SHANDILYA

ATHATO BHAKTI JIGYASA 34

ThirtyFourth Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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पहला प्रश्न:
भगवान, क्या धरती पर स्वर्ग उतारा जा सकता है? क्या भविष्य में कभी एक स्वस्थ, महत्वाकांक्षाओं और उत्तेजनाओं से मुक्त और प्रेमपूर्ण समाज का निर्माण हो सकता है? अतीत का अनुभव तो यही कहता है कि मुक्त-पुरुषों के पास कुछ मुट्ठी भर लोग मुक्ति को प्राप्त हुए और शेष समाज वैसा का वैसा ही बना रहा। आप कुछ अनूठे अवश्य हैं, आपका प्रयोग भी बहुत मौलिक और क्रांतिकारी है। आप कहते हैं मनुष्यता भी प्रौढ़ हुई है। क्या इस बार हम कुछ नये की आशा संजो सकते हैं?
अरुण! पृथ्वी पर स्वर्ग उतारने की कोई जरूरत नहीं है, पृथ्वी स्वर्ग है। बस जागने की जरूरत है। स्वर्ग कहीं से लाना नहीं है, न ही स्वर्ग निर्मित करना है, स्वर्ग में हम जी रहे हैं; लेकिन सोए हुए हैं। हमारे चारों तरफ स्वर्ग का उल्लास प्रवाहित है। स्वर्ग की रंगरेलियां चल रही हैं। लेकिन आदमी मूर्च्छित है। वह अपने मन में खोया है।
मन यानी नींद। मन यानी मूर्च्छा। चूंकि हम मन में खोए हैं, इसलिए उसे नहीं देख पाते जो मौजूद है। जो सामने खड़ा है, उससे वंचित रह जाते हैं। नहीं तो ऐसा कैसे हो सकता था कि कुछ लोग--कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण, कोई कबीर, कोई शांडिल्य, कोई नारद--यहीं रहते हुए स्वर्ग को उपलब्ध हो गए! ऐसा तो नहीं हो सकता कि एक टुकड़ा स्वर्ग का बुद्ध के लिए उतरा होगा पृथ्वी पर। बुद्ध के लिए उतरता तो कम से कम जो बुद्ध के पास थे उनको भी दिखाई पड़ता। नहीं, ऐसा हुआ कि और सब सोए रहे, कोई एक व्यक्ति जाग गया। जो जाग गया, वह स्वर्ग में प्रविष्ट हो गया।
जागरण स्वर्ग का द्वार है।
जागो तो तुम पाओगे कि स्वर्ग में ही थे। सदा से स्वर्ग में थे। और यह अनुभव तुम्हें रोज भी होता है। रात सो जाते हो, याद भी नहीं रह जाती कि कहां सोए हो, किस घर में सोए हो; कौन पत्नी है, कौन पिता है, कौन मां है, कौन भाई, कौन बहन; क्या धंधा, क्या व्यवसाय; शिक्षित, अशिक्षित, अमीर, गरीब; सब खो जाता है। सो गए तो बिलकुल भूल गए। सुबह जाग कर फिर सब याद आ जाता है। स्वर्ग पुनर्स्मरण है।
हर बच्चा स्वर्ग में पैदा होता है। फिर हम उसे भुलाने की कोशिश करते हैं। फिर हम उसे अपने नरक की दीक्षा देते हैं। उस दीक्षा को हम संस्कार कहते, संस्कृति कहते, समाज कहते, धर्म कहते। हमने बड़े प्यारे नाम रखे हैं उस दीक्षा के। दीक्षा का मूल सार इतना है कि बच्चे से उसका स्वर्ग छीन लो। उसकी सरलता छीन लो। उसका निर्दोष भाव छीन लो। उसकी आंखों की ताजगी छीन लो। उसके चित्त का जो दर्पण जैसा निश्छल रूप है, उसे नष्ट कर दो; भर दो कूड़े-कर्कट से।
बच्चा पैदा होता है तो न हिंदू होता है, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन। बनाओ उसे जल्दी हिंदू, मुसलमान, जैन, ईसाई, बौद्ध। कहीं देर न हो जाए! उसे कुछ पता नहीं होता कि क्या बुरा, क्या भला। जल्दी उसे सिखाओ कि उसे बुरे-भले का पता हो जाए! उसे कुछ पता नहीं है--भविष्य का, अतीत का। उसे समय की भाषा सिखाओ! उसे अतीत की याददाश्तें सिखाओ, उसे भविष्य की आकांक्षाएं दो। उसे कुछ पता नहीं है कि महत्वाकांक्षी होना चाहिए। उसे दौड़ में लगाओ। उससे कहो--तुझे प्रथम आना है। उसे सिखाओ कि दूसरों की गर्दन काटनी है। उसे सिखाओ कि अपने जीने के लिए यह बिलकुल जरूरी है कि दूसरों की गर्दनें काटी जाएं। उसे सिखाओ कि दूसरों के सिरों की सीढ़ियां बनाओ और चढ़ते जाओ। उसे सीढ़ी चढ़ना सिखाओ। कहां पहुंचेगा, यह कुछ पता नहीं है। कोई कभी उस सीढ़ी से कहीं पहुंचा है, इसका भी पता नहीं है। मगर चढ़ते जाओ, और चढ़ते जाओ। धन तो और धन, पद तो और पद। और की दीक्षा हम देते हैं।
और की दीक्षा नरक की दीक्षा है। जितना है, उससे तृप्त मत होना। जो पास हो, उसकी फिकर मत करना; जो दूर हो, उसकी फिकर करना। जो मिले, उसको भूल जाना; जो न मिले, उसके सपने देखना। और क्या नरक है? असंतोष नरक है।
संतोष स्वर्ग है। जो है, बहुत है; जो है, बहुत खूब है; जो है, बहुत से ज्यादा है, जरूरत से ज्यादा है। और की जहां आकांक्षा नहीं है, जो मिला है उससे जो अनुगृहीत है, वह स्वर्ग में है। हर बच्चा स्वर्ग में है। इसलिए तुम देखते हो, कोई बच्चा कुरूप नहीं होता। सब बच्चे सुंदर होते हैं। स्वर्ग में कोई कुरूप कैसे हो सकता है? सब बच्चे सुंदर पैदा हो जाते हैं। सुंदर ही पैदा होते हैं। फिर धीरे-धीरे कुरूप होने लगते हैं। फिर हिंदू, फिर मुसलमान, फिर ईसाई; फिर हजार तरह के अहंकार, और हजार तरह की सीमाएं, और हजार तरह के बंधन--और उनका चित्त संकीर्ण होता जाता है, संकीर्ण होता जाता है। फिर एक कारागृह रह जाता है। फिर सभी लोग कुरूप हो जाते हैं। उस कुरूपता का नाम नरक है।
तो पहली बात तो तुम्हें याद दिला दूं कि स्वर्ग कहीं से लाना नहीं है, स्वर्ग आया हुआ है। हम स्वर्ग में पैदा हुए हैं। यह सारा अस्तित्व स्वर्ग है। नरक कहीं है ही नहीं। सिवाय आदमी की भ्रांति के नरक कहीं भी नहीं है। दुख आदमी का सृजन है। परमात्मा से केवल सुख की धारा ही बह रही है। हम बड़े कुशल हैं, हम सुख को दुख बना लेने में कुशल हैं। हम फूलों से कांटे ढाल लेते हैं। जहां अहोभाव होना चाहिए, वहां हम शिकायतें खड़ी कर लेते हैं। जहां झुकने की धारा बहनी चाहिए, वहां हम अकड़ कर खड़े हो जाते हैं और सूख जाते हैं। गलती हमारी है, पृथ्वी की कोई गलती नहीं है। पृथ्वी सर्वांग सुंदर है।
इसीलिए यह हो सका कि जो जाग गया, वह स्वर्ग में प्रविष्ट हो गया। बुद्ध यहीं स्वर्ग में रहे। मैं यहीं स्वर्ग में हूं। तुम भी उसी दुनिया में हो, मैं भी उसी दुनिया में हूं। हम कहीं अलग-अलग दुनियाओं में नहीं हैं। पर मेरे देखने का ढंग और, तुम्हारे देखने का ढंग और। तो स्वर्ग देखने के ढंग की बात है। नरक भी देखने के ढंग की बात है। हमारी दृष्टि बदलनी चाहिए। दृष्टि ही सृष्टि है। उससे ही हम सृजन करते हैं।
जागो! और तुम स्वर्ग में प्रविष्ट हो जाओगे। और स्वर्ग तुममें प्रविष्ट हो जाएगा।
दूसरी बात, समाज कभी स्वर्ग में हो पाएगा या नहीं, कहना मुश्किल है। होना चाहिए, मगर हो पाएगा या नहीं, कहना मुश्किल है।
क्यों? क्योंकि मनुष्य स्वतंत्र है। स्वर्ग जबरदस्ती थोपा नहीं जा सकता। यह ऐसी कोई बात नहीं है कि एक आज्ञा दे दी कि बस अब स्वर्ग हो जाए! यह प्रत्येक व्यक्ति को निर्णय लेना पड़ता है कि मैं दुखी जीना चाहता हूं या सुखी जीना चाहता हूं। यह आत्म-निर्णय है। यह कोई सरकारी आज्ञा नहीं हो सकती कि एक दिन तय कर लिया--जैसे कि हमने तय कर लिया कि इस दिन स्वतंत्रता हो गई, देश स्वतंत्र हो गया; इस दिन देश लोकतंत्र बन गया, और देश लोकतंत्र बन गया। ऐसी कोई बचकानी बात नहीं है कि एक दिन हमने तय कर लिया कि फलां तारीख को फलां सन एक जनवरी को घोषणा हो जाएगी कि अब हम स्वर्ग में प्रवेश कर गए। इस तरह घोषणाओं से नहीं होने वाला है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने निजी अस्तित्व में निर्णय लेना पड़ता है कि मैं क्या चुनूं--स्वर्ग या नरक? यह प्रत्येक व्यक्ति की आंतरिक स्वतंत्रता है। इस स्वतंत्रता में गरिमा है। और खतरा भी है।
इसे थोड़ा समझो! अगर स्वर्ग अनिवार्य हो, तो स्वतंत्रता नष्ट हो जाएगी। अगर स्वर्ग ऐसा हो कि उससे अलग होने का उपाय ही न हो, कि तुम्हें स्वर्ग में होना ही पड़े, तुम लाख उपाय करो तुम दुखी न हो सको, तो वह सुख भी सुख नहीं रह जाएगा। उसमें स्वतंत्रता खो गई। और स्वतंत्रता सुख की एक अनिवार्य आधारशिला है। जो स्वर्ग जबर्दस्ती मिल जाएगा, वह कैसा स्वर्ग होगा?
इसलिए स्वर्ग की संभावना में ही नरक भी छिपा है। समझ लेना बात को। स्वतंत्रता का अर्थ ही यह होता है। अगर तुमसे कोई कहे कि तुम्हें अच्छे काम करने की स्वतंत्रता है, तो इसका क्या मतलब होगा? इसका कोई मतलब नहीं होगा। अच्छे काम की स्वतंत्रता में बुरे काम की स्वतंत्रता सम्मिलित है। कोई कहे कि तुम्हें राम होने की स्वतंत्रता है। लेकिन राम होने की स्वतंत्रता में रावण होने की स्वतंत्रता सम्मिलित है। अगर तुम रावण हो ही न सको, तो फिर राम होने की स्वतंत्रता का अर्थ क्या है? रावण भी हो सकते हो, इसलिए राम होने का मजा है। नरक में हो सकते हो, इसलिए स्वर्ग में होने का मजा है। बीमार हो सकते हो, इसलिए स्वास्थ्य में रस है। मर सकते हो, इसलिए जीवन प्यारा है। घृणा घेर सकती है, इसलिए प्रेम में आनंद है। स्वतंत्रता विपरीत की स्वतंत्रता है। प्रत्येक व्यक्ति को हर बार--बार-बार निर्णय लेना पड़ता है। यह व्यक्ति की निर्णायकता पर निर्भर है।
इसलिए समाज की भाषा में पूछो ही मत--कि समाज कभी स्वर्ग में होगा या नहीं होगा? हां, इतना मैं जरूर कह सकता हूं कि लोग अब ज्यादा से ज्यादा स्वर्ग में होंगे। संख्या बढ़ती जाएगी।
क्यों? उसके कुछ कारण हैं। पहले क्यों नहीं हो सका? उसके भी कारण हैं।
बुद्ध जैसा व्यक्ति स्वर्ग में प्रवेश कर सका। बड़ी प्रतिभा की जरूरत थी। क्योंकि पूरा समाज बड़ा संकीर्ण था, बड़ा क्षुद्र था। उस क्षुद्रता और संकीर्णता से मुक्त होना करीब-करीब असंभव कृत्य जैसा कृत्य था। चमत्कार था! अब समाज उतना संकीर्ण नहीं है। तुम देखते हो, मैं अभी भी जिंदा हूं, मुझे सूली नहीं लगा दी गई है। और जो मैं कह रहा हूं, उसके मुकाबले जीसस ने जो कहा था वह कुछ भी नहीं है। लेकिन जीसस को सूली लग गई। समाज बड़ा संकीर्ण था, बड़ा क्षुद्र था। मैं जो कह रहा हूं वह बुद्ध भी तुमसे कहना चाहते थे, लेकिन कहा नहीं। तो तुम यह मत सोचना कि जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह बुद्ध नहीं कहना चाहते थे। बुद्ध भी कहना चाहते थे। बुद्धत्व का स्वाद लेकर तुमसे कह रहा हूं कि कहना ही चाहा होगा उन्होंने भी। क्योंकि उस घड़ी में जो मुझे दिखाई पड़ रहा है, उन्हें भी दिखाई पड़ा होगा। लेकिन नहीं कहा। तुम्हारे कान उसे झेल न पाते। तुम्हारी आत्माएं उसे अंगीकार न कर पातीं। मनुष्य का हृदय थोड़ा विस्तीर्ण हुआ है।
तुम देखते हो, यहां हिंदू बैठे हैं, मुसलमान बैठे हैं, जैन बैठे हैं, बौद्ध बैठे हैं; ईसाई हैं, सिक्ख हैं, पारसी हैं; यहां शायद ही कोई दुनिया में ऐसा धर्म हो जिसका प्रतिनिधि मौजूद नहीं है। ऐसा कभी हुआ था? ऐसा कभी नहीं हुआ था। जीसस को सुनने वाले यहूदी थे। बुद्ध को सुनने वाले हिंदू थे। मोहम्मद को सुनने वाले...एक दायरा था, एक सीमा थी। ऐसा संगम कभी घटा है? घट ही नहीं सकता था। असंभव था। मनुष्य इतना प्रौढ़ नहीं था।
आज घट सकता है। आज घट सकता है तो संभावनाएं बड़ी हो गईं। मैं यह नहीं कहता कि सारा समाज स्वर्ग में प्रवेश कर जाएगा, पर इतना जरूर कहता हूं कि अधिक से अधिक लोग प्रवेश कर सकेंगे। रोज द्वार बड़ा होता जाएगा।
ऐसा समझो कि हर चीज के पीछे एक क्रमबद्ध श्रृंखला होती है। जैसे समझो, हम चांद पर पहुंच गए। चांद पर पहुंचने की आकांक्षा सदियों पुरानी है। जितना मनुष्य पुराना है, उतनी आकांक्षा पुरानी है। हर बच्चा पैदा होकर चांद की तरफ हाथ बढ़ाता है। चंदामामा को पकड़ लाना चाहता है। रोता है कि चंदा को पकडूंगा। पुरानी कथा है कि कृष्ण रो रहे हैं चांद को पकड़ने के लिए। और यशोदा ने एक थाली में पानी भर कर रख दिया। और चांद का प्रतिबिंब थाली में पड़ने लगा। और कृष्ण ने थाली में बने चांद के प्रतिबिंब को हाथ डाल कर पकड़ने की कोशिश की है।
चांद को पकड़ने की कोशिश बड़ी पुरानी है। लेकिन पहुंच हम पाए। अब तक नहीं हो सका था यह, अब हो सका। इसके पीछे एक क्रमबद्ध श्रृंखला है। जिनके पास बैलगाड़ी नहीं थी, उनके पास हवाई जहाज तो नहीं हो सकता, इस बात को समझ लेना। बैलगाड़ी हो, फिर कार बने, फिर ट्रेन बने, फिर हवाई जहाज बने, फिर कहीं अंतरिक्ष यान बन सकता है। कोई आदिम समाज अंतरिक्ष यान नहीं बना सकता। इसलिए मैं कहता हूं कि तुम्हारी जो कहानियां हैं कि रामचंद्रजी पुष्पक विमान में बैठ कर अयोध्या आए, सब कहानियां हैं। क्योंकि साइकिल का भी उल्लेख नहीं है। मोटर का भी उल्लेख नहीं है। बिना कार के हवाई जहाज नहीं बन सकता। और जो हवाई जहाज बना लेंगे, उन्होंने उसके पहले कार बना ही ली होगी, तो ही हवाई जहाज बन सकता है। एक क्रमबद्ध श्रृंखला है। एक सीढ़ी है। कोई भी घटना आकस्मिक नहीं घट जाती। अंतरिक्ष यान बन सकता है तभी, जब हवाई जहाज अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच जाए।
ठीक ऐसा ही जीवन के और तलों पर भी सच है। महावीर ने जो कहा, वह अकेला काफी नहीं है बहुत बड़ी संख्या को स्वर्ग में ले जाने के लिए। उसमें फ्रायड का जुड़ जाना जरूरी है। कृष्ण ने जो कहा, वह अकेला काफी नहीं है बहुत बड़ी संख्या को स्वर्ग में ले जाने के लिए। उसमें मार्क्स का जुड़ जाना जरूरी है। और बुद्ध ने जो कहा, वह काफी नहीं है बहुत बड़ी संख्या को स्वर्ग में ले जाने के लिए। उसमें आइंस्टीन का हाथ अनिवार्य है।
आज हम एक अनूठी घड़ी में हैं। सारे उपकरण मौजूद हैं। पृथ्वी चाहे तो अब स्वर्ग की घोषणा कर सकती है। बहुत बड़ी संख्या में लोग आंखें खोल सकते हैं, ध्यान में उतर सकते हैं, प्रार्थनापूर्ण हो सकते हैं। अब बाधा उपकरण की दृष्टि से नहीं है, अब तो बाधा सिर्फ पुरानी आदतें तोड़ने की है।
फर्क समझ लेना! तुम्हारे लिए कार भी दे दी जाए, तो जरूरी नहीं है कि तुम उसमें बैठोगे। तुम कहोगे, बैल कहां? बिना बैल के यह चलेगी कैसे?
जब पहली दफा रेलगाड़ी बनी तो तुम जान कर हैरान होओगे, लंदन में उसमें कोई बैठने को राजी नहीं था। मुफ्त बिठाया जा रहा था। एक तीस मील की यात्रा करवाई जा रही थी। कोई रेलगाड़ी में बैठने को राजी नहीं था। लोग चारों तरफ देख कर जाते, वे पूछते, घोड़े कहां हैं? बिना घोड़े के यह चलेगी कैसे? बड़ी मुश्किल से समझाया जाता उन्हें कि यह भाप से चलेगी। वे कहते, ठीक, चलो चल भी गई, फिर रुकेगी कैसे? और नहीं रुकी तो फिर? हम तो बैठ जाएं इसमें, फिर यह न रुके! कभी रोक कर देखी? उसके पहले गाड़ी चली ही नहीं थी, इसलिए किसी ने रोक कर देखी भी नहीं थी। और बड़ी अफवाहें उड़ गईं। और छोटे-मोटे लोगों ने नहीं उड़ाईं, चर्च के बड़े पुरोहित ने भी घोषणा कर दी चर्च में रविवार को कि जो बैठेगा इस रेलगाड़ी में, वह ध्यान रखे कि वह ईसाई नहीं रहा। क्योंकि कोई ईसाई कभी रेलगाड़ी में नहीं बैठा। और फिर परमात्मा ने रेलगाड़ी क्यों नहीं बनाई? अगर रेलगाड़ी बनानी ही थी तो परमात्मा बनाता। उसने तो प्रकृति पूरी बना दी छह दिन में, फिर सातवें दिन आराम किया, छह दिन में सब बना दिया, उसने हर चीज बना दी, रेलगाड़ी क्यों नहीं बनाई? यह रेलगाड़ी जरूर शैतान की ईजाद है। यह तर्क जंचा लोगों को। फतवा मिल गया ऊपर से कि कोई रेलगाड़ी में न बैठे। कोई बैठने को राजी नहीं था।
तुम हैरान होओगे कि लोगों को पैसे देने पड़े! और जो बैठने को राजी हुए वे इस तरह के लोग थे--अपराधी, जुआरी, शराबी! जिन्होंने कहा कि चलो ठीक है, रहे तो रहे, न रहे तो भी क्या? ईसाई न रहे तो भी क्या? और शैतान की गाड़ी, चलो ठीक है! हम तो पुराने ही शैतान के शिष्य हैं। वे बैठ गए। सिर्फ आठ आदमी। जिस गाड़ी में तीन सौ लोगों के बैठने की व्यवस्था थी, सिर्फ आठ आदमी बैठे। पूरे लंदन में आठ हिम्मतवर आदमी मिले। वे भी छाती कड़ी करके बैठे थे कि पता नहीं क्या होने वाला है! रेलगाड़ी मौजूद है, लेकिन बैठने को कोई राजी नहीं।
आज ऐसी ही घड़ी है। मैं तुमसे जो कह रहा हूं, लेकिन उसको तुम सुनने को राजी नहीं। सुन भी लो तो करने को राजी नहीं। तुम्हारी पुरानी आदतें, तुम्हारे पुराने विश्वास, तुम्हारी पुरानी श्रद्धाएं बाधा बन रही हैं। उपकरण तो मौजूद है।
लेकिन कितनी देर तक ये बाधा बनेंगी? आठ आदमी भी बैठ गए अगर...वही आठ आदमी मेरे संन्यासी हो गए हैं...आठ आदमी भी अगर बैठ गए तो यह रेलगाड़ी चल पड़ेगी। और एक बार चल पड़ी तो संख्या बैठने वालों की बढ़ती जाएगी। अब सारी दुनिया बैठ रही है, अब किसी को चिंता नहीं है। अब कोई पूछता ही नहीं कि रेलगाड़ी रुकेगी कि नहीं रुकेगी? इसको रोकोगे कैसे? इसमें घोड़े कहां? बैल कहां? कौन चला रहा है? इसके भीतर कोई भूत-प्रेत तो नहीं है? शैतान का हाथ तो नहीं है?...और शक्ल भी रेलगाड़ी की और इंजन की कुछ शैतान जैसी लगती है! यमदूत जैसा मालूम होता है इंजन। और इतनी ताकत से चलता है, धड़धड़ा कर चलता है, पता नहीं क्या होगा परिणाम इसका?
मनुष्य-जाति ने पिछले पांच हजार सालों में वह सब खोज लिया है--धीरे-धीरे करके। कुछ बुद्ध ने खोजा, कुछ पतंजलि ने खोजा, कुछ मोहम्मद ने खोजा, कुछ क्राइस्ट ने, कुछ मूसा ने, कुछ लाओत्सु ने, कुछ जरथुस्त्र ने; अनेक-अनेक अन्वेषियों ने, अनेक-अनेक जानने वालों ने सारे खंड खोज लिए हैं। उन खंडों को बिठा देने की बात है। उनको मैं बिठाने की कोशिश कर रहा हूं। इसलिए मुझसे लोग पूछते हैं कि आप एक ही धारा पर क्यों नहीं बोलते? जैन मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, अगर आप सिर्फ महावीर पर बोलें तो हम आपके साथ हैं। लेकिन आप कृष्ण पर भी बोल देते हैं। तब हमें बड़ी चोट लग जाती है। कृष्ण को मानने वाला कहता है, आप अगर कृष्ण पर ही बोलते रहें, तो सारे हिंदू आपके साथ खड़े हो जाएंगे। लेकिन आप मोहम्मद को बीच में ले आते हैं, कि ईसा को बीच में ले आते हैं। कि अगर आप योग पर ही बोलें तो ठीक, मगर आप तंत्र पर भी बोल देते हैं।
मेरी कोशिश और तरह की है। वैसी कोशिश कभी की नहीं गई है। मैं सारी दुनिया में सत्य के जितने दर्शन हुए हैं, जिन-जिन झरोखों से सत्य की झलक देखी गई है, उन सारी झलकों को तुम्हारे सामने इकट्ठा कर देना चाहता हूं। क्योंकि उनके इकट्ठे हो जाने पर ही भविष्य निर्भर है। उनके इकट्ठे होते ही मनुष्यता के इकट्ठे होने का आधार बन जाएगा। जब तक तुम्हें मोहम्मद और महावीर में भेद दिखाई पड़ता रहेगा, तब तक आदमी आदमी इकट्ठा नहीं हो सकता। जब तक तुम्हें कृष्ण और क्राइस्ट में शत्रुता मालूम पड़ेगी, तब तक तुम कैसे ईसाई के साथ हाथ मिला सकते हो और ईसाई तुमसे हाथ मिला सकता है? मिलाओगे भी तो धोखाधड़ी होगी, चालबाजी होगी, पीछे इरादे कुछ और होंगे, मुख में राम बगल में छुरी होगी। लेकिन जिस दिन यह बिलकुल साफ हो जाएगा कि इन सारे लोगों ने सत्य के ही अलग-अलग पहलुओं की चर्चा की है, और सारे पहलू मिल कर पूरा सत्य प्रकट हो जाता है, जैसे सारे पहलू मिल कर एक हीरा चमक उठता है। एक-एक पहलू से तो हीरा कमजोर होता है; सारे पहलू, अनंत पहलुओं से जब चमक आती है, अनंत पहलुओं से जब सूरज की किरणें लौटती हैं, प्रतिफलित होती हैं, रंग-बिरंगे इंद्रधनुष बन जाते हैं। वही प्रयास कर रहा हूं।
मनुष्य-जाति अब ज्यादा सुगमता से इस पृथ्वी पर स्वर्ग बसा सकती है। स्वर्ग बसाने का मतलब: स्वर्ग है, उसका आविष्कार कर लेना। उसको देख लेना। यह अब तक नहीं हो सकता था, क्योंकि बिना मार्क्स के महावीर अधूरे हैं। आदमी देह भी उतना ही है, जितनी आत्मा। सिर्फ आत्मा आत्मा की बात करो और देह को विस्मरण कर दो, तो ज्यादा देर आत्मा की बात करने वाले लोग जिंदा नहीं रहेंगे।
वही भारत में हुआ। हमने जरूरत से ज्यादा आत्मा की बात कर दी--और करने का कारण था। क्योंकि हमने देखे महावीर, हमने देखे कृष्ण, हमने देखे बुद्ध, हमने वह अपूर्व ज्योति देखी आत्मा की कि हम एकदम विमोहित हो गए, सम्मोहित हो गए और हमने कहा कि छोड़ो फिकर पदार्थ की, बस आत्मा ही सब कुछ है--जगत मिथ्या, ब्रह्म सत्य! बस हमने कहा कि अब सब छोड़ो, अब तो बस आत्मा की ही खोज कर लेनी है। लेकिन महावीर को भी भोजन की जरूरत पड़ती है, बुद्ध को भी भिक्षा मांगने जाना पड़ता है, यह हम भूल ही गए। यह हम भूल ही गए कि बुद्ध को भी रोटी की उतनी ही जरूरत है जितनी तुम्हें है। उन्हें भी वस्त्र की जरूरत पड़ती है जितनी तुम्हें है। उन्हें भी रात छप्पर की जरूरत पड़ती है जितनी तुम्हें है। आत्मा से हम ऐसे ज्यादा प्रलोभित हो गए--और हो जाने का स्वाभाविक कारण था, हमने इतनी जगमगाती आत्माएं देखीं, ऐसे रोशन लोग देखे, ऐसे चमकते दीये देखे, कि ज्योति से हमारी आंखें बंध गईं, हम भूल ही गए कि ज्योति दीये में है। मिट्टी का दीया, उसमें भरा हुआ तेल और फिर ज्योति है।
हम ज्योति से ऐसे सम्मोहित हुए कि हम दीये की बात भी भूल गए, तेल की बात भी भूल गए; और बिना दीये और बिना तेल के ज्योति बुझ जाएगी, यह हमें स्मरण न रहा। और ज्योति बुझ गई। यह देश गरीब से गरीब होता चला गया है, दीन से दीन होता चला गया है, रुग्ण से रुग्ण होता चला गया है। इसमें वही, ज्योति के साथ जो अति आग्रह पैदा हो गया, कारण है। हमने इनकार ही कर दिया देह का। और देह के बिना आदमी कहां? भूमि के बिना वृक्ष कहां? देह के बिना आदमी कहां? इस संसार के बिना परमात्मा कहां? यह संसार उसकी देह है, उसकी काया है--यह दिव्य काया है। यह तुम्हारी देह, तुम्हारी काया, तुम्हारे भीतर छिपे हुए परमात्मा का मंदिर है।
इसका स्वाभाविक परिणाम हुआ, दूसरी अति पैदा हुई, मार्क्स ने कह दिया: न कोई आत्मा है, न कोई परमात्मा है; सब बकवास है। उसके भी पीछे कारण हैं। जब देखा कि इसी बकवास के कारण लोग दीन और दरिद्र हो गए हैं और सड़े जा रहे हैं, तो स्वाभाविक यह प्रतिक्रिया पैदा हुई कि न कोई ईश्वर, न कोई आत्मा, बस आदमी सिर्फ देह है। और चेतना पदार्थ का ही एक आविर्भाव है। जैसे पान चबाते हो न, चार्वाकों ने कहा, चार-पांच चीजों से मिल कर पान बन जाता है, फिर ओंठ लाल हो जाते हैं। उन चार-पांच चीजों को अलग-अलग चबा लो, ओंठ लाल नहीं होते। चार्वाकों ने कहा कि यह जो लाली है, कोई अलग चीज नहीं है, उन पांच चीजों के मिलने से पैदा हो जाती है। ऐसे ही पांच तत्वों के मिलने से जो लाली दिखाई पड़ती है--आत्मा--वह कोई अलग चीज नहीं है, बस वह पान की लाली है।
शराब जिन चीजों से मिल कर बनती है, उनको अलग-अलग खा लो, तुम्हें नशा नहीं चढ़ेगा। उनको मिला कर लोगे, तब नशा चढ़ेगा। तो नशा उन चीजों के मिलन से पैदा हो रहा है--अलग नहीं है। उन चीजों के अलावा नशा जैसी कोई चीज नहीं है। ऐसा नहीं है कि तुम शराब से उसके बनाने वाले तत्वों को अलग कर लो, पीछे फिर नशा बचा रह जाएगा। शुद्ध नशा नहीं बचेगा। ऐसे ही कोई शुद्ध आत्मा नहीं है।
तो चार्वाक से लेकर मार्क्स तक बगावत हुई। नास्तिक ने इनकार कर दिया, भौतिकवादी ने इनकार कर दिया। उसने भी एक तरह की दुनिया बनाने की कोशिश की रूस में, चीन में--जहां आदमी सिर्फ देह है। वहां दीया तो बड़ा सुंदर बन गया है, लेकिन उसमें ज्योति नहीं है। तेल भी खूब भरा है, मगर बाती नहीं है, और बाती को जलाने का सवाल ही नहीं है, ऐसी कोई चीज होती ही नहीं।
तो एक तरफ देह मर गई, आत्मा बची। और जब देह मर जाए तो बहुत दिन आत्मा नहीं बच सकती। दूसरी तरफ आत्मा मर गई, देह बची। और जब आत्मा मर जाए तो देह कितने दिन बच सकती है? देह सड़ जाएगी, लाश हो जाएगी।
तुमने देखा नहीं, जब तक आत्मा है देह में तब तक सब सुंदर है, सब सुवासित है। इधर आत्मा उड़ी, इधर पक्षी उड़ा, कि देह सड़ी। फिर घर में घर के ही लोग, जो तुम्हें जरा सा कांटा गड़ जाता था तो रोते थे, तड़फते थे, वे ही तुम्हें ले चले मरघट जलाने! कितनी जल्दी पड़ती है, तुमने देखा, कोई मर जाता है तो कितनी जल्दी होती है! रोकना ही नहीं चाहते लोग एक घड़ी घर में मुर्दे को। अब सिवाय दुर्गंध के और कुछ नहीं है। अगर घर के लोग रोने-धोने में लगे होते हैं तो पास-पड़ोस के लोग सहायता करते हैं, वे जल्दी से अरथी बनाने लगते हैं। मगर चलो, ले चलो, अब जल्दी करो! सारा गांव बस एक ही बात में उत्सुक होता है--जल्दी जलाओ, निपटाओ, खतम करो मामला! अब इसको घर में नहीं रखना है। यह तुम्हारी प्यारी मां थी, तुम्हारी प्यारी पत्नी थी, तुम्हारे प्यारे पिता थे, तुम्हारा बेटा था, एक क्षण रोकने को राजी नहीं हो तुम। क्या हो गया? दीया बचा, ज्योति नहीं है अब। दीये का क्या मूल्य है?
ये दो भ्रांतियां हो चुकी हैं, इसलिए पृथ्वी पर स्वर्ग नहीं बन पाया।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, अब संभव है। और मैं तुम्हें जो जीवन-दृष्टि दे रहा हूं, वह न तो आध्यात्मिक
है और न भौतिक है। मैं तुम्हें एक ऐसी जीवन-दृष्टि दे रहा हूं जिसमें भौतिकता और अध्यात्म, दोनों का समन्वय है। जिसमें दीया भी है और ज्योति भी है। इसलिए मुझसे सभी नाराज हैं। मुझसे, कम्युनिस्ट आता है, वह नाराज है। उसकी नाराजगी यह है कि आप कुछ बातें तो ठीक कहते हैं--जहां तक दीये की बात करता हूं, वह कहता है, आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं--मगर यह ज्योति की बात क्यों छेड़ देते हैं? यह नहीं जंचती। इससे हम आपसे नाराज हैं। और मेरे पास आध्यात्मिक व्यक्ति आते हैं, वे कहते हैं, और सब तो ठीक है, आप जब ज्योति की बात करते हैं तो हम भी तल्लीन हो जाते हैं, मगर आप देह की बात क्यों छेड़ देते हैं? उससे सब खराब हो जाता है! सिर्फ समाधि की बात करें, संभोग की बात क्यों उठा देते हैं? अगर आप समाधि की ही बात करें, तो सब सुंदर है। मेरे पास फ्रायड को मानने वाले लोग आते हैं, वे कहते हैं, संभोग की बात करते हैं वह तो बिलकुल ठीक है, यह समाधि को कहां से लाते हैं? यह समाधि बिलकुल झूठी बात है।
तो मेरी अड़चन तुम समझना। मुझसे सब नाराज हैं। भौतिकवादी नाराज हैं, क्योंकि मैं अध्यात्म की बात करता हूं। अध्यात्मवादी नाराज हैं, क्योंकि मैं भौतिकवाद की बात करता हूं। लेकिन मैं दोनों की बात कर रहा हूं। और मैं चाहता हूं कि तुम दोनों की बात समझ लो, क्योंकि तुम दोनों के जोड़ हो। और यह पृथ्वी आकाश और पृथ्वी का जोड़ है। और पृथ्वी पर स्वर्ग का आविर्भाव हो सकता है तभी, जब हम दोनों को सम्हाल पाएं। इसकी सम्हालने की संभावनाएं बड़ी हो गई हैं अब। इतनी बड़ी कभी भी नहीं थीं। इसलिए बहुत लोग प्रवेश पा सकते हैं।
मगर फिर भी मैं यह नहीं कह सकता कि समाज सामूहिक रूप से प्रवेश पा जाएगा। समाज के पास कोई आत्मा नहीं होती। प्रवेश तो व्यक्ति पाता है। सुख और दुख व्यक्ति में घटते हैं, समाज में नहीं घटते। समाज के पास संवेदना का कोई आधार ही नहीं है। समाज तो केवल संज्ञा मात्र है, नाम मात्र है। जैसे तुम यहां बैठे हो, पांच सौ लोग मेरे सामने बैठे हैं, यह पांच सौ लोगों का समाज है। इसमें से एक-एक आदमी उठ कर चला जाएगा, जब सब चले जाओगे तो यहां पीछे कुछ भी नहीं बचेगा, कोई समाज नहीं बचेगा। तो समाज तो केवल एक नाम मात्र था, पांच सौ लोगों के इकट्ठे मौजूद होने का नाम था। असलियत तो व्यक्ति थे। वे पांच सौ व्यक्ति थे, पांच सौ आत्माएं थीं।
अब तुम मुझे सुन रहे हो। यहां कोई समाज नहीं सुन रहा है मुझे, पांच सौ व्यक्ति सुन रहे हैं, प्रत्येक व्यक्ति सीधा मुझे सुन रहा है, मेरे और व्यक्ति के बीच में कोई समाज नहीं है। समाज कामचलाऊ शब्द है। उसका उपयोग करो, मगर ध्यान रखना, समाज की कोई सत्ता नहीं है। समाज का कोई अस्तित्व नहीं है। संज्ञामात्र है।
ऐसे ही जैसे हम कहते हैं--जंगल। जंगल का कोई अस्तित्व थोड़े ही होता है, अस्तित्व तो वृक्षों का होता है। जंगल का तो इतना ही मतलब है--बहुत वृक्ष खड़े हैं। जंगल का और कोई अर्थ नहीं होता। एक-एक वृक्ष को अलग कर लो, जंगल सफाचट हो जाएगा, कहीं खोजे से न मिलेगा।
तो मैं यह नहीं कह सकता कि समाज की तरह जीवन में क्रांति आ जाएगी। मगर अधिक से अधिक लोग बड़ी से बड़ी संख्याओं में स्वर्ग में प्रवेश कर सकते हैं। ऐसा इसके पहले कभी भी समायोजन न था, जैसा आज है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, कान्हा! आज अंतिम होली है; क्या होली नहीं खेलोगे?
राधा! होली ही खेल रहा हूं। कभी होली, कभी होला। चौबीस घंटे वही चल रहा है, तुम्हें रंगने के धंधे में ही लगा हूं। रंगरेज ही हो गया हूं। काम ही कुछ और नहीं कर रहा। जो आदमी मुझे दिखता है, बस मैं उसे रंगने में लग जाता हूं। इसलिए जो रंगे जाने से डरते हैं, वे मेरे पास ही नहीं आते। वे दूर-दूर रहते हैं। कहीं रंग की कोई बूंद उन पर न पड़ जाए!
मैं अपने रंग में ही तुम्हें रंग रहा हूं। यहां होली वर्ष में एकाध दिन नहीं आती, होली ही चलती है। सब दिन एक से हैं। और सब दिन रंगने का काम ऐसे ही चलता रहता है। एकाध दिन होली क्या खेलनी!
एकाध दिन होली खेलने के पीछे भी मनोविज्ञान है।
यह जो एक दिन की होली है, इस तरह के उत्सव सारी दुनिया में हैं--अलग-अलग ढंग से, मगर इस तरह के उत्सव हैं। यह सिर्फ इतना बताता है कि मनुष्यता कितनी दुखी न होगी। एक दिन उत्सव मनाती है, और तीन सौ पैंसठ दिन शेष--दुखी और उदास। यह एक दिन थोड़े मुक्त-भाव से नाच-कूद लेती है। गीत गा लेती है।
मगर यह एक दिन सच्चा नहीं हो सकता। क्योंकि बाकी पूरा वर्ष तो तुम्हारा और ही ढंग का होता है। न उसमें रंग होता है, न गुलाल होती है। तुम पूरे वर्ष तो मुर्दे की तरह जीते हो और एक दिन अचानक नाचने को खड़े हो जाते हो! तुम्हारे नाच में बेतुकापन होता है। तुम्हारे नाच में जीवंतता नहीं होती। जैसे लंगड़े-लूले नाच रहे हों, बस वैसा तुम्हारा नाच होता है। या जिनको पक्षाघात लग गया है, वे अपनी-अपनी बैसाखी लेकर नाच रहे हैं, ऐसा तुम्हारा नाच होता है। तुम्हारा नाच जब मैं देखता हूं, होली इत्यादि के दिन, तो मुझे शंकर जी की बरात याद आती है। तुम्हें नाच भूल ही गया है। तुम्हें उत्सव का अर्थ ही नहीं मालूम है। इसलिए तुम्हारा उत्सव का दिन गाली-गलौज का हो जाता है।
जरा देखो, तुम्हारे गैर-उत्सव के दिन औपचारिकता के दिन होते हैं, शिष्टाचार-सभ्यता के दिन होते हैं। और तुम्हारे उत्सव का दिन गाली-गलौज का दिन हो जाता है! यह गाली-गलौज तुम भीतर लिए रहते होओगे, नहीं तो यह निकल कैसे पड़ती है? यह होली के दिन अचानक तुम गाली-गलौज क्यों बकने लगते हो? और रंग फेंकना तो ठीक है, लेकिन तुम नालियों की कीचड़ भी फेंकने लगते हो। तुम कोलतार से भी लोगों के चेहरे पोतने लगते हो। तुम्हारे भीतर बड़ा नरक है। तुम उत्सव में भी नरक को ले आते हो। और तुम्हारा उत्सव जल्दी ही गाली-गलौज में बदल जाता है। देर नहीं लगती! तुम्हारी असलियत प्रकट हो जाती है। तुम्हारा शिष्टाचार, तुम्हारी औपचारिकताएं सब थोथी हैं, ऊपर-ऊपर हैं। गाली ज्यादा असली मालूम होती है। क्योंकि जैसे ही तुम्हें मौका मिलता है, जैसे ही तुम्हें सुविधा मिलती है, तुम्हारे भीतर से गाली निकल आती है। कांटे निकलते हैं जब तुम्हें सुविधा मिलती है। वैसे तुम बड़े भले मालूम पड़ते हो। वह भलापन तुम्हारा पुलिस के डर से है। वह भलापन तुम्हारा स्वर्ग-मोक्ष-नरक इत्यादि के भय और लोभ से है। तुम्हारा परमात्मा भी एक बड़े पुलिसवाले से ज्यादा और कुछ भी नहीं है तुम्हारी आंखों में। वह तुम्हें डरा रहा है, डंडा लिए खड़ा है, कि सताऊंगा।
लेकिन फिर भी इन सभी रुग्ण समाजों ने एकाध दिन छोड़ रखा है, क्योंकि नहीं तो आदमी पागल हो जाएगा। निकास के लिए ये दिन छोड़े गए हैं। नहीं तो गंदगी इतनी इकट्ठी हो जाएगी कि आदमी बर्दाश्त न कर सकेगा। और एक सीमा आ जाएगी जहां गंदगी अपने से ही बहने लगेगी। एक सीमा है, उसके बाद वह ऊपर से बहने लगेगी। ये निकास के दिन हैं। ये असली उत्सव नहीं हैं। रंग वगैरह फेंकना ऊपर है, भीतर हिंसा है।
तुमने देखा, जब रंग एक-दूसरे पर लोग चुपड़ते हैं, तो उसमें कोमलता नहीं होती, न हार्दिकता होती है, न प्रेम होता है। एक तरह की दुष्टता होती है। तुम जाकर देख सकते हो! जैसे दूसरे को सताने की इच्छा है। रंग तो बहाना है। और रंग ऐसा पोत देना है कि बच्चू को याद रहे! दो-चार दिन छुड़ा-छुड़ा कर मर जाए तो न छूटे! तुम्हारे भीतर कुछ गंदा, कुत्सित भरा हुआ है।
मेरी दृष्टि में, जीवन पूरा उत्सव होना चाहिए। तो फिर होली इत्यादि की जरूरत न रहेगी। दीवाली एक दिन क्या? साल भर दिवाला, एक दिन दीवाली, यह कोई ढंग है जीने का? साल भर अंधेरा, एकाध दिन जला लिए दीये! साल भर मुहर्रम, एकाध दिन मना लिया जश्न; पहन लिए नये कपड़े, चले मस्जिद की तरफ! मगर तुम्हारी शक्ल मुहर्रमी हो गई है। तुम लाख उपाय करो, तुम्हारी शक्ल पर मुहर्रम छा गया है। तुम्हारे सब उत्सव इत्यादि थोथे मालूम पड़ते हैं, ऊपर से मालूम पड़ते हैं। उत्सव का आधार नहीं है, बुनियाद नहीं है। उत्सवपूर्ण जीवन होना चाहिए।
इसलिए मेरे इस आश्रम में न तो कभी दीवाली है, न कभी होली है। यहां सदा होली है, सदा दीवाली है। यहां चल ही रहा है, यहां नृत्य शाश्वत है। यहां जो भी नाचना चाहे उसे निमंत्रण है। और खयाल रखना, एकाध दिन कोई नाच ही नहीं सकता। नाचता ही रहे, नाचता ही रहे, तो ही उसके नाचने में प्रसाद होता है, उसके नाचने में गुणवत्ता होती है, उसके नाचने में अपूर्व भाव होता है। और उसके नाचने में कोमलता, सरलता। उसके नाच में हिंसा नहीं होती।
नहीं तो तांडव नृत्य बन जाता है जल्दी ही नाच। तुम्हारे सब उत्सव तांडव नृत्य हो जाते हैं। जल्दी ही गाली-गलौज पर नौबत उतर आती है। तुम्हारे सब उत्सवों में हिंदू-मुस्लिम दंगे हो जाते हैं। यह बड़े आश्चर्य की बात है! उत्सव के दिन दंगा क्यों? मार-पीट क्यों? एक-दूसरे को सताने की इच्छा क्यों? गाली-गलौज क्यों? गंदे-अश्लील नाच क्यों? कबीर के नाम से गालियां दी जा रही हैं! हद्द हो गई! गालियां बकते हो, उसको कहते हो--कबीर! कबीर को तो बख्शो!
पीछे कारण हैं। तुम्हारा जीवन दमित जीवन है। एकाध दिन के लिए तुम्हें छुट्टी मिलती है। जैसे साल भर तो कारागृह में बंद रहते हो, एकाध दिन के लिए छुट्टी मिलती है, सड़कों पर आकर शोरगुल मचा कर फिर अपने कारागृहों में वापस लौट जाते हो।
अब जो आदमी कभी-कभी सड़क पर आता है साल में एकाध बार, अपनी काल-कोठरी से छूटता है, वह उपद्रव तो करेगा ही! उसके लिए स्वतंत्रता उच्छृंखलता बन जाएगी। लेकिन जो आदमी सदा ही रास्तों पर है, खुले आकाश के नीचे, वह उपद्रव नहीं करेगा।
मैं चाहता हूं, तुम्हारा पूरा जीवन उत्सव की गंध से भरे, तुम्हारे पूरे जीवन पर उत्सव का रंग हो, इसलिए तुम्हें रंग रहा हूं। यह मेरा गैरिक रंग तुम्हारे जीवन को उत्सव में रंगने के लिए प्रयास है। यह गैरिक रंग सुबह ऊगते सूरज का रंग है। यह गैरिक रंग खिले हुए फूलों का रंग है। यह गैरिक रंग अग्नि का रंग है--जिससे गुजर कर कचरा जल जाता है और सोना कुंदन बनता है। यह गैरिक रंग रक्त का रंग है--जीवन का, उल्लास का; नृत्य का, नाच का। इस रंग में बड़ी कहानी है। इस रंग के बड़े अर्थ हैं।
तो राधा! जिस रंग में मैं तुम्हें रंग रहा हूं उसमें पूरी तरह रंग जाओ, तो होली भी हो गई, दीवाली भी हो गई। और यही पृथ्वी तुम्हारे लिए स्वर्ग बन जाएगी।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, जब कुंडलिनी या सक्रिय ध्यान में ऊर्जा जाग्रत होती है, तो उसे नाच कर क्यों खत्म कर दिया जाता है?
अरे कंजूस! तुम भारत के सच्चे प्रतिनिधि मालूम होते हो! यह भारतीय बुद्धि का इतिहास है। कुछ खर्च न हो जाए! बस खर्च न हो, बचा-बचा कर मर जाओ!
हर चीज में यह दृष्टि है। तुम इसे थोड़ा समझने की कोशिश करना। यह भारत के बुनियादी रोगों में से एक है--कंजूसी, कृपणता। कहीं खर्च न हो जाए। और मर जाओगे! तब यह कुंडलिनी और यह ऊर्जा और यह सब पड़ा रह जाएगा। इस देश में अधिक लोग कब्जियत से परेशान हैं। डाक्टरों से पूछो, वे भी यही कहते हैं। भारत जितना कब्जियत से परेशान है, दुनिया का कोई देश इतना कब्जियत से परेशान नहीं है। यह कब्जियत आध्यात्मिक है। इसमें मनोविज्ञान है। हर चीज को पकड़ लो! मल-मूत्र को भी पकड़ लो! और अगर ज्यादा आगे बढ़ जाओ, तो मोरारजी जैसा पी जाओ उसे वापस। वह भी कंजूसी का हिस्सा है। कहीं निकल न जाए! कोई सार-तत्व खो न जाए! रि-साइकलिंग। फिर डाल दो भीतर। फिर-फिर डालते रहो। उसको बिलकुल चूस लो। कुछ निकल न जाए! इसीलिए तुम मल तक को पकड़ लेते हो भीतर, उसको छोड़ते ही नहीं। कुछ खर्चा हुआ जा रहा है। सड़ गए हो इसी में। इसलिए जीवन यहां फैल नहीं सका, सिकुड़ गया। हर बात में एक कृपणता छा गई।
तुम जिसको ब्रह्मचर्य कहते हो, मेरे देखे, तुम्हारे सौ ब्रह्मचारियों में निन्यानबे सिर्फ कृपणता की वजह से ब्रह्मचर्य को स्वीकार कर लिए हैं। कहीं वीर्य-ऊर्जा खर्च न हो जाए! कंजूस हैं। एक ब्रह्मचर्य है जो आनंद से फलित होता है, ब्रह्म के ज्ञान से फलित होता है, वह तो बात अलग। मगर जिनको तुम आमतौर से ब्रह्मचारी कहते हो, ये ब्रह्मचारी सिर्फ कृपण हैं, कंजूस हैं। इनका सिर्फ भाव इतना ही है कि कहीं कुछ खर्च न हो जाए। ये मरे जा रहे हैं, हर चीज को रोक लो! और सब पड़ा रह जाएगा! तुम्हारा वीर्य, तुम्हारी ऊर्जा, तुम्हारी कुंडलिनी, सब पड़ी रह जाएगी! सब मरघट पर जलेगी। और मजा यह है कि जो जितना रोकेगा, उतनी ही कम उसके पास ऊर्जा होगी।
इस विज्ञान को ठीक से खयाल में ले लेना! क्योंकि कुछ चीजें हैं जो बांटने से बढ़ती हैं और रोकने से घटती हैं। परमात्मा तुम्हारे साधारण अर्थशास्त्र को नहीं मानता।
ऐसा समझो कि एक कुआं है, उसमें से तुम रोज पानी भर लेते हो ताजा-ताजा, तो नया ताजा पानी आ जाता है, झरनों से नया पानी आ रहा है। तुम अगर कुएं से पानी न भरोगे, तो तुम यह मत समझना कि कुएं में पानी के झरने बहते रहेंगे और कुआं भरता जाएगा, भरता जाएगा और एक दिन पूरा भर जाएगा। कुएं में उतना ही पानी रहेगा। फर्क इतना ही रहेगा--अगर तुम भरते रहे तो ताजा पानी आता रहेगा, कुएं का पानी जीवंत रहेगा। और अगर तुमने न भरा, तो कुएं का पानी सड़ जाएगा, मर जाएगा, जहरीला हो जाएगा। और जो झरने कुएं को पानी दे सकते थे, तुमने भरा ही नहीं, उन झरनों की कोई जरूरत नहीं रही, वे झरने भी धीरे-धीरे अवरुद्ध हो जाएंगे। उन पर पत्थर जम जाएंगे, कीच जम जाएगी, मिट्टी जम जाएगी; उनका बहाव बंद हो जाएगा। तुमने हत्या कर दी कुएं की।
मनुष्य एक कुआं है। जैसे हर कुआं सागर से जुड़ा है, नीचे झरनों से, दूर विराट सागर से जुड़ा है, जहां से सब झर-झर कर आ रहा है, ऐसे ही मनुष्य भी कुआं है और परमात्मा के सागर से जुड़ा है। कंजूसी की यहां जरूरत ही नहीं है। लेकिन प्रेम में आदमी डरता है कि कहीं खर्चा न हो जाए! छोटे-मोटे आदमियों की तो बात छोड़ दो, सिगमंड फ्रायड जैसा आदमी भी यह लिखता है कि बहुत लोगों को प्रेम मत करना, नहीं तो प्रेम की गहराई कम हो जाएगी। जैसे एक को प्रेम किया तो ठीक; फिर दो को किया तो आधा-आधा बंट गया; फिर तीन को किया तो एक बटा तीन मिला एक-एक को। ऐसे पचास-सौ आदमियों के प्रेम में पड़ गए कि बस फैल गया सब। बहुत पतला हो जाएगा, गहराई न रह जाएगी।
फ्रायड बिलकुल नासमझी की बात कह रहा है। फ्रायड यहूदी था। वह यहूदी कंजूसी उसके दिमाग में सवार है!
तुम जितना प्रेम करोगे, उतना ज्यादा तुम प्रेम पाओगे। उतना प्रेम करने की क्षमता बढ़ेगी। उतनी प्रेम की कुशलता बढ़ेगी। और जितना तुम प्रेम लुटाते रहोगे, उतना तुम पाओगे परमात्मा से नये-नये झरने फूट रहे हैं और प्रेम आता जाता है। दो, और तुम्हारे पास ज्यादा होगा। रोको, और तुम कृपण हो जाओगे और कंजूस हो जाओगे और सब मर जाएगा, सब सड़ जाएगा। और ध्यान रखना, जो चीज बड़ी आनंदपूर्ण है बांटने में, अगर रुक जाए, सड़ जाए, तो वही तुम्हारे लिए रोग का कारण बन जाती है। जिन लोगों ने प्रेम को रोक लिया है, उनका प्रेम ही रोग बन जाता है, कैंसर बन जाता है।
अब तुम आ गए हो यहां--भूल से आ गए। तुम गलत जगह आ गए। यहां मैं उलीचना सिखाता हूं। यहां मैं बांटना सिखाता हूं। यहां मैं खर्च करने का आनंद तुम्हें सिखाना चाहता हूं।
और तुम पूछते हो: ‘जब कुंडलिनी या सक्रिय-ध्यान में ऊर्जा जाग्रत होती है तो उसे नाच कर क्यों खत्म कर दिया जाता है?’
नाचने से ऊर्जा खत्म नहीं होती। नाचने से ऊर्जा निखरती है। नाचने से ऊर्जा बंटती है। और जितनी बंटती है, उतनी तुम्हारे भीतर पैदा होती है। जितना सृजनात्मक व्यक्ति होता है, उतना शक्तिशाली व्यक्ति होता है। तुमने अगर एक गीत गाया, तो तुम दूसरा गीत गाने में समर्थ हो जाओगे। और दूसरा गीत पहले से ज्यादा गहरा होगा। फिर तुम तीसरा गीत गाने में समर्थ हो जाओगे, वह उससे भी ज्यादा गहरा होगा। जैसे-जैसे गीत गाते जाओगे वैसे तुम पाओगे--नई तलें उघड़ने लगीं, नई गहराइयां प्रकट होने लगीं, तुम्हारे भीतर नये आयाम छूने लगे।
लेकिन तुम डर से पहला ही गीत रोके बैठे हो कि कहीं गाया और कहीं गान की ऊर्जा खत्म हो गई, और कुंडलिनी फिर सो गई, तो मारे गए। तो तुमको सिखाया गया है कि शक्ति जगा कर और बस पकड़े रहना भीतर उसको!
पकड़े रख सकते हो, मगर वहीं अटके रह जाओगे। यह पकड़ने का भाव भी तो यही कह रहा है कि मैं संसार से अलग, मैं अस्तित्व से अलग, मुझे अपनी फिकर करनी है। अलग हम हैं नहीं। त्वदीयं वस्तु गोविंद, तुभ्यमेव समर्पये। उसी से मिलता है, उसी को लौटा देते हैं।
अब तुम ऐसा समझो कि गंगा अपने पानी को रोक ले, कि ऐसे सागर में गिर जाऊंगी तो मारी गई! सब पानी खत्म हो जाएगा, ऐसे रोज-रोज गिरती रही सागर में। ये जो करोड़ों-करोड़ों गैलन पानी रोज सागर में डाल रही हूं, खत्म हो जाएगा तो बस सूख जाऊंगी बिलकुल। रोक ले अपने पानी को। तो क्या परिणाम होगा? सड़ जाएगी। सागर में देने से सड़ती नहीं। सागर में पानी उतर जाता है, फिर मेघ बन जाते हैं, फिर हिमालय पर बरस जाते हैं, फिर गंगोत्री में बह आते हैं, एक वर्तुल है। गंगा सागर को देती है, सागर गंगा को दे देता है।
यहां तुम जितना दोगे उतना पाओगे। यहां देना पाने की कला है। नाचो, गाओ, सृजनात्मक होओ।
इस पीड़ा से भारत बहुत ज्यादा परेशान रहा है। यहां के तथाकथित योगी भी दुकानदार की भाषा बोलते हैं। खर्चा न हो जाए! अपनी ऊर्जा सम्हाल कर रखो। नाचना तो दूर, तुम्हें सिखाया जाता है कि जब ध्यान करने बैठो तो शरीर हिले भी नहीं। क्योंकि जरा ही हिले और छलक गई ऊर्जा, फिर! हिलना ही मत, पत्थर की तरह बैठ जाना।
मैं तुमसे कहता हूं: नाचो। मैं कहता हूं: तुम बांटो। उंडेल दो सागर में ऊर्जा को। जिसने दी है, वह और देगा। इतनी घबड़ाहट क्या? इतना भी भरोसा नहीं है परमात्मा पर कि जिसने अब तक दिया है वह आगे भी देगा! तुम इतने डरे हुए आदमी मालूम होते हो कि तुम अगर सांस भीतर ले लोगे तो बाहर न निकालोगे। क्योंकि अगर बाहर निकाल दी, फिर न आई तो! फिर न लौटी, फिर क्या करेंगे? शक्ति खत्म हो गई। अपने हाथ से चली गई। ले लो सांस और सम्हाल कर बैठ जाओ भीतर! बस मर जाओगे उसी सांस के साथ!
तुम देते रहो; जिसने दी है, वह देगा। इतने दिन तक दिया, अब तक दिया, सब रूप में दिया, इतने घबड़ाते क्यों हो? यह आस्था की कमी है। यह श्रद्धा की कमी है। श्रद्धालु तो कहेगा कि ले लो मेरा जो काम लेना हो। जितना लेना हो!
और तुमने एक मजे की बात देखी? जितना सक्रिय आदमी होता है, उसके पास उतना ही समय होता है। और जितने काहिल और सुस्त होते हैं, उनके पास बिलकुल समय नहीं होता। सुस्त और आलसी से पूछो, वह कहता है, भई, समय नहीं है। और सक्रिय आदमी से पूछो, जो बहुत कामों में लगा है, वह हमेशा समय निकाल लेता है।
पश्चिम के एक बड़े विचारक श्वीत्जर ने लिखा है कि मेरे जीवन का अनुभव यह है कि जितने रचनात्मक, सृजनात्मक, सक्रिय लोग होते हैं, जितना ज्यादा करने वाले लोग होते हैं, उनके पास उतना ही ज्यादा समय होता है। और अगर कोई काम करवाना हो तो ऐसे आदमी से कहना जो बहुत काम कर रहा हो। वह समय निकाल लेगा। सुस्त और काहिल, जो बिस्तरों में पड़े रहते हैं, उनसे अगर तुम कहो कि भई, जरा कर देना यह काम। वे कहेंगे, भई, समय कहां है? वे अपनी शक्ति बचाए पड़े हैं बिस्तर में, अपनी रजाई ओढ़े--कि कहीं शक्ति खर्च न हो जाए! वहीं रजाई में मर जाओगे।
यह कंजूसी छोड़ो। इस कंजूसी से मेरी जरा भी सहमति नहीं है। मैं तुमसे कहता हूं: जीवन को उत्फुल्लता से जीओ। और यह अनेक अर्थों में समझ लेने की बात है। ब्रह्मचर्य आना चाहिए, थोपा नहीं जाना चाहिए। कंजूसी के कारण नहीं थोपा जाना चाहिए। ब्रह्मचर्य आना चाहिए प्रेम की विराटता से। तुम्हारा प्रेम इतना फैले, इतना फैले, इतना गहरा हो जाए कि उसमें से कामवासना समाप्त हो जाए--गहराई के कारण। तुम इतना प्रेम दो कि उसमें कामवासना शून्य हो जाए। इतने शुद्ध प्रेम की धाराएं बहने लगें कि उसमें कामवासना न रह जाए। तब एक ब्रह्मचर्य आता है। वही ब्रह्मचर्य है। वही ब्रह्मचर्य शब्द का ठीक-ठीक द्योतक है।
ब्रह्मचर्य का अर्थ होता है: ईश्वर जैसी चर्या।
ईश्वर कंजूस है? तुम देखते ईश्वर की कंजूसी कहीं भी इस प्रकृति में? एक बीज से करोड़ों बीज पैदा होते हैं। एक-एक वृक्ष में करोड़ों बीज पैदा होते हैं। उन करोड़ों बीज में से दस-पांच बीज शायद वृक्ष बन पाएंगे। अब जरा सोचो तुम, परमात्मा कितना फिजूलखर्च है! दस-पांच वृक्ष बन पाएंगे और करोड़ों बीज पैदा कर रहे हो? वैज्ञानिक कहते हैं, एक आदमी, सिर्फ एक आदमी, एक पुरुष के वीर्य में इतने जीवाणु होते हैं कि वह सारी पृथ्वी को भर सकता है आबादी से। एक पुरुष में। एक संभोग में कम से कम एक करोड़ जीवाणु तुम्हारे भीतर से विदा हो जाते हैं। बच्चे तो तुम्हारे कितने होंगे? इंदिरा का वक्त होता तो थोड़े कम, अभी मोरारजी का है, थोड़े ज्यादा हो सकते हैं, बाकी कितने? दर्जन, दो दर्जन, कितने? इस समय पृथ्वी की जितनी आबादी है, उतने जीवाणु एक पुरुष में होते हैं। उतने बच्चे पैदा हो सकते हैं। और फिजूलखर्ची देखोगे भगवान की? दस-पांच बच्चों के लिए इतना, इतने जीवाणु पैदा करना!
यह मामला क्या है?
भगवान कंजूस नहीं है। फिजूलखर्च है। आनंद है उसका, उल्लास है उसका। हिसाब-किताब से नहीं चलता, मस्ती से चलता है। अब ये सज्जन अगर कुंडलिनी जग रही होगी तो ये बड़े घबड़ाते होंगे कि अब थोड़ी सी ऊर्जा आ रही है, अब जल्दी से मार कर कब्जा इस पर बैठ जाओ; कहीं खर्चा न हो जाए। बस तुम्हारे कब्जा मार कर बैठने में ही मर जाएगी। होने दो प्रकट। यह जो उठ रहा है फन तुम्हारी कुंडलिनी का, इसे फैलने दो। इसे बंटने दो। यह जाएगी कहां? कहीं कुछ जाता नहीं है, सब यहीं है, क्योंकि हम सब एक हैं। हम सब संयुक्त हैं। कुछ खोता नहीं है। कुछ मरता नहीं है। सब शाश्वत रूप से यहीं है। लेकिन जब तुम देने में कुशल होते हो, जब तुम्हारे भीतर बहाव होता है, तब तुम्हारे भीतर जीवन अपने परम रूप में प्रकट होता है। तुम्हारे भीतर ब्रह्मचर्य फलेगा। लेकिन ब्रह्मचर्य कंजूसी से नहीं फलेगा। ब्रह्मचर्य दान से फलेगा, प्रेम से फलेगा। और तुम्हारे भीतर विराट ऊर्जा आएगी। लेकिन वह तभी आएगी जब तुम उलीचते रहोगे, उलीचते रहोगे, उलीचते रहोगे। कबीर ने कहा है: दोनों हाथ उलीचिए, यही सज्जन को काम। उलीचते रहो। रुकना ही मत उलीचने से।
तुम मेरा प्रयोग करके देख लो! कंजूस की तरह तुमने रह कर जी लिया है, अब तुम उलीच कर भी देख लो। और तुम चकित हो जाओगे, इतना आता है! मगर देने वाले के पास ही आता है। धन्य हैं वे, जो बांटने में शर्तें नहीं लगाते। जो दिए चले जाते हैं।

चौथा प्रश्न:
भगवान, आप मोरारजी देसाई की आलोचना क्यों करते हैं? क्या राजनीति अध्यात्म के विपरीत है?
कौन मोरारजी देसाई? कभी नाम सुना नहीं! आपका मतलब मगरूरजी भाई देसाई से तो नहीं है? या एक नाम और मैंने सुना है--मॉरलजी भाई देसाई। एम ओ आर ए एल, मॉरल।
आलोचना मैंने उनकी कभी की नहीं, आलोचना करने योग्य उनमें कुछ है नहीं। आलोचना करने योग्य कुछ होना भी तो चाहिए। राजनीतिज्ञों में क्या हो सकता है आलोचना करने योग्य? उनके वक्तव्यों का मूल्य क्या है? दो कौड़ी मूल्य नहीं है। आलोचना मैंने उनकी कभी नहीं की। हां, कभी-कभी मजाक करता हूं। उससे ज्यादा मूल्य नहीं मानता। कभी-कभी तुम्हें हंसाने को! तो जब भी मैं उनकी मजाक करूं, भूल कर भी आलोचना मत समझना। और जब भी उनकी मजाक तुम सुनो, या पढ़ो, कोष्ठक में जोड़ लेना अपनी तरफ से--होली है, बुरा न मानो!
लेकिन तुम्हें आलोचना लगती होगी। क्योंकि तुम आदी नहीं हो। तुम तो जिनके पास राजसत्ता है, उनकी प्रशंसा सुनने के ही आदी हो। प्रशंसा करने के आदी हो और प्रशंसा सुनने के आदी हो। तुम राजसत्ता से ऐसे मोहित हो गए हो कि जिन व्यक्तियों का कोई भी मूल्य नहीं है, वे पद पर बैठते से ही एकदम महामूल्य के हो जाते हैं। और मजा यह है कि पद से उतरते ही फिर निर्मूल्य हो जाते हैं। फिर कोई नहीं पूछता उन्हें। पद पर होते हैं तो एकदम आकाश में उठ जाते हैं। और पद गया कि फिर कोई नहीं पूछता उन्हें। फूलमालाएं तो दूर, लोग जूते इत्यादि भी नहीं फेंकते। बिलकुल ही भुला देते हैं।
तुम्हें आदत नहीं है। शायद इसीलिए मैं बार-बार मजाक में उनके नाम ले लेता हूं जो सत्ता में हैं। मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं कि सत्ता एक मखौल है, एक झूठ है, जिससे आदमीयत मुक्त हो जाए तो अच्छा। राजनेताओं से आदमी मुक्त हो जाए तो अच्छा। राजनीति का इतना प्रभाव नहीं होना चाहिए। ठीक है, उसकी उपयोगिता है। मगर उसकी उपयोगिता इतनी नहीं है कि सारे अखबार उसी से भरे रहें। और सारे देश में उसी की चर्चा चलती रहे। जिंदगी में और भी काम की बातें हैं। जिंदगी में और भी बहुमूल्य कुछ है। राजनीति यानी महत्वाकांक्षा, पदलोलुपता।
लेकिन तुम्हारे मन पदलोलुप हैं। इसलिए जो पद पर पहुंच जाते हैं, उनके प्रति तुम्हारे मन में बड़ी प्रशंसा होती है। ध्यान रखना, क्यों होती है? तुम भी पदलोलुप हो। तुम भी चाहते थे कि पहुंच जाते, लेकिन नहीं पहुंच पाए, दूसरा पहुंच गया, तुम सम्मान में सिर झुकाते हो। तुम कहते हो, हम तो हार गए, लेकिन आप पहुंच गए। कोशिश हम अभी जारी रखेंगे, कि किसी दिन हम भी पहुंच जाएं। तुम खयाल रखना, तुम उसी का सम्मान करते हो जो तुम होना चाहते हो। तुम्हारे सम्मान में कसौटी है।
वे दिन अदभुत दिन रहे होंगे, जब लोगों ने बुद्ध का सम्मान किया और राजाओं की फिकर न की।
बुद्ध एक गांव में आए। उस गांव के वजीर ने अपने राजा से कहा कि बुद्ध का आगमन हो रहा है--वजीर बूढ़ा था, सत्तर साल की उम्र का था; राजा अभी जवान था, अपनी अकड़ में था, अभी-अभी उसने कुछ जीत भी की थी और राज्य को बढ़ा लिया था--वजीर ने कहा कि बुद्ध आ रहे हैं, आप स्वागत को चलें। उस राजा ने कहा, मैं क्यों जाऊं स्वागत को? आखिर बुद्ध एक भिखारी ही हैं न! एक संन्यासी ही हैं न! आना होगा मिलने तो मुझसे मिलने आ जाएंगे, मैं क्यों जाऊं मिलने को? उस वजीर ने यह सुना, इस्तीफा लिखने लगा। राजा ने पूछा, क्या लिख रहे हो? उसने कहा, यह मेरा इस्तीफा। अब तुम्हारे पास बैठना उचित नहीं। अब मैं इस महल में नहीं रुक सकता। क्यों? राजा ने पूछा। उस वजीर ने कहा, जिस राजा को यह खयाल आ जाए कि वह बुद्धों को भिखारी कह सके, उसकी छाया में भी बैठना पाप है, गुनाह है। क्षमा करें मुझे। मुझे मुक्ति चाहिए।
राजा को बोध आया, बात तो ठीक थी। उसने पूछा, लेकिन तुम मुझे समझाओ तो।
उस वजीर ने कहा, समझाना क्या है? बुद्ध भी राजा थे, तुमसे बड़ी उनकी हैसियत थी, तुमसे बड़ा उनका राज्य था, और चाहते बढ़ाना तो बहुत बढ़ा सकते थे। उस सबको छोड़ दिया, लात मार दी। तुम अभी पदलोलुप हो, तुम अभी धन के पीछे पागल हो। यह आदमी उस पागलपन के बाहर हो गया। यह तुमसे बहुत आगे है। इसका सम्मान तुम्हें करना ही चाहिए।
ऐसे दिन थे! राजा फकीरों का सम्मान करते थे।
मोहम्मद ने तो कुरान में कहा है: कोई फकीर कभी किसी राजा के घर न जाए। जब भी आना हो, राजा फकीर के घर आए।
तब ऋषियों का एक सम्मान था। क्योंकि लोग ऋषि ही होना चाहते थे। ध्यान रखना, तुम जो होना चाहते हो, उसी का सम्मान तुम्हारे मन में होता है। तब संन्यासियों का सम्मान था। अब नेताओं का और अभिनेताओं का सम्मान है। या तो नेता आए तो भीड़ इकट्ठी होती है, या अभिनेता आए तो भीड़ इकट्ठी होती है। बुद्ध आए तो तुम और अगर उस रास्ते जाते होते हो तो दूसरे रास्ते निकल जाते हो। कौन झंझट में पड़े? वहां क्या जाना? अभी तो जिंदगी बहुत पड़ी है। अभी प्रार्थना नहीं करनी है, अभी ध्यान नहीं करना है। अभी ये और ऊंची बातें हमें सुननी नहीं हैं। अभी तो नीची बातों का पूरा भोग कर लेना है। अभी तुम बुद्ध के पास नहीं जाते। अभी तुम नेता, राजनेता के पास जाते हो।
यह मनुष्य की बड़ी विकृत स्थिति हुई। क्यों जाते हो तुम अभिनेता के पास? तुम फर्क देख लेना। अभिनेता के पास तुम्हें युवक और युवतियों की भीड़ मिलेगी। क्यों? क्योंकि वे सब अभिनेता होना चाहते हैं। और राजनेताओं के पास तुम्हें उन लोगों की भीड़ मिलेगी जो राजनेता होना चाहते हैं। छोटे-मोटे सही! सरपंच हो जाएं, कि मेयर बन जाएं, कि मिनिस्टर हो जाएं, कि कुछ भी हो जाएं। चार आदमियों की गर्दन पर हाथ आ जाए अपना। कब्जे में आ जाएं।
किसी ने आज मुझे अखबार की एक कटिंग भेज दी है, कि गणेशपुरी के मुक्तानंद मोरारजी देसाई का दर्शन करने पहुंचे।
अब मुक्तानंद को मोरारजी देसाई का दर्शन करने जाने की क्या जरूरत है? और फिर जो बातचीत हुई, वह और भी बड़ी महत्वपूर्ण है।
मुक्तानंद ने कहा कि यह देश साधुओं का देश। साधुओं के कारण ही यहां की सब उन्नति होती रही है। और हम बड़े सौभाग्यशाली हैं कि एक साधु ही आपके रूप में हमारा प्रधानमंत्री है।
इस तरह के खुशामदानंद इस देश को विकृत करते रहे हैं।
लेकिन तुम भी इस तरह की बातें सुनने के आदी हो गए हो, इसलिए जब मैं कभी किसी राजनेता की मजाक में कुछ कह देता हूं, तुम्हें भी बड़ी हैरानी होती है! तुम सोचते हो आलोचना कर रहा हूं। आलोचना नहीं कर रहा हूं, सिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि ये बातें मजाक से ज्यादा मूल्य नहीं रखतीं। उपेक्षा चाहिए। जीवन किसी और बड़े सत्य की खोज के लिए है।
मगर यह चलता है। तुम्हारे साधु-संन्यासी सब दिल्ली की तरफ जाते हैं, राजनेताओं से मिलने पहुंचते हैं। राजनेता उनसे मिलने नहीं आते। राजनेताओं का दर्शन करने जाते हैं। ये किस तरह के साधु-संन्यासी हैं? क्या प्रयोजन तुम्हें? लेकिन साधु-संन्यासी नहीं हैं, साधु-संन्यासी के रूप में छिपे हुए राजनीतिज्ञ हैं। इसलिए तो राजनीतिज्ञ को भी साधु कह पाते हैं। बात बिलकुल ठीक कही मुक्तानंद ने। मुक्तानंद में कहीं राजनीति होगी। उसी राजनीति के कारण गए होंगे। नहीं तो जाने की कोई जरूरत न थी। मुक्तानंद ऊपर से साधु हैं, भीतर कहीं राजनीति पड़ी है। कहीं कुछ लाभ की दृष्टि होगी, खुशामद से कुछ पा लेने का इरादा होगा। और राजनेता को साधु कहना! तो फिर असाधु कौन होगा? फिर तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। फिर असाधु कोई हो ही नहीं सकता। राजनेता तो आखिरी दर्जे का असाधु है।
एक सज्जन मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि मैं शराब पीता हूं, मांसाहार भी करता हूं, और कभी दीवाली इत्यादि को जुआ भी खेल लेता हूं। और आप कहते हैं कि आप सबमें परमात्मा देखते हैं। क्या आप मुझमें भी परमात्मा देखते हैं? मैंने कहा, मैं मोरारजी देसाई तक में परमात्मा देखता हूं! तुम्हारी तो हैसियत ही क्या है? तुम तो हो किस गिनती में!
राजनेता तो आखिरी है। उसके कारण तो मनुष्य-जाति बड़े कष्टों में पड़ी है। सारे युद्ध, सारी हिंसाएं, सारी जालसाजियां, सारी चालबाजियां। पद का आकांक्षी और साधु? लेकिन खुशामद करनी है।
मैं किसी की स्तुति नहीं कर रहा हूं। आलोचना भी नहीं कर रहा हूं। मैं तो जैसा है वैसा कह रहा हूं। मैं सिर्फ इसलिए यह कभी-कभी मजाक कर देता हूं ताकि तुम्हें खयाल रहे कि राजनीति का मूल्य इससे ज्यादा नहीं है। लेकिन आलोचना करने योग्य मैं कुछ नहीं पाता हूं उनमें। साधारण मनोदशा है। वक्तव्य साधारण हैं। होंगे ही साधारण। पदलोलुप असाधारण कभी होता ही नहीं। पदलोलुपता साधारण रोग है। इस दुनिया में हर आदमी पद पर होना चाहता है। यह बड़ा साधारण रोग है। इसमें कुछ विशेषता नहीं है। विशेषता तो तब है जब कोई आदमी पद पर नहीं होना चाहता। तब कुछ असाधारणता घटती है।
और राजनीति, अध्यात्म बिलकुल विपरीत हैं। राजनीति का अर्थ है: दूसरों पर कैसे मेरा कब्जा हो जाए? मैं दूसरों का मालिक कैसे हो जाऊं? अध्यात्म का अर्थ है: मैं अपना मालिक कैसे हो जाऊं? ये बड़ी विपरीत बातें हैं। इसलिए तो हम संन्यासी को स्वामी कहते हैं। स्वामी का मतलब, अपना मालिक। स्वयं का मालिक। ये दो अलग यात्राएं हैं। राजनीति बहिर्यात्रा है--दूसरों का मालिक कैसे हो जाऊं? कितने बड़े समूह का मालिक हो जाऊं? अध्यात्म का अर्थ होता है: अपने जीवन में मेरी मालकियत कैसे हो जाए? मैं मन का गुलाम न रह जाऊं। मैं मन का मालिक हो जाऊं। मेरे भीतर अंतर्साम्राज्य पैदा हो।
ये बड़ी भिन्न बातें हो गईं।
राजनीति ले जाएगी भीड़ में, अध्यात्म ले जाएगा एकांत में। राजनीति उलझाएगी दूसरों से, अध्यात्म सुलझाएगा दूसरों से। अध्यात्म है आत्म-साक्षात्कार। राजनीति में तो सब उपद्रव करने ही पड़ेंगे। राजनीतिज्ञ तभी तक साधु मालूम पड़ते हैं जब तक सत्ता में होते हैं। सत्ता गई कि उनकी सब साधुता खुल जाती है। सत्ता चाहिए तो साधुता बनी रहती है, क्योंकि सब अखबार उनके हाथ में, ताकत उनके हाथ में, पुलिस उनके हाथ में, व्यवस्था उनके हाथ में, कौन पता लगाए कि वे क्या कर रहे हैं?
अब जुल्फिकार भुट्टो जब तक सत्ता में, तब तक साधु। अब पाया गया है कि वे हत्यारे हैं। मगर मजा बड़ा जटिल है। अब कोई नहीं कह सकता कि वे सच में हत्यारे हैं या नहीं। क्योंकि अब जो सत्ता में हैं, वे चाहते हैं कि उनको हत्यारा सिद्ध करें। आज जो सत्ता में हैं पाकिस्तान में, कल अगर वे सत्ता से नीचे उतर गए, तो हो सकता है कोई अदालत फैसला दे कि उन्होंने भुट्टो की हत्या करवा दी।
अभी इंदिरा मुजरिम मालूम पड़ती है, क्योंकि सत्ता नहीं है। सत्ता में थी तो मुजरिम मालूम नहीं पड़ती थी। लेकिन कोई नहीं कह सकता कि जो उसे मुजरिम सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं, वे सत्ता में से उतर जाने के बाद सही साबित होंगे। वे खुद भी मुजरिम पाए जा सकते हैं। यहां सब चचेरे भाई-बहन हैं। मोरारजी भाई, कि इंदिरा बहन! सब चचेरे भाई-बहन हैं। कुछ भेद नहीं है। राजनीतिज्ञ भिन्न हो ही नहीं सकते। इसलिए तो तुम देखते हो, इतनी पार्टी अदल-बदल होती रहती है। क्योंकि राजनीतिज्ञ भिन्न होते ही नहीं। इस पार्टी या उस पार्टी में फर्क कुछ नहीं पड़ता; राजनीतिज्ञ को एक ही आकांक्षा है--पद पर कैसे हो? पार्टी कौन हो, इससे क्या लेना? झंडा कौन हो, इससे क्या लेना? डंडा अपना होना चाहिए। झंडा कोई भी लगा लेंगे। बस डंडा अपने हाथ में होना चाहिए।
तो राजनीतिज्ञ तो अवसरवादी होगा ही। उसको तो एक ही जोड़-तोड़ बिठानी है। और जोड़-तोड़ में वह अकेला नहीं है, बड़ी प्रतिस्पर्धा है। इसलिए बेईमानी भी होगी, धोखाधड़ी भी होगी, लोगों के पैर भी काटे जाएंगे, लोगों को गिराया भी जाएगा, लोगों को हटाया भी जाएगा, यह सब होगा।
और इस सबके लिए तुम जिम्मेवार हो, ध्यान रखना! क्योंकि तुम इस तरह के लोगों को मूल्य देते हो। इस मूल्य के कारण ये लोग पागल की तरह उस तरफ दौड़ते हैं। अब तुम यह मत सोचना कि अगर कोई आदमी प्रधानमंत्री होकर दूसरों को परेशान कर डालता है, रिश्वत ले लेता है, लोगों की टांगें तोड़ देता है, लोगों की गर्दनें गिरवा देता है, लोगों को जेलों में डाल देता है, तो वह जिम्मेवार है। तुम भी जिम्मेवार हो। तुम्हीं असली जिम्मेवार हो। तुम इतना मूल्य देते हो पद को कि एक आदमी को लगता है कि इस पद को पाने के लिए कुछ भी करना योग्य है।
पद को मूल्य देना कम करो! ताकि लोगों को ऐसा साफ होने लगे कि इस सड़े पद के लिए, जिस पर लोग सिर्फ हंसते हैं, मजाक करते हैं, इसके लिए इतना पाप करना उचित भी है?
मेरी बात समझ में आ रही है तुम्हें?
राजनीति से मूल्य को खींच लो। राजनीति को मूल्यहीन कर दो। मूल्यहीन हो जाए राजनीति, तो इतना उपद्रव नहीं होगा। कौन फिकर करेगा फिर? अगर रोज अखबार में प्रधानमंत्री की तस्वीर न छपती हो और रोज व्याख्यान न छपता हो और सारा अखबार उन्हीं से न भरा रहता हो, तो आदमी सोचेगा कि सार क्या है? इतने से पद के लिए इतनी मेहनत, इतनी परेशानी, और लोग कोई मूल्य ही नहीं देते! रास्ते से निकल जाते हैं और लोग नमस्कार भी नहीं करते। तो सार क्या है?
राजनीति को अति मूल्य दोगे तो फिर सभी चीज सार्थक हो जाती है--एकाध की हत्या भी करनी पड़े तो चलता है, करने योग्य मालूम होता है। और फिर पद पर पहुंच गए तो सब छिप जाएगा।
इसलिए जो पद पर पहुंच जाता है, फिर पद नहीं छोड़ना चाहता। क्योंकि छोड़ते से ही फिर सारा पाखंड खुलेगा, सारी धोखाधड़ी खुलेगी। पद जब तक है तब तक सुरक्षा है। एक दफा जो पद पर पहुंच गया वह फिर ऐसा जोर से पकड़ता है कि वह चाहता है पद पर रहते हुए ही मर जाऊं, तो ही बचाव है। नहीं तो पद पर सब उपद्रव वही के वही होते हैं। वही का वही खेल, जरा भी फर्क नहीं पड़ता। इंदिरा चली जाती है, उनके साथ ही संजय गांधी चले जाते हैं। मोरारजी आ गए, उनके पीछे ही कांति देसाई आ गए। कुछ फर्क नहीं पड़ता। सब वही खेल है। सिक्के बदल जाते हैं, रंग बदल जाता है, मगर भीतर की असलियत वही की वही। वही जाल चलता रहता है।
मैं आलोचना करने योग्य नहीं मानता राजनीतिज्ञों को, सिर्फ मजाक करने योग्य मानता हूं। तो जब कभी मुझे तुम्हें हंसाना होता है, तो मैं उनका नाम ले देता हूं। जब मैं देखता हूं तुम सोने लगे, या नींद आने लगी, या देखता हूं कोई जम्हाई ले रहा है, तब मैं सोचता हूं कि अब सिवाय मोरारजी देसाई के इन सज्जन की जम्हाई नहीं रुकने वाली! तो उनके खुले मुंह में मोरारजी देसाई को डाल देता हूं। उससे वे चौंक कर बैठ जाते हैं। सोचने लगते हैं--मोरारजी देसाई की बात आई, कुछ मतलब की बात आई होगी। जैसे ही वे जाग जाते हैं, मैं मोरारजी को भूल जाता हूं, फिर अपनी बात पर आ जाता हूं।
इससे ज्यादा मूल्य नहीं है।

पांचवां प्रश्न:
भगवान, पहली ही बार आपके सान्निध्य में, आजोल शिविर में ध्यान करते ही चेतना में ऐसी चिनगारी प्रकट हुई कि मेरे पूर्व-व्यक्तित्व का विस्फोट हो गया। मेरी चेतना में कई महीनों तक भूकंप आते रहे और पागल सी स्थिति में मैं कांपता रहा। उन दिनों मैं दो रोज तक अपनी मातृभाषा गुजराती भी न बोल सका, और बोलने में हिंदी या अंग्रेजी आती रही। पेड़ को स्पर्श करते ही विद्युत का झटका लगता। आंख बंद होने पर भी परवश होकर शरीर आपके चरणों में आ गिरता। सूरज से भी शक्ति-संचार का अनुभव होता। बिना सोचे हाथ भारी हो जाते और प्रभु-चिकित्सा अपने आप होने लगती। बताने की कृपा करें कि यह सब क्या हो रहा था? अब मैं ज्यादा शांत और आनंदित हूं। और आपके साथ होने पर अपने को कृतकृत्य अनुभव करता हूं।
पूछा है स्वामी कृष्ण सरस्वती ने।
मुझे भलीभांति याद है आजोल में उन्हें जो हुआ था। कोई महत्वपूर्ण घटना घटी थी। उनका अहंकार विदा हो गया था कुछ दिनों के लिए। विराट ने उन्हें पूरी तरह आपूरित कर लिया था। समझ के बाहर स्वभावतः ऐसी घटना होती है। पूछना उचित है कि क्या हुआ था?
झरोखा खुला था, एक द्वार खुला था। और उस द्वार के खुलने के बाद फिर कृष्ण सरस्वती दुबारा वही व्यक्ति नहीं हो सके जो पहले थे। वह व्यक्तित्व गया। एक नये व्यक्ति का आविर्भाव हुआ। मगर अभी यात्रा पूरी नहीं हो गई है, ऐसा और बहुत बार होगा। कम से कम ऐसा सात बार होगा।
मनुष्य के भीतर सात केंद्र हैं। और जब भी एक केंद्र से ऊर्जा दूसरे केंद्र पर जाती है तो ऐसा होता है। फिर दूसरे से तीसरे पर जाती है तो फिर ऐसा होता है। हर केंद्र पर यह विस्फोट घटित होगा। घबड़ाना मत। और हर विस्फोट के बाद शांति बहुत गहरी हो जाएगी। फिर और विस्फोट होगा और और भी शांति गहरी हो जाएगी। और अंतिम विस्फोट के बाद शांति ही रह जाती है; कोई व्यक्ति भीतर शांत है, ऐसा नहीं बचता, सिर्फ शांति बचती है। मुक्त कोई नहीं बचता, मुक्ति बचती है। कोई व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध हो गया है, ऐसा नहीं, बस ज्ञान ही शेष रह जाता है। रोशनी रह जाती है। शुद्ध प्रकाश रह जाता है।
शुभ घटना घटी थी। और-और घटेगी। लेकिन घटाने की अपनी तरफ से चेष्टा मत करना, अन्यथा नकली होगी। प्रतीक्षा करना धैर्यपूर्वक। ध्यान जारी रखो और धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करो। और जब भी ऐसा घटे तो रुकावट मत डालना, उसे घट जाने देना। दो-चार दिन में फिर सब शांत हो जाएगा। और हर घटना तुम्हारे जीवन को नई रोशनी, नया अर्थ, नई संजीवनी दे जाएगी।

और दूसरा प्रश्न भी कृष्ण सरस्वती का है।
बंबई में आपके साथ रहने पर आपसे इतना लगाव हो गया था कि आप कहीं भी दूर भेजते थे तो बस इतना दुख होता था कि बहाना बना कर आपके सान्निध्य में आ जाने की इच्छा होती थी। जब नैरोबी (अफ्रीका) भेजा तो निरुपाय होकर चेतना ने आपसे दूर रहना स्वीकार कर लिया। फिर जब अमरीका भेज दिया, तब वहां रहने पर आपसे लगाव कम हो गया, ऐसा अनुभव हुआ, और मैं इतने दिनों तक आपसे दूर रह सका। मुझे भय लग रहा है कि क्या आपके प्रति मेरा प्रेम भी साथ में कम नहीं होता जा रहा है? प्रभु, कृपया बताइए क्या मैं सही दिशा में जा रहा हूं? मेरा आपसे और आश्रम से दूर रहने में राज क्या है? क्योंकि मैं ध्यान तो कर लेता हूं, किंतु आपसे दूर रहने से ऐसा भय है कि मैं सत्संग से वंचित हो जाता हूं।
मैं कृष्ण सरस्वती को दूर-दूर भेजता रहा हूं और वे भाग-भाग कर वापस भी आते रहे हैं। नैरोबी भेजा था तो कुछ ज्यादा देर रुके। फिर अमरीका भेजा तो कोई दो साल रुके।
जान कर ही ऐसा कर रहा हूं। यह तुम्हारे हित में है, इसलिए ऐसा कर रहा हूं। मेरे पास रहोगे तो वह जो विस्फोट घटा है, वह इतनी शीघ्रता से घटेगा, इतनी बार-बार घटेगा कि विक्षिप्त हो जाने का डर है। उसके लिए समय चाहिए। अंतराल से घटना चाहिए।
भटक नहीं रहे हो, किसी गलत दिशा में नहीं जा रहे हो। मैं भेज रहा हूं, इसलिए जा रहे हो। और जब मैं पाऊंगा कि अब आवश्यकता नहीं है भेजने की, तब यहां रोक लूंगा। अभी वैसी घड़ी नहीं आई है। और तुम सौभाग्यशाली हो, क्योंकि ऐसे बहुत कम लोग हैं जिनको इतनी तीव्रता से घटना घट सकती है कि मुझे खयाल रहे कि कहीं वे पागल न हो जाएं! तुम जितना समा सकते हो, जितना पचा सकते हो, उतना ही घटना उचित है। तुम अगर जरूरत से ज्यादा खुल जाओ, तो टूट जाओगे, बिखर जाओगे। पागलपन भी हो सकता है, मृत्यु भी हो सकती है।
इसलिए जान कर तुम्हें थोड़े दिन यहां रहने देता हूं; फिर वापस भेज देता हूं। अब फिर तुम्हें अमरीका वापस भेजता हूं। फिर अमरीका चले जाओ। मेरे काम में लगे रहो। मुझे खयाल है। ध्यान भर न छूटे, सत्संग की जब जरूरत होगी, तुम बुला लिए जाओगे। जितनी जरूरत होगी, उतना तुम्हें मिल जाएगा। जिसकी जितनी जरूरत है, उतना मैं दूंगा ही। जरूरत से ज्यादा कभी कोई ले ले तो नुकसान हो सकता है।
और कभी-कभी आध्यात्मिक अनुभव का लोभ ऐसा पकड़ता है कि जरूरत से ज्यादा ले लेने का मन हो जाता है। मुझे खयाल रखना पड़ेगा कि तुम्हें जरूरत से ज्यादा न मिल जाए। नहीं तो अपच होगा।
और इसका भय मत करो; लगाव कम हो रहा है, यह अच्छा है। लगाव कम हो, आसक्ति कम हो, तो ही प्रेम शुद्ध होता है। प्रेम के मार्ग में लगाव ही बाधा है, आसक्ति ही बाधा है। आसक्ति और प्रेम विपरीत हैं। इसलिए आसक्ति के कम होने को तुम प्रेम का कम होना मत समझना।
आमतौर से ऐसा ही हम समझते हैं कि आसक्ति प्रेम है। तो आसक्ति कम हो रही है तो कहीं प्रेम तो कम नहीं हो रहा है? चिंता समझ में आने जैसी है। पर भय मत करना। प्रेम बात ही और है। आसक्ति के परिपूर्ण चले जाने पर उदय होता है प्रेम का। आसक्ति अशुद्धि है प्रेम में। जब आसक्ति बिलकुल नहीं रह जाती, तब प्रेम परिपूर्ण शुद्ध होता है, तब प्रेम प्रार्थना हो जाता है।
अच्छा है, आसक्ति कम होती चली जाए। आसक्ति कम होनी ही चाहिए।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, आपको सुन-सुन कर भक्ति का यह रोग लगता है मुझे भी लग गया है। अब धैर्य नहीं रखा जाता है। आकांक्षा होती है बस सब अभी हो जाए।
रोग तो अच्छा हुआ लग गया। लगने दो। सौभाग्य है यह। इस रोग को महारोग बनने दो। यह रोग इतना बड़ा हो कि इसमें ही तुम लीन हो जाओ। इस रोग के ही द्वार से परमात्मा तुममें प्रवेश करेगा।
तुम्हारा मन परमात्मा में अटक रहा है, उलझ रहा है, यह अच्छी बात है। पीड़ा भी बहुत होगी। संताप भी बहुत होगा। क्योंकि जिनको परमात्मा का कुछ पता नहीं है, उन्हें गहरी पीड़ा का भी पता नहीं है। उनके सुख भी उथले हैं, उनके दुख भी उथले हैं। अब जिसको धन मिलने से सुख मिलता हो, उसका सुख भी उथला है; उसको धन न मिलने से दुख मिलेगा, उसका दुख भी उथला है। इस संसार के सुख-दुख, दोनों ही उथले हैं। परमात्मा के साथ सुख भी गहरा होता है, दुख भी गहरा होता है। विरह भी गहरा होता है, तभी तो मिलन गहरा हो पाता है। अच्छा हुआ। तुम अब अटके हो, इससे पीड़ा होगी।
झुरमुट में अटका चांद, कहीं अटका मन मेरा भी।
दिन डूबा, दिन के साथ
जगत का कोलाहल डूबा,
कुछ मतलब रखता है
अब तो मेरा भी मंसूबा,
तारे मेरे मन की गलियों
में दीप जलाते हैं।
मेरे भावों में रंग भरता गोधूलि अंधेरा भी।
झुरमुट में अटका चांद, कहीं अटका मन मेरा भी।
जैसे झुरमुट में चांद अटक जाता है, ऐसे ही मन आकाश में अटकने लगता है। तब अड़चन होती है। तब बेचैनी होती है। क्योंकि कैसे पहुंचें उस दूर परमात्मा तक जिसमें मन उलझ गया है? कैसे पहुंचें उस चांद तक जो झुरमुट में अटका मालूम होता है? मालूम तो होता है पास है, पर बहुत दूर है। और दूरी खलती है। तब स्वाभाविक आकांक्षा उठनी शुरू होती है--जल्दी हो जाए! अभी हो जाए! अब देर न करो! अब देर न लगाओ!
मगर जब जो होना है तभी होता है। और जब जो होना चाहिए तभी होना चाहिए। कच्चा फल गिर जाए तो सड़ जाएगा। पकना चाहिए। कच्ची कली तोड़ लो, फूल न बन पाएगी। फूल बनना चाहिए। हर चीज की प्रौढ़ता है। हर चीज के पकने का एक क्षण है। और हर चीज का एक मौसम है। इस प्रतीक्षा को आनंदपूर्ण बनाओ। आकांक्षा छोड़ो, प्रतीक्षा करो।
प्रार्थना का रोग लग गया, अच्छा हुआ। अब एक रोग और लगाओ, प्रतीक्षा का। क्योंकि प्रार्थना अगर अकेली हो और प्रतीक्षा न हो, धैर्य न हो, तो फिर बड़ी बेचैनी हो जाती है। उस बेचैनी को सम्हालना असंभव हो जाता है। प्रार्थना के साथ-साथ प्रतीक्षा की कला भी सीखो। वह रोग भी लग जाएगा, यहां आते रहो।
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय, तुम आते तब क्या होता!

मौन रात इस भांति कि जैसे
कोई गत वीणा पर बज कर
अभी-अभी सोई-खोई-सी
सपनों में तारों पर सिर धर
और दिशाओं से प्रतिध्वनियां
जाग्रत सुधियों-सी आती हैं,
कान तुम्हारी तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता!
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय, तुम आते तब क्या होता!

बैठ कल्पना करता हूं पग-
चाप तुम्हारी मग से आती,
रग-रग से चेतनता खुल कर
आंसू के कण-सी झर जाती
नमक डली-सा गल अपनापन
सागर में घुल-मिल-सा जाता,
अपनी बांहों में भर कर, प्रिय, कंठ लगाते तब क्या होता!
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय, तुम आते तब क्या होता!
प्रतीक्षा को मधुर बनाओ। प्रतीक्षा का माधुर्य समझो। इंतजार का मजा है। परमात्मा की याद है। परमात्मा की प्रतीक्षा है। पुकारो, रोओ, राह देखो। राह भी मधुर है। विरह भी प्यारा है। इस भाव को संजोओ। इस भाव को जगाओ। इस भाव में रचो-पचो। और जितनी गहरी प्रतीक्षा होगी, उतनी जल्दी घटना घट जाती है। और जितना अधैर्य होगा, उतनी देर लग जाती है।
इस सूत्र को स्मरण रखना। जितना अधैर्य, उतनी देर। जितना धैर्य, उतनी जल्दी। अगर अनंत प्रतीक्षा हो कि अनंतकाल में भी आओगे तो मैं राह देखूंगा, तो इसी क्षण भी आना हो सकता है। मगर अनंत धैर्य हृदय में जब खिलता है तो फिर परमात्मा को और देर करने का कोई कारण नहीं रह जाता। अनंत धैर्य खबर है कि पक गए तुम।
कहते हो: ‘आपको सुन-सुन कर भक्ति का यह रोग लग गया, अब धैर्य नहीं रखा जाता। आकांक्षा होती है बस सब अभी हो जाए।’
मैं समझता हूं, ऐसा ही होता है। लेकिन समझ को और निखारो। ऐसा होना स्वाभाविक तो है, लेकिन यही स्वाभाविक बाधा बन जाएगा।
फिर क्या होता है आदमी जब बहुत अधीर हो जाता है?
तो दो ही बातें हैं। या तो एक सीमा आ जाती है, अधैर्य को सहना मुश्किल हो जाता है, वह सोचता है: छोड़ो, यह सब होता-जाता नहीं; न कोई परमात्मा है, न कोई प्रार्थना है, मैं भी कहां की झंझट में पड़ गया! या तो यह होता है। और या फिर अधैर्य इतना हो जाता है कि आदमी टूट जाता है, बिखर जाता है, विक्षिप्त हो जाता है। दोनों हालत में बात चूक जाती है।
शक्ति को प्रार्थना में लगाओ, और कब आना, यह उस पर छोड़ दो। इसको ही मैंने कल उत्क्रांति कहा। तुम प्रार्थना करो--उतना प्रयत्न--और फिर परमात्मा पर छोड़ दो, जब जो होना हो! फलाकांक्षा न करो। उतना प्रसाद। प्रार्थना, प्रयास; और फिर प्रतीक्षा, फिर उसका प्रसाद। जब देगा। जब योग्य समझेगा तब देगा। शिकायत मत करो।
ऐसा कभी नहीं हुआ है कि जब भी कोई व्यक्ति योग्य हुआ हो और क्षण भर की भी देरी हुई हो। तुमने कहावत सुनी है: उसके घर देर है, अंधेर नहीं। मैं तुमसे कहता हूं: न अंधेर है, न देर है। जिसने यह कहावत रची होगी, वह अधैर्य में पड़ गया होगा। तो उसने कहा होगा--बड़ी देर हो रही है। अभी आस्था नहीं खोई है, तो कहता है--अंधेर नहीं है; अभी आशा है, कहता है--कभी न कभी मिलेगा, लेकिन बड़ी देर हो रही है! मगर देर में सिर्फ तुम्हारा अधैर्य प्रकट हो रहा है। कभी देर नहीं होती। सब समय पर घट जाता है। इस भाव को गहरा होने दो।
एक रोग लग गया, अब दूसरा और लगा लो। वे दोनों रोग एक-दूसरे को संतुलित कर देंगे। और तुम्हारी शांति खंडित न होगी। और तुम्हारी प्रार्थना निरंतर बढ़ती रहेगी। और तुम्हारी प्रार्थना विक्षिप्त न होगी। तुम्हारी प्रार्थना एक दिन विमुक्ति बन जाए, उसके लिए यह जरूरी है कि तुम धैर्य का पाठ भी सीखो।

आज इतना ही।

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