे।
तुम्हारा परमात्मा तुम्हारे हृदय की खबर देता है। तुम्हारा परमात्मा मंदिर में बंद है। तो तुम भी किसी कारागृह में बंद हो गए। हिंदू हो उस कारागृह का नाम, जैन हो, ईसाई हो, यहूदी हो, इससे फर्क नहीं पड़ता--ये कारागृहों के अलग-अलग नाम हैं। लेकिन जिस दिन तुम्हारा परमात्मा मुक्त होकर विचरण करेगा आकाश में, सूरज की किरणों में बहेगा, चांद-तारों में झलकेगा, लोगों की आंखों में दिखाई पड़ेगा, उस दिन तुम्हारी सारी सीमाएं टूट जाएंगी। असीम परमात्मा को जो जानेगा, पहचानेगा, वह स्वयं भी असीम हो जाएगा।
तुम्हारा परमात्मा तुम्हारे होने की कीमिया है। इसलिए परमात्मा की धारणा क्षुद्र मत कर लेना। वह धारणा साधारण धारणा नहीं है, उस पर तुम्हारा सारा भविष्य निर्भर है। उस पर तुम्हारा सारा जीवन बदलेगा, बनेगा, मिटेगा।
छोटे-छोटे घरघूले बना लिए लोगों ने!
इन पक्षियों की आवाज में वही है। सुनो! वृक्षों की हरियाली में वही है। आंख साफ करो और देखो! तुम्हारी पत्नी में, तुम्हारे पति में, तुम्हारे बेटे में, तुम्हारे पिता में वही है। फिर से तलाशो। अगर नहीं मिला है, तो कहीं तलाश में भूल हो गई है। तुमने पत्नी को पत्नी मान लिया, उसी में भूल हो गई। पत्नी मान लिया, अब तो तुम सोच ही कैसे सकते हो कि उसमें परमात्मा हो सकता है। और तुम सोचोगे भी तो पत्नी राजी न होगी--कि मैं तुम्हारी पत्नी हूं, यह तुम क्या कर रहे हो?
मेरे पास एक सज्जन आते थे। थोड़े झक्की स्वभाव के थे। ऐसे एक दिन चर्चा चल रही थी, और मैंने शांडिल्य का यह सूत्र उल्लेख किया और मैंने कहा कि यहां सभी परमात्मा हैं। पति में भी वही, पत्नी में भी वही। वे कुछ भाव में आ गए--झक्की थोड़े थे--भाव में आ गए, घर जाकर एकदम साष्टांग दंडवत, उन्होंने झुक कर पत्नी के चरण छू लिए।
पत्नी ने तो चीख मार दी कि ये पागल हो गए! घर के लोग इकट्ठे हो गए, पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गए कि तुम्हें हो क्या गया? और वे खूब हंसें। उन्हें आनंद बहुत आया। और लोगों का यह पागलपन देख कर उन्हें और भी बहुत हंसी आई। उन्होंने कहा, इसमें भूल क्या है? सारे शास्त्र यही कहते हैं कि सबमें परमात्मा है। तो मेरी पत्नी में नहीं है?
लोगों ने कहा, वे शास्त्र ठीक कहते हैं, मगर यह व्यावहारिक नहीं है। और शास्त्रों को बीच में मत लाओ। तुम गृहस्थ आदमी हो! तुम कहां की इन ऊंची बातों में पड़ गए!
मगर वे मानें नहीं। दूसरे दिन उन्हें मेरे पास लाया गया। और लोगों ने कहा, आप समझाइए इनको। मैंने कहा, इनको समझ आ गई है। नहीं, उन्होंने कहा...उनकी पत्नी रोने लगी मेरे पैर पकड़ कर कि आप किसी तरह इनको समझाइए, मेरे पैर न पड़ें! और सबके पड़ें। मैं इनकी पत्नी हूं!
हमने एक धारणा मान ली है। किसी को तुम पत्नी बना लिए हो, किसी को पति बना लिए हो! जरा कुरेदो, जरा राख के भीतर प्रवेश करो और तुम अंगारा पाओगे उसी का जलता हुआ। उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। तुम्हारे बेटे में वह तुम्हारे घर मेहमान हुआ है। तुम्हारी बेटी में फिर तुम्हारे घर आया है। अतिथि है तुम्हारा। लेकिन तुमने मान लिया है कि मेरा बेटा है, बस वहीं भूल हो गई। अब परमात्मा दिखना मुश्किल हो जाता है।
इसलिए ज्ञानियों ने कहा है: मेरे-तेरे को गिरा दो। क्योंकि मेरे-तेरे के गिरते ही जो पीछे छिपा है वह प्रकट हो जाएगा। मेरे-तेरे की राख ने उसके अंगार को बहुत बुरी तरह ढंक लिया है। जरा सोचो! मेरा-तेरा हटने दो। मेरे-तेरे को छोड़ कर देखो। मेरे-तेरे के वस्त्र अलग कर दो, नग्न सत्य को देखो। फिर कौन पत्नी है? कौन पति है? कौन बेटा है? कौन मां है? एक का ही खेल है।
शांडिल्य कहते हैं: वह संपूर्ण में छाया हुआ है। भगवान सबमें है। इसलिए विश्व भजनीय है। भजन करो विश्व का।
अब विश्व का भजन क्या करना होगा? तुम जहां तल्लीन हो जाओगे, वहीं भजन हो जाएगा। आई हवा, गिरने लगे वृक्षों से पत्ते, सरसराती हवा बह गई वृक्षों से, तुम मग्न होकर उसे सुन लेना; और तुम पाओगे--वह आया, उसके पदचाप सुनाई पड़े। उसने वृक्षों से ही पुराने पत्ते नहीं गिरा दिए, तुम्हारे पुराने पत्ते भी गिरा दिए। वह तुम्हें भी झकझोर गया, निखार गया, साफ कर गया। तुम्हारी धूल झाड़ गया। तुम्हें निर्मल कर गया। मेघ घिरें आकाश में, देखना उसे--कितने रूपों में घिरता है? कितने रूपों में तुम्हारी प्यास को तृप्त करता है? यह भजन।
इसलिए मैं कहता हूं: यह सूत्र बड़ा अदभुत है। ऐसी भजन की परिभाषा किसी ने भी नहीं की जैसी शांडिल्य ने की है। और सब भजन छोटे पड़ जाते हैं। कोई बैठा है, राम-राम, राम-राम जप रहा है। और राम चारों तरफ खड़े हैं। और तुम राम-राम, राम-राम जप रहे हो! अगर राम भी आ जाएं, खुद राम सामने आकर खड़े हो जाएं, तो तुम उनसे कहोगे: बाधा न दो। अभी मैं राम-राम जप रहा हूं। अभी आगे जाओ!
राम आए ही हुए हैं। लेकिन हमने एक आकार में सीमा बना ली है। हमने पकड़ लिया है कि धनुर्धारी राम! तो जब तुम्हारे सामने एक छोटा बच्चा किलकारी करता आ जाता है, तो तुम नहीं पहचान पाते। किलकारी करते राम तुम्हारे खयाल में नहीं हैं। जब एक पक्षी तुम्हारे सामने से उड़ जाता है तो तुम्हें खयाल नहीं आता, क्योंकि पक्षी धनुर्धारी नहीं होता। न मोरमुकुट बांधता है। लेकिन पक्षियों को बांसुरी की जरूरत क्या है? उनके कंठ उनकी बांसुरी हैं। और उनके कंठ परमात्मा को समर्पित हैं। और वृक्षों को मोरमुकुट बांधने की जरूरत क्या है? उनके फूल उनके मोरमुकुट हैं। कीमती से कीमती ताज फीके हैं एक छोटे से फूल के सामने। तुम जरा फिर से देखना शुरू करो। तुमने अब तक जो सीख लिया है, उसे अनसीखा करो। और तुम फिर से तलाश शुरू करो। अ ब स से शुरू करनी पड़ेगी खोज।
भगवान से अभिन्न है यह विश्व। सब कुछ उसका स्वरूप है। तत् स्वरूपत्वात्। इसी सूत्र को और आगे आज के सूत्रों में शांडिल्य ने बढ़ाया है।
पहला सूत्र--
तत्छक्तिः माया जड़ सामान्यात्।
‘भागवत्-शक्ति का नाम ही माया है; वह चैतन्य-शून्य होने पर जड़वत है।’
बार-बार तुमसे कहा गया है: माया असत्य है। माया से छूटो। माया से मुक्त होओ। माया पाप है। माया बंधन है। माया ही आवागमन है। जितनी गालियां दी जा सकती थीं, माया को दी गई हैं। सुनो शांडिल्य क्या कहते हैं? शांडिल्य कहते हैं: भागवत्-शक्ति का नाम ही माया है। वह झूठ नहीं है। वह झूठ कैसे हो सकती है? भगवान की ऊर्जा का नाम माया है। भगवान से जो निष्पन्न हो रही है वह असत्य नहीं हो सकती। हमारे शब्दकोशों में तो माया का अर्थ ही झूठ हो गया है--असत्य, मिथ्या, जो नहीं है और दिखाई पड़ता है। माया को हम सोचने ही लगे--भ्रम का पर्यायवाची। इतनी बार हमें समझाया गया है कि माया, माया, माया, झूठ है; यह संसार सब माया है।
कुछ भी माया नहीं है। शांडिल्य का क्रांतिकारी उदघोष सुनो। वे कहते हैं: माया परमात्मा की ऊर्जा है। उसकी शक्ति है। इसलिए परमात्मा से उद्भूत है; असत्य तो कैसे हो सकती है? और यह बात समझ में पड़ती है, सीधी-साफ है। यह सारा जगत असत्य है? लाख शंकराचार्य समझाएं कि यह सारा जगत असत्य है, शंकराचार्य को भी मान कर यही जीना पड़ता है कि यह जगत सत्य है।
एक शूद्र ने उनको छू लिया था काशी में, तो चौंक कर खड़े हो गए थे। और चिल्ला कर कहा था कि तुझे समझ नहीं है? मैं स्नान करके गंगा से आ रहा हूं और तूने मुझे छू लिया? अब मुझे फिर स्नान करना पड़ेगा!
उस शूद्र ने पता है क्या शंकर को कहा? उस सुबह बड़ी अदभुत वार्ता हुई। एक अज्ञानी ने ज्ञानी को चेताया! अज्ञानी अज्ञानी नहीं था। और ज्ञानी ज्ञानी नहीं था--तब तक।
उस शूद्र ने कहा, यह तो बड़ी ऊंची बात कह दी। तुम तो कहते हो: सब माया है। तो मैं सत्य हूं? और अगर माया तुम्हें छू गई, तो अपवित्र कैसे हो जाओगे? झूठ छू गया, तो अपवित्र कैसे हो जाओगे? किस गंगा में नहा कर आ रहे हो? सब तो माया है। झूठी गंगा में नहा कर आ रहे हो। और अब फिर उसमें नहाने जाना चाहते हो? फिर कौन सी चीज तुम्हें छू गई? मेरी देह ने तुम्हें छुआ है कि मेरी आत्मा ने? देह तो तुम कहते हो झूठ है, असत्य है। तो असत्य तो कैसे छुएगा? फिर मेरी देह हो कि तुम्हारी, दोनों असत्य हैं। दो असत्यों ने एक-दूसरे को छुआ तो कौन पवित्र हो जाएगा, कौन अपवित्र हो जाएगा? असत्य तो असत्य होते हैं। क्या पवित्र, क्या अपवित्र? तुम कहते हो: आत्मा सत्य है, आत्मा ब्रह्म है। तो मेरे ब्रह्म ने अगर तुम्हारे ब्रह्म को छुआ तो इसमें कौन सा पवित्र और अपवित्र होने वाला है? ब्रह्म तो ब्रह्म है। ब्रह्म तो सदा पवित्र है।
कहते हैं शंकर झुक गए थे लाज से। सिर झुका लिया था। और कहा, धन्यवाद कि मुझे चेताया। मैं दर्शनशास्त्र में ही उलझा हुआ हूं। बात तो ठीक है।
शब्दों के जाल घेर लेते हैं। लोगों ने तोतों की तरह सीख लिया है कि संसार माया है, इसमें क्या पड़े हो? लेकिन संसार माया है? ये वृक्ष झूठ हैं? ये लोग झूठ हैं? यह जो दिखाई पड़ रहा है सारा विस्तार, यह झूठ है? यह झूठ तो नहीं है। यह हो सकता है कि तुम्हारी इसके संबंध में धारणाएं गलत हैं, मगर इससे यह झूठ नहीं है। रस्सी पड़ी है, तुमने सांप समझ लिया। शंकर ने इसका उल्लेख बार-बार किया है, कि रस्सी पड़ी है और तुमने सांप समझ लिया, बस ऐसा ही यह संसार है। लेकिन रस्सी तो सच है न? सांप की समझ तुम्हारी है। सांप नहीं है वहां, ठीक। मगर समझ झूठ हुई, रस्सी तो झूठ नहीं हुई! रस्सी तो वहां है ही। उस रस्सी पर ही तुमने अपने झूठ को आरोपित कर दिया है।
तुमने अपनी पत्नी को मान लिया कि मेरी पत्नी है, यह झूठ होगा, लेकिन पत्नी में जो परमात्मा पड़ा है, जो उसकी किरण उतरी है, वह तो झूठ नहीं है? रस्सी तो है न? तुमने जिसको पत्नी मान लिया है, वह तो है न? तुम्हारा पत्नी मानना झूठ होगा।
तुमने जिस जमीन के टुकड़े को मान लिया है--मेरा, वह टुकड़ा झूठ नहीं है, तुम्हारा मेरा मानना झूठ है। क्योंकि तुम नहीं थे, तब भी टुकड़ा था। तुम नहीं होओगे, तब भी टुकड़ा रहेगा। तुम्हारा क्या है? तुम क्या ले आए और क्या ले जाओगे? सब यहीं था, सब यहीं रह जाएगा। तुम आए और तुम चले जाओगे। मेरा है, यह मान लेना झूठ था। लेकिन जमीन का टुकड़ा तो झूठ नहीं है। वह तो सत्य है।
संसार सत्य है। संसार के संबंध में हम जो ओछी धारणाएं बना लेते हैं, वे झूठ हैं। जिस दिन हमारी धारणाएं गिर जाती हैं और हम निर्धारणा होकर जगत को देखते हैं, उस दिन ब्रह्म का दर्शन हो जाता है। ब्रह्म ही है, हमारी धारणाओं के कारण हमें कुछ का कुछ दिखाई पड़ रहा है। सांप तुमने देख लिया है, सांप वहां है नहीं। मगर रस्सी है।
शंकर ने अपने उदाहरण में, रस्सी है, इसकी बात ही नहीं की। सांप नहीं है, इसकी चर्चा को इतना फैलाया कि किसी ने पूछा ही नहीं कि रस्सी का क्या हुआ? रस्सी सत्य है।
शांडिल्य ज्यादा व्यावहारिक बात कह रहे हैं। ज्यादा तर्कयुक्त, ज्यादा सीधी-साफ, तथ्यगत, कि यह सारा विस्तार उस परमात्मा की ऊर्जा का विस्तार है। माया उसकी छाया है।
माया...ऐसा समझें हम कि माया और ब्रह्म का जोड़ा है। इसलिए भक्तों ने राधा और कृष्ण का जोड़ा बनाया है। सीता और राम का जोड़ा बनाया है। ये जोड़े प्रतीक हैं। भक्तों को महावीर अकेले खड़े अधूरे मालूम पड़ते हैं। कुछ कमी है। ब्रह्म तो जरूर हैं, लेकिन माया कहां है? ऊर्जा कहां है? शिव तो हैं, लेकिन शक्ति कहां है? यह आकस्मिक नहीं है कि भक्तों ने जोड़े पूजे हैं। भक्तों ने भगवान को जोड़े में पूजा है। वह प्रतीक है जोड़ा। पुरुष और नारी। ऐसे ब्रह्म और माया।
सीता झूठ है? जितने सच राम हैं, उतनी ही सीता सच है। और इस बात को बहुत प्रगाढ़ता से घोषणा करने के लिए भक्तों ने क्या किया देखते हो? सीता को पहले रखा। सीताराम। राधाकृष्ण। इस बात को प्रगाढ़ता से प्रकट करने के लिए कि माया न केवल सत्य है, बल्कि ब्रह्म के भी आगे है। क्योंकि पहले तो उसकी ऊर्जा का अनुभव होता है। पहले तो संसार का अनुभव होता है, फिर ब्रह्म का अनुभव होता है। इसलिए राधा पहले, कृष्ण पीछे। राधा में ही कहीं कृष्ण छिपे हैं। राधा के पीछे ही कहीं छिपे हैं। राधा की ही खोज में तुम निकल जाओगे तो कृष्ण को एक दिन पा लोगे। राधा कृष्ण की परिधि है।
वह देखा न, रास का चित्र देखा? कृष्ण बीच में हैं और गोपियां चारों तरफ नाच रही हैं। यह सारा अस्तित्व कृष्ण--या जो भी नाम तुम देना पसंद करो, ब्रह्म--के केंद्र पर नाच रहा है। यह सारा जगत एक नृत्य है। चांद नाच रहे, तारे नाच रहे, सूरज नाच रहे, पृथ्वी नाच रही; वृक्ष, पशु-पक्षी, मनुष्य, सारा जीवन, सारा अस्तित्व नाच में मग्न है। यह रासलीला है। बीच में कहीं केंद्र पर जो खड़ा है, जिसके सहारे यह सब सम्हला है--यह सारा रास उजड़ जाएगा, कृष्ण न हों तो सारा रास उजड़ जाएगा। लेकिन गोपियां न हों तो भी रास उजड़ जाएगा। ये दोनों अनिवार्य हैं। ये दोनों इतने अनिवार्य हैं कि दोनों को अलग-अलग करके देखने में ही भ्रांति हो जाती है। हम दोनों को एक ही सिक्के के दो पहलू समझें।
और यह सब जगह सत्य है।
तुम हो, तो तुम्हारी देह है और देह के भीतर तुम्हारी चेतना है। देह परिधि पर है--राधा पहले। इसलिए स्त्री को हमने प्रकृति कहा है। परमात्मा को पुरुष कहा है, स्त्री को प्रकृति कहा है। तुम्हारी देह तुम्हारे चारों तरफ नाच रही है। और तुम्हारे देह के केंद्र पर कहीं विराजमान है ब्रह्म। लेकिन तुमने कहीं आत्मा देखी? देह के बिना आत्मा खो जाती है। और आत्मा के बिना देह बिखर जाती है। यह रास दोनों साथ होते हैं तो चलता है। दोनों जुड़े होते हैं तो चलता है। दोनों के आलिंगन में चलता है। दोनों की ऊर्जा चाहिए ही। और यह ऊर्जा का सत्य जीवन के सब पहलुओं पर सत्य है।
तुम पूछो वैज्ञानिक से! वह कहेगा, विद्युत तभी हो सकती है जब पाजिटिव और निगेटिव साथ हों। नहीं तो बिजली खो जाएगी। वही शिव-शक्ति, वही राधा-कृष्ण। विज्ञान की भाषा में वह पाजिटिव-निगेटिव। जरा सोचो, पृथ्वी पर पुरुष ही पुरुष हों, स्त्रियां न हों, कितनी देर पृथ्वी बचेगी? असंभव है। या स्त्रियां ही स्त्रियां हों और पुरुष न हों, तो कितनी देर बचेगी?
इससे एक बात साफ होती है कि स्त्री और पुरुष दो हैं, ऐसा मानने में ही कहीं भ्रांति हो रही है। किसी एक ही वर्तुल के दो हिस्से हैं। चीनियों के पास ठीक प्रतीक है--यिन-यांग। किसी एक ही वर्तुल के दो हिस्से हैं। या हमारे पास जो मूर्ति है अर्धनारीश्वर की, वह ठीक प्रतीक है।
देखी है शिव की मूर्ति जिसमें शिव आधे स्त्री हैं, आधे पुरुष? वह अस्तित्व की सूचना है। वह खबर है इस बात की कि यह अस्तित्व आधा स्त्रैण है, आधा पुरुष। आधी प्रकृति, आधा परमात्मा। और दोनों से मिल कर एक निर्मित हो रहा है। दोनों का जहां मिलन है, वहीं अद्वैत है।
‘भागवत्-शक्ति का नाम ही माया है; वह चैतन्य-शून्य होने पर जड़वत है।’
इसे हम ऐसा समझें। जैसे तुम ठंडा और गर्म को समझते हो। सापेक्ष। रिलेटिविटी की बात है। किसी चीज को गरम कहें या ठंडा, यह सापेक्ष पर निर्भर है।
कभी एक छोटा सा प्रयोग करो। एक हाथ को बर्फ पर रख लो और एक हाथ को सिगड़ी पर आंच दे दो, और फिर दोनों हाथों को सामने रखी बाल्टी में भरे पानी में डुबा दो। और तुमसे कोई पूछे कि पानी गरम है कि ठंडा? तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। एक हाथ कहेगा ठंडा और एक हाथ कहेगा गरम। सापेक्ष है। जिस हाथ को तुमने अंगीठी पर गरम कर लिया है, वह कहेगा पानी ठंडा। उसकी तुलना में पानी ठंडा है। हाथ गरम है। और जो हाथ तुमने बर्फ पर ठंडा कर लिया है, उसको तुम पानी में डालोगे, उसको पानी कुनकुना मालूम पड़ेगा। क्योंकि हाथ ठंडा हो गया है, उसकी तुलना में पानी कुनकुना है। पानी फिर क्या है? ठंडा है या गरम है?
पानी दोनों है। तुम कहां से देखते हो, वैसा दिखाई पड़ जाता है।
तुम अगर बेहोशी से देखोगे तो माया दिखाई पड़ती है, होश से देखोगे तो ब्रह्म दिखाई पड़ता है, बस! तुम्हारे देखने के ढंग पर सब निर्भर करता है। जिन्होंने जाग कर देखा, उनको ब्रह्म दिखाई पड़ा।
भजनीयेन अद्वितीयम् इदं कृत्स्नस्य तत् स्वरूपत्वात्।
उस एक का ही सब विस्तार है--जिन्होंने जाग कर देखा। जिन्होंने सोकर देखा, उन्हें वह एक नहीं दिखाई पड़ा--कृष्ण नहीं दिखाई पड़ा, गोपियां नाचती हुई दिखाई पड़ती हैं। उन्हें संसार दिखाई पड़ता है।
इसको ऐसा समझो कि चट्टान है और मनुष्य है...उदाहरण के लिए। चट्टान को तुम जड़ कहते हो। क्यों? मनुष्य को तुम चेतन कहते हो। क्यों? भेद केवल मात्रा का है। वैज्ञानिक खोज कर रहे हैं, वे कहते हैं: चट्टान को भी कुछ-कुछ अनुभव होते हैं, संवेदना होती है। वैज्ञानिक खोज कर रहे हैं, वे कहते हैं: वृक्षों को भी संवेदना होती है, अनुभव होता है। चेतना वहां भी है। लेकिन कुछ धूमिल है। कुछ सोई हुई है।
ऐसा समझो, तुम रात सो गए हो, एक मच्छर काटता है, तो ऐसा नहीं कि तुम्हें पता नहीं चलता। बड़ा धुंधला-धुंधला पता चलता है। नींद में ही तुम हाथ से मच्छर को हटा देते हो। शायद सुबह तुमसे पूछा जाए तो तुम याद भी न कर सको कि रात मच्छर ने काटा। लेकिन तुमने मच्छर हटाया था रात। एक कीड़ा तुम्हारे पैर पर चढ़ रहा है, पैर झटक देते हो। तुम्हें पता भी नहीं है। लेकिन कुछ तो पता हो ही रहा होगा। तुम नींद में हो। इसलिए बोध साफ नहीं है, साफ-सुथरा नहीं है, नींद से भरा हुआ है।
शांडिल्य कहते हैं: परमात्मा में और प्रकृति में इतना ही फर्क है--प्रकृति सोया हुआ परमात्मा है और परमात्मा जागी हुई प्रकृति है। बस भेद जागने और सोने का है। चेतना धूमिल होती जाती है, तो जड़; और चेतना प्रगाढ़ होती जाती है, उज्ज्वल होती जाती है, तो चैतन्य। चैतन्य का आखिरी शिखर परमात्मा है और चैतन्य की आखिरी मूर्च्छा पदार्थ है। मगर दोनों अलग-अलग नहीं हैं। दोनों एक ही हैं। एक ही तारतम्य है। चट्टान सोई हुई चेतना है, आदमी जाग गई चट्टान है।
पूरा नहीं जाग गया है, अधूरा-अधूरा जागा है। क्योंकि जब कोई बुद्धपुरुष होता है, तो वह हमसे बहुत जागा हुआ है, उसके सामने हम चट्टान जैसे हो जाते हैं। इसलिए बुद्धों को भगवान कहा है। सिर्फ इसी प्रतीक के अर्थ में कि वहां चेतना पूरी हो गई है। बुद्ध को भगवान कहने का यह अर्थ नहीं होता कि उन्होंने दुनिया बनाई है। इतना ही अर्थ होता है कि भगवत्ता का जो लक्षण है--चैतन्य--वह उनमें पूरा हो गया है। वे पूरी तरह जाग गए हैं। उसका अंतस्तल रोशन हो गया है। अब वहां कोई भी अंधेरे का टुकड़ा नहीं बचा है। जरा सा भी द्वीप अंधेरे का नहीं बचा है। कोई कोना-कांतर अंधेरे से भरा हुआ नहीं है, रोशनी पूरी तरह व्याप्त हो गई है। सब रोशन हो गया है। इसलिए बुद्ध को, महावीर को भगवान कहा है। इसलिए नहीं कि उन्होंने दुनिया बनाई। सिर्फ इसीलिए कि भगवत्ता का जो परम लक्षण है--चैतन्य--वह उनमें प्रकट हुआ है। उसका प्राकट्य हुआ है।
शांडिल्य के हिसाब से चैतन्य और जड़ सापेक्ष हैं। चैतन्यशून्य होने पर जड़ता रह जाती है। और जड़ता के खो जाने पर चैतन्य का आविर्भाव हो जाता है। इसे इस भांति देखोगे, तो फिर संसार से विरोध छूट जाएगा। तब संसार से भागने की भी कोई जरूरत नहीं है। जागने की जरूरत है, भागने की जरूरत नहीं है। भागने से कैसे जागोगे? संसार का उपयोग कर लेने की जरूरत है। यहीं कहीं घूंघट में छिपा परमात्मा खड़ा है। घूंघट उठाओ। भाग कर कहां जाते हो? पहाड़ पर जाकर बैठ जाओगे, वहां क्या करोगे? वहां भी घूंघट उठाना पड़ेगा। वहां चट्टानों का घूंघट उठाना पड़ेगा, जो कि ज्यादा कठिन है। क्योंकि चट्टानों में परमात्मा बहुत गहरा सोया हुआ है। यहां पत्नी में काफी जागा हुआ था, बेटे में काफी जागा हुआ था, पति में काफी जागा हुआ था। यहां तुमसे घूंघट न उठ सका, तुम चट्टानों पर घूंघट उठा पाओगे? तुम चट्टानों में देख पाओगे परमात्मा को?
लेकिन अक्सर ऐसा हो जाता है कि चट्टानों में लोग आसानी से देख लेते हैं। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं: यह बहुत आसान है चट्टान में देख लेना, आदमी में देखना बहुत कठिन है। क्यों? क्योंकि चट्टान में तुम अकेले ही होते हो, अपनी कल्पना का फैलाव कर सकते हो। चट्टान कुछ बाधा नहीं डालती। तुम कहते हो: हे चट्टान, तू ब्रह्म स्वरूप है। चट्टान नहीं कहती, मैं नहीं हूं। चट्टान कहती है, तुम्हारी मर्जी! चट्टान कुछ बोलती ही नहीं। तुम्हें जो मर्जी हो, तुम मान लो। चट्टान को तुम्हारी चिंता नहीं है। लेकिन अगर पत्नी से तुम कहते हो, तो वह जवाब देती है। झगड़ा खड़ा हो जाता है, विवाद खड़ा हो जाता है। हर छोटी बात में विवाद हो जाता है। तुम अपने बेटे से कुछ कहते हो, वह कहता है, नहीं करेंगे। या यह हमें जंचता नहीं है। यह बात ठीक नहीं है।
यहां संसार में तुम्हारी अड़चन क्या है? तुम्हारी अड़चन यह है कि तुम अपनी कल्पना करने को पूरी तरह स्वतंत्र नहीं मालूम होते। बस इतनी ही अड़चन है। तुम जो कल्पना करते हो, दूसरे लोग उसको तोड़ देते हैं, उसे खंडित कर देते हैं। जंगल में तुम अकेले बैठ जाते हो गुफा में जाकर, वहां तुम्हारी कल्पना को खंडित करने वाला कोई नहीं होता। तुम जो कल्पना करो! तुम कहो, कृष्ण कन्हैया खड़े हैं। तो कृष्ण कन्हैया खड़े कर लो। तुम्हारी कल्पना है। तुम जो बात करना चाहो, कर लो। फिर अगर ज्यादा दिन रह गए पहाड़ पर, तो धीरे-धीरे तुम्हीं बात नहीं करते, तुम्हीं कृष्ण कन्हैया की तरफ से जवाब भी देने लगते हो। फिर पागलपन पूरा हो गया। फिर विक्षिप्तता पूरी हो गई। यही तो पागल का लक्षण है। अब वह अपनी तरफ से भी बोल लेता है, उस तरफ से भी बोल लेता है।
वैज्ञानिक कहते हैं--मनोवैज्ञानिक--कि अगर एक व्यक्ति को तीन सप्ताह तक एकांत में रखा जाए, तो वह अपने से ही बात करना शुरू कर देता है। और अगर तीन महीने तक रखा जाए तो विक्षिप्त हो जाता है।
तो तुम्हारे साधु-संन्यासी जो पहाड़ों पर भाग गए थे, वे कर क्या रहे थे?
मनोविज्ञान की सारी शोध यह कहती है कि वे विक्षिप्त हो रहे थे। अपने सपने फैला रहे थे। अपने सपनों में रस ले रहे थे। कोई सपने तोड़ने वाला नहीं था। जो मानना था, मान लेते थे। मान कर जी लेते थे। और अगर तुमने बहुत देर तक कोई बात मानी, तो वह सच हो जाती है।
बुद्ध ने कहा है अपने शिष्यों को कि अगर तुम्हारी समाधि में मैं तुम्हें दिखाई पडूं, तो समझना कि अभी समाधि पूरी नहीं हुई। क्योंकि मैं फिर तुम्हारी कल्पना ही रहूंगा।
झेन फकीर कहते हैं कि जब तक कृष्ण, बुद्ध, महावीर, कोई भी दिखाई पड़े, तब तक समझना कि अभी संसार जारी है। जब कोई भी दिखाई न पड़े और परमशून्य हो जाए, जब कोई विचार न रह जाए, तभी जानना कि तुम घर आ गए हो। नहीं तो सोचना कि अभी भटकाव कायम है।
इसी भटकाव के लिए लोग जंगल भाग जाते हैं। जंगल में सुविधा है कल्पना में उतरने की और कल्पना को मजबूत करने की, संसार में सुविधा नहीं है। संसार में जगह-जगह लोग तुम्हारी कल्पना को तोड़ देते हैं। तुम तो मान रहे थे कि यह आदमी...चले, शांडिल्य का सूत्र पढ़ लिया सुबह ही सुबह कि सबमें भगवान है, और कोई ने तुम्हारा जेब काट लिया। अब इसमें कैसे भगवान देखो? चले तो थे सुबह से यही मान कर कि भगवान ही देखेंगे, और एक आदमी तुम्हें गालियां देने लगा। इसमें कैसे भगवान देखो? भूल गए, शांडिल्य एक क्षण में भूल जाएंगे। जब कोई जेब काट लेगा, तुम कहोगे, अब फिर पीछे देखेंगे शांडिल्य को, पहले इस आदमी को देखें!
मैंने सुना है, एक ईसाई पादरी को एक आदमी ने चांटा मार दिया। उस पादरी ने बाइबिल में पढ़ा था--पढ़ा ही नहीं था, रोज लोगों को भी पढ़ाता था--कि जब तुम्हारे गाल पर कोई एक चांटा मारे, तो दूसरा उसके सामने कर देना। दिल तो हुआ कि इसका सिर तोड़ दो, मगर अब गांव में प्रतिष्ठा थी! मजबूरी में उसने दूसरा गाल उसके सामने कर दिया। वह आदमी भी खूब था। उस आदमी ने भी सोचा, यह भी ठीक है, यह मौका भी क्यों चूको? उसने दूसरे गाल पर और एक जोर का चांटा जड़ दिया। पुरोहित ने सोचा था कि अब दूसरे गाल पर यह चांटा नहीं मारेगा। इतनी भलमनसाहत तो करेगा। लेकिन आदमी जैसे आदमी होते हैं, वह भी था, उसने दूसरे पर भी और जोर से लगा दिया। उसने कहा यह मौका अच्छा है, अपने आप तुम मौका दे रहे हो, मैं क्यों छोडूं? वह प्रसन्न ही हो रहा था दूसरा चांटा मार कर कि वह पुरोहित उसके ऊपर झपटा, उसकी गर्दन दबाने लगा। उसने कहा, भई, यह क्या करते हो? उसने कहा कि बाइबिल में इतना ही लिखा है कि एक गाल पर कोई चांटा मारे, दूसरा कर देना; उसके आगे फिर हम स्वतंत्र हैं। इसके आगे बाइबिल में कोई निर्देश नहीं है।
और ऐसा नहीं है कि जीसस के सामने ऐसे सवाल नहीं उठे थे। एक शिष्य ने पूछा है। जीसस ने कहा कि कोई तुम्हें चोट करे, अपमान करे, क्रोध करे, निंदा करे, क्षमा कर देना। एक शिष्य ने पूछा, कितनी बार? स्वाभाविक। क्योंकि आखिर एक सीमा होनी चाहिए। जीसस ने कहा, सात बार। उस आदमी ने कहा, ठीक है! मगर उसने इस ढंग से कहा कि ठीक है, कि जीसस को लगा कि वह आठवीं बार सातों का इकट्ठा बदला ले लेगा। उसने जिस ढंग से कहा कि अच्छा ठीक है, देख लेंगे, कोई बात नहीं; सात बार का ही मामला है न! तो जीसस ने बदला और कहा कि नहीं, सतहत्तर बार।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, सतहत्तर बार के बाद भी तो अठहत्तर बार आएगा।
शास्त्र काम नहीं पड़ेंगे, जब तक कि तुम्हारी अपनी अंतःप्रज्ञा न जगी हो। शांडिल्य काम नहीं पड़ेंगे, जीसस काम नहीं पड़ेंगे, मैं काम नहीं पडूंगा, जब तक कि तुम्हारी अंतःप्रज्ञा जाग्रत न हो। जब तक कि तुम्हारे भीतर से ही सूत्र का आविर्भाव न हो, तब तक कोई काम नहीं पड़ेगा। तब तक छोटी-मोटी चीजें तोड़ देंगी। जरा सी बात सब खराब कर देगी।
जरा-जरा सी तो बातें ही हैं जीवन में, बड़ी-बड़ी बातें कहां हैं?
तुम घर आए दिन भर के थके-मांदे और पत्नी ने चाय की प्याली इस ढंग से रखी कि बस सब शांडिल्य इत्यादि भूल गए! कुछ किया नहीं उसने, सिर्फ प्याली इस ढंग से रखी, इस बेरुखी से रखी! और जब तुमने चाय चखी तो वह ठंडी है। अब तुम उस वक्त याद न कर सकोगे कि पत्नी में परमात्मा है। उस वक्त सब भूल जाओगे। इससे लोग भागे हैं। इससे भागे हैं। क्योंकि यहां प्रतिपल तुम्हारे सूत्रों की परीक्षा हो रही है, अग्निपरीक्षा हो रही है। तुम्हारे सिद्धांतों की यहां प्रतिपल परीक्षा है। ऐसा नहीं है कि कभी साल में एकाध बार परीक्षा होती है, रोज हो रही है, प्रतिपल हो रही है, उठते-बैठते, सोते-जागते परीक्षा चल रही है। इस परीक्षा से लोग भागे हैं। मैं उनको कमजोर कहता हूं। उनको मैं भगोड़ा कहता हूं।
संसार से भागना नहीं है, न संसार को माया कह कर गाली देनी है। संसार परमात्मा की ऊर्जा है। परमात्मा की ऊर्जा का यह जो विस्तार है, इसी में तलाशो। इसी में तलाशते-तलाशते मिला है, और मिलेगा। क्योंकि इसी में है। और यहां पा लोगे तो हिमालय पर भी पा सकते हो। अगर यहां नहीं पाया, तो हिमालय पर भी नहीं पा सकोगे। फिर हिमालय पर इतना ही होगा कि तुम कल्पना कर लोगे। कल्पना में कोई बाधा देने वाला नहीं होगा। कल्पना में तुम मुक्त-भाव से बहते रहोगे। कल्पना करते-करते तुम विक्षिप्त हो जाओगे। कल्पना से कोई सत्य को उपलब्ध नहीं होता। कल्पना छोड़ कर आदमी सत्य को उपलब्ध होता है। सारी कल्पनाओं का विसर्जन करने से सत्य को उपलब्ध होता है। संसार नहीं छोड़ना है, कल्पना छोड़नी है।
बड़ा मजा है लेकिन, लोग संसार छोड़ते हैं, कल्पना नहीं छोड़ते। मेरा-तेरा छोड़ना है, पत्नी नहीं छोड़नी है, पति नहीं छोड़ना है, बच्चे नहीं छोड़ना है, मेरा-तेरा छोड़ना है। किसी के प्रति पत्नी-भाव, पति-भाव छोड़ना है। परमात्म-भाव का उदय होने देना है। इससे सुंदर अवसर और कहीं नहीं हो सकता है जैसा जगत में है। माया में ही परमात्मा छिपा है।
‘भागवत्-शक्ति का नाम माया है।’
इसलिए शांडिल्य ने कहा: सेवनीय है, भजनीय है। इसका सेवन करो, इसका भजन करो। इस ऊर्जा को पीओ। इस ऊर्जा को पचाओ। इस ऊर्जा से संबंध जोड़ो, सेतु बनाओ। इस ऊर्जा में और तुम्हारे बीच विरोध न रह जाए। संगति बिठाओ। इस ऊर्जा के साथ नाचो और गाओ। इसको इन्होंने भजन कहा है। बड़ी अनूठी परिभाषा की भजन की। इस ऊर्जा के साथ तल्लीन होने का नाम भजन है।
इधर वृक्ष नाच रहा है हवाओं में, हवाएं आई हैं और वृक्ष को एक नर्तकी बना दिया है, तुम भी नाचो वृक्ष के साथ। दोनों का नाच कहीं एक तल पर जुड़ जाएगा। एक ऐसी घड़ी आती है जब तुम्हारे और वृक्ष के बीच नाच इतना एकात्म हो जाएगा, ऐसा अनन्यभाव पैदा हो जाएगा कि तुम भूल ही जाओगे कि कौन वृक्ष है, कौन तुम हो। तब तुम्हें पहली दफे घूंघट उठेगा। वृक्ष में तुम्हें परमात्मा छिपा हुआ दिखाई पड़ेगा।
और यह कहीं भी घट सकता है। तुम अपनी हर जीवन-दशा में इस भजन को खोज ले सकते हो। सेवन की कला आनी चाहिए। भोगने की कला आनी चाहिए। लोग भोग से भागते हैं। शांडिल्य कहते हैं: भोग की कला सीखो। ठीक से भोगो। जिन्होंने ठीक से भोगा है, उन्होंने परमात्मा को यहीं पा लिया है।
और जो ठीक से भोग ही नहीं सकते, वे ठीक से त्यागेंगे क्या खाक! जो भोग भी न सके, जो भोग में भी हार गए, वे त्याग में कैसे जीतेंगे? त्याग तो भोग के आगे की कला है। सच पूछो तो त्याग भोग के ही अनुभव से पैदा होता है। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः। उन्होंने ही त्यागा, जिन्होंने भोगा। जिन्होंने इतना भोगा कि भोग में ही त्याग फलित हो गया।
जरा जटिल सूत्र है। और तुम्हारे ऊपर जो सिद्धांतों के हजारों-हजारों पर्दे पड़े हैं, उनके कारण और कठिन हो गया है समझना। अगर किसी ने ठीक से भोगना सीख लिया, तो उसी भोगने में त्याग छिपा है। जैसे माया में ब्रह्म छिपा है, वैसे भोग में त्याग छिपा है। वैसे बाह्य में आंतरिक छिपा है। वैसे लहर में सागर छिपा है। वैसे सतह में गहराई छिपी है। ये सब जुड़े हैं। सेवन करो। अनेक-अनेक रूपों में परमात्मा का सेवन करो। सुबह तुम जाते हो, तुम कहते हो--वायु सेवन को जा रहे हैं। शांडिल्य कहेंगे कि वायु सेवन जरूर करो, लेकिन याद रखो कि वायु में वही है। उसको भगवान का सेवन होने दो। यह कहो कि वायु के रूप में भगवान का सेवन करने जा रहे हैं। कहो ही मत, ऐसा जानो भी, ऐसा जीओ भी। जब तुम्हारे नासापुट सुबह की ताजी हवाओं को भरें, तो ऐसा ही अनुभव करो--परमात्मा को तुम पी रहे हो नासापुटों से। वायु में छिपा है प्राण--प्राणतत्व। वायु में छिपी है संजीवनी। वायु के बिना तुम जरा देर भी न जी सकोगे।
इसलिए समस्त भाषाओं में वायु के जो नाम हैं अलग-अलग, वे सोचने जैसे हैं। योगी उसको कहते हैं: प्राणायाम। प्राण का आगमन। हिबू्र में उसके लिए जो नाम है, उसका अर्थ होता है: आत्मा। अंग्रेजी में तुम देखते हो, भीतर जब हम वायु को ले जाते हैं, उसको कहते हैं, इंस्पिरेशन। वह स्प्रिट से बना है शब्द। प्राण को भीतर ले जा रहे हैं। उससे हम पुनरुज्जीवित हो रहे हैं। उससे फिर जीवन में लौ आ रही है। फिर दीये में तेल पड़ रहा है। आदमी भी एक ज्योति है। वैज्ञानिक से पूछो, तो वैज्ञानिक कहता है, ज्योति नहीं जलेगी अगर वायु न हो। ज्योति वायुरिक्त स्थान में नहीं जल सकती।
तुम प्रयोग करके देखो। एक मोमबत्ती के ऊपर कांच का एक बर्तन ढांक दो। बस थोड़ी देर मोमबत्ती जलेगी। जितनी देर भीतर की वायु जलने के लिए उपलब्ध रहेगी। जैसे ही भीतर की वायु खत्म हुई, मोमबत्ती बुझ जाएगी।
जीवन को भी प्रतिपल वायु की जरूरत है। बिना भोजन के आदमी तीन महीने तक रह सकता है। बिना पानी के कुछ दिन रह सकता है। लेकिन बिना श्वास के कुछ सेकेंड या कुछ मिनट। और जितनी देर बिना श्वास के रहता है, उतनी देर भी उसके भीतर की जो श्वास है, वह काम देती है, इसलिए रहता है। अगर सारी श्वास बाहर निकाल ली जाए तो उतनी देर भी नहीं रह सकता।
परमात्मा आ रहा है श्वास में। सुबह जब वायु बहती हो ताजी और तुम घूमने निकले होओ, तो स्मरण रखना, प्रति श्वास में परमात्मा को भीतर बुलाना, निमंत्रण देना। और तुम चकित हो जाओगे। तुम चकित हो जाओगे, प्रार्थना करके लौटे। और ऐसी प्रार्थना इसके पहले कभी न हुई थी। तुम्हारी मुर्दा प्रार्थनाएं मंदिरों में तुम जो करते हो, उनका दो कौड़ी मूल्य नहीं है। मैं तुम्हें जीवंत प्रार्थना के लिए कह रहा हूं। तुम एक घड़ी भर सुबह टहल आना; सुबह की ताजगी में, रोशनी में, पक्षियों के गीत में, नई हवाओं को परमात्मा की तरह सेवन कर लेना। तुम घर लौटना। तुम पाओगे, तुम्हारे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं। तुम हलके हो गए, निर्भार हो गए। जमीन की कशिश का प्रभाव तुम पर कम है। तुम्हारे भीतर बड़ा उत्फुल्लित भाव होगा। जैसे फूल खिल गया हो। तुम्हारे भीतर बड़ी कोमलता होगी, सदयता होगी। तुम कठोरता का उपयोग न कर सकोगे। इतना परमात्मा सेवन किया हो, तो कैसे कठोर हो सकोगे? तुमसे सहज ही सुंदर होगा, शुभ होगा।
और ऐसा ही जीवन के प्रत्येक पहलू पर अगर तुम फैला दो, तब तुम समझे शांडिल्य का अर्थ। भोजन करते वक्त स्मरण रखना, परमात्मा का ही भोजन कर रहे हो। तब भोजन का सार बदल जाएगा। क्योंकि भोजन का मनोविज्ञान बदल जाएगा।
तुम्हें यह पता है कि अगर कोई तुमसे कह दे कि माफ मरना भाई, तुमने जो भोजन कर लिया उसमें एक मक्खी गिर गई थी। झूठ कह दे। मनोविज्ञान बदल गया। अब तुम्हें उबकाई आने लगेगी। तुम्हें उलटी हो जाएगी। मक्खी गिरी हो कि न गिरी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मक्खी गिर गई थी और तुम्हें किसी ने न बताया, तुम भोजन कर गए, शायद मक्खी को भी ले गए भोजन के साथ अपने भीतर, तो भी उलटी नहीं होगी। उलटी मक्खी से नहीं होती, मनोविज्ञान से होती है। मक्खी नहीं भी गिरी थी और किसी ने कह दिया कि क्षमा करना, बड़ी भूल हो गई, एक मक्खी गिर गई थी। बस, तुम अचानक पाओगे कि सारा शरीर भोजन को बाहर फेंक देना चाहता है। अब तुम बेचैन हो जाओगे। अस्तव्यस्त हो जाओगे। और जब तक वमन न हो जाएगा, तब तक तुम्हें राहत न मिलेगी।
हुआ क्या? भोजन वही था, मजे से बैठे थे।
मैं एक घर में मेहमान था। जिनके घर मेहमान था, रात को उनको एक चूहा काट गया। वे एकदम घबड़ा गए। एक ही कमरे में हम दोनों सोए थे। मैंने उनका पैर देखा, मैंने उनसे कहा, कुछ घबड़ाने की बात नहीं है, चूहा चोंच मार गया है! और चूहे यहां काफी हैं तुम्हारे घर में! कोई बात नहीं है! वे सो गए मजे से। कोई अड़चन न थी, कोई बात न थी। दूसरे दिन सुबह हो गई, मेरे साथ घूमने गए, हम नदी पर स्नान करने गए, लौट कर हम आए, सब ठीक था। घर आकर पत्नी ने कहा कि तुम्हारे कमरे में एक सांप निकला है। बस उनका चेहरा मैंने देखा एकदम फक हो गया। उन्होंने कहा, सांप! कहीं वही न काट गया हो? वे वहीं बैठ गए सीढ़ियों पर! मैंने उनसे कहा कि इतनी देर हो गई, रात बारह बजे काटा था, अगर सांप ने काटा होता तो अब बारह बज गए, बारह घंटे बीत गए, परिणाम अब तक हो गया होता! मगर परिणाम शुरू हो गया! वे तो लेट गए। उनका चेहरा एकदम काला पड़ने लगा। उनके मुंह से फसूकर आने लगा। डाक्टरों को बुलाया। डाक्टरों ने कहा कि कोई खराबी नहीं मालूम पड़ती।
मनोविज्ञान बदल गया! कई बार मौत भी हो जाती है, सिर्फ मनोविज्ञान के बदल जाने से। और कई बार मरता हुआ आदमी बच जाता है, सिर्फ मनोविज्ञान के बदल जाने से।
मनोविज्ञान का तुम ठीक से अर्थ समझो। एक सूफी कहानी है।
एक फकीर गांव के बाहर बैठा था। उसने एक काली सी छाया को अंदर आते देखा--फकीर था, अंतर्दृष्टि का आदमी होगा--उसने कहा, रुक, कहां जाती है? कौन है?
उस छाया ने कहा कि मैं प्लेग हूं। और भगवान की आज्ञा हुई है कि इस गांव से पांच सौ आदमी मार कर ले जाने हैं।
उसने कहा, कोई बात नहीं, जा, आज्ञा हुई है तो पूरा कर।
पंद्रह दिन बाद वह लौटती थी। फकीर ने उसको पकड़ा और कहा कि तू झूठ बोली। पांच हजार आदमी मर गए। और तूने कहा था, पांच सौ।
उसने कहा, मैं क्या करूं? मैंने पांच सौ ही मारे, साढ़े चार हजार घबड़ाहट में मर गए! उनमें मेरा हाथ ही नहीं है। वे क्यों मरे, मैं खुद चमत्कृत हूं।
मनोविज्ञान!
एक आदमी को मेरे पास लाया गया। उसको वहम हो गया था कि रात सोए हुए दो मक्खियां उसके भीतर घुस गई हैं। कुछ दिमाग उसका खराब था! अब वह बताए कि वे अभी हाथ में चल रही हैं अंदर, अब इधर छाती में आ गईं, अब इधर पैर में आ गईं। उसका कई डाक्टरों ने इलाज किया, उसका कुछ इलाज नहीं था। एक्सरे लिए गए, कोई मक्खी नहीं--और कहीं मक्खी हो भी तो ऐसे चल सकती है! मगर वह कहे, चल रही है, यह जा रही है! हाथ पकड़ कर बताए चमड़ी को कि यह अंदर जा रही है।
मैंने उससे कहा, तू लेट। उसे मैंने लिटाया। और मैं भागा मक्खी पकड़ने को! पहले कभी पकड़ी नहीं थी। कोई मुश्किल से दो मक्खी पकड़ पाया। उनको एक बोतल में बंद करके--उसकी आंख पर पट्टी बांध कर उसको लिटा दिया था, कि मैं मंत्र-तंत्र करता हूं, तेरी मक्खी को पकड़ने की कोशिश करें! जब उसने दो मक्खियां देखीं, एकदम खुश हो गया। और उसने कहा कि मैं कितना उन लोगों को कहता था, डाक्टरों को, वैद्यों को, मगर कोई मेरी माने न! अब यह बोतल मुझे दो! मैं उनको दिखाता हूं जाकर! वह घूमा, सब डाक्टरों के, वैद्यों के पास गया। और ठीक हो गया। अब मैं खुद चमत्कृत था कि हुआ क्या? क्योंकि वे मक्खियां तो उसके भीतर थीं नहीं।
इलाज से काम नहीं हो सका। उसका मनोविज्ञान बदलना पड़ा।
तुम्हारी जिंदगी में तुम्हारी नब्बे प्रतिशत बीमारियां तुम्हारे मन के कारण होती हैं। और तुम्हारे इलाज भी नब्बे प्रतिशत तुम्हारे मन के कारण होते हैं। दवा से ज्यादा तुम्हारा डाक्टर सार्थक होता है। अगर तुम्हारा डाक्टर पर भरोसा है, तो दवा काम कर जाती है। अगर डाक्टर पर भरोसा नहीं है, तो दवा काम नहीं करती। जिसका जिस पर भरोसा है। किसी को होम्योपैथी पर भरोसा है, तो होम्योपैथी काम कर जाती है, हालांकि होती सिर्फ शक्कर की गोलियां हैं, और कुछ भी नहीं। मगर काम करती है। क्योंकि मनोविज्ञान बदलना है असली बात। होम्योपैथी शुद्ध मनोवैज्ञानिक इलाज है। महत्वपूर्ण है लेकिन, काम तो करता है! सच नहीं है, लेकिन काम करता है।
अभी पश्चिम में इस पर बहुत प्रयोग चल रहे हैं। दस मरीज एक अस्पताल में एक ही बीमारी के होते हैं। पांच को दवा दी जाती है, पांच को शुद्ध पानी दिया जाता है। और वे बड़े हैरान हैं कि दोनों का परिणाम बराबर होता है। पानी से भी उतनी ही संख्या में लोग ठीक हो जाते हैं। और दवा से भी उतनी ही संख्या में ठीक हो जाते हैं। और एक और हैरानी की बात है कि दवा का कभी-कभी दुष्परिणाम भी होता है, पानी का कोई दुष्परिणाम नहीं होता। ठीक हो गए तो ठीक, नहीं हुए तो कोई हर्जा नहीं। पानी ही पीया।
लेकिन मरीज को बताना नहीं पड़ता है कि तुम पानी पी रहे हो। मरीज को ही नहीं, डाक्टर भी जो उसको देता है दवा, उसको भी पता नहीं होना चाहिए कि वह पानी दे रहा है। नहीं तो उसके भाव, उसका ढंग, उसकी झिझक, उसकी आंखें, वह सब मरीज पकड़ रहा है। दवा से ज्यादा वह महत्वपूर्ण है। इसलिए जो आदमी यह विभाजन करता है कि पांच को पानी देना, पांच को दवा देना, उसको पता होता है, लेकिन वह स्वयं दवा देने नहीं जाता। वह डाक्टर को दवा दे देता है, दवा डाक्टर पहुंचाता है; जिसको कुछ पता नहीं है कि कौन सा पानी है और कौन सी दवा है। दोनों पर एक से लेबल लगे हैं। कोई भेद करना संभव नहीं है। तब प
रिणाम बड़े सार्थक होते हैं। मरीज को भरोसा आ जाना चाहिए।
शांडिल्य जो कह रहे हैं, भगवान का सेवन, वह बड़ा अदभुत मनोवैज्ञानिक प्रयोग है। भोजन करते वक्त सोचना--अन्नं ब्रह्म। यह मैं ब्रह्म का भोजन कर रहा हूं। आदर से, समादर से। एक-एक कौर में ब्रह्म को ही चबाना। और तुम पाओगे कि तुम्हारे भोजन की गुणवत्ता बदल गई। भोजन वही है, लेकिन तुमने उसमें महिमा डाल दी। तुमने उसमें प्रार्थना सम्मिलित कर दी।
स्नान कर रहे हो, स्मरण रखना कि यह परमात्मा की ही जलधार तुम पर पड़ रही है। यह फव्वारे के नीचे खड़े हो, यह उसी का फव्वारा है। और तुम पाओगे, बूंदों की ठंडक और है। और बूंदों का रस और है। वे तुम्हें प्राण दे जाएंगी। तुम्हें ताजा कर जाएंगी। जैसा उन्होंने कभी भी न किया था। ऐसे कोई चौबीस घंटे भगवान का सेवन करता रहे, तो इस सारी प्रक्रिया का नाम भजन है।
जगत सेवनीय है, भजनीय है। परमात्मा और प्रकृति एक ही ऊर्जा के दो नाम हैं। चैतन्य के आधिक्य के कारण परमात्मा कहते हैं, मूर्च्छा के आधिक्य के कारण प्रकृति। भेद इतना ही है, जागृति और निद्रा का। भगवान की शक्ति का नाम माया अर्थात वह उनका स्त्रैण रूप है।
अर्धनारीश्वर को फिर स्मरण करो। वह मूर्ति घर-घर में रखने जैसी है। ताकि तुम्हें सदा यह याद रहे कि जगत विपरीत छोरों से मिल कर बना है। विपरीतता जगत में अपरिहार्य है। नहीं तो जगत बिखर जाता है। एक ने अपने को दो विपरीत में बांट लिया है। उन्हीं के बीच सारी लीला चल रही है।
लेकिन माया का इतना विरोध किया गया है कि तुम्हें बड़ी कठिनाई होगी स्वीकार करने में कि संसार भी ब्रह्म का ही रूप है; कि दुकान भी मंदिर है। दुकान भी मंदिर है। क्योंकि ग्राहक में जो आता है, वह प्रभु ही है। और दुकान इस ढंग से की जा सकती है कि वह मंदिर हो जाए। और जिस दिन दुकान इस ढंग से होगी, उसी दिन दुनिया का रूपांतरण होगा। जिस दिन दुकानदार कबीर की तरह होगा।
कबीर बैठते थे अपना कपड़ा बेचने काशी के बाजार में--बुनते थे, फिर बेचने जाते थे। जुलाहे थे। जो भी आता उसको खूब समझाते, उसको ओढ़ा कर कपड़ा दिखाते। और पता है उसे संबोधन क्या करते थे? कहते थे--राम। राम, यह देखो! इसको जरा ओढ़ कर देखो। यह बड़ी मेहनत से बुना है। इसमें बड़ा भजन भरा है। इसका एक-एक ताना-बाना बुनते वक्त मैं भजन ही गुनगुनाता रहा हूं। तुम्हारे लिए ही बुना है, राम! यह खूब टिकेगा। जितनी मेहनत-मजूरी होती, वह मांग लेते--कि इस पर चार पैसे मजूरी मुझे मिल जाए, इतना इस पर खर्च हुआ है।
लोग प्रतीक्षा करते थे कि कबीर का कपड़ा मिल जाए। वह कपड़ा कपड़ा नहीं था--झीनी झीनी बीनी रे चदरिया, राम रस भीनी रे चदरिया! कबीर गुनगुनाते, गीत गाते, भजन करते, बुनते रहते। राम-नाम भी कहीं न कहीं उन धागों के साथ बुन जाता था। उस चादर का गुणधर्म बदल जाता था। उस चादर में भजन सम्मिलित हो जाता था। भजन करने वाला व्यक्ति जो भी करता है उसमें भजन सम्मिलित हो जाता है।
तुमने भी यह फर्क देखा है, लेकिन खयाल नहीं करते हो। जिंदगी में सब चीजें उपलब्ध हैं, लेकिन तुम खयाल नहीं करते, अवलोकन नहीं करते। जब तुम्हारे प्रति कोई बहुत प्रेम से भर कर भोजन तैयार करता है, तुमने भोजन में कुछ फर्क देखा या नहीं देखा? भोजन का कुछ गुणधर्म बदल जाता है या नहीं बदल जाता है? मनोवैज्ञानिक अब स्पष्ट रूप से इस बात को स्वीकार करते हैं कि क्रोध में कोई भोजन न बनाए। और अक्सर ऐसा होता है, स्त्रियां क्रोध में भोजन बनाती हैं। और जब पति बीमार पड़ जाता है तो वे परेशान होती हैं। लेकिन क्रोध में भोजन बनाती हैं। बच्चे को भी पीटे जा रही हैं, पति के खिलाफ भी विचार किए जा रही हैं, और किसी तरह बना रही हैं। बर्तन भी फेंके जा रही हैं, प्लेटें भी तोड़े जा रही हैं, किसी तरह भोजन बना रही हैं। अत्यंत क्रोध में! यह क्रोध सम्मिलित हो जाएगा भोजन में। इस क्रोध की तरंग भोजन को पकड़ जाएगी। यह क्रोध वास्तविक घटना है, इस स्त्री के चारों तरफ क्रोध की हवा है, यह भोजन में प्रवेश हो ही जाएगा। भोजन इससे अछूता न रह सकेगा। यह भोजन विषाक्त हो गया। इस भोजन का गुणधर्म विकृत हो गया। इस भोजन को करने का मतलब बीमारी है। मगर यही हो रहा है।
जब कोई प्रेम से नाचता हुआ, गीत गाता हुआ, आनंदमग्न--मेरा बेटा आता है, कि मेरा पति आता है, कि मेरा भाई आता है, कि मेरे पिता आते हैं--भोजन को तैयार करता है, उस भोजन की गुणवत्ता और है। फिर वह रूखा-सूखा भी बहुत स्वादिष्ट है। और यह मैं केवल कविता की बात नहीं कह रहा हूं, इसके पीछे पूरे मनोविज्ञान का सहारा है। प्राचीन मनोविज्ञान तो सदा से यह कहता रहा है, लेकिन आधुनिक मनोविज्ञान भी इसके साथ संयुक्त हो गया है।
इस देश में हम स्त्रियों को मासिक धर्म के समय भोजन नहीं बनाने देते थे। अब तो जरा मुश्किल हो गया, अब तो धीरे-धीरे चलने लगा, कम से कम शिक्षित घरों में तो चलने ही लगा है; सुसंस्कृत, आधुनिक घरों में तो चलने ही लगा है; लेकिन सदियों से हमने इस देश में स्त्रियों को मासिक धर्म के समय भोजन नहीं बनाने दिया। उसका कारण? उसका कारण यह नहीं था कि मासिक धर्म में जो खून बहता है वह अपवित्र है। नहीं, वह तो गौण बात है। वह कोई खास बात नहीं है। वह तो खून ही, खून जैसा खून है, उसमें कुछ अपवित्रता नहीं है। लेकिन मासिक धर्म के समय स्त्री का चित्त तनावपूर्ण होता है, उद्विग्न होता है, परेशान होता है; प्रफुल्लित नहीं होता। वह असली बात है। वह चार दिन स्त्री थोड़ी बेचैन होती है, पीड़ित होती है, उसका पूरा अस्तित्व एक तरह की उद्विग्न दशा में होता है, एक तरह की ज्वरग्रस्तता उसके भीतर होती है, स्वाभाविक नहीं होता उसका उन चार दिनों का अस्तित्व। उसका भोजन बनाना घातक है।
अभी इस पर कुछ प्रयोग किए गए हैं दुनिया की अनेक प्रयोगशालाओं में। और यह बात पाई गई कि इसमें सच्चाई है। और कोई काम स्त्री करे भला, लेकिन भोजन उन चार दिनों में न बनाए। क्योंकि भोजन साधारण बात नहीं है। उससे पूरे परिवार का जीवन जुड़ा है। मगर मूल बात इतनी ही है कि आनंदमग्न का परिणाम होता है।
तुम भी दुकान पर मंदिर ला सकते हो। और मैं उसी पक्ष में हूं। मंदिर अलग नहीं होना चाहिए, दुकान से संयुक्त होना चाहिए। मंदिर अलग नहीं होना चाहिए, तुम्हारे घर में ही होना चाहिए। तुम्हारा घर मंदिर होना चाहिए।
माया का इतना विरोध किया गया है, वह वस्तुतः माया का विरोध नहीं है, हमारी धारणाओं का, हमारे मेरे-तेरे का विरोध है। इस मेरे-तेरे के कारण हम उलझ गए हैं और जो है वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। हमारा मेरा इतना बड़ा हो जाता है कि उसमें सब छिप जाता है।
कौन हंसिनियां लुभाएं हैं तुझे ऐसा कि तुझको मानसर भूला हुआ है?
कभी-कभी हंस भी आ जाता है और उलझ जाता है डबरों में। कीचड़ के डबरों में।
कौन हंसिनियां लुभाएं हैं तुझे ऐसा कि तुझको मानसर भूला हुआ है?
कौन लहरें हैं कि जो दबती-उभरती
छातियों पर हैं तुझे झूला झुलातीं?
कौन लहरें हैं कि तुझ पर फेन का कर
लेप, तेरे पंख सहला कर सुलातीं?
कौन-सी मधुगंध बहती है पवन में
सांस के जो साथ अंतर में समाती?
कौन हंसिनियां लुभाएं हैं तुझे ऐसा कि तुझको मानसर भूला हुआ है?
कौन श्यामल, श्वेत औ’ रतनार नीरज
के निकुंजों ने तुझे भरमा लिया है?
कौन हालाहल, अमीरस और मदिरा
से भरे लबरेज प्यालों को पिया है
इस कदर तूने कि तुझको आज मरना
और जीना और झुक-झुक झूमना सब
एक-सा है? किस कमल के नाल की
जादू-छड़ी ने आज तेरा मन छुआ है?
कौन हंसिनियां लुभाएं हैं तुझे ऐसा कि तुझको मानसर भूला हुआ है?
किसने लुभाया है? तुम्हारे पुराने साधु-संन्यासी कहते हैं: स्त्रियों ने लुभा लिया है पुरुषों को; धन ने लुभा लिया है पुरुषों को। वह बात व्यर्थ है। वह बीमारी को न पकड़ना, लक्षण को पकड़ लेना है। मेरे-तेरे ने लुभा लिया है, मैं तुमसे कहता हूं। मेरा-तेरा चला जाए और सारा जीवन रूपांतरित हो जाता है। तुम मेरे-तेरे की भाषा भर भूल जाओ कि तत्क्षण तुम पाओगे, कोई यहां लुभा नहीं रहा है, यहां लुभाने वाला एक ही है, वह परमात्मा है। स्त्री से भी वही झांका है।
जब तुमने किसी सुंदर स्त्री में आकर्षण अनुभव किया है, तो दो उपाय हैं। या तो तुम समझो कि यह देह सुंदर है, इसको भोग लूं, इसको अपना बना लूं, यह स्त्री मेरी हो, या यह पुरुष मेरा हो--इस पर मैं कब्जा कर लूं, कहीं कोई और कब्जा न कर ले, इसके हाथों में मैं सोने की जंजीरें डाल दूं। इसको घर ले आऊं, इसको एक कठघरे में बिठा दूं। तुम जिसको घर कहते हो, वह कठघरा है, वह पिंजड़ा है, फिर उसमें चाहे सोने के ही सींखचे क्यों न लगे हों। और तुमने जिनको आभूषण समझ कर स्त्रियों को भेंट किया है, वे सिर्फ जंजीरें हैं। कीमती हैं, बहुमूल्य हैं, इसलिए उनसे इनकार भी नहीं किया जा सकता।
एक और ढंग है। सुंदर स्त्री दिखाई पड़े तो तुम्हें उसमें परमात्मा के सौंदर्य की झलक मालूम पड़े। तुम समझो कि यह स्त्री भी एक दर्पण है जिसमें परमात्मा झलका है। और अनंत दर्पण हैं, उनमें यह भी एक प्यारा दर्पण है। लेकिन मालकियत का कोई सवाल नहीं है। यहां मालिक कौन किसका? यहां मालिक तो सिर्फ एक है। याऽऽमालिक! यहां मालिक तो बस एक है। उस मालिक की याद करो। तुम मालिक बन बैठे हो, यहीं भूल हो गई है। तुम मालिक बन बैठे, बस वहीं तुमसे चूक हो गई। तुम अपनी मालकियत छोड़ दो। कहीं जाना नहीं है, सिर्फ मालकियत छोड़ देनी है, मेरे का भाव छोड़ देना है।
वह मेरे का परिग्रह गया कि जीवन में एक क्रांति हो जाती है। सब ऐसा ही होता है, लेकिन फिर भी सब बदल जाता है। तब फूल में सिर्फ फूल नहीं दिखाई पड़ता; फूल की देह होती है, परमात्मा का प्राण होता है। सुंदर स्त्री में सुंदर स्त्री नहीं दिखाई पड़ती; सुंदर स्त्री में सिर्फ परमात्मा का प्रतिबिंब होता है, उसकी झलक होती है। तब चारों तरफ हर सौंदर्य में, हर संगीत में, हर रस में उसी की याद आने लगती है। हर घड़ी उसी की याद आने लगती है। तब हर तरफ से उसी का इशारा आने लगता है। और हर इशारा उसका ही तीर बन कर हृदय में चुभने लगता है। उस स्थिति को शांडिल्य ने भजन कहा है।
व्यापकत्वात् व्याप्यानाम्।
‘व्यापक की सत्यता के कारण व्याप्य भी सत्य है।’
परमात्मा समाया है सबमें, ऐसा शास्त्र, सभी शास्त्र कहते हैं। कहते हैं, कण-कण में परमात्मा है। तो जिसमें परमात्मा समाया है, वह झूठ नहीं हो सकता। झूठ में सत्य कैसे समाएगा? तुम सत्य पानी को झूठे घड़े में कैसे भरोगे? या भर सकते हो?
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक पिटारी अपने सिर पर लिए चला आ रहा था। रास्ते में कोई साथ हो लिया, उसने पूछा कि यह पिटारी बड़ी अजीब है! उसमें कई छेद भी बने हैं, क्या ले जा रहे हो, नसरुद्दीन? नसरुद्दीन ने कहा, इसमें एक नेवला पकड़ लाया हूं। नेवला, उस आदमी ने पूछा, नेवला क्या करोगे? सुना नहीं कभी कि लोग नेवला पकड़ कर घर ले जाते हैं। उसने कहा, मामला ऐसा है, तुम जानते हो कि मैं कभी-कभी रात ज्यादा पी जाता हूं। जब ज्यादा पी जाता हूं तो मुझे सांप दिखाई पड़ते हैं। मैंने सुना है कि नेवला रखो घर में, सांपों को पकड़ कर खा जाता है, टुकड़े-टुकड़े कर देता है। इसलिए नेवला ले जा रहा हूं। पर उस आदमी ने कहा कि तुमने मुझे और उलझन में डाल दिया। वे सांप जो तुम्हें दिखाई पड़ते हैं जब तुम ज्यादा पी जाते हो, वे सब झूठे होते हैं, कल्पना के होते हैं। तो मुल्ला ने कहा, यह नेवला कौन सच है? सिर्फ टोकरी सच है, भीतर कुछ नहीं है।
झूठ को काटना हो तो झूठ से काटा जा सकता है। सत्य को मिटाने के लिए झूठ से नहीं काटा जा सकता। सत्य और झूठ का कहीं मिलन ही नहीं हो सकता। अगर सच्चा पानी है, तो नकली घड़े में कैसे भरोगे? झूठे घड़े में कैसे भरोगे? जो घड़ा है ही नहीं, उसमें कैसे भरोगे?
यह सूत्र खयाल में रखने जैसा है।
‘व्यापक की सत्यता के कारण व्याप्य भी सत्य है।’
शांडिल्य कहते हैं: सारे शास्त्र कहते हैं परमात्मा कण-कण में समाया हुआ है, सबमें समाया हुआ है, तो जिसमें समाया हुआ है वह भी सत्य हो गया उसके कारण जो समाया हुआ है।
अगर संसार झूठ है तो फिर परमात्मा भी झूठ हो जाएगा! शंकराचार्य की बात अगर सच है कि संसार माया है तो तुम्हारा ब्रह्म भी माया हो गया। और यही बौद्ध दार्शनिकों ने प्रश्न उठाया है। नागार्जुन ने यही प्रश्न उठाया है कि संसार माया है--इसको स्वीकार कर लिया और बड़ा अनूठा निष्कर्ष निकाला--अगर संसार माया है तो इसमें जो समाया है, ब्रह्म, वह भी माया हो गया। शांडिल्य ने एक निष्कर्ष निकाला, ठीक उससे दूसरा निष्कर्ष नागार्जुन ने निकाला है, लेकिन दोनों का तर्क एक है। तर्क का आधार एक है। शांडिल्य कहते हैं, अगर परमात्मा सच है तो संसार भी सच हो गया। दूसरी तरफ से नागार्जुन चलते हैं, वे कहते हैं, हम मान लेते हैं कि संसार झूठ है, जैसा वेदांती कहते हैं, अगर संसार झूठ है तो उस झूठ को बनाने वाला भी झूठ हो गया। उस झूठ में समाया भी झूठ हो गया। इसलिए ब्रह्म भी झूठ है। संसार भी माया, ब्रह्म भी माया। मगर तर्क का आधार एक ही है।
लेकिन मुझे लगता है कि शांडिल्य का चुनाव नागार्जुन से ज्यादा बेहतर है। क्योंकि नागार्जुन भी विवाद में पड़े हैं। किससे विवाद कर रहे हो? किसको समझा रहे हो कि संसार भी झूठ, ब्रह्म भी झूठ? किसको समझा रहे हो? यहां कोई है ही नहीं। और जब यहां कोई भी नहीं है, जब सब दृश्य झूठ हैं तो द्रष्टा भी झूठ हो जाएगा। फिर ये शास्त्र किसके लिए लिखे जा रहे हैं? यह विवाद किससे किया जा रहा है? इसका उत्तर नागार्जुन के पास नहीं है।
शांडिल्य की बात ज्यादा व्यावहारिक, ज्यादा वैज्ञानिक मालूम पड़ती है। परमात्मा सबमें छिपा है, इसलिए जिसमें छिपा है वह भी सत्य है। दोनों सत्य हैं। और ध्यान रखो, दुनिया में दो सत्य नहीं हो सकते। सत्य तो एक ही हो सकता है। सत्य कैसे दो हो सकते हैं? क्योंकि अगर दो होंगे तो एक-दूसरे की सीमा बना देंगे। दो होंगे तो बीच में एक रेखा खींचनी पड़ेगी। दो सत्यों के बीच कैसे रेखा खींचोगे? दो सत्य नहीं हो सकते। सत्य तो एक ही हो सकता है। तो फिर सत्य के दो ढंग हैं, सत्य के प्रकट होने के दो ढंग हैं। कभी बीज की तरह प्रकट होता है, कभी वृक्ष की तरह प्रकट होता है, पर एक ही सत्य है। वही संसार की तरह प्रकट है--जब परमात्मा सोया होता है।
तुम्हारी अमुक्त-दशा क्या है? परमात्मा तुम्हारे भीतर सोया हुआ है। तुम्हारी मुक्त-दशा क्या है? परमात्मा उठ गया, जाग आया। इतना ही भेद है। तुममें और बुद्धपुरुषों में कोई बुनियादी भेद नहीं है। इतना ही भेद है--तुम जाग रहे हो, तुम्हारे पास में कोई सोया हुआ है। वह भी जाग सकता है, तुम भी कभी सोए थे। बुद्ध ने कहा है, मैं भी कभी अज्ञानी था, अब ज्ञानी हो गया। तुम अभी अज्ञानी हो, कभी भी ज्ञानी हो सकते हो। मेरे और तुम्हारे बीच कोई मौलिक भेद नहीं है। मेरे पास एक क्षमता थी जिसका मैंने उपयोग कर लिया है, तुम्हारे पास एक क्षमता पड़ी है जिसका तुमने उपयोग नहीं किया है। तुम कभी भी कर सकते हो। किसी भी क्षण कर सकते हो। अभी कर सकते हो। इसी क्षण कर सकते हो।
सोए और जागे आदमी में फर्क ही क्या है?
जरा सा फर्क है। उतना ही फर्क है बुद्ध और अबुद्धों में।
न प्राणि बुद्धिभ्यः असम्भवात्।
‘यह कोई मनुष्य की बुद्धि से कल्पित भी नहीं है।’
फिर शांडिल्य कहते हैं, शायद कुछ लोग कहें--कुछ लोग कहते हैं कि यह सारा संसार मनुष्य की बुद्धि की कल्पना है। शांडिल्य कहते हैं, यह बात सच नहीं हो सकती।
क्यों सच नहीं हो सकती? क्योंकि इस संसार में इतना विराट फैला हुआ है, मनुष्य की बुद्धि इतनी क्षुद्र है! इस सारे संसार का फैलाव मनुष्य की बुद्धि से तो असंभव ही है, मनुष्य की बुद्धि से तो इस पूरे फैलाव को जानना भी संभव नहीं है। अभी हमें पता भी नहीं है कि यह अस्तित्व कितना बड़ा है। यह पृथ्वी इतनी बड़ी मालूम पड़ती है! यह कुछ बड़ी नहीं है, यह बहुत छोटी है। सूरज इससे साठ हजार गुना बड़ा है। और सूरज कुछ खास बड़ा सूरज नहीं है, यह बड़ा छोटा सूरज है। महासूर्य हैं। जिनको रात में तुम तारों की तरह देखते हो, वे सब महासूर्य हैं। वे इस सूरज से करोड़ों गुने बड़े हैं।
इस पृथ्वी से सूरज तक फासला काफी है! सूरज की किरण को आने में साढ़े नौ मिनट लग जाते हैं। और सूरज की किरण बड़ी रफ्तार से चलती है--उससे बड़ी कोई रफ्तार नहीं है। एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील चलती है। साढ़े नौ मिनट लगते हैं सूरज से पृथ्वी तक आने में। मगर यह कोई बड़ा फासला नहीं है। क्योंकि सबसे करीब का जो तारा है, उससे किरण आने में हमको चार साल लग जाते हैं। और सबसे दूर का जो तारा है, उससे हमारे तक किरण आने में अस्सी करोड़ वर्ष लग जाते हैं। और उसके पार भी तारे हैं, जिनका हमें कुछ पता नहीं, क्योंकि उनकी किरण आई ही नहीं कभी। कभी आएगी भी, इसका भी कुछ पक्का नहीं है। और भी आगे तारे होंगे, जिनकी किरण कभी भी नहीं आएगी। उनका हमें पता ही नहीं चलेगा! हमें पता ही तब चलता है जब कोई किरण आ जाती है। नहीं तो हमें पता नहीं चलता।
इतना विस्तीर्ण लोक है यह!
अभी तारों की पूरी गिनती भी नहीं हो सकी। रोज गिनती होती जाती है, रोज तारे बढ़ते जाते हैं, और अब तो वैज्ञानिक कहने लगे हैं, गिनती कभी पूरी नहीं हो पाएगी, अनगिन तारे हैं। एक-एक तारा एक-एक सूरज है। एक-एक सूरज के पास बहुत सी पृथ्वियां हैं, चांद हैं, ग्रह-उपग्रह हैं। यह हमारी पृथ्वी तो एक छोटा-मोटा तिनका है, एक छोटा सा कण, जिसका कहीं कोई पता नहीं है। इतने विस्तीर्ण जगत की कल्पना मनुष्य से हो सकती है? यह मनुष्य की बुद्धि का विस्तार हो सकता है? मनुष्य की छोटी सी बुद्धि! नहीं, इस विराट के आयोजन का कारण नहीं हो सकती। इसको तो समझना भी मुश्किल है।
इसलिए जो दार्शनिक कहते हैं कि यह सब मनुष्य की बुद्धि का ही फैलाव है, गलत समझते हैं। पर इसके पीछे बुद्धि है, इतना निश्चित है। मनुष्य की बुद्धि तो नहीं है, मगर कोई बुद्धि इसके पीछे है। क्योंकि इतनी व्यवस्था है। इतना सुसंयोजित है सब। इतना तारतम्य बंधा है। इतनी संगति है। कहीं कोई दुर्घटना नहीं हो रही। इतना विराट विस्तार और इतनी सुगमता से चल रहा है। इतनी शालीनता से चल रहा है। इतनी सहजता से चल रहा है। इसके पीछे कोई महाबुद्धि होनी चाहिए। परम बुद्धि होनी चाहिए। उस महाबुद्धि के तत्व का नाम ही परमात्मा है। इस अस्तित्व के पीछे छिपा हुआ जो बुद्धि का चरम रूप है, कॉस्मिक इंटेलिजेंस, जो ब्रह्मबुद्धि है, वही परमात्मा है।
हमारी बुद्धि उस परमात्मा की ही बुद्धि की एक छोटी सी किरण है। हम सूरज नहीं हैं, हम किरणें हैं। लेकिन अगर किरण हमारी पकड़ में आ जाए तो हम सूरज तक पहुंच सकते हैं। उसी किरण के धागे को पकड़ कर हम सूरज तक जा सकते हैं। उसी किरण के सहारे हम सूरज में लीन हो सकते हैं।
ऐसे लोग हुए जो सूरज में लीन हो गए हैं। राम हैं, कृष्ण हैं, क्राइस्ट हैं, मोहम्मद हैं, जरथुस्त्र हैं, लाओत्सु हैं; ऐसे लोग हुए जो इसी किरण के सहारे को पकड़ कर धीरे-धीरे-धीरे आदमी की बुद्धि को जगा कर धीरे-धीरे परम बुद्धि तक पहुंच गए हैं। उस परम समाधिस्थ अवस्था में लीन हो गए हैं, जहां उनका और ब्रह्मांड का भेद समाप्त हो जाता है।
निर्माय उच्चावचं श्रुतिः च निर्मिमीते पितृवत्।
‘समस्त भूत-रचना की भांति वेद भी प्रकाशित हुआ है। जैसे पिता संतान को जन्म देकर शिक्षा का उपाय करता है।’
और शांडिल्य कहते हैं, उस परमात्मा से यह सारा जगत ही नहीं आया है, इस जगत को जीने के ढंग भी उस परमात्मा से आए हैं। इस जगत को कैसे हम सेवन करें, उसकी प्रक्रिया भी उसने दी है। कैसे हम भजन करें, उसका विज्ञान भी दिया है। उस विज्ञान का नाम ही वेद है।
याद रखना, वेद से सिर्फ हिंदुओं के वेद का संबंध नहीं है। मूल में जो शब्द है, वह है श्रुति। वह प्यारा शब्द है। लेकिन हिंदू जब इसका अनुवाद करने बैठते हैं, वे हमेशा श्रुति का अनुवाद वेद से कर देते हैं। उसमें हिंदू-बुद्धि आ जाती है। श्रुति बड़ा प्यारा शब्द है। श्रुति का अर्थ है: सुना गया उनसे जिन्होंने जाना। श्रुति का अर्थ है: जिन्होंने जाना, उनसे हमने सुना। कुरान भी श्रुति है, बाइबिल भी श्रुति है, धम्मपद भी श्रुति है। वेद पर ही वेद समाप्त नहीं हो गया है। वेद आता रहा है। आते रहे हैं। आते रहेंगे। क्योंकि जैसे-जैसे आदमी बदलता है, वैसे-वैसे आदमी को नये वेदों की जरूरत हो जाती है।
वैसे वेद शब्द प्यारा है। अगर ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद पर हम उसको खत्म न कर दें तो वेद शब्द प्यारा है। वेद शब्द बनता है विद से। विद का अर्थ होता है--ज्ञान, जानना। जिन्होंने जाना, उनके वचन संगृहीत किए गए हैं। परमात्मा उतरता रहा है। परमात्मा की महाप्रतिभा मनुष्य की प्रतिभा में झलक मारती रही है, कौंधती रही है। सदा से। यह स्वाभाविक है। क्योंकि जिससे हम उत्पन्न हुए हैं, जिससे हम आए हैं, वह हमें जीवन-निर्देश भी दे, यह वैसा ही स्वाभाविक है, शांडिल्य कहते हैं, जैसे पिता संतान को जन्म देकर शिक्षा का उपाय करता है।
‘समस्त भूत-रचना की भांति वेद भी प्रकाशित हुआ है।’
तो वेद से मेरा अर्थ खयाल में ले लेना: जब भी कहीं कुछ जाना गया है, तभी वेद जन्मा है। अनंत वेद हैं। हिंदुओं के वेद पर वेद समाप्त नहीं हो जाते। वह वेद का एक ढंग है। और-और वेद हैं। और-और भाषाओं में प्रकट हुए हैं। श्रुति शब्द ज्यादा बेहतर है। हमने सुना। बौद्धों के सब शास्त्र शुरू होते हैं--दस हैव आई हर्ड। ऐसा मैंने सुना है। क्योंकि बुद्ध ने कहा है, बुद्ध जानते हैं, लेकिन जिन्होंने लिखा है, उन्होंने तो सिर्फ सुना है। उन्होंने बुद्ध को कहते सुना है। उन्होंने स्वयं नहीं जाना है। जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा है। जिन्होंने जाना नहीं, उन्होंने लिख लिया है, संगृहीत कर लिया है, ताकि काम आ सके उन सबके जो शायद अभी जानने में समर्थ नहीं हैं, शायद अभी जानने की जिनमें क्षमता नहीं है, पात्रता नहीं है। शायद जानने का अभी साहस भी नहीं है। शायद जानना घट जाए तो झेल भी न सकेंगे। उनके लिए संगृहीत कर लिए हैं। उनके लिए शिलालेख आबद्ध कर लिए हैं।
श्रुति प्यारा शब्द है। मैं तुमसे कुछ कह रहा हूं, तुम्हारे लिए श्रुति है। तुम्हें प्रीतिकर लगे, सम्हाल लेना। और ध्यान रखना, श्रुति पर रुकना नहीं है। एक दिन तुम्हारे लिए, जो तुमने सुना है, वह तुम्हारी अपनी आंख का देखा हुआ हो जाना चाहिए। श्रुति का अर्थ है: सत्य कान से आया है। जो कान से आया है, वह पराया है। आंख से आना चाहिए। जब आंख से आता है तो अपना होता है। सत्य में और झूठ में फर्क ही इतना है। कान और आंख का फर्क है। इसलिए तो हम सुनी बात को नहीं मानते। अदालत भी कहती है--चश्मदीद गवाह। जिसने देखा हो आंख से।
मुल्ला नसरुद्दीन को अदालत में ले जाया गया, एक मुकदमा था। उससे मजिस्ट्रेट ने पूछा कि तुम कितने दूर थे इस स्थान से जहां यह हत्या की गई?
मुल्ला ने कहा, कोई दो-तीन फर्लांग दूर।
और अमावस की रात थी और अंधेरा था और तुमने देख लिया कि हत्या की गई? तुम्हें कितनी दूर तक अंधेरे में दिखाई पड़ता है?
मुल्ला ने कहा, अब यह मत पूछो। ऐसे तो हमें चांद-तारे भी दिखाई पड़ते हैं। दूरी की मत पूछो।
चश्मदीद। आंख से जिसने देखा है।
रोशनी में ही दिखाई पड़ सकता है, अंधेरे में दिखाई नहीं पड़ सकता। भीतर जब परम रोशनी फैल जाती है ध्यान की, तब दिखाई पड़ता है। इसलिए कहा है--प्रकाशित होता है। तब उसके वचन उतरते हैं। तब उसकी वाणी उतरती है। इसको मुसलमान इल्हाम कहते हैं। ठीक शब्द है। इल्हाम का मतलब होता है: तुम सिर्फ ग्राहक होते हो, कोई चीज उतरती है। हिंदू इसको अवतरण कहते हैं। तुम सिर्फ ग्राहक होते हो, तुम पात्र होते हो, कोई चीज उतरती है आकाश से और तुममें भर जाती है। ईसाई इसको रिविलेशन कहते हैं। ठीक शब्द है रिविलेशन। तुम्हारे किए कुछ नहीं होता, तुम जब शांत होते हो, तब प्रकट होता है। प्राकट्य होता है, रिवील होता है, तुम्हारे सामने खड़ा हो जाता है। शायद सदा से खड़ा ही था, तुम्हारी आंख बंद थी, तुमने आंख खोल ली है। सत्य का अनावरण हो गया। सत्य नग्न खड़ा हो गया। घूंघट गिर गया।
‘समस्त भूत-रचना की भांति वेद भी प्रकाशित हुआ है। जैसे पिता संतान को जन्म देकर शिक्षा का उपाय करता है।’
परमात्मा ने तुम्हें छोड़ नहीं दिया है, परमात्मा तुम्हें विस्मृत नहीं कर गया है, परमात्मा तुम्हें भूल नहीं गया है, भेजता रहा है अपने संदेशवाहक, अपने पैगंबर, अपने तीर्थंकर, अपने अवतार। मगर मतलब क्या है अवतार भेजने का, तीर्थंकर भेजने का, पैगंबर भेजने का? इतना ही अर्थ है: जो व्यक्ति भी समर्थ हुआ है ध्यान में, उसके भीतर परमात्मा उतर आया है। उसके माध्यम से उसने फिर तुम्हारी तलाश शुरू कर दी, तुम्हें फिर पुकारने लगा है--कि तुम कहां खो गए हो? कि तुम कहां छिप गए हो? कि जागो, तुम कितनी देर सो लिए! सुबह हो गई, उठो। उन्हीं सारे वचनों के संकलन किए गए हैं--वेद, धम्मपद, कुरान, बाइबिल, ताओ-तेह-किंग--वे सब वेद हैं। वेद पहले भी आते रहे, अभी भी आ रहे हैं, आगे भी आते रहेंगे। क्योंकि परमात्मा ने तुम्हें कभी छोड़ नहीं दिया है। तुम्हारे ऊपर आशा समाप्त नहीं हो गई है परमात्मा की।
रवींद्रनाथ ने अपने एक गीत में लिखा है कि जब भी कोई बच्चा पैदा होता है तब मैं परमात्मा को धन्यवाद देता हूं, क्योंकि हर बच्चे की पैदाइश से मुझे खबर मिलती है कि परमात्मा अभी आदमी से ऊब नहीं गया है। अभी फिर आदमी पैदा करता है। अभी आदमी में भरोसा है। अभी आशा उसने छोड़ नहीं दी है। हालांकि आदमी ने सब किया है कि आशा छोड़ दे। आदमी ने जो किया है, वह ऐसा है कि कोई भी पिता आशा छोड़ दे। भूल ही जाए सुपुत्र को! लेकिन रवींद्रनाथ कहते हैं, उसने अभी आशा नहीं छोड़ी, अभी वह आदमी बनाए जाता है। वह सोचता है, अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है, सुबह का भूला शायद सांझ को घर आ जाए।
आशा का कारण क्या हो सकता है?
आशा का कारण कुछ थोड़े से लोग हैं। क्योंकि कुछ लोग शाम तक आ गए हैं। कोई बुद्ध किसी दिन आ जाता है। करोड़ों नहीं आते, मगर एक आ जाता है। मगर एक के आने से खबर मिलती है कि बाकी करोड़ भी इस जैसे ही तो हैं, शायद वे भी किसी दिन आ जाएंगे। इसलिए आशा नहीं टूटती। कोई कृष्ण एक दिन जाग जाता है, फिर आशा सघन हो जाती है। अगर एक बीज में वृक्ष आ गया है, फूल खिल गए हैं, तो सब बीज भी तो परमात्मा ने ऐसे ही बनाए हैं। उनमें जरा भी भेद नहीं है। उनकी भी इतनी ही क्षमता है। उनकी भी इतनी ही शक्ति है। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, किसी न किसी दिन उनमें भी बीज फूटेगा, पल्लव निकलेंगे, फूल खिलेंगे, उनकी सुवास भी लुटेगी।
मिश्रोपदेशात् न इति चेत् न स्वल्पत्वात्।
‘उसमें मिश्रित उपदेश हैं, इस कारण आशंका मत करो। और वे थोड़े ही हैं।’
इस सूत्र को समझना!
शांडिल्य कहते हैं: अगर हम इस बात को मान लें कि हिंदुओं के वेद की ही तरफ उल्लेख है, तो वेद में बड़े विपरीत वक्तव्य हैं, मिश्रित वक्तव्य हैं, उनका क्या किया जाए? वेद एक ही बात नहीं बोलते, अनेक बातें बोलते हैं, एक-दूसरे से विपरीत बातें भी बोलते हैं। अब जैसे, वेद में हिंसक यज्ञ इत्यादि का स्वीकार है कि यज्ञ में हिंसा की जा सकती है। और वेद में यह अपूर्व वचन भी है--मा हिंस्यात् सर्वभूतानि। किसी प्राणी की कभी हिंसा न करें। और दूसरी तरफ अश्वमेध यज्ञ में घोड़े की हत्या करनी पड़े। और नरमेध यज्ञ भी होते थे, जिसमें मनुष्य की हत्या करनी पड़े। तो सवाल यह उठता है कि वेद में तो बड़े विपरीत वचन हैं, ये एक ही परमात्मा से कैसे आ सकते हैं? और अगर एक ही पिता ने दिए हैं, तो इतने विपरीत वचन कैसे हो सकते हैं?
और जैसा अर्थ मैं कर रहा हूं अगर वैसा अर्थ है, तब तो और भी अड़चन हो जाएगी। क्योंकि फिर वेद और कुरान और बाइबिल और धम्मपद एक ही से उतरे हैं। फिर कृष्ण, बुद्ध, महावीर एक ही से उतरे हैं। फिर इनके वचनों में तो बड़ा विरोध है! वेद में ही बड़ा विरोध है, फिर वेद और धम्मपद में तो बहुत विरोध है। फिर बाइबिल और कुरान में तो बहुत विरोध है। वेद के ऋषि भी एक-दूसरे से सहमत नहीं हैं। तो फिर वेद के ऋषियों और बुद्ध और लाओत्सु में तो जमीन-असमान का फर्क है। फिर क्या होगा?
शांडिल्य कहते हैं: ‘उसमें मिश्रित उपदेश हैं, इस कारण आशंका मत करो।’
किस तरह शांडिल्य समझाते हैं। कुछ बातें खयाल में ले लेनी चाहिए।
एक, निश्चित ही मिश्रित उपदेश हैं वेद में। क्योंकि एक ही पुत्र के लिए दिए गए उपदेश नहीं हैं। इतने पुत्र हैं परमात्मा के! और पुत्रों में बड़ा भेद है। जो एक के लिए उपदेश लागू है, वह दूसरे के लिए लागू नहीं है। और जो एक के लिए औषधि है वह दूसरे के लिए जहर हो जाएगा। किसी की बीमारी कुछ है, किसी की बीमारी कुछ और है। औषधि भिन्न होगी। तुम डाक्टर के पास जाते हो तो डाक्टर सभी मरीजों को एक से ही प्रिस्क्रिप्शन नहीं देता जाता। नहीं तो डाक्टर की कोई जरूरत ही नहीं है। डाक्टर की जरूरत क्या है? डाक्टर की जरूरत यही है कि वह बीमारी को परखे, निदान करे, डायग्नोसिस करे और फिर उपचार की व्यवस्था दे।
इसलिए वेद अकेले सार्थक नहीं हैं। बिना गुरु के सहारे तुम वेद में जाओगे, झंझट में पड़ जाओगे। वह वैसे ही है जैसे अकेले ही केमिस्ट की दुकान पर पहुंच गए, अपनी दवा तैयार करने लगे। केमिस्ट की दुकान पर तो लाखों दवाएं रखी हैं। उसमें टी.बी. की दवा है, उसमें कैंसर की दवा है, उसमें दवाएं ही दवाएं हैं। अब तुम अपने हाथ से ही पहुंच कर अगर दवाएं तैयार करने लगे, तो तुम दवाएं कैसे तैयार करोगे? तुम्हारे दवाएं तैयार करने के सब कारण गलत होंगे। शायद सबसे सुंदर शीशियों में से चुन लो। या सबसे ज्यादा रंगीन दवाएं चुन लो। या सबसे मीठी दवाएं चुन लो। कुछ इस तरह के तुम्हारे चुनाव होंगे। तुम्हारे चुनाव सब गलत होंगे। तुम ठीक चुन ही नहीं सकते। क्योंकि पहले तो तुम्हें यही पता नहीं कि तुम्हारी बीमारी क्या है? बीमारी का भी शायद पता हो तो तुम्हें यह पता नहीं कि इस बीमारी पर दवा क्या है? एक गुरु चाहिए, सदगुरु चाहिए। जो वेद के हजारों-हजारों उपचारों में से, तुम्हारे लिए क्या उपचार है, तुम्हें दे सके।
इसलिए शास्त्र सदगुरु के बिना किसी मूल्य का नहीं है। और लोग शास्त्रों को पकड़े बैठे हैं। इसलिए फिर शास्त्र का कोई उपयोग नहीं कर सकते, वे सिर्फ पूजा कर सकते हैं। रख ली दवा की बोतल और उसकी पूजा कर ली। फूल चढ़ा दिए, मंत्र पढ़ दिया, घंटा बजा दिया, आरती उतार दी। मगर दवा पीना मत, नहीं तो खतरा हो जाएगा। पूजा ही हो सकती है। फिर लोग वेद की पूजा कर रहे हैं। और वेद में अगर उलट-पलट कर देखेंगे तो बेचैनी बढ़ जाएगी, क्योंकि वहां जरूर विपरीत वक्तव्य हैं। अलग-अलग लोगों के लिए दिए गए वक्तव्य हैं।
अब थोड़ा सोचो! जिससे कहा होगा वेद के ऋषि ने--मा हिंस्यात् सर्वभूतानि। किसी भी प्राणी की हिंसा न करें। यह कोई बड़ा शुद्ध व्यक्ति रहा होगा। आखिरी घड़ी में आ गया होगा, जहां से सब तरह की हिंसा छोड़ी जा सकती है। फिर किसी को कहा कि सिर्फ यज्ञ में हिंसा करें। यह बड़ा हिंसक आदमी रहा होगा। इससे कहा कि सिर्फ यज्ञ में हिंसा कर लेना। इसकी हिंसा को सीमा दे दी। अब यज्ञ रोज नहीं किए जा सकते--खर्चीला यज्ञ है, रोज तो कर नहीं सकते। कभी जन्म में एकाध-दो बार कर पाओगे, तो जन्म में एकाध-दो बार हिंसा होगी, बाकी शेष जन्म छुटकारा हो गया। यह हिंसक व्यक्ति के लिए इतनी सुविधा बनाई होगी। फिर धीरे-धीरे जैसे-जैसे हिंसा छूटती जाएगी, वैसे-वैसे दूसरा उपदेश काम में आता जाएगा। आज जो दवा काम की है, शायद कल जब बीमारी कम हो जाए, तो बदलनी पड़े। दूसरी दवा देनी पड़े, जिसमें कम मात्रा हो। फिर और बीमारी कम हो जाए, तो तीसरी दवा देनी पड़े, जिसमें और कम मात्रा हो।
शांडिल्य कहते हैं कि वेद में जो विपरीतता है, वह पात्रों की भिन्नता के कारण है। और यही मैं तुमसे कहना चाहता हूं, उसी कारण विपरीतता वेद में और कुरान में है। कुरान के पात्र तो और भी बड़े दूर थे--अलग सदी, अलग देश, अलग रीति-रिवाज, अलग लोग। कुरान वेद जैसा नहीं हो सकता। बाइबिल वेद जैसी नहीं हो सकती। बुद्ध के वचन वेद जैसे नहीं हो सकते। क्योंकि बुद्ध और वेद के बीच कोई पांच हजार साल का फासला है। मैं तुमसे जो कह रहा हूं, वह वेद जैसा कैसे हो सकता है? कोई दस हजार साल का फासला है। दस हजार साल में आदमी एकदम बैठा नहीं रहा है मुर्दे की तरह। आदमी चट्टान नहीं है, बहती हुई धारा है। बहुत कुछ बदला है। बहुत कुछ रूपांतरित हुआ है। आज के आदमी की जरूरत अलग है। तब के आदमी की जरूरत अलग थी। आज के आदमी का इलाज भी अलग होगा।
इसलिए बहुत बार जब तुम्हें मेरे वचनों में कुछ ऐसा लगे जो तुम्हारे शास्त्र के विपरीत जा रहा है, तो उसको सिर्फ इसलिए मत छोड़ देना कि वह शास्त्र के विपरीत जा रहा है। जब भी तुम्हें मेरे वचनों में कोई चीज शास्त्र के विपरीत जाती मालूम पड़े, तब खयाल रखना कि जरूर उस चीज पर ध्यान देने का है। नहीं तो मैं भी शास्त्र के विपरीत जाने की कोई आकांक्षा नहीं रखता हूं। जहां तक बनता है, वही कहना चाहता हूं जो शास्त्र ने कहा है। लेकिन जब देखता हूं कि अब शास्त्र का कहा हुआ अगर कहता हूं तो तुम्हारी फांसी लगेगी, तभी उसे बदलता हूं। और अक्सर ऐसा हो जाता है, तुम उन्हीं बातों को मेरी मान लेते हो जो शास्त्र के अनुकूल हैं और उन बातों को छोड़ देते हो जो शास्त्र के अनुकूल नहीं हैं।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम आपकी उतनी बातें मानते हैं जितनी हमारे शास्त्र के अनुकूल हैं। जितनी अनुकूल नहीं हैं, वे हम नहीं मानते। और वही असली बातें हैं, जो तुम्हारे काम की हैं। जो शास्त्र के अनुकूल नहीं हैं, वही तुम्हारे लिए कही गई हैं, विशिष्ट तुम्हारी दशा के लिए संगत हैं।
तो भेद है शास्त्रों में। लेकिन शत्रुता नहीं है। भिन्नता है, विपरीतता नहीं है।
और फिर शांडिल्य कहते हैं: ‘उसमें मिश्रित उपदेश हैं, इस कारण आशंका मत करो। और वे थोड़े ही हैं।’
और वे जो मिश्रित उपदेश हैं, वे बहुत थोड़े हैं, क्योंकि मनुष्य कितना ही अलग-अलग देशों में हो, अलग-अलग समय में हो, उसका अधिक हिस्सा तो एक जैसा ही है। फिर अरब में पैदा हो, कि चीन में, कि हिंदुस्तान में; थोड़े-थोड़े फर्क होंगे; रीति-रिवाज और होंगे, संस्कार और होंगे, हवा और होगी, प्रकृति और होगी; लेकिन मौलिक भेद तो क्या होंगे? मौलिक रूप से तो आदमी आदमी है। मौलिक वृत्ति तो वही की वही है। इसलिए शांडिल्य कहते हैं: भेद बड़े थोड़े से हैं। वे भेद लड़ने जैसे नहीं हैं। उन भेदों के संबंध में सदगुरुओं से पूछ लेना कि तुम्हारे लिए क्या लागू है। तुम उसके अनुकूल चल पड़ना।
बिना सदगुरु के शास्त्र खतरनाक है। सदगुरु के साथ शास्त्र का मूल्य परम है। सदगुरु के जीवन से अगर शास्त्र की ध्वनि तुम्हें फिर सुनाई पड़ जाए तो सदगुरु के माध्यम से शास्त्र पुनरुज्जीवित होता है। और उस ढंग से पुनरुज्जीवित होता है जो तुम्हारे काम का है। तुम्हारे योग्य, तुम्हारे अनुकूल, तुम्हारी परिस्थिति की संगति में शास्त्र का पुनर्जन्म होता है। सदगुरु का अर्थ ही यही है--शास्त्र का फिर-फिर जन्म, दुबारा-दुबारा, बार-बार।
लोग अत्यंत विवाद में पड़े हुए हैं कि गीता में ऐसा कहा हुआ है और कुरान में ऐसा कहा हुआ है, हम किसको मानें? इसी भय के कारण गीता पढ़ने वाला कुरान नहीं पढ़ता। वह गीता से ही काफी परेशान है। वह कहता है, गीता में ही इतनी बातें कही हुई हैं--कहीं भक्ति का वर्णन, कहीं कर्म का वर्णन, कहीं ज्ञान का वर्णन--गीता ही हमें उलझाने को काफी है! कौन ठीक है? फिर कुरान को और पढ़ो तो और झंझट हो जाती है। इसलिए तथाकथित धार्मिक लोगों ने निर्णय कर रखा है कि दूसरे के शास्त्र को पढ़ना ही मत, नहीं तो तुम और बिगूचन में पड़ जाओगे।
मैं तुमसे कहता हूं: सब शास्त्र पढ़ो। क्योंकि तुम ठीक से बिगूचन में पड़ जाओ और शास्त्रों से तुम्हें मार्ग न मिले, तो तुम सदगुरु को खोजोगे; अन्यथा तुम सदगुरु को नहीं खोजने वाले हो। इसीलिए इतने शास्त्रों पर बोल रहा हूं कि तुम्हारी सारी भ्रांति तुमसे छीन लूं कि तुम्हें पता है। तुम्हें बिलकुल स्पष्ट हो जाए कि हमें कुछ भी पता नहीं है, तुम्हारे पास पकड़ने को कुछ भी न रह जाए, न वेद, न कुरान, न बाइबिल। मैं सारे शास्त्र तुम्हारे सामने खड़े कर दे रहा हूं, तुम्हारे भीतर यह बात बिलकुल साफ हो जानी चाहिए कि अब मैं क्या पकडूं? अब मैं कहां जाऊं? अब मुझे कोई मार्ग नहीं सूझता! जब तुम्हें यह स्पष्ट हो जाएगा कि मुझे कोई मार्ग नहीं सूझता, तभी तुम किन्हीं चरणों में झुकोगे और कहोगे कि मुझे मार्ग दो। अन्यथा तुम न झुकोगे। किताब से काम चल जाता हो तो सदगुरु के पास कोई जाए क्यों? किताब सस्ती चीज है।
फिर किताब के तुम मालिक होते हो। सदगुरु तुम्हारा मालिक हो जाता है। किताब के सामने समर्पण करने में कोई हर्जा नहीं है। एकांत में सिर झुका लेते हो। सदगुरु के सामने झुकने में दूसरा आदमी सामने मौजूद है, जिसके सामने तुम झुक रहे हो, वहां अहंकार को बाधा पड़ती है। इसलिए मुर्दा गुरुओं को लोग पूजते हैं, जिंदा गुरुओं की हत्या करते हैं। जिंदा गुरु तुम्हारे अहंकार का दुश्मन है। मुर्दा गुरु से तुम्हारे अहंकार की कोई दुश्मनी नहीं है।
पढ़ो सारे शास्त्र! वही रास्ता है शास्त्रों से मुक्त होने का। और वही रास्ता है सदगुरु की तलाश का। और धन्यभागी हैं वे, जिन्हें सदगुरु मिल जाता है।
आज इतना ही।
तत्छक्तिर्मांया जड़सामान्यात्।। 86।।
व्यापकत्वाद्वयाप्यानाम्।। 87।।
न प्राणिबुद्धिभ्योऽसम्भवात्।। 88।।
निर्मायोच्चावचं श्रुतीश्च निर्मिमीते पितृवत्।। 89।।
मिश्रोपदेशान्नेति चेन्न स्वल्पत्वात्।। 90।।
स्मरण करें पूर्वसूत्र का।
‘यह संपूर्ण विश्व भजनीय है; भगवान से अभिन्न है; क्योंकि सब कुछ उसका ही स्वरूप है।’
भजनीयेन अद्वितीयम् इदं कृत्स्नस्य तत् स्वरूपत्वात्।
यहां जो भी है, वही है। यहां प्रत्येक वस्तु आराध्य है। यहां और मूर्तियां बनाने की जरूरत नहीं है, सभी मूर्तियां उसकी हैं। यहां और मंदिर खड़े करना व्यर्थ है, सारा अस्तित्व उसका मंदिर है।
मनुष्य अधार्मिक हुआ इसी भ्रांति के कारण कि उसने मंदिर खड़े किए, मस्जिदें बनाईं, गिरजे बनाए। गिरजों-मंदिर-मस्जिदों ने एक भ्रम पैदा किया कि भगवान मंदिर में है।
भगवान सब जगह है, मंदिर के बाहर भी है, मंदिर में भी है। मंदिर भगवान में है। और सारा अस्तित्व भगवान में है।
पूजा का खयाल उठता है जब तुम मंदिर जाते हो। और यह शेष सब कौन है? इस शेष सबको तुम झुकते नहीं। इस शेष सबके आनंद से तुम भरते नहीं। फिर मंदिर कितने होंगे? यह सारा जीवन वंचित हो गया तुम्हारे मंदिरों के कारण। परमात्मा सिकुड़ गया, छोटा हो गया। तुमने उसकी मूर्तियां बना लीं, तुमने पवित्र तीर्थस्थल बना लिए। यह सारा स्थान ही तीर्थ है। यह सारा आकाश तीर्थ है। सब नदियां गंगाएं हैं। और सारी पृथ्वी पवित्र है। सब रूपों में वही है। इस पूर्व सूत्र का स्मरण करें। यह सूत्र अपूर्व है--
भजनीयेन अद्वितीयम् इदं...
अब दूसरे और किसका भजन करने जाते हो? भजन करने और कहीं जाने की जरूरत कहां है? तुम जहां हो, आंख खोलो। जिस पर आंख पड़ जाए, वही भजनीय है। तुम जहां हो, सुनो। जो सुनाई पड़ जाए, वही ओंकार का नाद है। छुओ किसी को, जो छूने में आ जाए, वह वही है। जिसे तुम अछूत कहते हो, उसमें भी तुम उसी को छूते हो। अस्पृश्य में भी उसी का स्पर्श होता है। जिसको तुम जड़ कहते हो, उसमें भी वही सोया है। जिसको तुम चेतन कहते हो, उसमें वही जागा है। इस विराट की प्रतीति जितनी सघन हो जाए, उतना शुभ।
और देखो, तुम्हारे मंदिर-मस्जिद ने न केवल परमात्मा को सिकोड़ कर छोटा कर दिया, तुम्हें भी सिकोड़ कर छोटा कर दिया। मंदिर जाने वाला हिंदू हो गया। मस्जिद जाने वाला मुसलमान हो गया। काश, हमने परमात्मा को ऐसा देखा होता जैसा शांडिल्य देखते हैं, तो कोई हिंदू न होता, कोई मुसलमान न होता। अगर तुम प्रत्येक वस्तु में परमात्मा को देखते, तो कैसे हिंदू होते? कैसे मुसलमान होते? कैसे एक-दूसरे की हत्याएं करते? धर्म के नाम पर अधर्म फैला। मंदिरों-मस्जिदों के नाम पर कितना खून बहा! परमात्मा को संकीर्ण किया, इतना ही नहीं, तुम भी संकीर्ण हो गए। होना ही था। जितना परमात्मा तुम्हारा संकीर्ण होगा, उतने ही संकीर्ण तुम हो जाओगे।
तुम्हारा परमात्मा तुम्हारे हृदय की खबर देता है। तुम्हारा परमात्मा मंदिर में बंद है। तो तुम भी किसी कारागृह में बंद हो गए। हिंदू हो उस कारागृह का नाम, जैन हो, ईसाई हो, यहूदी हो, इससे फर्क नहीं पड़ता--ये कारागृहों के अलग-अलग नाम हैं। लेकिन जिस दिन तुम्हारा परमात्मा मुक्त होकर विचरण करेगा आकाश में, सूरज की किरणों में बहेगा, चांद-तारों में झलकेगा, लोगों की आंखों में दिखाई पड़ेगा, उस दिन तुम्हारी सारी सीमाएं टूट जाएंगी। असीम परमात्मा को जो जानेगा, पहचानेगा, वह स्वयं भी असीम हो जाएगा।
तुम्हारा परमात्मा तुम्हारे होने की कीमिया है। इसलिए परमात्मा की धारणा क्षुद्र मत कर लेना। वह धारणा साधारण धारणा नहीं है, उस पर तुम्हारा सारा भविष्य निर्भर है। उस पर तुम्हारा सारा जीवन बदलेगा, बनेगा, मिटेगा।
छोटे-छोटे घरघूले बना लिए लोगों ने!
इन पक्षियों की आवाज में वही है। सुनो! वृक्षों की हरियाली में वही है। आंख साफ करो और देखो! तुम्हारी पत्नी में, तुम्हारे पति में, तुम्हारे बेटे में, तुम्हारे पिता में वही है। फिर से तलाशो। अगर नहीं मिला है, तो कहीं तलाश में भूल हो गई है। तुमने पत्नी को पत्नी मान लिया, उसी में भूल हो गई। पत्नी मान लिया, अब तो तुम सोच ही कैसे सकते हो कि उसमें परमात्मा हो सकता है। और तुम सोचोगे भी तो पत्नी राजी न होगी--कि मैं तुम्हारी पत्नी हूं, यह तुम क्या कर रहे हो?
मेरे पास एक सज्जन आते थे। थोड़े झक्की स्वभाव के थे। ऐसे एक दिन चर्चा चल रही थी, और मैंने शांडिल्य का यह सूत्र उल्लेख किया और मैंने कहा कि यहां सभी परमात्मा हैं। पति में भी वही, पत्नी में भी वही। वे कुछ भाव में आ गए--झक्की थोड़े थे--भाव में आ गए, घर जाकर एकदम साष्टांग दंडवत, उन्होंने झुक कर पत्नी के चरण छू लिए।
पत्नी ने तो चीख मार दी कि ये पागल हो गए! घर के लोग इकट्ठे हो गए, पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गए कि तुम्हें हो क्या गया? और वे खूब हंसें। उन्हें आनंद बहुत आया। और लोगों का यह पागलपन देख कर उन्हें और भी बहुत हंसी आई। उन्होंने कहा, इसमें भूल क्या है? सारे शास्त्र यही कहते हैं कि सबमें परमात्मा है। तो मेरी पत्नी में नहीं है?
लोगों ने कहा, वे शास्त्र ठीक कहते हैं, मगर यह व्यावहारिक नहीं है। और शास्त्रों को बीच में मत लाओ। तुम गृहस्थ आदमी हो! तुम कहां की इन ऊंची बातों में पड़ गए!
मगर वे मानें नहीं। दूसरे दिन उन्हें मेरे पास लाया गया। और लोगों ने कहा, आप समझाइए इनको। मैंने कहा, इनको समझ आ गई है। नहीं, उन्होंने कहा...उनकी पत्नी रोने लगी मेरे पैर पकड़ कर कि आप किसी तरह इनको समझाइए, मेरे पैर न पड़ें! और सबके पड़ें। मैं इनकी पत्नी हूं!
हमने एक धारणा मान ली है। किसी को तुम पत्नी बना लिए हो, किसी को पति बना लिए हो! जरा कुरेदो, जरा राख के भीतर प्रवेश करो और तुम अंगारा पाओगे उसी का जलता हुआ। उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। तुम्हारे बेटे में वह तुम्हारे घर मेहमान हुआ है। तुम्हारी बेटी में फिर तुम्हारे घर आया है। अतिथि है तुम्हारा। लेकिन तुमने मान लिया है कि मेरा बेटा है, बस वहीं भूल हो गई। अब परमात्मा दिखना मुश्किल हो जाता है।
इसलिए ज्ञानियों ने कहा है: मेरे-तेरे को गिरा दो। क्योंकि मेरे-तेरे के गिरते ही जो पीछे छिपा है वह प्रकट हो जाएगा। मेरे-तेरे की राख ने उसके अंगार को बहुत बुरी तरह ढंक लिया है। जरा सोचो! मेरा-तेरा हटने दो। मेरे-तेरे को छोड़ कर देखो। मेरे-तेरे के वस्त्र अलग कर दो, नग्न सत्य को देखो। फिर कौन पत्नी है? कौन पति है? कौन बेटा है? कौन मां है? एक का ही खेल है।
शांडिल्य कहते हैं: वह संपूर्ण में छाया हुआ है। भगवान सबमें है। इसलिए विश्व भजनीय है। भजन करो विश्व का।
अब विश्व का भजन क्या करना होगा? तुम जहां तल्लीन हो जाओगे, वहीं भजन हो जाएगा। आई हवा, गिरने लगे वृक्षों से पत्ते, सरसराती हवा बह गई वृक्षों से, तुम मग्न होकर उसे सुन लेना; और तुम पाओगे--वह आया, उसके पदचाप सुनाई पड़े। उसने वृक्षों से ही पुराने पत्ते नहीं गिरा दिए, तुम्हारे पुराने पत्ते भी गिरा दिए। वह तुम्हें भी झकझोर गया, निखार गया, साफ कर गया। तुम्हारी धूल झाड़ गया। तुम्हें निर्मल कर गया। मेघ घिरें आकाश में, देखना उसे--कितने रूपों में घिरता है? कितने रूपों में तुम्हारी प्यास को तृप्त करता है? यह भजन।
इसलिए मैं कहता हूं: यह सूत्र बड़ा अदभुत है। ऐसी भजन की परिभाषा किसी ने भी नहीं की जैसी शांडिल्य ने की है। और सब भजन छोटे पड़ जाते हैं। कोई बैठा है, राम-राम, राम-राम जप रहा है। और राम चारों तरफ खड़े हैं। और तुम राम-राम, राम-राम जप रहे हो! अगर राम भी आ जाएं, खुद राम सामने आकर खड़े हो जाएं, तो तुम उनसे कहोगे: बाधा न दो। अभी मैं राम-राम जप रहा हूं। अभी आगे जाओ!
राम आए ही हुए हैं। लेकिन हमने एक आकार में सीमा बना ली है। हमने पकड़ लिया है कि धनुर्धारी राम! तो जब तुम्हारे सामने एक छोटा बच्चा किलकारी करता आ जाता है, तो तुम नहीं पहचान पाते। किलकारी करते राम तुम्हारे खयाल में नहीं हैं। जब एक पक्षी तुम्हारे सामने से उड़ जाता है तो तुम्हें खयाल नहीं आता, क्योंकि पक्षी धनुर्धारी नहीं होता। न मोरमुकुट बांधता है। लेकिन पक्षियों को बांसुरी की जरूरत क्या है? उनके कंठ उनकी बांसुरी हैं। और उनके कंठ परमात्मा को समर्पित हैं। और वृक्षों को मोरमुकुट बांधने की जरूरत क्या है? उनके फूल उनके मोरमुकुट हैं। कीमती से कीमती ताज फीके हैं एक छोटे से फूल के सामने। तुम जरा फिर से देखना शुरू करो। तुमने अब तक जो सीख लिया है, उसे अनसीखा करो। और तुम फिर से तलाश शुरू करो। अ ब स से शुरू करनी पड़ेगी खोज।
भगवान से अभिन्न है यह विश्व। सब कुछ उसका स्वरूप है। तत् स्वरूपत्वात्। इसी सूत्र को और आगे आज के सूत्रों में शांडिल्य ने बढ़ाया है।
पहला सूत्र--
तत्छक्तिः माया जड़ सामान्यात्।
‘भागवत्-शक्ति का नाम ही माया है; वह चैतन्य-शून्य होने पर जड़वत है।’
बार-बार तुमसे कहा गया है: माया असत्य है। माया से छूटो। माया से मुक्त होओ। माया पाप है। माया बंधन है। माया ही आवागमन है। जितनी गालियां दी जा सकती थीं, माया को दी गई हैं। सुनो शांडिल्य क्या कहते हैं? शांडिल्य कहते हैं: भागवत्-शक्ति का नाम ही माया है। वह झूठ नहीं है। वह झूठ कैसे हो सकती है? भगवान की ऊर्जा का नाम माया है। भगवान से जो निष्पन्न हो रही है वह असत्य नहीं हो सकती। हमारे शब्दकोशों में तो माया का अर्थ ही झूठ हो गया है--असत्य, मिथ्या, जो नहीं है और दिखाई पड़ता है। माया को हम सोचने ही लगे--भ्रम का पर्यायवाची। इतनी बार हमें समझाया गया है कि माया, माया, माया, झूठ है; यह संसार सब माया है।
कुछ भी माया नहीं है। शांडिल्य का क्रांतिकारी उदघोष सुनो। वे कहते हैं: माया परमात्मा की ऊर्जा है। उसकी शक्ति है। इसलिए परमात्मा से उद्भूत है; असत्य तो कैसे हो सकती है? और यह बात समझ में पड़ती है, सीधी-साफ है। यह सारा जगत असत्य है? लाख शंकराचार्य समझाएं कि यह सारा जगत असत्य है, शंकराचार्य को भी मान कर यही जीना पड़ता है कि यह जगत सत्य है।
एक शूद्र ने उनको छू लिया था काशी में, तो चौंक कर खड़े हो गए थे। और चिल्ला कर कहा था कि तुझे समझ नहीं है? मैं स्नान करके गंगा से आ रहा हूं और तूने मुझे छू लिया? अब मुझे फिर स्नान करना पड़ेगा!
उस शूद्र ने पता है क्या शंकर को कहा? उस सुबह बड़ी अदभुत वार्ता हुई। एक अज्ञानी ने ज्ञानी को चेताया! अज्ञानी अज्ञानी नहीं था। और ज्ञानी ज्ञानी नहीं था--तब तक।
उस शूद्र ने कहा, यह तो बड़ी ऊंची बात कह दी। तुम तो कहते हो: सब माया है। तो मैं सत्य हूं? और अगर माया तुम्हें छू गई, तो अपवित्र कैसे हो जाओगे? झूठ छू गया, तो अपवित्र कैसे हो जाओगे? किस गंगा में नहा कर आ रहे हो? सब तो माया है। झूठी गंगा में नहा कर आ रहे हो। और अब फिर उसमें नहाने जाना चाहते हो? फिर कौन सी चीज तुम्हें छू गई? मेरी देह ने तुम्हें छुआ है कि मेरी आत्मा ने? देह तो तुम कहते हो झूठ है, असत्य है। तो असत्य तो कैसे छुएगा? फिर मेरी देह हो कि तुम्हारी, दोनों असत्य हैं। दो असत्यों ने एक-दूसरे को छुआ तो कौन पवित्र हो जाएगा, कौन अपवित्र हो जाएगा? असत्य तो असत्य होते हैं। क्या पवित्र, क्या अपवित्र? तुम कहते हो: आत्मा सत्य है, आत्मा ब्रह्म है। तो मेरे ब्रह्म ने अगर तुम्हारे ब्रह्म को छुआ तो इसमें कौन सा पवित्र और अपवित्र होने वाला है? ब्रह्म तो ब्रह्म है। ब्रह्म तो सदा पवित्र है।
कहते हैं शंकर झुक गए थे लाज से। सिर झुका लिया था। और कहा, धन्यवाद कि मुझे चेताया। मैं दर्शनशास्त्र में ही उलझा हुआ हूं। बात तो ठीक है।
शब्दों के जाल घेर लेते हैं। लोगों ने तोतों की तरह सीख लिया है कि संसार माया है, इसमें क्या पड़े हो? लेकिन संसार माया है? ये वृक्ष झूठ हैं? ये लोग झूठ हैं? यह जो दिखाई पड़ रहा है सारा विस्तार, यह झूठ है? यह झूठ तो नहीं है। यह हो सकता है कि तुम्हारी इसके संबंध में धारणाएं गलत हैं, मगर इससे यह झूठ नहीं है। रस्सी पड़ी है, तुमने सांप समझ लिया। शंकर ने इसका उल्लेख बार-बार किया है, कि रस्सी पड़ी है और तुमने सांप समझ लिया, बस ऐसा ही यह संसार है। लेकिन रस्सी तो सच है न? सांप की समझ तुम्हारी है। सांप नहीं है वहां, ठीक। मगर समझ झूठ हुई, रस्सी तो झूठ नहीं हुई! रस्सी तो वहां है ही। उस रस्सी पर ही तुमने अपने झूठ को आरोपित कर दिया है।
तुमने अपनी पत्नी को मान लिया कि मेरी पत्नी है, यह झूठ होगा, लेकिन पत्नी में जो परमात्मा पड़ा है, जो उसकी किरण उतरी है, वह तो झूठ नहीं है? रस्सी तो है न? तुमने जिसको पत्नी मान लिया है, वह तो है न? तुम्हारा पत्नी मानना झूठ होगा।
तुमने जिस जमीन के टुकड़े को मान लिया है--मेरा, वह टुकड़ा झूठ नहीं है, तुम्हारा मेरा मानना झूठ है। क्योंकि तुम नहीं थे, तब भी टुकड़ा था। तुम नहीं होओगे, तब भी टुकड़ा रहेगा। तुम्हारा क्या है? तुम क्या ले आए और क्या ले जाओगे? सब यहीं था, सब यहीं रह जाएगा। तुम आए और तुम चले जाओगे। मेरा है, यह मान लेना झूठ था। लेकिन जमीन का टुकड़ा तो झूठ नहीं है। वह तो सत्य है।
संसार सत्य है। संसार के संबंध में हम जो ओछी धारणाएं बना लेते हैं, वे झूठ हैं। जिस दिन हमारी धारणाएं गिर जाती हैं और हम निर्धारणा होकर जगत को देखते हैं, उस दिन ब्रह्म का दर्शन हो जाता है। ब्रह्म ही है, हमारी धारणाओं के कारण हमें कुछ का कुछ दिखाई पड़ रहा है। सांप तुमने देख लिया है, सांप वहां है नहीं। मगर रस्सी है।
शंकर ने अपने उदाहरण में, रस्सी है, इसकी बात ही नहीं की। सांप नहीं है, इसकी चर्चा को इतना फैलाया कि किसी ने पूछा ही नहीं कि रस्सी का क्या हुआ? रस्सी सत्य है।
शांडिल्य ज्यादा व्यावहारिक बात कह रहे हैं। ज्यादा तर्कयुक्त, ज्यादा सीधी-साफ, तथ्यगत, कि यह सारा विस्तार उस परमात्मा की ऊर्जा का विस्तार है। माया उसकी छाया है।
माया...ऐसा समझें हम कि माया और ब्रह्म का जोड़ा है। इसलिए भक्तों ने राधा और कृष्ण का जोड़ा बनाया है। सीता और राम का जोड़ा बनाया है। ये जोड़े प्रतीक हैं। भक्तों को महावीर अकेले खड़े अधूरे मालूम पड़ते हैं। कुछ कमी है। ब्रह्म तो जरूर हैं, लेकिन माया कहां है? ऊर्जा कहां है? शिव तो हैं, लेकिन शक्ति कहां है? यह आकस्मिक नहीं है कि भक्तों ने जोड़े पूजे हैं। भक्तों ने भगवान को जोड़े में पूजा है। वह प्रतीक है जोड़ा। पुरुष और नारी। ऐसे ब्रह्म और माया।
सीता झूठ है? जितने सच राम हैं, उतनी ही सीता सच है। और इस बात को बहुत प्रगाढ़ता से घोषणा करने के लिए भक्तों ने क्या किया देखते हो? सीता को पहले रखा। सीताराम। राधाकृष्ण। इस बात को प्रगाढ़ता से प्रकट करने के लिए कि माया न केवल सत्य है, बल्कि ब्रह्म के भी आगे है। क्योंकि पहले तो उसकी ऊर्जा का अनुभव होता है। पहले तो संसार का अनुभव होता है, फिर ब्रह्म का अनुभव होता है। इसलिए राधा पहले, कृष्ण पीछे। राधा में ही कहीं कृष्ण छिपे हैं। राधा के पीछे ही कहीं छिपे हैं। राधा की ही खोज में तुम निकल जाओगे तो कृष्ण को एक दिन पा लोगे। राधा कृष्ण की परिधि है।
वह देखा न, रास का चित्र देखा? कृष्ण बीच में हैं और गोपियां चारों तरफ नाच रही हैं। यह सारा अस्तित्व कृष्ण--या जो भी नाम तुम देना पसंद करो, ब्रह्म--के केंद्र पर नाच रहा है। यह सारा जगत एक नृत्य है। चांद नाच रहे, तारे नाच रहे, सूरज नाच रहे, पृथ्वी नाच रही; वृक्ष, पशु-पक्षी, मनुष्य, सारा जीवन, सारा अस्तित्व नाच में मग्न है। यह रासलीला है। बीच में कहीं केंद्र पर जो खड़ा है, जिसके सहारे यह सब सम्हला है--यह सारा रास उजड़ जाएगा, कृष्ण न हों तो सारा रास उजड़ जाएगा। लेकिन गोपियां न हों तो भी रास उजड़ जाएगा। ये दोनों अनिवार्य हैं। ये दोनों इतने अनिवार्य हैं कि दोनों को अलग-अलग करके देखने में ही भ्रांति हो जाती है। हम दोनों को एक ही सिक्के के दो पहलू समझें।
और यह सब जगह सत्य है।
तुम हो, तो तुम्हारी देह है और देह के भीतर तुम्हारी चेतना है। देह परिधि पर है--राधा पहले। इसलिए स्त्री को हमने प्रकृति कहा है। परमात्मा को पुरुष कहा है, स्त्री को प्रकृति कहा है। तुम्हारी देह तुम्हारे चारों तरफ नाच रही है। और तुम्हारे देह के केंद्र पर कहीं विराजमान है ब्रह्म। लेकिन तुमने कहीं आत्मा देखी? देह के बिना आत्मा खो जाती है। और आत्मा के बिना देह बिखर जाती है। यह रास दोनों साथ होते हैं तो चलता है। दोनों जुड़े होते हैं तो चलता है। दोनों के आलिंगन में चलता है। दोनों की ऊर्जा चाहिए ही। और यह ऊर्जा का सत्य जीवन के सब पहलुओं पर सत्य है।
तुम पूछो वैज्ञानिक से! वह कहेगा, विद्युत तभी हो सकती है जब पाजिटिव और निगेटिव साथ हों। नहीं तो बिजली खो जाएगी। वही शिव-शक्ति, वही राधा-कृष्ण। विज्ञान की भाषा में वह पाजिटिव-निगेटिव। जरा सोचो, पृथ्वी पर पुरुष ही पुरुष हों, स्त्रियां न हों, कितनी देर पृथ्वी बचेगी? असंभव है। या स्त्रियां ही स्त्रियां हों और पुरुष न हों, तो कितनी देर बचेगी?
इससे एक बात साफ होती है कि स्त्री और पुरुष दो हैं, ऐसा मानने में ही कहीं भ्रांति हो रही है। किसी एक ही वर्तुल के दो हिस्से हैं। चीनियों के पास ठीक प्रतीक है--यिन-यांग। किसी एक ही वर्तुल के दो हिस्से हैं। या हमारे पास जो मूर्ति है अर्धनारीश्वर की, वह ठीक प्रतीक है।
देखी है शिव की मूर्ति जिसमें शिव आधे स्त्री हैं, आधे पुरुष? वह अस्तित्व की सूचना है। वह खबर है इस बात की कि यह अस्तित्व आधा स्त्रैण है, आधा पुरुष। आधी प्रकृति, आधा परमात्मा। और दोनों से मिल कर एक निर्मित हो रहा है। दोनों का जहां मिलन है, वहीं अद्वैत है।
‘भागवत्-शक्ति का नाम ही माया है; वह चैतन्य-शून्य होने पर जड़वत है।’
इसे हम ऐसा समझें। जैसे तुम ठंडा और गर्म को समझते हो। सापेक्ष। रिलेटिविटी की बात है। किसी चीज को गरम कहें या ठंडा, यह सापेक्ष पर निर्भर है।
कभी एक छोटा सा प्रयोग करो। एक हाथ को बर्फ पर रख लो और एक हाथ को सिगड़ी पर आंच दे दो, और फिर दोनों हाथों को सामने रखी बाल्टी में भरे पानी में डुबा दो। और तुमसे कोई पूछे कि पानी गरम है कि ठंडा? तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। एक हाथ कहेगा ठंडा और एक हाथ कहेगा गरम। सापेक्ष है। जिस हाथ को तुमने अंगीठी पर गरम कर लिया है, वह कहेगा पानी ठंडा। उसकी तुलना में पानी ठंडा है। हाथ गरम है। और जो हाथ तुमने बर्फ पर ठंडा कर लिया है, उसको तुम पानी में डालोगे, उसको पानी कुनकुना मालूम पड़ेगा। क्योंकि हाथ ठंडा हो गया है, उसकी तुलना में पानी कुनकुना है। पानी फिर क्या है? ठंडा है या गरम है?
पानी दोनों है। तुम कहां से देखते हो, वैसा दिखाई पड़ जाता है।
तुम अगर बेहोशी से देखोगे तो माया दिखाई पड़ती है, होश से देखोगे तो ब्रह्म दिखाई पड़ता है, बस! तुम्हारे देखने के ढंग पर सब निर्भर करता है। जिन्होंने जाग कर देखा, उनको ब्रह्म दिखाई पड़ा।
भजनीयेन अद्वितीयम् इदं कृत्स्नस्य तत् स्वरूपत्वात्।
उस एक का ही सब विस्तार है--जिन्होंने जाग कर देखा। जिन्होंने सोकर देखा, उन्हें वह एक नहीं दिखाई पड़ा--कृष्ण नहीं दिखाई पड़ा, गोपियां नाचती हुई दिखाई पड़ती हैं। उन्हें संसार दिखाई पड़ता है।
इसको ऐसा समझो कि चट्टान है और मनुष्य है...उदाहरण के लिए। चट्टान को तुम जड़ कहते हो। क्यों? मनुष्य को तुम चेतन कहते हो। क्यों? भेद केवल मात्रा का है। वैज्ञानिक खोज कर रहे हैं, वे कहते हैं: चट्टान को भी कुछ-कुछ अनुभव होते हैं, संवेदना होती है। वैज्ञानिक खोज कर रहे हैं, वे कहते हैं: वृक्षों को भी संवेदना होती है, अनुभव होता है। चेतना वहां भी है। लेकिन कुछ धूमिल है। कुछ सोई हुई है।
ऐसा समझो, तुम रात सो गए हो, एक मच्छर काटता है, तो ऐसा नहीं कि तुम्हें पता नहीं चलता। बड़ा धुंधला-धुंधला पता चलता है। नींद में ही तुम हाथ से मच्छर को हटा देते हो। शायद सुबह तुमसे पूछा जाए तो तुम याद भी न कर सको कि रात मच्छर ने काटा। लेकिन तुमने मच्छर हटाया था रात। एक कीड़ा तुम्हारे पैर पर चढ़ रहा है, पैर झटक देते हो। तुम्हें पता भी नहीं है। लेकिन कुछ तो पता हो ही रहा होगा। तुम नींद में हो। इसलिए बोध साफ नहीं है, साफ-सुथरा नहीं है, नींद से भरा हुआ है।
शांडिल्य कहते हैं: परमात्मा में और प्रकृति में इतना ही फर्क है--प्रकृति सोया हुआ परमात्मा है और परमात्मा जागी हुई प्रकृति है। बस भेद जागने और सोने का है। चेतना धूमिल होती जाती है, तो जड़; और चेतना प्रगाढ़ होती जाती है, उज्ज्वल होती जाती है, तो चैतन्य। चैतन्य का आखिरी शिखर परमात्मा है और चैतन्य की आखिरी मूर्च्छा पदार्थ है। मगर दोनों अलग-अलग नहीं हैं। दोनों एक ही हैं। एक ही तारतम्य है। चट्टान सोई हुई चेतना है, आदमी जाग गई चट्टान है।
पूरा नहीं जाग गया है, अधूरा-अधूरा जागा है। क्योंकि जब कोई बुद्धपुरुष होता है, तो वह हमसे बहुत जागा हुआ है, उसके सामने हम चट्टान जैसे हो जाते हैं। इसलिए बुद्धों को भगवान कहा है। सिर्फ इसी प्रतीक के अर्थ में कि वहां चेतना पूरी हो गई है। बुद्ध को भगवान कहने का यह अर्थ नहीं होता कि उन्होंने दुनिया बनाई है। इतना ही अर्थ होता है कि भगवत्ता का जो लक्षण है--चैतन्य--वह उनमें पूरा हो गया है। वे पूरी तरह जाग गए हैं। उसका अंतस्तल रोशन हो गया है। अब वहां कोई भी अंधेरे का टुकड़ा नहीं बचा है। जरा सा भी द्वीप अंधेरे का नहीं बचा है। कोई कोना-कांतर अंधेरे से भरा हुआ नहीं है, रोशनी पूरी तरह व्याप्त हो गई है। सब रोशन हो गया है। इसलिए बुद्ध को, महावीर को भगवान कहा है। इसलिए नहीं कि उन्होंने दुनिया बनाई। सिर्फ इसीलिए कि भगवत्ता का जो परम लक्षण है--चैतन्य--वह उनमें प्रकट हुआ है। उसका प्राकट्य हुआ है।
शांडिल्य के हिसाब से चैतन्य और जड़ सापेक्ष हैं। चैतन्यशून्य होने पर जड़ता रह जाती है। और जड़ता के खो जाने पर चैतन्य का आविर्भाव हो जाता है। इसे इस भांति देखोगे, तो फिर संसार से विरोध छूट जाएगा। तब संसार से भागने की भी कोई जरूरत नहीं है। जागने की जरूरत है, भागने की जरूरत नहीं है। भागने से कैसे जागोगे? संसार का उपयोग कर लेने की जरूरत है। यहीं कहीं घूंघट में छिपा परमात्मा खड़ा है। घूंघट उठाओ। भाग कर कहां जाते हो? पहाड़ पर जाकर बैठ जाओगे, वहां क्या करोगे? वहां भी घूंघट उठाना पड़ेगा। वहां चट्टानों का घूंघट उठाना पड़ेगा, जो कि ज्यादा कठिन है। क्योंकि चट्टानों में परमात्मा बहुत गहरा सोया हुआ है। यहां पत्नी में काफी जागा हुआ था, बेटे में काफी जागा हुआ था, पति में काफी जागा हुआ था। यहां तुमसे घूंघट न उठ सका, तुम चट्टानों पर घूंघट उठा पाओगे? तुम चट्टानों में देख पाओगे परमात्मा को?
लेकिन अक्सर ऐसा हो जाता है कि चट्टानों में लोग आसानी से देख लेते हैं। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं: यह बहुत आसान है चट्टान में देख लेना, आदमी में देखना बहुत कठिन है। क्यों? क्योंकि चट्टान में तुम अकेले ही होते हो, अपनी कल्पना का फैलाव कर सकते हो। चट्टान कुछ बाधा नहीं डालती। तुम कहते हो: हे चट्टान, तू ब्रह्म स्वरूप है। चट्टान नहीं कहती, मैं नहीं हूं। चट्टान कहती है, तुम्हारी मर्जी! चट्टान कुछ बोलती ही नहीं। तुम्हें जो मर्जी हो, तुम मान लो। चट्टान को तुम्हारी चिंता नहीं है। लेकिन अगर पत्नी से तुम कहते हो, तो वह जवाब देती है। झगड़ा खड़ा हो जाता है, विवाद खड़ा हो जाता है। हर छोटी बात में विवाद हो जाता है। तुम अपने बेटे से कुछ कहते हो, वह कहता है, नहीं करेंगे। या यह हमें जंचता नहीं है। यह बात ठीक नहीं है।
यहां संसार में तुम्हारी अड़चन क्या है? तुम्हारी अड़चन यह है कि तुम अपनी कल्पना करने को पूरी तरह स्वतंत्र नहीं मालूम होते। बस इतनी ही अड़चन है। तुम जो कल्पना करते हो, दूसरे लोग उसको तोड़ देते हैं, उसे खंडित कर देते हैं। जंगल में तुम अकेले बैठ जाते हो गुफा में जाकर, वहां तुम्हारी कल्पना को खंडित करने वाला कोई नहीं होता। तुम जो कल्पना करो! तुम कहो, कृष्ण कन्हैया खड़े हैं। तो कृष्ण कन्हैया खड़े कर लो। तुम्हारी कल्पना है। तुम जो बात करना चाहो, कर लो। फिर अगर ज्यादा दिन रह गए पहाड़ पर, तो धीरे-धीरे तुम्हीं बात नहीं करते, तुम्हीं कृष्ण कन्हैया की तरफ से जवाब भी देने लगते हो। फिर पागलपन पूरा हो गया। फिर विक्षिप्तता पूरी हो गई। यही तो पागल का लक्षण है। अब वह अपनी तरफ से भी बोल लेता है, उस तरफ से भी बोल लेता है।
वैज्ञानिक कहते हैं--मनोवैज्ञानिक--कि अगर एक व्यक्ति को तीन सप्ताह तक एकांत में रखा जाए, तो वह अपने से ही बात करना शुरू कर देता है। और अगर तीन महीने तक रखा जाए तो विक्षिप्त हो जाता है।
तो तुम्हारे साधु-संन्यासी जो पहाड़ों पर भाग गए थे, वे कर क्या रहे थे?
मनोविज्ञान की सारी शोध यह कहती है कि वे विक्षिप्त हो रहे थे। अपने सपने फैला रहे थे। अपने सपनों में रस ले रहे थे। कोई सपने तोड़ने वाला नहीं था। जो मानना था, मान लेते थे। मान कर जी लेते थे। और अगर तुमने बहुत देर तक कोई बात मानी, तो वह सच हो जाती है।
बुद्ध ने कहा है अपने शिष्यों को कि अगर तुम्हारी समाधि में मैं तुम्हें दिखाई पडूं, तो समझना कि अभी समाधि पूरी नहीं हुई। क्योंकि मैं फिर तुम्हारी कल्पना ही रहूंगा।
झेन फकीर कहते हैं कि जब तक कृष्ण, बुद्ध, महावीर, कोई भी दिखाई पड़े, तब तक समझना कि अभी संसार जारी है। जब कोई भी दिखाई न पड़े और परमशून्य हो जाए, जब कोई विचार न रह जाए, तभी जानना कि तुम घर आ गए हो। नहीं तो सोचना कि अभी भटकाव कायम है।
इसी भटकाव के लिए लोग जंगल भाग जाते हैं। जंगल में सुविधा है कल्पना में उतरने की और कल्पना को मजबूत करने की, संसार में सुविधा नहीं है। संसार में जगह-जगह लोग तुम्हारी कल्पना को तोड़ देते हैं। तुम तो मान रहे थे कि यह आदमी...चले, शांडिल्य का सूत्र पढ़ लिया सुबह ही सुबह कि सबमें भगवान है, और कोई ने तुम्हारा जेब काट लिया। अब इसमें कैसे भगवान देखो? चले तो थे सुबह से यही मान कर कि भगवान ही देखेंगे, और एक आदमी तुम्हें गालियां देने लगा। इसमें कैसे भगवान देखो? भूल गए, शांडिल्य एक क्षण में भूल जाएंगे। जब कोई जेब काट लेगा, तुम कहोगे, अब फिर पीछे देखेंगे शांडिल्य को, पहले इस आदमी को देखें!
मैंने सुना है, एक ईसाई पादरी को एक आदमी ने चांटा मार दिया। उस पादरी ने बाइबिल में पढ़ा था--पढ़ा ही नहीं था, रोज लोगों को भी पढ़ाता था--कि जब तुम्हारे गाल पर कोई एक चांटा मारे, तो दूसरा उसके सामने कर देना। दिल तो हुआ कि इसका सिर तोड़ दो, मगर अब गांव में प्रतिष्ठा थी! मजबूरी में उसने दूसरा गाल उसके सामने कर दिया। वह आदमी भी खूब था। उस आदमी ने भी सोचा, यह भी ठीक है, यह मौका भी क्यों चूको? उसने दूसरे गाल पर और एक जोर का चांटा जड़ दिया। पुरोहित ने सोचा था कि अब दूसरे गाल पर यह चांटा नहीं मारेगा। इतनी भलमनसाहत तो करेगा। लेकिन आदमी जैसे आदमी होते हैं, वह भी था, उसने दूसरे पर भी और जोर से लगा दिया। उसने कहा यह मौका अच्छा है, अपने आप तुम मौका दे रहे हो, मैं क्यों छोडूं? वह प्रसन्न ही हो रहा था दूसरा चांटा मार कर कि वह पुरोहित उसके ऊपर झपटा, उसकी गर्दन दबाने लगा। उसने कहा, भई, यह क्या करते हो? उसने कहा कि बाइबिल में इतना ही लिखा है कि एक गाल पर कोई चांटा मारे, दूसरा कर देना; उसके आगे फिर हम स्वतंत्र हैं। इसके आगे बाइबिल में कोई निर्देश नहीं है।
और ऐसा नहीं है कि जीसस के सामने ऐसे सवाल नहीं उठे थे। एक शिष्य ने पूछा है। जीसस ने कहा कि कोई तुम्हें चोट करे, अपमान करे, क्रोध करे, निंदा करे, क्षमा कर देना। एक शिष्य ने पूछा, कितनी बार? स्वाभाविक। क्योंकि आखिर एक सीमा होनी चाहिए। जीसस ने कहा, सात बार। उस आदमी ने कहा, ठीक है! मगर उसने इस ढंग से कहा कि ठीक है, कि जीसस को लगा कि वह आठवीं बार सातों का इकट्ठा बदला ले लेगा। उसने जिस ढंग से कहा कि अच्छा ठीक है, देख लेंगे, कोई बात नहीं; सात बार का ही मामला है न! तो जीसस ने बदला और कहा कि नहीं, सतहत्तर बार।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, सतहत्तर बार के बाद भी तो अठहत्तर बार आएगा।
शास्त्र काम नहीं पड़ेंगे, जब तक कि तुम्हारी अपनी अंतःप्रज्ञा न जगी हो। शांडिल्य काम नहीं पड़ेंगे, जीसस काम नहीं पड़ेंगे, मैं काम नहीं पडूंगा, जब तक कि तुम्हारी अंतःप्रज्ञा जाग्रत न हो। जब तक कि तुम्हारे भीतर से ही सूत्र का आविर्भाव न हो, तब तक कोई काम नहीं पड़ेगा। तब तक छोटी-मोटी चीजें तोड़ देंगी। जरा सी बात सब खराब कर देगी।
जरा-जरा सी तो बातें ही हैं जीवन में, बड़ी-बड़ी बातें कहां हैं?
तुम घर आए दिन भर के थके-मांदे और पत्नी ने चाय की प्याली इस ढंग से रखी कि बस सब शांडिल्य इत्यादि भूल गए! कुछ किया नहीं उसने, सिर्फ प्याली इस ढंग से रखी, इस बेरुखी से रखी! और जब तुमने चाय चखी तो वह ठंडी है। अब तुम उस वक्त याद न कर सकोगे कि पत्नी में परमात्मा है। उस वक्त सब भूल जाओगे। इससे लोग भागे हैं। इससे भागे हैं। क्योंकि यहां प्रतिपल तुम्हारे सूत्रों की परीक्षा हो रही है, अग्निपरीक्षा हो रही है। तुम्हारे सिद्धांतों की यहां प्रतिपल परीक्षा है। ऐसा नहीं है कि कभी साल में एकाध बार परीक्षा होती है, रोज हो रही है, प्रतिपल हो रही है, उठते-बैठते, सोते-जागते परीक्षा चल रही है। इस परीक्षा से लोग भागे हैं। मैं उनको कमजोर कहता हूं। उनको मैं भगोड़ा कहता हूं।
संसार से भागना नहीं है, न संसार को माया कह कर गाली देनी है। संसार परमात्मा की ऊर्जा है। परमात्मा की ऊर्जा का यह जो विस्तार है, इसी में तलाशो। इसी में तलाशते-तलाशते मिला है, और मिलेगा। क्योंकि इसी में है। और यहां पा लोगे तो हिमालय पर भी पा सकते हो। अगर यहां नहीं पाया, तो हिमालय पर भी नहीं पा सकोगे। फिर हिमालय पर इतना ही होगा कि तुम कल्पना कर लोगे। कल्पना में कोई बाधा देने वाला नहीं होगा। कल्पना में तुम मुक्त-भाव से बहते रहोगे। कल्पना करते-करते तुम विक्षिप्त हो जाओगे। कल्पना से कोई सत्य को उपलब्ध नहीं होता। कल्पना छोड़ कर आदमी सत्य को उपलब्ध होता है। सारी कल्पनाओं का विसर्जन करने से सत्य को उपलब्ध होता है। संसार नहीं छोड़ना है, कल्पना छोड़नी है।
बड़ा मजा है लेकिन, लोग संसार छोड़ते हैं, कल्पना नहीं छोड़ते। मेरा-तेरा छोड़ना है, पत्नी नहीं छोड़नी है, पति नहीं छोड़ना है, बच्चे नहीं छोड़ना है, मेरा-तेरा छोड़ना है। किसी के प्रति पत्नी-भाव, पति-भाव छोड़ना है। परमात्म-भाव का उदय होने देना है। इससे सुंदर अवसर और कहीं नहीं हो सकता है जैसा जगत में है। माया में ही परमात्मा छिपा है।
‘भागवत्-शक्ति का नाम माया है।’
इसलिए शांडिल्य ने कहा: सेवनीय है, भजनीय है। इसका सेवन करो, इसका भजन करो। इस ऊर्जा को पीओ। इस ऊर्जा को पचाओ। इस ऊर्जा से संबंध जोड़ो, सेतु बनाओ। इस ऊर्जा में और तुम्हारे बीच विरोध न रह जाए। संगति बिठाओ। इस ऊर्जा के साथ नाचो और गाओ। इसको इन्होंने भजन कहा है। बड़ी अनूठी परिभाषा की भजन की। इस ऊर्जा के साथ तल्लीन होने का नाम भजन है।
इधर वृक्ष नाच रहा है हवाओं में, हवाएं आई हैं और वृक्ष को एक नर्तकी बना दिया है, तुम भी नाचो वृक्ष के साथ। दोनों का नाच कहीं एक तल पर जुड़ जाएगा। एक ऐसी घड़ी आती है जब तुम्हारे और वृक्ष के बीच नाच इतना एकात्म हो जाएगा, ऐसा अनन्यभाव पैदा हो जाएगा कि तुम भूल ही जाओगे कि कौन वृक्ष है, कौन तुम हो। तब तुम्हें पहली दफे घूंघट उठेगा। वृक्ष में तुम्हें परमात्मा छिपा हुआ दिखाई पड़ेगा।
और यह कहीं भी घट सकता है। तुम अपनी हर जीवन-दशा में इस भजन को खोज ले सकते हो। सेवन की कला आनी चाहिए। भोगने की कला आनी चाहिए। लोग भोग से भागते हैं। शांडिल्य कहते हैं: भोग की कला सीखो। ठीक से भोगो। जिन्होंने ठीक से भोगा है, उन्होंने परमात्मा को यहीं पा लिया है।
और जो ठीक से भोग ही नहीं सकते, वे ठीक से त्यागेंगे क्या खाक! जो भोग भी न सके, जो भोग में भी हार गए, वे त्याग में कैसे जीतेंगे? त्याग तो भोग के आगे की कला है। सच पूछो तो त्याग भोग के ही अनुभव से पैदा होता है। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः। उन्होंने ही त्यागा, जिन्होंने भोगा। जिन्होंने इतना भोगा कि भोग में ही त्याग फलित हो गया।
जरा जटिल सूत्र है। और तुम्हारे ऊपर जो सिद्धांतों के हजारों-हजारों पर्दे पड़े हैं, उनके कारण और कठिन हो गया है समझना। अगर किसी ने ठीक से भोगना सीख लिया, तो उसी भोगने में त्याग छिपा है। जैसे माया में ब्रह्म छिपा है, वैसे भोग में त्याग छिपा है। वैसे बाह्य में आंतरिक छिपा है। वैसे लहर में सागर छिपा है। वैसे सतह में गहराई छिपी है। ये सब जुड़े हैं। सेवन करो। अनेक-अनेक रूपों में परमात्मा का सेवन करो। सुबह तुम जाते हो, तुम कहते हो--वायु सेवन को जा रहे हैं। शांडिल्य कहेंगे कि वायु सेवन जरूर करो, लेकिन याद रखो कि वायु में वही है। उसको भगवान का सेवन होने दो। यह कहो कि वायु के रूप में भगवान का सेवन करने जा रहे हैं। कहो ही मत, ऐसा जानो भी, ऐसा जीओ भी। जब तुम्हारे नासापुट सुबह की ताजी हवाओं को भरें, तो ऐसा ही अनुभव करो--परमात्मा को तुम पी रहे हो नासापुटों से। वायु में छिपा है प्राण--प्राणतत्व। वायु में छिपी है संजीवनी। वायु के बिना तुम जरा देर भी न जी सकोगे।
इसलिए समस्त भाषाओं में वायु के जो नाम हैं अलग-अलग, वे सोचने जैसे हैं। योगी उसको कहते हैं: प्राणायाम। प्राण का आगमन। हिबू्र में उसके लिए जो नाम है, उसका अर्थ होता है: आत्मा। अंग्रेजी में तुम देखते हो, भीतर जब हम वायु को ले जाते हैं, उसको कहते हैं, इंस्पिरेशन। वह स्प्रिट से बना है शब्द। प्राण को भीतर ले जा रहे हैं। उससे हम पुनरुज्जीवित हो रहे हैं। उससे फिर जीवन में लौ आ रही है। फिर दीये में तेल पड़ रहा है। आदमी भी एक ज्योति है। वैज्ञानिक से पूछो, तो वैज्ञानिक कहता है, ज्योति नहीं जलेगी अगर वायु न हो। ज्योति वायुरिक्त स्थान में नहीं जल सकती।
तुम प्रयोग करके देखो। एक मोमबत्ती के ऊपर कांच का एक बर्तन ढांक दो। बस थोड़ी देर मोमबत्ती जलेगी। जितनी देर भीतर की वायु जलने के लिए उपलब्ध रहेगी। जैसे ही भीतर की वायु खत्म हुई, मोमबत्ती बुझ जाएगी।
जीवन को भी प्रतिपल वायु की जरूरत है। बिना भोजन के आदमी तीन महीने तक रह सकता है। बिना पानी के कुछ दिन रह सकता है। लेकिन बिना श्वास के कुछ सेकेंड या कुछ मिनट। और जितनी देर बिना श्वास के रहता है, उतनी देर भी उसके भीतर की जो श्वास है, वह काम देती है, इसलिए रहता है। अगर सारी श्वास बाहर निकाल ली जाए तो उतनी देर भी नहीं रह सकता।
परमात्मा आ रहा है श्वास में। सुबह जब वायु बहती हो ताजी और तुम घूमने निकले होओ, तो स्मरण रखना, प्रति श्वास में परमात्मा को भीतर बुलाना, निमंत्रण देना। और तुम चकित हो जाओगे। तुम चकित हो जाओगे, प्रार्थना करके लौटे। और ऐसी प्रार्थना इसके पहले कभी न हुई थी। तुम्हारी मुर्दा प्रार्थनाएं मंदिरों में तुम जो करते हो, उनका दो कौड़ी मूल्य नहीं है। मैं तुम्हें जीवंत प्रार्थना के लिए कह रहा हूं। तुम एक घड़ी भर सुबह टहल आना; सुबह की ताजगी में, रोशनी में, पक्षियों के गीत में, नई हवाओं को परमात्मा की तरह सेवन कर लेना। तुम घर लौटना। तुम पाओगे, तुम्हारे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं। तुम हलके हो गए, निर्भार हो गए। जमीन की कशिश का प्रभाव तुम पर कम है। तुम्हारे भीतर बड़ा उत्फुल्लित भाव होगा। जैसे फूल खिल गया हो। तुम्हारे भीतर बड़ी कोमलता होगी, सदयता होगी। तुम कठोरता का उपयोग न कर सकोगे। इतना परमात्मा सेवन किया हो, तो कैसे कठोर हो सकोगे? तुमसे सहज ही सुंदर होगा, शुभ होगा।
और ऐसा ही जीवन के प्रत्येक पहलू पर अगर तुम फैला दो, तब तुम समझे शांडिल्य का अर्थ। भोजन करते वक्त स्मरण रखना, परमात्मा का ही भोजन कर रहे हो। तब भोजन का सार बदल जाएगा। क्योंकि भोजन का मनोविज्ञान बदल जाएगा।
तुम्हें यह पता है कि अगर कोई तुमसे कह दे कि माफ मरना भाई, तुमने जो भोजन कर लिया उसमें एक मक्खी गिर गई थी। झूठ कह दे। मनोविज्ञान बदल गया। अब तुम्हें उबकाई आने लगेगी। तुम्हें उलटी हो जाएगी। मक्खी गिरी हो कि न गिरी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मक्खी गिर गई थी और तुम्हें किसी ने न बताया, तुम भोजन कर गए, शायद मक्खी को भी ले गए भोजन के साथ अपने भीतर, तो भी उलटी नहीं होगी। उलटी मक्खी से नहीं होती, मनोविज्ञान से होती है। मक्खी नहीं भी गिरी थी और किसी ने कह दिया कि क्षमा करना, बड़ी भूल हो गई, एक मक्खी गिर गई थी। बस, तुम अचानक पाओगे कि सारा शरीर भोजन को बाहर फेंक देना चाहता है। अब तुम बेचैन हो जाओगे। अस्तव्यस्त हो जाओगे। और जब तक वमन न हो जाएगा, तब तक तुम्हें राहत न मिलेगी।
हुआ क्या? भोजन वही था, मजे से बैठे थे।
मैं एक घर में मेहमान था। जिनके घर मेहमान था, रात को उनको एक चूहा काट गया। वे एकदम घबड़ा गए। एक ही कमरे में हम दोनों सोए थे। मैंने उनका पैर देखा, मैंने उनसे कहा, कुछ घबड़ाने की बात नहीं है, चूहा चोंच मार गया है! और चूहे यहां काफी हैं तुम्हारे घर में! कोई बात नहीं है! वे सो गए मजे से। कोई अड़चन न थी, कोई बात न थी। दूसरे दिन सुबह हो गई, मेरे साथ घूमने गए, हम नदी पर स्नान करने गए, लौट कर हम आए, सब ठीक था। घर आकर पत्नी ने कहा कि तुम्हारे कमरे में एक सांप निकला है। बस उनका चेहरा मैंने देखा एकदम फक हो गया। उन्होंने कहा, सांप! कहीं वही न काट गया हो? वे वहीं बैठ गए सीढ़ियों पर! मैंने उनसे कहा कि इतनी देर हो गई, रात बारह बजे काटा था, अगर सांप ने काटा होता तो अब बारह बज गए, बारह घंटे बीत गए, परिणाम अब तक हो गया होता! मगर परिणाम शुरू हो गया! वे तो लेट गए। उनका चेहरा एकदम काला पड़ने लगा। उनके मुंह से फसूकर आने लगा। डाक्टरों को बुलाया। डाक्टरों ने कहा कि कोई खराबी नहीं मालूम पड़ती।
मनोविज्ञान बदल गया! कई बार मौत भी हो जाती है, सिर्फ मनोविज्ञान के बदल जाने से। और कई बार मरता हुआ आदमी बच जाता है, सिर्फ मनोविज्ञान के बदल जाने से।
मनोविज्ञान का तुम ठीक से अर्थ समझो। एक सूफी कहानी है।
एक फकीर गांव के बाहर बैठा था। उसने एक काली सी छाया को अंदर आते देखा--फकीर था, अंतर्दृष्टि का आदमी होगा--उसने कहा, रुक, कहां जाती है? कौन है?
उस छाया ने कहा कि मैं प्लेग हूं। और भगवान की आज्ञा हुई है कि इस गांव से पांच सौ आदमी मार कर ले जाने हैं।
उसने कहा, कोई बात नहीं, जा, आज्ञा हुई है तो पूरा कर।
पंद्रह दिन बाद वह लौटती थी। फकीर ने उसको पकड़ा और कहा कि तू झूठ बोली। पांच हजार आदमी मर गए। और तूने कहा था, पांच सौ।
उसने कहा, मैं क्या करूं? मैंने पांच सौ ही मारे, साढ़े चार हजार घबड़ाहट में मर गए! उनमें मेरा हाथ ही नहीं है। वे क्यों मरे, मैं खुद चमत्कृत हूं।
मनोविज्ञान!
एक आदमी को मेरे पास लाया गया। उसको वहम हो गया था कि रात सोए हुए दो मक्खियां उसके भीतर घुस गई हैं। कुछ दिमाग उसका खराब था! अब वह बताए कि वे अभी हाथ में चल रही हैं अंदर, अब इधर छाती में आ गईं, अब इधर पैर में आ गईं। उसका कई डाक्टरों ने इलाज किया, उसका कुछ इलाज नहीं था। एक्सरे लिए गए, कोई मक्खी नहीं--और कहीं मक्खी हो भी तो ऐसे चल सकती है! मगर वह कहे, चल रही है, यह जा रही है! हाथ पकड़ कर बताए चमड़ी को कि यह अंदर जा रही है।
मैंने उससे कहा, तू लेट। उसे मैंने लिटाया। और मैं भागा मक्खी पकड़ने को! पहले कभी पकड़ी नहीं थी। कोई मुश्किल से दो मक्खी पकड़ पाया। उनको एक बोतल में बंद करके--उसकी आंख पर पट्टी बांध कर उसको लिटा दिया था, कि मैं मंत्र-तंत्र करता हूं, तेरी मक्खी को पकड़ने की कोशिश करें! जब उसने दो मक्खियां देखीं, एकदम खुश हो गया। और उसने कहा कि मैं कितना उन लोगों को कहता था, डाक्टरों को, वैद्यों को, मगर कोई मेरी माने न! अब यह बोतल मुझे दो! मैं उनको दिखाता हूं जाकर! वह घूमा, सब डाक्टरों के, वैद्यों के पास गया। और ठीक हो गया। अब मैं खुद चमत्कृत था कि हुआ क्या? क्योंकि वे मक्खियां तो उसके भीतर थीं नहीं।
इलाज से काम नहीं हो सका। उसका मनोविज्ञान बदलना पड़ा।
तुम्हारी जिंदगी में तुम्हारी नब्बे प्रतिशत बीमारियां तुम्हारे मन के कारण होती हैं। और तुम्हारे इलाज भी नब्बे प्रतिशत तुम्हारे मन के कारण होते हैं। दवा से ज्यादा तुम्हारा डाक्टर सार्थक होता है। अगर तुम्हारा डाक्टर पर भरोसा है, तो दवा काम कर जाती है। अगर डाक्टर पर भरोसा नहीं है, तो दवा काम नहीं करती। जिसका जिस पर भरोसा है। किसी को होम्योपैथी पर भरोसा है, तो होम्योपैथी काम कर जाती है, हालांकि होती सिर्फ शक्कर की गोलियां हैं, और कुछ भी नहीं। मगर काम करती है। क्योंकि मनोविज्ञान बदलना है असली बात। होम्योपैथी शुद्ध मनोवैज्ञानिक इलाज है। महत्वपूर्ण है लेकिन, काम तो करता है! सच नहीं है, लेकिन काम करता है।
अभी पश्चिम में इस पर बहुत प्रयोग चल रहे हैं। दस मरीज एक अस्पताल में एक ही बीमारी के होते हैं। पांच को दवा दी जाती है, पांच को शुद्ध पानी दिया जाता है। और वे बड़े हैरान हैं कि दोनों का परिणाम बराबर होता है। पानी से भी उतनी ही संख्या में लोग ठीक हो जाते हैं। और दवा से भी उतनी ही संख्या में ठीक हो जाते हैं। और एक और हैरानी की बात है कि दवा का कभी-कभी दुष्परिणाम भी होता है, पानी का कोई दुष्परिणाम नहीं होता। ठीक हो गए तो ठीक, नहीं हुए तो कोई हर्जा नहीं। पानी ही पीया।
लेकिन मरीज को बताना नहीं पड़ता है कि तुम पानी पी रहे हो। मरीज को ही नहीं, डाक्टर भी जो उसको देता है दवा, उसको भी पता नहीं होना चाहिए कि वह पानी दे रहा है। नहीं तो उसके भाव, उसका ढंग, उसकी झिझक, उसकी आंखें, वह सब मरीज पकड़ रहा है। दवा से ज्यादा वह महत्वपूर्ण है। इसलिए जो आदमी यह विभाजन करता है कि पांच को पानी देना, पांच को दवा देना, उसको पता होता है, लेकिन वह स्वयं दवा देने नहीं जाता। वह डाक्टर को दवा दे देता है, दवा डाक्टर पहुंचाता है; जिसको कुछ पता नहीं है कि कौन सा पानी है और कौन सी दवा है। दोनों पर एक से लेबल लगे हैं। कोई भेद करना संभव नहीं है। तब प
रिणाम बड़े सार्थक होते हैं। मरीज को भरोसा आ जाना चाहिए।
शांडिल्य जो कह रहे हैं, भगवान का सेवन, वह बड़ा अदभुत मनोवैज्ञानिक प्रयोग है। भोजन करते वक्त सोचना--अन्नं ब्रह्म। यह मैं ब्रह्म का भोजन कर रहा हूं। आदर से, समादर से। एक-एक कौर में ब्रह्म को ही चबाना। और तुम पाओगे कि तुम्हारे भोजन की गुणवत्ता बदल गई। भोजन वही है, लेकिन तुमने उसमें महिमा डाल दी। तुमने उसमें प्रार्थना सम्मिलित कर दी।
स्नान कर रहे हो, स्मरण रखना कि यह परमात्मा की ही जलधार तुम पर पड़ रही है। यह फव्वारे के नीचे खड़े हो, यह उसी का फव्वारा है। और तुम पाओगे, बूंदों की ठंडक और है। और बूंदों का रस और है। वे तुम्हें प्राण दे जाएंगी। तुम्हें ताजा कर जाएंगी। जैसा उन्होंने कभी भी न किया था। ऐसे कोई चौबीस घंटे भगवान का सेवन करता रहे, तो इस सारी प्रक्रिया का नाम भजन है।
जगत सेवनीय है, भजनीय है। परमात्मा और प्रकृति एक ही ऊर्जा के दो नाम हैं। चैतन्य के आधिक्य के कारण परमात्मा कहते हैं, मूर्च्छा के आधिक्य के कारण प्रकृति। भेद इतना ही है, जागृति और निद्रा का। भगवान की शक्ति का नाम माया अर्थात वह उनका स्त्रैण रूप है।
अर्धनारीश्वर को फिर स्मरण करो। वह मूर्ति घर-घर में रखने जैसी है। ताकि तुम्हें सदा यह याद रहे कि जगत विपरीत छोरों से मिल कर बना है। विपरीतता जगत में अपरिहार्य है। नहीं तो जगत बिखर जाता है। एक ने अपने को दो विपरीत में बांट लिया है। उन्हीं के बीच सारी लीला चल रही है।
लेकिन माया का इतना विरोध किया गया है कि तुम्हें बड़ी कठिनाई होगी स्वीकार करने में कि संसार भी ब्रह्म का ही रूप है; कि दुकान भी मंदिर है। दुकान भी मंदिर है। क्योंकि ग्राहक में जो आता है, वह प्रभु ही है। और दुकान इस ढंग से की जा सकती है कि वह मंदिर हो जाए। और जिस दिन दुकान इस ढंग से होगी, उसी दिन दुनिया का रूपांतरण होगा। जिस दिन दुकानदार कबीर की तरह होगा।
कबीर बैठते थे अपना कपड़ा बेचने काशी के बाजार में--बुनते थे, फिर बेचने जाते थे। जुलाहे थे। जो भी आता उसको खूब समझाते, उसको ओढ़ा कर कपड़ा दिखाते। और पता है उसे संबोधन क्या करते थे? कहते थे--राम। राम, यह देखो! इसको जरा ओढ़ कर देखो। यह बड़ी मेहनत से बुना है। इसमें बड़ा भजन भरा है। इसका एक-एक ताना-बाना बुनते वक्त मैं भजन ही गुनगुनाता रहा हूं। तुम्हारे लिए ही बुना है, राम! यह खूब टिकेगा। जितनी मेहनत-मजूरी होती, वह मांग लेते--कि इस पर चार पैसे मजूरी मुझे मिल जाए, इतना इस पर खर्च हुआ है।
लोग प्रतीक्षा करते थे कि कबीर का कपड़ा मिल जाए। वह कपड़ा कपड़ा नहीं था--झीनी झीनी बीनी रे चदरिया, राम रस भीनी रे चदरिया! कबीर गुनगुनाते, गीत गाते, भजन करते, बुनते रहते। राम-नाम भी कहीं न कहीं उन धागों के साथ बुन जाता था। उस चादर का गुणधर्म बदल जाता था। उस चादर में भजन सम्मिलित हो जाता था। भजन करने वाला व्यक्ति जो भी करता है उसमें भजन सम्मिलित हो जाता है।
तुमने भी यह फर्क देखा है, लेकिन खयाल नहीं करते हो। जिंदगी में सब चीजें उपलब्ध हैं, लेकिन तुम खयाल नहीं करते, अवलोकन नहीं करते। जब तुम्हारे प्रति कोई बहुत प्रेम से भर कर भोजन तैयार करता है, तुमने भोजन में कुछ फर्क देखा या नहीं देखा? भोजन का कुछ गुणधर्म बदल जाता है या नहीं बदल जाता है? मनोवैज्ञानिक अब स्पष्ट रूप से इस बात को स्वीकार करते हैं कि क्रोध में कोई भोजन न बनाए। और अक्सर ऐसा होता है, स्त्रियां क्रोध में भोजन बनाती हैं। और जब पति बीमार पड़ जाता है तो वे परेशान होती हैं। लेकिन क्रोध में भोजन बनाती हैं। बच्चे को भी पीटे जा रही हैं, पति के खिलाफ भी विचार किए जा रही हैं, और किसी तरह बना रही हैं। बर्तन भी फेंके जा रही हैं, प्लेटें भी तोड़े जा रही हैं, किसी तरह भोजन बना रही हैं। अत्यंत क्रोध में! यह क्रोध सम्मिलित हो जाएगा भोजन में। इस क्रोध की तरंग भोजन को पकड़ जाएगी। यह क्रोध वास्तविक घटना है, इस स्त्री के चारों तरफ क्रोध की हवा है, यह भोजन में प्रवेश हो ही जाएगा। भोजन इससे अछूता न रह सकेगा। यह भोजन विषाक्त हो गया। इस भोजन का गुणधर्म विकृत हो गया। इस भोजन को करने का मतलब बीमारी है। मगर यही हो रहा है।
जब कोई प्रेम से नाचता हुआ, गीत गाता हुआ, आनंदमग्न--मेरा बेटा आता है, कि मेरा पति आता है, कि मेरा भाई आता है, कि मेरे पिता आते हैं--भोजन को तैयार करता है, उस भोजन की गुणवत्ता और है। फिर वह रूखा-सूखा भी बहुत स्वादिष्ट है। और यह मैं केवल कविता की बात नहीं कह रहा हूं, इसके पीछे पूरे मनोविज्ञान का सहारा है। प्राचीन मनोविज्ञान तो सदा से यह कहता रहा है, लेकिन आधुनिक मनोविज्ञान भी इसके साथ संयुक्त हो गया है।
इस देश में हम स्त्रियों को मासिक धर्म के समय भोजन नहीं बनाने देते थे। अब तो जरा मुश्किल हो गया, अब तो धीरे-धीरे चलने लगा, कम से कम शिक्षित घरों में तो चलने ही लगा है; सुसंस्कृत, आधुनिक घरों में तो चलने ही लगा है; लेकिन सदियों से हमने इस देश में स्त्रियों को मासिक धर्म के समय भोजन नहीं बनाने दिया। उसका कारण? उसका कारण यह नहीं था कि मासिक धर्म में जो खून बहता है वह अपवित्र है। नहीं, वह तो गौण बात है। वह कोई खास बात नहीं है। वह तो खून ही, खून जैसा खून है, उसमें कुछ अपवित्रता नहीं है। लेकिन मासिक धर्म के समय स्त्री का चित्त तनावपूर्ण होता है, उद्विग्न होता है, परेशान होता है; प्रफुल्लित नहीं होता। वह असली बात है। वह चार दिन स्त्री थोड़ी बेचैन होती है, पीड़ित होती है, उसका पूरा अस्तित्व एक तरह की उद्विग्न दशा में होता है, एक तरह की ज्वरग्रस्तता उसके भीतर होती है, स्वाभाविक नहीं होता उसका उन चार दिनों का अस्तित्व। उसका भोजन बनाना घातक है।
अभी इस पर कुछ प्रयोग किए गए हैं दुनिया की अनेक प्रयोगशालाओं में। और यह बात पाई गई कि इसमें सच्चाई है। और कोई काम स्त्री करे भला, लेकिन भोजन उन चार दिनों में न बनाए। क्योंकि भोजन साधारण बात नहीं है। उससे पूरे परिवार का जीवन जुड़ा है। मगर मूल बात इतनी ही है कि आनंदमग्न का परिणाम होता है।
तुम भी दुकान पर मंदिर ला सकते हो। और मैं उसी पक्ष में हूं। मंदिर अलग नहीं होना चाहिए, दुकान से संयुक्त होना चाहिए। मंदिर अलग नहीं होना चाहिए, तुम्हारे घर में ही होना चाहिए। तुम्हारा घर मंदिर होना चाहिए।
माया का इतना विरोध किया गया है, वह वस्तुतः माया का विरोध नहीं है, हमारी धारणाओं का, हमारे मेरे-तेरे का विरोध है। इस मेरे-तेरे के कारण हम उलझ गए हैं और जो है वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। हमारा मेरा इतना बड़ा हो जाता है कि उसमें सब छिप जाता है।
कौन हंसिनियां लुभाएं हैं तुझे ऐसा कि तुझको मानसर भूला हुआ है?
कभी-कभी हंस भी आ जाता है और उलझ जाता है डबरों में। कीचड़ के डबरों में।
कौन हंसिनियां लुभाएं हैं तुझे ऐसा कि तुझको मानसर भूला हुआ है?
कौन लहरें हैं कि जो दबती-उभरती
छातियों पर हैं तुझे झूला झुलातीं?
कौन लहरें हैं कि तुझ पर फेन का कर
लेप, तेरे पंख सहला कर सुलातीं?
कौन-सी मधुगंध बहती है पवन में
सांस के जो साथ अंतर में समाती?
कौन हंसिनियां लुभाएं हैं तुझे ऐसा कि तुझको मानसर भूला हुआ है?
कौन श्यामल, श्वेत औ’ रतनार नीरज
के निकुंजों ने तुझे भरमा लिया है?
कौन हालाहल, अमीरस और मदिरा
से भरे लबरेज प्यालों को पिया है
इस कदर तूने कि तुझको आज मरना
और जीना और झुक-झुक झूमना सब
एक-सा है? किस कमल के नाल की
जादू-छड़ी ने आज तेरा मन छुआ है?
कौन हंसिनियां लुभाएं हैं तुझे ऐसा कि तुझको मानसर भूला हुआ है?
किसने लुभाया है? तुम्हारे पुराने साधु-संन्यासी कहते हैं: स्त्रियों ने लुभा लिया है पुरुषों को; धन ने लुभा लिया है पुरुषों को। वह बात व्यर्थ है। वह बीमारी को न पकड़ना, लक्षण को पकड़ लेना है। मेरे-तेरे ने लुभा लिया है, मैं तुमसे कहता हूं। मेरा-तेरा चला जाए और सारा जीवन रूपांतरित हो जाता है। तुम मेरे-तेरे की भाषा भर भूल जाओ कि तत्क्षण तुम पाओगे, कोई यहां लुभा नहीं रहा है, यहां लुभाने वाला एक ही है, वह परमात्मा है। स्त्री से भी वही झांका है।
जब तुमने किसी सुंदर स्त्री में आकर्षण अनुभव किया है, तो दो उपाय हैं। या तो तुम समझो कि यह देह सुंदर है, इसको भोग लूं, इसको अपना बना लूं, यह स्त्री मेरी हो, या यह पुरुष मेरा हो--इस पर मैं कब्जा कर लूं, कहीं कोई और कब्जा न कर ले, इसके हाथों में मैं सोने की जंजीरें डाल दूं। इसको घर ले आऊं, इसको एक कठघरे में बिठा दूं। तुम जिसको घर कहते हो, वह कठघरा है, वह पिंजड़ा है, फिर उसमें चाहे सोने के ही सींखचे क्यों न लगे हों। और तुमने जिनको आभूषण समझ कर स्त्रियों को भेंट किया है, वे सिर्फ जंजीरें हैं। कीमती हैं, बहुमूल्य हैं, इसलिए उनसे इनकार भी नहीं किया जा सकता।
एक और ढंग है। सुंदर स्त्री दिखाई पड़े तो तुम्हें उसमें परमात्मा के सौंदर्य की झलक मालूम पड़े। तुम समझो कि यह स्त्री भी एक दर्पण है जिसमें परमात्मा झलका है। और अनंत दर्पण हैं, उनमें यह भी एक प्यारा दर्पण है। लेकिन मालकियत का कोई सवाल नहीं है। यहां मालिक कौन किसका? यहां मालिक तो सिर्फ एक है। याऽऽमालिक! यहां मालिक तो बस एक है। उस मालिक की याद करो। तुम मालिक बन बैठे हो, यहीं भूल हो गई है। तुम मालिक बन बैठे, बस वहीं तुमसे चूक हो गई। तुम अपनी मालकियत छोड़ दो। कहीं जाना नहीं है, सिर्फ मालकियत छोड़ देनी है, मेरे का भाव छोड़ देना है।
वह मेरे का परिग्रह गया कि जीवन में एक क्रांति हो जाती है। सब ऐसा ही होता है, लेकिन फिर भी सब बदल जाता है। तब फूल में सिर्फ फूल नहीं दिखाई पड़ता; फूल की देह होती है, परमात्मा का प्राण होता है। सुंदर स्त्री में सुंदर स्त्री नहीं दिखाई पड़ती; सुंदर स्त्री में सिर्फ परमात्मा का प्रतिबिंब होता है, उसकी झलक होती है। तब चारों तरफ हर सौंदर्य में, हर संगीत में, हर रस में उसी की याद आने लगती है। हर घड़ी उसी की याद आने लगती है। तब हर तरफ से उसी का इशारा आने लगता है। और हर इशारा उसका ही तीर बन कर हृदय में चुभने लगता है। उस स्थिति को शांडिल्य ने भजन कहा है।
व्यापकत्वात् व्याप्यानाम्।
‘व्यापक की सत्यता के कारण व्याप्य भी सत्य है।’
परमात्मा समाया है सबमें, ऐसा शास्त्र, सभी शास्त्र कहते हैं। कहते हैं, कण-कण में परमात्मा है। तो जिसमें परमात्मा समाया है, वह झूठ नहीं हो सकता। झूठ में सत्य कैसे समाएगा? तुम सत्य पानी को झूठे घड़े में कैसे भरोगे? या भर सकते हो?
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक पिटारी अपने सिर पर लिए चला आ रहा था। रास्ते में कोई साथ हो लिया, उसने पूछा कि यह पिटारी बड़ी अजीब है! उसमें कई छेद भी बने हैं, क्या ले जा रहे हो, नसरुद्दीन? नसरुद्दीन ने कहा, इसमें एक नेवला पकड़ लाया हूं। नेवला, उस आदमी ने पूछा, नेवला क्या करोगे? सुना नहीं कभी कि लोग नेवला पकड़ कर घर ले जाते हैं। उसने कहा, मामला ऐसा है, तुम जानते हो कि मैं कभी-कभी रात ज्यादा पी जाता हूं। जब ज्यादा पी जाता हूं तो मुझे सांप दिखाई पड़ते हैं। मैंने सुना है कि नेवला रखो घर में, सांपों को पकड़ कर खा जाता है, टुकड़े-टुकड़े कर देता है। इसलिए नेवला ले जा रहा हूं। पर उस आदमी ने कहा कि तुमने मुझे और उलझन में डाल दिया। वे सांप जो तुम्हें दिखाई पड़ते हैं जब तुम ज्यादा पी जाते हो, वे सब झूठे होते हैं, कल्पना के होते हैं। तो मुल्ला ने कहा, यह नेवला कौन सच है? सिर्फ टोकरी सच है, भीतर कुछ नहीं है।
झूठ को काटना हो तो झूठ से काटा जा सकता है। सत्य को मिटाने के लिए झूठ से नहीं काटा जा सकता। सत्य और झूठ का कहीं मिलन ही नहीं हो सकता। अगर सच्चा पानी है, तो नकली घड़े में कैसे भरोगे? झूठे घड़े में कैसे भरोगे? जो घड़ा है ही नहीं, उसमें कैसे भरोगे?
यह सूत्र खयाल में रखने जैसा है।
‘व्यापक की सत्यता के कारण व्याप्य भी सत्य है।’
शांडिल्य कहते हैं: सारे शास्त्र कहते हैं परमात्मा कण-कण में समाया हुआ है, सबमें समाया हुआ है, तो जिसमें समाया हुआ है वह भी सत्य हो गया उसके कारण जो समाया हुआ है।
अगर संसार झूठ है तो फिर परमात्मा भी झूठ हो जाएगा! शंकराचार्य की बात अगर सच है कि संसार माया है तो तुम्हारा ब्रह्म भी माया हो गया। और यही बौद्ध दार्शनिकों ने प्रश्न उठाया है। नागार्जुन ने यही प्रश्न उठाया है कि संसार माया है--इसको स्वीकार कर लिया और बड़ा अनूठा निष्कर्ष निकाला--अगर संसार माया है तो इसमें जो समाया है, ब्रह्म, वह भी माया हो गया। शांडिल्य ने एक निष्कर्ष निकाला, ठीक उससे दूसरा निष्कर्ष नागार्जुन ने निकाला है, लेकिन दोनों का तर्क एक है। तर्क का आधार एक है। शांडिल्य कहते हैं, अगर परमात्मा सच है तो संसार भी सच हो गया। दूसरी तरफ से नागार्जुन चलते हैं, वे कहते हैं, हम मान लेते हैं कि संसार झूठ है, जैसा वेदांती कहते हैं, अगर संसार झूठ है तो उस झूठ को बनाने वाला भी झूठ हो गया। उस झूठ में समाया भी झूठ हो गया। इसलिए ब्रह्म भी झूठ है। संसार भी माया, ब्रह्म भी माया। मगर तर्क का आधार एक ही है।
लेकिन मुझे लगता है कि शांडिल्य का चुनाव नागार्जुन से ज्यादा बेहतर है। क्योंकि नागार्जुन भी विवाद में पड़े हैं। किससे विवाद कर रहे हो? किसको समझा रहे हो कि संसार भी झूठ, ब्रह्म भी झूठ? किसको समझा रहे हो? यहां कोई है ही नहीं। और जब यहां कोई भी नहीं है, जब सब दृश्य झूठ हैं तो द्रष्टा भी झूठ हो जाएगा। फिर ये शास्त्र किसके लिए लिखे जा रहे हैं? यह विवाद किससे किया जा रहा है? इसका उत्तर नागार्जुन के पास नहीं है।
शांडिल्य की बात ज्यादा व्यावहारिक, ज्यादा वैज्ञानिक मालूम पड़ती है। परमात्मा सबमें छिपा है, इसलिए जिसमें छिपा है वह भी सत्य है। दोनों सत्य हैं। और ध्यान रखो, दुनिया में दो सत्य नहीं हो सकते। सत्य तो एक ही हो सकता है। सत्य कैसे दो हो सकते हैं? क्योंकि अगर दो होंगे तो एक-दूसरे की सीमा बना देंगे। दो होंगे तो बीच में एक रेखा खींचनी पड़ेगी। दो सत्यों के बीच कैसे रेखा खींचोगे? दो सत्य नहीं हो सकते। सत्य तो एक ही हो सकता है। तो फिर सत्य के दो ढंग हैं, सत्य के प्रकट होने के दो ढंग हैं। कभी बीज की तरह प्रकट होता है, कभी वृक्ष की तरह प्रकट होता है, पर एक ही सत्य है। वही संसार की तरह प्रकट है--जब परमात्मा सोया होता है।
तुम्हारी अमुक्त-दशा क्या है? परमात्मा तुम्हारे भीतर सोया हुआ है। तुम्हारी मुक्त-दशा क्या है? परमात्मा उठ गया, जाग आया। इतना ही भेद है। तुममें और बुद्धपुरुषों में कोई बुनियादी भेद नहीं है। इतना ही भेद है--तुम जाग रहे हो, तुम्हारे पास में कोई सोया हुआ है। वह भी जाग सकता है, तुम भी कभी सोए थे। बुद्ध ने कहा है, मैं भी कभी अज्ञानी था, अब ज्ञानी हो गया। तुम अभी अज्ञानी हो, कभी भी ज्ञानी हो सकते हो। मेरे और तुम्हारे बीच कोई मौलिक भेद नहीं है। मेरे पास एक क्षमता थी जिसका मैंने उपयोग कर लिया है, तुम्हारे पास एक क्षमता पड़ी है जिसका तुमने उपयोग नहीं किया है। तुम कभी भी कर सकते हो। किसी भी क्षण कर सकते हो। अभी कर सकते हो। इसी क्षण कर सकते हो।
सोए और जागे आदमी में फर्क ही क्या है?
जरा सा फर्क है। उतना ही फर्क है बुद्ध और अबुद्धों में।
न प्राणि बुद्धिभ्यः असम्भवात्।
‘यह कोई मनुष्य की बुद्धि से कल्पित भी नहीं है।’
फिर शांडिल्य कहते हैं, शायद कुछ लोग कहें--कुछ लोग कहते हैं कि यह सारा संसार मनुष्य की बुद्धि की कल्पना है। शांडिल्य कहते हैं, यह बात सच नहीं हो सकती।
क्यों सच नहीं हो सकती? क्योंकि इस संसार में इतना विराट फैला हुआ है, मनुष्य की बुद्धि इतनी क्षुद्र है! इस सारे संसार का फैलाव मनुष्य की बुद्धि से तो असंभव ही है, मनुष्य की बुद्धि से तो इस पूरे फैलाव को जानना भी संभव नहीं है। अभी हमें पता भी नहीं है कि यह अस्तित्व कितना बड़ा है। यह पृथ्वी इतनी बड़ी मालूम पड़ती है! यह कुछ बड़ी नहीं है, यह बहुत छोटी है। सूरज इससे साठ हजार गुना बड़ा है। और सूरज कुछ खास बड़ा सूरज नहीं है, यह बड़ा छोटा सूरज है। महासूर्य हैं। जिनको रात में तुम तारों की तरह देखते हो, वे सब महासूर्य हैं। वे इस सूरज से करोड़ों गुने बड़े हैं।
इस पृथ्वी से सूरज तक फासला काफी है! सूरज की किरण को आने में साढ़े नौ मिनट लग जाते हैं। और सूरज की किरण बड़ी रफ्तार से चलती है--उससे बड़ी कोई रफ्तार नहीं है। एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील चलती है। साढ़े नौ मिनट लगते हैं सूरज से पृथ्वी तक आने में। मगर यह कोई बड़ा फासला नहीं है। क्योंकि सबसे करीब का जो तारा है, उससे किरण आने में हमको चार साल लग जाते हैं। और सबसे दूर का जो तारा है, उससे हमारे तक किरण आने में अस्सी करोड़ वर्ष लग जाते हैं। और उसके पार भी तारे हैं, जिनका हमें कुछ पता नहीं, क्योंकि उनकी किरण आई ही नहीं कभी। कभी आएगी भी, इसका भी कुछ पक्का नहीं है। और भी आगे तारे होंगे, जिनकी किरण कभी भी नहीं आएगी। उनका हमें पता ही नहीं चलेगा! हमें पता ही तब चलता है जब कोई किरण आ जाती है। नहीं तो हमें पता नहीं चलता।
इतना विस्तीर्ण लोक है यह!
अभी तारों की पूरी गिनती भी नहीं हो सकी। रोज गिनती होती जाती है, रोज तारे बढ़ते जाते हैं, और अब तो वैज्ञानिक कहने लगे हैं, गिनती कभी पूरी नहीं हो पाएगी, अनगिन तारे हैं। एक-एक तारा एक-एक सूरज है। एक-एक सूरज के पास बहुत सी पृथ्वियां हैं, चांद हैं, ग्रह-उपग्रह हैं। यह हमारी पृथ्वी तो एक छोटा-मोटा तिनका है, एक छोटा सा कण, जिसका कहीं कोई पता नहीं है। इतने विस्तीर्ण जगत की कल्पना मनुष्य से हो सकती है? यह मनुष्य की बुद्धि का विस्तार हो सकता है? मनुष्य की छोटी सी बुद्धि! नहीं, इस विराट के आयोजन का कारण नहीं हो सकती। इसको तो समझना भी मुश्किल है।
इसलिए जो दार्शनिक कहते हैं कि यह सब मनुष्य की बुद्धि का ही फैलाव है, गलत समझते हैं। पर इसके पीछे बुद्धि है, इतना निश्चित है। मनुष्य की बुद्धि तो नहीं है, मगर कोई बुद्धि इसके पीछे है। क्योंकि इतनी व्यवस्था है। इतना सुसंयोजित है सब। इतना तारतम्य बंधा है। इतनी संगति है। कहीं कोई दुर्घटना नहीं हो रही। इतना विराट विस्तार और इतनी सुगमता से चल रहा है। इतनी शालीनता से चल रहा है। इतनी सहजता से चल रहा है। इसके पीछे कोई महाबुद्धि होनी चाहिए। परम बुद्धि होनी चाहिए। उस महाबुद्धि के तत्व का नाम ही परमात्मा है। इस अस्तित्व के पीछे छिपा हुआ जो बुद्धि का चरम रूप है, कॉस्मिक इंटेलिजेंस, जो ब्रह्मबुद्धि है, वही परमात्मा है।
हमारी बुद्धि उस परमात्मा की ही बुद्धि की एक छोटी सी किरण है। हम सूरज नहीं हैं, हम किरणें हैं। लेकिन अगर किरण हमारी पकड़ में आ जाए तो हम सूरज तक पहुंच सकते हैं। उसी किरण के धागे को पकड़ कर हम सूरज तक जा सकते हैं। उसी किरण के सहारे हम सूरज में लीन हो सकते हैं।
ऐसे लोग हुए जो सूरज में लीन हो गए हैं। राम हैं, कृष्ण हैं, क्राइस्ट हैं, मोहम्मद हैं, जरथुस्त्र हैं, लाओत्सु हैं; ऐसे लोग हुए जो इसी किरण के सहारे को पकड़ कर धीरे-धीरे-धीरे आदमी की बुद्धि को जगा कर धीरे-धीरे परम बुद्धि तक पहुंच गए हैं। उस परम समाधिस्थ अवस्था में लीन हो गए हैं, जहां उनका और ब्रह्मांड का भेद समाप्त हो जाता है।
निर्माय उच्चावचं श्रुतिः च निर्मिमीते पितृवत्।
‘समस्त भूत-रचना की भांति वेद भी प्रकाशित हुआ है। जैसे पिता संतान को जन्म देकर शिक्षा का उपाय करता है।’
और शांडिल्य कहते हैं, उस परमात्मा से यह सारा जगत ही नहीं आया है, इस जगत को जीने के ढंग भी उस परमात्मा से आए हैं। इस जगत को कैसे हम सेवन करें, उसकी प्रक्रिया भी उसने दी है। कैसे हम भजन करें, उसका विज्ञान भी दिया है। उस विज्ञान का नाम ही वेद है।
याद रखना, वेद से सिर्फ हिंदुओं के वेद का संबंध नहीं है। मूल में जो शब्द है, वह है श्रुति। वह प्यारा शब्द है। लेकिन हिंदू जब इसका अनुवाद करने बैठते हैं, वे हमेशा श्रुति का अनुवाद वेद से कर देते हैं। उसमें हिंदू-बुद्धि आ जाती है। श्रुति बड़ा प्यारा शब्द है। श्रुति का अर्थ है: सुना गया उनसे जिन्होंने जाना। श्रुति का अर्थ है: जिन्होंने जाना, उनसे हमने सुना। कुरान भी श्रुति है, बाइबिल भी श्रुति है, धम्मपद भी श्रुति है। वेद पर ही वेद समाप्त नहीं हो गया है। वेद आता रहा है। आते रहे हैं। आते रहेंगे। क्योंकि जैसे-जैसे आदमी बदलता है, वैसे-वैसे आदमी को नये वेदों की जरूरत हो जाती है।
वैसे वेद शब्द प्यारा है। अगर ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद पर हम उसको खत्म न कर दें तो वेद शब्द प्यारा है। वेद शब्द बनता है विद से। विद का अर्थ होता है--ज्ञान, जानना। जिन्होंने जाना, उनके वचन संगृहीत किए गए हैं। परमात्मा उतरता रहा है। परमात्मा की महाप्रतिभा मनुष्य की प्रतिभा में झलक मारती रही है, कौंधती रही है। सदा से। यह स्वाभाविक है। क्योंकि जिससे हम उत्पन्न हुए हैं, जिससे हम आए हैं, वह हमें जीवन-निर्देश भी दे, यह वैसा ही स्वाभाविक है, शांडिल्य कहते हैं, जैसे पिता संतान को जन्म देकर शिक्षा का उपाय करता है।
‘समस्त भूत-रचना की भांति वेद भी प्रकाशित हुआ है।’
तो वेद से मेरा अर्थ खयाल में ले लेना: जब भी कहीं कुछ जाना गया है, तभी वेद जन्मा है। अनंत वेद हैं। हिंदुओं के वेद पर वेद समाप्त नहीं हो जाते। वह वेद का एक ढंग है। और-और वेद हैं। और-और भाषाओं में प्रकट हुए हैं। श्रुति शब्द ज्यादा बेहतर है। हमने सुना। बौद्धों के सब शास्त्र शुरू होते हैं--दस हैव आई हर्ड। ऐसा मैंने सुना है। क्योंकि बुद्ध ने कहा है, बुद्ध जानते हैं, लेकिन जिन्होंने लिखा है, उन्होंने तो सिर्फ सुना है। उन्होंने बुद्ध को कहते सुना है। उन्होंने स्वयं नहीं जाना है। जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा है। जिन्होंने जाना नहीं, उन्होंने लिख लिया है, संगृहीत कर लिया है, ताकि काम आ सके उन सबके जो शायद अभी जानने में समर्थ नहीं हैं, शायद अभी जानने की जिनमें क्षमता नहीं है, पात्रता नहीं है। शायद जानने का अभी साहस भी नहीं है। शायद जानना घट जाए तो झेल भी न सकेंगे। उनके लिए संगृहीत कर लिए हैं। उनके लिए शिलालेख आबद्ध कर लिए हैं।
श्रुति प्यारा शब्द है। मैं तुमसे कुछ कह रहा हूं, तुम्हारे लिए श्रुति है। तुम्हें प्रीतिकर लगे, सम्हाल लेना। और ध्यान रखना, श्रुति पर रुकना नहीं है। एक दिन तुम्हारे लिए, जो तुमने सुना है, वह तुम्हारी अपनी आंख का देखा हुआ हो जाना चाहिए। श्रुति का अर्थ है: सत्य कान से आया है। जो कान से आया है, वह पराया है। आंख से आना चाहिए। जब आंख से आता है तो अपना होता है। सत्य में और झूठ में फर्क ही इतना है। कान और आंख का फर्क है। इसलिए तो हम सुनी बात को नहीं मानते। अदालत भी कहती है--चश्मदीद गवाह। जिसने देखा हो आंख से।
मुल्ला नसरुद्दीन को अदालत में ले जाया गया, एक मुकदमा था। उससे मजिस्ट्रेट ने पूछा कि तुम कितने दूर थे इस स्थान से जहां यह हत्या की गई?
मुल्ला ने कहा, कोई दो-तीन फर्लांग दूर।
और अमावस की रात थी और अंधेरा था और तुमने देख लिया कि हत्या की गई? तुम्हें कितनी दूर तक अंधेरे में दिखाई पड़ता है?
मुल्ला ने कहा, अब यह मत पूछो। ऐसे तो हमें चांद-तारे भी दिखाई पड़ते हैं। दूरी की मत पूछो।
चश्मदीद। आंख से जिसने देखा है।
रोशनी में ही दिखाई पड़ सकता है, अंधेरे में दिखाई नहीं पड़ सकता। भीतर जब परम रोशनी फैल जाती है ध्यान की, तब दिखाई पड़ता है। इसलिए कहा है--प्रकाशित होता है। तब उसके वचन उतरते हैं। तब उसकी वाणी उतरती है। इसको मुसलमान इल्हाम कहते हैं। ठीक शब्द है। इल्हाम का मतलब होता है: तुम सिर्फ ग्राहक होते हो, कोई चीज उतरती है। हिंदू इसको अवतरण कहते हैं। तुम सिर्फ ग्राहक होते हो, तुम पात्र होते हो, कोई चीज उतरती है आकाश से और तुममें भर जाती है। ईसाई इसको रिविलेशन कहते हैं। ठीक शब्द है रिविलेशन। तुम्हारे किए कुछ नहीं होता, तुम जब शांत होते हो, तब प्रकट होता है। प्राकट्य होता है, रिवील होता है, तुम्हारे सामने खड़ा हो जाता है। शायद सदा से खड़ा ही था, तुम्हारी आंख बंद थी, तुमने आंख खोल ली है। सत्य का अनावरण हो गया। सत्य नग्न खड़ा हो गया। घूंघट गिर गया।
‘समस्त भूत-रचना की भांति वेद भी प्रकाशित हुआ है। जैसे पिता संतान को जन्म देकर शिक्षा का उपाय करता है।’
परमात्मा ने तुम्हें छोड़ नहीं दिया है, परमात्मा तुम्हें विस्मृत नहीं कर गया है, परमात्मा तुम्हें भूल नहीं गया है, भेजता रहा है अपने संदेशवाहक, अपने पैगंबर, अपने तीर्थंकर, अपने अवतार। मगर मतलब क्या है अवतार भेजने का, तीर्थंकर भेजने का, पैगंबर भेजने का? इतना ही अर्थ है: जो व्यक्ति भी समर्थ हुआ है ध्यान में, उसके भीतर परमात्मा उतर आया है। उसके माध्यम से उसने फिर तुम्हारी तलाश शुरू कर दी, तुम्हें फिर पुकारने लगा है--कि तुम कहां खो गए हो? कि तुम कहां छिप गए हो? कि जागो, तुम कितनी देर सो लिए! सुबह हो गई, उठो। उन्हीं सारे वचनों के संकलन किए गए हैं--वेद, धम्मपद, कुरान, बाइबिल, ताओ-तेह-किंग--वे सब वेद हैं। वेद पहले भी आते रहे, अभी भी आ रहे हैं, आगे भी आते रहेंगे। क्योंकि परमात्मा ने तुम्हें कभी छोड़ नहीं दिया है। तुम्हारे ऊपर आशा समाप्त नहीं हो गई है परमात्मा की।
रवींद्रनाथ ने अपने एक गीत में लिखा है कि जब भी कोई बच्चा पैदा होता है तब मैं परमात्मा को धन्यवाद देता हूं, क्योंकि हर बच्चे की पैदाइश से मुझे खबर मिलती है कि परमात्मा अभी आदमी से ऊब नहीं गया है। अभी फिर आदमी पैदा करता है। अभी आदमी में भरोसा है। अभी आशा उसने छोड़ नहीं दी है। हालांकि आदमी ने सब किया है कि आशा छोड़ दे। आदमी ने जो किया है, वह ऐसा है कि कोई भी पिता आशा छोड़ दे। भूल ही जाए सुपुत्र को! लेकिन रवींद्रनाथ कहते हैं, उसने अभी आशा नहीं छोड़ी, अभी वह आदमी बनाए जाता है। वह सोचता है, अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है, सुबह का भूला शायद सांझ को घर आ जाए।
आशा का कारण क्या हो सकता है?
आशा का कारण कुछ थोड़े से लोग हैं। क्योंकि कुछ लोग शाम तक आ गए हैं। कोई बुद्ध किसी दिन आ जाता है। करोड़ों नहीं आते, मगर एक आ जाता है। मगर एक के आने से खबर मिलती है कि बाकी करोड़ भी इस जैसे ही तो हैं, शायद वे भी किसी दिन आ जाएंगे। इसलिए आशा नहीं टूटती। कोई कृष्ण एक दिन जाग जाता है, फिर आशा सघन हो जाती है। अगर एक बीज में वृक्ष आ गया है, फूल खिल गए हैं, तो सब बीज भी तो परमात्मा ने ऐसे ही बनाए हैं। उनमें जरा भी भेद नहीं है। उनकी भी इतनी ही क्षमता है। उनकी भी इतनी ही शक्ति है। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, किसी न किसी दिन उनमें भी बीज फूटेगा, पल्लव निकलेंगे, फूल खिलेंगे, उनकी सुवास भी लुटेगी।
मिश्रोपदेशात् न इति चेत् न स्वल्पत्वात्।
‘उसमें मिश्रित उपदेश हैं, इस कारण आशंका मत करो। और वे थोड़े ही हैं।’
इस सूत्र को समझना!
शांडिल्य कहते हैं: अगर हम इस बात को मान लें कि हिंदुओं के वेद की ही तरफ उल्लेख है, तो वेद में बड़े विपरीत वक्तव्य हैं, मिश्रित वक्तव्य हैं, उनका क्या किया जाए? वेद एक ही बात नहीं बोलते, अनेक बातें बोलते हैं, एक-दूसरे से विपरीत बातें भी बोलते हैं। अब जैसे, वेद में हिंसक यज्ञ इत्यादि का स्वीकार है कि यज्ञ में हिंसा की जा सकती है। और वेद में यह अपूर्व वचन भी है--मा हिंस्यात् सर्वभूतानि। किसी प्राणी की कभी हिंसा न करें। और दूसरी तरफ अश्वमेध यज्ञ में घोड़े की हत्या करनी पड़े। और नरमेध यज्ञ भी होते थे, जिसमें मनुष्य की हत्या करनी पड़े। तो सवाल यह उठता है कि वेद में तो बड़े विपरीत वचन हैं, ये एक ही परमात्मा से कैसे आ सकते हैं? और अगर एक ही पिता ने दिए हैं, तो इतने विपरीत वचन कैसे हो सकते हैं?
और जैसा अर्थ मैं कर रहा हूं अगर वैसा अर्थ है, तब तो और भी अड़चन हो जाएगी। क्योंकि फिर वेद और कुरान और बाइबिल और धम्मपद एक ही से उतरे हैं। फिर कृष्ण, बुद्ध, महावीर एक ही से उतरे हैं। फिर इनके वचनों में तो बड़ा विरोध है! वेद में ही बड़ा विरोध है, फिर वेद और धम्मपद में तो बहुत विरोध है। फिर बाइबिल और कुरान में तो बहुत विरोध है। वेद के ऋषि भी एक-दूसरे से सहमत नहीं हैं। तो फिर वेद के ऋषियों और बुद्ध और लाओत्सु में तो जमीन-असमान का फर्क है। फिर क्या होगा?
शांडिल्य कहते हैं: ‘उसमें मिश्रित उपदेश हैं, इस कारण आशंका मत करो।’
किस तरह शांडिल्य समझाते हैं। कुछ बातें खयाल में ले लेनी चाहिए।
एक, निश्चित ही मिश्रित उपदेश हैं वेद में। क्योंकि एक ही पुत्र के लिए दिए गए उपदेश नहीं हैं। इतने पुत्र हैं परमात्मा के! और पुत्रों में बड़ा भेद है। जो एक के लिए उपदेश लागू है, वह दूसरे के लिए लागू नहीं है। और जो एक के लिए औषधि है वह दूसरे के लिए जहर हो जाएगा। किसी की बीमारी कुछ है, किसी की बीमारी कुछ और है। औषधि भिन्न होगी। तुम डाक्टर के पास जाते हो तो डाक्टर सभी मरीजों को एक से ही प्रिस्क्रिप्शन नहीं देता जाता। नहीं तो डाक्टर की कोई जरूरत ही नहीं है। डाक्टर की जरूरत क्या है? डाक्टर की जरूरत यही है कि वह बीमारी को परखे, निदान करे, डायग्नोसिस करे और फिर उपचार की व्यवस्था दे।
इसलिए वेद अकेले सार्थक नहीं हैं। बिना गुरु के सहारे तुम वेद में जाओगे, झंझट में पड़ जाओगे। वह वैसे ही है जैसे अकेले ही केमिस्ट की दुकान पर पहुंच गए, अपनी दवा तैयार करने लगे। केमिस्ट की दुकान पर तो लाखों दवाएं रखी हैं। उसमें टी.बी. की दवा है, उसमें कैंसर की दवा है, उसमें दवाएं ही दवाएं हैं। अब तुम अपने हाथ से ही पहुंच कर अगर दवाएं तैयार करने लगे, तो तुम दवाएं कैसे तैयार करोगे? तुम्हारे दवाएं तैयार करने के सब कारण गलत होंगे। शायद सबसे सुंदर शीशियों में से चुन लो। या सबसे ज्यादा रंगीन दवाएं चुन लो। या सबसे मीठी दवाएं चुन लो। कुछ इस तरह के तुम्हारे चुनाव होंगे। तुम्हारे चुनाव सब गलत होंगे। तुम ठीक चुन ही नहीं सकते। क्योंकि पहले तो तुम्हें यही पता नहीं कि तुम्हारी बीमारी क्या है? बीमारी का भी शायद पता हो तो तुम्हें यह पता नहीं कि इस बीमारी पर दवा क्या है? एक गुरु चाहिए, सदगुरु चाहिए। जो वेद के हजारों-हजारों उपचारों में से, तुम्हारे लिए क्या उपचार है, तुम्हें दे सके।
इसलिए शास्त्र सदगुरु के बिना किसी मूल्य का नहीं है। और लोग शास्त्रों को पकड़े बैठे हैं। इसलिए फिर शास्त्र का कोई उपयोग नहीं कर सकते, वे सिर्फ पूजा कर सकते हैं। रख ली दवा की बोतल और उसकी पूजा कर ली। फूल चढ़ा दिए, मंत्र पढ़ दिया, घंटा बजा दिया, आरती उतार दी। मगर दवा पीना मत, नहीं तो खतरा हो जाएगा। पूजा ही हो सकती है। फिर लोग वेद की पूजा कर रहे हैं। और वेद में अगर उलट-पलट कर देखेंगे तो बेचैनी बढ़ जाएगी, क्योंकि वहां जरूर विपरीत वक्तव्य हैं। अलग-अलग लोगों के लिए दिए गए वक्तव्य हैं।
अब थोड़ा सोचो! जिससे कहा होगा वेद के ऋषि ने--मा हिंस्यात् सर्वभूतानि। किसी भी प्राणी की हिंसा न करें। यह कोई बड़ा शुद्ध व्यक्ति रहा होगा। आखिरी घड़ी में आ गया होगा, जहां से सब तरह की हिंसा छोड़ी जा सकती है। फिर किसी को कहा कि सिर्फ यज्ञ में हिंसा करें। यह बड़ा हिंसक आदमी रहा होगा। इससे कहा कि सिर्फ यज्ञ में हिंसा कर लेना। इसकी हिंसा को सीमा दे दी। अब यज्ञ रोज नहीं किए जा सकते--खर्चीला यज्ञ है, रोज तो कर नहीं सकते। कभी जन्म में एकाध-दो बार कर पाओगे, तो जन्म में एकाध-दो बार हिंसा होगी, बाकी शेष जन्म छुटकारा हो गया। यह हिंसक व्यक्ति के लिए इतनी सुविधा बनाई होगी। फिर धीरे-धीरे जैसे-जैसे हिंसा छूटती जाएगी, वैसे-वैसे दूसरा उपदेश काम में आता जाएगा। आज जो दवा काम की है, शायद कल जब बीमारी कम हो जाए, तो बदलनी पड़े। दूसरी दवा देनी पड़े, जिसमें कम मात्रा हो। फिर और बीमारी कम हो जाए, तो तीसरी दवा देनी पड़े, जिसमें और कम मात्रा हो।
शांडिल्य कहते हैं कि वेद में जो विपरीतता है, वह पात्रों की भिन्नता के कारण है। और यही मैं तुमसे कहना चाहता हूं, उसी कारण विपरीतता वेद में और कुरान में है। कुरान के पात्र तो और भी बड़े दूर थे--अलग सदी, अलग देश, अलग रीति-रिवाज, अलग लोग। कुरान वेद जैसा नहीं हो सकता। बाइबिल वेद जैसी नहीं हो सकती। बुद्ध के वचन वेद जैसे नहीं हो सकते। क्योंकि बुद्ध और वेद के बीच कोई पांच हजार साल का फासला है। मैं तुमसे जो कह रहा हूं, वह वेद जैसा कैसे हो सकता है? कोई दस हजार साल का फासला है। दस हजार साल में आदमी एकदम बैठा नहीं रहा है मुर्दे की तरह। आदमी चट्टान नहीं है, बहती हुई धारा है। बहुत कुछ बदला है। बहुत कुछ रूपांतरित हुआ है। आज के आदमी की जरूरत अलग है। तब के आदमी की जरूरत अलग थी। आज के आदमी का इलाज भी अलग होगा।
इसलिए बहुत बार जब तुम्हें मेरे वचनों में कुछ ऐसा लगे जो तुम्हारे शास्त्र के विपरीत जा रहा है, तो उसको सिर्फ इसलिए मत छोड़ देना कि वह शास्त्र के विपरीत जा रहा है। जब भी तुम्हें मेरे वचनों में कोई चीज शास्त्र के विपरीत जाती मालूम पड़े, तब खयाल रखना कि जरूर उस चीज पर ध्यान देने का है। नहीं तो मैं भी शास्त्र के विपरीत जाने की कोई आकांक्षा नहीं रखता हूं। जहां तक बनता है, वही कहना चाहता हूं जो शास्त्र ने कहा है। लेकिन जब देखता हूं कि अब शास्त्र का कहा हुआ अगर कहता हूं तो तुम्हारी फांसी लगेगी, तभी उसे बदलता हूं। और अक्सर ऐसा हो जाता है, तुम उन्हीं बातों को मेरी मान लेते हो जो शास्त्र के अनुकूल हैं और उन बातों को छोड़ देते हो जो शास्त्र के अनुकूल नहीं हैं।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम आपकी उतनी बातें मानते हैं जितनी हमारे शास्त्र के अनुकूल हैं। जितनी अनुकूल नहीं हैं, वे हम नहीं मानते। और वही असली बातें हैं, जो तुम्हारे काम की हैं। जो शास्त्र के अनुकूल नहीं हैं, वही तुम्हारे लिए कही गई हैं, विशिष्ट तुम्हारी दशा के लिए संगत हैं।
तो भेद है शास्त्रों में। लेकिन शत्रुता नहीं है। भिन्नता है, विपरीतता नहीं है।
और फिर शांडिल्य कहते हैं: ‘उसमें मिश्रित उपदेश हैं, इस कारण आशंका मत करो। और वे थोड़े ही हैं।’
और वे जो मिश्रित उपदेश हैं, वे बहुत थोड़े हैं, क्योंकि मनुष्य कितना ही अलग-अलग देशों में हो, अलग-अलग समय में हो, उसका अधिक हिस्सा तो एक जैसा ही है। फिर अरब में पैदा हो, कि चीन में, कि हिंदुस्तान में; थोड़े-थोड़े फर्क होंगे; रीति-रिवाज और होंगे, संस्कार और होंगे, हवा और होगी, प्रकृति और होगी; लेकिन मौलिक भेद तो क्या होंगे? मौलिक रूप से तो आदमी आदमी है। मौलिक वृत्ति तो वही की वही है। इसलिए शांडिल्य कहते हैं: भेद बड़े थोड़े से हैं। वे भेद लड़ने जैसे नहीं हैं। उन भेदों के संबंध में सदगुरुओं से पूछ लेना कि तुम्हारे लिए क्या लागू है। तुम उसके अनुकूल चल पड़ना।
बिना सदगुरु के शास्त्र खतरनाक है। सदगुरु के साथ शास्त्र का मूल्य परम है। सदगुरु के जीवन से अगर शास्त्र की ध्वनि तुम्हें फिर सुनाई पड़ जाए तो सदगुरु के माध्यम से शास्त्र पुनरुज्जीवित होता है। और उस ढंग से पुनरुज्जीवित होता है जो तुम्हारे काम का है। तुम्हारे योग्य, तुम्हारे अनुकूल, तुम्हारी परिस्थिति की संगति में शास्त्र का पुनर्जन्म होता है। सदगुरु का अर्थ ही यही है--शास्त्र का फिर-फिर जन्म, दुबारा-दुबारा, बार-बार।
लोग अत्यंत विवाद में पड़े हुए हैं कि गीता में ऐसा कहा हुआ है और कुरान में ऐसा कहा हुआ है, हम किसको मानें? इसी भय के कारण गीता पढ़ने वाला कुरान नहीं पढ़ता। वह गीता से ही काफी परेशान है। वह कहता है, गीता में ही इतनी बातें कही हुई हैं--कहीं भक्ति का वर्णन, कहीं कर्म का वर्णन, कहीं ज्ञान का वर्णन--गीता ही हमें उलझाने को काफी है! कौन ठीक है? फिर कुरान को और पढ़ो तो और झंझट हो जाती है। इसलिए तथाकथित धार्मिक लोगों ने निर्णय कर रखा है कि दूसरे के शास्त्र को पढ़ना ही मत, नहीं तो तुम और बिगूचन में पड़ जाओगे।
मैं तुमसे कहता हूं: सब शास्त्र पढ़ो। क्योंकि तुम ठीक से बिगूचन में पड़ जाओ और शास्त्रों से तुम्हें मार्ग न मिले, तो तुम सदगुरु को खोजोगे; अन्यथा तुम सदगुरु को नहीं खोजने वाले हो। इसीलिए इतने शास्त्रों पर बोल रहा हूं कि तुम्हारी सारी भ्रांति तुमसे छीन लूं कि तुम्हें पता है। तुम्हें बिलकुल स्पष्ट हो जाए कि हमें कुछ भी पता नहीं है, तुम्हारे पास पकड़ने को कुछ भी न रह जाए, न वेद, न कुरान, न बाइबिल। मैं सारे शास्त्र तुम्हारे सामने खड़े कर दे रहा हूं, तुम्हारे भीतर यह बात बिलकुल साफ हो जानी चाहिए कि अब मैं क्या पकडूं? अब मैं कहां जाऊं? अब मुझे कोई मार्ग नहीं सूझता! जब तुम्हें यह स्पष्ट हो जाएगा कि मुझे कोई मार्ग नहीं सूझता, तभी तुम किन्हीं चरणों में झुकोगे और कहोगे कि मुझे मार्ग दो। अन्यथा तुम न झुकोगे। किताब से काम चल जाता हो तो सदगुरु के पास कोई जाए क्यों? किताब सस्ती चीज है।
फिर किताब के तुम मालिक होते हो। सदगुरु तुम्हारा मालिक हो जाता है। किताब के सामने समर्पण करने में कोई हर्जा नहीं है। एकांत में सिर झुका लेते हो। सदगुरु के सामने झुकने में दूसरा आदमी सामने मौजूद है, जिसके सामने तुम झुक रहे हो, वहां अहंकार को बाधा पड़ती है। इसलिए मुर्दा गुरुओं को लोग पूजते हैं, जिंदा गुरुओं की हत्या करते हैं। जिंदा गुरु तुम्हारे अहंकार का दुश्मन है। मुर्दा गुरु से तुम्हारे अहंकार की कोई दुश्मनी नहीं है।
पढ़ो सारे शास्त्र! वही रास्ता है शास्त्रों से मुक्त होने का। और वही रास्ता है सदगुरु की तलाश का। और धन्यभागी हैं वे, जिन्हें सदगुरु मिल जाता है।
आज इतना ही।